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लक्ष्य  : पुं० [सं०√लक्ष् (दर्शन)+ण्यत्] १. वह वस्तु जिस पर किसी उद्देश्य की सिद्धि के विचार से दृष्टि रखी जाय। निशान। जैसे—(क) चिड़िया को लक्ष्य करके उस पर ढेला फेंकना या तीर चलाना। (ख) किसी को लक्ष्य करके उपहास या व्यंग की बात करना। २. वह काम या बात जिसकी सिद्धि अभीष्ट हो और इसीलिए जिस पर दृष्टि या ध्यान रखा जाय। उद्देश्य। जैसे—जीवन भर धन संग्रह ही एक मात्र लक्ष्य रहा। ३. प्राचीन भारत में अस्त्रों आदि का एक प्रकार का संहार। ४. वह जिसका अनुमान किया गया हो या किया जाय। अनुमेय। ५. शब्द की लक्षणा शक्ति से निकलनेवाला अर्थ। ६. बहाना। हीला। वि० १. देखने योग्य। दर्शनीय। २. लाख।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
लक्ष्यज्ञ  : पुं० [सं० लक्ष्य√ज्ञा (जानना)+क] १. वह जो किसी लक्ष्य की पूर्ति या सिद्धि के लिए अग्रसर तथा प्रयत्नशील हो। २. वह जो यह जानता हो कि मेरा लक्ष्य क्या है।
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लक्ष्यज्ञत्व  : पुं० [सं० लक्ष्यज्ञ+त्व] १. वह ज्ञान जो चिह्रों को देखने से उत्पन्न हो। २. वह ज्ञान जो दृष्टांत के आधार पर प्राप्त हो।
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लक्ष्यता  : स्त्री० [सं० लक्ष्य+तल्+टाप्] लक्ष्य होने की अवस्था धर्म या भाव। लक्ष्यत्व।
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लक्ष्यत्व  : पुं० [सं० लक्ष्य+त्व]=लक्ष्यता।
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लक्ष्य-भेद  : पुं० [ष० त०]=लक्ष्य-वेध।
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लक्ष्य-वीथी  : स्त्री० [ष० त०] १. वह उपाय या कर्म जिससे जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता हो। २. ब्रह्मलोक जाने का मार्ग। ३. देव-ध्यान।
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लक्ष्य-वेध  : पुं० [ष० त०] चलते या उड़ते हुए जीव या पदार्थ पर निशाना लगाना।
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लक्ष्य-वेधी (धिन्)  : पुं० [सं० लक्ष्य√विध् (बेधना)+णिनि] जो लक्ष्य-वेध करता हो उड़ते या चलते हुए पदार्थ या जीवों पर निशाना लगानेवाला।
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लक्ष्य-साधन  : पुं० [ष० त०] १. कोई काम करने से पहले उसके सब अंग या ऊँच-नीच अच्छी तरह देखना। २. अस्त्र चलाने से पहले अच्छी तरह देख लेना जिससे वह निशाने या लक्ष्य पर ठीक जाकर लगे। (साइटिंग)
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लक्ष्यार्थ  : पुं० [सं० लक्ष्य-अर्थ, मध्य० स०] शब्द की लक्षणा शक्ति से निकलनेवाला अर्थ। किसी शब्द का वाच्य अर्थ से भिन्न किन्तु उससे संबद्ध अर्थ।
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लक्ष्योपमा  : स्त्री० [सं० लक्ष्य-उपमा, मध्य० स०] साहित्य में उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें सम, समान आदि शब्दों या इनके वाचक अन्य शब्दों का प्रयोग न करके यह कहा जाता है कि यह वस्तु अमुक कोटि या वर्ग की है, उसे लज्जित करती है, उससे होड़ करती है अथवा इसने उससे अमुक गुण या बात चुरा या छीन ली हो।
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