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व्यंग  : वि० [सं० वि+अंग] [भाव० व्यंगता, व्यंगत्व] १. अंग रहित। २. जिसका कोई अंग खंडित हो अथवा न हो। विकलांग। ३. लँगड़ा। ४. अव्यवस्थित। पुं० १. मुँह पर काली फुन्सियाँ निकलने का एक रोग। २. मेढ़क। पुं०=व्यंग्य।
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व्यंगिता  : स्त्री० [सं० व्यंगि+तल्+टाप्] १. विकलांगता। २. पंगुता।
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व्यंगी  : वि० [सं० व्यंग+इनि] विकलांग।
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व्यंगुल  : पुं० [सं० ब० स०] अंगुल का साठवाँ भाग (नाप)।
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व्यंग्य  : पुं० [सं० व्यंग+यत्] १. शब्द की व्यंजना शक्ति (दे०) द्वारा निकलनेवाला अर्थ। २. किसी को चिढ़ाने, दुःखी करने या नीचा दिखाने के लिए कही जानेवाली ऐसी बात जो स्पष्ट शब्दों में न होने पर भी अथवा विपरीत रूप की होने पर भी उक्त प्रकार का अभिप्राय या आशय प्रकट करती हो। (आईरनी)
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व्यंग्य-गीति  : स्त्री० [सं०] ऐसा गीत या पद्यात्मक रचना जिसका मुख्य उद्देश्य किसी व्यक्ति या उसकी कृति पर व्यंग्य करके उसकी हँसी उड़ाना हो। (सैटायर)।
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व्यंग्य-चित्र  : पुं० [मध्यम० स०] ऐसा उपहासात्मक तथा सांकेतिक चित्र जिसका मुख्य उद्देश्य किसी घटना, बात, व्यक्ति आदि की हँसी उड़ाना होता है (कार्टून)।
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व्यंग्य-विदग्धा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में नायिका की वह सखी जो व्यंग्य-पूर्ण बात कहकर उसे जतलाती हो कि मैंने तुम्हारा सब हाल जान लिया है।
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व्यंग्यार्थ  : पुं० [कर्म० स०] व्यंजना शक्ति के द्वारा प्राप्त अर्थ। सांकेतार्थ (सा०)।
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