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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


ब्रह्माजीकी सामथ्र्य नहीं है कि उनकी बातको टाल सकें, भगवान् भी नहीं टाल सकते। श्रृंगी ऋषिने शाप दे दिया बात मिटनेकी नहीं। उनके इशारेको भी कोई ना नहीं कर सकता। जड़ भी उनकी आज्ञाको नहीं टाल सकते। च्यवन ऋषि अश्विनीकुमारोंको यज्ञमें भाग देने लगे, इन्द्र वज्र मारना चाहता है, ऋषिने हाथके इशारेसे रोक दिया, वज्र चल नहीं सकता। पक्षी भी उनके इशारेको नहीं टाल सकते, महाभारत शान्ति पर्वमें जाजलि ऋषिका दृष्टान्त देखें, वे तुलाधारके पास गये। पक्षी भी उनकी आज्ञाको न टाल सके, आकर जाजलिके सिरपर बैठ गये, महात्माका कोई भी संकेत मिल जाय, तो धन्य भाग्य है।

उदाहरण- थोड़ी देरके लिये मान लो कि स्वामीजी महात्मा हैं और मैं इनपर श्रद्धा करनेवाला हूँ। इनकी ही चीज है। जहाँतक यह भाव है कि हमारी चीजको ये कृपा करके काममें ले रहे हैं तबतक उससे नीचा ही भाव है। भगवान्की भी यही बात है।

यत्करोषि यदश्वासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।

(गीता ९। २७)

हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर।

यह अच्छा भाव है, पर इससे भी ऊँचा भाव सब कुछ भगवान्का ही है। तुम अपनी तरफसे अर्पण हो जाओ तो उसी समय बाध्य होकर भगवान्को स्वीकार करना पड़ेगा। जबतक स्वीकार नहीं करते तबतक हमारे अर्पणके भावमें ही कमी है। जबतक हमने अपना ही अधिकार जमा रखा है, तबतक कोई अच्छा पुरुष भी उस चीजको स्वीकार नहीं करता। जबतक हम अपनी चीजकी प्रशंसा करते हैं तबतक महात्मा या ईश्वर कैसे लें। वह तो आपके कामकी है। जबतक हमारा अहंकार रहता है तबतक ईश्वर स्वीकार नहीं करते। जब यह कहता है कि आपकी ही चीज आपके अर्पण करता हूँ मैं तो केवल गुमास्तामात्र हूँ। तब भगवान् देखते हैं कि ठीक है।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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