गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
जिसकी महात्मा पर श्रद्धा होती है, उसके मनमें कोई शंका, भय, चिन्ता नहीं
रहती, न कुछ जानना बाकी रहता है, न कुछ कर्तव्य बाकी रहता है। सब समाप्त हो
जाते हैं। अगर उसे कुछ जाननेकी ही इच्छा है कि मुझे जल्दी परमात्मा मिल जायें
तो उसे महात्मा नहीं मिले। वह कोई भी प्रश्न करता है तो महात्माकी बुद्धिके
भरोसे नहीं है। वह पूछता है तो महात्मा उत्तर दे देते हैं, अन्यथा कोई
चिन्ता, भय, आकांक्षा रह ही नहीं सकती।
महात्मा प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी उनके दर्शन-ध्यानसे कल्याण हो जाता है, फिर
यदि साक्षात् मिल जायें तो कहना ही क्या है। हमें तो उन महात्माके ही इशारे
पर चलना है। हमारे उद्धारकी तो कोई बात ही नहीं चिन्ता ही नहीं है। अगर वे
महात्मा चाहते हैं कि हम नरक में जायें, तो वह नरक हमारे लिये हजारों
मुक्तिसे बढ़कर है। जो पूर्वमें बहुतसे महात्मा हो गये हैं, जिनका नाम हमें
मिलता है, उन पुरुषोंका नाम उच्चारणसे भी हमारा कल्याण हो सकता है। यह बात
मेरे कहनेसे ही नहीं युक्तिसंगत भी है। मनुष्य जिसका नाम लेता है, उसके
स्वरूप, गुण, आचरण, प्रभावका भी स्मरण आ जाता है। उदाहरण-एक स्त्रीका
रूप-लावण्य सुन्दरता सुन रखी है, उसका नाम याद आते ही हावभाव-कटाक्ष सामने आ
जाते हैं, शरीरकी दशा बेदशा हो जाती है। काम जागृत हो जाता है। जब एक तुच्छ
स्त्रीकी याद करनेसे यह दशा होती है तो महात्माओंको याद करनेसे महात्माओंके
भाव, स्वरूप, गुण आयेंगे ही। शुकदेवजीका नाम लेते ही उनका स्वरूप हमारे सामने
खड़ा हो जायगा, उसका हमपर असर पड़ेगा और हम शुकदेव बन जायेंगे। महर्षि
पतञ्जलि कहते हैं-'वीतराग विषयं वा चितम्, यथाभिमद ध्यानाद्वा' जो आदर्श
पुरुष स्वीकार है उसका ध्यान करनेसे हमारा कल्याण हो महात्माकी दया मानते
हैं। मिलना हो जाय तो फिर कहना ही क्या है। बातचीत हो जाय, संकेत हो जाय, तब
तो उसके आनन्दका ठिकाना ही नहीं रहता कि महात्माने मुझे अपना ही लिया। यदि
आज्ञा हो जाय तब तो फिर कहना ही क्या है। उद्धारकी तो बात ही नहीं है। यहीं
तक तो श्रद्धाकी बात है। महापुरुष किसीको शाप-वर दे दें, तब तो श्रद्धा आदिकी
बात ही नहीं, वे जैसा कह देते हैं, हो ही जाता है। हमारे कल्याणके लिये शाप
भी दे देते हैं। 'सर्वभूतहिते रताः -बस यही काम होता है। नहुषने महर्षि
अगत्यजीसे कहा शीघ्र चलो। अगस्त्यजीको लात मारी। कानूनके विरुद्ध किया।
महर्षिने कहा सर्प होकर गिरो। बस सर्प हो गया, प्रार्थना करने लगा,
अगस्त्यजीने कह दिया युधिष्ठिरसे मिलकर बात करनेपर इस दोषसे छुटकारा मिल
जायगा।
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- सत्संग की अमूल्य बातें