भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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प्रियंवदा : (दत्तचित्त गाकर) जिस प्रकार शमी वृक्ष के भीतर अग्नि का वास
होता है वैसे ही हे ब्रह्मर्षि! तुम्हारी इस कन्या के भीतर पुरुराज
दुष्यन्त का तेज निवास करता है। इसको इसके स्थान पर पहुंचाने की व्यवस्था
करो।
अनसूया : (प्रियंवदा के गले से लिपटकर) सखि! यह तो बड़ा ही उत्तम कार्य हो
गया है। किन्तु शकुन्तला आज ही हम लोगों से विदा हो जायेगी, इससे इस हर्ष
में कुछ कमी भी आने लगी है।
प्रियंवदा : सखि! हम तो अपने मन को किसी प्रकार समझा-बुझा लेंगी। किन्तु
यह सुखी रहे, बस इतनी ही हमारी कामना है।
अनसूया : यह जो उधर आम की डाली पर नारियल लटका रखा है, उस पर मैंने बहुत
दिनों तक सुगन्धित रहने वाली केसर की माला आज के जैसे शुभ दिन के लिए ही
तो लटकाकर रखी हुई है। उसको वहां से उतारकर तो ले आ। तुम जब तक लाती हो तब
तक मैं गोरोचन, तीर्थ की मिट्टी, कोमल दूब के तिनके आदि मंगल सामग्री का
जुगाड़ करती हूं।
प्रियंवदा : ठीक है, तुम यह सब जुटाओ। मैं जाती हूं।
[अनसूया जाती है]
[प्रियंवदा माला उतारने का अभिनय करती है।]
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