भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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विदूषक : वाह मेरे मित्र! बहुत सुन्दर। इस चित्र में बने हुए ऊंचे-नीचे
स्थानों को देखकर तो मेरी आंखें भी जैसे ठोकरें खा रही हों, ऐसा लगता है।
अपने इसके अंगों को इतना सुन्दर बना दिया है कि उनमें उसके मन के भाव तक
ठीक-ठीक उतर आये हैं।
सानुमती : अरे, राजर्षि तो बड़े चतुर चितेरे हैं। इस चित्र को देखकर तो ऐसा
लगता है कि मानो मेरी सखी शकुन्तला स्वयं यहां पर खड़ी है।
राजा : यद्यपि इस चित्र के सारे दोषों को मैंने अपनी समझ से ठीक तो कर
दिया है। फिर भी इन रेखाओं में देवी की सुन्दरता पूर्णतया नहीं उतर पाई
है। हां, कुछ-कुछ अवश्य उतरी है।
सानुमती : पश्चात्ताप और नम्रता से भरे इस राजा सरीखे प्रेमी को ऐसा कहना
ही शोभा देता है। अन्यथा चित्र तो परिपूर्ण ही बना है।
विदूषक : मित्र! इस चित्र में तो तीन-तीन देवियां दिखाई दे रही हैं। और वे
तीनों ही एक से बढ़कर एक हैं। अब आप ही हमें बताइये कि इसमें देवी शकुन्तला
कौन-सी है?
साजुमती : अरे! यह तो निरा मूढ़ ही है, इसको सुन्दरता की तनिक भी परख नहीं
है।
राजा : अच्छा, पहले तुम ही बताआगे कि तुम इनमें से किसको शकुन्तला समझ रहे
हो?
विदूषक : मैं तो समझता हूं कि पानी के छिड़काव से चित्र में जो यह आम का
वृक्ष चमक रहा है, उसी से सटकर, कुछ थकी हुई-सी जो खड़ी दिखाई दे रही है,
वही शकुन्तला होगी। उसका जूड़ा भी ढीला होने से उससे फूल गिर रहे हैं, आसके
मुख पर पसीने के कण झलकते दिखाई दे रहे हैं और साथ ही दोनों कन्धे भी झुके
हुए हैं।
अन्य जो दो इसके साथ यहां पर खड़ी दिखाई दे रही हैं, वे सम्भवतया इसकी
सखियां होंगी।
राजा : मित्र! तुम तो सचमुच में पारखी हो।
देखो यहां ये मेरे प्रेम के चिह्न भी बने हुए हैं।
चित्र की कोरों पर मेरी पसीजी हुई अंगुलियों के काले धब्बे पड़ गए हैं और
इसी प्रकार मेरी आंखों से जो आंसू टपका था, आससे शकुन्तला के गाल पर का
रंग उभर आया है।
चतुरिके! इस विनोदस्थल का चित्र तो अभी अर्द्धलिखित ही है, यह अभी पूर्ण
नहीं हुआ है। जाआम, चित्र बनाने की कूची आदि ले आओ।
चतुरिका : आर्य माढव्य! कृपया आप इस चित्रफलक को तो पकड़िये। मैं तब तक
आती हूं।
राजा : रहने दो, मैं ही इसको थामे हुए हूं।
[चित्र फलक ले लेता है।]
[चतुरिका जाती है।]
राजा : (निःश्वास लेते हुए) मित्र! देखो-
मेरी दशा तो देखो कि जब वह स्वयं मेरे पास आई थी तब तो मैंने उसका निरादर
करके उसको लौटा दिया था और अब उसके चित्र पर इतना प्रेम प्रकट कर रहा हूं।
यह तो ठीक उसी प्रकार है जैसे कि कोई पिपासु भरी हुई नदी को छोड़कर मृग की
शांति चमकीली बालू को पानी समझकर उसकी ओर भागता है।
विदूषक : (मन-ही-मन) यहां तो हमारे महाराज नदी को छोड़कर मृगतृष्णा की ओर
लालायित हो रहे हैं।
(प्रकट से) मित्र! अब इस चित्र में क्या बनाना बाकी रह गया
सानुमती : मैं समझती हूं कि राजा अब इस चित्र में उन स्थानों को चित्रित
करेंगे जो वहां पर मेरी सखी को बड़े प्रिय थे।
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