शब्द का अर्थ
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					यत्					 :
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					सर्व० [सं०√यज्+आदि, डित्, डित्त्वाट्टिलोप] जो।				 | 
			
			
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					यत्किंचित					 :
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					अव्य० [सं० द्वन्द स०] थोड़ा सा। जरा सा। कुछ।				 | 
			
			
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					यत्न					 :
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					पुं० [सं० यत+नङ] १. किसी काम या बात के लिए किया जानेवाला उद्योग। कोशिश। प्रयत्न। २. किसी चीज को अच्छी तरह और सुरक्षित रखने की क्रिया या भाव। ३. उपाय। युक्ति। तदबीर। ४. रोग आदि दूर करने के लिए किया जानेवाला इलाज या उपचार। चिकित्सा। ५. कठिनता। दिक्कत। ६. न्यायशास्त्र में रूप आदि २४ गुणों के अन्तर्गत एक गुण जो तीन प्रकार का कहा गया है। यथा—प्रवृत्ति, निवृत्ति और जीवन योनि। ७. साहित्य में रूपक की पाँच अवस्थाओं में से दूसरी अवस्था, जिसमें फल-प्राप्ति के लिए अच्छी तरह और जल्दी कुछ काम किये जाते हैं, और विघ्न-बाधाओं की चिंता छोड़ दी जाती है। ८. व्याकरण में स्वरों तथा व्यंजनों का उच्चारण करते समय किया जानेवाला प्रयत्न जो अघोष और घोष दो प्रकार का होता है।				 | 
			
			
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					यत्नवान् (वत्)					 :
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					वि० [सं० यत्न+मतुप्] [स्त्री० यत्नवती] यत्न में लगा हुआ यत्न करनेवाला।				 | 
			
			
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					यत्र					 :
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					अव्य० [सं० यद्+यत्] १. जिस जगह। जहाँ। २. जिस समय। जब। ३. जब यह बात है तो। इस कारण से। यतः। पुं० =सत्र (यज्ञ)।				 | 
			
			
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					यत्र-तत्र					 :
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					अव्य० [सं० द्व० स०] १. जहाँ-तहाँ। इधर-उधर। २. कुछ यहाँ कुछ वहाँ। ३. यहाँ-वहाँ सभी जगह। अनेक स्थानों पर। जगह-जगह।				 | 
			
			
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					यत्रु					 :
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					स्त्री० [सं० जत्रु] छाती के ऊपर और गले के नीचे मंडलाकार हड्डी। हँसली।				 | 
			
			
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