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पींग  : स्त्री० [हिं० पेंग] १. पेड़ की डाल में रस्सा लटकाकर बनाया जानेवाला झूला। (पश्चिम)। २. दे० ‘पेंग’।
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पीजन  : पुं० [सं० पिंजन] भेड़ों के बाल धुनने की धुनकी।
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पींजना  : स० [सं० पिंजन=धुनकी] रूई धुनना। पिंजना। पुं०=धुनिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींजर  : पुं० १. दे० ‘पिजड़ा’. २. दे० ‘पंजर’।
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पींजरा  : पुं०=पिंजरा।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड़] १. वृक्ष का धड़। तना। पेड़ी। २. कटहल के पुराने पेडों की जड़ और तने के बीच का वह अंश जो जमीन में रहता है तथा जिसमें फल लगते हैं जो खोदकर निकाले जाते हैं। ३. कोल्हू के चारों ओर गीली मिट्टी का बनाया हुआ घेरा जिससे ईख की अंगरियाँ या छोटे टुकड़े छटककर बाहर नहीं निकल सकते। ४. चरखे का मध्यभाग। बेलन। ५. दे० ‘पिंड’। ६. दे० ‘पिंड खजूर’।
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पींड़ी  : स्त्री० १.=पिंड़ी। २.=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींडुरी  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पी  : पुं० दे० ‘पिय’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अनु०] पपीहे के बोलने का शब्द।
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पीऊ  : पुं०=प्रिय (प्रियतम) वि०=परमप्रिय।
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पीक  : स्त्री० [सं० पिच्च] १. चबाये हुए पान का वह रस जो थूका जाता है। पान की थूक। २. वह रंग जो कपड़े को पहली बार रंग में डुबाने से चढ़ता है। (रंगरेज)। वि० [?] ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। (लश०)
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पीकदान  : पुं० [हिं० पीक+फा० दान=पात्र] वह पात्र जिसमें पीक थूकी जाती है। उगालदान।
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पीकना  : अ० [पी-पी से अनु०] पीपी शब्द करना। जैसे—पपीहे का पीकना।
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पीका  : पुं० [?] वृक्ष का नया कोमल पत्ता। कल्ला। कोंपल। क्रि० प्र०—पनपना।—फूटना।
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पीच  : स्त्री० [सं० पिच्च] वह लसीला पदार्थ जो चावल उबालने पर बच रहता है। माँड़। पुं० [अं० पिच] अलकतरा। स्त्री०=पीक (पान की)।
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पीचना  : अ० [सं० पिच्च] पैरों से कुचलना या रौंदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीचू  : पुं० [देश०] १. चीलू या जरदालु का पेड़। २. करील का पका हुआ फूल। कचरा टेंटी।
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पीछ  : स्त्री० [हिं० पीछे या पिछला] पक्षी की दुम। पूँछ। स्त्री०=पीच (माँड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीछा  : पुं० [सं० पश्चात्, फा० पच्छा] १. किसी व्यक्ति के शरीर का वह भाग जो उसकी छाती, पेट, मुँह आदि की विपरीत दिशा में पड़ता है। पीठ की ओर का भाग। पृष्ठ भाग। ‘आगा’ का विपर्याय। २. किसी चीज के पीछे की ओर का विस्तार। मुहा०—(किसी का) पीछा करना=(क) किसी को पकड़ने भागने, मारने-पीटने आदि के लिए अथवा उसका पता लगाने या भेद लेने के लिए उसके पीछे-पीछे तेजी से चलना या दौड़ना। जैसे—अपराधी, चोर या शिकार का पीछा करना। (ख) किसी का भेद या रहस्य जानने के लिए छिपकर उसके पीछे-पीछे चलना। जैसे—वह जहाँ जाता था, वहीं पुलिस उसका पीछा करती थी। (ग) दे० नीचे ‘पीछा पकड़ना’। (किसी काम या बात से) पीछा छुड़ाना=अपने साथ होनेवाली किसी अनिष्ट या अप्रिय बात से अपना सम्बन्ध छुड़ाना। पिंड छुड़ाना। जैसे—अफीम या शराब की लत से पीछा छुड़ाना। (किसी व्यक्ति से) पीछा छुड़ाना=जो व्यक्ति किसी काम या बात के लिए पीछे पड़कर बहुत तंग कर रहा हो, उससे किसी प्रकार छुटकारा पाना। पीछा छूटना=(क) पीछा करनेवाले या पीछे पड़े हुए व्यक्ति से छुटकारा मिलना। पिंड छूटना। जान छूटना। (ख) अनिष्ट अथवा अप्रिय काम या बात से छुटकरा मिलना। (ग) किसी प्रकार का या किसी रूप में छुटकारा मिलना। बचाव या रक्षा होना। जैसे—महीनों बाद बुखार से पीछे छूटा है। (किसी व्यक्ति का) पीछा छूटना=किसी का पीछा करने का काम बंद करना। किसी आशा या प्रयोजन से किसी के साथ लगे फिरने या उसके पीछे-पीछे दौड़ने या उसे तंग करने का काम बंद करना। (किसी काम या बात का) पीछा छोड़ना=जिस काम या बात में बहुत अधिक उत्साह या तनमयता से लगे रहे हों, उससे विरत होना अथवा उसका आसंग या ध्यान छोड़ना। पीछा दिखाना=(क) सम्मुख या साथ न रहकर अलग या दूर हो जाना। पीठ दिखाना। जैसे—संकट के समय संगी-साथियों ने भी पीछा दिखाया। (ख) प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि में डर या हारकर भाग जाना। पीठ दिखाना। पीछा देना=दे० ऊपर ‘पीछा दिखाना’। (किसी का) पीछा पकडना=किसी आशा से या अपने कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी का अनुचर या साथी बनना। किसी के आश्रय या सहायता का आकांक्षी बनकर प्रायः उसके साथ लगे रहना। जैसे—किसी रईस का पीछा पकड़ना। (किसी काम या बात का) पीछा भारी होना=(क) पीछे की ओर से शत्रु या संकट की आशंका या भय होना। (ख) अधिक उपयोगी या सहायक अंश का पीछे की ओर आधिक्य होना। (ग) किसी काम के अंतिम या शेष अंश का अधिक कठिन या अधिक कष्टसाध्य होना। पिछला अंश ऐसा होना कि सँभलना कठिन हो। ३. पीछे-पीछे चलकर किसी के साथ लगे रहने की क्रिया या भाव। जैसे—बडे का पीछा है, कुछ न कुछ दे ही जायगा। उदा०—प्रभु मैं पीछौ लियो तुम्हारौ।—सूर। ४. पहनने के वस्त्रों आदि का वह भाग जो पीछे अथवा पीठ की ओर रहता है। जैसे—इस कोट का पीछा ठीक नहीं सिला है।
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पीछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीछे  : अव्य० [हिं० पीछा] १. जिस ओर या जिस दिशा में किसी का पीछा या पीठ हो, उस ओर या उस दिशा में। किसी के मुख या सामनेवाली दिशा की विपरीत दिशा में। ‘आगे’ और ‘सामने’ का विपर्याय। जैसे—(क) हम लोग सभापति के पीछे बैठे थे। (ख) मकान के पीछे बहुत बड़ा मैदान था। विशेष—इस अर्थ में उक्त ओर या दिशा में होनेवाले विस्तार का भाव भी निहित है; और इसके अधिकतर मुहा० इसी आधार पर बने हैं। मुहा०—(किसी के) पीछे चलना=किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। अनुकरण करना। जैसे—आजकल तो जो नेता बन सके, उसी के पीछे हजारों आदमी चलने लगते हैं। (किसी चीज या व्यक्ति का) पीछे छूटना=किसी की तुलना में या किसी के विचार से पीछे की ओर रह जाना। जैसे— (क) यात्रियों में से कुछ लोग पीछे छूट गये थे। (ख) हम लोग बातें करते हुए आगे बढ़ गए, और उनका मकान पीछे छूट गया। (किसी काम या बात में किसी के) पीछे छूटना या रह जाना=उन्नति, गति, दौड़ प्रतियोगिता आदि में किसी से घटकर या कम योग्यता का सिद्ध होना। किसी की तुलना में पिछड़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—आणविक आविष्कारों के क्षेत्र में बहुत से देश अमेरिका और रूस से पीछे छूट गये हैं। इस मुहा० में ‘छूटना’ के साथ संयो० क्रि० ‘जाना’ का प्रयोग प्रायः अनिवार्य रूप से होता है। (किसी का किसी व्यक्ति के) पीछे छूटना या लगना=किसी भागे हुए आदमी को पकड़ने के लिए या किसी का भेद, रहस्य आदि जानने के लिए किसी का नियुक्त किया जाना या होना। जैसे—डाकुओं का पता लगाने के लिए बीसियों जासूस (या सिपाही उनके पीछे छूटे या लगे) थे। (किसी काम या बात में किसी को) पीछे छोडना= किसी विषय में औरों से बढ़कर इस प्रकार आगे हो जाना कि और लोग उसकी तुलना में न आ सकें या बराबरी न कर सकें। कौशल, योग्यता, सामर्थ्य आदि में औरों से आगे बढ़ जाना। जैसे—अपने काम में वह बहुतों को पीछे छोड़ गया है। (किसी को किसी के) पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना=(क) जासूस या भेदिया बनाकर किसी को किसी के साथ लगाना। भेदिया नियुक्त करना या साथ लगाना। (ख) भागे हुए व्यक्ति को पकड़कर लाने के लिए कुछ लोगों को नियुक्त करना। (किसी को किसी के) पीछे डालना=दे० ऊपर (किसी के) ‘पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना’। (धन) पीछे डालना=भविष्यत् की आवश्यकता के लिए खर्च से बचाकर कुछ धन एकत्र करके रखना। आगे के लिए संचय करना। जैसे—हर महीने दस-पाँच रुपए बचाकर पीछे भी डालते चलना चाहिए। (किसी काम या व्यक्ति के) पीछे दौड़ना या दौड़ पड़ना=बिना सोचे समझे किसी काम या बात में लग जाना या किसी का अनुगामी अथवा अनुयायी बनना। (किसी को किसी के) पीछे दौड़ाना=गये या जाते हुए आदमी को बुला या लौटा लाने या उसे कोई संदेशा पहुँचाने के लिए किसी को उसके पीछे भेजना। (किसी काम या बात के) पीछे पड़ना या पड़ जाना=किसी काम को कर डालने पर तुल जाना। किसी कार्य के लिए बहुत परिश्रमपूर्वक निरंतर उद्योग करते रहना। (कुछ कुत्सित या हीन भाव का सूचक) जैसे—तुम्हारी यह बहुत बुरी आदत है कि तुम हर काम या बात के पीछे पड़ जाते हों। (किसी व्यक्ति के) पीछे पड़ना=(क) कोई काम करने के लिए किसी से बहुत आग्रहपूर्वक और बार बार कहना। (ख) किसी को बहुत अधिक तंग, दुःखी या परेशान करने के लिए कटिबद्ध होना। (किसी के) पीछे लगना=(क) किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। किसी का अनुकरण करना। (ख) दे० ऊपर (किसी काम, बात या व्यक्ति के) पीछे पड़ना। (किसी व्यक्ति को अपने) पीछे लगाना=किसी को अपना अनुगामी या अनुयायी बनाना। (कोई काम या बात अपने) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार घनिष्ठ रूप में अपने साथ सम्बद्ध करना कि सहसा उससे बचाव, रक्षा या विरक्ति न हो सके। जान-बूझकर ऐसे का या बात से सम्बद्ध होना जिससे तंग, दुःखी या परेशान होना पड़े। जैसे—तुमने यह व्यर्थ का झगडा अपने पीछे लगा लिया है। (किसी व्यक्ति को किसी के) पीछे लगाना=किसी का भेद या रहस्य जानने अथवा किसी को तंग करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को उत्साहित या नियत करना। जैसे—वे तो चुपचाप घर बैठे हैं, पर अपने आदमियों को उन्होने हमारे पीछे लगा दिया है। (कोई काम या बात किसी के) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार किसी के साथ सम्बद्ध करना कि वह उससे तंग, दुःखी या परेशान हो, अथवा सहज में अपना बचाव या रक्षा न कर सके। जैसे—बीड़ी पीने की लत तुम्हीं ने उसके पीछे लगा दी है। २. अनुपस्थिति या अविद्यमान होने की अवस्था में। किसी के सामने न रहने की दशा में। जैसे—किसी के पीछे उसकी बुराई करना बहुत अनुचित है। पद—पीठ पीछे=दे० ‘पीठ’ के अन्तर्गत यह पद। ३. किसी के इस लोक में न रह जाने की दशा में। मर जाने पर। मरणोपरांत। जैसे—आदमी के पीछे उसका नाम ही रह जाता है। ४. कोई काम, घटना, या बात हो चुकने पर, उसके बाद। उपरांत। फिर। जैसे—पहले तो उन्होंने बहुत धन गँवाया था, पर पीछे वे संभल गये थे। विशेष—इस अर्थ में कभी-कभी यह ‘पीछे को’ या ‘पीछे से’ के रूप में भी प्रयुक्त होता है। जैसे—पीछे को (या पीछे से) हमें दोष मत देना। ५. कालक्रम, देश आदि के विचार से किसी के पश्चात या उपरांत। घटना या स्थिति के विचार से किसी के अनंतर, कुछ दूर या कुछ देर बाद। उपरांत। पश्चात्। जैसे—सब लोग एक पंक्ति में एक दूसरे के पीछे चल रहे थे। ६. किसी के अर्थ से, कारण या खातिर। निमित्त। लिए। वास्ते। जैसे—तुम्हारे पीछे ही मैं ये सब कष्ट सह रहा हूँ। ७. प्रति इकाई के विचार से या हिसाब से। जैसे—अब आदमी पीछे पाव भर आटा पड़ता या मिलता है।
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पीटन  : पुं०=पिटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीटना  : स० [सं० पीडन] १. किसी जीव पर उसे चोट पहुँचाने अथवा सजा देने के उद्देश्य से किसी चीज से जोर से आघात करना। जैसे—लड़के को छड़ी से पीटना। २. किसी पदार्थ पर इस प्रकार किसी भारी चीज से निरंतर आघात करना कि उसमें कुछ विशिष्ट विकार आ जाय। जैसे—(क) दुरमुस से कंकड पीटना। (ख) पिटने से कपड़ा पीटना। (ग) हथौड़ी से पत्थर पीटना। ३. घोर, दुःख, व्यथा या शोक प्रदर्शित करने के लिए दोनों हाथों की हथेलियों से अपने किसी अंग पर जोरों से आघात करना। जैसे—छाती, मुँह या सिर पीटना। ४. चौसर, शतरंज आदि के खेलों में, विपक्षी की गोट या मोहरा मारना। जैसे—हाथी, घोड़ा या प्यादा पीटना। ५. जैसे-तैसे किसी से कुछ प्राप्त या वसूल करना। ६. जैसे-तैसे कोई काम पूरा करना। पुं० १. मृत्यु-शोक। मातम। विलाप। जैसे—यहाँ यह कैसा पीटना पड़ा हुआ है ! २. आपद। मुसीबत।
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पीठ  : पुं० [सं० पा√(पीना)+ठक्, पृषो० सिद्धि] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। जैसे—चौकी, पीढ़ा, सिंहासन आदि। २. विद्यार्थियों, व्रतधारियों आदि के बैठने के लिए बना हुआ कुश का आसन। ३. नीचे वाला वह आधार जिस पर मूर्ति रखी या स्थापित की जाती है। ४. वह स्थान जहाँ बैठकर किसी प्रकार का उपदेश, शिक्षा आदि दी जाती हो। जैसे—धर्म-पीठ, विद्या-पीठ, व्यासपीठ आदि। ५. किसी बड़े अधिकारी या सम्मानित व्यक्ति के बैठने का स्थान, आसन और पद। (चेयर) जैसे—(क) अमुक विद्यालय में हिन्दी की उच्च शिक्षा के लिए एक पीठ स्थापित हुआ है। (ख) आपको जो कुछ कहना हो वह पीठ को संबोधित कर कहें। ६. न्यायाधीश अथवा न्यायाधीशों का वर्ग। (बेंच) ७. बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन, ढंग या मुद्रा। ८. राजसिंहासन। ९. वेदी। १॰. प्रदेश। प्रान्त। ११. उन अनेक तीर्थों या पवित्र स्थनों में से प्रत्येक जहाँ पुराणानुसार दक्ष-कन्या सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा था। विशेष—भिन्न-भिन्न पुराणों में ऐसे स्थानों की संख्या ५१,५३,७७ या १०८ कही गई है। इनमें से कुछ को उप-पीठ और कुछ को महापीठ कहा गया है। तांत्रिकों का विश्वास है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से सिद्धि बहुत शीघ्र प्राप्त होती है। प्रत्येक पीठ में एक-एक शक्ति और एक-एक भैरव का निवास माना जाता है। १२. कंस का एक मंत्री १३. एक असुर। १४. गणित में वृत्त के किसी अंग का पूरक। स्त्री० [सं० पृष्ठ] प्राणियों के शरीर का वह भाग जो उनके सामने वाले अंगों अर्थात् छाती, पेट आदि की विपरीत दिशा में या पीछे की ओर पड़ता है और जिसमें लंबाई के बल रीढ़ होती है। पृष्ठ। पुश्त। विशेष—यह भाग गरदन के नीचेवाले भाग से कमर तक (अर्थात् रीढ़ की अंतिम गुरिया तक) विस्तृत होता है मनुष्यों में यह भाग सदा पीछे की ओर रहता है, और कीड़े-मकोड़ों, चौपायों आदि में ऊपर या आकाश की ओर। पशुओं के इसी भाग पर सवारी की जाती और माल लादा जाता है, इसीलिए इसके कुछ पद और मुहा० इस तत्त्व के आधार पर भी बने हैं। यह भाग पीछे की ओर होता है। इसलिए इसके कुछ पदों और मुहा० में परवर्ती पिछले या बादवाले होने का तत्त्व या भाव भी निहित है। इसके सिवा इसमें सहायक साथी आदि के भाव भी इसलिए सम्मिलित हैं कि वे प्रायः पीछे की ओर ही रहते हैं। पद—पीठ का=दे० नीचे ‘पीठ’ पर का पीठ का कच्चा=(घोड़ा) जो देखने में हृष्ट-पुष्ट और सजीला हो, पर सवारी का काम ठीक तरह से न देता हो। पीठ का सच्चा=(घोड़ा) जो सवारी का ठीक और पूरा काम देता हो। पीठ पर=एक ही माता द्वारा जन्मे क्रम में किसी के तुरन्त बाद का। ठीक उपरांत का। जैसे—इस लड़की की पीठ पर का यही लड़का है। (किसी के) पीठ पीछे=किसी की अनुपस्थिति, अविद्यामानता या परोक्ष में। किसी के सामने न रहने की दशा में। किसी के पीछे। जैसे—किसी के पीठ-पीछे उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। मुहा०—(किसी की) पीठ खाली होना=पोषक या सहायक से रहित अथवा हीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। जैसे—उसकी पीठ खाली है; इसी लिए उस पर इतने अत्याचार होते हैं। (किसी की) पीठ ठोंकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर कर्ता की पीठ थप-थपाते हुए या यों ही उसका अभिनन्दन या प्रशंसा करना, (ख) किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए उत्साहित करना (ग) दे० नीचे ‘पीठ थपथपाना’। पीठ थपथपाना=पशुओं आदि के विशेष परिश्रम करने पर उन्हें उत्साहित करने तथा धैर्य दिलाने के लिए अथवा क्रुद्ध होने अथवा बिगडने पर शांत करने के लिए उनकी पीठ पर हथेली से धीरे-धीरे थपकी देना। (किसी को) पीठ दिखाकर जाना=ममता, स्नेह आदि का विचार छोड़कर कहीं दूर चले जाना। जैसे—प्रेमी का प्रेमिका को पीठ दिखाकर जाना, या मित्र का अपने बंधुओं और स्नेहियों को पीठ दिखाकर जाना। पीठ दिखाना=प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि के समय सामने न ठहर सकने के कारण पीछे हटना या भाग जाना। दबने के कारण मैदान छोड़कर सामने से हट जाना। जैसे—दो ही दिन में लड़ाई में शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। पीठ देना=(क) चारपाई या बिस्तर पर पीठ रखना। लेट कर आराम करना। जैसे—लडके की बीमारी के कारण इन दिनों पीठ देना मुश्किल हो गया है। (ख) दे० नीचे ‘पीठ फेरना’। (किसी की ओर) पीठ देना=किसी की ओर पीठ करके बैठना। पीठ पर खाना=भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। (कायरता का सूचक) जैसे—पीठ पर खाना मरदों का काम नहीं है। पीठ पर हाथ फेरना=दे० ऊपर ‘पीठ ठोंकना’। (किसी का किसी की) पीठ पर होना=जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के ठीक पीछे जन्म ग्रहण करना। (किसी का) पीठ पर होना=सहायक होना। सहायता के लिए तैयार होना। मदद या हिमायत पर होना। जैसे—आज मेरी पीठ पर कोई नहीं हैं, इसी लिए न तुम इतना रोब जमाते हो। पीठ फेरना=(क) कहीं से प्रस्थान करना। बिदा होना। (ख) ममता, स्नेह आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर होना। (ग) अरुचि, उदाहरण-सीनता आदि प्रकट करते हुए विमुख या विरक्त होना। अलग, किनारे या दूर होना। (घ) सामने से भाग या हट जाना। पीठ मींजना=दे० ऊपर पीठ ठोंकना। (चारपाई से) पीठ लग जाना=बीमारी के कारण उठने-बैठने में असमर्थ हो जाना। जैसे—अब तो चारपाई से पीठ लग गई हैं, वे उठ-बैठ भी नहीं सकते। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगना=कुश्ती में हारकर चित्त होना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (किसी पशु की) पीठ लगना=काठी, चारजामे, जीन आदि की रगड़ के कारण पीठ पर घाव होना। जैसे—जिस घोड़े की पीठ लगी हो, उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए। (चारपाई से) पीठ लगना=आराम करने के लिए लेटने की स्थिति में होना। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगाना=कुश्ती में गिरा, पछाड़ या पटक पर चित्त करना है। २. पहनने के कपड़ों का वह भाग जो पीठ की ओर रहता या पीठ पर पड़ता है। ३. आसन आदि में वह भाग जो पीठ के सहारे के लिए बना रहता है। जैसे—कुरसी की पीठ खराब हो गई है, उसे बदलवा दो। ४. किसी वस्तु की रचना में, उसके अगले, ऊपरी या सामने वाले भाग से भिन्न और पीछेवाला भाग। जैसे—(क) पत्र की पीठ पर पता भी लिख दो। (ख) पदक की पीठ पर उसके दाता का नाम भी खुदा हुआ था। ५. पुस्तक का वह भाग जिसमें अन्दर के पृष्ठों की सिलाई रहती हैं, और जो उसे अलमारी में खड़ी करके रखने पर सामने की ओर रहता है। पुट्ठा। जैसे—पुस्तक की पीठ पर सुनहले अक्षरों में उनका नाम छपा था।
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पीठक  : पुं० [सं० पीठ+कन्] १. वह चीज जिस पर बैठा जाय। जैसे—कुरसी, चौकी, पीढ़ा आदि। २. एक तरह की पालकी।
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पीठ-केलि  : पुं० [ब० स०] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. वह जो दूसरों का पोषण करता हो।
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पीठ-गर्भ  : पुं० [ष० त०] वह गड्ढा जिसमें मूर्ति के पैर या निचला अंश जमाकर उसे खड़ा किया जाता है।
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पीठ-चक्र  : पुं० [ब० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रथ।
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पीठ-देवता  : पुं० [मध्य० स०] आदि शक्ति जो सारी सृष्टि का मूल आधार है।
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पीठ-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठाती देवी। २. दुर्गा। ३. लोक में, वह कुमारी जिसकी पूजा दुर्गा-पूजा के दिनों में की जाती है।
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पीठ-न्यास  : पुं० [स० त०] तंत्र में एक मुख्य न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओं में आवश्यक है।
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पीठ-भू  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीर के आसपास का भू-भाग। चहारदीवारी के आसपास की जमीन।
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पीठ-दर्द  : वि० [स० त०] बहुत अधिक ढीठ और निर्लज्ज। पुं० १. साहित्य में नायक के चार प्रकार के सखाओं में से वह जो रुष्ट नायिका को मनाने और उसका मान हरण करने में सहायक होता है। २. किसी साहित्यिक रचना के मुख्य पात्र का वह सखा जो गुणों में उससे कुछ घटकर होता है। जैसे—रामायण में राम का सखा सुग्रीव। ३. वेश्याओं को नाच-गाना सिखलानेवाला व्यक्ति। उस्ताद।
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पीठ-मर्दिका  : स्त्री० [ष० त०] नायिका की वह सखी जो नायक को रिझाने में नायिका की सहायता करती है।
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पीठ-विवर  : पुं० [ष० त०] पीठगर्भ। (दे०)
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पीठ-सर्प  : वि० [सं० पीठ√सृप् (गति)+अच्] लंगड़ा।
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पीठ-सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० पीठ√सृप्+णिनि] लंगड़ा।
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पीठ-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वे स्थान जो यक्ष की कन्या सती के अंग या आभूषण गिरने के कारण पवित्र माने जाते हैं। (दे० ‘पीठ’ १. ) २. प्रतिष्ठान (आधुनिक झूसी का एक पुराना नाम)।
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पीठा  : पुं० [सं० पिष्टक्, प्रा० पिट्ठक्] आटे की लोई में पीठी भरकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान। पुं०=पीढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीठासीन  : वि० [पीठ-आसीन; स० त०] जो पीठ अर्थात् अध्यक्ष के स्थान पर आसीन हो। (प्रेसाइडिंग)
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पीठासीन-अधिकारी  : पुं० [कर्म० स०] वह अधिकारी जो अध्यक्ष पद पर रहकर अपनी देख-रेख में कोई काम कराता हो। (प्रेसाइडिंग आफिसर)।
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पीठि  : स्त्री०=पीठ।
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पीठिका  : स्त्री० [सं० पीठ+कन्+टाप्. इत्व] १. छोटा पीढ़ा। पीढ़ी। २. वह आधार जिस पर कोई चीज विशेषतः देवमूर्ति रखी, लगाई या स्थापित की गई हो। ३. ग्रंथ के विशिष्ट विभागों में से कोई एक। जैसे—पूर्वपीठिका, उत्तर-पीठिका।
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पीठी  : स्त्री० [सं० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठा] १. भींगी हुई दाल को पीसने पर तैयार होनेवाला रूप। जैसे—उड़द या मूँग की पीठी। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना। विशेष—पीठी की टिकिया तलकर बड़े, सुखाकर बरियाँ और लोई भरकर कचौड़ियाँ आदि बनाई जाती है।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड] मिट्टी का वह आधार जिसे घड़े को पीटकर बढ़ाते समय उसके अन्दर रख लेते हैं। पुं०=आपीड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीड़क  : वि० [सं०√पीड़+ण्वुल्—अक] पीड़क। (दे०)
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पीड़क  : वि० [सं० पीड़क से] १. जो दूसरों को शारीरिक कष्ट पहुँचाता हो। पीड़ा देनेवाला। २. अधिक व्यापक अर्थ में, बहुत बड़ा अत्याचारी या जुल्मी। ३. दबाने या पीसनेवाला। जैसे—पीड़क-चक्र=वह पहिया जो दबाता या पीसता हो।
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पीड़न  : पुं० [सं०√पीड+ल्युट्—अन] पीड़न। (दे०)
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पीड़न  : पुं० [सं० पीडन से] [कर्ता, पीड़क, वि० पीड़नीय, भू० कृ० पीड़ित] १. व्यक्तियों के सम्बन्ध में, किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना। तकलीफ देना। २. चीजों के संबंध में, जोर से कसना, दबाना या पीसना। ३. पेरना। ४. अच्छी तरह से या मजबूती से पकड़ना। ५. नष्ट करना। ६. ग्रहण। जैसे—ग्रह-पीड़न। ७. स्वरों के उच्चारण करने में होनेवाला एक तरह का दोष।
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पीडनीय  : वि० [सं०√पीड़+अनीयर] पीड़नीय। (दे०)
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पीड़नीय  : वि० [सं० पीडनीय से] १. जिसका पीड़न हो सके या किया जाने को हो। २. जिसे कष्ट पहुँचाया या पहुँचाया जाने को हो। पुं० याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार ऐसा राजा या राज्य जो अच्छे मंत्री और उपयुक्त सेना से रहित हो और इसी लिए सहज में दबाकर अपने अधिकार में किया जा सकता है।
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पीड़-पखा  : पुं० [सं० अपीड+पक्ष=पंख] [स्त्री० अल्पा० पीड़-सखी] १. सिर पर की चोटी या बालों की पट्टी। २. सिर पर पहना जानेवाला एक प्रकार का आभूषण। उदा०—कै मयूर की पीड़ पखी री।—सूर।
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पीड़ा  : स्त्री० [सं०√पीड्+अङ्+टाप्] पीड़ा। (दे०)
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पीड़ा  : स्त्री० [सं० पीडा से] १. प्राणियों को दुःखित या व्यथित करनेवाली वह अप्रिय अनुभूति जो किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक आघात लगने, कष्ट पहुँचने, या हानि होने पर उत्पन्न होती है उसे बहुत ही खिन्न, चिंतित तथा विकल रखती है। तकलीफ। वेदना। (पेन) जैसे—धन-नाश,पुत्र-शोक,प्रिय के वियोग या विरह के कारण होनेवाली पीड़ा। २. सामान्य अर्थ में, शरीर के किसी अंग पर चोट लगने या उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होने पर अथवा शारीरिक क्रियाओं को अव्यवस्थित होने पर उत्पन्न होनेवाली उक्त प्रकार की वह अनुभूति जिसका ज्ञान सारे शरीर को स्नायविक तंत्र के द्वारा होता है। दरद। (पेन) जैसे—अपच के कारण पेट में, ज्वर के कारण सिर में अथवा ऊँचाई से गिर पड़ने के कारण हाथ-पैर में पीड़ा होना। ३. कोई ऐसी खराबी या गड़बड़ी जिससे किसी प्रकार की व्यवस्था में बाधा होती हो और वह ठीक तरह से न चलने पाती हो। कष्टदायक अव्यवस्था। जैसे— (क) राक्षसों के उपद्रव से ऋषि मुनियों के आश्रम में पीड़ा होती थी। (ख) दरिद्रता की पीड़ा से सारा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया (ग) काम वासना की पीडा से वह विकल हो रहा था। ४. बीमारी। रोग। व्याधि। ५. प्रतिबंध। रुकावट। ६. विनाश। ७. क्षति। नुकसान। हानि। ८. करुणा। दया। ९. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। उपराग। १॰. सिर पर लपेटकर बाँधी जानेवाली माला। शिरोमणि। ११. धूप-सरल या सरल नामक वृक्ष।
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पीडाकर  : वि० [सं० पीड़ा√कृ (करना)+ट] पीड़ा या कष्ट देनेवाला।
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पीडा-गृह  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ किसी को कष्ट पहुँचाया जाता हो।
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पीडा़-स्थान  : पुं० [सं० स० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुण्डली में उपचय अर्थात् लग्न से तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान के अतिरिक्त शेष स्थान जो अशुभ ग्रहों के स्थान माने गये हैं।
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पीडिका  : स्त्री० [सं० पीड़ा+कन्—टाप्, इत्व] फुड़िया। फुंसी।
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पीडित  : वि० [सं०√पीड़+क्त] पीड़ित। (दे०)
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पीड़ित  : वि० [सं० पीड़ित] १. जो किसी प्रकार की पीड़ा से ग्रस्त हो। जैसे—रोग से पीड़ित। २. जो दूसरों के अत्याचार, जुल्म आदि से आक्रांत और फलतः कष्ट में हो। जैसे—पीड़ित जन समाज। ३. जिसे दबाया या पीसा गया हो। ४. जो नष्ट कर दिया गया हो। ५. जो किसी चीज के प्रभाव या फल से अपने को दुःखी समझता हो। सताया हुआ। जैसे—जग पीड़ित रे अति सुख से।—पंत।
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पीड़ी  : स्त्री० [सं० पीठ] १. देव-स्थान। देवपीठ। २. वेदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीडुरी  : स्त्री०=पिंडली।
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पीढ़ा  : पुं० [सं० पीठ अथवा पीढक] [स्त्री० अल्पा० पीढ़ी] १. प्रायः लकड़ी का बना हुआ चौकी के आकार का वह छोटा आसन जिसके पाये बहुत कम ऊँचे होतें हैं, और जिस पर हिन्दू लोग भोजन करते समय बैठते हैं। २. विस्तृत अर्थ में, बैठने का कोई आसन। मुहा०— (किसी को) ऊंचा पीढ़ा देना=विशेष आदर-सम्मान प्रकट करते हुए अच्छे या ऊँचे आसन पर बैठना। ३. सिंहासन।
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पीढ़ी  : स्त्री० [हिं० पीढ़ा का स्त्री० अल्पा०] बैठने के लिए एक विशेष प्रकार की छोटी चौकी। छोटा पीढ़ा। स्त्री० [सं० पीठिका] १. किसी कुल या वंश की परम्परा में, क्रम क्रम से आगे बढ़नेवाली संतान की प्रत्येक कड़ी या स्थिति। जैसे—(क) बाप, दादा और परदादा ये तीन पीढ़ियाँ, अथवा बाप-बेटे और पोते की तीन पीढ़ियाँ। (ख) हमारे पास अपने पूर्वजों के बीस पीढ़ियों के वंश-वृक्ष है। २. उक्त कड़ी या स्थिति के वे सब लोग जो रिश्ते या संबंध में आपस में प्रायः बराबरी के हों। वंश-क्रम में प्रत्येक श्रृंखला के क्षेत्र के सब लोग। जैसे—(क) उनकी दूसरी पीढ़ी में तो दस ही आदमियों का परिवार था; पर चौथी पीढ़ी में परिवार वालों की संख्या बढ़कर साठ तक पहुँची थी। (ख) हमारी सात पीढ़ियों में से किसी पीढी ने कभी ऐसा अनाचार न किया होगा। ३. किसी जाति देश या समाज के वे सब लोग जो किसी विशिष्ट काल में प्रायः कुछ आगे-पीछे जन्म लेकर साथ ही रहते हों। किसी विशिष्ट समय का वह सारा जन समुदाय जिनकी अवस्था या वय में अधिक छोटाई-बड़ाई न हो। जैसे—ये नई पीढ़ी के लोग ठहरे, इनमें पुरानी पीढ़ी के लोगों का सा आचार-विचार नहीं रह गया है। ४. किसी प्रकार की परम्परागत स्थिति। उदा०—सदा समर्थन करती उसका तर्क-शास्त्र की पीढ़ी।—प्रसाद।
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पीत  : वि० [सं०√प+क्त+अच्] [स्त्री० पीता] १. पीले रंग का। पीला। २. भूरा। (क्व०)। पुं० [√पा+क्त] १. पीला रंग। भूरा रंगा। ३. हरताल। ४. हरिचंदन। ५. कुसुम। बर्रे। ६. अंकोल का वृक्ष। ढेरा। ७. सिहोर का पेड़। ८. धूप सरल। ९. बेंत। १॰. पुखराज। ११. तुन। नंदिवृक्ष। १२. एक प्रकार की सोमलता। १३. पीली कटसरैया। १४. पद्मकाष्ठ। पदमाख १५. पीला खस। १६. मूँगा। भू० कृ० [सं० √पा (पीना)+क्त] जो पान किया गया हो। पीया हुआ।
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पीतकंद  : पुं० [ब० स०] गाजर।
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पीतक  : पुं० [सं० पीत+क] १. हरताल। २. केसर। ३. अगर। ४. पदमाख। ५. सोनामाखी। ६. तुन। ७. विजयसार। ८. सोनापाठा। ९. हल्दी। हरिद्रा। १॰. किंकिरात। ११. पीतल। १२. पीला चंदन। १३. एक प्रकार का बबूल। १४. शहद। १५. गाजर। १६. सफेद जीरा। १७. पीली लोध। १८. चिरायता। १९. अंडे के आकार का पीला अंश। अंडे की जरदी। वि० पीले रंग का । पीला।
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पीत-कदली  : स्त्री० [कर्म० स०] सोन केला।
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पीतक-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] हलदुआ। हरिद्रवृक्ष।
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पीत-करवीरक  : पुं० [कर्म० स०+क] पीले फूलोंवाला केना।
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पीतका  : स्त्री० [सं० पीतक+टाप्] १. कटसरैया। २. हलदी।
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पीत-कावेर  : पुं० [सं० कु-वेर=शरीर, प्रा० स०, पीत-कावेर, ब० स०] १. केसर। २. पीतल के योग से बनी हुई एक मिश्र धातु जिसके घंटे आदि बनाये जाते हैं।
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पीत-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] १. पीला चंदन। २. पीला अगरु।
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पीत-कीला  : स्त्री० [कर्म० स०] अवर्तकी लता। भागवत वल्ली।
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पीत-कुरवक  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुरुंट  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुष्ट  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कोढ़।
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पीत-कुष्मांड  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कुम्हड़ा।
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पीत-कुसुम  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-केदार  : पुं० [ब० स०] एक तरह का धान।
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पीत-गंध  : पुं० [द्व० स०] पीला चंदन। हरिचंदन।
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पीत-गन्धक  : पुं० [कर्म० स०] गंधक।
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पीत-घोषा  : स्त्री० [कर्म० स०] पीले फूलोंवाली एक तरह की लता।
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पीत-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का चंदन जो पहले द्रविड़ देशों से आता था। हरिचंदन।
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पीत-चंपक  : पुं० [कर्म० स०] १. पीली चंपा। २. दीपक। चिराग।
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पीत-चोप  : पुं० [सं०] पलास का फूल। टेसू।
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पीत-झिंटी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पीले फूलवाली कटसरैया २. एक तरह की कटाई।
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पीत-तंडुल  : पुं० [ब० स०] कँगनी नामक कदन्न।
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पीतता  : स्त्री० [सं० पीत+तल्+टाप्] पीलापन। जद्री।
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पीत-तुंड  : पुं० [ब० स०] बत्तख या हंस की जाति का एक तरह का पक्षी। कारंडव। बया।
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पीत-तैल  : स्त्री० [ब० स०] मालकँगनी।
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पीतत्व  : पुं० [सं० पीत+त्व] पीतता। पीलापन।
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पीतदंतता  : स्त्री० [सं० पीत-दंत, कर्म० स०+तल्+टाप्] दाँतों का एक पित्तज रोग जिसमें दाँत पीले हो जाते हैं।
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पीत-दारु  : पुं० [कर्म० स०] १. देवदारु। २. धूपसरल। ३. हलदुआ। ४. हलदी। ५. चिरायता। ६. कायकरंज।
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पीत-दीप्ता  : स्त्री० [द्व० स०, टाप्] बौद्धों की एक देवी।
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पीत-दुग्धा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. दूध देनेवाली गाय। २. वह गाय जिसका दूध महाजन को ऋण के बदले में दिया जाता हो। ३. कटेहरी। ४. ऊँटकटारा। भड़भाँड़। ५. सातला। थूहर।
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पीतद्रु  : पुं० [कर्म० स०] १. दारु-हलदी। २. धूप-सरल। ३. देव-दारू।
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पीत-धातु  : पुं० [कर्म० स०] १. रामरज। २. गोपीचंदन।
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पीतन, पीतनक  : पुं० [सं० पीत√नी+ड] [सं० पीतन+कन्] १. केसर। २. हरताल। ३. धूपसरल। ४. अमड़ा। ५. पाकर।
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पीत-निद्र  : वि० [ब० स०] गहरी नींद में सोया हुआ।
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पीतनी  : स्त्री० [सं० पीतन+ङीष्] सखिन। शालपर्णी।
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पीत-नील  : पुं० [कर्म० स०] नीले और पीले रंग के संयोग से बना हुआ रंग। हरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पीत-पराग  : पुं० [कर्म० स०] कमल का केसर।
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पीत-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] वृश्चिकाली (क्षुप)।
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पीत-पादप  : पुं० [कर्म० स०] १. श्योनाक वृक्ष। सोना पाढ़ा। २. लोध।
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पीत-पादा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मैना। सारिका।
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पीत-पुष्प, पीत-पुष्पक  : पुं० [ब० स०] १. कनेर। २. घीया तरोई। ३. पीली कटसरैया। ४. चंपा। ५. पेठा। ६. तगरू। ७. हिंगोट। ८. लाल कचनार।
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पीत-पुष्पका  : स्त्री० [ब० स०,+कप्+टाप्] जंगली ककंड़ी।
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पीत-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. झिझरीटा। २. सहदोई। ३. अरहर। ४. तरोई। तोरी ५. पीली कटसरैया। ६. पीला कनेर। ७. सोन-जूही।
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पीत-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] १. शंखाहुली। २. सहदोई बूटी। ३. बड़ी तरोई। ४. खीरा। ५. इन्द्रा-यण। ६. सोन-जूही।
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पीत-पृष्ठा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] वह कौड़ी जिसकी पीठ पीली हो।
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पीत-प्रसव  : पुं० [ब० स०] १. हिंगपुत्री। २. पीला कनेर।
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पीत-फल  : पुं० [ब० स०] १. सिहोर। २. कमरख। ३. धव का पेड़।
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पीत-फलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] १. सिहोर। २. रीठा। ३. कमरख। ४. धव वृक्ष।
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पीत-फेन  : पुं० [ब० स०] रीठा। अरिष्ठक वृक्ष।
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पीत-बालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-बीजा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मेंथी।
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पीत-भद्रक  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बबूल। देववर्व्वर।
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पीत-भृंगराज  : पुं० [कर्म० स०] पीला भंगरा।
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पीतम  : वि०=प्रियतम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-मणि  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पुष्पराज मणि।
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पीत-मस्तक  : पुं० [ब० स०] पीले मस्तकवाला एक तरह का पक्षी।
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पीत-माक्षिक  : पुं० [कर्म० स०] सोनामाखी।
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पीत-मारूत  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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पीतमुंड  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का हिरन।
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पीत-मुग्द  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का मूँग।
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पीत-मूलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] गाजर।
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पीत-मूली  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] रेवंद चीनी।
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पीत-यूथी  : स्त्री० [कर्म० स०] सोनजूही। स्वर्णयूथिका।
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पीतर  : पुं०=पीतल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-रक्त  : पुं० [कर्म० स०] १. पुखराज। २. पीलापन लिये लाल रंग। वि० पीलापन लिये लाल रंग का।
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पीत-रत्न  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पीतमणि।
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पीत-रस  : पुं० [ब० स०] कसेरू।
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पीत-राग  : पुं० [ब० स०] १. पद्मकेसर। २. मोम। ३. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीत-रोहिणी  : स्त्री० [सं० पीत√रुह् (उगना)+णिनि+ङीप्] १. जंबीरी नींबू। २. पीली कुटकी। कुंभेर।
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पीतल  : पुं० [सं० पित्तल] १. एक प्रसिद्ध मिश्र धातु जो ताँबे और जस्ते के मेल से बनती हैं और जिसके प्रायः बरतन बनते हैं। (ब्राँस) २. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीतलक  : पुं० [सं० पीतल√कै (भासित होना)+क] पीतल।
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पीत-लोह  : पुं० [कर्म० स०] पीतल (धातु)।
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पीत-वर्ण  : पुं० [ब० स०] १. पीला मेढक। स्वर्ण मंडूक। २. ताड़ का पेड़। ३. कदंब ४. हलदुआ। ५. लाल कचनार। ६. मैनसिल। ७. पीली चंदन। ८. केसर।
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पीत-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] आकाश बेल।
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पीतवान  : पुं० [?] हाथी की दोनों आँखों के बीच का स्थान।
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पीत-वालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-वास (स्)  : पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पीत-बिंदु  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु के चरण-चिह्नों में से एक।
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पीत-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] सोनापाठा।
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पीत-शाल  : पुं० [सं० पीत√शल् (जाना)+अण्] विजयसार नामक वृक्ष।
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पीतशालक  : पुं० [स० पीतशाल+कन्]=पीतशाल।
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पीत-शेष  : वि० [सं० सहसुपा स०] पीने के उपरांत बचा हुआ। (तरल पदार्थ)।
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पीत-शोणित  : वि० [ब० स०] १. जिसने किसी का रक्त पिया हो। २. खूनी। हत्यारा।
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पीतसरा  : पुं० [सं० पितृव्य, हिं० पितिया=ससुर] चचिया ससुर। ससुर का भाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-सार  : पुं० [ब० स०] १. पीत चंदन। हरिचंदन। २. सफेद चंदन। ३. गोमेद। ४. अंकोल। ५. विजयसार। ६. शिलारस।
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पीतसारक  : पुं० [सं० पीतसार+कन्] १. नीम का पेड़। २. ढेरे का पेड़।
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पीतसारिका  : स्त्री० [सं० पीत√सृ (गति)+णित्+इन्+कन्+टाप्] काला सुरमा।
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पीतसाल (क)  : पुं०=पीतसाल।
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पीत-स्कंध  : पुं० [ब० स०] १. सूअर। शूकर। २. एक वृक्ष।
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पीत-स्फटिक  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज।
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पीत-स्फोट  : पुं० [कर्म० स०] खुजली। १. खसरा नामक रोग।
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पीत-हरित  : वि० [कर्म० स०] पीलापन लिये हरा रंग का। पुं० पीलापन लिये हरा रंग।
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पीतांग  : वि० [पीत-अंग, ब० स०] पीले अंगोंवाला। पुं० १. एक तरह का मेढक जिसका रंग पीला होता है। २. सोनापाठा (वृक्ष)।
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पीताबंर  : पुं० [पीत-अंबर, ब० स०] १. पीले रंग का वस्त्र। पीला कपड़ा। २. एक प्रकार की रेशमी धोती जो हिन्दू लोग प्रायः पूजा-पाठ के समय पहनते हैं। ३. पीले वस्त्र धारण करनेवाला व्यक्ति। जैसे—कृष्ण, नट, संन्यासी विष्णु आदि। वि० जो पीले वस्त्र पहने हुए हो।
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पीता  : स्त्री० [सं० पीत+टाप्] १. हलदी। २. दारूहलदी। ३. बड़ी मालकँगनी। ४. भूरा शीशम। ५. प्रियंगु फल। ६. गोरोचन। ७. अतीस। ८. पीला केला। ९. जंगली बिजौरा नींबू। १॰. जर्दचमेली। ११. देवदारू। १२. राल। १३. असगंध। १४. शालिपर्णी। १५. आकाश बेल। वि० पीले रंगवाली।
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पीताब्धि  : पुं० [पीत-अब्धि, ब० स०] समुद्र पान करनेवाले अगस्त्य मुनि।
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पीताभ  : वि० [पीत-आभा, ब० स०] जिसमें से पीली आभा निकलती हो। जिसमें से पीला रंग झलक रहा हो। पुं० पीला चंदन।
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पीताभ्र  : पुं० [पीत-अभ्र, कर्म० स०] पीले रंग का एक तरह का अभ्रक।
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पीताम्लान  : पुं० [पीत-अम्लान, कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीतारुण  : पुं० [पीत-अरुण,कर्म० स०] पीलापन लिए हुए लाल रंग। वि० [कर्म० स०] उक्त प्रकार के रंग का। पीलापन लिये लाल।
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पीतावशेष  : वि० [सं० पीत-अवशेष, सहसुपा स०] पीत-शेष।
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पीताश्म (न्)  : पुं० [पीत-अश्मन, कर्म० स०] पुखराज। पुष्परागमणि।
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पीताह्व  : पुं० [पीता-आह्वा] राल।
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पीति  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्तिन्] १. पीने की क्रिया या भाव। २. गति। ३. सूँड़। वि० घोड़ा।
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पीतिका  : स्त्री० [सं० पीत+क+टाप्, इत्व] १. हलदी। २. दारु हल्दी। ३. सोनजूही।
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पीती (तिन्)  : पुं० [सं० पीत+इनि] घोड़ा। स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीतु  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा करना)+तुन्, कित्व] १. सूर्य २. अग्नि। ३. झुंड का प्रधान हाथी। यूथपति। ४. सेना में हाथियों के दल का नायक।
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पीतदारु  : पुं० [ब० स०] १. गूलर। २. देवदार।
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पीतोदक  : पुं० [पीत-उदक, ब० स०] नारियल (जिसके अन्दर जल या रस रहता है)।
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पीथ  : पुं० [सं०√पा (पीना)+थक्] १. पानी। २. पेय। पदार्थ। ३. घी। ४. अग्नि। ५. सूर्य। ६. काल। ७. समय।
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पीथि  : पुं० [सं० पीति, पृषो० सिद्धि] घोड़ा।
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पीदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।
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पीन  : वि० [सं०√प्याय (बढ़ाना)+क्त, संप्रसारण, नत्व, दीर्घ] [भाव० पीनता] १. आकार-प्रकार की दृष्टि से भारी-भरकम। दीर्घकाय। बहुत बड़ा और मोटा। २. पुष्ट। ३. भरा-पूरा। संपन्न। पुं० मोटाई। स्थूलता।
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पीनक  : स्त्री०=पिनक।
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पीनता  : स्त्री० [सं० पीन+तल्+टाप्] १. पीन होने की अवस्था या भाव। २. मोटाई। स्थूलता।
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पीनना  : सं०=पींजना।
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पीनस  : पुं० [सं० पीन√सो (नष्ट करना)+क] १. सर्दी या जुकाम। २. एक रोग जिसमें नाक से दुर्गन्धमय गाढ़ा पानी निकलता है। स्त्री० [फा० फीनस] १. पालकी नाम की सवारी। २. एक प्रकार की नाव।
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पीनसा  : स्त्री० [सं० पीनस+टाप्] ककड़ी।
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पीनसित, पीनसी (सिन्)  : वि० [सं० पीनस+इतच्] [पीनस+इनि] जिसे पीनस रोग हुआ हो। पीनस रोग से ग्रस्त।
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पीना  : स० [सं० पान] १. जीवों के मुँह के द्वारा या वनस्पतियों का जड़ों के द्वारा स्वाभाविक क्रिया से तरल पदार्थ विशेषतः जल आत्मसात् करना। २. किसी तरह पदार्थ में मुँह लगाकर उसे धीरे-धीरे चूसते हुए गले के रास्ते पेट में उतारना। जैसे—यहाँ रात भर मच्छर हमारा खून पीतें हैं। ३. गाँजे, तमाकू आदि का धूँआ नशे के लिए बार-बार मुँह में लेकर बाहर निकालना। धूम्रपान करना। जैसे—चिलम, बीड़ी, सिरगेट या हुक्का पीना। ४. एक पदार्थ का किसी दूसरे तरल पदार्थ को अपने अन्दर खींचना या सोखना। जैसे—इतना ही आटा (या चावल) पाव भर घी पी गया। ५. लाक्षणिक अर्थ में, धन आत्मसात् करना या ले लेना। जैसे—(क) यह मकान मरम्मत में ५०० रुपए पी गया। (ख) लड़का बुढ़िया का सारा धन पी गया। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ६. मन में कोई या तीव्र मनोविकार होने पर भी उसे अन्दर ही अन्दर दबा लेना और ऊपर या बाहर प्रकट न होने देना। चुपचाप सहकर रह जाना। जैसे—किसी के अपमान करने या गाली देने पर भी क्रोध या गुस्सा पीकर रह जाना। ७. कोई अप्रिय या निंदनीय घटना या बात हो जाने पर उसे चुपचाप दबा देना और उसके संबंध में कोई कारवाई न करना या लोगों में उसकी चर्चा न होने देना। जैसे—ऐसा जान पड़ता है कि सरकार इस मामले को पी गई। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—(कोई गुण या भाव) घोलकर पी जाना=इस बुरी तरह से आत्मसात् करना या दबा डालना कि मानों उसका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। जैसे—लज्जा (या शरम) तो तुम घोलकर पी गये हों। पुं० १. पीने की क्रिया या भाव। २. शराब पीने की क्रिया या भाव। जैसे—उनके यहाँ पीना-खाना सब चलता है। पुं० [सं० पीडन=पेरना] १. तिल, तीसी आदि की खली। २. किसी चीज के मुँह पर लगाई जानेवाली डाट (लश०)।
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पीनी  : स्त्री० [सं० पिंड या पीडन] तिल, तीसी या पोस्ते की खली।
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पीनोरु  : वि० [सं० पीन-ऊरु, ब० स०] जिसकी जाँघे भारी और मोटी हों।
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पीनोहनी  : स्त्री० [सं० पीन-ऊधस्, ब० स० ङीष्, अनङ+आदेश] बड़े और भारी थन वाली गाय।
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पीप  : स्त्री० [सं० पूय] पके हुए घाव या फोड़े के अन्दर से निकलनेवाला वह सफेद लसदार पदार्थ जो दूषित रक्त का रूपान्तर और विषाक्त होता है। पीब। मवाद। विशेष—रक्त में श्वेत कणों की अधिकता होने से ही इसका रंग सफेद हो जाता है। क्रि० प्र०—निकलना।—बहना।
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पीपर  : पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीपर-पर्न  : पुं० [हिं० पीपल+सं० पर्ण=पत्ता] १. पीपल का पत्ता। २. कान में पहनने का एक आभूषण।
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पीपरा-मूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] पीपल नामक लता की जड़।
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पीपरि  : पुं० [सं० अपि√पृ (बचाना)+इन्, अकार-लोप, दीर्घ] छोटा पाकर वृक्ष। पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० पिप्पली] एक लता जिसके फल और जड़े औषध के काम आती हैं। इस लता के पत्ते पान के पत्तों की तरह परन्तु कुछ छोटे, अधिक नुकीले तथा अधिक चिकने होते हैं।
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पीपल  : पुं० [सं० पिप्पल] बरगद की जाति का एक प्रसिद्ध वृक्ष जो भारत में प्रायः सभी स्थानों में अधिकता से पाया जाता है। पर इसमें जटाएँ नहीं फूटती। इसका गोदा (फल) पकने पर मीठा होता है। हिन्दू इसे बहुत पवित्र मानते और पूजते हैं। चलदल। चलपत्र। बोधिद्रुम। स्त्री० [सं० पिप्पली] एक प्रकार की लता जिसकी कलियाँ ओषधि के रूप में काम में आती है। कलियाँ तीन-चार अंगुल लंबी शहतूत (फल) के आकार की और स्वाद में तीखी होती है। पिप्पली। मागधी।
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पीपलामूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] एक प्रसिद्ध ओषधि जो पीपल नामक लता की जड़ है। यह चरपरा, तीखा, गरम, रूखा, दस्तावार, पाचक, रेचक तथा कफ वात, आदि को दूर करनेवाला माना जाता है।
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पीपा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० पीपी] १. लकडी, लोहे आदि का बना हुआ तेल आदि रखने का एक प्रकार का बड़ा आधान। २. राजस्थान के एक प्रसिद्ध राजा जो अपना राज्य छोड़कर साधु और रामानंद के शिष्य बन गये थे।
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पीब  : पुं०=पीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीय  : पुं०=पिय (प्रियतम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयर  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीया  : पुं०=प्रिय। (प्रियतम)
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पीयु  : पुं० [सं०√पा (पीना)+कु, नि, सिद्धि] १. काल। २. सूर्य। ३. थूक। ४. कौआ। ५. उल्लू। वि० १. हिंसक। २. प्रतिकूल।
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पीयूक्षा  : स्त्री० [सं० पीयु√उक्ष् (सींचना)+अ+टाप्] पाकर की एक जाति।
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पीयूख  : पुं०=पीयूष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयूष  : पुं० [सं०√पीय् (संतुष्ट करना)+ऊषन्] १. अमृत। सुधा। २. दूध। ३. गाय आदि के प्रसव के उपरांत, पहले सात दिनों का दूध जो अग्राह्य माना जाता है। पेऊस।
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पीयूष-ग्रंथि  : स्त्री० [मध्य० स०] शरीर के अन्दर मस्तिष्क के निचले भाग की एक ग्रंथि जो कफ उत्पन्न करती है। (पिटयूटरी ग्लैंड)।
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पीयूष-पाणि  : वि० [ब० स०] १. जिसके हाथ में अमृत हो। २. जिसके हाथ की दी हुई चीज में अमृत का सा गुण हों। जैसे—वे पीयूष-पाणि वैद्य थे।
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पीयूष-भानु  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-रुचि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-वर्ष  : पुं० [सं० पीयूष√वृष् (बरसना)+अण्] १. अमृत की वर्षा करनेवाला, चंद्रमा। २. संस्कृत के जयदेव नामक कवि। ३. कपूर। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १॰ और ९ के विश्राम से १९ मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होता है। इसे आनन्दवर्द्धक भी कहते हैं।
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पीर  : स्त्री० [सं० पीड़ा] १. कष्ट। तकलीफ। दुःख। २. दर्द। वेदना। ३. दूसरे का कष्ट या पीड़ा देखकर उसके प्रति मन में होनेवाली करुणा-पूर्ण भावना या सहानुभूति। दूसरे के दुःख से कातर होने की अवस्था या भाव। ४. प्रसव-काल के समय स्त्रियों को होनेवाली पीड़ा या दर्द। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहा०—(किसी की) पीर जानना या पाना=सहानुभूतिपूर्वक किसी का कष्ट या दुःख समझना। वि० [फा०] [भाव० पीरी] १. वृद्ध। बुड्ढा। २. बड़ा और पूज्य। बुजुर्ग। ३. चालाक। धूर्त। पुं० १. परलोक का मार्ग-दर्शक धर्म-गुरु। २. महात्मा और सिद्ध पुरुष। ३. मुसलमानों का धर्मगुरु। ४. सोमवार का दिन। चंद्रवार।
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पीरजादा  : पुं० [फा० पीरजादा] [स्त्री० पीरजादी] किसी पीर या धर्मगुरु का पुत्र।
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पीरतन  : पुं० [हिं० पियरा+तन (प्रत्यय)] पीलापन। उदा०—कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनुन रहाइ।—कबीर।
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पीरना  : स०=पेरना। उदा०—तेली ह्वै तन कोल्हू करिहौ पाप पुन्नि दोऊ पीरौं।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पीर-नाबालिग  : पुं० [फा० पीर+अ० नाबालिग] ऐसा वृद्ध जो बच्चों के से आचरण, काम या बातें करे। सठियाया हुआ बुड्ढा। बुद्धि भ्रष्ट बूढ़ा।
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पीर-भुचड़ी  : पुं० [फा०+अनु०] जनखों या हिजड़ों के संप्रदाय के एक कल्पित पीर।
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पीरमान  : पुं० [लश०] मस्तूल के ऊपर बँधे हुए वे डंडे जिनके दोनों सिरों पर लट्ट लगे रहते हैं और जिन पर पाल चढ़ाई जाती है। अडडंड़ा।
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पीर-मुरशिद  : पुं० [फा०] गुरु, महात्मा और पूज्यनीय व्यक्ति। प्रायः राजाओं, बादशाहों और बड़ों के लिए भी इसका प्रयोग होता है।
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पीरा  : स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० पीरी] पीला।
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पीराई  : पुं० [फा० पीर+आई (प्रत्य०)] १. डफालियों की तरह की एक जाति जिसकी जीविका पीरों के गीत गाने से चलती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। स्त्री०=पीरी (‘पीर’ का भाव०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीरानी  : स्त्री० [फा०] पीर अर्थात् मुसलमानी धर्मगुरु की पत्नी।
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पीरी  : स्त्री० [फा०] १. वृद्ध होने की अवस्था, या भाव। वृद्धावस्था। २. किसी इस्लामी धर्म-स्थान के पीर (महन्त) होने की अवस्था या भाव। ३. दूसरों को अपना अनुयायी या शिष्ट बनाने का धन्धा या पेशा। ४. बहुत बड़ी चालाकी या बहादुरी। जैसे—इतना सा-काम करके तुमने कौन-सी पीरी दिखला दी। ५. किसी प्रकार का विशेषाधिकार। इजारा। ठेका। (व्यंग्य) जैसे—यहाँ क्या तुम्हारे बाबा की पीरी है। ६. कोई अलौकिक या चमत्कापूर्ण कृत्य करने की शक्ति। वि० हिं० ‘पीरा’ (पीला) का स्त्री०।
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पीरु  : पुं० [फा० पील मुर्ग] एक प्रकार का मुरगा।
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पीरोजा  : पुं० दे०=फीरोजा।
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पील  : पुं० [सं० पीलु (हाथी) इसे फा०] १. हाथी। गज। हस्ति। २. शतरंज के खेल का हाथी नामक मोहरा। पुं०=पीलु (पिल्लू नामक कीड़ा)। पुं०=पीलु।
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पीलक  : पुं० [देश०] पीले रंग का एक प्रकार का पक्षी जिसके डैने काले और चोंच लाल होती है।
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पीलखा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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पील-पाँव  : पुं०=फील पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलपाया  : पुं० [फा० पीलपायः] १. आधार या आश्रय के लिए किसी चीज के नीचे लगाई जानेवाली टेक या थूनी। २. किलों आदि की दीवारों के नीचे या साथ सहारे के लिए बनी हुई बहुत मोटी दीवार।
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पीलपाल  : पुं०=फीलवान।
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पीलवान  : पुं०=फीलवान।
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पीलसोज  : पुं० [फा० फतीलसोज] दीयट। चिरागदान।
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पीला  : वि० [सं० पीत] [स्त्री० पीली, भाव० पीलापन] १. (पदार्थ) जो केसर, सोने या हलदी के रंग का हो। पीत। जर्द। २. (शरीर का वर्ण) जो रक्त की कमी के कारण हलका सफेद हो गया हो और जिसमें स्वास्थ्य की सूचक चमक या लाली न रह गई हो। जैसे—बीमारी के कारण उनका सारा शरीर पीला पड़ गया है। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. (शरीर का वर्ण) जो भय, लज्जा आदि के कारण उक्त प्रकार का हो गया हो। जैसे—मुझे देखते ही उसका चेहरा पीला पड गया। क्रि० प्र०—पड़ना। पुं० [?] एक प्रकार का रंग जो हलदी या सोने के रंग से मिलता-जुलता होता है। पुं० [सं० पीलु फा० पील] शतरंज का पील, फील या हाथी नामक मोहरा।
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पीला-कनेर  : पुं० [हिं० पीला+कनेर] एक तरह का कनेर जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं।
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पीला-धतूरा  : पुं० [हिं० पीला+धतूरा] ऊँटकटारा। घमोय। भँड़-भाँड़। सत्यानासी।
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पीलापन  : पुं० [हिं० पीला+पन (प्रत्य०)] १. पीले होने की अवस्था, गुण या भाव। पीतता। जर्दी। २. खून की कमी अथवा भय आदि के कारण होनेवाली शरीर की रंगत।
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पीला-बरेला  : पुं० [देश०] बनमेथी। बरियारा।
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पीला-बाला  : पुं०=लामज (तृण)।
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पीला-शेर  : पुं० [हिं० पीला+फा० शेर] अफ्रीका के जंगलों में रहनेवाले शेरों की एक जाति जिसका रंग पीला होता है।
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पीलित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें बल डाले गये हों, या पड़े हों। ऐंठा या मरोडा हुआ।
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पीलिमा  : स्त्री० [हिं० पीला] पीलापन। (‘कालिमा’ के अनुकरण पर; असिद्ध रूप)।
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पीलिया  : पुं० [हिं० पीला+इया (प्रत्य०)] कमल नामक रोग जिसमें मनुष्य की आँखें और शरीर पीला पड़ जाता है।
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पीली  : स्त्री० [हिं० पीला=पीत] तड़के या प्रभात के समय आकाश में दिखाई देनेवाली लाली जो कुछ पीलापन लिये होती है। मुहा०—पीली फटना=तड़का या प्रभात होना। पौ फटना।
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पीली-चमेली  : स्त्री० [हिं०] चमेली के पौधों की एक जाति।
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पीली-चिट्ठी  : स्त्री० [हिं० पीला+चिट्ठी] विवाह आदि शुभ कृत्यों का निमंत्रण-पत्र जो प्रायः पीले रंग के कागज पर छपा या लिखा रहता है अथवा जिस पर केसर आदि छिड़का रहता है।
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पीली-जुही  : स्त्री०=सोन-जुही।
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पीली-मिट्टी  : स्त्री० [हिं० पीला+मिट्टी] १. पीले रंग की मिट्टी। २. पटिया आदि पर पोतने की पीले रंग की जमी हुई कड़ी चिकनी मिट्टी।
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पीलु  : पुं० [सं०√पील (रोकना)+ड] १. दो-तीन हाथ ऊँचा एक तरह का क्षुप जिसमें पीले रंग के गुच्छाकार फूल तथा कालापन लिये हुए लाल रंग के छोटे-छोटे गोल फल लगते हैं। ३. उक्त क्षुप का फल। ४. पुष्प। फूल। ५. हाथी। ६. परमाणु। ७. तालु वृक्ष का तना। ८. हड्डी का टुकड़ा। ९. तीर। वाण। १॰. कृमि। कीड़ा। ११. चने का साग। १२. सरकंडे या सरपत का फूल। १३. लाल कटसरैया। १४. अखरोट का पेड़। १५. हाथ की हथेली।
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पीलुआ  : पुं० [देश०] मछली पकड़ने का बहुत बड़ा जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलुक  : पुं० [सं० पीलु√कै+क] च्यूँटा।
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पीलुनी  : स्त्री० [सं०√पील+उन+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. चने का साग।
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पीलु-पत्र  : पुं० [ब० स०] मोरट नाम की लता।
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पीलु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. कुँदुरू।
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पीलु-पाक  : पुं० [ष० त०] वैशेषिक का यह सिद्धान्त कि तेज के प्रभाव से पदार्थों के परमाणु पहले अलग-अलग होते और फिर मिलकर एक हो जाते हैं। जैसे—कच्ची मिट्टी के घड़े का जब अग्नि या ताप से संयोग होता है तब पहले परमाणु अलग-अलग होते हैं और फिर लाल होने पर मिलकर एक हो जाते हैं।
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पीलुपाक-वाद  : पुं० [ष० त०] वैशेषिकों का पीलुपाक-संबंधी। मत या सिद्धान्त।
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पीलुपाकवादी (दिन्)  : वि० [पीलुपाकवादी+इनि, (बोलना)+णिनि] पीलुपाकवादा संबंधी। पुं० १. पीलु-पाक का सिद्धान्त माननेवाला व्यक्ति। २. वैशेषिक दर्शन का अनुयायी या पंडित।
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पीलु-मूल  : पुं० [ष० त०] १. पीलु वृक्ष की जड़। २. सतावर। ३. शाल-पर्णी।
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पीलु-मला  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] जवान गाय।
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पीलू  : पुं० [सं० पीलु] १. एक प्रकार का का काँटेदार वृक्ष जो दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। इसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती है। २. पिल्लू नाम का कीड़ा। ३.संगीत में एक प्रकार का राग जिसके गाने का समय दिन के तीसे पहर कहा गया है।
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पीव  : वि० [सं० पीवन] १. मोटा। स्थूल। २. हृष्ट-पुष्ट। पुं०=पीप (मवाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=प्रिय (प्रियतम)। २. साधकों की परिभाषा में, परमेश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवट  : स्त्री० [?] युक्ति। उपाय। तरकीब। उदा०—न मालूम कौन सी पीवट लगाए होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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पीवन  : स०=पीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवर  : वि० [सं०√प्यौ (वृद्धि)+ष्वरच्, संप्रसारण, दीर्घ] [स्त्री० पीवरा] [भाव० पीवरता, पीवरत्व] पीन (दे० सभी अर्थों में)। पुं० १. कछुआ। २. जटा। ३. तापस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक।
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पीवरा  : स्त्री० [सं० पीवर+टाप्] १. असगंध। २. सतावर।
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पीवरी  : स्त्री० [सं० पीवर+ङीष्] १. सतावर। शालिपर्णी। वर्हिषद् नामक पिता की मानसी कन्याओं में से एक। ४. युवती स्त्री। ५. गाय। गौ।
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पीवा  : स्त्री० [सं०√पी (पीना)+व+टाप्] जल। पानी। वि०=पीवर।
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पीविष्ठ  : वि० [सं० पीवन्+इष्ठन्] अतिशय स्थूल। बहुत मोटा।
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पीसना  : स० [सं० पेषण] १. कोई पदार्थ दो कठोर या कड़े तलों के बीच में डाल या रखकर बार बार इस प्रकार रगड़ते हुए दबाना कि उसके बहुत छोटे-छोटे खंड या कण हो जायँ। घन पदार्थ को चूर्ण के रूप में लाना। जैसे—चक्की में आटा पीसना, सिल पर चटनी, भाँग या मसाला पीसना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. बहुत ही कठोरता, निर्दयता या हृदयहीनतापूर्वक किसी को बुरी तरह से कुचलना, दबाना या पीड़ित करना। जैसे—(क) मुझसे पाजीपन करोगे तो पीसकर रख दूँगा। (ख) सन् १९५७ के उपद्रवों के बाद अंगरेजों ने सारे देश को एक तरह से पीस डाला था। ३. खूब दबाते हुए रगड़ना। जैसे—दाँत पीसना। ४. इस प्रकार कष्ट भोगते हुए कठोर परिश्रम का काम करना कि मानों चक्की में डालकर पीसे जा रहे हों। ५. बहुत परिश्रम का काम करना। जैसे—दोनों भाइयों को दिन भर दफ्तर में पीसना पड़ता है। पुं० १. पीसने की क्रिया या भाव। २. वह या उतनी वस्तु जो किसी को पीसने को दी जाय। जैसे—गेहूँ पीसना। ३. एक व्यक्ति के जिम्मे या हिस्से के कठोर परिश्रम का काम।
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पीसी  : स्त्री० [सं० पितृष्वसा] पिता की बहन। बूआ। (बंगाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीसू  : वि० [हिं० पीसना] बहुत पीसनेवाला। पुं०=पिस्सू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीह  : स्त्री० [सं० पीव=मोटा ?] चरबी।
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पीहर  : पुं० [सं० पितृ+गृह, हिं० घर] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मैका।
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पीहा  : पुं० [अनु०] पपीहे का शब्द। उदा०—पीहा पीहा रटत पपीहा मधुबन मैं।—रत्नाकर।
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पीहू  : पुं०=पिस्सू (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींग  : स्त्री० [हिं० पेंग] १. पेड़ की डाल में रस्सा लटकाकर बनाया जानेवाला झूला। (पश्चिम)। २. दे० ‘पेंग’।
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पीजन  : पुं० [सं० पिंजन] भेड़ों के बाल धुनने की धुनकी।
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पींजना  : स० [सं० पिंजन=धुनकी] रूई धुनना। पिंजना। पुं०=धुनिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींजर  : पुं० १. दे० ‘पिजड़ा’. २. दे० ‘पंजर’।
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पींजरा  : पुं०=पिंजरा।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड़] १. वृक्ष का धड़। तना। पेड़ी। २. कटहल के पुराने पेडों की जड़ और तने के बीच का वह अंश जो जमीन में रहता है तथा जिसमें फल लगते हैं जो खोदकर निकाले जाते हैं। ३. कोल्हू के चारों ओर गीली मिट्टी का बनाया हुआ घेरा जिससे ईख की अंगरियाँ या छोटे टुकड़े छटककर बाहर नहीं निकल सकते। ४. चरखे का मध्यभाग। बेलन। ५. दे० ‘पिंड’। ६. दे० ‘पिंड खजूर’।
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पींड़ी  : स्त्री० १.=पिंड़ी। २.=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींडुरी  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पी  : पुं० दे० ‘पिय’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अनु०] पपीहे के बोलने का शब्द।
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पीऊ  : पुं०=प्रिय (प्रियतम) वि०=परमप्रिय।
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पीक  : स्त्री० [सं० पिच्च] १. चबाये हुए पान का वह रस जो थूका जाता है। पान की थूक। २. वह रंग जो कपड़े को पहली बार रंग में डुबाने से चढ़ता है। (रंगरेज)। वि० [?] ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। (लश०)
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पीकदान  : पुं० [हिं० पीक+फा० दान=पात्र] वह पात्र जिसमें पीक थूकी जाती है। उगालदान।
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पीकना  : अ० [पी-पी से अनु०] पीपी शब्द करना। जैसे—पपीहे का पीकना।
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पीका  : पुं० [?] वृक्ष का नया कोमल पत्ता। कल्ला। कोंपल। क्रि० प्र०—पनपना।—फूटना।
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पीच  : स्त्री० [सं० पिच्च] वह लसीला पदार्थ जो चावल उबालने पर बच रहता है। माँड़। पुं० [अं० पिच] अलकतरा। स्त्री०=पीक (पान की)।
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पीचना  : अ० [सं० पिच्च] पैरों से कुचलना या रौंदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीचू  : पुं० [देश०] १. चीलू या जरदालु का पेड़। २. करील का पका हुआ फूल। कचरा टेंटी।
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पीछ  : स्त्री० [हिं० पीछे या पिछला] पक्षी की दुम। पूँछ। स्त्री०=पीच (माँड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीछा  : पुं० [सं० पश्चात्, फा० पच्छा] १. किसी व्यक्ति के शरीर का वह भाग जो उसकी छाती, पेट, मुँह आदि की विपरीत दिशा में पड़ता है। पीठ की ओर का भाग। पृष्ठ भाग। ‘आगा’ का विपर्याय। २. किसी चीज के पीछे की ओर का विस्तार। मुहा०—(किसी का) पीछा करना=(क) किसी को पकड़ने भागने, मारने-पीटने आदि के लिए अथवा उसका पता लगाने या भेद लेने के लिए उसके पीछे-पीछे तेजी से चलना या दौड़ना। जैसे—अपराधी, चोर या शिकार का पीछा करना। (ख) किसी का भेद या रहस्य जानने के लिए छिपकर उसके पीछे-पीछे चलना। जैसे—वह जहाँ जाता था, वहीं पुलिस उसका पीछा करती थी। (ग) दे० नीचे ‘पीछा पकड़ना’। (किसी काम या बात से) पीछा छुड़ाना=अपने साथ होनेवाली किसी अनिष्ट या अप्रिय बात से अपना सम्बन्ध छुड़ाना। पिंड छुड़ाना। जैसे—अफीम या शराब की लत से पीछा छुड़ाना। (किसी व्यक्ति से) पीछा छुड़ाना=जो व्यक्ति किसी काम या बात के लिए पीछे पड़कर बहुत तंग कर रहा हो, उससे किसी प्रकार छुटकारा पाना। पीछा छूटना=(क) पीछा करनेवाले या पीछे पड़े हुए व्यक्ति से छुटकारा मिलना। पिंड छूटना। जान छूटना। (ख) अनिष्ट अथवा अप्रिय काम या बात से छुटकरा मिलना। (ग) किसी प्रकार का या किसी रूप में छुटकारा मिलना। बचाव या रक्षा होना। जैसे—महीनों बाद बुखार से पीछे छूटा है। (किसी व्यक्ति का) पीछा छूटना=किसी का पीछा करने का काम बंद करना। किसी आशा या प्रयोजन से किसी के साथ लगे फिरने या उसके पीछे-पीछे दौड़ने या उसे तंग करने का काम बंद करना। (किसी काम या बात का) पीछा छोड़ना=जिस काम या बात में बहुत अधिक उत्साह या तनमयता से लगे रहे हों, उससे विरत होना अथवा उसका आसंग या ध्यान छोड़ना। पीछा दिखाना=(क) सम्मुख या साथ न रहकर अलग या दूर हो जाना। पीठ दिखाना। जैसे—संकट के समय संगी-साथियों ने भी पीछा दिखाया। (ख) प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि में डर या हारकर भाग जाना। पीठ दिखाना। पीछा देना=दे० ऊपर ‘पीछा दिखाना’। (किसी का) पीछा पकडना=किसी आशा से या अपने कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी का अनुचर या साथी बनना। किसी के आश्रय या सहायता का आकांक्षी बनकर प्रायः उसके साथ लगे रहना। जैसे—किसी रईस का पीछा पकड़ना। (किसी काम या बात का) पीछा भारी होना=(क) पीछे की ओर से शत्रु या संकट की आशंका या भय होना। (ख) अधिक उपयोगी या सहायक अंश का पीछे की ओर आधिक्य होना। (ग) किसी काम के अंतिम या शेष अंश का अधिक कठिन या अधिक कष्टसाध्य होना। पिछला अंश ऐसा होना कि सँभलना कठिन हो। ३. पीछे-पीछे चलकर किसी के साथ लगे रहने की क्रिया या भाव। जैसे—बडे का पीछा है, कुछ न कुछ दे ही जायगा। उदा०—प्रभु मैं पीछौ लियो तुम्हारौ।—सूर। ४. पहनने के वस्त्रों आदि का वह भाग जो पीछे अथवा पीठ की ओर रहता है। जैसे—इस कोट का पीछा ठीक नहीं सिला है।
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पीछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीछे  : अव्य० [हिं० पीछा] १. जिस ओर या जिस दिशा में किसी का पीछा या पीठ हो, उस ओर या उस दिशा में। किसी के मुख या सामनेवाली दिशा की विपरीत दिशा में। ‘आगे’ और ‘सामने’ का विपर्याय। जैसे—(क) हम लोग सभापति के पीछे बैठे थे। (ख) मकान के पीछे बहुत बड़ा मैदान था। विशेष—इस अर्थ में उक्त ओर या दिशा में होनेवाले विस्तार का भाव भी निहित है; और इसके अधिकतर मुहा० इसी आधार पर बने हैं। मुहा०—(किसी के) पीछे चलना=किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। अनुकरण करना। जैसे—आजकल तो जो नेता बन सके, उसी के पीछे हजारों आदमी चलने लगते हैं। (किसी चीज या व्यक्ति का) पीछे छूटना=किसी की तुलना में या किसी के विचार से पीछे की ओर रह जाना। जैसे— (क) यात्रियों में से कुछ लोग पीछे छूट गये थे। (ख) हम लोग बातें करते हुए आगे बढ़ गए, और उनका मकान पीछे छूट गया। (किसी काम या बात में किसी के) पीछे छूटना या रह जाना=उन्नति, गति, दौड़ प्रतियोगिता आदि में किसी से घटकर या कम योग्यता का सिद्ध होना। किसी की तुलना में पिछड़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—आणविक आविष्कारों के क्षेत्र में बहुत से देश अमेरिका और रूस से पीछे छूट गये हैं। इस मुहा० में ‘छूटना’ के साथ संयो० क्रि० ‘जाना’ का प्रयोग प्रायः अनिवार्य रूप से होता है। (किसी का किसी व्यक्ति के) पीछे छूटना या लगना=किसी भागे हुए आदमी को पकड़ने के लिए या किसी का भेद, रहस्य आदि जानने के लिए किसी का नियुक्त किया जाना या होना। जैसे—डाकुओं का पता लगाने के लिए बीसियों जासूस (या सिपाही उनके पीछे छूटे या लगे) थे। (किसी काम या बात में किसी को) पीछे छोडना= किसी विषय में औरों से बढ़कर इस प्रकार आगे हो जाना कि और लोग उसकी तुलना में न आ सकें या बराबरी न कर सकें। कौशल, योग्यता, सामर्थ्य आदि में औरों से आगे बढ़ जाना। जैसे—अपने काम में वह बहुतों को पीछे छोड़ गया है। (किसी को किसी के) पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना=(क) जासूस या भेदिया बनाकर किसी को किसी के साथ लगाना। भेदिया नियुक्त करना या साथ लगाना। (ख) भागे हुए व्यक्ति को पकड़कर लाने के लिए कुछ लोगों को नियुक्त करना। (किसी को किसी के) पीछे डालना=दे० ऊपर (किसी के) ‘पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना’। (धन) पीछे डालना=भविष्यत् की आवश्यकता के लिए खर्च से बचाकर कुछ धन एकत्र करके रखना। आगे के लिए संचय करना। जैसे—हर महीने दस-पाँच रुपए बचाकर पीछे भी डालते चलना चाहिए। (किसी काम या व्यक्ति के) पीछे दौड़ना या दौड़ पड़ना=बिना सोचे समझे किसी काम या बात में लग जाना या किसी का अनुगामी अथवा अनुयायी बनना। (किसी को किसी के) पीछे दौड़ाना=गये या जाते हुए आदमी को बुला या लौटा लाने या उसे कोई संदेशा पहुँचाने के लिए किसी को उसके पीछे भेजना। (किसी काम या बात के) पीछे पड़ना या पड़ जाना=किसी काम को कर डालने पर तुल जाना। किसी कार्य के लिए बहुत परिश्रमपूर्वक निरंतर उद्योग करते रहना। (कुछ कुत्सित या हीन भाव का सूचक) जैसे—तुम्हारी यह बहुत बुरी आदत है कि तुम हर काम या बात के पीछे पड़ जाते हों। (किसी व्यक्ति के) पीछे पड़ना=(क) कोई काम करने के लिए किसी से बहुत आग्रहपूर्वक और बार बार कहना। (ख) किसी को बहुत अधिक तंग, दुःखी या परेशान करने के लिए कटिबद्ध होना। (किसी के) पीछे लगना=(क) किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। किसी का अनुकरण करना। (ख) दे० ऊपर (किसी काम, बात या व्यक्ति के) पीछे पड़ना। (किसी व्यक्ति को अपने) पीछे लगाना=किसी को अपना अनुगामी या अनुयायी बनाना। (कोई काम या बात अपने) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार घनिष्ठ रूप में अपने साथ सम्बद्ध करना कि सहसा उससे बचाव, रक्षा या विरक्ति न हो सके। जान-बूझकर ऐसे का या बात से सम्बद्ध होना जिससे तंग, दुःखी या परेशान होना पड़े। जैसे—तुमने यह व्यर्थ का झगडा अपने पीछे लगा लिया है। (किसी व्यक्ति को किसी के) पीछे लगाना=किसी का भेद या रहस्य जानने अथवा किसी को तंग करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को उत्साहित या नियत करना। जैसे—वे तो चुपचाप घर बैठे हैं, पर अपने आदमियों को उन्होने हमारे पीछे लगा दिया है। (कोई काम या बात किसी के) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार किसी के साथ सम्बद्ध करना कि वह उससे तंग, दुःखी या परेशान हो, अथवा सहज में अपना बचाव या रक्षा न कर सके। जैसे—बीड़ी पीने की लत तुम्हीं ने उसके पीछे लगा दी है। २. अनुपस्थिति या अविद्यमान होने की अवस्था में। किसी के सामने न रहने की दशा में। जैसे—किसी के पीछे उसकी बुराई करना बहुत अनुचित है। पद—पीठ पीछे=दे० ‘पीठ’ के अन्तर्गत यह पद। ३. किसी के इस लोक में न रह जाने की दशा में। मर जाने पर। मरणोपरांत। जैसे—आदमी के पीछे उसका नाम ही रह जाता है। ४. कोई काम, घटना, या बात हो चुकने पर, उसके बाद। उपरांत। फिर। जैसे—पहले तो उन्होंने बहुत धन गँवाया था, पर पीछे वे संभल गये थे। विशेष—इस अर्थ में कभी-कभी यह ‘पीछे को’ या ‘पीछे से’ के रूप में भी प्रयुक्त होता है। जैसे—पीछे को (या पीछे से) हमें दोष मत देना। ५. कालक्रम, देश आदि के विचार से किसी के पश्चात या उपरांत। घटना या स्थिति के विचार से किसी के अनंतर, कुछ दूर या कुछ देर बाद। उपरांत। पश्चात्। जैसे—सब लोग एक पंक्ति में एक दूसरे के पीछे चल रहे थे। ६. किसी के अर्थ से, कारण या खातिर। निमित्त। लिए। वास्ते। जैसे—तुम्हारे पीछे ही मैं ये सब कष्ट सह रहा हूँ। ७. प्रति इकाई के विचार से या हिसाब से। जैसे—अब आदमी पीछे पाव भर आटा पड़ता या मिलता है।
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पीटन  : पुं०=पिटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीटना  : स० [सं० पीडन] १. किसी जीव पर उसे चोट पहुँचाने अथवा सजा देने के उद्देश्य से किसी चीज से जोर से आघात करना। जैसे—लड़के को छड़ी से पीटना। २. किसी पदार्थ पर इस प्रकार किसी भारी चीज से निरंतर आघात करना कि उसमें कुछ विशिष्ट विकार आ जाय। जैसे—(क) दुरमुस से कंकड पीटना। (ख) पिटने से कपड़ा पीटना। (ग) हथौड़ी से पत्थर पीटना। ३. घोर, दुःख, व्यथा या शोक प्रदर्शित करने के लिए दोनों हाथों की हथेलियों से अपने किसी अंग पर जोरों से आघात करना। जैसे—छाती, मुँह या सिर पीटना। ४. चौसर, शतरंज आदि के खेलों में, विपक्षी की गोट या मोहरा मारना। जैसे—हाथी, घोड़ा या प्यादा पीटना। ५. जैसे-तैसे किसी से कुछ प्राप्त या वसूल करना। ६. जैसे-तैसे कोई काम पूरा करना। पुं० १. मृत्यु-शोक। मातम। विलाप। जैसे—यहाँ यह कैसा पीटना पड़ा हुआ है ! २. आपद। मुसीबत।
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पीठ  : पुं० [सं० पा√(पीना)+ठक्, पृषो० सिद्धि] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। जैसे—चौकी, पीढ़ा, सिंहासन आदि। २. विद्यार्थियों, व्रतधारियों आदि के बैठने के लिए बना हुआ कुश का आसन। ३. नीचे वाला वह आधार जिस पर मूर्ति रखी या स्थापित की जाती है। ४. वह स्थान जहाँ बैठकर किसी प्रकार का उपदेश, शिक्षा आदि दी जाती हो। जैसे—धर्म-पीठ, विद्या-पीठ, व्यासपीठ आदि। ५. किसी बड़े अधिकारी या सम्मानित व्यक्ति के बैठने का स्थान, आसन और पद। (चेयर) जैसे—(क) अमुक विद्यालय में हिन्दी की उच्च शिक्षा के लिए एक पीठ स्थापित हुआ है। (ख) आपको जो कुछ कहना हो वह पीठ को संबोधित कर कहें। ६. न्यायाधीश अथवा न्यायाधीशों का वर्ग। (बेंच) ७. बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन, ढंग या मुद्रा। ८. राजसिंहासन। ९. वेदी। १॰. प्रदेश। प्रान्त। ११. उन अनेक तीर्थों या पवित्र स्थनों में से प्रत्येक जहाँ पुराणानुसार दक्ष-कन्या सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा था। विशेष—भिन्न-भिन्न पुराणों में ऐसे स्थानों की संख्या ५१,५३,७७ या १०८ कही गई है। इनमें से कुछ को उप-पीठ और कुछ को महापीठ कहा गया है। तांत्रिकों का विश्वास है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से सिद्धि बहुत शीघ्र प्राप्त होती है। प्रत्येक पीठ में एक-एक शक्ति और एक-एक भैरव का निवास माना जाता है। १२. कंस का एक मंत्री १३. एक असुर। १४. गणित में वृत्त के किसी अंग का पूरक। स्त्री० [सं० पृष्ठ] प्राणियों के शरीर का वह भाग जो उनके सामने वाले अंगों अर्थात् छाती, पेट आदि की विपरीत दिशा में या पीछे की ओर पड़ता है और जिसमें लंबाई के बल रीढ़ होती है। पृष्ठ। पुश्त। विशेष—यह भाग गरदन के नीचेवाले भाग से कमर तक (अर्थात् रीढ़ की अंतिम गुरिया तक) विस्तृत होता है मनुष्यों में यह भाग सदा पीछे की ओर रहता है, और कीड़े-मकोड़ों, चौपायों आदि में ऊपर या आकाश की ओर। पशुओं के इसी भाग पर सवारी की जाती और माल लादा जाता है, इसीलिए इसके कुछ पद और मुहा० इस तत्त्व के आधार पर भी बने हैं। यह भाग पीछे की ओर होता है। इसलिए इसके कुछ पदों और मुहा० में परवर्ती पिछले या बादवाले होने का तत्त्व या भाव भी निहित है। इसके सिवा इसमें सहायक साथी आदि के भाव भी इसलिए सम्मिलित हैं कि वे प्रायः पीछे की ओर ही रहते हैं। पद—पीठ का=दे० नीचे ‘पीठ’ पर का पीठ का कच्चा=(घोड़ा) जो देखने में हृष्ट-पुष्ट और सजीला हो, पर सवारी का काम ठीक तरह से न देता हो। पीठ का सच्चा=(घोड़ा) जो सवारी का ठीक और पूरा काम देता हो। पीठ पर=एक ही माता द्वारा जन्मे क्रम में किसी के तुरन्त बाद का। ठीक उपरांत का। जैसे—इस लड़की की पीठ पर का यही लड़का है। (किसी के) पीठ पीछे=किसी की अनुपस्थिति, अविद्यामानता या परोक्ष में। किसी के सामने न रहने की दशा में। किसी के पीछे। जैसे—किसी के पीठ-पीछे उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। मुहा०—(किसी की) पीठ खाली होना=पोषक या सहायक से रहित अथवा हीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। जैसे—उसकी पीठ खाली है; इसी लिए उस पर इतने अत्याचार होते हैं। (किसी की) पीठ ठोंकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर कर्ता की पीठ थप-थपाते हुए या यों ही उसका अभिनन्दन या प्रशंसा करना, (ख) किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए उत्साहित करना (ग) दे० नीचे ‘पीठ थपथपाना’। पीठ थपथपाना=पशुओं आदि के विशेष परिश्रम करने पर उन्हें उत्साहित करने तथा धैर्य दिलाने के लिए अथवा क्रुद्ध होने अथवा बिगडने पर शांत करने के लिए उनकी पीठ पर हथेली से धीरे-धीरे थपकी देना। (किसी को) पीठ दिखाकर जाना=ममता, स्नेह आदि का विचार छोड़कर कहीं दूर चले जाना। जैसे—प्रेमी का प्रेमिका को पीठ दिखाकर जाना, या मित्र का अपने बंधुओं और स्नेहियों को पीठ दिखाकर जाना। पीठ दिखाना=प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि के समय सामने न ठहर सकने के कारण पीछे हटना या भाग जाना। दबने के कारण मैदान छोड़कर सामने से हट जाना। जैसे—दो ही दिन में लड़ाई में शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। पीठ देना=(क) चारपाई या बिस्तर पर पीठ रखना। लेट कर आराम करना। जैसे—लडके की बीमारी के कारण इन दिनों पीठ देना मुश्किल हो गया है। (ख) दे० नीचे ‘पीठ फेरना’। (किसी की ओर) पीठ देना=किसी की ओर पीठ करके बैठना। पीठ पर खाना=भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। (कायरता का सूचक) जैसे—पीठ पर खाना मरदों का काम नहीं है। पीठ पर हाथ फेरना=दे० ऊपर ‘पीठ ठोंकना’। (किसी का किसी की) पीठ पर होना=जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के ठीक पीछे जन्म ग्रहण करना। (किसी का) पीठ पर होना=सहायक होना। सहायता के लिए तैयार होना। मदद या हिमायत पर होना। जैसे—आज मेरी पीठ पर कोई नहीं हैं, इसी लिए न तुम इतना रोब जमाते हो। पीठ फेरना=(क) कहीं से प्रस्थान करना। बिदा होना। (ख) ममता, स्नेह आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर होना। (ग) अरुचि, उदाहरण-सीनता आदि प्रकट करते हुए विमुख या विरक्त होना। अलग, किनारे या दूर होना। (घ) सामने से भाग या हट जाना। पीठ मींजना=दे० ऊपर पीठ ठोंकना। (चारपाई से) पीठ लग जाना=बीमारी के कारण उठने-बैठने में असमर्थ हो जाना। जैसे—अब तो चारपाई से पीठ लग गई हैं, वे उठ-बैठ भी नहीं सकते। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगना=कुश्ती में हारकर चित्त होना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (किसी पशु की) पीठ लगना=काठी, चारजामे, जीन आदि की रगड़ के कारण पीठ पर घाव होना। जैसे—जिस घोड़े की पीठ लगी हो, उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए। (चारपाई से) पीठ लगना=आराम करने के लिए लेटने की स्थिति में होना। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगाना=कुश्ती में गिरा, पछाड़ या पटक पर चित्त करना है। २. पहनने के कपड़ों का वह भाग जो पीठ की ओर रहता या पीठ पर पड़ता है। ३. आसन आदि में वह भाग जो पीठ के सहारे के लिए बना रहता है। जैसे—कुरसी की पीठ खराब हो गई है, उसे बदलवा दो। ४. किसी वस्तु की रचना में, उसके अगले, ऊपरी या सामने वाले भाग से भिन्न और पीछेवाला भाग। जैसे—(क) पत्र की पीठ पर पता भी लिख दो। (ख) पदक की पीठ पर उसके दाता का नाम भी खुदा हुआ था। ५. पुस्तक का वह भाग जिसमें अन्दर के पृष्ठों की सिलाई रहती हैं, और जो उसे अलमारी में खड़ी करके रखने पर सामने की ओर रहता है। पुट्ठा। जैसे—पुस्तक की पीठ पर सुनहले अक्षरों में उनका नाम छपा था।
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पीठक  : पुं० [सं० पीठ+कन्] १. वह चीज जिस पर बैठा जाय। जैसे—कुरसी, चौकी, पीढ़ा आदि। २. एक तरह की पालकी।
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पीठ-केलि  : पुं० [ब० स०] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. वह जो दूसरों का पोषण करता हो।
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पीठ-गर्भ  : पुं० [ष० त०] वह गड्ढा जिसमें मूर्ति के पैर या निचला अंश जमाकर उसे खड़ा किया जाता है।
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पीठ-चक्र  : पुं० [ब० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रथ।
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पीठ-देवता  : पुं० [मध्य० स०] आदि शक्ति जो सारी सृष्टि का मूल आधार है।
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पीठ-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठाती देवी। २. दुर्गा। ३. लोक में, वह कुमारी जिसकी पूजा दुर्गा-पूजा के दिनों में की जाती है।
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पीठ-न्यास  : पुं० [स० त०] तंत्र में एक मुख्य न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओं में आवश्यक है।
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पीठ-भू  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीर के आसपास का भू-भाग। चहारदीवारी के आसपास की जमीन।
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पीठ-दर्द  : वि० [स० त०] बहुत अधिक ढीठ और निर्लज्ज। पुं० १. साहित्य में नायक के चार प्रकार के सखाओं में से वह जो रुष्ट नायिका को मनाने और उसका मान हरण करने में सहायक होता है। २. किसी साहित्यिक रचना के मुख्य पात्र का वह सखा जो गुणों में उससे कुछ घटकर होता है। जैसे—रामायण में राम का सखा सुग्रीव। ३. वेश्याओं को नाच-गाना सिखलानेवाला व्यक्ति। उस्ताद।
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पीठ-मर्दिका  : स्त्री० [ष० त०] नायिका की वह सखी जो नायक को रिझाने में नायिका की सहायता करती है।
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पीठ-विवर  : पुं० [ष० त०] पीठगर्भ। (दे०)
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पीठ-सर्प  : वि० [सं० पीठ√सृप् (गति)+अच्] लंगड़ा।
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पीठ-सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० पीठ√सृप्+णिनि] लंगड़ा।
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पीठ-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वे स्थान जो यक्ष की कन्या सती के अंग या आभूषण गिरने के कारण पवित्र माने जाते हैं। (दे० ‘पीठ’ १. ) २. प्रतिष्ठान (आधुनिक झूसी का एक पुराना नाम)।
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पीठा  : पुं० [सं० पिष्टक्, प्रा० पिट्ठक्] आटे की लोई में पीठी भरकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान। पुं०=पीढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीठासीन  : वि० [पीठ-आसीन; स० त०] जो पीठ अर्थात् अध्यक्ष के स्थान पर आसीन हो। (प्रेसाइडिंग)
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पीठासीन-अधिकारी  : पुं० [कर्म० स०] वह अधिकारी जो अध्यक्ष पद पर रहकर अपनी देख-रेख में कोई काम कराता हो। (प्रेसाइडिंग आफिसर)।
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पीठि  : स्त्री०=पीठ।
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पीठिका  : स्त्री० [सं० पीठ+कन्+टाप्. इत्व] १. छोटा पीढ़ा। पीढ़ी। २. वह आधार जिस पर कोई चीज विशेषतः देवमूर्ति रखी, लगाई या स्थापित की गई हो। ३. ग्रंथ के विशिष्ट विभागों में से कोई एक। जैसे—पूर्वपीठिका, उत्तर-पीठिका।
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पीठी  : स्त्री० [सं० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठा] १. भींगी हुई दाल को पीसने पर तैयार होनेवाला रूप। जैसे—उड़द या मूँग की पीठी। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना। विशेष—पीठी की टिकिया तलकर बड़े, सुखाकर बरियाँ और लोई भरकर कचौड़ियाँ आदि बनाई जाती है।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड] मिट्टी का वह आधार जिसे घड़े को पीटकर बढ़ाते समय उसके अन्दर रख लेते हैं। पुं०=आपीड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीड़क  : वि० [सं०√पीड़+ण्वुल्—अक] पीड़क। (दे०)
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पीड़क  : वि० [सं० पीड़क से] १. जो दूसरों को शारीरिक कष्ट पहुँचाता हो। पीड़ा देनेवाला। २. अधिक व्यापक अर्थ में, बहुत बड़ा अत्याचारी या जुल्मी। ३. दबाने या पीसनेवाला। जैसे—पीड़क-चक्र=वह पहिया जो दबाता या पीसता हो।
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पीड़न  : पुं० [सं०√पीड+ल्युट्—अन] पीड़न। (दे०)
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पीड़न  : पुं० [सं० पीडन से] [कर्ता, पीड़क, वि० पीड़नीय, भू० कृ० पीड़ित] १. व्यक्तियों के सम्बन्ध में, किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना। तकलीफ देना। २. चीजों के संबंध में, जोर से कसना, दबाना या पीसना। ३. पेरना। ४. अच्छी तरह से या मजबूती से पकड़ना। ५. नष्ट करना। ६. ग्रहण। जैसे—ग्रह-पीड़न। ७. स्वरों के उच्चारण करने में होनेवाला एक तरह का दोष।
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पीडनीय  : वि० [सं०√पीड़+अनीयर] पीड़नीय। (दे०)
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पीड़नीय  : वि० [सं० पीडनीय से] १. जिसका पीड़न हो सके या किया जाने को हो। २. जिसे कष्ट पहुँचाया या पहुँचाया जाने को हो। पुं० याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार ऐसा राजा या राज्य जो अच्छे मंत्री और उपयुक्त सेना से रहित हो और इसी लिए सहज में दबाकर अपने अधिकार में किया जा सकता है।
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पीड़-पखा  : पुं० [सं० अपीड+पक्ष=पंख] [स्त्री० अल्पा० पीड़-सखी] १. सिर पर की चोटी या बालों की पट्टी। २. सिर पर पहना जानेवाला एक प्रकार का आभूषण। उदा०—कै मयूर की पीड़ पखी री।—सूर।
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पीड़ा  : स्त्री० [सं०√पीड्+अङ्+टाप्] पीड़ा। (दे०)
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पीड़ा  : स्त्री० [सं० पीडा से] १. प्राणियों को दुःखित या व्यथित करनेवाली वह अप्रिय अनुभूति जो किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक आघात लगने, कष्ट पहुँचने, या हानि होने पर उत्पन्न होती है उसे बहुत ही खिन्न, चिंतित तथा विकल रखती है। तकलीफ। वेदना। (पेन) जैसे—धन-नाश,पुत्र-शोक,प्रिय के वियोग या विरह के कारण होनेवाली पीड़ा। २. सामान्य अर्थ में, शरीर के किसी अंग पर चोट लगने या उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होने पर अथवा शारीरिक क्रियाओं को अव्यवस्थित होने पर उत्पन्न होनेवाली उक्त प्रकार की वह अनुभूति जिसका ज्ञान सारे शरीर को स्नायविक तंत्र के द्वारा होता है। दरद। (पेन) जैसे—अपच के कारण पेट में, ज्वर के कारण सिर में अथवा ऊँचाई से गिर पड़ने के कारण हाथ-पैर में पीड़ा होना। ३. कोई ऐसी खराबी या गड़बड़ी जिससे किसी प्रकार की व्यवस्था में बाधा होती हो और वह ठीक तरह से न चलने पाती हो। कष्टदायक अव्यवस्था। जैसे— (क) राक्षसों के उपद्रव से ऋषि मुनियों के आश्रम में पीड़ा होती थी। (ख) दरिद्रता की पीड़ा से सारा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया (ग) काम वासना की पीडा से वह विकल हो रहा था। ४. बीमारी। रोग। व्याधि। ५. प्रतिबंध। रुकावट। ६. विनाश। ७. क्षति। नुकसान। हानि। ८. करुणा। दया। ९. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। उपराग। १॰. सिर पर लपेटकर बाँधी जानेवाली माला। शिरोमणि। ११. धूप-सरल या सरल नामक वृक्ष।
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पीडाकर  : वि० [सं० पीड़ा√कृ (करना)+ट] पीड़ा या कष्ट देनेवाला।
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पीडा-गृह  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ किसी को कष्ट पहुँचाया जाता हो।
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पीडा़-स्थान  : पुं० [सं० स० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुण्डली में उपचय अर्थात् लग्न से तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान के अतिरिक्त शेष स्थान जो अशुभ ग्रहों के स्थान माने गये हैं।
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पीडिका  : स्त्री० [सं० पीड़ा+कन्—टाप्, इत्व] फुड़िया। फुंसी।
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पीडित  : वि० [सं०√पीड़+क्त] पीड़ित। (दे०)
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पीड़ित  : वि० [सं० पीड़ित] १. जो किसी प्रकार की पीड़ा से ग्रस्त हो। जैसे—रोग से पीड़ित। २. जो दूसरों के अत्याचार, जुल्म आदि से आक्रांत और फलतः कष्ट में हो। जैसे—पीड़ित जन समाज। ३. जिसे दबाया या पीसा गया हो। ४. जो नष्ट कर दिया गया हो। ५. जो किसी चीज के प्रभाव या फल से अपने को दुःखी समझता हो। सताया हुआ। जैसे—जग पीड़ित रे अति सुख से।—पंत।
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पीड़ी  : स्त्री० [सं० पीठ] १. देव-स्थान। देवपीठ। २. वेदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीडुरी  : स्त्री०=पिंडली।
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पीढ़ा  : पुं० [सं० पीठ अथवा पीढक] [स्त्री० अल्पा० पीढ़ी] १. प्रायः लकड़ी का बना हुआ चौकी के आकार का वह छोटा आसन जिसके पाये बहुत कम ऊँचे होतें हैं, और जिस पर हिन्दू लोग भोजन करते समय बैठते हैं। २. विस्तृत अर्थ में, बैठने का कोई आसन। मुहा०— (किसी को) ऊंचा पीढ़ा देना=विशेष आदर-सम्मान प्रकट करते हुए अच्छे या ऊँचे आसन पर बैठना। ३. सिंहासन।
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पीढ़ी  : स्त्री० [हिं० पीढ़ा का स्त्री० अल्पा०] बैठने के लिए एक विशेष प्रकार की छोटी चौकी। छोटा पीढ़ा। स्त्री० [सं० पीठिका] १. किसी कुल या वंश की परम्परा में, क्रम क्रम से आगे बढ़नेवाली संतान की प्रत्येक कड़ी या स्थिति। जैसे—(क) बाप, दादा और परदादा ये तीन पीढ़ियाँ, अथवा बाप-बेटे और पोते की तीन पीढ़ियाँ। (ख) हमारे पास अपने पूर्वजों के बीस पीढ़ियों के वंश-वृक्ष है। २. उक्त कड़ी या स्थिति के वे सब लोग जो रिश्ते या संबंध में आपस में प्रायः बराबरी के हों। वंश-क्रम में प्रत्येक श्रृंखला के क्षेत्र के सब लोग। जैसे—(क) उनकी दूसरी पीढ़ी में तो दस ही आदमियों का परिवार था; पर चौथी पीढ़ी में परिवार वालों की संख्या बढ़कर साठ तक पहुँची थी। (ख) हमारी सात पीढ़ियों में से किसी पीढी ने कभी ऐसा अनाचार न किया होगा। ३. किसी जाति देश या समाज के वे सब लोग जो किसी विशिष्ट काल में प्रायः कुछ आगे-पीछे जन्म लेकर साथ ही रहते हों। किसी विशिष्ट समय का वह सारा जन समुदाय जिनकी अवस्था या वय में अधिक छोटाई-बड़ाई न हो। जैसे—ये नई पीढ़ी के लोग ठहरे, इनमें पुरानी पीढ़ी के लोगों का सा आचार-विचार नहीं रह गया है। ४. किसी प्रकार की परम्परागत स्थिति। उदा०—सदा समर्थन करती उसका तर्क-शास्त्र की पीढ़ी।—प्रसाद।
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पीत  : वि० [सं०√प+क्त+अच्] [स्त्री० पीता] १. पीले रंग का। पीला। २. भूरा। (क्व०)। पुं० [√पा+क्त] १. पीला रंग। भूरा रंगा। ३. हरताल। ४. हरिचंदन। ५. कुसुम। बर्रे। ६. अंकोल का वृक्ष। ढेरा। ७. सिहोर का पेड़। ८. धूप सरल। ९. बेंत। १॰. पुखराज। ११. तुन। नंदिवृक्ष। १२. एक प्रकार की सोमलता। १३. पीली कटसरैया। १४. पद्मकाष्ठ। पदमाख १५. पीला खस। १६. मूँगा। भू० कृ० [सं० √पा (पीना)+क्त] जो पान किया गया हो। पीया हुआ।
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पीतकंद  : पुं० [ब० स०] गाजर।
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पीतक  : पुं० [सं० पीत+क] १. हरताल। २. केसर। ३. अगर। ४. पदमाख। ५. सोनामाखी। ६. तुन। ७. विजयसार। ८. सोनापाठा। ९. हल्दी। हरिद्रा। १॰. किंकिरात। ११. पीतल। १२. पीला चंदन। १३. एक प्रकार का बबूल। १४. शहद। १५. गाजर। १६. सफेद जीरा। १७. पीली लोध। १८. चिरायता। १९. अंडे के आकार का पीला अंश। अंडे की जरदी। वि० पीले रंग का । पीला।
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पीत-कदली  : स्त्री० [कर्म० स०] सोन केला।
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पीतक-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] हलदुआ। हरिद्रवृक्ष।
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पीत-करवीरक  : पुं० [कर्म० स०+क] पीले फूलोंवाला केना।
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पीतका  : स्त्री० [सं० पीतक+टाप्] १. कटसरैया। २. हलदी।
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पीत-कावेर  : पुं० [सं० कु-वेर=शरीर, प्रा० स०, पीत-कावेर, ब० स०] १. केसर। २. पीतल के योग से बनी हुई एक मिश्र धातु जिसके घंटे आदि बनाये जाते हैं।
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पीत-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] १. पीला चंदन। २. पीला अगरु।
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पीत-कीला  : स्त्री० [कर्म० स०] अवर्तकी लता। भागवत वल्ली।
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पीत-कुरवक  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुरुंट  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुष्ट  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कोढ़।
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पीत-कुष्मांड  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कुम्हड़ा।
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पीत-कुसुम  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-केदार  : पुं० [ब० स०] एक तरह का धान।
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पीत-गंध  : पुं० [द्व० स०] पीला चंदन। हरिचंदन।
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पीत-गन्धक  : पुं० [कर्म० स०] गंधक।
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पीत-घोषा  : स्त्री० [कर्म० स०] पीले फूलोंवाली एक तरह की लता।
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पीत-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का चंदन जो पहले द्रविड़ देशों से आता था। हरिचंदन।
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पीत-चंपक  : पुं० [कर्म० स०] १. पीली चंपा। २. दीपक। चिराग।
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पीत-चोप  : पुं० [सं०] पलास का फूल। टेसू।
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पीत-झिंटी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पीले फूलवाली कटसरैया २. एक तरह की कटाई।
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पीत-तंडुल  : पुं० [ब० स०] कँगनी नामक कदन्न।
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पीतता  : स्त्री० [सं० पीत+तल्+टाप्] पीलापन। जद्री।
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पीत-तुंड  : पुं० [ब० स०] बत्तख या हंस की जाति का एक तरह का पक्षी। कारंडव। बया।
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पीत-तैल  : स्त्री० [ब० स०] मालकँगनी।
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पीतत्व  : पुं० [सं० पीत+त्व] पीतता। पीलापन।
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पीतदंतता  : स्त्री० [सं० पीत-दंत, कर्म० स०+तल्+टाप्] दाँतों का एक पित्तज रोग जिसमें दाँत पीले हो जाते हैं।
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पीत-दारु  : पुं० [कर्म० स०] १. देवदारु। २. धूपसरल। ३. हलदुआ। ४. हलदी। ५. चिरायता। ६. कायकरंज।
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पीत-दीप्ता  : स्त्री० [द्व० स०, टाप्] बौद्धों की एक देवी।
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पीत-दुग्धा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. दूध देनेवाली गाय। २. वह गाय जिसका दूध महाजन को ऋण के बदले में दिया जाता हो। ३. कटेहरी। ४. ऊँटकटारा। भड़भाँड़। ५. सातला। थूहर।
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पीतद्रु  : पुं० [कर्म० स०] १. दारु-हलदी। २. धूप-सरल। ३. देव-दारू।
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पीत-धातु  : पुं० [कर्म० स०] १. रामरज। २. गोपीचंदन।
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पीतन, पीतनक  : पुं० [सं० पीत√नी+ड] [सं० पीतन+कन्] १. केसर। २. हरताल। ३. धूपसरल। ४. अमड़ा। ५. पाकर।
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पीत-निद्र  : वि० [ब० स०] गहरी नींद में सोया हुआ।
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पीतनी  : स्त्री० [सं० पीतन+ङीष्] सखिन। शालपर्णी।
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पीत-नील  : पुं० [कर्म० स०] नीले और पीले रंग के संयोग से बना हुआ रंग। हरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पीत-पराग  : पुं० [कर्म० स०] कमल का केसर।
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पीत-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] वृश्चिकाली (क्षुप)।
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पीत-पादप  : पुं० [कर्म० स०] १. श्योनाक वृक्ष। सोना पाढ़ा। २. लोध।
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पीत-पादा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मैना। सारिका।
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पीत-पुष्प, पीत-पुष्पक  : पुं० [ब० स०] १. कनेर। २. घीया तरोई। ३. पीली कटसरैया। ४. चंपा। ५. पेठा। ६. तगरू। ७. हिंगोट। ८. लाल कचनार।
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पीत-पुष्पका  : स्त्री० [ब० स०,+कप्+टाप्] जंगली ककंड़ी।
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पीत-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. झिझरीटा। २. सहदोई। ३. अरहर। ४. तरोई। तोरी ५. पीली कटसरैया। ६. पीला कनेर। ७. सोन-जूही।
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पीत-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] १. शंखाहुली। २. सहदोई बूटी। ३. बड़ी तरोई। ४. खीरा। ५. इन्द्रा-यण। ६. सोन-जूही।
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पीत-पृष्ठा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] वह कौड़ी जिसकी पीठ पीली हो।
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पीत-प्रसव  : पुं० [ब० स०] १. हिंगपुत्री। २. पीला कनेर।
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पीत-फल  : पुं० [ब० स०] १. सिहोर। २. कमरख। ३. धव का पेड़।
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पीत-फलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] १. सिहोर। २. रीठा। ३. कमरख। ४. धव वृक्ष।
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पीत-फेन  : पुं० [ब० स०] रीठा। अरिष्ठक वृक्ष।
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पीत-बालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-बीजा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मेंथी।
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पीत-भद्रक  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बबूल। देववर्व्वर।
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पीत-भृंगराज  : पुं० [कर्म० स०] पीला भंगरा।
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पीतम  : वि०=प्रियतम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-मणि  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पुष्पराज मणि।
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पीत-मस्तक  : पुं० [ब० स०] पीले मस्तकवाला एक तरह का पक्षी।
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पीत-माक्षिक  : पुं० [कर्म० स०] सोनामाखी।
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पीत-मारूत  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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पीतमुंड  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का हिरन।
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पीत-मुग्द  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का मूँग।
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पीत-मूलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] गाजर।
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पीत-मूली  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] रेवंद चीनी।
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पीत-यूथी  : स्त्री० [कर्म० स०] सोनजूही। स्वर्णयूथिका।
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पीतर  : पुं०=पीतल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-रक्त  : पुं० [कर्म० स०] १. पुखराज। २. पीलापन लिये लाल रंग। वि० पीलापन लिये लाल रंग का।
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पीत-रत्न  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पीतमणि।
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पीत-रस  : पुं० [ब० स०] कसेरू।
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पीत-राग  : पुं० [ब० स०] १. पद्मकेसर। २. मोम। ३. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीत-रोहिणी  : स्त्री० [सं० पीत√रुह् (उगना)+णिनि+ङीप्] १. जंबीरी नींबू। २. पीली कुटकी। कुंभेर।
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पीतल  : पुं० [सं० पित्तल] १. एक प्रसिद्ध मिश्र धातु जो ताँबे और जस्ते के मेल से बनती हैं और जिसके प्रायः बरतन बनते हैं। (ब्राँस) २. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीतलक  : पुं० [सं० पीतल√कै (भासित होना)+क] पीतल।
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पीत-लोह  : पुं० [कर्म० स०] पीतल (धातु)।
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पीत-वर्ण  : पुं० [ब० स०] १. पीला मेढक। स्वर्ण मंडूक। २. ताड़ का पेड़। ३. कदंब ४. हलदुआ। ५. लाल कचनार। ६. मैनसिल। ७. पीली चंदन। ८. केसर।
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पीत-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] आकाश बेल।
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पीतवान  : पुं० [?] हाथी की दोनों आँखों के बीच का स्थान।
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पीत-वालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-वास (स्)  : पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पीत-बिंदु  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु के चरण-चिह्नों में से एक।
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पीत-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] सोनापाठा।
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पीत-शाल  : पुं० [सं० पीत√शल् (जाना)+अण्] विजयसार नामक वृक्ष।
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पीतशालक  : पुं० [स० पीतशाल+कन्]=पीतशाल।
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पीत-शेष  : वि० [सं० सहसुपा स०] पीने के उपरांत बचा हुआ। (तरल पदार्थ)।
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पीत-शोणित  : वि० [ब० स०] १. जिसने किसी का रक्त पिया हो। २. खूनी। हत्यारा।
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पीतसरा  : पुं० [सं० पितृव्य, हिं० पितिया=ससुर] चचिया ससुर। ससुर का भाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-सार  : पुं० [ब० स०] १. पीत चंदन। हरिचंदन। २. सफेद चंदन। ३. गोमेद। ४. अंकोल। ५. विजयसार। ६. शिलारस।
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पीतसारक  : पुं० [सं० पीतसार+कन्] १. नीम का पेड़। २. ढेरे का पेड़।
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पीतसारिका  : स्त्री० [सं० पीत√सृ (गति)+णित्+इन्+कन्+टाप्] काला सुरमा।
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पीतसाल (क)  : पुं०=पीतसाल।
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पीत-स्कंध  : पुं० [ब० स०] १. सूअर। शूकर। २. एक वृक्ष।
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पीत-स्फटिक  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज।
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पीत-स्फोट  : पुं० [कर्म० स०] खुजली। १. खसरा नामक रोग।
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पीत-हरित  : वि० [कर्म० स०] पीलापन लिये हरा रंग का। पुं० पीलापन लिये हरा रंग।
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पीतांग  : वि० [पीत-अंग, ब० स०] पीले अंगोंवाला। पुं० १. एक तरह का मेढक जिसका रंग पीला होता है। २. सोनापाठा (वृक्ष)।
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पीताबंर  : पुं० [पीत-अंबर, ब० स०] १. पीले रंग का वस्त्र। पीला कपड़ा। २. एक प्रकार की रेशमी धोती जो हिन्दू लोग प्रायः पूजा-पाठ के समय पहनते हैं। ३. पीले वस्त्र धारण करनेवाला व्यक्ति। जैसे—कृष्ण, नट, संन्यासी विष्णु आदि। वि० जो पीले वस्त्र पहने हुए हो।
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पीता  : स्त्री० [सं० पीत+टाप्] १. हलदी। २. दारूहलदी। ३. बड़ी मालकँगनी। ४. भूरा शीशम। ५. प्रियंगु फल। ६. गोरोचन। ७. अतीस। ८. पीला केला। ९. जंगली बिजौरा नींबू। १॰. जर्दचमेली। ११. देवदारू। १२. राल। १३. असगंध। १४. शालिपर्णी। १५. आकाश बेल। वि० पीले रंगवाली।
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पीताब्धि  : पुं० [पीत-अब्धि, ब० स०] समुद्र पान करनेवाले अगस्त्य मुनि।
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पीताभ  : वि० [पीत-आभा, ब० स०] जिसमें से पीली आभा निकलती हो। जिसमें से पीला रंग झलक रहा हो। पुं० पीला चंदन।
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पीताभ्र  : पुं० [पीत-अभ्र, कर्म० स०] पीले रंग का एक तरह का अभ्रक।
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पीताम्लान  : पुं० [पीत-अम्लान, कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीतारुण  : पुं० [पीत-अरुण,कर्म० स०] पीलापन लिए हुए लाल रंग। वि० [कर्म० स०] उक्त प्रकार के रंग का। पीलापन लिये लाल।
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पीतावशेष  : वि० [सं० पीत-अवशेष, सहसुपा स०] पीत-शेष।
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पीताश्म (न्)  : पुं० [पीत-अश्मन, कर्म० स०] पुखराज। पुष्परागमणि।
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पीताह्व  : पुं० [पीता-आह्वा] राल।
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पीति  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्तिन्] १. पीने की क्रिया या भाव। २. गति। ३. सूँड़। वि० घोड़ा।
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पीतिका  : स्त्री० [सं० पीत+क+टाप्, इत्व] १. हलदी। २. दारु हल्दी। ३. सोनजूही।
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पीती (तिन्)  : पुं० [सं० पीत+इनि] घोड़ा। स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीतु  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा करना)+तुन्, कित्व] १. सूर्य २. अग्नि। ३. झुंड का प्रधान हाथी। यूथपति। ४. सेना में हाथियों के दल का नायक।
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पीतदारु  : पुं० [ब० स०] १. गूलर। २. देवदार।
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पीतोदक  : पुं० [पीत-उदक, ब० स०] नारियल (जिसके अन्दर जल या रस रहता है)।
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पीथ  : पुं० [सं०√पा (पीना)+थक्] १. पानी। २. पेय। पदार्थ। ३. घी। ४. अग्नि। ५. सूर्य। ६. काल। ७. समय।
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पीथि  : पुं० [सं० पीति, पृषो० सिद्धि] घोड़ा।
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पीदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।
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पीन  : वि० [सं०√प्याय (बढ़ाना)+क्त, संप्रसारण, नत्व, दीर्घ] [भाव० पीनता] १. आकार-प्रकार की दृष्टि से भारी-भरकम। दीर्घकाय। बहुत बड़ा और मोटा। २. पुष्ट। ३. भरा-पूरा। संपन्न। पुं० मोटाई। स्थूलता।
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पीनक  : स्त्री०=पिनक।
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पीनता  : स्त्री० [सं० पीन+तल्+टाप्] १. पीन होने की अवस्था या भाव। २. मोटाई। स्थूलता।
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पीनना  : सं०=पींजना।
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पीनस  : पुं० [सं० पीन√सो (नष्ट करना)+क] १. सर्दी या जुकाम। २. एक रोग जिसमें नाक से दुर्गन्धमय गाढ़ा पानी निकलता है। स्त्री० [फा० फीनस] १. पालकी नाम की सवारी। २. एक प्रकार की नाव।
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पीनसा  : स्त्री० [सं० पीनस+टाप्] ककड़ी।
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पीनसित, पीनसी (सिन्)  : वि० [सं० पीनस+इतच्] [पीनस+इनि] जिसे पीनस रोग हुआ हो। पीनस रोग से ग्रस्त।
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पीना  : स० [सं० पान] १. जीवों के मुँह के द्वारा या वनस्पतियों का जड़ों के द्वारा स्वाभाविक क्रिया से तरल पदार्थ विशेषतः जल आत्मसात् करना। २. किसी तरह पदार्थ में मुँह लगाकर उसे धीरे-धीरे चूसते हुए गले के रास्ते पेट में उतारना। जैसे—यहाँ रात भर मच्छर हमारा खून पीतें हैं। ३. गाँजे, तमाकू आदि का धूँआ नशे के लिए बार-बार मुँह में लेकर बाहर निकालना। धूम्रपान करना। जैसे—चिलम, बीड़ी, सिरगेट या हुक्का पीना। ४. एक पदार्थ का किसी दूसरे तरल पदार्थ को अपने अन्दर खींचना या सोखना। जैसे—इतना ही आटा (या चावल) पाव भर घी पी गया। ५. लाक्षणिक अर्थ में, धन आत्मसात् करना या ले लेना। जैसे—(क) यह मकान मरम्मत में ५०० रुपए पी गया। (ख) लड़का बुढ़िया का सारा धन पी गया। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ६. मन में कोई या तीव्र मनोविकार होने पर भी उसे अन्दर ही अन्दर दबा लेना और ऊपर या बाहर प्रकट न होने देना। चुपचाप सहकर रह जाना। जैसे—किसी के अपमान करने या गाली देने पर भी क्रोध या गुस्सा पीकर रह जाना। ७. कोई अप्रिय या निंदनीय घटना या बात हो जाने पर उसे चुपचाप दबा देना और उसके संबंध में कोई कारवाई न करना या लोगों में उसकी चर्चा न होने देना। जैसे—ऐसा जान पड़ता है कि सरकार इस मामले को पी गई। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—(कोई गुण या भाव) घोलकर पी जाना=इस बुरी तरह से आत्मसात् करना या दबा डालना कि मानों उसका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। जैसे—लज्जा (या शरम) तो तुम घोलकर पी गये हों। पुं० १. पीने की क्रिया या भाव। २. शराब पीने की क्रिया या भाव। जैसे—उनके यहाँ पीना-खाना सब चलता है। पुं० [सं० पीडन=पेरना] १. तिल, तीसी आदि की खली। २. किसी चीज के मुँह पर लगाई जानेवाली डाट (लश०)।
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पीनी  : स्त्री० [सं० पिंड या पीडन] तिल, तीसी या पोस्ते की खली।
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पीनोरु  : वि० [सं० पीन-ऊरु, ब० स०] जिसकी जाँघे भारी और मोटी हों।
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पीनोहनी  : स्त्री० [सं० पीन-ऊधस्, ब० स० ङीष्, अनङ+आदेश] बड़े और भारी थन वाली गाय।
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पीप  : स्त्री० [सं० पूय] पके हुए घाव या फोड़े के अन्दर से निकलनेवाला वह सफेद लसदार पदार्थ जो दूषित रक्त का रूपान्तर और विषाक्त होता है। पीब। मवाद। विशेष—रक्त में श्वेत कणों की अधिकता होने से ही इसका रंग सफेद हो जाता है। क्रि० प्र०—निकलना।—बहना।
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पीपर  : पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीपर-पर्न  : पुं० [हिं० पीपल+सं० पर्ण=पत्ता] १. पीपल का पत्ता। २. कान में पहनने का एक आभूषण।
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पीपरा-मूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] पीपल नामक लता की जड़।
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पीपरि  : पुं० [सं० अपि√पृ (बचाना)+इन्, अकार-लोप, दीर्घ] छोटा पाकर वृक्ष। पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० पिप्पली] एक लता जिसके फल और जड़े औषध के काम आती हैं। इस लता के पत्ते पान के पत्तों की तरह परन्तु कुछ छोटे, अधिक नुकीले तथा अधिक चिकने होते हैं।
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पीपल  : पुं० [सं० पिप्पल] बरगद की जाति का एक प्रसिद्ध वृक्ष जो भारत में प्रायः सभी स्थानों में अधिकता से पाया जाता है। पर इसमें जटाएँ नहीं फूटती। इसका गोदा (फल) पकने पर मीठा होता है। हिन्दू इसे बहुत पवित्र मानते और पूजते हैं। चलदल। चलपत्र। बोधिद्रुम। स्त्री० [सं० पिप्पली] एक प्रकार की लता जिसकी कलियाँ ओषधि के रूप में काम में आती है। कलियाँ तीन-चार अंगुल लंबी शहतूत (फल) के आकार की और स्वाद में तीखी होती है। पिप्पली। मागधी।
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पीपलामूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] एक प्रसिद्ध ओषधि जो पीपल नामक लता की जड़ है। यह चरपरा, तीखा, गरम, रूखा, दस्तावार, पाचक, रेचक तथा कफ वात, आदि को दूर करनेवाला माना जाता है।
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पीपा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० पीपी] १. लकडी, लोहे आदि का बना हुआ तेल आदि रखने का एक प्रकार का बड़ा आधान। २. राजस्थान के एक प्रसिद्ध राजा जो अपना राज्य छोड़कर साधु और रामानंद के शिष्य बन गये थे।
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पीब  : पुं०=पीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीय  : पुं०=पिय (प्रियतम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयर  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीया  : पुं०=प्रिय। (प्रियतम)
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पीयु  : पुं० [सं०√पा (पीना)+कु, नि, सिद्धि] १. काल। २. सूर्य। ३. थूक। ४. कौआ। ५. उल्लू। वि० १. हिंसक। २. प्रतिकूल।
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पीयूक्षा  : स्त्री० [सं० पीयु√उक्ष् (सींचना)+अ+टाप्] पाकर की एक जाति।
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पीयूख  : पुं०=पीयूष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयूष  : पुं० [सं०√पीय् (संतुष्ट करना)+ऊषन्] १. अमृत। सुधा। २. दूध। ३. गाय आदि के प्रसव के उपरांत, पहले सात दिनों का दूध जो अग्राह्य माना जाता है। पेऊस।
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पीयूष-ग्रंथि  : स्त्री० [मध्य० स०] शरीर के अन्दर मस्तिष्क के निचले भाग की एक ग्रंथि जो कफ उत्पन्न करती है। (पिटयूटरी ग्लैंड)।
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पीयूष-पाणि  : वि० [ब० स०] १. जिसके हाथ में अमृत हो। २. जिसके हाथ की दी हुई चीज में अमृत का सा गुण हों। जैसे—वे पीयूष-पाणि वैद्य थे।
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पीयूष-भानु  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-रुचि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-वर्ष  : पुं० [सं० पीयूष√वृष् (बरसना)+अण्] १. अमृत की वर्षा करनेवाला, चंद्रमा। २. संस्कृत के जयदेव नामक कवि। ३. कपूर। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १॰ और ९ के विश्राम से १९ मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होता है। इसे आनन्दवर्द्धक भी कहते हैं।
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पीर  : स्त्री० [सं० पीड़ा] १. कष्ट। तकलीफ। दुःख। २. दर्द। वेदना। ३. दूसरे का कष्ट या पीड़ा देखकर उसके प्रति मन में होनेवाली करुणा-पूर्ण भावना या सहानुभूति। दूसरे के दुःख से कातर होने की अवस्था या भाव। ४. प्रसव-काल के समय स्त्रियों को होनेवाली पीड़ा या दर्द। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहा०—(किसी की) पीर जानना या पाना=सहानुभूतिपूर्वक किसी का कष्ट या दुःख समझना। वि० [फा०] [भाव० पीरी] १. वृद्ध। बुड्ढा। २. बड़ा और पूज्य। बुजुर्ग। ३. चालाक। धूर्त। पुं० १. परलोक का मार्ग-दर्शक धर्म-गुरु। २. महात्मा और सिद्ध पुरुष। ३. मुसलमानों का धर्मगुरु। ४. सोमवार का दिन। चंद्रवार।
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पीरजादा  : पुं० [फा० पीरजादा] [स्त्री० पीरजादी] किसी पीर या धर्मगुरु का पुत्र।
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पीरतन  : पुं० [हिं० पियरा+तन (प्रत्यय)] पीलापन। उदा०—कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनुन रहाइ।—कबीर।
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पीरना  : स०=पेरना। उदा०—तेली ह्वै तन कोल्हू करिहौ पाप पुन्नि दोऊ पीरौं।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पीर-नाबालिग  : पुं० [फा० पीर+अ० नाबालिग] ऐसा वृद्ध जो बच्चों के से आचरण, काम या बातें करे। सठियाया हुआ बुड्ढा। बुद्धि भ्रष्ट बूढ़ा।
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पीर-भुचड़ी  : पुं० [फा०+अनु०] जनखों या हिजड़ों के संप्रदाय के एक कल्पित पीर।
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पीरमान  : पुं० [लश०] मस्तूल के ऊपर बँधे हुए वे डंडे जिनके दोनों सिरों पर लट्ट लगे रहते हैं और जिन पर पाल चढ़ाई जाती है। अडडंड़ा।
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पीर-मुरशिद  : पुं० [फा०] गुरु, महात्मा और पूज्यनीय व्यक्ति। प्रायः राजाओं, बादशाहों और बड़ों के लिए भी इसका प्रयोग होता है।
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पीरा  : स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० पीरी] पीला।
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पीराई  : पुं० [फा० पीर+आई (प्रत्य०)] १. डफालियों की तरह की एक जाति जिसकी जीविका पीरों के गीत गाने से चलती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। स्त्री०=पीरी (‘पीर’ का भाव०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीरानी  : स्त्री० [फा०] पीर अर्थात् मुसलमानी धर्मगुरु की पत्नी।
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पीरी  : स्त्री० [फा०] १. वृद्ध होने की अवस्था, या भाव। वृद्धावस्था। २. किसी इस्लामी धर्म-स्थान के पीर (महन्त) होने की अवस्था या भाव। ३. दूसरों को अपना अनुयायी या शिष्ट बनाने का धन्धा या पेशा। ४. बहुत बड़ी चालाकी या बहादुरी। जैसे—इतना सा-काम करके तुमने कौन-सी पीरी दिखला दी। ५. किसी प्रकार का विशेषाधिकार। इजारा। ठेका। (व्यंग्य) जैसे—यहाँ क्या तुम्हारे बाबा की पीरी है। ६. कोई अलौकिक या चमत्कापूर्ण कृत्य करने की शक्ति। वि० हिं० ‘पीरा’ (पीला) का स्त्री०।
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पीरु  : पुं० [फा० पील मुर्ग] एक प्रकार का मुरगा।
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पीरोजा  : पुं० दे०=फीरोजा।
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पील  : पुं० [सं० पीलु (हाथी) इसे फा०] १. हाथी। गज। हस्ति। २. शतरंज के खेल का हाथी नामक मोहरा। पुं०=पीलु (पिल्लू नामक कीड़ा)। पुं०=पीलु।
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पीलक  : पुं० [देश०] पीले रंग का एक प्रकार का पक्षी जिसके डैने काले और चोंच लाल होती है।
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पीलखा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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पील-पाँव  : पुं०=फील पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलपाया  : पुं० [फा० पीलपायः] १. आधार या आश्रय के लिए किसी चीज के नीचे लगाई जानेवाली टेक या थूनी। २. किलों आदि की दीवारों के नीचे या साथ सहारे के लिए बनी हुई बहुत मोटी दीवार।
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पीलपाल  : पुं०=फीलवान।
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पीलवान  : पुं०=फीलवान।
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पीलसोज  : पुं० [फा० फतीलसोज] दीयट। चिरागदान।
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पीला  : वि० [सं० पीत] [स्त्री० पीली, भाव० पीलापन] १. (पदार्थ) जो केसर, सोने या हलदी के रंग का हो। पीत। जर्द। २. (शरीर का वर्ण) जो रक्त की कमी के कारण हलका सफेद हो गया हो और जिसमें स्वास्थ्य की सूचक चमक या लाली न रह गई हो। जैसे—बीमारी के कारण उनका सारा शरीर पीला पड़ गया है। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. (शरीर का वर्ण) जो भय, लज्जा आदि के कारण उक्त प्रकार का हो गया हो। जैसे—मुझे देखते ही उसका चेहरा पीला पड गया। क्रि० प्र०—पड़ना। पुं० [?] एक प्रकार का रंग जो हलदी या सोने के रंग से मिलता-जुलता होता है। पुं० [सं० पीलु फा० पील] शतरंज का पील, फील या हाथी नामक मोहरा।
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पीला-कनेर  : पुं० [हिं० पीला+कनेर] एक तरह का कनेर जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं।
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पीला-धतूरा  : पुं० [हिं० पीला+धतूरा] ऊँटकटारा। घमोय। भँड़-भाँड़। सत्यानासी।
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पीलापन  : पुं० [हिं० पीला+पन (प्रत्य०)] १. पीले होने की अवस्था, गुण या भाव। पीतता। जर्दी। २. खून की कमी अथवा भय आदि के कारण होनेवाली शरीर की रंगत।
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पीला-बरेला  : पुं० [देश०] बनमेथी। बरियारा।
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पीला-बाला  : पुं०=लामज (तृण)।
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पीला-शेर  : पुं० [हिं० पीला+फा० शेर] अफ्रीका के जंगलों में रहनेवाले शेरों की एक जाति जिसका रंग पीला होता है।
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पीलित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें बल डाले गये हों, या पड़े हों। ऐंठा या मरोडा हुआ।
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पीलिमा  : स्त्री० [हिं० पीला] पीलापन। (‘कालिमा’ के अनुकरण पर; असिद्ध रूप)।
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पीलिया  : पुं० [हिं० पीला+इया (प्रत्य०)] कमल नामक रोग जिसमें मनुष्य की आँखें और शरीर पीला पड़ जाता है।
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पीली  : स्त्री० [हिं० पीला=पीत] तड़के या प्रभात के समय आकाश में दिखाई देनेवाली लाली जो कुछ पीलापन लिये होती है। मुहा०—पीली फटना=तड़का या प्रभात होना। पौ फटना।
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पीली-चमेली  : स्त्री० [हिं०] चमेली के पौधों की एक जाति।
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पीली-चिट्ठी  : स्त्री० [हिं० पीला+चिट्ठी] विवाह आदि शुभ कृत्यों का निमंत्रण-पत्र जो प्रायः पीले रंग के कागज पर छपा या लिखा रहता है अथवा जिस पर केसर आदि छिड़का रहता है।
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पीली-जुही  : स्त्री०=सोन-जुही।
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पीली-मिट्टी  : स्त्री० [हिं० पीला+मिट्टी] १. पीले रंग की मिट्टी। २. पटिया आदि पर पोतने की पीले रंग की जमी हुई कड़ी चिकनी मिट्टी।
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पीलु  : पुं० [सं०√पील (रोकना)+ड] १. दो-तीन हाथ ऊँचा एक तरह का क्षुप जिसमें पीले रंग के गुच्छाकार फूल तथा कालापन लिये हुए लाल रंग के छोटे-छोटे गोल फल लगते हैं। ३. उक्त क्षुप का फल। ४. पुष्प। फूल। ५. हाथी। ६. परमाणु। ७. तालु वृक्ष का तना। ८. हड्डी का टुकड़ा। ९. तीर। वाण। १॰. कृमि। कीड़ा। ११. चने का साग। १२. सरकंडे या सरपत का फूल। १३. लाल कटसरैया। १४. अखरोट का पेड़। १५. हाथ की हथेली।
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पीलुआ  : पुं० [देश०] मछली पकड़ने का बहुत बड़ा जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलुक  : पुं० [सं० पीलु√कै+क] च्यूँटा।
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पीलुनी  : स्त्री० [सं०√पील+उन+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. चने का साग।
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पीलु-पत्र  : पुं० [ब० स०] मोरट नाम की लता।
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पीलु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. कुँदुरू।
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पीलु-पाक  : पुं० [ष० त०] वैशेषिक का यह सिद्धान्त कि तेज के प्रभाव से पदार्थों के परमाणु पहले अलग-अलग होते और फिर मिलकर एक हो जाते हैं। जैसे—कच्ची मिट्टी के घड़े का जब अग्नि या ताप से संयोग होता है तब पहले परमाणु अलग-अलग होते हैं और फिर लाल होने पर मिलकर एक हो जाते हैं।
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पीलुपाक-वाद  : पुं० [ष० त०] वैशेषिकों का पीलुपाक-संबंधी। मत या सिद्धान्त।
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पीलुपाकवादी (दिन्)  : वि० [पीलुपाकवादी+इनि, (बोलना)+णिनि] पीलुपाकवादा संबंधी। पुं० १. पीलु-पाक का सिद्धान्त माननेवाला व्यक्ति। २. वैशेषिक दर्शन का अनुयायी या पंडित।
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पीलु-मूल  : पुं० [ष० त०] १. पीलु वृक्ष की जड़। २. सतावर। ३. शाल-पर्णी।
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पीलु-मला  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] जवान गाय।
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पीलू  : पुं० [सं० पीलु] १. एक प्रकार का का काँटेदार वृक्ष जो दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। इसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती है। २. पिल्लू नाम का कीड़ा। ३.संगीत में एक प्रकार का राग जिसके गाने का समय दिन के तीसे पहर कहा गया है।
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पीव  : वि० [सं० पीवन] १. मोटा। स्थूल। २. हृष्ट-पुष्ट। पुं०=पीप (मवाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=प्रिय (प्रियतम)। २. साधकों की परिभाषा में, परमेश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवट  : स्त्री० [?] युक्ति। उपाय। तरकीब। उदा०—न मालूम कौन सी पीवट लगाए होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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पीवन  : स०=पीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवर  : वि० [सं०√प्यौ (वृद्धि)+ष्वरच्, संप्रसारण, दीर्घ] [स्त्री० पीवरा] [भाव० पीवरता, पीवरत्व] पीन (दे० सभी अर्थों में)। पुं० १. कछुआ। २. जटा। ३. तापस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक।
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पीवरा  : स्त्री० [सं० पीवर+टाप्] १. असगंध। २. सतावर।
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पीवरी  : स्त्री० [सं० पीवर+ङीष्] १. सतावर। शालिपर्णी। वर्हिषद् नामक पिता की मानसी कन्याओं में से एक। ४. युवती स्त्री। ५. गाय। गौ।
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पीवा  : स्त्री० [सं०√पी (पीना)+व+टाप्] जल। पानी। वि०=पीवर।
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पीविष्ठ  : वि० [सं० पीवन्+इष्ठन्] अतिशय स्थूल। बहुत मोटा।
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पीसना  : स० [सं० पेषण] १. कोई पदार्थ दो कठोर या कड़े तलों के बीच में डाल या रखकर बार बार इस प्रकार रगड़ते हुए दबाना कि उसके बहुत छोटे-छोटे खंड या कण हो जायँ। घन पदार्थ को चूर्ण के रूप में लाना। जैसे—चक्की में आटा पीसना, सिल पर चटनी, भाँग या मसाला पीसना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. बहुत ही कठोरता, निर्दयता या हृदयहीनतापूर्वक किसी को बुरी तरह से कुचलना, दबाना या पीड़ित करना। जैसे—(क) मुझसे पाजीपन करोगे तो पीसकर रख दूँगा। (ख) सन् १९५७ के उपद्रवों के बाद अंगरेजों ने सारे देश को एक तरह से पीस डाला था। ३. खूब दबाते हुए रगड़ना। जैसे—दाँत पीसना। ४. इस प्रकार कष्ट भोगते हुए कठोर परिश्रम का काम करना कि मानों चक्की में डालकर पीसे जा रहे हों। ५. बहुत परिश्रम का काम करना। जैसे—दोनों भाइयों को दिन भर दफ्तर में पीसना पड़ता है। पुं० १. पीसने की क्रिया या भाव। २. वह या उतनी वस्तु जो किसी को पीसने को दी जाय। जैसे—गेहूँ पीसना। ३. एक व्यक्ति के जिम्मे या हिस्से के कठोर परिश्रम का काम।
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पीसी  : स्त्री० [सं० पितृष्वसा] पिता की बहन। बूआ। (बंगाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीसू  : वि० [हिं० पीसना] बहुत पीसनेवाला। पुं०=पिस्सू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीह  : स्त्री० [सं० पीव=मोटा ?] चरबी।
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पीहर  : पुं० [सं० पितृ+गृह, हिं० घर] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मैका।
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पीहा  : पुं० [अनु०] पपीहे का शब्द। उदा०—पीहा पीहा रटत पपीहा मधुबन मैं।—रत्नाकर।
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पीहू  : पुं०=पिस्सू (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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