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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान

भगवान के रहने के पाँच स्थान

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :43
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1083
आईएसबीएन :81-293-0426-0

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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....

Bhagwan Ke Rahane Ke Panch sthan a hindi book by Jaidayal Goyandaka - भगवान के रहने के पाँच स्थान - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नम्र निवेदन

धर्म का फल है- संसार के बन्धनों से मुक्ति और भगवत्प्राप्ति। इस धर्माचरण का ज्ञान पुराणोंके श्रवण –मनन  आदिसे भलीभाँति हो सकता है। वेदोंके समान ही पुराण भी धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष- इस चतुर्विध पुरुषार्थके उपदेशक हैं, पुराणों में भी पद्मपुराणका स्थान विशिष्ट है। इसे श्रीभगवान के पुराणरूप विग्रहका हृदय माना गया है- ‘हृदय’ पद्मसंज्ञकम्’। वैष्णवोंका तो यह सर्वस्व ही है।

पद्मपुराणमें भगवद्भक्ति-ज्ञान, वैराग्य, तपश्चर्या, देवाराधना, तीर्थ, व्रत, दान, धर्म, आदि अनेक विषयों के विशद विवेचन के साथ अनेकों शिक्षा प्रद  उपाख्यान और कल्याणकारी कथाएँ हैं, जिनके आदर्श चरित्र सत्य, धर्म और नीतिका गहन शिक्षण देने के साथ आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करके आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में पद्मपुराण-सृष्टिखण्ड से संकलित पाँच कथाओं का संग्रह है, इनमें उच्चकोटिके सरल और प्रेरणाप्रद चरित्रों के माध्यमसे साररूप में यह बतलाया गया है कि सर्वव्यापक भगवान श्रीहरि विशेष रूप से किन-किन स्थानोंपर निवास करते हैं। गीताप्रेस से प्रकाशित पद्मपुराण के संक्षिप्त हिन्दी रूपान्तरका सम्पादन परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन श्रीजयदयालजी गोयन्दका द्वारा सरल, सुबोध भाषा-शैली में बहुत पहले किया गया था (जो ग्रन्थाकार में आज भी उपलब्ध है) उसी से ली गयी मूक चाण्डाल, तुलाधार वैश्य, नरोत्तम ब्राह्मण आदि की सुप्रसिद्ध शिक्षाप्रद कथाओं का यह संकलन सबके हितलाभके लिये प्रकाशित किया गया है।

इस पुस्तक के पठन-पाठन और मननद्वारा इन महान चरित्रों की विशेषताओं का अनुशरण एवं धारण करने से जीवन में निश्चित परिवर्तन हो सकता है- ऐसा हमारा विश्वास है। सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत यह पुस्तक सभी वर्ग के पाठकों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। अतएव सभी लोगों को इससे अधिकाधिक लाभ उठाना चाहिये।


प्रकाशक


अमूल्य वचन



‘‘ऐसी चेष्ठा करनी चाहिये, जिससे एकान्त स्थान में अकेले का ही मन प्रसन्नतापूर्वक स्थिर रहे। प्रफुल्लित चित्त से एकान्त में श्वास के द्वारा निरन्तर नामजप करने से ऐसा हो सकता है।’’

‘‘भगवत्प्रेम एवं भक्ति-ज्ञान-वैराग्य–सम्बन्धी शास्त्रों को पढ़ना चाहिये।’’
‘‘एकान्त देश में ध्यान करते समय चाहे किसी भी बात का स्मरण क्यों न हो, उसको तुरन्त भुला देना चाहिये। इस संकल्पत्यागसे बड़ा लाभ होता है।’’

‘‘धनकी प्राप्ति के उद्देश्य से कार्य करनेपर मन संसार में रम जाता है, इसलिये सांसारिक कार्य बड़ी सावधानी के साथ केवल भगवत् की प्रीतिके लिये ही करना चाहिये। इस प्रकार से भी अधिक कार्य न करे, क्योंकि कार्य की अधिकता उद्देश्य में परिवर्तन हो जाता है।’’

‘‘सांसारिक पदार्थों और मनुष्यों से मिलना-जुलना कम रखना चाहिये।’’
‘‘संसार-सम्बन्धी बातें बहुत ही कम करनी चाहिये।’’
‘‘बिना पूछे न तो किसी के अवगुण बताने चाहिये और न उसकी तरफ ध्यान ही देना चाहिये।’’
 

भगवान् के रहने के पाँच स्थान
पाँच महायज्ञ



व्यासजी बोले-शिष्यगण ! मैं तुमलोगों को पाँच धर्मों के आख्यान सुनाऊँगा। उन पाँचों में से एकका भी  अनुष्ठान करके मनुष्य सुयश, स्वर्ग तथा मोक्ष भी पा सकता है। माता-पिता की पूजा, पति की सेवा, सबके प्रति समान भाव, मित्रों से द्रोह न करना और भगवान् श्रीविष्णुका भजन करना-ये पाँच महायज्ञ हैं। ब्राह्मणों ! पहले माता-पिता की पूजा करके मनुष्य  जिस धर्म का साधन करता है, वह इस पृथ्वी पर सैकड़ों यज्ञों तथा तीर्थयात्रा आदि के द्वारा भी दुर्लभ है। पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सर्वोत्कृष्ट तपस्या है। जिसकी सेवा सद्गुणों से पिता-माता सन्तुष्ट रहते हैं, उस पुत्र को प्रतिदिन गंगास्नान का फल मिलता है। माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है; इसलिये सब प्रकार यत्नपूर्वक माता-पिताका पूजन करना चाहिये। जो माता-पिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सातों द्वीपों से युक्त समूची पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिता को प्रमाण करते समय जिसके हाथ, मस्तक और घुटने पृथ्वी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है।* जबतक माता-पिता के चरणों की

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*पित्रोरचार्थ पत्युश्च समः (साम्यं) सर्वजनेषु च। मित्राद्रोहो विष्णुभक्तिरेते पञ्च महामखाः ।।
प्राक् पित्रोरर्चया विप्रा यद्धर्मं साधयेन्नरः। न तत्क्रतुशतैरेव तीर्थयात्रादिभिर्भुवि।।
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः।।
पितरो यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च। तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि वर्तते।।
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।।
मातरं पितरं चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा।।
जानुनी च करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः। निपतन्ति पृथिव्यां च सोऽक्षयं लभते दिवम्।।

(पद्मपु० सृष्टिख ० 47-13)


रज पुत्र के मस्तक और शरीर में लगती है। तभी तक वह शुद्ध रहता है। जो पुत्र माता-पिता के चरण-कमलों का जल पीता है, उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। वह मनुष्य संसार में धन्य है। जो नीच पुरुष माता-पिता की आज्ञा का उल्लघंन करता है, वह महाप्रलय पर्यन्त नरक में निवास करता है। जो रोगी, वृद्ध, जीवका से रहित, अंधे और बहरे पिता को त्यागकर चला जाता है, वह रौरव नरक में पड़ता है।* इतना ही नहीं उसे अन्त्यजों, म्लेच्छों और चाण्डालों की योनिमें जन्म लेना पड़ता है। माता-पिता का पालन-पोषण न करने से समस्त पुण्योंका नाश हो जाता है। माता-पिता की आराधना न करके पुत्र यदि तीर्थ और देवताओं का भी सेवन करे तो उसका फल नहीं मिलता।

ब्राह्मणों ! इस विषय में मैं एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ, यत्नपूर्वक उसका श्रवण करो। इसका श्रवण करके भूतलपर फिर कभी तुम्हें मोह नहीं व्यापेगा।

पूर्वकालकी बात है- नरोत्तम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण था। वह अपने माता-पिता का अनादर करके तीर्थ-सेवन के लिये चल दिया। सब तीर्थों में घूमते हुए उस ब्राह्मण के वस्त्र प्रतिदिन आकाश में ही सूखते थे। इससे उसके मनमें बड़ा भारी अहंकार हो गया। वह समझने लगा, मेरे समान पुण्यात्मा और महायशस्वी दूसरा कोई नहीं है। एक दिन वह मुख ऊपर की ओर करके यही बात कह रहा था, इतने में ही एक बगुले ने उसके मुँहपर बीट कर दी, तब ब्राह्मण ने क्रोध में आकर उसे शाप दे दिया। बेचारा बगुला राखकी ढेरी बनकर पृथ्वी गिर पड़ा। बगुले की मृत्यु होते ही नरोत्तम के भीतर महामोहने प्रवेश किया। उसी पापसे अब ब्राह्मण का वस्त्र आकाश में वहीं नहीं ठहरता था। यह जानकर उसे बड़ा खेद हुआ। तदनन्तर आकाशवाणी ने

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 *रोगिणं चापि वृद्धं च पितरं वृत्तिकर्शितम्। विकलं नेत्रकर्णाभ्यां त्वक्त्वा गच्छेच्च रौरवम्।।

(पद्मपु०, सृष्टिख० 47 । 19)


कहा- ‘ब्राह्मण ! तुम परम धर्मात्मा मूक चाण्डालके पास जाओं वहाँ जानेसे तुम्हें धर्मका ज्ञान होगा। उसका वचन तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगा।’

यह आकाशवणी सुनकर ब्राह्मण मूक चाण्डालके घर गया। वहां जाकर उसने देखा, वह चाण्डाल सब प्रकार से अपने माता-पिता की सेवा में लगा है। जाडे़ के दिनों में वह अपने माँ-बापको स्नान के लिये गरम जल देता, उनके शरीर में तेल मलता, तापने के लिये  अंगीठी जलाता, भोजन पश्चात पान खिलाता और रूईदार कपड़े पहनने को देता था। प्रतिदिन मिष्ठान्न भोजन के लिये परोसता और वसन्त ऋतु में महुएकी माला पहनाता था इनके लिये और भी जो भोग-सामग्रियाँ प्राप्त होतीं, उन्हें देता और भाँति-भाँति की आवश्यकताएँ पूर्ण किया करता था।

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. अमूल्य वचन
  2. भगवानके रहनेके पाँच स्थान : पाँच महायज्ञ
  3. पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान
  4. तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा
  5. गीता माहात्म्य

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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