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वीर्य  : पुं० [सं०√वीर्+यत्] १. शरीर की सात धातुओं में से एक जिसका निर्माण सबके अन्त में होता है, और जिसके कारण शरीर में बल और कांति आती है। वह स्त्री प्रसंग के समय अथवा रोग आदि के कारण यों ही मूतेंद्रिय से निकलता है। इसे चरम धातु और शुक्र भी कहते हैं। २. पराक्रम। वीरता। ३. ताकत शक्ति। जैसे—बाहुवीर्य=बाहों या हाथों की शक्ति, वाचि वीर्य=बोलने की शक्ति। ४. वैद्यक के अनुसार किसी पदार्थ का वह सार भाग जिसके कारण उस पदार्थ में शक्ति रहती है। किसी धातु का मूल तत्त्व। ५. अन्न, फल आदि का बीज जो बोया जाता है।
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वीर्यकृत  : वि० [सं०] १. जो बल या वीर्य उत्पन्न करता हो। बलकारक। २. बलवान्। शक्तिशाली।
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वीर्यज  : वि० [सं०] वीर्य से उत्पन्न। पुं० पुत्र।
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वीर्यधन  : पुं० [सं०] प्लक्ष द्वीप में रहनेवाले क्षत्रियों का एक वर्ग।
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वीर्यवत्  : वि० [सं० वीर्य+मतुप्, म—व] वीर्यवान्।
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वीर्यशुल्क  : पुं० [सं०] ऐसा काम या बात जिसे पूरा करने पर ही किसी से या किसी का विवाह होना सम्भव हो। विवाह करने के लिए होनेवाली शर्त।
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वीर्यातराय  : पुं० [सं० ब० स०] पाप-कर्म जिसका उदय होने से जीवन हृष्ट-पुष्ट होते हुए भी शक्ति-विहीन हो जाता है (जैन)।
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वीर्या  : स्त्री० [सं० वीर्य+टाप्] १. शक्ति। २. पुंस्त्व।
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वीर्याधान  : पुं० [सं० ष० त०] वीर्य धारण करना या कराना। गर्भाधान।
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वीर्यान्वित  : वि० [सं० तृ० त०] शक्तिशाली।
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