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पाजामा  : पुं०=पाजामा। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइ  : पुं०=पाँव। मुहा०—पाँई पारना=दे० ‘पाँव’ के अंतर्गत ‘पाँव पारना’ मुहा०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइता  : पुं०=पायँता (पैताना, चारपाई का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँओं  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँक (ा)  : पुं०=पंक (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांक्त  : वि० [सं० पंक्ति+अञ्] १. पंक्ति-संबंधी। पंक्ति का। २. पंक्ति के रूप में होनेवाला।
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पांक्तेय  : वि० [सं० पंक्ति+ढक्—एय] [पंक्ति+ष्यञ्] (व्यक्ति) जो अपने अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता हो।
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पांक्त्य  : वि० [सं० पंक्ति+व्यञ्]=पांक्तेय।
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पाँख (ड़ा)  : पुं०=पंख (पक्षियों के)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पख (पखवाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँखी  : वि० [हिं० पंख] पंख या पंखोवाला। स्त्री० १. पक्षी। २. फतिंगा। ३. काठ का एक उपकरण जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती हैं। ४. दे० ‘पाँचा’।
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पाँखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँग  : पुं० [सं० पंक] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार। पुं०[?] जुलाहों के करघे का ढाँचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगल  : पुं० [सं० पांगुल्य] ऊँट। (डिं०)
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पाँगा  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगा नमक  : पुं० [सं० पंक, हिं० पाँग+नोन]=समुद्री नमक।
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पाँगा नोन  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगुर  : स्त्री० [हिं० पाँव+उँगली] पैर की कोई उँगली। वि०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगुरना  : अ० [?] पनपना।
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पाँगुरा  : वि०=पांगुर (पंगुल)।
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पाँगुल  : वि०=पंगुल।
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पांगुल्य  : पुं० [सं० पंगुल+ष्यञ्] पंगुल होने की अवस्था या भाव। लंगड़ापन।
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पाँच  : वि० [सं० पंच] जो गिनती में चार से एक अधिक अथवा छः से एक कम हो। मुहा०—(किसी की) पाँचों उँगलियाँ घी में होना=हर काम में किसी को सफलता मिलना या लाभ होना। पाँचों सवारों में नाम लिखाना या पाँचवें सवार बनना=जबरदस्ती अपने को अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों की पंक्ति या श्रेणी में गिनना या समझना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनना। बड़ा बतलाने या समझने लगना। पद—पाँच जने जी जमात=घर-गृहस्थी और परिवार। पुं० [सं० पंच] १. पाँच का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५। २. जात-बिरादरी या समाज के अच्छे या मुख्य लोग। ३. सब अच्छे आदमी। उदा०—जो पाँचहिं मत लागै नीका।—तुलसी। वि० बहुत अधिक चालाक या होशियार। उदा०—मेरे फंदे में एक भी न फँसा। पाँच बन्नो थी जिससे चार उलझे।—जान साहब।
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पाँचक  : पुं०, स्त्री०=पंचक।
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पांचकपाल  : वि० [सं० पंचकपाल+अण्] पंचकपाल संबंधी।
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पांचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+अण्—ङीप्] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की असिकी नामक कन्या का दूसरा नाम।
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पांचजन्य  : पुं० [सं० पचंजन+ण्य] १. पंचजन राक्षस का वह शंख जो भगवान कृष्ण उठाकर ले गये थे और स्वयं बजाया करते थे। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. जम्बू द्वीप का एक नाम।
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पांचदश्य  : पुं० [सं० पंचदशन्+ण्य] पंचनद या पंजाब-संबंधी। पुं० १. पंजाब का निवासी। २. पंजाब।
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पाँचपंच  : पुं० बहु० [हिं०] सब या मुख्य मुख्य लोग। जैसे—पाँच पंच जो कुछ कहें, वह हम मानने को तैयार हैं।
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पांच-भौतिक  : वि० [सं० पंचभूत+ठक्—इक] १. जिसका संबंध पंचभूतों से हो। २. पंच-भूतों से मिलकर बना हुआ। जैसे—पांच भौतिक शरीर।
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पांचयज्ञिक  : वि० [सं० पंचयज्ञ+ठक्—इक] पंच यज्ञ-संबंधी। पुं० पाँच प्रकार के यज्ञों में से प्रत्येक।
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पाँचर  : पुं० [सं० पंजर] कोल्हू के बीच में जड़े हुए लकड़ी के वे छोटे टुकड़ो जो गन्ने के टुकड़ों को दबाने के लिए लगाये जाते हैं। पुं०=पच्चर।
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पांचरात्र  : पुं० [सं० पंचरात्रि+अण्] आधुनिक वैष्णव मत का एक प्राचीन रूप जिससे परम, तत्त्व, मुक्ति, मुक्ति योग और विषय (संसार) इन पाँच रात्रों (ज्ञानों) का निरूपण होता था। यह भागवत धर्म की दो प्रधान शाखाओं में से एक था।
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पांचवर्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठञ्—इक] पाँच वर्षों में होनेवाला। पंचवर्षीय।
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पाँचवाँ  : वि० [हिं० पाँच+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] क्रम या गिनती में पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
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पांचशाब्दिक  : पुं० [सं० पंचशब्द+ठक्—इक] करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी ये पाँच प्रकार के बाजे।
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पाँचा  : पुं० [हिं० पाँच] खेत का एक उपकरण जिसमें एक डंडे के साथ छोटी फूलकड़ियां लगी रहती हैं। यह प्रायः कटी हुई फसल या घास-भूसा इकट्ठा करने के काम आता है।
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पांचार्थिक  : पुं० [सं० पंचार्थ+ठन्—इक, वृद्धि (बा०)] शैव।
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पांचाल  : वि० [सं० पंचाल+अण्] १. पंचाल देश से संबंध रखनेवाला। पंचाल का। २. पंचाल देश में होनेवाला। पुं० १. पंचाल जाति के लोगों का देश जो भारत के पश्चिमोत्तर खंड में था। २. पंचाल जाति के लोग। ३. प्राचीन भारत में, बढ़इयों, नाइयों, जुलाहों, धोबियों और चमारों के पाँचों वर्गों का समूह।
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पांचालक  : वि० [सं० पांचाल+कन्] पंचालवासियों के संबंध का। पुं० पंचाल देश का राजा।
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पांचाल-मध्यमा  : स्त्री० [सं०] भारतीय नाट्य कला में, एक प्रकार की प्रवृत्ति या बात-चीत वेश-भूषा आदि का ढंग, प्रकार या रूप जो पांचाल शूरसेन, कश्मीर, वाह्लीक, मद्र आदि जनपदों की रहन-सहन आदि के अनुकरण पर होता था।
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पांचालिका  : स्त्री० [सं० पांचाली+कन्+टाप्, ह्रस्व]=पंचालिका।
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पांचाली  : स्त्री० [सं० पंचाल+अण्—ङीष्] १. पंचाल देश की स्त्री। २. पाँचों पांडवों की पत्नी द्रोपदी जो पांचाल देश की राजकुमारी थी। ३. साहित्यिक रचनाओं की एक विशिष्ट रीति या शैली जो मुख्यतः माधुर्य, सुकुमारता आदि गुणों से युक्त होती है। इसमें प्रायः छोटे-छोटे समास और कर्ण-मधुर पदावलियाँ होती हैं। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी वृत्तियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ४. संगीत में (क) स्वर-साधन की एक प्रणाली; और (ख) इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक। ५. छोटी पीपल।
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पांचो  : स्त्री० [हिं० पच्ची का पुराना रूप] रत्नों आदि के जड़ाव का काम। पच्चीकारी। उदा०—जाग्रत सपनु रहत ऊपर मनि, ज्यों कंचन संग पांची।—हित हरिवंश। स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पाँचेक  : वि० [हिं० पाँच+एक] १. पाँच के लगभग। २. थोड़े-से जैसे—वहाँ पाँचेक आदमी आये थे।
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पाँचै  : स्त्री० [हिं० पंचमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि। पंचमी।
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पाँछना  : स० १.=पाछना। २. पोंछना का अनु०।
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पाँज  : स्त्री० [सं० पाश] बाहु-पाश। वि० [हिं० पाँव] (जलाशय या नदी) जिसमें इतने कम पानी हो कि यों ही पाँव चलकर पार किया जा सके। स्त्री० छिछला जलाशय या नदी। पुं० पुल। सेतु। उदा०—जनक-सुता हितु हत्यो लंक-पति, बाँध्यों सागर पाँज।—सूर। पुं० [हिं० पाँजना] पाँजने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पाँजना  : स० [सं० प्रण द्रध, प्रा० पणज्झ पँज्झ] धातुओं के टुकड़ों को जोड़ने के लिए उनमें टाँका लगाना। झालना।
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पाँजर  : अव्य० [सं० पंजा] पास। समीप। पुं० १. निकटता। सामीप्य। २. दे० ‘पंजर’।
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पांजी  : स्त्री० १=पाँज। २.=पंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँझ  : स्त्री०=पाँज।
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पाँडक  : पुं०=पंडुक (पेंडुकी)।
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पांडर  : पुं० [सं०√पण्ड् (गति)+अर, दीर्घ] १. कुंद का वृक्ष और फूल। २. सफेद रंग। ३. सफेद रंग की कोई चीज। ४. मरुआ। ५. पानड़ी। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी। ८. पुराणानुसार एक पर्वत जो मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित कहा गया है।
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पांडर-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] सातला वृक्ष।
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पाँडरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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पांडव  : वि० [सं० पांडु+अण्] पांडु संबंधी। पांडु का। पुं० १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के ये पाँचों पुत्र—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। २. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे था। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. रहस्य संप्रदाय में, पाँचों इंद्रियाँ।
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पांडव-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] हस्तिनापुर।
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पांडवाभील  : पुं० [सं० पांडव-अभी, ष० त०√ला (लेना)+क] श्रीकृष्ण।
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पांडवायन  : पुं० [सं० पांडव-अयन, ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पांडविक  : पुं० [सं० पांडु+ठञ्—इक] एक तरह की गौरैया।
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पांडवीय  : वि० [सं० पांडव+छ—ईय] पांडु के पुत्रों से संबंध रखनेवाला पांडवों का।
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पांडवेय  : पुं० [सं० पांडु+अण्+ङीष्+ठक्—एय] १. पाँडव। २. राजा परीक्षित का एक नाम।
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पांडित्य  : पुं० [सं० पंडित+ष्यञ्] १. पंडित होने की अवस्था या भाव। २. पंडित या विद्वान् को होनेवाला ज्ञान। विद्वता।
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पांडीस  : स्त्री० [?] तलवार। (डिं०)
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पांडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु, नि. दीर्घ] [भाव० पांडुता] हलके पीले रंग का। पुं० १. पांडु फली। २. सफेद रंग। ३. कुछ लाली लिये पीला रंग। ४. त्वचा के पीले पड़ने का एक रोग। पीलिया। ५. हस्तिनापुर के प्रसिद्ध राजा जिनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पाँच पुत्र थे। ६. सफेद हाथी। ७. एक नाग का नाम। ८. परवल।
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पाँडुआ  : पुं० [सं०] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। दोमट जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडु-कंटक  : पुं० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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पांडु-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर।
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पांडुकंबली (लिन्)  : स्त्री० [सं० पांडुकंबल+इनि] ऊनी कंबल से आच्छादित गाड़ी।
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पाँडुक  : पुं०=पंडुक (पेंडकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडुक  : पुं० [सं० पाण्डु+कन्] १. पीला रंग। २. पीलिया रोग। ३. पांडुराजा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पांडु-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार व्रण-चिकित्सा का एक अंग जिससे फोड़े के अच्छे हो जाने पर उसके काले वर्ण को औषधि के प्रयोग में पीला बनाते हैं।
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पांडु-क्ष्मा  : स्त्री० [ब० स० ?] हस्तिनापुर का एक नाम।
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पांडु-चित्र  : पुं० [सं०] आलेख।
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पांडु-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धौ का पेड़।
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पांडुता  : स्त्री० [सं० पांडु+तल्+टाप्] पांडु होने की अवस्था या भाव। पीलापन।
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पांडु-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ।
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पांडु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] १. पुन्नाग वृक्ष। २. [कर्म० स०] सफेद हाथी। ३. सफेद साँप।
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पांडु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] रेणुका नामक गंध-द्रव्य।
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पांडु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] राजा पांडु का पुत्र। पाँचों पांडवों में से प्रत्येक।
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पांडु-पृष्ठ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (वह व्यक्ति) जिससे शरीर पर कोई शुभ लक्षण न हो। ३. अकर्मण्य। निकम्मा।
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पांडु-फला  : पुं० [ब० स०, टाप्] परवल।
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पांडु-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का छोटा क्षुप।
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पांडु-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. खड़िया। दुधिया मिट्टी। २. राम-रज नाम की पीली मिट्टी।
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पांडु-रंग  : पुं० [सं० पांडुर-अंग, ब० स०, शक०, पररूप] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार स्वाद में तिक्त और कृमि, श्लेष्मा, कफ आदि का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु के एक अवतार।
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पांडुर  : वि० [सं० पांडु+र] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत। पुं० १. धौ का पेड़। सफेद ज्वार। ३. कबूतर। बगला। ५. सफेद खड़िया। ६. कामला रोग। ७. सफेद कोढ़। ८. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ९. सर्प। साँप। १॰. साधु-संतों की आध्यात्मिक परिभाषा में, अज्ञान।
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पांडुरक  : वि० [सं० पाण्डुर+कन्] पांडु रंग का। पीला। पुं० १. पीला रंग। २. पीलिया।
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पांडुर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुटज। कुड़ा। कुरैया।
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पांडु-पृष्ठ  : पुं०=पांडुपृष्ठ।
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पांडुर-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप]
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पांडुरा  : स्त्री० [सं० पांडुर+टाप्] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों की एक देवी या शक्ति।
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पांडु-राग  : पुं० [ब० स०] दौना नाम का पौधा। पुं० [कर्म० स०] सफेद रंग। सफेदी।
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पांडुरिमा  : स्त्री० [सं० पांडुर+इमनिच्] हलका पीलापन।
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पांडुरेक्षु  : पुं० [सं० पांडुर+इक्षु, कर्म० स०] हलके पीले रंग की ईख।
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पांडुलिपि  : स्त्री० [सं०] १. पुस्तक, लेख आदि की हाथ की लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। (मैनस्क्रिष्ट) २. दे० ‘पांडुलेख’।
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पांडु-लेख  : पुं० [कर्म० स०] १. हाथ से लिखा हुआ वह आरंभिक लेख जिसमें काँट-छाँट, परिवर्तन आदि होने को हो। २. उक्त का काट-छाँट कर तैयार किया हुआ वह रूप जो प्रकाशित किये या छापा जाने को हो। (ड्राफ्ट) ३. पांडुलिपि।
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पांडु-लेखक  : पुं० [ष० त० ?] वह जो लेख आदि की पांडु-लिपि लिखकर तैयार करता हो। (ड्राफ्टमैन)
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पांडु-लेखन  : पुं० [ष० त० ?] लेख्य आदि की पांडुलिपि तैयार करने का काम। (ड्राफ्टिंग)।
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पांडु-लेख्य  : पुं० [कर्म० स०] १.=पांडुलिपि। २.=पांडुलेख।
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पांडु-लोमश  : वि० [कर्म० स०,+श] [स्त्री० पांडुलोमशा] सफेद रोएँवाला। जिसके रोयें या बाल सफेद हों।
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पांडु-लोमशा  : स्त्री० [सं० पांडुलोमश्+टाप्] मषवन। माषपर्णी।
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पांडु-लोमा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पांडु-लोमशा। (दे०)
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पांडु-शर्करा  : स्त्री० [ब० स०] प्रमेह रोग का एक भेद।
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पांडुशर्मिला  : स्त्री० [सं०] द्रौपदी।
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पांडू  : स्त्री० [सं० पांडु=पीला] १. हलके पीले रंग की मिट्टी। २. ऐसी कीचड़ जिसमें बालू भी मिला हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें वर्षा के जल से ही उपज होती हो। बारानी।
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पाँडे  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. दे० ‘पाण्डेय’। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. भोजन बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया। ४. पंडित। विद्वान। (क्व०)
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पांडेय  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. कान्यकुब्ज और सरयूपारी ब्राह्मणों की शाखाओं का अल्ल या उपाधि। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. दे० ‘पाँडे’।
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पाँत  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँतरना  : अ० [सं० पीत्रल] १. गलती या भूल करना। २. मूर्खता करना। उदा०—प्रमणै पित मात पूत मत पांतरि।—प्रिथीराज।
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पाँतरिया  : वि० [सं० पत्रल] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। उदा०—पांतरिया माता इ पिता।—प्रिथीराज।
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पांति  : स्त्री० [सं० पांक्ति] १. अवली। कतार। पंगत। २. बिरादरी के वे लोग जो साथ बैठकर भोजन कर सकते हों।
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पांथ  : वि० [सं० पथिन्+अण्, पन्थ-आदेश] १. पथिक। २. वियोगी। विरही। पुं० सूर्य। पुं०=पंथ (रास्ता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पांथ-निवास  : पुं० [ष० त०]=पांथ-शाला।
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पांथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] पथिकों और यात्रियों के ठहरने के लिए रास्ते में बनी हुई जहग (इमारत या घर)। जैसे—धर्मशाला, सराय, होटल आदि।
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पाँपणि  : स्त्री० [हिं० पश्चिमी हि० पपनी] पलक। उदा०—पाँपणि पंख सँवारि नवी परि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँय  : पुं०=पाँव।
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पाँयचा  : पुं० [फा०] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने के वे ईटें या पत्थर जिन पर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिए बैठते हैं। २. पाजामें की मोहरी का वह अंश जो घुटनों के नीचे तक रहता है।
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पाँयता  : पुं०=पैंताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँव  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव] १. जीव-जंतुओं, पशुओं और विशेषतः मनुष्य के नीचेवाले वे अंग जिनकी सहायता से चलते-फिरते अथवा जिनके आधार पर वे खड़े होते हैं। पैर। पद—पाँव का खटका=दे० ‘पैर की आहट।’ पाँव की जूती=बहुत ही तुच्छ या हीन वस्तु या व्यक्ति। पाँव की बेड़ी=ऐसा बंधन जो किसी की स्वच्छंद गति या रहन-सहन में बाधक हो। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना=दे० ‘टाँग’ के अंतर्गत ‘टाँग अड़ाना।’ पाँव उखड़ जाना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत’ ‘पैर उखड़ना या उखड़ जाना’। पाँव उखाड़ना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत। पाँव उठाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव खींचना=व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना या घूमना-फिरना छोड़ देना। पाँव गाड़ना=दे० नीचे ‘पाँव रोपना’। पाँव घिसना=(क) बार-बार कहीं बहुत अधिक आना-जाना। (ख) दे० नीचे ‘पाँव रगड़ना’। (किसी स्त्री के) पाँव छुड़ाना= उपचार, औषध आदि की सहायता से ऐसा उपाय करना कि रुका हुआ मासिक रज-स्त्राव फिर से होने लगे। (किसी स्त्री के) पाँव छूटना=(क) स्त्री का मासिकधर्म से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से और अपेक्षया अधिक समय तक रज-स्त्राव होता रहना। (किसी के ) पाँव छूना=किसी बड़े का आदर या सम्मान करने के लिए उसके पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। पाँव ठहरना=दृढ़तापूर्वक या स्थिर भाव से कहीं खड़े होना। ठहरना या रुकना। पाँव तोड़कर बैठना=स्थायी रूप और स्थिर भाव से एक जगह पर रहना और व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना बंद कर देना (किसी के) पाँव दबाना या दाबना=थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिए टाँगे दबाना। (किसी काम या बात में) पाँव धरना= किसी काम में अग्रसर या प्रवृत्त होना। (किसी के) पाँव धरना या पकड़ना=किसी प्रकार का आग्रह, विनती आदि कहते मनाने के लिए किसी के पाँव पर हाथ रखना। उदा०—अब यह बात यहाँ जानि ऊधौ, पकरति पाँव तिहारे।—सूर। (किसी जगह) पाँव धरना या रखना=कहीं जाना या जाकर पहुँचना। पैर रखना। जैसे—अब कभी उन के यहाँ पाँव न रखना। (किसी जगह) पाँव धारना=कृतज्ञतापूर्वक पदार्पण करना। उदा०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जँह जँह नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी। (किसी के) पाँव धोकर पीना=(क) चरणामृत लेना। (ख) बहुत अधिक पूज्य तथा मान्य समझकर परम आदर, भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट करना। पाँव निकालना=(क) कहीं चलने या जाने के लिए पैर उठाना या बढ़ाना। (ख) नियंत्रण आदि की उपेक्षा करते हुए कोई नई प्रवृत्ति विशेषतः अनिष्ट या अवांछित प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाना। जैसे—तुम तो अभी से पाँव निकालने लगे। (किसी का) पाँव पड़ना=आगमन होना। आना। जैसे—आपके पाँव पड़ने से यह घर पवित्र हो गया। (किसी के) पाँव पड़ना=(क) झुककप या पैर छूकर नमस्कार करना। (ख) अपनी प्रार्थना या विनती मनवाने के लिए बहुत ही दीनतापूर्वक आग्रह करना। (किसी के) पाँव पर गिरना=दे० ऊपर ‘(किसी से) पाँव पड़ना’। पाँव पर पाँव रखकर बैठना=काम-धंधा छोड़ बैठना या पड़े रहना। निठल्ले की तरह बैठना। (किसी के) पाँव पर पाँव रखना=दूसरे के चरण चिह्नों का अनुकरण करना। किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। (किसी के) पाँव पर सिर रखना=दे० ऊपर ‘(किसी के) पाँव पड़ना’। पाँव पलोटना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर दबाना’। पाँव पसारना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर फैलाना’। पाँव-पाँव चलना=पैदल चलना। जैसे—अब कुछ दूर पाँव-पाँव भी चलो। (किसी को) पाँव पारना=पैरों पड़ने के लिए विवश करना। उदा०—कहाँ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं।—सूर। पाँव पीटना=(क) बेचैनी या यंत्रणा से पैर पटकना। छटपटाना। (ख) बहुत अधिक दौड़-धूप या प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव पूजना=बहुत अधिक भक्ति या श्रद्धा दिखाते हुए आदर-सत्यार करना। (वर के) पाँव पूजना=विवाह में कन्या कुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। (किसी के) पाँव फूलना=भय, शंका आदि से ऐसी मनोदशा होना कि आगे बढ़ने का साहस न हो। (प्रसूता का) पाँव फेरने जाना=बच्चा हो जाने पर शुभ शकुन में प्रसूता का अपने मायके में कुछ दिनों तक रहने के लिए जाना। (वधू का) पाँव फेरने जाना=विवाह होने पर ससुराल आने के बाद वधू का पहले-पहल कुछ दिनों तक अपने मायके में रहने के लिए जाना। पाँव फैलाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बढ़ाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बाहर निकालना=पाँव निकालना। पाँव रगड़ना=(क) बहुत दौड़-धूप करना। (ख) कष्ट या पीड़ा से छटपटाना। (किसी काम या बात के लिए) पाँव रोपना=(क) दृढ़तापूर्वक प्रण या प्रतिज्ञा करना। (ख) हठ करना। अड़ना। (किसी के) पाँव लगाना=पैरों पर सिर रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। (किसी स्थान का) पाँव लगा होना=किसी स्थान से इस रूप में ज्ञात या परिचित होना कि उस पर चल-फिर चुकें हों। जैसे—वहाँ का रास्ता हमारे पाँव लगा है, आप से आप ठीक जगह पहुँच जाता हूँ। (किसी काम या बात से) पाँव समेटना=अलग, किनारे या दूर हो जाना। संबंध न रखना। छोड़ देना। जैसे—अब काम में हमने पाँव समेट लिये। विशेष—यों ‘पाँव’ और ‘पैर’ एक दूसरे के पर्याय या समानक ही है, फिर भी ‘पाँव’ पुराना और पूर्वी शब्द है, तथा ‘पैर’ अपेक्षया आधुनिक और पश्चिमी शब्द है। अधिकतर पुराने प्रयोग या मुहावरे ‘पैर’ से संबद्ध है, और ‘पाँव’ की तुलना में ‘पैर’ अधिंक प्रचलित तथा शिष्ट-सम्मत हो गया है। फिर भी बोल-चाल में लोग यह अंतर न जानने या न समझने के कारण दोनों शब्दों के मिले-जुले प्रयोग करते हैं जिससे दोनों के मुहावरे भी बहुत कुछ मिल-जुल गये हैं। यहाँ दोनों के विशिष्ट प्रयोगों और मुहावरों से कुछ अंतर रखा गया है। अतः पाँव के शेष प्रयोगों और मुहावरों के लिए ‘पैर’ के मुहावरे देखने चाहिए। २. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज या बात टिकी या ठहरी रहे। मुहा०—पाँव कट जाना=आधार या आश्रम नष्ट हो जाना (किसी के) पाँव न होना=(क) ऐसा कोई आधार या आश्रम न होना जिस पर कोई टिक या ठहर सके। जैसे—इस बात का न कोई सिर है न पाँव। (ख) खड़े रहने या ठहरने की शक्ति न होना। जैसे—चोर के पाँव नहीं होते, अर्थात् उसमें ठहरने या सामने आने का साहस नहीं होता।
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पाँव-चप्पी  : स्त्री० [हिं० पाँव+चापना=दबाना] पैर दबाने की क्रिया या भाव।
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पांवचा  : पुं०=पाँयचा।
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पाँवड़ा  : पुं० [हिं० पाँव+ड़ा (प्रत्य०)][स्त्री० पाँवड़ी] १. वह कपड़ा जो किसी बड़े और पूज्य व्यक्ति के मार्ग में इस उद्देश्य से बिछाया जाता है कि वह इस पर से हो कर चले। २. वह कपड़ा या ऐसी ही और कोई चीज जो पैर पोंछने के लिए कहीं पड़ा या बिछा रहता हो। पाँवदान। ३. दे० ‘पाँवड़ी’।
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पाँवड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी (प्रत्य०)] १. खड़ाऊँ। २. जूता। ३. सीढ़ी। सोपान। ४. ऐसी चीज या जगह जिस पर प्रायः पैर रखे जाते या पड़ते हों। ५. गोटा-पट्ठा बिननेवालों का एक औजार जो बुनते समय पैरों से दबाकर रखा जाता है और जिससे ताने के तार ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते हैं। स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १. वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। ड्योढ़ी। पौरी। २. बैठने का ऊपरी कमरा। बैठक। ३. ‘पौरी’।
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पाँवर  : वि०=पामर। पुं०=पाँवड़ा। स्त्री०=पाँवड़ी।
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पाँवरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।
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पांशन  : वि० [सं०√पंस् (नाश करना)+ल्यु—अन, दीर्घ, पृषो०] १. कलंकित करनेवाला। भ्रष्ट करनेवाला। २. दुष्ट। ३. हेय। (प्रायः समास में व्यवहृत) जैसे—पौलस्त्य-कुल-पांशन। पुं० १. अपमान। २. तिरस्कार।
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पांशव  : पुं० [सं० पांशु+अण्] रेह का नमक।
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पांशु  : स्त्री०[सं०√पंस् (श्)+उ, दीर्घ] १. धूलि। रज। २. बालू। ३. गोबर की खाद। पाँस। ४. पित्त पापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. भू-संपत्ति। जमीन। जायदाद।
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पांशु-कसीस  : पुं० [उपमि० स०] कसीस।
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पांशुका  : स्त्री० [सं० पांशु√कै (चमकना)+क+टाप्] केवड़े का पौधा।
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पांशुकुली  : स्त्री० [सं० पांशु√कुल, (इकट्ठा होना)+क+ङीष] राजमार्ग।
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पांशु-कूल  : पुं० [ष० त०] १. धूल का ढेर। २. चीथड़ों आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। ३. गुदड़ी। ४. वह दस्तावेज या लेख्य जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो।
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पांश-कृत  : वि० [तृ० त०] १. धूल के ढका हुआ। २. पीला पड़ा हुआ। ३. मैला-कुचैला।
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पांशु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पाँगा नमक।
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पांशु-चंदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पांशु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांशुज  : पुं० [सं० पांशु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
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पांशु-धान  : पुं० [ष० त०] धूल का ढेर।
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पांशु-पटल  : पुं० [ष० त०] किसी चीज पर जमी धूल की तह या परत।
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पांशु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ (साग)।
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पांश-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांशुर  : पुं० [सं० पांशु√रा (देना)+क] १. डाँस। २. खंज। ३. पंगु व्यक्ति।
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पांशु-रागिनी  : स्त्री० [सं० पांशु√रञ्ज् (रंगना)+घिनुण्+ ङीप्] महामेदा।
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पांशु-राष्ट्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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पांशुल  : वि० [सं० पांशु+लच्] [स्त्री० पांशुला] १. जिस पर गर्द या धूल पड़ी हो। मैला-कुचैला। २. पर-स्त्री-गामी। व्यभिचारी। पुं० १. पूतिरकंज। २. शिव।
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पांशुला  : स्त्री० [सं० पांशुल+टाप्] १. कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री। २. राजस्वला स्त्री। ३. जमीन। भूमि। ४. केतकी।
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पाँस  : स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मूत्र आदि, सड़ी-गली चीजें जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें डाली जाती हैं। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. कोई चीज सड़ाकर उठाया जानेवाला खमीर। ३. विशेषतः मधु आदि का वह खमीर जो शराब बनाने के लिए उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।
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पाँसना  : स० [हिं० पाँस+ना (प्रत्य०)] खेत में पाँस या खाद डालना।
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पाँसा  : पुं०=पासा।
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पाँसी  : स्त्री० [सं० पाश] घास, भूसा आदि बाधने के लिए रस्सियों की बनी हुई बड़ी जाली। जाला।
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पांसु  : स्त्री० [√पंस्+उ, दीर्घ]=पांशु।
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पांसु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पांगा नमक।
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पांसु-खुर  : पुं० [ब० स०] घोड़ों के खुरों का एक रोग।
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पांसु गुंठित  : वि० [तृ० तृ०] धूल से ढका हुआ।
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पांसु-चदन  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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पांसु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांसु-चामर  : पुं० [ब० स०] १. बड़ा खेमा। तंबू। २. नदी का ऐसा किनारा जिस पर दूब जमी हो। ३. धूल। ४. प्रशंसा।
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पांसुज  : वि० [सं० पांसु√जन्+ड] पाँगा नमक।
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पांसु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुए का साग।
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पांसु-भव  : पुं० [ब० स०] पाँगा नमक।
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पांसु-भिक्षा  : स्त्री० [सं० पांसु√भिक्ष् (याचना)+अङ्—टाप्] धौ का पेड़।
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पांसु-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांसुर  : पुं० [सं० पांसु√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का बड़ा मच्छड़। दंश। डाँस। २. लूला-लँगड़ा जीव या प्राणी।
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पांसुरागिणी  : स्त्री० [सं० दे० ‘पांशुरागिनी’] महामेदा।
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पाँसुरी  : स्त्री०=पसली।
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पांसुल  : वि० [सं० पांसु+लच्] १. धूल से लथ-पथ। २. मलिन। मैला। ३. पापी। ४. पर-स्त्रीगामी। पुं० शिव।
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पांसुला  : वि० [सं० पांसुल+टाप्] १. व्यभिचारिणी (स्त्री)। २. रजस्वला (स्त्री)। स्त्री० १. पृथ्वी। २. केतकी।
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पाँसु  : पुं० [हिं० पाँस+ऊ (प्रत्य०)] कुम्हारों का एक उपकरण जिससे वे गीली मिट्टी चलाते और सानते हैं।
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पाँही  : अव्य० [हिं० पँह] १. निकट। पास। समीर। २. प्रति।
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पा  : पुं० [सं० पाद से फा०] पैर। पाँव। वि० १. दृढ़ पैरोंवाला। २. अधिक समय तक टिकने या ठहरनेवाला। टिकाऊ (यौ० के अंत में) जैसे—देर-पा=देर तक ठहरनेवाला।
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पा-अंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज] वह छोटा बिछावन जो कमरों के दरवाजों पर पैर पोंछने के लिए रखा जाता है। पावदान। उदा०—दृग-पग पोंछन कौं कियो भूषण पायन्दाज (पा-अंदाज)।—बिहारी।
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पाइ  : पुं०=पा (पैर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—
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पाइक  : वि०, पुं०=पायक। स्त्री०=पताका।
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पाइफा  : पुं० [अं०] आकार के विचार से टाइपों का एक भेद जिसका मुद्रित रुप १।६ इंच के बराबर होता है।
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पाइट  : स्त्री० [अं० फ्लाइट] बाँसों, तख्तों आदि को रस्सियों से बाँधकर खडा किया हुआ वह ढाँचा जिस पर खड़े होकर राज-मजदूर दीवारें आदि बनाते तथा उन पर पलस्तर, चूना, रंग आदि करते हैं।
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पाइतरी  : स्त्री०=पायँता (खाट या बिस्तर का)।
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पाइदेल  : वि०, पुं०=पैदल।
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पाइप  : पुं० [अं०] १. नल या नली। २. किसी प्रकार का नल जिसके अंदर से होकर कोई चीज एक जगह से दूसरी जगह जाती हो। जैसे—पानी का पाइप, गैस का पाइप। ३. तमाकू पीने की एक प्रकार की पाश्चात्य नली। ४. बांसुरी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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पाइपोस  : पुं०=पापोश (जूता)।
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पाइमाल  : वि०=पायमाल।
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पाइरा  : पुं० [हिं० पाँव+रा (प्रत्य०)] घोड़े की जीन-सवारी के साज में की रकाब।
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पाइरिल्ला  : पुं० [सं०] भूरे रंग का एक तरह का थूथनदार कीड़ा दो गन्ने के पौधों की पत्तियाँ खाता है।
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पाइल  : स्त्री०=पायल।
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पाइलट  : पुं० [अं०] वायुयान चालक।
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पाई  : वि० [फा० पाईन] १. सामनेवाला। २. नीचेवाला। ३. अंतिम।
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पाईबाग  : पुं० [फा०+अ०] घर के साथ लगा हुआ बाग। नजरबाग।
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पाई  : स्त्री० [सं० पाद, पुं० हिं० पाय] १. खड़ी या सीधी या सीधी लकीर। २. वह छोटी खड़ी रेखा जो वाक्य के अंत में पूर्णविराम सूचित करने के लिए लगाई जाती हैं। लेखों आदि में पूर्णविराम का सूचक चिह्न। ३. पाँ। पैर। ४. घेरा बाँध कर चलने या नाचने की किया या भाव। ५. पतली छड़ियों या बेतों का बना हुआ। जुलाहों का एक ढाँचा जिस पर ताने का सूत फैलाकर उन्हें मांजते हैं। टिकटी। अट्ठा। मुहा०—ताना-पाई करना=बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर आते-जाते रहना। ६. ताने का सूत माँजने की क्रिया। ७. घोड़ों के पैर सजने का एक रोग। ८. ताँबे का एक पुराना छोटा सिक्का जो एक पैसे के तिहाई मूल्य का होता था और जिसका चलन अब उठ गया है। ९. ताँबें का पैसा। (पूरब) १॰. वह पिटारी जिसमें देहाती स्त्रियाँ साधारण गहने-कपड़े रखती हैं। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] प्राप्त करने अर्थात् पाने की क्रिया या भाव। जैसे—भर-पाई की रसीद। स्त्री० [हिं० पाया=पाई कीड़ा] एक प्रकार का छोटा लंबा कीड़ा जो घुन की तरह अन्न में लगाकर उसे खा जाता है और उसे अंकुरित होने के योग्य नहीं रहने देता। क्रि० प्र०—लगना। स्त्री० [अं०] १. ढेर के रूप में मिले हुए छापे के टाइप। २. छापेखाने में सीसे के वे अक्षर या टाइप जो घिस-पिस अथवा टूट-फूट जाने के कारण निकम्मे या रद्दी हो गये हों, और ढेर के रूप में अलग रख दिये गये हों। ३. छापेखाने में सीसे के अक्षरों या टाइपों का वह ढेर जो अव्यवस्थित रूप से कहीं पड़ा हो।
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पाईगाह  : स्त्री० [फा० पाएगाह] १. अश्वाला। तबेला। २. किसी बडे आदमी के प्रासाद या महल की ड्योढ़ी(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पाईता  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक मगण, एक भगण और एक सगण होता है।
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पाउँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउंड  : पुं० [अ०] १. सोने की एक अंगरेजी सिक्का। २. सात या साढ़े सात छटाँक के लग-भग की एक तौल।
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पाउंड पावना  : पुं० [अं० पाउँड+हिं० पावना] पाउंडों के रूप में प्राप्त विदेशी मुद्रा। विशेषतः ब्रिटेन से किसी देश के पावने की वह रकम जो बैंक आफ इंग्लैंड में जमा रहती है और उसके साथ हुए समझौते की शर्तों के अनुसार कमशः चुकाई जाती है। (स्टलिंग बैलेन्स)
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पाउ  : पुं०=पाँव। पुं०=पाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउडर  : पुं० [अं०] १. कोई ऐसी चीज जो पीसकर बहुत महीन कर दी गई हो। चूर्ण। बुकनी। २. वह सुगंधित चूर्ण या बुकनी जो स्त्रियाँ अपने चेहरे तथा अन्य अंगों पर उन की रंगत चमकाने और सुन्दर बनाने के लिए लगाती हैं।
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पाउस  : पुं०=पावस (वर्षा ऋतु)।
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पाक  : पुं० [सं०√पच् (पकाना)+घञ्] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। रींधना। २. किसी चीज के ठीक तरह से पके या पचे हुए होने की अवस्था या भाव। ३. पकाया हुआ भोजन। रसोई। ४. वह औषध या फल जो शीरे में पकाया गया हो। जैसे—बदाम पाक, मेवा पाक, सुपारी पाक। ५. खाये हुए पदार्थ के पचने की क्रिया या भाव। पचन। ६. श्राद्ध में पिंडदान के लिए पकाया हुआ चावल या खीर। ७. किसी चीज या बात का अपने पूर्ण रूप में पहुँचना, अथवा उचित और यथेष्ट रूप मे परिपुष्ट तथा परिवृद्ध होना। ८. एक दैत्य जो इंद्र के हाथों मारा गया था। वि० १. छोटा। २. प्रशंसनीय। ३. परिपुष्ट तथा पूर्ण अवस्था में पहुँचा हुआ। ४. ईमानदार। सच्चा । ५. अनजान। वि० [फा०] १. पवित्र। निर्मल। विशुद्ध। जैसे—पाक नजर, पाक मुहब्बत। पद—पाक-साफ=(क) पवित्र और स्वच्छ। (ख) निष्कलंक। २. साफ। स्वच्छ। ३. दोषों आदि से रहित । निर्दोष। ४. धार्मिक दृष्टि से पवित्र, सदाचारी और पूज्य। ५. किसी आवांछित अंश या तत्त्व से रहति। जैसे—यह जायदाद सब तरह के झगड़ों से पाक है। मुहा०—(जानवर) पाक करना=जबह किये हुए पशु या पक्षी के पर, रोएँ आदि काटकर अलग करना। झगड़ा पाक करना=(क) झगड़डा तै करना या निपटाना। (ख) झंझट, बाधा आदि दूर, नष्ट या समाप्त करना। (ग) (विरोधी, वैरी आदि का) अंत या नाश करना। पुं० पाकिस्तान का संक्षिप्त रूप। जैसे—भारत-पाक में समझौता।
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पाक-कर्म  : पुं०=पाक-क्रिया।
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पाक-कृष्ण  : पुं० [ब० स०] १. जंगली करौंदा। २. पानी आँवला ।
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पाक-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। २. पाचन क्रिया।
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पाकज  : वि० [सं० पाक√जन्+ड] पाक से उत्पन्न। पुं० १. कचिया नमक। २. भोजन के ठीक प्रकार से न पचने पर पेट में होनेवाला शूल।
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पाकजाद  : वि० [फा० पाकाजादः] शुद्ध तथा स्वच्छ प्रकृतिवाला। शुद्घात्मा।
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पाकट  : पुं०=पाकेट। वि०=पाकठ। वि०=पाकठा।
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पाकठ  : वि० [हिं० पकना] १. अच्छी तरह पका हुआ। २. यथेष्ट चुतर या चालाक। दक्ष। होशियार। जैसे—अब यह लड़का दूकानदारी के काम में पाकठ हो गया है। ३. दृढ़। मजबूत।
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पाकड़  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की जाति का एक बड़ा पेड़। पाकढ़।
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पाक-दामन  : वि० [फा०] [भाव० पाकदामनी] जिसका चरित्र पवित्र और निष्कलंक हो। (विशेष रूप से स्त्रियों के लिए प्रयुक्त)।
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पाकदामिनी  : स्त्री० [फा०] ‘पाकदामन’ होने की अवस्था। (स्त्री का) सदाचार या सच्चरित्रता।
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पाक द्विष  : पुं० [सं० पाक√द्विष् (शत्रुता करना)+ क्विप्] इंद्र।
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पाकना  : अ०=पकना। स०=पकाना।
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पाकबाज  : वि० [फा० पाक+बाज] [भाव० पाकबाजी] सदाचारी।
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पाक-पात्र  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा बरतन जिसमें भोजन पकाया या बनाया। जाता हो।
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पाक-पुटी  : स्त्री० [च० त०] कच्ची मिट्टी के बरतन पकाने का आँवाँ।
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पाक-फल  : पुं० [ब० स०] १. करौंदा। २. पानी अमला।
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पाक-भांड  : पुं०=पाक-पात्र। (दे०)।
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पाक-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] १. वृषोत्सर्ग, गृह-प्रतिष्ठा आदि के समय किया जानेवाला होम जिसमें खीर की आहुति दी जाती है। २. पंच महायज्ञ में ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त अन्य चार यज्ञ—वैश्वदेव होम, बलि-कर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि-भोजन।
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पाक-याज्ञिक  : वि० [सं० पाक-यज्ञ+ठञ—इक] १. पाकयज्ञ-संबंधी। पाक-यज्ञ का। २. पाक यज्ञ करनेवाला ३. पाक यज्ञ से उत्पन्न। पुं० वह ग्रंथ जिसमें पाक-यज्ञ के विधान आदि बतलाये गये हों।
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पाक-रंजन  : पुं० [सं० पाक√रञ्ज्+णिच्+ल्यु—अन] तेजपत्ता।
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पाकर  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की तरह का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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पाकरिपु  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाकरी  : स्त्री० [हिं० पाकर का स्त्री० अल्पा० रूप] छीटा पाकर।
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पाकल  : पुं० [सं० पाक√ला (लेना)+क] १. वह दवा जिससे कुष्ठ अच्छा होता हो। कुष्ठ रोग की दवा। २. फोड़ा पकानेवाली दवा। ३. अग्नि। आग । ४. एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पित्त प्रबल, वात मध्य और कफहीन अवस्था में होता है। वैद्यक के अनुसार इसका रोगी प्रायः तीन दिन में मर जाता है। ५. हाथी को आने-वाला ज्वर या बुखार।
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पाकलि, पाकली  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्विप्√कल् (गिनती करना)+इन्] [सं० पाकलि+डीष्] काकड़ासींगी। कर्कटी।
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पाक-शाला  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ भोजन पकाया या बनाया जाता हो। रसोई-घर।
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पाकशासन  : पुं० [सं० पाक√शास् (शासन करना)+ ल्यु—अन] इंद्र।
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पाक-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें विभिन्न खाद्य पदार्थों या व्यंजन बनाने की कला, प्रकियायों आदि का विवेचन होता है।
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पाक-शुक्ला  : स्त्री० [स० त०] खड़िया मिट्टी।
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पाक-स्थली  : स्त्री० [ष० त०] पक्वाशय।
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पाकहंता (तृ)  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाका  : पुं० [हिं० पकाना] १. शरीर के विभिन्न अंगों के पकने की क्रिया या भाव । २. फोड़ा। वि०=पक्का।
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पाकागार  : पुं० [सं० पाक-आगार, ष० त०] पाकशाला।
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पाकात्यय  : पुं० [सं० पाक-अत्यय, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें उसका काला भाग सफेद हो जाता है। पुलती का सफेद हो जाना।
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पाकाभिमुख  : वि० [सं० पाक-अभिमुख, स० त०] जो पक रहा हो अथवा पूर्ण रूप से पकने को हो।
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पाकारि  : पुं० [पाक-अरि, ष० त०] १. इंद्र। २. सफेद कचनार।
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पाकिट  : पुं० १.=पाकेट। २.=पैकेट। वि०=पाकठ।
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पाकिस्तान  : पुं० [फा०] भारत का विभाजन करके बनाया हुआ वह मुसलमानी राज्य जिसका कुछ अंश भारत के पश्चिम में और कुछ पूर्व में है। पश्चिमी पाकिस्तानी में सिंध, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत तथा पूर्वी पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल नामक प्रदेश है।
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पाकिस्तानी  : वि० [फा०] १. पाकिस्तान देश संबंधी। पाकिस्तानी का। २. पाकिस्तान में होनेवाला। पुं० पाकिस्तान में रहनेवाला व्यक्ति।
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पाकी  : स्त्री० [फा०] १. पाक होने की अवस्था या भाव। २. निर्मलता। शुद्धता। ३. पवित्रता। पावनता। मुहा०—पाकी लेना=उपस्थ पर के बाल साफ करना।
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पाकीजा  : वि० [फा० पाकीज
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पाकु  : वि० [स० √पच्+उण्] १. पकानेवाला। २. [√पच्+उकञ] पचानेवाला। पाचकी। पुं० बावरची। रसोइया।
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पाकेट  : पुं० [अं० पाकेट] जेब। खीसा। मुहा०—पाकेट गरम होना=(क) पास में धन होना। (ख) अनुचित या अवैध रूप से किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ होना। पुं०=पैकेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] ऊँट। (डिं०)
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पाक्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्] १. जो पकाया जाने को हो। २. पचने योग्य। पुं० १. काला नमक। २. साँभर नमक। ३. जवाखार। ४. शोरा।
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पाक्य-क्षार  : [कर्म० स०] १. जवाखार नमक। २. शोरा।
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पाक्यज  : पुं० [सं० पाक्य√जन्+ड] कचिया नमक।
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पाक्या  : स्त्री० [सं० पाक्य+टाप्] १. सज्जी। २. शोरा।
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पाक्ष  : वि०=पाक्षिक। पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाक्षपातिक  : वि० [सं० पक्षपात+ठक—इक] १. पक्षपात करनेवाला। फूट डालनेवाला । २. पक्षपात के रूप में होनेवाला।
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पाक्षायण  : वि० [सं० पक्ष+फक्—आयन] १. जो पक्ष (१५ दिन) में एक बार हो या किया जाय। पाक्षिक। २. पक्ष (१५ दिन) का।
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पाक्षिक  : वि० [सं० पक्ष+ठञ्—इक] १. चांद्र मास के पक्ष से संबंध रखनेवाला। २. जो एक पक्ष (१५ दिन) में एक बार होता हो। जैसे—पाक्षिक अधिवेशन, पाक्षिक पत्र या पत्रिका। (फोर्टनाइटली)। ३. किसी प्रकार का पक्षपात करनेवाला। पक्षपाती । तरफदार। ४. (पिंगल में छंद) जिसमें (पक्ष के रूप में) दो मात्राएँ हों। ५. वैकल्पित। पुं० १. पक्षियों को फँसा या मारकर जीविका चलानेवाला व्यक्ति बहेलिया। २. ब्याध। शिकारी। ३. विकल्प।
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पाखंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप् पा√खंड (खंडन करना)+अण्] [वि० पाखंडी] १. वेदों की आज्ञा, मत या सिद्धांत के विरुद्ध किया जानेवाला आचरण। २. धार्मिक क्षेत्र में, अपने धर्म पर सच्ची निष्ठा और भक्ति रखते हुए केवल लोगों को दिखलाने के लिए झूठ-मूठ बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला पाठ-पूजन तथा अन्य धार्मिक आचार-व्यवहार। ३. लौकिक क्षेत्र में, वे सभी में, वे सभी आचार-व्यवहार जो झूठ-मूठ अपने आपको धर्म-परायण, नीति-परायण और सत्यनिष्ठ सिद्ध करने के लिए किये जाते हैं। अपना छल-कपट, धूर्तता, स्वार्थ-परता आदि छिपाने के लिए किया जानेवाला आचार-व्यवहार। आडंबर। ढकोसला। ढोंग (हिपोक्रिसी) मुहा०—पाखंड फैलाना=दूसरों को ठगने और धोखे में रखने के लिए आडंबरपूर्ण थोथे उपाय रचना। दुष्ट उद्देश्य से ऐसा दिखावटी काम करना जो अच्छे इरादे से किया हुआ जान पड़े। ढकोसला खड़ा करना। जैसे—बाबाजी ने गाँव में खूब पाखंड फैला रखा था। ४. वह व्यय जो किसी को धोखा देने के लिए किया जाय। ५. दुष्टता। पाजीपन। शरारत। ६. नीचता। वि०=पाखंडी।
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पाखंडी (डिन्)  : वि० [सं० पाखंड+इनि] १. वेद-विरुद्ध आचार करनेवाला। २. वेदाचार का खंडन या निंदा करनेवाला। ३. बनावटी धार्मिकता, सदाचार आदि दिखलानेवाला। ४. दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए आडंबर या ढोंग रचनेवाला।
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पाख  : पुं० [सं० पक्ष] १. चांद्रमास का कोई पक्ष। २. महीने का आधा समय। पंद्रह दिन का समय। पखवाड़ा। ३. कच्चे मकानों की दीवारों के वे ऊँचे भाग जिन परबँड़ेर रहती है। ४. पंख। पर।
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पाखर  : स्त्री० [सं० पक्षर, प्रक्खर] १. युद्धकाल में, घोड़ों या हाथियों पर डाली जानेवाली एक तरह की लोहे की झूल। २. उक्त झूल के वे भाग जो दोनों ओर झूलते रहते हैं। ३. जीन। ४. ऐसा टाट या और कोई मोटा कपड़ा जिस पर मोम, राल आदि का लेप किया हुआ हो। (ऐसा कपड़ा जल्दी भीगता या सड़ता-गलता नहीं है।) पुं०=पाकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखरी  : स्त्री० [हिं० पाखर=झूल] टाट का बिछावन जिसे गाड़ी में बिछाते हैं तब उसमें अनाज भरतें हैं।
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पाखा  : पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. कोना। छोर। २. कुछ दीवारों में ऊपर की ओर की वह रचना जो बीच में सबसे ऊँची और दोनों ओर ढालुई होती है। (ऐसी रचना इसलिए होती है कि उसके ऊपर ढालई छत या छाजन डाली जा सके) ३. दरवाजों के दोनों ओर के वे स्थान जिनके साथ, दरवाजे के खुले होने की अवस्था में किवाड़ लगे या सटे रहते हैं। ४. पाख।
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पाखान  : पुं०=पाषाण (पाथर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखान भेद  : पुं०=पाषाण भेद।
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पाखाना  : पुं० [फा० पाखान
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पाग  : पुं० [सं० पाक] १. वह खाद्य पदार्थ जो चाशनी या शीरे में पकाकर तैयार किया गया हो। जैसे—कोंहड़ा-पाग, बादाम-पाग। २. वह शोरा जिसमें रसगुल्ला, गुलाबजामुन आदि मिठाइयाँ भीगी पड़ी रहती हैं। ३. पागी हुई कोई ओषधि या फूल। पाक।
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पागड़  : पुं०=पाइरा (रकाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागना  : सं० [सं० पाक] १. खाने की किसी चीज को चाशनी या शीरे में कुछ समय तक डुबाकर रखना। २. ऐसी किया करना जिससे किसी चीज पर शीरे का लेप चढ़े। अ०=पगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागर  : स्त्री० [देश०] वह लंबी रस्सी जिसका एक सिरा नाव के मस्तूल में बँधा रहता है और दूसरा सिर किनारे पर खड़ा आदमी, खींचते हुए किसी दिशा में नाव को ले जाता है।
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पागल  : वि० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्, पा√गल् (स्खलित होना)+अच्] [स्त्री० पगली] [भाव० पागलपन] १. जिसका मस्तिष्क उन्मादरोग के कारण इतना विकृत हो गया हो कि ठीक तरह से कोई काम या बात न कर सके। जिसके मस्तिष्क का संतुलन नष्ट हो चुका या बिगड़ गया हो। बावला। विक्षिप्त। २. जो कष्ट, कोध, प्रेम या ऐसे ही किसी तीव्र मनोविकार से अभिभूत होने के कारण सब प्रकार का ज्ञान या विवेक खो बैठा हो। जैसे—वह क्रोध (या प्रेम) में पागल हो रहा था। ३. जो किसी काम में इतना अनुरक्त, आसक्त या लीन हो रहा हो कि उसे और कामों या बातों की सुध-बुध न रह गई हो। जैसे—आज-कल तो वह चुनाव के फेर में पागल हो रहा है। ४. जो इतना ना-समझ या मूर्ख हो कि प्रायः पागलों या विक्षिप्तों का-सा आचरण या उन जैसी बातें करता हो। जैसे—यह लड़का भी निरा पागल है।
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पागलखाना  : पुं० [हिं० पागल+फा० खाना] वह स्थान जहाँ विक्षिप्त व्यक्तियों को रखकर उनकी चिकित्सा की जाती है तथा जहाँ पर उनके रहने का भी प्रबंध रहता है।
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पागलपन  : पुं० [हिं० पागल+पन (प्रत्य०)] १. पागल होने की अवस्था या भाव। २. वह आचरण कार्य या बात जो पागल लोग साधारणतया करते हों। जैसे—बच्चे को रह-रहकर मारने लगना उनका पागलपन है। ३. बेवकूफी।
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पागलिनी  : स्त्री०=पागल (स्त्री)।
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पागली  : स्त्री०=पगली।
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पागुर  : पुं० दे० ‘जुगाली’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाघ  : स्त्री०=पाग (पगड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाचक  : वि० [सं० √पच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाचिका] किसी प्रकार का पाचन करने (पकाने या पचाने) वाला। पाचन की किया करनेवाला। पुं० १. वह जो भोजन पकाता या बनाता हो। बावर्ची। रसोइया। २. वह दवा जो खाई हुई चीज पचाती या पाचन शक्ति बढ़ाती हो। ३. कुछ विशिष्ट प्रक्रियाओं से बनाया हुआ वह अवलेह या चूर्ण जो प्रायः क्षारीय ओषधियों से बनाया जाता है और जिसका स्वाद खट-मीठा, नमकीन या मीठा होता है। ४. वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर रहनेवाले पाँच प्रकार के पित्तों में से एक जिसकी सहायता से भोजन पचता है। ५. वह अग्नि जिसका उक्त पित्त में अधिष्ठान माना जाता है।
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पाचन  : पुं० [सं०√पच्+णिच,+ल्युट्—अन] १. आग पर चढ़ाकर खाने-पीने की सामग्री पकाना। भोजन बनाना। २. पेट में पहुँचने पर खाये हुए पदार्थों के पचने या हजम होने की क्रिया। खाद्य पदार्थों के पेट में पहुँचने पर शारीरिक धातुओं के रूप में होनेवाला परिवर्तन। ३. पेंट के अंदर की वह शक्ति जो एक प्रकार की अग्नि के रूप में मानी गई है और जिसकी सहायता से खाई हुई चीज पचती या हजम होती है। जठराग्नि। हाजमा। ४. कोई ऐसा अम्ल या खट्टा रस जो भोजन के पचने में सहायक होता हो अथवा जिससे पेट के अंदर का मल या अपक्व दोष दूर करता हो। ५. कोई पाचक औषध। ६. लाक्षणिक रूप में, किसी प्रकार के दोष या विकार का धीरे-धीरे कम होकर नष्ट या शमित होना। जैसे—पाप या रोग का पाचन। ७. आग या अग्नि जिसकी सहायता से खाने-पीने की चीजें पकाई जाती हैं। ९. लाल रेंड। विं० १. खाई हुई चीजें पचाने या हजम करनेवाला। हाजिम। २. किसी प्रकार के अजीर्ण या आधिक्य का नाश या शमन करनेवाला।
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पाचनक  : पुं० [सं०√पच्+णिच्+ल्यु—अन+कन्] सुहागा।
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पाचन-गण  : पुं० [ष० त०] पाचन ओषधियों का वर्ग।
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पाचन-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. खाये हुए पदार्थों को पचाने की शक्ति या समर्थता। २. हाजमा।
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पाचना  : स० १.=पकाना। २. पचाना।
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पाचनी  : स्त्री० [सं० पाचन+ङीष्] हड़।
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पाचनीय  : वि० [सं०√पच्+णिच्+अनीयर्] १. जो पकाया जा सके। २. जो पचाया जा सके।
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पाचयिता (तृ)  : वि० [सं०√पच्+णिच्+तृच] १. पाक करनेवाला। २. पचानेवाला।
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पाचर  : पुं०=पच्चर।
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पाचल  : वि० [सं०√पच्+णिच्+कलन्] १. पकानेवाला। २. पचानेवाला। पुं० १. रसोइया। २. आग्नि । ३. वायु। ४. पकाई जानेवाली वस्तु। ५. पचानेवाली वस्तु।
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पाचा  : पुं० [सं० पाक] १. भोजन पकने या पकाने की क्रिया। पाक। २. भोजन पचने या पचाने की क्रिया। पाचन।
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पाचा-पाड़  : पुं० [हिं० पाँच+पाड़=किनारा] जनानी धोतियों का वह प्रकार जिसमें लम्बाई के बल ऊपर और नीचे जैसे दो किनारे बने हुए होते हैं, वैसे ही तीन किनारे बीच मे भी बुने रहते हैं। स्त्री० वह जनानी धोती या साड़ी जिसमें उक्त प्रकार के पाँच (तीन) किनारे बुने हुए हों।
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पाचिका  : स्त्री० [सं० पाचक+टाप्, इत्व] रसोई बनानेवाली स्त्री।
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पाचो  : वि० [सं०√पच्+णिच्+इन्+ङीष्] पाचन करनेवाला। स्त्री० पच्ची या मर्कतपत्री नाम की लता।
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पाच्छा, पाच्छाह  : पुं०=बादशाह।
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पाच्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्, कुत्वाभाव] १. जो पच या पक सकता हो। २. पकाने या पचाने योग्य।
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पाछ  : स्त्री० [हिं० पाछना] १. पाछने अर्थात् जंतु या पौधे के शरीर पर धूरी की तीखी धार लगाकर उसका रक्त या रस निकालने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. उक्त कार्य के लिए लगाया हुआ क्षत या किया हुआ घाव । ३. पोस्ते के डोंडे पर छुरी से किया जानेवाला वह क्षत जिसमें से गोंद के रूप में अफीम बाहर निकलती है। पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] किसी चीज का पिछला भाग। पीछा। अव्य०=पीछे।
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पाछना  : स० [हिं० पंछा] किसी जीव या पौधे की त्वचा या खाल पर इस प्रकार हलका घाव करना जिससे उसका रक्त या रस थोड़ा थोड़ा करके बाहर निकलने लगे।
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पाछल, पाछुल  : वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पीछे।
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पाछा  : पुं० १. दे० ‘पाछ’। २. दे० ‘पीछा’।
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पाछिल  : विं०=पिछला।
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पाछी  : अव्य० [हिं० पाछ] पीछे की ओर। पीछे।
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पाछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाछें, पाछे  : अव्य०=पीछे।
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पाज  : पुं० [सं० पाजस्य] १. पार्श्व । पार्श्वभाग । २. पंजर। पुं० १. सेतु। पुल। २. आधार। ३. जड़। ४. ढेर। राशि। ५. वज्र।
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पाजरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की वनस्पति जिसकी पत्तियों से एक प्रकार का रस निकाला जाता है।
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पाजस्य  : पुं० [सं०√पा+असुन्, जुट्+यत्] पार्श्व। बगल।
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पाजा  : पुं०=पायजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाजामा  : पुं० [फा० पाजामः या पाएजामः] एक तरह का सिला हुआ वस्त्र जो कमर से ऐडी तक का भाग ढकने के लिए पहना जाता है और जो ऊपरी भाग के नेफे में नाला डालकर कमर में बाँधा जाता है।
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पाजी  : पुं० [सं० पत्ति, प्रा० पडित से फा०] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। २. पैदल सेना का सिपाही। प्यादा। ३. चौकीदार। पहरेवादार। ४. साथ चलने या रहनेवाला व्यक्ति। साथी। ५. तुच्छ सेवाएँ करनेवाला नौकर। खिदमतगार। टहलुआ। वि० [फा०] [भाव० पाजीपन] जो प्रायः अपने दुष्ट आचरण या व्यवहार से सबको तंग या परेशान करता रहता हो। दुष्ट। लुच्चा।
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पाजीपन  : पुं० [हिं० पाजी+पन (प्रत्य०)] पाजी या दुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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पाजेब  : स्त्री० [फा० पाज़ेब] पैरों में पहनने का स्त्रियों का एक प्रसिद्ध आभूषण। मंजीर। नूपुर।
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पांटबर  : पुं० [सं० पट्ट+अम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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पाट  : पुं० [सं० पट्ट, पाट] १. रेशम। २. रेशम का बटा हुआ महीन डोरा। नख। ३. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा। ४. पटसन। ५. कपड़ा। वस्त्र। पद—पाट पटंबर=अच्छे अच्छे और कई तरह के कपड़े। ६. बैठने का पाटा या पीढ़ा। ७. राज-सिंहासन। ८. चौड़ाई के बल का विस्तार। जैसे—नदी का पाट। ९. किसी प्रकार का तख्ता, पटिया या शिला। १॰. पत्थर की वह पटिया जिस पर धोबी कपड़े धोते हैं। ११. चक्की के दोनों पल्लों में से हर एक। १२. लकड़ी के वे तख्ते जो छत पाटने के काम आते है। १३. वह चिपटा शहतीर जिस पर कोल्हू हाँकनेवाला बैठता है। १४. वह शहतीर जो कूएँ के मुँह पर पानी निकालनेवाले के खड़े होने के लिए रखा जाता है। १५. बैलों का एक रोग जिसमें उनके रोमकूपों में से रक्त निकलता है। क्रि० प्र०—फूटना। १६. मृदंग के चार वर्णों में से एक।
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पाटक  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ण्वुल—अक] १. एक तरह का बाजा। २. गाँव या बस्ती का आधा भाग। ३. तट। किनारा । ४. पासा। ५. एक तरह की बड़ी कलछी।
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पाट-करण  : पुं० [सं० ब० स०] शुद्ध जाति के रोगों का एक भेद।
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पाचच्चर  : वि० [सं० पटच्चर+अण्] चुरानेवाला।
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पाटदार  : वि०=पल्लेदार (आवाज)।
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पाटन  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ल्युट्—अन] चीरने-फाड़ने अथवा तोड़ने-फोड़ने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। पटाव। २. वह छत दीवारों को पाटकर बनाई गई हो। ३. घर के ऊपर का दूसरा खंड या मंजिल। ४. साँप का जहर झाड़ने का एक प्रकार का मंत्र। पुं० [सं० पत्तन] नगर या बस्ती के नाम के अंत में लगनेवाली ‘पत्तन’ सूचक संज्ञा। जैसे—झालरापाटन। स्त्री० [अं० पैटर्न] पुस्तक की जिल्द के रूप में बँधी हुई वे दफ्तियाँ जिन पर ग्राहकों या व्यापारियों को दिखाने के लिए कपड़ों आदि के नमूने के टुकड़े चिपकाये रहते हैं।
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पाटना  : स० [सं० पाट] १. खाई, गड्ढे आदि में इतना भराव भरना जिससे वह आस-पास की जमीन के बराबर और समतल हो जाय। २. कमरे के संबंध मे उसकी चारों ओर की दीवारों के ऊपरी भाग के खुले अवकाश को बंद करने के लिए उस पर छत या पाटन बनाना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी स्थान पर किसी चीज की बहुतायत या भरमार करना। जैसे—माल से बाजार पाटना। ४. लाक्षणिक रूप में, (क) ऋण आदि चुकाना, (ख) पारस्पिक दूरी, मत-भेद, विरोध आदि का अंत या समाप्ति करना। ५. दे० ‘पटाना’।
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पाटनि  : स्त्री० [सं० पट्ट] १. सिर के बालों की पट्टी। २. दे० ‘पाटना’।
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पाटनीय  : वि० [सं०√पट्+णिच्+अनीयर्] चीरे-फाड़े या तोड़े-फोड़े जाने के योग्य।
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पाटप  : वि० [हिं० पाट] सबसे बड़ा। उत्तम। श्रेष्ठ। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाट-महिषी  : स्त्री० [सं० पट्ट =सिहासन्,+ महिषी= रानी] किसी राजा की वह विवाहिता और बड़ी रानी जो उसके साथ सिंहासन पर बैठती अथवा उस पर बैठने की अधिकारिणी हो। पटरानी।
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पाटरानी  : स्त्री०=पटरानी।
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पाटल  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+कलप] १. पाडर या पाढर नामक पेड़, जिसके पत्ते आकार-प्रकार में बेल वृक्ष के पत्तों के समान होते हैं। २. गुलाब। वि० १. गुलाब-संबंधी। २. गुलाब के रंग का। उदा०—कर लै प्यौ पाटल बिमल प्यारी।—बिहारी।
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पाटलक  : वि० [सं० पाटल+कन्] पाटल के रंग का। गुलाबी रंग का। पुं० गुलाबी रंग।
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पाटलकीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कीड़ा।
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पाटल-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] पुन्नाग वृक्ष। राज-चंपक।
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पाटला  : स्त्री० [सं० पावल+टाप्] १. पाडर का वृक्ष। २. लाललोध। ३. जलकुंभी। ४. दुर्गा का एक रूप। पुं० [सं० पटल] एक प्रकार का बढ़िया और साफ सोना।
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पाटलवती  : स्त्री० [सं० पाटला+मतुप्, वत्व,+ङीष्] १. दुर्गा। २. एक प्राचीन नदी।
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पाटलि  : स्त्री० [सं०√पट्+णिच्+अलि] १. पाडर का वृक्ष। २. पांडुफली।
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पाटलिक  : वि० [सं० पाटलि+कन्] १. जो दूसरों के भेद या रहस्य जानता हो। २. जिसे देश और काल का ज्ञान हो। पुं० १. चेला। शिष्य। २. पाटलिपुत्र नगर।
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पाटलित  : भू० कृ० [सं० पाटल+णिच्+क्त] गुलाबी रंग में रँगा हुआ।
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पाटलि-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त० ?] अज्ञातशत्रु द्वारा बसाई हुई प्राचीन मगध की एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी जो आधुनिक पटना नगर के पास थी। पुष्पपुर। कुसुमपुर। विशेष—कुल लोग वर्तमान पटने को ही पाटिलपुत्र समझते हैं परंतु पटना शेरशाह सूरी का बसाया हुआ है।
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पाटलिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पाटल+इमनिच्] १. गुलाबी रंग। २. गुलाबी रंगत। ३. गुलाबी होने की अवस्था या भाव। गुलाबीपन।
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पाटली  : स्त्री० [सं० पाटलि+ङीष्]=पाटलि।
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पाटली-तैल  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का औषध तैल जिसके लगाने से जले हुए स्थान की जलन, पीड़ा और चेप बहना दूर होता है।
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पाटलीपुत्र  : पुं०=पाटलिपुत्र।
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पाटव  : पुं० [सं० पटु+अण्] १. पटुता। २. दृढ़ता। मजबूती। ३. जल्दी। शीघ्रता। ४. आरोग्य। ५. शक्ति।
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पाटविक  : वि० [सं० पाटव+ठन्—इक] १. पटु। कुशल। २. चालाक। धूर्त।
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पाटवी  : वि० [हिं० पाट+वी (प्रत्य०)] १. रेशम का बना हुआ। रेशमी। २. पटरानी संबंधी। पटरानी का। ३. पटरानी से उत्पन्न। ४. सर्वश्रेष्ठ। पुं० पटरानी का पुत्र।
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पाटसन  : पुं०=पटसन।
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पाटहिक  : पुं० [सं० पटह+ठञ्—इक] नगाड़ा बजानेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाटहिका  : स्त्री० [सं० पटह+अण्, पाटह+ठञ्—इक+टाप्] गुंजा। घुँघची।
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पाटा  : पुं० [हिं० पाट] [स्त्री० अल्पा० पाटी] १. बैठने का काठ का पीढ़ा। मुहा०—पाटा फेरना=विवाह में कन्यादान के उपरांत वर के पीढ़े पर कन्या और कन्या के पीढ़े पर वर को बैठाना। २. राज-सिंहासन। ३. लंबी धरन की तरह की वह आयताकार लकड़ी जिसकी सहायता से जोते हुए खेत की मिट्टी के ढेले तोड़कर उसे समतल करते हैं। ४. उक्त प्रकार का लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा राज लोग दीवारों का पलस्तर बराबर या समतल करते हैं। क्रि० प्र०—चलाना।—फेरना। ५. दो दीवारों के बीच में तख्ता, पटिया आदि लगाकर बनाया हुआ आधार स्थान।
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पाटि  : स्त्री० १.=पाट। २.=पाटी।
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पाटिका  : स्त्री० [सं० पाटक+टाप्, इत्व] १. एक दिन की मजदूरी। २. एक पौधा। ३. छाल। छिलका।
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पाटित  : भू० कृ० [सं०√पट्+णिच्+क्त] जो चीरा-फाड़ा अथवा तोड़ा-पोड़ा गया हो।
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पाटी  : भू० कृ० [सं०√पट्+इन्+ङीष्] १. परिपाटी। अनुक्रम। रीति। २. गणित-शास्त्र। हिसाब। ३. श्रेणी। पंक्ति। ४. बला नामक क्षुप। खरैंटी। स्त्री० [हिं० पाटा का स्त्री० रूप] १. लकड़ी की वह तख्ती या पट्टी जिस पर विद्यारंभ करनेवाले बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखाया जाता है। २. बच्चों को पढ़ाया जानेवाला पाठ। सबक। मुहा०—पाटी पढ़ना=(क) पाठ पढ़ना। सबक लेना। (ख) किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करना; विशेषतः ऐसी शिक्षा प्राप्त करना जो दुष्ट उद्देश्य से दी गई हो और जिसमें शिक्षा प्राप्त करनेवाले ने अपनी बुद्धि या विवेक का उपयोग न किया हो। ३. माँग के दोनों ओर गोंद, जल, तेल, आदि की सहायता से कंघी द्वारा बैठाये हुए बाल जो देखने में पटरी की तरह बराबर मालूम हों। पट्टी। पटिया। मुहा०—पाटी पारना या बैठाना=कंघी फेरकर सिर के बालों को समतल करके बैठना। उदा०—पाटी पारि अपने हाथ बेनी गुथि बनावे।—भारतेंदु। ४. खाट, पलंग आदि के चौखट की लंबाई के बल की लकड़ी। ५. चौड़ाई। ६. चट्टान। शिला। ७. मछली पकड़ने के लिए एक विशिष्ट प्रकार की क्रिया जिसमें बहते हुए पानी को मिट्टी के बाँध या वृक्षों की टहनियों आदि से रोक कर एक पतले मार्ग से निकलने के लिए बाध्य करते हैं, और उसी मार्ग पर उन्हें पकड़ते हैं। ८. खपरैल की नरिया का प्रत्येक आधा भाग। ९. जंती।
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पाटीगणित  : पुं० [सं०] गणित की वह शाखा जिसमें ज्ञात अंकों या संख्याओं की सहायता से अज्ञात अंक या संख्याएँ जानी जाती हैं। (एरिथिमेटिक)
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पाटीर  : पुं० [सं० पटीर+अण्] १. चंदन का वृक्ष और उसकी लकड़ी। २. खेत जोतन का हल। ३. खेत।
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पाटूनी  : पुं० [देश०] वह मल्लाह जो किसी घाट का ठीकेदार भी हो घटवार।
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पाट्य  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+यत्] पटसन।
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पाठ  : पुं० [सं०√पठ् (पढ़ना)+घङ्] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़ाई। २. वह विषय जो पढ़ा जाये। ३. किसी ग्रंथ का उतना अंश जितना एक दिन या एक बार में गुरु या शिक्षक से पढ़ा जाय। सबक। (लेसन) मुहा०—(किसी को) पाठ पढ़ाना=दुष्ट उद्देश्य से किसी को कोई बात अच्छी तरह समझना। पट्टी पढ़ाना। (व्यंग्य)। पाठ फेरना=बार-बार दोहराना। उद्धरणी करना। उलटा पाठ पढ़ाना=कुछ का कुछ समझा देना। उलटी-पुलटी बातें कहकर बहका देना। ४. नियमपूर्वक अथवा श्रद्धा-भक्ति से और पुण्य-फल प्राप्त करने के उद्देश्य से कोई धर्मग्रंथ पढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे—गीता या रामायण का पाठ। ५. किसी पुस्तक के वे अध्याय जो प्रायः एक दिन में या एक साथ पढ़ाये जाते हैं; और जिनमें एक ही विषय रहता है। ६. किसी ग्रंथ या लेख के किसी स्थल पर शब्दों या वाक्यों का विशिष्ट क्रम वा योजना। (टैक्स्ट) जैसे—अमुक पुस्तक में इस पद का पाठ कुछ और ही है। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाठक  : वि० [सं०√पठ्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाठिका] १. पाठ पढ़नेवाला। २. पाठ करनेवाला। ३. पाठ पढ़ानेवाला। पुं० १. विद्यार्थी। २. अध्यापक। ३. धर्मोपदेशक। ४. ब्राह्मणों की एक जाति। ५. आज-कल समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं आदि की दृष्टि में वे लोग जो समाचार-पत्र आदि पढ़ते हों।
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पाठच्छेद  : पुं० [ष० त०] एक पाठ की समाप्ति होने पर और अगले पाठ के आरंभ किये जाने से पहले होनेवाला विराम।
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पाठ-दोष  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के शब्दों के वर्णों तथा वाक्यों के शब्दों की अशुद्ध या भ्रामक योजना।
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पाठन  : पुं० [सं०√पठ्+णिच्+ल्युट्—अन] १. पाठ पढ़ाना। २. पढ़कर सुनाना। ३. वक्तृता देना।
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पाठना  : स० [सं० पाठन] पढ़ाना।
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पाठ-निश्चय  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के पाठ के अनेक रूप मिलने पर विशिष्ट आधारों पर उसके शुद्ध पाठ का किया जानेवाला निश्चय।
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पाठ-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-प्रणाली  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-भू  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ वेदादि ग्रंथों का पाठ होता या किया जाता हो। २. ब्राह्मण्य।
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पाठ-भेद  : पुं० [ष० त०] वह भेद या अंतर जो एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों के पाठ में कही-कहीं मिलता हो। पाठांतर।
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पाठ-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] मैना। सारिका।
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पाठ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ विद्यार्थियों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है।
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पाठशालिनी  : स्त्री० [सं० पाठ√शल् (गति)+णिनि+ङीप्] मैना। सारिका।
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पाठशाली (लिन्)  : वि० [सं० पाठशाला+इनि] पाठ पढ़नेवाला। पुं० विद्यार्थी।
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पाठशालीय  : वि० [सं० पाठशाला+छ—ईय] पाठशाला-संबंधी। पाठशाला का।
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पाठांतर  : पुं० [सं० पाठ-अंतर, मयू० स०] किसी एक ही पुस्तक की विचित्र हस्तलिखित प्रतियों में अथवा विभिन्न संपादकों द्वारा संपादित प्रतियों में होनेवाला शब्दों अथवा उनके वर्णों के क्रम में होनेवाला भेद।
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पाठा  : स्त्री० [सं०√पठ्+घञ्+टाप्] पाढ़ा नाम की लता। वि० [सं० पुष्ट] [स्त्री० पाठी] १. हृष्ट-पुष्ट। २. पट्ठा। जवान। पुं० जवान बकरा, बैल या भैंसा। २. गाय-बैलों की एक जाति। (बुंदेलखंड)
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पाठागार  : पुं० सं० [पाठ-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर किसी विषय का अध्ययन, या ग्रंथों का पाठ किया जाता हो। (स्टडी रूम)
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पाठालय  : पुं० [पाठ-आलय, ष० त०] पाठशाला।
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पाठालोचन  : पुं० [सं० पाठ-आलोचन, ष० त०] आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में कैसा और क्या रहा होगा। किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का ऐसा निर्धारण जो पूरा छान-बीन करके किया जाय। (टेक्सचुअल क्रिटिसिज़म) विशेष—इस प्रकार का पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक की देख-रेख में न हुआ हो।
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पाठिक  : वि० [सं० पाठ+ठन्—इक] जो मूल पाठ के अनुसार हो।
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पाठिका  : वि० [सं० पाठक+टाप्, इत्व] पाठक का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० पाठा। पाढ़ा।
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पाठित  : भू० कृ० [सं०√पठ्+णिच्+क्त] (पाठ) जो पढ़ाया जा चुका हो।
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पाठी (ठिन्)  : वि० [सं० पाठ+इनि] समस्त पदों के अंत में, पाठ करनेवाला या पाठक। जैसे—वेद-पाठी, सह-पाठी। पुं० [पाठा+इनि] चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष।
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पाटीकुट  : पुं० [सं० पाठा√कुट् (टेढ़ा होना)+क, पृषो० सिद्धि] चीते का पेड़।
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पाठीन  : वि० [सं० पाठि√नम् (झुकना)+ड, दीर्घ] पढ़ानेवाला। पुं० १. पहिना (मछली)। २. गूगल का पेड़।
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पाठ्य  : वि० [सं०√पठ्+ण्यत् या√पठ्+णिच्+यत्] १. जो पढ़ा या पढ़ाया जाने को हो। २. पढ़ने या पढ़ाये जाने के योग्य।
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पाठ्य-क्रम  : पुं० [ष० त०] वे सब विषय तथा उनकी पुस्तकें जो किसी विशिष्ट परीक्षा में बैठनेवाले परीक्षार्थियों के लिए निर्धारित हों। (कोर्स)
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पाठ्य-ग्रंथ  : पुं० [सं०] पाठ्य-पुस्तक। (दे०)
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पाठ्य-चर्या  : स्त्री० [सं०] वह पुस्तिका जिसमें विभिन्न परीक्षाओं के लिए निर्धारित विषयों तथा तत्संबंधी पाठ्य-क्रमों का उल्लेख होता है। (करिक्यूलम)
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पाठ्य-पुस्तक  : स्त्री० [कर्म० स०] वह पुस्तक जो पाठशालाओं में विद्यार्थियों को नियमित रूप से पढ़ाई जाती हो। पढ़ाई की पुस्तक। (टेक्स्ट बुक)
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पाड़  : पुं० [हिं० पाठ] १. धोती, साड़ी का किनारा। २. मंचान। ३. लकड़ी की वह जाली या ठठरी जो कूएँ के मुँह पर रखी रहती है। कटकर। चह। ४. पानी आदि रोकने का पुश्ता या बाँध। ५. वह तख्ता जिस पर अपराधी को फाँसी देने के समय खड़ा करते हैं। टिकठी। ६. इमारत बनाने के लिए खड़ा किया जानेवाला बांसों का ढाँचा। पाइट। उदा०—बोसे की गर हविस हो तो गिर्द उसके पाड़ बाँध।—कोई शायर। ७. दो दीवारों के बीट पटिया देकर या पाटकर बनाया हुआ आधार। पाटा। दासा।
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पाडल  : पुं०=पाटल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाडलीपुर  : पुं०=पाटलीपुत्र।
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पाड़प्तालो  : पुं० [देश०] १. दक्षिण भारत के जुलाहों की जाति। २. उक्त जाति का जुलाहा।
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पाड़ा  : पुं० [सं० पट्टन] १. किसी बस्ती में कुछ घरों का अलग विभाग या समूह। डोला। मुहल्ला। जैसे—धोबी पाड़ा, मोची पाड़ा। २. खेत की सीमा या हद। पुं० [हिं० पाठा] [स्त्री० पड़िया, पाड़ी] भैंस का बच्चा। पँड़वा। पुं० [देश०] एक तरह की बड़ी समुद्री मछली।
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पाडिनी  : स्त्री० [सं०√पड् (इकट्ठा होना)+णिनि+ङीष्] हाँड़ी। हँड़िया।
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पाढ़  : पुं० [सं० पाट, हिं० पाटा] १. पीढ़ा। २. पाटा। ३. गहनों पर नक्काशी करने का सुनारों का एक उपकरण। ४. लकड़ी की एक प्रकार की सीढ़ी। ५. मचान। पुं०=पाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़त  : स्त्री० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़त। २. वह जो पढ़ा जाय। वह जिसका पाठ किया जाय। ३. मंत्र जो पढ़कर फूँका जाता है। ४. कोई पवित्र पद या वाक्य जिसका जप किया जाता हो। उदा०—स्वाय जात जब आवत, पाढ़त जाय।—नूर मुहम्मद।
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पाढ़र  : पुं० [सं० पाटल] १. पाडर का पेड़। २. एक प्रकार का टोना।
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पाढ़ल  : पुं०=पाटल।
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पाढ़ा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बारहसिंघा जिसकी खाल भूले या हलके बादामी रंग की होती है और जिस पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। चित्रमृग। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़ित  : वि० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ा हुआ। २. जिसे पढ़ा जाय।
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पाढी  : स्त्री० [देश०] १. सूत की लच्छी। २. यात्रियों को नदी के पार पहुँचानेवाली नाव।
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पाण  : पुं० [सं०√पण् (व्यवहार)+घञ्] १. व्यापार। व्यवसाय। २. व्यापारी। ३. दाँव। बाजी। ४. संधि। समझौता। ५. हाथ। ६. प्रशंसा।
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पाणही  : स्त्री०=पनही (जूता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाणि  : पुं० [सं०√पण्+इण] हाथ। कर।
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पाणिक  : वि० [सं० पण+ठक्—इक] १. व्यापार या व्यापारी-संबंधी। २. दाँव या बाजी लगाकर जीता हुआ। पुं० १. व्यापारी। २. सौदा। ३. हाथ। ४. कार्तिकेय का एक गण।
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पाणि-कच्छपिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कूर्ममुद्रा।
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पाणि-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. वह जो हाथ से कोई बाजा बजाता हो; या ऐसा ही और कोई काम करता हो। ३. हाथ का कारीगर। दस्तकार।
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पाणिकर्ण  : पुं०=पाणिकर्मा (शिव)।
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पाणिका  : स्त्री० [सं० पाणि+कन्+टाप्] एक प्रकार का गीत।
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पाणि-गृहीता  : वि० [ब० स०, टाप्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण किया गया हो। विवाहिता (पत्नी)।
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पाणि-गृहीती  : वि० [ब० स०, ङीष्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण संस्कार हो चुका हो। विवाहिता।
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पाणि-ग्रह  : पुं० [सं०√ग्रह् (पकड़ना)+अप्, ष० त०] पाणिग्रहण। (दे०)
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पाणि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] १. किसी स्त्री० को पत्नी रूप में रखने और उसका निर्वाह करने के लिए उसका हाथ पकड़ना। २. हिंदुओं में विवाह की एक रसम जिसमें वर उक्त उद्देश्य से अपनी भावी पत्नी का हाथ पकड़ता है।
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पाणिग्रहणिक  : वि० [सं० पाणिग्रहण+ठक्—इक] पाणिग्रहण या विवाह-संबंधी। विवाह के समय का। जैसे—पाणिग्रहणिक उपहार, पाणिग्रहणिक मंत्र।
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पाणिग्रहणीय  : वि० [सं० पाणिग्रहण+छ—ईय]= पाणिग्रहणिक।
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पाणिग्राह, पाणि-ग्राहक  : वि० [सं० पाणि√ग्रह्+अण्] [ष० त०] किसी का हाथ पकड़नेवाला। पाणिग्रहण करनेवाला। पुं० वर जो विवाह के समय कन्या का हाथ पकड़ता है।
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पाणि-ग्राह्य  : वि० [तृ० त०] १. जो मुट्ठी में आ सके या प्राप्त किया जा सके। २. जिसका पाणिग्रहण किया जा सके। जिसके साथ विवाह किया जा सके।
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पाणिघ  : पुं० [सं० पाणि√हन् (हिंसा)+ट] १. हाथ से बजाये जानेवाले बाजे। जैसे—ढोल, मृदंग आदि। २. हाथ का कारीगर। दस्तकार। शिल्पी। ३. हाथ से बाजा बजानेवाला।
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पाणि-घात  : पुं० [तृ० त०] १. हाथ से किया जानेवाला आघात। २. थप्पड़।
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पाणिघ्न  : पुं० [संपाणि√हन्+टक्] १. हाथ से आघात करनेवाला। २. ताली बजानेवाला। ३. शिल्पी।
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पाणिज  : वि० [सं० पाणि√जन्+ड] जो हाथ से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. उँगली। २. नाखून। ३. नखी।
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पाणि-तल  : पुं० [ष० त०] १. हाथ की हथेली। २. वैद्यक में लगभग दो तोले की एक तौल या परिमाण।
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पाणिताल  : पुं० [मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पाणि-धर्म  : पुं० [मध्य० स०] विवाह संस्कार।
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पाणिन  : पुं० [पणिन+अण्]=पाणिनि।
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पाणिनि  : पुं० [सं० पणिन्+अण्+इञ्] संस्कृत भाषा के व्याकरण को चार हजार सूत्रों में बाँधनेवाले एक प्रसिद्ध प्राचीन मुनि। (ई० पू० चौथी शताब्दी)
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पाणिनीय  : वि० [सं० पाणिनि+छ—ईय] १. पाणिनि-संबंधी। पाणिनि का। जैसे—पाणिनीय व्याकरण या सूत्र। २. पाणिनि का अनुयायी या भक्त। ३. पाणिनि का व्याकरण पढ़नेवाला।
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पाणि-पल्लव  : पुं० [ष० त०] हाथ की उँगलियाँ।
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पाणि-पात्र  : ब० [ब० स०] १. हाथ में लेकर अर्थात् अंजलि से पानी पीनेवाला। २. जो अंजलि से पात्र या बरतन का काम लेता हो।
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पाणि-पीड़न  : पुं० [ब० स०] १. पाणिग्रहण। विवाह। २. [ष० त०] पश्चात्ताप आदि के कारण हाथ मलना। पछताना।
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पाणि-पुट (क)  : पुं० [मध्य० स०] चुल्लू।
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पाणि-प्रणयिनी  : स्त्री० [ष० त०] विवाहिता स्त्री। धर्मपत्नी।
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पाणिबंध  : पुं० [ब० स०] पाणिग्रहण। विवाह।
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पाणिमुक् (ज्)  : पुं० [सं० पाणि√भुज् (खाना)+क्विप्] [पाणि√भुज्+क] गूलर वृक्ष।
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पाणिमर्द्द  : पुं० [सं० पाणि√मृद् (मलना)+अण्] करमर्द्द। करौंदा।
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पाणिमुक्त  : वि० [तृ० त०] हाथ से फेंककर चलाया जानेवाला (अस्त्र)। पुं० भाला।
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पाणि-मुख  : वि० [ब० स०] हाथ से खानेवाला। पुं० बहु० मृतपूर्वज। पितर।
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पाणि-मूल  : पुं० [ष० त०] कलाई।
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पाणिरुह  : पुं० [सं० पाणि√रुह (उगना, निकलना)+क] १. उँगली। २. नाखून।
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पाणि-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] हथेली की रेखा। हस्त-रेखा।
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पाणिवाद  : वि० [सं० पाणि√वद् (बोलना)+णिच्+अच्] १. मृदंग, ढोल आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला। पुं० १. ढोल, मृदंग आदि बाजे। २. ताली बजाने की क्रिया। ताली पीटना।
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पाणि-वादक  : वि० [सं० पाणि√वद्+णिच्+ण्वुल—अक] १. हाथ से मृदंग आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला।
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पाणि-हता  : स्त्री० [तृ० त०] ललित विस्तार के अनुसार एक छोटा तालाब जो देवताओं ने बुद्ध भगवान के लिए तैयार किया था।
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पाणी  : पुं०=पाणि (हाथ)।
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पाणौकरण  : पुं० [सं० अलुक् स०] विवाह। पाणिग्रहण।
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पाण्य  : वि० [सं०√पण् (स्तुति)+ण्यत्] प्रशंसा और स्तुति के योग्य।
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पाण्याश  : वि० [सं० पाणि√अश् (खाना)+अण्] हाथ से खानेवाला। पुं० मृत पूर्वज या पितर जो अपने वंशजों के हाथ का दिया हुआ अन्न ही खाते हैं।
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पातंग  : वि० [सं० पतंग+अण्] १. फतिंगे या फतिंगों से संबंध रखनेवाला। २. फतिंगों के रंग का। भूरा।
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पातंगि  : पुं० [सं० पतंग+इञ्] १. शनिग्रह। २. यम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव।
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पातंजल  : वि० [सं० पतंजलि+अण्] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत। पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. वह जो उक्त योग-सूत्र के अनुसार योगसाधन करता हो। ३. पतंजलिकृत महाभाष्य।
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पातंजल-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] योगदर्शन।
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पातंजल-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ।
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पातंजल-सूत्र  : पुं० [कर्म० स०] योगसूत्र।
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पातंजलीय  : वि० [सं० पातंजल] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत।
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पात  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+घञ्] १. अपने स्थान से हटकर, टूटकर या और किसी प्रकार गिरने या नीचे आने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—उल्का-पात। [√पत्+णिच्+घञ्] २. गिराने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—रक्तपात। ३. अपने उचित या पूर्व स्थान से नीचे आने की क्रिया या भाव। जैसे—अधःपात। ४. ध्वस्त, नष्ट या समाप्त होकर गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—शरीर-पात। ५. किसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें वह सारी शक्ति प्रायः नष्ट हो जाने के कारण सहसा गिर, ढह या विनष्ट हो जाती है। सहसा किसी चीज का गिरकर बेकाम हो जाना। (कोलैप्स) ६. किसी प्रकार जाकर कहीं गिरने, पड़ने या लगने की क्रिया या भाव। जैसे—दृष्टिपात। ७. आघात। चोट। उदा०—चलै फटि पात गदा सिर चीर, मनों तरबूज हनेकर कीर।—कविराजा सूर्यमल। ८. गणित ज्योतिष में, वह विंदु या स्थान जिस पर किसी ग्रह या नक्षत्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को काटती है। ९. वह विंदु या स्थान जहाँ एक वृत्त दूसरे वृत्त को काटता हो। १॰. ज्यामिति में वह विंदु जहाँ कोई वक्र रेखा मुड़कर अपने किसी अंश को काटती हो। (नोड) ११. ज्योतिष में, (क) वह विंदु जहाँ कोई ग्रह सूर्य की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है; अथवा कोई उपग्रह अपने ग्रह की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। (नोड) विशेष—साधारणतः ग्रहों की कक्षाएँ जहाँ क्रांतिवृत्त को काटती हुई ऊपर चढ़ती या नीचे उतरती हैं, उन्हें पात कहते हैं। ये स्थान क्रमात् आरोह-पात और अवरोह-पात कहलाते हैं। चंद्रमा के कक्ष में जो आरोह-पात और अवरोहपात पड़ते हैं वे क्रमात् राहु और केतु कहलाते हैं। इसी आधार पर पुराणों और परवर्ती भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु दो स्वतंत्र ग्रह माने गये हैं। पुं० [√पत्+णिच्+अच्] राहु। पुं० [सं० पत्र] १. वृक्ष का पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों का लगना=पतझड़ होना या उसका समय आना। २. वृक्ष के पत्ते के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पत्ता। ३. चाशनी। शीरा। पुं० [सं० पात्र] कवि। (डिं०)
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पातक  : वि० [सं०√पत्+णिच्+ण्वुल—अक] पात करने अर्थात् गिरानेवाला। पुं० ऐसा बड़ा पाप जो उसके कर्ता को नरक में गिरानेवाला हो। ऐसा पाप जिसका फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता हो। विशेष—हमारे यहाँ के धर्मशास्त्रों में अति-पातक, उप-पातक, महा-पातक आदि अनेक भेद किये गये हैं। साधारण पातकों के लिए उनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
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पातकी (किन्)  : वि० [सं० पातक+इनि] पातक माने जानेवाले कर्मों के फल भोद के लिए नरक में जानेवाला; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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पातघाबरा  : वि० [हिं० पात+घबराना] १. पत्तों की आहट तक से भयभीत और विकल होनेवाला। २. बहुत जल्दी घबरा जानेवाला। ३. बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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पातन  : पुं० [सं०√पत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. गिराने या नीचे ढकेलने की क्रिया या भाव। २. फेंकने की क्रिया या भाव। ३. वैद्यक में, पारा शोबने के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार।
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पातनीय  : वि० [सं०√पत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका पात हो सके या किया जाने को हो। २. जो गिराया जा सके या गिराया जाने को हो।
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पातबंदी  : स्त्री० [सं० पात या हिं० पाँति ?+बंदी] वह विवरण जिसमें किसी की संपत्ति और देय तथा प्राप्य धन का उल्लेख हो।
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पातयिता (तृ)  : वि० [सं०√पत्+णिच्+तृच्] १. गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला।
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पातर  : वि० [सं० पात्रट, हिंदी पतला का पुराना रूप] १. जिसका दल मोटा न हो। पतला। २. क्षीणकाय। ३. बहुत ही संकीर्ण और तुच्छ स्वभाववाला। ४. नीच कुल का। अप्रतिष्ठित। उदा०—मयला अकलै मूल पातर खाँड खाँड करै भूखा।—सूर। स्त्री०=पत्तल। स्त्री० [सं० पातिली=एक विशेष जाति की स्त्री] १. वेश्या। २. तितली।
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पातरा  : वि० [स्त्री० पातरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातराज  : पुं० [देश०] एक तरह का साँप।
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पातरि (री)  : स्त्री०=पातर (वेश्या)।
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पातल  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पातर (वेश्या)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातला  : वि० [स्त्री० पातली]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातव्य  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+तव्यत्] १. जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। २. पीये जाने योग्य।
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पातशाह  : पुं० [फा० बादशाह] [भाव० पातशाही] बादशाह। महाराज।
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पाता (तृ)  : वि० [सं०√पा+तृच्] १. रक्षा करनेवाला। २. पीनेवाला। पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताखत  : पुं० [सं० पत्र+अक्षत] १. पत्र और अक्षत। २. देव पूजने की साधारण या स्वल्प सामग्री। ३. तुच्छ भेंट।
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पाताबा  : पुं० [फा० पाताबः] १. मोजे या जुराब के ऊपर पहना जानेवाला एक प्रकार का जूते का खोल। २. बूट, सैंडल आदि कुछ विशिष्ट जूतों के तलों के ऊपरी भाग में उसी नाप या आकार-प्रकार का लगाया जानेवाला चमड़े का टुकड़ा। ३. जुराब। मोजा।
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पातार  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताल  : पुं० [सं०√पत्+आलञ्] १. पृथ्वी के नीचे के कल्पित सात लोकों में से एक जो सबसे नीचे है और जिसमें नाग लोग वास करते हुए माने गये हैं। नागलोक। अन्य ६ लोक ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल और महातल। २. पृथ्वी के नीचे के सातों लोकों में से प्रत्येक लोक। ३. बहुत अधिक गहरा और नीचा स्थान। ४. गुफा। ५. बिल। विवर। ६. बड़वानल। ७. जन्म-कुंडली में जन्म के लग्न से चौथा स्थान। ८. पाताल यंत्र। (दे०)
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पाताल-केतु  : पुं० [ब० स०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
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पाताल-खंड  : पुं० [ष० त०] पाताल (लोक)।
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पाताल-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पाताल लोक की एक नदी का नाम। २. भूगर्भ के अंदर बहनेवाली कोई नदी।
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पाताल-गारुड़ी  : स्त्री० [ष० त०] छिरिहटा नामक लता।
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पाताल-तुंबी  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की लता। पातालतौंबी।
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पाताल-तोंबी  : स्त्री०=पाताल-तुंबी।
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पाताल-निलय  : वि० [ब० स०] जिसका घर पाताल में हो। पाताल में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप। ३. दैत्य। राक्षस।
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पाताल-निवास  : पुं०=पाताल-निलय।
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पाताल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा धातुएँ गलाई, ओषधियाँ पिलाई तथा अर्क, तेल आदि तैयार किये जाते हैं।
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पाताल-वासिनी  : स्त्री० [सं० पाताल√बस् (बसना)+ णिनि+ङीष्] नागवल्ली लता। पान की लता।
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पाताली  : स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई तथा सुखाकर खाई जानेवाली टिकिया। वि० [सं० पाताल] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल में रहने या होनेवाला। ३. पृथ्वी के नीचे होनेवाला। (अंडर ग्राउंड) जैसे—वृक्ष के पाताली तने।
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पाताली-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] वनस्पति विज्ञान में, उत्पत्ति-भेद से पत्तियों के चार प्रकारों में से एक। प्रायः भूमि पर अपने तने फैलानेवाले पौधों की पत्तियाँ जो प्रायः बहुत छोटी होती हैं। (स्केल लीफ) जैसे—आलू की पाताली पत्ती।
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पातालीय  : वि० [सं०] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल का। २. पाताल में अर्थात् पृथ्वी-तल के नीचे या भूगर्भ में रहने या होनेवाला।
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पातालौका (कस्)  : वि० [सं० पाताल-ओकस् ब० स०] पाताल लोक में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप।
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पाति  : स्त्री० १.=पाती (चिट्ठी)। २.=पत्ती। पुं० [सं०√पा+अति] १. स्वामी। २. पति। ३. पक्षी।
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पातिक  : वि० [सं० पात+ठन्—इक्] १. फेंका हुआ। २. नीचे गिराया या ढकेला हुआ। पुं० सूँस नामक जल-जंतु।
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पातिग  : पुं०=पातक। उदा०—अनेक जनम ना पातिग छूटै।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातित  : भू० कृ० वि० [सं०√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. फेंका हुआ। ३. झुकाया हुआ।
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पातित्य  : पुं० [सं० पतित-ष्यञ्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। गिरावट। २. अधःपतन।
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पातिल  : स्त्री० [सं० पातिली] एक तरह की मिट्टी की हँड़िया जिसमें विवाह आदि के समय दीया जलाया जाता है तथा हँड़िया का आधा मुँह ढक्कन से ढक दिया जाता है। वि०=पतला।
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पातिली  : स्त्री० [सं० पाति√ली (लीन होना)+ड+अण्+ङीष्] १. जाल। फंदा। २. मिट्टी की पातिल नामक हँड़िया। ३. किसी विशिष्ट जाति की स्त्री।
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पातिव्रत  : पुं०=पातिव्रत।
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पातिव्रत्य  : पुं० [सं० पतिव्रता+ष्यञ्] पतिव्रता होने की अवस्था, गुण और भाव। पति के प्रति होनेवाली पूर्ण निष्ठा की भावना।
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पातिसाह  : पुं०=पातशाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाती  : स्त्री० [सं० पत्री, प्रा० पत्ती] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। २. निशान। पता। ३. वृक्ष का पत्ता या पत्ती। स्त्री० [हिं० पति] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लोक-लज्जा।
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पातुक  : वि० [सं०√पत्+उकञ्] १. गिरनेवाला। २. पतनोन्मुख। पुं० १. झरना। २. पहाड़ की ढाल। ३. एक स्तनपायी दीर्घाकार जल-जंतु। जल-हस्ती।
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पातुर  : स्त्री० [सं० पातिली=स्त्री विशेष] वेश्या।
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पातुरनी  : स्त्री०=पातुर (वेश्या)।
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पात्य  : वि० [सं०√पत्+णिच्+यत्] १. जो गिराया जा सकता हो। २. दंडित किये जाने के योग्य। ३. प्रहार करने योग्य। ४. [√पत्+ण्यत्] गिरने योग्य। पुं० [पति+यक] पति होने का भाव। पतित्व।
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पात्र  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ष्ट्रन] [स्त्री० पात्री] [भाव० पात्रता] १. वह आधान जिसमें कुछ रखा जा सके। बरतन। भाजन। २. ऐसा बरतन जिसमें पानी पीया या रखा जाता हो। ३. यज्ञ में काम आनेवाले उपकरण या बरतन। यज्ञ-पात्र। ४. जल का कुंड या तालाब। ५. नदी की चौड़ाई। पाट। ६. ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात के लिए सब प्रकार से उपयुक्त या योग्य समझा जाता हो। अधिकारी। जैसे—किसी को कुछ देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह उसे पाने या रखने का पात्र है या नहीं। ७. उपन्यास, कहानी, काव्य, नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा-वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया-कलाप या चरित्र से कथा-वस्तु की सृष्टि और परिपाक होता है। ८. नाटक में, वे अभिनेता या नट जो उक्त व्यक्तियों की वेष-भूषा आदि धारण कर के उनके चरित्रों का अभिनय करते हैं। अभिनेता। जैसे—इस नाटक में दस पुरुष और छः स्त्रियाँ पात्र हैं। ९. राज्य का प्रधान मंत्री। १॰. वृक्ष का पत्ता। पत्र। ११. वैद्यक में, चार सेर की एक तौल। आढ़क। १२. आज्ञा। आदेश। वि० [स्त्री० पात्री] जो किसी कार्य या पद के लिए उपयुक्त होने के कारण चुना या नियुक्त किया जा सकता हो। (एलिजिबुल)
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पात्रक  : पुं० [सं० पात्र+कन्] १. प्यारी, हाँड़ी आदि पात्र। २. भिखमंगों का भिक्षापात्र।
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पात्रट  : पुं० [सं० पात्र√अट्+अच्] १. पात्र। प्याला। २. फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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पात्रटीर  : पुं० [सं० पात्र√अट्+ईरन्] १. योग्य मंत्री या सचिव। २. चाँदी। ३. किसी धातु का बना हुआ बरतन। ४. अग्नि। ५. कौआ। ६. कंक (पक्षी)। ७. लोहे में लगनेवाला जंग या मोरचा। ८. नाक से बहनेवाला मल।
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पात्रता  : स्त्री० [सं० पात्र+तल्+टाप्] पात्र (अर्थात् किसी कार्य, पद, दान-दक्षिणा आदि का योग्य अधिकारी) होने की अवस्था, गुण और भाव।
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पात्रत्व  : पुं० [सं० पात्र+त्व] पात्रता।
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पात्र-दुष्ट-रस  : पुं० [सं० दुष्ट-रस, कर्म० स०, पात्र-दुष्ट-रस, स० त०] कविता में परस्पर विरोधी बातें कहने का एक दोष। (कवि केशवदास)
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पात्र-पाल  : पुं० [सं० पात्र√पाल्+णिच्+अण्] १. तराजू की डंडी। २. पतवार।
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पात्रभृत्  : पुं० [सं० पात्र√भृ (धारण करना)+क्विप्] बरतन माँजने-धोनेवाला नौकर
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पात्र-वर्ग  : पुं० [ष० त०] १. किसी साहित्यिक रचना के कुल पात्र। २. अभिनय करनेवालों का समूह।
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पात्र-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बरतन माँजने-धोने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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पात्र-शेष  : पुं० [स० त०] बरतनों में छोड़ा जानेवाला उच्छिष्ट या जूठा भोजन। जूठन।
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पात्रासादन  : पुं० [सं० पात्र-आसादन, ष० त०] यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना।
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पात्रिक  : वि० [सं० पात्र+ष्ठन्—इक] जो पात्र (आढ़क नामक तौल) से तौला या मापा गया हो। पुं० [स्त्री० अल्पा० पात्रिका] छोटा पात्र या बरतन।
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पात्रिकी  : स्त्री० [सं० पात्रिक+ङीष्] १. छोटा पात्र। २. थाली।
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पात्रिय  : वि० [सं० पात्र+घ—इय] [पात्र+यत्] जिसका साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके। सहभोजी।
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पात्री (त्रिन्)  : वि०, पुं० [सं० पात्र+इनि] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य पात्र या अधिकारी व्यक्ति हो। स्त्री० पात्र का स्त्री रूप। (दे० ‘पात्र’) २. छोटा पात्र या बरतन। ३. एक प्रकार की अँगीठी या छोटी भट्ठी। ४. साहित्यिक रचना का कोई स्त्री पात्र। ५. नाटक आदि में अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री।
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पात्रीय  : वि० [सं० पात्र+छ—ईय] पात्र-संबंधी। पात्र का। पुं० एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पात्रीर  : पुं० [सं० पात्री√रा (देना)+क] वह पदार्थ जिसकी यज्ञ आदि में आहुति दी जाती हो।
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पात्रे-बहुल  : वि० [सं० अलुक् स०] दूसरों का दिया हुआ भोजन करनेवाला। परान्न-भोजी।
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पात्रे-समिति  : वि० [सं० अलुक् स०] पात्रेबहुल। (दे०)
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पात्रोपकरण  : पुं० [सं० पात्र-उपकरण, ष० त०] अलंकरण के छोटे-मोटे साधन।
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पात्र्य  : वि० [सं० पात्र+यत्] जिसके साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके।
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पाथ  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा)+थ] १. जल। २. सूर्य। ३. अग्नि। ४. अन्न। ५. आकाश। ६. वायु। पुं०=पथ (मार्ग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथना  : स० [सं० प्रथन या थापना का वर्ण-विपर्यय] १. गीली मिट्टी, ताजे गोबर आदि को थपथपाते हुए या साँचों में ढालकर छोटे छोटे पिंड बनाना। २. मारना-पीटना।
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पाथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथ-निधि  : पुं० [ष० त०] दे० ‘पाथौनिधि’।
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पाथर  : पुं०=पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथरण  : पुं० [सं० प्रस्तरण, प्रा० पत्थरण] बिछौना। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथ-राशि  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथस्  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा)+असुन्, थुक्] १. जल। २. अन्न। ३. आकाश।
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पाथस्पति  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण।
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पाथा  : पुं० [सं० प्रस्थ] १. एक तौल जो कच्चे चार सेर की होती है। २. उतनी भूमि जितनी में उक्त मान का अन्न बोया जा सके। ३. अनाज नापने का एक प्रकार का बड़ा टोकरा। ४. हल की खोंपी जिसमें फाल जड़ा रहता है। पुं० [?] १. कोल्हू हाँकनेवाला व्यक्ति। २. अनाज में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। पुं० दे० ‘पाटा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथी (थिस्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+इसिन्, थुक्] १. समुद्र। २. आँख। ३. घाव पर का खुरंड या पपड़ी। ४. दूध, मट्ठे का वह मिश्रण जिससे प्राचीन काल में पितृ-तर्पण किया जाता था।
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पाथी  : पुं० [हिं० पथ] पथिक। बटोही। मुहा०—पाथी होना=कहीं से चुपचार चल देना। चलते बनना। उदा०—साथी पाथी भये जाग अजहूँ निसि बीती।—दीन दयाल गिरि।
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पाथेय  : वि० [सं० पथिन्+ढञ्—एय] पथ-संबंधी। पथ का। पुं० १. वे खाद्य पदार्थ जो यात्रा के समय यात्री रास्ते में खाने-पीने के लिए ले जाते हैं। रास्ते का भोजन। २. वह धन जो रास्ते के खर्च के लिए पास रखा जाता है। ३. वह साधन या सामग्री जिसकी आवश्यकता कोई काम करने के समय पड़ती हो और जिसमें उस काम में सहायता या सहारा मिलता हो। संवल। ४. कन्या राशि।
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पाथोज  : पुं० [सं० पाथस्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] कमल।
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पाथोव  : पुं० [सं० पाथस√दा (देना)+क] बादल। मेघ।
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पाथोवर  : पुं० [सं० पाथस्√धृ (धारण करना)+अच्] बादल। मेघ।
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पाथोधि  : पुं० [सं० पाथस्√धा+कि] समुद्र।
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पाथोन  : पुं० [यू० पथेपनस] कन्या राशि।
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पाथोनिधि  : पुं० [सं० पाथस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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पाथ्य  : वि० [सं० पाथस्+डयन] १. आकाश में रहनेवाला। २. हृदयाकाश में रहनेवाला। ३. वायु या हवा में रहनेवाला।
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पाद  : पुं० [सं०√पद् (गति)+घञ्] १. चरण। पैर। पाँव। २. किसी चीज का चौथाई भाग। चतुर्थांस। जैसे—चिकित्सा के चार पाद हैं। ३. छंद, श्लोक, आदि का चौथाई भाग जो एक चरण या पाद के रूप में होता है। ४. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र या वृत्त का चौथाई अंश। (क्वाड्रेन्ट) ५. कोई ऐसी चीज जिसके आधार पर कोई दूसरी चोख खड़ी या ठहरी हो। ६. किसी वस्तु का नीचेवाला भाग। तल। जैसे—पर्वत या वृक्ष का पाद भाग। ७. ग्रंथ या पुस्तक का कोई विशिष्ट अंश। खंड या भाग। ८. किसी बड़े पर्वत के पास का कोई छोटा पर्वत। ९. किरण। रश्मि। १॰. चलने की क्रिया या भाव। गति। गमन। ११. शिव। पुं० [सं० पर्द] मलद्वार से निकलनेवाली वायु। अपानवायु।
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पादक  : वि० [सं० √पद्+ण्वुल्—अक] १. जो खूब चलता हो। चलनेवाला। २. किसी चीज का चौथाई अंश। पुं० छोटा पैर।
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पाद-कटक  : पुं० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कमल  : पुं० [कर्म० स०] चरण-कमल।
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पाद-कीलिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कृच्छ  : पुं० [ष० त०] प्रायश्चित्त करने के लिए चार दिन तक रखा जानेवाला एक तरह का व्रत।
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पादक्रमिक  : वि० [सं० पद-क्रम, ष० त०,+ठक्—इक] वेदों का पदक्रम जानने या पढ़नेवाला।
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पाद-क्षेप  : पुं० [ष० त०] चलने के समय पैर रखना। चलना।
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पाद-गंडीर  : पुं० [सं० पाद-गण्डि+ई, ष० त०,+र] फीलपाँव या श्लोपद नामक रोग।
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पाद-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] टखना।
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पाद-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] पैर छूकर प्रणाम करने का एक प्रकार।
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पाद-चतुर  : वि० [स० त०] निंदा करनेवाला। पुं० १. बकरा। २. पीपल का पेड़। ३. बालू का भीटा। ४. ओला।
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पादचत्वर  : वि०, पुं० [सं०] पाद-चतुर।
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पादचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाद√चर् (गति)+णिनि] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला। पुं० प्यादा।
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पादज  : वि० [सं० पाद√जन्+ड] जो पैरों से उत्पन्न हुआ हो। पुं० शूद्र।
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पाद-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह जल जिसमें किसी के पैर धोए गये हों। चरणोदक। २. मट्ठा जिसमें चौथाई अंश पानी मिला हो।
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पादजाह  : पुं० [सं० पाद+जाहच्] १. पैर की एड़ी। २. पैर का तलवा। ३. टखना। ४. वह भूमि जहाँ पहाड़ शुरु होता है। ५. चरणों का सान्निध्य।
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पाद-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह टिप्पणी जो किसी ग्रंथ में पृष्ठ के निचले भाग में सूचना, निर्देश के लिए लिखी गई हो। तल-टीप। (फुटनोट)
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पाद-टीका  : स्त्री०=पाद-टिप्पणी। (दे०)
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पाद-तल  : पुं० [ष० त०] पैर का तलवा।
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पादत्र  : पुं० [सं० पाद√त्रा (रक्षा)+क] पाद-त्राण।
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पाद-त्राण  : वि० [ब० स०] पैरों की रक्षा करनेवाला। पुं० पैरों की रक्षा के लिए पहनी जानेवाली चीज। जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पाद-त्रान  : पुं०=पाद-त्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाद-दलित  : वि० [तृ० त०] पाद-दलित।
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पाद-दारिका  : स्त्री० [ष० त०] बिवाई (रोग)।
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पाद-दाह  : पुं० [सं० पाद√दह् (जलाना)+अण्] १. वात रोग के कारण पैर में होनेवाली जलन। २. उक्त जलन पैदा करनेवाला वात रोग।
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पाद-धावन  : पुं० [ष० त०] १. पैर धोने की क्रिया। २. वह बालू या मिट्टी जिससे मलकर पैर धोते हैं।
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पाद-धावनिका  : स्त्री० [ष० त०] वह बालू जिससे पैर रगड़कर धोये जाते हैं।
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पाद-नख  : पुं० [ष० त०] पैरों की उँगलियों के नाखून।
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पादना  : अ० [हिं० पाद] १. मलद्वार से वायु विशेषतः शब्द करती हुई वायु निकालना। २. खेल में, विपक्षी द्वारा अधिक दौड़ाया, भगाया तथा परेशान किया जाना।
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पाद-नालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-निकेत  : पुं० [ष० त०] पैर रखने की छोटी चौकी। पाद-पीठि।
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पाद-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. बराबर पैर रखते हुए चलना। २. नाचना।
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पाद-पंकज  : पुं० [उपमि० स०] चरण-कमल।
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पादप  : पुं० [सं० पाद√पा (पीना)+क] १. वृक्ष। पेड़। २. पाद निकेत। पाद पीठ।
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पादप-खंड  : पुं० [ष० त०] १. वृक्षों का समूह। २. जंगल। वन।
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पाद-पथ  : पुं० [ष० त०] पैदल चलने का छोटा और सँकरा मार्ग। पैदल का रास्ता, जिस पर सवारी न जा सकती हो। (फुटपाथ)
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पाद-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] १. रास्ता। २. पगडंडी।
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पादपा  : स्त्री० [सं० पाद√पा (रक्षा करना)+क+टाप्] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-पाश  : पुं० [ष० त०] १. वह रस्सी जिससे घोड़ों के पिछले दोनों पैर बाँधे जाते हैं। पिछाड़ी। २. नूपुर।
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पादपाशी  : स्त्री० [सं० पादपाश+ङीष्] १. पैर में बाँधने की जंजीर या सिकड़ी। २. बेड़ी। ३. एक लता।
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पाद-पीठि  : पुं० [ष० त०] वह पीढ़ा या छोटी चौकी जिस पर ऊँचे आसन पर बैठनेवाले पैर रखकर बैठते हैं। (पेडस्टल)
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पाद-पीठिका  : स्त्री० [ष० त०] १. नाई का पेशा। २. सफेद पत्थर।
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पाद-पूरण  : पुं० [ष० त०] १. किसी श्लोक या पद के किसी चरण को पूरा करना। पादपूर्ति। २. वह अक्षर या शब्द जिससे किसी श्लोक या पद की पूर्ति होती है।
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पाद-पूर्ति  : स्त्री० [ष० त०] कविता में, छंद का चरण पूरा करने के लिए उसमें कोई अक्षर या शब्द जोड़ना या बढ़ाना। चरणपूर्ति।
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पाद-प्रक्षालन  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-प्रणाम  : पुं० [स० त०] साष्टांग दंडवत्। पाँव पड़ना।
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पाद-प्रतिष्ठान  : पुं० [ष० त०] पाद-पीठ। (दे०)
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पाद-प्रधारण  : पुं० [ब० स०] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-प्रसारण  : पुं० [ष० त०] पैर फैलाने की क्रिया या भाव।
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पाद-प्रहार  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात या प्रहार। लात मारना। ठोकर मारना।
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पाद-बंध  : पुं० [ष० त०] १. कैदियों, पशुओं आदि के पैरों में बाँदी जानेवाली जंजीर। २. बेड़ी।
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पाद-बंधन  : पुं० [ष० त०] पाद-बंध।
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पाद-भट  : पुं० [मध्य० स०] पैदल सिपाही। प्यादा।
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पाद-भाग  : पुं० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. चौथा हिस्सा। चौथाई।
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पाद-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-चिह्न।
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पाद-मूल  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. पर्वत की तराई।
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पादरक्ष (क)  : पुं० [सं० पाद√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्; पाद-रक्षक, ष० त०] वह जिससे पैरों की रक्षा की जाय। जैसे—जूता, खड़ाऊँ आदि।
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पाद-रज (जस्)  : स्त्री० [ष० त०] चरण-धूलि।
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पाद-रज्जु  : स्त्री० [ष० त०] वह रस्सी या सिक्कड़ जिससे पर, विशेषतः हाथी के पैर बाँधे जाते हैं।
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पादरथी  : स्त्री० [सं० रथ+ङीष्, पाद-रथी, ष० त०] खड़ाऊँ।
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पादरी  : पुं० [पुर्त्त० पैड्रे] मसीही धर्मावलंबियों का धर्मगुरु या पुरोहित।
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पादरोह, पादरोहण  : पुं० [सं० पाद√रुह् (उत्पत्ति)+अच्] [सं० पाद√रुह्+ल्यु—अन] बड़ का पेड़।
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पाद-लग्न  : वि० [स० त०] जो पैरों से आ लगा हो; अर्थात् शरण में आया हुआ।
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पाद-लेप  : पुं० [ष० त०] पैरों में किया जानेवाला आलते, महावर आदि का लेप।
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पाद-वंदन  : पुं० [ष० त०] १. पैर पकड़कर प्रणाम करना। २. चरणों की पूजा, सेवा या स्तुति।
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पाद-वाल्मीक  : पुं० [स० त०] फीलपाँव (रोग)।
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पादविंदु  : पुं० [सं०]=अधःस्वस्तिक।
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पादविक  : पुं० [सं० पदवी+ठक्—इक] पथिक।
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पाद-वेष्टनिक  : पुं० [ष० त०] पाताबा। मोजा।
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पाद-शब्द  : पुं० [ष० त०] किसी के चलने से पहलेवाला शब्द। पैर की आहट।
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पाद-शाखा  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर की उँगली। २. पैर की नोक।
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पादशाह  : पुं० [फा०] [भाव० पादशाही] पादशाह। सम्राट्।
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पादशाहजादा  : पुं० [फा०] बादशाहजादा। महाराजकुमार।
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पादशाही  : वि० [फा०] बादशाह का। स्त्री० १. राज्य। शासन।
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पादशिष्ट-जल  : पुं० [सं० पाद-शिष्ट, तृ० त०; पादशिष्ट-जल, कर्म० स०] ऐसा जल जो औटाकर चौथाई कर लिया गया हो। (वैद्यक)
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पादशुश्रूषा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-सेवा। पैर दबाना।
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पाद-शैल  : पुं० [मध्य० स०] बड़े पहाड़ के नीचे या पास का कोई छोटा पहाड़।
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पाद-शोथ  : पुं० [ष० त०] १. पैर में होनेवाली सूजन। २. पैरों में सूजन होने का रोग। फीलपाँव।
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पाद-शौच  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-श्लाका  : स्त्री० [ष० त०] पैर की नली।
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पाद-सेवन  : पुं०=पाद-सेवा।
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पाद-सेवा  : स्त्री० [ष० त०] चरण दबाना।
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पाद-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह लकड़ी जो किसी चीज को गिरने से रोकने के लिए उसके नीचे लगाई जाती है।
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पाद-स्ठोट  : पुं० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार ग्यारह प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक।
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पाद-स्वेदन  : पुं० [ष० त०] पैरों में विशेषतः पैरों के तलवों में पसीना आना।
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पाद-हत  : भू० कृ० [तृ० त०] जिस पर पैर का आघात किया गया हो। जिसे पैर से मारा गया हो।
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पाद-हर्ष  : पुं० [ष० त०] एक वात रोग जिसमें पैरों में झुनझुनी होती है।
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पाद-हीन  : वि० [तृ० त०] १. पाद या पैर से रहित। २. जिसका चौथा चरण न हो।
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पादांक  : पुं० [सं० पाद-अंक, ष० त०] पद-चिह्न।
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पादांकुलक  : पुं० दे० ‘पादाकुलक’।
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पादांगद  : पुं० [सं० पाद-अंगद, ष० त०] नूपुर।
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पादांगुलि (ली)  : स्त्री० [पाद-अंगुली, ष० त०] पैर की उँगली।
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पादांगुष्ठ  : पु० [सं० पाद-अंगुष्ठ, ष० त०] पैर का अँगूठा।
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पादांत  : पुं० [सं० पाद-अंत, ष० त०] पद का अंतिम भाग।
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पादांतस्थित  : वि० [सं० पादांत-स्थित स० त०] पद के अन्त में होनेवाला।
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पादांबु  : पुं० [सं० पाद-अंबु, मध्य० स०] १. पैरों के धोने पर निकला हुआ जल। २. [ब० स०] मट्ठा।
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पादांभ (स्)  : पुं० [सं० पाद अंभस्, मध्य० स०] पैर धोने का जल।
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पादाकुल  : पुं०=पादाकुलक।
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पादाकुलक  : पुं० [सं० पाद-आकुल, तृ० त०,+कन्] एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। विशेष—भानु कवि के मत से वह छंद पादाकुलक कहलाता है जिसके प्रत्येक चरण में चार चौकल हों। यथा—गुरु-पद मृदु रज मंजुल अंजन नयन अमिय दृग दोष विभंजन।—तुलसी। परन्तु अन्य आचार्यों के मत में १६ मात्राओंवाले सभी छंद पादाकुलक कहलाते हैं। परन्तु उनके आरंभ में द्विकल अवश्य होना चाहिए; पर त्रिकल कभी नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से अटिल्ल, डिल्ला और पद्धति या छंद भी पादाकुलक वर्ग में आ जाते हैं। ऐसे छंदों की चाल त्रोटक वृत्त की चाल से मिलती-जुलती होती है।
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पादाक्रांत  : वि० [सं० पाद-आक्रांत, तृ० त०] पैरों से कुचला या रौंदा हुआ। पद-दलित।
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पादाग्र  : पुं० [सं० पाद-अग्र, ष० त०] पैर का अगला भाग।
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पादाघात  : पुं० [पाद-आघात, ष० त०] पैर से किया जानेवाला प्रहार। पाद-प्रहार।
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पादात  : पुं० [सं० पदाति+अण्] १. पैदल सिपाही। २. पैदल सेना।
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पादाति (क)  : पुं० [सं० पाद√अत् (गमन)+इण्] [पादाति+कन्] पैदल सिपाही।
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पादानत  : भू० कृ० [पाद-आनत, स० त०] पैरों पर झुका या पड़ा हुआ।
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पादा-नोन  : पुं० [देश०] काला नमक।
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पादाम्यंजन  : पुं० [पाद-अभ्यंजन, ष० त०] १. पैरों में को स्निग्ध पदार्थ मलन या रगड़ने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार रगड़ा जानेवाला स्निग्ध पदार्थ।
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पादायन  : पुं० [सं० पाद+फक्—आयन] पाद ऋषि का वंशज।
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पादारक  : पुं० [सं० पाद√ऋ (गति)+ण्वुल—अक] १. नाव के पार्श्वों में लंबाई के बल लगी हुई दोनों पटरियों में से हर एक जिस पर आरोही बैठते हैं। २. मस्तूल।
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पादारविंद  : पुं०=पदार्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पादारविंद  : पुं० [सं० पाद-अरविन्द, उपमि० स०] चरण रूपी कमल। चरण-कमल।
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पादार्पण  : पुं० [सं० ष० त०] =पदार्पण।
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पादालिंद  : पुं० [सं० पाद-अलिंद, ब० स०] [स्त्री० अल्पा० पादालिंदा, पादालिंदी] नाव। नौका।
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पादावर्त  : पुं० [सं० पाद-आ√वृत् (बरतना)+अच] पैरों से चलाया जानेवाला एक तरह का पुराना चक्र या यंत्र जिसके द्वारा कूएँ में से सिंचाई के लिए पानी निकाला जाता था।
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पादावसेचन  : पुं० [सं० पाद-अवसेचन, ष० त०] १. चरण धोना। २. पैर धोने का पानी।
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पादाविक  : पुं० [सं०=पादातिक, पृषो० साधु] पदल सिपाही। प्यादा।
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पादावृत्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, यमक अलंकार का एक भेद जिसमें पूरे पाद की आवृत्ति होती है। यथा—नंगन जड़ातीं ते वे नगड़ जड़ाती हैं।—भूषण।
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पादाष्ठील  : पुं० [सं०] पैर का टखना।
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पादासन  : पुं० [सं० पाद-आसन, ष० त०] वह आसन जिस पर पैर रखे जायँ। पाद-पीठ।
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पादाहत  : भू० कृ० [सं० पाद-आहत, तृ० त०] [भाव० पादाहति] जिसे पैर से ठोकर लगाई गई हो।
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पादाहति  : स्त्री० [तृ० त०] पैर से लगाई जानेवाली ठोकर।
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पादिक  : वि० [सं० पाद+ठक्—इक] जो किसी पूरी वस्तु या एक इकाई के चौथाई अंश के बराबर हो। पुं० १. किसी पुरी वस्तु या इकाई का चतुर्थांस। २. पादकृच्छ नामक व्रत।
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पादी (दिन्)  : वि० [सं० पाद+इनि] १. जिसे पाद या पैर हों। पैरोंवाला। २. चार चरणोंवाला। ३. चौथाई अंश का हिस्सेदार। पुं० पैरोंवाला कोई जीव। विशेषतः कछुआ, घड़ियाल मगर आदि। जल-जन्तु। २. चौथाई अंश का स्वामी या मालिक।
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पादीय  : वि० [सं० पाद+छ—ईय] १. पद या मर्यादावाला। २. किसी विशिष्ट पद या स्थान पर रहनेवाला। जैसे—कुमार-पादीय=कुमार पद पर प्रतिष्ठित।
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पादुक  : वि० [सं०√पद् (गति)+उकञ्] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला।
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पादुका  : स्त्री० [सं० पादु+क+टाप्, ह्रस्व] १. खड़ाऊँ। जूता। ३. पैरों में पहनने का कोई उपकरण। पदत्राण। (फूट वियर) जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पादू  : स्त्री० [सं० पद+ऊ, णित्व—चि वृद्धि] जूता। वि० [हिं० पादना] बहुत पादनेवाला। पदोड़ा।
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पादोदक  : पुं० [पाद-उदक, मध्य० स०] १. वह जल जिसमें पैर धोया गया हो। चरणोदक। २. चरणामृत।
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पादोदर  : वि० [सं० पाद-उदर, ब० स०] जिसके पैर उदर में अर्थात् अंदर हों। पुं० सर्प। साँप।
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पाद्म  : वि० [सं० पद्म] पद्म-सम्बन्धी। पद्म का।
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पाद्म-कल्प  : पुं० [कर्म० स०] पुराणानुसार वह महाकल्प जिसमें भगवान् की नाभि से वह पद्म या कमल निकला था, जिस पर ब्रह्मा अधिष्ठित थे।
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पाद्य  : वि० [सं० पाद+यत्] १. पाद (पैर, चरण आदि) से संबंध रखनेवाला। पाद का। २. पाद्य संबंधी। पाद्यात्मक। पुं० वह जल जिससे किसी आये हुए पूज्य व्यक्ति या देवता के पैर धोते हैं अथवा जिसे पैर धोने के लिए आदर-पूर्वक उनके आगे रखते हैं।
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पाद्य-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. पैर धोने के लिए जल देना। २. पूज्य या बड़े व्यक्तियों का कहीं पधारना। कहीं पदार्पण करना या जाना। (आदर-सूचक) जैसे—गुरु शिष्यों के घर पाद्य-दान।
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पाद्यार्घ  : पुं० [सं० पाद्य-अर्घ, कर्म० स०] १. पैर तथा हाथ धोने या धुलाने का जल। २. देव-पूजन की सामग्री। ३. पूजन, सत्कार आदि के अवसर पर दिया जानेवाला धन या सामग्री। नजर। भेंट। ४. प्राचीन काल में ब्राह्मण को दान रूप में दी हुई वह भूमि जिस पर राजकर नहीं लगता था। माफी।
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पाधर  : वि०=पाधरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाधरा  : वि० [?] १. अच्छा। बढ़िया। उदा०—धर बाँकी दिन पाधरा, मरद न मूकै माण।—प्रिथीराज। २. अनुकूल। ३. सम, सरल या सीधा।
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पाधा  : पुं० [सं० उपाध्याय] १. आचार्य। उपाध्याय। २. पुरोहित। ३. पंडित। ४. कर्म-कांड करानेवाले पंडित। ५. छोटे बच्चों को आरंभिक शिक्षा देनेवाला गुरु या पंडित। (पश्चिम)
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पान  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ल्युट्—अन्] १. तरल पदार्थ को चुस्की भरते हुए, चूसते हुए अथवा घूँट-घूँट करके पीने की क्रिया या भाव। जैसे—जल-पान, दुग्धपान, रक्त-पान, स्तन-पान आदि। २. मद्य या शराब पीना। ३. मद्य या शराब बनाने और बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार। ४. पीने का कोई तरल पदार्थ। ५. जल। पानी। ६. पौसरा। प्याऊ। ७. आब। चमक। ८. कटोरा, गिलास आदि जिसमें रखकर कोई तरल पदार्थ पीया जाता हो। ९. नहर। १॰. रक्षण। रक्षा। ११. निःश्वास। १२. जीत। विजय। पुं० [सं० पर्ण, प्रा० पण्ण; फा० पान] १. वृक्ष का पत्ता। उदा०—उपजे एकही खेत में, बोये एक किसान। होनहार बिरवान के होत चीकने पान। २. एक प्रसिद्ध पौधा या लता जिसके पत्तों पर कत्था, चूना लगाकर मुँह का स्वाद बदलने और उसे सुगंधित रखने के लिए गिलौरी या बीड़ा बनाकर खाते हैं। ताम्बूल। नागबेल। ३. लगा हुआ पान का पत्ता। गिलौरी। बीड़ा। पद—पान-इलायची=किसी सामाजिक आयोजन या समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों का पान-इलायची आदि से किया जानेवाला सत्कार। पान-पत्ता=(क) लगा या बना हुआ पान। (ख) तुच्छ उपहार या भेंट। पान-फूल=(क) सामान्य उपहार या भेंट। (ख) पान और फूलों की तरह बहुत ही कोमल या सुकुमार वस्तु। पान-सुपाड़ी (री)=दे० ऊपर ‘पान-इलायची’। मुहा०—पान उठाना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा उठाना’। पान कमाना=पान के पत्तों को पाल में रखकर पकाना, और बीच-बीच में उन्हें उलट-पलटकर देखते रहना और उनके सड़े-गले अंश काटते या निकालते रहना। (किसी को कुछ धन) पान खाने को देना=(क) घूस या रिश्वत देना। (ख) इनाम, पुरस्कार आदि के रूप में धन देना। पान खिलाना=कन्या पक्षवालों का विवाह के विषय वर पक्षवालों को वचन देना। पान चीरना=व्यर्थ का काम करना। ऐसा काम करना जिससे कोई लाभ न हो। पान देना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा देना’। पान फेरना=पाल में अथवा यों ही रखे हुए पानों को उलट-पलटकर देखना और उनके सड़-गले अंश काट या निकालकर अलग करना। पान बनाना=(क) पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि रखकर बीड़ा तैयार करना। गिलौरी बनाना। पान लगाना। (ख) दे० ऊपर ‘पान कमाना’। पान लगाना=दे० ऊपर ‘पान बनाना’। पान लेना=बीड़ा उठाना। (दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत) ४. पान नामक लता के पत्ते के आकार की कोई रचना जो प्रायः कई तरह के गहनों में शोभा के लिए जड़ी या लगी रहती है। ५. जूते में पान के आकार का चमड़े का वह टुकड़ा जड़ी के पीछे लगता है। पद—नोक-पान=(देखें ‘नोक’ के अन्तर्गत स्वतंत्र पद) ६. ताश के पत्तों पर बनी हुई पान के आकार की लाल रंग की बूटियाँ। ७. उक्त आकार तथा रंग की बनी हुई बूटियोंवाले पत्तों की सामूहिक संज्ञा। जैसे—उन्होंने पान रंग बोला है। ८. स्त्रियों की भग। योनि। पुं० [?] नाव खींचने की गून या रस्सी। (लश०) पुं० [?] सूत को माँड़ी से तर करके ताना कसने की क्रिया। (जुलाहे) पुं० १.=प्राण। २.=पाणि (हाथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानक  : पुं० [सं० पान+कन्] आम, इमली आदि के कच्चे फलों को भूनकर बनाया जानेवाला कुछ खट-मीठा पेय पदार्थ। पना। पन्ना।
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पान-गोष्ठी  : स्त्री० [च० त०] मित्रों की वह मंडली जो शराब पीने के लिए एकत्र हुई हो। (कॉकटेल पार्टी)
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पानडी  : स्त्री० [हिं० पान+ड़ी (प्रत्य०)] एक प्रकार की लता जिसकी सुगंधित पत्तियाँ प्रायः मीठे पेय पदार्थों तथा तेल और उबटन आदि में उन्हें सुगंधित करने के लिए डाली जाती हैं।
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पानदान  : पुं० [हिं० पान+फा० दान (प्रत्य०)] वह डिब्बा जिसमें पान की सामग्री—कत्था, सुपारी आदि रखी जाती है। पनडब्बा। पद—पानदान का खर्च=वह रकम जो बड़े घरों की स्त्रियों को पान तथा दूसरी निजी आवश्यकताओं के लिए दी जाती है। स्त्रियों का हाथ-खरच।
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पान-दोष  : पुं० [ष० त०] शराब पीने की लत या व्यसन।
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पानन  : पुं० [हिं० पान] मँझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई और उत्तर भारत में होता है।
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पानप  : पुं० [सं० पान√पा (पीना)+क] जिसे शराब पीने का व्यसन हो। मद्यप। शराबी।
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पान-पर  : वि० [स० त०] पानप। शराबी।
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पान-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. वह पात्र जिसमें मद्यपान किया जाता हो। २. कटोरा या गिलास जिसमें पानी पीते हैं।
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पान-बणिक (ज्)  : पुं० [ष० त०] मद्य बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार।
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पानभांड  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भोजन  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर लोग शराब पीते हैं। मद्यशाला।
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पान-भोजन  : पुं० [द्व० स०] १. खाना-पीना। २. पीना-खाना।
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पान-मंडल  : पुं०=पान-गोष्ठी।
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पान-मत्त  : वि० [तृ० त०] जो शराब पीकर नशे में चूर हो।
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पान-मद  : पुं० [ष० त०] शराब का नशा।
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पानरा  : पुं०=पनारा (पनाला)।
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पान-विभ्रम  : पुं० [तृ० त०] शराब का अत्यधिक सेवन करने के फलस्वरूप होनेवाला एक रोग जिसमें सिर में पीड़ा होती रहती है, कै और मतली आती है, और रोगी बीच-बीच में मूर्छित हो जाता है।
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पान-शौंड  : विं० [सं० त०] बहुत अधिक शराब पीनेवाला।
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पानस  : वि० [सं० पनस+अण्] पनस अर्थात् कटहल से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० वह शराब जो कटहल को सड़ाकर बनाई जाती थी।
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पानही  : स्त्री० [सं० उपानह]=पनही।
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पाना  : स० [सं० प्रायण, प्रा० पायण, पुं० हिं० पावना] १. ऐसी स्थिति में आना या होना कि कोई चीज अपने अधिकार, वश या हाथ में आवे या हो जाय। कोई चीज या बात प्राप्त करना। हासिल करना। जैसे—(क) तुमने ईश्वर के घर से अच्छा भाग्य पाया है। (ख) उन्होंने अपने पूर्वजों से अच्छी सम्पत्ति पाई थी। २. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी की दी या भेजी हुई चीज या और कुछ अपने तक पहुँच या मिल जाय। जैसे—(क) किसी का पत्र, संदेशा या समाचार पाना। (ख) पदक या पुरस्कार पाना। ३. आकस्मिक रूप से या अपने प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ प्राप्त या हस्तगत करना। जैसे—(क) कल मैंने सड़क पर पड़ा हुआ एक बटुआ पाया था। (ख) यह पुस्तक मैंने बहुत कठिनता से पायी थी। ४. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी चीज तक हाथ पहुँच सके। उदा०—मैं बालक बहिंयन को छोटो छींका केहि बिधि पायो।—सूर। ५. किसी प्रकार के ज्ञान, परिचय आदि की मानसिक उपलब्धि करना। जैसे—(क) मैंने उन्हें बहुत ही चतुर और योग्य पाया। (ख) विदेश में रहकर उन्होंने अच्छी शिक्षा पाई थी। ६. गूढ़ तत्त्व, भेद, रहस्य आदि की गहनता, विस्तार सीमा आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जानकारी हासिल करना। जैसे—(क) किसी के पांडित्य की थाह पाना। (ख) चोरी या चोरों का पता पाना। ७. अचानक सामना होने या सामने पहुँचने पर किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में देखना। जैसे—(क) मैंने लड़कों को गली में खेलते हुए पाया। (ख) उसने अपना खेत (या घर) उजड़ा हुआ पाया। ८. किसी प्रकार के परिणाम या फल के रूप में अधिकारी या भोक्ता बनना या बनने की स्थिति में होना। जैसे—(क) दुःख या सुख पाना। (ख) छुट्टी या सजा पाना। ९. ईश्वर अथवा देवता के प्रसाद के रूप में कोई खाद्य या पेय पदार्थ ग्रहण या प्राप्त करना। आदर-पूर्वक शिरोधार्य करके कुछ खाना या पीना। (भक्तों की परिभाषा) जैसे—मैं उनके यहाँ से भोजन पाकर आया हूँ। १॰. कोई काम या बात ठीक तरह से पूरी करने में समर्थ होना। कर सकना। जैसे—तुम उसे नहीं जीत पाओगे। ११. प्रतियोगिता आदि में किसी के तुल्य या समान हो सकना। जैसे—बराबरी कर सकना। जैसे—चालाकी (या दौड़) में तुम उसे नहीं पाओगे।
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पानागार  : पुं० [सं० पान-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बहुत से लोग मिलकर शराब पीते हों। शराब पीने की जगह।
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पानात्यय  : पुं० [सं० पान-अत्यय, तृ० त०] पान-विभ्रम। (दे०)
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पानि  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिक  : पुं० [सं० पान+ठक्—इक] वह जो शराब बनाता और बेचता हो। शौंडिक। कलवार।
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पानिग्रहण  : पुं०=पाणिग्रहण।
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पानिप  : पुं० [हिं० पानी+प (प्रत्य०)] १. ओप। द्युति। कांति। चमक। आब। २. शोभा। ३. पानी।
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पानि-पतंग  : पुं० [हिं० पानी+पतंगा] जल-भौंरा या भौंतुआ नाम का कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिय  : पुं०=पानी। उदा०—प्यासी तजौं तनु रूप सुधा बिनु, पानिय पी-कौ पपीहे पिआओ।—भारतेन्दु। वि०=पानीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] रक्षित होने के योग्य। (क्व०)
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पानिल  : पुं० [सं० पान+इलच्] पानपात्र।
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पानी  : पुं० [सं० पानीय] १. वह प्रसिद्ध निर्गंध पारदर्शी और पर्ण-हीन तरल या द्रव पदार्थ जो झील, नदियों, समुद्रों आदि में भरा रहता है। तथा बादलों से वर्षा के रूप में पृथ्वी पर बरसता है और जो नहाने-धोने, पीने, खेत सींचने आदि के काम में आता है। जल। विशेष—वायु के उपरांत जल या पानी जीव-जंतुओं वनस्पतियों आदि के पालन-पोषण तथा वर्धन के लिए सबसे अधिक आवश्यक है; इसलिए संस्कृत में इसे ‘जीवन’ भी कहते हैं। भारतीय दर्शन में इसकी गणना पंच महाभूतों में होती है; परन्तु आधुनिक रासायनिक अनुसंधान के अनुसार यह दो तिहाई हाइड्रोजन तथा एक तिहाई आक्सिजन का मिश्रण है। अधिक सरदी पड़ने पर यह जमकर बरफ बन जाता है। और अधिक ताप पाकर उबलने या खौलने लगता है अथवा भाप बनकर उड़ जाता है। वर्षा के प्रसंग में इसके साथ आना, गिरना, पड़ना, बरसना आदि जलाशयों के तल के विचार से उतरना, चढ़ना आदि और कूएँ के मूल सोते के विचार से आना, टूटना, निकलना आदि क्रियाओं का प्रयोग होती है। किसी तल के छोटे-छोटे छिद्रों से आने या निकलने के प्रसंग में इसके साथ आना चूना, छूटना, टपकना, निकलना, रसना आदि क्रियाएँ लगती हैं। किसी आधान में या स्थल पर एकत्रित राशि के संबंध में प्रसंग के अनुसार ठहरना, बहना, रुकना आदि क्रियाओं का भी प्रयोग होता है। कुछ अवस्थाओं में इसकी कोमलता, तरलता, शीतलता, सरसता आदि गुणों के आधार पर भी इसके कई मुहावरे बनते हैं। पद—पानी का आसरा=नाव की बारी पर लगा हुआ कुछ झुका हुआ वह तख्ता जिस पर छाजन की ओलती का पानी गिरता है। बारी। (लश०) पानी का बतासा=(क) बुलबुला। बुदबुद। (ख) दे० नीचे ‘पानी का बुलबुला’। पानी का बुलबुला=बुलबुले की तरह क्षण भर में नष्ट हो जानेवाला। क्षण-भंगुर। नाशवान्। विनाशशील। पानी की तरह पतला=(क) अत्यन्त तुच्छ या हीन। (ख) बहुत कम महत्त्व का। पानी की पोट=ऐसा पदार्थ जिसमें अधिकतर पानी ही पानी हो। जिसमें पानी के सिवा और तत्त्व बहुत कम हो। (ख) ऐसी तरकारियाँ, साग आदि जिनमें जलीय अंश बहुत अधिक हो। पानी के मोल=प्रायः उतना ही सस्ता जितना पीने का पानी होता है। बहुत अधिक सस्ता। पानी देना=वंशज जो पितरों को पानी देता अर्थात् उनता तर्पण करता है। पानी भर खाल=मनुष्य का क्षणभंगुर और सारहीन शरीर। पानी से पतला=(क) बहुत ही तुच्छ या हीन। (ख) बहुत ही सहज या सुगम। कच्चा पानी=ऐसा पानी जो औटाया या पकाया हुआ न हो। नरम पानी=(क) ऐसा पानी जिसके बहाव में अधिक वेग न हो। (ख) ऐसा पानी जिसमें खनिज तत्त्व अपेक्षया कम हों। पक्का पानी=औटाया, गरम किया या पकाया हुआ पानी। भारी पानी=वह पानी जिसमें खिनज पदार्थ अधिक मात्रा में मिले हों। हलका पानी=ऐसा पानी जिसमें खनिज पदार्थ बहुत थोड़े हों। नरम पानी। मुहा०—पानी काटना=(क) पानी की नाली या बाँध काट देना। एक नाली में से दूसरी में पानी ले जाना। (ख) तैरते समय हाथों से आगे का पानी हटाना। पानी चीरना। पानी की तरह बहाना=बहुत ही लापरवाही से और बहुत अधिक मात्रा या या मान में व्यय करना। जैसे—(क) उन्होंने लाखों रुपए पानी की तरह बहाँ दिए। (ख) युद्ध क्षेत्र में सैनिकों ने पानी की तरह खून बहाया। पानी के रेले में बहाना=दे० ऊपर ‘पानी की तरह बहाना’। पानी चढ़ाना=सिंचाई के काम के लि खेत तक पानी पहुँचाना। (किसी चीज पर) पानी चलाना=चौपट या नष्ट करना। (दे० ‘पानी फेरना’) पानी छानना=बच्चे को पहले-पहल माता निकलने के बाद तथा उसका जोर कम होने पर किया जानेवाला एक प्रकार का मांगलिक उपचार या टोटका जिसमें माता उसे बच्चे को इस प्रकार गोद में लेकर बैठती है कि भिगोये हुए चने का पानी जब बच्चे के सिर पर डाला जाता है, तब वह गिरकर माता की गोद में पड़ता है। (कहते हैं कि यह उपचार माता की गोद सदा भरी-पूरी रखने के लिए किया जाता है)। पानी छूना=मल-त्याग के उपरांत जल से गुदा को धोना। आबदस्त लेना। (ग्राम्य) पानी टूटना=कूएँ, ताल आदि में इतना कम पानी रह जाना कि काम में लाया या निकाला न जा सके। पानी तोड़ना=नाव खेने के समय डाँड़ या बल्ली से पानी चीरना या हटाना। पानी काटना। (मल्लाह)। पानी थामना=धार या प्रवाह के विरुद्ध नाव ले जाना। धार पर चढ़ाना। (लश०) (पशुओं को) पानी दिखाना=घोड़े, बैल आदि को पानी पिलाने के लिए उनके सामने पानी भरा बरतन रखना या उन्हें जलाशय तक ले जाना। पानी देना=(क) सींचने के लिए क्यारियों, खेतों आदि में पानी डालना। (ख) पितरों का तर्पण करना। पानी न माँगना=भीषण आघात लगने पर ऐसी स्थिति में आना या होना कि पीने के लिए पानी तक माँगने की शक्ति न रह जाय। पानी पढ़ना=मंत्र पढ़कर पानी फूँकना। जल अभिमंत्रित करना। पानी पर नींब (या बुनियाद) होना=बहुत ही अनिश्चित या दुर्बल आधार होना। पानी परोरना=दे० ऊपर ‘पानी छानना’। पानी पी पीकर=बार बार शक्ति संचित करके। जैसे—पानी पी पीकर किसी को कोसना। विशेष—बहुत अधिक बोलने से गला सूखने लगता है, जिसे तर करने के लिए बोलनेवाले को रह-रहकर पानी का घूँट पीना पड़ता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। (किसी चीज या बात पर) पानी फिरना या फिर जाना=पूरी तरह से चौपट, नष्ट या निरर्थक हो जाना। बिलकुल तत्वहीन या निःसार हो जाना। पानी फूँकना=खौलते हुए पानी में उबाल आना। (किसी चीज या बात पर) पानी फेरना या फेर देना। (क) पूरी तरह नष्ट या चौपट करना। (ख) सारा किया-धरा विफल या व्यर्थ कर देना। जैसे—जरा सी भूल से तुमने मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया। पानी बराना=(क) छोटी नालियाँ बनाकर और क्यारियाँ काटकर खेत सींचना। (ख) ऐसी व्यवस्था करना जिसमें नालियों का पानी इधर-उधर बहने न पावे। (किसी का किसी के सामने) पानी भरना=किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ या हीन सिद्ध होना। उदा०—फूले शफक तो जर्द हों गालों के सामने। पानी भरे घटा तेरे बालों के सामने।—कोई शायर। (कहीं) पानी मरना=किसी स्थान पर पानी का एकत्र होकर सोखा जाना या किसी संधि में प्रविष्ट होकर वास्तु-रचना को हानि पहुँचाना। जैसे—इस दरज से छत (या दीवार) में पानी भरता है। (किसी के सिर) पानी मरना=किसी का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उस पर किसी प्रकार का आक्षेप, आरोप या कलंक हो या लग सके या उसे किसी बात से लज्जित होना पड़े। पानी में आग लगाना=(क) असंभव बात संभव कर दिखलाना। (ख) जहाँ लड़ाई-झगड़े की कोई संभावना न हो, वहाँ भी लड़ाई-झगड़ा खड़ा कर देना। पानी में फेंकना या बहाना=व्यर्थ नष्ट या बरबाद करना। (कहीं) पानी लगना=किसी स्थान पर पानी इकट्ठा होना। पानी जमा होना। (दाँतों में) पानी लगना=पानी की ठंढक से दाँतों में टीस होना। पानी लेना=दे० ऊपर ‘पानी छूना’। पानी सिर से (या पैर से) गुजरना=दे० ‘सिर’ के अंतर्ग०। पानी से पहले पाड़, पुल या बाँध बाँधना=किसी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न होने पर भी केवल आशंकावश बचाव का प्रयत्न या प्रयास करना। गले गले पानी में=लाख कठिनाइयाँ होने पर भी। जैसे—तुम्हारा रुपया तो हम गले गले पानी में भी चुका देंगे। विशेष—बाढ़ आने पर आदमी का धड़ डूबता है और गले तक पानी आता है तब मृत्यु या विनाश समीप दिखाई देता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। २. उक्त तत्त्व का कोई ऐसा रूप जो किसी दूसरे पदार्थ में से आपसे आप या उबालने आदि पर निकला हो या उस पदार्थ के अंश से युक्त हो। जैसे—दही या नारियल का पानी, चूने या नमक का पानी, दाल या नीम का पानी। क्रि० प्र०—आना।—निकलना।—रसना। मुहा०—(किसी वस्तु का) पानी छोड़ना=किसी चीज में से थोड़ा-थोड़ा पानी या और कोई तरल पदार्थ रस-रसकर निकलना। जैसे—पकाने पर किसी तरकारी का पानी छोड़ना। ३. किसी विशिष्ट प्रकार के गुण या तत्त्व से युक्त किया हुआ कोई ऐसा तरल पदार्थ जिसके योग से किसी दूसरी चीज में कोई गुण या तत्त्व सम्मिलित किया जाता है अथवा किसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। जैसे—जहर का पानी, मुलम्मे का पानी। पद—खारा पानी=सोडा मिला हुआ वह पानी जो बंद बोतलों में पीने के लिए बिकता है। मीठा पानी=उक्त प्रकार का वह पानी जिसमें नींबू आदि का सत्त मिला रहता है। विलायती पानी=यंत्र की सहायता से और वाष्प के जोर से बोतलों में भरा हुआ पानी जो सम्मिश्रण, स्वाद आदि के विचार से अनेक प्रकार का होता है। मुहा०—(किसी चीज पर) पानी चढ़ाना, देना या फेरना=किसी तरल पदार्थ या घोल के योग से किसी वस्तु में चमक लाना। ओप लाना। जिला करना। जैसे—चाँदी की अँगूठी पर सोने का पानी चढ़ाना। (किसी चीज से) पानी बुझाना=ईंट, धातु-खंड या ऐसी ही और कोई चीज आग में अच्छी तरह तपाकर और लाल करके इसलिए तुरंत पानी में डालना कि उसका कुछ गुण या प्रभाव पानी में आ जाय। (चिकित्सा आदि के प्रसंग में ऐसे पानी का उपयोग होता है।) (कोई चीज किसी) पानी में बुझाना=किसी विशिष्ट क्रिया से तैयार किये हुए पानी में कोई चीज गरम करके इसलिए डालना कि उस चीज में उस पानी का कोई विशिष्ट गुण या प्रभाव आ जाय। जैसे—जहर के पानी से तलवार बुझाना। ४. उक्त के आधार पर काट करनेवाली चमकदार और बढ़िया तलवार या ऐसा ही और कोई बड़ा अस्त्र। ५. किसी प्रकार की प्रक्रिया में हरबार होनेवाला पानी का उपयोग या प्रयोग। जैसे—(क) तीन पानी का गेहूँ अर्थात् ऐसा गेहूँ जिसकी फसल तीन बार सींची गई हो। (ख) कपड़ों की दो पानी की धुलाई; अर्थात् दो बार धोया जाना। ६. आकाश से जल की होनेवाली वृष्टि। वर्षा। मेह। क्रि० प्र०—आना।—गिरना।—पड़ना।—बरसना। मुहा०—पानी उठना =आकाश में घटाओं या बादलों का आकर छाना जो वर्षा का सूचक होता है। पानी टूटना=लगातार होनेवाली वर्षा बन्द होना या रुकना। पानी बाँधना=जादू या टोना-टोटका करके बरसते या बहते हुए पानी की धार रोकना। ७. प्रतिवर्ष होनेवाली वर्षा के विचार से, पूरे एक वर्ष का समय। जैसे—अभी तो यह पेड़ तीन ही पानी का है; अर्थात् इसने तीन ही बरसातें देखी हैं, या यह तीन ही वर्ष का पुराना है। ८. उक्त के आधार पर कोई काम एक बार या हर बार होने की क्रिया या भाव। दफा। जैसे—(क) वहाँ मुसलमानों और राजपूतों में कई पानी भिडंत हुई थी। (ख) दोनों में एक पानी कुश्ती हो तो अभी फैसला हो जाय। ९. शरीर के किसी अंग के क्षत में से विकार आदि के रूप में निकलने रसनेवाला तरल अंश या पदार्थ। जैसे—आँख या नाक से पानी जाना। मुहा०—पानी उतरना=आँतों या पेट का पानी उतर कर नीचे अंडकोश में आना और एकत्र होना जो एक प्रकार का रोग है। १॰. किसी स्थान का जल-वायु अथवा प्राकृतिक या सामाजिक परिस्थिति जिसका प्रभाव प्राणियों के शारीरिक स्वास्थ्य अथवा आचार-विचार, रहन-सहन आदि पर पड़ता है। जैसे—अच्छे पानी का घोड़ा। पद—कड़ा पानी=ऐसा जलवायु जिसमें उत्पन्न या पले हुए प्राणी ढीले और निर्बल होते हैं। मुहा०—(किसी व्यक्ति को कहीं का) पानी लगना=(क) किसी स्थान के जलवायु का शरीर पर दूषित या हानिकारक परिणाम या प्रभाव होना। जैसे—(क) जब से उन्हें पहाड़ का पानी लगा है, तब से वे बराबर बीमार ही रहते हैं। (ख) कहीं के दूषित वातावरण या परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना। जैसे—देहात से आते ही तुम्हें शहर का पानी लगा। ११. वह जो पानी की तरह कोमल, गीला, ठंडा, नरम या सरस हो। जैसे—तुमने आटा क्या गूँधा है, बिलकुल पानी कर दिया है। मुहा०—(काम को) पानी करना=बहुत ही सरल, सहज, साध्य या सुगम कर डालना। जैसे—मैंने इस काम को पानी कर दिया। (किसी व्यक्ति को) पानी करना या कर देना=कठोरता, क्रोध आदि दूर करके शांत या सरस कर देना। (किसी व्यक्ति को) पानी पानी करना=अत्यन्त लज्जित करना। (किसी का) पानीपानी होना=(क) मन की कठोर वृत्ति का सहसा बदलकर बहुत ही कोमल हो जाना। (ख) किसी घटना या बात के प्रभाव या फल से बहुत ही लज्जित होना। (किसी का) पानी होना या हो जाना=उग्रता, क्रोध आदि का पूरी तरह से शमन होना; और उसके स्थान पर दया, नम्रता आदि का आविर्भाव होना। १२. पानी की तरह फीका या स्वादहीन पदार्थ। जैसे—दूध क्या है, निरा पानी है। १३. मद्य। शराब। (बोल-चाल) पद—गरम पानी=शराब। १४. पुरुष का वीर्य या शुक्र। मुहा०—पानी गिराना=स्त्री के साथ उदासीनता या उपेक्षापूर्वक अथवा विशिष्ट सुख का बिना अनुभव किये यों ही मैथुन या संभोग करना। (बाजारू) १५. पुरुषत्व, मान-प्रतिष्ठा आदि के विचार से मनुष्य में होनेवाला अभिमान, वीरता या ऐसा ही और कोई तत्त्व या भावना। जैसे—ऐसा आदमी किस काम का जिसमें कुछ भी पानी न हो। १६. मान। प्रतिष्ठा। इज्जत। आबरू। क्रि० प्र०—जाना।—बचाना।—रखना।—रहना। पद—पत-पानी=प्रतिष्ठा और सम्मान। इज्जत-आबरू। मुहा०—(किसी का) पानी उतारना या उतार लेना=अपमानित करना। इज्जत उतारना। (किसी को) बे-पानी करना=अपमानित या अप्रतिष्ठित करना। १७. किसी पदार्थ का वह गुण या तत्त्व जिसके फल-स्वरूप उसमें किसी तरह की आभा, चमक या पारदर्शकता आती हो। जैसे—मोती या हीरे का पानी। वि० [?] बहुत सरल और सुगम। उदा०—गुलिस्ताँ के बाद फारसी की और किताबें पानी हो गई थीं।—मिरजा रुसवा (उमराव जान में)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी आँवला  : पुं० [सं० पानीयामलक] आँवले की तरह का एक क्षुप जो जलाशयों के किनारे होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी आलू  : पुं० [सं० पानीयालु] जलाशय के किनारे होनेवाला एक प्रकार का कंद। जलालु।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी-कल  : पुं०=जल-कल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी-तराश  : पुं० [हिं० पानी+तराशना] जहाज या नाव के पेदें में वह बड़ी लकड़ी जिससे वह पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानीदार  : वि० [हिं० पानी+फा० दार (प्रत्य०)] १. जिसमें पानी अर्थात् आभा या चमक हो। जैसे—पानीदार हीरा। २. (धातु का कोई उपकरण) जिस पर किसी रासायनिक प्रक्रिया से चमक लाने के लिए किसी तरह का पानी चढ़ाया गया हो। जैसे—पानीदार तलवार। ३. (व्यक्ति) जिसे अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि का पूरा-पूरा ध्यान हो। अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि पर आँच न आने देनेवाला। स्वाभिमानी।
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पानी-देवा  : वि० [हिं० पानी+देवा=देनेवाला] पितरों को पानी देने अर्थात् उनका तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध आदि करनेवाला, फलतः वंशज या संतान। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. अपने कुल या वंश का व्यक्ति।
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पानीपत  : पुं० [हिं०] १. दिल्ली से ५५ मील उत्तर की ओर स्थित एक प्रसिद्ध नगर। २. उक्त नगर के समीप स्थित एक प्रसिद्ध क्षेत्र या बहुत बड़ा मैदान जहाँ अनेक बड़े-बड़े युद्ध हो चुके हैं।
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पानीफल  : पुं० [हिं० पानी+फल] सिंघाड़ा (फल)।
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पानीवेल  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की लता जो प्रायः साल के जंगलों में पाई जाती और गरमी में फूलती तथा बरसात में फलती है। इसके फल खाये जाते हैं और जड़ दवा के काम आती है।
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पानीय  : विं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+अनीयर्] १. जो पीया जा सके अथवा जो पिये जाने के योग्य हो। २. जिसकी रक्षा की जा सके या जिसकी रक्षा करना आवश्यक अथवा उचित हो। पुं० कोई ऐसा तरल स्वादिष्ट पदार्थ जो पीने के काम में आता हो। (ड्रिंक, बीवरेज)
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पानीय-चूर्णिका  : स्त्री० [ष० त०] बालू। रेत।
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पानीय-नकुल  : पुं० [स० त०] पानी में रहनेवाला नेवला अर्थात् ऊदबिलाव।
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पानीय-पृष्ठज  : पुं० [सं० पानीय-पृष्ठ, ष० त०,√जन्+ड] जलकुम्भी नामक पौधा।
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पानीय-फल  : पुं० [ष० त०] मखाना।
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पानीय-मूलक  : पुं० [ब० स०, कप्] बकुची।
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पानीय-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ सार्वजनिक रूप से राह-चलनेवालों को पानी पिलाने की व्यवस्था हो। पौसरा। प्याऊ।
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पानीय शालिका  : स्त्री० [ष० त०] पानीय-शाला।
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पानीयामलक  : पुं० [सं० पानीय-आमलक, मध्य० स०] पानी आँवला।
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पानीयालु  : पुं० [सं० पानीय-आलु, मध्य० स०] पानी आलू नामक कंद। जलालु।
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पानीयाश्ना  : स्त्री० [सं० पानीय√अश् (खाना)+न+टाप्] एक प्रकार की घास। बल्वजा।
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पानूस  : पुं०=फानूस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानौरा  : पुं० [हिं० पान+बरा] [स्त्री० अल्पा० पानौरी] पीठी, बेसन आदि से लपेट कर तला हुआ पान के पत्ते का पकौड़ा।
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पान्यो  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पान्हर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सरपत।
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पाप  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+प] [वि० पापी] १. धर्म और नीति के विरुद्ध किया जानेवाला ऐसा निंदनीय आचरण या काम जो इस लोक में भी और पर-लोक में भी सब तरह से बुरा और हानिकारक हो और जिसके फलस्वरूप मनुष्य को नरक भोगना पड़ता हो। ‘पुण्य’ का विपर्याय। गुनाह। विशेष—हमारे यहाँ पाप का क्षेत्र दुष्कर्मों की तुलना में बहुत विस्तृत माना गया है। धर्म-शास्त्रों के अनुसार दुष्कर्म करना तो पाप है ही, उचित और कर्त्तव्य कर्म न करना भी पाप माना गया है। साधारणतः दुष्कर्मों का फल जो इसी लोक में मिलता है; पर पाप के फलस्वरूप मनुष्य को मरने के बाद भी नरक में रहकर उसका दंड भोगना पड़ता है। यह कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार का माना गया है। पापों के फल-भोग से बचने के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है। पद—पाप की गठरी या मोट=किसी व्यक्ति के जन्म भर के सब पाप। मुहा०—पाप काटना=पापों के दुष्परिणामों या प्रभाव का प्रायश्चित्त करना या दंड-भोग से क्षीण या नष्ट होना। पाप कमाना=ऐसे दुष्कर्म करना जो पाप समझे जाते हों और जितना फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़े। पाप काटना=किसी प्रकार पापों के दुष्परिणामों का अंत या नाश करना। पाप बटोरना=दे० ऊपर ‘पाप कमाना’। २. पूर्व जन्म में किये हुए पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली वह बुरी अवस्था जिसमें उन पापों का दंड या बहुत अधिक कष्ट भोगने पड़ते हों। जैसे—ईश्वर करे, हमारे पाप शांत हों। मुहा०—पाप उदय होना=ऐसी बुरी अवस्था या समय आना जब अनेक प्रकार के कष्ट ही कष्ट मिलते हों। दुर्दशा के अथवा बुरे दिन आना। जैसे—न जाने हमारे कब के पापों के उदय हुआ था कि ऐसा नालायक लड़का मिला। पाप पड़ना=ऐसी बुरी स्थिति उत्पन्न होना जिससे बहुत अधिक कष्ट या दुःख भोगना पड़े। उदा०—सीरैं जतननु सिसिर रितु, सहि बिरहिन तनु-ताप। बसिबै कौं ग्रीषम दिननु पर्यो परोसिनि पापु।—बिहारी। ३. ऐसी अवस्था, जिसमें किसी काम का वैसा ही दुष्परिणाम भोगना पड़ता हो जैसा पापपूर्ण कर्म का। जैसे—मैं देखता हूँ कि यहाँ तो सच बोलना भी पाप है। मुहा०—पाप लगना=ऐसी स्थिति आना या होना कि जिसमें मनुष्य पापों के फलभोग का भागी बनता हो। जैसे—पापी के संसर्ग से भी मनुष्य को पाप लगता है। ४. कोई ऐसा काम या बात जिससे मुनष्य को बहुत कष्ट भोगना अथवा दुःखी होना पड़ता हो। जैसे—तुमने तो जान-बूझकर यह मुकदमेबाजी का पाप अपने साथ लगा रखा है। मुहा०—पाप काटना=बहुत बड़ी झंझट या बखेड़ा दूर करना। ५. अपराध। कसूर। ६. बुरी बुद्धि या बुरा विचार। ७. अनिष्ट। अहित। खराबी। ८. दे० ‘पापग्रह’। वि० १. पाप करनेवाला। पापी। २. दुराचारी। ३. कमीना। नीच। ४. दुष्ट। पाजी। ५. अमांगलिक। अशुभ। जैसे—पाप-ग्रह।
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पापक  : वि० [सं० पाप+कन्] १. पापा-युक्त। २. पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कर  : वि० [ष० त०]=पापी।
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पाप-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] धार्मिक दृष्टि से ऐसा बुरा और निंदनीय काम जिसे करने से पाप लगता हो। वि० पाप करनेवाला। पापी।
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पापकर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० पापकर्म] [स्त्री० पापकर्मिणी] पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कल्प  : वि० [सं० पाप-कल्पप्] पापी। पुं० खोटा और नीच व्यक्ति।
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पाप-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. ऐसी स्थिति जिसमें किये हुए पापों का फल नहीं भोगना पड़ता। पापों का होनेवाला अंत या क्षय। २. तीर्थ, जहाँ जाने से पापों का क्षय या नाश होता है।
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पाप-गति  : वि० [ब० स०] १. जो किये हुए पापों का फल भोग रहा हो। २. अभागा।
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पाप-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] मंगल, शनि, केतु, राहु आदि अशुभ ग्रह जिनकी दशा लगने पर लोग दुःख पाते हैं।
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पापघ्न  : वि० [सं० पाप√हन् (हिंसा)+टक्] पापों का नाश करनेवाला। पुं० तिल (जिसके दान करने से पापों का क्षय होना माना जाता है)।
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पापघ्नी  : स्त्री० [सं० पापघ्न+ङीप्] तुलसी।
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पाप-चंद्रमा  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार विशाखा और अनुराधा नक्षत्रों के दक्षिण भाग में स्थित चन्द्रमा।
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पापचर  : वि० [सं० पाप√चर् (गति)+ट] [स्त्री० पापचरा] पापपूर्ण आचरण करनेवाला। पापी।
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पाप-चर्य  : पुं० [ब० स०] १. पापी (व्यक्ति)। २. राक्षस।
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पापचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाप√चर्+णिनि] [स्त्री० पापचारिणी]=पाप-चर्य।
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पाप-चेता (तस्)  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पापपूर्ण आचरण करने की बातें सोचता हो।
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पापचेली  : स्त्री० [सं० पाप√चेल्+अच्+ङीष्] पाठा लता।
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पापचैल  : पुं० [कर्म० स०] अशुभ या अमंगल सूचक वस्त्र। वि० [ब० स०] जो उक्त प्रकार के वस्त्र पहने हो।
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पाप-जीव  : वि० [कर्म० स०] पापी। पुं० पुराणानुसार स्त्री, शूद्र, हूण और शवर आदि जीव जिनका संसर्ग कष्टदायक कहा गया है।
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पापड़  : पुं० [सं० पर्पट, प्रा० पप्पड़] उर्द, मूँग आदि दालों, मैदे, चौरेठे आदि अन्नों अथला आलू की बनी हुई एक तरह की मसालेदार पतली चपाती जिसे तल या भूनकर भोजन आदि के साथ खाया जाता है। मुहा०—पापड़ बेलना=(क) कोई काम इस रूप में करना कि वह बिगड़ जाय। (ख) किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए तरह-तरह के और कष्टसाध्य काम करना। (प्रायः ऐसा कामों से सिद्धि नहीं होती)। जैसे—आप सब पापड़ बेल कर बैठे हैं। वि० १. पापड़ की तरह पतला या महीन। २. पापड़ की तरह सूखा और भुरभुरा।
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पापड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] १. छोटे आकार का एक पेड़ जो मध्य-प्रदेश बंगाल, मद्रास आदि में उत्पन्न होता है। इसकी लकड़ी से कंघियाँ और खराद की चीजें बनाई जाती हैं। २. दे० ‘पित्त-पापड़ा’।
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पापड़ा-खार  : पुं० [सं० पर्पटक्षार] केले के पेड़ को जलाकर तैयार किया हुआ क्षार।
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पापड़ी  : स्त्री० [हिं० पापड़ा] एक प्रकार का पेड़ जो मध्यप्रदेश, पंजाब और मदरास में बहुत होता है।
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पापदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पाप√दृश् (देखना)+णिनि] पापपूर्ण दृष्टि से देखनेवाला। बुरी निगाहवाला।
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पाप-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि पापमय हो। २. अमंगलकारिणी या अशुभ दृष्टिवाला। स्त्री० पाप-पूर्ण दृष्टि।
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पाप-धी  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि पापमय या पापासक्त हो। पापकर्मों में मन लगानेवाला। पापमति। पापचेता।
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पाप-नक्षत्र  : पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, ज्येष्ठा आदि कुछ नक्षत्र जो अनिष्टकारक या बुरे माने गये हैं।
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पाप-नामा (मन्)  : वि० [ब० स०] १. अशुभ नामवाला। २. जिसकी सब जगह निंदा या बदनामी होती हो। बदनाम।
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पाप-नाशक  : वि० [ष० त०] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-नाशन  : वि० [ष० त०] पाप का नाश करनेवाला। पापनाशी। पुं० १. प्रायश्चित्त जिससे पाप नष्ट होते हैं। २. विष्णु। ३. शिव।
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पाप-नाशिनी  : स्त्री० [सं० पापनाशिन्+ङीष्] १. शमी वृक्ष। २. काली तुलसी।
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पापनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाप√नश् (नष्ट होना)+ णिच्+णिनि] [स्त्री० पापनाशिनी] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-निश्चय  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का निश्चय कर लिया हो। खोटा काम करने को तैयार। पाप करने को कृतसंकल्प।
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पाप-पति  : पुं० [कर्म० स०] स्त्री का उपपति या यार।
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पाप-पुरुष  : पुं० [कर्म० स० या मध्य० स०] १. पापी प्रकृतिवाला पुरुष। दुष्ट। २. तंत्र में कल्पित पुरुष जिसका सारा शरीर पाप या पापों से ही बना हुआ माना जाता है। ३. पद्म पुराण के अनुसार ईश्वर द्वारा सारे संसार के दमन के उद्देश्य से रचा हुआ पापमय पुरुष।
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पाप-फल  : वि० [ब० स०] (कर्म) जिसका परिणाम बुरा हो और जिसे करने पर पाप लगता हो।
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पाप-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि-सदा पापकर्मों की ओर रहती हो।
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पाप-भक्षण  : पुं० [ब० स०] काल-भैरव।
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पापभाक् (ज्)  : वि० [सं० पाप√भज् (भजना)+ण्वि] पापी।
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पाप-भाव  : वि० [ब० स०]=पाप-मति।
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पाप-मति  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पाप-कर्म करता हो। पाप-बुद्धि। पापचेता।
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पाप-मना (नस्)  : वि० [ब० स०] जिसके मन में पापपूर्ण विचारों का निवास हो।
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पाप-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] बुरे कामों में लगाने या बुरी सलाह देनेवाला मित्र।
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पाप-मोचन  : पुं० [ष० त०] पापों को दूर या नष्ट करना।
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पाप-मोचनी  : स्त्री० [ष० त०] चैत्र कृष्णपक्ष की एकादशी।
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पाप-यक्ष्मा (क्ष्मन्)  : पुं० [कर्म० स०] राजयक्ष्मा या क्षय नामक रोग। तपेदिक।
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पाप-योनि  : वि० [कर्म० स०] बुरी या हीन योनि में उत्पन्न होनेवाला। जैसे—कीट, पतंग आदि। स्त्री० बुरी या हीन योनि।
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पापर  : पुं०=पापड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं० पाँपर] १. कंगाल। २. ऐसा व्यक्ति जिसे अपनी निर्धनता प्रमाणित करने पर दीवानी में बिना रसूम दिये मुकदमा चलाने की अनुमति मिली हो।
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पाप-रोग  : पुं० [मध्य० स०] १. वैद्यक में कुछ विशिष्ट भीषण या विकट रोग जो पूर्व जन्मों के पापों के फल-स्वरूप होनेवाले माने गये हैं। जैसे—कोढ़, क्षयरोग, लकवा आदि। २. मसूरिका या वसन्त नामक रोग। छोटी माता।
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पापरोगी (गिन्)  : वि० [पाप रोग+इनि] [स्त्री० पापरोगिणी] जिसे कोई पाप-रोग हुआ हो।
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पापर्द्धि  : स्त्री० [सं० पाप-ऋद्धि, ब० स०] आखेट। मृगया। शिकार।
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पापल  : वि० [सं० पाप√ला (लेना)+क] जो पाप का कारण हो। पाप उत्पन्न करनेवाला। पुं० एक प्रकार की पुरानी नाप या परिणाम।
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पापलेन  : पुं० [अं० पाँपलिन] मारकीन की तरह का परन्तु उससे कुछ बढ़िया सूती कपड़ा।
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पाप-लोक  : पुं० [ष० त०] [वि० पापलोक्य] १. ऐसा लोक जिसमें पापकर्मों की अधिकता हो। २. नरक, जिसमें पापी लोग पापों का फल भोगने के लिए भेजे जाते हैं।
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पाप-वाद  : पुं० [ष० त०] अशुभ या अमांगलिक शब्द।
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पाप-विनाशन  : पुं० [ष० त०] पाप-मोचन।
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पाप-शमनी  : वि०, स्त्री० [ष० त०] पापों का शमन या नाश करनेवाली। स्त्री० शमी वृक्ष।
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पाप-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० पापशीलता] जो स्वभावतः पापकर्मों की ओर प्रवृत्त रहता हो।
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पाप-शोधन  : पुं० [ष० त०] १. पाप से शुद्ध होने की क्रिया या भाव। पापनिवारण। २. तीर्थ-स्थान।
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पाप-संकल्प  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का पक्का इरादा या संकल्प कर लिया हो।
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पाप-सूदन  : पुं० [सं० पाप√सूद् (नष्ट करना)+णिच्+ल्यु—अन] एक प्राचीन तीर्थ।
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पाप-हर  : वि० [ष० त०] पापनाशक। पापहारक।
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पापहा (हन्)  : वि० [सं० पाप√हन्+क्विप्] पापनाशक।
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पापांकुशा  : स्त्री० [पाप-अंकुश, च० त०,+टाप्] आश्विन् शुक्ला एकादशी।
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पापांत  : पं० [पाप-अंत, ब० स०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
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पापा  : स्त्री० [सं० पाप+टाप्] १. बुद्धग्रह की उस समय की गति जब वह हस्त, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में रहता है। पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो ज्वार, बाजरे आदि की फसल में प्रायः अधिक वर्षा के कारण लगता है। पुं० [अनु०] १. पाश्चात्य देशों में बच्चों की एक बोली में एक शब्द जिससे वे बाप को संबोधित करते हैं। बाबा। बाबू। २. प्राचीन काल में बिशप पादरियों और आज-कल केवल यूनानी पादरियों के एक विशेष वर्ग की सम्मान-सूचक उपाधि।
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पापाख्या  : स्त्री० [सं० पाप+आ√ख्या (कहना)+क+टाप्] दे० ‘पापा’ (बुद्ध की गति)।
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पापाचार  : वि० [पाप-आचार, ब० स०] पाप कर्म करनेवाला। पापी। पुं० [ष० त०] पापपूर्ण आचरण।
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पापाचारी (रिन्)  : वि० [सं० पापाचार+इनि] पापपूर्ण आचरण या कर्म करनेवाला। पापी।
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पापात्मा (त्मन्)  : वि० [पाप-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा या मन सदा पापकर्मों की ओर रहता हो; अर्थात् बहुत बड़ा पापी। बड़े बड़े पाप करनेवाला।
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पापाधम  : पुं० [पाप-अधम, स० त०] पापियों में भी अधम अर्थात् महापापी।
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पापानुबंध  : पुं० [पाप-अनुबन्ध, ष० त०] पाप का कुफल या दुष्परिणाम।
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पापानुवसित  : वि० [पाप-अनुवसित, तृ० त०] १. पापी। २. पापपूर्ण।
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पापापनुत्ति  : स्त्री० [पाप-अपनुत्ति, ष० त०] प्रायश्चित्त।
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पापारंभ  : वि० [पाप-आरंभ, ब० स०] दुष्कर्म करनेवाला। पापी।
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पापारंभक  : वि० [पाप-आरंभिक, ष० त०] जो पापकर्म करना चाहता हो।
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पापार्त्त  : वि० [पाप-आर्त्त, तृ० त०] जो आपने पाप-कर्मों के फल से बहुत ही दुःखी हो।
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पापाशय  : वि० [पाप-आशय, ब० स०] जिसके मन में पाप हो।
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पापाह  : पुं० [पाप-अहन्, कर्म० स०, टच्] १. अशौच या सूतक के दिन का समय। २. अशुभ या बुरा दिन।
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पापिष्ठ  : वि० [सं० पाप+इष्ठन्] बहुत बड़ा पापी।
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पापी (पिन्)  : वि० [सं० पाप+इनि] [स्त्री० पापिनी] १. पाप में रत या अनुरक्त। पाप करनेवाला। पातकी। अघी। २. लाक्षणिक और व्यंग्य के रूप में, क्रूर, निर्मोही या निर्दय। जैसे—पिया पापी न जागे, जगाय हारी।—लोकगीत। पुं० वह जो पाप करता हो या जिसने कोई पाप किया हो।
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पापीयस्  : वि० [सं० पाप+ईयसुन्] [स्त्री० पापीयसी] पापी।
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पापोश  : स्त्री० [फा०] जूता। उपानह।
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पापोशकार  : पुं० [फा०] [भाव० पापोशकारी] जूते बनानेवाला व्यक्ति। मोची।
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पाप्मा (प्मन्)  : वि० [सं०√आप् (व्याप्त करना)+ मनिन्; नि० सिद्धि] पापी। पुं० पाप।
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पा-प्यादा  : क्रि० वि० [फा०] बिना किसी सवारी के। पैदल।
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पाबंद  : वि० [फा०] [भाव० पाबंदी] १. जिसके पैर बँधे हुए हों। २. किसी प्रकार के बंधन में पड़ा हुआ। बद्ध। जैसे—नौकरी या मालिक का पाबंद। ३. पूर्ण रूप से किसी नियम, वचन, सिद्धांत आदि का ठीक समय पर पालन करनेवाला। जैसे—वक्त का पाबंद, हुकुम का पाबंद। ४. जो उक्त के आधार पर कोई काम करने के लिए बाध्य या विवश हो। पुं० १. घोड़े का पिछाड़ी, जिससे उसके पैर बाँधे जाते हैं। २. नौकर। सेवक।
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पाबंदी  : स्त्री० [फा०] १. पाबंद होने की अवस्था, क्रिया या भाव। बद्धता। २. वचन, समय, सिद्धान्त आदि के पालन करने की जिम्मेदारी। ३. उक्त के फल-स्वरूप होनेवाली लाचारी या विवशता।
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पाम (मन्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+मनिन्] १. दानेदार चकत्ते या फुंसियाँ। २. खाज। खुजली। स्त्री० [देश०] १. वह डोरी जो गोटे, किनारी आदि बुनने के समय दोनों तरफ बाँधी जाती है। २. डोरी। रस्सी। (लश०)
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पाम  : पुं० [अं०] ताड़ का पौधा या वृक्ष।
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पापघ्न  : वि० [सं० पामन्√हन् (नष्ट करना)+टक्] पामा रोग का नाश करनेवाला। पुं० गंधक।
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पामघ्नी  : स्त्री० [सं० पामघ्न+ङीप्] कुटकी।
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पामड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामड़ी  : स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामन  : वि० [सं०√पा+मिनिन्, पामन्+न, नलोप] १. जिसे या जिसमें पामा रोग हुआ हो। २. खल। दुष्ट। पुं०=पामा (रोग)।
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पामना  : स०=पावना (पाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पावना (प्राप्य धन)।
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पामर  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप्, पा√मृ (मरना)+घ] १. बहुत बड़ा दुष्ट और नीच। अधम। २. पापी। ३. जिसका जन्म नीच कुल में हुआ हो। ४. निर्बुद्धि। मूर्ख।
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पामर-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का निकृष्ट योग। (फलित ज्योतिष)
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पामरी  : स्त्री० [सं० प्रावार] उपरना। दुपट्टा। स्त्री० सं० ‘पामर’ का स्त्री०। स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामा  : पुं० [सं० पामन्+डाप्] १. एक प्रकार का चर्म रोग जिसमें शरीर पर चकत्ते निकल आते हैं और उनमें की छोटी छोटी फुंसियों में से पानी बहता है। (एंग्जिमा) २. खाज या खुजली नामक रोग।
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पामारि  : पुं० [पामा-अरि, ष० त०] गंधक।
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पामाल  : वि० [फा०] [भाव० पामाली] १. पैर से कुचला या पाँव तले रौंदा हुआ। पद-दलित। २. बुरी तरह से तबाह या बरबाद।
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पामाली  : स्त्री० [फा०] १. पामाल होने की अवस्था या भाव। २. तबाही। बरबादी।
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पामोज़  : पुं० [?] १. एक प्रकार का कबूतर। २. ऐसा घोड़ा जो सवारी के समय सवार की पिंडली को अपने मुँह से पकड़ता हो।
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पायँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँचा  : पुं० [हिं० पाँव] पायजामे की टाँग।
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पाँयजेहरि  : स्त्री० [हिं० पाँय+जेहरी] पायजेब।
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पायँत  : स्त्री०=पायँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँता  : पुं० [हिं० पायँ+सं० स्थान, हिं० थान] १. पलंग या चारपाई का वह भाग जिस पर पैर रहते हैं। पैताना। २. वह दिशा जिधर पैर फैलाकर कोई सोया हो।
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पायँती  : स्त्री० [हिं० पाँयता] पाँयता। पैताना।
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पायंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज़] पैर पोंछने का बिछावन। पावदान।
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पायँपसारी  : स्त्री० [हिं० पाँव+पसारना] निर्मली का पौधा और फल।
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पाय  : पुं० [सं०√पा+घञ्, यक्] जल। पानी। पुं० [फा० पायः] फारसी ‘पा’ (=पैर) का वह संबंधकारक रूप जो उसे यौ० शब्दों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पायखाना; पायजेब आदि।
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पायक  : वि० [सं०√पा (पीना)+ण्वुल—अक, युक्] पान करनेवाला। पीनेवाला। पुं० [फा०] १. दूत। २. सेवक। दास। ३. पैदल सिपाही। ४. वह छोटा कर्मचारी जो प्रायः दौड़-धूपवाले कामों के लिए नियुक्त हो। ५. झंडा। पताका। पुं० [?] १. पहलवान। मल्ल। २. पटेबाज।
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पायकार  : पुं० दे० ‘पैकार’।
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पायखाना  : पुं०=पाखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायगाह  : स्त्री० [सं०] १. पैर रखने की जगह। २. कचहरी। ३. अस्तबल। तबेला।
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पायज  : पुं० [?] पेशाब। मूत्र। उदा०—...निज पायज ज्यौं जल अंक लगावै।—केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायजामा  : पुं०=पाजामा।
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पायजेब  : स्त्री०=पाजेब।
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पाय-जेहरि  : स्त्री०=पाजेब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायठ  : स्त्री०=पाइट।
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पायड़ा  : पुं० दे० ‘पैंडा’।
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पायतन  : पुं०=पायँता।
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पायताबा  : पुं० [फा०]=पाताबा (मोजा)।
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पायदान  : पुं०=पावदान।
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पायदार  : वि० [फा० पायःदार] [भाव० पायदारी] टिकाऊ और मजबूत।
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पायदारी  : स्त्री० [फा०] दृढ़ता और मजबूती।
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पायन  : पुं० [सं०√पा+णिच्+ल्युट्—अन] किसी को कुछ पिलाने की क्रिया या भाव।
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पायना  : स्त्री० [सं०√पा+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. सींचना। २. गीला या तर करना। ३. सान धरना। धार तेज करना।
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पायनिक  : वि० [सं० पायन+ठक्—इक] सिंचाई के काम में आनेवाला।
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पायपोश  : पुं०=पापोश।
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पायबोसी  : स्त्री०=पाबोसी।
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पायमाल  : वि० [भाव० पायमाली]=पामाल।
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पायरा  : पुं० [हिं० पाय+रा (=रखना)] घोड़े की जीन। पुं० [सं० पारावत] एक प्रकार का कबूतर।
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पायल  : स्त्री० [हिं० पाय+ल (प्रत्य०)] १. पैर में पहनने का स्त्रियों का एक गहना। २. तेज चलनेवाली हथनी। ३. बाँस की सीढ़ी। वि० [बच्चा] जन्म के समय जिसके पैर पहले बाहर निकले हों।
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पायस  : पुं० [सं० पायस्+अण्] १. खीर। २. सरल का गोंद। निर्यास। ३. रसायन शास्त्र में, दूधिया रंग का वह तरल पदार्थ जिसमें तेल, सर्जरस आदि के कण सब जगह समान रूप से तैरते रहते हों। (एमल्शन) ४. दे० ‘वसापायस’।
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पायसा  : पुं० [सं० पार्श्व, हिं० पास] पड़ोस। आस-पास का स्थान।
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पायसीकरण  : पुं० [सं० पायस√कृ (करना)+च्वि, ईत्व, ल्युट्—अन] किसी तरह औषध या घोल को ऐसा रूप देना कि उसमें कुछ पदार्थों के कण तैरते रहें, नीचे बैठ न जायँ। (एमल्सिफिकेशन)
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पाययोपवास  : पुं० [सं० पायस-उपवास] अच्छी-अच्छी चीजें खाकर भी यह कहते चलना कि हमने तो कुछ भी नहीं खाया। उपहास करने का झूठा बहाना।
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पाया  : पुं० [फा० पायः] १. पलंग, कुरसी, चौकी आदि का पावा या पैर। २. खंभा। स्तंभ। ३. नींव। बुनियाद। ४. दरजा। पद। मुहा०—पाया बुलन्द होना=पदोन्नति होना। ५. घोड़ों के पैर में होनेवाला एक रोग।
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पायिक  : पुं० [सं० पादविक, पृषो० साधु ‘पादातिक’ का प्रा० रूप] १. पादातिक। पैदल सिपाही। २. चर। दूत।
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पायी (यिन्)  : वि० [सं०√पा (पीना)+णिनि] समस्त पदों के अन्त में, पीनेवाला। जैसे—स्तनपायी। स्त्री०= पाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायु  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+उण्, युक् आगम] १. मलद्वार। गुदा। २. भरद्वाज के पुत्र।
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पाय्य  : वि० [सं०√मा (मापना)+ण्यत्, नि० पादेश] १. जो पान किया जा सके। पीये जाने के योग्य। २. जो पीया जाता हो। पेय। पुं० १. जल। पानी। २. रक्षण।
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पारंगत  : वि० [सं० पारगत] १. जो पार जा या पहुँच चुका हो। २. जिसने किसी विद्या या शास्त्र का बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।
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पारंपरीण  : वि० [सं० परंपरा+खञ्—ईन] परंपरागत।
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पारंपर्य्य  : पुं० [सं० परंपरा+ष्यङ्] १. परंपरा का भाव। २. परंपरा से चली आई हुई प्रथा या रीति। आम्नाय। ३. परंपरा का क्रम। ४. वंश परंपरा।
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पारंपर्योपदेश  : पुं० [पारंपर्य-उपदेश ष० त०] १. परंपरागत उपदेश। २. ऐतिह्य नामक प्रमाण।
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पार  : पुं० [सं० पर+अण्,√पृ (पूर्ति करना)+घञ्] १. (क) झील, नदी, समुद्र आदि के पूरे विस्तार का वह दूसरा किनारा या सिरा जो वक्ता के पासवाले किनारे या सिरे की विपरीत दिशा में और उस विस्तार के अंतिम सिरे पर पड़ता हो। उस ओर का और दूर पड़नेवाला किनारा या सिरा। ऊपर का तट या सीमा। (ख) उक्त या इस ओर अर्थात् इधर या पास का किनारा या सिरा। जैसे—(क) वह नाव पर बैठकर नदी के पार चला गया। (ख) गंगा के इस पार से उस पार तक तैर के जाने में एक घंटा लगता है। क्रि० प्र०—करना।—जाना।—होना। पद—आर-पार, वार-पार। (देखें) मुहा०—पार उतारना=नदी आदि के तल पर से होते हुए दूसरे किनारे तक पहुँचाना। पार उतारना=नाव आदि की सहायता से जलाशय के उस पार पहुँचाना या ले जाना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचाना। २. (क) किसी तल या पृष्ठ के किसी विंदु के विचार से उसके विपरीत या सामनेवाली दिशा के तल या पृष्ठ का कई विंदु या स्थान। (ख) उक्त के आमने-सामने वाले अथवा एक सिरे से दूसरे सिरे तक के दोनों विंदुओं में से प्रत्येक विंदु। जैसे—(क) तख्ते में काँटा ठोंककर उसकी नोक उस पार निकाल दो। (ख) गोली उसके पेट के इस पार से उस पार निकल गई। ३. किसी काम या बात का अंतिम छोर या सिरा। विस्तार या व्याप्ति की चरम सीमा या हद। पद—इस पार=इस लोग में। उदा०—इस पार प्रिये तुम हो...उस पार न जाने क्या होगा।—बच्चन। उस पार=परलोक में। मुहा०—(किसी का) पार पाना=किसी की चरम सीमा, गंभीरता, गहनता आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जैसे—इस विद्या का पार पाना कठिन है। (किसी से) पार पाना=किसी के विरुद्ध या सामने रहने पर उसकी तुलना या मुकाबले में विजयी या सफल होना, अथवा बढ़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—चालाकी में तुम उससे पार नहीं पा सकते। (किसी काम या बात का) पार लगना=ठीक तरह से अन्त या समाप्ति तक पहुँचना। पूरा होना। जैसे—तुम से यह काम पार नहीं लगेगा। (किसी को) पार लगाना=(क) कष्ट, संकट आदि से उद्धार करना। उबारना। (ख) जीवन-काल तक किसी का निर्वाह करना। विशेष—यह मुहा० वस्तुतः ‘किसी का बेड़ा पार लगाना’ का संक्षिप्त रूप है। ४. किसी काम, चीज या बात का सारा अथवा समूचा विस्तार। अव्य० अलग और दूर। परे और पृथक्। जैसे—तुम तो बात कहकर पार हो गये, सारा काम हमारे सिर पर आ पड़ा। पुं० [?] खेत की पहली जोताई।
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पारई  : स्त्री०=परई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारक  : वि० [सं०√पृ+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पारकी] १. पार करने या लगानेवाला। २. उद्धार करने या बचानेवाला। ३. पालन करनेवाला। पालक। ४. प्रीति या प्रेम करनेवाला। प्रेमी। ५. पूर्ति करनेवाला। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. वह पत्र जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण होने का सूचक हो। ३. वह पत्र जिसे दिखलाकर कोई कहीं आ-जा सके या इसी प्रकार का और कोई काम करने का अधिकार प्राप्त करे। पार-पत्र। (पास)
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पार-काम  : वि० [सं० पार√कम् (चापना)+अण्] जो पार उतरने अर्थात् उस पार जाने का इच्छुक हो।
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पारकी  : वि०=परकीय।
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पारक्य  : वि० [सं० पर+ष्यञ्, कुक्] परकीय। पराया। पुं० पवित्र आचरण या पुण्य कार्य जो परलोक में उत्तम गति प्राप्त कराता है।
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पारख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारखद  : पुं०=पार्षद् (सभासद्)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारखी  : पुं० [हिं० परख+ई (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जिसमें किसी चीज की अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि जानने और परखने की पूर्ण योग्यता हो। जैसे—आप कविता के अच्छे पारखी हैं।
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पारखू  : पुं०=पारखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारग  : वि० [सं० पार√गम्+ड] १. पार जानेवाला। २. काम पूरा करनेवाला। ३. किसी विषय का पूरा जानकार।
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पार-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] [भाव० पारगति] १. जो पार चला गया हो। २. जो किसी विषय का पूरा ज्ञान प्राप्त कर चुका हो। पारंगत। ३. समर्थ। पुं० जिन देव।
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पारगति  : स्त्री० [सं० स० त०] पारंगत होने के लिए अध्ययन करना।
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पार-गमन  : पुं० [सं०] एक स्थान या स्थिति से दूसरे स्थान या स्थिति में जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्ज़िट)
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पारगामी (मिन्)  : वि० [सं० पार√गम्+णिनि] पार करने या जानेवाला।
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पारचा  : पुं० [फा० पार्चः] १. टुकड़ा। खंड। धज्जी। २. कपड़ा। वस्त्र। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ४. पहनावा। पोशाक। ५. कच्चे कूओं में, दो खड़ी लकड़ियों के ऊपर रखी हुई वह बेड़ी लकड़ी जिस पर से रस्सी कूएँ में लटकायी जाती है। ६. पानी का छोटा हौज।
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पारज्  : पुं० [सं०√पार (कर्म समाप्त करना)+अजिन्] सोना। सुवर्ण।
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पारजन्मिक  : वि० [सं० पर-जन्मन्, कर्म० स०,+ठक्—इक्] परजन्म अर्थात् दूसरे जन्म से संबंध रखनेवाला।
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पारजात  : पुं०=परजाता (पारिजात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारजायिक  : पुं० [सं० पर जाया, ष० त०,+ठक्—इक] पराई जाया अर्थात् पर-स्त्री सम गमन करनेवाला। व्यभिचारी।
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पारटीट (टीन)  : पुं० [सं०] १. पत्थर। २. शिला। चट्टान।
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पारण  : पुं० [सं०√पार्+ल्युट्—अन] १. पार करने, जाने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी को पार ले जाने की क्रिया या भाव। ३. किसी व्रत या उपवास के दूसरे दिन किया जानेवाला तत्सम्बन्धी कृत्य; और उसके बाद किया जानेवाला भोजन। ४. तृप्त करने की क्रिया या भाव। ५. आज-कल, किसी प्रस्तावित विधान अथवा विधेयक के संबंध में उसे विचारपूर्वक निश्चित और स्वीकृत करने की क्रिया या भाव। ६. परीक्षा या जाँच में पूरा उतरना। उत्तीर्ण होना। (पासिंग) ७. रुकावट या बंधन की जगह पार करके आगे बढ़ना। (पासिंग) ८. पूरा करने की क्रिया या भाव। ९. बादल। मेघ।
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पारणक  : वि० [सं०] पारण करनेवाला।
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पारण-पत्र  : पुं० [सं०] १. किसी प्रकार के पारण का सूचक पत्र। २. वह पत्र जिसके आधार पर या जिसे दिखलाने पर किसी को कहीं आ-जा सकने या इसी प्रकार का और कोई काम कर सकने का अधिकार प्राप्त होता है। (पास)
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पारणा  : स्त्री० [सं०√पार्+णिच्+युच्—अन, टाप्]= पारण।
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पारणीय  : वि० [सं०√पार्+अनीयर्] १. जिसे पार किया जा सके। २. जिसे पूरा या समाप्त किया जा सके।
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पारतंत्र्य  : पुं० [सं० परतंत्र+ष्यञ्] परतंत्रता।
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पारत  : पुं० [सं० पार√तन् (विस्तार)+ड] एक प्राचीन म्लेच्छ जाति। पारद (जाति और देश)।
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पारतल्पिक  : पुं० [सं० परतल्प+ठक्—इक] पर-स्त्री गामी। व्यभिचारी।
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पारत्रिक  : वि० [सं० परत्र+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। पारलौकिक। २. (कर्म या काम) जिससे पर-लोक में उत्तम गति प्राप्त हो।
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पारत्र्य  : पुं० [सं० परत्र+ष्यञ्] परलोक में मिलनेवाला फल।
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पारथ  : पुं०=पार्थ (अर्जुन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिया  : वि० [सं० प्रार्थित] माँगा हुआ। याचित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिव  : वि०, पुं०=पार्थिव।
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पारथी  : पुं० [सं० पापर्द्धिक=बहेलिया।] १. बहेलिया। २. शिकारी। ३. हत्यारा।
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पारद  : पुं० [सं०√पृ+णिच्+तन्, पृषो० त-द] १. पारा। २. एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कैस्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके पड़ता था। ३. उक्त जाति के रहने का देश।
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पारदर्शक  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० पारदर्शकता] प्रकाश की किरणें जिसे पार करके दूसरी ओर जा सकती हों और इसीलिए जिसके इस पार से उस पार की वस्तुएँ दिखाई देती हों। (ट्रान्सपेएरेन्ट) जैसे—साधारण शीशे पारदर्शक होते हैं।
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पारदर्शकता  : स्त्री० [सं० पारदर्शक+तल्+टाप्] पारदर्शक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पारदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पार√दृश्+णिनि] [भाव० पारदर्शिता] १. आर-पार अर्थात् बहुत दूर तक की बात देखने और समझनेवाला। दूरदर्शी। २. पारदर्शक। (दे०)
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पारदारिक  : वि०, पुं० [सं० पर-दारा, ष० त०,+ठक्—इक] पराई स्त्रियों से अनुचित संबंध रखनेवाला। पर-स्त्रीगामी।
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पारदार्य  : पुं० [सं० परदारा+ष्यञ्] पराई स्त्री के साथ गमन। परस्त्री-गमन।
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पारदिक  : वि० [सं० पारद+ठक्—इक] १. पारद या पार से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें पारे का भी कुछ अंश हो। (मर्क़्यूरिक)
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पारदेशिक  : वि० [सं० परदेश+ठक्—इक] दूसरे देश का। विदेशी। पुं० १. दूसरे देश का निवासी। २. यात्री।
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पारदेश्य  : वि०, पुं० [सं० परदेश+ष्यञ्]=पारदेशिक।
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पारद्रष्टा  : वि० [सं०] जो उस पार अर्थात् इस लोक के परे की बातें भी देख या जान सकता हो।
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पारधि  : पुं०=पारधी।
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पारधी  : पुं० [सं० परिधान=आच्छादन] १. बहेलिया। व्याध। २. शिकारी। ३. वधिक। ४. काल। मृत्यु। स्त्री० आड़। ओट। मुहा०—(किसी के) पारधी पड़ना—आड़ में छिपकर कोई व्यापार देखना या किसी की बात सुनना।
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पारन  : पुं०=पुराण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पारक (पार करने या लगानेवाला)।
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पारना  : सं० [सं० पारण] १. गिराना। २. डालना। ३. लेटाना। ४. कुश्ती या लड़ाई में पटकना। पछाड़ना। ५. प्रस्थापित या स्थापित करना। रखना। उदा०—प्यारे परदेश तैं कबै धौं पग पारि हैं।—रत्नाकर। मुहा०—पिंडा पारना=मृतक के उद्देश्य से पिंडदान करना। ६. किसी के हाथ में देना। किसी को सौंपना। ७. किसी के अन्तर्गत करना। किसी में सम्मिलित करना। ८. शरीर पर धारण करना। पहनना। ९. किसी विशिष्ट क्रिया से किसी के ऊपर जमाना या लगाना। जैसे—कजलौटे पर काजल पारना। १॰. कोई अनुचित या आवांछित घटना या बात घटित करना। उदा०—तन जारत, पारति बिपति अपति उजारत लाज।—पद्माकर। ११. कोई काम स्वयं करना अथवा दूसरे से करा देना। उदा०...बरनि न पारौं अंत।—जायसी। १२. कोई काम करने की समर्थता होना। कर सकना। उदा०—बूझि लेहु जौ बूझे पारहु।—जायसी। १३. मचाना। जैसे—हल्ला पारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १४. नियत या स्थिर करना। उदा०—अबहीं ते हद पारो।—सूर। अ० [सं० पारण=योग्य, का हिं० पार, जैसे—पार लगना=हो सकना] कोई काम करने में समर्थ होना। सकना। सं०=पालना। (पालन करना) उदा०—जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह राजकीय अधिकार-पत्र जो किसी राज्य की प्रजा को विदेश यात्रा के समय प्राप्त करना पड़ता है, औ जिसे दिखाकर लोग उसमें उल्लिखित देशों में भ्रमण कर सकते हैं (पास-पोर्ट) विशेष—ऐसे पार-पत्र से यात्री को अपने मूल देश के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है, और उन देशों के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है जिनमें यात्रा करने का उन्हें अधिकार मिला होता है।
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पारबती  : स्त्री०=पार्वती।
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पार-ब्रह्म  : पुं०=पर-ब्रह्म।
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पारभूत  : पुं०=प्राभृत (भेंट)।
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पारमहंस  : पुं०=पारमहंस्य।
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पारमहंस्य  : वि० [सं० परमहंस+ष्यञ्] जिसका संबंध परमहंस से हो। परमहंस-संबंधी।
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पारमाणविक  : वि० [सं०] परमाणु-संबंधी। परमाणु का। (एटमिक)
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पारमार्थिक  : वि० [सं० परमार्थ+ठक्—इक] परमार्थ-संबंधी। परमार्थ का। जैसे—पारमार्थिक ज्ञान। २. परमार्थ सिद्ध करनेवाला। परमार्थ का शुभ फल दिलानेवाला। जैसे—पारमार्थिक कृत्य। ३. सत्यप्रिय। ४. सदा एक-रस और एक रूप बना रहनेवाला। ५. उत्तम। श्रेष्ठ।
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पारमार्थ्य  : पुं० [सं० परमार्थ+ष्यञ्] १. ‘परमार्थ’ का गुण या भाव। २. परम सत्य।
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पारमिक  : वि० [सं० परम+ठक्—इक] १. मुख्य। प्रधान। २. उत्तम। सर्वश्रेष्ठ। ३. परम।
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पारमित  : वि० [सं० पारम् इत, व्यस्तपद] [स्त्री० पारमिता] १. जो उस पार पहुँच गया हो। २. पारंगत। ३. अतिश्रेष्ठ।
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पारमिता  : स्त्री० [सं० पारम् इता, व्यस्तपद] सीमा। हद।
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पारमेष्ठ्य  : पुं० [सं० परमेष्ठिन्+ष्यञ्] १. प्रधानता। २. सर्वोच्च पद। ३. प्रभुत्व। ४. राजचिह्न।
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पारयिष्णु  : वि० [सं०√पार्+णिच्+इष्णुच्] १. जो पार जाने में समर्थ हो। २. विजयी। ३. सफल। ४. रुचिकर और तृप्तिकारक।
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पारयुगीन  : वि० [सं० परयुग+खञ्—ईन] परवर्ती युग से संबंध रखनेवाला अथवा उसमें पाया जाने या होनेवाला।
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पारलोक्य  : वि० [सं० परलोक+ष्यञ्] पारलौकिक।
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पारलौकिक  : वि० [सं० परलोक+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। परलको का। २. (कर्म) जिससे परलोक में शुभ फल की प्राप्ति हो। परलोक सुधारनेवाला। पुं० अंत्येष्टि क्रिया।
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पारवत  : पुं० [सं०] पारावत। (दे०)
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पारवर्ग्य  : वि० [सं० परवर्ग+ष्यञ्] १. अन्य या दूसरे वर्ग से संबंध रखने अथवा उसमें होनेवाला। २. प्रतिकूल। पुं० वैरी। शत्रु।
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पारवश्य  : पुं० [सं० परवश+ष्यञ्]=परवशता।
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पार-वहन  : पुं० [सं०] चीजें आदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्जिट्)
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पारविषयिक  : वि० [सं० पर विषय+ठक्—इक] दूसरे के विषयों से संबंध रखनेवाला।
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पारशव  : पुं० [सं० परशु+अण्] १. लोहा। २. [उपमि० स०] ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न व्यक्ति। ३. पराई स्त्री के गर्भ से उत्पन्न करके प्राप्त किया हुआ पुत्र। ४. एक प्रकार की गाली जिससे यह व्यक्त किया जाता है कि अमुक के पिता का कोई पता नहीं वह तो हरामी का है। ५. एक प्राचीन देश, जिसके संबंध में कहा जाता है कि वहाँ मोती निकलते थे। वि० लौह-संबंधी।
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पारशवी  : स्त्री० [सं० पारशव+ङीष्] वह कन्या या स्त्री जिसका जन्म शूद्रा माता और ब्राह्मण पिता से हुआ हो।
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पारश्व  : पुं०=पारश्वाधिक।
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पारश्वधिक  : पुं० [सं० परश्वध+ठञ्—इक] परशु या फरसे से सज्जित योद्धा।
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पारस  : पुं० [सं० स्पर्श, हिं० परस] १. एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि लोहा इसके स्पर्श से सोना हो जाता है। स्पर्श-मणि। २. पारस पत्थर के समान उत्तम, लाभदायक या स्वच्छ अथवा आदरणीय और बहुमूल्य पदार्थ या वस्तु। जैसे—(क) यदि उनके साथ रहोगे तो कुछ दिनों में पारस हो जाओगे। (ख) यह दवा खाने से शरीर पारस हो जायगा। पुं० [हिं० परसना] १. परोसा हुआ भोजन। २. परोसा। अव्य० [सं० पार्श्व] समीप। नजदीक। पास। उदा०—पारस प्रासाद सेन संपेखे।—प्रिथीराज। पुं० [सं० पलाश] पहाड़ों पर होनेवाला बादाम या खूबानी की जाति का एक मझोले कद का पेड़। गीदड़-ढाक। जापन। पुं० [फा०] आधुनिक फारस देश का एक पुराना नाम।
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पारसनाथ  : पुं०=पार्श्वनाथ (जैनों के तीर्थकर)।
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पारसल  : पुं० [अं०] डाक, रेल आदि द्वारा किसी के नाम भेजी जानेवाली गठरी या पोटली।
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पारसव  : पुं०=पारशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारसा  : वि० [फा०] [भाव० पारसाई] पवित्र और शुद्ध चरित्र तथा विचारोंवाला। बहुत बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी।
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पारसाई  : स्त्री० [फा०] ‘पारसा’ होने की अवस्था या भाव। धार्मिकता और सदाचार।
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पारसाल  : पुं० [फा०] १. गत वर्ष। २. आगामी वर्ष।
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पारसिक  : पुं० [सं० पारसीक, पृषो० सिद्धि] पारसीक। (दे०)
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पारसी  : पुं० [सं० पारसीक से फा० पार्सी] १. पारस अर्थात् फारस (आधुनिक ईरान) का रहनेवाला आदमी। २. आज-कल मुख्य रूप से पारस के वे प्राचीन निवासी जो मुसलमानी आक्रमण के समय अपना धर्म बचाने के लिए वहाँ से भारत चले आये थे। इनके वंशज अब तक बम्बई और गुजरात में बसे हैं। ये लोग अग्निपूजक हैं; और कमर में एक प्रकार का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं। वि० पारस या फारस-संबंधी। पारस का।
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पारसीक  : पुं० [सं०] १. आधुनिक ईरान देश का प्राचीन नाम। फारस। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा। वि०, पुं०=पारसी।
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पारसीकयमानी  : स्त्री० [सं०] खुरासानी वच।
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पारस्कर  : पुं० [सं० पार√कृ०+ष्ट, सुट्] १. एक प्राचीन देश। २. एक गृह्य-सूत्रकार मुनि।
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पारस्त्रैणेय  : पुं० [सं० पर-स्त्री, ष० त०,+ढक्—एय, इनङ्—आदेश] पराई स्त्री से संबंध रखनेवाले व्यक्ति से उत्पन्न पुत्र। जारज पुत्र।
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पारस्परिक  : वि० [सं० परस्पर+ठक्—इक] आपस में एक दूसरे के प्रति या साथ होनेवाला। परस्पर होनेवाला। आपस का। आपसी। (म्यूचुअल)
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पारस्परिकता  : स्त्री० [सं० पारस्परिक+तल्+टाप्] पारस्परिक होने की अवस्था या भाव।
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पारस्य  : पुं० [सं०] पारस देश।
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पारस्स  : पुं० १.=पार्श्व। २.=पार्श्वचर। ३.=पारस्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारहंस्य  : वि० [सं० परहंस+ष्यञ्]=पारमहंस्य।
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पारा  : पुं० [सं० पारद] एक प्रसिद्ध बहुत चमकीली और सफेद धातु जो साधारण गरमी या सरदी में द्रव अवस्था में रहती है और अनुपातिक दृष्टि से बहुत भारी या वजनी होती है। पारद। (मर्करी) मुहा०—(किसी का) पारा चढ़ना=गुस्से से बेहाल होना। पारा पिलाना=(क) किसी वस्तु के अंदर पारा भरना। (ख) किसी वस्तु को इतना अधिक भारी कर देना कि मानो उसके अंदर पारा भर दिया गया हो। पुं० [सं० पारि=प्याला] दीये के आकार का, पर उससे बड़ा मिट्टी का बरतन। परई। पुं० [फा० पारः] खंड या टुकडा।
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पाराती  : स्त्री० [सं० प्रातः] एक प्रकार के धार्मिक गीत जो देहाती स्त्रियाँ पर्वों आदि पर किसी तीर्थ या पवित्र नदी में स्नान करने के लिए आते-जाते समय रास्ते में गाती चलती हैं।
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पारापत  : पुं० [सं० पार-आ√पत् (गिरना)+अच्] कबूतर।
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पारापार  : पुं० [सं० पार-अपार, द्व० स०+अच्] १. यह पार और वह पार। २. इधर और उधर का किनारा। ३. समुद्र।
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पारायण  : पुं० [सं० पार-अयन, स० त०] [वि० पारयणिक] १. किसी अनुष्ठान या कार्य की होनेवाली समाप्ति। २. नियमित रूप से किसी धार्मिक ग्रंथ का किया जानेवाला पाठ। ३. किसी चीज का बार-बार पढ़ा जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारायणी  : स्त्री० [सं० पारायण+ङीप्] १. चिंतन या मनन करते हुए पारायण करने की क्रिया। २. सरस्वती। ३. कर्म। ४. प्रकाश।
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पारावत  : पुं० [सं० पर√अव (रक्षा)+शतृ+अण्] १. कबूतर। २. पेंड़की। ३. बंदर। ४. पहाड़। पर्वत।
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पारावतघ्नी  : स्त्री० [सं० पारावत√हन् (हिंसा)+टक्+ङीष्] सरस्वती नदी।
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पारावत पदी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. मालकंगनी। २. काकजंघा।
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पारावताश्व  : पुं० [सं० पारावत-अश्व, ब० स०] धृष्टद्युम्न।
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पारावती  : स्त्री० [सं० पारावत+अच्+ङीष्] १. अहीरों के एक तरह के गीत। २. कबूतरी।
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पारावारीण  : वि० [सं० पार-अवार, द्व० स०,+ख—ईन] १. जो दोनों किनारों पर जाता या पहुँचता हो। २. पारंगत।
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पाराशर  : वि० [सं० पराशर+अण्] १. पराशर-संबंधी। २. पराशर द्वारा रचित। पुं० पराशर मुनि के पुत्र, वेदव्यास।
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पाराशरि  : पुं० [सं० पराशर+इञ्] १. शुकदेव। २. वेदव्यास।
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पाराशरी (रिन्)  : पुं० [सं० पाराशर्य+णिनि, य लोप] १. संन्यासी। २. वह संन्यासी जो व्यास द्वारा रचित शारीरिक सूत्रों का अध्ययन करता हो।
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पाराशर्य  : पुं० [सं० पराशर+यञ्]=पराशर।
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पारिद्र  : पुं० [सं० पारीन्द्र, पृषो० सिद्धि] सिंह। शेर।
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पारि  : स्त्री० [हिं० पार] १. नदी, समुद्र आदि का किनारा। २. ओर। दिशा। ३. बाँध या मेंड़। ४. मर्यादा। सीमा।
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पारिकांक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० पारि=ब्रह्मज्ञान√काङ्क्ष (चाहना)+णिनि] तपस्वी।
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पारिख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारिखेय  : वि० [सं० परिखा+ढक्—एय] १. परिखा या खाईं से संबंध रखनेवाला। २. परिखा या खाईं से घिरा हुआ।
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पारिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ+ठक्—इक] बच्चों को होनेवाला एक रोग।
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पारिग्रामिक  : वि० [सं० परिग्राम+ठञ्—इक] किसी गाँव के चारों ओर का।
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पारिजात  : पुं० [सं० पं० त०] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक वृक्ष, जो समुद्र-मंथन के समय निकला था, तथा जिसके संबंध में कहा गया है कि इसे इंद्र नंदनवन में ले गये थे। २. परजाता या हरसिंगार नामक पेड़। ३. कचनार। ४. फरहद। ५. सुगंध।
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पारिणामिक  : वि० [सं० परिणाम+ठञ्—इक] १. परिणाम—संबंधी। २. जिसका कोई परिणाम या रूपांतरण हो सके। जो विकसित हो सके। ३. जो पच सके या पचाया जा सके।
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पारिणाय्य  : वि० [सं० परिणय+ष्यञ्] परिणय-संबंधी। पुं० १. वह धन जो कन्या को विवाह के अवसर पर दिया जाता है। दहेज। २. परिणय।
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पारिग्राह्य  : पुं० [सं० परिणाह+ष्यञ्] घर-गृहस्थी के उपयोग में आनेवाली वस्तुएँ या सामग्री।
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पारित  : वि० [सं०√पार्+णिच्+क्त] १. जिसका पारण हुआ हो। २. जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण हो चुका हो। ३. (प्रस्ताव या विधेयक) जो विधिपूर्वक किसी संस्था के द्वारा स्वीकृत किया जा चुका हो। (पास्ड)
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पारितोषिक  : पुं० [सं० परितोष+ठक्—इक] १. वह धन जो किसी को देकर परितुष्ट किया जाता है। २. वह धन जो प्रतियोगिता में विजयी या श्रेष्ठ सिद्ध होने पर अथवा कोई असाधारण योग्यता दिखलाने पर उत्साह बढ़ाने के लिए दिया जाता है। (प्राइज)
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पारिदि  : पुं०=पारद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिध्वजिक  : पुं० [सं० परिध्वज, प्रा० स०,+ठञ्—इक] वह जो हाथ में झंडा लेकर चलता हो।
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पारिपाट्य  : पुं० [सं० परिपाटी+ष्यञ्]=परिपाटी।
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पारिपात्रिक  : वि० [सं० पारिपात्र+ठक्—इक] १. पारिपात्र—संबंधी। २. पारिपात्र पर बसने, रहने या होनेवाला।
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पारिपार्श्व  : पुं० [सं० परिपार्श्व+अण्] वह जो साथ-साथ चलता हो। अनुचर। सेवक।
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पारिपार्श्विक  : पुं० [सं० परिपार्श्व+ठक्—इक] [स्त्री० पारिपार्श्विका] १. सेवक। २. नाटक में, स्थापक का सहायक।
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पारिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्+अण्] १. अस्थिर रहने, हिलने-डुलने या लहरानेवाला। २. तैरनेवाला। ३. विकल। ४. क्षुब्ध। पुं० १. अस्थिरता। २. नाव। ३. विकलता।
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पारिप्लाव्य  : पुं० [सं० पारिप्लव+ष्यञ्] १. अस्थिरता। चंचलता। २. कंपन। ३. आकुलता। ४. हंस।
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पारिभाव्य  : पुं० [सं० परिभू+ष्यञ्] जमानत करने या जामिन होने का भाव।
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पारिभाव्य-धन  : पुं० [सं० ष० त०] वह धन जो किसी की कोई चीज व्यवहृत करने के बदले में उसके यहाँ अग्रिम जमा किया जाता है और जो उसकी चीज लौटाने पर वापस मिल जाता है।
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पारिभाषिक  : वि० [सं० परिभाषा+ठञ्—इक] १. परिभाषा-संबंधी। २. (शब्द) जो किसी शास्त्र या विषय में अपना साधारण से भिन्न कोई विशिष्ट अर्थ रखता हो। (टेकनिकल)
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पारिभाषिकी  : स्त्री० [सं० पारिभाषिक+ङीष्] पारिभाषिक शब्दों की माला या सूची। (टरमिनॉलॉजी)
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पारिमाण्य  : पुं० [सं० परिमाण+ष्यञ्] घेरा। मंडल।
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पारिमिता  : स्त्री० [परिमित+अण्+टाप्]=सीमा।
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पारिमित्य  : पुं० [सं० परिमित+ष्यञ्] सीमा।
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पारिमुखिक  : वि० [सं० परिमुख+ठक्—इक] [भाव० पारिमुख्य] १. जो मुख के समक्ष या सामने हो। २. जो पास में हो या उपस्थित हो।
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पारियात्र  : पुं० [सं०] सात पर्वत-श्रेणियों में से एक, जो किसी समय आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा के रूप में मानी जाती थी। पारिपात्र।
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पारियात्रिक  : वि० [स० परियात्रा प्रा० स०,+अण्+ठक् —इक]=पारिपात्रिक (परिपात्र-संबंधी)।
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पारियानिक  : पुं० [सं० परियान प्रा० स०,+ठक्—इक] ऐसा यान जिस पर यात्रा की जाती हो।
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पारिरक्षक  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ण्वुल्—अक+अण्] संन्यासी।
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पारिव्राज्य  : पुं० [सं० परिव्राज्+ण्य्ञ्] संन्यास।
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पारिश्रमिक  : पुं० [सं० परिश्रम+ठक्—इक] किये हुए परिश्रम के बदले में मिलनेवाला धन। कोई कार्य करने की मजदूरी। (रिम्यूनरेशन)
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पारिष  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिषद  : पुं० [सं० परिषद्+अण्] परिषद् में बैठनेवाला व्यक्ति। परिषद् का सदस्य। (काउंसिलर)
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पारिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+ण्य] अभिनय आदि का दर्शक। सामाजिक।
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पारिस्थितिक  : वि० [सं परिस्थिति+ठक्—इक] १. परिस्थिति संबंधी। २. जो परिस्थितियों का ध्यान रखकर या उनके विचार से किया गया हो। (सर्कस्टैन्शल)
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पारिहारिकी  : स्त्री० [सं० परिहार+ठक्—इक+ङीष्] एक तरह की पहेली।
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पारिहास्य  : पुं० [सं० परिहास+ष्यञ्]=परिहास।
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पारी  : स्त्री० [सं०] १. वह रस्सी जिससे हाथी के पैर बाँधे जाते हैं। २. जल-पात्र। ३. केसर। स्त्री० [हिं० बार, बारी] १. कोई कार्य करने का क्रमानुसार आने या मिलनेवाला अवसर। बारी। २. गेंद-बल्ले के खेल में, प्रत्येक दल को बल्लेबाजी करने का मिलनेवाला अवसर। पाली।
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पारीक्षणिक  : पुं० [सं० परीक्षण+ठक्—इक] वह कर्मचारी जो इस बात की परीक्षा या जाँच के लिए रखा गया हो कि यह अपने काम या पद के लिए उपयुक्त है या नहीं। (प्रोबेशनर) वि० परीक्षण संबंधी। परीक्षण का।
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पारीक्षित  : पुं० [सं० परीक्षित्+अण्] परीक्षित् के पुत्र, जनमेजय।
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पारीछत  : भू० कृ०=परीक्षित।
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पारीण  : वि० [सं० पार+ख—ईन] १. उस पार पहुँचा हुआ। २. पारंगत।
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पारीय  : वि० [सं० पार+छ—ईय] समस्त पदों के अंत में, किसी विषय में दक्ष।
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पारुष्ण  : पुं० [सं० परुष्ण+अण्] एक तरह का पक्षी।
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पारुष्य  : पुं० [सं० परुष+ष्यञ्] परुष होने की अवस्था, गुण या भाव। परुषता।
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पारेरक  : पुं० [सं० पार√ईर् (गति)+ण्वुल्—अक] तलवार।
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पारेवा  : पुं० [सं० पारावत] कबूतर। परेवा।
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पारेषक  : वि० [सं० पार√इष् (गति)+णिच्+ण्वुल—अक] प्रेषण करने या भेजनेवाला। पुं० विद्युत् से समाचार भेजने या बात करने के यंत्रों का वह अंग जिससे समाचार या संदेश भेजे जाते हैं। ‘प्रतिग्राहक’ का विपर्याय। (ट्रांसमीटर)
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पारोकना  : अ० [सं० परोक्ष] १. परोक्ष या आड़ में होना। २. अंतर्धान या अदृश्य होना।
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पारोक्ष  : वि० [सं० परोक्ष+अण्] [भाव० पारोक्ष्य] १. रहस्यमय। २. गुप्त। ३. अस्पष्ट।
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पार्क  : पुं० [अं०] शहरों में, ऐसा उद्यान जिसमें घास उगी हुई हो तथा जहाँ छोटे-मोटे फूल-पौधे भी हों।
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पार्जन्य  : वि० [सं० पर्जन्य+अण्] मेघ या वर्षा-संबंधी।
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पार्ट  : पुं० [अं०] १. अंश। भाग। हिस्सा। २. किसी अभिनय, विषय आदि में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जानेवाला अपने कर्तव्य का निर्वाह।
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पार्टी  : स्त्री० [अं०] १. दल। २. वह समारोह जिसमें आमंत्रित लोगों को भोजन, जलपान आदि कराया जाता है।
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पार्ण  : वि० [सं० पर्ण+अण्] १. पर्ण-संबंधी। पत्तों का। २. पत्तों के द्वारा प्राप्त होनेवाला। जैसे—पार्णकर।
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पार्थ  : पुं० [सं० पृथा+अण्] १. पृथा के पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन या भीम (विशेषतः अर्जुन)। २. अर्जुन नाम का पेड़। ३. राजा।
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पार्थक्य  : पं० [सं० पृथक्+ण्यञ्] १. पृथक् होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिससे चीजों का पृथक्-पृथक् होना सूचित होता हो। ३. अंतर। ४. जुदाई।
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पार्थ-सारथि  : पुं० [ष० त०] १. कृष्ण। २. मीमांसा के एक प्राचीन आचार्य।
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पार्थिव  : वि० [सं० पृथिवी+अञ्] १. पृथ्वी-संबंधी। २. पृथ्वी से उत्पन्न। ३. पृथ्वी से उत्पन्न वस्तुओं का बना हुआ। ४. पृथ्वी पर शासन करनेवाला। ५. राजकीय। पुं० १. मिट्टी का बरतन। २. काया। देह। शरीर। ३. राजा। ४. पृथ्वी पर या पृथ्वी से उत्पन्न होनेवाला पदार्थ।
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पार्थिव-आय  : स्त्री० [ष० त०] मालगुजारी। लगान।
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पार्थिव-नन्दन  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० पार्थिव-नंदिनी] राजकुमारी।
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पार्थिव-पूजन  : पुं० [ष० त०] कच्ची मिट्टी का शिव-लिंग बनाकर उसका किया जानेवाला पूजन।
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पार्थिव-लिंग  : पुं० [ष० त०] १. राजचिह्न। [कर्म० स०] २. कच्ची मिट्टी का बनाया हुआ शिव-लिंग जिसके पूजन का कुछ विशिष्ट विधान है।
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पार्थिवी  : स्त्री० [सं० पार्थिव+ङीष्] १. सीता। २. लक्ष्मी।
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पार्थी  : पुं० [सं० पार्थिव=पृथ्वी-संबंधी] मिट्टी का बनाया हुआ शिवलिंग।
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पार्पर  : पुं० [सं० पर्परी+अण्] १. मिट्ठी भर चावल। २. क्षय। (रोग)। ३. भस्म। राख। ४. यम।
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पार्यंतिक  : वि० [सं० पर्यंत+ठक्—इक] पर्यंत का; अर्थात् अंतिम।
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पार्य  : वि० [सं० पार+ष्यञ्] जो पार अर्थात् दूसरे किनारे पर स्थित हो। पुं० अंत।
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पार्लमेंट  : स्त्री० [अं०] संसद्। (दे०)
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पार्वण  : वि० [सं० पर्वन्+अण्] पर्व या अमावस्या के दिन किया जाने या होनेवाला। पुं० उक्त अवसर पर किया जानेवाला श्राद्ध।
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पार्वतिक  : पुं० [सं० पर्वत+ठक्—इक] पर्वतमाला। पर्वत-श्रेणी।
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पार्वती  : स्त्री० [सं० पर्वत+अण्+ङीष्] पुराणानुसार हिमालय पर्वत की पुत्री, जिसका विवाह शिवजी से हुआ था। गिरिजा। भवानी।
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पार्वती-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. कार्तिकेय। २. गणेश।
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पार्वती-नन्दन  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-कुमार।
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पार्वती-नेत्र  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-लोचन।
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पार्वती-लोचन  : पुं० [ष० त०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पार्श्व  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+श्वण्, पृ—आदेश] १. कंधों और काँखों के नीचे के उन दोनों भागों में से प्रत्येक जिनमें पसलियाँ होती हैं। छाती के दाहिने और बाएँ भागों में से प्रत्येक भाग। बगल। २. पसली की हड्डियों का समुदाय। पंजर। ३. किसी पदार्थ, प्राणी की लंबाई वाले विस्तार में इधर अथवा उधर पड़नेवाला अंग या अंश। बगलवाला छोर या सिरा। ४. किसी क्षेत्र या विस्तार का वह अंग या अंश जो किसी एक ओर या दिशा की सीमा पर पड़ता हो और कुछ दूर तक सीधा चला गया हो। जैसे—इस चौकोर क्षेत्र के चारों पार्श्व बराबर हैं। ५. किसी चीज के अगल-बगल या दाहिने-बाएँ अंशों के पास पड़नेवाला विस्तार। जैसे—गढ़ के दाहिने पार्श्व में बन था। ६. लिखते समय कागज की दाहिनी (अथवा बाईं) ओर छोड़ा जानेवाला स्थान। हाशिया। ८. कपट या छल से भरा हुआ उपाय या साधन। ७. दे० ‘पार्शनाथ’।
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पार्श्वक  : पुं० [सं०] वह चित्र जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखलाया गया हो।
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पार्श्वग  : वि० [सं० पार्श्व√गम् (जाना)+ड] साथ में चलने या रहनेवाला। पुं० नौकर। सेवक।
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पार्श्व-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. पार्श्व या बगल में आया या ठहरा हुआ। २. (चित्र) जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखाया गया हो, दूसरा पार्श्व सामने न हो। (प्रोफाइल) जैसे—दाहिनी ओर जाते हुए व्यक्ति के चित्र में उसकी पार्श्व-गत आकृति ही दिखाई देती है। पुं० वह जिसे अपने यहाँ रखकर आश्रय दिया गया हो या जिसकी रक्षा की गई हो।
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पार्श्वगायन  : पुं० [सं०] आज-कल वह गायन जो नेपथ्य से किसी पात्र या पात्री के गाने के बदले में होता है। विशेष—जो अभिनेता या अभिनेत्री गान-विद्या में पटु नहीं होती, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है। यही गाना पार्श्वगायन कहलाता है।
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पार्श्वचर  : वि० [सं० पार्श्व√चर् (गति)+ट] पास में रहकर साथ चलनेवाला।
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पार्श्वचित्र  : पुं० [सं०] पार्श्वक। (दे०)
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पार्श्व-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशिये में लिखी गई टिप्पणी। (मार्जिनल नोट)
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पार्श्वद  : पुं० [सं० पार्श्व√दा (देना)+क] नौकर। सेवक।
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पार्श्वनाथ  : पुं० [सं०] जैनों के तेइसवें तीर्थंकर।
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पार्श्व-परिवर्त्तन  : पुं० [ष० त०] लेटे या सोये रहने की दशा में करवट बदलना।
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पार्श्ववर्ती  : वि० [सं० पार्श्व√वृत (रहना)+णिनि] [स्त्री० पार्श्ववर्त्तिनी] १. किसी के पास या साथ रहनेवाला। जैसे—राजा के पार्श्ववर्ती। २. किसी के पार्श्व में, आस-पास या इधर-उधर रहने या होनेवाला। जैसे—नगर का पार्श्ववर्ती वन। पुं० १. सहचर। साथी। २. नौकर। सेवक।
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पार्श्व-शीर्षक  : पुं० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशियेवाले भाग में लगाया या लिखा हुआ शीर्षक। (मार्जिनल हेडिंग)
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पार्श्व-शूल  : पुं० [मध्य० स०] बगल या पसलियों में होनेवाला शूल या जोर का दर्द।
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पार्श्व-संगीत  : पुं० [मध्य० स०] १. आधुनिक अभिनयों, चल-चित्रों आदि में वह संगीत जो अभिनय होने के समय परोक्ष में होता रहता है। २. आधुनिक चल-चित्रों में किसी पात्र का ऐसा गाना जो वास्तव में वह स्वयं नहीं गाता, बल्कि उसका गानेवाला परोक्ष या परदे की आड़ में रहकर उसके बदले में गाता है। (प्लेबैक)
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पार्श्वस्थ  : वि० [सं० पार्श्व√स्था (ठहरना)+क] जो पास या बगल में स्थित हो।
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पार्श्वानुचर  : पुं० [पार्श्व-अनुचर, मध्य० स०] सेवक।
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पार्श्वायात  : वि० [पार्श्व-आयात, स० त०] जो पास आया हो।
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पार्श्वासन्न, पार्श्वासीन  : वि० [सं० स० त०] पार्श्व अर्थात् बगल में बैठा हुआ।
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पार्श्विक  : वि० [सं० पार्श्व+ठक्—इक] १. पार्श्व-संबंधी। २. किसी एक पार्श्व या अंग में होनेवाला। ३. किसी एक पार्श्व या अंग की ओर से आने या चलनेवाला। (लेटरल)
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पार्षद्  : स्त्री० [सं०=परिषद्, पृषो० सिद्धि] परिषद्। सभा।
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पार्ष्णि  : स्त्री० [सं० √पृष् (सींचना)+नि, नि० वृद्धि] १. पैर की एड़ी। २. सेना का पिछला भाग। ३. किसी चीज का पिछला भाग। ४. पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर। ५. जीतने या विजय प्राप्त करने की इच्छा। जिगीषा। ६. जाँच-पड़ताल। छान-बीन।
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पार्ष्णि-क्षेम  : पुं० [सं०] एक विश्वेदेव।
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पार्ष्णि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] किसी पर, विशेषतः शत्रु की सेना पर पीछे से किया जानेवाला आक्रमण या आघात।
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पार्ष्णि-ग्राह  : पुं० [सं० पर्ष्णि√ग्रह् (ग्रहण)+अण्] १. वह जो किसी के पीठ पर या पीछे रहकर उसकी सहायता करता हो। २. सेना के पिछले भाग का प्रधान अधिकारी या नायक।
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पार्ष्णि-घात  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर।
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पार्सल  : पुं०=पारसल।
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पालंक  : पुं० [सं०√पाल् (रक्षण)+क्विप्=पाल् अंक, तृ० त०] १. पालक नाम का साग। २. बाज पक्षी। ३. एक प्रकार का रत्न जो काले, लाल या हरे रंग का होता है।
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पालंकी  : स्त्री० [सं० पालंक+ङीष्] १. पालकी नाम का साग। २. कुंदुरू नाम का गंध द्रव्य।
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पालंक्य  : पुं० [सं० पालंक+ष्यञ्] पालक (साग)।
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पालंक्या  : स्त्री० [सं० पालंक्य+टाप्] कुंदुरू नामक पौधा और उसका फल।
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पालंग  : पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अच्] १. पालन करनेवाला। पालक। २. आज-कल कुछ संज्ञाओं के अंत में लगनेवाला एक शब्द जिसका अर्थ होता है—काम, प्रबंध या व्यवस्था करने अथवा सब प्रकार से रक्षित रखनेवाला। जैसे—कोटपाल, राज्यपाल, लेखपाल आदि। पुं० १. पीकदान। उगालदान। २. चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष। ३. बंगाल का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसने वंग और मगध पर साढ़े तीन सौ वर्षों तक राज्य किया था। पुं० [हिं० पालना] १. फलों को गरमी पहुँचाकर पकाने के लिए पत्तों आदि से ढककर या और किसी युक्ति से रखने की विधि। क्रि० प्र०— डालना।—पड़ना। २. ऐसा स्थान जहाँ फल आदि रखकर उक्त प्रकार से पकाये जाते हों। पुं० [सं० पट या पाट] १. वह लंबा-चौड़ा कपड़ा जिसे नाव के मस्तूल से लगाकर इसलिए तानते हैं कि उसमें हवा भरे और उसके जोर से नाव बिना डाँड़ चलाये और जल्दी-जल्दी चले। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—तानना। २. उक्त प्रकार का वह लंबा-चौड़ा और मोटा कपड़ा जो धूप, वर्षा आदि से बचने के लिए खुले स्थान के ऊपर टाँगा या फैलाया जाता है। ३. खेमा। तंबू। शामियाना। ४. गाड़ी, पालकी आदि को ऊपर से ढकने का कपड़ा। ओहार। स्त्री० [सं० पालि] १. पानी को रोकनेवाला बाँध या किनारा। मेड़। २. नदी आदि का ऊँचा किनारा या टीला। ३. नदी आदि के गाट पर के नीचे का ऐसा खोखला स्थान, जो नींव के कंकड़-पत्थर आदि वह बह जाने के कारण बन जाता है। पुं० [सं० पालि] कबूतरों का जोड़ा खाना। कपोत-मैथुन। क्रि० प्र०—खाना। पुं० [?] वह जमीन जो सरकार की निजी संपत्ति होती है।
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पाउल  : पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालक  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पालिका] पालन करनेवाला। पुं० १. पालकर अपने पास रखा हुआ लड़का। २. प्रधान शासक या राजा। ३. घोड़े का साईस। ४. चीते का पेड़। चित्रक। पुं० [सं० पाल्यंक] एक प्रकार का प्रसिद्ध साग। पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—खँड खँड सजी पालक पीढ़ी।—जायसी।
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पालकजूही  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पौधा जो दवा के काम में आता है।
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पालकरी  : स्त्री० [हिं० पलंग] लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जो पलंग, चारपाई, चौकी आदि के पायों को ऊँचा करने के लिए उसके नीचे रखा जाता है।
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पालकाप्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन मुनि जो अश्व, गज आदि से संबंध रखनेवाली विद्या के प्रथम आचार्य माने गये हैं। २. वह विद्या या शास्त्र जिसमें हाथी घोड़े आदि के लक्षणों, गुणों आदि का निरूपण हो। शालिहोत्र।
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पालकी  : स्त्री० [सं० पल्यंक; प्रा० पल्लंक] एक प्रसिद्ध सवारी जिसमें सवार बैठता या लेटता है और जिसे कहार या मजदूर लोग कंधे पर उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। स्त्री० [सं० पालंक] पालक का शाक।
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पालकी गाड़ी  : स्त्री० [हिं० पालकी+गाड़ी] एक तरह की घोड़ागाड़ी जिसका ऊपरी ढाँचा पालकी के आकार का तथा छायादार होता है।
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पालगाड़ी  : स्त्री०=पालकी गाड़ी।
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पालघ्न  : पुं० [सं० पाल√हन् (हिंसा)+क] कुकरमुत्ता।
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पालट  : पुं० [सं० पालन] १. पाला हुआ लड़का। २. गोद लिया हुआ लड़का। दत्तकपुत्र। पुं० [सं० पर्यस्त; प्रा० पलट्ट] १. पलटने की क्रिया या भाव। पलट। २. परिवर्तन। ३. पटेबाजी में एक प्रकार का प्रहार या वार।
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पालटना  : सं०=१. पलटना। २.=पलटाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पालड़ा  : पुं०=पलड़ा।
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पालतू  : वि० [सं० पालना] (पशु-पक्षियों के संबंध में) जो पकड़कर घर में रखा तथा पाला गया हो (जंगली से भिन्न)। जैसे—पालतू तोता पालतू बंदर।
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पालथी  : स्त्री० [सं० पर्य्यस्त=फैला हुआ] दोनों टाँगों को मोड़कर बैठने की वह मुद्रा, जिसमें पैर दूसरी टाँग की रान के नीचे पड़ते हैं। पद्मासन। कमलासन। पलथी। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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पालन  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० पालनीय, पाल्य, भू० कृ० पालित] १. अपनी देख-रेख में और अपने पास रखकर किसी का भरण-पोषण करने की क्रिया या भाव। (मेन्टेनेन्स) २. आज्ञा, आदेश, कर्त्तव्य आदि कार्यों का निर्वाह। (डिसचार्ज, परफॉरमेन्स) ३. अनुकूल आचरण द्वारा किसी निश्चय वचन आदि का होनेवाला निर्वाह। (एबाइड) ४. जीव-जंतुओं के संबंध में उन्हें अपने पास-रखकर उनका वंश, सामर्थ्य या उनसे होनेवाली उपज आदि बढ़ाने का काम। जैसे—मधुमक्षिका पालन, पशु-पालन आदि। ५. तत्काल ब्याई हुई गाय का दूध। पेवस।
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पालना  : स० [सं० पालन] १. व्यक्ति के संबंध में, उसे भोजन, वस्त्र आदि देकर उसका भरण-पोषण करना। पालन करना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। पालन करना। ३. पशु-पक्षियों को मनोविनोद के लिए अपने पास रखकर खिलाना-पिलाना। पोसना। ४. (दुर्व्यसन या रोग) जान-बूझकर अपने साथ लगा रखना और उसे दूर करने का प्रयत्न न करना। ५. कष्ट या विपत्ति से बचाकर सुरक्षित रखना। रक्षा करना। उदा०—आनन सुखाने कहैं, क्यौंहूँ कोउ पालि है।—तुलसी। पुं० [सं० पल्यंक] एक तरह का छोटा झूला, जिसमें बच्चों को लेटाकर झुलाया या सुलाया जाता है।
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पालनीय  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अनीयर] जिसका पालन किया जाना चाहिए अथवा किया जाने को हो।
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पालयिता (तृ)  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+तृच्] वह जो दूसरों का पालन अर्थात् भरण-पोषण करता हो। पालन-पोषण करनेवाला।
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पाल-वंश  : पुं० [सं०] दे० ‘पाल’ के अंतर्गत।
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पालव  : पुं० [सं० पल्लव] १. पल्लव। पत्ता। २. कोमल, छोटा और नया पौधा।
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पाला  : पुं० [सं० प्रालेय] १. बादलों में रहनेवाले पानी या भाप के वे जमे हुए सफेद कण, जो अधिक सरदी पड़ने पर आकाश से पेड़-पौधों आदि पर पतली तह की तरह फैल जाते हैं और इस प्रकार उन्हें हानि पहुँचाते हैं। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा०—(किसी चीज पर) पाला पड़ना=(क) बुरी तरह से नष्ट होना। (ख) इतना दब जाना कि फिर जल्दी उठ न सके। जैसे—आशाओं पर पाला पड़ना। (फसल आदि को) पाला मार जाना=आकाश से पाला गिरने के कारण फसल की पैदावार खराब या नष्ट हो जाना। २. बहुत अधिक ठंढ या सरदी जो उक्त प्रकार के पात के कारण होती है। जैसे—इस साल तो यहाँ बहुत अधिक पाला है। पुं० [सं० पट्ट, हिं० पाड़ा] १. प्रधान स्थान। पीठ। २. वह धुस या भीटा अथवा बनाई हुई मेड़ जिससे किसी क्षेत्र की सीमा सूचित होती हो। ३. कबड्डी आदि के खेलों में दोनों पक्षों के लिए अलग-अलग निर्धारित क्षेत्र में जिसकी सीमा प्रायः जमीन पर गहरी लकीर खींचकर स्थिर की जाती है। पुं० [हिं०] १. पल्ला। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसा काम या बात जिसमें किसी प्रतिपक्षी को दबाना अथवा उसके साथ समानता के भाव से रहकर निर्वाह करना पड़ता है। मुहा०—(किसी से) पाला पड़ना=ऐसा अवसर या स्थिति आना जिसमें किसी विकट व्यक्ति का सामना करना पड़े, या उससे संपर्क स्थापित हो। जैसे—ईश्वर न करे, ऐसे दुष्ट से किसी का पाला पड़े। (किसी से) पाले पड़ना=ऐसी स्थिति में आना या होना कि जिससे काम पड़े, वह बहुत ही भीषण या विकट व्यक्ति सिद्ध हो। जैसे—तुम भी याद करोगे कि किसी के पाले पड़े थे। ३. वह जगह जहाँ दस-बीस आदमी मिलकर बैठा करते हों। ४. अखाड़ा। ५. कच्ची मिट्टी का वह गोलाकार ऊँचा पात्र, जिसमें अनाज भरकर रखते हैं। कोठला। पुं० [सं० पल्लव, हिं० पालो] जंगली बेर के वृक्ष की पत्तियाँ जो चारे के काम आती हैं। पुं०=पाड़ा (टोला या महल्ला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालागन  : स्त्री० [हिं० पावँ+पर+लगना] आदर-पूर्वक किसी पूज्य व्यक्ति के पैर छूने की क्रिया या भाव। प्रणाम।
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पालागल  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, समाचार लाने और ले जानेवाला व्यक्ति। संदेशवाहक। संवादवाहक। हरकारा। २. दूत।
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पालागली  : स्त्री० [सं० पालागल+ङीष्] प्राचीन भारत में, राजा की चौथी और सबसे काम आदर पानेवाली रानी जो शूद्र जाति की होती थी।
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पालाश  : वि० [सं० पलाश+अण्] १. पलाश-संबंधी। २. पलाश का बना हुआ। ३. हरा। पुं० १. तेज पत्ता। २. हरा रंग।
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पालाशखंड  : पुं० [ब० स०] मगध देश।
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पालाशि  : पुं० [सं० पलाश+इञ्] पलाश गोत्र के प्रवर्तक ऋषि।
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पालिंद  : पुं० [सं० पालिंद+अण्] कुंदुरू नामक गंध-द्रव्य।
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पालिंदी  : स्त्री० [सं० पालिंद+ङीष्] १. श्यामा लता। २. त्रिवृता।
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पालि  : स्त्री० [सं०√पल् (रक्षा करना)+इण्] १. कान के नीचे लटकनेवाला कोमल मांस-खंड जिसमें छेद करके बालियाँ आदि पहनी जाती हैं। कान की लौ। २. किसी चीज का किनारा या कोना। ३. कतार। पंक्ति। श्रेणी। ४. सीमा। हद। ५. पुल। सेतु। ६. बाँध। मेंड़। ७. घेरा। परिधि। ८. अंक। क्रोड। गोद। ९. अंडाकार तालाब या सरोवर। १॰. वह भोजन जो परदेशी विद्यार्थी को गुरुकुल से मिलता था। ११. ऐसी स्त्री जिसकी ठोढ़ी पर बाल तथा मूछें हों। १२. चिह्न। निशान। १३. जूँ नाम का कीड़ा। १४. एक तौल जो एक प्रस्थ के बराबर होती थी। १५. दे० ‘पाली’।
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पालिक  : पुं० [सं० पल्यंक] १. पलंग। २. पालकी।
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पालिका  : स्त्री० [सं० पालक+टाप्, इत्व] १. पालन करनेवाली। २. समस्तपदों के अंत में, वह जो पालन-पोषण तथा सुरक्षा का पूरा प्रबंध करती हो। जैसे—नगर पालिका, महानगर पालिका।
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पालित  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+क्त] [स्त्री० पालिता] जिसे पाला गया हो। पाला हुआ। पुं० सिहोर का पेड़।
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पालित्य  : पुं० [सं० पलित+ष्यञ्] वृद्धावस्था में बालों का कुछ पीलापन लिये सफेद होना।
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पालिधी  : स्त्री० [सं०] फरहद का पेड़।
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पालिनी  : वि० स्त्री० [सं०√पाल्+णिनि+ङीप्] जो दूसरों को पालती हो। दूसरों का भरण-पोषण करनेवाली।
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पालिश  : स्त्री० [अं०] १. वह लेप या रोगन जो किसी चीज को चमकाने के लिए उस पर लगाया जाता है। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ाना। २. उक्त प्रकार के लेप से होनेवाली चमक। ओप।
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पालिसी  : स्त्री० [अं०] १. नयी रीति। २. बीमा-संबंधी वह प्रतिज्ञापत्र जो बीमा करनेवाली संस्था की ओर से अपना बीमा करानेवाले को मिलता है।
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पाली (लिन्)  : वि० [सं०√पाल्+णिनि] [स्त्री० पालिनी] १. पालन या पोषण करनेवाला। २. रक्षा करनेवाला। रक्षक।
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पाली  : स्त्री० [?] १. देग। बटलोई। २. बरतन का ढक्कन। ३. ऊपरी तल या पार्श्व। जैसे—कपोलपाली=गाल का ऊपरी तल। ४. प्राचीन भारत की एक प्रसिद्ध भाषा जो गौतम बुद्ध के समय सारे भारत के सिवा वाह्लीक, बरमा, श्याम, सिंहल आदि देशों में बोली और समझी जाती थी। विशेष—गौतम बुद्ध ने इसी भाषा में धर्मोपदेश किया था, और बौद्ध धर्म के सभी प्रमुख तथा प्राचीन ग्रंथ इसी भाषा में हैं। विद्वानों का मत है कि यह मुख्यतः और मूलतः भारत के मूल देश की भाषा थी जिसमें मगधी का भी कुछ अंश सम्मिलित था; इस भाषा का साहित्य बहुत विशाल है। ५. पंक्ति। श्रेणी। ६. तीतर, बटेर, बुलबुल आदि का वह वर्ग जो प्रायः प्रतियोगिता के रूप में लड़ाया जाता है। ७. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार के पक्षी उड़ाये जाते हैं। ८. आज-कल कारखानों आदि में, श्रमिकों के उन अलग-अलग दलों के काम करने का समय जो पारी पारी से आता है। (शिफ्ट) ९. आज-कल गेंद-बल्ले, चौगान आदि खेलों में खिलाड़ियों के प्रतियोगी दलों को खेलने के लिए होनेवाली पारी। (इनिंग) वि०=पैदल। उदा०—धणपाली, पिव पाखरयो, विहूँ भला भड़ जुध्ध।—ढोलामारू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [?] चरवाहा। (राज०)
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पालीवत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़।
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पालीवाल  : पुं० [?] गौड़ ब्राह्मणों के एक वर्ग की उपाधि।
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पालीशोष  : पुं० [सं०] कान का एक रोग।
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पालू  : वि० [हिं० पालना] पाला हुआ। पालतू।
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पाले  : अव्य० [हिं० पाला] अधिकार या वश में। मुहा० दे० ‘पाला’ के अंतर्गत।
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पालो  : पुं० [सं० पालि ?] ५ रुपये भर का बाट या तौल। (सुनार) पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल्य  : वि० [सं०√पाल्+ण्यत्] जिसका पालन होने को हो या किया जाने को हो।
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पाल्लवा  : स्त्री० [सं० पल्लव+अण्+टाप्] प्राचीन भारत में, एक तरह का खेल जो पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों से खेला जाता था।
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पाल्लविक  : वि० [सं० पल्लव+ठक्—इक] फैलनेवाला। प्रसरणशील।
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पाल्वल  : वि० [सं० पल्वल+अण्] १. पल्वल (तालाब) संबंधी। २. पल्वल (तालाब) में होनेवाला। पुं० छोटा ताल या तालाब का पानी।
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पावँ  : पुं० =पाँव।
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पाव  : पुं० [सं० पाद=चतुर्थांश] १. किसी पदार्थ का चौथाई अंश या भाग। २. वह जो तौल या मान में एक सेर का चैथाई भाग अर्थात् चार छटाँक हो। ३. उक्त तौल का बटखरा। ४. नौ गिरह का माप जो एक गज का चतुर्थांश होता है। पद—पाव भर=(क) तौल में चार छटाँक। (ख) माप में नौगिरह। स्त्री० दे० ‘पो’ (पासे का दाँव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पावक  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+ण्वुल्—अक] पवित्र करनेवाला। पुं० १. अग्नि। आग। २. अग्निमंथ या अगियारी नामक वृक्ष। ३. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ४. भिलावाँ। ५. बाय-बिडंग। ६. कुसुम। बर्रे। ७. वरुण वृक्ष। ८. सूर्य। ९. सदाचार।
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पावक-प्रणि  : पुं० [सं० कर्म० स०] सूर्य्यकान्त मणि। आतशी शीशा।
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पावका  : स्त्री० [सं० पाव√कै+क+टाप्] सरस्वती। (वेद)
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पावकात्मज  : पुं० [सं० पावक-आत्मज, ष० त०] पावकि।
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पावकि  : पुं० [सं० पावक+इञ्] १. पावक का पुत्र। कार्तिकेय। २. इक्ष्वाकुवंशीय दुर्योधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र सुदर्शन।
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पावकी  : स्त्री० [सं० पावक+ङीष्] १. अग्नि की स्त्री। २. सरस्वती। (वेद)
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पाव-कुलक  : पुं०=पादाकुलक।
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पावचार  : वि० [सं० पावन-आचार] पवित्र और श्रेष्ठ आचरण करनेवाला। उदा०—तब देखि दुहूँ तिह पावचार।—गुरुगोविंदसिंह। पुं० पवित्र और श्रेष्ठ आचरण।
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पावड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावड़ी  : स्त्री०=पाँवरी (खड़ाऊँ या जूता)।
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पावती  : स्त्री० [हिं० पावना] १. किसी चीज के पहुँचने की लिखित सूचना या प्राप्ति की स्वीकृति। जैसे—पत्र की पावती भेजना। २. किसी से रुपए लेने पर उसकी दी जानेवाली पक्की रसीद।
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पावतीपत्र  : पुं०=पावती।
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पावदान  : पुं० [फा० पाएदान या हिं० पाँव+फा० दान (प्रत्य०)] १. ऊँचे यानों या सवारियों में वह अंग या स्थान जिस पर पाँव रखकर उन पर सवार हुआ जाता है। जैसे—घोड़ागाड़ी या रेलगाड़ी का पावदान। २. मेज के नीचे रखी जानेवाली वह चौकी या लकड़ी की कोई रचना जिस पर कुरसी पर बैठनेवाले पैर रखते हैं। ३. जटा, मूँज, सन आदि अथवा धातु के तारों का बना हुआ वह चौकोर टुकड़ा जो कमरों के दरवाजे के पास पैर पोंछने के लिए रखा जाता है।
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पावन  : वि० [सं√पू+णिच्+ल्यु—अन] [स्त्री० पावनी, भाव० पावनता] १. धार्मिक दृष्टि से, (वह चीज) जो पवित्र समझी जाती हो और दूसरों को भी पवित्र करती या बनाती हो। जैसे—पावन-जल। २. समस्त पदों के अंत में, पवित्र करने या बनानेवाला। जैसे—पतित-पावन। उदा०—सुनु खगपति यह कथा-पावनी।—तुलसी। पुं० १. पावकाग्नि। २. सिद्ध पुरुष। ३. प्रायश्चित्त। ४. जल। पानी। ५. गोबर। ६. रुद्राक्ष। ७. चंदन। ८. शिलारस। ९. गोबर। १॰. कुट नामक ओषधि। ११. पीली भंगरैया। १२. चित्रक। चीता। १३. विष्णु। १४. व्यासदेव का एक नाम।
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पावनता  : स्त्री० [सं० पावन+तल्—सप्] पावन होने की अवस्था या भाव। पवित्रता।
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पावनताई  : स्त्री०=पावनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावनत्व  : पुं० [सं० पावन+त्व]=पावनता।
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पावन-ध्वनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. शंख-नाद। २. शंख।
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पावना  : पुं० [सं० प्रापण, प्रा० पावण] वह जो अधिकार, न्याय आदि की दृष्टि से किसी से प्राप्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो। प्राप्य धन या वस्तु। जैसे—बाजार में उनका हजारों रुपयों का पावना पड़ा (या बाकी) है। लहना। (ड्यूज) स० १. प्राप्त करना। पाना। २. प्रसाद, भोजन आदि के रूप में मिली हुई वस्तु खाना या पीना। जैसे—हम यहीं प्रसाद पावेंगे। ३. किसी चीज या बात का ज्ञान, परिचय आदि प्राप्त करना। ४. दे० ‘पाना’।
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पावनि  : पुं० [सं० पवन+इञ्] पवन के पुत्र हनुमान आदि।
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पावनी  : वि० स्त्री० [सं० पावन+ङीप्] पावन का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० १. हड़। हर्रे। २. तुलसी। ३. गाय। गौ। ४. गंगा नदी। ५. पुराणानुसार शाक द्वीप की एक नदी।
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पावनेदार  : पुं० [हिं० पावना+फा० दार] वह जिसका किसी की ओर पावना निकलता हो। दूसरे से प्राप्य धन लेने का अधिकारी। लहनदार।
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पावन्न  : वि०=पावन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावमान  : वि० [सं० पवमान+अण्] (सूक्त) जिसमें पवमान अग्नि की स्तुति की गयी हो। (वेद)
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पावमानी  : स्त्री० [सं० पावमान+ङीष्] वेद की एक ऋचा।
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पाव-मुहर  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+मुहर] शाहजहाँ के समय का सोने का एक सिक्का जिसका मूल्य एक अशरफी या एक मुहर का चौथाई होता था।
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पावर  : पुं० [सं०] १. वह पासा जिस पर दो बिंदियाँ बनी हों। २. पासा फेंकने का एक प्रकार का ढंग या हाथ। पुं० [अं०] १. वह शक्ति जिससे मशीनें चलाई जाती हैं। यंत्र चलानेवाली शक्ति (जैसे—विद्युत्)। २. अधिकार। शक्ति। ३. सैन्यबल। ४. शासनिक शक्ति। पुं०=पामर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाव-रोटी  : स्त्री० [पुर्त० पाव=रोटी+हिं० रोटी] मैदे, सूजी आदि का खमीर उठाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मोटी और फूली हुई रोटी। डबलरोटी।
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पावल  : स्त्री०=पायल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावली  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+ला (प्रत्य०)] एक रुपये के चौथाई भाग का सिक्का। चवन्नी।
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पावस  : स्त्री० [सं० प्रावृष; प्रा० पाउस] १. वर्षाकाल। बरसात। २. वर्षा। वृष्टि। ३. वर्षाऋतु में समुद्र की ओर से आनेवाली वे हवाएँ जो घटनाओं के रूप में होती हैं और जल बरसाती हैं। (मानसून)
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पावा  : पुं०=पाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मैना (पक्षी)।
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पाश  : पुं० [सं०√पश् (बाँधना)+घञ्] १. वह चीज जिससे किसी को फँसाया या बाँधा जाय। जैसे—जंजीर, रस्सी आदि। २. रस्सी से बनाया जानेवाला वह घेरा जिसमें गागर आदि को फँसाकर कूएँ में लटकाया जाता है। ३. पशु-पक्षियों को फँसाकर पकड़ने का जाल। ४. बंधन। ५. समस्त पदों के अंत में (क) सुन्दरता और सजावट के लिए अच्छी तरह बाँधकर तैयार किया हुआ रूप। जैसे—कर्णपाश। (ख) अधिकता और बाहुल्य। जैसे—केश-पाश। ५. वरुण देवता का अस्त्र जो फंदे के रूप में माना गया है। ६. दे० ‘फाँस’। प्रत्य० [फा०] छिड़कनेवाला। जैसे—गुलाब पाश। पुं० किसी चीज का अंश या खंड। टुकड़ा। पद—पाश-नाश। (देखें)
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पाश-कंठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसके गले में फाXस या बंधन पड़ा हो।
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पाशक  : पुं० [सं० √पश+णिच्+ण्वुल्—अक] १. जाल। फंदा। २. चौपड़ खेलने का पाशा।
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पाश-क्रीड़ा  : स्त्री० [तृ० त०] जूआ। द्यूत।
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पाशOर  : पुं० [ष० त०] वरुण देवता। (जिनका अस्त्र पाश है)।
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पाशन  : पुं० [सं०√पश+णिच्+ल्युट्—अन] १. रस्सी। २. बंधन।
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पाश-पाश  : अव्य० [फा०] टुकड़े-टुकड़े। चूर-चूर।
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पाश-पीठ  : पुं० [ष० त०] बिसात (चौसर खेलने की)।
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पाश-बंध  : पुं० [स० त०] फंदा।
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पाश-बंधक  : पुं० [सं०] बहेलिया। चिड़ीमार।
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पाश-बंधन  : पुं० [स० त०] १. जाल। २. फंदा।
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पाश-बद्ध  : भू० कृ० [स० त०] जाल या फंदे में फँसा हुआ।
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पाश-भृत्  : पुं० [सं पाश√भृ (धारण)+क्विप्, तुक्] वरुण (देवता)।
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पाश-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] हाथ की तर्जनी और अंगूठे के सिरों को सटाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मुद्रा। (तंत्र)
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पाशव  : वि० [सं० पशु+अण्] १. पशु-संबंधी। पशुओं का। २. पशुओं की तरह का। पशुओं का-सा। जैसे—पाशव आचरण। पुं० पशुओं का झुंड।
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पाशवता  : स्त्री०=पशुता। उदा०—प्रेम शक्ति से चिर निरस्त्र हो जावेगी पाशवता।—पंत।
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पाशवान् (वत्)  : वि० [सं० पाश+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पाशवती] जिसके पास पाश या फंदा हो। पाशवाला। पशधारी। पुं० वरुण (देवता)।
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पाशवासन  : पुं० सं० पाशव—आसन कर्म० स०] एक प्रकार का आसन या बैठने की मुद्रा।
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पाशविक  : वि० [पशु+ठञ्—इक] १. पशुओं की तरह का। ३. (आचरण) जो पशुओं के आचरण जैसे हो।
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पाश-हस्त  : पुं० [ब० स०] १. वरुण। २. यम।
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पाशांत  : पुं० [सं०=पार्श्व-अन्त, पृषो० सिद्धि] सिले हुए कपड़े का पीठ की ओर पड़नेवाला अंश।
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पाशा  : पुं० [तु०] तुर्किस्तान में बड़े बड़े अधिकारियों और सरदारों को दी जानेवाली उपाधि।
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पाशिक  : पुं० [सं० पाश+ठक्—इक] चिड़ीमार। बहेलिया।
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पाशित  : भू० कृ० [सं० पाश+णिच्+क्त] पाश में या पाश से बँधा हुआ। पाशबद्ध।
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पाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाश+इनि] १. जो अपने पास पाश या फंदा पखता हो। पाशवाला। पुं० १. वरुण देवता। २. यम। ३. बहेलिया। ४. अपराधियों के गले में फँदा या फाँसी लगाकर उन्हें प्राण-दंड देनेवाला व्यक्ति, जो पहले प्रायः चांडाल हुआ करता था। स्त्री० [फा०] १. जल या तरल पदार्थ छिड़कने की क्रिया या भाव। जैसे—गुलाब-पाशी। २. खेत आदि को जल से सींचने की क्रिया। जैसे—आब-पाशी।
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पाशुपत  : वि० [सं० पशुपति-अण्] १. पशुपति-संबंधी। पशुपति या शिव का। पुं० १. पशुपति या शिव के उपासक एक प्रकार के शैव। २. एक तंत्र शास्त्र जो शिव का कहा हुआ माना जाता है। ३. अथर्ववेद का एक उपनिषद्। ४. अगस्त का फूल।
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पाशुपत-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] एक प्राचीन दर्शन जिसमें पशुपति, पाशु और पशु इन तीन सत्ताओं को मुख्य माना गया था और जिसमें पशु के पाश से मुक्त होने के उपाय बतलाये गये हैं।
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पाशुपत-रस  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध।
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पाशुपतास्त्र  : [पाशुपत-अस्त्र, कर्म० स०] शिव का एक भीषण शूलास्त्र जिसे अर्जुन ने तपस्या करके प्राप्त किया था।
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पाशुपाल्य  : पुं० [सं० पशुपाल+ष्यञ्] पशुपालन।
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पाशु-बंधक  : पुं० [सं० पशुबंध+ठक्—क] यज्ञ में वह स्थान जहाँ बलि पशु बाँधा जाता था।
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पाश्चात्य  : वि० [सं० पश्चात्+त्यक्] १. पीछे का। पिछला। २. पीछे होनेवाला। ३. पश्चिम दिशा का। ४. पश्चिमी महादेश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पौरस्य का विपर्याय। जैसे—पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य साहित्य।
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पाश्चात्यीकरण  : पुं० [सं० पाशचात्य+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्—अन] किसी देश या जाति को पाश्चात्य सभ्यता के साँचे में ढालना या पाश्चात्य ढंग का बनाना। (वेस्टर्नाइज़ेशन)
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पाश्या  : स्त्री० [सं० पाश+यत्+टाप्] पाश। जाल।
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पाषंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्=वेदधर्म,√षंड् (खंडन)+अच्] १. वे सब आचरण और कार्य जो वैदिक धर्म या रीति के हों। २. वैदिक रीतियों का खंडन करनेवाले कार्य और विचार। ३. दूसरों को धोखा देने आदि के उद्देश्य से झूठ-मूठ किये जानेवाले धार्मिक कृत्य। ढोंग।
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पाषंडी (डिन्)  : वि० [सं० पा√षंड्+णिच्+इनि] १. जो वेदों के सिद्धान्तों के विरुद्ध चलता हो और किसी दूसरे झूठे मत का अनुयायी हो। २. जो दूसरों को धोखा देने के लिए अच्छा वेश बनाकर रहता हो।
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पाषक  : पुं० [सं०√पष् (बाँधना)+ण्वुल्—अक] पैर में पहनने का एक गहना।
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पाषर  : स्त्री०=पाखर (हाथी की झूल)।
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पाषाण  : पुं० [सं०√पिष् (चूर्ण करना)+आनच्, पृषो० सिद्धि] १. पत्थर। प्रस्तर। शिला। नीलम, पन्ने आदि रत्नों का एक दोष। ३. गन्धक। वि० [स्त्री० पाषाणी] १. निर्दय। २. कठोर। ३. नीरस।
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पाषाण-गदर्भ  : पुं० [सं० ष० त० ?] दाढ़ में सूजन होने का एक रोग।
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पाषाण-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] अगहन मास की शुक्ला चतुर्दशी। अगहन सुदी चौदस।
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पाषाण-दारण  : पुं० [ष० त०] [वि० पाषाणदारक] पत्थर तोड़ने का काम।
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पाषाण-भेद  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का पौधा जो अपनी पत्तियों की सुन्दरता के लिए बगीचों में लगाया जाता है। पाखानभेद। पथरचूर।
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पाषाण-भेदन  : पुं० [पाषाण√भिद् (तोड़ना)+ल्युट्—अन]=पाषाण भेद।
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पाषाणभेदी (दिन्)  : पुं० [सं० पाषाण√भिद्+णिनि] पाखान भेद। पथरचूर।
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पाषाण-मणि  : पुं० [मयू० स०] सूर्यकांत मणि।
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पाषाण-रोग  : पुं० [ष० त०] अश्मरी या पथरी नाम का रोग।
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पाषाण-हृदय  : वि० [ब० स०] जिसका हृदय बहुत ही कठोर या अत्यन्त क्रूर हो।
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पाषाणी  : स्त्री० [सं० पाषाण+ङीष्] बटखरा। वि० स्त्री० निर्दय (स्त्री)।
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पासंग  : पुं० [फा० पारसंग] १. तराजू के दोनों पलड़ों या पल्लों का वह सामान्य सूक्ष्म अन्तर जो उस दशा में रहता है जब उन पर कोई चीज तौली नहीं जाती। पसंगा। विशेष—ऐसी स्थिति में तराजू पर जो चीज तौली जाती है वह बटखरे या उचित मान से या तो कुछ कम होती है या अधिक; तौल में ठीक और पूरी नहीं होती। २. पत्थर, लोहे आदि के टुकड़े के रूप में वह थोड़ा-सा भार जो उक्त अवस्था में किसी पल्ले या उसकी रस्सी में इसलिए बाँधा जाता है कि दोनों पल्लों का अन्तर दूर हो जाय और चीज पूरी तौली जा सके। विशेष—शब्द के मूल अर्थ के विचार से पासंग का यही दूसरा अर्थ प्रधान है; परन्तु व्यवहारतः इसका पहला अर्थ ही प्रदान हो गया है। ३. वह जो किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ, सूक्ष्म या हीन हो। जैसे—तुम तो चालाकी में उसके पासंग भी नहीं हो। पुं० [?] एक प्रकार का जंगली बकरा जो बिलोचिस्तान और सिन्ध में पाया जाता है, जिसकी दुम पर बालों का गुच्छा होता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में इसके शरीर का रंग कुछ बदलता रहता है। इसकी मादा ‘बोज’ कहलाती है।
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पास  : अव्य [सं० पार्श्व] १. जो अवकाश, काल आदि के विचार से अधिक दूरी पर न हो। समय, स्थान आदि के विचार से थोड़े ही अन्तर पर। निकट। समीप। जैसे—(क) उनका मकान भी पास ही है। (ख) परीक्षा के दिन पास आ रहे हैं। पद—पास-पास या पास ही पास=एक दूसरे के समीप। बहुत थोड़े अन्तर पर। जैसे—दोनों पुस्तकें पास ही पास रखी हैं। मुहा०—(किसी स्त्री के) पास आना, जाना या रहना=स्त्री० के साथ मैथुन या संभोग करना। (किसी के) पास न फटकना=बिलकुल अलग या दूर रहना। (किसी के) पास बैठना=किसी की संगति में रहना। जैसे—भले आदमियों के पास बैठने से प्रतिष्ठा होती है। २. अधिकार में। कब्जे में। हाथ में। जैसे—तुम्हारे पास कितने रुपए हैं ? ३. किसी के निकट जाकर या किसी को सम्बोधित करके। उदा०—माँगत है प्रभु पास दास यह बार बार कर जोरी।—सूर। पुं० १. ओर। तरफ। दिशा। उदा०—अति उतुंग जल-निधि चहुँपासा।—तुलसी। २. निकटता। सामीप्य। जैसे—उसके पास से हट जाओ। ३. अधिकार। कब्जा। जैसे—हमें दस रुपए अपने पास से देने पड़े। विशेष—इस अर्थ में इसके साथ केवल ‘में’ और ‘से’ विभक्तियाँ लगती हैं। पुं० [फा०] किसी के पद, मर्यादा, सम्मान आदि का रखा जानेवाला उचित ध्यान या किया जानेवाला विनयपूर्ण विचार। अदब। लिहाज। जैसे—बड़ों का हमेशा पास करना (या रखना) चाहिए। क्रि० प्र०—करना।—रखना। पुं० [अं०] वह अधिकारपत्र जिसकी सहायता से कोई कहीं बिना रोक-टोक आ-जा सकता हो। पारक। पारपत्र। जैसे—अभिनय या खेल-तमाशे में जाने का समय; रेल से कहीं आने-जाने का पास। विशेष—टिकट या पास में यह अन्तर है कि टिकट के लिए तो धन या मूल्य देना पड़ता है; परन्तु पास बिना धन दिये या मूल्य चुकाये ही मिलता है। वि० १. जो किसी प्रकार की रुकावट आदि पार कर चुका हो। २. जो जाँच, परीक्षा आदि में उपयुक्त या ठीक ठहरा हो; और इसी लिए आगे बढ़ने के योग्य मान लिया गया हो। उत्तीर्ण। जैसे—(क) लड़कों का इम्तहान में पास होना। (ख) विधायिका सभा में कोई कानून पास होना। ३. पावन, प्राप्यक, व्यय आदि के लेखे के संबंध में, जो उपयुक्त अधिकारी के द्वारा ठीक माना गया और स्वीकृत हो चुका हो। जैसे—कर्मचारियों के वेतन का प्राप्यक (बिल) पास होना। पुं० [सं० पास=बिछाना, डालना] आँवें के ऊपर उपले जमाने का काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] भेड़ों के बाल कतरने की कैंची का दस्ता। पुं० १. दे० ‘पाश’। २. दे० ‘पासा’।
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पासक  : पुं०=पाशक।
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पासना  : अ० [सं० पयस्=दूध] स्तनों या थनों में दूध उतरना या उनका दूध से भरना।
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पासनी  : स्त्री० [सं० प्राशन] बच्चों का अन्नप्राशन। उदा०—कान्ह कुँवर की करहु पासनी।—सूर।
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पास-बंद  : पुं० [हिं० पास+फा० बंद] दरी बुनने के करघे की वह लकड़ी जिससे बै बँधी रहती है और जो ऊपर-नीचे जाया करती है।
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पास-बान  : पुं० [फा०] [भाव० पासवानी] पहरा देनेवाला व्यक्ति। द्वारपाल। स्त्री० रखेली स्त्री। (राज०)
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पासवानी  : स्त्री० [फा०] १. द्वारपाल का काम और पद। २. पहरेदारी।
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पास-बुक  : स्त्री० [अं०]=लेखा-पुस्तिका।
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पासमान  : पुं० [हिं० पास+मान (प्रत्य०)] पास रहनेवाला दास। पुं०=पासबान।
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पासवर्ती  : वि०=पाश्वर्ती।
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पाससार  : पुं०=पासासारि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासह  : अव्य०=पास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासा  : पुं० [सं० पाशक, प्रा० पासा] १. हड्डी, हाथी दाँत आदि के छः पहले टुकड़े जिनके पहलों पर एक से छः तक बिंदियाँ अंकित होती हैं और जिन्हें चौसर आदि के खेलों में खेलाड़ी बारी-बारी से फेंककर अपना दाँव निश्चित करते हैं। (डाइस) मुहा०—(किसी का) पासा पड़ना=(क) पासे के पहल का किसी की इच्छा के अनुसार ठीक गिरना। जीत का दाँव पड़ना। (ख) ऐसी स्थिति होना कि उद्देश्य, युक्ति आदि सफल हो। पासा पलटना=(क) पासे का विपरीत प्रकार या रूप में गिरने लगना। (ख) ऐसी स्थिति आना या होना कि जो क्रम चला आ रहा हो, वह उलट जाय, मुख्यतः बुरी से अच्छी दशा या दिशा की ओर प्रवृत्त होना। पासा फेंकना=भाग्य के भरोसे रहकर और सफलता प्राप्त करने की आशा से किसी प्रकार का उपाय, प्रयत्न या युक्ति करना। २. चौपड़ या चौसर का खेल, अथवा और कोई ऐसा खेल जो पासों से खेला जाता हो। ३. मोटी छः पहली बत्ती के आकार में लाई हुई वस्तु। गुल्ली। जैसे—चाँदी या सोने का पासा (अर्थात् उक्त आकार में ढाला हुआ खंड)। ४. सुनारों का एक उपकरण जो काँसे या पीतल का चौकोर ढला हुआ खंड होता है और जिसके हर पहल पर छोटे-बड़े गोलाकार गड्ढे बने होते हैं। (इन्हीं गड्ढों की सहायता से गहनों में गोलाई लाई जाती है।) ५. कोई चीज ढालने का साँचा। (राज०)
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पासार  : पुं० [फा० पासदार] [भाव० पासारी] १. तरफदार। पक्षपाती। २. शरणदाता। रक्षक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासासारि  : पुं० [हिं० पासा+सारि=गोटी] १. पासों की सहायता से खेला जानेवाला खेल। जैसे—चौसर। चौसर आदि की गोट जो पासा फेंककर उसके अनुसार चलाते हैं।
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पासिक  : पुं० [सं० पाश] १. फंदा। २. बंधन।
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पासिका  : स्त्री० [सं० पाश] १. जाल। २. बंधन।
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पासी  : पुं० [सं० पाशिन्, पाशी] १. जाल या फंदा डालकर चिड़ियाँ पकड़नेवाला। बहेलिया। २. एक जाति जो ताड़ के पेड़ों से ताड़ी उतारने का काम करती है। स्त्री० [सं० पाश] १. घोड़ों के पिछले पैर में बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी। २. घास बाँधने की जाली या रस्सी। स्त्री०=पाश (फंदा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाशु  : पुं०=पाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पास।
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पासुरी  : स्त्री०=पसली।
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पाहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास; पाह] १. निकट। पास। समीप। २. प्रति। से। उदा०—जाइ कहहु उन पास सँदेसू।—जायसी।
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पाह  : स्त्री० [हिं० पाहन] एक तरह का पत्थर जिससे लौंग, फिटकरी, अफीम आदि घिसकर आँख पर लगाने का लेप बनाते हैं। पुं० [सं० पथ] पथ। मार्ग।
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पाहत  : पुं० [सं० नि० सिद्धि० पररूप] शहतूत का पेड़।
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पाहन  : पुं० [सं० पाषाण, प्रा० पाहाण] १. पत्थर। उदा०—पाहन ते न कठिन कठिनाई।—तुलसी। २. कसौटी का पत्थर। ३. पारस पत्थर। स्पर्शमणि। उदा०—इतर धातु पाहनहिं परसि कंचन ह्वै सोहै।—नन्ददास। वि० पत्थर की तरह कठोर हृदय का।
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पाहरू  : पुं० [हिं० पहर, पहरा] पहरा देनेवाला। पहरेदार।
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पाहल  : स्त्री० [हिं० पहला] किसी को सिक्ख धर्म की दीक्षा देने के समय होनेवाला धार्मिक कृत्य या समारोह।
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पाहा  : पुं० [सं० पथ] १. पथ। मार्ग। २. मेंड़।
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पाहात  : पुं० [सं० नि० सिद्धि] शहतूत का पेड़।
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पाहार  : पुं० [सं० पयोधर; प्रा० पयोहर] बादल। मेघ। पुं० पहाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहिं  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास, पाह] १. पास। निकट। २. किसी की ओर या प्रति। ३. किसी के उद्देश्य से अथवा उसके पास जाकर।
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पाहि  : अव्य० [सं०√पा+लोट्+सिप्—हि] रक्षा करो। बचाओ।
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पाहिमाम्  : अव्य० [सं० पाहि और माम्व्यस्त पद] त्राहिमाम्।
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पाहीं  : अव्य०=पाहिं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाही  : स्त्री० [हिं० पाह=पथ] किसी किसान की वह खेती जो उसके गाँव या निवास स्थान से कुछ अधिक दूरी पर हो। उदा०—तहाँ नरायन पाही कीन्हां, पल आवैं पल जाई हो।—नारायणदास सन्त।
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पाहुँच  : स्त्री०=पहुँच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहुना  : पुं० [सं० प्राघूर्ण, प्राघुण=अतिथि] [स्त्री० पाहुनी] १. अतिथि। मेहमान। अभ्यागत। २. जमाता। दामाद। (पूरब)
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पाहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना] १. आतिथ्य। मेहमानदारी। पहुनई। २. रखेली स्त्री।
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पाहुर  : पुं० [सं० प्राभृत; प्रा० पाहुड=भेंट] १. उपहार। भेंट। नजर। २. शुभ अवसरों पर संबंधियों और इष्ट-मित्रों के यहाँ भेजे जानेवाले फल, मिठाइयाँ आदि। बैना। बायन।
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पाहू  : पुं० [सं० पथ, पुं० हिं० पाह] १. पाथिक। बटोही। २. पाहुना। मेहमान। ३. दामाद। उदा०—पाहु घर आवे मुकलाऊ आये।—गुरु ग्रंथसाहब। पुं० [?] दोनों ओर से थोड़ा मुड़ा हुआ वह मोटा लोहा जिससे इमारत में अगल-बगल रखे हुए पत्थर जड़कर स्थित किये जाते हैं। पुं० [सं० पाहि] १. घृणा या तुच्छतापूर्वक किसी को पुकारने या संबोधित करने का शब्द। २. तुच्छ व्यक्ति।
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पाँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइ  : पुं०=पाँव। मुहा०—पाँई पारना=दे० ‘पाँव’ के अंतर्गत ‘पाँव पारना’ मुहा०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइता  : पुं०=पायँता (पैताना, चारपाई का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँओं  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँक (ा)  : पुं०=पंक (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांक्त  : वि० [सं० पंक्ति+अञ्] १. पंक्ति-संबंधी। पंक्ति का। २. पंक्ति के रूप में होनेवाला।
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पांक्तेय  : वि० [सं० पंक्ति+ढक्—एय] [पंक्ति+ष्यञ्] (व्यक्ति) जो अपने अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता हो।
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पांक्त्य  : वि० [सं० पंक्ति+व्यञ्]=पांक्तेय।
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पाँख (ड़ा)  : पुं०=पंख (पक्षियों के)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पख (पखवाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँखी  : वि० [हिं० पंख] पंख या पंखोवाला। स्त्री० १. पक्षी। २. फतिंगा। ३. काठ का एक उपकरण जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती हैं। ४. दे० ‘पाँचा’।
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पाँखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँग  : पुं० [सं० पंक] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार। पुं०[?] जुलाहों के करघे का ढाँचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगल  : पुं० [सं० पांगुल्य] ऊँट। (डिं०)
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पाँगा  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगा नमक  : पुं० [सं० पंक, हिं० पाँग+नोन]=समुद्री नमक।
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पाँगा नोन  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगुर  : स्त्री० [हिं० पाँव+उँगली] पैर की कोई उँगली। वि०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगुरना  : अ० [?] पनपना।
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पाँगुरा  : वि०=पांगुर (पंगुल)।
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पाँगुल  : वि०=पंगुल।
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पांगुल्य  : पुं० [सं० पंगुल+ष्यञ्] पंगुल होने की अवस्था या भाव। लंगड़ापन।
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पाँच  : वि० [सं० पंच] जो गिनती में चार से एक अधिक अथवा छः से एक कम हो। मुहा०—(किसी की) पाँचों उँगलियाँ घी में होना=हर काम में किसी को सफलता मिलना या लाभ होना। पाँचों सवारों में नाम लिखाना या पाँचवें सवार बनना=जबरदस्ती अपने को अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों की पंक्ति या श्रेणी में गिनना या समझना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनना। बड़ा बतलाने या समझने लगना। पद—पाँच जने जी जमात=घर-गृहस्थी और परिवार। पुं० [सं० पंच] १. पाँच का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५। २. जात-बिरादरी या समाज के अच्छे या मुख्य लोग। ३. सब अच्छे आदमी। उदा०—जो पाँचहिं मत लागै नीका।—तुलसी। वि० बहुत अधिक चालाक या होशियार। उदा०—मेरे फंदे में एक भी न फँसा। पाँच बन्नो थी जिससे चार उलझे।—जान साहब।
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पाँचक  : पुं०, स्त्री०=पंचक।
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पांचकपाल  : वि० [सं० पंचकपाल+अण्] पंचकपाल संबंधी।
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पांचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+अण्—ङीप्] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की असिकी नामक कन्या का दूसरा नाम।
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पांचजन्य  : पुं० [सं० पचंजन+ण्य] १. पंचजन राक्षस का वह शंख जो भगवान कृष्ण उठाकर ले गये थे और स्वयं बजाया करते थे। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. जम्बू द्वीप का एक नाम।
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पांचदश्य  : पुं० [सं० पंचदशन्+ण्य] पंचनद या पंजाब-संबंधी। पुं० १. पंजाब का निवासी। २. पंजाब।
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पाँचपंच  : पुं० बहु० [हिं०] सब या मुख्य मुख्य लोग। जैसे—पाँच पंच जो कुछ कहें, वह हम मानने को तैयार हैं।
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पांच-भौतिक  : वि० [सं० पंचभूत+ठक्—इक] १. जिसका संबंध पंचभूतों से हो। २. पंच-भूतों से मिलकर बना हुआ। जैसे—पांच भौतिक शरीर।
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पांचयज्ञिक  : वि० [सं० पंचयज्ञ+ठक्—इक] पंच यज्ञ-संबंधी। पुं० पाँच प्रकार के यज्ञों में से प्रत्येक।
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पाँचर  : पुं० [सं० पंजर] कोल्हू के बीच में जड़े हुए लकड़ी के वे छोटे टुकड़ो जो गन्ने के टुकड़ों को दबाने के लिए लगाये जाते हैं। पुं०=पच्चर।
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पांचरात्र  : पुं० [सं० पंचरात्रि+अण्] आधुनिक वैष्णव मत का एक प्राचीन रूप जिससे परम, तत्त्व, मुक्ति, मुक्ति योग और विषय (संसार) इन पाँच रात्रों (ज्ञानों) का निरूपण होता था। यह भागवत धर्म की दो प्रधान शाखाओं में से एक था।
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पांचवर्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठञ्—इक] पाँच वर्षों में होनेवाला। पंचवर्षीय।
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पाँचवाँ  : वि० [हिं० पाँच+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] क्रम या गिनती में पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
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पांचशाब्दिक  : पुं० [सं० पंचशब्द+ठक्—इक] करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी ये पाँच प्रकार के बाजे।
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पाँचा  : पुं० [हिं० पाँच] खेत का एक उपकरण जिसमें एक डंडे के साथ छोटी फूलकड़ियां लगी रहती हैं। यह प्रायः कटी हुई फसल या घास-भूसा इकट्ठा करने के काम आता है।
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पांचार्थिक  : पुं० [सं० पंचार्थ+ठन्—इक, वृद्धि (बा०)] शैव।
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पांचाल  : वि० [सं० पंचाल+अण्] १. पंचाल देश से संबंध रखनेवाला। पंचाल का। २. पंचाल देश में होनेवाला। पुं० १. पंचाल जाति के लोगों का देश जो भारत के पश्चिमोत्तर खंड में था। २. पंचाल जाति के लोग। ३. प्राचीन भारत में, बढ़इयों, नाइयों, जुलाहों, धोबियों और चमारों के पाँचों वर्गों का समूह।
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पांचालक  : वि० [सं० पांचाल+कन्] पंचालवासियों के संबंध का। पुं० पंचाल देश का राजा।
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पांचाल-मध्यमा  : स्त्री० [सं०] भारतीय नाट्य कला में, एक प्रकार की प्रवृत्ति या बात-चीत वेश-भूषा आदि का ढंग, प्रकार या रूप जो पांचाल शूरसेन, कश्मीर, वाह्लीक, मद्र आदि जनपदों की रहन-सहन आदि के अनुकरण पर होता था।
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पांचालिका  : स्त्री० [सं० पांचाली+कन्+टाप्, ह्रस्व]=पंचालिका।
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पांचाली  : स्त्री० [सं० पंचाल+अण्—ङीष्] १. पंचाल देश की स्त्री। २. पाँचों पांडवों की पत्नी द्रोपदी जो पांचाल देश की राजकुमारी थी। ३. साहित्यिक रचनाओं की एक विशिष्ट रीति या शैली जो मुख्यतः माधुर्य, सुकुमारता आदि गुणों से युक्त होती है। इसमें प्रायः छोटे-छोटे समास और कर्ण-मधुर पदावलियाँ होती हैं। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी वृत्तियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ४. संगीत में (क) स्वर-साधन की एक प्रणाली; और (ख) इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक। ५. छोटी पीपल।
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पांचो  : स्त्री० [हिं० पच्ची का पुराना रूप] रत्नों आदि के जड़ाव का काम। पच्चीकारी। उदा०—जाग्रत सपनु रहत ऊपर मनि, ज्यों कंचन संग पांची।—हित हरिवंश। स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पाँचेक  : वि० [हिं० पाँच+एक] १. पाँच के लगभग। २. थोड़े-से जैसे—वहाँ पाँचेक आदमी आये थे।
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पाँचै  : स्त्री० [हिं० पंचमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि। पंचमी।
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पाँछना  : स० १.=पाछना। २. पोंछना का अनु०।
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पाँज  : स्त्री० [सं० पाश] बाहु-पाश। वि० [हिं० पाँव] (जलाशय या नदी) जिसमें इतने कम पानी हो कि यों ही पाँव चलकर पार किया जा सके। स्त्री० छिछला जलाशय या नदी। पुं० पुल। सेतु। उदा०—जनक-सुता हितु हत्यो लंक-पति, बाँध्यों सागर पाँज।—सूर। पुं० [हिं० पाँजना] पाँजने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पाँजना  : स० [सं० प्रण द्रध, प्रा० पणज्झ पँज्झ] धातुओं के टुकड़ों को जोड़ने के लिए उनमें टाँका लगाना। झालना।
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पाँजर  : अव्य० [सं० पंजा] पास। समीप। पुं० १. निकटता। सामीप्य। २. दे० ‘पंजर’।
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पांजी  : स्त्री० १=पाँज। २.=पंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँझ  : स्त्री०=पाँज।
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पाँडक  : पुं०=पंडुक (पेंडुकी)।
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पांडर  : पुं० [सं०√पण्ड् (गति)+अर, दीर्घ] १. कुंद का वृक्ष और फूल। २. सफेद रंग। ३. सफेद रंग की कोई चीज। ४. मरुआ। ५. पानड़ी। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी। ८. पुराणानुसार एक पर्वत जो मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित कहा गया है।
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पांडर-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] सातला वृक्ष।
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पाँडरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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पांडव  : वि० [सं० पांडु+अण्] पांडु संबंधी। पांडु का। पुं० १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के ये पाँचों पुत्र—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। २. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे था। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. रहस्य संप्रदाय में, पाँचों इंद्रियाँ।
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पांडव-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] हस्तिनापुर।
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पांडवाभील  : पुं० [सं० पांडव-अभी, ष० त०√ला (लेना)+क] श्रीकृष्ण।
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पांडवायन  : पुं० [सं० पांडव-अयन, ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पांडविक  : पुं० [सं० पांडु+ठञ्—इक] एक तरह की गौरैया।
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पांडवीय  : वि० [सं० पांडव+छ—ईय] पांडु के पुत्रों से संबंध रखनेवाला पांडवों का।
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पांडवेय  : पुं० [सं० पांडु+अण्+ङीष्+ठक्—एय] १. पाँडव। २. राजा परीक्षित का एक नाम।
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पांडित्य  : पुं० [सं० पंडित+ष्यञ्] १. पंडित होने की अवस्था या भाव। २. पंडित या विद्वान् को होनेवाला ज्ञान। विद्वता।
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पांडीस  : स्त्री० [?] तलवार। (डिं०)
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पांडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु, नि. दीर्घ] [भाव० पांडुता] हलके पीले रंग का। पुं० १. पांडु फली। २. सफेद रंग। ३. कुछ लाली लिये पीला रंग। ४. त्वचा के पीले पड़ने का एक रोग। पीलिया। ५. हस्तिनापुर के प्रसिद्ध राजा जिनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पाँच पुत्र थे। ६. सफेद हाथी। ७. एक नाग का नाम। ८. परवल।
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पाँडुआ  : पुं० [सं०] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। दोमट जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडु-कंटक  : पुं० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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पांडु-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर।
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पांडुकंबली (लिन्)  : स्त्री० [सं० पांडुकंबल+इनि] ऊनी कंबल से आच्छादित गाड़ी।
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पाँडुक  : पुं०=पंडुक (पेंडकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडुक  : पुं० [सं० पाण्डु+कन्] १. पीला रंग। २. पीलिया रोग। ३. पांडुराजा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पांडु-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार व्रण-चिकित्सा का एक अंग जिससे फोड़े के अच्छे हो जाने पर उसके काले वर्ण को औषधि के प्रयोग में पीला बनाते हैं।
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पांडु-क्ष्मा  : स्त्री० [ब० स० ?] हस्तिनापुर का एक नाम।
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पांडु-चित्र  : पुं० [सं०] आलेख।
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पांडु-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धौ का पेड़।
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पांडुता  : स्त्री० [सं० पांडु+तल्+टाप्] पांडु होने की अवस्था या भाव। पीलापन।
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पांडु-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ।
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पांडु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] १. पुन्नाग वृक्ष। २. [कर्म० स०] सफेद हाथी। ३. सफेद साँप।
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पांडु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] रेणुका नामक गंध-द्रव्य।
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पांडु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] राजा पांडु का पुत्र। पाँचों पांडवों में से प्रत्येक।
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पांडु-पृष्ठ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (वह व्यक्ति) जिससे शरीर पर कोई शुभ लक्षण न हो। ३. अकर्मण्य। निकम्मा।
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पांडु-फला  : पुं० [ब० स०, टाप्] परवल।
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पांडु-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का छोटा क्षुप।
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पांडु-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. खड़िया। दुधिया मिट्टी। २. राम-रज नाम की पीली मिट्टी।
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पांडु-रंग  : पुं० [सं० पांडुर-अंग, ब० स०, शक०, पररूप] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार स्वाद में तिक्त और कृमि, श्लेष्मा, कफ आदि का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु के एक अवतार।
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पांडुर  : वि० [सं० पांडु+र] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत। पुं० १. धौ का पेड़। सफेद ज्वार। ३. कबूतर। बगला। ५. सफेद खड़िया। ६. कामला रोग। ७. सफेद कोढ़। ८. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ९. सर्प। साँप। १॰. साधु-संतों की आध्यात्मिक परिभाषा में, अज्ञान।
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पांडुरक  : वि० [सं० पाण्डुर+कन्] पांडु रंग का। पीला। पुं० १. पीला रंग। २. पीलिया।
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पांडुर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुटज। कुड़ा। कुरैया।
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पांडु-पृष्ठ  : पुं०=पांडुपृष्ठ।
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पांडुर-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप]
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पांडुरा  : स्त्री० [सं० पांडुर+टाप्] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों की एक देवी या शक्ति।
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पांडु-राग  : पुं० [ब० स०] दौना नाम का पौधा। पुं० [कर्म० स०] सफेद रंग। सफेदी।
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पांडुरिमा  : स्त्री० [सं० पांडुर+इमनिच्] हलका पीलापन।
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पांडुरेक्षु  : पुं० [सं० पांडुर+इक्षु, कर्म० स०] हलके पीले रंग की ईख।
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पांडुलिपि  : स्त्री० [सं०] १. पुस्तक, लेख आदि की हाथ की लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। (मैनस्क्रिष्ट) २. दे० ‘पांडुलेख’।
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पांडु-लेख  : पुं० [कर्म० स०] १. हाथ से लिखा हुआ वह आरंभिक लेख जिसमें काँट-छाँट, परिवर्तन आदि होने को हो। २. उक्त का काट-छाँट कर तैयार किया हुआ वह रूप जो प्रकाशित किये या छापा जाने को हो। (ड्राफ्ट) ३. पांडुलिपि।
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पांडु-लेखक  : पुं० [ष० त० ?] वह जो लेख आदि की पांडु-लिपि लिखकर तैयार करता हो। (ड्राफ्टमैन)
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पांडु-लेखन  : पुं० [ष० त० ?] लेख्य आदि की पांडुलिपि तैयार करने का काम। (ड्राफ्टिंग)।
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पांडु-लेख्य  : पुं० [कर्म० स०] १.=पांडुलिपि। २.=पांडुलेख।
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पांडु-लोमश  : वि० [कर्म० स०,+श] [स्त्री० पांडुलोमशा] सफेद रोएँवाला। जिसके रोयें या बाल सफेद हों।
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पांडु-लोमशा  : स्त्री० [सं० पांडुलोमश्+टाप्] मषवन। माषपर्णी।
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पांडु-लोमा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पांडु-लोमशा। (दे०)
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पांडु-शर्करा  : स्त्री० [ब० स०] प्रमेह रोग का एक भेद।
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पांडुशर्मिला  : स्त्री० [सं०] द्रौपदी।
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पांडू  : स्त्री० [सं० पांडु=पीला] १. हलके पीले रंग की मिट्टी। २. ऐसी कीचड़ जिसमें बालू भी मिला हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें वर्षा के जल से ही उपज होती हो। बारानी।
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पाँडे  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. दे० ‘पाण्डेय’। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. भोजन बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया। ४. पंडित। विद्वान। (क्व०)
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पांडेय  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. कान्यकुब्ज और सरयूपारी ब्राह्मणों की शाखाओं का अल्ल या उपाधि। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. दे० ‘पाँडे’।
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पाँत  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँतरना  : अ० [सं० पीत्रल] १. गलती या भूल करना। २. मूर्खता करना। उदा०—प्रमणै पित मात पूत मत पांतरि।—प्रिथीराज।
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पाँतरिया  : वि० [सं० पत्रल] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। उदा०—पांतरिया माता इ पिता।—प्रिथीराज।
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पांति  : स्त्री० [सं० पांक्ति] १. अवली। कतार। पंगत। २. बिरादरी के वे लोग जो साथ बैठकर भोजन कर सकते हों।
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पांथ  : वि० [सं० पथिन्+अण्, पन्थ-आदेश] १. पथिक। २. वियोगी। विरही। पुं० सूर्य। पुं०=पंथ (रास्ता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पांथ-निवास  : पुं० [ष० त०]=पांथ-शाला।
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पांथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] पथिकों और यात्रियों के ठहरने के लिए रास्ते में बनी हुई जहग (इमारत या घर)। जैसे—धर्मशाला, सराय, होटल आदि।
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पाँपणि  : स्त्री० [हिं० पश्चिमी हि० पपनी] पलक। उदा०—पाँपणि पंख सँवारि नवी परि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँय  : पुं०=पाँव।
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पाँयचा  : पुं० [फा०] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने के वे ईटें या पत्थर जिन पर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिए बैठते हैं। २. पाजामें की मोहरी का वह अंश जो घुटनों के नीचे तक रहता है।
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पाँयता  : पुं०=पैंताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँव  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव] १. जीव-जंतुओं, पशुओं और विशेषतः मनुष्य के नीचेवाले वे अंग जिनकी सहायता से चलते-फिरते अथवा जिनके आधार पर वे खड़े होते हैं। पैर। पद—पाँव का खटका=दे० ‘पैर की आहट।’ पाँव की जूती=बहुत ही तुच्छ या हीन वस्तु या व्यक्ति। पाँव की बेड़ी=ऐसा बंधन जो किसी की स्वच्छंद गति या रहन-सहन में बाधक हो। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना=दे० ‘टाँग’ के अंतर्गत ‘टाँग अड़ाना।’ पाँव उखड़ जाना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत’ ‘पैर उखड़ना या उखड़ जाना’। पाँव उखाड़ना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत। पाँव उठाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव खींचना=व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना या घूमना-फिरना छोड़ देना। पाँव गाड़ना=दे० नीचे ‘पाँव रोपना’। पाँव घिसना=(क) बार-बार कहीं बहुत अधिक आना-जाना। (ख) दे० नीचे ‘पाँव रगड़ना’। (किसी स्त्री के) पाँव छुड़ाना= उपचार, औषध आदि की सहायता से ऐसा उपाय करना कि रुका हुआ मासिक रज-स्त्राव फिर से होने लगे। (किसी स्त्री के) पाँव छूटना=(क) स्त्री का मासिकधर्म से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से और अपेक्षया अधिक समय तक रज-स्त्राव होता रहना। (किसी के ) पाँव छूना=किसी बड़े का आदर या सम्मान करने के लिए उसके पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। पाँव ठहरना=दृढ़तापूर्वक या स्थिर भाव से कहीं खड़े होना। ठहरना या रुकना। पाँव तोड़कर बैठना=स्थायी रूप और स्थिर भाव से एक जगह पर रहना और व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना बंद कर देना (किसी के) पाँव दबाना या दाबना=थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिए टाँगे दबाना। (किसी काम या बात में) पाँव धरना= किसी काम में अग्रसर या प्रवृत्त होना। (किसी के) पाँव धरना या पकड़ना=किसी प्रकार का आग्रह, विनती आदि कहते मनाने के लिए किसी के पाँव पर हाथ रखना। उदा०—अब यह बात यहाँ जानि ऊधौ, पकरति पाँव तिहारे।—सूर। (किसी जगह) पाँव धरना या रखना=कहीं जाना या जाकर पहुँचना। पैर रखना। जैसे—अब कभी उन के यहाँ पाँव न रखना। (किसी जगह) पाँव धारना=कृतज्ञतापूर्वक पदार्पण करना। उदा०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जँह जँह नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी। (किसी के) पाँव धोकर पीना=(क) चरणामृत लेना। (ख) बहुत अधिक पूज्य तथा मान्य समझकर परम आदर, भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट करना। पाँव निकालना=(क) कहीं चलने या जाने के लिए पैर उठाना या बढ़ाना। (ख) नियंत्रण आदि की उपेक्षा करते हुए कोई नई प्रवृत्ति विशेषतः अनिष्ट या अवांछित प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाना। जैसे—तुम तो अभी से पाँव निकालने लगे। (किसी का) पाँव पड़ना=आगमन होना। आना। जैसे—आपके पाँव पड़ने से यह घर पवित्र हो गया। (किसी के) पाँव पड़ना=(क) झुककप या पैर छूकर नमस्कार करना। (ख) अपनी प्रार्थना या विनती मनवाने के लिए बहुत ही दीनतापूर्वक आग्रह करना। (किसी के) पाँव पर गिरना=दे० ऊपर ‘(किसी से) पाँव पड़ना’। पाँव पर पाँव रखकर बैठना=काम-धंधा छोड़ बैठना या पड़े रहना। निठल्ले की तरह बैठना। (किसी के) पाँव पर पाँव रखना=दूसरे के चरण चिह्नों का अनुकरण करना। किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। (किसी के) पाँव पर सिर रखना=दे० ऊपर ‘(किसी के) पाँव पड़ना’। पाँव पलोटना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर दबाना’। पाँव पसारना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर फैलाना’। पाँव-पाँव चलना=पैदल चलना। जैसे—अब कुछ दूर पाँव-पाँव भी चलो। (किसी को) पाँव पारना=पैरों पड़ने के लिए विवश करना। उदा०—कहाँ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं।—सूर। पाँव पीटना=(क) बेचैनी या यंत्रणा से पैर पटकना। छटपटाना। (ख) बहुत अधिक दौड़-धूप या प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव पूजना=बहुत अधिक भक्ति या श्रद्धा दिखाते हुए आदर-सत्यार करना। (वर के) पाँव पूजना=विवाह में कन्या कुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। (किसी के) पाँव फूलना=भय, शंका आदि से ऐसी मनोदशा होना कि आगे बढ़ने का साहस न हो। (प्रसूता का) पाँव फेरने जाना=बच्चा हो जाने पर शुभ शकुन में प्रसूता का अपने मायके में कुछ दिनों तक रहने के लिए जाना। (वधू का) पाँव फेरने जाना=विवाह होने पर ससुराल आने के बाद वधू का पहले-पहल कुछ दिनों तक अपने मायके में रहने के लिए जाना। पाँव फैलाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बढ़ाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बाहर निकालना=पाँव निकालना। पाँव रगड़ना=(क) बहुत दौड़-धूप करना। (ख) कष्ट या पीड़ा से छटपटाना। (किसी काम या बात के लिए) पाँव रोपना=(क) दृढ़तापूर्वक प्रण या प्रतिज्ञा करना। (ख) हठ करना। अड़ना। (किसी के) पाँव लगाना=पैरों पर सिर रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। (किसी स्थान का) पाँव लगा होना=किसी स्थान से इस रूप में ज्ञात या परिचित होना कि उस पर चल-फिर चुकें हों। जैसे—वहाँ का रास्ता हमारे पाँव लगा है, आप से आप ठीक जगह पहुँच जाता हूँ। (किसी काम या बात से) पाँव समेटना=अलग, किनारे या दूर हो जाना। संबंध न रखना। छोड़ देना। जैसे—अब काम में हमने पाँव समेट लिये। विशेष—यों ‘पाँव’ और ‘पैर’ एक दूसरे के पर्याय या समानक ही है, फिर भी ‘पाँव’ पुराना और पूर्वी शब्द है, तथा ‘पैर’ अपेक्षया आधुनिक और पश्चिमी शब्द है। अधिकतर पुराने प्रयोग या मुहावरे ‘पैर’ से संबद्ध है, और ‘पाँव’ की तुलना में ‘पैर’ अधिंक प्रचलित तथा शिष्ट-सम्मत हो गया है। फिर भी बोल-चाल में लोग यह अंतर न जानने या न समझने के कारण दोनों शब्दों के मिले-जुले प्रयोग करते हैं जिससे दोनों के मुहावरे भी बहुत कुछ मिल-जुल गये हैं। यहाँ दोनों के विशिष्ट प्रयोगों और मुहावरों से कुछ अंतर रखा गया है। अतः पाँव के शेष प्रयोगों और मुहावरों के लिए ‘पैर’ के मुहावरे देखने चाहिए। २. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज या बात टिकी या ठहरी रहे। मुहा०—पाँव कट जाना=आधार या आश्रम नष्ट हो जाना (किसी के) पाँव न होना=(क) ऐसा कोई आधार या आश्रम न होना जिस पर कोई टिक या ठहर सके। जैसे—इस बात का न कोई सिर है न पाँव। (ख) खड़े रहने या ठहरने की शक्ति न होना। जैसे—चोर के पाँव नहीं होते, अर्थात् उसमें ठहरने या सामने आने का साहस नहीं होता।
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पाँव-चप्पी  : स्त्री० [हिं० पाँव+चापना=दबाना] पैर दबाने की क्रिया या भाव।
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पांवचा  : पुं०=पाँयचा।
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पाँवड़ा  : पुं० [हिं० पाँव+ड़ा (प्रत्य०)][स्त्री० पाँवड़ी] १. वह कपड़ा जो किसी बड़े और पूज्य व्यक्ति के मार्ग में इस उद्देश्य से बिछाया जाता है कि वह इस पर से हो कर चले। २. वह कपड़ा या ऐसी ही और कोई चीज जो पैर पोंछने के लिए कहीं पड़ा या बिछा रहता हो। पाँवदान। ३. दे० ‘पाँवड़ी’।
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पाँवड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी (प्रत्य०)] १. खड़ाऊँ। २. जूता। ३. सीढ़ी। सोपान। ४. ऐसी चीज या जगह जिस पर प्रायः पैर रखे जाते या पड़ते हों। ५. गोटा-पट्ठा बिननेवालों का एक औजार जो बुनते समय पैरों से दबाकर रखा जाता है और जिससे ताने के तार ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते हैं। स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १. वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। ड्योढ़ी। पौरी। २. बैठने का ऊपरी कमरा। बैठक। ३. ‘पौरी’।
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पाँवर  : वि०=पामर। पुं०=पाँवड़ा। स्त्री०=पाँवड़ी।
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पाँवरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।
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पांशन  : वि० [सं०√पंस् (नाश करना)+ल्यु—अन, दीर्घ, पृषो०] १. कलंकित करनेवाला। भ्रष्ट करनेवाला। २. दुष्ट। ३. हेय। (प्रायः समास में व्यवहृत) जैसे—पौलस्त्य-कुल-पांशन। पुं० १. अपमान। २. तिरस्कार।
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पांशव  : पुं० [सं० पांशु+अण्] रेह का नमक।
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पांशु  : स्त्री०[सं०√पंस् (श्)+उ, दीर्घ] १. धूलि। रज। २. बालू। ३. गोबर की खाद। पाँस। ४. पित्त पापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. भू-संपत्ति। जमीन। जायदाद।
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पांशु-कसीस  : पुं० [उपमि० स०] कसीस।
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पांशुका  : स्त्री० [सं० पांशु√कै (चमकना)+क+टाप्] केवड़े का पौधा।
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पांशुकुली  : स्त्री० [सं० पांशु√कुल, (इकट्ठा होना)+क+ङीष] राजमार्ग।
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पांशु-कूल  : पुं० [ष० त०] १. धूल का ढेर। २. चीथड़ों आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। ३. गुदड़ी। ४. वह दस्तावेज या लेख्य जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो।
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पांश-कृत  : वि० [तृ० त०] १. धूल के ढका हुआ। २. पीला पड़ा हुआ। ३. मैला-कुचैला।
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पांशु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पाँगा नमक।
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पांशु-चंदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पांशु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांशुज  : पुं० [सं० पांशु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
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पांशु-धान  : पुं० [ष० त०] धूल का ढेर।
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पांशु-पटल  : पुं० [ष० त०] किसी चीज पर जमी धूल की तह या परत।
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पांशु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ (साग)।
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पांश-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांशुर  : पुं० [सं० पांशु√रा (देना)+क] १. डाँस। २. खंज। ३. पंगु व्यक्ति।
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पांशु-रागिनी  : स्त्री० [सं० पांशु√रञ्ज् (रंगना)+घिनुण्+ ङीप्] महामेदा।
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पांशु-राष्ट्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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पांशुल  : वि० [सं० पांशु+लच्] [स्त्री० पांशुला] १. जिस पर गर्द या धूल पड़ी हो। मैला-कुचैला। २. पर-स्त्री-गामी। व्यभिचारी। पुं० १. पूतिरकंज। २. शिव।
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पांशुला  : स्त्री० [सं० पांशुल+टाप्] १. कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री। २. राजस्वला स्त्री। ३. जमीन। भूमि। ४. केतकी।
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पाँस  : स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मूत्र आदि, सड़ी-गली चीजें जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें डाली जाती हैं। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. कोई चीज सड़ाकर उठाया जानेवाला खमीर। ३. विशेषतः मधु आदि का वह खमीर जो शराब बनाने के लिए उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।
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पाँसना  : स० [हिं० पाँस+ना (प्रत्य०)] खेत में पाँस या खाद डालना।
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पाँसा  : पुं०=पासा।
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पाँसी  : स्त्री० [सं० पाश] घास, भूसा आदि बाधने के लिए रस्सियों की बनी हुई बड़ी जाली। जाला।
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पांसु  : स्त्री० [√पंस्+उ, दीर्घ]=पांशु।
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पांसु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पांगा नमक।
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पांसु-खुर  : पुं० [ब० स०] घोड़ों के खुरों का एक रोग।
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पांसु गुंठित  : वि० [तृ० तृ०] धूल से ढका हुआ।
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पांसु-चदन  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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पांसु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांसु-चामर  : पुं० [ब० स०] १. बड़ा खेमा। तंबू। २. नदी का ऐसा किनारा जिस पर दूब जमी हो। ३. धूल। ४. प्रशंसा।
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पांसुज  : वि० [सं० पांसु√जन्+ड] पाँगा नमक।
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पांसु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुए का साग।
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पांसु-भव  : पुं० [ब० स०] पाँगा नमक।
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पांसु-भिक्षा  : स्त्री० [सं० पांसु√भिक्ष् (याचना)+अङ्—टाप्] धौ का पेड़।
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पांसु-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांसुर  : पुं० [सं० पांसु√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का बड़ा मच्छड़। दंश। डाँस। २. लूला-लँगड़ा जीव या प्राणी।
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पांसुरागिणी  : स्त्री० [सं० दे० ‘पांशुरागिनी’] महामेदा।
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पाँसुरी  : स्त्री०=पसली।
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पांसुल  : वि० [सं० पांसु+लच्] १. धूल से लथ-पथ। २. मलिन। मैला। ३. पापी। ४. पर-स्त्रीगामी। पुं० शिव।
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पांसुला  : वि० [सं० पांसुल+टाप्] १. व्यभिचारिणी (स्त्री)। २. रजस्वला (स्त्री)। स्त्री० १. पृथ्वी। २. केतकी।
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पाँसु  : पुं० [हिं० पाँस+ऊ (प्रत्य०)] कुम्हारों का एक उपकरण जिससे वे गीली मिट्टी चलाते और सानते हैं।
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पाँही  : अव्य० [हिं० पँह] १. निकट। पास। समीर। २. प्रति।
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पा  : पुं० [सं० पाद से फा०] पैर। पाँव। वि० १. दृढ़ पैरोंवाला। २. अधिक समय तक टिकने या ठहरनेवाला। टिकाऊ (यौ० के अंत में) जैसे—देर-पा=देर तक ठहरनेवाला।
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पा-अंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज] वह छोटा बिछावन जो कमरों के दरवाजों पर पैर पोंछने के लिए रखा जाता है। पावदान। उदा०—दृग-पग पोंछन कौं कियो भूषण पायन्दाज (पा-अंदाज)।—बिहारी।
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पाइ  : पुं०=पा (पैर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—
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पाइक  : वि०, पुं०=पायक। स्त्री०=पताका।
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पाइफा  : पुं० [अं०] आकार के विचार से टाइपों का एक भेद जिसका मुद्रित रुप १।६ इंच के बराबर होता है।
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पाइट  : स्त्री० [अं० फ्लाइट] बाँसों, तख्तों आदि को रस्सियों से बाँधकर खडा किया हुआ वह ढाँचा जिस पर खड़े होकर राज-मजदूर दीवारें आदि बनाते तथा उन पर पलस्तर, चूना, रंग आदि करते हैं।
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पाइतरी  : स्त्री०=पायँता (खाट या बिस्तर का)।
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पाइदेल  : वि०, पुं०=पैदल।
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पाइप  : पुं० [अं०] १. नल या नली। २. किसी प्रकार का नल जिसके अंदर से होकर कोई चीज एक जगह से दूसरी जगह जाती हो। जैसे—पानी का पाइप, गैस का पाइप। ३. तमाकू पीने की एक प्रकार की पाश्चात्य नली। ४. बांसुरी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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पाइपोस  : पुं०=पापोश (जूता)।
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पाइमाल  : वि०=पायमाल।
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पाइरा  : पुं० [हिं० पाँव+रा (प्रत्य०)] घोड़े की जीन-सवारी के साज में की रकाब।
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पाइरिल्ला  : पुं० [सं०] भूरे रंग का एक तरह का थूथनदार कीड़ा दो गन्ने के पौधों की पत्तियाँ खाता है।
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पाइल  : स्त्री०=पायल।
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पाइलट  : पुं० [अं०] वायुयान चालक।
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पाई  : वि० [फा० पाईन] १. सामनेवाला। २. नीचेवाला। ३. अंतिम।
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पाईबाग  : पुं० [फा०+अ०] घर के साथ लगा हुआ बाग। नजरबाग।
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पाई  : स्त्री० [सं० पाद, पुं० हिं० पाय] १. खड़ी या सीधी या सीधी लकीर। २. वह छोटी खड़ी रेखा जो वाक्य के अंत में पूर्णविराम सूचित करने के लिए लगाई जाती हैं। लेखों आदि में पूर्णविराम का सूचक चिह्न। ३. पाँ। पैर। ४. घेरा बाँध कर चलने या नाचने की किया या भाव। ५. पतली छड़ियों या बेतों का बना हुआ। जुलाहों का एक ढाँचा जिस पर ताने का सूत फैलाकर उन्हें मांजते हैं। टिकटी। अट्ठा। मुहा०—ताना-पाई करना=बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर आते-जाते रहना। ६. ताने का सूत माँजने की क्रिया। ७. घोड़ों के पैर सजने का एक रोग। ८. ताँबे का एक पुराना छोटा सिक्का जो एक पैसे के तिहाई मूल्य का होता था और जिसका चलन अब उठ गया है। ९. ताँबें का पैसा। (पूरब) १॰. वह पिटारी जिसमें देहाती स्त्रियाँ साधारण गहने-कपड़े रखती हैं। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] प्राप्त करने अर्थात् पाने की क्रिया या भाव। जैसे—भर-पाई की रसीद। स्त्री० [हिं० पाया=पाई कीड़ा] एक प्रकार का छोटा लंबा कीड़ा जो घुन की तरह अन्न में लगाकर उसे खा जाता है और उसे अंकुरित होने के योग्य नहीं रहने देता। क्रि० प्र०—लगना। स्त्री० [अं०] १. ढेर के रूप में मिले हुए छापे के टाइप। २. छापेखाने में सीसे के वे अक्षर या टाइप जो घिस-पिस अथवा टूट-फूट जाने के कारण निकम्मे या रद्दी हो गये हों, और ढेर के रूप में अलग रख दिये गये हों। ३. छापेखाने में सीसे के अक्षरों या टाइपों का वह ढेर जो अव्यवस्थित रूप से कहीं पड़ा हो।
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पाईगाह  : स्त्री० [फा० पाएगाह] १. अश्वाला। तबेला। २. किसी बडे आदमी के प्रासाद या महल की ड्योढ़ी(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पाईता  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक मगण, एक भगण और एक सगण होता है।
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पाउँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउंड  : पुं० [अ०] १. सोने की एक अंगरेजी सिक्का। २. सात या साढ़े सात छटाँक के लग-भग की एक तौल।
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पाउंड पावना  : पुं० [अं० पाउँड+हिं० पावना] पाउंडों के रूप में प्राप्त विदेशी मुद्रा। विशेषतः ब्रिटेन से किसी देश के पावने की वह रकम जो बैंक आफ इंग्लैंड में जमा रहती है और उसके साथ हुए समझौते की शर्तों के अनुसार कमशः चुकाई जाती है। (स्टलिंग बैलेन्स)
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पाउ  : पुं०=पाँव। पुं०=पाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउडर  : पुं० [अं०] १. कोई ऐसी चीज जो पीसकर बहुत महीन कर दी गई हो। चूर्ण। बुकनी। २. वह सुगंधित चूर्ण या बुकनी जो स्त्रियाँ अपने चेहरे तथा अन्य अंगों पर उन की रंगत चमकाने और सुन्दर बनाने के लिए लगाती हैं।
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पाउस  : पुं०=पावस (वर्षा ऋतु)।
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पाक  : पुं० [सं०√पच् (पकाना)+घञ्] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। रींधना। २. किसी चीज के ठीक तरह से पके या पचे हुए होने की अवस्था या भाव। ३. पकाया हुआ भोजन। रसोई। ४. वह औषध या फल जो शीरे में पकाया गया हो। जैसे—बदाम पाक, मेवा पाक, सुपारी पाक। ५. खाये हुए पदार्थ के पचने की क्रिया या भाव। पचन। ६. श्राद्ध में पिंडदान के लिए पकाया हुआ चावल या खीर। ७. किसी चीज या बात का अपने पूर्ण रूप में पहुँचना, अथवा उचित और यथेष्ट रूप मे परिपुष्ट तथा परिवृद्ध होना। ८. एक दैत्य जो इंद्र के हाथों मारा गया था। वि० १. छोटा। २. प्रशंसनीय। ३. परिपुष्ट तथा पूर्ण अवस्था में पहुँचा हुआ। ४. ईमानदार। सच्चा । ५. अनजान। वि० [फा०] १. पवित्र। निर्मल। विशुद्ध। जैसे—पाक नजर, पाक मुहब्बत। पद—पाक-साफ=(क) पवित्र और स्वच्छ। (ख) निष्कलंक। २. साफ। स्वच्छ। ३. दोषों आदि से रहित । निर्दोष। ४. धार्मिक दृष्टि से पवित्र, सदाचारी और पूज्य। ५. किसी आवांछित अंश या तत्त्व से रहति। जैसे—यह जायदाद सब तरह के झगड़ों से पाक है। मुहा०—(जानवर) पाक करना=जबह किये हुए पशु या पक्षी के पर, रोएँ आदि काटकर अलग करना। झगड़ा पाक करना=(क) झगड़डा तै करना या निपटाना। (ख) झंझट, बाधा आदि दूर, नष्ट या समाप्त करना। (ग) (विरोधी, वैरी आदि का) अंत या नाश करना। पुं० पाकिस्तान का संक्षिप्त रूप। जैसे—भारत-पाक में समझौता।
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पाक-कर्म  : पुं०=पाक-क्रिया।
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पाक-कृष्ण  : पुं० [ब० स०] १. जंगली करौंदा। २. पानी आँवला ।
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पाक-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। २. पाचन क्रिया।
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पाकज  : वि० [सं० पाक√जन्+ड] पाक से उत्पन्न। पुं० १. कचिया नमक। २. भोजन के ठीक प्रकार से न पचने पर पेट में होनेवाला शूल।
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पाकजाद  : वि० [फा० पाकाजादः] शुद्ध तथा स्वच्छ प्रकृतिवाला। शुद्घात्मा।
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पाकट  : पुं०=पाकेट। वि०=पाकठ। वि०=पाकठा।
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पाकठ  : वि० [हिं० पकना] १. अच्छी तरह पका हुआ। २. यथेष्ट चुतर या चालाक। दक्ष। होशियार। जैसे—अब यह लड़का दूकानदारी के काम में पाकठ हो गया है। ३. दृढ़। मजबूत।
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पाकड़  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की जाति का एक बड़ा पेड़। पाकढ़।
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पाक-दामन  : वि० [फा०] [भाव० पाकदामनी] जिसका चरित्र पवित्र और निष्कलंक हो। (विशेष रूप से स्त्रियों के लिए प्रयुक्त)।
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पाकदामिनी  : स्त्री० [फा०] ‘पाकदामन’ होने की अवस्था। (स्त्री का) सदाचार या सच्चरित्रता।
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पाक द्विष  : पुं० [सं० पाक√द्विष् (शत्रुता करना)+ क्विप्] इंद्र।
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पाकना  : अ०=पकना। स०=पकाना।
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पाकबाज  : वि० [फा० पाक+बाज] [भाव० पाकबाजी] सदाचारी।
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पाक-पात्र  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा बरतन जिसमें भोजन पकाया या बनाया। जाता हो।
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पाक-पुटी  : स्त्री० [च० त०] कच्ची मिट्टी के बरतन पकाने का आँवाँ।
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पाक-फल  : पुं० [ब० स०] १. करौंदा। २. पानी अमला।
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पाक-भांड  : पुं०=पाक-पात्र। (दे०)।
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पाक-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] १. वृषोत्सर्ग, गृह-प्रतिष्ठा आदि के समय किया जानेवाला होम जिसमें खीर की आहुति दी जाती है। २. पंच महायज्ञ में ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त अन्य चार यज्ञ—वैश्वदेव होम, बलि-कर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि-भोजन।
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पाक-याज्ञिक  : वि० [सं० पाक-यज्ञ+ठञ—इक] १. पाकयज्ञ-संबंधी। पाक-यज्ञ का। २. पाक यज्ञ करनेवाला ३. पाक यज्ञ से उत्पन्न। पुं० वह ग्रंथ जिसमें पाक-यज्ञ के विधान आदि बतलाये गये हों।
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पाक-रंजन  : पुं० [सं० पाक√रञ्ज्+णिच्+ल्यु—अन] तेजपत्ता।
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पाकर  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की तरह का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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पाकरिपु  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाकरी  : स्त्री० [हिं० पाकर का स्त्री० अल्पा० रूप] छीटा पाकर।
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पाकल  : पुं० [सं० पाक√ला (लेना)+क] १. वह दवा जिससे कुष्ठ अच्छा होता हो। कुष्ठ रोग की दवा। २. फोड़ा पकानेवाली दवा। ३. अग्नि। आग । ४. एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पित्त प्रबल, वात मध्य और कफहीन अवस्था में होता है। वैद्यक के अनुसार इसका रोगी प्रायः तीन दिन में मर जाता है। ५. हाथी को आने-वाला ज्वर या बुखार।
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पाकलि, पाकली  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्विप्√कल् (गिनती करना)+इन्] [सं० पाकलि+डीष्] काकड़ासींगी। कर्कटी।
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पाक-शाला  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ भोजन पकाया या बनाया जाता हो। रसोई-घर।
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पाकशासन  : पुं० [सं० पाक√शास् (शासन करना)+ ल्यु—अन] इंद्र।
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पाक-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें विभिन्न खाद्य पदार्थों या व्यंजन बनाने की कला, प्रकियायों आदि का विवेचन होता है।
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पाक-शुक्ला  : स्त्री० [स० त०] खड़िया मिट्टी।
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पाक-स्थली  : स्त्री० [ष० त०] पक्वाशय।
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पाकहंता (तृ)  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाका  : पुं० [हिं० पकाना] १. शरीर के विभिन्न अंगों के पकने की क्रिया या भाव । २. फोड़ा। वि०=पक्का।
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पाकागार  : पुं० [सं० पाक-आगार, ष० त०] पाकशाला।
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पाकात्यय  : पुं० [सं० पाक-अत्यय, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें उसका काला भाग सफेद हो जाता है। पुलती का सफेद हो जाना।
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पाकाभिमुख  : वि० [सं० पाक-अभिमुख, स० त०] जो पक रहा हो अथवा पूर्ण रूप से पकने को हो।
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पाकारि  : पुं० [पाक-अरि, ष० त०] १. इंद्र। २. सफेद कचनार।
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पाकिट  : पुं० १.=पाकेट। २.=पैकेट। वि०=पाकठ।
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पाकिस्तान  : पुं० [फा०] भारत का विभाजन करके बनाया हुआ वह मुसलमानी राज्य जिसका कुछ अंश भारत के पश्चिम में और कुछ पूर्व में है। पश्चिमी पाकिस्तानी में सिंध, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत तथा पूर्वी पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल नामक प्रदेश है।
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पाकिस्तानी  : वि० [फा०] १. पाकिस्तान देश संबंधी। पाकिस्तानी का। २. पाकिस्तान में होनेवाला। पुं० पाकिस्तान में रहनेवाला व्यक्ति।
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पाकी  : स्त्री० [फा०] १. पाक होने की अवस्था या भाव। २. निर्मलता। शुद्धता। ३. पवित्रता। पावनता। मुहा०—पाकी लेना=उपस्थ पर के बाल साफ करना।
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पाकीजा  : वि० [फा० पाकीज
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पाकु  : वि० [स० √पच्+उण्] १. पकानेवाला। २. [√पच्+उकञ] पचानेवाला। पाचकी। पुं० बावरची। रसोइया।
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पाकेट  : पुं० [अं० पाकेट] जेब। खीसा। मुहा०—पाकेट गरम होना=(क) पास में धन होना। (ख) अनुचित या अवैध रूप से किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ होना। पुं०=पैकेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] ऊँट। (डिं०)
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पाक्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्] १. जो पकाया जाने को हो। २. पचने योग्य। पुं० १. काला नमक। २. साँभर नमक। ३. जवाखार। ४. शोरा।
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पाक्य-क्षार  : [कर्म० स०] १. जवाखार नमक। २. शोरा।
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पाक्यज  : पुं० [सं० पाक्य√जन्+ड] कचिया नमक।
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पाक्या  : स्त्री० [सं० पाक्य+टाप्] १. सज्जी। २. शोरा।
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पाक्ष  : वि०=पाक्षिक। पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाक्षपातिक  : वि० [सं० पक्षपात+ठक—इक] १. पक्षपात करनेवाला। फूट डालनेवाला । २. पक्षपात के रूप में होनेवाला।
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पाक्षायण  : वि० [सं० पक्ष+फक्—आयन] १. जो पक्ष (१५ दिन) में एक बार हो या किया जाय। पाक्षिक। २. पक्ष (१५ दिन) का।
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पाक्षिक  : वि० [सं० पक्ष+ठञ्—इक] १. चांद्र मास के पक्ष से संबंध रखनेवाला। २. जो एक पक्ष (१५ दिन) में एक बार होता हो। जैसे—पाक्षिक अधिवेशन, पाक्षिक पत्र या पत्रिका। (फोर्टनाइटली)। ३. किसी प्रकार का पक्षपात करनेवाला। पक्षपाती । तरफदार। ४. (पिंगल में छंद) जिसमें (पक्ष के रूप में) दो मात्राएँ हों। ५. वैकल्पित। पुं० १. पक्षियों को फँसा या मारकर जीविका चलानेवाला व्यक्ति बहेलिया। २. ब्याध। शिकारी। ३. विकल्प।
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पाखंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप् पा√खंड (खंडन करना)+अण्] [वि० पाखंडी] १. वेदों की आज्ञा, मत या सिद्धांत के विरुद्ध किया जानेवाला आचरण। २. धार्मिक क्षेत्र में, अपने धर्म पर सच्ची निष्ठा और भक्ति रखते हुए केवल लोगों को दिखलाने के लिए झूठ-मूठ बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला पाठ-पूजन तथा अन्य धार्मिक आचार-व्यवहार। ३. लौकिक क्षेत्र में, वे सभी में, वे सभी आचार-व्यवहार जो झूठ-मूठ अपने आपको धर्म-परायण, नीति-परायण और सत्यनिष्ठ सिद्ध करने के लिए किये जाते हैं। अपना छल-कपट, धूर्तता, स्वार्थ-परता आदि छिपाने के लिए किया जानेवाला आचार-व्यवहार। आडंबर। ढकोसला। ढोंग (हिपोक्रिसी) मुहा०—पाखंड फैलाना=दूसरों को ठगने और धोखे में रखने के लिए आडंबरपूर्ण थोथे उपाय रचना। दुष्ट उद्देश्य से ऐसा दिखावटी काम करना जो अच्छे इरादे से किया हुआ जान पड़े। ढकोसला खड़ा करना। जैसे—बाबाजी ने गाँव में खूब पाखंड फैला रखा था। ४. वह व्यय जो किसी को धोखा देने के लिए किया जाय। ५. दुष्टता। पाजीपन। शरारत। ६. नीचता। वि०=पाखंडी।
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पाखंडी (डिन्)  : वि० [सं० पाखंड+इनि] १. वेद-विरुद्ध आचार करनेवाला। २. वेदाचार का खंडन या निंदा करनेवाला। ३. बनावटी धार्मिकता, सदाचार आदि दिखलानेवाला। ४. दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए आडंबर या ढोंग रचनेवाला।
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पाख  : पुं० [सं० पक्ष] १. चांद्रमास का कोई पक्ष। २. महीने का आधा समय। पंद्रह दिन का समय। पखवाड़ा। ३. कच्चे मकानों की दीवारों के वे ऊँचे भाग जिन परबँड़ेर रहती है। ४. पंख। पर।
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पाखर  : स्त्री० [सं० पक्षर, प्रक्खर] १. युद्धकाल में, घोड़ों या हाथियों पर डाली जानेवाली एक तरह की लोहे की झूल। २. उक्त झूल के वे भाग जो दोनों ओर झूलते रहते हैं। ३. जीन। ४. ऐसा टाट या और कोई मोटा कपड़ा जिस पर मोम, राल आदि का लेप किया हुआ हो। (ऐसा कपड़ा जल्दी भीगता या सड़ता-गलता नहीं है।) पुं०=पाकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखरी  : स्त्री० [हिं० पाखर=झूल] टाट का बिछावन जिसे गाड़ी में बिछाते हैं तब उसमें अनाज भरतें हैं।
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पाखा  : पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. कोना। छोर। २. कुछ दीवारों में ऊपर की ओर की वह रचना जो बीच में सबसे ऊँची और दोनों ओर ढालुई होती है। (ऐसी रचना इसलिए होती है कि उसके ऊपर ढालई छत या छाजन डाली जा सके) ३. दरवाजों के दोनों ओर के वे स्थान जिनके साथ, दरवाजे के खुले होने की अवस्था में किवाड़ लगे या सटे रहते हैं। ४. पाख।
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पाखान  : पुं०=पाषाण (पाथर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखान भेद  : पुं०=पाषाण भेद।
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पाखाना  : पुं० [फा० पाखान
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पाग  : पुं० [सं० पाक] १. वह खाद्य पदार्थ जो चाशनी या शीरे में पकाकर तैयार किया गया हो। जैसे—कोंहड़ा-पाग, बादाम-पाग। २. वह शोरा जिसमें रसगुल्ला, गुलाबजामुन आदि मिठाइयाँ भीगी पड़ी रहती हैं। ३. पागी हुई कोई ओषधि या फूल। पाक।
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पागड़  : पुं०=पाइरा (रकाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागना  : सं० [सं० पाक] १. खाने की किसी चीज को चाशनी या शीरे में कुछ समय तक डुबाकर रखना। २. ऐसी किया करना जिससे किसी चीज पर शीरे का लेप चढ़े। अ०=पगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागर  : स्त्री० [देश०] वह लंबी रस्सी जिसका एक सिरा नाव के मस्तूल में बँधा रहता है और दूसरा सिर किनारे पर खड़ा आदमी, खींचते हुए किसी दिशा में नाव को ले जाता है।
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पागल  : वि० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्, पा√गल् (स्खलित होना)+अच्] [स्त्री० पगली] [भाव० पागलपन] १. जिसका मस्तिष्क उन्मादरोग के कारण इतना विकृत हो गया हो कि ठीक तरह से कोई काम या बात न कर सके। जिसके मस्तिष्क का संतुलन नष्ट हो चुका या बिगड़ गया हो। बावला। विक्षिप्त। २. जो कष्ट, कोध, प्रेम या ऐसे ही किसी तीव्र मनोविकार से अभिभूत होने के कारण सब प्रकार का ज्ञान या विवेक खो बैठा हो। जैसे—वह क्रोध (या प्रेम) में पागल हो रहा था। ३. जो किसी काम में इतना अनुरक्त, आसक्त या लीन हो रहा हो कि उसे और कामों या बातों की सुध-बुध न रह गई हो। जैसे—आज-कल तो वह चुनाव के फेर में पागल हो रहा है। ४. जो इतना ना-समझ या मूर्ख हो कि प्रायः पागलों या विक्षिप्तों का-सा आचरण या उन जैसी बातें करता हो। जैसे—यह लड़का भी निरा पागल है।
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पागलखाना  : पुं० [हिं० पागल+फा० खाना] वह स्थान जहाँ विक्षिप्त व्यक्तियों को रखकर उनकी चिकित्सा की जाती है तथा जहाँ पर उनके रहने का भी प्रबंध रहता है।
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पागलपन  : पुं० [हिं० पागल+पन (प्रत्य०)] १. पागल होने की अवस्था या भाव। २. वह आचरण कार्य या बात जो पागल लोग साधारणतया करते हों। जैसे—बच्चे को रह-रहकर मारने लगना उनका पागलपन है। ३. बेवकूफी।
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पागलिनी  : स्त्री०=पागल (स्त्री)।
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पागली  : स्त्री०=पगली।
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पागुर  : पुं० दे० ‘जुगाली’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाघ  : स्त्री०=पाग (पगड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाचक  : वि० [सं० √पच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाचिका] किसी प्रकार का पाचन करने (पकाने या पचाने) वाला। पाचन की किया करनेवाला। पुं० १. वह जो भोजन पकाता या बनाता हो। बावर्ची। रसोइया। २. वह दवा जो खाई हुई चीज पचाती या पाचन शक्ति बढ़ाती हो। ३. कुछ विशिष्ट प्रक्रियाओं से बनाया हुआ वह अवलेह या चूर्ण जो प्रायः क्षारीय ओषधियों से बनाया जाता है और जिसका स्वाद खट-मीठा, नमकीन या मीठा होता है। ४. वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर रहनेवाले पाँच प्रकार के पित्तों में से एक जिसकी सहायता से भोजन पचता है। ५. वह अग्नि जिसका उक्त पित्त में अधिष्ठान माना जाता है।
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पाचन  : पुं० [सं०√पच्+णिच,+ल्युट्—अन] १. आग पर चढ़ाकर खाने-पीने की सामग्री पकाना। भोजन बनाना। २. पेट में पहुँचने पर खाये हुए पदार्थों के पचने या हजम होने की क्रिया। खाद्य पदार्थों के पेट में पहुँचने पर शारीरिक धातुओं के रूप में होनेवाला परिवर्तन। ३. पेंट के अंदर की वह शक्ति जो एक प्रकार की अग्नि के रूप में मानी गई है और जिसकी सहायता से खाई हुई चीज पचती या हजम होती है। जठराग्नि। हाजमा। ४. कोई ऐसा अम्ल या खट्टा रस जो भोजन के पचने में सहायक होता हो अथवा जिससे पेट के अंदर का मल या अपक्व दोष दूर करता हो। ५. कोई पाचक औषध। ६. लाक्षणिक रूप में, किसी प्रकार के दोष या विकार का धीरे-धीरे कम होकर नष्ट या शमित होना। जैसे—पाप या रोग का पाचन। ७. आग या अग्नि जिसकी सहायता से खाने-पीने की चीजें पकाई जाती हैं। ९. लाल रेंड। विं० १. खाई हुई चीजें पचाने या हजम करनेवाला। हाजिम। २. किसी प्रकार के अजीर्ण या आधिक्य का नाश या शमन करनेवाला।
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पाचनक  : पुं० [सं०√पच्+णिच्+ल्यु—अन+कन्] सुहागा।
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पाचन-गण  : पुं० [ष० त०] पाचन ओषधियों का वर्ग।
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पाचन-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. खाये हुए पदार्थों को पचाने की शक्ति या समर्थता। २. हाजमा।
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पाचना  : स० १.=पकाना। २. पचाना।
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पाचनी  : स्त्री० [सं० पाचन+ङीष्] हड़।
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पाचनीय  : वि० [सं०√पच्+णिच्+अनीयर्] १. जो पकाया जा सके। २. जो पचाया जा सके।
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पाचयिता (तृ)  : वि० [सं०√पच्+णिच्+तृच] १. पाक करनेवाला। २. पचानेवाला।
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पाचर  : पुं०=पच्चर।
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पाचल  : वि० [सं०√पच्+णिच्+कलन्] १. पकानेवाला। २. पचानेवाला। पुं० १. रसोइया। २. आग्नि । ३. वायु। ४. पकाई जानेवाली वस्तु। ५. पचानेवाली वस्तु।
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पाचा  : पुं० [सं० पाक] १. भोजन पकने या पकाने की क्रिया। पाक। २. भोजन पचने या पचाने की क्रिया। पाचन।
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पाचा-पाड़  : पुं० [हिं० पाँच+पाड़=किनारा] जनानी धोतियों का वह प्रकार जिसमें लम्बाई के बल ऊपर और नीचे जैसे दो किनारे बने हुए होते हैं, वैसे ही तीन किनारे बीच मे भी बुने रहते हैं। स्त्री० वह जनानी धोती या साड़ी जिसमें उक्त प्रकार के पाँच (तीन) किनारे बुने हुए हों।
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पाचिका  : स्त्री० [सं० पाचक+टाप्, इत्व] रसोई बनानेवाली स्त्री।
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पाचो  : वि० [सं०√पच्+णिच्+इन्+ङीष्] पाचन करनेवाला। स्त्री० पच्ची या मर्कतपत्री नाम की लता।
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पाच्छा, पाच्छाह  : पुं०=बादशाह।
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पाच्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्, कुत्वाभाव] १. जो पच या पक सकता हो। २. पकाने या पचाने योग्य।
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पाछ  : स्त्री० [हिं० पाछना] १. पाछने अर्थात् जंतु या पौधे के शरीर पर धूरी की तीखी धार लगाकर उसका रक्त या रस निकालने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. उक्त कार्य के लिए लगाया हुआ क्षत या किया हुआ घाव । ३. पोस्ते के डोंडे पर छुरी से किया जानेवाला वह क्षत जिसमें से गोंद के रूप में अफीम बाहर निकलती है। पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] किसी चीज का पिछला भाग। पीछा। अव्य०=पीछे।
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पाछना  : स० [हिं० पंछा] किसी जीव या पौधे की त्वचा या खाल पर इस प्रकार हलका घाव करना जिससे उसका रक्त या रस थोड़ा थोड़ा करके बाहर निकलने लगे।
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पाछल, पाछुल  : वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पीछे।
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पाछा  : पुं० १. दे० ‘पाछ’। २. दे० ‘पीछा’।
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पाछिल  : विं०=पिछला।
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पाछी  : अव्य० [हिं० पाछ] पीछे की ओर। पीछे।
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पाछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाछें, पाछे  : अव्य०=पीछे।
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पाज  : पुं० [सं० पाजस्य] १. पार्श्व । पार्श्वभाग । २. पंजर। पुं० १. सेतु। पुल। २. आधार। ३. जड़। ४. ढेर। राशि। ५. वज्र।
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पाजरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की वनस्पति जिसकी पत्तियों से एक प्रकार का रस निकाला जाता है।
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पाजस्य  : पुं० [सं०√पा+असुन्, जुट्+यत्] पार्श्व। बगल।
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पाजा  : पुं०=पायजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाजामा  : पुं० [फा० पाजामः या पाएजामः] एक तरह का सिला हुआ वस्त्र जो कमर से ऐडी तक का भाग ढकने के लिए पहना जाता है और जो ऊपरी भाग के नेफे में नाला डालकर कमर में बाँधा जाता है।
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पाजी  : पुं० [सं० पत्ति, प्रा० पडित से फा०] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। २. पैदल सेना का सिपाही। प्यादा। ३. चौकीदार। पहरेवादार। ४. साथ चलने या रहनेवाला व्यक्ति। साथी। ५. तुच्छ सेवाएँ करनेवाला नौकर। खिदमतगार। टहलुआ। वि० [फा०] [भाव० पाजीपन] जो प्रायः अपने दुष्ट आचरण या व्यवहार से सबको तंग या परेशान करता रहता हो। दुष्ट। लुच्चा।
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पाजीपन  : पुं० [हिं० पाजी+पन (प्रत्य०)] पाजी या दुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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पाजेब  : स्त्री० [फा० पाज़ेब] पैरों में पहनने का स्त्रियों का एक प्रसिद्ध आभूषण। मंजीर। नूपुर।
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पांटबर  : पुं० [सं० पट्ट+अम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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पाट  : पुं० [सं० पट्ट, पाट] १. रेशम। २. रेशम का बटा हुआ महीन डोरा। नख। ३. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा। ४. पटसन। ५. कपड़ा। वस्त्र। पद—पाट पटंबर=अच्छे अच्छे और कई तरह के कपड़े। ६. बैठने का पाटा या पीढ़ा। ७. राज-सिंहासन। ८. चौड़ाई के बल का विस्तार। जैसे—नदी का पाट। ९. किसी प्रकार का तख्ता, पटिया या शिला। १॰. पत्थर की वह पटिया जिस पर धोबी कपड़े धोते हैं। ११. चक्की के दोनों पल्लों में से हर एक। १२. लकड़ी के वे तख्ते जो छत पाटने के काम आते है। १३. वह चिपटा शहतीर जिस पर कोल्हू हाँकनेवाला बैठता है। १४. वह शहतीर जो कूएँ के मुँह पर पानी निकालनेवाले के खड़े होने के लिए रखा जाता है। १५. बैलों का एक रोग जिसमें उनके रोमकूपों में से रक्त निकलता है। क्रि० प्र०—फूटना। १६. मृदंग के चार वर्णों में से एक।
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पाटक  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ण्वुल—अक] १. एक तरह का बाजा। २. गाँव या बस्ती का आधा भाग। ३. तट। किनारा । ४. पासा। ५. एक तरह की बड़ी कलछी।
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पाट-करण  : पुं० [सं० ब० स०] शुद्ध जाति के रोगों का एक भेद।
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पाचच्चर  : वि० [सं० पटच्चर+अण्] चुरानेवाला।
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पाटदार  : वि०=पल्लेदार (आवाज)।
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पाटन  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ल्युट्—अन] चीरने-फाड़ने अथवा तोड़ने-फोड़ने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। पटाव। २. वह छत दीवारों को पाटकर बनाई गई हो। ३. घर के ऊपर का दूसरा खंड या मंजिल। ४. साँप का जहर झाड़ने का एक प्रकार का मंत्र। पुं० [सं० पत्तन] नगर या बस्ती के नाम के अंत में लगनेवाली ‘पत्तन’ सूचक संज्ञा। जैसे—झालरापाटन। स्त्री० [अं० पैटर्न] पुस्तक की जिल्द के रूप में बँधी हुई वे दफ्तियाँ जिन पर ग्राहकों या व्यापारियों को दिखाने के लिए कपड़ों आदि के नमूने के टुकड़े चिपकाये रहते हैं।
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पाटना  : स० [सं० पाट] १. खाई, गड्ढे आदि में इतना भराव भरना जिससे वह आस-पास की जमीन के बराबर और समतल हो जाय। २. कमरे के संबंध मे उसकी चारों ओर की दीवारों के ऊपरी भाग के खुले अवकाश को बंद करने के लिए उस पर छत या पाटन बनाना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी स्थान पर किसी चीज की बहुतायत या भरमार करना। जैसे—माल से बाजार पाटना। ४. लाक्षणिक रूप में, (क) ऋण आदि चुकाना, (ख) पारस्पिक दूरी, मत-भेद, विरोध आदि का अंत या समाप्ति करना। ५. दे० ‘पटाना’।
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पाटनि  : स्त्री० [सं० पट्ट] १. सिर के बालों की पट्टी। २. दे० ‘पाटना’।
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पाटनीय  : वि० [सं०√पट्+णिच्+अनीयर्] चीरे-फाड़े या तोड़े-फोड़े जाने के योग्य।
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पाटप  : वि० [हिं० पाट] सबसे बड़ा। उत्तम। श्रेष्ठ। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाट-महिषी  : स्त्री० [सं० पट्ट =सिहासन्,+ महिषी= रानी] किसी राजा की वह विवाहिता और बड़ी रानी जो उसके साथ सिंहासन पर बैठती अथवा उस पर बैठने की अधिकारिणी हो। पटरानी।
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पाटरानी  : स्त्री०=पटरानी।
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पाटल  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+कलप] १. पाडर या पाढर नामक पेड़, जिसके पत्ते आकार-प्रकार में बेल वृक्ष के पत्तों के समान होते हैं। २. गुलाब। वि० १. गुलाब-संबंधी। २. गुलाब के रंग का। उदा०—कर लै प्यौ पाटल बिमल प्यारी।—बिहारी।
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पाटलक  : वि० [सं० पाटल+कन्] पाटल के रंग का। गुलाबी रंग का। पुं० गुलाबी रंग।
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पाटलकीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कीड़ा।
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पाटल-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] पुन्नाग वृक्ष। राज-चंपक।
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पाटला  : स्त्री० [सं० पावल+टाप्] १. पाडर का वृक्ष। २. लाललोध। ३. जलकुंभी। ४. दुर्गा का एक रूप। पुं० [सं० पटल] एक प्रकार का बढ़िया और साफ सोना।
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पाटलवती  : स्त्री० [सं० पाटला+मतुप्, वत्व,+ङीष्] १. दुर्गा। २. एक प्राचीन नदी।
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पाटलि  : स्त्री० [सं०√पट्+णिच्+अलि] १. पाडर का वृक्ष। २. पांडुफली।
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पाटलिक  : वि० [सं० पाटलि+कन्] १. जो दूसरों के भेद या रहस्य जानता हो। २. जिसे देश और काल का ज्ञान हो। पुं० १. चेला। शिष्य। २. पाटलिपुत्र नगर।
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पाटलित  : भू० कृ० [सं० पाटल+णिच्+क्त] गुलाबी रंग में रँगा हुआ।
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पाटलि-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त० ?] अज्ञातशत्रु द्वारा बसाई हुई प्राचीन मगध की एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी जो आधुनिक पटना नगर के पास थी। पुष्पपुर। कुसुमपुर। विशेष—कुल लोग वर्तमान पटने को ही पाटिलपुत्र समझते हैं परंतु पटना शेरशाह सूरी का बसाया हुआ है।
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पाटलिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पाटल+इमनिच्] १. गुलाबी रंग। २. गुलाबी रंगत। ३. गुलाबी होने की अवस्था या भाव। गुलाबीपन।
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पाटली  : स्त्री० [सं० पाटलि+ङीष्]=पाटलि।
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पाटली-तैल  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का औषध तैल जिसके लगाने से जले हुए स्थान की जलन, पीड़ा और चेप बहना दूर होता है।
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पाटलीपुत्र  : पुं०=पाटलिपुत्र।
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पाटव  : पुं० [सं० पटु+अण्] १. पटुता। २. दृढ़ता। मजबूती। ३. जल्दी। शीघ्रता। ४. आरोग्य। ५. शक्ति।
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पाटविक  : वि० [सं० पाटव+ठन्—इक] १. पटु। कुशल। २. चालाक। धूर्त।
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पाटवी  : वि० [हिं० पाट+वी (प्रत्य०)] १. रेशम का बना हुआ। रेशमी। २. पटरानी संबंधी। पटरानी का। ३. पटरानी से उत्पन्न। ४. सर्वश्रेष्ठ। पुं० पटरानी का पुत्र।
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पाटसन  : पुं०=पटसन।
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पाटहिक  : पुं० [सं० पटह+ठञ्—इक] नगाड़ा बजानेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाटहिका  : स्त्री० [सं० पटह+अण्, पाटह+ठञ्—इक+टाप्] गुंजा। घुँघची।
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पाटा  : पुं० [हिं० पाट] [स्त्री० अल्पा० पाटी] १. बैठने का काठ का पीढ़ा। मुहा०—पाटा फेरना=विवाह में कन्यादान के उपरांत वर के पीढ़े पर कन्या और कन्या के पीढ़े पर वर को बैठाना। २. राज-सिंहासन। ३. लंबी धरन की तरह की वह आयताकार लकड़ी जिसकी सहायता से जोते हुए खेत की मिट्टी के ढेले तोड़कर उसे समतल करते हैं। ४. उक्त प्रकार का लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा राज लोग दीवारों का पलस्तर बराबर या समतल करते हैं। क्रि० प्र०—चलाना।—फेरना। ५. दो दीवारों के बीच में तख्ता, पटिया आदि लगाकर बनाया हुआ आधार स्थान।
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पाटि  : स्त्री० १.=पाट। २.=पाटी।
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पाटिका  : स्त्री० [सं० पाटक+टाप्, इत्व] १. एक दिन की मजदूरी। २. एक पौधा। ३. छाल। छिलका।
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पाटित  : भू० कृ० [सं०√पट्+णिच्+क्त] जो चीरा-फाड़ा अथवा तोड़ा-पोड़ा गया हो।
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पाटी  : भू० कृ० [सं०√पट्+इन्+ङीष्] १. परिपाटी। अनुक्रम। रीति। २. गणित-शास्त्र। हिसाब। ३. श्रेणी। पंक्ति। ४. बला नामक क्षुप। खरैंटी। स्त्री० [हिं० पाटा का स्त्री० रूप] १. लकड़ी की वह तख्ती या पट्टी जिस पर विद्यारंभ करनेवाले बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखाया जाता है। २. बच्चों को पढ़ाया जानेवाला पाठ। सबक। मुहा०—पाटी पढ़ना=(क) पाठ पढ़ना। सबक लेना। (ख) किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करना; विशेषतः ऐसी शिक्षा प्राप्त करना जो दुष्ट उद्देश्य से दी गई हो और जिसमें शिक्षा प्राप्त करनेवाले ने अपनी बुद्धि या विवेक का उपयोग न किया हो। ३. माँग के दोनों ओर गोंद, जल, तेल, आदि की सहायता से कंघी द्वारा बैठाये हुए बाल जो देखने में पटरी की तरह बराबर मालूम हों। पट्टी। पटिया। मुहा०—पाटी पारना या बैठाना=कंघी फेरकर सिर के बालों को समतल करके बैठना। उदा०—पाटी पारि अपने हाथ बेनी गुथि बनावे।—भारतेंदु। ४. खाट, पलंग आदि के चौखट की लंबाई के बल की लकड़ी। ५. चौड़ाई। ६. चट्टान। शिला। ७. मछली पकड़ने के लिए एक विशिष्ट प्रकार की क्रिया जिसमें बहते हुए पानी को मिट्टी के बाँध या वृक्षों की टहनियों आदि से रोक कर एक पतले मार्ग से निकलने के लिए बाध्य करते हैं, और उसी मार्ग पर उन्हें पकड़ते हैं। ८. खपरैल की नरिया का प्रत्येक आधा भाग। ९. जंती।
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पाटीगणित  : पुं० [सं०] गणित की वह शाखा जिसमें ज्ञात अंकों या संख्याओं की सहायता से अज्ञात अंक या संख्याएँ जानी जाती हैं। (एरिथिमेटिक)
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पाटीर  : पुं० [सं० पटीर+अण्] १. चंदन का वृक्ष और उसकी लकड़ी। २. खेत जोतन का हल। ३. खेत।
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पाटूनी  : पुं० [देश०] वह मल्लाह जो किसी घाट का ठीकेदार भी हो घटवार।
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पाट्य  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+यत्] पटसन।
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पाठ  : पुं० [सं०√पठ् (पढ़ना)+घङ्] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़ाई। २. वह विषय जो पढ़ा जाये। ३. किसी ग्रंथ का उतना अंश जितना एक दिन या एक बार में गुरु या शिक्षक से पढ़ा जाय। सबक। (लेसन) मुहा०—(किसी को) पाठ पढ़ाना=दुष्ट उद्देश्य से किसी को कोई बात अच्छी तरह समझना। पट्टी पढ़ाना। (व्यंग्य)। पाठ फेरना=बार-बार दोहराना। उद्धरणी करना। उलटा पाठ पढ़ाना=कुछ का कुछ समझा देना। उलटी-पुलटी बातें कहकर बहका देना। ४. नियमपूर्वक अथवा श्रद्धा-भक्ति से और पुण्य-फल प्राप्त करने के उद्देश्य से कोई धर्मग्रंथ पढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे—गीता या रामायण का पाठ। ५. किसी पुस्तक के वे अध्याय जो प्रायः एक दिन में या एक साथ पढ़ाये जाते हैं; और जिनमें एक ही विषय रहता है। ६. किसी ग्रंथ या लेख के किसी स्थल पर शब्दों या वाक्यों का विशिष्ट क्रम वा योजना। (टैक्स्ट) जैसे—अमुक पुस्तक में इस पद का पाठ कुछ और ही है। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाठक  : वि० [सं०√पठ्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाठिका] १. पाठ पढ़नेवाला। २. पाठ करनेवाला। ३. पाठ पढ़ानेवाला। पुं० १. विद्यार्थी। २. अध्यापक। ३. धर्मोपदेशक। ४. ब्राह्मणों की एक जाति। ५. आज-कल समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं आदि की दृष्टि में वे लोग जो समाचार-पत्र आदि पढ़ते हों।
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पाठच्छेद  : पुं० [ष० त०] एक पाठ की समाप्ति होने पर और अगले पाठ के आरंभ किये जाने से पहले होनेवाला विराम।
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पाठ-दोष  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के शब्दों के वर्णों तथा वाक्यों के शब्दों की अशुद्ध या भ्रामक योजना।
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पाठन  : पुं० [सं०√पठ्+णिच्+ल्युट्—अन] १. पाठ पढ़ाना। २. पढ़कर सुनाना। ३. वक्तृता देना।
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पाठना  : स० [सं० पाठन] पढ़ाना।
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पाठ-निश्चय  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के पाठ के अनेक रूप मिलने पर विशिष्ट आधारों पर उसके शुद्ध पाठ का किया जानेवाला निश्चय।
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पाठ-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-प्रणाली  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-भू  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ वेदादि ग्रंथों का पाठ होता या किया जाता हो। २. ब्राह्मण्य।
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पाठ-भेद  : पुं० [ष० त०] वह भेद या अंतर जो एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों के पाठ में कही-कहीं मिलता हो। पाठांतर।
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पाठ-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] मैना। सारिका।
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पाठ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ विद्यार्थियों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है।
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पाठशालिनी  : स्त्री० [सं० पाठ√शल् (गति)+णिनि+ङीप्] मैना। सारिका।
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पाठशाली (लिन्)  : वि० [सं० पाठशाला+इनि] पाठ पढ़नेवाला। पुं० विद्यार्थी।
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पाठशालीय  : वि० [सं० पाठशाला+छ—ईय] पाठशाला-संबंधी। पाठशाला का।
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पाठांतर  : पुं० [सं० पाठ-अंतर, मयू० स०] किसी एक ही पुस्तक की विचित्र हस्तलिखित प्रतियों में अथवा विभिन्न संपादकों द्वारा संपादित प्रतियों में होनेवाला शब्दों अथवा उनके वर्णों के क्रम में होनेवाला भेद।
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पाठा  : स्त्री० [सं०√पठ्+घञ्+टाप्] पाढ़ा नाम की लता। वि० [सं० पुष्ट] [स्त्री० पाठी] १. हृष्ट-पुष्ट। २. पट्ठा। जवान। पुं० जवान बकरा, बैल या भैंसा। २. गाय-बैलों की एक जाति। (बुंदेलखंड)
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पाठागार  : पुं० सं० [पाठ-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर किसी विषय का अध्ययन, या ग्रंथों का पाठ किया जाता हो। (स्टडी रूम)
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पाठालय  : पुं० [पाठ-आलय, ष० त०] पाठशाला।
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पाठालोचन  : पुं० [सं० पाठ-आलोचन, ष० त०] आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में कैसा और क्या रहा होगा। किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का ऐसा निर्धारण जो पूरा छान-बीन करके किया जाय। (टेक्सचुअल क्रिटिसिज़म) विशेष—इस प्रकार का पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक की देख-रेख में न हुआ हो।
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पाठिक  : वि० [सं० पाठ+ठन्—इक] जो मूल पाठ के अनुसार हो।
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पाठिका  : वि० [सं० पाठक+टाप्, इत्व] पाठक का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० पाठा। पाढ़ा।
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पाठित  : भू० कृ० [सं०√पठ्+णिच्+क्त] (पाठ) जो पढ़ाया जा चुका हो।
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पाठी (ठिन्)  : वि० [सं० पाठ+इनि] समस्त पदों के अंत में, पाठ करनेवाला या पाठक। जैसे—वेद-पाठी, सह-पाठी। पुं० [पाठा+इनि] चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष।
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पाटीकुट  : पुं० [सं० पाठा√कुट् (टेढ़ा होना)+क, पृषो० सिद्धि] चीते का पेड़।
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पाठीन  : वि० [सं० पाठि√नम् (झुकना)+ड, दीर्घ] पढ़ानेवाला। पुं० १. पहिना (मछली)। २. गूगल का पेड़।
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पाठ्य  : वि० [सं०√पठ्+ण्यत् या√पठ्+णिच्+यत्] १. जो पढ़ा या पढ़ाया जाने को हो। २. पढ़ने या पढ़ाये जाने के योग्य।
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पाठ्य-क्रम  : पुं० [ष० त०] वे सब विषय तथा उनकी पुस्तकें जो किसी विशिष्ट परीक्षा में बैठनेवाले परीक्षार्थियों के लिए निर्धारित हों। (कोर्स)
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पाठ्य-ग्रंथ  : पुं० [सं०] पाठ्य-पुस्तक। (दे०)
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पाठ्य-चर्या  : स्त्री० [सं०] वह पुस्तिका जिसमें विभिन्न परीक्षाओं के लिए निर्धारित विषयों तथा तत्संबंधी पाठ्य-क्रमों का उल्लेख होता है। (करिक्यूलम)
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पाठ्य-पुस्तक  : स्त्री० [कर्म० स०] वह पुस्तक जो पाठशालाओं में विद्यार्थियों को नियमित रूप से पढ़ाई जाती हो। पढ़ाई की पुस्तक। (टेक्स्ट बुक)
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पाड़  : पुं० [हिं० पाठ] १. धोती, साड़ी का किनारा। २. मंचान। ३. लकड़ी की वह जाली या ठठरी जो कूएँ के मुँह पर रखी रहती है। कटकर। चह। ४. पानी आदि रोकने का पुश्ता या बाँध। ५. वह तख्ता जिस पर अपराधी को फाँसी देने के समय खड़ा करते हैं। टिकठी। ६. इमारत बनाने के लिए खड़ा किया जानेवाला बांसों का ढाँचा। पाइट। उदा०—बोसे की गर हविस हो तो गिर्द उसके पाड़ बाँध।—कोई शायर। ७. दो दीवारों के बीट पटिया देकर या पाटकर बनाया हुआ आधार। पाटा। दासा।
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पाडल  : पुं०=पाटल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाडलीपुर  : पुं०=पाटलीपुत्र।
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पाड़प्तालो  : पुं० [देश०] १. दक्षिण भारत के जुलाहों की जाति। २. उक्त जाति का जुलाहा।
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पाड़ा  : पुं० [सं० पट्टन] १. किसी बस्ती में कुछ घरों का अलग विभाग या समूह। डोला। मुहल्ला। जैसे—धोबी पाड़ा, मोची पाड़ा। २. खेत की सीमा या हद। पुं० [हिं० पाठा] [स्त्री० पड़िया, पाड़ी] भैंस का बच्चा। पँड़वा। पुं० [देश०] एक तरह की बड़ी समुद्री मछली।
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पाडिनी  : स्त्री० [सं०√पड् (इकट्ठा होना)+णिनि+ङीष्] हाँड़ी। हँड़िया।
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पाढ़  : पुं० [सं० पाट, हिं० पाटा] १. पीढ़ा। २. पाटा। ३. गहनों पर नक्काशी करने का सुनारों का एक उपकरण। ४. लकड़ी की एक प्रकार की सीढ़ी। ५. मचान। पुं०=पाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़त  : स्त्री० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़त। २. वह जो पढ़ा जाय। वह जिसका पाठ किया जाय। ३. मंत्र जो पढ़कर फूँका जाता है। ४. कोई पवित्र पद या वाक्य जिसका जप किया जाता हो। उदा०—स्वाय जात जब आवत, पाढ़त जाय।—नूर मुहम्मद।
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पाढ़र  : पुं० [सं० पाटल] १. पाडर का पेड़। २. एक प्रकार का टोना।
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पाढ़ल  : पुं०=पाटल।
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पाढ़ा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बारहसिंघा जिसकी खाल भूले या हलके बादामी रंग की होती है और जिस पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। चित्रमृग। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़ित  : वि० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ा हुआ। २. जिसे पढ़ा जाय।
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पाढी  : स्त्री० [देश०] १. सूत की लच्छी। २. यात्रियों को नदी के पार पहुँचानेवाली नाव।
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पाण  : पुं० [सं०√पण् (व्यवहार)+घञ्] १. व्यापार। व्यवसाय। २. व्यापारी। ३. दाँव। बाजी। ४. संधि। समझौता। ५. हाथ। ६. प्रशंसा।
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पाणही  : स्त्री०=पनही (जूता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाणि  : पुं० [सं०√पण्+इण] हाथ। कर।
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पाणिक  : वि० [सं० पण+ठक्—इक] १. व्यापार या व्यापारी-संबंधी। २. दाँव या बाजी लगाकर जीता हुआ। पुं० १. व्यापारी। २. सौदा। ३. हाथ। ४. कार्तिकेय का एक गण।
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पाणि-कच्छपिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कूर्ममुद्रा।
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पाणि-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. वह जो हाथ से कोई बाजा बजाता हो; या ऐसा ही और कोई काम करता हो। ३. हाथ का कारीगर। दस्तकार।
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पाणिकर्ण  : पुं०=पाणिकर्मा (शिव)।
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पाणिका  : स्त्री० [सं० पाणि+कन्+टाप्] एक प्रकार का गीत।
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पाणि-गृहीता  : वि० [ब० स०, टाप्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण किया गया हो। विवाहिता (पत्नी)।
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पाणि-गृहीती  : वि० [ब० स०, ङीष्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण संस्कार हो चुका हो। विवाहिता।
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पाणि-ग्रह  : पुं० [सं०√ग्रह् (पकड़ना)+अप्, ष० त०] पाणिग्रहण। (दे०)
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पाणि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] १. किसी स्त्री० को पत्नी रूप में रखने और उसका निर्वाह करने के लिए उसका हाथ पकड़ना। २. हिंदुओं में विवाह की एक रसम जिसमें वर उक्त उद्देश्य से अपनी भावी पत्नी का हाथ पकड़ता है।
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पाणिग्रहणिक  : वि० [सं० पाणिग्रहण+ठक्—इक] पाणिग्रहण या विवाह-संबंधी। विवाह के समय का। जैसे—पाणिग्रहणिक उपहार, पाणिग्रहणिक मंत्र।
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पाणिग्रहणीय  : वि० [सं० पाणिग्रहण+छ—ईय]= पाणिग्रहणिक।
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पाणिग्राह, पाणि-ग्राहक  : वि० [सं० पाणि√ग्रह्+अण्] [ष० त०] किसी का हाथ पकड़नेवाला। पाणिग्रहण करनेवाला। पुं० वर जो विवाह के समय कन्या का हाथ पकड़ता है।
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पाणि-ग्राह्य  : वि० [तृ० त०] १. जो मुट्ठी में आ सके या प्राप्त किया जा सके। २. जिसका पाणिग्रहण किया जा सके। जिसके साथ विवाह किया जा सके।
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पाणिघ  : पुं० [सं० पाणि√हन् (हिंसा)+ट] १. हाथ से बजाये जानेवाले बाजे। जैसे—ढोल, मृदंग आदि। २. हाथ का कारीगर। दस्तकार। शिल्पी। ३. हाथ से बाजा बजानेवाला।
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पाणि-घात  : पुं० [तृ० त०] १. हाथ से किया जानेवाला आघात। २. थप्पड़।
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पाणिघ्न  : पुं० [संपाणि√हन्+टक्] १. हाथ से आघात करनेवाला। २. ताली बजानेवाला। ३. शिल्पी।
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पाणिज  : वि० [सं० पाणि√जन्+ड] जो हाथ से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. उँगली। २. नाखून। ३. नखी।
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पाणि-तल  : पुं० [ष० त०] १. हाथ की हथेली। २. वैद्यक में लगभग दो तोले की एक तौल या परिमाण।
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पाणिताल  : पुं० [मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पाणि-धर्म  : पुं० [मध्य० स०] विवाह संस्कार।
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पाणिन  : पुं० [पणिन+अण्]=पाणिनि।
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पाणिनि  : पुं० [सं० पणिन्+अण्+इञ्] संस्कृत भाषा के व्याकरण को चार हजार सूत्रों में बाँधनेवाले एक प्रसिद्ध प्राचीन मुनि। (ई० पू० चौथी शताब्दी)
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पाणिनीय  : वि० [सं० पाणिनि+छ—ईय] १. पाणिनि-संबंधी। पाणिनि का। जैसे—पाणिनीय व्याकरण या सूत्र। २. पाणिनि का अनुयायी या भक्त। ३. पाणिनि का व्याकरण पढ़नेवाला।
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पाणि-पल्लव  : पुं० [ष० त०] हाथ की उँगलियाँ।
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पाणि-पात्र  : ब० [ब० स०] १. हाथ में लेकर अर्थात् अंजलि से पानी पीनेवाला। २. जो अंजलि से पात्र या बरतन का काम लेता हो।
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पाणि-पीड़न  : पुं० [ब० स०] १. पाणिग्रहण। विवाह। २. [ष० त०] पश्चात्ताप आदि के कारण हाथ मलना। पछताना।
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पाणि-पुट (क)  : पुं० [मध्य० स०] चुल्लू।
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पाणि-प्रणयिनी  : स्त्री० [ष० त०] विवाहिता स्त्री। धर्मपत्नी।
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पाणिबंध  : पुं० [ब० स०] पाणिग्रहण। विवाह।
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पाणिमुक् (ज्)  : पुं० [सं० पाणि√भुज् (खाना)+क्विप्] [पाणि√भुज्+क] गूलर वृक्ष।
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पाणिमर्द्द  : पुं० [सं० पाणि√मृद् (मलना)+अण्] करमर्द्द। करौंदा।
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पाणिमुक्त  : वि० [तृ० त०] हाथ से फेंककर चलाया जानेवाला (अस्त्र)। पुं० भाला।
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पाणि-मुख  : वि० [ब० स०] हाथ से खानेवाला। पुं० बहु० मृतपूर्वज। पितर।
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पाणि-मूल  : पुं० [ष० त०] कलाई।
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पाणिरुह  : पुं० [सं० पाणि√रुह (उगना, निकलना)+क] १. उँगली। २. नाखून।
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पाणि-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] हथेली की रेखा। हस्त-रेखा।
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पाणिवाद  : वि० [सं० पाणि√वद् (बोलना)+णिच्+अच्] १. मृदंग, ढोल आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला। पुं० १. ढोल, मृदंग आदि बाजे। २. ताली बजाने की क्रिया। ताली पीटना।
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पाणि-वादक  : वि० [सं० पाणि√वद्+णिच्+ण्वुल—अक] १. हाथ से मृदंग आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला।
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पाणि-हता  : स्त्री० [तृ० त०] ललित विस्तार के अनुसार एक छोटा तालाब जो देवताओं ने बुद्ध भगवान के लिए तैयार किया था।
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पाणी  : पुं०=पाणि (हाथ)।
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पाणौकरण  : पुं० [सं० अलुक् स०] विवाह। पाणिग्रहण।
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पाण्य  : वि० [सं०√पण् (स्तुति)+ण्यत्] प्रशंसा और स्तुति के योग्य।
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पाण्याश  : वि० [सं० पाणि√अश् (खाना)+अण्] हाथ से खानेवाला। पुं० मृत पूर्वज या पितर जो अपने वंशजों के हाथ का दिया हुआ अन्न ही खाते हैं।
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पातंग  : वि० [सं० पतंग+अण्] १. फतिंगे या फतिंगों से संबंध रखनेवाला। २. फतिंगों के रंग का। भूरा।
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पातंगि  : पुं० [सं० पतंग+इञ्] १. शनिग्रह। २. यम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव।
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पातंजल  : वि० [सं० पतंजलि+अण्] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत। पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. वह जो उक्त योग-सूत्र के अनुसार योगसाधन करता हो। ३. पतंजलिकृत महाभाष्य।
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पातंजल-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] योगदर्शन।
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पातंजल-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ।
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पातंजल-सूत्र  : पुं० [कर्म० स०] योगसूत्र।
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पातंजलीय  : वि० [सं० पातंजल] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत।
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पात  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+घञ्] १. अपने स्थान से हटकर, टूटकर या और किसी प्रकार गिरने या नीचे आने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—उल्का-पात। [√पत्+णिच्+घञ्] २. गिराने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—रक्तपात। ३. अपने उचित या पूर्व स्थान से नीचे आने की क्रिया या भाव। जैसे—अधःपात। ४. ध्वस्त, नष्ट या समाप्त होकर गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—शरीर-पात। ५. किसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें वह सारी शक्ति प्रायः नष्ट हो जाने के कारण सहसा गिर, ढह या विनष्ट हो जाती है। सहसा किसी चीज का गिरकर बेकाम हो जाना। (कोलैप्स) ६. किसी प्रकार जाकर कहीं गिरने, पड़ने या लगने की क्रिया या भाव। जैसे—दृष्टिपात। ७. आघात। चोट। उदा०—चलै फटि पात गदा सिर चीर, मनों तरबूज हनेकर कीर।—कविराजा सूर्यमल। ८. गणित ज्योतिष में, वह विंदु या स्थान जिस पर किसी ग्रह या नक्षत्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को काटती है। ९. वह विंदु या स्थान जहाँ एक वृत्त दूसरे वृत्त को काटता हो। १॰. ज्यामिति में वह विंदु जहाँ कोई वक्र रेखा मुड़कर अपने किसी अंश को काटती हो। (नोड) ११. ज्योतिष में, (क) वह विंदु जहाँ कोई ग्रह सूर्य की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है; अथवा कोई उपग्रह अपने ग्रह की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। (नोड) विशेष—साधारणतः ग्रहों की कक्षाएँ जहाँ क्रांतिवृत्त को काटती हुई ऊपर चढ़ती या नीचे उतरती हैं, उन्हें पात कहते हैं। ये स्थान क्रमात् आरोह-पात और अवरोह-पात कहलाते हैं। चंद्रमा के कक्ष में जो आरोह-पात और अवरोहपात पड़ते हैं वे क्रमात् राहु और केतु कहलाते हैं। इसी आधार पर पुराणों और परवर्ती भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु दो स्वतंत्र ग्रह माने गये हैं। पुं० [√पत्+णिच्+अच्] राहु। पुं० [सं० पत्र] १. वृक्ष का पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों का लगना=पतझड़ होना या उसका समय आना। २. वृक्ष के पत्ते के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पत्ता। ३. चाशनी। शीरा। पुं० [सं० पात्र] कवि। (डिं०)
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पातक  : वि० [सं०√पत्+णिच्+ण्वुल—अक] पात करने अर्थात् गिरानेवाला। पुं० ऐसा बड़ा पाप जो उसके कर्ता को नरक में गिरानेवाला हो। ऐसा पाप जिसका फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता हो। विशेष—हमारे यहाँ के धर्मशास्त्रों में अति-पातक, उप-पातक, महा-पातक आदि अनेक भेद किये गये हैं। साधारण पातकों के लिए उनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
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पातकी (किन्)  : वि० [सं० पातक+इनि] पातक माने जानेवाले कर्मों के फल भोद के लिए नरक में जानेवाला; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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पातघाबरा  : वि० [हिं० पात+घबराना] १. पत्तों की आहट तक से भयभीत और विकल होनेवाला। २. बहुत जल्दी घबरा जानेवाला। ३. बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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पातन  : पुं० [सं०√पत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. गिराने या नीचे ढकेलने की क्रिया या भाव। २. फेंकने की क्रिया या भाव। ३. वैद्यक में, पारा शोबने के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार।
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पातनीय  : वि० [सं०√पत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका पात हो सके या किया जाने को हो। २. जो गिराया जा सके या गिराया जाने को हो।
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पातबंदी  : स्त्री० [सं० पात या हिं० पाँति ?+बंदी] वह विवरण जिसमें किसी की संपत्ति और देय तथा प्राप्य धन का उल्लेख हो।
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पातयिता (तृ)  : वि० [सं०√पत्+णिच्+तृच्] १. गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला।
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पातर  : वि० [सं० पात्रट, हिंदी पतला का पुराना रूप] १. जिसका दल मोटा न हो। पतला। २. क्षीणकाय। ३. बहुत ही संकीर्ण और तुच्छ स्वभाववाला। ४. नीच कुल का। अप्रतिष्ठित। उदा०—मयला अकलै मूल पातर खाँड खाँड करै भूखा।—सूर। स्त्री०=पत्तल। स्त्री० [सं० पातिली=एक विशेष जाति की स्त्री] १. वेश्या। २. तितली।
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पातरा  : वि० [स्त्री० पातरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातराज  : पुं० [देश०] एक तरह का साँप।
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पातरि (री)  : स्त्री०=पातर (वेश्या)।
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पातल  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पातर (वेश्या)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातला  : वि० [स्त्री० पातली]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातव्य  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+तव्यत्] १. जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। २. पीये जाने योग्य।
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पातशाह  : पुं० [फा० बादशाह] [भाव० पातशाही] बादशाह। महाराज।
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पाता (तृ)  : वि० [सं०√पा+तृच्] १. रक्षा करनेवाला। २. पीनेवाला। पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताखत  : पुं० [सं० पत्र+अक्षत] १. पत्र और अक्षत। २. देव पूजने की साधारण या स्वल्प सामग्री। ३. तुच्छ भेंट।
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पाताबा  : पुं० [फा० पाताबः] १. मोजे या जुराब के ऊपर पहना जानेवाला एक प्रकार का जूते का खोल। २. बूट, सैंडल आदि कुछ विशिष्ट जूतों के तलों के ऊपरी भाग में उसी नाप या आकार-प्रकार का लगाया जानेवाला चमड़े का टुकड़ा। ३. जुराब। मोजा।
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पातार  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताल  : पुं० [सं०√पत्+आलञ्] १. पृथ्वी के नीचे के कल्पित सात लोकों में से एक जो सबसे नीचे है और जिसमें नाग लोग वास करते हुए माने गये हैं। नागलोक। अन्य ६ लोक ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल और महातल। २. पृथ्वी के नीचे के सातों लोकों में से प्रत्येक लोक। ३. बहुत अधिक गहरा और नीचा स्थान। ४. गुफा। ५. बिल। विवर। ६. बड़वानल। ७. जन्म-कुंडली में जन्म के लग्न से चौथा स्थान। ८. पाताल यंत्र। (दे०)
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पाताल-केतु  : पुं० [ब० स०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
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पाताल-खंड  : पुं० [ष० त०] पाताल (लोक)।
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पाताल-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पाताल लोक की एक नदी का नाम। २. भूगर्भ के अंदर बहनेवाली कोई नदी।
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पाताल-गारुड़ी  : स्त्री० [ष० त०] छिरिहटा नामक लता।
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पाताल-तुंबी  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की लता। पातालतौंबी।
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पाताल-तोंबी  : स्त्री०=पाताल-तुंबी।
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पाताल-निलय  : वि० [ब० स०] जिसका घर पाताल में हो। पाताल में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप। ३. दैत्य। राक्षस।
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पाताल-निवास  : पुं०=पाताल-निलय।
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पाताल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा धातुएँ गलाई, ओषधियाँ पिलाई तथा अर्क, तेल आदि तैयार किये जाते हैं।
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पाताल-वासिनी  : स्त्री० [सं० पाताल√बस् (बसना)+ णिनि+ङीष्] नागवल्ली लता। पान की लता।
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पाताली  : स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई तथा सुखाकर खाई जानेवाली टिकिया। वि० [सं० पाताल] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल में रहने या होनेवाला। ३. पृथ्वी के नीचे होनेवाला। (अंडर ग्राउंड) जैसे—वृक्ष के पाताली तने।
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पाताली-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] वनस्पति विज्ञान में, उत्पत्ति-भेद से पत्तियों के चार प्रकारों में से एक। प्रायः भूमि पर अपने तने फैलानेवाले पौधों की पत्तियाँ जो प्रायः बहुत छोटी होती हैं। (स्केल लीफ) जैसे—आलू की पाताली पत्ती।
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पातालीय  : वि० [सं०] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल का। २. पाताल में अर्थात् पृथ्वी-तल के नीचे या भूगर्भ में रहने या होनेवाला।
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पातालौका (कस्)  : वि० [सं० पाताल-ओकस् ब० स०] पाताल लोक में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप।
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पाति  : स्त्री० १.=पाती (चिट्ठी)। २.=पत्ती। पुं० [सं०√पा+अति] १. स्वामी। २. पति। ३. पक्षी।
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पातिक  : वि० [सं० पात+ठन्—इक्] १. फेंका हुआ। २. नीचे गिराया या ढकेला हुआ। पुं० सूँस नामक जल-जंतु।
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पातिग  : पुं०=पातक। उदा०—अनेक जनम ना पातिग छूटै।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातित  : भू० कृ० वि० [सं०√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. फेंका हुआ। ३. झुकाया हुआ।
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पातित्य  : पुं० [सं० पतित-ष्यञ्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। गिरावट। २. अधःपतन।
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पातिल  : स्त्री० [सं० पातिली] एक तरह की मिट्टी की हँड़िया जिसमें विवाह आदि के समय दीया जलाया जाता है तथा हँड़िया का आधा मुँह ढक्कन से ढक दिया जाता है। वि०=पतला।
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पातिली  : स्त्री० [सं० पाति√ली (लीन होना)+ड+अण्+ङीष्] १. जाल। फंदा। २. मिट्टी की पातिल नामक हँड़िया। ३. किसी विशिष्ट जाति की स्त्री।
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पातिव्रत  : पुं०=पातिव्रत।
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पातिव्रत्य  : पुं० [सं० पतिव्रता+ष्यञ्] पतिव्रता होने की अवस्था, गुण और भाव। पति के प्रति होनेवाली पूर्ण निष्ठा की भावना।
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पातिसाह  : पुं०=पातशाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाती  : स्त्री० [सं० पत्री, प्रा० पत्ती] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। २. निशान। पता। ३. वृक्ष का पत्ता या पत्ती। स्त्री० [हिं० पति] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लोक-लज्जा।
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पातुक  : वि० [सं०√पत्+उकञ्] १. गिरनेवाला। २. पतनोन्मुख। पुं० १. झरना। २. पहाड़ की ढाल। ३. एक स्तनपायी दीर्घाकार जल-जंतु। जल-हस्ती।
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पातुर  : स्त्री० [सं० पातिली=स्त्री विशेष] वेश्या।
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पातुरनी  : स्त्री०=पातुर (वेश्या)।
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पात्य  : वि० [सं०√पत्+णिच्+यत्] १. जो गिराया जा सकता हो। २. दंडित किये जाने के योग्य। ३. प्रहार करने योग्य। ४. [√पत्+ण्यत्] गिरने योग्य। पुं० [पति+यक] पति होने का भाव। पतित्व।
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पात्र  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ष्ट्रन] [स्त्री० पात्री] [भाव० पात्रता] १. वह आधान जिसमें कुछ रखा जा सके। बरतन। भाजन। २. ऐसा बरतन जिसमें पानी पीया या रखा जाता हो। ३. यज्ञ में काम आनेवाले उपकरण या बरतन। यज्ञ-पात्र। ४. जल का कुंड या तालाब। ५. नदी की चौड़ाई। पाट। ६. ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात के लिए सब प्रकार से उपयुक्त या योग्य समझा जाता हो। अधिकारी। जैसे—किसी को कुछ देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह उसे पाने या रखने का पात्र है या नहीं। ७. उपन्यास, कहानी, काव्य, नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा-वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया-कलाप या चरित्र से कथा-वस्तु की सृष्टि और परिपाक होता है। ८. नाटक में, वे अभिनेता या नट जो उक्त व्यक्तियों की वेष-भूषा आदि धारण कर के उनके चरित्रों का अभिनय करते हैं। अभिनेता। जैसे—इस नाटक में दस पुरुष और छः स्त्रियाँ पात्र हैं। ९. राज्य का प्रधान मंत्री। १॰. वृक्ष का पत्ता। पत्र। ११. वैद्यक में, चार सेर की एक तौल। आढ़क। १२. आज्ञा। आदेश। वि० [स्त्री० पात्री] जो किसी कार्य या पद के लिए उपयुक्त होने के कारण चुना या नियुक्त किया जा सकता हो। (एलिजिबुल)
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पात्रक  : पुं० [सं० पात्र+कन्] १. प्यारी, हाँड़ी आदि पात्र। २. भिखमंगों का भिक्षापात्र।
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पात्रट  : पुं० [सं० पात्र√अट्+अच्] १. पात्र। प्याला। २. फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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पात्रटीर  : पुं० [सं० पात्र√अट्+ईरन्] १. योग्य मंत्री या सचिव। २. चाँदी। ३. किसी धातु का बना हुआ बरतन। ४. अग्नि। ५. कौआ। ६. कंक (पक्षी)। ७. लोहे में लगनेवाला जंग या मोरचा। ८. नाक से बहनेवाला मल।
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पात्रता  : स्त्री० [सं० पात्र+तल्+टाप्] पात्र (अर्थात् किसी कार्य, पद, दान-दक्षिणा आदि का योग्य अधिकारी) होने की अवस्था, गुण और भाव।
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पात्रत्व  : पुं० [सं० पात्र+त्व] पात्रता।
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पात्र-दुष्ट-रस  : पुं० [सं० दुष्ट-रस, कर्म० स०, पात्र-दुष्ट-रस, स० त०] कविता में परस्पर विरोधी बातें कहने का एक दोष। (कवि केशवदास)
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पात्र-पाल  : पुं० [सं० पात्र√पाल्+णिच्+अण्] १. तराजू की डंडी। २. पतवार।
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पात्रभृत्  : पुं० [सं० पात्र√भृ (धारण करना)+क्विप्] बरतन माँजने-धोनेवाला नौकर
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पात्र-वर्ग  : पुं० [ष० त०] १. किसी साहित्यिक रचना के कुल पात्र। २. अभिनय करनेवालों का समूह।
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पात्र-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बरतन माँजने-धोने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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पात्र-शेष  : पुं० [स० त०] बरतनों में छोड़ा जानेवाला उच्छिष्ट या जूठा भोजन। जूठन।
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पात्रासादन  : पुं० [सं० पात्र-आसादन, ष० त०] यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना।
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पात्रिक  : वि० [सं० पात्र+ष्ठन्—इक] जो पात्र (आढ़क नामक तौल) से तौला या मापा गया हो। पुं० [स्त्री० अल्पा० पात्रिका] छोटा पात्र या बरतन।
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पात्रिकी  : स्त्री० [सं० पात्रिक+ङीष्] १. छोटा पात्र। २. थाली।
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पात्रिय  : वि० [सं० पात्र+घ—इय] [पात्र+यत्] जिसका साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके। सहभोजी।
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पात्री (त्रिन्)  : वि०, पुं० [सं० पात्र+इनि] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य पात्र या अधिकारी व्यक्ति हो। स्त्री० पात्र का स्त्री रूप। (दे० ‘पात्र’) २. छोटा पात्र या बरतन। ३. एक प्रकार की अँगीठी या छोटी भट्ठी। ४. साहित्यिक रचना का कोई स्त्री पात्र। ५. नाटक आदि में अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री।
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पात्रीय  : वि० [सं० पात्र+छ—ईय] पात्र-संबंधी। पात्र का। पुं० एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पात्रीर  : पुं० [सं० पात्री√रा (देना)+क] वह पदार्थ जिसकी यज्ञ आदि में आहुति दी जाती हो।
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पात्रे-बहुल  : वि० [सं० अलुक् स०] दूसरों का दिया हुआ भोजन करनेवाला। परान्न-भोजी।
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पात्रे-समिति  : वि० [सं० अलुक् स०] पात्रेबहुल। (दे०)
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पात्रोपकरण  : पुं० [सं० पात्र-उपकरण, ष० त०] अलंकरण के छोटे-मोटे साधन।
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पात्र्य  : वि० [सं० पात्र+यत्] जिसके साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके।
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पाथ  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा)+थ] १. जल। २. सूर्य। ३. अग्नि। ४. अन्न। ५. आकाश। ६. वायु। पुं०=पथ (मार्ग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथना  : स० [सं० प्रथन या थापना का वर्ण-विपर्यय] १. गीली मिट्टी, ताजे गोबर आदि को थपथपाते हुए या साँचों में ढालकर छोटे छोटे पिंड बनाना। २. मारना-पीटना।
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पाथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथ-निधि  : पुं० [ष० त०] दे० ‘पाथौनिधि’।
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पाथर  : पुं०=पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथरण  : पुं० [सं० प्रस्तरण, प्रा० पत्थरण] बिछौना। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथ-राशि  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथस्  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा)+असुन्, थुक्] १. जल। २. अन्न। ३. आकाश।
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पाथस्पति  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण।
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पाथा  : पुं० [सं० प्रस्थ] १. एक तौल जो कच्चे चार सेर की होती है। २. उतनी भूमि जितनी में उक्त मान का अन्न बोया जा सके। ३. अनाज नापने का एक प्रकार का बड़ा टोकरा। ४. हल की खोंपी जिसमें फाल जड़ा रहता है। पुं० [?] १. कोल्हू हाँकनेवाला व्यक्ति। २. अनाज में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। पुं० दे० ‘पाटा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथी (थिस्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+इसिन्, थुक्] १. समुद्र। २. आँख। ३. घाव पर का खुरंड या पपड़ी। ४. दूध, मट्ठे का वह मिश्रण जिससे प्राचीन काल में पितृ-तर्पण किया जाता था।
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पाथी  : पुं० [हिं० पथ] पथिक। बटोही। मुहा०—पाथी होना=कहीं से चुपचार चल देना। चलते बनना। उदा०—साथी पाथी भये जाग अजहूँ निसि बीती।—दीन दयाल गिरि।
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पाथेय  : वि० [सं० पथिन्+ढञ्—एय] पथ-संबंधी। पथ का। पुं० १. वे खाद्य पदार्थ जो यात्रा के समय यात्री रास्ते में खाने-पीने के लिए ले जाते हैं। रास्ते का भोजन। २. वह धन जो रास्ते के खर्च के लिए पास रखा जाता है। ३. वह साधन या सामग्री जिसकी आवश्यकता कोई काम करने के समय पड़ती हो और जिसमें उस काम में सहायता या सहारा मिलता हो। संवल। ४. कन्या राशि।
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पाथोज  : पुं० [सं० पाथस्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] कमल।
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पाथोव  : पुं० [सं० पाथस√दा (देना)+क] बादल। मेघ।
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पाथोवर  : पुं० [सं० पाथस्√धृ (धारण करना)+अच्] बादल। मेघ।
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पाथोधि  : पुं० [सं० पाथस्√धा+कि] समुद्र।
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पाथोन  : पुं० [यू० पथेपनस] कन्या राशि।
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पाथोनिधि  : पुं० [सं० पाथस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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पाथ्य  : वि० [सं० पाथस्+डयन] १. आकाश में रहनेवाला। २. हृदयाकाश में रहनेवाला। ३. वायु या हवा में रहनेवाला।
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पाद  : पुं० [सं०√पद् (गति)+घञ्] १. चरण। पैर। पाँव। २. किसी चीज का चौथाई भाग। चतुर्थांस। जैसे—चिकित्सा के चार पाद हैं। ३. छंद, श्लोक, आदि का चौथाई भाग जो एक चरण या पाद के रूप में होता है। ४. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र या वृत्त का चौथाई अंश। (क्वाड्रेन्ट) ५. कोई ऐसी चीज जिसके आधार पर कोई दूसरी चोख खड़ी या ठहरी हो। ६. किसी वस्तु का नीचेवाला भाग। तल। जैसे—पर्वत या वृक्ष का पाद भाग। ७. ग्रंथ या पुस्तक का कोई विशिष्ट अंश। खंड या भाग। ८. किसी बड़े पर्वत के पास का कोई छोटा पर्वत। ९. किरण। रश्मि। १॰. चलने की क्रिया या भाव। गति। गमन। ११. शिव। पुं० [सं० पर्द] मलद्वार से निकलनेवाली वायु। अपानवायु।
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पादक  : वि० [सं० √पद्+ण्वुल्—अक] १. जो खूब चलता हो। चलनेवाला। २. किसी चीज का चौथाई अंश। पुं० छोटा पैर।
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पाद-कटक  : पुं० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कमल  : पुं० [कर्म० स०] चरण-कमल।
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पाद-कीलिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कृच्छ  : पुं० [ष० त०] प्रायश्चित्त करने के लिए चार दिन तक रखा जानेवाला एक तरह का व्रत।
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पादक्रमिक  : वि० [सं० पद-क्रम, ष० त०,+ठक्—इक] वेदों का पदक्रम जानने या पढ़नेवाला।
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पाद-क्षेप  : पुं० [ष० त०] चलने के समय पैर रखना। चलना।
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पाद-गंडीर  : पुं० [सं० पाद-गण्डि+ई, ष० त०,+र] फीलपाँव या श्लोपद नामक रोग।
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पाद-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] टखना।
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पाद-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] पैर छूकर प्रणाम करने का एक प्रकार।
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पाद-चतुर  : वि० [स० त०] निंदा करनेवाला। पुं० १. बकरा। २. पीपल का पेड़। ३. बालू का भीटा। ४. ओला।
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पादचत्वर  : वि०, पुं० [सं०] पाद-चतुर।
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पादचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाद√चर् (गति)+णिनि] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला। पुं० प्यादा।
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पादज  : वि० [सं० पाद√जन्+ड] जो पैरों से उत्पन्न हुआ हो। पुं० शूद्र।
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पाद-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह जल जिसमें किसी के पैर धोए गये हों। चरणोदक। २. मट्ठा जिसमें चौथाई अंश पानी मिला हो।
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पादजाह  : पुं० [सं० पाद+जाहच्] १. पैर की एड़ी। २. पैर का तलवा। ३. टखना। ४. वह भूमि जहाँ पहाड़ शुरु होता है। ५. चरणों का सान्निध्य।
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पाद-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह टिप्पणी जो किसी ग्रंथ में पृष्ठ के निचले भाग में सूचना, निर्देश के लिए लिखी गई हो। तल-टीप। (फुटनोट)
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पाद-टीका  : स्त्री०=पाद-टिप्पणी। (दे०)
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पाद-तल  : पुं० [ष० त०] पैर का तलवा।
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पादत्र  : पुं० [सं० पाद√त्रा (रक्षा)+क] पाद-त्राण।
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पाद-त्राण  : वि० [ब० स०] पैरों की रक्षा करनेवाला। पुं० पैरों की रक्षा के लिए पहनी जानेवाली चीज। जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पाद-त्रान  : पुं०=पाद-त्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाद-दलित  : वि० [तृ० त०] पाद-दलित।
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पाद-दारिका  : स्त्री० [ष० त०] बिवाई (रोग)।
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पाद-दाह  : पुं० [सं० पाद√दह् (जलाना)+अण्] १. वात रोग के कारण पैर में होनेवाली जलन। २. उक्त जलन पैदा करनेवाला वात रोग।
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पाद-धावन  : पुं० [ष० त०] १. पैर धोने की क्रिया। २. वह बालू या मिट्टी जिससे मलकर पैर धोते हैं।
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पाद-धावनिका  : स्त्री० [ष० त०] वह बालू जिससे पैर रगड़कर धोये जाते हैं।
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पाद-नख  : पुं० [ष० त०] पैरों की उँगलियों के नाखून।
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पादना  : अ० [हिं० पाद] १. मलद्वार से वायु विशेषतः शब्द करती हुई वायु निकालना। २. खेल में, विपक्षी द्वारा अधिक दौड़ाया, भगाया तथा परेशान किया जाना।
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पाद-नालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-निकेत  : पुं० [ष० त०] पैर रखने की छोटी चौकी। पाद-पीठि।
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पाद-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. बराबर पैर रखते हुए चलना। २. नाचना।
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पाद-पंकज  : पुं० [उपमि० स०] चरण-कमल।
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पादप  : पुं० [सं० पाद√पा (पीना)+क] १. वृक्ष। पेड़। २. पाद निकेत। पाद पीठ।
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पादप-खंड  : पुं० [ष० त०] १. वृक्षों का समूह। २. जंगल। वन।
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पाद-पथ  : पुं० [ष० त०] पैदल चलने का छोटा और सँकरा मार्ग। पैदल का रास्ता, जिस पर सवारी न जा सकती हो। (फुटपाथ)
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पाद-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] १. रास्ता। २. पगडंडी।
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पादपा  : स्त्री० [सं० पाद√पा (रक्षा करना)+क+टाप्] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-पाश  : पुं० [ष० त०] १. वह रस्सी जिससे घोड़ों के पिछले दोनों पैर बाँधे जाते हैं। पिछाड़ी। २. नूपुर।
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पादपाशी  : स्त्री० [सं० पादपाश+ङीष्] १. पैर में बाँधने की जंजीर या सिकड़ी। २. बेड़ी। ३. एक लता।
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पाद-पीठि  : पुं० [ष० त०] वह पीढ़ा या छोटी चौकी जिस पर ऊँचे आसन पर बैठनेवाले पैर रखकर बैठते हैं। (पेडस्टल)
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पाद-पीठिका  : स्त्री० [ष० त०] १. नाई का पेशा। २. सफेद पत्थर।
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पाद-पूरण  : पुं० [ष० त०] १. किसी श्लोक या पद के किसी चरण को पूरा करना। पादपूर्ति। २. वह अक्षर या शब्द जिससे किसी श्लोक या पद की पूर्ति होती है।
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पाद-पूर्ति  : स्त्री० [ष० त०] कविता में, छंद का चरण पूरा करने के लिए उसमें कोई अक्षर या शब्द जोड़ना या बढ़ाना। चरणपूर्ति।
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पाद-प्रक्षालन  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-प्रणाम  : पुं० [स० त०] साष्टांग दंडवत्। पाँव पड़ना।
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पाद-प्रतिष्ठान  : पुं० [ष० त०] पाद-पीठ। (दे०)
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पाद-प्रधारण  : पुं० [ब० स०] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-प्रसारण  : पुं० [ष० त०] पैर फैलाने की क्रिया या भाव।
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पाद-प्रहार  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात या प्रहार। लात मारना। ठोकर मारना।
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पाद-बंध  : पुं० [ष० त०] १. कैदियों, पशुओं आदि के पैरों में बाँदी जानेवाली जंजीर। २. बेड़ी।
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पाद-बंधन  : पुं० [ष० त०] पाद-बंध।
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पाद-भट  : पुं० [मध्य० स०] पैदल सिपाही। प्यादा।
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पाद-भाग  : पुं० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. चौथा हिस्सा। चौथाई।
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पाद-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-चिह्न।
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पाद-मूल  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. पर्वत की तराई।
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पादरक्ष (क)  : पुं० [सं० पाद√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्; पाद-रक्षक, ष० त०] वह जिससे पैरों की रक्षा की जाय। जैसे—जूता, खड़ाऊँ आदि।
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पाद-रज (जस्)  : स्त्री० [ष० त०] चरण-धूलि।
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पाद-रज्जु  : स्त्री० [ष० त०] वह रस्सी या सिक्कड़ जिससे पर, विशेषतः हाथी के पैर बाँधे जाते हैं।
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पादरथी  : स्त्री० [सं० रथ+ङीष्, पाद-रथी, ष० त०] खड़ाऊँ।
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पादरी  : पुं० [पुर्त्त० पैड्रे] मसीही धर्मावलंबियों का धर्मगुरु या पुरोहित।
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पादरोह, पादरोहण  : पुं० [सं० पाद√रुह् (उत्पत्ति)+अच्] [सं० पाद√रुह्+ल्यु—अन] बड़ का पेड़।
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पाद-लग्न  : वि० [स० त०] जो पैरों से आ लगा हो; अर्थात् शरण में आया हुआ।
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पाद-लेप  : पुं० [ष० त०] पैरों में किया जानेवाला आलते, महावर आदि का लेप।
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पाद-वंदन  : पुं० [ष० त०] १. पैर पकड़कर प्रणाम करना। २. चरणों की पूजा, सेवा या स्तुति।
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पाद-वाल्मीक  : पुं० [स० त०] फीलपाँव (रोग)।
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पादविंदु  : पुं० [सं०]=अधःस्वस्तिक।
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पादविक  : पुं० [सं० पदवी+ठक्—इक] पथिक।
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पाद-वेष्टनिक  : पुं० [ष० त०] पाताबा। मोजा।
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पाद-शब्द  : पुं० [ष० त०] किसी के चलने से पहलेवाला शब्द। पैर की आहट।
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पाद-शाखा  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर की उँगली। २. पैर की नोक।
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पादशाह  : पुं० [फा०] [भाव० पादशाही] पादशाह। सम्राट्।
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पादशाहजादा  : पुं० [फा०] बादशाहजादा। महाराजकुमार।
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पादशाही  : वि० [फा०] बादशाह का। स्त्री० १. राज्य। शासन।
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पादशिष्ट-जल  : पुं० [सं० पाद-शिष्ट, तृ० त०; पादशिष्ट-जल, कर्म० स०] ऐसा जल जो औटाकर चौथाई कर लिया गया हो। (वैद्यक)
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पादशुश्रूषा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-सेवा। पैर दबाना।
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पाद-शैल  : पुं० [मध्य० स०] बड़े पहाड़ के नीचे या पास का कोई छोटा पहाड़।
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पाद-शोथ  : पुं० [ष० त०] १. पैर में होनेवाली सूजन। २. पैरों में सूजन होने का रोग। फीलपाँव।
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पाद-शौच  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-श्लाका  : स्त्री० [ष० त०] पैर की नली।
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पाद-सेवन  : पुं०=पाद-सेवा।
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पाद-सेवा  : स्त्री० [ष० त०] चरण दबाना।
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पाद-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह लकड़ी जो किसी चीज को गिरने से रोकने के लिए उसके नीचे लगाई जाती है।
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पाद-स्ठोट  : पुं० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार ग्यारह प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक।
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पाद-स्वेदन  : पुं० [ष० त०] पैरों में विशेषतः पैरों के तलवों में पसीना आना।
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पाद-हत  : भू० कृ० [तृ० त०] जिस पर पैर का आघात किया गया हो। जिसे पैर से मारा गया हो।
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पाद-हर्ष  : पुं० [ष० त०] एक वात रोग जिसमें पैरों में झुनझुनी होती है।
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पाद-हीन  : वि० [तृ० त०] १. पाद या पैर से रहित। २. जिसका चौथा चरण न हो।
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पादांक  : पुं० [सं० पाद-अंक, ष० त०] पद-चिह्न।
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पादांकुलक  : पुं० दे० ‘पादाकुलक’।
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पादांगद  : पुं० [सं० पाद-अंगद, ष० त०] नूपुर।
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पादांगुलि (ली)  : स्त्री० [पाद-अंगुली, ष० त०] पैर की उँगली।
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पादांगुष्ठ  : पु० [सं० पाद-अंगुष्ठ, ष० त०] पैर का अँगूठा।
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पादांत  : पुं० [सं० पाद-अंत, ष० त०] पद का अंतिम भाग।
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पादांतस्थित  : वि० [सं० पादांत-स्थित स० त०] पद के अन्त में होनेवाला।
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पादांबु  : पुं० [सं० पाद-अंबु, मध्य० स०] १. पैरों के धोने पर निकला हुआ जल। २. [ब० स०] मट्ठा।
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पादांभ (स्)  : पुं० [सं० पाद अंभस्, मध्य० स०] पैर धोने का जल।
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पादाकुल  : पुं०=पादाकुलक।
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पादाकुलक  : पुं० [सं० पाद-आकुल, तृ० त०,+कन्] एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। विशेष—भानु कवि के मत से वह छंद पादाकुलक कहलाता है जिसके प्रत्येक चरण में चार चौकल हों। यथा—गुरु-पद मृदु रज मंजुल अंजन नयन अमिय दृग दोष विभंजन।—तुलसी। परन्तु अन्य आचार्यों के मत में १६ मात्राओंवाले सभी छंद पादाकुलक कहलाते हैं। परन्तु उनके आरंभ में द्विकल अवश्य होना चाहिए; पर त्रिकल कभी नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से अटिल्ल, डिल्ला और पद्धति या छंद भी पादाकुलक वर्ग में आ जाते हैं। ऐसे छंदों की चाल त्रोटक वृत्त की चाल से मिलती-जुलती होती है।
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पादाक्रांत  : वि० [सं० पाद-आक्रांत, तृ० त०] पैरों से कुचला या रौंदा हुआ। पद-दलित।
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पादाग्र  : पुं० [सं० पाद-अग्र, ष० त०] पैर का अगला भाग।
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पादाघात  : पुं० [पाद-आघात, ष० त०] पैर से किया जानेवाला प्रहार। पाद-प्रहार।
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पादात  : पुं० [सं० पदाति+अण्] १. पैदल सिपाही। २. पैदल सेना।
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पादाति (क)  : पुं० [सं० पाद√अत् (गमन)+इण्] [पादाति+कन्] पैदल सिपाही।
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पादानत  : भू० कृ० [पाद-आनत, स० त०] पैरों पर झुका या पड़ा हुआ।
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पादा-नोन  : पुं० [देश०] काला नमक।
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पादाम्यंजन  : पुं० [पाद-अभ्यंजन, ष० त०] १. पैरों में को स्निग्ध पदार्थ मलन या रगड़ने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार रगड़ा जानेवाला स्निग्ध पदार्थ।
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पादायन  : पुं० [सं० पाद+फक्—आयन] पाद ऋषि का वंशज।
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पादारक  : पुं० [सं० पाद√ऋ (गति)+ण्वुल—अक] १. नाव के पार्श्वों में लंबाई के बल लगी हुई दोनों पटरियों में से हर एक जिस पर आरोही बैठते हैं। २. मस्तूल।
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पादारविंद  : पुं०=पदार्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पादारविंद  : पुं० [सं० पाद-अरविन्द, उपमि० स०] चरण रूपी कमल। चरण-कमल।
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पादार्पण  : पुं० [सं० ष० त०] =पदार्पण।
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पादालिंद  : पुं० [सं० पाद-अलिंद, ब० स०] [स्त्री० अल्पा० पादालिंदा, पादालिंदी] नाव। नौका।
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पादावर्त  : पुं० [सं० पाद-आ√वृत् (बरतना)+अच] पैरों से चलाया जानेवाला एक तरह का पुराना चक्र या यंत्र जिसके द्वारा कूएँ में से सिंचाई के लिए पानी निकाला जाता था।
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पादावसेचन  : पुं० [सं० पाद-अवसेचन, ष० त०] १. चरण धोना। २. पैर धोने का पानी।
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पादाविक  : पुं० [सं०=पादातिक, पृषो० साधु] पदल सिपाही। प्यादा।
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पादावृत्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, यमक अलंकार का एक भेद जिसमें पूरे पाद की आवृत्ति होती है। यथा—नंगन जड़ातीं ते वे नगड़ जड़ाती हैं।—भूषण।
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पादाष्ठील  : पुं० [सं०] पैर का टखना।
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पादासन  : पुं० [सं० पाद-आसन, ष० त०] वह आसन जिस पर पैर रखे जायँ। पाद-पीठ।
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पादाहत  : भू० कृ० [सं० पाद-आहत, तृ० त०] [भाव० पादाहति] जिसे पैर से ठोकर लगाई गई हो।
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पादाहति  : स्त्री० [तृ० त०] पैर से लगाई जानेवाली ठोकर।
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पादिक  : वि० [सं० पाद+ठक्—इक] जो किसी पूरी वस्तु या एक इकाई के चौथाई अंश के बराबर हो। पुं० १. किसी पुरी वस्तु या इकाई का चतुर्थांस। २. पादकृच्छ नामक व्रत।
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पादी (दिन्)  : वि० [सं० पाद+इनि] १. जिसे पाद या पैर हों। पैरोंवाला। २. चार चरणोंवाला। ३. चौथाई अंश का हिस्सेदार। पुं० पैरोंवाला कोई जीव। विशेषतः कछुआ, घड़ियाल मगर आदि। जल-जन्तु। २. चौथाई अंश का स्वामी या मालिक।
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पादीय  : वि० [सं० पाद+छ—ईय] १. पद या मर्यादावाला। २. किसी विशिष्ट पद या स्थान पर रहनेवाला। जैसे—कुमार-पादीय=कुमार पद पर प्रतिष्ठित।
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पादुक  : वि० [सं०√पद् (गति)+उकञ्] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला।
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पादुका  : स्त्री० [सं० पादु+क+टाप्, ह्रस्व] १. खड़ाऊँ। जूता। ३. पैरों में पहनने का कोई उपकरण। पदत्राण। (फूट वियर) जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पादू  : स्त्री० [सं० पद+ऊ, णित्व—चि वृद्धि] जूता। वि० [हिं० पादना] बहुत पादनेवाला। पदोड़ा।
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पादोदक  : पुं० [पाद-उदक, मध्य० स०] १. वह जल जिसमें पैर धोया गया हो। चरणोदक। २. चरणामृत।
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पादोदर  : वि० [सं० पाद-उदर, ब० स०] जिसके पैर उदर में अर्थात् अंदर हों। पुं० सर्प। साँप।
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पाद्म  : वि० [सं० पद्म] पद्म-सम्बन्धी। पद्म का।
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पाद्म-कल्प  : पुं० [कर्म० स०] पुराणानुसार वह महाकल्प जिसमें भगवान् की नाभि से वह पद्म या कमल निकला था, जिस पर ब्रह्मा अधिष्ठित थे।
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पाद्य  : वि० [सं० पाद+यत्] १. पाद (पैर, चरण आदि) से संबंध रखनेवाला। पाद का। २. पाद्य संबंधी। पाद्यात्मक। पुं० वह जल जिससे किसी आये हुए पूज्य व्यक्ति या देवता के पैर धोते हैं अथवा जिसे पैर धोने के लिए आदर-पूर्वक उनके आगे रखते हैं।
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पाद्य-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. पैर धोने के लिए जल देना। २. पूज्य या बड़े व्यक्तियों का कहीं पधारना। कहीं पदार्पण करना या जाना। (आदर-सूचक) जैसे—गुरु शिष्यों के घर पाद्य-दान।
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पाद्यार्घ  : पुं० [सं० पाद्य-अर्घ, कर्म० स०] १. पैर तथा हाथ धोने या धुलाने का जल। २. देव-पूजन की सामग्री। ३. पूजन, सत्कार आदि के अवसर पर दिया जानेवाला धन या सामग्री। नजर। भेंट। ४. प्राचीन काल में ब्राह्मण को दान रूप में दी हुई वह भूमि जिस पर राजकर नहीं लगता था। माफी।
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पाधर  : वि०=पाधरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाधरा  : वि० [?] १. अच्छा। बढ़िया। उदा०—धर बाँकी दिन पाधरा, मरद न मूकै माण।—प्रिथीराज। २. अनुकूल। ३. सम, सरल या सीधा।
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पाधा  : पुं० [सं० उपाध्याय] १. आचार्य। उपाध्याय। २. पुरोहित। ३. पंडित। ४. कर्म-कांड करानेवाले पंडित। ५. छोटे बच्चों को आरंभिक शिक्षा देनेवाला गुरु या पंडित। (पश्चिम)
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पान  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ल्युट्—अन्] १. तरल पदार्थ को चुस्की भरते हुए, चूसते हुए अथवा घूँट-घूँट करके पीने की क्रिया या भाव। जैसे—जल-पान, दुग्धपान, रक्त-पान, स्तन-पान आदि। २. मद्य या शराब पीना। ३. मद्य या शराब बनाने और बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार। ४. पीने का कोई तरल पदार्थ। ५. जल। पानी। ६. पौसरा। प्याऊ। ७. आब। चमक। ८. कटोरा, गिलास आदि जिसमें रखकर कोई तरल पदार्थ पीया जाता हो। ९. नहर। १॰. रक्षण। रक्षा। ११. निःश्वास। १२. जीत। विजय। पुं० [सं० पर्ण, प्रा० पण्ण; फा० पान] १. वृक्ष का पत्ता। उदा०—उपजे एकही खेत में, बोये एक किसान। होनहार बिरवान के होत चीकने पान। २. एक प्रसिद्ध पौधा या लता जिसके पत्तों पर कत्था, चूना लगाकर मुँह का स्वाद बदलने और उसे सुगंधित रखने के लिए गिलौरी या बीड़ा बनाकर खाते हैं। ताम्बूल। नागबेल। ३. लगा हुआ पान का पत्ता। गिलौरी। बीड़ा। पद—पान-इलायची=किसी सामाजिक आयोजन या समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों का पान-इलायची आदि से किया जानेवाला सत्कार। पान-पत्ता=(क) लगा या बना हुआ पान। (ख) तुच्छ उपहार या भेंट। पान-फूल=(क) सामान्य उपहार या भेंट। (ख) पान और फूलों की तरह बहुत ही कोमल या सुकुमार वस्तु। पान-सुपाड़ी (री)=दे० ऊपर ‘पान-इलायची’। मुहा०—पान उठाना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा उठाना’। पान कमाना=पान के पत्तों को पाल में रखकर पकाना, और बीच-बीच में उन्हें उलट-पलटकर देखते रहना और उनके सड़े-गले अंश काटते या निकालते रहना। (किसी को कुछ धन) पान खाने को देना=(क) घूस या रिश्वत देना। (ख) इनाम, पुरस्कार आदि के रूप में धन देना। पान खिलाना=कन्या पक्षवालों का विवाह के विषय वर पक्षवालों को वचन देना। पान चीरना=व्यर्थ का काम करना। ऐसा काम करना जिससे कोई लाभ न हो। पान देना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा देना’। पान फेरना=पाल में अथवा यों ही रखे हुए पानों को उलट-पलटकर देखना और उनके सड़-गले अंश काट या निकालकर अलग करना। पान बनाना=(क) पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि रखकर बीड़ा तैयार करना। गिलौरी बनाना। पान लगाना। (ख) दे० ऊपर ‘पान कमाना’। पान लगाना=दे० ऊपर ‘पान बनाना’। पान लेना=बीड़ा उठाना। (दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत) ४. पान नामक लता के पत्ते के आकार की कोई रचना जो प्रायः कई तरह के गहनों में शोभा के लिए जड़ी या लगी रहती है। ५. जूते में पान के आकार का चमड़े का वह टुकड़ा जड़ी के पीछे लगता है। पद—नोक-पान=(देखें ‘नोक’ के अन्तर्गत स्वतंत्र पद) ६. ताश के पत्तों पर बनी हुई पान के आकार की लाल रंग की बूटियाँ। ७. उक्त आकार तथा रंग की बनी हुई बूटियोंवाले पत्तों की सामूहिक संज्ञा। जैसे—उन्होंने पान रंग बोला है। ८. स्त्रियों की भग। योनि। पुं० [?] नाव खींचने की गून या रस्सी। (लश०) पुं० [?] सूत को माँड़ी से तर करके ताना कसने की क्रिया। (जुलाहे) पुं० १.=प्राण। २.=पाणि (हाथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानक  : पुं० [सं० पान+कन्] आम, इमली आदि के कच्चे फलों को भूनकर बनाया जानेवाला कुछ खट-मीठा पेय पदार्थ। पना। पन्ना।
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पान-गोष्ठी  : स्त्री० [च० त०] मित्रों की वह मंडली जो शराब पीने के लिए एकत्र हुई हो। (कॉकटेल पार्टी)
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पानडी  : स्त्री० [हिं० पान+ड़ी (प्रत्य०)] एक प्रकार की लता जिसकी सुगंधित पत्तियाँ प्रायः मीठे पेय पदार्थों तथा तेल और उबटन आदि में उन्हें सुगंधित करने के लिए डाली जाती हैं।
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पानदान  : पुं० [हिं० पान+फा० दान (प्रत्य०)] वह डिब्बा जिसमें पान की सामग्री—कत्था, सुपारी आदि रखी जाती है। पनडब्बा। पद—पानदान का खर्च=वह रकम जो बड़े घरों की स्त्रियों को पान तथा दूसरी निजी आवश्यकताओं के लिए दी जाती है। स्त्रियों का हाथ-खरच।
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पान-दोष  : पुं० [ष० त०] शराब पीने की लत या व्यसन।
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पानन  : पुं० [हिं० पान] मँझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई और उत्तर भारत में होता है।
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पानप  : पुं० [सं० पान√पा (पीना)+क] जिसे शराब पीने का व्यसन हो। मद्यप। शराबी।
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पान-पर  : वि० [स० त०] पानप। शराबी।
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पान-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. वह पात्र जिसमें मद्यपान किया जाता हो। २. कटोरा या गिलास जिसमें पानी पीते हैं।
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पान-बणिक (ज्)  : पुं० [ष० त०] मद्य बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार।
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पानभांड  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भोजन  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर लोग शराब पीते हैं। मद्यशाला।
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पान-भोजन  : पुं० [द्व० स०] १. खाना-पीना। २. पीना-खाना।
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पान-मंडल  : पुं०=पान-गोष्ठी।
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पान-मत्त  : वि० [तृ० त०] जो शराब पीकर नशे में चूर हो।
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पान-मद  : पुं० [ष० त०] शराब का नशा।
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पानरा  : पुं०=पनारा (पनाला)।
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पान-विभ्रम  : पुं० [तृ० त०] शराब का अत्यधिक सेवन करने के फलस्वरूप होनेवाला एक रोग जिसमें सिर में पीड़ा होती रहती है, कै और मतली आती है, और रोगी बीच-बीच में मूर्छित हो जाता है।
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पान-शौंड  : विं० [सं० त०] बहुत अधिक शराब पीनेवाला।
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पानस  : वि० [सं० पनस+अण्] पनस अर्थात् कटहल से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० वह शराब जो कटहल को सड़ाकर बनाई जाती थी।
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पानही  : स्त्री० [सं० उपानह]=पनही।
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पाना  : स० [सं० प्रायण, प्रा० पायण, पुं० हिं० पावना] १. ऐसी स्थिति में आना या होना कि कोई चीज अपने अधिकार, वश या हाथ में आवे या हो जाय। कोई चीज या बात प्राप्त करना। हासिल करना। जैसे—(क) तुमने ईश्वर के घर से अच्छा भाग्य पाया है। (ख) उन्होंने अपने पूर्वजों से अच्छी सम्पत्ति पाई थी। २. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी की दी या भेजी हुई चीज या और कुछ अपने तक पहुँच या मिल जाय। जैसे—(क) किसी का पत्र, संदेशा या समाचार पाना। (ख) पदक या पुरस्कार पाना। ३. आकस्मिक रूप से या अपने प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ प्राप्त या हस्तगत करना। जैसे—(क) कल मैंने सड़क पर पड़ा हुआ एक बटुआ पाया था। (ख) यह पुस्तक मैंने बहुत कठिनता से पायी थी। ४. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी चीज तक हाथ पहुँच सके। उदा०—मैं बालक बहिंयन को छोटो छींका केहि बिधि पायो।—सूर। ५. किसी प्रकार के ज्ञान, परिचय आदि की मानसिक उपलब्धि करना। जैसे—(क) मैंने उन्हें बहुत ही चतुर और योग्य पाया। (ख) विदेश में रहकर उन्होंने अच्छी शिक्षा पाई थी। ६. गूढ़ तत्त्व, भेद, रहस्य आदि की गहनता, विस्तार सीमा आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जानकारी हासिल करना। जैसे—(क) किसी के पांडित्य की थाह पाना। (ख) चोरी या चोरों का पता पाना। ७. अचानक सामना होने या सामने पहुँचने पर किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में देखना। जैसे—(क) मैंने लड़कों को गली में खेलते हुए पाया। (ख) उसने अपना खेत (या घर) उजड़ा हुआ पाया। ८. किसी प्रकार के परिणाम या फल के रूप में अधिकारी या भोक्ता बनना या बनने की स्थिति में होना। जैसे—(क) दुःख या सुख पाना। (ख) छुट्टी या सजा पाना। ९. ईश्वर अथवा देवता के प्रसाद के रूप में कोई खाद्य या पेय पदार्थ ग्रहण या प्राप्त करना। आदर-पूर्वक शिरोधार्य करके कुछ खाना या पीना। (भक्तों की परिभाषा) जैसे—मैं उनके यहाँ से भोजन पाकर आया हूँ। १॰. कोई काम या बात ठीक तरह से पूरी करने में समर्थ होना। कर सकना। जैसे—तुम उसे नहीं जीत पाओगे। ११. प्रतियोगिता आदि में किसी के तुल्य या समान हो सकना। जैसे—बराबरी कर सकना। जैसे—चालाकी (या दौड़) में तुम उसे नहीं पाओगे।
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पानागार  : पुं० [सं० पान-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बहुत से लोग मिलकर शराब पीते हों। शराब पीने की जगह।
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पानात्यय  : पुं० [सं० पान-अत्यय, तृ० त०] पान-विभ्रम। (दे०)
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पानि  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिक  : पुं० [सं० पान+ठक्—इक] वह जो शराब बनाता और बेचता हो। शौंडिक। कलवार।
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पानिग्रहण  : पुं०=पाणिग्रहण।
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पानिप  : पुं० [हिं० पानी+प (प्रत्य०)] १. ओप। द्युति। कांति। चमक। आब। २. शोभा। ३. पानी।
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पानि-पतंग  : पुं० [हिं० पानी+पतंगा] जल-भौंरा या भौंतुआ नाम का कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिय  : पुं०=पानी। उदा०—प्यासी तजौं तनु रूप सुधा बिनु, पानिय पी-कौ पपीहे पिआओ।—भारतेन्दु। वि०=पानीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] रक्षित होने के योग्य। (क्व०)
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पानिल  : पुं० [सं० पान+इलच्] पानपात्र।
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पानी  : पुं० [सं० पानीय] १. वह प्रसिद्ध निर्गंध पारदर्शी और पर्ण-हीन तरल या द्रव पदार्थ जो झील, नदियों, समुद्रों आदि में भरा रहता है। तथा बादलों से वर्षा के रूप में पृथ्वी पर बरसता है और जो नहाने-धोने, पीने, खेत सींचने आदि के काम में आता है। जल। विशेष—वायु के उपरांत जल या पानी जीव-जंतुओं वनस्पतियों आदि के पालन-पोषण तथा वर्धन के लिए सबसे अधिक आवश्यक है; इसलिए संस्कृत में इसे ‘जीवन’ भी कहते हैं। भारतीय दर्शन में इसकी गणना पंच महाभूतों में होती है; परन्तु आधुनिक रासायनिक अनुसंधान के अनुसार यह दो तिहाई हाइड्रोजन तथा एक तिहाई आक्सिजन का मिश्रण है। अधिक सरदी पड़ने पर यह जमकर बरफ बन जाता है। और अधिक ताप पाकर उबलने या खौलने लगता है अथवा भाप बनकर उड़ जाता है। वर्षा के प्रसंग में इसके साथ आना, गिरना, पड़ना, बरसना आदि जलाशयों के तल के विचार से उतरना, चढ़ना आदि और कूएँ के मूल सोते के विचार से आना, टूटना, निकलना आदि क्रियाओं का प्रयोग होती है। किसी तल के छोटे-छोटे छिद्रों से आने या निकलने के प्रसंग में इसके साथ आना चूना, छूटना, टपकना, निकलना, रसना आदि क्रियाएँ लगती हैं। किसी आधान में या स्थल पर एकत्रित राशि के संबंध में प्रसंग के अनुसार ठहरना, बहना, रुकना आदि क्रियाओं का भी प्रयोग होता है। कुछ अवस्थाओं में इसकी कोमलता, तरलता, शीतलता, सरसता आदि गुणों के आधार पर भी इसके कई मुहावरे बनते हैं। पद—पानी का आसरा=नाव की बारी पर लगा हुआ कुछ झुका हुआ वह तख्ता जिस पर छाजन की ओलती का पानी गिरता है। बारी। (लश०) पानी का बतासा=(क) बुलबुला। बुदबुद। (ख) दे० नीचे ‘पानी का बुलबुला’। पानी का बुलबुला=बुलबुले की तरह क्षण भर में नष्ट हो जानेवाला। क्षण-भंगुर। नाशवान्। विनाशशील। पानी की तरह पतला=(क) अत्यन्त तुच्छ या हीन। (ख) बहुत कम महत्त्व का। पानी की पोट=ऐसा पदार्थ जिसमें अधिकतर पानी ही पानी हो। जिसमें पानी के सिवा और तत्त्व बहुत कम हो। (ख) ऐसी तरकारियाँ, साग आदि जिनमें जलीय अंश बहुत अधिक हो। पानी के मोल=प्रायः उतना ही सस्ता जितना पीने का पानी होता है। बहुत अधिक सस्ता। पानी देना=वंशज जो पितरों को पानी देता अर्थात् उनता तर्पण करता है। पानी भर खाल=मनुष्य का क्षणभंगुर और सारहीन शरीर। पानी से पतला=(क) बहुत ही तुच्छ या हीन। (ख) बहुत ही सहज या सुगम। कच्चा पानी=ऐसा पानी जो औटाया या पकाया हुआ न हो। नरम पानी=(क) ऐसा पानी जिसके बहाव में अधिक वेग न हो। (ख) ऐसा पानी जिसमें खनिज तत्त्व अपेक्षया कम हों। पक्का पानी=औटाया, गरम किया या पकाया हुआ पानी। भारी पानी=वह पानी जिसमें खिनज पदार्थ अधिक मात्रा में मिले हों। हलका पानी=ऐसा पानी जिसमें खनिज पदार्थ बहुत थोड़े हों। नरम पानी। मुहा०—पानी काटना=(क) पानी की नाली या बाँध काट देना। एक नाली में से दूसरी में पानी ले जाना। (ख) तैरते समय हाथों से आगे का पानी हटाना। पानी चीरना। पानी की तरह बहाना=बहुत ही लापरवाही से और बहुत अधिक मात्रा या या मान में व्यय करना। जैसे—(क) उन्होंने लाखों रुपए पानी की तरह बहाँ दिए। (ख) युद्ध क्षेत्र में सैनिकों ने पानी की तरह खून बहाया। पानी के रेले में बहाना=दे० ऊपर ‘पानी की तरह बहाना’। पानी चढ़ाना=सिंचाई के काम के लि खेत तक पानी पहुँचाना। (किसी चीज पर) पानी चलाना=चौपट या नष्ट करना। (दे० ‘पानी फेरना’) पानी छानना=बच्चे को पहले-पहल माता निकलने के बाद तथा उसका जोर कम होने पर किया जानेवाला एक प्रकार का मांगलिक उपचार या टोटका जिसमें माता उसे बच्चे को इस प्रकार गोद में लेकर बैठती है कि भिगोये हुए चने का पानी जब बच्चे के सिर पर डाला जाता है, तब वह गिरकर माता की गोद में पड़ता है। (कहते हैं कि यह उपचार माता की गोद सदा भरी-पूरी रखने के लिए किया जाता है)। पानी छूना=मल-त्याग के उपरांत जल से गुदा को धोना। आबदस्त लेना। (ग्राम्य) पानी टूटना=कूएँ, ताल आदि में इतना कम पानी रह जाना कि काम में लाया या निकाला न जा सके। पानी तोड़ना=नाव खेने के समय डाँड़ या बल्ली से पानी चीरना या हटाना। पानी काटना। (मल्लाह)। पानी थामना=धार या प्रवाह के विरुद्ध नाव ले जाना। धार पर चढ़ाना। (लश०) (पशुओं को) पानी दिखाना=घोड़े, बैल आदि को पानी पिलाने के लिए उनके सामने पानी भरा बरतन रखना या उन्हें जलाशय तक ले जाना। पानी देना=(क) सींचने के लिए क्यारियों, खेतों आदि में पानी डालना। (ख) पितरों का तर्पण करना। पानी न माँगना=भीषण आघात लगने पर ऐसी स्थिति में आना या होना कि पीने के लिए पानी तक माँगने की शक्ति न रह जाय। पानी पढ़ना=मंत्र पढ़कर पानी फूँकना। जल अभिमंत्रित करना। पानी पर नींब (या बुनियाद) होना=बहुत ही अनिश्चित या दुर्बल आधार होना। पानी परोरना=दे० ऊपर ‘पानी छानना’। पानी पी पीकर=बार बार शक्ति संचित करके। जैसे—पानी पी पीकर किसी को कोसना। विशेष—बहुत अधिक बोलने से गला सूखने लगता है, जिसे तर करने के लिए बोलनेवाले को रह-रहकर पानी का घूँट पीना पड़ता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। (किसी चीज या बात पर) पानी फिरना या फिर जाना=पूरी तरह से चौपट, नष्ट या निरर्थक हो जाना। बिलकुल तत्वहीन या निःसार हो जाना। पानी फूँकना=खौलते हुए पानी में उबाल आना। (किसी चीज या बात पर) पानी फेरना या फेर देना। (क) पूरी तरह नष्ट या चौपट करना। (ख) सारा किया-धरा विफल या व्यर्थ कर देना। जैसे—जरा सी भूल से तुमने मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया। पानी बराना=(क) छोटी नालियाँ बनाकर और क्यारियाँ काटकर खेत सींचना। (ख) ऐसी व्यवस्था करना जिसमें नालियों का पानी इधर-उधर बहने न पावे। (किसी का किसी के सामने) पानी भरना=किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ या हीन सिद्ध होना। उदा०—फूले शफक तो जर्द हों गालों के सामने। पानी भरे घटा तेरे बालों के सामने।—कोई शायर। (कहीं) पानी मरना=किसी स्थान पर पानी का एकत्र होकर सोखा जाना या किसी संधि में प्रविष्ट होकर वास्तु-रचना को हानि पहुँचाना। जैसे—इस दरज से छत (या दीवार) में पानी भरता है। (किसी के सिर) पानी मरना=किसी का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उस पर किसी प्रकार का आक्षेप, आरोप या कलंक हो या लग सके या उसे किसी बात से लज्जित होना पड़े। पानी में आग लगाना=(क) असंभव बात संभव कर दिखलाना। (ख) जहाँ लड़ाई-झगड़े की कोई संभावना न हो, वहाँ भी लड़ाई-झगड़ा खड़ा कर देना। पानी में फेंकना या बहाना=व्यर्थ नष्ट या बरबाद करना। (कहीं) पानी लगना=किसी स्थान पर पानी इकट्ठा होना। पानी जमा होना। (दाँतों में) पानी लगना=पानी की ठंढक से दाँतों में टीस होना। पानी लेना=दे० ऊपर ‘पानी छूना’। पानी सिर से (या पैर से) गुजरना=दे० ‘सिर’ के अंतर्ग०। पानी से पहले पाड़, पुल या बाँध बाँधना=किसी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न होने पर भी केवल आशंकावश बचाव का प्रयत्न या प्रयास करना। गले गले पानी में=लाख कठिनाइयाँ होने पर भी। जैसे—तुम्हारा रुपया तो हम गले गले पानी में भी चुका देंगे। विशेष—बाढ़ आने पर आदमी का धड़ डूबता है और गले तक पानी आता है तब मृत्यु या विनाश समीप दिखाई देता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। २. उक्त तत्त्व का कोई ऐसा रूप जो किसी दूसरे पदार्थ में से आपसे आप या उबालने आदि पर निकला हो या उस पदार्थ के अंश से युक्त हो। जैसे—दही या नारियल का पानी, चूने या नमक का पानी, दाल या नीम का पानी। क्रि० प्र०—आना।—निकलना।—रसना। मुहा०—(किसी वस्तु का) पानी छोड़ना=किसी चीज में से थोड़ा-थोड़ा पानी या और कोई तरल पदार्थ रस-रसकर निकलना। जैसे—पकाने पर किसी तरकारी का पानी छोड़ना। ३. किसी विशिष्ट प्रकार के गुण या तत्त्व से युक्त किया हुआ कोई ऐसा तरल पदार्थ जिसके योग से किसी दूसरी चीज में कोई गुण या तत्त्व सम्मिलित किया जाता है अथवा किसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। जैसे—जहर का पानी, मुलम्मे का पानी। पद—खारा पानी=सोडा मिला हुआ वह पानी जो बंद बोतलों में पीने के लिए बिकता है। मीठा पानी=उक्त प्रकार का वह पानी जिसमें नींबू आदि का सत्त मिला रहता है। विलायती पानी=यंत्र की सहायता से और वाष्प के जोर से बोतलों में भरा हुआ पानी जो सम्मिश्रण, स्वाद आदि के विचार से अनेक प्रकार का होता है। मुहा०—(किसी चीज पर) पानी चढ़ाना, देना या फेरना=किसी तरल पदार्थ या घोल के योग से किसी वस्तु में चमक लाना। ओप लाना। जिला करना। जैसे—चाँदी की अँगूठी पर सोने का पानी चढ़ाना। (किसी चीज से) पानी बुझाना=ईंट, धातु-खंड या ऐसी ही और कोई चीज आग में अच्छी तरह तपाकर और लाल करके इसलिए तुरंत पानी में डालना कि उसका कुछ गुण या प्रभाव पानी में आ जाय। (चिकित्सा आदि के प्रसंग में ऐसे पानी का उपयोग होता है।) (कोई चीज किसी) पानी में बुझाना=किसी विशिष्ट क्रिया से तैयार किये हुए पानी में कोई चीज गरम करके इसलिए डालना कि उस चीज में उस पानी का कोई विशिष्ट गुण या प्रभाव आ जाय। जैसे—जहर के पानी से तलवार बुझाना। ४. उक्त के आधार पर काट करनेवाली चमकदार और बढ़िया तलवार या ऐसा ही और कोई बड़ा अस्त्र। ५. किसी प्रकार की प्रक्रिया में हरबार होनेवाला पानी का उपयोग या प्रयोग। जैसे—(क) तीन पानी का गेहूँ अर्थात् ऐसा गेहूँ जिसकी फसल तीन बार सींची गई हो। (ख) कपड़ों की दो पानी की धुलाई; अर्थात् दो बार धोया जाना। ६. आकाश से जल की होनेवाली वृष्टि। वर्षा। मेह। क्रि० प्र०—आना।—गिरना।—पड़ना।—बरसना। मुहा०—पानी उठना =आकाश में घटाओं या बादलों का आकर छाना जो वर्षा का सूचक होता है। पानी टूटना=लगातार होनेवाली वर्षा बन्द होना या रुकना। पानी बाँधना=जादू या टोना-टोटका करके बरसते या बहते हुए पानी की धार रोकना। ७. प्रतिवर्ष होनेवाली वर्षा के विचार से, पूरे एक वर्ष का समय। जैसे—अभी तो यह पेड़ तीन ही पानी का है; अर्थात् इसने तीन ही बरसातें देखी हैं, या यह तीन ही वर्ष का पुराना है। ८. उक्त के आधार पर कोई काम एक बार या हर बार होने की क्रिया या भाव। दफा। जैसे—(क) वहाँ मुसलमानों और राजपूतों में कई पानी भिडंत हुई थी। (ख) दोनों में एक पानी कुश्ती हो तो अभी फैसला हो जाय। ९. शरीर के किसी अंग के क्षत में से विकार आदि के रूप में निकलने रसनेवाला तरल अंश या पदार्थ। जैसे—आँख या नाक से पानी जाना। मुहा०—पानी उतरना=आँतों या पेट का पानी उतर कर नीचे अंडकोश में आना और एकत्र होना जो एक प्रकार का रोग है। १॰. किसी स्थान का जल-वायु अथवा प्राकृतिक या सामाजिक परिस्थिति जिसका प्रभाव प्राणियों के शारीरिक स्वास्थ्य अथवा आचार-विचार, रहन-सहन आदि पर पड़ता है। जैसे—अच्छे पानी का घोड़ा। पद—कड़ा पानी=ऐसा जलवायु जिसमें उत्पन्न या पले हुए प्राणी ढीले और निर्बल होते हैं। मुहा०—(किसी व्यक्ति को कहीं का) पानी लगना=(क) किसी स्थान के जलवायु का शरीर पर दूषित या हानिकारक परिणाम या प्रभाव होना। जैसे—(क) जब से उन्हें पहाड़ का पानी लगा है, तब से वे बराबर बीमार ही रहते हैं। (ख) कहीं के दूषित वातावरण या परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना। जैसे—देहात से आते ही तुम्हें शहर का पानी लगा। ११. वह जो पानी की तरह कोमल, गीला, ठंडा, नरम या सरस हो। जैसे—तुमने आटा क्या गूँधा है, बिलकुल पानी कर दिया है। मुहा०—(काम को) पानी करना=बहुत ही सरल, सहज, साध्य या सुगम कर डालना। जैसे—मैंने इस काम को पानी कर दिया। (किसी व्यक्ति को) पानी करना या कर देना=कठोरता, क्रोध आदि दूर करके शांत या सरस कर देना। (किसी व्यक्ति को) पानी पानी करना=अत्यन्त लज्जित करना। (किसी का) पानीपानी होना=(क) मन की कठोर वृत्ति का सहसा बदलकर बहुत ही कोमल हो जाना। (ख) किसी घटना या बात के प्रभाव या फल से बहुत ही लज्जित होना। (किसी का) पानी होना या हो जाना=उग्रता, क्रोध आदि का पूरी तरह से शमन होना; और उसके स्थान पर दया, नम्रता आदि का आविर्भाव होना। १२. पानी की तरह फीका या स्वादहीन पदार्थ। जैसे—दूध क्या है, निरा पानी है। १३. मद्य। शराब। (बोल-चाल) पद—गरम पानी=शराब। १४. पुरुष का वीर्य या शुक्र। मुहा०—पानी गिराना=स्त्री के साथ उदासीनता या उपेक्षापूर्वक अथवा विशिष्ट सुख का बिना अनुभव किये यों ही मैथुन या संभोग करना। (बाजारू) १५. पुरुषत्व, मान-प्रतिष्ठा आदि के विचार से मनुष्य में होनेवाला अभिमान, वीरता या ऐसा ही और कोई तत्त्व या भावना। जैसे—ऐसा आदमी किस काम का जिसमें कुछ भी पानी न हो। १६. मान। प्रतिष्ठा। इज्जत। आबरू। क्रि० प्र०—जाना।—बचाना।—रखना।—रहना। पद—पत-पानी=प्रतिष्ठा और सम्मान। इज्जत-आबरू। मुहा०—(किसी का) पानी उतारना या उतार लेना=अपमानित करना। इज्जत उतारना। (किसी को) बे-पानी करना=अपमानित या अप्रतिष्ठित करना। १७. किसी पदार्थ का वह गुण या तत्त्व जिसके फल-स्वरूप उसमें किसी तरह की आभा, चमक या पारदर्शकता आती हो। जैसे—मोती या हीरे का पानी। वि० [?] बहुत सरल और सुगम। उदा०—गुलिस्ताँ के बाद फारसी की और किताबें पानी हो गई थीं।—मिरजा रुसवा (उमराव जान में)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी आँवला  : पुं० [सं० पानीयामलक] आँवले की तरह का एक क्षुप जो जलाशयों के किनारे होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी आलू  : पुं० [सं० पानीयालु] जलाशय के किनारे होनेवाला एक प्रकार का कंद। जलालु।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी-कल  : पुं०=जल-कल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी-तराश  : पुं० [हिं० पानी+तराशना] जहाज या नाव के पेदें में वह बड़ी लकड़ी जिससे वह पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानीदार  : वि० [हिं० पानी+फा० दार (प्रत्य०)] १. जिसमें पानी अर्थात् आभा या चमक हो। जैसे—पानीदार हीरा। २. (धातु का कोई उपकरण) जिस पर किसी रासायनिक प्रक्रिया से चमक लाने के लिए किसी तरह का पानी चढ़ाया गया हो। जैसे—पानीदार तलवार। ३. (व्यक्ति) जिसे अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि का पूरा-पूरा ध्यान हो। अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि पर आँच न आने देनेवाला। स्वाभिमानी।
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पानी-देवा  : वि० [हिं० पानी+देवा=देनेवाला] पितरों को पानी देने अर्थात् उनका तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध आदि करनेवाला, फलतः वंशज या संतान। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. अपने कुल या वंश का व्यक्ति।
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पानीपत  : पुं० [हिं०] १. दिल्ली से ५५ मील उत्तर की ओर स्थित एक प्रसिद्ध नगर। २. उक्त नगर के समीप स्थित एक प्रसिद्ध क्षेत्र या बहुत बड़ा मैदान जहाँ अनेक बड़े-बड़े युद्ध हो चुके हैं।
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पानीफल  : पुं० [हिं० पानी+फल] सिंघाड़ा (फल)।
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पानीवेल  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की लता जो प्रायः साल के जंगलों में पाई जाती और गरमी में फूलती तथा बरसात में फलती है। इसके फल खाये जाते हैं और जड़ दवा के काम आती है।
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पानीय  : विं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+अनीयर्] १. जो पीया जा सके अथवा जो पिये जाने के योग्य हो। २. जिसकी रक्षा की जा सके या जिसकी रक्षा करना आवश्यक अथवा उचित हो। पुं० कोई ऐसा तरल स्वादिष्ट पदार्थ जो पीने के काम में आता हो। (ड्रिंक, बीवरेज)
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पानीय-चूर्णिका  : स्त्री० [ष० त०] बालू। रेत।
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पानीय-नकुल  : पुं० [स० त०] पानी में रहनेवाला नेवला अर्थात् ऊदबिलाव।
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पानीय-पृष्ठज  : पुं० [सं० पानीय-पृष्ठ, ष० त०,√जन्+ड] जलकुम्भी नामक पौधा।
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पानीय-फल  : पुं० [ष० त०] मखाना।
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पानीय-मूलक  : पुं० [ब० स०, कप्] बकुची।
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पानीय-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ सार्वजनिक रूप से राह-चलनेवालों को पानी पिलाने की व्यवस्था हो। पौसरा। प्याऊ।
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पानीय शालिका  : स्त्री० [ष० त०] पानीय-शाला।
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पानीयामलक  : पुं० [सं० पानीय-आमलक, मध्य० स०] पानी आँवला।
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पानीयालु  : पुं० [सं० पानीय-आलु, मध्य० स०] पानी आलू नामक कंद। जलालु।
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पानीयाश्ना  : स्त्री० [सं० पानीय√अश् (खाना)+न+टाप्] एक प्रकार की घास। बल्वजा।
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पानूस  : पुं०=फानूस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानौरा  : पुं० [हिं० पान+बरा] [स्त्री० अल्पा० पानौरी] पीठी, बेसन आदि से लपेट कर तला हुआ पान के पत्ते का पकौड़ा।
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पान्यो  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पान्हर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सरपत।
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पाप  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+प] [वि० पापी] १. धर्म और नीति के विरुद्ध किया जानेवाला ऐसा निंदनीय आचरण या काम जो इस लोक में भी और पर-लोक में भी सब तरह से बुरा और हानिकारक हो और जिसके फलस्वरूप मनुष्य को नरक भोगना पड़ता हो। ‘पुण्य’ का विपर्याय। गुनाह। विशेष—हमारे यहाँ पाप का क्षेत्र दुष्कर्मों की तुलना में बहुत विस्तृत माना गया है। धर्म-शास्त्रों के अनुसार दुष्कर्म करना तो पाप है ही, उचित और कर्त्तव्य कर्म न करना भी पाप माना गया है। साधारणतः दुष्कर्मों का फल जो इसी लोक में मिलता है; पर पाप के फलस्वरूप मनुष्य को मरने के बाद भी नरक में रहकर उसका दंड भोगना पड़ता है। यह कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार का माना गया है। पापों के फल-भोग से बचने के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है। पद—पाप की गठरी या मोट=किसी व्यक्ति के जन्म भर के सब पाप। मुहा०—पाप काटना=पापों के दुष्परिणामों या प्रभाव का प्रायश्चित्त करना या दंड-भोग से क्षीण या नष्ट होना। पाप कमाना=ऐसे दुष्कर्म करना जो पाप समझे जाते हों और जितना फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़े। पाप काटना=किसी प्रकार पापों के दुष्परिणामों का अंत या नाश करना। पाप बटोरना=दे० ऊपर ‘पाप कमाना’। २. पूर्व जन्म में किये हुए पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली वह बुरी अवस्था जिसमें उन पापों का दंड या बहुत अधिक कष्ट भोगने पड़ते हों। जैसे—ईश्वर करे, हमारे पाप शांत हों। मुहा०—पाप उदय होना=ऐसी बुरी अवस्था या समय आना जब अनेक प्रकार के कष्ट ही कष्ट मिलते हों। दुर्दशा के अथवा बुरे दिन आना। जैसे—न जाने हमारे कब के पापों के उदय हुआ था कि ऐसा नालायक लड़का मिला। पाप पड़ना=ऐसी बुरी स्थिति उत्पन्न होना जिससे बहुत अधिक कष्ट या दुःख भोगना पड़े। उदा०—सीरैं जतननु सिसिर रितु, सहि बिरहिन तनु-ताप। बसिबै कौं ग्रीषम दिननु पर्यो परोसिनि पापु।—बिहारी। ३. ऐसी अवस्था, जिसमें किसी काम का वैसा ही दुष्परिणाम भोगना पड़ता हो जैसा पापपूर्ण कर्म का। जैसे—मैं देखता हूँ कि यहाँ तो सच बोलना भी पाप है। मुहा०—पाप लगना=ऐसी स्थिति आना या होना कि जिसमें मनुष्य पापों के फलभोग का भागी बनता हो। जैसे—पापी के संसर्ग से भी मनुष्य को पाप लगता है। ४. कोई ऐसा काम या बात जिससे मुनष्य को बहुत कष्ट भोगना अथवा दुःखी होना पड़ता हो। जैसे—तुमने तो जान-बूझकर यह मुकदमेबाजी का पाप अपने साथ लगा रखा है। मुहा०—पाप काटना=बहुत बड़ी झंझट या बखेड़ा दूर करना। ५. अपराध। कसूर। ६. बुरी बुद्धि या बुरा विचार। ७. अनिष्ट। अहित। खराबी। ८. दे० ‘पापग्रह’। वि० १. पाप करनेवाला। पापी। २. दुराचारी। ३. कमीना। नीच। ४. दुष्ट। पाजी। ५. अमांगलिक। अशुभ। जैसे—पाप-ग्रह।
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पापक  : वि० [सं० पाप+कन्] १. पापा-युक्त। २. पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कर  : वि० [ष० त०]=पापी।
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पाप-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] धार्मिक दृष्टि से ऐसा बुरा और निंदनीय काम जिसे करने से पाप लगता हो। वि० पाप करनेवाला। पापी।
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पापकर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० पापकर्म] [स्त्री० पापकर्मिणी] पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कल्प  : वि० [सं० पाप-कल्पप्] पापी। पुं० खोटा और नीच व्यक्ति।
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पाप-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. ऐसी स्थिति जिसमें किये हुए पापों का फल नहीं भोगना पड़ता। पापों का होनेवाला अंत या क्षय। २. तीर्थ, जहाँ जाने से पापों का क्षय या नाश होता है।
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पाप-गति  : वि० [ब० स०] १. जो किये हुए पापों का फल भोग रहा हो। २. अभागा।
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पाप-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] मंगल, शनि, केतु, राहु आदि अशुभ ग्रह जिनकी दशा लगने पर लोग दुःख पाते हैं।
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पापघ्न  : वि० [सं० पाप√हन् (हिंसा)+टक्] पापों का नाश करनेवाला। पुं० तिल (जिसके दान करने से पापों का क्षय होना माना जाता है)।
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पापघ्नी  : स्त्री० [सं० पापघ्न+ङीप्] तुलसी।
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पाप-चंद्रमा  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार विशाखा और अनुराधा नक्षत्रों के दक्षिण भाग में स्थित चन्द्रमा।
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पापचर  : वि० [सं० पाप√चर् (गति)+ट] [स्त्री० पापचरा] पापपूर्ण आचरण करनेवाला। पापी।
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पाप-चर्य  : पुं० [ब० स०] १. पापी (व्यक्ति)। २. राक्षस।
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पापचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाप√चर्+णिनि] [स्त्री० पापचारिणी]=पाप-चर्य।
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पाप-चेता (तस्)  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पापपूर्ण आचरण करने की बातें सोचता हो।
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पापचेली  : स्त्री० [सं० पाप√चेल्+अच्+ङीष्] पाठा लता।
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पापचैल  : पुं० [कर्म० स०] अशुभ या अमंगल सूचक वस्त्र। वि० [ब० स०] जो उक्त प्रकार के वस्त्र पहने हो।
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पाप-जीव  : वि० [कर्म० स०] पापी। पुं० पुराणानुसार स्त्री, शूद्र, हूण और शवर आदि जीव जिनका संसर्ग कष्टदायक कहा गया है।
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पापड़  : पुं० [सं० पर्पट, प्रा० पप्पड़] उर्द, मूँग आदि दालों, मैदे, चौरेठे आदि अन्नों अथला आलू की बनी हुई एक तरह की मसालेदार पतली चपाती जिसे तल या भूनकर भोजन आदि के साथ खाया जाता है। मुहा०—पापड़ बेलना=(क) कोई काम इस रूप में करना कि वह बिगड़ जाय। (ख) किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए तरह-तरह के और कष्टसाध्य काम करना। (प्रायः ऐसा कामों से सिद्धि नहीं होती)। जैसे—आप सब पापड़ बेल कर बैठे हैं। वि० १. पापड़ की तरह पतला या महीन। २. पापड़ की तरह सूखा और भुरभुरा।
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पापड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] १. छोटे आकार का एक पेड़ जो मध्य-प्रदेश बंगाल, मद्रास आदि में उत्पन्न होता है। इसकी लकड़ी से कंघियाँ और खराद की चीजें बनाई जाती हैं। २. दे० ‘पित्त-पापड़ा’।
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पापड़ा-खार  : पुं० [सं० पर्पटक्षार] केले के पेड़ को जलाकर तैयार किया हुआ क्षार।
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पापड़ी  : स्त्री० [हिं० पापड़ा] एक प्रकार का पेड़ जो मध्यप्रदेश, पंजाब और मदरास में बहुत होता है।
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पापदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पाप√दृश् (देखना)+णिनि] पापपूर्ण दृष्टि से देखनेवाला। बुरी निगाहवाला।
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पाप-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि पापमय हो। २. अमंगलकारिणी या अशुभ दृष्टिवाला। स्त्री० पाप-पूर्ण दृष्टि।
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पाप-धी  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि पापमय या पापासक्त हो। पापकर्मों में मन लगानेवाला। पापमति। पापचेता।
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पाप-नक्षत्र  : पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, ज्येष्ठा आदि कुछ नक्षत्र जो अनिष्टकारक या बुरे माने गये हैं।
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पाप-नामा (मन्)  : वि० [ब० स०] १. अशुभ नामवाला। २. जिसकी सब जगह निंदा या बदनामी होती हो। बदनाम।
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पाप-नाशक  : वि० [ष० त०] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-नाशन  : वि० [ष० त०] पाप का नाश करनेवाला। पापनाशी। पुं० १. प्रायश्चित्त जिससे पाप नष्ट होते हैं। २. विष्णु। ३. शिव।
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पाप-नाशिनी  : स्त्री० [सं० पापनाशिन्+ङीष्] १. शमी वृक्ष। २. काली तुलसी।
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पापनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाप√नश् (नष्ट होना)+ णिच्+णिनि] [स्त्री० पापनाशिनी] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-निश्चय  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का निश्चय कर लिया हो। खोटा काम करने को तैयार। पाप करने को कृतसंकल्प।
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पाप-पति  : पुं० [कर्म० स०] स्त्री का उपपति या यार।
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पाप-पुरुष  : पुं० [कर्म० स० या मध्य० स०] १. पापी प्रकृतिवाला पुरुष। दुष्ट। २. तंत्र में कल्पित पुरुष जिसका सारा शरीर पाप या पापों से ही बना हुआ माना जाता है। ३. पद्म पुराण के अनुसार ईश्वर द्वारा सारे संसार के दमन के उद्देश्य से रचा हुआ पापमय पुरुष।
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पाप-फल  : वि० [ब० स०] (कर्म) जिसका परिणाम बुरा हो और जिसे करने पर पाप लगता हो।
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पाप-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि-सदा पापकर्मों की ओर रहती हो।
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पाप-भक्षण  : पुं० [ब० स०] काल-भैरव।
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पापभाक् (ज्)  : वि० [सं० पाप√भज् (भजना)+ण्वि] पापी।
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पाप-भाव  : वि० [ब० स०]=पाप-मति।
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पाप-मति  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पाप-कर्म करता हो। पाप-बुद्धि। पापचेता।
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पाप-मना (नस्)  : वि० [ब० स०] जिसके मन में पापपूर्ण विचारों का निवास हो।
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पाप-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] बुरे कामों में लगाने या बुरी सलाह देनेवाला मित्र।
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पाप-मोचन  : पुं० [ष० त०] पापों को दूर या नष्ट करना।
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पाप-मोचनी  : स्त्री० [ष० त०] चैत्र कृष्णपक्ष की एकादशी।
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पाप-यक्ष्मा (क्ष्मन्)  : पुं० [कर्म० स०] राजयक्ष्मा या क्षय नामक रोग। तपेदिक।
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पाप-योनि  : वि० [कर्म० स०] बुरी या हीन योनि में उत्पन्न होनेवाला। जैसे—कीट, पतंग आदि। स्त्री० बुरी या हीन योनि।
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पापर  : पुं०=पापड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं० पाँपर] १. कंगाल। २. ऐसा व्यक्ति जिसे अपनी निर्धनता प्रमाणित करने पर दीवानी में बिना रसूम दिये मुकदमा चलाने की अनुमति मिली हो।
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पाप-रोग  : पुं० [मध्य० स०] १. वैद्यक में कुछ विशिष्ट भीषण या विकट रोग जो पूर्व जन्मों के पापों के फल-स्वरूप होनेवाले माने गये हैं। जैसे—कोढ़, क्षयरोग, लकवा आदि। २. मसूरिका या वसन्त नामक रोग। छोटी माता।
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पापरोगी (गिन्)  : वि० [पाप रोग+इनि] [स्त्री० पापरोगिणी] जिसे कोई पाप-रोग हुआ हो।
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पापर्द्धि  : स्त्री० [सं० पाप-ऋद्धि, ब० स०] आखेट। मृगया। शिकार।
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पापल  : वि० [सं० पाप√ला (लेना)+क] जो पाप का कारण हो। पाप उत्पन्न करनेवाला। पुं० एक प्रकार की पुरानी नाप या परिणाम।
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पापलेन  : पुं० [अं० पाँपलिन] मारकीन की तरह का परन्तु उससे कुछ बढ़िया सूती कपड़ा।
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पाप-लोक  : पुं० [ष० त०] [वि० पापलोक्य] १. ऐसा लोक जिसमें पापकर्मों की अधिकता हो। २. नरक, जिसमें पापी लोग पापों का फल भोगने के लिए भेजे जाते हैं।
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पाप-वाद  : पुं० [ष० त०] अशुभ या अमांगलिक शब्द।
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पाप-विनाशन  : पुं० [ष० त०] पाप-मोचन।
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पाप-शमनी  : वि०, स्त्री० [ष० त०] पापों का शमन या नाश करनेवाली। स्त्री० शमी वृक्ष।
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पाप-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० पापशीलता] जो स्वभावतः पापकर्मों की ओर प्रवृत्त रहता हो।
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पाप-शोधन  : पुं० [ष० त०] १. पाप से शुद्ध होने की क्रिया या भाव। पापनिवारण। २. तीर्थ-स्थान।
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पाप-संकल्प  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का पक्का इरादा या संकल्प कर लिया हो।
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पाप-सूदन  : पुं० [सं० पाप√सूद् (नष्ट करना)+णिच्+ल्यु—अन] एक प्राचीन तीर्थ।
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पाप-हर  : वि० [ष० त०] पापनाशक। पापहारक।
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पापहा (हन्)  : वि० [सं० पाप√हन्+क्विप्] पापनाशक।
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पापांकुशा  : स्त्री० [पाप-अंकुश, च० त०,+टाप्] आश्विन् शुक्ला एकादशी।
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पापांत  : पं० [पाप-अंत, ब० स०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
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पापा  : स्त्री० [सं० पाप+टाप्] १. बुद्धग्रह की उस समय की गति जब वह हस्त, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में रहता है। पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो ज्वार, बाजरे आदि की फसल में प्रायः अधिक वर्षा के कारण लगता है। पुं० [अनु०] १. पाश्चात्य देशों में बच्चों की एक बोली में एक शब्द जिससे वे बाप को संबोधित करते हैं। बाबा। बाबू। २. प्राचीन काल में बिशप पादरियों और आज-कल केवल यूनानी पादरियों के एक विशेष वर्ग की सम्मान-सूचक उपाधि।
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पापाख्या  : स्त्री० [सं० पाप+आ√ख्या (कहना)+क+टाप्] दे० ‘पापा’ (बुद्ध की गति)।
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पापाचार  : वि० [पाप-आचार, ब० स०] पाप कर्म करनेवाला। पापी। पुं० [ष० त०] पापपूर्ण आचरण।
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पापाचारी (रिन्)  : वि० [सं० पापाचार+इनि] पापपूर्ण आचरण या कर्म करनेवाला। पापी।
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पापात्मा (त्मन्)  : वि० [पाप-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा या मन सदा पापकर्मों की ओर रहता हो; अर्थात् बहुत बड़ा पापी। बड़े बड़े पाप करनेवाला।
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पापाधम  : पुं० [पाप-अधम, स० त०] पापियों में भी अधम अर्थात् महापापी।
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पापानुबंध  : पुं० [पाप-अनुबन्ध, ष० त०] पाप का कुफल या दुष्परिणाम।
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पापानुवसित  : वि० [पाप-अनुवसित, तृ० त०] १. पापी। २. पापपूर्ण।
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पापापनुत्ति  : स्त्री० [पाप-अपनुत्ति, ष० त०] प्रायश्चित्त।
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पापारंभ  : वि० [पाप-आरंभ, ब० स०] दुष्कर्म करनेवाला। पापी।
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पापारंभक  : वि० [पाप-आरंभिक, ष० त०] जो पापकर्म करना चाहता हो।
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पापार्त्त  : वि० [पाप-आर्त्त, तृ० त०] जो आपने पाप-कर्मों के फल से बहुत ही दुःखी हो।
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पापाशय  : वि० [पाप-आशय, ब० स०] जिसके मन में पाप हो।
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पापाह  : पुं० [पाप-अहन्, कर्म० स०, टच्] १. अशौच या सूतक के दिन का समय। २. अशुभ या बुरा दिन।
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पापिष्ठ  : वि० [सं० पाप+इष्ठन्] बहुत बड़ा पापी।
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पापी (पिन्)  : वि० [सं० पाप+इनि] [स्त्री० पापिनी] १. पाप में रत या अनुरक्त। पाप करनेवाला। पातकी। अघी। २. लाक्षणिक और व्यंग्य के रूप में, क्रूर, निर्मोही या निर्दय। जैसे—पिया पापी न जागे, जगाय हारी।—लोकगीत। पुं० वह जो पाप करता हो या जिसने कोई पाप किया हो।
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पापीयस्  : वि० [सं० पाप+ईयसुन्] [स्त्री० पापीयसी] पापी।
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पापोश  : स्त्री० [फा०] जूता। उपानह।
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पापोशकार  : पुं० [फा०] [भाव० पापोशकारी] जूते बनानेवाला व्यक्ति। मोची।
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पाप्मा (प्मन्)  : वि० [सं०√आप् (व्याप्त करना)+ मनिन्; नि० सिद्धि] पापी। पुं० पाप।
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पा-प्यादा  : क्रि० वि० [फा०] बिना किसी सवारी के। पैदल।
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पाबंद  : वि० [फा०] [भाव० पाबंदी] १. जिसके पैर बँधे हुए हों। २. किसी प्रकार के बंधन में पड़ा हुआ। बद्ध। जैसे—नौकरी या मालिक का पाबंद। ३. पूर्ण रूप से किसी नियम, वचन, सिद्धांत आदि का ठीक समय पर पालन करनेवाला। जैसे—वक्त का पाबंद, हुकुम का पाबंद। ४. जो उक्त के आधार पर कोई काम करने के लिए बाध्य या विवश हो। पुं० १. घोड़े का पिछाड़ी, जिससे उसके पैर बाँधे जाते हैं। २. नौकर। सेवक।
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पाबंदी  : स्त्री० [फा०] १. पाबंद होने की अवस्था, क्रिया या भाव। बद्धता। २. वचन, समय, सिद्धान्त आदि के पालन करने की जिम्मेदारी। ३. उक्त के फल-स्वरूप होनेवाली लाचारी या विवशता।
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पाम (मन्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+मनिन्] १. दानेदार चकत्ते या फुंसियाँ। २. खाज। खुजली। स्त्री० [देश०] १. वह डोरी जो गोटे, किनारी आदि बुनने के समय दोनों तरफ बाँधी जाती है। २. डोरी। रस्सी। (लश०)
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पाम  : पुं० [अं०] ताड़ का पौधा या वृक्ष।
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पापघ्न  : वि० [सं० पामन्√हन् (नष्ट करना)+टक्] पामा रोग का नाश करनेवाला। पुं० गंधक।
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पामघ्नी  : स्त्री० [सं० पामघ्न+ङीप्] कुटकी।
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पामड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामड़ी  : स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामन  : वि० [सं०√पा+मिनिन्, पामन्+न, नलोप] १. जिसे या जिसमें पामा रोग हुआ हो। २. खल। दुष्ट। पुं०=पामा (रोग)।
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पामना  : स०=पावना (पाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पावना (प्राप्य धन)।
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पामर  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप्, पा√मृ (मरना)+घ] १. बहुत बड़ा दुष्ट और नीच। अधम। २. पापी। ३. जिसका जन्म नीच कुल में हुआ हो। ४. निर्बुद्धि। मूर्ख।
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पामर-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का निकृष्ट योग। (फलित ज्योतिष)
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पामरी  : स्त्री० [सं० प्रावार] उपरना। दुपट्टा। स्त्री० सं० ‘पामर’ का स्त्री०। स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामा  : पुं० [सं० पामन्+डाप्] १. एक प्रकार का चर्म रोग जिसमें शरीर पर चकत्ते निकल आते हैं और उनमें की छोटी छोटी फुंसियों में से पानी बहता है। (एंग्जिमा) २. खाज या खुजली नामक रोग।
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पामारि  : पुं० [पामा-अरि, ष० त०] गंधक।
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पामाल  : वि० [फा०] [भाव० पामाली] १. पैर से कुचला या पाँव तले रौंदा हुआ। पद-दलित। २. बुरी तरह से तबाह या बरबाद।
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पामाली  : स्त्री० [फा०] १. पामाल होने की अवस्था या भाव। २. तबाही। बरबादी।
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पामोज़  : पुं० [?] १. एक प्रकार का कबूतर। २. ऐसा घोड़ा जो सवारी के समय सवार की पिंडली को अपने मुँह से पकड़ता हो।
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पायँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँचा  : पुं० [हिं० पाँव] पायजामे की टाँग।
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पाँयजेहरि  : स्त्री० [हिं० पाँय+जेहरी] पायजेब।
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पायँत  : स्त्री०=पायँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँता  : पुं० [हिं० पायँ+सं० स्थान, हिं० थान] १. पलंग या चारपाई का वह भाग जिस पर पैर रहते हैं। पैताना। २. वह दिशा जिधर पैर फैलाकर कोई सोया हो।
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पायँती  : स्त्री० [हिं० पाँयता] पाँयता। पैताना।
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पायंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज़] पैर पोंछने का बिछावन। पावदान।
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पायँपसारी  : स्त्री० [हिं० पाँव+पसारना] निर्मली का पौधा और फल।
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पाय  : पुं० [सं०√पा+घञ्, यक्] जल। पानी। पुं० [फा० पायः] फारसी ‘पा’ (=पैर) का वह संबंधकारक रूप जो उसे यौ० शब्दों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पायखाना; पायजेब आदि।
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पायक  : वि० [सं०√पा (पीना)+ण्वुल—अक, युक्] पान करनेवाला। पीनेवाला। पुं० [फा०] १. दूत। २. सेवक। दास। ३. पैदल सिपाही। ४. वह छोटा कर्मचारी जो प्रायः दौड़-धूपवाले कामों के लिए नियुक्त हो। ५. झंडा। पताका। पुं० [?] १. पहलवान। मल्ल। २. पटेबाज।
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पायकार  : पुं० दे० ‘पैकार’।
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पायखाना  : पुं०=पाखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायगाह  : स्त्री० [सं०] १. पैर रखने की जगह। २. कचहरी। ३. अस्तबल। तबेला।
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पायज  : पुं० [?] पेशाब। मूत्र। उदा०—...निज पायज ज्यौं जल अंक लगावै।—केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायजामा  : पुं०=पाजामा।
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पायजेब  : स्त्री०=पाजेब।
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पाय-जेहरि  : स्त्री०=पाजेब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायठ  : स्त्री०=पाइट।
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पायड़ा  : पुं० दे० ‘पैंडा’।
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पायतन  : पुं०=पायँता।
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पायताबा  : पुं० [फा०]=पाताबा (मोजा)।
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पायदान  : पुं०=पावदान।
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पायदार  : वि० [फा० पायःदार] [भाव० पायदारी] टिकाऊ और मजबूत।
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पायदारी  : स्त्री० [फा०] दृढ़ता और मजबूती।
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पायन  : पुं० [सं०√पा+णिच्+ल्युट्—अन] किसी को कुछ पिलाने की क्रिया या भाव।
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पायना  : स्त्री० [सं०√पा+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. सींचना। २. गीला या तर करना। ३. सान धरना। धार तेज करना।
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पायनिक  : वि० [सं० पायन+ठक्—इक] सिंचाई के काम में आनेवाला।
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पायपोश  : पुं०=पापोश।
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पायबोसी  : स्त्री०=पाबोसी।
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पायमाल  : वि० [भाव० पायमाली]=पामाल।
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पायरा  : पुं० [हिं० पाय+रा (=रखना)] घोड़े की जीन। पुं० [सं० पारावत] एक प्रकार का कबूतर।
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पायल  : स्त्री० [हिं० पाय+ल (प्रत्य०)] १. पैर में पहनने का स्त्रियों का एक गहना। २. तेज चलनेवाली हथनी। ३. बाँस की सीढ़ी। वि० [बच्चा] जन्म के समय जिसके पैर पहले बाहर निकले हों।
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पायस  : पुं० [सं० पायस्+अण्] १. खीर। २. सरल का गोंद। निर्यास। ३. रसायन शास्त्र में, दूधिया रंग का वह तरल पदार्थ जिसमें तेल, सर्जरस आदि के कण सब जगह समान रूप से तैरते रहते हों। (एमल्शन) ४. दे० ‘वसापायस’।
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पायसा  : पुं० [सं० पार्श्व, हिं० पास] पड़ोस। आस-पास का स्थान।
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पायसीकरण  : पुं० [सं० पायस√कृ (करना)+च्वि, ईत्व, ल्युट्—अन] किसी तरह औषध या घोल को ऐसा रूप देना कि उसमें कुछ पदार्थों के कण तैरते रहें, नीचे बैठ न जायँ। (एमल्सिफिकेशन)
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पाययोपवास  : पुं० [सं० पायस-उपवास] अच्छी-अच्छी चीजें खाकर भी यह कहते चलना कि हमने तो कुछ भी नहीं खाया। उपहास करने का झूठा बहाना।
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पाया  : पुं० [फा० पायः] १. पलंग, कुरसी, चौकी आदि का पावा या पैर। २. खंभा। स्तंभ। ३. नींव। बुनियाद। ४. दरजा। पद। मुहा०—पाया बुलन्द होना=पदोन्नति होना। ५. घोड़ों के पैर में होनेवाला एक रोग।
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पायिक  : पुं० [सं० पादविक, पृषो० साधु ‘पादातिक’ का प्रा० रूप] १. पादातिक। पैदल सिपाही। २. चर। दूत।
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पायी (यिन्)  : वि० [सं०√पा (पीना)+णिनि] समस्त पदों के अन्त में, पीनेवाला। जैसे—स्तनपायी। स्त्री०= पाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायु  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+उण्, युक् आगम] १. मलद्वार। गुदा। २. भरद्वाज के पुत्र।
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पाय्य  : वि० [सं०√मा (मापना)+ण्यत्, नि० पादेश] १. जो पान किया जा सके। पीये जाने के योग्य। २. जो पीया जाता हो। पेय। पुं० १. जल। पानी। २. रक्षण।
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पारंगत  : वि० [सं० पारगत] १. जो पार जा या पहुँच चुका हो। २. जिसने किसी विद्या या शास्त्र का बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।
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पारंपरीण  : वि० [सं० परंपरा+खञ्—ईन] परंपरागत।
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पारंपर्य्य  : पुं० [सं० परंपरा+ष्यङ्] १. परंपरा का भाव। २. परंपरा से चली आई हुई प्रथा या रीति। आम्नाय। ३. परंपरा का क्रम। ४. वंश परंपरा।
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पारंपर्योपदेश  : पुं० [पारंपर्य-उपदेश ष० त०] १. परंपरागत उपदेश। २. ऐतिह्य नामक प्रमाण।
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पार  : पुं० [सं० पर+अण्,√पृ (पूर्ति करना)+घञ्] १. (क) झील, नदी, समुद्र आदि के पूरे विस्तार का वह दूसरा किनारा या सिरा जो वक्ता के पासवाले किनारे या सिरे की विपरीत दिशा में और उस विस्तार के अंतिम सिरे पर पड़ता हो। उस ओर का और दूर पड़नेवाला किनारा या सिरा। ऊपर का तट या सीमा। (ख) उक्त या इस ओर अर्थात् इधर या पास का किनारा या सिरा। जैसे—(क) वह नाव पर बैठकर नदी के पार चला गया। (ख) गंगा के इस पार से उस पार तक तैर के जाने में एक घंटा लगता है। क्रि० प्र०—करना।—जाना।—होना। पद—आर-पार, वार-पार। (देखें) मुहा०—पार उतारना=नदी आदि के तल पर से होते हुए दूसरे किनारे तक पहुँचाना। पार उतारना=नाव आदि की सहायता से जलाशय के उस पार पहुँचाना या ले जाना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचाना। २. (क) किसी तल या पृष्ठ के किसी विंदु के विचार से उसके विपरीत या सामनेवाली दिशा के तल या पृष्ठ का कई विंदु या स्थान। (ख) उक्त के आमने-सामने वाले अथवा एक सिरे से दूसरे सिरे तक के दोनों विंदुओं में से प्रत्येक विंदु। जैसे—(क) तख्ते में काँटा ठोंककर उसकी नोक उस पार निकाल दो। (ख) गोली उसके पेट के इस पार से उस पार निकल गई। ३. किसी काम या बात का अंतिम छोर या सिरा। विस्तार या व्याप्ति की चरम सीमा या हद। पद—इस पार=इस लोग में। उदा०—इस पार प्रिये तुम हो...उस पार न जाने क्या होगा।—बच्चन। उस पार=परलोक में। मुहा०—(किसी का) पार पाना=किसी की चरम सीमा, गंभीरता, गहनता आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जैसे—इस विद्या का पार पाना कठिन है। (किसी से) पार पाना=किसी के विरुद्ध या सामने रहने पर उसकी तुलना या मुकाबले में विजयी या सफल होना, अथवा बढ़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—चालाकी में तुम उससे पार नहीं पा सकते। (किसी काम या बात का) पार लगना=ठीक तरह से अन्त या समाप्ति तक पहुँचना। पूरा होना। जैसे—तुम से यह काम पार नहीं लगेगा। (किसी को) पार लगाना=(क) कष्ट, संकट आदि से उद्धार करना। उबारना। (ख) जीवन-काल तक किसी का निर्वाह करना। विशेष—यह मुहा० वस्तुतः ‘किसी का बेड़ा पार लगाना’ का संक्षिप्त रूप है। ४. किसी काम, चीज या बात का सारा अथवा समूचा विस्तार। अव्य० अलग और दूर। परे और पृथक्। जैसे—तुम तो बात कहकर पार हो गये, सारा काम हमारे सिर पर आ पड़ा। पुं० [?] खेत की पहली जोताई।
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पारई  : स्त्री०=परई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारक  : वि० [सं०√पृ+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पारकी] १. पार करने या लगानेवाला। २. उद्धार करने या बचानेवाला। ३. पालन करनेवाला। पालक। ४. प्रीति या प्रेम करनेवाला। प्रेमी। ५. पूर्ति करनेवाला। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. वह पत्र जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण होने का सूचक हो। ३. वह पत्र जिसे दिखलाकर कोई कहीं आ-जा सके या इसी प्रकार का और कोई काम करने का अधिकार प्राप्त करे। पार-पत्र। (पास)
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पार-काम  : वि० [सं० पार√कम् (चापना)+अण्] जो पार उतरने अर्थात् उस पार जाने का इच्छुक हो।
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पारकी  : वि०=परकीय।
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पारक्य  : वि० [सं० पर+ष्यञ्, कुक्] परकीय। पराया। पुं० पवित्र आचरण या पुण्य कार्य जो परलोक में उत्तम गति प्राप्त कराता है।
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पारख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारखद  : पुं०=पार्षद् (सभासद्)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारखी  : पुं० [हिं० परख+ई (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जिसमें किसी चीज की अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि जानने और परखने की पूर्ण योग्यता हो। जैसे—आप कविता के अच्छे पारखी हैं।
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पारखू  : पुं०=पारखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारग  : वि० [सं० पार√गम्+ड] १. पार जानेवाला। २. काम पूरा करनेवाला। ३. किसी विषय का पूरा जानकार।
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पार-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] [भाव० पारगति] १. जो पार चला गया हो। २. जो किसी विषय का पूरा ज्ञान प्राप्त कर चुका हो। पारंगत। ३. समर्थ। पुं० जिन देव।
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पारगति  : स्त्री० [सं० स० त०] पारंगत होने के लिए अध्ययन करना।
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पार-गमन  : पुं० [सं०] एक स्थान या स्थिति से दूसरे स्थान या स्थिति में जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्ज़िट)
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पारगामी (मिन्)  : वि० [सं० पार√गम्+णिनि] पार करने या जानेवाला।
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पारचा  : पुं० [फा० पार्चः] १. टुकड़ा। खंड। धज्जी। २. कपड़ा। वस्त्र। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ४. पहनावा। पोशाक। ५. कच्चे कूओं में, दो खड़ी लकड़ियों के ऊपर रखी हुई वह बेड़ी लकड़ी जिस पर से रस्सी कूएँ में लटकायी जाती है। ६. पानी का छोटा हौज।
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पारज्  : पुं० [सं०√पार (कर्म समाप्त करना)+अजिन्] सोना। सुवर्ण।
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पारजन्मिक  : वि० [सं० पर-जन्मन्, कर्म० स०,+ठक्—इक्] परजन्म अर्थात् दूसरे जन्म से संबंध रखनेवाला।
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पारजात  : पुं०=परजाता (पारिजात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारजायिक  : पुं० [सं० पर जाया, ष० त०,+ठक्—इक] पराई जाया अर्थात् पर-स्त्री सम गमन करनेवाला। व्यभिचारी।
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पारटीट (टीन)  : पुं० [सं०] १. पत्थर। २. शिला। चट्टान।
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पारण  : पुं० [सं०√पार्+ल्युट्—अन] १. पार करने, जाने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी को पार ले जाने की क्रिया या भाव। ३. किसी व्रत या उपवास के दूसरे दिन किया जानेवाला तत्सम्बन्धी कृत्य; और उसके बाद किया जानेवाला भोजन। ४. तृप्त करने की क्रिया या भाव। ५. आज-कल, किसी प्रस्तावित विधान अथवा विधेयक के संबंध में उसे विचारपूर्वक निश्चित और स्वीकृत करने की क्रिया या भाव। ६. परीक्षा या जाँच में पूरा उतरना। उत्तीर्ण होना। (पासिंग) ७. रुकावट या बंधन की जगह पार करके आगे बढ़ना। (पासिंग) ८. पूरा करने की क्रिया या भाव। ९. बादल। मेघ।
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पारणक  : वि० [सं०] पारण करनेवाला।
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पारण-पत्र  : पुं० [सं०] १. किसी प्रकार के पारण का सूचक पत्र। २. वह पत्र जिसके आधार पर या जिसे दिखलाने पर किसी को कहीं आ-जा सकने या इसी प्रकार का और कोई काम कर सकने का अधिकार प्राप्त होता है। (पास)
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पारणा  : स्त्री० [सं०√पार्+णिच्+युच्—अन, टाप्]= पारण।
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पारणीय  : वि० [सं०√पार्+अनीयर्] १. जिसे पार किया जा सके। २. जिसे पूरा या समाप्त किया जा सके।
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पारतंत्र्य  : पुं० [सं० परतंत्र+ष्यञ्] परतंत्रता।
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पारत  : पुं० [सं० पार√तन् (विस्तार)+ड] एक प्राचीन म्लेच्छ जाति। पारद (जाति और देश)।
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पारतल्पिक  : पुं० [सं० परतल्प+ठक्—इक] पर-स्त्री गामी। व्यभिचारी।
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पारत्रिक  : वि० [सं० परत्र+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। पारलौकिक। २. (कर्म या काम) जिससे पर-लोक में उत्तम गति प्राप्त हो।
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पारत्र्य  : पुं० [सं० परत्र+ष्यञ्] परलोक में मिलनेवाला फल।
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पारथ  : पुं०=पार्थ (अर्जुन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिया  : वि० [सं० प्रार्थित] माँगा हुआ। याचित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिव  : वि०, पुं०=पार्थिव।
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पारथी  : पुं० [सं० पापर्द्धिक=बहेलिया।] १. बहेलिया। २. शिकारी। ३. हत्यारा।
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पारद  : पुं० [सं०√पृ+णिच्+तन्, पृषो० त-द] १. पारा। २. एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कैस्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके पड़ता था। ३. उक्त जाति के रहने का देश।
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पारदर्शक  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० पारदर्शकता] प्रकाश की किरणें जिसे पार करके दूसरी ओर जा सकती हों और इसीलिए जिसके इस पार से उस पार की वस्तुएँ दिखाई देती हों। (ट्रान्सपेएरेन्ट) जैसे—साधारण शीशे पारदर्शक होते हैं।
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पारदर्शकता  : स्त्री० [सं० पारदर्शक+तल्+टाप्] पारदर्शक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पारदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पार√दृश्+णिनि] [भाव० पारदर्शिता] १. आर-पार अर्थात् बहुत दूर तक की बात देखने और समझनेवाला। दूरदर्शी। २. पारदर्शक। (दे०)
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पारदारिक  : वि०, पुं० [सं० पर-दारा, ष० त०,+ठक्—इक] पराई स्त्रियों से अनुचित संबंध रखनेवाला। पर-स्त्रीगामी।
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पारदार्य  : पुं० [सं० परदारा+ष्यञ्] पराई स्त्री के साथ गमन। परस्त्री-गमन।
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पारदिक  : वि० [सं० पारद+ठक्—इक] १. पारद या पार से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें पारे का भी कुछ अंश हो। (मर्क़्यूरिक)
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पारदेशिक  : वि० [सं० परदेश+ठक्—इक] दूसरे देश का। विदेशी। पुं० १. दूसरे देश का निवासी। २. यात्री।
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पारदेश्य  : वि०, पुं० [सं० परदेश+ष्यञ्]=पारदेशिक।
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पारद्रष्टा  : वि० [सं०] जो उस पार अर्थात् इस लोक के परे की बातें भी देख या जान सकता हो।
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पारधि  : पुं०=पारधी।
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पारधी  : पुं० [सं० परिधान=आच्छादन] १. बहेलिया। व्याध। २. शिकारी। ३. वधिक। ४. काल। मृत्यु। स्त्री० आड़। ओट। मुहा०—(किसी के) पारधी पड़ना—आड़ में छिपकर कोई व्यापार देखना या किसी की बात सुनना।
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पारन  : पुं०=पुराण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पारक (पार करने या लगानेवाला)।
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पारना  : सं० [सं० पारण] १. गिराना। २. डालना। ३. लेटाना। ४. कुश्ती या लड़ाई में पटकना। पछाड़ना। ५. प्रस्थापित या स्थापित करना। रखना। उदा०—प्यारे परदेश तैं कबै धौं पग पारि हैं।—रत्नाकर। मुहा०—पिंडा पारना=मृतक के उद्देश्य से पिंडदान करना। ६. किसी के हाथ में देना। किसी को सौंपना। ७. किसी के अन्तर्गत करना। किसी में सम्मिलित करना। ८. शरीर पर धारण करना। पहनना। ९. किसी विशिष्ट क्रिया से किसी के ऊपर जमाना या लगाना। जैसे—कजलौटे पर काजल पारना। १॰. कोई अनुचित या आवांछित घटना या बात घटित करना। उदा०—तन जारत, पारति बिपति अपति उजारत लाज।—पद्माकर। ११. कोई काम स्वयं करना अथवा दूसरे से करा देना। उदा०...बरनि न पारौं अंत।—जायसी। १२. कोई काम करने की समर्थता होना। कर सकना। उदा०—बूझि लेहु जौ बूझे पारहु।—जायसी। १३. मचाना। जैसे—हल्ला पारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १४. नियत या स्थिर करना। उदा०—अबहीं ते हद पारो।—सूर। अ० [सं० पारण=योग्य, का हिं० पार, जैसे—पार लगना=हो सकना] कोई काम करने में समर्थ होना। सकना। सं०=पालना। (पालन करना) उदा०—जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह राजकीय अधिकार-पत्र जो किसी राज्य की प्रजा को विदेश यात्रा के समय प्राप्त करना पड़ता है, औ जिसे दिखाकर लोग उसमें उल्लिखित देशों में भ्रमण कर सकते हैं (पास-पोर्ट) विशेष—ऐसे पार-पत्र से यात्री को अपने मूल देश के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है, और उन देशों के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है जिनमें यात्रा करने का उन्हें अधिकार मिला होता है।
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पारबती  : स्त्री०=पार्वती।
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पार-ब्रह्म  : पुं०=पर-ब्रह्म।
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पारभूत  : पुं०=प्राभृत (भेंट)।
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पारमहंस  : पुं०=पारमहंस्य।
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पारमहंस्य  : वि० [सं० परमहंस+ष्यञ्] जिसका संबंध परमहंस से हो। परमहंस-संबंधी।
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पारमाणविक  : वि० [सं०] परमाणु-संबंधी। परमाणु का। (एटमिक)
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पारमार्थिक  : वि० [सं० परमार्थ+ठक्—इक] परमार्थ-संबंधी। परमार्थ का। जैसे—पारमार्थिक ज्ञान। २. परमार्थ सिद्ध करनेवाला। परमार्थ का शुभ फल दिलानेवाला। जैसे—पारमार्थिक कृत्य। ३. सत्यप्रिय। ४. सदा एक-रस और एक रूप बना रहनेवाला। ५. उत्तम। श्रेष्ठ।
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पारमार्थ्य  : पुं० [सं० परमार्थ+ष्यञ्] १. ‘परमार्थ’ का गुण या भाव। २. परम सत्य।
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पारमिक  : वि० [सं० परम+ठक्—इक] १. मुख्य। प्रधान। २. उत्तम। सर्वश्रेष्ठ। ३. परम।
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पारमित  : वि० [सं० पारम् इत, व्यस्तपद] [स्त्री० पारमिता] १. जो उस पार पहुँच गया हो। २. पारंगत। ३. अतिश्रेष्ठ।
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पारमिता  : स्त्री० [सं० पारम् इता, व्यस्तपद] सीमा। हद।
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पारमेष्ठ्य  : पुं० [सं० परमेष्ठिन्+ष्यञ्] १. प्रधानता। २. सर्वोच्च पद। ३. प्रभुत्व। ४. राजचिह्न।
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पारयिष्णु  : वि० [सं०√पार्+णिच्+इष्णुच्] १. जो पार जाने में समर्थ हो। २. विजयी। ३. सफल। ४. रुचिकर और तृप्तिकारक।
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पारयुगीन  : वि० [सं० परयुग+खञ्—ईन] परवर्ती युग से संबंध रखनेवाला अथवा उसमें पाया जाने या होनेवाला।
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पारलोक्य  : वि० [सं० परलोक+ष्यञ्] पारलौकिक।
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पारलौकिक  : वि० [सं० परलोक+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। परलको का। २. (कर्म) जिससे परलोक में शुभ फल की प्राप्ति हो। परलोक सुधारनेवाला। पुं० अंत्येष्टि क्रिया।
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पारवत  : पुं० [सं०] पारावत। (दे०)
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पारवर्ग्य  : वि० [सं० परवर्ग+ष्यञ्] १. अन्य या दूसरे वर्ग से संबंध रखने अथवा उसमें होनेवाला। २. प्रतिकूल। पुं० वैरी। शत्रु।
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पारवश्य  : पुं० [सं० परवश+ष्यञ्]=परवशता।
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पार-वहन  : पुं० [सं०] चीजें आदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्जिट्)
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पारविषयिक  : वि० [सं० पर विषय+ठक्—इक] दूसरे के विषयों से संबंध रखनेवाला।
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पारशव  : पुं० [सं० परशु+अण्] १. लोहा। २. [उपमि० स०] ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न व्यक्ति। ३. पराई स्त्री के गर्भ से उत्पन्न करके प्राप्त किया हुआ पुत्र। ४. एक प्रकार की गाली जिससे यह व्यक्त किया जाता है कि अमुक के पिता का कोई पता नहीं वह तो हरामी का है। ५. एक प्राचीन देश, जिसके संबंध में कहा जाता है कि वहाँ मोती निकलते थे। वि० लौह-संबंधी।
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पारशवी  : स्त्री० [सं० पारशव+ङीष्] वह कन्या या स्त्री जिसका जन्म शूद्रा माता और ब्राह्मण पिता से हुआ हो।
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पारश्व  : पुं०=पारश्वाधिक।
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पारश्वधिक  : पुं० [सं० परश्वध+ठञ्—इक] परशु या फरसे से सज्जित योद्धा।
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पारस  : पुं० [सं० स्पर्श, हिं० परस] १. एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि लोहा इसके स्पर्श से सोना हो जाता है। स्पर्श-मणि। २. पारस पत्थर के समान उत्तम, लाभदायक या स्वच्छ अथवा आदरणीय और बहुमूल्य पदार्थ या वस्तु। जैसे—(क) यदि उनके साथ रहोगे तो कुछ दिनों में पारस हो जाओगे। (ख) यह दवा खाने से शरीर पारस हो जायगा। पुं० [हिं० परसना] १. परोसा हुआ भोजन। २. परोसा। अव्य० [सं० पार्श्व] समीप। नजदीक। पास। उदा०—पारस प्रासाद सेन संपेखे।—प्रिथीराज। पुं० [सं० पलाश] पहाड़ों पर होनेवाला बादाम या खूबानी की जाति का एक मझोले कद का पेड़। गीदड़-ढाक। जापन। पुं० [फा०] आधुनिक फारस देश का एक पुराना नाम।
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पारसनाथ  : पुं०=पार्श्वनाथ (जैनों के तीर्थकर)।
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पारसल  : पुं० [अं०] डाक, रेल आदि द्वारा किसी के नाम भेजी जानेवाली गठरी या पोटली।
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पारसव  : पुं०=पारशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारसा  : वि० [फा०] [भाव० पारसाई] पवित्र और शुद्ध चरित्र तथा विचारोंवाला। बहुत बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी।
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पारसाई  : स्त्री० [फा०] ‘पारसा’ होने की अवस्था या भाव। धार्मिकता और सदाचार।
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पारसाल  : पुं० [फा०] १. गत वर्ष। २. आगामी वर्ष।
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पारसिक  : पुं० [सं० पारसीक, पृषो० सिद्धि] पारसीक। (दे०)
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पारसी  : पुं० [सं० पारसीक से फा० पार्सी] १. पारस अर्थात् फारस (आधुनिक ईरान) का रहनेवाला आदमी। २. आज-कल मुख्य रूप से पारस के वे प्राचीन निवासी जो मुसलमानी आक्रमण के समय अपना धर्म बचाने के लिए वहाँ से भारत चले आये थे। इनके वंशज अब तक बम्बई और गुजरात में बसे हैं। ये लोग अग्निपूजक हैं; और कमर में एक प्रकार का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं। वि० पारस या फारस-संबंधी। पारस का।
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पारसीक  : पुं० [सं०] १. आधुनिक ईरान देश का प्राचीन नाम। फारस। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा। वि०, पुं०=पारसी।
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पारसीकयमानी  : स्त्री० [सं०] खुरासानी वच।
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पारस्कर  : पुं० [सं० पार√कृ०+ष्ट, सुट्] १. एक प्राचीन देश। २. एक गृह्य-सूत्रकार मुनि।
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पारस्त्रैणेय  : पुं० [सं० पर-स्त्री, ष० त०,+ढक्—एय, इनङ्—आदेश] पराई स्त्री से संबंध रखनेवाले व्यक्ति से उत्पन्न पुत्र। जारज पुत्र।
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पारस्परिक  : वि० [सं० परस्पर+ठक्—इक] आपस में एक दूसरे के प्रति या साथ होनेवाला। परस्पर होनेवाला। आपस का। आपसी। (म्यूचुअल)
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पारस्परिकता  : स्त्री० [सं० पारस्परिक+तल्+टाप्] पारस्परिक होने की अवस्था या भाव।
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पारस्य  : पुं० [सं०] पारस देश।
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पारस्स  : पुं० १.=पार्श्व। २.=पार्श्वचर। ३.=पारस्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारहंस्य  : वि० [सं० परहंस+ष्यञ्]=पारमहंस्य।
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पारा  : पुं० [सं० पारद] एक प्रसिद्ध बहुत चमकीली और सफेद धातु जो साधारण गरमी या सरदी में द्रव अवस्था में रहती है और अनुपातिक दृष्टि से बहुत भारी या वजनी होती है। पारद। (मर्करी) मुहा०—(किसी का) पारा चढ़ना=गुस्से से बेहाल होना। पारा पिलाना=(क) किसी वस्तु के अंदर पारा भरना। (ख) किसी वस्तु को इतना अधिक भारी कर देना कि मानो उसके अंदर पारा भर दिया गया हो। पुं० [सं० पारि=प्याला] दीये के आकार का, पर उससे बड़ा मिट्टी का बरतन। परई। पुं० [फा० पारः] खंड या टुकडा।
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पाराती  : स्त्री० [सं० प्रातः] एक प्रकार के धार्मिक गीत जो देहाती स्त्रियाँ पर्वों आदि पर किसी तीर्थ या पवित्र नदी में स्नान करने के लिए आते-जाते समय रास्ते में गाती चलती हैं।
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पारापत  : पुं० [सं० पार-आ√पत् (गिरना)+अच्] कबूतर।
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पारापार  : पुं० [सं० पार-अपार, द्व० स०+अच्] १. यह पार और वह पार। २. इधर और उधर का किनारा। ३. समुद्र।
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पारायण  : पुं० [सं० पार-अयन, स० त०] [वि० पारयणिक] १. किसी अनुष्ठान या कार्य की होनेवाली समाप्ति। २. नियमित रूप से किसी धार्मिक ग्रंथ का किया जानेवाला पाठ। ३. किसी चीज का बार-बार पढ़ा जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारायणी  : स्त्री० [सं० पारायण+ङीप्] १. चिंतन या मनन करते हुए पारायण करने की क्रिया। २. सरस्वती। ३. कर्म। ४. प्रकाश।
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पारावत  : पुं० [सं० पर√अव (रक्षा)+शतृ+अण्] १. कबूतर। २. पेंड़की। ३. बंदर। ४. पहाड़। पर्वत।
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पारावतघ्नी  : स्त्री० [सं० पारावत√हन् (हिंसा)+टक्+ङीष्] सरस्वती नदी।
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पारावत पदी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. मालकंगनी। २. काकजंघा।
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पारावताश्व  : पुं० [सं० पारावत-अश्व, ब० स०] धृष्टद्युम्न।
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पारावती  : स्त्री० [सं० पारावत+अच्+ङीष्] १. अहीरों के एक तरह के गीत। २. कबूतरी।
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पारावारीण  : वि० [सं० पार-अवार, द्व० स०,+ख—ईन] १. जो दोनों किनारों पर जाता या पहुँचता हो। २. पारंगत।
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पाराशर  : वि० [सं० पराशर+अण्] १. पराशर-संबंधी। २. पराशर द्वारा रचित। पुं० पराशर मुनि के पुत्र, वेदव्यास।
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पाराशरि  : पुं० [सं० पराशर+इञ्] १. शुकदेव। २. वेदव्यास।
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पाराशरी (रिन्)  : पुं० [सं० पाराशर्य+णिनि, य लोप] १. संन्यासी। २. वह संन्यासी जो व्यास द्वारा रचित शारीरिक सूत्रों का अध्ययन करता हो।
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पाराशर्य  : पुं० [सं० पराशर+यञ्]=पराशर।
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पारिद्र  : पुं० [सं० पारीन्द्र, पृषो० सिद्धि] सिंह। शेर।
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पारि  : स्त्री० [हिं० पार] १. नदी, समुद्र आदि का किनारा। २. ओर। दिशा। ३. बाँध या मेंड़। ४. मर्यादा। सीमा।
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पारिकांक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० पारि=ब्रह्मज्ञान√काङ्क्ष (चाहना)+णिनि] तपस्वी।
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पारिख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारिखेय  : वि० [सं० परिखा+ढक्—एय] १. परिखा या खाईं से संबंध रखनेवाला। २. परिखा या खाईं से घिरा हुआ।
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पारिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ+ठक्—इक] बच्चों को होनेवाला एक रोग।
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पारिग्रामिक  : वि० [सं० परिग्राम+ठञ्—इक] किसी गाँव के चारों ओर का।
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पारिजात  : पुं० [सं० पं० त०] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक वृक्ष, जो समुद्र-मंथन के समय निकला था, तथा जिसके संबंध में कहा गया है कि इसे इंद्र नंदनवन में ले गये थे। २. परजाता या हरसिंगार नामक पेड़। ३. कचनार। ४. फरहद। ५. सुगंध।
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पारिणामिक  : वि० [सं० परिणाम+ठञ्—इक] १. परिणाम—संबंधी। २. जिसका कोई परिणाम या रूपांतरण हो सके। जो विकसित हो सके। ३. जो पच सके या पचाया जा सके।
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पारिणाय्य  : वि० [सं० परिणय+ष्यञ्] परिणय-संबंधी। पुं० १. वह धन जो कन्या को विवाह के अवसर पर दिया जाता है। दहेज। २. परिणय।
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पारिग्राह्य  : पुं० [सं० परिणाह+ष्यञ्] घर-गृहस्थी के उपयोग में आनेवाली वस्तुएँ या सामग्री।
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पारित  : वि० [सं०√पार्+णिच्+क्त] १. जिसका पारण हुआ हो। २. जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण हो चुका हो। ३. (प्रस्ताव या विधेयक) जो विधिपूर्वक किसी संस्था के द्वारा स्वीकृत किया जा चुका हो। (पास्ड)
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पारितोषिक  : पुं० [सं० परितोष+ठक्—इक] १. वह धन जो किसी को देकर परितुष्ट किया जाता है। २. वह धन जो प्रतियोगिता में विजयी या श्रेष्ठ सिद्ध होने पर अथवा कोई असाधारण योग्यता दिखलाने पर उत्साह बढ़ाने के लिए दिया जाता है। (प्राइज)
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पारिदि  : पुं०=पारद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिध्वजिक  : पुं० [सं० परिध्वज, प्रा० स०,+ठञ्—इक] वह जो हाथ में झंडा लेकर चलता हो।
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पारिपाट्य  : पुं० [सं० परिपाटी+ष्यञ्]=परिपाटी।
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पारिपात्रिक  : वि० [सं० पारिपात्र+ठक्—इक] १. पारिपात्र—संबंधी। २. पारिपात्र पर बसने, रहने या होनेवाला।
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पारिपार्श्व  : पुं० [सं० परिपार्श्व+अण्] वह जो साथ-साथ चलता हो। अनुचर। सेवक।
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पारिपार्श्विक  : पुं० [सं० परिपार्श्व+ठक्—इक] [स्त्री० पारिपार्श्विका] १. सेवक। २. नाटक में, स्थापक का सहायक।
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पारिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्+अण्] १. अस्थिर रहने, हिलने-डुलने या लहरानेवाला। २. तैरनेवाला। ३. विकल। ४. क्षुब्ध। पुं० १. अस्थिरता। २. नाव। ३. विकलता।
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पारिप्लाव्य  : पुं० [सं० पारिप्लव+ष्यञ्] १. अस्थिरता। चंचलता। २. कंपन। ३. आकुलता। ४. हंस।
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पारिभाव्य  : पुं० [सं० परिभू+ष्यञ्] जमानत करने या जामिन होने का भाव।
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पारिभाव्य-धन  : पुं० [सं० ष० त०] वह धन जो किसी की कोई चीज व्यवहृत करने के बदले में उसके यहाँ अग्रिम जमा किया जाता है और जो उसकी चीज लौटाने पर वापस मिल जाता है।
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पारिभाषिक  : वि० [सं० परिभाषा+ठञ्—इक] १. परिभाषा-संबंधी। २. (शब्द) जो किसी शास्त्र या विषय में अपना साधारण से भिन्न कोई विशिष्ट अर्थ रखता हो। (टेकनिकल)
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पारिभाषिकी  : स्त्री० [सं० पारिभाषिक+ङीष्] पारिभाषिक शब्दों की माला या सूची। (टरमिनॉलॉजी)
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पारिमाण्य  : पुं० [सं० परिमाण+ष्यञ्] घेरा। मंडल।
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पारिमिता  : स्त्री० [परिमित+अण्+टाप्]=सीमा।
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पारिमित्य  : पुं० [सं० परिमित+ष्यञ्] सीमा।
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पारिमुखिक  : वि० [सं० परिमुख+ठक्—इक] [भाव० पारिमुख्य] १. जो मुख के समक्ष या सामने हो। २. जो पास में हो या उपस्थित हो।
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पारियात्र  : पुं० [सं०] सात पर्वत-श्रेणियों में से एक, जो किसी समय आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा के रूप में मानी जाती थी। पारिपात्र।
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पारियात्रिक  : वि० [स० परियात्रा प्रा० स०,+अण्+ठक् —इक]=पारिपात्रिक (परिपात्र-संबंधी)।
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पारियानिक  : पुं० [सं० परियान प्रा० स०,+ठक्—इक] ऐसा यान जिस पर यात्रा की जाती हो।
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पारिरक्षक  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ण्वुल्—अक+अण्] संन्यासी।
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पारिव्राज्य  : पुं० [सं० परिव्राज्+ण्य्ञ्] संन्यास।
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पारिश्रमिक  : पुं० [सं० परिश्रम+ठक्—इक] किये हुए परिश्रम के बदले में मिलनेवाला धन। कोई कार्य करने की मजदूरी। (रिम्यूनरेशन)
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पारिष  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिषद  : पुं० [सं० परिषद्+अण्] परिषद् में बैठनेवाला व्यक्ति। परिषद् का सदस्य। (काउंसिलर)
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पारिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+ण्य] अभिनय आदि का दर्शक। सामाजिक।
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पारिस्थितिक  : वि० [सं परिस्थिति+ठक्—इक] १. परिस्थिति संबंधी। २. जो परिस्थितियों का ध्यान रखकर या उनके विचार से किया गया हो। (सर्कस्टैन्शल)
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पारिहारिकी  : स्त्री० [सं० परिहार+ठक्—इक+ङीष्] एक तरह की पहेली।
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पारिहास्य  : पुं० [सं० परिहास+ष्यञ्]=परिहास।
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पारी  : स्त्री० [सं०] १. वह रस्सी जिससे हाथी के पैर बाँधे जाते हैं। २. जल-पात्र। ३. केसर। स्त्री० [हिं० बार, बारी] १. कोई कार्य करने का क्रमानुसार आने या मिलनेवाला अवसर। बारी। २. गेंद-बल्ले के खेल में, प्रत्येक दल को बल्लेबाजी करने का मिलनेवाला अवसर। पाली।
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पारीक्षणिक  : पुं० [सं० परीक्षण+ठक्—इक] वह कर्मचारी जो इस बात की परीक्षा या जाँच के लिए रखा गया हो कि यह अपने काम या पद के लिए उपयुक्त है या नहीं। (प्रोबेशनर) वि० परीक्षण संबंधी। परीक्षण का।
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पारीक्षित  : पुं० [सं० परीक्षित्+अण्] परीक्षित् के पुत्र, जनमेजय।
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पारीछत  : भू० कृ०=परीक्षित।
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पारीण  : वि० [सं० पार+ख—ईन] १. उस पार पहुँचा हुआ। २. पारंगत।
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पारीय  : वि० [सं० पार+छ—ईय] समस्त पदों के अंत में, किसी विषय में दक्ष।
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पारुष्ण  : पुं० [सं० परुष्ण+अण्] एक तरह का पक्षी।
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पारुष्य  : पुं० [सं० परुष+ष्यञ्] परुष होने की अवस्था, गुण या भाव। परुषता।
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पारेरक  : पुं० [सं० पार√ईर् (गति)+ण्वुल्—अक] तलवार।
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पारेवा  : पुं० [सं० पारावत] कबूतर। परेवा।
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पारेषक  : वि० [सं० पार√इष् (गति)+णिच्+ण्वुल—अक] प्रेषण करने या भेजनेवाला। पुं० विद्युत् से समाचार भेजने या बात करने के यंत्रों का वह अंग जिससे समाचार या संदेश भेजे जाते हैं। ‘प्रतिग्राहक’ का विपर्याय। (ट्रांसमीटर)
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पारोकना  : अ० [सं० परोक्ष] १. परोक्ष या आड़ में होना। २. अंतर्धान या अदृश्य होना।
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पारोक्ष  : वि० [सं० परोक्ष+अण्] [भाव० पारोक्ष्य] १. रहस्यमय। २. गुप्त। ३. अस्पष्ट।
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पार्क  : पुं० [अं०] शहरों में, ऐसा उद्यान जिसमें घास उगी हुई हो तथा जहाँ छोटे-मोटे फूल-पौधे भी हों।
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पार्जन्य  : वि० [सं० पर्जन्य+अण्] मेघ या वर्षा-संबंधी।
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पार्ट  : पुं० [अं०] १. अंश। भाग। हिस्सा। २. किसी अभिनय, विषय आदि में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जानेवाला अपने कर्तव्य का निर्वाह।
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पार्टी  : स्त्री० [अं०] १. दल। २. वह समारोह जिसमें आमंत्रित लोगों को भोजन, जलपान आदि कराया जाता है।
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पार्ण  : वि० [सं० पर्ण+अण्] १. पर्ण-संबंधी। पत्तों का। २. पत्तों के द्वारा प्राप्त होनेवाला। जैसे—पार्णकर।
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पार्थ  : पुं० [सं० पृथा+अण्] १. पृथा के पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन या भीम (विशेषतः अर्जुन)। २. अर्जुन नाम का पेड़। ३. राजा।
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पार्थक्य  : पं० [सं० पृथक्+ण्यञ्] १. पृथक् होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिससे चीजों का पृथक्-पृथक् होना सूचित होता हो। ३. अंतर। ४. जुदाई।
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पार्थ-सारथि  : पुं० [ष० त०] १. कृष्ण। २. मीमांसा के एक प्राचीन आचार्य।
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पार्थिव  : वि० [सं० पृथिवी+अञ्] १. पृथ्वी-संबंधी। २. पृथ्वी से उत्पन्न। ३. पृथ्वी से उत्पन्न वस्तुओं का बना हुआ। ४. पृथ्वी पर शासन करनेवाला। ५. राजकीय। पुं० १. मिट्टी का बरतन। २. काया। देह। शरीर। ३. राजा। ४. पृथ्वी पर या पृथ्वी से उत्पन्न होनेवाला पदार्थ।
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पार्थिव-आय  : स्त्री० [ष० त०] मालगुजारी। लगान।
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पार्थिव-नन्दन  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० पार्थिव-नंदिनी] राजकुमारी।
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पार्थिव-पूजन  : पुं० [ष० त०] कच्ची मिट्टी का शिव-लिंग बनाकर उसका किया जानेवाला पूजन।
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पार्थिव-लिंग  : पुं० [ष० त०] १. राजचिह्न। [कर्म० स०] २. कच्ची मिट्टी का बनाया हुआ शिव-लिंग जिसके पूजन का कुछ विशिष्ट विधान है।
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पार्थिवी  : स्त्री० [सं० पार्थिव+ङीष्] १. सीता। २. लक्ष्मी।
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पार्थी  : पुं० [सं० पार्थिव=पृथ्वी-संबंधी] मिट्टी का बनाया हुआ शिवलिंग।
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पार्पर  : पुं० [सं० पर्परी+अण्] १. मिट्ठी भर चावल। २. क्षय। (रोग)। ३. भस्म। राख। ४. यम।
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पार्यंतिक  : वि० [सं० पर्यंत+ठक्—इक] पर्यंत का; अर्थात् अंतिम।
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पार्य  : वि० [सं० पार+ष्यञ्] जो पार अर्थात् दूसरे किनारे पर स्थित हो। पुं० अंत।
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पार्लमेंट  : स्त्री० [अं०] संसद्। (दे०)
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पार्वण  : वि० [सं० पर्वन्+अण्] पर्व या अमावस्या के दिन किया जाने या होनेवाला। पुं० उक्त अवसर पर किया जानेवाला श्राद्ध।
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पार्वतिक  : पुं० [सं० पर्वत+ठक्—इक] पर्वतमाला। पर्वत-श्रेणी।
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पार्वती  : स्त्री० [सं० पर्वत+अण्+ङीष्] पुराणानुसार हिमालय पर्वत की पुत्री, जिसका विवाह शिवजी से हुआ था। गिरिजा। भवानी।
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पार्वती-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. कार्तिकेय। २. गणेश।
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पार्वती-नन्दन  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-कुमार।
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पार्वती-नेत्र  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-लोचन।
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पार्वती-लोचन  : पुं० [ष० त०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पार्श्व  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+श्वण्, पृ—आदेश] १. कंधों और काँखों के नीचे के उन दोनों भागों में से प्रत्येक जिनमें पसलियाँ होती हैं। छाती के दाहिने और बाएँ भागों में से प्रत्येक भाग। बगल। २. पसली की हड्डियों का समुदाय। पंजर। ३. किसी पदार्थ, प्राणी की लंबाई वाले विस्तार में इधर अथवा उधर पड़नेवाला अंग या अंश। बगलवाला छोर या सिरा। ४. किसी क्षेत्र या विस्तार का वह अंग या अंश जो किसी एक ओर या दिशा की सीमा पर पड़ता हो और कुछ दूर तक सीधा चला गया हो। जैसे—इस चौकोर क्षेत्र के चारों पार्श्व बराबर हैं। ५. किसी चीज के अगल-बगल या दाहिने-बाएँ अंशों के पास पड़नेवाला विस्तार। जैसे—गढ़ के दाहिने पार्श्व में बन था। ६. लिखते समय कागज की दाहिनी (अथवा बाईं) ओर छोड़ा जानेवाला स्थान। हाशिया। ८. कपट या छल से भरा हुआ उपाय या साधन। ७. दे० ‘पार्शनाथ’।
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पार्श्वक  : पुं० [सं०] वह चित्र जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखलाया गया हो।
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पार्श्वग  : वि० [सं० पार्श्व√गम् (जाना)+ड] साथ में चलने या रहनेवाला। पुं० नौकर। सेवक।
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पार्श्व-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. पार्श्व या बगल में आया या ठहरा हुआ। २. (चित्र) जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखाया गया हो, दूसरा पार्श्व सामने न हो। (प्रोफाइल) जैसे—दाहिनी ओर जाते हुए व्यक्ति के चित्र में उसकी पार्श्व-गत आकृति ही दिखाई देती है। पुं० वह जिसे अपने यहाँ रखकर आश्रय दिया गया हो या जिसकी रक्षा की गई हो।
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पार्श्वगायन  : पुं० [सं०] आज-कल वह गायन जो नेपथ्य से किसी पात्र या पात्री के गाने के बदले में होता है। विशेष—जो अभिनेता या अभिनेत्री गान-विद्या में पटु नहीं होती, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है। यही गाना पार्श्वगायन कहलाता है।
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पार्श्वचर  : वि० [सं० पार्श्व√चर् (गति)+ट] पास में रहकर साथ चलनेवाला।
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पार्श्वचित्र  : पुं० [सं०] पार्श्वक। (दे०)
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पार्श्व-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशिये में लिखी गई टिप्पणी। (मार्जिनल नोट)
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पार्श्वद  : पुं० [सं० पार्श्व√दा (देना)+क] नौकर। सेवक।
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पार्श्वनाथ  : पुं० [सं०] जैनों के तेइसवें तीर्थंकर।
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पार्श्व-परिवर्त्तन  : पुं० [ष० त०] लेटे या सोये रहने की दशा में करवट बदलना।
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पार्श्ववर्ती  : वि० [सं० पार्श्व√वृत (रहना)+णिनि] [स्त्री० पार्श्ववर्त्तिनी] १. किसी के पास या साथ रहनेवाला। जैसे—राजा के पार्श्ववर्ती। २. किसी के पार्श्व में, आस-पास या इधर-उधर रहने या होनेवाला। जैसे—नगर का पार्श्ववर्ती वन। पुं० १. सहचर। साथी। २. नौकर। सेवक।
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पार्श्व-शीर्षक  : पुं० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशियेवाले भाग में लगाया या लिखा हुआ शीर्षक। (मार्जिनल हेडिंग)
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पार्श्व-शूल  : पुं० [मध्य० स०] बगल या पसलियों में होनेवाला शूल या जोर का दर्द।
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पार्श्व-संगीत  : पुं० [मध्य० स०] १. आधुनिक अभिनयों, चल-चित्रों आदि में वह संगीत जो अभिनय होने के समय परोक्ष में होता रहता है। २. आधुनिक चल-चित्रों में किसी पात्र का ऐसा गाना जो वास्तव में वह स्वयं नहीं गाता, बल्कि उसका गानेवाला परोक्ष या परदे की आड़ में रहकर उसके बदले में गाता है। (प्लेबैक)
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पार्श्वस्थ  : वि० [सं० पार्श्व√स्था (ठहरना)+क] जो पास या बगल में स्थित हो।
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पार्श्वानुचर  : पुं० [पार्श्व-अनुचर, मध्य० स०] सेवक।
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पार्श्वायात  : वि० [पार्श्व-आयात, स० त०] जो पास आया हो।
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पार्श्वासन्न, पार्श्वासीन  : वि० [सं० स० त०] पार्श्व अर्थात् बगल में बैठा हुआ।
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पार्श्विक  : वि० [सं० पार्श्व+ठक्—इक] १. पार्श्व-संबंधी। २. किसी एक पार्श्व या अंग में होनेवाला। ३. किसी एक पार्श्व या अंग की ओर से आने या चलनेवाला। (लेटरल)
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पार्षद्  : स्त्री० [सं०=परिषद्, पृषो० सिद्धि] परिषद्। सभा।
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पार्ष्णि  : स्त्री० [सं० √पृष् (सींचना)+नि, नि० वृद्धि] १. पैर की एड़ी। २. सेना का पिछला भाग। ३. किसी चीज का पिछला भाग। ४. पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर। ५. जीतने या विजय प्राप्त करने की इच्छा। जिगीषा। ६. जाँच-पड़ताल। छान-बीन।
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पार्ष्णि-क्षेम  : पुं० [सं०] एक विश्वेदेव।
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पार्ष्णि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] किसी पर, विशेषतः शत्रु की सेना पर पीछे से किया जानेवाला आक्रमण या आघात।
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पार्ष्णि-ग्राह  : पुं० [सं० पर्ष्णि√ग्रह् (ग्रहण)+अण्] १. वह जो किसी के पीठ पर या पीछे रहकर उसकी सहायता करता हो। २. सेना के पिछले भाग का प्रधान अधिकारी या नायक।
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पार्ष्णि-घात  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर।
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पार्सल  : पुं०=पारसल।
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पालंक  : पुं० [सं०√पाल् (रक्षण)+क्विप्=पाल् अंक, तृ० त०] १. पालक नाम का साग। २. बाज पक्षी। ३. एक प्रकार का रत्न जो काले, लाल या हरे रंग का होता है।
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पालंकी  : स्त्री० [सं० पालंक+ङीष्] १. पालकी नाम का साग। २. कुंदुरू नाम का गंध द्रव्य।
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पालंक्य  : पुं० [सं० पालंक+ष्यञ्] पालक (साग)।
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पालंक्या  : स्त्री० [सं० पालंक्य+टाप्] कुंदुरू नामक पौधा और उसका फल।
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पालंग  : पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अच्] १. पालन करनेवाला। पालक। २. आज-कल कुछ संज्ञाओं के अंत में लगनेवाला एक शब्द जिसका अर्थ होता है—काम, प्रबंध या व्यवस्था करने अथवा सब प्रकार से रक्षित रखनेवाला। जैसे—कोटपाल, राज्यपाल, लेखपाल आदि। पुं० १. पीकदान। उगालदान। २. चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष। ३. बंगाल का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसने वंग और मगध पर साढ़े तीन सौ वर्षों तक राज्य किया था। पुं० [हिं० पालना] १. फलों को गरमी पहुँचाकर पकाने के लिए पत्तों आदि से ढककर या और किसी युक्ति से रखने की विधि। क्रि० प्र०— डालना।—पड़ना। २. ऐसा स्थान जहाँ फल आदि रखकर उक्त प्रकार से पकाये जाते हों। पुं० [सं० पट या पाट] १. वह लंबा-चौड़ा कपड़ा जिसे नाव के मस्तूल से लगाकर इसलिए तानते हैं कि उसमें हवा भरे और उसके जोर से नाव बिना डाँड़ चलाये और जल्दी-जल्दी चले। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—तानना। २. उक्त प्रकार का वह लंबा-चौड़ा और मोटा कपड़ा जो धूप, वर्षा आदि से बचने के लिए खुले स्थान के ऊपर टाँगा या फैलाया जाता है। ३. खेमा। तंबू। शामियाना। ४. गाड़ी, पालकी आदि को ऊपर से ढकने का कपड़ा। ओहार। स्त्री० [सं० पालि] १. पानी को रोकनेवाला बाँध या किनारा। मेड़। २. नदी आदि का ऊँचा किनारा या टीला। ३. नदी आदि के गाट पर के नीचे का ऐसा खोखला स्थान, जो नींव के कंकड़-पत्थर आदि वह बह जाने के कारण बन जाता है। पुं० [सं० पालि] कबूतरों का जोड़ा खाना। कपोत-मैथुन। क्रि० प्र०—खाना। पुं० [?] वह जमीन जो सरकार की निजी संपत्ति होती है।
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पाउल  : पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालक  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पालिका] पालन करनेवाला। पुं० १. पालकर अपने पास रखा हुआ लड़का। २. प्रधान शासक या राजा। ३. घोड़े का साईस। ४. चीते का पेड़। चित्रक। पुं० [सं० पाल्यंक] एक प्रकार का प्रसिद्ध साग। पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—खँड खँड सजी पालक पीढ़ी।—जायसी।
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पालकजूही  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पौधा जो दवा के काम में आता है।
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पालकरी  : स्त्री० [हिं० पलंग] लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जो पलंग, चारपाई, चौकी आदि के पायों को ऊँचा करने के लिए उसके नीचे रखा जाता है।
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पालकाप्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन मुनि जो अश्व, गज आदि से संबंध रखनेवाली विद्या के प्रथम आचार्य माने गये हैं। २. वह विद्या या शास्त्र जिसमें हाथी घोड़े आदि के लक्षणों, गुणों आदि का निरूपण हो। शालिहोत्र।
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पालकी  : स्त्री० [सं० पल्यंक; प्रा० पल्लंक] एक प्रसिद्ध सवारी जिसमें सवार बैठता या लेटता है और जिसे कहार या मजदूर लोग कंधे पर उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। स्त्री० [सं० पालंक] पालक का शाक।
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पालकी गाड़ी  : स्त्री० [हिं० पालकी+गाड़ी] एक तरह की घोड़ागाड़ी जिसका ऊपरी ढाँचा पालकी के आकार का तथा छायादार होता है।
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पालगाड़ी  : स्त्री०=पालकी गाड़ी।
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पालघ्न  : पुं० [सं० पाल√हन् (हिंसा)+क] कुकरमुत्ता।
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पालट  : पुं० [सं० पालन] १. पाला हुआ लड़का। २. गोद लिया हुआ लड़का। दत्तकपुत्र। पुं० [सं० पर्यस्त; प्रा० पलट्ट] १. पलटने की क्रिया या भाव। पलट। २. परिवर्तन। ३. पटेबाजी में एक प्रकार का प्रहार या वार।
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पालटना  : सं०=१. पलटना। २.=पलटाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पालड़ा  : पुं०=पलड़ा।
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पालतू  : वि० [सं० पालना] (पशु-पक्षियों के संबंध में) जो पकड़कर घर में रखा तथा पाला गया हो (जंगली से भिन्न)। जैसे—पालतू तोता पालतू बंदर।
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पालथी  : स्त्री० [सं० पर्य्यस्त=फैला हुआ] दोनों टाँगों को मोड़कर बैठने की वह मुद्रा, जिसमें पैर दूसरी टाँग की रान के नीचे पड़ते हैं। पद्मासन। कमलासन। पलथी। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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पालन  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० पालनीय, पाल्य, भू० कृ० पालित] १. अपनी देख-रेख में और अपने पास रखकर किसी का भरण-पोषण करने की क्रिया या भाव। (मेन्टेनेन्स) २. आज्ञा, आदेश, कर्त्तव्य आदि कार्यों का निर्वाह। (डिसचार्ज, परफॉरमेन्स) ३. अनुकूल आचरण द्वारा किसी निश्चय वचन आदि का होनेवाला निर्वाह। (एबाइड) ४. जीव-जंतुओं के संबंध में उन्हें अपने पास-रखकर उनका वंश, सामर्थ्य या उनसे होनेवाली उपज आदि बढ़ाने का काम। जैसे—मधुमक्षिका पालन, पशु-पालन आदि। ५. तत्काल ब्याई हुई गाय का दूध। पेवस।
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पालना  : स० [सं० पालन] १. व्यक्ति के संबंध में, उसे भोजन, वस्त्र आदि देकर उसका भरण-पोषण करना। पालन करना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। पालन करना। ३. पशु-पक्षियों को मनोविनोद के लिए अपने पास रखकर खिलाना-पिलाना। पोसना। ४. (दुर्व्यसन या रोग) जान-बूझकर अपने साथ लगा रखना और उसे दूर करने का प्रयत्न न करना। ५. कष्ट या विपत्ति से बचाकर सुरक्षित रखना। रक्षा करना। उदा०—आनन सुखाने कहैं, क्यौंहूँ कोउ पालि है।—तुलसी। पुं० [सं० पल्यंक] एक तरह का छोटा झूला, जिसमें बच्चों को लेटाकर झुलाया या सुलाया जाता है।
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पालनीय  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अनीयर] जिसका पालन किया जाना चाहिए अथवा किया जाने को हो।
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पालयिता (तृ)  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+तृच्] वह जो दूसरों का पालन अर्थात् भरण-पोषण करता हो। पालन-पोषण करनेवाला।
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पाल-वंश  : पुं० [सं०] दे० ‘पाल’ के अंतर्गत।
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पालव  : पुं० [सं० पल्लव] १. पल्लव। पत्ता। २. कोमल, छोटा और नया पौधा।
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पाला  : पुं० [सं० प्रालेय] १. बादलों में रहनेवाले पानी या भाप के वे जमे हुए सफेद कण, जो अधिक सरदी पड़ने पर आकाश से पेड़-पौधों आदि पर पतली तह की तरह फैल जाते हैं और इस प्रकार उन्हें हानि पहुँचाते हैं। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा०—(किसी चीज पर) पाला पड़ना=(क) बुरी तरह से नष्ट होना। (ख) इतना दब जाना कि फिर जल्दी उठ न सके। जैसे—आशाओं पर पाला पड़ना। (फसल आदि को) पाला मार जाना=आकाश से पाला गिरने के कारण फसल की पैदावार खराब या नष्ट हो जाना। २. बहुत अधिक ठंढ या सरदी जो उक्त प्रकार के पात के कारण होती है। जैसे—इस साल तो यहाँ बहुत अधिक पाला है। पुं० [सं० पट्ट, हिं० पाड़ा] १. प्रधान स्थान। पीठ। २. वह धुस या भीटा अथवा बनाई हुई मेड़ जिससे किसी क्षेत्र की सीमा सूचित होती हो। ३. कबड्डी आदि के खेलों में दोनों पक्षों के लिए अलग-अलग निर्धारित क्षेत्र में जिसकी सीमा प्रायः जमीन पर गहरी लकीर खींचकर स्थिर की जाती है। पुं० [हिं०] १. पल्ला। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसा काम या बात जिसमें किसी प्रतिपक्षी को दबाना अथवा उसके साथ समानता के भाव से रहकर निर्वाह करना पड़ता है। मुहा०—(किसी से) पाला पड़ना=ऐसा अवसर या स्थिति आना जिसमें किसी विकट व्यक्ति का सामना करना पड़े, या उससे संपर्क स्थापित हो। जैसे—ईश्वर न करे, ऐसे दुष्ट से किसी का पाला पड़े। (किसी से) पाले पड़ना=ऐसी स्थिति में आना या होना कि जिससे काम पड़े, वह बहुत ही भीषण या विकट व्यक्ति सिद्ध हो। जैसे—तुम भी याद करोगे कि किसी के पाले पड़े थे। ३. वह जगह जहाँ दस-बीस आदमी मिलकर बैठा करते हों। ४. अखाड़ा। ५. कच्ची मिट्टी का वह गोलाकार ऊँचा पात्र, जिसमें अनाज भरकर रखते हैं। कोठला। पुं० [सं० पल्लव, हिं० पालो] जंगली बेर के वृक्ष की पत्तियाँ जो चारे के काम आती हैं। पुं०=पाड़ा (टोला या महल्ला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालागन  : स्त्री० [हिं० पावँ+पर+लगना] आदर-पूर्वक किसी पूज्य व्यक्ति के पैर छूने की क्रिया या भाव। प्रणाम।
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पालागल  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, समाचार लाने और ले जानेवाला व्यक्ति। संदेशवाहक। संवादवाहक। हरकारा। २. दूत।
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पालागली  : स्त्री० [सं० पालागल+ङीष्] प्राचीन भारत में, राजा की चौथी और सबसे काम आदर पानेवाली रानी जो शूद्र जाति की होती थी।
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पालाश  : वि० [सं० पलाश+अण्] १. पलाश-संबंधी। २. पलाश का बना हुआ। ३. हरा। पुं० १. तेज पत्ता। २. हरा रंग।
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पालाशखंड  : पुं० [ब० स०] मगध देश।
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पालाशि  : पुं० [सं० पलाश+इञ्] पलाश गोत्र के प्रवर्तक ऋषि।
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पालिंद  : पुं० [सं० पालिंद+अण्] कुंदुरू नामक गंध-द्रव्य।
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पालिंदी  : स्त्री० [सं० पालिंद+ङीष्] १. श्यामा लता। २. त्रिवृता।
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पालि  : स्त्री० [सं०√पल् (रक्षा करना)+इण्] १. कान के नीचे लटकनेवाला कोमल मांस-खंड जिसमें छेद करके बालियाँ आदि पहनी जाती हैं। कान की लौ। २. किसी चीज का किनारा या कोना। ३. कतार। पंक्ति। श्रेणी। ४. सीमा। हद। ५. पुल। सेतु। ६. बाँध। मेंड़। ७. घेरा। परिधि। ८. अंक। क्रोड। गोद। ९. अंडाकार तालाब या सरोवर। १॰. वह भोजन जो परदेशी विद्यार्थी को गुरुकुल से मिलता था। ११. ऐसी स्त्री जिसकी ठोढ़ी पर बाल तथा मूछें हों। १२. चिह्न। निशान। १३. जूँ नाम का कीड़ा। १४. एक तौल जो एक प्रस्थ के बराबर होती थी। १५. दे० ‘पाली’।
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पालिक  : पुं० [सं० पल्यंक] १. पलंग। २. पालकी।
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पालिका  : स्त्री० [सं० पालक+टाप्, इत्व] १. पालन करनेवाली। २. समस्तपदों के अंत में, वह जो पालन-पोषण तथा सुरक्षा का पूरा प्रबंध करती हो। जैसे—नगर पालिका, महानगर पालिका।
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पालित  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+क्त] [स्त्री० पालिता] जिसे पाला गया हो। पाला हुआ। पुं० सिहोर का पेड़।
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पालित्य  : पुं० [सं० पलित+ष्यञ्] वृद्धावस्था में बालों का कुछ पीलापन लिये सफेद होना।
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पालिधी  : स्त्री० [सं०] फरहद का पेड़।
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पालिनी  : वि० स्त्री० [सं०√पाल्+णिनि+ङीप्] जो दूसरों को पालती हो। दूसरों का भरण-पोषण करनेवाली।
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पालिश  : स्त्री० [अं०] १. वह लेप या रोगन जो किसी चीज को चमकाने के लिए उस पर लगाया जाता है। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ाना। २. उक्त प्रकार के लेप से होनेवाली चमक। ओप।
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पालिसी  : स्त्री० [अं०] १. नयी रीति। २. बीमा-संबंधी वह प्रतिज्ञापत्र जो बीमा करनेवाली संस्था की ओर से अपना बीमा करानेवाले को मिलता है।
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पाली (लिन्)  : वि० [सं०√पाल्+णिनि] [स्त्री० पालिनी] १. पालन या पोषण करनेवाला। २. रक्षा करनेवाला। रक्षक।
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पाली  : स्त्री० [?] १. देग। बटलोई। २. बरतन का ढक्कन। ३. ऊपरी तल या पार्श्व। जैसे—कपोलपाली=गाल का ऊपरी तल। ४. प्राचीन भारत की एक प्रसिद्ध भाषा जो गौतम बुद्ध के समय सारे भारत के सिवा वाह्लीक, बरमा, श्याम, सिंहल आदि देशों में बोली और समझी जाती थी। विशेष—गौतम बुद्ध ने इसी भाषा में धर्मोपदेश किया था, और बौद्ध धर्म के सभी प्रमुख तथा प्राचीन ग्रंथ इसी भाषा में हैं। विद्वानों का मत है कि यह मुख्यतः और मूलतः भारत के मूल देश की भाषा थी जिसमें मगधी का भी कुछ अंश सम्मिलित था; इस भाषा का साहित्य बहुत विशाल है। ५. पंक्ति। श्रेणी। ६. तीतर, बटेर, बुलबुल आदि का वह वर्ग जो प्रायः प्रतियोगिता के रूप में लड़ाया जाता है। ७. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार के पक्षी उड़ाये जाते हैं। ८. आज-कल कारखानों आदि में, श्रमिकों के उन अलग-अलग दलों के काम करने का समय जो पारी पारी से आता है। (शिफ्ट) ९. आज-कल गेंद-बल्ले, चौगान आदि खेलों में खिलाड़ियों के प्रतियोगी दलों को खेलने के लिए होनेवाली पारी। (इनिंग) वि०=पैदल। उदा०—धणपाली, पिव पाखरयो, विहूँ भला भड़ जुध्ध।—ढोलामारू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [?] चरवाहा। (राज०)
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पालीवत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़।
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पालीवाल  : पुं० [?] गौड़ ब्राह्मणों के एक वर्ग की उपाधि।
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पालीशोष  : पुं० [सं०] कान का एक रोग।
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पालू  : वि० [हिं० पालना] पाला हुआ। पालतू।
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पाले  : अव्य० [हिं० पाला] अधिकार या वश में। मुहा० दे० ‘पाला’ के अंतर्गत।
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पालो  : पुं० [सं० पालि ?] ५ रुपये भर का बाट या तौल। (सुनार) पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल्य  : वि० [सं०√पाल्+ण्यत्] जिसका पालन होने को हो या किया जाने को हो।
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पाल्लवा  : स्त्री० [सं० पल्लव+अण्+टाप्] प्राचीन भारत में, एक तरह का खेल जो पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों से खेला जाता था।
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पाल्लविक  : वि० [सं० पल्लव+ठक्—इक] फैलनेवाला। प्रसरणशील।
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पाल्वल  : वि० [सं० पल्वल+अण्] १. पल्वल (तालाब) संबंधी। २. पल्वल (तालाब) में होनेवाला। पुं० छोटा ताल या तालाब का पानी।
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पावँ  : पुं० =पाँव।
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पाव  : पुं० [सं० पाद=चतुर्थांश] १. किसी पदार्थ का चौथाई अंश या भाग। २. वह जो तौल या मान में एक सेर का चैथाई भाग अर्थात् चार छटाँक हो। ३. उक्त तौल का बटखरा। ४. नौ गिरह का माप जो एक गज का चतुर्थांश होता है। पद—पाव भर=(क) तौल में चार छटाँक। (ख) माप में नौगिरह। स्त्री० दे० ‘पो’ (पासे का दाँव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पावक  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+ण्वुल्—अक] पवित्र करनेवाला। पुं० १. अग्नि। आग। २. अग्निमंथ या अगियारी नामक वृक्ष। ३. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ४. भिलावाँ। ५. बाय-बिडंग। ६. कुसुम। बर्रे। ७. वरुण वृक्ष। ८. सूर्य। ९. सदाचार।
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पावक-प्रणि  : पुं० [सं० कर्म० स०] सूर्य्यकान्त मणि। आतशी शीशा।
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पावका  : स्त्री० [सं० पाव√कै+क+टाप्] सरस्वती। (वेद)
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पावकात्मज  : पुं० [सं० पावक-आत्मज, ष० त०] पावकि।
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पावकि  : पुं० [सं० पावक+इञ्] १. पावक का पुत्र। कार्तिकेय। २. इक्ष्वाकुवंशीय दुर्योधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र सुदर्शन।
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पावकी  : स्त्री० [सं० पावक+ङीष्] १. अग्नि की स्त्री। २. सरस्वती। (वेद)
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पाव-कुलक  : पुं०=पादाकुलक।
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पावचार  : वि० [सं० पावन-आचार] पवित्र और श्रेष्ठ आचरण करनेवाला। उदा०—तब देखि दुहूँ तिह पावचार।—गुरुगोविंदसिंह। पुं० पवित्र और श्रेष्ठ आचरण।
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पावड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावड़ी  : स्त्री०=पाँवरी (खड़ाऊँ या जूता)।
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पावती  : स्त्री० [हिं० पावना] १. किसी चीज के पहुँचने की लिखित सूचना या प्राप्ति की स्वीकृति। जैसे—पत्र की पावती भेजना। २. किसी से रुपए लेने पर उसकी दी जानेवाली पक्की रसीद।
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पावतीपत्र  : पुं०=पावती।
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पावदान  : पुं० [फा० पाएदान या हिं० पाँव+फा० दान (प्रत्य०)] १. ऊँचे यानों या सवारियों में वह अंग या स्थान जिस पर पाँव रखकर उन पर सवार हुआ जाता है। जैसे—घोड़ागाड़ी या रेलगाड़ी का पावदान। २. मेज के नीचे रखी जानेवाली वह चौकी या लकड़ी की कोई रचना जिस पर कुरसी पर बैठनेवाले पैर रखते हैं। ३. जटा, मूँज, सन आदि अथवा धातु के तारों का बना हुआ वह चौकोर टुकड़ा जो कमरों के दरवाजे के पास पैर पोंछने के लिए रखा जाता है।
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पावन  : वि० [सं√पू+णिच्+ल्यु—अन] [स्त्री० पावनी, भाव० पावनता] १. धार्मिक दृष्टि से, (वह चीज) जो पवित्र समझी जाती हो और दूसरों को भी पवित्र करती या बनाती हो। जैसे—पावन-जल। २. समस्त पदों के अंत में, पवित्र करने या बनानेवाला। जैसे—पतित-पावन। उदा०—सुनु खगपति यह कथा-पावनी।—तुलसी। पुं० १. पावकाग्नि। २. सिद्ध पुरुष। ३. प्रायश्चित्त। ४. जल। पानी। ५. गोबर। ६. रुद्राक्ष। ७. चंदन। ८. शिलारस। ९. गोबर। १॰. कुट नामक ओषधि। ११. पीली भंगरैया। १२. चित्रक। चीता। १३. विष्णु। १४. व्यासदेव का एक नाम।
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पावनता  : स्त्री० [सं० पावन+तल्—सप्] पावन होने की अवस्था या भाव। पवित्रता।
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पावनताई  : स्त्री०=पावनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावनत्व  : पुं० [सं० पावन+त्व]=पावनता।
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पावन-ध्वनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. शंख-नाद। २. शंख।
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पावना  : पुं० [सं० प्रापण, प्रा० पावण] वह जो अधिकार, न्याय आदि की दृष्टि से किसी से प्राप्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो। प्राप्य धन या वस्तु। जैसे—बाजार में उनका हजारों रुपयों का पावना पड़ा (या बाकी) है। लहना। (ड्यूज) स० १. प्राप्त करना। पाना। २. प्रसाद, भोजन आदि के रूप में मिली हुई वस्तु खाना या पीना। जैसे—हम यहीं प्रसाद पावेंगे। ३. किसी चीज या बात का ज्ञान, परिचय आदि प्राप्त करना। ४. दे० ‘पाना’।
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पावनि  : पुं० [सं० पवन+इञ्] पवन के पुत्र हनुमान आदि।
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पावनी  : वि० स्त्री० [सं० पावन+ङीप्] पावन का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० १. हड़। हर्रे। २. तुलसी। ३. गाय। गौ। ४. गंगा नदी। ५. पुराणानुसार शाक द्वीप की एक नदी।
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पावनेदार  : पुं० [हिं० पावना+फा० दार] वह जिसका किसी की ओर पावना निकलता हो। दूसरे से प्राप्य धन लेने का अधिकारी। लहनदार।
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पावन्न  : वि०=पावन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावमान  : वि० [सं० पवमान+अण्] (सूक्त) जिसमें पवमान अग्नि की स्तुति की गयी हो। (वेद)
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पावमानी  : स्त्री० [सं० पावमान+ङीष्] वेद की एक ऋचा।
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पाव-मुहर  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+मुहर] शाहजहाँ के समय का सोने का एक सिक्का जिसका मूल्य एक अशरफी या एक मुहर का चौथाई होता था।
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पावर  : पुं० [सं०] १. वह पासा जिस पर दो बिंदियाँ बनी हों। २. पासा फेंकने का एक प्रकार का ढंग या हाथ। पुं० [अं०] १. वह शक्ति जिससे मशीनें चलाई जाती हैं। यंत्र चलानेवाली शक्ति (जैसे—विद्युत्)। २. अधिकार। शक्ति। ३. सैन्यबल। ४. शासनिक शक्ति। पुं०=पामर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाव-रोटी  : स्त्री० [पुर्त० पाव=रोटी+हिं० रोटी] मैदे, सूजी आदि का खमीर उठाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मोटी और फूली हुई रोटी। डबलरोटी।
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पावल  : स्त्री०=पायल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावली  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+ला (प्रत्य०)] एक रुपये के चौथाई भाग का सिक्का। चवन्नी।
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पावस  : स्त्री० [सं० प्रावृष; प्रा० पाउस] १. वर्षाकाल। बरसात। २. वर्षा। वृष्टि। ३. वर्षाऋतु में समुद्र की ओर से आनेवाली वे हवाएँ जो घटनाओं के रूप में होती हैं और जल बरसाती हैं। (मानसून)
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पावा  : पुं०=पाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मैना (पक्षी)।
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पाश  : पुं० [सं०√पश् (बाँधना)+घञ्] १. वह चीज जिससे किसी को फँसाया या बाँधा जाय। जैसे—जंजीर, रस्सी आदि। २. रस्सी से बनाया जानेवाला वह घेरा जिसमें गागर आदि को फँसाकर कूएँ में लटकाया जाता है। ३. पशु-पक्षियों को फँसाकर पकड़ने का जाल। ४. बंधन। ५. समस्त पदों के अंत में (क) सुन्दरता और सजावट के लिए अच्छी तरह बाँधकर तैयार किया हुआ रूप। जैसे—कर्णपाश। (ख) अधिकता और बाहुल्य। जैसे—केश-पाश। ५. वरुण देवता का अस्त्र जो फंदे के रूप में माना गया है। ६. दे० ‘फाँस’। प्रत्य० [फा०] छिड़कनेवाला। जैसे—गुलाब पाश। पुं० किसी चीज का अंश या खंड। टुकड़ा। पद—पाश-नाश। (देखें)
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पाश-कंठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसके गले में फाXस या बंधन पड़ा हो।
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पाशक  : पुं० [सं० √पश+णिच्+ण्वुल्—अक] १. जाल। फंदा। २. चौपड़ खेलने का पाशा।
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पाश-क्रीड़ा  : स्त्री० [तृ० त०] जूआ। द्यूत।
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पाशOर  : पुं० [ष० त०] वरुण देवता। (जिनका अस्त्र पाश है)।
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पाशन  : पुं० [सं०√पश+णिच्+ल्युट्—अन] १. रस्सी। २. बंधन।
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पाश-पाश  : अव्य० [फा०] टुकड़े-टुकड़े। चूर-चूर।
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पाश-पीठ  : पुं० [ष० त०] बिसात (चौसर खेलने की)।
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पाश-बंध  : पुं० [स० त०] फंदा।
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पाश-बंधक  : पुं० [सं०] बहेलिया। चिड़ीमार।
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पाश-बंधन  : पुं० [स० त०] १. जाल। २. फंदा।
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पाश-बद्ध  : भू० कृ० [स० त०] जाल या फंदे में फँसा हुआ।
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पाश-भृत्  : पुं० [सं पाश√भृ (धारण)+क्विप्, तुक्] वरुण (देवता)।
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पाश-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] हाथ की तर्जनी और अंगूठे के सिरों को सटाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मुद्रा। (तंत्र)
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पाशव  : वि० [सं० पशु+अण्] १. पशु-संबंधी। पशुओं का। २. पशुओं की तरह का। पशुओं का-सा। जैसे—पाशव आचरण। पुं० पशुओं का झुंड।
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पाशवता  : स्त्री०=पशुता। उदा०—प्रेम शक्ति से चिर निरस्त्र हो जावेगी पाशवता।—पंत।
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पाशवान् (वत्)  : वि० [सं० पाश+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पाशवती] जिसके पास पाश या फंदा हो। पाशवाला। पशधारी। पुं० वरुण (देवता)।
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पाशवासन  : पुं० सं० पाशव—आसन कर्म० स०] एक प्रकार का आसन या बैठने की मुद्रा।
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पाशविक  : वि० [पशु+ठञ्—इक] १. पशुओं की तरह का। ३. (आचरण) जो पशुओं के आचरण जैसे हो।
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पाश-हस्त  : पुं० [ब० स०] १. वरुण। २. यम।
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पाशांत  : पुं० [सं०=पार्श्व-अन्त, पृषो० सिद्धि] सिले हुए कपड़े का पीठ की ओर पड़नेवाला अंश।
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पाशा  : पुं० [तु०] तुर्किस्तान में बड़े बड़े अधिकारियों और सरदारों को दी जानेवाली उपाधि।
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पाशिक  : पुं० [सं० पाश+ठक्—इक] चिड़ीमार। बहेलिया।
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पाशित  : भू० कृ० [सं० पाश+णिच्+क्त] पाश में या पाश से बँधा हुआ। पाशबद्ध।
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पाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाश+इनि] १. जो अपने पास पाश या फंदा पखता हो। पाशवाला। पुं० १. वरुण देवता। २. यम। ३. बहेलिया। ४. अपराधियों के गले में फँदा या फाँसी लगाकर उन्हें प्राण-दंड देनेवाला व्यक्ति, जो पहले प्रायः चांडाल हुआ करता था। स्त्री० [फा०] १. जल या तरल पदार्थ छिड़कने की क्रिया या भाव। जैसे—गुलाब-पाशी। २. खेत आदि को जल से सींचने की क्रिया। जैसे—आब-पाशी।
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पाशुपत  : वि० [सं० पशुपति-अण्] १. पशुपति-संबंधी। पशुपति या शिव का। पुं० १. पशुपति या शिव के उपासक एक प्रकार के शैव। २. एक तंत्र शास्त्र जो शिव का कहा हुआ माना जाता है। ३. अथर्ववेद का एक उपनिषद्। ४. अगस्त का फूल।
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पाशुपत-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] एक प्राचीन दर्शन जिसमें पशुपति, पाशु और पशु इन तीन सत्ताओं को मुख्य माना गया था और जिसमें पशु के पाश से मुक्त होने के उपाय बतलाये गये हैं।
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पाशुपत-रस  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध।
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पाशुपतास्त्र  : [पाशुपत-अस्त्र, कर्म० स०] शिव का एक भीषण शूलास्त्र जिसे अर्जुन ने तपस्या करके प्राप्त किया था।
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पाशुपाल्य  : पुं० [सं० पशुपाल+ष्यञ्] पशुपालन।
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पाशु-बंधक  : पुं० [सं० पशुबंध+ठक्—क] यज्ञ में वह स्थान जहाँ बलि पशु बाँधा जाता था।
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पाश्चात्य  : वि० [सं० पश्चात्+त्यक्] १. पीछे का। पिछला। २. पीछे होनेवाला। ३. पश्चिम दिशा का। ४. पश्चिमी महादेश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पौरस्य का विपर्याय। जैसे—पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य साहित्य।
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पाश्चात्यीकरण  : पुं० [सं० पाशचात्य+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्—अन] किसी देश या जाति को पाश्चात्य सभ्यता के साँचे में ढालना या पाश्चात्य ढंग का बनाना। (वेस्टर्नाइज़ेशन)
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पाश्या  : स्त्री० [सं० पाश+यत्+टाप्] पाश। जाल।
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पाषंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्=वेदधर्म,√षंड् (खंडन)+अच्] १. वे सब आचरण और कार्य जो वैदिक धर्म या रीति के हों। २. वैदिक रीतियों का खंडन करनेवाले कार्य और विचार। ३. दूसरों को धोखा देने आदि के उद्देश्य से झूठ-मूठ किये जानेवाले धार्मिक कृत्य। ढोंग।
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पाषंडी (डिन्)  : वि० [सं० पा√षंड्+णिच्+इनि] १. जो वेदों के सिद्धान्तों के विरुद्ध चलता हो और किसी दूसरे झूठे मत का अनुयायी हो। २. जो दूसरों को धोखा देने के लिए अच्छा वेश बनाकर रहता हो।
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पाषक  : पुं० [सं०√पष् (बाँधना)+ण्वुल्—अक] पैर में पहनने का एक गहना।
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पाषर  : स्त्री०=पाखर (हाथी की झूल)।
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पाषाण  : पुं० [सं०√पिष् (चूर्ण करना)+आनच्, पृषो० सिद्धि] १. पत्थर। प्रस्तर। शिला। नीलम, पन्ने आदि रत्नों का एक दोष। ३. गन्धक। वि० [स्त्री० पाषाणी] १. निर्दय। २. कठोर। ३. नीरस।
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पाषाण-गदर्भ  : पुं० [सं० ष० त० ?] दाढ़ में सूजन होने का एक रोग।
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पाषाण-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] अगहन मास की शुक्ला चतुर्दशी। अगहन सुदी चौदस।
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पाषाण-दारण  : पुं० [ष० त०] [वि० पाषाणदारक] पत्थर तोड़ने का काम।
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पाषाण-भेद  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का पौधा जो अपनी पत्तियों की सुन्दरता के लिए बगीचों में लगाया जाता है। पाखानभेद। पथरचूर।
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पाषाण-भेदन  : पुं० [पाषाण√भिद् (तोड़ना)+ल्युट्—अन]=पाषाण भेद।
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पाषाणभेदी (दिन्)  : पुं० [सं० पाषाण√भिद्+णिनि] पाखान भेद। पथरचूर।
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पाषाण-मणि  : पुं० [मयू० स०] सूर्यकांत मणि।
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पाषाण-रोग  : पुं० [ष० त०] अश्मरी या पथरी नाम का रोग।
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पाषाण-हृदय  : वि० [ब० स०] जिसका हृदय बहुत ही कठोर या अत्यन्त क्रूर हो।
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पाषाणी  : स्त्री० [सं० पाषाण+ङीष्] बटखरा। वि० स्त्री० निर्दय (स्त्री)।
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पासंग  : पुं० [फा० पारसंग] १. तराजू के दोनों पलड़ों या पल्लों का वह सामान्य सूक्ष्म अन्तर जो उस दशा में रहता है जब उन पर कोई चीज तौली नहीं जाती। पसंगा। विशेष—ऐसी स्थिति में तराजू पर जो चीज तौली जाती है वह बटखरे या उचित मान से या तो कुछ कम होती है या अधिक; तौल में ठीक और पूरी नहीं होती। २. पत्थर, लोहे आदि के टुकड़े के रूप में वह थोड़ा-सा भार जो उक्त अवस्था में किसी पल्ले या उसकी रस्सी में इसलिए बाँधा जाता है कि दोनों पल्लों का अन्तर दूर हो जाय और चीज पूरी तौली जा सके। विशेष—शब्द के मूल अर्थ के विचार से पासंग का यही दूसरा अर्थ प्रधान है; परन्तु व्यवहारतः इसका पहला अर्थ ही प्रदान हो गया है। ३. वह जो किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ, सूक्ष्म या हीन हो। जैसे—तुम तो चालाकी में उसके पासंग भी नहीं हो। पुं० [?] एक प्रकार का जंगली बकरा जो बिलोचिस्तान और सिन्ध में पाया जाता है, जिसकी दुम पर बालों का गुच्छा होता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में इसके शरीर का रंग कुछ बदलता रहता है। इसकी मादा ‘बोज’ कहलाती है।
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पास  : अव्य [सं० पार्श्व] १. जो अवकाश, काल आदि के विचार से अधिक दूरी पर न हो। समय, स्थान आदि के विचार से थोड़े ही अन्तर पर। निकट। समीप। जैसे—(क) उनका मकान भी पास ही है। (ख) परीक्षा के दिन पास आ रहे हैं। पद—पास-पास या पास ही पास=एक दूसरे के समीप। बहुत थोड़े अन्तर पर। जैसे—दोनों पुस्तकें पास ही पास रखी हैं। मुहा०—(किसी स्त्री के) पास आना, जाना या रहना=स्त्री० के साथ मैथुन या संभोग करना। (किसी के) पास न फटकना=बिलकुल अलग या दूर रहना। (किसी के) पास बैठना=किसी की संगति में रहना। जैसे—भले आदमियों के पास बैठने से प्रतिष्ठा होती है। २. अधिकार में। कब्जे में। हाथ में। जैसे—तुम्हारे पास कितने रुपए हैं ? ३. किसी के निकट जाकर या किसी को सम्बोधित करके। उदा०—माँगत है प्रभु पास दास यह बार बार कर जोरी।—सूर। पुं० १. ओर। तरफ। दिशा। उदा०—अति उतुंग जल-निधि चहुँपासा।—तुलसी। २. निकटता। सामीप्य। जैसे—उसके पास से हट जाओ। ३. अधिकार। कब्जा। जैसे—हमें दस रुपए अपने पास से देने पड़े। विशेष—इस अर्थ में इसके साथ केवल ‘में’ और ‘से’ विभक्तियाँ लगती हैं। पुं० [फा०] किसी के पद, मर्यादा, सम्मान आदि का रखा जानेवाला उचित ध्यान या किया जानेवाला विनयपूर्ण विचार। अदब। लिहाज। जैसे—बड़ों का हमेशा पास करना (या रखना) चाहिए। क्रि० प्र०—करना।—रखना। पुं० [अं०] वह अधिकारपत्र जिसकी सहायता से कोई कहीं बिना रोक-टोक आ-जा सकता हो। पारक। पारपत्र। जैसे—अभिनय या खेल-तमाशे में जाने का समय; रेल से कहीं आने-जाने का पास। विशेष—टिकट या पास में यह अन्तर है कि टिकट के लिए तो धन या मूल्य देना पड़ता है; परन्तु पास बिना धन दिये या मूल्य चुकाये ही मिलता है। वि० १. जो किसी प्रकार की रुकावट आदि पार कर चुका हो। २. जो जाँच, परीक्षा आदि में उपयुक्त या ठीक ठहरा हो; और इसी लिए आगे बढ़ने के योग्य मान लिया गया हो। उत्तीर्ण। जैसे—(क) लड़कों का इम्तहान में पास होना। (ख) विधायिका सभा में कोई कानून पास होना। ३. पावन, प्राप्यक, व्यय आदि के लेखे के संबंध में, जो उपयुक्त अधिकारी के द्वारा ठीक माना गया और स्वीकृत हो चुका हो। जैसे—कर्मचारियों के वेतन का प्राप्यक (बिल) पास होना। पुं० [सं० पास=बिछाना, डालना] आँवें के ऊपर उपले जमाने का काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] भेड़ों के बाल कतरने की कैंची का दस्ता। पुं० १. दे० ‘पाश’। २. दे० ‘पासा’।
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पासक  : पुं०=पाशक।
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पासना  : अ० [सं० पयस्=दूध] स्तनों या थनों में दूध उतरना या उनका दूध से भरना।
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पासनी  : स्त्री० [सं० प्राशन] बच्चों का अन्नप्राशन। उदा०—कान्ह कुँवर की करहु पासनी।—सूर।
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पास-बंद  : पुं० [हिं० पास+फा० बंद] दरी बुनने के करघे की वह लकड़ी जिससे बै बँधी रहती है और जो ऊपर-नीचे जाया करती है।
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पास-बान  : पुं० [फा०] [भाव० पासवानी] पहरा देनेवाला व्यक्ति। द्वारपाल। स्त्री० रखेली स्त्री। (राज०)
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पासवानी  : स्त्री० [फा०] १. द्वारपाल का काम और पद। २. पहरेदारी।
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पास-बुक  : स्त्री० [अं०]=लेखा-पुस्तिका।
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पासमान  : पुं० [हिं० पास+मान (प्रत्य०)] पास रहनेवाला दास। पुं०=पासबान।
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पासवर्ती  : वि०=पाश्वर्ती।
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पाससार  : पुं०=पासासारि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासह  : अव्य०=पास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासा  : पुं० [सं० पाशक, प्रा० पासा] १. हड्डी, हाथी दाँत आदि के छः पहले टुकड़े जिनके पहलों पर एक से छः तक बिंदियाँ अंकित होती हैं और जिन्हें चौसर आदि के खेलों में खेलाड़ी बारी-बारी से फेंककर अपना दाँव निश्चित करते हैं। (डाइस) मुहा०—(किसी का) पासा पड़ना=(क) पासे के पहल का किसी की इच्छा के अनुसार ठीक गिरना। जीत का दाँव पड़ना। (ख) ऐसी स्थिति होना कि उद्देश्य, युक्ति आदि सफल हो। पासा पलटना=(क) पासे का विपरीत प्रकार या रूप में गिरने लगना। (ख) ऐसी स्थिति आना या होना कि जो क्रम चला आ रहा हो, वह उलट जाय, मुख्यतः बुरी से अच्छी दशा या दिशा की ओर प्रवृत्त होना। पासा फेंकना=भाग्य के भरोसे रहकर और सफलता प्राप्त करने की आशा से किसी प्रकार का उपाय, प्रयत्न या युक्ति करना। २. चौपड़ या चौसर का खेल, अथवा और कोई ऐसा खेल जो पासों से खेला जाता हो। ३. मोटी छः पहली बत्ती के आकार में लाई हुई वस्तु। गुल्ली। जैसे—चाँदी या सोने का पासा (अर्थात् उक्त आकार में ढाला हुआ खंड)। ४. सुनारों का एक उपकरण जो काँसे या पीतल का चौकोर ढला हुआ खंड होता है और जिसके हर पहल पर छोटे-बड़े गोलाकार गड्ढे बने होते हैं। (इन्हीं गड्ढों की सहायता से गहनों में गोलाई लाई जाती है।) ५. कोई चीज ढालने का साँचा। (राज०)
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पासार  : पुं० [फा० पासदार] [भाव० पासारी] १. तरफदार। पक्षपाती। २. शरणदाता। रक्षक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासासारि  : पुं० [हिं० पासा+सारि=गोटी] १. पासों की सहायता से खेला जानेवाला खेल। जैसे—चौसर। चौसर आदि की गोट जो पासा फेंककर उसके अनुसार चलाते हैं।
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पासिक  : पुं० [सं० पाश] १. फंदा। २. बंधन।
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पासिका  : स्त्री० [सं० पाश] १. जाल। २. बंधन।
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पासी  : पुं० [सं० पाशिन्, पाशी] १. जाल या फंदा डालकर चिड़ियाँ पकड़नेवाला। बहेलिया। २. एक जाति जो ताड़ के पेड़ों से ताड़ी उतारने का काम करती है। स्त्री० [सं० पाश] १. घोड़ों के पिछले पैर में बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी। २. घास बाँधने की जाली या रस्सी। स्त्री०=पाश (फंदा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाशु  : पुं०=पाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पास।
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पासुरी  : स्त्री०=पसली।
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पाहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास; पाह] १. निकट। पास। समीप। २. प्रति। से। उदा०—जाइ कहहु उन पास सँदेसू।—जायसी।
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पाह  : स्त्री० [हिं० पाहन] एक तरह का पत्थर जिससे लौंग, फिटकरी, अफीम आदि घिसकर आँख पर लगाने का लेप बनाते हैं। पुं० [सं० पथ] पथ। मार्ग।
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पाहत  : पुं० [सं० नि० सिद्धि० पररूप] शहतूत का पेड़।
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पाहन  : पुं० [सं० पाषाण, प्रा० पाहाण] १. पत्थर। उदा०—पाहन ते न कठिन कठिनाई।—तुलसी। २. कसौटी का पत्थर। ३. पारस पत्थर। स्पर्शमणि। उदा०—इतर धातु पाहनहिं परसि कंचन ह्वै सोहै।—नन्ददास। वि० पत्थर की तरह कठोर हृदय का।
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पाहरू  : पुं० [हिं० पहर, पहरा] पहरा देनेवाला। पहरेदार।
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पाहल  : स्त्री० [हिं० पहला] किसी को सिक्ख धर्म की दीक्षा देने के समय होनेवाला धार्मिक कृत्य या समारोह।
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पाहा  : पुं० [सं० पथ] १. पथ। मार्ग। २. मेंड़।
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पाहात  : पुं० [सं० नि० सिद्धि] शहतूत का पेड़।
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पाहार  : पुं० [सं० पयोधर; प्रा० पयोहर] बादल। मेघ। पुं० पहाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहिं  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास, पाह] १. पास। निकट। २. किसी की ओर या प्रति। ३. किसी के उद्देश्य से अथवा उसके पास जाकर।
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पाहि  : अव्य० [सं०√पा+लोट्+सिप्—हि] रक्षा करो। बचाओ।
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पाहिमाम्  : अव्य० [सं० पाहि और माम्व्यस्त पद] त्राहिमाम्।
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पाहीं  : अव्य०=पाहिं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाही  : स्त्री० [हिं० पाह=पथ] किसी किसान की वह खेती जो उसके गाँव या निवास स्थान से कुछ अधिक दूरी पर हो। उदा०—तहाँ नरायन पाही कीन्हां, पल आवैं पल जाई हो।—नारायणदास सन्त।
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पाहुँच  : स्त्री०=पहुँच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहुना  : पुं० [सं० प्राघूर्ण, प्राघुण=अतिथि] [स्त्री० पाहुनी] १. अतिथि। मेहमान। अभ्यागत। २. जमाता। दामाद। (पूरब)
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पाहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना] १. आतिथ्य। मेहमानदारी। पहुनई। २. रखेली स्त्री।
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पाहुर  : पुं० [सं० प्राभृत; प्रा० पाहुड=भेंट] १. उपहार। भेंट। नजर। २. शुभ अवसरों पर संबंधियों और इष्ट-मित्रों के यहाँ भेजे जानेवाले फल, मिठाइयाँ आदि। बैना। बायन।
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पाहू  : पुं० [सं० पथ, पुं० हिं० पाह] १. पाथिक। बटोही। २. पाहुना। मेहमान। ३. दामाद। उदा०—पाहु घर आवे मुकलाऊ आये।—गुरु ग्रंथसाहब। पुं० [?] दोनों ओर से थोड़ा मुड़ा हुआ वह मोटा लोहा जिससे इमारत में अगल-बगल रखे हुए पत्थर जड़कर स्थित किये जाते हैं। पुं० [सं० पाहि] १. घृणा या तुच्छतापूर्वक किसी को पुकारने या संबोधित करने का शब्द। २. तुच्छ व्यक्ति।
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