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श्रंगार - प्रेम >> नटी

नटी

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2363
आईएसबीएन :00000

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साहित्य-अकादमी पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी की नवीनतम कृति ‘नटी’

Nati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बंगाल की श्रेष्ठ औपन्यासिक श्रीमती महाश्वेता देवी की चमत्कारी लेखनी से हिन्दी पाठक पूर्णरूपेण परिचित हो चुके हैं। साहित्य-अकादमी पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी की नवीनतम कृति ‘नटी’ पढ़कर पाठक एक बार फिर चौकेंगे।
करीब सवा सौ साल पहले की संगीत सभा, मुजरा-गोष्ठी, भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम की पथम चिंगारी और संघर्ष के वातावरण के बीच मोती नाम की एक नर्तकी की प्रेरणादायक भूमिका का यह इतिहास-खण्ड एक नयी दुनिया की ही सृष्टि करता है।

मोती अद्वितीय सुन्दरी थी, अपूर्व नर्तकी, खूब मोहक। लेकिन राजाओं-महाराजाओं के बीच मुजरा करके उनका मनोरंजन करते-करते स्वंय ही एक सिपाही खुदाबख्श की प्रेयसी बन उसे सारा जीवन संन्यासिनी होकर क्यों बेचैन रहना पड़ा, इसकी कथा है यह- नटी।

...रंग, रेशम, ज़री, ज़ेवर और वेणी में तूफान भरकर अनेक मजलिसों से घिरी, घुँघरुओं की झंकार पर थिरकती मोती जब घाघरे का एक वृत्त बनाकर बैठ गयी तो उसका सीमाहीन जीवन खुदाबख्श की एकान्त प्रेम-परिधि में कैसे बँध गया, क्यों ?  खुदाबख्श के वक्ष के अतिरिक्त मोती के लिए छिपने के लिए कहीं स्थान नहीं बचा, क्यों...क्यों ?
रंगीन जीवन की अनेकानेक रहस्यमय परतों को एक-एक करके खोलने वाली और पग-पग पर पाठकों को चौकाने वाली ‘नटी’ की यह अनुपम कथा साहित्यिक उपलब्धि है।

नटी

एक सौ साल पहले की बात है। ग्वालियर शहर के राजपथ पर रंगारंग जुलूस निकला है।
विशाल हाथी खूबसूरत, अरबी घोड़े और ऊँटों का काफिला उस जुलूस में आगे बढ़ रहा है। दौड़ में शामिल जन-समुदाय के बीच रह-रहकर नकीब की आवाज सुनायी पड़ती-हटो, हटो।
राह-बाट गर्द-गुबार से भर गये हैं, आँखों में धुँधलापन तैर रहा है। दुकानों की बत्तियाँ महीन मलमल की ओट में निस्तेज सितारे-जड़े बेल बूटों जैसी लग रही हैं।
गूजर बालाएँ जुलूस के रेले से बचती हुई चमकदार पीतल की कलसियों में दूध और घी लेकर जा रही हैं। छत्ते से निकाला हुआ शहद, मिठाई और रबड़ी-काँची की मटकियाँ बेच रही हैं। मालिनों का दिल चिल्ला रहा है-कमल, कमल चंपा चमेली-बेला के गजरे। तरबूज बेचनेवाला हरे तरबूज को काटकर और उसके एक हिस्से को उठाकर चिल्ला रहा है-जमीन में पैदा होने के बावजूद इसकी खुशबू और स्वाद बहिश्त के जैसा है।

अमरूद की टोकरी माथे पर रख मुसलमान विक्रेता चिल्ला रहे हैं-अमरूद ! अमरूद ! चमड़े की मशक कंधे पर रखे भिश्ती पानी छींट-छींट कर सड़क भिंगो रहा है। प्यासे घोड़े हौज में मुँह डालकर पानी पी रहे हैं। आराम और शीतलता से उनके बदन के रोंगटे खड़े हो गये हैं। तिरछी निगाहों से एक बार वे भी जुलूस की ओर देख लेते हैं और हिनहिनाकर उसकी तारीफ करते हैं। दूसरों के दुःख से दुखी होने वाले साईस यद्यपि उम्र की लंबी सरहद लाँघ आये हैं लेकिन आज वे भी शरीफ हो गये हैं। घोड़े की पीठ थपथपाकर कहते हैं, ‘‘हाँ बेटे, पहले प्यास बुझा लो।’’
भिल्सा, शिपरी से होकर आगरे के आदमियों की जमात ग्वालियर के जुलूस में शामिल होने के लिए ढोलपुर की सड़क पर इकट्ठी हो रही है।

आज तानसेन का सालाना उर्स है। उनके समाधि-प्रांगण में बहुत बड़ा जलसा होने वाला है। गायक और गायिकाओं का दल किरण फूटने के पहले ही संगीत-गुरु की समाधि के पास आकर श्रद्धांजलि अर्पित करेगा। भक्तों का समुदाय आशीर्वाद पाकर कृतार्थ होगा।
राजा-रजवाड़ों के सभा-गायक हाथी की पीठ पर रखे हौदे पर सवार होकर आ रहे हैं। काशी, लखनऊ, फिरोजपुर ढोलपुर रामनगर और आगरे की शीशमहल में रहनेवाली खूबसूरत औरतें, तामजान, पालकती और मियानों पर बैठ कर आ रही हैं। कोई संगीत के लिए मशहूर है, तो किसी के वंकिम कटाक्ष और नृत्य-पर घुँघरूँ-बँधे पावों के ताल में नवाब साहब बन्दी हैं। कोई अपनी खूबसूरती के लिए ही मशहूर है, उसके हाथ के जाम से शराब न मिले तो काशी के बड़े-बड़े घरानों के नौजवानों की शाम ही फीकी हो जाती है। वे लोग दीवार से घिरे लंबे-चौड़े सहन में मियाँ तानसेन और गुरु मुहम्मद गौस के मजार के एक किनारे बैठी हैं। शाम की रोशनी में तानसेन का मकबरा झिलमिला रहा है।

सिन्धिया दफ्तर का कोई मुलाजिम जमीन में दो मशालें गाड़कर खड़े-खड़े पहरा दे रहा है। उर्स में शामिल होने वाली औरतें अपना गहना-जेवर और रुपया-पैसा सावधानी से रखें, इसके लिए वह ऊँची आवाज में निहोरा कर रहा है।
एक ओर लाल रेशम के टोपदार तंबू खड़े है। दीवार के बाहर भी तंबू गाड़े गये हैं। वहाँ नौकर-चाकर अपने-अपने मालिकों की रास्ते की थकावट दूर करने के लिए गरम पानी और दूध का इन्तजाम करने में लगे हैं।
मालिक-मालिकों में मुलाकात होती है तो बार-बार ‘रहीम-रहीम’ राम-रहीम’ और ‘राम-राम’ सुनायी पड़ता है। कोई एक मालिक अपने कान के हीरे को चमकाकर दूसरे मालिक से पूछ रहा है, ‘‘खाँ साहब, अबकी राग हिण्डोल का फैसला हो जाएगा ? दूसरा मालिक भी अपने गले के असली मोती के हार को तसबीह की तरह फेरता हुआ कहता है, ‘‘क्यों नहीं, मिसिर जी ? लेकिन बात यह है कि राणा साहब के साथ आज ही हैदराबाद जाना पड़ रहा है।’’
दोनों एक दूसरे को चुनौती दे रहे हैं और शिकारी की तरह मूँछों की ओट में मुसकरा रहे हैं।

किसी एक खेमे में एक मानिनी रूठ कर बैठी है। घबराया हुआ सेठ हाथ जोड़कर खड़ा है। उसके मान का कोई ओर-छोर नहीं-पिछले वर्ष उसने जो हार पहना था उसी हार को वह इस वर्ष पहनने को तैयार नहीं, क्योंकि काशी की कमल इस वर्ष नया जेवर पहनकर आ रही है।
सेठ निहोरा कर रहा है-देवी यदि प्रसन्न हों तो वह निवेदन करना चाहता है कि बीजापुर का सबसे बड़ा जौहरी, अम्मलचाँद अबकी असली हीरा और पन्ने का एक सेट जेवर लेकर आया है-बस, खरीदने-भर की देर है।
किसी-किसी खेमे में धूप का धुआँ ऊपर की ओर उठ रहा है और मीठी-मीठी खुशबू फैल रही है। लंबी चोटी गूँथे, साफ-सुथरी बिना किनारे की साड़ी पहने उसकी मालकिन वीणा को अपनी गोद में रख मीठी-मीठी झंकार पैदा कर रही है
और-

....मुरलिया नहीं बोले श्याम नाम....
गुनगुनाहट भरी ध्वनि धीरे-धीरे गारिनी पटमंजरी को मूर्त्त रूप दे रही है। लगता है, लबे अरसे तक साधना करते रहने के कारण आज रात वह रागिनी को साकार रूप ही देगी और पति वियोग से शीर्ण, उज्जवल कांचनवर्णा; प्रिय विरह से अधीर पटमंजरी संभवतः उसे स्वयं आशीर्वाद देगी।
किसी तंबू से अधूरे गीतों के पद फुलझड़ियों की तरह उमड़ रहे हैं। गायक का रेशमी कुरता पसीने से भीग गया है, चेहरे पर मुसकराहट तैर रही है, उँगली की अँगूठी से रोशनी छिटक रही है, मोती का हार ऊपर-नीचे उठ-गिर रहा है- सारंगी और तबले पर संगत करने वाले मुग्ध होकर बीच-बीच में शाबाशी दे रहे हैं। कुशल गायक स्वर और कथा की अवहेलना कर ताल-ताल पर उन्हें नचाकर फेंक देते हैं और फिर नये कौशल से पकड़ लेते हैं।

चन्देरी साड़ी, हीरा-मोती, गलीचा, चन्दन की लकड़ी के असबाब लेकर बनियों का जत्था बड़े-बड़े तंबुओं के पास आ-जा रहा है। पिछले साल बाई-साहबों की जमात खुश थी, हजारों रुपये का माल बिका था। अबकी अगर फरमाइश करें तो वे लोग असली चीजें दिखाने को राजी हैं।
इस भीड़-भाड़ से अलग हटकर उस ओर भी कई तंबू हैं। उनमें रहनेवाली औरतों की हालत खस्ता है, उनके चेहरे पर उदासी की छाप है, सुख की जो भी स्मृतियाँ उनके पास हैं, वे सबकी सब बीते दिनों की हैं। वर्तमान और भविष्य दोनों उनके लिए एक ही जैसे हैं, अँधेरे से भरपूर।

कभी काशी, फिरोजपुर, लखनऊ और आगरे तक उनकी ख्याति फैली थी। सेठों और नवाबों की चहेती बनकर वे उनके घरों पर रहती थीं। नौजवान मालिकों से रुपया पैसा पाकर शीशमहल में बैठकर नाचती-गाती थीं, शीशे के जाम में शराब ढालकर सबको देती थीं और कजरारी निगाहों से चोट किया करती थीं। जवानी बीत जाने पर या मालिकों की तबीयत में बदलाव आ जाने पर उसके दिन बीत गये हैं। ऐसी हालत में झाँझर नाव की तरह वे घाट की तलाश करती रहती हैं। यही उन लोगों की नियति है। दुनिया का मालिक भी उस नियति को अब नहीं बदल सकता।

हर साल वे तानसेन के उर्स पर आती हैं। मियाँ तानसेन शाहंशाह के दरबार के गायक थे। उनके नाम में ही जादू था। गीत ही उनका प्राण था और प्रेम ही विलासिता। उनके ध्यान में जीवन-भर राग-रागिनियाँ आकार धारण करती आयी थीं। ध्यान टूटने पर वे मूर्तियाँ मरीचिका की तरह गायब हो जातीं। ध्यान के जगत् की मायामयी मूर्तियों को वे पकड़ नहीं पाते थे शायद इसीलिए तानसेन का व्यक्तिगत प्रेम भी बिना ताल-मेल का था, खामखयाली और दुर्निवार। तानसेन संगीत-साधकों के उस्ताद थे, उनका मजार तीर्थ-स्थान है। उसी तीर्थ स्थान में हर साल विगत यौवना अभागिन औरतें आकर इकट्ठी होती हैं। धूपबत्ती जला कर श्रद्धा के साथ प्रणाम करती हैं और आने वालों के मन बहलाव की कोशिश में एक तंबू से दूसरे तंबू का चक्कर लगाती हैं।

इसी तरह के एक तंबू में एक धुँआती हुई बत्ती जल रही है और उसकी फीकी छाया में पुआल के बिस्तरे पर रोशन लेटी है। दुबली-पतली भुजाएँ निढाल पड़ी हैं। साथ में आयी तीन अन्य औरतें मीठे स्वर में फातिहा पढ़ रही हैं। मृत्यु पथयात्री को कुरान की आयतें सुना रही हैं। रोशन की बगल में मट्ठी-भर जूही के फूल की तरह मोती, रोशन की दो साल की बच्ची, लेटी है। इतनी बड़ी मुसीबत की टोकरी उसके सिर पर है। फिर भी वह इतने इत्मीनान के साथ लेटी है कि नजर पड़े तो मौत को भी रहम आ जाये। बूढ़ा हकीम बगल में बैठा है।
रोशन को अभी मृत्यु के बारे में कोई खयाल नहीं है। उसकी आँखों में अभी भी सिर्फ एक नौजवान की प्रेमभरी दृष्टि नाच रही है और कानों में गूँज रहा है बहुत दिन पहले सुना हुआ किसी जाने-पहचाने कंठ का उच्छावास-
एक झलक दिखा जाता तो तेरा क्या जाता

ओ गरीबों के मजारों से गुजरने वाले....
दिल्ली की नर्तकियों में रोशनी अपना कोई सानी नहीं रखती थी। उसके रक्त में पूनम के सागर की आकुलता थी। प्रेम की पुकार पर दीवानी होकर उसकी माँ घर छोड़कर निकल गयी थी। फिरोजपुर के नवाब के महल में उसका मुजरा चलता रहता था। तब कुल मिलाकर अठारहबीं सदी खत्म हो चुकी थी और उन्नीसवीं सदी की शुरुआत ही हुई थी। उस समय राजा-रजवाड़े और बादशाह हुकूमत करते थे। नाचने वालियों की उन दिनों बहुत कद्र थी। उस जमाने की चहल-पहल ही कुछ और थी। राजपथ पर घोड़े की टापों के साथ जवानी का खून हिलकोरें लेने लगता था, तलवार से तलवार और बर्छे से बर्छा टकराने लगता था। गुलाब, चमेली, बेला की खुशबू से लदी शाम उतरते ही, शीशे के झाड़-फानूस रोशनी से झिलमिलाने लगते थे। मखमल के गाव-तकिये से टिका विगत यौवन सामन्तवाद आराम कर रहा था और घुँघरुओं को रुनझुन से रंगीन घाँघरे में लहर पैदा कर नाचनेवालियाँ मीठे स्वर में गा रही थीं-
तिरछी नजर से मैं कैदी बनी हूँ...

इसी माहौल से जीवन-रस खींचकर रोशन लता की तरह फली-फूली और जवानी के भार से जिस्म थोड़ा झुक गया, काली-काली आँखों में अतल रहस्य उमड़ आया, प्रवाल जैसे अधरों की हँसी पर मीठा स्वर उमड़ आया। रोशन की माँ से सबने कहा, अब लड़की की दौलत से माँ रानी हो जाएगी।
लेकिन तभी किस्मत ने पलटा खाया और रोशन के जीवन में प्रेम का आगमन हुआ।
रोशन सात पुश्तों से नाचनेवाली रही है। हृदय से खिलवाड़ करना यद्यपि उसका पेशा था लेकिन उसके खून में थी प्रेम-दीवानी होने की व्याकुलता। प्रेम दुर्निवार रूप में आया और समुद्र की तरह उसे बहाकर ले गया। एक व्यक्ति के चेहरे पर नजर पड़ते ही रोशन लाल गुलाब की नाईं असह्य पीड़ा और आनन्द से खिल उठी। मगर उसके प्रेमी के पास दिल नाम की कोई चीज न थी।
फिरोजपुर का जवान नवाब शमशुद्दीन दुःसाहसी और बेपरवाह था। रोशन से उसकी मुलाकात भरी महफिल में हुई। माँ और बेटी मोहरें चुनने में व्यस्त थीं। उसी वक्त न जाने कैसे रोशन की नजर जवान नवाब पर पड़ गयी। एक ही लमहे में रोशन आत्म-विभोर हो उठी।
भरपूर जवानी ! आधी रात में ऊँट-गाड़ी की बगल से नवाब रोशन को बुलाकर ले गया। कहा, ‘‘मैं तुम्हारे कारागार का बन्दी हूं....’’

एक झलक दिख जाता तो तेरा क्या जाता
ओ गरीबों के मजारों से गुजरने वाले....
रोशन ने फीके चाँद की रोशनी में अपनी प्रेमी की विह्वल आँखों में लैला के सपने को साकार होते देखा था। लगा था, मरुभूमि के कोने-कोने में उसका प्यासा मन इसी मजनूँ को पुकारता आया है। इसलिए निश्चिन्तता के साथ भौंरे के समक्ष उसने अपना मुखड़ा आगे बढ़ा दिया था और शमशुद्दीन ने एक ही घूँट में सारा रस पान कर लिया था।
बूढ़ी माँ ने उसे मना भी किया था। कहा था, ‘‘बेटी, मुहब्बत के ही फन्दे में फँसकर हमारी जात मौत का शिकार हो जाती है और वे लोग भौंरे की तरह उड़कर दूसरे बगीचे के फूल पर चले जाते हैं। किसी साधारण आदमी के साथ गृहस्थी क्यों नहीं बसाती ? क्यों ऐसी गलती कर रही है ?’’

रोशन ने माँ की बात नहीं मानी। नर्तकी में प्रेम की आकुल आत्म-समर्पण कामना जगी, सब कुछ लुटाये बगैर उसे तृप्ति नहीं मिल सकती थी। रोशन को लगता, चाँद कभी समाप्त होने वाला नहीं है, बुलबुल का गीत कभी थमने वाला नहीं है।
लेकिन एक दिन वही चाँदनी रात सूनी सुबह में बदल गयी। शनसुद्दीन ने शहर छोड़ दिया। रोशन उससे एक बात कहना चाहती थी, वही कहने के लिए दौडी-दौड़ी गयी थी लेकिन उसके एक दिन पहले ही नवाब साहब जा चुके थे। आगरे में कश्मीर की गुल जो आयी थी-उन्नीस साल की उर्वशी।

यह जिन्दगी एक जाम है नर्तकी शराब। प्यासे आकर उसे हाथ में थाम लेते हैं, उनकी जिन्दगी सार्थक हो जाती है। प्यास बुझ जाने पर प्यास बुझाने वाला अगर कीमत चुकाकर चला जाता है तो वह फिर नये सिरे से काजल लगाती है, वेणी में मोती गजरे गूँथती है, कंगन से हीरे की जोत झलकाती है, घाँघरे को लहराती है। लेकिन रोशन के मन ने इस जीवन-दर्शन को स्वीकार करना नहीं चाहा। जवानी में ही एक आदमी ने उसका मन-प्राण हर लिया। कभी बेचैनी के समय उसे अहसास हुआ था कि वे दोनों ही लैला और मजनूँ हैं। मरुभूमि के यायावरी जीवन की पृष्ठभूमि में वह प्रेम सफल न हो सका। उसने सोचा जिसकी पीड़ा हृदय में लेकर बार-बार अंतहीन गीत गाया है, वह प्रेम भी उन्हीं लोगों का है। वही उस जन्म की लैला है और शमसुद्दीन उसके प्रेम का दीवाना भाग्यहीन मजनूँ। कभी-कभी गहरी रात में उसकी नीद उचट जाती। आँसू से तकिया भिगोकर वह सोचती, वे दोनों ही शीरीं और फरहाद हैं। उसकी आँखों के आँसू पोंछकर प्रेमी कहता, ‘‘तुम्हारे गाल के एक तिल के लिए...।’’ दुनिया का सबसे पहला अनुभव प्रेम होता है और प्रेम का धर्म होता है विश्वास। और सिर्फ विश्वास ही क्यों ? अपने प्रेमी में सारे गुण आरोपित कर, उसे ही सारा प्यार देकर भी तृप्ति नहीं मिलती। यह भी प्रेम का ही धर्म है।

इसीलिए रोशन ने कोई गिला-शिकवा नहीं किया। माँ की तमाम शिकायतों को बरदाश्त कर वह अपने प्रेमी की तलाश में निकल पड़ी। मिलने पर उसे उसका तिरस्कार ही मिला। शिकार करके लौटने पर इन्तजार करती रोशन को देखकर उसकी भौहों पर बल पड़ गये थे। कहा था, ‘‘तुझे अन्दर किसने आने दिया ?’’
उस रूखी आवाज ने रोशन के मर्म को बेध दिया। वह तुरन्त वहाँ से लौट आयी थी। छिः छिः, वह क्या भीख माँगने गयी थी ? दया माँगने गयी थी ? उसे दीन-हीन वेश में देखकर ही शायद नवाब की वितृष्णा का अनुभव हुआ था ? घर लौटकर उसने पत्र लिखा। पत्र भेजकर वह उसी दिन फिरोजपुर छोड़कर चली आई। नवाब ने पत्र खोलकर देखा। उसमें लिखा था-प्यारे, किसी दिन तुम्हीं ने मुहब्बत को जेवर समझ मस्तक पर पहना था, आज उसी को तुमने फेंक दिया, मगर मैं उसे नहीं फेंक सकती, इसीलिये उसे तिलक की तरह माथे से लगाकर भिखारिन बन गयी हूँ। यही क्या तुम्हारे लिये लाज की बात नहीं है ?

उसी रात की यादगार रोशन की आँखों में सम्भवतः फिर से तैरने लगी। एक बार जी में हुआ कि वह यमुना के जल में छलाँग लगा दे। बरसात की लबालब भरी यमुना हाथ नचा-नचाकर लाखों लहरें जगा रही थी। रोशन को उन लहरों में किसी के हाथ का इशारा दिखायी पड़ा था। लेकिन अब तो वह एकाकी नहीं है। दिल को तार तार कर कठोर आघात देकर जो बेदर्द चला गया है उसकी पीड़ा के अतल में संभावना का एक अंकुर उग आया है। एक दिन वह अंकुर भी प्राणवान हो उठेगा। उसी के चेहरे को देखकर रोशन ने धीरज बाँधा था। बड़ा ही सुन्दर माहौल है। बड़ा ही मीठा प्रलोभन। सामने उत्ताल तरंगों से भरी यमुना। बदली की धुँधली रोशनी से पहाड़ प्रान्तर की रेखाएँ और अधिक काली हो गयी हैं-जन समाज के कोलाहल से भरपूर नगरी दूर है। उस रात प्रकृति की गोद में निकट एकाकी खड़ी रोशन के मन में धीरे-धीरे शान्ति लौट आयी थी। जीवन को अर्थ मिला था, शान्ति मिली थी।

उसके बाद का इतिहास राह-घाट में बिखरा पड़ा है। रोशन ने कितने ही शहरों का चक्कर लगाया-हर राहगीर से अनुग्रह की भीख माँगकर उसने अपने आपको जिन्दा रखा। आखिर में काशी आयी। वहाँ एक फकीर की कुटिया में मोती पैदा हुई। उस निष्कलंक निष्पाप शिशु को देखकर रोशन एक बार हँसी और फिर रो पड़ी। बच्ची को छाती से लगाकर बोली, ‘‘मेरी मोती, मेरी मोती....’’
न्याय कहाँ है और कौन न्याय करता है, यह एक अजीब ही बात है। सच कहने में हर्ज ही क्या, उससे बढ़कर कोई भी परी-कथा आश्चर्यजनक नहीं हो सकती। यौवन के उच्छृंखल गर्व में शमशुद्दीन ने रोशन जैसी कितनी औरतों के प्रेम को पैरों से ठुकरा दिया था, इसका कोई हिसाब नहीं। भाई को उसकी संपत्ति से वंचित करने में झगड़े की शुरुआत हुई और शैशव के शुभाकांक्षी फ्रेजर साहब की हत्या करने के लिए शमसुद्दीन पागल हो उठा। इसका नतीजा यह हुआ कि शमसुद्दीन को कैद में डाल दिया गया। इन्साफ होने पर उसे फाँसी की सजा मिली।

शहर की खुली जगह में फाँसी के तख्ते पर चढ़ने के पहले शमशुद्दीन ने पिछले जीवन की बात एक बार भी सोची थी या नहीं, कौन जाने ! हाँ, कई नाचनेवालियाँ उसकी मौत से रो जरूर पड़ी थीं और उनके अनुरोध पर ही मौलवी ने फातिहा पढ़ा था। खबर मिलने पर रोशन के कलेजे को चोट पहुँची थी और उसने भी छिपकर आँसू बहाये थे। सुन्दर बलिष्ठ देह, बड़ी-बड़ी आँखों की प्रशस्त ललाट पर क्या कहीं इस हीन परिणति की कहानी लिखी हुई थी ?
किसी स्त्री की सार्थकता उसके मातृत्व में है और किसी की प्रेम में। इस आखिरी वक्त में भी रोशनी की खोयी हुई चेतना जीवन के एकमात्र सुख की स्मृति के उत्सव में मानो सुसज्जित हो उठी।
 
रोशन के हृदय में एकाएक बहुत ही मीठा अहसास जगा, शान्त और गम्भीर प्रेम ने जैसे उसे दोनों बाहुओं में भर लिया हो।
यह जैसे एक नया ही प्यार है जो उसके प्रेमी की तरह निष्ठुर नहीं है। देह के तमाम बन्धनों को अस्वीकार कर उसने रोशन को अपने बलिष्ठ बाहुओं में भर लिया। उस अन्तिम आत्म-समर्पण के क्षण में रोशन की तमाम चेतना खो गयी। आँखों के कोने में आँसू लुढ़क पड़े।
मोती तब भी गहरी नींद में डूबी हुई थी। सहेलियों ने जब रोशन का चेहरा ढँक दिया और उठकर खड़ी हो गयीं तब कहीं मोती की नींद टूटी।

मन्नू ने उसे गोद में उठा लिया। वह रोशन की माँ के जमाने का सारंगिया है। बोला, ‘‘बेटी, आज से तू मेरी है...।’’ उसके बाद मृतक की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘चिन्ता नहीं करना रोशन सब ठीक है।’’
उर्स का इन्तजार किये वगैर ही दूसरे दिन सुबह वह मोती को गोद में लेकर वहाँ से रवाना हो गया।
रास्ते में ही मोती की जिन्दगी की शुरुआत हुई।
‘निर्मल जल से बहती शत तटशालिनी यमुने...

शत तटशालिनी यमुना की उत्ताल तरंगों को टकराते देख कब वृन्दावन की कन्यायों का मन चंचल हो उठा था, यह सब बहुत पुरानी कहानी है। 1843 ईसवी। पहाड़ पर बारिश होती है तो अब भी यमुना का जल तरंगित हो उठता है, यह सच है, मगर उस जल से किसानों के खेत नहीं भीगते। रेत में बहती पतली जलधारा में स्रोत न पाने के कारण किसानों के सपने मर जाते हैं। ग्रीष्म की क्षीणधारा यमुना वर्षाकाल में लबालब भर जाती है। उसमें बाढ़ आ जाती है।
वृन्दावन के प्रेम को गल्प-गाथा और गीतों के हाथ सौंपकर यमुना सम्राट के मर्मस्थल की प्रतिच्छाया अपने हृदय में ले धन्य-धन्य हो उठी है। हीरा, मुक्ता-माणिक के इन्द्रजाल की छटा के दिन भी समाप्त हो गये हैं। आज यमुना के दोनों किनारे ग्राम और जनपद हैं। वहाँ रहनेवाले ज्यादातर मुसलमान हैं। सिपाहीगीरी उनका मन-पसन्द पेशा है। तलवार हाथ में ले सिर झुकाकर राजा-रजवाड़ों को सलाम करने का जिन्हें सौभाग्य प्राप्त है, वे ही लोग खेती-बारी करते हैं। जवान हाथों से फसलें पैदाकर दूसरों का गोदाम भरते हैं और बूढ़े घर पर बैठ पुरखों की शान-शौकत की बातें करते हुए तकदीर की फटी कथरी में रंग-बिरंगे पैबन्द लगाते हैं। लिखने-पढ़ने की बात उठती है तो बच्चे ठहाका लगाने लगते हैं। कहते हैं-

भूखे से कहा।
दो और दो क्या ?
कहा चार रोटियाँ।
इन लोगों की बस्ती और गाँव इलाहाबाद के बिलकुल निकट हैं। गाँव के जितने भी मातबर आदमी हैं वे लाला और चौधरी लोग ही हैं। उन लोगों के मकान मिट्टी की ऊँची दीवारों से घिरे हैं, कोठे किले की तरह दुर्भेद्य हैं। रोशनी और हवा से शून्य, सफेद रंग से रँगे इन कोठों की छतें पक्की हैं। नौकर-चाकर, गाय-बैल-भैंस से भरे ये मकान हमेशा गुंजार भरे मधु के छत्ते जैसे लगते हैं। पर्व त्योहार और शादी-ब्याह में लाला-चौधरी लोग हाथियों का जुलूस निकालते हैं। गुलाबी पगड़ी बांधे संतरी घोड़े की पीठ पर सवार हो पीतल की परात से दरिद्र बाल-बच्चों के गुलाबी रेवड़ी, तिलकुट और सोहन हलुआ बाँटते हैं। उनके घर का कोई आदमी मर जाता है तो मसान में पीतल का स्तंभ खड़ा किया जाता है। कभी-कदा कम्पनी के साहब आ जाते हैं तो लाला लोगों के घर से तंबू भेजे जाते हैं। उनके खाने-पीने का खर्च भी वे ही लोग देते हैं।

लाला लोगों के घर के आदमी साल में एक बार तीर्थ-यात्रा पर निकलते हैं। मथुरा, गया, वृन्दावन-सभी स्थानों के मन्दिरों में लाला लोग चढ़ावा चढ़ाते हैं। दान की बात कहने से लाला की माँ दहशत में आ जीभ काढ़ने लगती हैं-छिः छिः आदमी होकर भी वे कहीं देवताओं को दान-दक्षिणा दे सकती हैं ? ऐसा सौभाग्य उन्हें कहाँ प्राप्त है ?
वे लोग दान नहीं करते। सिर्फ खास-खास दिनों में छाती के बल चल कर। दण्डवत करते हुए चाँदी के तुलसी के पौधे और सोने के शंख चढ़ाकर मनौती कर आते हैं।
मनौती जिस दिन पूरी होती है उसके दूसरे दिन सबसे पहले छाती के खून से पूजा करते हैं। देवता से आशीर्वाद माँगते हैं कि उनके परिवार का भला हो।

कहा जा सकता है कि उनकी इच्छा पूरी हो गयी है। गाँव के सौ में से नब्बे आदमी का भाग्य लाला के महाजनी खाते से बँध गया है। तिजारती सूद के कारोबार का सारा हिसाब लाला ने छोटे-छोटे नागरी हरूफों में लिख रखा है। खाते को तैलाक्त डोरी से बाँध रखा है। बकाया ब्याज भरने में ही किसानों की जिन्दगी बीत जाती है और इधर लाला का गोदाम भरता चला जाता है। भैंस दुगुना दूध देती है, सौभाग्य का चंद्रमा सोलह कलाओं से पूर्ण हो जाता है।
हिन्दू वाशिन्दों में लाला लोगों का ही प्रभाव सबसे अधिक है। उन लोगों के मकान से दो कदम आगे बढ़ने पर मौलवी साहब का आलीशान कोठाघर शुरू होता है। मौलवी साहब भी बहुत बड़े अमीर हैं, ताता मेंहदी के रंग रंगी उनकी दाढ़ी है और हाथ की उँगलियों में जाफरान। मौलवी की बोली भी बड़ी ही मीठी है, बात-बात में फारसी की सारमयी वाणी निकालकर श्रोताओं को समझाने की कला में निपुण शिकारी जैसे पारंगत हैं।






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