भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[दृश्य परिवर्तन]
प्रियंवदा : (शकुन्तला को देखकर) यह देखो, शकुन्तला तो दिन निकलने से पहले
ही स्नान आदि से निवृत्त हो चुकी है। इधर तपस्विनियां। हाथ में
नीवार कण लेकर उसे आशीर्वाद दे रही है।
[दोनों आगे बढ़ती हैं।]
[तपस्विनियां शकुन्तला को आशीर्वाद देती दिखाई देती हैं।]
पहली तपस्विनी : (शकुन्तला से)वत्से! पति तुम्हारा सम्मान करें और तुम्हें
पटरानी
पद पर सुशोभित करें।
दूसरी तपस्विनी : वत्से! तुम वीर पुत्र को जन्म देने वाली बनो।
तीसरी तपस्विनी : वत्से! तुम सदा पति की प्रिय बनी रहो।
[तीनों तपस्विनियां चली जाती हैं। गौतमी वहीं रहती हैं।]
दोनों सखियां : (शकुन्तला के पास जाकर) सखि! तुम्हारा आज का यह स्नान
तुम्हारे लिए निरन्तर फलने-फूलने वाला सिद्ध हो।
शकुन्तला : आओ सखियो! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो।
[दोनों मंगल पात्र हाथ में लिये बैठ जाती हैं।]
दोनों : सखि! अब ठीक से बैठ जाओ। हम अब तुम्हारा मंगल श्रृंगार करती हैं।
शकुन्तला : यह मेरे बड़े सौभाग्य की बात है। (फिर निःश्वास लेकर) इसके, बाद
फिर मुझे सखियों के हाथ का यह श्रृंगार कहां पहनने को मिलेगा? (सिसकने
लगती है।)
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