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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्रजति मां सर्वभावेन भारत।।

(गीता १५।१।९)

भगवान् हमारे परम मित्र हैं। यह बात समझमें आ जाय तो फिर कल्याणमें क्या देर है। हमारे ऊपर राजाकी दया है लाट साहबकी दया, दया ही नहीं पूरा प्रेम है फिर देखो कितना आनन्द, कितनी शान्ति होनी चाहिये। भगवान्की दयाको देखकर, सुनकर उनके दरवाजेसे भूखा कौन लौट सकता है। दयालुसे किसीका दु:ख नहीं देखा जाता। सामथ्र्यवान् दयालुको देखकर दु:खी आदमी रो पड़ते हैं। सामथ्र्य हो और दयालु न हो तब रोना नहीं आता। दोनों भिखारी हैं। भगवान् सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, सर्वाधार, परम दयालु, परमप्रेमी हैं। यह बात समझमें आते ही हम निर्भय और निश्चिन्त हो जाते हैं। जो कुछ
हो रहा है प्रभु स्वयं ही कर रहे हैं करवा रहे हैं, प्रभु क्रीड़ा कर रहे हैं, यह क्रीड़ास्थल है। सारी क्रियामें प्रेम साक्षात् मूर्तिमान् होकर दीखता है, भक्तोंके लक्षणोंमें 'अद्वेष्टा, मैत्रः करुण एव च' बताया। जबतक सुहृदता नहीं है तबतक समझना चाहिये कि मैं भत नहीं हूँ। उस दयालुके सामने तो रोनेसे ही काम सिद्ध हो जाता है। भगवान्को परम दयालु समझकर उनके समक्ष तबतक रोते रहें जबतक वे प्रकट न हो जायें। न प्रकट हों तो रोते-रोते ही मर जायें। यह धारणा बहुत जल्दी भगवान्को मिलानेवाली है। अपने तो यही धारणा करनी है कि रोते-रोते ही मर जायेंगे।

राम बिरह सागर महें भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आई गयउ जनु पोत।।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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