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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
(गीता ३।२१)
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देते हैं, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।

साधारण पुरुषकी क्रियामें तीन हेतु हैं। महात्माकी क्रियामें दो हेतु हैं। कारककी क्रियामें एक हेतु है। भगवान्की क्रिया अहैतुक है।

साधारण पुरुषकी क्रियामें काम-क्रोध-लोभ, शास्त्राज्ञा, प्रारब्ध हेतु है एवं खेती आदि प्रारब्धसे हो सकती है।
महात्माओंमें काम-क्रोधसे प्रेरित क्रिया नहीं होती, प्रारब्धसे प्रेरित हो सकती है। प्रारब्ध बनकर हो जाती है तथा दूसरोंके प्रारब्धसे सम्बन्धित क्रिया भी हो सकती है, दूसरे उनपर श्रद्धा-प्रेम रखते हैं, उसका फल उनके द्वारा मिलनेके लिये हो जाती है।

कारक पुरुषके प्रारब्ध नहीं है, उसकी क्रियामें हेतु ईश्वरकी आज्ञाका पालन ही है। ईश्वर कठपुतलीकी तरह उनसे करा रहे हैं। ईश्वरके लिये अपना कोई हेतु नहीं है, न कोई कर्तव्य है न किसीकी आज्ञाका पालन है, अहैतुकी दया ही उसमें हेतु है।

महात्मासे मिलन प्रारब्धसे तथा श्रद्धा-प्रेमके कारण नया प्रारब्ध बनकर भी हो सकता है।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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