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पचतालेश्वर  : पुं० [पंचताल-ईश्वर, ष० त०] शुद्ध जाति का एक भाग।
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पच  : वि०=पँच (पाँच का संक्षिप्त रूप)। (पंच के यौं के लिए दे० ‘पँच’ और ‘पंच’ के यौ०)
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पचक  : पुं० [सं०] कट-नामक गुल्म। स्त्री० [हिं० पचकना] १. पिचकने की अवस्था या भाव। २. पिचकने के कारण पड़ा हुआ गड्ढा या निशान। पुं०=पाचक (रसोइया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचकना  : अ०=पिचकना।
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पचकल्यान  : पुं०=पंचकल्याण।
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पचकाना  : स०=पिचकाना।
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पचखना  : वि० [हिं० पाँच+सं० खंड] (मकान) जिसमें पाँच खंड या मंजिलें हों। अ०=पिचकना।
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पचखा  : पुं० दे० ‘पंचक’ (पाँच अशुभ तिथियाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचड़ा  : पुं० [हिं० पाँच (प्रपंच)+ड़ा (प्रत्य०)] १.व्यर्थ की झंझट। बखेड़े का काम या बात। क्रि० प्र०—निकालना।—फैलाना। २. खयाल या लावनी की तरह का एक प्रकार का लोक-गीत जिसमें पाँच चरण या पद होते हैं। ३. एक प्रकार का गीत जो ओझा लोग देवी आदि के सामने गाते हैं।
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पचतावा  : पुं०=पछतावा (पश्चात्ताप)।
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पचूतरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा।
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पचतोरिया  : पुं०=पँच-तोरिया (कपड़ा)।
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पचतोलिया  : पुं०,वि०=पँच-तोलिया।
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पचन  : वि० [सं०√पच्(पाक)+ल्युट्—अन] पकानेवाला। पुं० १. भोजन आदि पकने या पकाने की क्रिया या भाव। २. पेट में पहुँचने पर भोजन आदि पचने की क्रिया या भाव। पाचन। ३. अग्नि। आग। ४. जठराग्नि।
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पचन-संस्थान  : पुं० [ष० त०] शरीर के अन्दर के वे सब अंग और यंत्र जो भोजन पचाते हैं। (एलिमेन्टरी सिस्टम)।
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पचना  : अ० [सं० पचन] १. खाने पर पेट में पहुँचे हुए खाद्य पदार्थ का जठराग्नि की सहायता से गलकर रस आदि में परिणति होना। विशेष—जो चीज पच जाती है उसका फोक या सीठी गुदा मार्ग से मल के रूप में बाहर निकल जाती है और जो चीज ठीक तरह से नहीं पचती,वह प्रायः उसी रूप में गुदा मार्ग से या मुँह के रास्ते बाहर निकल जाती है और यदि पेट में रहती भी है, तो कई प्रकार के विकार उत्पन्न करती है। २. किसी दूसरे का धन आदि इस प्रकार अधिकार में आना या भोगा जाना कि उसके पहले स्वामी के हाथ में न जाय और उसका कोई दुष्परिणाम भी न भोगना पड़े। जैसे—हराम की कमाई किसी को नहीं पचती (अर्थात् उसे उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है) ३. किसी चीज या बात का कहीं इस प्रकार छिपा या दबा रहना कि औरों को उसका पता न लगने पावे। जैसे—तुम्हारे पेट में तो कोई बात पचती ही नहीं। ४. किसी चीज या बात का इस प्रकार अंत या समाप्त होना कि उसके फिर से उभरने की संभावना न रह जाय। जैसे—रोग या विकार पचना, घमंड या शेखी पचना। संयो० क्रि०—जाना। ५. किसी व्यक्ति का परिश्रम, प्रयत्न आदि करते-करते थककर चक्कर चूर या परम शिथिल हो जाना। मेहनत करते-करते हार जाना या बहुत हैरान होना। पद—पच-पचकर=बहुत अधिक परिश्रम या प्रयत्न करके। उदा०—काँचो दूध पियावत पचि-पचि देत न माखन रोटी।—सूर। मुहा०—पच मरना या पच हारना=कोई काम करते-करते थककर बैठ या हार जाना। उदा०—पचि हारी कछु काम न आई,उलटि सबै बिधि दीन्हीं।—भारतेन्दु। ६. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में पूर्ण रूप से लीन होना। खप या समा जाना। जैसे—सेर भर खीर में पाव भर घी तो सहज में पच जाता है।
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पचनागार  : पुं० [पचन-आगार,ष० त०] पाकशाला। रसोईघर।
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पचनाग्नि  : पुं० [पचन-अग्नि,मध्य० स० ष० त०] पेट की आग जिससे खाया हुआ पदार्थ पचता है। जठराग्नि।
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पचनिका  : स्त्री० [सं० पचनी+कन्,टाप्,ह्रस्व] कड़ाही।
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पचनी  : स्त्री० [सं० पचन+ङीप्] बिहारी नींबू।
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पचनीय  : वि० [सं०√पच्+अनी,यर्] जो पच सकता हो या पचाया जा सकता हो। पचने के योग्य।
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पचपच  : पुं० [सं०√पच्+अच्,द्वित्व] शिव का एक नाम।
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पचपचा  : वि० [हिं० पचपच] (अध-पका खाद्य पदार्थ) जिसमें डाला हुआ पानी अभी सूखा न हो।
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पचपचाना  : अ० [हिं० पचपच] १. किसी पदार्थ का आवश्यकता से अधिक इतना गोल होना कि उसे हिलाने-डुलाने से पच-पच शब्द निकले। २.जमीन का कीचड़ से युक्त होना। स० ऐसी क्रिया करना जिससे किसी गाढ़े तरल पदार्थ में से पच-पच शब्द निकलने लगे।
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पचपन  : वि० [सं० पंचपंचाश,पा० पंचपण्णासा] जो गिनती में पचास और पाँच हों, पाँच कम साठ। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—५५।
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पचपनवाँ  : वि० [हिं० पचपन] पचपन के स्थान पर आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचपल्लव  : पुं०=पंचपल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचमेल  : वि०=पँच-मेल।
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पचरा  : पुं०=पचड़ा।
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पचलड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँच+लड़ी]=पँच-लड़ी।
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पच-लोना  : वि० पुं०=पंच-लोना।
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पचवना  : सं०=पचाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पचहत्तर  : वि० [सं० पञ्चसप्तति,प्रा० पंचहत्तरि] गिनती या संख्या में जो सत्तर से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—७५।
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पचहत्तरवाँ  : वि० [हिं० पचहत्तर+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचहत्तर के स्थान पर आने, पड़ने या होनेवाला।
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पचानक  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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पचाना  : स० [हिं० पचना का स० रूप] १. खाई हुई वस्तु को पक्वाशय की जठराग्नि से रस में परिणत करना। २. दूसरों का माल हजम करना। ३. परिश्रम करा के या कष्ट देकर किसी के शरीर मस्तिष्क आदि का क्षय करना। ४. अच्छी तरह अन्त या समाप्त कर देना। जैसे—किसी की मोटाई पचाना। ५. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ को अपने में विलीन कर या समा लेना।
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पचारना  : स० [सं० प्रचारण] कोई काम करने के पहले उन लोगों के सामने उसकी घोषणा करना जिनके विरुद्ध वह काम किया जाने को हो। ललकारना। जैसे—हाँक पचारकर लड़ाई छेड़ना।
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पचाव  : पुं० [हिं० पचना+आँव (प्रत्य०)] पचने या पचाने की क्रिया या भाव। पाचन।
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पचास  : वि० [सं० पंचाशत,प्रा० पचासा] जो गिनती या संख्या में चालीस से दस अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—५०।
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पचासवाँ  : वि० [हिं० पचास+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचास के स्थान में आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचासा  : पुं० [हिं० पचास] १. एक ही जाति की पचास वस्तुओं का कुलक या समूह। २. पचास रुपये। जैसे—सैर करने में पचासा लगेगा। ३. वह बटखरा या बाट जो तौल में पचास रुपयों या पचास भरी के बराबर हो। ४. संकटसूचक वह घड़ियाल जो लगातार कुछ समय तक बराबर टन-टन करते हुए बजाया जाता है कि जिसका उद्देश्य आस-पास के सिपाहियों को केन्द्र में बुलाना होता है।
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पचासी  : वि० [सं० पंचाशीति,प्रा० पंचासाईं,पच्चासी] जो गिनती या संख्या में अस्सी से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—८५।
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पचासीवाँ  : वि० [हिं० पचासी+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचासी के स्थान पर आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचासों  : वि० [हिं० पचास] बहुत अधिक विशेषतः पचास से अधिक। जैसे—लड़की के घर त्यौहारों पर पचासों रुपये नकद या मिठाइयों के रूप में भेजने पड़ते हैं।
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पचि  : स्त्री० [सं०√पच्+इन्] १. पकाने की क्रिया या भाव। पाचन। २. अग्नि। आग।
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पचित  : भू० कृ० [सं०] १. अच्छी तरह पचा हुआ। २. अच्छी तरह घुला या मिला हुआ। वि० [हिं० पच्ची] जिस पर पच्चीकारी का काम किया हुआ हो। (क्व०)
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पची  : स्त्री०=पच्ची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचीस  : वि० [सं० पंचविंशति,पा० पंचवीसति,अपभ्रंश,प्रा०पच्चीस] क्रम या गिनती में बीस से पाँच अधिक। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—२५।
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पचीसवाँ  : वि० [हिं० पचीस+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचीस के स्थान पर आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचीसी  : स्त्री० [हिं० पचीस] १. एक ही प्रकार की पचीस वस्तुओं का समूह। जैसे—बैताल पचीसी (पचीस कहानियों का संग्रह) २. व्यक्ति की आयु के आरंभिक २५ वर्षों का समय,जिसे व्यगंय से ‘गदह पचीसी’ भी कहते हैं। ३. गणना का वह प्रकार जिसमें पचीस चीजों की एक इकाई मानी जाती है। जैसे—अमरूद,आम आदि की गिनती पचीसी गाही (१२५ फलों) की होती है। ४. चौसर का वह खेल जो पासों के स्थान पर सात कौड़ियाँ फेंककर खेला जाता है और जिसमें दाँवों का संकेत चित्त और पट्ट पड़नेवाली कौड़ियों की संख्या के विचार से होता है। ५. चौसर खेलने की बिसात।
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पचूका  : पुं०=पिचकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचेलिम  : वि० [सं०√पच्+केलिमर्] आसानी से और जल्दी पचनेवाला। पुं० १. अग्नि। २. सूर्य।
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पचेलुक  : पुं० [सं०√पच्+एलुक्] रसोइया।
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पचोतर  : वि० [सं० पञ्चोत्तर](किसी संख्या से) पाँच अधिक। पाँच ऊपर। जैसे—पचोतर सौ।
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पचोतर सौ  : पुं०=पंचोतर सौ।
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पचोतरा  : पुं०=पँचोतरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचौआ  : पुं० [हिं० पचना] कपड़े पर छींट की छपाई करने के बाद उसे १॰-१२ दिनों तक धूप में रखने की क्रिया,जिससे छपाई के समय कपड़े पर पड़े हुए दाग या धब्बे छूट जाते हैं।
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पचौनी  : स्त्री० [सं० पाचन] १. पचने या पचाने की क्रिया या भाव। २. अँतड़ी। आँत।
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पचौर  : पुं० [हिं० पंच या पचौली] गाँव का मुखिया। सरदार।
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पचौली  : पुं० [हिं० पंच+कुली] १. गाँव का मुखिया। सरदार। पंच। २. दे० ‘पंचोली’। पुं० [?] एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियों से सुगंधित तेल निकलता है।
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पचौवर  : वि०=पंचौवर (पंचहरा)।
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पच्चड़  : पुं०=पच्चर।
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पच्चर  : पुं० [सं० पचित या पच्ची] १. बाँस,लकड़ी आदि का छोटा तथा पतला टुकड़ा जो काठ की चीजों के जोड़ कसने के लिए उनकी दरारों या संधियों में जड़ा,ठोंका या लगाया जाता है। क्रि० प्र०—जड़ना।—ठोंकना।—लगाना। २. लाक्षणिक रूप में व्यर्थ खड़ी की जानेवाली अड़चन बाधा या रुकावट। क्रि० प्र०—अड़ाना।—लगाना। मुहा०—पच्चर ठोंकना या मारना=तंग या परेशान करने के लिए बहुत बड़ी अड़चन या बाधा खड़ी करना। ऐसा उपाय करना कि काम किसी तरह आगे बढ़ ही न सके।
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पच्ची  : स्त्री० [सं० पचित] १. पचने या पचाने की क्रिया या भाव। २. खपाने की क्रिया या भाव। जैसे—माथा पच्ची,सिर पच्ची। ३. धातुओं, पत्थरों आदि पर नगीने या धातु पत्थर आदि के छोटे-छोटे टुकड़े जड़ने की क्रिया या प्रकार, जिसमें जड़ी जानेवाली चीजें गड्ढों में इस प्रकार जमाकर जड़ी या बैठाई जाती हैं कि उसका ऊपरी तल उभरा हुआ नहीं रह जाता। जैसे—सोने के कंगन में हीरे की पच्ची,ताँबे के लोटे पर चाँदी के पत्तरों की पच्ची, संगमरमर की पटिया पर रंग-बिरंगे पत्थरों की पच्ची। पद—पच्चीकारों (देखें) मुहा०—(किसी में) पच्ची हो जाना=किसी से बिलकुल मिल जाना या उसी के रूप में का हो जाना। लीन हो जाना। जैसे—यह कबूतर जब उड़ता है, तब आसमान में पच्ची हो जाता है। वि० [हिं० पक्ष] किसी का पक्ष लेकर उसकी ओर से झगड़ा या विवाद करनेवाला।
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पच्चीकारी  : स्त्री० [हिं० पच्ची+फा० कारी=करना] १. पच्ची की जड़ाई करने की क्रिया या भाव। २. पच्ची करके तैयार किया हुआ काम।
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पच्छताई  : स्त्री० [सं० पक्ष] १. किसी का पक्ष ग्रहण करने का भाव। २. पक्षपात। तरफदारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छम  : वि०, पुं०=पश्चिम।
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पच्छाघात  : पुं०=पक्षाघात
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पच्छि  : पुं०=पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छिनी  : स्त्री०=पक्षिनी (चिड़िया)।
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पच्छिम  : पुं०=पश्चिम (दिशा)। वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छिराज  : पुं०=पक्षिराज (गरुड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छिवँ  : पुं०=पश्चिम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छी  : पुं०=पक्षी।
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