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सनक  : पुं० [सं०] ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से एक। पद-सनक नंदन। स्त्री० [हि० सनकना] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य का मस्तिष्क ठीक तरह से और पूरा काम न करता हो और किसी ओर प्रवृत्त होने पर प्रायः उधर ही बना रहता हो। २. पागलों की सी धुन प्रवृत्ति या आचरण। मुहावरा-सनक चढ़ना या सवार होना=पागलपन की सीमा तक पहुँचती हुई धुन चढ़ना।
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सनकना  : अ० [सं० स्वनः] १. पागल हो जाना। २. पागलों की तरह व्यर्थ बढ़-बढ कर बातें करना। अ० [अनु० सन-सन] सन सन शब्द करते हुए उड़ना, दौड़ना या भागना।
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सनकाना  : स० [हि० सनकना] ऐसा काम करना जिससे कोई सनके या पागल हो। अ० दे० ‘सनकना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सनकारना  : स० [हि० सैन+करना] १. किसी काम या बात के लिए संकेत करना। इशारा करना। २. इशारे से पास बुलाना। संयो, क्रि०—देना।
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सनकियाना  : स० [हि० सनकाना का स०] किसी को सनकाने में प्रवृत्त करना। अ०=सनकना। स०=सनकारना।
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सनकी  : वि० [हि० सनक] जिसे किसी तरह की सनक या झक हो। झक्की (एस्सेन्ट्रिक) स्त्री० [हि० सैन=संकेत] आँख से किया जानेवाला संकेत। आँख का इशारा। मुहावरा-सनकी मारना=आँख से इशारा करना।
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