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पड़  : पुं० [सं० पट=चित्रपट] वह चित्रपट जिसमें किसी व्यक्ति से संबंध रखनेवाली घटनाएँ अंकित हों (राज०)।
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पड़की  : स्त्री०=पंडुक।
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पड़कुलिया  : स्त्री० [सं० पंडुक] एक प्रकार की चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़छत्ती  : स्त्री०=परछत्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़त  : स्त्री०=पड़ता।
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पड़ता  : पुं० [हिं० पड़ना] १. व्यापारिक क्षेत्र में, खरीदी हुई और बेची जानेवाली चीज या माल की वह आर्थिक स्थिति, जो इस बात की सूचक होती है कि वह चीज या माल कितने दाम पर खरीदा गया है अथवा उस पर कितनी लागत आई है और उसके संबंध में कितने अनिवार्य तथा आवश्यक व्यय करने पड़ते हैं या करने पड़ेंगे। विशेष—व्यापारी लोग जब कोई माल कहीं से मँगाते या अपने यहाँ तैयार कराते या बनवाते हैं, तब पहले हिसाब लगाकर यह समझ लेते हैं कि इस पर वास्तविक रूप से हमारा इतना धन लगा है, और तब उस पर अपना मुनाफा रखकर उसे बेचते हैं। मुहा०—पड़ता खाना=ऐसी स्थिति होना कि उचित मूल्य या लागत निकालने के बाद कुछ मुनाफा या लाभ हो सके। जैसे—(क) आज-कल देहात से गेहूँ मँगाकर बाजार में बेचने से हमारा पड़ता नहीं खाता। (ख) बारह रुपये जोड़े पर यह धोती बेचने में हमारा पड़ता नहीं खाता। पड़ता निकालना,फैलाना या बैठाना=भाड़े मूल्य लागत सूद आदि का हिसाब लगाकर यह देखना कि किस चीज पर सब मिलाकर वस्तुतः हमारा कितना व्यय हुआ है। २. आर्थिक दृष्टि से आय-व्यय आदि का औसत या माध्यम। जैसे—इस दूकान से उन्हें दस रुपए रोज मुनाफे का पड़ता पड़ जाता है। क्रि० प्र०—पड़ना।—बैठना। ३. भू-कर की दर। लगान की शरह।
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पड़ताल  : स्त्री० [सं० परितोलन] १. कोई काम या चीज आदि से अंत तक अच्छी तरह जाँचते हुए यह देखना कि उसमें कहीं कोई कसर या भूल तो नहीं है। अच्छी तरह की जानेवाली छान-बीन या देख-भाल। २. पटवारियों (आधुनिक लेखपालों) के द्वारा अपने खातों या पत्रियों की वह जांच, जो यह जानने के लिए की जाती है कि खेतों को जोतने-वालों के नापों और उसमें होनेवाली फसलों का ब्योरा कहीं गलत तो नहीं लिखा गया है। ३. उक्त के फलस्वरूप किया जानेवाला संसोधन या सुधार। ४. तुलना। बराबरी। मुकाबला। (क्व०)।
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पड़तालना  : स० [हिं० पड़ताल+ना (प्रत्य०)] आदि से अंत तक सब बातें देखते हुए पड़ताल अर्थात् अनुंसधान या जाँच करना।
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पड़ती  : स्त्री० [हिं० पड़ना] वह खेत जो जमीन की उर्वरा-शक्ति बढ़ाने के लिए किसी विशिष्ट ऋतु में जोता-बोया न गया हो। क्रि० प्र०—छोड़ना।—पड़ना।—रखना। मुहा०—पड़ती उठाना=(क) पड़ती का जोता जाना। पड़ती पर खेती होना। पड़ती उठाना=पड़ती पड़ी हुई जमीन किसी खेतिहर को जोतने-बोने के लिए लगान पर देना।
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पड़-दादा  : पुं०=परदादा।
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पड़ना  : अ० [सं० पतन, प्रा० पड़न] १. किसी चीज का किसी आधान या पात्र में छोड़ा, डाला या पहुँचाया जाना। अन्दर प्रविष्ट किया जाना या होना। जैसे—(क) कान में दवा पड़ना; (ख) तरकारी (या दाल में) नमक पड़ना, (ग) पेट में भोजन पड़ना, (घ) पेटी में मत-पत्र पड़ना। २. किसी चीज का ऊपर से गिरकर या बाहर से आकर किसी दूसरी चीज पर (या मैं) विद्यमान या स्थित होना। जैसे—आँख में कंकड़ी या दूध में मक्खी पड़ना। ३. इधर-उधर या ऊपर से आकर किसी प्रकार का आघात या प्रहार या वार होना। जैसे—(क) किसी पर घूँसा, थप्पड़ या लात पड़ना। (ख) गरदन पर तलवार या सिर पर लाठी पड़ना। ४. एक चीज का किसी दूसरी चीज पर ठीक ढंग या तरह से डाला, फैलाया, बिछाया या रखा जाना। जैसे—(क) आँगन में (या छत पर) पलंग पड़ना। (ख) खंभों (या दीवारों) पर छत पड़ना। (ग) जूएखाने में जूए का फ़ड़ पड़ना। ५. किसी आपातिक रूप में उपस्थित, प्राप्त या प्रत्यक्ष होना। जैसे—(क) इस साल बहुत गरमी (या सरदी) पड़ी है। (ख) आज चार दिन से बराबर पानी (या ओला) पड़ (बरस) रहा है। (ग) अंत में यही बदनामी हमारे पल्ले पड़ी है। ६. कोई अनिष्ट, अवांछित या कष्टदायक घटना घटित होना अथवा ऐसी ही कोई विकट परिस्थिति या बात सामने आना। जैसे—(क) सिर पर आफत या बला पड़ना। (ख) किसी के घर डाका पड़ना। विशेष—विपत्ति, संकट आदि के प्रसंगों में इस क्रिया का प्रयोग बिना किसी संज्ञा के भी होता है। जैसे—जब तुम पर पड़ेगी, तब तु्महें मालूम होगा। ७. आकस्मिक रूप अथवा संयोग से उपस्थित होना या सामने आना अथवा पहुँचना। जैसे—(क) एक दिन घूमता-फिरता मैं भी वहाँ जा पड़ा। (ख) बात (या मौका) पड़ने पर तुम भी सारा हाल साफ-साफ कह देना। (ग) अब की विजया दशमी (या होली) रविवार को पड़ेगी। ८. आलस्य, थकावट, रोग आदि के कारण अथवा विश्राम करने के लिए चुपचाप लेट रहने की स्थित में होना। जैसे—(क) नींद खुल जाने पर भी वे घंटों बिस्तर पर पड़े रहते हैं। (ख) इधर महीनों से वे बिस्तर पर पड़े हैं। (अर्थात् बीमार हैं)। (ग) थोड़ी देर यों ही पड़े रहो; तबियत ठीक हो जायेगी। ९. बिना किसी उद्देश्य, कार्य या प्रयोजन के कहीं रहकर दिन काटना। यों ही या व्यर्थ रहकर दिन काटना। यों ही या व्यर्थ रहकर समय गुजारना या बिताना। जैसे—(क) दिन भर सब लोग धर्मशाले में पड़े रहे। (ख) महीनों से बहू अपने मैके में पड़ी है। १॰. कुछ काम-धंधा न करते हुए हीन अवस्था में कहीं रहकर दिन बिताना। जैसे—आजकल तो वह कलकत्ते में अपने भाई के यहाँ पड़े हैं। मुहा०—पड़ रहना=जैसे—तैसे हीन अवस्था में लेटकर सोना। ‘शयन’ के लिए उपेक्षासूचक पद। उदा०—मसजिद में पड़े रहेंगे जो मैखाना बंद है।—कोई शायर। पड़े रहना=(क) लेटे रहना। (ख) हीन अवस्था में कहीं रहकर दिन बिताना। जैसे—अभी दो-चार दिन तुम यहीं पड़े रहो। (ग) रोगी होने की दशा में लेटे रहना। जैसे—आज दिन भर चुपचार पड़े रहो। संध्या तक तबियत ठीक हो जायगी। ११. किसी के किसी काम या बात के बीच में इस प्रकार सम्मिलित होना कि उससे कोई विशिष्ट संबंध सूचित हो अथवा किसी प्रकार अथवा किसी प्रकार का हस्तक्षेप होता हुआ जान पड़े। जैसे—मैं इस मामले में पड़ना नहीं चाहता हूँ। १२. किसी काम, चीज या बात का ऐसी स्थिति में रहना या होना का आवश्यक या उचित उपयोग अथवा कार्य न हो रहा हो। जैसे—(क) सारा मकान खाली पड़ा है। (ख) आधे से ज्यादा काम बाकी पड़ा है। (ग) मुकदमा वर्षों से हाईकोर्ट में पड़ा है। (घ) ये पुस्तकें यहाँ यों ही पड़ी हैं। १३. किसी विशिष्ट प्रकार की परिस्थिति या स्थिति में अवस्थित या वर्तमान रहना या होना। जैसे—(क) आजकल वह धन कमाने के फेर में पड़े हैं। (ख) उनका मकान अभी तक बंधक पड़ा है। (ग) चार दिन में इसका रंग काला पड़ा जायगा। (घ) दो कौड़ियाँ चित और तीन कौड़ियाँ पट पड़ी हैं। १४. टिकने ठहरने आदि के लिए कुछ समय तक कहीं अवस्थान होना। कुछ समय तक रहने के लिए डेरा या पड़ाव डाला जाना। जैसे—चार दिन से तो वे हमारे यहाँ पड़े हैं। १५. डेरे, पड़ाव आदि के संबंध में, नियत या स्थित किया जाना। बनाया जाना। जैसे—आज संध्या को रामनगर में डेरा (या पड़ाव) पड़ेगा। १६. यात्रा आदि के मार्ग में प्रत्यक्ष या विद्यमान होना। ऐसी स्थिति में होना कि रास्ते में दिखाई दे या सामने आवे। जैसे—उनके मकान के रास्ते में एक पुल (या मंदिर) भी पड़ता है। १७. किसी प्रकार अथवा रूप में उत्पन्न होकर या यों ही उपस्थित, प्रस्तुत या विद्यमान होना। जैसे—(क) फल में कीड़े पड़ना। (ख) घाव में मवाद पड़ना। (ग) मन में कल (या चैन) पड़ना। १८. किसी प्रकार की विशेष आवश्यकता या प्रयोजन होना। गरज या जरूरत होना। जैसे—जब उसे गरज (या जरूरत) पड़ेगी, तब वह आप ही आवेगा। विशेष—कभी-कभी इस अर्थ में बिना संज्ञा के भी इसका प्रयोग होता है। जैसे—हमें क्या पड़ी है, जो हम उनके बीच में बोलने खड़े हों। १९. बहुत अधिक या उत्कट अभिलाषा, चिंता अथवा प्रवृत्ति होना। किसी काम या बात के लिए छटपटी, बेचैनी या विकलता होना। (प्रायः बिना संज्ञा के ही प्रयुक्त) जैसे—तुम्हें तो बस तमाशे (या बरात) में जाने की पड़ी है। २॰. तारतम्य, तुलना आदि के विचार से अपेक्षया कुछ घटी या बढ़ी हुई अथवा किसी विशिष्ट स्थिति में आना, रहना या सिद्ध होना। जैसे—(क) यह कपड़ा कुछ उससे अच्छा पड़ता है। (ख) अब तो वह पहले से कुछ नरम पड़ रहा है। (ग) यह लड़का दरजे (या पढ़ने) में कमजोर पड़ता है। (घ) पाव भर आटा उसके खाने के लिए कम पड़ता है। २१. तौल, दूरी, नाप आदि के प्रसंग में, किसी विशिष्ट परिमाण या मान का ठहरना या सिद्ध होना। जैसे—(क) उनका मकान यहाँ से कोस भर पड़ता है। (ख) यह धोती नापने पर नौ हाथ ही पड़ती है। २२. आर्थिक प्रसंगों में, किसी काम, चीज या बात का हानि-लाभ की दृष्टि या विचार से किसी विशिष्ट स्थिति में आना, रहना या होना। जैसे—(क) इकट्ठा लिया हुआ सौदा सस्ता पड़ता है। (ख) शहरों में रहने पर खर्च अधिक पड़ता है। (ग) आजकल यहाँ के मिस्तरियों को चार-पाँच रुपए रोज पड़ जाता है। (घ) इस काम में इतना खरच (या घाटा) पड़ता है। २३. व्यापारिक क्षेत्रों में, किसी चीज की दर, भाव, मूल्य, लागत आदि के विचार से किसी स्थिति में आना, रहना या होना। जैसे—यह थान घर आकर २॰ का पड़ता है। २४. किसी काम, चीज या बात का अनुकूल, उपयुक्त या बराबरी का ठहरना या सिद्ध होना। जैसे—तुम्हें तो दस रुपया रोज भी पूरा नहीं पड़ेगा। २५. बही-खाते, लेन-देन, हिसाब-किताब आदि में किसी खाते या विभाग में अथवा किसी व्यक्ति के नाम लिखा जाना। जैसे—(क) यह खरच प्रकाशन खाते में पड़ेगा। (ख) महीनों से १॰॰) तुम्हारे नाम पड़े हैं। २६. आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि में शिशु या संतान का किसी के अनुरूप या अनुसार होना। जैसे—लड़का तो अपने बाप पर पड़ा है और लड़की माँ पर। २७. अनुभूत या ज्ञात होना। लगना। जैसे—जान पड़ना, दिखाई पड़ना। २८. कुछ विशिष्ट पशुओं के संबंध में, नर या मादा के साथ मैथुन या संभोग करना। जैसे—जब यह घोड़ा (या साँड़) किसी घोड़ी (या गाय) पर पड़ता है, तब-तब कुछ न कुछ बीमार हो जाता है। विशेष—इस क्रिया में मुख्य तीन भाव वही हैं, जो ऊपर आरंभ (संख्या १, २ और ३) में बतलाये गये हैं। अधिकतर शेष अर्थ इन्हीं तीनों भावों में से किसी-न-किसी भाव के परिवर्त्तित, विकसित या विकृत रूप हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से यह हिंदी की स० क्रिया ‘डालना’ का अकर्मक रूप है। अनेक अकर्मक क्रियाओं के साथ इसका प्रयोग संयो० क्रि० के रूप में भी होता है। कहीं तो वह किसी क्रिया का आकस्मिक आरंभ सूचित करती है; जैसे—चल पड़ना, चौंक पड़ना, जाग पड़ना, हँस पड़ना आदि और कहीं इससे किसी क्रिया या व्यापार का घटित, पूर्ण या समाप्त होना सूचित होता है। जैसे—कूद पड़ना, गिर पड़ना, घुस पड़ना, घूम पड़ना आदि। क्रियार्थक संज्ञाओं के साधारण रूप के साथ लगकर यह कहीं-कहीं किसी प्रकार की बाध्यता या विवशता भी सूचित करती है। जैसे—(क) मुझे रोज उनके यहाँ जाकर घंटों बैठना पड़ता था। (ख) तुम्हें भी उनके साथ जाना पड़ेगा। अवधारण बोधक क्रियाओं के साथ लगकर यह बहुत कुछ ‘जाना’ या ‘होना’ की तरह का अर्थ देती और उन सकर्मक क्रियाओं को अकर्मक का-सा रूप देती है। जैसे—जान पड़ना, दिखाई (या देख) पड़ना। कुछ संज्ञाओं के साथ लगकर यह बहुत कुछ ‘आना’ या ‘होना’ की तरह का भी अर्थ देती हैं। जैसे—खयाल पड़ना, याद पड़ना, समझ पड़ना। कभी-कभी इसके योग से कुछ पदों में मुहावरे का तत्त्व भी आ लगता है। जैसे—(क) ऐसी समझ पर पत्थर पड़े। (ख) आजकल रुपया तो मानो उनके घर फटा पड़ता है। (ग) बहुत बोलने (या सरदी लगने) से गला पड़ (अर्थात् बैठ) जाना। (घ) यह अकेला ही दो आदमियों पर भारी पड़ता है। (ङ) इस तरह हाथ धोकर किसी के पीछे पड़ना ठीक नहीं है। कुछ अवस्थाओं में यह शक्यता, संभावना, सामर्थ्य आदि की भी सूचक होती है। जैसे—बन पड़ा तो मैं भी किसी दिन आऊँगा। कभी-कभी यह तुल्यता या समकक्षता की भी सूचक होती है। जैसे—(क) तुम तो आदमी के ऊपर गिर पड़ते हो। (ख) उसकी आँखों में आँसू उमड़ पड़ते थे।
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पड़-नाना  : पुं०=पर-नाना।
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पड़-पड़  : स्त्री० [अनु०] १. निरंतर पड़-पड़ होनेवाला शब्द। क्रि० वि० पड़-पड़ शब्द करते हुए। पुं० [?] मूल धन। पूँजी। (डिं०)
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पड़पड़ाना  : स० [अनु०] [भाव० पड़पड़ाहट] पड़-पड़ शब्द होना। स० पड़-पड़ शब्द उत्पन्न करना। अ०=परपराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़पड़ाहट  : स्त्री० [हिं० पड़पड़ाना] पड़-पड़ शब्द करने या होने की क्रिया या भाव। स्त्री०=परपराहट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़-पोता  : पुं०=पर-पोता।
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पड़म  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा सूती कपड़ा, जो प्रायः कनातें, खेमें आदि बनाने में काम आता है।
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पड़या  : पुं० [?] वह ब्राह्मण जो शनिवार के दिन तेल आदि काले पदार्थ शनि के दान के रूप में लेता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़रू  : पुं०=पड़वा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़वा  : स्त्री० [सं० प्रतिपदा,प्रा० पड़िवआ] प्रत्येक पक्ष की प्रथम तिथि। परिवा। पुं० [?] [स्त्री० पड़िया] भैंस का नर बच्चा।
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पड़वाना  : स० [हिं० ‘पड़ना’ का प्रे०] पड़ने का काम किसी से कराना। किसी को पड़ने में प्रवृत्त करना।
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पड़वी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का ईख।
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पड़ह  : पुं० [सं० पटह] ढोल। दुंदुभी।
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पड़ा  : पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।
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पड़ाइन  : स्त्री०=पँड़ाइन।
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पड़ाका  : पुं०=पटाका।
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पड़ाना  : स०=पड़वाना।
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पड़ापड़  : क्रि० वि०, स्त्री०=पटापट।
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पड़ाव  : पुं० [हिं० पड़ना+आव (प्रत्य०)] १. मार्ग में पड़नेवाला वह स्थान जहाँ यात्री रात बिताने, विश्राम आदि करने के लिए ठहरते या रुकते हैं। मुहा०—पड़ाव मारना=(क) पड़ाव पर ठहरे हुए यात्रियों को लूटना। (ख) बहुत अधिक वीरता या साहस का काम करना। (व्यंग्य) २. वह स्थान जहाँ यात्रा करनेवाला सैनिक तंबू-कनातें आदि लगाकर कुछ समय के लिए ठहरा हो। विशेष—यह स्थान प्रायः शहरों से दूर और जंगलों में होता था।
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पड़िया  : स्त्री० हिं० पड़वा का स्त्री० रूप। वि० पुं० दे० ‘परिया’ (जाति)।
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पड़ियाना  : अ० [हिं० पड़िया+आना (प्रत्य०)] भैंस का भैंस से संयोग हो जाना। भैंसाना। स० भैंस का भैंसे से संभोग कराना।
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पड़िवा  : स्त्री०=पड़वा (प्रतिपदा)
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पड़ी  : स्त्री० [हिं० पड़ना=लेटना] चुपचाप पड़े या सोये रहने की अवस्था या भाव। (बाजारू)। मुहा०—पड़ी साधना=सो जाना।
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पड़ेरू  : पुं०=पड़रू (पड़वा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़ोस  : पुं० [सं० प्रतिवेश या प्रतिवास, प्रा० पड़िवेस पड़िवास] १. वह स्थान जो किसी के निवास स्थान के बगल या समीप में हो। मुहा०—(किसी का) पड़ोस करना=किसी के पड़ोस में जाकर बसना। २. किसी प्रदेश, स्थान आदि से सटा हुआ अथवा उसके आस-पास का स्थान। पद—पास-पड़ोस=समीपवर्ती स्थान।
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पड़ोसी  : पुं० [हिं० पड़ोस+ई (प्रत्य०)] [स्त्री० पड़ोसिन] वह जिसका घर पड़ोस में हो। एक मकान के पास वाले दूसरे मकान में रहनेवाला। प्रतिवासी। प्रतिवेशी। हमसाया।
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