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विंगेश  : पुं० [सं० ष० त०] अग्नि।
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विंजामर  : पुं० [सं०] आँख का सफेद भाग।
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विंदक  : पुं० [सं० विंद+कन्] १. प्राप्त करनेवाला। पानेवाला। जाननेवाला। ज्ञाता।
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विंदु  : पुं० [सं० विन्द+अण्] १. पानी या किसी तरल पदार्थ का कण बूँद। २. छोटा गोलाकार चिन्ह। विंदी। ३. हाथी के मस्तक पर रंगों से किये जानेवाले चिन्ह। ४. लिखने में अनुस्वार का चिन्ह। ५. शून्य का चिन्ह। सिफर। ६. रेखा-गणित से वह स्थान जिसकी स्थिति तो हो, पर जिसके विभाग हो सकते हों। ७. दाँत से लगनेवाला घाव। दन्त-क्षत। ८. किसी चीज का बहुत छोटा टुकड़ा। कण। कनी। ९. वेदान्त में, नाद के फलस्वरूप होनेवाली क्रिया। देखें, नाद। १॰. रत्नों का एक दोष या धब्बा जो चार प्रकार का कहा गया है-आवर्त्त (गोल) वर्ति (लम्बा) आरक्त (लाल) यव (जौ के आकार) वि० १. ज्ञाता। (वेत्ता) जानकार। २. दाता। दानी। ३. जिसका ज्ञान प्राप्त करना उचित हो। जानने योग्य।
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विंदुक  : पुं० [सं०] माथे पर लगाया जानेवाला टीका या बिन्दी।
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विंदु-चित्रक  : पुं० [सं० ब० स०] हिरन जिसके शरीर पर सफेद चित्तियाँ हों।
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विंदु-जाल  : पुं० [सं०] सुंदरता के लिए गोद या छापकर किसी स्थान पर बनाई हुई बिंदियाँ। जैसे— हाथी के मस्तक या सूँड़ पर का विंदु जाल, बाँह या हाथ पर गोदने का विंदु-जाल।
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विंदु-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] चौपड़ आदि की बिसात। सारि-फलक।
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विंदु-तीर्थ  : पुं० [सं० मध्यम० स०] काशी का प्रसिद्ध पंचनद तीर्थ जहाँ बिन्दु माधव का मन्दिर है। पंचगंगा।
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विंदु-त्रिवेणी  : स्त्री० [सं० ब० स०] संगीत में स्वर साधन की एक प्रणाली जिसमें तीन बार एक स्वर का उच्चारण करके एक बार उसके बाद के स्वर का उच्चारण करते हैं, फिर तीन बार उस दूसरे स्वर का उच्चारण करके एक बार तीसरे-स्वर का उच्चारण करते है और अन्त में तीन बार सातवें स्वर का उच्चारण करके एक बार उसके अगले सप्तक के पहले स्वर का उच्चारण करते हैं।
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विंदु-पत्र  : पुं० [सं० मध्यम० स०] भोजपत्र।
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विंदु-माधव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] काशी की एक प्रसिद्ध विष्णु मूर्ति।
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विंदु-मालिनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विंदुर  : पुं० [सं० विंदु-रक] छोटी विंदी। बुंदकी।
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विंदुराजि  : पुं० [सं० ब० स०] एक तरह का साँप जिसके शरीर पर बुँदकियाँ होती है।
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विंदु-रेख  : पुं० [सं०] १. बिंदु रेखा। २. अंकन की एक विशेष प्रक्रिया जिसमें विभिन्न विन्दुओं को रेखाओं से संबद्ध किया जाता है। ३. उक्त प्रकार की विंदुओं की रेखाओं से संबद्ध करने पर बना हुआ चित्र (ग्राफ अंतिम दोनों अर्थो के लिए)।
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विंदु-रेखा  : स्त्री० [सं०] विंदुओं को मिलाने से बननेवाली रेखा। विंदु रेखा।
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विंदुसर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. पुराणानुसार कैलाश पर्वत के दक्षिण का एक सरोवर। २. भुवनेश्वर क्षेत्र में स्थित एक प्राचीन सरोवर।
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विध  : पुं०=विंध्य (विंध्याचल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विंध्य  : पुं० [सं० विंध+यत्] एक प्रसिद्ध पर्वत-श्रेणी जो भारतवर्ष के मध्य में पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ है, यह आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर है, और दक्षिण भारत को उत्तर भारत में विभक्त करता है।
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विंध्य-कूट (क)  : पुं० [कर्म० स० ब० स०] १. विंध्य पर्वत। २. अगस्त्य मुनि का एक नाम।
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विंध्य-गिरि  : पुं० [मध्यम० स०] विंध्य पर्वत।
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विंध्य-चूलि  : पुं० [ब० स०] विंध्य पर्वत के दक्षिण का प्रदेश।
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विंध्यवासिनी  : स्त्री० [सं०] मिरजापुर जिले के अन्तर्गत स्थित दुर्गा की एक मूर्ति।
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विंध्या  : स्त्री० [सं० विंध्य+टाप्] एक प्राचीन नदी। पुं०=विंध्य।
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विंध्याचल  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. विंध्य पर्वत। २. उक्त पर्वत का वह विशिष्ट अंग जो मिरजापुर के पास है और जहाँ विंध्यवासिनी देवी का मंदिर है। ३. वह नगरी जिसमें उक्त मंदिर स्थित है।
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विध्याद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] विंध्य पर्वत।
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विंश  : वि० [सं० विशति+डट्, अति-लोप] बीसवाँ। पुं० किसी चीज का बीसवाँ भाग।
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विंशक  : वि० [सं०] बीस।
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विशंत  : वि० [सं०] बीस (समस्त शब्दों में)।
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विंशति  : स्त्री० [सं० विंश+ति] १. बीस की संख्या। २. उक्त संख्या के सूचक अंक। वि० जो गिनती में बीस अर्थात् दस का दूना हो।
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विंशति-बाहु  : पुं० [सं० ब० स०] रावण।
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विंशोत्तरी  : स्त्री० [सं० ब० स०] फलित ज्योतिष में मनुष्य के शुभाशुभ फल जानने की एक रीति जिसमें मनुष्य की आयु १२॰ वर्ष मानकर उसके विभाग करके नक्षत्रों और ग्रहों के अनुसार फल कहे जाते हैं।
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वि  : उप० [सं०] एक उपसर्ग जो क्रियाओं तथा संज्ञाओं में लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है— (क) अलगाव या पार्थक्य, वियोग। (ख) विपरीतता,जैसे—विस्मरण, विक्रय। (ग) अंशीकरण, जैसे—विभाग (घ) अन्तर, जैसे—विशेष, विलक्षण। (ड) क्रम या विन्यास, जैसे— विद्या। (च) अधिकता, जैसे—विकरालता। (छ) अनेक रूपता या विचित्रता, जैसे— विविध। (ज) निषेध या राहित्य, जैसे—विकच। (झ) परिवर्तन, जैसे—विकारा। पुं० १. अन्न। २. आकाश। ३. आँख। स्त्री० पक्षी। चिड़िया।
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वि०  : सं० विक्रम संवत् का संक्षिप्त रूप।
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विकंकट  : पुं० [सं० वि√कंक् (गमनादि)+अटन्] गोखरू।
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विकंकत  : पुं० [सं० वि√कंक् (गमनादि)+अतच्] १. एक प्रकार का जंगली वृक्ष जिसके कुछ अंग औषध के काम आते हैं, और प्राचीन काल में जिसकी लकड़ी यज्ञ में जलाई जाती थी। कटाई। किंकिणी।
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विकंटक  : पुं० [सं० ब० स०] १. जवासा। २. विंकटक।
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विकंप  : वि० [सं० कर्म० स०] १. काँपता हुआ। २. चंचल। ३. अस्थिर।
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विकंपन  : पुं० [सं०] १. हिलना-डुलना। काँपना २. गति। चाल।
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विक  : पुं० [सं० ब० स०] नई ब्याई हुई गौ का दूध। वि० १. जल रहित। जल-विहीन। २. अप्रसन्न।
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विकच  : पुं० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार के धूमकेतु जिसकी संख्या ६५ कही गई है, और यह माना गया है कि इनका उदय अशुभ होता है। २. ध्वज। ३. क्षपणक। वि० १. जिसके बाल न हों। २. खिला हुआ। विकसित। ३. व्यक्त। स्पष्ट। ४. चमकता हुआ।
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विकचित  : भू० कृ० [सं०] खिला हुआ। (फूल)।
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विकच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसी नदी जिसके दोनों ओर तराई या कछार न हो।
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विकट  : वि० [सं० वि√कट् (गमनादि)+अच्] १. बहुत बड़ा। विशाल। २. भद्दा। भोंडा। ३. उग्र, तीव्र, भयंकर या भीषण। ४. टेढ़ा। वक्र। ५. कठिन। मुश्किल। ६. दुर्गम। ७. दुस्साध्य। पुं० १. विस्फोट। २. सोमलता। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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विकटक  : वि० [सं० विकट+कन्] जिसकी आकृति खराब हो गई हो।
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विकटा  : स्त्री० [सं० विकट+टाप्] १. बुद्ध की माता, मायादेवी। २. टेढ़े पैरों वाली लड़की जो विवाह के योग्य न हो।
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विकथा  : वि० [सं०] निरर्थक या बेहदी बात।
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विकर  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+अच्] १. रोग। व्याधि। २. तलवार चलाने के ३२ प्रकारों में से एक।
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विकरण  : पुं० [सं०] व्याकरण में प्रकृति या धातु और प्रत्यय के बीच में होनेवाला वर्णागम। जैसे—‘घोड़ों पर’ में का विकरण है। वि० कारण अर्थात् इन्द्रियों से रहित।
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विकरार  : वि० १.=विकराल। २.=बे-करार (विकल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विकराल  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विकरालता] भीषण आकृतिवाला। डरावना।
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विकर्ण  : वि० [सं० ब० स०] १. कर्णरहित। २. जिसके कान न हों। बिना कानोंवाला। २. जिसे सुनाई न पड़ता हो। जो सुन न सके। बहरा। ३. जिसके कान बड़े और लम्बे हों। ४. रेखा-गणित में चार या अधिक कोणोंवाले क्षेत्र में किसी कोण से उसकी ठीक विपरीत दिशावाले कोण तक पहुँचने या होनेवाला। टेढ़े या तिरछे बल में ऊपर से नीचे आने अथवा नीचे से ऊपर जानेवाला (डायगनल)। पुं० १. कर्ण का एक पुत्र। दुर्योधन का एक भाई। ३. एक प्रकार का साँप। ४. एक प्रकार का तीर या बाण। ५. रेखा—गणित में वह रेखा जो किसी चतुर्भुज को तिरछे बल से पड़नेवाले आमने-सामने के बिन्दुओं को मिलाती हुई चतुर्भुज को दो भागों में विभक्त करती है (डायगनल)।
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विकर्णक  : पुं० [सं० विकर्ण+कन्] १. एक प्रकार का गँठिवन। २. शिव का व्याडि नामक गण।
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विकर्णतः  : अव्य० [सं०] विकर्ण के रूप में। तिरछे बल में (डायगनली)।
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विकर्णिक  : पुं० [सं० विकर्ण+ठक्-इक] सरस्वती नदी के आस-पास का देश। सारस्वत प्रदेश।
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विकर्णी  : स्त्री० [सं० विकर्ण+इनि, दीर्घ, न-लोप] एक प्रकार की ईंट जिसका व्यवहार यज्ञ की वेदी बनाने में होता था।
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विकर्तन  : पुं० [सं० ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. ऐसा राजकुमार जिसने पिता के राज्य पर अनुचित रूप से अधिकार जमा लिया हो।
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विकर्म  : पुं० [सं०] १. दूषित या निषिद्ध कर्म। २. कर्म विशेषतः वृत्ति से निवृत्त होना। ३. विविध कर्म।
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विकर्मस्थ  : पुं० [विकर्म√स्था (ठहरना)+क] वह जो वेद-विरुद्ध आचरण रखता हो (धर्म-शास्त्र)।
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विकर्मिक  : वि० [सं०] १. दूषित या निसिद्ध कर्म करनेवाला। २. व्यवसाय या विविधि कामों में लगा रहनेवाला। पुं० प्राचीन काल में वह अधिकारी जो बाजारों, हाटों, मेलों आदि की व्यवस्था तथा निरीक्षण करता था।
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विकर्ष  : पुं० [सं० वि√कृष् (खींचना)+घञ्] १. बाण। तीर। २. धनुष की प्रत्यंचा खींचने की क्रिया। २. अन्तर। दूरी। फासला।
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विकर्षण  : पुं० [सं०] १. छीना-झपटी करना। २. आकर्षण। खींचना। ३. दूसरी ओर या विपरीत दिशा में खींचना। ४. खींचकर अपनी ओर लाना। लौटाना। ५. न रहने देना। नष्ट करना। ६. विभाग। हिस्सा। ७. कुश्ती का एक पेंच। ८. कामदेव के पाँच वाणों में से एक। ९. एक प्राचीन शास्त्र जिसमें लोगों को आकर्षित करने की कला का वर्णन था।
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विकल  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें कल न हो। कल से रहित। २. जिसका आराम या चैन नष्ट हो चुका हो। बेचैन। व्याकुल। ३. जिसकी कला न रह गई हो। कला से रहित या हीन। ४. जिसका कोई अंग टूट या निकल गया हो। खंडित। जैसे—विकलांग। ५. जिसमें कोई कमी हो। घटा हुआ। ६. असमर्थ। ७. क्षोभ, भय आदि से युक्त। ८. प्रभाव, शक्ति आदि से रहित। ९. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। १॰. प्राकृतिक। स्वाभाविक। पुं०=विकला।
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विकलन  : पुं० [सि√कल् (गिनती करना)+ल्यु-अन] हिसाब-किताब में किसी मद में कोई रकम किसी के नाम लिखना (डेबिट)।
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विकलांग  : वि० [सं० ब० स०] १. किसी अंग से हीन। २. जिसका कोई अंग बेकाम हो।
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विकला  : स्त्री० [सं० विकल+टाप्] १. कला का साठवाँ अंश। २. बुध ग्रह की गति। ३. वह स्त्री जिसका रजोदर्शन बन्द हो गया हो।
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विकलाना  : अ० [सं० विकल+आना (प्रत्यय)] व्याकुल होना। घबराना। बेचैन होना। स० किसी को विकल या बेचैन करना।
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विकलास  : पुं० [सं० विकलास्य] एक प्रकार का प्राचीन बाजा, जिस पर चमड़ा मढ़ा होता था।
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विकलित  : भू० कृ० [सं० वि√कल्+क्त, इत्व, अथवा विकल+इतच्] १. विकल किया हुआ। २. विकल। बेचैन। ३. दुःखी। पीड़ित।
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विकलेंद्रिय  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी इन्द्रियाँ वश में न हो। २. दे० ‘विकलांग’।
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विकल्प  : वि० [सं०] [वि० वैकल्पिक] १. ऐसी स्थिति जिमसें यह समझना या सोचना पड़ता है कि यह है या वह। २. मन में एक कल्पना उत्पन्न होने के बाद उससे मिलती-जुलती की जानेवाली दूसरी कल्पना। पहले कुछ सोचने के बाद फिर कुछ और सोचना। ३. वह अवस्था जिसमें सामने आई हुई कई बातों या विषयों में से कोई बात या विषय अपने लिए चुनने की आवश्यकता होती है। (आप्शन)। ४. सामने आये हुए दो या अधिक ऐसे कामों या बातों में से हर एक जो आवश्यक, सुभीते आदि के अनुसार काम में लाया या लिया जा सकता हो। (आल्टरनेटिव) ५. व्याकरण में किसी बात या विषय से सम्बन्ध रखनेवाले दो या अधिक नियमों, विधियों आदि में से अपनी इच्छा के अनुसार कोई नियम या विधि मानना, लगाना या लेना। ६. धोखा। भ्रम। भ्रान्ति। ७. विचित्रता। विलक्षणता। ८. योग शास्त्र में, पाँच प्रकार की चित्त-वृत्तियों में से एक जिसमें कोई चीज या बात बिना तथ्य या वास्तविकता का विचार किए ही मान ली जाती है। जैसे—चाहे पारस पत्थर होता हो या न होता हो, फिर भी यह मान लेना कि उसका स्पर्श लोहे को सोना बना देता है। ९. योगसाधन में एक प्रकार की समाधि। १॰. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिमसें दो परस्पर विरोधी बातों का उल्लेख करके कहा जाता है कि या तो यह हो या वह अथवा या तो यह होना चाहिए या वह (आल्टरनेटिव)। जैसे—पार्वती की यह प्रतिज्ञा या तो मैं शंकर से विवाह करूँगी या जन्म-भर कुँआरी रहूँगी। उदाहरण—बैर तो बढ़ायों कह्यौ काहू को न मान्यौ, अब दाँतनि तिनूका कै कृपान गहौ कर में।—मतिराम। ११. मन में विशेष रूप से की जानेवाली कोई कल्पना या विचार। निर्धारण। जैसे— दंड देने का विकल्प। १२. मन में उत्पन्न होनेवाली तरह-तरह की कल्पनाएँ। १३. कल्प का कोई छोटा अंग या विभाग। अवान्तर कल्प। १४. विचित्रता। विलक्षणता।
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विकल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विकल्पित] १. विकल्प करने की क्रिया या भाव। २. किसी बात में सन्देह करना।
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विकल्पना  : स्त्री० [सं०] १. तर्क-वितर्क करना। २. सन्देह करना।
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विकल्पसम  : पुं० [सं० ब० स०] न्याय दर्शन में २४ जातियों में से एक जिसमें वादी के दिये हुए दृष्टान्त में अन्य धर्म की योजना करते हुए साध्य में भी उसी धर्म का आरोप करके अथवा दृष्टान्त को असिद्ध ठहराकर वादी की युक्ति का निरर्थक खंडन किया जाता है। जैसे—यदि वादी कहे-‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घर की तरह उत्पत्ति धर्मवाला है।’ और इस पर प्रतिवादी कहे ‘घर जिस प्रकार उत्पत्ति धर्म से युक्त होने के कारण अनित्य और मूर्त्त है, उसी प्रकार शब्द भी उत्पत्ति धर्म से युक्त होने के कारण अनित्य और मूर्त्त है।’ तो ऐसा तर्क ‘विकल्पसम’ कहा जायगा।
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विकल्पित  : भू० कृ० [सं०] जिसके सम्बन्ध में विकल्पन (तर्क-वितर्क या सन्देह) किया गया हो। अनिश्चित और संदिग्ध। २. जो विकल्प (देखें) के रूप में ग्रहण किया गया हो। ३. जिसके सम्बन्ध में कोई निश्चय न हो। ४. जिसके सम्बन्ध में कोई नियम न हो। अनियमित।
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विकल्मष  : वि० [सं० ब० स०] कल्मष या पाप से रहित। निष्पाप।
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विकस  : पुं० [सं०वि√कस् (विकसित होना)+अच्] चंद्रमा।
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विकसन  : पुं० [सं० वि√कस् (विकसित होना)+ल्युट-अन] [वि० विकसित] १. विकास करना या होना। २. फूलों आदि का खिलना।
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विकसना  : अ० [सं० विकसन] १. विकास के रूप में लाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना। खिलना
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विकसाना  : स० [सं० विकसन] १. विकास के रूप में लाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना। खिलाना।
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विकसित  : भू० कृ० [सं० वि√कस्+क्त, इत्व] १. जिसका विकास हुआ हो या किया गया हो। २. खिला हुआ।
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विकस्वर  : वि० [सं० वि√कस्+वरच्] विकासशील। खिलनेवाला। पुं० साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय गाया जाता है जब विशेष का सामान्य द्वारा समर्थन करने के उपरान्त सामान्य का विशेष द्वारा भी समर्थन किया जाता है।
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विकांक्ष  : वि० [ब० स०] आकांक्षा से रहित।
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विकांक्षा  : स्त्री० [सं० विकांक्ष+टाप्] १. कोई आकांक्षा न होना। आकांक्षा का अभाव। २. अनिश्चय। दुविधा।
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विकाम  : वि० [सं० ब० स०] कामना से रहित। निष्काम।
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विकार  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+घञ्] १. प्रकृति, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला परिवर्तन। २. किसी चीज के आकार, गुण, रंग-रूप, स्वभाव आदि में होनेवाला परिवर्तन जिससे वह खराब हो जाय और ठीक तरह से काम देने के योग्य न रह जाय। बिगाड़। ३. वह तत्त्व या बात जिसके कारण चीज में उक्त प्रकार की खराबी या दोष आता हो। जैसे— उद्देश्य, भावना आदि में होनेवाला विकास। ४. मुख पर क्रोध, घृणा आदि के फलस्वरूप होनेवाली ऐंठन या विकृति। ५. शारीरिक कष्ट या घाव। ६. वेदान्त और सांख्य दर्शन के अनुसार किसी पदार्थ के रूप आदि का बदल जाना। परिणाम। जैसे—कंकण सोने का विकार है, क्योंकि वह सोने से ही रूपान्तरित होकर बना है। ७. निरुक्त के प्रधान चार नियमों में से एक जिसके अनुसार एक वर्ण के स्थान से दूसरा वर्ण हो जाता है।
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विकारित  : भू० कृ० [सं० वि०√कृ+णिच्+क्त] जो किसी प्रकार के विकार से युक्त किया गया हो अथवा आपसे आप हो गया हो।
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विकारी (रिन्)  : वि० [सं० वि√कृ+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. जिसमें कोई विकार उत्पन्न हुआ हो। विकार से युक्त। २. जिसमें कोई परिवर्तन हुआ हो अथवा किया गया हो। ३. जिसमें कोई विकार या परिवर्तन होता रहता हो या होने को हो। पुं० साठ संवत्सरों में से एक संवत्सर का नाम।
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विकाल  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा समय जब देव-कार्य, पितृ-कार्य आदि का समय बीत गया हो। २. सन्ध्या का समय। ३. विलम्ब। देर।
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विकालत  : स्त्री०=वकालत।
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विकालिका  : स्त्री० [सं० विकाल+कन्+टाप्, इत्व] जल-घड़ी।
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विकाश  : पुं० [सं० वि√काश् (दीप्त होना)+घञ्] १. प्रकाश। रोशनी। २. फैलाव। विस्तार। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. आकाश। वि० एकांत। निर्जन।
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विकाशक  : वि० [सं० वि√काश्+ण्वुल्—अक] विकासक।
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विकास  : पुं० [सं०] १. अपने आपको प्रकट या व्यक्त करना। २. फैलना या बढ़ना। ३. फूलों आदि का खिलना। ४. आँख, मुँह आदि का खुलना। ५. किसी चीज या बात का अस्तित्व में आकर या आरम्भ होकर फैलते या बढ़ते हुए और उन्नति की अनेक क्रमिक अवस्थाएं पार करते हुए अपनी पूरी बाढ़ तक पहुँचना। बढ़ते-बढ़ते अपना पूरा रूप धारण करना। ६. उक्त क्रिया के परिणाम-स्वरूप प्रकट होनेवाला रूप या स्थिति। ६. यह सिद्धान्त कि कोई वस्तु अपनी आरम्भिक सामान्य अवस्था से अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ती तथा फूलती-फलती हुई पूर्ण अवस्था प्राप्त करती है (इवोल्यूशन)। स्त्री० [?] दूब की तरह की एक घास जो चौपाये बहुत चाव से खाते हैं।
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विकासक  : वि० [सं० वि√कस्+ण्वुल्-अक] विकास करने अर्थात् खोलने या बढ़ानेवाला।
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विकासन  : पुं० [सं० वि√कस्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विकसित] विकास करने की क्रिया या भाव। २. खिलना। ३. खुलना। ४. फैलना।
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विकासना  : स० [सं० विकास] १. विकास करना। २. खोलकर प्रकट या व्यक्त करना। ३. खिलने में प्रवृत्त करना। अ०=विकसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकासवाद  : पुं० [ष० त०] यह सिद्धान्त कि ईश्वर से यह सृष्टि (अथवा इसका कोई अंग) इसी या प्रस्तुत रूप में नहीं उत्पन्न कर दी थी, वरन् इसका रूप प्रतिक्षण बदलता और बढ़ता जा रहा है (थियरी आँफ इवोल्यूशन)। विशेष—इस सिद्धान्त के अनुसार यह माना जाता है कि इस पृथ्वी पर प्राणियों, वनस्पतियों आदि का आरम्भ बहुत ही सूक्ष्म रूप में हुआ था, और धीरे-धीरे उनका विकास होने पर वे सब फैलते, बढ़ते और अनेक प्रकार के रूप-रंग धारण करते गये, उनकी शक्तियाँ आदि बढ़ती गई और उनके बहुत-से भेद-विभेद होते गये।
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विकासवादी  : वि० [सं०] विकासवाद संबंधी। पुं० वह जो विकासवाद का अनुयायी या ज्ञाता हो।
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विकासित  : भू० कृ० [सं० वि√कस्+णिच्+क्त] १. जिसका विकास किया गया हो। २. सामने लाया हुआ। ३. फैलाया या बढ़ाया हुआ।
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विकिर  : पुं० [सं० वि√कृ (करना)+क] १. पक्षी। चिड़िया। २. कूआँ। ३. विकिरण। बिखेरना। ४. बिखेरी जानेवाली वस्तु। ५. वे चावल आदि जो पूजा के समय विघ्न दूर करने के लिए चारों ओर फेंके जाते हैं। अक्षत।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विकिरक  : वि० [सं०] जो अपनी किरणें चारों ओर फेंकता या फैलाता हो। किरणें विकीर्ण करनेवाला (रेडिएटर) पुं० कोई ऐसा पदार्थ या यंत्र जो किसी प्रकार की किरणें ताप, भाप, शीत आदि अंदर से निकालकर बाहर फैलाता या बिखेरता हो (रेडिएटर)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विकिरण  : पुं० [सं०] १. इधर-उधर फेंकना या फैलाना। छितराना। बिखेरना। २. किसी केन्द्र से शाखाओं आदि के रूप में निकल कर इधर-उधर फैलाना या बढ़ाना। ३. आज-कल वैज्ञानिक क्षेत्र में किसी केंन्द्र से तार, प्रकाश कि किरणों अथवा किसी प्रकार की ऊर्जा को निकल-कर इधर-उधर या चारों ओर फैलाना। (रेडिएशन) ४. चीरना-फाड़ना। ५. हत्या करना। मार डालना। ६. ज्ञान। ७. मदार का पौधा। आक।
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विकिरणता  : स्त्री० [सं०] १. वह स्थिति जिसमें किसी चीज की किरणें निकलकर किसी ओर फैलती हैं। २. आधुनिक विज्ञान में वह स्थिति जिसमें अणु-बमों आदि के विस्फोट के कारण विषाक्त किरणें निकलकर चारों ओर फैलती और वातावरण दूषित करके जीव, जन्तुओं वनस्पतियों आदि को बहुत हानि पहुँचाती है (रेडियो-एक्टिविटी)।
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विकिरण-मापी  : पुं० [सं०] वह यंत्र जिसकी सहायता से तपे हुए पदार्थों में से निकलनेवाली ताप-रश्मियों का परिमाण या शक्ति जानी या नापी जाती है। (रेडियो मीटर)।
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विकिरण-विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विचार और विवेचन होता है कि अनेक पदार्थों में से किरणें कैसे निकलती है और उनके क्या-क्या उपयोग, प्रकार या स्वरूप होते हैं (रेडियोलोजी)।
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विकीरना  : स० [सं० विकीर्ण] १. फैलाना। २. चारों ओर छितराना या बिखेरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√कृ (फेंकना)+क्त] १. चारों ओर फैलाया या छितराया हुआ। २. खुले बिखरे या उलझे हुए (बाल)। ३. प्रसिद्ध। मशहूर। पुं० संस्कृत व्याकरण में स्वरों के उच्चारण में होनेवाला एक दोष।
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विकुंचन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विकुंचित] १. सिकुंड़ना। २. मुडऩा।
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विकुंज  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जाति।
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विकुंठ  : वि० [सं०] १. तेज और नुकीला। २. अत्यधिक भुथरा। पुं०=बैकुंठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विकुंठा  : स्त्री० [सं० विकुंठ+टाप्] १. मन का केन्द्रीकरण। मन को एकाग्र करना। २. विष्णु की माता।
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विकुंक्षि  : पुं० [सं० विकुक्ष+इनि] अयोध्या के राजा कुशि के पुत्र का नाम। वि० जिसका पेट फूला हुआ और बड़ा हो। तोंदवाला।
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विकृत  : भू० कृ० [सं० वि०√कृ (करना)+क्त] [भाव० विकृति] १. जिसमें किसी प्रकार का विकार आ गया हो। २. जिसका आकार या रूप बिगड़ गया हो। बेडौल। ३. असाधारण। ४. अधूरा। अपूर्ण। ५. अराजक। विद्रोही। ६. बीमार। रोगी। ७. उद्विग्न। ८. अप्राकृतिक। पुं० १. दूसरे प्रजापति का नाम। २. साठ संवत्सरों में से चौबीसवाँ संवत्सर। ३. बीमारी। रोद। ४. विरक्ति। ५. गर्भपात।
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विकृत-दृष्टि  : पुं० [सं० ब० स०] ऐंचा-ताना।
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विकृत-स्वर  : पुं० [सं०] संगीत में, वह स्वर जो अपने निवास स्थान से हट कर दूसरी श्रुतियों पर जाकर ठहरता है। इसके १२ प्रकार या भेद कहे गये है।
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विकृता  : स्त्री० [सं० विकृत+टाप्] एक योगिनी का नाम।
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विकृति  : स्त्री० [सं० वि√कृ (करना)+क्तिन्] १. विकृत होने की अवस्था या भाव। २. खराबी। विकार। ३. वह रूप जो विकार के उपरान्त प्राप्त हो। बिगड़ा हुआ। ४. बीमारी। रोग। परिवर्तन। ५. मन में होनेवाला क्षोभ। ६. काम-वासना। ७. वैर। शत्रुता। ८. धार्मिक क्षेत्र में माया का एक नाम। ९. पिंगल में २३ वर्णों वाले छंदों की संज्ञा। १॰. सांख्य के अनुसार मूल-प्रकृति का वह रूप जो उसमें विकार आने पर होता है। विकार। परिणाम। ११. व्याकरण में शब्द का वह रूप जो उसको मूल धातु से विकृत होने पर प्राप्त होता है।
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विकृति-विज्ञान  : पुं० [सं०] चिकित्सा-शास्त्र और दैहिकी का वह अंग या विभाग जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि शरीर में किस प्रकार के विकार होने से कौन-कौन से रोग होते हैं। रोग-विज्ञान। (पैथालोजी)।
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विकृतिवेत्ता  : पुं० [सं०] वह जो विकृति-विज्ञान का ज्ञाता हो। (पैथॉलोजिस्ट)।
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विकृतीकरण  : पुं० [सं०] किसी की आकृति अथवा कृति के कुछ अंगों को छोटा-बड़ा करके इस उद्देश्य से उसे विकृत करना कि लोग उसे देखकर अनायास हँस पड़े। (केरिकेचर)।
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विकृष्ट  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] [भाव० विकृष्टि] १. खींचा हुआ। २. खींच या निकाल कर अलग किया हुआ। ३. फैलाया या बढ़ाया हुआ। ४. ध्वनि के रूप में आया या लाया हुआ।
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विकृष्टि  : स्त्री० [सं०] विकृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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विकेंद्रण  : पुं० [सं०] विकेंद्रीकरण (दे०)।
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विकेंद्रीकरण  : पुं० [सं०] १. केन्द्र से हटाकर दूर करना। २. राजनीतिक क्षेत्र में,शक्ति या सत्ता का एक केन्द्र या स्थान में निहित न होकर अनेक केन्द्रों या स्थानों में थोड़े-थोड़े अंशों में निहित होना (डिसेन्ट्रलाइज़ेशन)।
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विकेट  : पुं० [अ०] १. क्रिकेट के खेल में वे डंडे जिन पर गुल्लियाँ रखी जाती हैं। यष्टि। २. बल्लेबाज। जैसे— तीन विकेट गिर चुके हैं। ३. दोनों ओर की विकटों के बीच की जगह।
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विकेश  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विकेशी] १. जिसके सिर के बाल खुले हों। २. जिसके सिर पर बाल न हों। गंजा। पुं० १. एक प्रकार का प्रेत २. पुच्छल तारा।
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विकेशी  : स्त्री० [सं०] १. ऐसी स्त्री जिसके सिर के बाल खुले हों। २. गंजे सिरवाली स्त्री। ३. मही (पृथ्वी) के रूप में शिव की पत्नी का नाम। ४. एक प्रकार की पूतना।
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विकोष  : वि० [सं० ब० स०] १. कोष या म्यान से निकला हुआ (शस्त्र) २. खुला हुआ। अनाच्छादित। ३. जिस पर भूसी, छिलका आदि न हो।
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विक्टोरिया  : स्त्री० [अं०] एक प्रकार की घोड़ा-गाड़ी जो देखने में प्रायः फिटन से मिलती-जुलती होती है। पुं० एक छोटा ग्रह जिसका पता सन् १८५॰ में हैंड नामक एक पाश्चात्य ज्योतिषी ने लगाया था।
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विक्रम  : पुं० [सं० वि√क्रम (चलना आदि)+अच्] १. विपरीत गति। ‘संक्रम’ का विपर्याय। २. चलने में पकड़नेवाला कदम। डग। पग। ३. चलना। गति। ४. किसी को दबाकर अपने अधिकार या वश में करना। ५. विशिष्ट पौरुष या बल। ६. बहादुरी। वीरता। ७. ढंग। तरीका। ८. विष्णु का एक नाम। ९. साठ संवत्सरों में से चौदहवाँ संवत्सर। १॰. बिना किसी क्रम या प्रणाली के होनेवाला वेद-पाठ। ११. दे० ‘विक्रमादित्य’। वि० १. क्रम से रहित। बिना क्रम का। २. उत्तम। श्रेष्ठ।
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विक्रमक  : पुं० [सं० विक्रम+कन्] कार्तिकेय के एक गण का नाम।
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विक्रमण  : पुं० [सं० वि√क्रम् (चलना आदि)+ल्युट-अन] १. चलना। कदम रखना। २. आगे बढ़ना। संक्रमण का विपर्याय। ३. विक्रम। वीरता।
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विक्रम-शिला  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत की एक नगरी जिसमें बहुत बड़ा बौद्ध विद्यालय था।
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विक्रमाजीत  : पुं०=विक्रमादित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विक्रमादित्य  : पुं० [सं० स० त०] उज्जयिनी के एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जिनके संबंध में अनेक प्रवाद प्रचलित है। आज-कल का विक्रमी संवत् इन्हीं का चलाया माना जाता है।
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विक्रमाब्द  : पुं० [सं० मध्यम० स०] विक्रमादित्य के नाम से चलाया हुआ संवत्। विक्रम संवत्।
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विक्रमार्क  : पुं० [स० त०]=विक्रमादित्य।
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विक्रमी  : पुं० [सं० विक्रम+इनि, दीर्घ, न-लोप, विक्रमिन्] १. वह जिसमें बहुत अधिक बल हो। विक्रमवाला। पराक्रमी। २. विष्णु। ३. शेर। वि० १. विक्रम-संबंधी। विक्रम का। २. विक्रमाब्द संबंधी।
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विक्रमीय  : वि० [सं० विक्रम+छ-ईय] विक्रमादित्य संबंधी।
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विक्रय  : पुं० [सं० वि√क्री (बेचना)+अच्] दाम लेकर कोई चीज देना। दाम लेकर किसी चीज का स्वत्वाधिकार दूसरे को देना। बेचना। ‘क्रय’ का विपर्याय। पद—क्रय-विक्रय।
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विक्रयक  : वि० [सं० वि√क्री+ण्वुल्-अक] बेचनेवाला। विक्रेता।
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विक्रय-कर  : पुं० [ष० त०] वह राजकीय कर चीजों के विक्रय के समय खरीदने वाले से लिया जाता हैं। बिक्रीकर (सेल-टैक्स)।
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विक्रयण  : पुं० [सं० वि√क्री (बेचना)+ल्युट-अन] बेचने की क्रिया। विक्रय। बिक्री।
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विक्रय-पंजी  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह पंजी (बही) जिसमें व्यापारी नित्य अपनी बेची हुई चीजों के नाम, मूल्य आदि लिखते है (सेल्स जर्नल)।
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विक्रय-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र या लेख्य जिसमें यह लिखा जाता है कि इतना मूल्य लेकर अमुक व्यक्ति ने अमुक वस्तु दूसरे व्यक्ति के हाथ बेची है। बैनामा। (सेल-डीड)।
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विक्रय-लेख  : पुं० [सं०] विक्रय-पत्र।
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विक्रयिक  : पुं०=विक्रेता।
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विक्रयी (यिन्)  : पुं०=विक्रेता।
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विक्रय्य  : वि० [सं० विक्रय+यत्] जो बेचा जाने को हो।
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विक्रांत  : भू० कृ० [सं० वि√क्रम्+क्त] १. जो चल कर पार किया गया हो। २. जिसमें विशेष विक्रम अर्थात् बल या शूरता हो। वीर। ३. विजयी। ४. प्रतापी। ५. तेजस्वी। पुं० १. बहादुर। वीर २. शेर। सिंह। ३. डग। पग। ४. बल और शक्ति। विक्रम। ५. हिरण्याक्ष का एक पुत्र। ६. प्रजापति। ७. साहस। हिम्मत। ८. व्याकरण में एक प्रकार की संधि। जिसमें विसर्ग अविकृत ही रहता है। ९. वैक्रान्त मणि।
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विक्रांता  : स्त्री० [सं० विक्रान्त+टाप्] १. अग्निमथ। वृक्ष। अरणी। २. जयंती। ३. मूसाकानी। ४. अड़हुल। गुड़हर। ५. अपराजिता। ६. लज्जावती। लजालू। ७. हंसपदी नामक लता।
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विक्रांति  : स्त्री० [सं० वि√क्रम्+क्तिन्] १. गति। २. विक्रम। वीरता। ३. घोड़े की सरपट चाल।
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विक्रिया  : स्त्री० [सं० वि√कृ+श+टाप्] १. विकार। २. प्रतिक्रिया।
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विक्रियोपमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें किसी विशिष्ट क्रिया या उपाय का अवलंब कहा जाता है।
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विक्री  : स्त्री०=बिक्री (विक्रय)।
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विक्रीत  : भू० कृ० [सं० वि√क्री+क्त] बेचा हुआ।
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विक्रेतव्य  : वि०=विक्रेय।
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विक्रेता  : पुं० [सं० वि√क्री+तृच्] बिक्री करनेवाला। बेचनेवाला।
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विक्रेय  : वि० [वि०√क्री+यत्] जो बेचा जाने को हो बिकाऊ।
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विक्रोश  : पुं० [सं० वि√क्रश् (विलपना)+घञ्] १. लोगों को अपनी सहायता के लिए पुकारना। गोहार। २. कुवाच्य कहना।
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विक्रोष्टा (ष्ट्रा)  : पुं० [सं० वि√क्रुश्+तृच्] १. गोहार करनेवाला। २. गाली देनेवाला।
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विक्लव  : वि० [सं० वि√क्लु (अधीर होना)+अच्] १. विकल। बेचैन। २. क्षुब्ध। ३. भयभीत। ४. दुःखी। संतप्त।
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विक्लिन्न  : वि० [सं० वि√क्लिद् (भींगना)+क्त] १. बहुत पुराना। जीर्ण-शीर्ण। २. गला-सड़ा। ३. पकाकर मुलायम किया हुआ। ४. गीला। तर।
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विक्लेद  : पुं० [सं० वि√क्लिद्+घञ्] १. आर्द्रता। २. गलाना या द्रव करना। ३. क्षय।
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विक्षत  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जिसमें छत लगा हों जिसमें खराश पड़ी हो। २. जिसे क्षत या घाव लगा हो। घायल। जख्मी।
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विक्षय  : पुं० [सं० ब० स०] अधिक मद्य-पान के कारण होनेवाला रोग (वैद्यक)।
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विक्षिप्त  : वि० [सं० वि√क्षिप् (फेंकना)+क्त] [भाव० विक्षिप्तता] फेंका या छितराया हुआ। २. छोड़ा या त्यागा हुआ। व्यक्त। ३. जिसका मस्तिष्क ठीक तरह से काम न करता हो। पागल। सिड़ी। ४. पागलों की तरह घबराया हुआ और विकल।
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विक्षिप्तक  : पुं० [सं० विक्षिप्त+कन्] ऐसी लाश या शव जो जलाया या गाड़ा न गया हो, बल्कि यों ही कहीं फेंक दिया गया हो।
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विक्षिप्तता  : स्त्री० [सं० विक्षिप्त+तल्+टाप्] विक्षिप्त या पागल होने की अवस्था या भाव। पागलपन।
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विक्षुब्ध  : वि० [सं० वि√क्षुभ् (अधीर होना)+क्त] जिसमें किसी प्रकार का क्षोभ उत्पन्न किया गया हो अथवा आप से आप हुआ हो।
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विक्षेप  : पुं० [वि√क्षिप् (फेंकना)+घञ्] १. इधर-उधर छितराना या फेंकना। २. झटका देना। ३. धनुष का चिल्ला या डोरी चढ़ाना। ४. गदायुद्ध में गदा की कोटि से समीपवर्ती शत्रु पर प्रहार करना। ५. मन इधर-उधर दौड़ाना या भटकाना। ६. बाधा। विघ्न। ७. सेना का पड़ाव। छावनी। ८. एक तरह का प्राचीन अस्त्र।
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विक्षेपण  : पुं० [सं० वि√क्षिप् (फेंकना)+ल्युट-अन] १. ऊपर अथवा इधर-उधर फेंकने की क्रिया। २. झटका देना। ३. धनुष की डोरी खींचना। ४. बाधा। विघ्न। ५. विक्षेप।
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विक्षेप-लिपि  : स्त्री० [कर्म० स०] एक प्रकार की प्राचीन लिपि।
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विक्षेप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० वि√क्षिप्+तृच्] विक्षेप या विक्षेपण करनेवाला।
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विक्षोभ  : पुं० [सं० वि√क्षुभ् (अधीर होना)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला क्षोभ। उद्विग्नता। २. किसी अशुभ या अनिष्ट घटना के कारण मन में होनेवाला ऐसा विकार जो क्रुद्ध या दुःखी कर दे। ३. उथल-पुथल।
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विक्षोभण  : पुं० [सं० वि√क्षुभ्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विक्षोभित] क्षोभ उत्पन्न करने की क्रिया या भाव।
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विक्षोभित  : भू० कृ० [सं० वि√क्षुभ्+क्त]=विक्षुब्ध।
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विक्षोभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√क्षुभ्+णिनि, दीर्घ, न-लोप] [स्त्री० विक्षोभिणी] क्षोभ उत्पन्न करनेवाला। क्षोभकारी।
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विखंड  : वि० [सं०] १. टुकड़े-टुकड़े किया हुआ। २. बहुत छोटे खंडों या टुकड़ों में परिवर्तित।
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विखंड राशि  : पुं० [सं०] भूगोल में चट्टानों की सतह पर से टूट-फूटकर गिरे हुए कंकड़ों का समूह। मलवा (डेट्रिलस)।
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विखंडित  : भू० कृ०=खंडित।
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विखंडी (डिन्)  : वि० [सं० वि√खंड् (टुकड़ा करना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] तोड़ने-फोड़ने या नष्ट करनेवाला।
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विख  : वि० [सं० वि० नासिका, ब० स] नासिका खादेश। जिसकी एक कटी हुई हो या न हो। पुं०=विष। (जहर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विखनस  : पुं० [सं०] १. ब्रह्म २. एक प्राचीन ऋषि।
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विखाद  : पुं०=विषाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विखादितक  : पुं० [सं० वि√खद् (खाना)+णिच्+क्त+कन्] ऐसा मृत शरीर जिसका बहुत सा अंश पशुओं ने खा डाला हो।
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विखान  : पुं०=विषाण (सींग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विखानस  : पुं०=वैखानस।
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विखायँध  : स्त्री०=बिसायँध।
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विखुर  : पुं० [सं० वि√खर (काटना)+अच्] १. राक्षस। २. चोर। वि० जिसके खुर न हों। खुरों से रहित।
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विख्यात  : भू० कृ० [सं० वि√ख्या (प्रसिद्धि होना)+क्त] [भाव० विख्याति] प्रसिद्धि। मशहूर। जिसकी ख्याति चारों ओर हो।
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विख्याति  : स्त्री० [सं० वि√ख्या (ख्याति)+क्तिच्] विख्यात होने की अवस्था या भाव। प्रसिद्ध। शोहरत।
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विख्यापन  : पुं० [सं० वि√ख्या+णिच्+ल्युट-अन] १. प्रसिद्ध करना। मशहूर करना। २. सार्व-जनिक रूप से घोषणा करना।
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विख्यापित  : भू० कृ० [सं०] जिसका विख्यापन हुआ हो।
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विगंध  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें किसी प्रकार की गंध न हो। २. बदबूदार। बुरी गंधवाला।
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विगंधकीकरण  : पुं० [सं०] वह रासायनिक प्रक्रिया जिसके द्वारा आदि धातुओं में मिली हुई गंधक निकाल कर दूर की जाती है। (डीसल्फ़राइजेशन)।
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विगंधिका  : स्त्री० [सं० विगंध+कन्+टाप्,+इत्व] १. हपुषा। हाऊबेर। २. अजगंधा। तिलवन।
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विगणन  : पुं० [सं० वि√गण् (गिनती करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विगणित] १. हिसाब लगाना। लेखा करना। २. ऋण से मुक्त होना।
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विगत  : भू० कृ० [सं० वि√गम् (जाना)+क्त] [स्त्री० विगता] १. बीता हुआ। गत। २. गत से ठीक पहले का। अन्तिम या बीते हुए से ठीक पहले का। जैसे— विगत दिन (बीते हुए कल से पहले का)। ३. जो कहीं इधर-उधर चला गया हो ४. जिसका क्रान्ति या प्रभाव नष्ट हो चुका हो। निष्प्रभ। ५. जो किसी बात से रहित या हीन हो चुका हो। जैसे—विगत यौवन। उदाहरण-बोले वचन विगत सब दूषन।—तुलसी।
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विगता  : स्त्री० [सं० विगत+टाप्] ऐसी कन्या जो किसी दूसरे व्यक्ति के प्रेम में पड़ी हो और इसीलिए विवाह के लिए अनुपयुक्त हो।
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विगति  : स्त्री० [सं० वि√गम्+क्तिन्] दुर्दशा। दुर्गति।
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विगद  : वि० [सं० ब० स०] रोगरहित। नीरोग। पुं० १. बात-चीत। चर्चा। २. शोर गुल। हो-हल्ला।
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विगम  : पुं० [सं० वि√गम्+घञ्] १. प्रस्थान। प्रयाण। २. पार्थक्य। ३. अनुपस्थिति। ४. त्याग। ५. हानि। ६. नाश। ७. सम्पत्ति। ८. मृत्यु। ९. मोक्ष।
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विगर  : पुं० [सं० ब० स०] १. दिगंबर यति। २. पहाड़। ३. भोजन का त्याग करनेवाला व्यक्ति।
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विगर्हण  : पुं० [सं०] [वि० विगर्हित] बुरे काम के लिए निन्दा करना और बुरा-भला कहना। भर्त्सना।
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विगर्हणा  : स्त्री० [सं० वि√गर्ह (निन्दा करना)+णिच्+टाप्] भर्त्सना। डाँट-फटकार।
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विगर्हणीय  : वि० [सं० वि√गर्ह+अनीयर्] निंदरीय।
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विगर्हा  : स्त्री० [सं० वि√गर्ह+अच्+टाप्]=विगर्हण।
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विगर्हित  : भू० कृ० [सं० वि√गर्ह+क्त, तृ० त०] १. जिसकी भर्त्सना की गई हो। जिसे डाँट या फटकार बतलाई गई हो। २. बुरा। खराब। ३. निषिद्ध।
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विगर्ही (र्हिन्)  : वि० [सं० वि√गर्ह+णिनि] विगर्हण करनेवाला।
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विगर्ह्य  : वि० [सं० वि√गर्ह+यत्] जो भर्त्सना का पात्र हो। डाँटने डपटने या निंदा किये जाने के योग्य।
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विगलन  : पुं० [सं० वि√गल् (पिघलना)+ल्यु-अन] [भू० कृ० विगलित] १. अच्छी या पूरी तरह से गलना या पिघलना। २. तरल पदार्थ का चूना, बहना या रिसना। ३. मन का आर्द्र होना। ४. नाश या लोप होना। ५. शिथिल होना।
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विगलित  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जो गल गया हो। पिघला हुआ। ३. गिरा हुआ। पतित। ४. बहा हुआ। ५. ढीला। शिथिल। ६. विकृत।
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विगाढ  : भू० कृ० [सं० वि√गार्ह (विलोड़न करना)+क्त] १. नहाया हुआ। स्नात। २. डूबा हुआ। ३. अन्दर घुसा, धँसा या पैठा हुआ। ४. जो बहुत अधिक मात्रा में हो। बहुत गहन या घना।
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विगाथा  : स्त्री० [सं० वि√गाथ् (कहना)+अक+टाप्] आर्या छन्द का एक भेद जिसके विषम पदों में १२-१२ दूसरे में १५ और चौथे में १८ मात्राएँ होती हैं,और अन्त में वर्ण गुरु होता है। विषम गणों में जगण नहीं होता,पहले दल का छठा गण (२७ ही मात्रा के कारण) एक लघु का मान लिया जाता है। इसे ‘विग्गाहा’ और ‘उदगीति’ भी कहते हैं।
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विगान  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. निंदा। २. अपवाद। ३. असामंजस्य। ४. घृणा।
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विगाहन  : पुं० [सं० वि√गाह्+अच्]=अवगाहन।
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विगीत  : वि० [सं० वि√गै (गाना या कहना)+क्त] १. अनेक प्रकार से या अनेक रूपों में कहा हुआ २. बुरी तरह से कहा या गाया हुआ। ३. परस्पर विरोधी। ४. निंदित।
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विगीति  : स्त्री० [सं० वि√गै+क्तिन्] आर्या छंद का एक भेद।
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विगुण  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें कोई गुण न हो। गुण-रहित गुण-विहीन। २. निर्गुण।
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विगूढ़  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. छिपा हुआ। गुप्त। २. जिसकी निंदा की गई हो।
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विगृहीत  : वि० [सं० वि√ग्रह् (ग्रहण करना)+क्त] १. फैलाया या विभक्त किया हुआ। २. पकड़ा हुआ। ३. जिसका विरोध या सामना किया गया हो। ४. रोका हुआ। ५. जिसका विश्लेषण हुआ हो। विश्लिष्ट।
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विग्गाहा  : स्त्री० [सं० विगाथा] विगाथा नामक छन्द जो आर्या का एक भेद है।
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विग्रह  : पुं० [सं० वि√ग्रह्+अच्] १. विस्तृत करना। फैलाना। २. अलग या दूर करना। ३. टुकड़ा। विभाग। ४. यौगिक शब्दों अथवा समस्त पदों के किसी एक अथवा प्रत्येक शब्द को अलग करना। (व्याकरण) ५. लड़ाई-झगड़ा और वैर-विरोध। ६. य़ुद्ध। समर। ७. रीति के छः गुणों में से एक, विपक्षियों में कलह या फूट उत्पन्न करना। ८. आकृति। सूरत। ९. देह। शरीर। १॰. प्रतिमा या मूर्ति। जैसे—शालग्राम की वटिया या शिव का लिंग। ११. श्रृंगार। सजावट। १२. शिव का एक नाम या लिंग। १३. स्कन्द का एक अनुचरी। १४. सांख्य के अनुसार कोई तत्त्व।
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विग्रहण  : पुं० [सं० तृ० त०] रूप धारण करना। शक्ल में आना।
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विग्रही  : वि० [सं०√ग्रह्+णिनि] १. विग्रह या लड़ाई-झगड़ा करनेवाला। २. युद्ध करनेवाला। ३. मूर्ति-पूचक। पुं० प्राचीन भारत में युद्ध-विभाग का मंत्री या सचिव।
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विग्राह्य  : वि० [सं० विग्रह+ण्यत्] जिसके साथ विग्रह अर्थात् लड़ाई या युद्ध किया जा सके।
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विघटन  : पुं० [सं० विघट्टन] १. किसी वस्तु के संयोजक अंगों का इस प्रकार अलग या नष्ट होना कि उसका प्रस्तुत अस्तित्व या रूप नष्ट हो जाय। ‘घटन’ का विपर्याय। (डिस-इन्ट्रिगेशन) जैसे—किसी संस्था या समाज का विघटन। २. खराब होना या टूटना-फूटना बिगड़ना। ३. नष्ट करना या होना।
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विघटिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] समय का एक छोटा मान जो एक घड़ी का २३वाँ भाग होता है।
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विघटित  : भू० कृ० [सं० वि√घट् (मिलाना)+क्त] १. जिसके संयोजक अलग-अलग किये गये हों। २. तोड़ा-फोड़ा हुआ। ३. नष्ट किया हुआ। ४. (संस्था, समिति आदि) जिसे भंग कर दिया गया हो। (डिस्साल्वड)।
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विघट्टन  : पुं० [सं० वि√घट्ट, (संयुक्त करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विघट्टित] १. खोलना। २. पटकना। ३. रगड़ना। ४. दे० ‘विघटन’।
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विघट्टी (ट्टिन)  : वि० [सं० विघट्ट√इनि] विघटन करनेवाला।
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विघन  : पुं० [सं० वि√हन् (मारना)+अप्,ह-घ] १. आघात करना। चोट पहुँचाना। २. बड़ा और भारी हथौड़ा। घन। ३. इन्द्र। पुं०=विघ्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विघर्षण  : पुं० [सं० वि√घृष् (रगड़ना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह रगड़ना या घिसना।
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विघस  : पुं० [सं० वि√घृष् (खाना)+अप्, अद्-घस] १. आहार। भोजन। २. देवताओं पितरों बड़ों आदि के उपभोग के उपरान्त बचा हुआ अन्न।
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विघात  : पुं० [सं०] १. आघात। चोट। २. विनाश। ३. निवारण। रोक। ४. बाधा। ५. हत्या। ६. आज-कल मालिकों को हानि पहुँचाने के विचार से जान-बूझकर उनके यंत्र या उपयोगी सामान तोड़ना-फोड़ना। तोड़-फोड का कार्य। अंतध्वंस। (सँबोटेज) ७. नाश।
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विघातक  : वि० [सं० विघात+कन्] १. विघात करनेवाला। २. तोड़-फोड़ के काम करनेवाला।
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विघातन  : पुं० [सं० वि√हन्+ल्युट-अन] १. विघात करने की क्रिया। २. मार डालना। हत्या।
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विघाती (तिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० विघातिनी]=विघातक।
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विघूर्णन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विघूर्णित] १. इधर से उधर घूमना या होना। २. चारों ओर घूमना। ३. आज-कल किसी अक्ष या केन्द्र के चारों ओर चक्कर काटना या लगाना (जाइरेशन)।
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विघ्न  : पुं० [सं० वि√हन्+क] १. बीच में आकर पड़ने वाली कोई ऐसी बात जिसमें होता हुआ काम रुक जाय। अड़चन। बाधा। क्रि० प्र०—आना।—डालना।—पड़ना।—होना। २. ऐसा अशुभ चिन्ह जिसके कारण बनता हुआ काम बिगड़ जाता हो। (प्रवाद)।
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विघ्नक  : वि० [सं० विघ्न+कन्]=विघ्नकारी।
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विघ्नकारी (रिन्)  : वि० [सं०] बाधा उपस्थित करनेवाला। विघ्न डालनेवाला।
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विघ्ननाशक  : वि० [ष० त०] विघ्नों का नाश करनेवाला। पुं० गणेश।
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विघ्नपति, विघ्नलाज  : पुं० [सं० ष० त०] गणेश।
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विघ्नविनायक  : पुं० [ष० त०] गणेश।
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विघ्नित  : भू० कृ० [सं० विघ्न+इतच्] १. (कार्य) जिसमें विघ्न पड़ा या डाला गया हो। २. बाधित।
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विघ्नेश  : पुं० [ष० त०] गणेश।
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विचकित  : वि० [सं० विचक+इतच्] १. चकित। २. घबराया हुआ।
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विचक्षण  : वि० [सं० वि√चक्ष् (कहना)+युच-अन] १. तीव्र दृष्टि वाला। बहुत दूर की चीजें या बातें देखनेवाला। २. प्रकाशमान। ३. बुद्धिमान। समझदार। ४. कुशल। दक्ष। पुं० पंडित। विद्वान्।
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विचक्षु  : वि० [सं०] चक्षुओं से रहित। अंधा।
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विचच्छन  : वि०=विचक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विचय  : पुं० [सं० वि+चि (बटोरना)+अप्] १. एकत्र करना। इकट्ठा करना। जमा करना। २. जाँच-पड़ताल करना।
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विचयन  : पुं० [सं० वि√चि+ल्युट-अन] १. इकट्ठा करना। एकत्र करना। जाँचना। परखना। ३. चुराई या छिपाई हुई वस्तु। खोज निकालने के उद्देश्य से किसी की ली जानेवाली तलाशी।
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विचयन-प्रकाश  : पुं० [सं०] वह तीव्र प्रकाश जिसके द्वारा बहुत दूर तक की चीजें प्रकाशित होती हों। खोज-बत्ती (सर्चलाइट)।
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विचरण  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+ल्युट-यु=अन] [भू० कृ० विचरित] १. चलना। २. घूमना-फिरना।
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विचरना  : अ० [सं० विचरण] चलना-फिरना। घूमना-फिरना।
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विचर्चिका  : स्त्री० [सं० वि√चर्च (फाटना)+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] १. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर पर दाने निकलते है और खुजली होती है। ब्यौंची। २. छोटी फुन्सी।
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विचल  : वि० [सं० वि√चल् (हिलना)+अप्] [भाव० विचलता] १. जो बराबर हिलता रहता हो। २. जो स्थिर न हो। अस्थिर। ३. अपने मार्ग या स्थान से गिरा, डिगा या हटा हुआ। ४. प्रतिज्ञा, संकल्प आदि से हटा हुआ।
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विचलता  : स्त्री० [सं०] विचल होने की अवस्था या भाव।
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विचलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विचलित] १. ठीक या सीधा मार्ग छोड़कर इधर-उधर होना। पथ से भ्रष्ट होना। (डेविएशन)। जैसे—मनुष्य का नैतिक विचलन। (ख) प्रकाश की रेखाओं की विचलन। २. जान-बूझकर या अनजान में उपेक्षापूर्वक अपने कर्त्तव्य या मत से हटकर इधर-उधर होना। कार्य, निश्चय या विचार पर दृढ न रहना। उत्क्रम से भिन्न (डेविएशन)।
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विचलना  : अ० [सं० विचलना] १. अपने स्थान से हट जाना या चल पड़ना। २. इधर-उधर होना। ३. अधीर या विचलित होना। ४. प्रतिज्ञा-संकल्प आदि से हटना।
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विचलाना  : अ०=विचलना। स० विचलित करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विचलित  : भू० कृ० [सं०] १. भय, साहस की कमी, साधन-हीनता आदि के फलस्वरूप अपनी प्रतिज्ञा, सिद्धान्त या स्थान से हटा हुआ। २. अस्थिर। चंचल। ३. विकल।
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विचार  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+घञ्] [वि० विचारणीय, वैचारिक, भू० कृ० विचारित] १. किसी चीज या बात के संबंध में मन ही मन तर्क-वितर्क करके कुछ सोचने या समझने की क्रिया या भाव। आगा-पीछा। ऊँच-नीच आदि का ध्यान रखते हुए कुछ निश्चय करने की क्रिया। जैसे—तुम भी इस बात पर विचार कर लो। २. उक्त प्रकार की क्रिया के फलस्वरूप किसी बात या विषय के सम्बन्ध में मन में बननेवाला उसका चित्र। सोच-समझकर स्थिर की हुई भावना। खयाल। (आइडिया) जैसे— (क) मेरे मन में एक और विचार आया है। (ख) इस पुस्तक में आपको बहुत से नये विचार मिलेगे। ३. कोई प्रश्न सामने आने पर उसके सम्बन्ध में कुछ निर्णय करने के लिए उसके सब अंग अच्छी तरह तर्क करते हुए देखना या समझना। (कन्सिडरेशन)। ४. दो विरोधी, दलों, पक्षों मतों आदि के विवादास्पद विषय के सम्बन्ध में कुछ निश्चय करने से पहले किसी न्यायालय या विचारशील व्यक्ति के द्वारा होनेवाली सब अंगों और बातों की जाँच-पड़ताल। फैसले के लिए मुकदमे की सुनवाई (ट्रायल)। जैसे—न्यायालय में अभियोग के सम्बन्ध में होनेवाला विचार। ५. घूमना-फिरना। विचरण।
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विचारक  : वि० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+ण्वुल-अक] विचार करनेवाला। पुं० वह जो किसी विषय पर अच्छी तरह विचार करता हो। विचारशील। २. वह जो न्यायालय आदि में बैठकर अभियोगों का विचार और निर्णय करता हो। न्यायकर्ता। (मुंसिफ)। ३. पथ-प्रदर्शन। नेता। २. गुप्तचर। जासूस।
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विचारकर्ता  : पुं० [सं० विचार√कृ+ (करना)+तृच्, ष० त०] १. वह जो किसी प्रकार का विचार करता हो। सोचने विचारनेवाला। २. न्यायाधीश। विचाराध्यक्ष।
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विचार-गोष्ठी  : स्त्री० [सं०] विद्वानों या विशेषज्ञों की वह गोष्ठी जो किसी विशिष्ट गंभीर विषय पर विचार करने के लिए बुलाई गई हो। (सेमिनार)।
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विचारज्ञ  : पुं० [सं० विचार√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो विचार करना जानता हो। २. विचाराध्यक्ष।
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विचारण  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+ल्युट-अन] विचारने की क्रिया या भाव।
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विचारणा  : स्त्री० [सं० विचारण+टाप्] १. विचारने की क्रिया या भाव। २. सोची-विचारी हुई बात। ३. कोई काम करने से पहले यह सोचना कि यह काम करना चाहिए या नहीं अथवा हम से हो सकेगा या नहीं।
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विचारणीय  : वि० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+अरीयर्] १. (बात या विषय) जिस पर विचार करना उचित हो या विचार किया जाने को हो। चिन्त्य। २. सन्दिग्ध।
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विचार-धारा  : स्त्री० [सं०] १. आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि मनुष्य के मन में विचार कहाँ से और किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और उनके कैसे-कैसे भेद या रूप होते हैं। वैचारिकी। २. विचारों का प्रवाह (आइडियालोजी)।
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विचारना  : अ० [सं० विचार] १. विचार करना सोचना-समझना। गौर करना। २. जानने के लिए किसी से कुछ पूछना। ३. तलाश करना। ढूँढ़ना।
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विचार-नेता  : पुं० [सं०] वह जो किसी क्षेत्र में जन-साधारण के विचारों का नेतृत्व या मार्ग-दर्शन करता हो।
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विचार-पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बहुत बड़ा विचारक। २. न्यायाधीश।
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विचारवान  : पुं० [सं० विचार+मतुप्, म-व] १. जो ठीक तरह से विचार करता हो। विचारशील। २. जिसमें विचार करने की विशेष क्षमता हो।
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विचार-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सोचने या विचार करने की शक्ति। बुद्धि। प्रज्ञा। (इन्टेलेक्ट)।
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विचारशास्त्र  : पुं० [ष० त०] मीमांसा दर्शन।
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विचारशील  : पुं० [सं० ष० त०] [भाव० विचारशीलता] वह जिसमें किसी विषय पर अच्छी तरह सोचने या विचारने की शक्ति हो। विचारवान्।
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विचार-स्थल  : पुं० [ष० त०] १. विचार करनेवाला स्थल। २. अदालत। न्यायालय।
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विचार-स्वातंत्र्य  : पुं० [सं०] राज्य शासन आदि की ओर से मिलनेवाली वह स्वतंत्रता जिसमें मनुष्य हर तरह की बातें सोच सकता तथा उन्हें व्यक्त या प्रकाशित भी कर सकता है। (लिबर्टी ऑफ थॉट)।
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विचारधीन  : वि० [सं० विचार+अधीन] १. (बात या विषय) जिस पर अभी विचार हो रहा हो। २. दे० ‘न्यायाधीश’।
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विचाराध्यक्ष  : पुं० [सं० ष० त०]=विचारपति।
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विचारालय  : पुं० [सं० ष० त०] न्यायालय। कचहरी।
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विचारिका  : स्त्री० [सं० विचार+कन्+टाप्, इत्व] १. प्राचीन काल की वह दासी जो घर में लगे हुए फूल पौधों की देख-भाल तथा इसी प्रकार के और काम करती थी। २. अभियोगों आदि का विचार करनेवाली स्त्री। स्त्री-विचारक।
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विचारित  : भू० कृ० [सं० विचार+इतच्] १. जिसके संबंध में विचार कर लिया गया हो। २. निश्चित या निर्णीत किया हुआ।
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विचारी (रिन्)  : पुं० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+णिनि] वह जिस पर चलने के लिए बहुत बड़े-बड़े मार्ग बने हों। (जैसे—पृथ्वी)। वि० १. विचरण करने या घूमने-फिरनेवाला २. विचारक। ३. विचारशील।
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विचार्य  : वि० [सं० वि√चर् (चलना)+णिच्+यत्]=विचारणीय।
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विचालन  : पुं० [सं० तृ० त०] १. इधर-उधर चलाना। २. अलग या दूर करना। हटाना। ३. नष्ट करना। ४. विचलित करना।
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विचिंतन  : पुं० [सं० वि√चिन्ति (सोचना)+ल्युट-अन] अच्छी तरह चिंतन करना। खूब सोचना समझना।
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विंचितनीय  : वि० [सं० वि√चिन्ति+अरीयर्] (बात या विषय) जो चिन्ता करने या सोचने के योग्य हो।
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विचिंता  : स्त्री० [सं० वि√चिन्ति-अच्+टाप्] सोच-विचार। चिंतन।
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विचिंत्य  : वि० [सं० विचिन्त+यत्]=विचिंतनीय।
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विचिकित्सा  : स्त्री० [सं० वि√कित् (रोग दूर करना)+सन्+अ,+टाप्] १. किसी बात या विषय में होनेवाली शंका या सन्देह। २. भूल। ३. संदेह।
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विचित  : भू० कृ० [सं० वि√चि (इकटठा करना)+क्त] अन्वेषित किया या खोजा हुआ।
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विचिति  : स्त्री० [सं० वि√चि+क्तिच्] खोज या ढूँढ़ निकालने की अवस्था या भाव।
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विचित्त  : स्त्री० [सं० विचित्त+इनि] १. मन ठिकाने या शांत न करना। २. अन्यमनस्कता। अनमनापन। ३. मूर्च्छा। बेहोशी।
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विचित्र  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विचित्रता] १. जिसमें कई प्रकार के रंग हो। कई तरह के रंगों या वर्णोंवाला। रंग-बिरंगा। २. जिसमें मन को कुछ चकित करनेवाली असाधारणता या विलक्षणता हो। अजीब। जैसे—आज एक विचित्र बात मेरे देखने में आई। २. जिसमें कोई ऐसी नई बात या विशेषता हो जो साधारणतः सब जगह न पाई जाती हो और जो अनोखा जान पड़ता हो। साधारण से भिन्न। नया और विलक्षण। ३. मन में कुतहल उत्पन्न करने चकित या विस्मित करनेवाला। जैसे—वह भी विचित्र स्वभाववाला आदमी है। ४. खूबसूरत। सुन्दर। पुं० १. पुराणानुसार रौच्यमनु के एक पुत्र का नाम। २. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जो उस समय होता है जब किसी फल की सिद्धि के लिए किसी प्रकार का उल्टा प्रयत्न करने का उल्लेख किया जाता है।
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विचित्रक  : पुं० [सं० ब० स०+कन्] भोजपत्र का वृक्ष। वि० विचित्र।
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विचित्रता  : स्त्री० [सं० विचित्र+तल्+टाप्] १. विचित्र होने की अवस्था या भाव। १. वह विशेषता जिसके फलस्वरूप कोई चीज विचित्र प्रतीत होती हो।
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विचित्र-विभ्रमा  : स्त्री० [सं०] केशव के अनुसार वह प्रौढ़ा नायिका जो अपने सौन्दर्य मात्र से नायक को आकृष्ट या मोहित करती हो (देव ने इसी को सविभ्रमा कहा है)।
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विचित्रवीर्य  : स्त्री० [सं० ष० त०] चन्द्रवंसी शांतनु के एक पुत्र का नाम (महाभारत)।
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विचित्रशाला  : स्त्री० [ष० त०] अजायबघर। अजायबखाना।
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विचित्रांग  : पुं० [सं० ब० स०] १. मोर। २. बाघ।
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विचित्रा  : स्त्री० [सं० विचित्र+अच्+टाप्] संगीत में एक रागिनी जिसे कुछ लोग भैरव राग की पाँच स्त्रियों में और कुछ लोग त्रिवण, बरारी, गौरी और जयंती के मेल से बनी हुई संकर जाति की मानते हैं।
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विचित्रित  : भू० कृ० [सं० विचित्र+इतच्] १. अनेक रंगों से नंगा या अंकित किया हुआ। २. सजाया हुआ।
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विची  : स्त्री० [सं० विचित्र+ङीष्] वीचि। (लहर)।
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विचेतन  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें चेतना शक्ति न हो। अचेत। २. संज्ञाहीन। बेहोश। ३. जिसे भले-बुरे का ज्ञान न हो। विवेक-हीन। पुं० १. चेतना से रहित करने की क्रिया या भाव। २. प्राणियों की वह अवस्था जिसमें शरीर या उसका कोई अंग चेतना रहित या संज्ञा शून्य हो जाता है। संज्ञा-शून्य। निश्चेतन। संवेदनहरण। (ऐनेस्थीशिया)।
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विचेतनक  : वि० [सं०] शरीर या उसका कोई अंग चेतना से रहित या संज्ञाशून्य करनेवाला नाशक (एनीस्थेटिक)।
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विचेतनीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विचेतनीकृ] दे० ‘निश्चेतनीकरण’।
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विचेता (तस्)  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका चित्त ठिकाने न हो। घबराया हुआ। २. जो कुछ जानता न हो। ३. दुष्ट। पाजी। ४. बेवकूफ। मूर्ख।
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विचेष्ट  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० विचेष्टता] १. जो सचेष्ट न हो। २. अक्रिय। २. गतिहीन। अचल।
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विच्छर्दन  : पुं० [सं० वि√चेष्ट् (इच्छा करना)+ल्युट-अन, कर्म० स०] [भू० कृ० विचेष्टिता] पीड़ा आदि होने पर मुँह या शरीर के अंगों से बुरी चेष्टा करना। इधर-उधर लोटना और तड़पना।
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विचेष्टा  : स्त्री० [सं० वि√चेष्ट+अङ्+टाप्] १. बुरी या खराब चेष्टा करना। भौहेँ सिकोड़ना, मुँह बनाना या हाथ-पैर पटकना। २. क्रिया।
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विच्छर्दन  : पुं० [सं० वि√छर्द (कै करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विच्छर्दित] १. कै या वमन करना। २. बलपूर्वक बाहर निकालना। फेंकना। ३. त्याग करना। छोड़ना। ४. तिरस्कार करना।
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विच्छर्दिका  : स्त्री० [सं० विछर्द+क+टाप्, इत्व] वमन। कै
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विच्छाय  : पुं० [सं० ष० त०] १. पक्षियों की छाया। २. मणि। रत्न। वि० १. जिसकी छाया न पड़ती हो। २. कांतिहीन।
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विच्छित्ति  : स्त्री० [सं० वि√छिद् (काटना)+क्तिन्] १. काटकर अलग या टुकड़े करना। २. विच्छेद। ३. कमी। त्रुटि। ४. गले में पहनने का एक प्रकार का हार। ५. कविता में होनेवाली यति। विराम। ६. वेषभूषा आदि के सम्बन्ध में की जानेवाली लापरवाही। ७. ऐसी लापरवाही के कारण वेशभूषा में दिखाई देनेवाला बेढंगापन। ८. रंगों आदि से शरीर चिन्हित करने की क्रिया या भाव। ९. साहित्य में एक प्रकार का हाव जिसमें स्त्री थोड़े श्रृंगार से ही पुरुष को मोहित करने की चेष्टा करती है।
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विच्छिन्न  : भू० कृ० [सं० वि√छिद्+क्त] १. जिसका विच्छेद हुआ हो। २. जो काट या छेदकर अलग कर दिया गया हो। ३. जिसका अपने मूल अंग के साथ कोई सम्बन्ध न रह गया हो। ४. अलग। जुदा। पृथक्। ५. जिसका अन्त हो चुका या कर दिया गया हो। ६. कुटिल।
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विच्छेद  : पुं० [सं०वि√छिद्+घञ्] १. काट या छेदकर अलग करने की क्रिया। २. किसी प्रकार बीच से टूटना। विश्रृंखलता। ३. किसी पूरे में से उसका कोई अंग या अंश किसी प्रकार अलग होना। ४. अलगाव। पार्थक्य। ५. नाश। बरबादी। ६. वियोग। विरह। ७. पुस्तक का अध्याय या प्रकरण। परिच्छेद। ८. बीच में पड़नेवाला खाली स्थान। अवकाश। ९. कविता की यति या विराम।
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विच्छेदक  : वि० [सं० वि√छिद् (काटना)+ण्वुल-अक] विच्छेद करनेवाला।
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विच्छेदन  : पुं० [सं० वि√छिद्+ल्युट-अन] [वि० विच्छेदनीय] विच्छेद करने की क्रिया या भाव। दे० व्यवच्छेदन (शव का)।
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विच्छेदी  : वि० [सं० वि√छिद्+णिनि]=विच्छेदक।
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विच्छेद्य  : वि० [सं० विच्छेद+यत्] जिसका विच्छेद किया जा सकता हो अथवा किया जाने को हो।
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विच्युत  : भू० कृ० [सं० वि√च्यु (मिलना आदि)+क्त] [भाव० विच्युति] १. जो कटकर अथवा और किसी प्रकार इधर-उधर गिर पड़ा हो। २. जो अपने स्थान से गिर या हट गया हो। च्युत। भ्रष्ट। ३. (अंग) जो जीवित शरीर से काटकर अलग किया या निकाला गया हो। (सुश्रुत) ४. नष्ट।
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विच्युति  : स्त्री० [सं० वि√च्यु (हटना)+क्तिन्] १. विच्युत होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. गर्भ-पात। ३. नाश।
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विछलना  : अ० १.=विलछना। (फिसलना)। २.=विचलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विछेद  : वि०=विच्छेद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विछोई  : वि० [हिं० विछोह+ई (प्रत्यय)] १. जिसका प्रिय व्यक्ति उससे बिछुड़ चुका हो। २. बिछोह से दुःखी। विरही।
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विछोह  : पुं० [सं० विच्छेद] १. ऐसी अवस्था जिसमें प्रिय के विदेश चले जाने पर उससे संयोग न होता हो। २. संयोग न होने के फलस्वरूप होनेवाला दुःख। विरह।
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विछोही  : वि०=विछोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजंघ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी जाँघे, कट गई हो, या न हो। २. (गाड़ी या सवारी) जिसमें धुरी पहिए आदि न हो।
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विजई  : वि०=विजयी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजट  : वि० [सं० ब० स०] १. जटा से रहित। २. (सिर के बाल) जो यों ही खुले हों, जूड़े आदि के रूप में बँधे न हों।
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विजड  : वि० [सं०] जो पूरी तरह से जड़ हो चुका हो। जिसमें चेतनता का कुछ भी अंश न हो।
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विजडीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विजडीकृत] विजड़ करने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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विजन  : वि० [ब० स०] १. जनहीन। २. एकांत। पुं०=व्यजन। (पंखा)।
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विजनन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विजनित] १. संतान को जन्म देना। जनन। प्रसव। २. प्रयोग-शालाओं आदि में वैज्ञानिक प्रक्रियाओं की सहायता से स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना संतान उत्पन्न करना।
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विजना  : पुं० [सं० विजन] [स्त्री० अल्पा० विजनी] पंखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. किसी स्त्री का उसके उपपति या जार से उत्पन्न पुत्र। जारज सन्तान। २. एक प्राचीन वर्ण-संकर जाति। ३. वह जो जाति से च्युत कर दिया गया हो।
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विजन्या  : वि० [सं० विजन+यत्-टाप्] गर्भवती (स्त्री)।
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विजयंत  : पुं० [सं० वि√जि (जीतना)+झ-अन्त] इंद्र का एक नाम।
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विजयंती  : स्त्री० [सं० वि√जि+शतृ+ङीष्] १. एक अप्सरा का नाम। २. ब्राह्मी।
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विजय  : स्त्री० [सं० वि०√जि+अच्] १. शत्रु को परास्त करने पर होनेवाली जीत। २. प्रतियोगी या प्रतिस्पर्धा को हराकर सिद्ध की जानेवाली श्रेष्ठता। ३. वह अवस्था जिसमें सब विघ्न-बाधाएँ दूर कर दी गई हों। ४. एक प्रकार का छन्द जो केशव के अनुसार सवैया का मत्तगयंद नामद भेद है। ५. भोजन की क्रिया के लिए आदर सूचक पद (पूरब) जैसे—अब आप विजय के लिए उठें अर्थात् भोजन करने चलें।
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विजयक  : पुं० [सं० विजय+कन्] वह जो सदा विजय प्राप्त करता रहता हो। सदा जीतता रहनेवाला।
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विजयकच्छंद  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कल्पित हार जो दो हाथ लंबा और ५॰४ लड़ियों का माना जाता है। कहते हैं ऐसा हार केवल देवता लोग पहनते हैं। २. ऐसा हार जिसमें ५॰॰ मोती या नग हों।
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विजय-कुंजर  : पुं० [सं० च० त०] १. राजा की सवारी का हाथी। २. लड़ाई में काम आनेवाला हाथी।
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विजय-केतु  : पुं० [सं० ष० त०]=विजय-पताका।
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विजय-डिंडिम  : पुं० [सं० च० त०] प्राचीन काल में युद्ध-क्षेत्र में बजाया जानेवाला एक प्रकार का बड़ा ढोल।
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विजय-दंड  : पुं० [सं० ब० स०] सैनिकों का वह विभाग जो सदा विजयी रहता हो।
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विजयदशमी  : स्त्री०=विजयादशमी।
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विजय-दीपिका  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-नागरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-पताका  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सेना की वह पताका जो जीत के साथ फहराई जाती है। २. विजय का सूचक कोई चिन्ह।
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विजय-पर्पटी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो पारे, रेंड़ की जड़ अदरक आदि के योग से बनता और संग्रहणी रोग में दिया जाता है।
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विजय-पूर्णिमा  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] आश्विन की पूर्णिमा।
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विजय-भैरव  : पुं० [सं० च० त०] वैद्यक में एक प्रकार का रस।
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विजय-मर्द्दल  : पुं० [सं० च० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल। ढक्का।
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विजय-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह यात्रा जो किसी पर किसी प्रकार की विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाय।
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विजय-रत्नाकारी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-लक्ष्मी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] विजय की अधिष्ठाती देवी, जिसकी कृपा पर विजय निर्भर मानी जाती है।
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विजय-वसंत  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजयशील  : वि० [सं० ब० स०] जो विजय प्राप्त करता हो। सदा जीतता रहनेवाला।
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विजय-श्री  : स्त्री० [सं०] १. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। २. विजय-लक्ष्मी।
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विजय-सरस्वती  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजय-सामंत  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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विजय-सारंग  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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विजयसार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती है। विजैसार।
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विजया  : स्त्री० [सं० विजय+टाप्] १. दुर्गा। २. पुराणानुसार पार्वती की एक सखी जो गौतम की कन्या थी। ३. यम की भार्या। ४. एक योगिनी। ५. दक्ष की कन्या। ६. इन्द्र की पताका पर अंकित एक कुमारी। ७. श्रीकृष्ण के पहनने की माला। ८. काश्मीर का एक प्राचीन विभाग। ९. विजयादशमी। १॰. पुरानी चाल का एक प्रकार का बड़ा खेमा या तंबू। ११. वर्तमान अवसर्पिणी के दूसरे अर्हत की माता का नाम। 1२. एक सम-मात्रिक छंद (क) जिसके प्रत्येक चरण में १॰-१॰ की यति पर ४॰ मात्राएँ होती हैं और अन्त में रगण होता है। (ख) जिसके प्रत्येक चरण में १२, १२, १॰,१॰ की यति से ४४ मात्राएँ होती है। १३. एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं। इसके अन्त में लघु और गुरु अथवा नगण भी होता है। १४. भंग। भाँग। १५. हर्रे। १६. वच। १७. जयंती। १८. मंजीठ। १९. अग्नि-मंथ। २॰.एक प्रकार का शमी वृक्ष।
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विजया-एकादशी  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] १. क्वार सुदी एकादशी २. फागुन वदी एकादशी।
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विजया-दशमी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] आश्विन मास के शुक्लपक्ष की दशमी जो हिन्दुओं का बहुत बड़ा त्यौहार मानी जाती है। विशेष—इसी तिथि को राम ने रावण को मारा था।
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विजयानंद  : पुं० [सं०] संगीत में ताल के आठ मुख्य भेदों में से एक।
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विजयाभरणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजयासप्तमी  : स्त्री० [सं०] रविवार के दिन पड़नेवाली किसी मास की शुक्लपक्ष की सप्तमी।
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विजयास्त्र  : पुं० [सं० विजय+अस्त्र] वह अस्त्र, क्रिया या साधन जिससे विजय प्राप्त करना निश्चित हो (ट्रम्पकार्ड)।
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विजयी  : वि० [सं० विजि+इनि] १. वह जिसने विजय प्राप्त की हो। जीतनेवाला। २. (वह व्यक्ति या पक्ष) जिसकी प्रतियोगिता युद्ध विवाद आदि में जीत हुई हो। पुं० अर्जुन।
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विजयोत्सव  : पुं० [सं० स० त०] १. विजय दशमी के दिन होनेवाला उत्सव। २. युद्ध में विजय प्राप्त करने पर होनेवाला उत्सव।
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विजर  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे जरा या बुढ़ापा न आता हो। जराहीन। २. नया। नवीन।
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विजल  : वि० [सं० ब० स०] जल से रहित। जलहीन। निर्जल। पुं० अनावृष्टि। सूखा।
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विजलीकरण  : पुं० [सं०] निर्जलीकरण।
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विजल्प  : पुं० [सं० तृ० त०] १. व्यर्थ की बहुत सी बकवाद। २. किसी को बदनाम करने के लिए कही जानेवाली झूठी बात।
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विजल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विजल्पित] १. विजल्प करने की क्रिया या भाव। २. कहना। बोलना। ३. अस्पष्ट रूप से कोई बात पूछना। ४. बे-सिर पैर की या व्यर्थ की बातें कहना।
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विजात  : वि० [सं० कर्म० स०] [स्त्री० विजाता] १. जन्मा हुआ। २. विभिन्न जातियों के माता पिता से उत्पन्न। वर्णसंकर। दोगला। पुं० सखी छन्द का एक भेद जिसमें प्रत्येक चरण में ५-५-४ के विश्राम से १४ मात्राएँ और अन्त में मगण या यगण होता है। इसकी पहली और आठवीं मात्राएँ लघु रहती है।
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विजाता  : स्त्री० [सं०] ऐसी स्त्री जिसने बच्चे या बच्चों को जन्म दिया हो। वि० ‘विजात’ की स्त्री०।
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विजाति  : वि० [सं० ब० स०] विजातीय। (दे०)। स्त्री० दूसरी या भिन्न जाति।
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विजातीय  : वि० [सं० विजाति+छ—ईय] [भाव० विजातीयता] किसी की दृष्टि में, उसकी जाति से भिन्न जाति का। पराई जाति का (हेड्रोजीनियस)।
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विजानक  : वि० [सं० वि√ज्ञा (जानना)+ल्यु,-अन+कनज्ञा-जा] जाननेवाला।
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विजानता  : स्त्री० [सं० विजान+तल्+टाप्] १. जानकारी। २. चातुर्य।
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विजानना  : स० [सं० विजानता] विशेष रूप से जानना।
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विजानु  : पुं० [सं०] १. युद्ध में लड़ने का विशेष कौशल। २. तलवार चलाने का एक ढंग।
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विजार  : पुं० [देश] एक तरह की भूमि जिसमें धान, चना आदि बोया जाता है।
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विजारत  : स्त्री० [अ० विजारत] १. वजीर अर्थात् मन्त्री का कार्य या पद। २. मंत्रियों का समूह मंत्रिमंडल। ३. वजीर या मन्त्री का कार्यालय।
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विजिगीषा  : स्त्री० [सं० विजिगीष+टाप्] विजय पाने की इच्छा।
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विजिगीषु  : वि० [सं० वि√जि+सन्+उ] जिसे विजय पाने की इच्छा हो।
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विजिगीषुता  : स्त्री० [सं०] विजिगीषा।
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विजिट  : स्त्री० [अं०] १. भेंट। मुलाकात। २. डाक्टरों आदि का रोगी को देखने के लिए उसके घर जाना। २. उक्त काम के लिए डाक्टर को मिलनेवाली फीस।
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विजित  : भू० कृ० [सं० वि√जि (जीतना)+क्त] जिस पर विजय पाई गई हो। जिसे जीता गया हो। पुं० फलित ज्योतिष में पराजय का सूचक ग्रह।
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विजितात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] शिव।
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विजितारि  : पुं० [सं० ब० स०] वह जिसने शत्रुओं को जीत लिया हो।
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विजिति  : स्त्री० [सं० वि√जि+क्तिन्] १. विजय। जीत। २. प्राप्ति।
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विजितेय  : वि० [सं० विजित+ठक्, ढ=एय] जिस पर नियंत्रण या विजय प्राप्त की जा सके या की जाने को हो।
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विजित्व  : पुं० [सं०] १. ऐसा भोजन जिसमें अधिक रस न हो। २. एक प्रकार की लपसी।
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विजित्वर  : वि० [सं० वि√जि+क्विप्, तुक्] विजयी। विजेता।
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विजित्वरा  : स्त्री० [सं० विजित्वर+टाप्] एक देवी का नाम।
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विजीष  : वि० [सं०] विजिगीषु (दे०)।
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विजुली  : स्त्री० [सं० विजुल+ङीष्] पुराणानुसार एक देवी का नाम। स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजुंभण  : पुं० [सं०] १. खिलना। २. खुलना। ३. तनना या फैलना। ४. विकसित या विस्तृत होना। ५. जँभाई लेना।
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विजृंभा  : स्त्री० [सं० विजृम्भ+टाप्] उबासी। जंभाई।
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विजृंभिणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विजेतव्य  : वि० [सं० वि√जि+ताव्यत्]=विजेय।
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विजेता (तृ)  : वि० [सं० वि√जि+तृच्] जीतनेवाला। विजयी।
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विजेय  : वि० [सं० वि√जि+य़त्] जो जीता जा सके या जीते जाने के योग्य हो।
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विजै  : स्त्री०=विजय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजैसार  : पुं० [सं० विजयसार] साल की तरह का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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विजोग  : पुं०=वियोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजोगी  : वि०=वियोगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विजोर  : वि० [हिं० वि+डोर=बल] जिसमें जोर न हो। बलहीन। निर्बल। पुं०=बिजौरा नींबू।
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विजोहा  : पुं० [सं० विमोहा] एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो रगण होते हैं इसे जोहा विमोहा और विजोरा भी कहते हैं।
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विज्जल  : वि० [सं० वि√जड् (स्थित रहना)+अच्,ड-ल, जुट्] (स्थान) जहाँ फिसलन हो। पुं० १. शाल्मलीकद। २. एक तरह की चावल की लपसी। ३. एक तरह की तीर या बाण।
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विज्जव  : पुं० [सं०] एक प्रकार का बाण।
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विज्जावइ  : पुं० [सं० विद्यापति]=विद्यापति। उदाहरण—विज्जावई कविवर एहु गावए।—विद्यापति।
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विज्जु  : स्त्री०=बिजली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विज्जुल  : पुं० [सं० विज+उलच्, जुट्] १. त्वचा। छिलका। २. दारचीनी।
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विज्जुलता  : स्त्री० [सं० विद्युलता] विद्युत्। बिजली।
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विज्जोहा  : पुं०=विजोहा (छन्द)।
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विज्ञ  : वि० [सं० वि√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० विज्ञता] (व्यक्ति) जिसकी जानकारी बहुत अधिक हो। २. विशेषतः विषय का बहुत बड़ा जानकार। ३. समझदार और पढा लिखा। व्यक्ति।
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विज्ञता  : स्त्री० [सं० विज्ञ+तल्+टाप्] विज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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विज्ञत्व  : पुं० [सं० विज्ञ+त्व]=विज्ञता।
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विज्ञप्त  : भू० कृ० [सं० वि√ज्ञप्तृ (जानना)+क्त] १. जिसकी जानकारी दूसरों को करा दी गई हो। २. विज्ञप्ति के रूप में निकाला या प्रकाशित किया हुआ।
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विज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० वि√ज्ञप्तृ+क्तिन्] १. जतलाने या सूचित करने की क्रिया। २. इश्तहार। विज्ञापन। ३. आज-कल किसी अधिकारी या उसके कार्यालय की ओर से निकलने वाली ऐसी सूचना जिसमें किसी बात या विषय का स्पष्टीकरण हो (कम्यूनीक)। ४. दे० ‘बुलेटिन’।
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विज्ञात  : वि० [सं० वि√ज्ञा+क्त] १. जाना या समझा हुआ। २. प्रसिद्ध। मशहूर।
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विज्ञातव्य  : वि० [सं० वि√ज्ञा+तव्य] जानने या समझने के योग्य। (बात या विषय)।
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विज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० वि√ज्ञा+तृच्] विज्ञ।
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विज्ञाति  : स्त्री० [सं० वि√ज्ञा+क्तिन्] १. ज्ञान। समझ। २. जानकारी। ३. गम नामक देवयोनि। ४. पुराणानुसार एक कल्प का नाम।
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विज्ञान  : पुं० [सं० वि√ज्ञा+ल्युट-अन] १. ज्ञान। जानकारी। २. बुद्धि विशेषतः निश्चयात्मिका बुद्धि। ३. अच्छी तरह काम करने की योग्यता। दक्षता। ४. सांसारिक कार्यो, बातों और व्यवहारों का अच्छा अनुभव तथा ठीक और पूरा ज्ञान। ५. आविष्कृत सत्यों तथा प्राकृतिक नियमों पर आधारित क्रमबद्ध तथा व्यवस्थित ज्ञान। ६. विशेषतः भौतिक जगत् से संबंधित उक्त प्रकार का ज्ञान। ७. दार्शनिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अविद्या या माया नाम की वृत्ति। ८. बौद्धों के अनुसार आत्मा के स्वरूप का ज्ञान। आत्मा का अनुभव। ९. आत्मा। १॰. ब्रह्म। ११. मोक्ष। १२. आकाश। १३. कर्म।
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विज्ञान-कोश  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. वेदान्त के अनुसार ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि। २. विज्ञान-मय कोश जो आत्मा को परिवृत्त करने वाला पहला आवरण या कोश कहा गया है।
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विज्ञानता  : स्त्री० [सं० विज्ञान+तल्+टाप्] विज्ञान का धर्म या भाव।
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विज्ञान-पाद  : पुं० [सं०] वेदव्यास।
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विज्ञानमय कोष  : पुं० [सं०] =विज्ञान-कोश।
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विज्ञानवाद  : पुं० [सं०] [वि० विज्ञानवादी] बौद्ध महायान का एक दार्शनिक सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि संसार के समस्त पदार्थ असत्य होने पर भी विज्ञान या चित् की दृष्टि से सत्य ही है।
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विज्ञानवादी  : वि० [सं०] विज्ञानवाद संबंधी। पुं० विज्ञानवाद का अनुयायी।
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विज्ञानिक  : वि० [सं० विज्ञान+ठन्-इक] १. जिसे ज्ञान हो। २. विज्ञ। ३. दे० ‘वैज्ञानिक’।
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विज्ञानिता  : स्त्री० [सं० विज्ञानि+तल्+टाप्] विज्ञानी का धर्म या भाव।
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विज्ञानी (निन्)  : पुं० [सं० विज्ञान+इनि] १. ज्ञानी। २. वैज्ञानिक।
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विज्ञानीय  : वि० [सं० वि√ज्ञा+अनीयर्] विज्ञान-संबंधी। वैज्ञानिक।
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विज्ञापक  : वि० [सं०] दूसरों की जानकारी करनेवाला। पुं० समाचार पत्रों आदि में विज्ञापन छपानेवाला। विज्ञापन-दाता।
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विज्ञापन  : पुं० [सं० वि√ज्ञा+णिच्+युक्-अन] १. सब लोगों को कोई बात जतलाने या बतलाने की क्रिया या भाव। जानकारी कराना। सूचित करना। २. पत्रों आदि में लोगों की जानकारी के लिए विशेष रूप से छपवाई जानेवाली बात या सूचना। ३. उक्त उद्देश्य से बाँटा जानेवाला सूचना-पत्र। ४. प्रचार तथा बिक्री के उद्देश्य से किसी वस्तु के संबंध में सामयिक पत्रों में प्रकाशित कराई जानेवाली सूचना।
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विज्ञापना  : स्त्री० [सं० विज्ञापन+टाप्] विज्ञप्त करना। जतलाना। बतलाना।
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विज्ञापनीय  : वि० [सं० वि√ज्ञप् (जानना)+णिच्+अनीयर] (बात या विषय) जो दूसरों को सार्वजनिक रूप में बताये जाने के योग्य हो।
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विज्ञापित  : भू० कृ० [सं० वि√ज्ञप्+णिच्+क्त] १. जो बतलाया जा चुका हो। जिसकी सूचना दी जा चुकी हो। २. जिसके विषय में विज्ञापन प्रकाशित हो चुका हो। ३. जिसकी सूचना दी गई हो (नोटिफ़ायड)।
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विज्ञापित-क्षेत्र  : पुं० [सं०] स्थानिक स्वशासन और प्रबंध के लिए नियत किया हुआ छोटा क्षेत्र। (नोटिफ़ायड एरिया)।
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विज्ञापी  : वि० [सं० विज्ञापित्]=विज्ञापक।
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विज्ञाप्ति  : स्त्री० [सं० वि√ज्ञा (जानना)+णिच्, पुक्,+क्तिन्]=विज्ञप्ति।
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विज्ञाप्य  : वि० [सं० वि√ज्ञप्+ण्यत्]=विज्ञापनीय।
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विज्ञेय  : वि० [सं० वि√ज्ञा+यत्] (बात या विषय) जो जानने या समझने के योग्य हो।
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विज्वर  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका ज्वर उतर गया हो। जिसका बुखार छूट गया हो। २. सब प्रकार के क्लेशों, चिन्ताओं आदि से मुक्त।
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विट्  : पुं० [सं०√विट्+क्विप्] १. साँचर नमक। २. मल विष्ठा।
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विटंक  : वि० [सं०] ऊँचा। पुं० १. बैठने का ऊँचा स्थान। २. वह छतरी जिस पर पक्षी बैठते हैं।
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विट  : पुं० [सं०] १. वह जिसमें काम-वासना बहुत अधिक हो। कामुक। २. पुंश्चली स्त्रियाँ और वेश्याओं से संबंध रखने और प्रायः उन्हीं के साथ रहनेवाला व्यक्ति। लंपट। ३. बहुत बड़ा चालाक या धूर्त आदमी। ४. साहित्य में एक प्रकार का नायक जो प्रायः ऐसा व्यक्ति होता है जो बात-चीत में बहुत चतुर बहुत बड़ा धूर्त तथा लंपट हो और अपनी सारी सम्पत्ति भोग-विलास में नष्ट करके किसी विलासी राजा,राजकुमार या धनवान् के साथ बहुत-कुछ विदूषक के रूप में रहने लगा हो और उसके भोग-विलास में सहायक होकर और उसका मनोरंजन करके अपना निर्वाह भी करता हो और प्रायः वेश्याओं के साथ रहकर थोड़ा बहुत भोग-विलास भी करता है। भाण। (देखें) नामक प्रहसन या रूपक का यही नायक होता है। ५. बहुत बड़ा बदमाश या लुच्चा। ६. एक प्राचीन पर्वत। ७. दुर्गध खैर। ८. नारंगी का पेड़। ९. साँचर नमक। १॰. चूहा। ११. गुह। मल। विष्ठा।
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विटक  : पुं० [सं० विट+कन्] १. नर्मदा के किनारे का एक प्राचीन प्रदेश। २. उक्त प्रदेश में रहनेवाली एक जाति। ३. घोड़ा।
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विटकृमि  : पुं० [सं० ष० त०] चुन्ना या चुनचुना नाम का कीड़ा जो बच्चों की गुदा में उत्पन्न होता है।
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विटप  : पुं० [सं०] १. वृक्ष या लता की नई शाखा। कोंपल। २. छतनार पेड़। झाड़। ३. पेड़। वृक्ष। ४. लता।
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विटपी (पिन्)  : वि० [सं० विटप+इनि] (वनस्पति) जिसमें नई शाखाएँ या कोपलें निकली हों। पुं० १. पेड़। वृक्ष। २. अंजीर का पेड़। ३. वटवृक्ष। बड़ का पेड़।
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विटपी मृग  : पुं० [सं० ष० त०] शाखामृग (बंदर)।
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विटम्राक्षिक  : पुं० [सं० मध्यम० स०] सोना-मक्खी।
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विट-लवण  : पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का नमक।
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विटामिन  : पुं० [अं० विटैमिन] प्रायः सभी अनाजों, तरकारियों और फलों में बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में पाया जानेवाला एक एक नव-आविष्कृत तत्त्व जो शरीर के अंगों के पोषण, स्वास्थ्य-रक्षण आदि के लिए आवश्यक और उपयोगी माना गया है और जिसके बहुत से भेद तथा उपभेद देखे गये है (विटैमिन)।
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विट् खदिर  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का खदिर जो बदबूदार होता है।
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विट्घात  : पुं० [सं० ष० त०] मूत्राघात नामक रोग।
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विट्ठल  : पुं० [?] विष्णु के अवतार एक देवता जिसकी मूर्ति पंढरपुर (महाराष्ट्र) में प्रतिष्ठित है।
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विट्शूल  : पुं० [सं०] एक प्रकार का शूल रोग।
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विठर  : वि० [सं०] वाग्मी। पुं० बृहस्पति।
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विठल  : पुं०=विट्ठल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विठोबा  : पुं०=विट्ठल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विडंग  : पुं० [सं०√विड्+अङच्] बाय बिडंग। पुं० [?] घोड़ा।
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विडंबक  : वि० [सं० वि√डम्ब (विडम्बना करना)+णिच्+ण्वुल-अक] १. ठीक अनुकरण करने-वाला। पूरी नकल करनेवाला। २. केवल अपमानित करने या चिढ़ाने के लिए किसी तरह की नकल उतारनेवाला। ३. हँसी उड़ाने के लिए निंदा करनेवाला।
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विडंबन  : पुं० [सं०] १. किसी को चिढ़ाने, अपमानित करने आदि के उद्देश्य से उसकी नकल उतारना या हँसी उड़ाना। २. विडंबना।
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विडंबना  : स्त्री० [सं० विडंबन+टाप्] [वि० विडंबनीय, भू० कृ० विडंबित] १. किसी को चिढ़ाने के लिए उसकी उतारी जानेवाली नकल। २. वह हँसी-मजाक जो किसी को चिढ़ाने या अपमानित करने के लिए किया जाय। ३. दम्भ।
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विडंबनीय  : वि० [सं० वि√डम्ब+अनीयर्] जिसकी विडंबना हो सके या होना उचित हो।
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विडंबित  : भू० कृ० [सं०] जिसकी विडंबना की गई हो या हुई हो।
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विडंबी (बिन्)  : वि० [सं० विडम्ब+इनि] १. दूसरों की नकल उतारनेवाला। २. चिढ़ाने या अपमानित करने के उद्देश्य से दूसरों का हँसी-मजाक उड़ानेवाला।
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विड  : पुं० [सं०] विट-लवण। बिरिया नोन।
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विडरना  : अ० [सं० तलव, हिं० डालना या सं० वितरण] १. इधर-उधर होना। तितर-बितर होना। २. भागना।
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विडराना  : स०=विडारना।
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विडलवण  : पुं० [सं० उपमि० स०] साँचर नमक।
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विडारक  : पुं० [सं० विंड+आरकन्, विडाल+कन्, ल-र] बिड़ाल। बिल्ली।
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विडारना  : स० [हिं० विडरना का स० रूप] १. तितर-बितर करना। इधर-उधर करना। छितराना। २. नष्ट करना।
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विडाल  : पुं० [सं०√विड् (निंदा करना)+कालन्] १. आँख का पिंड। २. आँख में लगाई जाने-वाली दवा या उस पर किया जानेवाला लेप। ३. बिल्ली। ४. गन्ध बिलाव। ५. हरताल।
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विडालाक्षी  : स्त्री० [सं०] बिल्ली कीसी आँखोवाली स्त्री।
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विडाली  : पुं० [सं० विडाल+ङीष्] १. विदारी कंद। २. बिल्ली।
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विडीन  : पुं० [सं० वि√डी (उड़ना)+क्त] पक्षियों की एक विशेष प्रकार की उड़ान।
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विडौजा (जस्)  : पुं० [सं०]=इंद्र।
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विडग्रह  : पुं० [सं०] कोष्ठबद्धता। मलावरोध।
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विड्घात  : पुं० [सं०] मलमूत्र का अवरोध। पेशाब और पाखाना रुकना।
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विड्ज  : वि० [सं०] विष्ठों में से उत्पन्न होनवाला (कीड़ा)।
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विड्भंग  : पुं० [सं०] दस्त आने का रोग।
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विड्भेद  : पुं० [सं० ष० त०]=विड्भंग।
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विड्भेदी (दिन्)  : वि० [सं०] जिसके खाने से दस्त आते हों। विरेचक।
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विड्लवण  : पुं० [सं०] विट्लवण। साँचर नमक।
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विड्वराह  : पुं० [सं० मध्यम० स०] गाँवों में रहनेवाला सुअर।
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वितंड  : पुं० [सं० वि√तंड् (ताड़न करना)+अच्] १. हाथी। २. एक तरह का पुरानी चाल का ताला।
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वितंडा  : स्त्री० [सं० वितंड+टाप्] १. ऐसी आपत्ति, आलोचना विरोध जो छिद्रान्वेषण के विचार से किया गया हो। २. दूसरे के पक्ष को दबाते हुए अपने मत की स्थापना करना। ३. व्यर्थ की कहा-सुनी झगड़ा। ४. दूब। ५. कबूतर। ६. शिला। रस।
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वितंत्र  : पुं० [सं० वि+तंत्र] ऐसा बाजा जिसमें तार न लगे हों। बिना तार का बाजा।
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वितंत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] ऐसी वीणा जिसके तारों का स्वर ठीक मिला न हो।
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वितंस  : पुं० [सं० वि√तंस् (भूषित करना)+अच्] १. पक्षी रखने का पिंजरा। २. बस, रस्सी, जंजीर आदि जिससे पशु या पक्षी को बाँधा जाय।
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वित  : वि० [सं० विद्] १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. चतुर। होशियार। पुं०=वित्त (अर्थ)।
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वितताना  : अ० [सं० व्यथा] व्याकुल या बेचैन होना।
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वितति  : स्त्री० [सं० वि√तन्+क्तिन्] वितत होने की अवस्था या भाव। विस्तार।
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विततोरसि  : वि० [सं० वितत (फैला हुआ)+उरसि] १. चौड़ी या विस्तृत छातीवाला (वीरों का लक्षण) २. उदार हृदय।
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वितथ  : वि० [सं०√तन+क्थन्] [भाव० वितयता] १. झूठा। मिथ्या। वि २.निरर्थक। व्यर्थ। पु० १. गृह-देवताओं का एक वर्ग। २. भरद्वाज ऋषि।
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वितथ्य  : वि० [सं०] १. तथ्य-रहित। २. वितथ (दे०)
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वितद्रु  : पुं० [सं० वि√तन्+रु, दुट्-आगम] पंजाब की झेलम नदी का प्रचीन नाम।
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वितनु  : [सं० वि√तन्+उ] १. तनहीन। देहहीन। विदेह। २. कोमल, सूक्ष्म, तथा सुंदर। पुं० कामदेव।
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वितपन्न  : वि०=व्युत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितमस  : वि०=वितमस्क।
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वितमस्क  : वि० [सं०] १. जिसमें तम या अंधकार न हो। २. तमोगुण से रहित।
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वितरक  : वि० [सं० वितर+कन्] वितरण करनेवाला। बाँटनेवाला। पुं० व्यावसायिक क्षेत्र में वह व्यक्ति या संस्था जो किसी उत्पादक संस्था की वस्तुओं की बिक्री आदि का प्रबंध करती हो। (डिस्ट्रीब्यूटर)।
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वितरक-नदी  : स्त्री० [सं०] आधुनिक भूगोल में, किसी नदी के मुहाने पर बननेवाली उसकी शाखाओं में से प्रत्येक शाखा जो स्वतंत्र रूप से जाकर समुद्र में गिरती है (डिस्ट्रीब्यूटरी)।
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वितरण  : पुं० [सं० वि√तृ (पार करना)+ल्युट-अन] १. दान करना। देना। २. अर्पण करना। ३. बाँटना। ४. अर्थशास्त्र में उत्पत्ति के फलस्वरूप होनेवाली प्राप्ति का उत्पत्ति के साधनों में बाँटना। ५. व्यापारिक क्षेत्र में विक्रय तथा प्रदर्शन के उद्देश्य से दुकानदारों तथा व्यापारियों को निर्मित वस्तुएँ देना।
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वितरन  : वि०=वितरक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितरना  : स० [सं० वितरण] वितरण करना। बाँटना। उदाहरण—आकर्षण धन-सा वितरे जल। निर्वासित हो सन्ताप सकल।—प्रसाद।
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वितरिक्त  : अव्य,=अतिरिक्त।
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वितरित  : भू० कृ० [सं० वितर+इतष्] जो वितरण किया गया हो। बाँटा हुआ।
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वितरिता  : वि० [सं० वि√तृ (तरना)+तृच्]=वितरक।
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वितरेक  : पुं०=व्यतिरेक।
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वितर्क  : पुं० [सं० वि√तर्क (तर्क करना)+अच्] १. कुतर्क करना। २. किसी के तर्क का खंडन करने के लिए उसके विपरीत उपस्थित किया जानेवाला तर्क। ३. साहित्य में एक संचारी भाव जो उस समय माना जाता है जब मन में कोई विचार उत्पन्न होने पर मन ही मन उसके विरुद्ध तर्क किया जाता है और इस प्रकार असमंजस में रहा जाता है। ४. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी प्रकार के सन्देह या वितर्क का उल्लेख होता है और कुछ निर्णय नहीं होता।
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वितर्कण  : पुं० [सं० वि√तर्क (तर्क करना)+ल्युट-अन] १. तर्क करने की क्रिया या भाव। २. संदेह। ३. वाद-विवाद।
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वितर्क्य  : वि० [सं० वितर्क+यत्] १. जिसमें किसी प्रकार के वितर्क या संदेह के लिए अवकाश हो। २. अद्भुत। विलक्षण।
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वितर्दि (तर्द्धि)  : स्त्री० [वि०√तर्द (मारना)+इनि] १. वेदी० २. मंत्र। ३. छज्जा।
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वितल  : पुं० [सं० तृ० त०] पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोगों में से दूसरा लोक (पुराण)।
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वितली (लिन्)  : पुं० [सं० वितल+इनि] बकदेव, जो वितल के धारक माने गए है (पुराण)।
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वितस्ता  : स्त्री० [सं० वि√तस् (ऊपर फेंकना)+क्त+टाप्] पंजाब की झेलम नदी का प्राचीन नाम।
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वितस्ताख्य  : पुं० [सं० ब० स०] कश्मीर में स्थित तक्षक नाग का निवास स्थान (महाभारत)।
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वितस्तिद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] राजतरंगिणी में उल्लखित एक पर्वत।
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वितस्ति  : पुं० [सं० वि√तस्+ति] बारह अंगुल की एक नाप। बित्ता।
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विताडन  : पुं० [सं० वि√तड् (मारना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विताड़ित]=ताड़न।
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वितान  : पुं० [सं० वि√तन् (विस्तार करना)+घञ्] १. फैलाव। विस्तार। २. ऊपर से फैलाई जानेवाली चादर। चँदोआ। ३. जमाव। समूह। ४. घृणा। ५. शून्य स्थान। खाली जगह। ६. यज्ञ। ७. अग्निहोत्र आदि कृत्य। ८. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण,भगण और दो दो गुरु होते हैं। ९. सिर पर बाँधी जानेवाली पट्टी। वि०१. खाली। शून्य। २. दुःखी। ३. मूर्ख। ४. दुष्ट। ५. परिव्यक्त।
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वितानक  : पुं० [सं०] १. बड़ा। चँदोआ। २. खेमा। ३. धन-सम्पत्ति। ४. धनियाँ। वि० फैलानेवाला।
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वितानना  : स० [सं० वितान] १. खेमा, शामियाना आदि का तानना। २. कोई चीज तानना या फैलाना।
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वितार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का केतु या पुच्छल तारा (बृहत्संहिता)।
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वितारक  : पुं० [सं० वितार+कन्] विधारा नामक जड़ी।
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विताल  : वि० [सं० ब० स०] (संगीत या वाक्य) जो ठीक ताल में न दे रहा हो। बे-ताल। पुं० संगीत में ऐसा ताल जो गाई या बजाई जानेवाली चीज के उपयुक्त न हो।
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वितिक्रम  : पुं०=व्यतिक्रम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितिमिर  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तम या अंधकार न हो।
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वितीत  : वि०=व्यतीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितीपात  : पुं०=व्यतीपात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितीपाती  : वि० [सं० व्यतीपात+ई (प्रत्यय)] जो बहुत अधिक उपद्रव करता हो। पाजी। शरारती। विशेष—फलित के अनुसार ज्योतिष के व्यतीपात योग में जन्म लेनेवाले बालक बहुत दुष्ट होते हैं। इसी आधार पर यह विशेषण बना है।
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वितीर्ण  : पुं० [सं० वि√तृ+क्त]=वितरण। भू० कृ० १. पार किया या लाँघा हुआ। २. दिया या सौंपा हुआ। ३. जीता हुआ।
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वितुंड  : पुं० [सं०] हाथी।
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वितु  : पुं०=वित्त (अर्थ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितुव  : पुं० [सं० वि√तुद् (पीड़ित करना)+अच्] एक प्रकार की भूत योनि (वैदिक साहित्य)।
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वितुन्न  : पुं० [सं० वि√तुद्+क्त] १. शिरियारी या सुसना नामक साग। २. शैवाल। सेवार।
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वितुन्नक  : पुं० [सं० वितुन्न+कन्] १. धनिया। २. तूतिया। ३. केवटी। मोथा। ४. भू-आँवला।
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वितुष्ट  : वि० [सं० वि√तुष् (संतुष्ट होना)+क्त]=असंतुष्ट।
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वितृण  : वि० [सं० ब० स०] (स्थान) जिसमें तृण, घास आदि न उगती हो। तृण से रहित।
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वितृप्त  : वि० [सं० ब० स०] जो तृप्त या संतुष्ट न हुआ हो। अतृप्त।
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वितृष  : वि० [सं० ब० स०]=वितृष्ण।
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वितृष्ण  : वि० [सं०] [भाव० वितृष्णा] जिसके मन में कुछ भी या कोई तृष्णा न रह गई हो। तृष्णा-रहित।
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वितृष्णा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] [भाव० वितृष्ण] १. मन में किसी बात की तृष्णा न रह जाना। तृष्णा का अभाव। २. बुरी या विकट तृष्णा।
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वित्त  : पुं० [सं०] १. धन। संपत्ति। २. राज्य, संस्था आदि के आय-व्यय आदि की मद या विभाग और उसकी व्यवस्था (फ़ाइनान्स)।
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वित्त-कोश  : पुं० [सं० ष० त०] १. रुपये-पैसे आदि रखने की थैली। २. धन आदि का खजाना।
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वित्तगोप्ता  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर के भंडारी का नाम।
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वित्तदा  : स्त्री० [सं० वित्त√दा (देना)+क+टाप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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वित्तनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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वित्तपति  : पुं० [सं० ष० त०]=वित्तपाल।
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वित्तपाल  : पुं० [सं० वित्त√पाल् (पालन करना)+अच्] १. कुबेर। २. खजानची। ३. भंडारी।
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वित्तपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] कुबेर की अलका नगरी।
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वित्त-मंत्री  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज्य का वह मंत्री जो आय-व्यय वाले विभाग का प्रधान अधिकारी हो (फाइनान्स मिनिस्टर) २. किसी संस्था के आय-व्यय वाले विभाग का मंत्री। अर्थ-मंत्री।
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वित्त-वर्ष  : पुं० [सं०] वित्तीय वर्ष।
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वित्तवान् (क्तृ)  : वि० [सं०वित्त+मतुप्, म-व, नुम्] धनवान।
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वित्त-विधेयक  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक शासन में विधान सभा में आगामी वर्ष के लिए उपस्थित किया जानेवाला वह विधेयक जिसमें आय-व्यय संबंधी सभी मुख्य बातों का उल्लेख रहता है (फाइनान्स बिल)।
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वित्त-सचिव  : पुं० [सं०] वित्त मंत्री।
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वित्त-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक शासन व्यवस्था में वे सब द्वार या साधन जिनसे राज्य, संस्था आदि को अर्थ या धन प्राप्त होता है (फ़ाइनान्सेज)।
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वित्तहीन  : वि० [सं० ष० त०] धन-हीन। निर्धन।
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वित्ति  : स्त्री० [सं० विद् (जानना)+क्ति] १. विचार। २. प्राप्ति। ३. लाभ। ४. ज्ञान। ५. संभावना।
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वित्तीय  : वि० [सं० वित्त+छ-ईय] १. वित्त-संबंधी। वित्त का। २. वित्त की व्यवस्था के विचार से चलने या होनेवाला (फ़ाइनान्सल)।
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वित्तीय-वर्ष  : पुं० [सं०] किसी देश की वित्तीय व्यवस्था की दृष्टि से नियत किया हुआ बारह महीनों का समय या वर्ष। जैसे—भारतीय वित्तीय वर्ष १ अप्रैल से ३१ मार्च तक होता है।
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वित्तेश, वित्तेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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वित्त्व  : पुं० [सं० विद्+त्व] वेत्ता होने की अवस्था या भाव।
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वित्थार  : पुं०=विस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्पन्न  : भू० कृ० [सं०] घबराया हुआ० व्याकुल। वि०=व्युत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्रप  : वि० [सं० ब० स०] निर्लज्ज। बेहया। बेशरम।
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वित्रास  : पुं० [सं० वि√त्रस् (काँपना)+घञ्]=त्रास (भय)।
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वित्रासन  : पुं० [सं० वि√त्रस्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वित्रासित] डराने की क्रिया। त्रासन। वि० डरावना। भयानक।
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विथक  : पुं० [सं० विथ+कन्] पवन।
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विथकना  : अ० [हिं० थकना] थकना। उदाहरण-अंग अंग विथकित भइनारी।—नन्दवास। २. चकित या मुग्ध होकर स्तंभित होना।
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विथकित  : भू० कृ० [हि० विथकना] थका हुआ। शिथिल। चकित या मुग्ध होने के कारण स्तब्ध।
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विथराना  : स०=विथराना (छितराना)।
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विथा  : स्त्री०=व्यथा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विथारना  : स० [सं० वितरण] १. फैलाना। २. छितराना
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विथित  : वि०=कथित।
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विथुर  : पुं० [सं०√व्यथ् (पीर्सत करना)+उरच्, य=इ] १. चोर। २. राक्षस। ३. क्षय। नाश। वि० १. अल्प। थोड़ा। २. व्यथित।
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विथुरा  : स्त्री० [सं० विथुर+टाप्] १. विरहणी स्त्री। २. विधवा स्त्री।
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विद्  : वि० [सं०√विद् (जानना)+क्विप्] जाननेवाला। ज्ञाता। जैसे—ज्योतिर्विद। पुं० १. पंडित। विद्वान। २. बुध ग्रह। ३. तिल का पौधा।
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विद  : वि०=विद।
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विदग्ध  : भू० कृ० [सं० वि√दह् (जलाना)+क्त] [भाव० विदग्धता] १. जला हुआ। २. नष्ट। ३. तपा हुआ। ४. जिसने किसी विषय का अच्छा या पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक कष्ट सहे हों। ५. चतुर। ६. रसिक।
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विदग्धक  : पुं० [सं० विदग्ध+कन्] जलती हुई लाश (बौद्ध)।
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विदग्धता  : स्त्री० [सं० विदग्ध+तल्+टाप्] विदग्ध (देखें) होने की अवस्था या भाव।
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विदग्धा  : स्त्री० [सं० विदग्ध+टाप्] साहित्य में वह परकीया नायिका जो चतुरता पूर्वक पर-पुरुष को अपने प्रति अनुरक्त करती है।
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विदत्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. दिया या सौंपा हुआ। बाँटा हुआ।
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विदमान  : वि०=विद्यमान्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदर  : पुं० [सं० वि०√दृ (फाड़ना)+अच्] दराज। (सूराख)।
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विदरण  : पुं० [सं० वि√दृ+ल्युट-अन] [भू० कृ० विदरित] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। २. विद्रधि-नामक रोग।
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विदरना  : अ० [सं० विदरण] विदीर्ण होना। फटना। स० १. विदारण करना। फाड़ना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना। उदाहरण—विदर न मोहि पीत रंग ऐसे।—नूर मुहम्मद।
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विदर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] १. आधुनिक महाराष्ट्र के बरार नामक प्रदेश का पुराना नाम। २. उक्त प्रदेश का राजा।
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विदर्भजा  : स्त्री० [सं० विदर्भ√जन् (उत्पन्न करना)+ड+टाप्] १. अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा। २. दमयंती। ३. रुक्मिणी।
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विदर्भराज  : पुं० [सं० ष० त०] दमयंती के पिता राजा भीष्म जो विदर्भ के राजा थे।
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विदर्व्य  : पुं० [सं० ब० स०] बिना फनवाला साँप।
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विदल  : वि० [सं० ष० त०] १. दल से रहित। बिना दल का। २. खिला हुआ। विकसित। ३. फटा हुआ। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. अनार का दाना। ३. चना। ४. दाल की पीठी। ५. बाँस की पट्टियों का बना हुआ दौरा या पिटारा।
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विदलन  : पुं० [सं० वि√दल् (दलन)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विदलित] १. मलने, दलने या दबाने आदि की क्रिया। २. दलने, पीसने या रगड़ने की क्रिया।
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विदलना  : स० [सं० विदलन] दलित करना। नष्ट करना।
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विदलान्न  : पुं० [सं० ब० स० कर्म० स०] १. दला हुआ अन्न। २. दाल। ३. पकाई हुई दाल।
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विदलित  : भू० कृ० [सं० वि√दल् (दलन करना)+क्त] १. जिसका अच्छी तरह दलन किया गया हो। २. कुचला या रौंदा हुआ। ३. काटा, चीरा या फाड़ा हुआ। ४. बुरी तरह से ध्वस्त या नष्ट किया हुआ।
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विदा  : स्त्री० [सं०√विद्+अङ्+टाप्] बुद्धि। ज्ञान। अक्ल। स्त्री० [सं० विदाय, मि० अ० विदाअ] १. रवाना होना। प्रस्थान। २. कहीं से चलने के लिए मिली हुई अनुमति।
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विदाई  : स्त्री० [हिं० विदा+ई (प्रत्यय)] १. विदा होने की क्रिया या भाव। प्रस्थान। २. विदा होने के लिए मिली हुई अनुमति। ३. विदा होने के समय मिलनेवाला उपहार या धन। ४. किसी के बिदा होने के समय उसके प्रति शुभ कामना प्रकट करने के लिए लोगों का एकत्र होना (फ़ेयर वेल)। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—माँगना।—मिलना।
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विदाय  : पुं० [सं० ब० स०] १. विसर्जन। २. प्रस्थान। रवानगी। ३. प्रस्थान करने के लिए मिली हुई अनुमति। ४. दान। स्त्री०=विदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदायी (यिन्)  : वि० [सं० विदाय+इनि] १. जो ठीक तरह से चलाता या रखता हो। नियामक। २. दाता। दारी। स्त्री०=विदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदार  : पुं० [सं० वि√दृ (फाड़ना)+घञ्] १. युद्ध। समर। २. फाड़ना। विदारण।
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विदारक  : पुं० [सं० वि√दृ+ण्वुल-अक] १. वृक्ष, पर्वत आदि जो जल के बीच में हो। २. छोटी नदियों के तल में बना हुआ गड्ढा जिसमें नदी के सूखने पर भी पानी बचा रहता है। ३. नौसादार। वि० विदारण करनेवाला या फाड़नेवाला।
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विदारण  : पुं० [सं० वि√दृ+णिच्+ण्वुल्—अक] १. बीच में से अलग करके दो या अधिक टुकड़े करना। चीरना, फाड़ना, या ऐसी ही और कोई क्रिया करना। २. मार डालना। वध। ३. ध्वस्त या नष्ट करना। ४. कनेर। ५. खपरिया। ६. नौसादार।
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विदारना  : स० [हिं० विदरना] १. विदारण करना। फाड़ना।
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विदारिका  : स्त्री० [सं० वि√दृ+णिच्+ण्वुल-अक+टाप्, इत्व] १. बृहत्संहिता के अनुसार एक प्रकार की डाकिनी जो घर के बाहर अग्निकोण में रहती है। २. गंभारी नामक वृक्ष। ३. शालपर्णी। ४. कडुई तुँबी। ५. विदारी कंद।
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विदारित  : भू० कृ० [सं० वि√दृ+णिच्+क्त] जिसका विदारण हुआ हो।
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विदारी (रिन्)  : वि० [सं० वि०√दृ+णिनि] विदारक। स्त्री० [सं० वि√दृ (फाड़ना)√ णिच् +अच्+ ङीष्] १. शालपर्णी। २. भुई कुम्हड़ा। ३. विदारी कंद। ४. क्षीर काकोली। ५. ‘भाव प्रकाश’ के अनुसार अठारह प्रकार के कंठ रोगों में से एक प्रकार का कंठ रोग। ६. एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें बगल में फुंशी निकलती है। ७. वाग्भट्ट के अनुसार मेढ़ा, सींगी, सफेद पुनर्नवा देवदार अनन्तमूल, बृहती आदि ओषधियों का एक गण।
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विदारी-कंद  : पुं० [सं० ब० स०, ष० त०] भुई कुम्हड़ा।
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विदारी गंधा  : स्त्री० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार शालपर्णी, भुई कुम्हला, गोखरू, शतमूली अनंतमूल, जीवंती, मुगवन, कटियारी, पुनर्नवा आदि औषधियों का एक गण। २. शालपर्णी।
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विदाह  : पुं० [सं० वि√दह् (जलाना)+घञ्] [वि० विदाहक, विदाही] १. पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाली जलन। २. हाथ पैरों में होनेवाली जलन।
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विदाही  : वि०=विदाहक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदिक  : स्त्री० [सं० वि√दिश्+क्विप्] जो दिशाओं के बीच की दिशा कोण। विदिशा।
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विदित  : भू० कृ० [सं० विद् (जानना)+क्त] जाना हुआ। अवगत पुं० कवि।
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विदिता  : स्त्री० [सं० विदित+टाप्] जैनों की एक देवी।
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विदिथ  : पुं० [सं० विद्+थन्, इ] १. पंडित। विद्वान। २. योगी।
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विदिशा  : स्त्री० [सं०] दो दिशाओं के बीच का कोण।
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विदिषा  : स्त्री० [सं० तृ० त०+टाप्] १. वर्तमान भेलसा नामक नगर का प्राचीन नाम। २. एक पौराणिक नदी जो पारियात्र नामक पर्वत से निकली हुई कही गई है। ३. जो दिशाओं के बीच की दिशा। कोण।
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विदीपक  : पुं० [सं० कर्म० स०] दीपक दीया।
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विदीर्ण  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे फाड़ा गया हो। २. टूटा या तोड़ा हुआ। ३. जो मार डाला गया हो। निहत।
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विदु  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+कु] १. हाथी के मस्तक पर का वह गहरा अंश जो दोनों कुंभों के बीच में पड़ता है। २. घोड़े के कान के बीच का भाग। वि० बुद्धिमान्।
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विदुख  : पुं० [स्त्री० विदुखी]=विदुष (विद्वान्)।
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विदुत्तम  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो सब बातें जानता हो। २. विष्णु।
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विदुर  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+कुरच्] १. वह जो जानकार हो। २. ज्ञानवान्। ज्ञानी। ३. पंडित। पुं० १. अम्बिका के गर्भ से उत्पन्न व्यास के पुत्र जो धृतराष्ट्र और पांडु के भाई थे। २. एक प्राचीन पर्वत। विदूर। पुं०=वैदूर्य (मणि)।
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विदुल  : पुं० [सं० वि√दुल् (झूलना)+क√विद् (जानना)+कुलच्] १. बेंत। २. जलबेंत। ३. अमलबेंत। ४. बोल नामक गन्ध द्रव्य।
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विदुला  : स्त्री० [सं० विदुल+टाप्] १. सातला नाम का थूहर। २. विट् खदिर।
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विदुष  : पुं० [सं०√विद् (जानना)+क्वसु, व-उ] [स्त्री० विदुषी] विद्वान। पंडित।
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विदुषी  : स्त्री० [सं० विदुष+ङीष्] विद्वान स्त्री।
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विदूर  : वि० [सं०] जो बहुत दूर हो। पुं० १. बहुत दूर का प्रदेश। दूर देश। २. एक प्राचीन जनपद अथवा उसमें स्थित एक पर्वत जिसमें वैदूर्य रत्न अधिकता से मिलता था। ३. वैदूर्य मणि।
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विदूरज  : पुं० [सं०] विदूर पर्वत से उत्पन्न, अर्थात् वैदूर्य मणि।
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विदूरत्व  : पुं० [सं० विदूर+त्व] विदूर होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक अन्तर या दूरी।
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विदूरथ  : पुं० [सं०] १. कुरुक्षेत्र का एक नाम। २. बारहवें मनु का एक पुत्र।
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विदूरित  : भू० कृ० [सं० विदूर+इतच्] दूर किया या परे हटाया हुआ।
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विदूषक  : पुं० [सं०] [स्त्री० विदूषिका] १. दूसरों में दोष बतलाकर उनकी हँसी उड़ानेवाला व्यक्ति। उदाहरण—वेद विदूषक विश्व विरोधी।—तुलसी। २. अपने वेष,चेष्टा, बात-चीत आदि से अथवा ढोंग रचकर और दूसरों की नकल उतारकर लोगों को हँसानेवाला। मसखरा। ३. प्रायः नाटकों में इस प्रकार का एक पात्र जो नायक का अंतरंग मित्र या सखा होता है तथा जिसकी सूरत-शक्ल, हाव-भाव, बातें आदि सब को हँसानेवाली होती है। ४. साहित्य में चार प्रकार के नायकों में से एक प्रकार का नायक जो अपने कौतुक और परिहास आदि के कारण कामकेलि में सहायक होता है। ५. कामुक या विषयी व्यक्ति। ६. भाँड़।
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विदूषण  : पुं० [सं० विद्√दूष् (दूषित करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विदूषित] १. किसी पर दोष लगाने की क्रिया या भाव। २. भर्त्सना करना। कोसना।
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विदूषना  : वि० [सं० विदूषण] १. दूसरों पर दोष लगाना। बुरा बताना। २. कष्ट या दुःख देना। अ०=दुःखी होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विदूषित  : भू० कृ० [सं० वि√दूष् (दूषित करना)+क्त] १. जिस पर दोष लगाया गया हो। २. दोष से युक्त। खराब। बुरा। ३. जिसकी भर्त्सना की गई हो। निन्दा किया हुआ।
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विदृक् (दृश्)  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे दिखाई न पड़े। अन्धा। २. जो देखने में किसी से भिन्न हो। ‘सदृश’ का विपर्याय।
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विदेय  : वि० [सं० तृ० त०] दिये जाने के योग्य। देय।
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विदेव  : पुं० [सं० ब० स०] १. राक्षस। २. यक्ष।
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विदेश  : पुं० [सं०] स्वदेश से भिन्न दूसरा कोई देश।
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विदेशी  : वि० [सं० विदेश+इनि] १. विदेश अर्थात् दूसरे देश का। २. विदेश में बनने या होनेवाला। जैसे—विदेशी कपड़ा। पुं० विदेश अर्थात् दूसरे देश का निवासी।
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विदेशीय  : वि० [सं० विदेश+छ-ईय]=विदेशी।
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विदेह  : वि० [सं०] १. देह अर्थात् शरीर से रहित। जिसका शरीर न हो। २. हत। बेहोश। ३. शारीरिक चिन्ताओं आदि से रहित। ४. सांसारिक बातो से विरक्त। ५. मृत। पुं० १. वह जिसकी उत्पत्ति माता-पिता से न हुई हो। जैसे—देवता। भूत-प्रेत आदि। २. मिथिला के राजा जनक का एक नाम। मिथिला देश। ४. मिथिला देश का निवासी। मैथिल। ५. राजा निमि का एक नाम।
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विदेह-कैवल्य  : पुं० [सं०] जीवन्मुक्त व्यक्ति को प्राप्त होनेवाला मोक्ष।
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विदेहत्व  : पुं० [सं० विदेह+त्व] १. विदेह होने की अवस्था या भाव। २. मृत्यु। मौत।
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विदेहपुर  : पुं० [सं०] राजा जनक की राजधानी। जनकपुर।
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विदेहा  : स्त्री० [सं० विदेह+टाप्] मिथिला नगरी और प्रदेश का नाम।
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विदेही (हिन्)  : पुं० [सं०] ब्रह्मा। स्त्री० सीता।
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विदोष  : वि० [सं० ब० स०] दोष-रहित। पुं० १. अपराध। २. पाप।
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विद्द  : स्त्री०=विद्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विद्ध  : भू० कृ० [सं०√व्यध् (छेदना)+क्त, य-इ] १. बीच में छेदा या बेधा हुआ। जैसे—विद्ध कर्ण। २. फेंका हुआ। ३. घायल। ४. जिसमें बाधा पड़ी हो। ५. टेढ़ा। वक्र। ६. किसी के साथ बँधा हुआ। बद्ध। ७. किसी के साथ मिला या लगा हुआ। जैसे—दशमी सिद्ध एकादशी अर्थात् ऐसी एकादशी जिसमें पहले कुछ दशमी भी रही हो। ८. मिलता-जुलता। ९. पंडित। विद्वान।
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विद्धक  : वि० [सं० विद्ध+कन्] विद्ध करनेवाला। पुं० मिट्टी खोदने की एक प्रकार की खंती या फावड़ा।
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विद्ध-व्रण  : पुं० [सं० तृ० त०] १. काँटा चुभने से होनेवाला घाव। २. ऐसा व्रण जो किसी चीज के अंग में चुभने या धँसने के फलस्वरूप हुआ हो।
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विद्धा  : स्त्री० [सं० विद्ध+टाप्] छोटी-छोटी फुन्सियाँ। वि० सं० विद्ध का स्त्री।
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विद्धि  : स्त्री० [सं०√व्यध् (आघात करना)+क्ति, य-इ] १. चुभने या धँसने की क्रिया या भाव। वेध। २. इस प्रकार होनेवाला छेद। आघात। चोट। प्रहार।
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विद्यमान  : वि० [सं०] [भाव० विद्यमानता] १. जो अस्तित्व में हो। २. जो सामने उपस्थित या मौजूद हो। विशेष—‘उपस्थित’ और ‘विद्यमान’ में मुख्य अन्तर यह है कि ‘उपस्थित’ में तो किसी के सामने आने या होने का भाव प्रधान है, परन्तु ‘विद्यमान’ में कहीं या किसी जगह वर्तमान रहने या सत्तात्मक होने का भाव मुख्य है।
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विद्यमानत्व  : पुं० [सं० विद्यमान+त्व]=विद्यमानता।
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विद्या  : स्त्री० [सं०] १. अध्ययन, शिक्षा आदि से अर्जित किया जानेवाला ज्ञान। इल्म। २. पुस्तकों, ग्रन्थों आदि में सुरक्षित ज्ञान। इल्म। ३. किसी तथ्य या विषय का विशिष्ट और व्यवस्थित ज्ञान। ४. किसी गंभीर और ज्ञातव्य विषय का कोई विभाग या शाखा। ५. किसी कार्य या व्यापार की वे सब बातें जिनका ज्ञान उस कार्य के सम्पादन के लिए आवश्यक हो। ६. कौशल या चातुर्य से भरा हुआ ज्ञान। जैसे— ठगविद्या। ७. दुर्गा।
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विद्याकर  : पुं० [सं०] विद्वान व्यक्ति।
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विद्या-गुरु  : पुं० [सं०] वह गुरु जिससे विद्या पढ़ी हो। शिक्षक। (मंत्र देने वाले गुरु से भिन्न)।
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विद्या-गृह  : पुं० [सं०] विद्यालय। पाठशाला।
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विद्यात्व  : पुं० [सं०] विद्या का भाव।
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विद्या-दान  : पुं० [सं०] किसी को विद्या देना या सिखाना।
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विद्या-देवी  : स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. जैनों की एक देवी।
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विद्याद्रोही  : पुं० [सं०] १. विद्यार्थी २. विद्या-प्रेमी। उदाहरण-पहले दीच्छित विद्या दोही।—नूर-मोहम्मद।
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विद्याधन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. विद्या स्वीधन २. विद्या के बल से अर्जित किया हुआ धन।
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विद्याधर  : पुं० [सं० विद्या√धृ (धारण करना)+अच्] [स्त्री० विद्याधरी] १. एक प्रकार की देव योनि जिसके अंतर्गत खेचर, गन्धर्व, किन्नर आदि माने जाते हैं। २. वैद्यक में एक रसौषधि। ३. काम-शास्त्र में एक प्रकार का आसन या रति।—बन्ध।
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विद्याधरी  : स्त्री० [सं० विद्याधर+ङीष्] विद्याधर नामक देवता की स्त्री।
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विद्याधारी  : पुं० [सं० विद्याधर+इनि, विद्याधारिन्] एक प्रकार का वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चार मगण होते हैं।
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विद्याधि-देवता  : स्त्री० [सं० ष० त०] विद्या की अधिष्ठात्री देवी, सरस्वती।
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विद्याधिप  : पुं० [सं० ष० त०] १. गुरु। शिक्षक। २. पंडित। विद्वान्।
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विद्यापति  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज-दरबार का सबसे बड़ा विद्वान। २. मिथिला के प्रसिद्ध कवि।
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विद्यापीठ  : [सं० ष० त०] १. शिक्षा का बड़ा और प्रमुख केन्द्र। २. ऐसा विद्यालय जिसमें ऊँचे दरजे की शिक्षा दी जाती हो। महाविद्यालय।
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विद्या-मंदिर  : पुं० [सं० ष० त०] विद्यालय।
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विद्यामहेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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विद्यारंभ  : पुं० [सं०] हिंदुओं में, बालक को विद्या की पढ़ाई आरम्भ कराने का संस्कार।
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विद्याराज  : पुं० [सं०] विष्णु की एक मूर्ति।
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विद्यार्थी  : पुं० [सं० विद्या√अर्थ+णिनि] १. वह बालक जो प्राचीन काल में किसी आश्रम में जाकर गुरु से विद्या सीखता था। २. आजकल वह बालक या युवक जो किसी शिक्षा-संस्था में अध्ययन करता हो। ३. वह व्यक्ति जो सदा कुछ न कुछ और किसी न किसी विषय में जानने-सीखने को लालायित तथा प्रयत्नशील रहता है।
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विद्यालय  : पुं० [सं०] ऐसी शिक्षण संस्था जिसमें नियमित रूप से विभिन्न कक्षाओं के विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती है।
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विद्यावधू  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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विद्यावान्  : वि० [सं० विद्या+मतुप्, म-व] विद्वान्।
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विद्या-वृद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] विद्या या ज्ञान में औरों से बहुत आगे बढ़ा हुआ।
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विद्या-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] गुरु के यहाँ रहकर विद्या सीखने का व्रत।
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विद्यु  : स्त्री०=विद्युत (बिजली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विद्युच्चालक  : वि० [सं० ष० त०] (पदार्थ) जिसके एक सिरे से स्पर्श होते ही विद्युत दूसरे सिरे तक चली जाय। जैसे—धातुएँ, द्रव-पदार्थ आदि।
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विद्युत्  : स्त्री० [सं० वि√द्युत् (प्रकाश करना)+विप्] १. बिजली। २. सन्ध्या का समय। ३. पुरानी चाल की एक प्रकार की वीणा। ४. एक प्रकार की उल्का। वि० १. बहुत अधिक चमकीला। २. चमक या दीप्ति से रहित।
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विद्युत्ता  : स्त्री० [सं० विद्युत+टाप्] विद्युत। बिजली।
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विद्युतिक  : वि०=वैद्युत् (बिजली संबंधी)।
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विद्युत्पात  : पुं० [सं०] आकाश से बिजली गिरना। वज्रपात।
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विद्युत्पादक  : पुं० [सं०] प्रलय काल के सात मेघों में से एक मेघ।
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विद्युत्प्रभा  : स्त्री० [सं० विद्युत-प्रभ+टाप्] १. दैत्यों के राजा बलि की पोती का नाम। २. अप्सराओं का एक गण या वर्ग।
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विद्युत्मापक  : पुं० [सं० विद्युत+मापक, ष० त०] एक प्रकार का यंत्र जो विद्युत की गति या वेग अथवा उसके व्यय की मात्रा नापता है (इलेक्ट्रामीटर)।
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विद्युत्माला  : स्त्री० [सं०] १. आकाश में दिखाई पड़नेवाली बिजली की रेखा। २. चार चरणों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो भगण और दो गुरु होते हैं।
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विद्युत्मुख  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार के उपग्रह।
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विद्युत्य  : वि० [सं० विद्युत+यत्] विद्युत या बिजली से संबंध रखनेवाला। विद्युतिक।
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विद्युत-विश्लेषण  : पुं० [सं०] वह वैज्ञानिक प्रक्रिया जिससे विद्युत के द्वारा खनिज पदार्थों में से धातुएँ निकालकर अलग की जाती हैं। (इलेक्ट्रोलिसिस)।
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विद्युतगौरी  : स्त्री० [सं० उपमि० स० ब० स०] शक्ति की एक मूर्ति।
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विद्यद्दर्शी  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से यह देखा जाता है कि किसी वस्तु में कैसी और कितनी विद्युत की धारा का संचार है (एलेक्ट्रोस्कोप)।
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विद्युद्दाम (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] बिजली की रेखा।
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विद्युन्माला  : स्त्री० [सं०]=विद्युत्माला।
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विद्युल्लता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] लता के रूप में आकाश में चमकने वाली बिजली।
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विद्युल्लेखा  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो मगण होते हैं। इसे शेषराज भी कहते हैं। २. विद्युत। बिजली।
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विद्येश  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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विद्योत  : स्त्री० [सं० वि√द्युत् (प्रकाश करना)+घञ्] १. विद्युत। बिजली। २. चमक। दीप्ति। प्रभा।
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विद्रध  : वि० [सं० वि√रुध् (आवरण)+कि] १. मोटा-ताजा। २. हृष्ट-पुष्ट। ३. दृढ़। पक्का। मजबूत। ४. उद्यत। प्रस्तुत। पुं०=विद्रधि।
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विद्रधि  : पुं० [सं० वि√रुध् (आवरण)+कि, पृषो, सिद्धि] पेट में होनेवाला ऐसा घाव या फोड़ा जिसमें मवाद पड़ गया हो।
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विद्रधिका  : स्त्री० [सं० विद्रधि+कन्+टाप्] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का छोटा फोड़ा जो पुराने प्रमेह के कारण होता है।
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विद्रव  : पुं० [सं० वि√द्रु (जाना)+अप्] १. द्रवित होना। गलना। २. घबराहट की स्थिति। ३. बुद्धि। समझ। ४. भगवान।
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विद्रवण  : पुं० [सं०] विद्रव।
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विद्राव  : पुं० [सं० वि√द्रु+घञ्] विद्रव (दे०)।
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विद्रावक  : वि० [सं०] १. पिघलनेवाला। २. भागनेवाला।
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विद्रावण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विद्रावित] [वि० विद्राव्य] १. फाड़ना। २. नष्ट करना। ३. दे० ‘विद्रव’।
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विद्रावी (विन्)  : वि० [सं०] १. पिघलने या पिघलानेवाला। २. भागने या भगानेवाला।
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विद्रुत  : वि० [सं० वि√द्रु (जाना)+क्त] १. भागा हुआ। २. गला, पिघला या बहा हुआ। ३. डरा हुआ। भयभीत। पुं० लड़ाई का वह ढंग।
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विद्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] [वि०√द्रु+म०] १. प्रवाल। मूँगा। २. मुक्ताफल नामक वृक्ष। ३. वृक्षों का नया पत्ता। कोंपल। वि० द्रुमों अर्थात् वृक्षों से रहित। (स्थान)।
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विद्रुमफल  : पुं० [सं०] कुंदरू नामक सुगंधित गोंद।
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विद्रम-लता  : स्त्री० [सं०] १. नलिका या नली नामक गंध द्रव्य २. मूँगा। विद्रुम।
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विद्रूप  : पुं० [सं० बिरूप] किसी का किया जानेवाला उपहास। मजाक उड़ाना।
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विद्रूपण  : पुं० [हिं० विद्रूप से] किसी का उपहास करना। दिल्लगी या मजाक उड़ाना।
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विद्रोह  : पुं० [सं० वि√द्रुह् (वैर करना)+घञ्] १. किसी के प्रति किया जानेवाला द्रोह अर्थात् शत्रुतापूर्ण कार्य। २. विशेषतः राज्य या शासन के प्रति अविश्वास या दुर्भाव उत्पन्न होने पर उसकी आज्ञा विधान आदि के विरुद्ध किया जानेवाला आचरण या व्यवहार। ३. देश या राज्य में क्रांति करने के लिए किया जानेवाला उपद्रव।
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विद्रोही (हिन्)  : वि० [सं०] १. विद्रोह संबंधी। २. विद्रोह के रूप में होनेवाला।
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विद्वज्जन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. विद्वान। २. ऋषि।
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विद्वत्कल्प  : वि० [सं० विद्वस्+कल्पप्] नाम-मात्र का थोड़ा पढ़ा-लिखा (आदमी)।
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विद्वत्ता  : स्त्री० [सं० विद्वस+तल्+टाप्] बहुत अधिक विद्वान होने का भाव। पांडित्य।
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विद्वत्व  : स्त्री० [सं० विद्धस्+त्वल्]=विद्वता।
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विद्वद्वाद  : पुं० [सं०] विद्वानों में होनेवाली बहस या विवाद।
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विद्वान्  : वि० पुं० [सं०] १. वह जो आत्मा का स्वरूप जानता हो। २. वह जिसने अनेक प्रकार की विद्याएँ अच्छी तरह पढ़ी हों। २. सर्वज्ञ।
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विद्विष  : वि० [सं०] द्वेष या शत्रुता रखनेवाला। पुं० ख्श्मन। शत्रु।
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विद्विष्ट  : भू० कृ० [सं० वि√द्विष् (द्वेष करना)+क्त] [भाव० विद्विष्टता] जिसके प्रति द्वेष की भावना व्यक्त की गई हो।
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विद्विष्टि  : स्त्री० [सं० वि√द्विष्+क्तिन्] विद्वेष।
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विद्वेष  : पुं० [सं० वि√द्विष्+घञ्] १. विशेष रूप से किया जानेवाला द्वेष। २. मनोमालिन्य के कारण मन में रहनेवाला वह द्वेष या वैर जिसके फलस्वरूप किसी को नीचा दिखाने या हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया जाता है (स्पाइट) ३. दुश्मनी। शत्रुता।
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विद्वेषक  : वि० [सं० वि√द्विष्+ण्वुल-अक]=विद्वेषी।
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विद्वेषण  : पुं० [सं० वि√द्विष् (द्वेष करना)+णिच्+ल्युट-अन] १. विद्वेष करने की क्रिया या भाव। २. दो व्यक्तियों में विद्वेष उत्पन्न करना। वि० विद्वेषी।
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विद्वेषिता  : स्त्री० [सं० विद्वेषि+तल्+टाप्]=विद्वेष।
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विद्वेषी (षिन्)  : वि० [सं० वि√द्विष्+णिनि] मन में किसी के प्रति विद्वेष रखनेवाला। विद्वेष करनेवाला। पुं० दुश्मन। शत्रु।
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विद्वेष्य  : वि० [सं० विद्वेष+यत्] जिसके प्रति मन में विद्वेष रखा जाय या रखना उचित हो।
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विधंसा  : पुं०=विध्वंस। वि०=विध्वस्त।
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विधंसना  : स० [सं० विध्वसंन] नष्ट करना या बरबाद करना।
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विध  : पुं० [सं० विधि] ब्रह्मा। स्त्री०=विधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधत्री  : स्त्री० [सं० विद्या+ष्ट्रन्+ङीष्] ब्रह्मा की शक्ति, महासरस्वती।
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विधन  : वि० [सं० ब० स०] धन-हीन।
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विधना  : स० [सं० विधि] १. प्राप्त करना। २. अपने साथ लगना। ऊपर लेना।
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विधमन  : पुं० [सं० वि√ध्मा (चौंकना)+ल्यु-अन, वि√ध्मा (धौंकना)+शतृ वा] धौंकनी से हवा करना। धौंकना।
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विधर  : अव्य,=उधर (उस तरफ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विधृत] १. पकड़ना। २. आज्ञा न मानना।
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विधर्त्ता (तृ)  : पुं० [सं० वि√धृ (धारण करना)+तृच्] विधरण करनेवाला।
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विधर्म  : वि० [सं०] १. धर्मशास्त्र की आज्ञा, विधि आदि से बाहर का। अधार्मिक। धर्महीन। २. जिससे किसी की धार्मिक भावना को आघात लगता हो। ३. अन्यायपूर्ण। ४. अवैध। पुं० १. किसी की दृष्टि से उसके धर्म से भिन्न धर्म। २. ऐसा कार्य जो किया तो गया हो अच्छी भावना से, परन्तु जो वस्तुतः धर्मशास्त्र के नियम के विरुद्ध हो।
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विधर्मक  : वि० [सं०] १. विधर्म-संबंधी। विधर्म का। २. विधर्म के रूप में होनेवाला। ३. दे० ‘विधर्मी’।
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विधर्मिक  : वि० [सं०]=विधर्मक।
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विधर्मी (र्मिन्)  : पुं० [सं० विधर्म+इनि] १. वह जो अपने धर्म के विपरीत आचरण करता हो। धर्म-भ्रष्ट। २. जो किसी दूसरे धर्म का अनुयायी हो। ३. जिसने अपना धर्म छोड़कर कोई दूसरा धर्म अंगीकृत कर लिया हो।
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विधवा  : स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसका धव अर्थात् पति मर गया हो। पतिहीन। राँड़। २. विशेषतः वह स्त्री जिसने पति के देहांत के उपरांत फिर और विवाह न किया हो।
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विधवापन  : पुं० [सं० विधवा+हिं० पन (प्रत्यय)] वह अवस्था जिसमें विधवा बिना विवाह किये ही अपना जीवन यापन करती है। रँड़ापा। वैधव्य।
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विधवाश्रम  : पुं० [सं० ष० त०, विधवा+आश्रम] वह स्थान जहाँ अनाथ विधवाओं को रखकर उनका पालन-पोषण किया जाता हो।
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विधाँसना  : स० [सं० विध्वंसन] १. विध्वस्त या नष्ट करना। बरबाद करना। २. अस्त-व्यस्त या गड़बड़ करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधा  : स्त्री० [सं०] १. ढंग। तरीका। रीति। २. प्रकार। भाँति। ३. हाथी, घोड़े आदि का चारा। ४. वेधन। ५. भाड़ा। किराया। ६. मजदूरी। ७. कार्य। क्रिया। ८. उच्चारण।
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विधातव्य  : वि० [सं० वि√धा (धारण करना)+तव्यत्] १. जिसके संबंध में विधान हो सकता हो या होने के लिए हो। २. (काम) जो किया जा सकता हो या आवश्यक रूप से किया जाने को हो। कर्त्तव्य।
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विधाता (तृ)  : वि० [सं० वि√धा+तृच्] [स्त्री० विधातृका, विधात्री] १. विधान करनेवाला। २. रचने-वाला। बनानेवाला। ३. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० १. सृष्टि की रचना करनेवाली शक्ति। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. कामदेव। ६. विश्वकर्मा। स्त्री० मदिरा। शराब।
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विधातु  : स्त्री० दे० ‘असार’ (धातुओं का)।
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विधात्री  : वि० स्त्री० [सं० विधातृ+ङीष्] १. विधान करनेवाली। २. रचनेवाली। बनानेवाली। ३. प्रबन्ध या व्यवस्था करनेवाली। स्त्री० पिप्पली। पीपल।
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विधान  : पुं० [सं० वि√धा+ल्युट-अन] [वि० वैधानिक] १. किसी कार्य के संबंध में किया जाने वाला आयोजन और उसका प्रबंध या व्यवस्था। २. कोई चीज तैयार करने के लिए बनाना। निर्माण। रचना। सर्जन। ३. किसी चीज या बात का किया जानेवाला उपयोग, प्रयोजन या व्यवहार। जैसे—धातु में प्रत्यय का विधान करना। ४. यह कहना या बतलाना कि अमुक काम या बात इस प्रकार होनी चाहिए। ढंग, प्रणाली या रीति बतलाना। ५. बतलाया हुआ ढंग,प्रणाली या रीति विशेषतः धार्मिक रीति। ६. कायदा। नियम। ७. कही या बतलाई हुई ऐसी बात जो आदेश के रूप में हो और जिसका अनुसरण या पालन आवश्यक और कर्तव्य के रूप में हो। जैसे—धर्मशास्त्र का विधान। ८. आजकल राज्य या शासन के द्वारा जारी किया हुआ कोई कानून जिसमें किसी विषय की विधि और निषेध के संबंध रखनेवाली सभी धाराओं के रूप में लिखी रहती है। कानून। (लाँ) ९. नाटक में विभिन्न भावनाओं,विचारों आदि में होनेवाला द्वन्द्व और संघर्ष। १॰. अनुमति। आज्ञा। 1१. अर्चन। पूजा। १२. धन-संपत्ति। १३. किसी को हानि पहुँचाने के लिए किया जानेवाला दांव-पेंच या शत्रुता का व्यवहार। शत्रुतापूर्ण आचरण। १४. शब्दों में उपसर्ग,प्रत्यय आदि लगाने की क्रिया या नीति। १५. हाथी को पस्त करने के लिए खिलाया जानेवाला चारा।
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विधानक  : पुं० [सं० विधान+कन्] १. विधान। २. वह जो विधान का ज्ञाता हो। वि० विधान करनेवाला।
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विधान-परिषद्  : स्त्री० [सं०] राज्य की विधान सभा से भिन्न दूसरी बड़ी विधि-निर्मात्री सभा जिसका चुनाव परोक्ष रीति से होता है। (लेजिसलेटिव कौंसिल)।
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विधान-मंडल  : पुं० [सं०] राज्य के संबंध में विधान बनानेवाले दोनों अंगों का सामूहिक नाम और रूप। (लेजिस्लेचर)। विशेष—इसके दो अंग या सदन हैं—विधान परिषद् और विधानसभा।
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विधान-सप्तमी  : स्त्री० [सं०] माघ शुक्ल सप्तमी।
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विधान-सभा  : स्त्री० [सं०] किसी देश या राज्य की वह सभा या संस्था, विशेषतः निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा या संस्था जिसे कानून या विधान बनाने का अधिकार होता है (लेजिसलेटिव एसेंबली)।
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विधानांग  : पुं० [सं०]=विधान-मंडल।
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विधानी  : वि० [सं० विधान+इनि, अथवा विधान+हिं० ई (प्रत्यय)] १. विधान जाननेवाला। २. विधान या विधिपूर्वक काम करनेवाला।
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विधायक  : वि० [सं० वि√धा+ण्वुल्-अक, युक्] [स्त्री० विधायिका] १. विधान करनेवाला। जैसे—एकता का विधायक। कार्य का सम्पादन करनेवाला। २. निर्माण या रचना करनेवाला। ३. निर्माण के रूप में होनेवाला। रचनात्मक। ४. प्रबंध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० विधान सभा (या परिषद्) का सदस्य।
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विधायन  : पुं० [सं०] १. विधान करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. आज-कल विशेष रूप से शासन अथवा विधान-मंडल द्वारा कोई विधान (कानून)। बनाने की क्रिया या भाव। (एनैक्टमेन्ट) ३. उक्त प्रकार से बने हुए अधिनियम विधियाँ आदि।
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विधायन-संग्रह  : पुं० [सं०] किसी विषय, विभाग आदि के कार्य-संचालन से संबद्ध नियमों, निर्देशों आदि का संग्रह। संहिता। (कोड) जैसे—बंगाल विधायन संग्रह।
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विधायिका  : वि० स्त्री० [सं०] विधान-निर्मात्री। संस्था। जैसे—विधान परिषद् विधान सभा, लोक सभा या राज्य सभा आदि।
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विधायी (यिन्)  : वि० [सं० वि√धा (धारण करना)+णिनि, युक्] [स्त्री० विधायिनी] विधान करने या बनानेवाला। विधायक। (दे०) पुं० १. निर्माण करनेवाला। २. संस्थापक।
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विधारण  : पुं० [सं० वि√धृ (धारण करना)+णिच्+ल्युट-अन] १. रोकना। २. वहन करना।
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विधि  : स्त्री० [सं०] १. कोई काम करने का ठीक ढंग या रीति, क्रिया व्यवस्था आदि की प्रणाली। मुहावरा— (किसी काम या बात की) विधि बैठना=लगाई हुई युक्ति या ठीक या सफल सिद्ध होना। जैसे—यदि तुम्हारी विधि बैठ गई तो काम होने में देर न लगेगी। २. आपस में होनेवाली अनुकूलता या संगति। मुहावरा— (आपस में) विधि बैठना=अनुकूलता मेल-मिलाप या संगति होना। जैसे—अब तो उन लोगों में विधि बैठ गई है। विधि मिलना=अनुरूपता होना। जैसे—जन्मकुंडली की विधि मिलना। ३. ऐसी आज्ञा या आदेश जिसका पालन अनिवार्य या आवश्यक हो। ४. धर्म-ग्रन्थों, शास्त्रों आदि में बतलाई हुई ऐसी व्यवस्था जिसे साधारणतः सब लोग मानते हों। पद—विधि निषेध=ऐसी बातें जिनमें यह कहा गया हो कि अमुक अमुक काम या बातें करनी चाहिए और अमुक-अमुक काम या बातें नहीं करनी चाहिए। ५. आचार-व्यवहार। पद—गति-विधि=आगे, बढ़ने पीछे हटने आदि के रूप में होनेवाली चाल-ढाल या रंग-ढंग। जैसे—पहले कुछ उसके रोजगार की गतिविधि तो देख लो, तब उनके साथ साझेदारी करना। ६. तरह। प्रकार। भ्रांति। उदाहरण—एहि विधि राम सबहिं समुझावा। तुलसी। ७. व्याकरण में वह स्थिति जिसमें किसी से काम करने के लिए कहा जाता है। जैसे— (क) तुम वहाँ जाओ। (ख) यह चीज यहीं रखनी चाहिए। ८. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी सिद्ध विषय का फिर से विधान किया जाता है। जैसे—वर्षा काल में ही मेघ, मेघ है। ९. आज-कल राज्य या शासन के द्वारा चलाये या बनाये हुए वे सब नियम, विधान आदि जिसका उद्देश्य सार्वजनिक हितों की रक्षा करना होता है और जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य तथा आवश्यक होता है। कानून। (लाँ)। पुं० सृष्टि की रचना करनेवाला ब्रह्मा।
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विधिक  : वि० [सं०] [भाव० विधिकता] १. विधि संबंधी। २. विधि के रूप में होनेवाला। ३. (कार्य) जिसे करने में कोई कानूनी अड़चन न हो। ४. जो विधि के विचार से न्याय-संगत हो। (लीगल)।
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विधिकता  : पुं० [सं०] १. विधिक होने की अवस्था या भाव। २. कानून के विचार से होनेवाली अनुरूपता।
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विधिक-प्रतिनिधि  : पुं० [सं०] वह प्रतिनिधि जिसे किसी की ओर से न्यायालय में कानूनी कार्रवाई करने का अधिकार प्राप्त हो (लीगल रिप्रेज़ेटेटिव)।
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विधिकर्ता  : पुं० [सं०] वह जो विधि या कानून बनाता हो। (लॉ-मेकर)।
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विधिक व्यवहार  : पुं० [सं०] वह कार्य या प्रक्रिया जो किसी व्यवहार या मुकदमे में विधि या कानून के अनुसार होती है। (लीगल प्रोसीडिंग)।
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विधिक-साध्य  : स्त्री० [सं०] विधिक-निर्णय (दे०)।
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विधिज्ञ  : पुं० [सं०] १. वह जो विधि-विधान आदि का अच्छा ज्ञाता हो। २. कानून का ज्ञाता ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के व्यवहारों के संबंध में न्यायालय में प्रतिनिधि के रूप में काम करता हो। (लायर)। ३. वह जो काम करने का ठीक ढंग जानता हो।
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विधितः  : अव्य० [सं०] १. विधि या रीति के अनुसार। २. कानून के अनुसार (बाई लाँ) ३. कानून की दृष्टि में या विचार से (डी० जूरी, लाँ-फुली)।
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विधि-दर्शक  : पुं० [सं०] विधिदर्शी (दे०)।
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विधिदर्शी  : पुं० [सं०] यज्ञ में वह व्यक्ति जो यह देखने के लिए नियुक्त होता था कि होता, आचार्य आदि विधि के अनुसार कर्म कर रहे हैं या नहीं।
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विधिना  : पुं०=विधना (ब्रह्मा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विधि-निषेध  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें कोई काम करने की विधि या अनुमति देने पर भी प्रकारांतर से उसका निषेध किया जाता है। जैसे—आप जाते हैं तो जाइए, अगले जन्म में मैं आपके दर्शन करूँगी। (अर्थात् आपके दर्शन की लालसा में प्राण दे दूँगी।)
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विधि-पत्नी  : स्त्री० [सं०] सरस्वती।
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विधिपाट  : पुं० [सं०] मृदंग के चार वर्णों में से एक वर्ण। शेष तीन वर्ण ये हैं—पाट, कूटपाट और खंडपाट।
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विधिपुत्र  : पुं० [सं० विधि+पुत्र] ब्रह्मा के पुत्र, नारद।
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विधिपुर  : पुं० [सं० विधि+पुर] ब्रह्मलोक।
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विधि-भंग  : पुं० [सं०] १. विधि अर्थात् कानून का उल्लंघन करने की क्रिया या भाव। नियम तोड़ना। (ब्रीच आँफ लाँ)।
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विधि-भेद  : पुं० [सं०] साहित्य में उपमा अलंकार का एक दोष जो उस समय माना जाता है, जब उपमेय और उपमान के गुण, धर्म आदि का मेल ठीक से नहीं बैठता।
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विधिरानी  : स्त्री० [सं० विधि+हिं० रानी] ब्रह्मा की पत्नी, सरस्वती।
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विधिलोक  : पुं० [सं०] ब्रह्मलोक।
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विधिवत्  : अव्य० [सं०] १. विधिपूर्वक। विधितः २. जिस प्रकार होना चाहिए उसी प्रकार।
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विधि-वधू  : स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की पत्नी, सरस्वती।
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विधि-वादपद  : पुं० [सं०] विधिक क्षेत्रों में वह वादपद जिसका संबंध व्यवहार या मुकदमे के केवल विधिक या कानूनी पक्ष से हो। तथ्य वादपद से भिन्न (इश्यू आप लॉ)।
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विधि-वाहन  : पुं० [सं०] ब्रह्मा की सवारी, हंस।
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विधिविहित  : वि० [सं० तृ० त०] शास्त्रीय विधियों आदि में कहा या बतलाया हुआ। विधि में जैसा विधान हो, वैसा।
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विधिषेध  : पुं० [सं० ष० त०] विधि और निषेध।
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विधुंत  : पुं० [सं० विधुंतुद] राहु।
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विधुंतुद  : पुं० [सं० विधि√तुद् (दुःख देना)+खच्, मुम्] चंद्रमा को दुःख देनेवाला। राहु।
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विधु  : पुं० [सं०] १. चन्द्रमा। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. वायु। हवा। ५. कपूर। ६. अस्त्र। आयुध। ७. जल से किया जानेवाला स्नान। ८. पाँवों आदि का प्रक्षालन।
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विधुक्रांत  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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विधुदार  : स्त्री० [सं० ष० त०] चन्द्रमा की स्त्री। रोहिणी।
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विधुप्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. चंद्रमा की स्त्री। रोहिणी। २. कुमुदिनी। कोई (दे०)।
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विधु-बंधु  : पुं० [सं० ष० त०] कुमुद (फूल)।
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विधु-बैनी  : स्त्री० [सं० विधु+वदन, प्रा० वयन] चन्द्रमुखी। सुंदरी। स्त्री।
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विधुमणि  : स्त्री० [सं० ष० त०] चंद्रकांत मणि।
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विधुमुखी  : वि० [सं०] चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाली (स्त्री)।
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विधुर  : वि० [सं०] [स्त्री० विधुरा] १. दुःखी। २. घबराया या डरा हुआ। ३. बेचैन। विकल। ४. अशक्त। असमर्थ। ५. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त। ६. मूढ़। ७. जिसकी स्त्री मर चुकी हो। रँडुआ। ८. किसी बात से रहित या हीन। (यौ० के अन्त में)। जैसे—अनुनय-विधुर्=जो अनुनय, विनय करना न जानता हो या न करता हो। पुं० १. कष्ट। दुःख। २. जुदाई। वियोग। ३. अलगाव। पार्थक्य। ४. कैवल्य। ५. दुश्मन। शत्रु।
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विधुरा  : स्त्री० [सं०] १. कानों के पीछे की एक स्नायु ग्रन्थि जिसके पीड़ित या खराब होने से आदमी बहरा हो जाता है। २. मट्ठा। लस्सी।
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विधुवदनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] चन्द्रमुखी।
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विधूत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विधूति] १. काँपता हुआ। २. हिलता हुआ। ३. छोडा या त्यागा हुआ। ४. अलग या दूर किया हुआ। ५. निकाला या बाहर किया हुआ।
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विधूति  : स्त्री० [सं०] कंपन।
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विधूनन  : पुं० [सं० वि√धू (कंपन)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विधूनित] कंपन। काँपना।
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विधृत  : पुं० [सं० वि√धृ (धारण करना)+क्त] १. ग्रहण या धारण किया हुआ। २. अलग किया हुआ। ३. रोका हुआ। ४. अपने अधिकार में लाया हुआ। ५. सँभाला हुआ। पुं० १. आज्ञा की अवज्ञा। २. असंतोष।
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विधृति  : स्त्री० [सं० वि√धृ+क्तिन्] १. अलगाव। पार्थक्य। २. विभाजन। ३. व्यवस्था। ४. नियम। ४. विभाजन रेखा।
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विधेय  : वि० [सं०] १. देने योग्य। २. प्राप्त करने योग्य। ३. जिसके प्रति विधि का आदेश दिया जाय। ४. जिसे कुछ करने का आदेश दिया जाय। ५. जिसके संबंध में विधान किया जाने को हो। ६. प्रदर्शित किये जाने के योग्य। ७. प्रज्जवलित किये जाने के योग्य। पुं० १. वह काम जो अवश्य किये जाने के योग्य हो। २. व्याकरण में, वह पद या वाक्यांश जिसके द्वारा किसी के संबंध में कुछ विधान किया अर्थात् कहा या बतलाया जाता है। हिन्दी में इसका अन्वय या तो (क) कर्ता से होता है या (ख) प्रधान कर्म से। जैसे— (क) राम जाता है। और (ख) राम रोटी खाता है। में जाता ‘है’ और खाता ‘है’ विधेय है, क्योंकि ‘जाता है’ से राम (कर्ता) के संबंध में और ‘खाता है’ से राम (कर्ता) के सम्बन्ध में और ‘खाता है’ से रोटी (कर्म) के संबंध में कुछ कहा या बतलाया गया है। ३. साहित्य में प्रिय के मन-मोचन के दो उपचारों में से एक जिसमें उपेक्षा, धृष्टता, भय, हर्ष आदि दिखलाकर उसे प्रकारान्तर से अनुकूल करने का प्रयत्न किया जाता है।
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विधेयक  : पुं० [सं० विधेय+कन्] आज-कल किसी कानून या विधान का वह प्रस्तावित रूप या मसौदा जो विधान बनानेवाली परिषद् या सभा के सामने विचारार्थ उपस्थित किया जाने को हो (बिल)।
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विधेयता  : स्त्री० [सं० विधेय+तल्+टाप्] १. विधेय होने की अवस्था, गुण या भाव। २. अधीनता।
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विधेयत्व  : स्त्री० [सं० विधेय+तल्+टाप्] विधेयता।
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विधेयात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु।
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विधेयाविमर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में एक प्रकार का वाक्य-दोष जो विधेय अंश के प्रधान स्थान प्राप्त होने पर होता है। मुख्य बात का वाक्य-रचना के बीच दबा रहना।
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विध्य  : वि० [सं०√विध् (छेदना)+यत्] जो बींधा जाने को हो या बेधा जा सकता हो।
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विध्यात्मक  : वि० [सं०] १. विधि से संबंध रखता हुआ और उससे युक्त। २. जो विधि के पक्ष में हो। सकारात्मक। सहिक। ‘निषेधात्मक’ का विपर्याय पाज़िटिव)।
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विध्वंस  : पुं० [सं० वि√ध्वंस (नाश करना)+घञ्] १. विनाश। नाश। बरबादी। २. घृणा। ३. वैर। शत्रुता। ४. अनादर। अपमान।
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विध्वंसक  : वि० [सं० वि√ध्वंस (नाश करना)+ण्वुल-अक] विध्वंस या नाश करनेवाला। पुं० एक प्रकार के विनाशक पोत (डेस्ट्रायर)।
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विध्वस्त  : भू० कृ० [सं० वि√ध्वंस+क्त] नष्ट किया हुआ। बरबाद किया हुआ।
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विन  : सर्व० [हिं० वा=उस] हिं ‘आ’ के बहु उन का स्थानिक रूप। अव्य बिना (बगैर) के बहु उन का स्थानिक रूप] अव्य बिना (बगैर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनत  : वि० [सं०] [स्त्री० विनता] १. नीचे की ओर प्रवृत्त। झुका हुआ। २. जिसने किसी के सामने मस्तक या सिर झुका रखा हो। ३. विनीत। नम्र। ४. टेढ़ा। वक्र। ५. सिकुड़ा हुआ। संकुचित। ६. कुबड़ा। कुब्ज। पुं० महादेव। शिव।
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विनतड़ी  : स्त्री०=विनति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनता  : स्त्री० [सं० विनत+टाप्] १. दक्ष प्रजापति की एक कन्या जो कश्यप को ब्याही थी और जिसके गर्भ से गरुड़ का जन्म हुआ था। २. एक राक्षसी जिसे रावण ने सीता के पास उसे समझाने-बुझाने के लिए रखा था। ३. व्याधि उत्पन्न करने वाली एक कल्पित राक्षसी। ४. प्रमेह या बहुमूत्र के रोगियों को होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा।
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विनति  : स्त्री० [सं० वि√नम् (नम्र होना)+क्तिन्] १. विनीत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. झुकाव। ३. विनीत भाव से की जाने वाली प्रार्थना। अनुनय-विनय। ४. व्यवहार स्वभाव आदि की नम्रता। ५. दमन। ६. निवारण। रोक। ७. विनियोग।
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विनती  : स्त्री० [सं० विनत+ङीष्]=विनति।
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विनद्ध  : भू० कृ० [सं० वि√नह् (बाँधना)+क्त] १. किसी के साथ जोड़ा या बाँधा हुआ। २. बन्धन से युक्त किया हुआ।
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विनमन  : पुं० [सं० वि√नम् (नम्र होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विनमित] १. झुकना। २. नम्रतापूर्वक झुकना।
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विनम्र  : वि० [सं०] [भाव० विनम्रता] १. विशेष रूप से नम्र। २. विनीत और सुशील। ३. झुका हुआ। पुं० तगर का फूल।
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विनम्रता  : स्त्री० [सं०] विनम्र होने की अवस्था या भाव।
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विनय  : स्त्री० [सं०] १. यह कहना या बतलाना कि अमुक काम या बात इस प्रकार होनी चाहिए। कुछ करने का ढंग बतलाना या सिखाना। शिक्षा। २. कोई काम या बात करने का अच्छा, ठीक और सुंदर ढंग। ३. आचार, व्यवहार आदि में रहनेवाली नम्रता और सौजन्य जो अच्छी तरह शिक्षा से प्राप्त होता है (मॉडेस्टी)। ४. कर्त्तव्यों आदि का ऐसा निर्वाह और पालन जिसमें कुछ भी त्रुटि या दोष न हों। ५. आदेशों, नियमों आदि का ठीक ढंग से और भले आदमियों की तरह किया जानेवाला पालन। (डिसिप्सन)। ६. नम्रतापूर्वक की जानेवाली प्रार्थना या विनती। ७. नीति। ८. इंद्रिय-निग्रह। जितेंन्द्रिय व्यक्ति। ९. किसी को नियंत्रण या शासन में रखने के लिए कही जाने वाली ऐसी बात जिसके साथ अवज्ञ के लिए दंड का भी भय दिखाया जाय या विधान किया गया हो। (स्मृति)। १॰. वणिक्। व्यापारी।
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विनयकर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] पढ़ावे, सियाने आदि का कार्य। शिक्षण। शिक्षा।
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विनयघर  : पुं० [सं०] पुरोहित।
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विनय-पिटक  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्धों का एक धर्म-ग्रन्थ जिसमें विनय अर्थात् सदाचार संबंधी नियम संगृहीत है।
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विनयवान्  : वि० [सं० विनय+मतुप्, विनयवत्] स्त्री० विनयवती] जिसमें विनय अर्थात नम्रता हो। शिष्ट।
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विनयशील  : वि० [सं०] जो स्वभावतः विनम्र हो। प्रकृति से विनम्र्।
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विनयाध्यक्ष  : पुं०=संकायाध्यक्ष।
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विनयावनत  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] विनय के कारण झुका हुआ। विनम्र।
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विनयी (यिन्)  : वि० [सं० विनय+इनि, दीर्घ, न-लोप] विनययुक्त।
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विनवना  : स० [सं० विनय] विनय करना। नम्रतापूर्वक कुछ कहना। अ० १. नम्र होना। २. झुकना।
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विनशन  : पुं० [सं० वि०√वश् (नाश करना)+ल्युट-अन] विनाश करने की क्रियाया भाव। वि० विनश्वर।
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विनश्वर  : वि० [सं० वि√नश् (नष्ट करना)+वरच्] [भाव० विनश्वरता] जिसका विनाश होने को हो।
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विनष्ट  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विनष्टि] १. जो अच्छी तरह नष्ट हो चुका हो या नष्ट किया जा चुका हो। बरबाद। २. मरा हुआ। मृत। ३. बिगड़ा हुआ। ४. भ्रष्ट आचरणवाला। पतित।
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विनष्टि  : स्त्री० [सं० वि√नश् (नष्ट करना)+क्तिन्] १. वह अवस्था जो विनाश की सूचक हो। २. विनाश। ३. पतन। ४. लोप।
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विनष्टोपजीवी (विन्)  : वि० [सं० विनष्टोप√जीव् (जीवित करना)+णिनि] मुर्दा खाकर जीनेवाला।
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विनस  : वि० [सं० ब० स० नासिका-त्रसादेश] [स्त्री० विनसा, विनसी] १. बिना नाक का। नककटा। २. बेशर्म।
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विनसना  : अ० [सं० विनशन] नष्ट होना। लुप्त होना। स०=विनसाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनसाना  : स० [हिं० विनसना का स० रूप] १. नष्ट करना। २. बिगाड़ना। अ०=विनसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विना  : अव्य० [सं० वि+शा] १. न होने पर। अभाव में। बिना। जैसे—आपके बिना काम न चलेगा। २. अलग रहकर अथवा उपयोग न करते हुए। जैसे—बिना जूते के चलने में कष्ट होता है। ३. अतिरिक्त। सिवा। (क्व०)। जैसे—तुम्हारे बिना उसका है ही कौन।
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विनाड़ी  : स्त्री० [सं०] एक घड़ी का साठवाँ भाग। पल। प्रायः २४ सेकेंड का समय।
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विनाथ  : वि० [सं० ब० स०] जिसका नाथ न हो। अनाथ।
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विनाम  : पुं० [सं० वि√नम् (नम्र होना)+घञ्] १. टेढ़ापन। वक्रता। २. वैद्यक में पीड़ा आदि के कारण शरीर के किसी अंग का झुक जाना। ३. किसी पदार्थ का वह गुण जिसके कारण वह झुकाया या मोड़ा जा सकता है।
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विनायक  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. गणों के नायक गणेश। २. गरुड़। ३. गुरु। ४. गौतम बुद्ध। ५. बाधा। विघ्न। विशेष—पुराणों में विनायक के कई रूप कहे गये है। यथा कोण बिनायक, दवढ़ि विनायक, सिंदूर विनायक, हस्ति विनायक आदि।
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विनायक चतुर्थी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] माघ सुदी चौथ। गणेशचतुर्थी।
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विनायिका  : स्त्री० [सं०] १. विनायक अर्थात् गणेश की पत्नी। २. गरुड़ की पत्नी।
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विनाल  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें नाल अर्थात् डंठल न हो।
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विनाश  : पुं० [सं० वि√नश्+घञ्] १. ऐसी स्थिति जो अत्यधिक धन-जन की हानि की परिचायिका हो। नाश। ध्वंस। जैसे—भूकम्प के कारण शहरों बाढ़ के कारण गाँवों अतिवृष्टि या अनावृष्टि के कारण खेतों का होनेवाला विनाश। २. अदर्शन। लोप। ३. खराबी। विकार। ४. दुर्दशा। ५. नुकसान। हानि।
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विनाशन  : पुं० [सं०] १. नाश करना। २. मार डालना। ३. बिगाड़ना। ४. काल का एक पुत्र असुर।
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विनाशित  : भू० कृ० [सं० वि√नश्+णिच्+क्त]=विनष्ट।
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विनाशी (शिन्)  : वि० [सं० वि√नश्+णिनि] [स्त्री० विनाशिनी] १. विनाश या ध्वंत करनेवाला। (डेस्ट्रॉयर)। २. मार डालनेवाला। ३. खराब करने या बिगाड़नेवाला।
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विनाश्य  : वि० [सं० वि√नश् (नष्ट करना)+ण्यत्] जिसका विनाश हो सकता हो या होने को हो।
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विनास  : पुं०=विनाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनासक  : वि० [सं० ब० स०+कन्, ह्रस्व] बिना नाक का। नकटा। वि०=विनाशक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनासन  : पुं०=विनाशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनासना  : स० [सं० विनाशन] विनाश करना। अ० विनष्ट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनिंदा  : स्त्री० [सं० विनिन्द+टाप्] बहुत अधिक निंदा।
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विनिगमक  : वि० [सं० वि√गम्+ण्वुल-अक] निश्चयपूर्वक एक पक्ष की स्वीकृति करने और दूसरे को त्यागनेवाला।
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विनिगमना  : स्त्री० [सं०] १. विचारपूर्ण। निर्णय। २. वह स्थिति जिसमें एक पक्ष का ग्रहण और दूसरे पक्ष का त्याग होता है। ३. नजीता। परिणाम।
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विनिग्रह  : पुं० [सं० वि+नि√ग्रह (ग्रहण करना)+क] १. निग्रह। संयम। २. बाधा। रुकावट। ३. अवरोध।
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विनिद्र  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे नींद न आई हो। जागता हुआ। २. जिसे नींद न आती हो। ३. खिला हुआ। उन्मीलित।
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विनिधान  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विनिधित] १. किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा कार्य के लिए अथवा योजना के अनुसार किसी को अलग कर कहीं रखना। (एलोकेशन)। जैसे—छात्रवृत्ति के लिए किसी निधि के कुछ अंश का होनेवाला विनिधान। २. कार्य-प्रणाली आदि के संबंध में दी जानेवाली सूचना। हिदायत।
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विनिपात  : पुं० [सं०] १. विशेष रूप से या अच्छी तरह से किया हुआ। निपात। २. विनाश। ३. वध। ४. अपमान। ५. गर्भपात। ६. बहुत बड़ा कष्ट या संकट उपस्थित करनेवाली घटना या स्थिति। आपद् (कैलेमिटी)।
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विनिपातक  : वि० [सं० वि+नि√पत् (पतन होना)+णिच्+ण्वुल्-अक] विनिपात अर्थात् विनष्ट करनेवाला।
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विनिपाती (तिनि)  : वि० [सं०]=विनिपातक।
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विनिमय  : पुं० [सं०] १. एक वस्तु लेकर उसके बदले में दूसरी वस्तु देना। परिवर्तन (बार्टर) २. वह प्रक्रिया जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न पक्षों या देशों का लेन-देन विनिमय-पत्रों के अनुसार होता है। ३. वह प्रक्रिया जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न देशों के सिक्कों के आपेक्षिक मूल्य स्थिर होते हैं और जिसके अनुसार आपसी लेन-देन चुकाये जाते हैं। ४. किसी क्षेत्र में, किसी से कुछ पाकर उसके बदले में वैसा ही कुछ देना। (एक्सचेंज अंतिम तीनों अर्थों के लिए)। जैसे—विचार विनिमय। पद—विनिमय की दर=वह निश्चित की हुई दर जिस पर देशों के सिक्के परस्पर बदले जाते हैं। ५. गिरवी या बन्धक रखना। ६. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कुछ कम देकर बहुत कुछ लेने का वर्णन रहता है।
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विनियंत्रण  : पुं० [सं० ब० स०] [भू० कृ० विनियंत्रित] १. नियंत्रण उठा लेना। २. व्यापारिक क्षेत्र में शासन द्वारा किसी चीज की बिक्री, मूल्य आदि पर लगाये हुए नियंत्रण का हटाया जाना (डि-कन्ट्रोल)।
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विनिमय  : पुं० [सं० वि+नि√यम् (रोकना)+घञ्] १. रोक। २. संयम। ३. नियंत्रण। ४. शासन। ५. आज-कल कोई ऐसा विशिष्ट नियम जो किसी नये निश्चय या आदेश के अनुसार बनाया गया हो। (रेगुलेशन)।
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विनियोग  : पुं० [सं० वि+नि√युज् (संयुक्त करना)+घञ्] १. फल-प्राप्ति के उद्देश्य से किसी वस्तु का होनेवाला उपयोग। २. वैदिक कृत्य में मन्त्रों का होनेवाला प्रयोग। ३. प्रवेश। पैठ। ४. प्रेषण। भेजना। ५. व्यापार में पूँजी लगाना। ६. किसी विशिष्ट उद्देश्य, प्रयोजन आदि के निमि्त्त संपत्ति आदि किसी दूसरे को देना। (एप्रोप्रियशन)। ७. संपत्ति आदि बेचकर निकालना (डिस्पोजल)।
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विनियोजक  : पुं० [सं०] विनियोजन या विनियोग करनेवाला।
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विनियोजन  : पुं० [सं०] [वि० विनियोज्य, भू० कृ० विनियुक्त, विनियोजित] १. विनियोग करना। २. विशेष रूप से नियक्त करना। ३. भेजना। प्रेषण। ४. अर्पण।
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विनिर्गत  : भू० कृ० [सं०] १. बाहर निकाला हुआ। २. बीता हुआ। व्यतीत। ३. मुक्त।
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विनिर्गम  : पुं० [सं० वि+निर्√गम् (जाना)+अप्] १. बाहर निकलना। २. प्रस्थान या यात्रा करना।
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विनिवेशन  : वि० [सं० वि+नि√विश् (प्रवेश करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विनिवेशित, वि० विनिवेशी] १. प्रवेश। घुसना। २. अवस्थित या स्थित होना। अधिष्ठान। ३. स्थान आदि का बसना।
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विनिवेशी (शिन्)  : वि० [सं० वि+नि√विश्+णिनि] [स्त्री० विनिवेशनी] १. प्रवेश करनेवाला। घुसनेवाला। २. बसने या रहनेवाला।
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विनिश्चय  : पुं० [सं० वि+निस्√चि (चयन करना)+अच्] किसी विषय में खूब सोच-समझकर किया जानेवाला निश्चय या निर्णय। (डेसीज़न)।
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विनिषिद्ध  : भू० कृ० [सं०] [भाव० निशिषिद्धता] १. जिसका विशेष रूप से निषेध हुआ हो। २. जिसका शासन द्वारा विधिक रीति से निषेध किया गया हो। (कन्ट्राबैड) जैसे—विनिषिद्ध व्यापार।
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विनिषिद्ध व्यापार  : पुं० [सं० ष० त०] वह व्यापार जिसे शासन ने विनिषिद्ध ठहराया हो (कन्ट्राबैंट ट्रेड)।
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विनीत  : वि० [सं० वि√नी (ढोना)+क्त] [भाव० विनीतता, विनीति] १. जिसमें विनय हो। विनय से युक्त। २. सुशील। ३. नम्र और शिष्ट। ४. नम्रतापूर्वक किया जानेवाला। जैसे— विनीत निवेदन। ५. जितेन्द्रिय। संयमी। ६. ग्रहण किया हुआ। ७. शिक्षित। ८. अलग या दूर किया हुआ। ९. दंडित। १॰. साफ किया हुआ। पुं० १. वणिक। बनिया। २. व्यापारी। ३. ऐसा घोड़ा जो जोत, सवारी आदि के काम में सघा हुआ हो। ४. दमनक या दीना नाम का पौधा।
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विनीति  : स्त्री० [सं० वि√नी (दोना)+क्तिन्] १. विनय। २. सदव्यवहार। ३. सम्मान।
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विनु  : अव्य=बिना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनुक्ति  : स्त्री० [सं०] १. श्रौत सूत्र के अनुसार एक प्रकार का एकाह-कृत्य। २. दूर करना। हटाना।
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विनूठा  : वि०=अनूठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विनोक्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] साहित्य में एक अर्थालंकार जो उस समय माना जाता है जब कोई वस्तु स्वयं शोभायुक्त होती है तथा किसी अन्य वस्तु के होने या न होने से उसकी शोभा पर प्रभाव नहीं पड़ता।
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विनोद  : पुं० [सं० वि√नुद् (प्रेरणा देना)+घञ्] १. ऐसा काम या बात जिसका मुख्य प्रयोजन अपना (और दूसरे का भी) मन बहलाना तथा प्रसन्न रखना होता है। जैसे—खेल तमाशा आदि २. उक्त के द्वारा होनेवाला मन-बहलाव तथा प्राप्त होनेवाला आनन्द। ३. हँसी-ठट्ठा। ४. एक प्रकार का प्रासाद। ५. कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का आलिंगन।
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विनोद-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] मनुष्य की वह वृत्ति जो उसे विनोद करने और विनोदपूर्ण बातें समझने और प्रसन्नतापूर्वक सहन करने में समर्थ करती है (सेन्स आँफ ह्यूमर)।
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विनोदी (दिन्)  : वि० [सं० वि√नुद्+णिनि] [स्त्री० विनोदिनी] १. विनोद संबंधी। २. विनोद-प्रिय। जैसे—विनोदी स्वभाव। ३. विनोद के द्वारा जी बहलाने या मन को प्रसन्न करनेवाला। विनोदशील। ४. हँसी-दिल्लगी करनेवाला। हँसोड़।
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विन्यसन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विन्यस्त]=विन्यास।
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विन्यस्त  : भू० कृ० [सं० वि+नि√अस् (होना)+क्त] १. रखा हुआ। स्थापित। २. क्रम से या सजाकर रखा हुआ। ३. अच्छी तरह जोड़ा, बैठाया या लगाया हुआ। ४. फेंका हुआ। क्षिप्त।
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विन्यास  : पुं० [सं० वि+नि√अस् (होना)+घञ्] [वि० विन्यस्त] १. कोई चीज कहीं स्थापित करना। जमाकर रखना। २. सजाने सँवारने ठीक स्थान पर रखने तथा ठीक क्रम से लगाने की क्रिया या भाव। जैसे—केश-विन्यास, वस्तु-विन्यास।
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विपंचक  : पुं० [सं०वि√पंच् (विस्तार करना)+ण्वुल-अक] भविष्यवक्ता
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विपंची  : स्त्री० [सं० वि√पंच्+अच्+ङीष्] १. क्रीड़ा। खेल। २. वीणा की तरह का एक प्रकार का बाजा।
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विपक्व  : वि० [सं० वि√पंच् (पकना)+क्त] १. अच्छी तरह पका हुआ। २. पूरी बाड़ पर पहुँचा हुआ। ३. जो पका न हो। कच्चा।
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विपक्ष  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० विपक्षता] १. विपक्षी। (दे०)। पुं० १. किसी पक्ष या पहलू के सामने या नीचेवाला पक्ष या पहलू। २. किसी पक्ष, दल आदि के विचार से विरोधी पक्ष का दल। विशेषतः ऐसा पक्ष या दल जिससे विरोध, शत्रुता, विवाद आदि हो। ३. विरुद्ध व्यवस्था या बाधक नियम। ४. विरोध। ५. व्याकरण में किसी नियम के विरुद्ध अथवा उससे भिन्न व्यवस्था। बाधक नियम। अपवाद। ६. तर्कशास्त्र में ऐसा पक्ष जिसमें साध्य का अभाव हो।
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विपक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं०] १. (पक्षी) जिसके डैने या पंख न हो। २. जिसका संबंध विपक्ष (विरोधी दल आदि) से हो। ३. जिसके पक्ष में कोई न हो। ४. उलटा। विपरीत। पुं० १. विरोधी। २. दुश्मन। शत्रु। ३. प्रतिद्वन्द्वी। पुं० [सं० विपक्षिन्] वह जो किसी पक्ष के विरोधी पक्ष में हो। दूसरा फरीक।
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विपचन  : पुं० [सं०] शरीर में पोषक तत्त्वों या द्रव्यों का पहुँचकर भिन्न-भिन्न रसों आदि के रूप में परिवर्तित होना। उपापचयन। चयापचयन। (मेटाबोलिज़्म)।
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विपज्जनक  : वि० [सं०] विपत्ति उत्पन्न करने या लानेवाला।
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विपणन  : पुं० [सं०] बाजार में जाकर माल खरीदने या बेचने की क्रिया या भाव (मारकेंटिग)।
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विपणि (णी)  : स्त्री० [सं०] १. बाजार। हाट। २. बिक्री का माल। ३. क्रय-विक्रय। खरीद-फरोख्त।
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विपत्तन  : पुं० [सं० वि+पत्तन] आधुनिक राजविधानों में किसी ऐसे व्यक्ति को अपने देश से बाहर निकाल देना जो जनता या राज्य के हित के विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। देश-निकाला (डिपोर्टेशन)।
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विपत्ति  : स्त्री० [सं० वि√पद् (गमन)+क्तिन्] १. ऐसी घटना या स्थिति जिसके फल-स्वरूप कष्ट चिंता या हानि अधिक मात्रा में होती हो या होने की सम्भावना हो। क्रि० प्र०—आना।—झेलना।—टलना।—ढाना।—पड़ना।—भुगतना।—भोगना। २. झंझट या बखेड़े का काम या बात।
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विपत्र  : पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें किसी से प्राप्य धन का ब्योरा होता है। प्राप्यक (बिल)।
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विपथ  : पुं० [सं०] १. खराब या बुरा रास्ता। ऐसा रास्ता जिस पर चलने से कष्ट, हानि आदि हो सकती हो। २. बगल का रास्ता। २. एक प्रकार का रथ। ४. अनुचित कामों में प्रवृत्त होना।
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विपथगामी (मिन्)  : वि० [सं०] १. विपथ पर चलनेवाला। २. चरित्रहीन। कुमार्गी।
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विपथन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विपथित] अपने उचित या नियत पथ या मार्ग से हटकर इधर-उधर होना (एबेरेशन)।
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विपद्  : स्त्री० [सं० वि√पद् (गमन)+क्विप्] १. विपत्ति। आफत। संकट। २. मृत्यु। ३. नाश।
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विपदा  : स्त्री० [सं० विपद्+टाप्] १. विपत्ति। आफत। २. दुःख। ३. शोक या संकट।
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विपन्न  : भू० कृ० [सं० वि√पद् (गमन)+क्त] १. विपत्ति में पड़ा हुआ। विपत्तिग्रस्त। २. कठिनाई या झंझट में पड़ा हुआ। ३. आर्त्त। दुःखी। ४. धोखे या भ्रम में पड़ा हुआ। ५. मरा हुआ। मृत। जो नष्ट हो चुका हो। विनष्ट। ७. भाग्यहीन। अभागा।
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विपरीत  : वि० [सं० वि+परि√इ (गमन)+क्त] [भाव जो विपरीतता] १. जैसा होना चाहिए उसका उलटा। उलटे, क्रम स्थिति आदि में होनेवाला। २. जो अनुकूल या मुआफिक न हो। मेल न खानेवाला। ३. नियम के विरुद्ध होनेवाला। गलत। ४. असत्य। मिथ्या। पुं० केशव के अनुसार एक अर्थालंकार जिसमें कार्य की सिद्धि में स्वयं साधक या बाधक होना दिखाया जाता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विपरीतक  : वि० [सं० विपरीत+कन्] विपरीत। पुं०=विपरीत रति।
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विपरीत-रति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] साहित्य में ऐसी रति जिसमें संभोग के समय पुरुष नीचे और स्त्री ऊपर रहती है। काम-शास्त्र का पुरुषायित बन्ध।
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विपरीत-लक्षणा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] किसी चीज की ऐसी व्यंग्यपूर्ण अभिव्यक्ति जिसमें परस्पर विरोधी गुणों, लक्षणों आदि का उल्लेख भी हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विपरीत लिंग  : पुं० दे० ‘लिंग’ (न्यायशास्त्रवाला विवेचन)।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विपरीता  : स्त्री० [सं० विपरीत+टाप्] १. बदचलन स्त्री। दुराचारिणी। २. दुश्चरित्रा पत्नी।
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विपरीतार्थ  : वि० [सं० कर्म० स०] विपरीत अर्थात् उलटे अर्थवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
विपरीतोपमा  : स्त्री० [सं० ष० त०] केशव के अनुसार एक अलंकार जिसमें किसी भाग्यवान् व्यक्ति की हीनता वर्णन की जाय और अति दीन दशा में दिखाया जाय।
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विपर्ण  : वि० [सं०] जिसमें पर्ण या पत्ते न हों। पुं० एक साथ या आमने-सामने लगी हुई रसीदों आदि का वह बाहरी भाग जो लिख या भरकर किसी को दिया जाता है (आउटर फॉयल)।
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विपर्णक  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें पत्तें न हों। पुं० टेसू। पलास।
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विपर्यय  : पुं० [सं० वि+परि√ई (गमन)√अच्] १. ऐसा उलट-फेर या परिवर्तन जिससे किसी क्रम के अन्तर्गत कोई कुछ आगे और कोई कुछ पीछे हो जाय। पारस्परिक स्थान-परिवर्तन करनेवाला हेर-फेर। (ट्रांसपोजीशन)। जैसे—‘पिटारा’ से ‘टिपारा’ में होनेवाला वर्णविपर्यय। व्यतिक्रम। २. उलटकर फिर पहले रूप स्थान आदि में लाना। (रिर्वशन)। ३. कुछ को कुछ समझना। मिथ्या ज्ञान। भ्रम। ४. गलती भूल। ५. अव्यवस्था। गड़बड़ी। ६. नाश। बरबादी।
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विपर्यस्त  : भू० कृ० [सं० विपरि+अस्त,वि+परि√अस् (होना)+क्त] १. जिसका विपर्यय हुआ हो। जो उलट-पुलट गया हो जो इधर का उधर हो गया हो। २. इधर-उधर बिखरा हुआ। अस्त-व्यस्त। ३. चौपट। बरबाद। ४. जो ठीक न समझकर उलट दिया या रद्द कर दिया गया हो।
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विपर्यास  : पुं० [सं० वि+परि+अस् (होना)√घञ्] [वि० विपर्यस्त] १. विपर्य्यय। उलट-पलट। व्यतिक्रम। २. जैसा होना चाहिए, उसके विरुद्ध कुछ और ही हो जाना। ३. भ्रम। भ्रांति।
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विपल  : पुं० [सं० ब० स०] पल का साठवाँ अंश।
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विपश्चन  : पुं० [सं०] प्रकृत ज्ञान। यथार्थ बोध (बौद्ध)।
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विपश्चित  : वि० [सं०] जिसे यथार्थ ज्ञान हो। अच्छा ज्ञाता।
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विपाक  : पुं० [सं० वि√पच् (पकना)+घञ्] १. परिपक्व होना। पकना। २. पूरी तरह से तैयार होकर काम में आने के योग्य होना। ३. खाई हुई चीज का पचना। हजम होना। ४. परिणाम या फल। ५. किये हुए कर्मों का फल। ६. जायका। स्वाद। ७. दुर्गति। दुर्दशा। ८. विपत्ति। ९. विपर्यय।
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विपाटन  : पुं० [सं० वि√पट् (गमन)+णिच्+ल्युट-अन] [वि० विपाटक, भू० कृ० विपाटित] १. उखाड़ना खोदना। २. तोड़ना-फोड़ना।
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विपाटल  : वि० [सं० तृ० त०] गहरा लाल (रंग)।
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विपाठ  : पुं० [सं०] एक तरह का बड़ा तीर।
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विपात  : पुं० [सं० वि√पत् (गिरना)+घञ्] १. पतन। २. नाश।
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विपातन  : पुं० [सं० वि√पत् (गिराना)+णिच्+ल्युट-अन] १. विपात करना। २. गिराना। ३. नष्ट करना। ४. गलाना।
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विपादिका  : स्त्री० [सं० विपाद+कन्+टाप्, इत्व] १. अपरस नामक रोग। २. पैर में होनेवाली बिवाई। ३. प्रहेलिका। पहेली।
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विपाल  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे किसी ने पाला हो। २. जिसका कोई पालक न हो। अनाथ।
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विपासा  : स्त्री० [सं० विपास+टाप्] पंजाब की व्यास नदी का पुराना नाम।
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विपिन  : पुं० [सं०√वेप् (काँपना)+इनन्] १. वन। जंगल। २. उपवन। वाटिका। ३. समूह। वि० घना। सघन।
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विपिनचर  : वि० [सं० विपिन√चर् (चलना)+अच्] १. वन में रहनेवाला वनचर। पुं० १. जंगली आदमी। २. जंगली जीव-जन्तु।
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विपिनतिलका  : स्त्री० [सं० ष० त०+टाप्] एक प्रकार की वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में नगण, रगण, नगण और दो रगण होते हैं।
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विपिनपति  : पुं० [सं० ष० त०] वनराज। सिंह।
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विपिनबिहारी  : वि० [सं० विपिन-वि√हृ (हरण करना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप, विपिन+बिहारी] विचरनेवाला। पुं० श्रीकृष्ण।
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विपुंसक  : वि० [सं० ब,० स०] नपुंसक।
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विपुंसी  : स्त्री० [सं० विपुंस+ङीष्] वह स्त्री जिसकी चेष्टा, स्वभाव, या आकृति पुरुषों की सी हो। मर्दानी औरत।
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विपुत्र  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विपुत्री] जिसके आगे पुत्र न हो। पुत्र-हीन। निपूत।
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विपुर  : वि० [सं० ब० स०] जिसके रहने का स्थान निश्चित न हो।
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विपुल  : वि० [सं०] [स्त्री० विपुला] [भाव० विपुलता] १. संख्या या परिमाण में बहुत अधिक। २. बहुत बड़ा। विशाल। ३. बहुत गंभीर या गहरा। पुं० १. सुमेरु पर्वत का पश्चिमी भाग। २. हिमालय। ३. एक प्रसिद्ध पर्वत जिसकी अधिष्ठाती देवी विपुला कही गई है। ४. राजगृह के पास की एक पहाड़ी।
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विपुलक  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत चौड़ा। २. पुलक से रहित।
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विपुलता  : स्त्री० [सं० विपुल+टाप्] विपुल होने की अवस्था या भाव।
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विपुला  : स्त्री० [सं० विपुल+टाप्] १. पृथ्वी। २. विपुल नामक पर्वत की अधिष्ठाती देवी। ३. एक प्रकार का छन्द जिसके प्रत्येक चरण में भगण, रगण और दो लघु होते हैं। ४. आर्या छन्द के तीन भेदों में से एक जिसके प्रथम चरण में १८ दूसरे में १२ तीसरे में १४ और चौथे में १३ मात्राएँ होती हैं।
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विपुलाई  : स्त्री०=विपुलता।
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विपुष्ट  : वि० [सं०] १. जो अच्छी तरह पुष्ट न हो। २. जिसे भरपेट खाने को न मिलता हो।
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विपुष्प  : वि० [सं० ब० स०] पुष्पहीन (वृक्ष)।
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विपूयक  : पुं० [सं०√पूय् (दुर्गन्ध करना)+अच्+कन्] १. सड़ायँध। २. सड़ा हुआ मुर्दा। (बौद्ध)।
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विपृक्त  : भू० कृ० [सं० वि√पृच् (पृथक् करना)+क्त] अलग किया हुआ।
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विपोहना  : स० [सं० वि+प्रोत] १. पोतना। २. लीपना। स०=पोहना।
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विप्र  : पुं० [सं०√वप् (बीज फैलाना)+रनिपा० सिद्धि अथवा वि√प्रा (पूर्ण करना)+ड] १. ब्राह्मण। २. पुरोहित। ३. कर्मनिष्ठ और धार्मिक व्यक्ति। ४. पीपल। ५. सिरस का पेड़। ५. पापर या रेणु का नाम का पौधा। वि० १. मेधावी। २. विद्वान्।
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विप्रक  : पुं० [सं० विप्र+कन्] नीच ब्राह्मण।
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विप्रकर्षण  : पुं० [सं० वि+प्र√कृष् (आकर्षण करना)+ल्युट-अन] [वि० विप्रकृष्ट] १. दूर खींचकर ले जाना। दूर हटाना। २. काम पूरा करना।
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विप्रकार  : पुं० [सं० वि+प्र√कृ (करना)+घञ्] [वि० विप्रकृत] तिरस्कार। अनादर। २. अपकार।
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विप्रकीर्ण  : वि० [सं० वि+प्र√कृ (फेंकना)+क्त] १. बिखरा या छितराया हुआ। इधर-उधर गिरा पड़ा। २. अस्त व्यस्त। अव्यवस्थित।
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विप्रकृष्ट  : भू० कृ० [सं० वि+प्र√कृष् (खींचना)+क्त] १. खींचकर दूर किया हुआ। २. दूर का। दूरस्थ।
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विप्रगीत  : वि० [सं० वि+प्र√गा (गाना)+क्त, ब० स०] जिसके संबंध में मतभेद हो (जैन)।
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विप्र-चरण  : पुं० [सं०] [सं० विप्र+चरण] भृगु मुनि की लात का चिन्ह जो विष्णु के हृदय पर माना जाता है।
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विप्रता  : स्त्री० [सं० विप्र+तल्+टाप्] १. विप्र होने की अवस्था या भाव। २. ब्राह्यणत्व।
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विप्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं०] १. मतों, विचारों स्वार्थों में आदि होनेवाला झगड़ा। मतभेद या संघर्ष। विरोध। २. किसी काम या बात पर की जानेवाली आपत्ति। ३. किसी के प्रति होनेवाला शत्रुतापूर्ण भाव। ४. भूल। ५. न्याय में, ऐसा कथन जिसमें दो परस्पर विरोधी बातें हों। ६. बदनामी।
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विप्रतिपन्न  : भू० कृ० [सं० वि+प्रति√पद् (गमन)+क्त] १. जिसमें प्रतिपत्ति का अभाव हो। २. संदिग्ध। ३. जो स्वीकृत न हो। अग्राह्य। अमान्य। ४. जो प्रमाणित या सिद्ध न हुआ हो। अप्रमाणित। असिद्ध।
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विप्रतिषिद्ध  : वि० [सं० वि+प्रति√षिध् (मना करना)+क्त] १. जिसका निषेध किया गया हो। निषिद्ध। (स्मृति)। २. उल्टा। विरुद्ध। ३. मना किया हुआ। वर्जित।
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विप्रतिषेध  : पुं० [सं० वि+प्रति√षिध् (मना करना)+घञ्] १. नियन्त्रण में रखना। २. दो सम कार्य-प्रणालियों का संघर्ष। ३. व्याकरण में वह जटिल स्थिति जो दो विभिन्न नियमों के एक साथ प्रयुक्त होने के फलस्वरूप उत्पन्न होती है।
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विप्रत्यय  : पुं० [सं० मध्यम० स०] प्रत्यय या विश्वास का अभाव। अविश्वास।
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विप्रत्य  : पुं० [सं० विप्र+त्व] विप्रता।
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विप्रथित  : वि० [सं० वि√प्रथ (ख्यात करना)+क्त] विख्यात। मशहूर।
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विप्र-पद  : पुं० [सं० ष० त०] विप्र-चरण।
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वि-प्रपात  : पुं० [सं० तृ० त०] १. विशेष रूप से होनेवाला पतन। बिलकुल गिर जाना। २. ढालुआँ। पुं०=खाईं।
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विप्र-बंधु  : पुं० [सं० ष० त० या ब० स०] १. वह ब्राह्मण जो अपने कर्म से च्युत हो। नीच ब्राह्मण। २. एक मंत्रद्रष्टा। ऋषि।
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विप्रबुद्ध  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० विप्रबुद्धता] १. अच्छी तरह जागा हुआ और सचेत। जागरुक। २. ज्ञानी।
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विप्रमाथी (थिन्)  : वि० [सं० वि+प्र√मथि (मथन करना)+णिनि] [स्त्री० विप्रमाथिन] १. अच्छी तरह मथन करनेवाला। २. ध्वंस या नाश करनेवाला। ३. व्याकुल या क्षुब्ध करनेवाला।
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विप्रयुक्त  : वि० [सं० तृ० त०] १. अलग किया हुआ। २. बिछुड़ा हुआ। विमुक्त। ३. बाँटा हुआ। विभक्त।
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विप्रयोग  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विप्रयुक्त] १. अलग या पृथक् होने की अवस्था या भाव। अलगाव। पार्थक्य। २. किसी बात या वस्तु से रहित या हीन होने की अवस्था या भाव। ‘संयोग’ का विरुद्धार्थक। जैसे—बिना धनुष-बाण के राम। (यदि धनुष-बाण वाला राम कहा जायगा तो वह संयोग कहलाएगा) ३. साहित्य में विप्रलंभ के दो भेदों में से एक जो उस मानसिक कष्ट या विरह का सूचक है, जो दूसरे से विवाह हो जाने पर कौमार्य अवस्था के प्रेम-पात्र से स्मरण से होता है। (आयोग से भिन्न) ४. वियोग। विरह। ५. बुरा या दुःखद समाचार।
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विप्रयोगी (गिन्)  : वि० [सं० वि+प्रयोग+इनि] १. विप्रयोग-संबंधी। २. विप्रयोग करनेवाला। विमुक्त।
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विप्र-राम  : पुं० [सं०] परशुराम।
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विप्रर्षि  : पुं० [सं० विप्र+ऋषि] वह ऋषि जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हो। जैसे— विप्रर्षि दुर्वासा।
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विप्रलंभ  : पुं० [सं०] १. छलपूर्ण व्यवहार। २. बात बनाकर या वादा न पूरा करके किसी को धोखा देना। ३. मतभेद के कारण होनेवाला झगड़ा। ४. अभीष्ट वस्तु प्राप्त न होना। चाही हुई चीज न मिलना। ५. एक दूसरे से अलग होना। विच्छेद। ६. साहित्य में प्रेमी या प्रेमिका का वियोग या विरह ७. साहित्य में अलंकार का वह प्रकार या भेद जिसके कारण नायक और नायिका के विरह का वर्णन होता है। ८. अनुचित या बुरा काम।
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विप्रलंभक  : वि० [सं० विप्रलंभ+कन्] धोखा देकर या वचन भंग कर दूसरों को छलनेवाला। धूर्त और धोखेबाज।
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विप्रलंभन  : पुं० [सं० वि+प्र+√लभ् (वादा करना)+ल्युट-अन, नुम्] [भू० कृ० विप्रलंभित] छल करना। धोखा देना।
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विप्रलंभी (भिन्)  : वि० [सं०] विप्रलंभक।
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विप्रलब्ध  : भू० कृ० [सं०] १. जिसे किसी ने छला हो। २. जिससे वादा-खिलाफी की गई हो। ३. निराश। ४. वंचित। ५. जिसका प्रिय से समागम न हुआ हो। वियुक्त।
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विप्रलब्धा  : स्त्री० [सं० विप्रलब्ध+टाप्] १. साहित्य में वह नायिका जिसे प्रिय उसे वचन देकर भी संकेत स्थल पर न आया हो। वह नायिका जो प्रिय के वचन भंग करने तथा संकेत-स्थल पर न मिलने के कारण दुःखी हो।
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विप्रलाप  : पुं० [सं०] १. व्यर्थ की बकवाद। प्रलाप। २. झगड़ा विवाद। ३. दुर्वचन।
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विप्रलापी (पिन्)  : वि० [सं० वि+प्रलाप+इनि] विप्रलाप करनेवाला।
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विप्रलुंपक  : पुं० [सं० विप्रलुम्प+कन्] १. बहुत बड़ा लालची और लोभी। २. वह जो अपने लिए औरों को कष्ट देता या पीड़ित करता हो। ३. वह शासक जो बहुत अधिक कर लेता हो।
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विप्रलुप्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जो लूटा गया हो। अपहृत। २. गायब या लुप्त किया हुआ। ३. जिसके काम में विघ्न डाला गया हो।
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विप्रलोप  : पुं० [सं० तृ० त०] [वि० विप्रलुप्त] १. बिलकुल लोप। २. पूरा नाश।
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विप्रवाद  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. बुरे वचन। २. बकवाद। कलह। विवाद। ४. मतैक्य का अभाव। मतभेद।
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विप्रवास  : पुं० [सं० कर्म० स०] [भाव० विप्रवासित] १. परदेश में रहना। प्रवास। २. सन्यासी का अपने वस्त्र दूसरे को देना जो एक अपराध या दोष माना गया है।
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विप्र-व्रजनी  : स्त्री० [सं०] दो पुरुषों से यौन-संबंध रखनेवाली स्त्री।
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विप्रश्न  : पुं० [सं० मध्यम० स०] ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर फलित ज्योतिष के द्वारा दिया जाय।
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विप्रश्निक  : पुं० [सं०] [स्त्री० विप्रश्निका] दैवज्ञ। ज्योतिषी।
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विप्र-हरण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. परित्याग। २. मुक्ति।
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विप्राधिप  : पुं० [सं० ष० त०] चंद्रमा।
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विप्रिय  : वि० [सं० वि√प्री (प्रसव करना)+क्त] १. जो प्रिय न हो। अप्रिय। २. कटु और तीक्षण। ३. जो रुचि के अनुकूल न हो। पुं० १. अप्रिय काम या बात। २. अपराध। कसूर। ३. वियोग। विरह।
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विप्रेत  : वि० [सं० तृ० त०] १. बीता हुआ। गत। २. अस्त-व्यस्त। छिन्न-भिन्न।
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विप्रेषित  : भू० कृ० [सं० वि+प्र√वस् (निवास करना)+क्त] १. देश से निकाला हुआ। २. देश से बाहर गया हुआ। ३. अनुपस्थित।
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विप्लव  : पुं० [सं० वि√प्लु (तैरना कूदना)+अप्] १. पानी की बाढ़। २. किसी चीज का पानी में डूबना। ३. उथल-पुथल। हल-चल। ४. उत्पात। उपद्रव। ५. देश या राज्य में होनेवाला ऐसा उपद्रव जिससे शांति में बाधा पड़े। बलवा। ६. आफत। विपत्ति। ७. विनाश। ८. डाँट-डपट। ९. अनादर। १॰. घोड़े की बहुत तेज चाल।
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विप्लवक  : वि० [सं० विप्लव+कन्] विप्लव करनेवाला।
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विप्लवी (विन्)  : वि० [सं० वि√प्लु+णिनि] १. क्रांति करनेवाला। २. क्षण-भंगुर।
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विप्लाव  : वि० [सं० वि√प्लु+घञ्] १. पानी की बाढ़। २. घोड़े की बहुत तेज चाल।
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विप्लावक  : वि० [सं० वि√प्लु+ण्वुल्-अक] विप्लव करने या करानेवाला।
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विप्लावन  : पुं० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] १. निंदा करना। २. अपशब्द कहना।
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विण्लावी  : वि० [सं० विप्लाविन] [स्त्री० विप्लाविनी] १. उपद्रव करनेवाला। २. बाढ़ लानेवाला। ३. निंदक।
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विप्लुत  : वि० [सं०] [भाव० विप्लुति] १. छितराया या बिखरा हुआ। अस्त-व्यस्त। २. घबराया हुआ। हक्का-बक्का। ३. तोड़ा या भंग किया हुआ। (वचन आदि) ४. आचार-भ्रष्ट। चरित्रहीन। ५. नियम, प्रतिज्ञा, आदि से च्युत। ६. अस्पष्ट। ७. विपरीत। विरुद्ध।
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विप्सा  : स्त्री०=वीप्सा (दे०)।
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विफल  : वि० [सं०] १. (वृक्ष) जिसमें पल न लगे हों या न लगते हों। २. जिसके अण्डकोश न हों या काट दिये गये हों। ३. निरर्थक। ४. जिसका उद्देश्य सिद्ध न हुआ हो। ५. जिसके प्रयत्न का कोई फल न हुआ हो। ६. जो परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ हो।
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विफलता  : स्त्री० [सं० विफल+तल्+टाप्] विफल होने की अवस्था या भाव।
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विबंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. बहुत बड़ा बन्धन। २. पेट के अफरा नामक रोग का एक भेद। ३. अनाज, भूसे आदि का ढेर। ४. बैलों आदि के कन्धे पर रखा जानेवाला जूआ। जुआठा। ५. चौड़ी और बड़ी सड़क। राजमार्ग। ६. प्राचीन काल में वह आय जो राजा को प्रजा से होती थी। ७. बन्धन। हथकड़ी।
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विबंधन  : पुं० [सं० तृ० त०] [वि० विबंधक] १. बाँधने की क्रिया या भाव। २. पीठ, छाती, पेट आदि के घाव या फोड़े पर बाँधी जानेवाली पट्टी (सुश्रुत)। ३. बाधा। रुकावट।
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विबंधु  : वि० [सं० ब० स० वि+बन्धु] १. जिसके भाई-बन्धु न हों। बन्धुहीन। २. अनाथ।
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विबल  : वि० [सं० मध्यम० स०] १. बल या शक्ति से रहित। अशक्त। २. विशेष रूप से बलवान्। बहुत बड़ा बली।
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विबाध  : वि० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] बाधारहित।
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विबुद्ध  : वि० [सं० तृ० त० वि०+बुद्ध] [भाव० विबुद्धता] १. जागा हुआ। जाग्रत। २. खिला हुआ। विकसित। ३. ज्ञानवान्।
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विबुध  : पुं० [सं० वि√बुध (जानना)+क] १. पंडित। बुद्धिमान्। २. देवता। ३. चन्द्रमा। ४. शिव। वि० विद्वानों से रहित।
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विबुधतरु  : पुं० [ष० त०] कल्पवृक्ष।
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विबुधधेनु  : स्त्री० [सं०] कामधेनु।
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विबुधनदी  : स्त्री० [ष० त०] आकाश-गंगा।
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विबुधपति  : पुं० [ष० त०] देवताओं का राजा, इन्द्र।
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विबुधपुर  : स्त्री० [सं० ष० त०] देवताओं का देश, स्वर्ग।
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विबुधप्रिया  : स्त्री० [सं०] चंचरी या चर्चरी नामक छंद का दूसरा नाम।
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विबुधबेलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] कल्पलता।
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विबुध-वन  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र का कानन।
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विबुध-विलासिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. देवांगना। २. अप्सरा।
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विबुध-वैद्य  : पुं० [सं० ष० त०] देवताओं के चिकित्सक, अश्विनीकुमार।
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विबुधाचार्य  : पुं० [सं० विबुध+आचार्य, ष० त०] बृहस्पति।
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विबुधान  : पुं० [सं० वि√बुध (जानना)+शानच्] १. पंडित। आचार्य। २. देवता।
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विबुधापगा  : स्त्री० [सं० विबुध-आपगा, ष० त०] आकाश गंगा।
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विबुधावास  : पुं० [सं० ष० त० विबुध+आवास] १. स्वर्ग। २. देव-मंदिर।
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विबुधेंद्र  : पुं० [सं० विबुध+इन्द्र, ष० त०] इंद्र।
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विबुधेश  : पुं० [सं० ष० त० विबुध+ईश] देवताओं का राजा, इन्द्र।
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विबोध  : पुं० [सं० मध्यम० स०] १. जागरण। जागना। २. अच्छा और पूरा ज्ञान। ३. चेतनता। होश-हवास। वि० जिसे बोध या ज्ञान न हो।
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विबोधन  : पुं० [सं० वि√बुध् (जानना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विबोधित] १. जगाना। प्रबोधन। २. ज्ञान कराना। ३. ढाढस या सांत्वना देना। ४. प्रस्फुटित करना। खिलाना।
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विब्वोक  : पुं० [सं०] विब्वोक (हाव)।
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विभंग  : पुं० [सं० ब० स०] [भू० कृ० विभाग्न] १. सब चीजें यथास्थान रखना या लगाना। विन्यास। २. टूटना। ३. विभाग। ४. विश्रृंखल होना। ५. भौहों से की जानेवाली चेष्टा। भू-भंग। ६. मन का भाव प्रकट करनेवाली चेष्टा। ७. किसी कड़ी या ठोस चीज का आघात आदि के कारण बीच से टूट जाना। (फ्रैक्चर) जैसे—अस्थिविभंग।
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विभंगि  : स्त्री० [सं० विभंग+इनि] १. अनुकृति। २. भंगी।
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विभंगी (गिन्)  : वि० [सं० वि√भज् (भंग होना)+णिनि] १. कंपशील। २. झुर्रियोंवाला।
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विभंगुर  : वि० [सं०] अस्थिर।
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विभक्त  : भू० कृ० [सं०वि√भज् (भाग करना)+क्त, तृ० त०] १. जिसके विभाग किए गये हों। २. अलग किया हुआ। ३. बाँटा हुआ। जिसे पैतृक संपत्ति से में से अपना अंश प्राप्त हो गया हो। पुं० वह अंश जो किसी को पैतृक संपत्ति में से प्राप्त हुआ हो।
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विभक्तज  : पुं० [सं० विभक्त√जन् (उत्पन्न होना)+ड] सम्पत्ति के बँटवारे के बाद पैदा होनेवाला लड़का। (स्मृति)
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विभक्तवाद  : पुं० [सं०] [वि० विभक्तवादी] यह मत या सिद्धान्त कि त्यागियों तथा साधुओं को संसार या समाज से अलग रहना चाहिए।
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विभक्ति  : स्त्री० [सं० वि√भज्+क्तिन्] १. विभक्त करने या होने की अवस्था या भाव। विभाग। बाँट। २. अलगाव। पार्थक्य। ३. संस्कृत व्याकरण के अनुसार शब्द में लगनेवाला वह प्रत्यय जिससे उस शब्द का कारक, लिंग तथा वचन जाना जाता है।
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विभज्य  : वि० [सं०]=विभाज्य।
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विभर  : वि० [सं० विभा] १. प्रकाशमान्। २. तेजस्वी।
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विभव  : पुं० [सं०] १. ईश्वर का अवतार। २. ऐश्वर्य। ३. धन-संपत्ति। ४. बल। शक्ति। ५. उदारता। ६. अधिकता। बहुतायता। ७. मोक्ष। ८. पालन। ९. विकास। १॰. छत्तीसवाँ संवत्सर।
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विभवकर  : पुं० [सं०] वह कर जो किसी की धन-संपत्ति या वैभव के विचार से लिया जाता है। (वेल्थ टैक्स)
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विभवशाली  : पुं० [सं०] १. संपत्तिशाली। २. शक्तिशाली।
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विभवी (विन्)  : वि० [सं० विभव+इनि, दीर्घ, नलोप]=विभवशाली।
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विभाँति  : स्त्री० [सं० वि+हिं० भाँति] प्रकार। किस्म। वि० अनेक प्रकार का। अव्य० अनेक प्रकार से।
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विभा  : स्त्री० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+क्विप्] १. प्रभा। कान्ति। २. किरण। रश्मि। ३. छवि। शोभा।
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विभाकर  : वि० [सं०] प्रकाश करने या फैलानेवाला। पुं० १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. चित्रक। चीता। ४. अग्नि। आग। ५. राजा।
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विभाग  : पुं० [सं० वि+भज् (भाग करना)+घञ्] १. कोई चीज कई टुकड़ों या भागों में बाँटना। २. उक्त प्रकार से अलग किया हुआ अंश या टुकड़ा। ३. ग्रन्थ का परिच्छेद या प्रकरण। ४. कोई विशिष्ट कार्य करने के लिए अलग किया हुआ क्षेत्र (डिपार्टमेंट)। जैसे— न्याय विभाग। ५. कार्य-संचालन के सुभीते के लिए किसी कार्य-क्षेत्र के कई छोटे-छोटे हिस्सों में से हर एक (सेक्सन)। ६. किसी विशिष्ट कार्य के लिए निश्चित किया हुआ क्षेत्र या खंड (डिविजन)।
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विभागक  : पुं० [सं० विभाग+कन्] १. विभाग करनेवाला। विभाजक। २. विभागीय। (दे०)।
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विभागात्मक-नक्षत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] रोहिणी, आर्द्रा, पुनर्वस्, मघा, चित्रा, स्वाती, ज्येष्ठा और श्रवण आदि आठ प्रकाशमान् नक्षत्र।
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विभागी (गिन्)  : वि० [सं० वि√भज् (भाग करना)+णि] १. विभाग। २. हिस्सेदार।
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विभागीय  : वि० [सं०] किसी विशिष्ट विभाग में होने या उससे संबंध रखनेवाला (डिपार्टमेंटल) जैसे—विभागीय कार्रवाई।
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विभाजक  : वि० [सं० वि्√भज् (भाग करना)+ण्वुल्-अक] १. विभाजन करनेवाला। २. बाँटने वाला। पुं० वह संख्या या राशि जिससे दूसरी संख्या को भाग दिया जाय (गणित)।
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विभाजन  : पुं० [सं० वि√भज् (भाग करना)+णिच्+ल्युट-अन] १. हिस्से लगाना। विभाग करना। २. संयुक्त संपत्ति आदि को उसके स्वामियों द्वारा आपस में बाँटना। ३. पात्र। बरतन।
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विभाजित  : भू० कृ० [सं० वि√भज् (भाग करना)+णिच्+क्त] १. जिसका विभाजन हो चुका हो। २. विभाजन द्वारा जिसका अंश अलग या निकाल लिया गया हो। खंडित। जैसे— विभाजित भारत।
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विभाज्य  : वि० [सं० वि√भज् (भाग करना)+ण्यत्] जिसका विभाजन हो सके या होने को हो।
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विभात  : पुं० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+क्त] सबेरा। प्रभात।
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विभाति  : पुं० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+क्तिन्] शोभा। सुंदरता।
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विभाना  : अ० [सं० विभा+हिं० ना (प्रत्यय)] १. चमकना। शोभित होना। फबना। स० १. चमकाना। सुशोभित करना।
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विभाव  : पुं० [सं०] साहित्य में, वह निमित्त या हेतु जो आश्रय में भाव जाग्रत या उद्दीप्त करता हो। इसके दो भेद है—आलंबन और उद्दीपन।
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विभावक  : वि० [सं० विभाव+कन्] १. अभिव्यक्त करनेवाला। २. तर्क करनेवाला।
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विभावन  : पुं० [वि√भू (होना)+णिच्+युच्-अन] १. सोचने की क्रिया या भाव। २. अनुभूति। ३. परीक्षण। ४. तर्क। ५. साहित्य में वह स्थिति जिसमें कविता या नाटक के पात्र के साथ पाठक या दर्शक का तादात्म्य होता है।
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विभावना  : स्त्री० [सं०] १. कल्पना। २. कारण के अभाव में कार्य की होनेवाली कल्पना। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में एक विरोध मूलक अर्थालंकार। विशेष—यह पाँच प्रकार का कहा गया है— (क) कारण के अभाव में कार्य होना, (ख) अपर्याप्त कारण से कार्य होना। (ग) प्रतिबंधक तत्त्व के होने पर भी कार्य होना। (घ) विरुद्ध कारण द्वारा कार्य होना और, (ड़) कार्य से कारण की व्युत्पत्ति होना।
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विभावनीय  : वि० [सं० वि√भू (होना)+णिच्+अनीयर्] जिसकी भावना अर्थात् चिंतन या विचार हो सके।
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विभावरी  : स्त्री० [सं० वि√भा (प्रकाश करना)+वनिप्+ङीष्-आदेश] १. रात्रि। रात। २. तारों से जगमगाती हुई रात। चतुर और मुखरा स्त्री। ४. कुटनी। दूती। ५. पतिता स्त्री। ६. रखैल। ७. हलदी। ८. मेदा। ९. प्रचेतस की नगरी का नाम।
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विभावरीश  : पुं० [सं० विभावरी-ईश, ष० त०] निशापति। चन्द्रमा।
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विभावसु  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें विशेष प्रकार हो। अधिक प्रभावाला। पुं० १. सूर्य। २. अग्नि। ३. चन्द्रमा। ४. वसुओं के एक पुत्र। ५. नरकासुर का पुत्र एक दानव। ६. एक गंधर्व जिसने गायत्री से वह सोम छीना था जो वह देवताओं के लिए ले जा रही थी। ७. आक। मदार। ८. चित्रक। चीता। ९. गले में पहनने का एक प्रकार का हार।
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विभावित  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] १. जिसकी विभावना हुई हो। कल्पित। २. निश्चित। ३. गृहीत या स्वीकृत।
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विभावी (विन्)  : वि० [सं० वि√भू (होना)+णिनि] १. भावों का उदय करनेवाला। २. प्रकट करने वाला। ३. शक्तिशाली।
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विभाव्य  : वि० [सं० वि√भू (होना)+ण्यत्] जिसके संबंध में विभावना या विचार हो सकता हो। विभावना के लिए उपयुक्त।
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विभाषा  : स्त्री० [सं०] [वि० वैभाषिक] १. यह कहना कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। २. व्याकरण में, ऐसा प्रयोग जिसके संबंध में उक्त प्रकार के दोहरे मत, विचार या सिद्धान्त मिलते हों। ३. उक्त मतों नियमों आदि के चुनाव के संबंध में होनेवाली स्वतंत्रता। ४. भाषा विज्ञान में किसी भाषा की कोई ऐसी बड़ी शाखा जो उसके विशिष्ट विभाग के अन्तर्गत हो और जिसके कई स्थानिक भेद, प्रभेद भी हों। बोली (डायलेक्ट)।
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विभाषित  : वि० [सं० विभाषा+इतच्] जो इस रूप में कहा गया हो कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता।
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विभास  : पुं० [सं० वि√भास् (प्रकाश करना)+अप्] १. चमक। दीप्ति। २. संगीत में सबेरे गाया जानेवाला एक प्रकार का राग। पुराणानुसार एक देव-योनि। ३. तैत्तरीय आरण्यक के अनुसार सप्तर्षियों में से एक।
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विभासक  : वि० [सं० विभास+कन्] [स्त्री० विभासिका] १. चमकने या चमकानेवाला। प्रकाशयुक्त। २. प्रकट या व्यक्त करनेवाला।
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विभासना  : अ० [सं० विभास+हि० ना (प्रत्यय)] १. चमकाना। २. विभासित होना। जान पड़ना।
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विभासा  : स्त्री० [सं० विभास+टाप्] १. प्रकाश। २. चमक। कांति।
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विभासित  : भू० कृ० [सं०] १. प्रकाशित। २. चमकता हुआ। ३. कांति से युक्त।
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विभिन्न  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विभिन्नता] १. काट या छेदकर अलग किया हुआ। २. अलग। पृथक्। ३. जो ठीक वैसा ही न हो जैसा कि कोई और प्रस्तुत पदार्थ हो। ४. जिनमें परस्पर कुछ न कुछ विभेद या असमता दिखाई दे।
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विभिन्नता  : स्त्री० [सं० विभिन्न+तल्+टाप्] १. विभिन्न होने की अवस्था या भाव। २. वह तत्त्व जो दो या अधिक वस्तुओं का भेद दरशाता हो। ३. फरक। अंतर।
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विभीत  : भू० कृ० [सं० वि√भी (भय करना)+क्त, तृ० त०] [भाव० विभीति] भय-भीत।
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विभीति  : स्त्री० [सं० वि√भी (भय करना)+क्तिन्] १. डर। भय। २. शंका। ३. सन्देह।
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विभीषक  : वि० [सं० वि√भीष् (भयभीत होना)+ण्वुल्-अक] डराने वाला। भयानक।
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विभीषण  : वि० [सं० वि√भीष् (भयभीत होना)+ल्यु-अन] [स्त्री० विभीषणा] बहुत अधिक भीषण। पुं० १. रावण का एक भाई जिसे राम ने रावण की मृत्यु के उपरांत लंका का राजा बनाया था। २. अपने भाई-बंधुओं से द्रोह करके शत्रुओं के साथ जा मिलनेवाला व्यक्ति (व्यंग्य) ३. नरसल। ४. एक तरह का मुहुर्त।
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विभीषिका  : स्त्री० [सं० विभीषा+कर्+टाप्, इत्व] १. भय-प्रदर्शन। डर दिखाना। २. वह साधन जिससे किसी को भयभीत किया जाय। ३. भय का वह रूप जिसके उपस्थित होने पर मनुष्य किंकर्तव्य-विमूढ़ हो जाता है। त्रास (ड्रेड)।
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विभु  : वि० [सं० वि√भू (होना)+डु] [भाव० विभुता] १. जो संबंध वर्तमान हो। सर्वव्यापक। जैसे—दिक् काल, आत्मा आदि। २. जो सब जगह जा या पहुँच सकता हो। ३. बहुत बड़ा। महान्। ४. सदा बना रहनेवाला। नित्य। ५. अपने स्थान से न हटनेवाला। अचल। अटल। ६. ऐश्वर्यशाली। ७. शक्तिशाली। सशक्त। पुं० १. ब्रह्मा। २. जीवात्मा। ३. ईश्वर। ४. शिव। ५. विष्णु। ६. प्रभु। स्वामी। ७. नौकर। सेवक।
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विभुता  : स्त्री० [सं० विभु+तल्+टाप्] १. विभु होने की अवस्था या भाव। सर्वव्यापकता। २. ऐश्वर्य। वैभव। ३. प्रभुत्व। ४. शक्ति।
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विभूति  : स्त्री० [सं० वि√भू (होना)+क्तिन्] १. बहुत अधिक होने की अवस्था या भाव। बहुतायत। विपुलता। २. बढ़ती। वृद्धि। ३. धन-धान्य आदि की यथेष्टता। ऐश्वर्य। विभव। ४. धन-संपत्ति दौलत। ५. भगवान् विष्णु का वह ऐश्वर्य जो नित्य या स्थायी माना जाता है। ६. अणिमा, महिमा आदि अलौकिक या दिव्य शक्तियाँ। ७. चिता की वह राख या भस्म जो शिव जी अपने शरीर पर पोतते थे। ८. यज्ञ, होम आदि के बाद बची हुई राख जो शैव लोग माथे पर या शरीर में लगाते हैं। ९. लक्ष्मी। १॰. एक दिव्यास्त्र जो विश्वामित्र ने राम को दिया था। ११. सृष्टि। १२. प्रभुत्व।
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विभूमा (मन्)  : वि० [सं० वि√भू (होना)+मनिन्, विजहु,+इमनिच्, बहु-भू-वा] ऐश्वर्यवान्। शक्ति-शाली। पुं० श्रीकृष्ण।
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विभूषण  : पुं० [सं० वि√भूष् (भूषित करना)+णिच्+ल्युट-अन ] [ वि० विभूष्य, भू० कृ० विभूषित] १. आभूषणों अर्थात् गहनों से सजाना। २. आभूषण गहना अथवा अलंकरण का कोई और उपकरण। ३. सौन्दर्य। ४. मंजुश्री का एक नाम (बौद्ध)।
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विभूषना  : सं० [सं० विभूषण] १. विभूषित करना। २. गहनों आदि से सजाना। ३. सजाना-सँवारना। ४. शोभा से युक्त करना।
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विभूषा  : स्त्री० [सं० विभूषण-टाप्] १. आभूषणों, गहनों अथवा सजावट के उपकरणों से युक्त होने की अवस्था। २. उक्त अवस्था से प्रस्फुटित होनेवाली शोभा।
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विभूषित  : भू० कृ० [सं० वि√भूष् (भूषित+करना)+क्त] १. आभूषणों से सजा या सजाया हुआ। अलंकृत। २. अच्छी बातों या गुणों से युक्त। ३. शोभित।
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विभूष्य  : वि० [सं० वि√भूष् (भूषित करना)+यत्] विभूषित किये जाने के योग्य। सजाये जाने के योग्य।
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विभेद  : पुं० [सं० वि+भिद् (काटना)+अच्, घञ्-वा] १. वह तत्व जो दो वस्तुओं में होनेवाली असमता का द्योतक हो। २. अनेक भेद और प्रभेद। ३. कटा हुआ अंश छेद या दरार। ४. खंड। विभाग। ५. एक से विकसित होकर अनेक रूप बनना। ६. मिश्रण। मिलावट। ७. दे० ‘विभेदन’। ८. विशेष रूप से किया हुआ अलगाव या भेद (डिस्क्रिमिनेशन)।
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विभेदक  : वि० [सं० वि√भिद्+ण्वुल्-अक] १. भेदन करनेवाला। काटने या छेदनेवाला। २. विभेद उत्पन्न करनेवाला। ३. भेदने या छेदनेवाला। ४. घुसने या धँसनेवाला। ५. अन्तर या भेद दिखलाने य बतलानेवाला। ६. आपस में मतभेद करनेवाला। पुं० विभीतक। बहेड़ा।
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विभेदकारी (रिन्)  : वि० [सं० विभेद√कृ (करना)+णिनि]=विभेदक।
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विभेदन  : पुं० [सं० वि√भिद्+ल्युट-अन] [वि० विभेदनीय, विभेद्य, भू० कृ० विभेदित] १. बीच में से छेदना या भेदना। २. काटना या तोड़ना। ३. खंड या टुकड़े करना। ४. अलग या पृथक् करना। ५. अन्तर या भेद उत्पन्न करना, मानना या समझना। ६. आपस में मन मुटाव पैदा करके फूट डालना।
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विभेदना  : स० [सं० विभेदन] १. भेदन करना। छेदना। काटना। २. विभेद या भेद उत्पन्न करना। ३. छेदते हुए घुसना या धँसना। ४. अन्तर उत्पन्न करना। फरक डालना।
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विभेदी (दिन्)  : वि० [सं०]=विभेदक।
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विभेद्य  : वि० [सं० वि√भिद् (काटना)+यत्] १. विभेदन के लिए उपयुक्त। जिसका विभेदन हो सके। २. जिसमें भेद या अन्तर निकाला जा सके।
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विभोर  : वि० [सं० विह्नल] १. विकल। विह्रल। २. मग्न। लीन। ३. मत्त। मस्त।
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विभौ  : पुं०=विभव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विभ्रंश  : पुं० [सं० वि√भंश् (नाश करना)+अच्] १. विनाश। ध्वंस। २. अवनति। ३. पतन। ४. पहाड़ के ऊपर का चौरस मैदान। ५. ऊँचा कगार।
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विभ्रंशन  : पुं० [सं०] [वि० विभ्रंशी, भू० कृ० विभ्रंशित] विभ्रंश करने की क्रिया या भाव।
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विभ्रम  : पुं० [सं० वि√भ्रम (चलना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। चक्कर लगाना। भ्रमण। २. किसी काम या बात में होनेवाला भ्रम। भ्रांति। किसी काम या बात में होने वाला शक या संदेह। ४. पारस्परिक व्यवहार में किसी काम या बात का अर्थ, आशय या उद्देश्य समझने में होनेवाली भूल। और का और समझना। गलत-फहमी। (मिसअन्डर-स्टैडिंग) ५. मनोविज्ञान में किसी विशिष्ट मानसिक विचार के कारण किसी ज्ञानेन्द्रिय के द्वारा होनेवाला ऐसा भ्रम जो प्रायः निराधार होता है। निर्मूल भ्रम। (हैल्यूसिनेशन) जैसे—अँधेरे में कोई आकृति या भूत-प्रेत दिखाई देना। ६. साहित्य में संयोग श्रृंगार के प्रसंग में स्त्रियों का एक हाथ जिसमें वे प्रियतम का आगमन सुनकर अथवा उससे मिलने के लिए जाने के समय उतावली और उत्सुकता के कारण कुछ उलटे-पुलटे गहने-कपड़े पहन लेती है। ७. घबराहट। विकलता। ८. शोभा।
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विभ्रमी (मिन्)  : वि० [सं० वि√भ्रम् (घूमना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] चारों ओर घूमने या चक्कर खानेवाला।
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विभ्रांत  : भू० कृ० [सं०] [भाव०विभ्रांति] १. जो घूस या चक्कर खा चुका हो। २. चारों ओर फैला या बिखरा हुआ। ३. भ्रम में पड़ा हुआ। ४. घबराया हुआ। ५. अस्थिर। चंचल।
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विभ्रांति  : स्त्री० [सं० वि√भ्रम् (चक्कर काटना)+क्तिन्] १. फेरा चक्कर। २. भ्रम। भ्रांति। ३. घबराहट।
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विभ्राट्  : पुं० [सं०] १. आपत्ति। विपत्ति। संकट। २. उत्पात। उपद्रव। वि० दीप्त। चमकीला।
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विमंडन  : पुं० [सं० तृ० त० वि√मण्ड् (सजाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विमंडित] १. गहनों आदि से सजाना। २. सजाना। पुं० अलंकार। गहना।
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विमंडित  : भू० कृ० [सं० वि√मण्ड्+क्त, तृ० त०] १. अलंकृत। सजा हुआ। २. सुशोभित। ३. किसी से युक्त। मिला हुआ।
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विमत  : वि० [मध्य० स०] [भाव० विमति,वैमत्य] १. जिसका मत या विचार अच्छा न हो। २. जो अच्छी राय न देता हो। पुं० १. ऐसा मत या विचार जो किसी के विरुद्ध पड़ा या दिया गया हो। विमति। (डिस्सेन्ट)। २. ऐसी राय जो अनुकूल न हो।
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विमति  : वि० [सं० मध्यम० स०] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। मूर्ख। स्त्री १. विमत होने की अवस्था या भाव। विरुद्ध मत या विचार। २. खराब या बुरी मत। (बुद्धि या विचार) ३. किसी के विपरीत या विरुद्ध मति या विचार। ४. असहमति।
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विमत्सर  : पुं० [सं० मध्यम० स०] बहुत अधिक मत्स या अहंकार। वि० मत्सर से रहित।
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विमद  : वि० [सं० ब० स०] १. मदसे रहित। २. (हाथी) जिसे मद न बहता हो।
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विमध्य  : वि० [वि√मन् (जानना)+पक्, न-घ] [भाव० विमध्यता] १. जिसका अक्ष अपने केन्द्र या ठीक मध्य में न हो। केन्द्र या मध्य से कुछ इधर-उधर हटा हुआ। उत्केंद्र। २. (वृत्त) जिसका मध्य दूसरे वृत्त के मध्य भाग या केन्द्र से भिन्न हो। ३. जो आकृति, गति आदि में ठीक गोलाकार न हो और इसीलिए वृत्त के हर बिंदु से जिसमें एक ही मध्य न पड़ता हो। उत्केंद्र (एक्सेन्ट्रिक)।
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विमध्यता  : वि० [सं० विमध्य+तल्+टाप्] विमध्य होने की अवस्था या भाव। उत्केंद्रता। (एकसेन्ट्रिसीटी)।
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विमन  : वि० [सं० ब० स० विमनस्]=विमनस्क।
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विमनस्क  : वि० [सं० ब० स० कप्] १. अनमना। अन्यमनस्क। २. उदास। खिन्न।
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विमर्द  : पुं० [वि√मद् (रगड़ना)+घञ्] १. रगड़ना। २. रौंदना। ३. संघर्ष। ४. नाश। ५. बाधा। संपर्क। ६. खग्रास। (ग्रहण)।
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विमर्दक  : वि० [सं० विमर्द+कन्] विमर्दन करनेवाला।
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विमर्दन  : पुं० [सं०वि√मृद् (मर्दन करना)+ल्युट-अन] [वि० विमर्दनीय, भू० कृ० विमर्दित] १. खूब मर्दन करना। अच्छी तरह मलना-दलना। २. खूब रगड़ना या रौंदना। ३. कुचलना या पीसना। ४. नष्ट करना। ५. मार डालना। ६. बहुत अधिक कष्ट देना या पीडि़त करना। ७. अंकुरित या प्रस्फटित होना। (सांख्य)।
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विमर्दित  : भू० कृ० [सं० वि√मृद् (रगड़ना)+क्त, तृ० त०] १. मला-दला हुआ। २. कुचला या रौंदा हुआ। ३. नष्ट किया हुआ। ४. पीड़ित ५. अपमानित।
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विमर्दी  : वि० [सं० विमर्द+इनि, विमर्दिन] [स्त्री० विमर्दिनी] विमर्दन करनेवाला। विमर्दक।
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विमर्श  : पुं० [वि√मृश् (स्पर्शनादि)+घञ्] १. सोच-विचार कर तथ्य या वास्तविकता का पता लगाना। २. किसी बात या विषय पर कुछ सोचना समझना। विचार करना। ३. गुण-दोष आदि की आलोचना या मीमांसा करना (डेलिबरेशन) ४. जाँचना और परखना। ५. किसी से परामर्श या सलाह करना। ६. ज्ञान। ७. नाटक में पाँच संधियों में से एक संधि। दे० ‘विमर्श संधि’।
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विमर्शक  : वि० [सं०] विमर्श करनेवाला।
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विमर्शन  : पुं० [सं० वि√मृश् (तर्क-विवेचनकरना)+ल्युट-अन] [वि० विमृष्ट, विमर्शी, भू० कृ० विमर्शित] विमर्श करने की क्रिया या भाव।
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विमर्श-संधि  : स्त्री० [सं०] नाटक की पाँच संधियों में से एक जो ऐसे अवसर पर मानी जाती है जहाँ क्रोध, लोभ, व्यसन आदि के विमर्श या विचार से फल-प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता हो और गर्भ (संधि) देखें के द्वारा यह उद्देश्य बीज रूप में प्रकट भी हो जाता हो। अवमर्श संधि। विशेष—प्रसाद के चन्द्रगुप्त नाटक में यह उस समय आती है, जब चाणक्य की नीति से असंतुष्ट होकर चन्द्रगुप्त के माता-पिता चले जाते हैं,और चंद्रगुप्त अकेला पड़कर अपना असंतोष और क्रोध प्रकट करता है और विमर्शपूर्वक साम्राज्य स्थापित करने के लोभ से प्रयत्न आरम्भ करता है।
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विमर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+चञ्,विमर्श+इन्] विमर्श अर्थात् विचार या समीक्षा करनेवाला।
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विमर्ष  : पुं० [सं० वि√मृष् (सहन करना)+घञ्]=विमर्श।
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विमल  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विमला, भाव० विमलता] १. जिसमें किसी प्रकार का मल न हो। मलरहित। निर्मल। २. साफ तथा पारदर्शक। जैसे—विमल जल। ३. दूषण, दोष आदि से रहित। जैसे—विमल चरित्र। ४. दर्शनीय। सुन्दर। ५. सफेद तथा चमकता हुआ। पुं०१. चाँदी। २. एक प्रकार की उप-धातु। ३. पद्य-काठ। ४. सेंधा नमक। ५. गत उत्सर्पिणी के ५वें और वर्तमान अवसर्पिणी के १३वें अर्हत् या तीर्थकर (जैन)।
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विमलक  : पुं० [सं० विमल+कन्] एक प्रकार का नग या बहुमूल्य पत्थर।
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विमलता  : स्त्री० [सं० विमल+तल्+टाप्] विमल होने की अवस्था,गुण या भाव।
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विमलध्वनि  : स्त्री० [सं० ब० स०] छः चरणों का एक प्रकार का छन्द जो एक दोहे और समान सवैया से मिल कर बनता है।
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विमला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. योग में ,सिद्धि की दस भूमियों या स्तरों में से एक। २. एक देवी जो वासुदेव की नायिका कही गई है। ३. सरस्वती। ४. सातला (वृक्ष)।
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विमलात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] जिसका हृदय निर्मल तथा शुद्ध हो। पुं० चन्द्रमा।
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विमलाद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] गुजरात का गिरनार पर्वत।
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विमलाशोक  : पुं० [सं० ब० स०] संन्यासियों का एक भेद।
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विमली  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विमास  : पुं० [सं० मध्यम० स०] ऐसा मांस जो खराब हो तथा भक्ष्य न हो।
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विमा  : स्त्री० [सं०] [वि० विमीय] किसी दिशा में काया का होनेवाला विस्तार जो नापा जा सकता हो। आयाम। (डाइमेंशन)। विशेष—विमाएँ तीन प्रकार की होती हैं, लंबाई,चौड़ाई और ऊँचाई (जिसके अन्तर्गत मोटाई या गहराई भी आ जाती हैं)। पद—द्विविम, त्रिविम (दे०)।
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विमाता (तृ)  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] सौतेली माँ।
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विमातृज  : वि० [सं० विमातृ√जन् (उत्पन्न करना)+ड] विमाता से उत्पन्न। सौतेला।
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विमान  : वि० [ब० स०] जिसका कोई मान न हो। मान से रहित। पुं० १. पुराणानुसार देवताओं का वह यान या रथ जो आकाश-मार्ग से चलता था। २. आज-कल आकाश-मार्ग से उडनेवाला यान या सवारी। वायुयान। हवाई जहाज। ३. महात्मा बुद्ध आदि के शव की ऐसी अरथी जो फूल-मालाओं आदि से खूब सजाई गई हो। ४. रासलीला आदि के जलूस में वह चौकी जिस पर देवताओं की मूर्तियाँ रखकर आदमी लोग कंधे पर उठाकर चलते हैं। ५. रथ। ६. घोड़ा। ७. सात खंडोंवाला मकान। ८. परिणाम। ९. वास्तुकला में ऐसा देवमंदिर जिसका ऊपरी भाग बहुत ऊँचा और गावदुमा या लंबोतरा हो।
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विमान-चालक  : पुं० [ष० त०] वह जो हवाई जहाज या वायु-यान चलाता हो।
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विमान-चालन  : पुं० [ष० त०] हवाई जहाज चलाने की विद्या या क्रिया (एविएशन)।
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विमानन  : पुं० [सं०] विमान अर्थात् हवाई जहाज चलाने की कला,क्रिया या विद्या (एयर नैविगेशन)।
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विमान-पत्तन  : पुं० [सं०] हवाई अड्डा (एयर पोर्ट)।
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विमान-वाहक  : पुं० [सं० विमान+वाहक] एक प्रकार का समुद्री जहाज जिसके ऊपर बहुत लंबी चौड़ी छत होती है। और जिस पर बहुत से हवाई जहाज रहते हैं।
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विमानित  : भू० कृ० [सं० वि√मान् (मान करना)+क्त, विमान+इतच् वा] जिसका अपमान हुआ हो।
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विमार्ग  : पुं० [कर्म० स०] १. बुरा रास्ता। कुमार्ग। २. बुरा आचरण। ३. झाड़ू। बुहारीए।
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विमार्गा  : स्त्री० [सं०] दुश्चरित्रा स्त्री।
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विमार्जन  : पुं० [सं० वि√मृज् (शुद्ध करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विमार्जित] १. धोना। २. साफ करना। ३. पवित्र करना।
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विमासन  : अ० [सं० विमर्श] राय या विचार करना। विमर्श करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विमित  : वि० [सं०] परिमित। सीमित। पुं० १. भवन। २. विशेषतः ऐसा भवन जो चार खंभों पर आश्रित हो। ३. बड़ा कमरा।
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विमिश्र  : वि० [सं० तृ० त०] १. जिसमें कई तरह की चीजों का मेल हो। मिला-जुला। २. जो विशुद्ध हो।
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विमिश्रा  : स्त्री० [सं० विमिश्र+टाप्] मृगशिरा, आर्द्रा, मघा और अश्लेषा नक्षत्रों में बुध की होनेवाली गति जिसका मान ३॰ दिनों तक रहता है।
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विमिश्रित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें कई तरह की चीजें मिली हों या मिलाई गई हों।
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विमीय  : वि० [सं०] विमा-संबंधी। विमा का (डाइमेंशनल)।
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विमुक्त  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] [भाव० विमुक्तता, विमुक्ति] १. कैद, पाश, बंधन आदि में से जो छूट चुका हो या छोड़ दिया गया हो। स्वतंत्र हुआ या किया हुआ। २. बंध आदि से छूटा हुआ। ३. चलाया या छोड़ा हुआ। जैसे—विमुक्त वाण। ४. स्वछंदतापूर्वक विचरण करनेवाला। ५. बरखास्त। कार्य-भार से मुक्त किया हुआ।
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विमुक्ति  : स्त्री० [सं०] १. विमुक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। कष्ट, संकट आदि से होनेवाला छुटकारा। ३. कार्य-भार नियम, बंधन आदि से मिलनेवाला छुटकारा। (एग्जेम्प्शन)। ४. विछोह। ५. मोक्ष।
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विमुख  : वि० [ब० स०] [स्त्री० विमुखी, भाव० विमुखता] १. जिसने किसी ओर से मुँह फेर या मोड़ लिया हो। २. फलतः जो किसी से उदासीन या विरक्त हो चुका हो। ३. प्रतिकूल। विरुद्ध। ४. जो फलप्राप्ति से वंचित रहा हो।
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विमुखता  : स्त्री० [सं० विमुख+तल्+टाप्] विमुख होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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विमुग्ध  : वि० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+क्त] [भाव० विमुग्धता] १. मोहित। आसक्त। २. भ्रम में पड़ा हुआ। भ्रान्त। ३. घबराया और डरा हुआ। विकल। ४. उन्मत्त मतवाला। ५. पागल। बावला। ६. अचेत। बेसुध।
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विमुग्धक  : वि० [सं० विमुग्ध+कन्] विमुग्ध करनेवाला। पुं० साहित्य में एक प्रकार का छोटा अभिनय।
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विमुद्र  : वि० [सं० ब० स०] १. जिस पर मोहर या छाप न लगी हो। २. जिसका मुँह बन्द न हो। खिला या खुला हुआ।
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विमुद्रण  : पुं० [सं० वि+मुद्रा+युच्,-अन, तृ० त०] [भू० कृ० विमुद्रित] १. मुद्रा या छाप तोड़ना या हटाना। २. खिलने में प्रवृत्त करना।
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विमूढ़  : वि० [सं०] [स्त्री० विमूढ़ा, भाव० विमूढ़ता] १. विशेष रूप से मुग्ध। अत्यन्त मोहित। २. भ्रम या मोह में पड़ा हुआ। ३. अचेत। बेसुध। ४. बहुत बड़ा। मूढ़ या नासमझ। पुं० १. एक देवयोनि। २. एक प्रकार की संगीत-कला।
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विमूढ़क  : पुं० [सं० विमूढ़+कन्] साहित्य में एक प्रकार का प्रहसन।
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विमूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा गर्भ जिसमें बच्चा मर गया हो या मर जाता हो।
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विमूर्च्छ  : वि० [सं०] जिसकी मूर्च्छा दूर हो गई हो।
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विमूर्च्छित  : वि० [सं०]=मूर्च्छित (बेहोश)।
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विमूल  : वि० [सं० ब० स०] १. मूल से रहित। बिना जड़ का। २. मूल से उखाड़ा या हटाया हुआ। ३. ध्वस्त या नष्ट किया हुआ। बरबाद।
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विमूलन  : पुं० [सं० वि√मूल् (स्थित करना)+ल्युट-अन] १. जड़ से उखाड़ना। उन्नमूलन २. ध्वंस। विनाश।
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विमृश  : पुं० [सं०] विमर्श।
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विमृश्य  : वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+यत्] जिसके विषय में विमर्श अर्थात् आलोचना या विवेचन हो सके या होने को हो। विमर्ष के योग्य।
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विमृष्ट  : वि० [सं० वि√मृश् (विचार करना)+क्त] १. जिसके संबंध में विमर्श अर्थात् आलोचना या विवेचन हो चुका हो। २. अच्छी तरह विचारा हुआ।
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विमोक  : वि० [सं० ब० स०] १. दुर्वासना, द्वेष राग आदि से युक्त या रहित। २. जिसके ऊपर कोई आवरण न हो। ३. स्पष्ट। साफ। पुं० छुटकारा। मुक्ति।
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विमोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० वि√मुच् (छोड़ना)+तृच्] विमुक्त करने या छुड़ानेवाला।
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विमोक्ष  : पुं० [सं० वि√मोक्ष् (छोड़ना)+अच्] १. छुटकारा। २. जन्म-मरण के बंधन से होनेवाला छुटकारा। मुक्ति। ३. पकड़ी हुई चीज इधर-उधर छोड़ना या फेंकना। ४. चन्द्रमा या सूर्य के ग्रहण का अन्त। उग्रह। ५. मेरू पर्वत। ६. दे० ‘मोक्ष’।
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विमोक्षण  : पुं० [सं० वि√मोक्ष् (छोड़ना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विमोक्षित] १. बंधन आदि खोलना। मुक्त करना। २. हथियार आदि चलाना या छोड़ना।
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विमीक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० वि√मोक्ष् (छोड़ना)+णिनि] जिसे मुक्ति या निर्वाण प्राप्त हुआ हो।
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विमोघ  : वि० [सं० ब० स०] १. अमोघ। (अचूक) २. व्यर्थ। बेकार।
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विमोचक  : पुं० [सं० वि√मुच् (मोड़ना)+ण्वुल्-अक] मुक्त करने या करानेवाला।
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विमोचन  : पुं० [सं० वि√मुच्) मोड़ना)+ल्युट—अन] [वि० विमोचनीय, विमोच्य, भू० कृ० विमोचित] १. बंधन आदि खोलकर मुक्त करना, छुड़ाना या छोड़ना। २. सवारी में से खींचनेवाले जानवर को खोलना। जैसे—गाड़ी या रथ में से घोड़ों या बैलों का विमोचन। ३. किसी प्रकार के नियंत्रण, सीमा आदि से अलग या बाहर करना। जैसे—रथ से अश्व-विमोचन। (ख) धनुष से बाण का विमोचन। ४. गिराना या फेंकना।
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विमोचना  : सं० [सं० विमोचन] १. विमोचन अर्थात् मुक्त करना या कराना। २. किसी पर से रोक उठा या हटा लेना जिससे वह स्वच्छंद गति प्राप्त कर सके। ३. गिराना। ४. निकालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विमोच्य  : वि० [सं० वि√मुच् (छोड़ना)+यत्] जिसका विमोचन हो सकता हो या होने को हो। मुक्त होने के योग्य।
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विमोह  : पुं० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+घञ्] १. अज्ञान, भ्रम आदि के कारण उत्पन्न होनेवाला मोह। २. अचेत होने की अवस्था या भाव। बेहोशी। ३. बुद्धिभ्रंश। ४. एक नरक।
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विमोहक  : वि० [सं० विमोह+कन्] मोहित करनेवाला। लुभावना। २. मन में लोभ उत्पन्न करने या ललचानेवाला। ३. सुध-बुध भुलानेवाला। पुं० संगीत में एक राग जो हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है।
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विमोहन  : पुं० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+ल्युट-अन] [भू० कॉ० विमोहित, वि० विमोही] १. मुग्ध या मोहित करना। लुभाना। २. किसी का मन अपने वश में करना। २. सुध-बुध भूलना। ४. कामदेव के पाँच वाणो में से एक। ५. एक नरक का नाम।
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विमोहना  : अ० [सं० विमोहन] १. मोहित करना। २. अचेत या बेसुध होना। ३. भ्रम में पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. मोहित करना। २. बेहोश करना। ३. भ्रम में डालना।
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विमोहा  : स्त्री० [हिं०] विज्जोहा नामक छन्द का दूसरा नाम।
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विमोहित  : भू० कृ० [सं० वि√मुह् (मुग्ध करना)+क्त] १. जो किसी पर मोहित या आसक्त हो। २. जो सुध-बुध खो चुका हो। बेसुध। बेहोश। ३. भ्रम या धोखे में पड़ा हुआ।
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विमोही (हिन्)  : वि० [सं०] [स्त्री० विमोहिनी] १. जिसमें किसी के प्रति मोह न हो। २. मोहित करनेवाला। मोह लेनेवाला। ३. धोखे या भ्रम में डालनेवाला।
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विमौट  : पुं०=बिमौट (बाँबी)।
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वियंग  : वि० [सं० अव्यंग] जो टेढ़ा-मे़ढ़ा न हो। सीधा। पुं० [?] शिव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विय  : वि० [सं० द्वि, द्वितीय, प्रा० विय] १. दो। युग्म। २. दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वियत्  : पुं० [सं० वि√यम्+क्विप्, तुक्-म-लोप] १. आकाश। २. वायुमंडल। वि० १. गमनशील। २. गतिशील।
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वियत्-पताका  : स्त्री० [सं० वियत्+पताका] विद्युत। बिजली।
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वियद्गंगा  : स्त्री० [सं० ब० स०] आकाशगंगा।
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वियम  : पुं० [सं०√यम्+अप्]=वियाम।
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वियाम  : पुं० [सं० वि√यम् (संयम करना)+घञ्] १. इन्द्रिय निग्रह। संयम। २. विराम। ३. कष्ट। ४. रोक।
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वियुक्त  : वि० [वि√युज् (संयक्त होना)+क्त] [भाव० वियुक्ति] १. जो युक्त या संयुक्त न हो। २. जो किसी से अलग, जुदा या पृथक् हो चुका हो। ३. जिसे औरों ने छोड़ दिया हो। परित्यक्त। ४. वियोगी। ५. वंचित, रहित या हीन।
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वियुग्म  : वि० [सं०] १. जो युग्म अर्थात् जोड़ा हो। अकेला। २. (गणित में वह राशि) जिसे दो से भाग देने पर एक निकलता या बचता हो। (आँड) ३. जिसमें कुछ अस्वाभाविकता हो।
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वियुत  : वि० [सं० वि√यु (मिलना, न मिलना)+क्त] १. वियुक्त। अलग। २. जो किसी से अलग हुआ हो। वियुक्त। ३. रहित। हीन।
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वियो  : वि०=विय (दूसरा)।
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वियोग  : पुं० [वि√युज् (संयोग होना)+घञ्, मध्यम० स०] १. योग न होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य। २. ऐसी अवस्था जिसमें दो जीव विशेषतः प्रेमी एक दूसरे से दूर हों और इस प्रकार उनमें मिलन न होता हो। ३. उक्त अवस्था के फलस्वरूप प्रेमियों को होनेवाला कष्ट। ४. किसी का सदा के लिए बिछुड़ना। मरने के कारण होनेवाला अलगाव। ५. उक्त के फलस्वरूप होनेवाला शोक।
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वियोग-श्रृंगार  : पुं० [सं०] साहित्य में श्रृंगार रस का वह अंग या विभाग जिसमें विरही की दशा का वर्णन होता है। २. संयोग श्रृंगार का जिसमें विरही की दशा का वर्णन होता है। विप्रलंभ। ३. ‘संयोग श्रृंगार’ का विपर्याय।
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वियोगांत  : वि० [सं० ब० स०] (कथा-कहानी या नाटक) जिसके अंतिम दृश्य में प्रेमी, मित्र आदि के वियोग का वर्णन हो।
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वियोगिन  : स्त्री०=वियोगिनी।
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वियोगिनी  : वि० [वियोगिन्+ङीष्] जो नायक, पतिया प्रिय के पर देश चले जाने पर उसके विरह में दुःखी हो। स्त्री० विरहनी नायिका।
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वियोगी (गिन्)  : वि० [सं० वियोगिन्] [स्त्री० वियोगिनी] १. जिसका किसी से वियोग हुआ हो। २. विरही। पुं० १. नायक जो नायिका से वियुक्त होने पर दुःखी हो। २. चकवा पक्षी। चक्रवाक।
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वियोजक  : वि० [सं० वि√युज् (मिलना)+णिच्+ण्वुल-अक] [स्त्री० वियोजिका] वियोजन करने-वाला। पृथक् करनेवाला। पुं० गणित में वह छोटी संख्या जो किसी बड़ी संख्या में से घटाई गई हो।
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वियोजन  : पुं० [सं० वि√युज् (मिलना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वियोजित, वियुक्त] १. वियोग होना। योग का अभाव। २. जुदाई। वियोग। ३. गणित में एक संख्या (या राशि) में से दूसरी संख्या या राशि घटाने की क्रिया।
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वियोजित  : भू० कृ० [सं० वि√युज् (मिलना)+णिच्+क्त] १. जिसका किसी से वियोग हुआ हो। २. जिसे बलात् किसी से अलग या जुदा कर दिया गया हो। ३. वंचित।
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वियोज्य  : वि० [सं० वि√युज् (मिलना)+क्त] १. जिसका वियोजन हो सके या होने को हो। २. (गणित में संख्या) जिसमें से कोई छोटी संख्या घटाई जाने को हो।
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विरंग  : वि० [सं० ब० स०] १. रंगहीन। २. अनेक रंगोंवाला। रंग-बिरंगा। ३. बदरंग।
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विरंच (चि)  : पुं० [सं० वि√रञ्च् (रचना करना)+अच्] ब्रह्मा।
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विरंचि-सुत  : पुं० [सं० ष० त० विरंचि+सुत] नारद।
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विरंजन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विरंजित] १. रंजन से रहित करना। २. ऐसी प्रक्रिया जिससे किसी वस्तु में के सब रंग हट या निकल जाएँ। ३. धोकर साफ करना। प्रक्षालन।
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विरक्त  : वि० [सं०] [भाव० विरक्ति, विरक्तता] १. गहरा लाल। रक्त वर्ण। खूनी। २. जिसके रंग में कुछ परिवर्तन आ चुका हो। ३. जिसकी किसी पर आसक्ति न रह गई हो। अनुरक्त का विपर्याय। ४. सांसारिक प्रपंचों, बंधनों आदि से परे रहनेवाला। ५. भोग विलास आदि से बहुत दूर रहनेवाला। ६. खिन्न।
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विरक्तता  : स्त्री० [सं० विरक्त+तल्+टाप्]=विरक्ति।
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विरक्ति  : स्त्री० [सं० वि√रञ्ज् (राग करना)+क्तिन्] १. विरक्त होने की अवस्था या भाव। २. मन में अनुराग या चाह रहने की अवस्था या भाव। ३. सांसारिक बात की ओर से मन हटाना। वैराग्य। ४. भोग-विलास आदि के प्रति होनेवाली अरुचि या उदासीनता। ५. अप्रसन्नता। खिन्नता।
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विरचन  : पुं० [सं० वि√रच् (बनाना)+ल्युट-अन] [वि० विरचनीय, भू० कृ० विरचनीय] १. रचना करना। निर्माण करना। बनाना। २. तैयारी।
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विरचना  : स० [सं० विरचन] १. निर्माण करना। बनाना। रचना। २. अलंकृत करना। सजाना। अ०=विरक्त होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरचित  : भू० कृ० [सं० वि√रच् (बनाना)+क्त] १. रचा या बनाया हुआ। निर्मित। रचित। २. (ग्रन्थों आदि के संबंध में) लिखित।
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विरज  : वि० [ब० स०] १. धूल, गर्द आदि से रहित। २. जो रजोगुण प्रधान न हो। ३. जिसमें रजोगुणी प्रवृत्ति न हो। ४. स्वच्छ। निर्मल। ५. (स्त्री) जिसका रजोधर्म रुक गया या समाप्त हो चुका हो। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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विरजन  : वि० [सं०] रंग-परिवर्तन करनेवाला।
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विरजा  : स्त्री० [सं०] १. श्रीकृष्ण की एक सखी। २. नहुष की स्त्री।
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विरजाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] एक पर्वत जो मेरु के उत्तर में कहा गया है।
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विरजा-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] उड़ीसा का एक तीरथ स्थान जो जोधपुर के पास है।
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विरत  : वि० [सं० वि√रम् (रमण करना)+क्त, म-लोप] [भाव० विरति] १. जो रत अर्थात् अनुरक्त का प्रवृत्त न रह गया हो। जिसका मन किसी ओर से हट गया हो। २. जिसने किसी से अपना संबंध तोड़ लिया हो। जो अलग हो गया हो। जैसे—किसी काम से विरत होना। ३. जिसने सांसारिक विषयों से अपना मन हटा लिया हो। विरक्त। वैरागी। ४. जो विशेष रूप से किसी ओर रत हुआ हो।
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विरति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स० ब० स० वा] १. विरत होने की अवस्था या भाव। उदासीनता या विरक्ति २. वैराग्य।
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विरथ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके पास रथ न हो। अथवा जो रथ पर आरूढ़ न हो। २. रथ से गिरा या हटा हुआ। ३. पैदल। पुं० पैदल सिपाही।
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विरद  : पुं० [सं० विरुद्ध] १. बड़ा और सुन्दर नाम। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. कीर्ति। यश। वि० जिसे रद अर्थात् दाँत न हो। दन्तहीन।
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विरदावली  : स्त्री०=विरुदावली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरदैप  : वि० [हिं० विरद+ऐत (प्रत्यय)] १. बड़े विरदावली। २. कीर्ति या यशवाला। ३. किसी का विरद बखानने वाला। पुं० चारण।
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विरम  : पुं०=विराम। उदाहरण-जागरणोंपम यह सुप्ति विरम भ्रम भर।—निराला।
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विरमण  : पुं० [सं० वि√रम् (क्रीड़ा)+ल्युट-अन] १. विराम करना। ठहरना। थमना। रुकना। २. रमण करना। रमना। ३. भोग-विलास। ४. रमण से मन हटा कर अलग होना। परित्याग।
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विरमना  : अ० [सं० विरमण] १. रम जाना। मन लगाना अनुरक्त हो जाना। किसी से या कहीं से मन लगाना २. मन का रमने लगना। ३. ठहरना। रुकना। ४. वेग, गति आदि का कम होना या रुकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=विलंबना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरमाना  : स० [हिं० विरमना का स० रूप] १. किसी को विरमने में प्रवृत्त करना। बिलमाना। २. धोखे या भ्रम में डालना।
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विरल  : वि० [सं० वि√रा (ना)+कलन्] [भाव० विरलता] १. जिसके अंग या अंश बहुत पास-पास न हों। जो घना न हो। जिसके बीच-बीच में अवकाश हो। ‘सघन’ का विपर्याय। जैसे—विरल बुनावटवाला। कपड़ा। २. जो बहुत कम मिलता हो। दुर्लभ। ३. जो गाढ़ा न हो। पतला। ४. निर्जल। एकान्त। ५. खाली। शून्य। ६. अल्प। थोड़ा।
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विरला  : वि० [सं० विरल] १. विरल। २. जो केवल कहीं कहीं या बहुत कम मिलता अथवा होता हो।
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विरलीकरण  : पुं० [सं० विरल+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] सघन को विरल करने की क्रिया।
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विरव  : पुं० [सं० मध्यम० स०] अनेक या विविध प्रकार के शब्द। वि० १. जिसमें शब्द न हो। २. जो शब्द न करता हो। निःशब्द। नीरव।
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विरस  : वि० [मध्य० स०] [भाव० विरसता] १. जिसमें रस या मिठास न हो। २. फलतः जो स्वाद में फीका हो। ३. जिसमें रुचि को आकृष्ट करने का कोई गुण या तत्त्व न हो। जिसमें रुचि न लगती हो। ४. (साहित्यिक रचना) जिसमें रस का परिपाक न हुआ हो। पुं० काव्य में होनेवाला रसभंग नामक दोष।
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विरसता  : स्त्री० [सं० विरस+तल्+टाप्] १. विरस होने की अवस्था या भाव। २. साहित्य का रस-भंग नामक दोष।
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विरह  : पुं० [सं०] १. किसी वस्तु से रहित होना। किसी वस्तु के अभाव में होना। २. प्रिय व्यक्तियों का एक दूसरे से अलग होना जो दोनों पक्षों के लिए बहुत कष्टप्रद हो। वियोग। ३. उक्त के फलस्वरूप होनेवाला मानसिक कष्ट या दुःख। ४. त्याग। वि० रहित। हीन।
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विरह-निवेदन  : पुं० [सं०] साहित्य में दूत या दूती का नायक (अथवा नायिका) के पास पहुँचकर उससे यह कहना कि तुम्हारे विरह में नायक (अथवा नायिका) कितनी दुःखी है।
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विरहा  : पुं०=विरहा (गीत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरहागि  : स्त्री०=विरहाग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विरहाग्नि  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्रिय के विरह या वियोग के कारण होनेवाला तीव्र मानसिक कष्ट या संताप।
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विरहानल  : पुं० [सं० ष० त० मध्यम० स०]=विरहाग्नि।
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विरहिणी  : वि० [सं० विरह+इनि+ङीप्] पति या प्रिय के विरह से संतप्त (नायिका)।
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विरहित  : वि० [सं० वि√रह् (त्याग करना)+क्त] रहित। शून्य।
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विरही (हिन्)  : वि० [सं० विरह+इनि] [स्त्री० विरहिणी] (नायक) जो प्रियतमा के विरह से संतप्त हो।
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विरहोत्कंठिता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में वह विरहिणी नायिका जो प्रिय के आगमन के लिए अधीर हो रही हो।
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विराग  : पुं० [सं० वि√रञ्ज् (राग करना)+घञ्, मध्यम० स०] १. मन में राग होनेवाला अभाव। किसी चीज या बात की चाह न होना। ‘अनुराग’ का विपर्याय। २. किसी काम, चीज या बात से मन उचट या हट जाना। विरक्ति। ३. सांसारिक सुख-भोग की चाह न रह जाना। वैराग्य। ४. संगीत में दो रागों के मेल से बना हुआ संकर राग।
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विरागी (गिन्)  : वि० [सं० विराग+इनि] [स्त्री० विरागिनी] १. जिसके मन में राग (चाह या प्रेम) न हो। राग-रहित। २. दे० ‘विरक्त’।
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विराज  : वि० [सं० वि√राज् (शोभित होना)+अच्] १. चमकीला। २. राज्य-रहित। पुं० १. राजा। २. क्षत्रिय। ३. ब्रह्माण्ड। ४. एक प्रकार का मन्दिर। ५. एक प्रकार का एकाह यज्ञ। ६. एक प्रजापति का नाम।
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विराजन  : पुं० [सं० वि√राज्+ल्युट-अन] १. शोभित होना। २. उपस्थित वर्तमान या विद्यमान होना।
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विराजना  : अ० [सं० विराजन] १. शोभित होना। प्रकाशित होना। २. उपस्थित या विद्यमान होना। ३. बैठना। (बड़ों के लिए आदरसूचक) जैसे—आइए, विराजिए।
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विराजमान  : वि० [सं० वि√राज्+शानच्, मुक्] १. प्रकाशमान्। चमकता हुआ। चमक-दमक वाला। २. उपस्थित। विद्यमान (बड़ों के लिए आदरार्थक, विशेषतः बैठे रहने की दशा में)।
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विराजित  : भू० कृ० [सं० वि√राज्+क्त] १. सुशोभित। २. प्रकाशित। ३. विराजमान।
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विराट्  : वि० [सं०] बहुत बड़ा या भारी जैसे—विराट् सभा विराट् आयोजन। पुं० १. विश्वरूप ब्रह्मा। २. विश्व। ३. क्षत्रिय। ४. दे० ‘विश्व रूप’।
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विराट  : पुं० [सं०] १. मत्स्य देश का पुराना नाम। २. उक्त देश का राजा जिसकी उत्तरा नामक कन्या का विवाह अभिमन्यु से हुआ था। ३. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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विराण  : वि० [फा० बेगानः] [स्त्री० विराणी] दूसरे का। पराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विराध  : पुं० [सं० वि√राध् (पीड़ित करना)+अच्] १. पीड़ा। क्लेश। तकलीफ। २. एक राक्षस जो दंडकारण्य में लक्ष्मण के हाथ से मारा गया था। वि० कष्ट देने या पीड़ित करनेवाला।
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विराधन  : पुं० [सं० वि√राध् (पीड़ित करना)+ल्युट-अन] १. किसी का अपकार या हानि करना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना।
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विराम  : पुं० [सं०] १. क्रिया, गति, चाल आदि में होनेवाला अटकाव। २. कार्य-व्यापार में होनेवाली मंदी। ३. आराम या विश्राम के उद्देश्य से चुप-चाप पड़े रहने की अवस्था या भाव। ४. विश्राम। ५. कार्य, पद सेवा आदि से अवकाश ग्रहण करना। ६. पद्य के चरण में की यति। ७. विराम-चिन्ह।
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विराम-काल  : पुं० [सं०] वह छुट्टी जो काम करनेवालों को विराम करने या सुस्ताने के लिए मिलती है।
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विराम-चिन्ह  : पुं० [सं०] लेखन, छपाई आदि में प्रयुक्त होनेवाले चिन्ह। (पंक्चुएशन) जैसे—, ;.-। आदि।
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विराम-संधि  : स्त्री० [सं०] युद्ध होते रहने की दशा में बीच में होनेवाली वह अस्थायी संधि जो स्थायी संधि की शर्ते निश्चित करने के लिए होती है और जिसके अनुसार युद्ध कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाता है। अवहार (आर्मिस्टिस)।
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विराल  : पुं० [सं० वि√डल्+घञ्, ड-र] बिडाल। बिल्ली।
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विराव  : पुं० [सं० वि√रु (शब्द करना)+घञ्] १. शब्द। आवाज। २. मुँह से निकलनेवाली वाणी। बोली। उदाहरण—मोर कौं सोर गान कोकिल विराव कै।—सेनापति। ३. शोरगुल। हो-हल्ला। वि० रव अर्थात् शब्द से रहित। जिसमें आवाज न हो।
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विरावण  : वि० [सं० विराव√नी (ढोना)+ड] [स्त्री० विराविणी] १. बोलने या शब्द करनेवाला। २. रोने-चिल्लानेवाला। ३. शोर-गुल करने या हो-हल्ला मचानेवाला।
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विरावी (विन्)  : वि० [सं०] विरावण।
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विरास  : पुं०=विलास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरासत  : स्त्री०=वरासत।
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विरासी  : वि०=विलासी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरिंच (चि)  : पुं० [वि०√रिच् (बनान)+अच्, नुम्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव।
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विरिक्त  : वि० [वि०√रिच् (रेचन करना)+क्त०] [भाव० विरिक्ति] १. जो रिक्त हो। खाली। २. (पेट) जो जुलाब लेने के बाद साफ हो गया हो।
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विरुज  : वि० [सं० मध्यम, स० या ब० स०] जिसे रोग न हो। निरोग।
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विरुजालय  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ रोगों का निदान तथा उपचार किया जाता हो (क्लिनिक)।
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विरुझना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरुझाना  : स०=उलझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=उलझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरुद  : पुं० [सं० ब० स०] १. उच्च स्वर में की जानेवाली घोषणा। २. किसी के गुण, प्रताप आदि का वर्णन। प्रशस्ति। ३. उक्त की सूचक कोई पदवी जो प्रायः राजाओं के नाम के साथ लगती थी। जैसे—‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’ में ‘विक्रमादित्य’ विरुद है। ३. कीर्ति। यश।
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विरुदावली  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. विरुदों या पदवियों का संग्रह। २. किसी बड़े व्यक्ति के गुणों, पराक्रम आदि का होनेवाला विस्तार-पूर्वक वर्णन। ३. गुणावली।
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विरुद्ध  : वि० [सं०] १. सामने आकर विरोधी होनेवाला। २. कार्य, प्रयत्न आदि का विरोध करने या उसकी विफलता चाहनेवाला। ३. जो अनुकूल नहीं, बल्कि प्रतिकूल हो। मेल या संगति में न बैठनेवाला। विपरीत। ४. साधारण नियमों आदि से विभिन्न और उलटा। जैसे— विरुद्ध आचरण। अव्य० १. प्रतिकूल स्थिति में। खिलाफ। जैसे—किसी के विरुद्ध चलना या बोलना। २. किसी के मुकाबले या विरोध में। ३. सामने। पुं० [सं०] भारतीय नैयायिकों के अनुसार ५ प्रकार के हेत्वाभावों में से एक जो वहाँ माना जाता है जहाँ दिया हुआ हेतु स्वयं अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत हो।
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विरुद्धकर्मी (कर्मन)  : वि० [सं० ब० स०] १. विरुद्ध कर्म करनेवाला। २. विपरीत या निन्दनीय आचरण वाला। पुं० श्लेष अलंकार का एक भेद जिसमें किसी क्रिया के फलस्वरूप होने वाली परस्पर विरुद्ध प्रतिक्रियाओं का उल्लेख होता है। (केशव)।
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विरुद्धता  : स्त्री० [सं० विरुद्ध+तल्+टाप्] १. विरुद्ध होने की अवस्था या भाव। विरोध। २. प्रतिकूलता।
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विरुद्ध-मति-कारिता  : स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का काव्य दोष जो ऐसे पद या वाक्य के प्रयोग में होता है जिससे वाच्य के संबंध में विरुद्ध या अनुचित भाव उत्पन्न हो सकता हो। जैसे—‘‘भवानीश’’ में यह दोष इसलिए है कि भव से उनकी पत्नी का नाम भवानी हुआ है। अब उसमें ईश शब्द जोड़ना इसलिए ठीक नहीं है कि इससे अर्थ हो जायगा—भव की स्त्री के स्वामी।
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विरुद्धार्थ  : वि० [सं०] विरोधी अर्थवाला। पुं० विरुद्ध या विपरीत अर्थ।
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विरुद्धार्थ दीपक  : पुं० [सं०] साहित्य में दीपक अलंकार का एक भेद जिसमें एक ही बात से दो परस्पर विरुद्ध क्रियाओं का एक साथ होना दिखाया जाता है।
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विरुध  : पुं०=विरोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=विरुद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=वीरुध (पौधा या लता)।
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विरुह  : वि०=विरुद्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पु०=विरोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरूज  : पुं० [सं० ब० स०] एक अग्नि जिसका स्थान जल में माना गया है।
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विरूढ़  : भू० कृ० [सं० वि√रूह् (उत्पन्न होना)+क्त] १. किसी पर चढ़ा हुआ। आरूढ़। सवार। २. अंकुरित। ३. उत्पन्न। जात। ४. अच्छी तरह जमा, धँसा या बैठा हुआ।
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विरूथिनी  : स्त्री० [सं० विरुथ+इनि+ङीप्] वैसाख बदी एकादशी।
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विरूप  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विरुपा] [भाव० विरूपता] १. अनेक या कई रूपोंवाला। २. कई तरह या प्रकार का। ३. भद्दे रुपवाला। कुरूप। बदसूरत। ४. जिसका रूप बदल गया हो। ५. शोभा श्री आदि से रहित। ६. उलटा, विपरीत या विरुद्ध। ७. अप्राकृतिक। ८. अन्य या दूसरे प्रकार का। भिन्न। पुं० १. बिगड़ी हुई सूरत। २. पाडु रोग। ३. शिव। ४. एक असुर। ५. पिप्ललीमूल।
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विरूपण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विरूपित] आघात आदि के द्वारा अथवा और किसी प्रकार का रूप या आकार बिगड़ना।
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विरूपता  : स्त्री० [सं० विरूप+तल्+टाप्] विरूप होने की अवस्था या भाव।
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विरूप-परिणाम  : पुं० [सं०] एक रूपता से अनेक-रूपता अर्थात् निर्विशेषता से विशेषता की ओर होनेवाला परिवर्तन। एक मूल प्रकृति से अनेक विकृतियों का विकसित होना।
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विरूपा  : स्त्री० [सं० विरूप+टाप्] १. दुरालभा। २. अतिविषा। ३. यम की पत्नी का नाम। वि० सं० विरूप का स्त्री०।
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विरूपाक्ष  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी आँखें विरूप हों। पुं० १. शिव। २. शिव का एक गण। ३. रावण का एक सेनापति जिसे सुग्रीव ने मारा था। ४. पुराणानुसार एक दिग्गज।
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विरूपिक  : वि० [स्त्री० विरूपिका]=विरूप।
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विरूपी (पिन्)  : वि० [सं० विरूप+इनि] [स्त्री० विरूपिणी] १. जिसका रूप बिगड़ा हो। २. कुरूप। बदसूरत। ३. डरावनी या भयानक आकृतिवाला। पुं० गिरगिट नामक जन्तु।
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विरेक  : पुं० [सं०] [वि०√रिच् (रेचन करना)+घञ्]=विरेचक।
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विरेचक  : वि० [सं० वि√रिच् (रेचन करना)+ण्वुल-अक] (पदार्थ) जो दस्त लानेवाला हो। दस्तावर।
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विरेचन  : पुं० [वि०√रिचे (रेचन करना)+ल्युट-अन] १. ऐसी क्रिया करना जिससे दस्त आवें। २. ऐसा पदार्थ या ओषधि जिसके सेवन से दस्त आते हों। विरेचक पदार्थ।
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विरेची (चिन्)  : वि० [सं० वि√रिच् (रेचन करना)+णिनि]=विरेचक।
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विरेच्य  : वि० [सं० वि√रिच् (रेचन करना)+यत्] जो दस्तावर दवा देने के योग्य हो। जिससे विरेचन कराया जा सके।
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विरोक  : पुं० [सं० वि√रुच् (चमकना)+घञ्] १. चमक। दीप्ति। २. किरण। रश्मि। ३. चन्द्रमा। ४. विष्णु। ५. छेद सूराख।
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विरोकना  : स०=रोकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विरोचन  : पुं० [सं० वि√रुच् (चमकना)+युच्-अन] १. प्रकाशमान होना। चमकना। २. सूर्य की किरण। ३. सूर्य। ४. चन्द्रमा। ५. अग्नि। ६. विष्णु। ७. प्रहलाद के पुत्र और बलि के पिता का नाम। ८. राजा बलि का एक नाम। ९. आक। मदार। १॰. रोहित वृक्ष। रुहेड़ा। ११. श्योनाक। सोनापाढ़ा। १२. घृतकरंज। वि० चमकनेवाला। दीप्तिमान।
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विरोध  : पुं० [सं० वि√रुध् (ढकना)+घञ्] १. विशेष रूप से होनेवाला रोध या रुकावट। २. किसी कार्य या प्रयत्न को रोकने या विफल करने के लिए उसके विपरीत होनेवाला प्रयत्न (आँपोजीशन) ३. भिन्न-भिन्न तथ्यों विचारों आदि में होनेवाला ऐसा तत्त्व जो एक दूसरे के विपरीत हो। (रिपग्नेन्सी) ४. मतों व्यक्तियों सिद्धान्तों आदि में होनेवाली पारस्परिक विपरीतता। ५. उक्त के फलस्वरूप आपस में होनेवाला ऐसा संघर्ष जिसमें प्रायः वैर या शत्रुता का भाव भी सम्मिलित होता है। (कॉन्प्लिक्ट) ६. आपस में होनेवाली अनवन या बिगाड़। पद—वैर विरोध। ७. ऐसी स्थिति जिसमें दो बातें एक साथ हो सकती हों। विप्रतिपति। व्याघात। ८. उलटी या विपरीत स्थिति। ९. विरोधाभास। (दे०) १॰. नाटक का एक अंग जिसमें किसी बात का वर्णन करते समय विपत्ति का आभास दिखाया गया है। ११. नाश।
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विरोधक  : वि० [सं० वि√रुध् (ढकना)+ण्वुल्-अक] १. विरोध संबंधी। २. विरोधी। पुं० नाटक में ऐसा विषय जिसका प्रदर्शन या वर्णन निषिद्ध हो।
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विरोधन  : पुं० [सं० वि√रुध् (ढकना)+ल्युट-अन] [वि० विरोधी, विरोधित, विरोध्य] १. विरोध करने की क्रिया या भाव। प्रतिरोध। ३. ध्वंस। नाश। बरबादी।
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विरोधना  : स० [सं० विरोधन] १. किसी का या किसी से विरोध करना। २. वैर करना।
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विरोध-पीठ  : पुं० [सं०] विधायिका सभा में विरोध पक्षवालों के बैठने का स्थान (ऑपोजीशन बेंच)।
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विरोधाभास  : पुं० [सं०] साहित्य में एक विरोधमूलक अर्थालंकार जिसमें वस्तुतः विरोध का वर्णन न होने पर भी विरोध का आभास होता है।
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विरोधित  : भू० कृ० [सं० वि√रुध् (ढकना)+क्त] जिसका विरोध किया गया हो।
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विरोधिता  : स्त्री० [सं० विरोधिन्+तल्+टाप्] १. विरोध। २. वैर। शत्रुता। ३. फलित ज्योतिष में नक्षत्रों की प्रतिकूल दृष्टि।
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विरोधी (धिन्)  : वि० [सं०] १. जो किसी के विरुद्ध आचरण करता हो। विरोध करनेवाला। २. जो इस प्रयास में हो कि अमुक कार्य को प्रचलन में न लाया जाय अथवा प्रचलन से उठा लिया जाय। ३. विरुद्ध पडने या होनेवाला। उलटा। विपरीत। पुं०१. विपक्षी। २. शत्रु। वैरी।
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विरोध्य  : वि० [सं० विरोध+यत्] जिसका विरोध किया जा सके या किया जाने को हो।
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विरोपण  : पुं० [सं० वि√रुप् (बहना)+णिच्+ल्युट—अन] [वि० विरोपणीय, विरोप्य, भू० कृ० विरोपित] १. जमीन के पौधे आदि लगाना। रोपना। २. लेप करना। चढ़ाना या लगाना।
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विरोम  : वि० [सं० ब० स०] रोम-रहित। बिना रोएँ का।
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विरोह  : पुं० [सं० वि√रुह् (अंकुर निकलना)+घञ्] १. अंकुरित होना। २, उत्पत्ति या उद्भव होना।
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विरोहण  : पुं० [सं० वि√रुह् (अंकुरित होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विरोहित, वि० विरोहणीय,] एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाना। रोपना।
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विरोही  : वि० [सं० वि√रुह् (उगना)+णिनि=विरोहिन्] [स्त्री० विरोहिणी] (पौधा) रोपनेवाला।
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वित्त  : स्त्री०=वृत्ति। पुं०=वृत्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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विलंघन  : पुं० [सं० वि√लंच् (लाँघना)+ल्युट-अन] १. कूद या लाँघकर पार करना। २. उपवास। लंघन। ३. किसी काम चीज या बात से अपने आपको रहित या वंचित रखना।
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विलंघना  : स०=लाँघना।
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विलंघनीय  : वि० [सं० वि√लंच् (लाँघना)+अनीयर्] १. जिसका विलंघन हो सके या होने को हो। २. (काम) जो सहज किया जा सके। सुगम।
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विलंघित  : भू० कृ० [सं० वि√लंघ् (लाँघना)+क्त] जिसका विलंघन हुआ हो।
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विलंघी (घिन्)  : वि० [सं० वि√लंघ् (लाँघना)+णिनि] विलंघन करनेवाला।
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विलंघ्य  : वि० [सं० वि√लंघ् (लाँघना)+यत्]=विलंघनीय।
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विलंब  : पुं० [सं० वि√लम्ब् (देर करना)+घञ्] १. ऐसी स्थिति जिसमें अनुमान, आवश्यकता, औचित्य आदि से अधिक समय लगे। अति-काल। देर। २. इस प्रकार अधिक लगनेवाला समय।
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विलंबन  : पुं० [सं० वि√लम्ब् (देर होना)+ल्युट-अन] [वि० विलंबनीय, विलंबी, भू० कृ० विलंबित] १. देर करना। विलंब करना। २. टँगना। या लटकाना। ३. आश्रय या सहारा लेना।
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विलंबना  : स० [सं० विलंबन] १. आवश्यकता से अधिक समय लगाना। २. देर या विलंब करना। अ० १. देर या विलंब होना। २. लटकना। ३. आश्रय या सहारा लेना। ४. दे० ‘बिरमना’ या ‘बिलमना’।
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विलंब-शुल्क  : पुं० [ष० त०] १. वह शुल्क जो किसी काम या बात में विलंब करने पर देना पड़े। (लेट फ़ी) २. वह अतिरिक्त शुल्क जो जहाज रेल आदि से आया हुआ माल देर से छुड़ाने पर देना पड़ता है (डेमरेज)।
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विलंबित  : वि० [सं० वि√लम्ब् (देर करना)+क्त] १. लटकता या झूलता हुआ। २. जिसमें विलंब लगा हो या देर हुई हो। ३. देर करने या लगानेवाला। पुं० १. ऐसे जीव-जंतु जो बहुत धीरे-धीरे चलते हों। जैसे—गैंडा, भैंस आदि। २. संगीत ऐसी लय, जिसमें स्वरों का उच्चारण बहुत मंद गति से होता हो। ‘द्रुत’ का विपर्याय।
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विलंबी (दिन्)  : वि० [सं० वि√लम्ब् (देर करना)+णिनि] [स्त्री० विलंबिनी] १. लटकता हुआ। झूलता हुआ। २. विलंब करने या देर लगानेवाला। पुं० साठ संवत्सरों में से बत्तीसवाँ संवत्सर।
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विलक्ष  : वि० [सं० वि√लक्ष् (लक्षित करना)+अच्] १. जिसमें विशिष्ट चिन्ह या लक्षण न हों। २. जिसका कोई लक्ष्य न हो। ३. चकित। ४. लज्जित।
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विलक्षण  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका कोई लक्षण न हो। २. जिसके बहुत से लक्षण हों। ३. अपने वर्ग के अन्यों की अपेक्षा जिसके लक्षणों में विशेषता हो। जैसा साधारणताः होता हो, उससे कुछ अलग प्रकार का। ४. किसी की तुलना में कुछ अलग और विशिष्ट प्रकार का
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विलक्षणता  : स्त्री० [सं० विलक्षण+तल्+टाप्] १. विलक्षण होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिसके कारण कोई चीज विलक्षण कही जाती है।
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विलखना  : अ०=विलखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=लखना।
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विलखाना  : स० [हिं० विलखना का स०](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. =विलखाना। २. =लखाना।
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विलग  : वि० [हिं० वि (उप)+लगना] जो किसी के साथ लगा हुआ न हो। अलग। जुदा। पृथक्। पुं० अन्तर। फरक। भेद।
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विलगाना  : अ० [हिं० विलग+ना (प्रत्यय)] अलग होना। पृथक् होना। अलग या पृथक् करना।
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विलग्न  : वि० [सं०] १. किसी के साथ लगा हुआ। संलग्न। २. झूलता या लटकता हुआ। ३. किसी में बंद किया या बाँधा हुआ। ४. बीता हुआ। व्यतीत। ५. कोमल। पुं० १. कमर। २. चूतड़। ३. जन्म-पत्री। ४. राशियों का उदय।
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विलच्छन  : वि०=विलक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलज्ज  : वि० [सं० ब० स०] निर्लज्ज। बेहया।
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विलपन  : पुं० [सं०] १. विलाप करना। २. गप-शप करना। ३. तेल आदि के नीचे जमने या बैठनेवाली मैल। गंदगी।
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विलपना  : अ० [सं० विलाप] विलाप करना। रोना।
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विलब्ध  : भू० कृ० [सं० वि√लभ् (प्राप्त होना)+क्त] १. दिया हुआ। पाया हुआ। मिला हुआ। प्राप्त। लब्ध। २. अलग या पृथक् किया हुआ।
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विलम  : पुं०=विलंब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलमना  : अ०=विलमना।
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विलय  : पुं० [सं० वि√ली (मिलना घुलना आदि)+अच्] १. किसी चीज या पानी में घुलकर मिल जाना। घुलना। २. एक पदार्थ का किसी रूप में दूसरे पदार्थ में घुलना-मिलना। विलीन होना। ३. आज-कल किसी छोटे-देश या राज्य का अपनी स्वतंत्र सत्ता गँवाकर दूसरे बड़े देश या राज्य में मिल जाना। छोटे राज्य का बड़े में लीन होना। (मर्जिंग)। ४. आत्मा का शरीर से निकलकर परमात्मा में मिलना, अर्थात् मृत्यु। मौत। ५. सृष्टि का नष्ट होकर अपने मूल तत्त्वों में मिल जाना, अर्थात् प्रलय। ६. ध्वंस। नाश।
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विलयन  : पुं० [सं० वि√ली (लय होना)+ल्युट—अन] १. लय या विलय होने की अवस्था, क्रिया या भाव। विलीन होना। २. एक वस्तु का दूसरी वस्तु में इस प्रकार मिलकर समा जाना कि उस पहली वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व न रह जाय। ३. किसी देशी रियासत का या किसी छोटे राज्य का बड़े राज्य में होनेवाला विलय (मर्जर)।
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विलसन  : पुं० [सं० वि√लस् (चमकना)+ल्युट-अन] १. चमकने की क्रिया या भाव। २. क्रीड़ा। प्रमोद। विलास।
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विलसना  : अ० [सं० विलसन] १. शोभा पाना। फबना। २. क्रीड़ा या विलास करना। ३. किसी चीज का सुखपूर्वक भोग-विलास करना।
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विलसाना  : स०=बिलसाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलसित  : वि० [सं० वि√लस्+क्त] १. चमकता हुआ। २. व्यक्त। ३. क्रीड़ा में मग्न। ४. विनोदी। पुं० १. चमकने या चमकाने की क्रिया। २. चमक। दीप्ति। ३. अभिव्यक्ति। ४. क्रीड़ा। ५. अंग-भंगी। ६. परिणाम। फल।
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विलह-बंदी  : स्त्री० [?] ब्रिटिश शासन में जिले के बन्दोबस्त का वह संक्षिप्त ब्योरा जिसमें प्रत्येक महाल का नाम, कास्तकारों के नाम और उनके लगान आदि का ब्योरा लिखा जाता था।
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विलहा  : पुं० दे० ‘बोल्लाह’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलाना  : अ० स०=विलाना (नष्ट होना या करना)।
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विलाप  : पुं० [सं० वि√लप् (बोलनाः+घञ्] हार्दिक दुःख प्रकट करने के लिए बिलख-बिलख कर या विकल होकर रोने की क्रिया।
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विलापन  : वि० [सं० वि√लप् (कहना)+ल्युट-अन] १. रुलानेवाला। २. जो विलाप का कारण हो (शस्त्रादि) ३. पिघलानेवाला। ४. नष्ट करनेवाला। पुं० १. रुलाने की क्रिया। २. नाश। ३. मृत्यु। ४. पिघलाने का साधन। ५. शिव का एक गण।
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विलापना  : अ० [सं० विलाप] विलाप करना। स०=रोपना (वृक्ष आदि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलापी (पिन्)  : वि० [सं० वि√लप्+णिनि] रोने या विलाप करनेवाला।
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विलायत  : पुं० [अ०] १. पराया देश। दूसरों का देश। बहुत दूर का विशेषतः समुद्र पार का देश। २. भारतीयों की दृष्टि से इंग्लैंड, अमेरिका, यूरोप आदि देश या महादेश।
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विलायती  : वि० [अ०] १. विलायत का। विदेशी। २. विलायत या दूसरे देश का बना हुआ। ३. विलायत या दूसरे देश में रहनेवाला। विदेशी।
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विलायती-पटुआ  : पुं० [हिं० विलायती+पटुआ] लाल पटुआ। लाल सन।
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विलायती-बैगन  : पुं० [हिं०] टमाटर (देखें)।
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विलायन  : पुं० [सं० वि√ली+णिच्+ल्युट-अन] प्राचीन भारत का एक अस्त्र। कहते है कि इस अस्त्र के प्रयोग से शत्रु की सेनाएँ विश्राम करने लगती थीं।
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विलावल  : पुं०=बिलावल (राग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलास  : पुं० [सं० वि√लस् (साथ में क्रीड़ा करना)+घञ्] १. ऐसी क्रिया या व्यापार जो अपने देश को प्रसन्न तथा प्रफुल्लित रखने के लिए किया जाय। २. क्रीड़ा। खेल। ३. अधिक मूल्य की और सुख-सुभीते की वस्तुओं का ऐसा उपयोग या व्यवहार जो केवल मन प्रसन्न करने के लिए हो। शौकीनी। (लक्ज़री)। ४. अनुराग तथा प्रेम में लीन होकर की जानेवाली क्रीड़ा। ५. ऐसी स्त्रियोचित भाव-भंगी या कोमल चेष्टा जो काम वासना की उत्पादक या सूचक हो। ६. साहित्य में संयोग श्रृंगार का एक भाव जिसमें जिसमें प्रिय से सामना होने पर नायिका अपनी कोमल चेष्टाओं तथा भाव-भंगियों से उसके मन में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करती है। ७. मनोहरता। सौन्दर्य। ८. किसी अंग की आकर्षक और कोमल चेष्टा। जैसे—भ्रू-विलास। ९. किसी वस्तु का उक्त प्रकार से हिलना-डोलना। जैसे— विद्युत विलास। १॰. आनन्द। प्रसन्नता। हर्ष। ११. यथेष्ट सुख-भोग।
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विलासक  : वि० [सं० विलास+कन्] [स्त्री० विलासिका] १. इधर-उधर फिरनेवाला। २. दे० ‘विलासी’। ३. नर्तकी।
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विलासन  : पुं० [सं० वि√लस्+ल्युट-अन] विलास करने की क्रिया या भाव।
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विलासिका  : स्त्री० [सं० विलास्+कन्+टाप्, इत्व] साहित्य में एक प्रकार का श्रृंगार प्रधान एकांकी रूपक जिसका विषय संक्षिप्त और साधारण होता है।
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विलासिता  : स्त्री० [सं०] १. विलासी होने की अवस्था या भाव। २. विलास।
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विलासिनी  : स्त्री० [सं० विलास+इनि+ङीष्] १. सुंदरी युवती। कामिनी। २. रंडी। वेश्या। ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ज, र, ज, ग, ग होता है वि० विलासिता प्रिय (स्त्री)।
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विलासी (सिन्)  : वि० [सं० विलास+इनि] १. (व्यक्ति) जो प्रायः ऐसी क्रीड़ाओं में रत रहता हो जिनसे उसे सुख-भोग प्राप्त होता हो। २. हँसी-खुशी में समय बितानेवाला। ३. आराम-तलब। ४. कामुक। पुं० वरुण (वृक्ष)।
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विलास्य  : पुं० [सं० विलास+यत्] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिए तार लगे होते थे। वि० विलास के लिए उपयुक्त या योग्य।
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विलिंग  : वि० [सं० ब० स०] १. लिंग-रहित। २. दूसरे या भिन्न लिंग का। पुं० लिंग अर्थात् चिन्ह का अभाव।
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विलिखन  : पुं० [सं० वि√लिख् (रेखा करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलिखित] १. लिखना। २. खरो-चना। ३. खोदकर अंकित करना।
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विलिप्त  : भू० कृ० [सं० वि√लिप् (लीपना)+क्त] १. पुता हुआ। लिपा हुआ। २. उखड़ा या खुदा हुआ। ३. अस्त-व्यस्त। ४. कलुषित।
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विलीक  : वि०=व्यलीक (असत्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विलीन  : भू० कृ० [वि√ली (मिलना, घुलना)+क्त] १. (पदार्थ) जो किसी दूसरे पदार्थ में गल, घुल या मिल गया हो। २. उक्त के आधार पर जो अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर दूसरे में मिल गया हो। ३. जो गायब या लुप्त हो गया हो। अदृश्य। ४. नष्ट। ५. मृत। ६. जो आड़ में जा छिपा हो। ओझल।
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विलुनन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विलुनित] नष्ट करना।
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विलुप्त  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका लोप हो गया हो। नष्ट। २. जो अदृश्य या गायब हो गया हो। ३. नष्ट। बरबाद।
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विलुलक  : वि० [सं० वि√लुल् (मर्दन करना)+ण्वुल्-अक] नाश करनेवाला।
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विलून  : भू० कृ० [सं० वि√लू (काटना)+क्त, त-न] १. कटा हुआ। अलग किया हुआ। २. काटकर अलग किया हुआ।
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विलेख  : पुं० [वि√लिख्+घञ्] १. अनुमान। कल्पना। २. सोच-विचार। ३. वह कारण या लिखत जिसमें दो पक्षों में होनेवाला अनुबंध लिखा हो और जिस पर प्रमाण-स्वरूप दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हों। दस्तावेज (डीड)।
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विलेखन  : पुं० [सं० वि√लिख् (लिखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलेखित] १. खरोंचना। २. खोदना। ३. उखाड़ना। ४. चिन्ह बनाना। ५. चीरना। ६. नदी का मार्ग। ७. विभाजन। वि० खरोंचनेवाला।
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विलेखा  : स्त्री० [सं० विलेख+टाप्] १. खरोंच। २. चिन्ह। ३. विलेख। लेख्य।
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विलेखी (खिन्)  : वि० [सं० वि√लिख् (लिखना)+णिनि] १. खरोंचनेवाला। २. चिन्ह बनानेवाला। ३. इकरार लिखनेवाला। ४. विलेख अर्थात् अनुबंध या संधि-पत्र लिखनेवाला।
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विलेप  : पुं० [सं० वि√लिप् (लेपन करना)+घञ्] १. शरीर आदि पर लगाने का लेप। २. दीवारों पर लगाया जानेवाला पलस्तर।
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विलेपन  : पुं० [सं० वि√लिप्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलेपित] १. लेप करने या लगाने की क्रिया या भाव। अच्छी तरह लीपना या लगाना। २. लेप के रूप में लगाई जानेवाली चीज। लेप।
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विलेपनी  : स्त्री० [सं० विलेपन+ङीप्] १. वह स्त्री जिसने अंगराग लगाया हो। श्रृंगारित स्त्री। २. माँड़।
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विलेपी (पिन्)  : वि० [सं० वि√लिप् (लेप करना)+णिनि] [स्त्री० विलेपिनी] १. लेप करनेवाला। २. पलस्तर करनेवाला। ३. चिपका या साथ लगा हुआ। ४. लसदार। लसीला।
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विलेय  : वि० [सं०] १. जिसका विलय हो सके या किया जा सके। २. (पदार्थ) जो पानी या किसी तरल द्रव्य में घुल सके। (सोल्युबल)।
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विलेवासी (सिन्)  : पुं० [सं० विले√वस् (रहना)+णिनि, दीर्घ, नलोप, सप्तमी, अलुक] सर्प।
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विलेशय  : वि० [सं० विले√शी (सोना)+अच्, सप्त, अलुक] बिल में वास करनेवाला। पुं० १. साँप। २. चूहा। ३. बिच्छू। ४. गोह। ५. खरगोश।
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विलोक  : वि० [सं० ब० स०] १. लोक या जन से रहित। २. निर्जन पुं० १. दृष्टि। नजर। २. दृश्य।
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विलोकन  : पुं० [सं० वि√लोक् (देखना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलोकित] १. देखना। २. विचार करना। २. तलाश करना। ढूँढ़ना। ४. ध्यान देना। ५. अध्ययन करना।
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विलोकना  : स० [सं० विलोकन] १. देखना। २. निरीक्षण करना। ३. ढूँढ़ना।
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विलोकनि  : स्त्री० [हिं० विलोकना] १. देखने की क्रिया या भाव। २. दृष्टि। नजर।
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विलोकनीय  : वि० [सं० वि√लोक् (देखना आदि)+अनीयर्] देखने योग्य अर्थात् सुन्दर।
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विलोकित  : भू० कृ० [सं०] १. देखा हुआ। २. निरीक्षित।
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विलोकी (किन्)  : वि० [सं० वि√लोक् (देखना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. देखनेवाला। २. निरीक्षण करनेवाला।
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विलोचन  : पुं० [सं०] १. लोचन। नेत्र। आँख। २. एक नरक का नाम। वि० लोचन अर्थात् आँख से रहित।
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विलोडक  : वि० [सं० वि√लुड् (मथना आदि)+ण्वुल्-अक] विलोड़न करनेवाला पुं० चोर।
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विलोडन  : पुं० [सं० वि√लुड् (मथना आदि)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विलोड़ित] १. मथना। २. हिलाना। ३. चुराना।
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विलोड़ना  : स० [सं० विलोड़न] विलोड़न करना। बिलोड़ना।
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विलोप  : पुं० [सं० वि√लुप् (भागना)+घञ्] १. लोप। २. बाधा। रुकावट। ३. आपत्ति। संकट। ४. नाश। ५. नुकसान। हानि। ६. कोई चीज चुरा या लेकर भागना।
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विलोपक  : वि० [सं० वि√लुप् (नष्ट करना)+ण्वुल-अक] विलोप करनेवाला।
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विलोपन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विलोपित] १. विलोप करने की क्रिया या भाव। २. जो कुछ पहले वर्तमान हो, उसे काट या रद्द करके अलग करने, छोड़ने या निकालने की क्रिया या भाव। (डिलीशन)।
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विलोपना  : स० [सं० विलोपन] १. लोप करना। २. नाश करना। ३. ले भागना। ४. बाधा या विघ्न डालना। अ० १. लुप्त होना। २. नष्ट होना।
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विलोपी (पिन्)  : वि० [सं० वि√लुप् (गायब करना आदि)+णिनि, दीर्घ, नलोप] लोप अर्थात् पूर्णतया नष्ट या ध्वस्त करनेवाला।
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विलोप्ता (प्तृ)  : वि० [सं० वि√लुप् (लुप्त करना)+तृच्] विलोपी। पुं० १. चार। २. डाकू।
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विलोप्य  : वि० [वि√लुव् (लुप्त करना)+यत्] जिसका विलोपन हो सके। विलुप्त किये जाने के योग्य।
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विलोभ  : वि० [वि√लुभ् (विमोहित करना)+घञ्] जिसे लोभ न हो। लोभ से रहित। पुं० १. ऐसी बात जो मन को ललचाती हो। २. प्रलोभन। ३. माया के कारण उत्पन्न होनेवाला भ्रम या मोह।
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विलोभन  : पुं० [सं०] १. विलोभ। २. प्रलोभन।
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विलोम  : वि० [सं०] १. जिसे बाल न हो। लोम-रहित। २. सामान्य या स्वाभाविक स्थिति के विपरीत स्थिति में होनेवाला। ३. सामान्य क्रम से न होकर विपरीत क्रम से होनेवाला। ४. जो सामान्य रीति प्रथा आदि के विचार से नहीं, बल्कि उसके विपरीत हुआ हो। जैसे— विलोम विवाह। ५. क्रम के विचार से ऊपर से नीचे की ओर जानेवाला। जैसे—विलोम स्वर साधन। पुं० १. साँप। २. कुत्ता। ३. रहट। ४. एक वरुण। ५. संगीत में स्वरों का अवरोहात्मक साधन।
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विलोमक  : वि० [सं० विलोम+कन्] १. उलटे या विपरीत क्रम से चलने या होनेवाला। २. (औषध या पदार्थ) जिसके प्रयोग से शरीर के बाल, विशेषतः फालतू बाल झड़ जाते हों ( डेपिलेटरी)।
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विलोम-जात  : वि० [सं०] १. (बच्चा) जो उलटा जन्मा हो। २. जिसकी माता का वर्ण उसके पिता के वर्ण की अपेक्षा ऊँचा हों।
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विलोमतः  : अव्य, [सं०] १. विलोम अर्थात् उलटे प्रकार या रूप से चलकर। विपरीत दिशा या रूप में। (कॉन्वर्सली)। २. दे० ‘प्रतिक्रमात्’।
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विलोमन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विलोमित] १. विलोम अर्थात् उलटे क्रम से चलाना, रखना या लगाना। २. नाटकों में मुख-सन्धि का एक अंग।
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विलोमवर्ण  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसकी माता का वर्ण पिता के वर्ण की अपेक्षा ऊँचा हो।
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विलोमा (मन्)  : वि० [सं० ब० स०] १. केश-रहित। २. उलटी और मुड़ा हुआ।
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विलोल  : वि० [सं० तृ० त०] १. लहराता या हिलता हुआ। २. अस्थिर। चंचल। ३. सुन्दर। ४. ढीला। शिथिल। ५. अस्त-व्यस्त। बिखरा। हुआ।
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विलोहित  : वि० [सं० तृ० त०] १. गाढ़ा लाल। २. बैंगनी रंग का। ३. हलका लाल। पुं० १. रुद्र। २. शिव। ३. एक नरक का नाम। ४. लाल प्याज।
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विलोहिता  : स्त्री० [सं० विलोहित+टाप्] अग्नि की एक जिह्वा।
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विल्व  : पुं० [सं०√विल् (भेदन करना)+वन्-क्विन्]=बिल्व (बेल का पेड़ और फल)।
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विव  : वि० [सं०] १. दो। २. दूसरा।
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विवक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० वि√वच् (बोलना)+तृच्] १. कहने या बतानेवाला। २. स्पष्ट बात करनेवाला। ३. ठीक या दुरुस्त करनेवाला।
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विवक्षा  : स्त्री० [सं० वि√वच् (कहना)+सन्, द्वित्व,+टाप्] १. कुछ कहने या बोलने की इच्छा। २. वह जो किसी के स्वभाव का अंश हो। ३. शब्द के अर्थ में होनेवाली विशिष्ट छाया जो उसका स्वाभाविक अंग होती है। ४. फल या परिणाम के रूप में या आनुषंगिक रूप से होनेवाली बात (इम्प्लिकेशन)।
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विवक्षित  : भू० कृ० [सं०] १. जो कहे जाने को हो। २. आर्थी छाया) जिसे शब्द व्यक्त कर रहा हो।
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विवत्स  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विवत्सा] संतानहीन।
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विवदन  : पुं० [सं० वि√वद् (बोलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विवदित] विवाद करने की क्रिया या भाव।
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विवदना  : अ० [सं० विवाद+हिं० नाप्रत्यय] विवाद अर्थात् तर्क-वितर्क या झगडा करना।
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विवदमान्  : वि० [सं०] विवाग या झगड़ा करनेवाला।
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विवदित  : वि० [सं०] जिसके संबंध में किसी प्रकार का विवाद हुआ हो (डिस्प्यूटेड)।
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विवर  : पुं० [सं०] १. छिद्र। बिल। २. गर्त। गडढा। ३. दरार। ४. कन्दरा। गुफा। ५. किसी ठोस चीज के अन्दर होनेवाला खोखला स्थान (कैविटी)।
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विवरण  : पुं० [सं० वि√वृ (संवरण करना)+ल्युट-अन] १. स्पष्ट रूप से समझाने के लिए किसी घटना, बात आदि का विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन या विवेचन। २. उक्त प्रकार से कहा हुआ वृत्तान्त या हाल। जैसे—किसी संस्था का वार्षिक विवरण, अधिवेशन या बैठक का कार्य-विवरण। ३. ग्रन्थ की टीका या व्याख्या। ४. किसी अधिकारी आदि के पूछने पर अपने कार्यों आदि के संबंध में बताई जानेवाली विस्तृत बातें।
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विवरण-पत्र  : पुं० [सं०] १. वह पत्र जिसमें किसी प्रकार का विवरण लिखा हो। (रिपोर्ट)। २. ऐसा सूचीपत्र जिसमें सूचित की जानेवाली वस्तुओं का थोड़ा-बहुत विवरण भी हो।
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विवरणिका  : स्त्री० [सं०] १. विवरण-पत्र।
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विवरना  : अ०=विवरना (सुलझाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=विवरना (सुलझाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवरणी  : स्त्री० [सं०] आय-व्यय आदि की स्थिति बतानेवाला वह लेखा जो प्रतिवेदन के रूप में कहीं उपस्थित किया जाने को हो (रिटर्न)।
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विवर्जन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विवर्जित] १. त्याग करने की क्रिया। परित्याग। २. मनाही। निषेध। वर्जन। अनादर। ४. उपेक्षा।
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विवर्जित  : भू० कृ० [सं० वि√वर्ज् (मना करना)+क्त] जिसका या जिसके सम्बन्ध में विवर्जन हुआ हो।
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विवर्ण  : वि० [सं०] १. जिसका कोई रंग न हो। रंगहीन। २. जिसका रंग बिगड़ गया हो। ३. कांति-हीन। ४. रंग-बिरंगा। ५. जो किसी वर्ण के अन्तर्गत न हो, अर्थात् जाति-च्युत। पुं० साहित्य में एक भाव जिसमें भय, मोह, क्रोध, लज्जा आदि के कारण नायक और नायिका के मुख का रंग बदल जाता है।
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विवर्णता  : स्त्री० [सं०] विवर्ण होने की अवस्था या भाव। वैवर्ण्य।
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विवर्त  : पुं० [सं०] १. घूमना। मुड़ना। २. लुढ़कना। ३. नाचना। ४. एक रूप या स्थिति छोड़कर दूसरे रूप या स्थिति में आना या होना। ५. वेदान्त का यह मत या सिद्धान्त कि सारी सृष्टि वास्तव में असत् या मिथ्या है, और उसका जो रूप हमें दिखाई देता है, वह भ्रम या माया के कारण ही है। ६. लोक व्यवहार में किसी वस्तु का कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में या किसी कारण से मूल से भिन्न होना। जैसे—रस्सी का साँप प्रतीत होना या ब्रह्म का जगत् प्रतीत होना। ७. ढेर। राशि। ८. आकाश। ९. धोखा। भ्रम।
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विवर्तक  : वि० [सं०] विवर्तन करनेवाला। चक्कर लगानेवाला।
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विवर्तन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विवर्तित] १. किसी के चारों ओर घूमना। चक्कर लगाना। २. किसी ओर ढलकना या लुढ़कना। ३. भिन्न भिन्न अवस्थाओं में से होते हुए या उन्हें पार करते हुए आगे बढ़ना। विकसित होना। विकास। ४. नाचना। नृत्य। ५. अरविन्द दर्शन में, चेतना या क्रमशः उन्नत तथा जाग्रत होकर विश्व की सृष्टि और विकास करना। ‘निवर्तन’ का विपर्याय (इवोल्यूशन)।
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विवर्तवाद  : पुं० [सं०] दार्शनिक क्षेत्र में, यह सिद्धान्त कि ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत् उसके विवर्त या भ्रम के कारण कल्पित रूप है।
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विवर्तवादी  : वि० [सं०] विवर्तवाद-सम्बन्धी। पुं० वह जो विवर्तवाद का अनुयायी हो।
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विवर्तित  : भू० कृ० [सं० वि√वृत्त (उपस्थित रहना)+क्त] १. जिसकी विवर्तन हुआ हो या जो विवर्त के रूप में लाया गया हो। २. बदला हुआ। परिवर्तित। ३. घूमता या चक्कर खाता हुआ। ४. नाचता हुआ। ५. (अंग) जो मुड़क या मुड़ गया हो। ६. (अंग) जिसमें मोच आ गई हो।
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विवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० वि√वृत्त (उपस्थित रहना)+णिनि]=विवर्तक।
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विवर्द्धन  : पुं० [सं० वि√वृध् (बढ़ना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विवर्द्धित] १. बढ़ाने या वृद्धि करने की क्रिया। २. बढ़ती। वृद्धि।
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विवर्द्धिनी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विवश  : वि० [सं० वि√वश् (वश में करना)+अच्] [भाव० विवशता] १. जो स्वयं अपनी इच्छा के अनुसारन ही बल्कि दूसरों की इच्छा से अथवा परिस्थितियों के बंधन में पड़कर काम कर रहा हो। २. जिसका अपने पर वश न हो,बल्कि जो दूसरों के वश में हो। ३. जिसे कोई विशिष्ट काम करने के अतिरिक्त और कोई चारा न हो। ४. पराधीन।
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विवशता  : स्त्री० [सं० विवश+तल्+टाप्] १. विवश होने की अवस्था या भाव। लाचारी। २. वह कारण जिसके फलस्वरूप किसी को विवश होना पड़ता हो।
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विवस  : वि०=विवश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवसन  : वि० [स्त्री० विवसना]=विवस्त्र।
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विवस्त्र  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० विवस्त्रा] जिसके पास वस्त्र न हो अथवा जिसने वस्त्र उतार दिये हों।
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विवस्वत्  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. सूर्य का सारथी। अरुण। ३. पन्द्रहवें प्रजापति का नाम।
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विवस्वान् (स्वत्)  : पुं० [सं० विवस्वत्] १. सूर्य। २. सूर्य का सारथी। अरुण। ३. अर्क। मदार वृक्ष। ४. वर्तमान मनु का नाम। ५. देवता।
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विवाक  : पुं० [सं० वि√वच् (कहना)+घञ्] १. न्यायाधीश। २. मध्यस्थ।
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विवाचन  : पुं० [सं० वि√वच् (कहना)+णिच्+ल्युट-अन] आपसी झगड़ों या पंच या पंचायतों के द्वारा होनेवाला विचार और निर्णय।
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विवाद  : पुं० [सं०] १. किसी बात या वस्तु के सम्बन्ध में होनेवाला जबानी झगड़ा। कहा-सुनी। तकरार। २. किसी विषय में आपस में होनेवाला मतभेद। ३. ऐसी बात जिसके विषय में दो या अनेक विरोधी पक्ष हों और जिसकी सत्यता का निर्णय होने को हो। (डिस्प्यूट)। ४. न्यायालय में होनेवाला वाद। मुकदमा।
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विवादक  : वि० [सं० वि√वद् (कहना)+ण्वुल्-अक] विवाद करनेवाला। झगड़ालू।
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विवादार्थी (थिन्)  : पुं० [सं० विवादार्थ+इनि, ब० स०] १. वादी। मुद्दई। २. मुकदमा लड़नेवाला व्यक्ति।
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विवादास्पद  : वि० [सं० ष० त०] १. (विषय) जिसके सम्बन्ध में दो या अधिक पक्षों का विवाद चल रहा हो। २. प्रस्ताव, मत, विचार आदि जिसके संबंध में तर्क-वितर्क चल सकता हो। (काँन्ट्रोवर्सल)।
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विवादी (दिन्)  : वि० [सं० वि√वद् (कहना)+णिनि] १. विवाद करनेवाला। कहासुनी या झगड़ा करनेवाला। २. मुकदमा लड़नेवाला। पुं० संगीत में वह स्वर जिसका प्रयोग किसी राग में नियमित रूप से तो नहीं होता फिर भी कभी-कभी राग में कोमलता या सुन्दरता लाने के लिए जिसका व्यवहार किया जाता है। जैसे—भैरवी में साधारणतः तीव्र ऋषभ या तीव्र निषाद का प्रयोग नहीं होता फिर भी कभी-कभी कुछ लोग सुन्दरता लाने के लिए इसका प्रयोग कर लेते हैं।
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विवाद्य  : वि० [सं०] (विषय) जिस पर विवाद, बहस या तर्क-वितर्क होने को हो या हो सकता हो (डिबेटेबुल)।
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विवान  : पुं०=विमानो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवास  : पुं० [सं०] १. घर-छोड़कर कहीं दूसरी जगह जाकर रहना। २. निर्वासन।
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विवासन  : पुं० [सं० वि√वस् (निवास करना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विवासित] १. निर्वासित करना। निर्वासन। २. दे० ‘विस्थापन’।
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विवास्य  : वि० [सं० वि√वस्+ण्यत्] (व्यक्ति) जो अपने निवास-स्थान से निकाल दिया जाने को हो या निकाला जा सके।
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विवाह  : पुं० [सं० वि√वह् (ढोना)+घञ्] १. हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों में से एक जिसमें वर तथा कन्या पति-पत्नी का धर्म स्वीकार करते हैं। विशेष—हिन्दू धर्म में आठ प्रकार के विवाह माने जाते है-ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच्य। ३. उक्त संस्कार के अवसर पर होनेवाला उत्सव या समारोह। ४. व्यापक अर्थ में वह उत्सव जिसमें पुरुष तथा स्त्री वैवाहिक बन्धन में बँधना स्वीकार करते हैं। ५. उक्त अवसर पर होनेवाला धार्मिक कृत्य। जैसे—विवाह पंडित जी करावेंगे।
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विवाहना  : स०=ब्याहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विवाहला  : पुं० [सं० विवाह] विवाह के समय गाये जानेवाले गीत (राज०)
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विवाह-विच्छेद  : पुं० [सं० ष० त०] वह अवस्था जिसमें पुरुष और स्त्री अपना वैवाहिक सम्बन्ध तोड़कर एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। तलाक (डाइवोर्स)।
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विवाहा  : वि० कृ० [स्त्री० विवाही]=विवाहित।
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विवाहित  : भू० कृ० [सं० विवाह+इतच्] [स्त्री० विवाहिता] १. जिसका विवाह हो गया हो। ब्याहा हुआ। २. जिसके साथ विवाह किया गया हो।
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विवाह्य  : वि० [सं० वि√वह (ढोना)+ण्यत्] १. जिसका विवाह होने को हो या होना उचित हो। २. जिसके साथ विवाह किया जा सकता हो।
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विवि  : वि० [सं०] १. दो। २. दूसरा। द्वितीय।
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विविक्त  : भू० कृ० [सं० वि√विच् (पृथक् होना)+क्त] [स्त्री० विविक्ता] १. पृथक् किया हुआ। २. बिखरा हुआ। अस्त-व्यस्त। ३. निर्जन। ४. पवित्र। जैसे—विविक्त स्त्री। पुं० त्यागी। २. संन्यासी।
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विविक्ति  : स्त्री० [सं० वि√विच् (पृथक् करना)+क्तिन्] १. विवेक-पूर्वक काम करना। २. अलगाव। पार्थक्य। ३. विभाग।
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विविध  : वि० [सं० ब० स०] १. अनेक या बहुत प्रकार का। भांति-भाँति का। जैसे—विविध विषयों पर होनेवाला भाषण। २. कई विभागों, मदों आदि का मिला-जुला। फुटकर (मिसलेनियस)।
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विविर  : पुं० [सं० वि√जृ (संवरण करना)+अञ्]=विवर।
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विवीत  : पुं० [सं० वि√वी (गमन, व्याप्त होना आदि)+क्त] १. चारो ओर से घिरा हुआ स्थान। २. पशुओं के रहने का बाड़ा।
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विवुध  : पुं०=विबुध। विशेष—‘विवुध’ के यौ के लिए दे० ‘विबुध’ के यौ०।
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विवृत्  : वि० [सं०] १. फैला हुआ। विस्तृत। २. खुला हुआ। (वर्ण) जिसका उच्चारण करते समय मुख-द्वार पूरा खुलता हो। पुं० व्याकरण में उच्चारण की वह अवस्था जिसमें मुख-द्वार पूरा खुलता हो। विशेष—नागरी वर्ण माला में ‘आ’ विवृत्त वर्ण (स्वर) है।
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विवृत्ति  : स्त्री० [सं०] १. विवृत्ति होने की अवस्था या भाव। २. किसी को कही या लिखी हुई बात की अपनी बुद्धि से प्रसंगानुकूल अर्थ लगाना या स्थिर करना। निर्वचन। (इन्टरप्रिटेशन)। ३. भाषा विज्ञान का विवृत्त नामक प्रयत्न अथवा वह प्रयत्न करने की क्रिया या भाव।
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विवृत्ता  : स्त्री० [सं० विवृत्त+टाप्] योनि का एक रोग जिसमें उस पर मंडलाकार फुंसिया होती है और बहुत जलन होती है।
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विवृतोक्ति  : स्त्री० [सं० ब० स०] साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें श्लेष से छिपाया हुआ अर्थ कवि स्वयं अपने शब्दों द्वारा प्रकट कर देता है।
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विवृत्त  : वि० [सं०] १. घूमता हुआ या चक्कर खाता हुआ। २. चलता हुआ। ३. ऐंठा हुआ या मुड़ा हुआ। ४. खुला या खोला हुआ। ५. सामने आया या लाया हुआ।
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विवृत्ति  : स्त्री० [सं० वि√वृत्त (फैलाना आदि)+क्तिन्] १. विवृत होने की अवस्था या भाव। २. चक्कर खाना। घूमना ३. विस्तार। फैलाव। ४. विकास। ५. ग्रन्थ की टीका या व्याख्या।
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विवृद्ध  : वि० [सं०] [भाव० विवृद्धि] १. बहुत बढ़ा हुआ। २. पूरी तरह से विकसित। ३. प्रौढ़ अवस्था में पहुँचा हुआ। ४. शक्तिशाली।
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विवेक  : पुं० [सं०] [भाव० विवेकता] १. अन्तः करण की वह शक्ति जिसमें मनुष्य यह समझता हैं कि कौन-सा काम अच्छा है या बुरा, अथवा करने योग्य है या नहीं (कान्शेन्स) २. अच्छी बुद्धि या समझ। ३. सदविचार की योग्यता। ४. सत्यज्ञान।
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विवेकवादी  : पुं० [सं०] वह जो यह कहता या मानता हो कि मनुष्य को वही काम करना चाहिए और वही बात माननी चाहिए जो उसका विवेक ठीक मानता हो।
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विवेकवान्  : वि० [सं० विवेक+मनुण, म-व, नुम्] १. जिसे सत और असत् का ज्ञान हो। अच्छे बुरे की पहचाननेवाला। २. बुद्धिमान्।
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विवेकाधीन  : वि० [सं०] (विषय) जो किसी के विवेक पर आश्रित हो। (डिस्क्रीशनरी)।
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विवेकी (किन्)  : वि० [सं० विवेक+इनि] १. जिसे विवेक हो। भले-बुरे का ज्ञान रखनेवाला। विवेकशील। २. बुद्धिमान। ३. ज्ञानी। ४. न्यायाशील। पुं० न्यायाधीश।
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विवेचक  : वि० [सं० वि√विच्+ण्वुल्-अक] विवेचन करनेवाला।
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विवेचन  : पुं० [सं० वि√विच् (जाँच करना)+ल्युट-अन] १. किसी चीज या बात के सभी अंगों या पक्षों पर इस दृष्टि से विचार करना कि तथ्य या वास्तविकता का पता चले। यह देखना कि क्या समझना ठीक है और क्या ठीक नहीं है। सत् और असत् का विचार। २. तर्क-वितर्क। ३. मीमांसा। ४. अनुसंधान। ५. परीक्षण।
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विवेचना  : स्त्री० [विवेचना+टाप्] १. विवेचन। २. विवेचन करने की योग्यता या शक्ति।
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विवेचनीय  : वि० [सं० वि√विच् (विचारना)+अनीयर्] जिसका विवेचन होने को हो या होना उचित हो।
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विवेचित  : भू० कृ० [सं० वि√विच् (विवेचन करना)+क्त] जिसकी विवेचना की गई हो या हो चुकी हो। २. निश्चित या तै किया हुआ। निर्णीत।
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विवेच्य  : वि० [सं०] विवेचनीय।
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विव्वोक  : पुं० [सं० वि√वा (गमन करना)+आदि,+कु, विवु-ओक, ष० त०] साहित्य-शास्त्र के अनुसार एक हाव जिसमें स्त्रियाँ संयोग के समय प्रिय का अनादर करती हैं।
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विशंक  : वि० [सं० ब० स०] शंका-रहित। निःशंक।
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विशंकनीय  : वि० [सं० वि√शक् (संदेह करना)+अनीयर्] जिसमें किसी प्रकार की शंका न हो।
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विशंका  : स्त्री० [सं० वि√शक् (संदेह करना)+अच्+टाप्] १. आशंका। २. डर। भय। ३. आशंका का अभाव।
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विशंकी (किन्)  : वि० [सं० वि√शंक्+णिनि] जिसे किसी प्रकार की आशंका हो।
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विशंक्य  : वि० [सं० वि√शंक्+ण्यत्] १. जिसके मन में कोई संका हो या हो सकती हो। २. प्रश्नास्पद। पूछने योग्य।
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विश्  : स्त्री० [सं० विश् (प्रवेश करना)+क्विप्] १. प्रजा। २. रिआया। ३. कन्या। लड़की। वि० जिसने जन्म लिया हो।
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विश  : पुं० [सं०√विश् (प्रवेश करना आदि)+क] १. कमल की डंडी। मृणाल। २. मनुष्य। ३. चाँदी। स्त्री० १. कन्या। २. लड़की।
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विशद  : वि० [सं०] [भाव० विशदता] १. स्वच्छ। निर्मल। साफ। २. स्पष्ट रूप से दिखाई देनेवाला। ३. उज्जवल। चमकीला। ४. सफेद। ५. चिंतारहित। शांत तथा स्थिर। ६. खुश। प्रसन्न। ७. मनोहर। सुन्दर। ८. अनुकूल। पुं० १. सफेद रंग। २. कसीस। ३. बृहती। बन-भंटा।
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विशदता  : स्त्री० [सं०] १. विशद होने की अवस्था या भाव। २. निर्मलता। ३. स्पष्टता।
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विशदित  : भू० कृ० [सं० वि√शुद् (स्वच्छ करना आदि)+क्त] विशद अर्थात् साफ किया हुआ।
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विशय  : पुं० [सं० वि√शी (स्वप्न, संशय आदि)+अच्] १. संशय। संदेह। शक। २. आश्रय। सहारा। ३. केन्द्र। मध्य।
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विशरण  : पुं० [सं० वि√श्रृं (मारना)+ल्युट-अन] १. मार डालना। हत्या करना। वध करना। २. नाश। ३. विस्फोटन।
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विशल्य  : वि० [सं०] १. (स्थान) जो काँटों से रहित हो। २. तीर जिसमें नोक न हो। ३. (स्थिति) जिसमें कष्ट या संकट न हो।
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विशल्या  : स्त्री० [सं० विशल्य+टाप्] १. गुडुच्। २. दंती। ३. नागदंती। ४. अग्नि-शिखा नामक वृक्ष। ५. निशोथ। ६. पाटला। ७. खेसारी। ८. एक प्रकार की तुलसी जिसे रामदंती भी कहते हैं। ९. एक प्राचीन नदी। १॰. लक्ष्मण की स्त्री उर्मिला का दूसरा नाम।
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विशसन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विशसित] १. वध करना। २. नष्ट या बरबाद करना। ३. युद्ध।
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विशसित  : भू० कृ० [सं० वि√शस् (मारना)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. काटा या चीरा हुआ।
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विशस्त  : वि०=विशसित।
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विशांप्रति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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विशा  : स्त्री० [सं० विश् (प्रवेश करना)+क+टाप्] १. जाति। २. लोक।
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विशाकर  : पुं० [सं० विशा√कृ (करना)+अच्] १. भद्रचूड़। लंकासिज। २. दंती। ३. हाथीशुंडी। ४. पाटला या पाढर नामक वृक्ष।
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विशाख  : पु० [सं० विशाखा+अण्, ब० स०] १. कार्तिकेय। २. शिव। ३. धनुष चलानेवाले की वह मुद्रा जिसमें एक पैर आगे और एक पीछे रखा जाता है। ४. पुराणानुसार एक देवता जिनका जन्म कार्तिकेय के वज्र चलाने से हुआ था। ५. गदहपुरना। पुनर्नवा। ६. बालकों को होनेवाला एक प्रकार का रोग (वैद्यक) वि० १. शाखाओं से रहित। २. माँगनेवाला। याचक।
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विशाख-यूप  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन देश जिसे कुछ लोग मद्रास प्रान्त का आधुनिक विशाखपत्तन मानते है।
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विशाखा  : स्त्री० [सं० विशाख+टाप्] १. बड़ी शाखा में से निकली हुई छोटी शाखा। २. सत्ताईस नक्षत्रों में से सोलहवाँ नक्षत्र जो मित्र गण के अन्तर्गत है और इसे राधा भी कहते हैं। ३. कौशाम्बी के पासका एक प्राचीन जनपद। ४. सफेद गदहपूरना। ५. काली अपराजिता।
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विशातन  : पुं० [सं० वि√शत् (काटना आदि)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विशातित] १. खंडित या नष्ट करना। २. विष्णु का एक नाम। वि० काटने, तोड़ने या नष्ट करनेवाला।
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विशारण  : पुं० [सं० वि√शृ (मारना)+णिच्+ल्युट-अन] १. मार डालना। २. चीरना या फाड़ना।
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विशारद  : वि० [सं० विशाल√दा (देना)+क, ल+र] १. समस्त पदों के अन्त में किसी विषय का विशेषज्ञ। जैसे—चिकित्सा विशारद, शिक्षा-विशारद। २. पंडित। विद्वान। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. अभिमानी। पुं० बकुल वृक्ष।
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विशाल  : वि० [सं०√विश् (प्रवेस करना)+कालन्] [भाव० विशालता] १. जो आकार-प्रकार आयतन आदि की दृष्टि से अत्यधिक ऊँचा या विस्तृत हो। २. जिसके आकार-प्रकार में भव्यता हो। ३. सुन्दर। पुं० १. पेड़। २. पक्षी। ३. एक प्रकार का हिरन।
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विशालक  : पुं० [सं० विशाल+कन्] १. कैथ। कपित्थ। २. गरुड़।
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विशालता  : स्त्री० [सं० विशाल+तल्+टाप्] विशाल होने की अवस्था, गुण धर्म या भाव।
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विशाल-पत्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. श्रीताल नामक वृक्ष। हिंताल। २. मानकंद।
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विशाला  : स्त्री० [सं० विशाल+टाप्] १. इन्द्रवारुणी नामक लता। २. पोई का साग। ३. मुरा-मांसी। ४. कलगा नामक घास। ५. महेन्द्र-वारुणी। ६. प्रजापति की एक कन्या। ७. दक्ष की एक कन्या। ८. एक प्राचीन तीर्थ।
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विशालाक्ष  : पुं० [सं० ब० स०] [स्त्री० विशालाक्षी] १. महादेव। २. विष्णु। ३. गरुड़। वि० बड़ी और सुन्दर आँखोंवाला।
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विशालाक्षी  : स्त्री० [सं० विशालाक्ष+ङीष्] १. पार्वती। २. एक देवी। ३. चौंसठ योगिनियों में से एक योगिनी। ४. नागदंती।
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विशिका  : स्त्री० [सं० विश+कन्+टाप्, इत्व] बालू। रेत।
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विशिख  : पुं० [सं० ब० स०] १. रामसर या भद्रभुंज नामक घास। २. बाण। ३. रोगी के रहने का स्थान। वि० १. शिखाहीन। २. (बाण) जिसकी नोक भोथरी हो। ३. (आग) जिसमें से लपट न उठ रही हो।
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विशिखा  : स्त्री० [सं० विशिख+टाप्] १. कुदाल। २. छोटा बाण। ३. एक तरह की सूई। ४. मार्ग। रास्ता। ५. रोगियों के रहने का स्थान।
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विशिरस्क  : पुं० [सं० ब० स०+कप्] पुराणानुसार मेरु पर्वत के पास का एक पर्वत। वि० सिर या मस्तक से रहित।
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विशिरा (रस्)  : वि० [सं०] जिसका सिर न हो या न रह गया हो।
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विशिष्ट  : वि० [सं०] [भाव० विशिष्टता] १. (वस्तु) जिसमें औरों की अपेक्षा कोई बहुत बड़ी विशेषता हो। २. (व्यक्ति) जिसे अन्यों की अपेक्षा अधिक आदर, मान आदि प्राप्त हो या दिया जा रहा हो। ३. अदभुत। ४. शिष्ट। ५. कीर्तिशाली। ६. तेजस्वी। ७. प्रसिद्ध।
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विशिष्टता  : स्त्री० [सं० विशिष्ट+तल्-टाप्] विशिष्ट होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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विशिष्टाद्वैत  : पुं० [सं० विशिष्ट+अद्वैत] आचार्य रामनुज (सन् १॰३७-११३७ ईं०) का प्रतिपादित किया हुआ यह दार्शनिक मत कि यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं फिर भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं, और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं।
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विशिष्टी  : स्त्री० [सं० विशिष्ट+ङीष्] शंकराचार्य की माता का नाम।
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विशिष्टीकरण  : पुं० [सं०] १. किसी काम या बात को कोई विशिष्ट रुप देने की क्रिया या भाव। २. किसी कला, विद्या या शास्त्र में विशिष्ट रूप से प्रवीणता या योग्यता प्राप्त करने की क्रिया या भाव (स्पेशलाइजेशन)।
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विशीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√शृ (हिंसा करना)+क्त] १. जिसके टुकड़े-टुकड़े या खण्ड खण्ड हो गये हों। २. गिरा हुआ। पतित। 3,संकुचित। ४. सूखा हुआ। ५. दुबला-पतला। ६. बहुत पुराना।
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विशील  : वि० [सं० ब० स०] १. बुरे शीलवाला। २. दुश्चरित्र।
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विशुद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विशुद्धि] १. जो बिलकुल शुद्ध हो। खरा। जैसे—विशुद्ध घी। २. जिसमें कुछ भी दोष या मैल न हो। ३. सच्चा। सत्य।
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विशुद्ध-चक्र  : पुं० [सं०] हठयोग के अनुसार शरीर के अन्दर के छः चक्रों में से एक जो ध्रूम वर्ण का तथा सोलह दलोंवाला है तथा गले के पास माना जाता है। विशेष—आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार इसी चक्र की ग्रंथियों की प्रक्रिया से शरीर के अन्दर के विष बाहर निकलते हैं।
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विशुद्धता  : स्त्री० [सं० विशुद्ध+टाप्] १. विशुद्ध होने की अवस्था या भाव। पवित्रता। २. चारित्रिक पवित्रता।
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विशुद्धि  : स्त्री० [सं०] विशुद्धता। २. दोष, शंका आदि दूर करने की क्रिया या भाव। ३. भूल का सुधार। ४. पूर्ण ज्ञान। ५. सादृश्य।
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विशुद्धिवाद  : पुं० [सं०] यह सिद्धान्त कि दूषित प्रभावों से अपने को या अपनी चीजों को निर्दोष तथा विशुद्ध रखना चाहिए।
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विशूचिका  : स्त्री० [सं० वि√शूच् (सूचना देना)+अच्+कन्, टाप्, इत्व] विषूचिका (रोग)।
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विशून्य  : वि० [सं० विशूना+यत्] [भाव० विशून्यता] १. पूरी तरह से रिक्त या शून्य। २. जिसके अन्दर वायु तक न रह गई हो। (वैकुम)।
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विश्रृंखल  : वि० [सं० ब० स०] १. जो श्रृंखलित न हो। बंधनहीन। २. जो किसी प्रकार दबाया या रोका न जा सके। अदम्य।
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विश्रृंखलता  : स्त्री० [सं०] विश्रृंखल होने की अवस्था या भाव।
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विश्रृंग  : वि० [सं० ब० स०] जिसे श्रृंग न हो। श्रृंगरहित।
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विशेष  : वि० [सं० वि√शिष् (विशेषता होना)+घञ्] १. जिसमें औरों की अपेक्षा कोई नयी बात हो। विशेषता-युक्त। २. जिसमें औरों की अपेक्षा कुछ अधिकता हो। ३. विचित्र। विलक्षण। ४. बहुत अधिक। विपुल। पुं० १. वह जो साधारण से अतिरिक्त और उससे अधिक हो। अधिकता। ज्यादती। २. अन्तर। ३. प्रकार। भेद। ४. विचित्रता। विलक्षणता। ५. तारतम्य। ६. नियम। कायदा। ७. अंग। अवयव। ८. चीज। पदार्थ। वस्तु। ९. व्यक्ति। १॰. निचोड़। सार। ११. साहित्य में, एक प्रकार का अलंकार जिसके तीन भेद कहे गये हैं।
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विशेषक  : वि० [सं०] विशेष रूप देने या विशिष्टता उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. विशेषता बतलाने वाला चिन्ह तत्त्व या पदार्थ। २. माथे पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक जो प्रायः किसी सम्प्रदाय के अनुयायी होने का सूचक होता है। ३. प्राचीन भारत में, अगर, कस्तूरी, चंदन आदि से गाल माथे आदि पर की जानेवाली एक प्रकार की सजावट। ४. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें पदार्थो से रूप-सादृश्य होने पर भी किसी एक की विशिष्टता के आधार पर उसके पार्थक्य का उल्लेख होता है। उदाहरण—कागन में मृदुबानि ते मैं पिक लियो पिछान।—पद्याकर। ५. एक प्रकार का समवृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ५ भगण और एक गुरु होता है। इसे अश्वगीत, नील, और लीला भी कहते हैं। ६. साहित्य में ऐसे तीन पदों या श्लोकों का वर्ग या समूह जिनमें एक ही क्रिया होती है, और इसी लिए इन तीन पदों या श्लोकों का एक साथ अन्वय होता है। ७. तिल का पौधा। ८. चित्रक। चीता।
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विशेषक चिन्ह  : पुं० [सं०] वे चिन्ह जो वर्णमाला के अक्षरों या वर्णों पर उसका कोई विशिष्ट उच्चारण प्रकार सूचित करने के लिए लगाये जाते हैं (डायाक्रिटिकल मार्क्स)
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विशेषज्ञ  : पुं० [सं० विशेष√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० विशेषज्ञता] वह जो किसी विषय का विशेष रूप से ज्ञाता हो। किसी विषय का बहुत बड़ा पंडित।
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विशेषण  : पुं० [सं०] १. वह जिससे किसी प्रकार की विशेषता सूचित हो। २. व्याकरण में ऐसा विकारी शब्द जो किसी संज्ञा की विशेषता बतलाता हो, उसकी स्थिति मर्यादित करता हो अथवा उसे अन्य संज्ञाओं से पृथक् करता हो (ऐडजेक्टिव)।
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विशेषता  : स्त्री० [सं० विशेष+तल्+टाप्] १. विशेष होने की अवस्था या भाव। २. किसी वस्तु या व्यक्ति में औरों की अपेक्षा होनेवाली कोई अच्छी बात।
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विशेषांक  : पुं० [सं० विशेष+अंक] सामयिक पत्र का वह अंक जो विशिष्ट अवसर पर या किसी विशेष उद्देश्य से और साधारण अंकों की अपेक्षा विशिष्ट रूप में या अलग से प्रकाशित होता है (स्पेशल नम्बर)।
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विशेषाधिकार  : पुं० [सं०] किसी विशिष्ट व्यक्ति को विशेष रूप से मिलनेवाला कोई ऐसा अधिकार जिससे उसे कुछ सुभीता भी मिलता हो। (प्रिविलेज)।
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विशेषित  : भू० कृ० [सं० वि√शिष् (विशेषता होना)+क्त] १. जिसमें विशेषता लाई गई हो। २. (संज्ञा शब्द) जिसकी विशेषता कोई विशेषण मर्यादित करता हो।
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विशेषी  : वि [सं० वि√शिष्+णिन] जिसमें कोई विशेष बात हो। विशेषता-युक्त। विशिष्ट।
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विशेषोक्ति  : स्त्री० [सं० विशेष+उक्ति] साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कारण के पूरी तरह से वर्तमान रहते भी कार्य के अभाव का अथवा किसी क्रिया के होने पर भी उसके परिणाम या फल के अभाव का उल्लेख होता है। (पिक्यूलियर+एलेजेशन) यह विभावना का बिल्कुल उल्टा है। इसके उक्त निमित्ता, अनुरक्त निमित्ता और औचित्य निमित्ता ये तीन भेद माने गये हैं।
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विशेष्य  : पुं० [सं० वि√शिष्+ण्यत्] व्याकरण में वह शब्द अथवा पद जिसकी विशेषता कोई विशेषण या विशेषण पद सूचित करता या कर रहा हो।
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विशेष्य-लिंग  : पुं० [सं०] व्याकरण में ऐसा शब्द जिसका लिंग उसके विशेष्य के लिंग के अनुसार निरूपित हो। जैसे—पाले या हिम के अर्थ में शिशिर शब्द पुं० है शीत काल के अर्थ में पुन्नपुंसक तथा शीत से युक्त पदार्थ के अर्थ में विशेष्य लिंग होता है। अर्थात् उसका वहीं लिंग होता है, जो उसके विशेष्य का होता है।
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विशेष्यासिद्ध  : स्त्री० [सं० विशेष्य+असिद्धि, तृ० त०] तर्कशास्त्र में ऐसा हेत्वाभाव जिसके द्वारा स्वरूप की असिद्धि हो।
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विशोक  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० विशोकता] जिसे शोक न हो शोक से रहित। पुं० १. अशोक वृक्ष। २. ब्रह्मा का एक मान पुत्र।
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विशोका  : स्त्री० [सं० विशोक+टाप्] योग दर्शन के अनुसार ऐसी चित्तवृत्ति जो संप्रज्ञात समाधि से पहले होती है। इसे ज्योतिष्मती भी कहते हैं।
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विशोणित  : भू० कृ० [सं० ब० स०] जिसका रक्त निकाल लिया गया हो।
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विशोध  : वि० [सं०] विशुद्ध करने के योग्य। विशोध्य।
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विशोधन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विशोधित] १. विशुद्ध करने या बनाने की क्रिया या भाव। २. विशुद्धीकरण।
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विशोधनी  : स्त्री० [सं० विशोधन+ङीप्] १. ब्रह्मा की पुरी का नाम। २. ताम्बूल। पान। ३. नागदंती। ४. नीलीनाम का पौधा।
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विशोधित  : भू० कृ० [सं० वि√शुध् (शुद्ध करना)+क्त] जिसका विशोधन हुआ हो या किया गया हो।
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विशोधिनी  : स्त्री० [सं०] १. नागदंती। २. जमालगोटा। ३. नीली नाम का पौधा।
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विशोधी (धिन्)  : वि० [सं० वि√शुध्+णिनि] विशुद्धि करने या बनानेवाला।
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विशोध्य  : वि० [सं० वि√शुध्+यत्] जिसका शोधन होने को हो या हो सकता हो। पुं० ऋण। कर्ज।
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विश्पति  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० विशपत्नी] १. राजा। २. वैश्यों या व्यापारियों का पंच या मुखिया।
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विश्रंभ  : पुं० [सं०] १. किसी में होनेवाला दृढ़ तथा पूर्ण विश्वास। २. प्रेम। मुहब्बत। ३. रति के समय प्रेमी और प्रेमिका में होनेवाला झगड़ा। ४. वध। हत्या। ५. स्वच्छन्दतापूर्वक घूमना-फिरना।
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विश्रंभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√श्रम्भ् (विश्वास करना)+णिनि] १. विश्वास करनेवाला। विश्वास का पात्र। विश्वसनीय। ३. गोपनीय (वार्ता) ४. प्रेम-संबंधी।
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विश्रब्ध  : वि० [सं०] १. जिसका विश्वास किया जा सके २. जो किसी का विश्वास करे। ३. निडर। निर्भय। ४. शान्त और सुशील।
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विश्रब्ध-नवोढ़ा  : स्त्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका (विशेषतः ज्ञातयौवना) जिसमें लज्जा और भय पहले से कम हो गया हो और जो प्रेमी की ओर कुछ-कुछ आकृष्ट होने लगी हो।
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विश्रम  : पुं० [सं० वि√श्रम् (श्रम करना)+घञ्, ब० स०]=विश्राम।
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विश्रय  : पुं० [सं० वि√श्रि (आश्रय देना)+अच्] आश्रय। स्थान।
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विश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० विश्रय+इनि] आश्रय या सहारा लेनेवाला।
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विश्रव (स्)  : पुं० [सं०] ख्याति। प्रसिद्धि।
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विश्रवा (वस्)  : पुं० [सं०] कुबेर के पिता जो पुलस्त्य के पुत्र थे।
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विश्रांत  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने विश्राम कर लिया हो। २. जो कम हो गया या रुक गया हो। ३. रहित। ४. समाप्त। ५. वंचित। ६. क्लांत।
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विश्रांति  : स्त्री० [सं०] १. विश्राम। आराम २. थकावट। ३. कार्य-काल पूरा होने अथवा और किसी कारण से अपने कार्य, पद, सेवा आदि से स्थायी रूप से हट कर किया जानेवाला विश्राम (रिटायरमेन्ट)।
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विश्राम  : पुं० [सं०] १. ऐसा उपचार क्रिया या स्थिति जिससे श्रम दूर हो। थकावट कम करने या मिटानेवाला काम या बात। आराम। (रेस्ट) २. कर्मचारियों को कुछ नियत घंटों तक काम करने के बाद थकावट और सुस्ती मिटाने तथा जलपान आदि करने के लिए मिलनेवाला अवकाश। ३. ठहरने का स्थान। विश्रामालय। ४. चैन। सुख।
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विश्रामालय  : पुं० [सं० ष० त०] वह स्थान जहाँ यात्री लोग सवारी के इन्तजार में ठहर या रुककर विश्राम करते हों।
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विश्राव  : पुं० [सं० वि√श्रु (सुनना)+घञ्] १. तरल पदार्थ का झरना, बहना या रिसना। क्षरण। २. बहुत अधिक प्रसिद्धि। ३. ध्वनि।
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विश्रावण  : पुं० [सं० वि√श्रु+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विश्रावित] कोई तरल पदार्थ विशेषतः रक्त बहना।
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विश्री  : वि० [सं०] १. जिसकी श्री नष्ट या लुप्त हो गयी हो। श्रीहीन। २. (व्यक्ति) जिसके मुख पर सौन्दर्य की झलक न दिखायी पड़ती हो। भद्दा।
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विश्रुत  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० विश्रुति] १. जिसे लोग अच्छी तरह से सुन चुके हों। २. जिसे सब लोग जान चुकें हों, फलतः प्रसिद्ध।
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विश्रुतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० विश्रुत+आत्मा, ब० स०] विष्णु।
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विश्रुति  : स्त्री० [सं० वि√श्रु (ख्याति होना)+क्ति] विश्रुत होने की अवस्था या भाव।
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विश्लथ  : वि० [सं० ब० स०] १. बहुत थका हुआ। श्लथ। क्लान्त। २. ढीला। शिथिल। ३. बन्धन से छूटा हुआ। मुक्त।
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विश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं० वि√श्लिष (संयुक्त होना)+क्त] १. जिसका विश्लेषण हो चुका हो। २. जो अलग किया जा चुका हो। ३. खिला हुआ। विकसित। ४. प्रकट। व्यक्त। ५. खुला हुआ। मुक्त। ६. थका हुआ। शिथिल।
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विश्लिष्ट-संधि  : स्त्री० [सं० ब० स०] शरीर के अंगों की ऐसी संधि या जोड़ जिसकी हड्डी टूट गई हो। (वैद्यक)।
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विश्लेष  : पुं० [सं० वि√श्लिष्+घञ्] १. अलग या पृथक् होना। २. वियोग। ३. थकावट। शिथिलता। ४. विरक्ति। ५. विकास।
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विश्लेषण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विश्लेषित] १. अलग या पृथक् करना। २. किसी वस्तु के संयोजक अंगों या द्रव्यों को इस उद्देश्य से अलग-अलग करना कि उनके अनुपात कर्तृत्व, गुण, प्रकृति पारस्परिक संबंध आदि का पता चले। ३. किसी विषय के सब अंगों की इस दृष्टि से छान-बीन करना कि उनका तथ्य या वास्तविक स्वरूप सामने आए। (एनैलिसिस उक्त दोनों अर्थों के लिए) ४. वैद्यक में, घाव या फोड़े में वायु के प्रकोप से होनेवाली एक प्रकार की पीड़ा।
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विश्लेषणात्मक  : वि० [सं० विश्लेषण+आत्मक] (विचार या निश्चय) जो विश्लेषणवाली प्रक्रिया के अनुसार हो। ‘आश्लेषात्मक’ का विपर्याय। (एनैलिटिकल)।
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विश्लेषी (षिन्)  : वि० [सं० विश्लेष+इनि] १. विश्लेषण करनेवाला। २. वियुक्त।
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विश्लेष्य  : वि० [सं०] जिसका विश्लेषण होने को हो या हो रहा हो।
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विश्वंतर  : पुं० [सं० विश्व√तृ (पार करना)+खच्, मुम्] भगवान् बुद्ध का एक नाम।
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विश्वंभर  : वि० [सं० विश्व√भृ (भरण पोषण करना)+खच्, मुम्] [स्त्री० विश्वंभरा] विश्व का भरण-पोषण करनेवाला। पुं० १. विष्णु। २. इन्द्र। ३. अग्नि। ४. एक उपनिषद् का नाम।
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विश्वंभरा  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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विश्वंभरी  : स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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विश्व  : वि० [सं०√विश् (प्रवेश करना)+क्वन्] १. कुल। समस्त। पुं० १. सृष्टि का वह सारा अंश जो हमें दिखाई देता है। २. ब्रह्मांड। समस्त सृष्टि। ३. जगत्। संसार ४. विष्णु ५. शिव। ६. जीवात्मा। ७. देह। शरीर।
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विश्वक  : वि० [सं०] १. विश्व-संबंधी। २. जिसका प्रभाव, प्रसार आदि विश्व-व्यापी हो (यूनीवर्सल)।
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विश्वकर्ता  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व का स्रष्टा। ईश्वर।
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विश्वकर्मा (र्म्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. समस्त संसार की रचना करनेवाला अर्थात् ईश्वर। २. ब्रह्मा। ३. सूर्य। ४. शिव। ५. वैद्यक में शरीर की चेतना नामक धास्तु। ६. एक शिल्पकार जो देवताओं के शिल्पी और वास्तु कला के सर्वश्रेष्ठ आचार्य माने गए है। ७. इमारत का काम करनेवाले राज, बढ़ई लोहार आदि।
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विश्वकाय  : पुं० [सं० ब० स०] सारा विश्व जिसका शरीर हो, अर्थात् विष्णु।
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विश्वकाया  : स्त्री० [सं० विश्वकाय+टाप्] दुर्गा।
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विश्वकार  : पुं० [सं० ष० त०] विश्वकर्मा।
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विश्वकार्य  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य की सात किरणों का या रश्मियों में से एक।
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विश्वकृत्  : पुं० [सं०] १. विश्व का निर्माता अर्थात् ईश्वर। २. विश्वकर्मा।
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विश्वकेतु  : पुं० [सं० ष० त०] (कृष्ण के पौत्र) अनिरुद्ध।
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विश्वकोश  : पुं० [सं०] ऐसा कोश या भंडार जिसमें संसार भर के पदार्थ संगृहीत हो। २. ऐसा विशाल ग्रन्थ जिसमें ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाओं, प्रशाखाओं तथा महत्वपूर्ण बातों का विश्लेषण तथा विवेचन होता है (एनसाइक्लोपीडिया) विशेष—विश्व कोश में विभिन्न विषयों के बड़े-बड़े विद्वानों के लिखे हुए ग्रन्थों,निबंधों,विवेचनों आदि के सारांश संकलित होते हैं और उन विषयों के शीर्षक प्रायः अक्षर-क्रम से लगे रहते हैं।
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विश्वगंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. बोल (गंध द्रव्य) २. प्याज। वि० जिसकी गंध बहुत दूर-दूर तक फैलती हो।
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विश्वगंधा  : स्त्री० [सं० विश्वगंध+टाप्] पृथ्वी।
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विश्वग  : वि० [सं० विश्व√गम् (जाना)+ड] विश्व भर में जिसका गमन या गति हो। पुं० ब्रह्मा।
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विश्वगर्भ  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव।
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विश्वगुरु  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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विश्व-गोचर  : वि० [सं०] जिसे सब लोग जान या देख सकते हों।
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विश्वगोप्ता  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. इन्द्र। २. विश्वम्भर।
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विश्व-चक्र  : पुं० [सं० ब० स०] पुराणानुसार बारह प्रकार के महादानों में से एक। इसमें एक हजार पल का सोने का चक्र बनवाकर दान किया जाता है।
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विश्व-चक्षु (ष्)  : पुं० [सं०] ईश्वर।
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विश्वजित्  : वि० [सं०] विश्व को जीतनेवाला। पुं० १. वह जिसने सारे विश्व को जीत लिया हो। २. एक प्रकार की अग्नि। ३. एक प्रकार का यज्ञ। ४. वरुण का पाश।
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विश्वजीव  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर।
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विश्वतः (तस्)  : अव्य० [सं० विश्व+तसिल्] १. विश्व भर में सब कहीं। सर्वत्र। २. सारे विश्व के विचार से।
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विश्वतोया  : स्त्री० [सं०] गंगा नदी।
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विश्वत्रय  : पुं० [सं०] आकाश, पाताल और मर्त्य लोक।
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विश्वदेव  : पुं० [सं०] देवताओं का एक वर्ग जिसकी पूजा नांदी-मुख श्राद्ध में की जाती हैं।
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विश्वदैवत  : पुं० [सं०] उत्तराषाढ़ नक्षत्र जिसके देवता विश्वदेव माने जाते हैं।
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विश्वधर  : पुं० [सं० विश्व√धृ (धारण करना)+अच्] विश्व को धारण करनेवाले विष्णु।
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विश्वधाम (न्)  : पुं० [सं०] ईश्वर।
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विश्वधारिणी  : स्त्री० [सं०] पृथ्वी।
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विश्वधारी (रिन)  : पुं० [सं०] विष्णु।
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विश्वनाथ  : पुं० [सं०] १. विश्व के स्वामी, शंकर। महादेव। २. काशी का एक प्रसिद्ध ज्योतिलिंग
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विश्वनाभ  : पुं० [सं०] विष्णु।
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विश्व-नाभि  : स्त्री० [सं०] विष्णु का चक्र जो विश्व की नाभि के रूप में माना जाता है।
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विश्वपति  : पुं० [सं०] १. ईश्वर। २. श्रीकृष्ण।
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विश्व-पदिक  : वि० [सं०] (रोग या विकार) जो बहुत बड़े भू-भाग सारे महाद्वीप या सारे संसार में फैला या फैल सकता हो (पैण्डेमिक)
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विश्व-प्रकाश  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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विश्वप्स (प्सन्)  : पुं० [सं० विश्व√प्सा (खाना)+कनिन्] १. अग्नि। २. चन्द्रमा। ३. सूर्य। ४. देवता। ५. विश्वकर्मा।
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विश्व-बंधु  : वि० [सं० ष० त०] जो विश्व का मित्र हो। पुं० शिव।
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विश्वबाहु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. महादेव।
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विश्व-बीज  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व की मूल प्रकृति, माया।
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विश्वभद्र  : पुं० [सं० ब० स०] सर्वतोभद्र (चक्र)।
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विश्व-भर  : वि० [सं० ष० त०] जिससे विश्व उत्पन्न हुआ हो। पुं० ब्रह्मा।
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विश्वभुज्  : पुं० [सं० विश्व√भुज् (भोग करना)+क्विप्] १. ईश्वर। २. इन्द्र।
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विश्वमाता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा जो विश्व की माता कही गई है।
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विश्वमुखी  : स्त्री० [सं० ब० स०] पार्वती।
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विश्वमूर्ति  : वि० [सं० ब० स०] जो सब रूपों में प्याप्त हो। पुं० विष्णु।
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विश्व-योनि  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्मा।
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विश्वरुचि  : पुं० [सं०] एक देव-योनि।
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विश्वरुची  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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विश्वरूप  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. शिव। ३. भगवान् श्रीकृष्ण का वह स्वरूप जो उन्होंने गीता का उपदेश करते समय अर्जुन को दिखलाया था। ४. एक प्राचीन तीर्थ।
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विश्वरूपी (पिन्)  : पुं० [सं० विश्वरुप+इनि] विष्णु।
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विश्वलोचन  : पुं० [सं०] १. सूर्य। २. चन्द्रमा।
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विश्ववाद  : पुं० [सं०] १. दार्शनिक क्षेत्र का यह मतवाद कि विज्ञान की दृष्टि से यह सिद्ध किया जा सकता है कि सारा विश्व एक स्वतंत्र सत्ता है और कुछ निश्चित नियमों के अनुसार उसका निरन्तर विकास होता चलता है (कॉजमिस्म) २. यह सिद्धान्त कि तत्वज्ञान संबंधी सभी बातें सारे विश्व में समान रूप से पाई जाती हैं। (युनिवर्सलिज़्म)।
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विश्ववास  : पुं० [सं०] संसार। जगत्।
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विश्वविद्  : वि० [सं० विश्व√विद् (जानना)+क्विप्] १. जो विश्व की सब बातें जानता हो। २. बहुत बड़ा पंडित। पुं० ईश्वर।
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विश्वविद्यालय  : पुं० [सं०] वह बहुत बड़ी शैक्षणिक संस्था जिसके अन्तर्गत या अधीन सभी प्रकार के विषयों की सर्वोच्च शिक्षा देनेवाले बहुत से महाविद्यालय हों और जिसे, अपने स्नातकों को शिक्षा संबंधी उपाधियाँ देने का अधिकार हो। (यूनिवर्सिटी)।
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विश्वव्यापक  : वि० पुं० [सं०] विश्वव्यापी। (दे०)
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विश्वव्यापी  : वि० [सं० विश्वव्यापिन्] १. जो सारे विश्व में व्याप्त हो। २. जो संसार या उसके अधिकतर भागों में व्याप्त हो। पुं० ईश्वर या परमात्मा।
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विश्वश्रवा (वस्)  : पुं० [सं०] रावण के पिता का नाम।
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विश्वसन  : पुं० [सं० वि√श्वस् (जीवन देना)+ल्युट्-अन] १. विश्वास। २. ऋषियों और मुनियों के रहने का स्थान।
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विश्वसनीय  : वि० [सं० वि√श्वस् (विश्वास करना)+अनीयर्] १. (व्यक्ति) जिस पर विश्वास किया जा सकता हो। २. (बात) जिस पर विश्वास किया जाना चाहिए।
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विशवसहा  : स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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विश्व-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं०] ईश्वर।
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विश्वसित  : भू० कृ० [सं० वि√श्वस् (विश्वास करना)+क्त] १. जिस पर विश्वास किया गया हो। २. विश्वास-पात्र। ३. जिसे अपने पर पूर्ण विश्वास हो।
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विश्व-सृज्  : पुं० [सं०] विश्व की सृष्टि करनेवाला ईश्वर या ब्रह्मा।
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विश्वस्त  : भू० कृ० [सं० वि√श्वस् (विश्वास करना)+क्त] १. जिसका विश्वास किया जाय। २. जिसके मन में विश्वास हो चुका हो।
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विश्वहर्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] शिव।
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विश्व-हेतु  : पुं० [सं०] विश्व की सृष्टि करनेवाले विष्णु।
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विश्वांड  : पुं० [सं० कर्म० स०] ब्रह्माण्ड।
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विश्वा  : स्त्री० [सं०√विश् (प्रवेशकरना)+क्वन्+टाप्] १. दक्ष की एक कन्या जो धर्म को ब्याही थी और जिससे वसु, सत्य, क्रतु आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए थे। २. बीस पल की एक प्राचीन तौल या मान। ३. पीपल। ४. सोंठ। ४. अतीस। ६. शतावर। ७. चोरपुष्पी। शंखिनी।
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विश्वाक्ष  : वि० [सं० विश्व+अक्ष] जिसकी दृष्टि पूर्ण विश्व पर हो। पुं० ईश्वर।
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विश्वातीत  : वि० [सं० ष० त०] १. जिसे विश्व प्राप्त न कर सकता हो। २. विश्व से अलग या दूर। पुं० ईश्वर।
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विश्वात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० ब० स० विश्व+आत्मन्] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. सूर्य।
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विश्वाद्  : पुं० [सं० विश्व√अद् (खाना)+क्विप्] अग्नि।
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विश्वाधार  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व का आधार अर्थात् परमेश्वर।
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विश्वानर  : वि, पुं०=वैश्वानार।
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विश्वामित्र  : वि० [सं० ब० स०, विश्व+मित्र] जो विश्व का मित्र हो। पुं० गाधि नामक कान्यकुब्ज नरेश के पुत्र जिन्होंने घोर तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। विशेष—भगवान राम ने इन्हीं की आज्ञा से ताड़का का वध किया था।
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विश्वामृत  : वि० [सं० विश्व+अमृत] जिसकी कभी मृत्यु न हो। अमर।
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विश्वायन  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो विश्व की सब बातें जानता हो। सर्वज्ञ। २. ब्रह्मा।
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विश्वावसु  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. साठ संवत्सरों में से एक। स्त्री० रात्रि। रात।
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विश्वावास  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर। परमात्मा।
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विश्वाश्रय  : पुं० [सं० ष० त०] विश्व को आश्रय देनेवाला अर्थात् ईश्वर।
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विश्वास  : पुं० [सं० वि√श्वस्+घञ्] १. किसी बात, विषय, व्यक्ति आदि के संबंध में मन में होनेवाली यह धारणा कि यह ठीक, प्रामाणिक या सत्य है, अथवा उसे हम जैसा समझते हैं, वैसा ही है, उससे भिन्न नहीं है। एतबार। यकीन। २. धार्मिक क्षेत्र में, ईश्वर, देवता, मत्त सिद्धान्त आदि के संबंध में होनेवाली उक्त प्रकार की धारणा। (बिलीफ़) मुहा०— (किसी पर) विश्वास जमना या बैठना=विश्वास का दृढ़ रूप धारण करना। (किसी को) विश्वास दिलानाकिसी के मन में उक्त प्रकार की धारणा दृढ़ करना। ३. केवल अनुमान के आधार पर होनेवाला मन का दृढ़ निश्चय। जैसे—मेरा तो यह दृढ़ विश्वास है कि वह अवश्य आएगा।
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विश्वास-घात  : पुं० [सं० ष० त०, तृ० त०] १. किसी को विश्वास दिला कर उसके प्रति किया जानेवाला द्रोह। २. विश्वसनीय व्यक्ति द्वारा अपने मित्र या स्वामी के हितों के विरुद्ध किया हुआ ऐसा बुरा काम जिससे उसका विश्वास जाता रहे।
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विश्वास-घातक  : वि० [सं० विश्वास√हन् (मारना)+ण्वुल्, अक, ब० स०] विश्वासघात करनेवाला (व्यक्ति)।
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विश्वास-पात्र  : वि० [सं०] (व्यक्ति जिसका विश्वास किया जाता हो और जो विश्वास किये जाने के योग्य हो। विश्वसनीय।
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विश्ववासिक  : वि० [सं० वैश्वासिक]=विश्वसनीय।
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विश्वासित  : वि० [सं० विश्वास+इचत्] जिसे विश्वास दिलाया गया हो।
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विश्वासी (सिन्)  : वि० [सं० विश्वास+इनि] १. जो किसी एक पर विश्वास करता हो। विश्वास करनेवाला। २. जिसका विश्वास किया जा सके।
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विश्वास्य  : वि० [सं० वि√श्वस्+णिच्+यत्] विश्वास के योग्य। विश्वसनीय।
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विश्वेदेव  : पुं० [सं०] १. अग्नि। २. वैदिक युग में इन्द्र, अग्नि आदि ऐसा नौ देवताओं का एक वर्ग जो विश्व के अधिपति और लोकरक्षक माने जाते थे। विशेष—अग्नि-पुराण में इनकी संख्या दस कही गई है। यथा—क्रतु, दक्ष, वसु, सत्य, काम, काल, ध्वनि, रोचक, आद्रव और पुरूरवा। नांदीमुख श्राद्ध में इन्हीं का पूजन होता है।
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विश्वेश  : पुं० [सं० विश्व-ईश, ष० त०] १. शिव। २. विष्णु। ३. उत्तराषशाढ़ा नक्षत्र जिसके अधिपति विश्व नामक देवता कहे गए हैं।
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विश्वेश्वर  : पुं० [सं० विश्व+ईश्वर, ष० त०] १. ईश्वर। २. शिव की एक मूर्ति।
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विषंगी (गिन्)  : वि० [सं० विषंग+इनि] जो किसी से संलग्न हो। किसी के साथलगा हुआ।
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विष  : पुं० [सं०√विष्+क] १. कोई ऐसा तत्त्व या पदार्थ जो थोड़ी मात्रा में भी शरीर के अन्दर पहुँचने या बनने पर भीषण रोग या विकार उत्पन्न कर सकता और अंत में घातक सिद्ध हो सकता हो। जहर। (प्वाइज़न) २. कोई ऐसा तत्त्व या बात जो नैतिक या चारित्रिक पवित्रता अथवा सार्वजनिक कल्याण, सुख, स्वास्थ्य आदि के लिए नाशक या भीषण सिद्ध हो। जैसे—बाल-विवाह समाज के लिए विष है। पद—विष की गाँठ=बहुत बड़ी खराबी या बुराई पैदा करनेवाली बात, वस्तु या व्यक्ति। मुहा०— (किसी चीज में) विष घोलना=ऐसा दोष या खराबी पैदा करना जिससे सारी भलाई या सुख नष्ट या मजा किरकिरा हो जाय। ३. पानी। ४. कमल की नाल या रेश्मा। ५. पद्मकेसर। ६. बोल (गंधद्रव्य)। ७. बछनाग। ८. कलिहारी।
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विष-कंटक  : पुं० [सं० ब० स०] दुरालभा।
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विष-कंटकी  : स्त्री० [सं० विषकंटक+ङीष्] बाँझ कर्कोटकी।
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विष-कंठ  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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विष-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. नीलकंद। २. इगुदी। हिंगोट।
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विष-कन्या  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वह कन्या या स्त्री जिसके शरीर में इस आश्य से विष प्रविष्ट किया गया हो कि उसके साथ सम्भोग करनेवाला मर जाय। विशेष—प्राचीन भारत में धोखे से शत्रुओं का नाश करने के लिए कुछ लड़कियाँ बाल्यावस्था से कुछ दवाएँ देकर तैयार की जाती थीं और छल से शत्रुओं के पास भेजी जाती थीं।
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विष-कृत  : वि० [सं०] विषाक्त
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विष-गंधक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का तृण जिसमें बीनी-भीनी गंध होती है।
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विष-गिरि  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा पहाड़ जिस पर जहरीले पेड़-पौधे होते हैं।
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विषघ  : वि० [सं० विष√हन् (मारना)+ड, ह-घ] विष का नाश करनेवाला।
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विषघा  : स्त्री० [सं०] गुरुच। वि० विष दूर करनेवाला। विष-नाशक।
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विषघ्न  : पुं० [सं० विष√हन् (मारना)+टक्, कुत्व] १. सिरिस वृक्ष। २. भिलावाँ, ३. भू-कदंब। ४. गंध-तुलसी। ५. चम्पा।
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विषघ्नी  : स्त्री० [सं० विशघ्न+ङीष्] १. हिलमोचिका या हिलंच नामक साग २. बन-तुलसी। ३. इन्द्रवारुणी। ४. भुई-आँवला। ५. गदहपुरना। पुनर्नवा। ६. हल्दी। ७. गदा करंज। ८. वृश्चिकाली। ९. देवदाली। १॰. कठ-केला। ११. सफेद चिचड़ा। १२. रास्ना।
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विष-ज्वर  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. शरीर में किसी प्रकार का जहर पहुँचन या उत्पन्न होने पर चढ़नेवाला ज्वर जिसमें जलन भी होती है। २. भैंसा।
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विषणि  : पुं० [सं० विष√नी (होना)+क्विप्] एक प्रकार का साँप।
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विषण्ण  : वि० [सं० वि√सद्+क्त] [भाव० विषण्णता़] १. उदास २. दुःखी तथा हतोत्साहित। ३. जिसमें कुछ करने की इच्छा-शक्ति न रह गई हो।
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विष-तंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह तंत्र या चिकित्सा-प्रणाली जिससे विष का कुप्रभाव दूर या नष्ट किया जाता था।
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विष-तरु  : पुं० [सं० ष० त०] कुचला।
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विषता  : स्त्री० [सं० विष+तल्+टाप्] १. विष का धर्म या भाव। जहरीलापन। २. ऐसी चीज या बात जो विषाक्त प्रभाव उत्पन्न करती हो।
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विषदंड  : पुं० [सं० ष० त०] कमलनाल।
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विष-दंतक  : पुं० [सं० ब० स०] सर्प। साँप।
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विषदंष्ट्रा  : स्त्री० [सं० मध्य स०] १. साँप का वह दाँत जिसमें विष होता है। २. नाग-दमनी। ३. सर्प-कंकालिका नामक लता।
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विषद  : पुं० [सं० वि√सद् (क्षीण करना)+अच्] १. बादल। मेघ। २. सफेद रंग। ३. अतिविषा। अतीस। ४. द्वाराकसीस। वि० १. विषैला। २. साफ। स्वच्छ।
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विषदा  : स्त्री० [सं० विषद+टाप्] अतिविषा। अतीस।
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विषदिग्ध  : भू० कृ० [सं० ब० स०] [भाव० विषदिग्धता] (वस्तु) जिसमें विष का प्रवेश कराया गया हो। विषाक्त।
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विष-दुष्ट  : वि० [सं० तृ० त०] (पदार्थ) जो विष के सम्पर्क के कारण दूषित या विषाक्त हो गया हो।
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विष-दूषण  : वि० [सं० ष० त०] विष का प्रभाव दूर करनेवाला।
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विष-द्रुम  : पुं० [सं० ष० त०] कुचला।
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विषधर  : पुं० [सं० विष√धृ+अच्] विषाक्त। जहरीला। पुं० साँप।
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विषधात्री  : स्त्री० [सं०] जरत्कारु ऋषि की स्त्री मनसा देवी का एक नाम।
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विष-नाशन  : वि० [सं० ष० त०] विष का प्रभाव नष्ट करनेवाला। पुं० १. सिरिस का पेड़। २. मानकन्द।
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विषनाशिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सर्प कंकाली नामक लता। २. बाँझ ककोड़ा। ३. गन्ध नाकुली।
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विष-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] कोई जहरीली पत्ती या छिलका।
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विष-पुच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] [स्त्री० विष-पुच्छी] बिच्छू।
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विषपुष्प  : पुं० [सं० ब० स० या मध्य० स०] १. नीला पद्म। २. अलसी का फूल। ३. मैनफल।
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विष-प्रयोग  : पुं० [सं० ष० त०] १. चिकित्सा के लिए विष का ओषधि के रूप में होनेवाला प्रयोग। २. किसी की हत्या के लिए उसे जहर देना।
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विष मंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह जो विष उतारने का मंत्र जानता हो। ऐसा मन्त्र जिससे विष का प्रभाव दूर होता हो। २. ऐसा व्यक्ति जो उक्त प्रकार का मंत्र जानता हो। ३. सपेरा।
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विषम  : वि० [सं० मध्य० स०] [स्त्री० विषमा] [भाव० विषमता] १. जो सम अर्थात् समान या बराबर न हो। असमान। सम का विपर्याय। २. (संख्या) जो दो से भाग देने पर पूरी न बँटे बल्कि जिसमें एक बाकी बचे। ताक। ३. (कार्य या स्थिति) जो बहुत ही कठिन या विकट हो। ४. (विषय) जिसकी मीमांसा सहज में न हो सके। जैसे—विषम समस्या। ५. बहुत ही उत्कृष्ट, प्रचंड भीषण या विकट। जैसे—विषम विपत्ति। ६. भयंकर। भीषण। ७. तीव्र। तेज। पुं० १. विपत्ति। संकट। २. छंद शास्त्र में, ऐसा वृत्त जिसके चारों चरणों में अक्षरों और मात्राओं की संख्या समान हो। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें या तो दो परस्पर विरोधी बातों या वस्तुओं के संयोग का उल्लेख होता है, या उस संयोग की विषमता, अर्थात् अनौचित्य दिखलाया जाता है। (इन्कांग्रैचुइटी) ४. गणित में पहली तीसरी, पाँचवी आदि विषम संख्याओं पर पड़नेवाली राशियाँ। ५. संगीत में एक ताल का प्रकार। ६. वैद्यक में, चार प्रकार की जठराग्नियों में से एक जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है।
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विषम-कर्ण  : पुं० [सं० ब० स०] (चतुर्भुज) जिसके कोण सम न हो।
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विषम कोण  : पुं० [सं० कर्म० स०] ज्यामिति में ऐसा कोण जो सम न हो। समकोण से भिन्न कोई और कोण।
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विषम-चतुष्कोण  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा चतुष्कोण जिसकी भुजाएँ विषम हों। (ज्यामिति)।
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विषम-छंद  : पुं०=विषमवृत्त।
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विषम-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. मच्छरों के दंश से फैलनेवाला एक प्रकार का ज्वर जिसके साथ प्रायः जिगर और तिल्ली भी बढ़ती है। इसके आरंभ में बहुत जाड़ा लगता है, इसी से इसे जूड़ी और शीत ज्वर भी कहते हैं। (मलेरिया) २. क्षय रोग में होनेवाला ज्वर।
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विषमता  : स्त्री० [सं० विषम+तल्+टाप्] १. विषम होने की अवस्था या भाव। २. ऐसा तत्त्व या बात जिसके कारण दो वस्तुओं या व्यक्तियों में अंतर उत्पन्न होता है। ३. द्रोह। बैर।
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विषम त्रिभुज  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा त्रिभुज जिसके तीनों भुज छोटे बड़े हों, समान न हों। (ज्यामिति)।
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विषमत्व  : पुं० [सं० विषम+त्व] विषम होने की अवस्था या भाव। विषमता।
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विषम-नयन  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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विषम-नेत्र  : पुं० [सं० ब० स०] शिव। महादेव।
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विषम-बाहु  : पुं०=विषम भुज।
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विषम-भुज  : पुं० [सं० ब० स०] ज्यामिति में ऐसा क्षेत्र विशेषतः त्रिभुज जिसके कोई दो भुज आपस में बराबर न हों। (स्केलीन)।
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विषम-वाण  : पुं० [सं० ब० स०] १. कामदेव का एक नाम। २. कामदेव।
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विषमवृत्त  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा छंद या वृत्त जिसके चरण या पद समान न हों। असमान पदोंवाला वृत्त।
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विषम-शिष्ट  : पुं० [सं०] प्रायश्चित्त आदि के लिए व्यवस्था देने के संबंध का एक रोष जो इस समय माना जाता है जब कोई भारी पाप करने पर हल्का प्रायश्चित्त करने या हल्का पाप करने पर भारी प्रायश्चित्त करने की व्यवस्था दी जाती है।
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विषमांग  : वि० [सं० विषम+अंग] जिसके सब अंग या तत्त्व भिन्न-भिन्न अथवा परस्पर विरोधी प्रकार के हों। ‘समांग’ का विपर्याय। (हेटेरोजीनिअस)।
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विषमा  : स्त्री० [सं० विषम+टाप्] १. झरबेरी। २. एक प्रकार का बछनाग।
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विषमाक्ष  : पुं० [सं० ब० स] शिव। महादेव।
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विषमाग्नि  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार की जठराग्नि जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होती है।
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विषमान्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] विषमाशन।
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विषमायुध  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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विषमाशन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. ठीक समय पर भोजन न करना। २. आवश्यकता से कम या अधिक भोजन करना।
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विषमित  : भू० कृ० [सं०] विषम रूप में लाया हुआ। जो विषम किया या बनाया गया हो।
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विषमीकरण  : पुं० [सं०] १. ‘सम’ को विषम करने की क्रिया या भाव। विषम करना। २. भाषा-विज्ञान में वह प्रक्रिया जिससे किसी शब्द में दो व्यंजन या स्वर पास-पास आने पर उनमें से कोई उच्चारण के सुभीते के लिए बदल दिया जाता है। ‘समीकरण’ का विपर्याय (डिस्सिमेलेशन)।
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विषमृष्टि  : पुं० [सं०] १. केशमुष्टि। २. बकायन। घोड़ा। नीम। ३. कलिहारी। ४. कुचला।
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विषमेषु  : पुं० [सं० ब० स०] कामदेव।
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विषय  : पुं० [सं० वि√सि+अच्, षत्व] [वि० विषयक] १. वह तत्त्व या वस्तु जिसका ग्रहण या ज्ञान इन्द्रियों से होता है। जैसे—रस-जिह्वा का और गंध नासिका का विषय है। २. कोई ऐसी चीज या बात जिसके संबंध में कुछ कहा, किया या समझा-सोचा जाय। ३. कोई ऐसी काम या बात जिसके संबंध में रखनेवाली बातों का स्वतंत्र रूप से अध्ययन, मीमांसा या विवेचन होता है। ४. कोई ऐसी आधारित कल्पना या विचार जिस पर किसी प्रकार की रचना हुई हो। विषय-वस्तु। (थीम)। जैसे—किसी काव्य या नाटक का विषय। ५. कोई ऐसी चीज या बात जिसके उद्देश्य से या प्रति कोई कार्य या प्रक्रिया की जाती हो (सबजेक्ट, उक्त सभी अर्थों के लिए) ६. वे बातें या विचार जिनका किसी ग्रन्थ, लेख आदि में विवेचन हुआ हो या किया जाने को हो। (मैटर)। ७. सांसारिक बातों से इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होनेवाला सुख। जैसे—विषम वासना। ८. स्त्री के साथ किया जानेवाला संभोग। मैथुन। ९. सांसारिक भोग-विलास और उसके साधन की सामग्री (आध्यात्मिक ज्ञान या तत्त्व से पार्थक्य दिखाने के लिए) १॰. जगह। स्थान। ११. प्राचीन भारत में कोई ऐसा प्रदेश या भू-भाग जो किसी एक जन या कबीले के अधिकार में रहता था और उसी के नाम से प्रसिद्ध होता था। १२. परवर्ती काल में क्षेत्र प्रदेश या राज्य।
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विषयक  : वि० [सं० विषय+कन्] १. किसी कथित विषय से संबंध रखनेवाला। विषय-संबंधी। जैसे—ज्ञान-संबंधी बातें। २. विषय के रूप में होनेवाला।
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विषय-कर्म (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] सांसारिक काम-धन्धे।
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विषय-निर्धारिणी-समिति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह छोटी समिति जो किसी सभा में उपस्थित किये जानेवाले विषयों या प्रस्तावों के स्वरूप आदि निश्चित करती हो (सबजेक्ट्स कमेटी)।
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विषयपति  : पुं० [सं० ष० त०] किसी विषय अर्थात् राज्य का स्वामी या प्रधान व्यवस्थापक।
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विषय-वस्तु  : स्त्री० [सं०] कल्पना, विचार आदि के रूप में रहनेवाला वह मूल तत्त्व जिसे आधार मानकर कोई कलात्मक या कौशलपूर्ण रचना की गई हो। किसी कृति का आधारिक और मूल-विचार-विषय (थीम)। जैसे—इन दोनों नाटकों में भले ही बहुत-कुछ समता हो फिर भी दोनों की विषय-वस्तु एक दूसरे से भिन्न है।
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विषय-समिति  : स्त्री०=विषय-निर्धारिणी समिति।
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विषयांत  : पुं० [सं० विषय+अन्त, ष० त०] विषय अर्थात् देश या राज्य की सीमा।
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विषयांतर  : वि० [सं० विषय+अन्तर, कर्म० स०] समीप। स्थित। पड़ोस का। पुं० १. एक विषय को छोड़कर दूसरे विषय पर आना। २. असावधानता आदि के कारण मूल विषय पर कहते-कहते (या लिखते-लिखते) दूसरे विषय पर भी कुछ कहने (या लिखने) लगना।
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विषया  : स्त्री० [सं० विषय+टाप्] १. विषय-भोग की इच्छा। २. विषय-भोग की सामग्री।
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विषयाधिप  : पुं० [सं० विषय+अधिप, ष० त०]=विषयपति।
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विषयानुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] विषयों के विचार से बनी हुई अनुक्रमणिका। विशेषतः किसी ग्रंन्थ में विवेचित विषयों की अनुक्रमणिका या सूची (इन्डेक्स)।
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विषयासक्त  : वि० [सं० स० त०] [भाव० विषयासक्ति] सांसारिक विषयों का भोग-विलास के प्रति आसक्ति रखनेवाला।
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विषयासक्ति  : स्त्री० [सं० स० त०] सांसारिक विषयों के भोग में रत रहने की अवस्था या भाव।
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विषयी (यिन्)  : वि० [सं० विषय+इनि] १. विषयों अर्थात् भोगविलास में रत रहनेवाला। २. कामुक। पुं० १. कामदेव। २. धनवान् व्यक्ति। ३. राजा।
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विषरूपा  : स्त्री० [सं०] १. अति विषा। अतीस। २. घोड़ा नीम। मीठी नीम। ३. ककोड़ा। खेखसा।
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विषल  : पुं० [सं० विष√ला (ग्रहण करना)+क, विष+लच्, वा] विष। जहर।
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विष-लता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. इन्द्र वारुणी नाम की लता। २. कमल-नाल। मृणाली।
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विष-वल्ली  : स्त्री० [सं० ष० त०] इन्द्र वारुणी (लता)।
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विष-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान या विद्या जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के विष किस प्रकार अपना काम करते हैं और उनका प्रभाव किस प्रकार दूर किया जा सकता है। (टॉक्सीकालोजी)।
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विषविद्या  : स्त्री० [सं० च० त०] मंत्र आदि की सहायता से झाड़-फूँककर विषय का प्रकोप, प्रभाव या विकार शान्त करने की विद्या।
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विष-विधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक तरह की परीक्षा जिससे यह जाना जाता था कि अमुक व्यक्ति अपराधी है अथवा निरपराधी।
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विष-वृक्ष  : पुं० [सं०] १. ऐसा पेड़ जिसके अंग विष का काम करते हों। २. गूलर।
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विष-वैद्य  : पुं० [सं० च० त०] वह जो मंत्र-तंत्र की सहायता से विष उतारता हो।
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विष-व्रण  : पुं० [सं० ष० त०] जहरबाद (दे०)।
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विष-हंता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] सिरिस (पेड़)। वि० विष का प्रभाव नष्ट करनेवाला।
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विष-हंत्री  : स्त्री० [सं० विष-हंतृ+ङीष्, ष० त०] १. अपराजिता। २. निर्विषी।
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विषह  : वि० [सं० विष√हन् (मारना)+ड] जो विष का नाश करता हो। विषघ्न। पुं० १. देवपाली। २. निर्विषी।
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विषह  : वि० [सं० ष० त०] (औषध या मंत्र) जिससे विष का प्रभाव दूर होता हो। विष दूर करनेवाला।
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विषहरा  : स्त्री० [सं० विषहर+टाप्] १. मनसा देवी का एक नाम। २. देवपाली। ३. निर्विषी।
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विषहा  : स्त्री० [सं० विषह+टाप्] १. देवपाली। बंदाल। २. निर्विषी।
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विषहारक  : पुं० [सं० ष० त०]भुइँकदंब। वि० विष का प्रभाव दूर करनेवाला।
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विषांकुर  : पुं० [सं० ष० त०] तीर।
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विषांनगा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] विष-कन्या।
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विषांतक  : वि० [सं० ष० त०] जिससे विष का नाश हो। पुं० शिव। महादेव।
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विषा  : स्त्री० [सं० विष+टाप्] १. अतिविषा। अतीस। २. कलिहारी। २. कड़वी तोरई। ४. काकोली। ५. बुद्धि। समझ।
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विषाक्त  : वि० [सं०] जिसमें विष मिला हो। २. (वातावरण) जो बहुत अधिक दूषित हो।
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विषाण  : पुं० [सं०√विष्+कानच्] १. जानवर का सींग। २. हाथी का बाहर वाला दाँत। हाथी-दाँत। ३. सूअर का दाँत। खाँग। ४. ऊपरी सिरा। चोटी। ५. शिव की जटा। ६. मथानी। ७. मेढ़ा-सिंगी। ८. वराही कंद। गेंठी। ९. ऋषभक नामक औषधि। १॰. इमली। ११. सींग का बनाया हुआ बाजा। सिंगी। उदाहरण—कि जाने तुम आओ किस रोज बजाते नूतन रुद्र विषाण।—दिनकर। १२. चोटी।
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विषाणका  : पुं० [सं० विषाण+कन्] १. सींग। २. हाथी।
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विषाणिका  : स्त्री० [सं० विषाण+ठन्-इक+टाप्] १. मेढासिंगी। २. सातला। ३. काकड़ासिंगी। ४. भागवत वल्ली नाम की लता। ५. सिंघाड़ा। ६. ऋषभक नामक ओषधि। ७. काकोली।
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विषाणी  : वि० [सं० विषाण+इनि, विषाणिन्] १. जिसे सींग हो। सींगवाला। पुं० १. सींगवाला पशु। २. हाथी। ३. सूअर। ४. साँड़। ५. सिघाड़ा। ६. ऋषभक नामक औषधि। ७. क्षीर काकोली। ८. मेढ़ा सिंगी। ९. वृश्चिकाली। १॰. इमली।
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विषाणु  : पुं० [सं० विष+अणु] कुछ विशिष्ट रोगों में शरीर के अन्दर उत्पन्न होनेवाला एक विषाक्त तत्त्व जो दूसरे जीवों के शरीर में किसी प्रकार पहुँचकर वही रोग उत्पन्न कर सकता है। (विरस)।
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विषाद्  : पुं० [सं० विष√अद् (खाना)+क्विप्] हलाहल विष खानेवाले शिव।
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विषाद  : पुं० [सं० वि√सद्+घञ्] [वि० विषण्ण] १. शारीरिक शिथिलता। २. जड़ता। निश्चेष्टता। ३. मूर्खता। ४. अभिलाषा या उद्देश्य पूरा न होने पर उत्साह या वासना का दुःखदरूप से मंद पड़ना जो साहित्य के श्रृंगारिक क्षेत्र में एक संचारी भाव माना गया है (डिस्पॉन्डेन्सी) ५. आज-कल मन की वह दुःखद अवस्था जो कोई भारी दुर्घटना (बाढ़, भूकंप, महापुरुष का निधन आदि) होने पर और भारी भविष्य के संबंध में मन में गहरी निराशा या भय उत्पन्न होने पर प्रायः सामूहिक रूप से उत्पन्न होती है (ग्लूम)।
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विषादन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विषादित] १. किसी के मन में विषाद उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. परवर्ती साहित्य में, एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें बहुत अधिक विषाद उत्पन्न करनेवाली स्थिति का उल्लेख होता है (वह प्रहर्षण नामक अलंकार के विरोधी भाव का सूचक है)।
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विषादनी  : स्त्री० [सं० विष√अद् (खाना)+मल्युट-अन+ङीप्] १. पलाशी नाम की लता। २. इन्द्रवारुणी।
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विषादिता  : स्त्री० [सं० विषाद+तल्+टाप्, इत्व] विषाद का धर्म या भाव।
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विषादिनी  : स्त्री० [सं० विषाद+इनि+ङीष्] १. पलाशी नाम की लता। २. इन्द्रवारुणी।
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विषादी (दिन्)  : वि० [सं०] विषाद-युक्त।
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विषानन  : पुं० [सं० ष० त०] साँप।
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विषापह  : वि० [सं० विष+अप्√हन् (मारना)+ड] विष का नाश करनेवाला। पुं० मोखा नामक वृक्ष।
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विषापहा  : स्त्री० [सं० विषापह+टाप्] १. इन्द्रवारुणी इन्द्रायन। २. निर्विषी। ३. नाग-दमनी। ४. अर्कपत्रा। इसरौल। ५. सर्प-काकोली।
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विषायुध  : पुं० [सं० ब० स०] १. जहर में बुझाया हुआ या जहरीला आयुध। २. साँप।
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विषार  : पुं० [सं० विष√ऋ (प्राप्त होना आदि)अच्] साँप।
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विषारि  : पुं० [सं० ष० त०] १. महाचंचु नामक साग। २. घृत-करंज। वि० विष को दूर करनेवाला। विषनाशक।
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विषालु  : वि० [सं० विष+अलुच्] विषैला। जहरीला। (प्वायजनस)।
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विषास्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा अस्त्र जो विष में बुझाया गया हो। २. साँप।
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विषी  : पुं० [सं० विष+इनि, विषिन्] १. विषपूर्ण वस्तु। जहरीली चीज। २. जहरीला सांप। वि० विषयुक्त। जहरीला।
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विषुप  : पुं० [सं० विषु√पा (रक्षा करना)+क] विषुव।
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विषुव  : पुं० [सं० विषु√वा (गमन)+क] गणित ज्योतिष में वह समय जब सूर्य विषुवत् रेखा पर पहुँचता है तथा दिन और रात दोनों बराबर होते हैं।
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विषुवत्  : वि० [सं० विष+मतुप्, म-व] बीच का। मध्यस्थित। पुं०=विषुव।
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विषुवत्-रेखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] भूगोल में वह कल्पित रेखा जो पृथ्वी तल के पूरे मानचित्र पर ठीक बीचो-बीच गणना के लिए पूर्व पश्चिम खींची गई है। (इक्वेटर)।
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विषुवदिन  : पुं० [सं०] ऐसा दिवस जिसमें दिन और रात दोनों समय के मान से बराबर होते हैं।
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विषवद्देश  : पुं० [सं० ष० त०] विषुवत् रेखा के आस पास पड़नेवाले देश।
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विषूचक  : पुं० [सं०]=विसूचिका (रोग)।
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विषूचिका  : स्त्री०=विसूचिका।
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विषौषधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. जहर दूर करने की दवा। २. नागवंती।
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विष्कंध  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो गति को रोकता हो। २. बाधा। विघ्न।
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विष्कंभ  : पुं० [सं० वि√स्कम्भ्+अच्] १. अड़चन। बाधा। रुकावट। २. दरवाजे का अर्गल। ब्योंड़ा। ३. खंभा। ४. फैलाव। विस्तार। ४. नाटक का रूपक में, किसी अंक के आरम्भ का वह अंश या स्थिति जिसमें कुछ पात्रों के द्वारा कुछ भूत और कुछ भावी घटनाओं की संक्षिप्त सूचना रहती है। जैसे—भारतेन्दु कृत चन्द्रावली नाटिका के पहले अंक के आरम्भ में नाटक और शुक्रदेव वार्ता विष्कंभ है। ५. फलित ज्योतिष में सत्ताईस योगों में से पहला योग जो आरंभ के ५ दंडों को छोड़कर शुभ कार्यों के लिए बहुत अच्छा कहा गया है। ६. ज्यामिति में किसी वृत्त का व्यास। ७. योग साधन का एक प्रकार का आसन या बंध। ८. पेड़। वृक्ष। ९. एक पौराणिक पर्वत।
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विष्कंभन  : पुं० [सं० विष्कम्भ+कन्] [भू० कृ० विष्कंभित] १. बाधा डालना। २. विदारण करना या फाड़ना।
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विष्कंभी (भिन्)  : पुं० [सं० वि√स्कम्भ (रोकना)+णिनि] १. शिव का एक नाम। २. अर्गल। ब्योड़ा।
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विष्क  : पुं० [सं०√विष्क (मारना)+अच्] ऐसा हाथी जिसकी अवस्था बीस वर्ष की हो।
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विष्कर  : पुं० [सं० वि√कल् (खाना)+क, कृ+अच्] १. एक दाना २. पक्षी। चिड़िया। ३. अर्गल। ब्योड़ा।
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विष्कलन  : पुं० [सं० वि√कल् (खाना)+ल्युट-अन] भोजन। आहार।
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विष्किर  : पुं० [सं० वि√कृ (फेंकना)+क, सुट्, षत्व] १. पक्षी। चिड़िया। २. साँप।
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विष्टंभ  : पुं० [सं० वि√स्तम्भ (रोकना)+घञ्] १. अच्छी तरह से जमाना या स्थिर करना। २. रोकना। ३. बाधा। रुकावट। ४. आक्रमण। चढ़ाई। ५. अनाह या विबंध नामक रोग।
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विष्टंभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√स्तम्भ (रोकना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] कब्जियत करनेवाला पदार्थ।
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विष्ट  : भू० कृ० [सं√विश् (प्रवेश करना)+क्त] १. [भाव० विष्टि] १. घुसा हुआ। २. भरा हुआ। ३. युक्त।
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विष्टय  : पुं० [सं०√विश्+कपन्, सुट्] १. स्वर्ग-लोक। २. जगह। स्थान।
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विष्टप-हारी  : पुं० [सं० विष्टप√हृ (हरण करना)+णिनि, ष० त०] १. भुवन। लोक। २. पात्र। बरतन।
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विष्टर  : पुं० [सं० वि√स्तृ+अप्, षत्व] १. आक। मदार। २. पेड़। वृक्ष। ३. आसन विशेषतः पीठ। ४. कुश का आसन।
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विष्टरश्रवा (वस्)  : पुं० [सं० विष्टर+श्रवस्, ब० स०] १. विष्णु। २. कृष्ण।
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विष्टि  : स्त्री० [सं०√विष् (प्याप्त रहना आदि)+क्तिन्] १. ऐसा परिश्रम जिसका पुरस्कार न दिया जाता हो। २. व्यवसाय। पेशा। ३. प्राप्ति। ४. वेतन। ५. फलित ज्योतिष के ग्यारह करणों में से सातवाँ करण जिसे विष्टिभद्रा भी कहते हैं। ६. एक प्रकार का पौराणिक व्रत।
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विष्टिकर  : पुं० [सं० विष्टि+कृ (करना)+अप्, ष० त०] १. प्राचीन काल के राज्य का वह बड़ा सैनिक कर्मचारी जिसे अपनी सेना रखने के लिए राज्य की ओर से जागीर मिला करती थी। २. अत्याचारी। जालिम।
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विष्टि-भार  : पुं० [सं० ष० त०] बेगारी का भार। उदाहरण—बोले ऋषि भुगतेंगे हम सह विष्ट भार।—मैथिलीशरण गुप्त।
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विष्ठ  : स्त्री० [सं० वि√स्था (ठहरना)+क, षत्व,+टाप्] १. वह चीज जो प्राणियों के गुदा मार्ग से निकलती है। गुह। मल। २. बहुत ही गंदी तथा त्याज्य वस्तु।
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विष्ठित  : भू० कृ० [सं० वि√स्था (ठहरना)+क्त] १. स्थित। २. उपस्थित। ३. विद्यमान।
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विष्णु  : भू० कृ० [सं०√विष् (व्यापक रहना)+नुक्] १. हिन्दुओं के एक प्रधान और बहुत देवता जो संसार का भरण-पोषण करनेवाले कहे गये हैं। २. अग्नि देवता। ३. वसु देवता। ४. बारह आदित्यों में से एक।
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विष्णु-कांति  : पुं० [सं०] एक प्रकार का बहुत गहरा आसमानी रंग (सेरुलियन)। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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विष्णु-कांत  : पुं० [सं० ब० स०] १. इश्कपेचाँ नामक लता या उसका फूल। २. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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विष्णु-कांता  : स्त्री० [सं०] १. नीली अपराजिता। कोयल नाम की लता। २. बाराही कन्द। मेंठी। ३. नीली शंखाहुली।
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विष्णुचक्र  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु के हाथ का चक्र सुदर्शन।
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विष्णुतिथि  : स्त्री० [सं० ष० त०] एकादशी और द्वादशी दोनों तिथियाँ, जिसके स्वामी विष्णु माने जाते हैं।
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विष्णुत्व  : पुं० [सं० विष्णु+त्व] विष्णु होने की अवस्था, धर्म पद या भाव।
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विष्णुदैवत  : पुं० [सं० ब० स०] श्रवण नामक नक्षत्र जिसके स्वामी विष्णु माने जाते हैं।
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विष्णुधर्मोत्तर  : पुं० [सं० ब० स०] एक उपपुराण का नाम जो विष्णु पुराण का एक अंग माना जाता है।
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विष्णुधारा  : स्त्री० [सं० ष० त० या ब० स०] १. पुराणानुसार एक प्राचीन नदी। २. उक्त नदी के तट का एक तीर्थ।
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विष्णु-पत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. विष्णु की स्त्री। लक्ष्मी। २. अदिति का एक नाम।
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विष्णुं-पद  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु के चरण या उसकी बनाई हुई आकृति। २. आकाश। ३. स्वर्ग। ४. कमल।
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विष्णु-पदी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] १. गंगा। २. द्वारिकापुरी। ३. वृष, वृश्चिक, कुंभ और सिंह इनमें से प्रत्येक की संक्रान्ति।
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विष्णुपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] स्वर्ग।
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विष्णु-प्रिया  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. लक्ष्मी। २. तुलसी का पौधा।
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विष्णु-माया  : स्त्री० [सं० ष० त०] दुर्गा।
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विष्णुयशा  : पुं० [सं० ब० स० विष्णुयशस्] पुराणानुसार जो ब्रह्मयशा का पुत्र और कल्कि अवतार का पिता होगा।
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विष्णुयान  : पुं० [सं० ष० त०] गरुड़।
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विष्णु-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] गरुड़।
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विष्णु-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] वैकुंठ। गोलोक।
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विष्णु-वल्लभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. तुलसी का पौधा। २. कलिहारी।
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विष्णुवृद्ध  : पुं० [सं०] एक प्राचीन गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि।
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विष्णु-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] लक्ष्मी।
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विष्णु-शिला  : स्त्री० [सं० ष० त०] शालग्राम का विग्रह।
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विष्णु-श्रृंखला  : पुं० [सं० ष० त०] श्रवण नक्षत्र में पड़नेवाली द्वादशी।
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विष्णु-श्रुत  : पुं० [सं० तृ० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का आर्शीवाद जिसका आशय है विष्णु तुम्हारा मंगल करे।
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विष्णु-स्मृति  : स्त्री० [सं० मध्यम० स०] एक प्रसिद्ध स्मृति (याज्ञवल्क्य)।
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विष्णुहिता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. तुलसी का पौधा। २. मरुआ।
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विष्णूत्तर  : पुं० [सं० ब० स०] विष्णु के पूजा के निमित्त किया जानेवाला भूमि या संपत्ति का दान।
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विष्पर्धा  : पुं० [सं० वि√स्पर्ध (संघर्ष करना)+असुन्, ब० स० विष्पर्धस्] स्वर्ग। वि० स्पर्धा से रहित।
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विष्फार  : पुं० [सं० वि√स्फर् (स्फुरण करना)+णिच्+अच्, अत्व, षत्व] धनुष की टंकार। विस्फार।
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विष्यंदन  : पुं० [सं० वि√स्यन्द+ल्युट—अन] १. चूना २. बहना। ३. पिघलना। ४. एक तरह की मिठाई।
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विष्य  : वि० [सं० विष+यत्] जिसे विष दिया जाना चाहिए या दिया जाने को हो।
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विष्व  : वि० [सं०√विष् (प्याप्त होना)+क्वन्] १. हिस्र। २. हानिकारक। ३. दुष्ट।
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विष्वक्  : वि० [सं०] १. बराबर इधर-उधर घूमनेवाला। २. विश्व-संबंधी। विश्व का। २. सारे विश्व में समान रूप से होने यापाया जानेवाला। (यूनीवर्सल) ३. इस जगत् से भिन्न शेष सारे विश्व से संबंध रखनेवाला। पृथ्वी को छोड़कर सारे आकाश और ब्रह्माण्ड का। ब्रह्माण्डीय। (कॉस्मिक)। अव्य० १. चारों ओर। २. सब जगह। पुं०=विषुव।
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विष्वककिरण  : स्त्री० [सं०] दे० ‘ब्रह्माण्ड किरण’।
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विष्वक्वाद  : पुं० [सं०] दे० ‘विश्ववाद’।
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विष्वक्सिद्धान्त  : पुं० [सं० कर्म० स०] दर्शन और न्यायशास्त्रों में वह सिद्धान्त जो किसी वर्ग या विभाग के सभी व्यक्तियों या सभी प्रकार के तत्त्वों के लिए समान रूप से प्रयुक्त होता या हो सकता हो (डाँक्ट्रिन आँफ यूनिवर्सल्स)।
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विष्वक्सेन  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. शिव। ३. एक मनु का नाम जो मत्स्य पुराण के अनुसार तेरहवें और विष्णु पुराण के अनुसार चौदहवें हैं।
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विष्वग्वात  : पुं० [सं०] एक प्रकार की दूषित वायु।
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विसंकट  : पुं० [सं० ब० स०] १. इंगुदी या हिंगोट नाम का वृक्ष। २. शेर। सिंह। वि० बहुत बड़ा। विशाल।
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विसंक्रमण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विसंक्रमित] बहुत अधिक ताप पहुँचाकर ऐसी क्रिया करना जिससे किसी पदार्थ में लगे हुए कीटाणु या रोगाणु पूरी तरह से नष्ट हो जाएँ और दूसरी वस्तुओं में लगकर उन्हें दूषित न करने पाएँ (स्टरिलाईजेशन) जैसे—शल्य चिकित्सा में चीड़-फाड़ करने से पहले नश्तरों आदि का होनेवाला विसंक्रमण।
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विसंगत  : वि० [सं० ब० स० या तृ० त० वा] जो संयत न हो। जिसके साथ संगति न बैठती हो। बे-मेल।
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विसंज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] संज्ञाहीन। बेहोश।
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विसंधि  : स्त्री० [सं०] समस्त पदों या शब्दों की संधियाँ मनमाने ढंग से बनाना-बिगाड़ना जो साहित्य में एक दोष माना गया है।
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विसंधिक  : वि० [सं० ब० स०] जिनकी या जिनसे संधि न हो।
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विसँभारा  : वि० [हि० वि+संभार] जिसकी सुध-बुध ठिकाने न हो।
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विसंवाद  : पुं० [सं० वि-सम√वद् (कहना)+घञ्] १. विरोध। झूठा। कथन। २. अनुचित कहासुनी। ३. डांट-फटकार। ४. प्रतिज्ञा भंग करना। ५. खंडन। ६. असहमति। वि० अद्भुत। विलक्षण।
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वितंवादी  : वि० [सं० वि-सम्√वद् (कहना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. धोखा देनेवाला। २. वचन भंग करनेवाला। ३. खंडन करनेवाला। पुं० संगीत में वह स्वर जिसका वादी स्वर से मेल न बैठता हो।
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विसंहत  : भू० कृ० [सं० वि-सम√हन् (हिंसा करना)+क्त] १. जो संहत न हो। २. अलग या पृथक् किया हुआ।
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विस  : पुं० [सं० वि√सो (तनूकरण)+क] कमल। पुं०=विष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वि-सदृश  : वि० [सं०] १. जो किसी विशिष्ट के सदृश न हो। भिन्न। (डिस्समिलर) २. अनोखा। विलक्षण।
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विसम  : वि०=विषम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विसम्मति  : स्त्री० [सं०] किसी विषय में दूसरे के मत से सहमत न होने की अवस्था या भाव। विमत होना (डिस्सेन्ट)।
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विसर्ग  : पुं० [सं० वि√सृज्+घञ्] १. सामने आए हुए काम या बात के सम्बन्ध में आवश्यक कार्यवाही उचित निर्णय आदि करके उसे निपटाने की क्रिया या भाव। (डिस्पोजल)। २. दान। ३. त्याग। ४. मल-मूत्र का त्याग। शौच। ५. मृत्यु। ६. मोक्ष। ७. प्रलय। ८. वियोग। ९. चमक। दीप्ति। १॰. सूर्य का एक अयन। ११. वर्षा, शरद और हेमन्त ऋतुओं का समूह। १२. व्याकरण के अनुसार एक वर्ण जिससे ऊपर-नीचे दो बिन्दु होते हैं और उसका उच्चारण प्रायः अर्द्धह के समान होता है।
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विसर्गी  : वि० [सं०] १. जिसमें विसर्ग हो। विसर्ग से युक्त। २. बीच-बीच में ठहरने या रुकनेवाला। जैसे—विसर्गी ज्वर। ३. दानी। ४. त्यागी।
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विसर्गी-ज्वर  : पुं० [सं०] वह ज्वर जो बराबर बना रहता हो, बल्कि बीच-बीच में कुछ समय के लिए उतर जाता हो। अंतरायिक ज्वर। विरामी ज्वर (इन्टरमिटेन्ट फीवर)।
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विसर्जन  : पुं० [सं० वि√सृज् (त्याग करना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विसर्जित] १. परित्याग करना। छोड़ना। २. किसी को कुछ करने का आदेश देकर कहीं भेजना। ३. कहीं से प्रस्थान करना। विदा होना। ४. अन्त। समाप्ति। ५. दान। ६. देव-पूजन के सोलह उपचारों में से अंतिम उपचार जिसमें आहूत देवता के प्रति यह निवेदन होता है कि अब पूजन हो चुका, आप कृपया प्रस्थान करें। ७. उक्त के आधार पर पूजन आदि के उपरान्त प्रतिमा या विग्रह का किसी जलाशय में किया जानेवाला प्रवाह। भसान। जैसे—दुर्गा या सरस्वती की मूर्ति का गंगा में होनेवाला विसर्जन। ८. कार्य की समाप्ति पर उसके सदस्यों आदि का कार्य-स्थल से होनेवाला प्रस्थान।
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विसर्जनी  : स्त्री० [सं० विसर्जन+ङीष्] गुदा के मुँह पर चमड़े का एक भाग।
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विसर्जनीय  : वि० [सं० वि√सॉज्+अनीयर्] जिसका विसर्जन हुआ हो सके या किया जाने को हो।
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विसर्जित  : भू० कृ० [सं० वि√सृज्+क्त, इत्व] जिसका विसर्जन हुआ हो।
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विसर्प  : पुं० [सं० वि√सृप् (सरकना चलना)+घञ्] १. रेंगते हुए या मन्द गति से इधर-उधर घूमना, फैलना या बढ़ना। २. खुजली नामक चर्म रोग। ३. नाटक में किसी कार्य का अप्रत्याशित रूप से होनेवाला दुःखद परिणाम।
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विसर्पण  : पुं० [सं० वि√सृप्+ल्० युट-अन] १. सांप की तरह लहराते हुए चलना। २. उक्त प्रकार की लहराती हुई आकृति या स्थिति। (मिएन्टर) ३. फैलना। ४. फेंकना। ५. फोड़ों आदि का फूटना।
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विसर्पिका  : स्त्री० [सं० वि√सृप्+ण्वुल्-अक, इत्व+टाप्, या विसर्प+कन्+टाप्, इत्व] विसर्प या खुजली नामक रोग।
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विसर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं०] १. तेज चलनेवाला २. फैलनेवाला ३. साँप की तरह लहराते हुए चलनेवाला। लहरियेदार। (मिएन्डर) ४. रंगता हुआ आगे बढ़ने या चलनेवाला। ५. (पौधा या बेल) जो धीरे-धीरे आगे बढ़कर जमीन पर फैले या किसी आधार पर चढ़े (क्रीपिंग)।
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विसल  : पुं० [सं० विस√ला (ग्रहण करना)+क, अथवा विस+कलच्] वृक्ष का नया पत्ता। पल्लव।
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विसवर्त्म  : पुं० [सं० ब० स०] आँखों का एक प्रकार का रोग।
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विसार  : पुं० [सं० वि√सृ (गमन)+घञ्] १. विस्तार। २. निर्गम। निकास। ३. प्रवाह। बहाव। ४. उत्पत्ति। ५. मछली।
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विसारक  : वि० [सं०] विसरण करनेवाला।
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विसारण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विसारित, वि० विसारी] १. फैलाना। २. चलाना। ३. निकालाप। ४. कार्य का संपादन करना।
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विसाल  : पुं० [अ०] १. मिलना। २. प्रेमी और प्रेमिका का मिलन। २. मृत्यु जिससे आत्मा जाकर परमात्मा से मिल जाती है। उदाहरण-पसे विसाल मयस्सर मुझे विसाल हुआ। मेरे जनाजे में बैठे रहे व सारी रात।—कोई शायर।
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विसिनी  : स्त्री० [सं० विस+इनि+ङीष्] कमलिनी। वि०=व्यसनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वि-सुकृत  : वि० [सं० ब० स०] जिसके कर्म अच्छे न हों। पुं० १. धर्म विरुद्ध कार्य। २. दुष्कर्म।
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विसूचन  : पुं० [सं० वि√सूच् (सूचित करना)+ल्युट—अन] सूचित करना। जतलाना।
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विसूचिका  : स्त्री० [सं० वि√सूच्+अच्+कन्+टाप्, इत्व] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसे कुछ लोग हैजा कहते हैं।
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विसूची  : स्त्री० [सं० वि√सूच्+अच्+ङीष्] वह रोग जिसमें कै और दस्त आते हैं परन्तु पेशाब नहीं होता।
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विसूरण  : पुं० [सं० वि√सूर् (दुःख होना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विसूरित] १. दुःख। रंज। २. चिन्ता। फिक्र। ३. विरक्ति। वैराग्य।
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विसृत  : भू० कृ० [सं० वि√सृ (गमन)+क्त] [भाव० विसृति] १. फैला या फैलाया हुआ। २. ताना हुआ। ३. कथित। उक्त।
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विसृष्ट  : भू० कृ० [सं० वि√सृज् (रचना)+क्त, षत्व, त-ट] [भाव० विसृष्टि] १. जिसकी सृष्टि हुई हो। २. छोड़ा, त्यागा या निकाला हुआ। ३. प्रेरित। पुं० विसर्ग नामक लेख-चिन्ह जो इस प्रकार लिखा जाता है—
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विसृष्टि  : स्त्री० [सं० वि√सृज्+क्तिन्] १. विसृष्ट होने की अवस्था या भाव। २. सृष्टि। ३. छोड़ना, त्यागना या निकालना। ४. भेजना। ५. प्रेरणा करना। ६. संतान। ७. स्राव।
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विसैन्यीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विसैन्यीकृत] युद्ध के आवश्यकतावश प्रस्तुत किये गये सैनिकों को सैन्य-सेवा से पृथक् करना। सैन्य-विघटन (डिमिलिटराइजेशन)।
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विसौख्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] सौख्य या सुख का अभाव। कष्ट। दुःख।
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विस्खलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विस्खलित]=स्खलन।
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विस्त  : पुं० [सं०√विस् (छोड़ना)+क्त] १. एक कर्ष का परिमाण २. सोना। स्वर्ण।
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विस्तर  : पुं० [सं० वि√स्तृ (फैलना)+अप्] [भाव० विस्तृता] १. विस्तार। २. प्रेम। ३. समूह। ४. आसन। ५. आधार। ६. गिनती। संख्या। ६. शिव का एक नाम। वि० अधिक। बहुत।
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विस्तरण  : पुं० [सं० वि√स्तृ+ल्युट—अन] १. विस्तार करना। बढ़ाना। विस्तृत करना।
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विस्तार  : पुं० [सं० वि√स्तृ+घञ्] १. फैले हुए होने की अवस्था, धर्म या भाव २. वह क्षेत्र या सीमा जहाँ तक कोई चीज फैली हुई हो। फैलाव। (एक्सटेन्ट) ३. लंबाई और चौड़ाई। ४. विस्तृत। विवरण। ५. शिव। ६. विष्णु। ७. वृक्ष की शाखा। ८. गुच्छा।
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विस्तारण  : पुं० [सं०] १. विस्तार करना। फैलाना। २. काम-काज या कर्म-क्षेत्र बढ़ाना।
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विस्तारना  : स० [सं० विस्तरण] विस्तार करना। फैलाना।
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विस्तारवाद  : पुं० [सं०] यह मत या सिद्धान्त कि राज्य को अपने अधिकार क्षेत्र और सीमाओं का निरन्तर विस्तार करते रहना चाहिए, भले ही इसमें दूसरे राज्यों या राष्ट्रों का अहित होता हो (एक्सपैन्शनिज्म)
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विस्तारिणी  : स्त्री० [सं० वि√स्तृ+णिनि+ङीष्] संगीत में एक श्रुति।
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विस्तारित  : भू० कृ० [सं० विस्तार+इतच्] १. जिसका विस्तार हुआ हो। २. व्यापक विवरण से युक्त।
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विस्तारी (रिन्)  : वि० [सं० विस्तारिन्] १. जिसका विस्तार अधिक हो। विस्तृत। शक्तिशाली। पुं० बड़ या बरगद का पेड़।
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विस्तीर्ण  : भू० कृ० [सं० वि√स्तृ+क्त] [भाव० विस्तीर्णता] १. फैला या फैलाया हुआ हो। विस्तृत किया हुआ। २. व्यापक सूत्रवाला। ३. बहुत चौड़ा। ४. बहुत बड़ा। ५. विपुल।
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विस्तृत  : भू० कृ० [सं० वि√स्तृ+क्त] [भाव० विस्तृति] १. जो अधिक दूर तक फैला हुआ हो। लंबा-चौड़ा। विस्तारवाला। जैसे—यहाँ आप लोगों के लिए बहुत विस्तृत स्थान है। २. कथन या वर्णन जिसमें सब अंग या बातें विस्तारपूर्वक बताई गई हों। जैसे—विस्तृत विवेचन। ३. बहुत बड़ा या लम्बा चौड़ा। (एक्सटेन्सिव उक्त सभी अर्थों में)
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विस्तृति  : स्त्री० [सं० वि√स्तृ+क्तिन्] १. फैलाव। विस्तार। २. प्याप्ति। ३. लंबाई चौड़ाई या गहराई। ४. वृत्त का व्यास।
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विस्थापन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० विस्थापित] १. जो कहीं स्थापित या स्थित हो उसे वहाँ से हटाना। २. किसी स्थान पर बसे हुए लोगों को कहीं से बलपूर्वक हटाना और वह जगह उनसे खाली करा लेना (डिस्प्लेसमेंट)।
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विस्थापित  : भू० कृ० [सं० वि√स्था+णिच्, पुक्+क्त] १. जो अपने स्थान से हटा दिया गया हो। २. जिससे उसका निवास-स्थान जबरदस्ती छीन लिया गया हो (डि-स्प्लेस्ड)।
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विस्थिति  : स्त्री० [सं०] ऐसी विकट स्थिति जिसमें उलट-फेर की संभावना हो।
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विस्फार  : पुं० [सं० वि√स्फुर् (संचालन)+घञ्, उ-आ] [वि० विस्फारित] १. धनुष की टंकार। कमान चलाने का शब्द। धनुष की डोरी। ३. फैलाव। विस्तार। ४. तेजी। फुरती। काँपना। कंपन। ५. विकास।
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विस्फारक  : पुं० [सं० विस्फार+कन्] एक प्रकार का विकट सन्निपात जिसमें रोगी को खाँसी, मूर्च्छा, मोह और कम्प होता है। वि० विस्फार करनेवाला।
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विस्फारण  : पुं० [सं० वि√स्फुर् (हिलना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विस्फारित] १. खोलना या फैलाना। २. पक्षियों का डैने फैलाना। ३. फाड़ना। ४. धनुष चढ़ाना।
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विस्फारित  : भू० कृ० [सं० विस्फार+इतच्] १. अच्छी तरह से खोला या फैलाया हुआ। जैसे—विस्फारित नेत्र। २. फाड़ा हुआ।
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विस्फीत  : भू० कृ० [सं०] [भाव० विस्फीति] जो स्फीत न हो। ‘स्फीत’ का विपर्याय।
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विस्फीत  : स्त्री० [सं० ब० स०] दे० ‘अवस्फीति’।
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विस्फुरण  : पुं० [सं० वि√स्फुर् (कंपित होना)+ल्युट—अन] [भू० कृ० विस्फुरित] १. विद्युत का कंपन। २. स्फुरण।
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विस्फुलिंग  : पुं० [सं० वि√स्फुर (हिलना)+डु=विस्फु, विस्फु+लिंग, ब० स०] १. एक प्रकार का विष। २. आग की चिनगारी। स्फुलिंग।
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विस्फूर्जन  : पुं० [सं० वि√स्फूर्ज (फैलाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विस्फूर्जित] १. किसी पदार्थ का बढ़ना या फैलाना। विकास। २. गरजना।
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विस्फोट  : पुं० [सं० वि√स्फुट्+घञ्] १. अन्दर की भरी हुई आग या गरमी का उबल या फूटकर बाहर निकलना। जैसे—ज्वाला मुखी का विस्फोट। २. उक्त क्रिया के कारण होनेवाला जोर का शब्द। ३. एकत्र गैस, बारूद आदि का अग्नि या ताप के कारण जोर का शब्द करते हुए बाहर निकल पड़ना। (एक्सप्लोजन)। ४. बड़ा और जहरीला फोड़ा।
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विस्फोटक  : पुं० [सं० विस्फोट+कन्] १. फोड़ा विशेषतः जहरीला फोड़ा। २. चेचक या शीतला नामक रोग। वि० (पदार्थ) जो अन्दर की गरमी या ताप के कारण चटक कर फूट जाए।
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विस्फोटन  : पुं० [सं० वि√स्फुट्+ल्युट-अन] विस्फोट उत्पन्न करने की क्रिया या भाव।
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विस्मय  : पुं० [सं० वि√स्मि+अच्] १. आश्चर्य। २. अचम्भा। २. वह विशिष्ट स्थिति जब किसी प्रकार की अप्रत्याशित तथा चमत्कारिक बात या वस्तु सहसा देखकर प्रसन्नता-मिश्रित आश्चर्य होता है। ३. साहित्य में उक्त के आधार पर अद्भुत रस का स्थायी भाव। वि० जिसका अभिमान या गर्व चूर्ण हो चुका हो।
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विस्मयाकुल  : वि० [सं० तृ० त०] जो बहुत अधिक विस्मय के कारण घबरा या चकरा गया हो।
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विस्मयादि-बोधक  : पुं० [सं०] व्याकरण में अव्यय का वह भेद जो ऐसे अधिकारी शब्द का सूचक होता है जो आश्चर्य, खेद, दुःख, प्रसन्नता आदि का सूचक होता है। जैसे— वाह, हाय ओह आदि।
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विस्मरण  : पुं० [सं० वि√स्मृ (स्मरण करना)+ल्युट्-अन, मध्यम, स०] [भू० कृ० विस्तृत] १. स्मरण न होने की अवस्था या भाव। भूलना। २. भुलाना।
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विस्मापन  : पुं० [सं० वि√स्मि (आनन्द होना)+णिच्, आत्व, पुक्+ल्युट-अन] १. गंधर्व नगर। २. कामदेव। वि० विस्मयकारक।
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विस्मारक  : वि० [सं० वि√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] विस्मरण कराने या भुला देनेवाला। ‘स्मारक’ का विपर्याय।
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विस्मिति  : भू० कृ० [सं० वि√स्मि (आश्चर्य होना)+क्त] [भाव० विस्मृति] जिसे विस्मय हुआ हो।
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विस्मिति  : स्त्री० [सं० वि√स्मि (आश्चर्य होना)+क्तिन्]=विस्मय।
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विस्मृत  : भू० कृ० [सं० वि√स्मि+क्त] [भाव० विस्मृति] १. जिसका स्मरण न रहा हो। भूला हुआ। २. भुलाया हुआ।
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विस्मृति  : स्त्री० [सं० वि√स्मृ+कित, मध्यम० स०] भूल जाना। विस्मरण।
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विस्रंभ  : पुं० [सं०]=विश्रंभ।
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विस्रवण  : पुं० [सं० वि√स्रु (बहना)+ल्युट—अन] १. बहना। २. झड़ना ३. रसना।
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विस्रा  : स्त्री० [सं० विस्र+अच्+टाप्] १. हाऊबेर। हवुषा। २. चरबी।
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विस्राम  : पुं०=विश्राम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विस्राव  : पुं० [सं० वि√स्रु (बहना)+घञ्] भात का माँड़। पीच।
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विस्रावण  : पुं० [सं० वि√स्रु (बहना)+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० विस्रावित] १. बहना। २. रक्त बहाना। ३. अर्क चुआना।
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विस्वर  : वि० [सं० ब० स०] १. स्वरहीन। २. बेमेल। ३. कर्कश (स्वर)।
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विस्वाद  : वि० [सं० ब० स० या मध्यम० स०] १. जिसमें स्वाद न हो। २. फीका।
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विहंग  : पुं० [सं० विहायस्√गम्+खच्, डित्व, मुम्, विहादेश] १. पक्षी। चिड़िया। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा। ४. सोना। मक्खी। ५. बादल। मेघ। ६. तीर। बाण।
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विहंगक  : वि० [सं० बिहंग+कन्] आकाश में उड़नेवाले। पुं० छोटा पक्षी।
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विहंगम  : पुं० [सं० विहायस्√गम् (जाना)+खच्, मुम्, विहादेश] १. पक्षी। चिड़िया। २. सूर्य। वि०=बेहंगम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विहंगम मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] योग की साधना में दो मार्गों में से एक जिसके द्वारा साधक बिना अधिक काया-क्लेश सहे बहुत जल्दी और सहज में उसी प्रकार अपने प्राण ब्रह्मांड तक ले जाता है, जिस प्रकार पक्षी उड़कर वृक्ष के ऊपरी भाग पर जा पहुँचता है। यह दूसरे अर्थात् पिपीलिका मार्ग की तुलना में श्रेष्ठ समझा जाता है।
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विहंगमा  : स्त्री० [सं० विहंगम+टाप्] १. सूर्य की एक प्रकार की किरण। २. चिड़िया। ३. बहँगी।
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विहंग-राज  : पुं० [सं० ष० त०] गरुड़।
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विहंगहा (हन्)  : पुं० [सं०] बहेलिया।
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विहंगिका  : स्त्री० [सं० विहंग+कन्+टाप्, इत्व] बहँगी।
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विहँड़ना  : स० [?] १. नष्ट करना। २. मार डालना।
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विहँसना  : अ०=हँसना।
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विहग  : पुं० [सं० विहायस्√गम्+ड,विहादेश] १. पक्षी। चिड़िया। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा। ४. ग्रह। ५. तीर। बाण।
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विहगेंद्र  : पुं० [सं० विहग+इन्द्र] गरुड़।
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विहत  : भू० कृ० [सं०√हन् (मारना)+क्त, न-लोप] १. मारा हुआ। हत। २. फाड़ा हुआ। विदीर्ण। ३. जिसका निवारण हुआ हो। निवारित। ४. जिसका प्रतिरोध या विरोध किया गया हो। पुं० जैन मंन्दिर।
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विहति  : स्त्री० [सं० वि√हन्+क्तिन्] विहत होने की अवस्था या भाव।
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विहर  : पुं० [सं० वि√हृ (हरम करना)+अच्] वियोग। विछोह।
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विहरण  : पुं० [सं० वि√ह्र (हरण करना)+ल्युट-अन] १. बिहार करने की क्रिया या भाव। २. फैलना। ३. वियोग। विछोह। ४. घूमना-फिरना।
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विहरना  : अ० [सं० विहार] १. विहार करना। २. घूमना-फिरना।
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विहर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० वि√हृ+तृच्] १. विहार करनेवाला। २. घूमने-फिरने का शौकीन। पुं० डाकू।
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विहव  : पुं० [सं० वि√हु (दान देना लेना)+अच्] १. यज्ञ। २. युद्ध। लड़ाई।
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विहसन  : पुं० [सं० वि√हस् (हँसना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विहसित] १. मंद और मधुर मुस्कान। २. किसी की हँसी या मजाक उड़ाना।
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विहसित  : पुं० [सं० वि√हस् (हँसना)+क्त] ऐसा हास्य जो न बहुत उच्च हो न बहुत मधुर। मध्यम हास्य। भू० कृ० जिसकी हँसी उड़ाई गई हो। उपहसित।
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विहस्त  : पुं० [ब० स०] पंडित। विद्वान।
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विहाग  : पुं०=बिहाग। (राग)।
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विहाण  : पुं०=बिहान। (सबेरा)।
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विहाना  : स० [सं० विहीन] पथक् करना। अ०, स० बिहाना (बीतना, बिताना)।
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विहायस  : पुं० [सं०] १. आकाश। आसमान। २. दान। ३. चिड़िया। पक्षी।
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विहार  : पुं० [सं० वि√हृ (हरण करना)+घञ्] १. घूमना। २. आनन्द प्राप्त करने या मौज लेने के लिए घूमना। ३. घूमने-फिरने तथा आनन्द लेने की जगह। जैसे—उद्यान, बगीचा। ४. प्राचीन काल में बौद्ध श्रमणों के रहने का मठ या आश्रम। ५. रति-क्रीड़ा। ६. रति-क्रीड़ा का स्थान।
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विहारक  : वि० [सं० वि√हृ+ण्वुल्-अक, विहार+कन्] १. विहार करनेवाला। २. विहार अर्थात् बौद्ध मठ-सम्बन्धी।
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विहारिका  : स्त्री० [सं० विहार+कन्+टाप्, इत्व] छोटा विहार या मठ।
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विहारी  : वि० [सं० वि√हृ+णिनि] [स्त्री० विहारिणी] जो विहार करता हो। विहार करनेवाला। पुं० श्रीकृष्ण का एक नाम।
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विहास  : पुं० [सं०] मुसकान।
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विहिंसक  : वि० [सं०]=हिंसक।
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विहि  : पुं० [सं० विधि] १. विधाता। २. विधान। स्त्री० विधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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विहित  : भू० कृ० [सं० वि√धा+क्त] १. जो विधि के अनुसार हुआ या किया गया हो। २. जो विधि के अनुरूप या अनुसार हो। ३. उचित। मुनासिब।
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विहीन  : वि० [सं० वि√हा (त्याग करना)+क्त, ईत्व, तृ-न] [भाव० विहीनता, भू० कृ० विहीनिता] १. रहित। बगैर बिना। २. छोड़ा या त्यागा हुआ।
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विहून  : वि० [सं० विहीन] रहित। अव्य० बिना। बैगेर।
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विहृत  : पुं० [सं० वि√हृ+क्त] साहित्य में हाव की वह अवस्था जिसमें प्रिया लज्जा के कारण प्रिय पर अपना मनोभाव नहीं प्रकट कर पाती। भू० कृ० हरण किया हुआ।
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विहृति  : स्त्री० [सं० वि√हृ+क्तिन्] १. जबरदस्ती या बल-पूर्वक कुछ ले लेना या कोई काम करना। २. खेलना। ३. क्रीड़ा। बिहार।
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विह्लल  : वि० [सं० वि√ह्लल्+अच्] [भाव, विह्ललता] आशंका, भय आदि मनोविकारों के कारण किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा होकर जो अपना चैन तथा साहस छोड़ चुका हो और घबरा रहा हो।
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विह्वलता  : स्त्री० [सं० विह्वल+तल्+टाप्] विह्वल होने की अवस्था या भाव। व्याकुलता। घबराहट।
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