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पंचाग्नि  : वि० [पंचन्-अग्नि, ब० स०] पाँच प्रकार की अग्नियों का आधान करनेवाला। स्त्री० [द्विगु स०] १. अन्वाहार्यपचन या दक्षिण, गार्हपत्य, आहवनीय, आवसथ्य और सभ्य अग्नि के उक्त पाँच प्रकार। २. छांदोंग्य उपनिषद् के अनुसार, सूर्य, पुर्जन्य, पृथ्वी, पुरुष और योषित्—जो अग्नि के रूप में माने गये हैं। ३. आयुर्वेद के अनुसार चीता, चिचिड़ी, भिलावाँ, गंधक और मदार नामक औषधियाँ जो बहुत गरम होती हैं। ४. एक प्रकार की तपस्या जिसमें तपस्वी अपने चारों ओर आग जलाकर दिन-भर धूप में बैठता और ऊपर से सूर्य का जलता हुआ ताप भी सहता है। क्रि० प्र०—तापना। ५. सब ओर से पहुँचनेवाला कष्ट, दुःख या सन्ताप। उदा०—पलता था पंचाग्नि बीच व्याकुल आदर्श हमारा—मैथिलीशरण गुप्त।
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पंचाग्नि-विद्या  : स्त्री० [सं०] छांदोग्य उपनिषद् में सूर्य, बादल, पृथ्वी, पुरुष और स्त्री-संबंधी तात्त्विक ज्ञान या विज्ञान।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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