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पीठ  : पुं० [सं० पा√(पीना)+ठक्, पृषो० सिद्धि] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। जैसे—चौकी, पीढ़ा, सिंहासन आदि। २. विद्यार्थियों, व्रतधारियों आदि के बैठने के लिए बना हुआ कुश का आसन। ३. नीचे वाला वह आधार जिस पर मूर्ति रखी या स्थापित की जाती है। ४. वह स्थान जहाँ बैठकर किसी प्रकार का उपदेश, शिक्षा आदि दी जाती हो। जैसे—धर्म-पीठ, विद्या-पीठ, व्यासपीठ आदि। ५. किसी बड़े अधिकारी या सम्मानित व्यक्ति के बैठने का स्थान, आसन और पद। (चेयर) जैसे—(क) अमुक विद्यालय में हिन्दी की उच्च शिक्षा के लिए एक पीठ स्थापित हुआ है। (ख) आपको जो कुछ कहना हो वह पीठ को संबोधित कर कहें। ६. न्यायाधीश अथवा न्यायाधीशों का वर्ग। (बेंच) ७. बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन, ढंग या मुद्रा। ८. राजसिंहासन। ९. वेदी। १॰. प्रदेश। प्रान्त। ११. उन अनेक तीर्थों या पवित्र स्थनों में से प्रत्येक जहाँ पुराणानुसार दक्ष-कन्या सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा था। विशेष—भिन्न-भिन्न पुराणों में ऐसे स्थानों की संख्या ५१,५३,७७ या १०८ कही गई है। इनमें से कुछ को उप-पीठ और कुछ को महापीठ कहा गया है। तांत्रिकों का विश्वास है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से सिद्धि बहुत शीघ्र प्राप्त होती है। प्रत्येक पीठ में एक-एक शक्ति और एक-एक भैरव का निवास माना जाता है। १२. कंस का एक मंत्री १३. एक असुर। १४. गणित में वृत्त के किसी अंग का पूरक। स्त्री० [सं० पृष्ठ] प्राणियों के शरीर का वह भाग जो उनके सामने वाले अंगों अर्थात् छाती, पेट आदि की विपरीत दिशा में या पीछे की ओर पड़ता है और जिसमें लंबाई के बल रीढ़ होती है। पृष्ठ। पुश्त। विशेष—यह भाग गरदन के नीचेवाले भाग से कमर तक (अर्थात् रीढ़ की अंतिम गुरिया तक) विस्तृत होता है मनुष्यों में यह भाग सदा पीछे की ओर रहता है, और कीड़े-मकोड़ों, चौपायों आदि में ऊपर या आकाश की ओर। पशुओं के इसी भाग पर सवारी की जाती और माल लादा जाता है, इसीलिए इसके कुछ पद और मुहा० इस तत्त्व के आधार पर भी बने हैं। यह भाग पीछे की ओर होता है। इसलिए इसके कुछ पदों और मुहा० में परवर्ती पिछले या बादवाले होने का तत्त्व या भाव भी निहित है। इसके सिवा इसमें सहायक साथी आदि के भाव भी इसलिए सम्मिलित हैं कि वे प्रायः पीछे की ओर ही रहते हैं। पद—पीठ का=दे० नीचे ‘पीठ’ पर का पीठ का कच्चा=(घोड़ा) जो देखने में हृष्ट-पुष्ट और सजीला हो, पर सवारी का काम ठीक तरह से न देता हो। पीठ का सच्चा=(घोड़ा) जो सवारी का ठीक और पूरा काम देता हो। पीठ पर=एक ही माता द्वारा जन्मे क्रम में किसी के तुरन्त बाद का। ठीक उपरांत का। जैसे—इस लड़की की पीठ पर का यही लड़का है। (किसी के) पीठ पीछे=किसी की अनुपस्थिति, अविद्यामानता या परोक्ष में। किसी के सामने न रहने की दशा में। किसी के पीछे। जैसे—किसी के पीठ-पीछे उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। मुहा०—(किसी की) पीठ खाली होना=पोषक या सहायक से रहित अथवा हीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। जैसे—उसकी पीठ खाली है; इसी लिए उस पर इतने अत्याचार होते हैं। (किसी की) पीठ ठोंकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर कर्ता की पीठ थप-थपाते हुए या यों ही उसका अभिनन्दन या प्रशंसा करना, (ख) किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए उत्साहित करना (ग) दे० नीचे ‘पीठ थपथपाना’। पीठ थपथपाना=पशुओं आदि के विशेष परिश्रम करने पर उन्हें उत्साहित करने तथा धैर्य दिलाने के लिए अथवा क्रुद्ध होने अथवा बिगडने पर शांत करने के लिए उनकी पीठ पर हथेली से धीरे-धीरे थपकी देना। (किसी को) पीठ दिखाकर जाना=ममता, स्नेह आदि का विचार छोड़कर कहीं दूर चले जाना। जैसे—प्रेमी का प्रेमिका को पीठ दिखाकर जाना, या मित्र का अपने बंधुओं और स्नेहियों को पीठ दिखाकर जाना। पीठ दिखाना=प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि के समय सामने न ठहर सकने के कारण पीछे हटना या भाग जाना। दबने के कारण मैदान छोड़कर सामने से हट जाना। जैसे—दो ही दिन में लड़ाई में शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। पीठ देना=(क) चारपाई या बिस्तर पर पीठ रखना। लेट कर आराम करना। जैसे—लडके की बीमारी के कारण इन दिनों पीठ देना मुश्किल हो गया है। (ख) दे० नीचे ‘पीठ फेरना’। (किसी की ओर) पीठ देना=किसी की ओर पीठ करके बैठना। पीठ पर खाना=भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। (कायरता का सूचक) जैसे—पीठ पर खाना मरदों का काम नहीं है। पीठ पर हाथ फेरना=दे० ऊपर ‘पीठ ठोंकना’। (किसी का किसी की) पीठ पर होना=जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के ठीक पीछे जन्म ग्रहण करना। (किसी का) पीठ पर होना=सहायक होना। सहायता के लिए तैयार होना। मदद या हिमायत पर होना। जैसे—आज मेरी पीठ पर कोई नहीं हैं, इसी लिए न तुम इतना रोब जमाते हो। पीठ फेरना=(क) कहीं से प्रस्थान करना। बिदा होना। (ख) ममता, स्नेह आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर होना। (ग) अरुचि, उदाहरण-सीनता आदि प्रकट करते हुए विमुख या विरक्त होना। अलग, किनारे या दूर होना। (घ) सामने से भाग या हट जाना। पीठ मींजना=दे० ऊपर पीठ ठोंकना। (चारपाई से) पीठ लग जाना=बीमारी के कारण उठने-बैठने में असमर्थ हो जाना। जैसे—अब तो चारपाई से पीठ लग गई हैं, वे उठ-बैठ भी नहीं सकते। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगना=कुश्ती में हारकर चित्त होना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (किसी पशु की) पीठ लगना=काठी, चारजामे, जीन आदि की रगड़ के कारण पीठ पर घाव होना। जैसे—जिस घोड़े की पीठ लगी हो, उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए। (चारपाई से) पीठ लगना=आराम करने के लिए लेटने की स्थिति में होना। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगाना=कुश्ती में गिरा, पछाड़ या पटक पर चित्त करना है। २. पहनने के कपड़ों का वह भाग जो पीठ की ओर रहता या पीठ पर पड़ता है। ३. आसन आदि में वह भाग जो पीठ के सहारे के लिए बना रहता है। जैसे—कुरसी की पीठ खराब हो गई है, उसे बदलवा दो। ४. किसी वस्तु की रचना में, उसके अगले, ऊपरी या सामने वाले भाग से भिन्न और पीछेवाला भाग। जैसे—(क) पत्र की पीठ पर पता भी लिख दो। (ख) पदक की पीठ पर उसके दाता का नाम भी खुदा हुआ था। ५. पुस्तक का वह भाग जिसमें अन्दर के पृष्ठों की सिलाई रहती हैं, और जो उसे अलमारी में खड़ी करके रखने पर सामने की ओर रहता है। पुट्ठा। जैसे—पुस्तक की पीठ पर सुनहले अक्षरों में उनका नाम छपा था।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठक  : पुं० [सं० पीठ+कन्] १. वह चीज जिस पर बैठा जाय। जैसे—कुरसी, चौकी, पीढ़ा आदि। २. एक तरह की पालकी।
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पीठ-केलि  : पुं० [ब० स०] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. वह जो दूसरों का पोषण करता हो।
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पीठ-गर्भ  : पुं० [ष० त०] वह गड्ढा जिसमें मूर्ति के पैर या निचला अंश जमाकर उसे खड़ा किया जाता है।
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पीठ-चक्र  : पुं० [ब० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रथ।
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पीठ-देवता  : पुं० [मध्य० स०] आदि शक्ति जो सारी सृष्टि का मूल आधार है।
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पीठ-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठाती देवी। २. दुर्गा। ३. लोक में, वह कुमारी जिसकी पूजा दुर्गा-पूजा के दिनों में की जाती है।
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पीठ-न्यास  : पुं० [स० त०] तंत्र में एक मुख्य न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओं में आवश्यक है।
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पीठ-भू  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीर के आसपास का भू-भाग। चहारदीवारी के आसपास की जमीन।
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पीठ-दर्द  : वि० [स० त०] बहुत अधिक ढीठ और निर्लज्ज। पुं० १. साहित्य में नायक के चार प्रकार के सखाओं में से वह जो रुष्ट नायिका को मनाने और उसका मान हरण करने में सहायक होता है। २. किसी साहित्यिक रचना के मुख्य पात्र का वह सखा जो गुणों में उससे कुछ घटकर होता है। जैसे—रामायण में राम का सखा सुग्रीव। ३. वेश्याओं को नाच-गाना सिखलानेवाला व्यक्ति। उस्ताद।
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पीठ-मर्दिका  : स्त्री० [ष० त०] नायिका की वह सखी जो नायक को रिझाने में नायिका की सहायता करती है।
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पीठ-विवर  : पुं० [ष० त०] पीठगर्भ। (दे०)
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पीठ-सर्प  : वि० [सं० पीठ√सृप् (गति)+अच्] लंगड़ा।
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पीठ-सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० पीठ√सृप्+णिनि] लंगड़ा।
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पीठ-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वे स्थान जो यक्ष की कन्या सती के अंग या आभूषण गिरने के कारण पवित्र माने जाते हैं। (दे० ‘पीठ’ १. ) २. प्रतिष्ठान (आधुनिक झूसी का एक पुराना नाम)।
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पीठा  : पुं० [सं० पिष्टक्, प्रा० पिट्ठक्] आटे की लोई में पीठी भरकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान। पुं०=पीढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीठासीन  : वि० [पीठ-आसीन; स० त०] जो पीठ अर्थात् अध्यक्ष के स्थान पर आसीन हो। (प्रेसाइडिंग)
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पीठासीन-अधिकारी  : पुं० [कर्म० स०] वह अधिकारी जो अध्यक्ष पद पर रहकर अपनी देख-रेख में कोई काम कराता हो। (प्रेसाइडिंग आफिसर)।
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पीठि  : स्त्री०=पीठ।
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पीठिका  : स्त्री० [सं० पीठ+कन्+टाप्. इत्व] १. छोटा पीढ़ा। पीढ़ी। २. वह आधार जिस पर कोई चीज विशेषतः देवमूर्ति रखी, लगाई या स्थापित की गई हो। ३. ग्रंथ के विशिष्ट विभागों में से कोई एक। जैसे—पूर्वपीठिका, उत्तर-पीठिका।
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पीठी  : स्त्री० [सं० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठा] १. भींगी हुई दाल को पीसने पर तैयार होनेवाला रूप। जैसे—उड़द या मूँग की पीठी। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना। विशेष—पीठी की टिकिया तलकर बड़े, सुखाकर बरियाँ और लोई भरकर कचौड़ियाँ आदि बनाई जाती है।
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पीठ  : पुं० [सं० पा√(पीना)+ठक्, पृषो० सिद्धि] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। जैसे—चौकी, पीढ़ा, सिंहासन आदि। २. विद्यार्थियों, व्रतधारियों आदि के बैठने के लिए बना हुआ कुश का आसन। ३. नीचे वाला वह आधार जिस पर मूर्ति रखी या स्थापित की जाती है। ४. वह स्थान जहाँ बैठकर किसी प्रकार का उपदेश, शिक्षा आदि दी जाती हो। जैसे—धर्म-पीठ, विद्या-पीठ, व्यासपीठ आदि। ५. किसी बड़े अधिकारी या सम्मानित व्यक्ति के बैठने का स्थान, आसन और पद। (चेयर) जैसे—(क) अमुक विद्यालय में हिन्दी की उच्च शिक्षा के लिए एक पीठ स्थापित हुआ है। (ख) आपको जो कुछ कहना हो वह पीठ को संबोधित कर कहें। ६. न्यायाधीश अथवा न्यायाधीशों का वर्ग। (बेंच) ७. बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन, ढंग या मुद्रा। ८. राजसिंहासन। ९. वेदी। १॰. प्रदेश। प्रान्त। ११. उन अनेक तीर्थों या पवित्र स्थनों में से प्रत्येक जहाँ पुराणानुसार दक्ष-कन्या सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा था। विशेष—भिन्न-भिन्न पुराणों में ऐसे स्थानों की संख्या ५१,५३,७७ या १०८ कही गई है। इनमें से कुछ को उप-पीठ और कुछ को महापीठ कहा गया है। तांत्रिकों का विश्वास है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से सिद्धि बहुत शीघ्र प्राप्त होती है। प्रत्येक पीठ में एक-एक शक्ति और एक-एक भैरव का निवास माना जाता है। १२. कंस का एक मंत्री १३. एक असुर। १४. गणित में वृत्त के किसी अंग का पूरक। स्त्री० [सं० पृष्ठ] प्राणियों के शरीर का वह भाग जो उनके सामने वाले अंगों अर्थात् छाती, पेट आदि की विपरीत दिशा में या पीछे की ओर पड़ता है और जिसमें लंबाई के बल रीढ़ होती है। पृष्ठ। पुश्त। विशेष—यह भाग गरदन के नीचेवाले भाग से कमर तक (अर्थात् रीढ़ की अंतिम गुरिया तक) विस्तृत होता है मनुष्यों में यह भाग सदा पीछे की ओर रहता है, और कीड़े-मकोड़ों, चौपायों आदि में ऊपर या आकाश की ओर। पशुओं के इसी भाग पर सवारी की जाती और माल लादा जाता है, इसीलिए इसके कुछ पद और मुहा० इस तत्त्व के आधार पर भी बने हैं। यह भाग पीछे की ओर होता है। इसलिए इसके कुछ पदों और मुहा० में परवर्ती पिछले या बादवाले होने का तत्त्व या भाव भी निहित है। इसके सिवा इसमें सहायक साथी आदि के भाव भी इसलिए सम्मिलित हैं कि वे प्रायः पीछे की ओर ही रहते हैं। पद—पीठ का=दे० नीचे ‘पीठ’ पर का पीठ का कच्चा=(घोड़ा) जो देखने में हृष्ट-पुष्ट और सजीला हो, पर सवारी का काम ठीक तरह से न देता हो। पीठ का सच्चा=(घोड़ा) जो सवारी का ठीक और पूरा काम देता हो। पीठ पर=एक ही माता द्वारा जन्मे क्रम में किसी के तुरन्त बाद का। ठीक उपरांत का। जैसे—इस लड़की की पीठ पर का यही लड़का है। (किसी के) पीठ पीछे=किसी की अनुपस्थिति, अविद्यामानता या परोक्ष में। किसी के सामने न रहने की दशा में। किसी के पीछे। जैसे—किसी के पीठ-पीछे उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। मुहा०—(किसी की) पीठ खाली होना=पोषक या सहायक से रहित अथवा हीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। जैसे—उसकी पीठ खाली है; इसी लिए उस पर इतने अत्याचार होते हैं। (किसी की) पीठ ठोंकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर कर्ता की पीठ थप-थपाते हुए या यों ही उसका अभिनन्दन या प्रशंसा करना, (ख) किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए उत्साहित करना (ग) दे० नीचे ‘पीठ थपथपाना’। पीठ थपथपाना=पशुओं आदि के विशेष परिश्रम करने पर उन्हें उत्साहित करने तथा धैर्य दिलाने के लिए अथवा क्रुद्ध होने अथवा बिगडने पर शांत करने के लिए उनकी पीठ पर हथेली से धीरे-धीरे थपकी देना। (किसी को) पीठ दिखाकर जाना=ममता, स्नेह आदि का विचार छोड़कर कहीं दूर चले जाना। जैसे—प्रेमी का प्रेमिका को पीठ दिखाकर जाना, या मित्र का अपने बंधुओं और स्नेहियों को पीठ दिखाकर जाना। पीठ दिखाना=प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि के समय सामने न ठहर सकने के कारण पीछे हटना या भाग जाना। दबने के कारण मैदान छोड़कर सामने से हट जाना। जैसे—दो ही दिन में लड़ाई में शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। पीठ देना=(क) चारपाई या बिस्तर पर पीठ रखना। लेट कर आराम करना। जैसे—लडके की बीमारी के कारण इन दिनों पीठ देना मुश्किल हो गया है। (ख) दे० नीचे ‘पीठ फेरना’। (किसी की ओर) पीठ देना=किसी की ओर पीठ करके बैठना। पीठ पर खाना=भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। (कायरता का सूचक) जैसे—पीठ पर खाना मरदों का काम नहीं है। पीठ पर हाथ फेरना=दे० ऊपर ‘पीठ ठोंकना’। (किसी का किसी की) पीठ पर होना=जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के ठीक पीछे जन्म ग्रहण करना। (किसी का) पीठ पर होना=सहायक होना। सहायता के लिए तैयार होना। मदद या हिमायत पर होना। जैसे—आज मेरी पीठ पर कोई नहीं हैं, इसी लिए न तुम इतना रोब जमाते हो। पीठ फेरना=(क) कहीं से प्रस्थान करना। बिदा होना। (ख) ममता, स्नेह आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर होना। (ग) अरुचि, उदाहरण-सीनता आदि प्रकट करते हुए विमुख या विरक्त होना। अलग, किनारे या दूर होना। (घ) सामने से भाग या हट जाना। पीठ मींजना=दे० ऊपर पीठ ठोंकना। (चारपाई से) पीठ लग जाना=बीमारी के कारण उठने-बैठने में असमर्थ हो जाना। जैसे—अब तो चारपाई से पीठ लग गई हैं, वे उठ-बैठ भी नहीं सकते। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगना=कुश्ती में हारकर चित्त होना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (किसी पशु की) पीठ लगना=काठी, चारजामे, जीन आदि की रगड़ के कारण पीठ पर घाव होना। जैसे—जिस घोड़े की पीठ लगी हो, उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए। (चारपाई से) पीठ लगना=आराम करने के लिए लेटने की स्थिति में होना। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगाना=कुश्ती में गिरा, पछाड़ या पटक पर चित्त करना है। २. पहनने के कपड़ों का वह भाग जो पीठ की ओर रहता या पीठ पर पड़ता है। ३. आसन आदि में वह भाग जो पीठ के सहारे के लिए बना रहता है। जैसे—कुरसी की पीठ खराब हो गई है, उसे बदलवा दो। ४. किसी वस्तु की रचना में, उसके अगले, ऊपरी या सामने वाले भाग से भिन्न और पीछेवाला भाग। जैसे—(क) पत्र की पीठ पर पता भी लिख दो। (ख) पदक की पीठ पर उसके दाता का नाम भी खुदा हुआ था। ५. पुस्तक का वह भाग जिसमें अन्दर के पृष्ठों की सिलाई रहती हैं, और जो उसे अलमारी में खड़ी करके रखने पर सामने की ओर रहता है। पुट्ठा। जैसे—पुस्तक की पीठ पर सुनहले अक्षरों में उनका नाम छपा था।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठक  : पुं० [सं० पीठ+कन्] १. वह चीज जिस पर बैठा जाय। जैसे—कुरसी, चौकी, पीढ़ा आदि। २. एक तरह की पालकी।
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पीठ-केलि  : पुं० [ब० स०] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. वह जो दूसरों का पोषण करता हो।
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पीठ-गर्भ  : पुं० [ष० त०] वह गड्ढा जिसमें मूर्ति के पैर या निचला अंश जमाकर उसे खड़ा किया जाता है।
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पीठ-चक्र  : पुं० [ब० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रथ।
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पीठ-देवता  : पुं० [मध्य० स०] आदि शक्ति जो सारी सृष्टि का मूल आधार है।
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पीठ-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठाती देवी। २. दुर्गा। ३. लोक में, वह कुमारी जिसकी पूजा दुर्गा-पूजा के दिनों में की जाती है।
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पीठ-न्यास  : पुं० [स० त०] तंत्र में एक मुख्य न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओं में आवश्यक है।
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पीठ-भू  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीर के आसपास का भू-भाग। चहारदीवारी के आसपास की जमीन।
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पीठ-दर्द  : वि० [स० त०] बहुत अधिक ढीठ और निर्लज्ज। पुं० १. साहित्य में नायक के चार प्रकार के सखाओं में से वह जो रुष्ट नायिका को मनाने और उसका मान हरण करने में सहायक होता है। २. किसी साहित्यिक रचना के मुख्य पात्र का वह सखा जो गुणों में उससे कुछ घटकर होता है। जैसे—रामायण में राम का सखा सुग्रीव। ३. वेश्याओं को नाच-गाना सिखलानेवाला व्यक्ति। उस्ताद।
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पीठ-मर्दिका  : स्त्री० [ष० त०] नायिका की वह सखी जो नायक को रिझाने में नायिका की सहायता करती है।
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पीठ-विवर  : पुं० [ष० त०] पीठगर्भ। (दे०)
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पीठ-सर्प  : वि० [सं० पीठ√सृप् (गति)+अच्] लंगड़ा।
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पीठ-सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० पीठ√सृप्+णिनि] लंगड़ा।
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पीठ-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वे स्थान जो यक्ष की कन्या सती के अंग या आभूषण गिरने के कारण पवित्र माने जाते हैं। (दे० ‘पीठ’ १. ) २. प्रतिष्ठान (आधुनिक झूसी का एक पुराना नाम)।
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पीठा  : पुं० [सं० पिष्टक्, प्रा० पिट्ठक्] आटे की लोई में पीठी भरकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान। पुं०=पीढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीठासीन  : वि० [पीठ-आसीन; स० त०] जो पीठ अर्थात् अध्यक्ष के स्थान पर आसीन हो। (प्रेसाइडिंग)
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पीठि  : स्त्री०=पीठ।
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पीठिका  : स्त्री० [सं० पीठ+कन्+टाप्. इत्व] १. छोटा पीढ़ा। पीढ़ी। २. वह आधार जिस पर कोई चीज विशेषतः देवमूर्ति रखी, लगाई या स्थापित की गई हो। ३. ग्रंथ के विशिष्ट विभागों में से कोई एक। जैसे—पूर्वपीठिका, उत्तर-पीठिका।
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पीठी  : स्त्री० [सं० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठा] १. भींगी हुई दाल को पीसने पर तैयार होनेवाला रूप। जैसे—उड़द या मूँग की पीठी। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना। विशेष—पीठी की टिकिया तलकर बड़े, सुखाकर बरियाँ और लोई भरकर कचौड़ियाँ आदि बनाई जाती है।
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