विभिन्न रामायण एवं गीता >> श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1महर्षि वेदव्यास
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भगवद्गीता की पृष्ठभूमि
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।
अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम
योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी
होंगे?।।37।।
इतना कहने के उपरान्त, वह निश्चय करके कहता है कि इन सभी कारणों से अपने भाइयों अर्थात् धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए योग्य नहीं है। क्योंकि संसार में कोई भी अपने ही कुटुम्बियों को मारकर कोई भी सुखी नहीं हो सकता है। ये कुटुम्बीजन तो स्वतः स्नेह और बन्धुत्व के पात्र हैं, न कि युद्ध करके हत करने के पात्र! युद्ध की घोषणा के पहले पाण्डवों और कौरवों के सभी हितचिन्तकों ने इस युद्ध को रोकने का प्रयास किया था। कृष्ण ने इस संबंध में नाना-प्रकार के प्रयास किये और सभी लोगों को समझाने का बारम्बार प्रयास किया था। युद्ध के पहले भी संभवतः अर्जुन को ऐसे विचार आये हों, परंतु तब उसे अपने, अन्य पाण्डवों और विशेषकर द्रौपदी के साथ किये गये कौरवों के दुर्व्यवहार ने हमेश उत्तेजित और क्रोधित किया होगा। परंतु अब अकस्मात् उसे अपने और युद्ध के लिए एकत्र हुए लोगों के जीवन के प्रति मोह उत्पन्न हो गया है। हम अपने सामान्य जीवन में यही विचार धारा देखा करते हैं, कभी क्रोध और कभी जीवन के मोह के झूले के बीच में घूमा करते हैं। मानव मन हमेशा अपनी समस्याओं की ऊहा-पोह में डूबता उतराता रहता है। ऐसा कोई भी निर्णय जो कि हमारे लिए गम्भीर लाभ-हानि का कारण बनता हो तो ऊहा-पोह तो स्वाभाविक ही दिखती है, यदि उसमें जीवन हानि की सम्भावना हो तो हम अपने निर्णयों के प्रति और भी दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
इतना कहने के उपरान्त, वह निश्चय करके कहता है कि इन सभी कारणों से अपने भाइयों अर्थात् धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए योग्य नहीं है। क्योंकि संसार में कोई भी अपने ही कुटुम्बियों को मारकर कोई भी सुखी नहीं हो सकता है। ये कुटुम्बीजन तो स्वतः स्नेह और बन्धुत्व के पात्र हैं, न कि युद्ध करके हत करने के पात्र! युद्ध की घोषणा के पहले पाण्डवों और कौरवों के सभी हितचिन्तकों ने इस युद्ध को रोकने का प्रयास किया था। कृष्ण ने इस संबंध में नाना-प्रकार के प्रयास किये और सभी लोगों को समझाने का बारम्बार प्रयास किया था। युद्ध के पहले भी संभवतः अर्जुन को ऐसे विचार आये हों, परंतु तब उसे अपने, अन्य पाण्डवों और विशेषकर द्रौपदी के साथ किये गये कौरवों के दुर्व्यवहार ने हमेश उत्तेजित और क्रोधित किया होगा। परंतु अब अकस्मात् उसे अपने और युद्ध के लिए एकत्र हुए लोगों के जीवन के प्रति मोह उत्पन्न हो गया है। हम अपने सामान्य जीवन में यही विचार धारा देखा करते हैं, कभी क्रोध और कभी जीवन के मोह के झूले के बीच में घूमा करते हैं। मानव मन हमेशा अपनी समस्याओं की ऊहा-पोह में डूबता उतराता रहता है। ऐसा कोई भी निर्णय जो कि हमारे लिए गम्भीर लाभ-हानि का कारण बनता हो तो ऊहा-पोह तो स्वाभाविक ही दिखती है, यदि उसमें जीवन हानि की सम्भावना हो तो हम अपने निर्णयों के प्रति और भी दिग्भ्रमित हो जाते हैं।
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