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विमर्श-संधि  : स्त्री० [सं०] नाटक की पाँच संधियों में से एक जो ऐसे अवसर पर मानी जाती है जहाँ क्रोध, लोभ, व्यसन आदि के विमर्श या विचार से फल-प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता हो और गर्भ (संधि) देखें के द्वारा यह उद्देश्य बीज रूप में प्रकट भी हो जाता हो। अवमर्श संधि। विशेष—प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में यह उस समय आती है, जब चाणक्य की नीति से असंतुष्ट होकर चन्द्रगुप्त के माता-पिता चले जाते हैं,और चंद्रगुप्त अकेला पड़कर अपना असंतोष और क्रोध प्रकट करता है और विमर्शपूर्वक साम्राज्य स्थापित करने के लोभ से प्रयत्न आरम्भ करता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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