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पर-जाना  :
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प्रिथीराज।  :
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प  : देवनागरी वर्णमाला में पवर्ग का पहला वर्ण, जो भाषा-विज्ञान तथा व्याकरण के विचार से ओष्ठय, स्पर्शी, अघोष, अल्पप्राण व्यंजन है। पुं० संगीत में यह पंचम स्वर का संक्षिप्त रूप माना जाता है। प्रत्य० कुछ शब्दों के अंत में लगकर यह निम्नलिखित अर्थ देता है—(क) पीनेवाला। जैसे—मद्यप, द्विप। (ख) पालन, रक्षा या शासन करनेवाला। जैसे—गोप, नृप।
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पं०  : सं० ‘पंडित’ का संक्षिप्त रूप।
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पंक  : पुं० [सं०√पंच् (विस्तार)+घञ्, कुत्व] १. मिट्टी मिला हुआ गँदला पानी। कीचड़। कर्दम। २. लेप आदि के काम में आनेवाला उक्त प्रकार का और कोई गाढ़ा गीला पदार्थ। जैसे—चंदन-पंक। ३. बहुत बड़ी राशि। ४. कलुषित या गन्दा करनेवाली कोई चीज। जैसे—पाप-पंक।
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पंक-कीर  : पुं० [मध्य० स०] टिटिहरी नाम की चिड़िय़ा।
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पंक-क्रीड़  : वि० [ब० स०] कीचड़ में क्रीड़ा करने या खेलनेवाला। पुं० सूअर।
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पंक-क्रीड़नक  : पुं० [व० स०] सूअर।
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पंक-गड़क  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार की छोटी मछली।
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पंक-ग्राह  : पुं० [सं० सप्त० त० मध्य० स०] मगर।
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पंकच्छिद  : [सं० पंक√छिद् (काटना)+क] निर्मली।
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पंकज  : वि० [सं० पंक√जन् (पैदा होना।+ड] कीचड़ में उत्पन्न। होनावाला। पुं० कमल।
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पंक-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. कमल २. सारस पक्षी।
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पंकज-नाभ  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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पंकज-योनि  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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पंकज-राग  : पुं० [ब० स०] पद्मराग-मणि।
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पंकज-वाटिका  : स्त्री० [सं०] तेरह अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में क्रमश
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पंक-जात  : पुं० [पं० त०] कमल।
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पंकजासन  : पुं० [पंकज-आसन, ब० स०] ब्रह्मा।
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पंकजित्  : पुं० [सं० पंक√झि (जीतना)+क्विप्] गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
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पंकजिनी  : स्त्री० [सं० पंकज+इनि—ङीप्] १. कमल के पौधों और फूलों से भरा हुआ जलाशय। कमलाकर। २. कमलिनी।
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पंकण  : पुं० [सं० पंक्वण, पृषो० सिद्धि] चांडाल का घर।
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पंक-दिग्ध  : वि० [तृ० त०] (स्थान) जिस पर मिट्टी का लेप किया गया हो।
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पंकदिग्ध-शरीर  : पुं० [ब० स०] एक दानव का नाम।
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पंकदिग्धांग  : पुं० [पंकदिग्ध-अंग, ब० स०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।
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पंक-धूम  : पुं० [ब० स०] जैनों के अनुसार एक नरक का नाम।
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पंक-पर्पटी  : स्त्री० [ष० त०] सौराष्ट्रमृत्तिका। गोपी-चंदन।
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पंक-प्रभा  : पुं० [ब० स०] एक नरक का नाम जो कीचड़ से भरा हुआ माना गया है।
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पंक-भारक  : वि० [ब० स०, कप्] १. कीचड़ से भरा हुआ। २. मिट्टी से पुता हुआ।
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पंक-मंडूक  : पुं० [स० त०] १. घोंघा। २. सीपी।
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पंक-रस  : पुं० [सं० पंकज-रस] पराग। उदा०—पुहुप पंक-रस अंब्रित साँधे।—जायसी।
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पंकरुह  : पुं० [सं० पंक√रुह (उत्पन्न होना)+क] कमल।
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पंक-वारि  : स्त्री० [ब० स०] काँजी।
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पंक-वास  : पुं० [ब० स०] केकड़ा।
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पंक-शुक्ति  : स्त्री० [मध्य० स०] १. ताल में होनेवाली सीपी। २. घोंघा।
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पंकार  : पुं० [सं० पंक्√ऋ (गति)+अण्)] १. कीचड़ और गड्ढों में होनेवाली कुकुरमुत्ते की जाति की एक वनस्पति। २. सिंघाड़ा। ३. जल-कुब्जक। ४. सिवार। ५. नदी का बाँध। ६. नदी का पुल।
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पंकिल  : वि० [सं० पंक+इलच्] [भाव० पंकिलता] १. जिसमें कीचड़ हो। कीचड़ से युक्त। जैसे—पंकिल जल, पंकिल ताल। २. गन्दा। मैला।
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पंकिलता  : स्त्री० [सं० पंकिल+तल्—टाप्] १. पंकिल होने की अवस्था या भाव। २. गन्दगी। मैल। २. कलुष। कालिमा।
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पंकेज  : पुं० [सं० पंके√जन् (उत्पत्ति)+ड, अलुक स०] कमल।
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पंकेरुह  : पुं० [सं० पंके√रुह (उत्पत्ति)+क, अलुक् स०] कमल।
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पंकेशय  : वि० [सं० पंके√शी (सोना)+अच्, अलुक् स०] [स्त्री० पंकेशया] कीचड़ में रहनेवाला।
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पंकेशया  : स्त्री० [सं० पंकेशय+टाप्] जोंक।
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पंक्ति  : स्त्री० [सं० √पंच्+क्तिन्] १. एक ही वर्ग की बहुत-सी चीजों का एक सीध में एक दूसरी से सटकर अथवा कुछ अंतर पर स्थित होने का क्रम या श्रृंखला। जैसे—पेड़ों या मकानों की पंक्ति। २. आज-कल किसी काम या बात की प्रतीक्षा में एकत्र होनेवाले लोगों की वह परंपरा या श्रृंखला, जो चढ़ा-ऊपरी, धक्कम-धक्का आदि रोकने के लिए दूर तक एक सीध में बनाई जाती है। (क्यू) ३. बिरादरी आदि के विचार से एक साथ बैठकर भोजन करनेवालों का समूह। ४. उक्त आधार पर कुलीन और सम्मानित ब्राह्मणों का वर्ग या श्रेणी। ५. एक ही वर्ग के जंतुओं, पशुओं आदि का समूह। जैसे—च्यूँटियों या बंदरों की पंक्ति। ६.एक ही सीध में दूर तक बनी हुई रेखा। लकीर। ७. पुस्तकों, पत्रों आदि में लिखे या छपे हुए अक्षरों की एक सीध में पढ़ने के क्रम से लगी हुई श्रृंखला। ८. प्राचीन भारत में दस-दस सैनिकों का एक वर्ग। ९. छंदशास्त्र में दस अक्षरोंवाले छंदों की संज्ञा। १॰. उक्त के आधार पर दस की सूचक संख्या। ११. जीवों या प्राणियों की वर्तमान पीढ़ी। १२. पृथ्वी। १३. गौरवपूर्ण ख्याति या प्रसिद्धि। १४. परिपक्व, पुष्ट या पूर्ण होना।
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पंक्ति-कंटक  : वि० [ष० त०]=पंक्ति-दूषक।
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पंक्तिका  : स्त्री० [सं० पंक्ति+कन्—टाप्]=पंक्ति।
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पंक्ति-कृत  : वि० [स० त०] श्रेणीबद्ध।
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पंक्ति-ग्रीव  : पुं० [ब० स०] रावण।
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पंक्तिचर  : पुं० [सं० पंक्ति√चर् (गति)+ट] कुरर पक्षी।
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पंक्ति-च्युत्  : वि० [पं० त०] [भाव० पंक्ति-च्युति] (व्यक्ति) जिसे उसकी बिरादरी के लोग अपने साथ बैठाकर भोजन न करते हों। बिरादरी से बहिष्कृत।
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पंक्ति-दूषक  : वि० [ष० त०] १. जिसके साथ एक पंक्ति में बैकर भोजन न कर सकते हो; अर्थात् जाति-च्युत् या नीच। २. (ब्राह्मण) जिसे भोजन के लिए निमंत्रित करना या दान देना निषिद्ध हो।
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पंक्ति-पावन  : पुं० [स० त०] १. ऐसा ब्राह्मण, जिसे स्मृतियों के अनुसार यज्ञादि में बुलाना, भोजन कराना और दान देना श्रेष्ठ माना गया हो। २. अग्निहोत्र करनेवाला गृहस्थ।
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पंक्ति-बद्ध  : वि० [तृ० त०] जो पंक्ति अर्थात् एक सीध में खड़े हो या लगे हों अथवा खड़े किये या लगाये गये हों।
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पंक्ति-बाह्य  : वि० [पं० त०] जाति से निकाला हुआ। बिरादरी से बहिष्कृत।
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पंक्ति-रथ  : पुं० [ब० स०] राजा दशरथ।
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पंख  : पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. मनुष्य के हाथ के अनुरूप पक्षियों का तथा कुछ जंतुओं का वह अंग, जिसके द्वारा वे हवा में उड़ते हैं। पर। मुहा०—पंख जमना या निकलना=(क) बंधन में से निकलकर इधर-उधर घूमने की इच्छा उत्पन्न होना। बहकने या बुरे रास्ते पर जाने का रंग-ढंग दिखाई देना। जैसे—इस लड़के को भी अब पंख जम रहे हैं। (ख) अंत या मृत्यु के लक्षण प्रकट होना या समय पास आता हुआ दिखाई देना। विशेष—बरसात के अंत में कुछ कीड़ों के पंख निकल आते हैं और वे प्रायः अग्नि या दीपक के प्रकाश के पास मँडराते हुए उसी में जल मरते हैं। इसी आधार पर यह मुहावरा बना है। मुहा०—(किसी को) पंख लगना=बहुत वेगपूर्वक दौड़ना। २. बिजली के पंखे का हाथ के आकार का वह अंग जिसके घूमने से हवा आती है।
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पंखड़ी  : स्त्री० [सं० पक्ष्म] फूल के अंग के रूप में रहनेवाले और पत्तियों के आकार-प्रकारवाले के कोमल दल (या उनमें से प्रत्येक) जिनके संयोग से उसका ऊपरी और मुख्य रूप बनता है। पुष्प-दल।
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पंखा  : पुं० [हिं० पंख] [स्त्री० अल्पा० पंखी] १. पक्षियों के पंखों या परों के आकार का ताड़ आदि का वह उपकरण जिसे हवा में उसका वेग बढ़ाने के लिए डुलाया जाता है। क्रि० प्र०—झलना। २. उक्त के आधार पर कोई ऐसा उपकरण, जिससे हवा का वेग बढ़ाया जाता हो। जैसे—बिजली का पंखा। क्रि० प्र०—खींचना।—चलना।—झलना।—डुलाना। विशेष—आरंभ में पंखे ताड़ की पत्तियों, बांस की पट्टियों आदि से बनते थे, जिन्हें हाथ से बार-बार हिलाकर लोग या तो गरमी के समय शरीर में हवा लगाने के अथवा आग सुलझाने के काम में लाते थे; और अब तक इनका प्रायः व्यवहार होता है। बड़े आदमी प्रायः काठ के चौखटों पर कपड़ा मड़वाकर उसे छत से टाँगते थे, और किसी आदमी के बार-बार खींचते और ढीलते रहने पर उस पंखे से हवा निकलती थी, जिससे उसके नीचे बैठे हुए लोगों को हवा लगती थी। आज-कल प्रायः बिजली की सहायता से चलनेवाले अनेक प्रकार के पंखे बनने लगे हैं। ३. किसी चीज में लगा हुआ कोई ऐसा चिपटा लंबा टुकड़ा, जो पानी या हवा की सहायता से अथवा किसी यांत्रिक क्रिया से बार-बार हिलता या चक्कर लगाता रहता हो। जैसे—जहाज या पनचक्की के चक्कर में का पंखा।
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पंखा-कुली  : पुं० [हिं० पंखा+तु० कुली] वह कुली या नौकर जो विशेषतः छत में लगा हुआ पंखा खींचने के लिए नियत हो।
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पंखाज  : पुं०=पखावज।
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पंखा-पोश  : पुं० [हिं० पंखा+फा० पोश] पंखे के ऊपर उगाया जानेवाला गिलाफ।
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पंखि  : पुं०=पक्षी। स्त्री०=पंखी।
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पंखियाँ  : स्त्री० [हिं० पंख] १. भूसी के महीन टुकड़े। २. पंखड़ी। पंखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पंखी  : पुं० [हिं० पंख] १. चिड़िया। पक्षी। स्त्री० १. उड़नेवाला कोई छोटा कीड़ा या फतिंगा। २. करघे में कबूतर के पंख या पर से बँधी सूत की वह डोरी जो ढरकी के छेद में फँसाकर लगाई जाती है। २. गढ़वाल, शिमले आदि की पहाड़ी भेड़ों पर उतरनेवाला एक प्रकार का बढ़िया मुलायम और हल्का ऊन। ३. उक्त प्रकार के ऊन से बनी हुई चादर। ४. वह पगली हलकी पत्तियाँ जो साखू के फल के सिरे पर होती हैं। स्त्री० हिं० ‘पंखा’ का स्त्री० अल्पा० रूप। स्त्री०=पंखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंखुड़ा  : पुं० [सं० पक्ष, हिं० पंख] कंधे और बाँह का जोड़। पँखौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंखुड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पंखुरा  : पुं०=पंखुड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंखेरू  : पुं०=पखेरू (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंग  : वि०= [सं० पंगु] १. लँगड़ा। २. गति-हीन। निश्चल। ३. परम चकित और स्तब्ध। उदा०—सूर हरि की निरखि सोभा, भई मनसा पंग।—सूर। पुं० [?] एक प्रकार का विलायती नमक, जो पहले लिवरपूल से आता था।
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पंगत, पंगति  : स्त्री० [सं० पंक्ति] १. पंक्ति। पाँति। २. बहुत-से लोगों का साथ बैठकर भोजन करना। भोज। ३. भोज के समय भोजन करने के लिए एक साथ बैठनेवालों की पंक्ति या समूह। जैसे—संध्या में दो पंगतें तो बैठ चुकी हैं। अभी दो पंगतें और बैठेंगी। क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना।—लगना।—लगाना। ४. एक ही जाति या प्रकार के बहुत-से लोगों का समाज या समूह। ५. जुलाहों का एक औजार जो दो सरकंडों को एक में बाँधकर बनाया जाता है।
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पंगला  : वि०=पंगुल।
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पंगा  : वि०=पंगु।
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पंगायत  : स्त्री० [हिं० पग] पैताना। (देखें) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंगी  : स्त्री० [सं० पंक, हिं० पाँक] धान के खेतों में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। स्त्री० [?] कीर्ति। यश। उदा०—पूगी समंदाँ पार, पंगी राण प्रतापसी।—दुरसाजी।
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पंगु  : वि० [सं० √खंज् (लँगड़ा होना)-कु-पंगदेश, नुक्] [भाव० पंगुता, पंगुत्व] १. जो पैर या पैरों के टूटे हुए होने के कारण चल न सकता हो। लँगड़ा। उदा०—जौ संग राखत ही बनै तौ करि डारहु पंगु।—रहीम। २. लाक्षणिक अर्थ में, (व्यक्ति) जो ऐसा स्थिति या स्थान में लाया गया हो, जिसमें या जहाँ वह कुछ काम न कर सके। पुं० १. एक प्रकार का वात रोग जिसमें घुटने जकड़ जाते हैं और आदमी चल-फिर नहीं सकता। २. मध्य युग में एक प्रकार के साधु, जो केवल मल-मूत्र का त्याग करने या भिक्षा माँगने के लिए कुछ दूर तक जाते थे, और शेष सारा समय अपनी जगह पर बैठे-बैठे बिताते थे। ३. शनि ग्रह, जिसकी गति अपेक्षया बहुत मंद होती है।
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पंगुक  : वि०=पंगु या पंगुल।
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पंगु-गति  : स्त्री० [कर्म० स०] वार्णिक छंदों का एक दोष जो उस समय माना जाता है, जब किसी छंद में लघु के स्थान पर गुरु अथवा गुरु के स्थान आ जाता है। जैसे—‘फूटि गये श्रुति ज्ञान के केशव आँखि अनेक विवेक की फूटी।’ में ‘के’ और ‘की’ को लघु होना चाहिए।
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पंगु-ग्राह  : पुं० [कर्म० स०] १. मगर। २. मकर राशि।
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पंगु-पीठ  : पुं० [ब० स०] वह सरकारी जिसपर किसी पंगु व्यक्ति को बैठाकर कहीं ले जाया जाता है।
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पंगल  : वि० [सं० पंगु+लच्] १. जिसके हाथ-पैर टूटे हुए हों और इसीलिए जो कहीं आ-जा न सकता हो या काम-धंधा न कर सकता हो। २. बहुत बड़ा अकर्मण्य और आलसी। पुं० १. अंडी या रेंड का पेड़। २. सफेद रंग का घोड़ा।
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पंगो  : स्त्री० [हिं० पाँक] बरसाती नदी द्वारा किनारों पर छोड़ी हुई मिट्टी।
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पँच  : वि० [हिं० पाँच] हिं० पाँच का वह संक्षिप्त रूप, जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पँच तोलिया, पंच-लड़ी आदि।
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पंच  : पुं० [सं०] १. पाँच या अधिक मनुष्यों का समाज या समुदाय। जनता। लोक। जैस—पंच कहै सो कीजै काज। (कहा०) पद—पंच की दुहाई=सब लोगों से अन्याय दूर करने या सहायता पाने के लिए की जानेवाली पुकार। पंच की भीख=सब लोगों का अनुग्रह। सब का आशीर्वाद। पंच परमेश्वर=लोक या समाज जो ईश्वर या देवता के समान पवित्र और पूज्य माना जाता है। २. वह व्यक्ति या कुछ लोगों का वर्ग जो आपस के झगड़ों आदि का निर्णय करने के लिए चुना या नियत किया गया हो। (आर्बीट्रेटर) विशेष—प्राचीन भारतीय समाज में ऐसे लोगों की संख्या प्रायः पाँच होती थी। जब बहुत-सी जातियाँ या बिरादरियाँ बनने लगीं, तब प्रायः हर बिरादरी या समाज में कुछ लोग पंच बना दिया जेते थे, जो सब प्रकार के सामाजिक विवादों का निर्णय करते थे। ३. वह व्यक्ति जो फौजदारी के दौरे के मुकदमे में दौरा जज की अदालत में मुकदमे के फैसले में जज की सहायता के लिए नियत हो। (ज्यूरी या असेसर) ४. एक संज्ञा जो दलाल लोग प्रायः (मैं या हम के स्थान पर) स्वयं अपना व्यक्तित्व सूचित करने के लिए प्रयुक्त करते हैं। ५. खेल, विवाद आदि में हार-जीत, औचित्य-अनौचित्य आदि का निर्णय करने के लिए नियत किया हुआ व्यक्ति। ६. वह व्यक्ति जिसने किसी विषय में मुख्यता प्राप्त की हो। ७. रहस्य-संप्रदाय में, वह व्यक्ति जिसने पूरा आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया हो। सिद्ध। ८. हास्य और व्यंग्य की बातों से संबंध रखनेवाला सामयिक पत्र। जैसे—अवध-पंच, गुजराती-पंच, हिन्दू-पंच आदि। इस अर्थ में यह अंगरेजी के ‘पंच’ का समध्वनिक है।
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पंचक  : वि० [सं० पंचन्+कन्] जिसके पाँच अंग अवयव या भाग हों। पुं० १. एक ही तरह की पाँच वस्तुओं का वर्ग, संग्रह या समूह। जैसे—इंद्रिय-पंचक, पद्य-पंचक। २. पाँच रुपये प्रति सैकड़े के हिसाब से दिया या लिया जानेवाला ब्याज या सूद। ३. फलित ज्योतिष में धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद। और रेवती से पाँचों नक्षत्र जिनमें किसी नये या शुभ कार्य का आरंभ निषिद्ध है तथा कोई दुर्घटना होना बहुत ही अशुभ माना जाता है। पचखा। विशेष—साधारण लोक में इस अर्थ में ‘पंचक’ का प्रयोग स्त्री० में होता है। ४. शकुन शास्त्र। ५. पाशुपत दर्शन में गिनाई हुई ये ८ वस्तुएँ जिनमें से प्रत्येक के पाँच-पाँच भेद किये गये हैं। यथा—लाभ, मल उपाय, देश, अवस्था, विशुद्धि, दीक्षा कारिक और बल।
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पंच कन्या  : स्त्री० [द्विगु स०] पुराणानुसार ये पाँच स्त्रियाँ जो विवाहिता होने पर भी कन्याओं के समान ही पवित्र मानी गई हैं—अहल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा और मंदोदरी।
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पंच-कपाल  : पुं० [द्विगु स०+अण्—लुक्] यज्ञ का वह पुरोडाश जो पाँच कपालों से पृथक्-पृथक् पकाया जाता था।
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पंच-कर्पट  : पुं० [ब० स०] महाभारत के अनुसार एक पश्चिमी देश जिसे नकुल ने राजसूय यज्ञ के समय जीता था।
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पंच-कर्म (न्)  : पुं० [द्विगु स०] १. वैशेषिक दर्शन के अनुसार ये पाँच प्रकार के कर्म—उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन। २. चिकित्सा की ये पाँच क्रियाएँ—वमन, विरेचन, नस्य, निरूहवस्ति और अनुवासन।
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पंच-कल्याण  : पुं० [ब० स०] वह घोड़ा, जिसका सिर (माथा) और चारों पैर सफेद हों और शरीर लाल, काला या किसी और रंग का हो।
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पंच-कवल  : पुं० [द्विगु स०] पाँच ग्रास जो स्मृति के अनुसार भोजन आरंभ करने के पहले कुत्ते, पतित, कोढ़ी, रोगी, कौए आदि के लिए अलग निकाल दिये जाते हैं। अग्रासन।
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पंच-कषाय  : पुं० [ष० त०] जामुन, सेमर, खिरैंटी, मौलसिरी और बेर इन पाँचों वृक्षों का कषाय (कसैला) रस।
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पंच-काम  : पुं० [मध्य० स०] तंत्रसार के अनुसार पाँच कामदेव जिनके नाम ये हैं—काम, मन्थन, कन्दर्प, मकरध्वज और मीनकेतु।
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पंच-कारण  : पुं० [सं० द्विगु स०] जैन-शास्त्र के अनुसार वे पाँच कारण, जिनसे किसी कार्य की उत्पत्ति होती है। यथा-काल, स्वभाव, नियति, पुरुष और कर्म।
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पंचकुर  : स्त्री० [हिं० पाँच+कूरा] एक प्रकार की बँटाई, जिसमें खेत की उपज के पाँच भागों में से एक भाग का जमींदार लेता था।
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पंच-कृत्य  : पुं० [द्विगु स०] १. ईश्वर या शिव के ये पाँच प्रकार के कर्म—सृष्टि, स्थिति, ध्वंस, विधान और अनुग्रह। (सर्व-दर्शन) २. पखौते का पेड़।
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पंच-कृष्ण  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का कीड़ा।
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पंच-कोण  : वि० [द्विगु स०] पाँच कोनोंवाला। पुं० जन्म-कुंडली में लग्न से पाँचवा और नवाँ स्थान।
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पंच-कोल  : पुं० [द्विगु स०] पीपल, पिपरामूल, चव्य, चित्रक, और सोंठ इन पाँचों का वर्ग या समूह।
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पंच-कोश  : पुं० [द्विगु० स०] उपनिषद् और वेदान्त के अनुसार शरीर संघटित करनेवाले पाँच कोश—अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश।
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पंच-कोष  : पुं० दे० ‘पंच-कोश’।
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पंच-कोस  : पुं०=पंच-क्रोश (काशी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंच-कोसी  : स्त्री०=पंच-क्रोशी।
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पंच-क्रोश  : पुं० [सं० पंच-क्रोश] काशी नगरी जो पहले पाँच पाँच कोस की लंबाई और चौड़ाई में बसी हुई थी।
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पंच-क्रोशी  : स्त्री० [पंच-क्रोश, ब० स०—ङीष्] १. पाँच कोस की लंबाई और चौड़ाई में बँसी हुई काशी। २. उसकी परिक्रमा जो साधारणतः पाँच या छः दिनों में पूरी की जाती है। ३. इसी प्रकार की प्रयाग तीर्थ की होनेवाली परिक्रमा।
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पंच-क्लेश  : पुं० [द्विगु स०] योगशास्त्रानुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश।
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पंचक्षार-गण  : पुं० [पंच-क्षार, द्विगु स०, पंचक्षार-गण, ष० त०] वैद्यक के अनुसार ये पाँच मुख्य क्षार या या लवण—काच, सैंधव, सामुद्र, विट् और सौवर्चल।
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पंच-गंगा  : स्त्री० [समा० द्वि०] १. पाँच नदियों का समूह—गंगा, यमुना, सरस्वती, किरणा और धूतपापा। २. काशी का एक प्रसिद्ध घाट जहाँ पहले गंगा के किरणा और धूतपापा नदियाँ मिलती थीं और जो एक तीर्थ के रूप में माना जाता है। (किरणा और धूपतापा दोनों अब लुप्त हो गई हैं।)
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पंच-गण  : पुं० [ष० त०] विदारी गंधा, वृहती, पृश्नपर्णा, निदिग्धिका और भूतूष्मांड इन पाँच औषधियों का गण या समूह। (वैद्यक)
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पंच-गत  : वि० [ब० स०] (राशि) जिसमें पाँच वर्ण हों। (बीजगणित)
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पंच-गव्य  : पुं० [द्विगु० स०] गौ से प्राप्त होने वाले पाँच द्रव्य—दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र जो बहुत पवित्र माने जाते हैं।
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पंचगव्य-घृत  : पं० [मध्य० स०] आयुर्वेद के अनुसार बनाया हुआ एक प्रकार का घृत जो अपस्मार (मृगी) और उन्माद में दिया जाता है।
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पंच-गीत  : पुं० [द्विगु स०] श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के अन्तर्गत पाँच प्रसिद्ध प्रकरण—वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत, भ्रमरगीत और महिषीगीत।
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पंच-गुटिया  : स्त्री०=लिंगिनी (लता)।
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पंच-गुण  : वि० [द्विगु स०] पाँच गुना। पुं० शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये पाँच गुण।
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पंचगुणी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] पृथ्वी।
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पंचगुना  : वि० [सं० पंचगुण] जो अनुपात, मान या मात्रा में किसी जैसे पाँच के बराबर हो। पाँच गुना।
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पंच-गुप्त  : पुं० [ब० स०] १. चार्वाक दर्शन, जिसमें पंचेन्द्रिय का गोपन प्रधान माना गया है। २. कछुआ, जो अपना सिर और चारों पैर सिकोड़कर अन्दर कर लेता या छिपा लेता है।
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पंच-गोटिया  : स्त्री० [हिं० पाँच+गोट] एक प्रकार का खेल जो जमीन पर रेखाएँ खींचकर पाँच गोटियों से खेला जाता है।
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पंच-गौड़  : पुं० [ष० त०] सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, मैथिल और उत्कल इन पाँच देशों के ब्राह्मणों का वर्ग।
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पंच-ग्रह  : पुं० [द्विगु स०] मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि इन पाँच ग्रहों का समूह।
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पंच-घात  : पुं० [ब० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पंच-चक्र  : पुं० [द्विगु स०] तंत्रशास्त्रानुसार ये पाँच प्रकार के चक्र—राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र और पशुचक्र।
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पंच-चक्षु  : पुं० [ब० स०] गौतम बुद्ध।
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पंच-चत्वारिंश  : वि० [सं० पंचचत्वारिंशत्+डट्] पैंतालीसवाँ।
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पंच-चत्वारिंश  : स्त्री० [मध्य० स०] पैंतालीस की संख्या।
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पंच-चामर  : पुं० [द्विगु स०] नाराच नामक छन्द कता दूसरा नाम।
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पंच-चीर  : पुं० [ब० स०] एक बुद्ध का नाम।
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पंच-चूड़  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पंचचूड़ा] पाँच शिखाओंवाला।
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पंच-चूड़ा  : स्त्री० [ब० स०] एक अप्सरा। (रामायण)
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पंच-चोल  : पुं० [ब० स०] हिमालय पर्वत-श्रेणी का एक भाग।
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पंच-जन  : पुं० [द्विगु स०] १. पाँच या पाँच प्रकार के जनों या लोगों का समूह। २. गंधर्व, पितर, देव, असुर और राक्षस इन पाँचों का समूह। ३. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र और निषाद इन पाँचों वर्गों का समूह। ४, जन-समुदाय। ५. प्राण। ६. एक प्रजापति। ७. पाताल में रहने वाला एक राक्षस, जिसकी हड्डी से श्रीकृष्ण का पांचजन्य नामक शंखा बना था। ८. राजा सगर का एक पुत्र।
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पंचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+ङीष्] पाँच मनुष्यों की मंडली। पंचायत।
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पंचजनीन  : पुं० [सं० पंचजन+ख—ईन] वे लोग जो अभिनय, परिहास, आदि के द्वारा लोगों का मनोविनोद करते हैं। जैसे—नट, भाड़, विदूषक आदि।
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पंचजन्य  : पुं० [सं० पांचजन्य] श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध शंख, जो पंचजन नामक राक्षस की हड्डी से बना था।
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पंच-तंत्र  : पुं० [ब० स०] संस्कृत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ, जिसमें नीतिशास्त्र के उपदेश दिये गये हैं।
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पंच-तंत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] पाँच तारों की बनी वीणा। स्त्री० एक प्रकार की वीणा, जिसमें पंच तार होते हैं।
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पंच-तत्व  : पुं० [द्विगु स०] १. पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँचों तत्त्व या भूत। २. मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन इन पाँचों का समुदाय। (वाममार्ग) ३. गुरुतत्त्व, मंत्रतत्त्व, मनस्तत्त्व, दैवतत्त्व। (तंत्र)
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पंच-तन्मात्र  : पुं० [मध्य० स०] शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध—ये पाँच तत्त्व, जिनसे पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है।
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पंच-तप  : वि०=पंचतपा।
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पंच-तपा (पस्)  : वि० [सं० पंचन्√तप् (तपना)+असुन्] पंचाग्नि तापनेवाला।
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पंच-तरु  : पुं० [द्विगु स०] मंदार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचरन, इन पाँचों वृक्षों का मार्ग।
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पंचता  : स्त्री०=पंचत्व।
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पंच-ताल  : पुं० [द्विगु स०] संगीत में अष्टताल का एक भेद।
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पचतालेश्वर  : पुं० [पंचताल-ईश्वर, ष० त०] शुद्ध जाति का एक भाग।
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पंच-तिक्त  : पुं० [द्विगु स०] गुरुच, भटकटैया, सोंठ, कुट और चिरायता इन पाँच कड़वी ओषधियों का वर्ग।
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पंच-तीर्थ  : पुं० [द्विगु स०] पाँच तीर्थों का समूह। पंचतीर्थी।
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पंच-तीर्थी  : स्त्री० [सं० पंचतीर्थ+ङीष्] विश्रांति, शौकर, नैमिष, प्रयाग और पुष्कर (वराह) ये पाँच तीर्थ।
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पंच-तृण  : पुं० [द्विगु स०] कुश, क्षर, डाभ और ईख ये पाँच तृण।
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पंचतोरिया  : स्त्री०=पंचतोलिया।
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पंचतोलिया  : स्त्री० [हिं० पाँच+तोला] पाँचतोले का बटवारा। वि० जो तौल में पाँच तोले का हो। पुं० [हिं० पाँच+तार ?] पुरानी चाल का एक प्रकार का बहुत झीना कपड़ा।
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पंचत्रिंश  : वि० [सं० पंचत्रिशत्+डट्] पैंतीसवाँ।
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पंचत्रिंशत  : वि० [मध्य० स०] पैंतीस।
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पंचत्व  : पुं० [सं० पंचन्+त्व] १. ‘पंच’ होने की अवस्था या भाव। पंचता। २. शरीर की वही स्थिति जिसमें उसका निर्माण करनेवाले पाँचों तत्त्व या भूत एक दूसरे बिलकुल अलग हो जाते हैं; अर्थात् मृत्यु। क्रि० प्र०—प्राप्त करना।—प्राप्त होना।
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पंच-दश (शन्)  : वि० [सं० मध्य० स०] पंद्रह। पुं० पंद्रह की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—१५।
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पंच-दशाह  : पुं० [पंचदशन्-अहन्, कर्म० स०] पन्द्रह दिन का समय।
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पंचदशी  : स्त्री० [सं० पंचदशन्+डट्—ङीप्] १. पूर्णमासी। २. अमावस्या। ३. वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ।
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पंच-दीर्घ  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जिसके बाहु, नेत्र, कुक्षि, नासिका और वक्षस्थल दीर्घ हों। पुं० उक्त पाँचों अंग।
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पंच-देव  : पुं० [द्विगु स०] समार्त हिंदुओं के अनुसार ये पाँच देव—विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और दुर्गा।
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पंतच-द्रविड़  : पुं० [द्विगु स०] विंध्याचल के दक्षिण में बसनेवाले ब्राह्मणों के ये पाँच भेद—महाराष्ट्र, तैलंग, कर्णाट, गुर्जर और द्रविड़।
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पंच-धा  : अव्य० [सं० पंचन्+धा] पाँच तरह से।
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पंच-नख  : वि० [ब० स०] पाँच नखोंवाला। पुं० १. हाथी। २. कछुआ ३. शेर। ४. बंदर।
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पंच-नद  : पुं० [द्विगु स०] १. पंजाब की वे पाँच प्रधान नदियाँ जो सिंधु में मिलती हैं—सतलज, व्यास, रावी, चनाब और झेलम। २. (ब० स०) पंजाब देश जिसमें से होकर ये पाँचों नदिया बहती हैं। ३. काशी का पंचगंगा नामक घाट और तार्थ।
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पंच-नवत  : वि० [सं० पंचनवति+डट्] पंचानबेवाँ।
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पंच-नवति  : स्त्री० [मध्य० स०] पंचानबे की संख्या।
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पंच-नाथ  : पुं० [द्विगु स०] ये पाँच देवता, जिनके नाम के अन्त में ‘नाथ’ पद है—बदरीनाथ, द्वारकानाथ, जगन्नाथ, रंगनाथ और श्रीनाथ।
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पंच-नामा  : पुं० [हिं० पंच+फा० नाम] १. पत्र, जिसके अनुसार दो विरोधी पक्षों ने अपना निर्णय करने के लिए किसी को पाँच गुना हो। २. वह पत्र जिस पर पंचों का निर्णय लिखा हो।
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पंच-निंब  : पुं० [द्विगु स०] पत्ती, छाल, फूल, फल और मूल; नीम के उक्त पाँचों अंग।
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पंच-निर्णय  : पुं० [सं० ष० त०] पंचों द्वारा किया हुआ निर्णय।
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पंचनी  : स्त्री [सं०√पंच्+ल्युट्—अन, ङीप्] चौपड़, शतरंज आदि की बिसात।
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पंच-नीराजन  : पुं० [मध्य० स०] दीपक, कमल, आम, वस्त्र और पान से की जानेवाली आरती।
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पंच-पक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का शकुन शास्त्र, जिसमें अ, इ, उ, ए और ओ इन पाँच वर्णों को पक्षी मानकर शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है।
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पंच-पत्र  : पुं० [ब० स०] एक पेड़। चंडाल कंद।
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पंच-पदी  : स्त्री० [ब० स०] एक पेड़। चंडाल कंद।
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पंच-पदी  : स्त्री० [पंच-पाद, ब० स० ङीष् पद्भाव] १. एक प्रकार की ऋचा। २. चलने में पाँच कदम या डग। ३. पाँच पदों का समूह। ४. ऐसा संबंध जिसमें वैसी ही साधारण जान-पहचान हो, जैसी दस पाँच कदम साथ चलने पर होती है।
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पँच-पनड़ी  : स्त्री० ‘दे पँचौली’ (पौधा)।
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पंच-पर्णिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्—टाप् इत्व] गोरक्षी नाम का पौधा।
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पंच-पर्व (न्)  : पुं० [द्विगु स०] अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या और रवि संक्रान्ति—ये पाँचों पर्व।
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पंच-वल्लव  : पुं० [द्विगु स०] पीपल, गूलर, पाकड़ और बड़ अथवा आम, जामुन, कैथ, बेल और बिजौरा के पत्ते, जिनका उपयोग शुभकर्मों में पूजन के समय होता है।
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पंच-पात  : पुं० [सं० पंचतंत्र] पंचौली नाम का पौधा। पँचपनड़ी।
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पंच-पात्र  : पुं० [समा०] १. पाँच पात्रों का समाहार। २. एक एक पात्र जिसमें पूजन आदि के लिए जल रखा जाता है।
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पंच-पाद  : वि० [ब० स०, अन्तलोप] पाँच पैरोंवाला। पुं० एक संवत्सर।
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पंचपिता (तृ)  : पुं० [द्विगु स०] पिता, आचार्य, श्वशुर, अन्नदाता और भयत्राता इन पाँचों का समाहार।
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पंच-पित्त  : पुं० [द्विगु स०] सूअर, बकरे, भैंसे, मछली और मोर इन पाँचों जीवों का पिता, जो वैद्यक में काम आता है।
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पंच-पीरिया  : वि० [हिं० पाँच+फा० पीर] (व्यक्ति) जो पाँच पीरों की पूजा करता हो।
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पंच-पुष्प  : पुं० [द्विगु स०] चंपा, आम, शमी, कमल और कनेर—इन पाँचों वृक्षों के फूलों का समाहार।
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पंच-प्राण  : पुं० [द्विगु स०] शारीरिक वात के इन पाँच भेदों का समाहार—प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान।
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पंच-प्यारे  : पुं०=पंज-प्यारे।
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पंच-प्रासाद  : पुं० [ब० स०] वह मंदिर जिसके चारों कोणों पर एक एक श्रृंग और बीच में एक गुंबद हो।
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पंच-वटी  : स्त्री० दे० ‘पंचवटी’।
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पंच-बला  : स्त्री० [द्विगु स०] बला, अतिबला, नागबला, राजबला और महाबला नाम ओषधियों का समाहार। (वैद्यक)
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पंच-बाण  : पुं०=पंचवाण।
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पंच-बाहु  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पंच-भद्र  : वि० [ब० स०] १. पाँच गुणों वाला (खाद्य पदार्थ या व्यंजन)। २. दुष्ट। पुं० [द्विगु स०] १. वैद्यक में ओषधियों का एक गण, जिसमें गिलोय, पित्तपापड़ा, मोथा, चिरायता और सोंठ हैं। २. दे० ‘पंच-कल्याण’।
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पंच-भर्तारी  : वि० [हिं० पंच+भर्तार+ई (प्रत्य०)] जिसके पाँच पति हों। स्त्री० द्रौपदी।
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पंच-भुज  : वि० [ब० स०] जिसकी पाँच भुजाएँ हों। पुं० ज्यामिति में पाँच भुजाओंवाले क्षेत्र की संज्ञा। (पेन्टागन)
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पंच-भूत  : पुं० [द्विगु स०] भारतीय दर्शन के अनुसार आकाश, वायु, अग्नि जल और पृथ्वी ये पाँच भूत या मूलतत्त्व जिनसे सृष्टि की रचना हुई है।
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पंचम  : वि० [सं० पंचन्+डट्, मट्] १. पाँचवाँ। २. मनोहर। सुंदर। ३. दक्ष। निपुण। पुं० [सं०] १. संगीतशास्त्र में, सरगम का पाँचवा स्वर, जिसका संक्षिप्त रूप ‘प’ है। विशेष—कहा गया है कि इसके उच्चारण में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान नामक पाँचों प्राणों या वायुओं का उपयोग होता है; इसीलिए इसे ‘पंचम्’ कहते हैं। यह ठीक कोकिल के स्वर के समान होता है और इसके उच्चारण में क्षिति, रक्ता, संदीपनी और आलापिनी नाम की चार श्रुतियाँ लगती हैं। २. छः प्रधान रागों में तीसरा राग, जिसे कुछ लोग हिंडोल और कुछ लोग भैरव का पुत्र मानते हैं। ३. व्यंजनों में प्रत्येक वर्ग का अंतिम वर्ण। जैसे—ङ, ञ, ण आदि। ४. चमार, डोम आदि जातियाँ। अन्त्यज। हरिजन। ५. मैथुन, जो तंत्रिकों के अनुसार पाँचवाँ मकार है।
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पंच-मकार  : पुं० [ब० स०] ‘म’ अक्षर से आरंभ होनेवाली ये पाँच वस्तुएँ—मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन।
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पंच-महापातक  : पुं० [द्विगु स०] ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपत्नी से गमन और उक्त पातक करनेवालों से किया जानेवाला मेल-जोल या संसर्ग—ये पाँच बहुत बड़े पाप।
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पंच-महायज्ञ  : पुं० [द्विगु स०] गृहस्थ के लिए अनिवार्य ये पाँच यज्ञ—ब्रह्मयज्ञ(स्वाध्याय), देवयज्ञ(होम), भूतयज्ञ(बलि वैश्वेदेव), पितृयज्ञ(पिंडक्रिया) और नृयज्ञ (अतिथिसत्कार)।
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पंच-महाव्याधि  : स्त्री० [द्विगु स०] अर्श, यक्ष्मा, कुष्ठ, प्रमेह और उन्माद—ये पाँच कठिन और दुःसाध्य व्याधियाँ। (वैद्यक)
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पंच-महाव्रत  : पुं० [द्विगु स०] योगशास्त्र के अनुसार इन पाँच आचरणों की प्रतिज्ञा या व्रत—अहिंसा, सूनृता, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन्हें ‘यम’ भी कहते हैं।
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पंच-महाशब्द  : पुं० [द्विगु स०] श्रृंग(सींग), तम्मट(खँजड़ी), शंख, बेरी और जया घंटा—इन पाँच बाँजों का समाहार।
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पंचमांग  : पुं० [सं० पंचम-अंग, कर्म० स०] १. किसी काम चीज़ या बाँत का पाँचवाँ अंग। २. आधुनिक राजतंत्र में राज्य या शासन का वह पाँचवाँ अंग या विभाग जो गुप्त रूप से दूसरे देशों के देश-द्रोहियों से मिलकर और उन्हें अपनी ओर मिलाकर उन देशों को हानि पहुँचाता है। राज्य या शासन के शेष चार अंग ये हैं—स्थल-सेना, जल-सेना, वायु सेना और समाचार-प्रकाशन विभाग। (फिफ्थ कालम)
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पंचमांगी (गिन्)  : वि० [सं० पंचमांग+इनि] पंचमां-संबंधी। पंचमांग का। पं० किसी देश या राज्य का वह निवासी जो दूसरे देशों के साथ गप्त संबंध स्थापित करके अपने देश को हानि पहुँचाता हो। शत्रुओं के साथ मिला हुआ देश-द्रोही। (फिफ्थ कालमिस्ट)
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पंचमाक्षर  : पुं० [सं० पंचम-अक्षर, कर्म० स०] वर्णमाला में किसी वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन। जैसे—ङ, ञ, ण आदि।
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पंचमास्य  : वि० [सं० पंच-मास, कर्म० स०+यत्] हर पाँच महीने होने वाला। पुं० [पंचम-आस्य, ब० स०] कोकिल या कोयल, जो पंचम स्वर में बोलती है।
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पंचमी  : स्त्री० [सं० पंचम+ङीष्] १. चांद्र मास के प्रत्येक पक्ष की पाँचवी स्थिति। २. द्रौपदी, जिसके पाँच पति थे। ३. संगीत में एक प्रकार की रागिनी। ४. व्याकरण में अपादान कारक और उसकी विभक्ति। ५. वैदिक युग में एक प्रकार की ईंट, जो एक पुरुष की लंबाई के पाँचवे भाग के बराबर होती थी और यज्ञ में वेदी बनाने के काम आती थी। ६. तंत्र में एक प्रकार की मंत्र-विधि।
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पंच-मुख  : वि० [सं० ब० स०] पाँच मुँहोवाला। जैसे—पंचमुख गणेश। पंचमुख शिव। पुं० १. शिव। २ सिंह। शेर। ३. एक प्रकार का रुद्राक्ष, जिस पर पाँच लकीरें होती हैं।
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पंचमुखी  : वि० [सं० पंचमुख] जिसके पाँच मुख हों। पंच-मुख। स्त्री० [पंचमुख+ङीष्] १. पार्वती। २. मादा सिंह। शेरनी। ३. अड़ूसा। ४. गुड़हल। जपा या जवा।
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पंच-मुद्रा  : पुं० [मध्य० स०] तंत्र के अनुसार पूजनविधि की ये पाँच प्रकार की मुद्राएँ—आवाहनी, स्थापनी, सन्निधापनी, संबोधनी और सम्मुखीकरणी।
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पंच-मूत्र  : पुं० [द्विगु स०] गाय, बकरी, बेड़, भैंस और गधी इन पाँचों पशुओं के मूत्रों का मिश्रण।
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पंच-मूर्ति  : पु. [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पंच-मूल  : पुं० [ब० स०] वैद्यक में एक पाचन औषध जो पाँच प्रकार की वनस्पतियों की जड़ या मूल से बनती है।
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पँच-मेल  : वि० [हिं० पाँच+मेल] १. जिसमें पाँच तरह की चीजें मिली हों। जैसे—पँचमेल मिठाई। २. जिसमें कई या सब तरह की चीजें मिली-जुली हों।
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पँच-मेवा  : पुं० [हिं० पांच+मेवा] किशमिश, गरी, चिरौंजी, छुहारा और बादाम ये पाँच प्रकार के मेवे, अथवा इन सब का मिश्रण।
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पंचमेश  : पुं० [पँचम-ईश, ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार जन्म-कुंडली में पाँचवे घर का स्वामी।
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पंच-यज्ञ  : पुं०=पंच-महायज्ञ।
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पंच-याम  : पुं० [ब० स०] दिन।
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पंच-रंग  : पुं० [हिं० पांच+रंग] मेंहदी का चूरा, अबीर, बुक्का, हल्दी और सुरवाली के बीज, जिन्हें मिलाकर शूभ कार्यों के समय चौक पूरते हैं। वि०=पँच-रंगा।
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पँच रंगा  : वि० [हिं० पाँच+रंग] [स्त्री० पँच रंगी] १. जिसमें पाँच भिन्न रंग हों। पाँच रंग का या पाँच रंगोंवाला। २. पाँच प्रकार के रंगों से बना हुआ। ३. जिसमें बहुत-से रंग मिले हों। पुं० पंच-रंग से पूरा या बनाया हुआ चौक।
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पंच-रक्षक  : पुं० [ब० स०] पखौड़ा वृक्ष।
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पंच-रत्न  : पुं० [द्विगु स०] नीलम, पद्यराग, मणि, मूंगा, मोती और हीरा—ये पाँच प्रकार के रत्न।
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पंच रश्मि  : पुं० [ब० स०] सूर्य।
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पंच-रसा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] आँवला।
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पंच-रात्र  : वि० [द्विगु स०, अच्] पाँच रातों में होने वाला। पुं० १. पाँच रातों का समूह। २. एक प्रकार का यज्ञ, जो पाँच दिनों में पूरा होता था।
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पंच-राशिक  : पुं० [ब० स०, कप्] गणित में एक प्रकार की प्रक्रिया, जिसमें चार ज्ञात राशियों की सहायता से पाँचवीं अज्ञात राशि का पता लगाया जाता है।
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पंच-रीक  : पुं० [ब० स०, कप्] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पंचल  : पुं० [सं०√पंच्+अलच्] शकरकंद।
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पंच-लक्षण  : पुं० [द्विगु स०] ये पाँच बातें, जिनके समुचित विवेचन से किसी ग्रन्थ को पुराण की संज्ञा प्राप्त होती थी—सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, देवताओं की उत्पत्ति और वंश-परंम्परा, मन्वन्तर तथा मनु के वंश का विस्तार।
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पँचलड़ा  : वि० [हिं० पाँच+लड़] [स्त्री० पँचलड़ी] पाँच लड़ोंवाला । जैसे—पँचलड़ा हार। पुं० [स्त्री० अल्पा० पँचलड़ी] गले में पहनने का पाँच लड़ोंवाला हार।
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पंच-लवण  : पुं० [मध्य० स०] दे. ‘पंच क्षारगण’।
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पँच-लोना  : वि० [हिं० पाँच+लोन (लवण)] जिसमें पाँच प्रकार के नमक पड़े या मिले हों। पुं०=पंच-लवण।
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पंच-लौह  : पुं० [द्विगु स०] १. कांची, पांजि, कांत, कालिंग और वज्रक; लोहे के उक्त पाँच भेद। २. सोना, चाँदी, ताँबा, सीसा और राँगा इन पाँच धातुओं के योग से बनी हुई एक मिश्र धातु।
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पंचवई  : स्त्री०=पँचवाई (एक तरह की देशी शराब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंच-वक्त्र  : पुं० [ब० स०] दे० ‘पँचमुख’।
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पंचवक्त्रा  : स्त्री० [पंचवक्त्र+टाप्] दुर्गा।
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पंच-वट  : पुं० [कर्म० स०] यज्ञोपवीत।
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पंच-वटी  : स्त्री० [पंच-वट, द्विगु स०+ङीष्] १, पीपल, बेल, वट, हड़ और अशोक—ये पाँच वृक्ष। २. दंडकारण्य में गोदावरी के तट का एक प्रसिद्ध स्थान (आधुनिक नासिक से दो मील दूर स्थित) जहाँ श्रीरामचन्द्र ने वन-वास के समय कुछ दिनों तक निवास किया था।
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पंच-वदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पंचवर्ग  : पुं० [द्विगु स०] एक ही प्रकार की पाँच वस्तुओं का समूह।
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पंच-वर्ण  : पुं० [द्विगु स०] १. प्रणव के ये पाँच वर्ण—अ, उ, म, नाद और विंदु। २. एक प्राचीन वन। ३. उक्त वन के पास एक प्राचीन पर्वत।
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पंच-वल्कल  : पुं० [द्विगु स०] वट, गूलर, पीपल, पाकर और बेंत इन पाँच वृक्षों की छालें।
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पँचवाँसा  : पुं० [हिं० पाँच+मास] गर्भवती स्त्रीके गर्भ के पाँचवें महीने होनेवाला एक संस्कार।
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पँचवाई  : स्त्री० [हिं० पाँच+वाई (प्रत्य०)] चावल, जौ आदि से बनाई जानेवाली एक प्रकार की देशी शराब।
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पंच-वाण  : पुं० [द्विगु स०] १. कामदेव के ये पाँच वाण—द्रवण, शोषण, तापन, मोहन और उन्माद। २. कामदेव के ये पाँच पुष्पबाण—कमल, अशोक, आम, नवमल्लिका और नीलोत्पल। ३. [ब० स०] कामदेव। मदन।
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पंचवातीय  : पुं० [सं० पंच-वात, द्विगु स०+छ—ईय] राजसयू के अन्तर्गत एक प्रकार का होम।
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पंच-वाद्य  : पुं० [द्विगु स०] युद्धक्षेत्र में, बजनेवाले ये पाँच प्रकार के वाद्य—तंत्र, आनद्ध, सुशिर और घन के शब्द तथा वीरों का गर्जन।
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पंच-वार्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठक्—इक] हर पाँचवें वर्ष होने वाला।
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पँचवाह (हिन्)  : वि० [सं० पंचवाह+इनि] पुरानी चाल की एक सवारी जिसमें पाँच घोड़े जोते जाते थे।
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पंचविंश  : वि० [सं० पंचविंशति+डट्] पचीसवाँ।
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पंचविंशति  : वि० [मध्य० स०] पचीस।
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पंच-वृक्ष  : पुं० [द्विगु स०] मंदार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन—ये पाँच वृक्ष।
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पंच-शब्द  : पुं० [द्विगु स०] १. तंत्री, ताल, झाँझ, नगाड़ा और तुरुही—ये पाँच प्रकार के बाजे और इनसे निकलनेवाला स्वर। २. पाँच प्रकार की ध्वनियाँ। ३. व्याकरण के अनुसार सूत्र, वार्तिक, भाष्य, कोष और महाकवियों के प्रयोग—जो प्रामाणिक माने जाते हैं।
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पंच-शर  : पुं० दे. ‘पंच-वाण’।
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पंच-शस्य  : पुं० [द्विगु स०] धान, मूँग, तिल, उड़द और जौ—इन पाँच प्रकार के अन्नों की सामूहिक-संज्ञा।
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पंच-शाख  : पुं० [ब० स०] १. हाथ, जिसमें उंगलियों के रूप में पाँच शाखाएँ होती हैं। २. दे. ‘पंजशाखा’। ३. हाथी।
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पँच-शाखा  : स्त्री०=पंज-शाखा।
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पंच-शारदीय  : पुं० [पंचशरद+छण—ईय] एक प्रकार का यज्ञ।
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पंच-शिख  : पुं० [ब० स०] १. कपिल मुनि की शिष्य-परंपरा में से एक आचार्य, जो सांख्य-शास्त्र के बहुत बड़े पंडित थे। २. सिंह। ३. नरसिंह (बाजा)।
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पंचशीर्ष  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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पंचशील  : [मध्य० स०] १. बौद्धधर्म में शील या सदाचार की ये पाँच मुख्य बातें, जिनका आचरण तथा पालन प्रत्येक सत्पुरुष के लिए आवश्यक कहा गया है—अस्तेय (चोरी न करना); अहिंसा (हिंसा न करना), ब्रह्मचर्य (व्यभिचार न करना), सत्य (झूठ न बोलना) और मादक पदार्थों का परित्याग (नशा न करना) २. एशिया और अफ्रीका के प्रमुख देशों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय तनातनी कम करने तथा शांति बनाये रखने के उद्देश्य से बाँदुंग सम्मेलन (१९५४) में उक्त के आधार पर स्थिर किये हुए ये पाँच राजनीतिक सिद्धान्त—पारस्परिक सम्मान (एक दूसरे को सम्मान की दृष्टि से देखना), अनाक्रमण (एक दूसरे को सीमा का उल्लंघन न करना), अ-हस्तक्षेप (एक दूसरे की आंतरिक बातों में दखल न देना), समानता (किसी को अपने से बड़ा या छोटा न समझना। और सह-अस्तित्व (अपना अस्तित्व भी बनाये रखना और दूसरों का अस्तित्व भी बना रहने देना)।
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पंच-शूरण  : पुं० [मध्य० स०] सूरन के ये पाँच प्रकार—अत्यम्ल पर्णी मालकंद, सूरन, सफेद सूरन और काडवेल।
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पंचशैल  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
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पंच-षष्टि  : वि० [मध्य० स०] जो संख्या में साठ से पाँच अधिक हो। पैंसठ। स्त्री० पैंसठ की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६५।
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पंच-संधि  : स्त्री० [द्विगु स०] व्याकरण में ये पाँच संधियाँ—स्वर-संधि, व्यंजन-संधि, विसर्ग-संधि, स्वादि-संधि और प्रकृति भाव।
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पंच-सप्तति  : वि० [मध्य० स०] पचहत्तर। स्त्री० पचहत्तर की संख्या, जो इस प्रकार लिखी जाती है—७५।
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पँचसर (ा)  : पुं०=पंचशर (कामदेव)।
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पंचसिद्धौषधि  : स्त्री० [सिद्ध-ओषधि, कर्म० स०, पंच-सिद्धौषधि, द्विगु स०] वैद्यक की ये पाँच औषधियाँ—सालिब मिश्री, वराही कन्द, रोदंसी, सर्पाक्षी और सरहटी।
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पंच-सुगंधक  : पुं० [ब० स०, कप्] वैद्यक की ये पाँच सुगंधित औषधियाँ—लौंग, शीतल चीनी, अगर, जायफल और कपूर। कुछ लोग अगर के स्थान पर सुपारी भी मानते हैं।
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पंच-सूना  : स्त्री० [मध्य०] गृहस्थी का ये पाँच वस्तुएँ जिनके द्वारा अनजान में जीव-हत्याएँ होती हैं— चूल्हा, चक्की, सिलबट्टा, झाड़ू, ओखली और कुंभ (घड़ा)।
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पंच-स्कंध  : पुं० [व० स०] बौद्ध दर्शन में ये पाँच स्कंध या गुणों की समष्टियाँ—रूपस्कंध, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कंध।
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पंच-स्नेह  : पुं० [द्विगु स०] घी, तेल, मज्जा, चरबी और मोम—ये पाँचों चिकने या स्निग्ध पदार्थ।
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पंच-स्रोत्र (स्)  : पुं० [ब० स०] १. एक प्रकार का यज्ञ। २. एक प्राचीन तीर्थ। ३. हठयोग में झंड़ा, पिंगला, वज्जा, चित्रिणी और ब्रह्म नाड़ी नामक पाँचों नाड़ियाँ।
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पंच-स्वेद  : पुं० [द्विगु स०] वैद्यक में ये पाँच प्रकार के स्वेद—लोष्ट स्वेद, बालुका स्वेद, वाष्प स्वेद, घट स्वेद और ज्वाला स्वेद।
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पँचहजारी  : पुं०=पंच-हजारी।
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पँचहरा  : वि० [हिं० पाँच+हरा (प्रत्य०)] १. पाँच परतों या तहोंवाला। पाँच बार मोड़ा हुआ। जैसे—पँचहरा कपड़ा या कागज। २. पाँच बार किया हुआ। जैसौ—पँचहरा काम।
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पंचांग  : वि० [पंचन्-अंग, ब० स०] पाँच अंगोंवाला। पुं० १. किसी चीज के पाँच अंग। २. पाँच अंगांवाली चीज या वस्तु। ३. वह पंजी या पुस्तिका जिसमें आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों की दैनिक स्थिति बतलाई गई हो। ४. वह पंजी या पुस्तिका जिसमें प्रत्येक मास या वर्ष के वारों, तिथियों, नक्षत्रों, योगों और करणों का समुचित निरूपण या विवेचन होता हो। जंत्री। पत्रा। ५. प्रणाम करने का वह प्रकार, जिसमें दोनों घुटने, दोनों हाथ और मस्तक पृथ्वी पर टेककर प्रणम्य की ओर देखते हुए मुँह में प्रणाम सूचक शब्द कहा जाता है। ६. वनस्पतियों, वृक्षों आदि के पाँच अंग—जड़, छाल, पत्ती, फूल और फल। ७. तंत्र में जप, होम, तर्पण, अभिषेक और ब्राह्मण-भोजन जो पुरश्चरण के समय आवश्यक होते हैं। ८. तांत्रिक उपासना में किसी इष्टदेव का कवच, स्रोत्र, पद्धति, पटल और सहस्रनाम। ९. राजनीति-शास्त्र के अन्तर्गत सहाय, साधन, उपाय, देश, काल, भेद और विषद् प्रतीकार—ये पाँच मुख्य कार्य। १॰. पंच-कल्याण। घोड़ा। ११. कच्छप या कछुआ जो अपने चारों पैर और सिर खींचकर अन्दर छिपा लेता है।
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पंचांग-मास  : पुं० [मध्य० स०] पहली से अन्तिम तिथि या तारीख तक का वह पूरा महीना जो पंचाग में प्रत्येक महीने के अन्तर्गत दिखलाया जाता है। (केलेंडर मन्थ)
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पंचांग-वर्ष  : पुं० [मध्य० स०] किसी पंचांग में दिखाया हुआ आदि से अन्त तक कोई सम्पूर्ण या पूरा वर्ष (संवत् या सन्) (केलेंडर ईयर)
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पंचांग-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] पंचांग के पाँचों अंगों (तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण) का शुद्ध निरूपण।
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पंचांगिक  : वि० [सं० पंचांग+ठन्—इक] जिसके या जिसमें पाँच अंग हों।
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पंचांगी  : वि० [सं० पंचांग] पाँच अंगोंवाला। स्त्री० [पंचांग+ङीष्] हाथी की कमर में बाँधने का रस्सा।
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पंचांगुल  : वि० [पंच-अंगुलि, ब० स०, अच्] १. (हाथ या पैर) जिसमें पाँच उँगलियाँ हों। २. जो पाँच अंगुल लम्बा हो। पुं० १. अंडी या रेंड का वृक्ष। २. तेज-पत्ता। ३. भूसा बटोरने का पाँचा नामक उपकरण।
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पंचांगुलि  : वि० [ब० स०] जिसे पाँच उँगलियाँ हों।
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पंचांतरीय  : पुं० [सं० पंचन्-अंतर, [द्विगु स०],+छ—ईय] बौद्धमत के अनुसार ये पाँच प्रकार के घातक—माता, पिता, अर्हत (ज्ञानी पुरुष) और बुद्ध का घात तथा यज्ञ करनेवालों से विवाद।
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पंचांश  : पुं० [पंचन्-अंश कर्म० स०] किसी वस्तु के पाँच बराबर भागों में से कोई एक बाग। पंचमांश।
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पंचाइत  : स्त्री० [वि० पंचाइती]=पंचायत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंचाक्षर  : वि० [पंच-अक्षर, ब० स०] जिसमें पाँच अक्षर हों। पाँच अक्षरोंवाला। जैसे—पंचाक्षर मंत्र, पंचाक्षर शब्द। पुं० १. प्रतिष्ठा नामक वृत्ति जिसमें पाँच हजार अक्षर होते हैं। २. शिव का ‘नमः शिवाय’ मंत्र जिसमें पाँच अक्षर होते हैं।
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पंचाग्नि  : वि० [पंचन्-अग्नि, ब० स०] पाँच प्रकार की अग्नियों का आधान करनेवाला। स्त्री० [द्विगु स०] १. अन्वाहार्यपचन या दक्षिण, गार्हपत्य, आहवनीय, आवसथ्य और सभ्य अग्नि के उक्त पाँच प्रकार। २. छांदोंग्य उपनिषद् के अनुसार, सूर्य, पुर्जन्य, पृथ्वी, पुरुष और योषित्—जो अग्नि के रूप में माने गये हैं। ३. आयुर्वेद के अनुसार चीता, चिचिड़ी, भिलावाँ, गंधक और मदार नामक औषधियाँ जो बहुत गरम होती हैं। ४. एक प्रकार की तपस्या जिसमें तपस्वी अपने चारों ओर आग जलाकर दिन-भर धूप में बैठता और ऊपर से सूर्य का जलता हुआ ताप भी सहता है। क्रि० प्र०—तापना। ५. सब ओर से पहुँचनेवाला कष्ट, दुःख या सन्ताप। उदा०—पलता था पंचाग्नि बीच व्याकुल आदर्श हमारा—मैथिलीशरण गुप्त।
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पंचाग्नि-विद्या  : स्त्री० [सं०] छांदोग्य उपनिषद् में सूर्य, बादल, पृथ्वी, पुरुष और स्त्री-संबंधी तात्त्विक ज्ञान या विज्ञान।
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पंचाज  : पुं० [पंचन्-आज, द्विगु स०] अजा अर्थात् बकरी से प्राप्त होनेवाले ये पाँच पदार्थ—दूध, दही, घी, लेंडी और मूत्र।
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पंचाट  : पुं० [सं० पंच से] विवाद के संबंध में पंचों का किया हुआ निर्णय या फैसला। परिनिर्णय। (अवार्ड)
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पंचातप  : पुं० [सं० पंचन्-आ√तप् (तपना)+अच्] पंचाग्नि तापने की क्रिया या भाव। चारों ओर आग जलाकर तथा धूप में बैठकर की जानेवाली तपस्या।
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पंचात्मा (त्मन्)  : स्त्री० [ पंचन्-आत्मन्, द्विगु स०] शरीर में होनेवाले ये पाँच-प्राण—प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान।
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पंचानन  : वि० [पंचन्-आनन, ब० स०] जिसके पाँच आनन या मुँह हों। पंचमुखी। पुं० १. शिव। २. शेर। सिंह। ३. किसी विषय का बहुत बड़ा पंडित या विद्वान। जैसे—तर्क पंचानन। ४. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार की होती है, आरोही—सा रे ग म प। रे ग म प ध। ग म प ध नि। म प ध नि सा। अवरोही-सा नि ध प म। नि ध प म ग। ध प म ग रे। प म ग रे सा।
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पंचाननी  : स्त्री० [सं० पंचानन+ङीष्] १. दुर्गा। २. शेर की मादा। शेरनी।
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पंचानबे  : वि० [सं० पंचनवति, पा. पंचनवइ] जो गिनती में नब्बे से पाँच अधिक हो। पाँच कम सौ। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९५।
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पंचाप्सर  : पुं०=पंपासर। (देखें)
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पंचामरा  : स्त्री० [पंचन्-अमरा, द्विगु स०+टाप्] दूर्वा, विजया, बिल्वपत्र, निर्गुडी और काली तुलसी—इन पाँच पौधों का वर्ग।
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पंचामृत  : पुं० [पंचन्-अमृत, द्विगु स०] १. दूध, दही, घी, मधु और चीनी के मिश्रण से बना हुआ घओल जिसे हिंदू लोग देवताओं को चढ़ाते हैं तथा स्वयं प्रसाद के रूप में पीते हैं। २. वैद्यक में ये पाँच गुणकारी ओषधियाँ—गिलोय, गोखरू, मुसली, गोरखमुंडी और शतावरी।
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पंचाम्ल  : पुं० [पंचन्-अम्ल, द्विगु स०] ये पाँच खट्टे फल—बेर, अनार, अमलबेत, चूक और बिजौरा।
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पंचायत  : स्त्री० [सं० पंचायतन] १. पंचों की सभा। २. प्राचीन भारतीय समाज में चुने हुए थोड़े-से (प्रायः पाँच) आदमियों का वह दल जो आपस के सामाजिक अर्थात् जाति-बिरादरी के झगड़ों या विवादों का निर्णय करता था और जिसका निर्णय बिरादरी या समाज को मान्य होता था। ३. बिरादरी या समाज के लोगों की वह सभा जिसमें पंच लोग बैठकर उक्त प्रकार के झगड़ों का विचार और निर्णय करते थे। जैसे—अग्रवालों या खत्रियों की पंचायत। विशेष—‘पंचायत’ और ‘मध्यस्थता’ के अंतर के लिए दे० ‘मध्यस्थता’ का विशेष। पद—पंचायत-घर। (देखें) क्रि० प्र०—बैठना।—बैठाना। मुहा०—पंचायत बटोरना=अपने किसी विवाद का निर्णय कराने के लिए पंचों और बिरादरी या समाज के सब लोगों को बुलाकर इकट्ठा करना। ४. उक्त प्रकार के समाज या समुदाय में होनेवाले पारस्परिक वाद-विवाद। ५. आज-कल, दो दलों में होनेवाले आर्थिक विवाद के संबंध में दोनों दलों या पक्षों के चने हुए लोगों का वह वर्ग या समूह जो दोनों पक्षों की बातें सुनकर उनका निर्णय करता है। ६. कुछ लोगों का वह समाज जिसमें वे बैठकर तरह-तरह के और प्रायः व्यर्थ के झगड़े-बखेड़ों की बातें करते हैं। ७. झगड़ा। विवाद।
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पंचायत-घर  : पुं० [हिं०] वह स्थान जहाँ गाँव, बिरादरी या समाज के लोग बैठकर पंचायत या वाद-विवाद करते और पंचों से उनका निर्णय कराते हैं।
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पंचायतन  : पुं० [पंचन्-आयतन, द्विगु स०] किसी देवता और उसके साथ रहनेवाले चार व्यक्तियों का वर्ग या समूह। जैसे—शिव-पंचायतन, राम-पंचायतन आदि।
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पंचायतन-बोर्ड  : पुं० [हिं०+अं०] वर्तमान भारत में ग्रामीण लोगों की वह विचार-सभा जिसमें गाँव के प्रतिनिधि विवादों आदि का निर्णय करते हैं। ग्राम-पंचायत।
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पंचायती  : वि० [हिं० पंचायत] १. पंचायती-संबंधी। पंचायत का २. पंचायत द्वारा किया या दिया हुआ। जैसे—पंचायती निर्णय, पंचायती हुकुम। ३. (वस्तु) जिस पर पंचायत या सारे समाज का अधिकार या नियंत्रण हो। जैसे—पंचायती धर्मशाला, पंचायती मंदिर। ४. जिसे सब लोग समान रूप से प्रामाणिक मानते हों। जैसे—पंचायती तौल। ५. दोगला। वर्णसंकर। (बाजारू)
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पंचायती राज्य  : पुं०=गणतंत्र।
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पंचायुध  : पुं० [पंचन्-आयुध, ब० स०] विष्णु, जिनके पाँच आयुध माने जाते हैं।
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पंचारी  : स्त्री० [सं० पंच√ऋ (जाना)+अण्—ङीष्, उप० स०] चौसर, शतरंज आदि की बिसात।
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पंचार्चि (स्)  : पुं० [पंचन्-आर्चिस, ब० स०] बुध ग्रह।
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पंचाल  : पुं० [सं० √पंच+कालन्] [वि० पांचाल] १. पंचमुख महादेव। २. पाँचों ज्ञानेंद्रियों के पाँच विषय। ३. क्षत्रियों की एक प्राचीन शाखा। ४. उक्त शाखा के क्षत्रियों का देश जो हिमालय और चंबल के बीच में गंगा के दोनों ओर स्थित था। ५. उक्त देश का निवासी। ६. बाभ्रव्य गोत्र के एक ऋषि। ७. शिव। ८. एक प्रकार का छन्द जिसके प्रत्येक चरण में एक तगण (ऽऽ1) होता है। ९. दक्षिण भारत की एक जाति जो लड़की और लोहे का काम करती है। १॰. एक प्रकार का जहरीला कीड़ा।
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पंचालिका  : स्त्री० [सं० पंच=प्रपंच+अल् (शोभा)+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] १. गुड़िया। २. साहित्य में पांचाली रीति का दूसरा नाम।
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पंचालिस  : वि०, पुं०=पैंतालीस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंचाली  : वि० [सं० पंचाल+इन्] १. पंचाल देश में रहनेवाला। २. पंचाल का। स्त्री० १. द्रौपदी। २. गुड़िया। ३. चौपड़ या चौसर की बिसात। ४. एक प्रकार की गीत जिसे पांचाली भी कहते हैं। दे० ‘पांचाली’।
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पंचावयव  : वि० [पंचन्-अवयव, ब० स०] जिसके पाँच अवयव या अंग हों। पंचांगी। पुं० १. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन—इन पाँच अवयवोंवाला न्याय-वाक्य। २. न्याय के पाँच अवयव।
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पंचावस्थ  : वि० [पंचन्-अवस्था, ब० स०] पाँचवीं अवस्था में पहुँचा हुआ अर्थात मरा हुआ। मृत। पुं० लाश। शव।
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पंचाविक  : पुं० [पंचन्+आविक, द्विगु स०] भेड़ का दूध, दही, घी, लेंड़ी और मूत्र ये पाँचों पदार्थ।
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पंचाश  : वि० [सं० पंचाशत्+डट्] पचासवाँ।
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पंचाशत्  : वि० [सं० पंचदशन्, नि० सिद्धि] जो गिनती में चालीस से दस अधिक हो। पचास। पुं० उक्त को सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५0।
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पंचाशिका  : स्त्री० [सं० पंचाशत्+डिनि+क—टाप्] पचास श्लोकों या कवित्तों का संग्रह या समूह।
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पंचाशीत  : वि० [सं० पंचाशीति+डट्, टिलोप] क्रम या गिनती में पचासी के स्थान पर पड़नेवाला। पचासीवाँ।
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पंचाशीति  : स्त्री० [पंचन्-अशीति, मध्य० स०] पचासी की सूचक संख्या, जो इस प्रकार लिखी जाती है—८५।
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पंचास्य  : वि०, पुं० [पंचन्-आस्य, ब० स०]=पंचानन। (दे०)
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पंचाह  : पुं० [पंचन्-अहन्, द्विगु स०] १. पाँच दिनों का समूह। २. पाँच दिनों में होनेवाला एक तरह का यज्ञ। ३. सोमयाग के अन्तर्गत वह कृत्य जो सुत्या के पाँच दिनों में किया जाता था।
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पंचिका  : स्त्री० [सं० पंचन+ठन्—इक्, टाप्] १. वह पुस्तक, जिसमें पाँच अध्याय हों। २. पाँच गोटियों से खेला जानेवाला एक प्रकार का जूआ।
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पंचीकरण  : पुं० [सं० पंचन्+च्वि, नलोप ईत्व√कृ+ल्युट्—अन] १. वेदांत में एक पद जो उस क्रिया का सूचक होता है जिसमें से पंचभूतों के द्वारा किसी चीज का संघटन होता है। (किसी चीज के संघटन में आधा अंश एक तत्त्व से बना होता है और शेष आधे अंश में बाकी चारों तत्त्वों का समान रूप से अस्तित्व माना जाता है।) २. हठयोग की एक सिद्धि, जिसके संबंध में यह माता जाता है कि इससे साधक जब चाहे तब अपना पहले वाला शरीर धारण कर सकता है।
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पंचीकृत  : भू० कृ० [सं० पंचन्+च्वि, नलोप, ईत्व√कृ+क्त√कृ (करना)—कर्मणि क्त] (तत्त्व या भूत) जिसका पंचीकरण हुआ हो या किया गया हो।
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पंचूरा  : पुं० [हिं० पानी+चूना] बच्चों के खेलने का एक प्रकार का मिट्टी का खिलौना जिसके पेंदे में बहुत से छेद होते हैं और जिसमें पानी भरने से बूँदे टपकती हैं।
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पंचेन्द्रिय  : स्त्री० [पंचन्-इंद्रिय, द्विगु स०] १. पाँच ज्ञानेंद्रियाँ। २. पाँच कर्मेद्रियाँ।
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पंचेषु  : पुं० [पंचन्-इषु, ब० स०] पंचशर। कामदेव।
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पँचैया  : स्त्री० [सं० पंचमी]=नागपंचमी।
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पंचो  : पुं० [देश०] गुल्ली-डंडे के खेल में, बाएँ हाथ से गुल्ली को उछाल कर दाहिने हाथ में पकड़े हुए डंडे से उस पर किया जानेवाला आघात।
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पँचोतर सौ  : पुं० [सं० पंचोत्तर शत] सौ और पाँच की संख्या या अंक। एक सौ पाँच की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जाती है—१0५।
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पँचोतरा  : पुं० [सं० पञ्चोत्तर] कन्या-पक्ष के पुरोहित का एक नेग जिसमें उसे दायज में विशेषकर तिलक के समय वर-पक्ष को मिलने वाले रुपयों आदि में से सैकड़े पीछे पाँच मिलते हैं।
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पंचोपचार  : पुं० [पंचन्-उपचार, द्विगु स०] हिंदुओं में देव-पूजन के अवसर पर षोडशोपचार के साधन में किसी कारणवश असमर्थ होने पर केवल गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य (इन पाँच उपचारों) से किया जानेवाला पूजन।
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पंचोपविष  : पुं० [पंचन्-उपविष, द्विगु स०] थूहड़, मंदांर, कनेर, जलपीपल और कुचला—ये पाँच प्रकार के उपविष।
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पंचोपसिना  : स्त्री०=पंचोपचार।
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पंचोली  : स्त्री० [सं० पंच-आवलि] एक पौधा जो पश्चिमी और मध्य भारत में होता है। इसकी पत्तियों और डंठलों से सुगन्धित तेल निकलता है। पुं० [सं० पंचकुल, पंचकुली] कुछ जातियों में वंश-परम्परा से चली आती हुई एक उपाधि।
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पंचोषण  : पुं० [पंचन्-उषण, द्विगु स०] पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, मिर्च और चित्रक ये पाँच ओषधियाँ।
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पंचोष्मा (ष्मन्)  : पुं० [पंचन्-ऊष्मन्, द्विगु स०] शरीर के अन्दर की वे पाँच प्रकार की अग्नियाँ जो भोजन पचाती हैं।
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पंचौदन  : पुं० [पंचन्-ओदन, ब० स०] एक प्रकार का यज्ञ।
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पंचौली  : स्त्री०=पंचोली।
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पँचौवर  : वि० [हिं० पाँच+सं० आवर्त ?] जिसकी पाँच तहें की गई हों। पाँच परतों का। पँचहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंछा  : पुं० [हिं० पंछाला] १. शरीर पर होनेवाले छाले या फुन्सी के फूटने पर उसमें से निकलनेवाला सफेद स्राव। २. वनस्पतियों, पौधों, वृक्षों आदि का कोई अंग छिलने पर उसमें से निकलनेवाला पानी की तरह का स्राव। क्रि० प्र०—निकलना।—बहना।
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पंछाला  : पुं० [हिं० पानी+छाला] १. फफोला। छाला। २.=पंछा। पुं० दे० ‘पुछल्ला’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंछी  : पुं० [सं० पक्षी] चिड़िया। पक्षी।
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पंज  : वि० [सं० पंच से फा०] पंच की तरह का पाँच का संक्षिप्त रूप। जैसे—पज-प्यारे। पंज-हजारी।
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पंजक  : पुं० [हिं० पंजा] १. पंजे का निशान। २. मांगलिक अवसरों पर दीवारों पर लगाई जानेवाली हाथ के पंजे से किसी रंग की छप। ३. चित्रकला में, वह अंकन जिसमें पाँच-पाँच दल या शाखाएँ (हाथ की उँगलियों की तरह) दिखाई गई हों। (पामेट)
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पंज-कल्यान  : पुं०=पंच कल्यान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँजड़ी  : स्त्री० [हिं० पंज+डी (प्रत्य०)] चौसर के खेल में एक दाँव।
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पंज-तन  : पुं० [फा०] हजरत मुहम्मद, हजरत अली, फातिमा और उनके दोनों पुत्र हसन तथा हुसैन ये पाँच व्यक्ति जिन्हें मुसलमान परम-पूज्य मानते हैं।
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पँजना  : अ० [सं० पंज=दृढ़ होना, रुकना] बरतनों में जोड़ या टाँका लगाना।
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पंज-प्यारे  : पुं० [हिं० पंज+प्यारा।] गुरु गोविन्दसिंह के वे पाँच प्रिय भक्त जिन्हें उन्होंने खालसा-पंथ की स्थापना के समय परीक्षा के रूप में मार डालने के लिए बुलाया था, पर जिन्हें मारा नहीं था।
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पंजर  : पुं० [सं०√पंज् (रोकना)+अरन्] १. शरीर। देह। २. हड्डियों आदि का वह ढाँचा जिस पर मांस, त्वचा आदि होते हैं और जिनके आधार पर शरीर ठहरा रहता है। कंकाल। ठठरी। ३. किसी चीज का वह भीतरी ढाँचा, जिस पर कुछ आवरण रहते हैं और जिनसे उसका अस्तित्व बना रहता है। मुहा०—अंजर-पंजर ढीला होना=आघात, प्रहार, भार आदि के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि कार्यों या शरीर का ठीक तरह निर्वाह न हो सके। ४. पिंजड़ा। ५. कलियुग। ६. कोल नामक कन्द। ७. गाय या गौ का एक संस्कार।
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पंजरक  : पुं० [सं० पंजर+कन्] डंठलों आदि का बुना हुआ बड़ा टोकरा। खाँचा। झाबा।
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पंजरना  : अ०=पजरना।
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पँजरी  : स्त्री० [सं० स्त्रीत्वात्-ङीप्, पंजर=ठठरी] अर्थी। टिकठी। वि० [सं० पंजर] जो पंजर के रूप में या पंजर मात्र हो।
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पंज-रोजा  : वि० [फा० पंजरोजः] १.पाँच दिनों का। २. पाँच दिनों में पूरा या समाप्त होनेवाला। ३. अस्थायी और नश्वर।
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पंज-हजारी  : पुं० [फा०] १. पाँच हजार सैनिकों का सेनापति। २. मुगल शासनकाल में एक प्रकार का सैनिक पद जो बड़े-बड़े अमीरों, दरबारियों और सरदारों को उनके सम्मान के लिए प्रदान किया जाता था।
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पंजा  : पुं० [सं० पंचक से फा० पंजः] १. एक ही तरह की पाँच चीजों का वर्ग या समूह। गाही। जैसे—चार पंजे आम। २. हाथ (या पैर) का वह अगला भाग जिसमें हथेली (या तलवा) और पाँचों उंगलियाँ होती हैं। ३. उंगलियों और हथेली का संपुट जिससे चीजें उठाई, पकड़ी या ली जाती हैं; अथवा जिनसे पशु-पक्षी आदि प्रहार या वार करते हैं। चंगुल। पद—पंजे में=अधिकार या वश में। चंगुल में। जैसे—उनके पंजे में फँसकर निकलना सहज नहीं है। मुहा०—पंजा फैलाना या बढ़ाना=(क) कुछ लेने के लिए हाथ आगे करना। हाथ पसारना या बढ़ाना। (ख) अपने अधिकार या वश में करने के लिए उद्यत या तत्पर होना। हथियाने का प्रयत्न करना। पंजा मारना=(क) झपट कर घात या प्रहार करना। (ख) लेने के लिए झपटकर आगे बढना या लपकना। पंजे झाड़कर (किसी से) चिमटना या (किसी के) पीछे पड़ना=जी-जान से या सारी शवित लगाकर किसी से कुछ लेने, उसे तंग करने या हानि पहुँचाने पर उतारू होना। पंजों के बल चलना=बहुत अधिक अभिमान या मद के कारण इस प्रकार उछलते हुए चलना कि पूरे पैर जमीन पर न पड़ने पायें। ४. जूते का वह अगला भाग जिसमें पैर का पंजा रहता है। जैसे—इस जूते का पंजा कुछ ज्यादा चौड़ा है। ५. एक प्रकार की शारीरिक बल-परीक्षा जिसमें दो व्यक्ति दाहिने हाथ की उँगलियाँ आपस में फँसाकर एक-दूसरे का हाथ उमेठने या मरोड़ने का प्रयत्न करते हैं। क्रि० प्र०—लड़ाना।—लेना। मुहा०—(किसी से) पंजा लड़ाना=सामने आकर बल-परीक्षा करना। उदा०—मृत्यु लड़ाएगी तुमसे पंजा।—दिनकर। ६. कुछ ऐसे यंत्र जिनका अगला भाग या तो हाथ के पंजे के आकार का होता है या बहुत-कुछ काम करता है जो साधारणत
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पंजा-तोड़  : पुं० [हिं०] कुश्ती का एक प्रकार के पेंच, जिसमें विपक्षी से हाथ मिलाकर उसका पंजा पकड़कर उमेठने हुए अपनी कोहनी उसके पेच में लगाकर उसे अपनी पीठ पर ले आते हैं और तब झटके से उसे जमीन पर चित गिरा देते हैं।
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पंजाब  : पुं० [फा०] १. अविभाजित भारत का उत्तर-पश्चिम का एक प्रसिद्ध प्रदेश जिसमें सतलज, व्यास, रावी, चनाव और झेलम—ये पाँच नदियाँ बहती हैं। २. उक्त प्रदेश का वह अंश, जो पाकिस्तान बनने के बाद अब भी भारत का एक राज्य है।
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पंजा-बल  : पुं० [हिं० पंजा+बल] पालकी ढोनेवाली कहारों की बोली में, यह सूचित करने का पद कि आगे की भूमि ऊँची है। (अगला कहार पिछले कहार को इसी के द्वारा सचेत करता है।)
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पंजाबी  : वि० [हिं० पंजाब] १. पंजाबी-संबंधी। पंजाब का। २. पंजाब में बनने, होने या रहनेवाला। ३. गुरुमुखी भाषा-संबंधी। जैसे—पंजाबी सूबा। पुं० १. पंजाब का नागरिक। २. ढीली बाँह का कुरता जिसका प्रचलन पंजाब में हुआ था। स्त्री० पंजाब की भाषा जो गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है।
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पंजारा  : पुं०=पिंजारा। (धुनिया)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंजिका  : स्त्री० [सं०√पंज्+इन्+कन्—टाप्] १. वह टीका जिसमें प्रत्येक शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया हो। २. यमराज की वह लेखाबही, जिसमें मनुष्यों के शूभाशुभ कर्मों का लेखा लिखा जाता है। ३. हिसाब या विवरण लिखने की पुस्तिका। (रजिस्टर)
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पंजियाड़  : पुं०=पंजीकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंजी  : स्त्री० [सं०√पंज्+इन्—ङीप्] हिसाब, विवरण आदि लिखने की पुस्तिका। रजिस्टर। बही।
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पंजीकरण  : पुं० [सं० पंजी+च्वि√कृ (करना)+ल्युट्—अन्] १. किसी लेख या लेखे का पंजी में लिखा जाना। २. नाम-सूची में नाम लिखा या चढ़ाया जाना।
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पंजीकार  : पुं० [सं० पंजी√कृ+अण्] १. वह जो पंजी या बही खाता लिखने का काम करता हो। आय-व्यय आदि का लेखक। मुनीम। २. वह ज्योतिष जो पंचांग बनाने का काम करता हो। ३. मिथिला में वह पंडित जिसके पास भिन्न-भिन्न गोत्रों के लोगों की वंशावलियाँ रहती हैं; और जो यह व्यवस्था देता है कि अमुक-अमुक परिवारों में वैवाहिक संबंध स्थापित हो सकता है या नहीं।
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पंजीकृत  : भू० कृ० [सं० पंजी√कृ+क्त] (लेख) जिसका पंजीकरण हुआ हो।
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पंजी-बंधन  : पुं० [सं० त० त०]=पंजीयन।
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पंजीबद्ध  : भू० कृ० [सं० त० त०]=पंजीकृत।
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पंजीयक  : पुं० [सं० पंजीकार] १. वह जो पंजी पर लेख, विवरण आदि लिखता हो। २. किसी संस्था अथवा विभाग के अभिलेख सुरक्षित रखनेवाला प्रधान अधिकारी। (रजिस्ट्रार)
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पंजीयन  : स्त्री० [सं० पंजीकरण] किसी लेख या लेखे का किसी कार्यालय की पंजी में (विशेषतः राजकीय पंजी में) लिखा जाना। (रजिस्ट्रेशन)
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पंजीरी  : स्त्री० [हिं० पाँच+ईरी (प्रत्य०)] कई करह की चीजों और मसालों को भूनकर बनाया जाने वाला एक प्रकार का मीठा चूर्ण खो जाने में काम आता है। कसार। जैसे—सत्यनारायण की पूजा के लिए बनानेवाली पँजीरी; प्रसूता अथवा दुर्बलों को खिलाने के लिए बनाई जानेवाली पौष्टिक पँजीरी। स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जिसके कुछ अंगों का उपयोग औषध के रूप में होता है। अज-पाद। इन्दुपर्णी।
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पंजेरा  : पुं० [हिं० पाँजना] १. बरतन झालने का काम करनेवाला। बरतन में टाँके आदि देकर जोड़ लगानेवाला। २. दे० ‘पिंजारा’।
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पंड  : वि० [सं०√पंड् (जाना)+अच्] फल-रहित। निष्फल। पुं० १. नपुंसक। हिजड़ा। २. (वृक्ष) दो कभी फलता न हो। स्त्री० [सं० पिंड] बड़ी और भारी गठरी। (पश्चिम)
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पंडग  : पुं० [सं० पंड√गम् (जाना)+ड ?] १. नपुंसक। हिजड़ा। २. खोजा।
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पंडत  : विं०, पुं०=पंडित। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंडत-खाना  : पुं० [हिं०] १. जेलखाना। बंदीगृह। २. जूआखाना। (पश्चिम)
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पंडरा  : पुं० [हिं० पानी+ढरना (ढरा)] पनाला। नाबदान। पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।
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पँडेरी  : स्त्री० [हिं० पड़ना] वह परती भूमि जिसमें ऊख बोया जाने को हो। क्रि० प्र०—छोड़ना।—रखना।
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पँडरू  : पुं०=पड़वा।
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पंडल  : वि० [सं० पांडुर] पांडु वर्ण का। पीला। पुं० [सं० पिंड] बदन। शरीर। पुं०=पांडव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँडवा  : पुं० [?] भैंस का बच्चा। पड़वा।
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पंडवा  : पुं०=पांडव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंडा  : पुं० [सं० पंडित] [स्त्री० पंडाइन] १. वह ब्राह्मण जो तीर्थ यात्रियों को मंदिरों आदि के दर्शन कराता तथा उनसे प्राप्त होनेवाले धन से अपनी जीविका चलाता हो। २. रसोई बनानेवाला ब्राह्मण। ३. रहस्य सम्प्रदाय में, बुद्धि।
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पँडाइन  : स्त्री० हिं० ‘पाँडे’ का स्त्री०।
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पंडाइन  : स्त्री० हिं० ‘पंडा’ का स्त्री०।
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पंडापूर्व  : पुं० [सं० पंड-अपूर्व, सुप् सुपा० स०] धर्म और अधर्म से उत्पन्न वह अदृष्ट जो कर्म के अनुसार फल न दे सकता हो अथवा ऐसे फल की प्राप्ति में बाधक हो। (मीमांसा)
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पंडाल  : पुं० [तमिल पेंडल] कनातों आदि से घिरा और तंबुओं से छाया हुआ वह बड़ा मंडप, जिसके नीचे संस्थाओं, सभाओं आदि के अधिवेशन होते हैं।
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पंडित  : वि० [सं० पंडा+इतच्] [स्त्री० पंडिता, पंडिताइन, पंडितानी] कुशल। दक्ष। निपुण। पुं० १. वह जो किसी विद्या या शास्त्र का बहुत अच्छा ज्ञाता हो। विद्वान। २. शास्त्रों आदि का ज्ञाता ब्राह्मण। ३. ब्राह्मणों के नाम के पहले लगनेवाली आदरसूचक उपाधि। ४. सार्वराष्ट्रीय सांकेतिक में वह बहुत चमकीला और तेज प्रकाश जो समुद्री और हवाई जहाजों को उनका मार्ग और ठहरने का स्थान बतलाता है।
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पंडितक  : पुं० [सं० पंडित+कन्] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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पंडित-जातीय  : वि० [सं० पंडित-जाति, ष० त०+छ—ईय] १. जो पंडित न होने पर भी किसी रूप में पंडितों के वर्ग में आ सकता हो। २. साधारण या सामान्य रूप से कुशल या दक्ष।
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पंडितमानिक  : वि०=पंडितमानी।
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पंडितमानी (निन्)  : वि० [सं० पंडित√मन (मानना)+णिनि] ऐसी दंभी जो पंडित न होने पर भी अपने आप को पंडित समझता हो।
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पंडितम्मन्य  : वि० [सं० पंडित√मन् खश्, मुम्, श्यन्]=पंडितमानी।
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पंडितराज  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा पंडित या विद्वान। २. संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान जगन्नाथ की उपाधि।
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पंडितवादी (दिन्)  : वि० [सं० पंडित√वद् (बोलना)+णिनि]=पंडितमानी।
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पंडिता  : वि० स्त्री० [सं० पंडित+टाप्] पंडित (स्त्री)। विदुषी।
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पंडिताइन  : स्त्री०=पंडितानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंडिताई  : स्त्री० [हिं० पंडित+आई (प्रत्य०)] १. पांडित्य। विद्वत्ता। मुहा०—पंडिताई छाँटना=अनावश्यक रूप से कुअवर पर अपने पांडित्य का व्यर्थ परिचय देना। २. पंडितों की वृत्ति या व्यवसाय।
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पंडिताऊ  : वि० [सं० पंडित] १. पंडितों जैसा। पंडितों की तरह का। २. विद्वत्तापूर्ण। ३. पंडितों में प्रचलित और मान्य। ४. आडम्बपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंडितानी  : स्त्री० [सं० पंडित] १. पंडित की स्त्री। २. ब्राह्मणी।
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पंडितिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पंडित+इमनिच्] पांडित्य। विद्वत्ता।
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पंडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु] १. पीलापन लिये हुए मटमैला। २. पीला। ३. सफेद।
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पंडुक  : पुं० [सं० पांडु] [स्त्री० पंडुकी] फाख्ता नामक पक्षी। पेंडकी।
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पंडुर  : पुं० [सं० पंडु√रा (देना)+क] पानी में रहनेवाला साँप। वि०=पांडुर।
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पंडोह  : पुं० [हिं० पानी+दह] पनाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंडौ  : पुं०=पांडव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पंड्रक  : वि० [सं०] १. पंगु। २. नपुंसक।
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पंत  : पुं०=पंथ। पुं० [?] पश्चिमी उत्तरप्रदेश में रहनेवाले पहाड़ी ब्राह्मणों की एक जाति।
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पंति  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पंती  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पँतीजना  : स०=पींजना। (रूई आदि ओटना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँतीजी  : स्त्री० [हिं० पँतीजना] रूई पींजने का उपकरण। धुनकी।
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पँत्यारी  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० पंक्ति] पंक्ति। कतार। उदा०—धूप-दीप फल-फूल द्रव्य की लगी पँत्यारी।—रत्ना०।
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पंथ  : पुं० [सं० पंथ] १. मार्ग। रास्ता। उदा०—पंथ रहने दो अपरिचित।—महादेवी। क्रि० प्र०—गहना।—दिखाना।—पकड़ना।—लगना।—लगाना। मुहा०—(किसी का) पंथ जोहना, निहारना या सेना=रास्ता देखना। प्रतीक्षा करना। २. आचार-व्यवहार या रहन-सहन का ढंग या प्रणाली। मुहा०—पंथ पर या पंथ में पाँव देना=(क) चलने में प्रवृत्त होना। चलना आरंभ करना। (ख) कोई आचार, व्यवहार ग्रहण करना। (किसी के) पंथ लगना=(क) किसी का अनुयायी बनना। (ख) किसी को दंग या परेशान करने के लिए उसके कार्य या मार्ग में बाधक होना। (किसी को) पंथ पर लगाना या लाना=अच्छे और ठीक रास्ते पर लगाना या लाना। ३. कोई ऐसा धार्मिक मत या सम्प्रदाय जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार की उपासना या साधना-पद्धति प्रचलित हो। (कल्ट) जैसे—कबीर या नानक पंथ। ४. सिक्खों का एक सम्प्रदाय।
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पंथक  : वि० [सं० पथिन्+कन्, पंथ आदेश] मार्ग में उत्पन्न होने वाला।
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पंथकी  : वि०=पथिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंथाई  : पुं०=पंथी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पंथान  : पुं०=पंथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पंथिक  : वि०=पंथिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंथी  : पुं० [सं० पथिन्] १. पंथ या पथ पर चलनेवाला। पथिक। बटोही। राही। २. किसी पंथ या सम्प्रदाय या अनुयायी। जैसे—कबीर-पंथी। ३.सिक्खों के पंथ नामक दल का सदस्य। स्त्री० [हिं० पंथ] १. पंथ होने की अवस्था या भाव। २. पद जो जो कुछ शब्दों के अन्त में लगकर भाववाचक प्रत्यय ‘ता’ या ‘पन’ का अर्थ देता है। जैसे—अवारपंथी, गधापंथी।
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पंद  : स्त्री० [फा०] [कर्त्ता पंदगर] १. सदुपदेश। नसीहत। २. परामर्श।
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पंद्रह  : वि० [सं० पंचदश, पा. पण्णरस, प्रा० पण्णरस, पण्णरह] जो गिनती में दस से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—१५।
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पंद्रहवाँ  : वि० [हिं० पंद्रह] [स्त्री० पंद्रहवीं] क्रम या गिनती में पंद्रह के स्थान पर पड़ने या होनेवाला।
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पंद्रहियों  : अव्य० [हिं० पंद्रह] लगभग पन्द्रह या इनसे भी कुछ अधिक दिनों का समय। जैसे—जरा से काम में तुमने पन्द्रहियों लगा दिये।
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पंप  : पुं० [अं०] १. पानी का नल; विशेषतः ऐसा नल जिसमें हवा के जोर से पानी किसी नीचे स्तर से ऊँचे स्थान पर चढ़ाया जाता हो। २. पिचकारी। ३. साइकलों आदि की ट्यूबों मेंहवा भरने का उपकरण। ४, एक प्रकार का जूता।
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पंपा  : स्त्री० [सं० √पा (रक्षा)+मुट्, नि० सिद्धि] १. दक्षिण भारत की एक प्राचीन नदी। २. इस नदी के किनारे का एक नगर। ३. उक्त नगर के पास एक तालाब या सर। यहीं शातकर्णि मुनि तप करते थे।
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पंपाल  : वि०=पापी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० पाप] १. पाप करनेवाला। २. दुष्ट। उदा०—बुरो पेट पंपाल है...।—गंग।
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पंबकी  : वि० [हिं० पंबा] सूती। (पश्चिम)
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पंबा  : पुं० [फा० पुंबः] १. कपास। २. रूई। पुं० [देश.] एक प्रकार का पीला रंग जिससे ऊन रँगा जाता है।
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पँवर  : स्त्री०=पँवरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँवरना  : अ० [सं० प्लवन] १. पौंडना या तैरना।। २. गहराई की थाह लेना या पता लगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० [हिं० पँवारना का अ०] पँवारा या फेंका जाना।
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पँवरि  : स्त्री०=पँवरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँवरिया  : पुं० [हिं० पँवाड़ा] पुत्र-जन्म आदि अवसरों पर मंगल गीत गानेवाला याचक। पुं०=पौरिया। (द्वारपाल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँवरी  : स्त्री० [हिं० पाँव] पाँवों में पहनने का खड़ाऊँ वानक उपकरण। पाँवरी। स्त्री० [सं० प्रतोली, प्रा० पओली, पवरी] १. ड्योढ़ी। पौरी। २. दरवाजा। द्वार।
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पँवाड़ा  : पुं० दे० ‘पवाड़ा’।
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पँवार  : पुं०=परमार (क्षत्रियों का एक वर्ग)।
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पँवारना  : स० [सं० प्रवारण] १. कोई कामन करने से रोकना। २. उपेक्षापूर्वक दूर करना या हटाना। ३. फेंकना।
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पँवारी  : स्त्री० [?] एक प्रसिद्ध उपकरण जिससे लोहार लोहे में छेद करते हैं।
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पंशाखा  : पुं०=पनसाखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पंसरहट्टा  : पुं० [हिं० पंसारी+हट्ट, हाट] पंसारियों का बाजार। पसरहट्टा।
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पँसरहट्टी  : स्त्री० [हिं० पँसरहट्टा] पंसारी की दुकान।
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पंसारी  : पुं० [सं० प्रसार या प्रसारी ?] वह बनिया जो मुख्यतः जीरा, धनियाँ, मिर्च, लौंग, हल्दी आदि मसाले और साधारण जड़ी-बूटियाँ आदि बेचता हो।
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पंसा-सार  : पुं० [हिं० पासा+सं० सारि=गोटी] पाँसे का खेल। चौसर।
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पँसियाना  : स० [हिं० पाँसा] १. पाँसा या पासा फेंकना। २. पासे से मारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँसुरी  : स्त्री०=पसली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँसुली  : स्त्री०=पसली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पँसेरा  : पुं० १.=पंसारी। २.=पसरहट्टा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० पाँच सेर] [स्त्री० अल्पा० पँसेरी] पाँच सेर का बटखरा। पसेरी।
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पँह  : अव्य० [सं० पार्श्व] १. निकट। समीप। २. से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइ  : विभ०=पै (पर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पइग  : पुं०=पग (डग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइज  : स्त्री०=पैज। (१. टेक। २. होड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइठ  : स्त्री०=पैठ (पहुँच)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइठना  : अ०=पैठना (बैठना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइता  : पुं०=पाइता (छन्द)।
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पइना  : वि०=पैना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइलइ  : वि०=परला। उदा०—सरवर पइलइ तीर=सरोवर का परला तट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइला  : पुं० [?] अनाज नापने का एक तरह का पुरानी चाल का पाँच सेर की तौल का बड़ा बरतन। वि०=परला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइसना  : अ०=पैठना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पइसार  : पुं० [हिं० पइसना] पैठ। पहुँच।
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पई  : स्त्री० [?] पौधों मेंसे डोंडे, फूल आदि चुनने या तोड़ने का काम। जैसे—कपास या कुसुम की पई।
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पउआ  : पुं०=पौआ।
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पउनार  : स्त्री०=पौनार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पउला  : पुं०=पौला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकठोस  : वि० [हिं० पक्का+ठोस] १. पक्का और ठोस। २. (व्यक्ति) जो जवानी की उमर पार कर चुका हो।
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पकड़  : स्त्री० [हिं० पकड़ना] १. पकड़ने की क्रिया या भाव। २. पकड़ने का ढंग या तरीका। ३.पकड़ या रोककर रखने की शक्ति। उदा०—मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो।—प्रसाद। ४. किसी काम या बात का वह अंग या पक्ष जिसमें उसकी त्रुटि या दोष का पता चल सकता हो। प्राप्ति या लाभ का डौल या सुभीता। जैसे—कचहरी के मामूली चपरासियों की भी रोज दो-चार रुपयों की पकड़ हो जाती है। ६. दो व्यक्तियों में होनेवाला, कोई ऐसा काम जिसमें दोनों एक दूसरे को पकड़कर गिराने, दबाने आदि का प्रयत्न करते हों। भिडंत। जैसे—(क) आओ, एक पकड़ कुश्ती और हो जाय। (ख) इस विषय में दोनों में कई पकड़ कहा-सुनी (या थुक्का-फजीहत) हो चुकी है।
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पकड़-धकड़  : स्त्री०=धर-पकड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकड़ना  : स० [सं० प्रक्रमण या पर्क (मधुपूर्वक की तरह) ?] १. कोई चीज इस प्रकार दृढ़तापूर्वक हाथ में थामना कि वह गिरने, छूटने या इधर-उधर न होने पावे। थामना। धरना। २. वेगपूर्वक आती हुई चीज को आगे बढ़ने से रोकना। जैसे—(क) गेंद पकड़ना। (ख) मारनेवाले का हाथ पकड़ना। ३. जो छिपा या भागा हुआ हो, छिप या भाग सकता हो अथवा छिपने या भागने को हो, उसे इस प्रकार अधिकार या वश में करना कि वह छिप, बच, भाग न सके। गिरफ्तार करना। जैसे—चोर या डाकू को पकड़ना; नादिहन्द आसामी को पकड़ना। ४. जो छिपा हुआ हो या सबके सामने न हो, उसे ढूँढकर इस प्रकार निकालना कि वह सबके सामने आ जाय। जैसे—किसी की चोरी या भूल पकड़ना। ५. किसी प्रकार के जाल या फंदे में फँसाकर पशु-पक्षियों आदि क अपने अधिकार या वंश में करना। जैसे—चिड़िया, मछली या हिरन पकड़ना। ६. जो आगे चलता या बढ़ता जा रहा हो, अथवा आगे निकल जाने को हो, उसकी बराबरी या साथ करने के लिए ठीक समय पर उसके पास तक पहुँचना। जैसे—(क) घुड़-दौड़ में एक घोड़े का दूसरे घोड़े को पकड़ना। (ख) स्टेशन पर पहुँचकर रेलगाड़ी पकड़ना। ७. अनुचित अथवा अवैध काम करते हुए किसी व्यक्ति को ढूँढ निकालना। जैसे—किसी को जूआ खेलते या शराब पीते हुए पकड़ना। ८. किसी को कोई काम करने से रोकना। जैस—बोलनेवाला की जबान पकड़ना। ९. ठीक तरह से किसी चीज को जानना और पहचानना। जैसे—अक्षर पकड़ना, स्वर पकड़ना। १॰. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से चिपक जाना। जैसे—दफ्ती का कागज को पकड़ना। ११. रोग या विकार का ऐसा उग्र रूप धारण करना कि शरीर अथवा उसका कोई अंग ठीक तरह से काम न कर सके। जैसे—(क) महीनों से उसे बुखार ने पकड़ रखा है। (ख) गठिया ने उसका घुटना पकड़ लिया है। (ग) जुकाम में कफ बढ़कर कलेजा (या सिर) पकड़ लेता है। १२. किसी फैलनेवाली वस्तु के सम्पर्क में आकर उसके प्रभाव से युक्त होना। जैसे—(क) पत्थर का कोयला देर में आँच पकड़ता है। (ख) रसोई बनाते समय उसकी साड़ी के आँचल ने आग पकड़ ली। (ग) कोरा और खुरदुरा कपड़ा जल्दी रंग नहीं पकड़ता। १३. किसी का आचार-विचार, रंग-ढंग, रीति-वृत्ति आदि ग्रहण करके उसके अनुरूप बनना या होना। जैसे—(क) बाजारू लड़कों के साथ रहकर तुमने यह नई चाल पकड़ी है। (ख) खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है। अ० अच्छी तरह या ठीक रूप से स्थायी या स्थिर होना। जैसे—(क) हवा करने से चीज में आग जल्दी पकड़ती है। (ख) यह पौधा इस जमीन में जड़ नहीं पकड़ेगा।
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पकड़वाना  : स० [हिं० पकड़ना का प्रे०] १. किसी को कुछ पकड़ने में प्रवृत्त करना। किसी के पकड़े जाने में सहायक होना। २. दे० ‘पकड़ाना’। संयों० क्रि०—देना।—लेना।
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पकड़ाना  : स० [हिं० पकड़ना का प्रे० रूप] १. किसी के हाथ या अधिकार में कोई चीज देना। २. दे० ‘पकड़वाना’। अ० पकड़ लिया जाना। पकड़ा जाना।
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पकना  : अ० [सं० पक्व, हिं० पक्का, पका+ना (प्रत्य०)] १. पक्का या परिपक्व होना। २. अनाज आदि का आँच पर रखे जाने से उबल या तपकर इस प्रकार कोमल होना या गलना कि वह खाया जा सके या खाने पर सहज में पच सके। जैसे—कढ़ी या खीर पकना। ३. कच्ची मिट्टी से बनी हुई चीजों के संबंध में, आँच से तपकर इस प्रकार कड़ा होना कि सहज में टूट न सकें। जैसे—ईंटें या मटके पकना। ४. फलों आदि के संबंध में, वृक्षों में लगे रहने की दशा में अथवा उनसे तोड़ लिए जाने पर किसी विशिष्ट क्रिया से इस प्रकार कोमल, पुष्ट और स्वादिष्ट होना कि ये खाने के योग्य हो सकें। जैसे—अमरूद या बेल पकना। ५. घाव, फोड़े आदि का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उनमें मवाद आ जाय या भर जाय। जैसे—पुलटिस बाँधने से फोड़ा पक जाता है। ६. शरीर के किसी अंग या छोटे-छोटे घावों, फुँसियों आदि से इस प्रकार भरना कि उनमें कोई विषाक्त तरल पदार्थ भर जाय। जैसे—कान पकना, जीभ या मुँह पकना। मुहा०—कलेजा पकना=कष्ट या दुःख सहते-सहते किसी ऐसी स्थिति में पहुँचना कि प्रायः मानसिक व्यथा बनी रहे। ७. लेन-देन या व्यवहार आदि में, कोई बात निश्चित या स्थिर होना। पक्का होना। जैसे—(क) सलाह पकना। (ख) यह सौदा पक जाय तो सौ रुपये मिलेंगे। ८. चौसर की गोट के संबंध में चलते-चलते सब घर पार करके ऐसी स्थिति में पहुँचना जहाँ वह मर न सके। ९. बालों के संबंध में, वृद्धावस्था अथवा किसी प्रकार के रोग के कारण सफेद होना। १॰. ऐसी अवस्था में पहुँचना जहाँ से पतन, ह्नास आदि आरंभ होता है। जैसे—दादा जी अब अधिक पक चले हैं। ११. (बात) अच्छी तरह से स्मरण या याद हो जाना। जैसे—कविता कहानी या पहाड़ा पकना। (पश्चिम)
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पकरना  : अ०, स०=पकड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकरिया  : स्त्री० हिं० ‘पाकर’ का स्त्री० अल्पा०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकला  : पुं० [हिं० पकना] फोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकली  : स्त्री० [हिं० पकड़ना] चारा बाँधने का एक प्रकार का जाल।
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पकवान  : पुं० [सं० पक्वान] घी में तला या घी से पकाया हुआ खाद्य पदार्थ। जैसे—कचौरी, समोचा आदि।
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पकवाना  : स० [हिं० पकाना का प्रे०] पकाने का काम किसी दूसरे से कराना। किसी को कुछ पकाने में प्रवृत्त करना।
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पकसना  : अ० [अनु०] ऊमस या गर्मी की अधिकता के कारण किसी चीज का सड़ने लगाना। बजब जाना। जैसे—पके हुए आम दो दिन में पकसने लगते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकसालू  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस।
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पकाई  : स्त्री० [हिं० पकाना] १. पकाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. पक्कापन। दृढ़ता। ३. किसी काम या बात का कौशल या निपुणता। स्त्री० दे० ‘पक्कापन’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पकाना  : स० [हिं० पकना का स०] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कुछ पके। पकने में प्रवृत्त करना। २. अन्न आदि आँच पर चढ़ाकर उन्हें इस प्रकार उबालना, गरमाना या तापना कि वे गलकर मुलायम हो जायँ और खाये जाने के योग्य हो जायँ। पाक करना। राँधना। जैसे—तरकारी, दाल या रोटी पकाना। ३. कच्चे फलों आदि के संबंध में, ऐसी क्रिया करना कि वे मीठे और मुलायम होकर खाये जाने को योग्य हो जायँ। जैसे—आम या केला पकाना। ४. कच्ची मिट्टी से बनाये हुए बरतनों तथा दूसरी चीजों के संबंध में, उन्हें आग पर चढ़ाकर इस प्रकार कड़ा और मजबूत करना कि वे सहज में टूट या पानी में गल न सकें। जैसे—ईंटें, खपड़े, घड़े आदि पकाना। ५. फोड़ों आदि के संबंध में, उन पर पुलटिस, आदि बाँधकर इस प्रकार मुलायम करना कि उनके अन्दर का मवाद या विषाक्त अंश ऊपर का चमड़ा फाड़कर बाहर निकल सके। मुहा०—(किसी का) कलेजा पकना=किसी को इतना अधिक कष्ट या दुःख पहुँचाना कि उसके हृदय में बहुत अधिक व्यथा होने लगे। ६. पाठ आदि रटकर याद करना। ७. कार्यों आदि के संबंध में, अभ्यास करके पक्का करना। ८. कोई बात या विषय इस प्रकार निश्चित, दृढ़ या पक्का करना कि उसमें सहज में उलट-फेर न हो। जैसे—लेन-देन की बात या सौदा पकाना। ९. सिर के बालों के संबंध में, किसी प्रकार की क्रिया अथवा कालयापन के द्वारा उन्हें ऐसी स्थिति में लाना कि उनका रंग भूरा पड़ जाय। जैसे—(क) बाजारू तेल बहुत जल्दी बाल पका देते हैं। (ख) हमने धूप में ही बाल नहीं पकाये हैं; अर्थात् बिना अनुभव प्राप्त किये इतना जीवन नहीं बिताया है। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। १॰. चौसर की गोट सब घरों में आगे बढ़ाते हुए ऐसी स्थिति में पहुँचाना कि वह मारी न जा सके।
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पकार  : पुं० [सं० प+कार] ‘प’ अक्षर।
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पकारांत  : वि० [सं० पकार-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसके अन्त में ‘प’ अक्षर हो।
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पकाव  : पुं० [हिं० पकना] १. पके हुए होने की अवस्था या भाव। परिपाक। २. पीब या मवाद जो फोड़ा पक जाने पर उसमें से निकलता है।
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पकावन  : पुं०=पकवान। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पकौड़ा  : पुं० [हिं० पाक+बरी, बड़ी] [स्त्री० अल्पा० पकौड़ी] घी, तेल आदि में तलकर फुलाई हुई बेसन या पीठी की ऐसी बड़ी जिसके अन्दर प्रायः कोई और चीज भी भरी रहती है। जैसे—आलू, गोभी या साग का पकौड़ा।
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पकौड़ी  : स्त्री०=‘पकौड़ा’ का स्त्री० अल्पा०।
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पक्कटी  : स्त्री० [सं० पक्=√पच् (पकाना)+क्विप्; कटी=√कट् (आवरण)+अच्—ङीष्; पक्-करी, द्व० स०] पाकर का पेड़।
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पक्कण  : पुं० [सं० पक्,√पच्+क्विप्;कण=√कण् (संकुचित करना)+अच्; पक-कण, कर्म० स०] १. चांडाल का घर। २. चाडालों की बस्ती।
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पक्का  : वि० [सं० पक्व] [स्त्री० पक्की, भाव. पक्कापन] १. जो अच्छी तरह से और पूरा पक चुका हो या पकाया जा चुका हो। २. (खाद्य पदार्थ या भोजन) जो आँच पर उबाल, गला, भुन या सेंककर खाने के योग्य बिना लिया गया हो। पका या पंकाया हुआ। पद—पक्का खाना या पक्की रसोई=सनातनी हिंदुओं में अन्न का बना हुआ ऐसा भोजन जो घी में तला या पकाया हुआ हो; और फलतः जिसे ग्रहण करने में छूत-छात का विशेष विचार न किया जाता हो। ‘कच्ची रसोई’ से भिन्न और उसका विपर्याय। सखरा। जैसे—हमारे यहाँ दिन में कच्ची रसोई बनती है और रात में पक्की। पक्का पानी=(क) आग पर औटाया हुआ पानी। (ख) शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक पानी। ३. फलों आदि के संबंध में, जो या तो पेड़ से अलग करके कुछ विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा पुष्ट, मधुर तथा स्वादिष्ट कर लिया गया हो। जैसे—पक्का आम, पक्का केला, पक्का पान। ४. जो अच्छी तरह विकसित होकर पुष्ट तथा पूर्ण हो चुका हो अथवा पूरी बाढ़ पर पहुँच चुका हो। जैसे—पक्की उमर, पक्की बुद्धि, पक्की लकड़ी। जो आँच पर पकाकर या और किसी क्रिया से खूब कड़ा और मजबूत कर लिया गया हो और फलतः जल्दी टूट-फूट या नष्ट न हो सकता हो। जैसे—पक्की ईंट, मिट्टी का पक्का घड़ा, पक्का रंग। पद—पक्का घर या मकान=पकाई हुई ईटों, गारे, चूने, पत्थरों आदि से बना मजबूत मकान। ६. हर तरह से निश्चित और पूरा। जैसे—पक्के बारह। (चौपड़ का एक दाँव)। ७. जिसमें किसी प्रकार की खोट या मिलावट न हो और इसीलिए जिसका महत्त्व या मूल्य सहसा घट न सकता हो अथवा जिसके रूप-रंग में जल्दी किसी प्रकार का विकार न हो सकता हो। जैसे—पक्की जरी का काम; पक्के सोने का गहना। ८. जो पककर किसी विशिष्ट क्रिया के लिए उपयुक्त अथवा योग्य हो गया हो। जैसे—पक्का फोड़ा=जो चीरे जाने के योग्य हो गया हो अथवा पूरी तरह से मवाद से भर जाने के कारण फूटकर बह निकलने को हो। ९. जो पूरी तरह से इतना निश्चित और स्थिर हो चुका हो कि उसमें सहसा कोई परिवर्तन या हेर-फेर न हो सकता है। जैसे—पक्की नौकरी, पक्का भरोसा, पक्का मत या विचार, पक्की सलाह। १॰. जिसमें किसी प्रकार का दोष या त्रुटि न हो। जैसे—पक्का चिट्ठा=आय-व्यय आदि बतलाने वाला कागज जिसकी सब मदें अच्छी तरह जाँच कर ली गई हों और जिसमें कोई भूल न रह गई हो। पक्की बही=वह बही जिस पर अच्छी तरह जँचा हुआ और बिलकुल ठीक हिसाब से लिखा जाता है। ११. जो साधारणतः सब जगह समान रूप से प्रामाणिक और मानक माना जाता हो। जैसे—पक्की तौल। १२. जिसका अच्छी तरह संशोधन और संस्कार हो चुका हो। जैसे—पक्की चीनी, पक्का शोरा। १३. (क) यथेष्ट अभ्यास आदि के कारण जिसमें निपुणता या प्रौढ़ता आ गई हो अथवा (ख) जिसमें कोई कोर-कसर या त्रुटि न रह गई हो। जैसे—(क) पक्का चोर, पक्का धूर्त। (ख) पक्के अक्षर या पक्की लिखावट। १४. चतुर, दक्ष या प्रवीण। जैसे—अब वह अपने काम में पक्का हो गया है। १५. सिर के बाल के संबंध में, जो वृद्धावस्था के कारण भूरा या सफेद हो गया हो। जैसे—मूँछों के पक्के बाल निकाल दो। १६. जो बढ़ते-बढ़ते अपने अन्त या विनाश के बहुत पास पहुँच चुका हो। जैसे—वृद्ध लोग तो पक्के आम (या पक्के पान) होते हैं अर्थात् अधिक दिनों तक जी या ठहर नहीं सकते।
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पक्काइत  : स्त्री०=पक्कापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पक्का कागज  : पुं० [हिं०] १. ऐसा कागज या लेख्य जो विधिक दृष्टि से निश्चित और प्रामाणिक माना जाता हो। मुहा०—पक्के कागज पर लिखना=कोई ऐसा दस्तावेज या पत्र लिखना जो विधिक दृष्टि से मान्य हो। २. कुछ निश्चित और विशिष्ट मूल्य का वह सरकारी कागज जिस पर विधिक दृष्टि से अनुबंध आदि लिखे जाते हैं। (स्टाम्प पेपर)
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पक्का गवैया  : पुं० [हिं०] पक्के गाने अर्थात् शास्त्रीय संगीत या राग-रागिनियाँ आदि गानेवाला गवैया।
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पक्का गाना  : पुं० [हिं०] शास्त्रीय गाना जो राग-रागिनियों के रूप में बँधा हुआ होता है।
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पक्का चिट्ठा  : पुं० [हिं०] तलपट। तुलनपत्र। (बैलेन्स सीट)
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पक्का पानी  : पुं० [हिं०] १. पकाया अर्थात् औटाया हुआ पानी। २. स्वास्थ्यकर जल।
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पक्की गोट  : स्त्री० [हिं०] चौसर के खेल में, वह गोट जो सब घरों में होती हुई अन्त में पूगकर कोठे में पहुँच गई हो।
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पक्की निकासी  : स्त्री० [हिं०] किसी संपत्ति में से होनेवाली ऐसी आय जिसमें से व्यय आदि निकाला जा चुका हो। कुल आय मेंसे होनेवाली बचत। (नेट एसेट्स)
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पक्की रसोई  : स्त्री० [हिं०] घी में तले या पकाये हुए खाद्य पदार्थ। (कच्ची रसोई से भिन्न)
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पक्के बारह  : पुं० दे० ‘पौ बारह’।
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पक्खर  : वि०=पक्का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पाखर (युद्ध के समय हाथी की पहनाई जानेवाली लाहे की झूल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पक्खा  : पुं०=पाखर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [स्त्री० अल्पा० पक्खी]=पंखा। (पश्चिम) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पक्ता (क्तृ)  : वि० [सं०√पच्+तृच्] [भाव० पंक्ति] १. पकाने वाला। २. पचानेवाला। पुं० १. रसोइया। २. जठराग्नि।
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पक्ति  : स्त्री० [सं० √पच्+क्तिन] २. पकने की क्रिया या भाव। २. शरीर के अन्दर के वे अंग जिनमें भोजन पकता है। ३. ख्याति। प्रसिद्धि। ४. कीर्ति। यश।
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पक्ति-शूल  : पुं० [मध्य० स०] अजीर्ण के कारण पेट में होनेवाला दर्द।
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पक्व  : वि० [सं०√पच्+क्त, तस्य वः] [भाव० पक्वता, पक्वत्व] १. पका हुआ। २. पक्का। ३. दृढ़। पुष्ट। ४. वयस्कता तक पहुँचा हुआ। जैसे—पक्व वय।
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पक्व-केश  : वि० [ब० स०] जिसके बाल पककर सफेद हो गये हों।
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पक्वता  : स्त्री० [सं० पक्व+तल्—टाप्] पक्व होने का भाव। पक्कापन।
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पक्वत्व  : पुं० [सं० पक्व+त्व] पक्वता।
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पक्व-रस  : पुं० [कर्म० ब० स०] पकाया हुआ रस अर्थात् मदिरा।
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पक्व-वारि  : पुं० [सं० ब० स० त०] काँजी।
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पक्वश  : पुं० [सं० पुक्वश, पृथो० सिद्धि] १. एक असभ्य और अंत्यज जाति। २. चांडाल।
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पक्वातीसार  : पुं० [पक्व-अतीसार, कर्म० स०] अतिसार के पाँच भेदों में से एक।
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पक्वाधान  : पुं० [पक्व+आधान्, ष० त०] पक्वाशय।
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पक्वान  : पुं० [पक्व-अन्न, कर्म० स०] १. पका हुआ अन्न। २. दे० पकवान।
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पक्वाशय  : पुं० [पक्व-आशय, ष० त०] पेट का वह भीतरी भाग जहाँ पहुँचकर खाया हुआ अन्न पचता है।
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पक्ष  : पुं० [सं० √पक्ष् (ग्रहण)+अच्] १. पक्षियों का डैना और उस पर के पंख या पर जिनके कारण वे ‘पक्षी’ कहलाते हैं। २. वे पर जो तीर के सिरे पर उसकी गति ठीक रखने या बढ़ाने के लिए बाँधे या लगाये जाते हैं। ३. जीव-जन्तुओं और मनुष्यों की दाहिनी या बाई और का पार्श्व। ४. किसी वस्तु का वह किनारा या पार्श्व या सिरा जो उसके आगे, पीछे, ऊपर और नीचेवाले भागों से भिन्न हो और किसी बगल में पड़ता हो। पार्श्व। जैसे—सेना का दाहिना पक्ष कुछ दुर्बल पड़ता था। ५. किसी चीज या बात के दो भागों में से प्रत्येक भाग। जैसे—वाम पक्ष और दक्षिण पक्ष। ६. चन्द्रमास के दो के बराबर भागों में से प्रत्येक भाग जो प्रायः १५ दिनों का होता है। विशेष—पूर्णिमा से अमावस तक के दिन ‘कृष्ण पक्ष’ और अमावस से पूर्णिमा तक के दिन ‘शुक्ल पक्ष’ में गिने जाते हैं। ७. किसी बात या विषय के ऐसे दो या अधिक अंग या पहलू जो आमने-सामने या अगल-बगल पड़ते हों और इसी लिए जिनमें किसी प्रकार का विभेद या विरोध हो। जैसे—(क) पहले आप दोनों पक्षों की बातें सुन लें, तब कुछ निर्णय करें। (ख) इस प्रश्न के कई पक्ष हैं, जिन पर अच्छी तरह विचार होना चाहिए। मुहा०—पक्ष गिरना=वाद-विवाद, परीक्षण आदि में युक्तिसंगत सिद्ध न होने पर किसी पक्ष का अप्रामाणिक और अमान्य सिद्ध होना। ८. किसी प्रकार की प्रतियोगिता, विरोध विवाद आदि में सम्मिलित होनेवाले दलों या व्यक्तियों में से प्रत्येक दल या व्यक्ति। मुहा०—(किसी का) पक्ष करना=औचित्य, न्याय सत्य आदि का विचार किये बिना ही इस प्रकार का आग्रह करना कि अमुक व्यक्ति जो कहता है, वही ठीक है या वही होना चाहिए। पक्षपात होना चाहिए। पक्षपात करना। (किसी का) पक्ष लेना=वाद-विवाद या वैर-विरोध में किसी एक दल या पक्ष की ओर होकर उसके कथन या मत का समर्थन करना। ९. तर्कशास्त्र में वह कथन, बात या विचार जो प्रमाणों, युक्तियों आदि के द्वारा ठीक सिद्ध किया जाने को हो। ऐसी बात जिसे सिद्ध करना अपेक्षित हो। जैसे—पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष। १॰. किसी चीज या बात का कोई विशिष्ट अंग, पार्श्व या स्थिति। ११. किसी मत या सिद्धांत के अनुयायियों और समर्थकों का दल, वर्ग या समुदाय। १२. किसी चीज या बात का कोई ऐसा अंग, तल या पार्श्व जो विशिष्ट रूप से सामने हो अथवा आया हो अथवा जिस पर विचार होता हो। १३. समर्थक, सहायक और साथी। १४. घर। मकान। १५. चूल्हे का वह गड्ढ़ा या मुँह जिसमें राख इकट्ठी होती है। १६. राजा की सवारी का हाथी। १७. हाथ में पहनने का कड़ा। वलय। १८. महाकाल। १९. अवस्था। दशा। २॰. शरीर का कोई अंग। २१. फौज। सेना। २२. दीवार। २३. उत्तर। जवाब। २४. पड़ोस। २५. चिड़िया। पक्षी। २६. परस्पर विरोधी तत्त्वों के आधार पर, ‘दो’ की सूचक संज्ञा। २७. ‘बाल’ या उसके पर्यायों के साथ प्रयुक्त होने पर, राशि या समूह। जैसे—केश-पक्ष।
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पक्षक  : पुं० [सं० पक्ष+कन्] किसी पक्ष या पार्श्व में पड़नेवाली खिड़की या दरवाजा।
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पक्षका  : स्त्री० [सं० पक्षक+टाप्] किसी पक्ष या पार्श्व में की दीवार। वगल की दीवार।
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पक्षकार  : पुं० [सं०] १. कोई ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात में सम्मिलित रहता हो या हुआ हो। जैसे—मैं इस निश्चय में पक्षकार नहीं बन सकता। २. झगड़ा करने या मुकदमा लड़नेवाले दलों या पक्षों में से प्रत्येक। (पार्टी) जैसे—यह भी मुकदमे में एक पक्षकार थे।
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पक्षगम  : वि० [सं० पक्ष√गम् (जाना)+अच्] पंखों की सहायता से जानेवाला। उड़नेवाला।
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पक्ष-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] किसी पक्ष में मिलना अथवा उसका समर्थन करना।
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पक्षघात करना  : पुं०=पक्षाघात।
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पक्षचर  : पुं० [सं० पक्ष√चर् (गति)+ट] १. चंद्रमा। २. यूथ से बहका हुआ हाथी। ३. सेवक।
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पक्षच्छिद्  : पुं० [सं० पक्ष√छिद् (काटना) क्विप्] इन्द्र।
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पक्षज, जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० पक्ष√जन् (उत्पत्ति)+ड] [ब० स०] चन्द्रमा।
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पक्षात  : स्त्री० [सं० पक्ष+ति] १. पंख की जड़। २. शुक्ल पक्ष की पहली तिथि।
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पक्ष-द्वार  : पुं० [सप्त० त०] चोर दरवाजा।
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पक्ष-धर  : वि० [ष० त०] विवाद आदि में किसी का पक्ष लेनेवाला। पक्षपाती। पुं० चिड़िया। पक्षी।
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पक्ष-नाड़ी  : स्त्री [ष० त०] पक्ष का मोटा पर जिसकी कलम बनाई जाती है।
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पक्षपात  : पुं० [सप्त० त०] [भाव० पक्षपातिता, पक्षपातित्व] न्याय के समय, राग, संबंध आदि के कारण अनुचित रूप से किसी पक्ष के प्रति होनेवाली अनुकूल प्रवृत्ति।
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पक्ष-पाती (तिन्)  : वि० [सं० पक्षपात+इनि] पक्षपात करनेवाला।
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पक्षपालि  : पुं० [ष० त०] खिड़की।
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पक्ष-पुट  : पुं० [ष० त०] चिड़ियों का पंख। डैना।
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पक्ष-प्रद्योत  : पुं० [ब० स०] नृत्य में हाथ की एक प्रकार की मुद्रा।
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पक्ष-बिंदु  : पुं० [ब० स०] कंक पक्षी।
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पक्ष-भाग  : पुं० [ष० त०] हाथी का पार्श्व।
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पक्ष-भुक्ति  : स्त्री० [ष० त०] एक पक्ष भर में सूर्य द्वारा तै की जाने वाली दूरी।
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पक्ष-मूल  : पुं० [ष० त०] १. डैना। पर। २. प्रतिपदा तिथि जो चन्द्रमास के पक्ष के आरंभ में पड़ती है।
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पक्ष-रचना  : स्त्री० [ष० त०] १. पक्ष साधन के लिए किया हुआ आयोजन। २. षड्यंत्र। चक्र।
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पक्ष-रूप  : पुं० [ब० स०] महादेव।
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पक्ष-वध  : पुं० दे० ‘पक्षाघात’।
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पक्ष-वर्द्धिनी  : स्त्री० [ष० त०] एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक रहनेवाली द्वाद्वशी तिथि।
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पक्ष-वाद  : पुं० [ष० त०] किसी एक पक्ष की कही हुई बात या दिया हुआ बयान।
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पक्षवान् (वत्)  : वि० [सं० पक्ष+मतुप, वत्व] [स्त्री० पक्षवती] १. जिसके पक्ष या पर हों। परोंवाला। २. उच्च कुल में उत्पन्न। कुलीन। पुं० पर्वत, जो पुराणानुसार पहले पंख या पर से युक्त होते और उड़ते थे।
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पक्ष-वाहन  : पुं० [ब० स०] पक्षी।
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पक्ष-विंदु  : पुं० [ब० स०] कंक पक्षी।
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पक्ष-सुन्दर  : पुं० [स० त०] लोध्र। लोध।
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पक्ष-हत  : वि० [ब० स०] जिसका एक पार्श्व टूट-फूट या बेकाम हो गया हो।
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पक्ष-होम  : पुं० [मध्य० स०] एक पक्ष या १५ दिनों तक चलता रहने वाला यज्ञ।
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पक्षांत  : पुं० [पक्ष-अन्त, ष० त०] १. अमावस्या। २. पूर्णिमा।
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पक्षांतर  : पुं० [पक्ष-अन्तर, मयू० स०] दूसरा पक्ष।
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पक्षाघात  : पं० [पक्ष-आघात, ब० स०] एक प्रसिद्ध वात रोग जिसमें शरीर का बायाँ या दाहिना पार्श्व पूर्णतः बेकाम और शिथिल हो जाता है। लकवा।
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पक्षाभास  : पुं० [पक्ष-आभास, ष० त०] सिद्धांताभास।
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पक्षालिका  : स्त्री० [सं०] कुमार की अनुचरी मातृका।
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पक्षाल  : पुं० [सं० पक्ष+आलुच] पक्षी।
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पक्षावसर  : पुं० [पक्ष+अवसर, ब० स०] पूर्णिमा।
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पक्षाहार  : पुं० [पक्ष+आहार, स० त०] पक्ष में केवल एक बार भोजन करने का नियम या व्रत।
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पक्षिणी  : स्त्री० [सं० पक्षिन्+ङीप्] १.मादा चिड़िया। मादा पक्षी। २. पूर्णिमा तिथि। ३. दो दिनों और एक रात का समय। स्त्री० सं० ‘पक्षी’ का स्त्री०।
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पक्षि-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] दक्षिण भारत का एक प्राचीन (आधुनिक तिरुक्कडुकुनरम) तीर्थ।
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पक्षि-राज  : पुं० [ष० त०] गरुड़।
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पक्षिल  : पुं० [सं० पक्ष+इलच्] गौतम के न्याय-सूत्र का भाष्य लिखनेवाले वात्स्यायन मुनि का एक नाम।
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पक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० पक्ष+इनि] १. पर या परों से युक्त। परोंवाला। २. किसी का पक्ष लेनेवाला। तरफदार। ३. पक्षपात करनेवाला। पुं० १. चिड़िया। २. वाण। ३. शिव।
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पक्षी-पति  : पुं० [सं० पक्ष-पति] जटायु की भाई, संपत्ति।
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पक्षी-पालन  : पुं० [सं०] व्यापारिक दृष्टि से चिड़ियों के पालने और उनका वंश बढ़ाने का धंधा या पेशा। (एवीकल्चर) जैसे—अंडे बेचने के लिए बत्तखे या मुरगियाँ पालना।
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पक्षी-पंगुव  : पुं० [सं० पक्षि-पंगुव] जटायु।
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पक्षी-प्रवर  : पुं० [सं० पक्षि+प्रवर] गरुड़।
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पक्षीय  : वि० [सं० पक्ष+छ+ईय,] समस्त पदों के अन्त में, किसी पक्ष, दल आदि से संबंध रखनेवाला। जैसे—कुरुपक्षीय।
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पक्षी-राज  : पुं० [सं० पक्षी-राज] पक्षियों के राजा, गरुड़।
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पक्षी-विज्ञान  : पुं० [सं० पक्षि-विज्ञान] वह विज्ञान जिसमें पक्षियों के प्रकारों, उनकी जातियों रहन-सहन के ढंगों,प्रकृति,स्वभाव आदि का विवेचन होता है। (आर्निकालोजी)।
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पक्षी-शाला  : स्त्री० [सं० पक्षि-शाला] पक्षियों के रहने का स्थान। जैसे—घोंसला, पिंजरा, चिड़िया-घर आदि।
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पक्षेष्टि  : वि० [सं० पक्ष-इष्टि, ब० स०] पाक्षिक। पुं० [मध्य० स०] चन्द्रमास के प्रत्येक पक्ष में किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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पक्ष्म (न्)  : पुं० [सं०√पक्ष् (ग्रहण)+मनिन्] १. आँख की बरौनी। २. फूल का केसर। ३. फूल की पंखड़ी। ४. पंख। पर। ५. बाल।
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पक्ष्मकोप  : पुं० [सं० ष० त०] आँख की पलकों का एक रोग।
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पक्ष्मल  : वि० [सं० पक्ष्मन्+लच्] १.(व्यक्ति अथवा उसकी आँख) जिसकी सुन्दर बरौनी हो। २.बालोंवाला।
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पक्ष्य  : वि० [सं० पक्ष+यत्] १. पक्ष या पखवारे में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. किसी पक्ष या दल का तरफदार। पक्षपाती।
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पखंड  : पुं०=पाखंड।
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पखंडी  : वि०=पाखंडी। पुं० कठपुतलियाँ नचानेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पख  : पुं० [सं० पक्ष] पक्ष। पखवारा। स्त्री० १. अलग या ऊपर से जोड़ी या लगाई हुई ऐसी बात या शर्त जो तो बिलकुल व्यर्थ हो या जिससे कोई अड़चन या बाधा खड़ी होती हो। अडंगा। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। २. व्यर्थ ही तंग या परेशान करनेवाला काम या बात। झंझट। बखेड़ा। ३. व्यर्थ का छिद्रान्वेषण या दोष-दर्शन। जैसे—तुम तो यों ही हर बात में एक पख निकाला करते हो। क्रि० प्र०—निकालना।
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पखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखनारी  : स्त्री० [सं० पक्ष+नाल] चिड़ियों के पंखों की डंठी जो ढरकी के छेद में तिल्ली रोकने के लिए रखी जाती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पख-पान  : पुं०=पाँवदान।
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पखरना  : अ० [हिं० पखारना का अ० रूप] पखारा या धोया जाना। स०=पखारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखराना  : स० [हिं० पखारना का प्रे०] किसी को पखारने में प्रवृत्त करना।
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पखरिया  : पुं० [हिं० पखारना] वह जो पखारने का काम करता हो। स्त्री०=पखरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखरी  : स्त्री० [हिं० पख+री (प्रत्य०)] गद्दी,कुरसी आदि आसनों में दोनो तरफ के वे स्थान जो बगल में पड़ते हैं। उदा०—गाधी पखरी पीठि लगे लोने लचकीले।—रत्ना०। स्त्री०=पंखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० पाखर] १. वह घोड़ा या हाथी जिस पर पाखर पड़ी हो। २. ऐसे घोड़े या हाथी का सवार योद्धा।
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पखरैत  : पुं० [हिं० पाखर+ऐत (प्रत्य०)] वह घोड़ा, बैल या हाथी जिस पर पाखर आर्थ लोहे की झूल पड़ी हो।
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पखरौटा  : पुं० [हिं० पखड़ी+औटा (प्रत्य०)] पान का बीड़ा जिस पर सोने या चाँदी का वरक लगा हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखवाड़ा  : पुं० [सं० पक्ष=आधा चांद्रमास+हिं० वाड़ा (प्रत्य०)] १. चांद्रमास का कोई पक्ष। २. पूरे १५ दिनों का समय। जैसे—तुमने जरा-से काम में एक पखवाड़ा लगा दिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखवारा  : पुं०=पखवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखा  : पुं० [?] दाढ़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=पक्ष। २.=पंख। (जैसे—मोर-पखा)।
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पखाउज  : पुं०=पखावज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखाटा  : पुं० [सं० पक्ष] धनुष का कोना।
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पखान  : पुं०=पाषाण। (पत्थर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० उपाख्यान] किसी घटना या बात का लम्बा-चौड़ा ब्यौरा। मुहा०—पखान बखानना=बहुत ही विस्तार-पूर्वक किसी की त्रुटियों, दोषों आदि का उल्लेख करना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पखाना  : पुं० [सं० उपाख्यान] कहावत। लोकोक्ति। पुं०=पाखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखा-पखी  : स्त्री० [सं० पक्ष] कई पक्षों की आपस में होनेवाली खींचातानी या विरोध। उदा०—पषा-पषी के पेषणैं सब जगत भुलाना।—कबीर।
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पखारना  : स० [सं० प्रक्षालन,प्रा० पक्खाड़न] किसी चीज पर पानी डालकर उस पर की धूल,मैल आदि छुड़ाना। धोकर साफ करना। धोना। जैसे—पाँव या बरतन पखारना।
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पखाल  : स्त्री० [सं० पक्ष+खल्ल] १. बैल आदि के चमड़े की बनी हुई पानी भरने की मशक। २. धौंकनी।
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पखाल-पेटिया  : वि० [हिं० पखाल+पेट+ईया (प्रत्य०)] १. पखाल अर्थात् मशक की तरह बहुत बड़े पेटवाला। २. बहुत खानेवाला। पेटू।
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पखाली  : वि० [हिं० पखाल] पखाल अर्थात् मशक संबंधी। पुं० मशक से पानी भरनेवाला। भिश्ती।
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पखावज  : स्त्री० [सं० पक्षावाद्य,प्रा० पक्खाउज्ज] मृदंग के आकार-प्रकार का परन्तु उससे कुछ छोटा एक प्रकार का बाजा।
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पखावजी  : वि० [हिं० पखावज+ई (प्रत्य०)] पखावज-संबंधी। पुं० वह जो पखावज बजाकर अपनी जीविका चलाता हो अथवा पखावज बजाने में निपुण हो।
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पखिया  : वि० [हिं० पख] १. हर बात में पख या व्यर्थ का दोष निकालनेवाला। २. व्यर्थ का झगड़ा-बखेड़ा खड़ा करनेवाला झगड़ालू। बखेड़िया।
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पखी  : वि०=पखिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखीरा  : पुं० [स्त्री० पखीरी]=पक्षी (चिड़िया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखुआ  : पुं०=पखुरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखुरा  : पुं० [सं० पक्ष] १. बाँह का कंधे और कोहनी के बीच का अंश या अवयव। (पूरब) २. पाखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पखेरु  : पुं० [सं० पक्षालु,प्रा० पक्खाड़ु] पक्षी। चिड़िया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पखेव  : पुं० [देश०] उड़द,मूँग सोंठ आदि का वह मिश्रण जो गायों-भैसों को प्रसव के बाद ६ दिनों तक खिलाया जाता है।
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पखौंड़ा  : पुं०=पखुरा (वृक्ष)।
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पखौआ  : पुं० [सं० पक्ष] किसी पक्षी विशेषतः मोर का पर जो टोपी या सिर के बालों में शोभा आदि के लिए लगाया जाता था। उदा०—क्रीट-मुकुट सिर जाँड़ि पखौआ मोरन कौ क्यौं धार्यौ।—भारतेन्दु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पखौटा  : पुं० [हिं० पंख] १. डैना। पर। २. मछली का पक्ष या पर।
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पखौड़ा  : पुं०=पखुरा।
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पखौरा  : पुं०=पखुरा।
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पख्तून  : पुं० [फा० पुख्तोन] पुख्तो अर्थात् पश्तो भाषा बोलनेवाला व्यक्ति।
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पख्तूनिस्तान  : पुं० [फा० पुख्तोनिस्तान] अविभाजित भारत का और अब पाकिस्तान की उत्तर पश्चिमी सीमा पर स्थित अफगानिस्तान से सटा हुआ वह प्रदेश, जहाँ की भाषा पुख्तो अर्थात् पश्तो है।
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पख्तो  : स्त्री० [फा० पुख्तो] पश्तो भाषा जो पख्तूनिस्तान में बोली जाती है।
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पग  : पुं० [सं० पदक, प्रा० पऊक,पक] १. पैर। पाँव। मुहा०—पग रोपना=कोई प्रतिज्ञा करके किसी जगह दृढ़ता पूर्वक पैर जमाना। २. उतना अन्तर या दूरी जितनी चलने में एक पैर से दूसरे पैर तक होती है। फाल। ३.चलने के समय हर बार पैर उठाकर आगे रखने की क्रिया। डग। पद—पग-पग पर=(क) बहुत ही थोड़ी-थोड़ी दूरी पर। (ख) बराबर। लगातार।
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पगडंडी  : स्त्री० [हिं० पग+डंडा] १. खेतों आदि के बीच का पतला या संकीर्ण मार्ग। २. जंगल या मैदान की संकीर्ण राह जो आने-जाने के कारण बन गयी हो।
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पगड़ी  : स्त्री० [सं० पटक,हिं० पाग+ड़ी (प्रत्य०)] १. सिर पर लपेटकर बाँधा जानेवाला लंबा कपड़ा। उष्णीण। पाग। साफा। क्रि० प्र०—बँधना।—बाँधना। विशेष—मध्ययुग में पगड़ी प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा की सूचक होती थी; इसी से इसके कई अर्थों और मुहावरों का विकास हुआ है। मुहा०—(किसी की) पगड़ी उतारना या उतार लेना=छीन या ठगकर किसी से बहुत-कुछ धन ले लेना। (किसी के सिर) पगड़ी बँधना=(क) महत्वपूर्ण या शीर्ष स्थान प्राप्त होना। (ख) किसी का उत्तराधिकारी या स्थानापन्न बनाया जाना। (किसी से) पगड़ी बदलना=किसी से भाई-चारे और घनिष्ठ मित्रता का संबंध स्थापित करना। विशेष—१. मध्ययुग में जब किसी से बहुत अधिक या घनिष्ठ मित्रता का संबंध हो जाता था,तब उस मित्रता को स्थायी बनाये रखने के प्रतीक के रूप में अपनी पगड़ी सिर पर रख दी जाती थी और उसकी पगड़ी आप पहन ली जाती थी। २. पगड़ी बाँधनेवाले अर्थात् वयस्क पुरुष का वाचक शब्द या संज्ञा। जैसे—गाँव भर से पगड़ी पीछे एक रुपया ले लो; अर्थात् प्रत्येक वयस्क पुरुष से एक रुपया ले लो। ३. व्यक्ति की प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा। मुहा०—(किसी से) पगड़ी अटकना=किसी के साथ ऐसा मुकाबला विरोध या स्पर्धा होना कि उसकी हार-जीत पर प्रतिष्ठा की हानि या रक्षा अवलंबित हो। आपस में पगड़ी उलछना=एक के हाथों दूसरे की दुर्दशा और बेइज्जती होना। जैसे—आज-कल उन दोनों में खूब पगड़ी उछल रही है। (किसी की) पगड़ी उछालना=किसी को अपमानित करके उपहासास्पद बनाना। दुर्दशा करना। (किसी को) पगड़ी उतारना-अपमानित या दुर्दशा-ग्रस्त करना। (किसी के सिर किसी बात की) पगड़ी बँधना=किसी काम या बात का यश या श्रेय प्राप्त होना। जैसे—इस काम के लिए प्रयत्न चाहे जिसने किया हो, पर इसकी पगड़ी तो तुम्हारे ही सिर बँधी है। (किसी की) पगड़ी रखना=प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा की रक्षा करना। (किसी के आगे) पगड़ी रखना या रख देना=किसी से दीनता और नम्रतापूर्वक यह कहना कि हमारी प्रतिष्ठा या लाज की रक्षा आप ही कर सकते हैं। ४. आज-कल दुकान,मकान आदि किराये पर लेने के समय उसके मालिक को अनुकूल तथा संतुष्ट करने के लिए अवैध रूप से पेशगी दिया जानेवाला धन। जैसे—इस दुकान का किराया तो ५॰) महीना ही है, पर दुकान का मालिक हजार रुपये पगड़ी माँगता है।
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पगतरा  : पुं० [हिं० पग+तरा (निचला भाग)] [स्त्री० अल्पा० पगतरी] जूता।
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पग-तल  : पुं० [हिं० पग+सं० तल] पैर का नीचेवाला भाग। पैर का तलवा।
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पगदासी  : स्त्री० [हिं० पग+दासी] १. जूता। २. खड़ाऊँ। (साधुओं की परिभाषा)।
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पगना  : अ० [सं० पाक,हिं० पाग] १. हिं० पागना का अ०। पागा जाना। २. शरबत शोरे आदि के पाग में किसी खाद्य पदार्थ का पड़कर उसके रस में भीगना। मीठे रस से ओत-प्रोत होना। जैसे—मुरब्बा बनाने के समय आँवले या आम का शीरे में पगना। ३. किसी प्रकार का गाढ़े तरल पदार्थ या रस से ओत-प्रोत होना। ४. लाक्षणिक रूप में, बात के रस में अथवा किसी व्यक्ति के प्रेम में पूर्णतः डूबना या मग्न होना। संयो० क्रि०—जाना।
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पगनियाँ  : स्त्री०=पगनी (जूती)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पगनी  : स्त्री० [सं० पग] १. जूता। २. खड़ाऊँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० पगना] पगने या पागने की क्रिया या भाव।
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पग-पान  : पुं० [हिं० पग+पान] पैर में पहनने का एक आभूषण। पलानी। गोड़संकर।
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पगरना  : पुं० [देश०] सोने,चाँदी आदि के आभूषणों,बरतनों आदि पर नक्काशी करनेवालों का एक उपकरण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पगरा  : पुं० [हिं० पग+रा (प्रत्य०)] पग। डग। कदम। पुं० [फा० पगाह=सबेरा] प्रभात या प्रातःकाल जो यात्रा आरंभ करने के लिए सबसे अच्छा समय माना गया है। वि०=पागल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पगरी  : स्त्री०=पगड़ी।
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पगला  : वि०=पागल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पगहा  : पुं० [सं० प्रग्रह,प्रा० पग्गह] [स्त्री० पगही] पशुओं के गले में बाँधी जानेवाली वह रस्सी जिससे उन्हें खूँटे से बाँधा जाता है। पघा।
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पगा  : पुं० १.=पाग। (पगड़ी)। २.=पघा (पगहा)। ३.=पगरा।
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पगाना  : स० [हिं० पगना] १. पागने का काम किसी दूसरे से कराना। किसी को पागने में प्रवृत्त करना। २.(पदार्थ) ऐसी स्थिति में रखना कि वह पगे। ३. किसी को किसी ओर या किसी काम में अनुरक्त या पूर्ण रूप से प्रवृत्त करना।
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पगार  : पुं० [सं० प्राकार] १. चहारदीवारी। परकोटा। २. घेरा। ३. दीवार। पुं० [हिं० पग+गारना] १. पैरों से कुचलकर जोड़ाई के काम के लिए तैयार किया हुआ गारा। २. कीचड़। पुं० [फा० पायाब] वह नाला या नदी जिसे पैदल चलकर पार किया जा सके। उदा०—जल कै पगार, निज दल के सिंगार आदि...।—केशव। स्त्री० [पुर्त० पागा से मराठी] वेतन।
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पगारना  : स०=फैलाना। स० [हिं० पग+गारना] १. पैरों से मिट्टी को रौंदकर गारा बनाना। २. फैलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पगाह  : पुं० [फा०] १. यात्रा आरंभ करने का उपयुक्त समय अर्थात् तड़का या प्रभात। २. प्रातःकाल। सबेरा।
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पगिआना  : स०=पगियाना।
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पगिया  : स्त्री०=पगड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पगियाना  : स० [हिं० पाग=पगड़ी] पगड़ी बाँधना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=पगाना।
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पगु  : पुं०=पग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पगुराना  : अ० [हिं० पागुर] १. चौपायों का पागुर करना। जुगाली करना। २. पचा जाना। हजम कर लेना।
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पगोडा  : पुं० [बर्मी] बुद्ध भगवान का मन्दिर।
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पग्ग  : पुं०=पग।
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पग्गड़  : पुं० [हिं० पाग=पगड़ी] बहुत बड़ी और भारी पगड़ी।
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पग्गा  : पुं० [हिं० पागना या पकाना] पीतल,ताँबा आदि गलाने की घरिया। पागा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पघरना  : अ०=पिघलना। (पश्चिम) उदा०—मैन तुरंग चढ़े पावक बिच, नाहीं पघरि परेंगे।—नागरीदास।
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पघराना  : स०=पिघलाना।
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पघा  : पुं० [सं० प्रग्राहः] वह रस्सी जिससे पशु खूँटे पर बाँधे जाते हैं। पगहा।
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पघिलना  : अ०=पिघलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पघिलाना  : स०=पिघलाना।
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पघैया  : वि० [हिं० पग+ऐया (प्रत्य०)] पैदल चलनेवाला। पुं० वह व्यापारी जो गाँवों आदि में घूम-घूमकर चीजें बेचता हो।
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पच  : वि०=पँच (पाँच का संक्षिप्त रूप)। (पंच के यौं के लिए दे० ‘पँच’ और ‘पंच’ के यौ०)
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पचक  : पुं० [सं०] कट-नामक गुल्म। स्त्री० [हिं० पचकना] १. पिचकने की अवस्था या भाव। २. पिचकने के कारण पड़ा हुआ गड्ढा या निशान। पुं०=पाचक (रसोइया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचकना  : अ०=पिचकना।
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पचकल्यान  : पुं०=पंचकल्याण।
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पचकाना  : स०=पिचकाना।
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पचखना  : वि० [हिं० पाँच+सं० खंड] (मकान) जिसमें पाँच खंड या मंजिलें हों। अ०=पिचकना।
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पचखा  : पुं० दे० ‘पंचक’ (पाँच अशुभ तिथियाँ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचड़ा  : पुं० [हिं० पाँच (प्रपंच)+ड़ा (प्रत्य०)] १.व्यर्थ की झंझट। बखेड़े का काम या बात। क्रि० प्र०—निकालना।—फैलाना। २. खयाल या लावनी की तरह का एक प्रकार का लोक-गीत जिसमें पाँच चरण या पद होते हैं। ३. एक प्रकार का गीत जो ओझा लोग देवी आदि के सामने गाते हैं।
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पचतावा  : पुं०=पछतावा (पश्चात्ताप)।
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पचूतरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा।
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पचतोरिया  : पुं०=पँच-तोरिया (कपड़ा)।
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पचतोलिया  : पुं०,वि०=पँच-तोलिया।
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पचन  : वि० [सं०√पच्(पाक)+ल्युट्—अन] पकानेवाला। पुं० १. भोजन आदि पकने या पकाने की क्रिया या भाव। २. पेट में पहुँचने पर भोजन आदि पचने की क्रिया या भाव। पाचन। ३. अग्नि। आग। ४. जठराग्नि।
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पचन-संस्थान  : पुं० [ष० त०] शरीर के अन्दर के वे सब अंग और यंत्र जो भोजन पचाते हैं। (एलिमेन्टरी सिस्टम)।
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पचना  : अ० [सं० पचन] १. खाने पर पेट में पहुँचे हुए खाद्य पदार्थ का जठराग्नि की सहायता से गलकर रस आदि में परिणति होना। विशेष—जो चीज पच जाती है उसका फोक या सीठी गुदा मार्ग से मल के रूप में बाहर निकल जाती है और जो चीज ठीक तरह से नहीं पचती,वह प्रायः उसी रूप में गुदा मार्ग से या मुँह के रास्ते बाहर निकल जाती है और यदि पेट में रहती भी है, तो कई प्रकार के विकार उत्पन्न करती है। २. किसी दूसरे का धन आदि इस प्रकार अधिकार में आना या भोगा जाना कि उसके पहले स्वामी के हाथ में न जाय और उसका कोई दुष्परिणाम भी न भोगना पड़े। जैसे—हराम की कमाई किसी को नहीं पचती (अर्थात् उसे उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है) ३. किसी चीज या बात का कहीं इस प्रकार छिपा या दबा रहना कि औरों को उसका पता न लगने पावे। जैसे—तुम्हारे पेट में तो कोई बात पचती ही नहीं। ४. किसी चीज या बात का इस प्रकार अंत या समाप्त होना कि उसके फिर से उभरने की संभावना न रह जाय। जैसे—रोग या विकार पचना, घमंड या शेखी पचना। संयो० क्रि०—जाना। ५. किसी व्यक्ति का परिश्रम, प्रयत्न आदि करते-करते थककर चक्कर चूर या परम शिथिल हो जाना। मेहनत करते-करते हार जाना या बहुत हैरान होना। पद—पच-पचकर=बहुत अधिक परिश्रम या प्रयत्न करके। उदा०—काँचो दूध पियावत पचि-पचि देत न माखन रोटी।—सूर। मुहा०—पच मरना या पच हारना=कोई काम करते-करते थककर बैठ या हार जाना। उदा०—पचि हारी कछु काम न आई,उलटि सबै बिधि दीन्हीं।—भारतेन्दु। ६. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में पूर्ण रूप से लीन होना। खप या समा जाना। जैसे—सेर भर खीर में पाव भर घी तो सहज में पच जाता है।
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पचनागार  : पुं० [पचन-आगार,ष० त०] पाकशाला। रसोईघर।
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पचनाग्नि  : पुं० [पचन-अग्नि,मध्य० स० ष० त०] पेट की आग जिससे खाया हुआ पदार्थ पचता है। जठराग्नि।
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पचनिका  : स्त्री० [सं० पचनी+कन्,टाप्,ह्रस्व] कड़ाही।
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पचनी  : स्त्री० [सं० पचन+ङीप्] बिहारी नींबू।
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पचनीय  : वि० [सं०√पच्+अनी,यर्] जो पच सकता हो या पचाया जा सकता हो। पचने के योग्य।
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पचपच  : पुं० [सं०√पच्+अच्,द्वित्व] शिव का एक नाम।
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पचपचा  : वि० [हिं० पचपच] (अध-पका खाद्य पदार्थ) जिसमें डाला हुआ पानी अभी सूखा न हो।
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पचपचाना  : अ० [हिं० पचपच] १. किसी पदार्थ का आवश्यकता से अधिक इतना गोल होना कि उसे हिलाने-डुलाने से पच-पच शब्द निकले। २.जमीन का कीचड़ से युक्त होना। स० ऐसी क्रिया करना जिससे किसी गाढ़े तरल पदार्थ में से पच-पच शब्द निकलने लगे।
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पचपन  : वि० [सं० पंचपंचाश,पा० पंचपण्णासा] जो गिनती में पचास और पाँच हों, पाँच कम साठ। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—५५।
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पचपनवाँ  : वि० [हिं० पचपन] पचपन के स्थान पर आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचपल्लव  : पुं०=पंचपल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचमेल  : वि०=पँच-मेल।
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पचरा  : पुं०=पचड़ा।
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पचलड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँच+लड़ी]=पँच-लड़ी।
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पच-लोना  : वि० पुं०=पंच-लोना।
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पचवना  : सं०=पचाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पचहत्तर  : वि० [सं० पञ्चसप्तति,प्रा० पंचहत्तरि] गिनती या संख्या में जो सत्तर से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—७५।
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पचहत्तरवाँ  : वि० [हिं० पचहत्तर+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचहत्तर के स्थान पर आने, पड़ने या होनेवाला।
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पचानक  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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पचाना  : स० [हिं० पचना का स० रूप] १. खाई हुई वस्तु को पक्वाशय की जठराग्नि से रस में परिणत करना। २. दूसरों का माल हजम करना। ३. परिश्रम करा के या कष्ट देकर किसी के शरीर मस्तिष्क आदि का क्षय करना। ४. अच्छी तरह अन्त या समाप्त कर देना। जैसे—किसी की मोटाई पचाना। ५. एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ को अपने में विलीन कर या समा लेना।
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पचारना  : स० [सं० प्रचारण] कोई काम करने के पहले उन लोगों के सामने उसकी घोषणा करना जिनके विरुद्ध वह काम किया जाने को हो। ललकारना। जैसे—हाँक पचारकर लड़ाई छेड़ना।
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पचाव  : पुं० [हिं० पचना+आँव (प्रत्य०)] पचने या पचाने की क्रिया या भाव। पाचन।
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पचास  : वि० [सं० पंचाशत,प्रा० पचासा] जो गिनती या संख्या में चालीस से दस अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—५०।
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पचासवाँ  : वि० [हिं० पचास+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचास के स्थान में आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचासा  : पुं० [हिं० पचास] १. एक ही जाति की पचास वस्तुओं का कुलक या समूह। २. पचास रुपये। जैसे—सैर करने में पचासा लगेगा। ३. वह बटखरा या बाट जो तौल में पचास रुपयों या पचास भरी के बराबर हो। ४. संकटसूचक वह घड़ियाल जो लगातार कुछ समय तक बराबर टन-टन करते हुए बजाया जाता है कि जिसका उद्देश्य आस-पास के सिपाहियों को केन्द्र में बुलाना होता है।
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पचासी  : वि० [सं० पंचाशीति,प्रा० पंचासाईं,पच्चासी] जो गिनती या संख्या में अस्सी से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—८५।
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पचासीवाँ  : वि० [हिं० पचासी+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचासी के स्थान पर आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचासों  : वि० [हिं० पचास] बहुत अधिक विशेषतः पचास से अधिक। जैसे—लड़की के घर त्यौहारों पर पचासों रुपये नकद या मिठाइयों के रूप में भेजने पड़ते हैं।
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पचि  : स्त्री० [सं०√पच्+इन्] १. पकाने की क्रिया या भाव। पाचन। २. अग्नि। आग।
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पचित  : भू० कृ० [सं०] १. अच्छी तरह पचा हुआ। २. अच्छी तरह घुला या मिला हुआ। वि० [हिं० पच्ची] जिस पर पच्चीकारी का काम किया हुआ हो। (क्व०)
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पची  : स्त्री०=पच्ची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचीस  : वि० [सं० पंचविंशति,पा० पंचवीसति,अपभ्रंश,प्रा०पच्चीस] क्रम या गिनती में बीस से पाँच अधिक। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—२५।
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पचीसवाँ  : वि० [हिं० पचीस+वाँ (प्रत्य०)] क्रम या गिनती में पचीस के स्थान पर आने,पड़ने या होनेवाला।
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पचीसी  : स्त्री० [हिं० पचीस] १. एक ही प्रकार की पचीस वस्तुओं का समूह। जैसे—बैताल पचीसी (पचीस कहानियों का संग्रह) २. व्यक्ति की आयु के आरंभिक २५ वर्षों का समय,जिसे व्यगंय से ‘गदह पचीसी’ भी कहते हैं। ३. गणना का वह प्रकार जिसमें पचीस चीजों की एक इकाई मानी जाती है। जैसे—अमरूद,आम आदि की गिनती पचीसी गाही (१२५ फलों) की होती है। ४. चौसर का वह खेल जो पासों के स्थान पर सात कौड़ियाँ फेंककर खेला जाता है और जिसमें दाँवों का संकेत चित्त और पट्ट पड़नेवाली कौड़ियों की संख्या के विचार से होता है। ५. चौसर खेलने की बिसात।
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पचूका  : पुं०=पिचकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचेलिम  : वि० [सं०√पच्+केलिमर्] आसानी से और जल्दी पचनेवाला। पुं० १. अग्नि। २. सूर्य।
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पचेलुक  : पुं० [सं०√पच्+एलुक्] रसोइया।
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पचोतर  : वि० [सं० पञ्चोत्तर](किसी संख्या से) पाँच अधिक। पाँच ऊपर। जैसे—पचोतर सौ।
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पचोतर सौ  : पुं०=पंचोतर सौ।
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पचोतरा  : पुं०=पँचोतरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पचौआ  : पुं० [हिं० पचना] कपड़े पर छींट की छपाई करने के बाद उसे १॰-१२ दिनों तक धूप में रखने की क्रिया,जिससे छपाई के समय कपड़े पर पड़े हुए दाग या धब्बे छूट जाते हैं।
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पचौनी  : स्त्री० [सं० पाचन] १. पचने या पचाने की क्रिया या भाव। २. अँतड़ी। आँत।
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पचौर  : पुं० [हिं० पंच या पचौली] गाँव का मुखिया। सरदार।
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पचौली  : पुं० [हिं० पंच+कुली] १. गाँव का मुखिया। सरदार। पंच। २. दे० ‘पंचोली’। पुं० [?] एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियों से सुगंधित तेल निकलता है।
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पचौवर  : वि०=पंचौवर (पंचहरा)।
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पच्चड़  : पुं०=पच्चर।
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पच्चर  : पुं० [सं० पचित या पच्ची] १. बाँस,लकड़ी आदि का छोटा तथा पतला टुकड़ा जो काठ की चीजों के जोड़ कसने के लिए उनकी दरारों या संधियों में जड़ा,ठोंका या लगाया जाता है। क्रि० प्र०—जड़ना।—ठोंकना।—लगाना। २. लाक्षणिक रूप में व्यर्थ खड़ी की जानेवाली अड़चन बाधा या रुकावट। क्रि० प्र०—अड़ाना।—लगाना। मुहा०—पच्चर ठोंकना या मारना=तंग या परेशान करने के लिए बहुत बड़ी अड़चन या बाधा खड़ी करना। ऐसा उपाय करना कि काम किसी तरह आगे बढ़ ही न सके।
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पच्ची  : स्त्री० [सं० पचित] १. पचने या पचाने की क्रिया या भाव। २. खपाने की क्रिया या भाव। जैसे—माथा पच्ची,सिर पच्ची। ३. धातुओं, पत्थरों आदि पर नगीने या धातु पत्थर आदि के छोटे-छोटे टुकड़े जड़ने की क्रिया या प्रकार, जिसमें जड़ी जानेवाली चीजें गड्ढों में इस प्रकार जमाकर जड़ी या बैठाई जाती हैं कि उसका ऊपरी तल उभरा हुआ नहीं रह जाता। जैसे—सोने के कंगन में हीरे की पच्ची,ताँबे के लोटे पर चाँदी के पत्तरों की पच्ची, संगमरमर की पटिया पर रंग-बिरंगे पत्थरों की पच्ची। पद—पच्चीकारों (देखें) मुहा०—(किसी में) पच्ची हो जाना=किसी से बिलकुल मिल जाना या उसी के रूप में का हो जाना। लीन हो जाना। जैसे—यह कबूतर जब उड़ता है, तब आसमान में पच्ची हो जाता है। वि० [हिं० पक्ष] किसी का पक्ष लेकर उसकी ओर से झगड़ा या विवाद करनेवाला।
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पच्चीकारी  : स्त्री० [हिं० पच्ची+फा० कारी=करना] १. पच्ची की जड़ाई करने की क्रिया या भाव। २. पच्ची करके तैयार किया हुआ काम।
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पच्छताई  : स्त्री० [सं० पक्ष] १. किसी का पक्ष ग्रहण करने का भाव। २. पक्षपात। तरफदारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छम  : वि०, पुं०=पश्चिम।
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पच्छाघात  : पुं०=पक्षाघात
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पच्छि  : पुं०=पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छिनी  : स्त्री०=पक्षिनी (चिड़िया)।
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पच्छिम  : पुं०=पश्चिम (दिशा)। वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छिराज  : पुं०=पक्षिराज (गरुड़)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छिवँ  : पुं०=पश्चिम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पच्छी  : पुं०=पक्षी।
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पछँही  : वि० [सं० पश्चिम] पश्चिम में होने या रहनेवाला।
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पछ  : वि० हिं० पीछे (पीछे) का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—पछलगा (पिछलगा)। पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछइ  : अव्य०=पीछे।
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पछटी  : स्त्री० [देश०] तलवार। (डिं०)
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पछड़ना  : अ० [हिं० ‘पछाड़ना’ का अ०] १. कुश्ती आदि लड़ने में पछाड़ा या पटका जाना। २.प्रतियोगिता आदि में बुरी तरह से परास्त होना या हराया जाना। अ०=पिछड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछताना  : अ० [हिं० पछताव] पश्चात्ताप करना।
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पछतानि  : स्त्री०=पछतावा (पश्चात्ताप)।
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पछताव  : पुं०=पछतावा।
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पछतावना  : अ०=पछताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछतावा  : पुं० [सं० पश्चात्ताप] पछताने की क्रिया या भाव। मन में होनेवाला इस बात का दुःखजन्य विचार कि मैंने ऐसा अनुपयुक्त या अनुचित काम क्यों किया अथवा अमुक उचित या उपयुक्त काम क्यों न किया। पश्चात्ताप।
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पछना  : अ० [हिं० पाछना का अ० रूप] पाछा अर्थात् छुरे के आघात से हलका चीरा लगाया जाना।
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पछमन  : अव्य०=पीछे।
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पछरना  : अ० १.=पछड़ना। २.=पिछड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछरा  : पुं०=पछाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछलगा  : पुं०=पिछलगा।
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पछलत  : स्त्री०=पिछलत्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछ-लागा  : पुं०=पिछलगा।
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पछवत  : स्त्री० [हिं० पीछे+वत] ऐसी फसल जिसकी बोआई उपयुक्त ऋतु के अंत में या ठीक समय के बाद हुई हो।
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पछवाँ  : वि० [सं० पश्चिम] १. पश्चिम-दिशा संबंधी। २.पश्चिम की ओर से आनेवाला। जैसे—पछवाँ हवा। स्त्री० पश्चिम की ओर से आनेवाली हवा। पुं० [हिं० पीछे] अंगिया,कुरती आदि का वह भाग जो पीछे की ओर रहता है। पुं० दे० ‘पछुआ’। अव्य०=पीछे।
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पछवारा  : पुं० [हिं० पीछा] १. पिछला भाग। २. पीठ। पृष्ठ। ३. दे० ‘पिछवाड़ा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पिछल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछाँह  : पुं० [सं० पश्चात्,प्रा० पच्छ] किसी प्रदेश की दृष्टि से, उसके पश्चिम विशेषतः सुदूर पश्चिम में स्थित प्रदेश।
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पछाँहिया  : वि०=पछाँही।
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पछाँही  : वि० [हिं० पछाँह+ई (प्रत्य०)] १. पछाँह-संबंधी। २. जो पछाँह में रहता या होता हो।
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पछाड़  : स्त्री० [हिं० पछाड़ना] १. पछाड़ना की क्रिया या भाव। २. पछाड़े जाने की अवस्था या भाव। ३. वह अवस्था जिसमें मनुष्य बहुत बड़े शोक का आघात होने पर खड़ा-खड़ा एक दम से जमीन पर गिर जाता और प्रायः बेसुध-सा हो जाता है। मुहा०—पछाड़ खाकर गिरना=बहुत अधिक शोकाकुल होने के कारण खड़े-खड़े बेसुध होकर गिरना।
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पछाड़ना  : स० [सं० प्रक्षालन] धोकर साफ करने के लिए किसी कपड़े को जोर जोर से जमीन या पत्थर पर पटकना। स० [हिं० पीछे+ढकेलना] १. कुश्ती आदि में किसी को जमीन पर चित गिराना और उसे जीतना। २. किसी प्रकार की प्रतियोगिता,वादविवाद आदि में किसी को बुरी तरह से नीचा दिखाना,परास्त करना या हराना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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पछाड़ी  : स्त्री०=पिछाड़ी। (पिछला भाग)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछानना  : स०=पहचानना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछाया  : पुं० दे० ‘पिछाड़ी’।
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पछार  : स्त्री०=पछाड़। अव्य०=पछवाँ (पीछे)।
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पछारना  : स०=पछाड़ना।
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पछावर (रि)  : स्त्री० [हिं० पीछे ?] छाछ आदि का बना हुआ एक प्रकार का पेय जो भोजन के अंत में पिया जाता है।
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पछाँह  : पुं०=पछाँह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछाह  : वि०, पुं०=पछाँही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=परछाईं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछिआना  : स० [हिं० पीछे+आना] १. किसी भागते हुए व्यक्ति को पकड़ने या पाने के लिए उसके पीछे-पीछे तेजी से बढ़ना। पीछा करना। २. किसी के पीछे-पीछे अनुगामी बनकर चलना। अनुकरण करना।
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पछिउँ  : पुं०=पश्चिम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछिताना  : अ०=पछताना।
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पछितानि  : स्त्री०=पछतावा।
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पछिताव  : पुं० [देश०] पशुओं का एक प्रकार का रोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पछतावा।
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पछियाँव  : स्त्री० [सं० पश्चिम+वायु] पश्चिम दिशा से आनेवाली हवा। क्रि० प्र०—चलना।—बहना।
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पछियाना  : स०=पछिआना (पीछा करते हुए दौड़ना)।
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पछियाव  : स्त्री० [हिं०पश्चिम+वायु] पश्चिम की हवा। पुं०=पीछा (पिछला भाग)।
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पछियावर  : स्त्री०=पछावर।
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पछिलना  : अ० १.=पिछड़ना। २.=फिसलना।
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पछिला  : वि० [स्त्री० पछिली]=पिछला।
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पछिवाँ  : वि०, स्त्री०=पछवाँ।
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पछिवाई  : स्त्री० [सं० पश्चिम+वायु] पश्चिम दिशा से आनेवाली हवा।
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पछीत  : स्त्री० [सं०पश्चात्,प्रा० पच्छा] १. घर का पिछवाड़ा। मकान के पीछे का भाग। २. घर या मकान के पीछे वाली दीवार। अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछुआँ  : वि०, पुं०, स्त्री०=पछवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछुआ  : पुं० [हिं० पीछा] पैरों में पहनने का कड़े के आकार का एक गहना।
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पछेड़ा  : पुं० [हिं० पीछे] किसी को तंग करने के लिए उसके पीछे पड़ने की क्रिया या भाव। उदा०—पतवार पुरानी, पवन प्रलय का कैसा किये पछेड़ा है।—प्रसाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछेलना  : स० [हिं० पीछे+एलना (प्रत्य०)] १. चलते,दौड़ते अथवा कोई काम करते समय किसी को पीछे छोड़ या डालकर स्वयं उससे आगे निकलना या बढ़ना। २. पीछे की ओर ढकेलना या हटाना।
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पछेला  : वि० [स्त्री० पछेली]=पिछला। पुं०=पिछेला (गहना)।
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पछेलिया  : स्त्री०=पिछेली (गहना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछेली  : स्त्री०=पिछेली (गहना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछोड़न  : स्त्री० [हिं० पछोड़ना] अनाज पछोड़ने पर निकलने वाला कूड़ा-करकट।
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पछोड़ना  : स० [सं० प्रक्षालन,प्रा० पच्छाड़ना] अन्न आदि सूप में रखकर इस प्रकार उछालना और हिलाना कि उसमें का कूड़ा-करकट निकलकर अलग हो जाय। (अनाज) फटकना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। पद—पटकना-पछोड़ना=उलट-पुलटकर परीक्षा करना। अच्छी तरह देखना-भालना। उदा०—सूर जहाँ तौ स्याम गत है देखे फटकि पछोरी।—सूर।
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पछोरना  : स०=पछोड़ना।
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पछोरा  : पुं०=पिछौरा (दुपट्टा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पछ्यावर  : स्त्री० [देश०]=पछावर।
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पजर  : पुं० [सं० प्रक्षरण] १. चूने या टपकने की क्रिया या भाव। २. पानी का झरना या सोता। स्त्री० [हिं० पजरना] पजरने अर्थात् जलने का भाव।
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पजरना  : अ० [सं० प्रज्वलन] १. प्रज्वलित होना। २. जलना। ३. तपना। स०=पजारना।
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पजरे  : क्रि० वि०=पास (निकट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पजहर  : पुं० [फा०] पीलापन या हरापन लिये हुए सफेद रंग का एक तरह का बढ़िया पत्थर जिस पर नक्काशी की जाती है।
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पजाना  : स० [हिं० पंजा ?] चोखा या तेज करना। उदा०—तो भी पंजा पजा रहा है, साइबेरिया का भालू।—दिनकर।
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पाजामा  : पुं०=पाजामा। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पजारना  : स० [हिं० पजरना] १. प्रज्वलित करना। २. जलाना। ३. तपाना। ४. पीड़ित या संतप्त करना।
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पजावा  : पुं० [फा० पजावः] ईंटें, चूना, आदि पकाने का भट्ठा। आँवाँ।
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पजूसण  : पुं० [सं०] जैनों का एक व्रत।
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पजोखा  : पुं० [?] किसी के मरने पर उसके संबंधियों के सामने किया जानेवाला शोक-प्रकाश। मातम-पुरसी।
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पजोड़ा  : वि०=पाजी (दुष्ट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पज्ज  : पुं० [सं० पद्√जन् (उत्पत्ति)+ड] शूद्र।
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पज्जर  : पुं०=पाँजर।
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पज्झलिका  : स्त्री० [सं० पद्धटिका] १.छोटी घंटी। २.एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं तथा आठवीं और छठी मात्रा पर एक एक गुरु होता है। उसमें जगण का निषेध है।
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पटंतर  : पुं०=पटतर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटंबर  : पुं० [सं० पट-अंबर] रेशमी कपड़ा। कौषेय।
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पट  : पुं० [सं० पट्(लपेटना)+क] १. पहनने के कपड़े। पोशाक। २. कपड़ा। वस्त्र। ३. आवरण। परदा। जैसे—चित्र-पट। ४. उक्त के आधार पर दरवाजा। द्वार। जैसे—पालकी का पट,दरवाजे का पट। मुहा०—(मंदिर का) पट उखड़ना या खुलना=नियत समय पर मंदिर का दरवाजा इसलिए खुलना (या उसके आगे पड़ा हुआ परदा इसलिए हटना) कि दर्शनार्थी लोग देव-मूर्ति के दर्शन कर सकें। ५. कोई ऐसी चीज जो खूब,अच्छी तरह और सुन्दर बनी हो। पुं० [सं० परम] फूस,सरकंडे आदि से छाया हुआ छप्पर। छानी। जैसे—नाव या बैलगाड़ी के ऊपर का पट। पुं० [सं० चित्र-पट में का पट] १.कपड़े,कागज,धातु आदि का वह टुकड़ा जिस पर हाथ से कोई चित्र अंकित किया हुआ हो। चित्र-पट। २. जगन्नाथपुरी,बदरिकाश्रम आदि तीर्थों में दर्शनार्थियों को प्रसाद के रूप में मिलनेवाला उक्त देवताओं का चित्रपट। वि० [सं० चित्र-पट में का पट अर्थात् नीचे वाला भाग] १. जिसका मुँह नीचे की ओर तथा पीठ ऊपर की ओर हो। उलटा पड़ा हुआ। औंधा। ‘चित’ का विपर्याय। जैसे—(क) कुश्ती में, पट पड़े हुए पहलवान को चित करने से ही जीत होती है। (ख) तलवार उस पर खड़ी थी,इसिलए उसे अधिक चोट नहीं आई। विशेष—प्राचीन काल में कपड़े पर अंकित किये जानेवाले चित्र को चित्रपट कहते थे उसका चित्रवाला ऊपरी भाग तो चित्र होता ही था,जिससे हिन्दी का ‘चित’ विशेषण बना है; नीचेवाला कपड़ा पट होता था, जिससे हिन्दी का उक्त अर्थवाला ‘पट’ विशेषण बना है। यहाँ इसके (विशेषण रूप में) जो और अर्थ दिये जाते हैं, वे सब उक्त पहले अर्थ के विकसित रूप हैं। २. बिलकुल खाली पड़ा हुआ। जिसमें या जिसपर कुछ भी न हो। जैसे—खेत (या रास्ता) बिलकुल पट पड़ा हुआ था। ३. धीमा या मन्द। मद्धिम या सुस्त। जैसे—आज-कल कपड़े का बाजार बिलकुल पट है। ४. चौपट। बरबाद। जैसे—तुमने तो सारा काम ही पट कर दिया। पद—चौपट (देखें) पुं० १. किसी वस्तु का चिपटा और चौरस तल। २. चौरस जमीन। पुं० [?] चिरौंजी का पेड़। पयाल। २. कपास। ३. गंध-तृण। ४. टाँग। पैर। ५. कुश्ती का एक पेंच। पुं० [सं० पट्ट] राज-सिंहासन। पद—पट-रानी (देखें) पुं० [अनु०] छोटी चीज के धीरे से गिरने पर होनेवाला ‘पट’ शब्द। अव्य० [हिं० चट का अनु०] तत्काल। तुरंत। जैसे—चटपट या काम खत्म करो।
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पटइन  : स्त्री० [हिं० पटना] पटवा जाति की स्त्री जो गहने गूँथने का काम करती है।
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पटई  : स्त्री० दे० ‘बहँगी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटक  : पुं० [सं० पट+कन्] १.सूती कपड़ा। २. [पट√कै+क] खेमा। तंबू। स्त्री० [हिं० पटकना] पटकने की क्रिया या भाव। पटकान। जैसे—दोनों में उठा-पटक होने लगी।
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पटकन  : स्त्री०=पटकान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटकना  : स० [सं० पतन+करण] १. किसी को या कोई चीज उठाकर या हाथ में लेकर जोर से जमीन पर डालना या गिराना। जोर के साथ ऊँचाई से भूमि की ओर फेंकना। जैसे—(क) किसी लड़के को जमीन पर पटकना। (ख) गिलास या थाली पटकना। संयो० क्रि०—देना। मुहा०—(कोई काम) किसी के सिर पटकना=किंचित उग्र से या जबरदस्ती किसी के जिम्मे लगाना। मढ़ना। जैसे—तुम तो सब काम यों ही मेरे सिर पटक देते हो। २. अपना कोई अंग जोर से किसी तल पर गिराना या रखना। जैसे—जमीन पर सिर या हाथ पटकना। ३. किसी खड़े या बैठे हुए व्यक्ति को उठाकर जोर से नीचे गिराना। दे मारना। ४. कुश्ती में प्रतिद्वन्द्वी को जमीन पर गिराना या पछाड़ना। अ० १. ऊपरी तल का दबकर कुछ नीचे हो जाना। पचकना। २. (अनाज आदि का) सूखकर सिकुड़ना। ३. (सूजन आदि का) दबकर कम होना। ४. ‘पट’ शब्द करते हुए किसी चीज का चटक,टूट या फूट जाना। जैसे—मि्टटी का बरतन पटकना।
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पटकनिया  : स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की ढंग भाव अथवा युक्ति। २. दे० ‘पछाड़’।
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पटकनी  : स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की क्रिया या भाव। पटकान। क्रि० प्र०-देना। २. पटके जाने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—खाना। ३. पछाड़ खाकर जमीन पर गिरने और लोटने की क्रिया या भाव।
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पटकरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का बेल।
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पटकर्म (मन्)  : पुं० [ष० त०] कपड़े बुनने का काम धंधा या पेशा। वयन।
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पटका  : पुं० [सं० पट्टक] १. कमर में बाँधने का दुपट्टा या बड़ा रूमाल। कमरबन्द। मुहा०—(किसी का) पटका पकड़ना=(क) किसी काम या बात के लिए किसी को उत्तरदायी ठहराना। (ख) किसी से कुछ पाने या लेने के लिए आग्रह करना। (किसी काम के लिए) पटका बाँधना=किसी काम के लिए तैयार होना। कमर कसना। २. गले में डालने का दुपट्टा। ३. एक प्रकार का चारखाना या धारीदार कपड़ा। ४. दीवार के ऊपर की वह पट्टी जो शोभा के लिए कमरे में अन्दर की ओर बनाई जाती है। कँगनी। कारनिस।
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पटकान  : स्त्री० [हिं० पटकना] १. पटकने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना। २. झटके या झोंके से किसी के द्वारा नीचे गिराये जाने का भाव। क्रि० प्र०—खाना। ३. पटके जाने के कारण होनेवाली पीड़ा। ४. छड़ी। डंडा।
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पटकार  : पुं० [सं० पट√कृ (करना)+अण्] १. कपड़ा बुननेवाला। जुलाहा। २. चित्रपट बनानेवाला। चित्रकार। स्त्री० [हिं० पटकना] १. वह लंबी रस्सी, जिसे जमीन पर पटककर किसान लोग खेत की चिड़ियाँ उड़ाते हैं। २. उक्त रस्सी के पटके जाने पर होने वाला शब्द।
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पटकी  : स्त्री०=पटकान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पट-कुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] रावटी। खेमा। (डिं०)
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पट-कूल  : पुं० [सं०] कपड़ा। वस्त्र।
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पट-चित्र  : पुं० [सप्त० त०] १. कपड़े पर बना हुआ वह चित्र, जो लपेटकर रखा जा सके। २. दे० ‘चित्र-पट’।
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पटच्चर  : पुं० [सं० पटत्√पट्+अति,पटच्चर पटत्√चर् (गति)+अच्] १. फटा-पुराना कपड़ा। चीथड़ा। २. चोर। ३. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश।
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पटझोल  : पुं० [सं० पट=कपड़ा+झोल ] १. पहने हुए कपड़े में पड़नेवाला झोल। २. आँचल। पल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पटड़ा  : पुं० [स्त्री० पटड़ी]=पटरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटण  : पुं०=पत्तन (नगर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पटतर  : पुं० [सं० पट्ट-तल] १. तुल्यता। बराबरी। समानता। २. उपमा जो तुल्यता या सादृश्य के आधार पर दी जाती है। ३. तुलना। उदा०—सुरपति सदन न पटतर पावा।—तुलसी। क्रि० प्र०—देना।—लहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० चौसर। समतल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि० तुल्य। बराबर। समान। उदा०—राम नाम पटतरै देबै को कछु नाहिं।—कबीर।
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पटतरना  : स० [हिं० पटतर ] १. किसी को किसी दूसरे के तुल्य या बराबर ठहराना। २. किसी के साथ उपमा देना। ३. तुलना करना। ४. (जमीन आदि को) पटतर या समतल बनाना। अ० १. तुल्य या बराबर ठहराया जाना। २. उपमित किया जाना। ३. तुलना किया जाना। ४. पटतर या समतल बनाया जाना।
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पटतारना  : स० [हिं० पटा+तारना=अंदाजना] खड्ग भाला आदि इस रूप में पकड़ना कि उससे वार किया जा सके। स० [हिं० पटतर] ऊंची-नीची भूमि चौरस या बराबर करना।
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पटताल  : पुं० [सं० पट्ट-ताल] मृदंग का एक ताल जो एक दीर्घ या दो ह्रस्व मात्राओं का होता है।
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पटद  : पुं० [सं० पट√दा (देना)+क] कपास जिससे पट या कपड़ा बनता या मिलता है।
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पट-दीप  : पुं० [सं०] एक प्रकार का राग।
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पटधारी (रिन्)  : वि० [सं० पट√धृ (धारण करना)+णिनि] जो कपड़ा पहने हो। पुं० राजाओं के तोशाखाने का प्रधान अधिकारी।
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पटन  : पुं० दे० ‘पट्टन’।
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पटना  : अ० [हिं० पाटना का अनु०] १. पाटा जाना। २. गड्ढे आदि का भरे जाने के कारण आस-पास के तल के बराबर होना। ३. किसी स्थान का किसी चीज से बहुत अधिक भर जाना। जैसे—आजकल बाजार आम (या खरबूजों) से पट गया है। ४. दीवारों के ऊपर इस प्रकार छत या छाजन बनना कि उनके बीच की भूमि पर छाया हो जाय। पाटन पड़ना या बनना। ५. खेतों आदि का पानी से सींचा जाना। ६. रुचि,विचार,स्वभाव आदि में समानता होने के कारण आपस में एक-रसता,निर्वाह या सौजन्यपूर्ण संबंध होना। जैसे—दोनों भाइयों में अब फिर पटने लगी है। ७. उक्त प्रकार की अवस्था में किसी पर विश्वास होना। उदा०—मीराँ कहै प्रभु हरि अविनासी तन-मन ताहि पटै रे।—मीराँ। ८.लेन-देन,व्यवहार आदि में दोनों पक्षों में ब्योरे की बातों में सहमति होना। खरीद-बिक्री आदि के संबंध की सब बातें तय या निश्चित होना। जैसे—सौदा पटना। ९. ऋण,देन आदि का चुकता हो जाना। जैसे—अब उनका सारा ऋण पट गया। पुं० [सं० पट्टन ] भारत की प्राचीन प्रसिद्ध नगरी पाटलिपुत्र का आधुनिक नाम जो आधुनिक बिहार राज की राजधानी है।
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पटनिया  : वि० [हिं० पटना+इया (प्रत्य०)] पटना नगर का। पटना नगर से संबंध रखनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटनिहा  : वि०=पटनिया।
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पटनी  : स्त्री० [हिं० पटना=तै होना] १. पटने की अवस्था या भाव। २. पाटने की क्रिया या भाव। ३. छत। ४. वह कमरा जिसके ऊपर कोई और कमरा भी हो। ५. चीजें आदि रखने के लिए दीवार में लगा हुआ तख्ता या पटरी। ६. जमीन या जमींदारी का वह अंश जो किसी को निश्चित लगान पर सदा के लिए दे दिया गया हो। ७. मध्ययुग की वह पद्धति, जिसके अनुसार जमीनों का बंदोबस्त उपर्युक्त रूप से सदा के लिए कर दिया जाता था।
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पट-पट  : स्त्री० [अनु०] प्रायः हलकी वस्तुओं के गिरने से उत्पन्न होनेवाला ‘पट’ शब्द। पद—पट-पट की नाव=बैलगाड़ी। क्रि० वि० पट-पट शब्द करते हुए।
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पटपटाना  : अ० [हिं० पटकना] १. किसी चीज से पट-पट शब्द होना। २. भूख,प्यास,सरदी-गरमी आदि के कारण बहुत कष्ट पाना। ३. दुःख या शोक करना। स० १. पट-पट शब्द उत्पन्न करना। २. ऐसा काम करना, जिससे कोई भूख-प्यास, सरदी-गरमी, आदि के कारण बहुत कष्ट पावे और तड़पे।
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पटपर  : वि० [हिं० पट+अनु० पर] १. चौरस। सम-तल। २. पूरी तरह से नष्ट या बरबाद। जिसमें कहीं कुछ भी न हो। बिलकुल खाली। जैसे—सारा घर पटपर पड़ा है। पुं० १. बिलकुल उजाड़ और सुनसान जगह। २. नदी के किनारे की वह भूमि जो वर्षा ऋतु में प्रायः डूबी रहती है। ऐसी जमीन में केवल रबी की फसल होती है।
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पट-परिवर्तन  : पुं० [सं० ष० त०] १. रंग-मंच का परदा बदलना। २. एक दृश्य या स्थिति के स्थान पर दूसरा दृश्य या स्थिति उत्पन्न होना।
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पट-बंधक  : पुं० [हिं० पटना+सं० बंधक] कोई संपत्ति बंधक या रेहन रखने का वह प्रकार जिसमें संपत्ति की सारी आय महाजन ले लेता है; और उस समय में से सूद निकाल लेने के बाद जो धन बच रहता है; वह मूल ऋण में जमा करता चलता है। सारा ऋण पट जाने पर संपत्ति महाजन के हाथ से निकलकर उसके वास्तविक स्वामी के हाथ में चली जाती है। वि० (मकान या स्थान) जो उक्त प्रकार से रेहन रखा गया हो।
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पट-बीजना  : पुं० [सं० पट=बराबर+विज्जु=बिजली ?] जुगनूँ। खद्योत।
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पट-भाक्ष  : पुं० [सं० पट√भा (दीप्ति)+क,पटभ√अक्ष् (व्याप्ति)+अच्] प्राचीन काल का एक यंत्र जिससे आँख को देखने में सहायता मिलती थी। एक तरह का प्रकाश-यंत्र।
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पट-मंजरी  : पुं० [सं०] संगीत में,संपूर्ण जाति की एक प्रकार की रागिनी जो हिडोल राग की भार्या कही गई है और जो वसंत ऋतु में आधी रात के समय गाई जाती है।
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पट-मंडप  : पुं० [मध्य० स०] कपड़े का मंडप अर्थात् तंबू।
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पटम  : वि० [हिं० पटपटाना] १. जिसकी आँखें भूख से पटपटा या बैठ गई हों। जो भूख के मारे अंधा हो गया हो। २. (आँख) जिससे दिखाई न दे।
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पटमय  : वि० [सं० पट+मयट्] कपड़े का बना हुआ। पुं० खेमा। तंबू।
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पटरक  : पुं० [सं०√पट्+अरन्+कन्] पटेर। गोंद पटेर।
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पटरा  : पुं० [सं० पट्ट+हिं० रा (प्रत्य०) अथवा सं० पटल] [स्त्री० अल्पा० पटरी] १. काठ का लम्बा, चौकोर और चौरस चीरा हुआ टुकड़ा। तख्ता। पल्ला। मुहा०—(कोई चीज) पटरा कर देना=(क) कोई चीज काटकर इस प्रकार गिरा देना कि वह जमीन पर पड़े हुए पटरे के समान हो जाय। (ख) बिलकुल नष्ट या बरबाद कर देना। (किसी व्यक्ति को) पटरा कर देना=मार डालकर या अध-मरा करके जमीन पर गिरा देना। २. धोबी का पाट। ३. बैठने के लिए बना हुआ काठ की पीढ़ा। पाटा। ४. खेत की मि्टटी बराबर करने का पाटा। हैंगा। मुहा०—(किसी चीज पर) पटरा फेरना=पूरी तरह से नष्ट या बरबाद कर देना।
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पट-रानी  : स्त्री० [सं० पट्ट+रानी] वह स्त्री जिसके साथ किसी राजा का पहला विवाह होता था। विशेष—पट-रानी को ही राजा के साथ सिंहासन पर बैठने का अधिकार होता था,शेष रानियों को नहीं।
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पटरी  : स्त्री० [हिं० पटरा का स्त्री० अल्पा०] १. काठ का छोटा पतला और लंबोतरा टुकड़ा। छोटा पटरा। २.वह तख्ती या पट्टी जिस पर बच्चे लिखने का अभ्यास करते हैं। ३. वह चौड़ा खपड़ा जिसकी संधियों पर नरिया औंधी करके रखी जाती है। थपुआ। ४. सड़क के दोनों किनारों का वह कुछ ऊँचा और कम चौड़ा पथ जो पैदल चलनेवालों के लिए सुरक्षित रहता है। ५. उक्त प्रकार के वे दोनों छोटे रास्ते जो नहरों आदि के दोनों किनारों पर बने रहते हैं। ६. उक्त के आधार पर लोहे के वे छड़ या टुकड़े जो समानान्तर लगे रहते हैं और जिनके ऊपर से रेल-गाड़ी चलती है। जैसे—रेलगाड़ी के दो डब्बे पटरी से उतर गये। ७. बगीचे में क्यारियों के इधर-उधर के पतले रास्ते जिनके दोनों ओर सुन्दरता के लिए घास लगा दी जाती है और जिन पर से होकर लोग आते-जाते हैं। ८. हाथ में पहनने की एक तरह की नक्काशीदार चौड़ी चूड़ी। ९. गले में पहनने की चौकी,जंतर या ताबीज। १॰. लाक्षणिक रूप में,पारस्परिक व्यवहार में वह स्थिति जिसमें परस्पर सौहार्दपूर्वक निर्वाह होता है। मुहा०—(किसी से) पटरी बैठाना=प्रकृति,रुचि आदि की समानता होने के कारण सहज में और सुगमतापूर्वक निर्वाह होना। जैसे—दोनों बहुत दुष्ट हैं; इसी लिए उनमें खूब पटरी बैठती है। ११. घोड़े की सवारी में वह स्थिति जिसमें सवार की दोनों जाँघें पीठ या जीन पर ठीक तरह से और उपयुक्त स्थान पर बैठती या रहती हैं। मुहा०—पटरी जमाना या बैठाना=घुड़सवारी में सवार का अपनी रानों को इस प्रकार जीन पर चिपकाना कि घोड़े के बहुत तेज चलने या शरारत करने पर भी उसका आसन स्थिर रहे।
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पटल  : पुं० [सं०√पट्+कलच् ] १. छप्पर। २. छत। ३. आड़ करने का आवरण। परदा। ४. तह। परत। ५. पक्ष। पहल। पार्श्व। ६. आँख का मोतियाबिन्द नामक रोग। ७. लकड़ी का तख्ता या पटरा। ८. पुस्तक का विशिष्ट खंड या भाग। परिच्छेद। ९. टीका। तिलक। १॰. ढेर। राशि। ११. बड़े आदमियों के साथ रहनेवाले बहुत से लोग। परिच्छद। लवाजमा।
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पटलक  : पुं० [सं० पटल+कन्] १. आवरण। परदा। २. वह कपड़ा जिसपर इत्र या सुगंधित द्रव्य लगा हो। ३. झाबा। डलिया। ४. पिटारी या सन्दूक। ५. ढेर। राशि।
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पटलता  : स्त्री० [सं० पटल+तल्—टाप्] अधिकता।
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पटल-प्रांत  : पुं० [ष० त०] छप्पर का सिरा या किनारा।
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पटली  : स्त्री० [सं० पटल+ङीप्] १. छप्पर। २. छत। स्त्री०=पटरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटवा  : पुं० [हिं० पाट+वाह (प्रत्य०)] [स्त्री० पटइन] वह जो दानों,मनकों आदि को सूत या रेशम की डोरी में गूँथने या पिरोने का काम करता हो। पटहार। पुं० [?] १. पीले रंग का एक प्रकार का बैल जो खेती के लिए अच्छा समझा जाता है। २. पटसन। पाट।
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पटवाद्य  : पुं० [सं० तृ० त०] झाँझ के आकार का एक प्राचीन बाजा जिससे ताल दिया जाता था।
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पटवाना  : स० [हिं० पाटना का प्रे०] पाटने का काम दूसरे से कराना। किसी को कुछ पाटने में प्रवृत्त करना। जैसे—खेत, गड्ढा या छत पटवाना; करज या देन पटवाना। स० [हिं० ‘पटाना’ का प्रे०] किसी को पटाने (कम होने,दबने,बैठने आदि) में प्रवृत्त करना। जैसे—दरद या सूजन पटवाना। वि० दे० ‘पटाना’।
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पट-वाप  : पुं० [ब० स०] खेमा। तंबू।
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पटवारगिरी  : स्त्री० [हिं० पटवारी+फा० गरी] पटवारी का काम,पद या भाव।
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पटवारी  : पुं०[सं० पट्ट+हिं० वारी (प्रत्य०)] खेती-बारी की जमीनों तथा उसकी उपज मालगुजारी आदि का लेखा रखनेवाला एक सरकारी कर्मचारी। लेख-पाल। स्त्री० [सं० पट=कपड़ा+हिं० वारी (प्रत्य०)] मध्ययुग में, वह दासी जो रानियों अथवा अन्य बड़े घरों की स्त्रियों को कपड़े,गहने आदि पहनाती थी।
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पट-वास  : पुं० [मध्य० स०] १. कपड़े का बना हुआ घर अर्थात् खेमा या तंबू। २. छावनी। शिविर। ३. लहँगा। पुं० [सं० पट√वास् (सुगंधित करना)+णिच्+अण्] वह सुगंधित वस्तु जिससे कपड़े बसाये या सुगंधित किये जाते हों।
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पटवासक  : पुं० [सं० पटवास+कन्] सुगंधित वस्तुओं का वह चूर्ण जिससे वस्त्र आदि बसाये या सुगंधित किये जाते थे।
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पट-विहाग  : पुं० [सं० पट+बिहाग ] संगीत में, बिलावल ठाठ का एक संकर राग।
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पट-वेश्म (न्)  : पुं० [मध्य० स०] तंबू। खेमा।
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पटसन  : पुं० [सं० पाट+हिं० सन] १. सन का सनई नामक प्रसिद्ध पौधा जिसके डंठलों के रेशों को बट या बुनकर रस्सियाँ बोरे आदि बनाये जाते हैं। २. उक्त रेशे। जूट। पटुआ। पाट।
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पटसार  : स्त्री० [सं० पटशाला] खेमा। तंबू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटसाली  : पुं० [सं० पट्टशाली] वस्त्र बुननेवालों की एक जाति (मध्यप्रदेश)।
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पटहंसिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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पटह  : पुं० [सं० पट√हन् (चोट करना)+ड] १. डुगडुगी। २. ढोल। ३. नगाड़ा। ४. क्षति या हानि पहुँचाना। ५. हिंसा। ६. किसी काम में हाथ डालना या लगाना।
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पटह-घोषक  : पुं० [ष० त०] डुगडुगी,ढोल या नगाड़ा बजानेवाला व्यक्ति।
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पटह-भ्रमण  : पुं० [ब० स०] १. लोगों को इकट्ठा करने के लिए घूम-घूमकर ढिंढोरा या ढोल पीटनेवाला व्यक्ति। २. [तृ० त०] डुगडुगी, ढोल आदि बजाते हुए चलना।
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पटहार (ा)  : पुं० [सं० पाट+हिं० हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० पटहारिन,पटहारी] सूत,रेशम आदि के तागों में गहनों के दाने,मनके आदि गूँथनेवाला व्यक्ति। पटवा।
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पटा  : पुं० [सं० पट] १. प्रायः दो हाथ लोहे की वह पट्टी जिससे तलवार से वार करने और दूसरों के वार रोकने की कला का अभ्यास किया जाता है। विशेष—इसका अभ्यास प्रायः बनेठी के साथ होता है, और प्रायः लोग अपना कौशल दिखलाने के लिए खेल के रूप में इसका प्रदर्शन भी करते हैं। २. लंबी धारी या लकीर। ३. लगाम की मोहरी। ४. चटाई। पुं० [सं० पट्ट] १. पीढ़ा। पटरा। पद—पटा-फेर=विवाह की वह रसम जिसमें कन्यादान हो चुकने पर वर और वधू के आसन परस्पर बदल दिये जाते हैं। विशेष—जब कन्या दान नहीं होता, तब तक वधू को वर की दाहिनी ओर बैठना पड़ता है। कन्यदान हो चुकने पर वधू को वर के बाएँ बैठाते हैं। उस समय परस्पर आसन का जो परिवर्तन होता है, वही पटाफेर कहलाता है। मुहा०—(राजा का किसी रानी को) पटा बाँधना=पट-रानी या प्रधान महिषी बनाना। उदा०—चौदह सहस तिया मैं तो कौं पटा बँधाऊँ आज।—सूर। २. अधिकार-पत्र। सनद। पट्टा (देखें) पुं० [सं० पट] १. कपड़ा। वस्त्र। २. दुपट्टा। ३. पगड़ी। पुं० [सं० पटना=तै करना] क्रय-विक्रय, विनिमय आदि के रूप में होनेवाला पारस्परिक लेन-देन या व्यवहार। सौदा। वि० [हिं० पट=औंधा] १. औंधाया हुआ। २. मारकर गिराया हुआ। उदा०—कीजै कहा विधि की बिधि कौ दियो दारून लोट पटा करिबे कौ।—पद्माकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पटाई  : स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। २. पाटने का पारिश्रमिक या मजदूरी। स्त्री० [हिं० पाटना] १. ऋण,देन आदि पटाने या चुकता करने की क्रिया या भाव। २. क्रय-विक्रय, लेन-देन अथवा समझौता आदि के लिए किसी को राजी करने की क्रिया या भाव। ३. सौदा आदि पटाने पर मिलनेवाला पुरस्कार।
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पटाक  : स्त्री० [अनु०] किसी भारी चीज के गिरने,अथवा किसी चीज पर कठोर आघात लगने या लगाने से होनेवाला शब्द। जैसे—किसी के मुँह पर जोर से चपत लगाने से होनेवाला शब्द। पद—पटाक-पटाक=निंरतर पटाक शब्द करते हुए।
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पटाका  : पुं० [हिं० पटाक ] १. पट या पटाक से होनेवाला जोर का शब्द। २. तमाचा। थप्पड़। क्रि० प्र०—जड़ना।—देना।—लगाना। ३. आतिशाबाजी की एक प्रकार की गोली जिसे जमीन पर पटकने से जोर का शब्द होता है। क्रि० प्र०—छूटना।—छोड़ना। ४. किसी प्रकार की आतिशबाजी में होनेवाला उक्त प्रकार का शब्द। ५. युवा तथा सुन्दर स्त्री० (बाजारू)। स्त्री० [सं०√पट् (गति)+आक,नि० टाप्] झंडा। ध्वजा। पताका।
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पटाक्षेप  : पुं० [सं० पटा-आक्षेप,ष० त०] १. परदा गिरना या गिराना। २. रंगमंच पर अभिनय के समय नाटक का एक अंग पूरा हो जाने पर कुछ समय के लिए परदा गिरना, जो थोड़ी देर के अवकाश का सूचक होता है। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी घटना या बात की होनेवाली समाप्ति। जैसे—चार वर्ष बाद युद्ध का पटाक्षेप हुआ।
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पटाखा  : पुं०=पटाका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटान  : स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। २.=पाटन। स्त्री० [हिं० पटाना] (ऋण,देन आदि) पटाने अर्थात् चुकता करने की क्रिया या भाव। पटाई।
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पटाना  : स० [हिं० पाटने का प्रे०] [भाव० पटाई] १. गड्ढा आदि पाटने में किसी को प्रवृत्त करना। २. किसी से छाजन आदि डलवाना। अ० १. पाटा जाना। पटना। २. कम होना। घटना। जैसे—रोग या सूजन पटाना। ३.शांत और स्थिर होना। (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० [हिं० पटना का स०] १. ऐसा काम करना जिससे कोई क्रिया संपन्न होती हो अथवा कोई बात तय या हल होती हो। जैसे—(क) ऋण पटाना। (ख) सौदा पटाना। २. बात-चीत के द्वारा किसी को अपने अनुकूल करके क्रय-विक्रय, लेन-देन समझौता आदि करने के लिए राजी करना। जैसे—ग्राहक या यजमान पटाना।
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पटापट  : अव्य० [अनु० पट] १.लगातार पट-पट शब्द करते हुए। जैसे—पटपट थप्पड़ पड़ना। २. बहुत जल्दी जल्दी। चट-पट। तुरन्त। जैसे—पटापट दूकानें बन्द होने लगीं। स्त्री० निरंतर ‘पटपट’ होनेवाली शब्द या ध्वनि।
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पटापटी  : स्त्री० [अनु०] वह वस्तु जिस पर कई रंगों की आकृतियाँ, बेल-बूटे, फूल-पत्तियाँ आदि बनी हो। उदा०—बाँधी, बँदनवार विविध बहु पटापटी की।—रत्नाकर।
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पटार  : पुं० [सं० पिटक] १. पिटारा। मंजूषा। २. पिंजड़ा। पुं० [सं० पट] १. रेशम की डोरी या रस्सी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=कनखजूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटालुका  : स्त्री० [सं० पट√अल् (पर्याप्ति)+उक—टाप्] जोंक। जलोंका।
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पटाव  : पुं० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया,ढंग या भाव। २. वह कूड़ा-करकट, मिट्टी आदि जिससे गड्ढे आदि पाटे गये हों। पाट-कर बराबर किया हुआ स्थान। ३. पाटकर बनाई गई छत। पाटन। ४.दरवाजे में चौखट के ऊपर रखी जानेवाली वह लकड़ी जिस पर दीवार की चुनाई की जाती है। भरेठा।
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पटास  : स्त्री० [हिं० पाटना+आस (प्रत्य०)] पटाने या पाटने की क्रिया या भाव।
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पटासन  : पुं० [सं० पट-आसन,मध्य० स०] कपड़े आदि का बना हुआ आसन।
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पटि  : स्त्री० [सं०√पट्+कन्] १. रंगीन कपड़ा या वस्त्र। २. जलकुंभी। ३. रंगमंच का परदा। यवनिका। ४. कनात।
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पटिआ  : स्त्री०=पटिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटिका  : स्त्री० [सं० पटि+कन्—टाप्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. कपड़े का टुकड़ा। वस्त्र। खंड।
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पटि-क्षेप  : पुं०=पटाक्षेप।
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पटिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पटु+इमनिच्] १. पटुता। दक्षता। २. कर्कशता। ३. रूखापन। ४. तेजी। उग्रता। ५. अम्लता।
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पटिया  : स्त्री० [सं० पट्टिका ] १. पत्थर का आयताकार, चौरस या लंबा टुकड़ा जो साधारणतः डेढ़-दो इंच से मोटा नहीं होता। विशेष—यह फरश बनाने के लिए जमीन पर बिछाई जाती है और इससे छतें भी पाटी जाती हैं। २. लकड़ी का आयताकार चौरस छोटा टुकड़ा जिस पर बच्चे आदि लिखने का अभ्यास करते हैं। तख्ती। पाटी। ३. छोटा हेंगा। ४. लंबा किन्तु कम चौड़ा खेत का टुकडा। ५. सीधी लंबी रेखा या विभाग। उदा०—आठ हाथ की बनी चुनरिया पँच-रंग पटिया पारी।—कबीर। स्त्री० १. माँग या सीमन्त निकालकर झाड़े हुए बाल। पाटी। क्रि० प्र०—सँवरना। २. दे० ‘पाटी’।
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पटी  : स्त्री० [सं० पटि+ङीष्] १. कपड़े का पतला लंबा टुकड़ा। पट्टी। २. पगड़ी। साफा। ३. कमरबंद। पटका ४. आवरण। परदा। ५. नाटक या रंग-मंच का परदा।
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पटीमा  : पुं० [हिं० पट्टी] पटिया के आकार का अधिक लंबा और कम चौड़ा छीपियों का तख्ता जिस पर रखकर वे कपड़े आदि छापते हैं।
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पटीर  : पुं० [सं०√पट्+ईरन्] १. एक प्रकार का चन्दन। २. कत्था। खैर। ३. कत्थे या खैर का पेड़। खदिर वृक्ष। ४. मूली। ५. बड़ का पेड़। वटवृक्ष। ६. क्यारी। ७. उदर। पेट। ८. क्षेत्र। मैदान। ९. जुकाम या प्रतिश्याय नामक रोग। १॰. चलनी। छाननी। ११. बादल। मेघ।
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पटीलना  : स० [हिं० पटाना] १. किसी को फुसलाकर किसी काम के लिए राजी कर लेना। किसी को समजा-बुझाकर अपने अर्थ-साधन के अनुकूल करना। २. छलना। ठगना। ३. सफलतापूर्वक कोई काम पूरा उतारना। ४. परास्त करना। हराना। ५. पीटना। मारना। (बाजारू)।
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पटु  : वि० [सं०√पट्+उन्] [भाव० पटुता] १. किसी काम या बात में कुशल अथवा दक्ष। निपुण। प्रवीण। २. चतुर। चालाक। ३. धूर्त्त। मक्कार। ४. कठोर हृदयवाला। निष्ठुर। ५. नीरोग। स्वस्थ। ६. तीक्ष्ण। तेज। ७. उग्र। प्रचंड। ८. जो स्पष्ट रूप से सामने आया हुआ हो। प्रकाशित। व्यक्त। ९. मनोहर। सुन्दर। १॰. कर्कश (स्वर) ११. विकसित। पुं० १. नमक। २. पांशु लवण। पाँगा नमक। ३. चीनी कपूर। ४. नक-छिकनी। ५. परवल। (लता और फल) ६. करेला। ७. चिरमिटा नामक लता। ८. जीरा। ९. बच।
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पटुआ  : पुं० [सं० पाट] १. पाट या सन का पौधा। जूट। पटसन। २. करेमू। ३. वह डंडा जिसके सिरे पर गून या डोरी बँधी रहती है और जिसे पकड़कर मल्लाह लोग नाव खींचते हैं। पुं० [?] तोता। (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटुक  : पुं० [सं० पटु+कन्] परवल। पुं० [सं० पट] कपड़ा। वस्त्र।
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पटुका  : पुं०=पटका।
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पटुता  : स्त्री० [सं० पटु+तल्—टाप्] पटु होने की अवस्था या भाव। प्रवीणता। निपुणता। होशियारी।
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पटु-तूलक  : पुं०=पटुतृणक।
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पटु-तृणक  : पुं० [सं० पटु-तृण,मध्य० स०,+कन्] लवणतृण (घास)।
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पटु-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] काला,बिड़ और सेंधा इन तीनों प्रकार के लवणों का समाहार।
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पटुत्व  : पुं० [सं० पटु+त्व] पटुता।
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पटु-पत्रिका  : स्त्री० [सं० पटु-पत्र,ब० स०, कप्—टाप्,इत्व] चेंच नामक साग।
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पटु-पर्णिका  : स्त्री० [सं० पटु-पर्ण,ब० स०+कप्—टाप्,इत्व] मकोय।
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पटु-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] मकोय।
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पटु-रूप  : वि० [सं० पटु+रूपप्] जो किसी काम में बहुत अधिक पटु हो।
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पटुली  : स्त्री० [सं० पट्ट] १. काठ की वह पटरी जो झूले के रस्सों पर रक्खी जाती है। पाटा। २. चौकी। ३. छकड़े या बैल-गाड़ी के बगल में जड़ी हुई लंबी पटरी।
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पटुवा  : पुं० १.=पटुआ। २.=पटवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटूका  : पुं०=पटका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटे  : वि० [हिं० पटना] (ऋण,देन आदि) जो पट या पटाया जा चुका हो। पद—बर पटे=पूरी तरह से या बिलकुल चुकता।
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पटेबाज  : पुं० [हिं० पटा+फा० बाज] [भाव० पटेबाजी] १. वह जो पटा-बनेठी आदि खेलता या पटा हाथ में लेकर लड़ता हो। पटैता। २. मनुष्य के आकार का एक प्रकार का खिलौना जो डोरी खींचने से दोनों हाथों से पटा खेलता है। ३. उक्त प्रकार की एक आतिशबाजी। वि० १. दुश्चरित्रा और पुंश्चली। छिनाल। (स्त्री)। २. बहुत चालाक या धूर्त्त (पुरुष या स्त्री)।
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पटेबाजी  : स्त्री० [हिं० पटेबाज] १. पटेबाज का कार्य और कौशल। २. व्यभिचार। छिनाला। ३. धूर्तता।
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पटेर  : स्त्री० [सं० पटेरक] जलाशयों में होनेवाला सरकंडे की जाति का एक पौधा जिसके पत्तों की चटाइयाँ,टोकरियाँ आदि बनाई जाती हैं।
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पटेरा  : पुं० १.=पटेला। २.=पटरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटेल  : पुं० [सं० पट्ट+हिं० वाल (प्रत्य०)] १. गांव का नंबरदार। (म० प्र०) २. गाँव का चौधरी या मुखिया।
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पटेलना  : स०=पटीलना।
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पटेला  : पुं०=पटैला।
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पटैत  : पुं० [हिं० पटा+ऐत (प्रत्य०)] पटा खेलने या लड़नेवाला खिलाड़ी। पटेबाज। पुं० [हिं० पट्टा+ऐत (प्रत्य०)] १. वह जिसके नाम किसी जमीन या जायदाद का पट्टा लिखा गया हो। २. गाँव भर का पुरोहित जिसे पौरोहित्य का पट्टा मिला करता था। पुं० [हिं० पटाना] वह जिसे सहज में पटाया अथवा अपने अनूकुल बनाया जा सकता हो, फलतः मूर्ख या सीधा-सादा।
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पटैला  : पुं० [हिं० पाटना] [स्त्री० अल्पा० पटैली] १. एक प्रकार की बड़ी नाव जिसका बीचवाला भाग ऊपर से पटा या छाया हुआ रहता है। मुहा०—किसी के पटैले के साथ अपनी पनसुइया बाँधना=किसी बहुत बड़े कार्य या व्यक्तित्व के साथ अपना तुच्छ कार्य या व्यक्तित्व संबद्ध करना। २. पटेर नाम का पौधा जिससे चटाइयाँ आदि बनती हैं। ३. हैंगा। ४. पत्थर की पटिया। ५. कुश्ती का एक प्रकार का पेंच। पुं० [हिं० पाटा] दरवाजा बंद करते समय अंदर से लगाया जानेवाला डंडा। ब्योंड़ा। अर्गल।
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पटैली  : स्त्री० [हिं० पटेला] छोटी पटेला नाव।
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पटोटज  : पुं० [सं० पट-उटज,मध्य० स०] १. खेमा। २. [पट-उट,ष० त०, पटोट√जन् (उत्पत्ति)+ड] कुकुरमुत्ता। ३. छत्रक।
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पटोर  : पुं० [सं० पटोल] १. पटोल। परवल। २. रेशमी कपड़ा। उदा०—मैं कोरी सँग पहिरि पटोरा।—जायसी। ३. स्त्रियों के पहनने की अंगिया या चोली। पद—लहरा पटोर (देखें)।
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पटोरी  : स्त्री० [सं० पाट्+ओरी (प्रत्य०)] १. रेशमी धोती या साड़ी । २. रेशमी किनारे की धोती या साड़ी।
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पटोल  : पुं० [सं०√पटु+ओरी+ओलच्] १. गुजरात में बननेवाला एक तरह का रेशमी कपड़ा। २. परवल की लता और उसका फल।
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पटोलक  : पुं० [सं० पटोल√कै (चमकना)+क] सीपी। शुक्ति।
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पटोल-पत्र  : पुं० [ब० स०] एक तरह की पोई।
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पटोला  : पुं० [हिं० पटोल] १. एक तरह का रेशमी कपड़ा। २. कपड़े का वह छोटा टुकड़ा जिससे बच्चे खेलते हैं और विशेषतः जिसे गुड़िया को पहनाते हैं। (पश्चिम)
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पटोलिका  : स्त्री० [सं० पटोल+कन्—टाप्,इत्व] १. एक तरह का पट्टा। २. कोई लिखित विधिक मत। ३. पेटी। मंजूषा। उदा०—पटोलिका में अलाक्तक (महावर मनःशिला, हरिताल,हिंगुल और राजावर्त्त का चूर्ण रखा हुआ था।—हजारीप्रसाद द्विवेदी। ४. एक तरह की तरोई।
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पटोली  : स्त्री० पटोलिका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पटोसिर  : पुं० [हिं० पट+सिर] पगड़ी। साफा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पटौंधन  : पुं० [हिं० पटाना] रेहन रखी हुई चीज का रुपया किसी प्रकार या रूप में चुकाकर वह चीज फिर से अपने हाथ में कर लेने की क्रिया या भाव।
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पटौतन  : पुं०=पटौनी।
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पटौनी  : पुं० [देश०] माँझी। मल्लाह। स्त्री० [हिं० पटाना] १. ऋण आदि चुकाने या पटाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘पटौंधन’।
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पटौहाँ  : वि० [हिं० पाटना] १. पाटकर बनाया हुआ। २. पाटा हुआ। पुं० १. पटा हुआ स्थान। २. पाटन। छत। ३. ऐसा कमरा जिसके ऊपर कोई और कमरा भी हो। ४. पटबंधक। वि० [हिं० पटाना] (ऋण) जो पटाकर पूरा किया जा सकता हो।
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पट्ट  : पुं० [सं०√पट्+क्त] १. बैठने की चौकी या पीढ़ा। पाटा। २. लिखने का अभ्यास करने की तख्ती। पटिया। ३. लकड़ी का वह बड़ा टुकड़ा, जिस पर नाम आदि लिखा अथवा सूचनाएँ आदि लगाई जाती हैं। जैसे—नाम-पट्ट,सूचना पट्ट। ४. पट्टा। (दे०) ५. पत्थर,लकड़ी लोहे आदि का चौकोर या बड़ा टुकड़ा। ६. तांबे आदि धातुओं का पत्तर, जिस पर राजकीय आज्ञाएँ, दान-पत्र आदि उकेरे या खोदे जाते थे। ७. घाव पर बाँधने की कपड़े की पट्टी। ८. ढाल। ९. पगड़ी। १॰. दुपट्टा। ११. नगर। शहर। १२. चौमुँहनी। चौराहा। १३. राजसिंहासन। पद—पट्ट-महिषी।(देखें)। १४. रेशम। १५. पटसन। पाट। १६. टसर का बना हुआ कपड़ा। वि० [अनु०]=पट (चित्त का विपर्याय)। पुं० दे० ‘पट्टा’ (ठीके आदि का लेख्य)।
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पट्टक  : पुं० [सं० पट्ट+कन्] १. लिखने की तख्ती या पट्टी। २. घाव,चोट,सूजन आदि पर बाँधने की पट्टी। ३. एक प्रकार का रेशमी लाल कपड़ा, जिसकी पगड़ियाँ बनती थीं। ४. ताँबे आदि का वह पत्थर जिस पर राजकीय आज्ञाएँ, दान-लेख आदि उकेरे या खोदे जाते थे।
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पट्टकीट  : पुं० [ष० त०] रेशम का कीड़ा।
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पट्टज  : पुं० [पट्ट√जन् (उत्पन्न होना)+ड] रेशम के कीड़ों की एक जाति।
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पट्ट-देवी  : स्त्री० [मध्य० स०] प्राचीन काल में राजा की वह प्रथम ब्याही हुई स्त्री, जो उसके साथ सिंहासन पर बैठती थी।
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पट्टदोल  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह का झूला जो कपड़े का बना होता था।
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पट्टन  : पुं० [सं०√पट्ट+तनप्] नगर। शहर।
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पट्टनी  : स्त्री० [सं० पट्टन+ङीष्] १. छोटा नगर। नगरी। २. रेशमी कपड़ा।
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पट्ट-महिषी  : स्त्री० [मध्य० स०] पट-रानी। (दे०)
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पट्ट-रंग  : पुं० [ष० त०] पतंग या बक्कम जिसकी लकड़ी से रंग निकलता है।
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पट्ट-रंजक,पट्ट-रंजन  : पुं०=पट्ट-रंग।
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पट्ट-राज  : पुं० [मध्य० स०] पुजारी। (महाराष्ट्र)
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पट्ट-राज्ञी  : स्त्री० [मध्य० स०] पट-रानी।
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पट्टला  : स्त्री० [सं० पट्ट√ला (लेना)+क—टाप्] १. आधुनिक जिले की तरह की एक प्राचीन शासनिक इकाई। २. उक्त इकाई में रहनेवाला जन-समूह। (कम्यूनिटी)।
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पट्ट-लेख्य  : पुं० [ष० त०] वह लेख्य जिसमें पट्टे की शर्तें आदि लिखी हों। (लीज डीड)।
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पट्ट-वस्त्र,पट्ट-वासा (सस्)  : वि० [ब० स०] जो रंगीन या रेशमी वस्त्र पहनता हो।
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पट्टशाक  : पुं० [कर्म० स०] पटुआ।
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पट्टह घोषक  : पुं० [सं० पटहघोषक] ढिंढोरा पीटने या मुनादी करनेवाला व्यक्ति।
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पट्टांशुक  : पुं० [सं० पट्ट-अंशुक,कर्म० स०] १. रेशमी कपड़ा। २. शरीर के ऊपरी भाग में पहनने या ओढ़ने का कपड़ा।
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पट्टा  : पुं० [सं० पट्ट] १. वह अधिकार-पत्र जो भूमि या स्थावर संपत्ति का स्वामी किसी असामी, किरायेदार या ठेकेदार को इसलिए लिखकर देता है कि वह उस भूमि या स्थावर संपत्ति का कुछ समय के लिए उचित उपयोग कर सके, उससे होनेवाली आय वसूल कर सके अथवा उसकी पैदावार बेच सके; और उससे होने वाली आय वसूल कर सके अथवा उसकी पैदावार बेंच सके; और उसका कुछ अंश भूमि या संपत्ति के स्वामी को भी देता रहे। क्रि० प्र०—देना।—लिखना। २. वह पत्र या लेख्य जो मध्ययुग में असामी या काश्तकार किसी जमींदार की जमीन जोतने-बोने के लिए लेते समय उसे इसलिए लिखकर देता था कि नियत समय के उपरांत जमींदार को उस जमीन का फिर से मनमाना उपयोग करने का अधिकार हो जायगा। विशेष—इसकी स्वीकृति का सूचक जो लेख्य जमींदार लिख देता था, उसे ‘कबूलयित’ कहते थे। क्रि० प्र०—लिखना।—लिखाना। ३. कुछ स्थानों में वे नियम, जो लगान वसूल करनेवाले कर्मचारियों के लिए बनाये जाते थे। ४. उक्त के आधार पर कहार,धोबी,नाई भाट आदि का वह नेग, जो उन्हें वर-पक्ष से दिलवाया जाता था। क्रि० प्र०—चुकवाना।—चुकाना।—दिलाना।—देना। ५. चमड़े आदि का वह तस्मा या पट्टी जो कुछ पशुओं के गले में उन्हें बाँधकर रखने के लिए पहनाई जाती है। जैसे—कुत्ते,बंदर या बिल्ली के गले का पट्टा। ६. उक्त के आधार पर, कमर में बाँधने का चमड़े आदि का वह तस्मा, जिसमें चपरास टँगी रहती या तलवार लटकाई जाती है। ७. उक्त के आधार पर दक्षिण भारत या महाराष्ट्र देश की एक प्रकार की तलवार, जो कमर में लटकाई जाती थी। ८. किसी चीज का कोई कम चौड़ा और अधिक लंबा टुकड़ा जिससे कोई विशेष काम लिया जाता हो। जैसे—कामदार जूते या टोपी का पट्टा=मखमल आदि का वह लंबा टुकड़ा जिसपर सलमें-सितारे का काम बना हो। ९. कुछ चौड़ी पटरी के आकार का कलाई पर पहना जानेवाला एक प्रकार का गहना। १॰. कोई ऐसा चिन्ह या निसान जो कुछ कम चौड़ा और अधिक लंबा हो। जैसे—घोड़े या बैल के माथे का पट्टा। ११. एक प्रकार का लंबोत्तरा गहना जो घोड़ों के माथे पर लटकाया जाता है। १२. पुरुषों के सिर के दोनों ओर के बाल जो मध्ययुग में बड़ी पट्टी के रूप में, सँवारकर दोनों ओर लटकाये जाते थे। विशेष—स्त्रियों के इस प्रकार सँवारकर बाँधे हुए बाल ‘पट्टी’ कहलाते हैं। १३. बैठने के लिए बना हुआ काठ का पटरा। पीढ़ा। पुं० [?] कोई ऐसा अनाज, फली या दानों की बाल जो अभी पूरी तरह से पककर तैयार न हुई हो। (पूरब)। पुं० [सं० पट्टी] [स्त्री० अल्पा० पट्टी] १. एक प्रकार का प्राचीन शस्त्र। २. लड़ाई-भिड़ाई के समय का पैंतरा।
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पट्टाधारी  : पुं० [हिं० सं०] वह व्यक्ति जिसने किसी निश्चित अवधि के लिए कुछ शर्तों पर किसी से कोई जमीन या संपत्ति भोग्यार्थ प्राप्त की हो। पट्टे पर जमीन आदि लेनेवाला। (लीज होल्डर)
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पट्टा-पछाड़  : पुं०=पट्टे-पछाड़।
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पट्टा-बैठक  : स्त्री०=पट्टे-बैठक।
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पट्टाभिषेक  : पुं० [सं० पट्ट-अभिषेक,स० त०] १. राज्याभिषेक। २. वे विशिष्ट कृत्य जो जैन विद्वानों को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने के समय होते हैं। ३. वह साहित्यिक रचना, जिसमें उक्त कृत्यों का वर्णन होता है।
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पट्टार  : पुं० [सं० पट्ट√ऋ (गति)+अण्] [वि० पट्टारक] एक प्राचीन देश।
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पट्टारक  : वि० [सं० पट्टार+वुन्—अक] पट्टार देश का।
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पट्टाही  : स्त्री० [पट्ट-अही,स० त०] पटरानी।
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पट्टिका  : स्त्री० [सं० पट्ट+कन्—टाप्,इत्व] १. छोटा तख्ती। पटिया। २. छोटा चित्र-पट या ताम्र पट। ३. कपड़े की छोटी पट्टी। ४. रेशमी फीता। ५. पठानी लोध। ६. दस्तावेज। पट्टा।
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पट्टिकाख्य  : पुं० [सं० पट्टिका-आख्या,ब० स०] पठानी लोध। रक्त-लोध्र।
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पट्टिका-बैठक  : स्त्री०=पट्टे-बैठक।
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पट्टिकार  : पुं० [सं० पट्टिका√ऋ+अण्] रेशमी वस्त्र बनानेवाला कारीगर।
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पट्टिका-लोध्र  : पुं० [मयू० स०] पठानी लोध।
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पट्टिका-वायक  : पुं० [ष० त०]=पट्टिकार।
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पट्टिय  : स्त्री० [सं० पट्टिका] केश-विन्यास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पट्टिल  : पुं० [सं० पट्ट+इलच्] पूतिकरंज। पलंग।
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पट्ठिलोध्र (क)  : पुं०=पट्टिका-लोध्र।
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पट्टिश  : पुं० [सं०√पट (गति)+टिशच्] आधुनिक पटा नामक अस्त्र के आकार का एक प्राचीन अस्त्र।
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पट्टिशी (शिन्)  : वि० [सं० पट्टिश+इनि] १. पट्टिश बाँधनेवाला। २. पट्टिश हाथ में लेकर लड़नेवाला। पटेबाज।
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पट्टिस  : पुं० [सं० पट्टिश] पटा नामक अस्त्र।
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पट्टी  : स्त्री० [सं० पट्टिका] १. लकड़ी की वह लंबोत्तरी, चौरस और चिपटी पटरी जिस पर बच्चों को अक्षर लिखने का अभ्यास कराया जाता है। तख्ती। पटिया। पाटी। २. अभ्यास आदि के लिए पट्टी पर दिया जाने वाला पाठ। सबक। ३. आदेश। शिक्षा। ४. उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में कोई ऐसी उलटी-सीधी बात जो किसी को अपने अनुकूल बनाने के लिए अथवा किसी अन्य दुष्ट उद्देश्य से अच्छी तरह समझा-बुझाकर किसी के मन में बैठा दी गई हो। बुरी नियत से दी जाने वाली सलाह। मुहा०—(किसी को) पट्टी पढ़ाना=किसी को उलटी-सीधी बातें समझा-बुझा या सिखा-पढ़ाकर अपने अनुकूल अथवा गलत रास्ते पर लगाना या बहकाना। उदा०—मीत सुजान अनीति की पाटी इतै पै न जानिये कौन पढ़ाई।—घनानंद। (किसी की) पट्टी में आना=किसी के द्वारा सिखलाई उलटी-सीधी अथवा अनुचित बात सही मानकर उसके अनुसार आचरण या कार्य करना। ४. कपड़े,काठ,धातु आदि का वह लंबा किंतु कम चौड़ा पतला टुकड़ा, जो किसी बड़े अंश से काट, चीर या फाड़ कर अलग किया या निकाला गया हो। ५. कपड़े का उक्त आकार का ऐसा टुकड़ा, जो घाव,चोट आदि पर बाँधा जाता है। ६. बुना हुआ ऐसा कपड़ा जिसकी चौड़ाई सामान्य माप के अन्य कपडों से अपेक्षाकृत कम या बहुत कम होती है। जैसे—(क) घुटने और टखने के बीचवाले अंश में बाँधी जानेवाली पट्टी। (ख) इस साड़ी पर कला बत्तू की पट्टी लग जाय तो अच्छा हो। ७. उक्त आकार का टाट का वह टुकड़ा जो वैसी ही टुकड़ों के साथ जोड़ या सीकर जमीन पर बिछाया जाता है। ८. ऊन का बुना हुआ देशी गरम कपड़ा, जिसकी चौड़ाई अन्य सूती कपड़ों की चौड़ाई से कम होती। जैसे—इस कोट में पट्टू की एक पूरी पट्टी लग जायगी। ९. कपड़े की बुनावट में उसकी लंबाई के बल में कुछ मोटे सूतों से बना हुआ किनारा। १॰. लकड़ी के वे लंबे टुकड़े, जो खाट या चारपाई के ढांचे में लंबाई के बल लगे रहते हैं। पाटी। ११. उक्त आकार-प्रकार की वह लकड़ी, जो छत या छाजन के नीचे लगाई जाती है। बल्ली। १२. छाजन में लगी हुई कड़ियों की पंक्ति। १३. नाव के बीचों-बीच का तख्ता। १४. पत्थर का लंबाकम चौड़ा और पतला आयताकार टुकड़ा। पटिया। १५. किसी रचना का ऐसा विभाग जो एक सीध में दूर तक चला गया हो। जैसे—खेमों, झोंपडियों या दुकानों की पट्टी। १६. स्त्रियों के सिर के बालों की वह रचना जो कंघी की सहायता से बना-सँवारकर माँग के दोनों ओर प्रस्तुत की जाती है। पाटी। पद—माँग-पट्टी। (देखें) मुहा०—पट्टी जमाना=माँग के दोनों ओर के बालों को गोंद या चिपचिपे पदार्थ की सहायता से इस प्रकार बैठाना कि ये सिर के साथ बिलकुल चिपक जाएँ और जमी हुई पट्टी की तरह मालूम होने लगें। १७. मध्ययुग में, किसी संपत्ति अथवा उससे होनेवाली आय का वह अंश जो उसके किसी हिस्सेदार को मिलता था। पत्ती। पद—पट्टी का गाँव= मध्ययुग में, ऐसा गाँव जिसके बहुत से मालिक होते थे और इसी कारण जहाँ प्रायः अव्यवस्था या कुप्रबंध रहता था। १८. वह अतिरिक्त कर जो जमींदार किसी विशिष्ट कार्य के लिए धन एकत्र करने के उद्देश्य से अपने असामियों या खेतिहरों पर लगाता था। अबवाब। नेग। १९. एक प्रकार की मिठाई जो चाशनी में चने की दाल, तिल आदि पागकर पतली तह के रूप में जमाकर बनाई जाती है। जैसे—तिल-पट्टी, दाल-पट्टी। २॰. घोड़े की दौड़ का वह प्रकार जिसमें वह एक सीध में दूर तक सरपट दौड़ता हुआ चला जाता है। स्त्री० [सं०] १. पठानी-लोध। २. पगड़ी में लगाई जानेवाली कलगा या तुर्रा। ३. घोड़ों आदि के मुँह पर बाँधा जानेवाला तोबड़ा। ४. घोड़े की पीठ और पेट पर बाँधा जानेवाला तस्मा। तंग।
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पट्टीदार  : पुं० [हिं० पट्टी=पत्ती+फा० दार ] [भाव० पट्टीदारी] १. वह व्यक्ति जिसका किसी जमीन,संपत्ति आदि में हिस्सेदारी हो। हिस्सेदार २. एक हिस्सेदार के संबंध के विचार से दूसरा हिस्सेदार। ३. बराबर का अधिकारी। वि० [हिं० पट्टी+फा० दार] (वस्त्र) जिसमें पट्टी आदि टँगी या लगी हुई हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पट्टीदारी  : स्त्री० [हिं० पट्टीदारी ] १. पट्टीदार होने की अवस्था या भाव। २. दो या कई पट्टीदारों में होनेवाला पारस्परिक संबंध। मुहा०—(किसी से) पट्टीदारी अटकना=ऐसा झगड़ा उपस्थित होना, जिसका कारण पट्टी या हिस्सेदारी हो। पट्टीदारी के कारण विरोध होना। ३. किसी के साथ किया जानेवाला बराबरी का दावा। यह कहना कि हम भी अमुक काम या बात में तुम्हारे बराबर या बराबरी के हिस्सेदार हैं। ४. मध्ययुग में वह जमींदारी, जिसके पट्टीदार या मालिक कई आदमी संयुक्त रूप से होते थे।
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पट्टीवार  : अव्य० [हिं० पट्टी+फा० वार] हर पट्टी या हिस्से के विचार से। अलग-अलग। जैसे—यह हिसाब पट्टीवार बना है। वि० (ऐसी बही या लिखा-पढ़ी) जिसमें पट्टियों का हिसाब अलग-अलग रखा जाता हो। जैसे—पट्टीवार जमाबंदी।
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पट्ट  : पुं० [हिं० पट्टी] १. एक प्रकार मोटा ऊनी देशी कपड़ा, जो साधारण सूती कपड़ों की अपेक्षा कम चौड़ा और प्रायः लम्बी पट्टी के रूप में बुना हुआ होता है। २. एक प्रकार का चारखानेदार कपड़ा। पुं० [?] तोता (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पट्टे-पछाड़  : पुं०[हिं० पट+पछाड़ना] कुश्ती का एक पेंच।
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पट्टे-बैठक  : स्त्री० [हिं० पट+बैठक] कुस्ती का एक पेंच।
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पट्टैत  : पुं० [हिं० पट्टा+ऐत (प्रत्य०)] काले,नीले या लाल रंग का वह कबूतर जिसके गले में सफेद कंठी हो। पुं०=पटैत (पटेबाज)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पट्टोला  : पुं० [सं० पट्टदुकूल] १. रेशमी वस्त्र। २. कपड़े की वह कतरन या धज्जी जिससे बच्चे खेलते हैं। (पश्चिम)।
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पट्टोलिका  : स्त्री० [सं०=पट्टालिका,पृषो० सिद्धि] १. पट्टा। अधिकारपत्र। २. दे० ‘पटोलिका’।
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पट्ठमान  : वि० [सं० पठ्यमान ] (ग्रंथ) जिसे पढ़ना उचित हो या जो पढ़ा जाने को हो।
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पट्ठा  : वि० [सं० पुष्ट,प्रा० पुट्ठ] [स्त्री० पट्ठी,पठिया] १. (व्यक्ति) जो हृष्ट-पुष्ट तथा नौजवान हो। २. जीवों या प्राणियों का ऐसा बच्चा जिसमें यौवन का आगमन हो चुका हो; पर पूर्णता न आई हो। नवयुवक। पद—उल्लू का पट्ठा=बहुत बड़ा मूर्ख (गाली)। पुं० १. कुश्ती लड़नेवाला या पहलवान। २. किसी प्रकार का दलदार, मोटा और मोटा लंबा पत्ता। जैसे—घी-कुआर या सुरती का पट्ठा। ३. शरीर के अंदर के वे तन्तु या नसें जो माँस-पेशियों को हड्डियों के साथ बाँधे रखती हैं। मुहा०—पट्ठा चढ़ना=किसी नस का तन कर दूसी नस पर चढ़ जाना जो एक आकस्मिक और कष्टकर शारीरिक विकार है। (किसी के) पट्ठों में घुसना=किसी से गहरी दोस्ती या मेल-जोल पैदा करना। ४. एक प्रकार का चौड़ा गोटा, जो रुपहला और सुनहला दोनों प्रकार का होता है। ५. उक्त के आकार-प्रकार का वह गोट जो अतलस आदि पर बुनकर बनाई जाती है। ६. पेडू के नीचे कमर और जाँघ के जोड़ का वह स्थान जहाँ छूने से गिल्टियाँ मालूम होती हैं।
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पट्ठा-पछाड़  : वि० स्त्री० [हिं० पट्ठा+पछाड़ना] (स्त्री) जो पुरुष को पछाड़ सकती हो; अर्थात् खूब हृष्ट-पुष्ट और बलवती।
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पठ  : स्त्री० [हिं० पट्ठा] वह जवान बकरी जो ब्यायी न हो। पाठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पठक  : वि० [सं०] पढ़नेवाला।
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पढ़त  : स्त्री० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ने की क्रिया, ढंग या भाव। पद—लिखत-पढ़त (देखें)। २. दे० ‘वाचन’।
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पठन  : पुं० [सं०√पठ् (पढ़ना)+ल्युट्—अन] पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़ना। पद—पठन-पाठन=पढ़ना और पढ़ाना।
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पठनीय  : वि० [सं०√पठ्+अनीयर्] (ग्रंथ या पाठ) जो पढ़ने के योग्य हो या पढ़ा जाने को हो। पाठ्य।
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पठनेटा  : पुं० [हिं० पठान+एता=बेटा (प्रत्य०)] पठान का बेटा। पठान जाति का पुरुष।
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पठवना  : स०=पठाना (भेजना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पठवाना  : स० [हिं० पठाना का प्रे०] पठाने या भेजने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को पठाने या भेजने में प्रवृत्त करना। भेजवाना।
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पठान  : पुं० [फा० पुख्तोन] [स्त्री० पठानिन,पठानी] १. पुख्तो या पश्तो भाषा बोलनेवाला व्यक्ति। २. उक्त भाषा बोलनेवाली एक प्रसिद्ध जाति जो अफगानिस्तान-पख्तूनिस्तान प्रदेश में रहती है। ३. पख्तूनिस्तान का नागरिक या निवासी।
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पठाना  : स० [सं० प्रस्थान,प्रा० पट्ठान] रवाना करना। भेजना।
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पठानिन  : स्त्री० हिं० ‘पठान’ का स्त्री०।
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पठानी  : वि० [हिं० पठान] १. पठानों का। पठान संबंधी। जैसे—पठानी राज्य। स्त्री० पठान होने की अवस्था या भाव। स्त्री० हिं० ‘पठान’ का स्त्री०।
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पठानी लोध  : स्त्री० [सं० पट्टिका लोध्र ] कुमाऊँ, गढ़वाल आदि प्रदेश में होनेवाला एक जंगली वृक्ष जिसकी लकड़ी और फूल औषध और पत्तियाँ तथा छाल रंग बनने के काम में आती हैं।
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पठार  : पुं० [देश०] एक पहाड़ी जाति। पुं० [सं० पृष्ट+धार] भूगोल में, वह ऊँचा विस्तृत मैदान जो समीपवर्ती निचले प्रदेशों में ढालुएँ अंश से मिला रहता है तथा जिसका ऊपरी भाग बहुत अधिक चौड़ा और चपटा होता है। (प्लेटो)
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पठावन  : पुं० [हिं० पठाना] १. पठाने अर्थात् भेजने की क्रिया या भाव। २. व्यक्ति, जो इस प्रकार भेजा जाय। ३. संदेशवाहक। दूत।
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पठावनी  : स्त्री० [हिं० पठाना] १. किसी को कहीं पठाने अर्थात् भेजने की क्रिया या भाव। किसी को कहीं कोई वस्तु या संदेश पहुँचाने के लिए भेजना। क्रि० प्र०—आना।—जाना।—भेजना।
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पठावर  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।
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पठित  : भू० कृ० [सं०√पठ्+क्त] १. (ग्रंथ या पाठ) जो पढ़ा जा चुका हो। २. (व्यक्ति) जो पढ़ा-लिखा हो। शिक्षित। (असिद्ध प्रयोग)।
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पठियर  : स्त्री० [हिं० पाटी] वह बल्ली या पटिया जो कूएँ के मुँह पर बीचोबीच या किसी एक ओर इसलिए रख दी जाती है कि पानी खींचनेवाला उसी पर पैर रखकर पानी खींचे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पठिया  : स्त्री० [हिं० पट्ठा+इया (प्रत्य०)] १. हिं० पट्ठा का स्त्री०। २. हृष्ट-पुष्ट तथा नौजवान स्त्री। (बाजारु)।
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पठोर  : स्त्री० [हिं० पट्ठा+ओर (प्रत्य०)] १. जवान परन्तु बिना ब्याई हुई बकरी। २. मुरगी, जो जवान तो हो गई हो, पर जो अभी अंडे न देती हो।
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पठौना  : स०=पठाना (भेजना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पठौनी  : स्त्री०=पठावनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पठ्यमान  : वि० [सं०√पठ्+लट् (कर्म में), यक्+शानच्,मुक् ] (ग्रंथ या पाठ) जो पढ़ा जाने को हो या पढ़ा जा सके।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़  : पुं० [सं० पट=चित्रपट] वह चित्रपट जिसमें किसी व्यक्ति से संबंध रखनेवाली घटनाएँ अंकित हों (राज०)।
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पड़की  : स्त्री०=पंडुक।
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पड़कुलिया  : स्त्री० [सं० पंडुक] एक प्रकार की चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़छत्ती  : स्त्री०=परछत्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़त  : स्त्री०=पड़ता।
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पड़ता  : पुं० [हिं० पड़ना] १. व्यापारिक क्षेत्र में, खरीदी हुई और बेची जानेवाली चीज या माल की वह आर्थिक स्थिति, जो इस बात की सूचक होती है कि वह चीज या माल कितने दाम पर खरीदा गया है अथवा उस पर कितनी लागत आई है और उसके संबंध में कितने अनिवार्य तथा आवश्यक व्यय करने पड़ते हैं या करने पड़ेंगे। विशेष—व्यापारी लोग जब कोई माल कहीं से मँगाते या अपने यहाँ तैयार कराते या बनवाते हैं, तब पहले हिसाब लगाकर यह समझ लेते हैं कि इस पर वास्तविक रूप से हमारा इतना धन लगा है, और तब उस पर अपना मुनाफा रखकर उसे बेचते हैं। मुहा०—पड़ता खाना=ऐसी स्थिति होना कि उचित मूल्य या लागत निकालने के बाद कुछ मुनाफा या लाभ हो सके। जैसे—(क) आज-कल देहात से गेहूँ मँगाकर बाजार में बेचने से हमारा पड़ता नहीं खाता। (ख) बारह रुपये जोड़े पर यह धोती बेचने में हमारा पड़ता नहीं खाता। पड़ता निकालना,फैलाना या बैठाना=भाड़े मूल्य लागत सूद आदि का हिसाब लगाकर यह देखना कि किस चीज पर सब मिलाकर वस्तुतः हमारा कितना व्यय हुआ है। २. आर्थिक दृष्टि से आय-व्यय आदि का औसत या माध्यम। जैसे—इस दूकान से उन्हें दस रुपए रोज मुनाफे का पड़ता पड़ जाता है। क्रि० प्र०—पड़ना।—बैठना। ३. भू-कर की दर। लगान की शरह।
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पड़ताल  : स्त्री० [सं० परितोलन] १. कोई काम या चीज आदि से अंत तक अच्छी तरह जाँचते हुए यह देखना कि उसमें कहीं कोई कसर या भूल तो नहीं है। अच्छी तरह की जानेवाली छान-बीन या देख-भाल। २. पटवारियों (आधुनिक लेखपालों) के द्वारा अपने खातों या पत्रियों की वह जांच, जो यह जानने के लिए की जाती है कि खेतों को जोतने-वालों के नापों और उसमें होनेवाली फसलों का ब्योरा कहीं गलत तो नहीं लिखा गया है। ३. उक्त के फलस्वरूप किया जानेवाला संसोधन या सुधार। ४. तुलना। बराबरी। मुकाबला। (क्व०)।
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पड़तालना  : स० [हिं० पड़ताल+ना (प्रत्य०)] आदि से अंत तक सब बातें देखते हुए पड़ताल अर्थात् अनुंसधान या जाँच करना।
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पड़ती  : स्त्री० [हिं० पड़ना] वह खेत जो जमीन की उर्वरा-शक्ति बढ़ाने के लिए किसी विशिष्ट ऋतु में जोता-बोया न गया हो। क्रि० प्र०—छोड़ना।—पड़ना।—रखना। मुहा०—पड़ती उठाना=(क) पड़ती का जोता जाना। पड़ती पर खेती होना। पड़ती उठाना=पड़ती पड़ी हुई जमीन किसी खेतिहर को जोतने-बोने के लिए लगान पर देना।
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पड़-दादा  : पुं०=परदादा।
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पड़ना  : अ० [सं० पतन, प्रा० पड़न] १. किसी चीज का किसी आधान या पात्र में छोड़ा, डाला या पहुँचाया जाना। अन्दर प्रविष्ट किया जाना या होना। जैसे—(क) कान में दवा पड़ना; (ख) तरकारी (या दाल में) नमक पड़ना, (ग) पेट में भोजन पड़ना, (घ) पेटी में मत-पत्र पड़ना। २. किसी चीज का ऊपर से गिरकर या बाहर से आकर किसी दूसरी चीज पर (या मैं) विद्यमान या स्थित होना। जैसे—आँख में कंकड़ी या दूध में मक्खी पड़ना। ३. इधर-उधर या ऊपर से आकर किसी प्रकार का आघात या प्रहार या वार होना। जैसे—(क) किसी पर घूँसा, थप्पड़ या लात पड़ना। (ख) गरदन पर तलवार या सिर पर लाठी पड़ना। ४. एक चीज का किसी दूसरी चीज पर ठीक ढंग या तरह से डाला, फैलाया, बिछाया या रखा जाना। जैसे—(क) आँगन में (या छत पर) पलंग पड़ना। (ख) खंभों (या दीवारों) पर छत पड़ना। (ग) जूएखाने में जूए का फ़ड़ पड़ना। ५. किसी आपातिक रूप में उपस्थित, प्राप्त या प्रत्यक्ष होना। जैसे—(क) इस साल बहुत गरमी (या सरदी) पड़ी है। (ख) आज चार दिन से बराबर पानी (या ओला) पड़ (बरस) रहा है। (ग) अंत में यही बदनामी हमारे पल्ले पड़ी है। ६. कोई अनिष्ट, अवांछित या कष्टदायक घटना घटित होना अथवा ऐसी ही कोई विकट परिस्थिति या बात सामने आना। जैसे—(क) सिर पर आफत या बला पड़ना। (ख) किसी के घर डाका पड़ना। विशेष—विपत्ति, संकट आदि के प्रसंगों में इस क्रिया का प्रयोग बिना किसी संज्ञा के भी होता है। जैसे—जब तुम पर पड़ेगी, तब तु्महें मालूम होगा। ७. आकस्मिक रूप अथवा संयोग से उपस्थित होना या सामने आना अथवा पहुँचना। जैसे—(क) एक दिन घूमता-फिरता मैं भी वहाँ जा पड़ा। (ख) बात (या मौका) पड़ने पर तुम भी सारा हाल साफ-साफ कह देना। (ग) अब की विजया दशमी (या होली) रविवार को पड़ेगी। ८. आलस्य, थकावट, रोग आदि के कारण अथवा विश्राम करने के लिए चुपचाप लेट रहने की स्थित में होना। जैसे—(क) नींद खुल जाने पर भी वे घंटों बिस्तर पर पड़े रहते हैं। (ख) इधर महीनों से वे बिस्तर पर पड़े हैं। (अर्थात् बीमार हैं)। (ग) थोड़ी देर यों ही पड़े रहो; तबियत ठीक हो जायेगी। ९. बिना किसी उद्देश्य, कार्य या प्रयोजन के कहीं रहकर दिन काटना। यों ही या व्यर्थ रहकर दिन काटना। यों ही या व्यर्थ रहकर समय गुजारना या बिताना। जैसे—(क) दिन भर सब लोग धर्मशाले में पड़े रहे। (ख) महीनों से बहू अपने मैके में पड़ी है। १॰. कुछ काम-धंधा न करते हुए हीन अवस्था में कहीं रहकर दिन बिताना। जैसे—आजकल तो वह कलकत्ते में अपने भाई के यहाँ पड़े हैं। मुहा०—पड़ रहना=जैसे—तैसे हीन अवस्था में लेटकर सोना। ‘शयन’ के लिए उपेक्षासूचक पद। उदा०—मसजिद में पड़े रहेंगे जो मैखाना बंद है।—कोई शायर। पड़े रहना=(क) लेटे रहना। (ख) हीन अवस्था में कहीं रहकर दिन बिताना। जैसे—अभी दो-चार दिन तुम यहीं पड़े रहो। (ग) रोगी होने की दशा में लेटे रहना। जैसे—आज दिन भर चुपचार पड़े रहो। संध्या तक तबियत ठीक हो जायगी। ११. किसी के किसी काम या बात के बीच में इस प्रकार सम्मिलित होना कि उससे कोई विशिष्ट संबंध सूचित हो अथवा किसी प्रकार अथवा किसी प्रकार का हस्तक्षेप होता हुआ जान पड़े। जैसे—मैं इस मामले में पड़ना नहीं चाहता हूँ। १२. किसी काम, चीज या बात का ऐसी स्थिति में रहना या होना का आवश्यक या उचित उपयोग अथवा कार्य न हो रहा हो। जैसे—(क) सारा मकान खाली पड़ा है। (ख) आधे से ज्यादा काम बाकी पड़ा है। (ग) मुकदमा वर्षों से हाईकोर्ट में पड़ा है। (घ) ये पुस्तकें यहाँ यों ही पड़ी हैं। १३. किसी विशिष्ट प्रकार की परिस्थिति या स्थिति में अवस्थित या वर्तमान रहना या होना। जैसे—(क) आजकल वह धन कमाने के फेर में पड़े हैं। (ख) उनका मकान अभी तक बंधक पड़ा है। (ग) चार दिन में इसका रंग काला पड़ा जायगा। (घ) दो कौड़ियाँ चित और तीन कौड़ियाँ पट पड़ी हैं। १४. टिकने ठहरने आदि के लिए कुछ समय तक कहीं अवस्थान होना। कुछ समय तक रहने के लिए डेरा या पड़ाव डाला जाना। जैसे—चार दिन से तो वे हमारे यहाँ पड़े हैं। १५. डेरे, पड़ाव आदि के संबंध में, नियत या स्थित किया जाना। बनाया जाना। जैसे—आज संध्या को रामनगर में डेरा (या पड़ाव) पड़ेगा। १६. यात्रा आदि के मार्ग में प्रत्यक्ष या विद्यमान होना। ऐसी स्थिति में होना कि रास्ते में दिखाई दे या सामने आवे। जैसे—उनके मकान के रास्ते में एक पुल (या मंदिर) भी पड़ता है। १७. किसी प्रकार अथवा रूप में उत्पन्न होकर या यों ही उपस्थित, प्रस्तुत या विद्यमान होना। जैसे—(क) फल में कीड़े पड़ना। (ख) घाव में मवाद पड़ना। (ग) मन में कल (या चैन) पड़ना। १८. किसी प्रकार की विशेष आवश्यकता या प्रयोजन होना। गरज या जरूरत होना। जैसे—जब उसे गरज (या जरूरत) पड़ेगी, तब वह आप ही आवेगा। विशेष—कभी-कभी इस अर्थ में बिना संज्ञा के भी इसका प्रयोग होता है। जैसे—हमें क्या पड़ी है, जो हम उनके बीच में बोलने खड़े हों। १९. बहुत अधिक या उत्कट अभिलाषा, चिंता अथवा प्रवृत्ति होना। किसी काम या बात के लिए छटपटी, बेचैनी या विकलता होना। (प्रायः बिना संज्ञा के ही प्रयुक्त) जैसे—तुम्हें तो बस तमाशे (या बरात) में जाने की पड़ी है। २॰. तारतम्य, तुलना आदि के विचार से अपेक्षया कुछ घटी या बढ़ी हुई अथवा किसी विशिष्ट स्थिति में आना, रहना या सिद्ध होना। जैसे—(क) यह कपड़ा कुछ उससे अच्छा पड़ता है। (ख) अब तो वह पहले से कुछ नरम पड़ रहा है। (ग) यह लड़का दरजे (या पढ़ने) में कमजोर पड़ता है। (घ) पाव भर आटा उसके खाने के लिए कम पड़ता है। २१. तौल, दूरी, नाप आदि के प्रसंग में, किसी विशिष्ट परिमाण या मान का ठहरना या सिद्ध होना। जैसे—(क) उनका मकान यहाँ से कोस भर पड़ता है। (ख) यह धोती नापने पर नौ हाथ ही पड़ती है। २२. आर्थिक प्रसंगों में, किसी काम, चीज या बात का हानि-लाभ की दृष्टि या विचार से किसी विशिष्ट स्थिति में आना, रहना या होना। जैसे—(क) इकट्ठा लिया हुआ सौदा सस्ता पड़ता है। (ख) शहरों में रहने पर खर्च अधिक पड़ता है। (ग) आजकल यहाँ के मिस्तरियों को चार-पाँच रुपए रोज पड़ जाता है। (घ) इस काम में इतना खरच (या घाटा) पड़ता है। २३. व्यापारिक क्षेत्रों में, किसी चीज की दर, भाव, मूल्य, लागत आदि के विचार से किसी स्थिति में आना, रहना या होना। जैसे—यह थान घर आकर २॰ का पड़ता है। २४. किसी काम, चीज या बात का अनुकूल, उपयुक्त या बराबरी का ठहरना या सिद्ध होना। जैसे—तुम्हें तो दस रुपया रोज भी पूरा नहीं पड़ेगा। २५. बही-खाते, लेन-देन, हिसाब-किताब आदि में किसी खाते या विभाग में अथवा किसी व्यक्ति के नाम लिखा जाना। जैसे—(क) यह खरच प्रकाशन खाते में पड़ेगा। (ख) महीनों से १॰॰) तुम्हारे नाम पड़े हैं। २६. आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि में शिशु या संतान का किसी के अनुरूप या अनुसार होना। जैसे—लड़का तो अपने बाप पर पड़ा है और लड़की माँ पर। २७. अनुभूत या ज्ञात होना। लगना। जैसे—जान पड़ना, दिखाई पड़ना। २८. कुछ विशिष्ट पशुओं के संबंध में, नर या मादा के साथ मैथुन या संभोग करना। जैसे—जब यह घोड़ा (या साँड़) किसी घोड़ी (या गाय) पर पड़ता है, तब-तब कुछ न कुछ बीमार हो जाता है। विशेष—इस क्रिया में मुख्य तीन भाव वही हैं, जो ऊपर आरंभ (संख्या १, २ और ३) में बतलाये गये हैं। अधिकतर शेष अर्थ इन्हीं तीनों भावों में से किसी-न-किसी भाव के परिवर्त्तित, विकसित या विकृत रूप हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से यह हिंदी की स० क्रिया ‘डालना’ का अकर्मक रूप है। अनेक अकर्मक क्रियाओं के साथ इसका प्रयोग संयो० क्रि० के रूप में भी होता है। कहीं तो वह किसी क्रिया का आकस्मिक आरंभ सूचित करती है; जैसे—चल पड़ना, चौंक पड़ना, जाग पड़ना, हँस पड़ना आदि और कहीं इससे किसी क्रिया या व्यापार का घटित, पूर्ण या समाप्त होना सूचित होता है। जैसे—कूद पड़ना, गिर पड़ना, घुस पड़ना, घूम पड़ना आदि। क्रियार्थक संज्ञाओं के साधारण रूप के साथ लगकर यह कहीं-कहीं किसी प्रकार की बाध्यता या विवशता भी सूचित करती है। जैसे—(क) मुझे रोज उनके यहाँ जाकर घंटों बैठना पड़ता था। (ख) तुम्हें भी उनके साथ जाना पड़ेगा। अवधारण बोधक क्रियाओं के साथ लगकर यह बहुत कुछ ‘जाना’ या ‘होना’ की तरह का अर्थ देती और उन सकर्मक क्रियाओं को अकर्मक का-सा रूप देती है। जैसे—जान पड़ना, दिखाई (या देख) पड़ना। कुछ संज्ञाओं के साथ लगकर यह बहुत कुछ ‘आना’ या ‘होना’ की तरह का भी अर्थ देती हैं। जैसे—खयाल पड़ना, याद पड़ना, समझ पड़ना। कभी-कभी इसके योग से कुछ पदों में मुहावरे का तत्त्व भी आ लगता है। जैसे—(क) ऐसी समझ पर पत्थर पड़े। (ख) आजकल रुपया तो मानो उनके घर फटा पड़ता है। (ग) बहुत बोलने (या सरदी लगने) से गला पड़ (अर्थात् बैठ) जाना। (घ) यह अकेला ही दो आदमियों पर भारी पड़ता है। (ङ) इस तरह हाथ धोकर किसी के पीछे पड़ना ठीक नहीं है। कुछ अवस्थाओं में यह शक्यता, संभावना, सामर्थ्य आदि की भी सूचक होती है। जैसे—बन पड़ा तो मैं भी किसी दिन आऊँगा। कभी-कभी यह तुल्यता या समकक्षता की भी सूचक होती है। जैसे—(क) तुम तो आदमी के ऊपर गिर पड़ते हो। (ख) उसकी आँखों में आँसू उमड़ पड़ते थे।
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पड़-नाना  : पुं०=पर-नाना।
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पड़-पड़  : स्त्री० [अनु०] १. निरंतर पड़-पड़ होनेवाला शब्द। क्रि० वि० पड़-पड़ शब्द करते हुए। पुं० [?] मूल धन। पूँजी। (डिं०)
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पड़पड़ाना  : स० [अनु०] [भाव० पड़पड़ाहट] पड़-पड़ शब्द होना। स० पड़-पड़ शब्द उत्पन्न करना। अ०=परपराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़पड़ाहट  : स्त्री० [हिं० पड़पड़ाना] पड़-पड़ शब्द करने या होने की क्रिया या भाव। स्त्री०=परपराहट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़-पोता  : पुं०=पर-पोता।
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पड़म  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा सूती कपड़ा, जो प्रायः कनातें, खेमें आदि बनाने में काम आता है।
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पड़या  : पुं० [?] वह ब्राह्मण जो शनिवार के दिन तेल आदि काले पदार्थ शनि के दान के रूप में लेता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़रू  : पुं०=पड़वा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़वा  : स्त्री० [सं० प्रतिपदा,प्रा० पड़िवआ] प्रत्येक पक्ष की प्रथम तिथि। परिवा। पुं० [?] [स्त्री० पड़िया] भैंस का नर बच्चा।
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पड़वाना  : स० [हिं० ‘पड़ना’ का प्रे०] पड़ने का काम किसी से कराना। किसी को पड़ने में प्रवृत्त करना।
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पड़वी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का ईख।
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पड़ह  : पुं० [सं० पटह] ढोल। दुंदुभी।
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पड़ा  : पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।
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पड़ाइन  : स्त्री०=पँड़ाइन।
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पड़ाका  : पुं०=पटाका।
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पड़ाना  : स०=पड़वाना।
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पड़ापड़  : क्रि० वि०, स्त्री०=पटापट।
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पड़ाव  : पुं० [हिं० पड़ना+आव (प्रत्य०)] १. मार्ग में पड़नेवाला वह स्थान जहाँ यात्री रात बिताने, विश्राम आदि करने के लिए ठहरते या रुकते हैं। मुहा०—पड़ाव मारना=(क) पड़ाव पर ठहरे हुए यात्रियों को लूटना। (ख) बहुत अधिक वीरता या साहस का काम करना। (व्यंग्य) २. वह स्थान जहाँ यात्रा करनेवाला सैनिक तंबू-कनातें आदि लगाकर कुछ समय के लिए ठहरा हो। विशेष—यह स्थान प्रायः शहरों से दूर और जंगलों में होता था।
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पड़िया  : स्त्री० हिं० पड़वा का स्त्री० रूप। वि० पुं० दे० ‘परिया’ (जाति)।
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पड़ियाना  : अ० [हिं० पड़िया+आना (प्रत्य०)] भैंस का भैंस से संयोग हो जाना। भैंसाना। स० भैंस का भैंसे से संभोग कराना।
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पड़िवा  : स्त्री०=पड़वा (प्रतिपदा)
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पड़ी  : स्त्री० [हिं० पड़ना=लेटना] चुपचाप पड़े या सोये रहने की अवस्था या भाव। (बाजारू)। मुहा०—पड़ी साधना=सो जाना।
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पड़ेरू  : पुं०=पड़रू (पड़वा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पड़ोस  : पुं० [सं० प्रतिवेश या प्रतिवास, प्रा० पड़िवेस पड़िवास] १. वह स्थान जो किसी के निवास स्थान के बगल या समीप में हो। मुहा०—(किसी का) पड़ोस करना=किसी के पड़ोस में जाकर बसना। २. किसी प्रदेश, स्थान आदि से सटा हुआ अथवा उसके आस-पास का स्थान। पद—पास-पड़ोस=समीपवर्ती स्थान।
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पड़ोसी  : पुं० [हिं० पड़ोस+ई (प्रत्य०)] [स्त्री० पड़ोसिन] वह जिसका घर पड़ोस में हो। एक मकान के पास वाले दूसरे मकान में रहनेवाला। प्रतिवासी। प्रतिवेशी। हमसाया।
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पड्डा  : पुं० [?] ढोलक,तबले आदि पर लगाई जानेवाली चाँटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पढ़ंत  : स्त्री० [हिं० पढ़ना+अंत (प्रत्य०)] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे—लिखत-पढंत होना। २. पढ़ा हुआ पाठ। ३. जादू या टोने-टोटके के लिए मंत्र पढ़ने की क्रिया या भाव। ४. उक्त प्रकार से पढ़ा जानेवाला मंत्र। वि० (समाज) जिसमें दूसरों की कृतियाँ पढ़कर सुनाई जाती हों। जैसे—पढ़ंत कवि-सम्मेलन।
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पढ़त  : स्त्री० [हिं० पढ़ना] पढ़ने की क्रिया, ढंग या भाव। पठन। वाचन। (रीडिंग) जैसे—विधेयक की तीसरी पढ़त। पद—लिखत-पढ़त,लिखा-पढ़ी।
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पढ़ना  : स० [सं० पठन] [भाव० पढ़ाई] १. (क) किसी लिपि या वर्णमाला के अक्षरों या वर्णों के उच्चारण, रूप आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। (ख) उक्त के आधार पर किसी भाषा के शब्दों, पदों आदि के अर्थ का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जैसे—अँगरेजी या हिन्दी पढ़ना। २. अंकित, मुद्रित या लिखित चिन्हों, वर्णों आदि को देखते हुए मन-ही-मन उनका अभिप्राय, अर्थ या आशय जानना और समझना। यह जानना कि जो कुछ छपा या लिखा हुआ है, उसका मतलब क्या है। जैसे—अखबार या पुस्तक पढ़ना। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ३. छपे या लिखे हुए शब्दों, पदों, वाक्यों आदि का कुछ ऊँचे स्वर से उच्चारण करते चलना। जैसे—(क) किसी को सुनाने-समझाने आदि के लिए चिट्ठी या दस्तावेज पढ़ना। (ख) सभा या समिति के सामने उसका कार्य-विवरण पढ़ना। (ग) कवि-सम्मेलन में कविता पढ़ना। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—देना। ४. कोई चीज या बात स्थायी रूप से स्मरण रखने के लिए उसके पदों, शब्दों आदि का बार बार उच्चारण करते हुए अभ्यास करना। जैसे—गिनती,पहाड़ा या पाठ पढ़ना। ५. किसी कला,विद्या,विषय या शास्त्र की सब बातें जानने के लिए उसका विधिवत् अध्ययन करना। जैसे—(क) आज-कल वह इतिहास (दर्शन शास्त्र या व्याकरण) पढ़ रहा है। (ख) ब्याह की अभी क्या चिंता है, लड़का तो अभी पढ़ ही रहा है। ६. ग्रंथ,लेख आदि का ठीक-ठीक अभिप्राय या आशय जानने और समझने के लिए उनका अध्ययन और मनन करना। जैसे—(क) यह पुस्तक लिखने के लिए आपको सैकडों बड़े बड़े ग्रंथ पढ़ने पड़े थे। (ख) किसी विषय पर प्रामाणिक पुस्तक लिखने से पहले उस विषय का सारा साहित्य पढ़ना पड़ता है। क्रि० प्र०—जाना।—डालना।—लेना। ७. कोई याद की हुई चीज (पद या बातें) गुनगुनाते हुए या बहुत धीमे स्वर से उच्चरित करना। जैसे—(क) जप,पूजन,संध्या-वंदन आदि के संमय मंत्र या श्लोक पढ़ना। (ख) टोना-टोटका करने के समय किसी पर जादू या मंतर पढ़ना। ८. उक्त के आधार पर किसी प्रकार का जादू या टोना-टोटका करना। मंत्र फूँकना। जैसे—ऐसा जान पड़ता है कि मानों इस लड़के पर किसी ने कुछ पढ़ दिया है। संयो० क्रि०—देना। मुहा०—(किसी पर) कुछ पढ़कर मारना=मंत्र पढ़कर प्रभावित करने के लिए किसी पर कोई चीज फेंकना। जैसे—मूँग पढ़कर मारना। ९. किसी प्रकार का अंकन, चिन्ह, लक्षण आदि देखते हुए उनका आशय, परिणाम या फल इस प्रकार जानना और समझना मानों कोई पुस्तक या लेख पढ़ रहे हों। जैसे—सामुद्रिक शास्त्र की सहायता से किसी की हस्तरेखाएँ पढ़ना। १॰. मनुष्यों की बोली की नकल करनेवाले पक्षियों का ऐसे पद या शब्द बोलना जिनका उच्चारण उन्हें सिखाया गया हो। जैसे—यह तोता ‘राम राम’ पढ़ता है। पुं०=पढ़िना (मछली)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पढ़नी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का धान।
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पढ़नीउड़ी  : स्त्री० [हिं० पढ़नी(?)+उड़ी=उड़ाना] कसरत में एक प्रकार का अभ्यास जिसमें कोई ऊँची चीज उड़ अर्थात् उछलकर लाँघी जाती है।
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पढ़वाना  : स० [हिं० पढ़ना तथा पढ़ाना का प्रे०] १. किसी को पढ़ने में प्रवृत्त करना। बँचवाना। २. किसी से (पाठ आदि) पढ़ाने की क्रिया कराना। किसी को पढ़ाने में प्रवृत्त करना।
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पढ़वैया  : वि० [हिं० पढ़ना+आई (प्रत्य०)] १. पढ़नेवाला। २. पढ़ानेवाला।
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पढ़ाई  : स्त्री० [हिं० पढ़ना+आई (प्रत्य०)] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। २. वह विषय जिसका कक्षा,विद्यालय आदि में विद्यार्थी अध्ययन करते हों। ३. पढ़ने के बदले में दिया जाने वाला पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पढ़ाना] १. पढ़ाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। २. कक्षा, विद्यालय आदि में पढ़ाया जानेवाला विषय या सिखलाई जानेवाली कला। ३. पढ़ाने का ढंग,प्रकार या शैली। ४. पढ़ाने के बदले में मिलनेवाला धन।
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पढ़ाना  : स० [सं० पाठन] १. हिं० ‘पढ़ना’ क्रिया का प्रे०। ऐसा काम करना जिससे कोई पढ़े। किसी को पढ़ने में प्रवृत्त करना। २. (क) वर्णमाला या लिपि के अक्षरों के उच्चारणों और रूपों का परिचय कराना। (ख) किसी भाषा के शब्दों या पदों के अर्थ, आशय आदि का ज्ञान या बोध कराना; अथवा तत्संबंधी अध्ययन, अभ्यास आदि कराना। जैसे—अरबी, फारसी, बँगला या मराठी पढ़ाना। ३. अंकित, मुद्रित या लिखित बातों का ज्ञान प्राप्त करने का आशय समझने के लिए किसी से उसका पाठ या वाचन कराना। जैसे—किसी से चिट्ठी पढ़ाना। ४. किसी को भाषा,विषय,शास्त्र आदि का ज्ञान कराने के लिए सम्यक् रूप से शिक्षा देना। जैसे—पंडित जी संस्कृत तो पढ़ाते ही हैं, साथ ही दर्शन (या साहित्य) भी पढ़ाते हैं। ५. कोई काम या बात अच्छी तरह से बतलाना,समझाना या सिखाना। अच्छी तरह से किसी के ध्यान में बैठाना। जैसे—मालूम होता है कि किसी ने तुम्हें ये सब बातें पढ़ाकर यहाँ भेजा है। ६. किसी विशिष्ट क्रिया,संस्कार आदि से संबंध रखनेवाले मंत्रों, वाक्यों आदि का विधिपूर्वक उच्चारण सम्पन्न कराना। जैसे—(क) ब्राह्मण से मंत्र पढ़ाकर दान (या संकल्प) कराना। (ख) काजी (या मुल्ला) को बुलाकर निकाह पढ़ाना। ७. मनुष्य की बोली का अनुकरण या नकल करनेवाले पक्षियों के सामने किसी पद या शब्द का इस उद्देश्य से उच्चारण करते रहना कि वे भी इसी तरह बोलना सीख जायँ। जैसे—तुम भी बुड्ढे तोते को पढ़ाने चले हो। संयो० क्रि०—देना।
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पढ़िना  : पुं० [सं० पाठीन] एक प्रकार की बिना सेहरे की मछली। पढ़ना। पहिना।
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पढ़ैया  : वि० [हिं० पढ़ना+ऐया (प्रत्य०)] पढ़नेवाला। स्त्री० पढ़ने या पढ़े जाने की क्रिया या भाव। जैसे—कुल-पढ़ैया=ऐसी नमाज जो बस्ती के सब मुसलमान एक साथ मिलकर पढ़ते हों।
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पण  : पुं० [सं०√पण (व्यवहार)+अप्] १. वह केल जो पासों से खेला जाता है। २. वह खेल जिसकी हार-जीत में दाँव पर कुछ धन लगाया जाता हो। जूआ। द्यूत। ३. किसी काम या बात के लिए लगाई जानेवाली बाजी। शर्त। ४. वह धन जो जूए के दाँव अथवा बाजी या शर्त बदने के समय लगाया जाता हो। ५. दो व्यक्तियों में पारस्पिरक होनेवाला निश्चय या प्रतिज्ञा। कौल। करार। ६. वह धन जो उक्त प्रकार के निश्चय,प्रतिज्ञा आदि के फलस्वरूप दिया या लिया जाता हो। जैसे—पारिश्रमिक, भाडा, सूद आदि। ७. किसी चीज का दाम। कीमत। मूल्य। ८. फीस। शुल्क। ९. धन-दौलत। सम्पत्ति। १॰. वह चीज जो खरीदी और बेची जाती हो। माल। सौदा। ११. रोजगार। व्यापार। १२. प्रशंसा। स्तुति। १३. प्राचीन काल की एक नाप जो एक मुट्ठी अनाज के बराबर होती थी। १४. किसी के मत से ११ और किसी के मत से २॰ माशे के बराबरा ताँबे का टुकड़ा जिसका व्यवहार सिक्के की भाँति होता था।
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पण-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] दांव, बाजी या शर्त लगाने का काम।
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पण-ग्रंथि  : स्त्री० [ब० स०] बाजार। हाट।
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पणता  : स्त्री०, पुं० [सं० पण+कल्—टाप् पण+त्वल्] मूल्य।
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पणत्व  : पुं० [सं० पण+त्व]=पणता।
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पण-दंड  : पुं० [ष० त०] अर्थ-दंड।
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पण-धर  : वि० [ष० त०] प्रण रखनेवाला। उदा०—कोड़ी दै नहं काढ़, पणधर राण प्रताप सी।—दुरसाजी।
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पणन  : पुं० [सं०√पण+ल्युट्—अन] १. खरीदने की क्रिया या भाव। क्रय करना। मोल लेना। २. बेचने की क्रिया या भाव। विक्रय। ३. बाजी या शर्त लगाने की क्रिया या भाव। ४. व्यवहार, व्यापार आदि करने की क्रिया या भाव।
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पणनीय  : वि० [सं०√पण+अनीयर्] १. जो खरीदा या बेचा जा सके। पणन के योग्य। २. जिससे धन के लोभ से कोई काम कराया जा सके। भाड़े का टट्ट।
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पण-बंध  : पुं० [ष० त०] बाजी बदना। शर्त लगाना।
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पणव  : पुं० [सं० पण√वा(गति)+क] १. छोटा ढोल या नगाड़ा। २. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक मगण,एक नगण,एक भगण, और अन्त में एक गुरु होता है।
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पणवा  : स्त्री०=पणव।
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पणवानक  : पुं० [पणव-आनक,कर्म० स०] नगाड़ा।
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पणवी (विन्)  : पुं० [सं० पणव+इनि] शिव।
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पणस  : पुं० [सं०√पण्+असच्] वस्तु, विशेषतः बेची जानेवाली वस्तु।
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पण-सुन्दरी  : स्त्री० [मध्य० स०] वेश्या। रंडी।
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पण-स्त्री  : स्त्री० [मध्य० स०] रंडी। वेश्या।
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पणांगना  : स्त्री० [पण-अंगना, मध्य० स०]रंडी। वेश्या।
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पणाया  : स्त्री० [सं०√पण+आय+अ—टाप् ] १. व्यापारियों का एक माल किसी को देकर उसके बदले में दूसरा माल लेना। विनिमय। २. चीजें ले या देकर उनका दाम चुकाना या वसूल करना। आर्थिक क्षेत्र में लेन-देन आदि करना। (टैन्जै़क्शन) ३. रोजगार। व्यापार। ४. रोजगार या व्यापार में होनेवाला लाभ। ५. बाजार। ६. जूआ। ७. स्तुति।
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पणायित  : भू० कृ० [सं०√पण्+आय+क्त] १. (पदार्थ) जो खरीदा या बेचा जा चुका हो। २. जिसकी स्तुति की गई हो।
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पणार्पण  : पुं० [पण-अर्पण,ष० त०] क्रय-विक्रय के लिए दो पक्षों में होनेवाला निश्चय या पक्की बात।
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पणाशी  : वि०=प्रनाशी (नाश करनेवाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पणास्थि  : स्त्री० [पण-अस्थि,ष० त०] कौड़ी। कपर्दक।
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पणि  : स्त्री० [सं०√पण्+इन्] बाजार। हाट। पुं० १. पणन अर्थात् क्रय-विक्रय करनेवाला व्यक्ति। २. कंजूस। ३. पापी।
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पणित  : भू० कृ० [सं०√पण्+क्त] १. (पदार्थ) जिसका पणन अर्थात् क्रय-विक्रय हो चुका हो। २. जिसके संबंध में बाजी लगाई गई हो। ३. जिसके संबंध में कोई प्रतिबंध या शर्त लगा हो। (कन्डिशन्ड) ४. प्रशंसित। स्तुत। पुं० १. बाजी। शर्त। २. जूआ। ३. जुआरी। ४. अग्रिम या पेशगी दिया जानेवाला धन। बयाना।
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पणितव्य  : वि० [सं०√पण्+तव्यत्] १. जिसका क्रय-विक्रय हो सके। २. जिसका लेन-देन या व्यवहार हो सके। ३. जिसके साथ लेन-देन या व्यवहार किया जा सके। ४. जिसकी प्रशंसा या स्तुति की जा सके।
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पणिता (तृ)  : पुं० [सं०√पण्+तृच्] पणन अर्थात् क्रय-विक्रय करनेवाला व्यक्ति।
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पणिहारा  : पुं० [स्त्री० पणिहारी]=पनिहारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पणी (णिन्)  : पुं० [सं० पण+इनि] क्रय-विक्रय करनेवाला रोजगारी।
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पण्य  : वि० [सं० पण्+यत्]=पणितव्य। पुं० १. वह चीज जो खरीदी और बेची जाती हो। माल। सौदा। २. रोजगार। व्यापार। ३. बाजार। हाट। ४. दूकान।
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पण्य-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०]=पण्य-भूमि।
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पण्य-चरित्र  : पुं० [ष० त०] किसी मंडी या हाट के बँधे हुए नियम या प्रथाएँ।
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पण्य-चिन्ह  : पुं० [ष० त०] दे० ‘वाणिज्य चिन्ह’।
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पण्य-दास  : पुं० [कर्म० स०] [स्त्री० पण्यदासी] वह दास जो धन लेकर उसके बदले में दास्यवृत्ति करता हो।
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पण्य-निचय  : पुं० [ष० त०] बेचने के लिए माल इकट्ठा करके रखना।
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पण्य-निर्वाहण  : पुं० [ष० त०] चुंगी या महसूल दिये बिना ही चोरी से माल निकाल ले जाना। (कौ०)
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पण्य-पति  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा रोजगारी या व्यापारी। २. बहुत बड़ा साहूकार। नगर-सेठ।
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पण्य-पत्तन  : पुं० [ष० त०] १. वह नगर जिसमें अनेक मंडियाँ हों। २. मंडी। ३. बाजार। हाट।
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पण्य-परिणीता  : स्त्री० [कर्म० स०] रखेली स्त्री।
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पण्य-फल  : पुं० [ष० त०] व्यापार करने से प्राप्त होने वाली आय या लाभ।
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पण्य-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ वस्तुओं का व्यापार होता हो। २. मंडी। हाट। ३. गोदाम।
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पण्य-योषित  : स्त्री० [मध्य० स०] रंडी। वेश्या।
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पण्य-वस्तु  : स्त्री० [कर्म० स०] वे पदार्थ या वस्तुएँ जो बाजारों में बेंचने के उद्देश्य से बनाई जाती हैं। खरीद और बिक्री का माल। पण्य-द्रव्य। (कमोडिटी,मर्चेन्डाइज) जैसे—कपड़ा, कागज, गेहूँ, जौ आदि।
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पण्य-विलासिनी  : स्त्री० [कर्म० स०] वेश्या।
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पण्य-वीथि (का)  : स्त्री० [ष० त०] १. बाजार। २. छोटी दुकान।
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पण्य-शाला  : स्त्री० [ष० त०]=पण्य-वीथि (का)।
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पण्य-समवाय  : पुं० [ष० त०] व्यापारिक वस्तुओं का संग्रह।
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पण्य-स्त्री  : स्त्री० [कर्म० स०] वेश्या।
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पण्यांगना  : स्त्री० [पण्य-अंगना कर्म० स०] वेश्या।
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पण्यांधा  : स्त्री० [सं० पण्य√अंध् (अंधा करना)+अच्—टाप्] कँगनी नाम का कदन्न।
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पण्या  : स्त्री० [सं० पण्य+टाप्] मालकंगनी।
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पण्याजीव  : पुं०[सं० पण्य-आ√जीव् (जीना)+क] १. ऐसा व्यक्ति जिसकी जीविका पण्य अर्थात् रोजगार से चलती हो। रोजगारी। व्यापारी।
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पण्यजीवक  : पुं० [सं० पण्याजीव+कन्] १.=पण्याजीव। २. [पण्यजीव√कै ( चमकना)+क] बाजार।
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पण्यावर्त्त  : पुं० [सं०] क्रय-विक्रय लेन-देन आदि का व्यवहार। (ट्रैन्जैक्शन)।
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पतंखा  : पुं०=पतोखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतंग  : वि० [सं०√पत् (गिरना)+अंगच्] १. जो गिरता हुआ जाता हो। २. उड़नेवाला। पुं० १. सूर्य। २. मकड़ी। ३. पतिंगा। शलभ। ४. चिड़िया। पक्षी। ५. कंदुक। गेंद। ६. एक गंधर्व का नाम। ७. एक प्राचीन पर्वत। ८. बदन। शरीर। ९. नाव। नौका। १॰. जैनों के एक देवता जो वाणव्यंतर नामक देवगण के अन्तर्गत हैं। ११. चिनगारी। १२. जड़हन धान। १३. जलमछुआ। १४. एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी रक्त चन्दन की लकड़ी जैसी परन्तु निर्गन्ध होती है। स्त्री० [सं० पतंग=उड़नेवाला] कागज की वह बहुत बड़ी गुड्डी जो डोर की सहायता से हवा में उड़ाई जाती है। कन-कौआ। चंग। तुक्कल। क्रि० प्र०—उड़ाना।—लड़ाना। मुहा०—पतंग काटना=पेंच लड़ाकर किसी की पतंग की डोरी काट देना। पतंग बढ़ाना=डोर ढीलते हुए पतंग और अधिक ऊँचाई या दूरी पर पहुँचाना। पुं० [सं० पत्रंग] एक तरह का बड़ा वृक्ष जिसकी लकड़ी से बढ़िया लाल रंग निकाला जाता है। (सपन)। पुं० [फा०] १. रोशनदान। २. खिड़की।
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पतंग-छुरी  : वि० [सं० पतंग=उड़ानेवाला अथवा चिनगारी+हिं० छुरी] पीठ पीछे बुराई करनेवाला। चुगलखोर।
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पतंगबाज  : पुं० [हिं० पतंग+फा० बाज] [भाव० पतंगबाजी] वह जिसको पतंग उड़ाने का शौक या व्यसन हो।
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पतंगबाजी  : स्त्री० [हिं० पतंगबाज+ई (प्रत्य०)] पंतग उड़ाने की क्रिया, भाव या शौक।
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पतंगम  : पुं० [सं० पतद्√गम्+खच्,नि० सिद्धि] १. पक्षी। चिड़िया। २. पतिंगा। शलभ।
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पतंगा  : पुं० [सं० पतंग] १. परोंवाला वह कीड़ा जो हवा में उड़ता हो। २. एक तरह का साधारण कीड़ों से बड़ा कीड़ा जो पेड़ों की पत्तियाँ, फसलें आदि खाता तथा नष्ट-भ्रष्ट करता है। ३. दीये का फूल। ४. चिनगारी।
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पतंगिका  : स्त्री० [सं० पतंग+कन्—टाप्, इत्व] १. छोटा पक्षी। २. एक तरह की मधुमक्खी।
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पतंगी (गिन्)  : पुं० [सं० पतंग+इनि] पक्षी।
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पतंगेंद्र  : पुं० [सं० पतंग-इंद्र,ष० त०] पक्षियों के स्वामी,गरुड़।
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पतंचल  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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पतंचिका  : स्त्री० [सं० पतम्+चिक्क (पीड़ा) पृषो० सिद्धि] धनुष का चिल्ला। प्रत्यंचा।
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पतंजलि  : पुं० [सं० पतत्-अंजलि, ब० स०, शक० पर रूप] पाणिनी के सूत्रों पर महाभाष्य नामक टीका लिखनेवाले एक प्रसिद्ध ऋषि जो योगदर्शन के प्रतिपादक भी कहे जाते हैं।
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पत  : स्त्री० [सं० प्रतिष्ठा ?] प्रतिष्ठा। आबरू। इज्जत। लाज। क्रि० प्र०—जाना।—रखना।—रहना। मुहा०—(किसी की) पत उतारना=किसी को अपमानित करना। (किसी की) पत रखना=अपमानित होनेवाले की अथवा अपमानित होते हुए की इज्जत बचाना। लाज रखना। पत लेना=पत उतारना। पुं० [सं० पति] १. पति। स्वामी। पुं० [हिं० पत्ता] पत्ता का संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—पत-झड़।
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पतई  : स्त्री० १.=पत्ती। २.=पताई।
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पतउड़  : पुं० [सं० पति+उडु] चन्द्रमा। (डिं०)
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पत-खोवन  : वि० [हिं० पत+खोवन=खोनेवाला] अपनी अथवा दूसरों की प्रतिष्ठा नष्ट करनेवाला।
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पतग  : पुं० [सं० पत√गम् (गति)+ड] पक्षी। चिड़िया। पखेरू।
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पतगेंद्र  : पुं० [सं० पतंग-इन्द्र,ष० त०] पक्षिराज। गरुड़।
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पतचौली  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
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पत-झड़  : पुं० [हिं० पत्ता+झड़ना] १. पेड़ों के पत्तों का झड़ना। २. शिशिर ऋतु जिसमें अधिकांश पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं। ३. उन्नति के उपरांत होनेवाला ह्रास। विशेषतः ऐसी स्थिति जिसमें वैभव,संपत्ति आदि नष्ट हो चुकी होती है।
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पतझर  : पुं०=पत-झड़।
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पतझल  : स्त्री०=पत-झड़।
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पतझाड़  : स्त्री०=पत-झड़।
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पतझार  : स्त्री०=पत-झड़।
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पतता  : स्त्री० [सं० पतिता]=पतित्व। उदा०—परी है विपत्ति पति लागि पतता नहीं।—सेनापति।
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पतत्  : वि० [सं०√पत्+शतृ] १. नीचे की ओर आता, उतरता या गिरता हुआ। २. उड़ता हुआ। पुं० चिड़िया।
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पतत्पतंग  : पुं० [सं० पतत्-पतंग,कर्म० स०] अस्त होता हुआ सूर्य।
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पतत्प्रकर्ष  : वि० [सं० पतत्-प्रकर्ष, ब० स०] जो प्रकर्ष से गिर चुका हो। पुं० साहित्यिक रचना का एक दोष जो उस समय माना जाता है जब कोई बात आरंभ में तो उत्कृष्ट रूप में कही जाती है परन्तु आगे चलकर वह उत्कृष्टता कुछ घट या नष्टप्राय हो जाती है। जैसे—पहले तो किसी को चन्द्रमा कहना और बाद में जुगनूँ कहना। (एन्टीक्लाइमैक्स)
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पतत्र  : पुं० [√पत्+अत्रन्] १. पक्ष। डैना। २. पंख। पर। ३. वाहन। सवारी।
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पतत्रि  : पुं० [सं०√पत्+अत्रिन्] पक्षी। चिड़िया।
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पतत्रि-केतन  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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पतत्रि-राज  : पुं० [ष० त०] गरुड़।
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पतत्रि-वर  : पुं० [स० त०] गरुड़।
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पतत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० पतत्र+इनि] १. पक्षी। २. वाण। ३. घोड़ा
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पतद्ग्रह  : पुं० [सं०पतद्√ग्रह् (पकड़ना)+अच्] १. उगालदान। पीकदान। २. भिक्षा- पात्र। ३. संरक्षित सेना।
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पतद्-भीरु  : पुं० [सं० ब० स०] बाज पक्षी।
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पतन  : पुं० [सं०√पत्+ल्युट्—अन] १. ऊपर से नीचे आने या गिरने की क्रिया या भाव। २. नीचे घँसने या बैठने की क्रिया या भाव। ३. व्यक्ति का उच्च आदर्श, स्तुत्य आचरण आदि छोड़कर निन्दनीय और हीन आचरण या कार्य करने में प्रवृत्त होना। ४. जाति, राष्ट्र आदि का ऐसी स्थिति में आना कि उसकी प्रभुता और महत्ता नष्ट प्राय हो जाय। ५. मृत्यु। ६. पाप। पातक। ७. उड़ने की क्रिया या भाव। उड़ान। ८. किसी नक्षत्र का अक्षांश। वि० [√पत्+ल्यु—अन] १. गिरता हुआ या गिरनेवाला। २. उड़ता हुआ या उड़नेवाला।
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पतन-शील  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० पतनशीलता] जिसका पतन हो रहा हो; अथवा जिसकी प्रवृत्ति पतन की ओर हो। गिरता हुआ या गिरनेवाला।
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पतना  : पुं० [?] योनि का किनारा। अ० [सं० पतन] १. गिरना। २. पतन होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=पाथना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतनारा  : पुं० [?] नाबदान। पनाला। मोरी।
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पतनीय  : वि० [सं०√पत्+अनीयर्] जिसका पतन होने को हो अथवा जिसका पतन होना संभावित या स्वाभाविक हो।
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पतनोन्मुख  : वि० [सं० स० त० पतन-उन्मुख] जो पतन की ओर उन्मुख हो।
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पत-पानी  : पुं० [हिं० पत+पानी] प्रतिष्ठा। मान। इज्जत। आबरू।
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पतम  : पुं० [सं०√पत्+अम] १. चन्द्रमा। २. चिड़िया। पक्षी। ३. पतिंगा। शलभ।
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पतयालु  : वि० [सं०√पत्+णिच्+आलु] पतनशील।
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पतयिष्णु  : वि० [सं०√पत्+णिच्+इष्णुच्] पतनशील।
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पतर  : वि०=पातर (पतला)। पुं०=पत्र। स्त्री०=पत्तल।
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पतरा  : पुं० [सं० पत्र] १. वह पत्तल जो तँबोली लोग पान रखने के टोकरे या डलिये में बिछाते हैं। २. सरसों का साग या पत्ता। पुं०=पत्रा (पंचांग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० पतरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतराई  : स्त्री०=पतलाई।
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पतरिंगा  : पुं० [?] गोरैया के आकार का लंबी चोंच तथा लंबी पूँछवाला एक पक्षी जिसका रंग सुनहलापन लिये हरे रंग का होता है तथा आँखें लाल रंग की तथा नुकीली चोंच काले रंग की होती है।
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पतरी  : स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतरेंगा  : पुं०=पतरिंगा (पक्षी)।
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पतरौल  : पुं० [अं० पेट्रोल] गश्त लगानेवाला सैनिक।
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पतला  : वि० [सं० पत्रालः] [स्त्री० पतली, भाव० पतलापन] १. तीन विमाओंवाली ठोस वस्तु के संबंध में, जिसमें मोटाई या गहराई उसकी लंबाई तथा चौड़ाई की अपेक्षा कम हो। जैसे—पतला डंडा, पतली बाँह। २. व्यक्ति जिसका शरीर हृष्ट-पुष्ट न हो, बल्कि कृश या क्षीण हो। पद—दुबला-पतला। ३. कपड़े, कागज आदि के संबंध में, जो तल की मोटाई के विचार से झीना या महीन हो। ४. जिसका घेरा अपेक्षया बहुत कम हो। जैसे—पतली कमर। ५. जिसकी चौड़ाई बहुत कम हो। जैसे—पतली गली। ६. तरल पदार्थ के संबंध में, जिसमें गाढ़ापन न हो। जिसमें तरलता अधिक हो। जैसे—पतला दूध, पतला रसा। ७. लाक्षणिक अर्थ में, जिसमें शक्ति या समर्थता न हो अथवा जिस रूप में या जितनी होनी चाहिए, उस रूप में अथवा उतनी न हो। पद—पतला हाल=निर्धनता और विपत्ति की अवस्था। पतली फसल=ऐसी फसल जिसमें अन्न बहुत कम हुआ हो। पतले कान=ऐसे कान (फलतः उन कानों से युक्त व्यक्ति) जिनमें सुनी-सुनाई बातें बिना विचार किये मान लेने की विशेष प्रवृत्ति हो। जैसे—उनके कान पतले हैं, उनसे जो कुछ कहा जाय, उसे वे सच मान लेते हैं।
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पतलाई  : स्त्री०=पतलापन।
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पतलापन  : पुं० [हिं० पतला+पन (प्रत्य०)] ‘पतला’ होने की अवस्था या भाव।
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पतली  : स्त्री० [लश०] जूता। द्यूत। वि० स्त्री० हिं० पतला का स्त्री० रूप।
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पतलून  : पुं० [अं० पैंटलून] खुली मोहरियों, सीधे पायँचों तथा जेबोंवाला एक तरह का विदेशी पायजामा जिसमें मियानी नहीं होती।
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पतलूननुमा  : वि० [हिं० पतलून+फा० नुमा=दर्शक] जो देखने में पतलून की तरह हो। पुं० वह पाजामा जो देखने में पतलून से मिलता-जुलता हो।
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पतलो  : स्त्री० [देश०] १. सरकंडे या सरपत की पताई। २. सरकंडा। सरपत।
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पतवर  : क्रिं० वि० [सं० हिं० पाँती+वार (प्रत्य०)] १. पंक्तिक्रम से। २. बराबर-बराबर।
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पतवा  : पुं० [हिं० पत्ता+वा (प्रत्य०)] जंगली जानवरों का शिकार करने के लिए बनाई हुई एक तरह की ऊँची मचान। पुं० १.=पत्ता। २.=पता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतवार  : स्त्री० [सं० पत्रबाल, पात्रपाल, प्रा० पात्तवाड़] १. बड़ी नावों और विशेषतः पुराने देशी समुद्री जहाजों का वह तिकोना पिछला अंग या उपकरण जो आधा जल में और आधा जल के बाहर रहता है और जिसके संचालन से नाव का रूख दूसरी ओर घुमाया जाता है। कर्ण। २. ऐसा सहारा या साधन जो कठिन समय में भवसागर से पार उतारे। पुं० [हिं० पत्ता] १. पौधों विशेषतः सरकंड़ों आदि की सूखी पत्तियाँ। २. कूड़ा-करकट। जैसे—खर-पतवार।
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पतवारी  : स्त्री० [हिं० पता, पत्ता] ऊख का खेत। स्त्री०=पतवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतवाल  : स्त्री०=पतवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतवास  : स्त्री० [सं० पतत्=चिड़िया+वास] पक्षियों का अड्डा। चिक्कस।
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पतस  : पुं० [सं०√पत्+असच्] १. पक्षी। चिड़िया। २. पतिंगा। शलभ। ३. चंद्रमा।
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पतस्वाहा  : पुं० [हिं०] अग्नि।
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पता  : पुं० [सं० प्रत्यय, प्रा० पत्तय=अग्नि] १. किसी काम,चीज जगह या बात का परिचायक वह विवरण जिसकी सहायता से उसके पास तक पहुँचा जा सके या उसके रूप स्थिति आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। पद—पता-ठिकाना (दे०)। २. चिट्ठी आदि के ऊपर का वह विवरणात्मक लेख जो सूचित करता है कि वह पत्र किस स्थान के निवासी किस व्यक्ति का है अथवा किसके पास पहुँचना चाहिए। ३. किसी अज्ञात विषय, व्यक्ति आदि के संबंध की ऐसी जानकारी जो अभी तक प्राप्त न हुई हो और जिसे प्राप्त करना अभीष्ट या आवश्यक हो। जैसे—चोर (या मुजरिम) का अभी तक पता नहीं है। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना।—लगना।—लगाना। पद—पते का=वास्तव में उस स्थान का जिसका सब को परिचय न हो। ४. किसी बात या विषय के गूढ़ तत्त्व या रहस्य की ऐसी जानकारी जो प्राप्त की जाने को हो। जैसे—यह पता लगाना चाहिए कि उसके पास रुपया कहाँ से आता है। पद—पते की बात=ऐसी बात जिससे कोई भेद खुल जाता या रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे—वाह ! तुमने भी क्या पते की बात कही है। विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग केवल ‘पते की’ के रूप में भी होता है। स्त्री० [लता का अनु०] लता या उसी तरह की और चीज। लता के साथ प्रयुक्त। जैसे—लता-पता।
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पताई  : स्त्री० [हिं० पत्ता (वृक्ष का)] १. वृक्ष या पौधे की ऐसी पत्तियाँ जो सूखकर झड़ गई हों। मुहा०—पताई लगाना=चूल्हे, भट्ठी आदि में सूखी पत्तियाँ झोंकना। (किसी के मुँह में) पताई लगाना=मुँह फूँकना (स्त्रियों की गाली) २. कूड़ा-करकट। स्त्री० [हिं० पत्ता (कान का)] गहना। जेवर। जैसे—गहना-पताई कुछ नहीं मिला।
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पताकरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो बंगाल, आसाम और पश्चिमी घाट में होता है। इसके फल खाए जाते हैं।
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पताकांक  : पुं० [सं० पताका-अंक, ष० त०, ब० स०] दे० ‘पताका स्थान’।
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पताकांशु  : पुं० [सं० पताका-अंशु, ष० त०] झंडा। झंडी। पताका।
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पताका  : स्त्री० [सं०√पत्+आकन्—टाप्] १. लकड़ी आदि के डंडे के सिरे पर पहनाया हुआ वह तिकोना या चौकोना कपड़ा जिस पर कभी कभी किसी राजा या संस्था का विशिष्ट चिह्न भी अंकित रहता है। झंडा। झंडी। फरहरा। २. झंडा। ध्वजा। (मुहा० के लिए दे० ‘झंडा’ के मुहा०) पद—विजय की पताका=युद्ध आदि में किसी स्थान पर विजयी पक्ष की वह पताका जो विजित पक्ष की पताका गिराकर उसके स्थान पर उड़ाई जाती है। विजय-सूचक। पताका। ३. वह डंडा जिसमें पताका पहनाई हुई होती है। ध्वज। ४. सौभाग्य। ५. तीर चलाने में उँगलियों की एक विशिष्ट प्रकार की स्थिति। ६. दस खर्ब की संख्या जो अंकों में इस प्रकार लिखी जायगी— १०००००००००००० । ७. पिंगल के नौ प्रत्ययों में से आठवाँ जिसके द्वारा किसी निश्चित गुरु, लघु वर्ण के छंद अथवा छंदों का स्थान जाना जाय। ८. साहित्य में, नाटक की प्रासंगिक कथा के दो भेदों में से एक। वह कथा जो रूपक (या नाटक की) आधिकारिक कथा की सहायतार्थ आती और दूर तक चलती है। इसका नायक अलग होता है और पताका नायक कहलाता है। जैसे—प्रसाद के स्कंद गुप्त नाटक में मालव की कथा ‘पताका’ है और उसका नायक वभ्रुवर्मा पताका नायक है। (दूसरा भेद प्रकरी कहलाता है)।
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पताका-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] बाँस आदि जिसमें पताका लगी होती है।
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पताका-वेश्या  : स्त्री० [सं०] बहुत ही निम्न कोटि की वेश्या। टकाही रंडी।
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पताका-स्थानक  : पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में, नाटक के अंतर्गत वह स्थिति जिसमें किसी प्रसंग के द्वारा आगे की या तो अन्योक्ति पद्धति पर या समासोक्ति पद्धति पर सूचित की जाती है।
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पताकिक  : पुं० [सं० पताका+ठन्—इक] वह जो आगे आगे झंडा या पताका लेकर चलता हो।
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पताकित  : वि० [सं० पताका+इतच्] (स्थान) जिस पर पताका लगाई गई हो।
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पताकिनी  : स्त्री० [सं० पताका+इनि—ङीप्] १. सेना। फौज। २. एक देवी का नाम।
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पताकी (किन्)  : वि० [सं० पताका+इनि] [स्त्री० पताकिनी] झंडा लेकर चलनेवाला। पुं० १. रथ। २. फलित ज्योतिष में राशियों का एक विशेष वेध जिससे जातक के अरिष्ट काल की अवधि जानी जाती है।
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पतामी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की नाव।
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पतार  : पुं० [सं० पाताल] १. घना जंगल। सघन वन। २. नीची भूमि। ३. दे० ‘पाताल’।
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पतारी  : स्त्री० [देश०] जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक तरह की चिड़िया जिसका शिकार किया जाता है।
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पताल  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पताल-आँवला  : पुं० [सं० पाताल-आमकली] औषध के काम में आनेवाला एक पौधा।
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पताल-कुम्हड़ा  : पुं० [सं० पाताल-कुष्मांड] एक तरह का जंगली पौधा।
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पताल-दंती  : पुं०=पातालदंती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतावर  : पुं० [हिं० पत्ता] पेड़ के सूखे झड़े हुए पत्ते।
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पतासा  : पुं०=पताशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतासी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी रुखानी (बढ़ई)।
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पतिंग  : पुं०=पतंगा।
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पतिंगा  : पुं०=पतंगा।
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पतिंवरा  : वि० [सं० पति√वृ (वरण करना)+खच्, मुम्] १.(स्त्री) जो अपना पति स्वयं चुने। स्वेच्छा से पति का वरण करनेवाली (स्त्री)। स्वयंवरा। स्त्री० काला जीरा।
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पति  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+डति] [स्त्री० पत्नी] १. किसी वस्तु का मालिक या स्वामी। अधिपति। प्रभु। जैसे—गृहपति। २. स्त्री की दृष्टि से वह पुरुष जिसके साथ उसका विधिवत् विवाह हुआ हो। खाविंद। दूल्हा। शौहर। विशेष—साहित्य में श्रृंगार रस का आलम्बन वह नायक ‘पति’ माना जाता है, जिसने नायिका का विधिवत् पाणि-ग्रहण किया हो। ३. पाशुपत दर्शन के अनुसार सृष्टि, स्थिति और संहार का वह कारण जिसमें निरतिशय, ज्ञान-शक्ति और क्रियाशक्ति होती है और ऐश्वर्य से जिसका नित्य संबंध होता है। ईश्वर। ४. जड़। मूल। स्त्री० [हिं० पत=प्रतिष्ठा] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लज्जा। शर्म। उदा०—जो पति संपति हूँ बिना, जदुपति राखे जाह।—बिहारी।
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पतिआना  : स०=पतियाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतिआर  : वि० [हिं० पतियाना] जिस पर विश्वास किया जा सके। पुं०=विश्वास।
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पतिक  : पुं० [सं० प्रतिकः] कार्षापण नाम का पुराना सिक्का।
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पति-कामा  : वि० [सं० ब० स०, टाप्] (स्त्री) जिसके मन में किसी पुरुष से विधिवत् विवाह करने की इच्छा हो।
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पतिघातिनी  : स्त्री० [सं० पति√हन् (हिंसा)+णिनि—ङीप्] १. पति की हत्या करनेवाली स्त्री। पति को मार डालनेवाली स्त्री। २. फलित ज्योतिष में, ऐसी स्त्री जिसका ग्रहों के प्रभाव के कारण विधवा हो जाना अवश्यम्भावी या निश्चित हो। ३. सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार स्त्रियों के हाथ में होनेवाली एक रेखा जिसके प्रभाव से उनका विधवा हो जाना निश्चित माना जाता है।
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पतिघ्न  : वि० [सं० पति√हन्+ठक्] पति को मार डालनेवाला या वाली। पुं० स्त्रियों में होनेवाला वह अशुभ चिन्ह या लक्षण जिससे उसके पति के शीघ्र ही मर जाने की संभावना सूचित होती है।
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पतिघ्नी  : स्त्री० [सं० पतिघ्न+ङीप्]=पतिघातिनी।
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पतिजिया  : स्त्री० [सं० पुत्रजीवा] जीया पोता नामक वृक्ष।
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पतित  : भू० कृ० [सं०√पत् (गिरना)+क्त] [स्त्री० पतिता, भाव० पतितता] १. ऊपर से नीचे आया या गिरा हुआ। २. नीचे की ओर झुका हुआ। नत। ३.(व्यक्ति) जिसका नैतिक दृष्टि से पतन हो चुका हो। ४. ऊपरी जाति या वर्ग के धर्म या धार्मिक प्रथाओं, विश्वासों आदि को न माननेवाला, उनका उल्लंघन करनेवाला अथवा उन्हें हेय समझनेवाला। ५. बहुत बड़ा अधम, नीच या पापी। ६. जो अपनी जाति, धर्म या समाज से किसी हीन आचरण के कारण निकाला या बहिष्कृत किया गया हो। ७. जो युद्ध आदि में गिरा, दबा या हरा दिया गया हो। ८. अपवित्र। मलिन। ९. गिराया या फेंका हुआ।
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पतित-उधारन  : वि० [सं० पतित+हिं० उधारना (सं० उद्धरण)] पतितों का उद्धार करनेवाला तथा उन्हें सद्गति देनेवाला। पुं० ईश्वर।
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पतितता  : स्त्री० [सं० पतित+तल्—टाप्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। २. जाति या धर्म से च्युत होने का भाव। ३. अपवित्रता। ४. अधमता। नीचता।
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पतित-पावन  : वि० [पतित√पाव+ल्युट्—अन] [स्त्री० पतितपावनी] पतित को भी पवित्र करनेवाला पतितों को शुद्ध करनेवाला। पुं० परमेश्वर।
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पतित-वृक्ष  : वि० [कर्म० स०] पतित दशा में रहनेवाला। जातिच्युत होकर जीवन बितानेवाला।
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पतितव्य  : वि० [सं०√पत्+तव्यत्] जो पतित होने को हो या पतित होने के योग्य हो।
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पतित-सावित्रीक  : वि० [ब० स० कप्] (ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा शूद्र) जिसका यज्ञोपवीत विधिवत् न हुआ हो अथवा हुआ ही न हो।
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पतित्व  : पुं० [सं० पति+त्व] १. प्रभुत्व। स्वामित्व। २. पति या पाणिग्राहक होने की अवस्था, भाव या समर्थता।
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पति-देवा  : वि० [ब० स०] (ऐसी स्त्री) जो अपने पति या स्वामी को ही सबसे बड़ा देवता मानती हो; अर्थात् पतिव्रता।
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पति-धर्म  : पुं० [ष० त०] १. पति और स्वामी का कर्तव्य और धर्म। २. पति के प्रति पत्नी का कर्त्तव्य और धर्म।
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पतिधर्मवती  : वि० [सं० पतिधर्म+मतुप्, वत्व, ङीप्] (स्त्री) जो पति के प्रति अपने कर्तव्य करने के लिए सचेत हो।
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पतिनी  : स्त्री०=पत्नी(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतिपारना  : स० [सं० प्रतिपालन] १.प्रतिपालन करना। पूरा करना। २.पालन-पोषण करना।
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पति-प्राणा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] पति को प्राणों के समान समझनेवाली अर्थात् पतिव्रता स्त्री।
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पतिया  : स्त्री०=पाती (चिट्ठी या पत्री)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतियाना  : स० [सं० प्रत्यय+हिं० आना (प्रत्य०)] १. किसी की कही हुई बात आदि पर विश्वास करना। सच समझना। २. किसी व्यक्ति को विश्वसनीय या सच्चा समझना।
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पतियार (ा)  : वि० [हिं० पतियाना] विश्वसनीय। पुं० प्रत्यय। विश्वास।(पतियारा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पति-रिपु  : वि० [सं० ब० स०] पति से द्वेष या शत्रुता करनेवाली। पति से वैर रखनेवाली। (स्त्री)।
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पति-लंघन  : पुं० [सं० ष० त०] स्त्री का दूसरे पति से विवाह करके पहले मृत-पति का तिरस्कार करना।
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पतिलोक  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणानुसार वह लोक जिसमें स्त्री का मृत पति रहता है और जहाँ अच्छी स्त्री भी मरने पर भेजी जाती है।
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पतिवंती  : वि० [सं० पति-मती] (स्त्री) जिसका पति जीवित या वर्तमान हो। सधवा।
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पतिवती  : वि०=पतिवंती।
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पतिवत्नी  : वि० स्त्री० [सं० पति+मतुप्, वत्व, ङीप्, नुक् ]=पतिवंती।
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पतिवर्त्ता  : स्त्री०=पतिव्रता।
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पतिवाह  : पुं० [?] उत्तर प्रदेश के कुछ पूर्वी जिलों में रहनेवाली अहीरों की एक जाति।
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पति-वेदन  : वि० [सं० ष० त०] जो पति प्राप्त करावे। पति प्राप्त करानेवाला। पुं० महादेव शिव।
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पति-वेदना  : स्त्री० [सं० ष० त०] तंत्र-मंत्र या और किसी उपचार से पति को प्राप्त करनेवाली स्त्री।
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पति-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] विवाहिता स्त्री का वह व्रत कि मैं सदा पति में अनन्य भक्ति रखूँगी, आज्ञाकारिणी बनकर सेवा करूँगी और पर-पुरुष की ओर कभी कुदृष्टि से नहीं देखूँगी। पातिव्रत्य।
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पतिव्रता  : वि० [सं० ब० स०, टाप्] पति-धर्म ही जिसका व्रत हो। अर्थात् पति में पूर्ण निष्ठा रखनेवाली तथा उसका अनुसरण करनेवाली सच्चरित्रा (स्त्री)।
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पतिष्ठ  : वि० [सं० पतितृ+इष्ठन् ‘तृ’ का लोप] पूरी तरह से पतन की ओर प्रवृत्त रहने या होनेवाला। अत्यन्त पतन-शील।
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पती  : पुं०=पति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीआ  : स्त्री०=प्रतिज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीजना  : अ० [हिं० प्रतीत+ना (प्रत्य०)] प्रतीति या एतबार करना। भरोसा या विश्वास करना। उदा०—इहौ राहु भा भानहिं, राधौं मनहिं पतीजु।—जायसी।
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पतीणना  : स०=पतीतना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीतना  : स०=पतीजना (विश्वास करना)।
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पतीना  : स०=पतीतना (विश्वास करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीर  : स्त्री० [सं० पंक्ति] कतार। पंक्ति। वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीरी  : स्त्री० [हिं० पात=पत्ता] एक प्रकार की चटाई।
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पतील  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीला  : पुं० [सं० पतिली] [स्त्री० अल्पा० पतीली] ताँबे, पीतल आदि का ऊँचे तथा खड़े किनारेवाला और गोल घेरेवाला एक प्रसिद्ध बरतन। वि०=पतील (पतला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतीली  : स्त्री० हिं० पतीला का स्त्री० अल्पा० रूप।
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पतुका  : पुं० [सं० पात्र] [स्त्री० अल्पा० पतुकी ] १.बड़ी हाँड़ी। मटका। उदा०—पतुकी धरी श्याम खिसाई रहे उत ग्वारि हंसी मुख आंचल कै।—केशव। २. पतीला। (बुंदे०)।
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पतुरिया  : स्त्री० [सं० पतिली=स्त्री विशेष] १. वेश्या, विशेषतः नाचने, गाने का पेशा करनेवाली वेश्या। पातुरी। २. दुश्चरित्रा और व्यभिचारिणी स्त्री। पुंश्चली। (दे० पातुरी)
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पतुली  : स्त्री० [देश०] कलाई में पहनने का एक गहना। (अवध)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतुही  : स्त्री० [हिं० पत्ता] मटर की वह हरी फली जिसमें पूरे तथा पुष्ट दाने न हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतूखी  : स्त्री०=पतोखी (पतोखा का स्त्री० रूप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतेना  : स्त्री० [?] हरे सुनहले रंग की एक चिड़िया जिसकी गरदन और पेट नीला होता है। इसकी चोंच नीचे की ओर झुकी हुई, नुकीली और लंबी होती है।
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पतोई  : स्त्री० [देश०] ईख का रस खौलाते समय उसमें से निकलनेवाली मैली झाग।
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पतोखर  : स्त्री० [सं० हिं० पत्ता] वह ओषधि जो किसी वृक्ष, पौधे, तृण, पत्ते, फूल आदि के रूप में हो। खर-बिरई। पुं० [सं० ओषधिपति] चंद्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतोखरी  : स्त्री०=पतोखा।
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पतोखा  : पुं० [हिं० पत्ता] [स्त्री० अल्पा० पतोखी] १. पत्ते अथवा पत्तों का बना हुआ अंजुली या कटोरे के आकार का पात्र। २. पत्तों का बना हुआ छाता। ३.एक प्रकार का बगला पक्षी। पतंखा।
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पतोखी  : स्त्री० [हिं० पतोखा] १.एक पत्ते का बना हुआ छोटा दोना। २.पत्तों का बना हुआ छोटा छाता।
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पतोरा  : पुं०=पत्योरा (एक तरह का पकवान)।
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पतोह (हू)  : स्त्री० [सं० पुत्रवधू, प्रा० पुत्रबहू] पुत्र की स्त्री। पुत्रवधू।
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पतौआ  : पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पतौखा (षा)  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पतौखी (षी)] =पतोखा।
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पत्तंग  : पुं० [सं० पत्रांग, पृषो० सिद्धि] पतंग नामक लकड़ी। बक्कम।
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पत्त  : पुं०=पत्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्तन  : पुं० [सं०√पत्+तनन्] १. छोटा नगर। कस्बा। २. मृदंग।
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पत्तन-आयुध  : पुं० [सं० ष० त०] वे आयुध जिनसे नगर की रक्षा की जाती हो।
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पत्तन-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्तन या कस्बा जिसका शासन तथा व्यवस्था वहाँ के निर्वाचित लोग करते हों। (टाउन एरिया)।
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पत्तन-पाल  : पुं० [सं०पत्तन√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] पत्तन या कस्बे का प्रधान शासक।
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पत्तर  : पुं० [सं० पत्र] धातु आदि का कागज के समान लचीला तथा पतला टुकड़ा। स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्तल  : स्त्री० [सं० पत्र, हिं० पत्ता] १. पलाश, महुए आदि के पत्तों को छोटी-छोटी सीकों की सहायता से जोड़कर थाली के सदृश बनाया हुआ गोलाकार आधार। कहा०—जिस पत्तल में खाना, उसी में छेद करना=अपने उपकारक, पालक, संरक्षक आदि का भी अपकार करना। पद—एक पत्तल के खानेवाले=परस्पर घनिष्ठ सामाजिक संबंध रखनेवाले। परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार करनेवाले। सजातीय। जूठी पत्तल=किसी की जूठी हुई भोजन सामग्री। उच्छिष्ट। मुहा०—पत्तल खोलना=जिस काम की प्रतिज्ञा की या शर्त रखी गई हो, उसके पूरे होने पर ही भोजन करना। (दे० नीचे ‘पत्तल बाँधना’) पत्तल पड़ना=भोजन के समय खानोंवालों के लिए पत्तलें क्रम से बिछाई या रखी जाना। पत्तल परसना=(क) खानेवालों के सामने पत्तलें रखना। (ख) उक्त पत्तलों पर भोजन की सामग्री रखना। पत्तल बाँधना=यह प्रतिज्ञा करना या लगाना कि जब तक अमुक काम न हो जायगा, तब तक भोजन नहीं किया जायगा। (किसी की) पत्तल में खाना=(किसी के साथ) खान-पान का संबंध करना या रखना। पत्तल लगाना=पत्तल परसना (दे० ऊपर)। २. पत्तल पर परोसे हुए खाद्य पदार्थ। क्रि० प्र०—लगाना। ३. उतना भोजन जितना एक साधारण आदमी करता हो। जैसे—जो खाने के लिए न आवे, उसके घर पत्तल भेज देना।
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पत्ता  : पुं० [सं० पत्र] [स्त्री० पत्ती] १. पेड़-पौधों आदि के तनों, शाखाओं आदि में लगनेवाले प्रायः हरे रंग के चिपटे लचीले अवयवों में से हर एक जो हवा में लहराता या हिलता-डुलता रहता है। पर्ण। मुहा०—पत्ता खड़कना=(क) किसी प्रकार की गति आदि की आहट मिलना। (ख) किसी प्रकार की आशंका या खटका होना। पत्ता तक न हिलना=हवा का इतना बंद रहना या बिलकुल न चलना कि वृक्षों के पत्ते तक न हिल रहे हों। पत्तातोड़ भागना=जान बचाने या मुँह छिपाने के लिए बहुत तेजी से भागकर दूर निकल जाना। (फल आदि में) पत्ता लगना=पत्ते से सटे रहने के कारण फल में दाग पड़ जाना या उसके कुछ अंश सड़ जाना। पत्ता हो जाना=बहुत तेजी से भागकर अदृश्य या गायब हो जाना। २. उक्त के आधार पर, चाट आदि वे वस्तुएँ जो पत्तों पर रखकर बेची जाती हैं। जैसे—एक पत्ता दही बड़ा इन्हें भी दो। मुहा०—पत्ते चाटना=बाजारी चीजें खाना। ३. पत्ते के आकार का वह चिह्न जो कपड़े, कागज आदि पर छापा, बनाया या काढ़ा जाता है। ४. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना जो बालियों में लटकाया जाता है। ५.ताश की गड्डी में का कोई एक कागज का खंड। ६. सरकारी चलनसार नोट। जैसे—दस रुपए का पत्ता,सौ रुपए का पत्ता। वि० पत्ते की तरह का बहुत पतला और हलका।
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पत्ता-फेर  : पुं०=पटा-फेर।
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पत्ति  : पुं० [सं०√पद् (जाना)+क्तिन्] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। २. पैदल सिपाही। प्यादा। ३. योद्धा। वीर। ४. नायक। स्त्री० प्राचीन भारतीय सेना की एक इकाई जो सेनामुख की एक तिहाई होती थी।
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पत्तिक  : वि० [सं० पत्ति+कन्] पैदल चलनेवाला।
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पत्ति-काय  : पुं० [ष० त०] १. पैदल सेना। २. पैदल चलने वाला सिपाही।
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पत्तिगण  : पुं०=पत्ति-गणक।
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पत्ति-गणक  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारत में, वह सैनिक अधिकारी जो पत्ति अर्थात् पैदल सेना की गणना करता था।
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पत्तिपाल  : पुं० [सं० पत्ति√पाल् (रक्षा)+णिच्=अण्, ष० त०] पत्ति का नायक।
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पति-व्यूह  : पुं० [ष० त०] वह सैनिक व्यूह-रचना जिसमें आगे कवचधारी सैनिक हों और पीछे धनुर्धर।
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पत्ति-सैन्य  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘पत्ति-काय’।
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पत्ती  : स्त्री० [हिं० पत्ता+ई (प्रत्य०)] १. पेड़-पौधों का बहुत छोटा पत्ता। जैसे—गेंदें, नीम या बेले की पत्ती। २. भाँग नामक पौधे में लगने वाले छोटे-छोटे पत्ते जो नशीले होते हैं। (पूरब)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) ३. तमाकू के बड़े-बड़े पत्तों का विशेष प्रक्रिया से बनाया हुआ चूरा जिसे लोग पान आदि के साथ खाते हैं। (पूरब)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) ४. फूल की पंखुड़ी। ५. लकड़ी धातु आदि का छोटा टुकड़ा। ६. लोहे का तेज धार वाला वह छोटा पतला टुकड़ा जिसकी सहायता से दाढ़ी बनाई जाती है। (ब्लेड) ७. ताश का कोई पत्ता। ८. रोजगार, व्यवसाय आदि में होनेवाला साझे का अंश। जैसे—इस व्यवसाय में इनकी भी दो आना पत्ती है।
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पत्तीदार  : वि० [हिं० पत्ती+फा० दार=रखनेवाला] १. (पौधा या वृक्ष) जिसमें पत्तियाँ हों। २. (व्यक्ति) जिसकी किसी व्यापार या सम्पत्ति में पत्ती (भाग या हिस्सा हो)।
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पत्तूर  : पुं० [सं०√पत्त+ऊर्,नि० सिद्धि] १. शांति या शालिंच नामक साक। २. जल-पीपल। ३.पाकर का पेड़। ४. शमी का पेड़। ५.पतंग या बक्कम नामक वृक्ष की लकड़ी।
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पत्थ  : पुं० १.=पथ्य। २.=पथ।
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पत्थर  : पुं० [सं० प्रस्तर, प्रा० पत्थर] [वि० पथरीला, क्रि० पथराना] १. धातुओं से भिन्न वह कड़ा, ठोस और भारी भू-द्रव्य जो खानों के नीचे बनता है। भू-कम्प आदि के कारण यही भू-द्रव्य ऊपर उठकर पर्वतों का रूप धारण कर लेता है। २. खानों में से खोदकर या पर्वतों में से काटकर निकाला हुआ उक्त भू-द्रव्य का कोई खंड या पिंड। पद—पत्थर का कलेजा, दिल या हृदय=अत्यन्त कठोर हृदय। किसी के कष्ट से न पसीजनेवाला दिल या हृदय। पत्थर का छापा=पुस्तकों आदि की एक प्रकार की छपाई जिसमें छापे जानेवाले लेख की एक प्रतिलिपि पत्थर पर उतारी जाती है और उसी पत्थर पर कागज रखकर छापते हैं। लीथो की छपाई। पत्थर की छाती=(क) ऐसा हृदय जो बहुत बड़े-बड़े कष्ट भी सहज में और चुपचाप सह लेता हो। (ख) ‘दे० ऊपर पत्थर का कलेजा’। पत्थर कील कीर=ऐसी प्रतिज्ञा या बात, जो उसी प्रकार दृढ़ और स्थायी हो, जैसी पत्थर के ऊपर छेनी आदि से खींची हुई लकीर होती है। मुहा०—पत्थर को (या में) जोंक लगाना=बिलकुल अनहोनी या असंभव बात करना। ऐसा काम करना जो औरों के लिए असंभव या बहुत अधिक कठिन हो। (शस्त्र आदि को) पत्थर चटाना=छुरी, कटार आदि की धार पत्थर पर घिसकर तेज करना। पत्थर तले हाथ आना या दबना=ऐसे संकट में पड़ना या फँसना जिससे छूटने का कोई उपाय न सूझता हो। बुरी तरह फंस जाना। पत्थर तले से हाथ निकालना=बहुत बड़े संकट या विकट स्थिति में से किसी प्रकार बचकर निकलना। पत्थर निचोड़ना=(क) अनहोनी बात या असंभव बात कर दिखाना। (ख) ऐसे व्यक्ति से कुछ प्राप्त कर लेना जिससे प्राप्त कर लेना औरों के लिए बिल्कुल असंभव हो। पत्थर पिघलना या पसीजना=(क) बिलकुल अनहोनी या असंभव बात होना। परम कठोर हृदय का भी द्रवित होना। पत्थर सा खींच या फेंक मारना=बहुत ही रुखाई से उत्तर देना या बात करना। पत्थर से सिर फोड़ना या मारना=असंभव काम या बात के लिए प्रयत्न करना। व्यर्थ सिर खपाना। ३. सड़कों पर लगा हुआ वह पत्थर जिस पर वहाँ से विशिष्ट स्थान की दूरी अंकित होती है। ४. ओला। बिनौला। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। पद—पत्थर पड़े=चौपट हो जाय। नष्ट हो जाय, मारा जाय। ईश्वर का कोप पड़े। (अभिशाप या गाली) जैसे—पत्थर पड़े तुम्हारी इस करनी (या बुद्धि) पर। मुहा०—(किसी चीज या बात पर) पत्थर पड़ना=बुरी तरह से चौपट या नष्ट-भ्रष्ट हो जाना। जैसे—तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गया है। पत्थर पानी पड़ना=बहुत जोरों की वर्षा होना और उसके साथ ओले गिरना। ५. नीलम, पन्ना, लाल, हीरा आदि रत्नों जो वस्तुतः बहुमूल्य पत्थर ही होते हैं। जवाहिर। ६. ऐसी चीज जो पत्थर की ही तरह कठोर, जड़ या ठोस या भारी हो। जैसे—(क) यह गठरी क्या है, पत्थर है। (ख) तुम्हारा कलेजा क्या है, पत्थर है। ७. ऐसा अन्न आदि जो जल्दी गलता या पचता न हो। अव्य० नाम को भी कुछ नहीं। बिलकुल नहीं। जैसे—वहाँ क्या रखा है, पत्थर !
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पत्थर-कला  : स्त्री० [हिं० पत्थर+कल] एक तरह की पुरानी चाल की बन्दूकें जिसमें लगे हुए चकमक पत्थर की सहायता से बारूद दागा जाता था।
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पत्थर-चटा  : पुं० [हिं० पत्थर+अनु० चट चट] एक प्रकार की घास जिसकी टहनियाँ नरम और पतली होती हैं। पुं० [हिं० पत्थर+चाटना] १.एक प्रकार का साँप जो प्रायः पत्थर चाटता हुआ दिखाई देता है। २. एक प्रकार की समुद्री मछली जो प्रायः चट्टानों से चिपटी रहती है। ३. वह जो प्रायः घर के अन्दर रहता हो और जल्दी घर से बाहर न निकलता हो। ४. वह जो बहुत बड़ा कंजूस या मक्खीचूस हो।
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पत्थर-चूर  : पुं० [हिं० पत्थर+चूर] एक तरह का पौधा।
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पत्थर-फूल  : पुं० [हिं० पत्थर+फूल] दवा तथा मसाले के काम में आनेवाला एक तरह का पौधा जो प्रायः पथरीली भूमि में होता है। छरीला। शिलापुष्प।
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पत्थर-फोड़  : पुं० [हिं० पत्थर+फोड़ना] १.पत्थर तोड़ने का पेशा करनेवाला। संगतराश। २. छरीला या शैलाख्य नामक पौधा जो पत्थरों की संधियों में उत्पन्न होता है। ३. दे० ‘हुदहुद पक्षी’।
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पत्थरबाज  : वि० [हिं० पत्थर+फा० बाज] [भाव० पत्थरबाजी] पत्थर फेंक-फेंककर लोगों को मारनेवाला। पुं० वह जिसे ढेलवाँस से कंकड़-पत्थर फेंकने का अभ्यास हो। ढेल-वाह।
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पत्थरबाजी  : स्त्री० [हिं० पत्थरबाज] दूसरों पर पत्थर फेंकने की क्रिया या भाव। ढेलेबाजी।
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पत्थल  : पुं०=पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्नी  : स्त्री० [सं० पति+ङीप्, नुक्] किसी पुरुष से संबंध के विचार से वह स्त्री जिसके साथ वह पुरुष का विधिवत् पाणि-ग्रहण या विवाह हुआ हो। भार्या। जोरू।
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पत्नी-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री से गमन न करने का व्रत या संकल्प।
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पत्नीव्रती (तिन्)  : वि० [सं० पत्नीव्रत+इनि] जिसने पत्नी-व्रत धारण किया हो, अथवा जो पत्नी-व्रत का पालन करता हो।
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पत्नी-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] यज्ञ में वह गृह जो पत्नी के लिए बनाया जाता था। यह यज्ञशाला के पश्चिम की ओर होता था।
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पत्य  : पुं० [सं० पति+यत्] पति होने की अवस्था,धर्म या भाव। जैसे—पातिव्रत्य।
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पत्याना  : स०=पतियाना।
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पत्यारा  : वि०, पुं०=पतियारा।
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पत्यारी  : स्त्री० [सं० पंक्ति] पंक्ति। कतार।
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पत्योरा  : पुं० [हिं० पत्ता+और (प्रत्य०)] अच्चू के पत्ते का रिकवँछ।
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पत्रंग  : पुं० [सं० पत्र-अंग, ष० त०, शक पररूप] पतंग नाम की लकड़ी या पेड़। बक्कम।
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पत्र  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+ष्ट्रन्] १. वृक्ष का पत्ता। पत्ती। पर्ण। २. वह कागज जिस पर किसी को भेजने के लिए कोई संदेश या समाचार लिखा हो। खत। चिट्ठी। विशेष—प्राचीन काल में, जब कागज नहीं होता था, संदेश, समाचार आदि प्रायः वृक्षों के बड़े पत्तों पर ही लिखकर भेजे जाते थे; इसलिए यह शब्द अब खत या चिट्ठी का वाचक हो गया है। ३. वह कागज या धातु-पट जिस पर विशेष व्यवहार के प्रमाण-स्वरूप कुछ लिखा गया हो। जैसे—दान-पत्र, प्रतिज्ञा-पत्र। ४. वह लेख जो किसी व्यवहार या घटना के प्रमाण-स्वरूप लिखा गया हो। कोई पट्टा या दस्तावेज। ५. समाचार पत्र। अखबार। ६. समाचार-पत्रों या सामयिक पत्रों का वर्ग या समूह। (प्रेस) ७. पुस्तक आदि का पृष्ठ। पन्ना। ८. धातु आदि का पत्तर। जैसे—स्वर्ण-पत्र। ९. पक्षियों का वह पर जो तीर में बँधा या लगाया जाता है। पंख। १॰. सौंदर्य-वृद्धि के लिए रंगों, सुगंधित द्रव्यों आदि से बनाई जानेवाली आकृतियाँ या अंकन। ११. तेजपात। १२. पक्षी। चिड़िया। १३. वाहन। सवारी। १४. छुरी, तलवार आदि का दल। पुं० [सं० पात्र ] बरतन। उदा०—ऊँधा पत्र बुदबुद जल आकृति।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्रक  : पुं० [सं० पत्र+कन्] १. पत्ता। २. पत्तियों की श्रृंखला। पत्रावली। ३. शांति नामक साग। ४. तेजपत्ता। ५. वह पत्र जिस पर स्मृति के लिए सूचना आदि के रूप में कोई बात लिखी हो। स्मृति-पत्र (मेमो, नोट)। वि० १. पत्र-संबंधी। २. पत्र या कागज का बना हुआ या पत्र के रूप में होनेवाला। जैसे—पत्रक-धन।
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पत्रक-धन  : पुं० [सं० मध्य० स०] निश्चित मान का वह धन जो छपे हुए कागज या पत्र अर्थात् धन-पत्र के रूप में हो। (पेपर मनी)।
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पत्र-कर्तक  : पुं० [सं० ष० त०] उपकरण जिससे कागज आदि काटे जाते हैं। (पेपर कटर)।
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पत्रकार  : पुं० [सं० पत्र√कृ (करना)+अण्] वह व्यक्ति जो समाचार पत्रों को नित्य नये समाचारों की सूचना देता, उन पर टीका-टिप्पणी करता और दूसरों द्वारा भेजे हुए समाचारों को सम्पादित करता है। (जरनलिस्ट)।
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पत्रकारिता  : स्त्री० [सं० पत्र√कृ+णिनि+तल्+टाप्] १. पत्रकार होने की अवस्था या भाव। २. पत्रकार का काम। ३. वह विद्या जिसमें पत्रकारों के कार्यों, कर्तव्यों उद्देश्यों आदि का विवेचन होता है। (जरनलिज्म)।
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पत्र-कारी  : स्त्री०=पत्रकारिता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्र-काहला  : स्त्री० [सं० ष० त०] पक्षी के परों के फड़फड़ाने अथवा पत्तों के हिलने से होनेवाला शब्द।
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पत्र-कृच्छ्र  : पुं० [मध्य० स०] एक व्रत जिसमें पत्तों का काढ़ा पीकर रहना पड़ता है।
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पत्र-गुप्त  : पुं० [सं० ब० स०] तिधारा। थूहर। त्रिकंटक।
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पत्र-घना  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सातला नाम का पौधा।
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पत्रघ्न  : स्त्री० [सं० पत्र√हन् (हिंसा)+टक्] सेंहुँड़। थूहर।
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पत्रज  : पुं० [सं० पत्र√जन् (उत्पन्न होना)+ड] तेजपत्ता।
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पत्र-जात  : पुं० [ष० त०] १. किसी संस्था, सभा अथवा किसी विषय से संबंध रखनेवाले सभी आवश्यक कागज। कागज-पत्तर (पेपर्स)। २. इस प्रकार के पत्रों की नत्थी (फाइल)।
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पत्रणा  : स्त्री० [सं० पत्र√नम् (झुकना)+ड, णत्व, टाप्] १. पत्ररचना। २. बाण में पंख लगाना।
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पत्र-तंडुली  : स्त्री० [सं० पत्र-तंडुल, ब० स० ङीष्] यवतिक्ता लता।
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पत्र-तरू  : पुं० [मध्य० स०] दुर्गन्ध खैर।
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पत्र-दारक  : पुं० [सं०√दृ (विदारण)+णिच्+ण्वुल्—अक, पत्र-दारक, ष० त०] लकड़ी चीरने का आरा।
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पत्र-द्रुम  : पुं० [मध्य० स०] ताड़ का पेड़।
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पत्र-नाड़िका  : स्त्री० [ष० त०] पत्ते की नस।
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पत्र-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] वह पंजी या रजिस्टर जिसमें आनेवाले पत्रों और उनके दिये जानेवाले उत्तरों का विवरण रखा जाता है। (लेटरबुक)।
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पत्र-परशु  : पुं० [स० त०] सुनारों की छेनी।
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पत्र-पाल  : पुं० [ब० स०] १. बड़ी छुरी। २. दे० ‘डाकपाल’।
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पत्रपाली  : स्त्री० [सं० पत्रपाल+ङीष्] १. बाण का पिछला भाग। २. कैंची।
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पत्र-पाश्या  : स्त्री० [ ष० त०] पुरानी चाल का एक तरह का आभूषण जो स्त्रियाँ माथे पर बाँधती थीं।
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पत्र-पिशाचिका  : स्त्री० [सुप्सुपा समास] पत्तियों की बनी हुई छतरी।
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पत्र-पुट  : पुं० [ष० त०] पत्ते का बना हुआ पात्र। दोना।
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पत्र-पुरा  : स्त्री० [सं०] पुरानी चाल की एक तरह की नाव जिसकी लम्बाई ९६ हाथ चौड़ाई और ऊँचाई ४८-४८ हाथ होती थी।
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पत्र-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. लाल तुलसी। २. एक विशेष प्रकार की तुलसी जिसकी पत्तियाँ छोटी-छोटी होती हैं। ३. सत्कार या पूजा की बहुत ही साधारण सामग्री। ४. सामान्य या तुच्छ उपहार।
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पत्र-पुष्पक  : पुं० [सं० पत्रपुष्प+कन् ] भोजपत्र।
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पत्र-पुष्पा  : स्त्री० [सं० पत्रपुष्प+टाप् ] १. तुलसी। २. छोटी पत्तियों वाली तुलसी।
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पत्रपेटिका  : स्त्री०=पत्र-पेटी।
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पत्र-पेटी  : स्त्री० [ष० त०] १. पत्र रखने की पेटी। २. डाक-विभाग द्वारा विभिन्न स्थानों पर स्थापित किया हुआ वह बड़ा डिब्बा जिसमें बाहर भेजे जानेवाले पत्र छोड़े जाते हैं। ३. उक्त के आधार पर वह डिब्बा जो किसी के घर पर लगा होता अथवा जिस पर किसी का नाम लिखा होता है और जिसमें डाकिये आदि उस विशिष्ट व्यक्ति की डाक डाल जाते हैं। (लेटरबाक्स, उक्त तीनों अर्थों में)।
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पत्र-बंध  : पुं० [ब० स०] १. फूलों से बाँधना या सजाना। २. फूलों से किया जानेवाला एक तरह का श्रृंगार।
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पत्र-भंग  : पुं० [ब० स०] पत्तियाँ, फूलों आदि के आकार का वह रेखांकन जो विशिष्ट अवसरों पर स्त्रियों के मुख की शोभा बढ़ाने के लिए कस्तूरी, केसर आदि के लेप से किया जाता है।
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पत्र-भंगी  : स्त्री० [सं० पत्रभंग+ङीष् ] दे० ‘पत्रभंग’।
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पत्र-भद्र  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पौधा।
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पत्र-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] पत्रयक्त मंजरी के आकार का एक तरह का तिलक।
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पत्र-माल  : पुं० [ब० स०] बेंत।
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पत्र-मित्र  : पुं० [मध्य० स०] एक दूसरे से दूर रहनेवाले ऐसे व्यक्ति जिनका कभी साक्षात्कार तो न हुआ हो, फिर भी जो केवल पत्र-व्यवहार के द्वारा आपस में मित्र बन गये हों। (पेन फ्रेंड)
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पत्र-यौवन  : पुं० [ब० स०] नया और कोमल पत्ता। किसलय।
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पत्र-रचना  : स्त्री० पत्रभंग। (दे०)
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पत्र-रथ  : पुं० [ब० स०] पक्षी।
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पत्र-रेखा  : स्त्री० पत्रभंग। (दे०)
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पत्र-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] १. सजावट के लिए बनाई जानेवाली फूल-पत्तियाँ या बेल-बूटे। पत्रावली। २. पत्रभंग। साटी।
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पत्र-लवण  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का नमक जो एरंड, मोरवा, अंडूसा, कुंज, अमिलतास और चीते के हरे पत्तों से निकाला जाता है।
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पत्र-लेखा  : स्त्री० [सं०] १.=पत्रभंग। २. चित्रों में सजावट के लिए फूल-पत्तियाँ या बेल-बूटे आदि अंकित करना।
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पत्र-वल्लरी  : स्त्री० [मध्य० स०] पत्रभंग। (दे०)
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पत्र-वल्ली  : स्त्री० [ष० त० या मध्य० स०] १. शंकरजटा। २. तांबूल। पान। ३. पलाशी नाम की लता। ४. पर्ण लता।
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पत्र-वाज  : पुं० [ब० स०] १. पक्षी। चिड़िया। २. तीर। बाण।
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पत्रवाह  : पुं० [सं० पत्र√वह् (ढोना)+अण्] १. वह जो पत्र लेकर कहीं जाय। पत्रवाहक। २. वह सरकारी कर्मचारी जिसका काम पत्र आदि लोगों के यहाँ पहुँचाना होता है। चिट्ठीरसाँ। डाकिया। ३. चिड़िया। पक्षी। ४. तीर। बाण।
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पत्र-वाहक  : वि० [ष० त०] पत्र ले जानेवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसके हाथ कोई पत्र किसी के पास भेजा जाय।
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पत्रवाह-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] वह पंजी जिसमें पत्रवाहक द्वारा भेजे हुए पत्रों का विवरण होता है और जिस पर पत्र पानेवाले व्यक्ति के हस्ताक्षर भी कराये जाते हैं। (पियन बुक)।
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पत्र-विशेषक  : पुं० [ब० स०, कप् ] १. तिलक। २. पत्रभंग। साटी।
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पत्र-विष  : पुं० [मध्य० स०] पत्रों से निकलनेवाला विष।
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पत्र-वृश्चिक  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार का उड़नेवाला छोटा कीड़ा जिसके काटने से बड़ी जलन होती है। पतबिछिया। पनबिछिया।
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पत्र-वेष्ट  : स्त्री० [ब० स०] एक तरह का करनफूल।
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पत्र-व्यवहार  : पुं० [ष० त०] पत्राचार। (दे०)
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पत्र-शवर  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन काल की एक अनार्य जाति।
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पत्र-शाक  : पुं० [मध्य० स०] वह पौधा जिसके पत्तों का साग बनाया जाता हो। जैसे—चौलाई, पालक आदि।
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पत्र-शिरा  : स्त्री० [ष० त०] पत्ते की नस।
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पत्र-श्रृंगी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] मूसाकानी लता।
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पत्र-श्रेणी  : स्त्री० [ष० त०] १. पत्तों की श्रेणी। पत्रावली। २. मूसाकानी।
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पत्र-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] बेल का पत्ता। बिल्वपत्र। [ब० स०] बिल्ववृक्ष।
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पत्र-साहित्य  : पुं० [सं०] ऐसा साहित्य जिसमें किसी बड़े आदमी के लिखे हुए पत्रों (चिट्ठियों आदि) का संग्रह हो।
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पत्र-सूची  : स्त्री० [ ष० त०] १. कांटा। कंटक। २. बाहर भेजे जानेवाले अथवा बाहर से आये हुए पत्रों की सूची।
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पत्रांग  : पुं० [पत्र-अंग, ब० स०] १. लाल चन्दन। २. पतंग या बक्कम नाम का वृक्ष। ३. भोजपत्र। ४. कमलगट्टा।
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पत्रांगुलि  : स्त्री० [पत्र-अंगुलि, ब० स०] केसर, चन्दन आदि के लेप से किसी के ललाट मुख,कंठ आदि पर बनाये जानेवाले चिह्न या अलंकरण।
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पत्रांजन  : पुं० [पत्र-अंजन, ष० त०] स्याही।
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पत्रा  : पुं० [सं० पत्र] १. तिथिपत्र। २. पुस्तक का पन्ना। पृष्ठ।
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पत्राख्य  : पुं० [पत्र-आख्या, ब० स०] १. तेजपात। २.तालीशपत्र।
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पत्राचार  : पुं० [पत्र-आचार, ष० त०] १. परस्पर एक दूसरे को पत्र लिखना; अथवा आये हुए पत्रों के उत्तर देना। २. इस प्रकार लिखे हुए पत्र।
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पत्राढ्य  : पुं० [पत्र-आढ्य, तृ० त०] १. पीपलामूल। २. पर्वत नामक तृण। ३. लाल चन्दन। ४. पतंग। बकक्म। ५. नरसल। ६. तालीशपत्र।
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पत्रान्य  : पुं० [सं० पत्रंग, पृषो० सिद्धि] १. पतंग। बक्कम। २. लाल चन्दन।
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पत्रालय  : पुं० [पत्र-आलय, ष० त०] डाकखाना। डाकघर।
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पत्रालाप  : पुं० [पत्र-आलाप, तृ० त०] पत्राचार (दे०)।
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पत्राली  : स्त्री० [पत्र-आली, ष० त०] १.पत्रों की श्रृंखला। २. एक आकार के कटे हुए कोरे या निरंक कागज की वह गड्डी जिसके पत्रों पर चिट्ठियाँ लिखी जाती हैं। (पैड)
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पत्रालु  : पुं० [सं० पत्र+आलुच्] १. कासालु। २. इक्षुदर्भ।
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पत्रावली  : स्त्री० [पत्र-आवली, ष० त०] १. सजावट के लिए बनाई जानेवाली फूल-पत्तियाँ या बेल-बूटे आदि। पत्र-लता। २. सुगंधित द्रव्यों और रंगों से चेहरे पर की जानेवाली पत्र-रचना। (देखें) ३.गेरू।
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पत्राहार  : पुं० [पत्र-आहार, ष० त०] पत्तों का किया जानेवाला भोजन।
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पत्राहारी (रिन्)  : वि० [सं० पत्राहार+इनि] वृक्षों के पत्ते खाकर ही रहनेवाला।
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पत्रिका  : स्त्री० [सं० पत्री+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. चिट्ठी। खत। पत्र। २. कोई छोटा लेख। जैसे—लग्न पत्रिका। ३. जन्मपत्री। ४. प्रायः नियमित रूप से निकलनेवाली ऐसी पुस्तिका जिसमें विभिन्न विषयों पर लेख, कहानियाँ कविताएँ आदि होती हैं। जैसे—सम्मेलन पत्रिका।
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पत्रिकाख्य  : पुं० [सं० पत्रिका-आख्या, ब० स०] एक प्रकार का कपूर। पानकपूर।
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पत्रिणी  : स्त्री० [सं० पत्र+इनि, ङीष्] बड़ा पत्ता।
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पत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० पत्र+इनि] जिसमें पत्तें हों। पत्रयुक्त। पत्तोंवाला। पुं० १. बाण। तीर। २. चिड़िया। पक्षी। ३. बाज पक्षी। ४. पेड़। वृक्ष। ५. पर्वत। पहाड़। ६. ताड़ का पेड़। ७. रथ का सवार। रथी। स्त्री० [सं० पत्र+ङीष्] १. चिट्ठी। खत। २. कोई छोटा लेख। पत्रिका। जैसे—जन्मपत्रिका, लग्नपत्री। ३. पत्तों का बना हुआ दोना। ४. धमासा। ५. खैर का पेड़। ६. ताड़ का पेड़। ७. महातेज पत्र। स्त्री० [हिं० पत्तर] हाथ में पहनने का जहाँगीरी नाम का गहना।
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पत्रोपस्कर  : पुं० [सं० पत्र-उपस्कर, ब० स०] कसौंदी। कासमर्द।
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पत्रोर्ण  : पुं० [सं० पत्र-ऊर्ण, मध्य० स०+अच्] १. रेशमी वस्त्र। २. सोनापाठा।
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पत्रोल्लास  : पुं० [सं० पत्र-उल्लास, ष० त०] अँखुआ। कोपल।
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पथ  : पुं० [सं०√पथ् (गति)+क] १. मार्ग। रास्ता। राह। २. कार्य-संपादन, आचार, व्यवहार आदि का निश्चित और प्रकाशित रीति। ३. ऐसा द्वार या साधन जिसमें होकर कुछ आगे बढ़ता हो। जैसे—कर्ण-पथ, दृष्टि-पथ। पुं०=पथ्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पथक  : वि० [सं० पथ+कन्] पथ या मार्ग बतलानेवाला। पथदर्शक। पुं० प्रांत। देश। पं०=पथिक।
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पथ-कर  : पुं० [ष० त०]=मार्ग-कर।
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पथ-कल्पना  : पुं० [ब० स०] जादू के खेल। बाजीगरी।
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पथगामी (मिन्)  : पुं० [सं० पथ√गम् (जाना)+णिनि] पथ या रास्ते पर चलनेवाला।
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पथचारी (रिन्)  : पुं० [सं० पथ√चर (गति)+णिनि] पथिक।
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पथ-दर्शक  : पुं० [ष० त०] रास्ता दिखानेवाला। मार्ग-दर्शक।
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पथ-दर्शन  : पुं० दे० ‘मार्ग-दर्शन’।
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पथना  : अ० [हिं० पाथना का अ० रूप] पाथा जाना। स० १. खूब मारना-पीटना। २. दे० ‘पाथना’। वि०=पथेरा। (पाथनेवाला)।
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पथ-प्रदर्शक  : पुं० [ष० त०] दे० ‘मार्गदर्शक’।
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पथर  : पुं० [हिं० पत्थर] ‘पत्थर’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरंभ में लगने से प्राप्त होता है। जैसे—पथरकला, पथरचटा।
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पथर-कला  : स्त्री० [?] पुरानी चाल की एक तरह की बंदूक जिसमें लगे हुए चकमक पत्थर की सहायता से रगड़ उत्पन्न कर उसमें का बारूद जलाया जाता था।
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पथर-चटा  : पुं० [?] पखान भेद-नाम की वनस्पति।
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पथरना  : स० [हिं० पत्थर+ना (प्रत्य०)] औजारों को पत्थर पर रगड़कर तेज करना। अ० पत्थर की तरह कठोर तथा ठोस होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पथराना  : अ० [हिं० पत्थर+आना (प्रत्य०)] १. सूखकर पत्थर की तरह कड़ा हो जाना। पत्थर की तरह कठोर तथा ठोस होना। २. सूखकर निष्प्रभ या शुष्क हो जाना। ३. पत्थर की तरह स्तब्ध और स्थिर हो जाना। जैसे—आँखें पथराना। स० १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज पत्थर की तरह कठोर, जड़ या नीरस हो जाय। २. किसी को आघात पहुँचाने के लिए उस पर पत्थर के टुकड़े आदि फेंकना।
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पथराव  : पुं० [हिं० पथराव=पत्थर की तरह होना] पत्थर की तरह कठोर और स्तब्ध होने की क्रिया, दशा या भाव। जैसे—आँखों का पथराव। पुं० [हिं० पथराना=पत्थरों से मारना] किसी पर बार-बार पत्थर के टुकड़े फेंकते रहने की क्रिया। जैसे—वह उसकी कामनाओं के शीशमहल पर इसी प्रकार पथराव करती रही।
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पथरी  : स्त्री० [हिं० पत्थर+ई (प्रत्य०)] १. पत्थर का बना हुआ कटोरी या कटोरे के आकार का पात्र। २. पत्थर का वह टुकड़ा जिस पर रगड़कर छुरे आदि की धार तेज करते है। सिल्ली। ३. कुरंड पत्थर जिसके चूर्ण को लाख आदि में मिलाकर औजार तेज करने की सान बनाते हैं। ४. चकमक पत्थर। ५. एक प्रकार का रोग जिसमे मूत्राशय में पत्थर के टुकड़ों के समान कोई चीज उत्पन्न की जाती है, जिसके फलस्वरूप पेशाब रुक-रुककर और बहुत कष्ट से होता है और कभी-कभी बन्द भी हो जाता है। ६. पक्षियों के पेट का वह पिछला भाग जिसमें अनाज आदि के बहुत कड़े दाने जाकर पचते हैं। ७. एक प्रकार की मछली। ८. जायफल की जाति का एक वृक्ष जो कोंकण आदि के जंगलों में होता है।
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पथरीला  : वि० [हिं० पत्थर+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० पथरीली] १. जिस जमीन में पत्थर के कण मिले हों। २. जिसमें पत्थर हों, अथवा जो पत्थर या पत्थरों से बना हो। जैसे—पथरीला रास्ता। ३. पत्थर के समान कठोर, ठोस अथवा शुष्क।
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पथरौटा  : पुं० [हिं० पत्थर+औटा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० पथरौटी] पत्थर का बना हुआ कटोरे की तरह का एक प्रकार का बड़ा पात्र। बड़ी पथरी।
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पथरौड़ा  : पुं० [हिं० पाथना] वह स्थान जहाँ पर गोबर (अथवा कंडे) पाथे जाते हों।
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पथ-शुल्क  : पुं० पथ-कर (दे०)।
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पथ-सुन्दर  : पुं० [सं० स० त०] एक प्रकार का पौधा।
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पथस्थ  : वि० [सं० पथ√स्था (ठहरना)+क] जो पथ या मार्ग में स्थित हो। मार्गस्थ।
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पथारना  : स० [सं० प्रस्तार]=पसारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=पथराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पथिआ  : स्त्री० [?] टोकरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पथिक  : पुं० [सं० पथिक्+कन्] १. वह जो पथ पर चल रहा हो। बटोही। राही। २. वह जो किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रयत्नशील हो।
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पथिक-चत्वर  : पुं० [च० त०] पथिकों के बैठकर सुस्ताने के लिए रास्ते में बना हुआ चबूतरा।
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पथिका  : स्त्री० [सं० पथिक+टाप्] १. मुनक्का। २. एक प्रकार की शराब जो पहले मुनक्के या अंगूर से बनाई जाती थी।
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पथिकाश्रय  : पुं० [सं० पथिक-आश्रय, ष० त०] १. विशेष रूप से निर्मित पथिकों के लिए आश्रय-स्थान। २. धर्मशाला।
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पथिकृत्  : पुं० [सं० पथिक्√कृ (करना)+क्विप्, तुक्] मार्गदर्शक।
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पथिचक्र  : पुं० [सं०√पथ+इन्, पथि-चक्र, कर्म० स०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का चक्र जिससे यात्रा का शुभ और अशुभ फल जाना जाता है।
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पथि-देय  : पुं० [सं० अलुक् स०] पथ-कर (दे०)।
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पथिद्रुम  : पुं० [सं० पथि√पथ्+इन, पथिद्रुम, कर्म० स०] खैर का पेड़।
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पथि-प्रिय  : पुं० [सं० अलुक् स०] साथ यात्रा करनेवाला मित्र। हमराही। हमसफर।
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पथिया  : स्त्री० [?] टोकरी।
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पथिल  : पुं० [सं०√पथ+इलच्] पथिक।
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पथि-वाहक  : वि० [सं० अलुक् स०] निष्ठुर। निर्दय। पुं० १. शिकारी। बहेलिया। २. बोझ ढोनेवाला मजदूर। मोटिया।
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पथिस्थ  : वि० [सं० पथि√स्था+क] जो पथ पर चल रहा हो। जाता हुआ।
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पथी (थिन्)  : पुं० [सं० पथ+इनि] १. रास्ता चलनेवाला मुसाफिर। यात्री। पथिक। २. मार्ग। रास्ता। ३. यात्रा। ४. मत। सम्प्रदाय। ५. एक नरक का नाम।
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पथीय  : वि० [सं० पथ+छ—ईय] १. पथ-सम्बन्धी। पथ या मार्ग का। २. किसी मत या सम्प्रदाय से संबंध रखनेवाला। पंथी।
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पथु  : पुं०=पथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पथेय  : पुं०=पाथेय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पथेरा  : वि० [हिं० पाथना+एरा (प्रत्य०)] पाथनेवाला। पुं० १. गोबर को पाथकर कंडे बनानेवाला व्यक्ति। २. वह व्यक्ति जो भट्ठे में पकाने के लिए कच्ची ईँटें ढालता हो। ३. कुम्हार।
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पथौड़ा  : पुं०=पथौरा।
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पथौरा  : पुं०=पथौड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० महाराज पृथ्वीराज चौहान का एक नाम जो उर्दू-फारसी के ग्रंथों में मिलता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पत्थार  : पुं०=विस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पथ्य  : वि० [सं० पथिन्+यत् ] १. पथ-संबंधी। पथ का। २. (आहार, व्यवहार) जो स्वास्थ्य विशेषतः रोगी की स्वास्थ्य-रक्षा के विचार से आवश्यक या उचित हो। ३. गुणकारी। लाभदायक। हितकर। उदा०—पूत पथ्य गुरु आयसु अहई।—तुलसी। ४. अनुकूल। मुआफिक। पुं०१.वह हलका भोजन जो रोगी अथवा अस्वस्थ व्यक्ति को दिया जाय। २. स्वास्थ्य के लिए हितकर खान-पान और रहन-सहन। मुहा०—पथ्य से रहना=संयम से रहना। परहेज से रहना। ३. सेंधा नमक। ४. छोटी हर्रे। ५. कल्याण। मंगल।
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पथ्यका  : स्त्री० [सं० पथ्य+कन्+टाप्] मेथी।
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पथ्य-शाक  : पुं० [सं० कर्म० स०] चौलाई का साग।
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पथ्या  : स्त्री० [सं० पथ्य+टाप्] १. हरीतकी। हड़। २. बनककोड़ा। ३. सैंधनी। ४. चिरमिटा। ५. गंगा। ६. आर्या छन्द का एक भेद जिसके कई उपभेद हैं।
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पथ्यादिक्वाथ  : पुं० [सं० पथ्या-आदि ब०, स० पथ्यादिक्वाथ कर्म० स०] त्रिफला, गुडुच, हलदी, चिरायते, नीम आदि का काढ़ा जो पाचक माना जाता है।
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पथ्यापंक्ति  : पुं० [सं० ब० स०] पाँच चरणोंवाला वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में आठ-आठ वर्ण होते हैं।
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पथ्यापथ्य  : पुं० [सं० पथ्य-अपथ्य, द्व० स०] पथ्य और अपथ्य। रोग की अवस्था में हितकर और अहितकर चीज। जैसे—तुम्हें पथ्यापथ्य का सदा ध्यान रखना चाहिए।
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पथ्याशन  : पुं० [सं० पथ्य-अशन, कर्म० स०] पाथेय। संबल।
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पथ्याशी (शिन्)  : वि० [सं० पथ्य√अश् (खाना)+णिनि] जो पथ्य (रोग के अनुकूल भोजन) खाकर रहता हो। पद—पुं० [सं०√पद् (गति)+अच्] १. कदम। पाँव पैर। मुहा०—पद टेकना=किसी जगह पैर जमाकर रखना। (किसी के आगे पद टेकना=दीनतापूर्वक घुटने टेककर बैठना। उदा०—भरद्वाज राखे पद टेकी।—तुलसी। २. चलते समय दो पैरों के बीच में होनेवाली दूरी। डग। पग। ३. चलने के समय पैरों से बननेवाला चिन्ह। ४. चिन्ह। निशान। ५. जगह। स्थान। ६. प्रदेश। जैसे—जन-पद। ७. त्राण। रक्षा। ८. निर्वाण। मोक्ष। ९. चीज। वस्तु। १॰. आवाज। शब्द। ११. किसी चीज का चौथाई अंश या भाग। पाद। १२. छंद, श्लोक आदि का चतुर्थांश। चरण। १३. एक प्रकार की पुरानी नाप। १४. शतरंज आदि की बिसात में बना हुआ चौकोर खाना। १५. व्याकरण में, किसी वाक्य में आया हुआ वह शब्द या शब्द-वर्ग जिसका कुछ अर्थ हो। वाक्य का अंश या खण्ड। १६. वह स्थान जिस पर रहकर कोई विशिष्ट कार्य करता हो। ओहदा। जगह। जैसे—उन्हें भी कार्यालय में एक पद मिल गया। १७. सम्मानजनक उपाधि या स्थान। १८. ऐसा गीत या भजन जिसमें ईश्वर की महिमा आदि वर्णित हों। जैसे—तुलसी या सूर के पद। १९. पुराणानुसार दान के लिए जूते, छाते, कपडे, अँगूठी, आसन, बरतन और भोजन का समूह। जैसे—विवाह के समय ब्राह्मणों को तीन पद दिये जाते हैं।
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पद-कंज  : पुं० [उपमि० स०] ऐसे चरण जो कमल के समान अथवा कमल के रूप में हों।
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पदक  : पुं० [सं० पद+वुन्—अक] १. गहने के रूप में पहना जानेवाला वह धातु-खंड जिस पर किसी देवता के चरण-चिह्न अंकित हों। २. पूजन आदि के लिए बनाया हुआ किसी देवता का चरणचिह्न। ३. वह जो वेदों के पद-पाठ का ज्ञाता हो। ४. एक प्राचीनगोत्र-प्रवर्तक ऋषि। ५. आजकल सोने-चाँदी या किसी और धातु का बना हुआ वह गोल या चौकोर टुकड़ा जो किसी व्यक्ति अथवा समाज को कोई विशिष्ट योग्यतापूर्ण कार्य करने पर उनका सम्मान करने के लिए दिया जाता है। तमगा। (मेडल)
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पदकधारी (रिन्)  : पुं० [सं० पदक√धृ (धारण)+णिनि] वह जिसे पदक मिला हो।
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पद-कमल  : पुं०=पद-कंज।
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पद-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. चलना। डग भरना। २. वेद-मंत्रों के पदों को एक दूसरे से अलग करने का कार्य।
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पदग  : वि० [सं० पद√गम् (जाना)+ड] पैदल चलनेवाला। पुं० पैदल चलनेवाला सिपाही। प्यादा।
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पद-गति  : स्त्री० [ष० त०] चलने का ढंग।
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पद-ग्रहीता (तृ)  : वि० [ष० त०] (वह) जो किसी का पद ग्रहण करे और इस प्रकार उसे अपने पद से कुछ समय के लिए हटने का अवसर दे। (रिलीविंग) जैसे—पद-ग्रहीता अधिकारी।
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पद-चतुरूर्ध्व  : पुं० [सं० ?] एक तरह का विषम वर्णवृत्त जिसके पहले चरण में ८, दूसरे चरण में १२, तीसरे में १६ और चौथे में २॰ वर्ण होते हैं। इसमें गुरु, लघु का नियम नहीं होता।
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पद-चर  : वि० [सं० पद√चर् (गति)+ट] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला। पुं० पैदल। प्यादा।
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पद-चार (णि)  : पुं० [तृ० त०] १. पैदल चलना। २. घूमना-फिरना। टहलना।
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पदचारी (रिन्)  : वि० [सं० पद√चर्+णिनि] [स्त्री० पदचारिणी] पैदल चलनेवाला।
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पद-चिन्ह  : पुं० [ष० त०] १. जमीन पर पड़नेवाली पैर की छाप। २. दूसरों विशेषतः बड़ों द्वारा बतलाये हुए आदर्श अथवा कार्य करने के ढंग। जैसे—भारत को गाँधी जी के पद-चिह्नों का अनुसरण करना चाहिए।
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पदच्छेद  : पुं० [ष० त०] व्याकरण में प्रत्येक पद को नियमों के अनुसार अलग-अलग करने की क्रिया।
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पद-च्युत  : वि० [ष० त०] [भाव० पद-च्युति] १. जो अपने पद से हट चुका हो अथवा हटा दिया गया हो। २.नौकरी से बरखास्त किया हुआ (डिस्मिस्ड)।
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पद-च्युति  : स्त्री० [ष० त०] अपने पद से हटने या गिरने की अवस्था या भाव। पदच्युत होना। (डिस्मिसल)
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पदज  : वि० [सं० पद√जन् (उत्पत्ति)+ड] जो पैर से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. शूद्र। २. पैर की उँगली या उँगलियाँ।
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पद-जात  : वि० [ष० त०] पैरों से उत्पन्न। पुं० परस्पर संबद्ध पदों और वाक्यों का समूह।
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पद-तल  : पुं० [ष० त०] पैर का तलवा।
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पद-त्याग  : पुं० [ष० त०] अपने पद से त्याग-पत्र देकर हट जाना।
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पदत्र  : पुं० [सं० पद√त्रा (रक्षा)+क] १. ढालुआँ स्थान। २. किले आदि की ऐसी दीवार जो नीचे अधिक चौड़ी या मोटी और ऊपर कम चौड़ी या पतली हो। (टैलस)।
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पद-त्राण  : पुं० [ब० स०] पैरों की रक्षा करनेवाला अर्थात् जूता।
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पद-त्रान  : पुं०=पद-त्राण।
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पद-त्वरा  : स्त्री० [ब० स०] जूता।
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पद-दलित  : वि० [तृ० त०] १. पैरों से कुचला या रौंदा हुआ। २. (व्यक्ति या जाति) जिसे समाज ने दबाकर बहुत हीन अवस्था में रखा हो और उन्नति का अवसर न दिया हो। (डीप्रेस्ड)।
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पद-दारिका  : स्त्री० [ष० त०] बिवाई (पैर फटने का एक रोग)।
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पदधारी (रिन्)  : पुं० [सं० पद√धृ (धारण)+णिनि] १. वह जो कोई पद धारण करता हो। २. किसी पद पर रहकर काम करनेवाला अधिकारी।
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पद-नाम  : पुं० [ष० त०] १. किसी पदाधिकारी के पद का सूचक नाम। जैसे—कुलपति, तहसीलदार, मजिस्ट्रेट आदि। २.किसी कार्य, व्यवहार, संस्था आदि का वह मुख्य नाम जिससे वह प्रसिद्ध हो। (डेजिग्नेशन)
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पद-न्यस्त  : वि० [सं० न्यस्तपद] (वह अधिकारी) जो अपना अधिकार किसी दूसरे (पदग्रहीता) को सौंपकर किसी कारण वश कुछ समय के लिए अपने पद से हटा हो। (रिलीव्ड)। जैसे—पदन्यस्त अधिकारी।
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पदन्यास  : पुं० [ष० त०] १. पैर रखना। गमन करना। चलना। २. चलने में पैर रखने की एक विशिष्ट प्रकार की मुद्रा। ३. चलने का ढंग। ४. पदों को यथास्थान रखने या पद बनाने का काम। ५. गोखरू। ६. कुछ समय के लिए किसी कारणवश अपने पद से किसी का हटना।
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पद-पंक्ति  : पुं० [ष० त०] १. पद-चिह्न। पद-श्रेणी। २. पाँच चरणों वाला एक प्रकार का छंद जिससे प्रत्येक चरण में पाँच-पाँच वर्ण होते हैं।
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पद-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] पद-चिन्हों की पंक्ति या श्रेणी।
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पद-पलटी  : स्त्री० [सं० पद+हिं० पलटना] एक प्रकार का नाच।
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पद-पाठ  : पुं० [ष० त०] १. वेद-मंत्रों आदि का इस प्रकार लिखा जाना कि उनका प्रत्येक पद अपने मूल रूप में रहे। (संहिता पाठ से भिन्न) २. वह ग्रंथ जिसका संपादन उक्त दृष्टिकोण से हुए हो।
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पद-पूरण  : पुं० [ष० त०] १.किसी वाक्य में छूटे अथवा विशेष रूप से छोड़े हुए शब्दों की पूर्ति करना। (फिल-इन-ब्लैंक्स)।
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पद-प्रवर  : पुं० [स० त०] किसी कार्यालय का सबसे बड़ा अधिकारी।
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पद-बंध  : पुं० [ष० त०] पग। डग।
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पद-भंजन  : पुं० [ष० त०] व्याकरण में, समस्त पदों के पूर्व और उत्तर पद आदि अलग-अलग करने की क्रिया या भाव।
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पद-भंजिका  : स्त्री० [ष० त०] टिप्पणी, टीका या व्याख्या।
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पद-भार  : पुं० [ष० त०] वह उत्तरदायित्व या भार जिसका निर्वहण करना किसी पद पर रहने के नाते आवश्यक और कर्तव्य होता है। (चार्ज)।
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पद-भ्रंश  : पुं० [ष० त०] पद-च्युति। (दे०)
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पदम  : पुं० [सं० पद्यकाष्ठ] १. बादाम की जाति का एक जंगली पेड़ जो कहीं-कहीं लगाया भी जाता है। इसका फल शराब बनाने के लिए विदेशों में जाता है। अमलगुच्छ। पद्माख। २. उक्त वृक्ष का फल। पुं०=पद्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पदमकाठ  : पुं० [हिं०] पदम वृक्ष की लकड़ी। पद्मकाष्ठ।
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पदमचल  : पुं० [देश०] रेवंद चीनी।
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पदमणि  : स्त्री०=पद्मिनी।
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पदमनाभ  : पुं० [सं० पद्मनाभ] १. विष्णु। २. सूर्य। (डिं०)। ३. दे० ‘पद्म-नाभ’।
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पदमाकर  : पुं०=पद्माकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पद-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. पद-श्रेणी। २. मोहिनी विद्या।
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पद-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] १. वह मुद्रा या मोहर जो कोई उच्च अधिकारी महत्वपूर्ण मानपत्रों पर अपने हस्ताक्षर के साथ यह सूचित करने के लिए अंकित करता है कि यह लेख आधिकारिक और प्रामाणिक है। २. उक्त मुद्रा या मोहर की छाप। (सील ऑफ ऑफिस)
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पद-मूल  : पुं० [ष० त०] १. पैर का तलवा। २. आश्रय। ३. शरण।
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पद-मैत्री  : स्त्री० [स० त०] किसी चरण, वाक्य आदि के पदों में होनेवाला वर्णों का साम्य। अनुप्रास।
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पदम्मी  : पुं० [सं० पद्मी] हाथी। (डिं०)
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पद-योजना  : स्त्री० [ष० त०] किसी चरण, पद, वाक्य आदि में शब्दों का बैठाया जाना।
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पदर  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पेड़। २. महल के फाटक के पास का वह स्थान जहाँ द्वारपाल बैठते हैं। पौर। (डिं०)
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पद-रिपु  : पुं० [ष० त०] पैर का शत्रु अर्थात् काँटा।
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पद-रोगी (गिन्)  : वि० [स० त०] जिसे प्रायः छोटे-छोटे रोग होते रहते हों।
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पद-वाद्य  : पुं० [तृ० त०] एक प्रकार का पुरानी चाल का ढोल।
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पदवाना  : स० [हिं० पदाना का प्रे०] पदाने का काम किसी दूसरे से कराना।
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पद-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] डग भरना।
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पद-विच्छेद  : पुं० [ष० त०] पदच्छेद। (दे०)
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पद-विज्ञान  : पुं० [सं०] दे० ‘रूप-विधान’ के अंतर्गत।
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पद-विन्यास  : पुं० [ष० त०] पदों या शब्दों को वाक्य में ठीक स्थान पर बैठाने या रखने की क्रिया या भाव।
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पद-विराम  : पुं० [स० त०] पदों या शब्दों को वाक्य में ठीक स्थान पर बैठाने या रखने की क्रिया या भाव।
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पद-विराम  : पुं० [स० त०] पदों या चरणों के अंत में लगाया जानेवाला विराम-चिह्न।
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पदवी  : स्त्री० [सं०√पद्+अवि+ङीष्] १. पंथ। रास्ता। २. पद्धति। प्रणाली। ३. राजकीय, सैनिक आदि सेवाओं में कोई ऊँचा पद। (रैंक) ४. किसी बहुत बड़ी संस्था अथवा राज्य द्वारा प्रदत्त किसी को सम्मानित उपाधि। (टाइटिल)
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पदवी-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिस पर यह लिखा हो कि अमुक व्यक्ति को अमुक काम करने अथवा अमुक विषय में योग्यता प्राप्त करने के उपलक्ष्य में अमुक पदवी या उपाधि दी जाती है। (डिप्लोमा)
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पद-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] ऊँचे पद पर जाना या पहुँचना। पद, स्थिति आदि के विचार से होनेवाली उन्नति।
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पद-वेदी (दिन्)  : पुं० [सं० पद√विद् (जानना)+णिनि] शब्दों का ज्ञाता। शब्द-शास्त्री।
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पद-शब्द  : पुं० [ष० त०] किसी के चलने पर उसके पैरों की धमक से होने वाला शब्द। पग-ध्वनि।
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पद-संघात  : पुं० [ष० त०] १. संहिता में वियुक्त पदों को जोड़ने या मिलाने का कार्य। २. लेखक। ३. संकलनकर्ता।
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पद-समय  : पुं० [ष० त०] दे० ‘पद-पाठ’।
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पदस्थ  : वि० [सं० पद√स्था (ठहरना)+क] १. पैदल चलनेवाला। २. जो अपने पैरों के बल खड़ा हो या चल रहा हो। ३. जो किसी पद या ओहदे पर स्थित हो।
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पद-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पैर रखा गया हो। २. उक्त स्थान पर बननेवाला चिह्न।
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पदांक  : पुं० [पद-अंक, ष० त०] पैर का अंक अर्थात् चिह्न या छाप। पद-चिह्न।
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पदांगी  : स्त्री० [पद-अंग, ब० स०, ङीष्] हंसपदी लता।
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पदांत  : पुं० [पद-अंत, ष० त०] १. किसी पद का अंतिम अंश। २. श्लोक आदि का अंतिम भाग।
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पदांतर  : पुं० [पद-अंतर, मयू० स०] १. दो पैरों के बीच की दूरी। २. दूसरा पैर। ३. दूसरा स्थान।
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पदांभोज  : पुं० [पद-अंभोज, कर्म० स०] कमलरूपी या कमलवत् चरण।
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पदाक्रांत  : भू० कृ० [पद-आक्रांत, तृ० त०] १. जो पैरों से कुचला, दबाया या रौंदा गया हो। २. दे० ‘पद-दलित’।
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पदाघात  : पुं० [पद-आघात, तृ० त०] पैर से लगाई जानेवाली ठोकर। (किक)
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पदाजि  : पुं० [सं० पद√अज् (गति)+इण्] पैदल सिपाही।
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पदात  : पुं० [सं० पद√अज् (गति)+अच्] पदाति। (दे०)
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पदाति  : पुं० [सं० पद√अत्+इण्] १. वह जो पैदल चलता हो। प्यादा। २. पैदल सिपाही। ३. नौकर। सेवक। ४. जनमेजय के एक पुत्र का नाम।
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पदातिक  : पुं० [सं० पदाति+कन्] पदाति। (दे०)
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पदादपि  : अव्य० [सं० पदात् अपि] १. पद से भी। २. पद की तुलना में भी। उदा०—ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।—तुलसी।
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पदादि  : पुं० [पद-आदि, ष० त०] १. पद का आरंभिक अंश (पदांत का विपर्याय)। २. छंद के चरण का आरंभिक भाग।
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पदादिका  : स्त्री० [सं० पदातिक] पैदल सेना।
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पदाधिकार  : पुं० [पद-अधिकार, ष० त०] किसी पद पर काम करनेवाले को प्राप्त होनेवाला अधिकार।
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पदाधिकारी (रिन्)  : पुं० [पद-अधिकारिन्, ष० त०] किसी पद पर रहकर अधिकारपूर्वक काम करनेवाला अधिकारी। ओहदेदार।
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पदाध्ययन  : पुं० [पद-अध्ययन, ष० त०] वेदों का वह अध्ययन जो पद-पाठ की दृष्टि से किया जाय।
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पदाना  : स० [हिं० पदाना का प्रे०] १. किसी दूसरे को पादने में प्रवृत्त करना। २. बहुत अधिक दौड़ाना तथा तंग या परेशान करना। ३. खेल में, एक दल के खेलाड़ियों का दूसरे दल के (हारे हुए) खेलाड़ियों को बहुत अधिक दौड़ाना-घुमाना। (पश्चिम)
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पदानुग  : वि० [पद-अनुग, ष० त०] किसी का अनुसरण करनेवाला। पुं० अनुयायी।
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पदानुराग  : पुं० [पद-अनुराग, ष० त०] १. किसी के चरणों में होनेवाला अनुराग। २. नौकर। सेवक। ३. सेना।
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पदानुशासन  : पुं० [पद-अनुशासन, ष० त०] शब्दानुशासन। व्याकरण।
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पदानुस्वार  : पुं० [पद-अनुस्वार, ब० स०] एक प्रकार का सामगान।
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पदाब्ज  : पुं० [पद-अब्ज, कर्म० स०] चरण-कमल।
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पदायता  : स्त्री० [मध्य० स०] जूता।
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पदार  : पुं० [सं० पद√ऋ (गति)+अण्] १. पैर की धूल। चरण-रज। २. पैर का ऊपरी भाग।
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पदारथ  : पुं०=पदार्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पदारविंद  : पुं० [पद-अरविंद, उपामि० स०] चरण-कमल।
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पदार्थ्य  : पुं० [पद-अर्थ्य, मध्य० स०] वह जल जिसने पूज्य व्यक्तियों के चरण धोये जाते हैं।
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पदार्थ  : पुं० [सं० पद-अर्थ, ष० त०] १. वाक्यों आदि में आनेवाले पद (या शब्द) का अर्थ। (वर्ड-मीनिंग) २. वह वस्तु जिसका ज्ञान या बोध किसी विशिष्ट पद (या शब्द) से होता है। अभिधेय वस्तु। जैसे—‘चावल’ शब्द से चावल नामक पदार्थ का बोध होता है। ३. जिसका कोई दृश्य अथवा कोई बाह्य आकार या रूप हो अथवा जो पिंड, शरीर आदि के रूप में मूर्त हो। चीज। वस्तु। (मेटीरियल आब्जेक्ट) जैसे—किताब, घड़ी, पंखा आदि। ४. वह आधारिक, तात्त्विक या मौलिक अंश या वस्तु जिससे कोई दूसरी वस्तु बनी हो। (मेटीरियल) जैसे—धातु और मिट्टी वे पदार्थ हैं, जिनसे बर्तन बनते हैं। ५. वह जिसका कुछ नाम हो और जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा सके, भले ही वह अमूर्त हो। ज्ञान या बोध का विषय। विशेष—इसी व्याख्या के आधार पर न्यायसूत्र में प्रमाण, प्रमेय, संशय, सिद्धांत आदि की गणना सोलह पदार्थों में की गई है। ६. प्राचीन भारतीय दार्शनिक क्षेत्रों में वे आधारिक और मौलिक बातें या विषय जिनका सम्यक् ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक कहा गया है। विशेष—वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नाम के छः पदार्थ माने हैं। न्याय-सूत्र में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह-स्थान से सोलह पदार्थ माने गये हैं। सांख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति, महत् आदि और इनके विकारों के आधार पर २५ पदार्थ माने गये हैं। जैन दर्शनों में भी पदार्थ माने तो गये हैं, पर उनकी संख्या आदि में बहुत मतभेद है। प्राचीन दार्शनिकों ने मोक्ष-प्राप्ति के लिए पदार्थों का ज्ञान आवश्यक माना था; इसलिए पौराणिकों ने अपने दृष्टिकोण से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पदार्थ माने थे। इसी परंपरा के अनुसार वैद्यक में रस, गुण, वीर्य, विषाक और शक्ति ये पाँच पदार्थ माने गये हैं।
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पदार्थवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह वाद या सिद्धांत जिसमें भौतिक पदार्थों को ही वास्तविक तथा सब-कुछ माना जाता है और आत्मा अथवा ईश्वर का अस्तित्व नहीं माना जाता। (अध्यात्मवाद से भिन्न) २. आज-कल अधिक प्रचलित अर्थ में, यह सिद्धांत कि धन-संपत्ति के भोग में ही मनुष्य को आनन्द या सुख मिलता है, आत्म-चिंतन आदि व्यर्थ की बातें हैं। (मेटीरियलिज़्म)
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पदार्थवादी  : वि० [सं० पदार्थ√वद् (बोलना)+णिनि] पदार्थवाद संबंधी। पुं० पदार्थवाद का अनुयायी या समर्थक। (मेटीरियलिस्ट)
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पदार्थ-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] भौतिक-विज्ञान। (दे०)
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पदार्थ-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] १. वह विद्या जिसमें विशिष्ट संज्ञाओं द्वारा सूचित पदार्थों का तत्त्व बतलाया गया हो। जैसे—वैशेषिक। २. दे० ‘भौतिक विज्ञान’।
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पदार्पण  : पुं० [पद-अर्पण, ष० त०] किसी स्थान में होनेवाला प्रवेश। आना। बहुत बड़े लोगों के संबंध में आदरसूचक पद) जैसे—महाराज का यहाँ पदार्पण ही हम लोगों के लिए विशेष सम्मानजनक है।
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पदालिक  : पुं० [पद-अलिक, ष० त०] पैर का ऊपरी भाग।
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पदावधि  : स्त्री० [पद-अवधि, ष० त०] किसी पद पर किसी व्यक्ति के काम करते रहन की अवधि। (टेन्योर)
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पदावनत  : वि० [पद-अवनत, स० त०] १. जो पैरों पर झुका हो। २. जो झुककर प्रणाम कर रहा हो। ३. नम्र। विनीत। ४. जो अपने पद से अवनत कर दिया गया हो या निम्न पद पर नियुक्त कर दिया गया हो।
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पदावली  : स्त्री० [पद-आवली, ष० त०] १. पदों की अवली, क्रम, श्रृंखला या समूह। २. लेख या साहित्यिक रचना में प्रयुक्त होनेवाले सब शब्दों और पदों का (उनके रूप और विन्यास दोनों के विचार से) वर्ग या समूह। ३. शब्द-योजना का ढंग या प्रकार। ४. किसी विशिष्ट विषय के पारिभाषिक पदों और शब्दों का संग्रह या सूची। (फ्रेजियॉलोज़ी) ५. गाये जानेवाले गीतों, पदों या भजनों का संग्रह। जैसे—सूरपदावली।
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पदावास  : पुं० [पद-आवास, मध्य० स०] राज्य की ओर से मिला हुआ निवासस्थान। पदाधिकारी के रहने का निवासस्थान। (आफिशलरेसिडेंस)
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पदाश्रित  : वि० [पद-आश्रित, स० त०] १. जिसने पैरों में आश्रय लिया हो। शरण में आया हुआ। शरणागत। २. जो किसी के आश्रय में रहता हो।
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पदास  : स्त्री० [हिं० पादना+आस (प्रत्य०)] पादने की क्रिया, भाव या प्रवृत्ति।
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पदासन  : पुं० [पद-आसन, ष० त०] वह आसन या चौकी जिसपर पैर रखे जाते हैं।
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पदासा  : वि० [हिं० पदास] १. जिसकी पादने की इच्छा या प्रवृत्ति हो। २. बहुत अधिक पादनेवाला।
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पदाहत  : भू० कृ० [पद-आहत, तृ० त०] पैर से ठुकराया हुआ।
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पदिक  : पुं० [सं० पद+ष्ठन्—इक, पद् आदेश] पैदल सेना। पुं० [सं० पदक] १. गले में पहनने का वह गहना जिस पर किसी देवता आदि के चरण-चिह्न अंकित हों। २. गले में पहनने का जुगनूँ नाम का गहना। ३. हीरा। ४. जवाहर। रत्न। पद—पाविक हार=मणिमाला। पुं०=पदक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पदी (दिन्)  : वि० [सं० पद+इनि] १. जिसमें पैर हों। पदवाला। जैसे—एक पदी, बहु पदी। २. (रचना) जिसमें पद हों। पुं० पैदल। प्यादा।
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पदु  : पुं०=पद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पदुम  : पुं० [सं० पद्म] १. घोड़ों का एक चिह्न या लक्षण जो भारत में शुभ, परन्तु ईरान में अशुभ माना जाता है। २. दे० ‘पद्म।
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पदुमिनी  : स्त्री०=पद्मिनी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पदेक  : पुं० [पद-एक, ब० स०] बाज।
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पदेन  : अव्य० [सं० तृ० विभक्ति का रूप] किसी पद पर आरूढ़ होने के अधिकार से। पद पर रहने के नाते से। (एक्स-ऑफीशियो, बाइ वरचू ऑफ आफ़िस)
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पदोड़ा  : वि० [हिं० पाद+ओड़ा (प्रत्य०)] १. जो बहुत पादता हो। अधिक पादनेवाला। २. कायर। डरपोक। (क्व०)
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पदोत्तार  : पुं० [पद-उत्तार, मध्य० स०] वह छोटा पुल जिसे पैदल चलकर ही पार करना पड़ता हो।
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पदोदक  : पुं० [पद-उदक, मध्य० स०] १. वह जल जिससे (प्रायः पूज्य व्यक्तियों के) चरण धोये जायँ। २. चरणामृत।
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पदोन्नति  : स्त्री० [पद-उन्नति, ष० त०] किसी पद पर काम करनेवाले को उससे ऊँचे पद पर नियुक्त किया जाना। तरक्की। (प्रमोशन)
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पदौक  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो बरमा में अधिकता से होता है। इसकी लकड़ी मजबूत और कुछ लाली लिये सफेद रंग की होती है।
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पद्ग  : पुं० [सं० पद√गम् (जाना)+ड] पैदल सिपाही।
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पद्दू  : वि० [हिं० पादना] बहुत अधिक पादनेवाला। पदोड़ा।
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पद्धटिका  : स्त्री० [सं०] एक मात्रिक छंद, जिसके प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ होती हैं और अंत में जगण होता है।
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पद्धड़ी  : स्त्री०=पद्धटिका।
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पद्धति  : स्त्री० [सं० पद√हन् (गति)+क्तिन्, पद् आदेश] १. पथ। मार्ग। रास्ता। २. कोई काम करने का विशिष्ट प्रकार, प्रणाली या विधि। ३. परिपाटी। रवाज। रीति। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अंतर जानने के लिए दे० ‘प्रथा’ का विशेष। ४. ढंग। तरीका। ५. पंक्ति। श्रेणी। ५. वह पुस्तक जिसमें किसी प्रकार की प्रथा या कार्य-प्रणाल लिखी हो। कर्म या संस्कार विधि की पोथी। जैसे—विवाह-पद्धति। ६. वह पुस्तक जिसमें किसी दूसरी पुस्तक का आशय, तात्पर्य या भाव समझाया गया हो।
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पद्धती  : स्त्री०=पद्धति। वि० पद्धति के अनुसार कार्य करनेवाला।
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पद्धरि  : स्त्री०=पद्धटिका।
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पद्धिम  : पुं० [पाद-हिम, पद् आदेश, ष० त०] पैर का ठंढ़ापन।
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पद्धी  : स्त्री० [देश०] खेल में किसी लड़के का जीतने पर, दाँव लेने के लिए हारनेवाले लड़के की पीठ पर चढ़ना। क्रि० प्र०—देना।—लेना।
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पद्म  : पुं० [सं०√पद् (गति)+मन्] १. कमल का पौधा और फूल। २. सामुद्रिक के अनुसार कमल के आकार का एक प्रकार का चिह्न जो किसी के पैर के तलुओं में होता और शुभ तथा सौभाग्य-सूचक माना जाता है। ३. विष्णु का एक आयुध जो कमल के आकार का है। ४. तंत्र और हठयोग के अनुसार शरीर के अंदर के षट् चक्रों में से हर एक जो कमल के आकार का और बहुत ही चमकीले सुनहले रंग का कहा गया है। ५. गणित की इकाई, दहाईवाली गिनती में सोलहवें स्थान पर पड़नेवाली संख्या की संज्ञा जो १॰॰ नील होती है। ६. कुबेर की नौ निधियों में एक निधि की संज्ञा। ६. वास्तु-कला में, खंभे या स्तम्भ के सातवें भाग की संज्ञा। ८. वास्तु-कला में, आठ हाथ लंबा और इतना ही चौड़ा वह घर जो एक ही कुरसी पर बना हो और जिसके ऊपर एक ही शिखर हो। ९. गले में पहनने का एक प्रकार का पुरानी चाल का गहना या हार। १॰. शरीर पर होनेवाला श्वेत कुष्ठ या सफेद दाग। ११. वह चित्रकारी जो हाथी के मस्तक और सूँड़ पर तरह-तरह के रंगों से की जाती है। १२. साँप के फन पर बने हुए तरह-तरह के चिह्न। १३. काम शास्त्र में, १६ प्रकार के रतिबंधों में से एक। १४. पुराणानुसार जंबूद्वीप के दक्षिण-पश्चिम का एक देश। १५. पुराणानुसार एक नरक का नाम। १६. पुराणानुसार एक कल्प का नाम। १६. बौद्धों के अनुसार एक नक्षत्र का नाम। १८. जैनों के अनुसार भारत के नवें चक्रवर्ती का नाम। १९. बलदेव का एक नाम। २॰. एक नाग का नाम। २१. कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम। २२. कश्मीर का एक प्राचीन राजा जिसने पद्मपुर नामक नगर बसाया था। २३. पद्मा नदी का एक नाम। २४. सीसा। २५. पद्माख वृक्ष। २६. पुष्करमूल। २६. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक नगण, एक सगण, और अंत में लघु गुरु होते हैं। २८. दे० ‘पद्मपुराण’। २९. दे० ‘पद्मव्यूह’। ३॰. दे० ‘पद्मासन’।
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पद्मकंद  : पुं० [ष० त०] कमल की जड़। भसीड़।
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पद्मक  : पुं० [सं० पद्म√ (चमकना)+क] १. पदम या पदमकाठ नाम का पेड़। २. हाथी की सूँड़ पर का चिह्न या दाग। ३. सेना का पद्मव्यूह। ४. सफेद कोढ़। ५. कुट नाम की ओषधि। ६. पद्मासन।
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पद्म-कर  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ में कमल हो। पुं० १. विष्णु। २. सूर्य। ३. [उपमि० स०] हाथ जो पद्मवत् हो।
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पद्म-करा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] लक्ष्मी।
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पद्म-कर्णिका  : स्त्री० [ष० त०] १. कमल का बीजकोश। २. पद्म-व्यूह के मध्य में स्थित सेना।
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पद्म-कांति  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पद्म-काष्ठ  : पुं० [ब० स०] १. पद्म काठ (वृक्ष)। २. उक्त वृक्ष की सुगंधित लकड़ी जो ओषधि के काम आती है।
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पद्म-काह्वय  : पुं० [पद्मक-आह्वय, ब० स०] पद्माख या पदम नाम का वक्ष।
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पद्म-किंजल्क  : पुं० [ष० त०] कमल का केसर।
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पद्मकी (किन्)  : पुं० [सं० पद्मक+इनि] १. हाथी। २. भुर्ज नाम का वृक्ष जिसके पत्ते भोज-पत्र नाम से प्रसिद्ध हैं।
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पद्म-कीट  : पुं० [सं० उपमि० स०] एक जहरीला कीड़ा।
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पद्म-केतन  : पुं० [ब० स०] गरुण का एक पुत्र।
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पद्म-केतु  : पुं० [उपमि० स०] एक तरह का पुच्छलतारा। (बृहत्संहिता)
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पद्म-केशर  : पुं० [ष० त०] कमल का केसर।
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पद्म-कोश  : पुं० [ष० त०] १. कमल का संपुट। २. कमल का वह छत्ता या बीज-कोश जिसमें उसके बीज (कमल-गट्टा) रहते हैं। ३. उंगलियों की एक मुद्रा जो कमल के संपुट के आकार की होती है।
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पद्म-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] उत्कल राज्य का एक तीर्थ।
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पद्म-गंध  : स्त्री० [ष० त०] कमल के फूल में से निकलनेवाली गंध।
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पद्म-गंधि  : पुं० [ब० स०, इत्व] पद्माख या पदम नाम का वृक्ष।
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पद्म-गर्भ  : पुं० [ष० त०] १. कमल का वह अंश जिसमें बीज होते हैं। २. ब्रह्मा। ३. सूर्य। ४. गौतम बुद्ध। ५. एक बोधिसत्त्व।
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पद्मगुणा  : स्त्री० [सं० पद्म√गुण् (मंत्रणा)+क+टाप्] १. लक्ष्मी। २. लौंग।
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पद्म-गुरु  : पुं० [मध्य० स०] रहस्य संप्रदाय में, शरीर के अंदर के कमलों या चक्रों में विद्यमान माना जानेवाला सत्-गुरु या परमात्मा का अंश।
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पद्म-गृहा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. लक्ष्मी। २. लौंग।
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पद्मचारिणी  : स्त्री० [सं० पद्म√चर् (गति)+णिनि+ङीप्] १. गेंदा। २. शमी वृक्ष। ३. हलदी। ४. लाक्षा। लाख।
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पद्मज  : वि० [सं० पद्म√जन्+ड] कमल में से उत्पन्न। पुं० ब्रह्मा।
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पद्मजात  : वि०, पुं०=पद्मज।
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पद्म-तंतु  : पुं० [ष० त०] कमल की नाल। मृणाल।
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पद्म-दर्शन  : पुं० [ब० स०] लोहबान।
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पद्म-नाभ  : पुं० [ब० स०, अच्] १. विष्णु। २. जैनों के अनुसार भावी उत्सर्पिणी के पहले अर्हत् का नाम। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. एक नाग। ५. शत्रु के चलाये हुए अस्त्र को निष्फल करने के उद्देश्य से पढ़ा जानेवाला एक मंत्र।
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पद्म-नाभि  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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पद्म-नाल  : स्त्री० [ष० त०] कमल की नाल। मृणाल।
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पद्म-निधि  : स्त्री० [ष० त०] कुबेर की नौ निधियों में से एक निधि।
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पद्म-नेत्र  : वि० [ब० स०] जिसके नेत्र कमलवत् हों। पुं० १. एक बुद्ध का नाम। २. एक प्रकार की पक्षी।
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पद्म-पत्र, पद्म-पर्ण  : पुं० [ष० त०] १. कमल की पँखड़ी। २. पुष्करमूल।
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पद्म-पाणि  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ में कमल का फूल हो। पुं० १. ब्रह्मा। २. सूर्य। ३. गौतम बुद्ध की एक विशिष्ट प्रकार की मूर्ति। ४. एक बोधिसत्त्व जो अभिताभ बुद्ध के पुत्र थे।
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पद्म-पुराण  : पुं० [सं० ब० स०] अठारह पुराणों में से एक पुराण।
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पद्म-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. कनेर का पेड़। २. एक प्रकार की चिड़िया।
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पद्म-प्रभ  : पुं० [ब० स०] एक बुद्ध जिनका अवतार अभी होने को है।
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पद्म-प्रिया  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] वासुकि नाग की बहन मनसा।
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पद्म-बंध  : पुं० [ब० स०] चित्र काव्य का एक प्रकार जिसमें अक्षरों को इस प्रकार सजाया जाता है कि पद्म या कमल का आकार बन जाता है।
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पद्म-बीज  : पुं० [ष० त०] कमलगट्टा।
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पद्म-भवानी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पद्म-भास  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पद्मभू  : पुं० [सं० पद्म√भू (होना)+क्विप्] ब्रह्मा।
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पद्म-भूषण  : पुं० [मध्य० स०] स्वतंत्रत भारत में सुयोग्य देश-सेवियों, राजकर्मचारियों, विद्वानों आदि को भारत सरकार की ओर से सम्मानार्थ मिलनेवाला एक प्रकार का अलंकरण जो तृतीय श्रेणी का माना गया है।
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पद्ममालिनी  : स्त्री० [सं० पद्म-माला, ष० त०,+इनि+ ङीप्] लक्ष्मी।
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पद्ममाली (लिन्)  : पुं० [सं० पद्ममाला+इनि] एक राक्षस का नाम।
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पद्म-मुखी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. दूब। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पद्म-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] तांत्रिक उपासना और पूजन में एक मुद्रा जिसमें दोनों हथेलियों को सामने करके उँगलियाँ नीचे रखते हैं और अँगूठे मिला देते हैं।
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पद्म-योनि  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्मा। २. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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पद्म-राग  : पुं० [ब० स०] १. मानिक या लाल नामक प्रसिद्ध रत्न। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पद्म-रेखा  : स्त्री० [मध्य० स०] सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार हाथ की हथेली में होनेवाली कमल के आकार की एक रेखा, जो धनवान होने का लक्षण मानी जाती है।
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पद्म-लांछन  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्मा। २. कुबेर। ३. सूर्य।
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पद्मा-लांछना  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. सरस्वती का एक नाम। २. तारा देवी का एक नाम।
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पद्म-लोचन  : वि० [ब० स०] जिसके नेत्र कमल के समान बड़े और सुन्दर हों।
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पद्म-वर्ण  : पुं० [ब० स०] १. यदु के एक पुत्र। २. पुष्करमूल।
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पद्मपर्णक  : पुं० [ब० स०, कप्] पुष्करमूल।
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पद्मवासा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] लक्ष्मी।
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पद्म-विभूषण  : पुं० [मध्य० स०] स्वतंत्र भारत में, सुयोग्य देश-सेवियों, राजकर्मचारियों, विद्वानों आदि को भारत सरकार की ओर से सम्मानार्थ मिलनेवाला एक प्रकार का अलंकरण जो द्वितीय श्रेणी का माना गया है।
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पद्म-बीज  : पुं० [ष० त०] कमल गट्टा।
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पद्म-बोजाभ  : [पद्मबीज-आभा, ब० स०] मखाना।
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पद्म-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] पद्मकाठ नामक वृक्ष।
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पद्म-व्याकोश  : पुं० [ष० त०] संपुटित कमल के आकर की (दीवारों में लगाई जानेवाली) सेंध।
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पद्म-व्यूह  : पुं० [मध्य स०] १. प्राचीन भारत में एक तरह की सैनिक व्यूह-रचना जिसमें सैनिक इस प्रकार खड़े किये जाते थे कि कमल की आकृति बन जाती थी। २. एक तरह की समाधि।
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पद्म-श्री  : पुं० [ब० स०] १. एक बोधिसत्त्व का नाम। २. स्वतंत्र भारत में सुयोग्य देश-सेवियों, राजकर्मचारियों, विद्वानों आदि को भारत सरकार की ओर से सम्मानार्थ मिलनेवाला एक प्रकार का अलंकरण जो चतुर्थ श्रेणी का माना गया है।
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पद्म-संभव  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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पद्म-सद्मा (द्द्मन्)  : पुं० [ब० स०] ब्रह्मा।
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पद्म-सूत्र  : [ष० त०] कमल के फूलों की माला।
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पद्म-स्नुषा  : स्त्री० [ष० त०] १. गंगा का एक नाम। २. दुर्गा का एक नाम।
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पद्म-स्वस्तिका  : पुं० [मध्य० स०] वह स्वस्तिक चिह्न जिसमें कमल भी बना हो।
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पद्म-हस्त  : वि०, पुं०=पद्म-कर।
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पद्महास  : पुं० [ब० स०] विष्णु।
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पद्मांतर  : पुं० [पद्म-अंतर, मयू० स०] कमल-दल।
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पद्मा  : स्त्री० [सं० पद्म+टाप्] १. लक्ष्मी। २. मनसा देवी का एक नाम। ३. बंगाल में होनेवाली गंगा की दो शाखाओं में से पूर्वी शाखा की संज्ञा। ४. गेंदे का पौधा। ५. कुसुम का फूल। ६. लौंग। ६. पद्मचारिणी लता।
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पद्माक  : पुं० दे० ‘पद्माख’।
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पद्माकर  : पुं० [पद्म-आकर, ष० त०] वह जलाशय जिसमें कमल खिले हों।
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पद्माक्ष  : पुं० [पद्म-अक्षि, ष० त०] १. कमल-गट्टा। कमल के बीज। २. विष्णु का एक नाम।
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पद्माख  : पुं० [सं० पद्मकम्] पर्वतीय प्रदेश में होनेवाला एक तरह का ऊँचा पेड़ जिसके पत्ते लकुच के पत्तों की तरह और फूल कदम के फूलों जैसे होते हैं।
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पद्माचल  : पुं० [पद्म-अचल, मध्य० स०] एक पर्वत। (पुराण)
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पद्माट  : पुं० [सं० पद्म√अट् (गति)+अच्] चकवँड़।
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पद्माधीश  : पुं० [पद्म-अधीश, ष० त०] विष्णु।
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पद्मालय  : पुं० [पद्म-आलय, ब० स०] ब्रह्मा।
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पद्मालया  : स्त्री० [सं० पद्मालया+टाप्] १. लक्ष्मी। २. लौंग।
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पद्मावती  : स्त्री० [सं० पद्म+मतुप्, वत्व, दीर्घ] १. पटना नगर का प्राचीन नाम। २. पन्ना नगर का पुराना नाम। ३. उज्जयिनी का पुराना नाम। ४. जरत्कारु ऋषि की पत्नी लक्ष्मी का दूसरा नाम। ५. मनसा देवी का एक नाम। ६. पुराणानुसार एक अप्सरा। ७. युधिष्ठिर की एक रानी। ८. एक प्राचीन नदी। ९. लोक-कथा के अनुसार सिंहल की एक राजकुमारी जिसे चित्तौड़ के राजा रत्नसेन ब्याह कर लाये थे। १॰. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ३२ मात्राएँ १॰, ८ और १४ की यति पर होती हैं।
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पद्मासन  : पुं० [पद्म-आसन, उपमि० स०] १. कमल का आसन। २. योग-साधना के समय पलथी मारकर तथा तनकर बैठने की एक विशेष मुद्रा। ३. वह जो उक्त आसन लगाकर बैठा हो। ४. काम-शास्त्र के अनुसार स्त्री के साथ संभोग करने का एक आसन या रतिबंध। ५. ब्रह्मा। ६. शिव। ६. सूर्य।
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पद्माह्वा  : स्त्री० [पद्म-आह्व, ब० स०,+टाप्] १. गेंदा। २. लौंग।
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पद्मिनी  : स्त्री० [सं० पद्म+इनि—ङीप्] १. कमल का पौधा। २. कमल की नाल। ३. कमलों का समूह। ४. ऐसा तालाब जिसमें बहुत से कमल खिले हों। ५. मादाहाथी। हथिनी। ६. काम शास्त्र में रूप, शील और स्वभाव की दृष्टि से नायिकाओं के चार वर्गों में से पहला और सर्वश्रेष्ठ वर्ग। ७. उक्त वर्ग की नायिका जिसका शरीर चम्पा की तरह गौर वर्ण होता है, कमल-दल की तरह कोमल होता है और जिसके अंग अंग से सुरभित गंध निकलती है। यह अत्यन्त लज्जाशील किंतु बहुत मानिनी भी होती है।
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पद्मिनी-कंटक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का क्षुब्द रोग जो कुष्ठ के अन्तर्गत माना जाता है।
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पद्मिनी-कांत  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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पद्मिनी-खंड  : पुं० [ष० त०] वह प्रदेश जहाँ कमलों की प्रचुरता हो।
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पद्मिनी-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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पद्मिनी-षंड  : पुं० [ष० त०] पद्मिनी-खंड।
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पद्मी (द्मिन्)  : वि० [सं० पद्म+इनि] १. जिसमें कमल होता हो। २. कमल से युक्त। पुं० १. वह प्रदेश जहाँ पद्म या कमल बहुत होते हों। २. पद्मों या कमलों का समूह। ३. विष्णु। ४. बौद्धों के अनुसार एक लोक का नाम। ५. उक्त लोक में रहनेवाले एक बुद्ध जिनका अवतार आगे चलकर होगा।
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पद्मेशय  : पुं० [सं० पद्मे√शी (सोना)+अच्, अलुक्, स०] पद्मों पर सोनेवाले, विष्णु।
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पद्मोत्तर  : पुं० [सं० पद्म-उत्तर, ष० त०] १. कुसुम। बर्रे। २. एक बुद्ध का नाम।
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पद्मोद्भव  : पुं० [सं० पद्म-उद्भव, ब० स०] ब्रह्मा।
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पद्मोद्भवा  : स्त्री० [सं० पद्मोद्भवा+टाप्] वासुकि नाग की बहन मनसा।
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पद्य  : वि० [सं० पद्+यत्] १. पद (पैर अथवा चरण) संबंधी। २. जो पदों अर्थात् काव्य के रूप में हो। पुं० १. पद अर्थात् गण, मात्रा आदि के नियमों के अनुसार होनेवाली साहित्यिक रचना। छंदो-बद्ध रचना। (वर्स) २. काव्य। ३. शूद्र जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के चरणों से मानी जाती है। ४. शठता।
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पद्या  : स्त्री० [सं० पद्य+टाप्] १. पैदल चलने से बननेवाला रास्ता। पगडंडी। २. पटरी। ३. शर्करा।
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पद्यात्मक  : वि० [पद्य-आत्मन्, ब० स०+कप्] पद्य के रूप में होनेवाला। छंदोबद्ध।
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पद्र  : पुं० [सं०√पद्+रक्] गाँव।
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पद्रथ  : पुं० [सं० पद्-रथ, ब० स०] प्यादा। पैदल सिपाही।
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पद्व  : पुं० [सं०] १. मनुष्य-जगत्। २. पृथ्वी। ३. मार्ग। सड़क। ४. रथ।
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पद्वा (द्वन्)  : पुं० [सं०√पद्+वनिप्] मार्ग।
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पधरना  : अ०=पधारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पधराना  : स० [हिं० पधारना] १. अपने यहाँ आये हुए व्यक्ति का सत्कार करना और आदरपूर्वक आसन देना। २. प्रतिष्ठित या स्थापित करना।
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पधरावनी  : स्त्री० [हिं० पधराना] १. पधारने की क्रिया या भाव। २. किसी देवता की स्थापना।
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पधारना  : अ० [हिं० पग+धारना] १. किसी की दृष्टि में उसके यहाँ किसी पूज्य व्यक्ति का आना। २. किसी बड़े आदमी का किसी उत्सव, समारोह आदि में सम्मिलित होने के लिए पहुँचना। ३. आ पहुँचना। आना। ४. गमन करना। चलना। (परिहास और व्यंग्य) सं० आदरपूर्वक बैठाना। पधारना। प्रतिष्ठित करना। उदा०—तिल पिंडिन में हरिहि पधारै। बिबिध भाँति पूजा अनुसारै।—रघुनाथ।
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पनंग  : पुं० [सं० पन्नग] सर्प। साँप। (डिं)
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पन  : पुं० [सं० पर्वन्] आयु अथवा जीवन-काल की कोई अवस्था या स्थिति। जैसे—उन्हें चौथे पन में कुछ आराम मिला। प्रत्य० एक प्रत्यय जो कुछ संज्ञाओं और गुणवाचक विशेषणों के अन्त में लगकर उनका भाववाचक रूप बनाता है। जैसे—बचपन, लड़कपन, पीलापन, हरापन आदि। पुं० [हिं० पान] पान का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौगिक पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पनवाड़ी। पुं० [हिं० पानी] पानी का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पन-चक्की, पन-डुब्बी, पन-बिजली, पन-भरा आदि। पुं०= प्रण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०—रोपना।—लेना। पुं०=पण्य (मूल्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पन-कटा  : पुं० [हिं० पानी+काटना] वह मनुष्य जो खेतों में नालियाँ काटकर इधर-उधर पानी ले जाता या सींचता हो।
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पन-कपड़ा  : पुं० [हिं० पानी+कपड़ा] चोट, घाव आदि पर बाँधा जानेवाला गीला कपड़ा।
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पन-काल  : पुं० [हिं० पानी+काल या अकाल] १. पानी का अकाल। २. अत्यधिक वर्षा तथा उसके फलस्वरूप खेती आदि नष्ट होने के कारण पड़नेवाला अकाल।
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पन-कुकड़ी  : स्त्री०=पनकौआ।
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पन-कुट्टी  : स्त्री० [हिं० पान+कूटना] पान कूटने का छोटा खरल।
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पन-कौआ  : पुं० [हिं० पानी+कौआ] एक प्रकार का जल-पक्षी। जल-कौआ।
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पनखट  : पुं० [हिं० पनहा+काठ] जुलाहों की वह लचीली धुनकी जिस पर उनके सामने बुना कपड़ा फैला रहता है।
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पनग  : पुं० [स्त्री० पनगनि] पन्नग (साँप)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पनगाचा  : पुं० [हिं पानी+गाछी (बाग)] वह खेत जिसमें पानी भरा या सींचा गया हो।
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पनगोटी  : स्त्री० [हिं० पानी+गोटी] मोतिया शीतला।
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पनघट  : पुं० [हिं० पानी+घाट] १. वह घाट जहाँ से लोग पानी भरते हों। २. कोई ऐसा स्थान जहाँ से पानी घड़े में भरकर ले जाया जाता हो। जैसे—कूआँ।
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पनच  : स्त्री० [सं० पतंचिका] प्रत्यंचा।
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पन-चक्की  : स्त्री० [हिं० पानी+चक्की] आटा आदि पीसने की ऐसी चक्की जो पानी के बहाव के जोर से चलती हो।
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पनची  : स्त्री० [देश०] गेड़ी के खेल में खेलने के लिए पतली लकड़ी या गेड़ी।
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पनचोरा  : पुं० [हिं० पानी+चोर] जल भरने का एक तरह का बरतन जिसका पेट चौड़ा और मुँह सँकरा हो।
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पनडब्बा  : पुं० [हिं० पान+डब्बा] [स्त्री० अल्पा० पनडब्बी] पानदान।
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पनडब्बी  : स्त्री० [हिं० पन+डब्बी] पानों के लगे हुए वीड़े रखने की छोटी डिबिया।
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पनडूब्बा  : पुं० [हिं० पानी+डूबना] १. पानी में गोता लगानेवाला। गोताखोर। २. [स्त्री० पनडुब्बी] काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जो जलाशय में गोता लगाकर मछलियाँ पकड़ता हो। ३. मुरगाबी। ४. एक प्रकार का कल्पित भूत जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि वह जलाशय में नहानेवालों को डुबा देता है।
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पनडुब्बी  : स्त्री० [हिं० पानी+डूबना] १. जलाशयों में डुबकी लगाकर मछलियाँ पकड़नेवाली एक चिड़िया। २. पानी के अन्दर डूबकर चलनेवाली एक प्रकार की आधुनिक नाव। (सब-मेरीन)
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पनदनियाँ  : स्त्री० [हिं० पानदान का स्त्री० अल्पा०] पानों के लगे हुए बीड़े रखने की छोटी डिब्बी। पन-डब्बी।
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पनपना  : अ० [सं० पर्ण+पर्ण=पत्ता; या पर्णय=हरा होना] १. पेड़-पौधों के सम्बन्ध में, उनका भली-भाँति विकास और वृद्धि होना। २. रोजगार आदि के संबंध में, उसका उन्नति पर होना। चमकना। ३. व्यक्ति के संबंध में, उसका नये सिरे से या फिर से तन्दुरुस्त, सम्पन्न अथवा सशक्त होने लगना। अच्छी स्थिति में आने लगना।
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पनपनाहट  : स्त्री० [अनु०] बार-बार होनेवाले पन-पन शब्द का भाव।
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पनपाना  : स० [हिं० पनपाना का स० रूप] किसी को पनपने में प्रवृत्त करना या सहायता करना।
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पनपिआइ  : स्त्री० [हिं० पानी+पिलाना] नाश्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पन-बट्टा  : पुं० [हिं० पान+बट्टा (डिब्बा)] वह छोटा डिब्बा जिसमें लगे हुए पानों के बीड़े रखे जाते हैं।
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पन-बदरा  : पुं० [हिं० पानी+बादल] ऐसी वातावरणिक स्थिति जिसमें पानी और बादल के साथ धूर भी निकली होती है।
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पनबिच्छी  : स्त्री० [हिं० पानी+बीछी] बिच्छी की तरह का डंक मारनेवाला एक जल-जंतु।
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पन-बिछिया  : स्त्री०=पनबिच्छी।
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पन-बिजली  : स्त्री० [हिं० पानी+बिजली] झरनों और नदियों के बहाववाले पानी से तैयार की जानेवाली बिजली।
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पनबिजली-शक्ति  : स्त्री० दे० ‘जलविद्युत्-शक्ति’।
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पनबुड़वा  : पुं०=पनडुब्बा।
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पनभता  : पुं० [हिं० पानी+भात] केवल पानी में उबले हुए चावल। साधारण भात।
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पन-भरा  : पुं० [हिं० पानी+भरना] वह जो घरों में पानी भरकर पहुँचाने या ले जाने का काम करता हो। पनहरा।
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पन-मँड़िया  : स्त्री० [हिं० पानी+माँड़ी] एक तरह की पतली माँड़ जिससे जुलाहे बुनाई के समय टूटे हुए तागों को जोड़ते हैं।
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पनरंगा  : वि० [हिं० पानी+रंग] [स्त्री० पनरंगी] पानी के रंग जैसा अर्थात् मटमैलापन लिये सफेद। उदा०—कटि धोती पनरंगी घरे गमछा-कल काँधे।—रत्ना०।
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पनलगवा, पनलगा  : पुं० [हिं० पानी+लगना] खेतों में पानी लगाने या सींचनेवाला व्यक्ति। पनकटा।
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पनलोहा  : पुं० [हिं० पानी+लोहा] एक प्रकार का जल-पक्षी जो हर ऋतु में रंग बदलता है।
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पनव  : पुं०=प्रणव।
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पनवाँ  : पुं० [हिं० पान+वाँ (प्रत्य०)] हुमेल आदि में लगी हुई बीचवाली चौकी जो पान के आकार की होती है। टिकड़ा। पान।
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पनवाड़ी  : स्त्री० [हिं० पान+वाड़ी] वह खेत या भूमि जिसमें पान पैदा होता है। पुं० दे० ‘तमोली’।
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पनवार  : स्त्री० [सं० पर्ण] पत्तों की बनी हुई पत्तल।
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पनवारा  : पुं० [हिं० पान=पत्ता+वार (प्रत्य०)] १. पत्तों की बनी हुई पत्तल जिस पर रखकर लोग भोजन करते हैं। मुहा०—पनवारा लगाना=पत्तल पर भोजन परोसना। २. पत्तल पर परोसा हुआ उतना भोजन जितना एक आदमी खा सके। (दे० ‘पत्तल’) पुं० [?] एक प्रकार का साँप।
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पनवारी  : स्त्री० =पनवाड़ी। पुं०=तमोली।
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पनस  : पुं० [सं०√पन् (स्तुति)+असच्] १. कटहल का वृक्ष। २. कटहल का फल। ३. राम की सेना का एक बंदर। ४. विभीषण का एक मंत्री।
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पन-सखिया  : स्त्री० [हिं० पाँच+शाखा] १. एक प्रकार का पौधा। २. उक्त पौधे का फूल।
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पनसतालिका  : स्त्री० [सं० पनस-ताल, कर्म० स०,+ ठन्—इक,+टाप्] कटहल।
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पनसनालका  : पुं० [सं०] कटहल।
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पनसल्ला  : पुं०=पनसाल (प्याऊ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनसाखा  : पुं० [हिं० पाँच+शाखा] एक प्रकार की मशाल जिसमें तीन या पाँच बत्तियाँ साथ जलती हैं।
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पनसार  : पुं० [हिं० पानी+सं० आसार=धार बाँधकर पानी गिराना] पानी से किसी स्थान को तर करने या सींचने की क्रिया या भाव। भरपूर सिंचाई।
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पनसारी  : पुं०=पंसारी।
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पनसाल  : स्त्री० [हिं० पानी+सं० शाला] १. वह स्थान जहाँ सर्वसाधारण को पानी पिलाया जाता है। पौसरा। प्याऊ। २. नदी आदि में नावों के चलने के समय पानी की गहराई नापने की क्रिया। ३. वह उपकरण जिससे वक्त अवसरों पर पानी की गहराई नापी जाती है।
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पनसिंगा  : पुं० [देश०] जलपीपल।
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पनसिका  : स्त्री० [सं० पनस+ठन्—इक,+टाप्] कान में होनेवाली एक तरह की फुंसी जो कटहल के काँटों की तरह नोकदार होती है।
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पनसी  : स्त्री० [सं० पनस+ङीष्] १. कटहल का फल। २. पनसिका।
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पनसुइया  : स्त्री० [हिं० पानी+सूई] एक तरह की पतली तथा छोटी नाव।
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पनसूर  : पुं० [देश०] एक तरह का बाजा।
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पनसेरी  : स्त्री०=पंसेरी।
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पनसोई  : स्त्री०=पनसुइया।
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पनसोह  : वि० [हिं० पानी+सुहाना] १. जिसका स्वाद जल जैसा हो। २. फीका। ३. नीरस।
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पनस्यु  : वि० [सं० पन+क्यच्, सुगागम,+ड] प्रशंसा या तारीफ सुनने का इच्छुक। जिसे प्रशंसित होने की लालसा हो।
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पनह  : स्त्री०=पनाह (शरण)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनहड़ा  : पुं० [हिं० पान+हाँड़ी] वह पात्र जिसमें तमोली पान आदि धोने के लिए पानी रखते हैं।
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पनहरा  : पुं० [हिं० पानी+हरा (प्रत्य०)] [स्त्री० पनहारन, पनहारिन] १. वह व्यक्ति जो दूसरों के यहाँ पानी भरता हो और इस प्रकार प्राप्त होनेवाले पारिश्रमिक से अपनी जीविका चलाता हो। पन-भरा। २. वह पात्र जिसमें सोनार गहने धोने आदि के लिए पानी रखते हैं।
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पनहा  : पुं० [सं० परिणाह=विस्तार, चौड़ाई] १. कपड़े, दीवार आदि की चौड़ाई। अरज। २. गूढ़ आशय। तात्पर्य। मर्म। भेद। पुं० [सं० पण=रुपया-पैसा+हार] १. चोरी का पता लगानेवाला। २. वह पुरस्कार जो चुराई हुई वस्तु लौटा या दिला देने के लिए दिया जाय। स्त्री०=पनाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनहारा  : पुं०=पनहरा।
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पनहिया  : स्त्री०=पनही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनहिया-भद्र  : पुं० [हिं० पनही+भद्र=मुंडन] सिर पर इतने जूते पड़ना कि बाल उड़ जायँ। जूतों की मार।
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पनही  : स्त्री० [सं० उपानह] जूता।
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पना  : पुं० [सं० प्रपानक या पानीय] भुने हुए आम, इमली आदि का बनाया जानेवाला एक तरह का खट-मीठा शरबत। पन्ना। प्रत्य०=पन। जैसे—पाजीपना।
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पनाती  : पुं० [सं० प्रन्प्तृ] [स्त्री० पनातिन] पुत्र अथवा कन्या का नाती। पोते अथवा नाती का पुत्र। परनाती।
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पनार (रा)  : पुं०=पनारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनारि  : स्त्री० [हिं० प=पर+नारि] पराई स्त्री। उदा०—जो पनारि कौ रसिक...। मतिराम।
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पनाला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पनाली]=परनाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनालिया  : वि० [हिं० पनाला=परनाला] पनाले या परनाले के समान गंदा और त्याज्य। जैसे—पनालिया पग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनालिया-पत्र  : पुं० [हिं० पनालिया+सं० पत्र] वह समाचार-पत्र (या समाचार-पत्रों का वर्ग) जिसमें अधिकतर बातें अशिष्टतापूर्ण और अश्लील ढंग से कही जाती हैं और दूषित भाव से लोगों पर कीचड़ उछाला जाता है। (गटर प्रेस)
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पनास  : पुं० [हिं० पनासना] १. पालन-पोषण। २. दे० ‘पोस’।
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पनासना  : स० [सं० पानाशन] पोषण करना। पालना-पोसना।
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पनाह  : स्त्री० [फा०] १. शत्रु के उपद्रव या दूसरे संकटों से प्राणरक्षा या अपना बचाव करने की क्रिया या भाव। त्राण। २. उक्त आशय से किसी की रक्षा या शरण में जाने की क्रिया या भाव। मुहा०—(किसी काम, बात या व्यक्ति से) पनाह माँगना=किसी बहुत ही अप्रिय या अनिष्ट वस्तु अथवा विकट व्यक्ति से दूर रहने की कामना करना। किसी से बहुत बचने की इच्छा करना। जैसे—मैं आप से पनाह माँगता हूँ। ३. ऐसा स्थान जहाँ छिप या रहकर कोई शत्रु संकट आदि से बचता हो। बचाव या रक्षा की जगह। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—माँगना। मुहा०—पनाह लेना= विपत्ति से बचने के लिए रक्षित स्थान में पहुँचना। शरण लेना।
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पनिक  : पुं० [देश०] दो बाँसों की कैंचीनुमा रचना। (जुलाहे) विशेष—ऐसी ही दो रचनाओं के बीच में पाई करने के उद्देश्य से ताना फैलाया जाता है।
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पनिख  : पुं०=पनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिगर  : वि०=पानीदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिघट  : पुं०=पनघट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिच  : स्त्री०=पनच (प्रत्यंचा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिड़ी  : स्त्री०=पुंडरीक (ईख का एक भेद)।
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पनियाँ  : वि० [हिं० पानी+इया (प्रत्य०)] १. जल-संबंधी। पानी का। २. पानी में रहने या होनेवाला। जैसे—पनियाँ साँप। ३. जिसमें पानी हो या मिला हो। जैसे—पनियाँ दूध। ४. पानी के रंग का। पुं० दे० ‘पनुआ’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनियाना  : स० [हिं० पानी+आना (प्रत्य०)] खेत आदि को पानी से सींचना। स०=पनिहाना।
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पनियार  : पुं० [हिं० पानी+यार (प्रत्य०)] १. वह स्थान जहाँ पानी ठहरता या रुकता हो। २. वह दिशा जिधर ढाल होने के कारण पानी बहता हो।
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पनियारा  : पुं० [हिं० पानी] १. पानी की बाढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०, पुं०=पनियाला।
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पनियाला  : पुं० [?] एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल। वि०=पनियाँ।
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पनियाँव  : पुं० [हिं० पानी+इयाव (प्रत्य०)] कूआँ खोदते समय मिलनेवाला वह स्थान जहाँ पानी यथेष्ट होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिया-सोत  : वि० [हिं० पानी+सोता] (तालाब या खाई) जिसके तल में पानी का प्राकृतिक सोता निकला हो। अर्थात् बहुत गहरा। जैसे—पनिया-सोत खाईं।
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पनिवा  : पुं०=पनुआँ।
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पनिसिंगा  : पुं० दे० ‘जल पीपल’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिहरा  : पुं०=पनहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिहा  : पुं० [?] चोर पकड़ने अथवा उनका पता बतलानेवाले तांत्रिक। पुं० दे० ‘पनुआ’। वि०=पनियाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पनिहाना  : स० [हिं० पनही=जूता] १. जूतों से मारना। २. बहुत अधिक मारना-पीटना।
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पनिहार  : पुं० [स्त्री० पनिहारिन]=पनहरा।
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पनिहारिन  : स्त्री० [हिं० पनिहरा=पानी भरनेवाला] १. वह स्त्री० जो लोगों के घर पानी भर कर पहुँचाने का काम करती हो। २. गाँव-देहातों में कहरवा की तरह के एक प्रकार के गीत जो उक्त अथवा कहार जाति की स्त्रियाँ पानी भरने और लोगों के घर पानी पहुँचाने के समय गाती हैं।
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पनी  : वि० [सं० पण] जिसने प्रण या व्रत धारण किया हो। स्त्री०=पन्नी।
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पनीर  : पुं० [फा०] १. दही का वह घन अंश जो उसमें पानी निकाल देने पर बच रहे। २. फटे या फाड़े हुए दूध का घन अंश। छेना। मुहा०—(किसी को) पनीर चटाना=काम निकालने के उद्देश्य से किसी को कुछ खिलाना-पिलाना और खुशामद करना। पनीर जमाना=ऐसी बात करना जिससे आगे चलकर कोई बहुत उद्देश्य या स्वार्थ सिद्ध हो।
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पनोरी  : वि० [फा०] १. पनीर-संबंधी। २. पनीर का बना हुआ। जैसे—पनीरी मिठाई। स्त्री० [देश०] १. फूल-पत्तोंवाले वे छोटे पौधे जो दूसरी जगह रोपने के लिए उगाये गये हों। फूल-पत्तों के बेहन। क्रि० प्र०—जमाना। २. वह क्यारी जिसमें उक्त प्रकार के पौधे उगाये जाते हैं। ३. गलगल नींबू की फाँक का गूदा।
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पनीला  : वि०=पनियाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] एक तरह का सन।
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पनु  : पुं०=प्रण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पनुआँ  : पुं० [हिं० पानी+उआँ (प्रत्य०)] १. वह शरबत जो गुड़ के कड़ाहे से पाग निकाल लेने के बाद उसे धोकर तैयार किया जाता है। पनियाँ। २. तरबूज। (पूरब)
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पनेथी  : स्त्री० [हिं० पानी+पोथी] वह रोटी जिसमें पलेथन के स्थान पर पानी लगाया गया हो।
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पनेरी  : स्त्री०=पनीरी। पुं०=पनवाड़ी (तँबोली)।
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पनेवा  : पुं० [?] एक प्रकार की चिड़िया।
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पनेहड़ी  : स्त्री० दे० ‘पनहड़ी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पनहरा।
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पनेहरा  : पुं०=पनहरा।
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पनैला  : वि०=पनियाँ। पुं०=पनीला।
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पनौआ  : पुं० [हिं० पान+औआ (प्रत्य०)] पान के पत्तों का पकौड़ा या पकौड़ी।
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पनौटी  : स्त्री० [हिं० पान+औटी (प्रत्य०)] पान रखने की पुरानी चाल की पिटारी।
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पन्न  : वि० [सं०√पद्+क्त] १. गिरा या पड़ा हुआ। जैसे—शरणापन्न। २. जो नष्ट या समाप्त हो चुका हो। पुं० खिसकते या सरकते हुए चलना। रेंगना। पुं०=पर्ण (पत्ता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पन्नई  : वि० [हिं० पन्ना+ई (प्रत्य०)] पन्ने के रंग का। फिरोजी या गहरे हरे रंग का।
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पन्नग  : पुं० [सं० पन्न√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० पन्नगी] १. सर्प। साँप। २. एक प्रकार की जड़ी या बूटी। ३. सीसा। पुं०=पन्ना (मरकत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पन्नग-केसर  : पुं० [ब० स०] नागकेसर।
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पन्नगारि  : पुं० [पन्नग-अरि, ष० त०] गरुड़।
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पन्नगाशन  : पुं० [पन्नग-आशन, ब० स०] गरुड़।
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पन्नगिनि  : स्त्री०=पन्नगी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पन्नगी  : स्त्री० [सं० पन्नग+ङीष्] १. सर्पिणी। साँपिन। २. सर्पिणी नाम की जड़ी या बूटी।
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पन्नद्धा, पन्नध्री  : स्त्री० [सं० पद्-नद्धा, स० त०, पद्-नध्री, ष० त०] जूता।
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पन्ना  : पुं० [सं० पर्ण] एक तरह का गहरे हरे या फिरोजी रंग का बहुमूल्य रत्न। पुं० [हिं० पान] १. पृष्ठ। वरक। २. भेड़ों के कान का वह भाग जहाँ का ऊन काटा जाता है। ३. पान के आकार का जूते का वह अंग जिसे ‘पान’ कहते हैं।
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पन्निक  : पुं०=पनिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पन्नी  : स्त्री० [हिं० पन्ना] १. राँगे, पीतल आदि का पत्तर जिसे सौंदर्य और शोभा के लिए छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर अन्य वस्तुओं पर चिपकाया जाता है। २. एक तरह का रंगीन चमकीला कागज। ३. सुनहला या रुपहला कागज। स्त्री० [हिं० पना] इमली, कच्चेआम आदि से बनने वाला एक पेय। स्त्री० [?] १. बारूद की एक तौल जो आध सेर के बराबर होती है। २. एक तरह की घास जो छप्पर छाने के काम आती है।
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पन्नीसाज  : पुं० [हिं० पन्नी+फा० साज़=बनानेवाला] [भाव० पन्नीसाजी] पन्नी बनानेवाले कारीगर।
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पन्नीसाजी  : स्त्री० [हिं० पन्नीसाज] पन्नी बनाने का काम या व्यवसाय।
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पन्नू  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार का पौधा। २. उक्त पौधे का फूल।
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पन्यारी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का जंगली वृक्ष, जिसकी लकड़ी चमकदार तथा मजबूत होती है।
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पन्हाना  : स० १.=पहनाना। २.=पनिहाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०= पेन्हाना (थन में दूध उतरना)।
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पन्हारा  : पुं० [हिं० पानी+हरा] एक प्रकार का तृण धान्य जो गेहूँ के खेतों में आप से आप होता है। अँकरा।
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पन्हीं  : स्त्री० [देश०] एक तरह की घास। गाँडरा। बीरन।
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पन्हैया  : स्त्री०=पनही।
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पपटा  : पुं० [?] छिपकली। पुं०=पपड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पपड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] [स्त्री० अल्पा० पपड़ी] १. लकड़ी का रूखा, करकरा और पतला छिलका। चिप्पड़। २. किसी चीज के ऊपर का पतला किंतु कड़ा और सूखा छिलका। जैसे—रोटी का पपड़ा।
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पपड़िया  : वि० उभय० [हिं० पपड़ी+इया (प्रत्य०)] जो आकार, रूप आदि में पपड़ी की तरह का हो। जैसे—पपड़िया कत्था, पपड़िया लाख आदि।
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पपड़िया कत्था  : पुं० [हिं० पपड़ी+कत्था] सफेद कत्था। श्वेतसार।
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पपड़ियाना  : अ० [हिं० पपड़ी+आना (प्रत्य०)] १. किसी चीज पर पपड़ी जमना। २. पपड़ी की तरह सूखकर कड़ा हो जाना। स० ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज सूखकर पपड़ी के रूप में हो जाय।
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पपड़ी  : स्त्री० [हिं० पपड़ा] १. प्रायः किसी गीली वस्तु के सूखने पर उसकी ऊपर परत की वह स्थिति जब वह सूखकर कुछ चिटक, सिकुड़ और ऐंठ जाती है। जैसे—होंठों पर की पपड़ी। क्रि० प्र०—जमना।—पड़ना। मुहा०—(किसी चीज) पपड़ी छोड़ना=मिट्टी की तह का सूख और सिकुड़कर चिटक जाना। पपड़ी पड़ना। (किसी व्यक्ति का) पपड़ी छोड़ना=बहुत सूखकर बिलकुल दुबला और क्षीण हो जाना। २. घाव का खुरंड। क्रि० प्र०—जमना।—पड़ना। ३. सोहन-पपड़ी या अन्य कोई मिठाई जिसकी तह जमाई गई हो। ४. पापड़ की तरह का कोई छोटा पकवान। ५. वृक्ष की छाल पर सूखने के कारण बनी दरारें।
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पपड़ीला  : वि० [हिं० पपड़ी+ईला (प्रत्य०)] जिसमें पपड़ी की तरह की तह या परत हो। पपड़ीदार।
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पपनी  : स्त्री० [देश०] फलक के बाल। बरौनी।
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पपरी  : स्त्री० [सं० पर्पट] १. एक प्रकार का पौधा, जिसकी जड़ दवा के काम आती है। २. दे० ‘पपड़ी’।
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पपहा  : पुं० [देश०] १. धान की फसल को हानि पहुँचानेवाला एक प्रकार का कीड़ा। २. गेहूँ, जौ आदि में लगनेवाला एक प्रकार का घुन।
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पपि  : पुं० [सं०√पा (पीना)+कि, द्वित्व] चन्द्रमा।
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पपिहा  : पुं०=पपीहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पपी  : पुं० [सं०√पा+ईक्, द्वित्व] १. सूर्य। २. चन्द्रमा।
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पपीता  : पुं० [मला० पपाया] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसमें बड़े मीठे लंबोतरे फल लगते हैं। २. उक्त पौधे का फल जो मीठा तथा रेचक होता है।
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पपीतिया  : पुं० [हिं० पपीता] १. एक तरह का पौधा। २. उक्त पौधे का बीज जो प्लेग से रक्षा के लिए किसी अंग में बाँधा जाता है (इग्नेटियसबीन)
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पपीती  : स्त्री० [हिं० पपीता] मादा पपीता (पौधा) जिसमें फल नहीं लगते।
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पपीलि  : स्त्री०=पिपीलिका (च्यूँटी)।
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पपीहरा  : पुं०=पपीहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पपीहा  : पुं० [देश०] १. एक प्रसिद्ध पक्षी जिसकी आँखें, चोंच तथा टाँगें पीली होती हैं और डैने सिलेटी रंग के होते हैं तथा जो बसंत और वर्षा में बहुत ही मधुर स्वर में ‘पी-कहाँ’ की तरह का शब्द बोलता है। २. सितार के छः तारों में से एक जो लोहे का होता है। ३. आल्हा के पिता के घोड़े का नाम। ४. दे० ‘पपैया’।
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पपु  : वि० [सं०√पा+कु, द्वित्व] १. पालन करनेवाला। २. रक्षक। स्त्री० दाई। धाय।
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पपैया  : पुं० [अनु०] आम की गुठली को घिसकर बनाई जानेवाली सीटी।
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पपोटन  : स्त्री० [देश०] एक पौधा जिसके पत्ते फोड़े पर उसे पकाने के उद्देश्य से बाँधते हैं।
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पपोटा  : पुं० [सं० प्र+पट] पलक। दृगंचल।
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पपोरना  : स० [देश०] अपनी बाहों को हिलाना-डुलाना और उनकी पुष्टता देखना।
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पपोलना  : अ० [हिं० पोपला] पोपले का चुभलाना।
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पप्पील  : स्त्री० [सं० पिपीलिका] च्यूँटी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पबई  : स्त्री० [देश०] मैना की जाति की मधुर स्वर में बोलनेवाली एक चिड़िया।
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पबना  : स०=पाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पबलिक  : स्त्री० [अ० पब्लिक] जन-साधारण। जनता। वि० जन-साधारण-संबंधी।
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पबारना  : स०=पँवारना (फेंकना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पबि  : पुं०=पवि (वज्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पब्बय  : पुं० [सं० पर्वत] १. पहाड़। पर्वत। २. पत्थर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] एक प्रकार की चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पब्बि  : पुं०=पवि (वज्र)।
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पब्लिक  : स्त्री०, वि० [अं०]=पबलिक।
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पमरा  : स्त्री० [देश०] शल्लुकी नामक सुगंधित पदार्थ।
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पमाना  : अ० [?] डींग मारना। उदा०—कायर बहुत पमावही बड़क न बोलै सूर।—कबीर।
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पमार  : पुं० [सं० पामारि] चकवँड़। चक्रमर्दक।
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पमूँकना  : स० [सं० प्र+मुक्त] छोड़ना। त्यागना।
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पम्मन  : पुं० [देश०] बड़े दानोंवाला एक प्रकार का गेहूँ। कठिया गेहूँ।
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पयःकंदा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] क्षीरविदारी। भूकुम्हड़ा।
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पयःपयोष्णी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन नदी।
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पयःपुर  : पुं० [सं० ष० त०] छोटा तालाब। पुष्करिणी।
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पयःपेटी  : स्त्री० [सं० ष० त०] नारियल।
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पयःफेनी  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीष्] दुग्धफेनी।
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पय (स्)  : पुं० [सं०√पय् (पीना)+असुन्] १. दूध। दुग्ध। २. जल। पानी। ३. अनाज। अन्न। पुं०=पद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयज  : वि० [सं०] पय या दूध से उत्पन्न अथवा बना हुआ। स्त्री०=पैज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयट्ठ  : स्त्री०=पैठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयद  : पुं० [सं० पयोद] १. बादल। मेघ। २. छाती। स्तन।
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पयधि  : पुं०=पयोधि।
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पयना  : वि०, पुं०=पैना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयनिधि  : पुं०=पयोनिधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पयपूर  : पुं० [सं० पय] समुद्र। उदा०—तप्यौ तपनीय पयपूर ज्यौं बहत है।—सेनापति।
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पयम्मरा  : पुं०=पैगंबर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयल्ल  : वि०=पहला। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयश्चय  : पुं० [सं० पयस्-चय, ब० स०] जलाशय।
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पयस्य  : वि० [सं० पयस्+यत्] १. जल-संबंधी। २. दूध-संबंधी। पुं० दूध से बनी हुई चीजें। जैसे—घी, दही, मक्खन आदि।
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पयस्या  : स्त्री० [सं० पयस्य+टाप्] १. दुग्धिका या दुधिया नाम की घास। २. अर्क-पुष्पी। क्षीर-काकोली।
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पयस्वती  : स्त्री० [सं० पयस्+मतुप्, वत्व, ङीप्] नदी।
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पयस्वल  : वि० [सं० पयस्+वलच्] १. जलयुक्त। पनीला। २. जिसमें दूध हो। दूध से युक्त। पुं० [स्त्री० पयस्वली] बकरा।
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पयस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० पयस्+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पयस्वती] १. जल से मुक्त। २. दूध से युक्त।
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पयस्विनी  : स्त्री० [सं० पयस्+विनि+ङीप्] १. ऐसी गौ जो प्रस्तुत समय में दूध दिया करती हो। दुधारी गाय। २. गाय। गौ। ३. बकरी। ४. नदी। ५. चित्रकूट की एक विशिष्ट नदी। ६. क्षीरकाकोली। ६. दूध-बिदारी। ८. दूध-फेनी।
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पयस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० पयस्+विनि] [स्त्री० पयस्विनी] १. जिसमें जल हो। २. दूध से युक्त।
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पयहारी  : पुं० [सं० पयोहारी] केवल जल या दूध पीकर रहनेवाला साधु।
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पया  : पुं० [देश०] दस सेर अनाज की तौल का एक बरतन। उदा०—अपने यहाँ पया से तौल नहीं की जाती।—वृन्दावन लाल वर्मा।
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पयाण  : पुं०=प्रयाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयादा  : वि०, पुं०=प्यादा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयान  : पुं० [सं० प्रयाण] कही जाने या पहुँचने के लिए यात्रा आरम्भ करना। प्रस्थान। रवानगी।
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पयाम  : पुं० [फा०] सन्देश। संदेसा।
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पयामबर  : पुं० [फा०] सन्देश ले जानेवाला व्यक्ति। सन्देशवाहक।
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पयार  : पुं०=पयाल।
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पयाल  : पुं० [सं० पलाल] १. धान, कोदों आदि के सूखे हुए ऐसे डंठल जिनमें से दाने झाड़ लिये गये हों। पुराल। पुआल। पियरा। मुहा०—पयाल गाहना या झाड़ना=(क) ऐसा श्रम करना जिसका कुछ फल न हो। व्यर्थ मेहनत करना। उदा०—फिर फिर कहा पयारहि गाहे।—सूर। (ख) ऐसे व्यक्ति की सेवा करना जिससे कुछ लाभ न हो सकता हो। २. एक तरह का वृक्ष जिसके फल खट-मीठे होते हैं। ३. उक्त वृक्ष का फल। पुं० [सं० प्रियाल] चिरौंजी का पेड़। वि०=प्यारा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयूख  : पुं०=पीयूष (अमृत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयोगड़  : पुं०=पयोगल।
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पयोगल  : पुं० [सं० पयस्√गल् (गलना)+क] १. ओला। २. टापू। द्वीप।
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पयोग्रह  : पुं० [सं० पयस्√ग्रह् (ग्रहण करना)+अच्] एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पयोधन  : पुं० [सं० पयस्-घन, तृ० त०] ओला।
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पयोज  : पुं० [सं० पयस्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] कमल।
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पयोजन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० पयस्-जन्मन्, ब० स०] १. मेघ। बादल। २. नागरमोथा।
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पयोद  : पुं० [सं० पयस्√दा (देना)+क] १. बादल। मेघ। २. मुस्तक। मोथा।
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पयोदन  : पुं० [सं० पयस्-ओदन] १. दूध में मिलाया हुआ भात। २. खीर।
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पयोदा  : स्त्री० [सं० पयोद+टाप्] कुमार की अनुचरी एक मातृका।
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पयोदानिल  : पुं० [सं०] बरसाती हवा।
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पयोदेव  : पुं० [सं० पयस्-देव, ष० त०] वरुण।
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पयोधर  : पुं० [सं० पयस्-धर, ष० त०] १. जल धारण करनेवाला—(क) बादल, (ख) तालाब, (ग) समुद्र। २. दूध धारण करनेवाला अर्थात् स्तन। ३. गौ का थन। ४. नारियल। ५. नागरमोथा। ६. कसेरू। ७. आक। मदार। ८. एक प्राकार की ईख। ९. पर्वत। पहाड़। १॰. ऐसा पौधा या वृक्ष जिसके तने, पत्रों आदि से दूध की तरह का सफेद तरल पदार्थ निकलता हो। ११. दोहा छंद का ११वाँ भेद। १२. छप्पय छन्द का २७वाँ भेद।
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पयोधा (धस्)  : पुं० [सं० पयस्√धा (धारण करना)+ असुन्] १. जलाधार। २. समुद्र।
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पयोधार  : पुं०=पयोधर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पयोधारागृह  : पुं० [सं० पयस्-धारा-गृह, ष० त०] वह स्नानागार जिसमें जल धारा के रूप में गिरता हो।
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पयोधि  : पुं० [सं० पयस्√धा+कि] समुद्र।
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पयोधिक  : पुं० [सं० पयोधि√कै (चमकना)+क] समुद्रफेन।
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पयोनिधि  : पुं० [सं० पयस् निधि, ष० त०] समुद्र।
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पयोमुख  : वि० [सं० पयस्-मुख, ब० स०] दुधमुँहा (बच्चा)।
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पयोमुच्  : पुं० [सं० पयस्√मुच् (छोड़ना)+क्विप्] १. बादल। मेघ। २. नागरमोथा।
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पयोर  : पुं० [सं० पयस्√रा (दान)+क] खैर का पेड़।
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पयोराशि  : पुं० [सं० पयस्-राशि, ष० त०] समुद्र।
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पयोलता  : पुं० [सं० पयस्-लता, मध्य० स०] दूधविदारी कंद।
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पयोवाह  : पुं० [सं० पयस्√वह् (ढोना)+अण्] १. मेघ। बादल। २. मोथा।
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पयोव्रत  : पुं० [सं० पयस्-व्रत, मध्य० स०] १. मत्स्य पुराण के अनुसार एक प्रकार का व्रत जिसमें एक दिन रात या तीन रात केवल जल पीकर रहना पड़ता है। २. भागवत के अनुसार कृष्ण का एक व्रत जिसमें बारह दिन दूध पीकर रहने और कृष्ण का स्मरण और पूजन करने का विधान है।
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पयोष्णी  : स्त्री० [सं० पयस्-उष्ण, ब० स०,+ङीष्] विंध्य प्रदेश की एक प्राचीन नदी।
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पयोष्णी-जाता  : स्त्री० [ब० स०] सरस्वती नदी।
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पयोहर  : पुं०=पयोधर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरंच  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. और भी। २. तो भी। ३. परंतु। लेकिन।
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परंज  : पुं० [सं० पर√जि (जीतना)+ड, मुम्] १. तेल पेरने का कोल्हू। २. छुरी आदि का फल। ३. फेन।
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परंजन  : पुं० [सं० पर√जन्+अच्, मुम्] (पश्चिमी दिशा के स्वामी) वरुण।
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परंजय  : वि० [सं० पर√जि (जीतना)+अच्, मुम्] शत्रु को जीतनेवाला। पुं० वरुण देवता।
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परंजा  : स्त्री० [सं० परंज+टाप्] उत्सव आदि में होनेवाली अस्त्रों, उपकरणों आदि की ध्वनि।
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परंतप  : वि० [सं० पर√तप् (तपना)+णिच्+खच्, मुम्] १. तपस्या द्वारा इंद्रियों को वश में करनेवाला। २. अपने ताप या तेज से शत्रुओं को कष्ट देनेवाला। पं० १. चिंतामणि। २. तामस मनु के एक पुत्र का नाम।
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परंतु  : अव्य० [सं० द्व० स०] १. इतना होने पर भी। जैसे—जी तो नहीं चाहता है परंतु जाना पड़ा। २. इसके विरुद्ध। जैसे—वह गरीब है परंतु अभिमानी है।
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परंदा  : पुं० [फा० परंद=चिड़िया] १. एक प्रकार की हवादार नाव जो काश्मीर की झीलों में चलती है। २. चिड़िया। पक्षी।
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परंपद  : पुं० [सं० परमपद] १. बैकुंठ। २. मोक्ष। ३. उच्च पद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परंपर  : पुं० [सं० परम्परा+अच्] १. एक के पीछे दूसरा चलनेवाला क्रम। चला आता हुआ सिलसिला। अनुक्रम। २. पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि के रूप में चलनेवाला क्रम या परंपरा। ३. वंशज। ४. कस्तूरी।।
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परंपरया  : अव्य० [सं० परम्परा शब्द के तृ० का रूप] परंपरा के अनुसार। परंपरा से।
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परंपरा  : स्त्री० [सं० परम्√पृ (पूर्ण करना)+अच्+टाप्] १. वह व्यवहार जिसमें पुत्र पिता की, वंशज पूर्वजों की और नई पीढ़ीवाले पुरानी पीढ़ीवालों की देखा-देखी उनके रीति-रिवाजों का अनुकरण करते हैं। २. वह रीति-रिवाजी जो बड़ों, पूर्वजों या पुरानी पीढ़ीवालों की देखादेखी किया जाय। ३. नियम या विधान से भिन्न अथवा अनुल्लखित वह कार्य जो बहुत दिनों से एक ही रूप में होता चला आ रहा हो और इसी लिए जो सर्व-मान्य हो। (ट्रैडिशन) ४. संतति। ५. हिंसा।
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परंपराक  : पुं० [सं० परम्परा√अक् (कुटिल गति)+ घञ्] यज्ञ के लिए पशुओं का वध, जो पहले परंपरा से होता आ रहा था।
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परंपरागत  : वि० [सं० परम्परा-आगत, तृ० त०] (कार्य रीति या रिवाज) जो बड़ों, पूर्वजों या पुरानी पीढ़ीवालों की देखादेखी किया जाय। परंपरा से प्राप्त होनेवाला। (ट्रैडिशनल)
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परंपरावाद  : पुं० [सं०] वह मत आ सिद्धान्त कि जो चीजें या बातें परंपरा से चली आ रही हैं, वही ठीक या सत्य हैं; और नई बातें ठीक या सत्य नहीं हैं। (ट्रैडिशनिलिज़्म)
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परंपरावादी  : वि० [सं०] परंपरावाद-संबंधी। परंपरावाद का। पुं० वह जो परंपरावाद का अनुयायी और समर्थक हो।
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परंपरित  : भू० कृ० [सं० परम्परा+इतच्] जो परंपरा के रूप में हो अथवा जो किसी प्रकार की परम्परा से युक्त हो। जैसे—परंपरित रूपक।
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परंपरित-रूपक  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में रूपक अलंकार का एक भेद जिसमें एक आरोप किसी दूसरे का कारण बनकर आरोपों की परंपरा बनाता है। यह परंपरा शब्दों के साधारण अर्थ के द्वारा भी स्थापित हो सकती है; और श्लिष्ट शब्दों के द्वारा भी। साधारण अर्थ के आधार पर स्थित परंपरित रूपक का उदाहरण है—बाड़व ज्वाला सोती इस प्रणय-सिंध के तल में। प्यासी मछली सी आँखें थीं विकल रूप के जल में—प्रसाद।
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परंपरीण  : वि० [सं० परम्परा+ख—ईन] १. वंशक्रम से प्राप्ति। २. परंपरा-गत।
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परःपुंसा  : स्त्री० [सं० सह सुपा स०, सुट् का आगम] अपने पति से असंतुष्ट होने पर, पर-पुरुष से प्रेम करनेवाली स्त्री।
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परःपुरुष  : वि० [सं० सहसुपा स०, सुट् का आगम] जो साधारण मनुष्यों से बढ़कर या श्रेष्ठ हो।
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परःशत  : वि० [सं० सहसुपा स०, सुट् का आगम] सौ से अधिक। शताधिक।
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परःश्व (स्)  : अव्य० [सं० पं० त०] परसों।
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परई  : स्त्री० [सं० पार=कटोरा, प्याला] सिकोरे की तरह का मिट्टी का कुछ बड़ा पात्र।
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परक  : प्रत्य० [सं० समास में] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लगाकर निम्नलिखित अर्थ देता है; (क) पीछे या अंत में लगा हुआ। जैसे—विष्णुपरक नामावली=अर्थात् ऐसी नामावली जिसके अंत में विष्णु या उसका वाचक और कोई शब्द हो। (ख) संबंध रखनेवाला। जैसे—अध्यात्म-परक, प्रशंसा-परक।
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पर  : वि० [सं०] १. अपने से भिन्न। अन्य। दूसरा। जैसे—पर-देश। २. दूसरे का। पराया। जैसे—पर-पुरुष, पर-स्त्री। ३. किसी के पीछे या बाद में आने या होनेवाला। जैसे—परवर्ती। ४. इस ओर या सिरे के विपरीत। उस ओर का। जैसे—पर-लोक, पर-पार। ५. वर्तमान से ठीक पहले या ठीक बाद का। जैसे—पर-सर्ग, पर-साल। ६. विरुद्ध पड़नेवाला। ६. आगे बढ़ा हुआ। ८. बाकी बचा हुआ। ९. अवशिष्ट। अव्य० [सं० परम] १. उपरान्त। बाद। जैसे—इतः पर। २. परन्तु। लेकिन। जैसे—मैं जाता तो सही पर तुमने मुझे रोक दिया। ३. निरंतर। लगातार। जैसे—तीर पर तीर चलाओ, तुम्हें डर किसका है। प्रत्य० [सं०] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अन्त में लगाकर उद्यत, रत, नली लगा हुआ आदि अर्थ सूचित करता है। जैसे—तत्पर, स्वार्थपर, आहारपर। उप० [हिं०] एक उपसर्ग जो ऊपर या नीचे की कुछ पीढ़ियों का सम्बन्ध बतलानेवाले शब्दों के पहले लगता है। जैसे—पर-दादा, पर-नाना, पर-पोता। विभ० १. सप्तमी या अधिकरण का चिह्न। जैसे—इस पर। विशेष—‘ऊपर’ और ‘पर’ का अंतर जानने के लिए देखें ‘ऊपर’ का विशेष। २. के बदले में। जैसे—१॰॰ रु० महीने पर नया नौकर रख लो। पुं० [फा०] १. कीड़े-मकोड़ों, पक्षियों आदि के दोनों ओर के वे अंग जिनकी सहायता से हवा में उड़ते हैं। डैना। पंख। जैसे—कबूतर के पर, मक्खी के पर। मुहा०—पर जमना=किसी में कोई नई अनिष्टकारक वृत्ति उत्पन्न होना। जैसे—तुम्हें भी पर जमने लगे हैं, तुम आवारा लड़कों के साथ घूमने लगे हो। पर न मार सकना=किसी जगह या किसी के पास न आ सकना। जैसे—वहाँ फरिश्ते भी पर नहीं मार सकते थे। बेपर की उड़ाना=बिलकुल बेसिर-पैर की और मन-गढ़ंत बात कहना। २. वे विशिष्ट उपांग जो ऐसे लम्बे सींके के रूप में होते हैं जिसके दोनों ओर आपस में जुड़े हुए बहुत से बाल होते हैं। जैसे—मोर या सुरखाब का पर।
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पर-कटा  : वि० [फा० पर+हिं० कटना] [स्त्री० पर-कटी ] १. (पक्षी) जिसके पर काट दिये गये हों। जैसे—पर-कटा सुग्गा। २. लाक्षणिक अर्थ में, (ऐसा व्यक्ति) जिससे अधिकार छीन लिये गये हों या जिसकी शक्ति नष्ट कर दी गई हो।
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परकना  : अ० [?] न रह जाना या दूर हो जाना। उदा०—ढोंग जात्यो ढरकि परकि उर सोग जात्यो जोग सरकि सकंप कखियान तैं।—रत्नाकर। अ०= परचना।
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परकलत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दूसरे व्यक्ति की विवाहिता स्त्री०। पर-स्त्री।
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परकसना  : अ० [हिं० परकासना] १. प्रकाशित होना। जगमगाना। २. प्रकट या जाहिर होना।
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पर-काजी  : वि० [हिं० पर+काज] १. जो दूसरों का काम करता रहता हो। २. परोपकारी।
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परकान  : पुं० [हिं० पर+कान] तोप का वह भाग जहाँ बत्ती दी जाती है। (लश०)
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परकाना  : स० [हिं० परकाना] किसी को परकने में प्रवृत्त करना। परचाना।
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परकाय-प्रवेश  : पुं० [सं० परकाय, ष० त०, परकाय प्रवेश, स० त०] अपनी आत्मा को दूसरे के शरीर में प्रविष्ट करने की क्रिया जो योग की एक सिद्धि मानी जाती है।
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परकार  : पुं० [फा०] वृत्त या गोलाई बनाने का एक प्रसिद्ध औजार जो पिछले सिरों पर परस्पर जुड़ी हुई दो शलाकाओं के रूप में होता है। इसकी एक शलाका केन्द्र में रखकर दूसरी शलाका चारों ओर घुमाने से पूर्ण वृत्त बन जाता है। पुं०=प्रकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकारना  : स० [फा० परकार+हिं० ना (प्रत्य०)] परकार से वृत्त बनाना। स०=परकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकाल  : पुं०=परकार।
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परकाला  : पुं० [सं० प्राकार या प्रकोष्ठ] १. सीढ़ी। जीना। २. चौखट। ३. दहलीज। पुं० [फा० परगाल] १. शीशे का टुकड़ा। २. चिनगारी। पद—आफत का परकाला=वह जो बड़े-बड़े विकट काम कर सकता हो।
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परकास  : पुं०=प्रकाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकासना  : स० [सं० प्रकाशन] १. प्रकाशित करना। २. प्रकाशमान करना। चमकाना। ३. प्रकट करना। सामने लाना। अ० १. प्रकाशित होना। २. चमकना। ३. प्रकट होना। सामने आना।
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परकिति  : स्त्री०=प्रकृति।
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परकीकरण  : पुं० [सं० परकीयकरण] किसी चीज को परकीय बनाने की क्रिया। (असिद्ध रूप)
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परकीय  : वि० [सं० पर+छ—ईय, कुक्—आगम] [स्त्री० परकीया] १. जिसका संबंध दूसरे से हो। २. दूसरे का। पराया।
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परकीया  : स्त्री० [सं० परकीय+टाप्] साहित्य में, वह नायिका जो पर-पुरुष से प्रेम करती और अपने पति की अवहेलना करती हो।
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परकीरति  : स्त्री०=प्रकृति।
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पर-कृति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दूसरे की कृति। दूसरे का किया हुआ काम। २. दूसरे के काम या वृत्ति का वर्णन। ३. कर्मकांड में दो परस्पर विरुद्ध वाक्यों की स्थिति। स्त्री०=प्रकृति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परकोटा  : पुं० [सं० परकोटि] १. किसी गढ़ या स्थान की रक्षा के लिए चारों ओर उठाई हुई ऊँची और बड़ी दीवार। कोट। २. किसी प्रकार की बहुत ऊँची और बड़ी चहारदीवारी। ३. पानी की बाढ़ रोकने के लिए बनाया हुआ बाँध।
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परकोसला  : पुं०=ढकोसला (अन-मिल कविता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. पराया खेत। २. पराया शरीर। ३. पराई स्त्री०।
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परख  : स्त्री० [हिं० परखना] १. परखने की क्रिया या भाव। २. गुण-दोष, भलाई-बुराई, आदि परखने की क्रिया या भाव। ३. वह दृष्टि या मानसिक शक्ति जिससे आदमी गुण-दोष, भलाई-बुराई आदि पहचानने और समझने में समर्थ होता है। ठीक-ठक पता लगाने या वस्तु-स्थिति जानने की योग्यता या सामर्थ्य।
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परखचा  : पुं० [?] टुकड़ा। खंड। मुहा०—परखचे उड़ना=टुकड़ा-टुकड़ा कर देना। छिन्न-भिन्न करना।
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परखना  : स० [सं० परीक्षण, प्रा० परीक्खण] १. ठोक-बजाकर तथा अन्य परीक्षणों द्वारा किसी चीज का गुण, दोष, महत्त्व, मान आदि जानना। २. अच्छे बुरे की पहचान करना। ३. कार्य-व्यवहार आदि देखकर समझना कि यह क्या अथवा कैसा है। संयो० क्रि०—लेना। अ० [हिं० परेखना] प्रतीक्षा करना। उदा०—जेवत परखि लियौ नहिं हम कौ तुम अति करी चँडाई।—सूर।
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परखनी  : स्त्री०=परखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परखवाना  : स०=परखाना।
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परखवैया  : पुं० [हिं० परख+वैया (प्रत्य०)] १. परखनेवाला व्यक्ति। २. दे० ‘परखैया’।
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परखाई  : स्त्री० [हिं० परख] १. परखने की क्रिया या भाव। परखाव। २. परखने की मजदूरी या पारिश्रमिक।
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परखाना  : सं० [हिं० ‘परखना’ का प्रे०] १. परखने का काम दूसरे से कराना। जाँच या परीक्षा करवाना। २. कोई चीज देने के समय अच्छी तरह ध्यान दिलाते हुए उसकी पहचान कराना। सहेजना।
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परखी  : स्त्री० [हिं० परखना] लोहे का एक तरह का नुकीला लंबोतरा उपकरण जिसकी सहायता से अन्न के बंद बोरों में से नमूने के तौर पर उसके कण या बीज निकाले जाते हैं। पुं० दे० ‘पारखी’।
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परखुरी  : स्त्री०=पखड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परखैया  : पुं० [सं०] परखने या जाँचनेवाला व्यक्ति।
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परग  : पुं० [सं० पदक] पग। डग। कदम।
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परगट  : वि०=प्रकट।
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परगटना  : अ० [हिं० प्रकट] प्रकट या जाहिर होना। स० प्रकट या जाहिर करना।
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पर-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. दूसरे या पराये में गया या मिला हुआ अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. दे० ‘वस्तुनिष्ठ’। स्त्री० [सं० प्रकृति] मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—पर-गत मिलना=प्रकृति या स्वभाव अनुकूल होने के कारण मेल-जोल होना। जैसे—उससे उनकी खूब पर-गत मिली।
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परगन  : पुं०=परगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगना  : पुं० [फा० मि० सं० परिगण=घर] किसी जिले का वह भू-भाग जिसके अंतर्गत बहुत से ग्राम हों।
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परगनी  : स्त्री०=परगहनी।
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परगसना  : अ० [सं० प्रकाशन] प्रकाशित होना। प्रकट होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगह  : पुं०=पगहा (पघा)।
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परगहनी  : स्त्री० [सं० प्रग्रहण] सुनारों का नली के आकार का एक औजार जिसमें करछी की-सी डाँडी लगी होती है। परगनी।
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परगहा  : पुं० [सं० प्रग्रहण] वास्तु-कला में एक प्रकार का अलंकरण या साज जो खंभों पर बनाया जाता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगाछा  : पुं० [हिं० पर+गाछा=पेड़] १. एक प्रकार की परजीवी वनस्पति जो प्रायः गरम देशों में दूसरे पेड़ों पर उग आती है और उन्हीं पेड़ों के रस से अपना पोषण करती है। बंदाक। बाँदा। २. परजीवी पौधों का वर्ग।
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परगाछी  : स्त्री० [हिं० परगाछा] अमरबेल। आकाशबौंर।
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परगाढ़  : वि०=प्रगाढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगासा  : पुं०=प्रकाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परगासना  : अ० [हिं० परगसना] प्रकाशित होना। स० प्रकाशित करना।
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पर-गुण  : वि० [सं० ब० स०] जो दूसरों के लिए हितकर हो।
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पर-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० ब० स०] (ऊँगली की) पोर।
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परघट  : वि०=प्रकट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परघनी  : स्त्री०=परगहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचंड  : वि०=प्रचंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचई  : स्त्री० [सं० परिचय] १. परिचय। २. ऐसी पुस्तक जो किसी विषय का सामान्य ज्ञान कराती हो। ३. परिचय-पत्र।
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पर-चक  : स्त्री० [?] हलकी मारपीट या धौल-धप्पड़। जैसे—आज उन्होंने नौकर की अच्छी परचक ली। क्रि० प्र०—लेना।
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पर-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. शत्रुओं का दल या वर्ग। २. शत्रुदल का क्षेत्र। ३. शत्रु सेना और उसके द्वारा होनेवाला आक्रमण या उपद्रव।
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परचत  : स्त्री०=परिचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचना  : अ० [सं० परिचयन] १. किसी से इतना अधिक परिचित होना या हिल-मिल जाना कि उससे व्यवहार करने में कोई संकोच या खटका न रहे। जैसे—यह कुत्ता अभी घर के लोगों से परचा नहीं है। मुहा०—मन परचना=मन का इस प्रकार किसी ओर प्रवृत्त होना कि उसे दुःख, शोक आदि का ध्यान न आये। २. जो बात एक या अनेक बार अपने अनुकूल हो चुकी हो; जिसमें कोई बाधा या रोक-टोक न हुई हो, उसकी ओर फिर किसी आशा से उन्मुख या प्रवृत्त होना। जैसे—दो-तीन बार इस भिखमंगे को यहाँ से रोटी मिल चुकी है; अतः यह यहाँ आने के लिए परच गया है। संयो० क्रि०—जाना। अ० १.=सुलगना (आग का)। २.=जलाना (दीपक आदि का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचर  : पुं० [देश०] बैलों की एक जाति जो अवध के खीरी जिले के आस-पास पाई जाती है।
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परचा  : पुं० [फा० पर्चः] १. कागज का टुकड़ा। चिट। २. कागज के टुकड़े पर लिखी हुई छोटी चिट्ठी या सूचना। मुहा०—(किसी बड़े की सेवा में) परचा गुजरना=निवेदन-पत्र या सूचना-पत्र उपस्थित किया जाना। ३. विद्यार्थियों की परीक्षा में आनेवाला प्रश्न-पत्र। जैसे—हिंदी का परचा बिगड़ गया है। ४. अखबार। समाचार-पत्र। ५. कोई ऐसा सूचना-पत्र जो छाप या लिखकर लोगों में बाँटा जाता हो। (हैंड-बिल) पुं० [सं० परिचय] १. जानकारी। परिचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—परचा देना=ऐसा लक्षण या चिह्न बताना जिससे लोग जान जायँ। नाम-ग्राम बताना। परचा माँगना=किसी देवीत-देवता से अपना प्रभाव या शक्ति दिखाने के लिए आग्रहपूर्ण प्रार्थना करना। २. प्रमाण। सबूत। ३. जाँच। परख। ४. रहस्य संप्रदाय में, किसी बात का निश्चित प्रत्यय या पहचान। प्रत्यभिमान। उदा०—साईं के परचे बिना अंतर रह गई रेख।—कबीर। पुं० [फा० पर्चः] जगन्नाथजी के मंदिर का वह प्रधान पुजारी जो मंदिर की आमदनी और खर्च का प्रबंध करता और पूजा-सेवा आदि की देख-रेख करता है।
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परचाना  : स० [हिं० परचना का स०] १. किसी को परचने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कोई परच जाय। २. किसी से हेल-मेल बढ़ाकर या लोभ दिखाकर उससे घनिष्ठता स्थापित करना। उसके मन का खटका या भय दूर करना। जैसे—किसी को दो-चार बार कुछ खिला या देकर परचाना। संयो० क्रि०—लेना। स० १.=चलाना। २.=सुलगाना।
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परचार  : पुं०=प्रचार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परचारना  : पुं०=प्रचारना।
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परची  : स्त्री० [हिं० परचा] १. कागज का छोटा टुकड़ा। छोटा परचा। २. कागज का ऐसा छोटा टुकड़ा जिसमें कोई सूचना या ज्ञातव्य बात लिखी गई हो।
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परचून  : पुं० [सं० पर=अन्य,+चूर्ण=आटा] आटा, चावल, दाल, नमक, मसाला आदि भोजन का फुटकर सामान। जैसे—परचून की दूकान। वि०, पुं० दे० ‘खुदरा’।
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परचूनिया  : वि० [हिं० परचून] परचून-संबंधी। पुं०= परचूनी।
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परचूनी  : पुं० [हिं० परचून] आटा, दाल, नमक आदि बेचनेवाला बनिया। मोदी। स्त्री० परचून बेचने का काम या रोजगार।
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परचै  : पुं०=परिचय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परच्छंद  : वि० [ब० स०] जो दूसरे के छंद अर्थात् शासन में हो। परतंत्र।
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परछत्ती  : स्त्री० [सं० परि=अधिक, ऊपर+हिं० छत= पटाव] १. कमरे में सामान आदि रखने के लिए, छत के नीचे छाई हुई छोटी पाटन या टाँड़। मियानी। २. वह हलका छप्पर जो दीवारों पर यों ही अटका, बाँध या रख दिया जाता है। फूस आदि की छाजन।
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परछन  : स्त्री० [सं० परि+अर्चन] द्वार पर वर के पहुँचने पर होनेवाली एक रीति जिसमे स्त्रियाँ दही और अक्षत का टीका लगातीं, उसकी आरती करतीं तथा उसके ऊपर से मूसल, बट्टा आदि घुमाती हैं।
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परछना  : स० [हिं० परछन] द्वार पर बरात लगने पर कन्या-पक्ष की स्त्रियों का वर की आरती आदि करना। परछन करना।
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परछाँवाँ  : पुं० [सं० प्रतिच्छाय] १. छाया। परछाईं। २. किसी व्यक्ति की पड़नेवाली ऐसी छाया या परछाईं जो कुछ स्त्रियों की दृष्टि में अनिष्टकर या अशुभ होती है। मुहा०—(किसी का) परछाँवाँ पड़ना=उक्त प्रकार की छाया के कारण कोई बुरा प्रभाव पड़ना। ३. किसी व्यक्ति की ऐसी छाया या परछाईं जो स्त्रियों के विश्वास के अनुसार गर्भवती स्त्री पर पड़ने से गर्भ के शिशु को उस पुरुष के अनुरूप आकार-प्रकार, स्वभाव आदि बनानेवाली मानी जाती है।
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परछाँही  : स्त्री०=परछाईं।
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परछा  : पुं० [सं० प्रणिच्छद] १. वह कपड़ा जिससे तेली कोल्हू के बैल की आँखों में अँधोटी बाँधते हैं। २. जुलाहों की वह नली या फिरकी जिस पर बाने का सूत लपेटा रहता है। घिरनी। पुं० [सं० परिच्छेद] १. बहुत सी घनी वस्तुओं के घने समूह में से कुछ के निकल जाने से पड़ा हुआ अवकाश। विरलता। २. मनुष्यों की वह विरलता जो किसी स्थान की भीड़ छँट जाने पर होती है। ३. अंत। समाप्ति। ४. निपटारा। ५. निर्माण। पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० परछी] १. बड़ी बटलोई। देगची। २. कड़ाही। ३. मँझोले आकार का मिट्टी का एक बरतन।
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परछाईं  : स्त्री० [सं० प्रतिच्छाया] १. प्रकाश के सामने आने से पीछे की ओर अथवा पीछे को ओर से प्रकाश होने पर आगे की ओर बननेवाली किसी वस्तु की छायामय आकृति। मुहा०—(किसी की) परछाईं से डरना या भागना=किसी से इतना अधिक डरना कि उसके सामने जाने की हिम्मत न पड़े। २. दे० ‘परछावाँ’। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. दे० ‘ प्रतिबिंब’।
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परछ्या  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परजंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परज  : वि० [सं० पर√जन् (उत्पत्ति)+ड] दूसरे या पराये से उत्पन्न। परजात। पुं० कोकिल। कोयल। पुं० [सं० पराजिका] ओड़व-संपूर्ण या षाड़व-संपूर्ण जाति का एक राग जो रात के अंतिम पहर में गाया जाता है।
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परजन  : पुं०=परिजन।
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परजन्म (न्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] [वि० पारजन्मिक] इस जीवन के बाद होनेवाला दूसरा जन्म।
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परजन्य  : पुं०=पर्जन्य।
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परजरना  : अ० [सं० प्रज्वलन] १. प्रज्वलित होना। जलना। दहकना। सुलगना। २. बहुत क्रुद्ध होना। बिगड़ना। ३. मन ही मन कुढ़ना या जलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. प्रज्वलित करना। दहकाना। सुलगाना। ३. क्रुद्ध करना। ३. संतप्त करना। जलाना।
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परजलना  : अ० [सं० प्रज्वलन] जलना।
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परजवट  : पुं०=परजौट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परजा  : स्त्री० [सं० प्रजा] १. प्रजा। रैयत। २. देहातों में गृहस्थों के अनेक प्रकार के काम तथा सेवाएँ करनेवाले लोग। जैसे—कुम्हार, चमार, धोबी, नाई आदि। ३. ब्रिटिश शासन के समय, वे खेतिहर जो जमींदार की जमीन लगान पर लेकर खेती-बारी करते थे। असामी। काश्तकार।
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परजात  : वि० [पं० त०] दूसरे से उत्पन्न। पुं० कोयल। पुं० [सं० पर+जाति] दूसरी या भिन्न जाति का व्यक्ति। दूसरी बिरादरी का आदमी। वि० दूसरी जाति से संबंध रखनेवाला।
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परजाता  : पुं० [सं० परिजात] १. मझोले आकार का एक पेड़ जिसमें शरद् ऋतु में छोटे-छोटे सुगंधित फूल लगते हैं। हर-सिंगार। २. उक्त पेड़ का फूल।
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पर-जाति  : स्त्री० [कर्म० स०] दूसरी जाति।
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परजाय  : पुं०=पर्याय।
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परजित  : वि० [तृ० त०] १. दूसरे के द्वारा पाला-पोसा हुआ। २. जिसे किसी ने जीत लिया हो। विजित। पुं० कोयल।
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परजीवी (विन्)  : वि० [सं० पर√जीव् (जीना)+णिनि] जिसका जीवित रहना दूसरों पर अवलंबित हो। दूसरों पर आश्रित रहनेवाला। पुं० वे वनस्पतियाँ या कीड़े-मकोड़े जो दूसरे वृक्षों या जीव-जंतुओं के शरीर पर रहकर और उनका रस या खून चूसकर जीते तथा पलते हैं। (पैराज़ाइट)
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परजौट  : पुं० [हिं० परजा (प्रजा)+औट (प्रत्य०)] घर आदि बनाने के निमित्त किसी से वार्षिक कर या देन पर जमीन लेने की प्रथा या रीति।
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परजौटी  : वि० [हिं० परजौट] १. परजौट-संबंधी। २. जो परजौट पर दिया या लिया गया हो। जैसे—परजौटी जमीन।
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परज्वलना  : अ० [सं० प्रज्वलन] प्रज्वलित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परट्ठना  : स०=पठाना (भोजन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परठना  : स० [सं० प्र+स्था] १. स्थापित करना। उदा०—परठि द्रविड़ सोखण सर पंच।—प्रिथीराज। २. दे० ‘पाना’।
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परठित  : भू० कृ० [सं० प्र+स्थित] १. प्रतिष्ठित। २. सुशोभित।
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परणना  : स० [सं० परिणयन] ब्याह करना। विवाह करना। उदा०—पर दल पिण जीवि पदमणी परणे।—प्रिथीराज। अ० विवाहित होना। ब्याहा जाना।
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परणाना  : स०=परणना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परणी  : स्त्री० [सं० परिणीता] वह स्त्री० जिसका परिणय या विवाह हो चुका हो।
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परतंगण  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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परतंगा  : स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा] १. प्रसिद्धि। २. प्रतिष्ठा। मान। ३. पातिव्रत्य। सतीत्व।
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परतंचा  : स्त्री०=प्रत्यंचा (धुनष की डोरी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतंत्र  : वि० [ब० स०] १. जो दूसरे के तंत्र या शासन में हो। २. पराधीन। परवश। पुं० १. उत्तम शास्त्र। २. उत्तम वस्त्र।
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परतः (तस)  : अव्य० [सं० पर+तस्] १. दूसरे से। अन्य से। २. पीछे। बाद में। ३. आगे। परे। ४. पहले या मुख्य के बाद। दूसरे स्थान पर। (सेकन्डरिली)
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परतः प्रमाण  : पुं० [ब० स०] जो स्वतः प्रमाण न हो, बल्कि दूसरे प्रमाणों के आधार पर ही प्रमाण के रूप में दिखाया या माना जा सके।
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परत  : स्त्री० [सं० परिवर्त्त=दोहराया जाना] १. किसी प्रकार के तल या स्तर का ऐसा विस्तार जो किसी दूसरी चीज के तल या स्तर पर कुछ मोटे रूप में चढ़ा, पड़ा या फैला हुआ हो। तह। जैसे—सफाई न होने के कारण पुस्तकों पर धूल की एक परत चढ़ चुकी थी। क्रि० प्र०—चढ़ना।—पड़ना। २. किसी लचीली वस्तु को दोहरा, चौहरा आदि करने पर, उसके बननेवाले खंडों या विभागों में से हर-एक। क्रि० प्र०—लगाना। ३. ऐसा कोई तल या विस्तार जो उसी तरह के कोई और तलों या विस्तारों के ऊपर या नीचे फैला हुआ हो। जैसे—(क) हर युग में बालू, मिट्टी आदि की एक नई परत चढ़ते-चढ़ते कुछ दिनों में ऊँची चट्टाने बन जाती हैं। (ख) खानों में से कोयले की एक परत निकाल लेने पर उसके नीचे दूसरी परत निकल आती है। स्त्री० [हिं० परतना] परतने की क्रिया या भाव।
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परतख  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतच्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतछ्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।
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परतना  : अ० [सं० परावर्तन] १. कहीं जाकर वहाँ से वापस आना। लौटना। २. पीछे की ओर घूमना। जैसे—परतकर देखना। मुहा०—परतकर कोई काम न करना=भूल कर भी कोई काम न करना। उदा०—मोती मानिक परत न पहरूँ।—मीराँ। ३. किसी ओर घूमना। मुड़ना। जैसे—दाहिनी ओर परत जाना। ४. उलटना। सं० [हिं० परत] परत के रूप में करना, रखना या लगाना।
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परतर  : वि० [सं० पर-तरप्] [भाव० परतरता] क्रम के विचार से जो ठीक किसी के बाद हुआ हो।
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परतरा  : वि०=परतर।
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परतल  : पुं० [सं० पट=वस्त्र+तल=नीचे] घोड़े की पीठ पर रखा जानेवाला वह बोरा जिसमें सामान भरा या लादा जाता है। गून।
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परतला  : पुं० [सं० परितन=चारों ओर खींचा हुआ] कपड़े या चमड़े की वह चौड़ी पट्टी जो कंधे से कमर तक छाती और पीठ पर से तिरछी होती हुई आती है तथा जिसमें तलवार लटकाई जाती है।
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परतषि  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परता  : पुं०=पड़ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परताजना  : पुं० [देश०] सुनारों का एक औजार जिससे वे गहनों पर मछली के सेहरे की तरह की नक्काशी करते हैं।
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परताना  : स० [हिं० परतना] १. वापस भेजना। लौटाना। २. घुमाना। मोड़ना।
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परताप  : पुं०=प्रताप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतारना  : स० [सं० प्रतारण] ठगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०= प्रतारणा।
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परताल  : स्त्री०=पड़ताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतिंचा  : स्त्री०=प्रत्यंचा (धनुष की डोरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतिज्ञा  : स्त्री०=प्रतिज्ञा।
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परती  : स्त्री० [?] वह चादर जिससे हवा करके अनाज के दानों का भूसा उड़ाते हैं। मुहा०—परती लेना=चादर से हवा करके भूसा उड़ाना। बरसाना। ओसाना। स्त्री०=पड़ती (भूमि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परतीछा  : स्त्री०=प्रतीक्षा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतीति  : स्त्री०=प्रतीति।
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परतेजना  : सं० [सं० परित्यजन] परित्याग करना। छोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परतेला  : वि० [हिं० पड़ना] उबाले हुए रंग का घोल। (रंगरेज)
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परतो  : पुं० [फा०] १. प्रकाश। रोशनी। २. किरण। रश्मि। ३. किसी पदार्थ या व्यक्ति की पड़नेवाली छाया। परछाईं। ४. प्रतिच्छाया। प्रतिबिम्ब।
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परतोली  : स्त्री० [सं० प्रतोली] गली।
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परत्त  : अव्य [सं० पर+त्रल्] १. अन्य या भिन्न स्थान पर दूसरी जगह। २. परकाल में। दूसरे समय। ३. परलोक में। मरने पर।
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परत्र-भीरु  : वि० [सं० स० त०] जिसे परलोक का भय हो।
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परत्व  : पुं० [सं० पर+त्व] १. पर अर्थात् अन्य या गैर होने का भाव। २. पहले या पूर्व में होने का भाव।
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परथन  : स्त्री० दे०=‘पलेथन’।
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परथाव  : पुं०=प्रस्ताव। (पूरब) उदा०—की दहु हो इति एहि परथाव।—विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परद  : पुं०=परद (पारा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परदच्छिना  : स्त्री०=प्रदक्षिणा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परदा  : पुं० [फा० पर्दः] १. कोई ऐसा कपड़ा या इसी तरह की और चीज जो आड़ या बचाव करने के लिए बीच में फैलाकर टाँगी या लटकायी जाय। पट। (कर्टेन) जैसे—खिड़की या दरवाजे का परदा। क्रि० प्र०—उठाना।—खोलना।—डालना।—हटाना। पद—ढका परदा=ऐसी स्थिति जिसमें अन्दर की त्रुटियाँ, दोष आदि बाहरवालों की जानकारी या दृष्टि से बचे रहें। ढके परदे=बिना औरों पर भेद प्रकट हुए। मुहा०—(किसी का) परदा खोलना=किसी की छिपी बात, भेद या रहस्य प्रकट करना। परदा डालना=ऐसी स्थिति उत्पन्न करना कि दोष या भेद औरों पर प्रकट न होने पावे। (किसी चीज पर) परदा पड़ना=ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि औरों की दृष्टि न पड़ सके। (किसी का) परदा रहना=(क) प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा बनी रहना। (ख) भेद या रहस्य छिपा रहना। २. अभिनय, खेल-तमाशे आदि में, वह लंबा-चौड़ा कपड़ा जो दर्शकों के सामने लटका रहता और जिस पर या तो कुछ दृश्य अंकित होते हैं या प्रतिबिंबित होते हैं। यवनिका। पट। (कर्टन) जैसे—रंगमंच का परदा, चल-चित्र या सिनेमा का परदा। ३. बीच में पड़कर आड़ खड़ा करनेवाली कोई चीज या बात। ओट। व्यवधान। ४. कोई ऐसी चीज या बात जो गति, दृष्टि आदि के मार्ग में बाधक हो। जैसे—उस समय हमारी बुद्धि पर न जाने कैसा परदा पड़ गया था कि मैंने तुम्हारी बात नहीं मानी। ५. मुसलमानों और उनकी देखा-देखी हिंदुओं में भी प्रचलित वह प्रथा जिसके अनुसार भले घर की स्त्रियाँ आड़ में रहती हैं और पर-पुरुषों के सामने नहीं होतीं। पद—परदा-नशीन। (दे०) क्रि० प्र०—करना।—रखना।—होना। मुहा०—परदा लगाना= स्त्रियों का ऐसी स्थिति में आना या होना कि पर-पुरुषों की दृष्टि उन पर न पड़ सके। जैसे—जब से वह ब्याही गई है, तब से हमसे भी परदा करने लगी है। परदे में बैठना=किसी स्त्री का पर-पुरुषों की दृष्टि से ओझल होकर घर के अन्दर रहना। जैसे—पहले तो वह वेश्या थी पर बाद में एक नवाब के यहाँ परदे में बैठ गई। परदे में रहना=घर के अन्दर सब लोगों की दृष्टि से बचकर रहना। ६. मकान आदि की कोई दीवार। जैसे—इस मकान का पूरबवाला परदा बहुत कमजोर है या गिरने को है। ६. किसी प्रकार का तल। या परत। तह। जैसे—(क) आसमान के सात परदे कहे गये हैं। (ख) मैंने दुनिया के परदे पर ऐसी बात नहीं देखी। ८. शरीर के किसी अंग की कोई ऐसी झिल्ली या परत जो किसी तरह की आड़ या व्यवधान करती हो। जैसे—आँख का परदा, कान का परदा। ९. अँगरखे कोट, शेरवानी आदि की वह परत जो आगे की ओर और छाती पर रहती है। १॰. बीन, सितार, हारमोनियम आदि बाजों में स्वरों के विभाजक स्थानों की सूचक किसी प्रकार की रचना। ११. फारसी संगीत में बारह प्रकार के रागों में हर राग। १२. नाव की पतवार।
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परदाख्त  : स्त्री० [फा० पर्दाख्त] १. देख-भाल। २. संरक्षण। ३. पालन-पोषण।
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परदाज  : पुं० [फा० पर्दाज़] १. शौर्य। वीरता। २. ढंग। तरीका। ३. सजावट। ४. कामों में लगे रहने का भाव। ५. चित्र में अंकित की जानेवाली महीन रेखाएँ।
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पर-दादा  : पुं० [हिं० पर+दादा] [स्त्री० परदादी] संबंधी के विचार से पिता का दादा।
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परदा-दार  : वि०=परदेदार।
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परदा-नशीन  : वि० स्त्री० [फा० पर्दःनशीं] १. (स्त्री) जो बड़ों तथा पर-पुरुषों से परदा करती हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, जो घर में ही रहे, बाहर न निकले।
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परदापोश  : वि० [फा० पर्दःपोश] [भाव० परदापोशी] दूसरों के अवगुणों, दोषों आदि को छिपानेवाला।
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परदा-प्रथा  : स्त्री० [हिं०+सं०] कुछ एशियाई देशों और समाजों में प्रचलित वह प्रथा जिसके अनुसार स्त्रियों के घर के अन्दर, परदे में रखा जाता है और पर-पुरुषों के सामने नहीं होने दिया जाता।
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परदुम्न  : पुं०=प्रद्युम्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परदेदार  : वि० [हिं० परदा+फा० दार] १. जिसके आगे, जिसमें या जिसपर किसी प्रकार का परदा लगा हो। जैसे—परदेदार एक्कां या बहली। २. जो घर के अन्दर परदे में रहती हो, और पर-पुरुषों के सामने न होती हो।
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परदेदारी  : स्त्री० [फा० पर्दःदारी] १. परदेदार होने का अवस्था या भाव। २. स्त्रियों के घर के अन्दर रहने और पर-पुरुषों के सामने न आने की अवस्था या भाव। ३. वह स्थिति जिसमें किसी से कोई बात छिपाई जाती हो। उदा०—कुछ तो है जिसकी परदेदारी है।—कोई शायर।
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परदेश  : पुं० [ष० त०] १. अपने देश से भिन्न दूसरा देश। २. वह देश जहाँ कोई शक्ति अपना देश छोड़कर आया हो। विदेश।
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परदेशी (शिन्)  : वि० [सं० परदेश+इनि] परदेश-संबंधी। पुं० वह व्यक्ति जो अपना देश छोड़कर किसी दूसरे देश में आया या रहता हो।
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परदेस  : पुं०=परदेश।
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परदेसिया  : पुं० [हिं० परदेसी] पूरब में गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत जिनमें परदेश गये हुए पति के संबंध में उसकी प्रियतमा के उद्गारों का उल्लेख होता है और जिनके प्रत्येक चरण के अंत में ‘परदेसिया’ शब्द होता है। (बिदेसिया के अनुकरण पर) जैसे—घरी राति गइसी पहर राति गइसी, ते दुअरा करेला ठाढ़ भोर परदेसिया।
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परदेसी  : वि० पुं०=परदेशी।
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परदोस  : पुं०=प्रदोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परद्दा  : पुं०=परदा।
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परधान  : वि०=प्रधान। पुं०=परिधान।
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पर-धाम  : पुं० [कर्म० स०] १. परलोक। बैकुंठ-धाम। २. ईश्वर।
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परन  : पुं० [सं० पर्ण ?] मृदंग आदि बाजों को बजाते समय मुख्य बोलों के बीच-बीच में बजाये जानेवाले बोलों के खंड। पुं०=प्रण (प्रतिज्ञा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=परनि (आदत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परना  : पुं० [सं० उपरना] अँगोछा। गमछा। अ०= पड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-नाद  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत में, नाद का दूसरा नाम।
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पर-नाना  : पुं० [हिं० पर+नाना] [स्त्री० पर-नानी] नाना का पिता।
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पर-नाती  : पुं० [हिं० पर+नाती] [स्त्री० पर-नातिनी] नाती का लड़का।
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परनाम  : पुं०=प्रणाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परनाल  : पुं० [स्त्री० अल्पा० परनाली]=पनाला (बड़ा घड़ा)।
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परनाली  : स्त्री० [?] अच्छे घोड़ों की पीठ के मध्य भाग का (पुट्ठों और कंधों की अपेक्षा) नीचापन जो उनके तेज और बढ़िया होने का सूचक होता है। क्रि० प्र०—पड़ना। स्त्री०=प्रणाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० हिं० ‘परनाला’ (पनाला) का स्त्री० अल्पा०।
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परनि, परनी  : स्त्री० [हिं० पड़ना] पड़ी हुई आदत। अभ्यास। टेव। बान। उदा०—राखौं हरकि उतै को धावै उनकी वैसिय परनि परी री।—सूर। स्त्री० [हिं० आ पड़ना] आक्रमण। धावा। उदा०—अहे परनि मरि प्रेम की पहरथ पारि न प्रान।—बिहारी।
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परनापरनी  : स्त्री०=पन्नी (पतला वरक)।
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परनै  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परनौत  : स्त्री०=प्रणाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परपंच  : पुं०=प्रपंच।
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परपंचक  : वि०=परपंची।
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परपंची  : वि० [सं० प्रपंची] १. बखेड़िया। फसादी। २. चालाक। धूर्त। ३. मायावी।
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पर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. विपरीत या विरुद्ध पक्ष। २. अन्य या दूसरा पक्ष। ३. अन्य अथवा विपरीत पक्ष का कथन या मत।
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परपट  : पुं० [हिं० पर+सं० पट=चादर] चौरस या समतल भूमि। वि०=चौपट।
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परपटी  : स्त्री०=पर्पटी।
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परपरा  : वि० [अनु० पर-पर] ‘पर-पर’ आवाज के साथ टूटनेवाला। कुरकुरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० पर-पराना] जिससे मुँह या कोई और अंग परपराये।
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परपराना  : अ० [अनु०] [भाव० परपराहट] अंग में मिर्च अथवा किसी अन्य कड़वी या तीखी वस्तु का संयोग होने पर उसमें जलन होना। जैसे—मिर्ज लगने से आँख या मुँह परपराना।
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परपाक  : पुं० [सं० मध्य० स०] दूसरे के उद्देश्य से अथवा पंच यज्ञ के लिए भोजन बनाना।
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पर-पाजा  : पुं० [हिं० पर+आजा] [स्त्री० परपाजी] आजा या दादा का बाप। पर-दादा।
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पर-पार  : पुं० [कर्म० स०] उस ओर का तट। दूसरी तरफ का किनारा।
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परपिंडाद  : वि० [सं० परपिण्ड, ष० त०, परपिण्ड√अद् (खाना)+अण्] दूसरों का अन्न खाकर जीवन बितानेवाला। पुं० दास। भृत्य।
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पर-पीड़क  : वि० [सं० त० स०] १. दूसरों को सतानेवाला। २. दूसरों की पीड़ा या कष्ट का सहानुभूतिपूर्वक अनुभव करनेवाला। पराई पीड़ा समझनेवाला। (क्व०)
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पर-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] १. विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके पति से भिन्न कोई और पुरुष। २. साहित्य में वह नायक जो परकीया से प्रेम करता हो। ३. परम पुरुष (परमात्मा)।
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पर-पुष्ट  : वि० [तृ० त०] [स्त्री० पर-पुष्टा] जिसका पोषण दूसरे ने किया हो। पुं० कोयल।
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परपुष्टा  : स्त्री० [सं० परपुष्ट+टाप्] १. वेश्या। रंडी। २. परगाछा। बाँदा।
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परपूठा  : वि० [सं० परिपुष्ट, प्रा० परिपुष्ट] [स्त्री० परपूठी] पक्का। प्रौढ। स्त्री०=परपुष्टा।
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पर-पूर्वा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] वह स्त्री जिसने अपने पहले पति के मर जाने अथवा उसे छोड़कर दूसरा पति कर लिया हो।
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परपोता  : पुं० [हिं परपौत्र] [स्त्री० परपोती] पोते का लड़का।
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परपौत्र  : पुं० [सं० प्रपौत्र] [स्त्री० परपौत्री] परपोता।
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पर-प्रत्यय  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में वह प्रत्यय जो शब्द के अन्त में कोई विशेषता लाता हो। (टरमिनेशन, सफिक्स) जैसे—सरलता में ‘ता’ पर-प्रत्यय है।
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परफुल्ल  : वि०=प्रफुल्ल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परफुल्लित  : भू० कृ०=प्रफुल्लित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबंचकता  : स्त्री०=प्रवंचकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परबंद  : पुं० [सं० पटबंध] नाच की एक गति जिसमें नाचने वाला एड़ियों के बल पैर खड़े करके खड़ा रहता है और उसकी दोनों कोहनियाँ कमर से सटी रहती हैं।
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परबंध  : पुं०=प्रबंध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परब  : स्त्री० [हिं० पोर] १. पोर। २. जवाहिर या रत्न का छोटा टुकड़ा। पुं०=पर्व।
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परबत  : पुं० [सं० पर्वत] १. पर्वत। पहाड़। २. पहाड़ पर बना हुआ किला या दुर्ग। ३. किला। दुर्ग। उदा०—परबत कहँ जो चला परबता।—जायसी। ४. दे० ‘परबत्ता’। ५. दे० ‘पर्वत’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबता  : पुं०=परबत्ता। उदा०—कहुँ परबते जो गुन तोहिं पाहाँ।—जायसी।
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परबतिया  : वि० [हिं० परबत+इया (प्रत्य०)] पर्वत संबंधी। पर्वत पर होनेवाला। पहाड़ी। स्त्री० पूर्वी नेपाल की बोलियों का वर्ग।
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परबत्ता  : पुं० [सं० पर्वत] पहाड़ी तोता जो साधारण देशी तोते से बड़ा होता है। करमेल।
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परबल  : पुं०=प्रबल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=परवल।
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परबस  : वि० [भाव० परबसताई]=परवश।
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परबाल  : पुं० [हिं० पर=दूसरा+बाल=रोयाँ] आँख की पलक पर निकलनेवाला बाल या बिरनी जिसके कारण बहुत पीड़ा होती है। पुं०=प्रवाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबी  : स्त्री० [सं० पर्व] १. पर्व का दिन। २. पर्व का समय। पुण्यकाल।
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परबीन  : वि० [भाव० परबीनता]=प्रवीण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबेस  : पुं०=प्रवेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबोध  : पुं०=प्रबोध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परबोधना  : स० [सं० प्रबोधन] १. प्रबोधन करना। २. जगाना। अच्छी तरह समझना-बूझना। ४. ज्ञान प्राप्त कराना। ५. तसल्ली या दिलासा देना। धैर्य या सान्त्वना देना।
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पर-ब्रह्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. निर्गुण या निरुपाधि ब्रह्म। २. दादू दयाल द्वारा स्थापित एक सम्प्रदाय।
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परभंजन  : पुं०=प्रभंजन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परभव  : पुं० [कर्म० स०] दूसरा जन्म। जन्मांतर।
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परभा  : स्त्री०=प्रभा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परभाइ, परभाउ  : पुं०=प्रभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-भाग  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. दूसरी ओर का भाग या हिस्सा। २. [ष० त०] कपड़ों की कढ़ाई, छपाई में वह नीचेवाली पहली तह जिसके ऊपर रंग के सूतों से अथवा रंग से आकृतियाँ बनाकर सौंदर्य लाया जाता है। ३. चित्र-कला में, चित्र की भूमिका या पृष्ठ भाग का दृश्य। (बैकग्राउंड) पुं० [कर्म० स०] १. पश्चिमी भाग। २. अवशिष्ट या बचा हुआ भाग। ३. उत्तम संपदा। ४. उत्तम या श्रेष्ठ गुण अथवा उसका उत्कर्ष।
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परभाग्योजीवी (विन्)  : वि० [सं० पर-भाग्य, ष० त०, परभाग्य+उप√जीव् (जीना)+णिनि] दूसरे की कमाई खाकर रहनेवाला।
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परभात  : पुं०=प्रभात।
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परभाती  : स्त्री०=प्रभाती।
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परभारा  : वि० [?] [स्त्री० परभारी] १. ऊपरी या बाहरी। २. तटस्थ या पराया (व्यक्ति)।
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परभारे  : अव्य० [?] १. ठीक मार्ग या साधन छोड़कर। २ अलग, दूसरे या बाहरी रास्ते से। (बुंदेल०) जैसे—तुम बिना हमसे पूछे परभारे उनसे रुपए माँग लाये, यह तुमने ठीक नहीं किया।
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परभाव  : पुं०=प्रभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-भुक्त  : वि० [स० तृ० त०] [स्त्री० पर-भुक्ता] जिसका भोग कोई और कर चुका हो। दूसरे का भोगा हुआ।
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परभुक्ता  : स्त्री० [सं० परभुक्त+टाप्] ऐसी स्त्री जिसके साथ पहले कोई और समागम कर चुका हो।
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पर-भृत  : वि० [तृ० त०] जिसका पालन किसी दूसरे ने किया हो। स्त्री० कोयल। पुं० कार्तिकेय।
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परम  : वि० [सं० पर√मा (मान)+क] १. जो किसी क्षेत्र या वर्ग में सबसे अधिक उन्नत, महत्त्वपूर्ण या योग्य हो। २. किसी दिशा या सीमा में सबसे आगे बढ़ा हुआ। अत्यंत। ३. जिसके हाथ में कुल या सब अधिकार या शक्तियाँ निहित हो। (एब्सोल्यूट) ४. मुख्य। प्रधान। ५. आरंभिक या आदिम। पुं० १. शिव। २. विष्णु।
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परम-आज्ञा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ऐसी आज्ञा जो अंतिम हो और जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो सकता हो। (एब्सोल्यूट आर्डर)
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परमक  : वि० [सं० परम+कन्] १. सर्वोच्च। सर्वोत्तम। सर्वश्रेष्ठ। २. चरम सीमा का। परले सिरे का।
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परम-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह उत्तम गति जो मरने पर सत्पुरुषों को प्राप्त होती है। मोक्ष।
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परमजा  : स्त्री० [सं० परम√जन् (उत्पन्न होना)+ ड+टाप्] प्रकृति।
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परमट  : पुं० [देश०] संगीत में एक प्रकार का ताल। पुं०=परमिट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमटा  : पुं० [?] एक प्रकार का चिकना रंगीन कपड़ा जो प्रायः कोट के अस्तर के काम आता है। पनैला।
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परमत  : स्त्री० [सं० परमता ?] १. साख। २. ख्याति। प्रसिद्धि।
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परम-तत्त्व  : पुं० [कर्म० स०] १. दर्शन-शास्त्र और विज्ञान के अनुसार, वह मूलतत्त्व जो सृष्टि की समस्त वस्तुओं का सृष्टिकर्त्ता माना गया है। पदार्थ। २. ब्रह्म।
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पर-मतिया  : वि० [हिं० पर+मत] जो अपनी समझ से नहीं बल्कि दूसरों के सिखाने पर सब काम करता हो। दूसरों की मत से चलनेवाला।
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पर-मद  : पुं० [सं० ब० स०] बहुत अधिक मद्य पीने से होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर भारी हो जाता है और बहुत अधिक प्यास लगती है।
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परम-धाम  : पुं० [कर्म० स०] बैकुंठ। स्वर्ग।
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परमन  : पुं०=परिमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमन्न  : पुं० [सं० परम+अन्न] खाने-पीने की बहुत बढ़िया बढ़िया चीज़ें।
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परमन्यु  : पुं० [ब० स०] यदुवंशी कक्षेयु के एक पुत्र का नाम।
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परम-पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. सबसे श्रेष्ठ पद वा स्थान। २. सांसारिक बंधनों से मिलनेवाला मोक्ष।
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परम-पिता  : पुं० [सं० कर्म० स०] ईश्वर। परमेश्वर।
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परम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. परमात्मा। २. विष्णु।
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परम-फल  : पुं० [कर्म० स०] १. सबसे उत्तम फल या परिणाम। २. मुक्ति। मोक्ष।
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परम-ब्रह्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०]=परब्रह्म।
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परम-ब्रह्मचारिणी  : स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा।
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परम-भट्टारक  : पुं० [कर्म० स०] [स्त्री० परम भट्टारिका] प्राचीन भारत में एक-छत्र राजाओं की एक उपाधि।
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परम-भट्टारिका  : स्त्री० [सं० कर्म०स०] प्राचीन भारत में परम भट्टारक की रानी की उपाधि।
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परम-रस  : पुं० [कर्म० स०] पानी मिला हुआ मट्ठा।
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परमर्द्धिदेव  : पुं० [सं० परम-ऋषि, ब० स०, परमर्द्धि-देव, कर्म० स०] महोबे के एक चंदेलवंशी राजा जो परमाल के नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
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परमर्षि  : पुं० [सं० परम-ऋषि, कर्म० स०] वह जो ऋषियों में परम हो। सर्वश्रेष्ठ श्रृषि।
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परमल  : पुं० [सं० परिमल=कूटा या मला हुआ] ज्वार या गेहूँ का हरा या भिगोकर भुनाया हुआ चबेना। पुं०=परिमल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमवीर-चक्र  : पुं० [सं० परमवीर, कर्म० स०, परमवीरचक्र, ष० त०] विशिष्ट सैनिक अधिकारियों को असाधारण वीरता प्रदर्शित करने पर भारत सरकार द्वारा प्रदान किया जानेवाला एक अलंकरण।
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परम-सत्ता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह सत्ता जो सबसे बढ़कर हो और जिसके ऊपर कोई और सत्ता न हो। (एब्सोल्यूट पावर)
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परमसत्ताधारी (रिन्)  : पुं० [सं० परमसत्ता√धृ (धारण) +णिनि] वह जिसे परम सत्ता प्राप्त हो।
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परम-हंस  : पुं० [कर्म० स०] १. परमात्मा। परमेश्वर। २. ज्ञान मार्ग में बहुत आगे बढ़ा हुआ संन्यासी। ३. संन्यासियों का एक भेद जिन्हें दंड, शिखा, सूत्र आदि धारण करना आवश्यक नहीं होता।
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परमांगना  : स्त्री० [सं० परमा-अंगना, कर्म० स०] अच्छी और सुंदरी स्त्री।
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परमा  : स्त्री० [सं० परम+टाप्] बहुत बढ़ी-चढ़ी हुई छवि या शोभा। स्त्री०=प्रमा (यथार्थ ज्ञान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रमेह (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमाक्षर  : पुं० [सं० परम-अक्षर, कर्म० स०] ओंकार।
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परमाटा  : पुं० [देश०] १. संगीत में एक प्रकार का ताल। २. पनैला या परमटा नाम का कपड़ा।
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परमाणवीय  : वि० दे० ‘पारमाणविक’।
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परमाणविक  : वि०=पारमाणविक।
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परमाणु  : पुं० [सं० परम-अणु, कर्म० स०] [वि० पारमाणविक, परमाणवीय] १. अत्यंत सूक्ष्म कण। २. विज्ञान में किसी तत्व का वह सबसे छोटा टुकड़ा या खण्ड जिसके टुकड़े हो ही न सकते हों। (एटम) विशेष—अनेक परमाणुओं के योग से ही अणु बनते हैं।
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परमाणु-परीक्षण  : पुं० [सं०] नये बने हुए पारमाणिक शस्त्रों की शक्ति आदि का परीक्षण। (एटामिक टेस्ट)
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परमाणु-बम  : पुं० [सं० परमाणु+अं० बाम्ब] एक प्रकार का बम (गोला) जिसमें रासायनिक क्रियाओं द्वारा अणु का विस्फोट होता है तथा जिसके फल-स्वरूप भीषण तथा व्यापक संहार होता है। (एटम बाम्ब)
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परमाणुवाद  : पुं० [सं० ष० त०] १. यह मत या सिद्धान्त कि परमाणुओं से ही जगत् की सृष्टि हुई है। (न्याय या वैशेषिक) (एटमिज़्म) २. परमाणुओं को उपयोग में लाने का काम।
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परमाणुवादी (दिन्)  : वि० [सं० परमाणुवाद+इनि] परमाणुवाद संबंधी। पुं० वह जो परमाणुवाद का सिद्धांत मानता हो। (एटॉमिस्ट)
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परमाण्विकी  : स्त्री० [सं०] भौतिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें परमाणुओं की रचना, शक्ति, आदि का विवेचन होता है। (एटमिस्टिक)
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परमात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० परम-आत्मन्, कर्म० स०] ब्रह्म। परब्रह्म। ईश्वर।
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परमादेश  : पुं० [सं० परम-आदेश, कर्म० स०] उच्च न्यायालय की ऐसी आज्ञा या आदेश जिसके द्वारा कोई काम करने अथवा न करने के लिए कहा गया हो। (रिट, रिट ऑफ़ मेंडामेस)
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परमाद्वैत  : पुं० [सं० परम-अद्वैत, कर्म० स०] १. परमात्मा, जो सब प्रकार के भेदों आदि से रहित है। २. विष्णु।
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परमाधिकार  : पुं० [सं० परम-अधिकार, कर्म० स०] वह सबसे बड़ा अधिकार जो किसी को उसके पद, लिंग, विशिष्ट गुण आदि के कारण प्राप्त होता है। (प्रेरोगेटिव) जैसे—(क) राजा या राज्यपाल को शासन का, (ख) मनुष्यों को सोच-समझकर काम करने का, (ग) स्त्रियों को संतान उत्पन्न करने का परमाधिकार होता है।
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परमानंद  : पुं० [सं० परम-आनंद, कर्म० स०] १. वह उच्चतम आनंद जो आत्मा को परमात्मा में लीन करने पर प्राप्त होता है। २. आनंद स्वरूप ब्रह्म।
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परमान  : पुं० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण। सबूत। २. यथार्थ या सत्य बात। पुं० [सं० परिमाण] १. नियति, अवधि मान या सीमा। जैसे—थाह, यह सदा १॰ हाथ लंबा ही होता है। २. सीमा। हद।
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परमानना  : स० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण के द्वारा ठीक सिद्ध करना। २. प्रामाणिक या बिलकुल ठीक मानना या समझना। ३. मान लेना। स्वीकृत करना।
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परमान्न  : पुं० [सं० परम-अन्न, कर्म० स०] खीर। पायस।
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परमामुद्रा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] त्रिपुरदेवी की पूजा में एक प्रकार की मुद्रा।
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परमायु (युस्)  : स्त्री० [सं० परम-आयुस्, कर्म० स०] जीवनकाल की चरम सीमा। विशेष—हमारे यहाँ उक्त सीमा १॰॰ वर्ष मानी गई है।
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परमायुष  : पुं० [सं० ब० स०, अच्] विजयसाल का पेड़। असन।
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परमार  : पुं० [सं० पर=शत्रु+हिं० मारना] अग्निकुल के अन्तर्गत राजपूतों का एक वंश। पँवार।
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परमारथ  : पुं०=परमार्थ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमाराध्य  : वि०=परम आराध्य।
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परमार्थ  : पुं० [सं० परम-अर्थ, कर्म० स०] [वि० परमार्थी, परमार्थिक] १. ऐसा पदार्थ या वस्तु जो सबसे बढ़कर हो। जैसे—ब्रह्म पद या मोक्ष। २. वह परम तत्त्व जो नाम, रूप आदि से परे और सबसे बढ़कर वास्तविक माना गया है। विशेष—न्याय में ऐसा सुख परमार्थ माना गया है जिसमें दुःख का सर्वथा अभाव हो। ३. बौद्ध दर्शन में, वस्तु का वास्तविक रूप और ज्ञान। ४. मोक्ष। ५. दूसरों का उपकार या भलाई। परोपकार।
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परमार्थता  : स्त्री० [सं० परमार्थ+तल्+टाप्] वास्तविक और सच्चे रूप में होनेवाला आध्यात्मिक यथार्थता।
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परमार्थवाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह मत या सिद्धांत के परमार्थ या परमतत्त्व का चिंतन और प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है।
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परमार्थवादी (दिन्)  : वि० [सं० परमार्थ√वद्+णिनि] परमार्थवाद संबंधी। पुं० १. परमार्थवाद का अनुयायी या पोषक। २. बहुत बड़ा ज्ञानी और तत्तवाज्ञ।
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परमार्थी (र्थिन)  : वि० [सं० परमार्थ+इनि] १. परमार्थ संबंधी ज्ञान का उपासक और चिन्तक। यथार्थ या वास्तविक तत्त्व को ढूँढ़नेवाला। २. मोक्ष चाहनेवाला। मुमुक्ष। ३. दूसरों की भलाई करनेवाला। परोपकारी।
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परमावधि  : स्त्री० [सं० परमा-अवधि, कर्म० स०] किसी काम या बात की अंतिम अवधि या चरम सीमा।
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परमाह  : पुं० [सं० परम-अहन्, कर्म० स०,+टच्] १. सबसे बड़ा दिन। २. शुभ दिन।
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परमिट  : पुं० [अं०] १. वह अधिकारिक लिखित अनुमति, जिसमें कोई काम करने अथवा कोई चीज खरीदने की अनुमति दी गई हो। २. कागज का वह टुकड़ा जिस पर उक्त अनुमति लिखी होती है।
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परमिति  : स्त्री० [कर्म० स०] १. परिमित। २. परम सीमा। ३. मर्यादा।
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परमिन  : पुं० [?] एक प्रकार का साँप। कहते हैं कि इसकी फुफकार या हवा लगने से फोड़े निकल आते हैं।
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परमीकरण मुद्रा  : स्त्री० [सं० परमीकरण, परम+च्चि√कृ (करना)+ल्युट्—अन परमीकरण-मुद्रा, ष० त०] दे० ‘महामुद्रा’।
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परमीन  : वि०=पराया। (पूरब) उदा०—कर कुटुम्ब सब मेलइ परमीन।—मैथिली लोकगीत।
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पर-मुख  : वि० [ब० स०] १. जिसका मुँह दूसरी ओर या फिर हुआ हो। विमुख। २. जो उपेक्षा कर रहा हो और ध्यान न दे रहा हो। वि०=प्रमुख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-मृत्यु  : पुं० [ब० स०] कौआ, जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि आप से आप नहीं मरता।
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परमेव  : प्रमेह (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमेश  : पुं० [सं० परम-ईश, कर्म० स०] परमेश्वर।
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परमेश्वर  : पुं० [सं० परम-ईश्वर, कर्म० स०] १. सगुण ब्रह्म जो सारी सृष्टि का रचयिता और संचालक है। २. विष्णु। ३. शिव।
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परमेश्वरी  : वि० [सं० परमा-ईश्वरी, कर्म० स० ङीष्] परमेश्वर-संबंधी। स्त्री० दुर्गा।
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परमेष्ट  : वि० [सं० परम-इष्ट, कर्म० स०] [भाव० परमेष्टि] परम इष्ट।
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परमेष्टि  : स्त्री० [सं० परम-इष्टि, कर्म० स०] १. अंतिम अभिलाषा। २. मुक्ति। मोक्ष।
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परमेष्ठ  : पुं० [सं० परमे√स्था (ठहरना)+क, अलुक्, स०] चतुर्मुख ब्रह्म। प्रजापति। (यजु०)
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परमेष्ठिनी  : स्त्री० [सं० परमेष्ठिन्+ङीप्] १. परमेष्ठी की शक्ति। देवी। २. श्री। ३. वाग्देवी। सरस्वती। ४. ब्राह्मी नाम की वनस्पति।
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परमेष्ठी (ष्ठिन्)  : पुं० [सं० परमे√स्था+इनिस, अलुक् स०] १. ब्रह्मा, अग्नि आदि देवता। २. तत्त्व। भूत। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का यज्ञ। ४. शालिग्राम की एक विशिष्ट प्रकार की मूर्ति। ५. विराट् पुरुष जो परम-ब्रह्म का एक रूप है। ६. चाक्षुष मनु का एक नाम। ६. गरुड़। ८. जैनों के एक जिन देव। परमेसर।
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परमेसुर  : पुं०=परमेश्वर।
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परमेसरी  : वि०, स्त्री०=परमेश्वरी।
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परमोक  : पुं० [सं० परिमोक्ष]=मोक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परमोद  : पुं०=प्रमोद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमोदना  : स०=परमोधना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परमोधना  : स० [सं० प्रबोधन] १. प्रबोधन करना। परबोधना। २. मीठी-मीठी बातें करके किसी को अपनी ओर मिलाना।
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परयंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परयस्तापह् नुति  : स्त्री० दे० ‘पर्यस्तापह् नुति’।
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परयाग  : पुं०=प्रयाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-राष्ट्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक राष्ट्र की दृष्टि में दूसरा राष्ट्र। अपने राष्ट्र से भिन्न दूसरा राष्ट्र। अन्य राष्ट्र।
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परराष्ट्र-नीति  : स्त्री० [ष० त०] अन्य राष्ट्रों के प्रति किये जानेवाले व्यवहार के समय बरती जानेवाली नीति। (फारेन पालिसी)
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परराष्ट्र-मंत्रालय  : पुं० [ष० त०] पर-राष्ट्र मंत्री का मंत्रालय।
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परराष्ट्र-मंत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] किसी राष्ट्र के मंत्री-मंडल का वह सदस्य जिस पर विभिन्न राष्ट्रों से होनेवाले व्यवहारों, संबंधों आदि के निर्वाह का भार रहता है। (फारेन मिनिस्टर)
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परराष्ट्रीय  : वि० [सं० परराष्ट्र+छ—ईय] जिसका संबंध परराष्ट्र से हो।
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पररु  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+अरु] नीली भँगरैया।
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परलउ  : पुं० [?] पत्थर।
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परलय  : स्त्री० =प्रलय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परला  : वि० [सं० पर—उधर का, दूसरा+हिं० ला (प्रत्य०)] [स्त्री० परली] १. उधर का या उस ओरवाला। २. बहुत ही बढ़ा-चढ़ा। जैसे—परले सिरे का। पद—परले सिरे का=अंतिम सीमा तक पहुँचा हुआ। मुहा०—परले पार होना=(क) बहुत दूर तक जाना। (ख) समाप्त होना।
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परलै  : स्त्री=प्रलय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. इस लोक से भिन्न दूसरा लोक। २. वह सर्वश्रेष्ठ लोक, जहाँ मृत्यु के उपरान्त पवित्र आत्माएँ निवास करती हैं। (हिंदू) पद—परलोक-वास=मृत्यु। मुहा०—परलोक सिधारना= परलोक जाना। स्वर्ग में जाना। ३. मृत्यु के उपरान्त आत्मा की दूसरी स्थिति की प्राप्ति।
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परलोक-गमन  : पुं० [सं० त०] १. परलोक जाना। २. स्वर्ग सिधारना। मरना।
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परलोक-प्राप्ति  : स्त्री० [ष० त०] परलोक की प्राप्ति अर्थात् मृत्यु।
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पर-वंचक  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० परवंचकता] दूसरों को ठगने या धोखा देनेवाला।
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परवर  : पुं०=परवल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=परबाल (आँख का रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [फा० पर्वर] परवरिश या पालन-पोषण करनेवाला। जैसे—गरीब परवर।
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परवर-दिगार  : वि० [फा० पर्वरदिगार] सबका पालन करनेवाला। पुं० परमेश्वर।
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परवरना  : अ० [सं० प्रवर्तन] चलना-फिरना।
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परवरिश  : स्त्री० [फा० पर्वरिश] पालन-पोषण।
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परवर्त्त  : वि०=प्रवर्तित। उदा०—विष्णु की भक्ति परवर्त्त जग में करी।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० पर√वृत् (रहना)+णिनि] १. काल-क्रम या घटना-क्रम की दृष्टि से बाद में या पीछे होनेवाला। (लेटर) २. बाद के समय का। (सबसीक्वेन्ट) ३. जो पहले एक बार या एक रूप में हो चुकने पर बाद में कुछ और रूप में हो। (सेकेन्डरी) जैसे—पौधों की परवर्त्ती वृद्धि।
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परवल  : पुं० [सं० पटोल] १. एक प्रसिद्ध लता। २. उक्त लता का फल जिसकी तरकारी बनाई जाती है। ३. चिचड़ा जिसके फलों की तरकारी होती है।
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पर-वश  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० परवशता] १. जो दूसरे के वश में हो और इसीलिए जो स्वतंत्रतापूर्वक आचरण न कर सकता हो। २. जो दूसरे पर निर्भर करता हो।
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पर-वश्य  : वि० [ष० त०] [भाव० परवश्यता]=परवश।
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परवस्ती  : स्त्री० दे० ‘परवरिश’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवा  : पुं०=पुरवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=प्रतिपदा (तिथि)। स्त्री०=परवाह।
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परवाई  : स्त्री०=परवाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-वाच्य  : वि० [तृ० त०] दूसरों द्वारा निंदित।
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परवाज  : वि० [फा० पर्वाज़] [भाव० परवाजी] समस्त पदों के अंत में; उड़नेवाला। जैसे—बलंदपरवाज=ऊँचा उड़नेवाला। स्त्री० उड़ने की क्रिया या भाव। उड़ान।
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परवाणि  : पुं० [सं० पर√वण् (शब्द करना)+ णिच्+ इन्] १. धर्माध्यक्ष। २. कार्तिकेय का वाहन, मोर। ३. वत्सर। वर्ष।
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परवान् (वत्)  : [सं० पर+मतुप्, वत्व] १. पराश्रयी। २. पराधीन। ३. असहाय।
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परवान  : पुं० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण। सबूत। २. ठीक, वास्तविक या सत्य बात। ३. सीमा। हद। वि० १. उचित। ठीक। वाजिब। २. प्रामाणिक और विश्वसनीय। पुं० [फा० परवाल] १. उड़ान। मुहा०—परवान चढ़ना=(क) बहुत अधिक उन्नति करते हुए परम सुखी और सौभाग्यशाली होना। (स्त्रियाँ) (ख) पूर्णता तक पहुँचना। (ग) सफल होना। २. जहाजों के ठहरने की जगह। बन्दरगाह। पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवानगी  : स्त्री० [फा० पर्वानगी] आज्ञा। अनुमति।
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परवानना  : सं० [सं० प्रमाण] किसी बात को ठीक और प्रामाणिक मानना या समझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परवाना  : पुं० [फा० पर्वान] १. प्राचीन काल में वह लिखित आज्ञा जो राजा की ओर से किसी को भेजी जाती थी। २. किसी प्रकार के अधिकार या अनुमति का सूचक पत्र। जैसे—तलाशी का परवाना, राहदारी का परवाना। ३. पतिंगा, विशेषतः वह पतिंगा जो दीपक की लौ के चारों ओर मंडराता हो और अंत में उसी से जल मरता हो। शलभ। ४. लाक्षणिक अर्थ में, वह व्यक्ति जो किसी पर अत्यन्त मुग्ध हो और उसके प्रेम में अपने आप को बलिदान कर दे अथवा आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत रहे। जैसे—देश का परवाना। ५. प्रेमिका के रूप-सौंदर्य पर अत्यधिक मुग्ध व्यक्ति। ६. लोमड़ी के आकार का एक वन्य पशु जो शेर के आगे-आगे चलता है।
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परवाना राहदारी  : पुं० दूसरे क्षेत्र या दूसरे देश में जाने अथवा कोई चीज ले आने के लिए अधिकारी की ओर से मिलनेवाला स्वीकृति-पत्र
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परवाया  : पुं० [हिं० पैर+पाया] ईंट, पत्थर या लकड़ी का वह टुकड़ा जो चारपाई के पाये के नीचे रखा जाय।
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परवाल  : पुं० १.=परबाल। २.=प्रवाल।
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परवास  : पुं० [सं० प्रवास] १. प्रवास। २. आच्छादन।
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पर-वासिका, पर-वासिनी  : स्त्री० [स० त०] बाँदा। बंदाक। परगाछा।
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परवाह  : स्त्री० [फा० पर्वा] १. कोई काम (विशेषतः अनुपयुक्त या अनुचित काम) करते समय मन को होनेवाला यह औचित्यपूर्ण विचार कि इस काम से बड़ों के मान को ठेस तो लगेगी। विशेष—यह शब्द इस अर्थ में प्रायः नहिक रूप में ही प्रयुक्त होता है। जैसे—हमें इस बात की परवाह नहीं है। २. आसरा। भरोसा। उदा०—जग में गति जाहि जगत्पति की परवाह सो ताहि कहा नर की।—तुलसी। ३. चिंता। फिक्र। पुं०=प्रवाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवाहना  : सं० [सं० प्रवाह+हिं० ना (प्रत्य०)] प्रवाहित करना।
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पर-विंदु  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत में विंदु का दूसरा नाम।
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परवी  : स्त्री० [सं० पर्व] पर्व-काल।
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परवीन  : वि०=प्रवीण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवेख  : पुं०=परिवेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परवेज  : पुं० [फा० पर्वेज] १. विजयी। २. नौशेरवाँ का पोता जो शीरीं का आशिक था।
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परवेश  : पुं०=प्रवेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-वेश्म (श्मन)  : पुं० [ब० स० ?] स्वर्ग।
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पर-व्रत  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र का एक नाम।
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परश  : पुं० [सं० स्पर्श, पृषों० सिद्धि] स्पर्शमणि। पारस पत्थर। पुं०=स्पर्श।
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परशु  : पुं० [सं० पर√शृ (हिंसा)+कु, डित्त्व] कुल्हाड़ी की तरह का पर उससे बड़ा एक अस्त्र जिससे प्राचीन काल में योद्धा लोग एक दूसरे पर प्रहार करते थे।
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परशु-धर  : वि० [ष० त०] परशु नामक अस्त्र धारण करनेवाला। पुं० परशुराम।
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परशु-मुद्रा  : पुं० [मध्य० स०] तंत्र में एक प्रकार की मुद्रा।
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परशु-राम  : पुं० [ब० स०] रेणुका के गर्भ से उत्पन्न जमदग्नि ऋषि के पुत्र जिन्होंने २१ बार क्षत्रिय वंश का नाश किया था। विशेष—ये विष्णु के छठवें अवतार कहे गये हैं। इनका यह नाम ‘परशु’ धारण करने के कारण पड़ा था।
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परशु-वन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक नरक का नाम।
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परश्वध  : पुं० [सं० पर√श्वि (वृद्धि)+ड=परश्व, ष० त० √धे (पान)+क] परशु नामक अस्त्र।
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परसंग  : पुं०=प्रसंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसंसा  : स्त्री०=प्रशंसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परस  : पुं० [सं० स्पर्श] परसने की क्रिया या भाव। स्पर्श। पुं० [सं० परश] पारस पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसन  : पुं० [सं० स्पर्शन] परसने की क्रिया या भाव। छूना। स्पर्श। जैसे—दरसन-परसन।
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परसना  : स० [सं० स्पर्शन] १. स्पर्श करना। छूना। २. अनुभूत करना। उदा०—कछु भेदियाँ पीर हिये परसो।—घनानन्द। ३. भोजन करनेवालों की थालियों, पत्तलों आदि में खाद्य पदार्थ रखना। ५. भोजन कराना। परोसना। अ० खाद्य पदार्थों का पत्तलों आदि में रखा या लगाया जाना।
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परसन्न  : वि० [भाव० परसन्नता]=प्रसन्न।
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परसमनि  : पुं०=स्पर्शमणि (पारस पत्थर)।
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परसर्ग  : पुं० [सं० ब० स०] आधुनिक भाषा-विज्ञान में, ने, को, के, से, में आदि संज्ञा-विभक्तियाँ जिनके संबंध में यह कहा जाता है कि ये प्रकृति के साथ सटाकर नहीं बल्कि प्रकृति से हटाकर लिखी जानी चाहिए।
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पर-सवर्ण  : पुं० [सं० समान-वर्ण, कर्म० स०, स—आदेश, पर-सवर्ण, तृ० त०] पर या उत्तरवर्ती वर्ण के समान वर्ण।
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परसा  : पुं०=परशु। २.=फरसा। पुं०=परोसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसाद  : पुं०=प्रसाद। अव्य० [सं० प्रसादात्] १. प्रसाद या कृपा से। २. वजह से। कारण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसादी  : स्त्री०=परसाद (प्रसाद)।
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परसाना  : स० [हिं० परसना] १. स्पर्श कराना। छुआना। २. भोजन परसने या परोसने का काम किसी से कारना।
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पर-साल  : अव्य० [सं० पर+फा० साल] १. गत वर्ष। पिछले साल। २. आगामी वर्ष। अगले साल। स्त्री० पास सारी नामक घास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसिद्ध  : वि०=प्रसिद्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसिया  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़ जिसकी लकड़ी मेज, कुरसियाँ आदि बनाने के काम आती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० परशु, हिं० परसा] १. छोटा परशु। २. हँसिया।
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परसी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी मछली।
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परसु  : पुं०=परशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-सूक्ष्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] आठ परमाणुओं के बराबर की एक तौल।
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परसूत  : वि०=प्रसूत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसेद  : पुं०=प्रस्वेद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसों  : अव्य० [सं० परश्व] १. बीते हुए दिन से ठीक पहलेवाला दिन। २. आगामी कल के बादवाला दूसरा दिन।
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परसोतम  : पुं०=पुरुषोत्तम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परसोर  : पुं० [देश०] एक तरह का अगहनी धान।
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परसौहाँ  : वि० [हिं० परसना+औहाँ (प्रत्य०)] स्पर्श करने या छूनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पर-स्त्री  : स्त्री० [ष० त०] दूसरे की स्त्री। विशेषतः अपनी पत्नी से भिन्न दूसरे की पत्नी।
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परस्त्री-गमन  : पुं० [सं० परस्त्रीगमन, स० त०] पराई स्त्री के साथ संभोग करना जो विधिक दृष्टि से अपराध और धार्मिक दृष्टि से पाप है।
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परस्पर  : अव्य० [सं० पर, द्वित्व, सकार का आगम] १. एक दूसरे के साथ। जैसे—दोनों रेखाओं को परस्पर मिलाओ। २. दो या दो से अधिक पक्षों में। जैसे—ब्च्चे परस्पर मिठाई बाँट लेंगे। ३. एक दूसरे के प्रति। जैसे—इन लोगों में परस्पर बैर है।
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परस्पर-व्यापी  : वि० [सं०] (चीजें, बातें या स्थितियाँ) जो आपस में आंशिक रूप में एक दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण करके उनमें व्याप्त हों। अतिच्छादित। (ओवरलैपिंग)
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परस्परोपमा  : स्त्री० [सं० परस्पर-उपमा, ष० त०] उपमेयोपमा। (दे०)
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परस्मैपद  : पुं० [सं० अलुक स०] संस्कृत धातुओं का एक वर्ग जिनसे बननेवाली क्रियाएँ कर्ता की अनुसारी होती हैं। ‘आत्मनेपद’ से भिन्न।
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परस्व  : पुं० [सं०] १. दूसरे की संपत्ति। २. पराधीनता।
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पर-हथ  : अव्य० [हिं० पर+हाथ] दूसरे के हाथ में। दूसरे की अधीनता में।
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परहरना  : स० [सं० परिहास] छोड़ना। तजना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परहार  : पुं०=प्रहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=परिहार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परहारी  : पुं० [सं० प्रहरी] जगन्नाथ जी के मंदिर के वे पुजारी जो मंदिर में ही रहते हैं।
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परहेज  : पुं० [फा० पर्हेज़] १. ऐसी वस्तुओं का सेवन न करना अथवा ऐसे कार्य न करना जिनसे स्वास्थ्य बिगड़ता हो अथवा सुधरती हुई शारीरिक स्थिति में बाधा पहुँचती हो। २. संयमपूर्वक रहना। ३. बुरी बातों से दूर रहना या बचना।
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परहेजगार  : पुं० [फा० पर्हेज़गार] [भाव० परहेजगारी] १. परहेज करनेवाला। २. इंद्रियों को वश में रखनेवाला। संयमी। ३. धार्मिक दृष्टि से दोषों, पापों आदि से बचकर रहनेवाला। धर्म-निष्ठ।
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परहेजगारी  : स्त्री० [फा०] परहेजगार होने की अवस्था या भाव।
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परहेलना  : स० [सं० अवहेलना] अवहेलना या उपेक्षा करना। उदा०—तेहि रिस हों परहेलिउँ।—जायसी।
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परांग  : पुं० [सं० पर-अंग, ष० त०] १. दूसरे का अंग। [कर्म० स०] २. श्रेष्ठ अंग।
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परांगद  : पुं० [सं० परांग√दा (देना)+क] शिव।
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परांगभक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० परांग√भक्ष् (खाना)+ णिनि] १. वह जो दूसरों के अंग खाता हो। २. परजीवी।
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परांगव  : पुं० [सं० परांग√वा (गति)+क] समुद्र।
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पराँचा  : पुं० [फा० प्रांचः] १. तख्ता। २. तख्तों की पाटन। ३. नावों का बेड़ा।
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परांज  : पुं० [सं० पर√अञ्ज् (चिकना करना)+अच्] १. तेल निकालने का यंत्र। कोल्हू। २. फेन। ३. छुरी, तलवार आदि का फल।
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परांजन  : पुं०=परांज।
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पराँठा  : पुं० [हिं० पलटना] [स्त्री० अल्पा० पराँठी] तवे पर घी लगाकर सेंकी हुई रोटी।
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परांत  : पुं० [सं० पर-अंत, कर्म० स०] मृत्यु।
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पराँतक  : पुं० [सं० पर-अंतक, कर्म० स०] शिव।
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परांत-काल  : पुं० [ष० त०] १. मृत्यु का समय। २. वह समय जब कोई आवागमन के चक्र से छूटने के लिए शरीर छोड़ रहा हो।
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पराँदा  : पुं० [फा० परंद] [स्त्री० अल्पा० पराँदी] स्त्रियों के बाल गूँथने की चोटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परा  : उप० एक संस्कृत उपसर्ग जो निम्नलिखित अर्थों में प्रयुक्त होता है—(क) दूरी पर। परे। जैसे—पराकरण। (ख) आगे की ओर। जैसे—पराक्रमण। (ग) विपरीतता। जैसे—पराजय, पराभव। वि० [सं० पर का स्त्री०] १. जो सब से परे हो। २. उत्तम। श्रेष्ठ। स्त्री० [सं०√पृ (पूर्ति)+अच्+टाप्] १. चार प्रकार की वाणियों में पहली जो नाद स्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी गई है। वह विद्या जो ऐसी वस्तु का ज्ञान कराती है जो सब गोचर पदार्थों से परे हो। ब्रह्मविद्या। ३. एक प्रकार का साम-गान। ४. एक प्राचीन नदी। ५. गंगा। ६. बाँझ-ककोड़ा। पुं० [हिं० पारना] रेशम फेरनेवाला का लकड़ी का एक औजार। पुं० [?] कतार। पंक्ति। जैसे—फौजें परा बाँधकर खड़ी थीं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०—बाँधना।
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पराई  : वि० हिं० ‘पराया’ का स्त्री०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पराक  : पुं० [सं० पर-आक, ब० स०] १. दे० ‘कृच्छापराक’। २. खड्ग। ३. एक प्रकार का रोग। ४. एक प्रकार का छोटा कीड़ा या जंतु।
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परा-करण  : पुं० [सं० परा√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. दूर करना या परे हटाना। २. अस्वीकृत कराना। ३. तिरस्कृत करना।
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पराकाश  : पुं० [सं० परा√काश् (चमकना)+घञ्] १. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दूर-दर्शिता। दूर की सूझ। दूरवर्ती आशा। ३. दूर का दृश्य।
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पराकाष्ठा  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] १. चरम सीमा। सीमांत। हद। अन्त। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी कार्य या बात की ऐसी स्थिति जहाँ से और आगे ले जाने की कल्पना असंभव हो। जैसे—झूठ की पराकाष्ठा। ३. ब्रह्मा की आधी आयु की संख्या। ४. गायत्री का एक भेद।
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पराकोटि  : स्त्री०=पराकाष्ठा।
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पराक्पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीष्] आपामार्ग। चिचड़ी।
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पराक्रम  : पुं० [सं० परा√क्रम् (गति)+घञ्] [वि० पराक्रमी] १. आगे की ओर अथवा किसी के विरुद्ध गमन करना या चलना। २. आगे बढ़कर किसी पर आक्रमण करना। ३. वह गुण या शक्ति जिसके द्वारा मनुष्य कठिनाइयों को पार करता हुआ आगे बढ़ता है और उत्साह, वीरता आदि के अच्छे और बड़े काम करता है। ४. उद्योग। पुरुषार्थ। मुहा०—पराक्रम चलना=शारीरिक सामर्थ्य के आधार पर पुरुषार्थ या उद्योग हो सकना। जैसे—जब तक हमारा पराक्रम चलता है, तब तक हम कुछ न कुछ काम करते ही रहेंगे।
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पराक्रमण  : पुं० [सं० परा√क्रम्+ल्युट्—अन] आगे की ओर अथवा किसी के विरुद्ध बढ़ना।
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पराक्रमी (मिन्)  : वि० [सं० पराक्रम+इनि] १. जिसमें यथेष्ट पराक्रम हो। २. पराक्रम करने या दिखानेवाला अर्थात् बलवान या वीर। ३. पुरुषार्थी।
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पराक्रांत  : वि० [सं० परा√क्रम्+क्त] १. पीछे की ओर मोड़ा हुआ। २. जिसमें उत्साह और वीरता हो। ३. आक्रांत।
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पराग  : पुं० [सं० परा√गम् (जाना)+ड] १. वह रज या धूल जो फूलों के बीच लम्बे केसरों पर जमी रहती है। पुष्पराज। (पोलेन) २. धूलि। रज। ६. चन्दन। ४. कपूर के छोटे कण। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. उपराग। स्वछन्द रूप में होनेवाली गति। ८. प्राचीन भारत में नहाने से पहले शरीर पर लगाने का एक सुगंधित चूर्ण।
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पराग-केसर  : सं० [मध्य० स०] फूलों के बीच का वह केसर (गर्भ केसर से भिन्न) या सींगा जो उसका पुंर्लिंग अंग माना जाता है। (स्टैमेन)
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परागजज्वर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जो कुछ घासों और वृक्षों का पराग शरीर में पहुँचने से उत्पन्न होता है। इसमें आँखें और ऊपरी स्वास संस्थान में सूजन होती है जिससे छींकें आने लगती हैं और कभी-कभी ज्वर तथा दमा भी हो जाता है।
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परागण  : पुं० [सं० परागकरण] पेड़-पौधों का पराग या पुष्परज से युक्त होना या किया जाना। (पोलिनेशन)
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परागत  : भू० कृ० [सं० परा√गम् (जाना)+क्त] १. दूर गया हुआ। २. मरा हुआ। मृत। ३. घिरा हुआ। ४. फैला हुआ। विस्तृत।
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परागति  : स्त्री० [सं० परा√गम्+क्तिन्] गायत्री।
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परागना  : अ० [सं० उपराग=विषयाशक्ति] आसक्त होना। अ० [सं० पराग+हिं ना (प्रत्य०)] पराग से युक्त होना। स० पराग से युक्त करना।
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पराङमुख  : वि० [सं० ब० स०] १. जो पीछे की ओर मुँह फेरे हुए हो। विमुख। २. जो किसी की ओर ध्यान न देकर उसकी ओर से मुँह फेर ले। ४. उदासीन। ४. विपरीत। विरुद्ध।
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पराच्  : वि० [सं० परा√अञ्च् (गति)+क्विप्] १. प्रतिलोमगामी। उलटा चलने या जानेवाला। ऊर्ध्वगामी। ३. परोक्ष में जानेवाला। ३. जिसका मुँह बाहर की ओर हो।
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पराचीन  : वि० [सं० पराच्+ख—ईन] १. पराङमुख। २. दूसरी ओर स्थित। वि०=प्राचीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पराछित  : पुं०=प्रायश्चित। उदा०—मारयाँ परछित लागसी म्हाँने दीजो पीहर मेल।—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पराजय  : स्त्री० [सं० परा√जि (जीतना)+अच्] प्रतियोगिता, युद्ध आदि में होनेवाली हार। शिकस्त। ‘जय’ का विपर्याय।
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पराजिका  : स्त्री० [सं० उपराजिका या हिं० परज] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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पराजित  : भू० कृ० [सं० परा√जि+क्त] हराया या हारा हुआ।
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पराणसा  : स्त्री० [सं० परा√अन् (जीना)+अस+टाप्] चिकित्सा। औषधोपचार। इलाज।
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परात  : स्त्री० [सं० पात, मि० पुर्त्त० प्राट] थाली के आकार का ऊँचे किनारोंवाला एक बड़ा बरतन।
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परात्पर  : वि० [सं० अलुक्, स०] जिसके परे या जिससे बढ़कर कोई दूसरा न हो। सर्वश्रेष्ठ। पुं० १. परमात्मा। २. विष्णु।
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परात्प्रिय  : पुं० [सं० अलुक् स०] कुश की तरह की एक प्रकार की घास जिसमें जौ या गेहूँ के से दाने पड़ते हैं। उलपतृण।
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परात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० पर-आत्मन्, कर्म० स०] परमात्मा। परब्रह्म।
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परादन  : पुं० [सं० पर-अदन, ब० स०] अरब या फारस देश का एक प्रकार का घोड़ा।
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पराधि  : स्त्री० [सं० पर-आधि, कर्म० स०] तीव्र मानसिक व्यथा।
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पराधीन  : वि० [सं० पर-अधीन, ष० त०] [भाव० पराधीनता] जो दूसरे या दूसरों के अधीन हो। जिसपर किसी दूसरे का अंकुश या शासन हो।
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पराधीनता  : स्त्री० [सं० पराधीन+तल्+टाप्] पराधीन होने की अवस्था या भाव।
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परान  : पुं०=प्राण।
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पराना  : अ० [सं० पलायन] १. भागना। २. दूर होना। स० १. भगाना। २. दूर करना। वि० [स्त्री० परानी]=पुराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=पिराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परानी  : पुं०=प्राणी।
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परान्न  : पुं० [सं० पर-अन्न, ष० त०] दूसरे का दिया हुआ अन्न या भोजन। पराया धान्य।
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परान्नभोजी (जिन्)  : वि० [सं० परान्न√भुज् (खाना)+णिनि] जो दूसरों का दिया हुआ अन्न खाकर पलता हो।
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परापति  : स्त्री०=प्राप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परापर  : वि० [सं० पर+अपर] १. पर और अपर। २. जिसमें परत्व और अपरत्व दोनों गुण हों। (वैशेषिक) ३. अच्छा और बुरा। पुं० फालसा।
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परापरज्ञ  : वि० [सं०] १. पर और अपर का ध्यान रखनेवाला। २. ऊँच-नीच या भला-बुरा समझनेवाला।
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पराभक्ति  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] मनुष्य के मन में ईश्वर के प्रति होनेवाली वह विशुद्ध भक्ति जिसमें अपने स्वार्थ या हित की कुछ भी कामना नहीं होती। साध्या भक्ति।
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पराभव  : पुं० [सं० परा√भू (होना)+अप्] १. व्यक्ति, जाति देश आदि का होनेवाला पतनोन्मुखी तथा ह्रासमय अंत। २. नाश। विनाश। ३. पराजय। हार। ४. अपमान। बेइज्जती।
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पराभिक्ष  : पुं० [सं० पर-आ√भिक्ष् (माँगना)+अण्] एक प्रकार का वानप्रस्थ जो थोड़ी सी भिक्षा से निर्वाह करता हो।
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पराभूत  : भू० कृ० [सं० परा√भू+क्त] १. जिसका पराभव किया गया हो, या हुआ हो। हराया या हारा हुआ। पराजित। परास्त। २. ध्वस्त। विनष्ट।
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पराभूति  : स्त्री० [सं० परा√भू+क्तिन्] दे० ‘पराभव’।
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परा-मनोविज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक खोजों और प्रयोगों के आखार पर स्थिति एक नया विज्ञान जिसमें यह सिद्ध होता है कि मनुष्य में अथवा उसकी आत्मा या मन में कुछ ऐसी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियाँ हैं जो काल, देश तथा शरीर की सीमाओं में बद्ध नहीं है और जो ऐसे अद्भुत कार्य करती हैं जिनका साधारण बुद्धि या विज्ञान से किसी प्रकार समाधान नहीं होता। (पैरा-साइकोलाजी)
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परा-मनोवैज्ञानिक  : वि० [सं०] परा-मनोविज्ञान-संबंधी। पुं० परा-मनोविज्ञान का ज्ञाता या पंडित।
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परामर्श  : पुं० [सं० परा√मृश् (छूना)+घञ्] १. पकड़ना। खींचना। जैसे—केश-परामर्श। २. विवेचन। विचार। ३. विवेचन या विचार के लिए आपस में होनेवाली सलाह। ४. किसी विषय में दूसरे से ली जानेवाली सलाह। ५. निर्णय। क्रि० प्र०—करना। देना।—माँगना।—लेना। ६. अनुमान। अन्दाज। अटकल। ६. याद। स्मृति। ८. तरकीब। युक्ति।
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परामर्श-दाता (तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० परामर्शदात्री] दूसरों को परामर्श या सलाह देनेवाला।
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परामर्शदात्री-परिषद्  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद]=परामर्श-समिति।
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परामर्शन  : पुं० [सं० परा√मृश्+ल्युट्—अन] १. खींचना। २. परामर्श अथवा सलाह करने की क्रिया या भाव। ३. चिन्तन, ध्यान या स्मरण।
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परामर्श-समिति  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] वह समिति जो किसी विषय के संबंध में अपनी राय देने के लिए नियुक्त की जाती है।
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परामृत  : वि० [सं० पर-अमृत, कर्म० स०] जिसने मृत्यु को जीत लिया हो।
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परमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परा√मृश्+क्त] १. पकड़कर खींचा हुआ। २. पीड़ित। ३. जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ४. जिसके विषय में विचार के उपरांत निर्णय या निश्चय हो चुका हो।
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परापचा  : पुं० [फा० पार्चः] १. कपड़ों के कटे टुकड़ों की टोपियाँ आदि बनाकर बेचनेवाला। २. सिले-सिलाये कपड़े बेचनेवाला रोजगारी।
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परायण  : वि० [सं० पर-अयन, ब० स०] [स्त्री० परायणा] १. गया या बीता हुआ। गत। २. किसी काम या बात में अच्छी तरह लगा हुआ। निरत। जैसे—कर्त्तव्यपरायण। ३. किसी के प्रति पूर्ण निष्ठा या भक्ति रखनेवाला। जैसे—धर्मपरायण स्त्री। पुं० १. वह स्थान जहाँ शरण मिली हो। शरण का स्थान। २. विष्णु।
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परायत्त  : वि० [सं० पर-आयत्त, ष० त०] पराधीन।
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पराया  : वि० पुं० [सं० पर+हिं० आया (प्रत्य०) [स्त्री० पराई] १. जिसका संबंध दूसरे से हो। अपने से भिन्न। ‘अपना’ का विपर्याय। २. आत्मीय या स्वजन से भिन्न। पद—पराया समझकर=आत्मीयता के भाव से रहित या विमुख होकर।
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परायु (युस्)  : पुं० [सं० पर-आयुस्, ब० स०] ब्रह्मा, जिनकी आयु सबसे अधिक कही गई है।
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परार  : वि०=पराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परारध  : पुं०=परार्द्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परारबध  : पुं०=प्रारब्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परारि  : अव्य० [सं० पूर्वतर+अरि, नि० पर—आदेश] पूर्वतर वर्ष में। परियार साल।
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परारु  : पुं० [सं० परा√ऋ (गति)+उण्] करेला।
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परारुक  : पुं० [सं० परा√ऋ+उक] १. चट्टान। २. पत्थर।
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परार्थ  : वि० [सं० पर-अर्थ, नित्य स०] [भाव० परार्थता] जो दूसरे के निमित्त हो। पुं० १. दूसरों का ऐसा काम जो उपकार की दृष्टि से किया जाता हो। २. दे० ‘परमार्थ।’
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परार्थवाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह सिद्धांत कि जहाँ तक हो सके, दूसरों का उपकार करते रहना चाहिए। (एल्ट्रू इज़्म)
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परार्थवादी (दिन्)  : वि० [सं० परार्थ√वद् (बोलना)+ णिनि] परार्थवाद-संबंधी। पुं० १. परार्थवाद का अनुयायी। २. वह जो सदा दूसरों का उपकार करता हो।
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परार्द्ध  : पुं० [सं० अर्ध,√ऋधे (वृद्धि)+अच् पर-अर्ध, कर्म० स०] १. बादवाला आधा अंश। उत्तरार्द्ध। २. वह संख्या जिसे लिखने में अठारह अंक होते हैं। एक शंख। १॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। ३. ब्रह्मा की आयु का परवर्ती आधा अंश।
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परार्द्धि  : पुं० [सं० परा-ऋद्धि, ब० स०] विष्णु।
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परार्ध्य  : वि० [सं० परार्ध+यत्] १. श्रेष्ठ। २. उत्तम। पुं० १. असीम संख्या। २. सबसे बड़ी वस्तु।
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परालब्ध  : पुं०=प्रारब्ध।
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पराव  : पुं०=पराया। पुं० [हिं० पराना] भागने की क्रिया या भाव।
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परावत  : पुं० [सं० परा√अव् (रक्षण आदि)+अतच्] फालसा।
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परावन  : पुं० [सं० पलायन, हिं० पराना] १. एक साथ बहुत से लोगों का भागना। भगदड़। पलायन। वि० भागनेवाला। भग्गू। पुं० [हिं० पड़ना, पड़ाव] गाँववालों का गाँव के बाहर डेरा डालकर उत्सव मनाना।
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परावर  : वि० [सं० पर-अवर, कर्म० स०] [स्त्री० परावर] १. पहले और पीछे का। २. निकट और दूर का। ३. सर्वश्रेष्ठ। पुं० १. कारण और कार्य। २. विश्व। ३. अखिलता।
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परावर्त  : पुं० [सं० परा√वृत् (बरतना)+घञ्] १. लौटकर पीछे आना। प्रत्यावर्तन। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. दे० ‘प्रतिवर्तन’।
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परावर्तक  : वि० [सं० परा√वृत्+ण्वुल्—अक] १. लौटकर पीछे आने या जानेवाला। २. अदल-बदल जानेवाला।
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परावर्तन  : पुं० [सं० परा√वृत्+ल्युट्—अन] १. लौटकर पीछे आना। प्रत्यावर्तन। २. उलटने पर फिर ज्यों का त्यों हो जाना। ३. उलटाया जाना। ४. दे० ‘अंतरण’। ५. धार्मिक ग्रंथों का पुनर्पठन। (जैन)
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परावर्त-व्यवहार  : पुं० [सं० ष० त०] किसी निर्णय पर होनेवाला पुनर्विचार।
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परावर्तित  : भू० कृ० [सं० परा√वृत्+णिच्+क्त] पलटाया हुआ। पीछे फेरा हुआ। पीछे की ओर लौटाया हुआ।
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परावर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० परा√वृत्+णिनि] १. लौटकर पुनः अपने स्थान पर आने या पहुँचनेवाला। २. फिर से पहलेवाली स्थिति में आनेवाला।
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परा-वसु  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] १. असुरों का पुरोहित। २. रैभ्य मनु के एक पुत्र का नाम। ३. विश्वामित्र के एक पौत्र का नाम।
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परावह  : पुं० [सं० परा√वह् (ढोना)+अच्] वायु के सात भेदों में से एक। विशेष—अन्य छः भेद आवह, उदह, परिवह, प्रवह, विवह और संवह हैं।
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परावा  : वि०=पराया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पराविद्ध  : पुं० [सं० परा√व्यध् (ताड़न करना)+क्त] कुबेर।
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परावृत्त  : वि० [सं० परा√वृत्+क्त] [भाव० परावृत्ति] १. पलटा या पलटाया हुआ। फेरा हुआ। परावर्तित। २. बदला हुआ।
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परावृत्ति  : स्त्री० [सं० परा√वृत्त+क्तिन्] १. पलटने या पलटाने का भाव। पलटाव। परावर्तन। २. व्यवहार या मुदकमे पर फिर से होनेवाला विचार।
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परावेदी (दिन)  : स्त्री० [सं० परा-आ√विद्+णिनि] भटकटैया।
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पराव्याध  : पुं० [सं० परा√व्याध+घञ्] परास।
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पराशय  : वि० [सं० परा√शी (सोना)+अच्] बहुत अधिक।
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पराशर  : पुं० [सं० पर-आ√शृ (हिंसा)+अच्] १. वशिष्ठ के पौत्र और कृष्ण द्वैपायन व्यास के पिता जो पराशर स्मृति के रचयिता माने जाते हैं। २. एक ज्योतिष ग्रंथ (पराशरी संहिता) के रचयिता। ३. आयुर्वेद के एक प्रधान आचार्य।
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पराशरी (रिन्)  : पुं० [सं० पराशर्य+णिनि, यलोप, पृषो० ह्रस्व] १. भिक्षुक। २. संन्यासी।
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पराश्रय  : पुं० [सं० पर-आश्रय, ष० त०] १. दूसरे का अवलंब या आश्रय। २. परवशता। पराधीनता।
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पराश्रया  : स्त्री० [सं० पर-आश्रय, ब० स०+टाप्] बाँदा। परगाछा।
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पराश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० पराश्रय+इनि] १. दूसरे के आश्रय और सहारे पर रहनेवाला। २. दे० ‘पर-जीवी’। पुं० ऐसे कीटाणुओं, वनस्पतियों आदि का वर्ग जो दूसरे जंतुओं, वनस्पतियों आदि के अंगों पर रहकर जीवन-निर्वाह करते हों। (पैरे-साइट)
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पराश्रित  : वि० [सं० पर-आश्रित, ष० त०] १. जो किसी दूसरे के आश्रय में रहता हो। २. जो दूसरे के आसरे पर या भरोसे चलता या रहता हो।
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परास  : पुं० [सं० परा√अस् (फेंकना)+अञ्] १. उतना अवकाश या दूरी जितनी कोई चलाई या फेंकी जानेवाली चीज उड़ते-उड़ते पार करती हो। जैसे—बंदूक की गोली या तीर का परास। २. उतना क्षेत्र जहाँ तक किसी क्रिया का प्रभाव या फल होता हो। ३. उतना प्रदेश जितने में कोई चीज पाई जाती हो। (रेंज)
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परासन  : पुं० [सं० परा√अस्+ल्युट्—अन] १. जान से मारना। २. वध करना।
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परासी  : स्त्री० [सं० परास+ङीष्] पलाश्री नाम की रागिनी।
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परासु  : वि० [सं० परा-असु, ब० स०] [भाव० परासुता] मरा हुआ। मत।
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परास्कंदी (दिन्)  : पुं० [सं० पर-आ√स्कन्द् (गति, शोषण)+णिनि] चोर।
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परास्त  : वि० [सं० परा√अस्+क्त] १. द्वंद्व, प्रतियोगिता आदि में हारा या हराया हुआ। पराजित। २. किसी के सामने झुका या दबा हुआ। ३. ध्वस्त। विनष्ट।
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पराह  : पुं० [सं० पर-अहन्, कर्म० स०, टच्] अन्य या दूसरा दिन।
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पराहत  : वि० [सं० परा-आ√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो आघात के द्वारा गिराया या पीछे हटाया गया हो। २. आक्रांत। ३. नष्ट किया या मिटाया हुआ। ध्वस्त। ४. जिसका खंडन हुआ हो। खंडित। ५. जोता हुआ।
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पराहति  : स्त्री० [सं० परा-आ√हन्+क्तिन्] १. खंडन। २. विरोध।
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पराह्न  : पुं० [सं० पराह्ल] दोपहर के बाद का समय। अपराह्न।
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पराहृत  : भू० कृ० [सं० परा-आ√हृ (हरण करना)+क्त] हटाया हुआ।
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परिंदगी  : स्त्री० [फा०] १. पक्षियों का जीवन। २. परिन्दों की उड़ान।
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परिंदा  : पुं० [फा० परिंदः] चिड़िया। पक्षी।
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परि  : उप० [सं०√पृ (पूर्ति)+इन्] एक संस्कृत उपसर्ग जो प्रायः क्रियाओं से बनी हुई संज्ञाओं के पहले लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है। १. आस-पास या चारों तरफ ओर। जैसे—परिक्रमण, परिभ्रमण आदि। २. अच्छी या पूरी तरह अथवा हर तरह। जैसे—परिकल्पन, परिवर्द्धन, परिरक्षण आदि। ३. अतिरिक्त रूप से, बहुत अधिक या बहुत जोरों से। जैसे—परिकंप, परिताप, परित्याग, परिश्रम आदि। ४. दोष दिखलाते या निंदनीय ठहराते हुए। जैसे—परिवाद, परिहास आदि। ५. किसी विशिष्ट क्रम या नियम से। जैसे—परिच्छेद। विशेष—(क) कुछ अवस्थाओं में यह विशेषणों और अन्य प्रकार की संज्ञाओं तथा प्रत्ययों के पहले भी लगता और बहुत-कुछ उक्त प्रकार के अर्थ देता है। जैसे—परिपूर्ण=अच्छी तरह से भरा हुआ; परिलघु=बहुत ही छोटा; परितः=चारों ओर; परिधि= चारों ओर का घेरा; पंर्यग्नि=चारों ओर जानेवाली अग्नि से घिरा हुआ; पर्यश्रु=उमड़ते हुए आँसुओंवाला। (ख) जुए के दाँव, पासे, संख्या आदि के प्रसंग में यह कुछ शब्दों के अन्त में लगकर ‘हारा हुआ’ का भी अर्थ देता है। जैसे—अक्षपरि=पासे के खेल में हारा हुआ। (ग) कहीं-कहीं इसके रूप ‘पर’ भी हो जाता है; परन्तु अर्थ ज्यों का त्यों रहता है। जैसे—परिवाह और परीवाह; परिहास और परीहास आदि। अव्य० [?] १. तरह या प्रकार से। उदा०—पिड़ि पहिर तै नवी परि।—प्रिथीराज। २. के तुल्य। के बराबर। समान। उदा०—पेखि कली पदमिणी परी।—प्रिथीराज। विशेष—उक्त अर्थों में यह शब्द राजस्थानी के अतिरिक्त गुजराती और मराठी में भी इसी रूप में प्रचलित है।
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परि-कंप  : पुं० [सं० परि√कम्प् (काँपना)+घऽञ्] बहुत जोरों का कंपन।
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परिक  : स्त्री० [देश०] बहुत अधिक खोटी या मिलावटवाली चाँदी।
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परि-कथा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बौद्धों के अनुसार, कोई धार्मिक कथा का विवरण। २. कहानी।
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परि-कर  : पुं० [सं० पर√कृ (विक्षेप)+अप्] १. पर्यंक। पलंग। २. घर या परिवार के लोग। ३. किसी के आस-पास या संग-साथ रहनेवाले लोग। जैसे—राजाओं का परिकर। ४. वृन्द। समूह। ५. तैयारी। समारंभ। ६. कमरबन्द। पटका। ६. विवेक। ८. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी विशेष्य से पहले किसी विशिष्ट अभिप्राय से विशेषण लगाये जाते हैं। जैसे—हिमकर वदनी (ताप हरण करनेवाली नायिका)।
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परिकरमा  : स्त्री०=परिक्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिकरांकुर  : पुं० [सं० परिकर-अंकुर, ष० त०] वह अर्थालंकार जिसमें विशेष्य का कथन किसी विशिष्ट अभिप्राय से किया जाता है।
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परिकर्तन  : पुं० [सं० परि√कृत् (काटना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से काटना। २. गोलाकार काटना। ३. शूल।
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परिकर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√कृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] शूल।
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परिकर्म (कर्मन्)  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+मनिन्] १. देह को सजाने का काम। २. शरीर का श्रृंगार या सजावट।
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परिकर्मा (कर्मन्)  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] नौकर। सेवक।
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परिकर्षण  : पुं० [सं०] खेती-बारी के काम के लिए जमीन जोतना, बोना आदि।
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परिकलक  : पुं० [सं० परि√कल् (गिनना)+णिच्+ ण्वुल्—अक] १. परिकलन करने अर्थात् हिसाब लगाने या लेखा करनेवाला व्यक्ति। २. एक तरह का आधुनिक यंत्र जो कई प्रकार का काम जल्दी और सहज में करता है। ३. वह पुस्तक जिसमें अनेक प्रकार के लगे हुए हिसाबों के बहुत से कोष्ठक होते हैं। (कैलकुलेटर, उक्त दोनों अर्थों में)
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परिकलन  : पुं० [सं० परि√कल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकलित] १. गणित में वह गणना जो कुछ जटिल होती है तथा जिसमें कुछ विशिष्ट तथा निश्चित क्रियाओं की सहायता लेनी पड़ती है। (कैलकुलेशन)
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परिकलित  : भू०-कृ० [सं० परि√कल्+णिच्+क्त] जिसका परिकलन हो चुका हो।
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परिकल्पन  : पुं० [सं० परि√कृप् (सामर्थ्य)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिकल्पित] १. परिकल्पना करने की क्रिया या भाव। २. किसी विषय पर होनेवाला चिंतन या मनन। ३. बनावट। रचना। ४. विभाजन। ५. दे० ‘परिकल्पना’।
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परिकल्पना  : स्त्री० [सं० परि√कृप्+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. जिस बात की बहुत-कुछ संभावना हो उसे पहले ही मान लेना या उसके नाम, रूप आदि की कल्पना कर लेना। २. केवल तर्क के लिए कोई बात मान लेना। ३. कुछ विशिष्ट आधारों पर कोई बात ठीक या सही मान लेना। ४. गणित में कोई विशिष्ट मान या राशि निकलने से पहले उसके लिए कोई निश्चित मान राशि या चिह्न अवधारित करना। (प्रिज़म्पशन)
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परिकल्पित  : भू० कृ० [सं० परि√कृप्+क्त] १. (बात या विषय) जिसकी परिकल्पना की गई हो। २. (पदार्थ या रूप) जो परिकल्पना के फल-स्वरूप बना या प्रस्तुत हुआ हो। ३. जो केवल तर्क के लिए मान लिया गया हो। ४. जो कुछ विशिष्ट आधारों पर ठीक या सही मान लिया गया हो। ५. कल्पित। मन-गढ़न्त। ६. ठहराया या ठीक किया हुआ। निश्चित। ६. बनाया हुआ। रचित।
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परिकांक्षित  : पुं० [सं० परि√काङ्क्ष (चाहना)+क्त] १. भक्त। २. तपस्वी।
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परिकीर्ण  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, इत्व, नत्व] १. फैला य फैलाया हुआ विस्तृत। २. छितरा या छिटकाया हुआ। ३. समर्पित।
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परिकीर्तन  : पुं० [सं० परि√कृत् (जोर से शब्द करना) +ल्युट्—अन] १. खूब ऊँचे स्वर से कीर्तन करना। २. किसी के गुणों के बहुत अधिक और विस्तारपूर्वक किया जानेवाला वर्णन।
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परिकीर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√कृत्+क्त] जिसका परिकीर्तन हुआ हो या किया गया हो।
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परि-कूट  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. नगर या दुर्ग के फाटक को घेरनेवाली खाईं। २. एक नागराज का नाम।
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परिकूल  : पुं० [सं० प्रा० स०] कूल अर्थात् किनारे के पास का स्थान।
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परिकेंद्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] ज्यामिति में परिवृत्त (देखें) का केन्द्र।
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परिकोप  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या प्रचंड क्रोध।
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परिक्रम  : पुं० [सं० परि√क्रम् (गति)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। २. घूमना। ३. सैर करने के लिए घूमना। टहलना। ४. किसी काम की जाँच या निरीक्षण के लिए जगह-जगह जाना या घूमना। (टूर) ५. प्रवेश। ६. दे० ‘क्रम’। ६. दे० ‘परिक्रमा’।
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परिक्रमण  : पुं० [सं० परि√क्रम्+ल्युट्—अन्] १. चारों ओर चलने अथवा घूमने, टहलने या सैर करने की क्रिया या भाव। २. किसी काम की देख-रेख के लिए जगह-जगह जाना। दौरा करना। ३. परिक्रमा करना।
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परिक्रम-सह  : पुं० [सं० परिक्रम√सह् (सहना)+अच्] बकरा।
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परिक्रमा  : स्त्री० [सं० परि√क्रम्+अ+टाप्] १. चारों ओर चक्कर लगाना या घूमना। २. किसी तीर्थ, देवता या मंदिर के चारों ओर भक्ति और श्रद्धा से तथा पुण्य की भावना से चक्कर लगाने की क्रिया। प्रदक्षिणा। ४. उक्त प्रकार का चक्कर लगाने के लिए नियत किया या बना हुआ मार्ग।
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परिक्रय  : पुं० [सं० परि√क्री (खरीदना)+अच्] १. खरीदने दी क्रिया या भाव। खरीद। २. भाड़ा। ३. मजदूरी। ४. पारिश्रमिक या मजदूरी तै करके किसी को किसी कार्य पर लगाना। ५. व्यापारिक कार्यों के लिए माल आदि का होनवाला विनिमय। ६. इस प्रकार दिया या लिया हुआ माल।
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परिक्रांत  : वि० [सं० परि√क्रम्+क्त] जिसके चारों ओर चला या चक्कर लगाया जा सके।
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परिक्रामी  : वि० [सं०] १. परिक्रमा करने अर्थात् चारों ओर घूमनेवाला। २. बराबर एक स्थान से दूसरे पर जाता या घूमता रहनेवाला।
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परिक्रिया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज को चारों ओर से दीवार, खाईं आदि से घेरने की क्रिया या भाव। २. स्वर्ग की कामना से किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ। ३. आनन्द, मोह आदि के लिए की जानेवाली कोई क्रिया या आयोजन।
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परिक्लांत  : वि० [सं० परि√क्लम् (थकना)+क्त] जो थककर चूर हो गया हो।
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परिक्लिष्ट  : वि० [सं० परि√क्लिश् (कष्ट सहना)+क्त] १. बहुत अधिक क्लिष्ट। २. तोड़ा-फोड़ा और नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ।
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परिक्लेद  : पुं० [सं० परि√क्लिद् (गीला होना)+घञ्] आर्द्रता। नमी।
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परिक्वणन  : वि० [सं० परि√क्वण् (शब्द करना)+ ल्युट्+अन] बहुत ऊँचा (स्वर)। बादल जो बहुत ऊँचा स्वर करता है।
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परिक्षत  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिक्षति] १. जिसे बहुत अधिक क्षति पहुँची हो। २. जिसे बहुत अधिक चोट लगी हो। आहत। ३. नष्ट-भ्रष्ट।
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परिक्षय  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूरा और सामूहिक विनाश।
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परिक्षव  : पुं० [सं० परि+क्षु (शब्द करना)+अप्] अशुभ सगुनवाली छींक।
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परिक्षा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कीचड़। स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिक्षाम  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक क्षीण या दुर्बल।
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परिक्षालन  : पुं० [सं०√क्षल् (धोना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. वस्त्र आदि धोने की क्रिया या भाव। २. धोने का काम।
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परिक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (नाश)+क्विप्, तुक्-आगम] १. एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। २. अग्नि।
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परिक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० परि√क्षिप् (प्रेरणा)+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा या घेरा गया हो। २. फेंका और त्यागा हुआ।
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परिक्षीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक दुर्बल। २. निर्धन। ३. दे० ‘शोषाक्षय’।
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परिक्षेत्रिक  : वि० [सं०] दे० ‘परिनागर’।
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परिक्षेप  : पुं० [सं० परि√क्षिप्+घञ्] १. गदा को चारों ओर घुमाते हुए प्रहार करना। २. अच्छी तरह से चलना-फिरना या घूमना-टहलना। ३. वह पट्टी या सीमा जिससे कोई चीज घिरी हुई हो। ४. फेंकना। ५. परित्याग करना।
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परिखन  : वि० [हिं० परखना] १. परखनेवाला। २. प्रतीक्षा करनेवाला। स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिखना  : अ० १.=परखना। २.=परेखना (प्रतीक्षा करना)।
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परिखा  : स्त्री० [सं० परि√खन् (खोदना)+ड+टाप्] १. दुर्ग, नगरी आदि के चारों ओर बनी हुई गहरी खाईं। २. गहराई।
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परिखात  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के चारों ओर बना हुआ गड्ढा। २. खाईं। परिखा।
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परिखान  : स्त्री० [सं० परिखात] कच्ची सड़क या जमीन पर बना हुआ गाड़ी के पहिए का चिह्न।
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परिखिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक खिन्न या दुःखी।
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परिखेद  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक थकावट।
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परिख्यात  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिख्याति] जिसकी यथेष्ट ख्याति हो।
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परिख्याति  : स्त्री० [प्रा० स०] चारों ओर फैली हुई यथेष्ट ख्याति।
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परिगंतव्य  : वि० [सं० परि√गम् (जाना)+तव्यत्] १. जिसे प्राप्त किया जा सके। २. जिसे जाना जा सके। जिस तक पहुँचा जा सके।
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परिगणक  : पुं० [सं० परि√गण्+ण्वुल—अक] परिगणन करनेवाला अधिकारी या कर्मचारी। (इन्युमेरेटर)
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परिगणन  : पुं० [सं० परि√गण् (गिनना)+ल्युट—अन] १. अच्छी तरह गिनना। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य से किसी स्थान पर होनेवाली वस्तुओं आदि को एक-एक करके गिनना। (इन्युमेरेशन) जैसे—जनसंख्या का परिगणन, पुस्तकालय की पुस्तकों का परिगणन।
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परिगणना  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=परिगणन।
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परिगणनीय  : वि० [सं० परि√गण्+अनीयर्] परिगणन किये जाने के योग्य। २. जिसका परिगणन होने को हो या हो सके।
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परिगणित  : वि० [सं० परि√गण्+क्त] १. जिसका परिगणन हो चुका हो। २. जिसका उल्लेख या गणन किसी अनुसूची में हुआ हो। अनुसूचित। जैसे—परिगणित जन-जातियाँ। (शेड्यूल्ड)
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परिगण्य  : वि० [सं० परि√गण्+यत्] परिगणनीय।
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परिगत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. चारों ओर से घिरा हुआ। (सर्कम-स्क्राइब्ड) २. गुजरा या बीता हुआ। गत। ३. मरा हुआ। मृत। ४. भूला हुआ। विस्तृत। ५. जाना हुआ। ज्ञात। मिला हुआ। प्राप्त।
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परिगमन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी के चारों ओर जाना। २. जानना। ३. प्राप्त करना।
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परिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ, प्रा० स०,+ठन्—इक] गर्भवती माता का दूध पीने से बच्चों को होनेवाला एक प्रकार का रोग।
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परिगर्वित  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक गर्व या घमंड करनेवाला। बहुत बड़ा अभिमानी।
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परिगर्हण  : पुं० [सं० प्रा० स०] अतिनिंदा।
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परिगलित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. गिरा हुआ। च्युत। २. अच्छी तरह गला हुआ। ३. पिघला हुआ। तरल। ४. गायब। लुप्त। ५. डूबा हुआ।
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परिगह  : पुं० [सं० परिग्रह] घर या परिवार के अथवा आपसदारी के लोग। आत्मीय और कुटुंबी।
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परिगहन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक गहन।
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परिगहना  : स० [परिग्रहण] ग्रहण करना। अंगीकार या स्वीकार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिगीत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका बहुत अधिक गुण-कीर्तन हुआ या किया गया हो।
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परिगीत  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त।
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परिगुंठन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिगुणी] शिक्षा, प्रशिक्षा आदि के द्वारा प्राप्त किया हुआ वह गुण या योग्यता जिससे मनुष्य ज्ञान आदि के किसी नियत और मान्य मानक तक पहुँच जाता है। और प्रायः उसका प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लेता है। (क्वालिफिकेशन)
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परिगुणन  : पुं [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिगुणित] किसी चीज को बढ़ाकर या संख्या को गुणा करके गई गुना अधिक बढ़ाना। (मल्टीप्लिकेशन)
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परिगुणित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका परिगुणन हुआ हो।
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परिगुणी (णिन्)  : वि० [सं० परिगुण+इनि] जिसने कोई परिगुण अर्जित किया हो। (क्वालिफायड)
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परिगूढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] परिगहन। (दे०)
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परिगृद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत बड़ा लालची। अतिलोभी।
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परिगृहीत  : भू० कृ० [सं० परि√ग्रह् (स्वीकार)+क्त] १. अंगीकार ग्रहण या स्वीकार किया हुआ। गृहीत। स्वीकृत। २. प्राप्त। ३. किसी के साथ मिला या मिलाया हुआ। सम्मिलित।
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परिगृह्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह जिसे ग्रहण किया गया हो अर्थात् पत्नी।
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परिग्रह  : पुं० [सं० परि√ग्रह्+अप्] १. दान लेना। प्रतिग्रह। २. प्राप्ति। ३. धन आदि का संग्रह। ४. मंजूरी। स्वीकृति। ५. अनुग्रह। दया। मेहरबानी। ६. किसी स्त्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करना। पाणिग्रहण। ६. पत्नी। भार्या। ८. परिवार के लोग। परिजन। ९. उपहार, भेंट आदि के रूप में ग्रहण की जानेवाली वस्तु। १॰. सेना का पिछला भाग। ११. सूर्य या चंद्र का ग्रहण। १२. कंद। मूल। १३. शाप। १४. कुसुम। शपथ। १५. विष्णु का एक नाम। १६. कुछ विशिष्ट वस्तुएँ संग्रह करने का व्रत। १६. जैन शास्त्रों के अनुसार तीन प्रकार के प्रगति निबंधन कर्म—द्रव्य परिग्रह, भाव परिग्रह और द्रव्यभाव परिग्रह।
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परिग्रहण  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से ग्रहण करना। २. कपड़े पहनना।
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परिग्रहीता (तृ)  : पुं० [सं० परी√ग्रह्+तच्] १. वह जिसने किसी को अंगीकार या ग्रहण किया हो। २. पति। ३. किसी को दत्तक बनाने या गोद लेनेवाला व्यक्ति।
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परिग्राम  : पुं० [सं० अव्य० स०] गाँव के चारों ओर या सामने का भाग।
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परिग्राह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. एक विशेष प्रकार की यज्ञ वेदी। २. बलि चढ़ाने के स्थान पर बना हुआ चारों ओर का घेरा।
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परिग्राह्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो आदरपूर्वक ग्रहण किये जाने के योग्य हो।
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परिघ  : पुं० [सं० परि√हन् (हिंसा)+अप्, घ—आदेश] १. लकड़ी, लोहे आदि का ब्योंड़ा। अर्गल। २. आड़ या रुकावट के लिए खड़ी की हुई कोई चीज। ३. कोई ऐसा तत्त्व या बात जो किसी काम को यथा-साथ्य पूरी तरह से रोकने में समर्थ हो। (बेरियर) ४. वह दंडा जिसके सिरे पर लोहा जड़ा हुआ हो। लोहाँगी। ५. बरछा। भाला। ६. मुद्गर। ७. कलश। घड़ा। ८. गोपुर। फाटक। ९. घर। मकान। १॰. तीर। वाण। ११. पर्वत। पहाड़। १२. वज्र। १३. जल का घड़ा। १४. चंद्रमा। १५. सूर्य। १६. नदी। १७. स्थल। १८. एक प्रकार का मूढ़ गर्भ। १९. कार्तिकेय का एक अनुचर। २॰. ज्योतिष के २६ योगों में से १९वाँ योग। २१. शेषनाग। २२. अविद्या जो मनुष्य को आनंद और सुख से दूर रखती है। २३. वे बादल जो सूर्य के उदय या अस्त होने के समय उसके सामने आ जायँ।
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परिघट्टन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिघट्टित] तरल पदार्थ को चलाना।
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परिघ-मूढ़-गर्भ  : पुं० [सं० मूढ़-गर्भ कर्म० स०, परिघ-मूढ़ा—गर्भ, उपमि० स०] वह बालक जो प्रसव के समय अर्गल या परिध की तरह अटक जाय।
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परिधर्म  : पुं० [सं० परि√घृ (बहना)+मन्] एक तरह का यज्ञ-पात्र जिसमें मदिरा आदि बनाई जाती थी।
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परिधर्म्य  : पुं० [सं० परिघर्म+यत्] यज्ञ में काम आनेवाला एक प्रकार का पात्र।
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परिघात  : पुं० [सं० परि+हन् (मारना)+घञ्, वृद्धि—न, त] १. मारडालना। हत्या। हनन। २. ऐसा अस्त्र जिससे किसी की हत्या हो सकती हो।
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परिघातन  : पुं० [सं० परि√हन्+णिच्+ल्युट्—अन] मार डालने की क्रिया या भाव। वध। हत्या।
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परिघाती (तिन्)  : वि० [सं० परि√हन्+णिच्+णिनि] हत्यारा।
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परिघृष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या चारों ओर से घिरा हुआ।
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परिघृष्टिक  : पुं० [सं० परिघृष्ट+तन्—इक] एक प्रकार का वानप्रस्थ।
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परिघोष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. जोर का शब्द। घोर आवाज। २. [प्रा० ब० स०] बादल की गरज। मेघ-गर्जन।
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परिचक्रा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] एक प्राचीन नगरी।
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परिचना  : अ०=परचना।
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परिचपल  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक चंचल या चपल।
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परिचय  : पुं० [सं० परि√चि (इकट्ठा करना)+अच्] १. ऐसी स्थिति जिसमें दो व्यक्ति एक दूसरे को प्रायः प्रत्यक्ष भेंट के आधार पर जानते और पहचानते हों। जैसे—पंडित जी से मेरा परिचय रेल में हुआ था। २. किसी व्यक्ति के नाम-धाम या गुण-कर्म आदि से संबंध रखनेवाली सब या कुछ बातें जो किसी को बतलाई जायँ। जैसे—गोष्ठी में आये हुए कवि अपना परिचय स्वयं देंगे। ३. किसी विषय, रचना, साहित्य आदि का थोड़ा-बहुत अध्ययन करने पर उसके संबंध में होनेवाला ज्ञान। जैसे—बंगला साहित्य से उनका कुछ परिचय है। ४. गुण, धर्म शक्ति आदि जतलाने या प्रदर्शित करने की क्रिया या भाव। जैसे—उसने अपनी योग्यता या हठवादिता का खूब परिचय दिया। ५. हठ योग में, नाद की चार अवस्थाओं में से तीसरी अवस्था।
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परिचय-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा पत्र जिसमें किसी का नाम, पता, ठिकाना, पद आदि लिखा होता है और जो किसी को किसी का परिचय देने के लिए दिया जाता है। २. किसी वस्तु अथवा संस्था विषयक वह पत्रक या पुस्तिका जिसमें उस वस्तु की सब बातों अथवा संस्था के उद्देश्यों, कार्य-क्षेत्रों और कार्य-प्रणालियों आदि का परिचय या विवरण दिया हो। (मेमोरैन्डम)
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परिचर  : पुं० [सं० परि√चर् (गति)+अच्] [स्त्री० परिचरी] १. सेवा-शुश्रूषा करनेवाला सेवक। टहलुआ। २. रोगी की सेवा शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति। ३. वह सैनिक जो रथ और रथी की रक्षा करने के लिए रथ पर रहता था। ४. सेनापति। ५. दंडनायक।
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परिचरजा  : स्त्री०=परिचर्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचरण  : पुं० [सं० परि√चर्+ल्युट्—अन] [वि० परिचरणीय, परिचारितव्य] परिचर्या करना।
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परिचरत  : स्त्री० [?] प्रलय। कयामत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचरिता (तृ)  : पुं० [सं० परि√चर्+तृच्] सेवा-शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति।
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परिचरी  : स्त्री० [सं० परिचर+ङीष्] दासी। लौंडी।
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परिचर्चा  : स्त्री० [सं०] किसी तथ्य, विषय, पुस्तक आदि की विशेष तथा विस्तृत रूप से की जानेवाली चर्चा।
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परिचर्जा  : स्त्री०=परिचर्या।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचर्मण्य  : पुं० [सं० परिचर्मन्+यत्] चमड़े का फीता।
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परिचर्या  : स्त्री० [सं० परि√चर्+श, यक्, नि०] १. किसी की की जानेवाली अनेक प्रकार की सेवाएँ। खिदमत। २. रोगी की सेवा-शुश्रूषा। ३. किसी संघटित गोष्ठी या सभा-समिति में होनेवाली ऐसी बात-चीत जिसमें किसी विशिष्ट विषय का विचार या विवेचन होता है। (सिम्पोज़ियम)
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परिचायक  : वि० [सं० परि√चि+ण्वुल्—अक] १. जिसके द्वारा किसी का परिचय प्राप्त होता हो। जैसे—यह चिह्न धर्म-ध्वजता का परिचायक है। २. अच्छी तरह से जतलाने, बतलाने या सूचित करनेवाला। परिचय करानेवाला।
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परिचाय्य  : पुं० [सं० परि√चि+ण्य्त्] १. यज्ञ की अग्नि। २. यज्ञकुंड।
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परिचार  : पुं० [सं० परि√चर्+घञ्] १. सेवा। टहल। खिदमत। २. ऐसा स्थान जहाँ लोग टहलने के लिए जाते हों। ३. ऐसी देखरेख या सेवा-शुश्रूषा जिससे कम अवस्थावाले बच्चों, पौधों, आदि का भरण-पोषण, लालन-पालन तथा अभिवर्द्धन ठीक क्रम तथा ढंग से हो सके। (नर्सिंग) ४. अशक्त, रुग्ण तथा पंगु व्यक्तियों की की जानेवाली टहल। सेवा।
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परिचारक  : वि० [सं० परि√चर्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परिचारिका] जो परिचार करता हो। परिचार करनेवाला। पुं० १. नौकर। सेवक। २. परिचर्या करनेवाला व्यक्ति। ३. देव-मंदिर का प्रबंध करनेवाला व्यक्ति।
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परिचार-गाड़ी  : स्त्री० [सं०+हिं] वह गाड़ी जिस पर घायल, रुग्ण लोगों को उठाकर चिकित्सा-स्थल आदि पर ले जाया जाता है। (एम्ब्युलेंस कार)
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परिचारण  : पुं० [सं० परि√चर्+णिच्+ल्युट्—अन] १. सेवा या टहल करना। २. संग या साथ रहना।
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परिचारना  : सं० [सं० परिचरण] परिचार या सेवा करना।
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परिचारिका  : स्त्री० [सं० परिचारक+टाप्, इत्व] १. दासी। सेविका। परिचार करनेवाली स्त्री।
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परिचारित  : वि० [सं० परि√चर्+णिच्+क्त] जिसका परिचारण किया गया हो या हुआ हो। पुं० १. क्रीड़ा। खेल। २. मनोविनोद।
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परिचारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√चर्+इन्] टहलनेवाला। भ्रमण करने वाला। पुं० टहल या सेवा करनेवाला। सेवक। टहलुआ।
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परिचार्य  : वि० [सं० परि√चर्+ण्यत्] जिसका परिचार या सेवा करना उचित हो। सेव्य।
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परिचालक  : वि० [सं० परि-चल् (चलाना)+णिच्+ण्वुल्—अक] [भाव० परिचालकता] १. परिचालन करनेवाला। २. बहुत बड़ा चालाक।
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परिचालकता  : स्त्री० [सं० परिचालक+तल्—टाप्] परिचालक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिचालन  : पुं० [सं० परि√चल्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिचालित] १. ठीक तरह से गति में लाना। चलाना। जैसे—नौका या रथ का परिचालन। २. उचित रूप में किसी कार्य का निर्वाह करना। संचालन। जैसे—किसी संस्था या सभा अथवा उसके कार्यों का परिचालन करना। ३. हिलाना।
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परिचालित  : भू० कृ० [सं० परि√चल्+णिच्+क्त] जिसका परिचालन किया गया हो। जो चलाया गया हो।
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परिचिंतन  : पुं० [सं० परि√चिन्त् (स्मरण करना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह से चिंतन करना।
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परिचित  : वि० [सं० पर√चि० (चयन करना)+क्त] [भाव० परिचिति] १. जिसका या जिसके साथ परिचय हो चुका हो। जिसे जान लिया गया हो या जिसकी जानकारी हो चुकी हो। जाना-बूझा या समझा हुआ। ज्ञात। जैसे—वे मेरे परिचित हैं। २. जिसे परिचय मिल चुका हो या जानकारी हो चुकी हो। जैसे—मैं उनसे भली-भाँति परिचित हूँ। ३. जिससे जान-पहचान और मेल-जोल हो। जैसे—वहाँ हमारे कई परिचित हैं। ४. इकट्ठा किया हुआ। संचित। पुं० जैन दर्शन के अनुसार वह स्वर्गीय आत्मा जो दोबारा किसी चक्र में आ चुकी हो।
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परिचिति  : स्त्री० [सं० परि√चि+क्तिन्] १. परिचित होने की अवस्था या भाव। वि०=परिचित। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिचित्र  : पुं० [सं० परि+चित्र] दे० ‘चार्ट’।
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परिचित्रित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसे अच्छी तरह से चिह्नित किया गया हो। २. जिस पर हस्ताक्षर किये जा चुके हों। (स्मृति)
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परिचेय  : वि० [सं० परि√चि+यत्] १. जिसका परिचय प्राप्त किया जा सके, या किया जाने को हो। २. जिसका परिचय प्राप्त करना उचित या कर्त्तव्य हो। ३. जिसका चयन (संग्रह या संचय) किया जा सके या किया जाने को हो। संग्राह्य।
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परिचो  : पुं० [सं० परिचय]=परिचय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिच्छद  : पुं० [सं० परि√छद् (ढाँकना)+णिच्+घ, ह्रस्व] १. किसी चीज को चारों ओर से ढकनेवाला कपड़ा। जैसे—तकिये की खोली या गिलाफ। २. शरीर पर पहने जानेवाले कपड़े। पहनावा। पोशाक (ड्रेस) ३. वह विशिष्ट पहनावा जो किसी दल, वर्ग या सेवा विशेष के लोगों के लिए नियत या निर्धारित होता है। (यूनिफार्म) ४. राजचिह्न। ५. राजा-महाराजाओं के साथ रहनेवाले लोग। परिचर। ६. कुटुंब या परिवार के लोग। ६. असबाब। सामान।
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परिच्छन्न  : भू० कृ० [सं० परि√छद्+क्त] १. जो चारों ओर से अथवा अच्छी तरह से ढका हुआ हो। २. छिपा या छिपाया हुआ। ३. जो परिच्छद तथा वस्त्र पहने हुए हो। ४. साफ या स्वच्छ किया हुआ।
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परिच्छा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिच्छित्ति  : स्त्री० [सं० परि√छिद् (काटना)+क्तिन्] १. सीमा। हद। २. विभाग करने के लिए सीमा का निर्धारण। ३. किसी प्रकार का पृथक्करण या विभाजन।
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परिच्छिन्न  : भू० कृ० [सं० परि√छिद्+क्त] १. जिसका परिछेद (अलगाव या विभाजन) किया गया हो। २. जो ठीक प्रकार से मर्यादित या सीमित किया गया हो। ३. घिरा हुआ। ४. छिपा या ढका हुआ।
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परिच्छेद  : पुं० [सं० परि√छिद्+घञ्] १. कोई चीज या बात इस प्रकार अलग-अलग या विभक्त करना कि उसका अच्छापन एक तरफ आ जाय और बुराई दूसरी तरफ। २. बँटवारा। ३. खंड। भाग। ४. ग्रन्थों आदि का ऐसा विभाग जिसमें किसी विषय या उसके किसी अंग का स्वतंत्र रूप से प्रतिपादन, वर्णन या विवेचन किया गया हो। ५. अध्याय। प्रकरण। ६. सीमा। हद। ७. निर्णय।
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परिच्छेदक  : वि० [सं० परि√छिद्+ण्वुल्—अक] १. सीमा निर्धारित करनेवाला। हद बतलाने या मुकर्रर करनेवाला। पुं० १. सीमा। हद। २. नाप, परिमाण आदि।
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परिच्छेनकर  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार की समाधि।
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परिच्छेदन  : पुं० [सं० परि√छिद्+ल्युट्—अन] १. परिच्छेद अर्थात् खंड या विभाग करना। २. अच्छाई और बुराई अलग अलग कर दिखलाना। ३. अध्याय। प्रकरण। ४. निर्णय।
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परिच्छेद्य  : वि० [सं० परि√छिद्+ण्यत्] १. जिसे गिन, तौल या नाप सके। परिमेय। २. जिसे काटकर या और किसी प्रकार अलग कर सकें। ३. जिसका बँटवारा या विभाजन हो सके। विभाज्य। ४. जिसकी परिभाषा ठीक प्रकार से की जा सके।
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परिच्युत  : वि० [सं० परि√च्यु (गति)+क्त] [भाव० परिच्युति] १. सब प्रकार से गिरा हुआ। २. पतित और भ्रष्ट। ३. जाति या बिरादरी से निकाला हुआ। जातिबहिष्कार।
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परिच्युति  : स्त्री० [सं० परि√च्यु+क्तिन्] परिच्युत होने की अवस्था या भाव।
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परिछत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक तरह की बहुत बड़ी छतरी जिसकी सहायता से हवाबाज उड़ते हुए जहाजों से कूदकर नीचे उतरते हैं। (पैराशूट)
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परिछत्रक  : वि० [सं० परिछत्र] परिछत्र की सहायता से उतरनेवाला। जैसे—परिछत्रक सेना।
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परिछन  : पुं०=परछन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिछाहीं  : स्त्री०=परछाईं।
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परिछिन्न  : वि०=परिच्छिन्न।
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परिजटन  : पुं०=पर्यटन।
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परिजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिजनता] १. चारों ओर के लोग विशेषतः परिवार के सदस्य। २. अनुगामी और अनुचर वर्ग।
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परजनता  : स्त्री० [सं० परिजन+तल्+टाप्] १. परिजन होने की अवस्था या भाव। २. अधीनता।
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परिजन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० परि√जन् (उत्पत्ति)+ मन , नि०] १. चंद्रमा। २. अग्नि।
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परिजप्त  : वि० [सं० परि√जप् (जपना)+क्त] मंद स्वर में कहा हुआ।
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परिजय्य  : वि० [सं० परि√जि (जीतना)+यत् नि० या आदेश] जो चारों ओर जय करने में समर्थ हो। सब ओर जीत सकनेवाला। स्त्री० चारों दिशाओं में होनेवाली विजय।
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परिजल्पित  : पुं० [सं० परि√जल्प् (बोलना)+क्त] १. दूसरों के अवगुण, दोष, धूर्तता आदि दिखलाते हुए अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उच्चता, श्रेष्ठता, सच्चाई आदि दिखलाना। २. अवमानित या उपेक्षित नायिका। ३. अवमानित या उपेक्षित नायिका का व्यंग्यपूर्ण शब्दों द्वारा नायक की निर्दयता का वर्णन करना।
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परिजा  : स्त्री० [सं० परि√जन्+ड+टाप्] १. उद्भव। २. जन्म आदि का मूल स्थान।
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परिजात  : वि० [सं० प्रा० स०] जन्मा हुआ। उत्पन्न।
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परिजीवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अपने चारों ओर रहनेवालों विशेषतः अपनी जाति, वर्ग आदि के सदस्यों के न रह जाने पर भी प्राप्त होनेवाला दीर्घ जीवन। २. नियत काल से अधिक चलनेवाला जीवन। (सर्वाइवल, उक्त दोनों अर्थों में)
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परिजीवित  : वि० [सं० प्रा० स०] जो अपने चारों ओर रहनेवालों। आदि के न रहने पर भी बचा हुआ और जीवित हो।
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परिजीवी (विन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो दूसरों की अपेक्षा अधिक समय तक जीता या बचा रहे। (सर्वाइवर)
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परिज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० परि√ज्ञप् (जतलाना)+क्तिन्] १. बात-चीत। कथोपकथन। वर्त्तालाप। २. परिचय। ३. पहचान।
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परिज्ञा  : स्त्री० [सं० परि√ज्ञा (जानना)+अङ्—टाप्] १. ज्ञान। २. निश्चयात्मक, विशुद्ध और संशय-रहित ज्ञान।
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परिज्ञात  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह या विशेष रूप से जाना हुआ।
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परिज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० परि√ज्ञा+तृच्] वह जिसे परिज्ञान हो।
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परिज्ञान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज या बात का ठीक और पूरा ज्ञान। पूर्ण या सम्यक् ज्ञान। २. ऐसा ज्ञान जिसका भरोसा किया जा सके। निश्चयात्मक और सच्चा ज्ञान। ३. अंतर, भेद आदि के संबंध में होनेवाला सूक्ष्म ज्ञान।
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परिज्वा (ज्वन्)  : पुं० [सं० परि√जु (गति)+कनिन्] १. चंद्रमा। २. अग्नि। ३. नौकर। ४. इन्द्र। ५. वह जो यज्ञ करता हो। याजक।
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परिठना  : अ० [?] देखना। उदा०—नारकेलि फल परिठ दुज, चौक पूरी मनि मुत्ति।—चंदबरदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिडीन  : पुं० [सं० परि√डी (उड़ना)+क्त] पक्षी की वृत्ताकार उड़ान। पक्षी का चक्कर काटते हुए उड़ना।
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परिणत  : भू० कृ० [सं० परि√नम् (झुकना)+क्त] [भाव० परिणित] १. बहुत अधिक झुका या झुकाया झुकाया हुआ। बहुत अधिक नत। २. बहुत अधिक नम्र या विनीत। ३. जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन, रूपान्तर या विकार हुआ हो। जैसे—दूध जमाने पर दही के रूप में परिणत हो जाता है। ४. जो ठीक प्रकार से पका, बना या विकसित हुआ हो। ४. पचाया हुआ। ६. समाप्त।
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परिणति  : स्त्री० [सं० परि√नम्+क्तिन्] १. परिणत होने की अवस्था या भाव। २. झुकाव। नति। ३. किसी प्रकार के परिवर्तन या विकार के कारण बननेवाला नया रूप। ४. अच्छी तरह पकने या पचने की क्रिया दशा या भाव। परिपाक। ५. पुष्टता। प्रौढ़ता। ६. वृद्धावस्था। ६. अंत। समाप्ति।
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परिणद्ध  : वि० [सं० परि√नह् (बाँधना)+क्त] १. दूर तक फैला हुआ। लंबा-चौड़ा। विस्तृत। २. बहुत बड़ा, भारी या विशाल।
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परिणमन  : पुं० [सं० परि√नम्+ल्युट्—अन] १. परिवर्तन या रूपांतर होना। ३. किसी रूप में परिणत होना।
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परिणय  : पुं० [सं० परि√नी (ले जाना)+अच्] विवाह। शादी।
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परिणयन  : पुं० [सं० परि√नी+ल्युट्—अन] पाणी-ग्रहण। विवाह।
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परिणहन  : पुं० [सं० परि√नह् (बाँधना)+ल्युट्—अन]=परिणाह।
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परिणाम  : पुं० [सं० परि√नम्+घञ्] १. किसी पदार्थ की पहली या प्रकृत अवस्था, गुण, रूप आदि में होनेवाला ऐसा परिवर्तन या विकार जिससे वह पदार्थ कुछ और ही हो जाय अथवा किसी अन्य अवस्था, गुण या रूप से युक्त प्रतीत होने लगे। एक रूप के स्थान पर होनेवाले दूसरे रूप की प्राप्ति। तबदीली। रूपांतरण। जैसे—घड़ा गीली मिट्टी का, दही जमे हुए दूध का या राख जलती हुई लकड़ी का परिणाम है। विशेष—सांख्य दर्शन के अनुसार परिणाम वस्तुतः प्रकृति का मुख्य गुण या स्वभाव है। सभी चीजें अपनी एक अवस्था या रूप छोड़कर दूसरी अवस्था या रूप धारण करती रहती हैं। यही अवस्थांतरण या रूपांतरण उनका ‘परिणाम’ कहलाती है। जब सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों की साम्यावस्था नष्ट या भग्न हो जाती है, तब उसके परिणाम-स्वरूप सृष्टि के सब पदार्थों की रचना होती है; और जब यही क्रम उलटा चलने लगता है, तब उसके परिणाम के रूप में सृष्टि का नाश या प्रलय होता है। इसी रूपांतरण के आधार पर पतंजलि ने योग-दर्शन में चित्त के ये तीन परिणाम माने हैं—निरोध, समाधि और एकाग्रता। अन्य पदार्थों में भी धर्म, लक्षण और अवस्था के विचार से तीन प्रकार के परिणाम होते हैं। जैसे—मिट्टी के घड़े का बनना धर्म-परिणाम है। देखी-सुनी हुई चीजों या बातों में भूत और वर्तमान का जो अन्तर होता है, वह लक्षण-परिणाम है, और उनमें स्पष्टता तथा अस्पष्टता का जो अन्तर होता है, वह अवस्था-परिणाम है। २. किसी काम या बात का तर्क-संगत रूप में अंत होने पर उससे प्राप्त होनेवाला फल। नतीजा। (रिजल्ट) जैसे—(क) इस वाद-विवाद का परिणाम यह हुआ कि काम जल्दी और अच्छे ढंग से होने लगा। (ख) धर्म, न्याय और सत्य का परिणाम सदा सुख ही होता है। किसी कार्य के उपरांत क्रियात्मक रूप से पड़नेवाला उसका प्रभाव। (कांसीक्वेन्स) जैसे—आपस के लड़ाई-झगड़े का परिणाम यह हुआ कि दोनों घर चौपट हो गये। ४. बहुत-सी बातें सुन-समझकर उनसे निकाला हुआ निष्कर्ष। नतीजा। (कन्क्लुज़न) जैसे—उनकी बातें सुनकर हम इसी परिणाम पर पहुँचे हुए हैं कि वे पूरे नास्तिक हैं। ५. अन्न आदि का पेट में पहुँचकर पचना। परिपाक। ६. किसी पदार्थ का अच्छी तरह पुष्ट, प्रौढ़ या विकसित होकर पूर्णता तक पहुँचना। ६. अंत। अवसान। समाप्ति। ८. वृद्धावस्था। बुढ़ापा। ९. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें किसी कार्य के होने पर उसके साथ उस कार्य के परिणाम का भी उल्लेख होता है। (कम्यूटेशन) जैसे—मुख चंद्र के दर्शनों से मन का सारा संताप शांत हो जाता है। विशेष—यह अलंकार अभेद और सादृश्य पर आश्रित होता है, फिर भी इसमें आरोपण का तत्त्व प्रधान है। परवर्ती साहित्यकारों ने इस अलंकार का लक्षण या स्वरूप बहुत-कुछ बदल दिया है। ‘चंद्रलोक’ के मत से जहाँ उपमेय के कार्य का उपमान द्वारा दिया जाना वर्णित होता है अथवा उपमान का उपमेय के साथ एक रूप होकर कोई काम करने का उल्लेख होता है, वहाँ परिणाम अलंकार होता है। जैसे—यदि कहा जाय—राष्ट्रपति जी ने अपने कर-कमलों से प्रदर्शनी का उद्घाटन किया।’ तो यहाँ इसलिए परिणाम अलंकार हो जायगा कि उन्होंने अपने करों से नहीं, बल्कि कर रूपी कमलों से उद्घाटन किया। रूपक अलंकार से इसमें यह अंतर है कि रूपक में तो उपमेय पर उपमान का आरोप मात्र कर दिया जाता है; परंतु परिणाम अलंकार में यह विशेषता होती है कि उपमेय का काम उपमान से कराकर अर्थ में चमत्कार लाया जाता है। १॰. नाट्य-शास्त्र में कथावस्तु, की वह अंतिम स्थिति जिसमें संघर्ष की समाप्ति होने पर उसका फल दिखलाया जाता है। जैसे—हरिश्चंद्र नाटक के अंत में रोहिताश्व का जी उठना और राजा हरिश्चंद्र का अपनी पत्नी को पाकर फिर से परम सुखी और वैभवशाली होना ‘परिणाम’ कहा जायगा। इसी ‘परिणाम’ के आधार पर नाटकों के दुःखांत और सुखांत नामक दो भेद हुए हैं।
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परिणामक  : वि० [सं० परि√नम्+णिच्+ण्वुल्—अक] जिसके कारण कोई परिणाम हो।
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परिणामदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० परिणाम√दृश् (देखना)+णिनि] १. जिसे होनेवाले परिणाम का पहले से भान हो। २. जो परिणाम या फल का ध्यान रखकर काम करता हो।
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परिणाम-दृष्टि  : स्त्री० [सं० स० त०] वह दृष्टि या शक्ति जिससे मनुष्य किसी काम या बात का परिणाम अथवा फल पहले से जान या समझ लेता है।
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परिणामन  : पुं० [सं० परि√नम्+णिच्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह पुष्ट करना और बढ़ाना। २. जातीय या संघीय वस्तुओं का किया जानेवाला व्यक्तिगत उपभोग। (बौद्ध)
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परिणामवाद  : पुं० [सं० ष० त०] सांख्य का यह मत या सिद्धान्त कि जगत् की उत्पत्ति औऱ विनाश दोनों सदा नित्य परिणाम के रूप में होते रहते हैं।
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परिणामवादी (दिन्)  : वि० [सं० परिणामवाद—इनि] परिणामवाद-संबंधी। पुं० वह जिसका परिणामवाद में विश्वास हो।
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परिणाम-शूल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें भोजन करने के उपरांत पेट में पीड़ा होने लगती है।
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परिणामिक  : वि० [सं० पारिणामिक] १. परिणाम के रूप में होनेवाला। जैसे—दुष्कर्मों का परिणामिक भोग। २. (भोजन) जो शीघ्र या सहज में पच जाय।
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परिणामित्र  : पुं० [सं०] आधुनिक यंत्र-विज्ञान में एक प्रकार का यंत्र जो एक प्रकार की विद्युत-धारा को दूसरे प्रकार की विद्युत-धारा (अर्थात् निम्न को उच्च अथवा उच्च को निम्न) के रूप में परिवर्तित करता है। (ट्रान्सफार्मर)
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परिणामित्व  : पुं० [सं० परिणामिन्+त्व] परिणामी अर्थात् परिवर्तनशील होने की अवस्था या भाव।
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परिणामि-नित्य  : वि० [सं० कर्म० स०] जो नित्य होने पर भी बदलता रहे। जिसकी सत्ता तो स्थिर रहे, पर रूप बराबर बदलता रहे। जो एक रस न होकर भी अवनाशी हो।
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परिणामी (मिन्)  : वि० [सं० परिणाम+इनि] [स्त्री० परिणामिनी] १. परिणाम के रूप में होनेवाला। २. परिणाम-संबंधी। ३. जो बराबर बदलता रहे। रुपांतरित होता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ४. जो परिवर्तन मान या सह ले। ५. परिणाम-दर्शी।
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परिणाय  : पुं० [सं० परि√नी (ले जाना)+घञ्] १. किसी वस्तु को जिस दिशा में चाहे उस दिशा में चलाना। सब ओर चलाना। २. चौसर, शतरंज आदि की गोटियाँ एक घर से दूसरे घर में ले जाना या ले चलना। ३. ब्याह। विवाह।
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परिणायक  : पुं० [सं० परि√नी+ण्वुल्—अक] १. परिणय या विवाह करनेवाला, अर्थात् पति। २. पथप्रदर्शक। अगुआ। नेता। ३. सेनापति।
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परिणायक-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०] बौद्ध चक्रवर्ती राजाओं के सप्तधन अथवा सात कोषों में से एक।
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परिणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बाँधना)+घञ्] १. विस्तार। फैलाव। २. घेरा। परिधि। ३. दीर्घ निश्वास।
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परिणाहवान (वत्)  : वि० [सं० परिणाह+मतुप्, वत्व] फैला हुआ। प्रशस्त। विस्तृत।
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परिणाही (हिन्)  : वि० [सं० परिणाह+इनि] फैला हुआ। प्रशस्त। विस्तृत।
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परिणिंसक  : वि० [सं० परि√निंस् (चूमना)+ण्वुल्—अक] १. खाने या भक्षण करनेवाला। २. चुंबन करनेवाला।
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परिणिंसा  : स्त्री० [सं० परि√निंस्+अ+टाप्] १. भक्षण। खाना। २. चुंबन।
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परिणीत  : भू० कृ० [सं० परि√नी+क्त] [स्त्री० परिणीता] १. जिसका परिणय हो चुका हो। ब्याहा हुआ। विवाहित। २. उक्त के आधार पर, जिसका किसी के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित हो चुका हो। उदा०—तुम परिणीत नहीं इन थोथे विश्वासों से।—पंत। ३. (कार्य) जो पूरा या संपन्न हो चुका हो। संपादित।
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परिणीत-रत्न  : पुं० [सं० कर्म० स०]=परिणायकरत्न। (दे०)
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परिणीता  : वि० [सं० परिणीत+टाप्] (स्त्री) जिसका किसी के साथ विधिवत् परिणय या विवाह हो चुका हो। विवाहिता। स्त्री० विवाहिता स्त्री या पत्नी।
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परिणेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√नी+तृच्] परिणय या विवाह करनेवाला व्यक्ति। पति।
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परिणेया  : वि० [सं० परि√नी+अच्+टाप्] (स्त्री) जो पत्नी या भार्या बनाने के लिए उपयुक्त हो। २. जिसका परिणय या विवाह होने को हो या हो सकता हो।
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परितः  : अव्य० [सं० परि+तस्] १. सब ओर। चारों ओर। २. पूरी तरह से। सब प्रकार से।
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परितच्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परितप्त  : भू० कृ० [सं० परि√तप् (तपना)+क्त] १. अच्छी तरह तपा या तपाया हुआ। बहुत गरम। २. जिसे बहुत अधिक परिताप या दुःख हुआ हो। बहुत अधिक दुःखी और संतप्त।
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परितप्ति  : स्त्री० [सं० परि√तप्+क्तिन्] १. परितप्त होने की अवस्था या भाव। परितात। २. जलन। डाह। ३. बहुत विकट। मानसिक व्यथा। मनस्ताप।
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परितर्कण  : पुं० [सं० परि√तर्क (दीप्ति, विचार)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह तर्क या विचार करना।
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परितर्पण  : पुं० [सं० परि√तृप् (संतुष्ट करना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह प्रसन्न या संतुष्ट करना।
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परिताप  : पुं० [सं० परि√तप्+घञ्] १. बहुत अधिक ताप जिससे चीजें जलने या झुलसने लगे। २. घोर व्यथा। संताप। ३. पछतावा। पश्चात्ताप। ४. डर। भय। ५. कँप-कँपी। कंप। ६. एक नरक का नाम।
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परितापी (पिन्)  : वि० [सं० परि√तप्+णिनि] १. परिताप-संबंधी। २. परिताप उत्पन्न करनेवाला। ३. दे० ‘परितप्त’।
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परितिक्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक तीता। पुं० निंब। नीम।
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परितुलन  : पुं० [सं० परि√तुल् (तुलना करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परितुलित] साहित्य में किसी ग्रंथ की लिखित और मुद्रित प्रतियों और उनके भिन्न संस्करणों आदि का यह जानने के लिए मिलान करना कि उनका ठीक और मूल रूप क्या है अथवा क्या होना चाहिए। (कोल्लेशन) जैसे—सूर सागर का सम्पादन करते समय रत्नाकर जी ने उसकी पचीसों हस्त-लिखित प्रतियों का परितुलन किया था।
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परितुष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परितुष्टि] १. जिसका परितोष हो चुका हो या किया जा चुका हो। अच्छी तरह से तथा सब प्रकार से तुष्ट। २. जो बहुत खुश या प्रसन्न हो।
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परितुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से की जानेवाली तुष्टि। परितोष। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितृप्ति  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परितृप्ति] जो अच्छी तरह तृप्त हो चुका हो। पूर्ण रूप से तृप्त।
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परितृप्त  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परितृप्त करने या होने की अवस्था या भाव।
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परितृप्ति  : पुं०=परितोष।
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परितोलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परितौलित] दे० ‘परितुलन’।
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परितोख  : पुं० [सं० परि√तुष् (प्रीति)+घञ्] १. निश्चिन्तता युक्त सुख जो कामना या साध पूरी होने पर होता है। अच्छी तरह होनेवाला तोष। पूर्ण तृप्ति। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितोषक  : वि० [सं० परि√तुष्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। २. प्रसन्न या खुश करनेवाला।
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परितोषण  : पुं० [सं० परि√तुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. परितुष्ट करने की क्रिया या भाव। ऐसा काम करना जिससे किसी का परितोष हो। २. वह धन जो किसी को परितुष्ट करने के लिए दिया गया हो।
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परितोषवान् (वत्)  : वि० [सं० परितोष+मतुप्, वत्व] जो सहज में परितोष प्राप्त कर लेता है।
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परितोषी (विन्)  : वि० [सं० परितोष+इनि] १. जिसे परितोष हो। २. जल्दी या सहज में परितुष्ट होनेवाला।
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परितोस  : पुं०=परितोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परित्यक्त  : भू० कृ० [सं० परि√त्यज् (छोड़ना)+क्त] जिसे पूर्ण रूप से अथवा उपेक्षापूर्वक छोड़ दिया गया हो। (एबन्डन्ड)
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परित्यक्ता  : पुं० [सं० परित्यक्त+टाप्] त्यागने या छोड़नेवाला। वि० सं० ‘परित्यक्त’ का स्त्री०। स्त्री० वह स्त्री० जिसे उसके पति ने त्याग या छोड़ दिया हो।
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परित्यजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+ल्युट्—अन] परित्याग करने की क्रिया या भाव। त्यागना। छोड़ना।
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परित्यज्य  : वि० [सं० परित्याज्य]=परित्याज्य।
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परित्याग  : पुं० [सं० परि√त्यज्+घञ्] अधिकार स्वामित्व, संबंध, आधिकृत वस्तु, निजी संपत्ति, संबंधी आदि का पूर्ण रूप से तथा सदा के लिए किया जानेवाला त्याग। पूरी तरह से छोड़ देना। (एबन्डनिंग)
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परित्यागना  : स० [सं० परित्याग] पूरी तरह से ये सदा के लिए परित्याग करना।
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परित्यागी (गिन्)  : वि० [सं० परि√त्यज्+घिनुण्] परित्याग करने अर्थात् पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़नेवाला।
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परित्याजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+णिच्+ल्युट्—अन] परित्याग।
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परित्याज्य  : वि० [सं० परि√त्याज्+ण्यत्] जिसका परित्याग करना उचित हो या किया जाने को हो। जो पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़े जाने के योग्य हो।
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परित्रस्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक त्रस्त या डरा हुआ।
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परित्राण  : पुं० [सं० परि√त्रै (बचाना)+ल्युट्—अन] १. कष्ट, विपत्ति आदि से की जानेवाली पूर्ण रक्षा। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। रोम।
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परित्रात  : भू० कृ० [सं० परि√त्रै+क्त] जिसका परित्राण या रक्षा की गई हो। रक्षा-प्राप्त।
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परित्राता (तृ)  : वि० [सं० परि√त्रै+तृच्] जो दूसरों का परित्राण करता हो। पूरी रक्षा करनेवाला।
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परित्रायक  : वि० [सं० परि√त्रै+ण्वुल—अक]=परित्राता।
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परित्रास  : पुं० [सं० परि√त्रस् (डरना)+घञ्] अत्यधिक त्रास।
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परिदंशित  : भू० कृ० [सं० परिदंश, प्रा० स०,+इतच्] जो पूर्ण रूप से अस्त्रों से सुसज्जित हो या किया गया हो।
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परिदत्त  : भू० कृ० [सं० परि√दा (देना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे परिदान मिला हो। २. (धन) जो परिदान के रूप में दिया गया हो।
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परिदर  : पुं० [सं० परि√दृ (फाड़ना)+अप्] मसूड़ों में से खून और मवाद निकलने या बहने का एक रोग। (पायरिया)
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परिदर्शन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अच्छी तरह से किया जानेवाला या होनेवाला दर्शन। पूर्ण दर्शन। २. निरीक्षण। ३. न्यायालय में किसी मुकद्दमे की होनेवाली सुनवाई। (ट्रायल)
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परिदष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√दंश+क्त] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया हो। २. जिसे डंक या दाँत लगा हो। डंका या दाँत से काटा हुआ। दंशित।
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परिदहन  : पुं० [सं० परि√दह् (जलाना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह या पूर्ण रूप से जलाना।
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परिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिदत्त] १. लौटा देना। वापस कर देना। फेर देना। २. अदला-बदली। ३. अमानत लौटाना। ४. आज-कल वह आर्थिक सहायता जो राज्य सरकार व्यक्तियों, संस्थाओं आदि को उद्योगीकरण में प्रोत्साहित करने के लिए देती है। (सब्साइडी)
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परिदाय  : पुं० [सं० पर√दा (देना)+घञ्] सुगंधि। खुशबू।
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परिदायी (यिन्)  : वि० [सं० परि√दा+णिनि] जो ऐसे वर से अपनी कन्या का विवाह करता हो जिसका बड़ा भाई अभी तक कुआँरा हो।
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परिदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत जलन या दाह। २. मानसिक कष्ट। दुःख या संताप।
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परिदिग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] जिस पर कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में लगी या पुती हो।
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परिदीन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक दीन या दुःखी।
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परिदृढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत दृढ़।
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परिदृष्टि  : स्त्री० [सं०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। संदर्श। (परस्पेक्टिव)
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परिदेव  : पुं० [सं० परि√दिव् (गति)+घञ्] रोना-धोना। विलाप।
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परिदेवन  : पुं० [सं० परि√दिव्+ल्युट्—अन] १. कष्ट पहुँचने या हानि होने पर की जानेवाली चीख-पुकार। २. उक्त स्थिति में की जानेवाली फरियाद या शिकायत। परिवाद। (कम्प्लेन्ट)
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परिदेवना  : स्त्री०=परिदेवन।
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परिद्रष्टा (ष्ट्ट)  : वि० [सं० परि√दृश् (देखना)+तृच्] परिदर्शन करनेवाला।
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परिद्वीप  : पुं० [सं० ब० स०] गरुड़ का एक पुत्र।
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परिध  : स्त्री०=परिधि।
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परिधन  : पुं० [सं० परिधान] कमर और उससे निचला भाग ढकने के लिए पहना जानेवाला कपड़ा। अधोवस्त्र।
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परिधर्षण  : पुं० [सं० परि√धृष् (झिड़कना)+ल्युट्—अन] १. आक्रमण। २. अपमान। तिरस्कार। ३. दूषित या बुरा व्यवहार।
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परिधान  : पुं० [सं० परि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. शरीर पर वस्त्र आदि धारण करना। कपड़े ओढ़ना या पहनना। २. वे कपड़े जो शरीर पर धारण किये या पहने जायँ। पोशाक। ३. कमर के नीचे पहनने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—धोती, लुंगी आदि। ४. प्रार्थना स्तुति आदि का अंत या समाप्ति।
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परिधानीय  : वि० [सं० परि√धा+अनीयर्] [स्त्री० परिधानीया] जो परिधान के रूप में धारण किया जा सके पहने जाने के योग्य (वस्त्र)
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परिधाय  : पुं० [सं० परि√धा+घञ्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। ३. वह स्थान जहाँ जल हो।
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परिधायक  : वि० [सं० परि√धा+ण्वुल्—अक] १. ढकने, लपेटने या चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. घेरा। २. चहारदीवारी। प्राचीर।
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परिधायन  : पुं० [सं० परि√धा+णिच्+ल्युट्—अन] १. पहनना। २. पोशाक।
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परिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिधार्य, परिधृत] १. अच्छी तरह किया जानेवाला धारण। २. अपने ऊपर उठाना, लेना या सहना। ३. बचाकर या रक्षित रूप में रखना।
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परिधावन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़ना।
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पिधावी (विन्)  : वि० [सं० परि√धाव् (गति)+णिनि] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़नेवाला। पुं० ज्योतिष में साठ संवत्सरों में से छियालीसवाँ संवत्सर।
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परिधि  : स्त्री० [सं० परि√धा+कि] १. वृत्त की रेखा। २. किसी गोलाकार वस्तु के चारों ओर खिंची हुई वृत्ताकार रेखा। (सरकम्फरेन्स) ३. वह गोलाकार मार्ग जिस पर कोई चीज चलती, घूमती या चक्कर लगाती हो। ४. प्रायः गोलाकार माना जानेवाला कोई ऐसा वास्तविक या कल्पित घेरा, जो दूसरे बाहरी क्षेत्रों से अलग हो। कुछ विशेष लोगों या कार्यों का स्वतंत्र क्षेत्र। वृत्त। (सर्किल) ५. सूर्य या चन्द्रमा के आस-पास दिखाई पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ६. किसी वस्तु की रक्षा के लिए बनाया हुआ घेरा। बड़ा चहारदीवारी। नियत या नियमित मार्ग। ८. वे तीन खूँटे जो यज्ञ-मंडप के आस-पास गाड़े जाते थे। ९. क्षितिज। १॰. परिधान। ११. दे० ‘परिवेश’।
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परिधिक  : वि० [सं०] १. परिधि-संबंधी। २. जिसका कार्य-क्षेत्र किसी विशेष परिधि में हो। जैसे—परिधिक निरीक्षक। (सर्किल इंस्पेक्टर)
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परिधिस्थ  : वि० [सं० परिधि√स्था (ठहरना)+क] जो किसी परिधि में स्थित हो। पुं० १. नौकर। सेवक। २. वह सेना जो रथ और रथी की रक्षा के लिए नियुक्त रहती थी।
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परिधीर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक धीरजवाला। परम धीर।
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परिधूपित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] धूप से अच्छी तरह बसाया या सुगंधित किया हुआ।
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परिधूमन  : पुं० [सं० परिधूम, प्रा० स०,+क्विप्+ल्युट्—अन] १. डकार। २. सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै होती है।
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परिधूसर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. धूल से भरा हुआ। जिसमें खूब धूल लगी हो। २. धूल के रंग का। मटमैला।
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परिधेय  : वि० [सं० परि√धा (धारण)+यत्] जो परिधान के रूप में काम आ सके। जो पहना जा सके या पहने जाने योग्य हो। पुं० १. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। २. अंदर या नीचे पहनने का कपड़ा। जैसे—गंजी, लहँगा या साया।
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परिध्वंस  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से होनेवाला ध्वसं या नाश। सर्व-नाश। २. ध्वंस। नाश
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परिध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका पूरी तरह से ध्वंस या नाश हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिनगर  : पुं० [सं० प्रा० स०] नगर से कुछ हटकर बनी हुई बस्ती जो शासकीय दृष्टि से उसकी सीमा के अंतर्गत मानी जाती हो। (सबर्व)
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परिनय  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनागर  : वि० [सं० पारिनगर] परिनगर-संबंधी। (सबर्बन)
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परिनाम  : पुं०=परिणाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनामी  : वि०=परिणामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी विवाद के संबंध में दिया हुआ पंचों का निर्णय। २. वह पत्र जिसमें पंचों का निर्णय लिखा हुआ हो। पंचाट। (अवार्ड)
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परिनिर्वाण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।
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परिनिर्वाति  : स्त्री० [सं० परि-निर्√वा (गति)+क्तिन्]=परिनिर्वाण।
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परिनिर्वृत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिनिर्वृत्ति] १. जो मुक्त हो चुका हो। छूटा हुआ। २. जिसे मोक्ष मिल चुका हो।
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परिनिर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मोक्ष। २. छुटकारा। मुक्ति।
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परिनिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. चरमसीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास या ज्ञान की पूर्णता।
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परिनिष्ठित  : वि० [सं० परि-नि√स्था+क्त] १. (कार्य) जो पूरा या सम्पन्न किया जा चुका हो। निपटाया हुआ। २. जो किसी काम में पूरी तरह से कुशल या दक्ष हो।
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परिनिष्पन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (काम) जो अच्छी तरह पूरा हो चुका हो। २. जो भाव-अभाव और सुख-दुःख की कल्पना से बिलकुल दूर या परे हो। (बौद्ध)
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परिनैष्ठिक  : वि० [सं० प्रा० स०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट।
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परिन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पद, वाक्य आदि के भाव में पूर्णता लाना जो साहित्य में एक विशिष्ट गुण माना गया है। २. साहित्यिक रचना में उक्त प्रकार का स्थल। ३. नाटक में आख्यान बीज अर्थात् मुख्य कथा की मूलभूत घटना का संकेत करना।
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परिपंच  : पुं०=प्रपंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपंथ  : वि० [सं० परि√पंथ् (गति)+अच्] जो रास्ता रोके हुए हो।
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परिपंथक  : वि० [सं० परि√पंथ्+ण्वुल्—अक] मार्ग या रास्ता रोकने वाला। पुं० १. वह जो प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। २. दुश्मन। शत्रु। उदा०—पार भई परिपंथि गंजिमय।—गोरखनाथ। ३. लुटेरा। डाकू।
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परिपंथिक  : वि०, पुं०=परिपंथक।
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परिपंथी (न्थिन्)  : वि०, पुं० [सं० परि√पंथ्+ णिनि ]=परिपंथक।
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परिपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिपक्वता] १. जो अभिवृद्धि, विकास आदि की दृष्टि से पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—परिपक्व अन्न, फल आदि २. अच्छी तरह पचा हुआ (भोजन)। ३. जिसका उपयुक्त या नियत समय आ गया हो। (मैच्योर) ४. अच्छा अनुभवी, ज्ञाता और बहुदर्शी। ५. कुशल। दक्ष। निपुण।
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परिपक्वता  : स्त्री० [सं० परिपक्व+तल्+टाप्] परिपक्व होने की अवस्था या भाव।
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परिपण  : पुं० [परि√पण् (व्यवहार करना)+घ] मूलधन। पूँजी।
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परिपणन  : पुं० [सं० परि√पण्+ल्युट्—अन] १. बाजी या शर्त लगाना। २. प्रतिज्ञा या वादा करना।
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परिपणित  : भू० कृ० [सं० परि√पण्+क्त] १. (कार्य या बात) जिस पर शर्त लगी या लगाई गई हो। २. (धन) जो बाजी या शर्त में लगाया गया हो। ३. (बात) जिसके संबंध में वादा किया गया हो।
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परिपणित-काल-संधि  : स्त्री० [सं० काल-संधि, ष० त० परिपणित-काल संधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली एक तरह की संधि, जिसमें यह नियत किया जाता था कि कितने-कितने समय तक कौन-कौन सदस्य लड़ेगा।
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परिपणित-देश-संधि  : स्त्री० [सं० देश-संधि, ष० त०, परिपणित-देशसंधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली वह संधि, जिसमें यह नियत होता था कि कौन किस देश पर आक्रमण करेगा।
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परिपणित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह संधि जिसमें कुछ शर्तें स्वीकार की गई हों।
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परिपणितार्थ-संधि  : स्त्री० [सं० अर्थ-संधि, ष० त० परिपणितअर्थसंधि, कर्म० स०] ऐसी संधि जिसके अनुसार किसी को पूर्व निश्चय के अनुसार कुछ काम करना पड़ता हो।
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परिपतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के चारों ओर उड़ना, चक्कर लगाना या मँडराना।
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परिपति  : वि० [सं० परि√पत् (गिरना)+इन्] जो सब का स्वामी हो। पुं० परमात्मा।
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परिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह आधिकारिक पत्र जो विशिष्ट या संबद्ध पदाधिकारियों, सदस्यों आदि को सूचनार्थ भेजा जाता है। गश्ती चिट्ठी। (सरक्यूलर) २. वह पत्र जिसमें किसी को कुछ स्मरण करने के लिए कुछ लिखा गया हो। स्मृतिपत्र। (मैमोरैण्डम)
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परिपथ  : पुं० [सं०] १. किसी वृत्ताकार वस्तु के किनारे-किनारे बना हुआ पथ। २. अनेक नगरों, देशों, स्थलों आदि में पारी-पारी से होते हुए जाने के लिए पहले से नियत किया हुआ मार्ग। (सरकिट)
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परिपर  : पुं० [सं० परि√पृ (पूर्ति)+अप्]=परिपथ।
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परिपवन  : पुं० [सं० परि√पू (पवित्र करना)+ल्युट्—अन] १. अनाज ओसाना या बरसाना। २. अन्न ओसाने का सूप।
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परिपांडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पांडिमान, पांडु+ इमनिच्, परिपांडिमन्, प्रा० स०] बहुत अधिक सफेदी या पीलापन।
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परिपांडु  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिए हुए पीला। २. दुबला-पतला। कृश और क्षीण।
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परिपाक  : पुं० [सं० परि√पच् (पकाना)+घञ्] १. अच्छी तरह या ठीक पकना या पकाया जाना। २. पेट में भोजन अच्छी तरह पचना। ३. किसी विषय या बात की ऐसी पूर्ण अवस्था तक पहुँचना जिसमें कुछ भी त्रुटि न रह जाय। ४. परिणाम। फल। ५. निपुणता। दक्षता।
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परिपाकिनी  : स्त्री० [सं० परिपाक+इनि+ङीष्] निसोथ।
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परिपाचन  : पुं० [सं० परि√पच्+णिच्+ल्युट्—अन] अच्छी तरह पचाना। भली भाँति पचाना।
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परिपाचित  : भू० कृ० [सं० परि√पच्+णिच्+क्त] अच्छी तरह पकाया हुआ।
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परिपाटल  : वि० [सं० प्रा० स०] पीलापन लिए लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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परिपाटलित  : भू० कृ० [सं० परिपाटल+क्विप्+क्त] परिपाटल रंग में रँगा हुआ।
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परिपाटि  : स्त्री० [सं० परि√पट् (गति)+णिच्+ इन्]= परिपाटी।
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परिपाटी  : स्त्री० [सं० परिपाटि+ङीष्] १. किसी जाति, समाज आदि में कोई काम करने का कोई विशिष्ट बँधा हुआ ढंग अथवा शैली। २. विशिष्ट अवसर पर कोई विशिष्ट काम करने की प्रथा। ३. उक्त प्रकार के काम करने का ढंग या प्रथा। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अन्तर जानने के लिए देखें ‘प्रथा’ का विशेष।
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परिपाठ  : पुं० [सं० परि√पठ् (पढ़ना)+घञ्] १. वेदों का पुनर्पठन। २. विस्तार के साथ उल्लेख या पाठ करना।
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परिपार (रि)  : स्त्री० [सं० पाली=मर्यादा]। उदा०—किहिं नर किहिं सर राखियै खैंर बठै परिपारि।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपार्श्व  : वि० [सं० प्रा० स०] पार्श्व या बगल का। बहुत पास का। पुं० १. पार्श्व। २. समीप्य।
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परिपालक  : वि० [सं० परि√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+ ण्वुल—अक] परिपालन करनेवाला।
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परिपालन  : पुं० [सं० परि+पाल+णिच्+ल्युट्—अन] १. रक्षा। बचाव। २. बहुत ही सावधानी से किया जानेवाला पालन-पोषण या लालन-पालन।
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परिपालना  : स्त्री० [सं० परि√पाल्+णिच्+युच्—अन] रक्षण। बचाव। स० [सं० परिपालन] परिपालन करना।
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परिपालनीय  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका परिपालन करना या होना चाहिए।
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परिपालयिता (तृ)  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+ अनीयर्] जिसका परिपालन करनेवाला व्यक्ति। परिपालक।
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परिपाल्य  : वि० [सं० परि√पाल्+ण्यत्] जिसका परिपालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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परिपिंजर  : वि० [सं० प्रा० स०] हलके लाल रंग का।
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परिपिच्छ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का आभूषण, जो मोर की पूँछ के परो का बना होता था।
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परिपिष्टक  : पुं० [सं० परि√पिष् (चूर्ण करना)+क्त+ कन्] सीसा।
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परिपीड़न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। बहुत कष्ट देना। २. अच्छी तरह दबाना या पीसना। ३. अनिष्ट, अपकार या हानि करना।
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परिपीड़ित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक पीड़ित किया गया हो या हुआ हो।
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परिपोवर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधि मोटा या स्थूल।
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परिपुष्करा  : स्त्री० [सं० प्रा० ब० स०] गोडुंब ककड़ी। गोंडुबा।
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परिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका पोषण भली भाँति हुआ हो। पूर्ण रूप से पुष्ट।
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परिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिपूजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्यक् प्रकार से किया जानेवाला पूजन या उपासना।
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परिपूत  : वि० [सं० प्रा० स०] अति पवित्र। पुं० ऐसा अन्न जिसमें से कूड़ा-करकट, भूसी आदि निकाल दी गई हो। साफ किया हुआ अन्न।
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परिपूरक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. परिपूर्ण करनेवाला। भर देनेवाला। २. धन-धान्य आदि से युक्त या संपन्न करनेवाला। ३. पूरा। संपूर्ण। सारा।
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परिपूरणीय  : वि० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण किये जाने के योग्य।
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परिपूरन  : वि०=परिपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपूरित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह या पूरा-पूरा भरा हुआ। लबालब। २. पूरा या समाप्त किया हुआ।
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परिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सब प्रकार से पूर्ण हो। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ। ३. जो पूरा या समाप्त हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिपूर्णेन्दु  : पुं० [सं० परिपूर्ण-इंदु, कर्म० स०] सोलहों कलाओं से युक्त चंद्रमा। पूर्णिमा का पूरा चाँद।
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परिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण होने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिपूर्णता।
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परिपृच्छक  : वि० [सं० परिप्रच्छक] जिज्ञासा या प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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परिपृच्छनिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जिसके संबंध में वाद-विवाद किया जाय। वाद का विषय।
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परिपृच्छा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. जिज्ञासा।
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परिपेल  : पुं० [सं० परि√पेल् (कंपन)+अच्] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।
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परिपेलव  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर तथा सुकुमार। पुं० केवटी मोथा।
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परिपोट (क)  : पुं० [सं० परि√पुट् (फोड़ना)+घञ्] [परिपोट+कन्] कान का एक रोग जिसमें उसकी त्वचा गल या छिल जाती है।
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परिपोटन  : पुं० [सं० परि√पुट्+ल्युट्—अन] किसी चीज का छिलका अथवा ऊपरी आवरण हटाना।
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परिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिपोषित] अच्छी तरह किया जानेवाला पोषण। भली भाँति पुष्ट करना।
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परिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई बात जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न। (एन्क्वायरी)
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परि-प्रश्नक  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विशेष रूप से किसी विशिष्ट विभाग या विषय से संबंध रखनेवाली बातों की पूछ-ताछ की जाती है। (एन्क्वायरी आफिस)
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परिप्रेक्ष्य  : पुं० [सं०] चित्रकला में, दृश्यों, पदार्थों, व्यक्तियों का ऐसा अंकन या चित्रण जिसमें उनका पारस्परिक अन्तर ठीक उसी रूप में दिखाई देता हो, जिस रूप में वह साधारणतः आँखों से देखने पर दिखाई देता है। (पर्स्पेक्टिव)
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परिप्रेषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिप्रेषित] १. चारों ओर भेजना। २. किसी को दूत या हरकारा बनाकर कहीं भेजना। २. देश-निकाला। निर्वासन। ३. परित्याग।
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परिप्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. निकाला हुआ। निष्काषित। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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परिप्रेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० प्रा० स०] जो भेजा जाने को हो या भेजे जाने के योग्य हो। पुं० नौकर। सेवक।
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परिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्] १. तैरता या बहता हुआ। २. जो गति में हो। ३. हिलता-काँपता हुआ। पुं० १. तैरना। २. पानी की बाढ़। ३. अत्याचार। ४. नाव। नौका।
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परिप्लावित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जो बाढ़ के कारण जलमग्न हो चुका हो।
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परिप्लुत  : वि० [सं० परि√प्लु+क्त] १. जिसके चारों ओर जल ही जल हो। २. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। ३. काँपता या हिलता हुआ। पुं० कहीं पहुँचने के लिए उछलकर आगे बढ़ने की क्रिया। छलाँग।
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परिप्लुता  : स्त्री० [सं० परिप्लुत+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. ऐसी योनि जिसमें मैथुन या मासिक रजःस्राव के समय पीड़ा होती हो। (वैद्यक)
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परिप्लुष्ट  : वि० [सं० परि√प्लुष् (दाह)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. झुलसा हुआ।
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परिप्लोष  : पुं० [सं० परि√प्लुष्+घञ्] १. तपना। ताप। २. जलन। दाह। ३. शरीर के अन्दर का ताप।
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परिफुल्ल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह खिला हुआ। खूब खिला हुआ। २. अच्छी तरह खुला हुआ। ३. बहुत अधिक प्रसन्न। ४. जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। जिसे रोमांच हुआ हो।
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परिबंधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिबद्ध] ऐसा बंधन जिसमें चारों ओर से किसी को जकड़ा जाय।
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परिबर्ह  : पुं० [सं० परि√बर्ह् (दान)+घञ्] १. राजाओं के हाथी-घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि राजचिह्न। राजा का साज-सामान। ३. घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजें। घर का सामान। ४. धन-सम्पत्ति। दौलत।
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परिबर्हण  : पुं० [सं० परि√बर्ह्+ल्युट्—अन] १. पूजा। उपासना। २. सब प्रकार से होनेवाली वृद्धि। ३. सम्पन्नता। समृद्धि।
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परिबल  : पुं० [सं० प्रा० स०] यंत्रों आदि का वह बल या शक्ति जिसकी प्रेरणा से उसका कोई अंग या पहिया किसी अक्ष या बिन्दु पर घूमता या चक्कर लगाता है। (मोमेन्टम)
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परिबाधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ी या विकट बाधा। २. कष्ट। पीड़ा। ३. परिश्रम। ४. थकावट। श्रांति।
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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
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परिबेख  : पुं०=परिवेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिबेठना  : स० [सं० प्रतिवेष्ठन] आच्छादित करना। लपेटना। ढकना। उदा०—ग्रीष्म द्वैपहरी मिस जोन्ह महा विष ज्वालन सों परिबेठी।—देव।
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परिबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्ञान। २. तर्क। ३. वे प्रतिबंध या विघ्न जो दुर्बल चित्तवाले साधकों को समाधिस्थ नहीं होने देते।
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परिबोधन  : पुं० [सं० परि√बुद्ध+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिबोधनीय] १. ठीक प्रकार से बोध करना। २. दंड की धमकी देकर कोई विशेष कार्य करने से रोकना। चेतावनी देना। ३. चेतावनी।
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परिबोधना  : स्त्री० [सं० परि√बुध्+णिच्+युच्—अन, टाप्] चेतावनी।
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परिभंग  : पुं० [सं० प्रा० स०] टुकड़े-टुकड़े करना।
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परिभक्ष  : वि० [सं० परि√भक्ष् (खाना)+अच्] परिभक्षण करनेवाला।
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परिभक्षण  : पुं० [सं० परि√भक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभक्षित] १. पूरी तरह से खाना। २. खूब खाना।
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परिभक्षा  : स्त्री० [सं० परि√भक्ष्+अ+टाप्] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक प्रकार का विधान।
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परिभर्त्सन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली भर्त्सना।
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परिभव  : पुं० [सं० परि√भू (होना)+अप्] अनादर। अपमान। तिरस्कार। उदा०—चिर परिभव से श्रेष्ठ है मरण।—पंत।
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परिभवनीय  : वि० [सं० परि√भू+अनीयर्] १. जो अनादर या अपमान का पात्र हो। २. जिसकी पराजय निश्चित-प्राय हो।
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परिभवी (विन्)  : वि० [सं० पर√भू+इनि] दूसरों का अनादर या अपमान करनेवाला।
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परिभाव  : पुं० [सं० परि√भू+घञ्] १. अनादर। अपमान। परिभव। २. मात करना। हराना। पराभव।
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परिभावन  : पुं० [सं० परि√भू+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभावित] १. मिलाप। संयोग। मिलन। २. चिंता। फिक्र।
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परिभावना  : स्त्री० [सं० परि√भू+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. चिन्तन। विचार। २. चिंता। फिक्र। ३. साहित्य में ऐसा वाक्य या पद जिससे अतिशय उत्सुकता उत्पन्न हो।
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परिभावित  : भू० कृ० [सं० परि√भू+णिच्+क्त] १. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। २. व्याप्त। ३. जिस पर विचार किया जा चुका हो। विचारित।
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परिभावी (विन्)  : वि० [सं० परि√भू+णिच्+णिनि] अनादर, अपमान या तिरस्कार करनेवाला।
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परिभावुक  : वि०=परिभावी।
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परिभाषक  : वि० [सं० परि√भाष् (बोलना)+ण्वुल—अक] १. निंदा के द्वारा किसी का अपमान करनेवाला। २. निंदक।
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परिभाषण  : पुं० [सं० परि√भाष्+ल्युट्—अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. दोषारोपण तथा निंदा करना। ३. नियम।
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परिभाषा  : स्त्री० [सं० परि√भाष्+अ+टाप्] १. बात-चीत। २. निंदा। ३. व्याकरण में वह व्याख्यापक सूत्र जो पाणिनी के सूत्रों के साथ रहता और उनके प्रयोग की रीति बतलाता है। ४. किसी वाक्य में आये हुए पद या शब्द का अर्थ अथवा आशय निश्चित रूप से स्पष्ट करने की क्रिया या प्रकार। ५. ऐसा कथन या वाक्य जो किसी पद या शब्द का अर्थ या आशय स्पष्ट रूप से बतलाता या व्यक्त करता हो। व्याख्या से युक्त अर्थापन। (डेफिनेशन) ६. ऐसा शब्द जो किसी विज्ञान या शास्त्र में किसी विशिष्ट अर्थ में चलता या प्रयुक्त होता हो। परिभाषिक शब्द। (टेक्निकल टर्म)
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परिभाषित  : भू० कृ० [सं० परि√भाष्+क्त] (शब्द या पद) जिसकी परिभाषा की गई या हो चुकी हो। (डिफाइन्ड)
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परिभाषी (षिन्)  : वि० [सं० परि√भाष्+णिनि] बोलने या भाषण करनेवाला।
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परिभाष्य  : वि० [सं० परि√भाष्+ण्यत्] १. जो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हो या कहा जाने को हो। २. जिसकी परिभाषा की जा रही हो या की जाने को हो।
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परिभिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. टूटा-फूटा या फटा हुआ। २. विकृत।
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परिभुक्त  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (भोगना)+क्त] जिसका परिभोग किया गया हो या हो चुका हो।
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परिभुग्न  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (चूर्ण करना)+क्त] टेढ़ा।
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परिभू  : वि० [सं० परि√भू+क्विप्] १. जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किये हुए हो। २. नियम, बंधन आदि में रहनेवाला। ३. नियामक। परिचालक।
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परिभूत  : भू० कृ० [सं० परि√भू+क्त] [भाव० परिभूति] १. जिसका परिभव हुआ हो। २. अनादृत। तिरस्कृत। ३. हारा हुआ। परास्त।
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परिभूति  : स्त्री० [सं० परि+भू+क्तिन्] अपमानित होने या हारने की अवस्था या भाव।
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परिभूषण  : पुं० [सं० परि√भूष् (सजाना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभूषित] १. अच्छी तरह से भूषित करना। अलंकृत करना। २. प्राचीन भारत में, वह संधि जो आक्रमक को अपने देश का राजस्व देकर की जाती थी।
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परिभूषित  : भू० कृ० [सं० परि√भूष्+क्त] जिसका परिभूषण किया गया हो या हुआ हो।
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परिभेद  : पुं० [सं० परि√भिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह से भेदन करना। २. शास्त्रों आदि से किया जानेवाला आघात। ३. उक्त प्रकार के आघात से होनेवाला क्षत। घाव। जखम।
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परिभेदक  : वि० [सं० परि√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने अर्थात् काटने या फाड़नेवाला। २. गहरा घाव करनेवाला। पुं० यथेष्ट क्षत या घात करनेवाला शस्त्र।
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परिभोक्ता (क्तृ)  : वि० परि√भुज्+तृच्] १. परिभोग करनेवाला। २. दूसरे के धन का उपभोग करनेवाला। पुं० गुरु के धन का उपभोग करनेवाला व्यक्ति।
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परिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिभोग्य] १. बहुत अधिक किया जानेवाला भोग। २. स्त्री० के साथ किया जानेवाला मैथुन। संभोग।
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परिभ्रंश  : पुं० [सं० परि√भ्रंश् (अधःपतन)+घञ्] १. गिरना या गिराना। पतन। स्खलन। २. पलायन। भगदड़।
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परिभ्रम  : पुं० [सं० परि√भ्रम (घूमना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। पर्यटन। २. भ्रम। ३. सीधी तरह से कोई बात न कहकर उसे घुमाफिराकर चक्करदार ढंग या सांकेतिक रूप से कहना। जैसे—‘नाक पर मक्खी न बैठने देना।’ के बदले में कहना—सूँघने की इन्द्रिय पर घर उड़ते फिरने वाले कीड़े या पतंगे को आसन न लगाने देना।
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परिभ्रमण  : पुं० [सं० परि√भ्रम्+ल्युट्—अन] १. चारों ओर घूमना। २. विज्ञान में, किसी एक वस्तु का किसी दूसरी वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। (रोटेशन) जैसे—चंद्रमा पृथ्वी का और पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करता है। ३. घेरा। परिधि।
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परिभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। च्युत। पतित। २. स्खलित। भागा हुआ।
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परिभ्रामी (मिन्)  : वि० [सं० परि√भ्रम्+णिनि] परिभ्रमण करनेवाला।
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परिमंडल  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिमंडलता] १. गोल। वर्तुलाकार। २. जो तौल में एक परमाणु के बराबर हो। पुं० १. चक्कर। २. घेरा। विशेषतः वृत्ताकार घेरा। परिधि। ३. एक तरह का जहरीला कीड़ा। ३. चंद्रमा अथवा सूर्य के चारों ओर की प्रकाशमान वृत्ताकार रेखा। ४. चंद्रमा या सूर्य का प्रभामंडल। (कारोना)
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परिमंडल कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुष्ठ का एक भेद।
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परिमंडलता  : स्त्री० [सं० परिमंडल+तल्+टाप्] गोलाई।
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परिमंडलित  : भू० कृ० [सं० परिमंडल+इतच्] चारों ओर से गोल किया हुआ। गोलाकृति बनाया हुआ।
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परिमंथर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक मंथर।
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परिमंद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक मंद बुद्धि। २. बहुत ही शिथिल या सुस्त।
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परिमन्यु  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसे बहुत अधिक क्रोध आता हो। क्रोधी स्वभाव का। गुस्सेवर।
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परिमर  : पुं० [सं० परि√मृ (मरना)+अप्] १. पूर्ण नाश। २. किसी के पूर्ण नाश के लिए किया जानेवाला एक तांत्रिक प्रयोग। ३. वायु।
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परिमर्द्द  : पुं० [सं० परि√मृद् (मर्दन)+घञ्] बहुत अधिक या अच्छी तरह से किया जानेवाला मर्दन।
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परिमर्श  : पुं० [सं० परि√मृद् (छूना, विचारना)+घञ्] १. छू जाना। लग जाना। २. लगाव होना। ३. अच्छी तरह किया जानेवाला विचार। परामर्श।
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परिमर्ष  : पुं० [सं० परि√मृष् (सहना)+घञ्] १. ईर्ष्या। २. कुढ़न। ३. क्रोध।
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परिमल  : पुं० [सं० परि√मल् (धारण)+अच्] १. अच्छी तरह मलना। २. शरीर में सुगंधित द्रव्य मलना या लगाना। ३. उक्त प्रकार से शरीर में मले या लगाये हुए पदार्थों से निकलनेवाली सुगंध। ४. खुशबू। सुगंध। सुवास। ५. पुष्पों आदि से निकलनेवाली वह सुगंध जो चारों ओर दूर तक फैलती हो। ६. मैथुन। संभोग। ६. पंडितों या विद्वानों की मंडली या समुदाय।
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परिमलज  : वि० [सं० परिमल√जन् (उत्पन्न होना)+ ड] परिमल अर्थात् मैथुन से प्राप्त होनेवाला (सुख)।
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परिमलित  : भू० कृ० [सं० परिमल+इतच्] फूलों आदि की सुगंध से सुगंधित किया हुआ।
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परिमा  : स्त्री० [सं० परि√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. सीमा। हद। २. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र की सीमा सूचित करनेवाली रेखा। (बाउंड)
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परिमाण  : पुं० [सं० परि√मा+ल्युट्—अन] १. गिनने, तौलने, मापने आदि पर प्राप्त होनेवाला फल। २. नाप, जोख तौल आदि की दृष्टि से किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, भार, घनत्व विस्तार आदि। मान। (क्वान्टिटी) ३. चारों ओर का विस्तार। घेरा।
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परिमाणक  : पुं० [सं० परिमाण+कन्] १. परिमाण। २. तौल। भार।
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परिमाण-मंडल  : पुं० [सं०] भूगर्भ-शास्त्र में पृथ्वी के तीन मुख्य पटलों या विभागों में बीच का पटल या विभाग जो अनेक प्रकार की धातु-मिश्रित चट्टानों का बना हुआ गरम और ठोस है और जिसके ऊपरी पटल पर मनुष्य बसते और वनस्पतियाँ उगती हैं। (बैरिस्फीयर)
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परिमाणी (णिन्)  : वि० [सं० परिमाण+इनि] परिमाण युक्त। परिमाण विशिष्ट।
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परिमाता (तृ)  : वि० [सं० परि√मा+तृच्] परिमाण का पता लगानेवाला। परिमाण स्थिर करनेवाला।
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परिमाथी (थिन्)  : वि० [सं० परि√मथ् (मथना)+ णिनि] कष्ट देनेवाला।
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परिमान  : पुं०=परिमाण।
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परिमाप  : पुं० [सं० परि√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. लंबाई, चौड़ाई की नाप या लेखा। (डाइमेंशन) ३. वह उपकरण जिससे कोई चीज मापी या नापी जाय। (स्केल) ४. ज्यामिति में किसी आकृति, क्षेत्र या तल को चारों ओर से घेरनेवाली बाहरी रेखा अथवा ऐसी रेखा की लंबाई या विस्तार। (परिमीटर)
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परिमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी चीज के चारों ओर बना हुआ पथ या मार्ग। परिपथ।
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परिमार्गन  : पुं० [सं० परि√मार्ग (खोजना)+ल्युट्—अन ] १. टोह या पता लगाने के लिए चारों ओर जाना। २. अन्वेषण। ३. मन-बहलाव या सैर-सपाटे के लिए घूमना। (एक्सकर्शन)
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परिमार्गी (गिन्)  : वि० [सं० परि√मार्ग+णिनि] टोह या पता लगाने वाला।
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परिमार्जक  : वि० [सं० परि√मृज् (शुद्धि करना)+ ण्वुल्—अक] परिमार्जन करनेवाला।
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परिमार्जन  : पुं० [सं० परि√मृज्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमार्जित] १. साफ करने के लिए अच्छी तरह धोना। २. अच्छी तरह साफ करना। ३. साहित्य में, उनकी त्रुटियों, कमियों आदि को दूर करना और इस प्रकार उन्हें उज्जवल बनाना। ४. भूलें आदि सुधारना। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार की मिठाई जो शहद में पागकर बनाई जाती थी।
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परिमार्जित  : भू० कृ० [सं० परि√मृज्+णिच्+क्त] जिसका परिमार्जन किया गया हो या हुआ हो। स्वच्छ किया या सुधारा हुआ।
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परिमित  : वि० [सं० परि√मा+क्त] [भाव० परिमिति] १. जो मापा जा चुका हो। २. परिमाण या मात्रा में जो किसी विशिष्ट विंदु, संख्या आदि से कम हो, कम किया गया हो अथवा उससे अधिक न बढ़ सकता हो। (लिमिटेड)
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परिमितकथी (थिन्)  : वि० [सं० परिमित√कथ् (कहना)+णिनि] कम बोलनेवाला। नपे-तुले शब्द या बातें कहनेवाला। अल्प-भाषी।
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परिमितायु (स्)  : वि० [सं० परिमित-आयुस्, ब० स० ] जिसकी आयु परिमिति अर्थात् थोड़ी हो।
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परिमिताहार  : पुं० [सं० परिमिति-आहार, ब० स०] अल्प भोजन। कम खाना। वि० कम भोजन करनेवाला। अल्पाहारी।
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परिमिति  : स्त्री० [सं० परि√मा+क्तिन्] १. परिमिति होने की अवस्था या भाव। २. परिमाण। ३. सीमा। हद। ४. क्षितिज। ५. प्रतिष्ठा। मर्यादा।
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परिमिलन  : पुं० [सं० परि√मिल् (मिलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमिलित] १. मिलन। २. संपर्क। ३. स्पर्श। ४. संयोग।
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परिमीठ  : भू० कृ० [सं० परि√मिह् (सींचना)+क्त] मूत्र से सिक्त।
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परिमुक्त  : वि० [सं० परि√मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० परिमुक्ति] बिलकुल स्वतन्त्र।
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परिमृज्य  : वि० [सं० परि√मृज्+क्विप्] १. परिमार्जित किये जाने के योग्य। २. जिसका परिमार्जन होने को हो।
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परिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ किया हुआ। ३. अधिकार में किया या लिया हुआ। अधिकृत। ४. (व्यक्ति) जिससे परामर्श किया गया हो। ५. (विषय) जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ६. आलिंगित।
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परिमृष्टि  : स्त्री० [सं० परिमृज्+क्तिन्] परिमृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिमेय  : वि० [सं० परि√मा+यत्] १. जिसका परिमाण जाना जा सके अथवा जाना जाने को हो। २. घनत्व, मान, विस्तार, संख्या आदि में कम।
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परिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण मोक्ष। निर्वाण। २. परित्याग। छोड़ना। ३. सब को मोक्ष देनेवाले, विष्णु। ४. मल-त्याग करना। हगना।
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परिमोक्षण  : पुं० [सं० परि√मोक्ष (छोड़ना)+ल्युट्—अन ] १. मुक्त करना या होना। २. मुक्ति या मोक्ष देना। ३. परित्याग करना। छोड़ना। ४. मल-त्याग करना। हगना। ५. हठयोग की भाँति धौति क्रिया से आँतें साफ करना।
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परिमोष  : पुं० [सं० परि√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. डाका।
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परिमोषक  : पुं० [सं० परि√मुष्+ण्वुल्—अक] १. चोर। डाकू।
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परिमोषण  : पुं० [सं० परि√मुष्+ल्युट्—अन] चुराने या डाका डालने का काम। किसी को मूसना; अर्थात् उसका सब-कुछ ले लेना।
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परिमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० परि√मुष्+णिनि] १. चोर। २. डाकू।
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परिमोहन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्मोहन। (दे०)
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परिम्लान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. निस्तेज। हतप्रभ।
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परियंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियंत  : अव्य०=पर्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियज्ञ  : पुं० [सं० ब० स०] किसी बड़े यज्ञ के पहले या पीछे किया जानेवाला छोटा यज्ञ
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परियत्त  : भू० कृ० [सं० परि√यत् (प्रयत्न)+क्त] चारों ओर से घिरा हुआ।
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परियष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० परि√यज् (देवपूजन)+तृच्] अपने बड़े भाई से पहले सोम-याग करनेवाला व्यक्ति।
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परिया  : पुं० [तामिल परेंयान] दक्षिण भारत की एक प्राचीन अछूत या अस्पृश्य जाति। वि० १. अछूत। अस्पृश्य। २. क्षुद्र। तुच्छ। स्त्री० [देश०] वे लकड़ियाँ जिससे ताना ताना जाता है।
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परियाण  : पुं० [सं० परि√या (जाना)+ल्युट्—अन] १ चारों ओर घूमना। २. पर्यटन।
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परियाणिक  : पुं० [सं० परियाण+ठन्—इक्] १. वह जो परियाण या पर्यटन कर रहा हो। २. वह गाड़ी जिस पर बैठकर घूमा-फिरा जाता हो।
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परियात  : वि० [सं० परि√या+क्त] १. जो घूम-फिरकर लौट आया हो।
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परियाना  : अ० [सं० प्र-याति] जाना। उदा०—केन कार्य परियासि कुत्र।—प्रिथीराज। स० [?] अलग अलग करना। छाँटना।
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परियार  : पुं० [देश०] बिहारी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की एक उपजाति। २. मदरास में बसनेवाली एक छोटी जाति।
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परियुक्ति  : स्त्री० [सं० परि√युज् (लगाना)+क्तिन्] १. काम, बात, समय आदि निश्चित या नियत करने अथवा इनके लिए किसी व्यक्ति को नियत या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात के लिए कोई किसी से वचन-बद्ध हो। ठहराव। (एंगेजमेंट)
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परियुद्धक  : पुं० [सं०] युद्ध-काल में वह देस जो अपने हितों के रक्षार्थ दूसरे देश या देशों से लड़ रहा हो। (बेलीगरेन्ट)
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परियोजना  : स्त्री० [सं०] कार्य-रूप में लायी जानेवाली योजना के संबंध में नियमित और व्यवस्तिति रूप से स्थिर किया हुआ विचार और स्वरूप। (स्कीम)
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परिरंभ, परिरंभण  : पुं० [सं० परि√रभ् (मलना)+घञ्, मुम्] [सं० परि√रभ्+ल्युट्—अन] [वि० परिरंभित, परिरंभी] अच्छी तरह से गले लगाना। कसकर गले मिलना। गाढ़ अलिंगन।
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परिरंभना  : स० [सं० परिरंभ+ना (प्रत्य०)] किसी को गले से लगाना। आलिंगन करना।
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परिरक्षक  : वि० [सं० परि√रक्ष् (बचाना)+ण्वुल्—अक] जो सब ओर से रक्षा करता हो। हर तरफ से बचानेवाला।
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परिरक्षण  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिरक्षित] हर तरह से रक्षा करना।
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परिरथ्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] चौड़ा रास्ता जिस पर रथ चलते थे।
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परिरब्ध  : वि० [सं० परि√रभू+क्त] १. घिरा हुआ। गले लगाया हुआ।
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परिरमित  : वि० [सं० परिरत] (काम, क्रीड़ा आदि में) लीन।
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परिराटी (टिन्)  : वि० [सं० परि√रट् (रटना)+घिनुण्] १. चीखने-चिल्लानेवाला। २. कर्कश ध्वनि करनेवाला।
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परिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कला, शिल्प आदि के क्षेत्र में, वह कलापूर्ण रेखा-चित्र जिसे आधार मानकर तथा जिसके अनुकरण पर कोई काम किया या रचना खड़ी की जाय। भाँत। २. उक्त के अनुकरण पर बनी हुई चीज। (डिज़ाइन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—शहरों में कपड़ों और मकानों के नये-नये परिरूप देखने में आते हैं।
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परिरूपक  : पुं० [सं० परि√रूप् (रूपान्वित करना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] वह शिल्पी जो विभिन्न वस्तुओं के नये-नये परिरूप बनाता हो। (डिज़ाइनर)
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परिरेखा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी तिकोने, चौकोर अथवा बहुभुजी क्षेत्र के सब ओर पड़नेवाली रेखा। (पेरिफेरी) जैसे—किसी टापू या पहाड़ की परिरेखा।
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परिरोध  : पुं० [सं० परि√रुध् (रोकना)+घञ्] चारों ओर से छेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलंघन  : पुं० [सं० परि√लङ्घ (लाँघना)+ल्युट्—अन] लाँघना।
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परिलघु  : वि० [सं० अत्या० स०] १. बहुत छोटा। २. बहुत जल्दी पचनेवाला। लघुपाक।
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परिलिखन  : पुं० [सं० परि√लिख् (लिखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिलिखित] घिस या रगड़ कर किसी चीज को चिकना बनाना।
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परिलिखित  : भू० कृ० [सं० परि√लिख्+क्त] घिस या रगड़कर चिकना किया हुआ।
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परिलीढ़  : भू० कृ० [सं० परि√लिह् (चाटना)+क्त] अच्छी तरह चाटा हुआ
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परिलुप्त  : भू० कृ० [स० परि√लुप् (काटना)+क्त] १. जो लुप्त हो चुका हो। खोया हुआ। २. क्षतिग्रस्त।
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परिलुप्त-संज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी संज्ञा न रह गई हो। बेहोश।
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परिंलूत  : भू० कृ० [सं० परि√लू+क्त] कटा अथवा काटकर अलग किया हुआ।
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परिलेख  : पुं० [सं० परि√लिख्+घञ्] १. चित्र का ढाँचा। रेखा-चित्र। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. चित्र अंकित करने की कूँची या कलम। ४. उल्लेख। वर्णन। ५. बड़े अधिकारियों के पास भेजा जानेवाला विवरण। (रिटर्न)
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परिलेखन  : पुं० [सं० परि√लिख्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना। २. लिखना। ३. चित्र अंकित करना।
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परिलेखना  : स० [सं० परिलेख] कुछ महत्त्व का मानना या समझना। किसी लेखे में गिनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलेही (हिन्)  : पुं० [सं० परि√लिह्+णिनि] एक रोग जिसमें कान की लोलक पर फुंसियाँ निकल आती हैं।
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परिलोप  : पुं० [सं० परि√लुप् (छेदन)+घञ्] १. लुप्त हो जाना। २. क्षति। हानि। ३. विनाश। विलोप।
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परिवंचन  : पुं० [सं० परि√वञ्च् (ठगना)+ल्युट्—अन] धोखा देना ठगना।
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परिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वृत्ताकार गड्ढा।
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परिवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आदि से अंत तक का पूरा वर्ष या साल। २. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक जिसका अधिपति सूर्य होता है।
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परिवत्सरीय  : वि० [सं० परिवत्सर+छ—ईय] परिवत्सर-संबंधी।
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परिवदन  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] दूसरे की की जानेवाली निंदा या बुराई।
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परिवपन  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+ल्युट्—अन] १. कतरना। २. मूँड़ना।
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परिवर्जन  : पुं० [सं० परि√वृज् (निषेध)+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्जनीय, भू० कृ० परिवर्जित] परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मार डालना। वध या हत्या करना।
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परिवर्जनीय  : वि० [सं० परिवृज+अनीयर्] परित्याज्य।
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परिवर्जित  : भू० कृ० [सं० परि√वृज्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्जन हुआ हो। त्यागा हुआ।
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परिवर्णी  : वि० [सं० परिवर्ण+हिं० ई (प्रत्य०)] (शब्द) जो कई शब्दों के आरंभिक वर्णों या अक्षरों के योग से अथवा कुछ शब्दों के आरंभिक तथा कुछ शब्दों के अंतिम वर्णों या अक्षरों के योग से बना हो। (ऐक्रास्टिक) जैसे—भारतीय+युरोपीय के योग से ‘भारोपीय’ अथवा चानव और जेहलम (झेलम) नदियों के बीचवाले प्रदेश का नाम ‘चज’ परिवर्णीशब्द है। इसी प्रकार चांद्रमास के पक्षों के ‘बदी’ (देखें) और ‘सुदी’ (देखें) भी परिवर्णी शब्द हैं।
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परिवर्त  : पुं० [सं० परि√वृत् (बरतना)+घञ्] १. घुमाव। चक्कर। फेरा। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के बदले में दी या ली जाय। ४. किसी काल या युग का अंत होना या बीतना। ५. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद। ६. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली।
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परिवर्तक  : वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] घूमनेवाला। चक्कर खानेवाला। वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्] १. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। २. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। ३. किसी प्रकार का परिवर्तन करनेवाला। ४. युग का अंत करनेवाला। पुं० मृत्यु के पुत्र दुस्साह का एक पुत्र।
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परिवर्तन  : पुं० [सं० परि√वृत्+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। २. चक्कर या फेरा लगाना। घुमाव। चक्कर फेरा। ४. किसी काल या युग का अंत या समाप्ति। ५. एक चीज के बदले में दूसरी चीज देना। विशेषतः किसी की पसंद या सुभीते की चीज उसे देकर उसके बदले में अपनी पसंद या सुभीते की चीज लेना। (कम्यूटेशन) जैसे—नोटों का रुपये में और रुपये का रेजगी में परिवर्तन। ६. वह चीज जो इस प्रकार बदले में दी या ली जाय। ६. किसी की आकृति, गुण, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला फेर-फार, सुधार, ह्रास आदि। जैसे—रंग, स्वास्थ्य या हृदय का परिवर्तन। ८. वह क्रिया जो किसी चीज या बात का रूप बदलने अथवा उसे नया रूप देने के लिए की जाय। (चेंज) ९. एक के स्थान पर दूसरे के आने का भाव। जैसे—ऋतु का परिवर्तन, पहनावे का परिवर्तन। १॰. भारतीय युद्ध-कला में शत्रु पर प्रहार करने के लिए उसके चारों ओर घूमना।
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परिवर्तनीय  : वि० [सं० परि√वृत्+अनीयर्] जिसमें परिवर्तन किया जाने को हो।
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परिवर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√वृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण लिंगचर्म उलट कर सूज जाता है।
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परिवर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसमें परिवर्तन किया गया हो या हुआ हो। जिसका आकार या रूप बदला गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो किसी के परिवर्तन या बदले में मिला हो।
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परिवर्तिनी  : स्त्री० [सं० परिवर्तिन्+ङीप्] भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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परिवर्ती (र्तिन्)  : [सं० परि√वृत्+णिनि] १. बराबर घूमता रहनेवाला। २. जिसमें परिवर्तन या फेर-बदल होता रहता हो। बराबर बदलता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ३. परिवर्तन या विनिमय करनेवाला।
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परिवर्तुल  : वि० [सं० प्रा० स०] ठीक और पूरा गोल या वर्त्तुल।
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परिवर्त्यता  : स्त्री० [सं०] परिवर्त्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिवर्द्धन  : पुं० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवर्द्धित] १. आकार-प्रकार, विषय-वस्तु आदि में की जानेवाली वृद्धि। (एनलार्जमेंट) जैसे—पुस्तक का परिवर्द्धन। २. इस प्रकार बढ़ाया हुआ अंश। ३. जोड़।
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परिवर्द्धित  : भू० कृ० [सं० परि√वर्ध्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो। बढ़ा या बढ़ाया हुआ। (एनालार्जड)
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परिवर्म (वर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] वर्म से ढका हुआ। बख्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।
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परिवर्ष  : पुं० [सं०] उतना समय जितना किसी एक ग्रह को रवि-बीच से चलकर फिर दोबारा वहाँ तक पहुँचने में लगता है। (अनोमेलस्टिक ईयर)
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परिवर्ह  : पुं० [सं० परि√वर्ह (उत्कर्ष)+घञ्] १. चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। २. राजाओं के दास आदि। ३. घर, कमरे आदि को सजाने के लिए उसमें रखी जानेवाली वस्तुएँ। सजावट की चीजें। ४. गृहस्थी में काम आनेवाली वस्तुएँ। ५. सम्पत्ति।
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परिवर्हण  : पुं० [सं० परि √वर्ह+ल्युट्—अन] १. अनुचर वर्ग। २. वेश-भूषा। पोशाक। ३. वृद्धि। ४. पूजा।
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परिवसथ  : पुं० [सं० परि√वस् (बसना)+अथच्] गाँव। ग्राम।
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परिवह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+अच्] १. सात पवनों में से छठा पवन; जो आकाश गंगा, सप्तऋषियों आदि को वहन करता है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा की संज्ञा।
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परिवहन  : पुं० [सं० परि√वह्+ल्युट्—अन] माल, यात्रियों आदि को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य, जो आज-कल रेलों, मोटरों, जहाजों, नावों आदि अनेक साधनों द्वारा किया जाता है। (ट्रान्सपोर्ट)
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परिवहन तंत्र  : पुं० [सं०] दे० ‘रक्तवह-तंत्र।
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परिवाँण  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवा  : स्त्री०=प्रतिपदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवाद  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+घञ्] १. निंदा। बुराई। शिकायत। २. बदनामी। ३. झूठी निन्दा या शिकायत। मिथ्या दोषारोपण। ४. कोई असुविधा या कष्ट होने पर अधिकारियों के सामने की जानेवाली किसी काम, बात, व्यक्ति आदि की शिकायत। (कम्पलेन्ट) ५. लोहे के तारों का वह छल्ला जिसे उँगली पर पहनकर वीणा, सितार आदि बजाई जाती है। मिजराब।
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परिवादक  : वि० [सं० परि√वद्+ण्वुल्—अक] १. परिवाद या निंदा करनेवाला। निंदक। २. शिकायत करनेवाला। पुं० वह जो वीणा, सितार या इसी तरह का और कोई बाजा बजाता हो।
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परिवादिनी  : स्त्री० [सं० परिवादिन्+ङीष्] एक तरह की वीणा जिसमें सात तार होते हैं।
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परिवादी (दिन्)  : वि० [सं० परि√वद्+णिनि]= परिवादक।
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परिवान  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवानना  : स० [सं० प्रमाण] प्रमाण के रूप में या ठीक मानना।
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परिवाप  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+घञ्] १. बाल आदि मूँड़ना। २. बोना। ३. जलाशय। ४. घर का उपयोगी सामान। ५. अनुचरवर्ग। ६. भूना हुआ चावल। लावा। फरुही। ६. छेना।
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परिवापित  : भू० कृ० [सं० परि√वप्+णिच्+क्त] मूँड़ा हुआ। मुंडित।
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परिवार  : पुं० [सं० परि√वृ (ढकना)+घञ्] १. एक ही पूर्व पुरुष के वंशज। २. एक घर में और विशेषतः एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहनेवाले लोग। ३. किसी विशिष्ट गुण, संबंध आदि के विचार से चीजों का बननेवाला वर्ग। जैसे—आर्य-भाषाओं का परिवार। (फेमिली) ४. किसी राजा, रईस आदि के आगे-पीछे चलने या साथ रहनेवाले लोग।
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परिवारण  : पुं० [सं० परि√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। २. आवरण। आच्छादन। ३. तलवार की म्यान। कोष।
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परिवार नियोजन  : पुं० [सं०] आज-कल देश अथवा संसार की दिन पर दिन बढ़ती हुई जन-संख्या को नियंत्रित करने या सीमित रखने के उद्देश्य से गार्हस्थ जीवन के संबंध में की जानेवाली वह योजना जिससे लोग आवश्यकता अथवा औचित्य से अधिक संतान उत्पन्न न करें। (फैमिली प्लानिंग)
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परिवारित  : भू० कृ० [सं० परि√वृ+णिच्+क्त] घिरा या घेरा हुआ। आवेष्टित।
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परिवारी  : पुं० [सं० परिवार] १. परिवार के लोग। २. नाते-रिश्ते के लोग। वि० पारिवारिक।
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परिवार्षिक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूरे वर्ष भर चलता या होता रहे। जैसे—परिवार्षिक नाला—ऐसा नाला जो बराबर बहता रहे, गरमियों में सूख न जाय; परिवार्षिक वृक्ष=ऐसा वृक्ष जो बराबर हरा रहता हो, और जिसके पत्ते किसी ऋतु में झड़ते न हों। २. बराबर या बहुत दिन तक स्थायी रूप से बना रहनेवाला। (पेरीनियल)
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परिवास  : पुं० [सं० परि√वस्+घञ्] १. टिकना। ठहरना। २. घर। मकान। ३. खुशबू। सुगन्ध। ४. संघ से किसी भिक्षु का होनेवाला बहिष्करण। (बौद्ध)
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परिवासन  : पुं० [सं० परि√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] खंड। टुकड़ा।
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परिवाह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+घञ्] १. ऐसा बहाव जिसके कारण पानी ताल, तालाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। पानी का खूब भर जाने के कारण बाँध, मेंड़ आदि के ऊपर से होकर बहना। २. वह नाली जिसके द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी बाहर निकलता या निकाला जाता हो। जल की निकासी का मार्ग। ३. किसी प्रदेश की ऐसी नदियों की व्यवस्था जिनमें नावों आदि से माल भेजे जाते हों।
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परिवाही (हिन्)  : वि० [सं० परि√वह+णिनि] [स्त्री० परिवाहिनी] (तरल पदार्थ) जो आधान या पात्र में या किनारों पर से इधर-उधर भर जाने पर ऊपर से बहता हो।
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परिविंदक  : पुं० [सं० परि√विद् (प्राप्त करना)+ण्वुल—अक, नुम्] वह व्यक्ति जो बड़े भाई का विवाह होने से पहले अपना विवाह कर ले। परवेत्ता।
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परिविंदत्  : पुं० [परि√विन्द्+शतृ, नुम्] परिविंदक। (दे०)
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परिविण्ण (न्न)  : पुं० [सं० परि√विन्द् (लाभ)+क्त]= परिवित्त।
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परिवितर्क  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विचार। २. परीक्षा। (बौद्ध)
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परिवित्त  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिविंदक। (दे०)
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परिवित्ति  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिवित्त। परिविंदक।
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परिविद्ध  : वि० [सं० परि√व्यध् (बेधना)+क्त] भली भाँति या चारों ओर से बिधा हुआ। पुं० कुबेर।
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परिविविदान  : पुं० [सं० परि√विद्+लिट्+कानच्] परिविंदक। (दे०)
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परिविष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√विष् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० परिविष्टि] १. घिरा अथवा घेरा हुआ। २. परोसा हुआ (भोजन)।
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परिविष्टि  : स्त्री० [सं० परि√विष्+क्तिन्] घेरा। वेष्टन। २. सेवा। टहल। ३. भोजन परोसना।
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परिविहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] जी भरकर या भली-भाँति किया जानेवाला विहार।
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परिवीक्षण  : पुं० [सं० परि-वि√ईक्ष् (देखना)—ल्युट्—अन] १. भली भाँति देखना। २. चारों ओर ध्यानपूर्वक देखना।
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परिवीजित  : वि० [सं० परि√वीज् (पंखा झलना)+क्त] जिस पर पंखे से हवा की गई हो।
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परिवीत  : भू० कृ० [सं० परि√व्य (बुनना)+क्त] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. छिपाया हुआ। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिवृत्त  : वि० [सं० परि√वृ+क्त] १. घेरा, छिपाया या ढका हुआ। २. उलटा-पुलटा हुआ। पुं० कार्य, घटना आदि के संबंध में, दूसरों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला संक्षिप्त विवरण। (स्टेटमेंट)
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परिवृत्ति  : स्त्री० [सं० परि√वृ+क्तिन्] १. ढकने, घेरने या छिपाने वाली वस्तु। घेरा। वेष्टन। २. घुमाव। चक्कर। ३. विनिमय। ४. अंत। समाप्ति। ५. दोबारा कोई काम करने की क्रिया या भाव। ६. किसी के किये हुए काम को देखकर वैसा ही और कोई काम करना। ६. व्याकरण में, एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। जैसे—‘कमललोचन’ के ‘कमल’ के स्थान पर पद्म’ अथवा ‘लोचन के स्थान पर ‘नयन’ रखना। ८. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी को अनुपात में कम या सस्ती वस्तु देकर अधिक या महंगी वस्तु लेने का वर्णन होता है।
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परिवृद्ध  : वि० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+क्त] [भाव परिवद्धि] १. जिसका परिवर्द्धन हुआ हो। २. चारों ओर से बढ़ा हुआ।
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परिवृद्धि  : स्त्री० [सं० परि√वृध्+क्तिन्] परिवृद्ध होने की अवस्था या भाव।
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परिवेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√विद्+तृच्] परिविंदक। (दे०)
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परिवेद  : पुं० [सं० परि√विद्+घञ्] १. पूर्ण ज्ञान। २. अनेक विषयों की होनेवाली जानकारी। ३. परिवेदन।
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परिवेदन  : पुं० [सं० परि√विद्+ल्युट्—अन] १. पूर्ण ज्ञान। परिवेद। २. बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का होनेवाला विवाह। ३. विवाह। शादी। ४. उपस्थिति। विद्यमानता। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. वाद-विवाद। बहस। ६. कष्ट। विपत्ति।
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परिवेदना  : स्त्री० [सं० परि√विद् (ज्ञान)+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की विवेक-शक्ति। २. चतुराई।
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परिवेदनीया  : स्त्री० [सं० परि√विद्+अनीयर्+टाप्] परिविंदक की पत्नी। आविवाहित व्यक्ति की अनुज वधू।
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परिवेदिनी  : स्त्री० [सं० परिवेद+इनि—ङीष्]=परिवेदनीया।
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परिवेध  : पुं० [सं० परि√विध्+घञ्] १. प्रायः दो चीजों को जोड़ने के लिए उनमें किया जानेवाला ऐसा छेद जिसमें कील, पेच आदि लगाये अथवा चूल कसी जाती है। ३. इस प्रकार का बनाया जानेवाला छेद। (बोर)
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परिवेधन  : पुं० [परि√विध्+ल्युट्] परिवेध करने की क्रिया या भाव। (बोरिंग)
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परिवेश  : पुं० [सं० परि√विश् (प्रवेश)+घिञ्] १. वेष्टन। परिधि। घेरा। २. बदली के समय सूर्य या चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला घेरा। ३. प्रकाशमान पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई देनेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। ४. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुखमंडल के चारों ओर दिखलाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। प्रभा-मंडल। भा-मंडल। (हेलो)
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परिवेष  : पुं० [सं० परि√विष् (व्यक्ति)+घञ्] १. भोजन परसना या परोसना। २. चारों ओर से घेरकर रक्षा करनेवाली रचना या वस्तु। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. दे० ‘परिवेश’। ५. दे० ‘प्रभावमंडल’।
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परिवेषक  : पुं० [सं० परि√विष्+ण्वुल्—अक] वह व्यक्ति जो भोजन आदि परसता या परोसता हो।
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परिवेषण  : पुं० [सं० परि√विष्+ल्युट्—अन] १. भोजन आदि परसने या या परोसने का काम। २. घेरा। परिधि। ३. दे० ‘परिवेष’।
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परिवेष्टन  : पुं० [सं० परि√वेष्ट् (घेरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवेष्टित] १. किसी चीज को घेरना अथवा उसके चारों ओर घेरा बनाना। २. घेरा। परिधि। ३. छिपाने या ढकनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण।
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परिवेष्टा (ष्दृ)  : पुं० [सं० परि√विष्+तृच] परिवेषक। (दे०)
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परिवेष्टित  : भू० कृ० [सं० परि√वेष्ट्+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा हुआ हो। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह से व्यक्त हो चुका हो।
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परिव्यय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के निर्माण में होनेवाला व्यय। २. वह मूल्य जिस पर बिक्री के लिए उत्पादित की हुई अथवा मँगाई हुई वस्तु का घर पर परता बैठता हो। (कॉस्ट) ३. मूल्य। ४. किसी चीज की मरम्मत आदि करने पर बदले में दिया जानेवाला धन। पारिश्रमिक। ५. शुल्क।
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परिव्ययनीय  : वि० [सं परि√व्यय् (खर्च करना)+ अनीयर्] जो परिव्यय के रूप में किसी से लिया या किसी को दिया जा सके। जिस पर परिव्यय जोड़ा या लगाया जा सके। (चार्जेबुल)
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परिव्याध  : वि० [सं० परि√व्यध् (ताड़ना)+ण] चारों ओर से बेधने या छेदनेवाला। पुं० १. जलबेंत। २. कनेर। ३. एक प्राचीन-ऋषि।
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परिव्याप्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह और सब अंगों या स्थानों में फैला या समाया हुआ।
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परिव्रज्या  : स्त्री० [सं० परि√व्रज् (जाना)+क्यप्, टाप्] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तपस्या। ३. सदा घूमते-फिरते रहकर और भिक्षा माँग कर जीवन बिताने का नियम, वृत्ति या व्रत।
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परिव्राज (क)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+घञ् (संज्ञा में), परि√व्रज्+ण्वुल्—अक] १. वह संन्यासी जो परिव्रज्या का व्रत ग्रहण करके सदा इधर-उधर भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। ३. बहुत बड़ा यती और परम हंस।
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परिव्राजी  : स्त्री० [सं० परि√व्रज्+णिच्+इन्, ङीष्] गोरखमुंडी। मुंड़ी।
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परिव्राट (ज्)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+क्विप्] परिव्राजक। (दे०)
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परिशंकी (किन्)  : वि० [सं० पर√शंक (आशंका करना)+णिनि] अत्यधिक आशंका करने या सशंकित रहनेवाला।
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परिशयन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक सोना। २. कुछ पशुओं और जीव-जंतुओं की वह निद्रा या तंद्रा वाली निष्क्रिय अवस्था जिसमें वे जाड़े के दिनों में शीत के प्रभाव से बचने के लिए बिना कुछ खाये-पीये चुप-चाप एक जगह दबे-दबाये रहते हैं। (हाइबरनेशन)
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परिशिष्ट  : वि० [सं० परि√शिष् (बचना)+क्त] छूटा या बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। पुं० १. पुस्तकों आदि के अंत में दी जानेवाली वे बातें जो मूल में आने से रह गई हों, अथवा जो मूल में आई हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए हों। (एपेंडेक्स) २. अनुसूची। (दे०)
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परिशीलन  : पुं० [सं० परि√शील् (अभ्यास)+ल्युट्—अन] १. मननपूर्वक किया जानेवाला गंभीर अध्ययन। २. स्पर्श।
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परिशीलित  : भू० कृ० [सं० परि√शील्+क्त] (ग्रंथ या विषय) जिसका परिशीलन किया गया हो।
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परिशुद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिशुद्धता, परिशुद्धि] १. बिलकुल शुद्ध। विशेषतः जिसमें किसी दूसरी चीज का कुछ भी मेल न हो। खरा। २. जिसमें कुछ भी कमी-बेशी या भूल-चूक न हो। बिलकुल ठीक। (एक्योरेट) ३. चुकता किया हुआ। ४. छोड़ा या बरी किया हुआ।
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परिशुद्धता  : स्त्री० [सं० परिशुद्ध+तल्+टाप्]=परिशुद्ध।
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परिशुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. किसी बात या विषय की वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की कमी-बेशी या कोई भूल-चूक न हो। (एक्योरेसी)। ३. छुटकारा। मुक्ति।
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परिशुष्क  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन। ३. रसिकता आदि से बिलकुल रहित। पुं० तला हुआ मांस।
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परिशून्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो बिलकुल शून्य हो। पुं० विज्ञान में, वह स्थान जिसमें वायु आदि कुछ भी न हो या जिसमें वायु निकाल ली गई हो। (वायड)
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परिशेष  : वि० [सं० परि√शिष्+घञ्] [भाव० परिशेषण ] जो अब भी शेष हो। जो पूर्णतः अब भी नष्ट या समाप्त न हुआ हो। पुं० १. वह अंश या तत्त्व जो बाकी बच रहा हो। २. अंत। समाप्ति। ३. दे० ‘परिशिष्ट’।
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परिशोध  : पुं० [सं० परि√शुध् (शुद्ध करना)+घञ्] १. अच्छी तरह शुद्ध करना या बनाना। २. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। (रिपेमेंट) ३. किसी से चुकाया जानेवाला बदला। उपकार के बदले में किया जानेवाला अपकार। प्रतिशोध।
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परिशोधन  : पुं० [सं० परि√शुध्+ल्युट्—अन] [वि० परिशोधनीय, भू० कृ० परिशोधित] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज अच्छी तरह शुद्ध हो कर श्रेष्ठ अवस्था में आजा वे। (रेक्टिफिकशेन) २. ऋण देन आदि चुकता करने की क्रिया या भाव। ३. प्रतिशोधन।
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परिशोष  : पुं० [सं० परि√शुष् (सूखना)+घञ्] १. किसी चीज को अच्छी तरह से सुखाना। २. पूरी तरह से सूखे हुए होने की अवस्था या भाव।
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परिश्रम  : पुं० [सं० परि√श्रम् (आयास करना)+घञ्] कोई कठिन, बड़ा या दुस्साध्य काम करने के लिए विशेष रूप से तथा मन लगाकर किया जानेवाला मानसिक या शारीरिक श्रम। मेहनत।
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परिश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० परिश्रम+इनि] १. जो परिश्रमपूर्वक कोई काम करता हो। २. हर काम अपनी पूरी शक्ति लगाकर करनेवाला। मेहनती।
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परिश्रय  : पुं० [सं० परि√श्रि (सेवन)+अच्] १. परिषद्। सभा। २. आश्रय या शरण-स्थल।
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परिश्रांत  : वि० [सं० परि√श्रम्+क्त] [भाव० परिश्रांति] बहुत अधिक थका हुआ। थका-माँदा।
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परिश्रांति  : स्त्री० [सं० परि√श्रम्+क्तिन्] परिश्रांत होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक थकावट।
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परिश्रित्  : वि० [सं० परि√श्रि+क्विप्] आश्रय देनेवाला। पुं० यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।
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परिश्रुत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (बात आदि) जो ठीक प्रकार से या भली-भाँति सुनी गई हो। २. ख्यात। प्रसिद्ध।
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परिश्लेष  : पुं० [सं० परि√श्लिष् (आलिंगन करना)+घञ्] आलिंगन। गले लगाना।
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परिषक्त  : स्त्री०=परिषद्।
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परिषत्त्व  : पुं० [सं० परिषद्+त्व] परिषद् का भाव या धर्म।
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परिषद्  : स्त्री० [सं० परि√सद् (गति)+क्विप्] १. चारों ओर से घेर कर या घेरा बनाकर बैठाना। २. वैदिक युग में विद्वानों की वह सभा जो राजा किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिए बुलाता था। ३. बौद्ध-काल में वह निर्वाचित राजकीय संस्था या सभा जो राज्य या शासन से संबंध रखनेवाली सब बातों पर विचार तथा निर्णय करती थी। विशेष—प्राचीन काल में परिषदें तीन प्रकार की होती थीं—(क) शिक्षा-संबंधी। (ख) सामाजिक गोष्ठी-सम्बन्धी। और (ग) राज-शासन-सम्बन्धी। ४. आधुनिक राजनीति विज्ञान में, निर्वाचित या मनोनीत विधायकों की वह सभा जो स्थायी या बहुत-कुछ स्थायी होती है। (काउंसिल) ५. सभा। जैसे—संगीत परिषद्।
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परिषद  : पुं० [सं० परि√सद्+अच्] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेर कर चलते हैं। परिषद। २. दरबारी। मुसाहब। ३. सदस्य। सभासद। स्त्री०=परिषद्।
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परिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+यत्] १. परिषद् या सदस्य। २. सभासद। सदस्य। ३. दर्शक। प्रेक्षक।
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परिषद्वल  : पुं० [सं० परिषद्+वलच्] सभासद। सदस्य।
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परिषिक्त  : भू० कृ० [सं० परि√सिंच् (सींचना)+क्त] १. जो अच्छी तरह से सींचा गया हो। २. जिस पर छिड़काव हुआ हो।
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परिषीवण  : पुं० [सं० परि√सिव् (सीना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से सीना। २. गाँठ लगाना। बाँधना।
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परिषेक  : पुं० [सं० परि√सिच्+घञ्] १. पानी से तर करने की क्रिया। सिंचाई। २. छिड़काव। ३. स्नान।
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परिषेचक  : वि० [सं० परि√सिच्+ण्वुल्—अक] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।
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परिषेचन  : पुं० [सं० परि√सिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिषिक्त] सींचना। छिड़कना।
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परिष्कंद  : पुं० [सं० परि√स्कन्द (गति)+घञ्] वह जिसका पालन-पोषण माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा हुआ हो।
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परिष्कर  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+अप्, सुट्] सजावट। सज्जा।
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परिष्करण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परिष्कृत] परिष्कार करने अर्थात् साफ और सुंदर बनाने की क्रिया या भाव। (एम्बेलिशमेन्ट)
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परिष्करण शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ खनिज, तैल, धातुएँ आदि परिष्कृत या साफ की जाती हैं। (रिफाइनरी)
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परिष्करणी  : स्त्री० [सं० परि√कृ+ल्युट्—अन, सुट्] वह कारखाना या स्थान जहाँ यंत्रों आदि की सहायता से तेलों, धातुओं आदि में की मैल निकालकर उन्हें परिष्कृत या साफ किया जाता हो। (रिफाइनरी)
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परिष्कार  : पुं० [सं० परि√कृ+घञ्, सुट्] [भू० कृ० परिष्कृत] १. अच्छी तरह ठीक और साफ करने की क्रिया या भाव। गंदगी, मिलावट, मैल आदि निकालकर किसी चीज को स्वच्छ बनाना। (रिफाइनिंग) २. त्रुटियाँ, दोष आदि दूर करके सुंदर, सुरुचिपूर्ण और स्वच्छ बनाना। (एम्बेलिशमेंट) ३. निर्मलता। स्वच्छता। ४. अलंकार। गहना। ५. शोभा। श्री। ६. बनाव-सिंगार। सजावट। ६. सजाने की सामग्री। उपस्कर। (फरनीचर) ८. संयम। (बौद्ध दर्शन)
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] १. परिष्कृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. परिष्कार। ३. आचार-व्यवहार की वह उन्नत स्थिति जिसमें अशिष्ट, उद्धत, ग्राम्य, पुरुष, रुक्ष आदि बातों का अभाव और कोमल, नागर, विनम्र, शिष्ट तथा स्निग्ध तत्त्वों की अधिकता और प्रबलता होती है। (रिफाइनमेंट)
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परिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० परि√कृ+सुट्,+टाप्] परिष्कार। (दे०)
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परिष्कृत  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, सुट्] [भाव० परिष्कृति] १. जिसका परिष्कार किया गया हो। अच्छी तरह ठीक और साफ किया हुआ। २. सवाँरा या सजाया हुआ। अलंकृत। ४. सुधारा हुआ।
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] परिष्कृत होने की अवस्था या भाव। परिष्कार।
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परिष्टवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रशंसा। स्तुति।
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परिष्टोम  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. एक प्रकार का सामगान जिसमें ईश्वर की स्तुति होती है। २. घोडे, हाथी आदि की झूल।
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परिष्ठल  : पुं० [सं० परि-स्थल, प्रा० स०] आस-पास की भूमि।
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परिष्यंद  : पुं० [सं० परि√ष्यंद् (बहना)+घञ्, षत्व]= परिस्यंद।
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परिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंद+इनि] बहानेवाला।
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परिष्वंग  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (आलिंगन)+घञ्] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वंजन  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्—अन] [वि० परिष्वक्त] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वक्त  : भू० कृ० [सं० परि√स्वञ्ज्+क्त] जिसे गले लगाया गया हो। आलिंगित।
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परिसंख्या  : स्त्री० [सं० परि-सम्√ख्या (प्रसिद्ध करना) +अङ्+टाप्] १. गणना। गिनती। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी स्थान में होनेवाली बात या वस्तु का प्रश्न या व्यंग्यपूर्वक निषेध करके अन्य स्थान पर प्रतिष्ठापन करने का वर्णन होता है। ३. कुछ स्थानों पर होनेवाली वस्तुओं के संबंध में यह कहना कि अब वे वहाँ नहीं रह गईं केवल अमुक जगह में रह गई हैं। जैसे—रामराज्य की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसमें स्त्रियों के नेत्रों को छोड़कर कुटिलता और कहीं नहीं दिखाई देती थी।
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परिसंख्यान  : पुं० [सं० परि√सम्√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसंख्यात] अनुसूची। (दे०)
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परिसंघ  : पुं० [सं० प्रा० स०] पारस्परिक तथा सामूहिक हितों के रक्षार्थ बननेवाला वह अंतरराष्ट्रीय संघटन जिसके सदस्य स्वतंत्र राष्ट्र होते हैं। (कनफेडरेशन)
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परिसंचर  : पुं० [सं० परि-सम्√चर् (गति)+अच्] प्रलय-काल।
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परिसंचित  : भू० कृ० [सं० परि—सम्√चि (इकट्ठा करना)+क्त] इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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परिसंतान  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. तार। २. तंत्री।
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परिसंपद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] व्यक्ति, संघटन, संस्था आदि का वह निजी या अधिकृत धन तथा संपत्ति जिसमें से उसका ऋण, देय आदि चुकाया जाता हो या चुकाया जा सके। (असेट्स)
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परिसंवाद  : पुं० [सं० परि-सम्√वद् (बोलना)+घञ्] १. दो या अधिक व्यक्तियों में किसी बात, विषय आदि के संबंध में होनेवाला तर्क संगत या विचारपूर्ण वादविवाद। (डिस्कशन) २. दे० परिचर्चा।
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परिसंहत  : [सं०] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. (कथन या लेख) जिसमें फालतू या व्यर्थ की बातें अथवा शब्द न हों। (टर्म)
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परिसंहित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत अच्छी तरह गठा या गाँठा हुआ। २. (साहित्य में ऐसी गठी हुई तथा संक्षिप्त रचना) जिसमें ओज, प्रसाद आदि गुण भी यथेष्ट मात्रा में हों।
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परिसम्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] सभासद। सदस्य।
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परिसमंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] वृत्त के चारों ओर की रेखा या सीमा।
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परिसमापक  : पुं० [परि-सम्√आप् (व्याप्ति)+ण्वुट्—अक] परिसमापन करनेवाला अधिकारी। (लिक्वीडेटर)
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परिसमापन  : पुं० [परि-सम्√आप्+ल्युट्—अन] १. समाप्त करना। २. किसी चलते हुए काम का समाप्त होना। (टरमीनेशन) ३. किसी ऋणग्रस्त संस्था का कार-बार बंद करते समय किसी सरकारी अधिकारी या आदाता द्वारा उसकी परिसंपद लहनेदारों में किसी विशिष्ट अनुपात में बाँटा जाना। (लिक्वीडेशन) ३. दे० ‘अपाकरण’।
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परिसमाप्त  : भू० कृ० [सं० परि-सम्√आप+क्त] १. जो पूरी तरह से समाप्त हो चुका हो। २. (संस्था) जिसका परिसमापन हो चुका हो।
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परिसमाप्ति  : स्त्री० [सं० परि-सम्√आप्+क्तिन्] परिसमापन।
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परिसमूहन  : पुं० [सं० परि-सम्√ऊह् (वितर्क)+ल्युट्—अन] १. एकत्र करना। २. यज्ञ की अग्नि में समिधा डालना। ३. तृण आदि आग में डालना। ४. यज्ञाग्नि के चारों ओर जल छिड़कने की क्रिया।
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परिसर  : वि० [सं० परि√सृ (गति)+अप्] [स्त्री० परिसरा] १. किसी के चारों ओर वहने (अथवा चलने) वाला। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। ३. फैला हुआ। विस्तृत। उदा०—खुली रूप कलियों में परभर स्तर स्तर सु-परिसरा।—निराला। पुं० १. किसी स्थान के आस-पास की भूमि या खुला मैदान। २. प्रांत भूमि। ३. मृत्यु। ४. ढंग। तरीका। विधि। ५. शरीर की नाड़ी या शिरा।
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परिसरण  : पुं० [सं० परि√सृ+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसृत] १. किसी के चारों ओर बहना (या चलना)। २. पर्यटन। ३. पराजय। हार। ४. मृत्यु। मौत। ५. दे० रसाकर्षण।
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परिसर्प  : पुं० [सं० परि√सृप् (गति)+घञ्] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. घूमना-फिरना या टहलना। ३. ढूँढ़ने या तलाश करने के लिए निकलना। ४. चारों ओर से घेरना। ५. साहित्य दर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज और केवल मार्गचिह्नों आदि के सहारे उसका पता लगाने का प्रयत्न करना। जैसे—सीता-हरण के उपरान्त, राम का सीता को बन में ढूँढ़ते फिरना। ६. सुश्रुत के अनुसार ११ प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक जिसमें छोटी-छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और उन फुँसियों से पंछा या मवाद निकलता है। ६. एक प्रकार का साँप।
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परिसर्पण  : पुं० [सं० परि√सृप्+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। टहलना। २. साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलना या रेंगना।
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परिसर्पा  : स्त्री० [सं० परि√सृ (गति)+क्यप्+टाप्] १. मृत्यु। २. हार।
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परिसांत्वन  : पुं० [सं० परि√सान्त्व् (ढाढस देना)+ ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक सांत्वना देना। २. उक्त प्रकार से दी हुई सान्त्वना।
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परिसाम (मन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक विशेष साम।
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परिसार  : पुं० [सं० परि√सृ+घञ्]=परिसरण।
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परिसारक  : वि० [सं० परि√सृ+ण्वुल्—अक] जो परिसरण करे। चारों ओर चलने, जाने या बहनेवाला।
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परिसारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√सृ+णिनि] १. परिसरण-संबंधी। २. परिसारक। (दे०)
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परिसिद्धिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वैद्यक में, चावले की एक प्रकार की लपसी।
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परिसीमन  : पुं० [सं० परिसीमा से] [भू० कृ० परिसीमित] किसी क्षेत्र, विषय आदि की सीमाएँ निर्धारित करना। (डिलिमिटेशन)
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परिसीमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अंतिम या चरम सीमा। २. वह मर्यादा या रेखा जहाँ आगे किसी विषय का विस्तार न हो।
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परिसीमित  : भू० कृ० [सं० परिसीमा+इतच्] जिसका परिसीमन हुआ या किया जा चुका हो। २. (संस्था) जिसकी पूँजी, हिस्सेदारी आदि कुछ विशिष्ट नियमों या सीमाओं के अन्दर रखी गई हो। (लिमिटेड)
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परिसून  : पुं० [सं० अत्या० स०] बिना अधिकार के और बूचड़खाने से बाहर मारा हुआ पशु।
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परिसेवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सेवा करना।
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परिसेवित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी बहुत अच्छी तरह सेवा की गई हो। २. जिसका बहुत अच्छी तरह सेवन किया गया हो।
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परिस्कंद  : पुं०=परिष्कंद।
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परिस्तरण  : पुं० [सं० परि√स्तृ (आच्छादन)+ल्युट्—अन] १. इधर-उधर फेंकना या डालना। छितराना। २. फैलाना। ३. ढकना या लपेटना।
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परिस्तान  : पुं० [फा०] १. परियों अर्थात् अप्सराओं का जगत् या देश। २. ऐसा स्थान जहाँ बहुत-सी सुंदर स्त्रियों का जमघट या निवास हो।
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परिस्तोम  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] चित्रित या अनेक रंगोंवाली (हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली) झूल।
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परिस्थान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वासस्थान। २. दृढ़ता।
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परिस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० परिस्थितिक] किसी व्यक्ति के चारों ओर होनेवाली वे सब बातें या उनमें से कोई एक जिससे बाध्य या प्रेरित होकर वह कोई कार्य करता हो। (सर्कम्स्टैंसेज)
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परिस्थिति विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों का जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। (इकालोजी)
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परिस्पंद  : पुं० [सं० परि√स्पंद् (हिलना)+घञ्] १. कापने की क्रिया या भाव। कंप। कँपकँपी। २. दबाना या मलना। ३. ठाट-बाट। तड़क-भड़क। ४. फूलों आदि से सिर के बाल सजाना। ५. निर्वाह का साधन। ६. परिवार। ६. धारा। प्रवाह। ८. नदी। ९. द्वीप। टापू।
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परिस्पंदन  : पुं० [सं० परि√स्पंद्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक हिलना। खूब काँपना। २. काँपना।
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परिस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=प्रतिस्पर्धा।
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परिस्पर्द्धी (र्द्धिन्)  : पुं० [सं० परि√स्पर्ध् (जीतने की इच्छा)+णिनि]=प्रतिस्पर्धी।
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परिस्फुट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. भली-भाँति व्यक्त। सब प्रकार से प्रकट या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ। पूर्ण विकसित।
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परिस्फुरण  : पुं० [सं० परि√स्फुर् (गति)+ल्युट्—अन] १. कंपन। २. कलियों, कल्लों आदि का निकलना या फूटना।
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परिस्मापन  : पुं० [सं० परि√स्मि (विस्मय करना)+ णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] बहुत अधिक चकित या विस्मित करना।
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परिस्यंद  : पुं० [सं० परिष्यंद] चूना। रसना।
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परिस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंदी] जिसमें प्रवाह हो। बहता हुआ।
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परिस्रव  : पुं० [सं० परि√स्रु (बहना)+अप्] बहुत अधिक या चारों ओर से चूना या रसना।
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परिस्राव  : पुं० [सं० परि√स्रु+घञ्] १. चू या रसकर अधिक परिमाण में निकलनेवाला तरल पदार्थ। २. एक रोग जिसमें रोगी को ऐसे बहुत अधिक दस्त होते हैं जिनमें कफ और पित्त मिला होता है।
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परिस्रावण  : पुं० [सं० परि√स्रु+णिच्+ल्युट्—अन] वह पात्र जिसमें कोई चीज चुआ या रसाकर इकट्ठी की जाय।
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परिस्रावी (विन्)  : वि० [सं० परि√स्रु+णिनि] चूने, रसने या बहनेवाला। पुं० ऐसा भगंदर रोद जिसमें फोड़े में से बराबर गाढ़ा मवाद निकलता रहता है।
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परिस्रुत  : वि० [सं० परि√स्रु+क्त] १. जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त। २. चुआया या टपकाया हुआ। पुं० फूलों का सुगंधित सार। (वैदिक) स्त्री० मदिरा। शराब।
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परिस्रुत-दधि  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा दही जिसे निचोड़कर उसमें का जल निकाल दिया गया हो।
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परिस्रुता  : स्त्री० [सं० परिस्रुत+टाप्] १. चुआई या टपकाई हुई तरल वस्तु। २. मद्य। शराब। ३. अंगूरी शराब।
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परिहँस  : पुं० [सं० परिहास] १. हँसी-दिल्लगी। परिहास। २. लोक में होनेवाली हँसी। उपहास। उदा०—परहँसि मरसि कि कौनेहु लाजा—जायसी। ३. खेद। दुःख। रंज। (मुख्यतः लोक-निंदा, उपहास आदि के भय से होनेवाला) उदा०—कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहँस करि, नैन जल भरि रोई दीन्हों, ग्रसति आपद दीन।—सूर।
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परिहत  : भू० कृ० [सं० परि√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. पूरी तरह से नष्ट किया हुआ। ४. ढीला किया हुआ। स्त्री० हल की वह लकड़ी जो चौभी में ठुकी रहती है, तथा जिसके ऊपरी भाग में लगी हुई मुठिया को पकड़कर हलवाला हल चलाता है।
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परिहरण  : पुं० [सं० परि√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० परिहरणीय] १. किसी की चीज पर बिना उसके पूछे और बलपूर्वक किया जानेवाला अधिकार। २. परित्याग। ३. दोष आदि दूर करने का उपचार या प्रयत्न। निवारण।
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परिहरणीय  : वि० [सं० परि√हृ+अनीयर्] १. जो छीना जा सके या छीने जाने के योग्य हो। २. त्याज्य। ३. जिसका उपचार या निवारण हो सके। निवार्य।
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परिहरना  : स० [सं० परिहरण] १. छीनना। २. त्यागना। छोड़ना।
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परिहस  : पुं०=परिहँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहस्त  : पुं० [सं० अव्य० स०] हाथ में बाँधा जानेवाला एक तरह का तावीज या यंत्र।
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परिहाण  : पुं० [सं० परि√हा (त्याग)+क्त] नुकसान या हानि उठाना।
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परिहाणि, परिहानि  : स्त्री० [सं० परि√हा+क्तिन्] नुकसान। हानि।
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परिहार  : पुं० [सं० परि√हृ+घञ्] १. बलपूर्वक छीनने की क्रिया या भाव। २. युद्ध में जीतकर प्राप्त किया हुआ धन या पदार्थ। ३. छोड़ने, त्यागने या दूर करने की क्रिया या भाव। ४. त्रुटियों, दोषों, विकारों आदि का किया जानेवाला अंत या निराकरण। ५. पशुओं के चरने के लिए खाली छोड़ी हुई जमीन। चारागाह। ६. प्राचीन भारत में, कष्ट या संकट के समय राज्य की ओर से प्रजा के साथ की जानेवाली आर्थिक रिआयत। ६. कर या लगान की छूट। माफी। ८. खंडन। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १॰. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक प्राचीन देश। १२. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित्त करना। (साहित्य दर्पण) पुं० [?] अवध, बुंदेलखंड आदि में बसे हुए राजपूतों की एक जाति जिनके पूर्वज तीसरी शताब्दी में कालिंजर के शासक थे।
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परिहारक  : वि० [सं० परि√हृ+ण्वुल्—अक] परिहार करनेवाला।
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परिहारना  : स० [सं० परिहार] १. परिहरण करना। २. परिहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√हृ+णिनि] परिहरण करनेवाला।
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परिहार्य  : वि० [सं० परि√हृ+ण्यत्] जिसका परिहरण होने को हो या हो सकता हो।
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परिहास  : वि० [सं० परि√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत जोरों की हँसी। २. हँसी-मजाक।
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परिहासापह्नुति  : स्त्री० [सं० परिहास-अपह्नुति, मध्य० स०] साहित्य में, अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें पूर्वपद तो किसी अश्लील भाव का द्योतक होता है परंतु उत्तर-पद से उस अश्लीलत्व का परिहार हो जाता है और श्रोता हँस पड़ता है। उदा०—तुमको लाजिम है पकड़ो अब मेरा। हाथ में हाथ बामुहब्बतो प्यार।—कोई शायर।
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परिहास्य  : वि० [सं० परि√हस्+ण्यत्] १. जिसके संबंध में परिहास किया जा सके या हो सके। २. हास्यास्पद।
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परिहित  : भू० कृ० [सं० परि√धा (धारण करना)+क्त, हि—आदेश] १. चारों ओर से छिपाया या ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. ओढ़ा या पहना हुआ। (कपड़ा)
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परिहीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सब प्रकार से दीन-हीन। अत्यंत हीन। २. छोड़ा, निकाला या फेंका हुआ।
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परिहृति  : स्त्री० [सं० परि+हृ+क्तिन्] ध्वंस। नाश।
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परिहेलना  : स० [सं० प्रा० स०] अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर हटाना। उदा०—कै ममता करु राम-पद कै ममता परिहेलु।—तुलसी।
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परी  : स्त्री० [फा०] १. वह कल्पित रूपवती स्त्री जो अपने परों की सहायता से आकाश में उड़ती है। अप्सरा। विशेष—फारसी साहित्य में इसका वास-स्थान काफ या काकेशस पर्वत माना गया है।
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परीक्षक  : पुं० [सं० परि√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परीक्षिका] १. वह जो किसी की परीक्षा करता या लेता हो। २. किसी के गुण, योग्यता आदि का परीक्षण करनेवाला अधिकारी, विशेषतः परीक्षार्थियों के लिए प्रश्न-पत्र बनाने तथा उनकी उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचनेवाला अधिकारी। (इग्जामिनर) ३. जाँच-पड़ताल करनेवाला व्यक्ति। निरीक्षक।
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परीक्षण  : पुं० [सं० परि√ईक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परीक्षित, वि० परीक्ष्य] १. परीक्षा करने या लेने की क्रिया या भाव। २. वैज्ञानिक क्षेत्रों में; किसी विशिष्ट पद्धति, प्रक्रिया या रीति से किसी चीज के वास्तविक गुण, योग्यता, शक्ति, स्थिति आदि जानने का काम। ३. न्यायालय में इस प्रकार किसी से प्रश्न करना जिससे वस्तु-स्थिति पर प्रकाश पड़ता हो। (इग्जामिनेशन) १. उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर किसी चीज के गुण-दोष जानना या परखना। ५. व्यक्ति को किसी काम या पद पर स्थायी रूप से नियुक्त करने से पहले, कुछ समय तक उससे वह काम करवा कर देखना कि उसमें यथेष्ट योग्यता या सामर्थ्य है या नहीं। (प्रोबेशन)
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परीक्षण-काल  : पुं० [ष० त०] उतना समय जितने में यह देखा जाता है, कि जो व्यक्ति किसी काम पर लगाया जाने को है, उसमें वह काम करने की पूरी योग्यता या समर्थता भी है या नहीं। (प्रोबेशन पीरियड)
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परीक्षण-नलिका  : स्त्री० [ष० त०] वैज्ञानिक क्षेत्रों में शीशे की वह नली जिसमें कोई द्रव पदार्थ किसी प्रकार के परीक्षण के लिए भरा जाता है। परख-नली। (टेस्ट-ट्यूब)
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परीक्षण-शलाका  : स्त्री० [ष० त०] किसी धातु का वह छड़ जो इस बात के परीक्षण के काम में आता है कि इस धातु में भार आदि सहने की कितनी शक्ति है। (टेस्ट पीस)
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परीक्षणिक  : वि० [सं० पारीक्षणिक] १. परीक्षण-संबंधी। २. नियुक्त किये जाने से पहले जिसकी असमर्थता की परीक्षा ली जा रही हो। अस्थायी रूप से और केवल परीक्षण के लिए रखा हुआ कर्मचारी। (प्रोबेशनरी)
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परीक्षना  : स० [सं० परीक्षण] किसी की परीक्षा करना या लेना। परखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परीक्षा  : स्त्री० [सं० परि√ईक्ष्+अ+टाप्] १. किसी के गुण, धैर्य, योग्यता, सामर्थ्य आदि की ठीक-ठीक स्थिति जानने या पता लगाने की क्रिया या भाव। (एग्जामिनेशन) २. वह समुचित उपाय, विधि या साधन जिससे किसी के गुणों आदि का पता लगाया जाता है। ३. वस्तुओं के संबंध में, उनकी उपयोगिता, टिकाऊपन आदि जानने के लिए उनका उपयोग या व्यवहार किया जाना। जैसे—हमारे यहाँ अमुक वस्तुएँ मिलती हैं, परीक्षा प्रार्थित है। ४. वह प्रक्रिया जिससे प्राचीन न्यायालय किसी अभियुक्त अथवा साक्षी के सच्चे या झूठे होने का पता लगाते थे। विशेष दे० ‘दिव्य’। ५. जाँच—पड़ताल। ६. देख-भाल।
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परीक्षार्थ  : अव्य० [सं० परीक्षा-अर्थ, नित्य स०] परीक्षा के उद्देश्य से।
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परीक्षार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० परीक्षा√अर्थ (चाहना)+ णिनि] १. वह जो किसी प्रकार की परीक्षा देना चाहता हो। २. वह जिसकी परीक्षा ली जा रही हो अथवा जो परीक्षा दे रहा हो। (एग्ज़ामिनी)
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परीक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (क्षय)+क्विप्, तुक्] १. हस्तिनापुर के एक प्राचीन राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। कहा जाता है कि इन्हीं के राज्य-काल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ था। तक्षक नामक साँप के काटने पर इनकी मृत्यु हुई थी। २. कंस का एक पुत्र।
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परीक्षित  : भू० कृ० [परि√ईक्ष्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसकी परीक्षण किया जा चुका हो। जो परीक्षा में सफल उतरा हो। ३. (वस्तु) जिसे उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर उसके गुण-दोष आदि देखे जा चुके हों। (इग्जै़मिन्ड) पुं०=परीक्षित्।
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परीक्षितव्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+तव्यत्] १. जिसकी परीक्षा, आजमाइश या जाँच की जा सके या की जाने को हो। २. जिसे जाँच या परख सकें। ३. जिसकी परीक्षा (जाँच या परख) करना आवश्यक या उचित हो।
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परीक्षिती  : पुं० [सं०]=परीक्षार्थी।
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परीक्ष्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+ण्यत्] परीक्षितव्य। (दे०)
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परीक्ष्यमाण  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+यक्, शानच्, मुक्] परीक्षणिक। (दे०)
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परीख  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीखना  : स०=परखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछत  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परिक्षित।
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परीछम  : पुं० [हिं० परी+छमछम (अनु०)] पैर में पहनने का एक तरह का चाँदी का गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछित  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परीक्षित्।
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परीजाद  : वि० [फा० परीज़ादः] १. जो परी की संतान हो। २. लाक्षणिक रूप में, परम सुन्दर व्यक्ति।
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परीणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बंधन)+घञ्, दीर्घ] १. दे० ‘परिणाह’। २. शिव। ३. गाँव के आस-पास तथा चारों ओर की वह भूमि जो सार्वजनिक संपत्ति के अन्तर्गत हो, अथवा जिसका उपयोग सब लोग कर सकते हों।
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परीत  : स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीताप  : पुं०=परिताप।
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परीति (ती)  : स्त्री०=प्रीति।
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परीतोष  : पुं०=परितोष।
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परीदाह  : पुं०=परिदाह।
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परीधान  : पुं०=परिधान।
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परीप्सा  : स्त्री० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+सन्+ अ+ टाप्] १. किसी चीज को प्राप्त करने अथवा उसे अधिकार में किये रखने की इच्छा या लालसा। २. जल्दी। शीघ्रता।
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परीबंद  : पुं० [फा०] कलाई पर पहनने का एक आभूषण। बाजूबंद। २. बच्चों के पैरों का एक घुँघरूदार गहना। ३. कुश्ती का एक पेंच।
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परीभव  : पुं०=परिभव।
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परीभाव  : पुं०=परिभाव।
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परीमाण  : पुं०=परिमाण।
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परीरंभ  : पुं०=परिरंभ।
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परीर  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+ईरन्] वृक्ष का फल।
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परीरू  : वि० [फा०] परी की तरह सुन्दर आकृतिवाला। परम रूपवान या अति सुन्दर।
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परीवर्तन  : पुं०=परिवर्तन।
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परीवाद  : पुं०=परिवाद।
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परीवार  : पुं०=परिवार।
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परीवाह  : पुं०=परिवाह।
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परीशान  : वि० [फा० परीशाँ] [भाव० परीशानी]= परेशान। (देखें)
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परीशेष  : पुं०=परिशेष।
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परीषह  : पुं० [सं० परि√सह् (सहना)+अच्, दीर्घ] जैन शास्त्रों के अनुसार त्याग या सहन।
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परीष्ट  : वि० [सं० परि√ईष् (चाहना)+क्त] [भाव० परीष्टि] चाहने योग्य।
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परीष्टि  : स्त्री० [सं०] १. इच्छा। २. खोज। छान-बीन। ३. सेवा।
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परीसयर्पा  : स्त्री०=परिसयर्पा।
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परीसार  : पुं०=परिसार।
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परीहन  : पुं०=परिधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीहार  : पुं०=परिहार।
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परीहास  : पुं०=परिहास।
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परु  : पुं० [सं०√पृ+उन्] १. गाँठ। जोड़। २. अवयव। ३. समुद्र। ४. स्वर्ग। ५. पर्वत। पहाड़। अव्य० [हिं० पर] १. बीता हुआ वर्ष। पर साल। २. आनेवाला वर्ष।
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परुआ)  : पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० १. (बैल) जो काम करने के समय बैठ जाय या पड़ा रहे। २. काम-चोर। स्त्री० [?] एक तरह की जमीन।
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परुई  : स्त्री० [देश०] वह नाँद जिसमें भड़भूँजे अनाज के दाने भूँजते हैं।
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परुख  : वि० [भाव० परुखता] परुष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परुत्  : अव्य० [सं० परस्मिन्, नि० सिद्धि] बीता हुआ वर्ष। गत वर्ष।
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परुष  : वि० [सं०√पृ+उषन्] [भाव० परुषता] १. (वचन, वस्तु या व्यक्ति) जो गुण, प्रकृति, स्वभाव आदि की दृष्टि से कड़ा, रुक्ष तथा मृदुता-हीन हो। कठोर और कर्कश। २. उग्रतापूर्ण। तीव्र। ३. हृदयहीन। कठोर हृदयवाला। ४. रसहीन। नीरस। ५. खुरदरा। पुं० १. नीली कटसरैया। २. फालसा। ३. तीर। वाण। सरकंडा। सरपत। ५. खर-दूषण का एक सेनापति। ६. अप्रिय और कठोर बात या वचन।
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परुषता  : स्त्री० [सं० परुष+तल्+टाप्] १. परुष होने की अवस्था या भाव। २. कठोरता। कड़ापन। सख्ती। ३. (वचन या स्वर की) कर्कशता। ४. निर्दयता। निष्ठुरता।
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परुषत्व  : पुं० [सं० परुष+त्वन्]=परुषता।
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परुषा  : स्त्री० [सं० परुष+टाप्] साहित्य में शब्द-योजना की एक विशिष्ट प्रणाली जिसमें टवर्गीय, द्वित्व, संयुक्त, रेप, श, ष आदि वर्णों तथा लंबे समासों की अधिकता होती है। २. रावी नदी। ३. फालसा।
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परुसना  : स०=परोसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परूँगा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बलूत (वृक्ष)।
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परूष, परूषक  : पुं० [सं०√पृ+ऊषन्] [परुष+कन्] फालसा।
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परेंद्रिय ज्ञान  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट मनुष्यों में माना जानेवाला वह अतींद्रिय ज्ञान जिसकी सहायता से वे बहुत दूर के लोगों के साथ भी मानसिक संबंध स्थापित करके विचार-विनिमय आदि कर सकते हैं। (टेलिपैथी)
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परे  : अव्य० [सं० पर] १. वक्ता अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति से कुछ दूर हटकर या दूर रहकर। जैसे—परे हटकर खड़े होना। मुहा०—परे परे करना=उपेक्षा, घृणा आदि के कारण यह कहना कि दूर रहो या दूर हट जाओ। २. किसी क्षेत्र की सीमा से बाहर या दूर। जैसे—गाँव से परे पहाड़ है। ३. पहुँच, पैठ आदि से दूर या बाहर। जैसे—ईश्वर बुद्धि से परे है। ४. अलग, असंबद्ध या वियुक्त स्थिति में। जैसे वह तो जाति से परे है। ५. तुलना आदि के विचार से ऊँची स्थिति में या बढ़कर। आगे, ऊपर या बढ़कर। जैसे—इससे परे और क्या बात हो सकती है। मुहा०—परे बैठाना=अपनी तुलना में तुच्छ ठहराना। अयोग्य या हीन सिद्ध करना। जैसे—यह घोड़ा तो तुम्हारे घोड़े को परे बैठा देगा। ६. पीछे। बाद। (क्व०)
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परेई  : स्त्री० [हिं० परेवा] १. पंडुकी। फाखता। २. मादा कबूतर। कबूतरी।
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परेखना  : स० [सं० परीक्षण] १. परीक्षा करना। २. दे० ‘परखना’। अ० [सं० प्रतीक्षा] प्रतीक्षा करना। राह देखना। अ० [?] पश्चाताप करना। पछताना।
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परेखा  : पुं० [सं० परीक्षा] १. परीक्षा। जाँच। २. परखने की योग्यता या शक्ति। परख। ३. प्रतीति। पुं० [?] १. मन में होनेवाला खेद या विषाद। २. चिंता। फिक्र। ३. पश्चात्ताप। पुं०=प्रतीक्षा।
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परेग  : स्त्री० [अं० पेग] लोहे की छोटी कील।
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परेड  : स्त्री० [अं०] १. वह मैदान जहाँ सैनिकों को सैनिक शिक्षा दी जाती है। २. सिपाहियों या सैनिकों को दी जानेवाली सैनिक शिक्षा और उनसे संबंध रखनेवाले कार्यों का कराया जानेवाला अभ्यास। सैनिकों की कवायद।
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परेत  : पुं० [सं० प्रेत] १. दे० ‘प्रेत’। २. मृत शरीर। लाश। शव।
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परेता  : पुं० [सं० परित=चारों ओर] १. बाँस की पतली चिपटी तीलियों का बना हुआ बेलन के आकार का एक उपकरण जिसके दोनों ओर पकड़ने के लिए दो लंबी डंडियाँ होती हैं और जिस पर जुलाहे लोग सूत या रेशम लपेट कर रखते हैं। २. उक्त की तरह का वह उपकरण जिस पर पतंग उड़ाने की डोर लपेटी जाती है।
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परेर  : पुं० [सं० पर=दूर, ऊँचा+हिं० एर] आकाश। आसमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेला  : वि० [हिं० पड़ना] १. बैल जो चलते चलते पड़ या लेट जाता हो। २. निकम्मा और सुस्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेली  : स्त्री० [?] तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अंग-संचालन अधिक और अभिनय या भाव-प्रदर्शन कम होता है। इसे ‘देसी’ भी कहते हैं।
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परेव  : पुं०=परेवा।
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परेवा  : पुं० [सं० पारावत] [स्त्री० परेई] १. पंडुकी पक्षी। पेंडुकी। फाखता। २. कबूतर। ३. कोई तेज उड़नेवाला पक्षी। पुं० दे० ‘पत्रवाहक’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेश  : पुं० [सं० पर-ईश, कर्म० स०] १. वह जो सब का और सबसे बढ़कर मालिक या स्वामी हो। २. परमेश्वर। ३. विष्णु।
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परेशान  : वि० [फा०] [भाव० परेशानी] १. बिखरा हुआ। विश्रृंखल। २. कार्याधिक्य, अथवा चिंता, दुःख आदि के भार से जो बहुत अधिक व्यस्त अथवा विकल और बदहवास हो। ३. दूसरों द्वारा तंग किया अथवा सताया हुआ। जैसे—बच्चों से वह परेशान रहता था।
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परेशानी  : स्त्री० [फा०] १. परेशान होने की अवस्था या भाव। उद्वेगपूर्ण विकलता। हैरानी। २. वह बात या विषय जिससे कोई परेशान हो। काम में होनेवाला कष्ट या झंझट। क्रि० प्र०—उठाना।
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परेषणी  : पुं० [सं० प्रेषणी] वह व्यक्ति जिसके नाम रेल-पार्सल अथवा उसकी बिल्टी भेजी जाय। (कनसाइनी)
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परेषित  : भू० कृ० [सं० प्रेषित] (माल या सामग्री) जो रेल पार्सल द्वारा किसी के नाम भेजी जा चुकी हो। (कनसाइन्ड)
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परेष्टुका  : स्त्री० [सं० पर√इष्+तु+क+टाप्] ऐसी गाय जो प्रायः बच्चे देती हो।
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परेस  : पुं०=परेश (परमेश्वर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेह  : पुं० [?] बेसन आदि का पकाया हुआ वह घोल जिसमें पकौड़ियाँ डालने पर कढ़ी बनती है।
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परेहा  : पुं० [देश०] जोती और सींची हुई भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परैधित  : वि० [सं० पर-एधित, तृ० त०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोकिल।
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परैना  : पुं० [हिं० पैना] बैल आदि हाँकने की छड़ी या डंडा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परों  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोक्त-दोष  : पुं० [सं० पर-उक्त, तृ० त०, परोक्त-दोष, कर्म० स०?] न्यायालय में ऊट-पटाँग या गलत बयान देने का अपराध।
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परोक्ष  : वि० [सं० अक्षि-पर अव्य० स०, टच्] [भाव० परोक्षत्व] १. जो दृष्टिके क्षेत्र या पथ के बाहर हो और इसीलिए दिखाई न देता हो। आँखों से ओझल। २. जो सामने उपस्थिति या मौजूद न हो। अनुपस्थित। गैर-हाजिर। ३. छिपा हुआ। गुप्त। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ४. किसी काम या बात से अनभिज्ञ। अनजान। अपरिचित ५. जिसका किसी से प्रत्यक्ष या सीधा संबंध न हो, बल्कि किसी दूसरे के द्वारा हो। ६. जो उचित और सीधी या स्पष्ट रीति से न होकर किसी प्रकार के घुमाव-फिराव या हेर-फेर से हो। जो सरल या स्पष्ट रास्ते से न होकर किसी और या दूर रास्ते से हो। (इनडाइरेक्ट) जैसे—परोक्ष रूप से आग्रह या संकेत करना। पुं० १. आँखों के सामने न होने की अवस्था या भाव। अनुपस्थिति। २. बीता हुआ समय या भूतकाल जो इस समय सामने न हो। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ३. व्याकरण में पूर्ण भूतकाल। ४. वह जो तीनों कालों की बातें जानता हो; अर्थात् त्रिकालज्ञ या परम ज्ञानी। ५. ऐसी दशा, स्थान या स्थिति जो आँखों के सामने न हो, बल्कि दृष्टि-पथ के बाहर या इधर-उधर छिपी हुई हो। जैसे—परोक्ष से किसी के रोने का शब्द सुनाई पड़ा। अव्य० किसी की अनुपस्थिति या गैर हाजिरी में। पीठ-पीछे। जैसे—परोक्ष में किसी की निंदा करना।
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परोक्ष-कर  : पुं० [कर्म० स०] अर्थशास्त्र में, दो प्रकार के करों में से एक (प्रत्यक्ष कर से भिन्न) जो लिया तो किसी और व्यक्ति (उत्पादक, आयातक आदि) से जाता है परंतु जिसका भार दूसरों (अर्थात् उपभोक्ताओं) पर पड़ता है। (इनडाइरेक्ट टैक्स) जैसे—उत्पादनकर, आयात-निर्यात कर।
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परोक्षत्व  : पुं० [सं० परोक्ष+त्वन्] परोक्ष या अदृश्य होने की दशा या भाव।
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परोक्ष-दर्शन  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के दृश्य या रूप दिखाई देना जो बहुत दूरी पर हों और साधारण मनुष्यों के दृश्य के बाहर हों। अतीन्द्रिय दृष्टि। (कलेरवायंस)
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परोक्ष-निर्वाचन  : पुं० [सं० त०] निर्वाचन की वह पद्धति जिसमें उच्चपदों के लिए अधिकारी या प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाते हैं, बल्कि जनता के प्रतिनिधियों, निर्वाचन मंडलों आदि के द्वारा चुने जाते हैं। (इनडाइरेक्ट इलेक्शन)
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परोक्ष-श्रवण  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसे शब्द सुनाई देना या ऐसे कथनों का परिज्ञान होना जो बहुत दूर पर हो रहे हों और साधारण मनुष्यों के श्रवण-क्षेत्र के बाहर हों। अतींद्रिय-श्रवण। (क्लेअर ऑडिएन्स)
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परोजन  : पुं० [सं० प्रयोजन] १. प्रयोजन। २. कोई ऐसा पारिवारिक उत्सव या कृत्य जिसमें इष्ट-मित्रों, संबंधियों आदि की उपस्थिति आवश्यक हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोढा  : स्त्री० [सं० पर-ऊढा, तृ० त०]=ऊढ़ा (नायिका)।
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परोता  : पुं० [देश०] [स्त्री० परोती] गेहूँ के पयाल से बनाया जानेवाला एक तरह का टोकरा। (पंजाब) पुं० [?] आटा, गुड़, हल्दी, पान आदि जो किसी शुभ कार्य में हज्जाम, भाँट आदि को दिये जाते हैं। पुं०=पर-पोता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोद्वह  : वि० [सं० पर-उद्वह, ब० स०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोयल।
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परोना  : पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोपकार  : पुं० [सं० पर-उपकार, ष० त०] [भाव० परोपकारिता] ऐसा काम जिससे दूसरों का उपकार या भलाई होती हो। दूसरों के हित का काम।
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परोपकारक  : पुं० [सं० पर-उपकारक, ष० त०] परोपकारी।
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परोपकारिता  : पुं० [सं० परोपकारिन्+तल्+टाप्] १. परोपकार करने की क्रिया या भाव। २. परोपकार।
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परोपकारी (रिन्)  : पुं० [सं० परोपकार+इनि] [स्त्री० परोपकारिणी] वह जो दूसरों का उपकार या हित करता हो। दूसरों की भलाई या हित का काम करने अथवा ऐसी बातें बतलानेवाला जिनसे दूसरों का हित हो सकता हो।
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परोपकृत  : भू० कृ० [सं० पर-उपकृत, तृ० त०] जिसका दूसरों ने उपकार किया हो। जिसके साथ परोपकार हुआ हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
परोपजीवी (विन्)  : वि० [सं०] दूसरों के भरोसे जीवन निर्वाह करनेवाला। पुं० ऐसे कीड़े-मकोड़े या वनस्पतियाँ जो दूसरे जीव-जंतुओं या वृक्षों के अंगों पर रहकर जीवन निर्वाह करते हों। (पैरीसाइट)
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परोपदेश  : पुं० [सं० पर-उपदेश, ष० त०] दूसरों को दिया जानेवाला उपदेश।
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परोपसर्पण  : पुं० [सं० पर-उपसर्पण, ष० त०] भीख माँगना।
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परोरजा (जस्)  : वि० [सं० रजस्-पर पं० त०, सुट् नि०] जो राग, द्वेष आदि भावों से परे हो। विरक्त। विमुक्त।
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परोरना  : स० [?] मंत्र पढ़कर फूँकना। अभिमंत्रित करना। जैसे—रोगी को परोरकर पानी पिलाना।
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परोल  : पुं० दे० ‘पैरोल’।
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परोष्णी  : स्त्री० [सं० पर-उष्ण, ब० स०, ङीष्] १. तेल चाटनेवाला एक कीड़ा। तेल-चटा। २. पुराणानुसार कश्मीर की एक नदी।
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परोस  : स्त्री० [हिं० परोसना] परोसने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पड़ोस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोसना  : स० [सं० परिवेषण] खानेवाले की थाली या पत्तल में खाद्य पदार्थ रखना। जैसे—दाल, पूरी और मिठाई परोसना।
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परोसा  : पुं० [हिं० परोसना] प्रायः एक आदमी के खाने भर का वह भोजन जो उसे अपने साथ ले जाने के लिए दिया अथवा उसके यहाँ भेजा जाता है।
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परोसी  : पुं० [स्त्री० परोसिनी]=पड़ोसी।
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परोसैया  : पुं० [हिं० परोसना+ऐया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो पंगत आदि में बैठे हुए लोगों के लिए भोजन परोसता हो।
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परोहन  : पुं० [सं० प्ररोहण] वह पशु जिस पर चढ़कर सवारी की जाय या जिस पर बोक्ष लादा जाय।
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परोहा  : पुं० [सं० प्ररोहण] १. खेतों की सिंचाई का वह प्रकार जिसमें कम गहरे जलाशय में बाँस आदि से झूलती हुई दौरी की सहायता से पानी उठाकर खेतों में डाला जाता है। २. उक्त दौरी जिसमें पानी निकाला जाता है। ३. कुएँ से पानी निकालने का चरसा। मोट।
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परौं  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौका  : स्त्री० [देश०] बाँझ भेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौठा  : पुं०=पराँठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौता  : स्त्री० [देश०] वह चादर जिससे हवा करके अनाज ओसाया जाता है। परती।
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परौती  : स्त्री०=पड़ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्कट  : पुं० [देश०] बगला।
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पर्कटी  : स्त्री० [सं०√पृच् (जोड़ना)+अटि, कुत्व, ङीष्] १. पाकर वृक्ष। २. नई सुपारी। स्त्री० हिं० पर्कट (बगला) का स्त्री०।
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पर्कार  : पुं० [फा०] परकार। (दे०)
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प्रर्काला  : पुं०=परकाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्गना  : पुं०=परगना।
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पर्गार  : पुं० [फा०] परकारा। (दे०)
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पर्चा  : पुं०=परचा।
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पर्चाना  : स०=परचाना।
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पर्चून  : पुं०=परचून।
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पर्छा  : पुं०=परछा।
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पर्जंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्ज  : स्त्री०=परज।
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पर्जनी  : स्त्री० [सं०√पृज् (स्पर्श करना)+अन्, ङीष्] दारू हल्दी।
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पर्जन्य  : पुं० [सं०√पृष् (सींचना)+अन्य, ष—ज] १. गरजता तथा बरसता हुआ बादल। मेघ। २. इंद्र। ३. विष्णु। ४. कश्यप ऋषि के एक पुत्र जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है।
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पर्जन्या  : स्त्री० [सं० पर्जन्य+टाप्] दारू हल्दी।
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पर्ण  : पुं० [सं०√पृ+न] १. पेड़ का पत्ता। पत्र। जैसे—पर्ण-कुटी=पत्तों से छाकर बनाई हुई कुटी। २. पान का पत्ता। ताम्बूल। ३. पलाश। ढाक। ४. पुस्तक, पंजी आदि का पृष्ठ। (लीफ) ५. कागज का वह टुकड़ा या परत जिसमें से वैसा ही दूसरा टुकड़ा या परत प्रतिलिपि के रूप में काटकर अलग करते हैं। (फायल)
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पर्णक  : पुं० [सं० पर्ण+कन्] पार्णकि गोत्र के प्रवर्तक एक ऋषि।
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पर्णकार  : पुं० [सं० पर्ण√कृ (करना)+अण्] १. पान बेचनेवाला व्यक्ति। तमोली। २. पान बेचनेवालों की एक पुरानी जाति।
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पर्ण-कुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह झोपड़ी जिसकी छाजन पत्तों की बनी हो।
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पर्ण-कूर्च  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिन तक ढाक, गूलर, कमल और बेल के पत्तों का काढ़ा पीया जाता है।
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पर्ण-कृच्छ  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पाँच दिनों का व्रत जिसमें पहले दिन ढाक के पत्तों का, दूसरे दिन गूलर के पत्तों का, तीसरे दिन कमल के पत्तों का, चौथे दिन बेल के पत्तों का पीकर पाँचवें दिन कुश का काढ़ा पीया जाता था।
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पर्ण-खंड  : पुं० [ब० स०] वह वृक्ष जिसमें फूल, पत्ते आदि न लगते हों।
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पर्ण-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] वनस्पति विज्ञान में, पेड़-पौधों के तने या स्तंभ का वह स्थान जहाँ से पत्ते निकलते हैं। (नोड)
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पर्ण-चोरक  : पुं० [ष० त०] चोरक नाम का गंध द्रव्य।
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पर्ण-नर  : पुं० [मध्य० स०] किसी अज्ञात स्थान में मरनेवाले व्यक्ति का घास-फूस आदि का बनाया हुआ वह पुतला जो उसका शव न मिलने की दशा में उसका शव मानकर जलाया जाता है।
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पर्णभेदिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण√भिद् (फाड़ना)+णिनि+ ङीप्] प्रियगु लता।
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पर्ण-भोजन  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसका पत्ता ही भोजन हो। वह जो केवल पत्ते खाकर जीता हो। २. बकरी।
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पर्णभोजनी  : स्त्री० [सं० पर्णभोजन+ङीप्] बकरी।
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पर्ण-मणि  : स्त्री० [मध्य स०] १. पन्ना या मरकत नामक रत्न। २. एक प्रकार का अस्त्र।
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पर्णमाचल  : पुं० [सं० पर्ण-आ√चल्+णिच्+अण्, मुम्] कमरख का पेड़।
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पर्णमुक (च्)  : पुं० [सं० पर्ण√मुच् (छोड़ना)+क्विप्] पतझड़।
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पर्ण-मृग  : पुं० [मध्य० स०] पेड़ों पर रहनेवाले जंगली जीव-जंतु। जैसे—गिलहरी, बंदर आदि।
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पर्णय  : पुं० [सं०] एक असुर जिसे इंद्र ने मारा था।
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पर्णरुह  : पुं० [सं० पर्ण√रुह् (जनमना)+क] वसंत (ऋतु)।
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पर्णल  : वि० [सं० पर्ण+लच्] १. (वृक्ष) जिसमें बहुत अधिक पत्ते लगे हों। २. पत्तों से बनाया हुआ। पत्तों से युक्त
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पर्ण-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] पान की बेल या लता।
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पर्णवल्क  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्ण-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] पालाशी नामक लता।
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पर्ण-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] १. पत्ते का बना हुआ बाजा। २. उक्त बाजे को बजाने से होनेवाला शब्द।
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पर्ण-वीटिका  : स्त्री० [ष० त०] पान का बीड़ा।
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पर्ण-शब्द  : स्त्री० [ष० त०] पत्तों के खड़खड़ाने का शब्द।
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पर्ण-शय्या  : स्त्री० [मध्य० स०] पत्तों का बिछावन या बिस्तर।
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पर्ण-शवर  : पुं० [ब० स०] १. पुराणानुसार एक देश का नाम। २. उक्त देश में रहनेवाली आदिम अनार्य जाति जो संभवतः अब नष्ट हो गई है।
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पर्ण-शाला  : स्त्री० [मध्य० स०] पर्णकुटी।
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पर्णशालाग्र  : पुं० [पर्णशाला-अग्र, ब० स०] पुराणानुसार भद्राश्व वर्ष का एक पर्वत।
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पर्ण-संपुट  : पुं० [ष० त०] पत्ते या पत्तों का बना हुआ दोना।
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पर्ण-संस्तर  : वि० [ब० स०] पर्णशय्या पर सोनेवाला।
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पर्णसि  : पुं० [सं०√पृ+असि, नुक्] १. कमल। २. साग। ३. पानी में बनाया हुआ घर या मकान।
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पर्णांग  : पुं० [पर्ण-अंग, ब० स०] एक विशिष्ट प्रकार के पौधों का वर्ग जिसमें केवल बड़े-बड़े सुंदर पत्ते होते हैं, फूल नहीं लगते। (फर्न)
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पर्णाटक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाद  : पुं० [सं० पर्ण√अद् (खाना)+अण्] १. वह जो पत्तों का भक्षण करता हो। २. एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाशन  : पुं० [सं० पर्ण+अश् (खाना)+ल्यु—अन] १. वह जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। २. बादल। मेघ।
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पर्णास  : पुं० [सं० पर्ण√अस् (फेंकना)+अच्] तुलसी।
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पर्णाहार  : पुं०=पर्णाशन। (दे०)
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पर्णिक  : पुं० [सं० पर्ण+ठन—इक] पत्तों का व्यवसाय करनेवाला। पत्ते बेचनेवाला।
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पर्णिका  : स्त्री० [सं० पर्णिक+टाप्] १. मानकंद। शालपंजी। सरिवन। २. पिठवन्। पृष्णिपर्णी। ३. अग्निमंथ। अरणी। ४. कागज का वह छोटा कटा या काटा हुआ टुकड़ा जो कहीं दिखलाने पर कुछ निश्चित धन या पदार्थ मिलता है, कोई काम होता है अथवा कोई सहायता या सेवा प्राप्त होती है। (कूपन)
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पर्णिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण+इनि—ङीप्] १. माषपर्णी। २. एक अप्सरा।
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पर्णिल  : वि० [सं० पर्ण+इलच] पत्तों से युक्त।
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पर्णी (णिनि)  : पुं० [सं० पर्ण+इनि] १. वृक्ष। पेड़। २. शालपर्णी। सरिवन। ३. पिठवन। ४. तेजपत्ता। ५. एक प्रकार की अप्सराएँ, कदाचित् परियाँ।
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पर्णीर  : पुं० [सं० पर्ण+ईरच्] सुगंधवाला।
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पर्णोटज  : पुं० [सं० पर्ण-उटज, मध्य० स०] पर्ण-कुटी।
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पर्त  : स्त्री०=परत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्द  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+द] १. सिर के बालों का समूह। २. गुदामार्ग से निकलनेवाली वायु। पाद।
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पर्दन  : पुं० [सं०√पर्द्+ल्युट्—अन] पादने की क्रिया। पादना।
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पर्दनी  : स्त्री० [सं० परिधानी] धोती।
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पर्दा  : पुं०=परदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्धा  : वि० [हिं० आधा का अनु०] आगे से कुछ कम या अधिक। आधे के लगभग। उदा०—वह पूरा कभी वसूल नहीं हो पाता था—कभी आधा कभी पर्धा।—वृन्दावन लाल वर्मा।
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पर्ना  : पुं० [फा०] एक तरह का बूटीदार रेशमी कपड़ा। पुं०=परना।
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पर्प  : पुं० [सं० पृ०+प] १. हरी घास। २. वह पहियेदार छोटी गाड़ी जिस पर पगुओं को बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। ३. घर। मकान।
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पर्पट  : पुं० [सं०√पर्प् (गति)+अटन्] १. पित-पापड़ा। २. दाल आदि का बना हुआ पापड़।
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पर्पट-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] कुंभी वृक्ष।
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पर्पटी  : स्त्री० [सं० पर्पट+ङीष्] १. सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की मिट्टी जो सुगंधित होती है। २. उक्त मिट्टी में से निकलनेवाली गंध। ३. गंध। महक। ४. पानड़ी। ५. पापड़ी। ६. वैद्यक की स्वर्ण-पर्पटी नाम की रसौषधि। स्त्री०=कनपटी। उदा०—माथे पर और पर्पटी पर मल दिया।—अज्ञेय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्परी  : स्त्री० [सं० पर्प√रा (देना)+क+ङीष्] स्त्रियों की कवरी। जूड़ा। स्त्री० [सं० पर्पट] १. पापड़ के छोटे छोटे टुकड़े। २. कचरी।
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पर्परीक  : पुं० [सं०√पृ+ईकन्, द्वित्व, रुक्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. जलाशय।
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पर्परीण  : पुं० [सं०√पृ+यङ्, लुक्,+इनन्] पत्ते की नस।
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पर्पिक  : पुं० [सं० पर्प+ठन्—इक] पर्प में बैठनेवाला पंगु व्यक्ति।
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पर्फरीक  : पुं० [सं० √स्फुट् (संचलन)+ईकन्, नि० सिद्धि] नया और कोमल पत्ता।
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पर्ब  : पुं० [सं० पर्व] १.=पर्व। २. वह शुभ दिन जिस दिन सिक्ख लोग उत्सव मनाते हैं। जैसे—गुरुपर्व=नानक के जन्म लेने का दिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बत  : पुं०=पर्वत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बती  : वि० [हिं० पर्वत] पर्वत-संबंधी। पहाड़ी।
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पर्यंक  : पुं० [सं० परि-अंक, प्रा० स०] १. पलंग। २. योग में एक प्रकार का आसन। ३. वीरों के बैठने का एक प्रकार का आसन या ढंग। ४. नर्मदा नदी के उत्तर ओर में स्थित पर्वत जो विन्ध्य पर्वत का पुत्र माना गया है।
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पर्यंक-पदिका  : स्त्री० [सं० पर्यंक-पाद, ब० स०, ठन्—इक, टाप्] एक तरह का सेम जिसकी फलियाँ काले रंग की होती हैं।
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पर्यंत  : भू० कृ० [सं० परि-अंत, प्रा० स०] घिरा हुआ। स्त्री० किसी क्षेत्र के विस्तार की समाप्ति सूचित करनेवाली रेखा। चौहद्दी। सीमा। (बाउण्डरी) अव्य० तक। लौं।
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पर्यंतिका  : स्त्री० [सं० परि-अंतिका, प्रा० स०] नैतिकता तथा सद्गुनों का होनेवाला नाश।
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पर्यग्नि  : पुं० [सं० परि-अग्नि, प्रा० स०] १. हाथ में अग्नि लेकर यज्ञ के लिए छोड़े हुए पशु की परिक्रमा करना। २. वह अग्नि जो उक्त अवसर पर हाथ में ली जाती थी।
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पर्यटक  : पुं० [सं० परि√अट् (गति)+ण्वुल्—अक] पर्यटन करनेवाला। दूसरे देशों में घूमने-फिरनेवाला।
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पर्यटन  : पुं० [सं० परि√अट्+ल्युट्—अन] अनेक महत्त्वपूर्ण स्थल देखने तथा मन-बहलाव के लिए अधिक विस्तृत भूभाग में किया जानेवाला भ्रमण।
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पर्यनुयोग  : पुं० [सं० परि-अनुयोग, प्रा० स०] १. कोई बात मिथ्या सिद्ध करने अथवा किसी तथ्य का खण्डन करने के उद्देश्य से की जानेवाली पूछ-ताछ। २. निंदा।
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पर्यन्य  : पुं०=पर्जन्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यय  : पुं० [सं० परि√इ (जाना)+अच्] १. चारों ओर चक्कर लगाना। २. समय का बीतना। ३. समय का अपव्यय। ४. किसी लौकिक या शास्त्रीय बन्धन, मर्यादा आदि का उल्लंघन।
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पर्ययण  : पुं० [सं० परि√इ+ल्युट्—अन] १. किसी के चारों ओर चक्कर लगाना। २. घोड़े की जीन। काठी।
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पर्यवदात  : वि० [सं० परि-अवदात, प्रा० स०] १. पूर्ण रूप से निर्मल और शुद्ध। २. निपुण। ३. ज्ञात और परिचित।
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पर्यवरोध  : पुं० [सं० परि-अवरोध, प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली बाधा।
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पर्यवलोकन  : पुं० [सं० परि-अवलोकन, प्रा० स०] १. चारों ओर देखना। २. चारों ओर इस तरह निरीक्षणात्मक दृष्टि से देखना कि समूचे क्षेत्र या उसमें होनेवाली चीजों का चित्र मस्तिष्क में उतर आये। (सर्वे)
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पर्यवसान  : पुं० [सं० परि-अव√सो (समाप्ति)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यवसित] १. अंत। समाप्ति। २. अंतर्भाव। ३. क्रोध। गुस्सा। ४. अर्थ, आशय आदि के संबंध में होनेवाला ठीक ज्ञान या निश्चय।
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पर्यवस्था  : स्त्री० [सं० परि-अव√स्था (ठहरना)+अङ्—टाप्] १. विरोध। २. खंडन।
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पर्यवस्थान  : पुं० [सं० परि-अव√स्था+ल्युट्—अन] १. विरोध करना। २. खंडन करना।
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पर्यवेक्षक  : वि० [परि-अव√ईक्ष्+ण्वुल्—अक] पर्यवेक्षण करनेवाला। वह अधिकारी जो किसी काम के ठीक तरह से होते रहने की देख-रेख करने पर नियुक्त हो। (सुपरवाइजर)
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पर्यवेक्षण  : पुं० [परि—अव√ईक्ष्+ल्युट्—अन] बराबर यह देखते रहना कि कोई काम ठीक तरह से चल रहा है या नहीं। (सुपरवाइजिंग)
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पर्यश्रु  : वि० [सं० परि—अश्रु, ब० स०] १. आशुओं से नहाया या भींगा हुआ। २. जिसकी आँखों में आँसू भरे हो।
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पर्यसन  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यस्त] १. दूर करना। बाहर करना। निकालना। २. भेजना। ३. नष्ट करना। ४. रद्द करना।
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पर्यस्त  : भू० कृ० [सं० परि√अस्+क्त] जिसका पर्यसन हुआ हो।
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पर्यस्तापह्नुति  : स्त्री० [सं० पर्यस्ता-अपह्नुति, कर्म० स०] अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें किसी उपमान के धर्म का निषेध करके उस धर्म की स्थापना उपमेय में की जाती है।
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पर्यस्ति  : स्त्री० [सं० परि√अस्+क्तिन्] १. दूर करना। २. वीरासन लगाकर बैठना।
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पर्यस्तिका  : स्त्री० [सं० पर्यस्ति+कन्+टाप्] १. वीरासन। २. पलंग।
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पर्याकुल  : वि० [सं० परि-आकुल, प्रा० स०] गंदला, क्षुब्ध (पानी)। २. डरा और घबराया हुआ। ३. अस्त-व्यस्त। ४. उत्तेजित। ५. मरा हुआ।
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पर्यागत  : वि० [सं० परि-आ√गम् (जाना)+क्त] १ जो पूरा चक्कर लगा चुका हो। २. जो अपने सांसारिक जीवन का अंत कर चुका हो।
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पर्याचांत  : पुं० [सं० परि-आ√चंम् (खाना)+क्त] आचमन करने के बाद छोड़ा जानेवाला परोसा हुआ भोजन। (धार्मिक दृष्टि से ऐसा भोजन जूठा माना जाता है)।
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पर्याण  : पुं० [सं० परि√या (गति)+ल्युट्, पृषो० सिद्धि] घोड़े की जीन। काठी।
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पर्याप्त  : वि० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० पर्याप्ति] १. जितना आवश्यक हो उतना सब। पूरा। यथेष्ट। काफी। (सफिशिएन्ट)। २. मिला हुआ। प्राप्त। विशेष—यथेष्ट की तरह इसका प्रयोग भी केवल ऐसी चीजों या बातों के संबंध में होना चाहिए जो आवश्यक हों या जिनसे हमें तृप्ति या संतोष प्राप्त होता हो। जैसे—पर्याप्त धन, पर्याप्त सुख। यह कहना ठीक न होगा—मुझे वहाँ पर्याप्त कष्ट मिला था। ३. जोड़, तुल्यता आदि की दृष्टि से उपयुक्त, अधिक बलवान या सशक्त। ४. परिमित। सीमित। पुं० १. पर्याप्त या यथेष्ट होने की अवस्था या भाव। २. तृप्ति। ३. शक्ति। ४. सामर्थ्य। ५. योग्यता।
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पर्याप्ति  : स्त्री० [सं० परि√आप्+क्तिन्] १. पर्याप्त होने की अवस्था या भाव। यथेष्टता। २. प्राप्ति। मिलना। ३. अन्त। समाप्ति। ४. योग्यता या सामर्थ्य। ५. तृप्ति। संतुष्टि। ६. निवारण। ६. रक्षा करना। रक्षण।
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पर्याप्लाव  : पुं० [सं० परि-आ√प्लु (गति)+घञ्] १. चक्कर। फेरा। २. घेरा।
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पर्याप्लुत  : भू० कृ० [सं० परि-आ√प्लु+क्त] घिरा या घेरा हुआ।
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पर्याय  : पुं० [सं० परि√ई (गति)+घञ्] १. पारस्परिक संबंध की दृष्टि से वे शब्द जो सामान्यतः किसी एक ही चीज, बात या भाव का बोध कराते हों। साधारणतः पर्यायों के अभिधेयार्थ समान होते हैं, लक्ष्यार्थों में भिन्नता हो सकती है। (सिनामिन) २. क्रम। सिलसिला। ३. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें अनेक आश्रय ग्रहण करने का वर्णन होता है। ४. प्रकार। भेद। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने या रचने की क्रिया। निर्माण। ७. द्रव्य का गुण या धर्म। ८. समय का व्यतीत होना। ९. दो व्यक्तियों में होनेवाला ऐसा नाता या संबंध जो एक ही कुल में जन्म लेने के कारण माना जाता या होता है।
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पर्यायकी  : स्त्री० [सं०] भाषा विज्ञान का एक अंग, जिसमें पर्याय शब्दों के पारस्परिक सूक्ष्म अंतरों और भेद-प्रभेदों का अध्ययन किया जाता है। (सिनॉमिनी)
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पर्याय-कोश  : पुं० [ष० त०] वह शब्दकोश जिसमें शब्दों के पर्याय बतलाये गये हों तथा उनमें होनेवाली परस्पर आर्थी अंतरों का विवेचन किया गया हो।
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पर्याय-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. पद, मान आदि के विचार से स्थिर किया जानेवाला क्रम। बड़ाई-छोटाई आदि के विचार से लगाया हुआ क्रम। २. उत्तरोत्तर होती रहनेवाली वृद्धि।
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पर्यायज्ञ  : पुं० [सं० पर्याय√ज्ञा (जानना)+क] पर्यायों के सूक्ष्म अंतर जानने वाला विद्वान् व्यक्ति। (सिनानिमिस्ट)
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पर्यायवाचक  : वि० [सं०] १. पर्याय के रूप में होनेवाला। २. जो संबंध के विचार से पर्याय हो।
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पर्यायवाची (चिन्)  : वि० [सं०]=पर्यायवाचक।
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पर्याय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा स्वभाव जिसके कारण एक छोड़कर दूसरे को, फिर उसे छोड़कर किसी और को अपनाते चलने का क्रम चलता रहता है।
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पर्याय-शयन  : पुं० [तृ० त०] एक के बाद दूसरे का या पारी पारी से सोना।
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पर्यायिक  : वि० [सं० पर्याय+ठन्—इक] १. पर्याय-संबंधी। पर्याय का। २. पर्याय के रूप में होनेवाला। पुं० नृत्य और संगीत का एक अंग।
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पर्यायी  : वि० [सं०] पर्यावाचक।
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पर्यायोक्ति  : स्त्री० [सं० पर्याय—उक्ति, तृ० त०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें (क) कोई बात सीधी तरह से न कहकर चमत्कारिक और विलक्षण ढंग से कही जाती है। जैसे—नायक के बिछुड़ने के समय रोती हुई नायिका का अपने आँसुओं से यह कहना कि जरा ठहरो, और मेरे प्राण भी अपने साथ लेते जाओ। (ख) किसी बहाने या युक्ति से कोई काम करने का उल्लेख होता है। जैसे—पक्षियों और हिरनों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार श्रीराम की ओर देखती थीं।
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पर्यालोचन  : पुं० [सं० परि-आ√लोच् (देखना)+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह की जानेवाली देख-भाल। २. दुबारा या फिर से की जानेवाली देख-भाल। ३. दे० ‘पुनरीक्षण’।
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पर्यालोचना  : स्त्री० [सं० परि-आ√लोच्+णिच्+युच्—अन,+टाप्]=पर्यालोचन।
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पर्यावरण  : पुं० [सं० परि+आवरण] किसी व्यक्ति या विषय की परिस्थिति। वातावरण। उदा०—कवि पर किसी एक समाज के पर्यावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है।—डा० सम्पूर्णानन्द।
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पर्यावर्त्त  : पुं० [सं० परि-आ√वृत् (बरतना)+घञ्] १. वापस आना। लौटना। २. मृत आत्मा का फिर से इस संसार में आकर जन्म लेना या शरीर धारण करना।
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पर्यावर्तन  : पुं० [सं० परि-आ√वृत्+ल्युट्—अन] १. वापस आना। लौटना। २. अदला-बदली। विनिमय।
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पर्याविल  : वि० [सं० परि-आविल, प्रा० स०] गँदला (जल)।
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पर्यास  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+घञ्] १. पतन। गिरना। २. वध। हत्या। ३. नाश। पुं०=प्रयास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यासन  : पुं० [सं० परि√अस् (बैठना)+ल्युट्—अन] १. किसी को घेर कर बैठना। किसी के चारों ओर बैठना। २. परिक्रमा करना।
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पर्याहार  : पुं० [सं० परि-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. जूआ। २. ढोने की क्रिया। ३. बोझ। ४. घड़ा। ५. अन्न जमा करना।
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पर्युक्षण  : पुं० [सं० परि√उक्ष् (सींचना)+ल्युट्—अन] श्राद्ध, होम, पूजा आदि के बिना मंत्र पढ़े छिड़का जानेवाला जल।
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पर्युक्षणी  : स्त्री० [सं० पर्युक्षण+ङीप्] पर्युक्षण के लिए जल से भरा पात्र।
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पर्युत्थान  : पुं० [सं० परि-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्—अन] उठ खड़ा होना।
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पर्युसुक्  : वि० [सं० परि-उत्सुक, प्रा० स०] १. बहुत अधिक उत्सुक। २. उदास। खिन्न। ३. विकल। खिन्न।
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पर्युदय  : पुं० [सं० अत्या० स०] सूर्योदय से कुछ पहले का समय। तड़का।
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पर्युदस्त  : वि० [सं० परि-उद्√अस्+क्त] १. निषिद्ध। २. जिसके संबंध में या जिस पर आपत्ति की गई हो।
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पर्युदास  : पुं० [सं० परि-उद्√अस्+घञ्] नियम आदि के विरुद्ध अपवाद के रूप में कही जानेवाली बात।
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पर्युपस्थान  : पुं० [सं० परि-उप्√स्था+ल्युट्—अन] सेवा।
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पर्युपासक  : पुं० [सं० परि-उपासक, प्रा० स०] १. उपासक। २. सेवक।
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पर्युपासन  : पुं० [सं० परि-उपासन, प्रा० स०] १. उपासना। २. सेवा।
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पर्युपासिता (तृ), पर्युपासी (सिन्)  : पुं० [सं० परि-उप√आस+तृच्, सं० परि-उप√अस्+णिनि] पर्युपासक। (दे०)
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पर्युप्त  : भू० कृ० [सं० परि√वप् (बोना)+क्त] [भाव० पर्युप्ति] जो बोया गया हो।
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पर्युप्ति  : स्त्री० [सं० परि√वप्+क्तिन्] बीज बोने की क्रिया या भाव। बोआई।
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पर्युषण  : पुं० [सं० परि√उष्+ल्युट्—अन] १. जैनियों के अनुसार तीर्थंकरों की पूजा या सेवा। २. जैनों का एक विशिष्ट पर्व जिसमें कई प्रकार के व्रतों का पालन किया जाता है।
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पर्युषित  : वि० [सं० परि√वस्+क्त] १. जो ताजा न हो। एक दिन पहले का। बासी। (फूल या भोजन के लिए प्रयुक्त) २. मूर्ख।
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पर्यूहण  : पुं० [सं० परि√ऊह्+ल्युट्—अन] अग्नि के चारों ओर जल छिड़कना।
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पर्येषणा  : स्त्री० [सं० परि-एषणा, प्रा० स०] १. तर्कपूर्वक की जानेवाली पूछ-ताछ। २. चान-बीन। जाँच-पड़ताल। ३. पूजा।
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पर्योष्टि  : स्त्री० [सं० परि-आ√इष्+क्तिन्]। पर्येषणा। (दे०)
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पर्व (र्वन्)  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+वनिप्] १. दो चीजों के जुड़ने का संधि-स्थान। जोड़। गाँठ। जैसे—उँगली या गन्ने का पर्व (पोर)। २. शरीर का ऐसा अंग जो किसी जोड़ के आगे हो और घुमाया फिराया या मोड़ा जा सकता हो। ३. अंश। खंड। भाग। ४. ग्रंथ या कोई विशिष्ट अंश, खंड या विभाग। जैसे—महाभारत में अठारह पर्व हैं। ५. सीढ़ी का डंडा। ६. कोई निश्चित या सीमित काल। अवधि, विशेषतः अमावस्या, पूर्णिमा और दोनों पक्षों की अष्टमियाँ। ७. वे यज्ञ जो उक्त तिथियों में किये जाते थे। ८. आनन्द और उत्सव का दिन या समय। ९. वह दिन जब विशिष्ट रूप से कोई धार्मिक या पुण्य-कार्य किया जाता हो। १॰. कोई विशिष्ट अच्छा अवसर या समय। आनन्द या त्योहार मनाने का दिन। ११. उत्सव। १२. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। १३. सूर्य का किसी राशि में संक्रमण काल। संक्रांति। १४. चातुर्मास्य।
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पर्वक  : पुं० [सं० पर्वन्√कै (प्रकाशित होना)+क] घुटना।
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पर्वकार  : पुं० [सं० पर्वन्√कृ (करना)+अण्] वह ब्राह्मण जो घन के लोभ से पर्व के दिन काम छोड़ दे, और फिर सुभीते से किसी दूसरे दिन करे।
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पर्व-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पर्व हो। पुण्यकाल। २. चंद्रमा के क्षय के दिन, अर्थात् पूर्णमासी से अमावस्या तक का समय।
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पर्वगामी (मिन्)  : पुं० [सं० पर्वन्√गम् (जाना)+णिनि] शास्त्रों द्वारा वर्जित तिथि या पर्व पर स्त्री-गमन करनेवाला व्यक्ति।
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पर्वण  : पुं० [सं०√पर्व् (पूर्ति)+ल्युट्—अन] १. कोई काम पूरा करने की क्रिया या भाव। २. एक राक्षस का नाम।
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पर्वणिका  : स्त्री० [सं० पर्वणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] पर्वणी नाम का आँख का रोग।
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पर्वणी  : स्त्री० [सं० पर्वण्+ङीष्] १. सुश्रुत के अनुसार आँख की संधि में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें जलन और सूजन होती है। २. पूर्णिमा। ३. दे० ‘पर्विणी’।
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पर्वत  : पुं० [सं०√पर्व+अतच्] १. पत्थरों आदि का बना हुआ, मालाओं या श्रेणियों के रूप में फैला हुआ तथा ऊँची चोटियोंवाला वह भूखंड जो आस-पास की भूमि से सैकड़ों-हजारों फुट ऊँचा होता है तथा जो भूगर्भ की प्राकृतिक शक्तियों से निकलनेवाले मल से बनता है। पहाड़। विशेष—पर्वत प्रायः ढालुएँ होते हैं और उनके ऊपरी भाग निचले भागों की अपेक्षा बहुत कम विस्तृत होते हैं और उनके ऊपरी भाग चौड़े तथा चिपटे होते हैं। २. बहुत-सी चीजों का बना हुआ ऊँचा ढेर। ३. लाक्षणिक अर्थ में, अत्यधिक मात्रा में होने की अवस्था या भाव। जैसे—बातों का पहाड़। ४. पुराणानुसार एक देवर्षि जो नारद मुनि के बहुत बड़े मित्र थे। ५. एक प्रकार की मछली। ६. पेड़। वृक्ष। ७. एक प्रकार का साग। ८. दशनामी संप्रदाय के संन्यासियों का एक भेद या वर्ग; और उनके नाम के साथ लगनेवाली एक उपाधि। ९. मरीचि का एक पुत्र। १॰. एक गंधर्व का नाम। ११. रहस्य-संप्रदाय में (क) पाप, (ख) प्रेम, (ग) मन या ध्यान की ऊँची अवस्था, (घ) परमात्मा।
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पर्वतक  : पुं० [सं० पर्वत+कन्] छोटा पहाड़।
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पर्वत-काक  : पुं० [मध्य० स०] डोम कौआ।
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पर्वत-कीला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतखंड  : पुं० [सं०] १. पर्वत का टुकड़ा। २. पर्वतीय प्रदेश। ३. तटवर्ती प्रदेश में ऊँची तथा अति तीव्र ढालवाली चट्टान की दीवार।
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पर्वतज  : वि० [सं० पर्वत्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो पर्वत से उत्पन्न हुआ हो। पहाड़ से पैदा होने या निकलनेवाला।
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पर्वतजा  : स्त्री० [सं० पर्वतज+टाप्] १. नदी। २. पार्वती।
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पर्वत-जाल  : पुं० [ष० त०] पर्वत-माला।
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पर्वत-तृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह की घास जिसे पशु खाते हैं।
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पर्वत-दुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] पहाड़ पर बना हुआ किला।
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पर्वत-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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पर्वत-पति  : पुं० [ष० त०] पर्वतों का राजा, हिमालय।
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पर्वत-प्रदेश  : पुं० [सं०] ऐसा प्रदेश जिसमें प्रायः पर्वत ही पर्वत हों।
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पर्वत-माला  : स्त्री० [ष० त०] भूगोल शास्त्र में, पहाड़ों की श्रृंखला जो दूर तक समानांतर चली गई हो। (चेन)
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पर्वत-मोचा  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह के पहाड़ी केले का पौधा और उसका फल।
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पर्वत-राज  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा पहाड़। २. हिमालय पर्वत।
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पर्वतवासिनी  : स्त्री० [सं० पर्वत√वस् (वासना)+णिनि+ ङीष्] १. काली देवी। २. गायत्री। ३. छोटी जटामासी।
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पर्वतवासी (सिन्)  : पुं० [सं० पर्वत√वस्+णिनि] [स्त्री० पर्वतवासिनी] पहाड़ पर वास करनेवाला प्राणी।
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पर्वतस्थ  : वि० [सं० पर्वत√स्था (ठहरना)+क] पर्वत पर स्थित।
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पर्वतात्मज  : पुं० [सं० पर्वत-आत्मज, ष० त०] मैनाक (पर्वत)।
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पर्वतात्मजा  : स्त्री० [पर्वत-आत्मजा, ष० त०] पार्वती।
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पर्वताधारा  : स्त्री० [पर्वत-आधार, ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतारि  : पुं० [पर्वत्-अरि, ष० त०] इंद्र।
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पर्वताशय  : पुं० [सं० पर्वत-आ√शी (सोना)+अच] मेघ। बादल।
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पर्वताश्रय  : पुं० [सं० पर्वत-आश्रय, ब० स०] १. शरभ। २. पर्वतवासी।
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पर्वताश्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० पर्वत-आ√श्रि (सेवा)+ णिनि] पर्वतवासी।
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पर्वतासन  : पुं० [सं० पर्वत-आसन, मध्य० स०] हठ योग में एक प्रकार का आसन।
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पर्वतास्त्र  : पुं० [सं० पर्वत-अस्त्र, मध्य० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का कल्पित अस्त्र जिसके संबंध में कहा जाता है कि इनके फेंकते ही शत्रु की सेना पर बड़े बड़े पत्थर बरसने लगते थे अथवा अपनी सेना के चारों ओर पहाड़ खड़े हो जाते थे, जिससे शत्रु के प्रभंजनास्त्र विफल हो जाते थे।
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पर्वतिया  : पुं० [सं० पर्वत+इया (प्रत्य०)] १. नैपालियों की एक जाति। २. एक प्रकार का कद्दू। ३. एक प्रकार का तिल। वि०=पर्वतीय (पहाड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्वती  : वि०=पर्वतीय।
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पर्वतीय  : वि० [सं० पर्वत√छ—ईय] १. पर्वत-संबंधी। पहाड़ का’ पहाड़ी। २. पहाड़ पर रहने या होनेवाला। पहाड़ी जैसे—पर्वतीय पावस।
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पर्वतेश्वर  : पुं० [पर्वत-ईश्वर, ष० त०] हिमालय।
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पर्वतोद्भव  : पुं० [पर्वत-उद्भव, ब० स०] १. पारा। २. शिंगरफ।
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पर्वतोद्भूत  : पुं० [सं० पर्वन्-उद्भूत, पं० त०] अबरक।
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पर्वतोर्मि  : पुं० [पर्वत-उर्मि, ब० स०] एक तरह की मछली।
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पर्वधि  : पुं० [सं० पर्वन√धा (धारण करना)+कि] चंद्रमा।
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पर्वपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. नागदंती नामक क्षुप। २. रामदूती नाम की तुलसी।
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पर्व-भाग  : पुं० [ष० त०] हाथ की कलाई।
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पर्व-भेद  : पुं० [सं० ब० स०] संधिभंग नामक रोग का एक भेद।
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पर्व-मूल  : पुं० [ष० त०] किसी पक्ष की चतुर्दशी और अमावश्या (अथवा पूर्णिमा) के संधिकाल का समय।
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पर्व-मूला  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] सफेद दूब।
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पर्व-योनि  : पुं० [ब० स०] ऐसी वनस्पति जिसमें जगह जगह पर्व अर्थात् गाँठें या पोर हों। जैसे—ऊख, बांस आदि।
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पर्वर  : प्रत्य० [फा०] पालन करनेवाला। परवर। पुं०=परवल (पौधा और उसका फल)।
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पर्वाना  : पुं० [फा० पर्वानः] परवाना। (दे०)
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पर्वानगी  : स्त्री० [फा०] आज्ञा। अनुमति।
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पर्वरुट (ह्र)  : पुं० [सं० पर्वन्√रुह् (उत्पत्ति)+क्विप्] अनार।
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पर्वरिश  : स्त्री०=परवरिश।
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पर्वरीण  : पुं० [सं०=पर्परीण, पृषो० सिद्धि०] १. पर्व। २. मृत शरीर। लाश। ३. अभिमान। घमंड।
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पर्व-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की दूब। माला दूर्वा।
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पर्व-संधि  : पुं० [ष० त०] १. पूर्णिमा (या अमावस्या) और प्रतिपदा का संधिकाल। २. चंद्रमा अथवा सूर्य के ग्रहण का समय। ३. घुटनों का जोड़। ४. दो अवस्थाओं के बीच में पड़नेवाला समय या स्थान।
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पर्वा  : स्त्री०=परवाह। स्त्री०=प्रतिपदा।
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पर्वानगी  : स्त्री०=परवानगी।
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पर्वाना  : पुं०=परवाना।
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पर्वावधि  : स्त्री० [सं० पर्वन्-अवधि, ष० त०] गाँठ। जोड़।
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पर्वास्फोट  : पुं० [सं० पर्वन्-आस्पोट, ष० त०] १. उँगलियाँ चटकाने की क्रिया या भाव। २. उँगलिया चटकाने पर होनेवाला शब्द।
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पर्वाह  : पुं० [पर्वन्-अहन्, ष० त०, टच्] वह दिन जिसमें उत्सव मनाया जाय। पर्व का दिन। स्त्री० [फा० पर्वा] परवाह। (दे०)
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पर्विणी  : स्त्री० [सं०] १. छोटा और कम महत्त्वपूर्ण पर्व। २. पर्व का समय।
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पर्वित  : पुं० [सं०√पर्वू (पूर्ति)+क्त] एक प्रकार की मछली।
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पर्वेश  : पुं० [सं० पर्वन्—ईश, ष० त०] फलित-ज्योतिष में ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र कुबेर, वरुण अग्नि और यम देवता जो ग्रहण के अधिपति माने जाते हैं। इन सभी का भोगकाल छः छः महीने का होता है।
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पर्श  : पुं० [स०] एक प्राचीन योद्धा जाति जिसके वंशज अफगानिस्तान में एक प्रदेश में रहते थे। पुं०=स्पर्श।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्शनीय  : वि० [सं० स्पर्शनीय] स्पर्श किये जाने के योग्य। स्पृश्य।
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पर्शु  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+शुन्—पृ, आदेश] १. आयुध। अस्त्र। २. परशु। फरसा। ३. पसली।
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पर्शुका  : स्त्री० [सं० पर्शु√कै (चमकना)+क+टाप्] पसली।
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पर्शु-पाणी  : पुं० [ब० स०] १. गणेश। २. परशुराम।
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पर्शुराम  : पुं० [मध्य० स०] परशुराम।
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पर्शु-स्थान  : पुं० [ष० त०] अफगानिस्तान का एक प्रदेश जिसमें पर्शु जाति के लोग रहते थे।
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पर्श्वध  : पुं० [सं०=परश्वध, पृषो० सिद्धि] कुठार।
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पर्षद्  : स्त्री०=परिषद्।
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पर्षद्वल  : पुं० [सं० पर्षद्+वलच्] परिषद् का सदस्य।
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पर्हेज  : पुं०=परहेज।
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पर्हेजगार  : वि०=परहेजगार।
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पलंकट  : वि० [सं० पल√कट् (छिपाना)+खच्, मुम्] डरपोक। भीरु।
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पलंकर  : पुं० [सं० पल√कृ (करना)+खच्, मुम्] पित्त।
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पलंकष  : पुं० [सं० पल√कष् (मारना)+खच्, सुम्] १. गुग्गुल। गूगल। २. राक्षस। ३. पलाश।
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पलंकषा  : स्त्री० [सं० पलंकष+टाप्]=पलंकषी।
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पलंकषी  : स्त्री० [पलंकष+ङीष्] १. गोखरू। रास्ना। २. टेसू। पलास। ३. गुग्गुल। ४. लाख। ५. गोरखमुंडी।
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पलंका  : स्त्री० [हिं० पर+लंका] लंका से भी और आगे का अर्थात् बहुत दूर का स्थान। आति दूरवर्ती देश। जैसे—लंका छोड़ पलंका जाय। (कहा०)
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पलंग  : पुं० [सं० पल्यंक से फा०] [स्त्री० अल्पा० पलंगड़ी] एक तरह की बड़ी तथा मजबूत चारपाई जो प्रायः निवार से बुनी होती है। क्रि० प्र०—बिछाना। मुहा०—(स्त्री० का) पलंग को लात मार खड़ा होना=छठी, बरही आदि के उपरांत सौरी से किसी स्त्री का भली-चंगी बाहर आना। सौरी के दिन पूरे करके बाहर निकलना। (बोल-चाल) (व्यक्ति का) पलंग को लात मारकर खड़ा होना=बहुत बड़ी बीमारी झेलकर अच्छा होना। कड़ी बीमारी से उठना। पलंग तोड़ना=बिना कोई काम किये यों ही पड़े या सोये रहना। निठल्ला रहना। पलंग लगाना=किसी के सोने के लिए पलंग पर बिछौना बिछाना। बिस्तर ठीक करना।
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पलंग-कस  : पुं० [हिं० पलंग+कसना] एक प्रकार की ओषधि जिसे खाने से स्त्रियों की संभोग शक्ति का बढ़ना माना जाता है। (पलंगतोड़ के जोड़पर)
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पलंगड़ी  : स्त्री० [हिं० पलंग+ड़ी (प्रत्य०)] छोटा पलंग।
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पलंग-तोड़  : वि० [हिं०] १. वह जो प्रायः पलंग पर पड़े-पड़े समय बिताता हो अर्थात् आलसी और निकम्मा। २. एक प्रकार का औषध जिसे खाने से पुरुष की संभोग शक्ति का बढ़ना माना जाता है। (पलंग-कस के जोड़पर)
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पलंग-दंत  : पुं० [फा० पलंग=चीता+हिं० दांत] जिसके दांत चीते के दांतों की तरह कुछ कुछ टेढ़े हों।
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पलंगपोश  : पुं० [हिं० पलंग+का० पोश] पलंग पर बिछाई जानेवाली चादर।
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पलँगरी  : स्त्री०=पलँगड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलंगिया  : स्त्री० [हिं० पलंग+इया (प्रत्य०)] छोटा पलंग। पलंगड़ी।
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पलंजी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पलंडी  : स्त्री० [देश०] मल्लाहों का वह बाँस जिससे वे पाल खड़ा करते हैं।
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पल  : पुं० [सं०√पल् (गति, रक्षा)+अच्] १. समय का एक बहुत प्राचीन विभाग जो ६॰ विपल अर्थात् २४ सेकेंड के बराबर होता है। घड़ी या दंड का ६॰ वाँ भाग। पद—पल के पल में=बहुत थोड़े समय में। क्षण भर में। तुरंत। २. एक प्रकार की पुरानी तौल जो ४ कर्ष के बराबर होती थी। ३. चलने की क्रिया। गति। ४. धोखेबाजी। प्रतारणा। ५. तराजू। तुला। ६. गोश्त। मांस। ६. धान का पयाल। ८. मूर्ख व्यक्ति। ९. लाश। शव। पुं० [सं० पलक]। दृगंचल। मुहा०—पल मारते या पल भर में=बहुत ही थोड़े समय में। तुरंत। जैसे—पल मारते वह अदृश्य हो गया।
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पलई  : स्त्री० [सं० पल्लव] १. पेड़ की पतली और नरम डाली। २. पेड़ का ऊपरी सिरा। स्त्री० [हिं० पसली] बच्चों को होनेवाला एक रोग जिसमें उनकी पसलियाँ जोर जोर से फड़कने या ऊपर-नीचे होने लगती हैं।
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पलक  : स्त्री० [फा०] १. आँख के ऊपर का वह पतला आवरण जिसके अगले भाग में बालों की पर्त या बरौनी होती है और जिसके गिरने से आँख बंद होती और उठने से आँख खुलती है। क्रि० प्र०—उठना।—गिरना। मुहा०—पलक झपकना=पलक का क्षण भर के लिए या एक बार नीचे की ओर गिरना। पलक (या पलकों) पर पानी फिरना=आँखों में जल भर आना। उदा०—रोषिहि रोष भरे दृग तरै फिरै पलक भर पानी।—सूर। पलक पसीजना=(क) आँखों में आँसू आना। (ख) किसी के प्रति करुणा या दया उत्पन्न होना। पलक भाँजना=(क) पलक गिराना या हिलाना। (ख) पलकें हिलाकर इशारा या संकेत करना। पलक मारना=(क) पलक झपकाना या गिराना। (ख) पलक हिलाकर इशारा या संकेत करना। पलक लगना=हलकी-सी नींद आना या निद्रा का आरंभ होना। झपकी आना। जैसे—दो दिन से रोगी की पलक नहीं लगी है। पलक से पलक न लगना=नाम को भी कुछ नींद न आना। पलक से पलक न लगाना=देखने के लिए टकटकी लगाना या आँख बंद न होने देना। (किसी के रास्ते में या किसी के लिए) पलकें बिछाना=किसी का अत्यंत आदर और प्रेम से स्वागत तथा सत्कार करना। पलकें मुँदना=मृत्यु होना। मरना। पलकों से जमीन झाड़ना या तिनके चुनना=(क) अत्यंत श्रद्धा तथा भक्ति से किसी की सेवा करना। (ख) किसी को संतुष्ट और सुखी करने के लिए पूर्ण मनोयोग से प्रयत्न करना। जैसे—मैं आप के लिए पलकों से तिनके चुनूँगा। विशेष—इस मुहावरे का मुख्य आशय यह है कि चलने-फिरने, उठने-बैठने की जगह या रास्ते में कुछ भी कष्ट न होने पावे। पद—पलक झपकते या मारते=अत्यंत अल्प समय में। निमेष मात्र में। जैसे—पलक झपकते ही कुछ दूसरा दृश्य दिखाई पड़ा। पुं० [हिं० पल+एक] १. एक ही पल या क्षण भर का समय। उदा०—कोटि करम फिरे पलक में, जो रंचक आये नाँव।—कबीर।
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पलक-दरिया  : वि० [हिं० पलक+दरिया] बहुत बड़ा दानी। अति उदार।
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पलक-दरियाव  : वि०=पलक-दरिया।
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पलकनेवाज  : वि० [हिं० पलक+फा० निवाज़] क्षण भर में निहाल कर देनेवाला। बहुत बड़ा दानी। पलक-दरिया।
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पलक-पीटा  : पुं० [हिं० पलक+पीटना] १. बरौनिया झड़ने का एक रोग। २. वह जिसे उक्त रोग हो।
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पलकर्ण  : पुं० [सं०] धूपघड़ी के शंकु की उस समय की छाया की लंबाई जब मेष संक्रांति के मध्याह्नकाल में सूर्य ठीक विषुवत् रेखा पर होता है।
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पलका  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पलकी]=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलकिया  : स्त्री० [हिं० पलकी] १. पालकी। २. हाथी पर रखने का एक प्रकार का छोटा हौदा। उदा०—पलकिया में बहुत मुलायम गद्दी तकिए लगा दिए गए हैं और हाथी बहुत धीमे चलाया जायगा।—वृंदावनलाल वर्मा।
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पलक्या  : स्त्री० [सं० पलक+यत्+टाप्] पालक।
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पलक्ष  : वि० [सं०=पलक्ष, पृषो० सिद्धि] श्वेत। सफेद। पुं० सफेद रंग।
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पल-क्षार  : पुं० [ष० त०] रक्त। खून। लहू।
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पलखन  : पुं० [सं० पलक्ख] पाकर का पेड़।
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पलगंड  : पुं० [सं० पल√गण्ड् (लीपना)+अण्] कच्ची दीवार में मिट्टी का लेप करनेवाला लेपक। मजदूर।
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पलटन  : स्त्री० [अं० प्लैटून] १. सैनिकों का बहुत बड़ा ऐसा दस्ता जिसका नायक लेफ्टीनेंट होता है। २. किसी प्रकार के प्राणियों का बहुत बड़ा झुंड। जैसे—चींटियों, बंदरों या बच्चों की पलटन। स्त्री० [हिं० पलटना] पलटने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलटना  : अ० [सं० प्रलोटन] १. ऐसी स्थिति में आना या होना कि ऊपरी अंश या तल नीचे हो जाय और निचला अंश या तल ऊपर हो जाय। उलटा या औंधा होना। २. दशा, परिस्थिति आदि में होनेवाला इस प्रकार का बहुत बड़ा परिवर्तन कि उसका प्रवाह, रूख या रूप बिलकुल उलट जाय। अच्छी से बुरी या बुरी से अच्छी स्थिति को प्राप्त होना। ३. अपेक्षाकृत अवनत स्थिति को प्राप्त होना। ४. राज्य की सत्ता का एक के हाथ से निकलकर दूसरे के हाथ में जाना। जैसे—शासन पलटना। ५. पीछे या विपरीत दिशा की ओर जाना, घूमना या मुड़ना। ६. जहाँ से कोई चला हो, उसका उसी स्थान की ओर लौटना। वापस आना। ७. कही हुई या मानी हुई बातें मानने से पीछे हटना। मुकरना। जैसे—उन्हें पलटते देर नहीं लगती। संयो० क्रि०—जाना। स० १. उलटा या औंधा करना। २. आकार, रूप, दशा, स्थिति आदि को प्रयत्नपूर्वक बदल देना। बदलना। ३. अवनत को उन्नत या उन्नत को अवनत करना। ४. किसी को लौटने में प्रवृत्त करना। फेरना। ५. अदल-बदल करना। विशेष—यह उलटना के साथ उसका अनुकरण-वाचक रूप बनकर भी प्रयुक्त होता है। जैसे—उलटना-पलटना।
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पलटनिया  : वि० [हिं० पलटन] पलटन-संबंधी। पुं० सैनिक।
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पलटा  : पुं० [हिं० पलटना] १. पलटने की क्रिया या भाव। २. चक्कर के रूप में अथवा यों ही उलटकर पीछे की ओर अथवा किसी ओर घूमने या प्रवृत्त होने की क्रिया या भाव। मुहा०—पलटा खाना=(क) पीछे अथवा किसी और दिशा में प्रवृत्त होना या मुड़ना। जैसे—भागते हुए चीते ने पलटा खाया और वह शिकारी पर झपटा। (ख) एक दशा से दूसरी, मुख्यतः अच्छी दशा की ओर प्रवृत्त होना। जैसे—दस बरस के बाद उसके भाग्य ने फिर पलटा खाया और उसने व्यापार में लाखों रुपये कमाये। पलटा देना=(क) उलटना। (ख) किसी दूसरी दशा या दिशा में प्रवृत्त करना या ले जाना। ३. किसी काम या बात के बदले किया जाने या होनेवाला काम या बात। बदला। जैसे—उसे उसकी करनी का पलटा मिल गया। ४. संगीत में वह स्थिति जिसमें बड़ी और लंबी तानें लेते समय ऊँचे स्वरों से पलटकर नीचे स्वरों पर आते हैं। जैसे—गवैये ने ऐसी- ऐसी तानें पलटीं कि सब लोग प्रसन्न हो गये। क्रि० प्र०—लेना। ५. लोहे या पीतल की बड़ी खुरचनी जिसका फल चौकोर न होकर गोलाकार होता है। ६. नाव की वह पटरी जिस पर उसे खेनेवाला मल्लाह बैठता है। ६. कुश्ती का दाँव या पेंच।
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पलटाना  : सं० [हिं० पलटना] १. पलटने में प्रवृत्त करना। २. लौटाना। ३. बदलना। विशेष दे० ‘पलटना’ स०।
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पलटाव  : पुं० [हिं० पलटा] पलटे जाने की क्रिया या भाव।
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पलटावना  : स० [हिं० पलटना का प्रे०] पलटने का काम किसी दूसरे से कराना।
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पलटी  : स्त्री०=पलटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलटे  : अव्य० [हिं० पलटा] बदले में। एवज में। प्रतिफल स्वरूप।
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पलड़ा  : पुं० [सं० पटल] १. तराजू के दोनों लटकते हुए भागों में से एक। २. शक्ति, समर्थता आदि की दृष्टि से दो पक्षों, दलों आदि में से कोई एक। जैसे—समाज-वादियों की अपेक्षा काँग्रेसियों का पलड़ा भारी है। मुहा०—(किसी का) पलड़ा भारी होना=अपने विरोधी की अपेक्षा शक्ति का संतुलन अधिक होना। पुं०=पल्ला (धोती आदि का आँचल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलथा  : पुं० [हिं० पलटना] १. कलाबाजी, विशेषतः पानी में कलैया मारने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—मारना। २. दे० ‘पलथी’।
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पलथी  : स्त्री० [सं० पर्यस्त, प्रा० पल्लत्थ] दाहिने पैर का पंजा बाएँ पट्ठे की नीचे और बाएँ पैर का पंजा दाहिने पट्ठे के नीचे दबाकर बैठने का एक आसन। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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पलद  : वि० [सं० पल√दा (देना)+क] जिसके सेवन से मांस बढ़े।
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पलना  : अ० [हिं० पालना] १. विशिष्ट परिस्थितियों में रहकर बड़े होना। जैसे—प्रकृति की गोद में पलना। २. खा-पीकर खूब हृष्ट पुष्ट होना। ३. कर्त्तव्य, धर्म आदि के निर्वाह के रूप में पूरा उतरना। पालित होना। उदा०—पर भूलो तुम निज धर्म भले, मुझसे मेरा अधिकार पले।—मैथिलीशरण। स०=देना। (दलाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलनाना  : स० [हिं० पलान=जीन,+ना (प्रत्य०)]= पलानना।
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पल-प्रिय  : वि० [ब० स०] मांस खाकर प्रसन्न होनेवाला। जिसे मांस अच्छा लगता हो। पुं० डोम कौआ। द्रोण काक।
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पलभक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० पल√भक्ष् (खाना)+ णिनि] [स्त्री० पलभक्षिणी] मांसाहारी। मांस-भक्षी।
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पल-भरता  : स्त्री० [हिं० पल+भर+ता (प्रत्य०)] पल भर या बहुत थोड़ी देर तक अस्तित्व बने रहने या होने की अवस्था या भाव। क्षण-भंगुरता।
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पलभा  : स्त्री० [ब० स०] धूप-घड़ी के शंकु की उस समय की छाया की चौड़ाई जब मेष संक्रांति के मध्याह्न में सूर्य ठीक विषुवत रेखा पर होता है, पलविभा। विषुवत् प्रभा।
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पलरा  : पुं०=पलड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलल  : वि० [सं०√पल् (गति)+कलच्] बहुत मुलायम। पिलपिला। पुं० १. मांस। गोश्त। २. शव। लाश। ३. राक्षस। ४. पत्थर। ५. बल। शक्ति। ६. दूध। ७. कीचड़। ८. तिल का चूर्ण। ९. वह मीठा पकवान या मिठाई जो तिल के चूर्ण से बनी हो। १॰. मल। गन्दगी। ११. सेवार। शैवाल।
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पलल-ज्वर  : पुं० [ष० त०] पित्त (धातु)।
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पलल-प्रिय  : वि० [ब० स०] जिसे मांस खाना अच्छा लगता हो। पुं० १. राक्षस। २. डोम कौआ। द्रोण काक।
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पललाशय  : पुं० [सं० पलल-आ√शी (सोना)+अच्] गलगंड या घेघा नामक रोग।
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पलव  : पुं० [सं०√पल्+अच्, पल√वा (हिंसा)+क] १. मछलियाँ फँसाने का एक तरह का बाँस की खपाचियों का बना हुआ झाबा। २. मछलियाँ पकड़ने का जाल।
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पलवल  : स्त्री० [?] १. पारस्परिक आत्मीयता या घनिष्टता। २. सामंजस्य। मुहा०—पलवल मिलाना=किसी प्रकार की संगति या सामंजस्य स्थापित करना। पुं०=परवल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलवा  : पुं० [सं० पल्लव] १. ऊख के पौधे की ऊपरी कुछ पोरें जो प्रायः कम मीठी होती हैं। अगौरा। कौंचा। २. पंजाब के कुछ प्रदेशों में होनेवाली एक घास जिसे भैंस चाव से खाती हैं। ३. अंजलि। चुल्लू।
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पलवान  : पुं०=पलवा (घास)।
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पलवाना  : स० [हिं० पालना] १. किसी को पालने में प्रवृत्त करना। २. किसी से पालन कराना। पालन करने के लिए प्रवृत्त करना।
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पलवार  : पुं० [हिं० पल्लव] कुछ विशिष्ट जातियों के ऊख के गंडों में अँखुएँ निकलने पर उन्हें बबूल के काँटों, अरहर के डंठलों आदि से ढकने की एक रीति। पुं० [हिं० पाल+वार (प्रत्य०)] पाल आदि की सहायता से चलनेवाली एक प्रकार की बड़ी नाव जिस पर माल लादा जाता है। पटैला।
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पलवारी  : पुं० [हिं० पलवार] नाविक। मल्लाह।
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पलवाल  : वि० [सं० पल=मांस+वाल (प्रत्य०)] १. मांस-भक्षी। २. हृष्ट-पुष्ट।
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पलवैया  : वि० [हिं० पालन+वैया (प्रत्य०)] पालन-पोषण करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० पलवाना] पालन-पोषण करनेवाला।
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पलस्तर  : पुं० [सं० प्लास्टर] १. मजबूती तथा सुरक्षा के लिए दीवारों, छतों आदि पर किया जानेवाला बरी, बालू, सीमेंट अथवा मिट्टी का मोटा लेप। मुहा०—(किसी का) पलस्तर ढीला होना या बिगड़ना=कष्ट, रोग आदि के कारण बहुत-कुछ जर्जर या शिथिल होना। २. किसी चीज के ऊपर लगाया जानेवाला मोटा लेप। जैसे—शरीर के रुग्ण अंग पर लगाया जानेवाला औषध या पलस्तर।
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पलस्तरकारी  : स्त्री० [हिं० पलस्तर+फा० कारी] १. दीवारों, छतों आदि का पलस्तर करने की क्रिया या भाव।
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पलहना  : अ०=पलुहना (पल्लवित होना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० पल्लवित करना।
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पलहा  : पुं० [सं० पल्लव] नया हरा पत्ता। कोंपल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पलाँग  : स्त्री०=छलाँग (छलाँग)।
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पलांग  : पुं० [सं० पल-अंग, ब० स०] सूँस। शिंशुमार।
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पलांडु  : पुं० [सं० पल-अण्ड, ष० त०, पलाण्ड+क्विप्+ कु] प्याज।
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पला  : स्त्री० [सं० पल] पल। निमिष। पुं० [हिं० ‘पली’ का पुं०] बड़ी पली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलाग्नि  : पुं० [सं० पल-अग्नि, ष० त०] पित्त।
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पलाण  : पुं०=पलान।
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पलातक  : वि० [सं० पलायन] भगोड़ा। पुं० १. वह किसान जो अपना खेत छोड़कर भाग गया हो। २. वह जो अपना उत्तरदायित्व, कार्य, पद आदि छोड़कर भाग गया हो।
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पलाद, पलादन  : पुं० [सं० पल√अद् (खाना)+अण्] [सं० पल-अदन, ब० स०] राक्षस।
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पलान  : पुं० [फा० पालान] १. सवारी करने से पहले घोड़े, टट्टू आदि की पीठ पर डाला जानेवाला टाट या कोई और मोटा कपड़ा जिसे रस्सी आदि से कस दिया जाता है। २. काठी। जीन। पुं०=प्लान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलानना  : सं० [हिं० पलान+ना (प्रत्य०)] १. घोड़े आदि पर पलान कसना या बाँधना। २. किसी पर चढ़ाई या धावा करने की तैयारी करना।
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पलाना  : अ० [सं० पलायन] पलायन करना। भागना। स० [हिं० पलान] घोड़े की पीठ पर काठी का पलान रखना।
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पलानि  : स्त्री०=पलान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पलानी  : स्त्री० [हिं० पलान] १. पान के आकार का पैर के पंजों में पहनने का एक गहना। २. छप्पर। स्त्री०=पलाव।
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पलान्न  : पुं० [सं० पल-अन्न, मध्य० स०] वह पुलाव जिसमें मांस की बोटियाँ मिली हों।
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पलाप  : पुं० [सं० पल√आप् (प्राप्ति)+घञ्] हाथी का गंडस्थल। पुं० दे० ‘पगहा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलायक  : पुं० [सं० परा√अय् (गति)+ण्वुल्—अक, लत्व] १. वह जो पकड़े जाने या दंडित होने के भय से भागकर कहीं चला गया या छिप गया हो। २. भागा हुआ वह व्यक्ति जिसे शासन पकड़ना चाहता हो। भगोड़ा। (एब्सकांडर) ३. वह जो वाद-विवाद, तर्क-वितर्क में बराबर पीछे हट जाता हो।
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पलायन  : पुं० [सं० परा√अय्+ल्युट्—अन, लत्व] १. भागने की क्रिया या भाव। भागना। २. आज-कल वैज्ञानिक क्षेत्रों में, यह तत्त्व कि सृष्टि का प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वनस्पति अपने वर्तमान रूप से असंतुष्ट होकर प्राकृतिक रूप से अथवा स्वभावतः किसी न किसी प्रकार की उत्क्रान्ति या उन्नति अथवा विकास की ओर प्रवृत्त होती है। दार्शनिक दृष्टि से इसे सब प्रकार के बन्धनों और सीमाओं से मुक्त होकर अनंत और असीम ब्रह्म की ओर अग्रहसर होने की प्रवृत्ति कह सकते हैं। कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में प्राचीन के प्रति असंतोष और नवीन के प्रति उत्साह या उमंग की भावना इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप होती है।
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पलायनवाद  : पुं० [ष० त०] आजकल का यह वाद या सिद्धांत कि संसार के सभी चीजें और बातें अपने प्रस्तुत रूप और स्थिति से विरक्त होकर किसी न किसी प्रकार की नवीनता और विशिष्टता की ओर प्रवृत्त होती रहती हैं। (एस्केपइज़्म) विशेष—इस वाद का मुख्य आशय यह है कि जो कुछ है, उससे ऊबकर हर एक चीज उसकी ओर बढ़ती है, जो नहीं है—पदास्ति से यन्नास्ति की ओर प्रवृत्त होती है। आधुनिक हिंदी क्षेत्र में छायावाद, निराशावाद आदि की जो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं, वे भी इसी पलायनवाद के फल के रूप में मानी जाती हैं। कुछ लोग इसे एक प्रकार की विकृति भी मानते हैं।
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पलायनवादी (दिन्)  : वि० [सं० पलायनवाद+इनि] पलायनवाद-संबंधी। पुं० वह जो पलायनवाद का सिद्धांत मानता हो या उसका अनुयायी हो।
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पलायमान  : वि० [सं० परा√अय्+शानच्, मुक्, लत्व] जो भाग रहा हो। भागता हुआ।
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पलायित  : भू० कृ० [सं० परा√अय्+क्त, लत्व] जो कहीं भागकर चला गया हो।
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पलायी (यिन्)  : पुं० [सं० परा√अय्+णिनि, लत्व] पलायक। (दे०)
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पलाल  : पुं० [सं०√पल् (रक्षा)+कालन] १. धान का सूखा डंठल। पयाल। २. किसी पौधे या वनस्पति का सूखा डंठल।
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पलाल-दोहद  : पुं० [ब० स०] आम का पेड़।
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पलाला  : स्त्री० [सं० पल+आ√ला (लेना)+क+टाप्] उन सात राक्षसियों में से एक जो छोटे बच्चों को रुग्ण कर देती है।
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पलालि, पलाली  : स्त्री० [सं० पल-आलि, ष० त०] गोश्त या मांस की ढेरी।
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पलाव  : पुं० [सं० पल√अव् (हिंसा)+अच्] वह काँटा जिससे मछलियाँ फँसाई जाती हैं। बंसी।
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पलाश  : पुं० [सं०√पल (गति)+क, पल√अश् (व्याप्ति) +अण्] १. ऊँचे स्थानों विशेषतः ऊसर तथा बालूका मिश्रित भूमि में होनेवाला एक पेड़ जिसमें बसंत काल में लाल रंग के फूल लगते हैं। इसके पत्तों की पत्तलें बनाई जाती हैं। ढाक। टेसू। २. उक्त वृक्ष का फूल। ३. पत्ता। पर्ण। ४. मगध देश का पुराना नाम। ५. हरा रंग। ६. कचूर। ६. शासन। ८. परिभाषण। ९. विदारी कंद। वि० [सं० पल√अश् (खाना)+अण्] १. मांसाहारी। २. कठोर-हृदय। निर्दय। पुं० १. राक्षस। २. एक प्रकार का मांसाहारी पक्षी।
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पलाशक  : पुं० [सं० पलाश+कन्] १. पलास का पेड़ और फूल। ढाक। टेसू। २. कपूर। ३. लाख। लाक्षा।
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पलाशगंधजा  : स्त्री० [सं० पलाश-गंध, ष० त०,√जन् (उत्पन्न होना)+ड+टाप्] एक प्रकार का वंशलोचन।
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पलाशच्छदन  : पुं० [सं० ब० स०] तमालपत्र।
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पलाशतरुज  : पुं० [सं० पलाश-तरु, ष० त०,√जन्+ड] पलाश की कोंपल।
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पलाशन  : पुं० [सं० पल-अशन, ब० स०] मैना। सारिका।
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पलाशपर्णी  : स्त्री० [सं० पलाश-पर्णी, ब० स०, ङीष्] अश्वगंधा। असगंध।
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पलाशांता  : स्त्री० [सं० पलाश-अंत, ब० स०, टाप्] बनकचूर।
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पलाशाख्य  : पुं० [सं० पलाश-आख्या, ब० स०] नाड़ी हींग।
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पलाशिका  : स्त्री० [सं० पलाश+कन्+टाप्, इत्व] एक लता जो वृक्षों पर भी चढ़ती है।
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पलाशी (शिन्)  : वि० [सं० पलाश+इनि] १. मांस खानेवाला। मांसाहारी। २. पत्तों से युक्त। जिसमें पत्ते हों। पुं० [पल√अश् (खाना)+णिनि] राक्षस।
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पलाशी  : स्त्री० [सं० पलाश+ङीष्] १. क्षीरिका। खिरनी। २. कचूर। ३. कचरी। ४. लाख।
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पलाशीय  : वि० [सं० पलाश+छ—ईय] (वृक्ष) जिसमें पत्ते लगे हों। पत्तोंवाला।
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पलास  : पुं० [सं० पलाश] १. एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसमें गहरे लाल रंग के अर्द्धचंद्राकार फूल लगते हैं, इसके सूखे लचीले पत्तों के दोने, पत्तलें, बीड़ियाँ आदि और रेशों से रस्सियाँ, दरियाँ आदि बनाई जाती हैं। इसकी फलियाँ औषध के काम आती हैं। टेसू। ढाक। २. उक्त वृक्ष का फूल। ३. गिद्ध की जाति का एक मांसाहारी पक्षी।
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पलासना  : स० [देश०] नये बनाये हुए जूतों में फालतू बढ़े हुए चमड़े के अंशों को काटना और इस प्रकार जूता सुडौल बनाना। (मोची)
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पलास पापड़ा  : पुं० [हिं० पलास+पापड़ा] [स्त्री० अल्पा० पलास पपड़ी] पलास की फलियाँ जिसका उपयोग दवा के रूप में किया जाता है।
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पलिंजी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसके दाने पक्षी तथा निर्धन लोग खाते हैं।
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पलिक  : वि० [सं० पल+ठन्—इक] १. पल-संबंधी। २. जो तौल में एक पल हो।
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पलिका  : पुं०=पलका। स्त्री० [?] एक तरह का ऊनी कालीन। पुं०=पलका (पलंग)।
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पलिक्नी  : स्त्री० [सं० पलित+क्न, ङीप्] १. वह बूढ़ी स्त्री जिसके बाल पक गये हों। सफेद या पके हुए बालोंवाली स्त्री। २. ऐसी गौ जो पहली बार गाभिन हुई हो। बाल-गर्भिणी।
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पलिघ  : स्त्री० [सं०=परिघ, लत्व] १. काँच का घड़ा। कलाबा। २. उक्त के आधार पर, शीशे आदि की वह बोतल जो चमड़े, टीन आदि से मढ़ी रहती है तथा जिसमें यात्रा के समय लोग पानी, शराब आदि रखकर चलते हैं। (थर्मस) ३. घड़ा। मटका। ४. चहारदीवारी। प्राचीर। ५. गाय बाँधने का घर। गो-गृह। ६. फाटक। ६. अर्गल। अगरी।
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पलितंकरण  : वि० [सं० पलित+च्वि, √कृ (करना)+ ख्युन्—अन, मुम्] (बाल आदि) पकाने या सफेद करनेवाला।
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पलित  : वि० [सं० √पल्+क्त] [स्त्री० पलिता] १. वृद्ध। बुड्ढा। २. पका हुआ या सफेद (बाल)। पुं० १. सिर के बालों का पकना या सफेद होना। २. असमय में बाल पकने का एक रोग। ३. गरमी। ताप। ४. छरीला नामक वनस्पति। ५. कीचड़। ६. गुग्गल। ६. मिर्च।
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पलिती (तिन्)  : पुं० [सं० पलित+इनि] पलित रोग से पीड़ित व्यक्ति। वह जिसके बाल पक गये हों।
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पलिया  : पुं० [देश०] एक रोग जिसमें पशुओं का गला सूज आता है।
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पलिहर  : पुं० [सं० परिहर=छोड़ देना] ऐसा खेत जिसमें भदईं और अगहनी फसलों की बोआई न की गई हो और इस प्रकार उन्हें परती छोड़ दिया गया हो। ऐसे खेत में चैती फसल की बोआई होती है।
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पली  : स्त्री० [सं० पलिघ] १. तेल नापने की एक तरह की एक छोटी गहरी कटोरी। मुहा०—पली पली जोड़ना=थोड़ा-थोड़ा करके संगृहीत करना। २. उक्त में भरे हुए तेल या किसी और पदार्थ की मात्रा।
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पलीत  : वि०, पुं०=पलीद।
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पलीता  : पुं० [फा० फलीतः या फलीता (अशुद्ध किंतु उर्दू में प्रचलित रूप)] [स्त्री० अल्पा० पलीती] १. चिराग की बत्ती। २. बत्ती के आकार का बारूद लगा हुआ एक छोटा डोरा जो पटाखों आदि में लगा रहता है, और जिसके सुलगाये जाने पर पटाखा चलता है। मुहा०—मलीता लगाना=ऐसी बात कहना जिससे लोग परस्पर झगड़ने या लड़ने-भिड़ने लग जायँ। ३. नारियल, वट आदि की छाल या रेशों को कूट और बटकर बनाई हुई वह बत्ती जिससे बंदूक या तोप के रंजक में आग लगाई जाती है। क्रि० प्र०—दागना।—देना।—लगाना। मुहा०—पलीता चटाना=तोप या बंदूक में उक्त प्रकार का पलीता रखकर जलाना। ४. बत्ती के आकार में लपेटा हुआ वह कागज जिस पर कोई मंत्र लिखा हो। यह प्रायः भूत-प्रेत आदि की बाधा दूर करने के लिए टोने के रूप में जलाया जाता है। क्रि० प्र०—जलाना।
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पलीती  : स्त्री० [हिं० पलीता] छोटा पलीता।
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पलीद  : वि० [फा० मि० सं० प्रेत] [भाव० पलीदी] १. अपवित्र। अशुचि। २. गंदा। ३. घृणास्पद। ४. दुष्ट। नीच। ५. बहुत ही घृणित आचरण तथा विचारवाला। पुं० प्रेत। भूत।
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पलुआ  : पुं० [देश०] सन की जाति का एक पौधा। वि० [हिं० पालना] पाला हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलुटाना  : स० [हिं० पलोटना का प्रे०] (पैर) पलोटने का काम दूसरे से कराना। (पैर) दबवाना।
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पलुवाँ  : पुं०, वि०=पलुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलुहना  : अ० [सं० पल्लव] १. पौधे, वृक्ष आदि का पल्लवित होना। २. हरा होना। ३. व्यक्ति के संबंध में फूलना-फलना और उन्नति करना।
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पलुहाना  : स० [हिं० पलुहना] पल्लवित करना। अ०= पलुहना।
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पलूचना  : स०=पलना।
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पलेट  : स्त्री० [अं० प्लेट] १. तश्तरी। रकाबी। २. कपड़े की वह लंबी पट्टी जो प्रायः जनाने और बच्चों के पहनने के कपड़ों में सुन्दरता लाने या कुछ विशिष्ट अंशों को कड़ा करने के लिए लगाई जाती है। पट्टी।
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पलेटन  : पुं० [अं० प्लेटेन] छापे के यंत्र में लोहे का वह चिपटा या वर्तुलाकार भाग जिसके दबाव से कागज आदि पर अक्षर छपते हैं।
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पलेटना  : स०=लपेटना।
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पलेड़ना  : सं० [सं० प्ररेण] घक्का देना। ढकेलना।
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पलेथन  : पुं० [सं० परिस्तरण=लपेटना] १. वह सूखा आटा जिसे रोटी बेलने के समय पाटे या बेलन पर इसलिए बिखेरते हैं कि गीला आटा हाथ में या बेलन आदि में चिपकने न पावे। परथन। क्रि० प्र०—लगाना। मुहा०—(किसी का) पलेथन निकालना=(क) बहुत अधिक मार-पीटकर अधमरा करना। (ख) बहुत अधिक परेशान करना। २. किसी बड़े व्यय या हानि के बाद तथा उसके फलस्वरूप होनेवाला अतिरिक्त व्यय या हानि के बाद तथा उसके फलस्वरूप होनेवाला अतिरिक्त व्यय। जैसे—तुम्हारे फेर में पचासों रुपयों की हानि तो हुई ही, आने-जाने में पाँच रुपया और पलेथन लग गया। क्रि० प्र०—लगना।
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पलेनर  : पुं० [अं० प्लेन] काठ का वह छोटा चिपटा टुकड़ा जिससे दबाकर किसी चीज का ऊपरी स्तर चौरस या बराबर किया जाता है। जैसे—छापेखाने में सीसे के अक्षर बराबर करने या दीवार के पलस्तर पर फेरने का पलेनर।
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पलेना  : सं० [?] बोने के पूर्व खेत सींचना। पुं०=पलेनर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलेव  : पुं० [देश०] १. पलिहर खेत में चैती की फसल बोने से पहले की जानेवाली सिंचाई। २. जूस। रसा। शोरबा।
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पलैंहड़ा  : पुं० [हिं० पानी+आला=स्थान] १. पानी के घड़े आदि रखने का चबूतरा या चौखटा। २. पानी का घड़ा या मटका।
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पलोटना  : स० [सं० प्रलोठन] १. सेवा-भाव से किसी के पैर दबाना। २. सेवा करना। अ०=लोटना। अ०= पलटना।
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पलोथन  : पुं०=पलेथन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलोवना  : स० [सं० प्रलोठन] १. सेवा-भाव से किसी के पैर दबाना। २. किसी को प्रसन्न करने के लिए मीठी-मीठी बातें कहना या तरह तरह के उपाय करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलोसना  : स० [सं० स्पर्श ? हिं० परसना] १. धोना। २. अपना काम निकालने के लिए मीठी-मीठी बातें करके किसी को अपने अनुकूल करना।
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पलौ  : पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पलौठा  : वि०=पहलौठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्टन  : स्त्री०=पलटन।
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पल्टा  : पुं०=पलटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्थी  : स्त्री०=पलथी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्यंक  : पुं०=पर्यंक (पलंग)।
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पल्ययन  : पुं० [सं० परि√अय् (गति)+ल्युट्—अन, लत्व] घोड़े के पीठ पर बिछाई जानेवाली गद्दी। पलान।
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पल्ल  : पुं० [सं० पाद्√ला (लेना)+क, पद्—आदेश] १. वह आगार जिसमें अन्न संचित करके रखा जाता है। बखार २. फल आदि पकाने के लिए विशिष्ट प्रकार से उन्हें रखने का ढंग या युक्ति। पाल।
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पल्लड़  : पुं० [हिं० पल्ला ?] झुंड। समूह। उदा०—पूर्व की ओर से अंधकार के पल्लड़ के पल्लड़ नदी के स्वर्णरेखा पर मानों आवरण डालनेवाले थे।—वृंदावनलाल वर्मा।
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पल्लव  : पुं० [सं०√पल्+क्विप्,√लू+अप्, पल्—लव, कर्म० स०] १. पौधे, वृक्ष आदि का कोमल, छोटा तथा नया पत्ता पत्ते की तरह की आगे की ओर निकली हुई। चिपटी गोलाकार चीज। जैसे—कर पल्लव। ३. गले में पहनने का एक तरह का कोई आभूषण जो पत्ते के आकार का होता है। ४. एक तरह का कंगन। ५. नृत्य में हाथ का एक विशिष्ट प्रकार की मुद्रा। ६. बल। शक्ति। ७. चंचलता। ८. आल का रंग। ९. पहने जानेवाले वस्त्र का पल्ला। १॰. विस्तार। ११. पल्लव देश। १२. पल्लव देश का निवासी। १३. दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसका राज्य किसी समय उड़ीसा से तुंगभद्रा नदी तक था। वराहमिहिर के अनुसार इस वंश के लोग पहिले दक्षिण-पश्चिम बसते थे। अशोक के समय में गुजरात में इनका राज्य था।
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पल्लवक  : पुं० [सं० पल्लव√कै (चमकना)+क] १. वेश्यागामी २. किसी वेश्या का प्रेमी। ३. अशोक (वृक्ष)। ४. नया हरा पत्ता। पल्लव। ५. एक तरह की मछली।
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पल्लव ग्राहिता  : स्त्री० [सं० पल्लवग्राहिन्+तल्+टाप्] पल्लवग्राही होने की अवस्था या भाव।
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पल्लवग्राही (हिन्)  : पुं० [सं० पल्लव√ग्रह् (ग्रहण करना)+णिनि] वह जिसने किसी विषय की ऊपरी या बाहरी छोटी-मोटी बातों का ही सामान्य ज्ञान प्राप्त किया हो। किसी विषय को स्थूल रूप से जाननेवाला।
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पल्लव-द्रु  : पुं० [सं० मध्य० स०] अशोक (वृक्ष)।
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पल्लवना  : अ० [सं० पल्लव+हिं० ना (प्रत्य०)] १. पौधों, वृक्षों आदि में नये पत्ते निकलना। पल्लवित होना। २. व्यक्तियों का फलना-फूलना और उन्नत अवस्था का प्राप्त होना। स० पल्लवित करना। पनपाना।
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पल्लवाद  : पुं० [सं० पल्लव√अद् (खाना)+अण्] हिरन।
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पल्लवाधार  : पुं० [सं० पल्लव-आधार, ष० त०] डाली या शाखा जिसमें पत्ते लगते हैं।
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पल्लवास्त्र  : पुं० [सं० पल्लव-अस्त्र, ब० स०] कामदेव।
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पल्लविक  : पुं०=पल्लवक।
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पल्लवित  : भू० कृ० [सं० पल्लव+इतच्] १. (पेड़ों या पौधा) जो नये नये पत्तों से युक्त हुआ हो अथवा जिसमें नये-नये पत्ते निकल रहे हों। २. हरा-भरा तथा लहलहाता हुआ। ३. जिसे नई-नई चीजों, रचनाओं आदि से युक्त किया गया हो और इस प्रकार उसका अभिवर्द्धन तथा विकास हुआ हो। जैसे—लेखक अपनी रचनाओं से साहित्य को पल्लवित करते हैं। ४. लाख के रंग में रंगा हुआ। ५. जिसे रोमांच हुआ हो। रोमांचित।
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पल्लवी (विन्)  : वि० [सं० पल्ल+इनि] जिसमें पल्लव हों। पत्तों से युक्त। पुं० पेड़। वृक्ष।
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पल्ला  : पुं० [सं० पल्लव=कपड़े का छोर] १. ओढ़े या पहने हुए कपड़े का अंतिम विस्तार। आँचल। छोर। जैसे—धोती या चादर का पल्ला। मुहा०—(किसी से) पल्ला छूटना=पीछा छूटना। छुटकारा मिलना। जैसे—चलो, किसी तरह इस दुष्ट से पल्ला छूटा। पल्ला छुड़ाना=बचाव या रक्षा करने के लिए किसी की पकड़ या बंधन से निकलना। जैसे—तुम तो पल्ला छुड़ाकर भागे, पर पकड़ गए हम। (किसी का) पल्ला पकड़ना=रक्षा, सहायता, स्वार्थ-साधन आदि के लिए किसी को पकड़ना या उसके साथ होना। जैसे—उसने एक भले आदमी का पल्ला पकड़ लिया था; इसीलिए उसकी जिंदगी अच्छी तरह बीत गई। (किसी का) पल्ला पकड़ना=किसी को किसी की अधीनता, संरक्षण आदि में रखना। (किसी के आगे या सामने) पल्ला पसारना या फैलाना=अनुग्रह, भिक्षा आदि के रूप में किसी से प्रार्थी होना। पल्ले पड़ना=(प्रायः तुच्छ, हेय या भार स्वरूप वस्तु का) प्राप्त होना या मिलना। जैसे—यह बदनामी हमारे पल्ले पड़ी। (लड़की का स्त्री का किसी के) पल्ले बँधना=विवाह आदि के द्वारा किसी की पत्नी बनकर उसके साथ रहना या होना, किसी के जिम्मे होना। (अपने) पल्ले बाँधना=अधिकार संरक्षण आदि में लेना। (किसी के) पल्ले बाँधना= (क) किसी के अधिकार, संरक्षण आदि में देना। जिम्मे करना। सौंपना। (ख) लड़कियों, स्त्रियों आदि के संबंध में, किसी के साथ विवाह कर देना। (बात को) पल्ले बाँधना=बहुत अच्छी तरह से उसे स्मरण रखना तथा उसके अनुसार आचरण करना। २. स्त्रियों की ओढ़नी चादर, साड़ी आदि का वह अंश जो उनके सिर पर रहता है और जिसे खींचकर वे घूँघट करती हैं। मुहा०—(किसी से) पल्ला करना=पर-पुरुष के सामने स्त्री का घूंघट करना। पल्ला लेना=मुँह पर घूँघट करके और सिर झुकाकर किसी मृतक के शोक में रोना। ३. अनाद आदि बाँधने का कपड़ा या चादर। ४. अपेक्षया अधिक दूरी पर या विस्तार। जैसे—(क) कोसों के पल्ले तक मैदान ही मैदान दिखाई देता था। (ख) उनका मकान यहाँ से मील भर के पल्ले पर है। पुं० [फा० पल्लः] १. तराजू की डंडी के दोनों सिरों पर रस्सियों, श्रृंखलाओं आदि की सहायता से लटकनेवाली दोनों आधारों या पात्रों में से हर एक जिसमें से एक पर बटखरे रखे जाते हैं और दूसरी पर तौली जानेवाली वस्तु। २. कुछ विशिष्ट वस्तुओं के दो विभिन्न परन्तु प्रायः समान आकार- प्रकारवाले या खंडों में से हर एक। जैसे—(क) दरवाजे का पल्ला। (ख) कैंची का पल्ला। (ग) दुपलिया टोपी का पल्ला। ३. बराबर के दो प्रतियोगी या विरोधी पक्षों में से हर एक। मुहा०—पल्ला दबना=पक्ष कमजोर या हलका पड़ना। पल्ला भारी होना=पक्ष प्रबल या बलवान होना। ४. ओर। तरफ। दिशा। ५. पहल। पार्श्व। पुं० [सं० पल?] तीन मन का बोझ। पद—पल्लेदार। (दे०) वि०=परला (उस ओर का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्लि  : स्त्री०=पल्ली।
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पल्लिका  : स्त्री० [सं० पल्लि+कन+टाप्] छोटा गाँव। छोटी बस्ती।
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पल्लिवाह  : पुं० [सं० पल्लि√वह् (ढोना)+अण्] लाल रंग की एक प्रकार की घास।
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पल्ली  : स्त्री० [सं० पल्लि+ङीष्] १. छोटा गाँव। पुरवा। खेड़ा। २. कुटी। झौंपड़ी। ३. छिपकली।
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पल्लू  : पुं० [हिं० पल्ला] १. आँचल। छोर। २. स्त्रियों का घूँघट। ३. चौड़ी गोट या पट्टी।
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पल्ले  : अव्य० [हिं० पल्ला] प्राप्ति, स्थिति आदि के विचार से अधिकार, वश या स्वत्व में। पास या हाथ में। जैसे—उसके पल्ले क्या रखा है! अर्थात् उसके पास कुछ भी नहीं है। पुं०=प्रलय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्लेदार  : वि० [हिं० पल्ला+फा० दार] १. जिसमें पल्ले लगे हुए हों। २. (आवाज या स्वर) जो अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा, अधिक विस्तृत या अधिक जोरदार हो। पद—पल्लेदार आवाज=ऐसी ऊँची आवाज जो दूर तक पहुँचती हो। पुं० [हिं० पल्ला+फा० दार] [भाव० पल्लेदारी] १. वह जो गल्ले के बाजार में दूकानों पर अनाज तौलने का काम करता है। बया। २. अनाज ढोनेवाला मजदूर।
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पल्लेदारी  : स्त्री० [हिं० पल्लेदार+ई (प्रत्य०)] पल्लेदार का काम, पद, भाव या मजदूरी।
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पल्लौ  : पुं० १.=पल्लव। २.=पल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्लव  : पुं० [सं०√पल्+वल्] छोटा जलाशय।
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पल्वलावास  : पुं० [सं० पल्वल-आवास, ब० स०] कछुआ।
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पल्हवना  : अ० स०=पलुहना।
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पवंग  : पुं० [सं० प्लवंग] १. बंदर। २. हिरन। ३. घोड़ा। (डिं०)
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पवँरि (री)  : स्त्री०=पवँरी (ड्योढ़ी)।
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पव  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+अप्] १. गोबर। २. वायु। हवा। ३. अनाज की भूसी अलग करना। अनाज ओसाना या बरसाना। पुं०=पौ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवई  : स्त्री० [देश०] खाकी रंग की एक चिड़िया जिसका निचला भाग खैरे रंग का और चोंच पीली होती है।
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पवन  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+युच्—अन] १. वायु। हवा। २. विशेषतः वायु की वह हलकी धारा जो पृथ्वी के प्राणियों के आस-पास रहकर कभी कुछ तेज और कभी कुछ धीमी चलती है और जिसका ज्ञान हमारी त्वगिंद्रिय को होता है। (विंड) विशेष—हमारे यहाँ पुराणों में ४९ प्रकार के पवन कहे गये हैं। परन्तु लोक में पवन उसी अर्थ में प्रचलित है जो ऊपर बतलाया गया है। ३. हवा की सहायता से अनाज के दाने में से भूसा अलग करना। ओसाना। बरसाना। ४. श्वास। साँस। मुहा०—पवन का भूसा होना=उसी प्रकार अदृश्य या नष्ट हो जाना जिस प्रकार हवा में भूसा उड़ जाता है। ५. प्राण-वायु। ६. जल। पानी। ७. कुम्हार का आँवा। ८. विष्णु। ९. पुराणानुसार उत्तम मनु के एक पुत्र का नाम। १॰. रहस्य संप्रदाय में, प्राणायाम। उदा०—आसनु पवनु दूरि कर बवरे।—कबीर।
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पवन-अस्त्र  : पुं०=पवनास्त्र।
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पवन-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवनचक्की  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० चक्की] पवन के वेग से चलनेवाली चक्की। (विंडमिल) विशेष—ऐसी चक्की में ऊपर के ढाँचे में बड़ा सा पंखेदार चक्कर लगा रहता है। यह चक्कर हवा के जोर से घूमता है जिससे नीचे की चक्की का यंत्र चलने लगता है।
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पवन-चक्र  : पुं० [ष० त०] चक्कर खाती हुई चलनेवाली जोर की हवा। चक्रवात। बवंडर।
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पवनज  : वि० [सं० पवन√जन्+ड] जो पवन से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-तनय  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-नन्द  : पुं० [ष० त०] पवन-पुत्र। (दे०)
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पवन-नन्दन  : पुं० [सं० ष० त०]=पवन-तनय।
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पवन-परीक्षा  : स्त्री० [ष० त०] १. अषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को होनेवाली ज्योतिषियों की एक क्रिया जिसमें वायु की गति आदि की जाँच करके ऋतु-संबंधी विशेषतः वर्षा संबंधी भविष्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (कुछ स्थानों में देहातों में इस दिन मेले लगते हैं।) २. वह क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वायु की गति किस दिशा की ओर है। हवा देखना।
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पवन-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-पूत  : पुं०=पवन-पुत्र।
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पवन-प्रचार  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जो यह सूचित करता है कि वायु का प्रवाह किस दिशा में हो रहा है।
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पवन-भट्ठी  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० भट्ठी] धातुएँ आदि गलाने की एक विशेष प्रकार की आधुनिक यांत्रिक भट्ठी जिसमें नीचे से हवा पहुँचाकर आँच तेज की जाती है। (विंड फर्नेस)
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पवन-वाण  : पुं० [मध्य० स०] वह बाण जिसके चलाये जाने पर पवन का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता था। (पुराण)
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पवन-वाहन  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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पवन-व्याधि  : स्त्री० [ष० त०] वायु रोग। पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण के सखा उद्धव।
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पवन-संघात  : पुं० [ष० त०] किसी विशिष्ट स्थान पर दो विभिन्न दिशाओं से पवनों का एक साथ आना तथा परस्पर टकराना जो पुराणानुसार अकाल, शत्रुओं के आक्रमण आदि अशुभ लक्षणों का सूचक माना गया है।
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पवन-सुत  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवना  : पुं० [स्त्री० पवनी] पौना (झरना)।
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पवनात्मज  : पुं० [सं० पवन-आत्मज, ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन। ३. अग्नि।
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पवनाश  : पुं० [सं० पवन√अश् (खाना)+अण्] साँप।
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पवनाशन  : पुं० [सं० पवन-अशन, ब० स०] साँप।
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पवनाशनाश  : पुं० [सं० पवनाशन√अश्+अण्] १. गरुड़। २. मोर।
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पवनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पवन√अश्+णिनि] जो वायु पीकर जीता हो। पुं० साँप।
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पवनास्त्र  : पुं० [सं० पवन-अस्त्र, मध्य० स०] एक प्राचीन अस्त्र जिसके द्वारा वायु का वेग तीव्रतम किया जाता था। (पुराण)
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पवनी  : स्त्री० [सं० √पु (पवित्र करना)+ल्युट्—अन, ङीष्] झाड़ू। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] गाँव में रहनेवाली वह प्रजा या कुछ जातियाँ जो अपने निर्वाह के लिए क्षत्रियों ब्राह्मणों अथवा गाँव के दूसरे रहनेवालों से नियमित रूप से कुछ नेग, पारिश्रमिक, पुरस्कार आदि के रूप में अन्न-धन पाती हैं। जैसे—कुम्हार, चमार, नाऊ, बारी, धोबी आदि। स्त्री० हिं० ‘पौना’ का स्त्री० अल्पा०।
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पवनेष्ट  : पुं० [सं० पवन-इष्ट, स० त०] बकायन।
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पवनोबुज  : पुं० [सं० पवन-अंबुज उपमि० स०, पृषो० सिद्धि] फालसा।
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पवमान  : पुं० [सं०√पू+शानन्, मुक्—आगम्] १. पवन। वायु। हवा। २. गार्हपत्य अग्नि। ३. चंद्रमा। ४. अग्नि की पत्नी स्वाहा के गर्भ से उत्पन्न एक पुत्र का नाम। ५. एक प्रकार का स्तोत्र।
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पवर  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवरिया  : पुं०=पौरिया (१. द्वारपाल। २. मंगल-गीत गानेवाला याचक)।
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पवरी  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में, प, फ, ब, भ और म इन पाँच अक्षरों या वर्णों की सामूहिक संज्ञा। ये सभी ओष्ठ्य तथा स्पर्श हैं, किन्तु प, फ, अधोष और ब, भ, म घोष हैं तथा प, ब, म अल्पप्राण और फ, भ महाप्राण हैं।
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पवाँड़ा  : पुं०=पँवाड़ा।
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पवाँर  : पुं० [देश०] पमार। चकवड़। पुं०=प्रमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवाँरना  : स०=पँवारना (फेंकना)।
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पवाँरी  : स्त्री [?] लोहा छेदने का लोहारों का एक औजार।
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पवाई  : स्त्री० [हिं० पाँव] १. जूतों की जोड़ी में से प्रत्येक जूता। २. चक्की के दोनों पाटों में से प्रत्येक पाट।
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पवाका  : स्त्री० [सं०√पू+आक—टाप्] चक्रवात। बवंडर।
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पवाड़  : पुं० [देश०] चकवँड़।
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पवाड़ा  : पुं० [मरा० पवाड़ (कीर्ति, महत्त्व), अथवा सं० प्रवाद?] १. मराठी भाषा का एक प्रसिद्ध लोक छंद जिसमें प्रायः किसी बहुत बड़े या वीर पुरुष की कीर्ति, गुण, पराक्रम आदि का प्रशंसात्मक वर्णन होता था। २. मध्य-युगीन राजस्थान में वह लोककाव्य जिसे परवर्ती चारणों ने विरुदावली शैली में समस्त तत्त्वों से युक्त करके प्रचलित किया था और जो प्रायः लोकगीत के रूप में गाया जाता था। ब्रज में इसी को ‘पमारा’ और मालवे में ‘पँवारा’ कहते हैं। ३. किसी काम या बात का ऐसा व्यर्थ विस्तार जिसमें झगड़े-झमेले की बहुत-सी बातें हों; और इसीलिए जिनसे सहज में जी ऊब जाय।
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पवाना  : स० [हिं० पाना का प्रे० रूप] १. प्राप्त करना। २. खिलाना।
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पवार  : पुं०=परमार (राजपूतों की एक जाति)।
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पवि  : पुं० [सं०√पू+इ] १. वज्र। २. वाण अथवा वाण की नोक। ३. वाणी। ४. वाक्य। ५. अग्नि। ६. थहूर। सेहुँड़। ७. मार्ग। रास्ता। (डिं०)
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पवित  : वि० [सं०] पवित्र। पुं० मिर्च।
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पविताई  : स्त्री०=पवित्रता।
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पवित्तर  : वि०=पवित्र।
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पवित्र  : वि० [सं०√पू+इत्र] [भाव० पवित्रता] १. (पदार्थ) जो धार्मिक उपचारों से इस प्रकार शुद्ध किया गया हो अथवा स्वतः अपने गुणों के कारण इतना अधिक शुद्ध माना जाता हो कि पूजा-पाठ, यज्ञ-होम आदि में काम में लाया या बरता जा सके। जैसे—पवित्र अग्नि, पवित्र जल। ३. (व्यक्ति) जो निश्छल, धार्मिक तथा सद्वृत्तिवाला होने के कारण पूज्य, मान्य तथा श्रद्धा का पात्र हो। जैसे—पवित्रात्मा। ३. (विचार) जो शुद्ध अंतःकरण से सोचा गया हो और जिसमें किसी प्रकार का मल या विकार न हो। ४. साफ। स्वच्छ। निर्मल। ५. दोष, पाप आदि से रहित। पुं० १. वह वस्तु या साधन जिससे कोई चीज निर्दोष, निर्मल या स्वच्छ की जाय। २. कुश या कुशा जिससे घी, जल आदि छिड़ककर चीजें पवित्र की जाती हैं। ३. कुश का वह छल्ला जो तर्पण, श्रद्धा आदि के समय उँगलियों में पहना जाता है। पवित्री। पैंती। ४. यज्ञोपवीत। जनेऊ। ५. ताँबा। ६. मेह। वर्षा। ७. जल। पानी। ८. दूध। ९. घी। १॰. अर्ध्य देने का पात्र। ११. अरघा। १२. मधु। शहद। १३. विष्णु। १४. शिव। १५. कार्तिकेय। १६. तिल का पौधा। १७. पुत्र-जीवी नामक वृक्ष। १८. घर्षण। रगड़।
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पवित्रक  : पुं० [सं० पवित्र√कै+क] १. कुशा। २. दौना (पौधा)। ३. गूलर का पेड़। ४. पीपल। ५. क्षत्रियों का यज्ञोपवीत।
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पवित्रता  : स्त्री० [सं० पवित्र+तल्+टाप्] पवित्र होने की अवस्था या भाव।
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पवित्र-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] जौ।
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पवित्र-पाणि  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ में कुश हो।
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पवित्रवति  : स्त्री० [सं०] क्रौंच द्वीप में होनेवाली एक प्रकार की वनस्पति। (पुराण)
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पवित्रा  : स्त्री० [सं० पवित्र+टाप्] १. तुलसी। २. हलदी। ३. पीपल। ४. श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी। ५. एक प्राचीन नदी। ६. रेशमी धागों से बने हुए मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० पवित्र-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा पवित्र हो। शुद्ध तथा स्तुत्य मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रारोपण  : पुं० [सं० पवित्र-आरोपण, ष० त०] १. यज्ञोपवीत धारण करना। २. [ब० स०] श्रावण शुक्ला द्वादशी को भगवान श्रीकृष्ण को सोने, चाँदी, ताँबे या सूत आदि का यज्ञोपवीत पहनाने की एक रीति या उत्सव।
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पवित्रारोहण  : पुं०। पवित्रारोपण। (दे०)
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पवित्राश  : पुं० [सं० पवित्र√अश् (व्याप्ति)+अण्] सन का बना हुआ डोरा, जो प्राचीन भारत में बहुत पवित्र माना जाता था।
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पवित्रित  : भू० कृ० [सं० पवित्र+णिच्+क्त] पवित्र या शुद्ध किया हुआ।
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पवित्री  : वि० [सं० पवित्र+ङीष्] पवित्र करने या बनानेवाला। स्त्री० १. कुश का बना हुआ एक प्रकार का छल्ला जो कर्मकांड के समय अनामिका में पहना जाता है। पैंती। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पविद  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पवि-धर  : वि० [सं० ष० त०] वज्र धारण करनेवाला। पुं० इंद्र।
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पवीनव  : पुं० [सं०] अथर्ववेद के अनुसार एक प्रकार के असुर जो स्त्रियों का गर्भ गिरा देते हैं।
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पवीर  : पुं० [सं०] १. हल की फाल। २. शस्त्र। हथियार। ३. वज्र। ४. हथियार।
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पवेरना  : स० [हिं० पवारना=फेंकना] [भाव० पवेरा] जोते हुए खेतों में बीज छिड़कना।
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पवेरा  : पुं० [हिं० पवेरना] खेतों में बीज छिड़कने की क्रिया, ढंग या भाव।
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पव्य  : पुं० [सं० √पू+यत्] यज्ञ-पात्र।
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पशम  : स्त्री० [फा० पश्म] १. ऊन, विशेषतः बढ़िया ऊन जिसके दुशाले, पशमीने आदि बनाये जाते हैं। २. पुरुष या स्त्री की मूत्रेंद्रिय पर के बाल। मुहा०—पशम उखाड़ना=(क) झूठ-मूठ का काम करके व्यर्थ समय नष्ट करना। (व्यंग्य और हास्य) पशम तक न उखाड़ना=(क) कुछ भी काम न हो सकना। (ख) बहुत प्रयत्न करने पर भी कोई कष्ट या हानि न पहुँचा सकना। पशम पर मारना या समझना=बिलकुल तुच्छ या हीन समझना।
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पशमीना  : पुं० [फा० पश्मीनः] १. पशम। २. पशम का बना हुआ बहुत बढ़िया या मुलायम कपड़ा।
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पशव्य  : वि० [सं० पशु+यत्] १. पशु-संबंधी। पशुओं का। २. पशुओं की तरह का। जानवरों का-सा। पाशव। पुं० पशुओं का झुंड।
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पशु  : पुं० [सं०√दृश् (देखना)+कु, पशादेश] [भाव० पशुता, पशुत्व] १. चार पैरों से चलनेवाला कोई दुमदार जंतु। जानवर। जंतु। जैसे—ऊँट, घोड़ा, बैल, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, आदि। २. प्राणधारी जीव। जंतु। ३. वह जिसे कुछ भी ज्ञान या बुद्धि न हो, अथवा जिसमें सहृदयता का पूरा अभाव हो। ४. वह जिसका कोई धार्मिक संस्कार न हुआ हो। ५. परमात्मा। ६. ऐसा धार्मिक कृत्य जिसमें जानवर की बलि चढ़ाई जाती हो। ७. वह पशु जिसे बलि चढ़ाते हों। ८. अग्नि। ९. शिव के अनुचर या गण।
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पशुकर्म (कर्मन्)  : पुं० [ष० त०] १. यज्ञ आदि में पशुओं का होनेवाला बलिदान। २. मैथुन।
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पशुका  : स्त्री० [सं० पशु+कन्+टाप्] कोई छोटा पशु।
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पशु-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] =पशुकर्म।
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पशु-गायत्री  : स्त्री० [मध्य० स०] तंत्र की रीति से बलिदान करने के समय बलि पशु के कान में कहा जानेवाला एक प्रकार का मंत्र।
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पशुचर  : पुं० [सं० पशु√चर्+ट] वह स्थान जो पशुओं के चरने-चराने के लिए सुरक्षित हो। गोचर भूमि। (पास्च्योर)
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पशु-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] १. पशुओं के समान विवेकहीन आचरण। जानवरों की-सी चाल या व्यवहार। २. मैथुन।
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पशु-चिकित्सक  : पुं० [सं०] वह जो रोगी पशु, पक्षियों आदि की चिकित्सा करता हो। (वेटेरिनरी सर्जन)
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पशु-चिकित्सा  : स्त्री० [सं०] चिकित्सा शास्त्र की वह शाखा जिसमें पशु-पक्षियों आदि के रोगों के निदान और चिकित्सा का विवेचन होता है। (वेटेरिनरी)
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पशुजीवी (विन्)  : वि० [सं० पशु√जीव् (जीना)+णिनि] १. पशुओं का मांस खाकर जीनेवाला। २. वह जो पशुओं का पालन करके उनसे प्राप्त होनेवाली वस्तुओं से अपनी जीविका चलाता हो।
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पशुता  : स्त्री० [सं० पशु+तल्+टाप्] १. पशु होने की अवस्था या भाव। २. पशुओं का-सा व्यवहार या स्वभाव। ३. वह गुण जिसके कारण किसी व्यक्ति की गिनती पशुओं में की जाती हो।
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पशुत्व  : पुं० [सं० पशु+त्वल्] पशुता। (दे०)
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पशुदा  : स्त्री० [सं० पशु√दा (देना)+क+टाप्] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका देवी।
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पशु-देवता  : स्त्री० [मध्य० स०] वह देवता जिसके उद्देश्य से किसी पशु को बलि चढ़ाया जाय।
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पशु-धन  : पुं० [मयू० स०] वे पालतू पशु जो किसी व्यक्ति, समाज या राज्य के आर्थिक उत्पादन, सुरक्षा आदि में योग देते हों। (लिवस्टाक)
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पशु-धर्म  : पुं० [ष० त०] पशुओं का-सा आचरण या व्यवहार अर्थात् मनुष्यों के लिए निंद्य व्यवहार।
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पशु-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. शिव। २. सिंह। शेर।
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पशुनिरोधिका  : स्त्री० [ष० त०] वह सरकारी या अर्द्ध सरकारी स्थान जहाँ पर लोगों के खुले या छूटे हुए पालतू पशु पकड़कर ले जाये जाते हैं। कांजीहाउस। (कैटिलपाउंड)
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पशुप  : वि० [सं० पशु√पा (रक्षा करना)+क] पशुओं का पालन करनेवाला या स्वामी।
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पशुपतास्त्र  : पुं० [सं० पाशुपतास्त्र] महादेव का शूलास्त्र।
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पशु-पति  : पुं० [ष० त०] १. पशुओं का स्वामी। २. जीवमात्र का स्वामी अर्थात् ईश्वर या परमात्मा। ३. महादेव। शिव। ४. अग्नि। ५. ओषधि। दवा।
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पशु-पल्लव  : पुं० [ब० स०] कैवर्तमुस्तक। केवटी माथा।
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पशुपाल  : वि० [सं० पशु√पाल (पोषण)+णिच्+अण्] पशुओं को पालनेवाला। पुं० १. अहीर। ग्वाला। २. ईशान कोण का एक प्राचीन देश।
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पशु-पलाक  : वि० [ष० त०] [स्त्री० पशुपालिका] पशुओं को पालनेवाला।
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पशु-पालन  : पुं० [ष० त०] जीविका-निर्वाह के लिए पशुओं को पालने की क्रिया या भाव। (एनिमल हस्बैंडरी)
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पशु-पाश  : पुं० [ष० त०] १. वह फंदा या रस्सी जिससे पशु विशेषतः यज्ञ-पशु बाँधा जाता था। २. शैवदर्शन के अनुसार चार प्रकार के वे बंधन जिनसे सब जीव बँधे रहते हैं।
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पशुपाशक  : पुं० [सं० पशुपाश√कै+क] एक प्रकार का रतिबंध। (काम-शास्त्र)
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पशु-भाव  : पुं० [ष० त०] १. पशुता। जानवरपन। २. तंत्र में, मंत्रों आदि के तीन प्रकार के साधन-भेदों में से एक।
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पशु-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा यज्ञ जिसमें पशु या पशुओं को बलि चढ़ाया जाय।
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पशु-याग  : पुं० [मध्य० स०] पशु-यज्ञ। (दे०)
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पशु-रक्षण  : पुं० [ष० त०] पशुपालन। (दे०)
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पशु-रति  : स्त्री० [सं०] १. पशुओं की तरह की जानेवाली वह रति जो विशुद्ध काम-वासना की तृप्ति के लिए की जाती हो। २. पशुवर्ग के किसी प्राणी के साथ मनुष्य द्वारा की जानेवाली रति। जैसे—पुरुष पक्ष में, गौ या बकरी के साथ की जानेवाली रति; अथवा स्त्री पक्ष में, कुत्ते के साथ की जानेवाली रति।
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पशु-राज  : पुं० [ष० त०] पशुओं के स्वामी, सिंह। शेर।
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पशुलंब  : पुं० [सं०] एक देश का प्राचीन नाम।
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पशु-हरीतकी  : स्त्री० [ष० त०] अम्रातक फल। आमड़े का फल।
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पशु  : पुं०=पशु।
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पश्च  : वि० [सं० पश्चात्, पृषो० सिद्धि] [भाव० पश्चता] १. प्रस्तुत या वर्तमान से पहले का। पिछला। (बैक) जैसे—सामयिक पत्र का पश्च अंक। (बैक नम्बर) २. ‘अग्र’ का विपर्याय। जैसे—पश्चस्वर (बैक वावेल) आदि। ३. बाद का। परवर्त्ती। ४. पश्चिम का। पश्चिमी। विशेष—‘पश्च’ और ‘पश्चा’ शब्द का प्रयोग वेद में ही होता है। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग चिन्त्य है। फिर भी हिन्दी में इसके प्रयोग के चल पड़ने के कारण यहाँ इसके कुछ यौगिक शब्द रखे जा रहे हैं।
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पश्च-गमन  : पुं० [सं० स० त०] १. पीछे की ओर चलना या हटना। ‘अग्र-गमन’ का विपर्याय। (रिग्रेशन)। २. अवनति, दुरवस्था, ह्रास आदि की ओर प्रवृत्त होना। ‘पुरोगमन’ का विपर्याय। (रिट्रोग्रेशन)
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पश्च-गामी (मिन्)  : वि० [सं० पश्च√गम्(जाना)+णिनि] १. पीछे की ओर चलता या हटता रहनेवाला। २. अवनति। दुरावस्था, ह्रास आदि की ओर प्रवृत्त रहनेवाला। ‘पुरोगामी’ का विपर्याय। (रिग्रेसिव)
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पश्च-ज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] विशिष्ट आत्मिक शक्ति की सहायता से इस जन्म या किसी पूर्व जन्म की ऐसी बीती हुई घटनाओं या बातों का होनेवाला ज्ञान जो कभी पहले जानी, देखी, पढ़ी या सुनी न हों। ‘पूर्व-ज्ञान’ का विपर्याय।
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पश्च-दर्शन  : पुं० [सं० स० त०] १. पीछे की ओर मुड़कर देखना। २. पिछली या बीती हुई बातें याद करके उन पर विचार करना। (टिट्रस्पेक्शन) ३. विशिष्ट आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी पुरानी घटनाएँ, बातें, व्यक्तियों की आकृतियाँ आदि आँखों के सामने देखना जो कभी देखी न हों। ‘पूर्व दर्शन’ का विपर्याय। (रिट्रो-कॉग्निशन)
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पश्चदर्शिक  : वि० [सं०] १. जिसका संबंध पश्च-दर्शन से हो। पश्च-दर्शन का। २. जिसका परिणाम या प्रभाव पिछली या बीती हुई बातों पर भी पड़ता हो। पूर्व-व्याप्ति। (रिट्रास्पेक्टिव) जैसे—इस निर्णय का प्रभाव पश्च-दर्शिक होगा, अर्थात् पिछली या बीती हुई घटनाओं या बातों पर भी पड़ेगा।
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पश्च-दर्शी (शिनि)  : वि० [सं० पश्च√दृश् (देखना) +णिनि] पश्चदर्शन करनेवाला।
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पश्च-परिणाम  : पुं०=पश्च-प्रभाव।
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पश्च-प्रभाव  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी कार्य या वस्तु का वह परिणाम या प्रभाव जो कुछ समय बीतने पर दिखाई देता हो। (आफ्टरएफेक्ट)
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पश्च-लेख  : पुं० [सं०] कोई पत्र, लेख आदि लिखे जाने के उपरांत बाद में याद आने पर उसके अंत में बढ़ाकर लिखी जानेवाली कोई और बात या लेखांश। (पोस्टस्क्रिप्ट)
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पश्चात्  : अव्य० [सं० अपर+आति, पश्च-आदेश] किसी अवधि, क्रम, घटना आदि के बीतने अथवा कुछ समय व्यतीत होने पर। उपरांत। पीछे। बाद। पुं० १. पश्चिम दिशा। २. अंत। समाप्ति। ३. अधिकार।
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पश्चात् कर्म (र्मन्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक के अनुसार वह कर्म जिससे रोगी के स्वस्थ होने के उपरान्त उसके शरीर के बल, वर्ण और अग्नि की वृद्धि होती हो। भिन्न-भिन्न रोगों से मुक्त होने पर भिन्न-भिन्न पश्चात् कर्म बतलाये गये हैं।
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पश्चात्ताप  : पुं० [सं० मध्य स०] अपने किसी कर्म के अनौचित्य का भान होने पर मन में होनेवाला दुःख जो यह सोचने को विवश करता है कि मैंने यह काम क्यों किया। २. किसी किये हुए अनुचित कर्म के पाप से मुक्त होने के लिए अथवा अपनी आत्मा को शांति देने के लिए किया जानेवाला तप।
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पश्चात्तापी (पिन्  : वि० [सं० पश्चात्ताप+इनि] जो पश्चात्ताप करता हो।
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पश्चाद्भाग  : पुं० [सं० ष० त०] १. पीछे का हिस्सा। २. पश्चिमी भाग।
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पश्चाद्वर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० पश्चात्√वृ (बरतना) +णिनि] १. पीछे रनहेवाला। २. अनुसरण करनेवाला।
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पश्चानुताप  : पुं० [सं० पश्च-अनुताप, स० त०] पश्चाताप।
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पश्चतापी (पिन्)  : पुं० [सं० पश्चा√आप् (लाभ)+णिनि] नौकर। सेवक।
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पश्चारुज  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जो कदन्न खानेवाली स्त्रियों का दूध पीनेवाले बालकों को होता है। इसमें बालकों को हरे-पीले रंग के दस्त आने लगते हैं और तेज़ ज्वर होता है।
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पश्चिम  : वि० [सं० पश्चात्-डिमच्] १. जो पीछे से या बाद में उत्पन्न हुआ हो। २. अंतिम। पिछला। पुं० [वि० पश्चिमी] वह दिशा जिसमें सूर्य अस्त होता है। पूर्व दिशा के सामनेवाली दिशा। प्रतीची। वारुणी। पश्चिम।
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पश्चिम-घाट  : पुं०=पश्चिमी घाट।
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पश्चिम-प्लव  : पुं० [ब० स०] वह भूमि जो पश्चिम की ओर झुकी हो।
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पश्चिम-याम-कृत्य  : पुं० [सं० पश्चिम-याम, कर्म० स०, पश्चिम परम-कृत्य, ष० त०] बौद्धों के अनुसार रात के पिछले पहर में किया जानेवाला धार्मिक कृत्य।
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पश्चिम-वाहिनी  : वि० स्त्री० [कर्म० स०] जो पश्चिम दिशा की ओर बहती हो।
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पश्चिम-सागर  : पुं० [कर्म० स०] आयरलैंड और अमेरिका के बीच का समुद्र। एटलांटिक या अतलांतक महासागर।
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पश्चिमांचल  : पुं० [पश्चिम-अंचल, कर्म० स०] अस्ताचल। (दे०)
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पश्चिमा  : स्त्री० [सं० पश्चिम+टाप्] पश्चिम दिशा।
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पश्चिमार्द्ध  : पं० [पश्चिम-अर्द्ध, कर्म० स०] पीछेवाला आधा भाग। अपरार्द्ध।
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पश्चिमी  : वि० [सं० पश्चिम] १. पश्चिम दिशा संबंधी। २. पश्चिम की ओर अर्थात् पश्चिमी देशों में होनेवाला। ३. पश्चिम से आनेवाला। पछवाँ।
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पश्चिमी-घाट  : पुं० [हिं० पश्चिमी+घाट्] केरल और आधुनिक महाराष्ट्र राज्य के बीच में समुद्र के किनारे-किनारे गई हुई पर्वतमाला।
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पश्चिमी हिंदी  : स्त्री० [हिं०] भाषा-विद् ग्रियर्सन के मत से, पश्चिमी भारत में बोली जानेवाली खड़ी बोली, बाँगड़ू, ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुंदेली बोलियों का एक वर्ग (पूर्वी हिन्दी से भिन्न) जो संभवतः शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुआ था।
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पश्चिमोत्तर  : वि० [सं० पश्चिम-उत्तर, ब० स०] पश्चिम और उत्तर दिशाओं के बीच में स्थित। पुं० वायव्य कोण।
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पश्चिमोत्तरा  : स्त्री० [सं० पश्चिमोत्तर+टाप्] उत्तर और पश्चिम के बीच की विदिशा। वायव्य कोण।
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पश्त  : पुं० [लश०] खंभा।
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पश्ता  : पुं० [फा० पुश्तः] १. बाँध। २. किनारा। तट। (लश०)
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पश्ती  : स्त्री० [फा० पुख्तो] आधुनिक पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों तथा अफगानिस्तान की भाषा जिसकी गिनती आर्यभाषाओं में होती है। पुं० [देश०] ३।। मात्राओं का एक ताल जिसमें दो आघात होते हैं।
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पश्म  : पुं० [फा०] बकरी, भेड़ आदि का रोयाँ। ऊन। पशम। (देखें)
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पश्मीना  : पुं०=पशमीना।
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पश्यंती  : स्त्री० [सं०√दृश् (देखना)+शतृ+ङीप्] हठ योग में, वह सूक्ष्म ध्वनियाँ नाद जो वाक् को उत्पन्न करनेवाली वायु के मूलाधार से हटकर नाभि में पहुँचने पर होता है।
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पश्यतोहर  : वि० [सं० पश्यतः√हृ (हरण करना)+अच्, अलुक्, स०] जो दूसरों को देखते रहने पर भी चतुरता से उनकी चीजें चुरा लेता हो। पुं० सुनार।
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पश्ववदान  : पुं० [सं० पशु-अवदान, ष० त०] बलि-पशु के अंग विशेष का छेदन।
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पश्वाचार  : पुं० [सं० पशु-आचार, ष० त०] तंत्र में, वैदिक रीति से तथा कामना और संकल्पपूर्वक किया जानेवाला देवी का पूजन।
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पश्वाचारी (रिन्)  : वि० [सं पश्वाचार+इनि] पश्वाचार-संबंधी। पुं० वह जो पश्वाचार की रीति से पूजन करता हो।
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पष  : पुं० [सं० पक्ष] १. पंख। डैना। २. ओर। तरफ। ३. चांद्र मास का आधा भाग। पक्ष।
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पषा  : पुं०=पंखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पषाण (न्)  : पुं०=पाषाण (पत्थर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पषारना  : स०=पखारना (धोना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पष्य  : पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पष्षान  : पुं०=पाषाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसंग (ा)  : पुं०=पासंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसंती (ा)  : स्त्री०=पश्यंती।
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पसंद  : वि० [फा०] आकार-प्रकार, गुण, रूप आदि के विचार से जो मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत हुआ हो और इसलिए जिसे अनेकों या बहुत में से वरण किया या उसे वरीयता दी गई हो। प्रत्य० उत्तर पद के रूप में प्रत्यय की तरह प्रयुक्त—(क) पसंद आनेवाला। जैसे—दिल-पसंद=दिल को पसंद आनेवाला। (ख) पसंद करनेवाला। जैसे—हक-पसंद। स्त्री० १. मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत होनेवाला कार्य, वस्तु या व्यक्ति। २. वरण करने, चुनने या वरीयता देने की क्रिया, प्रवृत्ति या भाव। ३. इस प्रकार चुनी या वरण की हुई वस्तु।
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पसंदा  : पुं० [फा० पसन्द] १. मांस के एक प्रकार के कुचले हुए टुकड़े का गोश्त। २. उक्त प्रकार के मांस से बननेवाला एक प्रकार का कबाब।
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पसंदीदा  : वि० [फा०] [भाव० पसंददीदगी] पसंद आनेवाला या पसंद किया हुआ।
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पसंदेश  : वि० [फा०] [भाव० पसंदेशी] १. जो बीती हुई बातों के विषय में विचार करता रहता हो। २. फलतः संकुचित बुद्धि।
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पस  : पुं० [अं०] घाव, फोड़े आदि में से निकलनेवाला लसीला तरल पदार्थ। मवाद। अव्य० [फा०] १. अंत या बाद में। पीछे। २. पुनः। फिर। ३. निस्संदेह। बेशक। ४. अतः। इसलिए।
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पसई  : स्त्री० [देश०] तराई में होनेवाली एक तरह की राई और उसका पौधा। स्त्री०=पसही (तिन्नी)।
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पसकरण  : वि० [सं० पश्च-करण] कायर। डरपोक। (डिं०)
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पस-गैबत  : क्रि० वि० [फा० पस०+अ० गैबत] किसी के पीठ पीछे। अनुपस्थिति में।
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पसघ  : पुं० दे० ‘पासंग’।
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पसताल  : पुं० [देश०] जलाशयों के किनारे होनेवाली एक तरह की घास जिसे पशु और जिसके दाने गरीब लोग भी खाते हैं।
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पसनी  : स्त्री० दे० ‘अन्न-प्राशन’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसपा  : वि० [फा०] पराजित।
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पसम  : स्त्री०=पशम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पस-माँदा  : वि० [फा० पसमांदः] [भाव० पसमांदगी] १. बचा हुआ। शेष। २. (काफिले या जत्थे का वह व्यक्ति) जो यात्रा करते समय पीछे छूट या रह गया हो।
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पसमीना  : पुं०=पशमीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर  : पुं० [सं० प्रसर] १. हथेली का कटोरी या दोने के आकार का बनाया हुआ वह रूप जिसमें कोई चीज भर कर किसी को दी जाती है। २. उक्त में भरी हुई वस्तु या उसकी मात्रा। ३. मुट्ठी। पुं० [देश०] १. रात के समय पशुओं को चराने का काम। उदा०—वह रात को कभी कभी पसर भी चराता था।—वृन्दावनलाल वर्मा। २. पशुओं के चरने की भूमि। चरागाह। ३. पशु चराते समय एक तरह के गाय जानेवाले गीत। ४. आक्रमण। चढ़ाई। धावा। पुं०=प्रसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर-कटाली  : स्त्री० [सं० प्रसर कटाली] भटकटैया। कटाई।
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पसरन  : स्त्री० [सं० प्रसारिणी] वृक्षों पर चढ़नेवाली एक जंगली लता। स्त्री० [हिं० पसरना] पसरने की क्रिया, दशा या भाव।
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पसरना  : अ० [सं० प्रसरण] १. आगे की ओर बढना। फैलना। २. हाथ-पैर फैलाकर तथा अधिक जगह घेरते हुए बैठना या लेटना। ३. अपना आग्रह या इच्छा पूरी कराने के लिए तरह-तरह की बातें करना। संयो० क्रि०—जाना।
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पसरहट्टा  : पुं० [हिं० पंसारी+हाट] वह बाजार या हाट जिसमें पंसारियों की बहुत-सी दूकानें होती हैं।
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पसरहा  : पुं०=पसरहट्टा।
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पसराना  : स० [हिं० पसराना का प्रे०] किसी को पसरने में प्रवृत्त करना।
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पसरी  : स्त्री०=पसली।
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पसरौहाँ  : वि० [हिं० पसरना+औहाँ (प्रत्य०)] १. पसरनेवाला। २. जिसमें अधिक पसरने की प्रवृत्ति हो।
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पसली  : स्त्री० [सं० पर्शका] स्तनपायी जीवों की छाती के दोनों ओर की गोलाकार हड्डियों में से हर एक। पद—पसली का रोगा=एक रोग जिसमें बच्चों का साँस जोरों से चलने लगता है। मुहा०—पसली फड़कना या फड़क उठना=मन में उत्साह या उमंग उत्पन्न होना। जोश आना। पसली ढीली करना या तोड़ना=बहुत अधिक मारना।
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पसवपेश  : पुं०=पशोपेश।
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पसवा  : वि० [देश०] हलके गुलाबी रंक का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० हलका गुलाबी रंग।
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पसवाड़ा  : पुं०=पिछवाड़ा। (पृष्ठ-भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसही  : स्त्री० [देश०] तिन्नी नाम का धान या उसका चावल।
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पसा  : पुं०=पसर। (दे०)
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पसाइ  : पुं०=पसाउ (प्रसाद)।
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पसाई  : स्त्री० [सं० प्रसातिका, प्रा० पसाइआ] पसताल नाम की घास जो तालों में होती है। पुं०=पसही (तिन्नी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० पसाना] (मोड़ आदि) पसाने की क्रिया या भाव। स्त्री० पिसाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाउ  : पुं० [सं० प्रसाद, प्रा० पवास] १. प्रसाद। २. कृपा। अनुग्रह। ३. प्रसन्नता।
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पसाना  : स० [सं० प्रस्रवण, हिं० पसावना] [भाव० पसाई] १. पकाये हुए चावलों में से माँड़ निकालना। २. किसी वस्तु में से उसका जलीय अंश बाहर निकालना। अ [सं० प्रसादन] अनुग्रह आदि करने के लिए किसी पर प्रसन्न होना।
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पसार  : पुं० [सं० प्रसार] १. पसरने की क्रिया या भाव। २. प्रसार। फैलाव। विस्तार। ३. दालान। (पश्चिम) पुं० [सं० प्रसाद] प्राप्त होने पर मिलनेवाली चीज। उदा०—दुहुँ कुल अपजस पहिल पसार।—विद्यापति।
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पसारना  : स० [सं० प्रसारण, हिं० पसारना का स०] १. अधिक विस्तृत करना। २. फैलाना। जैसे—झोली पसारना। ३. आगे बढ़ाना। जैसे—हाथ पसारना।
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पसारा  : पुं०=पसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसारी  : पुं० [देश०] १. तिन्नी का धान। पसवन। पसही। पुं०=पंसारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाव  : पुं० [हिं० पसाना+आव (प्रत्य०)] १. माँड़ आदि पसाने की क्रिया या भाव। २. पसाने पर निकलनेवाला गाढ़ा तरल पदार्थ। पीच। पुं०=पसाउ (प्रसाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसावन  : पुं०=पसाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसिंजर  : पुं० [अं० पैसेंजर] १. यात्री, विशेषतः रेल या जहाजी का यात्री। २. यात्रियों की वह रेल-गाड़ी जो कुछ धीमी चाल से चलती और प्रायः सभी स्टेशनों पर ठहरती है।
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पसित  : वि० [सं० पायश] बँधा या बाँधा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसीजना  : अ० [सं० प्र√स्विद्, प्रस्विद्यति, प्रा० पसिज्ज] १. अधिक गरमी या ताप के प्रभाव के कारण किसी घन या ठोस पदार्थ में से जल-कण निकालना। २. दूसरे के घोर कष्ट, दुःख आदि को देखने पर चित्त में (प्रायः कठोर चित्त में) दया की भावना उमड़ना। ३. पसीने से तर होना।
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पसीना  : पुं० [सं० प्रस्वेदन, हिं० पसीजना] ताप, परिश्रम आदि के कारण शरीर या उसके अंग में से निकलनेवाले जल-कण। स्वेद। क्रि० प्र०—आना।—छूटना।—निकलना। पद—पसीने की कमाई=वह धन जो परिश्रमपूर्वक अर्जित किया गया हो, यों ही अथवा मुफ्त में न मिला हो। मुहा०—किसी का पसीना छूटना=कोई काम करते-करते बहुत अधिक परेशान हो जाना। पसीने पसीने होना=पसीने से बिलकुल भीग जाना।
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पसु  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसुरी, पसुली  : स्त्री०=पसली।
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पसू  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसूज  : स्त्री० [?] कपड़ों की सिलाई में सूई-डोरे से भरे या लगाये जानेवाले एक प्रकार के सीधे टाँके।
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पसूजना  : स० [?] कपड़ों की सिलाई में एक विशेष प्रकार के टाँके लगाना।
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पसूता  : स्त्री०=प्रसूता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसूस  : वि० [हिं०] कठोर।
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पसेउ (ऊ)  : पुं०=पसेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसेरी  : स्त्री० [हिं० पाँच+सेर+ई (प्रत्य०)] १. पाँच सेर का बाट। पंसेरी। २. उक्त बाट से तौली हुई वस्तु की मात्रा या मान। जैसे—चार पसेरी गेहूँ।
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पसेव  : पुं० [सं० प्रस्राव] १. वह तरल पदार्थ जो कच्ची अफीम को सुखाने के समय उसमें से निकलता है। इस अंश के निकल जाने पर अफीम सूख जाती है और खराब नहीं होती। पुं० [सं० प्रस्वेद] पसीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसोपेश  : पुं० [फा० पसवपेश] १. कोई काम करने के समय मन में होनेवाला यह भाव कि आगे बढ़ें या पीछे हटें। असमंजस। आगा-पीछा। सोच-विचार। २. इस बात का विचार कि यह काम करने पर क्या लाभ अथवा क्या हानि होगी। ऊँच-नीच।
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पसो  : पुं०=पशु।
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पस्त  : वि० [फा०] [भाव० पस्ती] १. हारा हुआ। २. थका हुआ। शिथिल। ३. किसी की तुलना में झुका या दबा हुआ। जैसे—हिम्मत पस्त होना। ४. छोटे आकार का। छोटा। (यौ० के आरंभ में) जैसे—पस्तकद। ५. कमीना। नीच। ६. तुच्छ। हीन। जैसे—पस्त खयाल। ७. पिछड़ा या हारा हुआ। जैसे—पस्त-हिम्मत। ८. मंद। जैसे—पस्त-किस्मत।
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पस्त-कद  : वि० [फा०] ठिंगना। नाटा।
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पस्त-हिम्मत  : वि० [फा०] [भाव० पस्तहिम्मती] १. जो विफल होकर के हिम्मत हार चुका हो। जिसका साहस छूट गया हो। हतोत्साह। २. कमहौसला। भीरु।
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पहस्तहौसला  : वि० [फा०] पस्त-हिम्मत।
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पस्ताना  : अ०=पछताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तावा  : पुं०=पछतावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्ती  : स्त्री० [फा०] १. पस्त होने की अवस्था या भाव। २. निचाई। ३. विचारों, व्यवहारों आदि की नीचता। कमीनापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तो  : स्त्री०=पश्तो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्त्य  : पुं० [सं०√पस् (बाधा)+क्तिन्+यत्] १. घर। वास-स्थान। २. कुल। परिवार।
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पस्सर  : पुं० [अं० परसर] जहाज पर खलासियों आदि को बर्तन, रसद आदि बाँटनेवाला कर्मचारी। पुं०=पसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्सी बबूल  : पुं० [हिं० पस्सी ?+हिं० बबूल] एक प्रकार का बढ़िया कलमी बबूल का वृक्ष जिसके फूलों से कई प्रकार के सुगंधित द्रव्य बनाये जाते हैं।
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पहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व] निकट। पास। विभ० से।
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पहँसुल  : स्त्री० [सं० प्रह्ल=झुका हुआ+शूल्] हँसिया की तरह का तरकारी काटने का एक छोटा उपकरण।
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पह  : स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का प्रकाश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्याऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहचनवाना  : स० [हिं० पहचानना का०] किसी से पहचानने का काम करना।
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पहचान  : स्त्री० [सं० प्रत्यभिज्ञान या परिचय] १. पहचानने की क्रिया, भाव या शक्ति। २. कोई ऐसा चिह्न या लक्षण जिससे पता चले कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। जैसे—अपने कपड़े (या लड़के) की कोई पहचान बतलाओ। ३. किसी वस्तु की अच्छाई, बुराई, टिकाऊपन, स्वाद आदि देख-भाल कर जान लेने की शक्ति। जैसे—आम, कपड़े, घी आदि की पहचान। ४. जीव या व्यक्ति के संबंध में, उसके आकार, चेष्टाओं, बातों आदि से उसका वास्तविक रूप अनुमानित करने की समर्थता। जैसे—आदमी या घोड़े की पहचान। ५. दे० ‘जानपहचान’।
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पहचानना  : स० [हिं० पहचान] १. किसी पस्तु या व्यक्ति को देखते ही उसके चिह्नों, लक्षणों, रूप-रंग के आधार पर यह जान या समझ लेना कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। यह समझना कि वह यही वस्तु या व्यक्ति है जिसे मैं पहले से जानता हूँ। जैसे—मैं उसके कपड़े पहचानता हूँ। संयो० क्रि०—जानना।—लेना। २. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद करना। अंतर समझना या जानना। बिलगाना। जैसे—असल या नकल को पहचानना सहज नहीं है। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के गुण-दोषों, योग्यताओं आदि से भली-भाँति परिचित रहना। जैसे—तुम भले ही उनकी बातों में आ जाओ; पर मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।
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पहटना  : स०=पहेटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहटा  : पुं० १. दे० ‘पाटा’। २. दे० ‘पेठा’।
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पहड़िया  : वि०=पहाड़ी। पुं० [हिं० पहाड़] संथाल परगने में रहनेवाली एक जाति।
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पहन  : पुं० [फा०] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ की छातियों में भर आवे और टपकने लगे या टपकने को हो। पुं०=पाहन (पाषाण)।
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पहनना  : स० [सं० परिधान] (कपड़े, गहने आदि) शरीर पर धारण करना। परिधान करना। जैसे—कुरता या धोती पहनना; अँगूठी या हार पहनना; खड़ाऊँ, चप्पल या जूता पहनना।
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पहनवाना  : स० [हिं० ‘पहनना’ का प्रे०] १. किसी को कुछ पहनाने में प्रवृत्त करना। जैसे—नौकर से लड़के को कपड़े पहनवाना। २. किसी को कुछ पहनने के लिए विवश करना। (पहनाना से भिन्न)। जैसे—माता ने बच्चे को कुरता पहनवाकर छोड़ा।
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पहना  : पुं० [फा० पहन] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ के स्तनों में भर आया हो और टपकता-सा जान पड़े। पुं०=पनहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाई  : स्त्री० [हिं० पहनाना] १. पहनने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे—जरा आपकी पहनाई देखिये। २. पहनने या पहनाने के बदले में दिया या लिया जानेवाला पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पाहन=पत्थर] १. पाहन या पत्थर होने की अवस्था या भाव। २. पाहन या पत्थर की-सी कठोरता, गुरुता या और कोई गुण। उदा०—पाहन ते न कठिन पहनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाना  : सं० [हिं० पहनना] १. दूसरे को अपने हाथों से कपड़े, गहने आदि धारण कराना। जैसे—कोट या जूता पहनाना। २. मारना-पीटना। (बाजारू)
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पहनाव  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनावा  : पुं० [हिं० पहनना] १. पहनने के कपड़े। पोशाक। २. किसी जाति, देश आदि के लोगों द्वारा सामान्यतः तन ढकने के उद्देश्य से पहने जानेवाले कपड़े। जैसे—अँगरेजों का पहनावा पैंट, कोट, कमीज तथा हैट है और भारतीयों का धोती, कुरता और टोपी है। ३. विशिष्ट आकार, प्रकार या रंग के वे कपड़े जो किसी विद्यालय, संस्था आदि के कर्मचारियों, विद्यार्थियों, सदस्यों आदि को पहनने पड़ते हों। जैसे—स्कूली पहनावा।
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पहपट  : पुं० [देश०] १. स्त्रियों द्वारा गाये जानेवाले एक तरह के गीत। २. शोर-गुल। हल्ला। ३. चारों ओर फैलनेवाली निन्दात्मक चर्चा या बदनामी। ४. छल। धोखा। बदनामी। (क्व०)
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पहपटबाज  : पुं० [हिं० पहपट+फा० बाज] [भाव० पहपटबाजी] १. शोर-गुल करने या हल्ला मचानेवाला। २. उपद्रवी। फसादी। शरारती। झगड़ालू। ३. चारों ओर लोगों की निंदा फैलानेवाला। ४. छलिया। धोखेबाज।
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पहपटहाया  : वि० [स्त्री० पहपटहाई]=पहपटबाज।
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पहमिनि  : स्त्री०=पद्मिनी। उदा०—कंवल करी तू पहमिनी मैं निसि भएहु बिहान।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहर  : पुं० [सं० प्रहर] १. समय के विचार से दिन-रात के किये हुए आठ समान भागों में से हर एक जो तीन-तीन घंटों का होता है। २. समय। ३. युग।
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पहरना  : स० [सं० प्र+हरण] नष्ट करना। उदा०—जिड़ि पहरंतैं नवी परि।—प्रिथीराज। स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरा  : पुं० [हिं० पहर] १. ऐसी अवस्था या स्थिति जिसमें किसी आदमी, चीज या जगह की रखवाली करने अथवा अपघात, हानि आदि रोकने के लिए एक या अधिक आदमी नियुक्त किये जाते हैं। इस बात का ध्यान रखने का प्रबंध कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ-जा न सके अथवा आज्ञा, नियम, विधान आदि के विरुद्ध कोई काम न करने पावे। चौकी। रखवाली। विशेष—(क) पहले प्रायः इस प्रकार की देख-रेख करनेवाले लोग एक एक पहर के लिए नियुक्त किये जाते थे; इसी से उक्त अर्थ में ‘पहरा’ शब्द प्रचलित हुआ था। (ख) पहरे का काम प्रायः एक स्थान पर खड़े होकर, थोड़ी-सी दूरी में इधर-उधर आ-जाकर अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में चारों ओर घूम-घूमकर किया जाता है। मुहा०—पहरा देना=घूम-घूमकर बराबर यह देखते रहना कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ तो नहीं रहा है या कोई अनुचित काम तो नहीं कर रहा है। पहरा पड़ना=ऐसी अवस्था होना कि कहीं कुछ लोग पहरा देते रहें। जैसे—रात के समय शहरों में जगह-जगह पहरा पड़ता है। पहरा बदलना=एक पहरेदार के पहरे का समय बीत जाने पर उसके स्थान पर दूसरे पहरेदार का आना। पहरा बैठना=किसी वस्तु या व्यक्ति के पास पहरेदार या रक्षक बैठाया जाना। चौकीदार को पहरे के काम पर लगाना। पहरा बैठाना=पहरा देने के काम पर किसी को लगाना। (किसी को) पहरे में देना=किसी को इस उद्देश्य से पहरेदारों की देख-रेख में रखना कि वह कहीं भागने, किसी से मिलने-जुलने या कोई अनुचित काम न करने पावे। २. उतना समय जितने में एक रक्षक अथवा रक्षक-दल को रक्षा-कार्य करना पड़ता है। जैसे—तुम्हारे पहले में तो कोई यहाँ नहीं आया था। ३. कोई पहरेदार या पहरेदारों का कोई दल। जैसे—जब तक नया पहरा न आवे, तब तक तुम (या तुम लोग) यहीं रहना। ४. वह जोर की आवाज से पहरेदार लोगों को सावधान करने या रहने के लिए रह-रहकर देता या लगाता रहता है। जैसे—कल रात को इस महल्ले में पहरा नहीं सुनाई पड़ा। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार का काल या समय। जामाना। युग। जैसे—अभी क्या है! अभी तो इससे भी बुरा पहरा आवेगा। पुं० [हिं० पौरा का विकृत रूप] किसी विशेष व्यक्ति के अस्तित्व, आगमन, सत्ता आदि का काल या समय। पौरा। जैसे—जब से इस लड़की का पहरा (पौरा) इस घर में आया है, तब से इस घर में लहर-बहर दिखाई देने लगी है।
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पहराइत  : पुं०=पहरेदार। उदा०—पीला भमर किया पहराइत।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरावनी  : स्त्री० [हिं० पहरावना] १. पहनावा। २. वे कपड़े जो किसी शुभ अवसर पर प्रसन्नतापूर्वक छोटों को दिये या पहनाये जाते हैं।
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पहरावा  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरी  : पुं०=प्रहरी (पहरेदार)।
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पहरुआ  : पुं०=पहरेदार।
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पहरू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरेदार  : पुं० [हिं० पहरा+फा० दार] [भाव० पहरेदारी] १. वह जिसका काम कहीं खड़े-खड़े या घूम-घूमकर पहरा देना हो। चौकीदार। संतरी। २. वह जो किसी की रक्षा के लिए कटिबद्ध तथा प्रस्तुत हो। जैसे—हम देश के पहरेदार हैं।
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पहरेदारी  : स्त्री० [हिं० पहरा+फा० दारी] १. पहरा देने का काम या भाव। २. पहरेदार का पद।
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पहल  : पुं० [फा० पहलू, मि० सं० पटल] १. किसी घन पदार्थ के तीन या अधिक कोनों अथवा कोरों के बीच का तल या पार्श्व। २. बगल। पहलू। जैसे—(क) पासे में छः पहल होते हैं। (ख) इस नगीने में बारह पहल कटे हैं। क्रि० प्र०—काटना।—तराशना।—बनाना। मुहा०—पहल निकालना=किसी पदार्थ के पृष्ठ देश या बाहरी सतह को तराश या छीलकर उसमें त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण आदि पहल बनाना। २. ऊन, रूई आदि की कुछ कड़ी और मोटी तह या परत। गाला। उदा०—तूल के पहल किधौं पवन अधार के।—सेनापति। ३. किसी तरह की तह या परत। स्त्री० [हिं० पहला] १. किसी नये कार्य का पहली बार होनेवाला आरंभ। २. किसी कार्य, बात आदि का किसी एक पक्ष की ओर होनेवाला आरंभ जिसके पश्चप्रभाव का उत्तरदायित्व उसी पक्ष पर माना जाता है। छेड़। (इनीशिएटिव) जैसे—झगड़े में पहले तो उसने पहल की थी। मुहा०—पहल करना=किसी काम या अपनी ओर से या आगे बढ़कर आरंभ करना।
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पहलदार  : वि० [हिं० पहल+फा० दार] जिसमें पहल कटे या बने हों। जिसमें चारों ओर अलग-अलग तल या सतहें हों।
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पहलनी  : स्त्री० [हिं० पहल] सुनारों का एक औजार जिससे कोंढ़ा या घुंडी गोल करते हैं।
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पहलवान  : पुं० [फा० पहलवान] [भाव० पहलवानी] १. वह व्यक्ति जो स्वयं दूसरों से कुश्ती लड़ता हो अथवा दूसरों को कुश्ती लड़ना सिखलाता हो। २. मोटा-ताजा। तगड़ा। हट्टा-कट्टा। वि० खूब बलवान और मोटा-ताजा।
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पहलवानी  : वि० [फा० पहलवानी] १. पहलवानों से संबंध रखनेवाला। २. पहलवानों की तरह का। स्त्री० १. पहलवान होने की अवस्था या भाव। २. पहलवान का पेशा, वृत्ति या शौक। ३. बलवान और सशक्त होने की अवस्था या भाव। जैसे—वह तुम्हारी सारी पहलवानी निकालकर रख देगा।
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पहलवी  : पुं०, स्त्री० [फा०]=पह्लवी।
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पहला  : वि० [सं० प्रथम, प्रा० पहिले] [स्त्री० पहली] १. समय के विचार से जो और सब से आदि में हुआ हो। जैसे—यह उनका पहला लड़का है। २. किसी चीज विशेषतः किसी वर्गीतकृत चीज के आरंभिक या प्रारंभिक अंश या वर्ग से संबंध रखनेवाला। जैसे—पुस्तक का पहला अध्याय, विद्यालय का पहला दरजा। ३. तुलना, प्रतियोगिता आदि में जो सब से आगे निकल पहुँच या बढ़ गया हो। जैसे—दौड़, परीक्षा आदि में पहला आना। ४. वर्तमान से पूर्व का। विगत। जैसे—पहला जमाना कुछ और ही तरह का था। ५. जो अत्यधिक उपयोगी, महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान हो।
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पहलाम  : स्त्री० [हिं० पहला+म (प्रत्य०)] लड़ाई-झगड़े के संबंध में की जानेवाली छेड़। पहल। जैसे—इस बार तो तुम्हीं ने पहलाम की थी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहलू  : पुं० [फा० पहलू] १. किसी वस्तु का कोई विशिष्ट पार्श्व या किसी दिशा में पड़नेवाला अंग या विस्तार। २. व्यक्ति के शरीर का दाहिना या बायाँ अंग। पार्श्व। बगल। जैसे—जो जल उठता है यह पहलू तो वह पहलू बदलते हैं।—कोई कवि। मुहा०—(किसी का) पहलू गरम करना=किसी के शरीर से विशेषतः प्रेयसी प्रेमपात्र का प्रेमी के शरीर से सटकर बैठना। किसी के पास या साथ बैठकर उसे सुखी करना। (किसी से) पहलू गरम करना=किसी को विशेषतः प्रेयसी या प्रेमपात्र को शरीर से सटाकर बैठाना। मुहब्बत में बैठाना। (किसी के) पहलू में रहना=किसी के बहुत पास या बिलकुल साथ में रहना। ३. करवट। बल। जैसे—किसी पहलू से चैन नहीं मिलता। ४. पड़ोस। मुहा०—पहलू बसाना=किसी के पड़ोस में जाकर रहना। ५. किसी समूह का कोई पार्श्व या भाग। जैसे—फौज का दाहिना पहलू ज्यादा मजबूत था। मुहा०—पहलू दबना=किसी अंग या पार्श्व का दुर्बल होने या हारने के कारण पीछे हटना। (किसी के) पहलू पर होना=विकट अवसर पर सहायता करने के लिए प्रस्तुत रहना। ६. किसी बात या विषय का अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि की दृष्टि से कोई पक्ष। जैसे—मुकदमे के सब पहलू पहले से सोच रखो। मुहा०—(किसी बात का) पहलू बचाना=इस बात का ध्यान रखना या युक्ति करना किसी किसी अंग, पक्ष या पार्श्व से किसी प्रकार का अनिष्ट अथवा कोई अप्रिय घटना या बात न होने पावे। (अपना) पहलू बचाना=कोई काम करने से जी चुराना या टाल-मटोल करके पीछे हटना। ७. अगल-बगल या आस-पास का स्थान। पार्श्व। जैसे—पहाड़ के पहलू में एक घना जंगल था। पद—पहलूनशी=(क) पास बैठनेवाला। (ख) पास बैठा हुआ। मुहा०—(किसी का) पहलू बसाना=किसी के पड़ोस या समीप में जा रहना। पड़ोस आबाद करना। ८. किसी पदार्थ के किसी पार्श्व का कोई समतल पृष्ठ-देश। पहल। जैसे—इस नगीने का कोई पहलू चौकोर नहीं है। ९. गूढ़ अर्थ। १॰. युक्ति। ११. बहाना। १२. रूख।
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पहलूदार  : वि० [फा०] जिसके कई पहलू (पक्ष या पहल) हों।
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पहले  : अव्य० [हिं० पहला] १. आदि आरंभ या शुरु में। सर्वप्रथम। जैसे—पहले यहाँ कोई दूकान नहीं थी। २. काल, घटना, स्थिति आदि के क्रम के विचार से आगे या पूर्व। जैसे—उनके मकान के पहले एक पुल पड़ता है। ३. बीते हुए समय में। पूर्वकाल में। अगले जमाने में। जैसे—पहले की-सी सस्ती अब फिर क्यों होने लगी।
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पहलेज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का लंबोतरा खरबूजा।
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पहले-पहले  : अव्य० [हिं० पहले] १. आदि या आरंभ में। सर्वप्रथम। सबसे पहले। २. जीवन में पहली बार। जैसे—वह पहले-पहल दिल्ली गया है।
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पहलौठा  : वि० [हिं० पहल+औठा (प्रत्य०)] [स्त्री० पहलौठी] (माता-पिता का वह पुत्र) जिसे (उन्होंने) सबसे पहले जन्म दिया हो। अथवा जो सबसे पहले जन्मा हो। प्रथम प्रसव।
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पहाड़  : पुं० [सं० पाषाण] [स्त्री० अल्पा० पहाड़ी] १. पृथ्वी तल के ऊपर प्राकृतिक रूप से उठा या उभरा हुआ वह बहुत बड़ा अंश जो प्रायः चूने, पत्थर, मिट्टी आदि की बड़ी-बड़ी चट्टानों से बना होता है और जिसका तल प्रायः असम या ऊबड़-खाबड़ रहता है। पर्वत। मुहा०—पहाड़ खोदकर चूहा निकालना=बहुत अधिक परिश्रम करके बहुत ही तुच्छ परिणाम तक पहुँचना। २. किसी वस्तु का बहुत बड़ा और भारी ढेर। बहुत ऊँची राशि या ढेर। जैसे—पहले बाजारों में अनाज के बोरों के पहाड़ लगे रहते थे। ३. पत्थरों की ढेर की तरह की कोई बहुत बड़ी या भारी चीज या बात अथवा कोई बहुत ही विकट काम या स्थिति। जैसे—(क) मुझे पत्र लिखना तो पहाड़ हो जाता है। (ख) तुम्हें तो मामूली काम भी पहाड़ मालूम होता है। मुहा०—पहाड़ उठाना=कोई बहुत बड़ा, भारी या विकट काम अपने ऊपर लेना या पूरा कर दिखाना। पहाड़ काटना=(क) बहुत ही कठिन या विकट काम कर डालना। (ख) किसी प्रकार कोई बहुत बड़ी विपत्ति या संकट दूर करना। (किसी पर) पहाड़ टूटना या टूट पड़ना=अचानक कोई बहुत बड़ी विपत्ति आना। जैसे—उस पर तो आफत का पहाड़ टूट पड़ा है। पहाड़ से टक्कर लेना=अपने से बहुत अधिक बलवान व्यक्ति या शक्तिशाली से प्रतियोगिता करना या वैर उठाना। बहुत जबरदस्त या बहुत बड़े से भिड़ना। ४. कोई ऐसा कठिन या विकट कार्य, वस्तु या स्थिति जिसका निर्वाह बहुत ही कठिन हो अथवा सहज में जिससे छुटकारा या निस्तार न हो सके। जैसे—पहाड़ की तरह विवाह के योग्य चार-चार लड़कियाँ उसके सामने बैठी थीं।
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पहाड़ा  : पुं० [सं० प्रस्तार या क्रमात् पहाड़ की तरह ऊँचे होते जाने का क्रम] १. किसी अंक के गुणनफलों के क्रमात् आगे बढ़ती चलनेवाली संख्याओं की स्थिति। जैसे—तीन एकम तीन, तीन दूनी छः; तीन तियाँ नौ, तीन चौके बारह आदि। २. उक्त प्रकार की क्रमात् बढ़ती रहनेवाली संख्याओं की सूची। गुणन-सारणी। (मल्टिप्लिकेशन टेबुल) जैसे—पहाड़े की पुस्तक। क्रि० प्र०—पढ़ना।—पढ़ाना।—लिखना।—लिखाना।
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पहाड़िया  : वि०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहाड़ी  : वि० [हिं० पहाल+ई (प्रत्य०)] १. पहाड़-संबंधी। जैसे—पहाड़ी रास्ता। २. पहाड़ पर मिलने, रहने या होनेवाला। जैसे—पहाड़ी वृक्ष, पहाड़ी व्यक्ति। ३. जिसमें पहाड़ हो। जैसे—पहाड़ी देश। ४. पहाड़ पर रहनेवाले लोगों से संबंध रखनेवाला। जैसे—पहाड़ी पहनावा, पहाड़ी बोली। पं० १. पहाड पर रहनेवाले व्यक्ति। जैसे—आज-कल शहर में बहुत से पहाड़ी आये हुए हैं। २. एक प्रकार का बड़ा खीरा। स्त्री० १. छोटा पहाड़। २. काँगड़े, कुमाऊँ, गढ़वाल आदि पहाड़ी प्रदेशों की बोलियों का वर्ग या समूह। ३. भारत के उत्तर-पश्चिमी पहा़ड़ों में गाई जानेवाली एक प्रकार की धुन या संगीत-प्रणाली। ४. संगीत में, संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो साधारणतः रात के पहले या दूसरे पहर में गाई जाती है। ५. एक सुगंधित वनस्पति।
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पहान  : पुं०=पाषाण (पत्थर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहार  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पहारी]=पहाड़।
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पहारना  : सं०=प्रहारना (प्रहार करना)।
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पहारी  : स्त्री०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहारू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहासरा  : पुं० [?] १. पौ फटने का समय। तड़का। २. प्रकाश। रोशनी। उदा०—चंद के पहासरे में आँगन में ठाढ़ी भई, आली तेरी जोति किधौं चाँदनी छिपाई है।—गंग।
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पहि  : अव्य० [सं० परं] पर। परंतु। उदा०—पहि किम पूजै पांगुलौ।—प्रिथीराज।
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पहिआ  : पुं० [हिं० पाह=पथ] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। बटोही। २. अतिथि। अभ्यागत। मेहमान। उदा०—आवत। पहिआ सूधै जाहि।—कबीर। ३. जामाता। दामाद। पुं०=पहिया।
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पहिचान  : स्त्री०=पहचान।
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पहिचानना  : स०=पहचानना।
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पहिती  : स्त्री० [सं० प्रहति=सालन] पकाई हुई दाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनना  : स०=पहनना।
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पहिना  : स्त्री० [सं० पाठीन] एक प्रकार की मछली।
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पहिनाना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनावा  : पुं०=पहनावा।
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पहिप  : पुं०=पथिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहियाँ  : अव्य०=‘पहँ’ (पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिया  : पुं० [सं० पथ्थ, प्रा० पह्य से पहिया] १. गाड़ी, यान आदि का वह नीचेवाला मुख्य आधार जो गोलाकार होता और धुरी पर घूमता है तथा जिसके धुरी पर घूमने पर गाड़ी या यान आगे बढ़ता है। २. यंत्रों आदि में लगा हुआ उक्त प्रकार का गोलाकार चक्कर जिसके घूमने से उस यंत्र का कोई क्रिया सम्पन्न होती है। चक्कर। (ह्वोल) पुं० पहिआ (पथिक)।
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पहिरना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावनी  : स्त्री०=पहरावनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिल  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि०=पहले। स्त्री०=पहल।
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पहिला  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिले  : अव्य०=पहले।
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पहिलौठा  : वि० [स्त्री० पहिलौठी]=पहलौठा।
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पहीत  : स्त्री०=पहिती।
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पहुँ  : पुं० [सं० पिय ?] १. पति। २. प्रियतम।
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पहुँच  : स्त्री० [हिं० पहुँचना] १. पहुँचने की क्रिया या भाव। २. किसी के कहीं पहुँचने की भेजी जानेवाली सूचना। जैसे—अपनी पहुँच तुरंत भेजना। ३. ऐसा स्थान जहाँ तक किसी की गति हो सकती हो या कोई पहुँच सकती हो। जैसे—यह तसवीर बहुत ऊँची टँगी है, तुम्हारे हाथ की पहुँच उस तक नहीं होगी (या न हो सकेगी)। ४. किसी स्थान तक पहुँचने की योग्यता, शक्ति या सामर्थ्य। पकड़। जैसे—वह स्थान बड़े बड़ों की पहुँच के बाहर है। ५. किसी विषय का होनेवाला ज्ञान या परिचय। ६. अभिज्ञता की सीमा। ज्ञान की सीमा।
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पहुँचना  : अ० [सं० प्रभूत, प्रा० पहुँच्च] १. (वस्तु अथवा व्यक्ति का) एक विंदु से चलकर अथवा और किसी प्रकार दूसरे विन्दु पर (बीच का अवकाश पार करके) उपस्थित, प्रस्तुत या प्राप्त होना। जैसे—(क) रेलगाड़ी का दिल्ली पहुँचना। (ख) घड़ी की छोटी सूई का १२ पर पहुँचना। (ग) आदमी का घर या स्वर्ग पहुँचना। २. किसी से भेंट आदि करने के लिए उसके यहाँ जाकर उपस्थित होना। पद—पहुँचा हुआ=(क) जिसके संबंध में यह माना जाता हो कि वह सिद्धि प्राप्त करके ईश्वर तक पहुँच गया है। (ख) किसी काम या बात में पूर्ण रूप से दक्ष या पारंगत। किसी बात के गूढ़ रहस्यों या मूल तत्त्वों तक का पूरा ज्ञान रखनेवाला। ३. किसी के द्वारा भेजी हुई चीज का किसी व्यक्ति को मिलना या प्राप्त होना। जैसे—पत्र या संदेश पहुँचना। ४. (किसी चीज का) किसी रूप में मिलना या प्राप्त होना। जैसे—आघात या दुःख पहुँचना, फायदा पहुँचना। ५. फैलने या फैलाये जाने पर किसी चीज का किसी सीमा तक जाना या किसी दूसरी चीज को छूना अथवा पकड़ लेना। जैसे—(क) आग का जंगल की एक सीमा से दूसरी सीमा तक पहुँचना। (ख) हाथ का छींके तक पहुँचना। ६. मान, मात्रा, संख्या आदि में बढ़ते-बढ़ते या घटते-घटते किसी विशिष्ट स्थिति को प्राप्त होना। जैसे—(क) हमारे यहाँ गेहूँ की उपज ५॰ मन प्रति बीघे तक जा पहुँची है। (ख) लड़का आठवें दरजे में पहुँच गया है। (ग) ताप मान अभी ११॰ तक ही पहुँचा है। ७. बढ़कर किसी के तुल्य या बराबर होना। जैसे—अब तुम भी उनके बराबर पहुँचने लगे हो। ८. एक दशा या रूप से दूसरी दशा या रूप को प्राप्त होना। जैसे—जान जोखिम में पहुँचना। ९. प्रविष्ट होना। घुसना। जैसे—वह भी किसी न किसी तरह अंदर पहुँच गया। १॰. किसी चीज का किसी दूसरी चीज से प्रभावित होना। जैसे—कपड़ों में सील पहुँचना। ११. लाक्षणिक अर्थ में, किसी प्रकार के तत्त्व, भाव, मनःस्थति, रहस्य आदि को ठीक-ठीक जानने में समर्थ होना। जैसे—यह बहुत गंभीर विषय है, इस तक पहुँचना सहज नहीं है।
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पहुँचा  : पुं० [सं० प्रकोष्ठ अथवा हिं० पहुँचना] १. हाथ की कुहनी के नीचे और हथेली के बीच का भाग। कलाई। गट्टा। मणिबंध। मुहा०—(किसी का) पहुँचा पकड़ना=बलपूर्वक किसी को कोई काम करने के लिए उसे रोक रखने के लिए उसकी कलाई पकड़ना। जैसे— वह तो राह-चलते लोगों से पहुँचा पकड़कर माँगने (या लड़ने) लगता है। कहा०—उँगली पकड़ते, पहुँचा पकड़ना=किसी को जरा-सा अनुकूल या प्रसन्न देखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उसके पीछे पड़ जाना। २. टखने के कुछ ऊपर तथा पिंडली से कुछ नीचे का भाग। ३. पाजामे आदि की मोहरी का विस्तार। (पश्चिम)
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पहुँचाना  : स० [हिं० पहुँचा का स०] १. किसी चीज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। जैसे—(क) उनके यहाँ मिठाई (या पत्र) पहुँचा दो। (ख) यह ताँगा हमें स्टेशन तक पहुँचायेगा। २. किसी व्यक्ति के संग चलकर उसे कहीं तक छोड़ने जाना। जैसे—नौकर का बच्चे को स्कूल पहुँचाना। ३. किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में प्राप्त करना। किसी विशेष अवस्था या दशा तक ले जाना। जैसे—उन्हें इस उच्च पद तक पहुँचानेवाले आप ही हैं। ४. किसी रूप में उपस्थित, प्राप्त या विद्यमान कराना। जैसे—किसी को कष्ट या लाभ पहुँचाना; आँखों में ठंडक पहुँचाना; कहीं कोई खबर पहुँचाना। ५. प्रविष्ट कराना।
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पहुँची  : स्त्री० [हिं० पहुँचा] १. कलाई पर पहनने का एक तरह का गहना। जिसमें बहुत से गोल या कँगूरेदार दाने कई पत्तियों में गूँथे हुए होते हैं। २. प्राचीन काल में युद्ध के समय कलाई पर पहना जानेवाला एक तरह का आवरण। ३. पायल। पाजेब। (पश्चिम)
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पहु  : पुं०=प्रभु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का हलका प्रकाश)।
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पहुड़ना  : अ० १.=पौड़ना (तैरना)। २.=पौढ़ना (लेटना)।
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पहुतना  : अ०=पहुँचना। (राज०)
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पहुनई  : स्त्री०=पहुनाई।
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पहुना  : पुं०=पाहुना।
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पहुनाई  : स्त्री० [हिं० पाहुना+आई (प्रत्य०)] १. पाहुने के रूप में कहीं ठहरने तथा सेवा-सत्कार आदि कराने की क्रिया या भाव। मुहा०—पहुनाई करना=बराबर दूसरों के यहाँ पाहुन या अतिथि बनकर खाते और रहते फिरना। दूसरों के आतिथ्य पर चैन से दिन बिताना। २. अतिथि का भोजन आदि से किया जानेवाला सत्कार। आतिथ्यसत्कार।
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पहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना का स्त्री०] १. रखेली स्त्री। २. समधी की स्त्री। समधिन। ३. दे० ‘पहुनाई’।
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पहुन्नी  : स्त्री० [देश०] वह पच्चर जो लकड़ी चीरते समय चिरे हुए अंश के बीच इसलिए लगाया जाता है कि आरा चलाने के लिए बीच में यथेष्ट अवकाश रहे।
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पहुप  : पुं०=पुष्प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुमि (मी)  : स्त्री०=पुहमी (पृथ्वी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुरना  : पुं० [स्त्री० पहुरनी]=पाहुना।
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पहुरी  : स्त्री० [देश०] संगतराशों की एक तरह की चिपटी टाँकी जिससे वे गढ़े हुए पत्थर चिकने करते हैं। मठरनी।
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पहुला  : पुं० [सं० प्रफुल] १. कुमुद। कोई। उदा०—पहुला हारु हियैं लसै सन की बेंदी भाल।—बिहारी। २. गुलाब का फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुवी  : पुहमी (पृथ्वी)। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहेटना  : स० [सं० प्रखेट, प्रा० पहेट=शिकार] १. किसी को पकड़ने के लिए उसका पीछा करना। २. कोई कठिन काम परिश्रमपूर्वक समाप्त करना। ३. औजारों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर या सान पर रगड़ना। ४. अच्छी तरह या डटकर खाना। खूब भर-पेट भोजना करना। ५. अनुचित रूप से ले लेना।
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पहेरी  : स्त्री०=पहेली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रहरी।
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पहेली  : स्त्री० [सं० प्रहेलिका] १. प्रस्ताव के रूप में होनेवाली एक प्रकार की प्रश्नात्मक उक्ति या कथन जिसमें किसी चीज या बात के लक्षण बतलाते हुए अथवा घुमाव-फिराव से किसी प्रसिद्ध बात या वस्तु का स्वरूप मात्र बतलाते हुए यह कहा जाता है कि बतलाओ कि वह कौन सी बात या वस्तु है। (रिडल) क्रि० प्र०—बुझाना।—बूझना। विशेष—पहेलियाँ प्रायः दूसरों के ज्ञान या वृद्धि की परीक्षा के लिए होती हैं, और सभी जातियों तथा देशों में प्रचलित होती हैं। यह अर्थी और शब्दी दो प्रकार की होती हैं। यथा—‘फाट्यो पेट, दरिद्री नाम। उत्तम घर में बाको ठाम।’ शंख की आर्थी पहेली है, और ‘उस आधा आधा रफि होई। आधा-साधा समझै सोई।’ अशरफी की शाब्दी पहेली है। हमारे यहाँ वैदिक युग में पहले को ‘ब्रह्मोदय’ कहते थे; और अश्वमेध आदि यज्ञों में बलि कर्म से पहले ब्राह्मण तथा होता लोगों से ब्रह्मोदय के उत्तर पूछते अर्थात् पहेलियाँ बुझाते थे। भारत की कई (आदिम) जातियों में अब भी विवाह के समय पहेलियाँ बुझाने की प्रथा प्रचलित है। २. कोई ऐसी कठिन या गूढ़ बात अथवा समस्या जिसका अभिप्राय, आशय, तत्त्व या निराकरण सहज में न होता हो और जिसे सुनकर लोगों की बुद्धि चकरा जाती हो। दुर्ज्ञेय और विकट प्रश्न या बात। (रिडल, उक्त दोनों अर्थों में) ३. अधिक विस्तार में घुमा-फिराकर तथा अस्पष्ट रूप में कही हुई कोई बात। मुहा०—पहेली बुझाना=बहुत घुमाव-फिराव से ऐसी बात कहना जो लोगों को चक्कर में डाल दे। जैसे—अब पहेलियाँ बुझाना छोड़ो, और साफ-साफ बतलाओ कि तुम क्या चाहते हो (या वहाँ क्या हुआ)।
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पह्लव  : पुं० [सं०] १. ईरान या फारस देश का प्राचीन निवासी। २. ईरान या फारस में रहनेवाली एक प्राचीन जाति। ३. ईरान या फारस देश।
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पह्लवी  : स्त्री० [फा०] आर्य-परिवार की एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचलन ईरान या फारस देश में ईसवी तीसरी, चौथी और पाँचवीं शताब्दियों में था।
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पह्लिका  : स्त्री० [सं० अप√ह्रु+ड+कन्, इत्व, अकार लोप] जल-कुंभी।
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पाँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइ  : पुं०=पाँव। मुहा०—पाँई पारना=दे० ‘पाँव’ के अंतर्गत ‘पाँव पारना’ मुहा०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइता  : पुं०=पायँता (पैताना, चारपाई का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँओं  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँक (ा)  : पुं०=पंक (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांक्त  : वि० [सं० पंक्ति+अञ्] १. पंक्ति-संबंधी। पंक्ति का। २. पंक्ति के रूप में होनेवाला।
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पांक्तेय  : वि० [सं० पंक्ति+ढक्—एय] [पंक्ति+ष्यञ्] (व्यक्ति) जो अपने अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता हो।
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पांक्त्य  : वि० [सं० पंक्ति+व्यञ्]=पांक्तेय।
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पाँख (ड़ा)  : पुं०=पंख (पक्षियों के)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पख (पखवाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँखी  : वि० [हिं० पंख] पंख या पंखोवाला। स्त्री० १. पक्षी। २. फतिंगा। ३. काठ का एक उपकरण जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती हैं। ४. दे० ‘पाँचा’।
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पाँखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँग  : पुं० [सं० पंक] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार। पुं०[?] जुलाहों के करघे का ढाँचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगल  : पुं० [सं० पांगुल्य] ऊँट। (डिं०)
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पाँगा  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगा नमक  : पुं० [सं० पंक, हिं० पाँग+नोन]=समुद्री नमक।
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पाँगा नोन  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगुर  : स्त्री० [हिं० पाँव+उँगली] पैर की कोई उँगली। वि०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगुरना  : अ० [?] पनपना।
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पाँगुरा  : वि०=पांगुर (पंगुल)।
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पाँगुल  : वि०=पंगुल।
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पांगुल्य  : पुं० [सं० पंगुल+ष्यञ्] पंगुल होने की अवस्था या भाव। लंगड़ापन।
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पाँच  : वि० [सं० पंच] जो गिनती में चार से एक अधिक अथवा छः से एक कम हो। मुहा०—(किसी की) पाँचों उँगलियाँ घी में होना=हर काम में किसी को सफलता मिलना या लाभ होना। पाँचों सवारों में नाम लिखाना या पाँचवें सवार बनना=जबरदस्ती अपने को अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों की पंक्ति या श्रेणी में गिनना या समझना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनना। बड़ा बतलाने या समझने लगना। पद—पाँच जने जी जमात=घर-गृहस्थी और परिवार। पुं० [सं० पंच] १. पाँच का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५। २. जात-बिरादरी या समाज के अच्छे या मुख्य लोग। ३. सब अच्छे आदमी। उदा०—जो पाँचहिं मत लागै नीका।—तुलसी। वि० बहुत अधिक चालाक या होशियार। उदा०—मेरे फंदे में एक भी न फँसा। पाँच बन्नो थी जिससे चार उलझे।—जान साहब।
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पाँचक  : पुं०, स्त्री०=पंचक।
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पांचकपाल  : वि० [सं० पंचकपाल+अण्] पंचकपाल संबंधी।
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पांचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+अण्—ङीप्] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की असिकी नामक कन्या का दूसरा नाम।
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पांचजन्य  : पुं० [सं० पचंजन+ण्य] १. पंचजन राक्षस का वह शंख जो भगवान कृष्ण उठाकर ले गये थे और स्वयं बजाया करते थे। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. जम्बू द्वीप का एक नाम।
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पांचदश्य  : पुं० [सं० पंचदशन्+ण्य] पंचनद या पंजाब-संबंधी। पुं० १. पंजाब का निवासी। २. पंजाब।
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पाँचपंच  : पुं० बहु० [हिं०] सब या मुख्य मुख्य लोग। जैसे—पाँच पंच जो कुछ कहें, वह हम मानने को तैयार हैं।
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पांच-भौतिक  : वि० [सं० पंचभूत+ठक्—इक] १. जिसका संबंध पंचभूतों से हो। २. पंच-भूतों से मिलकर बना हुआ। जैसे—पांच भौतिक शरीर।
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पांचयज्ञिक  : वि० [सं० पंचयज्ञ+ठक्—इक] पंच यज्ञ-संबंधी। पुं० पाँच प्रकार के यज्ञों में से प्रत्येक।
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पाँचर  : पुं० [सं० पंजर] कोल्हू के बीच में जड़े हुए लकड़ी के वे छोटे टुकड़ो जो गन्ने के टुकड़ों को दबाने के लिए लगाये जाते हैं। पुं०=पच्चर।
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पांचरात्र  : पुं० [सं० पंचरात्रि+अण्] आधुनिक वैष्णव मत का एक प्राचीन रूप जिससे परम, तत्त्व, मुक्ति, मुक्ति योग और विषय (संसार) इन पाँच रात्रों (ज्ञानों) का निरूपण होता था। यह भागवत धर्म की दो प्रधान शाखाओं में से एक था।
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पांचवर्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठञ्—इक] पाँच वर्षों में होनेवाला। पंचवर्षीय।
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पाँचवाँ  : वि० [हिं० पाँच+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] क्रम या गिनती में पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
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पांचशाब्दिक  : पुं० [सं० पंचशब्द+ठक्—इक] करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी ये पाँच प्रकार के बाजे।
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पाँचा  : पुं० [हिं० पाँच] खेत का एक उपकरण जिसमें एक डंडे के साथ छोटी फूलकड़ियां लगी रहती हैं। यह प्रायः कटी हुई फसल या घास-भूसा इकट्ठा करने के काम आता है।
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पांचार्थिक  : पुं० [सं० पंचार्थ+ठन्—इक, वृद्धि (बा०)] शैव।
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पांचाल  : वि० [सं० पंचाल+अण्] १. पंचाल देश से संबंध रखनेवाला। पंचाल का। २. पंचाल देश में होनेवाला। पुं० १. पंचाल जाति के लोगों का देश जो भारत के पश्चिमोत्तर खंड में था। २. पंचाल जाति के लोग। ३. प्राचीन भारत में, बढ़इयों, नाइयों, जुलाहों, धोबियों और चमारों के पाँचों वर्गों का समूह।
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पांचालक  : वि० [सं० पांचाल+कन्] पंचालवासियों के संबंध का। पुं० पंचाल देश का राजा।
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पांचाल-मध्यमा  : स्त्री० [सं०] भारतीय नाट्य कला में, एक प्रकार की प्रवृत्ति या बात-चीत वेश-भूषा आदि का ढंग, प्रकार या रूप जो पांचाल शूरसेन, कश्मीर, वाह्लीक, मद्र आदि जनपदों की रहन-सहन आदि के अनुकरण पर होता था।
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पांचालिका  : स्त्री० [सं० पांचाली+कन्+टाप्, ह्रस्व]=पंचालिका।
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पांचाली  : स्त्री० [सं० पंचाल+अण्—ङीष्] १. पंचाल देश की स्त्री। २. पाँचों पांडवों की पत्नी द्रोपदी जो पांचाल देश की राजकुमारी थी। ३. साहित्यिक रचनाओं की एक विशिष्ट रीति या शैली जो मुख्यतः माधुर्य, सुकुमारता आदि गुणों से युक्त होती है। इसमें प्रायः छोटे-छोटे समास और कर्ण-मधुर पदावलियाँ होती हैं। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी वृत्तियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ४. संगीत में (क) स्वर-साधन की एक प्रणाली; और (ख) इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक। ५. छोटी पीपल।
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पांचो  : स्त्री० [हिं० पच्ची का पुराना रूप] रत्नों आदि के जड़ाव का काम। पच्चीकारी। उदा०—जाग्रत सपनु रहत ऊपर मनि, ज्यों कंचन संग पांची।—हित हरिवंश। स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पाँचेक  : वि० [हिं० पाँच+एक] १. पाँच के लगभग। २. थोड़े-से जैसे—वहाँ पाँचेक आदमी आये थे।
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पाँचै  : स्त्री० [हिं० पंचमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि। पंचमी।
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पाँछना  : स० १.=पाछना। २. पोंछना का अनु०।
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पाँज  : स्त्री० [सं० पाश] बाहु-पाश। वि० [हिं० पाँव] (जलाशय या नदी) जिसमें इतने कम पानी हो कि यों ही पाँव चलकर पार किया जा सके। स्त्री० छिछला जलाशय या नदी। पुं० पुल। सेतु। उदा०—जनक-सुता हितु हत्यो लंक-पति, बाँध्यों सागर पाँज।—सूर। पुं० [हिं० पाँजना] पाँजने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पाँजना  : स० [सं० प्रण द्रध, प्रा० पणज्झ पँज्झ] धातुओं के टुकड़ों को जोड़ने के लिए उनमें टाँका लगाना। झालना।
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पाँजर  : अव्य० [सं० पंजा] पास। समीप। पुं० १. निकटता। सामीप्य। २. दे० ‘पंजर’।
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पांजी  : स्त्री० १=पाँज। २.=पंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँझ  : स्त्री०=पाँज।
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पाँडक  : पुं०=पंडुक (पेंडुकी)।
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पांडर  : पुं० [सं०√पण्ड् (गति)+अर, दीर्घ] १. कुंद का वृक्ष और फूल। २. सफेद रंग। ३. सफेद रंग की कोई चीज। ४. मरुआ। ५. पानड़ी। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी। ८. पुराणानुसार एक पर्वत जो मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित कहा गया है।
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पांडर-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] सातला वृक्ष।
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पाँडरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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पांडव  : वि० [सं० पांडु+अण्] पांडु संबंधी। पांडु का। पुं० १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के ये पाँचों पुत्र—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। २. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे था। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. रहस्य संप्रदाय में, पाँचों इंद्रियाँ।
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पांडव-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] हस्तिनापुर।
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पांडवाभील  : पुं० [सं० पांडव-अभी, ष० त०√ला (लेना)+क] श्रीकृष्ण।
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पांडवायन  : पुं० [सं० पांडव-अयन, ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पांडविक  : पुं० [सं० पांडु+ठञ्—इक] एक तरह की गौरैया।
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पांडवीय  : वि० [सं० पांडव+छ—ईय] पांडु के पुत्रों से संबंध रखनेवाला पांडवों का।
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पांडवेय  : पुं० [सं० पांडु+अण्+ङीष्+ठक्—एय] १. पाँडव। २. राजा परीक्षित का एक नाम।
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पांडित्य  : पुं० [सं० पंडित+ष्यञ्] १. पंडित होने की अवस्था या भाव। २. पंडित या विद्वान् को होनेवाला ज्ञान। विद्वता।
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पांडीस  : स्त्री० [?] तलवार। (डिं०)
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पांडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु, नि. दीर्घ] [भाव० पांडुता] हलके पीले रंग का। पुं० १. पांडु फली। २. सफेद रंग। ३. कुछ लाली लिये पीला रंग। ४. त्वचा के पीले पड़ने का एक रोग। पीलिया। ५. हस्तिनापुर के प्रसिद्ध राजा जिनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पाँच पुत्र थे। ६. सफेद हाथी। ७. एक नाग का नाम। ८. परवल।
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पाँडुआ  : पुं० [सं०] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। दोमट जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडु-कंटक  : पुं० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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पांडु-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर।
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पांडुकंबली (लिन्)  : स्त्री० [सं० पांडुकंबल+इनि] ऊनी कंबल से आच्छादित गाड़ी।
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पाँडुक  : पुं०=पंडुक (पेंडकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडुक  : पुं० [सं० पाण्डु+कन्] १. पीला रंग। २. पीलिया रोग। ३. पांडुराजा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पांडु-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार व्रण-चिकित्सा का एक अंग जिससे फोड़े के अच्छे हो जाने पर उसके काले वर्ण को औषधि के प्रयोग में पीला बनाते हैं।
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पांडु-क्ष्मा  : स्त्री० [ब० स० ?] हस्तिनापुर का एक नाम।
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पांडु-चित्र  : पुं० [सं०] आलेख।
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पांडु-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धौ का पेड़।
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पांडुता  : स्त्री० [सं० पांडु+तल्+टाप्] पांडु होने की अवस्था या भाव। पीलापन।
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पांडु-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ।
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पांडु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] १. पुन्नाग वृक्ष। २. [कर्म० स०] सफेद हाथी। ३. सफेद साँप।
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पांडु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] रेणुका नामक गंध-द्रव्य।
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पांडु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] राजा पांडु का पुत्र। पाँचों पांडवों में से प्रत्येक।
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पांडु-पृष्ठ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (वह व्यक्ति) जिससे शरीर पर कोई शुभ लक्षण न हो। ३. अकर्मण्य। निकम्मा।
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पांडु-फला  : पुं० [ब० स०, टाप्] परवल।
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पांडु-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का छोटा क्षुप।
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पांडु-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. खड़िया। दुधिया मिट्टी। २. राम-रज नाम की पीली मिट्टी।
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पांडु-रंग  : पुं० [सं० पांडुर-अंग, ब० स०, शक०, पररूप] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार स्वाद में तिक्त और कृमि, श्लेष्मा, कफ आदि का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु के एक अवतार।
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पांडुर  : वि० [सं० पांडु+र] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत। पुं० १. धौ का पेड़। सफेद ज्वार। ३. कबूतर। बगला। ५. सफेद खड़िया। ६. कामला रोग। ७. सफेद कोढ़। ८. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ९. सर्प। साँप। १॰. साधु-संतों की आध्यात्मिक परिभाषा में, अज्ञान।
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पांडुरक  : वि० [सं० पाण्डुर+कन्] पांडु रंग का। पीला। पुं० १. पीला रंग। २. पीलिया।
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पांडुर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुटज। कुड़ा। कुरैया।
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पांडु-पृष्ठ  : पुं०=पांडुपृष्ठ।
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पांडुर-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप]
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पांडुरा  : स्त्री० [सं० पांडुर+टाप्] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों की एक देवी या शक्ति।
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पांडु-राग  : पुं० [ब० स०] दौना नाम का पौधा। पुं० [कर्म० स०] सफेद रंग। सफेदी।
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पांडुरिमा  : स्त्री० [सं० पांडुर+इमनिच्] हलका पीलापन।
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पांडुरेक्षु  : पुं० [सं० पांडुर+इक्षु, कर्म० स०] हलके पीले रंग की ईख।
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पांडुलिपि  : स्त्री० [सं०] १. पुस्तक, लेख आदि की हाथ की लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। (मैनस्क्रिष्ट) २. दे० ‘पांडुलेख’।
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पांडु-लेख  : पुं० [कर्म० स०] १. हाथ से लिखा हुआ वह आरंभिक लेख जिसमें काँट-छाँट, परिवर्तन आदि होने को हो। २. उक्त का काट-छाँट कर तैयार किया हुआ वह रूप जो प्रकाशित किये या छापा जाने को हो। (ड्राफ्ट) ३. पांडुलिपि।
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पांडु-लेखक  : पुं० [ष० त० ?] वह जो लेख आदि की पांडु-लिपि लिखकर तैयार करता हो। (ड्राफ्टमैन)
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पांडु-लेखन  : पुं० [ष० त० ?] लेख्य आदि की पांडुलिपि तैयार करने का काम। (ड्राफ्टिंग)।
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पांडु-लेख्य  : पुं० [कर्म० स०] १.=पांडुलिपि। २.=पांडुलेख।
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पांडु-लोमश  : वि० [कर्म० स०,+श] [स्त्री० पांडुलोमशा] सफेद रोएँवाला। जिसके रोयें या बाल सफेद हों।
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पांडु-लोमशा  : स्त्री० [सं० पांडुलोमश्+टाप्] मषवन। माषपर्णी।
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पांडु-लोमा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पांडु-लोमशा। (दे०)
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पांडु-शर्करा  : स्त्री० [ब० स०] प्रमेह रोग का एक भेद।
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पांडुशर्मिला  : स्त्री० [सं०] द्रौपदी।
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पांडू  : स्त्री० [सं० पांडु=पीला] १. हलके पीले रंग की मिट्टी। २. ऐसी कीचड़ जिसमें बालू भी मिला हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें वर्षा के जल से ही उपज होती हो। बारानी।
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पाँडे  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. दे० ‘पाण्डेय’। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. भोजन बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया। ४. पंडित। विद्वान। (क्व०)
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पांडेय  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. कान्यकुब्ज और सरयूपारी ब्राह्मणों की शाखाओं का अल्ल या उपाधि। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. दे० ‘पाँडे’।
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पाँत  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँतरना  : अ० [सं० पीत्रल] १. गलती या भूल करना। २. मूर्खता करना। उदा०—प्रमणै पित मात पूत मत पांतरि।—प्रिथीराज।
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पाँतरिया  : वि० [सं० पत्रल] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। उदा०—पांतरिया माता इ पिता।—प्रिथीराज।
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पांति  : स्त्री० [सं० पांक्ति] १. अवली। कतार। पंगत। २. बिरादरी के वे लोग जो साथ बैठकर भोजन कर सकते हों।
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पांथ  : वि० [सं० पथिन्+अण्, पन्थ-आदेश] १. पथिक। २. वियोगी। विरही। पुं० सूर्य। पुं०=पंथ (रास्ता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पांथ-निवास  : पुं० [ष० त०]=पांथ-शाला।
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पांथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] पथिकों और यात्रियों के ठहरने के लिए रास्ते में बनी हुई जहग (इमारत या घर)। जैसे—धर्मशाला, सराय, होटल आदि।
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पाँपणि  : स्त्री० [हिं० पश्चिमी हि० पपनी] पलक। उदा०—पाँपणि पंख सँवारि नवी परि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँय  : पुं०=पाँव।
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पाँयचा  : पुं० [फा०] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने के वे ईटें या पत्थर जिन पर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिए बैठते हैं। २. पाजामें की मोहरी का वह अंश जो घुटनों के नीचे तक रहता है।
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पाँयता  : पुं०=पैंताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँव  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव] १. जीव-जंतुओं, पशुओं और विशेषतः मनुष्य के नीचेवाले वे अंग जिनकी सहायता से चलते-फिरते अथवा जिनके आधार पर वे खड़े होते हैं। पैर। पद—पाँव का खटका=दे० ‘पैर की आहट।’ पाँव की जूती=बहुत ही तुच्छ या हीन वस्तु या व्यक्ति। पाँव की बेड़ी=ऐसा बंधन जो किसी की स्वच्छंद गति या रहन-सहन में बाधक हो। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना=दे० ‘टाँग’ के अंतर्गत ‘टाँग अड़ाना।’ पाँव उखड़ जाना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत’ ‘पैर उखड़ना या उखड़ जाना’। पाँव उखाड़ना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत। पाँव उठाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव खींचना=व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना या घूमना-फिरना छोड़ देना। पाँव गाड़ना=दे० नीचे ‘पाँव रोपना’। पाँव घिसना=(क) बार-बार कहीं बहुत अधिक आना-जाना। (ख) दे० नीचे ‘पाँव रगड़ना’। (किसी स्त्री के) पाँव छुड़ाना= उपचार, औषध आदि की सहायता से ऐसा उपाय करना कि रुका हुआ मासिक रज-स्त्राव फिर से होने लगे। (किसी स्त्री के) पाँव छूटना=(क) स्त्री का मासिकधर्म से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से और अपेक्षया अधिक समय तक रज-स्त्राव होता रहना। (किसी के ) पाँव छूना=किसी बड़े का आदर या सम्मान करने के लिए उसके पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। पाँव ठहरना=दृढ़तापूर्वक या स्थिर भाव से कहीं खड़े होना। ठहरना या रुकना। पाँव तोड़कर बैठना=स्थायी रूप और स्थिर भाव से एक जगह पर रहना और व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना बंद कर देना (किसी के) पाँव दबाना या दाबना=थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिए टाँगे दबाना। (किसी काम या बात में) पाँव धरना= किसी काम में अग्रसर या प्रवृत्त होना। (किसी के) पाँव धरना या पकड़ना=किसी प्रकार का आग्रह, विनती आदि कहते मनाने के लिए किसी के पाँव पर हाथ रखना। उदा०—अब यह बात यहाँ जानि ऊधौ, पकरति पाँव तिहारे।—सूर। (किसी जगह) पाँव धरना या रखना=कहीं जाना या जाकर पहुँचना। पैर रखना। जैसे—अब कभी उन के यहाँ पाँव न रखना। (किसी जगह) पाँव धारना=कृतज्ञतापूर्वक पदार्पण करना। उदा०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जँह जँह नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी। (किसी के) पाँव धोकर पीना=(क) चरणामृत लेना। (ख) बहुत अधिक पूज्य तथा मान्य समझकर परम आदर, भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट करना। पाँव निकालना=(क) कहीं चलने या जाने के लिए पैर उठाना या बढ़ाना। (ख) नियंत्रण आदि की उपेक्षा करते हुए कोई नई प्रवृत्ति विशेषतः अनिष्ट या अवांछित प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाना। जैसे—तुम तो अभी से पाँव निकालने लगे। (किसी का) पाँव पड़ना=आगमन होना। आना। जैसे—आपके पाँव पड़ने से यह घर पवित्र हो गया। (किसी के) पाँव पड़ना=(क) झुककप या पैर छूकर नमस्कार करना। (ख) अपनी प्रार्थना या विनती मनवाने के लिए बहुत ही दीनतापूर्वक आग्रह करना। (किसी के) पाँव पर गिरना=दे० ऊपर ‘(किसी से) पाँव पड़ना’। पाँव पर पाँव रखकर बैठना=काम-धंधा छोड़ बैठना या पड़े रहना। निठल्ले की तरह बैठना। (किसी के) पाँव पर पाँव रखना=दूसरे के चरण चिह्नों का अनुकरण करना। किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। (किसी के) पाँव पर सिर रखना=दे० ऊपर ‘(किसी के) पाँव पड़ना’। पाँव पलोटना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर दबाना’। पाँव पसारना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर फैलाना’। पाँव-पाँव चलना=पैदल चलना। जैसे—अब कुछ दूर पाँव-पाँव भी चलो। (किसी को) पाँव पारना=पैरों पड़ने के लिए विवश करना। उदा०—कहाँ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं।—सूर। पाँव पीटना=(क) बेचैनी या यंत्रणा से पैर पटकना। छटपटाना। (ख) बहुत अधिक दौड़-धूप या प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव पूजना=बहुत अधिक भक्ति या श्रद्धा दिखाते हुए आदर-सत्यार करना। (वर के) पाँव पूजना=विवाह में कन्या कुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। (किसी के) पाँव फूलना=भय, शंका आदि से ऐसी मनोदशा होना कि आगे बढ़ने का साहस न हो। (प्रसूता का) पाँव फेरने जाना=बच्चा हो जाने पर शुभ शकुन में प्रसूता का अपने मायके में कुछ दिनों तक रहने के लिए जाना। (वधू का) पाँव फेरने जाना=विवाह होने पर ससुराल आने के बाद वधू का पहले-पहल कुछ दिनों तक अपने मायके में रहने के लिए जाना। पाँव फैलाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बढ़ाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बाहर निकालना=पाँव निकालना। पाँव रगड़ना=(क) बहुत दौड़-धूप करना। (ख) कष्ट या पीड़ा से छटपटाना। (किसी काम या बात के लिए) पाँव रोपना=(क) दृढ़तापूर्वक प्रण या प्रतिज्ञा करना। (ख) हठ करना। अड़ना। (किसी के) पाँव लगाना=पैरों पर सिर रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। (किसी स्थान का) पाँव लगा होना=किसी स्थान से इस रूप में ज्ञात या परिचित होना कि उस पर चल-फिर चुकें हों। जैसे—वहाँ का रास्ता हमारे पाँव लगा है, आप से आप ठीक जगह पहुँच जाता हूँ। (किसी काम या बात से) पाँव समेटना=अलग, किनारे या दूर हो जाना। संबंध न रखना। छोड़ देना। जैसे—अब काम में हमने पाँव समेट लिये। विशेष—यों ‘पाँव’ और ‘पैर’ एक दूसरे के पर्याय या समानक ही है, फिर भी ‘पाँव’ पुराना और पूर्वी शब्द है, तथा ‘पैर’ अपेक्षया आधुनिक और पश्चिमी शब्द है। अधिकतर पुराने प्रयोग या मुहावरे ‘पैर’ से संबद्ध है, और ‘पाँव’ की तुलना में ‘पैर’ अधिंक प्रचलित तथा शिष्ट-सम्मत हो गया है। फिर भी बोल-चाल में लोग यह अंतर न जानने या न समझने के कारण दोनों शब्दों के मिले-जुले प्रयोग करते हैं जिससे दोनों के मुहावरे भी बहुत कुछ मिल-जुल गये हैं। यहाँ दोनों के विशिष्ट प्रयोगों और मुहावरों से कुछ अंतर रखा गया है। अतः पाँव के शेष प्रयोगों और मुहावरों के लिए ‘पैर’ के मुहावरे देखने चाहिए। २. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज या बात टिकी या ठहरी रहे। मुहा०—पाँव कट जाना=आधार या आश्रम नष्ट हो जाना (किसी के) पाँव न होना=(क) ऐसा कोई आधार या आश्रम न होना जिस पर कोई टिक या ठहर सके। जैसे—इस बात का न कोई सिर है न पाँव। (ख) खड़े रहने या ठहरने की शक्ति न होना। जैसे—चोर के पाँव नहीं होते, अर्थात् उसमें ठहरने या सामने आने का साहस नहीं होता।
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पाँव-चप्पी  : स्त्री० [हिं० पाँव+चापना=दबाना] पैर दबाने की क्रिया या भाव।
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पांवचा  : पुं०=पाँयचा।
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पाँवड़ा  : पुं० [हिं० पाँव+ड़ा (प्रत्य०)][स्त्री० पाँवड़ी] १. वह कपड़ा जो किसी बड़े और पूज्य व्यक्ति के मार्ग में इस उद्देश्य से बिछाया जाता है कि वह इस पर से हो कर चले। २. वह कपड़ा या ऐसी ही और कोई चीज जो पैर पोंछने के लिए कहीं पड़ा या बिछा रहता हो। पाँवदान। ३. दे० ‘पाँवड़ी’।
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पाँवड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी (प्रत्य०)] १. खड़ाऊँ। २. जूता। ३. सीढ़ी। सोपान। ४. ऐसी चीज या जगह जिस पर प्रायः पैर रखे जाते या पड़ते हों। ५. गोटा-पट्ठा बिननेवालों का एक औजार जो बुनते समय पैरों से दबाकर रखा जाता है और जिससे ताने के तार ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते हैं। स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १. वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। ड्योढ़ी। पौरी। २. बैठने का ऊपरी कमरा। बैठक। ३. ‘पौरी’।
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पाँवर  : वि०=पामर। पुं०=पाँवड़ा। स्त्री०=पाँवड़ी।
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पाँवरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।
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पांशन  : वि० [सं०√पंस् (नाश करना)+ल्यु—अन, दीर्घ, पृषो०] १. कलंकित करनेवाला। भ्रष्ट करनेवाला। २. दुष्ट। ३. हेय। (प्रायः समास में व्यवहृत) जैसे—पौलस्त्य-कुल-पांशन। पुं० १. अपमान। २. तिरस्कार।
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पांशव  : पुं० [सं० पांशु+अण्] रेह का नमक।
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पांशु  : स्त्री०[सं०√पंस् (श्)+उ, दीर्घ] १. धूलि। रज। २. बालू। ३. गोबर की खाद। पाँस। ४. पित्त पापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. भू-संपत्ति। जमीन। जायदाद।
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पांशु-कसीस  : पुं० [उपमि० स०] कसीस।
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पांशुका  : स्त्री० [सं० पांशु√कै (चमकना)+क+टाप्] केवड़े का पौधा।
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पांशुकुली  : स्त्री० [सं० पांशु√कुल, (इकट्ठा होना)+क+ङीष] राजमार्ग।
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पांशु-कूल  : पुं० [ष० त०] १. धूल का ढेर। २. चीथड़ों आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। ३. गुदड़ी। ४. वह दस्तावेज या लेख्य जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो।
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पांश-कृत  : वि० [तृ० त०] १. धूल के ढका हुआ। २. पीला पड़ा हुआ। ३. मैला-कुचैला।
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पांशु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पाँगा नमक।
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पांशु-चंदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पांशु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांशुज  : पुं० [सं० पांशु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
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पांशु-धान  : पुं० [ष० त०] धूल का ढेर।
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पांशु-पटल  : पुं० [ष० त०] किसी चीज पर जमी धूल की तह या परत।
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पांशु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ (साग)।
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पांश-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांशुर  : पुं० [सं० पांशु√रा (देना)+क] १. डाँस। २. खंज। ३. पंगु व्यक्ति।
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पांशु-रागिनी  : स्त्री० [सं० पांशु√रञ्ज् (रंगना)+घिनुण्+ ङीप्] महामेदा।
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पांशु-राष्ट्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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पांशुल  : वि० [सं० पांशु+लच्] [स्त्री० पांशुला] १. जिस पर गर्द या धूल पड़ी हो। मैला-कुचैला। २. पर-स्त्री-गामी। व्यभिचारी। पुं० १. पूतिरकंज। २. शिव।
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पांशुला  : स्त्री० [सं० पांशुल+टाप्] १. कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री। २. राजस्वला स्त्री। ३. जमीन। भूमि। ४. केतकी।
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पाँस  : स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मूत्र आदि, सड़ी-गली चीजें जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें डाली जाती हैं। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. कोई चीज सड़ाकर उठाया जानेवाला खमीर। ३. विशेषतः मधु आदि का वह खमीर जो शराब बनाने के लिए उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।
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पाँसना  : स० [हिं० पाँस+ना (प्रत्य०)] खेत में पाँस या खाद डालना।
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पाँसा  : पुं०=पासा।
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पाँसी  : स्त्री० [सं० पाश] घास, भूसा आदि बाधने के लिए रस्सियों की बनी हुई बड़ी जाली। जाला।
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पांसु  : स्त्री० [√पंस्+उ, दीर्घ]=पांशु।
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पांसु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पांगा नमक।
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पांसु-खुर  : पुं० [ब० स०] घोड़ों के खुरों का एक रोग।
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पांसु गुंठित  : वि० [तृ० तृ०] धूल से ढका हुआ।
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पांसु-चदन  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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पांसु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांसु-चामर  : पुं० [ब० स०] १. बड़ा खेमा। तंबू। २. नदी का ऐसा किनारा जिस पर दूब जमी हो। ३. धूल। ४. प्रशंसा।
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पांसुज  : वि० [सं० पांसु√जन्+ड] पाँगा नमक।
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पांसु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुए का साग।
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पांसु-भव  : पुं० [ब० स०] पाँगा नमक।
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पांसु-भिक्षा  : स्त्री० [सं० पांसु√भिक्ष् (याचना)+अङ्—टाप्] धौ का पेड़।
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पांसु-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांसुर  : पुं० [सं० पांसु√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का बड़ा मच्छड़। दंश। डाँस। २. लूला-लँगड़ा जीव या प्राणी।
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पांसुरागिणी  : स्त्री० [सं० दे० ‘पांशुरागिनी’] महामेदा।
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पाँसुरी  : स्त्री०=पसली।
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पांसुल  : वि० [सं० पांसु+लच्] १. धूल से लथ-पथ। २. मलिन। मैला। ३. पापी। ४. पर-स्त्रीगामी। पुं० शिव।
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पांसुला  : वि० [सं० पांसुल+टाप्] १. व्यभिचारिणी (स्त्री)। २. रजस्वला (स्त्री)। स्त्री० १. पृथ्वी। २. केतकी।
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पाँसु  : पुं० [हिं० पाँस+ऊ (प्रत्य०)] कुम्हारों का एक उपकरण जिससे वे गीली मिट्टी चलाते और सानते हैं।
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पाँही  : अव्य० [हिं० पँह] १. निकट। पास। समीर। २. प्रति।
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पा  : पुं० [सं० पाद से फा०] पैर। पाँव। वि० १. दृढ़ पैरोंवाला। २. अधिक समय तक टिकने या ठहरनेवाला। टिकाऊ (यौ० के अंत में) जैसे—देर-पा=देर तक ठहरनेवाला।
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पा-अंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज] वह छोटा बिछावन जो कमरों के दरवाजों पर पैर पोंछने के लिए रखा जाता है। पावदान। उदा०—दृग-पग पोंछन कौं कियो भूषण पायन्दाज (पा-अंदाज)।—बिहारी।
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पाइ  : पुं०=पा (पैर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—
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पाइक  : वि०, पुं०=पायक। स्त्री०=पताका।
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पाइफा  : पुं० [अं०] आकार के विचार से टाइपों का एक भेद जिसका मुद्रित रुप १।६ इंच के बराबर होता है।
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पाइट  : स्त्री० [अं० फ्लाइट] बाँसों, तख्तों आदि को रस्सियों से बाँधकर खडा किया हुआ वह ढाँचा जिस पर खड़े होकर राज-मजदूर दीवारें आदि बनाते तथा उन पर पलस्तर, चूना, रंग आदि करते हैं।
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पाइतरी  : स्त्री०=पायँता (खाट या बिस्तर का)।
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पाइदेल  : वि०, पुं०=पैदल।
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पाइप  : पुं० [अं०] १. नल या नली। २. किसी प्रकार का नल जिसके अंदर से होकर कोई चीज एक जगह से दूसरी जगह जाती हो। जैसे—पानी का पाइप, गैस का पाइप। ३. तमाकू पीने की एक प्रकार की पाश्चात्य नली। ४. बांसुरी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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पाइपोस  : पुं०=पापोश (जूता)।
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पाइमाल  : वि०=पायमाल।
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पाइरा  : पुं० [हिं० पाँव+रा (प्रत्य०)] घोड़े की जीन-सवारी के साज में की रकाब।
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पाइरिल्ला  : पुं० [सं०] भूरे रंग का एक तरह का थूथनदार कीड़ा दो गन्ने के पौधों की पत्तियाँ खाता है।
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पाइल  : स्त्री०=पायल।
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पाइलट  : पुं० [अं०] वायुयान चालक।
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पाई  : वि० [फा० पाईन] १. सामनेवाला। २. नीचेवाला। ३. अंतिम।
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पाईबाग  : पुं० [फा०+अ०] घर के साथ लगा हुआ बाग। नजरबाग।
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पाई  : स्त्री० [सं० पाद, पुं० हिं० पाय] १. खड़ी या सीधी या सीधी लकीर। २. वह छोटी खड़ी रेखा जो वाक्य के अंत में पूर्णविराम सूचित करने के लिए लगाई जाती हैं। लेखों आदि में पूर्णविराम का सूचक चिह्न। ३. पाँ। पैर। ४. घेरा बाँध कर चलने या नाचने की किया या भाव। ५. पतली छड़ियों या बेतों का बना हुआ। जुलाहों का एक ढाँचा जिस पर ताने का सूत फैलाकर उन्हें मांजते हैं। टिकटी। अट्ठा। मुहा०—ताना-पाई करना=बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर आते-जाते रहना। ६. ताने का सूत माँजने की क्रिया। ७. घोड़ों के पैर सजने का एक रोग। ८. ताँबे का एक पुराना छोटा सिक्का जो एक पैसे के तिहाई मूल्य का होता था और जिसका चलन अब उठ गया है। ९. ताँबें का पैसा। (पूरब) १॰. वह पिटारी जिसमें देहाती स्त्रियाँ साधारण गहने-कपड़े रखती हैं। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] प्राप्त करने अर्थात् पाने की क्रिया या भाव। जैसे—भर-पाई की रसीद। स्त्री० [हिं० पाया=पाई कीड़ा] एक प्रकार का छोटा लंबा कीड़ा जो घुन की तरह अन्न में लगाकर उसे खा जाता है और उसे अंकुरित होने के योग्य नहीं रहने देता। क्रि० प्र०—लगना। स्त्री० [अं०] १. ढेर के रूप में मिले हुए छापे के टाइप। २. छापेखाने में सीसे के वे अक्षर या टाइप जो घिस-पिस अथवा टूट-फूट जाने के कारण निकम्मे या रद्दी हो गये हों, और ढेर के रूप में अलग रख दिये गये हों। ३. छापेखाने में सीसे के अक्षरों या टाइपों का वह ढेर जो अव्यवस्थित रूप से कहीं पड़ा हो।
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पाईगाह  : स्त्री० [फा० पाएगाह] १. अश्वाला। तबेला। २. किसी बडे आदमी के प्रासाद या महल की ड्योढ़ी(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पाईता  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक मगण, एक भगण और एक सगण होता है।
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पाउँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउंड  : पुं० [अ०] १. सोने की एक अंगरेजी सिक्का। २. सात या साढ़े सात छटाँक के लग-भग की एक तौल।
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पाउंड पावना  : पुं० [अं० पाउँड+हिं० पावना] पाउंडों के रूप में प्राप्त विदेशी मुद्रा। विशेषतः ब्रिटेन से किसी देश के पावने की वह रकम जो बैंक आफ इंग्लैंड में जमा रहती है और उसके साथ हुए समझौते की शर्तों के अनुसार कमशः चुकाई जाती है। (स्टलिंग बैलेन्स)
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पाउ  : पुं०=पाँव। पुं०=पाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउडर  : पुं० [अं०] १. कोई ऐसी चीज जो पीसकर बहुत महीन कर दी गई हो। चूर्ण। बुकनी। २. वह सुगंधित चूर्ण या बुकनी जो स्त्रियाँ अपने चेहरे तथा अन्य अंगों पर उन की रंगत चमकाने और सुन्दर बनाने के लिए लगाती हैं।
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पाउस  : पुं०=पावस (वर्षा ऋतु)।
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पाक  : पुं० [सं०√पच् (पकाना)+घञ्] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। रींधना। २. किसी चीज के ठीक तरह से पके या पचे हुए होने की अवस्था या भाव। ३. पकाया हुआ भोजन। रसोई। ४. वह औषध या फल जो शीरे में पकाया गया हो। जैसे—बदाम पाक, मेवा पाक, सुपारी पाक। ५. खाये हुए पदार्थ के पचने की क्रिया या भाव। पचन। ६. श्राद्ध में पिंडदान के लिए पकाया हुआ चावल या खीर। ७. किसी चीज या बात का अपने पूर्ण रूप में पहुँचना, अथवा उचित और यथेष्ट रूप मे परिपुष्ट तथा परिवृद्ध होना। ८. एक दैत्य जो इंद्र के हाथों मारा गया था। वि० १. छोटा। २. प्रशंसनीय। ३. परिपुष्ट तथा पूर्ण अवस्था में पहुँचा हुआ। ४. ईमानदार। सच्चा । ५. अनजान। वि० [फा०] १. पवित्र। निर्मल। विशुद्ध। जैसे—पाक नजर, पाक मुहब्बत। पद—पाक-साफ=(क) पवित्र और स्वच्छ। (ख) निष्कलंक। २. साफ। स्वच्छ। ३. दोषों आदि से रहित । निर्दोष। ४. धार्मिक दृष्टि से पवित्र, सदाचारी और पूज्य। ५. किसी आवांछित अंश या तत्त्व से रहति। जैसे—यह जायदाद सब तरह के झगड़ों से पाक है। मुहा०—(जानवर) पाक करना=जबह किये हुए पशु या पक्षी के पर, रोएँ आदि काटकर अलग करना। झगड़ा पाक करना=(क) झगड़डा तै करना या निपटाना। (ख) झंझट, बाधा आदि दूर, नष्ट या समाप्त करना। (ग) (विरोधी, वैरी आदि का) अंत या नाश करना। पुं० पाकिस्तान का संक्षिप्त रूप। जैसे—भारत-पाक में समझौता।
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पाक-कर्म  : पुं०=पाक-क्रिया।
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पाक-कृष्ण  : पुं० [ब० स०] १. जंगली करौंदा। २. पानी आँवला ।
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पाक-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। २. पाचन क्रिया।
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पाकज  : वि० [सं० पाक√जन्+ड] पाक से उत्पन्न। पुं० १. कचिया नमक। २. भोजन के ठीक प्रकार से न पचने पर पेट में होनेवाला शूल।
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पाकजाद  : वि० [फा० पाकाजादः] शुद्ध तथा स्वच्छ प्रकृतिवाला। शुद्घात्मा।
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पाकट  : पुं०=पाकेट। वि०=पाकठ। वि०=पाकठा।
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पाकठ  : वि० [हिं० पकना] १. अच्छी तरह पका हुआ। २. यथेष्ट चुतर या चालाक। दक्ष। होशियार। जैसे—अब यह लड़का दूकानदारी के काम में पाकठ हो गया है। ३. दृढ़। मजबूत।
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पाकड़  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की जाति का एक बड़ा पेड़। पाकढ़।
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पाक-दामन  : वि० [फा०] [भाव० पाकदामनी] जिसका चरित्र पवित्र और निष्कलंक हो। (विशेष रूप से स्त्रियों के लिए प्रयुक्त)।
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पाकदामिनी  : स्त्री० [फा०] ‘पाकदामन’ होने की अवस्था। (स्त्री का) सदाचार या सच्चरित्रता।
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पाक द्विष  : पुं० [सं० पाक√द्विष् (शत्रुता करना)+ क्विप्] इंद्र।
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पाकना  : अ०=पकना। स०=पकाना।
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पाकबाज  : वि० [फा० पाक+बाज] [भाव० पाकबाजी] सदाचारी।
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पाक-पात्र  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा बरतन जिसमें भोजन पकाया या बनाया। जाता हो।
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पाक-पुटी  : स्त्री० [च० त०] कच्ची मिट्टी के बरतन पकाने का आँवाँ।
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पाक-फल  : पुं० [ब० स०] १. करौंदा। २. पानी अमला।
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पाक-भांड  : पुं०=पाक-पात्र। (दे०)।
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पाक-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] १. वृषोत्सर्ग, गृह-प्रतिष्ठा आदि के समय किया जानेवाला होम जिसमें खीर की आहुति दी जाती है। २. पंच महायज्ञ में ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त अन्य चार यज्ञ—वैश्वदेव होम, बलि-कर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि-भोजन।
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पाक-याज्ञिक  : वि० [सं० पाक-यज्ञ+ठञ—इक] १. पाकयज्ञ-संबंधी। पाक-यज्ञ का। २. पाक यज्ञ करनेवाला ३. पाक यज्ञ से उत्पन्न। पुं० वह ग्रंथ जिसमें पाक-यज्ञ के विधान आदि बतलाये गये हों।
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पाक-रंजन  : पुं० [सं० पाक√रञ्ज्+णिच्+ल्यु—अन] तेजपत्ता।
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पाकर  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की तरह का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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पाकरिपु  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाकरी  : स्त्री० [हिं० पाकर का स्त्री० अल्पा० रूप] छीटा पाकर।
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पाकल  : पुं० [सं० पाक√ला (लेना)+क] १. वह दवा जिससे कुष्ठ अच्छा होता हो। कुष्ठ रोग की दवा। २. फोड़ा पकानेवाली दवा। ३. अग्नि। आग । ४. एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पित्त प्रबल, वात मध्य और कफहीन अवस्था में होता है। वैद्यक के अनुसार इसका रोगी प्रायः तीन दिन में मर जाता है। ५. हाथी को आने-वाला ज्वर या बुखार।
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पाकलि, पाकली  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्विप्√कल् (गिनती करना)+इन्] [सं० पाकलि+डीष्] काकड़ासींगी। कर्कटी।
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पाक-शाला  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ भोजन पकाया या बनाया जाता हो। रसोई-घर।
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पाकशासन  : पुं० [सं० पाक√शास् (शासन करना)+ ल्यु—अन] इंद्र।
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पाक-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें विभिन्न खाद्य पदार्थों या व्यंजन बनाने की कला, प्रकियायों आदि का विवेचन होता है।
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पाक-शुक्ला  : स्त्री० [स० त०] खड़िया मिट्टी।
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पाक-स्थली  : स्त्री० [ष० त०] पक्वाशय।
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पाकहंता (तृ)  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाका  : पुं० [हिं० पकाना] १. शरीर के विभिन्न अंगों के पकने की क्रिया या भाव । २. फोड़ा। वि०=पक्का।
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पाकागार  : पुं० [सं० पाक-आगार, ष० त०] पाकशाला।
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पाकात्यय  : पुं० [सं० पाक-अत्यय, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें उसका काला भाग सफेद हो जाता है। पुलती का सफेद हो जाना।
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पाकाभिमुख  : वि० [सं० पाक-अभिमुख, स० त०] जो पक रहा हो अथवा पूर्ण रूप से पकने को हो।
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पाकारि  : पुं० [पाक-अरि, ष० त०] १. इंद्र। २. सफेद कचनार।
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पाकिट  : पुं० १.=पाकेट। २.=पैकेट। वि०=पाकठ।
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पाकिस्तान  : पुं० [फा०] भारत का विभाजन करके बनाया हुआ वह मुसलमानी राज्य जिसका कुछ अंश भारत के पश्चिम में और कुछ पूर्व में है। पश्चिमी पाकिस्तानी में सिंध, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत तथा पूर्वी पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल नामक प्रदेश है।
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पाकिस्तानी  : वि० [फा०] १. पाकिस्तान देश संबंधी। पाकिस्तानी का। २. पाकिस्तान में होनेवाला। पुं० पाकिस्तान में रहनेवाला व्यक्ति।
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पाकी  : स्त्री० [फा०] १. पाक होने की अवस्था या भाव। २. निर्मलता। शुद्धता। ३. पवित्रता। पावनता। मुहा०—पाकी लेना=उपस्थ पर के बाल साफ करना।
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पाकीजा  : वि० [फा० पाकीज
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पाकु  : वि० [स० √पच्+उण्] १. पकानेवाला। २. [√पच्+उकञ] पचानेवाला। पाचकी। पुं० बावरची। रसोइया।
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पाकेट  : पुं० [अं० पाकेट] जेब। खीसा। मुहा०—पाकेट गरम होना=(क) पास में धन होना। (ख) अनुचित या अवैध रूप से किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ होना। पुं०=पैकेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] ऊँट। (डिं०)
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पाक्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्] १. जो पकाया जाने को हो। २. पचने योग्य। पुं० १. काला नमक। २. साँभर नमक। ३. जवाखार। ४. शोरा।
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पाक्य-क्षार  : [कर्म० स०] १. जवाखार नमक। २. शोरा।
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पाक्यज  : पुं० [सं० पाक्य√जन्+ड] कचिया नमक।
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पाक्या  : स्त्री० [सं० पाक्य+टाप्] १. सज्जी। २. शोरा।
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पाक्ष  : वि०=पाक्षिक। पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाक्षपातिक  : वि० [सं० पक्षपात+ठक—इक] १. पक्षपात करनेवाला। फूट डालनेवाला । २. पक्षपात के रूप में होनेवाला।
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पाक्षायण  : वि० [सं० पक्ष+फक्—आयन] १. जो पक्ष (१५ दिन) में एक बार हो या किया जाय। पाक्षिक। २. पक्ष (१५ दिन) का।
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पाक्षिक  : वि० [सं० पक्ष+ठञ्—इक] १. चांद्र मास के पक्ष से संबंध रखनेवाला। २. जो एक पक्ष (१५ दिन) में एक बार होता हो। जैसे—पाक्षिक अधिवेशन, पाक्षिक पत्र या पत्रिका। (फोर्टनाइटली)। ३. किसी प्रकार का पक्षपात करनेवाला। पक्षपाती । तरफदार। ४. (पिंगल में छंद) जिसमें (पक्ष के रूप में) दो मात्राएँ हों। ५. वैकल्पित। पुं० १. पक्षियों को फँसा या मारकर जीविका चलानेवाला व्यक्ति बहेलिया। २. ब्याध। शिकारी। ३. विकल्प।
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पाखंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप् पा√खंड (खंडन करना)+अण्] [वि० पाखंडी] १. वेदों की आज्ञा, मत या सिद्धांत के विरुद्ध किया जानेवाला आचरण। २. धार्मिक क्षेत्र में, अपने धर्म पर सच्ची निष्ठा और भक्ति रखते हुए केवल लोगों को दिखलाने के लिए झूठ-मूठ बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला पाठ-पूजन तथा अन्य धार्मिक आचार-व्यवहार। ३. लौकिक क्षेत्र में, वे सभी में, वे सभी आचार-व्यवहार जो झूठ-मूठ अपने आपको धर्म-परायण, नीति-परायण और सत्यनिष्ठ सिद्ध करने के लिए किये जाते हैं। अपना छल-कपट, धूर्तता, स्वार्थ-परता आदि छिपाने के लिए किया जानेवाला आचार-व्यवहार। आडंबर। ढकोसला। ढोंग (हिपोक्रिसी) मुहा०—पाखंड फैलाना=दूसरों को ठगने और धोखे में रखने के लिए आडंबरपूर्ण थोथे उपाय रचना। दुष्ट उद्देश्य से ऐसा दिखावटी काम करना जो अच्छे इरादे से किया हुआ जान पड़े। ढकोसला खड़ा करना। जैसे—बाबाजी ने गाँव में खूब पाखंड फैला रखा था। ४. वह व्यय जो किसी को धोखा देने के लिए किया जाय। ५. दुष्टता। पाजीपन। शरारत। ६. नीचता। वि०=पाखंडी।
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पाखंडी (डिन्)  : वि० [सं० पाखंड+इनि] १. वेद-विरुद्ध आचार करनेवाला। २. वेदाचार का खंडन या निंदा करनेवाला। ३. बनावटी धार्मिकता, सदाचार आदि दिखलानेवाला। ४. दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए आडंबर या ढोंग रचनेवाला।
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पाख  : पुं० [सं० पक्ष] १. चांद्रमास का कोई पक्ष। २. महीने का आधा समय। पंद्रह दिन का समय। पखवाड़ा। ३. कच्चे मकानों की दीवारों के वे ऊँचे भाग जिन परबँड़ेर रहती है। ४. पंख। पर।
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पाखर  : स्त्री० [सं० पक्षर, प्रक्खर] १. युद्धकाल में, घोड़ों या हाथियों पर डाली जानेवाली एक तरह की लोहे की झूल। २. उक्त झूल के वे भाग जो दोनों ओर झूलते रहते हैं। ३. जीन। ४. ऐसा टाट या और कोई मोटा कपड़ा जिस पर मोम, राल आदि का लेप किया हुआ हो। (ऐसा कपड़ा जल्दी भीगता या सड़ता-गलता नहीं है।) पुं०=पाकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखरी  : स्त्री० [हिं० पाखर=झूल] टाट का बिछावन जिसे गाड़ी में बिछाते हैं तब उसमें अनाज भरतें हैं।
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पाखा  : पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. कोना। छोर। २. कुछ दीवारों में ऊपर की ओर की वह रचना जो बीच में सबसे ऊँची और दोनों ओर ढालुई होती है। (ऐसी रचना इसलिए होती है कि उसके ऊपर ढालई छत या छाजन डाली जा सके) ३. दरवाजों के दोनों ओर के वे स्थान जिनके साथ, दरवाजे के खुले होने की अवस्था में किवाड़ लगे या सटे रहते हैं। ४. पाख।
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पाखान  : पुं०=पाषाण (पाथर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखान भेद  : पुं०=पाषाण भेद।
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पाखाना  : पुं० [फा० पाखान
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पाग  : पुं० [सं० पाक] १. वह खाद्य पदार्थ जो चाशनी या शीरे में पकाकर तैयार किया गया हो। जैसे—कोंहड़ा-पाग, बादाम-पाग। २. वह शोरा जिसमें रसगुल्ला, गुलाबजामुन आदि मिठाइयाँ भीगी पड़ी रहती हैं। ३. पागी हुई कोई ओषधि या फूल। पाक।
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पागड़  : पुं०=पाइरा (रकाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागना  : सं० [सं० पाक] १. खाने की किसी चीज को चाशनी या शीरे में कुछ समय तक डुबाकर रखना। २. ऐसी किया करना जिससे किसी चीज पर शीरे का लेप चढ़े। अ०=पगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागर  : स्त्री० [देश०] वह लंबी रस्सी जिसका एक सिरा नाव के मस्तूल में बँधा रहता है और दूसरा सिर किनारे पर खड़ा आदमी, खींचते हुए किसी दिशा में नाव को ले जाता है।
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पागल  : वि० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्, पा√गल् (स्खलित होना)+अच्] [स्त्री० पगली] [भाव० पागलपन] १. जिसका मस्तिष्क उन्मादरोग के कारण इतना विकृत हो गया हो कि ठीक तरह से कोई काम या बात न कर सके। जिसके मस्तिष्क का संतुलन नष्ट हो चुका या बिगड़ गया हो। बावला। विक्षिप्त। २. जो कष्ट, कोध, प्रेम या ऐसे ही किसी तीव्र मनोविकार से अभिभूत होने के कारण सब प्रकार का ज्ञान या विवेक खो बैठा हो। जैसे—वह क्रोध (या प्रेम) में पागल हो रहा था। ३. जो किसी काम में इतना अनुरक्त, आसक्त या लीन हो रहा हो कि उसे और कामों या बातों की सुध-बुध न रह गई हो। जैसे—आज-कल तो वह चुनाव के फेर में पागल हो रहा है। ४. जो इतना ना-समझ या मूर्ख हो कि प्रायः पागलों या विक्षिप्तों का-सा आचरण या उन जैसी बातें करता हो। जैसे—यह लड़का भी निरा पागल है।
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पागलखाना  : पुं० [हिं० पागल+फा० खाना] वह स्थान जहाँ विक्षिप्त व्यक्तियों को रखकर उनकी चिकित्सा की जाती है तथा जहाँ पर उनके रहने का भी प्रबंध रहता है।
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पागलपन  : पुं० [हिं० पागल+पन (प्रत्य०)] १. पागल होने की अवस्था या भाव। २. वह आचरण कार्य या बात जो पागल लोग साधारणतया करते हों। जैसे—बच्चे को रह-रहकर मारने लगना उनका पागलपन है। ३. बेवकूफी।
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पागलिनी  : स्त्री०=पागल (स्त्री)।
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पागली  : स्त्री०=पगली।
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पागुर  : पुं० दे० ‘जुगाली’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाघ  : स्त्री०=पाग (पगड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाचक  : वि० [सं० √पच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाचिका] किसी प्रकार का पाचन करने (पकाने या पचाने) वाला। पाचन की किया करनेवाला। पुं० १. वह जो भोजन पकाता या बनाता हो। बावर्ची। रसोइया। २. वह दवा जो खाई हुई चीज पचाती या पाचन शक्ति बढ़ाती हो। ३. कुछ विशिष्ट प्रक्रियाओं से बनाया हुआ वह अवलेह या चूर्ण जो प्रायः क्षारीय ओषधियों से बनाया जाता है और जिसका स्वाद खट-मीठा, नमकीन या मीठा होता है। ४. वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर रहनेवाले पाँच प्रकार के पित्तों में से एक जिसकी सहायता से भोजन पचता है। ५. वह अग्नि जिसका उक्त पित्त में अधिष्ठान माना जाता है।
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पाचन  : पुं० [सं०√पच्+णिच,+ल्युट्—अन] १. आग पर चढ़ाकर खाने-पीने की सामग्री पकाना। भोजन बनाना। २. पेट में पहुँचने पर खाये हुए पदार्थों के पचने या हजम होने की क्रिया। खाद्य पदार्थों के पेट में पहुँचने पर शारीरिक धातुओं के रूप में होनेवाला परिवर्तन। ३. पेंट के अंदर की वह शक्ति जो एक प्रकार की अग्नि के रूप में मानी गई है और जिसकी सहायता से खाई हुई चीज पचती या हजम होती है। जठराग्नि। हाजमा। ४. कोई ऐसा अम्ल या खट्टा रस जो भोजन के पचने में सहायक होता हो अथवा जिससे पेट के अंदर का मल या अपक्व दोष दूर करता हो। ५. कोई पाचक औषध। ६. लाक्षणिक रूप में, किसी प्रकार के दोष या विकार का धीरे-धीरे कम होकर नष्ट या शमित होना। जैसे—पाप या रोग का पाचन। ७. आग या अग्नि जिसकी सहायता से खाने-पीने की चीजें पकाई जाती हैं। ९. लाल रेंड। विं० १. खाई हुई चीजें पचाने या हजम करनेवाला। हाजिम। २. किसी प्रकार के अजीर्ण या आधिक्य का नाश या शमन करनेवाला।
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पाचनक  : पुं० [सं०√पच्+णिच्+ल्यु—अन+कन्] सुहागा।
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पाचन-गण  : पुं० [ष० त०] पाचन ओषधियों का वर्ग।
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पाचन-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. खाये हुए पदार्थों को पचाने की शक्ति या समर्थता। २. हाजमा।
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पाचना  : स० १.=पकाना। २. पचाना।
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पाचनी  : स्त्री० [सं० पाचन+ङीष्] हड़।
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पाचनीय  : वि० [सं०√पच्+णिच्+अनीयर्] १. जो पकाया जा सके। २. जो पचाया जा सके।
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पाचयिता (तृ)  : वि० [सं०√पच्+णिच्+तृच] १. पाक करनेवाला। २. पचानेवाला।
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पाचर  : पुं०=पच्चर।
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पाचल  : वि० [सं०√पच्+णिच्+कलन्] १. पकानेवाला। २. पचानेवाला। पुं० १. रसोइया। २. आग्नि । ३. वायु। ४. पकाई जानेवाली वस्तु। ५. पचानेवाली वस्तु।
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पाचा  : पुं० [सं० पाक] १. भोजन पकने या पकाने की क्रिया। पाक। २. भोजन पचने या पचाने की क्रिया। पाचन।
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पाचा-पाड़  : पुं० [हिं० पाँच+पाड़=किनारा] जनानी धोतियों का वह प्रकार जिसमें लम्बाई के बल ऊपर और नीचे जैसे दो किनारे बने हुए होते हैं, वैसे ही तीन किनारे बीच मे भी बुने रहते हैं। स्त्री० वह जनानी धोती या साड़ी जिसमें उक्त प्रकार के पाँच (तीन) किनारे बुने हुए हों।
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पाचिका  : स्त्री० [सं० पाचक+टाप्, इत्व] रसोई बनानेवाली स्त्री।
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पाचो  : वि० [सं०√पच्+णिच्+इन्+ङीष्] पाचन करनेवाला। स्त्री० पच्ची या मर्कतपत्री नाम की लता।
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पाच्छा, पाच्छाह  : पुं०=बादशाह।
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पाच्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्, कुत्वाभाव] १. जो पच या पक सकता हो। २. पकाने या पचाने योग्य।
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पाछ  : स्त्री० [हिं० पाछना] १. पाछने अर्थात् जंतु या पौधे के शरीर पर धूरी की तीखी धार लगाकर उसका रक्त या रस निकालने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. उक्त कार्य के लिए लगाया हुआ क्षत या किया हुआ घाव । ३. पोस्ते के डोंडे पर छुरी से किया जानेवाला वह क्षत जिसमें से गोंद के रूप में अफीम बाहर निकलती है। पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] किसी चीज का पिछला भाग। पीछा। अव्य०=पीछे।
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पाछना  : स० [हिं० पंछा] किसी जीव या पौधे की त्वचा या खाल पर इस प्रकार हलका घाव करना जिससे उसका रक्त या रस थोड़ा थोड़ा करके बाहर निकलने लगे।
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पाछल, पाछुल  : वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पीछे।
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पाछा  : पुं० १. दे० ‘पाछ’। २. दे० ‘पीछा’।
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पाछिल  : विं०=पिछला।
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पाछी  : अव्य० [हिं० पाछ] पीछे की ओर। पीछे।
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पाछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाछें, पाछे  : अव्य०=पीछे।
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पाज  : पुं० [सं० पाजस्य] १. पार्श्व । पार्श्वभाग । २. पंजर। पुं० १. सेतु। पुल। २. आधार। ३. जड़। ४. ढेर। राशि। ५. वज्र।
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पाजरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की वनस्पति जिसकी पत्तियों से एक प्रकार का रस निकाला जाता है।
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पाजस्य  : पुं० [सं०√पा+असुन्, जुट्+यत्] पार्श्व। बगल।
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पाजा  : पुं०=पायजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाजामा  : पुं० [फा० पाजामः या पाएजामः] एक तरह का सिला हुआ वस्त्र जो कमर से ऐडी तक का भाग ढकने के लिए पहना जाता है और जो ऊपरी भाग के नेफे में नाला डालकर कमर में बाँधा जाता है।
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पाजी  : पुं० [सं० पत्ति, प्रा० पडित से फा०] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। २. पैदल सेना का सिपाही। प्यादा। ३. चौकीदार। पहरेवादार। ४. साथ चलने या रहनेवाला व्यक्ति। साथी। ५. तुच्छ सेवाएँ करनेवाला नौकर। खिदमतगार। टहलुआ। वि० [फा०] [भाव० पाजीपन] जो प्रायः अपने दुष्ट आचरण या व्यवहार से सबको तंग या परेशान करता रहता हो। दुष्ट। लुच्चा।
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पाजीपन  : पुं० [हिं० पाजी+पन (प्रत्य०)] पाजी या दुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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पाजेब  : स्त्री० [फा० पाज़ेब] पैरों में पहनने का स्त्रियों का एक प्रसिद्ध आभूषण। मंजीर। नूपुर।
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पांटबर  : पुं० [सं० पट्ट+अम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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पाट  : पुं० [सं० पट्ट, पाट] १. रेशम। २. रेशम का बटा हुआ महीन डोरा। नख। ३. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा। ४. पटसन। ५. कपड़ा। वस्त्र। पद—पाट पटंबर=अच्छे अच्छे और कई तरह के कपड़े। ६. बैठने का पाटा या पीढ़ा। ७. राज-सिंहासन। ८. चौड़ाई के बल का विस्तार। जैसे—नदी का पाट। ९. किसी प्रकार का तख्ता, पटिया या शिला। १॰. पत्थर की वह पटिया जिस पर धोबी कपड़े धोते हैं। ११. चक्की के दोनों पल्लों में से हर एक। १२. लकड़ी के वे तख्ते जो छत पाटने के काम आते है। १३. वह चिपटा शहतीर जिस पर कोल्हू हाँकनेवाला बैठता है। १४. वह शहतीर जो कूएँ के मुँह पर पानी निकालनेवाले के खड़े होने के लिए रखा जाता है। १५. बैलों का एक रोग जिसमें उनके रोमकूपों में से रक्त निकलता है। क्रि० प्र०—फूटना। १६. मृदंग के चार वर्णों में से एक।
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पाटक  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ण्वुल—अक] १. एक तरह का बाजा। २. गाँव या बस्ती का आधा भाग। ३. तट। किनारा । ४. पासा। ५. एक तरह की बड़ी कलछी।
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पाट-करण  : पुं० [सं० ब० स०] शुद्ध जाति के रोगों का एक भेद।
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पाचच्चर  : वि० [सं० पटच्चर+अण्] चुरानेवाला।
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पाटदार  : वि०=पल्लेदार (आवाज)।
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पाटन  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ल्युट्—अन] चीरने-फाड़ने अथवा तोड़ने-फोड़ने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। पटाव। २. वह छत दीवारों को पाटकर बनाई गई हो। ३. घर के ऊपर का दूसरा खंड या मंजिल। ४. साँप का जहर झाड़ने का एक प्रकार का मंत्र। पुं० [सं० पत्तन] नगर या बस्ती के नाम के अंत में लगनेवाली ‘पत्तन’ सूचक संज्ञा। जैसे—झालरापाटन। स्त्री० [अं० पैटर्न] पुस्तक की जिल्द के रूप में बँधी हुई वे दफ्तियाँ जिन पर ग्राहकों या व्यापारियों को दिखाने के लिए कपड़ों आदि के नमूने के टुकड़े चिपकाये रहते हैं।
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पाटना  : स० [सं० पाट] १. खाई, गड्ढे आदि में इतना भराव भरना जिससे वह आस-पास की जमीन के बराबर और समतल हो जाय। २. कमरे के संबंध मे उसकी चारों ओर की दीवारों के ऊपरी भाग के खुले अवकाश को बंद करने के लिए उस पर छत या पाटन बनाना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी स्थान पर किसी चीज की बहुतायत या भरमार करना। जैसे—माल से बाजार पाटना। ४. लाक्षणिक रूप में, (क) ऋण आदि चुकाना, (ख) पारस्पिक दूरी, मत-भेद, विरोध आदि का अंत या समाप्ति करना। ५. दे० ‘पटाना’।
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पाटनि  : स्त्री० [सं० पट्ट] १. सिर के बालों की पट्टी। २. दे० ‘पाटना’।
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पाटनीय  : वि० [सं०√पट्+णिच्+अनीयर्] चीरे-फाड़े या तोड़े-फोड़े जाने के योग्य।
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पाटप  : वि० [हिं० पाट] सबसे बड़ा। उत्तम। श्रेष्ठ। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाट-महिषी  : स्त्री० [सं० पट्ट =सिहासन्,+ महिषी= रानी] किसी राजा की वह विवाहिता और बड़ी रानी जो उसके साथ सिंहासन पर बैठती अथवा उस पर बैठने की अधिकारिणी हो। पटरानी।
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पाटरानी  : स्त्री०=पटरानी।
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पाटल  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+कलप] १. पाडर या पाढर नामक पेड़, जिसके पत्ते आकार-प्रकार में बेल वृक्ष के पत्तों के समान होते हैं। २. गुलाब। वि० १. गुलाब-संबंधी। २. गुलाब के रंग का। उदा०—कर लै प्यौ पाटल बिमल प्यारी।—बिहारी।
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पाटलक  : वि० [सं० पाटल+कन्] पाटल के रंग का। गुलाबी रंग का। पुं० गुलाबी रंग।
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पाटलकीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कीड़ा।
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पाटल-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] पुन्नाग वृक्ष। राज-चंपक।
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पाटला  : स्त्री० [सं० पावल+टाप्] १. पाडर का वृक्ष। २. लाललोध। ३. जलकुंभी। ४. दुर्गा का एक रूप। पुं० [सं० पटल] एक प्रकार का बढ़िया और साफ सोना।
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पाटलवती  : स्त्री० [सं० पाटला+मतुप्, वत्व,+ङीष्] १. दुर्गा। २. एक प्राचीन नदी।
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पाटलि  : स्त्री० [सं०√पट्+णिच्+अलि] १. पाडर का वृक्ष। २. पांडुफली।
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पाटलिक  : वि० [सं० पाटलि+कन्] १. जो दूसरों के भेद या रहस्य जानता हो। २. जिसे देश और काल का ज्ञान हो। पुं० १. चेला। शिष्य। २. पाटलिपुत्र नगर।
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पाटलित  : भू० कृ० [सं० पाटल+णिच्+क्त] गुलाबी रंग में रँगा हुआ।
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पाटलि-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त० ?] अज्ञातशत्रु द्वारा बसाई हुई प्राचीन मगध की एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी जो आधुनिक पटना नगर के पास थी। पुष्पपुर। कुसुमपुर। विशेष—कुल लोग वर्तमान पटने को ही पाटिलपुत्र समझते हैं परंतु पटना शेरशाह सूरी का बसाया हुआ है।
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पाटलिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पाटल+इमनिच्] १. गुलाबी रंग। २. गुलाबी रंगत। ३. गुलाबी होने की अवस्था या भाव। गुलाबीपन।
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पाटली  : स्त्री० [सं० पाटलि+ङीष्]=पाटलि।
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पाटली-तैल  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का औषध तैल जिसके लगाने से जले हुए स्थान की जलन, पीड़ा और चेप बहना दूर होता है।
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पाटलीपुत्र  : पुं०=पाटलिपुत्र।
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पाटव  : पुं० [सं० पटु+अण्] १. पटुता। २. दृढ़ता। मजबूती। ३. जल्दी। शीघ्रता। ४. आरोग्य। ५. शक्ति।
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पाटविक  : वि० [सं० पाटव+ठन्—इक] १. पटु। कुशल। २. चालाक। धूर्त।
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पाटवी  : वि० [हिं० पाट+वी (प्रत्य०)] १. रेशम का बना हुआ। रेशमी। २. पटरानी संबंधी। पटरानी का। ३. पटरानी से उत्पन्न। ४. सर्वश्रेष्ठ। पुं० पटरानी का पुत्र।
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पाटसन  : पुं०=पटसन।
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पाटहिक  : पुं० [सं० पटह+ठञ्—इक] नगाड़ा बजानेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाटहिका  : स्त्री० [सं० पटह+अण्, पाटह+ठञ्—इक+टाप्] गुंजा। घुँघची।
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पाटा  : पुं० [हिं० पाट] [स्त्री० अल्पा० पाटी] १. बैठने का काठ का पीढ़ा। मुहा०—पाटा फेरना=विवाह में कन्यादान के उपरांत वर के पीढ़े पर कन्या और कन्या के पीढ़े पर वर को बैठाना। २. राज-सिंहासन। ३. लंबी धरन की तरह की वह आयताकार लकड़ी जिसकी सहायता से जोते हुए खेत की मिट्टी के ढेले तोड़कर उसे समतल करते हैं। ४. उक्त प्रकार का लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा राज लोग दीवारों का पलस्तर बराबर या समतल करते हैं। क्रि० प्र०—चलाना।—फेरना। ५. दो दीवारों के बीच में तख्ता, पटिया आदि लगाकर बनाया हुआ आधार स्थान।
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पाटि  : स्त्री० १.=पाट। २.=पाटी।
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पाटिका  : स्त्री० [सं० पाटक+टाप्, इत्व] १. एक दिन की मजदूरी। २. एक पौधा। ३. छाल। छिलका।
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पाटित  : भू० कृ० [सं०√पट्+णिच्+क्त] जो चीरा-फाड़ा अथवा तोड़ा-पोड़ा गया हो।
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पाटी  : भू० कृ० [सं०√पट्+इन्+ङीष्] १. परिपाटी। अनुक्रम। रीति। २. गणित-शास्त्र। हिसाब। ३. श्रेणी। पंक्ति। ४. बला नामक क्षुप। खरैंटी। स्त्री० [हिं० पाटा का स्त्री० रूप] १. लकड़ी की वह तख्ती या पट्टी जिस पर विद्यारंभ करनेवाले बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखाया जाता है। २. बच्चों को पढ़ाया जानेवाला पाठ। सबक। मुहा०—पाटी पढ़ना=(क) पाठ पढ़ना। सबक लेना। (ख) किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करना; विशेषतः ऐसी शिक्षा प्राप्त करना जो दुष्ट उद्देश्य से दी गई हो और जिसमें शिक्षा प्राप्त करनेवाले ने अपनी बुद्धि या विवेक का उपयोग न किया हो। ३. माँग के दोनों ओर गोंद, जल, तेल, आदि की सहायता से कंघी द्वारा बैठाये हुए बाल जो देखने में पटरी की तरह बराबर मालूम हों। पट्टी। पटिया। मुहा०—पाटी पारना या बैठाना=कंघी फेरकर सिर के बालों को समतल करके बैठना। उदा०—पाटी पारि अपने हाथ बेनी गुथि बनावे।—भारतेंदु। ४. खाट, पलंग आदि के चौखट की लंबाई के बल की लकड़ी। ५. चौड़ाई। ६. चट्टान। शिला। ७. मछली पकड़ने के लिए एक विशिष्ट प्रकार की क्रिया जिसमें बहते हुए पानी को मिट्टी के बाँध या वृक्षों की टहनियों आदि से रोक कर एक पतले मार्ग से निकलने के लिए बाध्य करते हैं, और उसी मार्ग पर उन्हें पकड़ते हैं। ८. खपरैल की नरिया का प्रत्येक आधा भाग। ९. जंती।
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पाटीगणित  : पुं० [सं०] गणित की वह शाखा जिसमें ज्ञात अंकों या संख्याओं की सहायता से अज्ञात अंक या संख्याएँ जानी जाती हैं। (एरिथिमेटिक)
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पाटीर  : पुं० [सं० पटीर+अण्] १. चंदन का वृक्ष और उसकी लकड़ी। २. खेत जोतन का हल। ३. खेत।
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पाटूनी  : पुं० [देश०] वह मल्लाह जो किसी घाट का ठीकेदार भी हो घटवार।
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पाट्य  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+यत्] पटसन।
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पाठ  : पुं० [सं०√पठ् (पढ़ना)+घङ्] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़ाई। २. वह विषय जो पढ़ा जाये। ३. किसी ग्रंथ का उतना अंश जितना एक दिन या एक बार में गुरु या शिक्षक से पढ़ा जाय। सबक। (लेसन) मुहा०—(किसी को) पाठ पढ़ाना=दुष्ट उद्देश्य से किसी को कोई बात अच्छी तरह समझना। पट्टी पढ़ाना। (व्यंग्य)। पाठ फेरना=बार-बार दोहराना। उद्धरणी करना। उलटा पाठ पढ़ाना=कुछ का कुछ समझा देना। उलटी-पुलटी बातें कहकर बहका देना। ४. नियमपूर्वक अथवा श्रद्धा-भक्ति से और पुण्य-फल प्राप्त करने के उद्देश्य से कोई धर्मग्रंथ पढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे—गीता या रामायण का पाठ। ५. किसी पुस्तक के वे अध्याय जो प्रायः एक दिन में या एक साथ पढ़ाये जाते हैं; और जिनमें एक ही विषय रहता है। ६. किसी ग्रंथ या लेख के किसी स्थल पर शब्दों या वाक्यों का विशिष्ट क्रम वा योजना। (टैक्स्ट) जैसे—अमुक पुस्तक में इस पद का पाठ कुछ और ही है। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाठक  : वि० [सं०√पठ्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाठिका] १. पाठ पढ़नेवाला। २. पाठ करनेवाला। ३. पाठ पढ़ानेवाला। पुं० १. विद्यार्थी। २. अध्यापक। ३. धर्मोपदेशक। ४. ब्राह्मणों की एक जाति। ५. आज-कल समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं आदि की दृष्टि में वे लोग जो समाचार-पत्र आदि पढ़ते हों।
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पाठच्छेद  : पुं० [ष० त०] एक पाठ की समाप्ति होने पर और अगले पाठ के आरंभ किये जाने से पहले होनेवाला विराम।
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पाठ-दोष  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के शब्दों के वर्णों तथा वाक्यों के शब्दों की अशुद्ध या भ्रामक योजना।
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पाठन  : पुं० [सं०√पठ्+णिच्+ल्युट्—अन] १. पाठ पढ़ाना। २. पढ़कर सुनाना। ३. वक्तृता देना।
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पाठना  : स० [सं० पाठन] पढ़ाना।
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पाठ-निश्चय  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के पाठ के अनेक रूप मिलने पर विशिष्ट आधारों पर उसके शुद्ध पाठ का किया जानेवाला निश्चय।
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पाठ-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-प्रणाली  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-भू  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ वेदादि ग्रंथों का पाठ होता या किया जाता हो। २. ब्राह्मण्य।
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पाठ-भेद  : पुं० [ष० त०] वह भेद या अंतर जो एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों के पाठ में कही-कहीं मिलता हो। पाठांतर।
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पाठ-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] मैना। सारिका।
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पाठ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ विद्यार्थियों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है।
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पाठशालिनी  : स्त्री० [सं० पाठ√शल् (गति)+णिनि+ङीप्] मैना। सारिका।
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पाठशाली (लिन्)  : वि० [सं० पाठशाला+इनि] पाठ पढ़नेवाला। पुं० विद्यार्थी।
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पाठशालीय  : वि० [सं० पाठशाला+छ—ईय] पाठशाला-संबंधी। पाठशाला का।
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पाठांतर  : पुं० [सं० पाठ-अंतर, मयू० स०] किसी एक ही पुस्तक की विचित्र हस्तलिखित प्रतियों में अथवा विभिन्न संपादकों द्वारा संपादित प्रतियों में होनेवाला शब्दों अथवा उनके वर्णों के क्रम में होनेवाला भेद।
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पाठा  : स्त्री० [सं०√पठ्+घञ्+टाप्] पाढ़ा नाम की लता। वि० [सं० पुष्ट] [स्त्री० पाठी] १. हृष्ट-पुष्ट। २. पट्ठा। जवान। पुं० जवान बकरा, बैल या भैंसा। २. गाय-बैलों की एक जाति। (बुंदेलखंड)
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पाठागार  : पुं० सं० [पाठ-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर किसी विषय का अध्ययन, या ग्रंथों का पाठ किया जाता हो। (स्टडी रूम)
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पाठालय  : पुं० [पाठ-आलय, ष० त०] पाठशाला।
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पाठालोचन  : पुं० [सं० पाठ-आलोचन, ष० त०] आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में कैसा और क्या रहा होगा। किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का ऐसा निर्धारण जो पूरा छान-बीन करके किया जाय। (टेक्सचुअल क्रिटिसिज़म) विशेष—इस प्रकार का पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक की देख-रेख में न हुआ हो।
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पाठिक  : वि० [सं० पाठ+ठन्—इक] जो मूल पाठ के अनुसार हो।
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पाठिका  : वि० [सं० पाठक+टाप्, इत्व] पाठक का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० पाठा। पाढ़ा।
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पाठित  : भू० कृ० [सं०√पठ्+णिच्+क्त] (पाठ) जो पढ़ाया जा चुका हो।
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पाठी (ठिन्)  : वि० [सं० पाठ+इनि] समस्त पदों के अंत में, पाठ करनेवाला या पाठक। जैसे—वेद-पाठी, सह-पाठी। पुं० [पाठा+इनि] चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष।
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पाटीकुट  : पुं० [सं० पाठा√कुट् (टेढ़ा होना)+क, पृषो० सिद्धि] चीते का पेड़।
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पाठीन  : वि० [सं० पाठि√नम् (झुकना)+ड, दीर्घ] पढ़ानेवाला। पुं० १. पहिना (मछली)। २. गूगल का पेड़।
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पाठ्य  : वि० [सं०√पठ्+ण्यत् या√पठ्+णिच्+यत्] १. जो पढ़ा या पढ़ाया जाने को हो। २. पढ़ने या पढ़ाये जाने के योग्य।
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पाठ्य-क्रम  : पुं० [ष० त०] वे सब विषय तथा उनकी पुस्तकें जो किसी विशिष्ट परीक्षा में बैठनेवाले परीक्षार्थियों के लिए निर्धारित हों। (कोर्स)
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पाठ्य-ग्रंथ  : पुं० [सं०] पाठ्य-पुस्तक। (दे०)
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पाठ्य-चर्या  : स्त्री० [सं०] वह पुस्तिका जिसमें विभिन्न परीक्षाओं के लिए निर्धारित विषयों तथा तत्संबंधी पाठ्य-क्रमों का उल्लेख होता है। (करिक्यूलम)
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पाठ्य-पुस्तक  : स्त्री० [कर्म० स०] वह पुस्तक जो पाठशालाओं में विद्यार्थियों को नियमित रूप से पढ़ाई जाती हो। पढ़ाई की पुस्तक। (टेक्स्ट बुक)
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पाड़  : पुं० [हिं० पाठ] १. धोती, साड़ी का किनारा। २. मंचान। ३. लकड़ी की वह जाली या ठठरी जो कूएँ के मुँह पर रखी रहती है। कटकर। चह। ४. पानी आदि रोकने का पुश्ता या बाँध। ५. वह तख्ता जिस पर अपराधी को फाँसी देने के समय खड़ा करते हैं। टिकठी। ६. इमारत बनाने के लिए खड़ा किया जानेवाला बांसों का ढाँचा। पाइट। उदा०—बोसे की गर हविस हो तो गिर्द उसके पाड़ बाँध।—कोई शायर। ७. दो दीवारों के बीट पटिया देकर या पाटकर बनाया हुआ आधार। पाटा। दासा।
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पाडल  : पुं०=पाटल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाडलीपुर  : पुं०=पाटलीपुत्र।
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पाड़प्तालो  : पुं० [देश०] १. दक्षिण भारत के जुलाहों की जाति। २. उक्त जाति का जुलाहा।
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पाड़ा  : पुं० [सं० पट्टन] १. किसी बस्ती में कुछ घरों का अलग विभाग या समूह। डोला। मुहल्ला। जैसे—धोबी पाड़ा, मोची पाड़ा। २. खेत की सीमा या हद। पुं० [हिं० पाठा] [स्त्री० पड़िया, पाड़ी] भैंस का बच्चा। पँड़वा। पुं० [देश०] एक तरह की बड़ी समुद्री मछली।
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पाडिनी  : स्त्री० [सं०√पड् (इकट्ठा होना)+णिनि+ङीष्] हाँड़ी। हँड़िया।
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पाढ़  : पुं० [सं० पाट, हिं० पाटा] १. पीढ़ा। २. पाटा। ३. गहनों पर नक्काशी करने का सुनारों का एक उपकरण। ४. लकड़ी की एक प्रकार की सीढ़ी। ५. मचान। पुं०=पाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़त  : स्त्री० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़त। २. वह जो पढ़ा जाय। वह जिसका पाठ किया जाय। ३. मंत्र जो पढ़कर फूँका जाता है। ४. कोई पवित्र पद या वाक्य जिसका जप किया जाता हो। उदा०—स्वाय जात जब आवत, पाढ़त जाय।—नूर मुहम्मद।
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पाढ़र  : पुं० [सं० पाटल] १. पाडर का पेड़। २. एक प्रकार का टोना।
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पाढ़ल  : पुं०=पाटल।
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पाढ़ा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बारहसिंघा जिसकी खाल भूले या हलके बादामी रंग की होती है और जिस पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। चित्रमृग। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़ित  : वि० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ा हुआ। २. जिसे पढ़ा जाय।
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पाढी  : स्त्री० [देश०] १. सूत की लच्छी। २. यात्रियों को नदी के पार पहुँचानेवाली नाव।
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पाण  : पुं० [सं०√पण् (व्यवहार)+घञ्] १. व्यापार। व्यवसाय। २. व्यापारी। ३. दाँव। बाजी। ४. संधि। समझौता। ५. हाथ। ६. प्रशंसा।
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पाणही  : स्त्री०=पनही (जूता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाणि  : पुं० [सं०√पण्+इण] हाथ। कर।
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पाणिक  : वि० [सं० पण+ठक्—इक] १. व्यापार या व्यापारी-संबंधी। २. दाँव या बाजी लगाकर जीता हुआ। पुं० १. व्यापारी। २. सौदा। ३. हाथ। ४. कार्तिकेय का एक गण।
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पाणि-कच्छपिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कूर्ममुद्रा।
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पाणि-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. वह जो हाथ से कोई बाजा बजाता हो; या ऐसा ही और कोई काम करता हो। ३. हाथ का कारीगर। दस्तकार।
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पाणिकर्ण  : पुं०=पाणिकर्मा (शिव)।
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पाणिका  : स्त्री० [सं० पाणि+कन्+टाप्] एक प्रकार का गीत।
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पाणि-गृहीता  : वि० [ब० स०, टाप्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण किया गया हो। विवाहिता (पत्नी)।
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पाणि-गृहीती  : वि० [ब० स०, ङीष्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण संस्कार हो चुका हो। विवाहिता।
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पाणि-ग्रह  : पुं० [सं०√ग्रह् (पकड़ना)+अप्, ष० त०] पाणिग्रहण। (दे०)
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पाणि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] १. किसी स्त्री० को पत्नी रूप में रखने और उसका निर्वाह करने के लिए उसका हाथ पकड़ना। २. हिंदुओं में विवाह की एक रसम जिसमें वर उक्त उद्देश्य से अपनी भावी पत्नी का हाथ पकड़ता है।
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पाणिग्रहणिक  : वि० [सं० पाणिग्रहण+ठक्—इक] पाणिग्रहण या विवाह-संबंधी। विवाह के समय का। जैसे—पाणिग्रहणिक उपहार, पाणिग्रहणिक मंत्र।
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पाणिग्रहणीय  : वि० [सं० पाणिग्रहण+छ—ईय]= पाणिग्रहणिक।
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पाणिग्राह, पाणि-ग्राहक  : वि० [सं० पाणि√ग्रह्+अण्] [ष० त०] किसी का हाथ पकड़नेवाला। पाणिग्रहण करनेवाला। पुं० वर जो विवाह के समय कन्या का हाथ पकड़ता है।
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पाणि-ग्राह्य  : वि० [तृ० त०] १. जो मुट्ठी में आ सके या प्राप्त किया जा सके। २. जिसका पाणिग्रहण किया जा सके। जिसके साथ विवाह किया जा सके।
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पाणिघ  : पुं० [सं० पाणि√हन् (हिंसा)+ट] १. हाथ से बजाये जानेवाले बाजे। जैसे—ढोल, मृदंग आदि। २. हाथ का कारीगर। दस्तकार। शिल्पी। ३. हाथ से बाजा बजानेवाला।
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पाणि-घात  : पुं० [तृ० त०] १. हाथ से किया जानेवाला आघात। २. थप्पड़।
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पाणिघ्न  : पुं० [संपाणि√हन्+टक्] १. हाथ से आघात करनेवाला। २. ताली बजानेवाला। ३. शिल्पी।
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पाणिज  : वि० [सं० पाणि√जन्+ड] जो हाथ से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. उँगली। २. नाखून। ३. नखी।
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पाणि-तल  : पुं० [ष० त०] १. हाथ की हथेली। २. वैद्यक में लगभग दो तोले की एक तौल या परिमाण।
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पाणिताल  : पुं० [मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पाणि-धर्म  : पुं० [मध्य० स०] विवाह संस्कार।
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पाणिन  : पुं० [पणिन+अण्]=पाणिनि।
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पाणिनि  : पुं० [सं० पणिन्+अण्+इञ्] संस्कृत भाषा के व्याकरण को चार हजार सूत्रों में बाँधनेवाले एक प्रसिद्ध प्राचीन मुनि। (ई० पू० चौथी शताब्दी)
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पाणिनीय  : वि० [सं० पाणिनि+छ—ईय] १. पाणिनि-संबंधी। पाणिनि का। जैसे—पाणिनीय व्याकरण या सूत्र। २. पाणिनि का अनुयायी या भक्त। ३. पाणिनि का व्याकरण पढ़नेवाला।
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पाणि-पल्लव  : पुं० [ष० त०] हाथ की उँगलियाँ।
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पाणि-पात्र  : ब० [ब० स०] १. हाथ में लेकर अर्थात् अंजलि से पानी पीनेवाला। २. जो अंजलि से पात्र या बरतन का काम लेता हो।
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पाणि-पीड़न  : पुं० [ब० स०] १. पाणिग्रहण। विवाह। २. [ष० त०] पश्चात्ताप आदि के कारण हाथ मलना। पछताना।
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पाणि-पुट (क)  : पुं० [मध्य० स०] चुल्लू।
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पाणि-प्रणयिनी  : स्त्री० [ष० त०] विवाहिता स्त्री। धर्मपत्नी।
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पाणिबंध  : पुं० [ब० स०] पाणिग्रहण। विवाह।
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पाणिमुक् (ज्)  : पुं० [सं० पाणि√भुज् (खाना)+क्विप्] [पाणि√भुज्+क] गूलर वृक्ष।
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पाणिमर्द्द  : पुं० [सं० पाणि√मृद् (मलना)+अण्] करमर्द्द। करौंदा।
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पाणिमुक्त  : वि० [तृ० त०] हाथ से फेंककर चलाया जानेवाला (अस्त्र)। पुं० भाला।
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पाणि-मुख  : वि० [ब० स०] हाथ से खानेवाला। पुं० बहु० मृतपूर्वज। पितर।
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पाणि-मूल  : पुं० [ष० त०] कलाई।
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पाणिरुह  : पुं० [सं० पाणि√रुह (उगना, निकलना)+क] १. उँगली। २. नाखून।
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पाणि-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] हथेली की रेखा। हस्त-रेखा।
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पाणिवाद  : वि० [सं० पाणि√वद् (बोलना)+णिच्+अच्] १. मृदंग, ढोल आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला। पुं० १. ढोल, मृदंग आदि बाजे। २. ताली बजाने की क्रिया। ताली पीटना।
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पाणि-वादक  : वि० [सं० पाणि√वद्+णिच्+ण्वुल—अक] १. हाथ से मृदंग आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला।
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पाणि-हता  : स्त्री० [तृ० त०] ललित विस्तार के अनुसार एक छोटा तालाब जो देवताओं ने बुद्ध भगवान के लिए तैयार किया था।
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पाणी  : पुं०=पाणि (हाथ)।
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पाणौकरण  : पुं० [सं० अलुक् स०] विवाह। पाणिग्रहण।
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पाण्य  : वि० [सं०√पण् (स्तुति)+ण्यत्] प्रशंसा और स्तुति के योग्य।
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पाण्याश  : वि० [सं० पाणि√अश् (खाना)+अण्] हाथ से खानेवाला। पुं० मृत पूर्वज या पितर जो अपने वंशजों के हाथ का दिया हुआ अन्न ही खाते हैं।
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पातंग  : वि० [सं० पतंग+अण्] १. फतिंगे या फतिंगों से संबंध रखनेवाला। २. फतिंगों के रंग का। भूरा।
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पातंगि  : पुं० [सं० पतंग+इञ्] १. शनिग्रह। २. यम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव।
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पातंजल  : वि० [सं० पतंजलि+अण्] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत। पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. वह जो उक्त योग-सूत्र के अनुसार योगसाधन करता हो। ३. पतंजलिकृत महाभाष्य।
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पातंजल-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] योगदर्शन।
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पातंजल-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ।
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पातंजल-सूत्र  : पुं० [कर्म० स०] योगसूत्र।
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पातंजलीय  : वि० [सं० पातंजल] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत।
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पात  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+घञ्] १. अपने स्थान से हटकर, टूटकर या और किसी प्रकार गिरने या नीचे आने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—उल्का-पात। [√पत्+णिच्+घञ्] २. गिराने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—रक्तपात। ३. अपने उचित या पूर्व स्थान से नीचे आने की क्रिया या भाव। जैसे—अधःपात। ४. ध्वस्त, नष्ट या समाप्त होकर गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—शरीर-पात। ५. किसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें वह सारी शक्ति प्रायः नष्ट हो जाने के कारण सहसा गिर, ढह या विनष्ट हो जाती है। सहसा किसी चीज का गिरकर बेकाम हो जाना। (कोलैप्स) ६. किसी प्रकार जाकर कहीं गिरने, पड़ने या लगने की क्रिया या भाव। जैसे—दृष्टिपात। ७. आघात। चोट। उदा०—चलै फटि पात गदा सिर चीर, मनों तरबूज हनेकर कीर।—कविराजा सूर्यमल। ८. गणित ज्योतिष में, वह विंदु या स्थान जिस पर किसी ग्रह या नक्षत्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को काटती है। ९. वह विंदु या स्थान जहाँ एक वृत्त दूसरे वृत्त को काटता हो। १॰. ज्यामिति में वह विंदु जहाँ कोई वक्र रेखा मुड़कर अपने किसी अंश को काटती हो। (नोड) ११. ज्योतिष में, (क) वह विंदु जहाँ कोई ग्रह सूर्य की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है; अथवा कोई उपग्रह अपने ग्रह की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। (नोड) विशेष—साधारणतः ग्रहों की कक्षाएँ जहाँ क्रांतिवृत्त को काटती हुई ऊपर चढ़ती या नीचे उतरती हैं, उन्हें पात कहते हैं। ये स्थान क्रमात् आरोह-पात और अवरोह-पात कहलाते हैं। चंद्रमा के कक्ष में जो आरोह-पात और अवरोहपात पड़ते हैं वे क्रमात् राहु और केतु कहलाते हैं। इसी आधार पर पुराणों और परवर्ती भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु दो स्वतंत्र ग्रह माने गये हैं। पुं० [√पत्+णिच्+अच्] राहु। पुं० [सं० पत्र] १. वृक्ष का पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों का लगना=पतझड़ होना या उसका समय आना। २. वृक्ष के पत्ते के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पत्ता। ३. चाशनी। शीरा। पुं० [सं० पात्र] कवि। (डिं०)
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पातक  : वि० [सं०√पत्+णिच्+ण्वुल—अक] पात करने अर्थात् गिरानेवाला। पुं० ऐसा बड़ा पाप जो उसके कर्ता को नरक में गिरानेवाला हो। ऐसा पाप जिसका फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता हो। विशेष—हमारे यहाँ के धर्मशास्त्रों में अति-पातक, उप-पातक, महा-पातक आदि अनेक भेद किये गये हैं। साधारण पातकों के लिए उनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
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पातकी (किन्)  : वि० [सं० पातक+इनि] पातक माने जानेवाले कर्मों के फल भोद के लिए नरक में जानेवाला; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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पातघाबरा  : वि० [हिं० पात+घबराना] १. पत्तों की आहट तक से भयभीत और विकल होनेवाला। २. बहुत जल्दी घबरा जानेवाला। ३. बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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पातन  : पुं० [सं०√पत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. गिराने या नीचे ढकेलने की क्रिया या भाव। २. फेंकने की क्रिया या भाव। ३. वैद्यक में, पारा शोबने के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार।
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पातनीय  : वि० [सं०√पत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका पात हो सके या किया जाने को हो। २. जो गिराया जा सके या गिराया जाने को हो।
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पातबंदी  : स्त्री० [सं० पात या हिं० पाँति ?+बंदी] वह विवरण जिसमें किसी की संपत्ति और देय तथा प्राप्य धन का उल्लेख हो।
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पातयिता (तृ)  : वि० [सं०√पत्+णिच्+तृच्] १. गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला।
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पातर  : वि० [सं० पात्रट, हिंदी पतला का पुराना रूप] १. जिसका दल मोटा न हो। पतला। २. क्षीणकाय। ३. बहुत ही संकीर्ण और तुच्छ स्वभाववाला। ४. नीच कुल का। अप्रतिष्ठित। उदा०—मयला अकलै मूल पातर खाँड खाँड करै भूखा।—सूर। स्त्री०=पत्तल। स्त्री० [सं० पातिली=एक विशेष जाति की स्त्री] १. वेश्या। २. तितली।
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पातरा  : वि० [स्त्री० पातरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातराज  : पुं० [देश०] एक तरह का साँप।
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पातरि (री)  : स्त्री०=पातर (वेश्या)।
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पातल  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पातर (वेश्या)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातला  : वि० [स्त्री० पातली]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातव्य  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+तव्यत्] १. जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। २. पीये जाने योग्य।
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पातशाह  : पुं० [फा० बादशाह] [भाव० पातशाही] बादशाह। महाराज।
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पाता (तृ)  : वि० [सं०√पा+तृच्] १. रक्षा करनेवाला। २. पीनेवाला। पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताखत  : पुं० [सं० पत्र+अक्षत] १. पत्र और अक्षत। २. देव पूजने की साधारण या स्वल्प सामग्री। ३. तुच्छ भेंट।
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पाताबा  : पुं० [फा० पाताबः] १. मोजे या जुराब के ऊपर पहना जानेवाला एक प्रकार का जूते का खोल। २. बूट, सैंडल आदि कुछ विशिष्ट जूतों के तलों के ऊपरी भाग में उसी नाप या आकार-प्रकार का लगाया जानेवाला चमड़े का टुकड़ा। ३. जुराब। मोजा।
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पातार  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताल  : पुं० [सं०√पत्+आलञ्] १. पृथ्वी के नीचे के कल्पित सात लोकों में से एक जो सबसे नीचे है और जिसमें नाग लोग वास करते हुए माने गये हैं। नागलोक। अन्य ६ लोक ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल और महातल। २. पृथ्वी के नीचे के सातों लोकों में से प्रत्येक लोक। ३. बहुत अधिक गहरा और नीचा स्थान। ४. गुफा। ५. बिल। विवर। ६. बड़वानल। ७. जन्म-कुंडली में जन्म के लग्न से चौथा स्थान। ८. पाताल यंत्र। (दे०)
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पाताल-केतु  : पुं० [ब० स०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
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पाताल-खंड  : पुं० [ष० त०] पाताल (लोक)।
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पाताल-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पाताल लोक की एक नदी का नाम। २. भूगर्भ के अंदर बहनेवाली कोई नदी।
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पाताल-गारुड़ी  : स्त्री० [ष० त०] छिरिहटा नामक लता।
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पाताल-तुंबी  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की लता। पातालतौंबी।
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पाताल-तोंबी  : स्त्री०=पाताल-तुंबी।
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पाताल-निलय  : वि० [ब० स०] जिसका घर पाताल में हो। पाताल में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप। ३. दैत्य। राक्षस।
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पाताल-निवास  : पुं०=पाताल-निलय।
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पाताल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा धातुएँ गलाई, ओषधियाँ पिलाई तथा अर्क, तेल आदि तैयार किये जाते हैं।
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पाताल-वासिनी  : स्त्री० [सं० पाताल√बस् (बसना)+ णिनि+ङीष्] नागवल्ली लता। पान की लता।
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पाताली  : स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई तथा सुखाकर खाई जानेवाली टिकिया। वि० [सं० पाताल] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल में रहने या होनेवाला। ३. पृथ्वी के नीचे होनेवाला। (अंडर ग्राउंड) जैसे—वृक्ष के पाताली तने।
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पाताली-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] वनस्पति विज्ञान में, उत्पत्ति-भेद से पत्तियों के चार प्रकारों में से एक। प्रायः भूमि पर अपने तने फैलानेवाले पौधों की पत्तियाँ जो प्रायः बहुत छोटी होती हैं। (स्केल लीफ) जैसे—आलू की पाताली पत्ती।
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पातालीय  : वि० [सं०] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल का। २. पाताल में अर्थात् पृथ्वी-तल के नीचे या भूगर्भ में रहने या होनेवाला।
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पातालौका (कस्)  : वि० [सं० पाताल-ओकस् ब० स०] पाताल लोक में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप।
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पाति  : स्त्री० १.=पाती (चिट्ठी)। २.=पत्ती। पुं० [सं०√पा+अति] १. स्वामी। २. पति। ३. पक्षी।
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पातिक  : वि० [सं० पात+ठन्—इक्] १. फेंका हुआ। २. नीचे गिराया या ढकेला हुआ। पुं० सूँस नामक जल-जंतु।
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पातिग  : पुं०=पातक। उदा०—अनेक जनम ना पातिग छूटै।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातित  : भू० कृ० वि० [सं०√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. फेंका हुआ। ३. झुकाया हुआ।
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पातित्य  : पुं० [सं० पतित-ष्यञ्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। गिरावट। २. अधःपतन।
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पातिल  : स्त्री० [सं० पातिली] एक तरह की मिट्टी की हँड़िया जिसमें विवाह आदि के समय दीया जलाया जाता है तथा हँड़िया का आधा मुँह ढक्कन से ढक दिया जाता है। वि०=पतला।
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पातिली  : स्त्री० [सं० पाति√ली (लीन होना)+ड+अण्+ङीष्] १. जाल। फंदा। २. मिट्टी की पातिल नामक हँड़िया। ३. किसी विशिष्ट जाति की स्त्री।
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पातिव्रत  : पुं०=पातिव्रत।
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पातिव्रत्य  : पुं० [सं० पतिव्रता+ष्यञ्] पतिव्रता होने की अवस्था, गुण और भाव। पति के प्रति होनेवाली पूर्ण निष्ठा की भावना।
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पातिसाह  : पुं०=पातशाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाती  : स्त्री० [सं० पत्री, प्रा० पत्ती] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। २. निशान। पता। ३. वृक्ष का पत्ता या पत्ती। स्त्री० [हिं० पति] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लोक-लज्जा।
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पातुक  : वि० [सं०√पत्+उकञ्] १. गिरनेवाला। २. पतनोन्मुख। पुं० १. झरना। २. पहाड़ की ढाल। ३. एक स्तनपायी दीर्घाकार जल-जंतु। जल-हस्ती।
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पातुर  : स्त्री० [सं० पातिली=स्त्री विशेष] वेश्या।
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पातुरनी  : स्त्री०=पातुर (वेश्या)।
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पात्य  : वि० [सं०√पत्+णिच्+यत्] १. जो गिराया जा सकता हो। २. दंडित किये जाने के योग्य। ३. प्रहार करने योग्य। ४. [√पत्+ण्यत्] गिरने योग्य। पुं० [पति+यक] पति होने का भाव। पतित्व।
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पात्र  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ष्ट्रन] [स्त्री० पात्री] [भाव० पात्रता] १. वह आधान जिसमें कुछ रखा जा सके। बरतन। भाजन। २. ऐसा बरतन जिसमें पानी पीया या रखा जाता हो। ३. यज्ञ में काम आनेवाले उपकरण या बरतन। यज्ञ-पात्र। ४. जल का कुंड या तालाब। ५. नदी की चौड़ाई। पाट। ६. ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात के लिए सब प्रकार से उपयुक्त या योग्य समझा जाता हो। अधिकारी। जैसे—किसी को कुछ देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह उसे पाने या रखने का पात्र है या नहीं। ७. उपन्यास, कहानी, काव्य, नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा-वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया-कलाप या चरित्र से कथा-वस्तु की सृष्टि और परिपाक होता है। ८. नाटक में, वे अभिनेता या नट जो उक्त व्यक्तियों की वेष-भूषा आदि धारण कर के उनके चरित्रों का अभिनय करते हैं। अभिनेता। जैसे—इस नाटक में दस पुरुष और छः स्त्रियाँ पात्र हैं। ९. राज्य का प्रधान मंत्री। १॰. वृक्ष का पत्ता। पत्र। ११. वैद्यक में, चार सेर की एक तौल। आढ़क। १२. आज्ञा। आदेश। वि० [स्त्री० पात्री] जो किसी कार्य या पद के लिए उपयुक्त होने के कारण चुना या नियुक्त किया जा सकता हो। (एलिजिबुल)
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पात्रक  : पुं० [सं० पात्र+कन्] १. प्यारी, हाँड़ी आदि पात्र। २. भिखमंगों का भिक्षापात्र।
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पात्रट  : पुं० [सं० पात्र√अट्+अच्] १. पात्र। प्याला। २. फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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पात्रटीर  : पुं० [सं० पात्र√अट्+ईरन्] १. योग्य मंत्री या सचिव। २. चाँदी। ३. किसी धातु का बना हुआ बरतन। ४. अग्नि। ५. कौआ। ६. कंक (पक्षी)। ७. लोहे में लगनेवाला जंग या मोरचा। ८. नाक से बहनेवाला मल।
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पात्रता  : स्त्री० [सं० पात्र+तल्+टाप्] पात्र (अर्थात् किसी कार्य, पद, दान-दक्षिणा आदि का योग्य अधिकारी) होने की अवस्था, गुण और भाव।
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पात्रत्व  : पुं० [सं० पात्र+त्व] पात्रता।
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पात्र-दुष्ट-रस  : पुं० [सं० दुष्ट-रस, कर्म० स०, पात्र-दुष्ट-रस, स० त०] कविता में परस्पर विरोधी बातें कहने का एक दोष। (कवि केशवदास)
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पात्र-पाल  : पुं० [सं० पात्र√पाल्+णिच्+अण्] १. तराजू की डंडी। २. पतवार।
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पात्रभृत्  : पुं० [सं० पात्र√भृ (धारण करना)+क्विप्] बरतन माँजने-धोनेवाला नौकर
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पात्र-वर्ग  : पुं० [ष० त०] १. किसी साहित्यिक रचना के कुल पात्र। २. अभिनय करनेवालों का समूह।
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पात्र-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बरतन माँजने-धोने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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पात्र-शेष  : पुं० [स० त०] बरतनों में छोड़ा जानेवाला उच्छिष्ट या जूठा भोजन। जूठन।
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पात्रासादन  : पुं० [सं० पात्र-आसादन, ष० त०] यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना।
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पात्रिक  : वि० [सं० पात्र+ष्ठन्—इक] जो पात्र (आढ़क नामक तौल) से तौला या मापा गया हो। पुं० [स्त्री० अल्पा० पात्रिका] छोटा पात्र या बरतन।
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पात्रिकी  : स्त्री० [सं० पात्रिक+ङीष्] १. छोटा पात्र। २. थाली।
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पात्रिय  : वि० [सं० पात्र+घ—इय] [पात्र+यत्] जिसका साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके। सहभोजी।
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पात्री (त्रिन्)  : वि०, पुं० [सं० पात्र+इनि] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य पात्र या अधिकारी व्यक्ति हो। स्त्री० पात्र का स्त्री रूप। (दे० ‘पात्र’) २. छोटा पात्र या बरतन। ३. एक प्रकार की अँगीठी या छोटी भट्ठी। ४. साहित्यिक रचना का कोई स्त्री पात्र। ५. नाटक आदि में अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री।
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पात्रीय  : वि० [सं० पात्र+छ—ईय] पात्र-संबंधी। पात्र का। पुं० एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पात्रीर  : पुं० [सं० पात्री√रा (देना)+क] वह पदार्थ जिसकी यज्ञ आदि में आहुति दी जाती हो।
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पात्रे-बहुल  : वि० [सं० अलुक् स०] दूसरों का दिया हुआ भोजन करनेवाला। परान्न-भोजी।
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पात्रे-समिति  : वि० [सं० अलुक् स०] पात्रेबहुल। (दे०)
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पात्रोपकरण  : पुं० [सं० पात्र-उपकरण, ष० त०] अलंकरण के छोटे-मोटे साधन।
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पात्र्य  : वि० [सं० पात्र+यत्] जिसके साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके।
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पाथ  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा)+थ] १. जल। २. सूर्य। ३. अग्नि। ४. अन्न। ५. आकाश। ६. वायु। पुं०=पथ (मार्ग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथना  : स० [सं० प्रथन या थापना का वर्ण-विपर्यय] १. गीली मिट्टी, ताजे गोबर आदि को थपथपाते हुए या साँचों में ढालकर छोटे छोटे पिंड बनाना। २. मारना-पीटना।
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पाथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथ-निधि  : पुं० [ष० त०] दे० ‘पाथौनिधि’।
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पाथर  : पुं०=पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथरण  : पुं० [सं० प्रस्तरण, प्रा० पत्थरण] बिछौना। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथ-राशि  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथस्  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा)+असुन्, थुक्] १. जल। २. अन्न। ३. आकाश।
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पाथस्पति  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण।
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पाथा  : पुं० [सं० प्रस्थ] १. एक तौल जो कच्चे चार सेर की होती है। २. उतनी भूमि जितनी में उक्त मान का अन्न बोया जा सके। ३. अनाज नापने का एक प्रकार का बड़ा टोकरा। ४. हल की खोंपी जिसमें फाल जड़ा रहता है। पुं० [?] १. कोल्हू हाँकनेवाला व्यक्ति। २. अनाज में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। पुं० दे० ‘पाटा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथी (थिस्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+इसिन्, थुक्] १. समुद्र। २. आँख। ३. घाव पर का खुरंड या पपड़ी। ४. दूध, मट्ठे का वह मिश्रण जिससे प्राचीन काल में पितृ-तर्पण किया जाता था।
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पाथी  : पुं० [हिं० पथ] पथिक। बटोही। मुहा०—पाथी होना=कहीं से चुपचार चल देना। चलते बनना। उदा०—साथी पाथी भये जाग अजहूँ निसि बीती।—दीन दयाल गिरि।
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पाथेय  : वि० [सं० पथिन्+ढञ्—एय] पथ-संबंधी। पथ का। पुं० १. वे खाद्य पदार्थ जो यात्रा के समय यात्री रास्ते में खाने-पीने के लिए ले जाते हैं। रास्ते का भोजन। २. वह धन जो रास्ते के खर्च के लिए पास रखा जाता है। ३. वह साधन या सामग्री जिसकी आवश्यकता कोई काम करने के समय पड़ती हो और जिसमें उस काम में सहायता या सहारा मिलता हो। संवल। ४. कन्या राशि।
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पाथोज  : पुं० [सं० पाथस्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] कमल।
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पाथोव  : पुं० [सं० पाथस√दा (देना)+क] बादल। मेघ।
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पाथोवर  : पुं० [सं० पाथस्√धृ (धारण करना)+अच्] बादल। मेघ।
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पाथोधि  : पुं० [सं० पाथस्√धा+कि] समुद्र।
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पाथोन  : पुं० [यू० पथेपनस] कन्या राशि।
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पाथोनिधि  : पुं० [सं० पाथस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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पाथ्य  : वि० [सं० पाथस्+डयन] १. आकाश में रहनेवाला। २. हृदयाकाश में रहनेवाला। ३. वायु या हवा में रहनेवाला।
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पाद  : पुं० [सं०√पद् (गति)+घञ्] १. चरण। पैर। पाँव। २. किसी चीज का चौथाई भाग। चतुर्थांस। जैसे—चिकित्सा के चार पाद हैं। ३. छंद, श्लोक, आदि का चौथाई भाग जो एक चरण या पाद के रूप में होता है। ४. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र या वृत्त का चौथाई अंश। (क्वाड्रेन्ट) ५. कोई ऐसी चीज जिसके आधार पर कोई दूसरी चोख खड़ी या ठहरी हो। ६. किसी वस्तु का नीचेवाला भाग। तल। जैसे—पर्वत या वृक्ष का पाद भाग। ७. ग्रंथ या पुस्तक का कोई विशिष्ट अंश। खंड या भाग। ८. किसी बड़े पर्वत के पास का कोई छोटा पर्वत। ९. किरण। रश्मि। १॰. चलने की क्रिया या भाव। गति। गमन। ११. शिव। पुं० [सं० पर्द] मलद्वार से निकलनेवाली वायु। अपानवायु।
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पादक  : वि० [सं० √पद्+ण्वुल्—अक] १. जो खूब चलता हो। चलनेवाला। २. किसी चीज का चौथाई अंश। पुं० छोटा पैर।
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पाद-कटक  : पुं० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कमल  : पुं० [कर्म० स०] चरण-कमल।
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पाद-कीलिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कृच्छ  : पुं० [ष० त०] प्रायश्चित्त करने के लिए चार दिन तक रखा जानेवाला एक तरह का व्रत।
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पादक्रमिक  : वि० [सं० पद-क्रम, ष० त०,+ठक्—इक] वेदों का पदक्रम जानने या पढ़नेवाला।
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पाद-क्षेप  : पुं० [ष० त०] चलने के समय पैर रखना। चलना।
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पाद-गंडीर  : पुं० [सं० पाद-गण्डि+ई, ष० त०,+र] फीलपाँव या श्लोपद नामक रोग।
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पाद-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] टखना।
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पाद-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] पैर छूकर प्रणाम करने का एक प्रकार।
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पाद-चतुर  : वि० [स० त०] निंदा करनेवाला। पुं० १. बकरा। २. पीपल का पेड़। ३. बालू का भीटा। ४. ओला।
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पादचत्वर  : वि०, पुं० [सं०] पाद-चतुर।
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पादचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाद√चर् (गति)+णिनि] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला। पुं० प्यादा।
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पादज  : वि० [सं० पाद√जन्+ड] जो पैरों से उत्पन्न हुआ हो। पुं० शूद्र।
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पाद-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह जल जिसमें किसी के पैर धोए गये हों। चरणोदक। २. मट्ठा जिसमें चौथाई अंश पानी मिला हो।
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पादजाह  : पुं० [सं० पाद+जाहच्] १. पैर की एड़ी। २. पैर का तलवा। ३. टखना। ४. वह भूमि जहाँ पहाड़ शुरु होता है। ५. चरणों का सान्निध्य।
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पाद-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह टिप्पणी जो किसी ग्रंथ में पृष्ठ के निचले भाग में सूचना, निर्देश के लिए लिखी गई हो। तल-टीप। (फुटनोट)
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पाद-टीका  : स्त्री०=पाद-टिप्पणी। (दे०)
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पाद-तल  : पुं० [ष० त०] पैर का तलवा।
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पादत्र  : पुं० [सं० पाद√त्रा (रक्षा)+क] पाद-त्राण।
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पाद-त्राण  : वि० [ब० स०] पैरों की रक्षा करनेवाला। पुं० पैरों की रक्षा के लिए पहनी जानेवाली चीज। जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पाद-त्रान  : पुं०=पाद-त्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाद-दलित  : वि० [तृ० त०] पाद-दलित।
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पाद-दारिका  : स्त्री० [ष० त०] बिवाई (रोग)।
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पाद-दाह  : पुं० [सं० पाद√दह् (जलाना)+अण्] १. वात रोग के कारण पैर में होनेवाली जलन। २. उक्त जलन पैदा करनेवाला वात रोग।
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पाद-धावन  : पुं० [ष० त०] १. पैर धोने की क्रिया। २. वह बालू या मिट्टी जिससे मलकर पैर धोते हैं।
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पाद-धावनिका  : स्त्री० [ष० त०] वह बालू जिससे पैर रगड़कर धोये जाते हैं।
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पाद-नख  : पुं० [ष० त०] पैरों की उँगलियों के नाखून।
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पादना  : अ० [हिं० पाद] १. मलद्वार से वायु विशेषतः शब्द करती हुई वायु निकालना। २. खेल में, विपक्षी द्वारा अधिक दौड़ाया, भगाया तथा परेशान किया जाना।
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पाद-नालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-निकेत  : पुं० [ष० त०] पैर रखने की छोटी चौकी। पाद-पीठि।
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पाद-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. बराबर पैर रखते हुए चलना। २. नाचना।
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पाद-पंकज  : पुं० [उपमि० स०] चरण-कमल।
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पादप  : पुं० [सं० पाद√पा (पीना)+क] १. वृक्ष। पेड़। २. पाद निकेत। पाद पीठ।
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पादप-खंड  : पुं० [ष० त०] १. वृक्षों का समूह। २. जंगल। वन।
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पाद-पथ  : पुं० [ष० त०] पैदल चलने का छोटा और सँकरा मार्ग। पैदल का रास्ता, जिस पर सवारी न जा सकती हो। (फुटपाथ)
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पाद-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] १. रास्ता। २. पगडंडी।
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पादपा  : स्त्री० [सं० पाद√पा (रक्षा करना)+क+टाप्] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-पाश  : पुं० [ष० त०] १. वह रस्सी जिससे घोड़ों के पिछले दोनों पैर बाँधे जाते हैं। पिछाड़ी। २. नूपुर।
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पादपाशी  : स्त्री० [सं० पादपाश+ङीष्] १. पैर में बाँधने की जंजीर या सिकड़ी। २. बेड़ी। ३. एक लता।
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पाद-पीठि  : पुं० [ष० त०] वह पीढ़ा या छोटी चौकी जिस पर ऊँचे आसन पर बैठनेवाले पैर रखकर बैठते हैं। (पेडस्टल)
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पाद-पीठिका  : स्त्री० [ष० त०] १. नाई का पेशा। २. सफेद पत्थर।
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पाद-पूरण  : पुं० [ष० त०] १. किसी श्लोक या पद के किसी चरण को पूरा करना। पादपूर्ति। २. वह अक्षर या शब्द जिससे किसी श्लोक या पद की पूर्ति होती है।
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पाद-पूर्ति  : स्त्री० [ष० त०] कविता में, छंद का चरण पूरा करने के लिए उसमें कोई अक्षर या शब्द जोड़ना या बढ़ाना। चरणपूर्ति।
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पाद-प्रक्षालन  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-प्रणाम  : पुं० [स० त०] साष्टांग दंडवत्। पाँव पड़ना।
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पाद-प्रतिष्ठान  : पुं० [ष० त०] पाद-पीठ। (दे०)
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पाद-प्रधारण  : पुं० [ब० स०] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-प्रसारण  : पुं० [ष० त०] पैर फैलाने की क्रिया या भाव।
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पाद-प्रहार  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात या प्रहार। लात मारना। ठोकर मारना।
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पाद-बंध  : पुं० [ष० त०] १. कैदियों, पशुओं आदि के पैरों में बाँदी जानेवाली जंजीर। २. बेड़ी।
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पाद-बंधन  : पुं० [ष० त०] पाद-बंध।
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पाद-भट  : पुं० [मध्य० स०] पैदल सिपाही। प्यादा।
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पाद-भाग  : पुं० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. चौथा हिस्सा। चौथाई।
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पाद-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-चिह्न।
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पाद-मूल  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. पर्वत की तराई।
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पादरक्ष (क)  : पुं० [सं० पाद√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्; पाद-रक्षक, ष० त०] वह जिससे पैरों की रक्षा की जाय। जैसे—जूता, खड़ाऊँ आदि।
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पाद-रज (जस्)  : स्त्री० [ष० त०] चरण-धूलि।
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पाद-रज्जु  : स्त्री० [ष० त०] वह रस्सी या सिक्कड़ जिससे पर, विशेषतः हाथी के पैर बाँधे जाते हैं।
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पादरथी  : स्त्री० [सं० रथ+ङीष्, पाद-रथी, ष० त०] खड़ाऊँ।
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पादरी  : पुं० [पुर्त्त० पैड्रे] मसीही धर्मावलंबियों का धर्मगुरु या पुरोहित।
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पादरोह, पादरोहण  : पुं० [सं० पाद√रुह् (उत्पत्ति)+अच्] [सं० पाद√रुह्+ल्यु—अन] बड़ का पेड़।
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पाद-लग्न  : वि० [स० त०] जो पैरों से आ लगा हो; अर्थात् शरण में आया हुआ।
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पाद-लेप  : पुं० [ष० त०] पैरों में किया जानेवाला आलते, महावर आदि का लेप।
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पाद-वंदन  : पुं० [ष० त०] १. पैर पकड़कर प्रणाम करना। २. चरणों की पूजा, सेवा या स्तुति।
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पाद-वाल्मीक  : पुं० [स० त०] फीलपाँव (रोग)।
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पादविंदु  : पुं० [सं०]=अधःस्वस्तिक।
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पादविक  : पुं० [सं० पदवी+ठक्—इक] पथिक।
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पाद-वेष्टनिक  : पुं० [ष० त०] पाताबा। मोजा।
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पाद-शब्द  : पुं० [ष० त०] किसी के चलने से पहलेवाला शब्द। पैर की आहट।
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पाद-शाखा  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर की उँगली। २. पैर की नोक।
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पादशाह  : पुं० [फा०] [भाव० पादशाही] पादशाह। सम्राट्।
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पादशाहजादा  : पुं० [फा०] बादशाहजादा। महाराजकुमार।
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पादशाही  : वि० [फा०] बादशाह का। स्त्री० १. राज्य। शासन।
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पादशिष्ट-जल  : पुं० [सं० पाद-शिष्ट, तृ० त०; पादशिष्ट-जल, कर्म० स०] ऐसा जल जो औटाकर चौथाई कर लिया गया हो। (वैद्यक)
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पादशुश्रूषा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-सेवा। पैर दबाना।
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पाद-शैल  : पुं० [मध्य० स०] बड़े पहाड़ के नीचे या पास का कोई छोटा पहाड़।
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पाद-शोथ  : पुं० [ष० त०] १. पैर में होनेवाली सूजन। २. पैरों में सूजन होने का रोग। फीलपाँव।
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पाद-शौच  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-श्लाका  : स्त्री० [ष० त०] पैर की नली।
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पाद-सेवन  : पुं०=पाद-सेवा।
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पाद-सेवा  : स्त्री० [ष० त०] चरण दबाना।
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पाद-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह लकड़ी जो किसी चीज को गिरने से रोकने के लिए उसके नीचे लगाई जाती है।
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पाद-स्ठोट  : पुं० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार ग्यारह प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक।
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पाद-स्वेदन  : पुं० [ष० त०] पैरों में विशेषतः पैरों के तलवों में पसीना आना।
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पाद-हत  : भू० कृ० [तृ० त०] जिस पर पैर का आघात किया गया हो। जिसे पैर से मारा गया हो।
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पाद-हर्ष  : पुं० [ष० त०] एक वात रोग जिसमें पैरों में झुनझुनी होती है।
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पाद-हीन  : वि० [तृ० त०] १. पाद या पैर से रहित। २. जिसका चौथा चरण न हो।
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पादांक  : पुं० [सं० पाद-अंक, ष० त०] पद-चिह्न।
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पादांकुलक  : पुं० दे० ‘पादाकुलक’।
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पादांगद  : पुं० [सं० पाद-अंगद, ष० त०] नूपुर।
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पादांगुलि (ली)  : स्त्री० [पाद-अंगुली, ष० त०] पैर की उँगली।
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पादांगुष्ठ  : पु० [सं० पाद-अंगुष्ठ, ष० त०] पैर का अँगूठा।
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पादांत  : पुं० [सं० पाद-अंत, ष० त०] पद का अंतिम भाग।
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पादांतस्थित  : वि० [सं० पादांत-स्थित स० त०] पद के अन्त में होनेवाला।
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पादांबु  : पुं० [सं० पाद-अंबु, मध्य० स०] १. पैरों के धोने पर निकला हुआ जल। २. [ब० स०] मट्ठा।
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पादांभ (स्)  : पुं० [सं० पाद अंभस्, मध्य० स०] पैर धोने का जल।
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पादाकुल  : पुं०=पादाकुलक।
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पादाकुलक  : पुं० [सं० पाद-आकुल, तृ० त०,+कन्] एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। विशेष—भानु कवि के मत से वह छंद पादाकुलक कहलाता है जिसके प्रत्येक चरण में चार चौकल हों। यथा—गुरु-पद मृदु रज मंजुल अंजन नयन अमिय दृग दोष विभंजन।—तुलसी। परन्तु अन्य आचार्यों के मत में १६ मात्राओंवाले सभी छंद पादाकुलक कहलाते हैं। परन्तु उनके आरंभ में द्विकल अवश्य होना चाहिए; पर त्रिकल कभी नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से अटिल्ल, डिल्ला और पद्धति या छंद भी पादाकुलक वर्ग में आ जाते हैं। ऐसे छंदों की चाल त्रोटक वृत्त की चाल से मिलती-जुलती होती है।
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पादाक्रांत  : वि० [सं० पाद-आक्रांत, तृ० त०] पैरों से कुचला या रौंदा हुआ। पद-दलित।
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पादाग्र  : पुं० [सं० पाद-अग्र, ष० त०] पैर का अगला भाग।
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पादाघात  : पुं० [पाद-आघात, ष० त०] पैर से किया जानेवाला प्रहार। पाद-प्रहार।
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पादात  : पुं० [सं० पदाति+अण्] १. पैदल सिपाही। २. पैदल सेना।
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पादाति (क)  : पुं० [सं० पाद√अत् (गमन)+इण्] [पादाति+कन्] पैदल सिपाही।
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पादानत  : भू० कृ० [पाद-आनत, स० त०] पैरों पर झुका या पड़ा हुआ।
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पादा-नोन  : पुं० [देश०] काला नमक।
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पादाम्यंजन  : पुं० [पाद-अभ्यंजन, ष० त०] १. पैरों में को स्निग्ध पदार्थ मलन या रगड़ने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार रगड़ा जानेवाला स्निग्ध पदार्थ।
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पादायन  : पुं० [सं० पाद+फक्—आयन] पाद ऋषि का वंशज।
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पादारक  : पुं० [सं० पाद√ऋ (गति)+ण्वुल—अक] १. नाव के पार्श्वों में लंबाई के बल लगी हुई दोनों पटरियों में से हर एक जिस पर आरोही बैठते हैं। २. मस्तूल।
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पादारविंद  : पुं०=पदार्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पादारविंद  : पुं० [सं० पाद-अरविन्द, उपमि० स०] चरण रूपी कमल। चरण-कमल।
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पादार्पण  : पुं० [सं० ष० त०] =पदार्पण।
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पादालिंद  : पुं० [सं० पाद-अलिंद, ब० स०] [स्त्री० अल्पा० पादालिंदा, पादालिंदी] नाव। नौका।
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पादावर्त  : पुं० [सं० पाद-आ√वृत् (बरतना)+अच] पैरों से चलाया जानेवाला एक तरह का पुराना चक्र या यंत्र जिसके द्वारा कूएँ में से सिंचाई के लिए पानी निकाला जाता था।
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पादावसेचन  : पुं० [सं० पाद-अवसेचन, ष० त०] १. चरण धोना। २. पैर धोने का पानी।
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पादाविक  : पुं० [सं०=पादातिक, पृषो० साधु] पदल सिपाही। प्यादा।
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पादावृत्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, यमक अलंकार का एक भेद जिसमें पूरे पाद की आवृत्ति होती है। यथा—नंगन जड़ातीं ते वे नगड़ जड़ाती हैं।—भूषण।
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पादाष्ठील  : पुं० [सं०] पैर का टखना।
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पादासन  : पुं० [सं० पाद-आसन, ष० त०] वह आसन जिस पर पैर रखे जायँ। पाद-पीठ।
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पादाहत  : भू० कृ० [सं० पाद-आहत, तृ० त०] [भाव० पादाहति] जिसे पैर से ठोकर लगाई गई हो।
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पादाहति  : स्त्री० [तृ० त०] पैर से लगाई जानेवाली ठोकर।
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पादिक  : वि० [सं० पाद+ठक्—इक] जो किसी पूरी वस्तु या एक इकाई के चौथाई अंश के बराबर हो। पुं० १. किसी पुरी वस्तु या इकाई का चतुर्थांस। २. पादकृच्छ नामक व्रत।
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पादी (दिन्)  : वि० [सं० पाद+इनि] १. जिसे पाद या पैर हों। पैरोंवाला। २. चार चरणोंवाला। ३. चौथाई अंश का हिस्सेदार। पुं० पैरोंवाला कोई जीव। विशेषतः कछुआ, घड़ियाल मगर आदि। जल-जन्तु। २. चौथाई अंश का स्वामी या मालिक।
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पादीय  : वि० [सं० पाद+छ—ईय] १. पद या मर्यादावाला। २. किसी विशिष्ट पद या स्थान पर रहनेवाला। जैसे—कुमार-पादीय=कुमार पद पर प्रतिष्ठित।
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पादुक  : वि० [सं०√पद् (गति)+उकञ्] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला।
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पादुका  : स्त्री० [सं० पादु+क+टाप्, ह्रस्व] १. खड़ाऊँ। जूता। ३. पैरों में पहनने का कोई उपकरण। पदत्राण। (फूट वियर) जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पादू  : स्त्री० [सं० पद+ऊ, णित्व—चि वृद्धि] जूता। वि० [हिं० पादना] बहुत पादनेवाला। पदोड़ा।
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पादोदक  : पुं० [पाद-उदक, मध्य० स०] १. वह जल जिसमें पैर धोया गया हो। चरणोदक। २. चरणामृत।
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पादोदर  : वि० [सं० पाद-उदर, ब० स०] जिसके पैर उदर में अर्थात् अंदर हों। पुं० सर्प। साँप।
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पाद्म  : वि० [सं० पद्म] पद्म-सम्बन्धी। पद्म का।
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पाद्म-कल्प  : पुं० [कर्म० स०] पुराणानुसार वह महाकल्प जिसमें भगवान् की नाभि से वह पद्म या कमल निकला था, जिस पर ब्रह्मा अधिष्ठित थे।
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पाद्य  : वि० [सं० पाद+यत्] १. पाद (पैर, चरण आदि) से संबंध रखनेवाला। पाद का। २. पाद्य संबंधी। पाद्यात्मक। पुं० वह जल जिससे किसी आये हुए पूज्य व्यक्ति या देवता के पैर धोते हैं अथवा जिसे पैर धोने के लिए आदर-पूर्वक उनके आगे रखते हैं।
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पाद्य-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. पैर धोने के लिए जल देना। २. पूज्य या बड़े व्यक्तियों का कहीं पधारना। कहीं पदार्पण करना या जाना। (आदर-सूचक) जैसे—गुरु शिष्यों के घर पाद्य-दान।
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पाद्यार्घ  : पुं० [सं० पाद्य-अर्घ, कर्म० स०] १. पैर तथा हाथ धोने या धुलाने का जल। २. देव-पूजन की सामग्री। ३. पूजन, सत्कार आदि के अवसर पर दिया जानेवाला धन या सामग्री। नजर। भेंट। ४. प्राचीन काल में ब्राह्मण को दान रूप में दी हुई वह भूमि जिस पर राजकर नहीं लगता था। माफी।
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पाधर  : वि०=पाधरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाधरा  : वि० [?] १. अच्छा। बढ़िया। उदा०—धर बाँकी दिन पाधरा, मरद न मूकै माण।—प्रिथीराज। २. अनुकूल। ३. सम, सरल या सीधा।
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पाधा  : पुं० [सं० उपाध्याय] १. आचार्य। उपाध्याय। २. पुरोहित। ३. पंडित। ४. कर्म-कांड करानेवाले पंडित। ५. छोटे बच्चों को आरंभिक शिक्षा देनेवाला गुरु या पंडित। (पश्चिम)
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पान  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ल्युट्—अन्] १. तरल पदार्थ को चुस्की भरते हुए, चूसते हुए अथवा घूँट-घूँट करके पीने की क्रिया या भाव। जैसे—जल-पान, दुग्धपान, रक्त-पान, स्तन-पान आदि। २. मद्य या शराब पीना। ३. मद्य या शराब बनाने और बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार। ४. पीने का कोई तरल पदार्थ। ५. जल। पानी। ६. पौसरा। प्याऊ। ७. आब। चमक। ८. कटोरा, गिलास आदि जिसमें रखकर कोई तरल पदार्थ पीया जाता हो। ९. नहर। १॰. रक्षण। रक्षा। ११. निःश्वास। १२. जीत। विजय। पुं० [सं० पर्ण, प्रा० पण्ण; फा० पान] १. वृक्ष का पत्ता। उदा०—उपजे एकही खेत में, बोये एक किसान। होनहार बिरवान के होत चीकने पान। २. एक प्रसिद्ध पौधा या लता जिसके पत्तों पर कत्था, चूना लगाकर मुँह का स्वाद बदलने और उसे सुगंधित रखने के लिए गिलौरी या बीड़ा बनाकर खाते हैं। ताम्बूल। नागबेल। ३. लगा हुआ पान का पत्ता। गिलौरी। बीड़ा। पद—पान-इलायची=किसी सामाजिक आयोजन या समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों का पान-इलायची आदि से किया जानेवाला सत्कार। पान-पत्ता=(क) लगा या बना हुआ पान। (ख) तुच्छ उपहार या भेंट। पान-फूल=(क) सामान्य उपहार या भेंट। (ख) पान और फूलों की तरह बहुत ही कोमल या सुकुमार वस्तु। पान-सुपाड़ी (री)=दे० ऊपर ‘पान-इलायची’। मुहा०—पान उठाना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा उठाना’। पान कमाना=पान के पत्तों को पाल में रखकर पकाना, और बीच-बीच में उन्हें उलट-पलटकर देखते रहना और उनके सड़े-गले अंश काटते या निकालते रहना। (किसी को कुछ धन) पान खाने को देना=(क) घूस या रिश्वत देना। (ख) इनाम, पुरस्कार आदि के रूप में धन देना। पान खिलाना=कन्या पक्षवालों का विवाह के विषय वर पक्षवालों को वचन देना। पान चीरना=व्यर्थ का काम करना। ऐसा काम करना जिससे कोई लाभ न हो। पान देना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा देना’। पान फेरना=पाल में अथवा यों ही रखे हुए पानों को उलट-पलटकर देखना और उनके सड़-गले अंश काट या निकालकर अलग करना। पान बनाना=(क) पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि रखकर बीड़ा तैयार करना। गिलौरी बनाना। पान लगाना। (ख) दे० ऊपर ‘पान कमाना’। पान लगाना=दे० ऊपर ‘पान बनाना’। पान लेना=बीड़ा उठाना। (दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत) ४. पान नामक लता के पत्ते के आकार की कोई रचना जो प्रायः कई तरह के गहनों में शोभा के लिए जड़ी या लगी रहती है। ५. जूते में पान के आकार का चमड़े का वह टुकड़ा जड़ी के पीछे लगता है। पद—नोक-पान=(देखें ‘नोक’ के अन्तर्गत स्वतंत्र पद) ६. ताश के पत्तों पर बनी हुई पान के आकार की लाल रंग की बूटियाँ। ७. उक्त आकार तथा रंग की बनी हुई बूटियोंवाले पत्तों की सामूहिक संज्ञा। जैसे—उन्होंने पान रंग बोला है। ८. स्त्रियों की भग। योनि। पुं० [?] नाव खींचने की गून या रस्सी। (लश०) पुं० [?] सूत को माँड़ी से तर करके ताना कसने की क्रिया। (जुलाहे) पुं० १.=प्राण। २.=पाणि (हाथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानक  : पुं० [सं० पान+कन्] आम, इमली आदि के कच्चे फलों को भूनकर बनाया जानेवाला कुछ खट-मीठा पेय पदार्थ। पना। पन्ना।
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पान-गोष्ठी  : स्त्री० [च० त०] मित्रों की वह मंडली जो शराब पीने के लिए एकत्र हुई हो। (कॉकटेल पार्टी)
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पानडी  : स्त्री० [हिं० पान+ड़ी (प्रत्य०)] एक प्रकार की लता जिसकी सुगंधित पत्तियाँ प्रायः मीठे पेय पदार्थों तथा तेल और उबटन आदि में उन्हें सुगंधित करने के लिए डाली जाती हैं।
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पानदान  : पुं० [हिं० पान+फा० दान (प्रत्य०)] वह डिब्बा जिसमें पान की सामग्री—कत्था, सुपारी आदि रखी जाती है। पनडब्बा। पद—पानदान का खर्च=वह रकम जो बड़े घरों की स्त्रियों को पान तथा दूसरी निजी आवश्यकताओं के लिए दी जाती है। स्त्रियों का हाथ-खरच।
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पान-दोष  : पुं० [ष० त०] शराब पीने की लत या व्यसन।
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पानन  : पुं० [हिं० पान] मँझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई और उत्तर भारत में होता है।
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पानप  : पुं० [सं० पान√पा (पीना)+क] जिसे शराब पीने का व्यसन हो। मद्यप। शराबी।
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पान-पर  : वि० [स० त०] पानप। शराबी।
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पान-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. वह पात्र जिसमें मद्यपान किया जाता हो। २. कटोरा या गिलास जिसमें पानी पीते हैं।
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पान-बणिक (ज्)  : पुं० [ष० त०] मद्य बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार।
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पानभांड  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भोजन  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर लोग शराब पीते हैं। मद्यशाला।
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पान-भोजन  : पुं० [द्व० स०] १. खाना-पीना। २. पीना-खाना।
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पान-मंडल  : पुं०=पान-गोष्ठी।
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पान-मत्त  : वि० [तृ० त०] जो शराब पीकर नशे में चूर हो।
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पान-मद  : पुं० [ष० त०] शराब का नशा।
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पानरा  : पुं०=पनारा (पनाला)।
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पान-विभ्रम  : पुं० [तृ० त०] शराब का अत्यधिक सेवन करने के फलस्वरूप होनेवाला एक रोग जिसमें सिर में पीड़ा होती रहती है, कै और मतली आती है, और रोगी बीच-बीच में मूर्छित हो जाता है।
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पान-शौंड  : विं० [सं० त०] बहुत अधिक शराब पीनेवाला।
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पानस  : वि० [सं० पनस+अण्] पनस अर्थात् कटहल से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० वह शराब जो कटहल को सड़ाकर बनाई जाती थी।
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पानही  : स्त्री० [सं० उपानह]=पनही।
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पाना  : स० [सं० प्रायण, प्रा० पायण, पुं० हिं० पावना] १. ऐसी स्थिति में आना या होना कि कोई चीज अपने अधिकार, वश या हाथ में आवे या हो जाय। कोई चीज या बात प्राप्त करना। हासिल करना। जैसे—(क) तुमने ईश्वर के घर से अच्छा भाग्य पाया है। (ख) उन्होंने अपने पूर्वजों से अच्छी सम्पत्ति पाई थी। २. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी की दी या भेजी हुई चीज या और कुछ अपने तक पहुँच या मिल जाय। जैसे—(क) किसी का पत्र, संदेशा या समाचार पाना। (ख) पदक या पुरस्कार पाना। ३. आकस्मिक रूप से या अपने प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ प्राप्त या हस्तगत करना। जैसे—(क) कल मैंने सड़क पर पड़ा हुआ एक बटुआ पाया था। (ख) यह पुस्तक मैंने बहुत कठिनता से पायी थी। ४. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी चीज तक हाथ पहुँच सके। उदा०—मैं बालक बहिंयन को छोटो छींका केहि बिधि पायो।—सूर। ५. किसी प्रकार के ज्ञान, परिचय आदि की मानसिक उपलब्धि करना। जैसे—(क) मैंने उन्हें बहुत ही चतुर और योग्य पाया। (ख) विदेश में रहकर उन्होंने अच्छी शिक्षा पाई थी। ६. गूढ़ तत्त्व, भेद, रहस्य आदि की गहनता, विस्तार सीमा आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जानकारी हासिल करना। जैसे—(क) किसी के पांडित्य की थाह पाना। (ख) चोरी या चोरों का पता पाना। ७. अचानक सामना होने या सामने पहुँचने पर किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में देखना। जैसे—(क) मैंने लड़कों को गली में खेलते हुए पाया। (ख) उसने अपना खेत (या घर) उजड़ा हुआ पाया। ८. किसी प्रकार के परिणाम या फल के रूप में अधिकारी या भोक्ता बनना या बनने की स्थिति में होना। जैसे—(क) दुःख या सुख पाना। (ख) छुट्टी या सजा पाना। ९. ईश्वर अथवा देवता के प्रसाद के रूप में कोई खाद्य या पेय पदार्थ ग्रहण या प्राप्त करना। आदर-पूर्वक शिरोधार्य करके कुछ खाना या पीना। (भक्तों की परिभाषा) जैसे—मैं उनके यहाँ से भोजन पाकर आया हूँ। १॰. कोई काम या बात ठीक तरह से पूरी करने में समर्थ होना। कर सकना। जैसे—तुम उसे नहीं जीत पाओगे। ११. प्रतियोगिता आदि में किसी के तुल्य या समान हो सकना। जैसे—बराबरी कर सकना। जैसे—चालाकी (या दौड़) में तुम उसे नहीं पाओगे।
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पानागार  : पुं० [सं० पान-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बहुत से लोग मिलकर शराब पीते हों। शराब पीने की जगह।
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पानात्यय  : पुं० [सं० पान-अत्यय, तृ० त०] पान-विभ्रम। (दे०)
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पानि  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिक  : पुं० [सं० पान+ठक्—इक] वह जो शराब बनाता और बेचता हो। शौंडिक। कलवार।
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पानिग्रहण  : पुं०=पाणिग्रहण।
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पानिप  : पुं० [हिं० पानी+प (प्रत्य०)] १. ओप। द्युति। कांति। चमक। आब। २. शोभा। ३. पानी।
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पानि-पतंग  : पुं० [हिं० पानी+पतंगा] जल-भौंरा या भौंतुआ नाम का कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिय  : पुं०=पानी। उदा०—प्यासी तजौं तनु रूप सुधा बिनु, पानिय पी-कौ पपीहे पिआओ।—भारतेन्दु। वि०=पानीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] रक्षित होने के योग्य। (क्व०)
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पानिल  : पुं० [सं० पान+इलच्] पानपात्र।
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पानी  : पुं० [सं० पानीय] १. वह प्रसिद्ध निर्गंध पारदर्शी और पर्ण-हीन तरल या द्रव पदार्थ जो झील, नदियों, समुद्रों आदि में भरा रहता है। तथा बादलों से वर्षा के रूप में पृथ्वी पर बरसता है और जो नहाने-धोने, पीने, खेत सींचने आदि के काम में आता है। जल। विशेष—वायु के उपरांत जल या पानी जीव-जंतुओं वनस्पतियों आदि के पालन-पोषण तथा वर्धन के लिए सबसे अधिक आवश्यक है; इसलिए संस्कृत में इसे ‘जीवन’ भी कहते हैं। भारतीय दर्शन में इसकी गणना पंच महाभूतों में होती है; परन्तु आधुनिक रासायनिक अनुसंधान के अनुसार यह दो तिहाई हाइड्रोजन तथा एक तिहाई आक्सिजन का मिश्रण है। अधिक सरदी पड़ने पर यह जमकर बरफ बन जाता है। और अधिक ताप पाकर उबलने या खौलने लगता है अथवा भाप बनकर उड़ जाता है। वर्षा के प्रसंग में इसके साथ आना, गिरना, पड़ना, बरसना आदि जलाशयों के तल के विचार से उतरना, चढ़ना आदि और कूएँ के मूल सोते के विचार से आना, टूटना, निकलना आदि क्रियाओं का प्रयोग होती है। किसी तल के छोटे-छोटे छिद्रों से आने या निकलने के प्रसंग में इसके साथ आना चूना, छूटना, टपकना, निकलना, रसना आदि क्रियाएँ लगती हैं। किसी आधान में या स्थल पर एकत्रित राशि के संबंध में प्रसंग के अनुसार ठहरना, बहना, रुकना आदि क्रियाओं का भी प्रयोग होता है। कुछ अवस्थाओं में इसकी कोमलता, तरलता, शीतलता, सरसता आदि गुणों के आधार पर भी इसके कई मुहावरे बनते हैं। पद—पानी का आसरा=नाव की बारी पर लगा हुआ कुछ झुका हुआ वह तख्ता जिस पर छाजन की ओलती का पानी गिरता है। बारी। (लश०) पानी का बतासा=(क) बुलबुला। बुदबुद। (ख) दे० नीचे ‘पानी का बुलबुला’। पानी का बुलबुला=बुलबुले की तरह क्षण भर में नष्ट हो जानेवाला। क्षण-भंगुर। नाशवान्। विनाशशील। पानी की तरह पतला=(क) अत्यन्त तुच्छ या हीन। (ख) बहुत कम महत्त्व का। पानी की पोट=ऐसा पदार्थ जिसमें अधिकतर पानी ही पानी हो। जिसमें पानी के सिवा और तत्त्व बहुत कम हो। (ख) ऐसी तरकारियाँ, साग आदि जिनमें जलीय अंश बहुत अधिक हो। पानी के मोल=प्रायः उतना ही सस्ता जितना पीने का पानी होता है। बहुत अधिक सस्ता। पानी देना=वंशज जो पितरों को पानी देता अर्थात् उनता तर्पण करता है। पानी भर खाल=मनुष्य का क्षणभंगुर और सारहीन शरीर। पानी से पतला=(क) बहुत ही तुच्छ या हीन। (ख) बहुत ही सहज या सुगम। कच्चा पानी=ऐसा पानी जो औटाया या पकाया हुआ न हो। नरम पानी=(क) ऐसा पानी जिसके बहाव में अधिक वेग न हो। (ख) ऐसा पानी जिसमें खनिज तत्त्व अपेक्षया कम हों। पक्का पानी=औटाया, गरम किया या पकाया हुआ पानी। भारी पानी=वह पानी जिसमें खिनज पदार्थ अधिक मात्रा में मिले हों। हलका पानी=ऐसा पानी जिसमें खनिज पदार्थ बहुत थोड़े हों। नरम पानी। मुहा०—पानी काटना=(क) पानी की नाली या बाँध काट देना। एक नाली में से दूसरी में पानी ले जाना। (ख) तैरते समय हाथों से आगे का पानी हटाना। पानी चीरना। पानी की तरह बहाना=बहुत ही लापरवाही से और बहुत अधिक मात्रा या या मान में व्यय करना। जैसे—(क) उन्होंने लाखों रुपए पानी की तरह बहाँ दिए। (ख) युद्ध क्षेत्र में सैनिकों ने पानी की तरह खून बहाया। पानी के रेले में बहाना=दे० ऊपर ‘पानी की तरह बहाना’। पानी चढ़ाना=सिंचाई के काम के लि खेत तक पानी पहुँचाना। (किसी चीज पर) पानी चलाना=चौपट या नष्ट करना। (दे० ‘पानी फेरना’) पानी छानना=बच्चे को पहले-पहल माता निकलने के बाद तथा उसका जोर कम होने पर किया जानेवाला एक प्रकार का मांगलिक उपचार या टोटका जिसमें माता उसे बच्चे को इस प्रकार गोद में लेकर बैठती है कि भिगोये हुए चने का पानी जब बच्चे के सिर पर डाला जाता है, तब वह गिरकर माता की गोद में पड़ता है। (कहते हैं कि यह उपचार माता की गोद सदा भरी-पूरी रखने के लिए किया जाता है)। पानी छूना=मल-त्याग के उपरांत जल से गुदा को धोना। आबदस्त लेना। (ग्राम्य) पानी टूटना=कूएँ, ताल आदि में इतना कम पानी रह जाना कि काम में लाया या निकाला न जा सके। पानी तोड़ना=नाव खेने के समय डाँड़ या बल्ली से पानी चीरना या हटाना। पानी काटना। (मल्लाह)। पानी थामना=धार या प्रवाह के विरुद्ध नाव ले जाना। धार पर चढ़ाना। (लश०) (पशुओं को) पानी दिखाना=घोड़े, बैल आदि को पानी पिलाने के लिए उनके सामने पानी भरा बरतन रखना या उन्हें जलाशय तक ले जाना। पानी देना=(क) सींचने के लिए क्यारियों, खेतों आदि में पानी डालना। (ख) पितरों का तर्पण करना। पानी न माँगना=भीषण आघात लगने पर ऐसी स्थिति में आना या होना कि पीने के लिए पानी तक माँगने की शक्ति न रह जाय। पानी पढ़ना=मंत्र पढ़कर पानी फूँकना। जल अभिमंत्रित करना। पानी पर नींब (या बुनियाद) होना=बहुत ही अनिश्चित या दुर्बल आधार होना। पानी परोरना=दे० ऊपर ‘पानी छानना’। पानी पी पीकर=बार बार शक्ति संचित करके। जैसे—पानी पी पीकर किसी को कोसना। विशेष—बहुत अधिक बोलने से गला सूखने लगता है, जिसे तर करने के लिए बोलनेवाले को रह-रहकर पानी का घूँट पीना पड़ता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। (किसी चीज या बात पर) पानी फिरना या फिर जाना=पूरी तरह से चौपट, नष्ट या निरर्थक हो जाना। बिलकुल तत्वहीन या निःसार हो जाना। पानी फूँकना=खौलते हुए पानी में उबाल आना। (किसी चीज या बात पर) पानी फेरना या फेर देना। (क) पूरी तरह नष्ट या चौपट करना। (ख) सारा किया-धरा विफल या व्यर्थ कर देना। जैसे—जरा सी भूल से तुमने मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया। पानी बराना=(क) छोटी नालियाँ बनाकर और क्यारियाँ काटकर खेत सींचना। (ख) ऐसी व्यवस्था करना जिसमें नालियों का पानी इधर-उधर बहने न पावे। (किसी का किसी के सामने) पानी भरना=किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ या हीन सिद्ध होना। उदा०—फूले शफक तो जर्द हों गालों के सामने। पानी भरे घटा तेरे बालों के सामने।—कोई शायर। (कहीं) पानी मरना=किसी स्थान पर पानी का एकत्र होकर सोखा जाना या किसी संधि में प्रविष्ट होकर वास्तु-रचना को हानि पहुँचाना। जैसे—इस दरज से छत (या दीवार) में पानी भरता है। (किसी के सिर) पानी मरना=किसी का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उस पर किसी प्रकार का आक्षेप, आरोप या कलंक हो या लग सके या उसे किसी बात से लज्जित होना पड़े। पानी में आग लगाना=(क) असंभव बात संभव कर दिखलाना। (ख) जहाँ लड़ाई-झगड़े की कोई संभावना न हो, वहाँ भी लड़ाई-झगड़ा खड़ा कर देना। पानी में फेंकना या बहाना=व्यर्थ नष्ट या बरबाद करना। (कहीं) पानी लगना=किसी स्थान पर पानी इकट्ठा होना। पानी जमा होना। (दाँतों में) पानी लगना=पानी की ठंढक से दाँतों में टीस होना। पानी लेना=दे० ऊपर ‘पानी छूना’। पानी सिर से (या पैर से) गुजरना=दे० ‘सिर’ के अंतर्ग०। पानी से पहले पाड़, पुल या बाँध बाँधना=किसी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न होने पर भी केवल आशंकावश बचाव का प्रयत्न या प्रयास करना। गले गले पानी में=लाख कठिनाइयाँ होने पर भी। जैसे—तुम्हारा रुपया तो हम गले गले पानी में भी चुका देंगे। विशेष—बाढ़ आने पर आदमी का धड़ डूबता है और गले तक पानी आता है तब मृत्यु या विनाश समीप दिखाई देता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। २. उक्त तत्त्व का कोई ऐसा रूप जो किसी दूसरे पदार्थ में से आपसे आप या उबालने आदि पर निकला हो या उस पदार्थ के अंश से युक्त हो। जैसे—दही या नारियल का पानी, चूने या नमक का पानी, दाल या नीम का पानी। क्रि० प्र०—आना।—निकलना।—रसना। मुहा०—(किसी वस्तु का) पानी छोड़ना=किसी चीज में से थोड़ा-थोड़ा पानी या और कोई तरल पदार्थ रस-रसकर निकलना। जैसे—पकाने पर किसी तरकारी का पानी छोड़ना। ३. किसी विशिष्ट प्रकार के गुण या तत्त्व से युक्त किया हुआ कोई ऐसा तरल पदार्थ जिसके योग से किसी दूसरी चीज में कोई गुण या तत्त्व सम्मिलित किया जाता है अथवा किसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। जैसे—जहर का पानी, मुलम्मे का पानी। पद—खारा पानी=सोडा मिला हुआ वह पानी जो बंद बोतलों में पीने के लिए बिकता है। मीठा पानी=उक्त प्रकार का वह पानी जिसमें नींबू आदि का सत्त मिला रहता है। विलायती पानी=यंत्र की सहायता से और वाष्प के जोर से बोतलों में भरा हुआ पानी जो सम्मिश्रण, स्वाद आदि के विचार से अनेक प्रकार का होता है। मुहा०—(किसी चीज पर) पानी चढ़ाना, देना या फेरना=किसी तरल पदार्थ या घोल के योग से किसी वस्तु में चमक लाना। ओप लाना। जिला करना। जैसे—चाँदी की अँगूठी पर सोने का पानी चढ़ाना। (किसी चीज से) पानी बुझाना=ईंट, धातु-खंड या ऐसी ही और कोई चीज आग में अच्छी तरह तपाकर और लाल करके इसलिए तुरंत पानी में डालना कि उसका कुछ गुण या प्रभाव पानी में आ जाय। (चिकित्सा आदि के प्रसंग में ऐसे पानी का उपयोग होता है।) (कोई चीज किसी) पानी में बुझाना=किसी विशिष्ट क्रिया से तैयार किये हुए पानी में कोई चीज गरम करके इसलिए डालना कि उस चीज में उस पानी का कोई विशिष्ट गुण या प्रभाव आ जाय। जैसे—जहर के पानी से तलवार बुझाना। ४. उक्त के आधार पर काट करनेवाली चमकदार और बढ़िया तलवार या ऐसा ही और कोई बड़ा अस्त्र। ५. किसी प्रकार की प्रक्रिया में हरबार होनेवाला पानी का उपयोग या प्रयोग। जैसे—(क) तीन पानी का गेहूँ अर्थात् ऐसा गेहूँ जिसकी फसल तीन बार सींची गई हो। (ख) कपड़ों की दो पानी की धुलाई; अर्थात् दो बार धोया जाना। ६. आकाश से जल की होनेवाली वृष्टि। वर्षा। मेह। क्रि० प्र०—आना।—गिरना।—पड़ना।—बरसना। मुहा०—पानी उठना =आकाश में घटाओं या बादलों का आकर छाना जो वर्षा का सूचक होता है। पानी टूटना=लगातार होनेवाली वर्षा बन्द होना या रुकना। पानी बाँधना=जादू या टोना-टोटका करके बरसते या बहते हुए पानी की धार रोकना। ७. प्रतिवर्ष होनेवाली वर्षा के विचार से, पूरे एक वर्ष का समय। जैसे—अभी तो यह पेड़ तीन ही पानी का है; अर्थात् इसने तीन ही बरसातें देखी हैं, या यह तीन ही वर्ष का पुराना है। ८. उक्त के आधार पर कोई काम एक बार या हर बार होने की क्रिया या भाव। दफा। जैसे—(क) वहाँ मुसलमानों और राजपूतों में कई पानी भिडंत हुई थी। (ख) दोनों में एक पानी कुश्ती हो तो अभी फैसला हो जाय। ९. शरीर के किसी अंग के क्षत में से विकार आदि के रूप में निकलने रसनेवाला तरल अंश या पदार्थ। जैसे—आँख या नाक से पानी जाना। मुहा०—पानी उतरना=आँतों या पेट का पानी उतर कर नीचे अंडकोश में आना और एकत्र होना जो एक प्रकार का रोग है। १॰. किसी स्थान का जल-वायु अथवा प्राकृतिक या सामाजिक परिस्थिति जिसका प्रभाव प्राणियों के शारीरिक स्वास्थ्य अथवा आचार-विचार, रहन-सहन आदि पर पड़ता है। जैसे—अच्छे पानी का घोड़ा। पद—कड़ा पानी=ऐसा जलवायु जिसमें उत्पन्न या पले हुए प्राणी ढीले और निर्बल होते हैं। मुहा०—(किसी व्यक्ति को कहीं का) पानी लगना=(क) किसी स्थान के जलवायु का शरीर पर दूषित या हानिकारक परिणाम या प्रभाव होना। जैसे—(क) जब से उन्हें पहाड़ का पानी लगा है, तब से वे बराबर बीमार ही रहते हैं। (ख) कहीं के दूषित वातावरण या परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना। जैसे—देहात से आते ही तुम्हें शहर का पानी लगा। ११. वह जो पानी की तरह कोमल, गीला, ठंडा, नरम या सरस हो। जैसे—तुमने आटा क्या गूँधा है, बिलकुल पानी कर दिया है। मुहा०—(काम को) पानी करना=बहुत ही सरल, सहज, साध्य या सुगम कर डालना। जैसे—मैंने इस काम को पानी कर दिया। (किसी व्यक्ति को) पानी करना या कर देना=कठोरता, क्रोध आदि दूर करके शांत या सरस कर देना। (किसी व्यक्ति को) पानी पानी करना=अत्यन्त लज्जित करना। (किसी का) पानीपानी होना=(क) मन की कठोर वृत्ति का सहसा बदलकर बहुत ही कोमल हो जाना। (ख) किसी घटना या बात के प्रभाव या फल से बहुत ही लज्जित होना। (किसी का) पानी होना या हो जाना=उग्रता, क्रोध आदि का पूरी तरह से शमन होना; और उसके स्थान पर दया, नम्रता आदि का आविर्भाव होना। १२. पानी की तरह फीका या स्वादहीन पदार्थ। जैसे—दूध क्या है, निरा पानी है। १३. मद्य। शराब। (बोल-चाल) पद—गरम पानी=शराब। १४. पुरुष का वीर्य या शुक्र। मुहा०—पानी गिराना=स्त्री के साथ उदासीनता या उपेक्षापूर्वक अथवा विशिष्ट सुख का बिना अनुभव किये यों ही मैथुन या संभोग करना। (बाजारू) १५. पुरुषत्व, मान-प्रतिष्ठा आदि के विचार से मनुष्य में होनेवाला अभिमान, वीरता या ऐसा ही और कोई तत्त्व या भावना। जैसे—ऐसा आदमी किस काम का जिसमें कुछ भी पानी न हो। १६. मान। प्रतिष्ठा। इज्जत। आबरू। क्रि० प्र०—जाना।—बचाना।—रखना।—रहना। पद—पत-पानी=प्रतिष्ठा और सम्मान। इज्जत-आबरू। मुहा०—(किसी का) पानी उतारना या उतार लेना=अपमानित करना। इज्जत उतारना। (किसी को) बे-पानी करना=अपमानित या अप्रतिष्ठित करना। १७. किसी पदार्थ का वह गुण या तत्त्व जिसके फल-स्वरूप उसमें किसी तरह की आभा, चमक या पारदर्शकता आती हो। जैसे—मोती या हीरे का पानी। वि० [?] बहुत सरल और सुगम। उदा०—गुलिस्ताँ के बाद फारसी की और किताबें पानी हो गई थीं।—मिरजा रुसवा (उमराव जान में)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी आँवला  : पुं० [सं० पानीयामलक] आँवले की तरह का एक क्षुप जो जलाशयों के किनारे होता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी आलू  : पुं० [सं० पानीयालु] जलाशय के किनारे होनेवाला एक प्रकार का कंद। जलालु।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी-कल  : पुं०=जल-कल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानी-तराश  : पुं० [हिं० पानी+तराशना] जहाज या नाव के पेदें में वह बड़ी लकड़ी जिससे वह पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पानीदार  : वि० [हिं० पानी+फा० दार (प्रत्य०)] १. जिसमें पानी अर्थात् आभा या चमक हो। जैसे—पानीदार हीरा। २. (धातु का कोई उपकरण) जिस पर किसी रासायनिक प्रक्रिया से चमक लाने के लिए किसी तरह का पानी चढ़ाया गया हो। जैसे—पानीदार तलवार। ३. (व्यक्ति) जिसे अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि का पूरा-पूरा ध्यान हो। अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि पर आँच न आने देनेवाला। स्वाभिमानी।
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पानी-देवा  : वि० [हिं० पानी+देवा=देनेवाला] पितरों को पानी देने अर्थात् उनका तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध आदि करनेवाला, फलतः वंशज या संतान। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. अपने कुल या वंश का व्यक्ति।
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पानीपत  : पुं० [हिं०] १. दिल्ली से ५५ मील उत्तर की ओर स्थित एक प्रसिद्ध नगर। २. उक्त नगर के समीप स्थित एक प्रसिद्ध क्षेत्र या बहुत बड़ा मैदान जहाँ अनेक बड़े-बड़े युद्ध हो चुके हैं।
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पानीफल  : पुं० [हिं० पानी+फल] सिंघाड़ा (फल)।
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पानीवेल  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की लता जो प्रायः साल के जंगलों में पाई जाती और गरमी में फूलती तथा बरसात में फलती है। इसके फल खाये जाते हैं और जड़ दवा के काम आती है।
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पानीय  : विं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+अनीयर्] १. जो पीया जा सके अथवा जो पिये जाने के योग्य हो। २. जिसकी रक्षा की जा सके या जिसकी रक्षा करना आवश्यक अथवा उचित हो। पुं० कोई ऐसा तरल स्वादिष्ट पदार्थ जो पीने के काम में आता हो। (ड्रिंक, बीवरेज)
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पानीय-चूर्णिका  : स्त्री० [ष० त०] बालू। रेत।
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पानीय-नकुल  : पुं० [स० त०] पानी में रहनेवाला नेवला अर्थात् ऊदबिलाव।
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पानीय-पृष्ठज  : पुं० [सं० पानीय-पृष्ठ, ष० त०,√जन्+ड] जलकुम्भी नामक पौधा।
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पानीय-फल  : पुं० [ष० त०] मखाना।
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पानीय-मूलक  : पुं० [ब० स०, कप्] बकुची।
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पानीय-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ सार्वजनिक रूप से राह-चलनेवालों को पानी पिलाने की व्यवस्था हो। पौसरा। प्याऊ।
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पानीय शालिका  : स्त्री० [ष० त०] पानीय-शाला।
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पानीयामलक  : पुं० [सं० पानीय-आमलक, मध्य० स०] पानी आँवला।
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पानीयालु  : पुं० [सं० पानीय-आलु, मध्य० स०] पानी आलू नामक कंद। जलालु।
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पानीयाश्ना  : स्त्री० [सं० पानीय√अश् (खाना)+न+टाप्] एक प्रकार की घास। बल्वजा।
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पानूस  : पुं०=फानूस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानौरा  : पुं० [हिं० पान+बरा] [स्त्री० अल्पा० पानौरी] पीठी, बेसन आदि से लपेट कर तला हुआ पान के पत्ते का पकौड़ा।
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पान्यो  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पान्हर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सरपत।
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पाप  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+प] [वि० पापी] १. धर्म और नीति के विरुद्ध किया जानेवाला ऐसा निंदनीय आचरण या काम जो इस लोक में भी और पर-लोक में भी सब तरह से बुरा और हानिकारक हो और जिसके फलस्वरूप मनुष्य को नरक भोगना पड़ता हो। ‘पुण्य’ का विपर्याय। गुनाह। विशेष—हमारे यहाँ पाप का क्षेत्र दुष्कर्मों की तुलना में बहुत विस्तृत माना गया है। धर्म-शास्त्रों के अनुसार दुष्कर्म करना तो पाप है ही, उचित और कर्त्तव्य कर्म न करना भी पाप माना गया है। साधारणतः दुष्कर्मों का फल जो इसी लोक में मिलता है; पर पाप के फलस्वरूप मनुष्य को मरने के बाद भी नरक में रहकर उसका दंड भोगना पड़ता है। यह कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार का माना गया है। पापों के फल-भोग से बचने के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है। पद—पाप की गठरी या मोट=किसी व्यक्ति के जन्म भर के सब पाप। मुहा०—पाप काटना=पापों के दुष्परिणामों या प्रभाव का प्रायश्चित्त करना या दंड-भोग से क्षीण या नष्ट होना। पाप कमाना=ऐसे दुष्कर्म करना जो पाप समझे जाते हों और जितना फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़े। पाप काटना=किसी प्रकार पापों के दुष्परिणामों का अंत या नाश करना। पाप बटोरना=दे० ऊपर ‘पाप कमाना’। २. पूर्व जन्म में किये हुए पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली वह बुरी अवस्था जिसमें उन पापों का दंड या बहुत अधिक कष्ट भोगने पड़ते हों। जैसे—ईश्वर करे, हमारे पाप शांत हों। मुहा०—पाप उदय होना=ऐसी बुरी अवस्था या समय आना जब अनेक प्रकार के कष्ट ही कष्ट मिलते हों। दुर्दशा के अथवा बुरे दिन आना। जैसे—न जाने हमारे कब के पापों के उदय हुआ था कि ऐसा नालायक लड़का मिला। पाप पड़ना=ऐसी बुरी स्थिति उत्पन्न होना जिससे बहुत अधिक कष्ट या दुःख भोगना पड़े। उदा०—सीरैं जतननु सिसिर रितु, सहि बिरहिन तनु-ताप। बसिबै कौं ग्रीषम दिननु पर्यो परोसिनि पापु।—बिहारी। ३. ऐसी अवस्था, जिसमें किसी काम का वैसा ही दुष्परिणाम भोगना पड़ता हो जैसा पापपूर्ण कर्म का। जैसे—मैं देखता हूँ कि यहाँ तो सच बोलना भी पाप है। मुहा०—पाप लगना=ऐसी स्थिति आना या होना कि जिसमें मनुष्य पापों के फलभोग का भागी बनता हो। जैसे—पापी के संसर्ग से भी मनुष्य को पाप लगता है। ४. कोई ऐसा काम या बात जिससे मुनष्य को बहुत कष्ट भोगना अथवा दुःखी होना पड़ता हो। जैसे—तुमने तो जान-बूझकर यह मुकदमेबाजी का पाप अपने साथ लगा रखा है। मुहा०—पाप काटना=बहुत बड़ी झंझट या बखेड़ा दूर करना। ५. अपराध। कसूर। ६. बुरी बुद्धि या बुरा विचार। ७. अनिष्ट। अहित। खराबी। ८. दे० ‘पापग्रह’। वि० १. पाप करनेवाला। पापी। २. दुराचारी। ३. कमीना। नीच। ४. दुष्ट। पाजी। ५. अमांगलिक। अशुभ। जैसे—पाप-ग्रह।
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पापक  : वि० [सं० पाप+कन्] १. पापा-युक्त। २. पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कर  : वि० [ष० त०]=पापी।
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पाप-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] धार्मिक दृष्टि से ऐसा बुरा और निंदनीय काम जिसे करने से पाप लगता हो। वि० पाप करनेवाला। पापी।
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पापकर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० पापकर्म] [स्त्री० पापकर्मिणी] पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कल्प  : वि० [सं० पाप-कल्पप्] पापी। पुं० खोटा और नीच व्यक्ति।
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पाप-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. ऐसी स्थिति जिसमें किये हुए पापों का फल नहीं भोगना पड़ता। पापों का होनेवाला अंत या क्षय। २. तीर्थ, जहाँ जाने से पापों का क्षय या नाश होता है।
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पाप-गति  : वि० [ब० स०] १. जो किये हुए पापों का फल भोग रहा हो। २. अभागा।
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पाप-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] मंगल, शनि, केतु, राहु आदि अशुभ ग्रह जिनकी दशा लगने पर लोग दुःख पाते हैं।
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पापघ्न  : वि० [सं० पाप√हन् (हिंसा)+टक्] पापों का नाश करनेवाला। पुं० तिल (जिसके दान करने से पापों का क्षय होना माना जाता है)।
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पापघ्नी  : स्त्री० [सं० पापघ्न+ङीप्] तुलसी।
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पाप-चंद्रमा  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार विशाखा और अनुराधा नक्षत्रों के दक्षिण भाग में स्थित चन्द्रमा।
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पापचर  : वि० [सं० पाप√चर् (गति)+ट] [स्त्री० पापचरा] पापपूर्ण आचरण करनेवाला। पापी।
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पाप-चर्य  : पुं० [ब० स०] १. पापी (व्यक्ति)। २. राक्षस।
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पापचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाप√चर्+णिनि] [स्त्री० पापचारिणी]=पाप-चर्य।
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पाप-चेता (तस्)  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पापपूर्ण आचरण करने की बातें सोचता हो।
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पापचेली  : स्त्री० [सं० पाप√चेल्+अच्+ङीष्] पाठा लता।
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पापचैल  : पुं० [कर्म० स०] अशुभ या अमंगल सूचक वस्त्र। वि० [ब० स०] जो उक्त प्रकार के वस्त्र पहने हो।
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पाप-जीव  : वि० [कर्म० स०] पापी। पुं० पुराणानुसार स्त्री, शूद्र, हूण और शवर आदि जीव जिनका संसर्ग कष्टदायक कहा गया है।
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पापड़  : पुं० [सं० पर्पट, प्रा० पप्पड़] उर्द, मूँग आदि दालों, मैदे, चौरेठे आदि अन्नों अथला आलू की बनी हुई एक तरह की मसालेदार पतली चपाती जिसे तल या भूनकर भोजन आदि के साथ खाया जाता है। मुहा०—पापड़ बेलना=(क) कोई काम इस रूप में करना कि वह बिगड़ जाय। (ख) किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए तरह-तरह के और कष्टसाध्य काम करना। (प्रायः ऐसा कामों से सिद्धि नहीं होती)। जैसे—आप सब पापड़ बेल कर बैठे हैं। वि० १. पापड़ की तरह पतला या महीन। २. पापड़ की तरह सूखा और भुरभुरा।
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पापड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] १. छोटे आकार का एक पेड़ जो मध्य-प्रदेश बंगाल, मद्रास आदि में उत्पन्न होता है। इसकी लकड़ी से कंघियाँ और खराद की चीजें बनाई जाती हैं। २. दे० ‘पित्त-पापड़ा’।
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पापड़ा-खार  : पुं० [सं० पर्पटक्षार] केले के पेड़ को जलाकर तैयार किया हुआ क्षार।
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पापड़ी  : स्त्री० [हिं० पापड़ा] एक प्रकार का पेड़ जो मध्यप्रदेश, पंजाब और मदरास में बहुत होता है।
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पापदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पाप√दृश् (देखना)+णिनि] पापपूर्ण दृष्टि से देखनेवाला। बुरी निगाहवाला।
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पाप-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि पापमय हो। २. अमंगलकारिणी या अशुभ दृष्टिवाला। स्त्री० पाप-पूर्ण दृष्टि।
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पाप-धी  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि पापमय या पापासक्त हो। पापकर्मों में मन लगानेवाला। पापमति। पापचेता।
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पाप-नक्षत्र  : पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, ज्येष्ठा आदि कुछ नक्षत्र जो अनिष्टकारक या बुरे माने गये हैं।
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पाप-नामा (मन्)  : वि० [ब० स०] १. अशुभ नामवाला। २. जिसकी सब जगह निंदा या बदनामी होती हो। बदनाम।
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पाप-नाशक  : वि० [ष० त०] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-नाशन  : वि० [ष० त०] पाप का नाश करनेवाला। पापनाशी। पुं० १. प्रायश्चित्त जिससे पाप नष्ट होते हैं। २. विष्णु। ३. शिव।
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पाप-नाशिनी  : स्त्री० [सं० पापनाशिन्+ङीष्] १. शमी वृक्ष। २. काली तुलसी।
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पापनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाप√नश् (नष्ट होना)+ णिच्+णिनि] [स्त्री० पापनाशिनी] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-निश्चय  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का निश्चय कर लिया हो। खोटा काम करने को तैयार। पाप करने को कृतसंकल्प।
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पाप-पति  : पुं० [कर्म० स०] स्त्री का उपपति या यार।
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पाप-पुरुष  : पुं० [कर्म० स० या मध्य० स०] १. पापी प्रकृतिवाला पुरुष। दुष्ट। २. तंत्र में कल्पित पुरुष जिसका सारा शरीर पाप या पापों से ही बना हुआ माना जाता है। ३. पद्म पुराण के अनुसार ईश्वर द्वारा सारे संसार के दमन के उद्देश्य से रचा हुआ पापमय पुरुष।
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पाप-फल  : वि० [ब० स०] (कर्म) जिसका परिणाम बुरा हो और जिसे करने पर पाप लगता हो।
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पाप-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि-सदा पापकर्मों की ओर रहती हो।
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पाप-भक्षण  : पुं० [ब० स०] काल-भैरव।
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पापभाक् (ज्)  : वि० [सं० पाप√भज् (भजना)+ण्वि] पापी।
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पाप-भाव  : वि० [ब० स०]=पाप-मति।
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पाप-मति  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पाप-कर्म करता हो। पाप-बुद्धि। पापचेता।
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पाप-मना (नस्)  : वि० [ब० स०] जिसके मन में पापपूर्ण विचारों का निवास हो।
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पाप-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] बुरे कामों में लगाने या बुरी सलाह देनेवाला मित्र।
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पाप-मोचन  : पुं० [ष० त०] पापों को दूर या नष्ट करना।
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पाप-मोचनी  : स्त्री० [ष० त०] चैत्र कृष्णपक्ष की एकादशी।
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पाप-यक्ष्मा (क्ष्मन्)  : पुं० [कर्म० स०] राजयक्ष्मा या क्षय नामक रोग। तपेदिक।
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पाप-योनि  : वि० [कर्म० स०] बुरी या हीन योनि में उत्पन्न होनेवाला। जैसे—कीट, पतंग आदि। स्त्री० बुरी या हीन योनि।
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पापर  : पुं०=पापड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं० पाँपर] १. कंगाल। २. ऐसा व्यक्ति जिसे अपनी निर्धनता प्रमाणित करने पर दीवानी में बिना रसूम दिये मुकदमा चलाने की अनुमति मिली हो।
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पाप-रोग  : पुं० [मध्य० स०] १. वैद्यक में कुछ विशिष्ट भीषण या विकट रोग जो पूर्व जन्मों के पापों के फल-स्वरूप होनेवाले माने गये हैं। जैसे—कोढ़, क्षयरोग, लकवा आदि। २. मसूरिका या वसन्त नामक रोग। छोटी माता।
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पापरोगी (गिन्)  : वि० [पाप रोग+इनि] [स्त्री० पापरोगिणी] जिसे कोई पाप-रोग हुआ हो।
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पापर्द्धि  : स्त्री० [सं० पाप-ऋद्धि, ब० स०] आखेट। मृगया। शिकार।
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पापल  : वि० [सं० पाप√ला (लेना)+क] जो पाप का कारण हो। पाप उत्पन्न करनेवाला। पुं० एक प्रकार की पुरानी नाप या परिणाम।
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पापलेन  : पुं० [अं० पाँपलिन] मारकीन की तरह का परन्तु उससे कुछ बढ़िया सूती कपड़ा।
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पाप-लोक  : पुं० [ष० त०] [वि० पापलोक्य] १. ऐसा लोक जिसमें पापकर्मों की अधिकता हो। २. नरक, जिसमें पापी लोग पापों का फल भोगने के लिए भेजे जाते हैं।
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पाप-वाद  : पुं० [ष० त०] अशुभ या अमांगलिक शब्द।
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पाप-विनाशन  : पुं० [ष० त०] पाप-मोचन।
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पाप-शमनी  : वि०, स्त्री० [ष० त०] पापों का शमन या नाश करनेवाली। स्त्री० शमी वृक्ष।
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पाप-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० पापशीलता] जो स्वभावतः पापकर्मों की ओर प्रवृत्त रहता हो।
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पाप-शोधन  : पुं० [ष० त०] १. पाप से शुद्ध होने की क्रिया या भाव। पापनिवारण। २. तीर्थ-स्थान।
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पाप-संकल्प  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का पक्का इरादा या संकल्प कर लिया हो।
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पाप-सूदन  : पुं० [सं० पाप√सूद् (नष्ट करना)+णिच्+ल्यु—अन] एक प्राचीन तीर्थ।
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पाप-हर  : वि० [ष० त०] पापनाशक। पापहारक।
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पापहा (हन्)  : वि० [सं० पाप√हन्+क्विप्] पापनाशक।
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पापांकुशा  : स्त्री० [पाप-अंकुश, च० त०,+टाप्] आश्विन् शुक्ला एकादशी।
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पापांत  : पं० [पाप-अंत, ब० स०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
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पापा  : स्त्री० [सं० पाप+टाप्] १. बुद्धग्रह की उस समय की गति जब वह हस्त, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में रहता है। पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो ज्वार, बाजरे आदि की फसल में प्रायः अधिक वर्षा के कारण लगता है। पुं० [अनु०] १. पाश्चात्य देशों में बच्चों की एक बोली में एक शब्द जिससे वे बाप को संबोधित करते हैं। बाबा। बाबू। २. प्राचीन काल में बिशप पादरियों और आज-कल केवल यूनानी पादरियों के एक विशेष वर्ग की सम्मान-सूचक उपाधि।
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पापाख्या  : स्त्री० [सं० पाप+आ√ख्या (कहना)+क+टाप्] दे० ‘पापा’ (बुद्ध की गति)।
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पापाचार  : वि० [पाप-आचार, ब० स०] पाप कर्म करनेवाला। पापी। पुं० [ष० त०] पापपूर्ण आचरण।
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पापाचारी (रिन्)  : वि० [सं० पापाचार+इनि] पापपूर्ण आचरण या कर्म करनेवाला। पापी।
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पापात्मा (त्मन्)  : वि० [पाप-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा या मन सदा पापकर्मों की ओर रहता हो; अर्थात् बहुत बड़ा पापी। बड़े बड़े पाप करनेवाला।
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पापाधम  : पुं० [पाप-अधम, स० त०] पापियों में भी अधम अर्थात् महापापी।
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पापानुबंध  : पुं० [पाप-अनुबन्ध, ष० त०] पाप का कुफल या दुष्परिणाम।
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पापानुवसित  : वि० [पाप-अनुवसित, तृ० त०] १. पापी। २. पापपूर्ण।
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पापापनुत्ति  : स्त्री० [पाप-अपनुत्ति, ष० त०] प्रायश्चित्त।
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पापारंभ  : वि० [पाप-आरंभ, ब० स०] दुष्कर्म करनेवाला। पापी।
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पापारंभक  : वि० [पाप-आरंभिक, ष० त०] जो पापकर्म करना चाहता हो।
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पापार्त्त  : वि० [पाप-आर्त्त, तृ० त०] जो आपने पाप-कर्मों के फल से बहुत ही दुःखी हो।
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पापाशय  : वि० [पाप-आशय, ब० स०] जिसके मन में पाप हो।
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पापाह  : पुं० [पाप-अहन्, कर्म० स०, टच्] १. अशौच या सूतक के दिन का समय। २. अशुभ या बुरा दिन।
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पापिष्ठ  : वि० [सं० पाप+इष्ठन्] बहुत बड़ा पापी।
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पापी (पिन्)  : वि० [सं० पाप+इनि] [स्त्री० पापिनी] १. पाप में रत या अनुरक्त। पाप करनेवाला। पातकी। अघी। २. लाक्षणिक और व्यंग्य के रूप में, क्रूर, निर्मोही या निर्दय। जैसे—पिया पापी न जागे, जगाय हारी।—लोकगीत। पुं० वह जो पाप करता हो या जिसने कोई पाप किया हो।
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पापीयस्  : वि० [सं० पाप+ईयसुन्] [स्त्री० पापीयसी] पापी।
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पापोश  : स्त्री० [फा०] जूता। उपानह।
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पापोशकार  : पुं० [फा०] [भाव० पापोशकारी] जूते बनानेवाला व्यक्ति। मोची।
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पाप्मा (प्मन्)  : वि० [सं०√आप् (व्याप्त करना)+ मनिन्; नि० सिद्धि] पापी। पुं० पाप।
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पा-प्यादा  : क्रि० वि० [फा०] बिना किसी सवारी के। पैदल।
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पाबंद  : वि० [फा०] [भाव० पाबंदी] १. जिसके पैर बँधे हुए हों। २. किसी प्रकार के बंधन में पड़ा हुआ। बद्ध। जैसे—नौकरी या मालिक का पाबंद। ३. पूर्ण रूप से किसी नियम, वचन, सिद्धांत आदि का ठीक समय पर पालन करनेवाला। जैसे—वक्त का पाबंद, हुकुम का पाबंद। ४. जो उक्त के आधार पर कोई काम करने के लिए बाध्य या विवश हो। पुं० १. घोड़े का पिछाड़ी, जिससे उसके पैर बाँधे जाते हैं। २. नौकर। सेवक।
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पाबंदी  : स्त्री० [फा०] १. पाबंद होने की अवस्था, क्रिया या भाव। बद्धता। २. वचन, समय, सिद्धान्त आदि के पालन करने की जिम्मेदारी। ३. उक्त के फल-स्वरूप होनेवाली लाचारी या विवशता।
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पाम (मन्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+मनिन्] १. दानेदार चकत्ते या फुंसियाँ। २. खाज। खुजली। स्त्री० [देश०] १. वह डोरी जो गोटे, किनारी आदि बुनने के समय दोनों तरफ बाँधी जाती है। २. डोरी। रस्सी। (लश०)
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पाम  : पुं० [अं०] ताड़ का पौधा या वृक्ष।
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पापघ्न  : वि० [सं० पामन्√हन् (नष्ट करना)+टक्] पामा रोग का नाश करनेवाला। पुं० गंधक।
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पामघ्नी  : स्त्री० [सं० पामघ्न+ङीप्] कुटकी।
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पामड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामड़ी  : स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामन  : वि० [सं०√पा+मिनिन्, पामन्+न, नलोप] १. जिसे या जिसमें पामा रोग हुआ हो। २. खल। दुष्ट। पुं०=पामा (रोग)।
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पामना  : स०=पावना (पाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पावना (प्राप्य धन)।
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पामर  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप्, पा√मृ (मरना)+घ] १. बहुत बड़ा दुष्ट और नीच। अधम। २. पापी। ३. जिसका जन्म नीच कुल में हुआ हो। ४. निर्बुद्धि। मूर्ख।
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पामर-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का निकृष्ट योग। (फलित ज्योतिष)
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पामरी  : स्त्री० [सं० प्रावार] उपरना। दुपट्टा। स्त्री० सं० ‘पामर’ का स्त्री०। स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामा  : पुं० [सं० पामन्+डाप्] १. एक प्रकार का चर्म रोग जिसमें शरीर पर चकत्ते निकल आते हैं और उनमें की छोटी छोटी फुंसियों में से पानी बहता है। (एंग्जिमा) २. खाज या खुजली नामक रोग।
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पामारि  : पुं० [पामा-अरि, ष० त०] गंधक।
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पामाल  : वि० [फा०] [भाव० पामाली] १. पैर से कुचला या पाँव तले रौंदा हुआ। पद-दलित। २. बुरी तरह से तबाह या बरबाद।
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पामाली  : स्त्री० [फा०] १. पामाल होने की अवस्था या भाव। २. तबाही। बरबादी।
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पामोज़  : पुं० [?] १. एक प्रकार का कबूतर। २. ऐसा घोड़ा जो सवारी के समय सवार की पिंडली को अपने मुँह से पकड़ता हो।
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पायँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँचा  : पुं० [हिं० पाँव] पायजामे की टाँग।
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पाँयजेहरि  : स्त्री० [हिं० पाँय+जेहरी] पायजेब।
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पायँत  : स्त्री०=पायँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँता  : पुं० [हिं० पायँ+सं० स्थान, हिं० थान] १. पलंग या चारपाई का वह भाग जिस पर पैर रहते हैं। पैताना। २. वह दिशा जिधर पैर फैलाकर कोई सोया हो।
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पायँती  : स्त्री० [हिं० पाँयता] पाँयता। पैताना।
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पायंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज़] पैर पोंछने का बिछावन। पावदान।
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पायँपसारी  : स्त्री० [हिं० पाँव+पसारना] निर्मली का पौधा और फल।
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पाय  : पुं० [सं०√पा+घञ्, यक्] जल। पानी। पुं० [फा० पायः] फारसी ‘पा’ (=पैर) का वह संबंधकारक रूप जो उसे यौ० शब्दों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पायखाना; पायजेब आदि।
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पायक  : वि० [सं०√पा (पीना)+ण्वुल—अक, युक्] पान करनेवाला। पीनेवाला। पुं० [फा०] १. दूत। २. सेवक। दास। ३. पैदल सिपाही। ४. वह छोटा कर्मचारी जो प्रायः दौड़-धूपवाले कामों के लिए नियुक्त हो। ५. झंडा। पताका। पुं० [?] १. पहलवान। मल्ल। २. पटेबाज।
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पायकार  : पुं० दे० ‘पैकार’।
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पायखाना  : पुं०=पाखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायगाह  : स्त्री० [सं०] १. पैर रखने की जगह। २. कचहरी। ३. अस्तबल। तबेला।
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पायज  : पुं० [?] पेशाब। मूत्र। उदा०—...निज पायज ज्यौं जल अंक लगावै।—केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायजामा  : पुं०=पाजामा।
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पायजेब  : स्त्री०=पाजेब।
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पाय-जेहरि  : स्त्री०=पाजेब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायठ  : स्त्री०=पाइट।
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पायड़ा  : पुं० दे० ‘पैंडा’।
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पायतन  : पुं०=पायँता।
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पायताबा  : पुं० [फा०]=पाताबा (मोजा)।
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पायदान  : पुं०=पावदान।
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पायदार  : वि० [फा० पायःदार] [भाव० पायदारी] टिकाऊ और मजबूत।
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पायदारी  : स्त्री० [फा०] दृढ़ता और मजबूती।
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पायन  : पुं० [सं०√पा+णिच्+ल्युट्—अन] किसी को कुछ पिलाने की क्रिया या भाव।
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पायना  : स्त्री० [सं०√पा+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. सींचना। २. गीला या तर करना। ३. सान धरना। धार तेज करना।
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पायनिक  : वि० [सं० पायन+ठक्—इक] सिंचाई के काम में आनेवाला।
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पायपोश  : पुं०=पापोश।
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पायबोसी  : स्त्री०=पाबोसी।
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पायमाल  : वि० [भाव० पायमाली]=पामाल।
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पायरा  : पुं० [हिं० पाय+रा (=रखना)] घोड़े की जीन। पुं० [सं० पारावत] एक प्रकार का कबूतर।
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पायल  : स्त्री० [हिं० पाय+ल (प्रत्य०)] १. पैर में पहनने का स्त्रियों का एक गहना। २. तेज चलनेवाली हथनी। ३. बाँस की सीढ़ी। वि० [बच्चा] जन्म के समय जिसके पैर पहले बाहर निकले हों।
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पायस  : पुं० [सं० पायस्+अण्] १. खीर। २. सरल का गोंद। निर्यास। ३. रसायन शास्त्र में, दूधिया रंग का वह तरल पदार्थ जिसमें तेल, सर्जरस आदि के कण सब जगह समान रूप से तैरते रहते हों। (एमल्शन) ४. दे० ‘वसापायस’।
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पायसा  : पुं० [सं० पार्श्व, हिं० पास] पड़ोस। आस-पास का स्थान।
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पायसीकरण  : पुं० [सं० पायस√कृ (करना)+च्वि, ईत्व, ल्युट्—अन] किसी तरह औषध या घोल को ऐसा रूप देना कि उसमें कुछ पदार्थों के कण तैरते रहें, नीचे बैठ न जायँ। (एमल्सिफिकेशन)
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पाययोपवास  : पुं० [सं० पायस-उपवास] अच्छी-अच्छी चीजें खाकर भी यह कहते चलना कि हमने तो कुछ भी नहीं खाया। उपहास करने का झूठा बहाना।
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पाया  : पुं० [फा० पायः] १. पलंग, कुरसी, चौकी आदि का पावा या पैर। २. खंभा। स्तंभ। ३. नींव। बुनियाद। ४. दरजा। पद। मुहा०—पाया बुलन्द होना=पदोन्नति होना। ५. घोड़ों के पैर में होनेवाला एक रोग।
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पायिक  : पुं० [सं० पादविक, पृषो० साधु ‘पादातिक’ का प्रा० रूप] १. पादातिक। पैदल सिपाही। २. चर। दूत।
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पायी (यिन्)  : वि० [सं०√पा (पीना)+णिनि] समस्त पदों के अन्त में, पीनेवाला। जैसे—स्तनपायी। स्त्री०= पाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायु  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+उण्, युक् आगम] १. मलद्वार। गुदा। २. भरद्वाज के पुत्र।
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पाय्य  : वि० [सं०√मा (मापना)+ण्यत्, नि० पादेश] १. जो पान किया जा सके। पीये जाने के योग्य। २. जो पीया जाता हो। पेय। पुं० १. जल। पानी। २. रक्षण।
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पारंगत  : वि० [सं० पारगत] १. जो पार जा या पहुँच चुका हो। २. जिसने किसी विद्या या शास्त्र का बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।
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पारंपरीण  : वि० [सं० परंपरा+खञ्—ईन] परंपरागत।
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पारंपर्य्य  : पुं० [सं० परंपरा+ष्यङ्] १. परंपरा का भाव। २. परंपरा से चली आई हुई प्रथा या रीति। आम्नाय। ३. परंपरा का क्रम। ४. वंश परंपरा।
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पारंपर्योपदेश  : पुं० [पारंपर्य-उपदेश ष० त०] १. परंपरागत उपदेश। २. ऐतिह्य नामक प्रमाण।
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पार  : पुं० [सं० पर+अण्,√पृ (पूर्ति करना)+घञ्] १. (क) झील, नदी, समुद्र आदि के पूरे विस्तार का वह दूसरा किनारा या सिरा जो वक्ता के पासवाले किनारे या सिरे की विपरीत दिशा में और उस विस्तार के अंतिम सिरे पर पड़ता हो। उस ओर का और दूर पड़नेवाला किनारा या सिरा। ऊपर का तट या सीमा। (ख) उक्त या इस ओर अर्थात् इधर या पास का किनारा या सिरा। जैसे—(क) वह नाव पर बैठकर नदी के पार चला गया। (ख) गंगा के इस पार से उस पार तक तैर के जाने में एक घंटा लगता है। क्रि० प्र०—करना।—जाना।—होना। पद—आर-पार, वार-पार। (देखें) मुहा०—पार उतारना=नदी आदि के तल पर से होते हुए दूसरे किनारे तक पहुँचाना। पार उतारना=नाव आदि की सहायता से जलाशय के उस पार पहुँचाना या ले जाना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचाना। २. (क) किसी तल या पृष्ठ के किसी विंदु के विचार से उसके विपरीत या सामनेवाली दिशा के तल या पृष्ठ का कई विंदु या स्थान। (ख) उक्त के आमने-सामने वाले अथवा एक सिरे से दूसरे सिरे तक के दोनों विंदुओं में से प्रत्येक विंदु। जैसे—(क) तख्ते में काँटा ठोंककर उसकी नोक उस पार निकाल दो। (ख) गोली उसके पेट के इस पार से उस पार निकल गई। ३. किसी काम या बात का अंतिम छोर या सिरा। विस्तार या व्याप्ति की चरम सीमा या हद। पद—इस पार=इस लोग में। उदा०—इस पार प्रिये तुम हो...उस पार न जाने क्या होगा।—बच्चन। उस पार=परलोक में। मुहा०—(किसी का) पार पाना=किसी की चरम सीमा, गंभीरता, गहनता आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जैसे—इस विद्या का पार पाना कठिन है। (किसी से) पार पाना=किसी के विरुद्ध या सामने रहने पर उसकी तुलना या मुकाबले में विजयी या सफल होना, अथवा बढ़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—चालाकी में तुम उससे पार नहीं पा सकते। (किसी काम या बात का) पार लगना=ठीक तरह से अन्त या समाप्ति तक पहुँचना। पूरा होना। जैसे—तुम से यह काम पार नहीं लगेगा। (किसी को) पार लगाना=(क) कष्ट, संकट आदि से उद्धार करना। उबारना। (ख) जीवन-काल तक किसी का निर्वाह करना। विशेष—यह मुहा० वस्तुतः ‘किसी का बेड़ा पार लगाना’ का संक्षिप्त रूप है। ४. किसी काम, चीज या बात का सारा अथवा समूचा विस्तार। अव्य० अलग और दूर। परे और पृथक्। जैसे—तुम तो बात कहकर पार हो गये, सारा काम हमारे सिर पर आ पड़ा। पुं० [?] खेत की पहली जोताई।
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पारई  : स्त्री०=परई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारक  : वि० [सं०√पृ+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पारकी] १. पार करने या लगानेवाला। २. उद्धार करने या बचानेवाला। ३. पालन करनेवाला। पालक। ४. प्रीति या प्रेम करनेवाला। प्रेमी। ५. पूर्ति करनेवाला। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. वह पत्र जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण होने का सूचक हो। ३. वह पत्र जिसे दिखलाकर कोई कहीं आ-जा सके या इसी प्रकार का और कोई काम करने का अधिकार प्राप्त करे। पार-पत्र। (पास)
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पार-काम  : वि० [सं० पार√कम् (चापना)+अण्] जो पार उतरने अर्थात् उस पार जाने का इच्छुक हो।
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पारकी  : वि०=परकीय।
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पारक्य  : वि० [सं० पर+ष्यञ्, कुक्] परकीय। पराया। पुं० पवित्र आचरण या पुण्य कार्य जो परलोक में उत्तम गति प्राप्त कराता है।
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पारख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारखद  : पुं०=पार्षद् (सभासद्)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारखी  : पुं० [हिं० परख+ई (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जिसमें किसी चीज की अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि जानने और परखने की पूर्ण योग्यता हो। जैसे—आप कविता के अच्छे पारखी हैं।
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पारखू  : पुं०=पारखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारग  : वि० [सं० पार√गम्+ड] १. पार जानेवाला। २. काम पूरा करनेवाला। ३. किसी विषय का पूरा जानकार।
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पार-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] [भाव० पारगति] १. जो पार चला गया हो। २. जो किसी विषय का पूरा ज्ञान प्राप्त कर चुका हो। पारंगत। ३. समर्थ। पुं० जिन देव।
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पारगति  : स्त्री० [सं० स० त०] पारंगत होने के लिए अध्ययन करना।
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पार-गमन  : पुं० [सं०] एक स्थान या स्थिति से दूसरे स्थान या स्थिति में जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्ज़िट)
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पारगामी (मिन्)  : वि० [सं० पार√गम्+णिनि] पार करने या जानेवाला।
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पारचा  : पुं० [फा० पार्चः] १. टुकड़ा। खंड। धज्जी। २. कपड़ा। वस्त्र। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ४. पहनावा। पोशाक। ५. कच्चे कूओं में, दो खड़ी लकड़ियों के ऊपर रखी हुई वह बेड़ी लकड़ी जिस पर से रस्सी कूएँ में लटकायी जाती है। ६. पानी का छोटा हौज।
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पारज्  : पुं० [सं०√पार (कर्म समाप्त करना)+अजिन्] सोना। सुवर्ण।
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पारजन्मिक  : वि० [सं० पर-जन्मन्, कर्म० स०,+ठक्—इक्] परजन्म अर्थात् दूसरे जन्म से संबंध रखनेवाला।
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पारजात  : पुं०=परजाता (पारिजात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारजायिक  : पुं० [सं० पर जाया, ष० त०,+ठक्—इक] पराई जाया अर्थात् पर-स्त्री सम गमन करनेवाला। व्यभिचारी।
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पारटीट (टीन)  : पुं० [सं०] १. पत्थर। २. शिला। चट्टान।
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पारण  : पुं० [सं०√पार्+ल्युट्—अन] १. पार करने, जाने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी को पार ले जाने की क्रिया या भाव। ३. किसी व्रत या उपवास के दूसरे दिन किया जानेवाला तत्सम्बन्धी कृत्य; और उसके बाद किया जानेवाला भोजन। ४. तृप्त करने की क्रिया या भाव। ५. आज-कल, किसी प्रस्तावित विधान अथवा विधेयक के संबंध में उसे विचारपूर्वक निश्चित और स्वीकृत करने की क्रिया या भाव। ६. परीक्षा या जाँच में पूरा उतरना। उत्तीर्ण होना। (पासिंग) ७. रुकावट या बंधन की जगह पार करके आगे बढ़ना। (पासिंग) ८. पूरा करने की क्रिया या भाव। ९. बादल। मेघ।
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पारणक  : वि० [सं०] पारण करनेवाला।
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पारण-पत्र  : पुं० [सं०] १. किसी प्रकार के पारण का सूचक पत्र। २. वह पत्र जिसके आधार पर या जिसे दिखलाने पर किसी को कहीं आ-जा सकने या इसी प्रकार का और कोई काम कर सकने का अधिकार प्राप्त होता है। (पास)
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पारणा  : स्त्री० [सं०√पार्+णिच्+युच्—अन, टाप्]= पारण।
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पारणीय  : वि० [सं०√पार्+अनीयर्] १. जिसे पार किया जा सके। २. जिसे पूरा या समाप्त किया जा सके।
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पारतंत्र्य  : पुं० [सं० परतंत्र+ष्यञ्] परतंत्रता।
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पारत  : पुं० [सं० पार√तन् (विस्तार)+ड] एक प्राचीन म्लेच्छ जाति। पारद (जाति और देश)।
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पारतल्पिक  : पुं० [सं० परतल्प+ठक्—इक] पर-स्त्री गामी। व्यभिचारी।
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पारत्रिक  : वि० [सं० परत्र+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। पारलौकिक। २. (कर्म या काम) जिससे पर-लोक में उत्तम गति प्राप्त हो।
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पारत्र्य  : पुं० [सं० परत्र+ष्यञ्] परलोक में मिलनेवाला फल।
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पारथ  : पुं०=पार्थ (अर्जुन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिया  : वि० [सं० प्रार्थित] माँगा हुआ। याचित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिव  : वि०, पुं०=पार्थिव।
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पारथी  : पुं० [सं० पापर्द्धिक=बहेलिया।] १. बहेलिया। २. शिकारी। ३. हत्यारा।
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पारद  : पुं० [सं०√पृ+णिच्+तन्, पृषो० त-द] १. पारा। २. एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कैस्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके पड़ता था। ३. उक्त जाति के रहने का देश।
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पारदर्शक  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० पारदर्शकता] प्रकाश की किरणें जिसे पार करके दूसरी ओर जा सकती हों और इसीलिए जिसके इस पार से उस पार की वस्तुएँ दिखाई देती हों। (ट्रान्सपेएरेन्ट) जैसे—साधारण शीशे पारदर्शक होते हैं।
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पारदर्शकता  : स्त्री० [सं० पारदर्शक+तल्+टाप्] पारदर्शक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पारदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पार√दृश्+णिनि] [भाव० पारदर्शिता] १. आर-पार अर्थात् बहुत दूर तक की बात देखने और समझनेवाला। दूरदर्शी। २. पारदर्शक। (दे०)
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पारदारिक  : वि०, पुं० [सं० पर-दारा, ष० त०,+ठक्—इक] पराई स्त्रियों से अनुचित संबंध रखनेवाला। पर-स्त्रीगामी।
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पारदार्य  : पुं० [सं० परदारा+ष्यञ्] पराई स्त्री के साथ गमन। परस्त्री-गमन।
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पारदिक  : वि० [सं० पारद+ठक्—इक] १. पारद या पार से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें पारे का भी कुछ अंश हो। (मर्क़्यूरिक)
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पारदेशिक  : वि० [सं० परदेश+ठक्—इक] दूसरे देश का। विदेशी। पुं० १. दूसरे देश का निवासी। २. यात्री।
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पारदेश्य  : वि०, पुं० [सं० परदेश+ष्यञ्]=पारदेशिक।
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पारद्रष्टा  : वि० [सं०] जो उस पार अर्थात् इस लोक के परे की बातें भी देख या जान सकता हो।
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पारधि  : पुं०=पारधी।
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पारधी  : पुं० [सं० परिधान=आच्छादन] १. बहेलिया। व्याध। २. शिकारी। ३. वधिक। ४. काल। मृत्यु। स्त्री० आड़। ओट। मुहा०—(किसी के) पारधी पड़ना—आड़ में छिपकर कोई व्यापार देखना या किसी की बात सुनना।
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पारन  : पुं०=पुराण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पारक (पार करने या लगानेवाला)।
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पारना  : सं० [सं० पारण] १. गिराना। २. डालना। ३. लेटाना। ४. कुश्ती या लड़ाई में पटकना। पछाड़ना। ५. प्रस्थापित या स्थापित करना। रखना। उदा०—प्यारे परदेश तैं कबै धौं पग पारि हैं।—रत्नाकर। मुहा०—पिंडा पारना=मृतक के उद्देश्य से पिंडदान करना। ६. किसी के हाथ में देना। किसी को सौंपना। ७. किसी के अन्तर्गत करना। किसी में सम्मिलित करना। ८. शरीर पर धारण करना। पहनना। ९. किसी विशिष्ट क्रिया से किसी के ऊपर जमाना या लगाना। जैसे—कजलौटे पर काजल पारना। १॰. कोई अनुचित या आवांछित घटना या बात घटित करना। उदा०—तन जारत, पारति बिपति अपति उजारत लाज।—पद्माकर। ११. कोई काम स्वयं करना अथवा दूसरे से करा देना। उदा०...बरनि न पारौं अंत।—जायसी। १२. कोई काम करने की समर्थता होना। कर सकना। उदा०—बूझि लेहु जौ बूझे पारहु।—जायसी। १३. मचाना। जैसे—हल्ला पारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १४. नियत या स्थिर करना। उदा०—अबहीं ते हद पारो।—सूर। अ० [सं० पारण=योग्य, का हिं० पार, जैसे—पार लगना=हो सकना] कोई काम करने में समर्थ होना। सकना। सं०=पालना। (पालन करना) उदा०—जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह राजकीय अधिकार-पत्र जो किसी राज्य की प्रजा को विदेश यात्रा के समय प्राप्त करना पड़ता है, औ जिसे दिखाकर लोग उसमें उल्लिखित देशों में भ्रमण कर सकते हैं (पास-पोर्ट) विशेष—ऐसे पार-पत्र से यात्री को अपने मूल देश के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है, और उन देशों के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है जिनमें यात्रा करने का उन्हें अधिकार मिला होता है।
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पारबती  : स्त्री०=पार्वती।
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पार-ब्रह्म  : पुं०=पर-ब्रह्म।
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पारभूत  : पुं०=प्राभृत (भेंट)।
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पारमहंस  : पुं०=पारमहंस्य।
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पारमहंस्य  : वि० [सं० परमहंस+ष्यञ्] जिसका संबंध परमहंस से हो। परमहंस-संबंधी।
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पारमाणविक  : वि० [सं०] परमाणु-संबंधी। परमाणु का। (एटमिक)
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पारमार्थिक  : वि० [सं० परमार्थ+ठक्—इक] परमार्थ-संबंधी। परमार्थ का। जैसे—पारमार्थिक ज्ञान। २. परमार्थ सिद्ध करनेवाला। परमार्थ का शुभ फल दिलानेवाला। जैसे—पारमार्थिक कृत्य। ३. सत्यप्रिय। ४. सदा एक-रस और एक रूप बना रहनेवाला। ५. उत्तम। श्रेष्ठ।
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पारमार्थ्य  : पुं० [सं० परमार्थ+ष्यञ्] १. ‘परमार्थ’ का गुण या भाव। २. परम सत्य।
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पारमिक  : वि० [सं० परम+ठक्—इक] १. मुख्य। प्रधान। २. उत्तम। सर्वश्रेष्ठ। ३. परम।
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पारमित  : वि० [सं० पारम् इत, व्यस्तपद] [स्त्री० पारमिता] १. जो उस पार पहुँच गया हो। २. पारंगत। ३. अतिश्रेष्ठ।
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पारमिता  : स्त्री० [सं० पारम् इता, व्यस्तपद] सीमा। हद।
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परमेश्वर  : वि० [सं० परमेश्वर+अण्] परमेश्वर संबंधी।
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पारमेष्ठ्य  : पुं० [सं० परमेष्ठिन्+ष्यञ्] १. प्रधानता। २. सर्वोच्च पद। ३. प्रभुत्व। ४. राजचिह्न।
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पारयिष्णु  : वि० [सं०√पार्+णिच्+इष्णुच्] १. जो पार जाने में समर्थ हो। २. विजयी। ३. सफल। ४. रुचिकर और तृप्तिकारक।
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पारयुगीन  : वि० [सं० परयुग+खञ्—ईन] परवर्ती युग से संबंध रखनेवाला अथवा उसमें पाया जाने या होनेवाला।
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पारलोक्य  : वि० [सं० परलोक+ष्यञ्] पारलौकिक।
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पारलौकिक  : वि० [सं० परलोक+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। परलको का। २. (कर्म) जिससे परलोक में शुभ फल की प्राप्ति हो। परलोक सुधारनेवाला। पुं० अंत्येष्टि क्रिया।
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पारवत  : पुं० [सं०] पारावत। (दे०)
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पारवर्ग्य  : वि० [सं० परवर्ग+ष्यञ्] १. अन्य या दूसरे वर्ग से संबंध रखने अथवा उसमें होनेवाला। २. प्रतिकूल। पुं० वैरी। शत्रु।
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पारवश्य  : पुं० [सं० परवश+ष्यञ्]=परवशता।
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पार-वहन  : पुं० [सं०] चीजें आदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्जिट्)
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पारविषयिक  : वि० [सं० पर विषय+ठक्—इक] दूसरे के विषयों से संबंध रखनेवाला।
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पारशव  : पुं० [सं० परशु+अण्] १. लोहा। २. [उपमि० स०] ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न व्यक्ति। ३. पराई स्त्री के गर्भ से उत्पन्न करके प्राप्त किया हुआ पुत्र। ४. एक प्रकार की गाली जिससे यह व्यक्त किया जाता है कि अमुक के पिता का कोई पता नहीं वह तो हरामी का है। ५. एक प्राचीन देश, जिसके संबंध में कहा जाता है कि वहाँ मोती निकलते थे। वि० लौह-संबंधी।
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पारशवी  : स्त्री० [सं० पारशव+ङीष्] वह कन्या या स्त्री जिसका जन्म शूद्रा माता और ब्राह्मण पिता से हुआ हो।
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पारश्व  : पुं०=पारश्वाधिक।
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पारश्वधिक  : पुं० [सं० परश्वध+ठञ्—इक] परशु या फरसे से सज्जित योद्धा।
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पारस  : पुं० [सं० स्पर्श, हिं० परस] १. एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि लोहा इसके स्पर्श से सोना हो जाता है। स्पर्श-मणि। २. पारस पत्थर के समान उत्तम, लाभदायक या स्वच्छ अथवा आदरणीय और बहुमूल्य पदार्थ या वस्तु। जैसे—(क) यदि उनके साथ रहोगे तो कुछ दिनों में पारस हो जाओगे। (ख) यह दवा खाने से शरीर पारस हो जायगा। पुं० [हिं० परसना] १. परोसा हुआ भोजन। २. परोसा। अव्य० [सं० पार्श्व] समीप। नजदीक। पास। उदा०—पारस प्रासाद सेन संपेखे।—प्रिथीराज। पुं० [सं० पलाश] पहाड़ों पर होनेवाला बादाम या खूबानी की जाति का एक मझोले कद का पेड़। गीदड़-ढाक। जापन। पुं० [फा०] आधुनिक फारस देश का एक पुराना नाम।
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पारसनाथ  : पुं०=पार्श्वनाथ (जैनों के तीर्थकर)।
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पारसल  : पुं० [अं०] डाक, रेल आदि द्वारा किसी के नाम भेजी जानेवाली गठरी या पोटली।
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पारसव  : पुं०=पारशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारसा  : वि० [फा०] [भाव० पारसाई] पवित्र और शुद्ध चरित्र तथा विचारोंवाला। बहुत बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी।
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पारसाई  : स्त्री० [फा०] ‘पारसा’ होने की अवस्था या भाव। धार्मिकता और सदाचार।
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पारसाल  : पुं० [फा०] १. गत वर्ष। २. आगामी वर्ष।
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पारसिक  : पुं० [सं० पारसीक, पृषो० सिद्धि] पारसीक। (दे०)
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पारसी  : पुं० [सं० पारसीक से फा० पार्सी] १. पारस अर्थात् फारस (आधुनिक ईरान) का रहनेवाला आदमी। २. आज-कल मुख्य रूप से पारस के वे प्राचीन निवासी जो मुसलमानी आक्रमण के समय अपना धर्म बचाने के लिए वहाँ से भारत चले आये थे। इनके वंशज अब तक बम्बई और गुजरात में बसे हैं। ये लोग अग्निपूजक हैं; और कमर में एक प्रकार का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं। वि० पारस या फारस-संबंधी। पारस का।
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पारसीक  : पुं० [सं०] १. आधुनिक ईरान देश का प्राचीन नाम। फारस। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा। वि०, पुं०=पारसी।
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पारसीकयमानी  : स्त्री० [सं०] खुरासानी वच।
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पारस्कर  : पुं० [सं० पार√कृ०+ष्ट, सुट्] १. एक प्राचीन देश। २. एक गृह्य-सूत्रकार मुनि।
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पारस्त्रैणेय  : पुं० [सं० पर-स्त्री, ष० त०,+ढक्—एय, इनङ्—आदेश] पराई स्त्री से संबंध रखनेवाले व्यक्ति से उत्पन्न पुत्र। जारज पुत्र।
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पारस्परिक  : वि० [सं० परस्पर+ठक्—इक] आपस में एक दूसरे के प्रति या साथ होनेवाला। परस्पर होनेवाला। आपस का। आपसी। (म्यूचुअल)
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पारस्परिकता  : स्त्री० [सं० पारस्परिक+तल्+टाप्] पारस्परिक होने की अवस्था या भाव।
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पारस्य  : पुं० [सं०] पारस देश।
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पारस्स  : पुं० १.=पार्श्व। २.=पार्श्वचर। ३.=पारस्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारहंस्य  : वि० [सं० परहंस+ष्यञ्]=पारमहंस्य।
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पारा  : पुं० [सं० पारद] एक प्रसिद्ध बहुत चमकीली और सफेद धातु जो साधारण गरमी या सरदी में द्रव अवस्था में रहती है और अनुपातिक दृष्टि से बहुत भारी या वजनी होती है। पारद। (मर्करी) मुहा०—(किसी का) पारा चढ़ना=गुस्से से बेहाल होना। पारा पिलाना=(क) किसी वस्तु के अंदर पारा भरना। (ख) किसी वस्तु को इतना अधिक भारी कर देना कि मानो उसके अंदर पारा भर दिया गया हो। पुं० [सं० पारि=प्याला] दीये के आकार का, पर उससे बड़ा मिट्टी का बरतन। परई। पुं० [फा० पारः] खंड या टुकडा।
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पाराती  : स्त्री० [सं० प्रातः] एक प्रकार के धार्मिक गीत जो देहाती स्त्रियाँ पर्वों आदि पर किसी तीर्थ या पवित्र नदी में स्नान करने के लिए आते-जाते समय रास्ते में गाती चलती हैं।
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पारापत  : पुं० [सं० पार-आ√पत् (गिरना)+अच्] कबूतर।
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पारापार  : पुं० [सं० पार-अपार, द्व० स०+अच्] १. यह पार और वह पार। २. इधर और उधर का किनारा। ३. समुद्र।
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पारायण  : पुं० [सं० पार-अयन, स० त०] [वि० पारयणिक] १. किसी अनुष्ठान या कार्य की होनेवाली समाप्ति। २. नियमित रूप से किसी धार्मिक ग्रंथ का किया जानेवाला पाठ। ३. किसी चीज का बार-बार पढ़ा जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारायणी  : स्त्री० [सं० पारायण+ङीप्] १. चिंतन या मनन करते हुए पारायण करने की क्रिया। २. सरस्वती। ३. कर्म। ४. प्रकाश।
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पारावत  : पुं० [सं० पर√अव (रक्षा)+शतृ+अण्] १. कबूतर। २. पेंड़की। ३. बंदर। ४. पहाड़। पर्वत।
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पारावतघ्नी  : स्त्री० [सं० पारावत√हन् (हिंसा)+टक्+ङीष्] सरस्वती नदी।
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पारावत पदी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. मालकंगनी। २. काकजंघा।
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पारावताश्व  : पुं० [सं० पारावत-अश्व, ब० स०] धृष्टद्युम्न।
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पारावती  : स्त्री० [सं० पारावत+अच्+ङीष्] १. अहीरों के एक तरह के गीत। २. कबूतरी।
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पारावारीण  : वि० [सं० पार-अवार, द्व० स०,+ख—ईन] १. जो दोनों किनारों पर जाता या पहुँचता हो। २. पारंगत।
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पाराशर  : वि० [सं० पराशर+अण्] १. पराशर-संबंधी। २. पराशर द्वारा रचित। पुं० पराशर मुनि के पुत्र, वेदव्यास।
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पाराशरि  : पुं० [सं० पराशर+इञ्] १. शुकदेव। २. वेदव्यास।
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पाराशरी (रिन्)  : पुं० [सं० पाराशर्य+णिनि, य लोप] १. संन्यासी। २. वह संन्यासी जो व्यास द्वारा रचित शारीरिक सूत्रों का अध्ययन करता हो।
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पाराशर्य  : पुं० [सं० पराशर+यञ्]=पराशर।
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पारिद्र  : पुं० [सं० पारीन्द्र, पृषो० सिद्धि] सिंह। शेर।
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पारि  : स्त्री० [हिं० पार] १. नदी, समुद्र आदि का किनारा। २. ओर। दिशा। ३. बाँध या मेंड़। ४. मर्यादा। सीमा।
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पारिकांक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० पारि=ब्रह्मज्ञान√काङ्क्ष (चाहना)+णिनि] तपस्वी।
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पारिख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारिखेय  : वि० [सं० परिखा+ढक्—एय] १. परिखा या खाईं से संबंध रखनेवाला। २. परिखा या खाईं से घिरा हुआ।
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पारिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ+ठक्—इक] बच्चों को होनेवाला एक रोग।
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पारिग्रामिक  : वि० [सं० परिग्राम+ठञ्—इक] किसी गाँव के चारों ओर का।
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पारिजात  : पुं० [सं० पं० त०] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक वृक्ष, जो समुद्र-मंथन के समय निकला था, तथा जिसके संबंध में कहा गया है कि इसे इंद्र नंदनवन में ले गये थे। २. परजाता या हरसिंगार नामक पेड़। ३. कचनार। ४. फरहद। ५. सुगंध।
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पारिणामिक  : वि० [सं० परिणाम+ठञ्—इक] १. परिणाम—संबंधी। २. जिसका कोई परिणाम या रूपांतरण हो सके। जो विकसित हो सके। ३. जो पच सके या पचाया जा सके।
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पारिणाय्य  : वि० [सं० परिणय+ष्यञ्] परिणय-संबंधी। पुं० १. वह धन जो कन्या को विवाह के अवसर पर दिया जाता है। दहेज। २. परिणय।
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पारिग्राह्य  : पुं० [सं० परिणाह+ष्यञ्] घर-गृहस्थी के उपयोग में आनेवाली वस्तुएँ या सामग्री।
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पारित  : वि० [सं०√पार्+णिच्+क्त] १. जिसका पारण हुआ हो। २. जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण हो चुका हो। ३. (प्रस्ताव या विधेयक) जो विधिपूर्वक किसी संस्था के द्वारा स्वीकृत किया जा चुका हो। (पास्ड)
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पारितोषिक  : पुं० [सं० परितोष+ठक्—इक] १. वह धन जो किसी को देकर परितुष्ट किया जाता है। २. वह धन जो प्रतियोगिता में विजयी या श्रेष्ठ सिद्ध होने पर अथवा कोई असाधारण योग्यता दिखलाने पर उत्साह बढ़ाने के लिए दिया जाता है। (प्राइज)
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पारिदि  : पुं०=पारद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिध्वजिक  : पुं० [सं० परिध्वज, प्रा० स०,+ठञ्—इक] वह जो हाथ में झंडा लेकर चलता हो।
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पारिपाट्य  : पुं० [सं० परिपाटी+ष्यञ्]=परिपाटी।
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परिपात्र  : पुं० [सं०] सात मुख्य पर्वत-मालाओं में से एक। पारियात्र।
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पारिपात्रिक  : वि० [सं० पारिपात्र+ठक्—इक] १. पारिपात्र—संबंधी। २. पारिपात्र पर बसने, रहने या होनेवाला।
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पारिपार्श्व  : पुं० [सं० परिपार्श्व+अण्] वह जो साथ-साथ चलता हो। अनुचर। सेवक।
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पारिपार्श्विक  : पुं० [सं० परिपार्श्व+ठक्—इक] [स्त्री० पारिपार्श्विका] १. सेवक। २. नाटक में, स्थापक का सहायक।
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पारिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्+अण्] १. अस्थिर रहने, हिलने-डुलने या लहरानेवाला। २. तैरनेवाला। ३. विकल। ४. क्षुब्ध। पुं० १. अस्थिरता। २. नाव। ३. विकलता।
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पारिप्लाव्य  : पुं० [सं० पारिप्लव+ष्यञ्] १. अस्थिरता। चंचलता। २. कंपन। ३. आकुलता। ४. हंस।
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पारिभाव्य  : पुं० [सं० परिभू+ष्यञ्] जमानत करने या जामिन होने का भाव।
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पारिभाव्य-धन  : पुं० [सं० ष० त०] वह धन जो किसी की कोई चीज व्यवहृत करने के बदले में उसके यहाँ अग्रिम जमा किया जाता है और जो उसकी चीज लौटाने पर वापस मिल जाता है।
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पारिभाषिक  : वि० [सं० परिभाषा+ठञ्—इक] १. परिभाषा-संबंधी। २. (शब्द) जो किसी शास्त्र या विषय में अपना साधारण से भिन्न कोई विशिष्ट अर्थ रखता हो। (टेकनिकल)
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पारिभाषिकी  : स्त्री० [सं० पारिभाषिक+ङीष्] पारिभाषिक शब्दों की माला या सूची। (टरमिनॉलॉजी)
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पारिमाण्य  : पुं० [सं० परिमाण+ष्यञ्] घेरा। मंडल।
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पारिमिता  : स्त्री० [परिमित+अण्+टाप्]=सीमा।
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पारिमित्य  : पुं० [सं० परिमित+ष्यञ्] सीमा।
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पारिमुखिक  : वि० [सं० परिमुख+ठक्—इक] [भाव० पारिमुख्य] १. जो मुख के समक्ष या सामने हो। २. जो पास में हो या उपस्थित हो।
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पारियात्र  : पुं० [सं०] सात पर्वत-श्रेणियों में से एक, जो किसी समय आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा के रूप में मानी जाती थी। पारिपात्र।
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पारियात्रिक  : वि० [स० परियात्रा प्रा० स०,+अण्+ठक् —इक]=पारिपात्रिक (परिपात्र-संबंधी)।
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पारियानिक  : पुं० [सं० परियान प्रा० स०,+ठक्—इक] ऐसा यान जिस पर यात्रा की जाती हो।
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पारिरक्षक  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ण्वुल्—अक+अण्] संन्यासी।
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पारिव्राज्य  : पुं० [सं० परिव्राज्+ण्य्ञ्] संन्यास।
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पारिश्रमिक  : पुं० [सं० परिश्रम+ठक्—इक] किये हुए परिश्रम के बदले में मिलनेवाला धन। कोई कार्य करने की मजदूरी। (रिम्यूनरेशन)
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पारिष  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिषद  : पुं० [सं० परिषद्+अण्] परिषद् में बैठनेवाला व्यक्ति। परिषद् का सदस्य। (काउंसिलर)
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पारिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+ण्य] अभिनय आदि का दर्शक। सामाजिक।
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पारिस्थितिक  : वि० [सं परिस्थिति+ठक्—इक] १. परिस्थिति संबंधी। २. जो परिस्थितियों का ध्यान रखकर या उनके विचार से किया गया हो। (सर्कस्टैन्शल)
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पारिहारिकी  : स्त्री० [सं० परिहार+ठक्—इक+ङीष्] एक तरह की पहेली।
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पारिहास्य  : पुं० [सं० परिहास+ष्यञ्]=परिहास।
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पारी  : स्त्री० [सं०] १. वह रस्सी जिससे हाथी के पैर बाँधे जाते हैं। २. जल-पात्र। ३. केसर। स्त्री० [हिं० बार, बारी] १. कोई कार्य करने का क्रमानुसार आने या मिलनेवाला अवसर। बारी। २. गेंद-बल्ले के खेल में, प्रत्येक दल को बल्लेबाजी करने का मिलनेवाला अवसर। पाली।
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पारीक्षणिक  : पुं० [सं० परीक्षण+ठक्—इक] वह कर्मचारी जो इस बात की परीक्षा या जाँच के लिए रखा गया हो कि यह अपने काम या पद के लिए उपयुक्त है या नहीं। (प्रोबेशनर) वि० परीक्षण संबंधी। परीक्षण का।
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पारीक्षित  : पुं० [सं० परीक्षित्+अण्] परीक्षित् के पुत्र, जनमेजय।
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पारीछत  : भू० कृ०=परीक्षित।
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पारीण  : वि० [सं० पार+ख—ईन] १. उस पार पहुँचा हुआ। २. पारंगत।
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पारीय  : वि० [सं० पार+छ—ईय] समस्त पदों के अंत में, किसी विषय में दक्ष।
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पारुष्ण  : पुं० [सं० परुष्ण+अण्] एक तरह का पक्षी।
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पारुष्य  : पुं० [सं० परुष+ष्यञ्] परुष होने की अवस्था, गुण या भाव। परुषता।
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पारेरक  : पुं० [सं० पार√ईर् (गति)+ण्वुल्—अक] तलवार।
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पारेवा  : पुं० [सं० पारावत] कबूतर। परेवा।
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पारेषक  : वि० [सं० पार√इष् (गति)+णिच्+ण्वुल—अक] प्रेषण करने या भेजनेवाला। पुं० विद्युत् से समाचार भेजने या बात करने के यंत्रों का वह अंग जिससे समाचार या संदेश भेजे जाते हैं। ‘प्रतिग्राहक’ का विपर्याय। (ट्रांसमीटर)
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पारोकना  : अ० [सं० परोक्ष] १. परोक्ष या आड़ में होना। २. अंतर्धान या अदृश्य होना।
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पारोक्ष  : वि० [सं० परोक्ष+अण्] [भाव० पारोक्ष्य] १. रहस्यमय। २. गुप्त। ३. अस्पष्ट।
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पार्क  : पुं० [अं०] शहरों में, ऐसा उद्यान जिसमें घास उगी हुई हो तथा जहाँ छोटे-मोटे फूल-पौधे भी हों।
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पार्जन्य  : वि० [सं० पर्जन्य+अण्] मेघ या वर्षा-संबंधी।
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पार्ट  : पुं० [अं०] १. अंश। भाग। हिस्सा। २. किसी अभिनय, विषय आदि में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जानेवाला अपने कर्तव्य का निर्वाह।
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पार्टी  : स्त्री० [अं०] १. दल। २. वह समारोह जिसमें आमंत्रित लोगों को भोजन, जलपान आदि कराया जाता है।
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पार्ण  : वि० [सं० पर्ण+अण्] १. पर्ण-संबंधी। पत्तों का। २. पत्तों के द्वारा प्राप्त होनेवाला। जैसे—पार्णकर।
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पार्थ  : पुं० [सं० पृथा+अण्] १. पृथा के पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन या भीम (विशेषतः अर्जुन)। २. अर्जुन नाम का पेड़। ३. राजा।
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पार्थक्य  : पं० [सं० पृथक्+ण्यञ्] १. पृथक् होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिससे चीजों का पृथक्-पृथक् होना सूचित होता हो। ३. अंतर। ४. जुदाई।
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पार्थ-सारथि  : पुं० [ष० त०] १. कृष्ण। २. मीमांसा के एक प्राचीन आचार्य।
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पार्थिव  : वि० [सं० पृथिवी+अञ्] १. पृथ्वी-संबंधी। २. पृथ्वी से उत्पन्न। ३. पृथ्वी से उत्पन्न वस्तुओं का बना हुआ। ४. पृथ्वी पर शासन करनेवाला। ५. राजकीय। पुं० १. मिट्टी का बरतन। २. काया। देह। शरीर। ३. राजा। ४. पृथ्वी पर या पृथ्वी से उत्पन्न होनेवाला पदार्थ।
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पार्थिव-आय  : स्त्री० [ष० त०] मालगुजारी। लगान।
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पार्थिव-नन्दन  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० पार्थिव-नंदिनी] राजकुमारी।
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पार्थिव-पूजन  : पुं० [ष० त०] कच्ची मिट्टी का शिव-लिंग बनाकर उसका किया जानेवाला पूजन।
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पार्थिव-लिंग  : पुं० [ष० त०] १. राजचिह्न। [कर्म० स०] २. कच्ची मिट्टी का बनाया हुआ शिव-लिंग जिसके पूजन का कुछ विशिष्ट विधान है।
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पार्थिवी  : स्त्री० [सं० पार्थिव+ङीष्] १. सीता। २. लक्ष्मी।
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पार्थी  : पुं० [सं० पार्थिव=पृथ्वी-संबंधी] मिट्टी का बनाया हुआ शिवलिंग।
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पार्पर  : पुं० [सं० पर्परी+अण्] १. मिट्ठी भर चावल। २. क्षय। (रोग)। ३. भस्म। राख। ४. यम।
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पार्यंतिक  : वि० [सं० पर्यंत+ठक्—इक] पर्यंत का; अर्थात् अंतिम।
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पार्य  : वि० [सं० पार+ष्यञ्] जो पार अर्थात् दूसरे किनारे पर स्थित हो। पुं० अंत।
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पर्याप्तिक  : वि० [सं० पर्याप्त+ठक्—इक] १. पर्याप्त। यथेष्ट। २. संपूर्ण।
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पार्लमेंट  : स्त्री० [अं०] संसद्। (दे०)
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पार्वण  : वि० [सं० पर्वन्+अण्] पर्व या अमावस्या के दिन किया जाने या होनेवाला। पुं० उक्त अवसर पर किया जानेवाला श्राद्ध।
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पार्वतिक  : पुं० [सं० पर्वत+ठक्—इक] पर्वतमाला। पर्वत-श्रेणी।
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पार्वती  : स्त्री० [सं० पर्वत+अण्+ङीष्] पुराणानुसार हिमालय पर्वत की पुत्री, जिसका विवाह शिवजी से हुआ था। गिरिजा। भवानी।
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पार्वती-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. कार्तिकेय। २. गणेश।
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पार्वती-नन्दन  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-कुमार।
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पार्वती-नेत्र  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-लोचन।
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पार्वती-लोचन  : पुं० [ष० त०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पार्श्व  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+श्वण्, पृ—आदेश] १. कंधों और काँखों के नीचे के उन दोनों भागों में से प्रत्येक जिनमें पसलियाँ होती हैं। छाती के दाहिने और बाएँ भागों में से प्रत्येक भाग। बगल। २. पसली की हड्डियों का समुदाय। पंजर। ३. किसी पदार्थ, प्राणी की लंबाई वाले विस्तार में इधर अथवा उधर पड़नेवाला अंग या अंश। बगलवाला छोर या सिरा। ४. किसी क्षेत्र या विस्तार का वह अंग या अंश जो किसी एक ओर या दिशा की सीमा पर पड़ता हो और कुछ दूर तक सीधा चला गया हो। जैसे—इस चौकोर क्षेत्र के चारों पार्श्व बराबर हैं। ५. किसी चीज के अगल-बगल या दाहिने-बाएँ अंशों के पास पड़नेवाला विस्तार। जैसे—गढ़ के दाहिने पार्श्व में बन था। ६. लिखते समय कागज की दाहिनी (अथवा बाईं) ओर छोड़ा जानेवाला स्थान। हाशिया। ८. कपट या छल से भरा हुआ उपाय या साधन। ७. दे० ‘पार्शनाथ’।
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पार्श्वक  : पुं० [सं०] वह चित्र जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखलाया गया हो।
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पार्श्वग  : वि० [सं० पार्श्व√गम् (जाना)+ड] साथ में चलने या रहनेवाला। पुं० नौकर। सेवक।
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पार्श्व-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. पार्श्व या बगल में आया या ठहरा हुआ। २. (चित्र) जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखाया गया हो, दूसरा पार्श्व सामने न हो। (प्रोफाइल) जैसे—दाहिनी ओर जाते हुए व्यक्ति के चित्र में उसकी पार्श्व-गत आकृति ही दिखाई देती है। पुं० वह जिसे अपने यहाँ रखकर आश्रय दिया गया हो या जिसकी रक्षा की गई हो।
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पार्श्वगायन  : पुं० [सं०] आज-कल वह गायन जो नेपथ्य से किसी पात्र या पात्री के गाने के बदले में होता है। विशेष—जो अभिनेता या अभिनेत्री गान-विद्या में पटु नहीं होती, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है। यही गाना पार्श्वगायन कहलाता है।
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पार्श्वचर  : वि० [सं० पार्श्व√चर् (गति)+ट] पास में रहकर साथ चलनेवाला।
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पार्श्वचित्र  : पुं० [सं०] पार्श्वक। (दे०)
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पार्श्व-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशिये में लिखी गई टिप्पणी। (मार्जिनल नोट)
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पार्श्वद  : पुं० [सं० पार्श्व√दा (देना)+क] नौकर। सेवक।
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पार्श्वनाथ  : पुं० [सं०] जैनों के तेइसवें तीर्थंकर।
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पार्श्व-परिवर्त्तन  : पुं० [ष० त०] लेटे या सोये रहने की दशा में करवट बदलना।
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पार्श्ववर्ती  : वि० [सं० पार्श्व√वृत (रहना)+णिनि] [स्त्री० पार्श्ववर्त्तिनी] १. किसी के पास या साथ रहनेवाला। जैसे—राजा के पार्श्ववर्ती। २. किसी के पार्श्व में, आस-पास या इधर-उधर रहने या होनेवाला। जैसे—नगर का पार्श्ववर्ती वन। पुं० १. सहचर। साथी। २. नौकर। सेवक।
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पार्श्व-शीर्षक  : पुं० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशियेवाले भाग में लगाया या लिखा हुआ शीर्षक। (मार्जिनल हेडिंग)
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पार्श्व-शूल  : पुं० [मध्य० स०] बगल या पसलियों में होनेवाला शूल या जोर का दर्द।
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पार्श्व-संगीत  : पुं० [मध्य० स०] १. आधुनिक अभिनयों, चल-चित्रों आदि में वह संगीत जो अभिनय होने के समय परोक्ष में होता रहता है। २. आधुनिक चल-चित्रों में किसी पात्र का ऐसा गाना जो वास्तव में वह स्वयं नहीं गाता, बल्कि उसका गानेवाला परोक्ष या परदे की आड़ में रहकर उसके बदले में गाता है। (प्लेबैक)
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पार्श्वस्थ  : वि० [सं० पार्श्व√स्था (ठहरना)+क] जो पास या बगल में स्थित हो।
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पार्श्वानुचर  : पुं० [पार्श्व-अनुचर, मध्य० स०] सेवक।
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पार्श्वायात  : वि० [पार्श्व-आयात, स० त०] जो पास आया हो।
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पार्श्वासन्न, पार्श्वासीन  : वि० [सं० स० त०] पार्श्व अर्थात् बगल में बैठा हुआ।
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पार्श्विक  : वि० [सं० पार्श्व+ठक्—इक] १. पार्श्व-संबंधी। २. किसी एक पार्श्व या अंग में होनेवाला। ३. किसी एक पार्श्व या अंग की ओर से आने या चलनेवाला। (लेटरल)
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पार्षद्  : स्त्री० [सं०=परिषद्, पृषो० सिद्धि] परिषद्। सभा।
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पार्ष्णि  : स्त्री० [सं० √पृष् (सींचना)+नि, नि० वृद्धि] १. पैर की एड़ी। २. सेना का पिछला भाग। ३. किसी चीज का पिछला भाग। ४. पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर। ५. जीतने या विजय प्राप्त करने की इच्छा। जिगीषा। ६. जाँच-पड़ताल। छान-बीन।
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पार्ष्णि-क्षेम  : पुं० [सं०] एक विश्वेदेव।
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पार्ष्णि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] किसी पर, विशेषतः शत्रु की सेना पर पीछे से किया जानेवाला आक्रमण या आघात।
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पार्ष्णि-ग्राह  : पुं० [सं० पर्ष्णि√ग्रह् (ग्रहण)+अण्] १. वह जो किसी के पीठ पर या पीछे रहकर उसकी सहायता करता हो। २. सेना के पिछले भाग का प्रधान अधिकारी या नायक।
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पार्ष्णि-घात  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर।
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पार्सल  : पुं०=पारसल।
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पालंक  : पुं० [सं०√पाल् (रक्षण)+क्विप्=पाल् अंक, तृ० त०] १. पालक नाम का साग। २. बाज पक्षी। ३. एक प्रकार का रत्न जो काले, लाल या हरे रंग का होता है।
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पालंकी  : स्त्री० [सं० पालंक+ङीष्] १. पालकी नाम का साग। २. कुंदुरू नाम का गंध द्रव्य।
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पालंक्य  : पुं० [सं० पालंक+ष्यञ्] पालक (साग)।
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पालंक्या  : स्त्री० [सं० पालंक्य+टाप्] कुंदुरू नामक पौधा और उसका फल।
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पालंग  : पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अच्] १. पालन करनेवाला। पालक। २. आज-कल कुछ संज्ञाओं के अंत में लगनेवाला एक शब्द जिसका अर्थ होता है—काम, प्रबंध या व्यवस्था करने अथवा सब प्रकार से रक्षित रखनेवाला। जैसे—कोटपाल, राज्यपाल, लेखपाल आदि। पुं० १. पीकदान। उगालदान। २. चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष। ३. बंगाल का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसने वंग और मगध पर साढ़े तीन सौ वर्षों तक राज्य किया था। पुं० [हिं० पालना] १. फलों को गरमी पहुँचाकर पकाने के लिए पत्तों आदि से ढककर या और किसी युक्ति से रखने की विधि। क्रि० प्र०— डालना।—पड़ना। २. ऐसा स्थान जहाँ फल आदि रखकर उक्त प्रकार से पकाये जाते हों। पुं० [सं० पट या पाट] १. वह लंबा-चौड़ा कपड़ा जिसे नाव के मस्तूल से लगाकर इसलिए तानते हैं कि उसमें हवा भरे और उसके जोर से नाव बिना डाँड़ चलाये और जल्दी-जल्दी चले। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—तानना। २. उक्त प्रकार का वह लंबा-चौड़ा और मोटा कपड़ा जो धूप, वर्षा आदि से बचने के लिए खुले स्थान के ऊपर टाँगा या फैलाया जाता है। ३. खेमा। तंबू। शामियाना। ४. गाड़ी, पालकी आदि को ऊपर से ढकने का कपड़ा। ओहार। स्त्री० [सं० पालि] १. पानी को रोकनेवाला बाँध या किनारा। मेड़। २. नदी आदि का ऊँचा किनारा या टीला। ३. नदी आदि के गाट पर के नीचे का ऐसा खोखला स्थान, जो नींव के कंकड़-पत्थर आदि वह बह जाने के कारण बन जाता है। पुं० [सं० पालि] कबूतरों का जोड़ा खाना। कपोत-मैथुन। क्रि० प्र०—खाना। पुं० [?] वह जमीन जो सरकार की निजी संपत्ति होती है।
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पाउल  : पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालक  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पालिका] पालन करनेवाला। पुं० १. पालकर अपने पास रखा हुआ लड़का। २. प्रधान शासक या राजा। ३. घोड़े का साईस। ४. चीते का पेड़। चित्रक। पुं० [सं० पाल्यंक] एक प्रकार का प्रसिद्ध साग। पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—खँड खँड सजी पालक पीढ़ी।—जायसी।
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पालकजूही  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पौधा जो दवा के काम में आता है।
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पालकरी  : स्त्री० [हिं० पलंग] लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जो पलंग, चारपाई, चौकी आदि के पायों को ऊँचा करने के लिए उसके नीचे रखा जाता है।
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पालकाप्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन मुनि जो अश्व, गज आदि से संबंध रखनेवाली विद्या के प्रथम आचार्य माने गये हैं। २. वह विद्या या शास्त्र जिसमें हाथी घोड़े आदि के लक्षणों, गुणों आदि का निरूपण हो। शालिहोत्र।
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पालकी  : स्त्री० [सं० पल्यंक; प्रा० पल्लंक] एक प्रसिद्ध सवारी जिसमें सवार बैठता या लेटता है और जिसे कहार या मजदूर लोग कंधे पर उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। स्त्री० [सं० पालंक] पालक का शाक।
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पालकी गाड़ी  : स्त्री० [हिं० पालकी+गाड़ी] एक तरह की घोड़ागाड़ी जिसका ऊपरी ढाँचा पालकी के आकार का तथा छायादार होता है।
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पालगाड़ी  : स्त्री०=पालकी गाड़ी।
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पालघ्न  : पुं० [सं० पाल√हन् (हिंसा)+क] कुकरमुत्ता।
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पालट  : पुं० [सं० पालन] १. पाला हुआ लड़का। २. गोद लिया हुआ लड़का। दत्तकपुत्र। पुं० [सं० पर्यस्त; प्रा० पलट्ट] १. पलटने की क्रिया या भाव। पलट। २. परिवर्तन। ३. पटेबाजी में एक प्रकार का प्रहार या वार।
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पालटना  : सं०=१. पलटना। २.=पलटाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पालड़ा  : पुं०=पलड़ा।
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पालतू  : वि० [सं० पालना] (पशु-पक्षियों के संबंध में) जो पकड़कर घर में रखा तथा पाला गया हो (जंगली से भिन्न)। जैसे—पालतू तोता पालतू बंदर।
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पालथी  : स्त्री० [सं० पर्य्यस्त=फैला हुआ] दोनों टाँगों को मोड़कर बैठने की वह मुद्रा, जिसमें पैर दूसरी टाँग की रान के नीचे पड़ते हैं। पद्मासन। कमलासन। पलथी। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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पालन  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० पालनीय, पाल्य, भू० कृ० पालित] १. अपनी देख-रेख में और अपने पास रखकर किसी का भरण-पोषण करने की क्रिया या भाव। (मेन्टेनेन्स) २. आज्ञा, आदेश, कर्त्तव्य आदि कार्यों का निर्वाह। (डिसचार्ज, परफॉरमेन्स) ३. अनुकूल आचरण द्वारा किसी निश्चय वचन आदि का होनेवाला निर्वाह। (एबाइड) ४. जीव-जंतुओं के संबंध में उन्हें अपने पास-रखकर उनका वंश, सामर्थ्य या उनसे होनेवाली उपज आदि बढ़ाने का काम। जैसे—मधुमक्षिका पालन, पशु-पालन आदि। ५. तत्काल ब्याई हुई गाय का दूध। पेवस।
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पालना  : स० [सं० पालन] १. व्यक्ति के संबंध में, उसे भोजन, वस्त्र आदि देकर उसका भरण-पोषण करना। पालन करना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। पालन करना। ३. पशु-पक्षियों को मनोविनोद के लिए अपने पास रखकर खिलाना-पिलाना। पोसना। ४. (दुर्व्यसन या रोग) जान-बूझकर अपने साथ लगा रखना और उसे दूर करने का प्रयत्न न करना। ५. कष्ट या विपत्ति से बचाकर सुरक्षित रखना। रक्षा करना। उदा०—आनन सुखाने कहैं, क्यौंहूँ कोउ पालि है।—तुलसी। पुं० [सं० पल्यंक] एक तरह का छोटा झूला, जिसमें बच्चों को लेटाकर झुलाया या सुलाया जाता है।
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पालनीय  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अनीयर] जिसका पालन किया जाना चाहिए अथवा किया जाने को हो।
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पालयिता (तृ)  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+तृच्] वह जो दूसरों का पालन अर्थात् भरण-पोषण करता हो। पालन-पोषण करनेवाला।
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पाल-वंश  : पुं० [सं०] दे० ‘पाल’ के अंतर्गत।
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पालव  : पुं० [सं० पल्लव] १. पल्लव। पत्ता। २. कोमल, छोटा और नया पौधा।
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पाला  : पुं० [सं० प्रालेय] १. बादलों में रहनेवाले पानी या भाप के वे जमे हुए सफेद कण, जो अधिक सरदी पड़ने पर आकाश से पेड़-पौधों आदि पर पतली तह की तरह फैल जाते हैं और इस प्रकार उन्हें हानि पहुँचाते हैं। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा०—(किसी चीज पर) पाला पड़ना=(क) बुरी तरह से नष्ट होना। (ख) इतना दब जाना कि फिर जल्दी उठ न सके। जैसे—आशाओं पर पाला पड़ना। (फसल आदि को) पाला मार जाना=आकाश से पाला गिरने के कारण फसल की पैदावार खराब या नष्ट हो जाना। २. बहुत अधिक ठंढ या सरदी जो उक्त प्रकार के पात के कारण होती है। जैसे—इस साल तो यहाँ बहुत अधिक पाला है। पुं० [सं० पट्ट, हिं० पाड़ा] १. प्रधान स्थान। पीठ। २. वह धुस या भीटा अथवा बनाई हुई मेड़ जिससे किसी क्षेत्र की सीमा सूचित होती हो। ३. कबड्डी आदि के खेलों में दोनों पक्षों के लिए अलग-अलग निर्धारित क्षेत्र में जिसकी सीमा प्रायः जमीन पर गहरी लकीर खींचकर स्थिर की जाती है। पुं० [हिं०] १. पल्ला। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसा काम या बात जिसमें किसी प्रतिपक्षी को दबाना अथवा उसके साथ समानता के भाव से रहकर निर्वाह करना पड़ता है। मुहा०—(किसी से) पाला पड़ना=ऐसा अवसर या स्थिति आना जिसमें किसी विकट व्यक्ति का सामना करना पड़े, या उससे संपर्क स्थापित हो। जैसे—ईश्वर न करे, ऐसे दुष्ट से किसी का पाला पड़े। (किसी से) पाले पड़ना=ऐसी स्थिति में आना या होना कि जिससे काम पड़े, वह बहुत ही भीषण या विकट व्यक्ति सिद्ध हो। जैसे—तुम भी याद करोगे कि किसी के पाले पड़े थे। ३. वह जगह जहाँ दस-बीस आदमी मिलकर बैठा करते हों। ४. अखाड़ा। ५. कच्ची मिट्टी का वह गोलाकार ऊँचा पात्र, जिसमें अनाज भरकर रखते हैं। कोठला। पुं० [सं० पल्लव, हिं० पालो] जंगली बेर के वृक्ष की पत्तियाँ जो चारे के काम आती हैं। पुं०=पाड़ा (टोला या महल्ला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालागन  : स्त्री० [हिं० पावँ+पर+लगना] आदर-पूर्वक किसी पूज्य व्यक्ति के पैर छूने की क्रिया या भाव। प्रणाम।
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पालागल  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, समाचार लाने और ले जानेवाला व्यक्ति। संदेशवाहक। संवादवाहक। हरकारा। २. दूत।
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पालागली  : स्त्री० [सं० पालागल+ङीष्] प्राचीन भारत में, राजा की चौथी और सबसे काम आदर पानेवाली रानी जो शूद्र जाति की होती थी।
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पालाश  : वि० [सं० पलाश+अण्] १. पलाश-संबंधी। २. पलाश का बना हुआ। ३. हरा। पुं० १. तेज पत्ता। २. हरा रंग।
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पालाशखंड  : पुं० [ब० स०] मगध देश।
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पालाशि  : पुं० [सं० पलाश+इञ्] पलाश गोत्र के प्रवर्तक ऋषि।
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पालिंद  : पुं० [सं० पालिंद+अण्] कुंदुरू नामक गंध-द्रव्य।
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पालिंदी  : स्त्री० [सं० पालिंद+ङीष्] १. श्यामा लता। २. त्रिवृता।
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पालि  : स्त्री० [सं०√पल् (रक्षा करना)+इण्] १. कान के नीचे लटकनेवाला कोमल मांस-खंड जिसमें छेद करके बालियाँ आदि पहनी जाती हैं। कान की लौ। २. किसी चीज का किनारा या कोना। ३. कतार। पंक्ति। श्रेणी। ४. सीमा। हद। ५. पुल। सेतु। ६. बाँध। मेंड़। ७. घेरा। परिधि। ८. अंक। क्रोड। गोद। ९. अंडाकार तालाब या सरोवर। १॰. वह भोजन जो परदेशी विद्यार्थी को गुरुकुल से मिलता था। ११. ऐसी स्त्री जिसकी ठोढ़ी पर बाल तथा मूछें हों। १२. चिह्न। निशान। १३. जूँ नाम का कीड़ा। १४. एक तौल जो एक प्रस्थ के बराबर होती थी। १५. दे० ‘पाली’।
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पालिक  : पुं० [सं० पल्यंक] १. पलंग। २. पालकी।
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पालिका  : स्त्री० [सं० पालक+टाप्, इत्व] १. पालन करनेवाली। २. समस्तपदों के अंत में, वह जो पालन-पोषण तथा सुरक्षा का पूरा प्रबंध करती हो। जैसे—नगर पालिका, महानगर पालिका।
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पालित  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+क्त] [स्त्री० पालिता] जिसे पाला गया हो। पाला हुआ। पुं० सिहोर का पेड़।
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पालित्य  : पुं० [सं० पलित+ष्यञ्] वृद्धावस्था में बालों का कुछ पीलापन लिये सफेद होना।
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पालिधी  : स्त्री० [सं०] फरहद का पेड़।
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पालिनी  : वि० स्त्री० [सं०√पाल्+णिनि+ङीप्] जो दूसरों को पालती हो। दूसरों का भरण-पोषण करनेवाली।
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पालिश  : स्त्री० [अं०] १. वह लेप या रोगन जो किसी चीज को चमकाने के लिए उस पर लगाया जाता है। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ाना। २. उक्त प्रकार के लेप से होनेवाली चमक। ओप।
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पालिसी  : स्त्री० [अं०] १. नयी रीति। २. बीमा-संबंधी वह प्रतिज्ञापत्र जो बीमा करनेवाली संस्था की ओर से अपना बीमा करानेवाले को मिलता है।
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पाली (लिन्)  : वि० [सं०√पाल्+णिनि] [स्त्री० पालिनी] १. पालन या पोषण करनेवाला। २. रक्षा करनेवाला। रक्षक।
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पाली  : स्त्री० [?] १. देग। बटलोई। २. बरतन का ढक्कन। ३. ऊपरी तल या पार्श्व। जैसे—कपोलपाली=गाल का ऊपरी तल। ४. प्राचीन भारत की एक प्रसिद्ध भाषा जो गौतम बुद्ध के समय सारे भारत के सिवा वाह्लीक, बरमा, श्याम, सिंहल आदि देशों में बोली और समझी जाती थी। विशेष—गौतम बुद्ध ने इसी भाषा में धर्मोपदेश किया था, और बौद्ध धर्म के सभी प्रमुख तथा प्राचीन ग्रंथ इसी भाषा में हैं। विद्वानों का मत है कि यह मुख्यतः और मूलतः भारत के मूल देश की भाषा थी जिसमें मगधी का भी कुछ अंश सम्मिलित था; इस भाषा का साहित्य बहुत विशाल है। ५. पंक्ति। श्रेणी। ६. तीतर, बटेर, बुलबुल आदि का वह वर्ग जो प्रायः प्रतियोगिता के रूप में लड़ाया जाता है। ७. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार के पक्षी उड़ाये जाते हैं। ८. आज-कल कारखानों आदि में, श्रमिकों के उन अलग-अलग दलों के काम करने का समय जो पारी पारी से आता है। (शिफ्ट) ९. आज-कल गेंद-बल्ले, चौगान आदि खेलों में खिलाड़ियों के प्रतियोगी दलों को खेलने के लिए होनेवाली पारी। (इनिंग) वि०=पैदल। उदा०—धणपाली, पिव पाखरयो, विहूँ भला भड़ जुध्ध।—ढोलामारू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [?] चरवाहा। (राज०)
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पालीवत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़।
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पालीवाल  : पुं० [?] गौड़ ब्राह्मणों के एक वर्ग की उपाधि।
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पालीशोष  : पुं० [सं०] कान का एक रोग।
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पालू  : वि० [हिं० पालना] पाला हुआ। पालतू।
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पाले  : अव्य० [हिं० पाला] अधिकार या वश में। मुहा० दे० ‘पाला’ के अंतर्गत।
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पालो  : पुं० [सं० पालि ?] ५ रुपये भर का बाट या तौल। (सुनार) पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल्य  : वि० [सं०√पाल्+ण्यत्] जिसका पालन होने को हो या किया जाने को हो।
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पाल्लवा  : स्त्री० [सं० पल्लव+अण्+टाप्] प्राचीन भारत में, एक तरह का खेल जो पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों से खेला जाता था।
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पाल्लविक  : वि० [सं० पल्लव+ठक्—इक] फैलनेवाला। प्रसरणशील।
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पाल्वल  : वि० [सं० पल्वल+अण्] १. पल्वल (तालाब) संबंधी। २. पल्वल (तालाब) में होनेवाला। पुं० छोटा ताल या तालाब का पानी।
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पावँ  : पुं० =पाँव।
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पाव  : पुं० [सं० पाद=चतुर्थांश] १. किसी पदार्थ का चौथाई अंश या भाग। २. वह जो तौल या मान में एक सेर का चैथाई भाग अर्थात् चार छटाँक हो। ३. उक्त तौल का बटखरा। ४. नौ गिरह का माप जो एक गज का चतुर्थांश होता है। पद—पाव भर=(क) तौल में चार छटाँक। (ख) माप में नौगिरह। स्त्री० दे० ‘पो’ (पासे का दाँव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पावक  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+ण्वुल्—अक] पवित्र करनेवाला। पुं० १. अग्नि। आग। २. अग्निमंथ या अगियारी नामक वृक्ष। ३. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ४. भिलावाँ। ५. बाय-बिडंग। ६. कुसुम। बर्रे। ७. वरुण वृक्ष। ८. सूर्य। ९. सदाचार।
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पावक-प्रणि  : पुं० [सं० कर्म० स०] सूर्य्यकान्त मणि। आतशी शीशा।
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पावका  : स्त्री० [सं० पाव√कै+क+टाप्] सरस्वती। (वेद)
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पावकात्मज  : पुं० [सं० पावक-आत्मज, ष० त०] पावकि।
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पावकि  : पुं० [सं० पावक+इञ्] १. पावक का पुत्र। कार्तिकेय। २. इक्ष्वाकुवंशीय दुर्योधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र सुदर्शन।
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पावकी  : स्त्री० [सं० पावक+ङीष्] १. अग्नि की स्त्री। २. सरस्वती। (वेद)
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पाव-कुलक  : पुं०=पादाकुलक।
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पावचार  : वि० [सं० पावन-आचार] पवित्र और श्रेष्ठ आचरण करनेवाला। उदा०—तब देखि दुहूँ तिह पावचार।—गुरुगोविंदसिंह। पुं० पवित्र और श्रेष्ठ आचरण।
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पावड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावड़ी  : स्त्री०=पाँवरी (खड़ाऊँ या जूता)।
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पावती  : स्त्री० [हिं० पावना] १. किसी चीज के पहुँचने की लिखित सूचना या प्राप्ति की स्वीकृति। जैसे—पत्र की पावती भेजना। २. किसी से रुपए लेने पर उसकी दी जानेवाली पक्की रसीद।
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पावतीपत्र  : पुं०=पावती।
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पावदान  : पुं० [फा० पाएदान या हिं० पाँव+फा० दान (प्रत्य०)] १. ऊँचे यानों या सवारियों में वह अंग या स्थान जिस पर पाँव रखकर उन पर सवार हुआ जाता है। जैसे—घोड़ागाड़ी या रेलगाड़ी का पावदान। २. मेज के नीचे रखी जानेवाली वह चौकी या लकड़ी की कोई रचना जिस पर कुरसी पर बैठनेवाले पैर रखते हैं। ३. जटा, मूँज, सन आदि अथवा धातु के तारों का बना हुआ वह चौकोर टुकड़ा जो कमरों के दरवाजे के पास पैर पोंछने के लिए रखा जाता है।
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पावन  : वि० [सं√पू+णिच्+ल्यु—अन] [स्त्री० पावनी, भाव० पावनता] १. धार्मिक दृष्टि से, (वह चीज) जो पवित्र समझी जाती हो और दूसरों को भी पवित्र करती या बनाती हो। जैसे—पावन-जल। २. समस्त पदों के अंत में, पवित्र करने या बनानेवाला। जैसे—पतित-पावन। उदा०—सुनु खगपति यह कथा-पावनी।—तुलसी। पुं० १. पावकाग्नि। २. सिद्ध पुरुष। ३. प्रायश्चित्त। ४. जल। पानी। ५. गोबर। ६. रुद्राक्ष। ७. चंदन। ८. शिलारस। ९. गोबर। १॰. कुट नामक ओषधि। ११. पीली भंगरैया। १२. चित्रक। चीता। १३. विष्णु। १४. व्यासदेव का एक नाम।
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पावनता  : स्त्री० [सं० पावन+तल्—सप्] पावन होने की अवस्था या भाव। पवित्रता।
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पावनताई  : स्त्री०=पावनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावनत्व  : पुं० [सं० पावन+त्व]=पावनता।
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पावन-ध्वनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. शंख-नाद। २. शंख।
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पावना  : पुं० [सं० प्रापण, प्रा० पावण] वह जो अधिकार, न्याय आदि की दृष्टि से किसी से प्राप्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो। प्राप्य धन या वस्तु। जैसे—बाजार में उनका हजारों रुपयों का पावना पड़ा (या बाकी) है। लहना। (ड्यूज) स० १. प्राप्त करना। पाना। २. प्रसाद, भोजन आदि के रूप में मिली हुई वस्तु खाना या पीना। जैसे—हम यहीं प्रसाद पावेंगे। ३. किसी चीज या बात का ज्ञान, परिचय आदि प्राप्त करना। ४. दे० ‘पाना’।
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पावनि  : पुं० [सं० पवन+इञ्] पवन के पुत्र हनुमान आदि।
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पावनी  : वि० स्त्री० [सं० पावन+ङीप्] पावन का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० १. हड़। हर्रे। २. तुलसी। ३. गाय। गौ। ४. गंगा नदी। ५. पुराणानुसार शाक द्वीप की एक नदी।
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पावनेदार  : पुं० [हिं० पावना+फा० दार] वह जिसका किसी की ओर पावना निकलता हो। दूसरे से प्राप्य धन लेने का अधिकारी। लहनदार।
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पावन्न  : वि०=पावन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावमान  : वि० [सं० पवमान+अण्] (सूक्त) जिसमें पवमान अग्नि की स्तुति की गयी हो। (वेद)
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पावमानी  : स्त्री० [सं० पावमान+ङीष्] वेद की एक ऋचा।
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पाव-मुहर  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+मुहर] शाहजहाँ के समय का सोने का एक सिक्का जिसका मूल्य एक अशरफी या एक मुहर का चौथाई होता था।
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पावर  : पुं० [सं०] १. वह पासा जिस पर दो बिंदियाँ बनी हों। २. पासा फेंकने का एक प्रकार का ढंग या हाथ। पुं० [अं०] १. वह शक्ति जिससे मशीनें चलाई जाती हैं। यंत्र चलानेवाली शक्ति (जैसे—विद्युत्)। २. अधिकार। शक्ति। ३. सैन्यबल। ४. शासनिक शक्ति। पुं०=पामर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाव-रोटी  : स्त्री० [पुर्त० पाव=रोटी+हिं० रोटी] मैदे, सूजी आदि का खमीर उठाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मोटी और फूली हुई रोटी। डबलरोटी।
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पावल  : स्त्री०=पायल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावली  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+ला (प्रत्य०)] एक रुपये के चौथाई भाग का सिक्का। चवन्नी।
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पावस  : स्त्री० [सं० प्रावृष; प्रा० पाउस] १. वर्षाकाल। बरसात। २. वर्षा। वृष्टि। ३. वर्षाऋतु में समुद्र की ओर से आनेवाली वे हवाएँ जो घटनाओं के रूप में होती हैं और जल बरसाती हैं। (मानसून)
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पावा  : पुं०=पाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मैना (पक्षी)।
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पाश  : पुं० [सं०√पश् (बाँधना)+घञ्] १. वह चीज जिससे किसी को फँसाया या बाँधा जाय। जैसे—जंजीर, रस्सी आदि। २. रस्सी से बनाया जानेवाला वह घेरा जिसमें गागर आदि को फँसाकर कूएँ में लटकाया जाता है। ३. पशु-पक्षियों को फँसाकर पकड़ने का जाल। ४. बंधन। ५. समस्त पदों के अंत में (क) सुन्दरता और सजावट के लिए अच्छी तरह बाँधकर तैयार किया हुआ रूप। जैसे—कर्णपाश। (ख) अधिकता और बाहुल्य। जैसे—केश-पाश। ५. वरुण देवता का अस्त्र जो फंदे के रूप में माना गया है। ६. दे० ‘फाँस’। प्रत्य० [फा०] छिड़कनेवाला। जैसे—गुलाब पाश। पुं० किसी चीज का अंश या खंड। टुकड़ा। पद—पाश-नाश। (देखें)
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पाश-कंठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसके गले में फाXस या बंधन पड़ा हो।
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पाशक  : पुं० [सं० √पश+णिच्+ण्वुल्—अक] १. जाल। फंदा। २. चौपड़ खेलने का पाशा।
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पाश-क्रीड़ा  : स्त्री० [तृ० त०] जूआ। द्यूत।
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पाशOर  : पुं० [ष० त०] वरुण देवता। (जिनका अस्त्र पाश है)।
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पाशन  : पुं० [सं०√पश+णिच्+ल्युट्—अन] १. रस्सी। २. बंधन।
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पाश-पाश  : अव्य० [फा०] टुकड़े-टुकड़े। चूर-चूर।
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पाश-पीठ  : पुं० [ष० त०] बिसात (चौसर खेलने की)।
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पाश-बंध  : पुं० [स० त०] फंदा।
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पाश-बंधक  : पुं० [सं०] बहेलिया। चिड़ीमार।
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पाश-बंधन  : पुं० [स० त०] १. जाल। २. फंदा।
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पाश-बद्ध  : भू० कृ० [स० त०] जाल या फंदे में फँसा हुआ।
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पाश-भृत्  : पुं० [सं पाश√भृ (धारण)+क्विप्, तुक्] वरुण (देवता)।
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पाश-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] हाथ की तर्जनी और अंगूठे के सिरों को सटाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मुद्रा। (तंत्र)
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पाशव  : वि० [सं० पशु+अण्] १. पशु-संबंधी। पशुओं का। २. पशुओं की तरह का। पशुओं का-सा। जैसे—पाशव आचरण। पुं० पशुओं का झुंड।
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पाशवता  : स्त्री०=पशुता। उदा०—प्रेम शक्ति से चिर निरस्त्र हो जावेगी पाशवता।—पंत।
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पाशवान् (वत्)  : वि० [सं० पाश+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पाशवती] जिसके पास पाश या फंदा हो। पाशवाला। पशधारी। पुं० वरुण (देवता)।
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पाशवासन  : पुं० सं० पाशव—आसन कर्म० स०] एक प्रकार का आसन या बैठने की मुद्रा।
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पाशविक  : वि० [पशु+ठञ्—इक] १. पशुओं की तरह का। ३. (आचरण) जो पशुओं के आचरण जैसे हो।
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पाश-हस्त  : पुं० [ब० स०] १. वरुण। २. यम।
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पाशांत  : पुं० [सं०=पार्श्व-अन्त, पृषो० सिद्धि] सिले हुए कपड़े का पीठ की ओर पड़नेवाला अंश।
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पाशा  : पुं० [तु०] तुर्किस्तान में बड़े बड़े अधिकारियों और सरदारों को दी जानेवाली उपाधि।
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पाशिक  : पुं० [सं० पाश+ठक्—इक] चिड़ीमार। बहेलिया।
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पाशित  : भू० कृ० [सं० पाश+णिच्+क्त] पाश में या पाश से बँधा हुआ। पाशबद्ध।
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पाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाश+इनि] १. जो अपने पास पाश या फंदा पखता हो। पाशवाला। पुं० १. वरुण देवता। २. यम। ३. बहेलिया। ४. अपराधियों के गले में फँदा या फाँसी लगाकर उन्हें प्राण-दंड देनेवाला व्यक्ति, जो पहले प्रायः चांडाल हुआ करता था। स्त्री० [फा०] १. जल या तरल पदार्थ छिड़कने की क्रिया या भाव। जैसे—गुलाब-पाशी। २. खेत आदि को जल से सींचने की क्रिया। जैसे—आब-पाशी।
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पाशुपत  : वि० [सं० पशुपति-अण्] १. पशुपति-संबंधी। पशुपति या शिव का। पुं० १. पशुपति या शिव के उपासक एक प्रकार के शैव। २. एक तंत्र शास्त्र जो शिव का कहा हुआ माना जाता है। ३. अथर्ववेद का एक उपनिषद्। ४. अगस्त का फूल।
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पाशुपत-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] एक प्राचीन दर्शन जिसमें पशुपति, पाशु और पशु इन तीन सत्ताओं को मुख्य माना गया था और जिसमें पशु के पाश से मुक्त होने के उपाय बतलाये गये हैं।
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पाशुपत-रस  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध।
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पाशुपतास्त्र  : [पाशुपत-अस्त्र, कर्म० स०] शिव का एक भीषण शूलास्त्र जिसे अर्जुन ने तपस्या करके प्राप्त किया था।
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पाशुपाल्य  : पुं० [सं० पशुपाल+ष्यञ्] पशुपालन।
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पाशु-बंधक  : पुं० [सं० पशुबंध+ठक्—क] यज्ञ में वह स्थान जहाँ बलि पशु बाँधा जाता था।
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पाश्चात्य  : वि० [सं० पश्चात्+त्यक्] १. पीछे का। पिछला। २. पीछे होनेवाला। ३. पश्चिम दिशा का। ४. पश्चिमी महादेश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पौरस्य का विपर्याय। जैसे—पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य साहित्य।
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पाश्चात्यीकरण  : पुं० [सं० पाशचात्य+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्—अन] किसी देश या जाति को पाश्चात्य सभ्यता के साँचे में ढालना या पाश्चात्य ढंग का बनाना। (वेस्टर्नाइज़ेशन)
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पाश्या  : स्त्री० [सं० पाश+यत्+टाप्] पाश। जाल।
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पाषंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्=वेदधर्म,√षंड् (खंडन)+अच्] १. वे सब आचरण और कार्य जो वैदिक धर्म या रीति के हों। २. वैदिक रीतियों का खंडन करनेवाले कार्य और विचार। ३. दूसरों को धोखा देने आदि के उद्देश्य से झूठ-मूठ किये जानेवाले धार्मिक कृत्य। ढोंग।
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पाषंडी (डिन्)  : वि० [सं० पा√षंड्+णिच्+इनि] १. जो वेदों के सिद्धान्तों के विरुद्ध चलता हो और किसी दूसरे झूठे मत का अनुयायी हो। २. जो दूसरों को धोखा देने के लिए अच्छा वेश बनाकर रहता हो।
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पाषक  : पुं० [सं०√पष् (बाँधना)+ण्वुल्—अक] पैर में पहनने का एक गहना।
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पाषर  : स्त्री०=पाखर (हाथी की झूल)।
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पाषाण  : पुं० [सं०√पिष् (चूर्ण करना)+आनच्, पृषो० सिद्धि] १. पत्थर। प्रस्तर। शिला। नीलम, पन्ने आदि रत्नों का एक दोष। ३. गन्धक। वि० [स्त्री० पाषाणी] १. निर्दय। २. कठोर। ३. नीरस।
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पाषाण-गदर्भ  : पुं० [सं० ष० त० ?] दाढ़ में सूजन होने का एक रोग।
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पाषाण-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] अगहन मास की शुक्ला चतुर्दशी। अगहन सुदी चौदस।
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पाषाण-दारण  : पुं० [ष० त०] [वि० पाषाणदारक] पत्थर तोड़ने का काम।
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पाषाण-भेद  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का पौधा जो अपनी पत्तियों की सुन्दरता के लिए बगीचों में लगाया जाता है। पाखानभेद। पथरचूर।
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पाषाण-भेदन  : पुं० [पाषाण√भिद् (तोड़ना)+ल्युट्—अन]=पाषाण भेद।
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पाषाणभेदी (दिन्)  : पुं० [सं० पाषाण√भिद्+णिनि] पाखान भेद। पथरचूर।
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पाषाण-मणि  : पुं० [मयू० स०] सूर्यकांत मणि।
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पाषाण-रोग  : पुं० [ष० त०] अश्मरी या पथरी नाम का रोग।
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पाषाण-हृदय  : वि० [ब० स०] जिसका हृदय बहुत ही कठोर या अत्यन्त क्रूर हो।
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पाषाणी  : स्त्री० [सं० पाषाण+ङीष्] बटखरा। वि० स्त्री० निर्दय (स्त्री)।
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पासंग  : पुं० [फा० पारसंग] १. तराजू के दोनों पलड़ों या पल्लों का वह सामान्य सूक्ष्म अन्तर जो उस दशा में रहता है जब उन पर कोई चीज तौली नहीं जाती। पसंगा। विशेष—ऐसी स्थिति में तराजू पर जो चीज तौली जाती है वह बटखरे या उचित मान से या तो कुछ कम होती है या अधिक; तौल में ठीक और पूरी नहीं होती। २. पत्थर, लोहे आदि के टुकड़े के रूप में वह थोड़ा-सा भार जो उक्त अवस्था में किसी पल्ले या उसकी रस्सी में इसलिए बाँधा जाता है कि दोनों पल्लों का अन्तर दूर हो जाय और चीज पूरी तौली जा सके। विशेष—शब्द के मूल अर्थ के विचार से पासंग का यही दूसरा अर्थ प्रधान है; परन्तु व्यवहारतः इसका पहला अर्थ ही प्रदान हो गया है। ३. वह जो किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ, सूक्ष्म या हीन हो। जैसे—तुम तो चालाकी में उसके पासंग भी नहीं हो। पुं० [?] एक प्रकार का जंगली बकरा जो बिलोचिस्तान और सिन्ध में पाया जाता है, जिसकी दुम पर बालों का गुच्छा होता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में इसके शरीर का रंग कुछ बदलता रहता है। इसकी मादा ‘बोज’ कहलाती है।
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पास  : अव्य [सं० पार्श्व] १. जो अवकाश, काल आदि के विचार से अधिक दूरी पर न हो। समय, स्थान आदि के विचार से थोड़े ही अन्तर पर। निकट। समीप। जैसे—(क) उनका मकान भी पास ही है। (ख) परीक्षा के दिन पास आ रहे हैं। पद—पास-पास या पास ही पास=एक दूसरे के समीप। बहुत थोड़े अन्तर पर। जैसे—दोनों पुस्तकें पास ही पास रखी हैं। मुहा०—(किसी स्त्री के) पास आना, जाना या रहना=स्त्री० के साथ मैथुन या संभोग करना। (किसी के) पास न फटकना=बिलकुल अलग या दूर रहना। (किसी के) पास बैठना=किसी की संगति में रहना। जैसे—भले आदमियों के पास बैठने से प्रतिष्ठा होती है। २. अधिकार में। कब्जे में। हाथ में। जैसे—तुम्हारे पास कितने रुपए हैं ? ३. किसी के निकट जाकर या किसी को सम्बोधित करके। उदा०—माँगत है प्रभु पास दास यह बार बार कर जोरी।—सूर। पुं० १. ओर। तरफ। दिशा। उदा०—अति उतुंग जल-निधि चहुँपासा।—तुलसी। २. निकटता। सामीप्य। जैसे—उसके पास से हट जाओ। ३. अधिकार। कब्जा। जैसे—हमें दस रुपए अपने पास से देने पड़े। विशेष—इस अर्थ में इसके साथ केवल ‘में’ और ‘से’ विभक्तियाँ लगती हैं। पुं० [फा०] किसी के पद, मर्यादा, सम्मान आदि का रखा जानेवाला उचित ध्यान या किया जानेवाला विनयपूर्ण विचार। अदब। लिहाज। जैसे—बड़ों का हमेशा पास करना (या रखना) चाहिए। क्रि० प्र०—करना।—रखना। पुं० [अं०] वह अधिकारपत्र जिसकी सहायता से कोई कहीं बिना रोक-टोक आ-जा सकता हो। पारक। पारपत्र। जैसे—अभिनय या खेल-तमाशे में जाने का समय; रेल से कहीं आने-जाने का पास। विशेष—टिकट या पास में यह अन्तर है कि टिकट के लिए तो धन या मूल्य देना पड़ता है; परन्तु पास बिना धन दिये या मूल्य चुकाये ही मिलता है। वि० १. जो किसी प्रकार की रुकावट आदि पार कर चुका हो। २. जो जाँच, परीक्षा आदि में उपयुक्त या ठीक ठहरा हो; और इसी लिए आगे बढ़ने के योग्य मान लिया गया हो। उत्तीर्ण। जैसे—(क) लड़कों का इम्तहान में पास होना। (ख) विधायिका सभा में कोई कानून पास होना। ३. पावन, प्राप्यक, व्यय आदि के लेखे के संबंध में, जो उपयुक्त अधिकारी के द्वारा ठीक माना गया और स्वीकृत हो चुका हो। जैसे—कर्मचारियों के वेतन का प्राप्यक (बिल) पास होना। पुं० [सं० पास=बिछाना, डालना] आँवें के ऊपर उपले जमाने का काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] भेड़ों के बाल कतरने की कैंची का दस्ता। पुं० १. दे० ‘पाश’। २. दे० ‘पासा’।
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पासक  : पुं०=पाशक।
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पासना  : अ० [सं० पयस्=दूध] स्तनों या थनों में दूध उतरना या उनका दूध से भरना।
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पासनी  : स्त्री० [सं० प्राशन] बच्चों का अन्नप्राशन। उदा०—कान्ह कुँवर की करहु पासनी।—सूर।
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पास-बंद  : पुं० [हिं० पास+फा० बंद] दरी बुनने के करघे की वह लकड़ी जिससे बै बँधी रहती है और जो ऊपर-नीचे जाया करती है।
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पास-बान  : पुं० [फा०] [भाव० पासवानी] पहरा देनेवाला व्यक्ति। द्वारपाल। स्त्री० रखेली स्त्री। (राज०)
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पासवानी  : स्त्री० [फा०] १. द्वारपाल का काम और पद। २. पहरेदारी।
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पास-बुक  : स्त्री० [अं०]=लेखा-पुस्तिका।
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पासमान  : पुं० [हिं० पास+मान (प्रत्य०)] पास रहनेवाला दास। पुं०=पासबान।
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पासवर्ती  : वि०=पाश्वर्ती।
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पाससार  : पुं०=पासासारि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासह  : अव्य०=पास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासा  : पुं० [सं० पाशक, प्रा० पासा] १. हड्डी, हाथी दाँत आदि के छः पहले टुकड़े जिनके पहलों पर एक से छः तक बिंदियाँ अंकित होती हैं और जिन्हें चौसर आदि के खेलों में खेलाड़ी बारी-बारी से फेंककर अपना दाँव निश्चित करते हैं। (डाइस) मुहा०—(किसी का) पासा पड़ना=(क) पासे के पहल का किसी की इच्छा के अनुसार ठीक गिरना। जीत का दाँव पड़ना। (ख) ऐसी स्थिति होना कि उद्देश्य, युक्ति आदि सफल हो। पासा पलटना=(क) पासे का विपरीत प्रकार या रूप में गिरने लगना। (ख) ऐसी स्थिति आना या होना कि जो क्रम चला आ रहा हो, वह उलट जाय, मुख्यतः बुरी से अच्छी दशा या दिशा की ओर प्रवृत्त होना। पासा फेंकना=भाग्य के भरोसे रहकर और सफलता प्राप्त करने की आशा से किसी प्रकार का उपाय, प्रयत्न या युक्ति करना। २. चौपड़ या चौसर का खेल, अथवा और कोई ऐसा खेल जो पासों से खेला जाता हो। ३. मोटी छः पहली बत्ती के आकार में लाई हुई वस्तु। गुल्ली। जैसे—चाँदी या सोने का पासा (अर्थात् उक्त आकार में ढाला हुआ खंड)। ४. सुनारों का एक उपकरण जो काँसे या पीतल का चौकोर ढला हुआ खंड होता है और जिसके हर पहल पर छोटे-बड़े गोलाकार गड्ढे बने होते हैं। (इन्हीं गड्ढों की सहायता से गहनों में गोलाई लाई जाती है।) ५. कोई चीज ढालने का साँचा। (राज०)
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पासार  : पुं० [फा० पासदार] [भाव० पासारी] १. तरफदार। पक्षपाती। २. शरणदाता। रक्षक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासासारि  : पुं० [हिं० पासा+सारि=गोटी] १. पासों की सहायता से खेला जानेवाला खेल। जैसे—चौसर। चौसर आदि की गोट जो पासा फेंककर उसके अनुसार चलाते हैं।
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पासिक  : पुं० [सं० पाश] १. फंदा। २. बंधन।
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पासिका  : स्त्री० [सं० पाश] १. जाल। २. बंधन।
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पासी  : पुं० [सं० पाशिन्, पाशी] १. जाल या फंदा डालकर चिड़ियाँ पकड़नेवाला। बहेलिया। २. एक जाति जो ताड़ के पेड़ों से ताड़ी उतारने का काम करती है। स्त्री० [सं० पाश] १. घोड़ों के पिछले पैर में बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी। २. घास बाँधने की जाली या रस्सी। स्त्री०=पाश (फंदा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाशु  : पुं०=पाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पास।
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पासुरी  : स्त्री०=पसली।
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पाहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास; पाह] १. निकट। पास। समीप। २. प्रति। से। उदा०—जाइ कहहु उन पास सँदेसू।—जायसी।
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पाह  : स्त्री० [हिं० पाहन] एक तरह का पत्थर जिससे लौंग, फिटकरी, अफीम आदि घिसकर आँख पर लगाने का लेप बनाते हैं। पुं० [सं० पथ] पथ। मार्ग।
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पाहत  : पुं० [सं० नि० सिद्धि० पररूप] शहतूत का पेड़।
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पाहन  : पुं० [सं० पाषाण, प्रा० पाहाण] १. पत्थर। उदा०—पाहन ते न कठिन कठिनाई।—तुलसी। २. कसौटी का पत्थर। ३. पारस पत्थर। स्पर्शमणि। उदा०—इतर धातु पाहनहिं परसि कंचन ह्वै सोहै।—नन्ददास। वि० पत्थर की तरह कठोर हृदय का।
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पाहरू  : पुं० [हिं० पहर, पहरा] पहरा देनेवाला। पहरेदार।
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पाहल  : स्त्री० [हिं० पहला] किसी को सिक्ख धर्म की दीक्षा देने के समय होनेवाला धार्मिक कृत्य या समारोह।
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पाहा  : पुं० [सं० पथ] १. पथ। मार्ग। २. मेंड़।
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पाहात  : पुं० [सं० नि० सिद्धि] शहतूत का पेड़।
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पाहार  : पुं० [सं० पयोधर; प्रा० पयोहर] बादल। मेघ। पुं० पहाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहिं  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास, पाह] १. पास। निकट। २. किसी की ओर या प्रति। ३. किसी के उद्देश्य से अथवा उसके पास जाकर।
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पाहि  : अव्य० [सं०√पा+लोट्+सिप्—हि] रक्षा करो। बचाओ।
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पाहिमाम्  : अव्य० [सं० पाहि और माम्व्यस्त पद] त्राहिमाम्।
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पाहीं  : अव्य०=पाहिं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाही  : स्त्री० [हिं० पाह=पथ] किसी किसान की वह खेती जो उसके गाँव या निवास स्थान से कुछ अधिक दूरी पर हो। उदा०—तहाँ नरायन पाही कीन्हां, पल आवैं पल जाई हो।—नारायणदास सन्त।
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पाहुँच  : स्त्री०=पहुँच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहुना  : पुं० [सं० प्राघूर्ण, प्राघुण=अतिथि] [स्त्री० पाहुनी] १. अतिथि। मेहमान। अभ्यागत। २. जमाता। दामाद। (पूरब)
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पाहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना] १. आतिथ्य। मेहमानदारी। पहुनई। २. रखेली स्त्री।
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पाहुर  : पुं० [सं० प्राभृत; प्रा० पाहुड=भेंट] १. उपहार। भेंट। नजर। २. शुभ अवसरों पर संबंधियों और इष्ट-मित्रों के यहाँ भेजे जानेवाले फल, मिठाइयाँ आदि। बैना। बायन।
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पाहू  : पुं० [सं० पथ, पुं० हिं० पाह] १. पाथिक। बटोही। २. पाहुना। मेहमान। ३. दामाद। उदा०—पाहु घर आवे मुकलाऊ आये।—गुरु ग्रंथसाहब। पुं० [?] दोनों ओर से थोड़ा मुड़ा हुआ वह मोटा लोहा जिससे इमारत में अगल-बगल रखे हुए पत्थर जड़कर स्थित किये जाते हैं। पुं० [सं० पाहि] १. घृणा या तुच्छतापूर्वक किसी को पुकारने या संबोधित करने का शब्द। २. तुच्छ व्यक्ति।
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पिंग  : वि० [सं०√पिञ्ज् (वर्ण)+अच्, कुत्व] १. पीलापन लिये हुए भूरा। सुँघनी के रंग का। २. भूरापन लिये हुए लाल। तामड़ा। पुं० १. भैंसा। २. चूहा। ३. हरताल।
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पिंग-कपिशा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] गुबरैले के आकार का एक कीड़ा जिसका रंग-काला या तामड़ा होता है। तेलपायी। तेलचटा।
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पिंग-चक्षु (स्)  : वि० [ब० स०] जिसकी आँखें भूरे या तामड़े रंग की हों। पुं० नक्र या नाक नामक जल-जंतु।
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पिंगल  : वि० [सं० पिंग+लच्] १. पीला। २. भूरापन लिये हुए पीला या लाल। तमड़ा। पुं० १. एक प्राचीन मुनि या आचार्य जिन्होंने छंदः सूत्र की रचना की थी। नागमुनि। २. उक्त मुनि का बनाया हुआ छंद शास्त्र। ३. किसी प्रकार का भाषा या छन्द शास्त्र। (प्रॉसोडी) मुहा०—(किसी को) पिंगल पढ़ाना=अपना दोष छिपाने या मतलब निकालने के लिए उलटी-सीधी बातें समझाना। पिंगल साधना=(क) टालमटोल करना। (ख) नखरा करना। इतराना। ४. साठ संवत्सरों में से ५१वाँ संवत्सर। ५. संगीत में, सबेरे के समय गाया जानेवाला एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा गया है। ६. सूर्य का एक गण या पारिपार्श्वक। ७. एक यक्ष का नाम। ८. नौ निधियों में से एक। ९. अग्नि। आग। १॰. नकुल। नेवला। ११. बन्दर। १२. एक प्रकार का यज्ञ। १३. एक प्राचीन पर्वत। १४. पुराणानुसार भारत के उत्तर-पश्चिम का देश। १५. हरताल। १६. उल्लू। १७. पीपल। १८. उशीर। खस। १९. रास्ना। २॰. एक प्रकार का फनदार साँप। २१. एक प्रकार का स्थावर विष। २२. ब्रजभाषा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) विशेष—किसी समय व्रजभाषा में ही अधिकतर काव्यों की रचना होती थी; और वही काव्य की मुख्य भाषा मानी जाती थी; इसी से उसका यह नाम पड़ा था। पुं०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंगला  : स्त्री० [सं० पिंगल+टाप्] १. हठयोग में, सुषुम्ना नाड़ी के बाईं ओर स्थित एक नाड़ी जिससे दक्षिण नासा-पुट का श्वास चलता है। इसमें सूर्य का वास माना गया है। इसलिए इसे सूर्यनाड़ी भी कहते हैं। यह स्वभाव से उष्ण है। इसके अधिष्ठाता देवता विष्णु माने जाते हैं। २. लक्ष्मी। ३. दक्षिण दिशा के दिग्गज की पत्नी। ४. गोरोचन। ५. एक प्रकार की चिड़िया। ६. शीशम का पेड़। ७. राजनीति। ८. भागवत के अनुसार एक प्रसिद्ध भगवद् भक्त वेश्या।
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पिंगलाक्ष  : पुं० [सं० पिंगल+अक्षि, ब० स०, षच्] शिव।
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पिंगलिका  : स्त्री० [सं० पिंगल+कन्+टाप्, इत्व] १. एक प्रकार का बगला। २. एक प्रकार का उल्लू। ३. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की मक्खी जिसके काटने से जलन और सूजन होती है।
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पिंगलित  : वि० [सं० पिंगल+इतच्] ललाई लिये हुए भूरे रंग का।
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पिंग-सार  : पुं० [ब० स०] हरताल।
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पिंग-स्फटिक  : पुं० [कर्म० स०] गोमेदक मणि।
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पिंगा  : स्त्री० [सं० पिंग+टाप्] १. गोरोचन। २. हलदी। ३. वंशलोचन। ४. हींग। ५. एक रक्त-वाहिनी नाड़ी। ६. चंडिका देवी। वि० १. कोमल। नाजुक। २. कमजोर। दुर्बल। ३. दुबला-पतला। ४. टेढ़े-मेढ़े अंगोंवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसके पैर टेढ़े हों।
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पिंगाक्ष  : वि० [पिंग-अक्षि, ब० स०, षच्] [स्त्री० पिंगाक्षी] जिसकी आँखें कुछ ललाई लिये हुए भूरे रंग की हों। पुं० १. शिव। २. नाक या कुंभीर नामक जल-जन्तु। ३. बिड़ाल। बिल्ला।
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पिंगाक्षी  : स्त्री० [सं० पिंगाक्ष+ङीष्] कुमार की अनुचरी एक मातृका।
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पिंगाश  : पुं० [सं पिंग√अश् (व्याप्ति)+अण्] १. एक प्रकार की मछली जिसे बंगाल में पांगाश कहते हैं। २. गाँव का प्रधान या मुखिया। ३. खरा या शुद्ध सोना।
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पिंगाशी  : स्त्री० [सं० पिंगाश+ङीष्] नील का पौधा।
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पिंगिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पिंग+इमनिच्] ऐसा भूरापन जिसमें कुछ लाली भी हो।
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पिंगी  : स्त्री० [सं० पिंग+ङीष्] १. शमी का पेड़। २. चुहिया।
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पिंगूरा  : पुं० [हिं० पेंग] छोटा पालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंगेक्षण  : वि० [पिंग-ईक्षण, ब० स०]=पिंगाक्ष। पुं० शिव।
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पिंगेश  : पुं० [पिंग-ईश, कर्म० स०] अग्नि का एक नाम।
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पिंच्छ  : पुं०=पिच्छ।
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पिंज  : वि० [सं०√पिंज्+घञ्+अच्] विकल। व्याकुल। पुं० [√पिंज्+घञ्] १. बल। शक्ति। २. वध। हत्या। ३. एक प्रकार का कपूर। ४. चन्द्रमा। ५. समूह।
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पिंजक  : पुं० [सं० √पिञच्+ण्वुल्—अक] धुनिया।
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पिंजट  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+अटन्] आँख में से निकलनेवाला एक तरह का गाढ़ा सफेद मल या कीचड़।
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पिंजड़ा  : पुं०=पिंजरा।
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पिंजन  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+ल्युट्—अन] १. रुई धुनने की धुनकी। २. रूई धुनने की क्रिया, ढंग या भाव।
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पिंजना  : स० [सं० पिंजन] धुनकी से रूई धुनना।
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पिंजर  : वि० [सं०√पिञ्ज्+रच्] १. ललाई लिये हुए पीले रंग का। २. पीला। ३. सुनहला। पुं० १. पिंजरा। २. हड्डियों की ठठरी। पंजर। ३. हरताल। ४. सोना। ५. नागकेसर। ६. लाल रंग का वह फोड़ा जिसमें कुछ भूरापन भी हो।
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पिंजरक  : पुं० [सं० पिञ्जर+कन्] हरताल।
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पिंजरा  : पुं० [सं० पंजर] १. धातु, बाँस आदि की तीलियों का बना हुआ बक्स की तरह का वह आधान जिसमें पक्षी, पशु आदि बंद करके रखे जाते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा स्थान जहाँ से किसी का बाहर निकलना प्रायः असंभव या दुष्कर हो।
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पिंजरापोल  : पुं० [हिं० पिंजरा+पोल=फाटक] १. पशुशाला। २. गोशाला।
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पिंजरिक  : पुं० [सं०] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा।
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पिंजरित  : भू० कृ० [सं० पिंजर+इतच्] पीले रंग का या पीले रंग में रंगा हुआ।
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पिंजल  : वि० [सं० √पिञ्ज्+कलच्] १. दुःख, भय संकट आदि के कारण जिसका वर्ण पीला पड़ गया हो। २. दुःखी। ३. व्याकुल। ४. बहुत अधिक आतंकित। पुं० १. कुशा। २. हरताल। ३. जाल-बेंत।
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पिंजली  : स्त्री० [सं० पिंजल+ङीष्] एक में बँधी हुई कुश धास की दो नुकीली पत्तियाँ जिनका उपयोग यज्ञ में होता था।
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पिंजा  : स्त्री० [सं० पिंज+टाप्] १. हलदी। २. रूई। पुं०=पिंजरा (धुनिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंजारा  : पुं० [सं पिंजन] रूई धुननेवाला कारीगर। धुनिया।
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पिंजारी  : स्त्री० [देश०] त्रायमाणा नाम की लता। गुरबियानी।
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पिंजाल  : पुं० [सं०√पिंञ्ज्+आलच्] सोना। स्वर्ण।
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पिंजिका  : स्त्री० [सं०√पिञ्ज्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] धुनी हुई रूई की पूनी जो सूत कातने के काम आती है।
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पिंजियारा  : पुं० [सं० पिंजिका=रूई की बत्ती] १. रूई ओटनेवाला। २. रूई धुननेवाला। धुनिया।
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पिंजूष  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+ऊषन्] कान की मैल। खूँट।
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पिंड  : वि० [सं०√पिण्ड् (ढेर लगाना)+अच्] [स्त्री० पिंडी] १. घन। ठोस। २. गुथा हुआ। ३. घना। पुं० १. घना या ठोस चीज का छोटा और प्रायः गोलाकार खंड या टुकड़ा। ढेला या लोंदा। जैसे—गुड़, धातु या मिट्टी का पिंड। २. कोई गोलाकार पदार्थ। जैसे—नेत्र-पिंड। ३. भोजन का वह अंश जो प्रायः गोलाकार रूप में लाकर मुँह में डाला जाय। कौर। ग्रास। ४. जौ के आटे, भात आदि का बनाया हुआ वह गोलाकार खंड जो श्राद्ध में पितरों के उद्देश्य से वेदी आदि पर रखा जाता है। पद—पिंड-दान। (देखें) मुहा०—(किसी को) पिंड देना=कर्मकांड की विधि के अनुसार किसी मृत व्यक्ति के उद्देश्य से उसका श्राद्ध करना। ५. ढेर। राशि। ५. खाद्य पदार्थ। आहार। भोजन। ७. जीविका या उसके निर्वाह का साधन। ८. भिक्षुकों को दिया जानेवाला दान। खैरात। ९. मांस। गोश्त। १॰. गर्भ की आरंभिक अवस्था। भ्रूण। ११. मनुष्य की काया। देह। बदन। शरीर। पद—पिंड-रोग। (देखें) मुहा०—(किसी का) पिंड छोड़ना=जिसके पीछे पड़े हों, उसका पीछा छोड़ना। तंग या परेशान करने से बाज आना। जैसे—(क) वह जब तक उनका सर्वस्व नष्ट न कर देगा, तब तक उनका पिंड नहीं छोड़ेगा। (ख) आज महीने भर बाद बुखार नें पिंड छोड़ा है। (किसी के) पिंड पड़ना=किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किसी के पीछे पड़ना। (स्त्री० के उदर में) पिंड पड़ना=स्त्री का गर्भधारण करना। उदा०—पिंड तरै तउ प्रीति न तोरउ।—कबीर। १२. जीव। प्राणी। १३. पैर की पिंडली। १४. तबले आदि के मुँह पर का चमड़ा। १५. पदार्थ। वस्तु। १६. घर का वह विशिष्ट भाग जो वास्तु-शास्त्र के नियमों के अनुसार उसे चौकोर बनाने के लिए बीच में स्थिर किया जाता है। १७. मकान के दरवाजे के सामने का छायादार स्थान। १८. जलाने का कोई सुगंधित पदार्थ। जैसे—धूप, राल आदि। १९. भूमिति में, किसी धन पदार्थ की घनता या मोटाई अथवा उसका परिमाण। २॰. गणित में त्रिज्या का चौबीसवाँ अंश या भाग। २१. बल। शक्ति। पुं० [सं० पांडु] पांडु नामक रोग जिसमें सारा शरीर पीला हो जाता है। पीलिया। उदा०—पायाँ ज्यूँ पीली पड़ी रे, लोग कहैं पिंड रोग।—मीराँ।
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पिंडक  : पुं० [सं० पिण्ड√कै (चमकना)+क] १. गोलाकार पिंड। गोला। २. पिंडालू। ३. लोबान। ४. बोल। मुरमक्की। ५. गिलट। ६. शिला रस। ७. गाजर।
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पिंड-कंद  : पुं० [मध्य० स०] पिंडालु नामक कंद।
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पिंडकर  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में, ऐसा कर जिसकी राशि एक बार निश्चित कर दी जाती थी और जिसके मान में सहसा कोई परिवर्तन नहीं होता था।
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पिंड-कर्कटी  : स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार का पेठा।
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पिंडका  : स्त्री० [सं० पिंडक+टाप्] छोटी माता या चेचक नाम का रोग।
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पिंडकी  : स्त्री०=पंडुक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंडखजूर  : स्त्री० [सं० पिंडखर्जूर] १. खजूर की जाति का एक वृक्ष जिसके फल बहुत मीठे होते हैं। २. उक्त पेड़ के फल।
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पिंड-खर्जूर  : पुं० [मध्य० स०]=पिंड-खजूर।
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पिंड-खर्जूरी (रिका)  : स्त्री० [सं० पिंडखजूर+ङीष्]= पिंड खजूर।
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पिंडगोस  : पुं० [सं० गो√सन् (अलग करना)+ड, पिण्ड -गोस, कर्म० स०] १. गंधरस। २. बोल।
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पिंडज  : पुं० [सं० पिंड√जन् (उत्पन्न होना)+ड] प्राणी के पिंड या शरीर अर्थात् गर्भ से उत्पन्न होनेवाला जीव। जैसे—मनुष्य, घोड़ा, गाय आदि। (अंडज और स्वेदज से भिन्न)
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पिंडत  : पुं०=पंडित। उदा०—छाछि छाँड़ि पिंडता पीवीं।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंड-तैल (क)  : पुं० [ब० स०, कप्] १. कुछ वृक्षों से निकलनेवाला एक तरह का गंध-द्रव्य जिसे लोबान कहते हैं। २. शिलारस।
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पिंडद  : पुं० [सं० पिंड√दा (देना)+क] पिंडा देने अर्थात् मृतक का श्राद्ध करनेवाला व्यक्ति। वंशज। सन्तान।
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पिंड-दान  : पुं० [ष० त०] कर्मकाण्ड के अनुसार पितरों को पिंड देने का कर्म जो श्राद्ध में किया जाता है।
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पिंडन  : पुं० [सं०√पिण्ड्+ल्युट्—अन] १. पिण्ड अर्थात् गोलाकार वस्तुएँ बनाना। २. बाँध। ३. टीला।
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पिंड-पात  : पुं० [ष० त०] १. पिंड-दान। २. भीख माँगने के लिए इधर-उधर घूमना। ३. भिक्षापात्र में मिली हुई भिक्षा।
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पिंडपातिक  : पुं० [सं० पिंडपात+ठन्—इक] भिखमंगा। भिक्षुक।
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पिंड-पाद  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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पिंड-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. अशोक का पेड़ और उसका फूल। २. अनार का पौधा। ३. जपा का फूल। ४. तगर का पुष्प। ५. कमल।
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पिंड-पुष्पक  : पुं० [सं० पिंडपुष्प+कन्] बथुआ (साग)।
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पिंड-फल  : पुं० [ब० स०] कद्दू।
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पिंड-फला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] तितलौकी।
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पिंड-बीजक  : पुं० [ब० स०, कप्] कनेर का पेड़।
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पिंडभाक् (ज्)  : पुं० [पिंड√भज् (प्राप्त करना)+ण्वि] पिंड पाने का अधिकारी अर्थात् पितर।
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पिंडभृति  : स्त्री० [ष० त०] जीवन निर्वाह के साधन। जीविका।
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पिंड-मुस्ता  : स्त्री० [कर्म० स०] नागरमोथा।
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पिंड-मूल  : पुं० [ब० स०] १. गाजर। २. शलजम।
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पिंडरी  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंड-रोग  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा रोग जिसने शरीर घर कर लिया हो और जो जल्दी छूट न सकता हो। २. कोढ़।
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पिंडरोगी (गिन्)  : वि० [सं० पिंड रोग+इनि] जो प्रायः सदा रोगी रहता हो और जल्दी अच्छा न हो सकता हो।
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पिंडली  : स्त्री० [सं० पिंड] घुटने और एड़ी के बीच का वह मांसल स्थान जो पैर में पीछे की ओर होता है। मुहा०—पिंडली हिलना=(क) पैर काँपना या थर्राना। (ख) भय से कँपकँपी होना।
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पिंड-लेप  : पुं० [ष० त०] पिंड का वह अंश जो पिंड-दान के समय हाथों में चिपक जाता है तथा जिसके वृद्ध प्रपितामह आदि तीन पितर अधिकार होते हैं।
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पिंड-लोप  : पुं० [ष० त०] १. पिंडदान का न किया जाना। २. पिंड देनेवाले वंशजों का लोप। निर्वंश होना।
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पिंडवाही  : स्त्री० [?] पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंड-वेणु  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह का बाँस।
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पिंड-शर्करा  : स्त्री० [मध्य० स०] ज्वार से बनी हुई चीनी या शर्करा।
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पिंड-संबंध  : पुं० [तृ० त०] १. जन्य या जनक का सम्बन्ध। २. पिंड-दाता या पिंड-भोक्ता होने का संबंध।
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पिंडस  : पुं० [सं० पिंड√सन् (देना)+ड] भिखमंगा।
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पिंडस्थ  : वि० [सं० पिंड√स्था (ठहरना)+क] १. जो पिंड या शरीर में स्थित हो। गर्भ में स्थित। २. जो पिंड या लोंदे के रूप में आया या लाया गया हो। ३. किसी में मिलाया हुआ। मिश्रित।
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पिंड-स्वेद  : पुं० [मध्य० स०] औषध का वह लेप जो गरम करके फोड़ों आदि पर लगाया जाता है। पुल्टिस।
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पिंडा  : पुं० [सं० पिंड] [स्त्री० अल्पा० पिंडी] १. ठोस या गीली वस्तु का टुकड़ा। पिंड। २. गोल-मटोल टुकड़ा। लोंदा। जैसे—जौ के आटे, भात आदि का पिंडा जो श्राद्ध में पितरों के उद्देश्य से वेदी पर रखा जाता है। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—पिंडा-पानी देना=मृतक के उद्देश्य से श्राद्ध और तर्पण करना। पिंडा पारना=मृतक के उद्देश्य से पिंड-दान करना। ४. देह। शरीर। मुहा०—पिंडा धोना=स्नान करना। नहाना। पिंडा फीका होना=जी अच्छा न होना। तबियत खराब होना। ५. स्त्रियों की भग। योनि। मुहा०—(किसी को) पिंडा दिखाना या देना=स्त्री का पर-पुरुष से संभोग कराना। स्त्री० [सं० पिंड-टाप्] १. एक प्रकार की कस्तूरी। २. वंशपत्री। ३. इस्पात। ४. हलदी।
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पिंडाकार  : वि० [पिंड-आकार, ब० स०] पिंड अर्थात् प्रायः गोलाकार बँधे लोंदे के आकार का। गोलाकार।
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पिंडात  : पुं० [सं० पिंड√अत् (गति)+अच्] शिलारस।
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पिंडाभ  : पुं० [सं० पिंड-आ√भा (दीप्ति)+क] लोबान।
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पिंडाभ्र  : पुं० [सं० आम्र, अम्र+अण्,-पिंड-आम्र, उपमि० स०] सफेद और चमकीला पिंड अर्थात् ओला।
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पिंडायस  : पुं० [पिंड-आयस, कर्म० स०] इस्पात।
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पिंडार  : पुं० [सं० पिंड√ऋ (गति)+अण्] १. एक प्रकार का फल। २. क्षपणक। ३. भैंस का चरवाहा। गोप। ४. विकंकत का पेड़।
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पिंडारक  : पुं० [सं० पिंडार+कन्] १. एक नाग का नाम। २. वसुदेव और रोहिणी का एक पुत्र। ३. एक पवित्र नद। ४. गुजरात देश में समुद्र-तट का एक प्राचीन तीर्थ।
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पिंडारा  : पुं० [सं० पिंडारा] एक प्रकार का शाक जो वैद्यक में शीतल रौ पित्तनाशक माना गया है। पुं०= पिंडारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंडारी  : पुं० [देश०] दक्षिण भारत की एक जाति जो पहले कर्णाट, महाराष्ट्र आदि में बसकर खेती-बारी करती थी, पर पीछे मध्यप्रदेश और उसके आस-पास के स्थानों में लूटमार करने लगी और मुसलमान हो गई थी।
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पिंडालक्तक  : पुं० [पिंड-अलक्तक, कर्म० स०] महावर।
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पिंडालु  : पुं० [पिंड-आलु, उपमि० स०]=पिंडालू।
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पिंडालू  : पुं० [सं० पिंड+हिं० आलू] १. एक प्रकार का कंद या शकरकन्द जिसके ऊपर कड़े सूत की तरह के रेशे होते हैं। सुथनी। पिंडिया। २. एक प्रकार का रतालू या शफतालू।
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पिंडाशक  : पुं० [पिंड-आशक, ष० त०] भिक्षुक।
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पिंडाशी (शिन्)  : पुं० [सं० पिंड√अश्+णिनि]=पिंडाशक ।
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पिंडाह्वा  : स्त्री० [सं० पिंड-आ√ह्वे (स्पर्द्धा करना)+क+टाप्] नाड़ी हींग।
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पिंडि  : स्त्री० [सं०√पिंड्+इन्]=पिंडी।
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पिंडिका  : स्त्री० [सं० पिंड+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. छोटा पिंड। पिंडी। २. किसी चीज का छोटा ढेला या ढोंका। ३. पहिए के बीच का वह गोल भाग जिसमें धुरी पहिनाई रहती है। चक्रनाभि। ४. पिंडली। ५. इमली। ६. छोटा शिव-लिंग। ७. वह छोटी गोलाकार वेदी जिस पर देव-मूर्ति स्थापित की जाती है।
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पिंडित  : भू० कृ० [सं०√पिंड+क्त] १. पिंड के रूप में बँधा या बनाया हुआ। २. सूत की पिंडी की तरह लपेटा हुआ। ३. गुणा किया हुआ। गुणित। पुं० १. शिलारस। २. काँसा। ३. गणित या उसकी क्रिया।
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पिंडितार्थ  : पुं० [पिंडित-अर्थ, कर्म० स०] कथन आदि का सारांश।
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पिंडिनी  : स्त्री० [सं०√पिंड+णिनि+ङीष्] अपराजिता लता।
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पिंडिया  : स्त्री०=पिंडी (गुण, रस्सी आदि की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंडिल  : पुं० [सं० पिंड+इलच्] १. सेतु। पुल। २. गणक। वि० बड़ी-बड़ी पिंडलियोंवाला।
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पिंडिला  : स्त्री० [सं० पिंडिल+नप्] ककड़ी।
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पिंड़ी  : स्त्री० [सं० पिंड+अच्+ङीष्] १. ठोस या गीली वस्तु का छोटा गोल-मटोल टुकड़ा। लगदी। जैसे—आटे या गुड़ की पिंडी। २. डोरी या सूत जो उक्त आकार या रूप में लपेटा हुआ हो। जैसे—रस्सी की पिंडी। क्रि० प्र०—बनाना।—बाँधना। ३. कद्दू। घीया। ४. पिंडखजूर। ५. एक प्रकार का तगर। ६. बलि चढ़ाने की वेदी। ७. दे० ‘पिंडिका’।
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पिंडीकरण  : पुं० [सं० पिंड+च्वि, ईत्व, पिंडी,√कृ (करना)+ल्युट्—अन] किसी वस्तु को पिंड का रूप देना। पिंड अर्थात् गोलाकार वस्तुएँ बनाने की क्रिया।
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पिंडीतक  : पुं० [सं० पिंडी√तक् (अनुकरण करता)+अच्] १. मैनफल। २. एक प्रकार का तगर जिसे हजारा तगर भी कहते हैं।
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पिंडीपुष्प  : पुं० [ब० स०] अशोक वृक्ष।
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पिंडीर  : पुं० [सं० पिंड√ईर् (प्रेरित करना)+अण्] १. अनार। २. समुद्रफेन।
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पिंडी-लेप  : पुं० [ष० त०] एक तरह का उबटन।
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पिंडी-शूर  : पुं० [स० त०] १. घर ही में बैठे-बैठे बहादुरी दिखलानेवाला। २. बहुत अधिक खानेवाला। पेटू।
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पिंडुरी (लौ)  : स्त्री०=पिंडली।
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पिंडूक  : पुं० [?] १. पंडुक। २. उल्लू।
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पिंडोदक क्रिया  : स्त्री० [सं० पिंड—उदक, द्व० स०] पिंडोदक क्रिया, ष० त०] पूर्वजों के उद्देश्यों से किया जानेवाला पिंडदान और तर्पण।
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पिंडोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० पिंड-उप√जीव् (जीना)+ णिनि] भिखमंगा।
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पिंडोल  : स्त्री० [सं० पांडु] पीले रंगी की मिट्टी। पोतनी मिट्टी।
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पिंडोलि  : स्त्री० [सं०] १. मुँह से गिरे हुए अन्न के छोटे-छोटे टुकड़े। २. जूठन।
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पिंभ  : पुं०=प्रेम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंशन  : स्त्री०=पेनशन।
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पिंसी  : स्त्री०=पीनस (रोग)।
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पिअ  : पुं० [सं० प्रिय] १. स्त्री० का पति। २. प्रेमी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=प्रिय।
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पिअना  : स०=पीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअर  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पीहर।
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पिअरवा  : वि०=प्यारा। पुं०=पिअ (पति या प्रेमी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअरा  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअराई  : स्त्री० [हिं० पिअरा=पीला] पीलेपन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअरिया  : पुं० [हिं० पिअर=पीला+इया (प्रत्य०)] पीले रंग का बैल जो बहुत मजबूत और तेज चलनेवाला होता है। स्त्री०=पिअरी (धोती या साड़ी) वि०=प्यारी (प्रिय)।
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पिअरी  : स्त्री० [हिं० पीअर=पीला] १. हल्दी के रंग से रँगी हुई वह धोती जो विवाह आदि शुभ अवसरों पर वर या वधू को पहनाई जाती है। २. उक्त प्रकार की वह धोती प्रायः गंगा या किसी देवी को चढ़ाई जाती है। क्रि० प्र०—चढ़ना। वि० हिं० ‘पिअरा’ (पीला) का स्त्री०।
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पिआज  : पुं०=प्याज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआना  : स०=पिलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआनो  : पुं०=पियानो (बाजा)।
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पिआर  : पुं०=प्यार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआरा  : वि०=प्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआस  : स्त्री०=प्यास।
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पिआसा  : वि०=प्यासा।
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पिउ  : पुं० [सं० प्रिय] १. प्रियतम। २. पति। ३. ईश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिउनी  : स्त्री०=पूनी (रूई की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिक  : पुं० [सं० अपि√कै (शब्द करना)+क, अकार-लोप] [स्त्री० पिकी] कोयल। कोकिला।
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पिक-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] बड़ा जामुन।
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पिक-बंधु  : पुं० [ष० त०] आम का वृक्ष।
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पिक-भक्ष्या  : स्त्री० [ष० त०] भूमि जंबू। भू-जामुन।
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पिक-राग  : पुं० [ब० स०] आम का वृक्ष।
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पिक-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] आम का वृक्ष।
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पिकांग  : पुं० [पिक-अंग, ब० स०] चातक (पक्षी)।
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पिकाक्ष  : पुं० [ब० स०, अच्] १. रोचनी वृक्ष। २. तालमखाना। वि० कोयल जैसी आँखोंवाला।
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पिकानंद  : पुं० [सं० पिक-आ√नन्द् (प्रसन्न होना)+ अण्] वसन्त ऋतु।
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पिकी  : स्त्री० [सं० पिक+ङीष्] मादा कोयल।
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पिकेक्षणा  : स्त्री० [पिक-ईक्षण, ब० स०,+अच्+टाप्] तालमखाना।
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पिक्क  : पुं० [सं० पिक√कै+क, पृषो० सिद्धि] १. हाथी का बच्चा। २. ऐसा हाथी जो अवस्था में बीस वर्ष का हो। ३. मोती की एक तौल।
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पिघरना  : अ०=पिघलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिघलना  : अ० [सं० प्र०+गलन] १. ताप पाकर किसी घन या ठोस पदार्थ का द्रव रूप में आना या होना। जैसे—घी या मोम पिघलना। २. लाक्षणिक अर्थ में, कठोर चित्त का किसी प्रकार के प्रभाव के कारण कोमल या द्रवित होना। पसीजना। जैसे—तुम लाख रोओ, पर वह जल्दी पिघलनेवाला नहीं है।
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पिघलाना  : स० [हिं० पिघलना का स०] १. किसी घन या ठोस पदार्थ को पिघलने में प्रवृत्त करना। २. किसी के हृदय की कठोरता दूर करके उसे कोमल या द्रवित करना।
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पिचंड  : पुं० [सं० अपि√चम् (खाना)+ड, अकार-लोप] १. पेट। २. किसी जानवर का कोई अंग। वि० १. उदर या पेट-संबंधी। २. बहुत अधिक खानेवाला।
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पिचंडिल  : वि० [सं० पिचंड+इलच्] बड़ी तोंदवाला। तोंदल।
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पिच  : स्त्री०=पीच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचक  : स्त्री० [हिं० पिचकना] १. पिचकने की क्रिया या भाव। २. पिचके हुए होने की अवस्था। स्त्री० ३.=पिचकारी।
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पिचकना  : अ० [सं० पिच्च=दबाना] उभरे या फूले हुए अंग के उभार या फूलन के कम होना। जैसे—गिरने के कारण लोटे का पिचकना, बीमारी के कारण गाल पिचकना।
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पिचकवाना  : स० [हिं० पिचकाना का प्रे०] पिचकाने का काम दूसरे से कराना।
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पिचका  : पुं० [हिं० पिचकाना] बड़ी पिचकारी।
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पिचकाना  : स० [हिं० पिचकना का प्रे०] ऐसा काम करना जिससे उभरी या फूली हुई चीज का तल दबता या पिचकता हो। पिचकने में प्रवृत्त करना।
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पिचकारी  : स्त्री० [हिं० पिचकना] १. नली के आकार का धातु का बना हुआ एक उपकरण जिसके मुँह पर एक या अनेक ऐसे छोटे-छोटे छेद होते हैं, जिनके मार्ग से नली में भरा हुआ तरल पदार्थ दबाव से धार या फुहार के रूप में दूसरों पर या दूर तक छिड़का या फेंका जाता है। मुहा०—पिचकारी चलाना, छोड़ना या मारना=पिचकारी में रंग, गुलाब-जल आदि भरकर दूसरों पर छोड़ना। पिचकारी भरना=पिचकारी की नली का डाट पर इस प्रकार ऊपर खींचना कि उसमें रंग या और कोई तरल पदार्थ भर जाय। २. पिचकारी में से निकलनेवाली तरल पदार्थ की धार। ३. किसी चीज में से जोर से निकलनेवाली तरल पदार्थ की धार। मुहा०—(किसी चीज में से] पिचकारी छूटना या निकलना=किसी चीज या जगह में से किसी तरल पदार्थ का बहुत वेग से बाहर निकलना। जैसे—सिर से लहू की पिचकारी छूटने लगी। ४. चिकित्सा-क्षेत्र में, एक तरह की छोटी पिचकारी जिसके अगले भाग में खोखली सूई लगी रहती है और जिसे चुभोकर शरीर की नसों या रक्त में दवाएँ पहुँचाई जाती हैं। सूई। वस्ति। (सीरिंज)
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पिचकी  : स्त्री०=पिचकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचपिचा  : वि० [हिं० पिचकना] १. जो पिचकता रहता हो। २. दबा हुआ और गुलगुला। वि०=चिपचिपा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचपिचाना  : अ० [अनु०] [भाव० पिचपिचाहट] किसी छेद में तरल पदार्थ का पिचपिच शब्द करते हुए रसना या निकलना। जैसे—फोड़े का चिपचिपाना। अ०=पिचपिचाना।
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पिचरिया  : स्त्री० [हिं० पिचलना] छोटी कोठीवाला एक तरह का कोल्हू।
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पिचलना  : स०=कुचलना।
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पिचवय  : पुं० [सं० पिचव्य] १. कपास का पौधा। २. वटवृक्ष। (डिं०)
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पिचासा  : पुं०=पिशाच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पचास।
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पिचु  : पुं० [सं० पृषो०] १. रूई। २. एक प्रकार का कोढ़। ३. एक पुरानी तौल जो दो तोले के बराबर होती थी। ४. एक असुर का नाम। ५. एक तरह का अनाज।
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पिचुक  : पुं० [सं० पृषो०] मैनफल का वृक्ष।
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पिचुकिया  : स्त्री० [हिं० पिचकना] १. छोटी पिचकारी। २. वह गुझिया (पकवान) जिसमें केवल गुड़ और सोंठ भरी जाती है।
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पिचुक्का  : पुं० [हिं० पिचकना] १. पिचकारी। २. गोलगप्पा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचु-तूल  : पुं० [सं०] कपास की रूई।
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पिचुमंद  : पुं०=पिचुमर्द।
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पिचुमर्द  : पुं० [सं० पिचु√मृद् (चूर्ण करना)+अण्] नीम का पेड़।
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पिचुल  : पुं० [सं० पिचु√ला (लेना)+क] १. कपास की रूई। २. झाऊ का पेड़। (डिं०) ३. समुद्रफल। ४. गोताखोर।
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पिचू  : पुं० [सं० पिचु] १६ माशे की एक पुरानी तौल।
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पिचुका  : पुं०=पिचुक्का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचैत  : पुं० [?] पहलवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचोतरसौ  : पुं० [सं० पंचोत्तर शत] एक सौ पाँच की संख्या। वि० जो गिनती में सौ से पाँच ऊपर हो।
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पिच्चट  : वि० [सं०√पिच्च् (काटना)+अटन्] दबाकर चिपटा किया हुआ। निचोड़ा हुआ। पुं० १. सीसा। २. राँगा। ३. आँख का एक रोग।
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पिच्चर  : पुं०=पिच्चट।
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पिच्चा  : स्त्री० [सं०√पिच्च+अ+टाप्] एक निश्चित् तौल के १६ मोतियों की माला। वि० [हिं० पिचकना] [स्त्री० पिच्ची] पिचका हुआ। दबे हुए तलवाला।
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पिच्चिट  : पुं० [सं०] एक तरह का विषैला कीड़ा।
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पिच्चित  : पुं०=पिच्चिट। वि० [हिं० पिचकना] पिचका हुआ।
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पिच्ची  : स्त्री०=पच्ची। वि० पिच्चित।
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पिच्छ  : पुं० [सं०√पिच्छ् (बाधा डालना)+अच्] किसी पशु की ऐसी दुम या पूँछ जिस पर बाल हों। लांगूल। २. मोर की दुम या पूँछ। ३. मोर की चोटी। ४. बाण में लगाया जानेवाला मोर आदि का पंख। ५. सेमल का गोंद। मोचरस।
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पिच्छक  : पुं० [सं० पिच्छ+कन्] १. पूँछ। २. पूँछ पर का पंख। ३. सेमल का गोंद। मोचरस।
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पिच्छन  : पुं० [सं०√पिच्छ+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु को दबाकर चिपटा करने की क्रिया। २. अत्यन्त पीड़न।
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पिच्छ-पाद  : पुं० [ब० स०] घोड़े के पैर में होनेवाला एक तरह का रोग।
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पिच्छपादी (दिन्)  : वि० [सं० पच्छपाद+इनि] १. पिच्छपाद रोग-संबंधी। २. पिच्छपाद रोग से पीड़ित।
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पिच्छ-बाण  : पुं० [ब० स०] बाज (पक्षी)।
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पिच्छ-भार  : पुं० [ब० स०] मोर की पूँछ।
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पिच्छल  : वि० [सं०] जिस पर पैर फिसलता हो। फिसलनेवाला पुं० [सं०√पिच्छ्+कलच्] १. मोचरस। २. आकाशबेल। ३. शीशम का पेड़। ४. वासुकि के वंश का एक सर्प। वि० [हिं० पिछला] १. पिछला। २. दौड़, प्रतियोगिता, होड़ आदि में जो पीछे रह गया हो।
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पिच्छलपाई  : स्त्री० [हिं० पीछा+पाई=पैरवाली] १. चुड़ैल या डाइन। विशेष—लोगों की धारणा है कि चुड़ैलों के पैरों में एड़ी आगे और पंजे पीछे की ओर होते हैं। २. टोना-टोटका करनेवाली स्त्री।
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पिच्छा  : स्त्री० [सं० पिच्छ+टाप्] १. सेमल का गोंद। मोचरस। २. सुपारी का पेड़। ३. शीशम। ४. नारंगी का पेड़। ५. निर्मली का पेड़। ६. आकाशबेल। ७. पिच्छतलापाद नामक रोग। ८. पकाये हुए चावलों का माँड़। ९. पिंडली।
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पिच्छिका  : स्त्री० [सं० पिच्छ+कन्—टाप्, इत्व] १. चँवर। चमार। मोरछल। २. ऊन की वह चँवर जो जैन साधु अपने साथ रखते हैं।
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पिच्छितिका  : स्त्री० [सं० पृषो०] शीशम का पेड़।
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पिच्छिल  : वि० [सं० पिच्छा+इलच्] [स्त्री० पिच्छिल] १. सरस और स्निग्ध। गीला और चिकना। २. इतना या ऐसा चिकना जिस पर पैर फिसलता हो या फिसल सकता हो। ३. (पक्षी) जिसके सिर पर चूड़ा या चोटी हो। ४. (वैद्यक में, पदार्थ) जो खट्टा, कोमल फूला हुआ और कफकारी हो। पुं० १. लिसोड़ा। २. सरस और स्निग्ध व्यंजन। सालन। जैसे—कढ़ी, दाल, रसेदार तरकारी आदि।
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पिच्छिलक  : पुं० [सं० पिच्छिल+कन्] १. मोचरस। २. धामिन वृक्ष।
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पिच्छिलच्छदा  : स्त्री० [ब० स०] १. बैर वृक्ष। २. पोई का साग।
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पिच्छिल-त्वक्  : स्त्री० [ब० स०] १. नारंगी का पेड़। २. धामिन वृक्ष।
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पिच्छिल-दला  : स्त्री० [ब० स०]=पिच्छिलच्छदा।
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पिच्छिल-वस्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वैद्यक में, निरूढ़वस्ति का एक भेद।
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पिच्छिल-सार  : पुं० [ब० स०] सेमल का गोंद। मोचरस।
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पिच्छिला  : स्त्री० [सं० पिच्छिल+टाप्] १. पोई। २. शीशम। ३. सेमल। ४. तालमखाना। ५. वृश्चिकाली (जड़ी)। ६. शूली घास। ७. अगर। ८. अलसी। ९. अरवी। वि० दे० ‘पिच्छिल’।
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पिछ  : पुं० [हिं० पीछा] ‘पीछा’ का वह लघु रूप जो यौगिक पदों के आरंभ में लगता है। जैसे—पिछलगा, पिछलग्गू, पिछवाड़ा।
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पिछड़ना  : अ० [हिं० पीछे] १. गति, दौड़, प्रतियोगिता आदि में दूसरों के आगे निकल या बढ़ जाने के कारण अथवा और किसी कारण से पीछे रह जाना। २. वर्ग, श्रेणी आदि में आगे न बढ़ सकने या उन्नति न कर सकने के कारण पीछे रह जाना। संयो० क्रि०—जाना।
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पिछ-लगा  : वि० [हिं० पीछे+लगना] [भाव० स्त्री० पिछलगी] १. दीन भाव से किसी के पीछे-पीछे लगा रहनेवाला। २. शक्ति, सामर्थ्य आदि के अभाव में, स्वतंत्र न रह सकने के कारण किसी का अनुगमन या अनुसरण करनेवाला। ३. आश्रित। पुं० सेवक। दास।
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पिछलगी  : स्त्री० [हिं० पिछलगा] पिछलगा होने की अवस्था या भाव। २. अनुगमन। अनुवर्तन। अनुसरण।
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पिछ-लगू (ग्गू)  : वि०, पुं०=पिछ-लगा।
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पिछ-लत्ती  : स्त्री० [हिं० पिछ+लात] १. पशुओं का पिछले पैरों से आघात करने की क्रिया या भाव। २. उक्त प्रकार से होनेवाला आघात।
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पिछलना  : अ० [हिं० पीछा] पीछे की ओर हटना या मुड़ना। (क्व०) अ०=फिसलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछलपाई  : स्त्री०=पिच्छलपाई।
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पिछला  : वि० [हिं० पीछा] [स्त्री० पिछली] १. जो किसी वस्तु के पीछे अर्थात् पीठ की ओर पड़ता हो। पीछे की ओर को। ‘अगला’ का विपर्याय। जैसे—(क) इस मकान का पिछला हिस्सा गिर गया है। (ख) इस घोड़े की पिछली टाँगें टेढ़ी हैं। २. काल, घटना, स्थिति आदि के क्रम के विचार से किसी के पीछे अर्थात् पूर्व में या पहले पड़ने या होनेवाला। जैसे—(क) इधर का हिसाब तो साफ हो गया है, पर पिछला हिसाब बाकी है। (ख) जब मैं पिछली बार आप के यहाँ आया था...। (ग) पिछला साल रोजगारियों के लिए अच्छा नहीं था। ३. पूर्वकाल में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—पिछला जमाना, पिछले लोग। ४. जो क्रम के विचार से किसी के पीछे या बाद में पड़ता हो। जैसे—इस पुस्तक के कई पिछले पृष्ठ फट गये हैं। पद—पिछला पहर=दो पहर अथवा आधी रात के बाद का अर्थात् संध्या या प्रभात से पहले का पहर या समय। दिन अथवा रात के उत्तर काल। पिछली रात=रात में आधी रात के बाद का और प्रभात या उसके कुछ पहले का समय। ५. गुजरा या बीता हुआ। गत। जैसे—पिछली बातों को भूल जाना ही अच्छा है। पद—पिछला दिन=वह दिन जो वर्तमान से एक दिन पहले बीता हो। पिछली रात=आज से एक दिन पहले बीती हुई रात। कल की रात। गत रात्रि। पिछले दिन=बीते हुए दिन। भूतकाल। पुं० वह भोजन जो रोजे के दिनों में मुसलमान लोग कुछ रात रहते खाते हैं। सहरी।
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पिछवई (वाई)  : स्त्री० [हिं० पीछे] मूर्तियों या उनके सिंहासनों के पीछ लटकाया जानेवाला बेल-बूटेदार परदा।
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पिछवाड़ा  : पुं० [हिं० पीछा+बाड़ा] १. किसी वस्तु विशेषतः घर आदि के पीछेवाला भाग। घर का पृष्ठ भाग। २. घर के पीछे वाले भाग के पास की जमीन या मकान।
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पिछवारा  : पुं०=पिछवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछाड़  : वि० [हिं० पीछा] पीछे या बाद में रहने या होनेवाला। पुं० [हिं० पिछड़ना] पिछड़ने की क्रिया या भाव। पुं०=पिछाड़ी।
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पिछाड़ी  : स्त्री० [हिं० पीछा] १. किसी काम, चीज या बात का पिछला भाग या पीछे का हिस्सा। पृष्ठ भाग। २. घोड़े के पिछले दोनों पैर बाँधने की रस्सी। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना। पद—अगाड़ी-पिछाड़ी (दे०)।
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पिछान  : स्त्री०=पहचान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—मैं पिय लियो पिछान।—पद्माकर।
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पिछानना  : स०=पहचानना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछानी  : पुं० [हिं० पहचान] १. पहचाननेवाला। उदा०—ऐसा बेद मिलै कोई भेदी देस-बिदेस पिछानी।—मीराँ। २. जान-पहचानवाला। परिचित। स्त्री०=पहचान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछारी  : स्त्री=पिछाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछुआर  : पुं०=पिछवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछेलना  : स० [हिं० पीछे] १. गति, दौड़, प्रतियोगिता आदि में किसी से आगे निकलना और उसे पीछे छोड़ देना। २. धक्का देकर पीछे हटाना।
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पिछोकड़  : पुं० [हिं० पीछा] पिछवाड़ा। (राज०) उदा०—म्हारे आँगण आम, पिछोकड़ मखो। (राज०)
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पिछौंता  : अव्य० [हिं० पीछा+औता] १. पीछे की ओर। २. पीछे से। बाद में। (पूरब) वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछौंहा  : वि० [सं० पश्चिम] [स्त्री० पिछौंही] पश्चिम दिशा में रहने या होनेवाला।
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पिछौंही  : स्त्री०=पिछौरी।
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पिछौंहे  : अव्य० [हिं० पीछा] १. पीछे की ओर। २. पीछे की ओर से। वि० १. पीछे होनेवाला। २. (फसल, फल आदि) जो अपनी ऋतु या समय बीत जाने पर हो।
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पिछौड़  : वि० [हिं० पीछे+औड़ (प्रत्य०)] जिसने अपना मुँह पीछे कर लिया हो। किसी के मुँह की ओर जिसकी पीठ पड़ती हो। अव्य० पीछे की ओर।
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पिछौड़ा  : अव्य० [हिं० पीछा+औड़ा (प्रत्य०)] पीछे की ओर। पुं०=पिछवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछौरा  : पुं० [सं० पक्ष या पश्च+पटः प्रा० पच्छवड़; हिं० पछेवड़ा] [स्त्री० अल्पा० पिछौरी] पुरुषों के ओढ़ने की चादर। मरदाना दुपट्टा।
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पिछौरी  : स्त्री० [हिं० पिछौरा] १. ओढ़ने की छोटी चादर। २. स्त्रियों की ओढ़नी या चादर।
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पिटंकाकी  : स्त्री०=पिटकोकी।
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पिटंकोकी  : स्त्री० [सं० पिट्√कु (शब्द)+ख, मुम्,+कन् +ङीष्] इंद्रायन नामक लता।
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पिटंत  : स्त्री० [हिं० पीटना+अंत (प्रत्य०)] १. पीटने की क्रिया या भाव। २. पीटे जाने की अवस्था या भाव। ३. पड़नेवाली मार।
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पिटक  : पुं० [सं०√पिट (इकट्ठा होना)+क्वुन्—अक] १. पिटारा। २. धान्यागार। कोठार। ३. छोटा। फुंसी। ४. इंद्र की पताका में लगाया जानेवाला एक प्रकार का अलंकरण। ५. ग्रंथ का कोई खंड या विभाग।
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पिटका  : स्त्री० [सं० पिटक+टाप्] १. छोटा पिटारा। पिटारी। २. छोटा फोड़ा। फुंसी।
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पिटना  : अ० [हिं० पीटना] १. पीटा जाना। २. प्रतियोगिता आदि में हारना। जैसे—इस बाजी में तो वह बुरा पिटा। ३. कुछ खेलों में गोटी, मोहरे आदि का मारा जाना। जैसे—शतरंज में घोड़ा या वजीर का पिटना। ४. मार खाना। ५. ‘पीटना’ के सभी अर्थों का अ० रूप। पुं० वह उपकरण जिससे कोई चीज पीटी जाय। जैसे—कपड़े धोने का पिटना, छत पीटने का पिटना।
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पिटपिट  : स्त्री० [अनु०] थापी, पिटने आदि के बराबर आघात करते रहने पर होनेवाला शब्द।
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पिटपिटाना  : अ० [अनु०] १. बहुत दुःखी और लाचार होकर यों ही रह जाना। २. बहुत कष्ट में पड़कर छटपटाना।
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पिटरिया  : स्त्री०=पिटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिटरी  : स्त्री०=पिटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिटवाँ  : वि० [हिं० पीटना] जो पीटकर बनाया या तैयार किया गया हो। जैसे—पिटवाँ पत्तर।
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पिटवाना  : स० [हिं० पीटना] १. ऐसा काम करना जिससे कोई या कुछ पीटा जाय। पीटने का काम किसी दूसरे से कराना। २. ऐसा उपाय करना जिससे कोई पीटा जाय या किसी पर मार पड़े। ३. मैथुन या संभोग करना। (बाजारू)
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पिटाई  : स्त्री० [हिं० पीटना] १. पीटने की क्रिया या भाव। जैसे—छत की पिटाई। २. पीटने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक या मजदूरी। ३. किसी पर अच्छी तरह पड़नेवाली मार। पिटंत।
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पिटाक  : पुं० [सं०√पिट्+काक] पिटारा।
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पिटाना  : स० [हिं० पीटना] १. पिटवाना। २. ऐसा काम करना जिससे कोई अत्यंत दुःखी तथा विकल हो।
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पिटापिट  : स्त्री० [हिं० पीटना] बार बार पिटने, पीटने आदि की क्रिया या भाव। जैसे—वहाँ खूब पिटापिट मची थी।
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पिटारा  : पुं० [सं० पिटक] [स्त्री० अल्पा० पिटारी] बाँस, बेंत, मूंज आदि के नरम छिलकों से बना हुआ एक प्रकार का ढक्कनदार बड़ा पात्र।
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पिटारी  : स्त्री० [हिं० पिटारा का स्त्री० और अल्पा०] छोटा पिटारा। पद—पिटारा का खर्च=(क) वह धन जो स्त्रियों को पान के खर्च के लिए दिया जाय। पानदान खर्च। (ख) व्यभिचार कराने पर दुश्चरित्रा स्त्री को मिलनेवाला थोड़ा धन।
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पिटावना  : स० [हिं० पीटना] किसी को किसी व्यक्ति के द्वारा मार खिलवाना।
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पिट्टक  : पुं० [सं०√पिट्+ण्वुल—अक, पृषो० सिद्धि] दाँतों की जड़ों में जमनेवाली मैल।
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पिट्टस  : स्त्री० [हिं० पिटना+स (प्रत्य०)] १. शोक या दुःख से छाती पीटने की क्रिया या भाव। २. पिटने की अवस्था या भाव। पिटंत। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।
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पिट्ट  : वि० [हिं० पीटना] १. जो बराबर मार खाता रहता हो। २. जो मार खाकर ही कोई काम करता या सीधे रास्ते पर आता हो।
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पिट्ठी  : स्त्री०=पीठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिट्ठू  : पुं० [हिं० पीठ+ऊ (प्रत्य०)] १. किसी की पीठ के साथ लगा रहनेवाला अर्थात् पीछे चलनेवाला। पिछलगा। अनुयायी। २. छिपे-छिपे किसी के साथ रहकर उसकी सहायता करनेवाला। ३. कुछ विशिष्ट खेलों में किसी खिलाड़ी का वह कल्पित साथी जिसकी पारी आने पर उक्त खिलाड़ी को अपनी पारी खेल चुकने के उपरांत, पुनः खेलने का अवसर मिलता है। ४. किसी पक्ष के खिलाड़ी का साथी।
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पिठमिल्ला  : पुं० [हिं० पीठ+मिलना] अँगरखे का पीठ की तरफ का भाग।
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पिठर  : पुं० [सं०√पिठ् (क्लेश देना)+करन्] १. मोथा। मुश्तक। २. मथानी। ३. थाली। ४. एक तरह का घर। ५. एक अग्नि का नाम।
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पिठरक  : पुं० [सं० पिठर+कन्] १. थाली। २. एक नाग। ३. कड़ाही।
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पिठरक-कपाल  : पुं० [ष० त०] बरतन का टुकड़ा।
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पिठर-पाक  : पुं० [ष० त०] भिन्न-भिन्न परमाणुओं के गुणों में तेज के संयोग से होनेवाला फेर-फार। जैसे घड़े का पककर लाल होना।
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पिठरिका  : स्त्री० [सं० पिठर+कन्+टाप्, इत्व] १. बटलोई। २. हाँड़ी।
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पिठरी  : स्त्री०=पिठरिका।
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पिठवन  : स्त्री० [सं० पृष्ठवर्णी] जमीन पर फैलनेवाला तथा दो-ढाई फुट ऊँचा एक प्रसिद्ध क्षुप् जिसके गोल पत्ते तथा बीज दवा के काम आते हैं। ये रक्त-अतिसार, तृषा और वमननाशक तथा वीर्यवर्धक होते हैं। पिछौनी। पिथिवन।
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पिठी  : स्त्री०=पीठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिठीनस  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पिठौनी  : स्त्री०=पिठवन (क्षुप और उसके बीज)।
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पिठौरी  : स्त्री० [हिं० पीठी+औरी (प्रत्य०)] १. पीठी की पकौड़ी। २. पीठी की बरी।
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पिडक  : पुं० [सं०√पीड् (कष्ट देना)+ण्वुल्, नि० सिद्धि] छोटा फोड़ा। फुंसी।
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पिडका  : स्त्री० [सं० पिडक+टाप्]=पिड़क।
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पिड़काना  : स० [सं० पीडा] ऐसा काम करना जिससे कोई झुंझलाता और दुःखी होता हो।
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पिड़की  : स्त्री० [सं० पिडक] छोटा फोड़ा। फुंसी। स्त्री०=पेंडुकी।
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पिड़िया  : स्त्री० [सं० पिंड] चौरेठे को गूँधकर बनाया जानेवाला लोंदा जो उबालकर खाया जाता है।
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पिड़ी  : स्त्री० [सं० पिंड] १. पिंड। २. वृक्ष का तना। (राज०)
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पिढ़ई  : स्त्री० [हिं० पीढ़ा+अई (प्रत्य०)] १. छोटा पीढ़ा या पाटा। २. काठ का वह टुकड़ा जिस पर कोई यंत्र रखा रहता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिढ़ी  : स्त्री०=पीढ़ी।
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पिण  : अव्य० [?] भी। (डि०) उदा०—परदल पिण जीणि पदमणी परणे।—प्रिथीराज।
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पिण्या  : स्त्री० [सं० पण् (स्तुति करना)+यत्, पृषो० इत्व] मालकंगनी।
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पिण्याक  : पुं० [सं०√पण्+अकन्, नि० सिद्ध] १. तिल या सरसों की खली। २. हींग। ३. शिलाजीत। ४. शिलारस। ५. केसर।
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पितंबर  : पुं०=पीताम्बर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पित-पापड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] गेहूँ की फसल में होनेवाला छोटे तथा बारीक पत्तोंवाला एक तरह का पौधा जिसमें लाल अथवा नीले रंग के फूल लगते हैं। यह ओषधि के काम में आता है। तथा पिपासानाशक माना जाता है। दमनपापड़।
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पितर  : पुं० [सं० पितृ, पितर] किसी व्यक्ति की दृष्टि से उसके वे पूर्वज जो स्वर्ग सिधार गये हों। परलोकवासी पूर्वज। कर्मकाण्ड के अनुसार इनके नाम पर श्राद्ध, तर्पण, आदि कृत्य किये जाते हैं।
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पितरपख  : पुं०=पितृपक्ष।
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पितरपति  : पुं० [सं० पितृपति] यमराज।
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पितराई  : स्त्री०=पितरायँध।
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पितरायँध  : स्त्री० [हिं० पीतल+गंध] पीतल के बरतन में किसी पदार्थ विशेषतः किसी खट्टे पदार्थ के पड़े रहने तथा विकारयुक्त होने पर निकलनेवाली गंध जो अप्रिय होती है।
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पितरिहा  : वि० [हिं० पीतल+हा] १. पीतल-संबंधी। पीतल का। २. पीतल का बना हुआ। पुं० पीतल का घड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पितलाना  : अ० [हिं० पीतल+आना (प्रत्य०)] किसी पदार्थ के पीतल के बरतन में पडे रहने पर पीतल के कसाव से युक्त होना।
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पित-ससुर  : पुं० दे० ‘पितिया ससुर’।
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पिता (तृ)  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+तृच्] संबंध के विचार से वह पुरुष जिसने किसी को जन्म दिया और उसका पालन-पोषण किया हो जनक। बाप।
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पितामह  : पुं० [सं० पितृ+डामह] [स्त्री० पितामही] १. पिता का पिता। दादा। २. ब्रह्म। ३. शिव। ४. भीष्म। ५. एक धर्म-शास्त्रकार ऋषि।
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पितिजिया  : पुं० [?] महाराष्ट्र के कुछ प्रदेशों में होनेवाला एक ऊंचा तथा छायादार वृक्ष जिसके पत्ते तथा बीज कफ तथा वातविनाशक और वीर्यवर्द्धक होते हैं। पितौजिया। जियापोता।
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पितिया  : पुं० [सं० पितृव्य] [स्त्री० पितियानी] बाप का भाई। चाचा।
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पितियानी  : स्त्री० [हिं० पितिया+नी (प्रत्य०)] चाचा की स्त्री। चाची।
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पितिया-ससुर  : पुं० [हिं० पितिया+ससुर] १. किसी पुरुष की दृष्टि से चाचा। २. किसी स्त्री की दृष्टि से उसके पति का चाचा। चचिया ससुर।
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पितियासास  : स्त्री० [हिं० पितिया+सास] संबंध के विचार से ससुर के भाई की पत्नी। चचिया सास।
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पितु  : पुं०=पिता।
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पितृ  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+तृच्] १. किसी व्यक्ति के बाप, दादा, परदादा आदि मृत-पूर्वज। २. ऐसा मृत व्यक्ति जो प्रेतत्व से मुक्त हो चुका हो। ३. एक प्रकार के देवता जो सब जीवों के आदि पूर्वज माने गये हैं। ४. पिता।
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पितृ-ऋण  : पुं० [ष० त०] धर्म-शास्त्रों के अनुसार, मनुष्य के तीन ऋणों में से एक जिसे लेकर वह जन्म ग्रहण करता है। कहा गया है कि पुत्र उत्पन्न करने से उस ऋण से मुक्ति होती है।
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पितृक  : वि० [सं० पैतृक, पृषो० सिद्धि] १. पितृ-संबंधी। पितरों का। पैतृक। २. पिता का दिया हुआ। पिता के द्वारा प्राप्त। पैतृक। ३. (उत्तराधिकार, व्यवहार आदि की प्रथा) जिसमें गृहपति या पिता का पक्ष प्रधान माना जाता है, गृहस्वामिनी या माता के पक्ष का कोई विचार नहीं होता। (पेट्रिआर्कल)
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पितृ-कर्म (न्)  : पुं० [मध्य० स०] पितरों के उद्देश्य से किये जानेवाले श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म।
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पितृ-कल्प  : पुं० [मध्य० स०] श्राद्धादि कर्म।
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पितृ-कानन  : पुं० [ष० त०] श्मशान। मरघट।
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पितृ-कार्य  : पुं० [मध्य० स०]=पितृ-कर्म।
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पितृ-कुल  : पुं० [ष० त०] बाप-दादा, परदादा या उनके भाई बंधुओं आदि का कुल।
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पितृ-कुल्या  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तीर्थस्थान। (महाभारत)
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पितृ-कृत्य  : पुं० [मध्य० स०] श्राद्ध, तर्पण आदि कार्य जो पितरों के उदेश्य से किये जाते हैं।
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पितृ-गण  : पुं० [ष० त०] १. पितर। २. मरीचि आदि ऋषियों के पुत्र।
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पितृ-गाथा  : स्त्री० [मध्य० स०] पितरों द्वारा पढ़े जाने वाले कुछ विशेष श्लोक या गाथाएँ।
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पितृगामी (मिन्)  : वि० [सं० पितृ√गम् (जाना)+ णिनि] पिता-सम्बन्धी।
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पितृ-गृह  : पुं० [ष० त०] १. बाप का घर। विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मायका। २. श्मशान।
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पितृ-ग्रह  : पुं० [ष० त०] स्कंद आदि नौ ग्रहों में से एक।
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पितृघात  : पुं० [सं० पितृ√हन् (हिंसा)+अण्] [वि० पितृघातक, पितृघाती] पिता की की जानेवाली हत्या।
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पितृ-तर्पण  : पुं० [ष० त०] १. पितरों के उद्देश्य से किया जानेवाला जलदान। विशेष दे० तर्पण। २. तिल जिसमें पितरों का तर्पण किया जाता है। ३. गया नामक तीर्थ जहाँ श्राद्ध करने से पितरों का प्रेतयोनि से मुक्त होना माना जाता है।
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पितृता  : स्त्री० [सं० पितृ+तल्+टाप्]=पितृत्व।
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पितृ-तिथि  : स्त्री० [मध्य० स०] अमावस्या।
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पितृतीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] १. गया नामक तीर्थ। २. मत्स्य पुराण के अनुसार गया, वाराणसी प्रयाग, विमलेश्वर आदि २२२ तीर्थ। ३. अँगूठे और तर्जनी के बीच का भाग, जिसमें से तर्पण का जल गिराया या छोड़ा जाता है।
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पितृत्व  : पुं० [सं० पितृ+त्व] पिता होने का भाव।
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पितृ-दान  : पुं० [च० त०] पितरों के उद्देश्य से किया जानेवाला दान।
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पितृ-दान  : पुं० [सं० ष० त०] उत्तराधिकार में पिता से मिलनेवाली संपत्ति। बपौती।
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पितृ-दिन  : पुं० [ष० त०] अमावस्या।
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पितृ-देव  : पुं० [ष० त०] पितरों के अधिष्ठाता देवता। अग्निष्वातादि पितरगण।
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पितृ-देश  : पुं० [ष० त०] किसी की दृष्टि से उसके पितरों या पूर्वजों के रहने का देश। वह देश जिसमें कोई अपने पूर्वजों के समय से रहता आया हो। (फादरलैंड)।
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पितृ-दैवत  : वि० [सं० पितृदेवता+अण्] पितृदेवता-संबंधी। पितरों की प्रसन्नता के लिए किया जानेवाला (यज्ञ आदि) पुं० मघा नक्षत्र।
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पितृदैवत्य  : वि० [सं० पितृदेवता+ष्यञ्] पितृदैवत। पुं० (कुछ विशिष्ट मासों की) अष्टमी के दिन किया जानेवला एक पितृ-कृत्य।
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पितृ-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. यमराज। २. अर्यमा नाम के पितर जो सब पितरों में श्रेष्ठ हैं।
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पितृ-पक्ष  : पुं० [ष० त०] १. कुआर या आश्विन का कृष्णपक्ष। २. पितृकुल।
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पितृ-पति  : पुं० [ष० त०] यम।
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पितृ-पद  : पुं० [ष० त०] १. पितरों का देश या लोक। २. पितृ या पितर होने का पद या स्थिति।
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पितृ-पिता (तृ)  : पुं० [ष० त०] पितामह।
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पितृपैतामह  : वि० [सं० पितृपितामह+अण्] जिसका संबंध पिता-पितामह आदि से हो। बाप-दादों का।
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पितृ-प्रसू  : स्त्री० [ष० त०] १. पिता की माता। दादी। २. सायंकाल। संध्या।
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पितृ-प्राप्त  : वि० [पं.त०] जो पिता से मिला हो।
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पितृप्रिय  : पुं० [ष० त०] १. भँगेरा। भँगरैया। भृंगराज। २. अगस्त का पेड़।
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पितृ-बंधु  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिससे संबंध पिता-पितामह आदि के विचार से हो। ‘मातृबंधु’ का विपर्याय।
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पितृ-भक्त  : वि० [ष० त०] [भाव० पितृभक्ति] अपने पिता की सेवा करने तथा उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करनेवाला।
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पितृ-भक्ति  : स्त्री० [ष० त०] पितृभक्त होने की अवस्था या भाव। पिता के प्रति होनेवाली भक्ति।
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पितृ-भोजन  : पुं० [ष० त०] १. पितरों को अर्पित किया जानेवाला भोजन। २. उड़द। माष।
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पितृ-मंदिर  : पुं० [ष० त०] १. पिता का घर। पितृ-गृह। २. श्मशान या मरघट जो पितरों का वास-स्थान माना गया है।
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पितृ-मेध  : पुं० [मध्य० स०] वैदिक काल का एक अंत्येष्टि क्रम जिसमें अग्निदान और दस पिंडदान आदि कृत्य होते थे। (श्राद्ध से भिन्न)
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पितृ-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०]=पितृ-तर्पण।
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पितृ-याण  : पुं० [ष० त०] १. मृत्यु के अनंतर जीव के पर-लोक जाने का वह मार्ग जिससे वह चंद्रमा में पहुँचता है। कहते है कि इस मार्ग में जाने वाले मृत व्यक्ति की आत्मा को निश्चित काल तक स्वर्ग आदि में सुख भोगकर फिर संसार में आना पड़ता है। २. वह मार्ग जिस पर पितर चलते हैं और अपने लिए नियत लोकों में जाते हैं।
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पितृ-राज  : पुं० [ष० त०] यम।
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पितृ-रिष्ट  : पुं० [ब० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जिसमें जन्म लेनेवाला बालक पिता के लिए घातक समझा जाता है।
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पितृरूप  : पुं० [सं० पितृ+रूपम्] शिव।
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पितृ-लोक  : पुं० [ष० त०] वह लोक जिसमें पितरों का निवास माना जाता है।
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पितृ-वंश  : पुं० [ष० त०] पिता का कुल।
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पितृ-वन  : पुं० [ष० त०] मरघट। श्मशान।
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पितृवनेचर  : पुं० [सं० अलुक् स०] १. पितृ-वन अर्थात् श्मशान में बसनेवाले जीव। भूत-प्रेत। २. शिव
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पितृ-वसति  : स्त्री० [ष० त०] श्मशान।
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पितृ-वित्त  : पुं० [ष० त०] बाप-दादों द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति। पैतृक या मौरूसी जायदाद।
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पितृ-वेश्म (न्)  : पुं० [ष० त०] स्त्री के पिता का घर। नैहर। मायका।
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पितृव्य  : पुं० [सं० पितृ+व्यत्] १. पिता के तुल्य आदरणीय व्यक्ति। २. चाचा।
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पितृ-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] पितृ-कर्म। वि० पितरों की पूजा करनेवाला।
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पितृषद्  : पुं० [सं० पितृ√सद्+क्विप्] =पितृ-गृह। (स्त्रियों के लिए)
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पितृषदन  : पुं० [सं० ष० त०] कुश।
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पितृष्वसा (स्)  : स्त्री० [सं० ष० त०] पिता की बहन। बूआ। फूफी।
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पितृष्वस्राय  : पुं० [सं० पितृष्वसृ+छ—ईय] बूआ का पुत्र । फुफेरा भाई।
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पितृ-सद्म (न्)  : पुं० [ष० त०] स्त्री के पिता का घर। मायका।
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पितृसू  : स्त्री० [सं० पितृ√सू (प्रसव करना)+क्विप्] १. दादी। २. सायंकाल।
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पितृ-स्थान  : पुं० [ष० त०] पिता का स्थान या पद।
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पितृस्थानीय  : वि० [सं० पितृस्थान+छ—ईय] १. पिता के स्थान पर होनेवाला या उसका समकक्ष। २. अभिभावक।
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पितृ-हंता (तृ)  : वि० [ष० त०]=पितृहा।
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पितृहा (हन्)  : वि० [सं० पितृ√हन् (हिंसा)+क्विप्] जिसने पिता की हत्या की हो।
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पितृहू  : पुं० [सं० पितृ√ह्वे (बुलाना)+क्विप्] दाहिना कान।
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पितृहूय  : पुं० [सं० पितृ√ह्वे+क्यप् ?] श्राद्ध आदि कार्यों के समय पितरों का आह्वान करना। पितरों को बुलाना।
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पितौंजिया  : पुं०=पितिजिया।
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पित्त  : पुं० [सं० अपि√दो (काटना)+क्त, तादेश, अकार-लोप] १. वैद्यक के अनुसार शरीर के तीन मुख्य तत्त्वों में से एक (अन्य दो वात और कफ है) जो नीलापन लिये तरल होता है और यकृत में बनता है। (बाइल) २. उक्त का प्रमुख गुण, ताप या शक्ति जो भोजन पचाती है। मुहा०—पित्त उबलना=दे० ‘पित्ता’ के अंतर्गत ‘पित्ता खौलना’। पित्त उभरना=पित्त का प्रकोप या विकार उत्त्पन्न होना। (किसी का) पित्त गरम होना=स्वभावतः क्रोधी होना। मिजाज में गरमी होना। जैसे—अभी तुम जवान हो इसी से तुम्हारा पित्त इतना गरम है। पित्त डालना=कै करना।
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पित्त-कर  : वि० [ष० त०] पित्त को बढ़ानेवाला (पदार्थ)।
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पित्त-कास  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने के फलस्वरूप होनेवाली एक तरह की खाँसी।
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पित्त-कोष  : पुं० [ष० त०] पित्ताशय। (दे०)
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पित्त-क्षोभ  : पुं० [ष० त०] पित्त के बिगड़ने से होनेवाले विकार।
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पितगदी (दिन्)  : वि० [सं० पित्त-गद, ष० त०,+इनि] जिसका पित्त बिगड़ा हुआ हो।
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पित्त-गुल्म  : पुं० [सं०] पित्त की अधिकता के कारण होनेवाला पेट फूलने का एक रोग।
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पित्तध्न  : वि० [सं० पित्त√हन्+टक्] पित्त का नाश अथवा उसके विकारों को दूर करनेवाला। पुं० घी। घृत।
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पित्तघ्नी  : स्त्री० [सं० पित्तघ्न+ङीष्] गुरुच।
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पित्तज  : वि० [सं० पित्त√जन् (उत्त्पत्ति)+ड] पित्त अथवा उसके प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला। जैसे-पित्तज ज्वर, पित्तज शोथ आदि।
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पित्त-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने से होनेवाला ज्वर।
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पित्तदाह  : पुं० [सं०] पित्त-ज्वर। (दे०)
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पित्तद्रावी (विन्)  : वि० [सं० पित्त√द्रु (गति)+णिच्+णिनि] पित्त को द्रवित करने अर्थात् पिघलानेवाला। पुं० मीठा नींबू।
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पित्त-धरा  : स्त्री० [ष० त०] पित्त को धारण करनेवाली एक कला या झिल्ली। ग्रहणी।
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पित्त-नाड़ी  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का नाड़ी-व्रण जो पित्त के प्रकोप से होता हो। (वैद्यक)
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पित्त-नाशक  : वि० [ष० त०] १. पित्त का नाश करनेवाला। २. पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-निर्वहण  : वि० [ष० त०]=पित्त-नाशक।
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पित्त-पथरी  : स्त्री० [सं० पित्त+हिं० पथरी] एक प्रकार का रोग जिसमें पित्ताशय अथवा पित्तवाहक नलियों में पित्त की कंकडियाँ बन जाती है। यद्यपि ये पित्ताशय में ही बनती हैं, पर यकृत और पित्त-प्रणालियों में भी पाई जाती है।
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पित्त-पांडु  : पुं० [ब० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें रोगी के मूत्र, विष्ठा, और नेत्र के सिवा सारा शरीर पीला हो जाता है।
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पित्त-पाप़ड़ा  : पुं०=पित्तपापड़ा (दे०)।
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पित्त-प्रकृति  : वि० [ब० स०] जिसके शरीर में वात और कफ की अपेक्षा पित्त की प्रधानता या अधिकता हो।
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पित्त-प्रकोप  : पुं० [ष० त०] पित्त के अधिक बढ़ जाने अथवा उसमें विकार होने के फलस्वरूप उसका उग्र रूप धारण करना (जिसके फलस्वरूप अनेक रोग होते हैं)।
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पित्त-प्रकोपी (पिन्)  : वि० [सं० पित्त-प्रकोप, ष० त०+इनि] पित्त को बढ़ाने या कुपित करनेवाला (द्रव्य) जिसे खाने से पित्त की वृद्धि हो।
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पित्त-भेषज  : पुं० [ष० त०] मसूर की दाल।
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पित्त-रंजक  : पुं० [सं०]=पित्तारूण।
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पित्त-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] रक्तपित्त नामक रोग।
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पित्तल  : वि० [सं० पित्त+लच्] १. जिसमें पित्त की बहुलता हो। २. जिससे पित्त का प्रकोप या दोष बढ़े। पित्तकारी (द्रव्य)। पुं० १. पीतल। २. हरताल। ३. भोजपत्र।
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पित्तला  : स्त्री० [सं० पित्तल+टाप्] १. जल-पीपल। २. वैद्यक के अनुसार योनि का एक रोग जो दूषित पित्त के कारण होता है। इसके कारण योनि में अत्यन्त दाह, पाक तथा शरीर में ज्वर होता है।
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पित्त-वर्ग  : पुं० [ष० त०] मछली, गाय, घोड़े, रुरु और मोर के पित्तों का समूह। पंचविधपित्त।
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पित्त-वल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] काला अतीस।
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पित्त-वायु  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप से पेट में उत्पन्न होनेवाली वायु।
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पित्त-विदग्ध  : वि० [तृ० त०] जिसका पित्त कुपित हो।
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पित्त-विदग्ध-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] आँख का एक रोग जो दूषित पित्त के दृष्टि स्थान में आ जाने के कारण होता है। इसके कारण रोगी दिन में नहीं देख सकता केवल रात में देखता है।
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पित्त-विसर्प  : पुं० [मध्य० स०] विसर्प रोग का एक भेद।
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पित्त-व्याधि  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के कुपित होने से होनेवाला रोग।
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पित्त-शमन  : वि० [ष० त०] पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-शूल  : वि० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होने वाला शूल।
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पित्त-शोथ  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला शोथ या सूजन।
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पित्त-श्लेष्म ज्वर  : पुं० [सं० पित्त-श्लेष्मन्, द्व० स०, पित्तश्लेष्म-ज्वर, मध्य० स०] पित्त और कफ दोनों के प्रकोप से होनेवाला एक तरह का ज्वर।
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पित्त-श्लेष्मोल्वण  : पुं० [सं० पित्तश्लेष्म-उल्वण, मध्य० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पतला मल निकलता है और सारे शरीर में पीड़ा होती है।
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पित्त-शंसमन  : पुं० [ष० त०] आयुर्वेदोक्त ओषधियों का एक वर्ग। इस वर्ग की ओषधियाँ प्रकुपित पित्त को शांत करनेवाली मानी जाती हैं। चन्दन, लालचंदन, खस, सतावर, नीलकमल, केला, कमलगट्टा आदि इस वर्ग में माने गये हैं।
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पित्त-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. पित्ताशय। २. शरीर के अंदर के वे पाँच स्थान जिनमें वैद्यक के अनुसार पाचक, रंजक आदि ५ प्रकार के पित्त रहते हैं. ये स्थान आमाशय-पक्वाशय, यकृत, प्लीहा हृदय, दोनों नेत्रों और त्वचा हैं।
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पित्त-स्यंदन  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के विकार से उत्पन्न एक नेत्र रोग।
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पित्त-स्राव  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार, एक प्रकार का नेत्ररोग जिसमें आँखों से पीला (या नीला) और गरम पानी बहता है।
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पित्त-हर  : पुं० [ष० त०] खस। उशीर।
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पित्तहा (हन्)  : पुं० [सं० पित्त√हन्+क्विप्] पित्त पापड़ा। वि० पित्त का प्रकोप शांत करनेवाला।
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पित्तांड  : पुं० [पित्त-अंड, ब० स०] घोडों के अंडकोश में होनेवाला एक रोग।
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पित्ता  : पुं० [सं० पित्त] १. वह थैली जिसमें पित्त रहता है। पित्ताशय। (देखें) २. शरीर के अंदर का पित्त, जिसका मनुष्य के मनोभावों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। पद—पित्तामार काम=ऐसा कठिन काम जो बहुत देर में पूरा होता हो और जिसमें बहुत अधिक तल्लीनता अथवा सहिष्णुता की आवश्यकता हो। मुहा०—पित्ता उबलना या खौलना=किसी कारणवश मन में बहुत अधिक क्रोध उत्पन्न करना। पित्ता निकलना=बहुत अधिक, कष्ट, परिश्रम आदि के कारण शरीर की दुर्दशा होना। पित्ता पानी करना=किसी काम को पूरा करने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करना। पित्ता मरना=शरीर में उत्साह, उमंग आदि का बहुत कुछ अंत या अभाव हो जाना। पित्ता मारना=(क) मन के दूषित भाव या बुरी बातें उमड़ने न देना। (ख) मन के उत्साह, उमंग आदि को दबा या रोककर रखना। जैसे—पित्ता मारकर काम करना सीखो। ३. हिम्मत। साहस। हौसला। जैसे—उसका क्या पित्ता है जो तुम्हारे सामने ठहरे। ४. कुछ पशुओं के शरीर से निकला हुआ पित्त नामक पदार्थ जिसका उपयोग औषध के रूप में होता है। जैसे—बैल का पित्ता।
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पित्तातिसार  : पुं० [पित्त-अतिसार, मध्य० स०] वह अतिसार रोग जो पित्त के प्रकोप या दोष से होता है।
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पित्ताभिष्यंद  : पुं० [पित्त-अभिष्यंद, मध्य० स०] पित्त कोप से आँख आने का रोग।
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पित्तारि  : पुं० [पित्त-अरि, ष० त०] १. पित्त-पापडा। २. लाख। ३. पीला चंदन।
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पित्तारुण  : पुं० [सं० पित्त-अरुण] आधुनिक विज्ञान में, शरीर के रक्त रस में रहनेवाला एक रंगीन तत्त्व जिसकी अधिकता से आदमियों को कामला या पीलिया नामक रोग हो जाता है। (बिली रुबिन)।
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पित्ताशय  : पुं० [पित्त-आशय, ष० त०] शरीर के अंदर यकृत के पीछे की ओर रहनेवाली थैली के आकार का वह अंग जिसमें पित्त रहता है। (गालब्लैडर)
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पित्तिका  : स्त्री० [सं० पित्त+कन्+टाप्, इत्व] एक प्रकार की शतपदी (ओषधि)।
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पित्ती  : स्त्री० [हिं० पित्त+ई] १. एक रोग जो पित्त के प्रकोप से रक्त में बहुत अधिक उष्णता होने के कारण होता है तथा जिसमें शरीर के विभिन्न अंगों में छोटे-छोटे ददोरे निकल आते हैं जिन्हें खुजलाते-खुजलाते रोगी विकल हो जाता है। क्रि० वि०—उछलना। २. वे लाल महीन दाने जो गरमी के दिनों में पसीना मरने से शरीर पर निकल आते हैं। अंभौरी। क्रि० प्र०—निकलना। पुं० [सं० पितृव्य] पिता का भाई। चाचा।
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पित्तोत्क्लिष्ट  : पुं० [पित्त-उत्क्लिष्ट, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पलकों में दाह, क्लेद और पीड़ा होती है तथा ज्योति कम हो जाती है। (वैद्यक)
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पित्तोदर  : पुं० [पित्त-उदर, मध्य० स०] पित्त-गुल्म। (देखें)
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पित्तोन्माद  : पुं० [पित्त-उमाद, मध्य० स०] [वि० पित्तोन्मादिक] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का उन्माद, रोग जिसमें साधारणतः बिना किसी कारण के रोगी बहुत ही खिन्न, चिन्तित और दुःखी रहता है और जो पित्ताशय के ठीक काम न करने से उत्पन्न होता है। (हाइपोकान्ड्रिया)
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पित्तोपहत  : वि० [पित्त-उपहत, तृ० त०] जिसे पिता का प्रकोप हुआ हो।
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पित्तोल्वण सन्निपात  : पुं० [पित्त-उल्वण, तृ० त०, पित्तोल्वण—सन्निपात, कर्म० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। भ्रम, मूर्छा, मुँह और शरीर में लाल दाने निकलना आदि इसके लक्षण हैं। (वैद्यक)
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पित्र्य  : वि० [सं० पित्तृ+यत्] पिता-संबंधी। पुं० १. बड़ा भाई। २. पितृतीर्थ। ३. तर्जनी और अँगूठे का अंतिम भाग। ४. शहद। ५. उड़द।
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पित्र्या  : स्त्री० [सं० पित्र्य+टाप्] १. मघा नक्षत्र। २. पूर्णिमा। पूर्णमासी। ३. अमावस्या। अमावस।
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पिथ  : पुं०=पृथ्वीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिथौरा  : पुं०=पृथ्वीराज (दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिदारा  : पुं०=पिद्दा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पिद्दा  : पुं० [हिं० पिद्दी] १. पिद्दी का नर। विशेष दे० ‘पिद्दी’। २. गुलेले की ताँत में लगी हुई निवाड़ आदि की वह गद्दी जिस पर फेंकने के समय गोली रखते हैं। फटकना।
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पिद्दी  : स्त्री० [हिं० पिद्दा] १. बया की तरह की एक सुन्दर छोटी चिड़िया जो अनेक रंगों की होती है। इसे ‘फुदकी’ भी कहते हैं। २. अत्यन्त तुच्छ या नगण्य जीव।
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पिधना  : स० [सं० परिधारण] शरीर पर धारण करना, पहनना। उदा०—पीत बसन हे जुवति पिधिलेह।—विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिधान  : पुं० [सं० अपि√धा (धारण करना)+ल्युट—अन, अकार, लोप] १. आच्छादन। आवरण। २. पर्दा। गिलाफ। ३. ढक्कन। ४. तलवार का कोष। म्यान। ५. किवाड़ा। दरवाजा।
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पिधानक  : पुं० [सं० पिधान+कन्] १. ढक्कन। २. कोष। म्यान।
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पिधायक  : वि० [सं० अपि√धा+ण्वुल्—अक, अकार-लोप] १. ढकनेवाला। २. छिपानेवाला।
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पिन  : स्त्री० [अं०] धातु की तरह की पतली, नुकीली कील जिसमें कागज नत्थी किये जाते हैं। आलपीन।
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पिनक  : स्त्री० [हिं० पिनकना] १. पिनकने की क्रिया या भाव। २. अफीमची की वह अवस्था जिमसें वह नशे की अधिकता के कारण सिर झुकाकर बैठे रहने की दशा में बेसुध या सोया हुआ सा रहता है। क्रि० प्र० लेना।
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पिनकना  : अ० [हिं० पीनक] १. अफीमची का नशे की हालत में रह-रहकर ऊँघते हुए आगे की ओर झुकना। पीनक लेना। २. अधिक नींद आने के कारण सिर का रह-रहकर झुक पड़ना।
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पिनकी  : पुं० [हिं० पीनक] वह जो अफीमचियों की तरह बैठे-बैठे सोता हो और नीचे की ओर सिर रह-रहकर झुकाता हो।
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पिनद्ध  : भू० कृ० [सं० अपि√नह् (बाँधना)+क्त, अकार-लोप] १. कसा या बाँधा हुआ। २. पहना या धारण किया हुआ। ३. छाया ढका या लपेटा हुआ।
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पिनपिन  : स्त्री० [अनु०] १. बच्चों के रह-रहकर रोने पर होनेवाला अनुनासिक और अस्पष्ट शब्द। २. रोगी या दुबले पतले बच्चे के रोने का शब्द। क्रि० प्र०—करना।—लगाना।
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पिनपिनहाँ  : वि० [हिं० पिनपिन+हा (प्रत्य०)] १. पिनपिन करनेवाला (बच्चा)। जो हर समय रोया करे। २. प्रायः रोगी रहनेवाला दुबला-पतला (बच्चा)।
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पिनपिनाना  : अ० [हिं० पिनपिन] १. रोते समय नाक से पिनपिन का सा स्वर निकलाना। २. धीरे-धीरे, रुक-रुककर या हिचकियाँ लेते हुए रोना।
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पिनपिनाहट  : स्त्री० [हिं० पिनपिनाना] पिनपिन करने की क्रिया, भाव या शब्द।
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पिनसन  : स्त्री०=पेंशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिनाक  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+आकन्, नुट्, इत्व] १. शिव का वह धनुष जो श्रीरामचन्द्र ने सीता स्वयंबर में तोड़ा था। अजगव। २. धनुष। ३. त्रिशूल। ४. नीला अभ्रक।
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पिनाक-गोप्ता (प्तृ)  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पिनाक-धृत्  : पुं० [सं० पिनाक√घृ (धारण करना)+क्विप्] शिव।
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पिनाक-पाणि  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पिनाक-हस्त  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पिनाकी (किन्)  : पुं० [सं० पिनाक+इनि] १. पिनाक धारण करनेवाले, महादेव। शिव। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिए तार लगा रहता था।
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पिन्नस  : स्त्री०=पीनस (रोग)।
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पिन्ना  : वि० [हिं० पिनपिनाना] प्रायः पिनपिन करने अर्थात् रोता रहने-वाला। पुं० [हिं० पींजना] धुनिया। पुं० [हिं० पिन्नी का पुं०] बड़ी पिन्नी।
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पिन्नी  : स्त्री० [सं० पिंडी] १. एक प्रकार का लड्डू जो आटे आदि में कई तरह के मसाले और चीनी या गुड़ मिलाकर बनाया जाता है। २. सूत, धागे आदि को लपेटकर गोलाकार बनाया हुआ छोटा पिंड। जैसे—डोर या नग की पिन्नी।
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पिन्यास  : पुं० [सं० अपि-न्यास, ब० स० अकार-लोप] हींग।
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पिन्हाना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपर  : पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपरमिंट  : पुं० [अं० पेपरमिंट] १. पुदीने की जाति का परन्तु उससे भिन्न एक प्रकार का पौधा जो यूरोप और अमेरिका में होता है। इसकी पत्तियों में एक विशेष प्रकार की गंध और ठंढक होती है। २. उक्त पत्तियों का निकाला हुआ सत्त या सार भाग जो छोटे सफेद रवे के रूप में होता और पाचक माना जाता है।
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पिपरामूल  : पुं० [हिं० पीपल+सं० मूल] पीपल की जड़।
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पिपराही  : पुं० [हिं० पिपर+आही (प्रत्य०)] पीपल का जंगल या वन।
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पिपरिहा  : पुं० [पिपरहा (स्थान)] राजपूतों की एक शाखा या अल्ल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपली  : स्त्री० [देश०] नैपाल, दार्जिलिंग आदि पहाड़ी इलाकों में होनेवाला एक तरह का वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारती कामों में आती है।
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पिपही  : स्त्री०=पिपीली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपास  : स्त्री०=पिपासा (प्यास)।
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पिपासा  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+सन्+अ—टाप्] १. पानी या और कोई तरल पदार्थ पीने की इच्छा। तृष्णा। तृषा। प्यास। २. कोई चीज पाने की इच्छा या लोभ।
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पिपासित  : वि० [सं० पिपासा+इतच्] जिसे प्यास लगी हो। प्यासा।
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पिपासी (सिन्)  : वि० [सं० पिपासा+इनि] प्यासा।
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पिपासु  : वि० [सं०√पा+सन्+उ] १. जिसे पिपासा या प्यास लगी हो। तृषित। प्यासा। २. पीने का इच्छुक। ३. जिसके मन में किसी प्रकार की उग्र कामना या लोभ हो। जैसे—रक्तपिपासु।
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पिपियाना  : अ० [हिं० पीप=मवाद] फोड़े आदि में पीप पैदा होना। स० फोड़े आदि में मवाद उत्पन्न करना। फोड़ा पकाना।
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पपिली  : स्त्री०=पिपीली।
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पिपीतकी  : स्त्री० [सं० पिपीतक+अच्+ङीष्] वैशाख शुक्ल द्वादशी जो व्रत का दिन माना गया है। पहले-पहल कहते है कि पिपीतक नाम के एक ब्राह्मण ने किया था। इसी से इसका यह नाम पड़ा है।
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पिपीलक  : पुं० [सं० अपि√पील् (रोकना)+ण्वुल्—अक, अकार-लोप] [स्त्री० अल्पा० पिपीलिका] १. बड़ा चींटा। २. एक तरह का सोना।
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पिपीलिक  : पुं०=पिपीलक।
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पिपीलिका  : स्त्री० [सं० पिपीलक+टाप्, इत्व] १. च्यूँटी या चींटी नाम का छोटा कीड़ा। २. च्यूँटियों की तरह एक के पीछे एक चलने की प्रवृत्ति।
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पिपीलिका भक्षी (क्षिण)  : पुं० [सं० पिपीलिका√भक्ष् (खाना)+ णिनि] दक्षिण अफ्रीका का एक जंतु जिसका बहुत लंबा थूथन और बहुत बड़ी जीभ होती है। इसके दाँत नहीं होते यह अपने पंजों से चीटियों के बिल खोदता है और उन्हें खाता है।
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पिपीलिका-मार्ग  : पुं० [ष० त०] योग की साधना में से दो मार्गो में से एक जिसके द्वारा साधक क्रमशः धीरे-धीरे आगे बढ़ता और षट् चक्रों को बेधता हुआ अपने प्राण ब्रह्माण्ड तक पहुँचाता है। इसकी तुलना में दूसरा अर्थात् विहंगम मार्ग (देखें) श्रेष्ठ समझा जाता है।
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पिपीलिकोद्वाप  : पुं० [पिपीलिका-उद्वाप, ष० त०] वल्मीक।
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पिपीली  : स्त्री० [सं० अपि√पील्+अच्+ङीप् अलोप] चींटी। च्यूँटी।
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पिप्पटा  : स्त्री० [सं०] १. पुरानी चाल की एक तरह की मिठाई। २. चीनी।
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पिप्पल  : पुं० [सं०√पा+अलच्, पृषो० सिद्धि] १. पीपल का पेड़। अश्वत्थ। २. एक प्रकार का पक्षी ३. रेवती से उत्पन्न मित्र का एक पुत्र। (भागवत) ४. नंगा आदमी। ५. जल। पानी। ६. वस्त्रखंड। कपड़े का टुकड़ा। ७. अंगे आदि की बाँह या आस्तीन।
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पिप्पलक  : पुं० [सं० पिप्पल+कन्] स्तनमुख।
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पिप्पलयांग  : पुं० [सं०] चीन और जापान में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जो अब भारतवर्ष में भी गढ़वाल, कुमाऊँ और काँगड़े की पहाडियों में पाया जाता है। इसके फलों के बीज के अन्दर चरबी की तरह का चिकना पदार्थ होता है जिसे चीनी मोम कहते हैं। मोमचीना।
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पिप्पला  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी।
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पिप्पलाद  : पुं० [सं० पिप्पल√अद् (खाना)+अण्] पुराणानुसार एक ऋषि जो अथर्ववेद की एक शाखा के प्रवर्तक माने गये हैं।
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पिप्पलाशन  : वि० [पिप्पल-अशन, ब० स०] जो पीपल का फल या गूदा खाता हो।
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पिप्पलि  : स्त्री० [सं० पिप्पल+इन्] पीपल नामक लता और उसकी कली जो दवा के काम आती है।
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पिप्पली  : स्त्री० [सं० पिप्पली+ङीष्] पीपल (लता)।
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पिप्पली-खंड  : पुं० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार एक औषध जो पीपल के चूर्ण, घी, शतमूली के रस, चीनी आदि को दूध में पकाकर बनाई जाती है।
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पिप्पलीमूल  : पुं० [ष० त०] पीपल की जड। पिपरामूल।
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पिप्पल्यादिगण  : पुं० [सं० पिप्पली-आदि, ब० स०, पिप्पल्यादि-गण, ष० त०] सुश्रुत के अनुसार ओषधियों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत पिप्पली, चीता, अदरख, मिर्च, इलायची, अजवायन, इन्द्रजव, जीरा, सरसों, बकायन, हींग, भारंगी, अतिविषा, वच, विडंग और कुटकी है।
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पिप्पिका  : स्त्री० [सं०] दाँतों की मैल।
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पिप्पीक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।
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पिप्लु  : पुं० [सं० अपि√प्लु (गति)+डु, अकार-लोप] १. समा। २. तिल।
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पिय  : पुं० [सं० प्रिय] १. स्त्री की दृष्टि से वह व्यक्ति जिससे वह प्रेम करता हो। प्रियतम। २. पति।
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पियर  : वि० [भाव० पियरई]=पियरा (पीला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियरई  : स्त्री० [हिं० पियर=पीला] पीलापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियरवा  : पुं०=प्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियरा  : वि० [स्त्री० पियरी]=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियराई  : स्त्री०=पियरई (पीलापन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियराना  : अ० [हिं० पियरय] १. पीला पड़ना। २. पीले रंग का होना।
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पिपरी  : स्त्री० [हिं० पियरा] १. पीलापन। २. पीली रंगी हुई वह धोती जो प्रायः देवियों, नदियों आदि को चढ़ाई जाती है। उदा०—कोउ थाननि के थान तानि पियरी पहिरावत।—रत्ना०। ३. उक्त प्रकार की वह धोती जो वर और वधू को विवाह के समय पहनाई जाती है। ४. एक प्रकार की चिड़िया।
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पियरोला  : पुं० [हिं० पीयर] मैना से कुछ छोटी तथा पीले रंग की मधुर स्वरवाली एक चिड़िया।
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पियली  : स्त्री० [हिं० प्याली] नारियल की खोपरी का वह टुकड़ा जिसे बढ़ई आदि बरमे के ऊपरी सिरे के काँटे पर इसलिए रख लेते हैं कि छेद करने के लिए बरमा सहज में घूम सके।
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पियल्ला  : पुं० [हिं० पीना] दूध पीनेवाला बच्चा। पुं०=पियरोला।
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पियवास  : पुं०=पियाबाँसा (कटसरैया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिया  : पुं०=प्रिय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाज  : वि०=प्याज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाजी  : वि०=प्याजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियादा  : पुं०=प्यादा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाना  : स०=पिलाना। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियानो  : पुं० [अं०] हारमोनियम की तरह का एक प्रकार का बड़ा अंगरेजी बाजा जो मेज के आकार का होता है।
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पियाबाँसा  : पुं० [हिं० पिय+बाँस] कटसरैया। कुरवक।
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पियामन  : पुं० [?] राजजामुन। (वृक्ष)
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पियार  : पुं० [सं० पियाल] मझोले आकार का एक पेड़ जो देखने में महुए की तरह होता है। इसका फल फालसे के बराबर और गोल होता है। बीज की गिरी बादाम और पिस्ते की तरह मीठी होती है और चिरौंजी कहलाती है। वि०=प्यारा। पुं०=प्यार।
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पियारा  : वि०, पुं०=प्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाल  : पुं० [सं०√पी (पीना)+कालन्, इयङ्] १. चिरौंजी का पेड़। पयार। २. उक्त पेड़ का बीज। पुं० [सं० पाताल] १. पाताल। २. गहराई। उदा०—पैसि पियाल काली नाग नाथ्यो।—मीराँ। पुं०=पयाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाला  : पुं०=प्याला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाव-बड़ा  : पुं० [पियाव ?+बड़ा] एक तरह की मिठाई।
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पियास  : स्त्री०=प्यास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियासा  : वि०=प्यासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिया-साल  : पुं० [सं० पीतसाल, प्रियसालक] बहेड़े या अर्जुन की जाति का एक प्रकार का बड़ा पेड़ जो भारतवर्ष के जंगलों में प्रायः सब जगह होता है। इसके पत्ते, छाल तथा लकड़ी कई तरह के कामों में आती है।
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पियासी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पियूख (ष)  : पुं०=पियूष। (अमृत)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियौसार  : स्त्री० [पिय+शाला] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके पति का घर अर्थात् ससुराल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरकी  : स्त्री० [सं० पिड़क, पिड़का] छोटा फोड़ा। फुंसी। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरता  : पुं० [सं० पट्ट] काठ या पत्थर का वह टुकड़ा जिस पर रूई की पूनी रखकर दबाते हैं।
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पिरथी  : स्त्री०=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरथीनाथ  : पुं०=पृथ्वीनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरन  : पुं० [देश०] चौपायों का लंगड़ापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिराई  : स्त्री०=पियरई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिराक  : पुं० [सं० पिष्टक, प्रा० पिट्ठक; पिड़क] [स्त्री० अल्पा० पिराकड़ी] गुझिया या गोझा नामक पकवान, जो मैदे की पतली लोई के अंदर सूजी खोआ, मेवे आदि भरकर और उसे अर्द्धचंद्राकार मोड़कर घी में तलकर बनाया जाता है।
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पिराग  : पुं०=प्रयाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिराना  : अ० [सं० पीड़ा+हिं० आना (प्रत्य०)] १. (किसी अंग का) दर्द करना। पीड़ा होना। २. पीड़ा या दुःख अनुभव करना। ३. किसी को दुःखी देखकर स्वयं दुखी होना।
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पिरारा  : पुं० १.=पिंडारा (साग)। २.=पिंड़ारी (डाकू)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरिच  : स्त्री० [देश०] तश्तरी विशेषतः चीनी मिट्टी की।
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पिरिया  : पुं० [देश०] १. कूएँ से पानी निकालने का रहँट। २. एक तरह का बाजा।
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पिरीतना  : अ० [सं० प्रीति] १. प्रीति या प्रेम करना। २. प्रसन्न होना। उदा०—समउ फिरैं रिपु होहिं पिरीते।—तुलसी।
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पिरीतम  : पुं०=प्रियतम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरीता  : वि० [सं० प्रीत=प्रसन्न] प्रिय।
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पिरीती  : स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरोज  : पुं० [?] १. कटोरा। २. तश्तरी।
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पिरोजन  : पुं० [सं० प्रयोजन] १. बालक के कान छेदने की रीति। कनछेदन। २. दे० ‘प्रयोजन’।
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पिरोजा  : पुं०=फीरोजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरोजी  : वि०=फिरोजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरोड़ा  : स्त्री० [देश०] पीली, क़ड़ी मिट्टीवाली भूमि।
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पिरोना  : स० [सं० प्रोत; प्रा० पोइअ, प्रोअ+ना (प्रत्य०)] १. किसी छेदवाली वस्तु में धागा डालना। जैसे—सूई में धागा पिरोना। २. छेदवाली बहुत सी वस्तुओं को एक साथ धागे में नत्थी करना। जैसे—माला पिरोना।
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पिरोला  : पुं० [हिं० पीला] पियरोला नामक पक्षी।
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पिरोहना  : स०=पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरौहाँ  : वि० [सं० पीड़ा] [स्त्री० पिरौंही] मन में पीड़ा उत्पन्न करनेवाला। कष्टदायक। उदा०—तब लखिमिनि दुख पूँछ पिरौहीं।—जायसी।
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पिलई  : स्त्री० [सं० प्लीहा] १. शरीर के अंदर का तिल्ली नामक अंग। २. ताप-तिल्ली या प्लीहा नामक रोग।
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पिलक  : पुं० [हिं० पीला] १. पीले रंग की एक चिड़िया जो मैना से कुछ छोटी होती है और जिसका स्वर बहुत मधुर होता है। पियरोला। जर्दक। २. अबलक कबूतर।
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पिलकना  : स० [सं० पिच्छिल] १. गिरना। २. ढकेलना। ३. झूलना। लटकना। अ० १. गिरना। २. लुढ़कना।
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पिलकिया  : पुं० [देश०] पीलापन लिये खाकी रंग की एक तरह की छोटी चिड़िया जो पंजाब से आसाम तक दिखाई देती है।
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पिलखन  : पुं० [सं० प्लक्ष] पाकर वृक्ष।
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पिलचना  : अ० [सं० पिल=प्रेरणा] १. दो आदमियों का आपस में भिड़ना। गुथना। लिपटना। २. किसी काम में तत्पर या लीन होना।
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पिलड़ी  : स्त्री० [देश०] पकाया हुआ मसालेदार कीमा।
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पिलद्दा  : पुं० [फा० पलीद (गंदा) या पहलवी, पलीदीह] [स्त्री० अल्पा० पिलद्दी] १. गू। मल। विष्ठा। २. बहुत ही गन्दी या मैली चीज। ३. गंदगी। ४. वह रूप जो किसी चीज को बहुत बुरी तरह से कूटने-पीटने पर प्राप्त होता है। कचूमर।
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पिलना  : अ० [सं० पिल=प्रेरणा] १. वेगपूर्वक अन्दर की ओर धँसना या पठना। जैसे—सब लोग घर के अन्दर पिल पडे़। २. पूरी शक्ति से किसी काम में जुटना या लगना। ३. भिड़ जाना। संयो.० क्रि०—पड़ना। ४. ऊख तिल आदि का पेरा जाना। संयो० क्रि०—जाना।
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पिलपिल  : स्त्री० [हिं० पिलपिलाना] पिलपिल करने या होने की अवस्था या भाव। वि०=पिलपिला।
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पिलपिला  : वि० [अनु०] [भाव० पिलपिलापन, स्त्री० पिलपिली] (पदार्थ) जो इतना अधिक कोमल हो कि हल्का स्पर्श करने मात्र से उसका रस या गूदा बाहर निकलने लगे। जैसे—पिलपिला आम, पिलपिला फोड़ा।
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पिलपिलाना  : अ० [हिं० पिलपिला] पिलपिला होना। क्रि० प्र०—जाना। स० इस प्रकार किसी चीज को बार-बार हल्के हाथ से दबाना कि उसका गूदा रस में परिवर्तित होकर बाहर निकलने लगे। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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पिलपिलाहट  : स्त्री० [हिं० पिलपिला] पिलपिले होने की अवस्था या भाव। पिलपिलापन।
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पिलवाना  : स० [हिं० पिलाना का प्रे०] पिलाने का काम किसी दूसरे से कराना। दूसरे को पिलाने में प्रवृत्त करना। स० [हिं० पेलना का प्रे० रूप] किसी को कुछ पेलने या पेरने में प्रवृत्त करना। जैसे—कोल्हू में तिल पिलवाना।
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पिलाई  : स्त्री० [हिं० पिलाना] १. (जल आदि) पिलाने की क्रिया या भाव। २. बच्चों को अपना स्तन का दूध पिलानेवाली दाई। ३. कोई तरल पदार्थ इस प्रकार उँड़ेलना कि वह नीचे के छेदों या संधियों में समा जाय। (ग्राउटिंग) जैसे—सड़कों पर अलकतरे की पिलाई। ४. गोली के खेल में, गोली को किसी विशिष्ट गड्ढे में डालने की क्रिया या भाव।
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पिलाना  : स० [हिं० पीना] १. किसी को कुछ पीने में प्रवृत्त करना। जैसे—किसी को दवा या पानी पिलाना। २. किसी प्रकार के अवकाश या विवर में कोई पदार्थ विशेषतः तरल पदार्थ उँड़लेना या डालना। जैसे—किसी के कान में सीसा पिलाना। ३. कोई बात किसी के मन में अच्छी तरह जमाना या बैठाना। संयो० क्रि०—देना। ४. गोली के खेल में, इस प्रकार गोली फेंकना कि वह किसी विशिष्ट गड्ढे में जा गिरे।
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पिलुंडा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पिंलुंड़ी]=पुलिंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिलुक  : पुं० [सं० अपि√ला (लेना)+डु, अकार—लोप,+कन्] पीलू का पेड़।
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पिलुनी  : स्त्री० [सं० अपि√ला+डुन्+ङीष्, अकार—लोप] मूर्वा।
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पिलु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] मूर्वा (लता)।
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पिल्ल  : पुं० [सं०√क्लिद् (गीला होना)+ल, पिल्—आदेश] एक नेत्ररोग जिसमें आँखों से कीचड़ बहता रहता है। वि० जिसके नेत्रों से कीचड़ निकलता हो।
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पिल्लका  : स्त्री० [सं० पिल्ल√कै (चमकना)+क+टाप्] मादा हाथी। हथिनी।
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पिल्ला  : पुं० [तामिल] [स्त्री० पिल्ली] कुत्ते का बच्चा।
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पिल्लू  : पुं० [सं० पीलु=कृमि] सफेद रंग का एक प्रकार का छोटा लंबा कीड़ा जो सड़े हुए फलों, घावों आदि में देखा जाता है। ढोला। क्रि० प्र०—पड़ना।
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पिव  : पुं०=पिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पिवाना  : स०=पिलाना।
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पिशंग  : पुं० [सं०√पिश् (अंश होना)+अगच्] लाली लिये भूरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पिशंगक  : पुं० [सं० पिशंग+कन्] १. विष्णु। २. विष्णु का अनुचर।
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पिशंगिला  : स्त्री० [सं० पिश्√गिल् (लीलना)+ख, मुम्, टाप्] काँसा नामक मिश्र धातु।
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पिशंगी (गिन्)  : वि० [सं० पिशंग+इनि] पिशंग वर्ण का।
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पिश  : वि० [सं०√पिश्+क] १. पाप आदि न करनेवाला। पाप-रहित। २. अनेक रूपोंवाला।
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पिशंवाज़  : पुं०=पेशबाज (स्वागत)। स्त्री० [फा० पिश्वाज़] एक तरह का घाघरा जिसे नर्तकियाँ पहनकर नाचती थीं।
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पिशाच  : पुं० [सं० पिश+आ√चम् (खाना)+ड, पृषो० सिद्धि] [वि० पैशाच, पैशाची] [स्त्री० पिशाचिनी, पिशाची] एक प्रकार का भूत या प्रेत जिनकी गणना हीन देवयोनियों में होती है तथा जो वीभत्स कर्म करनेवाले माने जाते हैं। २. उक्त के आधार पर वीभत्स तथा जघन्य कर्म करनेवाला व्यक्ति। ३. किसी काम या बात के संबंध में वैसा ही उग्र और भीषण रूप रखनेवाला जैसा पिशाचों का होता है। जैसे—अर्थ-पिशाच, बुद्धि-पिशाच। ४. कश्मीर की सीमा से प्राचीन भारत की पश्चिमोत्तर सीमा तक के प्रदेश का प्राचीन नाम। वि० मांस खानेवाला। मांस-भोजी।
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पिशाचक  : पुं० [सं० पिशाच+कन्] पिशाच।
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पिशाचकी (किन्)  : पुं० [सं० पिशाचक+इनि] कुबेर।
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पिशाचघ्न  : वि० [सं० पिशाच√हन् (मारना)+ठक्] पिशाचों को नष्ट या दूर करनेवाला। पुं० पीली सरसों जिसका प्रयोग प्रायः ओझा और तांत्रिक भूत-प्रेत की बाधा दूर करने के लिए करते हैं।
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पिशाच-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] पिशाचों की तरह श्मशान आदि में घूमना।
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पिशाचद्रु  : पुं० [मध्य० स०] सिहोर का पेड़।
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पिशाच-पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पिशाच-बाधा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह कष्ट जो किसी पिशाच के उपद्रवों के कारण प्राप्त हो।
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पिशाच-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] पैशाची नामक प्राकृत भाषा।
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पिशाच-मोचन  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पिंडदान करने से मृत व्यक्तियों की पिशाच योनि से मुक्ति होती है। २. काशी का एक प्रसिद्ध तालाब जिसके किनारे पिंडा पारा जाता है। प्रसिद्ध है कि यहाँ पिंड-दान करने से जीवात्मा की पिशाच-योनि से मुक्ति हो जाती है।
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पिशाच-संचार  : पुं० [ष० त०] किसी के शरीर में पिशाच का होनेवाला वह संचार जिसके फलस्वरूप वह पिशाचों के से घृणित और जघन्य कार्य करने लगता है।
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पिशाचांगना  : स्त्री० [पिशाच-अंगना, ष० त०] पिशाच प्रदेश की स्त्री।
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पिशाचालय  : पुं० [पिशाच-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ फास्फोरस के कारण अँधेरे में प्रकाश होता है, और इसी लिए जिसे लोग पिशाचों के रहने का स्थान समझते हैं।
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पिशाचिका  : स्त्री० [सं० पिशाच+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. पिशाचयोनि की स्त्री। २. छोटी जटामासी।
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पिशाची  : स्त्री० [पिशाच+ङीष्] १. पिशाच स्त्री। २. जटामासी। स्त्री०=पैशाची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिशिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (बृहत्संहिता)
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पिशित  : पुं० [सं०√पिश्+क्त] १. मांस। गोश्त। २. मांस का टुकड़ा या बोटी।
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पिशिता  : स्त्री० [सं० पिशित+टाप्] जटामासी।
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पिशिताशन  : पुं० [सं० पिशित-अशन, ब० स०] १. वह जो मनुष्यों को खाता हो। २. राक्षस। ३. भेड़िया।
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पिशिनी  : स्त्री० दे० ‘पिशी’।
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पिशी  : स्त्री० [सं०√पिश्+क+ङीष्] जटामासी।
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पिशील  : पुं० [सं०√पिश्+ईल] मिट्टी का प्याला या कटोरा। (शतपथ ब्रा०)
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पिशुन  : वि० [सं०√पिश्+उनन्] [भाव० पिशुनता] १. नीच। ३. क्रूर। ३. चुगलखोर। पुं० १. वह प्रेत जो गर्भिणी स्त्रियों को बाधा पहुँचाता हो। २. एक की दूसरे से बुराई करके दो पक्षों में लड़ाई करानेवाला व्यक्ति। ३. केसर। ४. तगर। ५. कपाल। ६. नारद। ७. कौआ।
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पिशुनता  : स्त्री० [सं० पिशुन+तल्+टाप्] १. पिशुन होने की अवस्था या भाव। २. चुगलखोरी। ३. असबर्ग।
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पिशुन-वचन  : पुं० [ष० त०] चुगली।
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पिशुना  : स्त्री० [सं० पिशुन+टाप्] चुगलखोरी।
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पिशोन्माद  : पुं० [ब० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का उन्माद या पागल-पन जिसमें रोगी प्रायः ऊपर को हाथ उठाये रहता, अधिक बकता और रोता तथा गन्दा या मैला-कुचैला बना रहता है।
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पिशोर  : पुं० [देश०] हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पतली, लचीली टहनियाँ बोझ बाँधने तथा टोकरे आदि बनाने के काम आती हैं।
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पिष्ट  : वि० [सं०√पिष् (पीसना)+क्त] १. पिसा या पीसा हुआ। २. चूर्ण किया हुआ। ३. निचोड़ा हुआ। पुं० १. पानी के साथ पिसा हुआ अन्न, विशेषतः दाल। पीठी। २. कोई ऐसा पकवान जिसके अन्दर पीठी भरी हो। ३. सीसा।
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पिष्टक  : पुं० [सं० पिष्ठ+कन्] १. पिष्ट अर्थात् पीठी का बना हुआ खाद्य पदार्थ। २. तिल का चूर्ण। ३. फूली नामक नेत्र रोग।
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पिष्ट-पचन  : पुं० [ष० त०] १. कड़ाही। २. तवा।
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पिष्ट-पशु  : पुं० [ष० त०] बलि चढ़ाने के काम के लिए गुँधे हुए आटे का बनाया हुआ पशु।
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पिष्ट-पाचक  : पुं० [ष० त०] कड़ाही या तवा जिस पर पीसी हुई चीजें पकाई जाती है।
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पिष्ट-पिंड  : पुं० [ष० त०] बाटी नामक पकवान। लिट्टी।
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पिष्ट-पूर  : पुं० [सं० पिष्ट√पूर् (पूर्ण करना)+णिच्+अण्] =घृतपूर।
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पिष्ट-पेषण  : पुं० [ष० त०] १. पीसी हुई चीज को फिर से पीसना। २. उक्त के आधार पर ठीक तरह से पूरे किये हुए कार्य को फिर उसी तरह दोहराकर व्यर्थ परिश्रम करना जिस प्रकार पीसी हुई चीज को फिर से पीसने का व्यर्थ परिश्रम किया जाता है।
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पिष्ट-प्रमेह  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में, एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मूत्र के साथ चावल के पानी के समान तरल पदार्थ गिरता है।
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पिष्ट-मेह  : पुं० [ष० त०]=पिष्ट प्रमेह।
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पिष्टवर्ति  : स्त्री० [सं० पिष्ट√वृत्स (बरतना)+इन्] किसी अन्न-चूर्ण का बना हुआ पिंड।
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पिष्ट-सौरभ  : पुं० [ब०स०] पीसे जाने पर सुगंध छोड़नेवाला चंदन।
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पिष्टात  : पुं० [सं० पिष्ट√अत् (गति)+अच्] अबीर। बुक्का।
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पिष्टातक  : पुं० [सं० पिष्टात्+कन्] अबीर। बुक्का।
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पिष्टाद  : वि० [सं० पिष्ट√अद् (खाना)+अण्] जो अन्न-चूर्ण खाता हो।
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पिष्टान्न  : पुं० [पिष्ट-अन्न, कर्म० स०] पीसे हुए अन्न से बना हुआ पकवान।
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पिष्टि  : स्त्री० [सं०√पिश्+क्तिन्] १. पीसा हुआ अन्न। अन्न-चूर्ण। २. पीठी।
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पिष्टिक  : पुं० [सं० पिष्ट+ठन्—इक] चावल की पीठी।
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पिष्टोदक  : पुं० [पिष्ट-उदक, मध्य० स०] ऐसा जल जिसमें पीसा हुआ अन्न मिला या मिलाया गया हो।
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पिष्षना  : स०=पेखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसंग  : वि०, पुं०=पिशंग।
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पिसनहारा  : पुं० [हिं० पीसना+हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० पिसनहारी] वह व्यक्ति जो अन्न पीसकर अपनी जीविका चलाता हो।
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पिसना  : अ० [हिं० पीसना का अ०] १. पीसा जाना। २. बहुत बुरी तरह से इस प्रकार कुचला या दबाया जाना कि बहुत छोटे-छोटे खंड हो जायँ। ३. किसी प्रकार के कष्ट, संकट आदि में पड़ने के कारण अथवा बहुत अधिक थककर चूर या परम शिथिल हो जाना। जैसे—दिन भर कार्यालय में काम करते करते वह पिसा जाता था। संयो० क्रि०—जाना। ४. शोषित किया जाना। शोषित होना।
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पिसर  : पुं० [फा०] पुत्र। बेटा। लड़का।
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पिसरे मुतबन्ना  : पुं० [फा०] दत्तक पुत्र।
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पिसवाज  : स्त्री०=पेशवाज। स्त्री० [फा० पिश्वाज] नर्तकियों के पहनने का लँहगा।
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पिसवाना  : स० [हिं० पीसने का प्रे०] किसी को कुछ पीसने में लगाना या प्रवृत्त करना।
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पिसाई  : स्त्री० [हिं० पीसना] १. पीसने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. चक्की पीसने का व्यवसाय। ३. चक्की पीसने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक। ४. वह अवस्था जिसमें आदमी को बहतु अधिक परिश्रम करते-करते थककर चूर हो जाना पड़ता है। जैसे—दिन भर कार्यालय में पिसाई करने पर संध्या को थका-माँदा घर आता था।
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पिसाच  : पुं०=पिशाच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसान  : पुं० [हिं० पिसना+अन्न] पीसा हुआ अन्न, विशेषतः गेहूँ या जौ का आटा।
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पिसाना  : स०=पिसवाना। अ०=पिसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसानी  : स्त्री०=पेशानी (ललाट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसिया  : पुं० [हिं० पिसना] एक तरह का लाल रंग का गेहूँ। स्त्री० आटा पीसकर अर्थात् चक्की चलाकर जीविका चलाने का काम।
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पिसी  : स्त्री० [हिं० पिसना] एक तरह का सफेद रंग का गेहूँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसुन  : वि०, पुं०=पिशुन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसुराई  : स्त्री० [देश०] सरकंडे का वह छोटा टुकड़ा जिस पर रूई लपेट कर पूनियाँ बनाते हैं।
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पिसूरी  : पुं० [?] भूरे रंग का एक प्रकार का छोटा हिरन जो मध्य-प्रदेश, उड़ीसा, लंका और दक्षिणी भारत के जंगलों में अधिकता से पाया जाता है। इसके बाल घने, पतले और मुलायम होते हैं।
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पिसेरा  : पुं०=पिसूरी (हिरन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसौनी  : स्त्री० [हिं० पीसना] १. पीसने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘पिसाई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पिस्टल  : स्त्री० [अ०] पिस्तौल।
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पिस्तई  : वि० [हिं० पिस्ता] पिस्ते के रंग का। पीलापन लिए हरे रंग का। जैसे—पिस्तई धोती। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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पिस्ताँ  : पुं० [सं० पयस्तन से फा०] स्त्री का स्तन। छाती।
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पिस्ता  : पुं० [फा० पिस्तः] १. एक प्रकार का छोटा पेड़ जो इराक और अफगानिस्तान आदि देशों में होता है और जिसके फल की गिरी मेवों में गिनी जाती है। २. उक्त के फलों की गिरी जो बहुत स्वादिष्ट होती है।
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पिस्तौल  : स्त्री० [अं० पिस्टल] गोली चलाने की एक प्रकार की छोटी जेबी बंदूक। तमंचा।
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पिस्सी  : स्त्री०=पिसी। (दे०)
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पिस्सू  : पुं० [फा० पश्शः] १. एक प्रकार का छोटा उडऩेवाला कीड़ा जो मच्छर की तरह शरीर का रक्त चूसता है। २. मच्छर।
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पिहकना  : अ० [अनु०] कोयल, पपीहे, मोर आदि का पी पी या पिट्ट पिटट करके चहकना या बोलना।
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पिहात  : पुं० [सं० पिधान] [स्त्री० अल्पा० पिहानी] ढक्कन। ढकना।
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पिहानी  : स्त्री० [हिं० पिहान] १. छोटा ढक्कन। २. ऐसी गुप्त बात जो दूसरों से छिपाई जाय।
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पिहित  : वि० [सं० अपि√धा (धारण करना)+क्त, अकार—लोप] १. ढका हुआ। २. छिपा हुआ। गुप्त। पुं० साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें ऐसी क्रिया का वर्णन होता है जिसके द्वारा यह जतलाया जाता है कि हमने आपके मन का गुप्त भाव ताड़ लिया है।
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पिहुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिहोली  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो मध्यप्रेदश में और बरार से बंबई तक होता है। इसकी पत्तियाँ सुगंधित होती हैं जिनसे इत्र बनता है। इसे पिचौली भी कहते हैं।
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पींग  : स्त्री० [हिं० पेंग] १. पेड़ की डाल में रस्सा लटकाकर बनाया जानेवाला झूला। (पश्चिम)। २. दे० ‘पेंग’।
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पीजन  : पुं० [सं० पिंजन] भेड़ों के बाल धुनने की धुनकी।
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पींजना  : स० [सं० पिंजन=धुनकी] रूई धुनना। पिंजना। पुं०=धुनिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींजर  : पुं० १. दे० ‘पिजड़ा’. २. दे० ‘पंजर’।
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पींजरा  : पुं०=पिंजरा।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड़] १. वृक्ष का धड़। तना। पेड़ी। २. कटहल के पुराने पेडों की जड़ और तने के बीच का वह अंश जो जमीन में रहता है तथा जिसमें फल लगते हैं जो खोदकर निकाले जाते हैं। ३. कोल्हू के चारों ओर गीली मिट्टी का बनाया हुआ घेरा जिससे ईख की अंगरियाँ या छोटे टुकड़े छटककर बाहर नहीं निकल सकते। ४. चरखे का मध्यभाग। बेलन। ५. दे० ‘पिंड’। ६. दे० ‘पिंड खजूर’।
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पींड़ी  : स्त्री० १.=पिंड़ी। २.=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींडुरी  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पी  : पुं० दे० ‘पिय’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अनु०] पपीहे के बोलने का शब्द।
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पीऊ  : पुं०=प्रिय (प्रियतम) वि०=परमप्रिय।
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पीक  : स्त्री० [सं० पिच्च] १. चबाये हुए पान का वह रस जो थूका जाता है। पान की थूक। २. वह रंग जो कपड़े को पहली बार रंग में डुबाने से चढ़ता है। (रंगरेज)। वि० [?] ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। (लश०)
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पीकदान  : पुं० [हिं० पीक+फा० दान=पात्र] वह पात्र जिसमें पीक थूकी जाती है। उगालदान।
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पीकना  : अ० [पी-पी से अनु०] पीपी शब्द करना। जैसे—पपीहे का पीकना।
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पीका  : पुं० [?] वृक्ष का नया कोमल पत्ता। कल्ला। कोंपल। क्रि० प्र०—पनपना।—फूटना।
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पीच  : स्त्री० [सं० पिच्च] वह लसीला पदार्थ जो चावल उबालने पर बच रहता है। माँड़। पुं० [अं० पिच] अलकतरा। स्त्री०=पीक (पान की)।
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पीचना  : अ० [सं० पिच्च] पैरों से कुचलना या रौंदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीचू  : पुं० [देश०] १. चीलू या जरदालु का पेड़। २. करील का पका हुआ फूल। कचरा टेंटी।
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पीछ  : स्त्री० [हिं० पीछे या पिछला] पक्षी की दुम। पूँछ। स्त्री०=पीच (माँड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीछा  : पुं० [सं० पश्चात्, फा० पच्छा] १. किसी व्यक्ति के शरीर का वह भाग जो उसकी छाती, पेट, मुँह आदि की विपरीत दिशा में पड़ता है। पीठ की ओर का भाग। पृष्ठ भाग। ‘आगा’ का विपर्याय। २. किसी चीज के पीछे की ओर का विस्तार। मुहा०—(किसी का) पीछा करना=(क) किसी को पकड़ने भागने, मारने-पीटने आदि के लिए अथवा उसका पता लगाने या भेद लेने के लिए उसके पीछे-पीछे तेजी से चलना या दौड़ना। जैसे—अपराधी, चोर या शिकार का पीछा करना। (ख) किसी का भेद या रहस्य जानने के लिए छिपकर उसके पीछे-पीछे चलना। जैसे—वह जहाँ जाता था, वहीं पुलिस उसका पीछा करती थी। (ग) दे० नीचे ‘पीछा पकड़ना’। (किसी काम या बात से) पीछा छुड़ाना=अपने साथ होनेवाली किसी अनिष्ट या अप्रिय बात से अपना सम्बन्ध छुड़ाना। पिंड छुड़ाना। जैसे—अफीम या शराब की लत से पीछा छुड़ाना। (किसी व्यक्ति से) पीछा छुड़ाना=जो व्यक्ति किसी काम या बात के लिए पीछे पड़कर बहुत तंग कर रहा हो, उससे किसी प्रकार छुटकारा पाना। पीछा छूटना=(क) पीछा करनेवाले या पीछे पड़े हुए व्यक्ति से छुटकारा मिलना। पिंड छूटना। जान छूटना। (ख) अनिष्ट अथवा अप्रिय काम या बात से छुटकरा मिलना। (ग) किसी प्रकार का या किसी रूप में छुटकारा मिलना। बचाव या रक्षा होना। जैसे—महीनों बाद बुखार से पीछे छूटा है। (किसी व्यक्ति का) पीछा छूटना=किसी का पीछा करने का काम बंद करना। किसी आशा या प्रयोजन से किसी के साथ लगे फिरने या उसके पीछे-पीछे दौड़ने या उसे तंग करने का काम बंद करना। (किसी काम या बात का) पीछा छोड़ना=जिस काम या बात में बहुत अधिक उत्साह या तनमयता से लगे रहे हों, उससे विरत होना अथवा उसका आसंग या ध्यान छोड़ना। पीछा दिखाना=(क) सम्मुख या साथ न रहकर अलग या दूर हो जाना। पीठ दिखाना। जैसे—संकट के समय संगी-साथियों ने भी पीछा दिखाया। (ख) प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि में डर या हारकर भाग जाना। पीठ दिखाना। पीछा देना=दे० ऊपर ‘पीछा दिखाना’। (किसी का) पीछा पकडना=किसी आशा से या अपने कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी का अनुचर या साथी बनना। किसी के आश्रय या सहायता का आकांक्षी बनकर प्रायः उसके साथ लगे रहना। जैसे—किसी रईस का पीछा पकड़ना। (किसी काम या बात का) पीछा भारी होना=(क) पीछे की ओर से शत्रु या संकट की आशंका या भय होना। (ख) अधिक उपयोगी या सहायक अंश का पीछे की ओर आधिक्य होना। (ग) किसी काम के अंतिम या शेष अंश का अधिक कठिन या अधिक कष्टसाध्य होना। पिछला अंश ऐसा होना कि सँभलना कठिन हो। ३. पीछे-पीछे चलकर किसी के साथ लगे रहने की क्रिया या भाव। जैसे—बडे का पीछा है, कुछ न कुछ दे ही जायगा। उदा०—प्रभु मैं पीछौ लियो तुम्हारौ।—सूर। ४. पहनने के वस्त्रों आदि का वह भाग जो पीछे अथवा पीठ की ओर रहता है। जैसे—इस कोट का पीछा ठीक नहीं सिला है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीछे  : अव्य० [हिं० पीछा] १. जिस ओर या जिस दिशा में किसी का पीछा या पीठ हो, उस ओर या उस दिशा में। किसी के मुख या सामनेवाली दिशा की विपरीत दिशा में। ‘आगे’ और ‘सामने’ का विपर्याय। जैसे—(क) हम लोग सभापति के पीछे बैठे थे। (ख) मकान के पीछे बहुत बड़ा मैदान था। विशेष—इस अर्थ में उक्त ओर या दिशा में होनेवाले विस्तार का भाव भी निहित है; और इसके अधिकतर मुहा० इसी आधार पर बने हैं। मुहा०—(किसी के) पीछे चलना=किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। अनुकरण करना। जैसे—आजकल तो जो नेता बन सके, उसी के पीछे हजारों आदमी चलने लगते हैं। (किसी चीज या व्यक्ति का) पीछे छूटना=किसी की तुलना में या किसी के विचार से पीछे की ओर रह जाना। जैसे— (क) यात्रियों में से कुछ लोग पीछे छूट गये थे। (ख) हम लोग बातें करते हुए आगे बढ़ गए, और उनका मकान पीछे छूट गया। (किसी काम या बात में किसी के) पीछे छूटना या रह जाना=उन्नति, गति, दौड़ प्रतियोगिता आदि में किसी से घटकर या कम योग्यता का सिद्ध होना। किसी की तुलना में पिछड़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—आणविक आविष्कारों के क्षेत्र में बहुत से देश अमेरिका और रूस से पीछे छूट गये हैं। इस मुहा० में ‘छूटना’ के साथ संयो० क्रि० ‘जाना’ का प्रयोग प्रायः अनिवार्य रूप से होता है। (किसी का किसी व्यक्ति के) पीछे छूटना या लगना=किसी भागे हुए आदमी को पकड़ने के लिए या किसी का भेद, रहस्य आदि जानने के लिए किसी का नियुक्त किया जाना या होना। जैसे—डाकुओं का पता लगाने के लिए बीसियों जासूस (या सिपाही उनके पीछे छूटे या लगे) थे। (किसी काम या बात में किसी को) पीछे छोडना= किसी विषय में औरों से बढ़कर इस प्रकार आगे हो जाना कि और लोग उसकी तुलना में न आ सकें या बराबरी न कर सकें। कौशल, योग्यता, सामर्थ्य आदि में औरों से आगे बढ़ जाना। जैसे—अपने काम में वह बहुतों को पीछे छोड़ गया है। (किसी को किसी के) पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना=(क) जासूस या भेदिया बनाकर किसी को किसी के साथ लगाना। भेदिया नियुक्त करना या साथ लगाना। (ख) भागे हुए व्यक्ति को पकड़कर लाने के लिए कुछ लोगों को नियुक्त करना। (किसी को किसी के) पीछे डालना=दे० ऊपर (किसी के) ‘पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना’। (धन) पीछे डालना=भविष्यत् की आवश्यकता के लिए खर्च से बचाकर कुछ धन एकत्र करके रखना। आगे के लिए संचय करना। जैसे—हर महीने दस-पाँच रुपए बचाकर पीछे भी डालते चलना चाहिए। (किसी काम या व्यक्ति के) पीछे दौड़ना या दौड़ पड़ना=बिना सोचे समझे किसी काम या बात में लग जाना या किसी का अनुगामी अथवा अनुयायी बनना। (किसी को किसी के) पीछे दौड़ाना=गये या जाते हुए आदमी को बुला या लौटा लाने या उसे कोई संदेशा पहुँचाने के लिए किसी को उसके पीछे भेजना। (किसी काम या बात के) पीछे पड़ना या पड़ जाना=किसी काम को कर डालने पर तुल जाना। किसी कार्य के लिए बहुत परिश्रमपूर्वक निरंतर उद्योग करते रहना। (कुछ कुत्सित या हीन भाव का सूचक) जैसे—तुम्हारी यह बहुत बुरी आदत है कि तुम हर काम या बात के पीछे पड़ जाते हों। (किसी व्यक्ति के) पीछे पड़ना=(क) कोई काम करने के लिए किसी से बहुत आग्रहपूर्वक और बार बार कहना। (ख) किसी को बहुत अधिक तंग, दुःखी या परेशान करने के लिए कटिबद्ध होना। (किसी के) पीछे लगना=(क) किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। किसी का अनुकरण करना। (ख) दे० ऊपर (किसी काम, बात या व्यक्ति के) पीछे पड़ना। (किसी व्यक्ति को अपने) पीछे लगाना=किसी को अपना अनुगामी या अनुयायी बनाना। (कोई काम या बात अपने) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार घनिष्ठ रूप में अपने साथ सम्बद्ध करना कि सहसा उससे बचाव, रक्षा या विरक्ति न हो सके। जान-बूझकर ऐसे का या बात से सम्बद्ध होना जिससे तंग, दुःखी या परेशान होना पड़े। जैसे—तुमने यह व्यर्थ का झगडा अपने पीछे लगा लिया है। (किसी व्यक्ति को किसी के) पीछे लगाना=किसी का भेद या रहस्य जानने अथवा किसी को तंग करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को उत्साहित या नियत करना। जैसे—वे तो चुपचाप घर बैठे हैं, पर अपने आदमियों को उन्होने हमारे पीछे लगा दिया है। (कोई काम या बात किसी के) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार किसी के साथ सम्बद्ध करना कि वह उससे तंग, दुःखी या परेशान हो, अथवा सहज में अपना बचाव या रक्षा न कर सके। जैसे—बीड़ी पीने की लत तुम्हीं ने उसके पीछे लगा दी है। २. अनुपस्थिति या अविद्यमान होने की अवस्था में। किसी के सामने न रहने की दशा में। जैसे—किसी के पीछे उसकी बुराई करना बहुत अनुचित है। पद—पीठ पीछे=दे० ‘पीठ’ के अन्तर्गत यह पद। ३. किसी के इस लोक में न रह जाने की दशा में। मर जाने पर। मरणोपरांत। जैसे—आदमी के पीछे उसका नाम ही रह जाता है। ४. कोई काम, घटना, या बात हो चुकने पर, उसके बाद। उपरांत। फिर। जैसे—पहले तो उन्होंने बहुत धन गँवाया था, पर पीछे वे संभल गये थे। विशेष—इस अर्थ में कभी-कभी यह ‘पीछे को’ या ‘पीछे से’ के रूप में भी प्रयुक्त होता है। जैसे—पीछे को (या पीछे से) हमें दोष मत देना। ५. कालक्रम, देश आदि के विचार से किसी के पश्चात या उपरांत। घटना या स्थिति के विचार से किसी के अनंतर, कुछ दूर या कुछ देर बाद। उपरांत। पश्चात्। जैसे—सब लोग एक पंक्ति में एक दूसरे के पीछे चल रहे थे। ६. किसी के अर्थ से, कारण या खातिर। निमित्त। लिए। वास्ते। जैसे—तुम्हारे पीछे ही मैं ये सब कष्ट सह रहा हूँ। ७. प्रति इकाई के विचार से या हिसाब से। जैसे—अब आदमी पीछे पाव भर आटा पड़ता या मिलता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीटन  : पुं०=पिटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीटना  : स० [सं० पीडन] १. किसी जीव पर उसे चोट पहुँचाने अथवा सजा देने के उद्देश्य से किसी चीज से जोर से आघात करना। जैसे—लड़के को छड़ी से पीटना। २. किसी पदार्थ पर इस प्रकार किसी भारी चीज से निरंतर आघात करना कि उसमें कुछ विशिष्ट विकार आ जाय। जैसे—(क) दुरमुस से कंकड पीटना। (ख) पिटने से कपड़ा पीटना। (ग) हथौड़ी से पत्थर पीटना। ३. घोर, दुःख, व्यथा या शोक प्रदर्शित करने के लिए दोनों हाथों की हथेलियों से अपने किसी अंग पर जोरों से आघात करना। जैसे—छाती, मुँह या सिर पीटना। ४. चौसर, शतरंज आदि के खेलों में, विपक्षी की गोट या मोहरा मारना। जैसे—हाथी, घोड़ा या प्यादा पीटना। ५. जैसे-तैसे किसी से कुछ प्राप्त या वसूल करना। ६. जैसे-तैसे कोई काम पूरा करना। पुं० १. मृत्यु-शोक। मातम। विलाप। जैसे—यहाँ यह कैसा पीटना पड़ा हुआ है ! २. आपद। मुसीबत।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठ  : पुं० [सं० पा√(पीना)+ठक्, पृषो० सिद्धि] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। जैसे—चौकी, पीढ़ा, सिंहासन आदि। २. विद्यार्थियों, व्रतधारियों आदि के बैठने के लिए बना हुआ कुश का आसन। ३. नीचे वाला वह आधार जिस पर मूर्ति रखी या स्थापित की जाती है। ४. वह स्थान जहाँ बैठकर किसी प्रकार का उपदेश, शिक्षा आदि दी जाती हो। जैसे—धर्म-पीठ, विद्या-पीठ, व्यासपीठ आदि। ५. किसी बड़े अधिकारी या सम्मानित व्यक्ति के बैठने का स्थान, आसन और पद। (चेयर) जैसे—(क) अमुक विद्यालय में हिन्दी की उच्च शिक्षा के लिए एक पीठ स्थापित हुआ है। (ख) आपको जो कुछ कहना हो वह पीठ को संबोधित कर कहें। ६. न्यायाधीश अथवा न्यायाधीशों का वर्ग। (बेंच) ७. बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन, ढंग या मुद्रा। ८. राजसिंहासन। ९. वेदी। १॰. प्रदेश। प्रान्त। ११. उन अनेक तीर्थों या पवित्र स्थनों में से प्रत्येक जहाँ पुराणानुसार दक्ष-कन्या सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा था। विशेष—भिन्न-भिन्न पुराणों में ऐसे स्थानों की संख्या ५१,५३,७७ या १०८ कही गई है। इनमें से कुछ को उप-पीठ और कुछ को महापीठ कहा गया है। तांत्रिकों का विश्वास है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से सिद्धि बहुत शीघ्र प्राप्त होती है। प्रत्येक पीठ में एक-एक शक्ति और एक-एक भैरव का निवास माना जाता है। १२. कंस का एक मंत्री १३. एक असुर। १४. गणित में वृत्त के किसी अंग का पूरक। स्त्री० [सं० पृष्ठ] प्राणियों के शरीर का वह भाग जो उनके सामने वाले अंगों अर्थात् छाती, पेट आदि की विपरीत दिशा में या पीछे की ओर पड़ता है और जिसमें लंबाई के बल रीढ़ होती है। पृष्ठ। पुश्त। विशेष—यह भाग गरदन के नीचेवाले भाग से कमर तक (अर्थात् रीढ़ की अंतिम गुरिया तक) विस्तृत होता है मनुष्यों में यह भाग सदा पीछे की ओर रहता है, और कीड़े-मकोड़ों, चौपायों आदि में ऊपर या आकाश की ओर। पशुओं के इसी भाग पर सवारी की जाती और माल लादा जाता है, इसीलिए इसके कुछ पद और मुहा० इस तत्त्व के आधार पर भी बने हैं। यह भाग पीछे की ओर होता है। इसलिए इसके कुछ पदों और मुहा० में परवर्ती पिछले या बादवाले होने का तत्त्व या भाव भी निहित है। इसके सिवा इसमें सहायक साथी आदि के भाव भी इसलिए सम्मिलित हैं कि वे प्रायः पीछे की ओर ही रहते हैं। पद—पीठ का=दे० नीचे ‘पीठ’ पर का पीठ का कच्चा=(घोड़ा) जो देखने में हृष्ट-पुष्ट और सजीला हो, पर सवारी का काम ठीक तरह से न देता हो। पीठ का सच्चा=(घोड़ा) जो सवारी का ठीक और पूरा काम देता हो। पीठ पर=एक ही माता द्वारा जन्मे क्रम में किसी के तुरन्त बाद का। ठीक उपरांत का। जैसे—इस लड़की की पीठ पर का यही लड़का है। (किसी के) पीठ पीछे=किसी की अनुपस्थिति, अविद्यामानता या परोक्ष में। किसी के सामने न रहने की दशा में। किसी के पीछे। जैसे—किसी के पीठ-पीछे उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। मुहा०—(किसी की) पीठ खाली होना=पोषक या सहायक से रहित अथवा हीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। जैसे—उसकी पीठ खाली है; इसी लिए उस पर इतने अत्याचार होते हैं। (किसी की) पीठ ठोंकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर कर्ता की पीठ थप-थपाते हुए या यों ही उसका अभिनन्दन या प्रशंसा करना, (ख) किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए उत्साहित करना (ग) दे० नीचे ‘पीठ थपथपाना’। पीठ थपथपाना=पशुओं आदि के विशेष परिश्रम करने पर उन्हें उत्साहित करने तथा धैर्य दिलाने के लिए अथवा क्रुद्ध होने अथवा बिगडने पर शांत करने के लिए उनकी पीठ पर हथेली से धीरे-धीरे थपकी देना। (किसी को) पीठ दिखाकर जाना=ममता, स्नेह आदि का विचार छोड़कर कहीं दूर चले जाना। जैसे—प्रेमी का प्रेमिका को पीठ दिखाकर जाना, या मित्र का अपने बंधुओं और स्नेहियों को पीठ दिखाकर जाना। पीठ दिखाना=प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि के समय सामने न ठहर सकने के कारण पीछे हटना या भाग जाना। दबने के कारण मैदान छोड़कर सामने से हट जाना। जैसे—दो ही दिन में लड़ाई में शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। पीठ देना=(क) चारपाई या बिस्तर पर पीठ रखना। लेट कर आराम करना। जैसे—लडके की बीमारी के कारण इन दिनों पीठ देना मुश्किल हो गया है। (ख) दे० नीचे ‘पीठ फेरना’। (किसी की ओर) पीठ देना=किसी की ओर पीठ करके बैठना। पीठ पर खाना=भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। (कायरता का सूचक) जैसे—पीठ पर खाना मरदों का काम नहीं है। पीठ पर हाथ फेरना=दे० ऊपर ‘पीठ ठोंकना’। (किसी का किसी की) पीठ पर होना=जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के ठीक पीछे जन्म ग्रहण करना। (किसी का) पीठ पर होना=सहायक होना। सहायता के लिए तैयार होना। मदद या हिमायत पर होना। जैसे—आज मेरी पीठ पर कोई नहीं हैं, इसी लिए न तुम इतना रोब जमाते हो। पीठ फेरना=(क) कहीं से प्रस्थान करना। बिदा होना। (ख) ममता, स्नेह आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर होना। (ग) अरुचि, उदाहरण-सीनता आदि प्रकट करते हुए विमुख या विरक्त होना। अलग, किनारे या दूर होना। (घ) सामने से भाग या हट जाना। पीठ मींजना=दे० ऊपर पीठ ठोंकना। (चारपाई से) पीठ लग जाना=बीमारी के कारण उठने-बैठने में असमर्थ हो जाना। जैसे—अब तो चारपाई से पीठ लग गई हैं, वे उठ-बैठ भी नहीं सकते। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगना=कुश्ती में हारकर चित्त होना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (किसी पशु की) पीठ लगना=काठी, चारजामे, जीन आदि की रगड़ के कारण पीठ पर घाव होना। जैसे—जिस घोड़े की पीठ लगी हो, उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए। (चारपाई से) पीठ लगना=आराम करने के लिए लेटने की स्थिति में होना। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगाना=कुश्ती में गिरा, पछाड़ या पटक पर चित्त करना है। २. पहनने के कपड़ों का वह भाग जो पीठ की ओर रहता या पीठ पर पड़ता है। ३. आसन आदि में वह भाग जो पीठ के सहारे के लिए बना रहता है। जैसे—कुरसी की पीठ खराब हो गई है, उसे बदलवा दो। ४. किसी वस्तु की रचना में, उसके अगले, ऊपरी या सामने वाले भाग से भिन्न और पीछेवाला भाग। जैसे—(क) पत्र की पीठ पर पता भी लिख दो। (ख) पदक की पीठ पर उसके दाता का नाम भी खुदा हुआ था। ५. पुस्तक का वह भाग जिसमें अन्दर के पृष्ठों की सिलाई रहती हैं, और जो उसे अलमारी में खड़ी करके रखने पर सामने की ओर रहता है। पुट्ठा। जैसे—पुस्तक की पीठ पर सुनहले अक्षरों में उनका नाम छपा था।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठक  : पुं० [सं० पीठ+कन्] १. वह चीज जिस पर बैठा जाय। जैसे—कुरसी, चौकी, पीढ़ा आदि। २. एक तरह की पालकी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठ-केलि  : पुं० [ब० स०] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. वह जो दूसरों का पोषण करता हो।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठ-गर्भ  : पुं० [ष० त०] वह गड्ढा जिसमें मूर्ति के पैर या निचला अंश जमाकर उसे खड़ा किया जाता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठ-चक्र  : पुं० [ब० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रथ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठ-देवता  : पुं० [मध्य० स०] आदि शक्ति जो सारी सृष्टि का मूल आधार है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीठ-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठाती देवी। २. दुर्गा। ३. लोक में, वह कुमारी जिसकी पूजा दुर्गा-पूजा के दिनों में की जाती है।
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पीठ-न्यास  : पुं० [स० त०] तंत्र में एक मुख्य न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओं में आवश्यक है।
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पीठ-भू  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीर के आसपास का भू-भाग। चहारदीवारी के आसपास की जमीन।
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पीठ-दर्द  : वि० [स० त०] बहुत अधिक ढीठ और निर्लज्ज। पुं० १. साहित्य में नायक के चार प्रकार के सखाओं में से वह जो रुष्ट नायिका को मनाने और उसका मान हरण करने में सहायक होता है। २. किसी साहित्यिक रचना के मुख्य पात्र का वह सखा जो गुणों में उससे कुछ घटकर होता है। जैसे—रामायण में राम का सखा सुग्रीव। ३. वेश्याओं को नाच-गाना सिखलानेवाला व्यक्ति। उस्ताद।
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पीठ-मर्दिका  : स्त्री० [ष० त०] नायिका की वह सखी जो नायक को रिझाने में नायिका की सहायता करती है।
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पीठ-विवर  : पुं० [ष० त०] पीठगर्भ। (दे०)
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पीठ-सर्प  : वि० [सं० पीठ√सृप् (गति)+अच्] लंगड़ा।
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पीठ-सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० पीठ√सृप्+णिनि] लंगड़ा।
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पीठ-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वे स्थान जो यक्ष की कन्या सती के अंग या आभूषण गिरने के कारण पवित्र माने जाते हैं। (दे० ‘पीठ’ १. ) २. प्रतिष्ठान (आधुनिक झूसी का एक पुराना नाम)।
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पीठा  : पुं० [सं० पिष्टक्, प्रा० पिट्ठक्] आटे की लोई में पीठी भरकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान। पुं०=पीढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीठासीन  : वि० [पीठ-आसीन; स० त०] जो पीठ अर्थात् अध्यक्ष के स्थान पर आसीन हो। (प्रेसाइडिंग)
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पीठासीन-अधिकारी  : पुं० [कर्म० स०] वह अधिकारी जो अध्यक्ष पद पर रहकर अपनी देख-रेख में कोई काम कराता हो। (प्रेसाइडिंग आफिसर)।
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पीठि  : स्त्री०=पीठ।
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पीठिका  : स्त्री० [सं० पीठ+कन्+टाप्. इत्व] १. छोटा पीढ़ा। पीढ़ी। २. वह आधार जिस पर कोई चीज विशेषतः देवमूर्ति रखी, लगाई या स्थापित की गई हो। ३. ग्रंथ के विशिष्ट विभागों में से कोई एक। जैसे—पूर्वपीठिका, उत्तर-पीठिका।
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पीठी  : स्त्री० [सं० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठा] १. भींगी हुई दाल को पीसने पर तैयार होनेवाला रूप। जैसे—उड़द या मूँग की पीठी। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना। विशेष—पीठी की टिकिया तलकर बड़े, सुखाकर बरियाँ और लोई भरकर कचौड़ियाँ आदि बनाई जाती है।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड] मिट्टी का वह आधार जिसे घड़े को पीटकर बढ़ाते समय उसके अन्दर रख लेते हैं। पुं०=आपीड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीड़क  : वि० [सं०√पीड़+ण्वुल्—अक] पीड़क। (दे०)
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पीड़क  : वि० [सं० पीड़क से] १. जो दूसरों को शारीरिक कष्ट पहुँचाता हो। पीड़ा देनेवाला। २. अधिक व्यापक अर्थ में, बहुत बड़ा अत्याचारी या जुल्मी। ३. दबाने या पीसनेवाला। जैसे—पीड़क-चक्र=वह पहिया जो दबाता या पीसता हो।
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पीड़न  : पुं० [सं०√पीड+ल्युट्—अन] पीड़न। (दे०)
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पीड़न  : पुं० [सं० पीडन से] [कर्ता, पीड़क, वि० पीड़नीय, भू० कृ० पीड़ित] १. व्यक्तियों के सम्बन्ध में, किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना। तकलीफ देना। २. चीजों के संबंध में, जोर से कसना, दबाना या पीसना। ३. पेरना। ४. अच्छी तरह से या मजबूती से पकड़ना। ५. नष्ट करना। ६. ग्रहण। जैसे—ग्रह-पीड़न। ७. स्वरों के उच्चारण करने में होनेवाला एक तरह का दोष।
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पीडनीय  : वि० [सं०√पीड़+अनीयर] पीड़नीय। (दे०)
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पीड़नीय  : वि० [सं० पीडनीय से] १. जिसका पीड़न हो सके या किया जाने को हो। २. जिसे कष्ट पहुँचाया या पहुँचाया जाने को हो। पुं० याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार ऐसा राजा या राज्य जो अच्छे मंत्री और उपयुक्त सेना से रहित हो और इसी लिए सहज में दबाकर अपने अधिकार में किया जा सकता है।
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पीड़-पखा  : पुं० [सं० अपीड+पक्ष=पंख] [स्त्री० अल्पा० पीड़-सखी] १. सिर पर की चोटी या बालों की पट्टी। २. सिर पर पहना जानेवाला एक प्रकार का आभूषण। उदा०—कै मयूर की पीड़ पखी री।—सूर।
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पीड़ा  : स्त्री० [सं०√पीड्+अङ्+टाप्] पीड़ा। (दे०)
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पीड़ा  : स्त्री० [सं० पीडा से] १. प्राणियों को दुःखित या व्यथित करनेवाली वह अप्रिय अनुभूति जो किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक आघात लगने, कष्ट पहुँचने, या हानि होने पर उत्पन्न होती है उसे बहुत ही खिन्न, चिंतित तथा विकल रखती है। तकलीफ। वेदना। (पेन) जैसे—धन-नाश,पुत्र-शोक,प्रिय के वियोग या विरह के कारण होनेवाली पीड़ा। २. सामान्य अर्थ में, शरीर के किसी अंग पर चोट लगने या उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होने पर अथवा शारीरिक क्रियाओं को अव्यवस्थित होने पर उत्पन्न होनेवाली उक्त प्रकार की वह अनुभूति जिसका ज्ञान सारे शरीर को स्नायविक तंत्र के द्वारा होता है। दरद। (पेन) जैसे—अपच के कारण पेट में, ज्वर के कारण सिर में अथवा ऊँचाई से गिर पड़ने के कारण हाथ-पैर में पीड़ा होना। ३. कोई ऐसी खराबी या गड़बड़ी जिससे किसी प्रकार की व्यवस्था में बाधा होती हो और वह ठीक तरह से न चलने पाती हो। कष्टदायक अव्यवस्था। जैसे— (क) राक्षसों के उपद्रव से ऋषि मुनियों के आश्रम में पीड़ा होती थी। (ख) दरिद्रता की पीड़ा से सारा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया (ग) काम वासना की पीडा से वह विकल हो रहा था। ४. बीमारी। रोग। व्याधि। ५. प्रतिबंध। रुकावट। ६. विनाश। ७. क्षति। नुकसान। हानि। ८. करुणा। दया। ९. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। उपराग। १॰. सिर पर लपेटकर बाँधी जानेवाली माला। शिरोमणि। ११. धूप-सरल या सरल नामक वृक्ष।
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पीडाकर  : वि० [सं० पीड़ा√कृ (करना)+ट] पीड़ा या कष्ट देनेवाला।
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पीडा-गृह  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ किसी को कष्ट पहुँचाया जाता हो।
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पीडा़-स्थान  : पुं० [सं० स० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुण्डली में उपचय अर्थात् लग्न से तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान के अतिरिक्त शेष स्थान जो अशुभ ग्रहों के स्थान माने गये हैं।
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पीडिका  : स्त्री० [सं० पीड़ा+कन्—टाप्, इत्व] फुड़िया। फुंसी।
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पीडित  : वि० [सं०√पीड़+क्त] पीड़ित। (दे०)
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पीड़ित  : वि० [सं० पीड़ित] १. जो किसी प्रकार की पीड़ा से ग्रस्त हो। जैसे—रोग से पीड़ित। २. जो दूसरों के अत्याचार, जुल्म आदि से आक्रांत और फलतः कष्ट में हो। जैसे—पीड़ित जन समाज। ३. जिसे दबाया या पीसा गया हो। ४. जो नष्ट कर दिया गया हो। ५. जो किसी चीज के प्रभाव या फल से अपने को दुःखी समझता हो। सताया हुआ। जैसे—जग पीड़ित रे अति सुख से।—पंत।
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पीड़ी  : स्त्री० [सं० पीठ] १. देव-स्थान। देवपीठ। २. वेदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीडुरी  : स्त्री०=पिंडली।
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पीढ़ा  : पुं० [सं० पीठ अथवा पीढक] [स्त्री० अल्पा० पीढ़ी] १. प्रायः लकड़ी का बना हुआ चौकी के आकार का वह छोटा आसन जिसके पाये बहुत कम ऊँचे होतें हैं, और जिस पर हिन्दू लोग भोजन करते समय बैठते हैं। २. विस्तृत अर्थ में, बैठने का कोई आसन। मुहा०— (किसी को) ऊंचा पीढ़ा देना=विशेष आदर-सम्मान प्रकट करते हुए अच्छे या ऊँचे आसन पर बैठना। ३. सिंहासन।
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पीढ़ी  : स्त्री० [हिं० पीढ़ा का स्त्री० अल्पा०] बैठने के लिए एक विशेष प्रकार की छोटी चौकी। छोटा पीढ़ा। स्त्री० [सं० पीठिका] १. किसी कुल या वंश की परम्परा में, क्रम क्रम से आगे बढ़नेवाली संतान की प्रत्येक कड़ी या स्थिति। जैसे—(क) बाप, दादा और परदादा ये तीन पीढ़ियाँ, अथवा बाप-बेटे और पोते की तीन पीढ़ियाँ। (ख) हमारे पास अपने पूर्वजों के बीस पीढ़ियों के वंश-वृक्ष है। २. उक्त कड़ी या स्थिति के वे सब लोग जो रिश्ते या संबंध में आपस में प्रायः बराबरी के हों। वंश-क्रम में प्रत्येक श्रृंखला के क्षेत्र के सब लोग। जैसे—(क) उनकी दूसरी पीढ़ी में तो दस ही आदमियों का परिवार था; पर चौथी पीढ़ी में परिवार वालों की संख्या बढ़कर साठ तक पहुँची थी। (ख) हमारी सात पीढ़ियों में से किसी पीढी ने कभी ऐसा अनाचार न किया होगा। ३. किसी जाति देश या समाज के वे सब लोग जो किसी विशिष्ट काल में प्रायः कुछ आगे-पीछे जन्म लेकर साथ ही रहते हों। किसी विशिष्ट समय का वह सारा जन समुदाय जिनकी अवस्था या वय में अधिक छोटाई-बड़ाई न हो। जैसे—ये नई पीढ़ी के लोग ठहरे, इनमें पुरानी पीढ़ी के लोगों का सा आचार-विचार नहीं रह गया है। ४. किसी प्रकार की परम्परागत स्थिति। उदा०—सदा समर्थन करती उसका तर्क-शास्त्र की पीढ़ी।—प्रसाद।
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पीत  : वि० [सं०√प+क्त+अच्] [स्त्री० पीता] १. पीले रंग का। पीला। २. भूरा। (क्व०)। पुं० [√पा+क्त] १. पीला रंग। भूरा रंगा। ३. हरताल। ४. हरिचंदन। ५. कुसुम। बर्रे। ६. अंकोल का वृक्ष। ढेरा। ७. सिहोर का पेड़। ८. धूप सरल। ९. बेंत। १॰. पुखराज। ११. तुन। नंदिवृक्ष। १२. एक प्रकार की सोमलता। १३. पीली कटसरैया। १४. पद्मकाष्ठ। पदमाख १५. पीला खस। १६. मूँगा। भू० कृ० [सं० √पा (पीना)+क्त] जो पान किया गया हो। पीया हुआ।
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पीतकंद  : पुं० [ब० स०] गाजर।
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पीतक  : पुं० [सं० पीत+क] १. हरताल। २. केसर। ३. अगर। ४. पदमाख। ५. सोनामाखी। ६. तुन। ७. विजयसार। ८. सोनापाठा। ९. हल्दी। हरिद्रा। १॰. किंकिरात। ११. पीतल। १२. पीला चंदन। १३. एक प्रकार का बबूल। १४. शहद। १५. गाजर। १६. सफेद जीरा। १७. पीली लोध। १८. चिरायता। १९. अंडे के आकार का पीला अंश। अंडे की जरदी। वि० पीले रंग का । पीला।
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पीत-कदली  : स्त्री० [कर्म० स०] सोन केला।
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पीतक-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] हलदुआ। हरिद्रवृक्ष।
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पीत-करवीरक  : पुं० [कर्म० स०+क] पीले फूलोंवाला केना।
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पीतका  : स्त्री० [सं० पीतक+टाप्] १. कटसरैया। २. हलदी।
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पीत-कावेर  : पुं० [सं० कु-वेर=शरीर, प्रा० स०, पीत-कावेर, ब० स०] १. केसर। २. पीतल के योग से बनी हुई एक मिश्र धातु जिसके घंटे आदि बनाये जाते हैं।
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पीत-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] १. पीला चंदन। २. पीला अगरु।
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पीत-कीला  : स्त्री० [कर्म० स०] अवर्तकी लता। भागवत वल्ली।
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पीत-कुरवक  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुरुंट  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुष्ट  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कोढ़।
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पीत-कुष्मांड  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कुम्हड़ा।
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पीत-कुसुम  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-केदार  : पुं० [ब० स०] एक तरह का धान।
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पीत-गंध  : पुं० [द्व० स०] पीला चंदन। हरिचंदन।
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पीत-गन्धक  : पुं० [कर्म० स०] गंधक।
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पीत-घोषा  : स्त्री० [कर्म० स०] पीले फूलोंवाली एक तरह की लता।
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पीत-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का चंदन जो पहले द्रविड़ देशों से आता था। हरिचंदन।
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पीत-चंपक  : पुं० [कर्म० स०] १. पीली चंपा। २. दीपक। चिराग।
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पीत-चोप  : पुं० [सं०] पलास का फूल। टेसू।
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पीत-झिंटी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पीले फूलवाली कटसरैया २. एक तरह की कटाई।
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पीत-तंडुल  : पुं० [ब० स०] कँगनी नामक कदन्न।
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पीतता  : स्त्री० [सं० पीत+तल्+टाप्] पीलापन। जद्री।
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पीत-तुंड  : पुं० [ब० स०] बत्तख या हंस की जाति का एक तरह का पक्षी। कारंडव। बया।
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पीत-तैल  : स्त्री० [ब० स०] मालकँगनी।
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पीतत्व  : पुं० [सं० पीत+त्व] पीतता। पीलापन।
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पीतदंतता  : स्त्री० [सं० पीत-दंत, कर्म० स०+तल्+टाप्] दाँतों का एक पित्तज रोग जिसमें दाँत पीले हो जाते हैं।
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पीत-दारु  : पुं० [कर्म० स०] १. देवदारु। २. धूपसरल। ३. हलदुआ। ४. हलदी। ५. चिरायता। ६. कायकरंज।
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पीत-दीप्ता  : स्त्री० [द्व० स०, टाप्] बौद्धों की एक देवी।
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पीत-दुग्धा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. दूध देनेवाली गाय। २. वह गाय जिसका दूध महाजन को ऋण के बदले में दिया जाता हो। ३. कटेहरी। ४. ऊँटकटारा। भड़भाँड़। ५. सातला। थूहर।
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पीतद्रु  : पुं० [कर्म० स०] १. दारु-हलदी। २. धूप-सरल। ३. देव-दारू।
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पीत-धातु  : पुं० [कर्म० स०] १. रामरज। २. गोपीचंदन।
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पीतन, पीतनक  : पुं० [सं० पीत√नी+ड] [सं० पीतन+कन्] १. केसर। २. हरताल। ३. धूपसरल। ४. अमड़ा। ५. पाकर।
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पीत-निद्र  : वि० [ब० स०] गहरी नींद में सोया हुआ।
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पीतनी  : स्त्री० [सं० पीतन+ङीष्] सखिन। शालपर्णी।
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पीत-नील  : पुं० [कर्म० स०] नीले और पीले रंग के संयोग से बना हुआ रंग। हरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पीत-पराग  : पुं० [कर्म० स०] कमल का केसर।
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पीत-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] वृश्चिकाली (क्षुप)।
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पीत-पादप  : पुं० [कर्म० स०] १. श्योनाक वृक्ष। सोना पाढ़ा। २. लोध।
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पीत-पादा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मैना। सारिका।
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पीत-पुष्प, पीत-पुष्पक  : पुं० [ब० स०] १. कनेर। २. घीया तरोई। ३. पीली कटसरैया। ४. चंपा। ५. पेठा। ६. तगरू। ७. हिंगोट। ८. लाल कचनार।
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पीत-पुष्पका  : स्त्री० [ब० स०,+कप्+टाप्] जंगली ककंड़ी।
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पीत-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. झिझरीटा। २. सहदोई। ३. अरहर। ४. तरोई। तोरी ५. पीली कटसरैया। ६. पीला कनेर। ७. सोन-जूही।
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पीत-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] १. शंखाहुली। २. सहदोई बूटी। ३. बड़ी तरोई। ४. खीरा। ५. इन्द्रा-यण। ६. सोन-जूही।
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पीत-पृष्ठा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] वह कौड़ी जिसकी पीठ पीली हो।
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पीत-प्रसव  : पुं० [ब० स०] १. हिंगपुत्री। २. पीला कनेर।
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पीत-फल  : पुं० [ब० स०] १. सिहोर। २. कमरख। ३. धव का पेड़।
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पीत-फलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] १. सिहोर। २. रीठा। ३. कमरख। ४. धव वृक्ष।
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पीत-फेन  : पुं० [ब० स०] रीठा। अरिष्ठक वृक्ष।
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पीत-बालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-बीजा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मेंथी।
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पीत-भद्रक  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बबूल। देववर्व्वर।
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पीत-भृंगराज  : पुं० [कर्म० स०] पीला भंगरा।
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पीतम  : वि०=प्रियतम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-मणि  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पुष्पराज मणि।
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पीत-मस्तक  : पुं० [ब० स०] पीले मस्तकवाला एक तरह का पक्षी।
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पीत-माक्षिक  : पुं० [कर्म० स०] सोनामाखी।
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पीत-मारूत  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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पीतमुंड  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का हिरन।
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पीत-मुग्द  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का मूँग।
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पीत-मूलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] गाजर।
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पीत-मूली  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] रेवंद चीनी।
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पीत-यूथी  : स्त्री० [कर्म० स०] सोनजूही। स्वर्णयूथिका।
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पीतर  : पुं०=पीतल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-रक्त  : पुं० [कर्म० स०] १. पुखराज। २. पीलापन लिये लाल रंग। वि० पीलापन लिये लाल रंग का।
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पीत-रत्न  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पीतमणि।
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पीत-रस  : पुं० [ब० स०] कसेरू।
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पीत-राग  : पुं० [ब० स०] १. पद्मकेसर। २. मोम। ३. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीत-रोहिणी  : स्त्री० [सं० पीत√रुह् (उगना)+णिनि+ङीप्] १. जंबीरी नींबू। २. पीली कुटकी। कुंभेर।
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पीतल  : पुं० [सं० पित्तल] १. एक प्रसिद्ध मिश्र धातु जो ताँबे और जस्ते के मेल से बनती हैं और जिसके प्रायः बरतन बनते हैं। (ब्राँस) २. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीतलक  : पुं० [सं० पीतल√कै (भासित होना)+क] पीतल।
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पीत-लोह  : पुं० [कर्म० स०] पीतल (धातु)।
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पीत-वर्ण  : पुं० [ब० स०] १. पीला मेढक। स्वर्ण मंडूक। २. ताड़ का पेड़। ३. कदंब ४. हलदुआ। ५. लाल कचनार। ६. मैनसिल। ७. पीली चंदन। ८. केसर।
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पीत-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] आकाश बेल।
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पीतवान  : पुं० [?] हाथी की दोनों आँखों के बीच का स्थान।
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पीत-वालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-वास (स्)  : पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पीत-बिंदु  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु के चरण-चिह्नों में से एक।
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पीत-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] सोनापाठा।
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पीत-शाल  : पुं० [सं० पीत√शल् (जाना)+अण्] विजयसार नामक वृक्ष।
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पीतशालक  : पुं० [स० पीतशाल+कन्]=पीतशाल।
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पीत-शेष  : वि० [सं० सहसुपा स०] पीने के उपरांत बचा हुआ। (तरल पदार्थ)।
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पीत-शोणित  : वि० [ब० स०] १. जिसने किसी का रक्त पिया हो। २. खूनी। हत्यारा।
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पीतसरा  : पुं० [सं० पितृव्य, हिं० पितिया=ससुर] चचिया ससुर। ससुर का भाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-सार  : पुं० [ब० स०] १. पीत चंदन। हरिचंदन। २. सफेद चंदन। ३. गोमेद। ४. अंकोल। ५. विजयसार। ६. शिलारस।
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पीतसारक  : पुं० [सं० पीतसार+कन्] १. नीम का पेड़। २. ढेरे का पेड़।
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पीतसारिका  : स्त्री० [सं० पीत√सृ (गति)+णित्+इन्+कन्+टाप्] काला सुरमा।
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पीतसाल (क)  : पुं०=पीतसाल।
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पीत-स्कंध  : पुं० [ब० स०] १. सूअर। शूकर। २. एक वृक्ष।
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पीत-स्फटिक  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज।
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पीत-स्फोट  : पुं० [कर्म० स०] खुजली। १. खसरा नामक रोग।
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पीत-हरित  : वि० [कर्म० स०] पीलापन लिये हरा रंग का। पुं० पीलापन लिये हरा रंग।
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पीतांग  : वि० [पीत-अंग, ब० स०] पीले अंगोंवाला। पुं० १. एक तरह का मेढक जिसका रंग पीला होता है। २. सोनापाठा (वृक्ष)।
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पीताबंर  : पुं० [पीत-अंबर, ब० स०] १. पीले रंग का वस्त्र। पीला कपड़ा। २. एक प्रकार की रेशमी धोती जो हिन्दू लोग प्रायः पूजा-पाठ के समय पहनते हैं। ३. पीले वस्त्र धारण करनेवाला व्यक्ति। जैसे—कृष्ण, नट, संन्यासी विष्णु आदि। वि० जो पीले वस्त्र पहने हुए हो।
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पीता  : स्त्री० [सं० पीत+टाप्] १. हलदी। २. दारूहलदी। ३. बड़ी मालकँगनी। ४. भूरा शीशम। ५. प्रियंगु फल। ६. गोरोचन। ७. अतीस। ८. पीला केला। ९. जंगली बिजौरा नींबू। १॰. जर्दचमेली। ११. देवदारू। १२. राल। १३. असगंध। १४. शालिपर्णी। १५. आकाश बेल। वि० पीले रंगवाली।
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पीताब्धि  : पुं० [पीत-अब्धि, ब० स०] समुद्र पान करनेवाले अगस्त्य मुनि।
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पीताभ  : वि० [पीत-आभा, ब० स०] जिसमें से पीली आभा निकलती हो। जिसमें से पीला रंग झलक रहा हो। पुं० पीला चंदन।
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पीताभ्र  : पुं० [पीत-अभ्र, कर्म० स०] पीले रंग का एक तरह का अभ्रक।
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पीताम्लान  : पुं० [पीत-अम्लान, कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीतारुण  : पुं० [पीत-अरुण,कर्म० स०] पीलापन लिए हुए लाल रंग। वि० [कर्म० स०] उक्त प्रकार के रंग का। पीलापन लिये लाल।
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पीतावशेष  : वि० [सं० पीत-अवशेष, सहसुपा स०] पीत-शेष।
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पीताश्म (न्)  : पुं० [पीत-अश्मन, कर्म० स०] पुखराज। पुष्परागमणि।
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पीताह्व  : पुं० [पीता-आह्वा] राल।
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पीति  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्तिन्] १. पीने की क्रिया या भाव। २. गति। ३. सूँड़। वि० घोड़ा।
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पीतिका  : स्त्री० [सं० पीत+क+टाप्, इत्व] १. हलदी। २. दारु हल्दी। ३. सोनजूही।
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पीती (तिन्)  : पुं० [सं० पीत+इनि] घोड़ा। स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीतु  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा करना)+तुन्, कित्व] १. सूर्य २. अग्नि। ३. झुंड का प्रधान हाथी। यूथपति। ४. सेना में हाथियों के दल का नायक।
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पीतदारु  : पुं० [ब० स०] १. गूलर। २. देवदार।
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पीतोदक  : पुं० [पीत-उदक, ब० स०] नारियल (जिसके अन्दर जल या रस रहता है)।
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पीथ  : पुं० [सं०√पा (पीना)+थक्] १. पानी। २. पेय। पदार्थ। ३. घी। ४. अग्नि। ५. सूर्य। ६. काल। ७. समय।
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पीथि  : पुं० [सं० पीति, पृषो० सिद्धि] घोड़ा।
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पीदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।
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पीन  : वि० [सं०√प्याय (बढ़ाना)+क्त, संप्रसारण, नत्व, दीर्घ] [भाव० पीनता] १. आकार-प्रकार की दृष्टि से भारी-भरकम। दीर्घकाय। बहुत बड़ा और मोटा। २. पुष्ट। ३. भरा-पूरा। संपन्न। पुं० मोटाई। स्थूलता।
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पीनक  : स्त्री०=पिनक।
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पीनता  : स्त्री० [सं० पीन+तल्+टाप्] १. पीन होने की अवस्था या भाव। २. मोटाई। स्थूलता।
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पीनना  : सं०=पींजना।
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पीनस  : पुं० [सं० पीन√सो (नष्ट करना)+क] १. सर्दी या जुकाम। २. एक रोग जिसमें नाक से दुर्गन्धमय गाढ़ा पानी निकलता है। स्त्री० [फा० फीनस] १. पालकी नाम की सवारी। २. एक प्रकार की नाव।
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पीनसा  : स्त्री० [सं० पीनस+टाप्] ककड़ी।
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पीनसित, पीनसी (सिन्)  : वि० [सं० पीनस+इतच्] [पीनस+इनि] जिसे पीनस रोग हुआ हो। पीनस रोग से ग्रस्त।
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पीना  : स० [सं० पान] १. जीवों के मुँह के द्वारा या वनस्पतियों का जड़ों के द्वारा स्वाभाविक क्रिया से तरल पदार्थ विशेषतः जल आत्मसात् करना। २. किसी तरह पदार्थ में मुँह लगाकर उसे धीरे-धीरे चूसते हुए गले के रास्ते पेट में उतारना। जैसे—यहाँ रात भर मच्छर हमारा खून पीतें हैं। ३. गाँजे, तमाकू आदि का धूँआ नशे के लिए बार-बार मुँह में लेकर बाहर निकालना। धूम्रपान करना। जैसे—चिलम, बीड़ी, सिरगेट या हुक्का पीना। ४. एक पदार्थ का किसी दूसरे तरल पदार्थ को अपने अन्दर खींचना या सोखना। जैसे—इतना ही आटा (या चावल) पाव भर घी पी गया। ५. लाक्षणिक अर्थ में, धन आत्मसात् करना या ले लेना। जैसे—(क) यह मकान मरम्मत में ५०० रुपए पी गया। (ख) लड़का बुढ़िया का सारा धन पी गया। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ६. मन में कोई या तीव्र मनोविकार होने पर भी उसे अन्दर ही अन्दर दबा लेना और ऊपर या बाहर प्रकट न होने देना। चुपचाप सहकर रह जाना। जैसे—किसी के अपमान करने या गाली देने पर भी क्रोध या गुस्सा पीकर रह जाना। ७. कोई अप्रिय या निंदनीय घटना या बात हो जाने पर उसे चुपचाप दबा देना और उसके संबंध में कोई कारवाई न करना या लोगों में उसकी चर्चा न होने देना। जैसे—ऐसा जान पड़ता है कि सरकार इस मामले को पी गई। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—(कोई गुण या भाव) घोलकर पी जाना=इस बुरी तरह से आत्मसात् करना या दबा डालना कि मानों उसका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। जैसे—लज्जा (या शरम) तो तुम घोलकर पी गये हों। पुं० १. पीने की क्रिया या भाव। २. शराब पीने की क्रिया या भाव। जैसे—उनके यहाँ पीना-खाना सब चलता है। पुं० [सं० पीडन=पेरना] १. तिल, तीसी आदि की खली। २. किसी चीज के मुँह पर लगाई जानेवाली डाट (लश०)।
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पीनी  : स्त्री० [सं० पिंड या पीडन] तिल, तीसी या पोस्ते की खली।
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पीनोरु  : वि० [सं० पीन-ऊरु, ब० स०] जिसकी जाँघे भारी और मोटी हों।
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पीनोहनी  : स्त्री० [सं० पीन-ऊधस्, ब० स० ङीष्, अनङ+आदेश] बड़े और भारी थन वाली गाय।
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पीप  : स्त्री० [सं० पूय] पके हुए घाव या फोड़े के अन्दर से निकलनेवाला वह सफेद लसदार पदार्थ जो दूषित रक्त का रूपान्तर और विषाक्त होता है। पीब। मवाद। विशेष—रक्त में श्वेत कणों की अधिकता होने से ही इसका रंग सफेद हो जाता है। क्रि० प्र०—निकलना।—बहना।
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पीपर  : पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीपर-पर्न  : पुं० [हिं० पीपल+सं० पर्ण=पत्ता] १. पीपल का पत्ता। २. कान में पहनने का एक आभूषण।
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पीपरा-मूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] पीपल नामक लता की जड़।
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पीपरि  : पुं० [सं० अपि√पृ (बचाना)+इन्, अकार-लोप, दीर्घ] छोटा पाकर वृक्ष। पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० पिप्पली] एक लता जिसके फल और जड़े औषध के काम आती हैं। इस लता के पत्ते पान के पत्तों की तरह परन्तु कुछ छोटे, अधिक नुकीले तथा अधिक चिकने होते हैं।
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पीपल  : पुं० [सं० पिप्पल] बरगद की जाति का एक प्रसिद्ध वृक्ष जो भारत में प्रायः सभी स्थानों में अधिकता से पाया जाता है। पर इसमें जटाएँ नहीं फूटती। इसका गोदा (फल) पकने पर मीठा होता है। हिन्दू इसे बहुत पवित्र मानते और पूजते हैं। चलदल। चलपत्र। बोधिद्रुम। स्त्री० [सं० पिप्पली] एक प्रकार की लता जिसकी कलियाँ ओषधि के रूप में काम में आती है। कलियाँ तीन-चार अंगुल लंबी शहतूत (फल) के आकार की और स्वाद में तीखी होती है। पिप्पली। मागधी।
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पीपलामूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] एक प्रसिद्ध ओषधि जो पीपल नामक लता की जड़ है। यह चरपरा, तीखा, गरम, रूखा, दस्तावार, पाचक, रेचक तथा कफ वात, आदि को दूर करनेवाला माना जाता है।
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पीपा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० पीपी] १. लकडी, लोहे आदि का बना हुआ तेल आदि रखने का एक प्रकार का बड़ा आधान। २. राजस्थान के एक प्रसिद्ध राजा जो अपना राज्य छोड़कर साधु और रामानंद के शिष्य बन गये थे।
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पीब  : पुं०=पीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीय  : पुं०=पिय (प्रियतम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयर  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीया  : पुं०=प्रिय। (प्रियतम)
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पीयु  : पुं० [सं०√पा (पीना)+कु, नि, सिद्धि] १. काल। २. सूर्य। ३. थूक। ४. कौआ। ५. उल्लू। वि० १. हिंसक। २. प्रतिकूल।
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पीयूक्षा  : स्त्री० [सं० पीयु√उक्ष् (सींचना)+अ+टाप्] पाकर की एक जाति।
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पीयूख  : पुं०=पीयूष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयूष  : पुं० [सं०√पीय् (संतुष्ट करना)+ऊषन्] १. अमृत। सुधा। २. दूध। ३. गाय आदि के प्रसव के उपरांत, पहले सात दिनों का दूध जो अग्राह्य माना जाता है। पेऊस।
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पीयूष-ग्रंथि  : स्त्री० [मध्य० स०] शरीर के अन्दर मस्तिष्क के निचले भाग की एक ग्रंथि जो कफ उत्पन्न करती है। (पिटयूटरी ग्लैंड)।
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पीयूष-पाणि  : वि० [ब० स०] १. जिसके हाथ में अमृत हो। २. जिसके हाथ की दी हुई चीज में अमृत का सा गुण हों। जैसे—वे पीयूष-पाणि वैद्य थे।
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पीयूष-भानु  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-रुचि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-वर्ष  : पुं० [सं० पीयूष√वृष् (बरसना)+अण्] १. अमृत की वर्षा करनेवाला, चंद्रमा। २. संस्कृत के जयदेव नामक कवि। ३. कपूर। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १॰ और ९ के विश्राम से १९ मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होता है। इसे आनन्दवर्द्धक भी कहते हैं।
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पीर  : स्त्री० [सं० पीड़ा] १. कष्ट। तकलीफ। दुःख। २. दर्द। वेदना। ३. दूसरे का कष्ट या पीड़ा देखकर उसके प्रति मन में होनेवाली करुणा-पूर्ण भावना या सहानुभूति। दूसरे के दुःख से कातर होने की अवस्था या भाव। ४. प्रसव-काल के समय स्त्रियों को होनेवाली पीड़ा या दर्द। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहा०—(किसी की) पीर जानना या पाना=सहानुभूतिपूर्वक किसी का कष्ट या दुःख समझना। वि० [फा०] [भाव० पीरी] १. वृद्ध। बुड्ढा। २. बड़ा और पूज्य। बुजुर्ग। ३. चालाक। धूर्त। पुं० १. परलोक का मार्ग-दर्शक धर्म-गुरु। २. महात्मा और सिद्ध पुरुष। ३. मुसलमानों का धर्मगुरु। ४. सोमवार का दिन। चंद्रवार।
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पीरजादा  : पुं० [फा० पीरजादा] [स्त्री० पीरजादी] किसी पीर या धर्मगुरु का पुत्र।
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पीरतन  : पुं० [हिं० पियरा+तन (प्रत्यय)] पीलापन। उदा०—कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनुन रहाइ।—कबीर।
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पीरना  : स०=पेरना। उदा०—तेली ह्वै तन कोल्हू करिहौ पाप पुन्नि दोऊ पीरौं।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पीर-नाबालिग  : पुं० [फा० पीर+अ० नाबालिग] ऐसा वृद्ध जो बच्चों के से आचरण, काम या बातें करे। सठियाया हुआ बुड्ढा। बुद्धि भ्रष्ट बूढ़ा।
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पीर-भुचड़ी  : पुं० [फा०+अनु०] जनखों या हिजड़ों के संप्रदाय के एक कल्पित पीर।
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पीरमान  : पुं० [लश०] मस्तूल के ऊपर बँधे हुए वे डंडे जिनके दोनों सिरों पर लट्ट लगे रहते हैं और जिन पर पाल चढ़ाई जाती है। अडडंड़ा।
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पीर-मुरशिद  : पुं० [फा०] गुरु, महात्मा और पूज्यनीय व्यक्ति। प्रायः राजाओं, बादशाहों और बड़ों के लिए भी इसका प्रयोग होता है।
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पीरा  : स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० पीरी] पीला।
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पीराई  : पुं० [फा० पीर+आई (प्रत्य०)] १. डफालियों की तरह की एक जाति जिसकी जीविका पीरों के गीत गाने से चलती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। स्त्री०=पीरी (‘पीर’ का भाव०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीरानी  : स्त्री० [फा०] पीर अर्थात् मुसलमानी धर्मगुरु की पत्नी।
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पीरी  : स्त्री० [फा०] १. वृद्ध होने की अवस्था, या भाव। वृद्धावस्था। २. किसी इस्लामी धर्म-स्थान के पीर (महन्त) होने की अवस्था या भाव। ३. दूसरों को अपना अनुयायी या शिष्ट बनाने का धन्धा या पेशा। ४. बहुत बड़ी चालाकी या बहादुरी। जैसे—इतना सा-काम करके तुमने कौन-सी पीरी दिखला दी। ५. किसी प्रकार का विशेषाधिकार। इजारा। ठेका। (व्यंग्य) जैसे—यहाँ क्या तुम्हारे बाबा की पीरी है। ६. कोई अलौकिक या चमत्कापूर्ण कृत्य करने की शक्ति। वि० हिं० ‘पीरा’ (पीला) का स्त्री०।
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पीरु  : पुं० [फा० पील मुर्ग] एक प्रकार का मुरगा।
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पीरोजा  : पुं० दे०=फीरोजा।
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पील  : पुं० [सं० पीलु (हाथी) इसे फा०] १. हाथी। गज। हस्ति। २. शतरंज के खेल का हाथी नामक मोहरा। पुं०=पीलु (पिल्लू नामक कीड़ा)। पुं०=पीलु।
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पीलक  : पुं० [देश०] पीले रंग का एक प्रकार का पक्षी जिसके डैने काले और चोंच लाल होती है।
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पीलखा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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पील-पाँव  : पुं०=फील पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलपाया  : पुं० [फा० पीलपायः] १. आधार या आश्रय के लिए किसी चीज के नीचे लगाई जानेवाली टेक या थूनी। २. किलों आदि की दीवारों के नीचे या साथ सहारे के लिए बनी हुई बहुत मोटी दीवार।
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पीलपाल  : पुं०=फीलवान।
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पीलवान  : पुं०=फीलवान।
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पीलसोज  : पुं० [फा० फतीलसोज] दीयट। चिरागदान।
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पीला  : वि० [सं० पीत] [स्त्री० पीली, भाव० पीलापन] १. (पदार्थ) जो केसर, सोने या हलदी के रंग का हो। पीत। जर्द। २. (शरीर का वर्ण) जो रक्त की कमी के कारण हलका सफेद हो गया हो और जिसमें स्वास्थ्य की सूचक चमक या लाली न रह गई हो। जैसे—बीमारी के कारण उनका सारा शरीर पीला पड़ गया है। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. (शरीर का वर्ण) जो भय, लज्जा आदि के कारण उक्त प्रकार का हो गया हो। जैसे—मुझे देखते ही उसका चेहरा पीला पड गया। क्रि० प्र०—पड़ना। पुं० [?] एक प्रकार का रंग जो हलदी या सोने के रंग से मिलता-जुलता होता है। पुं० [सं० पीलु फा० पील] शतरंज का पील, फील या हाथी नामक मोहरा।
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पीला-कनेर  : पुं० [हिं० पीला+कनेर] एक तरह का कनेर जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं।
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पीला-धतूरा  : पुं० [हिं० पीला+धतूरा] ऊँटकटारा। घमोय। भँड़-भाँड़। सत्यानासी।
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पीलापन  : पुं० [हिं० पीला+पन (प्रत्य०)] १. पीले होने की अवस्था, गुण या भाव। पीतता। जर्दी। २. खून की कमी अथवा भय आदि के कारण होनेवाली शरीर की रंगत।
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पीला-बरेला  : पुं० [देश०] बनमेथी। बरियारा।
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पीला-बाला  : पुं०=लामज (तृण)।
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पीला-शेर  : पुं० [हिं० पीला+फा० शेर] अफ्रीका के जंगलों में रहनेवाले शेरों की एक जाति जिसका रंग पीला होता है।
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पीलित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें बल डाले गये हों, या पड़े हों। ऐंठा या मरोडा हुआ।
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पीलिमा  : स्त्री० [हिं० पीला] पीलापन। (‘कालिमा’ के अनुकरण पर; असिद्ध रूप)।
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पीलिया  : पुं० [हिं० पीला+इया (प्रत्य०)] कमल नामक रोग जिसमें मनुष्य की आँखें और शरीर पीला पड़ जाता है।
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पीली  : स्त्री० [हिं० पीला=पीत] तड़के या प्रभात के समय आकाश में दिखाई देनेवाली लाली जो कुछ पीलापन लिये होती है। मुहा०—पीली फटना=तड़का या प्रभात होना। पौ फटना।
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पीली-चमेली  : स्त्री० [हिं०] चमेली के पौधों की एक जाति।
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पीली-चिट्ठी  : स्त्री० [हिं० पीला+चिट्ठी] विवाह आदि शुभ कृत्यों का निमंत्रण-पत्र जो प्रायः पीले रंग के कागज पर छपा या लिखा रहता है अथवा जिस पर केसर आदि छिड़का रहता है।
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पीली-जुही  : स्त्री०=सोन-जुही।
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पीली-मिट्टी  : स्त्री० [हिं० पीला+मिट्टी] १. पीले रंग की मिट्टी। २. पटिया आदि पर पोतने की पीले रंग की जमी हुई कड़ी चिकनी मिट्टी।
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पीलु  : पुं० [सं०√पील (रोकना)+ड] १. दो-तीन हाथ ऊँचा एक तरह का क्षुप जिसमें पीले रंग के गुच्छाकार फूल तथा कालापन लिये हुए लाल रंग के छोटे-छोटे गोल फल लगते हैं। ३. उक्त क्षुप का फल। ४. पुष्प। फूल। ५. हाथी। ६. परमाणु। ७. तालु वृक्ष का तना। ८. हड्डी का टुकड़ा। ९. तीर। वाण। १॰. कृमि। कीड़ा। ११. चने का साग। १२. सरकंडे या सरपत का फूल। १३. लाल कटसरैया। १४. अखरोट का पेड़। १५. हाथ की हथेली।
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पीलुआ  : पुं० [देश०] मछली पकड़ने का बहुत बड़ा जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलुक  : पुं० [सं० पीलु√कै+क] च्यूँटा।
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पीलुनी  : स्त्री० [सं०√पील+उन+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. चने का साग।
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पीलु-पत्र  : पुं० [ब० स०] मोरट नाम की लता।
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पीलु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. कुँदुरू।
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पीलु-पाक  : पुं० [ष० त०] वैशेषिक का यह सिद्धान्त कि तेज के प्रभाव से पदार्थों के परमाणु पहले अलग-अलग होते और फिर मिलकर एक हो जाते हैं। जैसे—कच्ची मिट्टी के घड़े का जब अग्नि या ताप से संयोग होता है तब पहले परमाणु अलग-अलग होते हैं और फिर लाल होने पर मिलकर एक हो जाते हैं।
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पीलुपाक-वाद  : पुं० [ष० त०] वैशेषिकों का पीलुपाक-संबंधी। मत या सिद्धान्त।
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पीलुपाकवादी (दिन्)  : वि० [पीलुपाकवादी+इनि, (बोलना)+णिनि] पीलुपाकवादा संबंधी। पुं० १. पीलु-पाक का सिद्धान्त माननेवाला व्यक्ति। २. वैशेषिक दर्शन का अनुयायी या पंडित।
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पीलु-मूल  : पुं० [ष० त०] १. पीलु वृक्ष की जड़। २. सतावर। ३. शाल-पर्णी।
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पीलु-मला  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] जवान गाय।
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पीलू  : पुं० [सं० पीलु] १. एक प्रकार का का काँटेदार वृक्ष जो दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। इसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती है। २. पिल्लू नाम का कीड़ा। ३.संगीत में एक प्रकार का राग जिसके गाने का समय दिन के तीसे पहर कहा गया है।
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पीव  : वि० [सं० पीवन] १. मोटा। स्थूल। २. हृष्ट-पुष्ट। पुं०=पीप (मवाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=प्रिय (प्रियतम)। २. साधकों की परिभाषा में, परमेश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवट  : स्त्री० [?] युक्ति। उपाय। तरकीब। उदा०—न मालूम कौन सी पीवट लगाए होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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पीवन  : स०=पीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवर  : वि० [सं०√प्यौ (वृद्धि)+ष्वरच्, संप्रसारण, दीर्घ] [स्त्री० पीवरा] [भाव० पीवरता, पीवरत्व] पीन (दे० सभी अर्थों में)। पुं० १. कछुआ। २. जटा। ३. तापस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक।
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पीवरा  : स्त्री० [सं० पीवर+टाप्] १. असगंध। २. सतावर।
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पीवरी  : स्त्री० [सं० पीवर+ङीष्] १. सतावर। शालिपर्णी। वर्हिषद् नामक पिता की मानसी कन्याओं में से एक। ४. युवती स्त्री। ५. गाय। गौ।
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पीवा  : स्त्री० [सं०√पी (पीना)+व+टाप्] जल। पानी। वि०=पीवर।
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पीविष्ठ  : वि० [सं० पीवन्+इष्ठन्] अतिशय स्थूल। बहुत मोटा।
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पीसना  : स० [सं० पेषण] १. कोई पदार्थ दो कठोर या कड़े तलों के बीच में डाल या रखकर बार बार इस प्रकार रगड़ते हुए दबाना कि उसके बहुत छोटे-छोटे खंड या कण हो जायँ। घन पदार्थ को चूर्ण के रूप में लाना। जैसे—चक्की में आटा पीसना, सिल पर चटनी, भाँग या मसाला पीसना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. बहुत ही कठोरता, निर्दयता या हृदयहीनतापूर्वक किसी को बुरी तरह से कुचलना, दबाना या पीड़ित करना। जैसे—(क) मुझसे पाजीपन करोगे तो पीसकर रख दूँगा। (ख) सन् १९५७ के उपद्रवों के बाद अंगरेजों ने सारे देश को एक तरह से पीस डाला था। ३. खूब दबाते हुए रगड़ना। जैसे—दाँत पीसना। ४. इस प्रकार कष्ट भोगते हुए कठोर परिश्रम का काम करना कि मानों चक्की में डालकर पीसे जा रहे हों। ५. बहुत परिश्रम का काम करना। जैसे—दोनों भाइयों को दिन भर दफ्तर में पीसना पड़ता है। पुं० १. पीसने की क्रिया या भाव। २. वह या उतनी वस्तु जो किसी को पीसने को दी जाय। जैसे—गेहूँ पीसना। ३. एक व्यक्ति के जिम्मे या हिस्से के कठोर परिश्रम का काम।
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पीसी  : स्त्री० [सं० पितृष्वसा] पिता की बहन। बूआ। (बंगाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीसू  : वि० [हिं० पीसना] बहुत पीसनेवाला। पुं०=पिस्सू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीह  : स्त्री० [सं० पीव=मोटा ?] चरबी।
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पीहर  : पुं० [सं० पितृ+गृह, हिं० घर] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मैका।
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पीहा  : पुं० [अनु०] पपीहे का शब्द। उदा०—पीहा पीहा रटत पपीहा मधुबन मैं।—रत्नाकर।
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पीहू  : पुं०=पिस्सू (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंकेसर  : पुं० [सं०] फूलों का वह केसर जिसमें पुंसत्ववाला तत्त्व रहता है और जिसके पराग या धूलि-कणों के संयोग से स्त्री केसर मे गर्भाधान होता है। (स्टेमन)
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पुंख  : पुं० [सं० पुंस√खन् (खोदना)+ड] १. तीर या वाण का वह हिस्सा जिसमें पंख लगाया जाता था। २. बाज (पक्षी) ३. मंगलाचार।
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पुंखित  : वि० [सं० पुंख+इतच्] १. जो पंख या पंखो से युक्त हो। २. वाण जिसके पिछले भाग में पंख लगे हों।
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पुंग  : पुं० [सं०=पूग, पृषो० सिद्धि] बहुत बड़ा ढेर। राशि।
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पुंगफल  : पुं०=पूंगीफल।
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पुंगल  : पुं० [सं० पुंग√ला (लेना)+क] आत्मा।
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पुंगव  : पुं० [सं० कर्म० स०,+षच्] १. बैल। वृष। सांड़। २. ओषधि के काम में आनेवाली एक वनस्पति। वि० उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—नर-पुंगव=मनुष्यों में श्रेष्ठ।
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पुंगव-केतु  : पुं० [ब० स०] वृषभध्वज। शिव।
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पुंगी  : स्त्री० [हिं० खोंगी] पत्ते का वह पतला चोंगा जिसमें तम्बाकू भरकर पीते हैं। उदा०—पुंगी के सिरे पर आग चिलचिला उठी।—वृन्दावनवलाल वर्मा।
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पुंगीफल  : पुं०=‘पूंगीफल’।
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पुँछल्ला  : पुं०=‘पुछल्ला’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुँछवाना  : स० [हिं० पोंछना का प्रे०] पोंछने की काम किसी से कराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=पुछवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंछार  : वि० [हिं० पूंछ+आर (प्रत्य०)] बड़ी पूँछवाला। पुं० मोर।
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पुंछाला  : वि० [हिं० पूँछ+ला (प्रत्य०)] १.=पुछल्ला। २.=पिछलगा।
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पुंज  : पुं० [सं०√पिञ्ज् (सामर्थ्य)+अच्, पृषो० सिद्धि] १. ढेर। २. राशि। समूह।
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पुंज-दल  : पुं० [ब० स०] सुसना नाम का साग।
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पुंजन  : पुं० [सं० पुंज+णिच्+ल्युट्—अन] १. पुंज अर्थात् राशि बनाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘संचयन’।
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पुंजशः  : अव्य० [सं० पुंज+शस्] ढेर का ढेर। ढेरों।
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पुंजा  : पुं० [सं० पुंज] १. गुच्छा। २. समूह। ३. गट्ठा। पूला।
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पुंजातीय  : वि० [सं० पुम्स्-जाति, ष० त०+छ—ईय] लिंग के विचार से नर या पुरुष जाति का। पुं० जाति या वर्ग का। (मेल)
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पुंजि  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+इन, पृषो० सिद्धि] समूह। ढेर।
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पुंजिक  : पुं० [सं० पुंज+ठन्—इक] ओला। (आकाश से गिरनेवाला)।
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पुंजित  : भू० कृ० [सं० पुंज+इतच्] १. पुंज अर्थात् ढेर के रूप में बनाया या लगाया हुआ। २. एकत्र किया हुआ। संचित। (एक्यूमुलेटेड)
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पुंजिष्ठ  : भू० कृ० [सं० पुंज+इष्ठन्] पुंजित। (दे०)
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पुंजी  : स्त्री०=पूँजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंजीभूत  : वि० [सं० पुंज+च्वि, ईत्व√भू (होना)+क्त] पुंज या ढेर के रूप में बना या लगा हुआ। जो राशि के रूप में हो गया हो।
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पुंजोत्पादन  : पुं० [सं० पुंज-उत्पादन, ष० त०] यंत्रों आदि की सहायता से चीजों का बहुत अधिक मात्रा, राशि या संख्या में तैयार करना। (मासप्रोडक्शन)
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पुंड  : पुं० [सं०√पुंड् (मलना)+अच्] १. चंदन आदि का टीका। तिलक। २. दक्षिण भारत में बसने वाली एक जाति जो पहले रेशम के कीड़े पालती थी।
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पुंडरिया  : पुं० [सं० पुंडरीक] पुंडरी का पौधा।
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पुंडरी (रिन्)  : पुं० [सं० पुंड√ऋ (गति)+णिनि] एक प्रकार का पौधा जिसकी सुगंधित पत्तियाँ शालपर्णी की पत्तियों की-सी होती है। इसका रस आँख के रोगों में हितकर माना गया है।
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पुंडरीक  : पुं० [सं०√पुंड+ईक्, नि० सिद्धि] १. श्वेत कमल। २. कमल। ३. रेशम का कीडा। ४. बाघ। शेर। ५. एक सुगंधित पौधा। पुंडरिया। ६. सफेदा छाता। ७. कमंडल। ८. तिलक। ९. एक यज्ञ। १॰. सफेदा आम। ११. एक तरह का धान। १२. सफेद हाथी। १३. एक तरह की ईख। पौंड़ा १४. चीनी। १५. सफेद रंग का साँप। १६. एक प्रकार का बाज पक्षी। १७. श्वेतकुष्ठ। १८. हाथियों का ज्वर। १९. एक नाग। २॰. अग्निकोण का दिग्गज। २१. क्रौंच द्वीप का एक पर्वत। २२. एक तीर्थ। २३. अग्नि। आग। २४. तीर। वाण। २५. आकाश। २६. जैनों के एक गणधर। २७. दमन या दौना नाम का पौधा। २८. सफेद रंग।
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पुंडरीकाक्ष  : पुं० [पुंडरीक-अक्षि, ब० स०,+षच्] १. विष्णु या नारायण, जिनके नेत्र कमल के समान माने गये हैं। २. रेशम के कीड़े पालनेवाली एक प्राचीन जाति। वि० जिसके नेत्र कमल के समान बड़े और सुन्दर हों।
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पुंडरीकाख  : पुं०=पुंडरीकाक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंडरीयक  : पुं० [सं० पुंडरिन्+क्यच्+ण्वुल—अक] १. पुंडरी का पौधा। २. स्थल कमल। ३. एक औषध। ४. एक विश्वदेव।
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पुंडर्य  : पुं० [सं०√पुण्ड+अच्, पुण्ड-अर्य, ष० त०, पररूप] पुंडरी नामक पौधा।
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पुंड्र  : पुं० [सं०√पुण्ड+रक्] १. लाल रंग का एक तरह का मोटा गन्ना। पौंड़ा। २. तिनिश का वृक्ष। ३. माधवी लता। ४. पाकर वृक्ष। ५. सफेद कमल। ६. माथे पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक। ७. तिलक का पौधा। ८. बलि के पुत्र एक दैत्य का नाम। ९. उक्त दैत्य के नाम पर बसा हुआ भारत का एक प्राचीन देश। १॰. उक्त प्रदेश का प्राचीन नाम जिसमें आज-कल पुरनियाँ, मालदह, दीनाजपुर और राजशाही के कुछ क्षेत्र सम्मिलित थे। ११. उक्त देश का निवासी।
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पुंड्रक  : पुं० [सं० पुंड्र+कन्] १. माधली लता। २. टीका। तिलक। ३. तिलक का वृक्ष। ४. पुंड्र या पौड़ा नामक ईख। ५. रेशम के कीड़े पालनेवाला व्यक्ति। ६. घोड़े के शरीर का एक चिह्न या लक्षण जो रोएँ के रंग के भेद से होता है और जो शंख, चक्र, गदा, पद्य, खड्ग अंकुश या धनुष के आकार का होता है।
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पुंड्र-केलि  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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पुंड्र-वर्द्धन  : पुं० [ष० त०] प्राचीन प्रंड्र देश की राजधानी जो तीर्थ भी थी।
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पुंध्वज  : पुं० [ष० त०] नरपशु।
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पुंनक्षत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह नक्षत्र जिसके स्थिति काल में नर संतान उत्पन्न हो। नर नक्षत्र।
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पुंनाग  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. सुलताना चंपा। २. श्वेत कमल। ३. जायफल। ४. श्रेष्ठ पुरुष।
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पुंनाट  : पुं० [सं० पुंस्√नट् (नृत्य)+णिच्+अच्] १. चक्रमर्द। चकवड़ का पौधा। २. कर्नाटक के निकट का एक देश। ३. दिगंबर जैन संप्रदाय का एक संघ।
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पुंनाड  : पुं०=पुंनाट।
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पुंनिम  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंमुत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसा मंत्र जिसके अंत में ‘स्वाहा’ या ‘नमः’ न हो।
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पुंयान  : पुं० [सं० मध्य० स०] पालकी।
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पुंरत्न  : पुं० [उपमि० स०] पुरुष रत्न। श्रेष्ठ पुरुष।
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पुंराशि  : पुं० [कर्म० स०] कोई नर राशि। जैसे—मकर, कुंभ आदि।
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पुंलिंग  : पुं० [ष० त०] १. पुरुष का चिह्न। २. पुरुष का शिश्र, लिंग। ३. व्याकरण में संज्ञा शब्दों के दो वर्गों में से एक, जिसकी संज्ञाएँ नरों की सूचक होती हैं अथवा ऐसी चीजों की सूचक होती है, जो पुरुष वर्ग की समझी जाती हैं। (मैसकुलिन)। वि० नर या पुरुष वाचक (शब्द)।
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पुंवृष  : पुं० [सं० पुंस√वृष् (बरसना)+क] छछूँदर।
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पुंश्चली  : वि०स्त्री० [सं० पुंस√चल् (चलना)+अच्+ङीष्] पर-पुरुषों से गुप्त संबंध रखनेवाली (स्त्री)। व्यभिचारिणी। कुलटा। स्त्री० कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री।
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पुंश्चलीय  : पुं० [सं० पुंश्चली+छ—ईय] पुंश्चली का पुत्र या सन्तान। व्यभिचारिणी से उत्पन्न व्यक्ति।
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पुंश्चिह्न  : पुं० [सं० ष० त०] पुरुष का लिंग, शिश्र।
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पुंस्  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+डुमसुन] पुरुष। नर। मर्द।
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पुं-संतति  : स्त्री० [सं०] वह संतान या वंशज जो पुरुष हो। (स्त्री न हो)।
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पुंसत्व  : पुं०=पुंस्त्व।
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पुंसवन  : वि० [सं० पुंस्√सू (प्रसव करना)+ल्युट्—अन] पुत्र उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. द्विजातियों के सोलह संस्कारों में से दूसरा संस्कार जो गर्भाधान से तीसरे महीने इस उद्देश्य से किया जाता है कि गर्भिणी स्त्री पुत्र प्रसव करे। २. वैष्णवों का एक प्रकार का व्रत। ३. दूध।
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पुंसवान (वत्)  : वि० [सं० पुंस्+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पुंसवती] जिसे पुत्र हो। पुत्रवाला।
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पुंसी  : स्त्री० [सं० पुंस्+अच्+ङीष्] ऐसी गाय जिसके आगे बछड़ा हो। सवत्सा गौ।
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पुंस्त्व  : पुं० [सं० पुंस्+त्व] १. नर होने की अवस्था या भाव। पुरुषत्व। २. पुरुष की काम-शक्ति। ३. शुक्र। वीर्य। ४. व्याकरण में शब्द के पुंलिग होने की अवस्था या भाव।
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पुंस्त्व-विग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] भूतण नाम की सुगंधित घास।
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पुआ  : पुं०=पूआ (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुआई  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी चिकनी और पीले रंग की होती है। २. उक्त पेड की लकड़ी।
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पुआल  : पुं० [देश] एक ऊँचा जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत और पीले रंग की होती है और इमारतों में लगती है। पुं०=पयाल (धान का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुकार  : स्त्री० [हिं० पुकारना] १. पुकारने अर्थात् जोर से नाम लेकर संबोधित करने की क्रिया या भाव। २. कहीं उपस्थित होने के लिए किसी का जोर से लिया जानेवाला नाम। जैसे—कचहरी में पुकार होने पर कैदी न्यायाधीश के सामने लाया गया। ३. आत्मरक्षा, सहायता आदि के लिए दूसरों को बुलाने की क्रिया या भाव। मुहा०—पुकार उठाना या मचाना=कोई काम कराने या अनौचित्य, अन्याय आदि रोकने के लिए सबसे चिल्लाकर कहना या आंदोलन करना। ४. किसी चीज का अभाव होने पर उसके लिए जन-साधारण द्वारा की जानेवाली बहुत जोरों की माँग। जैसे—शहर में चीनी की पुकार मची है। ५. अपना कष्ट जतलाते हुए किसी से न्याय करने के लिए की जानेवाली प्रार्थना। फरियाद। ६. किसी काम या बात के लिए दिया जानेवाला निमंत्रण। बुलावा। ७. जोर देते हुए किसी काम या बात के लिए किया जानेवाला निवेदन या प्रार्थना। ८. किसी बात का अभाव या आवश्यकता सूचित करने के लिए कही जानेवाली बात। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। ९. संगीत में कंठ या वाद्य से निकाला हुआ कोई ऐसा बहुत ऊंचा स्वर जिसका क्रम अपेक्षया अधिक समय तक चलता रहे। जैसे—शहनाई की यह पुकार बहुत ही सुन्दर हुई है।
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पुकारना  : स० [सं० प्रकुश] १. किसी को बुलाने, संबोधित करने या उसका ध्यान आकृष्ट करने के लिए जोर से उसका नाम लेना। २. रक्षा, सहायता आदि के लिए किसी का आवाहन करना। जैसे—भारत-माता नवयुवकों को पुकार रही है। ३. किसी के नाम का जोर से उच्चारण करना। धुन लगाना। रटना। जैसे—ईश्वर का नाम पुकारना। ४. लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए जोर से किसी पद या शब्द का उच्चारण करना। उदा०—हरी हरी पुकारती हरी हरी लतान में। ५. कोई वस्तु पाने के लिए आकुल होकर बार बार उसका नाम लेना। चिल्लाकर माँगना। जैसे—प्यास के मारे सब ‘पानी पानी’ पुकार रहे है। ६. छुटकारे, बचाव, रक्षा आदि के लिए जोर से आवाज लगाना या चिल्लाना। ७. किसी नाम या संज्ञा से किसी को अभिहित करना। कहना। नाम धरना। (क्व०) जैसे—यहाँ तो इसे ‘तीतर’ पुकारते हैं।
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पुक्कश  : पुं०=पुक्कस।
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पुक्कस  : वि० [सं० पुक्√कस् (गति)+अच्, पृषो० सिद्धि] अधम। नीच। पुं० एक प्राचीन जाति जिसकी उत्पत्ति निषाद पिता और शूद्रा माता से कही गई है।
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पुक्कसी  : स्त्री० [सं० पुक्कस+ङीष्] १. कालापन। कालिमा। २. नील का पौधा।
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पुक्की  : स्त्री० [हिं० पुकारना या फूँकना] सीटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुख  : पुं०=पुण्य (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुखता  : वि०=पुख्ता।
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पुखर (रा)  : पुं०=पोखरा (तालाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुखराज  : पुं० [सं० पुष्पराग] नौ प्रकार के रत्नों में से एक जो पीले रंग का होता है तथा जो धारण किये जाने पर बृहस्पति ग्रह का दोष हरता है। अन्य आठ रत्न ये हैं—मोती, हीरा, लहसुनिया, पद्मराग, गोमेद, नीलम, पन्ना और मूँगा।
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पुख्ता  : वि० [फा० पुख्तः] [भाव० पुख्तगी] १. गठन, प्रकार, रचना आदि की दृष्टि से उच्च कोटि का, टिकाऊ और दृढ़। पक्का। मजबूत। २. जानकार। अनुभवी। ३. पूरी उम्र का। प्रौढ़। ४. पूरी तरह से निश्चित या स्थिर किया हुआ।
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पुगना  : अ० १.=पूजना। २.=पूगना।
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पुगाना  : स० [हिं० पूगना (पूजना) का स०] १. उद्दिष्ट, सीमा, स्थान आदि तक पहुँचाना। २. नियत या स्थिर अवधि या सीमा तक पहुंचाना। जैसे—गोली के खेल में गोली पुगाना=नियत गड्ढे में उसे प्रविष्ट करना। ३. जो उचित हो उसे पूरा करना, देना या भरना। जैसे—महाजन का रुपया पुगाना।
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पुचकार  : स्त्री० [हिं० पुचकारना] पुचकारने की क्रिया या भाव। प्यार जताने के लिए होठों से निकाला हुआ चूमने का-सा शब्द। चुमकार।
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पुचकारना  : स० [अनु०] प्यार जतलाते हुए मुँह से पुच-पुच शब्द करना।
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पुचकारी  : स्त्री० [हिं० पुचकारना] १. पुचकारने की क्रिया या भाव। पुचकार २. मुँह से किया जानेवाला पुचपुच शब्द। क्रि० प्र०—देना।
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पुचपुच  : स्त्री०=पुचकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुचरस  : पुं० [देश०] ऐसी धातु जिसमें कई और धातुओं की मिलावट हो। मिश्रधातु।
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पुचारना  : स० [हिं० पुचारा] १. पुचारा देना। पोतना। २. उजला या साफ करना। चमकाना। ३. सज्जित करना। सजाना। (क्व०)।
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पुचारा  : पुं० [अनु० पुचपुच=भीगे कपड़े को दबाने का शब्द या हिं० पोतना से पुचारा] १. किसी चीज पर पतला लेप करने या पोतने का काम। २. भीगे हुए कपड़े से जमीन रगड़कर पोंछने का काम। क्रि० प्र०—देना।—फेरना। ३. वह कपड़ा या और कोई ऐसी चीज जिससे उक्त क्रिया या भाव। ४. वह घोल या तरल पदार्थ जो किसी दूसरी चीज पर पोता या लेपा जाय। क्रि० प्र०—फेरना—लगाना। ५. उक्त प्रकार के लेप से किसी चीज पर चढ़ी हुई तह या परत। ६. छोड़ी या दगी हुई तोप या बंदूक की गरम नली ठंढी करने के लिए उस पर गीला कपड़ा फेरने की क्रिया। ७. किसी को पुचकारने या प्रसन्न करते हुए कही जानेवाली ऐसी बात जो उसे अपने अनुकूल करने या किसी के विरुद्ध उभारने के लिए कही जाय। क्रि० प्र०—देना।
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पुच्छ  : स्त्री० [सं०√पुच्छ् (प्रसन्न होना)+अच्] १. दुम। पूँछ। २. किसी चीज का पिछला और प्रायः नुकीला या लंबा भाग।
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पुच्छकंटक  : पुं० [ब० स०] बिच्छू, जिसकी दुम में डंक होता है।
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पुच्छदा  : स्त्री० [सं० पुच्छ√दै (शोधन करना)+क+टाप्] लक्ष्मणा कंद।
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पुच्छ-फल  : पुं० [सं० ब० स०] बेर का पेड़।
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पुच्छल  : वि० [हिं० पुच्छ] १. जिसमें या जिसके पीछे पूँछ या दुम हो। पूँछवाला। २. जिसमें पूँछ की तरह पीछे कोई लंबा और प्रायः व्यर्थ का अंग लगा हो। जैसे—पुच्छलवाला।
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पुच्छल तारा  : पुं० [सं०] सूर्य के चारों ओर घूमनेवाला एक चमकीला पिंड जिसका मध्ववर्ती केन्द्र ठोस पदार्थ का बना होता है और साथ में गैस की एक पूँछ सी लगी रहती है। (कॉमेट)
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पुच्छिका  : स्त्री० [सं० पुच्छ+क+टाप्, इत्व] माषपर्णी।
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पुच्छी (च्छिन्)  : वि० [सं० पुच्छ+इनि] पूँछवाला। दुमदार। पुं० १. आक। मदार। २. मुरगा।
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पुछना  : अ० [हिं० पोंछना का अनु०] १. पुचारे से स्थान आदि का पोंछा जाना। २. न रह जाना। मिट जाना। उदा०—पुछ गया प्रतिगेह से दो एक का सिंदूर।—दिनकर।
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पुछल्ला  : पुं० [हिं० पूँछ+ला (प्रत्य०)] १. बड़ी या लंबी दुम। २. पूँछ की तरह पीछे जोड़ी या लगी हुई कोई लंबी चीज या धज्जी। जैसे—गुड्डी या पतंग का पुछल्ला। ३. वह जो प्रायः अनावश्यक रूप से या व्यर्थ किसी के पीछे या साथ लगा रहता हो और जल्दी उसका संग न छोड़ता हो। जैसे—वह जहाँ जाता है, अपने भाई को भी पुछल्ला बना कर अपने साथ ले जाता है। ४. करघे में लपेटन की बाई ओर का खूँटा। (जुलाहे)
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पुछवैया  : वि० [हिं० पुछवाना] किसी से कुछ पुछवानेवाला। वि० [हिं० पूछना] १. पूछनेवाला। पुछैया। २. खोज-खबर लेनेवाला।
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पुछार  : पुं० [हिं० पूँछना] १. पूछनेवाला। २. खोज-खबर लेनेवाला। ३. आदर करनेवाला। पुं०=पुंछार। (मोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुछारी  : पुं० [हिं० पूँछ] मोर। मयूर।
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पुछिया  : पुं० [हिं० पूंछ] दुंबा मेढ़ा।
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पुछैया  : पुं०=पुछवैया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुजंता  : वि० [सं० पूजा+हिं० अंता (प्रत्य०)] पूजा करनेवाला।
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पुजना  : अ० [हिं० पूजना] १. दूसरों द्वारा पूजित या सेवित होना। पूजा जाना। २. आदर, सम्मान आदि का भाजन होना। ३. पूजा, भेंट आदि का अधिकारी या पात्र बनना। जैसे—देहातों में नीम हकीम ही पुजते हैं।
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पुजवना  : स० [हिं० पूजना] १. पूरा करना। २. पूर्ण करना। जैसे—किसी की आस पुजवना। २. भरना। ३. देवी, देवता आदि की पूजा दूसरे से कराना। ४. सफल या सिद्ध करना। जैसे—कामना पुजवना।
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पुजवाना  : स० [हिं० ‘पूजना’ का प्रे०] १. किसी को पूजा करने में प्रवृत्त करना। आराधन या पूजन कराना। २. किसी से धन प्राप्त करने के लिए उससे किसी की पूजा कराना। जैसे—पुजारी का मंदिर में बैठकर पुजवाना। ३. अपनी या अपने किसी अंग की औरों से पूजा करवाना। जैसे—वे शिष्यों से पैर पुजवाते हैं।
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पुजाई  : स्त्री० [हिं० पूजना=पूजा करना] १. पूजने की क्रिया या भाव। जैसे—गंगा पुजाई। २. पुजाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पूजना=पूजा होना] १. पूरा करने या होने की क्रिया या भाव। २. पूरा करने या कराने का पारिश्रमिक।
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पुजाना  : स० [हिं० पूजना=(पूजन करना) का प्रे०] १. दूसरे से देवी-देवता आदि का पूजन या पूजा कराना। किसी को पूजा में प्रवृत्त या नियुक्त करना। जैसे—पुजारी से ठाकुर पुजाना। २. किसी से अपनी पूजा, प्रतिष्ठा या आदर-सम्मान कराना अथवा देवतुल्य बनकर किसी से अपनी पूजा कराना और उनसे भेंट आदि प्राप्त करना। जैसे—आज कल पंडित जी यजमानों से पुजाते फिरते हैं। ३. किसी तरह से डरा-धमका या दबाकर अथवा उसके मन में किसी प्रकार का पूज्यभाव उत्पन्न, करके उससे कुछ धन या भेंट प्राप्त करना। दबा और फुसलाकर वसूल करना। संयो० क्रि०—लेना। स० [हिं० पूजना=पूरा होना] १. पूरा करना। पूर्ति करना। २. भरना। जैसे—दवा से घाव पुजाना। ३. सफल या सिद्ध करना। जैसे—किसी के मनोरथ पुजाना। अ०=पुजना (पूरा होना) ?(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुजापा  : पुं० [सं० पूजा+पात्र] पूजन की सब सामग्री। जैसे—फल, फूल, धूप आदि। मुहा०—पुजापा फैलना=(क) देव-पूजा आदि की आडंबर पूर्ण व्यवस्था करना। (ख) बहुत-सी व्यर्थ की चीजें इधर-उधर फैलाना या बिखेरना। २. पूजा की सामग्री रखने का झोला। पुजाही।
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पुजारी  : पुं० [सं० पूजा+हिं० कारी (प्रत्य०)] १. किसी देवी-देवता की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा पूरने वाला व्यक्ति। विशेष रूप से ऐसा व्यक्ति जो किसी देवमूर्ति की पूजा, सेवा आदि करने के लिए नियुक्त किया गया हो। जैसे—उन्होंने अपने मंदिर में दो पुजारी भी रख दिये थे। २. किसी को देव-तुल्य मानकर उसकी भक्ति करनेवाला व्यक्ति। जैसे—धन या लक्ष्मी के पुजारी।
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पुजाही  : स्त्री० [हिं० पूजा+आही (प्रत्य०)] पूजन की सामग्री रखने की थैली या पात्र। पुजापा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुजेरी  : पुं०=पुजारी।
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पुजेला  : पुं०=पुजारी।
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पुजैया  : वि० [हिं० पूजना=पूजा करना] पूजा पूरनेवाला। पूजनेवाला। पूजक। स्त्री० विशेष उद्देश्य और समारोहपूर्वक की जानेवाली पूजा। पुजाई। जैसे—गंगा-पुजैया। वि० [हिं० पूजना=भरना] पूरा करनेवाला। भरनेवाला। स्त्री० पूरा करने या करने की क्रिया या भाव।
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पुजौरा  : पुं० [हिं० पूजा] १. अर्चना और पूजा। पूजन। २. पूजा के समय देवता के सामने रखी जानेवाली सामग्री।
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पुट  : पुं० [सं०√पुट्(=मिलना)+क] १. किसी चीज की मोड़कर लगाई हुई तह या बनाई हुई परत। २. पत्तों आदि को मोड़कर बनाया हुआ पात्र। दोना। ३. खाली या खोखली जगह या स्थान। ४. किसी प्रकार का बना या बनाया हुआ आधान या पात्र। जैसे—अंजलि-पुट, श्रवण-पुट आदि। उदा०—पियत नयन पुट रूप पियूखा।—तुलसी ५. आच्छादित करने या ढकनेवाला आवरण या चीज। जैसे—नेत्र पुट (पलक); रद पुट (होंठ)। ६. वैद्यक में, वह मुँह-बंद बरतन जिसके अन्दर रखकर कोई ओषधि या दवा पिलाई, फूँकी या सिद्ध की जाती है। ७. वैद्यक में, औषध सिद्ध करने या भस्म, रस आदि बनाने की उक्त प्रकार की कोई प्रक्रिया। जैसे—गज-पुट, भांड पुट, महापुट आदि। विशेष—इसमें प्रायः एक पात्र में दवा रखी जाती है और उसके मुँह पर दूसरा पात्र रखकर चारों ओर से वह मुँह इस प्रकार बंद कर दिया जाता है कि न तो उसके अंदर कोई चीज जा सके और न अन्दर की कोई चीज बाहर आ सके। इसी लिए इसे ‘संपुट’ भी कहते हैं। ८. घोड़े की टाप। ९. जायफल। १॰. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक मगण और एक यगण होता है। ११. अंतःपट। अंतरौटा। १२. कली के आकार का पौधे का वह अंग जिसमें से नये किल्ले फुटकर निकलते हैं। पुं० [सं० पुट=तह या परत] १. किसी चीज के ऊपर किसी दूसरी चीज की चढ़ाई, जमाई या लगाई हुई तह या परत। जैसे—इस पर गुलाबी रंग का एक पुट चढ़ा दो। २. किसी चीज में किसी दूसरी चीज का वह थोड़ा सा अंश जो हलकी मिलावट के लिए उसमें डाला जाता है। जैसे—(क) शीरा पकाते समय उसमें दूध का पुट भी देते चलते हैं। (ख) इस शरबत में संतरे का भी पुट है। मुहा०—पुट देना=कपड़े पर माँडी का छींटा देना। (जुलाहे)। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी बात की हलकी मिलावट या थोड़ा सा मेल। जैसे—उनके भाषण में परिहास का भी कुछ पुट रहता है। पुं० [अनु०] किसी प्रकार उत्पन्न होनेवाला पुट शब्द। जैसे—उँगलियाँ चटकाने या कलियों के चटकने के समय होनेवाला पुट शब्द।
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पुट-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] कोलकंद। वाराही कंद।
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पुटक  : पुं० [सं० पुट√कै (भासित होना)+क] कमल।
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पुटकिनी  : स्त्री० [सं० पुटक+इनि—ङीष्] १. पद्मिनी। कमलिनी। २. कमलों का समूह। पद्म-जाल। ३. ऐसा स्थान जहाँ कमल अधिकता से होते हों।
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पुटकी  : स्त्री० [सं० पुटक=दोना] छोटी गठरी। पोटली। स्त्री० [पुट से अनु०] १. कीड़े-मकोड़े की तरह होनेवाली आकस्मिक तथा तुच्छतापूर्ण मृत्यु। २. आकस्मिक दैवी विपत्ति। बहुत बड़ी आफत। गजब। मुहा०—(किसी पर) पुटकी पड़ना=(क) आकस्मिक दुर्घटना, रोग आदि के कारण चटपट मर जाना। (ख) बहुत बड़ी दैवी विपत्ति आना या पड़ना। (स्त्रियों की गाली या शाप) जैसे—पुटकी पड़े ऐसी मजदूरनी पर। स्त्री० [हिं० पुट=हलका मेल] वह बेसन या आटा जो तरकारी के रसे में उसे गाढ़ा करने के लिए मिलाया जाता है। आलन।
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पुट-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] गगरा। कलसा।
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पुट-पाक  : पुं० [तृ० त०] १. पत्ते के दोने या और किसी प्रकार के पुट में रखकर औषध पकाने अथवा भस्म या रस बनाने की क्रिया या विधान (वैद्यक)।
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पुट-भेद  : पुं० [सं० पुट√भिद् (फाड़ना)+अण्] १. जल का भँवर। २. नगर। पत्तन। ३. पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।
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पुटरिया  : स्त्री०=पोटली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुटरी  : स्त्री०=पोटली।
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पुटालु  : पुं० [सं० पुट-आलु, कर्म० स०] कोलकंद।
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पुटास  : पुं०=पोटास।
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पुटिका  : स्त्री० [सं० पुट+ठन्—इक, टाप्] १. पुड़िया। २. इलायची।
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पुटित  : भू० कृ० [सं० पुट+इतच्] १. जो किसी प्रकार के पुट में आया या लाया गया हो। २. जो सिमटकर दोने के आकार का हो गया हो। ३. संकुचित। सिकुड़ा हुआ। ४. पटा या पाटा हुआ। ५. मिला हुआ। ६. चारों ओर से बन्द किया हुआ। ७. (औषध) जो पुटी के रूप में किसी आवरण के अंदर हो। (कैप्स्यूल्ड)
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पुटिया  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली।
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पुटियाना  : स० [हिं० पुट+देना] फुसला या समझा-बुझाकर किसी को अनुकूल या राजी करना।
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पुटी  : स्त्री० [सं० पुट+ङीष्] १. छोटा दोना। छोटा कटोरा। २. खाली स्थान जिसमें कोई वस्तु रखी जा सके। जैसे—चंचुपुटी। ३. पुड़िया। ४. लंगोटी। ५. खाने के लिए गोली या टिकिया के रूप में, वह औषध जो किसी ऐसे आवरण में बंद हो जो औषध के साथ खाया जा सके। (कैप्स्यूल) वि० (औषध) जो पुट-पाक की विधि में प्रस्तुत हो। (समस्त पदों के अन्त में) जैसे—सहस्रपुटी अभ्रक।
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पुटीन  : पुं० [अं० पुटी] लकड़ी की संधियों या छेदों आदि में भरने का एक तरह का मसाला जो अलसी के तेल में खड़िया मिट्टी मिलाकर मिलाया जाता है।
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पुटोटज  : पुं० [सं० पुट-उटज, उपमि० स०] सफेद छाता।
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पुटोदक  : पुं० [सं० पुट-उदक, ब० स०] नारियल।
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पुटटी  : स्त्री० [देश०] मछलियाँ पकड़ने का बड़ा झाबा।
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पुट्ठा  : पुं० [सं० पृष्ठ] १. कमर के पास का चूतड़ का ऊपरी भाग। २. चौपाये, विशेषतः घोड़े का चूतड़। मुहा०—पुट्ठे पर हाथ न रखने देना=(क) चंचलता और तेजी के कारण सवार को पास न आने देना। (घोड़ों के लिए) (ख) अपना दोष छिपाने के लिए चतुर व्यक्ति का कौशलपूर्वक कोई ऐसी बात न होने देना जिससे वह पकड़ में आ सके। ३. उक्त अंग पर का चमड़ा जो अपेक्षया अधिक मजबूत होता है। (मोची) ४. घोड़ों की संख्या का सूचक शब्द। रास। जैसे—इस साल उसने चार पुट्ठे खरीदे हैं। ५. किसी पुस्तक की जिल्द या मोटाई का वह पिछला भाग, जिसके अन्दर उसकी सिलाई रहती है।
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पुठवार  : अव्य० [हिं० पुट्ठा] १. पीछे। २. बगल में।
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पुठवाल  : पुं० [हिं० पुट्ठा+वाला (प्रत्य०)] १. चोरों के दल का वह आदमी जो सेध के मुहाने पर पहरे के लिए खड़ा रहता है। २. पृष्ठ पोषक। ३. मददगार। सहायक।
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पुठ्ठ  : स्त्री० दे० ‘पीठ’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुठ्ठी  : स्त्री० [हिं० पुट्ठा] बैलगाड़ी के पहिए के घेरे का वह भाग जिसमें आरा और गज घुसे रहते हैं। किसी पहिये के ऐसे पूरे घेरे में ४ और किसी में ६ भाग होते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुड़  : पुं० [सं० पुट] तल। सतह। (डिं०) उदा०—मुयंग छनी प्रथकी पुड़ भेदे।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुड़ा  : पुं० [सं० पुट] [स्त्री० अल्पा० पुडिया, पुड़ी] १. बड़ी पुड़िया या बंडल। २. गौ का गर्भाशय। मुहा०—पुड़ा टूटना=गौ का गर्भवती होना। पुं० [हिं० पूरी=तबले पर का चमड़ा] ढोल पर मढ़ा जानेवाला चमड़ा। पुं० पुट्ठा।
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पुड़िया  : स्त्री० [सं० पुटिका] १. कागज के टुकड़े को कुछ विशिष्ट प्रकार से मोड़ तथा उसके किनारों पर विशिष्ट प्रकार से बल चढ़ाकर ऐसा रूप देना कि उसमें रखी जानेवाली चीज बंद हो जाय। जैसे— (क) सौंफ या धनिये की पुड़िया। (ख) दवा की पुड़िया। २. पुड़िया में लपेटी हुई दवा या ऐसी ही और कोई चीज। जैसे—एक पुड़िया आज और दो पुडिया कल खानी होगी। ३. उक्त के आधार पर ऐसी चीज जो देखने में छोटी सी हो परन्तु प्रभाव की दृष्टि से उग्र या प्रबल हो। जैसे—यह लड़का जहर की पुड़िया है। ४. मुसलमानों में अबीर, गुलाल आदि की वह पुड़िया जो किसी कब्र या मजार पर भेंट के रूप में चढ़ाई जाती है। मुहा०—पुडि़या उड़ाना=आकांक्षा या मन्नत पूरी होने पर कब्र या मजार पर अबीर, गुलाल आदि उड़ाना या चढ़ाना। ५. किसी के पास होनेवाली सारी पूँजी या सम्पत्ति। जैसे—अब तो उनके पास पचास हजार की पुड़िया हो गई है।
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पुड़ी  : स्त्री० १.=पुड़िया। २.=पूरी। ३.=पुटी।
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पुढ़वी  : स्त्री०=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुढ़ाई  : स्त्री०=प्रौढता।
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पुणग  : अव्य० [सं० पुनः] भी । (राज०) उदा०—प्राण दिये पाणी पुणग, जावा न दिये जेह।—बाँकीदास। पुं०=पन्नग।
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पुणच  : स्त्री० [सं० प्रत्यंचा] धनुष की डोरी। प्रत्यंचा। उदा०—संग्रहि धनुख पुणच सर संधि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुणिंद  : पुं०=फणीन्द्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुणि  : अव्य० [सं० पुनर] पुनः। फिर। उदा०—परमेसर प्रणवि सरसति पुणि।—प्रिथीराज।
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पुण्य  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+यत्, णुक्-आगम, ह्रस्व] १. पवित्र। शुद्ध। जैसे—पुण्य-स्थान। २. मंगलकारक। शुभ। जैसे—पुण्य दिन। ३. धर्म विहित और उत्तम फल देनेवाला। जैसे—पुण्य-काम। ४. प्रिय और सुन्दर या सुखद। जैसे—पुण्य-लक्ष्मी। पुं० वह धर्म विहित कर्म जिसका फल शुभ हो। सुकृत। जैसे—उन्होंने अपनी सारी संपत्ति-पुण्य खाते में दे दी थी। २. अच्छा या भला कार्य। जैसे—दीनों को दान देना पुण्य का कार्य है। ३. कोई धार्मिक कृत्य, विशेषतः वह कृत्य जो स्त्रियाँ अपने पति और पुत्र की मंगल-कामना करती हैं। ४. धार्मिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट अवसरों पर कुछ विशिष्ट कर्म करने से प्राप्त होनेवाला शुभ फल। जैसे—कार्तिक स्नान का पुण्य, कथा सुनने का पुण्य आदि। ५. अच्छे और शुभ कर्मों का संचित रूप जिसका आगे चलकर उत्तम फल मिलता हो। जैसे—ऐसा सुशील लड़का बड़े पुण्य से मिलता है। ६. परोपकार का काम।
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पुण्यक  : पुं० [सं० पुण्य√कै (भासित होना)+क] १. व्रत, अनुष्ठान आदि धार्मिक कृत्य जिनके संपादन से पुण्य होता है। २. वे व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं। ३. विष्णु।
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पुण्य-कर्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०] पुण्य कर्म करनेवाला।
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पुण्य-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा कर्म जिसे करने से पुण्य होता हो। भला या शुभ कर्म।
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पुण्य-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] अच्छे और शुभ कर्म करनेवाला।
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पुण्य-काल  : पुं० [मध्य० स०] धार्मिक दृष्टि से वह शुभ समय जिसमें दान आदि से पुण्य का विशेष फल मिलता है। जैसे—पूर्णिमा, संक्रान्ति आदि।
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पुण्य-कीर्तन  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु। २. [ष० त०] पुराणों या धार्मिक ग्रन्थों का पाठ या वाचन।
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पुण्य-कीर्ति  : वि० [ब० स०] जिसकी कीर्ति के वर्णन से पुण्य हो। स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी कीर्ति जो पुण्यात्मक हो।
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पुण्य-कृत्य  : पुं० [कर्म० स०]=पुण्य कर्म।
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पुण्य-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] वह स्थान, विशेषतः कोई तीर्थ स्थान जहाँ जाने और धार्मिक कृत्य करने से विशेष पुण्य होता हो।
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पुण्य-गंध  : पुं० [ब० स०] चंपा।
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पुण्य-गंधा  : पुं० [ब० स०, टाप्] सोनजुही का फूल।
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पुण्य-जन  : पुं० [कर्म० स०] १. धर्मात्मा। सज्जन। २. राक्षस। ३. यक्ष।
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पुण्यजनेश्वर  : पुं० [पुण्यजन-ईश्वर, ष० त०] कुबेर।
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पुण्य-जित्  : वि० [तृ० त०] पुण्य कर्मों के द्वारा जीता या प्राप्त किया जानेवाला।
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पुण्य-तिथि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. ऐसा शुभ दिन जिसमें धर्म, लोकोपकार आदि की दृष्टि से अच्छे कर्म (जैसे—दान, स्नान आदि) करने का विधान हो। २. कोई शुभ कार्य करने के लिए उपयुक्त दिन। ३. किसी महापुरुष के निधन की वार्षिक तिथि। जैसे—महात्मा गाँधी या लोकमान्य तिलक की पुण्य-तिथि।
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पुण्य-तृण  : पुं० [कर्म० स०] सफेद कुश।
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पुण्य-दर्शन  : वि० [ब० स०] १. जिसके दर्शन मात्र से पुण्य होता हो। २. ऐसा जीव जिसके दर्शन का फल शुभ या अच्छा माना जाता या अच्छा होता हो। पुं० नीलकंठ नामक पक्षी जिसका लोग विजयादशमी के दिन दर्शन करना पुण्यात्मक और शुभ समझते हैं।
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पुण्य-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] धर्मात्मा और पुण्यात्मा मनुष्य।
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पुण्य-प्रताप  : पुं० [ष० त०] किये हुए पुण्य से प्राप्त हुई विशेष कीर्ति या शक्ति। जैसे—बड़ो के पुण्य-प्रताप से सब काम ठीक हो जाते हैं।
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पुण्य-फल  : पुं० [ष० त०] १. धार्मिक कर्मों का शुभ फल। २. [ब० स०] लक्ष्मी के निवास करने का उद्यान।
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पुण्यभाक् (ज्)  : वि० [सं० पुण्य√भज् (सेवा)+ण्वि] धर्मात्मा। पुण्यात्मा।
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पुण्य-भूमि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. तीर्थ-स्थान। २. आर्यावर्त देश। ३. पुत्रवती स्त्री।
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पुण्य-योग  : पुं० [ष० त०] पूर्वजन्म में किये हुए शुभ कर्मों का मिलनेवाला फल।
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पुण्य-लोक  : पुं० [मध्य० स०] स्वर्ग जहाँ पुण्य अर्थात् शुभ कर्म करनेवाले लोग रहते हैं या मरने के बाद जाते हैं।
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पुण्यवान् (यत्)  : वि० [सं० पुण्य+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पुण्यवती] पुण्य अर्थात् शुभ कर्म करनेवाला
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पुण्य-शील  : वि० [ब० स०]=पुण्यात्मा।
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पुण्य-श्लोक  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पुण्यश्लोका] जिसका चरित्र या यश बहुत शुभ और सुन्दर हो। शुभ-चरित्र। पुं० १. राजा नल। २. युधिष्ठिर। ३. विष्णु।
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पुण्य-स्थान  : पुं० [मध्य० स०] १. अच्छे कर्म करने से मिलनेवाला स्थान या लोक। २. तीर्थ-स्थान जहाँ पुण्य-कर्म करने का विधान है। ३. जन्मकुंडली में लग्न से नवाँ स्थान जिसमें कुछ विशिष्ट ग्रहों की स्थिति से यह जाना जाता है कि अमुक व्यक्ति पुण्यवान होगा या नहीं।
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पुण्या  : स्त्री० [सं० पुण्य+टाप्] १. तुलसी। २. पुनपुना नदी।
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पुण्याई  : स्त्री० [हिं० पुण्य+आई (प्रत्य०)] पुण्य का परिणाम, प्रभाव या फल।
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पुण्यात्मा (त्मन्)  : वि० [पुण्य-आत्मन्, ब० स०] प्रायः पुण्यकर्म करनेवाला। पुण्यशील।
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पुण्यार्थ  : वि० [पुण्य-अर्थ, ब० स०] १. (कार्य) जो पुण्य की प्राप्ति के विचार से किया गया हो। २. (धन) जो लोकोपकारी कार्यों के लिए दान रूप में दिया गया हो। (चैरिटेबुल) अव्य० पुण्य अर्थात् परोपकार या शुभ फल की प्राप्ति के विचार से। पुं० १. लोकोपकार की भावना। २. लोकोपकार की भावना से दिया जानेवाला धन।
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पुण्यार्थ-निधि  : स्त्री० [कर्म० स०] वह निधि या धन-संपत्ति जो पक्की-लिखा पढ़ी करके किसी धार्मिक या सामाजिक लोकोपकारी शुभ कार्य के लिए दान की गई हो। (चैरिटेबुल एन्डाउमेन्ट)
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पुण्याह  : पुं० [पुण्य-अहस्, ब० स०] मंगल कारक या शुभ दिन।
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पुण्याह-वाचन  : पुं० [ष० त०] १. मांगलिक कार्य के अनुष्ठान के पहले मंगल की कामना से तीन बार ‘पुण्याह’ शब्द कहना। २. कर्म-कांड में उक्त से सम्बद्ध एक प्रकार का कृत्य जो विवाह आदि शुभ कार्यों से पहले किया जाता है।
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पुण्योदय  : पुं० [पुण्य-उदय, ष० त०] शुभ कर्मों के फलस्वरूप होनेवाला सौ-भाग्य का उदय।
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पुत्  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति)+डुति, पृषो० सिद्धि] एक नरक का नाम जिससे पुत्र होने पर ही उद्धार होता हो या हो सकता है।
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पुतना  : अ० [हिं० पोतना का अ०] पुताई होना। जैसे—दीवार पुतना। स्त्री०=पूतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुतरा  : पुं०=पुतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुतरिका  : स्त्री०=पुत्रिका।
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पुतरिया  : स्त्री०=पुतली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुतरी  : स्त्री०=पुतली।
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पुतला  : पुं० [सं० पुत्रक] [स्त्री० अल्पा० पुतली] किसी व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने के लिए उसकी अनुपस्थिति में बनाई जानेवाली धातु, कागज, कपड़े आदि की आकृति। विशेष—जब कोई आदमी विदेश में या किसी ऐसी स्थिति में मर जाता है कि उसका शव प्राप्त न हो सकता हो तब हिन्दू लोग उसका पुतला बनाकर दाह कर्म करते हैं। मुहा०—किसी का पुतला बाँधना=किसी की निंदा करते फिरना। किसी की अपकीर्ति फैलाना। विशेष—मध्य-युगीन भारत में, भाट आदि जिससे असंतुष्ट होते थे, उसकी उक्त प्रकार की आकृति बनाकर गली-गली उसका उपहास और निन्दा करते फिरते थे। इसी से यह मुहावरा बना है। मुहा०—पुतला जलाना=(क) मृत व्यक्ति का पुतला बनाकर उसका दाह-कर्म करना। (ख) किसी को अपमानित तिरस्कृत करने अथवा उसकी मृत्यु की कामना करने के लिए उसका पुतला बनाकर जलाना।
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पुतली  : स्त्री० [हिं० पुतला] १. लकड़ी, मट्टी, धातु, कपड़े आदि की बनी हुई स्त्री की आकृति विशेषतः वह जो विनोद या क्रीड़ा (खेल) के लिए हो। गुडिया। २. उक्त प्रकार की पुरुष या स्त्री की आकृति जिसका अभिनय या नृत्य मनोविनोद के लिए होता है। इसके अंगों मे डोरे, तार या बाल बंधे रहते हैं, जिनके संचालन से इसके अंग तरह तरह से हिलते-डुलते हैं। पद—पुतली का नाच=उक्त प्रकार की आकृतियों का अभिनय जो एक प्रकार की कला है। ४. बहुत ही सुन्दर, सजी हुई और सुकुमार स्त्री। ५. आँख का वह काला भाग जिसके बीच में वह छेद होता है जिससे होकर प्रकाश की किरणें अन्दर जाती हैं और मस्तिष्क में पदार्थों का प्रतिबिंब उपस्थित करती हैं। नेत्र के ज्योतिष्केन्द्र के चारों ओर का काला मंडल। मुहा०—पुतली फिर जाना=(क) आँखें पथरा जाना या नेत्र स्तब्ध होना जो किसी के मर जाने या मरणासन्न होने का लक्षण होता है। (ख) अभिमान, विरक्ति आदि के कारण पहले का सा स्नेहपूर्ण संबंध न रह जाना। रुख बदल जाना। ५. उक्त के आधार पर ऐसी चीज जिसे सुरक्षित रुप में रखा जाय। जैसे-बना रखूँ पुतली दृग की निर्धन का यही प्यार सखी।—दिनकर। ६. घोड़े की टाप का उभरा हुआ मांस पिंड।
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पुतली-घर  : पुं० [हिं०] १. वह कारखाना जहाँ कलों या यंत्रों से सूत बनाया और कपड़ा बुना जाता है। विशेष—पहले प्रायः ऐसे कारखानों के मुख्य-द्वार पर पुतली की आकृति बनाकर खड़ी की जाती थी; इसी से इसका यह नाम पड़ा था। २. आजकल कोई बहुत बड़ा कारखाना जहाँ कलों या यंत्रों से कोई चीज बनती हो।
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पुताई  : स्त्री० [हिं० पोतना+आई (प्रत्य०)] १. किसी चीज पर कोई दूसरी चीज का घोल पोतने की क्रिया या भाव। २. उक्त का पारिश्रमिक।
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पुतारा  : पुं० [हिं० पुतना] १. जमीन, चूल्हा आदि गीले कपड़े से पोंछकर साफ करने की क्रिया या भाव। २. पोतने का कपड़ा। पोतनी। ३. दे० ‘पुचारा’।
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पुत्तल  : पुं० [सं० पुत्त (गति)+घञ्√ला (लेना)+क] [स्त्री० अल्पा० पुत्तली] पुतला।
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पुत्तलक  : पुं० [सं० पुत्तल+कन्] [स्त्री० पुत्तलिका] पुतला।
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पुत्तलिका  : स्त्री० [सं० पुत्तल+ङीष्+कन्+टाप्, इत्व] १. पुतली। २. गुड़िया।
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पुत्तिका  : स्त्री०[सं० पुत्त√तन् (विस्तार)+ड+क+टाप्, इत्व] १. एक प्रकार की मधुमक्खी। २. दीमक।
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पुत्र  : पुं० [सं० पुत्√त्रै (रक्षा करना)+क] [स्त्री० पुत्री] १. विवाहिता स्त्री से उत्पन्न नर सन्तान। बेटा। २. लड़का।
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पुत्र-कंदा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] लक्ष्मणकंद जिसके सेवन से गर्भाशय के दोष दूर होते हैं।
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पुत्रक  : पुं० [सं० पुत्र+कन्] १. पुत्र। बेटा। २. पतंग। ३. दौने का पौधा। ४. एक प्रकार का चूहा जिसके काटने से बहुत पीड़ा और सूजन होती है।
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पुत्रकामेष्टि  : पुं० [सं० पुत्र-काम, ष० त०, पुत्र√काम-इष्टि, मध्य० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो पुत्र की कामना से किया जाता है।
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पुत्र-कृतक  : पुं० [ब० स०, कप्] बनाया हुआ पुत्र। दत्तक पुत्र।
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पुत्रघ्नी  : स्त्री० [सं० पुत्र√हन् (मारना)+टक्+ङीप्] एक प्रकार का योनि रोग जिसके कारण गर्भ नहीं ठहरता।
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पुत्र-जात  : वि० [ब० स०] जिसे पुत्र उत्पन्न हुआ हो। पुत्रवान्।
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पुत्रजीव  : पुं० [सं० पुत्र√जीव् (जीना)+अण्] इंगुदी से मिलता-जुलता एक प्रकार का बड़ा और सुन्दर पेड़ जिसके बीज सूखने पर रूद्राक्ष की तरह हो जाते हैं साधु लोग उसकी माला पहनते हैं।
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पुत्रजीवक  : पुं० [ष० त०] पुत्रजीव।
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पुत्रद  : वि० [सं० पुत्र√दा (देना)+क] [स्त्री० पुत्रदा] जिसके कारण या द्वारा पुत्र प्राप्त हो। पुत्र देनेवाला।
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पुत्रदा  : स्त्री० [सं० पुत्र+टाप्] १. बंध्या कर्कोटकी। बांझ ककोड़ा या खेखसा। २. लक्ष्मणकंद। ३. श्वेत कंटकारि। सफेद भटकटैया। ४. जीवंती।
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पुत्र-दात्री  : स्त्री० [ष० त०] १. एक प्रकार की लता। २. श्वेत कंटकारि। ३. भ्रमरी।
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पुत्र-धर्म  : पुं० [ष० त०] पुत्र का पिता के प्रति अपेक्षित कर्तव्य या धर्म।
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पुत्र-पौत्रीण  : वि० [सं० पुत्रपौत्र, द्व० स०,+ख—ईन] पुत्र से पौत्र और इसी प्रकार आगे भी क्रम क्रम से प्राप्त होनेवाला। आनुवांशिक।
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पुत्र-प्रतिनिधि  : पुं० [ष० त०] गोद लिया हुआ लड़का। दत्तक पुत्र।
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पुत्रपदा  : स्त्री० [सं० पुत्र+प्र√दा (देना)+क+टाप्] १. सफेद कंटकारि। २. क्षुविका।
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पुत्र-प्रसू  : वि० [ष० त०] पुत्र उत्पन्न करनेवाली (स्त्री)।
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पुत्र-प्रिय  : पुं० [ब० स] एक प्रकार का पक्षी। वि० पुत्र का प्यार।
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पुत्र-भद्रा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] बड़ी जीवंती।
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पुत्र-भांड  : पुं० [ष० त०] दत्तक पुत्र।
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पुत्र-भाव  : पुं० [ष० त०] १. पुत्र का भाव। पुत्रत्व। २. फलित ज्योतिष में लग्न में लग्न से पंचम स्थान का विचार जिसके द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि किसके कितने पुत्र या कन्याएँ होंगी।
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पुत्र-लाभ  : पुं० [ष० त०] घर में पुत्र उत्पन्न होना पुत्र की प्राप्ति।
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पुत्रवती  : स्त्री० [सं० पुत्र+मतुप्, म—व+ङीप्] स्त्री जिसके आगे पुत्र हो। पुत्रवाली। पूती।
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पुत्र-वधू  : स्त्री० [ष० त०] पुत्र की पत्नी। पतोहू।
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पुत्रवल  : वि० [सं० पुत्र+वलच्] पुत्रवाला।
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पुत्र-श्रृंगी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] अजश्रृंगी।
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पुत्र-श्रेणी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मूसाकानी।
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पुत्र-सख  : पुं० [ष० त०,+टाच्] बच्चों का प्रेमी
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पुत्र-सप्तमी  : स्त्री० [मध्य० स०] आश्विन शुक्ला सप्तमी।
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पुत्रसहम  : पुं० [सं० पुत्र+अ० सहम] ५॰ प्रकार के सहमों में से एक जिससे पुत्र लाभ का विचार किया जाता है।
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पुत्रसू  : वि० [सं० पुत्र√सू (प्रसव करना)+क्विप्] पुत्र उत्पन्न करने वाली (स्त्री)।
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पुत्र-हीन  : वि० [तृ० त०] [स्त्री० पुत्रहीना] जिसके घर पुत्र न हो या न हुआ हो।
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पुत्राचार्य  : वि० [पुत्र-आचार्य, ब० स०] अपने पुत्रों से विद्या पढ़नेवाला।
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पुत्रादिनी  : वि०, स्त्री० [सं० पुत्र√अद्(खाना)+णिनि+ङीप्] पुत्रों को स्वयं खा जानेवाली जैसे—व्याघ्री, सर्पिणी आदि।
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पुत्रादी (दिन्)  : वि० [सं० पुत्र√अद्+णिनि] [स्त्री० पुत्रादिनी] पुत्रभक्षक। बेटे को खानेवाला। (गाली)
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पुत्रान्नाद  : पुं० [पुत्र-अन्न, ष० त०√अद् (खाना)+अण्] १. पुत्र की कमाई खानेवाला व्यक्ति। २. यतियों का एक भेद। कुटीचक।
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पुत्रार्थी (र्थिन्)  : वि० [पुत्र-अर्थिन, ष० त०] जिसे पुत्र की कामना हो।
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पुत्रिक  : वि० [सं० पुत्र+ठन्—इक] पुत्रवाला।
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पुत्रिका  : स्त्री० [सं० पुत्र+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. लड़की। बेटी। २. पुत्र न होने की दशा में वह पुत्री या लड़की जो पुत्र के समान मानकर ही रखी गई हो। ऐसी कन्या का पुत्र अपने नाना को पिंडदान देने और उसकी संपत्ति पाने का अधिकारी होता है। ३. गुड़िया। पुतली। ४. आँख की पुतली।
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पुत्रिका-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. वह कन्या जो पुत्र के समान मानी गई हो और जो आगे चलकर पिता की संपत्ति की अधिकारिणी होने को हो। २. पुत्रिका का पुत्र।
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पुत्रिणी  : वि०, स्त्री० [सं० पुत्र+इनि+ङीष्] पुत्रवाली। पुत्रवती।
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पुत्रिय  : वि० [सं० पुत्रीय] पुत्र-संबंधी।
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पुत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० पुत्र+इनि] [स्त्री० पुत्रिणी] जिसे पुत्र हो। पुत्रवाला।
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पुत्री  : स्त्री० [सं० पुत्र+ङीष्] बेटी। लड़की।
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पुत्रीय  : वि० [सं० पुत्र+छ—ईय] पुत्र-संबंधी। पुत्र का।
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पुत्रीया  : स्त्री० [सं० पुत्र+क्यच्, ईत्व,+अ+टाप्] पुत्रलाभ की इच्छा।
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पुत्रेप्सु  : वि० [पुत्र+ईप्सु, ष० त०] पुत्र प्राप्त करने का इच्छुक।
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पुत्रेष्टि, पुत्रेष्टिका  : पुं० [सं० पुत्र-इष्टि, मध्य० स०, पुत्रेष्टि+कन्+टाप्] पुत्र की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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पुत्रय  : वि० [सं० पुत्र+यत्] पुत्र-संबंधी।
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पुदीना  : पुं० [फा० पोदीनः] एक छोटा पौधा जो या तो जमीन पर ही फैलता है अथवा अधिक से अधिक एक बित्ता ऊपर जाता है। इसकी पत्तियों में बहुत अच्छी गंध होती है इससे लोग इसे चटनी आदि में पीसकर मिलाते हैं। यह तीन प्रकार का होता है—साधारण, पहाड़ी और जलपुदीना।
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पुद्गल  : पुं० [सं० पुत-गल, कर्म० स०] १. जैन शास्त्रानुसार ६ द्रव्यों में से एक। स्पर्श, रस और वर्णवाला अर्थात् रुपवान् पदार्थ। २. देह। शरीर। (बौद्ध)। ३. परमाणु ४. आत्मा। ५. गंधतृण। ६. शिव। वि० सुन्दर।
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पुद्गलास्तिकाय  : पुं० [पुद्गल-अस्तिकाय, ष० त०] जैनों के अनुसार पाँच प्रकार के द्रव्यों में से एक।
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पुनः  : अव्य० [सं०√पन् (स्तुति)+अर्, उत्व] १. फिर। दोबारा। दूसरी बार। २. अनंतर। पीछे। उपरांत। ३. इसके अतिरिक्त। जैसे—तुम्हें पुनः ऐसा सहायक नहीं मिलेगा। पद—पुनःपुनः—बार बार। कई बार।
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पुनःकरण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. फिर से कोई काम करना। २. दोहराना।
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पुनःकल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० पुनः कल्पित] किसी पदार्थ विशेषतः पुराने यंत्र आदि को जाँचकर और उसके कल-पुर्जे अलग-अलग करके फिर से उसकी मरम्मत करते हुए उसे ठीक करना। (ओवरहालिंग)
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पुनःखुरी (खुरिन्)  : पुं० [सं० पुनः खुर, मध्य० स०+इनि] घोड़ों के पैर का एक रोग जिसमें उनकी टाप फैल जाती है वे चलने में लड़खड़ाते हैं।
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पुनःपाक  : पुं० [सं० मध्य०] पकाई हुई चीज दोबारा पकाने की क्रिया या भाव।
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पुनःसंधान  : पुं० [सं० मध्य०] अग्निहोत्र की बुझी हुई अग्नि फिर से जलाना।
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पुनःसंस्कार  : पुं० [सं० मध्य०] कोई ऐसा संस्कार फिर से करना जिसका पुराना महत्व या मान नष्ट हो गया हो। फिर से किया जानेवाला संस्कार।
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पुनःस्तोम  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का योग।
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पुन  : पुं०=पुण्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० [सं० पुनः] १. फिर। २. भी। ३. दे० ‘पुनः’।
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पुनना  : स० [हिं० पूरना] गालियाँ देना। दुर्वचन कहना। उदा०—माँ बहने पुनी जा रही हों, और ये खुश हैं, बाछे खिली जा रही हैं।— मिरजा रुसवा। स०=छानना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० [सं० पूर्ण] पूरा होना। पूजना। उदा०—पाप करंता मरि गइआ, अउध पुनि खिन मांहि।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० पूरा करना।
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पुनपुना  : स्त्री० [सं० पुनःपुना] बिहार राज्य की एक छोटी नदी जो गया से होकर बहती है और पवित्र मानी जाती है। इसके किनारे लोग पिंडदान करते हैं।
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पुनरपगम  : पुं० [सं० पुनर-अपगम, मध्य० स०] पुनः जाना।
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पुनरपि  : अव्य० [सं० पुनर-अपि, द्व० स०] १. फिर भी। २. फिर से। दोबारा।
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पुनरबसु  : पुं०=पुनर्वसु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनरभिधान  : पुं० [सं० पुनर्-अभिधान, मध्य० स०] कोई बात फिर से या पुनः कहना।
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पुनरवलोकन  : पुं० [सं० पुनर-अवलोकन, मध्य० स०] फिर से या दोबारा देखना।
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पुनरस्त्रीकरण  : पुं० [सं० पुनर-अस्त्रीकरण, मध्य० स०] [वि० पुनरस्त्रीकृत] जिस राष्ट्र, देश या सेना के अस्त्र, शस्त्र आदि पहले छीन लिये गये हों, उसे फिर से अस्त्र,शस्त्रों आदि से युक्त और सज्जित करना। (री-आर्मामेन्ट)।
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पुनरागत  : वि० [सं० पुनर्-आगत, मध्य० स०] १. पुनः आया हुआ। २. लौटा हुआ।
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पुनरगम  : पुं० [सं० पुनर-आगम, मध्य० स०] फिर से या लौटकर आना। पुनरागमन।
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पुनरागमन  : पुं० [सं० पुनर्-आगमन, मध्य० स०] १. एक बार आ चुकने के बाद दोबारा या फिर से आना। २. मृत्यु होने पर फिर शरीर धारण करके इस संसार में आना। पुनर्जन्म।
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पुनरागामी (मिन्)  : वि० [सं० पुनर-आगामिन्, मध्य० स०] फिर से आनेवाला।
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पुनरादि  : वि० [सं० पुनर-आदि, ब० स०] फिर से आरम्भ या शुरु करनेवाला।
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पुनराधान  : पुं० [सं० पुनर-आधान, मध्य० स०] श्रौत या स्मार्त अग्नि का एक बार छूट या बुझ जाने पर फिर से किया जानेवाला ग्रहण। अग्निस्थापन।
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पुनराधेय  : वि० [सं० पुनर-आधेय, मध्य० स०] फिर से स्थापित की जानेवाली अग्नि। पुं० दे० ‘पुनराधान’।
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पुनरानयन  : पुं० [सं० पुनर्-आनयन, मध्य० स०] लौटा लाना।
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पुनरारंभ  : पुं० [सं० पुनर्-आरंभ, मध्य० स०] छोडा या स्थगित किया हुआ काम पुनः या फिर से आरंभ करना। (रिज़म्पशन)।
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पुनरावर्त  : पुं० [सं० पुनर्-आवर्त, मध्य० स०] १. लौटना। २. बार-बार जन्म लेना।
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पुनरावर्तक  : वि० [सं० पुनर-आवर्तक, मध्य० स०] पुनः पुनः आनेवाला ज्वर।
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पुनरावर्तन  : पुं० [सं० पुनर-आवर्तन, मध्य० स०] १. फिर से या दोबारा होनेवाला आवर्तन। फिर से लौटकर आना। २. किसी रोग के बहुत कुछ अच्छे हो जाने पर भी फिर से होनेवाला उसका प्रकोप। (रिलैप्स)
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पुनरावर्ती (तिन्)  : वि० [सं० पुनर्-आवर्तिन्, मध्य० स०] बार-बार जन्म लेनेवाला।
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पुनरावर्ती ज्वर  : पुं० [सं०] किलनी, जूँ आदि के काटने से होनेवाला एक प्रकार का विकट ज्वर जो पहले तो एक सप्ताह तक निरन्तर रहता है, और तब उतर जाने के बाद भी फिर आने लगता है। (रिलैप्सिंग फीवर)
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पुनरावलोकन  : पुं० [सं० पुनरवलोकन] [वि० पुनरावलोकित] १. देखी हुई चीज का फिर से देखना। २. किये हुए काम निश्चय आदि को सुधार के विचार से फिर से देखना या दोहराना। (रिवीज़न)
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पुनरावृत्त  : वि० [सं० पुनर्-आवृत्त, मध्य० स०] १. फिर से घूम या लौटकर आया हुआ। २. फिर से किया या दोहराया हुआ।
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पुनरावृत्ति  : स्त्री० [सं० पुनर-आवृत्ति, मध्य० स०] १. फिर से घूमना या घूमकर आना। २. किये हुए काम या बात की फिर से होनेवाली आवृत्ति। किसी काम या बात का दोहराया जाना। जैसे—पढ़े हुए पाठ की पुनरावृत्ति।
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पुनरीक्षण  : पुं० [सं० पुनर-ईक्षण, मध्य० स०] [भू० कृ० पुनरीक्षित] १. किये हुए काम को जाँचने के लिए फिर से देखना। (रिव्यू) २. न्यायालय का एक बार सुने हुए मुकदमे को कुछ विशेष अवस्थाओं में फिर से सुनना। (रिवीजन)।
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पुनरीक्षित्  : भू० कृ० [सं० पुनर-ईक्षित्, मध्य० स०] जिसका पुनरीक्षण किया गया हो या किया जा चुका हो। (रिवाइज्ड)
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पुनरुक्त  : वि० [सं० पुनर-उक्त, मध्य० स०] एक बार कहने के उपरान्त दोबारा या फिर से कहा हुआ। पुं० साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस दशा में माना जाता है जब कोई बात एक बार कही जाने पर फिर से दोबारा या कई बार व्यर्थ ही कही जाती है।
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पुनरुक्तवद-भास  : पुं० [सं० पुनरुक्त+वति, पुनरुक्तवत-आ+ भास, ब० स०] एक प्रकार का शब्दालंकार जिसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जो सुनने में एकार्थक और फलतः पुनरुक्त से जान पड़ें पर वास्तव में प्रसंगतः भिन्न-भिन्न अर्थ रखते हैं।
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पुनरुक्ति  : स्त्री० [सं० पुनर-उक्ति, मध्य० स०] १. एक बार कही हुई बात शब्द आदि को फिर कहना। २. इस प्रकार दोबारा कही हुई बात। (रिपीटीशन)
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पुनरुज्जीवन  : पुं० [सं० पुनर-उज्जीवन, मध्य० स०] [वि० पुनरुज्जीवित] फिर से जीवित होना। (रिवाइल)
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पुनरुज्जीवित  : वि० [सं० पुनर-उज्जीवन, मध्य० स०] जिसे फिर से जीवित किया गया हो अथवा जिसने फिर से जीवन प्राप्त किया हो। (रिवाइव्ड)
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पुनरुत्थान  : पुं० [सं० पुनर-उत्थान, मध्य० स०] [भू० कृ० पुनरुत्थित] १. गिरे हुए का फिर से उठना। २. जिसका एक बार पतन या ह्रास हो चुका हो, उसका फिर से उठकर उन्नति करना। (रिनेसान्स)
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पुनरुत्थित  : भू० कृ० [सं० पुनर्-उत्थित, मध्य० स०] जिसका पुनरुत्थान किया गया हो। अथवा हुआ हो।
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पुनरुद्धार  : पुं० [सं० पुनर-उद्धार, मध्य० स०] टूटी-फूटी या नष्ट हुई चीज को फिर से ठीक करके उसे यथास्थान या उसका उद्धार करना। (रिस्टोरेशन, रिनोवेशन)
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पुनरुपगम  : पुं० [सं० पुनर-उपगम, मध्य० स०] वापस आना। लौटना।
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पुनरुपोढा  : वि० स्त्री० [सं० पुनर-उपोढ़, मध्य० स०] जो दोबारा या फिर से किसी के साथ ब्याही गई हों।
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पुनरुढ़  : स्त्री० [सं० पुनर-रुढ़ा, मध्य० स०] जो फिर से ब्याही गई हो।
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पुनर्गमन  : पुं० [सं० मध्य० स०] दोबारा जाना।
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पुनर्गेय  : वि० [सं० मध्य० स०] जो फिर से गाया जाय। पुं० पुनरुक्ति।
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पुनर्ग्रहण  : पुं० [सं० मध्य० स०] कोई कार्य, पद भार आदि एक बार छोड़ चुकने के बाद फिर से ग्रहण करना। (रिजम्पशन)
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पुनर्जन्म (न्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] जीवात्मा का एक शरीर त्यागने के उपरांत दूसरा शरीर धारण करते हुए जन्म लेना। पुनः होनेवाला जन्म। (ट्रान्समाइग्रेशन)
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पुनर्जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] ब्राह्मण।
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पुनर्जागरण  : पुं० [सं०] १. सोये हुए का फिर से जागना। २. युरोप के इतिहास में १४ वीं, १५ वीं और १६ वीं शताब्दियों की वह स्थिति जिसमें कला, विद्या और साहित्य का नये सिरे से अनुसंधान और प्रचार होने लगा था, और जिसके कारण मध्य युग का अंत तथा आधुनिक युग का आरंभ हुआ था। (रिनेसन्स)
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पुनर्जात  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] जिसने पुनः जन्म लिया हो।
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पुनर्जीवन  : पुं० [सं० मध्य० स०] फिर से प्राप्त होनेवाला जीवन। पुनर्जन्म। पुं०=पुनरुज्जीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनर्डीन  : पुं० [सं० मध्य० स०] पक्षियों के उड़ने के एक प्रकार।
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पुनर्णव  : पुं० [सं० मध्य० स०] नख। नाखून।
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पुनर्नव  : वि० [सं० मध्य० स०] [भाव० पुनर्नवता, स्त्री० पुनर्नवा] जो पुराना हो जाने पर फिर से नया हो गया हो या नया कर दिया गया हो।
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पुनर्नवा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] गदह-पूरना नाम की वनस्पति जिसके सेवन से आँखों की ज्योति का फिर से बहुत बढ़ जाना माना जाता है।
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पुननिर्माण  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी टूटी-फूटी वस्तु का फिर से होनेवाला निर्माण। (री-कन्स्ट्रक्शन)
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पुनर्परीक्षण  : पुं० [सं० पुनः परीक्षण] [भू० कृ० पुनर्परीरक्षित] फिर से या पुनः परीक्षण करना. दूसरी बार या दोबारा जाँचना। (रीएक्जामिनेशन)।
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पुनर्भव  : पुं० [सं० पुनर्√भू (होना)+अप्] १. पुनः होनेवाला जन्म। २. नख। नाखून। ३. रक्त पुनर्भवा। वि० जो फिर हुआ हो। फिर से उत्पन्न।
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पुनर्भाव  : पुं० [सं० मध्य० स०] पुनर्जन्म।
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पुनर्भू  : स्त्री० [सं० पुनर्√भू+क्विप्] वह स्त्री जिसने पति के मरने पर दूसरे पुरुष से विवाह कर लिया हो।
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पुनर्भोग  : पुं० [सं० मध्य० स०] धार्मिक दृष्टि से पूर्व कर्मों का प्राप्त होनेवाला फल-भोग।
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पुनर्मुद्रण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. एक बार छपी हुई चीज का फिर से उसी रूप में छपना। २. पुस्तकों आदि का इस प्रकार छपकर तैयार होनेवाला संस्करण। (री-प्रिन्ट)
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पुनर्वचन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पुनरुक्ति। २. शास्त्र द्वारा किसी बात का बार-बार विदित होना।
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पुनर्वसु  : पुं० [सं० पुनर√वस् (निवास आच्छादन)+उ] १. सत्ताईस नक्षत्रों में से सातवाँ नक्षत्र। २. विष्णु। ३. कात्यायन मुनि। ५. एक लोक।
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पुनर्वाद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. कोई बात पुनः ज्यों की त्यों अथवा कुछ उलट-पुलट कर कहना। २. छोटे न्यायालय के निर्णय के असंतोषजनक प्रतीत होने पर बडे न्यायालय से उस पर फिर से विचार करने के लिए दी जानेवाली प्रार्थना। (अपील)
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पुनर्वादी (दिन्)  : पुं० [सं० पुनर्वाद+इनि] वह जो बड़े न्यायालयों से किसी छोटे न्यायालय द्वारा किये हुए निर्णय पर फिर से विचार करने के लिए कहे। (एपेलेन्ट)
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पुनर्वास  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पुनः बसना। २. घर बार न रह जाने पर अथवा छीन लिये जाने पर फिर से नया घर आदि बनाकर रहना। ३. उजड़े हुए लोगों को फिर से बसाना या आबाद करना। (री-हैबिलिटेशन)
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पुनर्वासन  : पुं० [सं० मध्य० स०] उजड़े हुए लोगों को फिर से बसाने की क्रिया या भाव।
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पुनर्विधान  : पुं० [सं० मध्य० स०] फिर से विधान करना या बनाना।
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पुनर्विधायन  : पुं० [सं० मध्य० स०] [भू० कृ० पुनर्विहित] किसी बने हुए विधान को घटा या बढ़ाकर नये सिरे से विधान का रूप देना। (री-एनैक्टमेन्ट)
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पुनर्विधायित  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०]=पुनर्विहित।
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पुनर्विभाजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक बार विभाजन हो चुका हो, उसका फिर से विभाजन करना। (री-डिस्ट्रीब्यूशन)
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पुनर्विलोकन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक बार देखी हुई वस्तु, बात आदि को फिर से अच्छी तरह से देखना। (रिव्यू)
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पुनर्विवाह  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक बार विवाह हो चुकने पर (पति या पत्नी के मर जाने पर) दोबरा होनेवाला विवाह। दूसरा ब्याह।
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पुनर्विवाहित  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] जिसका एक बार विवाह हो चुकने के उपरांत किसी कारण-वश फिर से विवाह हुआ है।
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पुनर्विहित  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] १. जिसका फिर से विधान हुआ या किया गया हो। २. (पहले से बना हुआ विधान) जो फिर से घटा-बढ़ाकर ठीक किया गया और नये विधान के रूप में लाया गया हो। (री-एनैक्टैड)
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पुनर्व्यजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] पहले से बनी हुई चीज जो अब अस्तित्व में न रह गयी हो, उसे फिर से उसी तरह बनाकर सबके सामने रखना। (री-प्रोडक्शन)
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पुनर्व्यक्त  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] जिसका पुनर्व्यजन हुआ हो। दोबारा बनाकर अस्तित्व में लाया हुआ।
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पुनर्सारण  : पुं० [सं० पुनःसारण] [भू० कृ० पुनर्सारित] किसी एक रेडियो आस्थान से प्रसारित होनेवाला कार्य-क्रम ज्यों का त्यों उसी समय दूसरे रेडियों-आस्थानों से भी प्रसारित किया जाना (रिले)
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पुनर्सारित  : भू० कृ० [सं० पुनःसारित] (कार्य-क्रम) जो अन्य रेडियों आस्थानों से भी प्रसारित किया गया हो या किया जा रहा हो। (रिलेड)
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पुनर्स्थापन  : पुं० [सं० पुनःस्थापन] [भू० कृ० पुनर्स्थापित] जो पहले अपने स्थान से हटाया गया हो उसे फिर से उसी स्थान पर रखना या स्थापित करना। (रिप्लेसमेन्ट)
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पुनवाँसी  : स्त्री०=पूर्णमासी।
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पुनश्च  : अव्य० [सं० पुनर्-च] १. इसके बाद। फिर। २. दूसरी बार। दोबारा। ३. जो कुछ कहा जा चुका हो उसके बाद या साथ इतना और भी या यह भी। पुं० एक पद जिसका प्रयोग पत्र आदि लिखकर समाप्त कर लेने पर बाद में याद आई हुई बात नीचे लिखने से पहले होता है। (पोस्टस्क्रिप्ट)
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पुनश्चवर्ण  : पुं० [सं० पुनर-चवर्ण, मध्य० स०] चौपायों का पागुर करना। पगुरी।
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पुनह  : अव्य०=पुनः।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनि  : अव्य० [सं० पुनः] १. फिर से। दोबारा। पुनः। पद—पुनि-पुनि=बार-बार। २. ऊपर से। तिस पर। और भी।
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पुनिम (ा)  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनी  : पुं० [सं० पुण्य, हिं० पुन] पुण्य करनेवाला। पुण्यात्मा। स्त्री०=पूर्णिमा। अव्य०=पुनि।
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पुनीत  : वि० [सं० पूत] [स्त्री० पुनीता] १. जिसमें पवित्रता हो। पवित्र। २. जो उत्तम और इसी लिए जो पवित्र और प्रशंसनीय माना जाता हो। जैसे—पुनीत-कर्तव्य।
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पुन्न  : पुं०=पुण्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुन्नक्षत्र  : पुं०=पु-नक्षत्र।
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पुन्नपुंसक  : पुं० [सं०] संस्कृत व्याकरण में ऐसा शब्द जो पुलंग और नपुंसक लिंगी दोनों में चलता हो। जैसे—शिशिर।
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पुन्नाग  : पुं० [सं०] सुल्तान चंपा (देखें) नामक वृक्ष।
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पुन्नार  : पुं०=पुंनाट।
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पुन्नाड़  : पुं०=पुंनाट।
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पुन्य  : पुं०=पुण्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुन्यता (ई)  : स्त्री० [सं० पुण्य] १. पुण्य का कार्य या भाव। २. पवित्रता। ३. धर्मशीलता।
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पुपलावा  : अ० [हिं० पोपला] पोपला होना। स० पोपला करना।
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पुपली  : स्त्री० [हिं० पोपला=पोला] १. आम की गुठली घिसकर बनाया हुआ बाजा या सीटी। २. बाँस की पतली और पोली नली। विशेष—कुछ विशिष्ट प्रकार के हाथ से चलाये जानेवाले खपचियों के बने हुए पंखों की डंडियों में पुपली पहनाई जाती है। इसे पकड़कर पंखा चलाने पर वह चारों ओर घूमने लगता है। ३. बच्चों के खेलने का काठ का एक प्रकार का छोटा खिलौना जो छोटी डंडी के आकार का होता है और जिसके दोनों सिरे कुछ मोटे होते हैं। इसे प्रायः छोटे बच्चे चूसते हैं, इसीलिए इसे ‘चुसनी’ भी कहते हैं।
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पुपूषा  : स्त्री० [सं०√पू (पवित्र करना)+सन्+अ+टाप्] शुद्धि करने की इच्छा।
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पुप्पू  : पुं०=पुष्प।
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पुप्फुल  : पुं० [सं० पुप् फुस् पृषो० स—ल] १. फेफड़ा। २. कमल का बीज कोश। कँवलगट्टे का छत्ता। स्त्री०=फुसफुस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुब्बय  : वि० [सं० पूर्वीय] १. पूर्वकाल का। २. पुराना।
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पुमर्थ  : पुं० [सं० ष० त०] चार प्रकार के पुरुषार्थों में से हर एक।
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पुमान् (मस्)  : पुं० [सं०√पू+डुमसुन्] मर्द। नर। पुरुष।
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पुरंजन  : पुं० [सं० पुर√जन् (उत्पन्न करना)+ख, मुम्] जीवात्मा।
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पुरंजनी  : स्त्री० [सं० पुरंजन+ङीष्] बुद्धि। समझ।
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पुरंजय  : वि० [सं० पुर√जि (जीतना)+खच्, मुम्] पुर को जीतनेवाला। पुं० एक सूर्यवंशी राजा जिसका दूसरा नाम काकुत्स्थ था।
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पुरंजर  : स्त्री० [सं०] काँख। बगल।
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पुरंदर  : वि० [सं० पुर√दृ (तोड़ना, फाड़ना)+खच्, मुम्] पुर (नगर या घर) को तोड़नेवाला। पुं० १. इंद्र। २. चोर। ३. चव्य। चाब। ४. मिर्च। ५. ज्येष्ठा नक्षत्र। ६. विष्णु।
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पुरंदरा  : स्त्री० [सं० पुरंदर+टाप्] गंगा।
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पुरंध्री  : स्त्री० [सं० पुर√भृ (पालन करना)+खच्+ङीष्] १. ऐसी सौभाग्यवती स्त्री जिसके आगे पति पुत्र और कन्याएँ हों। २. स्त्री।
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पुरः (रस्)  : अव्य० [सं० पूर्व+असि, पुर्-आदेश] १. काल, दिशा आदि के विचार से आगे या सामने। समझ। २. किसी के पहले या पूर्व। ३. पूर्व दिशा का। पूर्वी। ४. पूर्व की ओर उन्मुख। विशेष—पुरस्कार, पुराक्रिया, पुरस्कृत, पुरस्सर आदि शब्दों में उनके पहले इसका उक्त पुरस् रूप ही सम्मिलित रहता है।
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पुरःदत्त  : वि० [सं० पुरोदत्त] (परिव्यय या शुल्क) पहले से किया हुआ। जो पहले दिया गया हो। (प्रीपेड)
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पुरःदान  : पुं० [सं० पुरोदान] [भू० कृ० पुरःदत्त] (देन, परिव्यय, शुल्क आदि) नियत समय से पहले ही चुकाना या दे देना। (प्री-पेमेन्ट)
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पुरःप्रत्यय  : पुं० [सं० मध्य० स०] व्याकरण में ऐसा प्रत्यय जो किसी शब्द के पहले लगकर उसके अर्थ में कोई विशेषता उत्पन्न करता है। जैसे— ‘अनुगत’ में का ‘अनु’ पुरःप्रत्यय है।
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पुरःसंगी  : वि० [सं०] किसी कार्य, तथ्य या विषय में, उससे पहले सम्बद्ध या सहायक रूप मे आने, होने या साथ रहनेवाला। (एक्सेसरी बिफोर दी फैक्ट)
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पुरःसर  : वि० [सं० पुरस्√सृ (गति)+ट] १. मिला हुआ। युक्त। २. संग या साथ रहने या होनेवाला। पुं० १. आगे-आगे चलनेवाला। २. अगुआ। नेता। ३. संगी। साथी।
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पुर  : वि० [सं०√पुर् (आगे जाना)+क] भरा हुआ। पुं० [स्त्री० अल्पा० पुरी] १. वह बड़ी बस्ती जिसमें बड़ी बड़ी इमारतें भी हों। गाँव से बड़ी परन्तु नगर से छोटी बस्ती। विशेष—प्राचीन काल में पुर का क्षेत्रफल एक कोस से अधिक होता था और उसके चारों ओर खाई होती थी। २. घर। मकान। ३. अटारी। कोठा। ४. भुवन। लोक। ५. नक्षत्रों का पुंज राशि। ६. देह। शरीर। ७. कुएँ से पानी खींचने का मोट।—चरसा। ८. मोथा। ९. पीली कसरैया। १॰. गुग्गुल। ११. किला। गढ़। दुर्ग। १२. चोगे की तरह का एक प्रकार का पुराना पहनावा। अव्य० [सं० पुरः] आगे। सामने। उदा०—स्वान। निशंक कहौ पुर मेरे।—केशव। पुं०=पुरवट (लखनऊ) मुहा०—पुर लेना=पानी से भरा हुआ पुरवट खींचकर उसका पानी नाली में गिराना।
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पुरइन  : स्त्री० [सं० पुटकिनी, प्रा० पुड़इनी=कमलिनी, पुं० हिं० पुरइनि] १. कमल का पत्ता। २. कमल। ३. जरायु।
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पुरउना  : स०=पुरवना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरउबि  : स० [सं० पूर्ण] पूरा कीजिएगा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुर-कायस्थ  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में पुर (या नगर) का वह अधिकारी जिसके पास मुख्य लेखों, दस्तावेजों आदि की नकलें रहती थीं। (इसका पद प्रायः आज-कल के रजिस्ट्रार के पद के समान होता था।)
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पुर-कोट्ट  : पुं० [ष० त०] नगर का रक्षा के लिए बनाया हुआ दुर्ग।
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पुरखा  : पुं० [सं० पुरुष] [स्त्री० पुराविन] १. पूर्वज। मुहा०—पुरखे तर जाना=पूर्व पुरुषों को (पुत्र आदि के कृत्यों से) पर लोक में उत्तम गति प्राप्त होना। बहुत बड़ा पुण्य या उसका फल होना। कृत्य कृत्य होना। जैसे—उनके आने से तुम क्या, तुम्हारे पुरखे भी तर जायँगे। २. सयाना और वृद्ध व्यक्ति।
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पुरग  : वि० [पुर√गम् (जाना)+ड] १. नगरगामी। २. जिसकी मनोवृत्ति अनुकूल हो।
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पुरगुर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसकी लकड़ी, खिलौने, हल आदि बनाने के काम आती है।
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पुरचक  : स्त्री० [हिं० पुचकार] १. चुमकार। पुचकार। २. बढ़ावा। प्रेरणा। क्रि० प्र०—देना। ३. पृष्टपेषण। ४. समर्थन हिमायत। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ५. बुरा अभ्यास या परिपाटी। (पश्चिम)
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पुर-जन  : पुं० [ष० त०] पुर या नगर के रहनेवाले लोग। पुरवासी।
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पुरजा  : पुं० [फा० पुर्जः] १. टुकड़ा। खंड। मुहा०—पुरजे पुरजे उड़ाना या करना=कागज, पत्र आदि को फाड़कर उसके अनेक छोटे-छोटे टुकड़े कर देना। २. काटकर निकाला हुआ टुकड़ा। कतरन। धज्जी। ३. कागज के टुकड़े पर लिखी हुई बात या सूचना। ४. किसी के हस्ते भेजी जाने वाली चिट्टी। ५. किसी बड़े यंत्र का कोई अंग, अंश या खंड। जैसे—घड़ी के कई पुरजे खराब हो गये हैं। पद—चलता पुरजा=बहुत बड़ा चालाक। मुहा०—(किसी के दिमाग का) पुरजा ढीला होना=कुछ खबती, झक्की या सनकी होना।
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पुरजित्  : पुं० [सं० पुर√जि (जीतना)+क्विप्] १. शिव। २. कृष्ण का एक पुत्र जो जांबवती के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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पुरट  : पुं० [सं०√पुर्+अटन्] सुवर्ण। सोना।
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पुरण  : पुं० [सं०√पृ+क्यु—अन] समुद्र।
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पुरतः (तस्)  : अव्य० [सं० पुर+तस्] आगे। सामने। उदा०—पुरुतो में प्रेषितम् पत्र।—प्रिथीराज।
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पुर-तटी  : स्त्री० [मध्य० स०] छोटा बाजार। हाट।
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पुर-तोरण  : पुं० [ष० त०] नगर का बाहरी दरवाजा या मुख्य-द्वार।
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पुर-त्राण  : वि० [ब० स०] पुर की रक्षा करनेवाला। पुं० परकोटा।
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पुर-देव  : पुं०=नगर देवता।
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पुर-द्वार  : पुं० [ष० त०] पुर का मुख्य द्वार। नगर का मुख्य फाटक।
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पुरद्विट (ष्)  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पुरना  : अ० [हिं० पूरा] १. पूरा या पूर्ण होना। २. यथेष्ट मात्रा या मान में प्राप्त होना। उदा०—पुरती न जो पै मोर-चंद्रिका किरीटकाज, जुरती कहा न काँच किरचै कुमाय की।—रत्नाकर। ३. समाप्त होना।
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पुर-नारी  : स्त्री० [ष० त०] नगर-नारी। रंडी। वेश्या।
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पुनरियाँ  : वि० [हिं० पुरान] बुड्ढा (या बुड्ढी) वृद्ध। (या वृद्धा)
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पुर-निवेश  : पुं० [ष० त०] पुर या नगर बनाना और बसाना।
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पुर-निवेशन  : पुं० [ष० त०] पुर या नगर बसाने का कार्य।
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पुरनी  : स्त्री० [हिं० पूरना=भरना] १. अँगूठे में पहनने का छल्ला। २. तुरही। ३. बंदूक की नली साफ करने का कागज।
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पुर-पक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] १. पुर या नगर में रहनेवाला पक्षी। २. पालतू पक्षी।
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पुरपाल  : पुं० [सं० पुर√पाल् (रक्षा)+णिच्+अच्] १. पुर या नगर का प्रधान अधिकारी। २. कोतवाल। ३. आत्मा। जीव।
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पुरबला  : वि० [सं० पूर्व+हिला (प्रत्य०)] [स्त्री० पुरबली] १. पूर्व का। पहले का। २. पूर्व जन्म का। पिछले जन्म का।
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पुरबा  : वि०=पुरवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरबिया  : वि० [हिं० पूरब] [स्त्री० पुरबिनी] १. पूर्व देश में उत्पन्न या रहनेवाला परब का। २. पूर्व दिशा से आनेवाला। जैसे—पुरबिया हवा। पुं० पूर्वी देश का निवासी।
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पुरबिहा  : वि०, पुं०=पुरबिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरबी  : वि०=पूरबी।
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पुरभिद्  : पुं० [सं० पुर√भिद् (विदीर्ण करना)+क्विप्] पुर (त्रिपुर) का भेदन करनेवाले, शिव।
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पुरमथन  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पुर-मथिता (तृ)  : पुं० [सं०] शिव।
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पुर-मार्ग  : पुं० [ष० त०] १. पुर या नगर की ओर जानेवाला रास्ता। २. शहर की सड़क।
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पुर-रक्षी  : पुं०=पुर-रक्षक।
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पुर-रक्षा  : पुं० [ष० त०] नगर या रक्षा करनेवाला कर्मचारी।
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पुर-रक्षा (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०]=पुर-रक्षक।
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पुर-रोध  : पुं० [ष० त०] शत्रु के नगर को घेरा डालना। चारों ओर से घेरना।
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पुरला  : स्त्री० [सं०√पुर्+कलच्+टाप्] दुर्गा।
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पुर-लोक  : पुं० [ष० त०]=पुरजन।
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पुरवइया  : स्त्री०=पुरवाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरवट  : पुं० [सं० पूर] चमड़े का एक तरह का बड़ा उपकरण या डोल जिससे सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकालते हैं। चरसा। मोट। क्रि० प्र०—खींचना।—चलना।—चलाना। मुहा०—पुरवट नाधना= पुरवट चलाने के लिए उसमें बैल जोतना।
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पुर-वधू  : स्त्री० [ष० त०] वेश्या।
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पुरवना  : स० [हिं० पूरना का प्रेर०] १. पूर्ण या पूरा करना। जैसे—मनोरथ पुरवना। मुहा०—साथ पुरवना=अन्त तक या पूरी तरह से साथ देना। २. इच्छा, कामना, प्रतिज्ञा आदि पूरी करना। उदा०—जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पुरई सखा बिप्र दरिद्र हयौ।—सूर। अ० १. पूरा या पूर्ण होना। २. पूरा पड़ना। यथेष्ट होना। ३. पूर्ति होना। कमी दूर होना।
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पुर-वर  : पुं० [स० त०] १. अच्छा और बढ़िया या श्रेष्ठ नगर। २. राजनगर। राजधानी।
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पुरवा  : पुं० [सं० पुर] छोटा गाँव। पुरा। खेडा। वि० [सं० पूव] पूर्व दिशा का। पुं० [सं० पूर्व+वात] १. पूर्व की ओर से आने या चलनेवाली हवा। पुरवाई। २. उक्त वायु के चलने पर पशुओं को होनेवाला एक रोग, जिसमें उनका गला और पेट फूल जाता है। पुं० [सं० पुटक] मिट्टी का एक प्रकार का छोटा बरतन जिसमें पानी, दूध, शराब आदि पीते हैं। कुल्हड़।
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पुरवाई  : स्त्री० [सं० पूर्व+वायु, हिं० पूरब+बाई] पूर्व की वायु। वह वायु जो पूर्व दिशा से आती हो।
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पुरवाना  : स० [हिं० पुरवना का प्रे०] पूरा कराना।
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पुरवासी (सिन्)  : पुं० [सं० पुर√वस् (बसना)+णिनि] पुर या नगर का रहनेवाला। नागरिक।
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पुर-वास्तु  : पुं० [ष० त०] वह भूमि या स्थान जहाँ नगर अच्छी तरह बनाया या बसाया जा सकता हो।
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पुरवैया  : स्त्री०=पुरवाई।
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पुर-शासन  : पुं० [सं० पुर√शास् (शासन करना)+ल्यु—अन] १. दैत्यों के त्रिपुर का ध्वंस करनेवाले शिव। २. विष्णु।
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पुरश्चरण  : पुं० [सं० पुरस्√चर् (गति)+ल्युट्—अन] १. किसी कार्य की सिद्धि के लिए पहले से ही उपाय सोचना और उसका अनुष्ठान करना। किसी काम की पहले से की जानेवाली तैयारी। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए नियम और विधान पूर्वक कुछ निश्चित समय तक किया जानेवाला तांत्रिक पूजा-पाठ। तांत्रिक प्रयोग।
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पुरश्चर्या  : स्त्री० [सं० पुरस्√चर्+क्यप्+टाप्] पुरश्चरण।
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पुरश्छद  : पुं० [सं० पुरस्√छद (ढंकना)+णिच्,+घ, ह्रस्व] कुश या डाभ की तरह की एक घास।
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पुरषा  : पुं०=पुरखा (पूर्व पुरुष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरस  : पुं० [सं० पुरीष] खाद।
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पुरसाँ  : वि० [फा० पुसाँ] पूछने या खोज-खबर लेनेवाला।
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पुरसा  : पुं० [सं० पुरुष] ऊँचाई या गहराई नापने की एक नाप जो उतनी ऊँची होती है जितना ऊँचा हाथ ऊपर उठाकर खड़ा हुआ साधारण मनुष्य होता है। लगभग साढ़े चार या पाँच हाथ की एक माप। जैसे—यह कुआँ या नदी चार पुरसा गहरी है।
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पुरसी  : स्त्री० [फा०] समस्त पदों के अंत में, जानने के लिए कुछ पूछने की क्रिया या भाव। जैसे—मातम-पुरसी, मिजाज-पुरसी आदि।
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पुरस्कार  : पुं० [सं० पुरस्√कृ (करना)+घञ्] [भू० कृ० पुरस्कृत] १. आगे करने की क्रिया। २. आदर। पूजा। ३. प्रधानता। ४. स्वीकार। ५. अच्छी तरह कोई बड़ा और कठिन काम करने पर उसके कर्ता को आदर या सत्कार के रूप में दिया जानेवाला धन या पदार्थ। इनाम (प्राइज)। क्रि० प्र०—देना।—पाना।
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पुरस्कृत  : भू० कृ० [सं० पुरस्√कृ+क्त] १. आगे किया हुआ। २. पूजित। ३. स्वीकृत। ४. जिसे पुरस्कार मिला हो।
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पुरस्तात्  : अव्य० [सं० पूर्व+अस्ताति, पुर-आदेश] १. आगे। सामने। २. पूर्व दिशा में। ३. पूर्व काल में। ४. आरंभ में।
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पुरस्सर  : वि०=पुरः सर।
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पुरहँड़  : पुं० [सं० पुरोघट या पूर्णघट] मंगलकलश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरहत्  : पुं० [सं० पुरः-अक्षत] वह अन्न और द्रव्य जो विवाह आदि मंगल कार्यों में पुरोहित और नेगियों को कृत्य करने के प्रारंभ में दिया जाता है। आखत।
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पुरहन्  : पुं० [सं०पुर√हन्(हिंसा)+क्विप्] १. विष्णु। २. शिव।
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पुरहर  : पुं० [सं० पूर्ण-भर] मांगलिक पात्र। मंगलघट। उदा०—धवल कमल फुल पुरहर भेल।—विद्यापति। वि०=पूरा।
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पुरहा  : पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु। पुं० [हिं० पुर] वह व्यक्ति जो खेतों की नालियों में पुरवट का पानी गिराता हो। (पूरब)
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पुरही  : स्त्री० [?] एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पत्तियाँ और जड़े औषध के काम आती है। हर-जेवड़ी।
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पुरहूत  : वि०, पुं०=पुरुहूत।
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पुरांगना  : स्त्री० [सं० पुर-अगना, ष० त०] नगर में रहनेवाली स्त्री। नगर-निवासिनी।
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पुरांतक  : पुं० [सं० पुर-अंतक, ष० त०] शिव।
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पुरा  : अव्य० [सं०√पुर (अग्रगति)+का] १. पुराने समय में। पूर्व या प्राचीन काल में। २. अब तक। ३. थोड़े समय में। वि० समस्त पदों के आरंभ में विशेषण के रूप में लगकर यह पुराना या प्राचीन का अर्थ देता है। जैसे—पुराकल्प, पुरावृत्त। स्त्री० १. पूर्व दिशा। पूरब। २. मुरा नामक गंध द्रव्य। ३. छोटी बस्ती। गाँव।
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पुराई  : स्त्री० [हिं० पूरना-भरना] १. पूरा करने की क्रिया या भाव। २. पुरवट आदि के द्वारा खेतों में पानी देने की क्रिया। सिंचाई। क्रि० प्र०—चलना। ३. उक्त का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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पुरा-कथा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. प्राचीन काल की बातें। २. इतिहास।
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पुराकल्प  : पुं० [कर्म० स०] १. पूर्व कल्प। पहले का कल्प। २. प्राचीन इतिहास युग। ३. एक प्रकार का अर्थवाद जिसमें प्राचीन काल का कहकर किसी विधि के करने की ओर प्रवृत्त किया जाय। जैसे—ब्राह्मणों ने इससे हविः पवमान सामस्तोम की स्तुति की थी। ४. आधुनिक भू० विज्ञान के अनुसार उत्तर पाँच कल्पों में से तीसरा कल्प, जिसमें पृथ्वी तल पर जगह-जगह छिछले समुद्र बनने लगे थे; खूब बाढ़े आती थीं, मछलियाँ सरीसृप और कीड़े-मकोड़े उत्पन्न होने लगे थे, और कुछ विशिष्ट प्रकार के बहुत बड़े-बड़े वृक्ष होते थे। यह कल्प प्रायः बीस से पचास करोड़ वर्ष पहले हुआ था। पुराजीवकाल। (पेलियो जोइक एरा) विशेष—शेष चार कल्प ये हैं—आदि कल्प, उत्तर कल्प, मध्य कल्प और नवकल्प।
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पुराकालीन  : वि० [सं० पुरा-काल, कर्म० स०,+ख—ईन] १. प्राचीन काल का। बहुत पुराना। २. इतना अधिक पुराना कि जिसका प्रचलन, प्रयोग या व्यवहार बहुत दिन पहले से उठ गया हो। बहुत पुराने जमाने का। (एन्टीक)
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पुराकृत  : भू० कृ० [सं० स० त०] १. पूर्व काल में किया हुआ। २. पूर्वजन्म में किया हुआ। पुं० पूर्वजन्म में किये हुए वे भले और बुरे काम जिनका फल दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है।
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पुरा-कोश  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा शब्दकोश जिसमें प्राचीन भाषाओं के अथवा बहुत पुराने शब्दों का विवेचन होता है। निघण्टु। (लेक्सिकन)
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पुराग  : वि० [सं० पुरा√गम् (जाना)+ड] पूर्वगामी।
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पुराचीन  : वि० १.=पुराकालीन। २.=प्राचीन।
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पुराजीव  : पुं०=जीवाश्म। (देखें)
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पुराजीवकाल  : पुं०=पुराकाल।
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पुराजैविकी  : स्त्री०=जीवाश्म विज्ञान। (देखें)
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पुराण  : वि० [सं० पुरा√टयु—अन] [भाव० पुराणता] १. बहुत प्राचीन काल का। बहुत पुराना। पुरातन। जैसे—पुराण पुरुष। २. बहुत अधिक अवस्था या वय वाला। वृद्ध। बुड्ढा। ३. जो पुराना होने के कारण जीर्ण-शीर्ण हो गया हो। पुं० १. बहुत पुरानी घटना या उसका वृत्तांत। २. प्रायः सभी प्राचीन जातियों, देशों और धर्मों में प्रचलित उन पुरानी और परम्परागत कथा-कहानियों का समूह जिनका थो़ड़ा-बहुत ऐतिहासिक आधार होता है; पर जिनके रचयिता अज्ञात कवि होते हैं। (मिथ) जैसे—चीन, यूनान, या रोम के पुराण, जैन या बौद्ध पुराण। विशेष—ऐसी कथाओं में प्रायः घटनाओं मानव जाति की उत्पत्ति, सृष्टि की रचना, प्राचीन कृत्यों और सामाजिक रीति-रिवाजों के कुछ अत्युक्तिपूर्ण विवरण होते हैं, तथा देवी-देवताओं और वीर-पुरुषों के जीवन-वृत्त होते हैं। ३. भारतीय धार्मिक क्षेत्र में उक्त प्रकार के वे विशिष्ट बहुत बड़े-बड़े काव्य-ग्रंथ, जिनमें इतिहास की बहुत सी घटनाओं के साथ-साथ सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय देवी-देवताओं, दानवों, ऋषि-महर्षियों, महाराजाओं, महापुरुषों आदि के गुणों तथा पराक्रमों की बहुत सी बातें, और अनेक राजवंसों की वंशावलियाँ आदि भी दी गई है, और धार्मिक दृष्टि से जिनकी गणना पाँचवें वेद के रूप में होती है। विशेष—हिंदू धर्म में कुल १८ पुराण माने गये हैं। प्रायःसभी पुराणों में शेष सभी पुराणों के नाम और श्लोक-संख्याएं थोड़े-बहुत अन्तर से दी है। पुराणों के नाम प्रायः ये है—ब्रह्म, पद्म, विष्णु, वायु अथवा शिव, लिंग अथवा नृसिंह, गरुड़, नारद, स्कंद, अग्नि, श्रीमद्भागवत अथवा देवी भागवत, मार्कण्डेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, वामन, वाराह, मत्स्य, कूर्म और ब्रह्माण्ड पुराण। साहित्यकारों के अनुसार पुराणों मे पाँच बातें होती हैं—सर्ग अर्थात् सृष्टि, प्रतिसर्ग अर्थात् प्रलय और उसके उपरांत फिर से होनेवाली सृष्टि, वंशों, मन्वन्तरों और वंशानुचरित की बातों का वर्णन; परन्तु कुछ पुराणों में इस प्रकार की बातों के सिवा राजनीति राजधर्म, प्रजा-धर्म, आयुर्वेद, व्याकरण, शस्त्र-विद्या, साहित्य अवतारों देवी-देवताओं आदि की कथाएँ तथा इसी प्रकार की और भी बहुत सी बातें मिलती हैं। धार्मिक हिंदू प्रायः विशेष भक्ति और श्रद्धा से इन पुराणों की कथाएँ सुनते हैं। साधारणतः वेद-मंत्रों के संग्रहकर्ता वेदव्यास ही इन सब पुराणों के भी रचयिता माने जाते हैं। इन १८ पुराणों के सिवा १८ उप-पुराण भी माने गये हैं। और जैन तथा बौद्ध-धर्मों में भी इस प्रकार के कुछ पुराण बने हैं। आधुनिक विद्वानों का मत है कि भिन्न-भिन्न पुराण भिन्न-भिन्न समयों में बने हैं। कुछ प्राचीन पुराणों के नष्ट हो जाने पर उनके स्थान पर उन्हीं के नाम से कुछ नये पुराण भी बने हैं। और इनमें बहुत सी बातें समय-समय पर घटती-बढ़ती रही हैं। ४. उक्त ग्रन्थों के आधार पर १८ की संख्या का वाचक शब्द। ५. शिव। ६. कार्षाषण नाम का पुराना सिक्का।
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पुराण-कल्प  : पुं०=पुराकल्प। (दे०)
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पुराणग  : पुं० [सं० पुराण√गम् (जाना)+ड] १. पुराणों की कथाएं पढ़ने अथवा पढ़कर दूसरों को सुनानेवाला पंडित या व्यास। २. ब्रह्मा।
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पुराणता  : स्त्री० [सं० पुराण+तल्+टाप्] १. पुराण का भाव। २. बहुत ही प्राचीन होने की अवस्था या भाव। (एन्टिक्विटी)
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पुराण-दृष्ट  : भू० कृ० [तृ० त०] जो पुराने लोगों द्वारा देखा और माना गया हो।
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पुराण-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] १. विष्णु। २. वृद्ध व्यक्ति।
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पुरातत्त्व  : पुं० [कर्म० स०] वह विद्या जिसमें मुख्यतः इतिहास पूर्वकाल की वस्तुओं के आधार पर पुराने अज्ञात इतिहास का पता लगाया जाता है। प्रत्न विज्ञान। (आर्कियॉलोजी)
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पुरातत्त्वज्ञ  : पुं० [सं० पुरातत्व√ज्ञा (जानना)+क] वह जो पुरातत्व विद्या का ज्ञाता हो। (आकियालाजिस्ट)
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पुरातन  : वि० [सं०पुरा+ट्यु—अन, तुट्] १. सब से पहले का। आद्य। २. पुराना। प्राचीन। पुं० विष्णु।
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पुरा-तल  : पुं० [कर्म० स०] तलातल। (दे०)
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पुराधिप  : पुं० [सं० पुरा-अधिप, ष० त०] पुर अर्थात् नगर का प्रधान शासनिक अधिकारी।
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पुराध्यक्ष  : पुं० [सं० पुर-अध्यक्ष, ष० त०] पुराधिप।
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पुरान  : वि०=पुराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पुराण।
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पुराना  : वि० [सं० पुराण] [स्त्री० पुरानी] १. जो प्रस्तुत समय से बहुत पहले का हो। बहुत पूर्व या प्राचीन काल का। जैसे—पुराना जमाना, पुरानी सभ्यता। २. जिसे अस्तित्व में आये या जीवन धारण किये बहुत समय हो चुका हो। जैसे—पुराना पेड़, पुराना बुखार, पुराना मकान आदि। ३. जो बहुत दिनों का हो जाने के कारण अच्छी दशा में न रह गया हो या ठीक तरह से और पूरा काम न दे सकता हो। जीर्ण-शीर्ण। जैसे—पुराना कपड़ा, पुरानी चौकी। ४. जिसे किसी काम या बात का बहुत दिनों से अनुभव होता आय़ा हो,अथवा जो बहुत दिनों से अभ्यस्त हो रहा हो। यथेष्ट रूप में परिपक्व। जैसे—पुराना कारीगर, पुराने पंडित या विद्वान। पद—पुराना खुर्राट=बहुत बड़ा अनुभवी। पुराना घाघ=बहुत बड़ा चालाक। ५. जो किसी निश्चित या विशिष्ट काल से चला आ रहा हो। जैसे—(क) पाँच सौ वर्ष का पुराना चावल, सौ वर्ष का पुराना पेड़। ६. जो उक्त प्रकार का होने पर भी अब प्रचलित न हो। जिसका चलन अब उठ गया हो, या उठता जा रहा हो। जैसे—पुराना पहनावा, पुरानी परिपाटी या प्रथा। स० [हिं० पूरना का प्रे०] १. पूरने का काम किसी और से कराना। पूरा कराना। २. आज्ञा, निर्देश, वचन आदि का निर्वाह या पालन कराना। ३. अवकाश, गड्ढे आदि के प्रसंग में, समतल कराना। भरवाना। स० [हिं० पूरना] १. पूरा करना। २. निर्वाह या पालन करना। अ०=पूरना (पूरा होना)।
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पुराराति  : पुं० [सं० पुर-अराति, ष० त०] शिव।
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पुरारि  : पुं० [सं० पुर-अरि, ष० त०] शिव।
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पुराल  : पुं० [हिं०]=पयाल (धान के डंठल) धान के ऐसे डंठल, जिसमें से बीज झाड़ लिये गये हों। पद।
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पुरा-लेख  : पुं० [कर्म० स०] किसी प्राचीन भवन या स्मृति-चिह्र पर अंकित किया हुआ कोई ऐसा लेख जो किसी प्राचीन लिपि में अंकित हो। (एपिग्राफी)
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पुरालेखशास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें प्राचीन काल की लिपियाँ पढ़ने का विवेचन होता है। (एपिग्राफी)
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पुरावती  : स्त्री० [सं० पुर+मतु, वत्व+ङीष्, दीर्घ] एक प्राचीन नदी। (महाभारत)
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पुरावशेष  : पुं० [सं० पुरा-अवशेष, कर्म० स०] बहुत प्राचीन काल की चीजों के टूटे-फूटे या बचे-खुचे अंश या अवशेष जिनके आधार पर उस काल की सभ्यता, इतिहास आदि के संबंध में जानकारी प्राप्त की जाती है। (एन्टिक्विटीज)
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पुरावसु  : पुं० [कर्म० स०] भीष्म।
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पुराविद्  : वि० [सं० पुरा√विद् (जानना)+क्विप्] पुरानी अर्थात् प्राचीन काल की ऐतिहासिक सामाजिक आदि बातों को जाननेवाला। पुरातत्वज्ञ। (आर्कियालोजिस्ट)
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पुरा-वृत्त  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन काल का कोई वृत्तांत।
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पुरासाह्  : पुं० [सं० पुरा√सह् (सहन करना)+ण्वि] इन्द्र।
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पुरासिनी  : स्त्री० [सं० पुर√अस् (फेंकना)+णिनि+ङीप्] सहदेवी नाम की बूटी।
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पुरि  : स्त्री० [सं०√पृ+इ] १. पुरी। २. शरीर ३. नदी। पुं० १. राजा। २. दशनामी संन्यासियों में से एक।
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पुरिखा  : पुं०=पुरखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरिया  : स्त्री० [हिं० पूरना] १. बाना फैलाने की नरी। २. ताना। स्त्री०=पुड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरिश  : पुं० [सं० पुरि√शी (सोना)+ड, अलुक्स] जीव।
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पुरिष  : पुं०=पुरीष (विष्ठा)।
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पुरी  : स्त्री० [सं० पुरी+ङीष्] १. छोटा पुर। नगरी। २. जगन्नाथ पुरी। ३. गढ़। दुर्ग। ४. देह। शरीर।
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पुरीतत्  : स्त्री० [सं० पुरी√तन् (विस्तार+क्विप्, तुक] १. हृदय के पास की एक नाड़ी। २. आँत।
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पुरीमोह  : पुं० [सं० पुरी√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्+अण्] धतूरा।
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पुरीष  : पुं० [सं०√पृ+ईषन्, कित्] १. विष्ठा। मल। गू। २. जल। पानी।
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पुरीषण  : पुं० [सं० पुरी√ईष् (त्याग)+ल्युट जैसे—अन] विष्ठा।
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पुरीषम  : पुं० [सं० पुरीष√मा (शब्द)+क] १. मल। विष्ठा। २. गंदगी। कूड़ा।
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पुरीष-स्थान  : पुं० [ष० त०] मल त्याग करने का स्थान। जैसे—खुड्डी पाखाना, संडास आदि।
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पुरीषाधान  : पुं० [सं० पुरीष-आधान, ष० त०] मलाशय।
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पुरीषोत्सर्ग  : पुं० [सं० पुरी-उत्सर्ग, ष० त०] मल-त्याग।
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पुरु  : वि० [सं०√पृ (पालन पोषण)+कु, उत्व] बहुत अधिक। विपुल। पुं० १. देवलोक। स्वर्ग। २. एक दैत्य जिसे इन्द्र ने मारा था। ३. एक प्राचीन पर्वत। ४. फूलों का पराग। ५. देह। शरीर। ६. पुराणानुसार एक देश का नाम। ७. छठवें चन्द्रवंशी राजा, जो नहुष के पोते तथा ययाति के पुत्र थे। अपने पाँचों भाइयों में से इन्होंने अपने पिता ययाति के माँगने पर उन्हें अपना यौवन और रूप दे दिया, जिन्हें हजार वर्षों तक भोगने के बाद ययाति ने फिर इन्हें लौटा दिया था और अपने राज-सिंहासन का अधिकारी बनाया था। इन्ही के वंश में दुष्यन्त और भरत हुए थे। जिनके वंशज आगे चलकर कौरव लोग हुए। ८. पंजाब का एक प्रसिद्ध राजा जो ई० पू० ३२७ में सिकन्दर से लड़ा था।
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पुरुकुत्स  : पुं० [सं०] एक राजा जो मांधाता का पुत्र और मुचुकुंद का भाई था और जो नर्मदा नदी के आसपास के प्रदेश पर राज्य करता था। इसने नाग कन्या नर्मदा के साथ विवाह किया था।
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पुरुख  : पुं०=पुरुष।
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पुरुजित्  : पुं० [सं० पुरु√जि (जीतना)+क्विप्] १. कुंतिभोज का पुत्र जो अर्जुन का मामा था। २. विष्णु।
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पुरुदंशक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] हंस।
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पुरुदंशा (शस्)  : पुं० [सं० पुरु√दंश (काटना)+असुन्] इंद्र।
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पुरुदस्म  : पुं० [सं० पुरु√दस् (काटना)+मन्] विष्णु।
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पुरुब  : पुं०=पूर्व (दिशा या देश)।
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पुरुभोजा (जस्)  : पुं० [सं० पुरु√भुज् (खाना)+असुन] बादल।
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पुरुमित्र  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन राजा जिसका नाम ऋग्वेद में आया है। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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पुरुमीढ़  : पुं० [सं०] अजमीढ़ का छोटा भाई।
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पुरुष  : पुं० [सं०√पुर् (आगे जाना)+कुषण्] १. मानव जाति का नर प्राणी। आदमी। मर्द। (स्त्री से भिन्न) २. उक्त प्रकार का वह व्यक्ति जिसमें विशिष्ट शक्ति या सामर्थ्य हो और जो वीरता तथा साहस के काम कर सकता हो; जैसे—तुम्हें पुरुषों की तरह मैदान में आना चाहिए। ३. राज्य की ओर से सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त किया हुआ कोई अधिकारी। राज-पुरुष। ४. ऊँचाई की एक नाप जो सामान्य वयस्क मनुष्य की ऊँचाई के बराबर होती है। पुरसा। ५. शरीर में रहनेवाली आत्मा या जीव। ६. वह प्रधान सत्ता, जो सारे विश्व में आत्मा के रूप में वर्तमान है। विश्वात्मा। विशेष—सांख्यकार ने इसे आकृति से भिन्न एक ऐसा चेतन मूल तत्त्व या पदार्थ माना है, जिसमें कभी कोई परिणाम या विकार नहीं होता, और जो स्वयं कुछ भी न करने और सबसे अलग रहने पर भी प्रकृति के सान्निध्य से ही सृष्टि की उत्पत्ति करता है। ७. किसी व्यक्ति की ऊपरवाली पीढ़ी या पीढ़ियाँ। पूर्व पुरुष। पूर्वज। उदाहरण—सों सठ कोटिक पुरुष समेता। बसहिं कलप सत नरक-निकेता।—तुलसी। ८. स्त्री का पति या स्वामी। ९. व्याकरण में, वक्ता की दृष्टि से किया जानेवाला सर्वनामों का वर्गीकरण। विशेष—इसके उत्तम पुरुष, प्रथम पुरुष और मध्यम पुरुष ये तीन विभाग हैं। वक्ता अपने संबंध में जिस सर्वनाम का उपयोग करता है, वह उत्तम पुरुष कहलाता है। जैसे—मैं या हम। वह जिससे कोई बात-चीत करता है, उसके संबंध में प्रयुक्त होनेवाले विशेषण मध्यम पुरुष कहलाते हैं। जैसे—तू, तुम और आप। किसी तीसरे अनुपस्थित या दूरस्थ व्यक्ति या पदार्थ के लिए प्रयुक्त होनेवाले सर्वनामों की गणना प्रथम पुरुष में होती है। जैसे—वह या वे। कुछ वैयाकरण अँगरेजी व्याकरण के अनुकरण पर इन्हें क्रमात्, प्रथम पुरुष, द्वितीय पुरुष और तृतीय पुरुष भी कहते हैं। हमारी भाषा में इन पुरुषों का परिणाम या प्रभाव क्रिया-पदों पर भी होता है। जैसे—मैं जाता हूँ; तुम जाते हो; वह जाता है आदि। १॰. विष्णु। ११. सूर्य। १२. शिव। १३. पारा। १४. गुग्गुल। १५. पुन्नाग। १६. घोड़े का अपने पिछले दोनों पैरों पर खडा होना। पुरुषक (देखें)। वि० [सं०] १. तीखा। तेज। जैसे—पुरुष पवन। २. नर। ‘स्त्री’ का विपर्याय। जैसे—पुरुष मकर। ३. जोरदार। बलवान।
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पुरुषक  : पुं० [सं० पुरुष√कै (भासित होना)+क] घोड़े की वह स्थिति जिसमें वह अपने दोनों पैर ऊपर उठाकर दोनों पिछले पैरों पर खड़ा हो जाता है। अलफ। सीख-पाँव। विशेष—लोक में इसे ‘घोडे का जमना’ कहते हैं।
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पुरुष-कार  : पुं० [ष० त०] १. पुरुषार्थ। पौरुष। २. उद्योग।
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पुरुष-केशरी  : पुं० [उपमि० स०] १. सिंह के समान वीर पुरुष। बहुत बड़ा वीर। २. नृसिंह अवतार।
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पुरुष-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार का साम।
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परुष-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार, मंगल, सूर्य और बृहस्पति, ये तीन ग्रह।
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पुरुषध्नी  : स्त्री० [सं० पुरुष√हन् (हिंसा)+टक्+ङीप्] पति की हत्या करनेवाली स्त्री।
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पुरुषत्व  : पुं० [सं० पुरुष+त्व] पुरुष होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पुरुष-दंतिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्+टाप्, इत्व] मेदा नामक जड़ी।
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पुरुषदध्न  : पुं० [सं० पुरुष+दघ्नच्]=पुरुषद्वयस्।
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पुरुषद्वयस्  : पुं० [सं० पुरुष+द्वयसच्] ऊँचाई में पुरुष के बराबर।
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पुरुष-द्विष  : पुं० [सं० पुरुष√द्विष् (शत्रुता करना)+क्विप्] विष्णु का शत्रु।
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पुरुषद्वेषिणी  : स्त्री० [सं० पुरुष-द्विष्+णिनि+ङीप्] अपने पति से द्वेष करनेवाली स्त्री।
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पुरुष-नक्षत्र  : पुं० [ष० त०] हस्त, मूल, श्रवण, पुनर्वस्, मृगशिरा और पुष्य ये नक्षत्र। (ज्यो०)
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पुरुषनाय  : पुं० [सं० पुरुष√नी (ले जाना)+अण्] १. सेनापति। २. राजा।
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पुरुष-पशु  : पुं० [उपमि० स०] पशुओं जैसा आचरण करनेवाला व्यक्ति।
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पुरुष-पुंगव  : पुं० [उपमि० स०] श्रेष्ठ पुरुष।
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पुरुष-पुंडरीक  : पुं० [उपमि० स०] १. श्रेष्ठ पुरुष। २. जैनियों के मतानुसार नौ वासुदेवों में सातवें वासुदेव।
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पुरुष-पुर  : पुं० [ष० त०] आधुनिक पेशावर का पुराना नाम। किसी समय यह गांधार की राजधानी थी।
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पुरुष-प्रेक्षा  : स्त्री० [ष० त०] वह खेल या तमासा जो केवल पुरुषों के देखने योग्य हो, और जिसे देखना स्त्रियों के लिए वर्जित हो।
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पुरुषमात्र  : वि० [सं० पुरुष+मात्रच्] मनुष्य की ऊँचाई के बराबर का।
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पुरुषमानी (निन्)  : वि० [सं० पुरुष√मन् (समझना) +णिनि] अपने को वीर समझनेवाला।
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पुरुष-मुख  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पुरुषमुखी] पुरुष के समान मुख वाला।
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पुरुष-मेध  : पुं० [मध्य० स०] एक वैदिक यज्ञ, जिसमें पुरुष अर्थात् मनुष्य की बलि दी जाती थी। यह यज्ञ करने का अधिकार केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय को था।
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पुरुष-राशि  : स्त्री० [ष० त०] मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धन और कुंभ नामक विषम राशियों में से हर एक। (ज्यो०)
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पुरुष-वर  : पुं० [स० त०] १. श्रेष्ठ पुरुष। २. विष्णु।
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पुरुषवाद  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में एक नास्तिक दार्शनिक मत, जो ईश्वर को नहीं, बल्कि पुरुष और उसके पौरुष को ही सर्वप्रधान मानता था।
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पुरुषवादी  : वि० [सं०] पुरुषवाद-संबंधी। पुं० पुरुषवाद का अनुयायी व्यक्ति।
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पुरुष-वार  : पुं० [ष० त०] रवि, मंगल, बृहस्पति और शनि इन चार वारों में हर एक। (ज्यो०)
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पुरुषवाह  : पुं० [सं० पुरुष√वह् (ढोना)+अण्] गरूड़। पुं० [ब० स०] कुबेर।
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पुरुष-व्याध्र  : पुं० [उपमि० स०] सिंह के समान बलवाला व्यक्ति। शेर के समान पराक्रमवाला। पुरुष-सिंह।
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पुरुष-शार्दूल  : पुं० [उपमि० स०] पुरुष-व्याध्र (दे०)
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पुरुष-शीर्ष (क)  : पुं० [ष० त०] काठ का बना हुआ मनुष्य का सिर, जिसे चोर सेंध में यह देखते को डालते थे कि वह प्रवेश योग्य है या नहीं।
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पुरुष-सिंह  : पुं० [उपमि० स०] ऐसा व्यक्ति जो पराक्रम या वीरता के विचार से पुरुषों में सिंह के समान हो। परम वीर पुरुष।
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पुरुष-सूक्त  : पुं० [मध्य० स०] ऋग्वेद का एक अति पवित्र तथा प्रसिद्ध माना जानेवाला सूक्त जो ‘सहस्रशीर्षा’ से आरंभ होता है।
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पुरुषांग  : पुं० [पुरुष-अंग, ष० त०] पुरुष की लिगेंद्रिय। शिश्न।
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पुरुषांतर  : पुं० [पुरुष-अंतर, मयू० स०] अन्य व्यक्ति।
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पुरुषाद  : पुं० [सं० पुरुष√अद् (खाना)+अण्] १. मनुष्यों को खानेवाला अर्थात् राक्षस। २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य के अधिकार में माना गया है।
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पुरुषादक  : पुं० [सं० पुरुषाद+कन्] १. मनुष्यों को खानेवाला अर्थात् राक्षस। २. कल्माषपाद का एक नाम।
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पुरुषाद्य  : पुं० [पुरुष-आद्य, ष० त०] १. जिनों के प्रथम आदिनाथ। (जैन) २. विष्णु। ३. राक्षस।
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पुरुषाधम  : पुं० [पुरुष-अधम, स० त०] अधम पुरुष। हेय व्यक्ति।
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पुरुषानुक्रम  : पुं० [पुरुष-अनुक्रम, ष० त०] [वि० पुरुषानुक्रमिक] १. पुरखों की अनेक पीढ़ियों से चली आई हुई परंपरा। २. एक के बाद एक पीढ़ी का क्रम।
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पुरुषानुक्रमिक  : वि० [पुरुष-आनुक्रमिक, ष० त०] जो पुरुषानुक्रम से चला आया हो, या चला आ रहा हो। जो पूर्वजों के समय से हर पीढी़ में होता आया हो। वंशानुक्रमिक। (हेरिडेटरी)
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पुरुषायित  : क्रि० वि० [सं० पुरुष+क्यड०+क्त] पुरुषों या मर्दों की तरह। वीरतापूर्वक। बहादुरी से। पुं० १. वीर अथवा सुयोग्य पुरुषों का सा आचरण। २. दे० ‘पुरुषायित बंध’।
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पुरुषायित-बंध  : पुं० [कर्म० स०] कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार की संभोग-मुद्रा जिसमें स्त्री ऊपर और पुरुष नीचे रहता है। साहित्य में इसे विपरीत रति कहते हैं।
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पुरुषायण  : पुं० [पुरुष-अयन, ब० स०] प्राणादि षोडश कला (प्रश्नोपनिषद्)।
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पुरुषायुष  : पुं० [पुरुष-आयुस्, ष० त०, अच्] पुरुष की आयु जो सामान्यतः १॰॰ वर्षों की मानी जाती है।
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पुरुषारथ  : पुं०=पुरुषार्थ।
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पुरुषार्थ  : पुं० [पुरुष-अर्थ, ष० त०] १. वह मुख्य अर्थ उद्देश्य या प्रयोजन, जिसकी प्राप्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्न करना पुरुष या मनुष्य के लिए आवश्यक और कर्त्तव्य हो। पुरुष के उद्देश्य और लक्ष्य का विषय़। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति की दृष्टि से ये चार प्रकार के होते हैं। विशेष—सांख्य-दर्शन में सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना ही परम पुरुषार्थ है। परवर्ती पौराणिकों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ माना है, और इसी लिए उक्त चारों बातों की गिनती उन मुख्य पदार्थों में की जाती है, जिनकी ओर सदा मनुष्य का ध्यान या लक्ष्य रहना चाहिए। २. वे सब विशिष्ट उद्योग तथा प्रयत्न जो अच्छा और सशक्त मनुष्य करता है अथवा करना अपना कर्तव्य समझता है। पुरुषकार। ३. पुरुष में होनेवाली शक्ति या सामर्थ्य। मनुष्योचित बल। पौरुष।
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पुरुषार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० पुरुषार्थ+इनि] १. पुरुषार्थ करनेवाला। २. उद्योगी। ३. परिश्रमी। ४. बली। पुं० पश्चिमी पाकिस्तान से आये हुए हिंदू और सिक्ख शरणार्थियों के लिए सम्मान-सूचक शब्द।
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पुरुषावतार  : पुं० [पुरुष-अवतार, ष० त०] व्यापक ब्रह्म का पुरुष या मनुष्य के रूप में होनेवाला वह अवतार जिसमें वह शुद्ध सत्व को आधार बनाकर परमधाम से इस लोक में आविर्भूत होता है।
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पुरुषाशी (शिन्)  : पुं० [सं० पुरुष√अश् (खाना)+ णिनि] [स्त्री० पुरुषाशिनी] मनुष्य (खानेवाला) राक्षस।
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पुरुषी  : स्त्री० [सं० पुरुष+ङीष्] स्त्री।
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पुरुषोत्तम  : [सं० पुरुष-उत्तम, स० त०] जो पुरुषों में सब से उत्तम या सर्वश्रेष्ठ हो। पुं० १. वह जो पुरुषों में सब से उत्तम या सर्व-श्रेष्ठ हो। श्रेष्ठ पुरुष। २. धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसा निष्पाप व्यक्ति जो शत्रु और मित्र सब से उदासीन रहे। ३. विष्णु। ४. जगन्नाथ की मूर्ति। ५. जगन्नाथ का मन्दिर। ६. जैनियों के एक वासुदेव का नाम। ७. श्रीकृष्ण। ८. ईश्वर। ९. चांद्र गणना के अनुसार होनेवाला अधिक मास। मलमास।
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पुरुषोत्तम-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] जगन्नाथपुरी।
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पुरुषोत्तम-मास  : पुं० [ष० त०] चांद्र गणना के अनुसार होनेवाला अधिक मास। मलमास।
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पुरुहूत  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका आह्वान बहुतों ने किया हो। २. जिसकी बहुत से लोगों ने स्तुति की हो। पुं० इन्द्र।
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पुरु-हूति  : स्त्री० [सं० ब० स०] दाक्षायणी। पुं० विष्णु।
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पुरूरवा (वस्)  : पुं० [सं० पुरु√रु (शब्द करना)+अस, दीर्घ] १. एक प्राचीन राजा जिसे ऋग्वेद में इला का पुत्र कहा गया है। ये चंद्रवंश के प्रतिष्ठाता थे। राजा पुरुरवा और उर्वशी अप्सरा की प्रेम-कथा प्रसिद्ध है। २. विश्वदेव। ३. एक देवता, जिनका पूजन पार्वण श्राद्ध में होता है। वि० अनेक प्रकार के रव या ध्वनियाँ प्रकट करनेवाला।
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पुरेथा  : पुं० [हिं० पूरा+हथा] हल की मूठ।
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पुरेन  : स्त्री० [सं० पुटकिनी] १. कमल का पत्ता। २. कमल।
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पुरेभा  : स्त्री०=कुरेभा (ऐसी गाय जो वर्ष में दो बार बच्चा देती है)।
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पुरैन  : स्त्री०=पुरेन।
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पुरैना  : स० [हिं० पूरा] पूरा करना। उदा०—जज्ञ पूरैबो ठानि विज्ञ दैवज्ञ बुलाए।—रत्नाकर। अ०=पूरा होना। स्त्री०=पुरइन (कमल)।
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पुरोगंता (तृ)  : वि०, पुं० [सं० पुरस्√गम् (जाना)+ तृच्]=पुरोगामी।
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पुरोगत  : वि० [सं० पुरस्√गम+क्त] [भाव० पुरोगति] १. जो सामने हो। २. जो पहले गया हो। पुराना।
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पुरोगति  : स्त्री० [सं० पुरस्√गम्+क्तिन्] १. पुरोगत होने की अवस्था या भाव। २. अग्रगामिता। पुं० [ब० स०] कुत्ता। वि० आगे-आगे चलनेवाला।
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पुरोगमन  : पुं० [सं० पुरस्√गम्+ल्युट—अन] १. आगे की ओर चलना या बढ़ना। २. उन्नति, वृद्धि आदि की ओर अग्रसर या प्रवृत्त होना। (प्रोगेशन)।
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पुरोगामी (मिन्)  : वि० [सं० पुरस्√गम्+णिनि] १. आगे आगे चलनेवाला। अगुआ। अग्रगामी। (पायोनियर) २. बराबर उन्नति करता और आगे बढ़ता हुआ। ३. किसी विषय में उदार विचार रखने और अग्रसर रहनेवाला। (प्रोग्रेसिव) पुं० १. नायक। २. अग्रदूत। ३. कुत्ता।
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पुरोचन  : पुं० [सं०] दुर्योधन का एक मित्र, जो पांडवों को लाक्षागृह में जलाने के लिए नियुक्त किया गया था।
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पुरोजव  : वि० [सं० पुरस्-जव, ब० स०] १. जिसके सामनेवाले भाग में वेग हो। २. आगे बढानेवाला। पुं० पुराणानुसार पुष्कर द्वीप के सात खंडों में से एक खंड।
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पुरोडा  : पुं० [सं० पुरस्√दाश् (दान)+घञ्, डत्व] १. जौ के आटे की बनी हुई वह टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिए मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी। २. उक्त आहुति देने के समय पढ़ा जानेवाला मंत्र। ३. उक्त का वह अंश जो हवि देने के बाद बच रहता था। ४. यज्ञ में दी जानेवाली आहुति या हवि। ५. सोमरस।
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पुरोत्सव  : पुं० [सं० पुर-उत्सव, मध्य० स०] पूरे पुर या नगर में सामूहिक रूप से मनाया जानेवाला उत्सव।
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पुरोदर्शन  : पुं० [सं० पुरस्-दर्शन, ब० स०] १. सामने की ओर से दिखाई देनेवाला रूप। २. वास्तु-रचना का वह चित्र, जो उसके सामनेवाले भाग के स्वरूप का परिचायक हो। (फ्रंट एलिवेशन)।
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पुरोद्भवा  : स्त्री० [सं० पुर√उद्√भू (उत्पन्न होना)+अच्+टाप्] महामेदा।
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पुरोद्यान  : पुं० [सं० पुर-उद्यान, ष० त०] पुर या नगर का मुख्य उद्यान या बाग।
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पुरोध  : पुं०=पुरोधा।
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पुरोवा (धस्)  : पुं० [सं० पुरस्√धा (धारण)+असि] पुरोहित।
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पुरोधानीय  : पुं० [सं० पुरस√धा+अनीयर्] पुरोहित।
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पुरोनुवाक्या  : स्त्री० [सं० पुरस्-अनुवाक्या, स० त०] १. यज्ञों की तीन प्रकार की आहुतियों में से एक। २. उक्त आहुति के समय पढ़ी जानेवाली ऋचा।
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पुरोभाग  : पुं० [सं० पुरस्√भज्+घञ्] १. अग्रभाग। अगला हिस्सा। २. दोष निकालने या बतलाने की क्रिया।
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पुरोभागी (गिन्)  : वि० [सं० पुरस√भज्+णिनि] [स्त्री० पुरोभागिनी] १. आगे की ओर रहने या होनेवाला। अग्र भाग का। २. जो गुणों को छोड़कर केवल दोष देखता हो। छिद्रान्वेषी दोषदर्शी।
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पुरोरवस  : पुं० [सं०=पुरुवस्, पृषो० सिद्धि] =पुरूरवा।
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पुरोवात  : पुं० [सं० पुरस्-वात, मध्य० स०] पूर्व दिशा से आनेवाली हवा। पुरवा।
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पुरोवाद  : पुं० [सं० पुरस्-वाद, कर्म० स०] पूर्व कथन।
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पुरोहित  : वि० [सं० पुरस्√धा+क्त,हि—आदेश] १. आगे या सामने रखा हुआ। २. किसी काम या बात के लिए नियुक्त किया हुआ। पुं० [स्त्री० पुरोहितानी] १. प्राचीन भारत में वह प्रधान याचक, जो अन्य याचकों का नेता बनकर यजमान से गृह-कर्म, श्रौत-कर्म, तथा धार्मिक संस्कार आदि कराता था। २. आज-कल कर्मकांड आदि जाननेवाला वह ब्राह्मण, जो अपने यजमान के यहाँ मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार कराता तथा अन्य अवसरों पर उनसे दान, दक्षिणा आदि लेता है। ३. साधारण लोक-व्यवहार में, किसी जाति या धर्म का वह व्यक्ति, जो दूसरों से धार्मिक कृत्य, संस्कार आदि कराता हो। (प्रीस्ट)
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पुरोहित-तंत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसा तंत्र या शासन प्रणाली जिसमें पुरोहितों के मत का ही प्राधान्य हो। (हायरार्की)
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पुरोहिताई  : स्त्री० [सं० पुरोहित+आई (प्रत्य०)] पुरोहित का काम, पद या भाव। यजमानों को धार्मिक कृत्य आदि कराने का काम या वृत्ति।
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पुरोहितानी  : स्त्री० [सं० पुरोहित] पुरोहित की स्त्री।
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पुरोहिती  : वि० [हिं० पुरोहित] पुरोहित-सम्बन्धी। पुरोहित का। स्त्री०=पुरोहिताई।
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पुरौ  : पुं०=पुरवट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरौती  : स्त्री० [हिं० पुरवना=पूरा करना] कमी पूरी करना। पूर्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरौनी  : स्त्री० [हिं० पूरना=पूरा करना] १. पूरा करना। २. समाप्ति।
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पुर्जा  : पुं०=पुरजा।
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पुर्त्तगाल  : पुं० [अं०] योरप के दक्षिण पश्चिम कोने पर पड़नेवाला एक छोटा प्रदेश, जो स्पेन से लगा हुआ है।
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पुर्त्तगाली  : वि० [हिं० पुर्त्तगाल] १. पुर्तगाल देश संबंधी। पुर्त्तगाल का। पुं० पुर्त्तगाल देश का निवासी। स्त्री० पुर्त्तगाल देश की भाषा।
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पुर्तगीज  : वि०=पुर्त्तगाली।
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पुर्वला  : वि० [हिं० पुरवला] १. पहले का। २. पूर्व जन्म का
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पुर्सा  : पुं०=पुरसा।
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पुर्सी  : स्त्री० [फा०] पुरसी। (दे०)
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पुलंदा  : पुं०=पुलिंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुल  : पुं० [फा०] १. खाइयों, नदी-नालों, रेललाइनों आदि के ऊपर आर-पार पाटकर बनाई हुई वह वास्तु रचना, जिस पर से होकर आदमी और गाड़ियाँ इधर से उधर आते—जाते हैं। सेतु। विशेष—मूलतः पुल प्रायः नदियाँ पार करने के लिए नावों की श्रृंखला से बनते थे। बाद में पीपों आदि के आधार पर अथवा बड़े-बड़े ऊँचे खंभों पर भी बनने लगे। २. लाक्षणिक रूप में, किसी चीज या बात का कोई बहुत लंबा क्रम या सिलसिला। झड़ी। ताँता। जैसे—किसी की तारीफ का पुल बाँधना; बातों का पुल बाँधना। क्रि० प्र०—बाँधना। मुहावरा—(किसी चीज या बात का) पुल टूटना=इतनी अधिकता या भरमार होना कि मानों उसकी राशि को रोक रखनेवाला बंधन टूट गया हो। जैसे—मेला देखने के लिए आदमियों का पुल टूट पड़ा था। ३. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी चीज, जो दो या कई पक्षों के बीच में रहकर उन्हें मिलाये रखती हो। माध्यम। पुं० [सं०√पुल (ऊँचा होना)+क] १. पुलक। रोमांच। २. शिव का एक अनुचर। वि० १. बहुत अधिक। विपुल। २. बहुत बड़ा, विशाल या विस्तृत।
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पुलक  : पुं० [सं० पुल+कन्] १. प्रेम, भय, हर्ष आदि मनोविकारों की प्रबलता के समय शरीर में होनेवाला रोमांच। त्वककंप। विशेष—पुलक और रोमांच के अंतर के लिए दे० ‘रोमांच’ का विशेष। २. मन में होनेवाली वह कामना या वासना जो कोई काम करने की प्रवृत्ति करती हो। (अर्ज) जैसे—संभोग पुलक। ३. एक प्रकार का मोटा अन्न। ४. एक प्रकार का नगीना या रत्न, जिसे चुन्नी, महताब और याकूत भी कहते हैं। ५. एक प्रकार का कीड़ा जो शरीर के गले हुए अंगों में उत्पन्न होता है। ६. जवाहिरात या रत्नों का एक प्रकार का दोष। ७. हाथी का रातिब। ८. हरताल। ९. प्राचीन काल का एक प्रकार का मद्यपात्र। १॰. एक प्रकार की राई। ११. एक प्रकार का कंदा। १२. एक गंधर्व का नाम।
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पुलकना  : अ. [सं० पुलक+ना (प्रत्य०)] प्रेम, हर्ष आदि से पुलकित होना।
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पुलक-बंध  : पुं० [सं० ब० स०] चुनरी। चुंदरी।
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पुलकांग  : पुं० [सं० पुलक-अंग, ब० स०] वरुण का पाश।
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पुलकाई  : स्त्री०=[सं० पुलक] पुलकित होने की अवस्था या भाव। पुलक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुलकालय  : पुं० [सं० पुलक-आलय, ब० स०] कुबेर का एक नाम।
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पुलकालि  : [सं० पुलक-आलि, ष० त०]=पुलकावलि।
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पुलकावलि  : स्त्री० [सं० पुलक-आवलि, ष० त०] हर्ष से प्रफुल्ल रोम। हर्षजन्य रोमांच।
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पुलकित  : भू० कृ० [सं० पुलक+इतच्] प्रेम, हर्ष आदि के कारण जिसे पुलक हुआ हो, या जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। प्रेम या हर्ष से गद्गद। रोमांचित।
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पुलकी (किन्)  : वि० [सं० पुलक+इनि] १. जिसे पुलक हुआ हो। पुलकित। २. जो प्रेम, हर्ष आदि में गद्गद् और रोमांचित हुआ हो। पुं० १. कदंब। २. धारा कदंब।
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पुलकोद्गम, पुलकोदभेद  : पुं० [सं० पुलक-उद्गम, पुलक-उद्भेद, ष० त०] रोम खड़े होना। लोमहर्षण।
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पुलट  : स्त्री०=पलट।
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पुलटिस  : स्त्री० [सं० पोल्टिस] फोड़ों आदि को पकाने या बहाने के लिए उस पर चढ़ाया जानेवाला अलसी, रेंडी आदि का मोटा लेप। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—बाँधना।
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पुलना  : अ० [देश०] चलना। उदा०—जेती जउ मनमाँहि पँजर जइ तेती, पुलइ।—ढो० मा०।
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पुलपुल  : स्त्री० [अनु०] किसी फूली हुई चीज के बार बार या रह-रहकर थोड़ा पिचकने और फिर उभरने या फूलने की क्रिया या भाव। वि०=पुलपुला।
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पुलपुला  : वि० [अनु०] १. जो अन्दर से इतना ढीला और मुलायम हो कि जरा-सा दबाने से उसका तल सहज में कुछ दब या धँस जाय। जैसे—ये आम पककर पुलपुले हो गये हैं। २. दे० ‘पोला’।
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पुलपुलाना  : स० [हिं० पुलपुलाना] [भाव० पुलपुलाहट] १. किसी मुलायम चीज को मुँह में लेकर या हाथ से दबाकर पुलपुला करना। जैसे—आम पुल-पुलाना। अ० पुलपुला होना। जैसे—आम पुलपुला गया है। (पूरब)
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पुलपुलाहट  : स्त्री० [हिं० पुलपुला+हट (प्रत्य०)] पुलपुले होने की अवस्था, गुण या भाव। पुलपुलापन।
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पुलस्त  : पुं०=पुलस्त्य।
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पुलस्ति  : पुं० [सं०पुल√अस् (जाना)+ ति, शक० पररूप]=पुलस्त्य।
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पुलस्त्य  : पुं० [सं० पुलस्ति+यत्] १. ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक जिसकी गिनती सप्तऋर्षियों और प्रजापतियों में होती है। २. शिव का एक नाम।
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पुलह  : पुं० [सं०] १. सप्तऋर्षियों में से एक ऋषि जो ब्रह्मा के मानस पुत्रों और प्रजापतियों में थे। २. शिव का एक नाम।
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पुलहना  : अ०=पलुहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुलाक  : पुं० [सं०√पुल्+कलाक, नि० सिद्धि] १. एक प्रकार का कदन्न। अँकरा। २. भात। ३. माँड़। ४. पुलाव। ५. अल्पता। ६. छिप्रता। जल्दी।
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पुलाकी (किन्)  : पुं० [सं० पुलाक+इनि] वृक्ष।
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पुलायित  : पुं० [सं० पुल+क्यङ्+क्त] घोडे का सरपट दौड़ना।
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पुलाव  : पुं० [सं० पुलाव से फा० पलाव] एक प्रकार का व्यंजन जो मांस और चावल को एक साथ पकाने से बनता है। मांसोदन। २. पकाये हुए मीठे चावल।
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पुलिंद  : पुं० [सं०√पुल+किन्दच्] १. भारतवर्ष की एक प्राचीन असभ्य जाति। २. उक्त जाति के बसने का देश। ३. उक्त जाति का व्यक्ति।
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पुलिंदा  : स्त्री० [सं०] एक छोटी नदी, जो ताप्ती में मिलती है। महाभारत में इसका उल्लेख है। पुं० [सं० पुल=ढेर; या हिं० पूला] कागज, कपड़े आदि में बँधी बड़ी गठरी।
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पुलिकेशि  : पुं० [सं०] १. ईसवी छठी शताब्दी के एक राजा, जिन्होंने दक्षिण भारत में पल्लवों की राजधानी वातापिपुरी जीतकर चालुक्य वंशीय राज्य स्थापित किया था। २. उक्त वंश के एक प्रतापी राजा, जिन्होंने ७ वीं शताब्दी के आरंभ में पूरे दक्षिण भारत और महाराष्ट्र पर शासन किया था।
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पुलिन  : पुं० [सं०√पुल्+इनन्] १. ऐसी गीली भूमि, जो नदी आदि का पानी हटने से निकल आई हो। चर। २. नदी, समुद्र आदि का किनारा विशेषतः रेतीला किनारा। तट। (बीच) ३. नदी आदि के बीच में निकला हुआ रेत का ढूह। चर। ४. एक यक्ष का नाम।
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पुलिनमय  : वि० [सं० पुलिन+मयट्] (स्थान) जो बहते हुए पानी के सम्पर्क से गीला या तर हो। (एल्यूवियल)
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पुलिनवती  : स्त्री० [सं० पुलिन+मतुप्, वत्व, ङीप्] तटिनी। नदी।
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पुलिरिक  : पुं० [सं०] साँप।
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पुलिश  : पुं० [सं०] ज्योतिष के एक प्राचीन आचार्य जिनके नाम से पौलिश सिद्धान्त प्रसिद्ध है और जो वराहमिहिरों के कहे हुए पंच सिद्धान्तों में से एक है। अलबरूनी ने इसे यूनानी (यवन) और कुछ इतिहासज्ञों ने इसे मिश्र देश का निवासी बताया है।
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पुलिस  : स्त्री० [अं०] १. किसी नगर राज्य आदि का वह राजकीय विभाग, जिसका मुख्य काम शांति तथा व्यवस्था बनाये रखना है और जो अपराधों को रोकने के लिए अपराधियों को पकड़ता तथा न्यायालय द्वारा उन्हें दण्डित कराता है। २. उक्त विभाग के लोगों का दल। ३. उक्त विभाग का कोई अधिकारी या कर्मचारी। सिपाही।
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पुलिसमैन  : पुं० [अं०] पुलिस (विभाग) का सिपाही।
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पुलिहोरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पकवान।
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पुली  : स्त्री० [देश०] उत्तर भारत में होनेवाली काली और भूरे रंग की एक चिड़िया। स्त्री० [अं० पूली] १. एक चक्कर या पहिया, जिस पर रस्सा रखकर भार खींचते हैं। २. उक्त प्रकार के चक्करों या पहियों का वह सामूहिक यांत्रिक रूप जिसकी सहायता से बहुत बड़े-बड़े भार उठा कर इधर-उधर किये जाते हैं। ३. उक्त प्रकार का वह चक्कर या पहिया, जिस पर पट्टा रखकर इंजन आदि की संचालक शक्ति यंत्रों तक पहुँचाई जाती है।
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पुलोम (न्)  : पुं० [सं०] इंद्र की पत्नी शची के पिता, जो एक राक्षस थे तथा जिन्हें इंद्र ने युद्ध में मारा था।
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पुलोमजा  : स्त्री० [सं० पुलोमन√जन् (उत्पत्ति)+ड+ टाप्] पुलोम राक्षस की कन्या शची, जो इन्द्र की पत्नी थी।
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पुलोमजित्  : पुं० [सं० पुलोमन√जि (जीतना)+क्विप्] इन्द्र।
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पुलोमही  : स्त्री० [सं०] अहिफेन। अफीम।
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पुलोमा  : पुं० [सं०] पुलोम नामक राक्षस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुल्कस  : पुं० [सं०] उपनिषद्-काल की एक संकर जाति, जिसकी उत्पत्ति निषाद पुरुष और शूद्रा स्त्री से मानी गई है।
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पुल्ला  : पुं० [?] १. नाक में पहनने का एक गहना। २. हिलसा मछली।
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पुल्लिंग  : पुं०=पुंलिंग।
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पुल्ली  : स्त्री० [देश०] घोड़े के सुम के ऊपर का हिस्सा। स्त्री० १.=पुली। २.=पूली (पूला का भी०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुवा  : पुं०=पूआ (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुवार  : पुं०=पयाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुश्त  : स्त्री० [फा०] १. पशुओं, मनुष्यों आदि की पीठ। जैसे—पुश्तखम=टेढी पीठवाला, अर्थात् कुबड़ा। २. किसी चीज का पिछला भाग। पृष्ठ-भाग। पोछा। ३. वंश-परम्परा में की प्रत्येक श्रेणी या स्थान जिस पर कोई पुरुष रहा हो या आने को हो। पीढी़। (जेनरेशन)। पद—पुश्त-दरपुश्त=बराबर या लगातार हर पीढी में। पुश्तहा-पुश्त=(क) कई पीढ़ियों से। (ख) कई पीढ़ियों तक।
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पुश्तक  : स्त्री० [फा०] पशुओं द्वारा पिछले दोनों पैर उठाकर किया जानेवाला आघात। दोलत्ती। क्रि० प्र०—झाड़ना।—मारना।
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पुश्तखार  : पुं० [फा०] पीठ खुजलाने का सींग, हाथी दाँत आदि का एक तरह का पंजा।
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पुश्तनामा  : पुं० [फा० पुश्तनामः] वह कागज जिस पर पूर्वापर क्रम से किसी कुल में उत्पन्न हुए लोगों के नाम लिखे होते हैं। वंशावली। कुरसीनामा।
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पुश्तवानी  : स्त्री० [फा० पुश्त+हिं० वान् (प्रत्य०)] वह आड़ी लकड़ी जो किवाड़ के पीछे पल्ले की मजबूती के लिए लगाई जाती है।
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पुश्ता  : पुं० [फा० पुश्तः] १. ईंट, पत्थर मिट्टी आदि की वह ढालुईं वास्तु-रचना जो (क) नदियों के किनारे पानी की बाढ़ रोकने अथवा (ख) बड़ी और भारी दीवारों या ऊँची सड़कों को गिरने से बचाने के लिए उनके पार्श्व में खड़ी की जाती है। (एम्बैंकमेन्ट) २. किताब की जिल्द के पीछे, अर्थात् पुट्ठे पर लगा हुआ चमड़ा या ऐसी ही और कोई चीज। ३. संगीत में पौने चार मात्राओं का एक प्रकार का ताल जिसमें तीन आघात होते हैं और एक खाली रहता है।
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पुश्तापुश्त  : अव्य० [फा०] १. कई पीढ़ियों से। २. कई पीढ़ियों तक।
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पुश्ताबंदी  : स्त्री० [फा०] पुश्ता उठाने, खड़ा करने या बाँधने की क्रिया या भाव।
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पुश्तारा  : पुं० [फा० पुश्तवारः] वह बोझ जो पीठ पर उठाया जाय, या उठाया जा सके।
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पुश्ती  : स्त्री० [फा०] १. टेक। सहारा। आश्रय। थाम। २. वह टेक या सहारा जो किसी चीज के पीछे उसे खड़ी रखने या गिरने से बचाने के लिए लगाया जाय़। ३. पीछे की ओर से की जानेवाली मदद या दी जानेवाली सहायता। पृष्ठ-पोषण। ४. पक्षपात। तरफदारी। ५. पालन-पोषण। क्रि० प्र०—लेना। ६. पीठ टेककर बैठने का बहुत बड़ा तकिया। गाव-तकिया।
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पुश्तैन  : स्त्री० [फा० पुश्त] वंशपरंपरा। पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
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पुश्तैनी  : वि० [हिं० पुश्तैन] १. जो पुरानी पीढ़ी के लोगों के अधिकार में रहा हो। जैसे—हमारा पुश्तैनी मकान बिक चुका है। २. जो कई पीढ़ियों से बराबर चला आ रहा हो। जैसे—पुश्तैनी रोग।
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पुष  : वि० [सं०√पुष् (पुष्ट करना)+क] १. पोषण प्रदान करनेवाला। २. दिखलाने या प्रदर्शित करनेवाला।
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पुषा  : स्त्री० [सं० पुष+टाप्] कलियारी का पौधा।
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पुषित  : भू० कृ० [सं० पुष्ट] १. पोषित। २. वर्द्धित।
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पुष्कर  : पुं० [सं०√पुष्+क, कित्व, पुष्क√रा (देना)+ क] १. जल। पानी। २. जलाशय। पोखरा। ३. कमल। ४. कलछी के आगे लगी हुई कटोरी। ५. ढोल, मृदंग आदि का मुँह। ६. हाथी की सूँड़ का अगला भाग। ७. आकाश। आसमान। ८. तीर। वाण। ९. तलवार का फल। १॰. म्यान। ११. पिंजड़ा। १२. पद्यकंद। १३. नृत्यकला। १४. सर्प। १५. युद्ध। लड़ाई। १६. अंश। भाग। १७. नशा। मद। १८. भग्नपाद नक्षत्र का एक अशुभ योग जिसकी शांति का विधान किया गया है। १९. पुष्कर-मूल। २॰. कुष्ठौषधि। कुट। २१. एक तरह का ढोल। २२. एक प्रकार का रोग। २३. एक दिग्गज। २४. सारस पक्षी। २५. विष्णु का एक रूप। २६. शिव। २७. भरत के एक पुत्र। २८. कृष्ण के एक पुत्र। २९. एक असुर का नाम। ३॰. गौतम बुद्ध का एक नाम। ३१. पुराणानुसार ब्रह्मांड के सात लोकों में से एक। ३२. मेघों का एक नायक। ३३. आधुनिक अजमेर के पास का एक प्रसिद्ध तीर्थ।
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पुष्कर-कर्णिका  : स्त्री० [सं० पुष्कर√कर्ण+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] १. स्थलपद्मिनी। २. सूँड़ की नोक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुष्कर-चूड़  : पुं० [सं०] लोलार्क पर्वत पर स्थित दिग्गज का नाम।
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पुष्कर-जटा  : स्त्री० [सं०] १. कुट नामक औषधि। २. कमल की जड़। भसींड।
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पुष्कर-नाड़ी  : स्त्री० [सं० पुष्कर√नड् (नष्ट करना)+ णिच्+अच्—ङीष्] स्थल पर होनेवाला एक तरह का कमल। स्थलपद्मिनी।
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पुष्कर-नाभ  : पुं० [ब० स०, अच्] विष्णु।
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पुष्कर-पर्ण  : पुं० [ष० त०] १. कमल का पत्ता। २. यज्ञ के वेदी बनाने के काम में आनेवाली एक प्रकार की ईंट।
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पुष्कर-प्रिय  : पुं० [ब० स०] मधुमक्षिका। मधुमक्खी।
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पुष्कर-बीज  : पुं० [ष० त०] कमल का बीज। कमल-गट्टा।
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पुष्कर-मुख  : पुं० [ब० स०] सूँड़ का विवर। वि० सूँड़ जैसे मुँहवाला।
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पुष्कर-मूल  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार की वनस्पति की जड़, जिसके संबंध में कहा जाता है कि यह कश्मीर के सरोवरों में उत्पन्न होती है। यह ओषधि आजकल नहीं मिलती, वैद्य लोग इसके स्थान पर कुष्ठ या कुट का व्यवहार करते हैं।
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पुष्कर-व्याघ्र  : पुं० [स० त०] घड़ियाल।
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पुष्कर-शिफा  : स्त्री० [ष० त०] पुष्कर-मूल।
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पुष्कर-सागर  : पुं० [उपमि० स०] पुष्कर-मूल।
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पुष्कर-सारी  : स्त्री० [ष० त०+ङीष्] एक प्राचीन लिपि।
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पुष्कर-स्थपति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पुष्करस्रक् (ज्)  : पुं० [ब० स०] अश्विनीकुमार। स्त्री० कमलों की गूँथी हुई माला।
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पुष्कराक्ष  : वि० [पुष्कर-अक्षि, ब० स०, अच्] कमल- नयन। पुं० विष्णु।
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पुष्कराख्य  : पुं० [सं० पुष्कर-आख्या, ब० स०] सारस पक्षी।
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पुष्कराग्र  : पुं० [सं० पुष्कर-अग्र, ष० त०] सूँड़ का अगला भाग।
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पुष्करावती  : स्त्री० [सं० पुष्कर+मतुप्, वत्व, दीर्घ] एक प्राचीन नदी।
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पुष्करावर्तक  : पुं० [सं० पुष्कर-आ√वृत्त (बरतना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] मेघों के एक अधिपति।
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पुष्कराह्व  : पुं० [सं० पुष्कर-आह्वा, ब० स०] सूँड़ का अग्र भाग।
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पुष्करिका  : स्त्री० [सं० पुष्कर+ठन्—इक्+टाप्] लिंग का एक रोग।
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पुष्करिणी  : स्त्री० [सं० पुष्कर+इनि+ङीष्] १. हथिनी। २. छोटा जलाशय। ३. ऐसा जलाशय, जिसमें कमल खिले हों। ४. कमल का पौधा। ५. एक प्राचीन नदी। ६. चाक्षुष मनु की पत्नी। ७. भूमन्यु की पत्नी और ऋचीक की माता।
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पुष्करी (रिन्)  : पुं० [सं० पुष्कर+इनि] हाथी। वि० जिसमें कमल हों।
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पुष्कल  : पुं० [सं०√पुष्+कलच्, कित्व] १. वह भिक्षा जो केवल चार गाँवों से लाई जाती थी। २. अनाज नापने का एक प्राचीन मान, जो ६४ मुट्ठियों के बराबर होता था। ३. शिव। ४. वरुण के एक पुत्र। ५. राम के भाई भरत का एक पुत्र। ६. एक बुद्ध का नाम। ७. एक प्रकार का ढोल। ८. एक प्रकार की वीणा। वि० १. बहुत। अधिक। ढेर-सा। प्रचुर। २. भरा-पूरा परिपूर्ण। ३. श्रेष्ठ। ४. उपस्थित। प्रस्तुत। ५. पवित्र।
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पुष्कलक  : पुं० [सं० पुष्कल+कन्] १. कस्तूरी-मृग। २. अर्गला। सिटकनी। ३. कील।
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पुष्कलावती  : स्त्री० [सं० पुष्कल+मतुप्, वत्व, दीर्घ] पुराणानुसार भरत के पुत्र पुष्कल की बसाई हुई गांधार देश की प्राचीन नगरी।
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पुष्ट  : वि० [सं०√पुष्+क्त] [भाव.पुष्टता, पुष्टि] १. जिसका अच्छी तरह पोषण हुआ हो; फलतः दृढ़ या मजबूत। २. मोटा-ताजा और बलवान। पद—हृष्टपुष्ट (देखें)। ३. जिसमें कोई कचाई या कोर-कसर न हो, और इसी लिए जिसका भरोसा किया जा सके। पक्का। ४. (कथन या बात) जो प्रमाणों से सत्य सिद्ध होती हो, फलतः जिसके ठीक या सत्य होने में कोई संदेह न रह गया हो। ५. सब तरह से पूरा। परिपूर्ण। ६. प्रमुख। मुख्य। ७. दे० ‘पौष्टिक’। पुं० विष्णु।
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पुष्टई  : स्त्री० [सं० पुष्ट+ई (प्रत्य०)] १. पुष्टता। २. वह ओषधि या खाद्य-वस्तु, जो शरीर को पुष्ट करने के लिए खाई जाय।
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पुष्टता  : स्त्री० [सं० पुष्ट+तल्+टाप्] पुष्ट होने की अवस्था या भाव। पुष्टि।
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पुष्टि  : स्त्री० [सं०√पुष+क्तिन] १. पुष्ट अर्थात् दृढ़ या मजबूत होने की अवस्था या भाव। दृढ़ता। मजबूती। २. पुष्ट करने की क्रिया या भाव। पोषण। ३. धन, संतान आदि की होनेवाली वृद्धि। बढ़ती। ४. वह उदाहरण, तर्क या प्रमाण, जिसमें कोई बात पुष्ट की जाय। ५. किसी कही हुई बात का ऐसा अनुमोदन या समर्थन जिससे वह और भी अधिक या पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय। जैसे—आपकी इस बात से मेरे मत (या संदेह) की पुष्टि होती है। ६. सोलह मातृकाओं में से एक। ७. मंगला, विजया आदि आठ प्रकार की चारपाइयों में से एक। ८. धर्म की पत्नियों में से एक। ९. एक योगिनी का नाम। १॰. असगंध नामक ओषधि। अश्वगंध। ११. दे० ‘पुष्टिमार्ग’।
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पुष्टि-कर  : वि० [ष० त०] १. पुष्ट करनेवाला। २. पुष्टि करनेवाला। ३. बल या वीर्य्यवर्द्धक।
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पुष्टिकरी  : स्त्री० [सं० पुष्टिकर+ङीष्] गंगा। (काशी-खंड)
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पुष्टि-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] अभ्युदय के लिए किया जानेवाला एक धार्मिक कृत्य।
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पुष्टिका  : स्त्री० [सं० पुष्टि+कन्—टाप्] जल की सीप। सुतही सीपी।
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पुष्टि-काम  : वि० [ब० स०] अभ्युदय का इच्छुक।
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पुष्टि-कारक  : वि० [ष० त०] पुष्टिकर। (दे०)
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पुष्टिद  : वि० [सं० पुष्टि√दा (देना)+क] पुष्टिकर। (दे०)
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पुष्टिदग्धयत्न  : पुं० [सं० दग्ध-यत्न, ष० त०, पुष्टिदग्धयत्न, मध्य० स०] चिकित्सा का एक प्रकार जिसमें आग में जले हुए अंग को आग से सेंक कर या किसी प्रकार का गरम-गरम लेप करके अच्छा किया जाता है।
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पुष्टिदा  : स्त्री० [सं० पुष्टिद+टाप्] १. अश्वगंधा। असगंध। २. वृद्धि नाम की ओषधि।
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पुष्टिपति  : पुं० [सं० ष० त०] अग्नि का एक भेद।
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पुष्टि-मत  : पुं०=पुष्टि-मार्ग।
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पुष्टि-मार्ग  : पुं० [ष० त०] भक्ति-क्षेत्र में, श्री वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत मन की साधना-व्यवस्था जो श्रीमद्भागवत के ‘पोषणं तदनुग्रहः’ वाले तत्त्व पर आधारित है। इसमें भक्त कर्म-निरपेक्ष होकर भगवान श्रीकृष्ण को आत्म-समर्पण करके ही सुखी रहता है; और अपने कर्मों के फल की कामना नहीं करता।
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पुष्टीकरण  : पुं० [सं० पुष्ट+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट—अन] किसी कही हुई बात या किये हुए काम को ठीक मानते हुए उसकी पुष्टि करना। (कन्फर्मेशन)
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पुष्पंधय  : वि० [सं० पुष्प√धे (पीना)+श, मुम्] मकरंद पान करनेवाला। पुं० भौंरा। भ्रमर।
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पुष्प  : पुं० [सं०√पुष्प (खिलना)+अच्] १. पेड-पौधों के फूल। कुसुम। २. मधु। शहद। ३. पुष्पराग नामक मणि। पुखराज। ४. आँख का फूली नामक रोग। ५. ऋतुमती या रजस्वला स्त्री का रज। ६. घोडों के शरीर पर का एक चिह्न या लक्षण। चित्ती। ७. खिलने और फैलने की क्रिया। विकास। ८. आँख में लगने का एक प्रकार का अंजन या सुरमा। ९. रसौत। १॰. पुष्कर-मूल। ११. लौंग। १२. वाम-मार्गियों की परिभाषा में खाया जानेवाला मांस। गोश्त। १३. पुष्पक विमान।
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पुष्पक  : पुं० [सं० पुष्प+कन् या पुष्प√कै (भासित होना)+क] १. फूल। कुसुम। पुष्प। २. कुबेर का विमान। ३. जड़ाऊ कंगन। ४. रसांजन। रसौत। ५. आँख का फूली नामक रोग। ६. हीरा कसीस। ७. पीतल लोहे आदि की मैल। ८. पीतल। ९. एक प्रकार का बिना विष का साँप। १॰. एक प्राचीन पर्वत। ११. प्रासाद बनाने में एक प्रकार का मंडप। १२. वह खंभा जिसके कोने आठ भागों में बँटें हों।
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पुष्प-करंडक  : पुं० [सं० ब० स०] १. उज्जयिनी का एक प्राचीन शिवोद्यान। २. डलिया, जिसमें तोड़े हुए फूल रखे जाते हैं।
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पुष्प-करंडिनी  : स्त्री० [सं० पुष्प-करंड, ष० त०, इनि+ ङीप्] उज्जयिनी।
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पुष्प-काल  : पुं० [ष० त०] १. वसंतऋतु। २. स्त्रियों का ऋतु काल।
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पुष्प-कासीस  : पुं० [उपमि० स०] एक तरह का कसीस। हीरा कसीस।
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पुष्प-कीट  : पुं० [मध्य० स०] १. फूल का कीड़ा। २. भौंरा।
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पुष्प-कृच्छ्र  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें केवल फूलों का क्वाथ पीकर निर्वाह किया जाता है।
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पुष्प-केतन  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-केतु  : पुं० [ब० स०] १. पुष्पांजन। २. कामदेव। ३. बुद्ध।
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पुष्प-गंडिका  : स्त्री० [ष० त०] लास्य के दस भेदों में से एक।
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पुष्प-गंधा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] जूही।
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पुष्प-गवेधुका  : स्त्री० [स० त०] नागवला।
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पुष्प-घातक  : पुं० [ष० त०] बाँस।
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पुष्प-चयन  : पुं० [ष० त०] पुष्प तोड़ना। फूल चुनना।
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पुष्प-चाप  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-चामर  : पुं० [ब० स०] १. दौना। २. केवड़ा।
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पुष्पज  : वि० [सं० पुष्प√जन् (उत्पन्न होना)+ड] फूल से उत्पन्न होनेवाला। पुं० फूल का मकरंद या रस।
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पुष्पजीवी (विन्)  : पुं० [सं० पुष्प√जीव् (जीना)+ णिनि] माली।
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पुष्प-दंड  : पुं० [ष० त०] पेड़-पौधों की वह डंडी जिसमें फूल या फल लगते हैं।
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पुष्प-दंत  : पुं० [ब० स०] १. वायुकोण का दिग्गज। २. प्राचीन भारत में एक प्रकार का नगरद्वार। ३. शिव का अनुचर एक गंधर्व, जिसका रचा हुआ महिम्नस्तोत्र कहा जाता है। ४. एक विद्याधर। ५. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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पुष्पद  : वि० [सं० पुष्प√दा (देना)+क] पुष्प या फूल देनेवाला। पुं० पेड़। वृक्ष।
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पुष्पध  : पुं० [सं० पुष्प√धा (धारण करना)+क] व्रात्य ब्राह्मण से उत्पन्न एक जाति।
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पुष्पधनु  : पुं०=पुष्प-धन्वा।
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पुष्प-धनुस्  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-धन्वा (न्यन्)  : पुं० [ब० स०] १. कामदेव। २. वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जो रससिंदूर, सीसे अभ्रक और वंग में धतूरा भाँग जेठी मधु आदि मिलाने से बनता है और जो कामोद्दीपक तथा शक्तिवर्द्धक माना जाता है।
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पुष्प-ध्वज  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्पनिक्ष  : पुं० [सं० पुष्प√निक्ष् (चूसना)+अण्] भ्रमर। भौंरा।
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पुष्प-निर्यास  : पुं० [ष० त०] फूलों का रस। मकरंद।
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पुष्प-नेत्र  : पुं० [मध्य० स०] वस्ति की पिचकारी की सलाई।
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पुष्प-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. फूल की पँखड़ी। २. दे० ‘पत्र-पुष्प’। ३. एक प्रकार का बाण।
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पुष्प-पत्री (त्तिन्)  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-पथ  : पुं० [ष० त०] स्त्रियों के रज के निकलने का मार्ग अर्थात् भग। योनि।
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पुष्प-पदवी  : स्त्री० [ष० त०] भग। योनि।
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पुष्प-पांडु  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार साँप।
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पुष्प-पिंड  : पुं० [ब० स०]=पिंड पुष्प (अशोक वृक्ष)।
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पुष्प-पुट  : पुं० [ष० त०] १. फूल की पंखड़ियों का वह आधार, जो कटोरी के आकार का होता है। २. हाथ का चंगुल जो उक्त आकार का होता है।
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पुष्प-पुर  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन पाटलिपुत्र। आधुनिक पटना का एक नाम।
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पुष्प-पेशल  : वि० [उपमि० स०] फूल की तरह सुकुमार।
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पुष्प-प्रचाय  : पुं० [सं० पुष्प-प्र√चि (चुनना)+घञ्] फूलों का चुना या तोड़ा जाना।
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पुष्प-प्रस्तार  : पुं० [ष० त०] फूलों का बिछावन। पुष्पशय्या।
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पुष्प-फल  : पुं० [ब० स०] १. कुम्हड़ा। २. कैथ। ३. अर्जुन वृक्ष।
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पुष्प-बाण  : पुं० [ब० स०] १. कामदेव। २. कुश द्वीप का एक पर्वत। ३. एक दैत्य।
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पुष्प-भद्र  : पुं० [ब० स०] प्राचीन भारत की वास्तु-रचना में, एक प्रकार का मंडप जिसमें ६२ खंभे होते थे।
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पुष्प-भद्रक  : पुं० [ब० स०+कप्] देवताओं का एक उपवन।
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पुष्पभद्रा  : स्त्री० [सं० पुष्पभद्र+टाप्] पुराणानुसार मलय पर्वत के पश्चिम की एक नदी।
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पुष्प-भव  : पुं० [ष० त०] फूलों का रस। मकरंद।
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पुष्प-भाजन  : पुं० [ष० त०] तोड़े हुए फूल रखने का पात्र।
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पुष्प-भूति  : पुं० [ब० स०] १. सम्राट हर्षवर्द्धन के एक पूर्व पुरुष, जो शैव थे। २. ईसवीं सातवीं शताब्दी के कांबोज (आधुनिक काबुल) के एक हिन्दू राजा।
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पुष्प-मंजरिका  : स्त्री० [ष० त०] १. नील कमलिनी। २. फूल की मंजरी।
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पुष्प-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] १. फूल का मंजरी। २. घृतकरंज।
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पुष्प-मास  : पुं० [मध्य० स०] १. चैत्रमास। चैत का महीना। २. बसंत काल।
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पुष्पमित्र  : पुं० दे० ‘पुष्पमित्र’ (शुंग वंश के राजा का नाम)।
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पुष्प-मृत्यु  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का नरकट। बड़ा नरसल। देव नल।
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पुष्प-मेघ  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार फूलों की वर्षा करनेवाला बादल।
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पुष्प-रक्त  : पुं० [ब० स०] सूर्य्यमणि नामक पौधा और उसका फूल।
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पुष्प-रचन  : पुं० [ष० त०] फूलों की माला गूँथने, गुच्छे आदि बनाने की क्रिया या भाव।
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पुष्प-रज (स्)  : पुं० [ष० त०] पराग।
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पुष्प-रथ  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का रथ, जिस पर चढ़कर लोग हवा खाने निकलते थे।
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पुष्प-रस  : पुं० [ष० त०] पराग।
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पुष्परसाह्वय  : पुं० [पुष्परस-आह्वय, ब० स०] मधु। शहद।
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पुष्प-राग  : पुं० [ब० स०] पुखराज नामक रत्न।
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पुष्पराज  : पुं० [सं० पुष्प√राज् (शोभित होना)+अच्] पुखराज या पुष्पराग नामक रत्न।
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पुष्प-रेणु  : पुं० [ष० त०] फूल की धूल। पुष्परज।
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पुष्प-रोचन  : पुं० [ब० स०] नाग-केसर।
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पुष्पलक  : पुं० [सं० पुष्पकलंक] १. कस्तूरी मृग। २. बौद्ध भिक्षु।
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पुष्पलाव  : पुं० [सं० पुष्प√लू (काटना)+अण्] [स्त्री० पुष्पलावी] १. वह जो फूल चुनता हो। २. माली।
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पुष्पलावन  : पुं० [सं० पुष्प√लू+णिच्+ल्यु—अन] उत्तर दिशा का एक देश। (वृहत्संहिता)
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पुष्पलिक्ष  : पुं० [सं० पुष्प√लिह् (स्वाद लेना)+क्स] भ्रमर। भौंरा।
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पुष्पलिट् (ह्)  : पुं० [सं० पुष्प√लिह्+क्विप्] भौंरा।
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पुष्प-लिपि  : स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार की पुरानी लिपि। (ललित विस्तर)
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पुष्पवती  : स्त्री० [सं० पुष्प+मतुप्, वत्व+ङीष्] १. ऋतुमती या रजस्वला। २. एक तीर्थ (महा०)
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पुष्प-वर्ग  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में अगस्त्य, कचनार, सेमल आदि वृक्षों के फूलों का एक विशिष्ट समाहार।
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पुष्पवर्त्म (न्)  : पुं० [सं०] द्रुपद।
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पुष्प-वर्ष  : पुं० [मध्य० स०] १. पुराणानुसार एक वर्षा पर्वत का नाम। २. [ष० त०] फूलों की वर्षा। पुष्पवर्षण।
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पुष्प-वर्षण  : स्त्री० [ष० त०] फूलों का बरसना। पुष्पवृष्टि।
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पुष्प-वर्षा  : स्त्री० [ष० त०] बहुत से फूलों की ऊपर से होनेवाली या की जानेवाली वर्षा।
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पुष्प-वसंत  : पुं० [उपमि० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पुष्प-वाटिका  : स्त्री० [ष० त०] ऐसा छोटा उद्यान जिसमें फूलोंवाले अनेक पौधे तथा वृक्ष हों। फुलवारी।
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पुष्प-वाटी  : स्त्री० [ष० त०] पुष्पवाटिका। (दे०)
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पुष्प-वाण  : पुं० [ष० त०] १. फूलों का वाण। २. कामदेव। ३. कुशद्वीप के एक राजा। ४. एक दैत्य।
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पुष्प-वाहिनी  : स्त्री० [ष० त०] पुराणानुसार एक प्राचीन नदी।
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पुष्प-विचित्रा  : स्त्री० [उपमि० स०] एक प्रकार का वृत्त।
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पुष्प-विशिख  : पुं० [ब० स०] कामदेव। २. कुशद्वीप का एक पर्वत। ३. एक राक्षस।
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पुष्प-वृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] फूलों का बरसना या बरसाया जाना। फूलों की वर्षा।
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पुष्प-वेणी  : स्त्री० [ष० त०] फूलों को गूँथकर बनाई हुई माला।
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पुष्प-शकटिका  : स्त्री [ष० त०] आकाशवाणी।
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पुष्प-शकटी  : स्त्री०=पुष्प-शकटिक।
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पुष्प-शकली (लिन्)  : पुं० [सं० पुष्पशकल, ष० त०,+इनि] एक तरह का विषहीन साँप। (सुश्रुत)
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पुष्प-शय्या  : स्त्री० [मध्य० स०] वह शय्या जिस पर फूल बिछे हों। फूलों का बिछौना।
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पुष्प-शर  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-शरासन  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-शाको  : पुं० [मध्य० स०] ऐसे फूल जिनकी तरकारी बनाई जाती हो। जैसे—अगस्त, कचनार, खैर, नीम, रासना, सहिंजन, सेमल आदि।
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पुष्प-शिलीमुख  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-शून्य  : वि० [तृ० त०] जिसमें पुष्प न हों। बिना फूल का। पुं० गूलर।
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पुष्प-शेखर  : पुं० [ष० त०] फूलों की माला।
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पुष्प-श्रेणी  : स्त्री० [ब० स०] मूसाकानी नामक जमीन पर फैलनेवाला क्षुप।
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पुष्प-समय  : पुं० [ष० त०] वसंत काल
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पुष्प-साधारण  : पुं० [ब० स०] वसंत काल।
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पुष्प-सायक  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-सार  : पुं० [ष० त०] १. फूल या मधु का रस। २. फूलों का इत्र।
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पुष्प-सारा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] तुलसी।
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पुष्प-सिता  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की चीनी।
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पुष्प-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] गोभिल के सूत्र ग्रन्थ का नाम।
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पुष्प-सौरभा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] कलिहारी का पौधा। करियारी।
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पुष्प-स्नान  : पुं० दे० ‘पुष्पस्नान’।
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पुष्प-स्नेह  : पुं० [ष० त०] १. मकरंद। २. मधु शहद।
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पुष्प-स्वेद  : पुं० [ष० त०] १. मकरंद २. मधु।
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पुष्प-हास  : पुं० [ष० त०] १. फूलों का खिलना। २. विष्णु।
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पुष्पहासा  : स्त्री० [सं० पुष्पहास+टाप्] रजस्वला स्त्री। ऋतुमती स्त्री।
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पुष्पहीन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पुष्पहीना] (पेड़) जिसमें फूल न लगते हों। पुं० गूलर का वृक्ष।
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पुष्पहीना  : वि० स्त्री० [सं० पुष्पहीन+टाप्] १. (स्त्री) जिसे रजोदर्शन न हो। २. बाँझ। वंध्या। ३. (स्त्री) जिसकी बच्चे पैदा करने की अवस्था बीत चुकी हो।
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पुष्पांक  : पुं० [पुष्प-अंक, ष० त०] माधवी लता।
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पुष्पांजन  : पुं० [पुष्प-अंजन, ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का अंजन जो पीतल के हरे कसाव में कुछ औषधियों को मिलाकर बनाया जाता है।
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पुष्पांजलि  : स्त्री० [पुष्प-अंजलि, ष० त०] फूलों से भरी हुई अंजलि जो किसी देवता या महापुरुष को अर्पित की जाती है।
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पुष्पांबुज  : पुं० [सं० पुष्प-अंबु, ष० त०, पुष्पांबु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मकरंद।
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पुष्पांभस्  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन तीर्थ।
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पुष्पा  : स्त्री० [सं०√पुष्प+अच्+टाप्] आधुनिक चम्पारन का प्राचीन नाम जहाँ किसी जमाने में अंगदेश की राजधानी थी।
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पुष्पाकर  : पुं० [पुष्प-आकार, ष० त०] वसंत ऋतु।
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पुष्पागम  : पुं० [पुष्प-आगम, ब० स०] वसन्त ऋतु।
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पुष्पाजीवी (विन्)  : पुं० [सं० पुष्प+आ√जीव्+णिनि] माली।
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पुष्पानन  : पुं० [पुष्प-आनन, ब० स०] एक तरह की शराब।
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पुष्पापीड  : पुं० [पुष्प-आपीड़, ष० त०] १. सिर पर धारण की जानेवाली फूलों की माला आदि। २. फूलों का मुकुट या सेहरा।
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पुष्पाभिषेक  : पुं० [पुष्प-अभिषेक, तृ० त०] दे० ‘पुण्य-स्नान’।
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पुष्पायुध  : पुं० [पुष्प-आयुध, ब० स०] वह जिसका फूल अस्त्र हो; कामदेव।
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पुष्पाराम  : पुं० [पुष्प-आराम, ष० त०] फुलवारी। पुष्पवाटिका।
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पुष्पावचय  : पुं० [पुष्प-अवचय, ष० त०] फूल चुनना।
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पुष्पावचायी (यिन्)  : पुं० [सं० पुष्प+अव√चि (चुनना) +णिनि] माली।
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पुष्पासव  : पुं० [पुष्प-आसव, मध्य० स०] १. मधु। शहद। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के फूलों को सड़ाकर बनाई जानेवाली एक तरह की शराब।
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पुष्पासार  : पुं० [पुष्प-आसार, ष० त०] फूलों की वर्षा।
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पुष्पास्तरक  : पुं० [पुष्प-आस्तरक, ष० त०] १. फूल बिखेरनेवाला। २. फूलों का बिछौना तैयार करनेवाला।
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पुष्पास्तरण  : पुं० [पुष्प-आस्तरण, ष० त०] १. फूल बिखेरने की क्रिया या भाव। २. शय्या पर फूल बिछाने का काम।
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पुष्पास्त्र  : पुं० [पुष्प-अस्त्र, ब० स०] पुष्पायुध (कामदेव)।
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पुष्पाह्वा  : स्त्री० [सं० पुष्प+आ√ह्वे+क+टाप्, ब० स०, प्] सौंफ।
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पुष्पिका  : स्त्री० [सं०√पुष्प+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] १. दाँत की मैल। २. लिंग की मैल। ३. अधिकतर प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों या उनके अध्यायों के अन्त में वह वाक्य या पद्य जिससे कहे हुए प्रसंग की समाप्ति सूचित होती है और जिसमें प्रायः लेखक का नाम और रचना-संवत् भी रहता है।
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पुष्पिणी  : स्त्री० [सं० पुष्प+इनि+ङीष्] रजस्वला स्त्री०। ऋतुमती स्त्री।
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पुष्पित  : वि० [सं० पुष्प+इतच्] [स्त्री० पुष्पिता] १. (वृक्ष या पौधा) जिसमें फूल निकले हों। पुष्पों से युक्त। फूलों से लदा हुआ। २. उन्नत और समृद्ध। पुं० १. कुशद्वीप का एक पर्वत। २. एक बुद्ध का नाम।
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पुष्पिता  : वि० स्त्री० [सं० पुष्पित+टाप्] रजस्वला (स्त्री)।
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पुष्पिताग्रा  : स्त्री० [सं० पुष्पित-अग्र, ब० स०+टाप्] एक प्रकार का अर्द्धसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरणों में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरणों में एक नगण, दो जगण, एक रगण और गुरु होता है।
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पुष्पी (ष्पिन्)  : वि० [सं० पुष्प+इनि] (पौधा या वृक्ष) जिसमें फूल लगें हों।
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पुष्पेषु  : पुं० [पुष्प-इषु, ब० स०] कामदेव।
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पुष्पोत्कटा  : स्त्री० [पुष्प-उत्कटा, तृ० त०] रावण, कुंभकरण आदि राक्षसों की माता जो सुमाली राक्षस की कन्या थी।
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पुष्पोद्गम  : पुं० [पुष्प-उदगम, ष० त०] पौधे, वृक्षों आदि में फूल निकलना आरंभ होना।
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पुष्पोद्यान  : पुं० [पुष्प-उद्यान, ष० त०] फुलवारी। पुष्पवाटिका। बगीचा।
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पुष्पोपजीवी (दिन्)  : पुं० [सं० पुष्प+उप√जीव् (जीना)+णिनि] माली।
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पुष्य  : पुं० [सं०√पुष् (पुष्टि)+क्यप्] १. पुष्टि। पोषण। २. पौष का महीना। ३. सत्ताईसे नक्षत्रों में से ८वाँ नक्षत्र जिसमें तीन तारे हैं तथा जिसकी आकृति वाण की सी कही गई है, और जो अनेक कार्यों के लिए शुभ माना जाता है। इसे ‘तिष्य’ और ‘सिध्य’ भी कहते हैं।
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पुष्प-नेत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०, अच,+टाप्] ऐसी रात्रि जिसमें पुष्य नक्षत्र दिखाई पड़ता हो।
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पुष्यमित्र  : पुं० [सं०] मगध में मौर्य शासन समाप्त करके शुंगवंशीय राज्य स्थापित करनेवाला एक प्रतापी राजा।
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पुष्यरथ  : पुं०=पुष्प-रथ।
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पुष्यलक  : पुं० [सं०√पुष्+कि, पुषि√अल् (पर्याप्ति)+ अच्+क] १. कस्तूरी मृग। २. वह जैन साधु जो हाथ में चँवर लिए रहता हो। ३. बड़ी और मोटी कील या खूँटा।
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पुष्य-स्नान  : पुं० [स० त०] राजाओं या राज्य के विध्नों की शांति के लिए एक विशिष्ट स्नान जो पूस के महीने में चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर किया जाता है।
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पुष्याभिषेक  : पुं०=पुष्य-स्नान।
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पुष्यार्क  : पुं० [सं० पुष्य-अर्क, स० त०] १. फलित ज्योतिष में, एक योग जो कर्क की संक्राति में सूर्य के पुष्य नक्षत्र में होने पर होता है। यह प्रायः श्रावण में दस दिन के लगभग रहता है। २. रविवार के दिन होनेवाला पुष्य-नक्षत्र।
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पुस  : अव्य० [देश०] होंठों को सिकोड़कर हवा झटके से अन्दर की ओर खींचने से होनेवाला शब्द जो प्रायः प्यार से बिल्ली, कुत्ते आदि को अपने पास बुलाने के लिए किया जाता है। जैसे—आ पुस पुस।
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पुसकर  : पुं०=पुष्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुसाना  : अ. [हिं० पोसना का अ०] १. पोसा जाना। पोषण होना। २. कार्य आदि का शक्य या संभव होना। पूरा पड़ना। बन पड़ना। ३. अच्छा, उचित या भला लगना।
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पुस्त  : पुं० [सं०√पुस्त् (बाँधना)+अच्] १. गीली मिट्टी, लकड़ी, कपड़े, चमड़े, लोहे या रत्नों आदि को गढ़, काट या छील-छालकर बनाई जानेवाली वस्तु। सामान। २. कारीगरी। रचना-कौशल। ३. किताब। पुस्तक। जैसे—पुस्त-पाल (देखें)। स्त्री०=पुश्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुस्तक  : स्त्री० [सं० पुस्त+क] [स्त्री० अल्पा० पुस्तिका] १. हाथ से लिखे हुए या छपे हुए पन्नों का जिल्द बँधा हुआ रूप। (पत्रिका से भिन्न) २. कोई वैज्ञानिक या साहित्यिक कृति।
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पुस्तकाकार  : वि० [सं० पुस्तक-आकार, ब० स०] जो पुस्तक के आकार या रूप में हो। जैसे—उनके सब लेख पुस्तकाकार छप गये हैं।
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पुस्तकागार  : पुं० [सं० पुस्तक-आगार, ष० त०] पुस्तकालय।
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पुस्तकालय  : पुं० [सं० पुस्तक-आलय] १. वह भवन या घर जिसमें अध्ययन और संदर्भ के लिए पुस्तकें रखी गई हों। जैसे—उनके पुस्तकालय में ५ हजार से अधिक पुस्तकें थीं। २. उक्त प्रकार का भवन या स्थान जहाँ से सर्वसाधारण को पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलती हों। जैसे—इस नगर में एक बहुत बड़ा पुस्तकालय खुलनेवाला है।
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पुस्तकालयाध्यक्ष  : पुं० [सं० पुस्तकालय-अध्यक्ष, ष० त०] पुस्तकालय का प्रधान अधिकारी। (लाइब्रेरियन)
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पुस्तकास्तरण  : पुं० [सं० पुस्तक-आस्तरण, ष० त०] १. पुस्तक की बेठन। २. पुस्तक पर उसे धूल, मैल आदि से बचाने के लिए चढ़ाया जानेवाला कागज।
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पुस्तकी  : स्त्री० [सं० पुस्तक+ङीष्] पुस्तिका।
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पुस्तकीय  : वि० [सं० पुस्तक+छ—ईय] १. पुस्तक- संबंधी। २. पुस्तकों से प्राप्त होनेवाला। जैसे—पुस्तकीय ज्ञान।
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पुस्त-डाक  : स्त्री० [सं० पुस्तक+हिं० डाक] वह डाक या डाक से भेजने की वह विधि जिसके अनुसार समाचार-पत्र पुस्तकें आदि विशेष रिआयती दर से भेजी जाती हैं। (बुक पोस्ट)
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पुस्तपाल  : पुं० [सं० पुस्त√पालु (रक्षा)+णिच्+अच्] १. प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो किसी राजकीय कार्यालय के कागज-पत्र संभालकर रखता था। २. आज-कल किसी पुस्तकालय का प्रधान अधिकारी। (लाइब्रेरियन)
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पुस्तशिंबी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सेम।
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पुस्तिका  : स्त्री० [सं० पुस्तक+टाप्, इत्व] छोटी पुस्तक विशेषतः ऐसी छोटी पुस्तक जिसका आवरण कागज का ही हो, दफ्ती का न हो।
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पुस्ती  : स्त्री० [सं० पुस्त+ङीप्] १. हाथ की लिखी हुई पोथी या किताब। २. पुस्तक।
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पुहकर  : पुं०=पुष्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहकरमूल  : पुं०=पुष्करमूल।
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पुहतना  : अ० [सं० प्रभूत, प्रा० पहूच] पहुँचना। उदा०—पहिलुँ इजाद लगन ले पुहतौ।—प्रिथीराज।
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पुहना  : अ० [हिं० पोहना] पोहा जाना। गूँथा जाना। स०=पोहना।
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पुहप (प्प)  : पुं०=पुहुप (पुष्प)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहाना  : स० [हिं० पोहना का प्रे०] पोहने या पिरोने का काम दूसरे से कराना। गुथवाना।
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पुहुप  : पुं० [सं० पुष्प] फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुपराग  : पुं०=पुखराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुमी  : स्त्री० [सं० भूमि, प्रा० पुहवी] १. पृथ्वी। २. भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुरेनु  : पुं० [सं० पुष्परेणु] फूल की धूल। पराग।
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पुहुव  : पुं०=पुहुप (पुष्प)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुवि  : स्त्री०=पुहुमि (पृथ्वी)। उदा०—चंपकें कएल पुहुवि निरमान।—विद्यापति।
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पूँगरण  : पुं० [सं० पुंग=राशि या समूह] वस्त्र। कपड़ा। (डिं०)
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पूँगरा  : वि० दे० ‘पोंगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँगा  : पुं० [देश०] सीप के अन्दर रहनेवाला कीड़ा। स्त्री० [अनु०] [स्त्री० अल्पा० पूँगी] १. सँपेरों की बीन। महुअर। २. एक तरह की बाँसुरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘पोंगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछ  : स्त्री० [सं० पुच्छ] १. चौपायों तथा जंतुओं का वह गावनुमा तथा लचीला पिछला भाग जो गुदा-मार्ग के ऊपर रीढ़ की हड्डी की संधि में या उससे निकलकर नीचे की ओर कुछ दूर तक लम्बा चला जाता या नीचे लटकता रहता है। पुच्छ। लांगूल। दुम। जैसे—कुत्तें, लंगूर या घोड़े की पूँछ, चिडि़या चूहे या घड़ियाल की पूँछ। मुहा०—किसी की पूँछ पकड़कर चलना=(क) बिना सोचे-समझे किसी का अनुयायी बनकर चलना। (ख) किसी का सहारा पकड़कर चलना। (किसी के आगे) पूँछ हिलाना=किसी के आगे उसी तरह से दीन बनकर आचरण करना जिस प्रकार कुत्ते अपने स्वामी या भोजन देनेवाले के सामने पूँछ हिलाकर दीनता प्रकट करते हैं। २. किसी काम, चीज या बात के पीछे का वह लंबा अंश जो प्रायः अनावश्यक या निरर्थक हो। ३. पतंग, पुच्छल तारे, उल्का आदि के पीछे का चमकनेवाला रेखाकार अंग। जैसे—पतंग की पूँछ। ४. वह जो हरदम दीन भाव से किसी के पीछे या साथ लगा रहता हो।
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पूँछ-गाछ  : स्त्री०=पूछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछट  : स्त्री०=पूँछ (दुम)। (उपेक्षा सूचक)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछड़ी  : स्त्री० [हिं० पूँछ+ड़ी (प्रत्य०)] छोटी पूँछ।
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पूँछ-ताछ  : स्त्री०=पूँछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछना  : स०=पूछना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछ-पाँछ  : स्त्री०=पूँछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछल-तारा  : पुं०=पुच्छल तारा (केतु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँजना  : स० [देश०] नया बंदर पकड़ना। (कलंदर)।
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पूँजी  : स्त्री० [सं० पुँज] १. जोड़ा या जमा किया हुआ धन। २. विशेषतः ऐसा धन जो और अधिक धन कमाने के उद्देश्य से व्यापाक आदि में लगाया गया हो अथवा ऋण आदि पर उधार दिया गया हो। मूलधन। (कैपिटल) ३. सम्पत्ति, विशेषतः ऐसी सम्पत्ति जिससे आय होती हो। जैसे—विधवा की पूँजी यही एक मकान था। ४. उन सब वस्तुओं का समूह जो पास में हो। ५. किसी विषय में किसी की सारी योग्यता या ज्ञान।
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पूँजीदार  : पुं० [हिं० पूँजी+फा० दार] [भाव० पूँजीदारी] १. वह जिसके पास अधिक या अत्यधिक पूँजी या धन-संपत्ति हो। २. वह जो आर्थिक लाभ के लिए किसी उद्योग या व्यवसाय में पूँजी या धन लगाता हो। पूँजीपति।
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पूँजीदारी  : स्त्री० [हिं० पूँजीदार] १. पूँजीदार होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘पूँजीवाद’।
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पूँजीपति  : पुं० [हिं० पूँजी+सं० पति] १. जिसके पास अधिक पूँजी हो। २. ऐसा व्यक्ति जो लाभ की दृष्टि से विभिन्न उद्योग-धन्धों में पूँजी लगाता हो। पूँजीदार।
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पूँजीवाद  : पुं० [हिं० पूँजी+सं० वाद] १. आधुनिक अर्थशास्त्र में, वह आर्थिक प्रणाली या व्यवस्था जिसमें देश के प्रमुख उत्पत्ति तथा वितरण के साधनों पर धनिकों या पूँजीपतियों का व्यक्तिगत रूप से पूरा अधिकार होता है। इसमें धनवान् लोग अपनी पूँजी से वस्तुओं का उत्पादन करते-कराते और उसका सारा लाभ अपने सुख-भोग तथा पूँजी बढ़ाने में लगाते हैं। (कैपिटलिज़्म)।
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पूँजीवादी  : पुं० [हिं०+सं०] वह जो पूँजीवाद से सिद्धान्त मानता हो या उसका अनुयायी हो। वि० पूँजीवाद-संबंधी। जैसे—पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था।
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पूँठ  : स्त्री०=पीठ।
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पू  : वि० [सं० पूर्वपद के रहने पर] समस्त पदों के अन्त में, पवित्र या शुद्ध करनेवाला। जैसे—खलपू=खलों को पवित्र करनेवाला
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पूआ  : पुं० [सं०पूप, अपूप] पूरी की तरह का एक मीठा पकवान जो आटे को गुड़ या चीनी के रस में घोलकर घी में तलने से बनता है।
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पूखन  : पुं०=पूषण (सूर्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पोषण।
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पूग  : पुं० [सं०√पू+गन्] १. सुपारी का पेड़ और उसका फल। २. ढेरा। ३. शहतूत का पेड़। ४. कटहल। ५. एक प्रकार की कटेरी। ६. भाव। ७. छंद। ८. समूह। ढेर।
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पूग-कृत  : भू० कृ० [स० त०] १. स्तूप के आकार में बनाया हुआ। जो टीले के आकार का हो। २. एकत्र किया हुआ संगृहीत। संचित।
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पूगना  : अ० [हिं० पूजना] १. पूरा होना। जैसे—हुंडी की मिती पूगना २. चौसर आदि के खेलों में गोटी, पासे आदि का नियत मार्ग से होते हुए अन्त में कोठे या घर में पहुँचना जो जीत का सूचक माना जाता है। ३. दे० ‘पूजना’।
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पूगपात्र  : पुं० [ष० त०] पीकदा। उगालदान।
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पूग-पीठ  : पुं० [ष० त०] पीकदान।
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पूग-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्,+टाप्, इत्व] विवाह-संबंध स्थिर हो जाने पर दिया जाने वाला पुष्प सहित पान। पानफूल।
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पूग-फल  : पुं० [ष० त०] सुपारी।
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पूगरीठ  : पुं० [सं० पूग√रुट् (दीप्ति)+अच्] एक प्रकार का ताड़।
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पूगी (गिन्)  : पुं० [सं० पूग+इनि] सुपारी का पेड़। स्त्री० सुपारी।
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पूगीफल  : पुं० [सं० पूगफल] सुपारी।
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पूग्य  : वि० [सं० पूग+यत्] पूग-संबंधी। पूग का।
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पूछ  : स्त्री० [हिं० पूछना] १. पूछने की क्रिया या भाव। जिज्ञासा। २. चाह। तलब। जरूरत। ३. आदर। खातिर। स्त्री०=पूँछ (दुम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूछ-गाछ  : स्त्री०=पूछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूछ-ताछ  : स्त्री० [हिं० पूछना+ताछना अनु०] १. कुछ जानने के लिए किसी से प्रश्न करने की क्रिया या भाव। किसी बात का पता लगाने के लिए बार-बार या कई लोगों से कुछ पूछना या प्रश्न करना. २. किसी विषय में खोज, अनुसंधान या जाँच पडताल करने के लिए बार-बार जिज्ञासा या प्रश्न करना। जैसे—बहुत पूछ-ताछ करने पर इस मामले का कुछ पता चला।
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पूछना  : स० [सं० पृच्छण] १. किसी से कोई बात जानने या समझने के लिए शब्दों का प्रयोग करना। जिज्ञासा करना। जैसे—किसी से कहीं का रास्ता (या किसी का नाम) पूछना। २. जाँच, परीक्षा आदि के प्रसंग में इसलिए किसी के सामने कुछ प्रश्न रखना कि वह उसका उत्तर दे। प्रश्न करना। जैसे—परीक्षा के समय विद्यार्थियों से तरह-तरह की बातें पूछी जाती हैं। ३. किसी के प्रति सहानुभूति रखते हुए उससे यह जानने का प्रयत्न करना कि आज-कल तुम कैसे हो या किस प्रकार जीवन यापन करते हो। किसी का हाल-चाल या खोज-खबर लेना। जैसे—(क) वह महीनों बीमार पड़ा रहा पर कोई उसके पास पूछने तक न गया। (ख) अजी, गरीबों को कौन पूछता है। ४. किसी के प्रति आदर-सत्कार का भाव प्रकट करते हुए उसकी ओर उचित ध्यान देना। जैसे—इतनी भीड़ भाड़ में कौन किसे पूछता है। मुहा०—(किसी से) बात तक न पूछना या बात न पूछना=(क) कुछ भी ध्यान न देना। (ख) बहुत ही उपेक्षापूर्ण व्यवहार करना। ५. उचित महत्व या मूल्य समझते हुए आदर या कदर करना। जैसे—आज-कल गुण या योग्यता को कौन पूछता है। ६. किसी प्रकार का ध्यान देते हुए कोई जिज्ञासा करना या कुछ कहना। जैसे—उनके घर पहुँचकर सीधे ऊपर चले जाना; कोई कुछ नहीं पूछेगा।
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पूछ-पाछ  : स्त्री०=पूछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूछरी  : स्त्री०=पूँछ (दुम)।
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पूछा-ताछी, पूछा-पाछी  : स्त्री० [हिं० पूछना]=पूछ-ताछ।
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पूज  : स्त्री० [सं० पूजन] कुछ विशिष्ट जातियों में विवाह, यज्ञोपवीत, आदि शुभ कार्यों से एकाध दिन पहले होनेवाला एक कृत्य जिसमें गणेश पूजन किया जाता है और बिरादरी के आमंत्रित व्यक्तियों को बताशे, लड्डू आदि दिये जाते हैं। स्त्री० [हिं० पूजना] पूजने की क्रिया या भाव। पुं० [सं० पूज्य] देवता। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पूज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूजक  : वि० [सं०√पूज् (पूजना)+णिच्+ण्वुल्—अक] पूजा करनेवाला। जैसे—अग्निपूजक।
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पूजन  : पुं० [सं०√पूज्+णिच्+ल्युट—अन] [वि०पूजक, पूजनीय, पूजितव्य, पूज्य] १. देवी-देवता या किसी अन्य पूज्य वस्तु की की जानेवाली आराधना या वंदना। २. आदर। सम्मान। जैसे—अतिथि पूजन।
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पूजना  : स० [सं० पूजन] १. देवी-देवता को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए यथाविधि श्रद्धाभाव से जल, फूल, नैवेद्य आदि चढ़ाना। पूजन करना। २. किसी को परम श्रद्धा या भक्ति की दृष्टि से देखना और आदरपूर्वक उसकी सेवा तथा सत्कार करना। ३. किसी को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए उसे किसी रूप में कुछ धन देना। जैसे—कचहरी के अमलों को पूजना। ४. व्यंग्य और परिहास में, खूब मारना-पीटना। जैसे—वे आज इसकी खूब पूजा करेगें। अ० [सं० पूर्यते, प्रा० पूज्जति] १. पूरा होना। भरना। २. कमी, त्रुटि, देन आदि की पूर्ति होना। जैसे—किसी की रकम पूजना=दिया या लगाया हुआ धन पूरा पूरा वसूल होना। ३. अवधि या नियत समय पूरा होना। जैसे—हुंडी की मिती पूजना=रूपया चुकाने की तिथि नियत आना। ४. गहराई का भरना या बराबर होना। जैसे—गड्ढा पूजना, घाव पूजना। ५. ऋण या देन चुकता होना। ६. किसी की बराबरी तक पहुँचना। उदा०—ये सब पतति न पूजत मो सम।—सूर। ७. दे० ‘पूगना’। स० १. पूरा करना। २. नया बंदर पकड़ना। (कलंदर)
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पूजनी  : स्त्री० [सं० पूजन+ङीप्] मादा गौरैया।
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पूजनीय  : वि० [सं०√पूज्+णिच्+अनीयर] १. जिसका पूजा करना कर्तव्य या उचित हो। पूजन करने के योग्य। अर्चनीय। २. आदरणीय।
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पूजमान  : वि०=पूज्यमान।
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पूजयितव्य  : वि० [सं०√पूज्+णिच्+तव्यम] जिसकी पूजा की जा सकती हो अथवा जिसकी पूजा करना उचित हो। पूज्य।
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पूजयिता (तृ)  : वि०, पुं० [सं०√पूज्+णिच्+तृच्] पूजा करनेवाला। पूजक।
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पूजा  : स्त्री० [सं०√पूज्+णिच्+अ+टाप्] १. देवी-देवता के प्रति विनय, श्रद्धा और समर्पण का भाव प्रकट करनेवाले कार्य। अर्चना। पूजन। २. किसी देवी-देवता पर जल, फूल, फल, अक्षत आदि चढ़ाने का धार्मिक कृत्य। पूजन। ३. बहुत अधिक या यथेष्ट आदर-सत्कार। आव-भगत। खातिरदारी। ४. किसी को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए किया जानेवाला कोई कार्य। ५. उक्त के आधार पर, लाक्षणिक रूप में, घूस या रिश्वत। जैसे—अब तो पहले दफ्तरवालों की पूजा करो, तब कहीं जाकर नौकरी मिलती है। ६. व्यंग्य के रूप में, किसी को मारने-पीटने अथवा तिरस्कृत या दंडित करने की क्रिया या भाव। जैसे—चलो देखो, आज घर पर तुम्हारी कैसी पूजा होती है।
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पूजाधार  : पुं० [सं० पूजा-आधार, ष० त०] देवपूजा में विधेय, वस्तुएँ और बातें। जैसे—जल, विष्णुचक्र, मंत्र, प्रतिमा, शालग्राम आदि।
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पूजार्ह  : वि० [सं० पूजा√अर्ह् (पूजना)+अच्] पूजनीय।
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पूजित  : भू० कृ० [सं०√पूज्+क्त] [स्त्री० पूजिता] जिसका पूजा की गई हो।
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पूजितव्य  : वि० [सं०√पूज्+तव्यत्] पूजनीय। पूज्य।
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पूजिल  : पुं० [सं०√पूज्+इलच्] देवता। वि० पूजनीय।
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पूजी  : स्त्री० [फा० पूजबंद] घोड़े का एक प्रकार का साज जो उसके मुँह पर रहता है। उदा०—पूजी कलगी करनफूल कल हैकल सेली।—रत्ना०।
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पूजोपकरण  : पुं० [सं० पूजा-उपकरण, ष० त०] देवता की पूजा के लिए आवश्यक उपकरण या सामग्री।
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पूजोपचार  : पुं० [सं० पूजा-उपचार, ष० त०] पूजन के लिए किया जानेवाला उपचार और उसकी सामग्री।
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पूजोपहार  : पुं० [सं० पूजा-उपहार, ष० त०] पूजा के समय देवी-देवता को चढ़ाई जानेवाली वस्तु। चढ़ावा।
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पूज्य  : वि० [सं०√पूज्+यत्] [स्त्री० पूज्या] १. पूजा किये जाने के योग्य। २. आदर, श्रद्धा आदि के योग्य। माननीय। पुं० श्वसुर। ससुर।
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पूज्यता  : स्त्री० [सं० पूज्य+तल्+टाप्] पूज्य होने की अवस्था या भाव। पूजे जाने के योग्य होना। पूजनीयता।
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पूज्य-पाद  : वि० [ब० स०] इतना महान् कि उसके पैरों की पूजा करना उचित हो। परम पूज्य और मान्य।
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पूज्यमान  : वि० [सं०√पूज्+यक्+शानच्] जिसकी पूजा की जा रही हो। पूजा जाता हुआ। सेव्यमान। पुं० सफेद जीरा।
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पूज्यवर  : वि० [स० त०] परम आदरणीय, पूज्य और बड़ा। जैसे—पूज्यवर मालवीय जी।
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पूटरी  : स्त्री० [देश] ईख के रस की वह अवस्था जो उसके खाँड़ बनने से पहले होती है। स्त्री०=पोटली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूटीन  : स्त्री०=पुटीन।
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पूठ  : पुं०=पुट्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पीठ।
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पूठा  : वि० [सं० पुष्ठ] [स्त्री० पूठी] १. पुष्ट। मजबूत। २. पक्का। प्रौढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पुट्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूठि  : स्त्री० १.=पीठ। २.=पुष्टि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूड़ा  : पुं०=पूआ (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूड़ी  : स्त्री० [हिं० पूरी] १. तबले या मृदंग पर मढ़ा हुआ गोल चमड़ा। २. दे० ‘पूरी’।
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पूणू  : पुं०=पत्थर (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पूनो (पूर्णिमा)।
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पूत  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+क्त] १. पवित्र। शुद्ध। शुचि। २. सत्य। पुं० १. शंख। २. सफेद कुश। ३. पलास। ४. तिल का पेड़। ५. भूसी निकाला हुआ अन्न। ६. जलाशय। पुं० [सं० पुत्र; प्रा० पुत्त] बेटा। लडका। पुत्र। उदा०—एक पहेली मैं कहूँ, तुम बूझो मेरे पूत। पुं० [देश०] चूल्हे के दोनों किनारों और बीच के वे नुकीले उभार जिनके सहारे पर कड़ाही, तवा, देगची आदि रखते हैं।
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पूतक्रतायी  : स्त्री० [सं० पूतक्रतु+ङीष्, ऐ-आदेश] इंद्र की पत्नी। इन्द्राणी। शची।
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पूत-क्रतु  : पुं० [ब० स०] इन्द्र।
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पूत-गंध  : पुं० [ब० स०] बर्बर नामक सुगंधित तृण।
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पूतड़ा  : पुं०=पोतड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूत-तृण  : पुं० [कर्म० स०] सफेद कुश।
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पूत-दारु  : पुं० [कर्म० स०] पलास। ढाक।
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पूत-द्रु  : पुं० [कर्म० स०] १. ढाक। पलास। २. खैर का पेड़। ३. देवदार।
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पूत-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] तिल।
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पूतन  : पुं० [सं० पूत+णिच्+ल्यु—अन] १. वैद्यक के अनुसार गुदा में होनेवाला एक प्रकार का रोग २. बेताल। ३. कब्र में रखा हुआ शव।
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पूतना  : स्त्री० [सं० पूतन+टाप्] १. एक राक्षसी जो कंस के कहने पर बालक कृष्ण को मारने के उद्देश्य से अपने स्तनों पर विष लगाकर, उसे स्तन-पान कराने आई थी। बालक कृष्ण ने इसका दुष्ट उद्देश्य जान लिया और इसे मार डाला। २. राक्षसी। दानवी। ३. सुश्रुत के अनुसार, एक बाल-ग्रह या बाल रोग जिसमें बच्चे को जल्दी अच्छी नींद नहीं आती। उसे पतले, मैले दस्त आते हैं, बहुत प्यास लगती है और बार-बार कै होती है। ४. कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका। ५. पीली हर्रे। ६. सुगंधित जटामासी। गन्ध-मासी।
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पूतनारि  : पुं० [सं० ष० त०] पूतना के शत्रु; श्रीकृष्ण।
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पूतना-दूषण  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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पूतना-सूदन  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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पूतनाहर्रे  : स्त्री० [सं० पूतना+हिं० हर्रे] छोटी हर्रे।
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पूतनिका  : स्त्री० [सं० पूतन+कन्+टाप्, इत्व] १. पूतना (राक्षसी)। २. पूतना नामक बाल रोग।
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पूत-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] तुलसी।
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पूत-फल  : पुं० [ब० स०] कटहल का पेड़ और उसका फल।
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पूतभृत्  : पुं० [सं० पूत√भृ (धारण करना)+क्विप्] वह पवित्र बरतन जिसमें सोम रस रखा जाता था।
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पूत-मति  : वि० [ब० स०] पवित्र बुद्धिवाला। पवित्र अंतःकरणवाला। पुं० शिव का एक नाम।
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पूतर  : पुं० [सं० पूत√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का जल-जंतु। २. तुच्छ व्यक्ति।
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पूतरा  : पुं० [स्त्री० पूतरी]=पुतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पूत (बेटा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूतरी  : स्त्री०=पुतली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूता  : स्त्री० [सं० पूत+टाप्] दुर्गा। वि० स्त्री०=शुद्ध। पवित्र। पुं० [सं० पुत्र, हिं० पुत्र, हिं० पूत] पुत्र। बेटा। प्रायः सम्बोधन कारक में प्रयुक्त)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूतात्मा (त्मन्)  : वि० [पूत-आत्मन्, ब० स०] पवित्रात्मा। शुद्ध अंतःकरण का। पुं० विष्णु।
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पूति  : स्त्री० [सं०√पू+क्तिन्, कितच्] १. पवित्रता। शुचिता। २. दुर्गंध। ३. गंध-मार्जार। ४. रोहित तृण। ५. घावों, फोड़ों आदि में विषाक्त कीटाणुओं आदि के उत्पन्न होने के कारण उनका सड़ने-लगना जो प्रायः रोगी के लिए घातक सिद्ध होता है। सड़ायँध (सेप्टिक)
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पूतिक  : पुं० [सं० पूति√कै (भासित होना)+क] १. दुर्गंध। करंज। काँटा करंज। पूति करंज। २. पाखाना। विष्ठा। वि० १. जिसमें से दुर्गंध निकल रही हो। बदबूदार। २. (घाव) जिसमें विषाक्त कीटाणुओं के कारण सड़ायँध उत्पन्न कर सकता हो। (सेप्टिक, अन्तिम दोनों अर्थों के लिए)
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पूति-कन्या  : स्त्री० [मध्य० स०] पुदीना।
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पूति-करंज  : पुं० [मध्य० स०] फसल के रक्षार्थ प्रायः मेड़ों पर लगाया जानेवाला एक क्षुप जिसमें बहुत अधिक काँटे होते हैं। काँटा-करंज।
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पूति-कर्ण, पूति-कर्णक  : पुं० [ब० स०] [ब० स०+कप्] कान का एक रोग जिसमें अन्दर घाव या फुंसी होने के कारण बदबूदार पीब निकलता है।
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पूतिका  : स्त्री० [सं० पूतिक+टाप्] १. पोई का साग। २. एक प्रकार की मधुमक्खी। ३. बिल्ली।
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पूतिका-मुख  : पुं० [ब० स०] घोंगा। शंबूक।
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पूति-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] देवदारु।
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पूतिकाष्ठक  : पुं० [पूतिकाष्ठ+कन्] धूपसरल।
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पूतिकाह्र  : पुं० [सं० पूतिक-आह्रा, ब० स०] पूति करंज। (दे०)
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पूति-कीट  : पुं० [मध्य० स०] एक तरह की मधुमक्खी। पूतिका।
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पूति-कुंड  : पुं० [ष० त०] आज-कल एक प्रकार का गड्ढा या कुंड जो गृहस्थों के घर के पास मल-मूत्र इकट्ठा करने के लिए बनाया जाता है। (सेप्टिक टैंक) विशेष—ऐसे कुंडों की आवश्यकता उन्हीं नगरों या स्थानों में होती है जहाँ मल-मूत्र वहन करनेवाले नल नहीं होते।
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पूति-केशर  : पुं० [ब० स०] १. नागकेशर। २. गंध-मार्जार। मुश्क-बिलाव।
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पूति-गंध  : पुं० [ब० स०] १. राँगा। २. हिगोट। इंगुदी ३. गंधक। ४. दुर्गंध। वि० दुर्गंधवाला। बदबूदार।
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पूतिगंधा  : स्त्री० [सं० पूतिगंध+टाप्] एक प्रसिद्ध क्षुप जिसके गुच्छों में काले-काले फूल लगते हैं तथा जिसके बीज उग्रगंध वाले होते हैं और दवा के काम आते हैं। बकुची।
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पूति-गंधि (क)  : वि० [ब० स०,+कप्] दुर्गंधवाला। बदबूदार।
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पूतिगंधिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्,+टाप्, इत्व] १. दे० ‘पूतगंधा’। २. पोय का शाक। पूतिका।
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पूतिघास  : पुं० [सं० पूति√घस् (खाना)+अण्] सुश्रुत में वर्णित एक तरह का जंतु।
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पूति-दला  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] तेजपत्ता।
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पूति-नस्य  : पुं० [कर्म० स०] पीनस रोग।
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पूति-नासिका  : वि० [ब० स०] पीनस रोग से पीड़ित।
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पूति-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. सोनापाठा। २. पीला लोध।
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पूति-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्,+टाप्, इत्व] प्रसारिणी लता। परसन।
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पूति-पर्ण (क)  : पुं० [ब० स०] [ब० स०, कप्] पूति-करंज। (दे०)
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पूति-पलल्वा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] बड़ा करेला।
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पूति-पुष्प  : पुं० [ब० स०] इँगुदी वृक्ष। गोंदी। हिंगोट।
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पूति-फल  : पुं० [ब० स०] बकुची। सोमराजी।
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पूतिफला, पूतिफली  : स्त्री० [सं० पूतिफल+टाप्] [सं० पूतिफल+ङीष्] बावची।
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पूति-बर्बर  : स्त्री० [कर्म० स०] बनतुलसी। जंगली तुलसी। काली बर्बरी।
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पूति-भाव  : पुं० [ष० त०] सड़ने की क्रिया या भाव। सड़ायँध।
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पूति-मज्जा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] गोंदी। इंगुदी वृक्ष।
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पूति-मयूरिका  : स्त्री० [पूति-मयूरी, उपमि० स०+ क+ टाप्, ह्रस्व] अजवायन की तरह का एक पौधा। वि० दे० ‘अजमोदा’।
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पूतिभाव  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि।
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पूतिमुद्गल  : स्त्री० [सं०] रोहिष तृण।
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पूति-मूषिका  : स्त्री० [कर्म० स०] छछूँदर।
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पूति-मृत्तिक  : स्त्री० [ब० स०] पुराणानुसार इक्कीस नरकों में से एक नरक का नाम।
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पूति-मेद  : पुं० [ब० स०] दुर्गंध खैर। अरिमेद।
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पूति-योनि  : पुं० [ब० स०] एक तरह का योनि-रोग।
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पूति-रक्त  : पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें नाक में से दुर्गंध युक्त रक्त निकलता है।
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पूति-रज्जु  : स्त्री० [ब० स०] एक प्रकार की लता।
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पूति-वक्त  : वि० [ब० स०] जिसके मुँह से दुर्गन्ध निकलती हो।
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पूति-वात  : पुं० [ब० स०] १. बेल का पेड़। २. गंदी वायु। ३. पाद।
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पूति-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] सोनापाठा।
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पूति-व्रण  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा फोड़ा जिसमें निकलनेवाला मवाद अत्यधिक दुर्गंधयुक्त होता है।
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पूति-शाक  : पुं० [कर्म० स०] अगस्त। वक वृक्ष।
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पूति-शारिजा  : स्त्री० [कर्म० स०] बनबिलाव।
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पूती  : स्त्री० [सं० पोत=गट्ठा] १. गाँठ के रूप में होनेवाली पौधों की जड़। २. लहसुन आदि की गाँठ।
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पूतीक  : पुं० [सं०=पूतिक, पृषो० सिद्धि] १. पूतिकरंज (दे०) २. गंध मार्जार।
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पूतीकरंज  : पुं० [सं०=पूतिकञ्ज्, पृषो० सिद्धि] पूतिकरंज। (दे०)
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पूतीकरण  : पुं० [सं०=पूत+च्वि√कृ+ल्युट—अन] पूत अर्थात् पवित्र या शुद्ध करने की क्रिया, प्रणाली या भाव। (प्योरिफिकेशन)
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पूतीका  : स्त्री० [सं०=पूतिक, पृषो० सिद्धि] पोई। पूतिका। शाक।
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पूत्कारी  : स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. नाग-लोक की राजधानी।
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पूत्यंड  : पुं० [सं० पूति-अंड, ब० स०] १. कस्तूरी मृग। २. एक बदबूदार कीड़ा। गंध-कीट।
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पूथ  : पुं०=पूथा।
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पूथा  : पुं० [देश०] बालू का ऊँचा टीला या ढूह।
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पूथिका  : स्त्री० [सं०=पूतिका, पृषो० सिद्धि] पोई नामक पौधा और उसकी पत्ती।
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पूदना  : पुं० [देश०] भूरे रंग का एक प्रकार का पक्षी जो प्रायः जमीन पर चला करता है; और घास-फूस का घोसला बनाकर रहता है। पुं०=पुदीना।
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पून  : पुं० [देश०] जंगली बादाम का पेड़ जो पाकिस्तान के पश्चिमी किनारों पर होता है। इसके फूल और पत्तियाँ दोनों दवा के काम आती हैं। इसमें से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है। पुं०=पूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं०] नष्ट।
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पूनना  : पुं० [देश०] १. कलपून या पून नाम का सदा बहार पेड़। २. एक तरह की ईख। स०=पुनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूनव  : स्त्री०=पूर्णिमा।
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पून-सलाई  : स्त्री० [हिं० पूनी+सलाई] लोहे की सींक अथवा बेंत, नरसल आदि की वह छोटी पतली नली या पोर जिस पर रूई लपेटकर पूनी बनाई जाती है।
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पूनाक  : पुं० [देश०] तिलों में से तेल निकाल लिए जाने पर बच रहनेवाली सीठी। खली।
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पूनिउँ  : स्त्री०=पूनो (पूर्णिमा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूनी  : स्त्री० [सं० पिंजिका] १. चरखे पर सूत कातने के उद्देश्य से बनाई हुई सलाई आदि पर लपेटकर रूई की बत्ती। २. वह बहुत लम्बी रूई की बत्ती जिससे मशीनों पर सूत काता जाता है।
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पूनो  : स्त्री० [सं० पूर्णिमा] किसी महीने के शुक्ल पक्ष का अन्तिम दिन। पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पून्यो  : स्त्री०=पूनो (पूर्णिमा)।
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पूप  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+पक्] एक तरह की मीठी पूरी। वि० दे० ‘पूआ’।
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पूपला  : स्त्री० [सं०पूप√ला (लेना)+क+टाप्] पूआ नामक पकवान।
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पूपली  : स्त्री० [सं० पूपल+ङीष्] छोटा पूआ।
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पूपशाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ पूप आदि पकवान बनते या बनने पर रखे जाते हैं।
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पूपाली  : स्त्री० [सं० पूप√अल् (पर्याप्त होना)+अच्+ ङीष्] पूआ।
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पूपाष्टका  : स्त्री० [सं० पूप-अष्टका, मध्य० स०] पूस के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, इस दिन मालपूओं से श्राद्ध करने का विधान है।
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पूपिक  : पुं० [सं० पूप+ठन्—इक] पूआ।
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पूय  : पुं० [सं०√पूय (दुर्गन्ध करना)+अच्] फोड़े में से निकलनेवाला सफेद गाढ़ा तरल पदार्थ। पीप।
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पूय-कुंड  : पुं० [ष० त०] १. पुराणानुसार एक नरक का नाम। २. दे० ‘पुतिकुंड’।
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पूय-दंत  : पुं० [ब० स०] दाँतों का एक विशिष्ट रोग जिस में मसूढ़ों में से मवाद निकलता है। (पायरिया)।
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पूयन  : पुं० [सं०√पूय+ल्युट्—अन] १. पूय। मवाद। २. प्राणी या वनस्पति के अंग का इस प्रकार गलना या सड़ना कि उसमें से दुर्गन्ध आने लगे। सड़न। (प्यूट्रिफिकेशन)।
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पूय-प्रमेह  : पुं० [सं० ब० स०] वैद्यक में एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मूत्र पीप की तरह गाढा और दुर्गन्धमय होता है।
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पूयभुक् (ज्)  : वि० [सं० पूय√भुज् (खाना)+क्विप्] सड़ा मुर्दा खानेवाला।
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पूय-मेह  : पुं० [ब० स०] पूय-प्रमेह।
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पूय-रक्त  : पुं० [ब० स०] १. रक्तपित्त की अधिकता अथवा सिर पर चोट लगने के कारण नाक में से पीप मिला हुआ लहू निकलने का एक रोग। २. नाक में से निकलनेवाला पीब मिला हुआ रक्त।
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पूयवह  : पुं० [सं० पूय√वह् (बहना)+अण्] एक नरक।
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पूय-शोणित  : पुं०=पूय-रक्त। (दे०)
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पूय-स्राव  : पुं० [ब० स०] सुश्रुत के अनुसार आँखों का एक रोग जिसमें उसका संधिस्थान पक जाता है और उसमें से पीब बहने लगता है।
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पूयारि  : पुं० [पूय-अरि, ष० त०] नीम।
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पूयालस  : पुं० [पूय-अलस, ब० स०] आँखों का एक लोग जिसमें उसकी पुतली के संधिस्थल में से पीब निकलने लगता है।
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पूयोद  : पुं० [पूय-उदक, ब० स०, उदादेश] एक नरक का नाम।
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पूर  : पुं० [हिं० पूरना=भरना] १. कोई काम पूरा करने की क्रिया या भाव। मुहा०—पूर देना=किसी बात का अन्त या समाप्ति करना। उदा०—दुइ सुत मारेउ दहेउ अजहुँ पूर पिय देहु।—तुलसी। २. वे मसाले या दूसरे पदार्थ जो किसी पकवान के अन्दर भरे जाते हैं। जैसे—समोसे का पूर। ३. नदियों आदि में आनेवाली बाढ़। वि०=पूर्ण। पुं० [सं०√पूर (दुर्गन्ध करना)+क] १. दाह अगर। दाहागुरु। २. बाढ़। ३. घाव का पूरा होना या भरना। ४. प्राणायाम में पूरक क्रिया। वि० दे० ‘पूरक’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरक  : वि० [सं०√पूर्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. पूर्ति करनेवाला। कमी, त्रुटि आदि पर दूर करनेवाला। २. (अंश या मात्रा) जिसके योग से किसी दूसरे तत्त्व या बात में पूर्णता आती हो या किसी प्रकार की पूर्ति होती हो। संपूरक। (कॉम्लिमेन्टरी) ३. किसी के सामने आकर उसकी बराबरी या सामना कर सकनेवाला। उदाहरण-पूरक है तेरा यहाँ एक युधिष्ठिर ही।—मैथिलीशरण। दे० ‘संपूरक’। पुं० १. प्राणायाम विधि के तीन भागों में से पहला भाग जिसमें श्वास को नाक से खींचते हुए अन्दर की ओर ले जाते हैं। २. वे दस पिंड जो हिदुओं में किसी के मरने पर उसके मरने की तिथि से दसवें दिन तक नित्य दिये जाते हैं। कहते हैं कि जब शरीर जल जाता है तब इन्हीं पिंडों से मृत व्यक्ति का पारलौकिक शरीर फिर से बनता है। ३. गणित में वह अंक जिसके द्वारा गुणा किया जाता है। गुणक अंक। ४. बिजौरा नींबू। ५. दे० ‘समायोजक’।
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पूरण  : पुं० [सं०√पूर+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० पूरणीय] १. पूरा करने की क्रिया। २. अवकाश, रिक्त स्थान आदि में किसी को बैठना या रखना। पूर्ति करना। ३. कान आदि में तेल डालने की क्रिया। ४. अंकों का गुणा करना। ५. मृतक के दसवें दिन दिया जानेवाला पिंड जो मृतक के पर-लोक-गत शरीर को पूरा करनेवाला माना जाता है। ६. वर्षा। वृष्टि। ७. केवटी। मोथा। ८. पुल। सेतु। ९. समुद्र। १॰. गदह-पूरना। पूनर्नवा। ११. वैद्यक में वात के प्रकोप से होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा या व्रण। वि० [सं०√पूर+णिच्+ल्यु—अन] पूरा करनेवाला। पूरक।
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पूरणी  : स्त्री० [सं० पूरण+ङीप्] सेमर। शाल्मकी वृक्ष।
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पूरणीय  : वि० [सं०√पूर+अनीयर्] १. जो पूर्ण किये जाने के योग्य हो। २. भरे जाने के योग्य।
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पूरन  : वि० [सं० पूर्ण] पूर्ण। पूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० कचौरी, समोसे आदि पकवानों के बीच में भरा जानेवाला मसाला या और कोई वस्तु। पूर। पुं० [हिं० पूर] १. जलाशय, नदी आदि की बाढ़। २. नदी की धारा या प्रवाह।
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पूरन-काम  : वि०=पूर्ण-काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० पूर्णकाम] जिसकी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हों।
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पूरन-परब  : पुं० [सं० पूर्णपर्व] पूर्णमासी।
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पूरन-पूरी  : स्त्री० [सं० पूर्ण+हिं० पूरी] एक प्रकार की मीठी कचौरी या पूरी जिसके अन्दर पूर भरा रहता है।
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पूरनमासी  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरना  : स० [सं० पूरण] १. कमी या त्रुटि दूर करना या पूरी करना। पूर्ति करना। २. किसी के अन्दर कोई चीज अच्छी तरह से भरना। उदा०—सतगुरु साँचा सूरमा नखसिख मारे पूर।—कबीर। ३. आच्छादित करना। ढाँकना। ४. (अभिलाषा या मनोरथ) पूर्ण और सफल करना। ५. आवश्यक और उपयुक्त स्थान पर रखना या लगाना। उदा०—हरि रहीम ऐसी करी ज्यों कमान सर पूर।—रहीम। ६. सूत आदि की कोई चीज बटकर तैयार करना। जैसे—पूनी पूरना, सेवई पूरना। ७. कपड़ा बुनने से पहले ताने के सूत फैलाना। ८. मंगल अवसरों पर आटे, अबीर आदि से देवताओं के पूजन आदि के लिए तिकोने, चौखूँटे आदि क्षेत्र बनाना। चौंक बनाना। जैसे—चौक पूरना। ९. शंख बनाने के लिए मुँह से फूँककर उसमें हवा भरना और फलतः उसे बजाना। जैसे—शंख पूरना। अ० १. पूरा होना। २. किसी चीज से भरा जाना या व्याप्त होना। ३. पूरा या समाप्त होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरनिमा  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरब  : पुं० [सं० पूर्व] १. वह दिशा जिसमें सूर्य का उदय होता है। पूर्व। प्राची। २. उक्त दिशा में स्थित कोई क्षेत्र या प्रदेश। जैसे—पूरब में रहनेवाला व्यक्ति। वि०=पूर्व। क्रि० वि०=पूर्व।
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पूरबल  : पुं० [सं० पूर्व+वेला] १. पुराना जमाना। २. इस जन्म से पहलेवाला जन्म। पूर्व जन्म।
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पूरबला  : वि० [सं० पूर्व, हिं०+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० पूरबली] १. पुराने जमाने से संबंधित। २. पूर्व जन्म-संबंधी।
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पूरबली  : स्त्री० [हिं० पूरबला] पूर्व जन्म का कर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरबिय  : पुं० [हिं० पूरब] पूरब अर्थात् पूर्वी भू-भाग या पूर्वी प्रान्त में रहनेवाला व्यक्ति। वि०=पूरबी।
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पूरबी  : वि० [हिं० पूरब+ई (प्रत्य०)] १. पूरब का। पूरब संबंधी। २. पूर्व दिशा से आनेवाला। जैसे—पूरबी हवा। ३. जिसमें पूर्व देश के लक्षण, विशेषताएँ आदि हों। जैसे—पूरबी दादरा, पूरबी हिंदी, पूरबी पहनावा। पुं० १. एक प्रकार का दादरा जो बिहारी भाषा में होता और बिहार प्रान्त में गाया जाता है। २. एक प्रकार का तमाकू। स्त्री०=पूर्वी (रागिनी)।
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पूरयितव्य  : वि० [सं०√पूर+णिच्+तव्यत्] जिसे पूरा या पूर्ण करना आवश्यक या उचित हो। पूरणीय।
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पूरयिता (तृ)  : पुं० [सं०√पूर्+णिच्+तृच्] १. पूर्णकर्ता। पूरक। पूर्ण करनेवाला। २. विष्णु का एक नाम।
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पूरा  : वि० [सं० पूर्ण] [स्त्री० पूरी] १. जिसके अन्दरवाले अवकाश में कुछ भी स्थान खाली न बचा हो। जिसका भीतरी भाग अच्छी तरह भर चुका हो। परिपूर्ण। जैसे—पूरा भरा हुआ कमरा या घड़ा। २. जितना आवश्यक, उचित या संभव हो, उतना। भरपूर। यथेच्छ। यथेष्ट। जैसे—यहाँ सब चीजें पूरी हैं, किसी चीज की कमी नहीं होगी। मुहा०—पूरा पड़ना=जितनी आवश्यकता हो, उतना होना। यथेष्ट होना। जैसे—तुम्हारा तो सौ रूपये में भी पूरा नहीं पड़ेगा। ३. समग्र। समूचा। सारा। कुल। जैसे—(क) उन्होंने पूरा जंगल ठेके पर ले लिया है। (ख) यह पूरा मकान किराये पर दिया जायेगा। ४. जो आकार, घनता, विस्तार आदि के विचार से अच्छी तरह विस्तृत या व्याप्त हो चुका हो। जैसे—पूरा जवान, पूरा जोर, पूरी तेजी। ५. जिसमें कोई कमी या कोर-कसर न हो या न रह गई हो। पक्का। जैसे—(क) अब वह अपने काम में पूरा होशियार हो गया है। (ख) अब तो वह हमारा पूरा दुश्मन हो गया है। पद—किसी काम या बात का पूरा=अच्छी तरह से निर्वाह या पालन कर सकने के योग्य या कर सकनेवाला। जैसे—(क) बात या वचन का पूरा। (ख) गुण या विद्या का पूरा। ६. (काम) जो क्रिया रूप में लाकर अन्त या समाप्ति तक पहुँचा दिया गया हो। पूर्ण रूप से कृत संपन्न या संपादित। जैसे—(क) साल भर में यब पुस्तक पूरी हुई है। (ख) जब तक काम पूरा न हो जायगा, तब तक वह दम (या साँस) न लेगा। मुहा०—(कोई काम) पूरा उतरना=ठीक तरह से संपन्न या संपादित होना। जैसे—रहने दो, तुमसे यह काम पूरा नहीं उतरेगा। ७. (बात) जो कार्यरत या व्यावहारिक रूप से ठीक सिद्ध हो। जैसे— तुम्हारा कहना पूरा होकर ही रहेगा। मुहा०— (कथन) पूरा करना=ठीक या सत्य सिद्ध होना। जैसे—तुम्हारी भविष्यवाणी पूरी उतरी। पूरा पाना=अपने उद्देश्य या प्रयत्न की सिद्धि में सफल होना। उदा०—नाच्यौ नाचलच्छ चौरासी कबहुँन पूरौ पायौ।—सूर। ८. (समय) व्यतीत करना। बिताना। जैसे—(क) हम भी यहाँ अपने दिन पूरे कर रहे हैं; अर्थात् किसी प्रकार समय बिता रहे हैं। (ख) पांडवों ने अज्ञातवास की अवधि भी पूरी कर ली। मुहा०—(किसी के) दिन पूरे होना=अवधि, आयु आदि का अन्त या समाप्ति तक पहुँचना। (गर्भवती के) दिन पूरे होना=गर्भ-धारण का समय समाप्ति पर होना और प्रसव का समय समीप आना। ८. (कामना या इच्छा) संतोषजनक रूप में सफल या सिद्ध होना। जैसे—अब हमारी सभी वासनाएँ पूरी हो चुकी हैं; हमें कुछ नहीं चाहिए। ९. अवस्था या वय में यथेष्ट मान तक पहुँचा हुआ। वयस्क। जैसे—कच्चा तो कचौरी माँगे, पूरी माँगे पूरा।—(कहा०) क्रि० वि० पूर्ण रूप से। पूरी तरह से। जैसे—यह घड़ा पूरा भर दो।
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पूराम्ल  : पुं० [सं०पूर-अम्ल, ब० स०] १. इमली। २. अम्लबेंत।
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पूरिका  : स्त्री० [सं० पूरक+टाप्, इत्व] आटे आदि की बनी हुई पूरी।
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पूरित  : भू० कृ० [सं०√पूर+णिच्+क्त] १. पूर्ण किया या भरा हुआ। परिपूर्ण। लबालब। २. तृप्त। ३. गुणित। गुणा किया हुआ।
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पूरिया  : पुं० [देश०] संध्या के समय गाया जानेवाला षाड़व जाति का एक राग। इसमें पंचम स्वर वर्जित है।
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पूरिया-कल्याण  : पुं० [हिं० पूरिया+कल्याण (राग)] रात के पहले पहर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक संकर राग।
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पूरी  : स्त्री० [सं० पूलिका] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध पकवान जिसे साधारण रोटी आदि की तरह बेलकर खौलते घी या तेल में छानकर पकाते हैं। २. ढोल, तबले, मृदंग आदि में वह गोलाकार चमड़ा जो उनके मुँह पर मढ़ा रहता है और जिस पर आघात होने से वे बजते हैं। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—मढ़ना। वि० हिं० ‘पूरा’ का स्त्री०। (मुहा० के लिए दे० ‘पूरा’) वि० [सं० पूरिन्] पूरा करनेवाला। पूरक। स्त्री० घास आदि का छोटा पूला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरु  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति)+कु] १. मनुष्य। २. राजा ययाति के पुत्र का नाम। ३. वैराज मनु के एक पुत्र। ४. जदु के एक पुत्र। ५. एक राक्षस।
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पुरुख  : पुं०=पूरुष (पुरुष)।
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पूरुजित  : पुं० [सं० पूरु√जि (जीतना)+क्विप्] विष्णु।
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पूरुब  : पुं०=पूरब।
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पूरुष  : पुं० [सं०√पूर+उषन्] १. पुरुष। २. आत्मा।
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पूर्ण  : वि० [सं०√पूर+क्त, त—न] १. (आधान या पात्र) जो पूरी तरह से भरा हुआ हो। जिसमें काम का कोई अवकाश या स्थान खाली न रह गया हो। जैसे—जल से पूर्ण घट। २. लाक्षणिक रूप में, किसी तत्त्व या बात से भरा हुआ पूरी तरह से युक्त। जैसे—शोक-पूर्ण समाचार, हर्ष-पूर्ण सामारोह। ३. सब प्रकार की यथेष्टता के कारण जिसमें कुछ भी अपेक्षा, अभाव या आवश्यकता न रह गई हो। जितना आवश्यक या उचित हो, उतना सब। जैसे—धन-धान्य से पूर्ण गृहस्थी या परिवार। ४. (आवश्यक या इच्छा) जिसके पूरे होने में कोई कसर या सन्देह न रह गया हो। हर प्रकार से तृप्त और संतुष्ट। जैसे—आपने मेरी सभी कामनाएँ पूर्ण कर दी। ५. सब का सब। पूरा। समूचा। सारा। समस्त। संपूर्ण। जैसे—पूर्ण योजना सफल हो गई। ६. जिसमें किसी आवश्यक अंग या संयोजक तत्त्व का ठीक अभाव न हो। हर तरह से ठीक और पूरा। जैसे—पूर्ण उपमा अलंकार। ८. (उद्देश्य या प्रयत्न) सफल। सिद्ध। जैसे—आज आपका संकल्प पूर्ण हुआ। ९. जो अपनी अवधि या सीमा के सिरे पर पहुँच गया हो। जैसे—आयु पूर्ण होना, दंड की अवधि पूर्ण होना। पुं० १. प्रचुरता। बाहुल्य। २. जल। पानी। ३. विष्णु का एक नाम। ४. बौद्ध कथाओं के अनुसार मैत्रायणी का एक पुत्र।
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पूर्ण-अतीत  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. संगीत में ताल का वह स्थान जो ‘सम अतीत’ के एक मात्रा के बाद आता है। यह स्थान भी कभी-कभी सम का काम देता है।
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पूर्णक  : पुं० [सं० पूर्ण+कन्] १. मुर्गा। कुक्कुट। २. देवताओं की एक योनि। ३. दे० ‘पूर्ण’।
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पूर्ण-कलानिधि  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पूर्ण-काम  : वि० [ब० स०] १. जिसकी कामनाएँ पूर्ण या पूरी हो चुकी हो। २. कामना-रहित। निष्काम। पुं० परमेश्वर।
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पूर्ण-काश्यप  : पुं० [कर्म० स०] उन छः तीर्थिकों में से एक जिन्हें भगवान् बुद्ध ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। कहते हैं कि इसी दुःख में ये अपने गले में बालू भरा घड़ा बाँधकर डूब मरे थे।
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पूर्णकुंभ  : पुं० [कर्म० स०] १. जल से भरा हुआ घड़ा जो मांगलिक और शुभ माना जाता है। पूर्ण घट। २. घड़े के आकार का दीवार में बनाया जानेवाला छेद। ३. एक तरह का युद्ध।
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पूर्णकोशा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] एक प्रकार की लता जो ओषधि के काम आती है।
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पूर्णकोषा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. कचौरी। २. प्राचीन काल में जौ के आटे से बननेवाला एक प्रकार का पकवान। ३. दे० ‘पूर्णकोशा’।
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पूर्णकोष्ठा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] नागरमोथा।
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पूर्णगर्भा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. वह स्त्री जिसे शीघ्र प्रसव होने की संभावना हो। वह स्त्री जिसके गर्भ के दिन पूरे हो चले हों। २. कचौरी, जिसमें पीठी आदि भरी रहती हैं। ३. पूरन-पूरी नाम का पकवान।
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पूर्णघट  : पुं०=पूर्ण-कुंभ।
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पूर्णचंद्र  : पुं० [कर्म० स०] पूर्णिमा का चन्द्रमा जो अपनी सब कलाओं से पूर्ण या युक्त रहता है।
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पूर्ण-चंद्रिका  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पूर्णतः  : अव्य० [सं० पूर्ण+तस्] पूरी तरह से। पूर्णतया।
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पूर्णतया  : अव्य० [सं० पूर्णता की तृ० विभक्ति का रूप] पूरी तरह से। पूण रूप से।
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पूर्णता  : स्त्री० [सं० पूर्ण+तल्+टाप्] १. पूर्ण होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी प्रकार का अभाव, कमी या त्रुटि न हो। (परफेक्शन)।
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पूर्ण-परिवर्तक  : पुं० [कर्म० स०] वह जीव जो अपने जीवन में अनेक बार रूप आदि बदलता हो। जैसे—कीड़े-मकोड़े, तितली, मेढक आदि।
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पूर्णपर्वेंदु  : पुं० [पूर्ण-पर्व-इंदु, ब० स०] पूर्णिमा। पूर्णमासी।
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पूर्णपात्र  : पुं० [कर्म० स०] १. वह घड़ा जो प्राचीन काल में चावलो से भरकर होम या यज्ञ के अन्त में दक्षिणा के रूप में पुरोहित को दिया जाता था। इसमें साधारणतः २५६ मुट्ठी चावल हुआ करता था। २. उक्त के आधार पर २५६ मुट्ठियों की एक नाप। ३. पुत्र-जन्म आदि शुभ अवसरों पर शुभ संवाद सुनानेवाले लोगों को बाँटे जानेवाले कपड़े और गहने।
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पूर्णप्रज्ञ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी बुद्धि में कोई कमी या त्रुटि न हो। २. बहुत बड़ा बुद्धिमान। ३. पूर्ण ज्ञानी। पुं० पूर्ण प्रज्ञदर्शन के कर्ता मध्वाचार्य जो वैष्णव मत के संस्थापक आचार्यों में माने जाते हैं। हनुमान और भीम के बाद ये वायु के तीसरे अवतार कहे गये हैं। इनका एक नाम आनन्दतीर्थ भी है।
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पूर्णप्रज्ञदर्शन  : पुं० [ष० त०] सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार एक दर्शन जिसके प्रवर्तक पूर्णप्रज्ञ या मध्वाचार्य हैं। इसके अधिकतर सिद्धान्त रामानुज दर्शन के सिद्धान्तों से मिलते हैं।
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पूर्णबीज  : पुं० [ब० स०] बिजौरा नींबू।
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पूर्णभद्र  : पुं० [कर्म० स०] १. स्कंद पुराण के अनुसार हरिकेश नामक यक्ष के पिता। २. एक नाग का नाम।
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पूर्णभेदी (दिन्)  : पुं० [सं०पूर्ण√भिद् (विदारण)+णिनि ] एक प्रकार का पौधा।
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पूर्णमा  : स्त्री० [सं०पूर्ण√मा (मापना)+क+टाप्] पूर्णिमा। पूर्णमासी।
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पूर्णमानस  : वि० [ब० स०] जो मन से भली भांति संतुष्ट हो।
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पूर्णमास  : स्त्री० [ब० स०] १. चन्द्रमा। २. [पूर्णमासी+अच्] प्राचीन काल में पूर्णिमा को किया जानेवाला एक तरह का यज्ञ।
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पूर्णमासी  : स्त्री० [सं० पूर्णमास+ङीष्] शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि जिसमें चन्द्रमा अपनी सोलहों कलाओं से युक्त होता है। पूर्णिमा। पूनो।
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पूर्ण-मैत्रायनी पुत्र  : पुं० [सं० मैत्रायनी-पुत्र, ष० त०, पूर्ण-मैत्रायनी पुत्र, कर्म० स०] बुद्ध भगवान् के अनुचरों में से एक जो पश्चिम भारत के सुरपाक नामक स्थान में रहते थे।
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पूर्णयोग  : पुं० [ब० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का बाहुयुद्ध। भीम और जरासंघ में यही बाहु-युद्ध हुआ था।
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पूर्णरथ  : पुं० [ब० स०] बहुत कुशल और पक्का योद्धा।
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पूर्णलक्ष्मीक  : वि० [ब० स०] लक्ष्मी या धन से भली भाँति सम्पन्न।
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पूर्णवर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं०] महाराज अशोक के वंश के अंतिम मगध सम्राट। गौड़राज शशांक द्वारा बोधिवृक्ष के नष्ट किये जाने पर इन्होंने उसे फिर से जीवित कराया था।
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पूर्णवर्ष  : वि० [ब० स०] बीस वर्ष की अवस्था वाला नौजवान।
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पूर्णविराम  : पुं० [कर्म० स०] लिखाई, छपाई आदि में एक प्रकार का चिह्र जो वाक्य के अन्त में उसकी पूर्णता या समाप्ति जतलाने के लिए खड़ी पाई के रूप में लगाया जाता है। (फुल-स्टॉफ)
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पूर्णविषम  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में ताल का एक स्थान जो कभी कभी सम का काम देता है।
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पूर्णवैशानिक  : पुं० [कर्म० स०] वह बौद्ध जिसकी आस्था सर्वशून्य तत्त्ववाद में हो।
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पूर्णशैल  : पुं० [कर्म० स०] योगिनी तंत्र के अनुसार उल्लिखित एक पर्वत का नाम।
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पूर्ण-श्री  : वि० [ब० स०] प्रतिष्ठित, सम्पन्न तथा सुखी (व्यक्ति)।
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पूर्णहोम  : पुं० [कर्म० स०] पूर्णाहुति। (दे०)
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पूर्णांक  : पुं० [पूर्ण-अंक, कर्म० स०] १. पूरी संख्या। २. गणित में अविभक्त संख्या। ३. किसी प्रश्न-पत्र के लिए निर्धारित अंक। (फुल मार्क्स)।
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पूर्णांजलि  : वि० [पूर्ण-अंजलि, ब० स०] जितना अँजुली में आ सके, उतना। अंजुलि भर।
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पूर्णा  : स्त्री० [सं० पूर्ण+टाप्] १. चंद्रमा की पंद्रहवी कला। २. पंचमी, दसमी, अमावस और पूर्णमासी की तिथियाँ। ३. दक्षिण भारत की एक नदी।
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पूर्णाघात  : पुं० [पूर्ण-आघात, कर्म० स०] संगीत में ताल का वह स्थान जो अनाघात के उपरांत एक मात्रा के बाद आता है। कभी-कभी वह स्थान भी सम का काम देता है।
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पूर्णानंद  : पुं० [पूर्ण-आनन्द, ब० स०] परमेश्वर।
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पूर्णाभिलाष  : वि० [पूर्ण-अभिलाष, ब० स०] १. जिसकी अभिलाषा पूरी हो चुकी हो। २. तृप्त। संतुष्ट।
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पूर्णाभिषिक्त  : भू० कृ० [पूर्ण-अभिषिक्त, कर्म० स०] जिसका पूर्णाभिषेक संस्कार हो चुका हो। पुं० तांत्रिकों और शाक्तों का एक भेद या वर्ग।
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पूर्णाभिषेक  : पुं० [पूर्ण-अभिषेक, कर्म० स०] वाममार्गियों का एक तांत्रिक संस्कार जो किसी नये साधन के गुरु द्वारा दीक्षित होने के समय किया जाता है। अभिषेक। महाभिषेक।
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पूर्णामुता  : स्त्री० [पूर्ण-अमृता, कर्म० स०] चन्द्रमा की सोलहवीं कला।
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पूर्णायु (स्)  : वि० [पूर्ण-आयुस्, ब० स०] जिसने पूरी अर्थात् सौ वर्षो की आयु पाई हो। स्त्री० [पूर्ण-अवतार, कर्म० स०] १. पूरी आयु। सारा जीवन। २. सौ वर्षों की आयु।
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पूर्णावतार  : पुं० [पूर्ण-अवतार, कर्म० स०] अंशावतार से भिन्न ऐसा अवतार जो किसी देवता की संपूर्ण कलाओं से युक्त हो। सोलहों कलाओं से युक्त अवतार।
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पूर्णाशा  : स्त्री० [पूर्ण-आशा, ब० स०+टाप्] महाभारत में उल्लिखित एक नदी।
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पूर्णाहुति  : स्त्री० [पूर्ण-आहुति, कर्म० स०] १. यज्ञ की समाप्ति पर दी जानेवाली आहुति। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी कार्य की समाप्ति के समय होनेवाला अन्तिम कृत्य।
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पूर्णि  : स्त्री० [सं०√पू+णिङ्] पूर्णिमा।
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पूर्णिका  : स्त्री० [सं० पूर्णि+कन्+टाप्] एक प्रकार की चिड़िया जिसकी चोंच का दोहरा होना माना जाता है। नासाच्छिनी पक्षी।
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पूर्णिमांत  : पुं० [सं०] गौण चांद्रमास का दूसरा नाम।
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पूर्णिमा  : स्त्री० [सं० पूर्णि√मा (मापना)+क+टाप्] चांद्रमास के शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि जिसमें चन्द्रमा अपने पूरे मंडल से उदय होता है। पूर्णमासी।
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पूर्णमासी  : स्त्री०=पूर्णिमा।
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पूर्णेंदु  : पुं० [पूर्ण-इन्दु, कर्म० स०] पूर्णिमा का चन्द्रमा जो अपनी सोलहों कलाओं से युक्त होता है। पूर्णचन्द्र।
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पूर्णोत्कट  : पुं० [पूर्ण-उत्कट, कर्म० स०] मार्कडेय पुराण में उल्लिखित एक पूर्व देशीय पर्वत।
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पूर्णोदरा  : स्त्री० [पूर्ण-उदर, ब० स०, टाप्] एक देवी।
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पूर्णोपमा  : पुं० [पूर्ण-उपमा, कर्म० स०] उपमा अलंकार के दो मुख्य भेदों में से पहला जिसमें उपमेय, उपमान, वाचक और धर्म चारों अंग प्रकट रूप से वर्तमान रहते हैं। यथा—सुभग सुधाधर तुल्य मुख, मधुर, सुधा से बैन—पद्याकर। विशेष—इसके आर्थी और श्रौती दो भेद होते हैं।
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पूर्त  : वि० [सं०=पृ (पालन करना)+क्त] १. पूरी तरह से भरा हुआ। २. छाया या ढका हुआ। आवृत्त। ३. पालित। ४. रक्षित। पुं० १. पूर्णता। २. देवगृह, वापी आदि का बनवाना जो धार्मिक दृष्टि से उत्तम कर्म माना गया है।
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पूर्त-विभाग  : पुं० [ष० त०] आज-कल की राजकीय विभाग जो सड़कें, पुल, नहरें आदि लोकोपयोगी वास्तु-रचनाओं का निर्माण कराता है।
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पूर्त-संस्था  : स्त्री० [ष० त०] धर्मार्थ कार्यों के लिए स्थापित की हुई संस्था (चैरिटेबिल इंस्टीट्यूशन)
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पूर्ति  : स्त्री० [सं० पृ+क्ति] १. पूरे या पूर्ण होने की क्रिया या भाव। पूर्णता। २. जो वस्तु अपेक्षित, आवश्यक या कम हो, उसे लाकर प्रस्तुत करने की क्रिया। कमी पूरी करने का काम। जैसे—अभाव की पूर्ति, समस्या की पूर्ति। ३. अर्थशास्त्र में, वे वस्तुएँ जो किसी विशिष्ट मूल्य पर बिकने के लिए बाजार में आई हों। (सप्लाई)। ४. वापी, कूप या तड़ाग आदि का उत्सर्ग। ५. किसी बही, आकार-पत्र आदि के कोष्टकों में आवश्यकतानुसार कुछ लिखने या खाने भरने का काम। ६. गुणा करने की क्रिया या भाव। गुणन।
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पूर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० पूर्त्त+इनि] १. तृप्ति देनेवाला। २. इच्छा पूर्ण करनेवाला। ३. भरा हुआ। पूरित। पुं० श्राद्ध।
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पूर्ब  : पुं० दे० ‘पूर्व’। वि० दे० ‘पूर्व’।
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पूर्य  : वि० [सं०√पृ+क्यप् वा√पूर्+ण्यत्] १. जिसे पूरा करना आवश्यक या उचित हो। पूरणीय। २. जो पूरा किया जाने को हो। ३. (आज्ञा) जिसका पालन करना आवश्यक और उचित हो। पुं० एक प्रकार का तृण-धान्य।
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पूर्व  : वि० [सं०√पूर्व+अच्] १. जो सबसे आगे, सामने या पहले हो। २. जो किसी से पहले अस्तित्व में आया या बना हो। ३. अत्यधिक पुराना। प्राचीन। ४. किसी कृति के पहलेवाले अंश से संबद्ध। ‘उत्तर’ का विपर्याय। क्रि० वि० पहले। आगे। पुं० [सं०√पूर्व (निवास)+अच्] १. वह दिशा जिसमें से प्रातःकाल सूर्य निकलता हुआ दिखाई देता है। पश्चिम के सामने की दिशा पूरब। २. जैनों के अनुसार सात नील, पाँच खरब, साठ अरब वर्ष का एक काल-विभाग।
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पूर्वक  : अव्य० [सं०] समस्त पदों के अन्त में (क) सहित या साथ। (ख) (कोई काम) अच्छी तरह से करते हुए। जैसे—ध्यानपूर्वक, विचारपूर्वक।
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पूर्व-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार रोगी के सम्बन्ध में किये जानेवाले तीन कर्मों में से पहला कर्म। रोगोत्पत्ति के पहले किये जानेवाले काम।
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पूर्वकल्प  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन काल।
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पूर्वकल्याण  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का राग।
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पूर्व-कल्याणी  : स्त्री० [कर्म० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पूर्वकाय  : पुं० [एकदेशित०] शरीर का पूर्व या ऊपरी भाग। नाभि से ऊपर का भाग।
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पूर्वकाल  : पुं० [कर्म० स०] १. बीता हुआ समय। २. पुराना जमाना।
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पूर्वकालिक  : वि० [सं० पूर्व-काल, कर्म० स०,+ठन्—इक] १. जिसकी उत्पत्ति या जन्म पूर्वकाल में हुआ हो। पूर्वकाल जात। २. पूर्व समय या पुराने जमाने से संबद्ध। ३. जिसका अवस्थान या स्थिति पूर्वकाल में रही हो। पुराने जमाने का।
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पूर्वकालिक क्रिया  : स्त्री० [सं०] व्याकरण में धातु से बना हुआ वह कृदंत जो क्रिया विशेषण की तरह युक्त होता है तथा जिससे सूचित होता है कि अमुक कार्य होने के बाद ही मुख्य क्रिया द्वारा निर्देशित कार्य हुआ या होगा। यह रूप धातु में ‘कर’ लगने से बनता है। विशेष—यह घटना क्रम के विचार से होनेवाले क्रिया के दो भेदों में एक है। दूसरा भेद समापक या समापिका क्रिया कहलाता है।
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पूर्वकालीन  : वि० [सं० पूर्वकाल+ख—ईन] पुराने जमाने का। प्राचीन पुराना।
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पूर्वकृत्  : पुं० [सं० पूर्व√कृ (करना)+क्विप्] पूर्व दिशा के कर्ता सूर्य। भू० कृ० पहले किया हुआ।
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पूर्व गंगा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नर्मदा नदी।
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पूर्वग  : वि० [सं० पुर्व√गम् (जाना)+ड] आगे या पहले चलनेवाला। पूर्वगामी।
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पूर्वगत  : वि० [सुप्सुसा स०] १. जो पहले चला गया हो या जा चुका हो। २. बीता हुआ।
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पूर्वगामी (मिन्)  : वि० [सं० पूर्व√गम् (जाना)+णिनि ] आगे या पहले चल या निकल जानेवाला। जो पहले चला गया हो।
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पूर्वग्रस्त  : भू० कृ० [सं०] १. (बात या विषय जिसके संबंध में मन में कोई पूर्व-ग्रह हो। २. (व्यक्ति) जिसके मन में किसी बात या विषय के संबंध में कोई पूर्व-ग्रह हो। (प्रेजुडिस्ट)
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पूर्वग्रह  : पुं० [कर्म० स०] १. चिकित्सा शास्त्र में, वह सिहरन या इसी प्रकार की और कोई अनुभूति जो मिरगी आदि विकट रोगों का दौरा शुरू होने से पहले होती है। २. किसी अनिश्चित अप्रमाणित या विवादास्पद बात या विषय के संबंध में वह आग्रपूर्वक धारणा जो पहले से बिना जाने या समझे-बूझे अपने मन में स्थिर कर ली गई हो। (प्रेजुडिस)
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पूर्वचित्ति  : स्त्री० [सं०] एक अप्पसरा का नाम।
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पूर्वचेतन  : पुं० [सं०] आधुनिक मनोविज्ञान में वे अचेतन इच्छाएँ या वासनाएँ या प्रतिक्रियाएँ जो पहले से मन में सोई रहती है और सहज में चेतन अवस्था में आ सकती या आ जाती है। यह अहं का बौद्धिक अंश माना गया है। (प्रीकॉशेन्स) विशेष—अचेतन और पूर्व-चेतन में यह अन्तर किया गया है कि अचेतन तो दमित और गतिशील होता है, पर पूर्व चेतन का दमित होना आवश्यक नहीं है। यह अचेतन और चेतन के बीच की स्थिति है।
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पूर्वज  : वि० [सं० पूर्व√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जिसकी उत्पत्ति या जन्म पूर्वजन्म में अथवा किसी के पूर्व या पहले हुआ हो। पुं० १. बड़ा भाई। अग्रज। २. बाप, दादा, परदादा आदि पूर्व पुरुष। पुरखा ३. एक प्रकार के दिव्य पितृगण जिनका निवास चन्द्रलोक में माना गया है।
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पूर्व-जन  : पुं० [कर्म० स०] पुराने समय के लोग। पुराकालीन पुरुष।
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पूर्व-जन्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] १. प्रस्तुत या वर्तमान से भिन्न पहले वाला कोई जन्म। २. इस जन्म से पहलेवाला जन्म। पिछला जन्म।
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पूर्वजन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०] बड़ा भाई। अग्रज।
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पूर्वजा  : स्त्री० [सं० पूर्वज+टाप्] बड़ी बहन।
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पूर्वजाति  : स्त्री० [कर्म० स०] पूर्व जन्म। पिछला जन्म।
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पूर्वजिन  : पुं० [कर्म० स०] १. अतीत जिन या बुद्ध। २. मंजुश्री का एक नाम।
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पूर्वज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. पूर्व जन्म की बात का ज्ञान। पूर्व जन्म में अर्जित ज्ञान जो इस जन्म में भी विद्यमान हो। २. पूर्वाजित या पहले का ज्ञान। ३. आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाओं या बातों का पहले से ही परिज्ञान हो जाना जो अभी घटित न हुई हों, बल्कि भविष्य में कभी घटित होने को हों। (फोर-नॉलेज)।
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पूर्वतः (तस्)  : अव्य० [सं० पूर्व+तस्] १. पहले। २. प्रथमत। ३. सामने।
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पूर्वतन  : वि० [सं० पूर्व+ट्यु—अन, तुट्] १. पहला। २. पुराना।
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पूर्वतर  : वि० [सं० पूर्व+तरप्] [भाव० पूर्वतरता] १. पहला। २. पूर्व का।
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पूर्व-तिथि  : स्त्री० [कर्म० स०] पत्रों, लेखों आदि पर लिखी जानेवाली वह तिथि जो अभी कुछ दिन बाद आने को हो। आज की तिथि या दिनांक के बाद की कोई तिथि या दिनांक।
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पूर्वतिथित  : भू० कृ० [सं० पूर्वतिथि+णिच्+क्त] (वह) जिस पर पहले से कोई पहले की तारीख या तिथि दे या लिख दी गई हो।
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पूर्वत्र  : अव्य० [सं० पूर्व+त्रल्] १. पहले। २. पहलेवाले भाग या स्थान में।
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पूर्व-दक्षिणा  : स्त्री० [ब० स०] पूर्व और दक्षिण के बीच का कोना।
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पूर्वदत्त  : भू० कृ० [कर्म० स०] जो पहले दिया जा चुका हो। पहले का दिया हुआ (प्री-पेड)।
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पूर्वदर्शन  : पुं० [कर्म० स०] आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाएँ या बातें पहले से दिखाई देती हुई जान पड़ना जो अभी घटित न हुई हों बल्कि भविष्य में कभी घटित होने को हों। (प्रीकाग्निशन)
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पूर्वदान  : पुं० [सं०] पहले या पेशगी देना। पहले ही चुका देना है।
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पूर्वदिक्-पति  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पूर्वदिक्-वदन  : पुं० [ब० स०]=पूर्व-दिगीश।
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पूर्वदिगीश  : पुं० [पूर्वदिश्-ईश, ष० त०] १. इन्द्र। २. सिंह, मेष और धनु तीनों राशियाँ।
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पूर्वदिन  : पुं० [एकदेशित०] मध्याह्र से पहले का समय।
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पूर्वदिश्य  : वि० [सं० पूर्वदिश्+यत्] पूर्व दिशा का या उससे सम्बन्ध रखनेवाला।
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पूर्वदिष्ट  : पुं० [कर्म० स०,+अच्] वे सुख-दुःख आदि जो पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के परिणामस्वरूप भोगने पड़ें।
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पूर्वदुष्कृत  : पुं० [ष० त०] पूर्व जन्म का पाप।
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पूर्वदृष्टि  : स्त्री० [कर्म० स०] वह दृष्टि या विचार-शक्ति जिसकी सहायता से किसी होनेवाली बात के सब अंग पहले से ही देख या सोच-समझ लिये जाते हैं। (फोर साइट)।
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पूर्व-देव  : पुं० [कर्म० स०] १. नर और नारायण। २. असुर जो पहले देव या सुर थे, पर अपने दुष्कर्मों के कारण बाद में सुरों के वर्ग से अलग हो गये थे।
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पूर्वदेवता  : पुं० [कर्म० स०] पितर।
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पूर्वदेह  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पूर्व जन्मवाला शरीर। २. शरीर का अगला भाग।
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पूर्वदेहिक, पूर्वदैहिक  : वि० [सं० पूर्व-देह, कर्म० स०,+ ठन्—इक ?] [सं० पूर्वदेह+ठक्—इक ?] पूर्व जन्म में किया हुआ।
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पूर्व-निरूपण  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी बात का पहले से किया जानेवाला निरूपण। २. किस्मत। तकदीर। भाग।
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पूर्वन्याय  : पुं० [कर्म० स०] किसी अभियोग में प्रतिवादी का यह कहना कि ऐसे अभियोग में मैं वादी को पराजित कर चुका हूँ। यह उत्तर का एक प्रकार है।
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पूर्वपक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी शास्त्रीय विषय के संबंध में उठाया हुआ ऐसा प्रश्न, बात या शंका जिसका दूसरे पक्ष को उत्तर देना या समाधान करना पड़े। २. व्यवहार या अभियोग में वादी द्वारा उपस्थित किया हुआ अभियोग या बात। मुद्दई का दावा। ३. चांद्रमास का कृष्णपक्ष।
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पूर्वपक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० पूर्वपक्ष+इनि] १. वह जो पूर्वपक्ष उपस्थित करे। २. वह जो न्यायालय में कोई अभियोग या वाद उपस्थित करे। मुद्दई।
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पूर्वपक्षीय  : वि० [सं० पूर्वपक्ष+छ—ईय] पूर्वपक्ष संबंधी। पूर्वपक्ष का।
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पूर्वपद  : पुं० [कर्म० स०] १. यौगिक या समस्त पद में का पहले का पद। ‘उत्तर-पद’ का विपर्याय। जैसे—लोकगीत में का ‘लोक’ पूर्व-पद है। २. किसी सोपाधिक बात का पहला अंश जिस पर दूसरा अंश अवलंबित हो। ३. कोई ऐसी बात जिस पर तार्किक दृष्टि से कोई दूसरी बात अवलंबित हो। ४. काल-क्रम के विचार से पहले घटित होनेवाली ऐसी घटना जिसके फलस्वरूप बाद में कोई घटना घटित होती है।
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पूर्व-पर्वत  : पुं० [कर्म० स०] उदयाचल।
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पूर्वपाली (लिन्)  : पुं० [सं० पूर्व√पाल् (रक्षा करना)+ णिच्+णिनि] इन्द्र।
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पूर्वपितामह  : पुं० [ष० त०] १. पुरखा। पूर्वज। २. प्रपितामह। परदादा।
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पूर्वपीठिका  : स्त्री० [कर्म० स०] वह अवस्था, रूप या स्थिति जिसके आगे या सामने कोई नई स्थिति या रूप खड़ा हो। भूमिका। (बेकग्राउन्ड)
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पूर्वपुरुष  : पुं० [कर्म० स०] दादा-परदादा। पूर्वज। (फोर-फादर्स)
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पूर्व-प्रत्यय  : पुं० [कर्म० स०] वह प्रत्यय जो शब्द के पहले लगाया जाता है।
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पूर्व-प्लावनिक  : वि० [सं०] १. वैवस्वत मनु अथवा हजरत नूर के समय के प्लावन से पहले का। २. बहुत पुराना फलतः बिलकुल निकम्मा। (एन्टी-डिलूविअल)
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पूर्व-फाल्गुनी  : स्त्री० [कर्म० स०] सत्ताईस नक्षत्रों में से ग्यारहवाँ नक्षत्र जिसमें दो तारे हैं।
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पूर्वबंधु  : पुं० [कर्म० स०] पहले या सबसे अच्छा मित्र।
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पूर्वबाध  : पुं० [ष० त०] पहले के निश्चय को स्थगित या रद्द करना।
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पूर्वबाहु  : स्त्री० [एकोशित] कोहनी से आगे का वह भाग जिसमें कलाई और पंजा होता है। (फोर आर्म)
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पूर्वभक्षिका  : स्त्री० [कर्म० स०] प्रातःकाल किया जानेवाला भोजन। जलपान। नाश्ता।
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पूर्वभाद्रपद  : पुं० [कर्म० स०] सत्ताईस नक्षत्रों में २५वाँ नक्षत्र जिसमें दो तारे हैं।
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पूर्वभाव  : पुं० [कर्म० स०] १. पूर्व सत्ता। २. प्राथमिकता। ३. विचार की अभिव्यक्ति। ४. ‘पूर्वराग’। (साहित्य)
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पूर्वभावी (विन्)  : पुं० [सं० पूर्व√भू+णिनि] कारण। वि० पूर्ववर्ती।
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पूर्वभाषी (षिन्)  : वि० [सं० पूर्व-भाष् (बोलना)+णिनि] १. पहले बोलने का इच्छुक। २. नम्र। विनयी।
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पूर्व-मीमांसा  : पुं० [कर्म० स०] जैमिनी मुनि द्वारा कृत एक प्रसिद्ध भारतीय दर्शन जिसमें कर्मकांड सम्बन्धी बातों का विवेचन है।
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पूर्वयज्ञ  : पुं० [कर्म० स०] जैनों के अनुसार एक जिनदेव जो मणिभद्र और जलेंद्र भी कहलाते हैं।
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पूर्व-रंग  : पुं० [कर्म० स०] १. अभिनय में वह संगीत या स्तुति आदि दो नाटक आरंभ होने से पहले विघ्नों की शांति और दर्शकों को अनुरक्त करने के लिए होता है। यद्यपि इसके प्रत्याहार आदि अनेक अंग है; फिर भी इसमें नान्दी का होना परम आवश्यक है। २. रंग-शाला।
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पूर्व-राग  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में किसी के प्रति मन में उत्पन्न होनेवाला वह प्रेम जो बिना प्रिय को देखे केवल उसका गुण या नाम सुनने, चित्र आदि देखने से होता है। इसकी ये दस दशाएँ कही गई हैं
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पूर्व-रूप  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी काम, चीज या बात का पहलेवाला आकार, रूप या रंग-ढंग। जैसे—इस पुस्तक का पूर्वरूप ऐसा ही था। २. किसी वस्तु का वह रूप जो उस वस्तु के पूर्ण रूप से प्रस्तुत होने से पहले बनता और तैयार होता है। ३. साहित्य में एक अर्थालंकार, जिसमें किसी के विनष्ट, गुण; रूप, वैभव आदि के फिर से वापस या लौट आने का उल्लेख होता है।
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पूर्वलेख  : पुं० दे० ‘संलेख’।
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पूर्ववत्  : अव्य० [सं० पूर्व+वति] १. जिस प्रकार पहले हुआ या किया गया हो, उसी प्रकार या उसी के अनुसार। २. पहले की ही तरह। ज्यों का त्यों (अर्थात् बिना किसी प्रकार के परिवर्तन के)। पुं० किसी कार्य का वह अनुमान जो उसके कारणों को देखकर उसके होने से पहले ही किया जाता है।
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पूर्ववर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० पूर्व√वृत्त (बरतना)+णिनि] जो पहले से वर्तमान हो या रह चुका हो। पूर्व में या पहले रहने या होनेवाला। जैसे—यहाँ के पूर्ववर्ती अध्यापक बहुत वृद्ध हो गये थे।
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पूर्ववाद  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्यवहार शास्त्र के अनुसार वह पहला अभियोग जो कोई व्यक्ति न्यायालय आदि में उपस्थित करे। पहला दावा। नालिश।
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पूर्ववादी (दिन्)  : पुं० [सं० पूर्व√वद् (बोलना)+णिनि] वादी। मुद्दई।
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पूर्वविचार  : पुं० [कर्म० स०] किसी होनेवाली बात के संबंध में पहले से किया जानेवाला विचार। (फोर थॉट)
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पूर्वविद्  : वि० [सं० पूर्व√विद् (जानना)+क्विप्] पुराने समय की बातें जाननेवाला। इतिहास आदि का ज्ञाता।
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पूर्व-विवेचन  : पुं० [सं०] किसी विषय से संबंध रखनेवाली सब बातें पहले से अच्छी तरह सोच-समझ लेने की क्रिया या भाव। (प्राविडेन्स)
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पूर्व-विहित  : वि० [कर्म० स०] १. जिसका पहले से विधान किया जा चुका हो या हो चुका हो। २. पहले का जमा किया हुआ या गाड़ा हुआ (धन)।
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पूर्ववृत्त  : पुं० [कर्म० स०] पुराने समय की घटनाओं का विवरण। पूर्वकाल की बातें। इतिहास।
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पूर्वव्यापित  : वि० [सं०] (आदेश, नियम या निश्चय) जिसका प्रभाव बीते हुए काल के कार्यों, व्यवस्थाओं पर भी पड़ता हो। (रिट्रास्पेक्टिव)
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पूर्व-शैल  : पुं० [सं० कर्म० स०] उदयाचल।
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पूर्व-संचित  : भू० कृ० [कर्म० स०] पहले से इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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पूर्व-संध्या  : स्त्री० [कर्म० स०] दिन की पहली सन्ध्या, अर्थात् प्रातःकाल।
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पूर्व-सक्थ  : पुं० [एकदेशि त०] जाँघ का ऊपरी भाग।
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पूर्व-सभिक  : पुं० [कर्म० स०] जूए खाने का प्रधान या मालिक।
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पूर्वसर  : वि० [सं० पूर्व√सृ (गति)+ट] आगे चलनेवाला। अग्रगामी।
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पूर्व-सागर  : पुं० [कर्म० स०] पूर्वी समुद्र।
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पूर्वसाहस  : पुं० [कर्म० स०] पहला या सबसे बड़ा दंड।
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पूर्वसाचित्य  : पुं० [कर्म० स०] किसी काम में पहले से सोच-समझकर अपनी रक्षा के विचार से किया जानेवाला साचित्य (प्रिकाशन)।
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पूर्वसिंधु  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पूर्वसूचन  : पुं० [कर्म० स०] १. सूचना या चेतावनी पहले से देना। २. किसी भावी कार्य या बात के संबंध में बचत, रक्षा आदि के विचार से पहले से दी जानेवाली सूचना या चेतावनी।
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पूर्वा  : स्त्री० [सं० पूर्व+टाप्] १. पूर्व दिशा। पूरब। २. दे० ‘पूर्वा-फाल्गुनी’। ३. राजाओं आदि के बडे़ बड़े कार्यों का उल्लेख या वर्णन। प्रशास्ति।
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पूर्वागम  : पुं० [पूर्व-आगम, कर्म० स०] भाषा-विज्ञान में, शब्द के आदि में रहनेवाले व्यंजन के साथ उच्चारण के सुभीते के लिए स्वाभाविक रूप से इ या उ स्वर का लगना। प्रोथेसिस। जैसे—‘स्त्री’ का उच्चारण ‘इस्त्री’ के रूप में करना।
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पूर्वाग्नि  : स्त्री० [पूर्व-अग्नि, कर्म० स०] आवसस्थ अग्नि।
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पूर्वाचल, पूर्वाद्रि  : पुं० [पूर्व-अचल, पूर्व-अद्रि कर्म० स०] उदयाचल।
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पूर्वादेश  : पुं० [पूर्व-आदेश, कर्म० स०] किसी बात के सम्बन्ध में पहले से दिया हुआ आदेश या बतलाई हुई कार्य-प्रणाली। (प्रीवियस इन्स्ट्रक्शन)
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पूर्वाधिकारी (रिन्)  : पुं० [पूर्व-अधिकारी, कर्म० स०] वह जो किसी पद पर पहले अधिकारी के रूप में रह चुका हो। (प्रोडिसेसर)
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पूर्वानिल  : पुं० [पूर्व-अनिल, कर्म० स०] पूरबी वायु। पुरवा। हवा।
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परितोख  : पुं० [सं० परि√तुष् (प्रीति)+घञ्] १. निश्चिन्तता युक्त सुख जो कामना या साध पूरी होने पर होता है। अच्छी तरह होनेवाला तोष। पूर्ण तृप्ति। २. खुशी। प्रसन्नता।
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परितोषक  : वि० [सं० परि√तुष्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। २. प्रसन्न या खुश करनेवाला।
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परितोषण  : पुं० [सं० परि√तुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. परितुष्ट करने की क्रिया या भाव। ऐसा काम करना जिससे किसी का परितोष हो। २. वह धन जो किसी को परितुष्ट करने के लिए दिया गया हो।
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परितोषवान् (वत्)  : वि० [सं० परितोष+मतुप्, वत्व] जो सहज में परितोष प्राप्त कर लेता है।
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परितोषी (विन्)  : वि० [सं० परितोष+इनि] १. जिसे परितोष हो। २. जल्दी या सहज में परितुष्ट होनेवाला।
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परितोस  : पुं०=परितोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परित्यक्त  : भू० कृ० [सं० परि√त्यज् (छोड़ना)+क्त] जिसे पूर्ण रूप से अथवा उपेक्षापूर्वक छोड़ दिया गया हो। (एबन्डन्ड)
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परित्यक्ता  : पुं० [सं० परित्यक्त+टाप्] त्यागने या छोड़नेवाला। वि० सं० ‘परित्यक्त’ का स्त्री०। स्त्री० वह स्त्री० जिसे उसके पति ने त्याग या छोड़ दिया हो।
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परित्यजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+ल्युट्—अन] परित्याग करने की क्रिया या भाव। त्यागना। छोड़ना।
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परित्यज्य  : वि० [सं० परित्याज्य]=परित्याज्य।
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परित्याग  : पुं० [सं० परि√त्यज्+घञ्] अधिकार स्वामित्व, संबंध, आधिकृत वस्तु, निजी संपत्ति, संबंधी आदि का पूर्ण रूप से तथा सदा के लिए किया जानेवाला त्याग। पूरी तरह से छोड़ देना। (एबन्डनिंग)
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परित्यागना  : स० [सं० परित्याग] पूरी तरह से ये सदा के लिए परित्याग करना।
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परित्यागी (गिन्)  : वि० [सं० परि√त्यज्+घिनुण्] परित्याग करने अर्थात् पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़नेवाला।
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परित्याजन  : पुं० [सं० परि√त्यज्+णिच्+ल्युट्—अन] परित्याग।
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परित्याज्य  : वि० [सं० परि√त्याज्+ण्यत्] जिसका परित्याग करना उचित हो या किया जाने को हो। जो पूरी तरह से या सदा के लिए छोड़े जाने के योग्य हो।
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परित्रस्त  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक त्रस्त या डरा हुआ।
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परित्राण  : पुं० [सं० परि√त्रै (बचाना)+ल्युट्—अन] १. कष्ट, विपत्ति आदि से की जानेवाली पूर्ण रक्षा। २. शरीर पर के बाल या रोएँ। रोम।
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परित्रात  : भू० कृ० [सं० परि√त्रै+क्त] जिसका परित्राण या रक्षा की गई हो। रक्षा-प्राप्त।
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परित्राता (तृ)  : वि० [सं० परि√त्रै+तृच्] जो दूसरों का परित्राण करता हो। पूरी रक्षा करनेवाला।
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परित्रायक  : वि० [सं० परि√त्रै+ण्वुल—अक]=परित्राता।
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परित्रास  : पुं० [सं० परि√त्रस् (डरना)+घञ्] अत्यधिक त्रास।
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परिदंशित  : भू० कृ० [सं० परिदंश, प्रा० स०,+इतच्] जो पूर्ण रूप से अस्त्रों से सुसज्जित हो या किया गया हो।
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परिदत्त  : भू० कृ० [सं० परि√दा (देना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे परिदान मिला हो। २. (धन) जो परिदान के रूप में दिया गया हो।
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परिदर  : पुं० [सं० परि√दृ (फाड़ना)+अप्] मसूड़ों में से खून और मवाद निकलने या बहने का एक रोग। (पायरिया)
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परिदर्शन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अच्छी तरह से किया जानेवाला या होनेवाला दर्शन। पूर्ण दर्शन। २. निरीक्षण। ३. न्यायालय में किसी मुकद्दमे की होनेवाली सुनवाई। (ट्रायल)
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परिदष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√दंश+क्त] १. काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया हो। २. जिसे डंक या दाँत लगा हो। डंका या दाँत से काटा हुआ। दंशित।
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परिदहन  : पुं० [सं० परि√दह् (जलाना)+ल्युट्—अन] अच्छी तरह या पूर्ण रूप से जलाना।
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परिदान  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिदत्त] १. लौटा देना। वापस कर देना। फेर देना। २. अदला-बदली। ३. अमानत लौटाना। ४. आज-कल वह आर्थिक सहायता जो राज्य सरकार व्यक्तियों, संस्थाओं आदि को उद्योगीकरण में प्रोत्साहित करने के लिए देती है। (सब्साइडी)
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परिदाय  : पुं० [सं० पर√दा (देना)+घञ्] सुगंधि। खुशबू।
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परिदायी (यिन्)  : वि० [सं० परि√दा+णिनि] जो ऐसे वर से अपनी कन्या का विवाह करता हो जिसका बड़ा भाई अभी तक कुआँरा हो।
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परिदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत जलन या दाह। २. मानसिक कष्ट। दुःख या संताप।
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परिदिग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] जिस पर कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में लगी या पुती हो।
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परिदीन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक दीन या दुःखी।
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परिदृढ़  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत दृढ़।
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परिदृष्टि  : स्त्री० [सं०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। संदर्श। (परस्पेक्टिव)
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परिदेव  : पुं० [सं० परि√दिव् (गति)+घञ्] रोना-धोना। विलाप।
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परिदेवन  : पुं० [सं० परि√दिव्+ल्युट्—अन] १. कष्ट पहुँचने या हानि होने पर की जानेवाली चीख-पुकार। २. उक्त स्थिति में की जानेवाली फरियाद या शिकायत। परिवाद। (कम्प्लेन्ट)
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परिदेवना  : स्त्री०=परिदेवन।
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परिद्रष्टा (ष्ट्ट)  : वि० [सं० परि√दृश् (देखना)+तृच्] परिदर्शन करनेवाला।
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परिद्वीप  : पुं० [सं० ब० स०] गरुड़ का एक पुत्र।
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परिध  : स्त्री०=परिधि।
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परिधन  : पुं० [सं० परिधान] कमर और उससे निचला भाग ढकने के लिए पहना जानेवाला कपड़ा। अधोवस्त्र।
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परिधर्षण  : पुं० [सं० परि√धृष् (झिड़कना)+ल्युट्—अन] १. आक्रमण। २. अपमान। तिरस्कार। ३. दूषित या बुरा व्यवहार।
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परिधान  : पुं० [सं० परि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. शरीर पर वस्त्र आदि धारण करना। कपड़े ओढ़ना या पहनना। २. वे कपड़े जो शरीर पर धारण किये या पहने जायँ। पोशाक। ३. कमर के नीचे पहनने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—धोती, लुंगी आदि। ४. प्रार्थना स्तुति आदि का अंत या समाप्ति।
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परिधानीय  : वि० [सं० परि√धा+अनीयर्] [स्त्री० परिधानीया] जो परिधान के रूप में धारण किया जा सके पहने जाने के योग्य (वस्त्र)
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परिधाय  : पुं० [सं० परि√धा+घञ्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। ३. वह स्थान जहाँ जल हो।
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परिधायक  : वि० [सं० परि√धा+ण्वुल्—अक] १. ढकने, लपेटने या चारों ओर से घेरनेवाला। पुं० १. घेरा। २. चहारदीवारी। प्राचीर।
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परिधायन  : पुं० [सं० परि√धा+णिच्+ल्युट्—अन] १. पहनना। २. पोशाक।
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परिधारण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिधार्य, परिधृत] १. अच्छी तरह किया जानेवाला धारण। २. अपने ऊपर उठाना, लेना या सहना। ३. बचाकर या रक्षित रूप में रखना।
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परिधावन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़ना।
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पिधावी (विन्)  : वि० [सं० परि√धाव् (गति)+णिनि] बहुत अधिक या बहुत तेज दौड़नेवाला। पुं० ज्योतिष में साठ संवत्सरों में से छियालीसवाँ संवत्सर।
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परिधि  : स्त्री० [सं० परि√धा+कि] १. वृत्त की रेखा। २. किसी गोलाकार वस्तु के चारों ओर खिंची हुई वृत्ताकार रेखा। (सरकम्फरेन्स) ३. वह गोलाकार मार्ग जिस पर कोई चीज चलती, घूमती या चक्कर लगाती हो। ४. प्रायः गोलाकार माना जानेवाला कोई ऐसा वास्तविक या कल्पित घेरा, जो दूसरे बाहरी क्षेत्रों से अलग हो। कुछ विशेष लोगों या कार्यों का स्वतंत्र क्षेत्र। वृत्त। (सर्किल) ५. सूर्य या चन्द्रमा के आस-पास दिखाई पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ६. किसी वस्तु की रक्षा के लिए बनाया हुआ घेरा। बड़ा चहारदीवारी। नियत या नियमित मार्ग। ८. वे तीन खूँटे जो यज्ञ-मंडप के आस-पास गाड़े जाते थे। ९. क्षितिज। १॰. परिधान। ११. दे० ‘परिवेश’।
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परिधिक  : वि० [सं०] १. परिधि-संबंधी। २. जिसका कार्य-क्षेत्र किसी विशेष परिधि में हो। जैसे—परिधिक निरीक्षक। (सर्किल इंस्पेक्टर)
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परिधिस्थ  : वि० [सं० परिधि√स्था (ठहरना)+क] जो किसी परिधि में स्थित हो। पुं० १. नौकर। सेवक। २. वह सेना जो रथ और रथी की रक्षा के लिए नियुक्त रहती थी।
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परिधीर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक धीरजवाला। परम धीर।
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परिधूपित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] धूप से अच्छी तरह बसाया या सुगंधित किया हुआ।
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परिधूमन  : पुं० [सं० परिधूम, प्रा० स०,+क्विप्+ल्युट्—अन] १. डकार। २. सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै होती है।
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परिधूसर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. धूल से भरा हुआ। जिसमें खूब धूल लगी हो। २. धूल के रंग का। मटमैला।
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परिधेय  : वि० [सं० परि√धा (धारण)+यत्] जो परिधान के रूप में काम आ सके। जो पहना जा सके या पहने जाने योग्य हो। पुं० १. पहनने के कपड़े। परिधान। पोशाक। २. अंदर या नीचे पहनने का कपड़ा। जैसे—गंजी, लहँगा या साया।
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परिध्वंस  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूरी तरह से होनेवाला ध्वसं या नाश। सर्व-नाश। २. ध्वंस। नाश
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परिध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसका पूरी तरह से ध्वंस या नाश हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिनगर  : पुं० [सं० प्रा० स०] नगर से कुछ हटकर बनी हुई बस्ती जो शासकीय दृष्टि से उसकी सीमा के अंतर्गत मानी जाती हो। (सबर्व)
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परिनय  : पुं०=परिणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनागर  : वि० [सं० पारिनगर] परिनगर-संबंधी। (सबर्बन)
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परिनाम  : पुं०=परिणाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनामी  : वि०=परिणामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिनिर्णय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी विवाद के संबंध में दिया हुआ पंचों का निर्णय। २. वह पत्र जिसमें पंचों का निर्णय लिखा हुआ हो। पंचाट। (अवार्ड)
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परिनिर्वाण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।
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परिनिर्वाति  : स्त्री० [सं० परि-निर्√वा (गति)+क्तिन्]=परिनिर्वाण।
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परिनिर्वृत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिनिर्वृत्ति] १. जो मुक्त हो चुका हो। छूटा हुआ। २. जिसे मोक्ष मिल चुका हो।
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परिनिर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मोक्ष। २. छुटकारा। मुक्ति।
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परिनिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. चरमसीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास या ज्ञान की पूर्णता।
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परिनिष्ठित  : वि० [सं० परि-नि√स्था+क्त] १. (कार्य) जो पूरा या सम्पन्न किया जा चुका हो। निपटाया हुआ। २. जो किसी काम में पूरी तरह से कुशल या दक्ष हो।
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परिनिष्पन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (काम) जो अच्छी तरह पूरा हो चुका हो। २. जो भाव-अभाव और सुख-दुःख की कल्पना से बिलकुल दूर या परे हो। (बौद्ध)
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परिनैष्ठिक  : वि० [सं० प्रा० स०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट।
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परिन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पद, वाक्य आदि के भाव में पूर्णता लाना जो साहित्य में एक विशिष्ट गुण माना गया है। २. साहित्यिक रचना में उक्त प्रकार का स्थल। ३. नाटक में आख्यान बीज अर्थात् मुख्य कथा की मूलभूत घटना का संकेत करना।
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परिपंच  : पुं०=प्रपंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपंथ  : वि० [सं० परि√पंथ् (गति)+अच्] जो रास्ता रोके हुए हो।
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परिपंथक  : वि० [सं० परि√पंथ्+ण्वुल्—अक] मार्ग या रास्ता रोकने वाला। पुं० १. वह जो प्रतिकूल या विरुद्ध आचरण या व्यवहार करता हो। २. दुश्मन। शत्रु। उदा०—पार भई परिपंथि गंजिमय।—गोरखनाथ। ३. लुटेरा। डाकू।
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परिपंथिक  : वि०, पुं०=परिपंथक।
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परिपंथी (न्थिन्)  : वि०, पुं० [सं० परि√पंथ्+ णिनि ]=परिपंथक।
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परिपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिपक्वता] १. जो अभिवृद्धि, विकास आदि की दृष्टि से पूर्णता तक पहुँच चुका हो। जैसे—परिपक्व अन्न, फल आदि २. अच्छी तरह पचा हुआ (भोजन)। ३. जिसका उपयुक्त या नियत समय आ गया हो। (मैच्योर) ४. अच्छा अनुभवी, ज्ञाता और बहुदर्शी। ५. कुशल। दक्ष। निपुण।
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परिपक्वता  : स्त्री० [सं० परिपक्व+तल्+टाप्] परिपक्व होने की अवस्था या भाव।
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परिपण  : पुं० [परि√पण् (व्यवहार करना)+घ] मूलधन। पूँजी।
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परिपणन  : पुं० [सं० परि√पण्+ल्युट्—अन] १. बाजी या शर्त लगाना। २. प्रतिज्ञा या वादा करना।
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परिपणित  : भू० कृ० [सं० परि√पण्+क्त] १. (कार्य या बात) जिस पर शर्त लगी या लगाई गई हो। २. (धन) जो बाजी या शर्त में लगाया गया हो। ३. (बात) जिसके संबंध में वादा किया गया हो।
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परिपणित-काल-संधि  : स्त्री० [सं० काल-संधि, ष० त० परिपणित-काल संधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली एक तरह की संधि, जिसमें यह नियत किया जाता था कि कितने-कितने समय तक कौन-कौन सदस्य लड़ेगा।
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परिपणित-देश-संधि  : स्त्री० [सं० देश-संधि, ष० त०, परिपणित-देशसंधि, कर्म० स०] प्राचीन भारत में मित्र देशों में होनेवाली वह संधि, जिसमें यह नियत होता था कि कौन किस देश पर आक्रमण करेगा।
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परिपणित-संधि  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह संधि जिसमें कुछ शर्तें स्वीकार की गई हों।
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परिपणितार्थ-संधि  : स्त्री० [सं० अर्थ-संधि, ष० त० परिपणितअर्थसंधि, कर्म० स०] ऐसी संधि जिसके अनुसार किसी को पूर्व निश्चय के अनुसार कुछ काम करना पड़ता हो।
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परिपतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के चारों ओर उड़ना, चक्कर लगाना या मँडराना।
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परिपति  : वि० [सं० परि√पत् (गिरना)+इन्] जो सब का स्वामी हो। पुं० परमात्मा।
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परिपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह आधिकारिक पत्र जो विशिष्ट या संबद्ध पदाधिकारियों, सदस्यों आदि को सूचनार्थ भेजा जाता है। गश्ती चिट्ठी। (सरक्यूलर) २. वह पत्र जिसमें किसी को कुछ स्मरण करने के लिए कुछ लिखा गया हो। स्मृतिपत्र। (मैमोरैण्डम)
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परिपथ  : पुं० [सं०] १. किसी वृत्ताकार वस्तु के किनारे-किनारे बना हुआ पथ। २. अनेक नगरों, देशों, स्थलों आदि में पारी-पारी से होते हुए जाने के लिए पहले से नियत किया हुआ मार्ग। (सरकिट)
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परिपर  : पुं० [सं० परि√पृ (पूर्ति)+अप्]=परिपथ।
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परिपवन  : पुं० [सं० परि√पू (पवित्र करना)+ल्युट्—अन] १. अनाज ओसाना या बरसाना। २. अन्न ओसाने का सूप।
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परिपांडिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पांडिमान, पांडु+ इमनिच्, परिपांडिमन्, प्रा० स०] बहुत अधिक सफेदी या पीलापन।
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परिपांडु  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिए हुए पीला। २. दुबला-पतला। कृश और क्षीण।
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परिपाक  : पुं० [सं० परि√पच् (पकाना)+घञ्] १. अच्छी तरह या ठीक पकना या पकाया जाना। २. पेट में भोजन अच्छी तरह पचना। ३. किसी विषय या बात की ऐसी पूर्ण अवस्था तक पहुँचना जिसमें कुछ भी त्रुटि न रह जाय। ४. परिणाम। फल। ५. निपुणता। दक्षता।
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परिपाकिनी  : स्त्री० [सं० परिपाक+इनि+ङीष्] निसोथ।
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परिपाचन  : पुं० [सं० परि√पच्+णिच्+ल्युट्—अन] अच्छी तरह पचाना। भली भाँति पचाना।
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परिपाचित  : भू० कृ० [सं० परि√पच्+णिच्+क्त] अच्छी तरह पकाया हुआ।
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परिपाटल  : वि० [सं० प्रा० स०] पीलापन लिए लाल रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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परिपाटलित  : भू० कृ० [सं० परिपाटल+क्विप्+क्त] परिपाटल रंग में रँगा हुआ।
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परिपाटि  : स्त्री० [सं० परि√पट् (गति)+णिच्+ इन्]= परिपाटी।
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परिपाटी  : स्त्री० [सं० परिपाटि+ङीष्] १. किसी जाति, समाज आदि में कोई काम करने का कोई विशिष्ट बँधा हुआ ढंग अथवा शैली। २. विशिष्ट अवसर पर कोई विशिष्ट काम करने की प्रथा। ३. उक्त प्रकार के काम करने का ढंग या प्रथा। विशेष—परिपाटी, पद्धति और प्रथा का अन्तर जानने के लिए देखें ‘प्रथा’ का विशेष।
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परिपाठ  : पुं० [सं० परि√पठ् (पढ़ना)+घञ्] १. वेदों का पुनर्पठन। २. विस्तार के साथ उल्लेख या पाठ करना।
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परिपार (रि)  : स्त्री० [सं० पाली=मर्यादा]। उदा०—किहिं नर किहिं सर राखियै खैंर बठै परिपारि।—बिहारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपार्श्व  : वि० [सं० प्रा० स०] पार्श्व या बगल का। बहुत पास का। पुं० १. पार्श्व। २. समीप्य।
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परिपालक  : वि० [सं० परि√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+ ण्वुल—अक] परिपालन करनेवाला।
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परिपालन  : पुं० [सं० परि+पाल+णिच्+ल्युट्—अन] १. रक्षा। बचाव। २. बहुत ही सावधानी से किया जानेवाला पालन-पोषण या लालन-पालन।
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परिपालना  : स्त्री० [सं० परि√पाल्+णिच्+युच्—अन] रक्षण। बचाव। स० [सं० परिपालन] परिपालन करना।
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परिपालनीय  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका परिपालन करना या होना चाहिए।
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परिपालयिता (तृ)  : वि० [सं० परि√पाल्+णिच्+ अनीयर्] जिसका परिपालन करनेवाला व्यक्ति। परिपालक।
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परिपाल्य  : वि० [सं० परि√पाल्+ण्यत्] जिसका परिपालन करना उचित हो या किया जाने को हो।
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परिपिंजर  : वि० [सं० प्रा० स०] हलके लाल रंग का।
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परिपिच्छ  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का आभूषण, जो मोर की पूँछ के परो का बना होता था।
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परिपिष्टक  : पुं० [सं० परि√पिष् (चूर्ण करना)+क्त+ कन्] सीसा।
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परिपीड़न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अत्यंत पीड़ा पहुँचाना। बहुत कष्ट देना। २. अच्छी तरह दबाना या पीसना। ३. अनिष्ट, अपकार या हानि करना।
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परिपीड़ित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक पीड़ित किया गया हो या हुआ हो।
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परिपोवर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधि मोटा या स्थूल।
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परिपुष्करा  : स्त्री० [सं० प्रा० ब० स०] गोडुंब ककड़ी। गोंडुबा।
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परिपुष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसका पोषण भली भाँति हुआ हो। पूर्ण रूप से पुष्ट।
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परिपुष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिपूजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्यक् प्रकार से किया जानेवाला पूजन या उपासना।
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परिपूत  : वि० [सं० प्रा० स०] अति पवित्र। पुं० ऐसा अन्न जिसमें से कूड़ा-करकट, भूसी आदि निकाल दी गई हो। साफ किया हुआ अन्न।
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परिपूरक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. परिपूर्ण करनेवाला। भर देनेवाला। २. धन-धान्य आदि से युक्त या संपन्न करनेवाला। ३. पूरा। संपूर्ण। सारा।
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परिपूरणीय  : वि० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण किये जाने के योग्य।
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परिपूरन  : वि०=परिपूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिपूरित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह या पूरा-पूरा भरा हुआ। लबालब। २. पूरा या समाप्त किया हुआ।
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परिपूर्ण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो सब प्रकार से पूर्ण हो। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ। ३. जो पूरा या समाप्त हो चुका हो या किया जा चुका हो।
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परिपूर्णेन्दु  : पुं० [सं० परिपूर्ण-इंदु, कर्म० स०] सोलहों कलाओं से युक्त चंद्रमा। पूर्णिमा का पूरा चाँद।
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परिपूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] परिपूर्ण होने की अवस्था, क्रिया या भाव। परिपूर्णता।
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परिपृच्छक  : वि० [सं० परिप्रच्छक] जिज्ञासा या प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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परिपृच्छनिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह बात जिसके संबंध में वाद-विवाद किया जाय। वाद का विषय।
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परिपृच्छा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूछने की क्रिया या भाव। पूछताछ। २. जिज्ञासा।
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परिपेल  : पुं० [सं० परि√पेल् (कंपन)+अच्] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।
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परिपेलव  : वि० [सं० ब० स०] सुन्दर तथा सुकुमार। पुं० केवटी मोथा।
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परिपोट (क)  : पुं० [सं० परि√पुट् (फोड़ना)+घञ्] [परिपोट+कन्] कान का एक रोग जिसमें उसकी त्वचा गल या छिल जाती है।
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परिपोटन  : पुं० [सं० परि√पुट्+ल्युट्—अन] किसी चीज का छिलका अथवा ऊपरी आवरण हटाना।
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परिपोषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिपोषित] अच्छी तरह किया जानेवाला पोषण। भली भाँति पुष्ट करना।
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परिप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] कोई बात जानने के लिए किया जानेवाला प्रश्न। (एन्क्वायरी)
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परि-प्रश्नक  : पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ विशेष रूप से किसी विशिष्ट विभाग या विषय से संबंध रखनेवाली बातों की पूछ-ताछ की जाती है। (एन्क्वायरी आफिस)
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परिप्रेक्ष्य  : पुं० [सं०] चित्रकला में, दृश्यों, पदार्थों, व्यक्तियों का ऐसा अंकन या चित्रण जिसमें उनका पारस्परिक अन्तर ठीक उसी रूप में दिखाई देता हो, जिस रूप में वह साधारणतः आँखों से देखने पर दिखाई देता है। (पर्स्पेक्टिव)
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परिप्रेषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० परिप्रेषित] १. चारों ओर भेजना। २. किसी को दूत या हरकारा बनाकर कहीं भेजना। २. देश-निकाला। निर्वासन। ३. परित्याग।
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परिप्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. निकाला हुआ। निष्काषित। ३. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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परिप्रेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० प्रा० स०] जो भेजा जाने को हो या भेजे जाने के योग्य हो। पुं० नौकर। सेवक।
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परिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्] १. तैरता या बहता हुआ। २. जो गति में हो। ३. हिलता-काँपता हुआ। पुं० १. तैरना। २. पानी की बाढ़। ३. अत्याचार। ४. नाव। नौका।
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परिप्लावित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जो बाढ़ के कारण जलमग्न हो चुका हो।
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परिप्लुत  : वि० [सं० परि√प्लु+क्त] १. जिसके चारों ओर जल ही जल हो। २. भीगा हुआ। आर्द्र। गीला। तर। ३. काँपता या हिलता हुआ। पुं० कहीं पहुँचने के लिए उछलकर आगे बढ़ने की क्रिया। छलाँग।
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परिप्लुता  : स्त्री० [सं० परिप्लुत+टाप्] १. मदिरा। शराब। २. ऐसी योनि जिसमें मैथुन या मासिक रजःस्राव के समय पीड़ा होती हो। (वैद्यक)
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परिप्लुष्ट  : वि० [सं० परि√प्लुष् (दाह)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. झुलसा हुआ।
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परिप्लोष  : पुं० [सं० परि√प्लुष्+घञ्] १. तपना। ताप। २. जलन। दाह। ३. शरीर के अन्दर का ताप।
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परिफुल्ल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह खिला हुआ। खूब खिला हुआ। २. अच्छी तरह खुला हुआ। ३. बहुत अधिक प्रसन्न। ४. जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। जिसे रोमांच हुआ हो।
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परिबंधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिबद्ध] ऐसा बंधन जिसमें चारों ओर से किसी को जकड़ा जाय।
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परिबर्ह  : पुं० [सं० परि√बर्ह् (दान)+घञ्] १. राजाओं के हाथी-घोड़ों पर डाली जानेवाली झूल। २. राजा के छत्र, चँवर आदि राजचिह्न। राजा का साज-सामान। ३. घर-गृहस्थी में नित्य काम आनेवाली चीजें। घर का सामान। ४. धन-सम्पत्ति। दौलत।
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परिबर्हण  : पुं० [सं० परि√बर्ह्+ल्युट्—अन] १. पूजा। उपासना। २. सब प्रकार से होनेवाली वृद्धि। ३. सम्पन्नता। समृद्धि।
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परिबल  : पुं० [सं० प्रा० स०] यंत्रों आदि का वह बल या शक्ति जिसकी प्रेरणा से उसका कोई अंग या पहिया किसी अक्ष या बिन्दु पर घूमता या चक्कर लगाता है। (मोमेन्टम)
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परिबाधा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ी या विकट बाधा। २. कष्ट। पीड़ा। ३. परिश्रम। ४. थकावट। श्रांति।
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परिबृंहण  : पुं० [सं० परि√बृंह् (वृद्धि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवृंहित] १. चारों ओर या हर तरफ से बढ़ना। वर्धन। २. पूरक ग्रंथ जो किसी मुख्य ग्रंथ में प्रतिपादित विचारों की पुष्टि और समर्थन करता हो।
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परिबेख  : पुं०=परिवेष। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिबेठना  : स० [सं० प्रतिवेष्ठन] आच्छादित करना। लपेटना। ढकना। उदा०—ग्रीष्म द्वैपहरी मिस जोन्ह महा विष ज्वालन सों परिबेठी।—देव।
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परिबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्ञान। २. तर्क। ३. वे प्रतिबंध या विघ्न जो दुर्बल चित्तवाले साधकों को समाधिस्थ नहीं होने देते।
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परिबोधन  : पुं० [सं० परि√बुद्ध+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिबोधनीय] १. ठीक प्रकार से बोध करना। २. दंड की धमकी देकर कोई विशेष कार्य करने से रोकना। चेतावनी देना। ३. चेतावनी।
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परिबोधना  : स्त्री० [सं० परि√बुध्+णिच्+युच्—अन, टाप्] चेतावनी।
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परिभंग  : पुं० [सं० प्रा० स०] टुकड़े-टुकड़े करना।
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परिभक्ष  : वि० [सं० परि√भक्ष् (खाना)+अच्] परिभक्षण करनेवाला।
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परिभक्षण  : पुं० [सं० परि√भक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभक्षित] १. पूरी तरह से खाना। २. खूब खाना।
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परिभक्षा  : स्त्री० [सं० परि√भक्ष्+अ+टाप्] आपस्तंब सूत्र के अनुसार एक प्रकार का विधान।
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परिभर्त्सन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली भर्त्सना।
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परिभव  : पुं० [सं० परि√भू (होना)+अप्] अनादर। अपमान। तिरस्कार। उदा०—चिर परिभव से श्रेष्ठ है मरण।—पंत।
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परिभवनीय  : वि० [सं० परि√भू+अनीयर्] १. जो अनादर या अपमान का पात्र हो। २. जिसकी पराजय निश्चित-प्राय हो।
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परिभवी (विन्)  : वि० [सं० पर√भू+इनि] दूसरों का अनादर या अपमान करनेवाला।
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परिभाव  : पुं० [सं० परि√भू+घञ्] १. अनादर। अपमान। परिभव। २. मात करना। हराना। पराभव।
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परिभावन  : पुं० [सं० परि√भू+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभावित] १. मिलाप। संयोग। मिलन। २. चिंता। फिक्र।
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परिभावना  : स्त्री० [सं० परि√भू+णिच्+युच्—अन+टाप्] १. चिन्तन। विचार। २. चिंता। फिक्र। ३. साहित्य में ऐसा वाक्य या पद जिससे अतिशय उत्सुकता उत्पन्न हो।
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परिभावित  : भू० कृ० [सं० परि√भू+णिच्+क्त] १. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। २. व्याप्त। ३. जिस पर विचार किया जा चुका हो। विचारित।
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परिभावी (विन्)  : वि० [सं० परि√भू+णिच्+णिनि] अनादर, अपमान या तिरस्कार करनेवाला।
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परिभावुक  : वि०=परिभावी।
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परिभाषक  : वि० [सं० परि√भाष् (बोलना)+ण्वुल—अक] १. निंदा के द्वारा किसी का अपमान करनेवाला। २. निंदक।
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परिभाषण  : पुं० [सं० परि√भाष्+ल्युट्—अन] १. बात-चीत। वार्तालाप। २. दोषारोपण तथा निंदा करना। ३. नियम।
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परिभाषा  : स्त्री० [सं० परि√भाष्+अ+टाप्] १. बात-चीत। २. निंदा। ३. व्याकरण में वह व्याख्यापक सूत्र जो पाणिनी के सूत्रों के साथ रहता और उनके प्रयोग की रीति बतलाता है। ४. किसी वाक्य में आये हुए पद या शब्द का अर्थ अथवा आशय निश्चित रूप से स्पष्ट करने की क्रिया या प्रकार। ५. ऐसा कथन या वाक्य जो किसी पद या शब्द का अर्थ या आशय स्पष्ट रूप से बतलाता या व्यक्त करता हो। व्याख्या से युक्त अर्थापन। (डेफिनेशन) ६. ऐसा शब्द जो किसी विज्ञान या शास्त्र में किसी विशिष्ट अर्थ में चलता या प्रयुक्त होता हो। परिभाषिक शब्द। (टेक्निकल टर्म)
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परिभाषित  : भू० कृ० [सं० परि√भाष्+क्त] (शब्द या पद) जिसकी परिभाषा की गई या हो चुकी हो। (डिफाइन्ड)
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परिभाषी (षिन्)  : वि० [सं० परि√भाष्+णिनि] बोलने या भाषण करनेवाला।
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परिभाष्य  : वि० [सं० परि√भाष्+ण्यत्] १. जो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता हो या कहा जाने को हो। २. जिसकी परिभाषा की जा रही हो या की जाने को हो।
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परिभिन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] १. टूटा-फूटा या फटा हुआ। २. विकृत।
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परिभुक्त  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (भोगना)+क्त] जिसका परिभोग किया गया हो या हो चुका हो।
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परिभुग्न  : भू० कृ० [सं० परि√भुज (चूर्ण करना)+क्त] टेढ़ा।
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परिभू  : वि० [सं० परि√भू+क्विप्] १. जो चारों ओर से घेरे या आच्छादित किये हुए हो। २. नियम, बंधन आदि में रहनेवाला। ३. नियामक। परिचालक।
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परिभूत  : भू० कृ० [सं० परि√भू+क्त] [भाव० परिभूति] १. जिसका परिभव हुआ हो। २. अनादृत। तिरस्कृत। ३. हारा हुआ। परास्त।
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परिभूति  : स्त्री० [सं० परि+भू+क्तिन्] अपमानित होने या हारने की अवस्था या भाव।
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परिभूषण  : पुं० [सं० परि√भूष् (सजाना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिभूषित] १. अच्छी तरह से भूषित करना। अलंकृत करना। २. प्राचीन भारत में, वह संधि जो आक्रमक को अपने देश का राजस्व देकर की जाती थी।
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परिभूषित  : भू० कृ० [सं० परि√भूष्+क्त] जिसका परिभूषण किया गया हो या हुआ हो।
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परिभेद  : पुं० [सं० परि√भिद् (फाड़ना)+घञ्] १. अच्छी तरह से भेदन करना। २. शास्त्रों आदि से किया जानेवाला आघात। ३. उक्त प्रकार के आघात से होनेवाला क्षत। घाव। जखम।
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परिभेदक  : वि० [सं० परि√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने अर्थात् काटने या फाड़नेवाला। २. गहरा घाव करनेवाला। पुं० यथेष्ट क्षत या घात करनेवाला शस्त्र।
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परिभोक्ता (क्तृ)  : वि० परि√भुज्+तृच्] १. परिभोग करनेवाला। २. दूसरे के धन का उपभोग करनेवाला। पुं० गुरु के धन का उपभोग करनेवाला व्यक्ति।
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परिभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० परिभोग्य] १. बहुत अधिक किया जानेवाला भोग। २. स्त्री० के साथ किया जानेवाला मैथुन। संभोग।
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परिभ्रंश  : पुं० [सं० परि√भ्रंश् (अधःपतन)+घञ्] १. गिरना या गिराना। पतन। स्खलन। २. पलायन। भगदड़।
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परिभ्रम  : पुं० [सं० परि√भ्रम (घूमना)+घञ्] १. चारों ओर घूमना। पर्यटन। २. भ्रम। ३. सीधी तरह से कोई बात न कहकर उसे घुमाफिराकर चक्करदार ढंग या सांकेतिक रूप से कहना। जैसे—‘नाक पर मक्खी न बैठने देना।’ के बदले में कहना—सूँघने की इन्द्रिय पर घर उड़ते फिरने वाले कीड़े या पतंगे को आसन न लगाने देना।
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परिभ्रमण  : पुं० [सं० परि√भ्रम्+ल्युट्—अन] १. चारों ओर घूमना। २. विज्ञान में, किसी एक वस्तु का किसी दूसरी वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर घूमना या चक्कर लगाना। (रोटेशन) जैसे—चंद्रमा पृथ्वी का और पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करता है। ३. घेरा। परिधि।
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परिभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√भ्रंश+क्त] १. गिरा हुआ। च्युत। पतित। २. स्खलित। भागा हुआ।
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परिभ्रामी (मिन्)  : वि० [सं० परि√भ्रम्+णिनि] परिभ्रमण करनेवाला।
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परिमंडल  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिमंडलता] १. गोल। वर्तुलाकार। २. जो तौल में एक परमाणु के बराबर हो। पुं० १. चक्कर। २. घेरा। विशेषतः वृत्ताकार घेरा। परिधि। ३. एक तरह का जहरीला कीड़ा। ३. चंद्रमा अथवा सूर्य के चारों ओर की प्रकाशमान वृत्ताकार रेखा। ४. चंद्रमा या सूर्य का प्रभामंडल। (कारोना)
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परिमंडल कुष्ठ  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुष्ठ का एक भेद।
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परिमंडलता  : स्त्री० [सं० परिमंडल+तल्+टाप्] गोलाई।
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परिमंडलित  : भू० कृ० [सं० परिमंडल+इतच्] चारों ओर से गोल किया हुआ। गोलाकृति बनाया हुआ।
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परिमंथर  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक मंथर।
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परिमंद  : वि० [सं० प्रा० स०] १. अत्यधिक मंद बुद्धि। २. बहुत ही शिथिल या सुस्त।
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परिमन्यु  : वि० [सं० अत्या० स०] जिसे बहुत अधिक क्रोध आता हो। क्रोधी स्वभाव का। गुस्सेवर।
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परिमर  : पुं० [सं० परि√मृ (मरना)+अप्] १. पूर्ण नाश। २. किसी के पूर्ण नाश के लिए किया जानेवाला एक तांत्रिक प्रयोग। ३. वायु।
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परिमर्द्द  : पुं० [सं० परि√मृद् (मर्दन)+घञ्] बहुत अधिक या अच्छी तरह से किया जानेवाला मर्दन।
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परिमर्श  : पुं० [सं० परि√मृद् (छूना, विचारना)+घञ्] १. छू जाना। लग जाना। २. लगाव होना। ३. अच्छी तरह किया जानेवाला विचार। परामर्श।
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परिमर्ष  : पुं० [सं० परि√मृष् (सहना)+घञ्] १. ईर्ष्या। २. कुढ़न। ३. क्रोध।
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परिमल  : पुं० [सं० परि√मल् (धारण)+अच्] १. अच्छी तरह मलना। २. शरीर में सुगंधित द्रव्य मलना या लगाना। ३. उक्त प्रकार से शरीर में मले या लगाये हुए पदार्थों से निकलनेवाली सुगंध। ४. खुशबू। सुगंध। सुवास। ५. पुष्पों आदि से निकलनेवाली वह सुगंध जो चारों ओर दूर तक फैलती हो। ६. मैथुन। संभोग। ६. पंडितों या विद्वानों की मंडली या समुदाय।
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परिमलज  : वि० [सं० परिमल√जन् (उत्पन्न होना)+ ड] परिमल अर्थात् मैथुन से प्राप्त होनेवाला (सुख)।
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परिमलित  : भू० कृ० [सं० परिमल+इतच्] फूलों आदि की सुगंध से सुगंधित किया हुआ।
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परिमा  : स्त्री० [सं० परि√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. सीमा। हद। २. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र की सीमा सूचित करनेवाली रेखा। (बाउंड)
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परिमाण  : पुं० [सं० परि√मा+ल्युट्—अन] १. गिनने, तौलने, मापने आदि पर प्राप्त होनेवाला फल। २. नाप, जोख तौल आदि की दृष्टि से किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, भार, घनत्व विस्तार आदि। मान। (क्वान्टिटी) ३. चारों ओर का विस्तार। घेरा।
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परिमाणक  : पुं० [सं० परिमाण+कन्] १. परिमाण। २. तौल। भार।
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परिमाण-मंडल  : पुं० [सं०] भूगर्भ-शास्त्र में पृथ्वी के तीन मुख्य पटलों या विभागों में बीच का पटल या विभाग जो अनेक प्रकार की धातु-मिश्रित चट्टानों का बना हुआ गरम और ठोस है और जिसके ऊपरी पटल पर मनुष्य बसते और वनस्पतियाँ उगती हैं। (बैरिस्फीयर)
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परिमाणी (णिन्)  : वि० [सं० परिमाण+इनि] परिमाण युक्त। परिमाण विशिष्ट।
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परिमाता (तृ)  : वि० [सं० परि√मा+तृच्] परिमाण का पता लगानेवाला। परिमाण स्थिर करनेवाला।
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परिमाथी (थिन्)  : वि० [सं० परि√मथ् (मथना)+ णिनि] कष्ट देनेवाला।
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परिमान  : पुं०=परिमाण।
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परिमाप  : पुं० [सं० परि√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. लंबाई, चौड़ाई की नाप या लेखा। (डाइमेंशन) ३. वह उपकरण जिससे कोई चीज मापी या नापी जाय। (स्केल) ४. ज्यामिति में किसी आकृति, क्षेत्र या तल को चारों ओर से घेरनेवाली बाहरी रेखा अथवा ऐसी रेखा की लंबाई या विस्तार। (परिमीटर)
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परिमार्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी चीज के चारों ओर बना हुआ पथ या मार्ग। परिपथ।
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परिमार्गन  : पुं० [सं० परि√मार्ग (खोजना)+ल्युट्—अन ] १. टोह या पता लगाने के लिए चारों ओर जाना। २. अन्वेषण। ३. मन-बहलाव या सैर-सपाटे के लिए घूमना। (एक्सकर्शन)
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परिमार्गी (गिन्)  : वि० [सं० परि√मार्ग+णिनि] टोह या पता लगाने वाला।
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परिमार्जक  : वि० [सं० परि√मृज् (शुद्धि करना)+ ण्वुल्—अक] परिमार्जन करनेवाला।
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परिमार्जन  : पुं० [सं० परि√मृज्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमार्जित] १. साफ करने के लिए अच्छी तरह धोना। २. अच्छी तरह साफ करना। ३. साहित्य में, उनकी त्रुटियों, कमियों आदि को दूर करना और इस प्रकार उन्हें उज्जवल बनाना। ४. भूलें आदि सुधारना। ५. प्राचीन भारत में एक प्रकार की मिठाई जो शहद में पागकर बनाई जाती थी।
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परिमार्जित  : भू० कृ० [सं० परि√मृज्+णिच्+क्त] जिसका परिमार्जन किया गया हो या हुआ हो। स्वच्छ किया या सुधारा हुआ।
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परिमित  : वि० [सं० परि√मा+क्त] [भाव० परिमिति] १. जो मापा जा चुका हो। २. परिमाण या मात्रा में जो किसी विशिष्ट विंदु, संख्या आदि से कम हो, कम किया गया हो अथवा उससे अधिक न बढ़ सकता हो। (लिमिटेड)
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परिमितकथी (थिन्)  : वि० [सं० परिमित√कथ् (कहना)+णिनि] कम बोलनेवाला। नपे-तुले शब्द या बातें कहनेवाला। अल्प-भाषी।
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परिमितायु (स्)  : वि० [सं० परिमित-आयुस्, ब० स० ] जिसकी आयु परिमिति अर्थात् थोड़ी हो।
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परिमिताहार  : पुं० [सं० परिमिति-आहार, ब० स०] अल्प भोजन। कम खाना। वि० कम भोजन करनेवाला। अल्पाहारी।
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परिमिति  : स्त्री० [सं० परि√मा+क्तिन्] १. परिमिति होने की अवस्था या भाव। २. परिमाण। ३. सीमा। हद। ४. क्षितिज। ५. प्रतिष्ठा। मर्यादा।
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परिमिलन  : पुं० [सं० परि√मिल् (मिलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिमिलित] १. मिलन। २. संपर्क। ३. स्पर्श। ४. संयोग।
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परिमीठ  : भू० कृ० [सं० परि√मिह् (सींचना)+क्त] मूत्र से सिक्त।
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परिमुक्त  : वि० [सं० परि√मुच् (छोड़ना)+क्त] [भाव० परिमुक्ति] बिलकुल स्वतन्त्र।
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परिमृज्य  : वि० [सं० परि√मृज्+क्विप्] १. परिमार्जित किये जाने के योग्य। २. जिसका परिमार्जन होने को हो।
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परिमृष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√मृज् (शुद्ध करना)+क्त] १. धोया हुआ। २. साफ किया हुआ। ३. अधिकार में किया या लिया हुआ। अधिकृत। ४. (व्यक्ति) जिससे परामर्श किया गया हो। ५. (विषय) जिसके संबंध में परामर्श हो चुका हो। ६. आलिंगित।
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परिमृष्टि  : स्त्री० [सं० परिमृज्+क्तिन्] परिमृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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परिमेय  : वि० [सं० परि√मा+यत्] १. जिसका परिमाण जाना जा सके अथवा जाना जाने को हो। २. घनत्व, मान, विस्तार, संख्या आदि में कम।
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परिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण मोक्ष। निर्वाण। २. परित्याग। छोड़ना। ३. सब को मोक्ष देनेवाले, विष्णु। ४. मल-त्याग करना। हगना।
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परिमोक्षण  : पुं० [सं० परि√मोक्ष (छोड़ना)+ल्युट्—अन ] १. मुक्त करना या होना। २. मुक्ति या मोक्ष देना। ३. परित्याग करना। छोड़ना। ४. मल-त्याग करना। हगना। ५. हठयोग की भाँति धौति क्रिया से आँतें साफ करना।
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परिमोष  : पुं० [सं० परि√मुष् (चोरी करना)+घञ्] १. चोरी। २. डाका।
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परिमोषक  : पुं० [सं० परि√मुष्+ण्वुल्—अक] १. चोर। डाकू।
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परिमोषण  : पुं० [सं० परि√मुष्+ल्युट्—अन] चुराने या डाका डालने का काम। किसी को मूसना; अर्थात् उसका सब-कुछ ले लेना।
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परिमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० परि√मुष्+णिनि] १. चोर। २. डाकू।
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परिमोहन  : पुं० [सं० प्रा० स०] सम्मोहन। (दे०)
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परिम्लान  : वि० [सं० प्रा० स०] १. कुम्हलाया या मुरझाया हुआ। २. निस्तेज। हतप्रभ।
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परियंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियंत  : अव्य०=पर्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परियज्ञ  : पुं० [सं० ब० स०] किसी बड़े यज्ञ के पहले या पीछे किया जानेवाला छोटा यज्ञ
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परियत्त  : भू० कृ० [सं० परि√यत् (प्रयत्न)+क्त] चारों ओर से घिरा हुआ।
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परियष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० परि√यज् (देवपूजन)+तृच्] अपने बड़े भाई से पहले सोम-याग करनेवाला व्यक्ति।
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परिया  : पुं० [तामिल परेंयान] दक्षिण भारत की एक प्राचीन अछूत या अस्पृश्य जाति। वि० १. अछूत। अस्पृश्य। २. क्षुद्र। तुच्छ। स्त्री० [देश०] वे लकड़ियाँ जिससे ताना ताना जाता है।
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परियाण  : पुं० [सं० परि√या (जाना)+ल्युट्—अन] १ चारों ओर घूमना। २. पर्यटन।
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परियाणिक  : पुं० [सं० परियाण+ठन्—इक्] १. वह जो परियाण या पर्यटन कर रहा हो। २. वह गाड़ी जिस पर बैठकर घूमा-फिरा जाता हो।
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परियात  : वि० [सं० परि√या+क्त] १. जो घूम-फिरकर लौट आया हो।
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परियाना  : अ० [सं० प्र-याति] जाना। उदा०—केन कार्य परियासि कुत्र।—प्रिथीराज। स० [?] अलग अलग करना। छाँटना।
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परियार  : पुं० [देश०] बिहारी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों की एक उपजाति। २. मदरास में बसनेवाली एक छोटी जाति।
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परियुक्ति  : स्त्री० [सं० परि√युज् (लगाना)+क्तिन्] १. काम, बात, समय आदि निश्चित या नियत करने अथवा इनके लिए किसी व्यक्ति को नियत या नियुक्त करने की क्रिया या भाव। २. वह स्थिति जिसमें किसी काम या बात के लिए कोई किसी से वचन-बद्ध हो। ठहराव। (एंगेजमेंट)
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परियुद्धक  : पुं० [सं०] युद्ध-काल में वह देस जो अपने हितों के रक्षार्थ दूसरे देश या देशों से लड़ रहा हो। (बेलीगरेन्ट)
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परियोजना  : स्त्री० [सं०] कार्य-रूप में लायी जानेवाली योजना के संबंध में नियमित और व्यवस्तिति रूप से स्थिर किया हुआ विचार और स्वरूप। (स्कीम)
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परिरंभ, परिरंभण  : पुं० [सं० परि√रभ् (मलना)+घञ्, मुम्] [सं० परि√रभ्+ल्युट्—अन] [वि० परिरंभित, परिरंभी] अच्छी तरह से गले लगाना। कसकर गले मिलना। गाढ़ अलिंगन।
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परिरंभना  : स० [सं० परिरंभ+ना (प्रत्य०)] किसी को गले से लगाना। आलिंगन करना।
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परिरक्षक  : वि० [सं० परि√रक्ष् (बचाना)+ण्वुल्—अक] जो सब ओर से रक्षा करता हो। हर तरफ से बचानेवाला।
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परिरक्षण  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिरक्षित] हर तरह से रक्षा करना।
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परिरथ्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] चौड़ा रास्ता जिस पर रथ चलते थे।
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परिरब्ध  : वि० [सं० परि√रभू+क्त] १. घिरा हुआ। गले लगाया हुआ।
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परिरमित  : वि० [सं० परिरत] (काम, क्रीड़ा आदि में) लीन।
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परिराटी (टिन्)  : वि० [सं० परि√रट् (रटना)+घिनुण्] १. चीखने-चिल्लानेवाला। २. कर्कश ध्वनि करनेवाला।
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परिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कला, शिल्प आदि के क्षेत्र में, वह कलापूर्ण रेखा-चित्र जिसे आधार मानकर तथा जिसके अनुकरण पर कोई काम किया या रचना खड़ी की जाय। भाँत। २. उक्त के अनुकरण पर बनी हुई चीज। (डिज़ाइन, उक्त दोनों अर्थों में) जैसे—शहरों में कपड़ों और मकानों के नये-नये परिरूप देखने में आते हैं।
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परिरूपक  : पुं० [सं० परि√रूप् (रूपान्वित करना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] वह शिल्पी जो विभिन्न वस्तुओं के नये-नये परिरूप बनाता हो। (डिज़ाइनर)
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परिरेखा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी तिकोने, चौकोर अथवा बहुभुजी क्षेत्र के सब ओर पड़नेवाली रेखा। (पेरिफेरी) जैसे—किसी टापू या पहाड़ की परिरेखा।
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परिरोध  : पुं० [सं० परि√रुध् (रोकना)+घञ्] चारों ओर से छेंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलंघन  : पुं० [सं० परि√लङ्घ (लाँघना)+ल्युट्—अन] लाँघना।
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परिलघु  : वि० [सं० अत्या० स०] १. बहुत छोटा। २. बहुत जल्दी पचनेवाला। लघुपाक।
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परिलिखन  : पुं० [सं० परि√लिख् (लिखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिलिखित] घिस या रगड़ कर किसी चीज को चिकना बनाना।
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परिलिखित  : भू० कृ० [सं० परि√लिख्+क्त] घिस या रगड़कर चिकना किया हुआ।
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परिलीढ़  : भू० कृ० [सं० परि√लिह् (चाटना)+क्त] अच्छी तरह चाटा हुआ
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परिलुप्त  : भू० कृ० [स० परि√लुप् (काटना)+क्त] १. जो लुप्त हो चुका हो। खोया हुआ। २. क्षतिग्रस्त।
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परिलुप्त-संज्ञ  : वि० [सं० ब० स०] जिसकी संज्ञा न रह गई हो। बेहोश।
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परिंलूत  : भू० कृ० [सं० परि√लू+क्त] कटा अथवा काटकर अलग किया हुआ।
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परिलेख  : पुं० [सं० परि√लिख्+घञ्] १. चित्र का ढाँचा। रेखा-चित्र। खाका। २. चित्र। तसवीर। ३. चित्र अंकित करने की कूँची या कलम। ४. उल्लेख। वर्णन। ५. बड़े अधिकारियों के पास भेजा जानेवाला विवरण। (रिटर्न)
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परिलेखन  : पुं० [सं० परि√लिख्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु के चारों ओर रेखाएँ बनाना। २. लिखना। ३. चित्र अंकित करना।
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परिलेखना  : स० [सं० परिलेख] कुछ महत्त्व का मानना या समझना। किसी लेखे में गिनना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिलेही (हिन्)  : पुं० [सं० परि√लिह्+णिनि] एक रोग जिसमें कान की लोलक पर फुंसियाँ निकल आती हैं।
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परिलोप  : पुं० [सं० परि√लुप् (छेदन)+घञ्] १. लुप्त हो जाना। २. क्षति। हानि। ३. विनाश। विलोप।
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परिवंचन  : पुं० [सं० परि√वञ्च् (ठगना)+ल्युट्—अन] धोखा देना ठगना।
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परिवक्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वृत्ताकार गड्ढा।
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परिवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आदि से अंत तक का पूरा वर्ष या साल। २. ज्योतिष के पाँच विशेष संवत्सरों में से एक जिसका अधिपति सूर्य होता है।
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परिवत्सरीय  : वि० [सं० परिवत्सर+छ—ईय] परिवत्सर-संबंधी।
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परिवदन  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] दूसरे की की जानेवाली निंदा या बुराई।
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परिवपन  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+ल्युट्—अन] १. कतरना। २. मूँड़ना।
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परिवर्जन  : पुं० [सं० परि√वृज् (निषेध)+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्जनीय, भू० कृ० परिवर्जित] परित्याग करना। त्यागना। छोड़ना। तजना। २. मार डालना। वध या हत्या करना।
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परिवर्जनीय  : वि० [सं० परिवृज+अनीयर्] परित्याज्य।
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परिवर्जित  : भू० कृ० [सं० परि√वृज्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्जन हुआ हो। त्यागा हुआ।
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परिवर्णी  : वि० [सं० परिवर्ण+हिं० ई (प्रत्य०)] (शब्द) जो कई शब्दों के आरंभिक वर्णों या अक्षरों के योग से अथवा कुछ शब्दों के आरंभिक तथा कुछ शब्दों के अंतिम वर्णों या अक्षरों के योग से बना हो। (ऐक्रास्टिक) जैसे—भारतीय+युरोपीय के योग से ‘भारोपीय’ अथवा चानव और जेहलम (झेलम) नदियों के बीचवाले प्रदेश का नाम ‘चज’ परिवर्णीशब्द है। इसी प्रकार चांद्रमास के पक्षों के ‘बदी’ (देखें) और ‘सुदी’ (देखें) भी परिवर्णी शब्द हैं।
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परिवर्त  : पुं० [सं० परि√वृत् (बरतना)+घञ्] १. घुमाव। चक्कर। फेरा। २. अदला-बदली। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी दूसरी चीज के बदले में दी या ली जाय। ४. किसी काल या युग का अंत होना या बीतना। ५. ग्रंथ का अध्याय या परिच्छेद। ६. संगीत में स्वर-साधन की एक प्रणाली।
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परिवर्तक  : वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] घूमनेवाला। चक्कर खानेवाला। वि० [सं० परि√वृत्+णिच्+ण्वुल्] १. घुमानेवाला। फिरानेवाला। चक्कर देनेवाला। २. अदला-बदली या विनिमय करनेवाला। ३. किसी प्रकार का परिवर्तन करनेवाला। ४. युग का अंत करनेवाला। पुं० मृत्यु के पुत्र दुस्साह का एक पुत्र।
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परिवर्तन  : पुं० [सं० परि√वृत्+ल्युट्—अन] [वि० परिवर्तनीय, परिवर्तित, परिवर्ती] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। २. चक्कर या फेरा लगाना। घुमाव। चक्कर फेरा। ४. किसी काल या युग का अंत या समाप्ति। ५. एक चीज के बदले में दूसरी चीज देना। विशेषतः किसी की पसंद या सुभीते की चीज उसे देकर उसके बदले में अपनी पसंद या सुभीते की चीज लेना। (कम्यूटेशन) जैसे—नोटों का रुपये में और रुपये का रेजगी में परिवर्तन। ६. वह चीज जो इस प्रकार बदले में दी या ली जाय। ६. किसी की आकृति, गुण, रूप, स्थिति आदि में होनेवाला फेर-फार, सुधार, ह्रास आदि। जैसे—रंग, स्वास्थ्य या हृदय का परिवर्तन। ८. वह क्रिया जो किसी चीज या बात का रूप बदलने अथवा उसे नया रूप देने के लिए की जाय। (चेंज) ९. एक के स्थान पर दूसरे के आने का भाव। जैसे—ऋतु का परिवर्तन, पहनावे का परिवर्तन। १॰. भारतीय युद्ध-कला में शत्रु पर प्रहार करने के लिए उसके चारों ओर घूमना।
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परिवर्तनीय  : वि० [सं० परि√वृत्+अनीयर्] जिसमें परिवर्तन किया जाने को हो।
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परिवर्तिका  : स्त्री० [सं० परि√वृत्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] एक प्रकार का क्षुद्र रोग जिसमें अधिक खुजलाने, दबाने या चोट लगने के कारण लिंगचर्म उलट कर सूज जाता है।
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परिवर्तित  : भू० कृ० [सं० परि√वृत्+णिच्+क्त] १. जिसमें परिवर्तन किया गया हो या हुआ हो। जिसका आकार या रूप बदला गया हो। बदला हुआ। रूपांतरित। २. जो किसी के परिवर्तन या बदले में मिला हो।
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परिवर्तिनी  : स्त्री० [सं० परिवर्तिन्+ङीप्] भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी।
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परिवर्ती (र्तिन्)  : [सं० परि√वृत्+णिनि] १. बराबर घूमता रहनेवाला। २. जिसमें परिवर्तन या फेर-बदल होता रहता हो। बराबर बदलता रहनेवाला। परिवर्तनशील। ३. परिवर्तन या विनिमय करनेवाला।
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परिवर्तुल  : वि० [सं० प्रा० स०] ठीक और पूरा गोल या वर्त्तुल।
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परिवर्त्यता  : स्त्री० [सं०] परिवर्त्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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परिवर्द्धन  : पुं० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवर्द्धित] १. आकार-प्रकार, विषय-वस्तु आदि में की जानेवाली वृद्धि। (एनलार्जमेंट) जैसे—पुस्तक का परिवर्द्धन। २. इस प्रकार बढ़ाया हुआ अंश। ३. जोड़।
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परिवर्द्धित  : भू० कृ० [सं० परि√वर्ध्+णिच्+क्त] जिसका परिवर्द्धन किया गया हो या हुआ हो। बढ़ा या बढ़ाया हुआ। (एनालार्जड)
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परिवर्म (वर्मन्)  : वि० [सं० ब० स०] वर्म से ढका हुआ। बख्तर से ढका हुआ। जिरहपोश।
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परिवर्ष  : पुं० [सं०] उतना समय जितना किसी एक ग्रह को रवि-बीच से चलकर फिर दोबारा वहाँ तक पहुँचने में लगता है। (अनोमेलस्टिक ईयर)
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परिवर्ह  : पुं० [सं० परि√वर्ह (उत्कर्ष)+घञ्] १. चँवर, छत्र आदि राजत्व की सूचक वस्तुएँ। २. राजाओं के दास आदि। ३. घर, कमरे आदि को सजाने के लिए उसमें रखी जानेवाली वस्तुएँ। सजावट की चीजें। ४. गृहस्थी में काम आनेवाली वस्तुएँ। ५. सम्पत्ति।
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परिवर्हण  : पुं० [सं० परि √वर्ह+ल्युट्—अन] १. अनुचर वर्ग। २. वेश-भूषा। पोशाक। ३. वृद्धि। ४. पूजा।
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परिवसथ  : पुं० [सं० परि√वस् (बसना)+अथच्] गाँव। ग्राम।
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परिवह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+अच्] १. सात पवनों में से छठा पवन; जो आकाश गंगा, सप्तऋषियों आदि को वहन करता है। २. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा की संज्ञा।
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परिवहन  : पुं० [सं० परि√वह्+ल्युट्—अन] माल, यात्रियों आदि को एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य, जो आज-कल रेलों, मोटरों, जहाजों, नावों आदि अनेक साधनों द्वारा किया जाता है। (ट्रान्सपोर्ट)
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परिवहन तंत्र  : पुं० [सं०] दे० ‘रक्तवह-तंत्र।
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परिवाँण  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवा  : स्त्री०=प्रतिपदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवाद  : पुं० [सं० परि√वद् (बोलना)+घञ्] १. निंदा। बुराई। शिकायत। २. बदनामी। ३. झूठी निन्दा या शिकायत। मिथ्या दोषारोपण। ४. कोई असुविधा या कष्ट होने पर अधिकारियों के सामने की जानेवाली किसी काम, बात, व्यक्ति आदि की शिकायत। (कम्पलेन्ट) ५. लोहे के तारों का वह छल्ला जिसे उँगली पर पहनकर वीणा, सितार आदि बजाई जाती है। मिजराब।
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परिवादक  : वि० [सं० परि√वद्+ण्वुल्—अक] १. परिवाद या निंदा करनेवाला। निंदक। २. शिकायत करनेवाला। पुं० वह जो वीणा, सितार या इसी तरह का और कोई बाजा बजाता हो।
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परिवादिनी  : स्त्री० [सं० परिवादिन्+ङीष्] एक तरह की वीणा जिसमें सात तार होते हैं।
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परिवादी (दिन्)  : वि० [सं० परि√वद्+णिनि]= परिवादक।
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परिवान  : पुं०=प्रमाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिवानना  : स० [सं० प्रमाण] प्रमाण के रूप में या ठीक मानना।
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परिवाप  : पुं० [सं० परि√वप् (काटना)+घञ्] १. बाल आदि मूँड़ना। २. बोना। ३. जलाशय। ४. घर का उपयोगी सामान। ५. अनुचरवर्ग। ६. भूना हुआ चावल। लावा। फरुही। ६. छेना।
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परिवापित  : भू० कृ० [सं० परि√वप्+णिच्+क्त] मूँड़ा हुआ। मुंडित।
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परिवार  : पुं० [सं० परि√वृ (ढकना)+घञ्] १. एक ही पूर्व पुरुष के वंशज। २. एक घर में और विशेषतः एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहनेवाले लोग। ३. किसी विशिष्ट गुण, संबंध आदि के विचार से चीजों का बननेवाला वर्ग। जैसे—आर्य-भाषाओं का परिवार। (फेमिली) ४. किसी राजा, रईस आदि के आगे-पीछे चलने या साथ रहनेवाले लोग।
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परिवारण  : पुं० [सं० परि√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिवारित] १. ढकने या छिपाने की क्रिया। २. आवरण। आच्छादन। ३. तलवार की म्यान। कोष।
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परिवार नियोजन  : पुं० [सं०] आज-कल देश अथवा संसार की दिन पर दिन बढ़ती हुई जन-संख्या को नियंत्रित करने या सीमित रखने के उद्देश्य से गार्हस्थ जीवन के संबंध में की जानेवाली वह योजना जिससे लोग आवश्यकता अथवा औचित्य से अधिक संतान उत्पन्न न करें। (फैमिली प्लानिंग)
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परिवारित  : भू० कृ० [सं० परि√वृ+णिच्+क्त] घिरा या घेरा हुआ। आवेष्टित।
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परिवारी  : पुं० [सं० परिवार] १. परिवार के लोग। २. नाते-रिश्ते के लोग। वि० पारिवारिक।
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परिवार्षिक  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो पूरे वर्ष भर चलता या होता रहे। जैसे—परिवार्षिक नाला—ऐसा नाला जो बराबर बहता रहे, गरमियों में सूख न जाय; परिवार्षिक वृक्ष=ऐसा वृक्ष जो बराबर हरा रहता हो, और जिसके पत्ते किसी ऋतु में झड़ते न हों। २. बराबर या बहुत दिन तक स्थायी रूप से बना रहनेवाला। (पेरीनियल)
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परिवास  : पुं० [सं० परि√वस्+घञ्] १. टिकना। ठहरना। २. घर। मकान। ३. खुशबू। सुगन्ध। ४. संघ से किसी भिक्षु का होनेवाला बहिष्करण। (बौद्ध)
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परिवासन  : पुं० [सं० परि√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] खंड। टुकड़ा।
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परिवाह  : पुं० [सं० परि√वह् (बहना)+घञ्] १. ऐसा बहाव जिसके कारण पानी ताल, तालाब आदि की समाई से अधिक हो जाता हो। पानी का खूब भर जाने के कारण बाँध, मेंड़ आदि के ऊपर से होकर बहना। २. वह नाली जिसके द्वारा आवश्यकता से अधिक पानी बाहर निकलता या निकाला जाता हो। जल की निकासी का मार्ग। ३. किसी प्रदेश की ऐसी नदियों की व्यवस्था जिनमें नावों आदि से माल भेजे जाते हों।
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परिवाही (हिन्)  : वि० [सं० परि√वह+णिनि] [स्त्री० परिवाहिनी] (तरल पदार्थ) जो आधान या पात्र में या किनारों पर से इधर-उधर भर जाने पर ऊपर से बहता हो।
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परिविंदक  : पुं० [सं० परि√विद् (प्राप्त करना)+ण्वुल—अक, नुम्] वह व्यक्ति जो बड़े भाई का विवाह होने से पहले अपना विवाह कर ले। परवेत्ता।
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परिविंदत्  : पुं० [परि√विन्द्+शतृ, नुम्] परिविंदक। (दे०)
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परिविण्ण (न्न)  : पुं० [सं० परि√विन्द् (लाभ)+क्त]= परिवित्त।
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परिवितर्क  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विचार। २. परीक्षा। (बौद्ध)
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परिवित्त  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिविंदक। (दे०)
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परिवित्ति  : पुं० [सं० परि√विद्+क्तिन्] परिवित्त। परिविंदक।
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परिविद्ध  : वि० [सं० परि√व्यध् (बेधना)+क्त] भली भाँति या चारों ओर से बिधा हुआ। पुं० कुबेर।
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परिविविदान  : पुं० [सं० परि√विद्+लिट्+कानच्] परिविंदक। (दे०)
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परिविष्ट  : भू० कृ० [सं० परि√विष् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० परिविष्टि] १. घिरा अथवा घेरा हुआ। २. परोसा हुआ (भोजन)।
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परिविष्टि  : स्त्री० [सं० परि√विष्+क्तिन्] घेरा। वेष्टन। २. सेवा। टहल। ३. भोजन परोसना।
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परिविहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] जी भरकर या भली-भाँति किया जानेवाला विहार।
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परिवीक्षण  : पुं० [सं० परि-वि√ईक्ष् (देखना)—ल्युट्—अन] १. भली भाँति देखना। २. चारों ओर ध्यानपूर्वक देखना।
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परिवीजित  : वि० [सं० परि√वीज् (पंखा झलना)+क्त] जिस पर पंखे से हवा की गई हो।
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परिवीत  : भू० कृ० [सं० परि√व्य (बुनना)+क्त] १. घिरा हुआ। लपेटा हुआ। २. छिपाया हुआ। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिवृत्त  : वि० [सं० परि√वृ+क्त] १. घेरा, छिपाया या ढका हुआ। २. उलटा-पुलटा हुआ। पुं० कार्य, घटना आदि के संबंध में, दूसरों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला संक्षिप्त विवरण। (स्टेटमेंट)
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परिवृत्ति  : स्त्री० [सं० परि√वृ+क्तिन्] १. ढकने, घेरने या छिपाने वाली वस्तु। घेरा। वेष्टन। २. घुमाव। चक्कर। ३. विनिमय। ४. अंत। समाप्ति। ५. दोबारा कोई काम करने की क्रिया या भाव। ६. किसी के किये हुए काम को देखकर वैसा ही और कोई काम करना। ६. व्याकरण में, एक शब्द या पद को दूसरे ऐसे शब्द या पद से बदलना जिससे अर्थ वही बना रहे। जैसे—‘कमललोचन’ के ‘कमल’ के स्थान पर पद्म’ अथवा ‘लोचन के स्थान पर ‘नयन’ रखना। ८. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी को अनुपात में कम या सस्ती वस्तु देकर अधिक या महंगी वस्तु लेने का वर्णन होता है।
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परिवृद्ध  : वि० [सं० परि√वृध् (बढ़ना)+क्त] [भाव परिवद्धि] १. जिसका परिवर्द्धन हुआ हो। २. चारों ओर से बढ़ा हुआ।
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परिवृद्धि  : स्त्री० [सं० परि√वृध्+क्तिन्] परिवृद्ध होने की अवस्था या भाव।
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परिवेता (तृ)  : पुं० [सं० परि√विद्+तृच्] परिविंदक। (दे०)
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परिवेद  : पुं० [सं० परि√विद्+घञ्] १. पूर्ण ज्ञान। २. अनेक विषयों की होनेवाली जानकारी। ३. परिवेदन।
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परिवेदन  : पुं० [सं० परि√विद्+ल्युट्—अन] १. पूर्ण ज्ञान। परिवेद। २. बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का होनेवाला विवाह। ३. विवाह। शादी। ४. उपस्थिति। विद्यमानता। ५. प्राप्ति। लाभ। ६. वाद-विवाद। बहस। ६. कष्ट। विपत्ति।
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परिवेदना  : स्त्री० [सं० परि√विद् (ज्ञान)+णिच्+युच्—अन, टाप्] १. पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की विवेक-शक्ति। २. चतुराई।
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परिवेदनीया  : स्त्री० [सं० परि√विद्+अनीयर्+टाप्] परिविंदक की पत्नी। आविवाहित व्यक्ति की अनुज वधू।
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परिवेदिनी  : स्त्री० [सं० परिवेद+इनि—ङीष्]=परिवेदनीया।
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परिवेध  : पुं० [सं० परि√विध्+घञ्] १. प्रायः दो चीजों को जोड़ने के लिए उनमें किया जानेवाला ऐसा छेद जिसमें कील, पेच आदि लगाये अथवा चूल कसी जाती है। ३. इस प्रकार का बनाया जानेवाला छेद। (बोर)
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परिवेधन  : पुं० [परि√विध्+ल्युट्] परिवेध करने की क्रिया या भाव। (बोरिंग)
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परिवेश  : पुं० [सं० परि√विश् (प्रवेश)+घिञ्] १. वेष्टन। परिधि। घेरा। २. बदली के समय सूर्य या चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला घेरा। ३. प्रकाशमान पिंडों के चारों ओर कुछ दूरी तक दिखाई देनेवाला प्रकाश जो मंडलाकार होता है। ४. तेजस्वी पुरुषों, देवताओं आदि के चित्रों में उनके मुखमंडल के चारों ओर दिखलाया जानेवाला प्रकाशमान घेरा। प्रभा-मंडल। भा-मंडल। (हेलो)
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परिवेष  : पुं० [सं० परि√विष् (व्यक्ति)+घञ्] १. भोजन परसना या परोसना। २. चारों ओर से घेरकर रक्षा करनेवाली रचना या वस्तु। ३. परकोटा। प्राचीर। ४. दे० ‘परिवेश’। ५. दे० ‘प्रभावमंडल’।
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परिवेषक  : पुं० [सं० परि√विष्+ण्वुल्—अक] वह व्यक्ति जो भोजन आदि परसता या परोसता हो।
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परिवेषण  : पुं० [सं० परि√विष्+ल्युट्—अन] १. भोजन आदि परसने या या परोसने का काम। २. घेरा। परिधि। ३. दे० ‘परिवेष’।
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परिवेष्टन  : पुं० [सं० परि√वेष्ट् (घेरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिवेष्टित] १. किसी चीज को घेरना अथवा उसके चारों ओर घेरा बनाना। २. घेरा। परिधि। ३. छिपाने या ढकनेवाली चीज। आच्छादन। आवरण।
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परिवेष्टा (ष्दृ)  : पुं० [सं० परि√विष्+तृच] परिवेषक। (दे०)
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परिवेष्टित  : भू० कृ० [सं० परि√वेष्ट्+क्त] १. जो चारों ओर से घिरा हुआ हो। २. ढका हुआ। आच्छादित।
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परिव्यक्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो अच्छी तरह से व्यक्त हो चुका हो।
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परिव्यय  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी चीज के निर्माण में होनेवाला व्यय। २. वह मूल्य जिस पर बिक्री के लिए उत्पादित की हुई अथवा मँगाई हुई वस्तु का घर पर परता बैठता हो। (कॉस्ट) ३. मूल्य। ४. किसी चीज की मरम्मत आदि करने पर बदले में दिया जानेवाला धन। पारिश्रमिक। ५. शुल्क।
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परिव्ययनीय  : वि० [सं परि√व्यय् (खर्च करना)+ अनीयर्] जो परिव्यय के रूप में किसी से लिया या किसी को दिया जा सके। जिस पर परिव्यय जोड़ा या लगाया जा सके। (चार्जेबुल)
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परिव्याध  : वि० [सं० परि√व्यध् (ताड़ना)+ण] चारों ओर से बेधने या छेदनेवाला। पुं० १. जलबेंत। २. कनेर। ३. एक प्राचीन-ऋषि।
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परिव्याप्त  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह और सब अंगों या स्थानों में फैला या समाया हुआ।
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परिव्रज्या  : स्त्री० [सं० परि√व्रज् (जाना)+क्यप्, टाप्] १. इधर-उधर घूमना-फिरना। भ्रमण। २. तपस्या। ३. सदा घूमते-फिरते रहकर और भिक्षा माँग कर जीवन बिताने का नियम, वृत्ति या व्रत।
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परिव्राज (क)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+घञ् (संज्ञा में), परि√व्रज्+ण्वुल्—अक] १. वह संन्यासी जो परिव्रज्या का व्रत ग्रहण करके सदा इधर-उधर भ्रमण करता रहे। २. संन्यासी। ३. बहुत बड़ा यती और परम हंस।
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परिव्राजी  : स्त्री० [सं० परि√व्रज्+णिच्+इन्, ङीष्] गोरखमुंडी। मुंड़ी।
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परिव्राट (ज्)  : पुं० [सं० परि√व्रज्+क्विप्] परिव्राजक। (दे०)
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परिशंकी (किन्)  : वि० [सं० पर√शंक (आशंका करना)+णिनि] अत्यधिक आशंका करने या सशंकित रहनेवाला।
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परिशयन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक सोना। २. कुछ पशुओं और जीव-जंतुओं की वह निद्रा या तंद्रा वाली निष्क्रिय अवस्था जिसमें वे जाड़े के दिनों में शीत के प्रभाव से बचने के लिए बिना कुछ खाये-पीये चुप-चाप एक जगह दबे-दबाये रहते हैं। (हाइबरनेशन)
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परिशिष्ट  : वि० [सं० परि√शिष् (बचना)+क्त] छूटा या बाकी बचा हुआ। अवशिष्ट। पुं० १. पुस्तकों आदि के अंत में दी जानेवाली वे बातें जो मूल में आने से रह गई हों, अथवा जो मूल में आई हुई बातों के स्पष्टीकरण के लिए हों। (एपेंडेक्स) २. अनुसूची। (दे०)
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परिशीलन  : पुं० [सं० परि√शील् (अभ्यास)+ल्युट्—अन] १. मननपूर्वक किया जानेवाला गंभीर अध्ययन। २. स्पर्श।
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परिशीलित  : भू० कृ० [सं० परि√शील्+क्त] (ग्रंथ या विषय) जिसका परिशीलन किया गया हो।
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परिशुद्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० परिशुद्धता, परिशुद्धि] १. बिलकुल शुद्ध। विशेषतः जिसमें किसी दूसरी चीज का कुछ भी मेल न हो। खरा। २. जिसमें कुछ भी कमी-बेशी या भूल-चूक न हो। बिलकुल ठीक। (एक्योरेट) ३. चुकता किया हुआ। ४. छोड़ा या बरी किया हुआ।
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परिशुद्धता  : स्त्री० [सं० परिशुद्ध+तल्+टाप्]=परिशुद्ध।
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परिशुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. पूर्ण शुद्धि। सम्यक् शुद्धि। २. किसी बात या विषय की वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की कमी-बेशी या कोई भूल-चूक न हो। (एक्योरेसी)। ३. छुटकारा। मुक्ति।
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परिशुष्क  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बिलकुल सूखा हुआ। २. अत्यंत रसहीन। ३. रसिकता आदि से बिलकुल रहित। पुं० तला हुआ मांस।
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परिशून्य  : वि० [सं० प्रा० स०] जो बिलकुल शून्य हो। पुं० विज्ञान में, वह स्थान जिसमें वायु आदि कुछ भी न हो या जिसमें वायु निकाल ली गई हो। (वायड)
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परिशेष  : वि० [सं० परि√शिष्+घञ्] [भाव० परिशेषण ] जो अब भी शेष हो। जो पूर्णतः अब भी नष्ट या समाप्त न हुआ हो। पुं० १. वह अंश या तत्त्व जो बाकी बच रहा हो। २. अंत। समाप्ति। ३. दे० ‘परिशिष्ट’।
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परिशोध  : पुं० [सं० परि√शुध् (शुद्ध करना)+घञ्] १. अच्छी तरह शुद्ध करना या बनाना। २. ऋण, देन आदि का चुकाया जाना। (रिपेमेंट) ३. किसी से चुकाया जानेवाला बदला। उपकार के बदले में किया जानेवाला अपकार। प्रतिशोध।
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परिशोधन  : पुं० [सं० परि√शुध्+ल्युट्—अन] [वि० परिशोधनीय, भू० कृ० परिशोधित] १. ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज अच्छी तरह शुद्ध हो कर श्रेष्ठ अवस्था में आजा वे। (रेक्टिफिकशेन) २. ऋण देन आदि चुकता करने की क्रिया या भाव। ३. प्रतिशोधन।
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परिशोष  : पुं० [सं० परि√शुष् (सूखना)+घञ्] १. किसी चीज को अच्छी तरह से सुखाना। २. पूरी तरह से सूखे हुए होने की अवस्था या भाव।
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परिश्रम  : पुं० [सं० परि√श्रम् (आयास करना)+घञ्] कोई कठिन, बड़ा या दुस्साध्य काम करने के लिए विशेष रूप से तथा मन लगाकर किया जानेवाला मानसिक या शारीरिक श्रम। मेहनत।
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परिश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० परिश्रम+इनि] १. जो परिश्रमपूर्वक कोई काम करता हो। २. हर काम अपनी पूरी शक्ति लगाकर करनेवाला। मेहनती।
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परिश्रय  : पुं० [सं० परि√श्रि (सेवन)+अच्] १. परिषद्। सभा। २. आश्रय या शरण-स्थल।
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परिश्रांत  : वि० [सं० परि√श्रम्+क्त] [भाव० परिश्रांति] बहुत अधिक थका हुआ। थका-माँदा।
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परिश्रांति  : स्त्री० [सं० परि√श्रम्+क्तिन्] परिश्रांत होने की अवस्था या भाव। बहुत अधिक थकावट।
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परिश्रित्  : वि० [सं० परि√श्रि+क्विप्] आश्रय देनेवाला। पुं० यज्ञ में काम आनेवाला पत्थर का एक विशिष्ट टुकड़ा।
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परिश्रुत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. (बात आदि) जो ठीक प्रकार से या भली-भाँति सुनी गई हो। २. ख्यात। प्रसिद्ध।
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परिश्लेष  : पुं० [सं० परि√श्लिष् (आलिंगन करना)+घञ्] आलिंगन। गले लगाना।
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परिषक्त  : स्त्री०=परिषद्।
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परिषत्त्व  : पुं० [सं० परिषद्+त्व] परिषद् का भाव या धर्म।
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परिषद्  : स्त्री० [सं० परि√सद् (गति)+क्विप्] १. चारों ओर से घेर कर या घेरा बनाकर बैठाना। २. वैदिक युग में विद्वानों की वह सभा जो राजा किसी विषय पर व्यवस्था देने के लिए बुलाता था। ३. बौद्ध-काल में वह निर्वाचित राजकीय संस्था या सभा जो राज्य या शासन से संबंध रखनेवाली सब बातों पर विचार तथा निर्णय करती थी। विशेष—प्राचीन काल में परिषदें तीन प्रकार की होती थीं—(क) शिक्षा-संबंधी। (ख) सामाजिक गोष्ठी-सम्बन्धी। और (ग) राज-शासन-सम्बन्धी। ४. आधुनिक राजनीति विज्ञान में, निर्वाचित या मनोनीत विधायकों की वह सभा जो स्थायी या बहुत-कुछ स्थायी होती है। (काउंसिल) ५. सभा। जैसे—संगीत परिषद्।
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परिषद  : पुं० [सं० परि√सद्+अच्] १. सवारी या जुलूस में चलनेवाले वे अनुचर जो स्वामी को घेर कर चलते हैं। परिषद। २. दरबारी। मुसाहब। ३. सदस्य। सभासद। स्त्री०=परिषद्।
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परिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+यत्] १. परिषद् या सदस्य। २. सभासद। सदस्य। ३. दर्शक। प्रेक्षक।
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परिषद्वल  : पुं० [सं० परिषद्+वलच्] सभासद। सदस्य।
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परिषिक्त  : भू० कृ० [सं० परि√सिंच् (सींचना)+क्त] १. जो अच्छी तरह से सींचा गया हो। २. जिस पर छिड़काव हुआ हो।
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परिषीवण  : पुं० [सं० परि√सिव् (सीना)+ल्युट्—अन] १. चारों ओर से सीना। २. गाँठ लगाना। बाँधना।
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परिषेक  : पुं० [सं० परि√सिच्+घञ्] १. पानी से तर करने की क्रिया। सिंचाई। २. छिड़काव। ३. स्नान।
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परिषेचक  : वि० [सं० परि√सिच्+ण्वुल्—अक] १. सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला।
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परिषेचन  : पुं० [सं० परि√सिच्+ल्युट्—अन] [वि० परिषिक्त] सींचना। छिड़कना।
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परिष्कंद  : पुं० [सं० परि√स्कन्द (गति)+घञ्] वह जिसका पालन-पोषण माता-पिता द्वारा नहीं बल्कि किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा हुआ हो।
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परिष्कर  : पुं० [सं० परि√कृ (करना)+अप्, सुट्] सजावट। सज्जा।
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परिष्करण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० परिष्कृत] परिष्कार करने अर्थात् साफ और सुंदर बनाने की क्रिया या भाव। (एम्बेलिशमेन्ट)
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परिष्करण शाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ खनिज, तैल, धातुएँ आदि परिष्कृत या साफ की जाती हैं। (रिफाइनरी)
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परिष्करणी  : स्त्री० [सं० परि√कृ+ल्युट्—अन, सुट्] वह कारखाना या स्थान जहाँ यंत्रों आदि की सहायता से तेलों, धातुओं आदि में की मैल निकालकर उन्हें परिष्कृत या साफ किया जाता हो। (रिफाइनरी)
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परिष्कार  : पुं० [सं० परि√कृ+घञ्, सुट्] [भू० कृ० परिष्कृत] १. अच्छी तरह ठीक और साफ करने की क्रिया या भाव। गंदगी, मिलावट, मैल आदि निकालकर किसी चीज को स्वच्छ बनाना। (रिफाइनिंग) २. त्रुटियाँ, दोष आदि दूर करके सुंदर, सुरुचिपूर्ण और स्वच्छ बनाना। (एम्बेलिशमेंट) ३. निर्मलता। स्वच्छता। ४. अलंकार। गहना। ५. शोभा। श्री। ६. बनाव-सिंगार। सजावट। ६. सजाने की सामग्री। उपस्कर। (फरनीचर) ८. संयम। (बौद्ध दर्शन)
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] १. परिष्कृत होने की अवस्था, गुण या भाव। २. परिष्कार। ३. आचार-व्यवहार की वह उन्नत स्थिति जिसमें अशिष्ट, उद्धत, ग्राम्य, पुरुष, रुक्ष आदि बातों का अभाव और कोमल, नागर, विनम्र, शिष्ट तथा स्निग्ध तत्त्वों की अधिकता और प्रबलता होती है। (रिफाइनमेंट)
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परिष्क्रिया  : स्त्री० [सं० परि√कृ+सुट्,+टाप्] परिष्कार। (दे०)
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परिष्कृत  : भू० कृ० [सं० परि√कृ+क्त, सुट्] [भाव० परिष्कृति] १. जिसका परिष्कार किया गया हो। अच्छी तरह ठीक और साफ किया हुआ। २. सवाँरा या सजाया हुआ। अलंकृत। ४. सुधारा हुआ।
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परिष्कृति  : स्त्री० [सं० परि√कृ+क्तिन्, सुट्] परिष्कृत होने की अवस्था या भाव। परिष्कार।
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परिष्टवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रशंसा। स्तुति।
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परिष्टोम  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. एक प्रकार का सामगान जिसमें ईश्वर की स्तुति होती है। २. घोडे, हाथी आदि की झूल।
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परिष्ठल  : पुं० [सं० परि-स्थल, प्रा० स०] आस-पास की भूमि।
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परिष्यंद  : पुं० [सं० परि√ष्यंद् (बहना)+घञ्, षत्व]= परिस्यंद।
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परिष्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंद+इनि] बहानेवाला।
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परिष्वंग  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (आलिंगन)+घञ्] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वंजन  : पुं० [सं० परि√स्वञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्—अन] [वि० परिष्वक्त] गले लगाना। आलिंगन।
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परिष्वक्त  : भू० कृ० [सं० परि√स्वञ्ज्+क्त] जिसे गले लगाया गया हो। आलिंगित।
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परिसंख्या  : स्त्री० [सं० परि-सम्√ख्या (प्रसिद्ध करना) +अङ्+टाप्] १. गणना। गिनती। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी स्थान में होनेवाली बात या वस्तु का प्रश्न या व्यंग्यपूर्वक निषेध करके अन्य स्थान पर प्रतिष्ठापन करने का वर्णन होता है। ३. कुछ स्थानों पर होनेवाली वस्तुओं के संबंध में यह कहना कि अब वे वहाँ नहीं रह गईं केवल अमुक जगह में रह गई हैं। जैसे—रामराज्य की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसमें स्त्रियों के नेत्रों को छोड़कर कुटिलता और कहीं नहीं दिखाई देती थी।
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परिसंख्यान  : पुं० [सं० परि√सम्√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसंख्यात] अनुसूची। (दे०)
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परिसंघ  : पुं० [सं० प्रा० स०] पारस्परिक तथा सामूहिक हितों के रक्षार्थ बननेवाला वह अंतरराष्ट्रीय संघटन जिसके सदस्य स्वतंत्र राष्ट्र होते हैं। (कनफेडरेशन)
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परिसंचर  : पुं० [सं० परि-सम्√चर् (गति)+अच्] प्रलय-काल।
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परिसंचित  : भू० कृ० [सं० परि—सम्√चि (इकट्ठा करना)+क्त] इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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परिसंतान  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. तार। २. तंत्री।
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परिसंपद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] व्यक्ति, संघटन, संस्था आदि का वह निजी या अधिकृत धन तथा संपत्ति जिसमें से उसका ऋण, देय आदि चुकाया जाता हो या चुकाया जा सके। (असेट्स)
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परिसंवाद  : पुं० [सं० परि-सम्√वद् (बोलना)+घञ्] १. दो या अधिक व्यक्तियों में किसी बात, विषय आदि के संबंध में होनेवाला तर्क संगत या विचारपूर्ण वादविवाद। (डिस्कशन) २. दे० परिचर्चा।
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परिसंहत  : [सं०] १. अच्छी तरह उठा हुआ। २. (कथन या लेख) जिसमें फालतू या व्यर्थ की बातें अथवा शब्द न हों। (टर्म)
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परिसंहित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत अच्छी तरह गठा या गाँठा हुआ। २. (साहित्य में ऐसी गठी हुई तथा संक्षिप्त रचना) जिसमें ओज, प्रसाद आदि गुण भी यथेष्ट मात्रा में हों।
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परिसम्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] सभासद। सदस्य।
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परिसमंत  : पुं० [सं० प्रा० स०] वृत्त के चारों ओर की रेखा या सीमा।
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परिसमापक  : पुं० [परि-सम्√आप् (व्याप्ति)+ण्वुट्—अक] परिसमापन करनेवाला अधिकारी। (लिक्वीडेटर)
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परिसमापन  : पुं० [परि-सम्√आप्+ल्युट्—अन] १. समाप्त करना। २. किसी चलते हुए काम का समाप्त होना। (टरमीनेशन) ३. किसी ऋणग्रस्त संस्था का कार-बार बंद करते समय किसी सरकारी अधिकारी या आदाता द्वारा उसकी परिसंपद लहनेदारों में किसी विशिष्ट अनुपात में बाँटा जाना। (लिक्वीडेशन) ३. दे० ‘अपाकरण’।
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परिसमाप्त  : भू० कृ० [सं० परि-सम्√आप+क्त] १. जो पूरी तरह से समाप्त हो चुका हो। २. (संस्था) जिसका परिसमापन हो चुका हो।
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परिसमाप्ति  : स्त्री० [सं० परि-सम्√आप्+क्तिन्] परिसमापन।
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परिसमूहन  : पुं० [सं० परि-सम्√ऊह् (वितर्क)+ल्युट्—अन] १. एकत्र करना। २. यज्ञ की अग्नि में समिधा डालना। ३. तृण आदि आग में डालना। ४. यज्ञाग्नि के चारों ओर जल छिड़कने की क्रिया।
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परिसर  : वि० [सं० परि√सृ (गति)+अप्] [स्त्री० परिसरा] १. किसी के चारों ओर वहने (अथवा चलने) वाला। २. किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा हुआ। ३. फैला हुआ। विस्तृत। उदा०—खुली रूप कलियों में परभर स्तर स्तर सु-परिसरा।—निराला। पुं० १. किसी स्थान के आस-पास की भूमि या खुला मैदान। २. प्रांत भूमि। ३. मृत्यु। ४. ढंग। तरीका। विधि। ५. शरीर की नाड़ी या शिरा।
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परिसरण  : पुं० [सं० परि√सृ+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परिसृत] १. किसी के चारों ओर बहना (या चलना)। २. पर्यटन। ३. पराजय। हार। ४. मृत्यु। मौत। ५. दे० रसाकर्षण।
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परिसर्प  : पुं० [सं० परि√सृप् (गति)+घञ्] १. किसी के चारों ओर घूमना। परिक्रिया। परिक्रमण। २. घूमना-फिरना या टहलना। ३. ढूँढ़ने या तलाश करने के लिए निकलना। ४. चारों ओर से घेरना। ५. साहित्य दर्पण के अनुसार नाटक में किसी का किसी की खोज और केवल मार्गचिह्नों आदि के सहारे उसका पता लगाने का प्रयत्न करना। जैसे—सीता-हरण के उपरान्त, राम का सीता को बन में ढूँढ़ते फिरना। ६. सुश्रुत के अनुसार ११ प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक जिसमें छोटी-छोटी फुंसियाँ निकलती हैं और उन फुँसियों से पंछा या मवाद निकलता है। ६. एक प्रकार का साँप।
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परिसर्पण  : पुं० [सं० परि√सृप्+ल्युट्—अन] १. घूमना-फिरना। टहलना। २. साँप की तरह टेढ़े-तिरछे चलना या रेंगना।
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परिसर्पा  : स्त्री० [सं० परि√सृ (गति)+क्यप्+टाप्] १. मृत्यु। २. हार।
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परिसांत्वन  : पुं० [सं० परि√सान्त्व् (ढाढस देना)+ ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक सांत्वना देना। २. उक्त प्रकार से दी हुई सान्त्वना।
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परिसाम (मन्)  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक विशेष साम।
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परिसार  : पुं० [सं० परि√सृ+घञ्]=परिसरण।
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परिसारक  : वि० [सं० परि√सृ+ण्वुल्—अक] जो परिसरण करे। चारों ओर चलने, जाने या बहनेवाला।
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परिसारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√सृ+णिनि] १. परिसरण-संबंधी। २. परिसारक। (दे०)
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परिसिद्धिका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वैद्यक में, चावले की एक प्रकार की लपसी।
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परिसीमन  : पुं० [सं० परिसीमा से] [भू० कृ० परिसीमित] किसी क्षेत्र, विषय आदि की सीमाएँ निर्धारित करना। (डिलिमिटेशन)
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परिसीमा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. अंतिम या चरम सीमा। २. वह मर्यादा या रेखा जहाँ आगे किसी विषय का विस्तार न हो।
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परिसीमित  : भू० कृ० [सं० परिसीमा+इतच्] जिसका परिसीमन हुआ या किया जा चुका हो। २. (संस्था) जिसकी पूँजी, हिस्सेदारी आदि कुछ विशिष्ट नियमों या सीमाओं के अन्दर रखी गई हो। (लिमिटेड)
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परिसून  : पुं० [सं० अत्या० स०] बिना अधिकार के और बूचड़खाने से बाहर मारा हुआ पशु।
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परिसेवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक सेवा करना।
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परिसेवित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जिसकी बहुत अच्छी तरह सेवा की गई हो। २. जिसका बहुत अच्छी तरह सेवन किया गया हो।
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परिस्कंद  : पुं०=परिष्कंद।
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परिस्तरण  : पुं० [सं० परि√स्तृ (आच्छादन)+ल्युट्—अन] १. इधर-उधर फेंकना या डालना। छितराना। २. फैलाना। ३. ढकना या लपेटना।
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परिस्तान  : पुं० [फा०] १. परियों अर्थात् अप्सराओं का जगत् या देश। २. ऐसा स्थान जहाँ बहुत-सी सुंदर स्त्रियों का जमघट या निवास हो।
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परिस्तोम  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] चित्रित या अनेक रंगोंवाली (हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली) झूल।
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परिस्थान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वासस्थान। २. दृढ़ता।
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परिस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० परिस्थितिक] किसी व्यक्ति के चारों ओर होनेवाली वे सब बातें या उनमें से कोई एक जिससे बाध्य या प्रेरित होकर वह कोई कार्य करता हो। (सर्कम्स्टैंसेज)
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परिस्थिति विज्ञान  : पुं० [सं०] आधुनिक जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों का जीव-जंतुओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। (इकालोजी)
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परिस्पंद  : पुं० [सं० परि√स्पंद् (हिलना)+घञ्] १. कापने की क्रिया या भाव। कंप। कँपकँपी। २. दबाना या मलना। ३. ठाट-बाट। तड़क-भड़क। ४. फूलों आदि से सिर के बाल सजाना। ५. निर्वाह का साधन। ६. परिवार। ६. धारा। प्रवाह। ८. नदी। ९. द्वीप। टापू।
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परिस्पंदन  : पुं० [सं० परि√स्पंद्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक हिलना। खूब काँपना। २. काँपना।
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परिस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०]=प्रतिस्पर्धा।
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परिस्पर्द्धी (र्द्धिन्)  : पुं० [सं० परि√स्पर्ध् (जीतने की इच्छा)+णिनि]=प्रतिस्पर्धी।
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परिस्फुट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. भली-भाँति व्यक्त। सब प्रकार से प्रकट या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ। पूर्ण विकसित।
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परिस्फुरण  : पुं० [सं० परि√स्फुर् (गति)+ल्युट्—अन] १. कंपन। २. कलियों, कल्लों आदि का निकलना या फूटना।
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परिस्मापन  : पुं० [सं० परि√स्मि (विस्मय करना)+ णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] बहुत अधिक चकित या विस्मित करना।
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परिस्यंद  : पुं० [सं० परिष्यंद] चूना। रसना।
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परिस्यंदी (दिन्)  : वि० [सं० परिष्यंदी] जिसमें प्रवाह हो। बहता हुआ।
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परिस्रव  : पुं० [सं० परि√स्रु (बहना)+अप्] बहुत अधिक या चारों ओर से चूना या रसना।
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परिस्राव  : पुं० [सं० परि√स्रु+घञ्] १. चू या रसकर अधिक परिमाण में निकलनेवाला तरल पदार्थ। २. एक रोग जिसमें रोगी को ऐसे बहुत अधिक दस्त होते हैं जिनमें कफ और पित्त मिला होता है।
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परिस्रावण  : पुं० [सं० परि√स्रु+णिच्+ल्युट्—अन] वह पात्र जिसमें कोई चीज चुआ या रसाकर इकट्ठी की जाय।
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परिस्रावी (विन्)  : वि० [सं० परि√स्रु+णिनि] चूने, रसने या बहनेवाला। पुं० ऐसा भगंदर रोद जिसमें फोड़े में से बराबर गाढ़ा मवाद निकलता रहता है।
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परिस्रुत  : वि० [सं० परि√स्रु+क्त] १. जिससे कुछ टपक या चू रहा हो। स्रावयुक्त। २. चुआया या टपकाया हुआ। पुं० फूलों का सुगंधित सार। (वैदिक) स्त्री० मदिरा। शराब।
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परिस्रुत-दधि  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा दही जिसे निचोड़कर उसमें का जल निकाल दिया गया हो।
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परिस्रुता  : स्त्री० [सं० परिस्रुत+टाप्] १. चुआई या टपकाई हुई तरल वस्तु। २. मद्य। शराब। ३. अंगूरी शराब।
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परिहँस  : पुं० [सं० परिहास] १. हँसी-दिल्लगी। परिहास। २. लोक में होनेवाली हँसी। उपहास। उदा०—परहँसि मरसि कि कौनेहु लाजा—जायसी। ३. खेद। दुःख। रंज। (मुख्यतः लोक-निंदा, उपहास आदि के भय से होनेवाला) उदा०—कंठ बचन न बोलि आवै हृदय परिहँस करि, नैन जल भरि रोई दीन्हों, ग्रसति आपद दीन।—सूर।
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परिहत  : भू० कृ० [सं० परि√हन् (हिंसा)+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। ३. पूरी तरह से नष्ट किया हुआ। ४. ढीला किया हुआ। स्त्री० हल की वह लकड़ी जो चौभी में ठुकी रहती है, तथा जिसके ऊपरी भाग में लगी हुई मुठिया को पकड़कर हलवाला हल चलाता है।
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परिहरण  : पुं० [सं० परि√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] [वि० परिहरणीय] १. किसी की चीज पर बिना उसके पूछे और बलपूर्वक किया जानेवाला अधिकार। २. परित्याग। ३. दोष आदि दूर करने का उपचार या प्रयत्न। निवारण।
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परिहरणीय  : वि० [सं० परि√हृ+अनीयर्] १. जो छीना जा सके या छीने जाने के योग्य हो। २. त्याज्य। ३. जिसका उपचार या निवारण हो सके। निवार्य।
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परिहरना  : स० [सं० परिहरण] १. छीनना। २. त्यागना। छोड़ना।
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परिहस  : पुं०=परिहँस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहस्त  : पुं० [सं० अव्य० स०] हाथ में बाँधा जानेवाला एक तरह का तावीज या यंत्र।
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परिहाण  : पुं० [सं० परि√हा (त्याग)+क्त] नुकसान या हानि उठाना।
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परिहाणि, परिहानि  : स्त्री० [सं० परि√हा+क्तिन्] नुकसान। हानि।
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परिहार  : पुं० [सं० परि√हृ+घञ्] १. बलपूर्वक छीनने की क्रिया या भाव। २. युद्ध में जीतकर प्राप्त किया हुआ धन या पदार्थ। ३. छोड़ने, त्यागने या दूर करने की क्रिया या भाव। ४. त्रुटियों, दोषों, विकारों आदि का किया जानेवाला अंत या निराकरण। ५. पशुओं के चरने के लिए खाली छोड़ी हुई जमीन। चारागाह। ६. प्राचीन भारत में, कष्ट या संकट के समय राज्य की ओर से प्रजा के साथ की जानेवाली आर्थिक रिआयत। ६. कर या लगान की छूट। माफी। ८. खंडन। ९. अवज्ञा। तिरस्कार। १॰. उपेक्षा। ११. मनु के अनुसार एक प्राचीन देश। १२. नाटक में किसी अनुचित या अविधेय कर्म का प्रायश्चित्त करना। (साहित्य दर्पण) पुं० [?] अवध, बुंदेलखंड आदि में बसे हुए राजपूतों की एक जाति जिनके पूर्वज तीसरी शताब्दी में कालिंजर के शासक थे।
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परिहारक  : वि० [सं० परि√हृ+ण्वुल्—अक] परिहार करनेवाला।
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परिहारना  : स० [सं० परिहार] १. परिहरण करना। २. परिहार करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परिहारी (रिन्)  : वि० [सं० परि√हृ+णिनि] परिहरण करनेवाला।
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परिहार्य  : वि० [सं० परि√हृ+ण्यत्] जिसका परिहरण होने को हो या हो सकता हो।
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परिहास  : वि० [सं० परि√हस् (हँसना)+घञ्] १. बहुत जोरों की हँसी। २. हँसी-मजाक।
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परिहासापह्नुति  : स्त्री० [सं० परिहास-अपह्नुति, मध्य० स०] साहित्य में, अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें पूर्वपद तो किसी अश्लील भाव का द्योतक होता है परंतु उत्तर-पद से उस अश्लीलत्व का परिहार हो जाता है और श्रोता हँस पड़ता है। उदा०—तुमको लाजिम है पकड़ो अब मेरा। हाथ में हाथ बामुहब्बतो प्यार।—कोई शायर।
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परिहास्य  : वि० [सं० परि√हस्+ण्यत्] १. जिसके संबंध में परिहास किया जा सके या हो सके। २. हास्यास्पद।
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परिहित  : भू० कृ० [सं० परि√धा (धारण करना)+क्त, हि—आदेश] १. चारों ओर से छिपाया या ढका हुआ। आवृत्त। आच्छादित। २. ओढ़ा या पहना हुआ। (कपड़ा)
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परिहीण  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सब प्रकार से दीन-हीन। अत्यंत हीन। २. छोड़ा, निकाला या फेंका हुआ।
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परिहृति  : स्त्री० [सं० परि+हृ+क्तिन्] ध्वंस। नाश।
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परिहेलना  : स० [सं० प्रा० स०] अनादर या तिरस्कारपूर्वक दूर हटाना। उदा०—कै ममता करु राम-पद कै ममता परिहेलु।—तुलसी।
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परी  : स्त्री० [फा०] १. वह कल्पित रूपवती स्त्री जो अपने परों की सहायता से आकाश में उड़ती है। अप्सरा। विशेष—फारसी साहित्य में इसका वास-स्थान काफ या काकेशस पर्वत माना गया है।
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परीक्षक  : पुं० [सं० परि√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० परीक्षिका] १. वह जो किसी की परीक्षा करता या लेता हो। २. किसी के गुण, योग्यता आदि का परीक्षण करनेवाला अधिकारी, विशेषतः परीक्षार्थियों के लिए प्रश्न-पत्र बनाने तथा उनकी उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचनेवाला अधिकारी। (इग्जामिनर) ३. जाँच-पड़ताल करनेवाला व्यक्ति। निरीक्षक।
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परीक्षण  : पुं० [सं० परि√ईक्ष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० परीक्षित, वि० परीक्ष्य] १. परीक्षा करने या लेने की क्रिया या भाव। २. वैज्ञानिक क्षेत्रों में; किसी विशिष्ट पद्धति, प्रक्रिया या रीति से किसी चीज के वास्तविक गुण, योग्यता, शक्ति, स्थिति आदि जानने का काम। ३. न्यायालय में इस प्रकार किसी से प्रश्न करना जिससे वस्तु-स्थिति पर प्रकाश पड़ता हो। (इग्जामिनेशन) १. उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर किसी चीज के गुण-दोष जानना या परखना। ५. व्यक्ति को किसी काम या पद पर स्थायी रूप से नियुक्त करने से पहले, कुछ समय तक उससे वह काम करवा कर देखना कि उसमें यथेष्ट योग्यता या सामर्थ्य है या नहीं। (प्रोबेशन)
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परीक्षण-काल  : पुं० [ष० त०] उतना समय जितने में यह देखा जाता है, कि जो व्यक्ति किसी काम पर लगाया जाने को है, उसमें वह काम करने की पूरी योग्यता या समर्थता भी है या नहीं। (प्रोबेशन पीरियड)
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परीक्षण-नलिका  : स्त्री० [ष० त०] वैज्ञानिक क्षेत्रों में शीशे की वह नली जिसमें कोई द्रव पदार्थ किसी प्रकार के परीक्षण के लिए भरा जाता है। परख-नली। (टेस्ट-ट्यूब)
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परीक्षण-शलाका  : स्त्री० [ष० त०] किसी धातु का वह छड़ जो इस बात के परीक्षण के काम में आता है कि इस धातु में भार आदि सहने की कितनी शक्ति है। (टेस्ट पीस)
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परीक्षणिक  : वि० [सं० पारीक्षणिक] १. परीक्षण-संबंधी। २. नियुक्त किये जाने से पहले जिसकी असमर्थता की परीक्षा ली जा रही हो। अस्थायी रूप से और केवल परीक्षण के लिए रखा हुआ कर्मचारी। (प्रोबेशनरी)
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परीक्षना  : स० [सं० परीक्षण] किसी की परीक्षा करना या लेना। परखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परीक्षा  : स्त्री० [सं० परि√ईक्ष्+अ+टाप्] १. किसी के गुण, धैर्य, योग्यता, सामर्थ्य आदि की ठीक-ठीक स्थिति जानने या पता लगाने की क्रिया या भाव। (एग्जामिनेशन) २. वह समुचित उपाय, विधि या साधन जिससे किसी के गुणों आदि का पता लगाया जाता है। ३. वस्तुओं के संबंध में, उनकी उपयोगिता, टिकाऊपन आदि जानने के लिए उनका उपयोग या व्यवहार किया जाना। जैसे—हमारे यहाँ अमुक वस्तुएँ मिलती हैं, परीक्षा प्रार्थित है। ४. वह प्रक्रिया जिससे प्राचीन न्यायालय किसी अभियुक्त अथवा साक्षी के सच्चे या झूठे होने का पता लगाते थे। विशेष दे० ‘दिव्य’। ५. जाँच—पड़ताल। ६. देख-भाल।
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परीक्षार्थ  : अव्य० [सं० परीक्षा-अर्थ, नित्य स०] परीक्षा के उद्देश्य से।
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परीक्षार्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० परीक्षा√अर्थ (चाहना)+ णिनि] १. वह जो किसी प्रकार की परीक्षा देना चाहता हो। २. वह जिसकी परीक्षा ली जा रही हो अथवा जो परीक्षा दे रहा हो। (एग्ज़ामिनी)
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परीक्षित्  : पुं० [सं० परि√क्षि (क्षय)+क्विप्, तुक्] १. हस्तिनापुर के एक प्राचीन राजा जो अभिमन्यु के पुत्र और जनमेजय के पिता थे। कहा जाता है कि इन्हीं के राज्य-काल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ था। तक्षक नामक साँप के काटने पर इनकी मृत्यु हुई थी। २. कंस का एक पुत्र।
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परीक्षित  : भू० कृ० [परि√ईक्ष्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसकी परीक्षण किया जा चुका हो। जो परीक्षा में सफल उतरा हो। ३. (वस्तु) जिसे उपयोग, व्यवहार आदि में लाकर उसके गुण-दोष आदि देखे जा चुके हों। (इग्जै़मिन्ड) पुं०=परीक्षित्।
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परीक्षितव्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+तव्यत्] १. जिसकी परीक्षा, आजमाइश या जाँच की जा सके या की जाने को हो। २. जिसे जाँच या परख सकें। ३. जिसकी परीक्षा (जाँच या परख) करना आवश्यक या उचित हो।
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परीक्षिती  : पुं० [सं०]=परीक्षार्थी।
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परीक्ष्य  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+ण्यत्] परीक्षितव्य। (दे०)
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परीक्ष्यमाण  : वि० [सं० परि√ईक्ष्+यक्, शानच्, मुक्] परीक्षणिक। (दे०)
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परीख  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीखना  : स०=परखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछत  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परिक्षित।
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परीछम  : पुं० [हिं० परी+छमछम (अनु०)] पैर में पहनने का एक तरह का चाँदी का गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछा  : स्त्री०=परीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीछित  : भू० कृ०=परीक्षित। पुं०=परीक्षित्।
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परीजाद  : वि० [फा० परीज़ादः] १. जो परी की संतान हो। २. लाक्षणिक रूप में, परम सुन्दर व्यक्ति।
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परीणाह  : पुं० [सं० परि√नह् (बंधन)+घञ्, दीर्घ] १. दे० ‘परिणाह’। २. शिव। ३. गाँव के आस-पास तथा चारों ओर की वह भूमि जो सार्वजनिक संपत्ति के अन्तर्गत हो, अथवा जिसका उपयोग सब लोग कर सकते हों।
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परीत  : स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रेत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीताप  : पुं०=परिताप।
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परीति (ती)  : स्त्री०=प्रीति।
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परीतोष  : पुं०=परितोष।
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परीदाह  : पुं०=परिदाह।
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परीधान  : पुं०=परिधान।
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परीप्सा  : स्त्री० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+सन्+ अ+ टाप्] १. किसी चीज को प्राप्त करने अथवा उसे अधिकार में किये रखने की इच्छा या लालसा। २. जल्दी। शीघ्रता।
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परीबंद  : पुं० [फा०] कलाई पर पहनने का एक आभूषण। बाजूबंद। २. बच्चों के पैरों का एक घुँघरूदार गहना। ३. कुश्ती का एक पेंच।
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परीभव  : पुं०=परिभव।
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परीभाव  : पुं०=परिभाव।
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परीमाण  : पुं०=परिमाण।
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परीरंभ  : पुं०=परिरंभ।
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परीर  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+ईरन्] वृक्ष का फल।
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परीरू  : वि० [फा०] परी की तरह सुन्दर आकृतिवाला। परम रूपवान या अति सुन्दर।
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परीवर्तन  : पुं०=परिवर्तन।
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परीवाद  : पुं०=परिवाद।
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परीवार  : पुं०=परिवार।
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परीवाह  : पुं०=परिवाह।
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परीशान  : वि० [फा० परीशाँ] [भाव० परीशानी]= परेशान। (देखें)
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परीशेष  : पुं०=परिशेष।
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परीषह  : पुं० [सं० परि√सह् (सहना)+अच्, दीर्घ] जैन शास्त्रों के अनुसार त्याग या सहन।
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परीष्ट  : वि० [सं० परि√ईष् (चाहना)+क्त] [भाव० परीष्टि] चाहने योग्य।
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परीष्टि  : स्त्री० [सं०] १. इच्छा। २. खोज। छान-बीन। ३. सेवा।
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परीसयर्पा  : स्त्री०=परिसयर्पा।
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परीसार  : पुं०=परिसार।
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परीहन  : पुं०=परिधान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परीहार  : पुं०=परिहार।
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परीहास  : पुं०=परिहास।
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परु  : पुं० [सं०√पृ+उन्] १. गाँठ। जोड़। २. अवयव। ३. समुद्र। ४. स्वर्ग। ५. पर्वत। पहाड़। अव्य० [हिं० पर] १. बीता हुआ वर्ष। पर साल। २. आनेवाला वर्ष।
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परुआ)  : पुं०=पड़वा (भैंस का बच्चा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० १. (बैल) जो काम करने के समय बैठ जाय या पड़ा रहे। २. काम-चोर। स्त्री० [?] एक तरह की जमीन।
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परुई  : स्त्री० [देश०] वह नाँद जिसमें भड़भूँजे अनाज के दाने भूँजते हैं।
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परुख  : वि० [भाव० परुखता] परुष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परुत्  : अव्य० [सं० परस्मिन्, नि० सिद्धि] बीता हुआ वर्ष। गत वर्ष।
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परुष  : वि० [सं०√पृ+उषन्] [भाव० परुषता] १. (वचन, वस्तु या व्यक्ति) जो गुण, प्रकृति, स्वभाव आदि की दृष्टि से कड़ा, रुक्ष तथा मृदुता-हीन हो। कठोर और कर्कश। २. उग्रतापूर्ण। तीव्र। ३. हृदयहीन। कठोर हृदयवाला। ४. रसहीन। नीरस। ५. खुरदरा। पुं० १. नीली कटसरैया। २. फालसा। ३. तीर। वाण। सरकंडा। सरपत। ५. खर-दूषण का एक सेनापति। ६. अप्रिय और कठोर बात या वचन।
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परुषता  : स्त्री० [सं० परुष+तल्+टाप्] १. परुष होने की अवस्था या भाव। २. कठोरता। कड़ापन। सख्ती। ३. (वचन या स्वर की) कर्कशता। ४. निर्दयता। निष्ठुरता।
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परुषत्व  : पुं० [सं० परुष+त्वन्]=परुषता।
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परुषा  : स्त्री० [सं० परुष+टाप्] साहित्य में शब्द-योजना की एक विशिष्ट प्रणाली जिसमें टवर्गीय, द्वित्व, संयुक्त, रेप, श, ष आदि वर्णों तथा लंबे समासों की अधिकता होती है। २. रावी नदी। ३. फालसा।
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परुसना  : स०=परोसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परूँगा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बलूत (वृक्ष)।
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परूष, परूषक  : पुं० [सं०√पृ+ऊषन्] [परुष+कन्] फालसा।
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परेंद्रिय ज्ञान  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट मनुष्यों में माना जानेवाला वह अतींद्रिय ज्ञान जिसकी सहायता से वे बहुत दूर के लोगों के साथ भी मानसिक संबंध स्थापित करके विचार-विनिमय आदि कर सकते हैं। (टेलिपैथी)
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परे  : अव्य० [सं० पर] १. वक्ता अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति से कुछ दूर हटकर या दूर रहकर। जैसे—परे हटकर खड़े होना। मुहा०—परे परे करना=उपेक्षा, घृणा आदि के कारण यह कहना कि दूर रहो या दूर हट जाओ। २. किसी क्षेत्र की सीमा से बाहर या दूर। जैसे—गाँव से परे पहाड़ है। ३. पहुँच, पैठ आदि से दूर या बाहर। जैसे—ईश्वर बुद्धि से परे है। ४. अलग, असंबद्ध या वियुक्त स्थिति में। जैसे वह तो जाति से परे है। ५. तुलना आदि के विचार से ऊँची स्थिति में या बढ़कर। आगे, ऊपर या बढ़कर। जैसे—इससे परे और क्या बात हो सकती है। मुहा०—परे बैठाना=अपनी तुलना में तुच्छ ठहराना। अयोग्य या हीन सिद्ध करना। जैसे—यह घोड़ा तो तुम्हारे घोड़े को परे बैठा देगा। ६. पीछे। बाद। (क्व०)
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परेई  : स्त्री० [हिं० परेवा] १. पंडुकी। फाखता। २. मादा कबूतर। कबूतरी।
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परेखना  : स० [सं० परीक्षण] १. परीक्षा करना। २. दे० ‘परखना’। अ० [सं० प्रतीक्षा] प्रतीक्षा करना। राह देखना। अ० [?] पश्चाताप करना। पछताना।
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परेखा  : पुं० [सं० परीक्षा] १. परीक्षा। जाँच। २. परखने की योग्यता या शक्ति। परख। ३. प्रतीति। पुं० [?] १. मन में होनेवाला खेद या विषाद। २. चिंता। फिक्र। ३. पश्चात्ताप। पुं०=प्रतीक्षा।
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परेग  : स्त्री० [अं० पेग] लोहे की छोटी कील।
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परेड  : स्त्री० [अं०] १. वह मैदान जहाँ सैनिकों को सैनिक शिक्षा दी जाती है। २. सिपाहियों या सैनिकों को दी जानेवाली सैनिक शिक्षा और उनसे संबंध रखनेवाले कार्यों का कराया जानेवाला अभ्यास। सैनिकों की कवायद।
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परेत  : पुं० [सं० प्रेत] १. दे० ‘प्रेत’। २. मृत शरीर। लाश। शव।
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परेता  : पुं० [सं० परित=चारों ओर] १. बाँस की पतली चिपटी तीलियों का बना हुआ बेलन के आकार का एक उपकरण जिसके दोनों ओर पकड़ने के लिए दो लंबी डंडियाँ होती हैं और जिस पर जुलाहे लोग सूत या रेशम लपेट कर रखते हैं। २. उक्त की तरह का वह उपकरण जिस पर पतंग उड़ाने की डोर लपेटी जाती है।
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परेर  : पुं० [सं० पर=दूर, ऊँचा+हिं० एर] आकाश। आसमान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेला  : वि० [हिं० पड़ना] १. बैल जो चलते चलते पड़ या लेट जाता हो। २. निकम्मा और सुस्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेली  : स्त्री० [?] तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अंग-संचालन अधिक और अभिनय या भाव-प्रदर्शन कम होता है। इसे ‘देसी’ भी कहते हैं।
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परेव  : पुं०=परेवा।
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परेवा  : पुं० [सं० पारावत] [स्त्री० परेई] १. पंडुकी पक्षी। पेंडुकी। फाखता। २. कबूतर। ३. कोई तेज उड़नेवाला पक्षी। पुं० दे० ‘पत्रवाहक’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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परेश  : पुं० [सं० पर-ईश, कर्म० स०] १. वह जो सब का और सबसे बढ़कर मालिक या स्वामी हो। २. परमेश्वर। ३. विष्णु।
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परेशान  : वि० [फा०] [भाव० परेशानी] १. बिखरा हुआ। विश्रृंखल। २. कार्याधिक्य, अथवा चिंता, दुःख आदि के भार से जो बहुत अधिक व्यस्त अथवा विकल और बदहवास हो। ३. दूसरों द्वारा तंग किया अथवा सताया हुआ। जैसे—बच्चों से वह परेशान रहता था।
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परेशानी  : स्त्री० [फा०] १. परेशान होने की अवस्था या भाव। उद्वेगपूर्ण विकलता। हैरानी। २. वह बात या विषय जिससे कोई परेशान हो। काम में होनेवाला कष्ट या झंझट। क्रि० प्र०—उठाना।
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परेषणी  : पुं० [सं० प्रेषणी] वह व्यक्ति जिसके नाम रेल-पार्सल अथवा उसकी बिल्टी भेजी जाय। (कनसाइनी)
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परेषित  : भू० कृ० [सं० प्रेषित] (माल या सामग्री) जो रेल पार्सल द्वारा किसी के नाम भेजी जा चुकी हो। (कनसाइन्ड)
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परेष्टुका  : स्त्री० [सं० पर√इष्+तु+क+टाप्] ऐसी गाय जो प्रायः बच्चे देती हो।
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परेस  : पुं०=परेश (परमेश्वर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परेह  : पुं० [?] बेसन आदि का पकाया हुआ वह घोल जिसमें पकौड़ियाँ डालने पर कढ़ी बनती है।
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परेहा  : पुं० [देश०] जोती और सींची हुई भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परैधित  : वि० [सं० पर-एधित, तृ० त०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोकिल।
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परैना  : पुं० [हिं० पैना] बैल आदि हाँकने की छड़ी या डंडा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परों  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोक्त-दोष  : पुं० [सं० पर-उक्त, तृ० त०, परोक्त-दोष, कर्म० स०?] न्यायालय में ऊट-पटाँग या गलत बयान देने का अपराध।
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परोक्ष  : वि० [सं० अक्षि-पर अव्य० स०, टच्] [भाव० परोक्षत्व] १. जो दृष्टिके क्षेत्र या पथ के बाहर हो और इसीलिए दिखाई न देता हो। आँखों से ओझल। २. जो सामने उपस्थिति या मौजूद न हो। अनुपस्थित। गैर-हाजिर। ३. छिपा हुआ। गुप्त। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ४. किसी काम या बात से अनभिज्ञ। अनजान। अपरिचित ५. जिसका किसी से प्रत्यक्ष या सीधा संबंध न हो, बल्कि किसी दूसरे के द्वारा हो। ६. जो उचित और सीधी या स्पष्ट रीति से न होकर किसी प्रकार के घुमाव-फिराव या हेर-फेर से हो। जो सरल या स्पष्ट रास्ते से न होकर किसी और या दूर रास्ते से हो। (इनडाइरेक्ट) जैसे—परोक्ष रूप से आग्रह या संकेत करना। पुं० १. आँखों के सामने न होने की अवस्था या भाव। अनुपस्थिति। २. बीता हुआ समय या भूतकाल जो इस समय सामने न हो। ‘प्रत्यक्ष’ का विपर्याय। ३. व्याकरण में पूर्ण भूतकाल। ४. वह जो तीनों कालों की बातें जानता हो; अर्थात् त्रिकालज्ञ या परम ज्ञानी। ५. ऐसी दशा, स्थान या स्थिति जो आँखों के सामने न हो, बल्कि दृष्टि-पथ के बाहर या इधर-उधर छिपी हुई हो। जैसे—परोक्ष से किसी के रोने का शब्द सुनाई पड़ा। अव्य० किसी की अनुपस्थिति या गैर हाजिरी में। पीठ-पीछे। जैसे—परोक्ष में किसी की निंदा करना।
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परोक्ष-कर  : पुं० [कर्म० स०] अर्थशास्त्र में, दो प्रकार के करों में से एक (प्रत्यक्ष कर से भिन्न) जो लिया तो किसी और व्यक्ति (उत्पादक, आयातक आदि) से जाता है परंतु जिसका भार दूसरों (अर्थात् उपभोक्ताओं) पर पड़ता है। (इनडाइरेक्ट टैक्स) जैसे—उत्पादनकर, आयात-निर्यात कर।
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परोक्षत्व  : पुं० [सं० परोक्ष+त्वन्] परोक्ष या अदृश्य होने की दशा या भाव।
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परोक्ष-दर्शन  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाओं, वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के दृश्य या रूप दिखाई देना जो बहुत दूरी पर हों और साधारण मनुष्यों के दृश्य के बाहर हों। अतीन्द्रिय दृष्टि। (कलेरवायंस)
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परोक्ष-निर्वाचन  : पुं० [सं० त०] निर्वाचन की वह पद्धति जिसमें उच्चपदों के लिए अधिकारी या प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा नहीं चुने जाते हैं, बल्कि जनता के प्रतिनिधियों, निर्वाचन मंडलों आदि के द्वारा चुने जाते हैं। (इनडाइरेक्ट इलेक्शन)
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परोक्ष-श्रवण  : पुं० [ष० त०] विशिष्ट प्रकार की आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसे शब्द सुनाई देना या ऐसे कथनों का परिज्ञान होना जो बहुत दूर पर हो रहे हों और साधारण मनुष्यों के श्रवण-क्षेत्र के बाहर हों। अतींद्रिय-श्रवण। (क्लेअर ऑडिएन्स)
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परोजन  : पुं० [सं० प्रयोजन] १. प्रयोजन। २. कोई ऐसा पारिवारिक उत्सव या कृत्य जिसमें इष्ट-मित्रों, संबंधियों आदि की उपस्थिति आवश्यक हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोढा  : स्त्री० [सं० पर-ऊढा, तृ० त०]=ऊढ़ा (नायिका)।
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परोता  : पुं० [देश०] [स्त्री० परोती] गेहूँ के पयाल से बनाया जानेवाला एक तरह का टोकरा। (पंजाब) पुं० [?] आटा, गुड़, हल्दी, पान आदि जो किसी शुभ कार्य में हज्जाम, भाँट आदि को दिये जाते हैं। पुं०=पर-पोता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोद्वह  : वि० [सं० पर-उद्वह, ब० स०] अन्य द्वारा पालित। पुं० कोयल।
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परोना  : पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोपकार  : पुं० [सं० पर-उपकार, ष० त०] [भाव० परोपकारिता] ऐसा काम जिससे दूसरों का उपकार या भलाई होती हो। दूसरों के हित का काम।
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परोपकारक  : पुं० [सं० पर-उपकारक, ष० त०] परोपकारी।
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परोपकारिता  : पुं० [सं० परोपकारिन्+तल्+टाप्] १. परोपकार करने की क्रिया या भाव। २. परोपकार।
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परोपकारी (रिन्)  : पुं० [सं० परोपकार+इनि] [स्त्री० परोपकारिणी] वह जो दूसरों का उपकार या हित करता हो। दूसरों की भलाई या हित का काम करने अथवा ऐसी बातें बतलानेवाला जिनसे दूसरों का हित हो सकता हो।
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परोपकृत  : भू० कृ० [सं० पर-उपकृत, तृ० त०] जिसका दूसरों ने उपकार किया हो। जिसके साथ परोपकार हुआ हो।
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परोपजीवी (विन्)  : वि० [सं०] दूसरों के भरोसे जीवन निर्वाह करनेवाला। पुं० ऐसे कीड़े-मकोड़े या वनस्पतियाँ जो दूसरे जीव-जंतुओं या वृक्षों के अंगों पर रहकर जीवन निर्वाह करते हों। (पैरीसाइट)
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परोपदेश  : पुं० [सं० पर-उपदेश, ष० त०] दूसरों को दिया जानेवाला उपदेश।
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परोपसर्पण  : पुं० [सं० पर-उपसर्पण, ष० त०] भीख माँगना।
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परोरजा (जस्)  : वि० [सं० रजस्-पर पं० त०, सुट् नि०] जो राग, द्वेष आदि भावों से परे हो। विरक्त। विमुक्त।
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परोरना  : स० [?] मंत्र पढ़कर फूँकना। अभिमंत्रित करना। जैसे—रोगी को परोरकर पानी पिलाना।
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परोल  : पुं० दे० ‘पैरोल’।
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परोष्णी  : स्त्री० [सं० पर-उष्ण, ब० स०, ङीष्] १. तेल चाटनेवाला एक कीड़ा। तेल-चटा। २. पुराणानुसार कश्मीर की एक नदी।
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परोस  : स्त्री० [हिं० परोसना] परोसने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पड़ोस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परोसना  : स० [सं० परिवेषण] खानेवाले की थाली या पत्तल में खाद्य पदार्थ रखना। जैसे—दाल, पूरी और मिठाई परोसना।
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परोसा  : पुं० [हिं० परोसना] प्रायः एक आदमी के खाने भर का वह भोजन जो उसे अपने साथ ले जाने के लिए दिया अथवा उसके यहाँ भेजा जाता है।
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परोसी  : पुं० [स्त्री० परोसिनी]=पड़ोसी।
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परोसैया  : पुं० [हिं० परोसना+ऐया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो पंगत आदि में बैठे हुए लोगों के लिए भोजन परोसता हो।
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परोहन  : पुं० [सं० प्ररोहण] वह पशु जिस पर चढ़कर सवारी की जाय या जिस पर बोक्ष लादा जाय।
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परोहा  : पुं० [सं० प्ररोहण] १. खेतों की सिंचाई का वह प्रकार जिसमें कम गहरे जलाशय में बाँस आदि से झूलती हुई दौरी की सहायता से पानी उठाकर खेतों में डाला जाता है। २. उक्त दौरी जिसमें पानी निकाला जाता है। ३. कुएँ से पानी निकालने का चरसा। मोट।
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परौं  : अव्य०=परसों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौका  : स्त्री० [देश०] बाँझ भेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौठा  : पुं०=पराँठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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परौता  : स्त्री० [देश०] वह चादर जिससे हवा करके अनाज ओसाया जाता है। परती।
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परौती  : स्त्री०=पड़ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्कट  : पुं० [देश०] बगला।
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पर्कटी  : स्त्री० [सं०√पृच् (जोड़ना)+अटि, कुत्व, ङीष्] १. पाकर वृक्ष। २. नई सुपारी। स्त्री० हिं० पर्कट (बगला) का स्त्री०।
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पर्कार  : पुं० [फा०] परकार। (दे०)
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प्रर्काला  : पुं०=परकाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्गना  : पुं०=परगना।
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पर्गार  : पुं० [फा०] परकारा। (दे०)
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पर्चा  : पुं०=परचा।
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पर्चाना  : स०=परचाना।
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पर्चून  : पुं०=परचून।
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पर्छा  : पुं०=परछा।
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पर्जंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्ज  : स्त्री०=परज।
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पर्जनी  : स्त्री० [सं०√पृज् (स्पर्श करना)+अन्, ङीष्] दारू हल्दी।
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पर्जन्य  : पुं० [सं०√पृष् (सींचना)+अन्य, ष—ज] १. गरजता तथा बरसता हुआ बादल। मेघ। २. इंद्र। ३. विष्णु। ४. कश्यप ऋषि के एक पुत्र जिसकी गिनती गंधर्वों में होती है।
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पर्जन्या  : स्त्री० [सं० पर्जन्य+टाप्] दारू हल्दी।
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पर्ण  : पुं० [सं०√पृ+न] १. पेड़ का पत्ता। पत्र। जैसे—पर्ण-कुटी=पत्तों से छाकर बनाई हुई कुटी। २. पान का पत्ता। ताम्बूल। ३. पलाश। ढाक। ४. पुस्तक, पंजी आदि का पृष्ठ। (लीफ) ५. कागज का वह टुकड़ा या परत जिसमें से वैसा ही दूसरा टुकड़ा या परत प्रतिलिपि के रूप में काटकर अलग करते हैं। (फायल)
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पर्णक  : पुं० [सं० पर्ण+कन्] पार्णकि गोत्र के प्रवर्तक एक ऋषि।
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पर्णकार  : पुं० [सं० पर्ण√कृ (करना)+अण्] १. पान बेचनेवाला व्यक्ति। तमोली। २. पान बेचनेवालों की एक पुरानी जाति।
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पर्ण-कुटी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह झोपड़ी जिसकी छाजन पत्तों की बनी हो।
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पर्ण-कूर्च  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें तीन दिन तक ढाक, गूलर, कमल और बेल के पत्तों का काढ़ा पीया जाता है।
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पर्ण-कृच्छ  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पाँच दिनों का व्रत जिसमें पहले दिन ढाक के पत्तों का, दूसरे दिन गूलर के पत्तों का, तीसरे दिन कमल के पत्तों का, चौथे दिन बेल के पत्तों का पीकर पाँचवें दिन कुश का काढ़ा पीया जाता था।
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पर्ण-खंड  : पुं० [ब० स०] वह वृक्ष जिसमें फूल, पत्ते आदि न लगते हों।
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पर्ण-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] वनस्पति विज्ञान में, पेड़-पौधों के तने या स्तंभ का वह स्थान जहाँ से पत्ते निकलते हैं। (नोड)
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पर्ण-चोरक  : पुं० [ष० त०] चोरक नाम का गंध द्रव्य।
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पर्ण-नर  : पुं० [मध्य० स०] किसी अज्ञात स्थान में मरनेवाले व्यक्ति का घास-फूस आदि का बनाया हुआ वह पुतला जो उसका शव न मिलने की दशा में उसका शव मानकर जलाया जाता है।
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पर्णभेदिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण√भिद् (फाड़ना)+णिनि+ ङीप्] प्रियगु लता।
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पर्ण-भोजन  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसका पत्ता ही भोजन हो। वह जो केवल पत्ते खाकर जीता हो। २. बकरी।
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पर्णभोजनी  : स्त्री० [सं० पर्णभोजन+ङीप्] बकरी।
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पर्ण-मणि  : स्त्री० [मध्य स०] १. पन्ना या मरकत नामक रत्न। २. एक प्रकार का अस्त्र।
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पर्णमाचल  : पुं० [सं० पर्ण-आ√चल्+णिच्+अण्, मुम्] कमरख का पेड़।
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पर्णमुक (च्)  : पुं० [सं० पर्ण√मुच् (छोड़ना)+क्विप्] पतझड़।
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पर्ण-मृग  : पुं० [मध्य० स०] पेड़ों पर रहनेवाले जंगली जीव-जंतु। जैसे—गिलहरी, बंदर आदि।
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पर्णय  : पुं० [सं०] एक असुर जिसे इंद्र ने मारा था।
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पर्णरुह  : पुं० [सं० पर्ण√रुह् (जनमना)+क] वसंत (ऋतु)।
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पर्णल  : वि० [सं० पर्ण+लच्] १. (वृक्ष) जिसमें बहुत अधिक पत्ते लगे हों। २. पत्तों से बनाया हुआ। पत्तों से युक्त
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पर्ण-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] पान की बेल या लता।
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पर्णवल्क  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्ण-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] पालाशी नामक लता।
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पर्ण-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] १. पत्ते का बना हुआ बाजा। २. उक्त बाजे को बजाने से होनेवाला शब्द।
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पर्ण-वीटिका  : स्त्री० [ष० त०] पान का बीड़ा।
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पर्ण-शब्द  : स्त्री० [ष० त०] पत्तों के खड़खड़ाने का शब्द।
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पर्ण-शय्या  : स्त्री० [मध्य० स०] पत्तों का बिछावन या बिस्तर।
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पर्ण-शवर  : पुं० [ब० स०] १. पुराणानुसार एक देश का नाम। २. उक्त देश में रहनेवाली आदिम अनार्य जाति जो संभवतः अब नष्ट हो गई है।
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पर्ण-शाला  : स्त्री० [मध्य० स०] पर्णकुटी।
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पर्णशालाग्र  : पुं० [पर्णशाला-अग्र, ब० स०] पुराणानुसार भद्राश्व वर्ष का एक पर्वत।
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पर्ण-संपुट  : पुं० [ष० त०] पत्ते या पत्तों का बना हुआ दोना।
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पर्ण-संस्तर  : वि० [ब० स०] पर्णशय्या पर सोनेवाला।
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पर्णसि  : पुं० [सं०√पृ+असि, नुक्] १. कमल। २. साग। ३. पानी में बनाया हुआ घर या मकान।
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पर्णांग  : पुं० [पर्ण-अंग, ब० स०] एक विशिष्ट प्रकार के पौधों का वर्ग जिसमें केवल बड़े-बड़े सुंदर पत्ते होते हैं, फूल नहीं लगते। (फर्न)
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पर्णाटक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाद  : पुं० [सं० पर्ण√अद् (खाना)+अण्] १. वह जो पत्तों का भक्षण करता हो। २. एक प्राचीन ऋषि।
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पर्णाशन  : पुं० [सं० पर्ण+अश् (खाना)+ल्यु—अन] १. वह जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। २. बादल। मेघ।
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पर्णास  : पुं० [सं० पर्ण√अस् (फेंकना)+अच्] तुलसी।
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पर्णाहार  : पुं०=पर्णाशन। (दे०)
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पर्णिक  : पुं० [सं० पर्ण+ठन—इक] पत्तों का व्यवसाय करनेवाला। पत्ते बेचनेवाला।
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पर्णिका  : स्त्री० [सं० पर्णिक+टाप्] १. मानकंद। शालपंजी। सरिवन। २. पिठवन्। पृष्णिपर्णी। ३. अग्निमंथ। अरणी। ४. कागज का वह छोटा कटा या काटा हुआ टुकड़ा जो कहीं दिखलाने पर कुछ निश्चित धन या पदार्थ मिलता है, कोई काम होता है अथवा कोई सहायता या सेवा प्राप्त होती है। (कूपन)
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पर्णिनी  : स्त्री० [सं० पर्ण+इनि—ङीप्] १. माषपर्णी। २. एक अप्सरा।
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पर्णिल  : वि० [सं० पर्ण+इलच] पत्तों से युक्त।
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पर्णी (णिनि)  : पुं० [सं० पर्ण+इनि] १. वृक्ष। पेड़। २. शालपर्णी। सरिवन। ३. पिठवन। ४. तेजपत्ता। ५. एक प्रकार की अप्सराएँ, कदाचित् परियाँ।
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पर्णीर  : पुं० [सं० पर्ण+ईरच्] सुगंधवाला।
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पर्णोटज  : पुं० [सं० पर्ण-उटज, मध्य० स०] पर्ण-कुटी।
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पर्त  : स्त्री०=परत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्द  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति करना)+द] १. सिर के बालों का समूह। २. गुदामार्ग से निकलनेवाली वायु। पाद।
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पर्दन  : पुं० [सं०√पर्द्+ल्युट्—अन] पादने की क्रिया। पादना।
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पर्दनी  : स्त्री० [सं० परिधानी] धोती।
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पर्दा  : पुं०=परदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्धा  : वि० [हिं० आधा का अनु०] आगे से कुछ कम या अधिक। आधे के लगभग। उदा०—वह पूरा कभी वसूल नहीं हो पाता था—कभी आधा कभी पर्धा।—वृन्दावन लाल वर्मा।
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पर्ना  : पुं० [फा०] एक तरह का बूटीदार रेशमी कपड़ा। पुं०=परना।
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पर्प  : पुं० [सं० पृ०+प] १. हरी घास। २. वह पहियेदार छोटी गाड़ी जिस पर पगुओं को बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। ३. घर। मकान।
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पर्पट  : पुं० [सं०√पर्प् (गति)+अटन्] १. पित-पापड़ा। २. दाल आदि का बना हुआ पापड़।
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पर्पट-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] कुंभी वृक्ष।
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पर्पटी  : स्त्री० [सं० पर्पट+ङीष्] १. सौराष्ट्र आदि प्रदेशों में होनेवाली एक तरह की मिट्टी जो सुगंधित होती है। २. उक्त मिट्टी में से निकलनेवाली गंध। ३. गंध। महक। ४. पानड़ी। ५. पापड़ी। ६. वैद्यक की स्वर्ण-पर्पटी नाम की रसौषधि। स्त्री०=कनपटी। उदा०—माथे पर और पर्पटी पर मल दिया।—अज्ञेय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्परी  : स्त्री० [सं० पर्प√रा (देना)+क+ङीष्] स्त्रियों की कवरी। जूड़ा। स्त्री० [सं० पर्पट] १. पापड़ के छोटे छोटे टुकड़े। २. कचरी।
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पर्परीक  : पुं० [सं०√पृ+ईकन्, द्वित्व, रुक्] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. जलाशय।
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पर्परीण  : पुं० [सं०√पृ+यङ्, लुक्,+इनन्] पत्ते की नस।
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पर्पिक  : पुं० [सं० पर्प+ठन्—इक] पर्प में बैठनेवाला पंगु व्यक्ति।
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पर्फरीक  : पुं० [सं० √स्फुट् (संचलन)+ईकन्, नि० सिद्धि] नया और कोमल पत्ता।
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पर्ब  : पुं० [सं० पर्व] १.=पर्व। २. वह शुभ दिन जिस दिन सिक्ख लोग उत्सव मनाते हैं। जैसे—गुरुपर्व=नानक के जन्म लेने का दिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बत  : पुं०=पर्वत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्बती  : वि० [हिं० पर्वत] पर्वत-संबंधी। पहाड़ी।
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पर्यंक  : पुं० [सं० परि-अंक, प्रा० स०] १. पलंग। २. योग में एक प्रकार का आसन। ३. वीरों के बैठने का एक प्रकार का आसन या ढंग। ४. नर्मदा नदी के उत्तर ओर में स्थित पर्वत जो विन्ध्य पर्वत का पुत्र माना गया है।
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पर्यंक-पदिका  : स्त्री० [सं० पर्यंक-पाद, ब० स०, ठन्—इक, टाप्] एक तरह का सेम जिसकी फलियाँ काले रंग की होती हैं।
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पर्यंत  : भू० कृ० [सं० परि-अंत, प्रा० स०] घिरा हुआ। स्त्री० किसी क्षेत्र के विस्तार की समाप्ति सूचित करनेवाली रेखा। चौहद्दी। सीमा। (बाउण्डरी) अव्य० तक। लौं।
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पर्यंतिका  : स्त्री० [सं० परि-अंतिका, प्रा० स०] नैतिकता तथा सद्गुनों का होनेवाला नाश।
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पर्यग्नि  : पुं० [सं० परि-अग्नि, प्रा० स०] १. हाथ में अग्नि लेकर यज्ञ के लिए छोड़े हुए पशु की परिक्रमा करना। २. वह अग्नि जो उक्त अवसर पर हाथ में ली जाती थी।
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पर्यटक  : पुं० [सं० परि√अट् (गति)+ण्वुल्—अक] पर्यटन करनेवाला। दूसरे देशों में घूमने-फिरनेवाला।
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पर्यटन  : पुं० [सं० परि√अट्+ल्युट्—अन] अनेक महत्त्वपूर्ण स्थल देखने तथा मन-बहलाव के लिए अधिक विस्तृत भूभाग में किया जानेवाला भ्रमण।
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पर्यनुयोग  : पुं० [सं० परि-अनुयोग, प्रा० स०] १. कोई बात मिथ्या सिद्ध करने अथवा किसी तथ्य का खण्डन करने के उद्देश्य से की जानेवाली पूछ-ताछ। २. निंदा।
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पर्यन्य  : पुं०=पर्जन्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यय  : पुं० [सं० परि√इ (जाना)+अच्] १. चारों ओर चक्कर लगाना। २. समय का बीतना। ३. समय का अपव्यय। ४. किसी लौकिक या शास्त्रीय बन्धन, मर्यादा आदि का उल्लंघन।
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पर्ययण  : पुं० [सं० परि√इ+ल्युट्—अन] १. किसी के चारों ओर चक्कर लगाना। २. घोड़े की जीन। काठी।
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पर्यवदात  : वि० [सं० परि-अवदात, प्रा० स०] १. पूर्ण रूप से निर्मल और शुद्ध। २. निपुण। ३. ज्ञात और परिचित।
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पर्यवरोध  : पुं० [सं० परि-अवरोध, प्रा० स०] चारों ओर से होनेवाली बाधा।
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पर्यवलोकन  : पुं० [सं० परि-अवलोकन, प्रा० स०] १. चारों ओर देखना। २. चारों ओर इस तरह निरीक्षणात्मक दृष्टि से देखना कि समूचे क्षेत्र या उसमें होनेवाली चीजों का चित्र मस्तिष्क में उतर आये। (सर्वे)
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पर्यवसान  : पुं० [सं० परि-अव√सो (समाप्ति)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यवसित] १. अंत। समाप्ति। २. अंतर्भाव। ३. क्रोध। गुस्सा। ४. अर्थ, आशय आदि के संबंध में होनेवाला ठीक ज्ञान या निश्चय।
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पर्यवस्था  : स्त्री० [सं० परि-अव√स्था (ठहरना)+अङ्—टाप्] १. विरोध। २. खंडन।
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पर्यवस्थान  : पुं० [सं० परि-अव√स्था+ल्युट्—अन] १. विरोध करना। २. खंडन करना।
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पर्यवेक्षक  : वि० [परि-अव√ईक्ष्+ण्वुल्—अक] पर्यवेक्षण करनेवाला। वह अधिकारी जो किसी काम के ठीक तरह से होते रहने की देख-रेख करने पर नियुक्त हो। (सुपरवाइजर)
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पर्यवेक्षण  : पुं० [परि—अव√ईक्ष्+ल्युट्—अन] बराबर यह देखते रहना कि कोई काम ठीक तरह से चल रहा है या नहीं। (सुपरवाइजिंग)
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पर्यश्रु  : वि० [सं० परि—अश्रु, ब० स०] १. आशुओं से नहाया या भींगा हुआ। २. जिसकी आँखों में आँसू भरे हो।
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पर्यसन  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० पर्यस्त] १. दूर करना। बाहर करना। निकालना। २. भेजना। ३. नष्ट करना। ४. रद्द करना।
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पर्यस्त  : भू० कृ० [सं० परि√अस्+क्त] जिसका पर्यसन हुआ हो।
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पर्यस्तापह्नुति  : स्त्री० [सं० पर्यस्ता-अपह्नुति, कर्म० स०] अपह्नुति अलंकार का एक भेद जिसमें किसी उपमान के धर्म का निषेध करके उस धर्म की स्थापना उपमेय में की जाती है।
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पर्यस्ति  : स्त्री० [सं० परि√अस्+क्तिन्] १. दूर करना। २. वीरासन लगाकर बैठना।
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पर्यस्तिका  : स्त्री० [सं० पर्यस्ति+कन्+टाप्] १. वीरासन। २. पलंग।
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पर्याकुल  : वि० [सं० परि-आकुल, प्रा० स०] गंदला, क्षुब्ध (पानी)। २. डरा और घबराया हुआ। ३. अस्त-व्यस्त। ४. उत्तेजित। ५. मरा हुआ।
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पर्यागत  : वि० [सं० परि-आ√गम् (जाना)+क्त] १ जो पूरा चक्कर लगा चुका हो। २. जो अपने सांसारिक जीवन का अंत कर चुका हो।
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पर्याचांत  : पुं० [सं० परि-आ√चंम् (खाना)+क्त] आचमन करने के बाद छोड़ा जानेवाला परोसा हुआ भोजन। (धार्मिक दृष्टि से ऐसा भोजन जूठा माना जाता है)।
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पर्याण  : पुं० [सं० परि√या (गति)+ल्युट्, पृषो० सिद्धि] घोड़े की जीन। काठी।
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पर्याप्त  : वि० [सं० परि√आप् (व्याप्ति)+क्त] [भाव० पर्याप्ति] १. जितना आवश्यक हो उतना सब। पूरा। यथेष्ट। काफी। (सफिशिएन्ट)। २. मिला हुआ। प्राप्त। विशेष—यथेष्ट की तरह इसका प्रयोग भी केवल ऐसी चीजों या बातों के संबंध में होना चाहिए जो आवश्यक हों या जिनसे हमें तृप्ति या संतोष प्राप्त होता हो। जैसे—पर्याप्त धन, पर्याप्त सुख। यह कहना ठीक न होगा—मुझे वहाँ पर्याप्त कष्ट मिला था। ३. जोड़, तुल्यता आदि की दृष्टि से उपयुक्त, अधिक बलवान या सशक्त। ४. परिमित। सीमित। पुं० १. पर्याप्त या यथेष्ट होने की अवस्था या भाव। २. तृप्ति। ३. शक्ति। ४. सामर्थ्य। ५. योग्यता।
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पर्याप्ति  : स्त्री० [सं० परि√आप्+क्तिन्] १. पर्याप्त होने की अवस्था या भाव। यथेष्टता। २. प्राप्ति। मिलना। ३. अन्त। समाप्ति। ४. योग्यता या सामर्थ्य। ५. तृप्ति। संतुष्टि। ६. निवारण। ६. रक्षा करना। रक्षण।
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पर्याप्लाव  : पुं० [सं० परि-आ√प्लु (गति)+घञ्] १. चक्कर। फेरा। २. घेरा।
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पर्याप्लुत  : भू० कृ० [सं० परि-आ√प्लु+क्त] घिरा या घेरा हुआ।
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पर्याय  : पुं० [सं० परि√ई (गति)+घञ्] १. पारस्परिक संबंध की दृष्टि से वे शब्द जो सामान्यतः किसी एक ही चीज, बात या भाव का बोध कराते हों। साधारणतः पर्यायों के अभिधेयार्थ समान होते हैं, लक्ष्यार्थों में भिन्नता हो सकती है। (सिनामिन) २. क्रम। सिलसिला। ३. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें अनेक आश्रय ग्रहण करने का वर्णन होता है। ४. प्रकार। भेद। ५. अवसर। मौका। ६. बनाने या रचने की क्रिया। निर्माण। ७. द्रव्य का गुण या धर्म। ८. समय का व्यतीत होना। ९. दो व्यक्तियों में होनेवाला ऐसा नाता या संबंध जो एक ही कुल में जन्म लेने के कारण माना जाता या होता है।
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पर्यायकी  : स्त्री० [सं०] भाषा विज्ञान का एक अंग, जिसमें पर्याय शब्दों के पारस्परिक सूक्ष्म अंतरों और भेद-प्रभेदों का अध्ययन किया जाता है। (सिनॉमिनी)
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पर्याय-कोश  : पुं० [ष० त०] वह शब्दकोश जिसमें शब्दों के पर्याय बतलाये गये हों तथा उनमें होनेवाली परस्पर आर्थी अंतरों का विवेचन किया गया हो।
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पर्याय-क्रम  : पुं० [ष० त०] १. पद, मान आदि के विचार से स्थिर किया जानेवाला क्रम। बड़ाई-छोटाई आदि के विचार से लगाया हुआ क्रम। २. उत्तरोत्तर होती रहनेवाली वृद्धि।
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पर्यायज्ञ  : पुं० [सं० पर्याय√ज्ञा (जानना)+क] पर्यायों के सूक्ष्म अंतर जानने वाला विद्वान् व्यक्ति। (सिनानिमिस्ट)
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पर्यायवाचक  : वि० [सं०] १. पर्याय के रूप में होनेवाला। २. जो संबंध के विचार से पर्याय हो।
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पर्यायवाची (चिन्)  : वि० [सं०]=पर्यायवाचक।
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पर्याय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसा स्वभाव जिसके कारण एक छोड़कर दूसरे को, फिर उसे छोड़कर किसी और को अपनाते चलने का क्रम चलता रहता है।
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पर्याय-शयन  : पुं० [तृ० त०] एक के बाद दूसरे का या पारी पारी से सोना।
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पर्यायिक  : वि० [सं० पर्याय+ठन्—इक] १. पर्याय-संबंधी। पर्याय का। २. पर्याय के रूप में होनेवाला। पुं० नृत्य और संगीत का एक अंग।
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पर्यायी  : वि० [सं०] पर्यावाचक।
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पर्यायोक्ति  : स्त्री० [सं० पर्याय—उक्ति, तृ० त०] एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें (क) कोई बात सीधी तरह से न कहकर चमत्कारिक और विलक्षण ढंग से कही जाती है। जैसे—नायक के बिछुड़ने के समय रोती हुई नायिका का अपने आँसुओं से यह कहना कि जरा ठहरो, और मेरे प्राण भी अपने साथ लेते जाओ। (ख) किसी बहाने या युक्ति से कोई काम करने का उल्लेख होता है। जैसे—पक्षियों और हिरनों को देखने के बहाने सीता जी बार-बार श्रीराम की ओर देखती थीं।
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पर्यालोचन  : पुं० [सं० परि-आ√लोच् (देखना)+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह की जानेवाली देख-भाल। २. दुबारा या फिर से की जानेवाली देख-भाल। ३. दे० ‘पुनरीक्षण’।
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पर्यालोचना  : स्त्री० [सं० परि-आ√लोच्+णिच्+युच्—अन,+टाप्]=पर्यालोचन।
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पर्यावरण  : पुं० [सं० परि+आवरण] किसी व्यक्ति या विषय की परिस्थिति। वातावरण। उदा०—कवि पर किसी एक समाज के पर्यावरण का विशेष प्रभाव पड़ता है।—डा० सम्पूर्णानन्द।
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पर्यावर्त्त  : पुं० [सं० परि-आ√वृत् (बरतना)+घञ्] १. वापस आना। लौटना। २. मृत आत्मा का फिर से इस संसार में आकर जन्म लेना या शरीर धारण करना।
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पर्यावर्तन  : पुं० [सं० परि-आ√वृत्+ल्युट्—अन] १. वापस आना। लौटना। २. अदला-बदली। विनिमय।
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पर्याविल  : वि० [सं० परि-आविल, प्रा० स०] गँदला (जल)।
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पर्यास  : पुं० [सं० परि√अस् (फेंकना)+घञ्] १. पतन। गिरना। २. वध। हत्या। ३. नाश। पुं०=प्रयास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्यासन  : पुं० [सं० परि√अस् (बैठना)+ल्युट्—अन] १. किसी को घेर कर बैठना। किसी के चारों ओर बैठना। २. परिक्रमा करना।
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पर्याहार  : पुं० [सं० परि-आ√हृ (हरण करना)+घञ्] १. जूआ। २. ढोने की क्रिया। ३. बोझ। ४. घड़ा। ५. अन्न जमा करना।
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पर्युक्षण  : पुं० [सं० परि√उक्ष् (सींचना)+ल्युट्—अन] श्राद्ध, होम, पूजा आदि के बिना मंत्र पढ़े छिड़का जानेवाला जल।
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पर्युक्षणी  : स्त्री० [सं० पर्युक्षण+ङीप्] पर्युक्षण के लिए जल से भरा पात्र।
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पर्युत्थान  : पुं० [सं० परि-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्—अन] उठ खड़ा होना।
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पर्युसुक्  : वि० [सं० परि-उत्सुक, प्रा० स०] १. बहुत अधिक उत्सुक। २. उदास। खिन्न। ३. विकल। खिन्न।
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पर्युदय  : पुं० [सं० अत्या० स०] सूर्योदय से कुछ पहले का समय। तड़का।
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पर्युदस्त  : वि० [सं० परि-उद्√अस्+क्त] १. निषिद्ध। २. जिसके संबंध में या जिस पर आपत्ति की गई हो।
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पर्युदास  : पुं० [सं० परि-उद्√अस्+घञ्] नियम आदि के विरुद्ध अपवाद के रूप में कही जानेवाली बात।
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पर्युपस्थान  : पुं० [सं० परि-उप्√स्था+ल्युट्—अन] सेवा।
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पर्युपासक  : पुं० [सं० परि-उपासक, प्रा० स०] १. उपासक। २. सेवक।
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पर्युपासन  : पुं० [सं० परि-उपासन, प्रा० स०] १. उपासना। २. सेवा।
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पर्युपासिता (तृ), पर्युपासी (सिन्)  : पुं० [सं० परि-उप√आस+तृच्, सं० परि-उप√अस्+णिनि] पर्युपासक। (दे०)
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पर्युप्त  : भू० कृ० [सं० परि√वप् (बोना)+क्त] [भाव० पर्युप्ति] जो बोया गया हो।
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पर्युप्ति  : स्त्री० [सं० परि√वप्+क्तिन्] बीज बोने की क्रिया या भाव। बोआई।
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पर्युषण  : पुं० [सं० परि√उष्+ल्युट्—अन] १. जैनियों के अनुसार तीर्थंकरों की पूजा या सेवा। २. जैनों का एक विशिष्ट पर्व जिसमें कई प्रकार के व्रतों का पालन किया जाता है।
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पर्युषित  : वि० [सं० परि√वस्+क्त] १. जो ताजा न हो। एक दिन पहले का। बासी। (फूल या भोजन के लिए प्रयुक्त) २. मूर्ख।
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पर्यूहण  : पुं० [सं० परि√ऊह्+ल्युट्—अन] अग्नि के चारों ओर जल छिड़कना।
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पर्येषणा  : स्त्री० [सं० परि-एषणा, प्रा० स०] १. तर्कपूर्वक की जानेवाली पूछ-ताछ। २. चान-बीन। जाँच-पड़ताल। ३. पूजा।
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पर्योष्टि  : स्त्री० [सं० परि-आ√इष्+क्तिन्]। पर्येषणा। (दे०)
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पर्व (र्वन्)  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ण करना)+वनिप्] १. दो चीजों के जुड़ने का संधि-स्थान। जोड़। गाँठ। जैसे—उँगली या गन्ने का पर्व (पोर)। २. शरीर का ऐसा अंग जो किसी जोड़ के आगे हो और घुमाया फिराया या मोड़ा जा सकता हो। ३. अंश। खंड। भाग। ४. ग्रंथ या कोई विशिष्ट अंश, खंड या विभाग। जैसे—महाभारत में अठारह पर्व हैं। ५. सीढ़ी का डंडा। ६. कोई निश्चित या सीमित काल। अवधि, विशेषतः अमावस्या, पूर्णिमा और दोनों पक्षों की अष्टमियाँ। ७. वे यज्ञ जो उक्त तिथियों में किये जाते थे। ८. आनन्द और उत्सव का दिन या समय। ९. वह दिन जब विशिष्ट रूप से कोई धार्मिक या पुण्य-कार्य किया जाता हो। १॰. कोई विशिष्ट अच्छा अवसर या समय। आनन्द या त्योहार मनाने का दिन। ११. उत्सव। १२. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। १३. सूर्य का किसी राशि में संक्रमण काल। संक्रांति। १४. चातुर्मास्य।
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पर्वक  : पुं० [सं० पर्वन्√कै (प्रकाशित होना)+क] घुटना।
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पर्वकार  : पुं० [सं० पर्वन्√कृ (करना)+अण्] वह ब्राह्मण जो घन के लोभ से पर्व के दिन काम छोड़ दे, और फिर सुभीते से किसी दूसरे दिन करे।
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पर्व-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. वह समय जब कोई पर्व हो। पुण्यकाल। २. चंद्रमा के क्षय के दिन, अर्थात् पूर्णमासी से अमावस्या तक का समय।
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पर्वगामी (मिन्)  : पुं० [सं० पर्वन्√गम् (जाना)+णिनि] शास्त्रों द्वारा वर्जित तिथि या पर्व पर स्त्री-गमन करनेवाला व्यक्ति।
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पर्वण  : पुं० [सं०√पर्व् (पूर्ति)+ल्युट्—अन] १. कोई काम पूरा करने की क्रिया या भाव। २. एक राक्षस का नाम।
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पर्वणिका  : स्त्री० [सं० पर्वणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] पर्वणी नाम का आँख का रोग।
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पर्वणी  : स्त्री० [सं० पर्वण्+ङीष्] १. सुश्रुत के अनुसार आँख की संधि में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें जलन और सूजन होती है। २. पूर्णिमा। ३. दे० ‘पर्विणी’।
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पर्वत  : पुं० [सं०√पर्व+अतच्] १. पत्थरों आदि का बना हुआ, मालाओं या श्रेणियों के रूप में फैला हुआ तथा ऊँची चोटियोंवाला वह भूखंड जो आस-पास की भूमि से सैकड़ों-हजारों फुट ऊँचा होता है तथा जो भूगर्भ की प्राकृतिक शक्तियों से निकलनेवाले मल से बनता है। पहाड़। विशेष—पर्वत प्रायः ढालुएँ होते हैं और उनके ऊपरी भाग निचले भागों की अपेक्षा बहुत कम विस्तृत होते हैं और उनके ऊपरी भाग चौड़े तथा चिपटे होते हैं। २. बहुत-सी चीजों का बना हुआ ऊँचा ढेर। ३. लाक्षणिक अर्थ में, अत्यधिक मात्रा में होने की अवस्था या भाव। जैसे—बातों का पहाड़। ४. पुराणानुसार एक देवर्षि जो नारद मुनि के बहुत बड़े मित्र थे। ५. एक प्रकार की मछली। ६. पेड़। वृक्ष। ७. एक प्रकार का साग। ८. दशनामी संप्रदाय के संन्यासियों का एक भेद या वर्ग; और उनके नाम के साथ लगनेवाली एक उपाधि। ९. मरीचि का एक पुत्र। १॰. एक गंधर्व का नाम। ११. रहस्य-संप्रदाय में (क) पाप, (ख) प्रेम, (ग) मन या ध्यान की ऊँची अवस्था, (घ) परमात्मा।
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पर्वतक  : पुं० [सं० पर्वत+कन्] छोटा पहाड़।
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पर्वत-काक  : पुं० [मध्य० स०] डोम कौआ।
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पर्वत-कीला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतखंड  : पुं० [सं०] १. पर्वत का टुकड़ा। २. पर्वतीय प्रदेश। ३. तटवर्ती प्रदेश में ऊँची तथा अति तीव्र ढालवाली चट्टान की दीवार।
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पर्वतज  : वि० [सं० पर्वत्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो पर्वत से उत्पन्न हुआ हो। पहाड़ से पैदा होने या निकलनेवाला।
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पर्वतजा  : स्त्री० [सं० पर्वतज+टाप्] १. नदी। २. पार्वती।
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पर्वत-जाल  : पुं० [ष० त०] पर्वत-माला।
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पर्वत-तृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह की घास जिसे पशु खाते हैं।
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पर्वत-दुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] पहाड़ पर बना हुआ किला।
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पर्वत-नंदिनी  : स्त्री० [ष० त०] पार्वती।
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पर्वत-पति  : पुं० [ष० त०] पर्वतों का राजा, हिमालय।
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पर्वत-प्रदेश  : पुं० [सं०] ऐसा प्रदेश जिसमें प्रायः पर्वत ही पर्वत हों।
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पर्वत-माला  : स्त्री० [ष० त०] भूगोल शास्त्र में, पहाड़ों की श्रृंखला जो दूर तक समानांतर चली गई हो। (चेन)
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पर्वत-मोचा  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह के पहाड़ी केले का पौधा और उसका फल।
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पर्वत-राज  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा पहाड़। २. हिमालय पर्वत।
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पर्वतवासिनी  : स्त्री० [सं० पर्वत√वस् (वासना)+णिनि+ ङीष्] १. काली देवी। २. गायत्री। ३. छोटी जटामासी।
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पर्वतवासी (सिन्)  : पुं० [सं० पर्वत√वस्+णिनि] [स्त्री० पर्वतवासिनी] पहाड़ पर वास करनेवाला प्राणी।
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पर्वतस्थ  : वि० [सं० पर्वत√स्था (ठहरना)+क] पर्वत पर स्थित।
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पर्वतात्मज  : पुं० [सं० पर्वत-आत्मज, ष० त०] मैनाक (पर्वत)।
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पर्वतात्मजा  : स्त्री० [पर्वत-आत्मजा, ष० त०] पार्वती।
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पर्वताधारा  : स्त्री० [पर्वत-आधार, ब० स०, टाप्] पृथ्वी।
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पर्वतारि  : पुं० [पर्वत्-अरि, ष० त०] इंद्र।
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पर्वताशय  : पुं० [सं० पर्वत-आ√शी (सोना)+अच] मेघ। बादल।
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पर्वताश्रय  : पुं० [सं० पर्वत-आश्रय, ब० स०] १. शरभ। २. पर्वतवासी।
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पर्वताश्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० पर्वत-आ√श्रि (सेवा)+ णिनि] पर्वतवासी।
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पर्वतासन  : पुं० [सं० पर्वत-आसन, मध्य० स०] हठ योग में एक प्रकार का आसन।
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पर्वतास्त्र  : पुं० [सं० पर्वत-अस्त्र, मध्य० स०] प्राचीन काल का एक प्रकार का कल्पित अस्त्र जिसके संबंध में कहा जाता है कि इनके फेंकते ही शत्रु की सेना पर बड़े बड़े पत्थर बरसने लगते थे अथवा अपनी सेना के चारों ओर पहाड़ खड़े हो जाते थे, जिससे शत्रु के प्रभंजनास्त्र विफल हो जाते थे।
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पर्वतिया  : पुं० [सं० पर्वत+इया (प्रत्य०)] १. नैपालियों की एक जाति। २. एक प्रकार का कद्दू। ३. एक प्रकार का तिल। वि०=पर्वतीय (पहाड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्वती  : वि०=पर्वतीय।
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पर्वतीय  : वि० [सं० पर्वत√छ—ईय] १. पर्वत-संबंधी। पहाड़ का’ पहाड़ी। २. पहाड़ पर रहने या होनेवाला। पहाड़ी जैसे—पर्वतीय पावस।
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पर्वतेश्वर  : पुं० [पर्वत-ईश्वर, ष० त०] हिमालय।
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पर्वतोद्भव  : पुं० [पर्वत-उद्भव, ब० स०] १. पारा। २. शिंगरफ।
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पर्वतोद्भूत  : पुं० [सं० पर्वन्-उद्भूत, पं० त०] अबरक।
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पर्वतोर्मि  : पुं० [पर्वत-उर्मि, ब० स०] एक तरह की मछली।
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पर्वधि  : पुं० [सं० पर्वन√धा (धारण करना)+कि] चंद्रमा।
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पर्वपुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. नागदंती नामक क्षुप। २. रामदूती नाम की तुलसी।
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पर्व-भाग  : पुं० [ष० त०] हाथ की कलाई।
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पर्व-भेद  : पुं० [सं० ब० स०] संधिभंग नामक रोग का एक भेद।
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पर्व-मूल  : पुं० [ष० त०] किसी पक्ष की चतुर्दशी और अमावश्या (अथवा पूर्णिमा) के संधिकाल का समय।
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पर्व-मूला  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] सफेद दूब।
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पर्व-योनि  : पुं० [ब० स०] ऐसी वनस्पति जिसमें जगह जगह पर्व अर्थात् गाँठें या पोर हों। जैसे—ऊख, बांस आदि।
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पर्वर  : प्रत्य० [फा०] पालन करनेवाला। परवर। पुं०=परवल (पौधा और उसका फल)।
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पर्वाना  : पुं० [फा० पर्वानः] परवाना। (दे०)
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पर्वानगी  : स्त्री० [फा०] आज्ञा। अनुमति।
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पर्वरुट (ह्र)  : पुं० [सं० पर्वन्√रुह् (उत्पत्ति)+क्विप्] अनार।
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पर्वरिश  : स्त्री०=परवरिश।
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पर्वरीण  : पुं० [सं०=पर्परीण, पृषो० सिद्धि०] १. पर्व। २. मृत शरीर। लाश। ३. अभिमान। घमंड।
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पर्व-वल्ली  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की दूब। माला दूर्वा।
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पर्व-संधि  : पुं० [ष० त०] १. पूर्णिमा (या अमावस्या) और प्रतिपदा का संधिकाल। २. चंद्रमा अथवा सूर्य के ग्रहण का समय। ३. घुटनों का जोड़। ४. दो अवस्थाओं के बीच में पड़नेवाला समय या स्थान।
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पर्वा  : स्त्री०=परवाह। स्त्री०=प्रतिपदा।
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पर्वानगी  : स्त्री०=परवानगी।
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पर्वाना  : पुं०=परवाना।
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पर्वावधि  : स्त्री० [सं० पर्वन्-अवधि, ष० त०] गाँठ। जोड़।
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पर्वास्फोट  : पुं० [सं० पर्वन्-आस्पोट, ष० त०] १. उँगलियाँ चटकाने की क्रिया या भाव। २. उँगलिया चटकाने पर होनेवाला शब्द।
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पर्वाह  : पुं० [पर्वन्-अहन्, ष० त०, टच्] वह दिन जिसमें उत्सव मनाया जाय। पर्व का दिन। स्त्री० [फा० पर्वा] परवाह। (दे०)
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पर्विणी  : स्त्री० [सं०] १. छोटा और कम महत्त्वपूर्ण पर्व। २. पर्व का समय।
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पर्वित  : पुं० [सं०√पर्वू (पूर्ति)+क्त] एक प्रकार की मछली।
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पर्वेश  : पुं० [सं० पर्वन्—ईश, ष० त०] फलित-ज्योतिष में ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र कुबेर, वरुण अग्नि और यम देवता जो ग्रहण के अधिपति माने जाते हैं। इन सभी का भोगकाल छः छः महीने का होता है।
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पर्श  : पुं० [स०] एक प्राचीन योद्धा जाति जिसके वंशज अफगानिस्तान में एक प्रदेश में रहते थे। पुं०=स्पर्श।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पर्शनीय  : वि० [सं० स्पर्शनीय] स्पर्श किये जाने के योग्य। स्पृश्य।
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पर्शु  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+शुन्—पृ, आदेश] १. आयुध। अस्त्र। २. परशु। फरसा। ३. पसली।
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पर्शुका  : स्त्री० [सं० पर्शु√कै (चमकना)+क+टाप्] पसली।
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पर्शु-पाणी  : पुं० [ब० स०] १. गणेश। २. परशुराम।
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पर्शुराम  : पुं० [मध्य० स०] परशुराम।
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पर्शु-स्थान  : पुं० [ष० त०] अफगानिस्तान का एक प्रदेश जिसमें पर्शु जाति के लोग रहते थे।
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पर्श्वध  : पुं० [सं०=परश्वध, पृषो० सिद्धि] कुठार।
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पर्षद्  : स्त्री०=परिषद्।
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पर्षद्वल  : पुं० [सं० पर्षद्+वलच्] परिषद् का सदस्य।
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पर्हेज  : पुं०=परहेज।
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पर्हेजगार  : वि०=परहेजगार।
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पलंकट  : वि० [सं० पल√कट् (छिपाना)+खच्, मुम्] डरपोक। भीरु।
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पलंकर  : पुं० [सं० पल√कृ (करना)+खच्, मुम्] पित्त।
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पलंकष  : पुं० [सं० पल√कष् (मारना)+खच्, सुम्] १. गुग्गुल। गूगल। २. राक्षस। ३. पलाश।
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पलंकषा  : स्त्री० [सं० पलंकष+टाप्]=पलंकषी।
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पलंकषी  : स्त्री० [पलंकष+ङीष्] १. गोखरू। रास्ना। २. टेसू। पलास। ३. गुग्गुल। ४. लाख। ५. गोरखमुंडी।
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पलंका  : स्त्री० [हिं० पर+लंका] लंका से भी और आगे का अर्थात् बहुत दूर का स्थान। आति दूरवर्ती देश। जैसे—लंका छोड़ पलंका जाय। (कहा०)
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पलंग  : पुं० [सं० पल्यंक से फा०] [स्त्री० अल्पा० पलंगड़ी] एक तरह की बड़ी तथा मजबूत चारपाई जो प्रायः निवार से बुनी होती है। क्रि० प्र०—बिछाना। मुहा०—(स्त्री० का) पलंग को लात मार खड़ा होना=छठी, बरही आदि के उपरांत सौरी से किसी स्त्री का भली-चंगी बाहर आना। सौरी के दिन पूरे करके बाहर निकलना। (बोल-चाल) (व्यक्ति का) पलंग को लात मारकर खड़ा होना=बहुत बड़ी बीमारी झेलकर अच्छा होना। कड़ी बीमारी से उठना। पलंग तोड़ना=बिना कोई काम किये यों ही पड़े या सोये रहना। निठल्ला रहना। पलंग लगाना=किसी के सोने के लिए पलंग पर बिछौना बिछाना। बिस्तर ठीक करना।
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पलंग-कस  : पुं० [हिं० पलंग+कसना] एक प्रकार की ओषधि जिसे खाने से स्त्रियों की संभोग शक्ति का बढ़ना माना जाता है। (पलंगतोड़ के जोड़पर)
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पलंगड़ी  : स्त्री० [हिं० पलंग+ड़ी (प्रत्य०)] छोटा पलंग।
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पलंग-तोड़  : वि० [हिं०] १. वह जो प्रायः पलंग पर पड़े-पड़े समय बिताता हो अर्थात् आलसी और निकम्मा। २. एक प्रकार का औषध जिसे खाने से पुरुष की संभोग शक्ति का बढ़ना माना जाता है। (पलंग-कस के जोड़पर)
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पलंग-दंत  : पुं० [फा० पलंग=चीता+हिं० दांत] जिसके दांत चीते के दांतों की तरह कुछ कुछ टेढ़े हों।
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पलंगपोश  : पुं० [हिं० पलंग+का० पोश] पलंग पर बिछाई जानेवाली चादर।
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पलँगरी  : स्त्री०=पलँगड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलंगिया  : स्त्री० [हिं० पलंग+इया (प्रत्य०)] छोटा पलंग। पलंगड़ी।
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पलंजी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पलंडी  : स्त्री० [देश०] मल्लाहों का वह बाँस जिससे वे पाल खड़ा करते हैं।
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पल  : पुं० [सं०√पल् (गति, रक्षा)+अच्] १. समय का एक बहुत प्राचीन विभाग जो ६॰ विपल अर्थात् २४ सेकेंड के बराबर होता है। घड़ी या दंड का ६॰ वाँ भाग। पद—पल के पल में=बहुत थोड़े समय में। क्षण भर में। तुरंत। २. एक प्रकार की पुरानी तौल जो ४ कर्ष के बराबर होती थी। ३. चलने की क्रिया। गति। ४. धोखेबाजी। प्रतारणा। ५. तराजू। तुला। ६. गोश्त। मांस। ६. धान का पयाल। ८. मूर्ख व्यक्ति। ९. लाश। शव। पुं० [सं० पलक]। दृगंचल। मुहा०—पल मारते या पल भर में=बहुत ही थोड़े समय में। तुरंत। जैसे—पल मारते वह अदृश्य हो गया।
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पलई  : स्त्री० [सं० पल्लव] १. पेड़ की पतली और नरम डाली। २. पेड़ का ऊपरी सिरा। स्त्री० [हिं० पसली] बच्चों को होनेवाला एक रोग जिसमें उनकी पसलियाँ जोर जोर से फड़कने या ऊपर-नीचे होने लगती हैं।
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पलक  : स्त्री० [फा०] १. आँख के ऊपर का वह पतला आवरण जिसके अगले भाग में बालों की पर्त या बरौनी होती है और जिसके गिरने से आँख बंद होती और उठने से आँख खुलती है। क्रि० प्र०—उठना।—गिरना। मुहा०—पलक झपकना=पलक का क्षण भर के लिए या एक बार नीचे की ओर गिरना। पलक (या पलकों) पर पानी फिरना=आँखों में जल भर आना। उदा०—रोषिहि रोष भरे दृग तरै फिरै पलक भर पानी।—सूर। पलक पसीजना=(क) आँखों में आँसू आना। (ख) किसी के प्रति करुणा या दया उत्पन्न होना। पलक भाँजना=(क) पलक गिराना या हिलाना। (ख) पलकें हिलाकर इशारा या संकेत करना। पलक मारना=(क) पलक झपकाना या गिराना। (ख) पलक हिलाकर इशारा या संकेत करना। पलक लगना=हलकी-सी नींद आना या निद्रा का आरंभ होना। झपकी आना। जैसे—दो दिन से रोगी की पलक नहीं लगी है। पलक से पलक न लगना=नाम को भी कुछ नींद न आना। पलक से पलक न लगाना=देखने के लिए टकटकी लगाना या आँख बंद न होने देना। (किसी के रास्ते में या किसी के लिए) पलकें बिछाना=किसी का अत्यंत आदर और प्रेम से स्वागत तथा सत्कार करना। पलकें मुँदना=मृत्यु होना। मरना। पलकों से जमीन झाड़ना या तिनके चुनना=(क) अत्यंत श्रद्धा तथा भक्ति से किसी की सेवा करना। (ख) किसी को संतुष्ट और सुखी करने के लिए पूर्ण मनोयोग से प्रयत्न करना। जैसे—मैं आप के लिए पलकों से तिनके चुनूँगा। विशेष—इस मुहावरे का मुख्य आशय यह है कि चलने-फिरने, उठने-बैठने की जगह या रास्ते में कुछ भी कष्ट न होने पावे। पद—पलक झपकते या मारते=अत्यंत अल्प समय में। निमेष मात्र में। जैसे—पलक झपकते ही कुछ दूसरा दृश्य दिखाई पड़ा। पुं० [हिं० पल+एक] १. एक ही पल या क्षण भर का समय। उदा०—कोटि करम फिरे पलक में, जो रंचक आये नाँव।—कबीर।
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पलक-दरिया  : वि० [हिं० पलक+दरिया] बहुत बड़ा दानी। अति उदार।
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पलक-दरियाव  : वि०=पलक-दरिया।
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पलकनेवाज  : वि० [हिं० पलक+फा० निवाज़] क्षण भर में निहाल कर देनेवाला। बहुत बड़ा दानी। पलक-दरिया।
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पलक-पीटा  : पुं० [हिं० पलक+पीटना] १. बरौनिया झड़ने का एक रोग। २. वह जिसे उक्त रोग हो।
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पलकर्ण  : पुं० [सं०] धूपघड़ी के शंकु की उस समय की छाया की लंबाई जब मेष संक्रांति के मध्याह्नकाल में सूर्य ठीक विषुवत् रेखा पर होता है।
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पलका  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पलकी]=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलकिया  : स्त्री० [हिं० पलकी] १. पालकी। २. हाथी पर रखने का एक प्रकार का छोटा हौदा। उदा०—पलकिया में बहुत मुलायम गद्दी तकिए लगा दिए गए हैं और हाथी बहुत धीमे चलाया जायगा।—वृंदावनलाल वर्मा।
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पलक्या  : स्त्री० [सं० पलक+यत्+टाप्] पालक।
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पलक्ष  : वि० [सं०=पलक्ष, पृषो० सिद्धि] श्वेत। सफेद। पुं० सफेद रंग।
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पल-क्षार  : पुं० [ष० त०] रक्त। खून। लहू।
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पलखन  : पुं० [सं० पलक्ख] पाकर का पेड़।
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पलगंड  : पुं० [सं० पल√गण्ड् (लीपना)+अण्] कच्ची दीवार में मिट्टी का लेप करनेवाला लेपक। मजदूर।
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पलटन  : स्त्री० [अं० प्लैटून] १. सैनिकों का बहुत बड़ा ऐसा दस्ता जिसका नायक लेफ्टीनेंट होता है। २. किसी प्रकार के प्राणियों का बहुत बड़ा झुंड। जैसे—चींटियों, बंदरों या बच्चों की पलटन। स्त्री० [हिं० पलटना] पलटने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलटना  : अ० [सं० प्रलोटन] १. ऐसी स्थिति में आना या होना कि ऊपरी अंश या तल नीचे हो जाय और निचला अंश या तल ऊपर हो जाय। उलटा या औंधा होना। २. दशा, परिस्थिति आदि में होनेवाला इस प्रकार का बहुत बड़ा परिवर्तन कि उसका प्रवाह, रूख या रूप बिलकुल उलट जाय। अच्छी से बुरी या बुरी से अच्छी स्थिति को प्राप्त होना। ३. अपेक्षाकृत अवनत स्थिति को प्राप्त होना। ४. राज्य की सत्ता का एक के हाथ से निकलकर दूसरे के हाथ में जाना। जैसे—शासन पलटना। ५. पीछे या विपरीत दिशा की ओर जाना, घूमना या मुड़ना। ६. जहाँ से कोई चला हो, उसका उसी स्थान की ओर लौटना। वापस आना। ७. कही हुई या मानी हुई बातें मानने से पीछे हटना। मुकरना। जैसे—उन्हें पलटते देर नहीं लगती। संयो० क्रि०—जाना। स० १. उलटा या औंधा करना। २. आकार, रूप, दशा, स्थिति आदि को प्रयत्नपूर्वक बदल देना। बदलना। ३. अवनत को उन्नत या उन्नत को अवनत करना। ४. किसी को लौटने में प्रवृत्त करना। फेरना। ५. अदल-बदल करना। विशेष—यह उलटना के साथ उसका अनुकरण-वाचक रूप बनकर भी प्रयुक्त होता है। जैसे—उलटना-पलटना।
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पलटनिया  : वि० [हिं० पलटन] पलटन-संबंधी। पुं० सैनिक।
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पलटा  : पुं० [हिं० पलटना] १. पलटने की क्रिया या भाव। २. चक्कर के रूप में अथवा यों ही उलटकर पीछे की ओर अथवा किसी ओर घूमने या प्रवृत्त होने की क्रिया या भाव। मुहा०—पलटा खाना=(क) पीछे अथवा किसी और दिशा में प्रवृत्त होना या मुड़ना। जैसे—भागते हुए चीते ने पलटा खाया और वह शिकारी पर झपटा। (ख) एक दशा से दूसरी, मुख्यतः अच्छी दशा की ओर प्रवृत्त होना। जैसे—दस बरस के बाद उसके भाग्य ने फिर पलटा खाया और उसने व्यापार में लाखों रुपये कमाये। पलटा देना=(क) उलटना। (ख) किसी दूसरी दशा या दिशा में प्रवृत्त करना या ले जाना। ३. किसी काम या बात के बदले किया जाने या होनेवाला काम या बात। बदला। जैसे—उसे उसकी करनी का पलटा मिल गया। ४. संगीत में वह स्थिति जिसमें बड़ी और लंबी तानें लेते समय ऊँचे स्वरों से पलटकर नीचे स्वरों पर आते हैं। जैसे—गवैये ने ऐसी- ऐसी तानें पलटीं कि सब लोग प्रसन्न हो गये। क्रि० प्र०—लेना। ५. लोहे या पीतल की बड़ी खुरचनी जिसका फल चौकोर न होकर गोलाकार होता है। ६. नाव की वह पटरी जिस पर उसे खेनेवाला मल्लाह बैठता है। ६. कुश्ती का दाँव या पेंच।
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पलटाना  : सं० [हिं० पलटना] १. पलटने में प्रवृत्त करना। २. लौटाना। ३. बदलना। विशेष दे० ‘पलटना’ स०।
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पलटाव  : पुं० [हिं० पलटा] पलटे जाने की क्रिया या भाव।
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पलटावना  : स० [हिं० पलटना का प्रे०] पलटने का काम किसी दूसरे से कराना।
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पलटी  : स्त्री०=पलटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलटे  : अव्य० [हिं० पलटा] बदले में। एवज में। प्रतिफल स्वरूप।
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पलड़ा  : पुं० [सं० पटल] १. तराजू के दोनों लटकते हुए भागों में से एक। २. शक्ति, समर्थता आदि की दृष्टि से दो पक्षों, दलों आदि में से कोई एक। जैसे—समाज-वादियों की अपेक्षा काँग्रेसियों का पलड़ा भारी है। मुहा०—(किसी का) पलड़ा भारी होना=अपने विरोधी की अपेक्षा शक्ति का संतुलन अधिक होना। पुं०=पल्ला (धोती आदि का आँचल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलथा  : पुं० [हिं० पलटना] १. कलाबाजी, विशेषतः पानी में कलैया मारने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—मारना। २. दे० ‘पलथी’।
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पलथी  : स्त्री० [सं० पर्यस्त, प्रा० पल्लत्थ] दाहिने पैर का पंजा बाएँ पट्ठे की नीचे और बाएँ पैर का पंजा दाहिने पट्ठे के नीचे दबाकर बैठने का एक आसन। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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पलद  : वि० [सं० पल√दा (देना)+क] जिसके सेवन से मांस बढ़े।
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पलना  : अ० [हिं० पालना] १. विशिष्ट परिस्थितियों में रहकर बड़े होना। जैसे—प्रकृति की गोद में पलना। २. खा-पीकर खूब हृष्ट पुष्ट होना। ३. कर्त्तव्य, धर्म आदि के निर्वाह के रूप में पूरा उतरना। पालित होना। उदा०—पर भूलो तुम निज धर्म भले, मुझसे मेरा अधिकार पले।—मैथिलीशरण। स०=देना। (दलाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलनाना  : स० [हिं० पलान=जीन,+ना (प्रत्य०)]= पलानना।
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पल-प्रिय  : वि० [ब० स०] मांस खाकर प्रसन्न होनेवाला। जिसे मांस अच्छा लगता हो। पुं० डोम कौआ। द्रोण काक।
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पलभक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० पल√भक्ष् (खाना)+ णिनि] [स्त्री० पलभक्षिणी] मांसाहारी। मांस-भक्षी।
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पल-भरता  : स्त्री० [हिं० पल+भर+ता (प्रत्य०)] पल भर या बहुत थोड़ी देर तक अस्तित्व बने रहने या होने की अवस्था या भाव। क्षण-भंगुरता।
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पलभा  : स्त्री० [ब० स०] धूप-घड़ी के शंकु की उस समय की छाया की चौड़ाई जब मेष संक्रांति के मध्याह्न में सूर्य ठीक विषुवत रेखा पर होता है, पलविभा। विषुवत् प्रभा।
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पलरा  : पुं०=पलड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलल  : वि० [सं०√पल् (गति)+कलच्] बहुत मुलायम। पिलपिला। पुं० १. मांस। गोश्त। २. शव। लाश। ३. राक्षस। ४. पत्थर। ५. बल। शक्ति। ६. दूध। ७. कीचड़। ८. तिल का चूर्ण। ९. वह मीठा पकवान या मिठाई जो तिल के चूर्ण से बनी हो। १॰. मल। गन्दगी। ११. सेवार। शैवाल।
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पलल-ज्वर  : पुं० [ष० त०] पित्त (धातु)।
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पलल-प्रिय  : वि० [ब० स०] जिसे मांस खाना अच्छा लगता हो। पुं० १. राक्षस। २. डोम कौआ। द्रोण काक।
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पललाशय  : पुं० [सं० पलल-आ√शी (सोना)+अच्] गलगंड या घेघा नामक रोग।
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पलव  : पुं० [सं०√पल्+अच्, पल√वा (हिंसा)+क] १. मछलियाँ फँसाने का एक तरह का बाँस की खपाचियों का बना हुआ झाबा। २. मछलियाँ पकड़ने का जाल।
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पलवल  : स्त्री० [?] १. पारस्परिक आत्मीयता या घनिष्टता। २. सामंजस्य। मुहा०—पलवल मिलाना=किसी प्रकार की संगति या सामंजस्य स्थापित करना। पुं०=परवल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलवा  : पुं० [सं० पल्लव] १. ऊख के पौधे की ऊपरी कुछ पोरें जो प्रायः कम मीठी होती हैं। अगौरा। कौंचा। २. पंजाब के कुछ प्रदेशों में होनेवाली एक घास जिसे भैंस चाव से खाती हैं। ३. अंजलि। चुल्लू।
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पलवान  : पुं०=पलवा (घास)।
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पलवाना  : स० [हिं० पालना] १. किसी को पालने में प्रवृत्त करना। २. किसी से पालन कराना। पालन करने के लिए प्रवृत्त करना।
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पलवार  : पुं० [हिं० पल्लव] कुछ विशिष्ट जातियों के ऊख के गंडों में अँखुएँ निकलने पर उन्हें बबूल के काँटों, अरहर के डंठलों आदि से ढकने की एक रीति। पुं० [हिं० पाल+वार (प्रत्य०)] पाल आदि की सहायता से चलनेवाली एक प्रकार की बड़ी नाव जिस पर माल लादा जाता है। पटैला।
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पलवारी  : पुं० [हिं० पलवार] नाविक। मल्लाह।
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पलवाल  : वि० [सं० पल=मांस+वाल (प्रत्य०)] १. मांस-भक्षी। २. हृष्ट-पुष्ट।
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पलवैया  : वि० [हिं० पालन+वैया (प्रत्य०)] पालन-पोषण करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० पलवाना] पालन-पोषण करनेवाला।
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पलस्तर  : पुं० [सं० प्लास्टर] १. मजबूती तथा सुरक्षा के लिए दीवारों, छतों आदि पर किया जानेवाला बरी, बालू, सीमेंट अथवा मिट्टी का मोटा लेप। मुहा०—(किसी का) पलस्तर ढीला होना या बिगड़ना=कष्ट, रोग आदि के कारण बहुत-कुछ जर्जर या शिथिल होना। २. किसी चीज के ऊपर लगाया जानेवाला मोटा लेप। जैसे—शरीर के रुग्ण अंग पर लगाया जानेवाला औषध या पलस्तर।
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पलस्तरकारी  : स्त्री० [हिं० पलस्तर+फा० कारी] १. दीवारों, छतों आदि का पलस्तर करने की क्रिया या भाव।
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पलहना  : अ०=पलुहना (पल्लवित होना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० पल्लवित करना।
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पलहा  : पुं० [सं० पल्लव] नया हरा पत्ता। कोंपल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पलाँग  : स्त्री०=छलाँग (छलाँग)।
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पलांग  : पुं० [सं० पल-अंग, ब० स०] सूँस। शिंशुमार।
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पलांडु  : पुं० [सं० पल-अण्ड, ष० त०, पलाण्ड+क्विप्+ कु] प्याज।
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पला  : स्त्री० [सं० पल] पल। निमिष। पुं० [हिं० ‘पली’ का पुं०] बड़ी पली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलाग्नि  : पुं० [सं० पल-अग्नि, ष० त०] पित्त।
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पलाण  : पुं०=पलान।
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पलातक  : वि० [सं० पलायन] भगोड़ा। पुं० १. वह किसान जो अपना खेत छोड़कर भाग गया हो। २. वह जो अपना उत्तरदायित्व, कार्य, पद आदि छोड़कर भाग गया हो।
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पलाद, पलादन  : पुं० [सं० पल√अद् (खाना)+अण्] [सं० पल-अदन, ब० स०] राक्षस।
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पलान  : पुं० [फा० पालान] १. सवारी करने से पहले घोड़े, टट्टू आदि की पीठ पर डाला जानेवाला टाट या कोई और मोटा कपड़ा जिसे रस्सी आदि से कस दिया जाता है। २. काठी। जीन। पुं०=प्लान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलानना  : सं० [हिं० पलान+ना (प्रत्य०)] १. घोड़े आदि पर पलान कसना या बाँधना। २. किसी पर चढ़ाई या धावा करने की तैयारी करना।
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पलाना  : अ० [सं० पलायन] पलायन करना। भागना। स० [हिं० पलान] घोड़े की पीठ पर काठी का पलान रखना।
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पलानि  : स्त्री०=पलान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पलानी  : स्त्री० [हिं० पलान] १. पान के आकार का पैर के पंजों में पहनने का एक गहना। २. छप्पर। स्त्री०=पलाव।
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पलान्न  : पुं० [सं० पल-अन्न, मध्य० स०] वह पुलाव जिसमें मांस की बोटियाँ मिली हों।
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पलाप  : पुं० [सं० पल√आप् (प्राप्ति)+घञ्] हाथी का गंडस्थल। पुं० दे० ‘पगहा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलायक  : पुं० [सं० परा√अय् (गति)+ण्वुल्—अक, लत्व] १. वह जो पकड़े जाने या दंडित होने के भय से भागकर कहीं चला गया या छिप गया हो। २. भागा हुआ वह व्यक्ति जिसे शासन पकड़ना चाहता हो। भगोड़ा। (एब्सकांडर) ३. वह जो वाद-विवाद, तर्क-वितर्क में बराबर पीछे हट जाता हो।
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पलायन  : पुं० [सं० परा√अय्+ल्युट्—अन, लत्व] १. भागने की क्रिया या भाव। भागना। २. आज-कल वैज्ञानिक क्षेत्रों में, यह तत्त्व कि सृष्टि का प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक वनस्पति अपने वर्तमान रूप से असंतुष्ट होकर प्राकृतिक रूप से अथवा स्वभावतः किसी न किसी प्रकार की उत्क्रान्ति या उन्नति अथवा विकास की ओर प्रवृत्त होती है। दार्शनिक दृष्टि से इसे सब प्रकार के बन्धनों और सीमाओं से मुक्त होकर अनंत और असीम ब्रह्म की ओर अग्रहसर होने की प्रवृत्ति कह सकते हैं। कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में प्राचीन के प्रति असंतोष और नवीन के प्रति उत्साह या उमंग की भावना इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप होती है।
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पलायनवाद  : पुं० [ष० त०] आजकल का यह वाद या सिद्धांत कि संसार के सभी चीजें और बातें अपने प्रस्तुत रूप और स्थिति से विरक्त होकर किसी न किसी प्रकार की नवीनता और विशिष्टता की ओर प्रवृत्त होती रहती हैं। (एस्केपइज़्म) विशेष—इस वाद का मुख्य आशय यह है कि जो कुछ है, उससे ऊबकर हर एक चीज उसकी ओर बढ़ती है, जो नहीं है—पदास्ति से यन्नास्ति की ओर प्रवृत्त होती है। आधुनिक हिंदी क्षेत्र में छायावाद, निराशावाद आदि की जो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं, वे भी इसी पलायनवाद के फल के रूप में मानी जाती हैं। कुछ लोग इसे एक प्रकार की विकृति भी मानते हैं।
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पलायनवादी (दिन्)  : वि० [सं० पलायनवाद+इनि] पलायनवाद-संबंधी। पुं० वह जो पलायनवाद का सिद्धांत मानता हो या उसका अनुयायी हो।
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पलायमान  : वि० [सं० परा√अय्+शानच्, मुक्, लत्व] जो भाग रहा हो। भागता हुआ।
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पलायित  : भू० कृ० [सं० परा√अय्+क्त, लत्व] जो कहीं भागकर चला गया हो।
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पलायी (यिन्)  : पुं० [सं० परा√अय्+णिनि, लत्व] पलायक। (दे०)
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पलाल  : पुं० [सं०√पल् (रक्षा)+कालन] १. धान का सूखा डंठल। पयाल। २. किसी पौधे या वनस्पति का सूखा डंठल।
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पलाल-दोहद  : पुं० [ब० स०] आम का पेड़।
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पलाला  : स्त्री० [सं० पल+आ√ला (लेना)+क+टाप्] उन सात राक्षसियों में से एक जो छोटे बच्चों को रुग्ण कर देती है।
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पलालि, पलाली  : स्त्री० [सं० पल-आलि, ष० त०] गोश्त या मांस की ढेरी।
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पलाव  : पुं० [सं० पल√अव् (हिंसा)+अच्] वह काँटा जिससे मछलियाँ फँसाई जाती हैं। बंसी।
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पलाश  : पुं० [सं०√पल (गति)+क, पल√अश् (व्याप्ति) +अण्] १. ऊँचे स्थानों विशेषतः ऊसर तथा बालूका मिश्रित भूमि में होनेवाला एक पेड़ जिसमें बसंत काल में लाल रंग के फूल लगते हैं। इसके पत्तों की पत्तलें बनाई जाती हैं। ढाक। टेसू। २. उक्त वृक्ष का फूल। ३. पत्ता। पर्ण। ४. मगध देश का पुराना नाम। ५. हरा रंग। ६. कचूर। ६. शासन। ८. परिभाषण। ९. विदारी कंद। वि० [सं० पल√अश् (खाना)+अण्] १. मांसाहारी। २. कठोर-हृदय। निर्दय। पुं० १. राक्षस। २. एक प्रकार का मांसाहारी पक्षी।
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पलाशक  : पुं० [सं० पलाश+कन्] १. पलास का पेड़ और फूल। ढाक। टेसू। २. कपूर। ३. लाख। लाक्षा।
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पलाशगंधजा  : स्त्री० [सं० पलाश-गंध, ष० त०,√जन् (उत्पन्न होना)+ड+टाप्] एक प्रकार का वंशलोचन।
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पलाशच्छदन  : पुं० [सं० ब० स०] तमालपत्र।
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पलाशतरुज  : पुं० [सं० पलाश-तरु, ष० त०,√जन्+ड] पलाश की कोंपल।
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पलाशन  : पुं० [सं० पल-अशन, ब० स०] मैना। सारिका।
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पलाशपर्णी  : स्त्री० [सं० पलाश-पर्णी, ब० स०, ङीष्] अश्वगंधा। असगंध।
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पलाशांता  : स्त्री० [सं० पलाश-अंत, ब० स०, टाप्] बनकचूर।
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पलाशाख्य  : पुं० [सं० पलाश-आख्या, ब० स०] नाड़ी हींग।
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पलाशिका  : स्त्री० [सं० पलाश+कन्+टाप्, इत्व] एक लता जो वृक्षों पर भी चढ़ती है।
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पलाशी (शिन्)  : वि० [सं० पलाश+इनि] १. मांस खानेवाला। मांसाहारी। २. पत्तों से युक्त। जिसमें पत्ते हों। पुं० [पल√अश् (खाना)+णिनि] राक्षस।
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पलाशी  : स्त्री० [सं० पलाश+ङीष्] १. क्षीरिका। खिरनी। २. कचूर। ३. कचरी। ४. लाख।
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पलाशीय  : वि० [सं० पलाश+छ—ईय] (वृक्ष) जिसमें पत्ते लगे हों। पत्तोंवाला।
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पलास  : पुं० [सं० पलाश] १. एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसमें गहरे लाल रंग के अर्द्धचंद्राकार फूल लगते हैं, इसके सूखे लचीले पत्तों के दोने, पत्तलें, बीड़ियाँ आदि और रेशों से रस्सियाँ, दरियाँ आदि बनाई जाती हैं। इसकी फलियाँ औषध के काम आती हैं। टेसू। ढाक। २. उक्त वृक्ष का फूल। ३. गिद्ध की जाति का एक मांसाहारी पक्षी।
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पलासना  : स० [देश०] नये बनाये हुए जूतों में फालतू बढ़े हुए चमड़े के अंशों को काटना और इस प्रकार जूता सुडौल बनाना। (मोची)
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पलास पापड़ा  : पुं० [हिं० पलास+पापड़ा] [स्त्री० अल्पा० पलास पपड़ी] पलास की फलियाँ जिसका उपयोग दवा के रूप में किया जाता है।
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पलिंजी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसके दाने पक्षी तथा निर्धन लोग खाते हैं।
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पलिक  : वि० [सं० पल+ठन्—इक] १. पल-संबंधी। २. जो तौल में एक पल हो।
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पलिका  : पुं०=पलका। स्त्री० [?] एक तरह का ऊनी कालीन। पुं०=पलका (पलंग)।
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पलिक्नी  : स्त्री० [सं० पलित+क्न, ङीप्] १. वह बूढ़ी स्त्री जिसके बाल पक गये हों। सफेद या पके हुए बालोंवाली स्त्री। २. ऐसी गौ जो पहली बार गाभिन हुई हो। बाल-गर्भिणी।
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पलिघ  : स्त्री० [सं०=परिघ, लत्व] १. काँच का घड़ा। कलाबा। २. उक्त के आधार पर, शीशे आदि की वह बोतल जो चमड़े, टीन आदि से मढ़ी रहती है तथा जिसमें यात्रा के समय लोग पानी, शराब आदि रखकर चलते हैं। (थर्मस) ३. घड़ा। मटका। ४. चहारदीवारी। प्राचीर। ५. गाय बाँधने का घर। गो-गृह। ६. फाटक। ६. अर्गल। अगरी।
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पलितंकरण  : वि० [सं० पलित+च्वि, √कृ (करना)+ ख्युन्—अन, मुम्] (बाल आदि) पकाने या सफेद करनेवाला।
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पलित  : वि० [सं० √पल्+क्त] [स्त्री० पलिता] १. वृद्ध। बुड्ढा। २. पका हुआ या सफेद (बाल)। पुं० १. सिर के बालों का पकना या सफेद होना। २. असमय में बाल पकने का एक रोग। ३. गरमी। ताप। ४. छरीला नामक वनस्पति। ५. कीचड़। ६. गुग्गल। ६. मिर्च।
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पलिती (तिन्)  : पुं० [सं० पलित+इनि] पलित रोग से पीड़ित व्यक्ति। वह जिसके बाल पक गये हों।
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पलिया  : पुं० [देश०] एक रोग जिसमें पशुओं का गला सूज आता है।
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पलिहर  : पुं० [सं० परिहर=छोड़ देना] ऐसा खेत जिसमें भदईं और अगहनी फसलों की बोआई न की गई हो और इस प्रकार उन्हें परती छोड़ दिया गया हो। ऐसे खेत में चैती फसल की बोआई होती है।
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पली  : स्त्री० [सं० पलिघ] १. तेल नापने की एक तरह की एक छोटी गहरी कटोरी। मुहा०—पली पली जोड़ना=थोड़ा-थोड़ा करके संगृहीत करना। २. उक्त में भरे हुए तेल या किसी और पदार्थ की मात्रा।
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पलीत  : वि०, पुं०=पलीद।
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पलीता  : पुं० [फा० फलीतः या फलीता (अशुद्ध किंतु उर्दू में प्रचलित रूप)] [स्त्री० अल्पा० पलीती] १. चिराग की बत्ती। २. बत्ती के आकार का बारूद लगा हुआ एक छोटा डोरा जो पटाखों आदि में लगा रहता है, और जिसके सुलगाये जाने पर पटाखा चलता है। मुहा०—मलीता लगाना=ऐसी बात कहना जिससे लोग परस्पर झगड़ने या लड़ने-भिड़ने लग जायँ। ३. नारियल, वट आदि की छाल या रेशों को कूट और बटकर बनाई हुई वह बत्ती जिससे बंदूक या तोप के रंजक में आग लगाई जाती है। क्रि० प्र०—दागना।—देना।—लगाना। मुहा०—पलीता चटाना=तोप या बंदूक में उक्त प्रकार का पलीता रखकर जलाना। ४. बत्ती के आकार में लपेटा हुआ वह कागज जिस पर कोई मंत्र लिखा हो। यह प्रायः भूत-प्रेत आदि की बाधा दूर करने के लिए टोने के रूप में जलाया जाता है। क्रि० प्र०—जलाना।
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पलीती  : स्त्री० [हिं० पलीता] छोटा पलीता।
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पलीद  : वि० [फा० मि० सं० प्रेत] [भाव० पलीदी] १. अपवित्र। अशुचि। २. गंदा। ३. घृणास्पद। ४. दुष्ट। नीच। ५. बहुत ही घृणित आचरण तथा विचारवाला। पुं० प्रेत। भूत।
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पलुआ  : पुं० [देश०] सन की जाति का एक पौधा। वि० [हिं० पालना] पाला हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलुटाना  : स० [हिं० पलोटना का प्रे०] (पैर) पलोटने का काम दूसरे से कराना। (पैर) दबवाना।
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पलुवाँ  : पुं०, वि०=पलुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलुहना  : अ० [सं० पल्लव] १. पौधे, वृक्ष आदि का पल्लवित होना। २. हरा होना। ३. व्यक्ति के संबंध में फूलना-फलना और उन्नति करना।
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पलुहाना  : स० [हिं० पलुहना] पल्लवित करना। अ०= पलुहना।
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पलूचना  : स०=पलना।
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पलेट  : स्त्री० [अं० प्लेट] १. तश्तरी। रकाबी। २. कपड़े की वह लंबी पट्टी जो प्रायः जनाने और बच्चों के पहनने के कपड़ों में सुन्दरता लाने या कुछ विशिष्ट अंशों को कड़ा करने के लिए लगाई जाती है। पट्टी।
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पलेटन  : पुं० [अं० प्लेटेन] छापे के यंत्र में लोहे का वह चिपटा या वर्तुलाकार भाग जिसके दबाव से कागज आदि पर अक्षर छपते हैं।
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पलेटना  : स०=लपेटना।
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पलेड़ना  : सं० [सं० प्ररेण] घक्का देना। ढकेलना।
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पलेथन  : पुं० [सं० परिस्तरण=लपेटना] १. वह सूखा आटा जिसे रोटी बेलने के समय पाटे या बेलन पर इसलिए बिखेरते हैं कि गीला आटा हाथ में या बेलन आदि में चिपकने न पावे। परथन। क्रि० प्र०—लगाना। मुहा०—(किसी का) पलेथन निकालना=(क) बहुत अधिक मार-पीटकर अधमरा करना। (ख) बहुत अधिक परेशान करना। २. किसी बड़े व्यय या हानि के बाद तथा उसके फलस्वरूप होनेवाला अतिरिक्त व्यय या हानि के बाद तथा उसके फलस्वरूप होनेवाला अतिरिक्त व्यय। जैसे—तुम्हारे फेर में पचासों रुपयों की हानि तो हुई ही, आने-जाने में पाँच रुपया और पलेथन लग गया। क्रि० प्र०—लगना।
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पलेनर  : पुं० [अं० प्लेन] काठ का वह छोटा चिपटा टुकड़ा जिससे दबाकर किसी चीज का ऊपरी स्तर चौरस या बराबर किया जाता है। जैसे—छापेखाने में सीसे के अक्षर बराबर करने या दीवार के पलस्तर पर फेरने का पलेनर।
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पलेना  : सं० [?] बोने के पूर्व खेत सींचना। पुं०=पलेनर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलेव  : पुं० [देश०] १. पलिहर खेत में चैती की फसल बोने से पहले की जानेवाली सिंचाई। २. जूस। रसा। शोरबा।
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पलैंहड़ा  : पुं० [हिं० पानी+आला=स्थान] १. पानी के घड़े आदि रखने का चबूतरा या चौखटा। २. पानी का घड़ा या मटका।
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पलोटना  : स० [सं० प्रलोठन] १. सेवा-भाव से किसी के पैर दबाना। २. सेवा करना। अ०=लोटना। अ०= पलटना।
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पलोथन  : पुं०=पलेथन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलोवना  : स० [सं० प्रलोठन] १. सेवा-भाव से किसी के पैर दबाना। २. किसी को प्रसन्न करने के लिए मीठी-मीठी बातें कहना या तरह तरह के उपाय करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पलोसना  : स० [सं० स्पर्श ? हिं० परसना] १. धोना। २. अपना काम निकालने के लिए मीठी-मीठी बातें करके किसी को अपने अनुकूल करना।
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पलौ  : पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पलौठा  : वि०=पहलौठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्टन  : स्त्री०=पलटन।
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पल्टा  : पुं०=पलटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्थी  : स्त्री०=पलथी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्यंक  : पुं०=पर्यंक (पलंग)।
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पल्ययन  : पुं० [सं० परि√अय् (गति)+ल्युट्—अन, लत्व] घोड़े के पीठ पर बिछाई जानेवाली गद्दी। पलान।
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पल्ल  : पुं० [सं० पाद्√ला (लेना)+क, पद्—आदेश] १. वह आगार जिसमें अन्न संचित करके रखा जाता है। बखार २. फल आदि पकाने के लिए विशिष्ट प्रकार से उन्हें रखने का ढंग या युक्ति। पाल।
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पल्लड़  : पुं० [हिं० पल्ला ?] झुंड। समूह। उदा०—पूर्व की ओर से अंधकार के पल्लड़ के पल्लड़ नदी के स्वर्णरेखा पर मानों आवरण डालनेवाले थे।—वृंदावनलाल वर्मा।
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पल्लव  : पुं० [सं०√पल्+क्विप्,√लू+अप्, पल्—लव, कर्म० स०] १. पौधे, वृक्ष आदि का कोमल, छोटा तथा नया पत्ता पत्ते की तरह की आगे की ओर निकली हुई। चिपटी गोलाकार चीज। जैसे—कर पल्लव। ३. गले में पहनने का एक तरह का कोई आभूषण जो पत्ते के आकार का होता है। ४. एक तरह का कंगन। ५. नृत्य में हाथ का एक विशिष्ट प्रकार की मुद्रा। ६. बल। शक्ति। ७. चंचलता। ८. आल का रंग। ९. पहने जानेवाले वस्त्र का पल्ला। १॰. विस्तार। ११. पल्लव देश। १२. पल्लव देश का निवासी। १३. दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसका राज्य किसी समय उड़ीसा से तुंगभद्रा नदी तक था। वराहमिहिर के अनुसार इस वंश के लोग पहिले दक्षिण-पश्चिम बसते थे। अशोक के समय में गुजरात में इनका राज्य था।
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पल्लवक  : पुं० [सं० पल्लव√कै (चमकना)+क] १. वेश्यागामी २. किसी वेश्या का प्रेमी। ३. अशोक (वृक्ष)। ४. नया हरा पत्ता। पल्लव। ५. एक तरह की मछली।
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पल्लव ग्राहिता  : स्त्री० [सं० पल्लवग्राहिन्+तल्+टाप्] पल्लवग्राही होने की अवस्था या भाव।
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पल्लवग्राही (हिन्)  : पुं० [सं० पल्लव√ग्रह् (ग्रहण करना)+णिनि] वह जिसने किसी विषय की ऊपरी या बाहरी छोटी-मोटी बातों का ही सामान्य ज्ञान प्राप्त किया हो। किसी विषय को स्थूल रूप से जाननेवाला।
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पल्लव-द्रु  : पुं० [सं० मध्य० स०] अशोक (वृक्ष)।
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पल्लवना  : अ० [सं० पल्लव+हिं० ना (प्रत्य०)] १. पौधों, वृक्षों आदि में नये पत्ते निकलना। पल्लवित होना। २. व्यक्तियों का फलना-फूलना और उन्नत अवस्था का प्राप्त होना। स० पल्लवित करना। पनपाना।
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पल्लवाद  : पुं० [सं० पल्लव√अद् (खाना)+अण्] हिरन।
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पल्लवाधार  : पुं० [सं० पल्लव-आधार, ष० त०] डाली या शाखा जिसमें पत्ते लगते हैं।
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पल्लवास्त्र  : पुं० [सं० पल्लव-अस्त्र, ब० स०] कामदेव।
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पल्लविक  : पुं०=पल्लवक।
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पल्लवित  : भू० कृ० [सं० पल्लव+इतच्] १. (पेड़ों या पौधा) जो नये नये पत्तों से युक्त हुआ हो अथवा जिसमें नये-नये पत्ते निकल रहे हों। २. हरा-भरा तथा लहलहाता हुआ। ३. जिसे नई-नई चीजों, रचनाओं आदि से युक्त किया गया हो और इस प्रकार उसका अभिवर्द्धन तथा विकास हुआ हो। जैसे—लेखक अपनी रचनाओं से साहित्य को पल्लवित करते हैं। ४. लाख के रंग में रंगा हुआ। ५. जिसे रोमांच हुआ हो। रोमांचित।
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पल्लवी (विन्)  : वि० [सं० पल्ल+इनि] जिसमें पल्लव हों। पत्तों से युक्त। पुं० पेड़। वृक्ष।
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पल्ला  : पुं० [सं० पल्लव=कपड़े का छोर] १. ओढ़े या पहने हुए कपड़े का अंतिम विस्तार। आँचल। छोर। जैसे—धोती या चादर का पल्ला। मुहा०—(किसी से) पल्ला छूटना=पीछा छूटना। छुटकारा मिलना। जैसे—चलो, किसी तरह इस दुष्ट से पल्ला छूटा। पल्ला छुड़ाना=बचाव या रक्षा करने के लिए किसी की पकड़ या बंधन से निकलना। जैसे—तुम तो पल्ला छुड़ाकर भागे, पर पकड़ गए हम। (किसी का) पल्ला पकड़ना=रक्षा, सहायता, स्वार्थ-साधन आदि के लिए किसी को पकड़ना या उसके साथ होना। जैसे—उसने एक भले आदमी का पल्ला पकड़ लिया था; इसीलिए उसकी जिंदगी अच्छी तरह बीत गई। (किसी का) पल्ला पकड़ना=किसी को किसी की अधीनता, संरक्षण आदि में रखना। (किसी के आगे या सामने) पल्ला पसारना या फैलाना=अनुग्रह, भिक्षा आदि के रूप में किसी से प्रार्थी होना। पल्ले पड़ना=(प्रायः तुच्छ, हेय या भार स्वरूप वस्तु का) प्राप्त होना या मिलना। जैसे—यह बदनामी हमारे पल्ले पड़ी। (लड़की का स्त्री का किसी के) पल्ले बँधना=विवाह आदि के द्वारा किसी की पत्नी बनकर उसके साथ रहना या होना, किसी के जिम्मे होना। (अपने) पल्ले बाँधना=अधिकार संरक्षण आदि में लेना। (किसी के) पल्ले बाँधना= (क) किसी के अधिकार, संरक्षण आदि में देना। जिम्मे करना। सौंपना। (ख) लड़कियों, स्त्रियों आदि के संबंध में, किसी के साथ विवाह कर देना। (बात को) पल्ले बाँधना=बहुत अच्छी तरह से उसे स्मरण रखना तथा उसके अनुसार आचरण करना। २. स्त्रियों की ओढ़नी चादर, साड़ी आदि का वह अंश जो उनके सिर पर रहता है और जिसे खींचकर वे घूँघट करती हैं। मुहा०—(किसी से) पल्ला करना=पर-पुरुष के सामने स्त्री का घूंघट करना। पल्ला लेना=मुँह पर घूँघट करके और सिर झुकाकर किसी मृतक के शोक में रोना। ३. अनाद आदि बाँधने का कपड़ा या चादर। ४. अपेक्षया अधिक दूरी पर या विस्तार। जैसे—(क) कोसों के पल्ले तक मैदान ही मैदान दिखाई देता था। (ख) उनका मकान यहाँ से मील भर के पल्ले पर है। पुं० [फा० पल्लः] १. तराजू की डंडी के दोनों सिरों पर रस्सियों, श्रृंखलाओं आदि की सहायता से लटकनेवाली दोनों आधारों या पात्रों में से हर एक जिसमें से एक पर बटखरे रखे जाते हैं और दूसरी पर तौली जानेवाली वस्तु। २. कुछ विशिष्ट वस्तुओं के दो विभिन्न परन्तु प्रायः समान आकार- प्रकारवाले या खंडों में से हर एक। जैसे—(क) दरवाजे का पल्ला। (ख) कैंची का पल्ला। (ग) दुपलिया टोपी का पल्ला। ३. बराबर के दो प्रतियोगी या विरोधी पक्षों में से हर एक। मुहा०—पल्ला दबना=पक्ष कमजोर या हलका पड़ना। पल्ला भारी होना=पक्ष प्रबल या बलवान होना। ४. ओर। तरफ। दिशा। ५. पहल। पार्श्व। पुं० [सं० पल?] तीन मन का बोझ। पद—पल्लेदार। (दे०) वि०=परला (उस ओर का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्लि  : स्त्री०=पल्ली।
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पल्लिका  : स्त्री० [सं० पल्लि+कन+टाप्] छोटा गाँव। छोटी बस्ती।
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पल्लिवाह  : पुं० [सं० पल्लि√वह् (ढोना)+अण्] लाल रंग की एक प्रकार की घास।
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पल्ली  : स्त्री० [सं० पल्लि+ङीष्] १. छोटा गाँव। पुरवा। खेड़ा। २. कुटी। झौंपड़ी। ३. छिपकली।
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पल्लू  : पुं० [हिं० पल्ला] १. आँचल। छोर। २. स्त्रियों का घूँघट। ३. चौड़ी गोट या पट्टी।
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पल्ले  : अव्य० [हिं० पल्ला] प्राप्ति, स्थिति आदि के विचार से अधिकार, वश या स्वत्व में। पास या हाथ में। जैसे—उसके पल्ले क्या रखा है! अर्थात् उसके पास कुछ भी नहीं है। पुं०=प्रलय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्लेदार  : वि० [हिं० पल्ला+फा० दार] १. जिसमें पल्ले लगे हुए हों। २. (आवाज या स्वर) जो अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा, अधिक विस्तृत या अधिक जोरदार हो। पद—पल्लेदार आवाज=ऐसी ऊँची आवाज जो दूर तक पहुँचती हो। पुं० [हिं० पल्ला+फा० दार] [भाव० पल्लेदारी] १. वह जो गल्ले के बाजार में दूकानों पर अनाज तौलने का काम करता है। बया। २. अनाज ढोनेवाला मजदूर।
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पल्लेदारी  : स्त्री० [हिं० पल्लेदार+ई (प्रत्य०)] पल्लेदार का काम, पद, भाव या मजदूरी।
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पल्लौ  : पुं० १.=पल्लव। २.=पल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पल्लव  : पुं० [सं०√पल्+वल्] छोटा जलाशय।
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पल्वलावास  : पुं० [सं० पल्वल-आवास, ब० स०] कछुआ।
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पल्हवना  : अ० स०=पलुहना।
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पवंग  : पुं० [सं० प्लवंग] १. बंदर। २. हिरन। ३. घोड़ा। (डिं०)
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पवँरि (री)  : स्त्री०=पवँरी (ड्योढ़ी)।
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पव  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+अप्] १. गोबर। २. वायु। हवा। ३. अनाज की भूसी अलग करना। अनाज ओसाना या बरसाना। पुं०=पौ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवई  : स्त्री० [देश०] खाकी रंग की एक चिड़िया जिसका निचला भाग खैरे रंग का और चोंच पीली होती है।
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पवन  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+युच्—अन] १. वायु। हवा। २. विशेषतः वायु की वह हलकी धारा जो पृथ्वी के प्राणियों के आस-पास रहकर कभी कुछ तेज और कभी कुछ धीमी चलती है और जिसका ज्ञान हमारी त्वगिंद्रिय को होता है। (विंड) विशेष—हमारे यहाँ पुराणों में ४९ प्रकार के पवन कहे गये हैं। परन्तु लोक में पवन उसी अर्थ में प्रचलित है जो ऊपर बतलाया गया है। ३. हवा की सहायता से अनाज के दाने में से भूसा अलग करना। ओसाना। बरसाना। ४. श्वास। साँस। मुहा०—पवन का भूसा होना=उसी प्रकार अदृश्य या नष्ट हो जाना जिस प्रकार हवा में भूसा उड़ जाता है। ५. प्राण-वायु। ६. जल। पानी। ७. कुम्हार का आँवा। ८. विष्णु। ९. पुराणानुसार उत्तम मनु के एक पुत्र का नाम। १॰. रहस्य संप्रदाय में, प्राणायाम। उदा०—आसनु पवनु दूरि कर बवरे।—कबीर।
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पवन-अस्त्र  : पुं०=पवनास्त्र।
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पवन-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवनचक्की  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० चक्की] पवन के वेग से चलनेवाली चक्की। (विंडमिल) विशेष—ऐसी चक्की में ऊपर के ढाँचे में बड़ा सा पंखेदार चक्कर लगा रहता है। यह चक्कर हवा के जोर से घूमता है जिससे नीचे की चक्की का यंत्र चलने लगता है।
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पवन-चक्र  : पुं० [ष० त०] चक्कर खाती हुई चलनेवाली जोर की हवा। चक्रवात। बवंडर।
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पवनज  : वि० [सं० पवन√जन्+ड] जो पवन से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-तनय  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-नन्द  : पुं० [ष० त०] पवन-पुत्र। (दे०)
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पवन-नन्दन  : पुं० [सं० ष० त०]=पवन-तनय।
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पवन-परीक्षा  : स्त्री० [ष० त०] १. अषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को होनेवाली ज्योतिषियों की एक क्रिया जिसमें वायु की गति आदि की जाँच करके ऋतु-संबंधी विशेषतः वर्षा संबंधी भविष्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। (कुछ स्थानों में देहातों में इस दिन मेले लगते हैं।) २. वह क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वायु की गति किस दिशा की ओर है। हवा देखना।
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पवन-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवन-पूत  : पुं०=पवन-पुत्र।
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पवन-प्रचार  : पुं० [सं०] एक प्रकार का यंत्र जो यह सूचित करता है कि वायु का प्रवाह किस दिशा में हो रहा है।
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पवन-भट्ठी  : स्त्री० [सं० पवन+हिं० भट्ठी] धातुएँ आदि गलाने की एक विशेष प्रकार की आधुनिक यांत्रिक भट्ठी जिसमें नीचे से हवा पहुँचाकर आँच तेज की जाती है। (विंड फर्नेस)
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पवन-वाण  : पुं० [मध्य० स०] वह बाण जिसके चलाये जाने पर पवन का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता था। (पुराण)
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पवन-वाहन  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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पवन-व्याधि  : स्त्री० [ष० त०] वायु रोग। पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण के सखा उद्धव।
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पवन-संघात  : पुं० [ष० त०] किसी विशिष्ट स्थान पर दो विभिन्न दिशाओं से पवनों का एक साथ आना तथा परस्पर टकराना जो पुराणानुसार अकाल, शत्रुओं के आक्रमण आदि अशुभ लक्षणों का सूचक माना गया है।
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पवन-सुत  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन।
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पवना  : पुं० [स्त्री० पवनी] पौना (झरना)।
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पवनात्मज  : पुं० [सं० पवन-आत्मज, ष० त०] १. हनुमान। २. भीमसेन। ३. अग्नि।
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पवनाश  : पुं० [सं० पवन√अश् (खाना)+अण्] साँप।
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पवनाशन  : पुं० [सं० पवन-अशन, ब० स०] साँप।
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पवनाशनाश  : पुं० [सं० पवनाशन√अश्+अण्] १. गरुड़। २. मोर।
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पवनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पवन√अश्+णिनि] जो वायु पीकर जीता हो। पुं० साँप।
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पवनास्त्र  : पुं० [सं० पवन-अस्त्र, मध्य० स०] एक प्राचीन अस्त्र जिसके द्वारा वायु का वेग तीव्रतम किया जाता था। (पुराण)
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पवनी  : स्त्री० [सं० √पु (पवित्र करना)+ल्युट्—अन, ङीष्] झाड़ू। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] गाँव में रहनेवाली वह प्रजा या कुछ जातियाँ जो अपने निर्वाह के लिए क्षत्रियों ब्राह्मणों अथवा गाँव के दूसरे रहनेवालों से नियमित रूप से कुछ नेग, पारिश्रमिक, पुरस्कार आदि के रूप में अन्न-धन पाती हैं। जैसे—कुम्हार, चमार, नाऊ, बारी, धोबी आदि। स्त्री० हिं० ‘पौना’ का स्त्री० अल्पा०।
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पवनेष्ट  : पुं० [सं० पवन-इष्ट, स० त०] बकायन।
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पवनोबुज  : पुं० [सं० पवन-अंबुज उपमि० स०, पृषो० सिद्धि] फालसा।
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पवमान  : पुं० [सं०√पू+शानन्, मुक्—आगम्] १. पवन। वायु। हवा। २. गार्हपत्य अग्नि। ३. चंद्रमा। ४. अग्नि की पत्नी स्वाहा के गर्भ से उत्पन्न एक पुत्र का नाम। ५. एक प्रकार का स्तोत्र।
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पवर  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवरिया  : पुं०=पौरिया (१. द्वारपाल। २. मंगल-गीत गानेवाला याचक)।
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पवरी  : स्त्री०=पँवरी (ड्योढ़ी)।
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पवर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में, प, फ, ब, भ और म इन पाँच अक्षरों या वर्णों की सामूहिक संज्ञा। ये सभी ओष्ठ्य तथा स्पर्श हैं, किन्तु प, फ, अधोष और ब, भ, म घोष हैं तथा प, ब, म अल्पप्राण और फ, भ महाप्राण हैं।
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पवाँड़ा  : पुं०=पँवाड़ा।
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पवाँर  : पुं० [देश०] पमार। चकवड़। पुं०=प्रमार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पवाँरना  : स०=पँवारना (फेंकना)।
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पवाँरी  : स्त्री [?] लोहा छेदने का लोहारों का एक औजार।
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पवाई  : स्त्री० [हिं० पाँव] १. जूतों की जोड़ी में से प्रत्येक जूता। २. चक्की के दोनों पाटों में से प्रत्येक पाट।
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पवाका  : स्त्री० [सं०√पू+आक—टाप्] चक्रवात। बवंडर।
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पवाड़  : पुं० [देश०] चकवँड़।
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पवाड़ा  : पुं० [मरा० पवाड़ (कीर्ति, महत्त्व), अथवा सं० प्रवाद?] १. मराठी भाषा का एक प्रसिद्ध लोक छंद जिसमें प्रायः किसी बहुत बड़े या वीर पुरुष की कीर्ति, गुण, पराक्रम आदि का प्रशंसात्मक वर्णन होता था। २. मध्य-युगीन राजस्थान में वह लोककाव्य जिसे परवर्ती चारणों ने विरुदावली शैली में समस्त तत्त्वों से युक्त करके प्रचलित किया था और जो प्रायः लोकगीत के रूप में गाया जाता था। ब्रज में इसी को ‘पमारा’ और मालवे में ‘पँवारा’ कहते हैं। ३. किसी काम या बात का ऐसा व्यर्थ विस्तार जिसमें झगड़े-झमेले की बहुत-सी बातें हों; और इसीलिए जिनसे सहज में जी ऊब जाय।
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पवाना  : स० [हिं० पाना का प्रे० रूप] १. प्राप्त करना। २. खिलाना।
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पवार  : पुं०=परमार (राजपूतों की एक जाति)।
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पवि  : पुं० [सं०√पू+इ] १. वज्र। २. वाण अथवा वाण की नोक। ३. वाणी। ४. वाक्य। ५. अग्नि। ६. थहूर। सेहुँड़। ७. मार्ग। रास्ता। (डिं०)
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पवित  : वि० [सं०] पवित्र। पुं० मिर्च।
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पविताई  : स्त्री०=पवित्रता।
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पवित्तर  : वि०=पवित्र।
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पवित्र  : वि० [सं०√पू+इत्र] [भाव० पवित्रता] १. (पदार्थ) जो धार्मिक उपचारों से इस प्रकार शुद्ध किया गया हो अथवा स्वतः अपने गुणों के कारण इतना अधिक शुद्ध माना जाता हो कि पूजा-पाठ, यज्ञ-होम आदि में काम में लाया या बरता जा सके। जैसे—पवित्र अग्नि, पवित्र जल। ३. (व्यक्ति) जो निश्छल, धार्मिक तथा सद्वृत्तिवाला होने के कारण पूज्य, मान्य तथा श्रद्धा का पात्र हो। जैसे—पवित्रात्मा। ३. (विचार) जो शुद्ध अंतःकरण से सोचा गया हो और जिसमें किसी प्रकार का मल या विकार न हो। ४. साफ। स्वच्छ। निर्मल। ५. दोष, पाप आदि से रहित। पुं० १. वह वस्तु या साधन जिससे कोई चीज निर्दोष, निर्मल या स्वच्छ की जाय। २. कुश या कुशा जिससे घी, जल आदि छिड़ककर चीजें पवित्र की जाती हैं। ३. कुश का वह छल्ला जो तर्पण, श्रद्धा आदि के समय उँगलियों में पहना जाता है। पवित्री। पैंती। ४. यज्ञोपवीत। जनेऊ। ५. ताँबा। ६. मेह। वर्षा। ७. जल। पानी। ८. दूध। ९. घी। १॰. अर्ध्य देने का पात्र। ११. अरघा। १२. मधु। शहद। १३. विष्णु। १४. शिव। १५. कार्तिकेय। १६. तिल का पौधा। १७. पुत्र-जीवी नामक वृक्ष। १८. घर्षण। रगड़।
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पवित्रक  : पुं० [सं० पवित्र√कै+क] १. कुशा। २. दौना (पौधा)। ३. गूलर का पेड़। ४. पीपल। ५. क्षत्रियों का यज्ञोपवीत।
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पवित्रता  : स्त्री० [सं० पवित्र+तल्+टाप्] पवित्र होने की अवस्था या भाव।
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पवित्र-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] जौ।
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पवित्र-पाणि  : वि० [ब० स०] जिसके हाथ में कुश हो।
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पवित्रवति  : स्त्री० [सं०] क्रौंच द्वीप में होनेवाली एक प्रकार की वनस्पति। (पुराण)
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पवित्रा  : स्त्री० [सं० पवित्र+टाप्] १. तुलसी। २. हलदी। ३. पीपल। ४. श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी। ५. एक प्राचीन नदी। ६. रेशमी धागों से बने हुए मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० पवित्र-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा पवित्र हो। शुद्ध तथा स्तुत्य मनकों की एक तरह की माला।
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पवित्रारोपण  : पुं० [सं० पवित्र-आरोपण, ष० त०] १. यज्ञोपवीत धारण करना। २. [ब० स०] श्रावण शुक्ला द्वादशी को भगवान श्रीकृष्ण को सोने, चाँदी, ताँबे या सूत आदि का यज्ञोपवीत पहनाने की एक रीति या उत्सव।
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पवित्रारोहण  : पुं०। पवित्रारोपण। (दे०)
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पवित्राश  : पुं० [सं० पवित्र√अश् (व्याप्ति)+अण्] सन का बना हुआ डोरा, जो प्राचीन भारत में बहुत पवित्र माना जाता था।
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पवित्रित  : भू० कृ० [सं० पवित्र+णिच्+क्त] पवित्र या शुद्ध किया हुआ।
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पवित्री  : वि० [सं० पवित्र+ङीष्] पवित्र करने या बनानेवाला। स्त्री० १. कुश का बना हुआ एक प्रकार का छल्ला जो कर्मकांड के समय अनामिका में पहना जाता है। पैंती। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पविद  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पवि-धर  : वि० [सं० ष० त०] वज्र धारण करनेवाला। पुं० इंद्र।
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पवीनव  : पुं० [सं०] अथर्ववेद के अनुसार एक प्रकार के असुर जो स्त्रियों का गर्भ गिरा देते हैं।
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पवीर  : पुं० [सं०] १. हल की फाल। २. शस्त्र। हथियार। ३. वज्र। ४. हथियार।
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पवेरना  : स० [हिं० पवारना=फेंकना] [भाव० पवेरा] जोते हुए खेतों में बीज छिड़कना।
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पवेरा  : पुं० [हिं० पवेरना] खेतों में बीज छिड़कने की क्रिया, ढंग या भाव।
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पव्य  : पुं० [सं० √पू+यत्] यज्ञ-पात्र।
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पशम  : स्त्री० [फा० पश्म] १. ऊन, विशेषतः बढ़िया ऊन जिसके दुशाले, पशमीने आदि बनाये जाते हैं। २. पुरुष या स्त्री की मूत्रेंद्रिय पर के बाल। मुहा०—पशम उखाड़ना=(क) झूठ-मूठ का काम करके व्यर्थ समय नष्ट करना। (व्यंग्य और हास्य) पशम तक न उखाड़ना=(क) कुछ भी काम न हो सकना। (ख) बहुत प्रयत्न करने पर भी कोई कष्ट या हानि न पहुँचा सकना। पशम पर मारना या समझना=बिलकुल तुच्छ या हीन समझना।
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पशमीना  : पुं० [फा० पश्मीनः] १. पशम। २. पशम का बना हुआ बहुत बढ़िया या मुलायम कपड़ा।
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पशव्य  : वि० [सं० पशु+यत्] १. पशु-संबंधी। पशुओं का। २. पशुओं की तरह का। जानवरों का-सा। पाशव। पुं० पशुओं का झुंड।
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पशु  : पुं० [सं०√दृश् (देखना)+कु, पशादेश] [भाव० पशुता, पशुत्व] १. चार पैरों से चलनेवाला कोई दुमदार जंतु। जानवर। जंतु। जैसे—ऊँट, घोड़ा, बैल, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, आदि। २. प्राणधारी जीव। जंतु। ३. वह जिसे कुछ भी ज्ञान या बुद्धि न हो, अथवा जिसमें सहृदयता का पूरा अभाव हो। ४. वह जिसका कोई धार्मिक संस्कार न हुआ हो। ५. परमात्मा। ६. ऐसा धार्मिक कृत्य जिसमें जानवर की बलि चढ़ाई जाती हो। ७. वह पशु जिसे बलि चढ़ाते हों। ८. अग्नि। ९. शिव के अनुचर या गण।
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पशुकर्म (कर्मन्)  : पुं० [ष० त०] १. यज्ञ आदि में पशुओं का होनेवाला बलिदान। २. मैथुन।
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पशुका  : स्त्री० [सं० पशु+कन्+टाप्] कोई छोटा पशु।
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पशु-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] =पशुकर्म।
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पशु-गायत्री  : स्त्री० [मध्य० स०] तंत्र की रीति से बलिदान करने के समय बलि पशु के कान में कहा जानेवाला एक प्रकार का मंत्र।
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पशुचर  : पुं० [सं० पशु√चर्+ट] वह स्थान जो पशुओं के चरने-चराने के लिए सुरक्षित हो। गोचर भूमि। (पास्च्योर)
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पशु-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] १. पशुओं के समान विवेकहीन आचरण। जानवरों की-सी चाल या व्यवहार। २. मैथुन।
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पशु-चिकित्सक  : पुं० [सं०] वह जो रोगी पशु, पक्षियों आदि की चिकित्सा करता हो। (वेटेरिनरी सर्जन)
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पशु-चिकित्सा  : स्त्री० [सं०] चिकित्सा शास्त्र की वह शाखा जिसमें पशु-पक्षियों आदि के रोगों के निदान और चिकित्सा का विवेचन होता है। (वेटेरिनरी)
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पशुजीवी (विन्)  : वि० [सं० पशु√जीव् (जीना)+णिनि] १. पशुओं का मांस खाकर जीनेवाला। २. वह जो पशुओं का पालन करके उनसे प्राप्त होनेवाली वस्तुओं से अपनी जीविका चलाता हो।
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पशुता  : स्त्री० [सं० पशु+तल्+टाप्] १. पशु होने की अवस्था या भाव। २. पशुओं का-सा व्यवहार या स्वभाव। ३. वह गुण जिसके कारण किसी व्यक्ति की गिनती पशुओं में की जाती हो।
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पशुत्व  : पुं० [सं० पशु+त्वल्] पशुता। (दे०)
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पशुदा  : स्त्री० [सं० पशु√दा (देना)+क+टाप्] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका देवी।
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पशु-देवता  : स्त्री० [मध्य० स०] वह देवता जिसके उद्देश्य से किसी पशु को बलि चढ़ाया जाय।
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पशु-धन  : पुं० [मयू० स०] वे पालतू पशु जो किसी व्यक्ति, समाज या राज्य के आर्थिक उत्पादन, सुरक्षा आदि में योग देते हों। (लिवस्टाक)
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पशु-धर्म  : पुं० [ष० त०] पशुओं का-सा आचरण या व्यवहार अर्थात् मनुष्यों के लिए निंद्य व्यवहार।
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पशु-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. शिव। २. सिंह। शेर।
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पशुनिरोधिका  : स्त्री० [ष० त०] वह सरकारी या अर्द्ध सरकारी स्थान जहाँ पर लोगों के खुले या छूटे हुए पालतू पशु पकड़कर ले जाये जाते हैं। कांजीहाउस। (कैटिलपाउंड)
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पशुप  : वि० [सं० पशु√पा (रक्षा करना)+क] पशुओं का पालन करनेवाला या स्वामी।
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पशुपतास्त्र  : पुं० [सं० पाशुपतास्त्र] महादेव का शूलास्त्र।
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पशु-पति  : पुं० [ष० त०] १. पशुओं का स्वामी। २. जीवमात्र का स्वामी अर्थात् ईश्वर या परमात्मा। ३. महादेव। शिव। ४. अग्नि। ५. ओषधि। दवा।
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पशु-पल्लव  : पुं० [ब० स०] कैवर्तमुस्तक। केवटी माथा।
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पशुपाल  : वि० [सं० पशु√पाल (पोषण)+णिच्+अण्] पशुओं को पालनेवाला। पुं० १. अहीर। ग्वाला। २. ईशान कोण का एक प्राचीन देश।
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पशु-पलाक  : वि० [ष० त०] [स्त्री० पशुपालिका] पशुओं को पालनेवाला।
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पशु-पालन  : पुं० [ष० त०] जीविका-निर्वाह के लिए पशुओं को पालने की क्रिया या भाव। (एनिमल हस्बैंडरी)
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पशु-पाश  : पुं० [ष० त०] १. वह फंदा या रस्सी जिससे पशु विशेषतः यज्ञ-पशु बाँधा जाता था। २. शैवदर्शन के अनुसार चार प्रकार के वे बंधन जिनसे सब जीव बँधे रहते हैं।
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पशुपाशक  : पुं० [सं० पशुपाश√कै+क] एक प्रकार का रतिबंध। (काम-शास्त्र)
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पशु-भाव  : पुं० [ष० त०] १. पशुता। जानवरपन। २. तंत्र में, मंत्रों आदि के तीन प्रकार के साधन-भेदों में से एक।
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पशु-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा यज्ञ जिसमें पशु या पशुओं को बलि चढ़ाया जाय।
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पशु-याग  : पुं० [मध्य० स०] पशु-यज्ञ। (दे०)
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पशु-रक्षण  : पुं० [ष० त०] पशुपालन। (दे०)
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पशु-रति  : स्त्री० [सं०] १. पशुओं की तरह की जानेवाली वह रति जो विशुद्ध काम-वासना की तृप्ति के लिए की जाती हो। २. पशुवर्ग के किसी प्राणी के साथ मनुष्य द्वारा की जानेवाली रति। जैसे—पुरुष पक्ष में, गौ या बकरी के साथ की जानेवाली रति; अथवा स्त्री पक्ष में, कुत्ते के साथ की जानेवाली रति।
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पशु-राज  : पुं० [ष० त०] पशुओं के स्वामी, सिंह। शेर।
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पशुलंब  : पुं० [सं०] एक देश का प्राचीन नाम।
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पशु-हरीतकी  : स्त्री० [ष० त०] अम्रातक फल। आमड़े का फल।
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पशु  : पुं०=पशु।
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पश्च  : वि० [सं० पश्चात्, पृषो० सिद्धि] [भाव० पश्चता] १. प्रस्तुत या वर्तमान से पहले का। पिछला। (बैक) जैसे—सामयिक पत्र का पश्च अंक। (बैक नम्बर) २. ‘अग्र’ का विपर्याय। जैसे—पश्चस्वर (बैक वावेल) आदि। ३. बाद का। परवर्त्ती। ४. पश्चिम का। पश्चिमी। विशेष—‘पश्च’ और ‘पश्चा’ शब्द का प्रयोग वेद में ही होता है। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग चिन्त्य है। फिर भी हिन्दी में इसके प्रयोग के चल पड़ने के कारण यहाँ इसके कुछ यौगिक शब्द रखे जा रहे हैं।
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पश्च-गमन  : पुं० [सं० स० त०] १. पीछे की ओर चलना या हटना। ‘अग्र-गमन’ का विपर्याय। (रिग्रेशन)। २. अवनति, दुरवस्था, ह्रास आदि की ओर प्रवृत्त होना। ‘पुरोगमन’ का विपर्याय। (रिट्रोग्रेशन)
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पश्च-गामी (मिन्)  : वि० [सं० पश्च√गम्(जाना)+णिनि] १. पीछे की ओर चलता या हटता रहनेवाला। २. अवनति। दुरावस्था, ह्रास आदि की ओर प्रवृत्त रहनेवाला। ‘पुरोगामी’ का विपर्याय। (रिग्रेसिव)
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पश्च-ज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] विशिष्ट आत्मिक शक्ति की सहायता से इस जन्म या किसी पूर्व जन्म की ऐसी बीती हुई घटनाओं या बातों का होनेवाला ज्ञान जो कभी पहले जानी, देखी, पढ़ी या सुनी न हों। ‘पूर्व-ज्ञान’ का विपर्याय।
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पश्च-दर्शन  : पुं० [सं० स० त०] १. पीछे की ओर मुड़कर देखना। २. पिछली या बीती हुई बातें याद करके उन पर विचार करना। (टिट्रस्पेक्शन) ३. विशिष्ट आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी पुरानी घटनाएँ, बातें, व्यक्तियों की आकृतियाँ आदि आँखों के सामने देखना जो कभी देखी न हों। ‘पूर्व दर्शन’ का विपर्याय। (रिट्रो-कॉग्निशन)
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पश्चदर्शिक  : वि० [सं०] १. जिसका संबंध पश्च-दर्शन से हो। पश्च-दर्शन का। २. जिसका परिणाम या प्रभाव पिछली या बीती हुई बातों पर भी पड़ता हो। पूर्व-व्याप्ति। (रिट्रास्पेक्टिव) जैसे—इस निर्णय का प्रभाव पश्च-दर्शिक होगा, अर्थात् पिछली या बीती हुई घटनाओं या बातों पर भी पड़ेगा।
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पश्च-दर्शी (शिनि)  : वि० [सं० पश्च√दृश् (देखना) +णिनि] पश्चदर्शन करनेवाला।
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पश्च-परिणाम  : पुं०=पश्च-प्रभाव।
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पश्च-प्रभाव  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी कार्य या वस्तु का वह परिणाम या प्रभाव जो कुछ समय बीतने पर दिखाई देता हो। (आफ्टरएफेक्ट)
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पश्च-लेख  : पुं० [सं०] कोई पत्र, लेख आदि लिखे जाने के उपरांत बाद में याद आने पर उसके अंत में बढ़ाकर लिखी जानेवाली कोई और बात या लेखांश। (पोस्टस्क्रिप्ट)
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पश्चात्  : अव्य० [सं० अपर+आति, पश्च-आदेश] किसी अवधि, क्रम, घटना आदि के बीतने अथवा कुछ समय व्यतीत होने पर। उपरांत। पीछे। बाद। पुं० १. पश्चिम दिशा। २. अंत। समाप्ति। ३. अधिकार।
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पश्चात् कर्म (र्मन्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक के अनुसार वह कर्म जिससे रोगी के स्वस्थ होने के उपरान्त उसके शरीर के बल, वर्ण और अग्नि की वृद्धि होती हो। भिन्न-भिन्न रोगों से मुक्त होने पर भिन्न-भिन्न पश्चात् कर्म बतलाये गये हैं।
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पश्चात्ताप  : पुं० [सं० मध्य स०] अपने किसी कर्म के अनौचित्य का भान होने पर मन में होनेवाला दुःख जो यह सोचने को विवश करता है कि मैंने यह काम क्यों किया। २. किसी किये हुए अनुचित कर्म के पाप से मुक्त होने के लिए अथवा अपनी आत्मा को शांति देने के लिए किया जानेवाला तप।
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पश्चात्तापी (पिन्  : वि० [सं० पश्चात्ताप+इनि] जो पश्चात्ताप करता हो।
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पश्चाद्भाग  : पुं० [सं० ष० त०] १. पीछे का हिस्सा। २. पश्चिमी भाग।
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पश्चाद्वर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० पश्चात्√वृ (बरतना) +णिनि] १. पीछे रनहेवाला। २. अनुसरण करनेवाला।
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पश्चानुताप  : पुं० [सं० पश्च-अनुताप, स० त०] पश्चाताप।
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पश्चतापी (पिन्)  : पुं० [सं० पश्चा√आप् (लाभ)+णिनि] नौकर। सेवक।
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पश्चारुज  : पुं० [सं० कर्म० स०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जो कदन्न खानेवाली स्त्रियों का दूध पीनेवाले बालकों को होता है। इसमें बालकों को हरे-पीले रंग के दस्त आने लगते हैं और तेज़ ज्वर होता है।
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पश्चिम  : वि० [सं० पश्चात्-डिमच्] १. जो पीछे से या बाद में उत्पन्न हुआ हो। २. अंतिम। पिछला। पुं० [वि० पश्चिमी] वह दिशा जिसमें सूर्य अस्त होता है। पूर्व दिशा के सामनेवाली दिशा। प्रतीची। वारुणी। पश्चिम।
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पश्चिम-घाट  : पुं०=पश्चिमी घाट।
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पश्चिम-प्लव  : पुं० [ब० स०] वह भूमि जो पश्चिम की ओर झुकी हो।
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पश्चिम-याम-कृत्य  : पुं० [सं० पश्चिम-याम, कर्म० स०, पश्चिम परम-कृत्य, ष० त०] बौद्धों के अनुसार रात के पिछले पहर में किया जानेवाला धार्मिक कृत्य।
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पश्चिम-वाहिनी  : वि० स्त्री० [कर्म० स०] जो पश्चिम दिशा की ओर बहती हो।
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पश्चिम-सागर  : पुं० [कर्म० स०] आयरलैंड और अमेरिका के बीच का समुद्र। एटलांटिक या अतलांतक महासागर।
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पश्चिमांचल  : पुं० [पश्चिम-अंचल, कर्म० स०] अस्ताचल। (दे०)
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पश्चिमा  : स्त्री० [सं० पश्चिम+टाप्] पश्चिम दिशा।
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पश्चिमार्द्ध  : पं० [पश्चिम-अर्द्ध, कर्म० स०] पीछेवाला आधा भाग। अपरार्द्ध।
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पश्चिमी  : वि० [सं० पश्चिम] १. पश्चिम दिशा संबंधी। २. पश्चिम की ओर अर्थात् पश्चिमी देशों में होनेवाला। ३. पश्चिम से आनेवाला। पछवाँ।
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पश्चिमी-घाट  : पुं० [हिं० पश्चिमी+घाट्] केरल और आधुनिक महाराष्ट्र राज्य के बीच में समुद्र के किनारे-किनारे गई हुई पर्वतमाला।
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पश्चिमी हिंदी  : स्त्री० [हिं०] भाषा-विद् ग्रियर्सन के मत से, पश्चिमी भारत में बोली जानेवाली खड़ी बोली, बाँगड़ू, ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुंदेली बोलियों का एक वर्ग (पूर्वी हिन्दी से भिन्न) जो संभवतः शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुआ था।
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पश्चिमोत्तर  : वि० [सं० पश्चिम-उत्तर, ब० स०] पश्चिम और उत्तर दिशाओं के बीच में स्थित। पुं० वायव्य कोण।
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पश्चिमोत्तरा  : स्त्री० [सं० पश्चिमोत्तर+टाप्] उत्तर और पश्चिम के बीच की विदिशा। वायव्य कोण।
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पश्त  : पुं० [लश०] खंभा।
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पश्ता  : पुं० [फा० पुश्तः] १. बाँध। २. किनारा। तट। (लश०)
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पश्ती  : स्त्री० [फा० पुख्तो] आधुनिक पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों तथा अफगानिस्तान की भाषा जिसकी गिनती आर्यभाषाओं में होती है। पुं० [देश०] ३।। मात्राओं का एक ताल जिसमें दो आघात होते हैं।
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पश्म  : पुं० [फा०] बकरी, भेड़ आदि का रोयाँ। ऊन। पशम। (देखें)
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पश्मीना  : पुं०=पशमीना।
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पश्यंती  : स्त्री० [सं०√दृश् (देखना)+शतृ+ङीप्] हठ योग में, वह सूक्ष्म ध्वनियाँ नाद जो वाक् को उत्पन्न करनेवाली वायु के मूलाधार से हटकर नाभि में पहुँचने पर होता है।
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पश्यतोहर  : वि० [सं० पश्यतः√हृ (हरण करना)+अच्, अलुक्, स०] जो दूसरों को देखते रहने पर भी चतुरता से उनकी चीजें चुरा लेता हो। पुं० सुनार।
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पश्ववदान  : पुं० [सं० पशु-अवदान, ष० त०] बलि-पशु के अंग विशेष का छेदन।
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पश्वाचार  : पुं० [सं० पशु-आचार, ष० त०] तंत्र में, वैदिक रीति से तथा कामना और संकल्पपूर्वक किया जानेवाला देवी का पूजन।
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पश्वाचारी (रिन्)  : वि० [सं पश्वाचार+इनि] पश्वाचार-संबंधी। पुं० वह जो पश्वाचार की रीति से पूजन करता हो।
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पष  : पुं० [सं० पक्ष] १. पंख। डैना। २. ओर। तरफ। ३. चांद्र मास का आधा भाग। पक्ष।
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पषा  : पुं०=पंखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पषाण (न्)  : पुं०=पाषाण (पत्थर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पषारना  : स०=पखारना (धोना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पष्य  : पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पष्षान  : पुं०=पाषाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसंग (ा)  : पुं०=पासंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसंती (ा)  : स्त्री०=पश्यंती।
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पसंद  : वि० [फा०] आकार-प्रकार, गुण, रूप आदि के विचार से जो मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत हुआ हो और इसलिए जिसे अनेकों या बहुत में से वरण किया या उसे वरीयता दी गई हो। प्रत्य० उत्तर पद के रूप में प्रत्यय की तरह प्रयुक्त—(क) पसंद आनेवाला। जैसे—दिल-पसंद=दिल को पसंद आनेवाला। (ख) पसंद करनेवाला। जैसे—हक-पसंद। स्त्री० १. मन को भला तथा रुचिकर प्रतीत होनेवाला कार्य, वस्तु या व्यक्ति। २. वरण करने, चुनने या वरीयता देने की क्रिया, प्रवृत्ति या भाव। ३. इस प्रकार चुनी या वरण की हुई वस्तु।
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पसंदा  : पुं० [फा० पसन्द] १. मांस के एक प्रकार के कुचले हुए टुकड़े का गोश्त। २. उक्त प्रकार के मांस से बननेवाला एक प्रकार का कबाब।
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पसंदीदा  : वि० [फा०] [भाव० पसंददीदगी] पसंद आनेवाला या पसंद किया हुआ।
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पसंदेश  : वि० [फा०] [भाव० पसंदेशी] १. जो बीती हुई बातों के विषय में विचार करता रहता हो। २. फलतः संकुचित बुद्धि।
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पस  : पुं० [अं०] घाव, फोड़े आदि में से निकलनेवाला लसीला तरल पदार्थ। मवाद। अव्य० [फा०] १. अंत या बाद में। पीछे। २. पुनः। फिर। ३. निस्संदेह। बेशक। ४. अतः। इसलिए।
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पसई  : स्त्री० [देश०] तराई में होनेवाली एक तरह की राई और उसका पौधा। स्त्री०=पसही (तिन्नी)।
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पसकरण  : वि० [सं० पश्च-करण] कायर। डरपोक। (डिं०)
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पस-गैबत  : क्रि० वि० [फा० पस०+अ० गैबत] किसी के पीठ पीछे। अनुपस्थिति में।
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पसघ  : पुं० दे० ‘पासंग’।
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पसताल  : पुं० [देश०] जलाशयों के किनारे होनेवाली एक तरह की घास जिसे पशु और जिसके दाने गरीब लोग भी खाते हैं।
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पसनी  : स्त्री० दे० ‘अन्न-प्राशन’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसपा  : वि० [फा०] पराजित।
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पसम  : स्त्री०=पशम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पस-माँदा  : वि० [फा० पसमांदः] [भाव० पसमांदगी] १. बचा हुआ। शेष। २. (काफिले या जत्थे का वह व्यक्ति) जो यात्रा करते समय पीछे छूट या रह गया हो।
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पसमीना  : पुं०=पशमीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर  : पुं० [सं० प्रसर] १. हथेली का कटोरी या दोने के आकार का बनाया हुआ वह रूप जिसमें कोई चीज भर कर किसी को दी जाती है। २. उक्त में भरी हुई वस्तु या उसकी मात्रा। ३. मुट्ठी। पुं० [देश०] १. रात के समय पशुओं को चराने का काम। उदा०—वह रात को कभी कभी पसर भी चराता था।—वृन्दावनलाल वर्मा। २. पशुओं के चरने की भूमि। चरागाह। ३. पशु चराते समय एक तरह के गाय जानेवाले गीत। ४. आक्रमण। चढ़ाई। धावा। पुं०=प्रसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसर-कटाली  : स्त्री० [सं० प्रसर कटाली] भटकटैया। कटाई।
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पसरन  : स्त्री० [सं० प्रसारिणी] वृक्षों पर चढ़नेवाली एक जंगली लता। स्त्री० [हिं० पसरना] पसरने की क्रिया, दशा या भाव।
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पसरना  : अ० [सं० प्रसरण] १. आगे की ओर बढना। फैलना। २. हाथ-पैर फैलाकर तथा अधिक जगह घेरते हुए बैठना या लेटना। ३. अपना आग्रह या इच्छा पूरी कराने के लिए तरह-तरह की बातें करना। संयो० क्रि०—जाना।
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पसरहट्टा  : पुं० [हिं० पंसारी+हाट] वह बाजार या हाट जिसमें पंसारियों की बहुत-सी दूकानें होती हैं।
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पसरहा  : पुं०=पसरहट्टा।
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पसराना  : स० [हिं० पसराना का प्रे०] किसी को पसरने में प्रवृत्त करना।
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पसरी  : स्त्री०=पसली।
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पसरौहाँ  : वि० [हिं० पसरना+औहाँ (प्रत्य०)] १. पसरनेवाला। २. जिसमें अधिक पसरने की प्रवृत्ति हो।
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पसली  : स्त्री० [सं० पर्शका] स्तनपायी जीवों की छाती के दोनों ओर की गोलाकार हड्डियों में से हर एक। पद—पसली का रोगा=एक रोग जिसमें बच्चों का साँस जोरों से चलने लगता है। मुहा०—पसली फड़कना या फड़क उठना=मन में उत्साह या उमंग उत्पन्न होना। जोश आना। पसली ढीली करना या तोड़ना=बहुत अधिक मारना।
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पसवपेश  : पुं०=पशोपेश।
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पसवा  : वि० [देश०] हलके गुलाबी रंक का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० हलका गुलाबी रंग।
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पसवाड़ा  : पुं०=पिछवाड़ा। (पृष्ठ-भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसही  : स्त्री० [देश०] तिन्नी नाम का धान या उसका चावल।
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पसा  : पुं०=पसर। (दे०)
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पसाइ  : पुं०=पसाउ (प्रसाद)।
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पसाई  : स्त्री० [सं० प्रसातिका, प्रा० पसाइआ] पसताल नाम की घास जो तालों में होती है। पुं०=पसही (तिन्नी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० पसाना] (मोड़ आदि) पसाने की क्रिया या भाव। स्त्री० पिसाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाउ  : पुं० [सं० प्रसाद, प्रा० पवास] १. प्रसाद। २. कृपा। अनुग्रह। ३. प्रसन्नता।
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पसाना  : स० [सं० प्रस्रवण, हिं० पसावना] [भाव० पसाई] १. पकाये हुए चावलों में से माँड़ निकालना। २. किसी वस्तु में से उसका जलीय अंश बाहर निकालना। अ [सं० प्रसादन] अनुग्रह आदि करने के लिए किसी पर प्रसन्न होना।
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पसार  : पुं० [सं० प्रसार] १. पसरने की क्रिया या भाव। २. प्रसार। फैलाव। विस्तार। ३. दालान। (पश्चिम) पुं० [सं० प्रसाद] प्राप्त होने पर मिलनेवाली चीज। उदा०—दुहुँ कुल अपजस पहिल पसार।—विद्यापति।
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पसारना  : स० [सं० प्रसारण, हिं० पसारना का स०] १. अधिक विस्तृत करना। २. फैलाना। जैसे—झोली पसारना। ३. आगे बढ़ाना। जैसे—हाथ पसारना।
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पसारा  : पुं०=पसार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसारी  : पुं० [देश०] १. तिन्नी का धान। पसवन। पसही। पुं०=पंसारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसाव  : पुं० [हिं० पसाना+आव (प्रत्य०)] १. माँड़ आदि पसाने की क्रिया या भाव। २. पसाने पर निकलनेवाला गाढ़ा तरल पदार्थ। पीच। पुं०=पसाउ (प्रसाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसावन  : पुं०=पसाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसिंजर  : पुं० [अं० पैसेंजर] १. यात्री, विशेषतः रेल या जहाजी का यात्री। २. यात्रियों की वह रेल-गाड़ी जो कुछ धीमी चाल से चलती और प्रायः सभी स्टेशनों पर ठहरती है।
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पसित  : वि० [सं० पायश] बँधा या बाँधा हुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसीजना  : अ० [सं० प्र√स्विद्, प्रस्विद्यति, प्रा० पसिज्ज] १. अधिक गरमी या ताप के प्रभाव के कारण किसी घन या ठोस पदार्थ में से जल-कण निकालना। २. दूसरे के घोर कष्ट, दुःख आदि को देखने पर चित्त में (प्रायः कठोर चित्त में) दया की भावना उमड़ना। ३. पसीने से तर होना।
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पसीना  : पुं० [सं० प्रस्वेदन, हिं० पसीजना] ताप, परिश्रम आदि के कारण शरीर या उसके अंग में से निकलनेवाले जल-कण। स्वेद। क्रि० प्र०—आना।—छूटना।—निकलना। पद—पसीने की कमाई=वह धन जो परिश्रमपूर्वक अर्जित किया गया हो, यों ही अथवा मुफ्त में न मिला हो। मुहा०—किसी का पसीना छूटना=कोई काम करते-करते बहुत अधिक परेशान हो जाना। पसीने पसीने होना=पसीने से बिलकुल भीग जाना।
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पसु  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसुरी, पसुली  : स्त्री०=पसली।
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पसू  : पुं०=पशु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसूज  : स्त्री० [?] कपड़ों की सिलाई में सूई-डोरे से भरे या लगाये जानेवाले एक प्रकार के सीधे टाँके।
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पसूजना  : स० [?] कपड़ों की सिलाई में एक विशेष प्रकार के टाँके लगाना।
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पसूता  : स्त्री०=प्रसूता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसूस  : वि० [हिं०] कठोर।
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पसेउ (ऊ)  : पुं०=पसेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पसेरी  : स्त्री० [हिं० पाँच+सेर+ई (प्रत्य०)] १. पाँच सेर का बाट। पंसेरी। २. उक्त बाट से तौली हुई वस्तु की मात्रा या मान। जैसे—चार पसेरी गेहूँ।
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पसेव  : पुं० [सं० प्रस्राव] १. वह तरल पदार्थ जो कच्ची अफीम को सुखाने के समय उसमें से निकलता है। इस अंश के निकल जाने पर अफीम सूख जाती है और खराब नहीं होती। पुं० [सं० प्रस्वेद] पसीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पसोपेश  : पुं० [फा० पसवपेश] १. कोई काम करने के समय मन में होनेवाला यह भाव कि आगे बढ़ें या पीछे हटें। असमंजस। आगा-पीछा। सोच-विचार। २. इस बात का विचार कि यह काम करने पर क्या लाभ अथवा क्या हानि होगी। ऊँच-नीच।
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पसो  : पुं०=पशु।
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पस्त  : वि० [फा०] [भाव० पस्ती] १. हारा हुआ। २. थका हुआ। शिथिल। ३. किसी की तुलना में झुका या दबा हुआ। जैसे—हिम्मत पस्त होना। ४. छोटे आकार का। छोटा। (यौ० के आरंभ में) जैसे—पस्तकद। ५. कमीना। नीच। ६. तुच्छ। हीन। जैसे—पस्त खयाल। ७. पिछड़ा या हारा हुआ। जैसे—पस्त-हिम्मत। ८. मंद। जैसे—पस्त-किस्मत।
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पस्त-कद  : वि० [फा०] ठिंगना। नाटा।
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पस्त-हिम्मत  : वि० [फा०] [भाव० पस्तहिम्मती] १. जो विफल होकर के हिम्मत हार चुका हो। जिसका साहस छूट गया हो। हतोत्साह। २. कमहौसला। भीरु।
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पहस्तहौसला  : वि० [फा०] पस्त-हिम्मत।
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पस्ताना  : अ०=पछताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तावा  : पुं०=पछतावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्ती  : स्त्री० [फा०] १. पस्त होने की अवस्था या भाव। २. निचाई। ३. विचारों, व्यवहारों आदि की नीचता। कमीनापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्तो  : स्त्री०=पश्तो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्त्य  : पुं० [सं०√पस् (बाधा)+क्तिन्+यत्] १. घर। वास-स्थान। २. कुल। परिवार।
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पस्सर  : पुं० [अं० परसर] जहाज पर खलासियों आदि को बर्तन, रसद आदि बाँटनेवाला कर्मचारी। पुं०=पसर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पस्सी बबूल  : पुं० [हिं० पस्सी ?+हिं० बबूल] एक प्रकार का बढ़िया कलमी बबूल का वृक्ष जिसके फूलों से कई प्रकार के सुगंधित द्रव्य बनाये जाते हैं।
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पहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व] निकट। पास। विभ० से।
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पहँसुल  : स्त्री० [सं० प्रह्ल=झुका हुआ+शूल्] हँसिया की तरह का तरकारी काटने का एक छोटा उपकरण।
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पह  : स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का प्रकाश)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्याऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहचनवाना  : स० [हिं० पहचानना का०] किसी से पहचानने का काम करना।
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पहचान  : स्त्री० [सं० प्रत्यभिज्ञान या परिचय] १. पहचानने की क्रिया, भाव या शक्ति। २. कोई ऐसा चिह्न या लक्षण जिससे पता चले कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। जैसे—अपने कपड़े (या लड़के) की कोई पहचान बतलाओ। ३. किसी वस्तु की अच्छाई, बुराई, टिकाऊपन, स्वाद आदि देख-भाल कर जान लेने की शक्ति। जैसे—आम, कपड़े, घी आदि की पहचान। ४. जीव या व्यक्ति के संबंध में, उसके आकार, चेष्टाओं, बातों आदि से उसका वास्तविक रूप अनुमानित करने की समर्थता। जैसे—आदमी या घोड़े की पहचान। ५. दे० ‘जानपहचान’।
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पहचानना  : स० [हिं० पहचान] १. किसी पस्तु या व्यक्ति को देखते ही उसके चिह्नों, लक्षणों, रूप-रंग के आधार पर यह जान या समझ लेना कि यह अमुक व्यक्ति या वस्तु है। यह समझना कि वह यही वस्तु या व्यक्ति है जिसे मैं पहले से जानता हूँ। जैसे—मैं उसके कपड़े पहचानता हूँ। संयो० क्रि०—जानना।—लेना। २. एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद करना। अंतर समझना या जानना। बिलगाना। जैसे—असल या नकल को पहचानना सहज नहीं है। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के गुण-दोषों, योग्यताओं आदि से भली-भाँति परिचित रहना। जैसे—तुम भले ही उनकी बातों में आ जाओ; पर मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।
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पहटना  : स०=पहेटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहटा  : पुं० १. दे० ‘पाटा’। २. दे० ‘पेठा’।
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पहड़िया  : वि०=पहाड़ी। पुं० [हिं० पहाड़] संथाल परगने में रहनेवाली एक जाति।
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पहन  : पुं० [फा०] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ की छातियों में भर आवे और टपकने लगे या टपकने को हो। पुं०=पाहन (पाषाण)।
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पहनना  : स० [सं० परिधान] (कपड़े, गहने आदि) शरीर पर धारण करना। परिधान करना। जैसे—कुरता या धोती पहनना; अँगूठी या हार पहनना; खड़ाऊँ, चप्पल या जूता पहनना।
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पहनवाना  : स० [हिं० ‘पहनना’ का प्रे०] १. किसी को कुछ पहनाने में प्रवृत्त करना। जैसे—नौकर से लड़के को कपड़े पहनवाना। २. किसी को कुछ पहनने के लिए विवश करना। (पहनाना से भिन्न)। जैसे—माता ने बच्चे को कुरता पहनवाकर छोड़ा।
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पहना  : पुं० [फा० पहन] वह दूध जो बच्चे को देखकर वात्सल्य भाव के कारण माँ के स्तनों में भर आया हो और टपकता-सा जान पड़े। पुं०=पनहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाई  : स्त्री० [हिं० पहनाना] १. पहनने की क्रिया, ढंग या भाव। जैसे—जरा आपकी पहनाई देखिये। २. पहनने या पहनाने के बदले में दिया या लिया जानेवाला पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पाहन=पत्थर] १. पाहन या पत्थर होने की अवस्था या भाव। २. पाहन या पत्थर की-सी कठोरता, गुरुता या और कोई गुण। उदा०—पाहन ते न कठिन पहनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनाना  : सं० [हिं० पहनना] १. दूसरे को अपने हाथों से कपड़े, गहने आदि धारण कराना। जैसे—कोट या जूता पहनाना। २. मारना-पीटना। (बाजारू)
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पहनाव  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहनावा  : पुं० [हिं० पहनना] १. पहनने के कपड़े। पोशाक। २. किसी जाति, देश आदि के लोगों द्वारा सामान्यतः तन ढकने के उद्देश्य से पहने जानेवाले कपड़े। जैसे—अँगरेजों का पहनावा पैंट, कोट, कमीज तथा हैट है और भारतीयों का धोती, कुरता और टोपी है। ३. विशिष्ट आकार, प्रकार या रंग के वे कपड़े जो किसी विद्यालय, संस्था आदि के कर्मचारियों, विद्यार्थियों, सदस्यों आदि को पहनने पड़ते हों। जैसे—स्कूली पहनावा।
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पहपट  : पुं० [देश०] १. स्त्रियों द्वारा गाये जानेवाले एक तरह के गीत। २. शोर-गुल। हल्ला। ३. चारों ओर फैलनेवाली निन्दात्मक चर्चा या बदनामी। ४. छल। धोखा। बदनामी। (क्व०)
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पहपटबाज  : पुं० [हिं० पहपट+फा० बाज] [भाव० पहपटबाजी] १. शोर-गुल करने या हल्ला मचानेवाला। २. उपद्रवी। फसादी। शरारती। झगड़ालू। ३. चारों ओर लोगों की निंदा फैलानेवाला। ४. छलिया। धोखेबाज।
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पहपटहाया  : वि० [स्त्री० पहपटहाई]=पहपटबाज।
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पहमिनि  : स्त्री०=पद्मिनी। उदा०—कंवल करी तू पहमिनी मैं निसि भएहु बिहान।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहर  : पुं० [सं० प्रहर] १. समय के विचार से दिन-रात के किये हुए आठ समान भागों में से हर एक जो तीन-तीन घंटों का होता है। २. समय। ३. युग।
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पहरना  : स० [सं० प्र+हरण] नष्ट करना। उदा०—जिड़ि पहरंतैं नवी परि।—प्रिथीराज। स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरा  : पुं० [हिं० पहर] १. ऐसी अवस्था या स्थिति जिसमें किसी आदमी, चीज या जगह की रखवाली करने अथवा अपघात, हानि आदि रोकने के लिए एक या अधिक आदमी नियुक्त किये जाते हैं। इस बात का ध्यान रखने का प्रबंध कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ-जा न सके अथवा आज्ञा, नियम, विधान आदि के विरुद्ध कोई काम न करने पावे। चौकी। रखवाली। विशेष—(क) पहले प्रायः इस प्रकार की देख-रेख करनेवाले लोग एक एक पहर के लिए नियुक्त किये जाते थे; इसी से उक्त अर्थ में ‘पहरा’ शब्द प्रचलित हुआ था। (ख) पहरे का काम प्रायः एक स्थान पर खड़े होकर, थोड़ी-सी दूरी में इधर-उधर आ-जाकर अथवा किसी विशिष्ट क्षेत्र में चारों ओर घूम-घूमकर किया जाता है। मुहा०—पहरा देना=घूम-घूमकर बराबर यह देखते रहना कि कहीं कोई अनुचित रूप से आ तो नहीं रहा है या कोई अनुचित काम तो नहीं कर रहा है। पहरा पड़ना=ऐसी अवस्था होना कि कहीं कुछ लोग पहरा देते रहें। जैसे—रात के समय शहरों में जगह-जगह पहरा पड़ता है। पहरा बदलना=एक पहरेदार के पहरे का समय बीत जाने पर उसके स्थान पर दूसरे पहरेदार का आना। पहरा बैठना=किसी वस्तु या व्यक्ति के पास पहरेदार या रक्षक बैठाया जाना। चौकीदार को पहरे के काम पर लगाना। पहरा बैठाना=पहरा देने के काम पर किसी को लगाना। (किसी को) पहरे में देना=किसी को इस उद्देश्य से पहरेदारों की देख-रेख में रखना कि वह कहीं भागने, किसी से मिलने-जुलने या कोई अनुचित काम न करने पावे। २. उतना समय जितने में एक रक्षक अथवा रक्षक-दल को रक्षा-कार्य करना पड़ता है। जैसे—तुम्हारे पहले में तो कोई यहाँ नहीं आया था। ३. कोई पहरेदार या पहरेदारों का कोई दल। जैसे—जब तक नया पहरा न आवे, तब तक तुम (या तुम लोग) यहीं रहना। ४. वह जोर की आवाज से पहरेदार लोगों को सावधान करने या रहने के लिए रह-रहकर देता या लगाता रहता है। जैसे—कल रात को इस महल्ले में पहरा नहीं सुनाई पड़ा। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार का काल या समय। जामाना। युग। जैसे—अभी क्या है! अभी तो इससे भी बुरा पहरा आवेगा। पुं० [हिं० पौरा का विकृत रूप] किसी विशेष व्यक्ति के अस्तित्व, आगमन, सत्ता आदि का काल या समय। पौरा। जैसे—जब से इस लड़की का पहरा (पौरा) इस घर में आया है, तब से इस घर में लहर-बहर दिखाई देने लगी है।
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पहराइत  : पुं०=पहरेदार। उदा०—पीला भमर किया पहराइत।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरावनी  : स्त्री० [हिं० पहरावना] १. पहनावा। २. वे कपड़े जो किसी शुभ अवसर पर प्रसन्नतापूर्वक छोटों को दिये या पहनाये जाते हैं।
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पहरावा  : पुं०=पहनावा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरी  : पुं०=प्रहरी (पहरेदार)।
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पहरुआ  : पुं०=पहरेदार।
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पहरू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहरेदार  : पुं० [हिं० पहरा+फा० दार] [भाव० पहरेदारी] १. वह जिसका काम कहीं खड़े-खड़े या घूम-घूमकर पहरा देना हो। चौकीदार। संतरी। २. वह जो किसी की रक्षा के लिए कटिबद्ध तथा प्रस्तुत हो। जैसे—हम देश के पहरेदार हैं।
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पहरेदारी  : स्त्री० [हिं० पहरा+फा० दारी] १. पहरा देने का काम या भाव। २. पहरेदार का पद।
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पहल  : पुं० [फा० पहलू, मि० सं० पटल] १. किसी घन पदार्थ के तीन या अधिक कोनों अथवा कोरों के बीच का तल या पार्श्व। २. बगल। पहलू। जैसे—(क) पासे में छः पहल होते हैं। (ख) इस नगीने में बारह पहल कटे हैं। क्रि० प्र०—काटना।—तराशना।—बनाना। मुहा०—पहल निकालना=किसी पदार्थ के पृष्ठ देश या बाहरी सतह को तराश या छीलकर उसमें त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण आदि पहल बनाना। २. ऊन, रूई आदि की कुछ कड़ी और मोटी तह या परत। गाला। उदा०—तूल के पहल किधौं पवन अधार के।—सेनापति। ३. किसी तरह की तह या परत। स्त्री० [हिं० पहला] १. किसी नये कार्य का पहली बार होनेवाला आरंभ। २. किसी कार्य, बात आदि का किसी एक पक्ष की ओर होनेवाला आरंभ जिसके पश्चप्रभाव का उत्तरदायित्व उसी पक्ष पर माना जाता है। छेड़। (इनीशिएटिव) जैसे—झगड़े में पहले तो उसने पहल की थी। मुहा०—पहल करना=किसी काम या अपनी ओर से या आगे बढ़कर आरंभ करना।
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पहलदार  : वि० [हिं० पहल+फा० दार] जिसमें पहल कटे या बने हों। जिसमें चारों ओर अलग-अलग तल या सतहें हों।
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पहलनी  : स्त्री० [हिं० पहल] सुनारों का एक औजार जिससे कोंढ़ा या घुंडी गोल करते हैं।
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पहलवान  : पुं० [फा० पहलवान] [भाव० पहलवानी] १. वह व्यक्ति जो स्वयं दूसरों से कुश्ती लड़ता हो अथवा दूसरों को कुश्ती लड़ना सिखलाता हो। २. मोटा-ताजा। तगड़ा। हट्टा-कट्टा। वि० खूब बलवान और मोटा-ताजा।
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पहलवानी  : वि० [फा० पहलवानी] १. पहलवानों से संबंध रखनेवाला। २. पहलवानों की तरह का। स्त्री० १. पहलवान होने की अवस्था या भाव। २. पहलवान का पेशा, वृत्ति या शौक। ३. बलवान और सशक्त होने की अवस्था या भाव। जैसे—वह तुम्हारी सारी पहलवानी निकालकर रख देगा।
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पहलवी  : पुं०, स्त्री० [फा०]=पह्लवी।
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पहला  : वि० [सं० प्रथम, प्रा० पहिले] [स्त्री० पहली] १. समय के विचार से जो और सब से आदि में हुआ हो। जैसे—यह उनका पहला लड़का है। २. किसी चीज विशेषतः किसी वर्गीतकृत चीज के आरंभिक या प्रारंभिक अंश या वर्ग से संबंध रखनेवाला। जैसे—पुस्तक का पहला अध्याय, विद्यालय का पहला दरजा। ३. तुलना, प्रतियोगिता आदि में जो सब से आगे निकल पहुँच या बढ़ गया हो। जैसे—दौड़, परीक्षा आदि में पहला आना। ४. वर्तमान से पूर्व का। विगत। जैसे—पहला जमाना कुछ और ही तरह का था। ५. जो अत्यधिक उपयोगी, महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान हो।
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पहलाम  : स्त्री० [हिं० पहला+म (प्रत्य०)] लड़ाई-झगड़े के संबंध में की जानेवाली छेड़। पहल। जैसे—इस बार तो तुम्हीं ने पहलाम की थी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहलू  : पुं० [फा० पहलू] १. किसी वस्तु का कोई विशिष्ट पार्श्व या किसी दिशा में पड़नेवाला अंग या विस्तार। २. व्यक्ति के शरीर का दाहिना या बायाँ अंग। पार्श्व। बगल। जैसे—जो जल उठता है यह पहलू तो वह पहलू बदलते हैं।—कोई कवि। मुहा०—(किसी का) पहलू गरम करना=किसी के शरीर से विशेषतः प्रेयसी प्रेमपात्र का प्रेमी के शरीर से सटकर बैठना। किसी के पास या साथ बैठकर उसे सुखी करना। (किसी से) पहलू गरम करना=किसी को विशेषतः प्रेयसी या प्रेमपात्र को शरीर से सटाकर बैठाना। मुहब्बत में बैठाना। (किसी के) पहलू में रहना=किसी के बहुत पास या बिलकुल साथ में रहना। ३. करवट। बल। जैसे—किसी पहलू से चैन नहीं मिलता। ४. पड़ोस। मुहा०—पहलू बसाना=किसी के पड़ोस में जाकर रहना। ५. किसी समूह का कोई पार्श्व या भाग। जैसे—फौज का दाहिना पहलू ज्यादा मजबूत था। मुहा०—पहलू दबना=किसी अंग या पार्श्व का दुर्बल होने या हारने के कारण पीछे हटना। (किसी के) पहलू पर होना=विकट अवसर पर सहायता करने के लिए प्रस्तुत रहना। ६. किसी बात या विषय का अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि की दृष्टि से कोई पक्ष। जैसे—मुकदमे के सब पहलू पहले से सोच रखो। मुहा०—(किसी बात का) पहलू बचाना=इस बात का ध्यान रखना या युक्ति करना किसी किसी अंग, पक्ष या पार्श्व से किसी प्रकार का अनिष्ट अथवा कोई अप्रिय घटना या बात न होने पावे। (अपना) पहलू बचाना=कोई काम करने से जी चुराना या टाल-मटोल करके पीछे हटना। ७. अगल-बगल या आस-पास का स्थान। पार्श्व। जैसे—पहाड़ के पहलू में एक घना जंगल था। पद—पहलूनशी=(क) पास बैठनेवाला। (ख) पास बैठा हुआ। मुहा०—(किसी का) पहलू बसाना=किसी के पड़ोस या समीप में जा रहना। पड़ोस आबाद करना। ८. किसी पदार्थ के किसी पार्श्व का कोई समतल पृष्ठ-देश। पहल। जैसे—इस नगीने का कोई पहलू चौकोर नहीं है। ९. गूढ़ अर्थ। १॰. युक्ति। ११. बहाना। १२. रूख।
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पहलूदार  : वि० [फा०] जिसके कई पहलू (पक्ष या पहल) हों।
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पहले  : अव्य० [हिं० पहला] १. आदि आरंभ या शुरु में। सर्वप्रथम। जैसे—पहले यहाँ कोई दूकान नहीं थी। २. काल, घटना, स्थिति आदि के क्रम के विचार से आगे या पूर्व। जैसे—उनके मकान के पहले एक पुल पड़ता है। ३. बीते हुए समय में। पूर्वकाल में। अगले जमाने में। जैसे—पहले की-सी सस्ती अब फिर क्यों होने लगी।
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पहलेज  : पुं० [देश०] एक प्रकार का लंबोतरा खरबूजा।
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पहले-पहले  : अव्य० [हिं० पहले] १. आदि या आरंभ में। सर्वप्रथम। सबसे पहले। २. जीवन में पहली बार। जैसे—वह पहले-पहल दिल्ली गया है।
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पहलौठा  : वि० [हिं० पहल+औठा (प्रत्य०)] [स्त्री० पहलौठी] (माता-पिता का वह पुत्र) जिसे (उन्होंने) सबसे पहले जन्म दिया हो। अथवा जो सबसे पहले जन्मा हो। प्रथम प्रसव।
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पहाड़  : पुं० [सं० पाषाण] [स्त्री० अल्पा० पहाड़ी] १. पृथ्वी तल के ऊपर प्राकृतिक रूप से उठा या उभरा हुआ वह बहुत बड़ा अंश जो प्रायः चूने, पत्थर, मिट्टी आदि की बड़ी-बड़ी चट्टानों से बना होता है और जिसका तल प्रायः असम या ऊबड़-खाबड़ रहता है। पर्वत। मुहा०—पहाड़ खोदकर चूहा निकालना=बहुत अधिक परिश्रम करके बहुत ही तुच्छ परिणाम तक पहुँचना। २. किसी वस्तु का बहुत बड़ा और भारी ढेर। बहुत ऊँची राशि या ढेर। जैसे—पहले बाजारों में अनाज के बोरों के पहाड़ लगे रहते थे। ३. पत्थरों की ढेर की तरह की कोई बहुत बड़ी या भारी चीज या बात अथवा कोई बहुत ही विकट काम या स्थिति। जैसे—(क) मुझे पत्र लिखना तो पहाड़ हो जाता है। (ख) तुम्हें तो मामूली काम भी पहाड़ मालूम होता है। मुहा०—पहाड़ उठाना=कोई बहुत बड़ा, भारी या विकट काम अपने ऊपर लेना या पूरा कर दिखाना। पहाड़ काटना=(क) बहुत ही कठिन या विकट काम कर डालना। (ख) किसी प्रकार कोई बहुत बड़ी विपत्ति या संकट दूर करना। (किसी पर) पहाड़ टूटना या टूट पड़ना=अचानक कोई बहुत बड़ी विपत्ति आना। जैसे—उस पर तो आफत का पहाड़ टूट पड़ा है। पहाड़ से टक्कर लेना=अपने से बहुत अधिक बलवान व्यक्ति या शक्तिशाली से प्रतियोगिता करना या वैर उठाना। बहुत जबरदस्त या बहुत बड़े से भिड़ना। ४. कोई ऐसा कठिन या विकट कार्य, वस्तु या स्थिति जिसका निर्वाह बहुत ही कठिन हो अथवा सहज में जिससे छुटकारा या निस्तार न हो सके। जैसे—पहाड़ की तरह विवाह के योग्य चार-चार लड़कियाँ उसके सामने बैठी थीं।
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पहाड़ा  : पुं० [सं० प्रस्तार या क्रमात् पहाड़ की तरह ऊँचे होते जाने का क्रम] १. किसी अंक के गुणनफलों के क्रमात् आगे बढ़ती चलनेवाली संख्याओं की स्थिति। जैसे—तीन एकम तीन, तीन दूनी छः; तीन तियाँ नौ, तीन चौके बारह आदि। २. उक्त प्रकार की क्रमात् बढ़ती रहनेवाली संख्याओं की सूची। गुणन-सारणी। (मल्टिप्लिकेशन टेबुल) जैसे—पहाड़े की पुस्तक। क्रि० प्र०—पढ़ना।—पढ़ाना।—लिखना।—लिखाना।
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पहाड़िया  : वि०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहाड़ी  : वि० [हिं० पहाल+ई (प्रत्य०)] १. पहाड़-संबंधी। जैसे—पहाड़ी रास्ता। २. पहाड़ पर मिलने, रहने या होनेवाला। जैसे—पहाड़ी वृक्ष, पहाड़ी व्यक्ति। ३. जिसमें पहाड़ हो। जैसे—पहाड़ी देश। ४. पहाड़ पर रहनेवाले लोगों से संबंध रखनेवाला। जैसे—पहाड़ी पहनावा, पहाड़ी बोली। पं० १. पहाड पर रहनेवाले व्यक्ति। जैसे—आज-कल शहर में बहुत से पहाड़ी आये हुए हैं। २. एक प्रकार का बड़ा खीरा। स्त्री० १. छोटा पहाड़। २. काँगड़े, कुमाऊँ, गढ़वाल आदि पहाड़ी प्रदेशों की बोलियों का वर्ग या समूह। ३. भारत के उत्तर-पश्चिमी पहा़ड़ों में गाई जानेवाली एक प्रकार की धुन या संगीत-प्रणाली। ४. संगीत में, संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो साधारणतः रात के पहले या दूसरे पहर में गाई जाती है। ५. एक सुगंधित वनस्पति।
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पहान  : पुं०=पाषाण (पत्थर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहार  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पहारी]=पहाड़।
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पहारना  : सं०=प्रहारना (प्रहार करना)।
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पहारी  : स्त्री०=पहाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहारू  : पुं०=पहरेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहासरा  : पुं० [?] १. पौ फटने का समय। तड़का। २. प्रकाश। रोशनी। उदा०—चंद के पहासरे में आँगन में ठाढ़ी भई, आली तेरी जोति किधौं चाँदनी छिपाई है।—गंग।
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पहि  : अव्य० [सं० परं] पर। परंतु। उदा०—पहि किम पूजै पांगुलौ।—प्रिथीराज।
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पहिआ  : पुं० [हिं० पाह=पथ] १. रास्ता चलनेवाला। पथिक। बटोही। २. अतिथि। अभ्यागत। मेहमान। उदा०—आवत। पहिआ सूधै जाहि।—कबीर। ३. जामाता। दामाद। पुं०=पहिया।
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पहिचान  : स्त्री०=पहचान।
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पहिचानना  : स०=पहचानना।
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पहिती  : स्त्री० [सं० प्रहति=सालन] पकाई हुई दाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनना  : स०=पहनना।
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पहिना  : स्त्री० [सं० पाठीन] एक प्रकार की मछली।
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पहिनाना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिनावा  : पुं०=पहनावा।
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पहिप  : पुं०=पथिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहियाँ  : अव्य०=‘पहँ’ (पास)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिया  : पुं० [सं० पथ्थ, प्रा० पह्य से पहिया] १. गाड़ी, यान आदि का वह नीचेवाला मुख्य आधार जो गोलाकार होता और धुरी पर घूमता है तथा जिसके धुरी पर घूमने पर गाड़ी या यान आगे बढ़ता है। २. यंत्रों आदि में लगा हुआ उक्त प्रकार का गोलाकार चक्कर जिसके घूमने से उस यंत्र का कोई क्रिया सम्पन्न होती है। चक्कर। (ह्वोल) पुं० पहिआ (पथिक)।
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पहिरना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिराना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावना  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिरावनी  : स्त्री०=पहरावनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिल  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० वि०=पहले। स्त्री०=पहल।
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पहिला  : वि०=पहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहिले  : अव्य०=पहले।
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पहिलौठा  : वि० [स्त्री० पहिलौठी]=पहलौठा।
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पहीत  : स्त्री०=पहिती।
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पहुँ  : पुं० [सं० पिय ?] १. पति। २. प्रियतम।
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पहुँच  : स्त्री० [हिं० पहुँचना] १. पहुँचने की क्रिया या भाव। २. किसी के कहीं पहुँचने की भेजी जानेवाली सूचना। जैसे—अपनी पहुँच तुरंत भेजना। ३. ऐसा स्थान जहाँ तक किसी की गति हो सकती हो या कोई पहुँच सकती हो। जैसे—यह तसवीर बहुत ऊँची टँगी है, तुम्हारे हाथ की पहुँच उस तक नहीं होगी (या न हो सकेगी)। ४. किसी स्थान तक पहुँचने की योग्यता, शक्ति या सामर्थ्य। पकड़। जैसे—वह स्थान बड़े बड़ों की पहुँच के बाहर है। ५. किसी विषय का होनेवाला ज्ञान या परिचय। ६. अभिज्ञता की सीमा। ज्ञान की सीमा।
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पहुँचना  : अ० [सं० प्रभूत, प्रा० पहुँच्च] १. (वस्तु अथवा व्यक्ति का) एक विंदु से चलकर अथवा और किसी प्रकार दूसरे विन्दु पर (बीच का अवकाश पार करके) उपस्थित, प्रस्तुत या प्राप्त होना। जैसे—(क) रेलगाड़ी का दिल्ली पहुँचना। (ख) घड़ी की छोटी सूई का १२ पर पहुँचना। (ग) आदमी का घर या स्वर्ग पहुँचना। २. किसी से भेंट आदि करने के लिए उसके यहाँ जाकर उपस्थित होना। पद—पहुँचा हुआ=(क) जिसके संबंध में यह माना जाता हो कि वह सिद्धि प्राप्त करके ईश्वर तक पहुँच गया है। (ख) किसी काम या बात में पूर्ण रूप से दक्ष या पारंगत। किसी बात के गूढ़ रहस्यों या मूल तत्त्वों तक का पूरा ज्ञान रखनेवाला। ३. किसी के द्वारा भेजी हुई चीज का किसी व्यक्ति को मिलना या प्राप्त होना। जैसे—पत्र या संदेश पहुँचना। ४. (किसी चीज का) किसी रूप में मिलना या प्राप्त होना। जैसे—आघात या दुःख पहुँचना, फायदा पहुँचना। ५. फैलने या फैलाये जाने पर किसी चीज का किसी सीमा तक जाना या किसी दूसरी चीज को छूना अथवा पकड़ लेना। जैसे—(क) आग का जंगल की एक सीमा से दूसरी सीमा तक पहुँचना। (ख) हाथ का छींके तक पहुँचना। ६. मान, मात्रा, संख्या आदि में बढ़ते-बढ़ते या घटते-घटते किसी विशिष्ट स्थिति को प्राप्त होना। जैसे—(क) हमारे यहाँ गेहूँ की उपज ५॰ मन प्रति बीघे तक जा पहुँची है। (ख) लड़का आठवें दरजे में पहुँच गया है। (ग) ताप मान अभी ११॰ तक ही पहुँचा है। ७. बढ़कर किसी के तुल्य या बराबर होना। जैसे—अब तुम भी उनके बराबर पहुँचने लगे हो। ८. एक दशा या रूप से दूसरी दशा या रूप को प्राप्त होना। जैसे—जान जोखिम में पहुँचना। ९. प्रविष्ट होना। घुसना। जैसे—वह भी किसी न किसी तरह अंदर पहुँच गया। १॰. किसी चीज का किसी दूसरी चीज से प्रभावित होना। जैसे—कपड़ों में सील पहुँचना। ११. लाक्षणिक अर्थ में, किसी प्रकार के तत्त्व, भाव, मनःस्थति, रहस्य आदि को ठीक-ठीक जानने में समर्थ होना। जैसे—यह बहुत गंभीर विषय है, इस तक पहुँचना सहज नहीं है।
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पहुँचा  : पुं० [सं० प्रकोष्ठ अथवा हिं० पहुँचना] १. हाथ की कुहनी के नीचे और हथेली के बीच का भाग। कलाई। गट्टा। मणिबंध। मुहा०—(किसी का) पहुँचा पकड़ना=बलपूर्वक किसी को कोई काम करने के लिए उसे रोक रखने के लिए उसकी कलाई पकड़ना। जैसे— वह तो राह-चलते लोगों से पहुँचा पकड़कर माँगने (या लड़ने) लगता है। कहा०—उँगली पकड़ते, पहुँचा पकड़ना=किसी को जरा-सा अनुकूल या प्रसन्न देखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उसके पीछे पड़ जाना। २. टखने के कुछ ऊपर तथा पिंडली से कुछ नीचे का भाग। ३. पाजामे आदि की मोहरी का विस्तार। (पश्चिम)
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पहुँचाना  : स० [हिं० पहुँचा का स०] १. किसी चीज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। जैसे—(क) उनके यहाँ मिठाई (या पत्र) पहुँचा दो। (ख) यह ताँगा हमें स्टेशन तक पहुँचायेगा। २. किसी व्यक्ति के संग चलकर उसे कहीं तक छोड़ने जाना। जैसे—नौकर का बच्चे को स्कूल पहुँचाना। ३. किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में प्राप्त करना। किसी विशेष अवस्था या दशा तक ले जाना। जैसे—उन्हें इस उच्च पद तक पहुँचानेवाले आप ही हैं। ४. किसी रूप में उपस्थित, प्राप्त या विद्यमान कराना। जैसे—किसी को कष्ट या लाभ पहुँचाना; आँखों में ठंडक पहुँचाना; कहीं कोई खबर पहुँचाना। ५. प्रविष्ट कराना।
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पहुँची  : स्त्री० [हिं० पहुँचा] १. कलाई पर पहनने का एक तरह का गहना। जिसमें बहुत से गोल या कँगूरेदार दाने कई पत्तियों में गूँथे हुए होते हैं। २. प्राचीन काल में युद्ध के समय कलाई पर पहना जानेवाला एक तरह का आवरण। ३. पायल। पाजेब। (पश्चिम)
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पहु  : पुं०=प्रभु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पौ (प्रातःकाल का हलका प्रकाश)।
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पहुड़ना  : अ० १.=पौड़ना (तैरना)। २.=पौढ़ना (लेटना)।
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पहुतना  : अ०=पहुँचना। (राज०)
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पहुनई  : स्त्री०=पहुनाई।
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पहुना  : पुं०=पाहुना।
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पहुनाई  : स्त्री० [हिं० पाहुना+आई (प्रत्य०)] १. पाहुने के रूप में कहीं ठहरने तथा सेवा-सत्कार आदि कराने की क्रिया या भाव। मुहा०—पहुनाई करना=बराबर दूसरों के यहाँ पाहुन या अतिथि बनकर खाते और रहते फिरना। दूसरों के आतिथ्य पर चैन से दिन बिताना। २. अतिथि का भोजन आदि से किया जानेवाला सत्कार। आतिथ्यसत्कार।
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पहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना का स्त्री०] १. रखेली स्त्री। २. समधी की स्त्री। समधिन। ३. दे० ‘पहुनाई’।
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पहुन्नी  : स्त्री० [देश०] वह पच्चर जो लकड़ी चीरते समय चिरे हुए अंश के बीच इसलिए लगाया जाता है कि आरा चलाने के लिए बीच में यथेष्ट अवकाश रहे।
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पहुप  : पुं०=पुष्प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुमि (मी)  : स्त्री०=पुहमी (पृथ्वी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुरना  : पुं० [स्त्री० पहुरनी]=पाहुना।
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पहुरी  : स्त्री० [देश०] संगतराशों की एक तरह की चिपटी टाँकी जिससे वे गढ़े हुए पत्थर चिकने करते हैं। मठरनी।
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पहुला  : पुं० [सं० प्रफुल] १. कुमुद। कोई। उदा०—पहुला हारु हियैं लसै सन की बेंदी भाल।—बिहारी। २. गुलाब का फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पहुवी  : पुहमी (पृथ्वी)। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पहेटना  : स० [सं० प्रखेट, प्रा० पहेट=शिकार] १. किसी को पकड़ने के लिए उसका पीछा करना। २. कोई कठिन काम परिश्रमपूर्वक समाप्त करना। ३. औजारों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर या सान पर रगड़ना। ४. अच्छी तरह या डटकर खाना। खूब भर-पेट भोजना करना। ५. अनुचित रूप से ले लेना।
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पहेरी  : स्त्री०=पहेली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रहरी।
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पहेली  : स्त्री० [सं० प्रहेलिका] १. प्रस्ताव के रूप में होनेवाली एक प्रकार की प्रश्नात्मक उक्ति या कथन जिसमें किसी चीज या बात के लक्षण बतलाते हुए अथवा घुमाव-फिराव से किसी प्रसिद्ध बात या वस्तु का स्वरूप मात्र बतलाते हुए यह कहा जाता है कि बतलाओ कि वह कौन सी बात या वस्तु है। (रिडल) क्रि० प्र०—बुझाना।—बूझना। विशेष—पहेलियाँ प्रायः दूसरों के ज्ञान या वृद्धि की परीक्षा के लिए होती हैं, और सभी जातियों तथा देशों में प्रचलित होती हैं। यह अर्थी और शब्दी दो प्रकार की होती हैं। यथा—‘फाट्यो पेट, दरिद्री नाम। उत्तम घर में बाको ठाम।’ शंख की आर्थी पहेली है, और ‘उस आधा आधा रफि होई। आधा-साधा समझै सोई।’ अशरफी की शाब्दी पहेली है। हमारे यहाँ वैदिक युग में पहले को ‘ब्रह्मोदय’ कहते थे; और अश्वमेध आदि यज्ञों में बलि कर्म से पहले ब्राह्मण तथा होता लोगों से ब्रह्मोदय के उत्तर पूछते अर्थात् पहेलियाँ बुझाते थे। भारत की कई (आदिम) जातियों में अब भी विवाह के समय पहेलियाँ बुझाने की प्रथा प्रचलित है। २. कोई ऐसी कठिन या गूढ़ बात अथवा समस्या जिसका अभिप्राय, आशय, तत्त्व या निराकरण सहज में न होता हो और जिसे सुनकर लोगों की बुद्धि चकरा जाती हो। दुर्ज्ञेय और विकट प्रश्न या बात। (रिडल, उक्त दोनों अर्थों में) ३. अधिक विस्तार में घुमा-फिराकर तथा अस्पष्ट रूप में कही हुई कोई बात। मुहा०—पहेली बुझाना=बहुत घुमाव-फिराव से ऐसी बात कहना जो लोगों को चक्कर में डाल दे। जैसे—अब पहेलियाँ बुझाना छोड़ो, और साफ-साफ बतलाओ कि तुम क्या चाहते हो (या वहाँ क्या हुआ)।
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पह्लव  : पुं० [सं०] १. ईरान या फारस देश का प्राचीन निवासी। २. ईरान या फारस में रहनेवाली एक प्राचीन जाति। ३. ईरान या फारस देश।
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पह्लवी  : स्त्री० [फा०] आर्य-परिवार की एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचलन ईरान या फारस देश में ईसवी तीसरी, चौथी और पाँचवीं शताब्दियों में था।
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पह्लिका  : स्त्री० [सं० अप√ह्रु+ड+कन्, इत्व, अकार लोप] जल-कुंभी।
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पाँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइ  : पुं०=पाँव। मुहा०—पाँई पारना=दे० ‘पाँव’ के अंतर्गत ‘पाँव पारना’ मुहा०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँइता  : पुं०=पायँता (पैताना, चारपाई का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँउरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँओं  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँक (ा)  : पुं०=पंक (कीचड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांक्त  : वि० [सं० पंक्ति+अञ्] १. पंक्ति-संबंधी। पंक्ति का। २. पंक्ति के रूप में होनेवाला।
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पांक्तेय  : वि० [सं० पंक्ति+ढक्—एय] [पंक्ति+ष्यञ्] (व्यक्ति) जो अपने अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता हो।
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पांक्त्य  : वि० [सं० पंक्ति+व्यञ्]=पांक्तेय।
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पाँख (ड़ा)  : पुं०=पंख (पक्षियों के)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पख (पखवाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँखड़ी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँखी  : वि० [हिं० पंख] पंख या पंखोवाला। स्त्री० १. पक्षी। २. फतिंगा। ३. काठ का एक उपकरण जिससे खेतों में क्यारियाँ बनाई जाती हैं। ४. दे० ‘पाँचा’।
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पाँखुरी  : स्त्री०=पंखड़ी।
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पाँग  : पुं० [सं० पंक] वह नई जमीन जो किसी नदी के पीछे हट जाने से उसके किनारे पर निकलती है। कछार। खादर। गंगबरार। पुं०[?] जुलाहों के करघे का ढाँचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगल  : पुं० [सं० पांगुल्य] ऊँट। (डिं०)
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पाँगा  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगा नमक  : पुं० [सं० पंक, हिं० पाँग+नोन]=समुद्री नमक।
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पाँगा नोन  : पुं०=पाँगा नमक।
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पाँगुर  : स्त्री० [हिं० पाँव+उँगली] पैर की कोई उँगली। वि०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँगुरना  : अ० [?] पनपना।
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पाँगुरा  : वि०=पांगुर (पंगुल)।
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पाँगुल  : वि०=पंगुल।
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पांगुल्य  : पुं० [सं० पंगुल+ष्यञ्] पंगुल होने की अवस्था या भाव। लंगड़ापन।
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पाँच  : वि० [सं० पंच] जो गिनती में चार से एक अधिक अथवा छः से एक कम हो। मुहा०—(किसी की) पाँचों उँगलियाँ घी में होना=हर काम में किसी को सफलता मिलना या लाभ होना। पाँचों सवारों में नाम लिखाना या पाँचवें सवार बनना=जबरदस्ती अपने को अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों की पंक्ति या श्रेणी में गिनना या समझना। औरों के साथ अपने को भी श्रेष्ठ गिनना। बड़ा बतलाने या समझने लगना। पद—पाँच जने जी जमात=घर-गृहस्थी और परिवार। पुं० [सं० पंच] १. पाँच का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—५। २. जात-बिरादरी या समाज के अच्छे या मुख्य लोग। ३. सब अच्छे आदमी। उदा०—जो पाँचहिं मत लागै नीका।—तुलसी। वि० बहुत अधिक चालाक या होशियार। उदा०—मेरे फंदे में एक भी न फँसा। पाँच बन्नो थी जिससे चार उलझे।—जान साहब।
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पाँचक  : पुं०, स्त्री०=पंचक।
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पांचकपाल  : वि० [सं० पंचकपाल+अण्] पंचकपाल संबंधी।
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पांचजनी  : स्त्री० [सं० पंचजन+अण्—ङीप्] भागवत के अनुसार पंचजन नामक प्रजापति की असिकी नामक कन्या का दूसरा नाम।
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पांचजन्य  : पुं० [सं० पचंजन+ण्य] १. पंचजन राक्षस का वह शंख जो भगवान कृष्ण उठाकर ले गये थे और स्वयं बजाया करते थे। २. विष्णु के शंख का नाम। ३. जम्बू द्वीप का एक नाम।
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पांचदश्य  : पुं० [सं० पंचदशन्+ण्य] पंचनद या पंजाब-संबंधी। पुं० १. पंजाब का निवासी। २. पंजाब।
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पाँचपंच  : पुं० बहु० [हिं०] सब या मुख्य मुख्य लोग। जैसे—पाँच पंच जो कुछ कहें, वह हम मानने को तैयार हैं।
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पांच-भौतिक  : वि० [सं० पंचभूत+ठक्—इक] १. जिसका संबंध पंचभूतों से हो। २. पंच-भूतों से मिलकर बना हुआ। जैसे—पांच भौतिक शरीर।
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पांचयज्ञिक  : वि० [सं० पंचयज्ञ+ठक्—इक] पंच यज्ञ-संबंधी। पुं० पाँच प्रकार के यज्ञों में से प्रत्येक।
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पाँचर  : पुं० [सं० पंजर] कोल्हू के बीच में जड़े हुए लकड़ी के वे छोटे टुकड़ो जो गन्ने के टुकड़ों को दबाने के लिए लगाये जाते हैं। पुं०=पच्चर।
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पांचरात्र  : पुं० [सं० पंचरात्रि+अण्] आधुनिक वैष्णव मत का एक प्राचीन रूप जिससे परम, तत्त्व, मुक्ति, मुक्ति योग और विषय (संसार) इन पाँच रात्रों (ज्ञानों) का निरूपण होता था। यह भागवत धर्म की दो प्रधान शाखाओं में से एक था।
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पांचवर्षिक  : वि० [सं० पंचवर्ष+ठञ्—इक] पाँच वर्षों में होनेवाला। पंचवर्षीय।
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पाँचवाँ  : वि० [हिं० पाँच+वाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० पाँचवीं] क्रम या गिनती में पाँच के स्थान पर पड़नेवाला।
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पांचशाब्दिक  : पुं० [सं० पंचशब्द+ठक्—इक] करताल, ढोल, बीन, घंटा और भेरी ये पाँच प्रकार के बाजे।
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पाँचा  : पुं० [हिं० पाँच] खेत का एक उपकरण जिसमें एक डंडे के साथ छोटी फूलकड़ियां लगी रहती हैं। यह प्रायः कटी हुई फसल या घास-भूसा इकट्ठा करने के काम आता है।
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पांचार्थिक  : पुं० [सं० पंचार्थ+ठन्—इक, वृद्धि (बा०)] शैव।
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पांचाल  : वि० [सं० पंचाल+अण्] १. पंचाल देश से संबंध रखनेवाला। पंचाल का। २. पंचाल देश में होनेवाला। पुं० १. पंचाल जाति के लोगों का देश जो भारत के पश्चिमोत्तर खंड में था। २. पंचाल जाति के लोग। ३. प्राचीन भारत में, बढ़इयों, नाइयों, जुलाहों, धोबियों और चमारों के पाँचों वर्गों का समूह।
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पांचालक  : वि० [सं० पांचाल+कन्] पंचालवासियों के संबंध का। पुं० पंचाल देश का राजा।
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पांचाल-मध्यमा  : स्त्री० [सं०] भारतीय नाट्य कला में, एक प्रकार की प्रवृत्ति या बात-चीत वेश-भूषा आदि का ढंग, प्रकार या रूप जो पांचाल शूरसेन, कश्मीर, वाह्लीक, मद्र आदि जनपदों की रहन-सहन आदि के अनुकरण पर होता था।
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पांचालिका  : स्त्री० [सं० पांचाली+कन्+टाप्, ह्रस्व]=पंचालिका।
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पांचाली  : स्त्री० [सं० पंचाल+अण्—ङीष्] १. पंचाल देश की स्त्री। २. पाँचों पांडवों की पत्नी द्रोपदी जो पांचाल देश की राजकुमारी थी। ३. साहित्यिक रचनाओं की एक विशिष्ट रीति या शैली जो मुख्यतः माधुर्य, सुकुमारता आदि गुणों से युक्त होती है। इसमें प्रायः छोटे-छोटे समास और कर्ण-मधुर पदावलियाँ होती हैं। किसी किसी के मत से गौड़ी और वैदर्भी वृत्तियों के सम्मिश्रण को भी पांचाली कहते हैं। ४. संगीत में (क) स्वर-साधन की एक प्रणाली; और (ख) इन्द्र ताल के छः भेदों में से एक। ५. छोटी पीपल।
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पांचो  : स्त्री० [हिं० पच्ची का पुराना रूप] रत्नों आदि के जड़ाव का काम। पच्चीकारी। उदा०—जाग्रत सपनु रहत ऊपर मनि, ज्यों कंचन संग पांची।—हित हरिवंश। स्त्री० [देश०] एक तरह की घास।
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पाँचेक  : वि० [हिं० पाँच+एक] १. पाँच के लगभग। २. थोड़े-से जैसे—वहाँ पाँचेक आदमी आये थे।
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पाँचै  : स्त्री० [हिं० पंचमी] किसी पक्ष की पाँचवीं तिथि। पंचमी।
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पाँछना  : स० १.=पाछना। २. पोंछना का अनु०।
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पाँज  : स्त्री० [सं० पाश] बाहु-पाश। वि० [हिं० पाँव] (जलाशय या नदी) जिसमें इतने कम पानी हो कि यों ही पाँव चलकर पार किया जा सके। स्त्री० छिछला जलाशय या नदी। पुं० पुल। सेतु। उदा०—जनक-सुता हितु हत्यो लंक-पति, बाँध्यों सागर पाँज।—सूर। पुं० [हिं० पाँजना] पाँजने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पाँजना  : स० [सं० प्रण द्रध, प्रा० पणज्झ पँज्झ] धातुओं के टुकड़ों को जोड़ने के लिए उनमें टाँका लगाना। झालना।
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पाँजर  : अव्य० [सं० पंजा] पास। समीप। पुं० १. निकटता। सामीप्य। २. दे० ‘पंजर’।
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पांजी  : स्त्री० १=पाँज। २.=पंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँझ  : स्त्री०=पाँज।
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पाँडक  : पुं०=पंडुक (पेंडुकी)।
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पांडर  : पुं० [सं०√पण्ड् (गति)+अर, दीर्घ] १. कुंद का वृक्ष और फूल। २. सफेद रंग। ३. सफेद रंग की कोई चीज। ४. मरुआ। ५. पानड़ी। ६. एक प्रकार का पक्षी। ७. महाभारत के अनुसार ऐरावत के कुल में उत्पन्न एक हाथी। ८. पुराणानुसार एक पर्वत जो मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित कहा गया है।
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पांडर-पुष्पिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्, टाप्, इत्व] सातला वृक्ष।
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पाँडरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख।
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पांडव  : वि० [सं० पांडु+अण्] पांडु संबंधी। पांडु का। पुं० १. कुंती और माद्री के गर्भ से उत्पन्न राजा पांडु के ये पाँचों पुत्र—युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। २. प्राचीन काल में पंजाब का एक प्रदेश जो वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे था। ३. उक्त प्रदेश का निवासी। ४. रहस्य संप्रदाय में, पाँचों इंद्रियाँ।
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पांडव-नगर  : पुं० [सं० ष० त०] हस्तिनापुर।
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पांडवाभील  : पुं० [सं० पांडव-अभी, ष० त०√ला (लेना)+क] श्रीकृष्ण।
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पांडवायन  : पुं० [सं० पांडव-अयन, ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पांडविक  : पुं० [सं० पांडु+ठञ्—इक] एक तरह की गौरैया।
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पांडवीय  : वि० [सं० पांडव+छ—ईय] पांडु के पुत्रों से संबंध रखनेवाला पांडवों का।
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पांडवेय  : पुं० [सं० पांडु+अण्+ङीष्+ठक्—एय] १. पाँडव। २. राजा परीक्षित का एक नाम।
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पांडित्य  : पुं० [सं० पंडित+ष्यञ्] १. पंडित होने की अवस्था या भाव। २. पंडित या विद्वान् को होनेवाला ज्ञान। विद्वता।
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पांडीस  : स्त्री० [?] तलवार। (डिं०)
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पांडु  : वि० [सं०√पंड् (गति)+कु, नि. दीर्घ] [भाव० पांडुता] हलके पीले रंग का। पुं० १. पांडु फली। २. सफेद रंग। ३. कुछ लाली लिये पीला रंग। ४. त्वचा के पीले पड़ने का एक रोग। पीलिया। ५. हस्तिनापुर के प्रसिद्ध राजा जिनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये पाँच पुत्र थे। ६. सफेद हाथी। ७. एक नाग का नाम। ८. परवल।
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पाँडुआ  : पुं० [सं०] वह जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। दोमट जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडु-कंटक  : पुं० [ब० स०] अपामार्ग। चिचड़ा।
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पांडु-कंबल  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर।
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पांडुकंबली (लिन्)  : स्त्री० [सं० पांडुकंबल+इनि] ऊनी कंबल से आच्छादित गाड़ी।
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पाँडुक  : पुं०=पंडुक (पेंडकी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पांडुक  : पुं० [सं० पाण्डु+कन्] १. पीला रंग। २. पीलिया रोग। ३. पांडुराजा(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पांडु-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार व्रण-चिकित्सा का एक अंग जिससे फोड़े के अच्छे हो जाने पर उसके काले वर्ण को औषधि के प्रयोग में पीला बनाते हैं।
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पांडु-क्ष्मा  : स्त्री० [ब० स० ?] हस्तिनापुर का एक नाम।
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पांडु-चित्र  : पुं० [सं०] आलेख।
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पांडु-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धौ का पेड़।
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पांडुता  : स्त्री० [सं० पांडु+तल्+टाप्] पांडु होने की अवस्था या भाव। पीलापन।
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पांडु-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक तीर्थ।
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पांडु-नाग  : पुं० [उपमि० स०] १. पुन्नाग वृक्ष। २. [कर्म० स०] सफेद हाथी। ३. सफेद साँप।
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पांडु-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] रेणुका नामक गंध-द्रव्य।
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पांडु-पुत्र  : पुं० [ष० त०] राजा पांडु का पुत्र। पाँचों पांडवों में से प्रत्येक।
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पांडु-पृष्ठ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी पीठ सफेद हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, (वह व्यक्ति) जिससे शरीर पर कोई शुभ लक्षण न हो। ३. अकर्मण्य। निकम्मा।
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पांडु-फला  : पुं० [ब० स०, टाप्] परवल।
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पांडु-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का छोटा क्षुप।
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पांडु-मृत्तिका  : स्त्री० [कर्म० स०] १. खड़िया। दुधिया मिट्टी। २. राम-रज नाम की पीली मिट्टी।
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पांडु-रंग  : पुं० [सं० पांडुर-अंग, ब० स०, शक०, पररूप] १. एक प्रकार का साग जो वैद्यक के अनुसार स्वाद में तिक्त और कृमि, श्लेष्मा, कफ आदि का नाश करनेवाला माना जाता है। २. पुराणानुसार विष्णु के एक अवतार।
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पांडुर  : वि० [सं० पांडु+र] १. पीला। जर्द। २. सफेद। श्वेत। पुं० १. धौ का पेड़। सफेद ज्वार। ३. कबूतर। बगला। ५. सफेद खड़िया। ६. कामला रोग। ७. सफेद कोढ़। ८. कार्तिकेय के एक गण का नाम। ९. सर्प। साँप। १॰. साधु-संतों की आध्यात्मिक परिभाषा में, अज्ञान।
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पांडुरक  : वि० [सं० पाण्डुर+कन्] पांडु रंग का। पीला। पुं० १. पीला रंग। २. पीलिया।
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पांडुर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कुटज। कुड़ा। कुरैया।
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पांडु-पृष्ठ  : पुं०=पांडुपृष्ठ।
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पांडुर-फली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक प्रकार का छोटा क्षुप]
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पांडुरा  : स्त्री० [सं० पांडुर+टाप्] १. मषवन। माषपर्णी। २. ककड़ी। ३. बौद्धों की एक देवी या शक्ति।
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पांडु-राग  : पुं० [ब० स०] दौना नाम का पौधा। पुं० [कर्म० स०] सफेद रंग। सफेदी।
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पांडुरिमा  : स्त्री० [सं० पांडुर+इमनिच्] हलका पीलापन।
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पांडुरेक्षु  : पुं० [सं० पांडुर+इक्षु, कर्म० स०] हलके पीले रंग की ईख।
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पांडुलिपि  : स्त्री० [सं०] १. पुस्तक, लेख आदि की हाथ की लिखी हुई वह प्रति जो छपने को हो। (मैनस्क्रिष्ट) २. दे० ‘पांडुलेख’।
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पांडु-लेख  : पुं० [कर्म० स०] १. हाथ से लिखा हुआ वह आरंभिक लेख जिसमें काँट-छाँट, परिवर्तन आदि होने को हो। २. उक्त का काट-छाँट कर तैयार किया हुआ वह रूप जो प्रकाशित किये या छापा जाने को हो। (ड्राफ्ट) ३. पांडुलिपि।
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पांडु-लेखक  : पुं० [ष० त० ?] वह जो लेख आदि की पांडु-लिपि लिखकर तैयार करता हो। (ड्राफ्टमैन)
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पांडु-लेखन  : पुं० [ष० त० ?] लेख्य आदि की पांडुलिपि तैयार करने का काम। (ड्राफ्टिंग)।
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पांडु-लेख्य  : पुं० [कर्म० स०] १.=पांडुलिपि। २.=पांडुलेख।
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पांडु-लोमश  : वि० [कर्म० स०,+श] [स्त्री० पांडुलोमशा] सफेद रोएँवाला। जिसके रोयें या बाल सफेद हों।
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पांडु-लोमशा  : स्त्री० [सं० पांडुलोमश्+टाप्] मषवन। माषपर्णी।
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पांडु-लोमा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पांडु-लोमशा। (दे०)
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पांडु-शर्करा  : स्त्री० [ब० स०] प्रमेह रोग का एक भेद।
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पांडुशर्मिला  : स्त्री० [सं०] द्रौपदी।
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पांडू  : स्त्री० [सं० पांडु=पीला] १. हलके पीले रंग की मिट्टी। २. ऐसी कीचड़ जिसमें बालू भी मिला हो। ३. ऐसी भूमि जिसमें वर्षा के जल से ही उपज होती हो। बारानी।
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पाँडे  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. दे० ‘पाण्डेय’। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. भोजन बनानेवाला ब्राह्मण। रसोइया। ४. पंडित। विद्वान। (क्व०)
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पांडेय  : पुं० [सं० पंडा या पंडित] १. कान्यकुब्ज और सरयूपारी ब्राह्मणों की शाखाओं का अल्ल या उपाधि। २. कायस्थों की एक शाखा। ३. दे० ‘पाँडे’।
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पाँत  : स्त्री०=पंक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँतरना  : अ० [सं० पीत्रल] १. गलती या भूल करना। २. मूर्खता करना। उदा०—प्रमणै पित मात पूत मत पांतरि।—प्रिथीराज।
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पाँतरिया  : वि० [सं० पत्रल] जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। उदा०—पांतरिया माता इ पिता।—प्रिथीराज।
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पांति  : स्त्री० [सं० पांक्ति] १. अवली। कतार। पंगत। २. बिरादरी के वे लोग जो साथ बैठकर भोजन कर सकते हों।
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पांथ  : वि० [सं० पथिन्+अण्, पन्थ-आदेश] १. पथिक। २. वियोगी। विरही। पुं० सूर्य। पुं०=पंथ (रास्ता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पांथ-निवास  : पुं० [ष० त०]=पांथ-शाला।
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पांथ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] पथिकों और यात्रियों के ठहरने के लिए रास्ते में बनी हुई जहग (इमारत या घर)। जैसे—धर्मशाला, सराय, होटल आदि।
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पाँपणि  : स्त्री० [हिं० पश्चिमी हि० पपनी] पलक। उदा०—पाँपणि पंख सँवारि नवी परि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँय  : पुं०=पाँव।
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पाँयचा  : पुं० [फा०] १. पाखानों आदि में बना हुआ पैर रखने के वे ईटें या पत्थर जिन पर पैर रखकर शौच से निवृत्त होने के लिए बैठते हैं। २. पाजामें की मोहरी का वह अंश जो घुटनों के नीचे तक रहता है।
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पाँयता  : पुं०=पैंताना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाँव  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव] १. जीव-जंतुओं, पशुओं और विशेषतः मनुष्य के नीचेवाले वे अंग जिनकी सहायता से चलते-फिरते अथवा जिनके आधार पर वे खड़े होते हैं। पैर। पद—पाँव का खटका=दे० ‘पैर की आहट।’ पाँव की जूती=बहुत ही तुच्छ या हीन वस्तु या व्यक्ति। पाँव की बेड़ी=ऐसा बंधन जो किसी की स्वच्छंद गति या रहन-सहन में बाधक हो। मुहा०—(किसी काम या बात में) पाँव अड़ाना=दे० ‘टाँग’ के अंतर्गत ‘टाँग अड़ाना।’ पाँव उखड़ जाना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत’ ‘पैर उखड़ना या उखड़ जाना’। पाँव उखाड़ना=दे० ‘पैर’ के अंर्तगत। पाँव उठाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव खींचना=व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना या घूमना-फिरना छोड़ देना। पाँव गाड़ना=दे० नीचे ‘पाँव रोपना’। पाँव घिसना=(क) बार-बार कहीं बहुत अधिक आना-जाना। (ख) दे० नीचे ‘पाँव रगड़ना’। (किसी स्त्री के) पाँव छुड़ाना= उपचार, औषध आदि की सहायता से ऐसा उपाय करना कि रुका हुआ मासिक रज-स्त्राव फिर से होने लगे। (किसी स्त्री के) पाँव छूटना=(क) स्त्री का मासिकधर्म से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से या रजस्वला होना। (ख) रोग आदि के कारण असाधारण रूप से और अपेक्षया अधिक समय तक रज-स्त्राव होता रहना। (किसी के ) पाँव छूना=किसी बड़े का आदर या सम्मान करने के लिए उसके पैरों पर हाथ रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। पाँव ठहरना=दृढ़तापूर्वक या स्थिर भाव से कहीं खड़े होना। ठहरना या रुकना। पाँव तोड़कर बैठना=स्थायी रूप और स्थिर भाव से एक जगह पर रहना और व्यर्थ इधर-उधर आना-जाना बंद कर देना (किसी के) पाँव दबाना या दाबना=थकावट दूर करने या आराम पहुँचाने के लिए टाँगे दबाना। (किसी काम या बात में) पाँव धरना= किसी काम में अग्रसर या प्रवृत्त होना। (किसी के) पाँव धरना या पकड़ना=किसी प्रकार का आग्रह, विनती आदि कहते मनाने के लिए किसी के पाँव पर हाथ रखना। उदा०—अब यह बात यहाँ जानि ऊधौ, पकरति पाँव तिहारे।—सूर। (किसी जगह) पाँव धरना या रखना=कहीं जाना या जाकर पहुँचना। पैर रखना। जैसे—अब कभी उन के यहाँ पाँव न रखना। (किसी जगह) पाँव धारना=कृतज्ञतापूर्वक पदार्पण करना। उदा०—धन्य भूमि वन पंथ पहारा। जँह जँह नाथ पाँव तुम धारा।—तुलसी। (किसी के) पाँव धोकर पीना=(क) चरणामृत लेना। (ख) बहुत अधिक पूज्य तथा मान्य समझकर परम आदर, भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट करना। पाँव निकालना=(क) कहीं चलने या जाने के लिए पैर उठाना या बढ़ाना। (ख) नियंत्रण आदि की उपेक्षा करते हुए कोई नई प्रवृत्ति विशेषतः अनिष्ट या अवांछित प्रवृत्ति के लक्षण दिखलाना। जैसे—तुम तो अभी से पाँव निकालने लगे। (किसी का) पाँव पड़ना=आगमन होना। आना। जैसे—आपके पाँव पड़ने से यह घर पवित्र हो गया। (किसी के) पाँव पड़ना=(क) झुककप या पैर छूकर नमस्कार करना। (ख) अपनी प्रार्थना या विनती मनवाने के लिए बहुत ही दीनतापूर्वक आग्रह करना। (किसी के) पाँव पर गिरना=दे० ऊपर ‘(किसी से) पाँव पड़ना’। पाँव पर पाँव रखकर बैठना=काम-धंधा छोड़ बैठना या पड़े रहना। निठल्ले की तरह बैठना। (किसी के) पाँव पर पाँव रखना=दूसरे के चरण चिह्नों का अनुकरण करना। किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। (किसी के) पाँव पर सिर रखना=दे० ऊपर ‘(किसी के) पाँव पड़ना’। पाँव पलोटना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर दबाना’। पाँव पसारना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत ‘पैर फैलाना’। पाँव-पाँव चलना=पैदल चलना। जैसे—अब कुछ दूर पाँव-पाँव भी चलो। (किसी को) पाँव पारना=पैरों पड़ने के लिए विवश करना। उदा०—कहाँ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं।—सूर। पाँव पीटना=(क) बेचैनी या यंत्रणा से पैर पटकना। छटपटाना। (ख) बहुत अधिक दौड़-धूप या प्रयत्न करना। (किसी के) पाँव पूजना=बहुत अधिक भक्ति या श्रद्धा दिखाते हुए आदर-सत्यार करना। (वर के) पाँव पूजना=विवाह में कन्या कुल के लोगों का वर का पूजन करना और कन्यादान में योग देना। (किसी के) पाँव फूलना=भय, शंका आदि से ऐसी मनोदशा होना कि आगे बढ़ने का साहस न हो। (प्रसूता का) पाँव फेरने जाना=बच्चा हो जाने पर शुभ शकुन में प्रसूता का अपने मायके में कुछ दिनों तक रहने के लिए जाना। (वधू का) पाँव फेरने जाना=विवाह होने पर ससुराल आने के बाद वधू का पहले-पहल कुछ दिनों तक अपने मायके में रहने के लिए जाना। पाँव फैलाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बढ़ाना=दे० ‘पैर’ के अंतर्गत। पाँव बाहर निकालना=पाँव निकालना। पाँव रगड़ना=(क) बहुत दौड़-धूप करना। (ख) कष्ट या पीड़ा से छटपटाना। (किसी काम या बात के लिए) पाँव रोपना=(क) दृढ़तापूर्वक प्रण या प्रतिज्ञा करना। (ख) हठ करना। अड़ना। (किसी के) पाँव लगाना=पैरों पर सिर रखकर नमस्कार या प्रणाम करना। (किसी स्थान का) पाँव लगा होना=किसी स्थान से इस रूप में ज्ञात या परिचित होना कि उस पर चल-फिर चुकें हों। जैसे—वहाँ का रास्ता हमारे पाँव लगा है, आप से आप ठीक जगह पहुँच जाता हूँ। (किसी काम या बात से) पाँव समेटना=अलग, किनारे या दूर हो जाना। संबंध न रखना। छोड़ देना। जैसे—अब काम में हमने पाँव समेट लिये। विशेष—यों ‘पाँव’ और ‘पैर’ एक दूसरे के पर्याय या समानक ही है, फिर भी ‘पाँव’ पुराना और पूर्वी शब्द है, तथा ‘पैर’ अपेक्षया आधुनिक और पश्चिमी शब्द है। अधिकतर पुराने प्रयोग या मुहावरे ‘पैर’ से संबद्ध है, और ‘पाँव’ की तुलना में ‘पैर’ अधिंक प्रचलित तथा शिष्ट-सम्मत हो गया है। फिर भी बोल-चाल में लोग यह अंतर न जानने या न समझने के कारण दोनों शब्दों के मिले-जुले प्रयोग करते हैं जिससे दोनों के मुहावरे भी बहुत कुछ मिल-जुल गये हैं। यहाँ दोनों के विशिष्ट प्रयोगों और मुहावरों से कुछ अंतर रखा गया है। अतः पाँव के शेष प्रयोगों और मुहावरों के लिए ‘पैर’ के मुहावरे देखने चाहिए। २. कोई ऐसा आधार जिस पर कोई चीज या बात टिकी या ठहरी रहे। मुहा०—पाँव कट जाना=आधार या आश्रम नष्ट हो जाना (किसी के) पाँव न होना=(क) ऐसा कोई आधार या आश्रम न होना जिस पर कोई टिक या ठहर सके। जैसे—इस बात का न कोई सिर है न पाँव। (ख) खड़े रहने या ठहरने की शक्ति न होना। जैसे—चोर के पाँव नहीं होते, अर्थात् उसमें ठहरने या सामने आने का साहस नहीं होता।
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पाँव-चप्पी  : स्त्री० [हिं० पाँव+चापना=दबाना] पैर दबाने की क्रिया या भाव।
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पांवचा  : पुं०=पाँयचा।
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पाँवड़ा  : पुं० [हिं० पाँव+ड़ा (प्रत्य०)][स्त्री० पाँवड़ी] १. वह कपड़ा जो किसी बड़े और पूज्य व्यक्ति के मार्ग में इस उद्देश्य से बिछाया जाता है कि वह इस पर से हो कर चले। २. वह कपड़ा या ऐसी ही और कोई चीज जो पैर पोंछने के लिए कहीं पड़ा या बिछा रहता हो। पाँवदान। ३. दे० ‘पाँवड़ी’।
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पाँवड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी (प्रत्य०)] १. खड़ाऊँ। २. जूता। ३. सीढ़ी। सोपान। ४. ऐसी चीज या जगह जिस पर प्रायः पैर रखे जाते या पड़ते हों। ५. गोटा-पट्ठा बिननेवालों का एक औजार जो बुनते समय पैरों से दबाकर रखा जाता है और जिससे ताने के तार ऊपर उठते और नीचे गिरते रहते हैं। स्त्री० [हिं० पौरि, पौरी] १. वह कोठरी जो किसी घर के भीतर घुसते ही रास्ते में पड़ती हो। ड्योढ़ी। पौरी। २. बैठने का ऊपरी कमरा। बैठक। ३. ‘पौरी’।
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पाँवर  : वि०=पामर। पुं०=पाँवड़ा। स्त्री०=पाँवड़ी।
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पाँवरी  : स्त्री०=पाँवड़ी।
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पांशन  : वि० [सं०√पंस् (नाश करना)+ल्यु—अन, दीर्घ, पृषो०] १. कलंकित करनेवाला। भ्रष्ट करनेवाला। २. दुष्ट। ३. हेय। (प्रायः समास में व्यवहृत) जैसे—पौलस्त्य-कुल-पांशन। पुं० १. अपमान। २. तिरस्कार।
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पांशव  : पुं० [सं० पांशु+अण्] रेह का नमक।
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पांशु  : स्त्री०[सं०√पंस् (श्)+उ, दीर्घ] १. धूलि। रज। २. बालू। ३. गोबर की खाद। पाँस। ४. पित्त पापड़ा। ५. एक प्रकार का कपूर। ६. भू-संपत्ति। जमीन। जायदाद।
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पांशु-कसीस  : पुं० [उपमि० स०] कसीस।
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पांशुका  : स्त्री० [सं० पांशु√कै (चमकना)+क+टाप्] केवड़े का पौधा।
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पांशुकुली  : स्त्री० [सं० पांशु√कुल, (इकट्ठा होना)+क+ङीष] राजमार्ग।
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पांशु-कूल  : पुं० [ष० त०] १. धूल का ढेर। २. चीथड़ों आदि को सीकर बनाया हुआ बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का वस्त्र। ३. गुदड़ी। ४. वह दस्तावेज या लेख्य जो किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम न लिखा गया हो।
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पांश-कृत  : वि० [तृ० त०] १. धूल के ढका हुआ। २. पीला पड़ा हुआ। ३. मैला-कुचैला।
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पांशु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पाँगा नमक।
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पांशु-चंदन  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पांशु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांशुज  : पुं० [सं० पांशु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] नोनी मिट्टी से निकाला हुआ नमक।
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पांशु-धान  : पुं० [ष० त०] धूल का ढेर।
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पांशु-पटल  : पुं० [ष० त०] किसी चीज पर जमी धूल की तह या परत।
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पांशु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुआ (साग)।
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पांश-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांशुर  : पुं० [सं० पांशु√रा (देना)+क] १. डाँस। २. खंज। ३. पंगु व्यक्ति।
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पांशु-रागिनी  : स्त्री० [सं० पांशु√रञ्ज् (रंगना)+घिनुण्+ ङीप्] महामेदा।
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पांशु-राष्ट्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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पांशुल  : वि० [सं० पांशु+लच्] [स्त्री० पांशुला] १. जिस पर गर्द या धूल पड़ी हो। मैला-कुचैला। २. पर-स्त्री-गामी। व्यभिचारी। पुं० १. पूतिरकंज। २. शिव।
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पांशुला  : स्त्री० [सं० पांशुल+टाप्] १. कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री। २. राजस्वला स्त्री। ३. जमीन। भूमि। ४. केतकी।
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पाँस  : स्त्री० [सं० पांशु] १. राख, गोबर, मल, मूत्र आदि, सड़ी-गली चीजें जो खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें डाली जाती हैं। खाद। क्रि० प्र०—डालना।—देना। २. कोई चीज सड़ाकर उठाया जानेवाला खमीर। ३. विशेषतः मधु आदि का वह खमीर जो शराब बनाने के लिए उठाया जाता है। क्रि० प्र०—उठाना।
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पाँसना  : स० [हिं० पाँस+ना (प्रत्य०)] खेत में पाँस या खाद डालना।
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पाँसा  : पुं०=पासा।
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पाँसी  : स्त्री० [सं० पाश] घास, भूसा आदि बाधने के लिए रस्सियों की बनी हुई बड़ी जाली। जाला।
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पांसु  : स्त्री० [√पंस्+उ, दीर्घ]=पांशु।
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पांसु-क्षार  : पुं० [उपमि० स०] पांगा नमक।
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पांसु-खुर  : पुं० [ब० स०] घोड़ों के खुरों का एक रोग।
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पांसु गुंठित  : वि० [तृ० तृ०] धूल से ढका हुआ।
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पांसु-चदन  : पुं० [ब० स०] शिव। महादेव।
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पांसु-चत्वर  : पुं० [तृ० त०] ओला।
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पांसु-चामर  : पुं० [ब० स०] १. बड़ा खेमा। तंबू। २. नदी का ऐसा किनारा जिस पर दूब जमी हो। ३. धूल। ४. प्रशंसा।
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पांसुज  : वि० [सं० पांसु√जन्+ड] पाँगा नमक।
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पांसु-पत्र  : पुं० [ब० स०] बथुए का साग।
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पांसु-भव  : पुं० [ब० स०] पाँगा नमक।
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पांसु-भिक्षा  : स्त्री० [सं० पांसु√भिक्ष् (याचना)+अङ्—टाप्] धौ का पेड़।
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पांसु-मर्दन  : पुं० [ब० स०] १. थाला। २. क्यारी।
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पांसुर  : पुं० [सं० पांसु√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का बड़ा मच्छड़। दंश। डाँस। २. लूला-लँगड़ा जीव या प्राणी।
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पांसुरागिणी  : स्त्री० [सं० दे० ‘पांशुरागिनी’] महामेदा।
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पाँसुरी  : स्त्री०=पसली।
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पांसुल  : वि० [सं० पांसु+लच्] १. धूल से लथ-पथ। २. मलिन। मैला। ३. पापी। ४. पर-स्त्रीगामी। पुं० शिव।
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पांसुला  : वि० [सं० पांसुल+टाप्] १. व्यभिचारिणी (स्त्री)। २. रजस्वला (स्त्री)। स्त्री० १. पृथ्वी। २. केतकी।
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पाँसु  : पुं० [हिं० पाँस+ऊ (प्रत्य०)] कुम्हारों का एक उपकरण जिससे वे गीली मिट्टी चलाते और सानते हैं।
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पाँही  : अव्य० [हिं० पँह] १. निकट। पास। समीर। २. प्रति।
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पा  : पुं० [सं० पाद से फा०] पैर। पाँव। वि० १. दृढ़ पैरोंवाला। २. अधिक समय तक टिकने या ठहरनेवाला। टिकाऊ (यौ० के अंत में) जैसे—देर-पा=देर तक ठहरनेवाला।
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पा-अंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज] वह छोटा बिछावन जो कमरों के दरवाजों पर पैर पोंछने के लिए रखा जाता है। पावदान। उदा०—दृग-पग पोंछन कौं कियो भूषण पायन्दाज (पा-अंदाज)।—बिहारी।
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पाइ  : पुं०=पा (पैर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—
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पाइक  : वि०, पुं०=पायक। स्त्री०=पताका।
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पाइफा  : पुं० [अं०] आकार के विचार से टाइपों का एक भेद जिसका मुद्रित रुप १।६ इंच के बराबर होता है।
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पाइट  : स्त्री० [अं० फ्लाइट] बाँसों, तख्तों आदि को रस्सियों से बाँधकर खडा किया हुआ वह ढाँचा जिस पर खड़े होकर राज-मजदूर दीवारें आदि बनाते तथा उन पर पलस्तर, चूना, रंग आदि करते हैं।
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पाइतरी  : स्त्री०=पायँता (खाट या बिस्तर का)।
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पाइदेल  : वि०, पुं०=पैदल।
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पाइप  : पुं० [अं०] १. नल या नली। २. किसी प्रकार का नल जिसके अंदर से होकर कोई चीज एक जगह से दूसरी जगह जाती हो। जैसे—पानी का पाइप, गैस का पाइप। ३. तमाकू पीने की एक प्रकार की पाश्चात्य नली। ४. बांसुरी की तरह का एक प्रकार का पाश्चात्य बाजा।
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पाइपोस  : पुं०=पापोश (जूता)।
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पाइमाल  : वि०=पायमाल।
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पाइरा  : पुं० [हिं० पाँव+रा (प्रत्य०)] घोड़े की जीन-सवारी के साज में की रकाब।
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पाइरिल्ला  : पुं० [सं०] भूरे रंग का एक तरह का थूथनदार कीड़ा दो गन्ने के पौधों की पत्तियाँ खाता है।
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पाइल  : स्त्री०=पायल।
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पाइलट  : पुं० [अं०] वायुयान चालक।
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पाई  : वि० [फा० पाईन] १. सामनेवाला। २. नीचेवाला। ३. अंतिम।
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पाईबाग  : पुं० [फा०+अ०] घर के साथ लगा हुआ बाग। नजरबाग।
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पाई  : स्त्री० [सं० पाद, पुं० हिं० पाय] १. खड़ी या सीधी या सीधी लकीर। २. वह छोटी खड़ी रेखा जो वाक्य के अंत में पूर्णविराम सूचित करने के लिए लगाई जाती हैं। लेखों आदि में पूर्णविराम का सूचक चिह्न। ३. पाँ। पैर। ४. घेरा बाँध कर चलने या नाचने की किया या भाव। ५. पतली छड़ियों या बेतों का बना हुआ। जुलाहों का एक ढाँचा जिस पर ताने का सूत फैलाकर उन्हें मांजते हैं। टिकटी। अट्ठा। मुहा०—ताना-पाई करना=बार-बार इधर से उधर और उधर से इधर आते-जाते रहना। ६. ताने का सूत माँजने की क्रिया। ७. घोड़ों के पैर सजने का एक रोग। ८. ताँबे का एक पुराना छोटा सिक्का जो एक पैसे के तिहाई मूल्य का होता था और जिसका चलन अब उठ गया है। ९. ताँबें का पैसा। (पूरब) १॰. वह पिटारी जिसमें देहाती स्त्रियाँ साधारण गहने-कपड़े रखती हैं। स्त्री० [हिं० पाना=प्राप्त करना] प्राप्त करने अर्थात् पाने की क्रिया या भाव। जैसे—भर-पाई की रसीद। स्त्री० [हिं० पाया=पाई कीड़ा] एक प्रकार का छोटा लंबा कीड़ा जो घुन की तरह अन्न में लगाकर उसे खा जाता है और उसे अंकुरित होने के योग्य नहीं रहने देता। क्रि० प्र०—लगना। स्त्री० [अं०] १. ढेर के रूप में मिले हुए छापे के टाइप। २. छापेखाने में सीसे के वे अक्षर या टाइप जो घिस-पिस अथवा टूट-फूट जाने के कारण निकम्मे या रद्दी हो गये हों, और ढेर के रूप में अलग रख दिये गये हों। ३. छापेखाने में सीसे के अक्षरों या टाइपों का वह ढेर जो अव्यवस्थित रूप से कहीं पड़ा हो।
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पाईगाह  : स्त्री० [फा० पाएगाह] १. अश्वाला। तबेला। २. किसी बडे आदमी के प्रासाद या महल की ड्योढ़ी(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पाईता  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक मगण, एक भगण और एक सगण होता है।
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पाउँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउंड  : पुं० [अ०] १. सोने की एक अंगरेजी सिक्का। २. सात या साढ़े सात छटाँक के लग-भग की एक तौल।
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पाउंड पावना  : पुं० [अं० पाउँड+हिं० पावना] पाउंडों के रूप में प्राप्त विदेशी मुद्रा। विशेषतः ब्रिटेन से किसी देश के पावने की वह रकम जो बैंक आफ इंग्लैंड में जमा रहती है और उसके साथ हुए समझौते की शर्तों के अनुसार कमशः चुकाई जाती है। (स्टलिंग बैलेन्स)
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पाउ  : पुं०=पाँव। पुं०=पाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाउडर  : पुं० [अं०] १. कोई ऐसी चीज जो पीसकर बहुत महीन कर दी गई हो। चूर्ण। बुकनी। २. वह सुगंधित चूर्ण या बुकनी जो स्त्रियाँ अपने चेहरे तथा अन्य अंगों पर उन की रंगत चमकाने और सुन्दर बनाने के लिए लगाती हैं।
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पाउस  : पुं०=पावस (वर्षा ऋतु)।
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पाक  : पुं० [सं०√पच् (पकाना)+घञ्] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। रींधना। २. किसी चीज के ठीक तरह से पके या पचे हुए होने की अवस्था या भाव। ३. पकाया हुआ भोजन। रसोई। ४. वह औषध या फल जो शीरे में पकाया गया हो। जैसे—बदाम पाक, मेवा पाक, सुपारी पाक। ५. खाये हुए पदार्थ के पचने की क्रिया या भाव। पचन। ६. श्राद्ध में पिंडदान के लिए पकाया हुआ चावल या खीर। ७. किसी चीज या बात का अपने पूर्ण रूप में पहुँचना, अथवा उचित और यथेष्ट रूप मे परिपुष्ट तथा परिवृद्ध होना। ८. एक दैत्य जो इंद्र के हाथों मारा गया था। वि० १. छोटा। २. प्रशंसनीय। ३. परिपुष्ट तथा पूर्ण अवस्था में पहुँचा हुआ। ४. ईमानदार। सच्चा । ५. अनजान। वि० [फा०] १. पवित्र। निर्मल। विशुद्ध। जैसे—पाक नजर, पाक मुहब्बत। पद—पाक-साफ=(क) पवित्र और स्वच्छ। (ख) निष्कलंक। २. साफ। स्वच्छ। ३. दोषों आदि से रहित । निर्दोष। ४. धार्मिक दृष्टि से पवित्र, सदाचारी और पूज्य। ५. किसी आवांछित अंश या तत्त्व से रहति। जैसे—यह जायदाद सब तरह के झगड़ों से पाक है। मुहा०—(जानवर) पाक करना=जबह किये हुए पशु या पक्षी के पर, रोएँ आदि काटकर अलग करना। झगड़ा पाक करना=(क) झगड़डा तै करना या निपटाना। (ख) झंझट, बाधा आदि दूर, नष्ट या समाप्त करना। (ग) (विरोधी, वैरी आदि का) अंत या नाश करना। पुं० पाकिस्तान का संक्षिप्त रूप। जैसे—भारत-पाक में समझौता।
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पाक-कर्म  : पुं०=पाक-क्रिया।
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पाक-कृष्ण  : पुं० [ब० स०] १. जंगली करौंदा। २. पानी आँवला ।
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पाक-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] १. भोजन आदि पकाने की क्रिया या भाव। २. पाचन क्रिया।
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पाकज  : वि० [सं० पाक√जन्+ड] पाक से उत्पन्न। पुं० १. कचिया नमक। २. भोजन के ठीक प्रकार से न पचने पर पेट में होनेवाला शूल।
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पाकजाद  : वि० [फा० पाकाजादः] शुद्ध तथा स्वच्छ प्रकृतिवाला। शुद्घात्मा।
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पाकट  : पुं०=पाकेट। वि०=पाकठ। वि०=पाकठा।
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पाकठ  : वि० [हिं० पकना] १. अच्छी तरह पका हुआ। २. यथेष्ट चुतर या चालाक। दक्ष। होशियार। जैसे—अब यह लड़का दूकानदारी के काम में पाकठ हो गया है। ३. दृढ़। मजबूत।
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पाकड़  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की जाति का एक बड़ा पेड़। पाकढ़।
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पाक-दामन  : वि० [फा०] [भाव० पाकदामनी] जिसका चरित्र पवित्र और निष्कलंक हो। (विशेष रूप से स्त्रियों के लिए प्रयुक्त)।
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पाकदामिनी  : स्त्री० [फा०] ‘पाकदामन’ होने की अवस्था। (स्त्री का) सदाचार या सच्चरित्रता।
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पाक द्विष  : पुं० [सं० पाक√द्विष् (शत्रुता करना)+ क्विप्] इंद्र।
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पाकना  : अ०=पकना। स०=पकाना।
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पाकबाज  : वि० [फा० पाक+बाज] [भाव० पाकबाजी] सदाचारी।
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पाक-पात्र  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा बरतन जिसमें भोजन पकाया या बनाया। जाता हो।
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पाक-पुटी  : स्त्री० [च० त०] कच्ची मिट्टी के बरतन पकाने का आँवाँ।
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पाक-फल  : पुं० [ब० स०] १. करौंदा। २. पानी अमला।
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पाक-भांड  : पुं०=पाक-पात्र। (दे०)।
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पाक-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] १. वृषोत्सर्ग, गृह-प्रतिष्ठा आदि के समय किया जानेवाला होम जिसमें खीर की आहुति दी जाती है। २. पंच महायज्ञ में ब्रह्मयज्ञ के अतिरिक्त अन्य चार यज्ञ—वैश्वदेव होम, बलि-कर्म, नित्य श्राद्ध और अतिथि-भोजन।
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पाक-याज्ञिक  : वि० [सं० पाक-यज्ञ+ठञ—इक] १. पाकयज्ञ-संबंधी। पाक-यज्ञ का। २. पाक यज्ञ करनेवाला ३. पाक यज्ञ से उत्पन्न। पुं० वह ग्रंथ जिसमें पाक-यज्ञ के विधान आदि बतलाये गये हों।
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पाक-रंजन  : पुं० [सं० पाक√रञ्ज्+णिच्+ल्यु—अन] तेजपत्ता।
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पाकर  : पुं० [सं० पर्कटी] बरगद की तरह का एक प्रकार का बड़ा वृक्ष।
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पाकरिपु  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाकरी  : स्त्री० [हिं० पाकर का स्त्री० अल्पा० रूप] छीटा पाकर।
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पाकल  : पुं० [सं० पाक√ला (लेना)+क] १. वह दवा जिससे कुष्ठ अच्छा होता हो। कुष्ठ रोग की दवा। २. फोड़ा पकानेवाली दवा। ३. अग्नि। आग । ४. एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पित्त प्रबल, वात मध्य और कफहीन अवस्था में होता है। वैद्यक के अनुसार इसका रोगी प्रायः तीन दिन में मर जाता है। ५. हाथी को आने-वाला ज्वर या बुखार।
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पाकलि, पाकली  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्विप्√कल् (गिनती करना)+इन्] [सं० पाकलि+डीष्] काकड़ासींगी। कर्कटी।
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पाक-शाला  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ भोजन पकाया या बनाया जाता हो। रसोई-घर।
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पाकशासन  : पुं० [सं० पाक√शास् (शासन करना)+ ल्यु—अन] इंद्र।
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पाक-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें विभिन्न खाद्य पदार्थों या व्यंजन बनाने की कला, प्रकियायों आदि का विवेचन होता है।
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पाक-शुक्ला  : स्त्री० [स० त०] खड़िया मिट्टी।
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पाक-स्थली  : स्त्री० [ष० त०] पक्वाशय।
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पाकहंता (तृ)  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पाका  : पुं० [हिं० पकाना] १. शरीर के विभिन्न अंगों के पकने की क्रिया या भाव । २. फोड़ा। वि०=पक्का।
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पाकागार  : पुं० [सं० पाक-आगार, ष० त०] पाकशाला।
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पाकात्यय  : पुं० [सं० पाक-अत्यय, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें उसका काला भाग सफेद हो जाता है। पुलती का सफेद हो जाना।
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पाकाभिमुख  : वि० [सं० पाक-अभिमुख, स० त०] जो पक रहा हो अथवा पूर्ण रूप से पकने को हो।
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पाकारि  : पुं० [पाक-अरि, ष० त०] १. इंद्र। २. सफेद कचनार।
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पाकिट  : पुं० १.=पाकेट। २.=पैकेट। वि०=पाकठ।
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पाकिस्तान  : पुं० [फा०] भारत का विभाजन करके बनाया हुआ वह मुसलमानी राज्य जिसका कुछ अंश भारत के पश्चिम में और कुछ पूर्व में है। पश्चिमी पाकिस्तानी में सिंध, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत तथा पूर्वी पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल नामक प्रदेश है।
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पाकिस्तानी  : वि० [फा०] १. पाकिस्तान देश संबंधी। पाकिस्तानी का। २. पाकिस्तान में होनेवाला। पुं० पाकिस्तान में रहनेवाला व्यक्ति।
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पाकी  : स्त्री० [फा०] १. पाक होने की अवस्था या भाव। २. निर्मलता। शुद्धता। ३. पवित्रता। पावनता। मुहा०—पाकी लेना=उपस्थ पर के बाल साफ करना।
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पाकीजा  : वि० [फा० पाकीज
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पाकु  : वि० [स० √पच्+उण्] १. पकानेवाला। २. [√पच्+उकञ] पचानेवाला। पाचकी। पुं० बावरची। रसोइया।
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पाकेट  : पुं० [अं० पाकेट] जेब। खीसा। मुहा०—पाकेट गरम होना=(क) पास में धन होना। (ख) अनुचित या अवैध रूप से किसी प्रकार की प्राप्ति या लाभ होना। पुं०=पैकेट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [?] ऊँट। (डिं०)
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पाक्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्] १. जो पकाया जाने को हो। २. पचने योग्य। पुं० १. काला नमक। २. साँभर नमक। ३. जवाखार। ४. शोरा।
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पाक्य-क्षार  : [कर्म० स०] १. जवाखार नमक। २. शोरा।
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पाक्यज  : पुं० [सं० पाक्य√जन्+ड] कचिया नमक।
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पाक्या  : स्त्री० [सं० पाक्य+टाप्] १. सज्जी। २. शोरा।
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पाक्ष  : वि०=पाक्षिक। पुं०=पक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाक्षपातिक  : वि० [सं० पक्षपात+ठक—इक] १. पक्षपात करनेवाला। फूट डालनेवाला । २. पक्षपात के रूप में होनेवाला।
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पाक्षायण  : वि० [सं० पक्ष+फक्—आयन] १. जो पक्ष (१५ दिन) में एक बार हो या किया जाय। पाक्षिक। २. पक्ष (१५ दिन) का।
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पाक्षिक  : वि० [सं० पक्ष+ठञ्—इक] १. चांद्र मास के पक्ष से संबंध रखनेवाला। २. जो एक पक्ष (१५ दिन) में एक बार होता हो। जैसे—पाक्षिक अधिवेशन, पाक्षिक पत्र या पत्रिका। (फोर्टनाइटली)। ३. किसी प्रकार का पक्षपात करनेवाला। पक्षपाती । तरफदार। ४. (पिंगल में छंद) जिसमें (पक्ष के रूप में) दो मात्राएँ हों। ५. वैकल्पित। पुं० १. पक्षियों को फँसा या मारकर जीविका चलानेवाला व्यक्ति बहेलिया। २. ब्याध। शिकारी। ३. विकल्प।
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पाखंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप् पा√खंड (खंडन करना)+अण्] [वि० पाखंडी] १. वेदों की आज्ञा, मत या सिद्धांत के विरुद्ध किया जानेवाला आचरण। २. धार्मिक क्षेत्र में, अपने धर्म पर सच्ची निष्ठा और भक्ति रखते हुए केवल लोगों को दिखलाने के लिए झूठ-मूठ बढ़ा-चढ़ाकर किया जानेवाला पाठ-पूजन तथा अन्य धार्मिक आचार-व्यवहार। ३. लौकिक क्षेत्र में, वे सभी में, वे सभी आचार-व्यवहार जो झूठ-मूठ अपने आपको धर्म-परायण, नीति-परायण और सत्यनिष्ठ सिद्ध करने के लिए किये जाते हैं। अपना छल-कपट, धूर्तता, स्वार्थ-परता आदि छिपाने के लिए किया जानेवाला आचार-व्यवहार। आडंबर। ढकोसला। ढोंग (हिपोक्रिसी) मुहा०—पाखंड फैलाना=दूसरों को ठगने और धोखे में रखने के लिए आडंबरपूर्ण थोथे उपाय रचना। दुष्ट उद्देश्य से ऐसा दिखावटी काम करना जो अच्छे इरादे से किया हुआ जान पड़े। ढकोसला खड़ा करना। जैसे—बाबाजी ने गाँव में खूब पाखंड फैला रखा था। ४. वह व्यय जो किसी को धोखा देने के लिए किया जाय। ५. दुष्टता। पाजीपन। शरारत। ६. नीचता। वि०=पाखंडी।
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पाखंडी (डिन्)  : वि० [सं० पाखंड+इनि] १. वेद-विरुद्ध आचार करनेवाला। २. वेदाचार का खंडन या निंदा करनेवाला। ३. बनावटी धार्मिकता, सदाचार आदि दिखलानेवाला। ४. दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए आडंबर या ढोंग रचनेवाला।
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पाख  : पुं० [सं० पक्ष] १. चांद्रमास का कोई पक्ष। २. महीने का आधा समय। पंद्रह दिन का समय। पखवाड़ा। ३. कच्चे मकानों की दीवारों के वे ऊँचे भाग जिन परबँड़ेर रहती है। ४. पंख। पर।
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पाखर  : स्त्री० [सं० पक्षर, प्रक्खर] १. युद्धकाल में, घोड़ों या हाथियों पर डाली जानेवाली एक तरह की लोहे की झूल। २. उक्त झूल के वे भाग जो दोनों ओर झूलते रहते हैं। ३. जीन। ४. ऐसा टाट या और कोई मोटा कपड़ा जिस पर मोम, राल आदि का लेप किया हुआ हो। (ऐसा कपड़ा जल्दी भीगता या सड़ता-गलता नहीं है।) पुं०=पाकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखरी  : स्त्री० [हिं० पाखर=झूल] टाट का बिछावन जिसे गाड़ी में बिछाते हैं तब उसमें अनाज भरतें हैं।
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पाखा  : पुं० [सं० पक्ष, प्रा० पक्ख] १. कोना। छोर। २. कुछ दीवारों में ऊपर की ओर की वह रचना जो बीच में सबसे ऊँची और दोनों ओर ढालुई होती है। (ऐसी रचना इसलिए होती है कि उसके ऊपर ढालई छत या छाजन डाली जा सके) ३. दरवाजों के दोनों ओर के वे स्थान जिनके साथ, दरवाजे के खुले होने की अवस्था में किवाड़ लगे या सटे रहते हैं। ४. पाख।
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पाखान  : पुं०=पाषाण (पाथर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाखान भेद  : पुं०=पाषाण भेद।
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पाखाना  : पुं० [फा० पाखान
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पाग  : पुं० [सं० पाक] १. वह खाद्य पदार्थ जो चाशनी या शीरे में पकाकर तैयार किया गया हो। जैसे—कोंहड़ा-पाग, बादाम-पाग। २. वह शोरा जिसमें रसगुल्ला, गुलाबजामुन आदि मिठाइयाँ भीगी पड़ी रहती हैं। ३. पागी हुई कोई ओषधि या फूल। पाक।
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पागड़  : पुं०=पाइरा (रकाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागना  : सं० [सं० पाक] १. खाने की किसी चीज को चाशनी या शीरे में कुछ समय तक डुबाकर रखना। २. ऐसी किया करना जिससे किसी चीज पर शीरे का लेप चढ़े। अ०=पगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पागर  : स्त्री० [देश०] वह लंबी रस्सी जिसका एक सिरा नाव के मस्तूल में बँधा रहता है और दूसरा सिर किनारे पर खड़ा आदमी, खींचते हुए किसी दिशा में नाव को ले जाता है।
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पागल  : वि० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्, पा√गल् (स्खलित होना)+अच्] [स्त्री० पगली] [भाव० पागलपन] १. जिसका मस्तिष्क उन्मादरोग के कारण इतना विकृत हो गया हो कि ठीक तरह से कोई काम या बात न कर सके। जिसके मस्तिष्क का संतुलन नष्ट हो चुका या बिगड़ गया हो। बावला। विक्षिप्त। २. जो कष्ट, कोध, प्रेम या ऐसे ही किसी तीव्र मनोविकार से अभिभूत होने के कारण सब प्रकार का ज्ञान या विवेक खो बैठा हो। जैसे—वह क्रोध (या प्रेम) में पागल हो रहा था। ३. जो किसी काम में इतना अनुरक्त, आसक्त या लीन हो रहा हो कि उसे और कामों या बातों की सुध-बुध न रह गई हो। जैसे—आज-कल तो वह चुनाव के फेर में पागल हो रहा है। ४. जो इतना ना-समझ या मूर्ख हो कि प्रायः पागलों या विक्षिप्तों का-सा आचरण या उन जैसी बातें करता हो। जैसे—यह लड़का भी निरा पागल है।
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पागलखाना  : पुं० [हिं० पागल+फा० खाना] वह स्थान जहाँ विक्षिप्त व्यक्तियों को रखकर उनकी चिकित्सा की जाती है तथा जहाँ पर उनके रहने का भी प्रबंध रहता है।
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पागलपन  : पुं० [हिं० पागल+पन (प्रत्य०)] १. पागल होने की अवस्था या भाव। २. वह आचरण कार्य या बात जो पागल लोग साधारणतया करते हों। जैसे—बच्चे को रह-रहकर मारने लगना उनका पागलपन है। ३. बेवकूफी।
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पागलिनी  : स्त्री०=पागल (स्त्री)।
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पागली  : स्त्री०=पगली।
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पागुर  : पुं० दे० ‘जुगाली’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाघ  : स्त्री०=पाग (पगड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाचक  : वि० [सं० √पच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाचिका] किसी प्रकार का पाचन करने (पकाने या पचाने) वाला। पाचन की किया करनेवाला। पुं० १. वह जो भोजन पकाता या बनाता हो। बावर्ची। रसोइया। २. वह दवा जो खाई हुई चीज पचाती या पाचन शक्ति बढ़ाती हो। ३. कुछ विशिष्ट प्रक्रियाओं से बनाया हुआ वह अवलेह या चूर्ण जो प्रायः क्षारीय ओषधियों से बनाया जाता है और जिसका स्वाद खट-मीठा, नमकीन या मीठा होता है। ४. वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर रहनेवाले पाँच प्रकार के पित्तों में से एक जिसकी सहायता से भोजन पचता है। ५. वह अग्नि जिसका उक्त पित्त में अधिष्ठान माना जाता है।
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पाचन  : पुं० [सं०√पच्+णिच,+ल्युट्—अन] १. आग पर चढ़ाकर खाने-पीने की सामग्री पकाना। भोजन बनाना। २. पेट में पहुँचने पर खाये हुए पदार्थों के पचने या हजम होने की क्रिया। खाद्य पदार्थों के पेट में पहुँचने पर शारीरिक धातुओं के रूप में होनेवाला परिवर्तन। ३. पेंट के अंदर की वह शक्ति जो एक प्रकार की अग्नि के रूप में मानी गई है और जिसकी सहायता से खाई हुई चीज पचती या हजम होती है। जठराग्नि। हाजमा। ४. कोई ऐसा अम्ल या खट्टा रस जो भोजन के पचने में सहायक होता हो अथवा जिससे पेट के अंदर का मल या अपक्व दोष दूर करता हो। ५. कोई पाचक औषध। ६. लाक्षणिक रूप में, किसी प्रकार के दोष या विकार का धीरे-धीरे कम होकर नष्ट या शमित होना। जैसे—पाप या रोग का पाचन। ७. आग या अग्नि जिसकी सहायता से खाने-पीने की चीजें पकाई जाती हैं। ९. लाल रेंड। विं० १. खाई हुई चीजें पचाने या हजम करनेवाला। हाजिम। २. किसी प्रकार के अजीर्ण या आधिक्य का नाश या शमन करनेवाला।
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पाचनक  : पुं० [सं०√पच्+णिच्+ल्यु—अन+कन्] सुहागा।
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पाचन-गण  : पुं० [ष० त०] पाचन ओषधियों का वर्ग।
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पाचन-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. खाये हुए पदार्थों को पचाने की शक्ति या समर्थता। २. हाजमा।
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पाचना  : स० १.=पकाना। २. पचाना।
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पाचनी  : स्त्री० [सं० पाचन+ङीष्] हड़।
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पाचनीय  : वि० [सं०√पच्+णिच्+अनीयर्] १. जो पकाया जा सके। २. जो पचाया जा सके।
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पाचयिता (तृ)  : वि० [सं०√पच्+णिच्+तृच] १. पाक करनेवाला। २. पचानेवाला।
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पाचर  : पुं०=पच्चर।
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पाचल  : वि० [सं०√पच्+णिच्+कलन्] १. पकानेवाला। २. पचानेवाला। पुं० १. रसोइया। २. आग्नि । ३. वायु। ४. पकाई जानेवाली वस्तु। ५. पचानेवाली वस्तु।
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पाचा  : पुं० [सं० पाक] १. भोजन पकने या पकाने की क्रिया। पाक। २. भोजन पचने या पचाने की क्रिया। पाचन।
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पाचा-पाड़  : पुं० [हिं० पाँच+पाड़=किनारा] जनानी धोतियों का वह प्रकार जिसमें लम्बाई के बल ऊपर और नीचे जैसे दो किनारे बने हुए होते हैं, वैसे ही तीन किनारे बीच मे भी बुने रहते हैं। स्त्री० वह जनानी धोती या साड़ी जिसमें उक्त प्रकार के पाँच (तीन) किनारे बुने हुए हों।
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पाचिका  : स्त्री० [सं० पाचक+टाप्, इत्व] रसोई बनानेवाली स्त्री।
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पाचो  : वि० [सं०√पच्+णिच्+इन्+ङीष्] पाचन करनेवाला। स्त्री० पच्ची या मर्कतपत्री नाम की लता।
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पाच्छा, पाच्छाह  : पुं०=बादशाह।
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पाच्य  : वि० [सं०√पच्+ण्यत्, कुत्वाभाव] १. जो पच या पक सकता हो। २. पकाने या पचाने योग्य।
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पाछ  : स्त्री० [हिं० पाछना] १. पाछने अर्थात् जंतु या पौधे के शरीर पर धूरी की तीखी धार लगाकर उसका रक्त या रस निकालने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। २. उक्त कार्य के लिए लगाया हुआ क्षत या किया हुआ घाव । ३. पोस्ते के डोंडे पर छुरी से किया जानेवाला वह क्षत जिसमें से गोंद के रूप में अफीम बाहर निकलती है। पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] किसी चीज का पिछला भाग। पीछा। अव्य०=पीछे।
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पाछना  : स० [हिं० पंछा] किसी जीव या पौधे की त्वचा या खाल पर इस प्रकार हलका घाव करना जिससे उसका रक्त या रस थोड़ा थोड़ा करके बाहर निकलने लगे।
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पाछल, पाछुल  : वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पीछे।
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पाछा  : पुं० १. दे० ‘पाछ’। २. दे० ‘पीछा’।
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पाछिल  : विं०=पिछला।
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पाछी  : अव्य० [हिं० पाछ] पीछे की ओर। पीछे।
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पाछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाछें, पाछे  : अव्य०=पीछे।
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पाज  : पुं० [सं० पाजस्य] १. पार्श्व । पार्श्वभाग । २. पंजर। पुं० १. सेतु। पुल। २. आधार। ३. जड़। ४. ढेर। राशि। ५. वज्र।
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पाजरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार की वनस्पति जिसकी पत्तियों से एक प्रकार का रस निकाला जाता है।
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पाजस्य  : पुं० [सं०√पा+असुन्, जुट्+यत्] पार्श्व। बगल।
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पाजा  : पुं०=पायजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाजामा  : पुं० [फा० पाजामः या पाएजामः] एक तरह का सिला हुआ वस्त्र जो कमर से ऐडी तक का भाग ढकने के लिए पहना जाता है और जो ऊपरी भाग के नेफे में नाला डालकर कमर में बाँधा जाता है।
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पाजी  : पुं० [सं० पत्ति, प्रा० पडित से फा०] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। २. पैदल सेना का सिपाही। प्यादा। ३. चौकीदार। पहरेवादार। ४. साथ चलने या रहनेवाला व्यक्ति। साथी। ५. तुच्छ सेवाएँ करनेवाला नौकर। खिदमतगार। टहलुआ। वि० [फा०] [भाव० पाजीपन] जो प्रायः अपने दुष्ट आचरण या व्यवहार से सबको तंग या परेशान करता रहता हो। दुष्ट। लुच्चा।
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पाजीपन  : पुं० [हिं० पाजी+पन (प्रत्य०)] पाजी या दुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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पाजेब  : स्त्री० [फा० पाज़ेब] पैरों में पहनने का स्त्रियों का एक प्रसिद्ध आभूषण। मंजीर। नूपुर।
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पांटबर  : पुं० [सं० पट्ट+अम्बर] रेशमी वस्त्र। रेशमी कपड़ा।
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पाट  : पुं० [सं० पट्ट, पाट] १. रेशम। २. रेशम का बटा हुआ महीन डोरा। नख। ३. एक प्रकार का रेशम का कीड़ा। ४. पटसन। ५. कपड़ा। वस्त्र। पद—पाट पटंबर=अच्छे अच्छे और कई तरह के कपड़े। ६. बैठने का पाटा या पीढ़ा। ७. राज-सिंहासन। ८. चौड़ाई के बल का विस्तार। जैसे—नदी का पाट। ९. किसी प्रकार का तख्ता, पटिया या शिला। १॰. पत्थर की वह पटिया जिस पर धोबी कपड़े धोते हैं। ११. चक्की के दोनों पल्लों में से हर एक। १२. लकड़ी के वे तख्ते जो छत पाटने के काम आते है। १३. वह चिपटा शहतीर जिस पर कोल्हू हाँकनेवाला बैठता है। १४. वह शहतीर जो कूएँ के मुँह पर पानी निकालनेवाले के खड़े होने के लिए रखा जाता है। १५. बैलों का एक रोग जिसमें उनके रोमकूपों में से रक्त निकलता है। क्रि० प्र०—फूटना। १६. मृदंग के चार वर्णों में से एक।
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पाटक  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ण्वुल—अक] १. एक तरह का बाजा। २. गाँव या बस्ती का आधा भाग। ३. तट। किनारा । ४. पासा। ५. एक तरह की बड़ी कलछी।
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पाट-करण  : पुं० [सं० ब० स०] शुद्ध जाति के रोगों का एक भेद।
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पाचच्चर  : वि० [सं० पटच्चर+अण्] चुरानेवाला।
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पाटदार  : वि०=पल्लेदार (आवाज)।
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पाटन  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+ल्युट्—अन] चीरने-फाड़ने अथवा तोड़ने-फोड़ने की क्रिया या भाव। स्त्री० [हिं० पाटना] १. पाटने की क्रिया या भाव। पटाव। २. वह छत दीवारों को पाटकर बनाई गई हो। ३. घर के ऊपर का दूसरा खंड या मंजिल। ४. साँप का जहर झाड़ने का एक प्रकार का मंत्र। पुं० [सं० पत्तन] नगर या बस्ती के नाम के अंत में लगनेवाली ‘पत्तन’ सूचक संज्ञा। जैसे—झालरापाटन। स्त्री० [अं० पैटर्न] पुस्तक की जिल्द के रूप में बँधी हुई वे दफ्तियाँ जिन पर ग्राहकों या व्यापारियों को दिखाने के लिए कपड़ों आदि के नमूने के टुकड़े चिपकाये रहते हैं।
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पाटना  : स० [सं० पाट] १. खाई, गड्ढे आदि में इतना भराव भरना जिससे वह आस-पास की जमीन के बराबर और समतल हो जाय। २. कमरे के संबंध मे उसकी चारों ओर की दीवारों के ऊपरी भाग के खुले अवकाश को बंद करने के लिए उस पर छत या पाटन बनाना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, किसी स्थान पर किसी चीज की बहुतायत या भरमार करना। जैसे—माल से बाजार पाटना। ४. लाक्षणिक रूप में, (क) ऋण आदि चुकाना, (ख) पारस्पिक दूरी, मत-भेद, विरोध आदि का अंत या समाप्ति करना। ५. दे० ‘पटाना’।
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पाटनि  : स्त्री० [सं० पट्ट] १. सिर के बालों की पट्टी। २. दे० ‘पाटना’।
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पाटनीय  : वि० [सं०√पट्+णिच्+अनीयर्] चीरे-फाड़े या तोड़े-फोड़े जाने के योग्य।
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पाटप  : वि० [हिं० पाट] सबसे बड़ा। उत्तम। श्रेष्ठ। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाट-महिषी  : स्त्री० [सं० पट्ट =सिहासन्,+ महिषी= रानी] किसी राजा की वह विवाहिता और बड़ी रानी जो उसके साथ सिंहासन पर बैठती अथवा उस पर बैठने की अधिकारिणी हो। पटरानी।
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पाटरानी  : स्त्री०=पटरानी।
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पाटल  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+कलप] १. पाडर या पाढर नामक पेड़, जिसके पत्ते आकार-प्रकार में बेल वृक्ष के पत्तों के समान होते हैं। २. गुलाब। वि० १. गुलाब-संबंधी। २. गुलाब के रंग का। उदा०—कर लै प्यौ पाटल बिमल प्यारी।—बिहारी।
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पाटलक  : वि० [सं० पाटल+कन्] पाटल के रंग का। गुलाबी रंग का। पुं० गुलाबी रंग।
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पाटलकीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कीड़ा।
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पाटल-द्रुम  : पुं० [सं० उपमि० स०] पुन्नाग वृक्ष। राज-चंपक।
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पाटला  : स्त्री० [सं० पावल+टाप्] १. पाडर का वृक्ष। २. लाललोध। ३. जलकुंभी। ४. दुर्गा का एक रूप। पुं० [सं० पटल] एक प्रकार का बढ़िया और साफ सोना।
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पाटलवती  : स्त्री० [सं० पाटला+मतुप्, वत्व,+ङीष्] १. दुर्गा। २. एक प्राचीन नदी।
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पाटलि  : स्त्री० [सं०√पट्+णिच्+अलि] १. पाडर का वृक्ष। २. पांडुफली।
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पाटलिक  : वि० [सं० पाटलि+कन्] १. जो दूसरों के भेद या रहस्य जानता हो। २. जिसे देश और काल का ज्ञान हो। पुं० १. चेला। शिष्य। २. पाटलिपुत्र नगर।
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पाटलित  : भू० कृ० [सं० पाटल+णिच्+क्त] गुलाबी रंग में रँगा हुआ।
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पाटलि-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त० ?] अज्ञातशत्रु द्वारा बसाई हुई प्राचीन मगध की एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी जो आधुनिक पटना नगर के पास थी। पुष्पपुर। कुसुमपुर। विशेष—कुल लोग वर्तमान पटने को ही पाटिलपुत्र समझते हैं परंतु पटना शेरशाह सूरी का बसाया हुआ है।
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पाटलिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पाटल+इमनिच्] १. गुलाबी रंग। २. गुलाबी रंगत। ३. गुलाबी होने की अवस्था या भाव। गुलाबीपन।
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पाटली  : स्त्री० [सं० पाटलि+ङीष्]=पाटलि।
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पाटली-तैल  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का औषध तैल जिसके लगाने से जले हुए स्थान की जलन, पीड़ा और चेप बहना दूर होता है।
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पाटलीपुत्र  : पुं०=पाटलिपुत्र।
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पाटव  : पुं० [सं० पटु+अण्] १. पटुता। २. दृढ़ता। मजबूती। ३. जल्दी। शीघ्रता। ४. आरोग्य। ५. शक्ति।
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पाटविक  : वि० [सं० पाटव+ठन्—इक] १. पटु। कुशल। २. चालाक। धूर्त।
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पाटवी  : वि० [हिं० पाट+वी (प्रत्य०)] १. रेशम का बना हुआ। रेशमी। २. पटरानी संबंधी। पटरानी का। ३. पटरानी से उत्पन्न। ४. सर्वश्रेष्ठ। पुं० पटरानी का पुत्र।
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पाटसन  : पुं०=पटसन।
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पाटहिक  : पुं० [सं० पटह+ठञ्—इक] नगाड़ा बजानेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाटहिका  : स्त्री० [सं० पटह+अण्, पाटह+ठञ्—इक+टाप्] गुंजा। घुँघची।
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पाटा  : पुं० [हिं० पाट] [स्त्री० अल्पा० पाटी] १. बैठने का काठ का पीढ़ा। मुहा०—पाटा फेरना=विवाह में कन्यादान के उपरांत वर के पीढ़े पर कन्या और कन्या के पीढ़े पर वर को बैठाना। २. राज-सिंहासन। ३. लंबी धरन की तरह की वह आयताकार लकड़ी जिसकी सहायता से जोते हुए खेत की मिट्टी के ढेले तोड़कर उसे समतल करते हैं। ४. उक्त प्रकार का लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा राज लोग दीवारों का पलस्तर बराबर या समतल करते हैं। क्रि० प्र०—चलाना।—फेरना। ५. दो दीवारों के बीच में तख्ता, पटिया आदि लगाकर बनाया हुआ आधार स्थान।
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पाटि  : स्त्री० १.=पाट। २.=पाटी।
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पाटिका  : स्त्री० [सं० पाटक+टाप्, इत्व] १. एक दिन की मजदूरी। २. एक पौधा। ३. छाल। छिलका।
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पाटित  : भू० कृ० [सं०√पट्+णिच्+क्त] जो चीरा-फाड़ा अथवा तोड़ा-पोड़ा गया हो।
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पाटी  : भू० कृ० [सं०√पट्+इन्+ङीष्] १. परिपाटी। अनुक्रम। रीति। २. गणित-शास्त्र। हिसाब। ३. श्रेणी। पंक्ति। ४. बला नामक क्षुप। खरैंटी। स्त्री० [हिं० पाटा का स्त्री० रूप] १. लकड़ी की वह तख्ती या पट्टी जिस पर विद्यारंभ करनेवाले बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखाया जाता है। २. बच्चों को पढ़ाया जानेवाला पाठ। सबक। मुहा०—पाटी पढ़ना=(क) पाठ पढ़ना। सबक लेना। (ख) किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करना; विशेषतः ऐसी शिक्षा प्राप्त करना जो दुष्ट उद्देश्य से दी गई हो और जिसमें शिक्षा प्राप्त करनेवाले ने अपनी बुद्धि या विवेक का उपयोग न किया हो। ३. माँग के दोनों ओर गोंद, जल, तेल, आदि की सहायता से कंघी द्वारा बैठाये हुए बाल जो देखने में पटरी की तरह बराबर मालूम हों। पट्टी। पटिया। मुहा०—पाटी पारना या बैठाना=कंघी फेरकर सिर के बालों को समतल करके बैठना। उदा०—पाटी पारि अपने हाथ बेनी गुथि बनावे।—भारतेंदु। ४. खाट, पलंग आदि के चौखट की लंबाई के बल की लकड़ी। ५. चौड़ाई। ६. चट्टान। शिला। ७. मछली पकड़ने के लिए एक विशिष्ट प्रकार की क्रिया जिसमें बहते हुए पानी को मिट्टी के बाँध या वृक्षों की टहनियों आदि से रोक कर एक पतले मार्ग से निकलने के लिए बाध्य करते हैं, और उसी मार्ग पर उन्हें पकड़ते हैं। ८. खपरैल की नरिया का प्रत्येक आधा भाग। ९. जंती।
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पाटीगणित  : पुं० [सं०] गणित की वह शाखा जिसमें ज्ञात अंकों या संख्याओं की सहायता से अज्ञात अंक या संख्याएँ जानी जाती हैं। (एरिथिमेटिक)
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पाटीर  : पुं० [सं० पटीर+अण्] १. चंदन का वृक्ष और उसकी लकड़ी। २. खेत जोतन का हल। ३. खेत।
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पाटूनी  : पुं० [देश०] वह मल्लाह जो किसी घाट का ठीकेदार भी हो घटवार।
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पाट्य  : पुं० [सं०√पट्+णिच्+यत्] पटसन।
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पाठ  : पुं० [सं०√पठ् (पढ़ना)+घङ्] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़ाई। २. वह विषय जो पढ़ा जाये। ३. किसी ग्रंथ का उतना अंश जितना एक दिन या एक बार में गुरु या शिक्षक से पढ़ा जाय। सबक। (लेसन) मुहा०—(किसी को) पाठ पढ़ाना=दुष्ट उद्देश्य से किसी को कोई बात अच्छी तरह समझना। पट्टी पढ़ाना। (व्यंग्य)। पाठ फेरना=बार-बार दोहराना। उद्धरणी करना। उलटा पाठ पढ़ाना=कुछ का कुछ समझा देना। उलटी-पुलटी बातें कहकर बहका देना। ४. नियमपूर्वक अथवा श्रद्धा-भक्ति से और पुण्य-फल प्राप्त करने के उद्देश्य से कोई धर्मग्रंथ पढ़ने की क्रिया या भाव। जैसे—गीता या रामायण का पाठ। ५. किसी पुस्तक के वे अध्याय जो प्रायः एक दिन में या एक साथ पढ़ाये जाते हैं; और जिनमें एक ही विषय रहता है। ६. किसी ग्रंथ या लेख के किसी स्थल पर शब्दों या वाक्यों का विशिष्ट क्रम वा योजना। (टैक्स्ट) जैसे—अमुक पुस्तक में इस पद का पाठ कुछ और ही है। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पठ्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाठक  : वि० [सं०√पठ्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पाठिका] १. पाठ पढ़नेवाला। २. पाठ करनेवाला। ३. पाठ पढ़ानेवाला। पुं० १. विद्यार्थी। २. अध्यापक। ३. धर्मोपदेशक। ४. ब्राह्मणों की एक जाति। ५. आज-कल समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं आदि की दृष्टि में वे लोग जो समाचार-पत्र आदि पढ़ते हों।
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पाठच्छेद  : पुं० [ष० त०] एक पाठ की समाप्ति होने पर और अगले पाठ के आरंभ किये जाने से पहले होनेवाला विराम।
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पाठ-दोष  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के शब्दों के वर्णों तथा वाक्यों के शब्दों की अशुद्ध या भ्रामक योजना।
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पाठन  : पुं० [सं०√पठ्+णिच्+ल्युट्—अन] १. पाठ पढ़ाना। २. पढ़कर सुनाना। ३. वक्तृता देना।
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पाठना  : स० [सं० पाठन] पढ़ाना।
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पाठ-निश्चय  : पुं० [ष० त०] किसी ग्रंथ के पाठ के अनेक रूप मिलने पर विशिष्ट आधारों पर उसके शुद्ध पाठ का किया जानेवाला निश्चय।
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पाठ-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-प्रणाली  : स्त्री० [ष० त०] पढ़ने की रीति या ढंग।
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पाठ-भू  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ वेदादि ग्रंथों का पाठ होता या किया जाता हो। २. ब्राह्मण्य।
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पाठ-भेद  : पुं० [ष० त०] वह भेद या अंतर जो एक ही ग्रंथ की दो प्रतियों के पाठ में कही-कहीं मिलता हो। पाठांतर।
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पाठ-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] मैना। सारिका।
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पाठ-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ विद्यार्थियों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है।
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पाठशालिनी  : स्त्री० [सं० पाठ√शल् (गति)+णिनि+ङीप्] मैना। सारिका।
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पाठशाली (लिन्)  : वि० [सं० पाठशाला+इनि] पाठ पढ़नेवाला। पुं० विद्यार्थी।
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पाठशालीय  : वि० [सं० पाठशाला+छ—ईय] पाठशाला-संबंधी। पाठशाला का।
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पाठांतर  : पुं० [सं० पाठ-अंतर, मयू० स०] किसी एक ही पुस्तक की विचित्र हस्तलिखित प्रतियों में अथवा विभिन्न संपादकों द्वारा संपादित प्रतियों में होनेवाला शब्दों अथवा उनके वर्णों के क्रम में होनेवाला भेद।
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पाठा  : स्त्री० [सं०√पठ्+घञ्+टाप्] पाढ़ा नाम की लता। वि० [सं० पुष्ट] [स्त्री० पाठी] १. हृष्ट-पुष्ट। २. पट्ठा। जवान। पुं० जवान बकरा, बैल या भैंसा। २. गाय-बैलों की एक जाति। (बुंदेलखंड)
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पाठागार  : पुं० सं० [पाठ-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर किसी विषय का अध्ययन, या ग्रंथों का पाठ किया जाता हो। (स्टडी रूम)
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पाठालय  : पुं० [पाठ-आलय, ष० त०] पाठशाला।
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पाठालोचन  : पुं० [सं० पाठ-आलोचन, ष० त०] आज-कल साहित्यिक क्षेत्र में, इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में कैसा और क्या रहा होगा। किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का ऐसा निर्धारण जो पूरा छान-बीन करके किया जाय। (टेक्सचुअल क्रिटिसिज़म) विशेष—इस प्रकार का पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक की देख-रेख में न हुआ हो।
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पाठिक  : वि० [सं० पाठ+ठन्—इक] जो मूल पाठ के अनुसार हो।
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पाठिका  : वि० [सं० पाठक+टाप्, इत्व] पाठक का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० पाठा। पाढ़ा।
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पाठित  : भू० कृ० [सं०√पठ्+णिच्+क्त] (पाठ) जो पढ़ाया जा चुका हो।
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पाठी (ठिन्)  : वि० [सं० पाठ+इनि] समस्त पदों के अंत में, पाठ करनेवाला या पाठक। जैसे—वेद-पाठी, सह-पाठी। पुं० [पाठा+इनि] चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष।
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पाटीकुट  : पुं० [सं० पाठा√कुट् (टेढ़ा होना)+क, पृषो० सिद्धि] चीते का पेड़।
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पाठीन  : वि० [सं० पाठि√नम् (झुकना)+ड, दीर्घ] पढ़ानेवाला। पुं० १. पहिना (मछली)। २. गूगल का पेड़।
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पाठ्य  : वि० [सं०√पठ्+ण्यत् या√पठ्+णिच्+यत्] १. जो पढ़ा या पढ़ाया जाने को हो। २. पढ़ने या पढ़ाये जाने के योग्य।
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पाठ्य-क्रम  : पुं० [ष० त०] वे सब विषय तथा उनकी पुस्तकें जो किसी विशिष्ट परीक्षा में बैठनेवाले परीक्षार्थियों के लिए निर्धारित हों। (कोर्स)
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पाठ्य-ग्रंथ  : पुं० [सं०] पाठ्य-पुस्तक। (दे०)
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पाठ्य-चर्या  : स्त्री० [सं०] वह पुस्तिका जिसमें विभिन्न परीक्षाओं के लिए निर्धारित विषयों तथा तत्संबंधी पाठ्य-क्रमों का उल्लेख होता है। (करिक्यूलम)
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पाठ्य-पुस्तक  : स्त्री० [कर्म० स०] वह पुस्तक जो पाठशालाओं में विद्यार्थियों को नियमित रूप से पढ़ाई जाती हो। पढ़ाई की पुस्तक। (टेक्स्ट बुक)
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पाड़  : पुं० [हिं० पाठ] १. धोती, साड़ी का किनारा। २. मंचान। ३. लकड़ी की वह जाली या ठठरी जो कूएँ के मुँह पर रखी रहती है। कटकर। चह। ४. पानी आदि रोकने का पुश्ता या बाँध। ५. वह तख्ता जिस पर अपराधी को फाँसी देने के समय खड़ा करते हैं। टिकठी। ६. इमारत बनाने के लिए खड़ा किया जानेवाला बांसों का ढाँचा। पाइट। उदा०—बोसे की गर हविस हो तो गिर्द उसके पाड़ बाँध।—कोई शायर। ७. दो दीवारों के बीट पटिया देकर या पाटकर बनाया हुआ आधार। पाटा। दासा।
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पाडल  : पुं०=पाटल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाडलीपुर  : पुं०=पाटलीपुत्र।
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पाड़प्तालो  : पुं० [देश०] १. दक्षिण भारत के जुलाहों की जाति। २. उक्त जाति का जुलाहा।
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पाड़ा  : पुं० [सं० पट्टन] १. किसी बस्ती में कुछ घरों का अलग विभाग या समूह। डोला। मुहल्ला। जैसे—धोबी पाड़ा, मोची पाड़ा। २. खेत की सीमा या हद। पुं० [हिं० पाठा] [स्त्री० पड़िया, पाड़ी] भैंस का बच्चा। पँड़वा। पुं० [देश०] एक तरह की बड़ी समुद्री मछली।
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पाडिनी  : स्त्री० [सं०√पड् (इकट्ठा होना)+णिनि+ङीष्] हाँड़ी। हँड़िया।
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पाढ़  : पुं० [सं० पाट, हिं० पाटा] १. पीढ़ा। २. पाटा। ३. गहनों पर नक्काशी करने का सुनारों का एक उपकरण। ४. लकड़ी की एक प्रकार की सीढ़ी। ५. मचान। पुं०=पाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़त  : स्त्री० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ने की क्रिया या भाव। पढ़त। २. वह जो पढ़ा जाय। वह जिसका पाठ किया जाय। ३. मंत्र जो पढ़कर फूँका जाता है। ४. कोई पवित्र पद या वाक्य जिसका जप किया जाता हो। उदा०—स्वाय जात जब आवत, पाढ़त जाय।—नूर मुहम्मद।
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पाढ़र  : पुं० [सं० पाटल] १. पाडर का पेड़। २. एक प्रकार का टोना।
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पाढ़ल  : पुं०=पाटल।
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पाढ़ा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बारहसिंघा जिसकी खाल भूले या हलके बादामी रंग की होती है और जिस पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। चित्रमृग। पुं०=पाठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाढ़ित  : वि० [हिं० पढ़ना] १. पढ़ा हुआ। २. जिसे पढ़ा जाय।
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पाढी  : स्त्री० [देश०] १. सूत की लच्छी। २. यात्रियों को नदी के पार पहुँचानेवाली नाव।
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पाण  : पुं० [सं०√पण् (व्यवहार)+घञ्] १. व्यापार। व्यवसाय। २. व्यापारी। ३. दाँव। बाजी। ४. संधि। समझौता। ५. हाथ। ६. प्रशंसा।
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पाणही  : स्त्री०=पनही (जूता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाणि  : पुं० [सं०√पण्+इण] हाथ। कर।
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पाणिक  : वि० [सं० पण+ठक्—इक] १. व्यापार या व्यापारी-संबंधी। २. दाँव या बाजी लगाकर जीता हुआ। पुं० १. व्यापारी। २. सौदा। ३. हाथ। ४. कार्तिकेय का एक गण।
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पाणि-कच्छपिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कूर्ममुद्रा।
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पाणि-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. शिव। २. वह जो हाथ से कोई बाजा बजाता हो; या ऐसा ही और कोई काम करता हो। ३. हाथ का कारीगर। दस्तकार।
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पाणिकर्ण  : पुं०=पाणिकर्मा (शिव)।
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पाणिका  : स्त्री० [सं० पाणि+कन्+टाप्] एक प्रकार का गीत।
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पाणि-गृहीता  : वि० [ब० स०, टाप्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण किया गया हो। विवाहिता (पत्नी)।
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पाणि-गृहीती  : वि० [ब० स०, ङीष्] (स्त्री) जिसका पाणिग्रहण संस्कार हो चुका हो। विवाहिता।
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पाणि-ग्रह  : पुं० [सं०√ग्रह् (पकड़ना)+अप्, ष० त०] पाणिग्रहण। (दे०)
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पाणि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] १. किसी स्त्री० को पत्नी रूप में रखने और उसका निर्वाह करने के लिए उसका हाथ पकड़ना। २. हिंदुओं में विवाह की एक रसम जिसमें वर उक्त उद्देश्य से अपनी भावी पत्नी का हाथ पकड़ता है।
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पाणिग्रहणिक  : वि० [सं० पाणिग्रहण+ठक्—इक] पाणिग्रहण या विवाह-संबंधी। विवाह के समय का। जैसे—पाणिग्रहणिक उपहार, पाणिग्रहणिक मंत्र।
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पाणिग्रहणीय  : वि० [सं० पाणिग्रहण+छ—ईय]= पाणिग्रहणिक।
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पाणिग्राह, पाणि-ग्राहक  : वि० [सं० पाणि√ग्रह्+अण्] [ष० त०] किसी का हाथ पकड़नेवाला। पाणिग्रहण करनेवाला। पुं० वर जो विवाह के समय कन्या का हाथ पकड़ता है।
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पाणि-ग्राह्य  : वि० [तृ० त०] १. जो मुट्ठी में आ सके या प्राप्त किया जा सके। २. जिसका पाणिग्रहण किया जा सके। जिसके साथ विवाह किया जा सके।
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पाणिघ  : पुं० [सं० पाणि√हन् (हिंसा)+ट] १. हाथ से बजाये जानेवाले बाजे। जैसे—ढोल, मृदंग आदि। २. हाथ का कारीगर। दस्तकार। शिल्पी। ३. हाथ से बाजा बजानेवाला।
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पाणि-घात  : पुं० [तृ० त०] १. हाथ से किया जानेवाला आघात। २. थप्पड़।
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पाणिघ्न  : पुं० [संपाणि√हन्+टक्] १. हाथ से आघात करनेवाला। २. ताली बजानेवाला। ३. शिल्पी।
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पाणिज  : वि० [सं० पाणि√जन्+ड] जो हाथ से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. उँगली। २. नाखून। ३. नखी।
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पाणि-तल  : पुं० [ष० त०] १. हाथ की हथेली। २. वैद्यक में लगभग दो तोले की एक तौल या परिमाण।
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पाणिताल  : पुं० [मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पाणि-धर्म  : पुं० [मध्य० स०] विवाह संस्कार।
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पाणिन  : पुं० [पणिन+अण्]=पाणिनि।
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पाणिनि  : पुं० [सं० पणिन्+अण्+इञ्] संस्कृत भाषा के व्याकरण को चार हजार सूत्रों में बाँधनेवाले एक प्रसिद्ध प्राचीन मुनि। (ई० पू० चौथी शताब्दी)
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पाणिनीय  : वि० [सं० पाणिनि+छ—ईय] १. पाणिनि-संबंधी। पाणिनि का। जैसे—पाणिनीय व्याकरण या सूत्र। २. पाणिनि का अनुयायी या भक्त। ३. पाणिनि का व्याकरण पढ़नेवाला।
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पाणि-पल्लव  : पुं० [ष० त०] हाथ की उँगलियाँ।
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पाणि-पात्र  : ब० [ब० स०] १. हाथ में लेकर अर्थात् अंजलि से पानी पीनेवाला। २. जो अंजलि से पात्र या बरतन का काम लेता हो।
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पाणि-पीड़न  : पुं० [ब० स०] १. पाणिग्रहण। विवाह। २. [ष० त०] पश्चात्ताप आदि के कारण हाथ मलना। पछताना।
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पाणि-पुट (क)  : पुं० [मध्य० स०] चुल्लू।
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पाणि-प्रणयिनी  : स्त्री० [ष० त०] विवाहिता स्त्री। धर्मपत्नी।
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पाणिबंध  : पुं० [ब० स०] पाणिग्रहण। विवाह।
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पाणिमुक् (ज्)  : पुं० [सं० पाणि√भुज् (खाना)+क्विप्] [पाणि√भुज्+क] गूलर वृक्ष।
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पाणिमर्द्द  : पुं० [सं० पाणि√मृद् (मलना)+अण्] करमर्द्द। करौंदा।
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पाणिमुक्त  : वि० [तृ० त०] हाथ से फेंककर चलाया जानेवाला (अस्त्र)। पुं० भाला।
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पाणि-मुख  : वि० [ब० स०] हाथ से खानेवाला। पुं० बहु० मृतपूर्वज। पितर।
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पाणि-मूल  : पुं० [ष० त०] कलाई।
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पाणिरुह  : पुं० [सं० पाणि√रुह (उगना, निकलना)+क] १. उँगली। २. नाखून।
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पाणि-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] हथेली की रेखा। हस्त-रेखा।
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पाणिवाद  : वि० [सं० पाणि√वद् (बोलना)+णिच्+अच्] १. मृदंग, ढोल आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला। पुं० १. ढोल, मृदंग आदि बाजे। २. ताली बजाने की क्रिया। ताली पीटना।
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पाणि-वादक  : वि० [सं० पाणि√वद्+णिच्+ण्वुल—अक] १. हाथ से मृदंग आदि बजानेवाला। २. ताली बजानेवाला।
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पाणि-हता  : स्त्री० [तृ० त०] ललित विस्तार के अनुसार एक छोटा तालाब जो देवताओं ने बुद्ध भगवान के लिए तैयार किया था।
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पाणी  : पुं०=पाणि (हाथ)।
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पाणौकरण  : पुं० [सं० अलुक् स०] विवाह। पाणिग्रहण।
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पाण्य  : वि० [सं०√पण् (स्तुति)+ण्यत्] प्रशंसा और स्तुति के योग्य।
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पाण्याश  : वि० [सं० पाणि√अश् (खाना)+अण्] हाथ से खानेवाला। पुं० मृत पूर्वज या पितर जो अपने वंशजों के हाथ का दिया हुआ अन्न ही खाते हैं।
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पातंग  : वि० [सं० पतंग+अण्] १. फतिंगे या फतिंगों से संबंध रखनेवाला। २. फतिंगों के रंग का। भूरा।
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पातंगि  : पुं० [सं० पतंग+इञ्] १. शनिग्रह। २. यम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव।
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पातंजल  : वि० [सं० पतंजलि+अण्] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत। पुं० १. पतंजलिकृत योगसूत्र। २. वह जो उक्त योग-सूत्र के अनुसार योगसाधन करता हो। ३. पतंजलिकृत महाभाष्य।
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पातंजल-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] योगदर्शन।
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पातंजल-भाष्य  : पुं० [कर्म० स०] महाभाष्य नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ।
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पातंजल-सूत्र  : पुं० [कर्म० स०] योगसूत्र।
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पातंजलीय  : वि० [सं० पातंजल] १. पतंजलि-संबंधी। २. पतंजलिकृत।
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पात  : पुं० [सं०√पत् (गिरना)+घञ्] १. अपने स्थान से हटकर, टूटकर या और किसी प्रकार गिरने या नीचे आने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—उल्का-पात। [√पत्+णिच्+घञ्] २. गिराने की क्रिया या भाव। पतन। जैसे—रक्तपात। ३. अपने उचित या पूर्व स्थान से नीचे आने की क्रिया या भाव। जैसे—अधःपात। ४. ध्वस्त, नष्ट या समाप्त होकर गिरने की क्रिया या भाव। जैसे—शरीर-पात। ५. किसी वस्तु की वह स्थिति जिसमें वह सारी शक्ति प्रायः नष्ट हो जाने के कारण सहसा गिर, ढह या विनष्ट हो जाती है। सहसा किसी चीज का गिरकर बेकाम हो जाना। (कोलैप्स) ६. किसी प्रकार जाकर कहीं गिरने, पड़ने या लगने की क्रिया या भाव। जैसे—दृष्टिपात। ७. आघात। चोट। उदा०—चलै फटि पात गदा सिर चीर, मनों तरबूज हनेकर कीर।—कविराजा सूर्यमल। ८. गणित ज्योतिष में, वह विंदु या स्थान जिस पर किसी ग्रह या नक्षत्र की कक्षा क्रांतिवृत्त को काटती है। ९. वह विंदु या स्थान जहाँ एक वृत्त दूसरे वृत्त को काटता हो। १॰. ज्यामिति में वह विंदु जहाँ कोई वक्र रेखा मुड़कर अपने किसी अंश को काटती हो। (नोड) ११. ज्योतिष में, (क) वह विंदु जहाँ कोई ग्रह सूर्य की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है; अथवा कोई उपग्रह अपने ग्रह की कक्षा को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। (नोड) विशेष—साधारणतः ग्रहों की कक्षाएँ जहाँ क्रांतिवृत्त को काटती हुई ऊपर चढ़ती या नीचे उतरती हैं, उन्हें पात कहते हैं। ये स्थान क्रमात् आरोह-पात और अवरोह-पात कहलाते हैं। चंद्रमा के कक्ष में जो आरोह-पात और अवरोहपात पड़ते हैं वे क्रमात् राहु और केतु कहलाते हैं। इसी आधार पर पुराणों और परवर्ती भारतीय ज्योतिष में राहु और केतु दो स्वतंत्र ग्रह माने गये हैं। पुं० [√पत्+णिच्+अच्] राहु। पुं० [सं० पत्र] १. वृक्ष का पत्ता। पत्र। मुहा०—पातों का लगना=पतझड़ होना या उसका समय आना। २. वृक्ष के पत्ते के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पत्ता। ३. चाशनी। शीरा। पुं० [सं० पात्र] कवि। (डिं०)
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पातक  : वि० [सं०√पत्+णिच्+ण्वुल—अक] पात करने अर्थात् गिरानेवाला। पुं० ऐसा बड़ा पाप जो उसके कर्ता को नरक में गिरानेवाला हो। ऐसा पाप जिसका फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता हो। विशेष—हमारे यहाँ के धर्मशास्त्रों में अति-पातक, उप-पातक, महा-पातक आदि अनेक भेद किये गये हैं। साधारण पातकों के लिए उनमें प्रायश्चित्त का भी विधान है।
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पातकी (किन्)  : वि० [सं० पातक+इनि] पातक माने जानेवाले कर्मों के फल भोद के लिए नरक में जानेवाला; अर्थात् बहुत बड़ा पापी।
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पातघाबरा  : वि० [हिं० पात+घबराना] १. पत्तों की आहट तक से भयभीत और विकल होनेवाला। २. बहुत जल्दी घबरा जानेवाला। ३. बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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पातन  : पुं० [सं०√पत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. गिराने या नीचे ढकेलने की क्रिया या भाव। २. फेंकने की क्रिया या भाव। ३. वैद्यक में, पारा शोबने के आठ संस्कारों में से पाँचवाँ संस्कार।
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पातनीय  : वि० [सं०√पत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका पात हो सके या किया जाने को हो। २. जो गिराया जा सके या गिराया जाने को हो।
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पातबंदी  : स्त्री० [सं० पात या हिं० पाँति ?+बंदी] वह विवरण जिसमें किसी की संपत्ति और देय तथा प्राप्य धन का उल्लेख हो।
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पातयिता (तृ)  : वि० [सं०√पत्+णिच्+तृच्] १. गिरानेवाला। २. फेंकनेवाला।
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पातर  : वि० [सं० पात्रट, हिंदी पतला का पुराना रूप] १. जिसका दल मोटा न हो। पतला। २. क्षीणकाय। ३. बहुत ही संकीर्ण और तुच्छ स्वभाववाला। ४. नीच कुल का। अप्रतिष्ठित। उदा०—मयला अकलै मूल पातर खाँड खाँड करै भूखा।—सूर। स्त्री०=पत्तल। स्त्री० [सं० पातिली=एक विशेष जाति की स्त्री] १. वेश्या। २. तितली।
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पातरा  : वि० [स्त्री० पातरी]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातराज  : पुं० [देश०] एक तरह का साँप।
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पातरि (री)  : स्त्री०=पातर (वेश्या)।
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पातल  : वि०=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पत्तल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पातर (वेश्या)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातला  : वि० [स्त्री० पातली]=पतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातव्य  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+तव्यत्] १. जिसकी रक्षा की जानी चाहिए। २. पीये जाने योग्य।
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पातशाह  : पुं० [फा० बादशाह] [भाव० पातशाही] बादशाह। महाराज।
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पाता (तृ)  : वि० [सं०√पा+तृच्] १. रक्षा करनेवाला। २. पीनेवाला। पुं०=पत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताखत  : पुं० [सं० पत्र+अक्षत] १. पत्र और अक्षत। २. देव पूजने की साधारण या स्वल्प सामग्री। ३. तुच्छ भेंट।
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पाताबा  : पुं० [फा० पाताबः] १. मोजे या जुराब के ऊपर पहना जानेवाला एक प्रकार का जूते का खोल। २. बूट, सैंडल आदि कुछ विशिष्ट जूतों के तलों के ऊपरी भाग में उसी नाप या आकार-प्रकार का लगाया जानेवाला चमड़े का टुकड़ा। ३. जुराब। मोजा।
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पातार  : पुं०=पाताल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाताल  : पुं० [सं०√पत्+आलञ्] १. पृथ्वी के नीचे के कल्पित सात लोकों में से एक जो सबसे नीचे है और जिसमें नाग लोग वास करते हुए माने गये हैं। नागलोक। अन्य ६ लोक ये हैं—अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल और महातल। २. पृथ्वी के नीचे के सातों लोकों में से प्रत्येक लोक। ३. बहुत अधिक गहरा और नीचा स्थान। ४. गुफा। ५. बिल। विवर। ६. बड़वानल। ७. जन्म-कुंडली में जन्म के लग्न से चौथा स्थान। ८. पाताल यंत्र। (दे०)
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पाताल-केतु  : पुं० [ब० स०] पाताल में रहनेवाला एक दैत्य।
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पाताल-खंड  : पुं० [ष० त०] पाताल (लोक)।
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पाताल-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पाताल लोक की एक नदी का नाम। २. भूगर्भ के अंदर बहनेवाली कोई नदी।
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पाताल-गारुड़ी  : स्त्री० [ष० त०] छिरिहटा नामक लता।
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पाताल-तुंबी  : स्त्री० [ष० त०] एक तरह की लता। पातालतौंबी।
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पाताल-तोंबी  : स्त्री०=पाताल-तुंबी।
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पाताल-निलय  : वि० [ब० स०] जिसका घर पाताल में हो। पाताल में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप। ३. दैत्य। राक्षस।
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पाताल-निवास  : पुं०=पाताल-निलय।
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पाताल-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा धातुएँ गलाई, ओषधियाँ पिलाई तथा अर्क, तेल आदि तैयार किये जाते हैं।
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पाताल-वासिनी  : स्त्री० [सं० पाताल√बस् (बसना)+ णिनि+ङीष्] नागवल्ली लता। पान की लता।
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पाताली  : स्त्री० [देश०] ताड़ के फल के गूदे की बनाई तथा सुखाकर खाई जानेवाली टिकिया। वि० [सं० पाताल] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल में रहने या होनेवाला। ३. पृथ्वी के नीचे होनेवाला। (अंडर ग्राउंड) जैसे—वृक्ष के पाताली तने।
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पाताली-पत्ती  : स्त्री० [हिं०] वनस्पति विज्ञान में, उत्पत्ति-भेद से पत्तियों के चार प्रकारों में से एक। प्रायः भूमि पर अपने तने फैलानेवाले पौधों की पत्तियाँ जो प्रायः बहुत छोटी होती हैं। (स्केल लीफ) जैसे—आलू की पाताली पत्ती।
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पातालीय  : वि० [सं०] १. पाताल-संबंधी। २. पाताल का। २. पाताल में अर्थात् पृथ्वी-तल के नीचे या भूगर्भ में रहने या होनेवाला।
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पातालौका (कस्)  : वि० [सं० पाताल-ओकस् ब० स०] पाताल लोक में रहनेवाला। पुं० १. नाग जाति का व्यक्ति। २. साँप।
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पाति  : स्त्री० १.=पाती (चिट्ठी)। २.=पत्ती। पुं० [सं०√पा+अति] १. स्वामी। २. पति। ३. पक्षी।
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पातिक  : वि० [सं० पात+ठन्—इक्] १. फेंका हुआ। २. नीचे गिराया या ढकेला हुआ। पुं० सूँस नामक जल-जंतु।
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पातिग  : पुं०=पातक। उदा०—अनेक जनम ना पातिग छूटै।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पातित  : भू० कृ० वि० [सं०√पत्+णिच्+क्त] १. गिराया हुआ। २. फेंका हुआ। ३. झुकाया हुआ।
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पातित्य  : पुं० [सं० पतित-ष्यञ्] १. पतित होने की अवस्था या भाव। गिरावट। २. अधःपतन।
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पातिल  : स्त्री० [सं० पातिली] एक तरह की मिट्टी की हँड़िया जिसमें विवाह आदि के समय दीया जलाया जाता है तथा हँड़िया का आधा मुँह ढक्कन से ढक दिया जाता है। वि०=पतला।
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पातिली  : स्त्री० [सं० पाति√ली (लीन होना)+ड+अण्+ङीष्] १. जाल। फंदा। २. मिट्टी की पातिल नामक हँड़िया। ३. किसी विशिष्ट जाति की स्त्री।
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पातिव्रत  : पुं०=पातिव्रत।
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पातिव्रत्य  : पुं० [सं० पतिव्रता+ष्यञ्] पतिव्रता होने की अवस्था, गुण और भाव। पति के प्रति होनेवाली पूर्ण निष्ठा की भावना।
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पातिसाह  : पुं०=पातशाह (बादशाह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाती  : स्त्री० [सं० पत्री, प्रा० पत्ती] १. चिट्ठी। पत्री। पत्र। २. निशान। पता। ३. वृक्ष का पत्ता या पत्ती। स्त्री० [हिं० पति] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। २. लोक-लज्जा।
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पातुक  : वि० [सं०√पत्+उकञ्] १. गिरनेवाला। २. पतनोन्मुख। पुं० १. झरना। २. पहाड़ की ढाल। ३. एक स्तनपायी दीर्घाकार जल-जंतु। जल-हस्ती।
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पातुर  : स्त्री० [सं० पातिली=स्त्री विशेष] वेश्या।
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पातुरनी  : स्त्री०=पातुर (वेश्या)।
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पात्य  : वि० [सं०√पत्+णिच्+यत्] १. जो गिराया जा सकता हो। २. दंडित किये जाने के योग्य। ३. प्रहार करने योग्य। ४. [√पत्+ण्यत्] गिरने योग्य। पुं० [पति+यक] पति होने का भाव। पतित्व।
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पात्र  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ष्ट्रन] [स्त्री० पात्री] [भाव० पात्रता] १. वह आधान जिसमें कुछ रखा जा सके। बरतन। भाजन। २. ऐसा बरतन जिसमें पानी पीया या रखा जाता हो। ३. यज्ञ में काम आनेवाले उपकरण या बरतन। यज्ञ-पात्र। ४. जल का कुंड या तालाब। ५. नदी की चौड़ाई। पाट। ६. ऐसा व्यक्ति जो किसी काम या बात के लिए सब प्रकार से उपयुक्त या योग्य समझा जाता हो। अधिकारी। जैसे—किसी को कुछ देने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह उसे पाने या रखने का पात्र है या नहीं। ७. उपन्यास, कहानी, काव्य, नाटक आदि में वे व्यक्ति जो कथा-वस्तु की घटनाओं के घटक होते हैं और जिनके क्रिया-कलाप या चरित्र से कथा-वस्तु की सृष्टि और परिपाक होता है। ८. नाटक में, वे अभिनेता या नट जो उक्त व्यक्तियों की वेष-भूषा आदि धारण कर के उनके चरित्रों का अभिनय करते हैं। अभिनेता। जैसे—इस नाटक में दस पुरुष और छः स्त्रियाँ पात्र हैं। ९. राज्य का प्रधान मंत्री। १॰. वृक्ष का पत्ता। पत्र। ११. वैद्यक में, चार सेर की एक तौल। आढ़क। १२. आज्ञा। आदेश। वि० [स्त्री० पात्री] जो किसी कार्य या पद के लिए उपयुक्त होने के कारण चुना या नियुक्त किया जा सकता हो। (एलिजिबुल)
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पात्रक  : पुं० [सं० पात्र+कन्] १. प्यारी, हाँड़ी आदि पात्र। २. भिखमंगों का भिक्षापात्र।
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पात्रट  : पुं० [सं० पात्र√अट्+अच्] १. पात्र। प्याला। २. फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा।
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पात्रटीर  : पुं० [सं० पात्र√अट्+ईरन्] १. योग्य मंत्री या सचिव। २. चाँदी। ३. किसी धातु का बना हुआ बरतन। ४. अग्नि। ५. कौआ। ६. कंक (पक्षी)। ७. लोहे में लगनेवाला जंग या मोरचा। ८. नाक से बहनेवाला मल।
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पात्रता  : स्त्री० [सं० पात्र+तल्+टाप्] पात्र (अर्थात् किसी कार्य, पद, दान-दक्षिणा आदि का योग्य अधिकारी) होने की अवस्था, गुण और भाव।
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पात्रत्व  : पुं० [सं० पात्र+त्व] पात्रता।
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पात्र-दुष्ट-रस  : पुं० [सं० दुष्ट-रस, कर्म० स०, पात्र-दुष्ट-रस, स० त०] कविता में परस्पर विरोधी बातें कहने का एक दोष। (कवि केशवदास)
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पात्र-पाल  : पुं० [सं० पात्र√पाल्+णिच्+अण्] १. तराजू की डंडी। २. पतवार।
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पात्रभृत्  : पुं० [सं० पात्र√भृ (धारण करना)+क्विप्] बरतन माँजने-धोनेवाला नौकर
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पात्र-वर्ग  : पुं० [ष० त०] १. किसी साहित्यिक रचना के कुल पात्र। २. अभिनय करनेवालों का समूह।
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पात्र-शुद्धि  : स्त्री० [ष० त०] बरतन माँजने-धोने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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पात्र-शेष  : पुं० [स० त०] बरतनों में छोड़ा जानेवाला उच्छिष्ट या जूठा भोजन। जूठन।
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पात्रासादन  : पुं० [सं० पात्र-आसादन, ष० त०] यज्ञपात्रों को यथास्थान या यथाक्रम रखना।
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पात्रिक  : वि० [सं० पात्र+ष्ठन्—इक] जो पात्र (आढ़क नामक तौल) से तौला या मापा गया हो। पुं० [स्त्री० अल्पा० पात्रिका] छोटा पात्र या बरतन।
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पात्रिकी  : स्त्री० [सं० पात्रिक+ङीष्] १. छोटा पात्र। २. थाली।
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पात्रिय  : वि० [सं० पात्र+घ—इय] [पात्र+यत्] जिसका साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके। सहभोजी।
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पात्री (त्रिन्)  : वि०, पुं० [सं० पात्र+इनि] १. जिसके पास बरतन हो। पात्रवाला। २. जिसके पास सुयोग्य पात्र या अधिकारी व्यक्ति हो। स्त्री० पात्र का स्त्री रूप। (दे० ‘पात्र’) २. छोटा पात्र या बरतन। ३. एक प्रकार की अँगीठी या छोटी भट्ठी। ४. साहित्यिक रचना का कोई स्त्री पात्र। ५. नाटक आदि में अभिनय करनेवाली स्त्री। अभिनेत्री।
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पात्रीय  : वि० [सं० पात्र+छ—ईय] पात्र-संबंधी। पात्र का। पुं० एक प्रकार का यज्ञ-पात्र।
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पात्रीर  : पुं० [सं० पात्री√रा (देना)+क] वह पदार्थ जिसकी यज्ञ आदि में आहुति दी जाती हो।
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पात्रे-बहुल  : वि० [सं० अलुक् स०] दूसरों का दिया हुआ भोजन करनेवाला। परान्न-भोजी।
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पात्रे-समिति  : वि० [सं० अलुक् स०] पात्रेबहुल। (दे०)
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पात्रोपकरण  : पुं० [सं० पात्र-उपकरण, ष० त०] अलंकरण के छोटे-मोटे साधन।
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पात्र्य  : वि० [सं० पात्र+यत्] जिसके साथ बैठकर एक ही पात्र में भोजन किया जाय या किया जा सके।
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पाथ  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा)+थ] १. जल। २. सूर्य। ३. अग्नि। ४. अन्न। ५. आकाश। ६. वायु। पुं०=पथ (मार्ग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथना  : स० [सं० प्रथन या थापना का वर्ण-विपर्यय] १. गीली मिट्टी, ताजे गोबर आदि को थपथपाते हुए या साँचों में ढालकर छोटे छोटे पिंड बनाना। २. मारना-पीटना।
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पाथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथ-निधि  : पुं० [ष० त०] दे० ‘पाथौनिधि’।
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पाथर  : पुं०=पत्थर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथरण  : पुं० [सं० प्रस्तरण, प्रा० पत्थरण] बिछौना। (राज०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथ-राशि  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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पाथस्  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा)+असुन्, थुक्] १. जल। २. अन्न। ३. आकाश।
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पाथस्पति  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण।
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पाथा  : पुं० [सं० प्रस्थ] १. एक तौल जो कच्चे चार सेर की होती है। २. उतनी भूमि जितनी में उक्त मान का अन्न बोया जा सके। ३. अनाज नापने का एक प्रकार का बड़ा टोकरा। ४. हल की खोंपी जिसमें फाल जड़ा रहता है। पुं० [?] १. कोल्हू हाँकनेवाला व्यक्ति। २. अनाज में लगनेवाला एक प्रकार का कीड़ा। पुं० दे० ‘पाटा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाथी (थिस्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+इसिन्, थुक्] १. समुद्र। २. आँख। ३. घाव पर का खुरंड या पपड़ी। ४. दूध, मट्ठे का वह मिश्रण जिससे प्राचीन काल में पितृ-तर्पण किया जाता था।
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पाथी  : पुं० [हिं० पथ] पथिक। बटोही। मुहा०—पाथी होना=कहीं से चुपचार चल देना। चलते बनना। उदा०—साथी पाथी भये जाग अजहूँ निसि बीती।—दीन दयाल गिरि।
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पाथेय  : वि० [सं० पथिन्+ढञ्—एय] पथ-संबंधी। पथ का। पुं० १. वे खाद्य पदार्थ जो यात्रा के समय यात्री रास्ते में खाने-पीने के लिए ले जाते हैं। रास्ते का भोजन। २. वह धन जो रास्ते के खर्च के लिए पास रखा जाता है। ३. वह साधन या सामग्री जिसकी आवश्यकता कोई काम करने के समय पड़ती हो और जिसमें उस काम में सहायता या सहारा मिलता हो। संवल। ४. कन्या राशि।
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पाथोज  : पुं० [सं० पाथस्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] कमल।
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पाथोव  : पुं० [सं० पाथस√दा (देना)+क] बादल। मेघ।
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पाथोवर  : पुं० [सं० पाथस्√धृ (धारण करना)+अच्] बादल। मेघ।
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पाथोधि  : पुं० [सं० पाथस्√धा+कि] समुद्र।
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पाथोन  : पुं० [यू० पथेपनस] कन्या राशि।
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पाथोनिधि  : पुं० [सं० पाथस्-निधि, ष० त०] समुद्र।
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पाथ्य  : वि० [सं० पाथस्+डयन] १. आकाश में रहनेवाला। २. हृदयाकाश में रहनेवाला। ३. वायु या हवा में रहनेवाला।
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पाद  : पुं० [सं०√पद् (गति)+घञ्] १. चरण। पैर। पाँव। २. किसी चीज का चौथाई भाग। चतुर्थांस। जैसे—चिकित्सा के चार पाद हैं। ३. छंद, श्लोक, आदि का चौथाई भाग जो एक चरण या पाद के रूप में होता है। ४. ज्यामिति में, किसी क्षेत्र या वृत्त का चौथाई अंश। (क्वाड्रेन्ट) ५. कोई ऐसी चीज जिसके आधार पर कोई दूसरी चोख खड़ी या ठहरी हो। ६. किसी वस्तु का नीचेवाला भाग। तल। जैसे—पर्वत या वृक्ष का पाद भाग। ७. ग्रंथ या पुस्तक का कोई विशिष्ट अंश। खंड या भाग। ८. किसी बड़े पर्वत के पास का कोई छोटा पर्वत। ९. किरण। रश्मि। १॰. चलने की क्रिया या भाव। गति। गमन। ११. शिव। पुं० [सं० पर्द] मलद्वार से निकलनेवाली वायु। अपानवायु।
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पादक  : वि० [सं० √पद्+ण्वुल्—अक] १. जो खूब चलता हो। चलनेवाला। २. किसी चीज का चौथाई अंश। पुं० छोटा पैर।
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पाद-कटक  : पुं० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कमल  : पुं० [कर्म० स०] चरण-कमल।
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पाद-कीलिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-कृच्छ  : पुं० [ष० त०] प्रायश्चित्त करने के लिए चार दिन तक रखा जानेवाला एक तरह का व्रत।
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पादक्रमिक  : वि० [सं० पद-क्रम, ष० त०,+ठक्—इक] वेदों का पदक्रम जानने या पढ़नेवाला।
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पाद-क्षेप  : पुं० [ष० त०] चलने के समय पैर रखना। चलना।
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पाद-गंडीर  : पुं० [सं० पाद-गण्डि+ई, ष० त०,+र] फीलपाँव या श्लोपद नामक रोग।
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पाद-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] टखना।
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पाद-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] पैर छूकर प्रणाम करने का एक प्रकार।
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पाद-चतुर  : वि० [स० त०] निंदा करनेवाला। पुं० १. बकरा। २. पीपल का पेड़। ३. बालू का भीटा। ४. ओला।
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पादचत्वर  : वि०, पुं० [सं०] पाद-चतुर।
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पादचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाद√चर् (गति)+णिनि] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला। पुं० प्यादा।
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पादज  : वि० [सं० पाद√जन्+ड] जो पैरों से उत्पन्न हुआ हो। पुं० शूद्र।
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पाद-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वह जल जिसमें किसी के पैर धोए गये हों। चरणोदक। २. मट्ठा जिसमें चौथाई अंश पानी मिला हो।
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पादजाह  : पुं० [सं० पाद+जाहच्] १. पैर की एड़ी। २. पैर का तलवा। ३. टखना। ४. वह भूमि जहाँ पहाड़ शुरु होता है। ५. चरणों का सान्निध्य।
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पाद-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] वह टिप्पणी जो किसी ग्रंथ में पृष्ठ के निचले भाग में सूचना, निर्देश के लिए लिखी गई हो। तल-टीप। (फुटनोट)
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पाद-टीका  : स्त्री०=पाद-टिप्पणी। (दे०)
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पाद-तल  : पुं० [ष० त०] पैर का तलवा।
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पादत्र  : पुं० [सं० पाद√त्रा (रक्षा)+क] पाद-त्राण।
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पाद-त्राण  : वि० [ब० स०] पैरों की रक्षा करनेवाला। पुं० पैरों की रक्षा के लिए पहनी जानेवाली चीज। जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पाद-त्रान  : पुं०=पाद-त्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाद-दलित  : वि० [तृ० त०] पाद-दलित।
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पाद-दारिका  : स्त्री० [ष० त०] बिवाई (रोग)।
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पाद-दाह  : पुं० [सं० पाद√दह् (जलाना)+अण्] १. वात रोग के कारण पैर में होनेवाली जलन। २. उक्त जलन पैदा करनेवाला वात रोग।
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पाद-धावन  : पुं० [ष० त०] १. पैर धोने की क्रिया। २. वह बालू या मिट्टी जिससे मलकर पैर धोते हैं।
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पाद-धावनिका  : स्त्री० [ष० त०] वह बालू जिससे पैर रगड़कर धोये जाते हैं।
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पाद-नख  : पुं० [ष० त०] पैरों की उँगलियों के नाखून।
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पादना  : अ० [हिं० पाद] १. मलद्वार से वायु विशेषतः शब्द करती हुई वायु निकालना। २. खेल में, विपक्षी द्वारा अधिक दौड़ाया, भगाया तथा परेशान किया जाना।
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पाद-नालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-निकेत  : पुं० [ष० त०] पैर रखने की छोटी चौकी। पाद-पीठि।
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पाद-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. बराबर पैर रखते हुए चलना। २. नाचना।
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पाद-पंकज  : पुं० [उपमि० स०] चरण-कमल।
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पादप  : पुं० [सं० पाद√पा (पीना)+क] १. वृक्ष। पेड़। २. पाद निकेत। पाद पीठ।
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पादप-खंड  : पुं० [ष० त०] १. वृक्षों का समूह। २. जंगल। वन।
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पाद-पथ  : पुं० [ष० त०] पैदल चलने का छोटा और सँकरा मार्ग। पैदल का रास्ता, जिस पर सवारी न जा सकती हो। (फुटपाथ)
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पाद-पद्धति  : स्त्री० [ष० त०] १. रास्ता। २. पगडंडी।
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पादपा  : स्त्री० [सं० पाद√पा (रक्षा करना)+क+टाप्] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-पालिका  : स्त्री० [ष० त०] नूपुर।
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पाद-पाश  : पुं० [ष० त०] १. वह रस्सी जिससे घोड़ों के पिछले दोनों पैर बाँधे जाते हैं। पिछाड़ी। २. नूपुर।
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पादपाशी  : स्त्री० [सं० पादपाश+ङीष्] १. पैर में बाँधने की जंजीर या सिकड़ी। २. बेड़ी। ३. एक लता।
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पाद-पीठि  : पुं० [ष० त०] वह पीढ़ा या छोटी चौकी जिस पर ऊँचे आसन पर बैठनेवाले पैर रखकर बैठते हैं। (पेडस्टल)
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पाद-पीठिका  : स्त्री० [ष० त०] १. नाई का पेशा। २. सफेद पत्थर।
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पाद-पूरण  : पुं० [ष० त०] १. किसी श्लोक या पद के किसी चरण को पूरा करना। पादपूर्ति। २. वह अक्षर या शब्द जिससे किसी श्लोक या पद की पूर्ति होती है।
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पाद-पूर्ति  : स्त्री० [ष० त०] कविता में, छंद का चरण पूरा करने के लिए उसमें कोई अक्षर या शब्द जोड़ना या बढ़ाना। चरणपूर्ति।
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पाद-प्रक्षालन  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-प्रणाम  : पुं० [स० त०] साष्टांग दंडवत्। पाँव पड़ना।
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पाद-प्रतिष्ठान  : पुं० [ष० त०] पाद-पीठ। (दे०)
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पाद-प्रधारण  : पुं० [ब० स०] १. खड़ाऊँ। २. जूता।
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पाद-प्रसारण  : पुं० [ष० त०] पैर फैलाने की क्रिया या भाव।
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पाद-प्रहार  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात या प्रहार। लात मारना। ठोकर मारना।
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पाद-बंध  : पुं० [ष० त०] १. कैदियों, पशुओं आदि के पैरों में बाँदी जानेवाली जंजीर। २. बेड़ी।
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पाद-बंधन  : पुं० [ष० त०] पाद-बंध।
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पाद-भट  : पुं० [मध्य० स०] पैदल सिपाही। प्यादा।
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पाद-भाग  : पुं० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. चौथा हिस्सा। चौथाई।
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पाद-मुद्रा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-चिह्न।
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पाद-मूल  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर का निचला भाग। २. पर्वत की तराई।
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पादरक्ष (क)  : पुं० [सं० पाद√रक्ष् (रक्षा करना)+अण्; पाद-रक्षक, ष० त०] वह जिससे पैरों की रक्षा की जाय। जैसे—जूता, खड़ाऊँ आदि।
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पाद-रज (जस्)  : स्त्री० [ष० त०] चरण-धूलि।
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पाद-रज्जु  : स्त्री० [ष० त०] वह रस्सी या सिक्कड़ जिससे पर, विशेषतः हाथी के पैर बाँधे जाते हैं।
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पादरथी  : स्त्री० [सं० रथ+ङीष्, पाद-रथी, ष० त०] खड़ाऊँ।
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पादरी  : पुं० [पुर्त्त० पैड्रे] मसीही धर्मावलंबियों का धर्मगुरु या पुरोहित।
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पादरोह, पादरोहण  : पुं० [सं० पाद√रुह् (उत्पत्ति)+अच्] [सं० पाद√रुह्+ल्यु—अन] बड़ का पेड़।
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पाद-लग्न  : वि० [स० त०] जो पैरों से आ लगा हो; अर्थात् शरण में आया हुआ।
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पाद-लेप  : पुं० [ष० त०] पैरों में किया जानेवाला आलते, महावर आदि का लेप।
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पाद-वंदन  : पुं० [ष० त०] १. पैर पकड़कर प्रणाम करना। २. चरणों की पूजा, सेवा या स्तुति।
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पाद-वाल्मीक  : पुं० [स० त०] फीलपाँव (रोग)।
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पादविंदु  : पुं० [सं०]=अधःस्वस्तिक।
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पादविक  : पुं० [सं० पदवी+ठक्—इक] पथिक।
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पाद-वेष्टनिक  : पुं० [ष० त०] पाताबा। मोजा।
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पाद-शब्द  : पुं० [ष० त०] किसी के चलने से पहलेवाला शब्द। पैर की आहट।
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पाद-शाखा  : स्त्री० [ष० त०] १. पैर की उँगली। २. पैर की नोक।
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पादशाह  : पुं० [फा०] [भाव० पादशाही] पादशाह। सम्राट्।
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पादशाहजादा  : पुं० [फा०] बादशाहजादा। महाराजकुमार।
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पादशाही  : वि० [फा०] बादशाह का। स्त्री० १. राज्य। शासन।
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पादशिष्ट-जल  : पुं० [सं० पाद-शिष्ट, तृ० त०; पादशिष्ट-जल, कर्म० स०] ऐसा जल जो औटाकर चौथाई कर लिया गया हो। (वैद्यक)
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पादशुश्रूषा  : स्त्री० [ष० त०] चरण-सेवा। पैर दबाना।
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पाद-शैल  : पुं० [मध्य० स०] बड़े पहाड़ के नीचे या पास का कोई छोटा पहाड़।
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पाद-शोथ  : पुं० [ष० त०] १. पैर में होनेवाली सूजन। २. पैरों में सूजन होने का रोग। फीलपाँव।
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पाद-शौच  : पुं० [ष० त०] पैर धोना।
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पाद-श्लाका  : स्त्री० [ष० त०] पैर की नली।
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पाद-सेवन  : पुं०=पाद-सेवा।
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पाद-सेवा  : स्त्री० [ष० त०] चरण दबाना।
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पाद-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह लकड़ी जो किसी चीज को गिरने से रोकने के लिए उसके नीचे लगाई जाती है।
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पाद-स्ठोट  : पुं० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार ग्यारह प्रकार के क्षुद्र कुष्ठों में से एक।
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पाद-स्वेदन  : पुं० [ष० त०] पैरों में विशेषतः पैरों के तलवों में पसीना आना।
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पाद-हत  : भू० कृ० [तृ० त०] जिस पर पैर का आघात किया गया हो। जिसे पैर से मारा गया हो।
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पाद-हर्ष  : पुं० [ष० त०] एक वात रोग जिसमें पैरों में झुनझुनी होती है।
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पाद-हीन  : वि० [तृ० त०] १. पाद या पैर से रहित। २. जिसका चौथा चरण न हो।
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पादांक  : पुं० [सं० पाद-अंक, ष० त०] पद-चिह्न।
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पादांकुलक  : पुं० दे० ‘पादाकुलक’।
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पादांगद  : पुं० [सं० पाद-अंगद, ष० त०] नूपुर।
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पादांगुलि (ली)  : स्त्री० [पाद-अंगुली, ष० त०] पैर की उँगली।
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पादांगुष्ठ  : पु० [सं० पाद-अंगुष्ठ, ष० त०] पैर का अँगूठा।
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पादांत  : पुं० [सं० पाद-अंत, ष० त०] पद का अंतिम भाग।
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पादांतस्थित  : वि० [सं० पादांत-स्थित स० त०] पद के अन्त में होनेवाला।
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पादांबु  : पुं० [सं० पाद-अंबु, मध्य० स०] १. पैरों के धोने पर निकला हुआ जल। २. [ब० स०] मट्ठा।
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पादांभ (स्)  : पुं० [सं० पाद अंभस्, मध्य० स०] पैर धोने का जल।
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पादाकुल  : पुं०=पादाकुलक।
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पादाकुलक  : पुं० [सं० पाद-आकुल, तृ० त०,+कन्] एक प्रकार का मांत्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। विशेष—भानु कवि के मत से वह छंद पादाकुलक कहलाता है जिसके प्रत्येक चरण में चार चौकल हों। यथा—गुरु-पद मृदु रज मंजुल अंजन नयन अमिय दृग दोष विभंजन।—तुलसी। परन्तु अन्य आचार्यों के मत में १६ मात्राओंवाले सभी छंद पादाकुलक कहलाते हैं। परन्तु उनके आरंभ में द्विकल अवश्य होना चाहिए; पर त्रिकल कभी नहीं होना चाहिए। इस दृष्टि से अटिल्ल, डिल्ला और पद्धति या छंद भी पादाकुलक वर्ग में आ जाते हैं। ऐसे छंदों की चाल त्रोटक वृत्त की चाल से मिलती-जुलती होती है।
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पादाक्रांत  : वि० [सं० पाद-आक्रांत, तृ० त०] पैरों से कुचला या रौंदा हुआ। पद-दलित।
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पादाग्र  : पुं० [सं० पाद-अग्र, ष० त०] पैर का अगला भाग।
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पादाघात  : पुं० [पाद-आघात, ष० त०] पैर से किया जानेवाला प्रहार। पाद-प्रहार।
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पादात  : पुं० [सं० पदाति+अण्] १. पैदल सिपाही। २. पैदल सेना।
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पादाति (क)  : पुं० [सं० पाद√अत् (गमन)+इण्] [पादाति+कन्] पैदल सिपाही।
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पादानत  : भू० कृ० [पाद-आनत, स० त०] पैरों पर झुका या पड़ा हुआ।
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पादा-नोन  : पुं० [देश०] काला नमक।
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पादाम्यंजन  : पुं० [पाद-अभ्यंजन, ष० त०] १. पैरों में को स्निग्ध पदार्थ मलन या रगड़ने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार रगड़ा जानेवाला स्निग्ध पदार्थ।
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पादायन  : पुं० [सं० पाद+फक्—आयन] पाद ऋषि का वंशज।
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पादारक  : पुं० [सं० पाद√ऋ (गति)+ण्वुल—अक] १. नाव के पार्श्वों में लंबाई के बल लगी हुई दोनों पटरियों में से हर एक जिस पर आरोही बैठते हैं। २. मस्तूल।
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पादारविंद  : पुं०=पदार्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पादारविंद  : पुं० [सं० पाद-अरविन्द, उपमि० स०] चरण रूपी कमल। चरण-कमल।
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पादार्पण  : पुं० [सं० ष० त०] =पदार्पण।
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पादालिंद  : पुं० [सं० पाद-अलिंद, ब० स०] [स्त्री० अल्पा० पादालिंदा, पादालिंदी] नाव। नौका।
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पादावर्त  : पुं० [सं० पाद-आ√वृत् (बरतना)+अच] पैरों से चलाया जानेवाला एक तरह का पुराना चक्र या यंत्र जिसके द्वारा कूएँ में से सिंचाई के लिए पानी निकाला जाता था।
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पादावसेचन  : पुं० [सं० पाद-अवसेचन, ष० त०] १. चरण धोना। २. पैर धोने का पानी।
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पादाविक  : पुं० [सं०=पादातिक, पृषो० साधु] पदल सिपाही। प्यादा।
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पादावृत्ति  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, यमक अलंकार का एक भेद जिसमें पूरे पाद की आवृत्ति होती है। यथा—नंगन जड़ातीं ते वे नगड़ जड़ाती हैं।—भूषण।
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पादाष्ठील  : पुं० [सं०] पैर का टखना।
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पादासन  : पुं० [सं० पाद-आसन, ष० त०] वह आसन जिस पर पैर रखे जायँ। पाद-पीठ।
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पादाहत  : भू० कृ० [सं० पाद-आहत, तृ० त०] [भाव० पादाहति] जिसे पैर से ठोकर लगाई गई हो।
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पादाहति  : स्त्री० [तृ० त०] पैर से लगाई जानेवाली ठोकर।
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पादिक  : वि० [सं० पाद+ठक्—इक] जो किसी पूरी वस्तु या एक इकाई के चौथाई अंश के बराबर हो। पुं० १. किसी पुरी वस्तु या इकाई का चतुर्थांस। २. पादकृच्छ नामक व्रत।
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पादी (दिन्)  : वि० [सं० पाद+इनि] १. जिसे पाद या पैर हों। पैरोंवाला। २. चार चरणोंवाला। ३. चौथाई अंश का हिस्सेदार। पुं० पैरोंवाला कोई जीव। विशेषतः कछुआ, घड़ियाल मगर आदि। जल-जन्तु। २. चौथाई अंश का स्वामी या मालिक।
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पादीय  : वि० [सं० पाद+छ—ईय] १. पद या मर्यादावाला। २. किसी विशिष्ट पद या स्थान पर रहनेवाला। जैसे—कुमार-पादीय=कुमार पद पर प्रतिष्ठित।
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पादुक  : वि० [सं०√पद् (गति)+उकञ्] १. पैरों से चलनेवाला। २. पैदल चलनेवाला।
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पादुका  : स्त्री० [सं० पादु+क+टाप्, ह्रस्व] १. खड़ाऊँ। जूता। ३. पैरों में पहनने का कोई उपकरण। पदत्राण। (फूट वियर) जैसे—खड़ाऊँ, चप्पल, जूता आदि।
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पादू  : स्त्री० [सं० पद+ऊ, णित्व—चि वृद्धि] जूता। वि० [हिं० पादना] बहुत पादनेवाला। पदोड़ा।
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पादोदक  : पुं० [पाद-उदक, मध्य० स०] १. वह जल जिसमें पैर धोया गया हो। चरणोदक। २. चरणामृत।
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पादोदर  : वि० [सं० पाद-उदर, ब० स०] जिसके पैर उदर में अर्थात् अंदर हों। पुं० सर्प। साँप।
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पाद्म  : वि० [सं० पद्म] पद्म-सम्बन्धी। पद्म का।
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पाद्म-कल्प  : पुं० [कर्म० स०] पुराणानुसार वह महाकल्प जिसमें भगवान् की नाभि से वह पद्म या कमल निकला था, जिस पर ब्रह्मा अधिष्ठित थे।
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पाद्य  : वि० [सं० पाद+यत्] १. पाद (पैर, चरण आदि) से संबंध रखनेवाला। पाद का। २. पाद्य संबंधी। पाद्यात्मक। पुं० वह जल जिससे किसी आये हुए पूज्य व्यक्ति या देवता के पैर धोते हैं अथवा जिसे पैर धोने के लिए आदर-पूर्वक उनके आगे रखते हैं।
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पाद्य-दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. पैर धोने के लिए जल देना। २. पूज्य या बड़े व्यक्तियों का कहीं पधारना। कहीं पदार्पण करना या जाना। (आदर-सूचक) जैसे—गुरु शिष्यों के घर पाद्य-दान।
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पाद्यार्घ  : पुं० [सं० पाद्य-अर्घ, कर्म० स०] १. पैर तथा हाथ धोने या धुलाने का जल। २. देव-पूजन की सामग्री। ३. पूजन, सत्कार आदि के अवसर पर दिया जानेवाला धन या सामग्री। नजर। भेंट। ४. प्राचीन काल में ब्राह्मण को दान रूप में दी हुई वह भूमि जिस पर राजकर नहीं लगता था। माफी।
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पाधर  : वि०=पाधरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाधरा  : वि० [?] १. अच्छा। बढ़िया। उदा०—धर बाँकी दिन पाधरा, मरद न मूकै माण।—प्रिथीराज। २. अनुकूल। ३. सम, सरल या सीधा।
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पाधा  : पुं० [सं० उपाध्याय] १. आचार्य। उपाध्याय। २. पुरोहित। ३. पंडित। ४. कर्म-कांड करानेवाले पंडित। ५. छोटे बच्चों को आरंभिक शिक्षा देनेवाला गुरु या पंडित। (पश्चिम)
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पान  : पुं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+ल्युट्—अन्] १. तरल पदार्थ को चुस्की भरते हुए, चूसते हुए अथवा घूँट-घूँट करके पीने की क्रिया या भाव। जैसे—जल-पान, दुग्धपान, रक्त-पान, स्तन-पान आदि। २. मद्य या शराब पीना। ३. मद्य या शराब बनाने और बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार। ४. पीने का कोई तरल पदार्थ। ५. जल। पानी। ६. पौसरा। प्याऊ। ७. आब। चमक। ८. कटोरा, गिलास आदि जिसमें रखकर कोई तरल पदार्थ पीया जाता हो। ९. नहर। १॰. रक्षण। रक्षा। ११. निःश्वास। १२. जीत। विजय। पुं० [सं० पर्ण, प्रा० पण्ण; फा० पान] १. वृक्ष का पत्ता। उदा०—उपजे एकही खेत में, बोये एक किसान। होनहार बिरवान के होत चीकने पान। २. एक प्रसिद्ध पौधा या लता जिसके पत्तों पर कत्था, चूना लगाकर मुँह का स्वाद बदलने और उसे सुगंधित रखने के लिए गिलौरी या बीड़ा बनाकर खाते हैं। ताम्बूल। नागबेल। ३. लगा हुआ पान का पत्ता। गिलौरी। बीड़ा। पद—पान-इलायची=किसी सामाजिक आयोजन या समारोह में आमंत्रित व्यक्तियों का पान-इलायची आदि से किया जानेवाला सत्कार। पान-पत्ता=(क) लगा या बना हुआ पान। (ख) तुच्छ उपहार या भेंट। पान-फूल=(क) सामान्य उपहार या भेंट। (ख) पान और फूलों की तरह बहुत ही कोमल या सुकुमार वस्तु। पान-सुपाड़ी (री)=दे० ऊपर ‘पान-इलायची’। मुहा०—पान उठाना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा उठाना’। पान कमाना=पान के पत्तों को पाल में रखकर पकाना, और बीच-बीच में उन्हें उलट-पलटकर देखते रहना और उनके सड़े-गले अंश काटते या निकालते रहना। (किसी को कुछ धन) पान खाने को देना=(क) घूस या रिश्वत देना। (ख) इनाम, पुरस्कार आदि के रूप में धन देना। पान खिलाना=कन्या पक्षवालों का विवाह के विषय वर पक्षवालों को वचन देना। पान चीरना=व्यर्थ का काम करना। ऐसा काम करना जिससे कोई लाभ न हो। पान देना=दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत ‘बीड़ा देना’। पान फेरना=पाल में अथवा यों ही रखे हुए पानों को उलट-पलटकर देखना और उनके सड़-गले अंश काट या निकालकर अलग करना। पान बनाना=(क) पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि रखकर बीड़ा तैयार करना। गिलौरी बनाना। पान लगाना। (ख) दे० ऊपर ‘पान कमाना’। पान लगाना=दे० ऊपर ‘पान बनाना’। पान लेना=बीड़ा उठाना। (दे० ‘बीड़ा’ के अन्तर्गत) ४. पान नामक लता के पत्ते के आकार की कोई रचना जो प्रायः कई तरह के गहनों में शोभा के लिए जड़ी या लगी रहती है। ५. जूते में पान के आकार का चमड़े का वह टुकड़ा जड़ी के पीछे लगता है। पद—नोक-पान=(देखें ‘नोक’ के अन्तर्गत स्वतंत्र पद) ६. ताश के पत्तों पर बनी हुई पान के आकार की लाल रंग की बूटियाँ। ७. उक्त आकार तथा रंग की बनी हुई बूटियोंवाले पत्तों की सामूहिक संज्ञा। जैसे—उन्होंने पान रंग बोला है। ८. स्त्रियों की भग। योनि। पुं० [?] नाव खींचने की गून या रस्सी। (लश०) पुं० [?] सूत को माँड़ी से तर करके ताना कसने की क्रिया। (जुलाहे) पुं० १.=प्राण। २.=पाणि (हाथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानक  : पुं० [सं० पान+कन्] आम, इमली आदि के कच्चे फलों को भूनकर बनाया जानेवाला कुछ खट-मीठा पेय पदार्थ। पना। पन्ना।
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पान-गोष्ठी  : स्त्री० [च० त०] मित्रों की वह मंडली जो शराब पीने के लिए एकत्र हुई हो। (कॉकटेल पार्टी)
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पानडी  : स्त्री० [हिं० पान+ड़ी (प्रत्य०)] एक प्रकार की लता जिसकी सुगंधित पत्तियाँ प्रायः मीठे पेय पदार्थों तथा तेल और उबटन आदि में उन्हें सुगंधित करने के लिए डाली जाती हैं।
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पानदान  : पुं० [हिं० पान+फा० दान (प्रत्य०)] वह डिब्बा जिसमें पान की सामग्री—कत्था, सुपारी आदि रखी जाती है। पनडब्बा। पद—पानदान का खर्च=वह रकम जो बड़े घरों की स्त्रियों को पान तथा दूसरी निजी आवश्यकताओं के लिए दी जाती है। स्त्रियों का हाथ-खरच।
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पान-दोष  : पुं० [ष० त०] शराब पीने की लत या व्यसन।
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पानन  : पुं० [हिं० पान] मँझोले आकार का एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई और उत्तर भारत में होता है।
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पानप  : पुं० [सं० पान√पा (पीना)+क] जिसे शराब पीने का व्यसन हो। मद्यप। शराबी।
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पान-पर  : वि० [स० त०] पानप। शराबी।
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पान-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. वह पात्र जिसमें मद्यपान किया जाता हो। २. कटोरा या गिलास जिसमें पानी पीते हैं।
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पान-बणिक (ज्)  : पुं० [ष० त०] मद्य बेचनेवाला व्यक्ति। कलवार।
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पानभांड  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भोजन  : पुं० [ष० त०] पान-पात्र।
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पान-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ बैठकर लोग शराब पीते हैं। मद्यशाला।
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पान-भोजन  : पुं० [द्व० स०] १. खाना-पीना। २. पीना-खाना।
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पान-मंडल  : पुं०=पान-गोष्ठी।
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पान-मत्त  : वि० [तृ० त०] जो शराब पीकर नशे में चूर हो।
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पान-मद  : पुं० [ष० त०] शराब का नशा।
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पानरा  : पुं०=पनारा (पनाला)।
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पान-विभ्रम  : पुं० [तृ० त०] शराब का अत्यधिक सेवन करने के फलस्वरूप होनेवाला एक रोग जिसमें सिर में पीड़ा होती रहती है, कै और मतली आती है, और रोगी बीच-बीच में मूर्छित हो जाता है।
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पान-शौंड  : विं० [सं० त०] बहुत अधिक शराब पीनेवाला।
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पानस  : वि० [सं० पनस+अण्] पनस अर्थात् कटहल से सम्बन्ध रखनेवाला। पुं० वह शराब जो कटहल को सड़ाकर बनाई जाती थी।
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पानही  : स्त्री० [सं० उपानह]=पनही।
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पाना  : स० [सं० प्रायण, प्रा० पायण, पुं० हिं० पावना] १. ऐसी स्थिति में आना या होना कि कोई चीज अपने अधिकार, वश या हाथ में आवे या हो जाय। कोई चीज या बात प्राप्त करना। हासिल करना। जैसे—(क) तुमने ईश्वर के घर से अच्छा भाग्य पाया है। (ख) उन्होंने अपने पूर्वजों से अच्छी सम्पत्ति पाई थी। २. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी की दी या भेजी हुई चीज या और कुछ अपने तक पहुँच या मिल जाय। जैसे—(क) किसी का पत्र, संदेशा या समाचार पाना। (ख) पदक या पुरस्कार पाना। ३. आकस्मिक रूप से या अपने प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ प्राप्त या हस्तगत करना। जैसे—(क) कल मैंने सड़क पर पड़ा हुआ एक बटुआ पाया था। (ख) यह पुस्तक मैंने बहुत कठिनता से पायी थी। ४. ऐसी स्थिति में आना या होना कि किसी चीज तक हाथ पहुँच सके। उदा०—मैं बालक बहिंयन को छोटो छींका केहि बिधि पायो।—सूर। ५. किसी प्रकार के ज्ञान, परिचय आदि की मानसिक उपलब्धि करना। जैसे—(क) मैंने उन्हें बहुत ही चतुर और योग्य पाया। (ख) विदेश में रहकर उन्होंने अच्छी शिक्षा पाई थी। ६. गूढ़ तत्त्व, भेद, रहस्य आदि की गहनता, विस्तार सीमा आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जानकारी हासिल करना। जैसे—(क) किसी के पांडित्य की थाह पाना। (ख) चोरी या चोरों का पता पाना। ७. अचानक सामना होने या सामने पहुँचने पर किसी को किसी विशिष्ट स्थिति में देखना। जैसे—(क) मैंने लड़कों को गली में खेलते हुए पाया। (ख) उसने अपना खेत (या घर) उजड़ा हुआ पाया। ८. किसी प्रकार के परिणाम या फल के रूप में अधिकारी या भोक्ता बनना या बनने की स्थिति में होना। जैसे—(क) दुःख या सुख पाना। (ख) छुट्टी या सजा पाना। ९. ईश्वर अथवा देवता के प्रसाद के रूप में कोई खाद्य या पेय पदार्थ ग्रहण या प्राप्त करना। आदर-पूर्वक शिरोधार्य करके कुछ खाना या पीना। (भक्तों की परिभाषा) जैसे—मैं उनके यहाँ से भोजन पाकर आया हूँ। १॰. कोई काम या बात ठीक तरह से पूरी करने में समर्थ होना। कर सकना। जैसे—तुम उसे नहीं जीत पाओगे। ११. प्रतियोगिता आदि में किसी के तुल्य या समान हो सकना। जैसे—बराबरी कर सकना। जैसे—चालाकी (या दौड़) में तुम उसे नहीं पाओगे।
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पानागार  : पुं० [सं० पान-आगार, ष० त०] वह स्थान जहाँ बहुत से लोग मिलकर शराब पीते हों। शराब पीने की जगह।
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पानात्यय  : पुं० [सं० पान-अत्यय, तृ० त०] पान-विभ्रम। (दे०)
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पानि  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिक  : पुं० [सं० पान+ठक्—इक] वह जो शराब बनाता और बेचता हो। शौंडिक। कलवार।
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पानिग्रहण  : पुं०=पाणिग्रहण।
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पानिप  : पुं० [हिं० पानी+प (प्रत्य०)] १. ओप। द्युति। कांति। चमक। आब। २. शोभा। ३. पानी।
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पानि-पतंग  : पुं० [हिं० पानी+पतंगा] जल-भौंरा या भौंतुआ नाम का कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पानिय  : पुं०=पानी। उदा०—प्यासी तजौं तनु रूप सुधा बिनु, पानिय पी-कौ पपीहे पिआओ।—भारतेन्दु। वि०=पानीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [?] रक्षित होने के योग्य। (क्व०)
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पानिल  : पुं० [सं० पान+इलच्] पानपात्र।
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पानी  : पुं० [सं० पानीय] १. वह प्रसिद्ध निर्गंध पारदर्शी और पर्ण-हीन तरल या द्रव पदार्थ जो झील, नदियों, समुद्रों आदि में भरा रहता है। तथा बादलों से वर्षा के रूप में पृथ्वी पर बरसता है और जो नहाने-धोने, पीने, खेत सींचने आदि के काम में आता है। जल। विशेष—वायु के उपरांत जल या पानी जीव-जंतुओं वनस्पतियों आदि के पालन-पोषण तथा वर्धन के लिए सबसे अधिक आवश्यक है; इसलिए संस्कृत में इसे ‘जीवन’ भी कहते हैं। भारतीय दर्शन में इसकी गणना पंच महाभूतों में होती है; परन्तु आधुनिक रासायनिक अनुसंधान के अनुसार यह दो तिहाई हाइड्रोजन तथा एक तिहाई आक्सिजन का मिश्रण है। अधिक सरदी पड़ने पर यह जमकर बरफ बन जाता है। और अधिक ताप पाकर उबलने या खौलने लगता है अथवा भाप बनकर उड़ जाता है। वर्षा के प्रसंग में इसके साथ आना, गिरना, पड़ना, बरसना आदि जलाशयों के तल के विचार से उतरना, चढ़ना आदि और कूएँ के मूल सोते के विचार से आना, टूटना, निकलना आदि क्रियाओं का प्रयोग होती है। किसी तल के छोटे-छोटे छिद्रों से आने या निकलने के प्रसंग में इसके साथ आना चूना, छूटना, टपकना, निकलना, रसना आदि क्रियाएँ लगती हैं। किसी आधान में या स्थल पर एकत्रित राशि के संबंध में प्रसंग के अनुसार ठहरना, बहना, रुकना आदि क्रियाओं का भी प्रयोग होता है। कुछ अवस्थाओं में इसकी कोमलता, तरलता, शीतलता, सरसता आदि गुणों के आधार पर भी इसके कई मुहावरे बनते हैं। पद—पानी का आसरा=नाव की बारी पर लगा हुआ कुछ झुका हुआ वह तख्ता जिस पर छाजन की ओलती का पानी गिरता है। बारी। (लश०) पानी का बतासा=(क) बुलबुला। बुदबुद। (ख) दे० नीचे ‘पानी का बुलबुला’। पानी का बुलबुला=बुलबुले की तरह क्षण भर में नष्ट हो जानेवाला। क्षण-भंगुर। नाशवान्। विनाशशील। पानी की तरह पतला=(क) अत्यन्त तुच्छ या हीन। (ख) बहुत कम महत्त्व का। पानी की पोट=ऐसा पदार्थ जिसमें अधिकतर पानी ही पानी हो। जिसमें पानी के सिवा और तत्त्व बहुत कम हो। (ख) ऐसी तरकारियाँ, साग आदि जिनमें जलीय अंश बहुत अधिक हो। पानी के मोल=प्रायः उतना ही सस्ता जितना पीने का पानी होता है। बहुत अधिक सस्ता। पानी देना=वंशज जो पितरों को पानी देता अर्थात् उनता तर्पण करता है। पानी भर खाल=मनुष्य का क्षणभंगुर और सारहीन शरीर। पानी से पतला=(क) बहुत ही तुच्छ या हीन। (ख) बहुत ही सहज या सुगम। कच्चा पानी=ऐसा पानी जो औटाया या पकाया हुआ न हो। नरम पानी=(क) ऐसा पानी जिसके बहाव में अधिक वेग न हो। (ख) ऐसा पानी जिसमें खनिज तत्त्व अपेक्षया कम हों। पक्का पानी=औटाया, गरम किया या पकाया हुआ पानी। भारी पानी=वह पानी जिसमें खिनज पदार्थ अधिक मात्रा में मिले हों। हलका पानी=ऐसा पानी जिसमें खनिज पदार्थ बहुत थोड़े हों। नरम पानी। मुहा०—पानी काटना=(क) पानी की नाली या बाँध काट देना। एक नाली में से दूसरी में पानी ले जाना। (ख) तैरते समय हाथों से आगे का पानी हटाना। पानी चीरना। पानी की तरह बहाना=बहुत ही लापरवाही से और बहुत अधिक मात्रा या या मान में व्यय करना। जैसे—(क) उन्होंने लाखों रुपए पानी की तरह बहाँ दिए। (ख) युद्ध क्षेत्र में सैनिकों ने पानी की तरह खून बहाया। पानी के रेले में बहाना=दे० ऊपर ‘पानी की तरह बहाना’। पानी चढ़ाना=सिंचाई के काम के लि खेत तक पानी पहुँचाना। (किसी चीज पर) पानी चलाना=चौपट या नष्ट करना। (दे० ‘पानी फेरना’) पानी छानना=बच्चे को पहले-पहल माता निकलने के बाद तथा उसका जोर कम होने पर किया जानेवाला एक प्रकार का मांगलिक उपचार या टोटका जिसमें माता उसे बच्चे को इस प्रकार गोद में लेकर बैठती है कि भिगोये हुए चने का पानी जब बच्चे के सिर पर डाला जाता है, तब वह गिरकर माता की गोद में पड़ता है। (कहते हैं कि यह उपचार माता की गोद सदा भरी-पूरी रखने के लिए किया जाता है)। पानी छूना=मल-त्याग के उपरांत जल से गुदा को धोना। आबदस्त लेना। (ग्राम्य) पानी टूटना=कूएँ, ताल आदि में इतना कम पानी रह जाना कि काम में लाया या निकाला न जा सके। पानी तोड़ना=नाव खेने के समय डाँड़ या बल्ली से पानी चीरना या हटाना। पानी काटना। (मल्लाह)। पानी थामना=धार या प्रवाह के विरुद्ध नाव ले जाना। धार पर चढ़ाना। (लश०) (पशुओं को) पानी दिखाना=घोड़े, बैल आदि को पानी पिलाने के लिए उनके सामने पानी भरा बरतन रखना या उन्हें जलाशय तक ले जाना। पानी देना=(क) सींचने के लिए क्यारियों, खेतों आदि में पानी डालना। (ख) पितरों का तर्पण करना। पानी न माँगना=भीषण आघात लगने पर ऐसी स्थिति में आना या होना कि पीने के लिए पानी तक माँगने की शक्ति न रह जाय। पानी पढ़ना=मंत्र पढ़कर पानी फूँकना। जल अभिमंत्रित करना। पानी पर नींब (या बुनियाद) होना=बहुत ही अनिश्चित या दुर्बल आधार होना। पानी परोरना=दे० ऊपर ‘पानी छानना’। पानी पी पीकर=बार बार शक्ति संचित करके। जैसे—पानी पी पीकर किसी को कोसना। विशेष—बहुत अधिक बोलने से गला सूखने लगता है, जिसे तर करने के लिए बोलनेवाले को रह-रहकर पानी का घूँट पीना पड़ता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। (किसी चीज या बात पर) पानी फिरना या फिर जाना=पूरी तरह से चौपट, नष्ट या निरर्थक हो जाना। बिलकुल तत्वहीन या निःसार हो जाना। पानी फूँकना=खौलते हुए पानी में उबाल आना। (किसी चीज या बात पर) पानी फेरना या फेर देना। (क) पूरी तरह नष्ट या चौपट करना। (ख) सारा किया-धरा विफल या व्यर्थ कर देना। जैसे—जरा सी भूल से तुमने मेरे सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया। पानी बराना=(क) छोटी नालियाँ बनाकर और क्यारियाँ काटकर खेत सींचना। (ख) ऐसी व्यवस्था करना जिसमें नालियों का पानी इधर-उधर बहने न पावे। (किसी का किसी के सामने) पानी भरना=किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ या हीन सिद्ध होना। उदा०—फूले शफक तो जर्द हों गालों के सामने। पानी भरे घटा तेरे बालों के सामने।—कोई शायर। (कहीं) पानी मरना=किसी स्थान पर पानी का एकत्र होकर सोखा जाना या किसी संधि में प्रविष्ट होकर वास्तु-रचना को हानि पहुँचाना। जैसे—इस दरज से छत (या दीवार) में पानी भरता है। (किसी के सिर) पानी मरना=किसी का ऐसी स्थिति में आना या होना कि उस पर किसी प्रकार का आक्षेप, आरोप या कलंक हो या लग सके या उसे किसी बात से लज्जित होना पड़े। पानी में आग लगाना=(क) असंभव बात संभव कर दिखलाना। (ख) जहाँ लड़ाई-झगड़े की कोई संभावना न हो, वहाँ भी लड़ाई-झगड़ा खड़ा कर देना। पानी में फेंकना या बहाना=व्यर्थ नष्ट या बरबाद करना। (कहीं) पानी लगना=किसी स्थान पर पानी इकट्ठा होना। पानी जमा होना। (दाँतों में) पानी लगना=पानी की ठंढक से दाँतों में टीस होना। पानी लेना=दे० ऊपर ‘पानी छूना’। पानी सिर से (या पैर से) गुजरना=दे० ‘सिर’ के अंतर्ग०। पानी से पहले पाड़, पुल या बाँध बाँधना=किसी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न होने पर भी केवल आशंकावश बचाव का प्रयत्न या प्रयास करना। गले गले पानी में=लाख कठिनाइयाँ होने पर भी। जैसे—तुम्हारा रुपया तो हम गले गले पानी में भी चुका देंगे। विशेष—बाढ़ आने पर आदमी का धड़ डूबता है और गले तक पानी आता है तब मृत्यु या विनाश समीप दिखाई देता है। इसी आधार पर यह मुहा० बना है। २. उक्त तत्त्व का कोई ऐसा रूप जो किसी दूसरे पदार्थ में से आपसे आप या उबालने आदि पर निकला हो या उस पदार्थ के अंश से युक्त हो। जैसे—दही या नारियल का पानी, चूने या नमक का पानी, दाल या नीम का पानी। क्रि० प्र०—आना।—निकलना।—रसना। मुहा०—(किसी वस्तु का) पानी छोड़ना=किसी चीज में से थोड़ा-थोड़ा पानी या और कोई तरल पदार्थ रस-रसकर निकलना। जैसे—पकाने पर किसी तरकारी का पानी छोड़ना। ३. किसी विशिष्ट प्रकार के गुण या तत्त्व से युक्त किया हुआ कोई ऐसा तरल पदार्थ जिसके योग से किसी दूसरी चीज में कोई गुण या तत्त्व सम्मिलित किया जाता है अथवा किसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। जैसे—जहर का पानी, मुलम्मे का पानी। पद—खारा पानी=सोडा मिला हुआ वह पानी जो बंद बोतलों में पीने के लिए बिकता है। मीठा पानी=उक्त प्रकार का वह पानी जिसमें नींबू आदि का सत्त मिला रहता है। विलायती पानी=यंत्र की सहायता से और वाष्प के जोर से बोतलों में भरा हुआ पानी जो सम्मिश्रण, स्वाद आदि के विचार से अनेक प्रकार का होता है। मुहा०—(किसी चीज पर) पानी चढ़ाना, देना या फेरना=किसी तरल पदार्थ या घोल के योग से किसी वस्तु में चमक लाना। ओप लाना। जिला करना। जैसे—चाँदी की अँगूठी पर सोने का पानी चढ़ाना। (किसी चीज से) पानी बुझाना=ईंट, धातु-खंड या ऐसी ही और कोई चीज आग में अच्छी तरह तपाकर और लाल करके इसलिए तुरंत पानी में डालना कि उसका कुछ गुण या प्रभाव पानी में आ जाय। (चिकित्सा आदि के प्रसंग में ऐसे पानी का उपयोग होता है।) (कोई चीज किसी) पानी में बुझाना=किसी विशिष्ट क्रिया से तैयार किये हुए पानी में कोई चीज गरम करके इसलिए डालना कि उस चीज में उस पानी का कोई विशिष्ट गुण या प्रभाव आ जाय। जैसे—जहर के पानी से तलवार बुझाना। ४. उक्त के आधार पर काट करनेवाली चमकदार और बढ़िया तलवार या ऐसा ही और कोई बड़ा अस्त्र। ५. किसी प्रकार की प्रक्रिया में हरबार होनेवाला पानी का उपयोग या प्रयोग। जैसे—(क) तीन पानी का गेहूँ अर्थात् ऐसा गेहूँ जिसकी फसल तीन बार सींची गई हो। (ख) कपड़ों की दो पानी की धुलाई; अर्थात् दो बार धोया जाना। ६. आकाश से जल की होनेवाली वृष्टि। वर्षा। मेह। क्रि० प्र०—आना।—गिरना।—पड़ना।—बरसना। मुहा०—पानी उठना =आकाश में घटाओं या बादलों का आकर छाना जो वर्षा का सूचक होता है। पानी टूटना=लगातार होनेवाली वर्षा बन्द होना या रुकना। पानी बाँधना=जादू या टोना-टोटका करके बरसते या बहते हुए पानी की धार रोकना। ७. प्रतिवर्ष होनेवाली वर्षा के विचार से, पूरे एक वर्ष का समय। जैसे—अभी तो यह पेड़ तीन ही पानी का है; अर्थात् इसने तीन ही बरसातें देखी हैं, या यह तीन ही वर्ष का पुराना है। ८. उक्त के आधार पर कोई काम एक बार या हर बार होने की क्रिया या भाव। दफा। जैसे—(क) वहाँ मुसलमानों और राजपूतों में कई पानी भिडंत हुई थी। (ख) दोनों में एक पानी कुश्ती हो तो अभी फैसला हो जाय। ९. शरीर के किसी अंग के क्षत में से विकार आदि के रूप में निकलने रसनेवाला तरल अंश या पदार्थ। जैसे—आँख या नाक से पानी जाना। मुहा०—पानी उतरना=आँतों या पेट का पानी उतर कर नीचे अंडकोश में आना और एकत्र होना जो एक प्रकार का रोग है। १॰. किसी स्थान का जल-वायु अथवा प्राकृतिक या सामाजिक परिस्थिति जिसका प्रभाव प्राणियों के शारीरिक स्वास्थ्य अथवा आचार-विचार, रहन-सहन आदि पर पड़ता है। जैसे—अच्छे पानी का घोड़ा। पद—कड़ा पानी=ऐसा जलवायु जिसमें उत्पन्न या पले हुए प्राणी ढीले और निर्बल होते हैं। मुहा०—(किसी व्यक्ति को कहीं का) पानी लगना=(क) किसी स्थान के जलवायु का शरीर पर दूषित या हानिकारक परिणाम या प्रभाव होना। जैसे—(क) जब से उन्हें पहाड़ का पानी लगा है, तब से वे बराबर बीमार ही रहते हैं। (ख) कहीं के दूषित वातावरण या परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना। जैसे—देहात से आते ही तुम्हें शहर का पानी लगा। ११. वह जो पानी की तरह कोमल, गीला, ठंडा, नरम या सरस हो। जैसे—तुमने आटा क्या गूँधा है, बिलकुल पानी कर दिया है। मुहा०—(काम को) पानी करना=बहुत ही सरल, सहज, साध्य या सुगम कर डालना। जैसे—मैंने इस काम को पानी कर दिया। (किसी व्यक्ति को) पानी करना या कर देना=कठोरता, क्रोध आदि दूर करके शांत या सरस कर देना। (किसी व्यक्ति को) पानी पानी करना=अत्यन्त लज्जित करना। (किसी का) पानीपानी होना=(क) मन की कठोर वृत्ति का सहसा बदलकर बहुत ही कोमल हो जाना। (ख) किसी घटना या बात के प्रभाव या फल से बहुत ही लज्जित होना। (किसी का) पानी होना या हो जाना=उग्रता, क्रोध आदि का पूरी तरह से शमन होना; और उसके स्थान पर दया, नम्रता आदि का आविर्भाव होना। १२. पानी की तरह फीका या स्वादहीन पदार्थ। जैसे—दूध क्या है, निरा पानी है। १३. मद्य। शराब। (बोल-चाल) पद—गरम पानी=शराब। १४. पुरुष का वीर्य या शुक्र। मुहा०—पानी गिराना=स्त्री के साथ उदासीनता या उपेक्षापूर्वक अथवा विशिष्ट सुख का बिना अनुभव किये यों ही मैथुन या संभोग करना। (बाजारू) १५. पुरुषत्व, मान-प्रतिष्ठा आदि के विचार से मनुष्य में होनेवाला अभिमान, वीरता या ऐसा ही और कोई तत्त्व या भावना। जैसे—ऐसा आदमी किस काम का जिसमें कुछ भी पानी न हो। १६. मान। प्रतिष्ठा। इज्जत। आबरू। क्रि० प्र०—जाना।—बचाना।—रखना।—रहना। पद—पत-पानी=प्रतिष्ठा और सम्मान। इज्जत-आबरू। मुहा०—(किसी का) पानी उतारना या उतार लेना=अपमानित करना। इज्जत उतारना। (किसी को) बे-पानी करना=अपमानित या अप्रतिष्ठित करना। १७. किसी पदार्थ का वह गुण या तत्त्व जिसके फल-स्वरूप उसमें किसी तरह की आभा, चमक या पारदर्शकता आती हो। जैसे—मोती या हीरे का पानी। वि० [?] बहुत सरल और सुगम। उदा०—गुलिस्ताँ के बाद फारसी की और किताबें पानी हो गई थीं।—मिरजा रुसवा (उमराव जान में)
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पानी आँवला  : पुं० [सं० पानीयामलक] आँवले की तरह का एक क्षुप जो जलाशयों के किनारे होता है।
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पानी आलू  : पुं० [सं० पानीयालु] जलाशय के किनारे होनेवाला एक प्रकार का कंद। जलालु।
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पानी-कल  : पुं०=जल-कल।
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पानी-तराश  : पुं० [हिं० पानी+तराशना] जहाज या नाव के पेदें में वह बड़ी लकड़ी जिससे वह पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ता है।
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पानीदार  : वि० [हिं० पानी+फा० दार (प्रत्य०)] १. जिसमें पानी अर्थात् आभा या चमक हो। जैसे—पानीदार हीरा। २. (धातु का कोई उपकरण) जिस पर किसी रासायनिक प्रक्रिया से चमक लाने के लिए किसी तरह का पानी चढ़ाया गया हो। जैसे—पानीदार तलवार। ३. (व्यक्ति) जिसे अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि का पूरा-पूरा ध्यान हो। अपने गौरव, प्रतिष्ठा, मान आदि पर आँच न आने देनेवाला। स्वाभिमानी।
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पानी-देवा  : वि० [हिं० पानी+देवा=देनेवाला] पितरों को पानी देने अर्थात् उनका तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध आदि करनेवाला, फलतः वंशज या संतान। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. अपने कुल या वंश का व्यक्ति।
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पानीपत  : पुं० [हिं०] १. दिल्ली से ५५ मील उत्तर की ओर स्थित एक प्रसिद्ध नगर। २. उक्त नगर के समीप स्थित एक प्रसिद्ध क्षेत्र या बहुत बड़ा मैदान जहाँ अनेक बड़े-बड़े युद्ध हो चुके हैं।
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पानीफल  : पुं० [हिं० पानी+फल] सिंघाड़ा (फल)।
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पानीवेल  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार की लता जो प्रायः साल के जंगलों में पाई जाती और गरमी में फूलती तथा बरसात में फलती है। इसके फल खाये जाते हैं और जड़ दवा के काम आती है।
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पानीय  : विं० [सं०√पा (पीना, रक्षा करना)+अनीयर्] १. जो पीया जा सके अथवा जो पिये जाने के योग्य हो। २. जिसकी रक्षा की जा सके या जिसकी रक्षा करना आवश्यक अथवा उचित हो। पुं० कोई ऐसा तरल स्वादिष्ट पदार्थ जो पीने के काम में आता हो। (ड्रिंक, बीवरेज)
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पानीय-चूर्णिका  : स्त्री० [ष० त०] बालू। रेत।
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पानीय-नकुल  : पुं० [स० त०] पानी में रहनेवाला नेवला अर्थात् ऊदबिलाव।
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पानीय-पृष्ठज  : पुं० [सं० पानीय-पृष्ठ, ष० त०,√जन्+ड] जलकुम्भी नामक पौधा।
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पानीय-फल  : पुं० [ष० त०] मखाना।
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पानीय-मूलक  : पुं० [ब० स०, कप्] बकुची।
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पानीय-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ सार्वजनिक रूप से राह-चलनेवालों को पानी पिलाने की व्यवस्था हो। पौसरा। प्याऊ।
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पानीय शालिका  : स्त्री० [ष० त०] पानीय-शाला।
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पानीयामलक  : पुं० [सं० पानीय-आमलक, मध्य० स०] पानी आँवला।
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पानीयालु  : पुं० [सं० पानीय-आलु, मध्य० स०] पानी आलू नामक कंद। जलालु।
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पानीयाश्ना  : स्त्री० [सं० पानीय√अश् (खाना)+न+टाप्] एक प्रकार की घास। बल्वजा।
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पानूस  : पुं०=फानूस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पानौरा  : पुं० [हिं० पान+बरा] [स्त्री० अल्पा० पानौरी] पीठी, बेसन आदि से लपेट कर तला हुआ पान के पत्ते का पकौड़ा।
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पान्यो  : पुं०=पानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पान्हर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का सरपत।
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पाप  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+प] [वि० पापी] १. धर्म और नीति के विरुद्ध किया जानेवाला ऐसा निंदनीय आचरण या काम जो इस लोक में भी और पर-लोक में भी सब तरह से बुरा और हानिकारक हो और जिसके फलस्वरूप मनुष्य को नरक भोगना पड़ता हो। ‘पुण्य’ का विपर्याय। गुनाह। विशेष—हमारे यहाँ पाप का क्षेत्र दुष्कर्मों की तुलना में बहुत विस्तृत माना गया है। धर्म-शास्त्रों के अनुसार दुष्कर्म करना तो पाप है ही, उचित और कर्त्तव्य कर्म न करना भी पाप माना गया है। साधारणतः दुष्कर्मों का फल जो इसी लोक में मिलता है; पर पाप के फलस्वरूप मनुष्य को मरने के बाद भी नरक में रहकर उसका दंड भोगना पड़ता है। यह कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार का माना गया है। पापों के फल-भोग से बचने के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है। पद—पाप की गठरी या मोट=किसी व्यक्ति के जन्म भर के सब पाप। मुहा०—पाप काटना=पापों के दुष्परिणामों या प्रभाव का प्रायश्चित्त करना या दंड-भोग से क्षीण या नष्ट होना। पाप कमाना=ऐसे दुष्कर्म करना जो पाप समझे जाते हों और जितना फल भोगने के लिए नरक में जाना पड़े। पाप काटना=किसी प्रकार पापों के दुष्परिणामों का अंत या नाश करना। पाप बटोरना=दे० ऊपर ‘पाप कमाना’। २. पूर्व जन्म में किये हुए पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली वह बुरी अवस्था जिसमें उन पापों का दंड या बहुत अधिक कष्ट भोगने पड़ते हों। जैसे—ईश्वर करे, हमारे पाप शांत हों। मुहा०—पाप उदय होना=ऐसी बुरी अवस्था या समय आना जब अनेक प्रकार के कष्ट ही कष्ट मिलते हों। दुर्दशा के अथवा बुरे दिन आना। जैसे—न जाने हमारे कब के पापों के उदय हुआ था कि ऐसा नालायक लड़का मिला। पाप पड़ना=ऐसी बुरी स्थिति उत्पन्न होना जिससे बहुत अधिक कष्ट या दुःख भोगना पड़े। उदा०—सीरैं जतननु सिसिर रितु, सहि बिरहिन तनु-ताप। बसिबै कौं ग्रीषम दिननु पर्यो परोसिनि पापु।—बिहारी। ३. ऐसी अवस्था, जिसमें किसी काम का वैसा ही दुष्परिणाम भोगना पड़ता हो जैसा पापपूर्ण कर्म का। जैसे—मैं देखता हूँ कि यहाँ तो सच बोलना भी पाप है। मुहा०—पाप लगना=ऐसी स्थिति आना या होना कि जिसमें मनुष्य पापों के फलभोग का भागी बनता हो। जैसे—पापी के संसर्ग से भी मनुष्य को पाप लगता है। ४. कोई ऐसा काम या बात जिससे मुनष्य को बहुत कष्ट भोगना अथवा दुःखी होना पड़ता हो। जैसे—तुमने तो जान-बूझकर यह मुकदमेबाजी का पाप अपने साथ लगा रखा है। मुहा०—पाप काटना=बहुत बड़ी झंझट या बखेड़ा दूर करना। ५. अपराध। कसूर। ६. बुरी बुद्धि या बुरा विचार। ७. अनिष्ट। अहित। खराबी। ८. दे० ‘पापग्रह’। वि० १. पाप करनेवाला। पापी। २. दुराचारी। ३. कमीना। नीच। ४. दुष्ट। पाजी। ५. अमांगलिक। अशुभ। जैसे—पाप-ग्रह।
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पापक  : वि० [सं० पाप+कन्] १. पापा-युक्त। २. पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कर  : वि० [ष० त०]=पापी।
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पाप-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] धार्मिक दृष्टि से ऐसा बुरा और निंदनीय काम जिसे करने से पाप लगता हो। वि० पाप करनेवाला। पापी।
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पापकर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० पापकर्म] [स्त्री० पापकर्मिणी] पाप करनेवाला। पापी।
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पाप-कल्प  : वि० [सं० पाप-कल्पप्] पापी। पुं० खोटा और नीच व्यक्ति।
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पाप-क्षय  : पुं० [ष० त०] १. ऐसी स्थिति जिसमें किये हुए पापों का फल नहीं भोगना पड़ता। पापों का होनेवाला अंत या क्षय। २. तीर्थ, जहाँ जाने से पापों का क्षय या नाश होता है।
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पाप-गति  : वि० [ब० स०] १. जो किये हुए पापों का फल भोग रहा हो। २. अभागा।
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पाप-ग्रह  : पुं० [कर्म० स०] मंगल, शनि, केतु, राहु आदि अशुभ ग्रह जिनकी दशा लगने पर लोग दुःख पाते हैं।
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पापघ्न  : वि० [सं० पाप√हन् (हिंसा)+टक्] पापों का नाश करनेवाला। पुं० तिल (जिसके दान करने से पापों का क्षय होना माना जाता है)।
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पापघ्नी  : स्त्री० [सं० पापघ्न+ङीप्] तुलसी।
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पाप-चंद्रमा  : पुं० [सं० कर्म० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार विशाखा और अनुराधा नक्षत्रों के दक्षिण भाग में स्थित चन्द्रमा।
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पापचर  : वि० [सं० पाप√चर् (गति)+ट] [स्त्री० पापचरा] पापपूर्ण आचरण करनेवाला। पापी।
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पाप-चर्य  : पुं० [ब० स०] १. पापी (व्यक्ति)। २. राक्षस।
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पापचारी (रिन्)  : वि० [सं० पाप√चर्+णिनि] [स्त्री० पापचारिणी]=पाप-चर्य।
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पाप-चेता (तस्)  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पापपूर्ण आचरण करने की बातें सोचता हो।
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पापचेली  : स्त्री० [सं० पाप√चेल्+अच्+ङीष्] पाठा लता।
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पापचैल  : पुं० [कर्म० स०] अशुभ या अमंगल सूचक वस्त्र। वि० [ब० स०] जो उक्त प्रकार के वस्त्र पहने हो।
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पाप-जीव  : वि० [कर्म० स०] पापी। पुं० पुराणानुसार स्त्री, शूद्र, हूण और शवर आदि जीव जिनका संसर्ग कष्टदायक कहा गया है।
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पापड़  : पुं० [सं० पर्पट, प्रा० पप्पड़] उर्द, मूँग आदि दालों, मैदे, चौरेठे आदि अन्नों अथला आलू की बनी हुई एक तरह की मसालेदार पतली चपाती जिसे तल या भूनकर भोजन आदि के साथ खाया जाता है। मुहा०—पापड़ बेलना=(क) कोई काम इस रूप में करना कि वह बिगड़ जाय। (ख) किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए तरह-तरह के और कष्टसाध्य काम करना। (प्रायः ऐसा कामों से सिद्धि नहीं होती)। जैसे—आप सब पापड़ बेल कर बैठे हैं। वि० १. पापड़ की तरह पतला या महीन। २. पापड़ की तरह सूखा और भुरभुरा।
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पापड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] १. छोटे आकार का एक पेड़ जो मध्य-प्रदेश बंगाल, मद्रास आदि में उत्पन्न होता है। इसकी लकड़ी से कंघियाँ और खराद की चीजें बनाई जाती हैं। २. दे० ‘पित्त-पापड़ा’।
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पापड़ा-खार  : पुं० [सं० पर्पटक्षार] केले के पेड़ को जलाकर तैयार किया हुआ क्षार।
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पापड़ी  : स्त्री० [हिं० पापड़ा] एक प्रकार का पेड़ जो मध्यप्रदेश, पंजाब और मदरास में बहुत होता है।
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पापदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पाप√दृश् (देखना)+णिनि] पापपूर्ण दृष्टि से देखनेवाला। बुरी निगाहवाला।
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पाप-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि पापमय हो। २. अमंगलकारिणी या अशुभ दृष्टिवाला। स्त्री० पाप-पूर्ण दृष्टि।
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पाप-धी  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि पापमय या पापासक्त हो। पापकर्मों में मन लगानेवाला। पापमति। पापचेता।
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पाप-नक्षत्र  : पुं० [कर्म० स०] फलित ज्योतिष में, ज्येष्ठा आदि कुछ नक्षत्र जो अनिष्टकारक या बुरे माने गये हैं।
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पाप-नामा (मन्)  : वि० [ब० स०] १. अशुभ नामवाला। २. जिसकी सब जगह निंदा या बदनामी होती हो। बदनाम।
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पाप-नाशक  : वि० [ष० त०] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-नाशन  : वि० [ष० त०] पाप का नाश करनेवाला। पापनाशी। पुं० १. प्रायश्चित्त जिससे पाप नष्ट होते हैं। २. विष्णु। ३. शिव।
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पाप-नाशिनी  : स्त्री० [सं० पापनाशिन्+ङीष्] १. शमी वृक्ष। २. काली तुलसी।
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पापनाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाप√नश् (नष्ट होना)+ णिच्+णिनि] [स्त्री० पापनाशिनी] पापों का नाश करनेवाला।
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पाप-निश्चय  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का निश्चय कर लिया हो। खोटा काम करने को तैयार। पाप करने को कृतसंकल्प।
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पाप-पति  : पुं० [कर्म० स०] स्त्री का उपपति या यार।
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पाप-पुरुष  : पुं० [कर्म० स० या मध्य० स०] १. पापी प्रकृतिवाला पुरुष। दुष्ट। २. तंत्र में कल्पित पुरुष जिसका सारा शरीर पाप या पापों से ही बना हुआ माना जाता है। ३. पद्म पुराण के अनुसार ईश्वर द्वारा सारे संसार के दमन के उद्देश्य से रचा हुआ पापमय पुरुष।
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पाप-फल  : वि० [ब० स०] (कर्म) जिसका परिणाम बुरा हो और जिसे करने पर पाप लगता हो।
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पाप-बुद्धि  : वि० [ब० स०] जिसकी बुद्धि-सदा पापकर्मों की ओर रहती हो।
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पाप-भक्षण  : पुं० [ब० स०] काल-भैरव।
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पापभाक् (ज्)  : वि० [सं० पाप√भज् (भजना)+ण्वि] पापी।
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पाप-भाव  : वि० [ब० स०]=पाप-मति।
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पाप-मति  : वि० [ब० स०] जो स्वभावतः पाप-कर्म करता हो। पाप-बुद्धि। पापचेता।
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पाप-मना (नस्)  : वि० [ब० स०] जिसके मन में पापपूर्ण विचारों का निवास हो।
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पाप-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] बुरे कामों में लगाने या बुरी सलाह देनेवाला मित्र।
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पाप-मोचन  : पुं० [ष० त०] पापों को दूर या नष्ट करना।
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पाप-मोचनी  : स्त्री० [ष० त०] चैत्र कृष्णपक्ष की एकादशी।
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पाप-यक्ष्मा (क्ष्मन्)  : पुं० [कर्म० स०] राजयक्ष्मा या क्षय नामक रोग। तपेदिक।
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पाप-योनि  : वि० [कर्म० स०] बुरी या हीन योनि में उत्पन्न होनेवाला। जैसे—कीट, पतंग आदि। स्त्री० बुरी या हीन योनि।
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पापर  : पुं०=पापड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं० पाँपर] १. कंगाल। २. ऐसा व्यक्ति जिसे अपनी निर्धनता प्रमाणित करने पर दीवानी में बिना रसूम दिये मुकदमा चलाने की अनुमति मिली हो।
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पाप-रोग  : पुं० [मध्य० स०] १. वैद्यक में कुछ विशिष्ट भीषण या विकट रोग जो पूर्व जन्मों के पापों के फल-स्वरूप होनेवाले माने गये हैं। जैसे—कोढ़, क्षयरोग, लकवा आदि। २. मसूरिका या वसन्त नामक रोग। छोटी माता।
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पापरोगी (गिन्)  : वि० [पाप रोग+इनि] [स्त्री० पापरोगिणी] जिसे कोई पाप-रोग हुआ हो।
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पापर्द्धि  : स्त्री० [सं० पाप-ऋद्धि, ब० स०] आखेट। मृगया। शिकार।
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पापल  : वि० [सं० पाप√ला (लेना)+क] जो पाप का कारण हो। पाप उत्पन्न करनेवाला। पुं० एक प्रकार की पुरानी नाप या परिणाम।
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पापलेन  : पुं० [अं० पाँपलिन] मारकीन की तरह का परन्तु उससे कुछ बढ़िया सूती कपड़ा।
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पाप-लोक  : पुं० [ष० त०] [वि० पापलोक्य] १. ऐसा लोक जिसमें पापकर्मों की अधिकता हो। २. नरक, जिसमें पापी लोग पापों का फल भोगने के लिए भेजे जाते हैं।
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पाप-वाद  : पुं० [ष० त०] अशुभ या अमांगलिक शब्द।
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पाप-विनाशन  : पुं० [ष० त०] पाप-मोचन।
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पाप-शमनी  : वि०, स्त्री० [ष० त०] पापों का शमन या नाश करनेवाली। स्त्री० शमी वृक्ष।
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पाप-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० पापशीलता] जो स्वभावतः पापकर्मों की ओर प्रवृत्त रहता हो।
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पाप-शोधन  : पुं० [ष० त०] १. पाप से शुद्ध होने की क्रिया या भाव। पापनिवारण। २. तीर्थ-स्थान।
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पाप-संकल्प  : वि० [ब० स०] जिसने पाप करने का पक्का इरादा या संकल्प कर लिया हो।
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पाप-सूदन  : पुं० [सं० पाप√सूद् (नष्ट करना)+णिच्+ल्यु—अन] एक प्राचीन तीर्थ।
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पाप-हर  : वि० [ष० त०] पापनाशक। पापहारक।
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पापहा (हन्)  : वि० [सं० पाप√हन्+क्विप्] पापनाशक।
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पापांकुशा  : स्त्री० [पाप-अंकुश, च० त०,+टाप्] आश्विन् शुक्ला एकादशी।
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पापांत  : पं० [पाप-अंत, ब० स०] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम।
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पापा  : स्त्री० [सं० पाप+टाप्] १. बुद्धग्रह की उस समय की गति जब वह हस्त, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में रहता है। पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो ज्वार, बाजरे आदि की फसल में प्रायः अधिक वर्षा के कारण लगता है। पुं० [अनु०] १. पाश्चात्य देशों में बच्चों की एक बोली में एक शब्द जिससे वे बाप को संबोधित करते हैं। बाबा। बाबू। २. प्राचीन काल में बिशप पादरियों और आज-कल केवल यूनानी पादरियों के एक विशेष वर्ग की सम्मान-सूचक उपाधि।
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पापाख्या  : स्त्री० [सं० पाप+आ√ख्या (कहना)+क+टाप्] दे० ‘पापा’ (बुद्ध की गति)।
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पापाचार  : वि० [पाप-आचार, ब० स०] पाप कर्म करनेवाला। पापी। पुं० [ष० त०] पापपूर्ण आचरण।
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पापाचारी (रिन्)  : वि० [सं० पापाचार+इनि] पापपूर्ण आचरण या कर्म करनेवाला। पापी।
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पापात्मा (त्मन्)  : वि० [पाप-आत्मन्, ब० स०] जिसकी आत्मा या मन सदा पापकर्मों की ओर रहता हो; अर्थात् बहुत बड़ा पापी। बड़े बड़े पाप करनेवाला।
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पापाधम  : पुं० [पाप-अधम, स० त०] पापियों में भी अधम अर्थात् महापापी।
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पापानुबंध  : पुं० [पाप-अनुबन्ध, ष० त०] पाप का कुफल या दुष्परिणाम।
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पापानुवसित  : वि० [पाप-अनुवसित, तृ० त०] १. पापी। २. पापपूर्ण।
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पापापनुत्ति  : स्त्री० [पाप-अपनुत्ति, ष० त०] प्रायश्चित्त।
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पापारंभ  : वि० [पाप-आरंभ, ब० स०] दुष्कर्म करनेवाला। पापी।
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पापारंभक  : वि० [पाप-आरंभिक, ष० त०] जो पापकर्म करना चाहता हो।
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पापार्त्त  : वि० [पाप-आर्त्त, तृ० त०] जो आपने पाप-कर्मों के फल से बहुत ही दुःखी हो।
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पापाशय  : वि० [पाप-आशय, ब० स०] जिसके मन में पाप हो।
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पापाह  : पुं० [पाप-अहन्, कर्म० स०, टच्] १. अशौच या सूतक के दिन का समय। २. अशुभ या बुरा दिन।
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पापिष्ठ  : वि० [सं० पाप+इष्ठन्] बहुत बड़ा पापी।
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पापी (पिन्)  : वि० [सं० पाप+इनि] [स्त्री० पापिनी] १. पाप में रत या अनुरक्त। पाप करनेवाला। पातकी। अघी। २. लाक्षणिक और व्यंग्य के रूप में, क्रूर, निर्मोही या निर्दय। जैसे—पिया पापी न जागे, जगाय हारी।—लोकगीत। पुं० वह जो पाप करता हो या जिसने कोई पाप किया हो।
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पापीयस्  : वि० [सं० पाप+ईयसुन्] [स्त्री० पापीयसी] पापी।
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पापोश  : स्त्री० [फा०] जूता। उपानह।
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पापोशकार  : पुं० [फा०] [भाव० पापोशकारी] जूते बनानेवाला व्यक्ति। मोची।
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पाप्मा (प्मन्)  : वि० [सं०√आप् (व्याप्त करना)+ मनिन्; नि० सिद्धि] पापी। पुं० पाप।
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पा-प्यादा  : क्रि० वि० [फा०] बिना किसी सवारी के। पैदल।
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पाबंद  : वि० [फा०] [भाव० पाबंदी] १. जिसके पैर बँधे हुए हों। २. किसी प्रकार के बंधन में पड़ा हुआ। बद्ध। जैसे—नौकरी या मालिक का पाबंद। ३. पूर्ण रूप से किसी नियम, वचन, सिद्धांत आदि का ठीक समय पर पालन करनेवाला। जैसे—वक्त का पाबंद, हुकुम का पाबंद। ४. जो उक्त के आधार पर कोई काम करने के लिए बाध्य या विवश हो। पुं० १. घोड़े का पिछाड़ी, जिससे उसके पैर बाँधे जाते हैं। २. नौकर। सेवक।
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पाबंदी  : स्त्री० [फा०] १. पाबंद होने की अवस्था, क्रिया या भाव। बद्धता। २. वचन, समय, सिद्धान्त आदि के पालन करने की जिम्मेदारी। ३. उक्त के फल-स्वरूप होनेवाली लाचारी या विवशता।
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पाम (मन्)  : पुं० [सं०√पा (पीना)+मनिन्] १. दानेदार चकत्ते या फुंसियाँ। २. खाज। खुजली। स्त्री० [देश०] १. वह डोरी जो गोटे, किनारी आदि बुनने के समय दोनों तरफ बाँधी जाती है। २. डोरी। रस्सी। (लश०)
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पाम  : पुं० [अं०] ताड़ का पौधा या वृक्ष।
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पापघ्न  : वि० [सं० पामन्√हन् (नष्ट करना)+टक्] पामा रोग का नाश करनेवाला। पुं० गंधक।
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पामघ्नी  : स्त्री० [सं० पामघ्न+ङीप्] कुटकी।
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पामड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामड़ी  : स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामन  : वि० [सं०√पा+मिनिन्, पामन्+न, नलोप] १. जिसे या जिसमें पामा रोग हुआ हो। २. खल। दुष्ट। पुं०=पामा (रोग)।
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पामना  : स०=पावना (पाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पावना (प्राप्य धन)।
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पामर  : वि० [सं०√पा (रक्षा करना)+क्विप्, पा√मृ (मरना)+घ] १. बहुत बड़ा दुष्ट और नीच। अधम। २. पापी। ३. जिसका जन्म नीच कुल में हुआ हो। ४. निर्बुद्धि। मूर्ख।
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पामर-योग  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का निकृष्ट योग। (फलित ज्योतिष)
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पामरी  : स्त्री० [सं० प्रावार] उपरना। दुपट्टा। स्त्री० सं० ‘पामर’ का स्त्री०। स्त्री०=पाँवड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पानड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पामा  : पुं० [सं० पामन्+डाप्] १. एक प्रकार का चर्म रोग जिसमें शरीर पर चकत्ते निकल आते हैं और उनमें की छोटी छोटी फुंसियों में से पानी बहता है। (एंग्जिमा) २. खाज या खुजली नामक रोग।
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पामारि  : पुं० [पामा-अरि, ष० त०] गंधक।
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पामाल  : वि० [फा०] [भाव० पामाली] १. पैर से कुचला या पाँव तले रौंदा हुआ। पद-दलित। २. बुरी तरह से तबाह या बरबाद।
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पामाली  : स्त्री० [फा०] १. पामाल होने की अवस्था या भाव। २. तबाही। बरबादी।
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पामोज़  : पुं० [?] १. एक प्रकार का कबूतर। २. ऐसा घोड़ा जो सवारी के समय सवार की पिंडली को अपने मुँह से पकड़ता हो।
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पायँ  : पुं०=पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँचा  : पुं० [हिं० पाँव] पायजामे की टाँग।
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पाँयजेहरि  : स्त्री० [हिं० पाँय+जेहरी] पायजेब।
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पायँत  : स्त्री०=पायँता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायँता  : पुं० [हिं० पायँ+सं० स्थान, हिं० थान] १. पलंग या चारपाई का वह भाग जिस पर पैर रहते हैं। पैताना। २. वह दिशा जिधर पैर फैलाकर कोई सोया हो।
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पायँती  : स्त्री० [हिं० पाँयता] पाँयता। पैताना।
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पायंदाज  : पुं० [फा० पाअंदाज़] पैर पोंछने का बिछावन। पावदान।
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पायँपसारी  : स्त्री० [हिं० पाँव+पसारना] निर्मली का पौधा और फल।
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पाय  : पुं० [सं०√पा+घञ्, यक्] जल। पानी। पुं० [फा० पायः] फारसी ‘पा’ (=पैर) का वह संबंधकारक रूप जो उसे यौ० शब्दों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पायखाना; पायजेब आदि।
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पायक  : वि० [सं०√पा (पीना)+ण्वुल—अक, युक्] पान करनेवाला। पीनेवाला। पुं० [फा०] १. दूत। २. सेवक। दास। ३. पैदल सिपाही। ४. वह छोटा कर्मचारी जो प्रायः दौड़-धूपवाले कामों के लिए नियुक्त हो। ५. झंडा। पताका। पुं० [?] १. पहलवान। मल्ल। २. पटेबाज।
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पायकार  : पुं० दे० ‘पैकार’।
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पायखाना  : पुं०=पाखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायगाह  : स्त्री० [सं०] १. पैर रखने की जगह। २. कचहरी। ३. अस्तबल। तबेला।
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पायज  : पुं० [?] पेशाब। मूत्र। उदा०—...निज पायज ज्यौं जल अंक लगावै।—केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायजामा  : पुं०=पाजामा।
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पायजेब  : स्त्री०=पाजेब।
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पाय-जेहरि  : स्त्री०=पाजेब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायठ  : स्त्री०=पाइट।
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पायड़ा  : पुं० दे० ‘पैंडा’।
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पायतन  : पुं०=पायँता।
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पायताबा  : पुं० [फा०]=पाताबा (मोजा)।
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पायदान  : पुं०=पावदान।
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पायदार  : वि० [फा० पायःदार] [भाव० पायदारी] टिकाऊ और मजबूत।
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पायदारी  : स्त्री० [फा०] दृढ़ता और मजबूती।
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पायन  : पुं० [सं०√पा+णिच्+ल्युट्—अन] किसी को कुछ पिलाने की क्रिया या भाव।
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पायना  : स्त्री० [सं०√पा+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. सींचना। २. गीला या तर करना। ३. सान धरना। धार तेज करना।
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पायनिक  : वि० [सं० पायन+ठक्—इक] सिंचाई के काम में आनेवाला।
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पायपोश  : पुं०=पापोश।
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पायबोसी  : स्त्री०=पाबोसी।
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पायमाल  : वि० [भाव० पायमाली]=पामाल।
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पायरा  : पुं० [हिं० पाय+रा (=रखना)] घोड़े की जीन। पुं० [सं० पारावत] एक प्रकार का कबूतर।
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पायल  : स्त्री० [हिं० पाय+ल (प्रत्य०)] १. पैर में पहनने का स्त्रियों का एक गहना। २. तेज चलनेवाली हथनी। ३. बाँस की सीढ़ी। वि० [बच्चा] जन्म के समय जिसके पैर पहले बाहर निकले हों।
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पायस  : पुं० [सं० पायस्+अण्] १. खीर। २. सरल का गोंद। निर्यास। ३. रसायन शास्त्र में, दूधिया रंग का वह तरल पदार्थ जिसमें तेल, सर्जरस आदि के कण सब जगह समान रूप से तैरते रहते हों। (एमल्शन) ४. दे० ‘वसापायस’।
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पायसा  : पुं० [सं० पार्श्व, हिं० पास] पड़ोस। आस-पास का स्थान।
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पायसीकरण  : पुं० [सं० पायस√कृ (करना)+च्वि, ईत्व, ल्युट्—अन] किसी तरह औषध या घोल को ऐसा रूप देना कि उसमें कुछ पदार्थों के कण तैरते रहें, नीचे बैठ न जायँ। (एमल्सिफिकेशन)
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पाययोपवास  : पुं० [सं० पायस-उपवास] अच्छी-अच्छी चीजें खाकर भी यह कहते चलना कि हमने तो कुछ भी नहीं खाया। उपहास करने का झूठा बहाना।
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पाया  : पुं० [फा० पायः] १. पलंग, कुरसी, चौकी आदि का पावा या पैर। २. खंभा। स्तंभ। ३. नींव। बुनियाद। ४. दरजा। पद। मुहा०—पाया बुलन्द होना=पदोन्नति होना। ५. घोड़ों के पैर में होनेवाला एक रोग।
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पायिक  : पुं० [सं० पादविक, पृषो० साधु ‘पादातिक’ का प्रा० रूप] १. पादातिक। पैदल सिपाही। २. चर। दूत।
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पायी (यिन्)  : वि० [सं०√पा (पीना)+णिनि] समस्त पदों के अन्त में, पीनेवाला। जैसे—स्तनपायी। स्त्री०= पाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पायु  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+उण्, युक् आगम] १. मलद्वार। गुदा। २. भरद्वाज के पुत्र।
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पाय्य  : वि० [सं०√मा (मापना)+ण्यत्, नि० पादेश] १. जो पान किया जा सके। पीये जाने के योग्य। २. जो पीया जाता हो। पेय। पुं० १. जल। पानी। २. रक्षण।
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पारंगत  : वि० [सं० पारगत] १. जो पार जा या पहुँच चुका हो। २. जिसने किसी विद्या या शास्त्र का बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।
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पारंपरीण  : वि० [सं० परंपरा+खञ्—ईन] परंपरागत।
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पारंपर्य्य  : पुं० [सं० परंपरा+ष्यङ्] १. परंपरा का भाव। २. परंपरा से चली आई हुई प्रथा या रीति। आम्नाय। ३. परंपरा का क्रम। ४. वंश परंपरा।
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पारंपर्योपदेश  : पुं० [पारंपर्य-उपदेश ष० त०] १. परंपरागत उपदेश। २. ऐतिह्य नामक प्रमाण।
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पार  : पुं० [सं० पर+अण्,√पृ (पूर्ति करना)+घञ्] १. (क) झील, नदी, समुद्र आदि के पूरे विस्तार का वह दूसरा किनारा या सिरा जो वक्ता के पासवाले किनारे या सिरे की विपरीत दिशा में और उस विस्तार के अंतिम सिरे पर पड़ता हो। उस ओर का और दूर पड़नेवाला किनारा या सिरा। ऊपर का तट या सीमा। (ख) उक्त या इस ओर अर्थात् इधर या पास का किनारा या सिरा। जैसे—(क) वह नाव पर बैठकर नदी के पार चला गया। (ख) गंगा के इस पार से उस पार तक तैर के जाने में एक घंटा लगता है। क्रि० प्र०—करना।—जाना।—होना। पद—आर-पार, वार-पार। (देखें) मुहा०—पार उतारना=नदी आदि के तल पर से होते हुए दूसरे किनारे तक पहुँचाना। पार उतारना=नाव आदि की सहायता से जलाशय के उस पार पहुँचाना या ले जाना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचना। पार लगाना=उस पार तक पहुँचाना। २. (क) किसी तल या पृष्ठ के किसी विंदु के विचार से उसके विपरीत या सामनेवाली दिशा के तल या पृष्ठ का कई विंदु या स्थान। (ख) उक्त के आमने-सामने वाले अथवा एक सिरे से दूसरे सिरे तक के दोनों विंदुओं में से प्रत्येक विंदु। जैसे—(क) तख्ते में काँटा ठोंककर उसकी नोक उस पार निकाल दो। (ख) गोली उसके पेट के इस पार से उस पार निकल गई। ३. किसी काम या बात का अंतिम छोर या सिरा। विस्तार या व्याप्ति की चरम सीमा या हद। पद—इस पार=इस लोग में। उदा०—इस पार प्रिये तुम हो...उस पार न जाने क्या होगा।—बच्चन। उस पार=परलोक में। मुहा०—(किसी का) पार पाना=किसी की चरम सीमा, गंभीरता, गहनता आदि का ज्ञान या परिचय प्राप्त करना। जैसे—इस विद्या का पार पाना कठिन है। (किसी से) पार पाना=किसी के विरुद्ध या सामने रहने पर उसकी तुलना या मुकाबले में विजयी या सफल होना, अथवा बढ़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—चालाकी में तुम उससे पार नहीं पा सकते। (किसी काम या बात का) पार लगना=ठीक तरह से अन्त या समाप्ति तक पहुँचना। पूरा होना। जैसे—तुम से यह काम पार नहीं लगेगा। (किसी को) पार लगाना=(क) कष्ट, संकट आदि से उद्धार करना। उबारना। (ख) जीवन-काल तक किसी का निर्वाह करना। विशेष—यह मुहा० वस्तुतः ‘किसी का बेड़ा पार लगाना’ का संक्षिप्त रूप है। ४. किसी काम, चीज या बात का सारा अथवा समूचा विस्तार। अव्य० अलग और दूर। परे और पृथक्। जैसे—तुम तो बात कहकर पार हो गये, सारा काम हमारे सिर पर आ पड़ा। पुं० [?] खेत की पहली जोताई।
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पारई  : स्त्री०=परई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारक  : वि० [सं०√पृ+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पारकी] १. पार करने या लगानेवाला। २. उद्धार करने या बचानेवाला। ३. पालन करनेवाला। पालक। ४. प्रीति या प्रेम करनेवाला। प्रेमी। ५. पूर्ति करनेवाला। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. वह पत्र जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण होने का सूचक हो। ३. वह पत्र जिसे दिखलाकर कोई कहीं आ-जा सके या इसी प्रकार का और कोई काम करने का अधिकार प्राप्त करे। पार-पत्र। (पास)
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पार-काम  : वि० [सं० पार√कम् (चापना)+अण्] जो पार उतरने अर्थात् उस पार जाने का इच्छुक हो।
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पारकी  : वि०=परकीय।
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पारक्य  : वि० [सं० पर+ष्यञ्, कुक्] परकीय। पराया। पुं० पवित्र आचरण या पुण्य कार्य जो परलोक में उत्तम गति प्राप्त कराता है।
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पारख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारखद  : पुं०=पार्षद् (सभासद्)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारखी  : पुं० [हिं० परख+ई (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जिसमें किसी चीज की अच्छाई-बुराई, गुण-दोष आदि जानने और परखने की पूर्ण योग्यता हो। जैसे—आप कविता के अच्छे पारखी हैं।
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पारखू  : पुं०=पारखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारग  : वि० [सं० पार√गम्+ड] १. पार जानेवाला। २. काम पूरा करनेवाला। ३. किसी विषय का पूरा जानकार।
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पार-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] [भाव० पारगति] १. जो पार चला गया हो। २. जो किसी विषय का पूरा ज्ञान प्राप्त कर चुका हो। पारंगत। ३. समर्थ। पुं० जिन देव।
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पारगति  : स्त्री० [सं० स० त०] पारंगत होने के लिए अध्ययन करना।
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पार-गमन  : पुं० [सं०] एक स्थान या स्थिति से दूसरे स्थान या स्थिति में जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्ज़िट)
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पारगामी (मिन्)  : वि० [सं० पार√गम्+णिनि] पार करने या जानेवाला।
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पारचा  : पुं० [फा० पार्चः] १. टुकड़ा। खंड। धज्जी। २. कपड़ा। वस्त्र। ३. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। ४. पहनावा। पोशाक। ५. कच्चे कूओं में, दो खड़ी लकड़ियों के ऊपर रखी हुई वह बेड़ी लकड़ी जिस पर से रस्सी कूएँ में लटकायी जाती है। ६. पानी का छोटा हौज।
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पारज्  : पुं० [सं०√पार (कर्म समाप्त करना)+अजिन्] सोना। सुवर्ण।
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पारजन्मिक  : वि० [सं० पर-जन्मन्, कर्म० स०,+ठक्—इक्] परजन्म अर्थात् दूसरे जन्म से संबंध रखनेवाला।
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पारजात  : पुं०=परजाता (पारिजात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारजायिक  : पुं० [सं० पर जाया, ष० त०,+ठक्—इक] पराई जाया अर्थात् पर-स्त्री सम गमन करनेवाला। व्यभिचारी।
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पारटीट (टीन)  : पुं० [सं०] १. पत्थर। २. शिला। चट्टान।
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पारण  : पुं० [सं०√पार्+ल्युट्—अन] १. पार करने, जाने या होने की क्रिया या भाव। २. किसी को पार ले जाने की क्रिया या भाव। ३. किसी व्रत या उपवास के दूसरे दिन किया जानेवाला तत्सम्बन्धी कृत्य; और उसके बाद किया जानेवाला भोजन। ४. तृप्त करने की क्रिया या भाव। ५. आज-कल, किसी प्रस्तावित विधान अथवा विधेयक के संबंध में उसे विचारपूर्वक निश्चित और स्वीकृत करने की क्रिया या भाव। ६. परीक्षा या जाँच में पूरा उतरना। उत्तीर्ण होना। (पासिंग) ७. रुकावट या बंधन की जगह पार करके आगे बढ़ना। (पासिंग) ८. पूरा करने की क्रिया या भाव। ९. बादल। मेघ।
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पारणक  : वि० [सं०] पारण करनेवाला।
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पारण-पत्र  : पुं० [सं०] १. किसी प्रकार के पारण का सूचक पत्र। २. वह पत्र जिसके आधार पर या जिसे दिखलाने पर किसी को कहीं आ-जा सकने या इसी प्रकार का और कोई काम कर सकने का अधिकार प्राप्त होता है। (पास)
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पारणा  : स्त्री० [सं०√पार्+णिच्+युच्—अन, टाप्]= पारण।
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पारणीय  : वि० [सं०√पार्+अनीयर्] १. जिसे पार किया जा सके। २. जिसे पूरा या समाप्त किया जा सके।
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पारतंत्र्य  : पुं० [सं० परतंत्र+ष्यञ्] परतंत्रता।
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पारत  : पुं० [सं० पार√तन् (विस्तार)+ड] एक प्राचीन म्लेच्छ जाति। पारद (जाति और देश)।
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पारतल्पिक  : पुं० [सं० परतल्प+ठक्—इक] पर-स्त्री गामी। व्यभिचारी।
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पारत्रिक  : वि० [सं० परत्र+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। पारलौकिक। २. (कर्म या काम) जिससे पर-लोक में उत्तम गति प्राप्त हो।
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पारत्र्य  : पुं० [सं० परत्र+ष्यञ्] परलोक में मिलनेवाला फल।
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पारथ  : पुं०=पार्थ (अर्जुन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिया  : वि० [सं० प्रार्थित] माँगा हुआ। याचित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारथिव  : वि०, पुं०=पार्थिव।
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पारथी  : पुं० [सं० पापर्द्धिक=बहेलिया।] १. बहेलिया। २. शिकारी। ३. हत्यारा।
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पारद  : पुं० [सं०√पृ+णिच्+तन्, पृषो० त-द] १. पारा। २. एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कैस्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके पड़ता था। ३. उक्त जाति के रहने का देश।
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पारदर्शक  : वि० [सं० ष० त०] [भाव० पारदर्शकता] प्रकाश की किरणें जिसे पार करके दूसरी ओर जा सकती हों और इसीलिए जिसके इस पार से उस पार की वस्तुएँ दिखाई देती हों। (ट्रान्सपेएरेन्ट) जैसे—साधारण शीशे पारदर्शक होते हैं।
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पारदर्शकता  : स्त्री० [सं० पारदर्शक+तल्+टाप्] पारदर्शक होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पारदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पार√दृश्+णिनि] [भाव० पारदर्शिता] १. आर-पार अर्थात् बहुत दूर तक की बात देखने और समझनेवाला। दूरदर्शी। २. पारदर्शक। (दे०)
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पारदारिक  : वि०, पुं० [सं० पर-दारा, ष० त०,+ठक्—इक] पराई स्त्रियों से अनुचित संबंध रखनेवाला। पर-स्त्रीगामी।
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पारदार्य  : पुं० [सं० परदारा+ष्यञ्] पराई स्त्री के साथ गमन। परस्त्री-गमन।
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पारदिक  : वि० [सं० पारद+ठक्—इक] १. पारद या पार से संबंध रखनेवाला। २. जिसमें पारे का भी कुछ अंश हो। (मर्क़्यूरिक)
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पारदेशिक  : वि० [सं० परदेश+ठक्—इक] दूसरे देश का। विदेशी। पुं० १. दूसरे देश का निवासी। २. यात्री।
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पारदेश्य  : वि०, पुं० [सं० परदेश+ष्यञ्]=पारदेशिक।
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पारद्रष्टा  : वि० [सं०] जो उस पार अर्थात् इस लोक के परे की बातें भी देख या जान सकता हो।
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पारधि  : पुं०=पारधी।
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पारधी  : पुं० [सं० परिधान=आच्छादन] १. बहेलिया। व्याध। २. शिकारी। ३. वधिक। ४. काल। मृत्यु। स्त्री० आड़। ओट। मुहा०—(किसी के) पारधी पड़ना—आड़ में छिपकर कोई व्यापार देखना या किसी की बात सुनना।
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पारन  : पुं०=पुराण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पारक (पार करने या लगानेवाला)।
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पारना  : सं० [सं० पारण] १. गिराना। २. डालना। ३. लेटाना। ४. कुश्ती या लड़ाई में पटकना। पछाड़ना। ५. प्रस्थापित या स्थापित करना। रखना। उदा०—प्यारे परदेश तैं कबै धौं पग पारि हैं।—रत्नाकर। मुहा०—पिंडा पारना=मृतक के उद्देश्य से पिंडदान करना। ६. किसी के हाथ में देना। किसी को सौंपना। ७. किसी के अन्तर्गत करना। किसी में सम्मिलित करना। ८. शरीर पर धारण करना। पहनना। ९. किसी विशिष्ट क्रिया से किसी के ऊपर जमाना या लगाना। जैसे—कजलौटे पर काजल पारना। १॰. कोई अनुचित या आवांछित घटना या बात घटित करना। उदा०—तन जारत, पारति बिपति अपति उजारत लाज।—पद्माकर। ११. कोई काम स्वयं करना अथवा दूसरे से करा देना। उदा०...बरनि न पारौं अंत।—जायसी। १२. कोई काम करने की समर्थता होना। कर सकना। उदा०—बूझि लेहु जौ बूझे पारहु।—जायसी। १३. मचाना। जैसे—हल्ला पारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १४. नियत या स्थिर करना। उदा०—अबहीं ते हद पारो।—सूर। अ० [सं० पारण=योग्य, का हिं० पार, जैसे—पार लगना=हो सकना] कोई काम करने में समर्थ होना। सकना। सं०=पालना। (पालन करना) उदा०—जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह राजकीय अधिकार-पत्र जो किसी राज्य की प्रजा को विदेश यात्रा के समय प्राप्त करना पड़ता है, औ जिसे दिखाकर लोग उसमें उल्लिखित देशों में भ्रमण कर सकते हैं (पास-पोर्ट) विशेष—ऐसे पार-पत्र से यात्री को अपने मूल देश के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है, और उन देशों के शासन का भी संरक्षण प्राप्त होता है जिनमें यात्रा करने का उन्हें अधिकार मिला होता है।
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पारबती  : स्त्री०=पार्वती।
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पार-ब्रह्म  : पुं०=पर-ब्रह्म।
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पारभूत  : पुं०=प्राभृत (भेंट)।
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पारमहंस  : पुं०=पारमहंस्य।
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पारमहंस्य  : वि० [सं० परमहंस+ष्यञ्] जिसका संबंध परमहंस से हो। परमहंस-संबंधी।
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पारमाणविक  : वि० [सं०] परमाणु-संबंधी। परमाणु का। (एटमिक)
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पारमार्थिक  : वि० [सं० परमार्थ+ठक्—इक] परमार्थ-संबंधी। परमार्थ का। जैसे—पारमार्थिक ज्ञान। २. परमार्थ सिद्ध करनेवाला। परमार्थ का शुभ फल दिलानेवाला। जैसे—पारमार्थिक कृत्य। ३. सत्यप्रिय। ४. सदा एक-रस और एक रूप बना रहनेवाला। ५. उत्तम। श्रेष्ठ।
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पारमार्थ्य  : पुं० [सं० परमार्थ+ष्यञ्] १. ‘परमार्थ’ का गुण या भाव। २. परम सत्य।
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पारमिक  : वि० [सं० परम+ठक्—इक] १. मुख्य। प्रधान। २. उत्तम। सर्वश्रेष्ठ। ३. परम।
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पारमित  : वि० [सं० पारम् इत, व्यस्तपद] [स्त्री० पारमिता] १. जो उस पार पहुँच गया हो। २. पारंगत। ३. अतिश्रेष्ठ।
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पारमिता  : स्त्री० [सं० पारम् इता, व्यस्तपद] सीमा। हद।
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परमेश्वर  : वि० [सं० परमेश्वर+अण्] परमेश्वर संबंधी।
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पारमेष्ठ्य  : पुं० [सं० परमेष्ठिन्+ष्यञ्] १. प्रधानता। २. सर्वोच्च पद। ३. प्रभुत्व। ४. राजचिह्न।
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पारयिष्णु  : वि० [सं०√पार्+णिच्+इष्णुच्] १. जो पार जाने में समर्थ हो। २. विजयी। ३. सफल। ४. रुचिकर और तृप्तिकारक।
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पारयुगीन  : वि० [सं० परयुग+खञ्—ईन] परवर्ती युग से संबंध रखनेवाला अथवा उसमें पाया जाने या होनेवाला।
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पारलोक्य  : वि० [सं० परलोक+ष्यञ्] पारलौकिक।
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पारलौकिक  : वि० [सं० परलोक+ठक्—इक] १. परलोक-संबंधी। परलको का। २. (कर्म) जिससे परलोक में शुभ फल की प्राप्ति हो। परलोक सुधारनेवाला। पुं० अंत्येष्टि क्रिया।
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पारवत  : पुं० [सं०] पारावत। (दे०)
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पारवर्ग्य  : वि० [सं० परवर्ग+ष्यञ्] १. अन्य या दूसरे वर्ग से संबंध रखने अथवा उसमें होनेवाला। २. प्रतिकूल। पुं० वैरी। शत्रु।
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पारवश्य  : पुं० [सं० परवश+ष्यञ्]=परवशता।
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पार-वहन  : पुं० [सं०] चीजें आदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने की क्रिया, भाव या स्थिति। (ट्रान्जिट्)
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पारविषयिक  : वि० [सं० पर विषय+ठक्—इक] दूसरे के विषयों से संबंध रखनेवाला।
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पारशव  : पुं० [सं० परशु+अण्] १. लोहा। २. [उपमि० स०] ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न व्यक्ति। ३. पराई स्त्री के गर्भ से उत्पन्न करके प्राप्त किया हुआ पुत्र। ४. एक प्रकार की गाली जिससे यह व्यक्त किया जाता है कि अमुक के पिता का कोई पता नहीं वह तो हरामी का है। ५. एक प्राचीन देश, जिसके संबंध में कहा जाता है कि वहाँ मोती निकलते थे। वि० लौह-संबंधी।
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पारशवी  : स्त्री० [सं० पारशव+ङीष्] वह कन्या या स्त्री जिसका जन्म शूद्रा माता और ब्राह्मण पिता से हुआ हो।
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पारश्व  : पुं०=पारश्वाधिक।
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पारश्वधिक  : पुं० [सं० परश्वध+ठञ्—इक] परशु या फरसे से सज्जित योद्धा।
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पारस  : पुं० [सं० स्पर्श, हिं० परस] १. एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि लोहा इसके स्पर्श से सोना हो जाता है। स्पर्श-मणि। २. पारस पत्थर के समान उत्तम, लाभदायक या स्वच्छ अथवा आदरणीय और बहुमूल्य पदार्थ या वस्तु। जैसे—(क) यदि उनके साथ रहोगे तो कुछ दिनों में पारस हो जाओगे। (ख) यह दवा खाने से शरीर पारस हो जायगा। पुं० [हिं० परसना] १. परोसा हुआ भोजन। २. परोसा। अव्य० [सं० पार्श्व] समीप। नजदीक। पास। उदा०—पारस प्रासाद सेन संपेखे।—प्रिथीराज। पुं० [सं० पलाश] पहाड़ों पर होनेवाला बादाम या खूबानी की जाति का एक मझोले कद का पेड़। गीदड़-ढाक। जापन। पुं० [फा०] आधुनिक फारस देश का एक पुराना नाम।
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पारसनाथ  : पुं०=पार्श्वनाथ (जैनों के तीर्थकर)।
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पारसल  : पुं० [अं०] डाक, रेल आदि द्वारा किसी के नाम भेजी जानेवाली गठरी या पोटली।
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पारसव  : पुं०=पारशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारसा  : वि० [फा०] [भाव० पारसाई] पवित्र और शुद्ध चरित्र तथा विचारोंवाला। बहुत बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी।
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पारसाई  : स्त्री० [फा०] ‘पारसा’ होने की अवस्था या भाव। धार्मिकता और सदाचार।
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पारसाल  : पुं० [फा०] १. गत वर्ष। २. आगामी वर्ष।
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पारसिक  : पुं० [सं० पारसीक, पृषो० सिद्धि] पारसीक। (दे०)
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पारसी  : पुं० [सं० पारसीक से फा० पार्सी] १. पारस अर्थात् फारस (आधुनिक ईरान) का रहनेवाला आदमी। २. आज-कल मुख्य रूप से पारस के वे प्राचीन निवासी जो मुसलमानी आक्रमण के समय अपना धर्म बचाने के लिए वहाँ से भारत चले आये थे। इनके वंशज अब तक बम्बई और गुजरात में बसे हैं। ये लोग अग्निपूजक हैं; और कमर में एक प्रकार का यज्ञोपवीत पहने रहते हैं। वि० पारस या फारस-संबंधी। पारस का।
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पारसीक  : पुं० [सं०] १. आधुनिक ईरान देश का प्राचीन नाम। फारस। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त देश का घोड़ा। वि०, पुं०=पारसी।
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पारसीकयमानी  : स्त्री० [सं०] खुरासानी वच।
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पारस्कर  : पुं० [सं० पार√कृ०+ष्ट, सुट्] १. एक प्राचीन देश। २. एक गृह्य-सूत्रकार मुनि।
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पारस्त्रैणेय  : पुं० [सं० पर-स्त्री, ष० त०,+ढक्—एय, इनङ्—आदेश] पराई स्त्री से संबंध रखनेवाले व्यक्ति से उत्पन्न पुत्र। जारज पुत्र।
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पारस्परिक  : वि० [सं० परस्पर+ठक्—इक] आपस में एक दूसरे के प्रति या साथ होनेवाला। परस्पर होनेवाला। आपस का। आपसी। (म्यूचुअल)
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पारस्परिकता  : स्त्री० [सं० पारस्परिक+तल्+टाप्] पारस्परिक होने की अवस्था या भाव।
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पारस्य  : पुं० [सं०] पारस देश।
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पारस्स  : पुं० १.=पार्श्व। २.=पार्श्वचर। ३.=पारस्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारहंस्य  : वि० [सं० परहंस+ष्यञ्]=पारमहंस्य।
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पारा  : पुं० [सं० पारद] एक प्रसिद्ध बहुत चमकीली और सफेद धातु जो साधारण गरमी या सरदी में द्रव अवस्था में रहती है और अनुपातिक दृष्टि से बहुत भारी या वजनी होती है। पारद। (मर्करी) मुहा०—(किसी का) पारा चढ़ना=गुस्से से बेहाल होना। पारा पिलाना=(क) किसी वस्तु के अंदर पारा भरना। (ख) किसी वस्तु को इतना अधिक भारी कर देना कि मानो उसके अंदर पारा भर दिया गया हो। पुं० [सं० पारि=प्याला] दीये के आकार का, पर उससे बड़ा मिट्टी का बरतन। परई। पुं० [फा० पारः] खंड या टुकडा।
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पाराती  : स्त्री० [सं० प्रातः] एक प्रकार के धार्मिक गीत जो देहाती स्त्रियाँ पर्वों आदि पर किसी तीर्थ या पवित्र नदी में स्नान करने के लिए आते-जाते समय रास्ते में गाती चलती हैं।
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पारापत  : पुं० [सं० पार-आ√पत् (गिरना)+अच्] कबूतर।
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पारापार  : पुं० [सं० पार-अपार, द्व० स०+अच्] १. यह पार और वह पार। २. इधर और उधर का किनारा। ३. समुद्र।
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पारायण  : पुं० [सं० पार-अयन, स० त०] [वि० पारयणिक] १. किसी अनुष्ठान या कार्य की होनेवाली समाप्ति। २. नियमित रूप से किसी धार्मिक ग्रंथ का किया जानेवाला पाठ। ३. किसी चीज का बार-बार पढ़ा जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारायणी  : स्त्री० [सं० पारायण+ङीप्] १. चिंतन या मनन करते हुए पारायण करने की क्रिया। २. सरस्वती। ३. कर्म। ४. प्रकाश।
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पारावत  : पुं० [सं० पर√अव (रक्षा)+शतृ+अण्] १. कबूतर। २. पेंड़की। ३. बंदर। ४. पहाड़। पर्वत।
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पारावतघ्नी  : स्त्री० [सं० पारावत√हन् (हिंसा)+टक्+ङीष्] सरस्वती नदी।
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पारावत पदी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] १. मालकंगनी। २. काकजंघा।
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पारावताश्व  : पुं० [सं० पारावत-अश्व, ब० स०] धृष्टद्युम्न।
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पारावती  : स्त्री० [सं० पारावत+अच्+ङीष्] १. अहीरों के एक तरह के गीत। २. कबूतरी।
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पारावारीण  : वि० [सं० पार-अवार, द्व० स०,+ख—ईन] १. जो दोनों किनारों पर जाता या पहुँचता हो। २. पारंगत।
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पाराशर  : वि० [सं० पराशर+अण्] १. पराशर-संबंधी। २. पराशर द्वारा रचित। पुं० पराशर मुनि के पुत्र, वेदव्यास।
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पाराशरि  : पुं० [सं० पराशर+इञ्] १. शुकदेव। २. वेदव्यास।
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पाराशरी (रिन्)  : पुं० [सं० पाराशर्य+णिनि, य लोप] १. संन्यासी। २. वह संन्यासी जो व्यास द्वारा रचित शारीरिक सूत्रों का अध्ययन करता हो।
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पाराशर्य  : पुं० [सं० पराशर+यञ्]=पराशर।
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पारिद्र  : पुं० [सं० पारीन्द्र, पृषो० सिद्धि] सिंह। शेर।
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पारि  : स्त्री० [हिं० पार] १. नदी, समुद्र आदि का किनारा। २. ओर। दिशा। ३. बाँध या मेंड़। ४. मर्यादा। सीमा।
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पारिकांक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० पारि=ब्रह्मज्ञान√काङ्क्ष (चाहना)+णिनि] तपस्वी।
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पारिख  : पुं०=पारखी। स्त्री०=परख।
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पारिखेय  : वि० [सं० परिखा+ढक्—एय] १. परिखा या खाईं से संबंध रखनेवाला। २. परिखा या खाईं से घिरा हुआ।
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पारिगर्भिक  : पुं० [सं० परिगर्भ+ठक्—इक] बच्चों को होनेवाला एक रोग।
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पारिग्रामिक  : वि० [सं० परिग्राम+ठञ्—इक] किसी गाँव के चारों ओर का।
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पारिजात  : पुं० [सं० पं० त०] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक वृक्ष, जो समुद्र-मंथन के समय निकला था, तथा जिसके संबंध में कहा गया है कि इसे इंद्र नंदनवन में ले गये थे। २. परजाता या हरसिंगार नामक पेड़। ३. कचनार। ४. फरहद। ५. सुगंध।
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पारिणामिक  : वि० [सं० परिणाम+ठञ्—इक] १. परिणाम—संबंधी। २. जिसका कोई परिणाम या रूपांतरण हो सके। जो विकसित हो सके। ३. जो पच सके या पचाया जा सके।
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पारिणाय्य  : वि० [सं० परिणय+ष्यञ्] परिणय-संबंधी। पुं० १. वह धन जो कन्या को विवाह के अवसर पर दिया जाता है। दहेज। २. परिणय।
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पारिग्राह्य  : पुं० [सं० परिणाह+ष्यञ्] घर-गृहस्थी के उपयोग में आनेवाली वस्तुएँ या सामग्री।
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पारित  : वि० [सं०√पार्+णिच्+क्त] १. जिसका पारण हुआ हो। २. जो परीक्षा आदि में उत्तीर्ण हो चुका हो। ३. (प्रस्ताव या विधेयक) जो विधिपूर्वक किसी संस्था के द्वारा स्वीकृत किया जा चुका हो। (पास्ड)
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पारितोषिक  : पुं० [सं० परितोष+ठक्—इक] १. वह धन जो किसी को देकर परितुष्ट किया जाता है। २. वह धन जो प्रतियोगिता में विजयी या श्रेष्ठ सिद्ध होने पर अथवा कोई असाधारण योग्यता दिखलाने पर उत्साह बढ़ाने के लिए दिया जाता है। (प्राइज)
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पारिदि  : पुं०=पारद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिध्वजिक  : पुं० [सं० परिध्वज, प्रा० स०,+ठञ्—इक] वह जो हाथ में झंडा लेकर चलता हो।
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पारिपाट्य  : पुं० [सं० परिपाटी+ष्यञ्]=परिपाटी।
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परिपात्र  : पुं० [सं०] सात मुख्य पर्वत-मालाओं में से एक। पारियात्र।
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पारिपात्रिक  : वि० [सं० पारिपात्र+ठक्—इक] १. पारिपात्र—संबंधी। २. पारिपात्र पर बसने, रहने या होनेवाला।
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पारिपार्श्व  : पुं० [सं० परिपार्श्व+अण्] वह जो साथ-साथ चलता हो। अनुचर। सेवक।
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पारिपार्श्विक  : पुं० [सं० परिपार्श्व+ठक्—इक] [स्त्री० पारिपार्श्विका] १. सेवक। २. नाटक में, स्थापक का सहायक।
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पारिप्लव  : वि० [सं० परि√प्लु (गति)+अच्+अण्] १. अस्थिर रहने, हिलने-डुलने या लहरानेवाला। २. तैरनेवाला। ३. विकल। ४. क्षुब्ध। पुं० १. अस्थिरता। २. नाव। ३. विकलता।
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पारिप्लाव्य  : पुं० [सं० पारिप्लव+ष्यञ्] १. अस्थिरता। चंचलता। २. कंपन। ३. आकुलता। ४. हंस।
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पारिभाव्य  : पुं० [सं० परिभू+ष्यञ्] जमानत करने या जामिन होने का भाव।
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पारिभाव्य-धन  : पुं० [सं० ष० त०] वह धन जो किसी की कोई चीज व्यवहृत करने के बदले में उसके यहाँ अग्रिम जमा किया जाता है और जो उसकी चीज लौटाने पर वापस मिल जाता है।
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पारिभाषिक  : वि० [सं० परिभाषा+ठञ्—इक] १. परिभाषा-संबंधी। २. (शब्द) जो किसी शास्त्र या विषय में अपना साधारण से भिन्न कोई विशिष्ट अर्थ रखता हो। (टेकनिकल)
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पारिभाषिकी  : स्त्री० [सं० पारिभाषिक+ङीष्] पारिभाषिक शब्दों की माला या सूची। (टरमिनॉलॉजी)
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पारिमाण्य  : पुं० [सं० परिमाण+ष्यञ्] घेरा। मंडल।
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पारिमिता  : स्त्री० [परिमित+अण्+टाप्]=सीमा।
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पारिमित्य  : पुं० [सं० परिमित+ष्यञ्] सीमा।
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पारिमुखिक  : वि० [सं० परिमुख+ठक्—इक] [भाव० पारिमुख्य] १. जो मुख के समक्ष या सामने हो। २. जो पास में हो या उपस्थित हो।
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पारियात्र  : पुं० [सं०] सात पर्वत-श्रेणियों में से एक, जो किसी समय आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा के रूप में मानी जाती थी। पारिपात्र।
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पारियात्रिक  : वि० [स० परियात्रा प्रा० स०,+अण्+ठक् —इक]=पारिपात्रिक (परिपात्र-संबंधी)।
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पारियानिक  : पुं० [सं० परियान प्रा० स०,+ठक्—इक] ऐसा यान जिस पर यात्रा की जाती हो।
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पारिरक्षक  : पुं० [सं० परि√रक्ष्+ण्वुल्—अक+अण्] संन्यासी।
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पारिव्राज्य  : पुं० [सं० परिव्राज्+ण्य्ञ्] संन्यास।
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पारिश्रमिक  : पुं० [सं० परिश्रम+ठक्—इक] किये हुए परिश्रम के बदले में मिलनेवाला धन। कोई कार्य करने की मजदूरी। (रिम्यूनरेशन)
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पारिष  : स्त्री०=परख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पारिषद  : पुं० [सं० परिषद्+अण्] परिषद् में बैठनेवाला व्यक्ति। परिषद् का सदस्य। (काउंसिलर)
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पारिषद्य  : पुं० [सं० परिषद्+ण्य] अभिनय आदि का दर्शक। सामाजिक।
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पारिस्थितिक  : वि० [सं परिस्थिति+ठक्—इक] १. परिस्थिति संबंधी। २. जो परिस्थितियों का ध्यान रखकर या उनके विचार से किया गया हो। (सर्कस्टैन्शल)
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पारिहारिकी  : स्त्री० [सं० परिहार+ठक्—इक+ङीष्] एक तरह की पहेली।
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पारिहास्य  : पुं० [सं० परिहास+ष्यञ्]=परिहास।
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पारी  : स्त्री० [सं०] १. वह रस्सी जिससे हाथी के पैर बाँधे जाते हैं। २. जल-पात्र। ३. केसर। स्त्री० [हिं० बार, बारी] १. कोई कार्य करने का क्रमानुसार आने या मिलनेवाला अवसर। बारी। २. गेंद-बल्ले के खेल में, प्रत्येक दल को बल्लेबाजी करने का मिलनेवाला अवसर। पाली।
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पारीक्षणिक  : पुं० [सं० परीक्षण+ठक्—इक] वह कर्मचारी जो इस बात की परीक्षा या जाँच के लिए रखा गया हो कि यह अपने काम या पद के लिए उपयुक्त है या नहीं। (प्रोबेशनर) वि० परीक्षण संबंधी। परीक्षण का।
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पारीक्षित  : पुं० [सं० परीक्षित्+अण्] परीक्षित् के पुत्र, जनमेजय।
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पारीछत  : भू० कृ०=परीक्षित।
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पारीण  : वि० [सं० पार+ख—ईन] १. उस पार पहुँचा हुआ। २. पारंगत।
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पारीय  : वि० [सं० पार+छ—ईय] समस्त पदों के अंत में, किसी विषय में दक्ष।
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पारुष्ण  : पुं० [सं० परुष्ण+अण्] एक तरह का पक्षी।
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पारुष्य  : पुं० [सं० परुष+ष्यञ्] परुष होने की अवस्था, गुण या भाव। परुषता।
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पारेरक  : पुं० [सं० पार√ईर् (गति)+ण्वुल्—अक] तलवार।
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पारेवा  : पुं० [सं० पारावत] कबूतर। परेवा।
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पारेषक  : वि० [सं० पार√इष् (गति)+णिच्+ण्वुल—अक] प्रेषण करने या भेजनेवाला। पुं० विद्युत् से समाचार भेजने या बात करने के यंत्रों का वह अंग जिससे समाचार या संदेश भेजे जाते हैं। ‘प्रतिग्राहक’ का विपर्याय। (ट्रांसमीटर)
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पारोकना  : अ० [सं० परोक्ष] १. परोक्ष या आड़ में होना। २. अंतर्धान या अदृश्य होना।
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पारोक्ष  : वि० [सं० परोक्ष+अण्] [भाव० पारोक्ष्य] १. रहस्यमय। २. गुप्त। ३. अस्पष्ट।
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पार्क  : पुं० [अं०] शहरों में, ऐसा उद्यान जिसमें घास उगी हुई हो तथा जहाँ छोटे-मोटे फूल-पौधे भी हों।
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पार्जन्य  : वि० [सं० पर्जन्य+अण्] मेघ या वर्षा-संबंधी।
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पार्ट  : पुं० [अं०] १. अंश। भाग। हिस्सा। २. किसी अभिनय, विषय आदि में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जानेवाला अपने कर्तव्य का निर्वाह।
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पार्टी  : स्त्री० [अं०] १. दल। २. वह समारोह जिसमें आमंत्रित लोगों को भोजन, जलपान आदि कराया जाता है।
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पार्ण  : वि० [सं० पर्ण+अण्] १. पर्ण-संबंधी। पत्तों का। २. पत्तों के द्वारा प्राप्त होनेवाला। जैसे—पार्णकर।
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पार्थ  : पुं० [सं० पृथा+अण्] १. पृथा के पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन या भीम (विशेषतः अर्जुन)। २. अर्जुन नाम का पेड़। ३. राजा।
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पार्थक्य  : पं० [सं० पृथक्+ण्यञ्] १. पृथक् होने की अवस्था या भाव। २. वह गुण जिससे चीजों का पृथक्-पृथक् होना सूचित होता हो। ३. अंतर। ४. जुदाई।
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पार्थ-सारथि  : पुं० [ष० त०] १. कृष्ण। २. मीमांसा के एक प्राचीन आचार्य।
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पार्थिव  : वि० [सं० पृथिवी+अञ्] १. पृथ्वी-संबंधी। २. पृथ्वी से उत्पन्न। ३. पृथ्वी से उत्पन्न वस्तुओं का बना हुआ। ४. पृथ्वी पर शासन करनेवाला। ५. राजकीय। पुं० १. मिट्टी का बरतन। २. काया। देह। शरीर। ३. राजा। ४. पृथ्वी पर या पृथ्वी से उत्पन्न होनेवाला पदार्थ।
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पार्थिव-आय  : स्त्री० [ष० त०] मालगुजारी। लगान।
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पार्थिव-नन्दन  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० पार्थिव-नंदिनी] राजकुमारी।
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पार्थिव-पूजन  : पुं० [ष० त०] कच्ची मिट्टी का शिव-लिंग बनाकर उसका किया जानेवाला पूजन।
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पार्थिव-लिंग  : पुं० [ष० त०] १. राजचिह्न। [कर्म० स०] २. कच्ची मिट्टी का बनाया हुआ शिव-लिंग जिसके पूजन का कुछ विशिष्ट विधान है।
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पार्थिवी  : स्त्री० [सं० पार्थिव+ङीष्] १. सीता। २. लक्ष्मी।
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पार्थी  : पुं० [सं० पार्थिव=पृथ्वी-संबंधी] मिट्टी का बनाया हुआ शिवलिंग।
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पार्पर  : पुं० [सं० पर्परी+अण्] १. मिट्ठी भर चावल। २. क्षय। (रोग)। ३. भस्म। राख। ४. यम।
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पार्यंतिक  : वि० [सं० पर्यंत+ठक्—इक] पर्यंत का; अर्थात् अंतिम।
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पार्य  : वि० [सं० पार+ष्यञ्] जो पार अर्थात् दूसरे किनारे पर स्थित हो। पुं० अंत।
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पर्याप्तिक  : वि० [सं० पर्याप्त+ठक्—इक] १. पर्याप्त। यथेष्ट। २. संपूर्ण।
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पार्लमेंट  : स्त्री० [अं०] संसद्। (दे०)
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पार्वण  : वि० [सं० पर्वन्+अण्] पर्व या अमावस्या के दिन किया जाने या होनेवाला। पुं० उक्त अवसर पर किया जानेवाला श्राद्ध।
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पार्वतिक  : पुं० [सं० पर्वत+ठक्—इक] पर्वतमाला। पर्वत-श्रेणी।
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पार्वती  : स्त्री० [सं० पर्वत+अण्+ङीष्] पुराणानुसार हिमालय पर्वत की पुत्री, जिसका विवाह शिवजी से हुआ था। गिरिजा। भवानी।
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पार्वती-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. कार्तिकेय। २. गणेश।
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पार्वती-नन्दन  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-कुमार।
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पार्वती-नेत्र  : पुं० [ष० त०]=पार्वती-लोचन।
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पार्वती-लोचन  : पुं० [ष० त०] संगीत में एक प्रकार का ताल।
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पार्श्व  : पुं० [सं०√स्पृश् (छूना)+श्वण्, पृ—आदेश] १. कंधों और काँखों के नीचे के उन दोनों भागों में से प्रत्येक जिनमें पसलियाँ होती हैं। छाती के दाहिने और बाएँ भागों में से प्रत्येक भाग। बगल। २. पसली की हड्डियों का समुदाय। पंजर। ३. किसी पदार्थ, प्राणी की लंबाई वाले विस्तार में इधर अथवा उधर पड़नेवाला अंग या अंश। बगलवाला छोर या सिरा। ४. किसी क्षेत्र या विस्तार का वह अंग या अंश जो किसी एक ओर या दिशा की सीमा पर पड़ता हो और कुछ दूर तक सीधा चला गया हो। जैसे—इस चौकोर क्षेत्र के चारों पार्श्व बराबर हैं। ५. किसी चीज के अगल-बगल या दाहिने-बाएँ अंशों के पास पड़नेवाला विस्तार। जैसे—गढ़ के दाहिने पार्श्व में बन था। ६. लिखते समय कागज की दाहिनी (अथवा बाईं) ओर छोड़ा जानेवाला स्थान। हाशिया। ८. कपट या छल से भरा हुआ उपाय या साधन। ७. दे० ‘पार्शनाथ’।
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पार्श्वक  : पुं० [सं०] वह चित्र जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखलाया गया हो।
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पार्श्वग  : वि० [सं० पार्श्व√गम् (जाना)+ड] साथ में चलने या रहनेवाला। पुं० नौकर। सेवक।
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पार्श्व-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. पार्श्व या बगल में आया या ठहरा हुआ। २. (चित्र) जिसमें किसी आकृति का एक ही पार्श्व दिखाया गया हो, दूसरा पार्श्व सामने न हो। (प्रोफाइल) जैसे—दाहिनी ओर जाते हुए व्यक्ति के चित्र में उसकी पार्श्व-गत आकृति ही दिखाई देती है। पुं० वह जिसे अपने यहाँ रखकर आश्रय दिया गया हो या जिसकी रक्षा की गई हो।
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पार्श्वगायन  : पुं० [सं०] आज-कल वह गायन जो नेपथ्य से किसी पात्र या पात्री के गाने के बदले में होता है। विशेष—जो अभिनेता या अभिनेत्री गान-विद्या में पटु नहीं होती, उसके बदले में नेपथ्य से कोई दूसरा अच्छा गायक या गायिका गाती है। यही गाना पार्श्वगायन कहलाता है।
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पार्श्वचर  : वि० [सं० पार्श्व√चर् (गति)+ट] पास में रहकर साथ चलनेवाला।
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पार्श्वचित्र  : पुं० [सं०] पार्श्वक। (दे०)
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पार्श्व-टिप्पणी  : स्त्री० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशिये में लिखी गई टिप्पणी। (मार्जिनल नोट)
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पार्श्वद  : पुं० [सं० पार्श्व√दा (देना)+क] नौकर। सेवक।
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पार्श्वनाथ  : पुं० [सं०] जैनों के तेइसवें तीर्थंकर।
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पार्श्व-परिवर्त्तन  : पुं० [ष० त०] लेटे या सोये रहने की दशा में करवट बदलना।
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पार्श्ववर्ती  : वि० [सं० पार्श्व√वृत (रहना)+णिनि] [स्त्री० पार्श्ववर्त्तिनी] १. किसी के पास या साथ रहनेवाला। जैसे—राजा के पार्श्ववर्ती। २. किसी के पार्श्व में, आस-पास या इधर-उधर रहने या होनेवाला। जैसे—नगर का पार्श्ववर्ती वन। पुं० १. सहचर। साथी। २. नौकर। सेवक।
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पार्श्व-शीर्षक  : पुं० [मध्य० स०] पार्श्व अर्थात् हाशियेवाले भाग में लगाया या लिखा हुआ शीर्षक। (मार्जिनल हेडिंग)
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पार्श्व-शूल  : पुं० [मध्य० स०] बगल या पसलियों में होनेवाला शूल या जोर का दर्द।
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पार्श्व-संगीत  : पुं० [मध्य० स०] १. आधुनिक अभिनयों, चल-चित्रों आदि में वह संगीत जो अभिनय होने के समय परोक्ष में होता रहता है। २. आधुनिक चल-चित्रों में किसी पात्र का ऐसा गाना जो वास्तव में वह स्वयं नहीं गाता, बल्कि उसका गानेवाला परोक्ष या परदे की आड़ में रहकर उसके बदले में गाता है। (प्लेबैक)
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पार्श्वस्थ  : वि० [सं० पार्श्व√स्था (ठहरना)+क] जो पास या बगल में स्थित हो।
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पार्श्वानुचर  : पुं० [पार्श्व-अनुचर, मध्य० स०] सेवक।
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पार्श्वायात  : वि० [पार्श्व-आयात, स० त०] जो पास आया हो।
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पार्श्वासन्न, पार्श्वासीन  : वि० [सं० स० त०] पार्श्व अर्थात् बगल में बैठा हुआ।
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पार्श्विक  : वि० [सं० पार्श्व+ठक्—इक] १. पार्श्व-संबंधी। २. किसी एक पार्श्व या अंग में होनेवाला। ३. किसी एक पार्श्व या अंग की ओर से आने या चलनेवाला। (लेटरल)
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पार्षद्  : स्त्री० [सं०=परिषद्, पृषो० सिद्धि] परिषद्। सभा।
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पार्ष्णि  : स्त्री० [सं० √पृष् (सींचना)+नि, नि० वृद्धि] १. पैर की एड़ी। २. सेना का पिछला भाग। ३. किसी चीज का पिछला भाग। ४. पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर। ५. जीतने या विजय प्राप्त करने की इच्छा। जिगीषा। ६. जाँच-पड़ताल। छान-बीन।
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पार्ष्णि-क्षेम  : पुं० [सं०] एक विश्वेदेव।
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पार्ष्णि-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] किसी पर, विशेषतः शत्रु की सेना पर पीछे से किया जानेवाला आक्रमण या आघात।
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पार्ष्णि-ग्राह  : पुं० [सं० पर्ष्णि√ग्रह् (ग्रहण)+अण्] १. वह जो किसी के पीठ पर या पीछे रहकर उसकी सहायता करता हो। २. सेना के पिछले भाग का प्रधान अधिकारी या नायक।
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पार्ष्णि-घात  : पुं० [तृ० त०] पैर से किया जानेवाला आघात। ठोकर।
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पार्सल  : पुं०=पारसल।
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पालंक  : पुं० [सं०√पाल् (रक्षण)+क्विप्=पाल् अंक, तृ० त०] १. पालक नाम का साग। २. बाज पक्षी। ३. एक प्रकार का रत्न जो काले, लाल या हरे रंग का होता है।
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पालंकी  : स्त्री० [सं० पालंक+ङीष्] १. पालकी नाम का साग। २. कुंदुरू नाम का गंध द्रव्य।
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पालंक्य  : पुं० [सं० पालंक+ष्यञ्] पालक (साग)।
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पालंक्या  : स्त्री० [सं० पालंक्य+टाप्] कुंदुरू नामक पौधा और उसका फल।
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पालंग  : पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अच्] १. पालन करनेवाला। पालक। २. आज-कल कुछ संज्ञाओं के अंत में लगनेवाला एक शब्द जिसका अर्थ होता है—काम, प्रबंध या व्यवस्था करने अथवा सब प्रकार से रक्षित रखनेवाला। जैसे—कोटपाल, राज्यपाल, लेखपाल आदि। पुं० १. पीकदान। उगालदान। २. चीते का पेड़। चित्रक वृक्ष। ३. बंगाल का एक प्रसिद्ध राजवंश जिसने वंग और मगध पर साढ़े तीन सौ वर्षों तक राज्य किया था। पुं० [हिं० पालना] १. फलों को गरमी पहुँचाकर पकाने के लिए पत्तों आदि से ढककर या और किसी युक्ति से रखने की विधि। क्रि० प्र०— डालना।—पड़ना। २. ऐसा स्थान जहाँ फल आदि रखकर उक्त प्रकार से पकाये जाते हों। पुं० [सं० पट या पाट] १. वह लंबा-चौड़ा कपड़ा जिसे नाव के मस्तूल से लगाकर इसलिए तानते हैं कि उसमें हवा भरे और उसके जोर से नाव बिना डाँड़ चलाये और जल्दी-जल्दी चले। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—तानना। २. उक्त प्रकार का वह लंबा-चौड़ा और मोटा कपड़ा जो धूप, वर्षा आदि से बचने के लिए खुले स्थान के ऊपर टाँगा या फैलाया जाता है। ३. खेमा। तंबू। शामियाना। ४. गाड़ी, पालकी आदि को ऊपर से ढकने का कपड़ा। ओहार। स्त्री० [सं० पालि] १. पानी को रोकनेवाला बाँध या किनारा। मेड़। २. नदी आदि का ऊँचा किनारा या टीला। ३. नदी आदि के गाट पर के नीचे का ऐसा खोखला स्थान, जो नींव के कंकड़-पत्थर आदि वह बह जाने के कारण बन जाता है। पुं० [सं० पालि] कबूतरों का जोड़ा खाना। कपोत-मैथुन। क्रि० प्र०—खाना। पुं० [?] वह जमीन जो सरकार की निजी संपत्ति होती है।
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पाउल  : पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालक  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पालिका] पालन करनेवाला। पुं० १. पालकर अपने पास रखा हुआ लड़का। २. प्रधान शासक या राजा। ३. घोड़े का साईस। ४. चीते का पेड़। चित्रक। पुं० [सं० पाल्यंक] एक प्रकार का प्रसिद्ध साग। पुं०=पलंग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—खँड खँड सजी पालक पीढ़ी।—जायसी।
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पालकजूही  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का छोटा पौधा जो दवा के काम में आता है।
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पालकरी  : स्त्री० [हिं० पलंग] लकड़ी का वह छोटा टुकड़ा जो पलंग, चारपाई, चौकी आदि के पायों को ऊँचा करने के लिए उसके नीचे रखा जाता है।
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पालकाप्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन मुनि जो अश्व, गज आदि से संबंध रखनेवाली विद्या के प्रथम आचार्य माने गये हैं। २. वह विद्या या शास्त्र जिसमें हाथी घोड़े आदि के लक्षणों, गुणों आदि का निरूपण हो। शालिहोत्र।
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पालकी  : स्त्री० [सं० पल्यंक; प्रा० पल्लंक] एक प्रसिद्ध सवारी जिसमें सवार बैठता या लेटता है और जिसे कहार या मजदूर लोग कंधे पर उठा कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। स्त्री० [सं० पालंक] पालक का शाक।
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पालकी गाड़ी  : स्त्री० [हिं० पालकी+गाड़ी] एक तरह की घोड़ागाड़ी जिसका ऊपरी ढाँचा पालकी के आकार का तथा छायादार होता है।
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पालगाड़ी  : स्त्री०=पालकी गाड़ी।
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पालघ्न  : पुं० [सं० पाल√हन् (हिंसा)+क] कुकरमुत्ता।
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पालट  : पुं० [सं० पालन] १. पाला हुआ लड़का। २. गोद लिया हुआ लड़का। दत्तकपुत्र। पुं० [सं० पर्यस्त; प्रा० पलट्ट] १. पलटने की क्रिया या भाव। पलट। २. परिवर्तन। ३. पटेबाजी में एक प्रकार का प्रहार या वार।
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पालटना  : सं०=१. पलटना। २.=पलटाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पालड़ा  : पुं०=पलड़ा।
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पालतू  : वि० [सं० पालना] (पशु-पक्षियों के संबंध में) जो पकड़कर घर में रखा तथा पाला गया हो (जंगली से भिन्न)। जैसे—पालतू तोता पालतू बंदर।
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पालथी  : स्त्री० [सं० पर्य्यस्त=फैला हुआ] दोनों टाँगों को मोड़कर बैठने की वह मुद्रा, जिसमें पैर दूसरी टाँग की रान के नीचे पड़ते हैं। पद्मासन। कमलासन। पलथी। क्रि० प्र०—मारना।—लगाना।
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पालन  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० पालनीय, पाल्य, भू० कृ० पालित] १. अपनी देख-रेख में और अपने पास रखकर किसी का भरण-पोषण करने की क्रिया या भाव। (मेन्टेनेन्स) २. आज्ञा, आदेश, कर्त्तव्य आदि कार्यों का निर्वाह। (डिसचार्ज, परफॉरमेन्स) ३. अनुकूल आचरण द्वारा किसी निश्चय वचन आदि का होनेवाला निर्वाह। (एबाइड) ४. जीव-जंतुओं के संबंध में उन्हें अपने पास-रखकर उनका वंश, सामर्थ्य या उनसे होनेवाली उपज आदि बढ़ाने का काम। जैसे—मधुमक्षिका पालन, पशु-पालन आदि। ५. तत्काल ब्याई हुई गाय का दूध। पेवस।
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पालना  : स० [सं० पालन] १. व्यक्ति के संबंध में, उसे भोजन, वस्त्र आदि देकर उसका भरण-पोषण करना। पालन करना। २. आज्ञा, आदेश, प्रतिज्ञा, वचन आदि के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। पालन करना। ३. पशु-पक्षियों को मनोविनोद के लिए अपने पास रखकर खिलाना-पिलाना। पोसना। ४. (दुर्व्यसन या रोग) जान-बूझकर अपने साथ लगा रखना और उसे दूर करने का प्रयत्न न करना। ५. कष्ट या विपत्ति से बचाकर सुरक्षित रखना। रक्षा करना। उदा०—आनन सुखाने कहैं, क्यौंहूँ कोउ पालि है।—तुलसी। पुं० [सं० पल्यंक] एक तरह का छोटा झूला, जिसमें बच्चों को लेटाकर झुलाया या सुलाया जाता है।
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पालनीय  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+अनीयर] जिसका पालन किया जाना चाहिए अथवा किया जाने को हो।
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पालयिता (तृ)  : पुं० [सं०√पाल्+णिच्+तृच्] वह जो दूसरों का पालन अर्थात् भरण-पोषण करता हो। पालन-पोषण करनेवाला।
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पाल-वंश  : पुं० [सं०] दे० ‘पाल’ के अंतर्गत।
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पालव  : पुं० [सं० पल्लव] १. पल्लव। पत्ता। २. कोमल, छोटा और नया पौधा।
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पाला  : पुं० [सं० प्रालेय] १. बादलों में रहनेवाले पानी या भाप के वे जमे हुए सफेद कण, जो अधिक सरदी पड़ने पर आकाश से पेड़-पौधों आदि पर पतली तह की तरह फैल जाते हैं और इस प्रकार उन्हें हानि पहुँचाते हैं। क्रि० प्र०—गिरना।—पड़ना। मुहा०—(किसी चीज पर) पाला पड़ना=(क) बुरी तरह से नष्ट होना। (ख) इतना दब जाना कि फिर जल्दी उठ न सके। जैसे—आशाओं पर पाला पड़ना। (फसल आदि को) पाला मार जाना=आकाश से पाला गिरने के कारण फसल की पैदावार खराब या नष्ट हो जाना। २. बहुत अधिक ठंढ या सरदी जो उक्त प्रकार के पात के कारण होती है। जैसे—इस साल तो यहाँ बहुत अधिक पाला है। पुं० [सं० पट्ट, हिं० पाड़ा] १. प्रधान स्थान। पीठ। २. वह धुस या भीटा अथवा बनाई हुई मेड़ जिससे किसी क्षेत्र की सीमा सूचित होती हो। ३. कबड्डी आदि के खेलों में दोनों पक्षों के लिए अलग-अलग निर्धारित क्षेत्र में जिसकी सीमा प्रायः जमीन पर गहरी लकीर खींचकर स्थिर की जाती है। पुं० [हिं०] १. पल्ला। २. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसा काम या बात जिसमें किसी प्रतिपक्षी को दबाना अथवा उसके साथ समानता के भाव से रहकर निर्वाह करना पड़ता है। मुहा०—(किसी से) पाला पड़ना=ऐसा अवसर या स्थिति आना जिसमें किसी विकट व्यक्ति का सामना करना पड़े, या उससे संपर्क स्थापित हो। जैसे—ईश्वर न करे, ऐसे दुष्ट से किसी का पाला पड़े। (किसी से) पाले पड़ना=ऐसी स्थिति में आना या होना कि जिससे काम पड़े, वह बहुत ही भीषण या विकट व्यक्ति सिद्ध हो। जैसे—तुम भी याद करोगे कि किसी के पाले पड़े थे। ३. वह जगह जहाँ दस-बीस आदमी मिलकर बैठा करते हों। ४. अखाड़ा। ५. कच्ची मिट्टी का वह गोलाकार ऊँचा पात्र, जिसमें अनाज भरकर रखते हैं। कोठला। पुं० [सं० पल्लव, हिं० पालो] जंगली बेर के वृक्ष की पत्तियाँ जो चारे के काम आती हैं। पुं०=पाड़ा (टोला या महल्ला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पालागन  : स्त्री० [हिं० पावँ+पर+लगना] आदर-पूर्वक किसी पूज्य व्यक्ति के पैर छूने की क्रिया या भाव। प्रणाम।
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पालागल  : पुं० [सं०] १. प्राचीन भारत में, समाचार लाने और ले जानेवाला व्यक्ति। संदेशवाहक। संवादवाहक। हरकारा। २. दूत।
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पालागली  : स्त्री० [सं० पालागल+ङीष्] प्राचीन भारत में, राजा की चौथी और सबसे काम आदर पानेवाली रानी जो शूद्र जाति की होती थी।
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पालाश  : वि० [सं० पलाश+अण्] १. पलाश-संबंधी। २. पलाश का बना हुआ। ३. हरा। पुं० १. तेज पत्ता। २. हरा रंग।
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पालाशखंड  : पुं० [ब० स०] मगध देश।
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पालाशि  : पुं० [सं० पलाश+इञ्] पलाश गोत्र के प्रवर्तक ऋषि।
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पालिंद  : पुं० [सं० पालिंद+अण्] कुंदुरू नामक गंध-द्रव्य।
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पालिंदी  : स्त्री० [सं० पालिंद+ङीष्] १. श्यामा लता। २. त्रिवृता।
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पालि  : स्त्री० [सं०√पल् (रक्षा करना)+इण्] १. कान के नीचे लटकनेवाला कोमल मांस-खंड जिसमें छेद करके बालियाँ आदि पहनी जाती हैं। कान की लौ। २. किसी चीज का किनारा या कोना। ३. कतार। पंक्ति। श्रेणी। ४. सीमा। हद। ५. पुल। सेतु। ६. बाँध। मेंड़। ७. घेरा। परिधि। ८. अंक। क्रोड। गोद। ९. अंडाकार तालाब या सरोवर। १॰. वह भोजन जो परदेशी विद्यार्थी को गुरुकुल से मिलता था। ११. ऐसी स्त्री जिसकी ठोढ़ी पर बाल तथा मूछें हों। १२. चिह्न। निशान। १३. जूँ नाम का कीड़ा। १४. एक तौल जो एक प्रस्थ के बराबर होती थी। १५. दे० ‘पाली’।
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पालिक  : पुं० [सं० पल्यंक] १. पलंग। २. पालकी।
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पालिका  : स्त्री० [सं० पालक+टाप्, इत्व] १. पालन करनेवाली। २. समस्तपदों के अंत में, वह जो पालन-पोषण तथा सुरक्षा का पूरा प्रबंध करती हो। जैसे—नगर पालिका, महानगर पालिका।
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पालित  : वि० [सं०√पाल्+णिच्+क्त] [स्त्री० पालिता] जिसे पाला गया हो। पाला हुआ। पुं० सिहोर का पेड़।
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पालित्य  : पुं० [सं० पलित+ष्यञ्] वृद्धावस्था में बालों का कुछ पीलापन लिये सफेद होना।
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पालिधी  : स्त्री० [सं०] फरहद का पेड़।
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पालिनी  : वि० स्त्री० [सं०√पाल्+णिनि+ङीप्] जो दूसरों को पालती हो। दूसरों का भरण-पोषण करनेवाली।
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पालिश  : स्त्री० [अं०] १. वह लेप या रोगन जो किसी चीज को चमकाने के लिए उस पर लगाया जाता है। क्रि० प्र०—करना।—चढ़ाना। २. उक्त प्रकार के लेप से होनेवाली चमक। ओप।
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पालिसी  : स्त्री० [अं०] १. नयी रीति। २. बीमा-संबंधी वह प्रतिज्ञापत्र जो बीमा करनेवाली संस्था की ओर से अपना बीमा करानेवाले को मिलता है।
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पाली (लिन्)  : वि० [सं०√पाल्+णिनि] [स्त्री० पालिनी] १. पालन या पोषण करनेवाला। २. रक्षा करनेवाला। रक्षक।
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पाली  : स्त्री० [?] १. देग। बटलोई। २. बरतन का ढक्कन। ३. ऊपरी तल या पार्श्व। जैसे—कपोलपाली=गाल का ऊपरी तल। ४. प्राचीन भारत की एक प्रसिद्ध भाषा जो गौतम बुद्ध के समय सारे भारत के सिवा वाह्लीक, बरमा, श्याम, सिंहल आदि देशों में बोली और समझी जाती थी। विशेष—गौतम बुद्ध ने इसी भाषा में धर्मोपदेश किया था, और बौद्ध धर्म के सभी प्रमुख तथा प्राचीन ग्रंथ इसी भाषा में हैं। विद्वानों का मत है कि यह मुख्यतः और मूलतः भारत के मूल देश की भाषा थी जिसमें मगधी का भी कुछ अंश सम्मिलित था; इस भाषा का साहित्य बहुत विशाल है। ५. पंक्ति। श्रेणी। ६. तीतर, बटेर, बुलबुल आदि का वह वर्ग जो प्रायः प्रतियोगिता के रूप में लड़ाया जाता है। ७. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार के पक्षी उड़ाये जाते हैं। ८. आज-कल कारखानों आदि में, श्रमिकों के उन अलग-अलग दलों के काम करने का समय जो पारी पारी से आता है। (शिफ्ट) ९. आज-कल गेंद-बल्ले, चौगान आदि खेलों में खिलाड़ियों के प्रतियोगी दलों को खेलने के लिए होनेवाली पारी। (इनिंग) वि०=पैदल। उदा०—धणपाली, पिव पाखरयो, विहूँ भला भड़ जुध्ध।—ढोलामारू। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)पुं० [?] चरवाहा। (राज०)
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पालीवत  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़।
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पालीवाल  : पुं० [?] गौड़ ब्राह्मणों के एक वर्ग की उपाधि।
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पालीशोष  : पुं० [सं०] कान का एक रोग।
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पालू  : वि० [हिं० पालना] पाला हुआ। पालतू।
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पाले  : अव्य० [हिं० पाला] अधिकार या वश में। मुहा० दे० ‘पाला’ के अंतर्गत।
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पालो  : पुं० [सं० पालि ?] ५ रुपये भर का बाट या तौल। (सुनार) पुं०=पल्लव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाल्य  : वि० [सं०√पाल्+ण्यत्] जिसका पालन होने को हो या किया जाने को हो।
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पाल्लवा  : स्त्री० [सं० पल्लव+अण्+टाप्] प्राचीन भारत में, एक तरह का खेल जो पेड़ों की छोटी-छोटी टहनियों से खेला जाता था।
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पाल्लविक  : वि० [सं० पल्लव+ठक्—इक] फैलनेवाला। प्रसरणशील।
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पाल्वल  : वि० [सं० पल्वल+अण्] १. पल्वल (तालाब) संबंधी। २. पल्वल (तालाब) में होनेवाला। पुं० छोटा ताल या तालाब का पानी।
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पावँ  : पुं० =पाँव।
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पाव  : पुं० [सं० पाद=चतुर्थांश] १. किसी पदार्थ का चौथाई अंश या भाग। २. वह जो तौल या मान में एक सेर का चैथाई भाग अर्थात् चार छटाँक हो। ३. उक्त तौल का बटखरा। ४. नौ गिरह का माप जो एक गज का चतुर्थांश होता है। पद—पाव भर=(क) तौल में चार छटाँक। (ख) माप में नौगिरह। स्त्री० दे० ‘पो’ (पासे का दाँव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पावक  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+ण्वुल्—अक] पवित्र करनेवाला। पुं० १. अग्नि। आग। २. अग्निमंथ या अगियारी नामक वृक्ष। ३. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ४. भिलावाँ। ५. बाय-बिडंग। ६. कुसुम। बर्रे। ७. वरुण वृक्ष। ८. सूर्य। ९. सदाचार।
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पावक-प्रणि  : पुं० [सं० कर्म० स०] सूर्य्यकान्त मणि। आतशी शीशा।
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पावका  : स्त्री० [सं० पाव√कै+क+टाप्] सरस्वती। (वेद)
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पावकात्मज  : पुं० [सं० पावक-आत्मज, ष० त०] पावकि।
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पावकि  : पुं० [सं० पावक+इञ्] १. पावक का पुत्र। कार्तिकेय। २. इक्ष्वाकुवंशीय दुर्योधन की कन्या सुदर्शना का पुत्र सुदर्शन।
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पावकी  : स्त्री० [सं० पावक+ङीष्] १. अग्नि की स्त्री। २. सरस्वती। (वेद)
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पाव-कुलक  : पुं०=पादाकुलक।
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पावचार  : वि० [सं० पावन-आचार] पवित्र और श्रेष्ठ आचरण करनेवाला। उदा०—तब देखि दुहूँ तिह पावचार।—गुरुगोविंदसिंह। पुं० पवित्र और श्रेष्ठ आचरण।
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पावड़ा  : पुं०=पाँवड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावड़ी  : स्त्री०=पाँवरी (खड़ाऊँ या जूता)।
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पावती  : स्त्री० [हिं० पावना] १. किसी चीज के पहुँचने की लिखित सूचना या प्राप्ति की स्वीकृति। जैसे—पत्र की पावती भेजना। २. किसी से रुपए लेने पर उसकी दी जानेवाली पक्की रसीद।
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पावतीपत्र  : पुं०=पावती।
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पावदान  : पुं० [फा० पाएदान या हिं० पाँव+फा० दान (प्रत्य०)] १. ऊँचे यानों या सवारियों में वह अंग या स्थान जिस पर पाँव रखकर उन पर सवार हुआ जाता है। जैसे—घोड़ागाड़ी या रेलगाड़ी का पावदान। २. मेज के नीचे रखी जानेवाली वह चौकी या लकड़ी की कोई रचना जिस पर कुरसी पर बैठनेवाले पैर रखते हैं। ३. जटा, मूँज, सन आदि अथवा धातु के तारों का बना हुआ वह चौकोर टुकड़ा जो कमरों के दरवाजे के पास पैर पोंछने के लिए रखा जाता है।
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पावन  : वि० [सं√पू+णिच्+ल्यु—अन] [स्त्री० पावनी, भाव० पावनता] १. धार्मिक दृष्टि से, (वह चीज) जो पवित्र समझी जाती हो और दूसरों को भी पवित्र करती या बनाती हो। जैसे—पावन-जल। २. समस्त पदों के अंत में, पवित्र करने या बनानेवाला। जैसे—पतित-पावन। उदा०—सुनु खगपति यह कथा-पावनी।—तुलसी। पुं० १. पावकाग्नि। २. सिद्ध पुरुष। ३. प्रायश्चित्त। ४. जल। पानी। ५. गोबर। ६. रुद्राक्ष। ७. चंदन। ८. शिलारस। ९. गोबर। १॰. कुट नामक ओषधि। ११. पीली भंगरैया। १२. चित्रक। चीता। १३. विष्णु। १४. व्यासदेव का एक नाम।
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पावनता  : स्त्री० [सं० पावन+तल्—सप्] पावन होने की अवस्था या भाव। पवित्रता।
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पावनताई  : स्त्री०=पावनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावनत्व  : पुं० [सं० पावन+त्व]=पावनता।
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पावन-ध्वनि  : पुं० [सं० ब० स०] १. शंख-नाद। २. शंख।
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पावना  : पुं० [सं० प्रापण, प्रा० पावण] वह जो अधिकार, न्याय आदि की दृष्टि से किसी से प्राप्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो। प्राप्य धन या वस्तु। जैसे—बाजार में उनका हजारों रुपयों का पावना पड़ा (या बाकी) है। लहना। (ड्यूज) स० १. प्राप्त करना। पाना। २. प्रसाद, भोजन आदि के रूप में मिली हुई वस्तु खाना या पीना। जैसे—हम यहीं प्रसाद पावेंगे। ३. किसी चीज या बात का ज्ञान, परिचय आदि प्राप्त करना। ४. दे० ‘पाना’।
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पावनि  : पुं० [सं० पवन+इञ्] पवन के पुत्र हनुमान आदि।
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पावनी  : वि० स्त्री० [सं० पावन+ङीप्] पावन का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री० १. हड़। हर्रे। २. तुलसी। ३. गाय। गौ। ४. गंगा नदी। ५. पुराणानुसार शाक द्वीप की एक नदी।
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पावनेदार  : पुं० [हिं० पावना+फा० दार] वह जिसका किसी की ओर पावना निकलता हो। दूसरे से प्राप्य धन लेने का अधिकारी। लहनदार।
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पावन्न  : वि०=पावन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावमान  : वि० [सं० पवमान+अण्] (सूक्त) जिसमें पवमान अग्नि की स्तुति की गयी हो। (वेद)
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पावमानी  : स्त्री० [सं० पावमान+ङीष्] वेद की एक ऋचा।
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पाव-मुहर  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+मुहर] शाहजहाँ के समय का सोने का एक सिक्का जिसका मूल्य एक अशरफी या एक मुहर का चौथाई होता था।
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पावर  : पुं० [सं०] १. वह पासा जिस पर दो बिंदियाँ बनी हों। २. पासा फेंकने का एक प्रकार का ढंग या हाथ। पुं० [अं०] १. वह शक्ति जिससे मशीनें चलाई जाती हैं। यंत्र चलानेवाली शक्ति (जैसे—विद्युत्)। २. अधिकार। शक्ति। ३. सैन्यबल। ४. शासनिक शक्ति। पुं०=पामर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पाव-रोटी  : स्त्री० [पुर्त० पाव=रोटी+हिं० रोटी] मैदे, सूजी आदि का खमीर उठाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मोटी और फूली हुई रोटी। डबलरोटी।
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पावल  : स्त्री०=पायल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावली  : स्त्री० [हिं० पाव=चौथाई+ला (प्रत्य०)] एक रुपये के चौथाई भाग का सिक्का। चवन्नी।
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पावस  : स्त्री० [सं० प्रावृष; प्रा० पाउस] १. वर्षाकाल। बरसात। २. वर्षा। वृष्टि। ३. वर्षाऋतु में समुद्र की ओर से आनेवाली वे हवाएँ जो घटनाओं के रूप में होती हैं और जल बरसाती हैं। (मानसून)
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पावा  : पुं०=पाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पावी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मैना (पक्षी)।
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पाश  : पुं० [सं०√पश् (बाँधना)+घञ्] १. वह चीज जिससे किसी को फँसाया या बाँधा जाय। जैसे—जंजीर, रस्सी आदि। २. रस्सी से बनाया जानेवाला वह घेरा जिसमें गागर आदि को फँसाकर कूएँ में लटकाया जाता है। ३. पशु-पक्षियों को फँसाकर पकड़ने का जाल। ४. बंधन। ५. समस्त पदों के अंत में (क) सुन्दरता और सजावट के लिए अच्छी तरह बाँधकर तैयार किया हुआ रूप। जैसे—कर्णपाश। (ख) अधिकता और बाहुल्य। जैसे—केश-पाश। ५. वरुण देवता का अस्त्र जो फंदे के रूप में माना गया है। ६. दे० ‘फाँस’। प्रत्य० [फा०] छिड़कनेवाला। जैसे—गुलाब पाश। पुं० किसी चीज का अंश या खंड। टुकड़ा। पद—पाश-नाश। (देखें)
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पाश-कंठ  : वि० [सं० ब० स०] जिसके गले में फाXस या बंधन पड़ा हो।
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पाशक  : पुं० [सं० √पश+णिच्+ण्वुल्—अक] १. जाल। फंदा। २. चौपड़ खेलने का पाशा।
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पाश-क्रीड़ा  : स्त्री० [तृ० त०] जूआ। द्यूत।
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पाशOर  : पुं० [ष० त०] वरुण देवता। (जिनका अस्त्र पाश है)।
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पाशन  : पुं० [सं०√पश+णिच्+ल्युट्—अन] १. रस्सी। २. बंधन।
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पाश-पाश  : अव्य० [फा०] टुकड़े-टुकड़े। चूर-चूर।
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पाश-पीठ  : पुं० [ष० त०] बिसात (चौसर खेलने की)।
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पाश-बंध  : पुं० [स० त०] फंदा।
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पाश-बंधक  : पुं० [सं०] बहेलिया। चिड़ीमार।
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पाश-बंधन  : पुं० [स० त०] १. जाल। २. फंदा।
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पाश-बद्ध  : भू० कृ० [स० त०] जाल या फंदे में फँसा हुआ।
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पाश-भृत्  : पुं० [सं पाश√भृ (धारण)+क्विप्, तुक्] वरुण (देवता)।
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पाश-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] हाथ की तर्जनी और अंगूठे के सिरों को सटाकर बनाई जानेवाली एक तरह की मुद्रा। (तंत्र)
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पाशव  : वि० [सं० पशु+अण्] १. पशु-संबंधी। पशुओं का। २. पशुओं की तरह का। पशुओं का-सा। जैसे—पाशव आचरण। पुं० पशुओं का झुंड।
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पाशवता  : स्त्री०=पशुता। उदा०—प्रेम शक्ति से चिर निरस्त्र हो जावेगी पाशवता।—पंत।
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पाशवान् (वत्)  : वि० [सं० पाश+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पाशवती] जिसके पास पाश या फंदा हो। पाशवाला। पशधारी। पुं० वरुण (देवता)।
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पाशवासन  : पुं० सं० पाशव—आसन कर्म० स०] एक प्रकार का आसन या बैठने की मुद्रा।
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पाशविक  : वि० [पशु+ठञ्—इक] १. पशुओं की तरह का। ३. (आचरण) जो पशुओं के आचरण जैसे हो।
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पाश-हस्त  : पुं० [ब० स०] १. वरुण। २. यम।
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पाशांत  : पुं० [सं०=पार्श्व-अन्त, पृषो० सिद्धि] सिले हुए कपड़े का पीठ की ओर पड़नेवाला अंश।
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पाशा  : पुं० [तु०] तुर्किस्तान में बड़े बड़े अधिकारियों और सरदारों को दी जानेवाली उपाधि।
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पाशिक  : पुं० [सं० पाश+ठक्—इक] चिड़ीमार। बहेलिया।
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पाशित  : भू० कृ० [सं० पाश+णिच्+क्त] पाश में या पाश से बँधा हुआ। पाशबद्ध।
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पाशी (शिन्)  : वि० [सं० पाश+इनि] १. जो अपने पास पाश या फंदा पखता हो। पाशवाला। पुं० १. वरुण देवता। २. यम। ३. बहेलिया। ४. अपराधियों के गले में फँदा या फाँसी लगाकर उन्हें प्राण-दंड देनेवाला व्यक्ति, जो पहले प्रायः चांडाल हुआ करता था। स्त्री० [फा०] १. जल या तरल पदार्थ छिड़कने की क्रिया या भाव। जैसे—गुलाब-पाशी। २. खेत आदि को जल से सींचने की क्रिया। जैसे—आब-पाशी।
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पाशुपत  : वि० [सं० पशुपति-अण्] १. पशुपति-संबंधी। पशुपति या शिव का। पुं० १. पशुपति या शिव के उपासक एक प्रकार के शैव। २. एक तंत्र शास्त्र जो शिव का कहा हुआ माना जाता है। ३. अथर्ववेद का एक उपनिषद्। ४. अगस्त का फूल।
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पाशुपत-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] एक प्राचीन दर्शन जिसमें पशुपति, पाशु और पशु इन तीन सत्ताओं को मुख्य माना गया था और जिसमें पशु के पाश से मुक्त होने के उपाय बतलाये गये हैं।
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पाशुपत-रस  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध।
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पाशुपतास्त्र  : [पाशुपत-अस्त्र, कर्म० स०] शिव का एक भीषण शूलास्त्र जिसे अर्जुन ने तपस्या करके प्राप्त किया था।
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पाशुपाल्य  : पुं० [सं० पशुपाल+ष्यञ्] पशुपालन।
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पाशु-बंधक  : पुं० [सं० पशुबंध+ठक्—क] यज्ञ में वह स्थान जहाँ बलि पशु बाँधा जाता था।
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पाश्चात्य  : वि० [सं० पश्चात्+त्यक्] १. पीछे का। पिछला। २. पीछे होनेवाला। ३. पश्चिम दिशा का। ४. पश्चिमी महादेश में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। पौरस्य का विपर्याय। जैसे—पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य साहित्य।
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पाश्चात्यीकरण  : पुं० [सं० पाशचात्य+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट्—अन] किसी देश या जाति को पाश्चात्य सभ्यता के साँचे में ढालना या पाश्चात्य ढंग का बनाना। (वेस्टर्नाइज़ेशन)
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पाश्या  : स्त्री० [सं० पाश+यत्+टाप्] पाश। जाल।
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पाषंड  : पुं० [सं०√पा (रक्षा)+क्विप्=वेदधर्म,√षंड् (खंडन)+अच्] १. वे सब आचरण और कार्य जो वैदिक धर्म या रीति के हों। २. वैदिक रीतियों का खंडन करनेवाले कार्य और विचार। ३. दूसरों को धोखा देने आदि के उद्देश्य से झूठ-मूठ किये जानेवाले धार्मिक कृत्य। ढोंग।
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पाषंडी (डिन्)  : वि० [सं० पा√षंड्+णिच्+इनि] १. जो वेदों के सिद्धान्तों के विरुद्ध चलता हो और किसी दूसरे झूठे मत का अनुयायी हो। २. जो दूसरों को धोखा देने के लिए अच्छा वेश बनाकर रहता हो।
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पाषक  : पुं० [सं०√पष् (बाँधना)+ण्वुल्—अक] पैर में पहनने का एक गहना।
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पाषर  : स्त्री०=पाखर (हाथी की झूल)।
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पाषाण  : पुं० [सं०√पिष् (चूर्ण करना)+आनच्, पृषो० सिद्धि] १. पत्थर। प्रस्तर। शिला। नीलम, पन्ने आदि रत्नों का एक दोष। ३. गन्धक। वि० [स्त्री० पाषाणी] १. निर्दय। २. कठोर। ३. नीरस।
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पाषाण-गदर्भ  : पुं० [सं० ष० त० ?] दाढ़ में सूजन होने का एक रोग।
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पाषाण-चतुर्दशी  : स्त्री० [मध्य० स०] अगहन मास की शुक्ला चतुर्दशी। अगहन सुदी चौदस।
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पाषाण-दारण  : पुं० [ष० त०] [वि० पाषाणदारक] पत्थर तोड़ने का काम।
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पाषाण-भेद  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का पौधा जो अपनी पत्तियों की सुन्दरता के लिए बगीचों में लगाया जाता है। पाखानभेद। पथरचूर।
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पाषाण-भेदन  : पुं० [पाषाण√भिद् (तोड़ना)+ल्युट्—अन]=पाषाण भेद।
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पाषाणभेदी (दिन्)  : पुं० [सं० पाषाण√भिद्+णिनि] पाखान भेद। पथरचूर।
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पाषाण-मणि  : पुं० [मयू० स०] सूर्यकांत मणि।
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पाषाण-रोग  : पुं० [ष० त०] अश्मरी या पथरी नाम का रोग।
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पाषाण-हृदय  : वि० [ब० स०] जिसका हृदय बहुत ही कठोर या अत्यन्त क्रूर हो।
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पाषाणी  : स्त्री० [सं० पाषाण+ङीष्] बटखरा। वि० स्त्री० निर्दय (स्त्री)।
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पासंग  : पुं० [फा० पारसंग] १. तराजू के दोनों पलड़ों या पल्लों का वह सामान्य सूक्ष्म अन्तर जो उस दशा में रहता है जब उन पर कोई चीज तौली नहीं जाती। पसंगा। विशेष—ऐसी स्थिति में तराजू पर जो चीज तौली जाती है वह बटखरे या उचित मान से या तो कुछ कम होती है या अधिक; तौल में ठीक और पूरी नहीं होती। २. पत्थर, लोहे आदि के टुकड़े के रूप में वह थोड़ा-सा भार जो उक्त अवस्था में किसी पल्ले या उसकी रस्सी में इसलिए बाँधा जाता है कि दोनों पल्लों का अन्तर दूर हो जाय और चीज पूरी तौली जा सके। विशेष—शब्द के मूल अर्थ के विचार से पासंग का यही दूसरा अर्थ प्रधान है; परन्तु व्यवहारतः इसका पहला अर्थ ही प्रदान हो गया है। ३. वह जो किसी की तुलना में बहुत ही तुच्छ, सूक्ष्म या हीन हो। जैसे—तुम तो चालाकी में उसके पासंग भी नहीं हो। पुं० [?] एक प्रकार का जंगली बकरा जो बिलोचिस्तान और सिन्ध में पाया जाता है, जिसकी दुम पर बालों का गुच्छा होता है। भिन्न-भिन्न ऋतुओं में इसके शरीर का रंग कुछ बदलता रहता है। इसकी मादा ‘बोज’ कहलाती है।
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पास  : अव्य [सं० पार्श्व] १. जो अवकाश, काल आदि के विचार से अधिक दूरी पर न हो। समय, स्थान आदि के विचार से थोड़े ही अन्तर पर। निकट। समीप। जैसे—(क) उनका मकान भी पास ही है। (ख) परीक्षा के दिन पास आ रहे हैं। पद—पास-पास या पास ही पास=एक दूसरे के समीप। बहुत थोड़े अन्तर पर। जैसे—दोनों पुस्तकें पास ही पास रखी हैं। मुहा०—(किसी स्त्री के) पास आना, जाना या रहना=स्त्री० के साथ मैथुन या संभोग करना। (किसी के) पास न फटकना=बिलकुल अलग या दूर रहना। (किसी के) पास बैठना=किसी की संगति में रहना। जैसे—भले आदमियों के पास बैठने से प्रतिष्ठा होती है। २. अधिकार में। कब्जे में। हाथ में। जैसे—तुम्हारे पास कितने रुपए हैं ? ३. किसी के निकट जाकर या किसी को सम्बोधित करके। उदा०—माँगत है प्रभु पास दास यह बार बार कर जोरी।—सूर। पुं० १. ओर। तरफ। दिशा। उदा०—अति उतुंग जल-निधि चहुँपासा।—तुलसी। २. निकटता। सामीप्य। जैसे—उसके पास से हट जाओ। ३. अधिकार। कब्जा। जैसे—हमें दस रुपए अपने पास से देने पड़े। विशेष—इस अर्थ में इसके साथ केवल ‘में’ और ‘से’ विभक्तियाँ लगती हैं। पुं० [फा०] किसी के पद, मर्यादा, सम्मान आदि का रखा जानेवाला उचित ध्यान या किया जानेवाला विनयपूर्ण विचार। अदब। लिहाज। जैसे—बड़ों का हमेशा पास करना (या रखना) चाहिए। क्रि० प्र०—करना।—रखना। पुं० [अं०] वह अधिकारपत्र जिसकी सहायता से कोई कहीं बिना रोक-टोक आ-जा सकता हो। पारक। पारपत्र। जैसे—अभिनय या खेल-तमाशे में जाने का समय; रेल से कहीं आने-जाने का पास। विशेष—टिकट या पास में यह अन्तर है कि टिकट के लिए तो धन या मूल्य देना पड़ता है; परन्तु पास बिना धन दिये या मूल्य चुकाये ही मिलता है। वि० १. जो किसी प्रकार की रुकावट आदि पार कर चुका हो। २. जो जाँच, परीक्षा आदि में उपयुक्त या ठीक ठहरा हो; और इसी लिए आगे बढ़ने के योग्य मान लिया गया हो। उत्तीर्ण। जैसे—(क) लड़कों का इम्तहान में पास होना। (ख) विधायिका सभा में कोई कानून पास होना। ३. पावन, प्राप्यक, व्यय आदि के लेखे के संबंध में, जो उपयुक्त अधिकारी के द्वारा ठीक माना गया और स्वीकृत हो चुका हो। जैसे—कर्मचारियों के वेतन का प्राप्यक (बिल) पास होना। पुं० [सं० पास=बिछाना, डालना] आँवें के ऊपर उपले जमाने का काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] भेड़ों के बाल कतरने की कैंची का दस्ता। पुं० १. दे० ‘पाश’। २. दे० ‘पासा’।
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पासक  : पुं०=पाशक।
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पासना  : अ० [सं० पयस्=दूध] स्तनों या थनों में दूध उतरना या उनका दूध से भरना।
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पासनी  : स्त्री० [सं० प्राशन] बच्चों का अन्नप्राशन। उदा०—कान्ह कुँवर की करहु पासनी।—सूर।
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पास-बंद  : पुं० [हिं० पास+फा० बंद] दरी बुनने के करघे की वह लकड़ी जिससे बै बँधी रहती है और जो ऊपर-नीचे जाया करती है।
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पास-बान  : पुं० [फा०] [भाव० पासवानी] पहरा देनेवाला व्यक्ति। द्वारपाल। स्त्री० रखेली स्त्री। (राज०)
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पासवानी  : स्त्री० [फा०] १. द्वारपाल का काम और पद। २. पहरेदारी।
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पास-बुक  : स्त्री० [अं०]=लेखा-पुस्तिका।
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पासमान  : पुं० [हिं० पास+मान (प्रत्य०)] पास रहनेवाला दास। पुं०=पासबान।
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पासवर्ती  : वि०=पाश्वर्ती।
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पाससार  : पुं०=पासासारि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासह  : अव्य०=पास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासा  : पुं० [सं० पाशक, प्रा० पासा] १. हड्डी, हाथी दाँत आदि के छः पहले टुकड़े जिनके पहलों पर एक से छः तक बिंदियाँ अंकित होती हैं और जिन्हें चौसर आदि के खेलों में खेलाड़ी बारी-बारी से फेंककर अपना दाँव निश्चित करते हैं। (डाइस) मुहा०—(किसी का) पासा पड़ना=(क) पासे के पहल का किसी की इच्छा के अनुसार ठीक गिरना। जीत का दाँव पड़ना। (ख) ऐसी स्थिति होना कि उद्देश्य, युक्ति आदि सफल हो। पासा पलटना=(क) पासे का विपरीत प्रकार या रूप में गिरने लगना। (ख) ऐसी स्थिति आना या होना कि जो क्रम चला आ रहा हो, वह उलट जाय, मुख्यतः बुरी से अच्छी दशा या दिशा की ओर प्रवृत्त होना। पासा फेंकना=भाग्य के भरोसे रहकर और सफलता प्राप्त करने की आशा से किसी प्रकार का उपाय, प्रयत्न या युक्ति करना। २. चौपड़ या चौसर का खेल, अथवा और कोई ऐसा खेल जो पासों से खेला जाता हो। ३. मोटी छः पहली बत्ती के आकार में लाई हुई वस्तु। गुल्ली। जैसे—चाँदी या सोने का पासा (अर्थात् उक्त आकार में ढाला हुआ खंड)। ४. सुनारों का एक उपकरण जो काँसे या पीतल का चौकोर ढला हुआ खंड होता है और जिसके हर पहल पर छोटे-बड़े गोलाकार गड्ढे बने होते हैं। (इन्हीं गड्ढों की सहायता से गहनों में गोलाई लाई जाती है।) ५. कोई चीज ढालने का साँचा। (राज०)
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पासार  : पुं० [फा० पासदार] [भाव० पासारी] १. तरफदार। पक्षपाती। २. शरणदाता। रक्षक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पासासारि  : पुं० [हिं० पासा+सारि=गोटी] १. पासों की सहायता से खेला जानेवाला खेल। जैसे—चौसर। चौसर आदि की गोट जो पासा फेंककर उसके अनुसार चलाते हैं।
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पासिक  : पुं० [सं० पाश] १. फंदा। २. बंधन।
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पासिका  : स्त्री० [सं० पाश] १. जाल। २. बंधन।
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पासी  : पुं० [सं० पाशिन्, पाशी] १. जाल या फंदा डालकर चिड़ियाँ पकड़नेवाला। बहेलिया। २. एक जाति जो ताड़ के पेड़ों से ताड़ी उतारने का काम करती है। स्त्री० [सं० पाश] १. घोड़ों के पिछले पैर में बाँधने की रस्सी। पिछाड़ी। २. घास बाँधने की जाली या रस्सी। स्त्री०=पाश (फंदा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाशु  : पुं०=पाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=पास।
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पासुरी  : स्त्री०=पसली।
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पाहँ  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास; पाह] १. निकट। पास। समीप। २. प्रति। से। उदा०—जाइ कहहु उन पास सँदेसू।—जायसी।
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पाह  : स्त्री० [हिं० पाहन] एक तरह का पत्थर जिससे लौंग, फिटकरी, अफीम आदि घिसकर आँख पर लगाने का लेप बनाते हैं। पुं० [सं० पथ] पथ। मार्ग।
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पाहत  : पुं० [सं० नि० सिद्धि० पररूप] शहतूत का पेड़।
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पाहन  : पुं० [सं० पाषाण, प्रा० पाहाण] १. पत्थर। उदा०—पाहन ते न कठिन कठिनाई।—तुलसी। २. कसौटी का पत्थर। ३. पारस पत्थर। स्पर्शमणि। उदा०—इतर धातु पाहनहिं परसि कंचन ह्वै सोहै।—नन्ददास। वि० पत्थर की तरह कठोर हृदय का।
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पाहरू  : पुं० [हिं० पहर, पहरा] पहरा देनेवाला। पहरेदार।
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पाहल  : स्त्री० [हिं० पहला] किसी को सिक्ख धर्म की दीक्षा देने के समय होनेवाला धार्मिक कृत्य या समारोह।
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पाहा  : पुं० [सं० पथ] १. पथ। मार्ग। २. मेंड़।
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पाहात  : पुं० [सं० नि० सिद्धि] शहतूत का पेड़।
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पाहार  : पुं० [सं० पयोधर; प्रा० पयोहर] बादल। मेघ। पुं० पहाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहिं  : अव्य० [सं० पार्श्व; प्रा० पास, पाह] १. पास। निकट। २. किसी की ओर या प्रति। ३. किसी के उद्देश्य से अथवा उसके पास जाकर।
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पाहि  : अव्य० [सं०√पा+लोट्+सिप्—हि] रक्षा करो। बचाओ।
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पाहिमाम्  : अव्य० [सं० पाहि और माम्व्यस्त पद] त्राहिमाम्।
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पाहीं  : अव्य०=पाहिं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाही  : स्त्री० [हिं० पाह=पथ] किसी किसान की वह खेती जो उसके गाँव या निवास स्थान से कुछ अधिक दूरी पर हो। उदा०—तहाँ नरायन पाही कीन्हां, पल आवैं पल जाई हो।—नारायणदास सन्त।
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पाहुँच  : स्त्री०=पहुँच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पाहुना  : पुं० [सं० प्राघूर्ण, प्राघुण=अतिथि] [स्त्री० पाहुनी] १. अतिथि। मेहमान। अभ्यागत। २. जमाता। दामाद। (पूरब)
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पाहुनी  : स्त्री० [हिं० पाहुना] १. आतिथ्य। मेहमानदारी। पहुनई। २. रखेली स्त्री।
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पाहुर  : पुं० [सं० प्राभृत; प्रा० पाहुड=भेंट] १. उपहार। भेंट। नजर। २. शुभ अवसरों पर संबंधियों और इष्ट-मित्रों के यहाँ भेजे जानेवाले फल, मिठाइयाँ आदि। बैना। बायन।
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पाहू  : पुं० [सं० पथ, पुं० हिं० पाह] १. पाथिक। बटोही। २. पाहुना। मेहमान। ३. दामाद। उदा०—पाहु घर आवे मुकलाऊ आये।—गुरु ग्रंथसाहब। पुं० [?] दोनों ओर से थोड़ा मुड़ा हुआ वह मोटा लोहा जिससे इमारत में अगल-बगल रखे हुए पत्थर जड़कर स्थित किये जाते हैं। पुं० [सं० पाहि] १. घृणा या तुच्छतापूर्वक किसी को पुकारने या संबोधित करने का शब्द। २. तुच्छ व्यक्ति।
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पिंग  : वि० [सं०√पिञ्ज् (वर्ण)+अच्, कुत्व] १. पीलापन लिये हुए भूरा। सुँघनी के रंग का। २. भूरापन लिये हुए लाल। तामड़ा। पुं० १. भैंसा। २. चूहा। ३. हरताल।
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पिंग-कपिशा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] गुबरैले के आकार का एक कीड़ा जिसका रंग-काला या तामड़ा होता है। तेलपायी। तेलचटा।
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पिंग-चक्षु (स्)  : वि० [ब० स०] जिसकी आँखें भूरे या तामड़े रंग की हों। पुं० नक्र या नाक नामक जल-जंतु।
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पिंगल  : वि० [सं० पिंग+लच्] १. पीला। २. भूरापन लिये हुए पीला या लाल। तमड़ा। पुं० १. एक प्राचीन मुनि या आचार्य जिन्होंने छंदः सूत्र की रचना की थी। नागमुनि। २. उक्त मुनि का बनाया हुआ छंद शास्त्र। ३. किसी प्रकार का भाषा या छन्द शास्त्र। (प्रॉसोडी) मुहा०—(किसी को) पिंगल पढ़ाना=अपना दोष छिपाने या मतलब निकालने के लिए उलटी-सीधी बातें समझाना। पिंगल साधना=(क) टालमटोल करना। (ख) नखरा करना। इतराना। ४. साठ संवत्सरों में से ५१वाँ संवत्सर। ५. संगीत में, सबेरे के समय गाया जानेवाला एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा गया है। ६. सूर्य का एक गण या पारिपार्श्वक। ७. एक यक्ष का नाम। ८. नौ निधियों में से एक। ९. अग्नि। आग। १॰. नकुल। नेवला। ११. बन्दर। १२. एक प्रकार का यज्ञ। १३. एक प्राचीन पर्वत। १४. पुराणानुसार भारत के उत्तर-पश्चिम का देश। १५. हरताल। १६. उल्लू। १७. पीपल। १८. उशीर। खस। १९. रास्ना। २॰. एक प्रकार का फनदार साँप। २१. एक प्रकार का स्थावर विष। २२. ब्रजभाषा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) विशेष—किसी समय व्रजभाषा में ही अधिकतर काव्यों की रचना होती थी; और वही काव्य की मुख्य भाषा मानी जाती थी; इसी से उसका यह नाम पड़ा था। पुं०=पंगुल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंगला  : स्त्री० [सं० पिंगल+टाप्] १. हठयोग में, सुषुम्ना नाड़ी के बाईं ओर स्थित एक नाड़ी जिससे दक्षिण नासा-पुट का श्वास चलता है। इसमें सूर्य का वास माना गया है। इसलिए इसे सूर्यनाड़ी भी कहते हैं। यह स्वभाव से उष्ण है। इसके अधिष्ठाता देवता विष्णु माने जाते हैं। २. लक्ष्मी। ३. दक्षिण दिशा के दिग्गज की पत्नी। ४. गोरोचन। ५. एक प्रकार की चिड़िया। ६. शीशम का पेड़। ७. राजनीति। ८. भागवत के अनुसार एक प्रसिद्ध भगवद् भक्त वेश्या।
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पिंगलाक्ष  : पुं० [सं० पिंगल+अक्षि, ब० स०, षच्] शिव।
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पिंगलिका  : स्त्री० [सं० पिंगल+कन्+टाप्, इत्व] १. एक प्रकार का बगला। २. एक प्रकार का उल्लू। ३. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की मक्खी जिसके काटने से जलन और सूजन होती है।
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पिंगलित  : वि० [सं० पिंगल+इतच्] ललाई लिये हुए भूरे रंग का।
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पिंग-सार  : पुं० [ब० स०] हरताल।
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पिंग-स्फटिक  : पुं० [कर्म० स०] गोमेदक मणि।
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पिंगा  : स्त्री० [सं० पिंग+टाप्] १. गोरोचन। २. हलदी। ३. वंशलोचन। ४. हींग। ५. एक रक्त-वाहिनी नाड़ी। ६. चंडिका देवी। वि० १. कोमल। नाजुक। २. कमजोर। दुर्बल। ३. दुबला-पतला। ४. टेढ़े-मेढ़े अंगोंवाला। पुं० वह व्यक्ति जिसके पैर टेढ़े हों।
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पिंगाक्ष  : वि० [पिंग-अक्षि, ब० स०, षच्] [स्त्री० पिंगाक्षी] जिसकी आँखें कुछ ललाई लिये हुए भूरे रंग की हों। पुं० १. शिव। २. नाक या कुंभीर नामक जल-जन्तु। ३. बिड़ाल। बिल्ला।
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पिंगाक्षी  : स्त्री० [सं० पिंगाक्ष+ङीष्] कुमार की अनुचरी एक मातृका।
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पिंगाश  : पुं० [सं पिंग√अश् (व्याप्ति)+अण्] १. एक प्रकार की मछली जिसे बंगाल में पांगाश कहते हैं। २. गाँव का प्रधान या मुखिया। ३. खरा या शुद्ध सोना।
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पिंगाशी  : स्त्री० [सं० पिंगाश+ङीष्] नील का पौधा।
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पिंगिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पिंग+इमनिच्] ऐसा भूरापन जिसमें कुछ लाली भी हो।
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पिंगी  : स्त्री० [सं० पिंग+ङीष्] १. शमी का पेड़। २. चुहिया।
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पिंगूरा  : पुं० [हिं० पेंग] छोटा पालना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंगेक्षण  : वि० [पिंग-ईक्षण, ब० स०]=पिंगाक्ष। पुं० शिव।
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पिंगेश  : पुं० [पिंग-ईश, कर्म० स०] अग्नि का एक नाम।
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पिंच्छ  : पुं०=पिच्छ।
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पिंज  : वि० [सं०√पिंज्+घञ्+अच्] विकल। व्याकुल। पुं० [√पिंज्+घञ्] १. बल। शक्ति। २. वध। हत्या। ३. एक प्रकार का कपूर। ४. चन्द्रमा। ५. समूह।
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पिंजक  : पुं० [सं० √पिञच्+ण्वुल्—अक] धुनिया।
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पिंजट  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+अटन्] आँख में से निकलनेवाला एक तरह का गाढ़ा सफेद मल या कीचड़।
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पिंजड़ा  : पुं०=पिंजरा।
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पिंजन  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+ल्युट्—अन] १. रुई धुनने की धुनकी। २. रूई धुनने की क्रिया, ढंग या भाव।
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पिंजना  : स० [सं० पिंजन] धुनकी से रूई धुनना।
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पिंजर  : वि० [सं०√पिञ्ज्+रच्] १. ललाई लिये हुए पीले रंग का। २. पीला। ३. सुनहला। पुं० १. पिंजरा। २. हड्डियों की ठठरी। पंजर। ३. हरताल। ४. सोना। ५. नागकेसर। ६. लाल रंग का वह फोड़ा जिसमें कुछ भूरापन भी हो।
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पिंजरक  : पुं० [सं० पिञ्जर+कन्] हरताल।
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पिंजरा  : पुं० [सं० पंजर] १. धातु, बाँस आदि की तीलियों का बना हुआ बक्स की तरह का वह आधान जिसमें पक्षी, पशु आदि बंद करके रखे जाते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा स्थान जहाँ से किसी का बाहर निकलना प्रायः असंभव या दुष्कर हो।
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पिंजरापोल  : पुं० [हिं० पिंजरा+पोल=फाटक] १. पशुशाला। २. गोशाला।
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पिंजरिक  : पुं० [सं०] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा।
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पिंजरित  : भू० कृ० [सं० पिंजर+इतच्] पीले रंग का या पीले रंग में रंगा हुआ।
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पिंजल  : वि० [सं० √पिञ्ज्+कलच्] १. दुःख, भय संकट आदि के कारण जिसका वर्ण पीला पड़ गया हो। २. दुःखी। ३. व्याकुल। ४. बहुत अधिक आतंकित। पुं० १. कुशा। २. हरताल। ३. जाल-बेंत।
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पिंजली  : स्त्री० [सं० पिंजल+ङीष्] एक में बँधी हुई कुश धास की दो नुकीली पत्तियाँ जिनका उपयोग यज्ञ में होता था।
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पिंजा  : स्त्री० [सं० पिंज+टाप्] १. हलदी। २. रूई। पुं०=पिंजरा (धुनिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंजारा  : पुं० [सं पिंजन] रूई धुननेवाला कारीगर। धुनिया।
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पिंजारी  : स्त्री० [देश०] त्रायमाणा नाम की लता। गुरबियानी।
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पिंजाल  : पुं० [सं०√पिंञ्ज्+आलच्] सोना। स्वर्ण।
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पिंजिका  : स्त्री० [सं०√पिञ्ज्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] धुनी हुई रूई की पूनी जो सूत कातने के काम आती है।
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पिंजियारा  : पुं० [सं० पिंजिका=रूई की बत्ती] १. रूई ओटनेवाला। २. रूई धुननेवाला। धुनिया।
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पिंजूष  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+ऊषन्] कान की मैल। खूँट।
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पिंड  : वि० [सं०√पिण्ड् (ढेर लगाना)+अच्] [स्त्री० पिंडी] १. घन। ठोस। २. गुथा हुआ। ३. घना। पुं० १. घना या ठोस चीज का छोटा और प्रायः गोलाकार खंड या टुकड़ा। ढेला या लोंदा। जैसे—गुड़, धातु या मिट्टी का पिंड। २. कोई गोलाकार पदार्थ। जैसे—नेत्र-पिंड। ३. भोजन का वह अंश जो प्रायः गोलाकार रूप में लाकर मुँह में डाला जाय। कौर। ग्रास। ४. जौ के आटे, भात आदि का बनाया हुआ वह गोलाकार खंड जो श्राद्ध में पितरों के उद्देश्य से वेदी आदि पर रखा जाता है। पद—पिंड-दान। (देखें) मुहा०—(किसी को) पिंड देना=कर्मकांड की विधि के अनुसार किसी मृत व्यक्ति के उद्देश्य से उसका श्राद्ध करना। ५. ढेर। राशि। ५. खाद्य पदार्थ। आहार। भोजन। ७. जीविका या उसके निर्वाह का साधन। ८. भिक्षुकों को दिया जानेवाला दान। खैरात। ९. मांस। गोश्त। १॰. गर्भ की आरंभिक अवस्था। भ्रूण। ११. मनुष्य की काया। देह। बदन। शरीर। पद—पिंड-रोग। (देखें) मुहा०—(किसी का) पिंड छोड़ना=जिसके पीछे पड़े हों, उसका पीछा छोड़ना। तंग या परेशान करने से बाज आना। जैसे—(क) वह जब तक उनका सर्वस्व नष्ट न कर देगा, तब तक उनका पिंड नहीं छोड़ेगा। (ख) आज महीने भर बाद बुखार नें पिंड छोड़ा है। (किसी के) पिंड पड़ना=किसी प्रकार का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किसी के पीछे पड़ना। (स्त्री० के उदर में) पिंड पड़ना=स्त्री का गर्भधारण करना। उदा०—पिंड तरै तउ प्रीति न तोरउ।—कबीर। १२. जीव। प्राणी। १३. पैर की पिंडली। १४. तबले आदि के मुँह पर का चमड़ा। १५. पदार्थ। वस्तु। १६. घर का वह विशिष्ट भाग जो वास्तु-शास्त्र के नियमों के अनुसार उसे चौकोर बनाने के लिए बीच में स्थिर किया जाता है। १७. मकान के दरवाजे के सामने का छायादार स्थान। १८. जलाने का कोई सुगंधित पदार्थ। जैसे—धूप, राल आदि। १९. भूमिति में, किसी धन पदार्थ की घनता या मोटाई अथवा उसका परिमाण। २॰. गणित में त्रिज्या का चौबीसवाँ अंश या भाग। २१. बल। शक्ति। पुं० [सं० पांडु] पांडु नामक रोग जिसमें सारा शरीर पीला हो जाता है। पीलिया। उदा०—पायाँ ज्यूँ पीली पड़ी रे, लोग कहैं पिंड रोग।—मीराँ।
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पिंडक  : पुं० [सं० पिण्ड√कै (चमकना)+क] १. गोलाकार पिंड। गोला। २. पिंडालू। ३. लोबान। ४. बोल। मुरमक्की। ५. गिलट। ६. शिला रस। ७. गाजर।
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पिंड-कंद  : पुं० [मध्य० स०] पिंडालु नामक कंद।
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पिंडकर  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में, ऐसा कर जिसकी राशि एक बार निश्चित कर दी जाती थी और जिसके मान में सहसा कोई परिवर्तन नहीं होता था।
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पिंड-कर्कटी  : स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार का पेठा।
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पिंडका  : स्त्री० [सं० पिंडक+टाप्] छोटी माता या चेचक नाम का रोग।
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पिंडकी  : स्त्री०=पंडुक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंडखजूर  : स्त्री० [सं० पिंडखर्जूर] १. खजूर की जाति का एक वृक्ष जिसके फल बहुत मीठे होते हैं। २. उक्त पेड़ के फल।
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पिंड-खर्जूर  : पुं० [मध्य० स०]=पिंड-खजूर।
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पिंड-खर्जूरी (रिका)  : स्त्री० [सं० पिंडखजूर+ङीष्]= पिंड खजूर।
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पिंडगोस  : पुं० [सं० गो√सन् (अलग करना)+ड, पिण्ड -गोस, कर्म० स०] १. गंधरस। २. बोल।
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पिंडज  : पुं० [सं० पिंड√जन् (उत्पन्न होना)+ड] प्राणी के पिंड या शरीर अर्थात् गर्भ से उत्पन्न होनेवाला जीव। जैसे—मनुष्य, घोड़ा, गाय आदि। (अंडज और स्वेदज से भिन्न)
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पिंडत  : पुं०=पंडित। उदा०—छाछि छाँड़ि पिंडता पीवीं।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंड-तैल (क)  : पुं० [ब० स०, कप्] १. कुछ वृक्षों से निकलनेवाला एक तरह का गंध-द्रव्य जिसे लोबान कहते हैं। २. शिलारस।
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पिंडद  : पुं० [सं० पिंड√दा (देना)+क] पिंडा देने अर्थात् मृतक का श्राद्ध करनेवाला व्यक्ति। वंशज। सन्तान।
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पिंड-दान  : पुं० [ष० त०] कर्मकाण्ड के अनुसार पितरों को पिंड देने का कर्म जो श्राद्ध में किया जाता है।
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पिंडन  : पुं० [सं०√पिण्ड्+ल्युट्—अन] १. पिण्ड अर्थात् गोलाकार वस्तुएँ बनाना। २. बाँध। ३. टीला।
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पिंड-पात  : पुं० [ष० त०] १. पिंड-दान। २. भीख माँगने के लिए इधर-उधर घूमना। ३. भिक्षापात्र में मिली हुई भिक्षा।
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पिंडपातिक  : पुं० [सं० पिंडपात+ठन्—इक] भिखमंगा। भिक्षुक।
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पिंड-पाद  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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पिंड-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. अशोक का पेड़ और उसका फूल। २. अनार का पौधा। ३. जपा का फूल। ४. तगर का पुष्प। ५. कमल।
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पिंड-पुष्पक  : पुं० [सं० पिंडपुष्प+कन्] बथुआ (साग)।
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पिंड-फल  : पुं० [ब० स०] कद्दू।
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पिंड-फला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] तितलौकी।
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पिंड-बीजक  : पुं० [ब० स०, कप्] कनेर का पेड़।
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पिंडभाक् (ज्)  : पुं० [पिंड√भज् (प्राप्त करना)+ण्वि] पिंड पाने का अधिकारी अर्थात् पितर।
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पिंडभृति  : स्त्री० [ष० त०] जीवन निर्वाह के साधन। जीविका।
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पिंड-मुस्ता  : स्त्री० [कर्म० स०] नागरमोथा।
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पिंड-मूल  : पुं० [ब० स०] १. गाजर। २. शलजम।
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पिंडरी  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंड-रोग  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा रोग जिसने शरीर घर कर लिया हो और जो जल्दी छूट न सकता हो। २. कोढ़।
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पिंडरोगी (गिन्)  : वि० [सं० पिंड रोग+इनि] जो प्रायः सदा रोगी रहता हो और जल्दी अच्छा न हो सकता हो।
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पिंडली  : स्त्री० [सं० पिंड] घुटने और एड़ी के बीच का वह मांसल स्थान जो पैर में पीछे की ओर होता है। मुहा०—पिंडली हिलना=(क) पैर काँपना या थर्राना। (ख) भय से कँपकँपी होना।
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पिंड-लेप  : पुं० [ष० त०] पिंड का वह अंश जो पिंड-दान के समय हाथों में चिपक जाता है तथा जिसके वृद्ध प्रपितामह आदि तीन पितर अधिकार होते हैं।
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पिंड-लोप  : पुं० [ष० त०] १. पिंडदान का न किया जाना। २. पिंड देनेवाले वंशजों का लोप। निर्वंश होना।
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पिंडवाही  : स्त्री० [?] पुरानी चाल का एक प्रकार का कपड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंड-वेणु  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह का बाँस।
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पिंड-शर्करा  : स्त्री० [मध्य० स०] ज्वार से बनी हुई चीनी या शर्करा।
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पिंड-संबंध  : पुं० [तृ० त०] १. जन्य या जनक का सम्बन्ध। २. पिंड-दाता या पिंड-भोक्ता होने का संबंध।
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पिंडस  : पुं० [सं० पिंड√सन् (देना)+ड] भिखमंगा।
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पिंडस्थ  : वि० [सं० पिंड√स्था (ठहरना)+क] १. जो पिंड या शरीर में स्थित हो। गर्भ में स्थित। २. जो पिंड या लोंदे के रूप में आया या लाया गया हो। ३. किसी में मिलाया हुआ। मिश्रित।
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पिंड-स्वेद  : पुं० [मध्य० स०] औषध का वह लेप जो गरम करके फोड़ों आदि पर लगाया जाता है। पुल्टिस।
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पिंडा  : पुं० [सं० पिंड] [स्त्री० अल्पा० पिंडी] १. ठोस या गीली वस्तु का टुकड़ा। पिंड। २. गोल-मटोल टुकड़ा। लोंदा। जैसे—जौ के आटे, भात आदि का पिंडा जो श्राद्ध में पितरों के उद्देश्य से वेदी पर रखा जाता है। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—पिंडा-पानी देना=मृतक के उद्देश्य से श्राद्ध और तर्पण करना। पिंडा पारना=मृतक के उद्देश्य से पिंड-दान करना। ४. देह। शरीर। मुहा०—पिंडा धोना=स्नान करना। नहाना। पिंडा फीका होना=जी अच्छा न होना। तबियत खराब होना। ५. स्त्रियों की भग। योनि। मुहा०—(किसी को) पिंडा दिखाना या देना=स्त्री का पर-पुरुष से संभोग कराना। स्त्री० [सं० पिंड-टाप्] १. एक प्रकार की कस्तूरी। २. वंशपत्री। ३. इस्पात। ४. हलदी।
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पिंडाकार  : वि० [पिंड-आकार, ब० स०] पिंड अर्थात् प्रायः गोलाकार बँधे लोंदे के आकार का। गोलाकार।
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पिंडात  : पुं० [सं० पिंड√अत् (गति)+अच्] शिलारस।
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पिंडाभ  : पुं० [सं० पिंड-आ√भा (दीप्ति)+क] लोबान।
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पिंडाभ्र  : पुं० [सं० आम्र, अम्र+अण्,-पिंड-आम्र, उपमि० स०] सफेद और चमकीला पिंड अर्थात् ओला।
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पिंडायस  : पुं० [पिंड-आयस, कर्म० स०] इस्पात।
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पिंडार  : पुं० [सं० पिंड√ऋ (गति)+अण्] १. एक प्रकार का फल। २. क्षपणक। ३. भैंस का चरवाहा। गोप। ४. विकंकत का पेड़।
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पिंडारक  : पुं० [सं० पिंडार+कन्] १. एक नाग का नाम। २. वसुदेव और रोहिणी का एक पुत्र। ३. एक पवित्र नद। ४. गुजरात देश में समुद्र-तट का एक प्राचीन तीर्थ।
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पिंडारा  : पुं० [सं० पिंडारा] एक प्रकार का शाक जो वैद्यक में शीतल रौ पित्तनाशक माना गया है। पुं०= पिंडारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंडारी  : पुं० [देश०] दक्षिण भारत की एक जाति जो पहले कर्णाट, महाराष्ट्र आदि में बसकर खेती-बारी करती थी, पर पीछे मध्यप्रदेश और उसके आस-पास के स्थानों में लूटमार करने लगी और मुसलमान हो गई थी।
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पिंडालक्तक  : पुं० [पिंड-अलक्तक, कर्म० स०] महावर।
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पिंडालु  : पुं० [पिंड-आलु, उपमि० स०]=पिंडालू।
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पिंडालू  : पुं० [सं० पिंड+हिं० आलू] १. एक प्रकार का कंद या शकरकन्द जिसके ऊपर कड़े सूत की तरह के रेशे होते हैं। सुथनी। पिंडिया। २. एक प्रकार का रतालू या शफतालू।
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पिंडाशक  : पुं० [पिंड-आशक, ष० त०] भिक्षुक।
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पिंडाशी (शिन्)  : पुं० [सं० पिंड√अश्+णिनि]=पिंडाशक ।
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पिंडाह्वा  : स्त्री० [सं० पिंड-आ√ह्वे (स्पर्द्धा करना)+क+टाप्] नाड़ी हींग।
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पिंडि  : स्त्री० [सं०√पिंड्+इन्]=पिंडी।
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पिंडिका  : स्त्री० [सं० पिंड+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. छोटा पिंड। पिंडी। २. किसी चीज का छोटा ढेला या ढोंका। ३. पहिए के बीच का वह गोल भाग जिसमें धुरी पहिनाई रहती है। चक्रनाभि। ४. पिंडली। ५. इमली। ६. छोटा शिव-लिंग। ७. वह छोटी गोलाकार वेदी जिस पर देव-मूर्ति स्थापित की जाती है।
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पिंडित  : भू० कृ० [सं०√पिंड+क्त] १. पिंड के रूप में बँधा या बनाया हुआ। २. सूत की पिंडी की तरह लपेटा हुआ। ३. गुणा किया हुआ। गुणित। पुं० १. शिलारस। २. काँसा। ३. गणित या उसकी क्रिया।
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पिंडितार्थ  : पुं० [पिंडित-अर्थ, कर्म० स०] कथन आदि का सारांश।
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पिंडिनी  : स्त्री० [सं०√पिंड+णिनि+ङीष्] अपराजिता लता।
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पिंडिया  : स्त्री०=पिंडी (गुण, रस्सी आदि की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंडिल  : पुं० [सं० पिंड+इलच्] १. सेतु। पुल। २. गणक। वि० बड़ी-बड़ी पिंडलियोंवाला।
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पिंडिला  : स्त्री० [सं० पिंडिल+नप्] ककड़ी।
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पिंड़ी  : स्त्री० [सं० पिंड+अच्+ङीष्] १. ठोस या गीली वस्तु का छोटा गोल-मटोल टुकड़ा। लगदी। जैसे—आटे या गुड़ की पिंडी। २. डोरी या सूत जो उक्त आकार या रूप में लपेटा हुआ हो। जैसे—रस्सी की पिंडी। क्रि० प्र०—बनाना।—बाँधना। ३. कद्दू। घीया। ४. पिंडखजूर। ५. एक प्रकार का तगर। ६. बलि चढ़ाने की वेदी। ७. दे० ‘पिंडिका’।
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पिंडीकरण  : पुं० [सं० पिंड+च्वि, ईत्व, पिंडी,√कृ (करना)+ल्युट्—अन] किसी वस्तु को पिंड का रूप देना। पिंड अर्थात् गोलाकार वस्तुएँ बनाने की क्रिया।
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पिंडीतक  : पुं० [सं० पिंडी√तक् (अनुकरण करता)+अच्] १. मैनफल। २. एक प्रकार का तगर जिसे हजारा तगर भी कहते हैं।
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पिंडीपुष्प  : पुं० [ब० स०] अशोक वृक्ष।
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पिंडीर  : पुं० [सं० पिंड√ईर् (प्रेरित करना)+अण्] १. अनार। २. समुद्रफेन।
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पिंडी-लेप  : पुं० [ष० त०] एक तरह का उबटन।
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पिंडी-शूर  : पुं० [स० त०] १. घर ही में बैठे-बैठे बहादुरी दिखलानेवाला। २. बहुत अधिक खानेवाला। पेटू।
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पिंडुरी (लौ)  : स्त्री०=पिंडली।
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पिंडूक  : पुं० [?] १. पंडुक। २. उल्लू।
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पिंडोदक क्रिया  : स्त्री० [सं० पिंड—उदक, द्व० स०] पिंडोदक क्रिया, ष० त०] पूर्वजों के उद्देश्यों से किया जानेवाला पिंडदान और तर्पण।
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पिंडोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० पिंड-उप√जीव् (जीना)+ णिनि] भिखमंगा।
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पिंडोल  : स्त्री० [सं० पांडु] पीले रंगी की मिट्टी। पोतनी मिट्टी।
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पिंडोलि  : स्त्री० [सं०] १. मुँह से गिरे हुए अन्न के छोटे-छोटे टुकड़े। २. जूठन।
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पिंभ  : पुं०=प्रेम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिंशन  : स्त्री०=पेनशन।
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पिंसी  : स्त्री०=पीनस (रोग)।
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पिअ  : पुं० [सं० प्रिय] १. स्त्री० का पति। २. प्रेमी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=प्रिय।
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पिअना  : स०=पीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअर  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पीहर।
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पिअरवा  : वि०=प्यारा। पुं०=पिअ (पति या प्रेमी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअरा  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअराई  : स्त्री० [हिं० पिअरा=पीला] पीलेपन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिअरिया  : पुं० [हिं० पिअर=पीला+इया (प्रत्य०)] पीले रंग का बैल जो बहुत मजबूत और तेज चलनेवाला होता है। स्त्री०=पिअरी (धोती या साड़ी) वि०=प्यारी (प्रिय)।
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पिअरी  : स्त्री० [हिं० पीअर=पीला] १. हल्दी के रंग से रँगी हुई वह धोती जो विवाह आदि शुभ अवसरों पर वर या वधू को पहनाई जाती है। २. उक्त प्रकार की वह धोती प्रायः गंगा या किसी देवी को चढ़ाई जाती है। क्रि० प्र०—चढ़ना। वि० हिं० ‘पिअरा’ (पीला) का स्त्री०।
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पिआज  : पुं०=प्याज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआना  : स०=पिलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआनो  : पुं०=पियानो (बाजा)।
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पिआर  : पुं०=प्यार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआरा  : वि०=प्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिआस  : स्त्री०=प्यास।
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पिआसा  : वि०=प्यासा।
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पिउ  : पुं० [सं० प्रिय] १. प्रियतम। २. पति। ३. ईश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिउनी  : स्त्री०=पूनी (रूई की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिक  : पुं० [सं० अपि√कै (शब्द करना)+क, अकार-लोप] [स्त्री० पिकी] कोयल। कोकिला।
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पिक-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] बड़ा जामुन।
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पिक-बंधु  : पुं० [ष० त०] आम का वृक्ष।
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पिक-भक्ष्या  : स्त्री० [ष० त०] भूमि जंबू। भू-जामुन।
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पिक-राग  : पुं० [ब० स०] आम का वृक्ष।
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पिक-वल्लभ  : पुं० [ष० त०] आम का वृक्ष।
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पिकांग  : पुं० [पिक-अंग, ब० स०] चातक (पक्षी)।
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पिकाक्ष  : पुं० [ब० स०, अच्] १. रोचनी वृक्ष। २. तालमखाना। वि० कोयल जैसी आँखोंवाला।
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पिकानंद  : पुं० [सं० पिक-आ√नन्द् (प्रसन्न होना)+ अण्] वसन्त ऋतु।
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पिकी  : स्त्री० [सं० पिक+ङीष्] मादा कोयल।
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पिकेक्षणा  : स्त्री० [पिक-ईक्षण, ब० स०,+अच्+टाप्] तालमखाना।
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पिक्क  : पुं० [सं० पिक√कै+क, पृषो० सिद्धि] १. हाथी का बच्चा। २. ऐसा हाथी जो अवस्था में बीस वर्ष का हो। ३. मोती की एक तौल।
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पिघरना  : अ०=पिघलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिघलना  : अ० [सं० प्र०+गलन] १. ताप पाकर किसी घन या ठोस पदार्थ का द्रव रूप में आना या होना। जैसे—घी या मोम पिघलना। २. लाक्षणिक अर्थ में, कठोर चित्त का किसी प्रकार के प्रभाव के कारण कोमल या द्रवित होना। पसीजना। जैसे—तुम लाख रोओ, पर वह जल्दी पिघलनेवाला नहीं है।
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पिघलाना  : स० [हिं० पिघलना का स०] १. किसी घन या ठोस पदार्थ को पिघलने में प्रवृत्त करना। २. किसी के हृदय की कठोरता दूर करके उसे कोमल या द्रवित करना।
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पिचंड  : पुं० [सं० अपि√चम् (खाना)+ड, अकार-लोप] १. पेट। २. किसी जानवर का कोई अंग। वि० १. उदर या पेट-संबंधी। २. बहुत अधिक खानेवाला।
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पिचंडिल  : वि० [सं० पिचंड+इलच्] बड़ी तोंदवाला। तोंदल।
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पिच  : स्त्री०=पीच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचक  : स्त्री० [हिं० पिचकना] १. पिचकने की क्रिया या भाव। २. पिचके हुए होने की अवस्था। स्त्री० ३.=पिचकारी।
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पिचकना  : अ० [सं० पिच्च=दबाना] उभरे या फूले हुए अंग के उभार या फूलन के कम होना। जैसे—गिरने के कारण लोटे का पिचकना, बीमारी के कारण गाल पिचकना।
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पिचकवाना  : स० [हिं० पिचकाना का प्रे०] पिचकाने का काम दूसरे से कराना।
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पिचका  : पुं० [हिं० पिचकाना] बड़ी पिचकारी।
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पिचकाना  : स० [हिं० पिचकना का प्रे०] ऐसा काम करना जिससे उभरी या फूली हुई चीज का तल दबता या पिचकता हो। पिचकने में प्रवृत्त करना।
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पिचकारी  : स्त्री० [हिं० पिचकना] १. नली के आकार का धातु का बना हुआ एक उपकरण जिसके मुँह पर एक या अनेक ऐसे छोटे-छोटे छेद होते हैं, जिनके मार्ग से नली में भरा हुआ तरल पदार्थ दबाव से धार या फुहार के रूप में दूसरों पर या दूर तक छिड़का या फेंका जाता है। मुहा०—पिचकारी चलाना, छोड़ना या मारना=पिचकारी में रंग, गुलाब-जल आदि भरकर दूसरों पर छोड़ना। पिचकारी भरना=पिचकारी की नली का डाट पर इस प्रकार ऊपर खींचना कि उसमें रंग या और कोई तरल पदार्थ भर जाय। २. पिचकारी में से निकलनेवाली तरल पदार्थ की धार। ३. किसी चीज में से जोर से निकलनेवाली तरल पदार्थ की धार। मुहा०—(किसी चीज में से] पिचकारी छूटना या निकलना=किसी चीज या जगह में से किसी तरल पदार्थ का बहुत वेग से बाहर निकलना। जैसे—सिर से लहू की पिचकारी छूटने लगी। ४. चिकित्सा-क्षेत्र में, एक तरह की छोटी पिचकारी जिसके अगले भाग में खोखली सूई लगी रहती है और जिसे चुभोकर शरीर की नसों या रक्त में दवाएँ पहुँचाई जाती हैं। सूई। वस्ति। (सीरिंज)
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पिचकी  : स्त्री०=पिचकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचपिचा  : वि० [हिं० पिचकना] १. जो पिचकता रहता हो। २. दबा हुआ और गुलगुला। वि०=चिपचिपा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचपिचाना  : अ० [अनु०] [भाव० पिचपिचाहट] किसी छेद में तरल पदार्थ का पिचपिच शब्द करते हुए रसना या निकलना। जैसे—फोड़े का चिपचिपाना। अ०=पिचपिचाना।
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पिचरिया  : स्त्री० [हिं० पिचलना] छोटी कोठीवाला एक तरह का कोल्हू।
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पिचलना  : स०=कुचलना।
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पिचवय  : पुं० [सं० पिचव्य] १. कपास का पौधा। २. वटवृक्ष। (डिं०)
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पिचासा  : पुं०=पिशाच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पचास।
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पिचु  : पुं० [सं० पृषो०] १. रूई। २. एक प्रकार का कोढ़। ३. एक पुरानी तौल जो दो तोले के बराबर होती थी। ४. एक असुर का नाम। ५. एक तरह का अनाज।
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पिचुक  : पुं० [सं० पृषो०] मैनफल का वृक्ष।
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पिचुकिया  : स्त्री० [हिं० पिचकना] १. छोटी पिचकारी। २. वह गुझिया (पकवान) जिसमें केवल गुड़ और सोंठ भरी जाती है।
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पिचुक्का  : पुं० [हिं० पिचकना] १. पिचकारी। २. गोलगप्पा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचु-तूल  : पुं० [सं०] कपास की रूई।
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पिचुमंद  : पुं०=पिचुमर्द।
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पिचुमर्द  : पुं० [सं० पिचु√मृद् (चूर्ण करना)+अण्] नीम का पेड़।
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पिचुल  : पुं० [सं० पिचु√ला (लेना)+क] १. कपास की रूई। २. झाऊ का पेड़। (डिं०) ३. समुद्रफल। ४. गोताखोर।
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पिचू  : पुं० [सं० पिचु] १६ माशे की एक पुरानी तौल।
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पिचुका  : पुं०=पिचुक्का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचैत  : पुं० [?] पहलवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिचोतरसौ  : पुं० [सं० पंचोत्तर शत] एक सौ पाँच की संख्या। वि० जो गिनती में सौ से पाँच ऊपर हो।
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पिच्चट  : वि० [सं०√पिच्च् (काटना)+अटन्] दबाकर चिपटा किया हुआ। निचोड़ा हुआ। पुं० १. सीसा। २. राँगा। ३. आँख का एक रोग।
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पिच्चर  : पुं०=पिच्चट।
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पिच्चा  : स्त्री० [सं०√पिच्च+अ+टाप्] एक निश्चित् तौल के १६ मोतियों की माला। वि० [हिं० पिचकना] [स्त्री० पिच्ची] पिचका हुआ। दबे हुए तलवाला।
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पिच्चिट  : पुं० [सं०] एक तरह का विषैला कीड़ा।
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पिच्चित  : पुं०=पिच्चिट। वि० [हिं० पिचकना] पिचका हुआ।
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पिच्ची  : स्त्री०=पच्ची। वि० पिच्चित।
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पिच्छ  : पुं० [सं०√पिच्छ् (बाधा डालना)+अच्] किसी पशु की ऐसी दुम या पूँछ जिस पर बाल हों। लांगूल। २. मोर की दुम या पूँछ। ३. मोर की चोटी। ४. बाण में लगाया जानेवाला मोर आदि का पंख। ५. सेमल का गोंद। मोचरस।
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पिच्छक  : पुं० [सं० पिच्छ+कन्] १. पूँछ। २. पूँछ पर का पंख। ३. सेमल का गोंद। मोचरस।
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पिच्छन  : पुं० [सं०√पिच्छ+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु को दबाकर चिपटा करने की क्रिया। २. अत्यन्त पीड़न।
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पिच्छ-पाद  : पुं० [ब० स०] घोड़े के पैर में होनेवाला एक तरह का रोग।
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पिच्छपादी (दिन्)  : वि० [सं० पच्छपाद+इनि] १. पिच्छपाद रोग-संबंधी। २. पिच्छपाद रोग से पीड़ित।
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पिच्छ-बाण  : पुं० [ब० स०] बाज (पक्षी)।
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पिच्छ-भार  : पुं० [ब० स०] मोर की पूँछ।
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पिच्छल  : वि० [सं०] जिस पर पैर फिसलता हो। फिसलनेवाला पुं० [सं०√पिच्छ्+कलच्] १. मोचरस। २. आकाशबेल। ३. शीशम का पेड़। ४. वासुकि के वंश का एक सर्प। वि० [हिं० पिछला] १. पिछला। २. दौड़, प्रतियोगिता, होड़ आदि में जो पीछे रह गया हो।
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पिच्छलपाई  : स्त्री० [हिं० पीछा+पाई=पैरवाली] १. चुड़ैल या डाइन। विशेष—लोगों की धारणा है कि चुड़ैलों के पैरों में एड़ी आगे और पंजे पीछे की ओर होते हैं। २. टोना-टोटका करनेवाली स्त्री।
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पिच्छा  : स्त्री० [सं० पिच्छ+टाप्] १. सेमल का गोंद। मोचरस। २. सुपारी का पेड़। ३. शीशम। ४. नारंगी का पेड़। ५. निर्मली का पेड़। ६. आकाशबेल। ७. पिच्छतलापाद नामक रोग। ८. पकाये हुए चावलों का माँड़। ९. पिंडली।
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पिच्छिका  : स्त्री० [सं० पिच्छ+कन्—टाप्, इत्व] १. चँवर। चमार। मोरछल। २. ऊन की वह चँवर जो जैन साधु अपने साथ रखते हैं।
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पिच्छितिका  : स्त्री० [सं० पृषो०] शीशम का पेड़।
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पिच्छिल  : वि० [सं० पिच्छा+इलच्] [स्त्री० पिच्छिल] १. सरस और स्निग्ध। गीला और चिकना। २. इतना या ऐसा चिकना जिस पर पैर फिसलता हो या फिसल सकता हो। ३. (पक्षी) जिसके सिर पर चूड़ा या चोटी हो। ४. (वैद्यक में, पदार्थ) जो खट्टा, कोमल फूला हुआ और कफकारी हो। पुं० १. लिसोड़ा। २. सरस और स्निग्ध व्यंजन। सालन। जैसे—कढ़ी, दाल, रसेदार तरकारी आदि।
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पिच्छिलक  : पुं० [सं० पिच्छिल+कन्] १. मोचरस। २. धामिन वृक्ष।
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पिच्छिलच्छदा  : स्त्री० [ब० स०] १. बैर वृक्ष। २. पोई का साग।
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पिच्छिल-त्वक्  : स्त्री० [ब० स०] १. नारंगी का पेड़। २. धामिन वृक्ष।
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पिच्छिल-दला  : स्त्री० [ब० स०]=पिच्छिलच्छदा।
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पिच्छिल-वस्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वैद्यक में, निरूढ़वस्ति का एक भेद।
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पिच्छिल-सार  : पुं० [ब० स०] सेमल का गोंद। मोचरस।
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पिच्छिला  : स्त्री० [सं० पिच्छिल+टाप्] १. पोई। २. शीशम। ३. सेमल। ४. तालमखाना। ५. वृश्चिकाली (जड़ी)। ६. शूली घास। ७. अगर। ८. अलसी। ९. अरवी। वि० दे० ‘पिच्छिल’।
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पिछ  : पुं० [हिं० पीछा] ‘पीछा’ का वह लघु रूप जो यौगिक पदों के आरंभ में लगता है। जैसे—पिछलगा, पिछलग्गू, पिछवाड़ा।
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पिछड़ना  : अ० [हिं० पीछे] १. गति, दौड़, प्रतियोगिता आदि में दूसरों के आगे निकल या बढ़ जाने के कारण अथवा और किसी कारण से पीछे रह जाना। २. वर्ग, श्रेणी आदि में आगे न बढ़ सकने या उन्नति न कर सकने के कारण पीछे रह जाना। संयो० क्रि०—जाना।
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पिछ-लगा  : वि० [हिं० पीछे+लगना] [भाव० स्त्री० पिछलगी] १. दीन भाव से किसी के पीछे-पीछे लगा रहनेवाला। २. शक्ति, सामर्थ्य आदि के अभाव में, स्वतंत्र न रह सकने के कारण किसी का अनुगमन या अनुसरण करनेवाला। ३. आश्रित। पुं० सेवक। दास।
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पिछलगी  : स्त्री० [हिं० पिछलगा] पिछलगा होने की अवस्था या भाव। २. अनुगमन। अनुवर्तन। अनुसरण।
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पिछ-लगू (ग्गू)  : वि०, पुं०=पिछ-लगा।
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पिछ-लत्ती  : स्त्री० [हिं० पिछ+लात] १. पशुओं का पिछले पैरों से आघात करने की क्रिया या भाव। २. उक्त प्रकार से होनेवाला आघात।
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पिछलना  : अ० [हिं० पीछा] पीछे की ओर हटना या मुड़ना। (क्व०) अ०=फिसलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछलपाई  : स्त्री०=पिच्छलपाई।
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पिछला  : वि० [हिं० पीछा] [स्त्री० पिछली] १. जो किसी वस्तु के पीछे अर्थात् पीठ की ओर पड़ता हो। पीछे की ओर को। ‘अगला’ का विपर्याय। जैसे—(क) इस मकान का पिछला हिस्सा गिर गया है। (ख) इस घोड़े की पिछली टाँगें टेढ़ी हैं। २. काल, घटना, स्थिति आदि के क्रम के विचार से किसी के पीछे अर्थात् पूर्व में या पहले पड़ने या होनेवाला। जैसे—(क) इधर का हिसाब तो साफ हो गया है, पर पिछला हिसाब बाकी है। (ख) जब मैं पिछली बार आप के यहाँ आया था...। (ग) पिछला साल रोजगारियों के लिए अच्छा नहीं था। ३. पूर्वकाल में होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—पिछला जमाना, पिछले लोग। ४. जो क्रम के विचार से किसी के पीछे या बाद में पड़ता हो। जैसे—इस पुस्तक के कई पिछले पृष्ठ फट गये हैं। पद—पिछला पहर=दो पहर अथवा आधी रात के बाद का अर्थात् संध्या या प्रभात से पहले का पहर या समय। दिन अथवा रात के उत्तर काल। पिछली रात=रात में आधी रात के बाद का और प्रभात या उसके कुछ पहले का समय। ५. गुजरा या बीता हुआ। गत। जैसे—पिछली बातों को भूल जाना ही अच्छा है। पद—पिछला दिन=वह दिन जो वर्तमान से एक दिन पहले बीता हो। पिछली रात=आज से एक दिन पहले बीती हुई रात। कल की रात। गत रात्रि। पिछले दिन=बीते हुए दिन। भूतकाल। पुं० वह भोजन जो रोजे के दिनों में मुसलमान लोग कुछ रात रहते खाते हैं। सहरी।
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पिछवई (वाई)  : स्त्री० [हिं० पीछे] मूर्तियों या उनके सिंहासनों के पीछ लटकाया जानेवाला बेल-बूटेदार परदा।
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पिछवाड़ा  : पुं० [हिं० पीछा+बाड़ा] १. किसी वस्तु विशेषतः घर आदि के पीछेवाला भाग। घर का पृष्ठ भाग। २. घर के पीछे वाले भाग के पास की जमीन या मकान।
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पिछवारा  : पुं०=पिछवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछाड़  : वि० [हिं० पीछा] पीछे या बाद में रहने या होनेवाला। पुं० [हिं० पिछड़ना] पिछड़ने की क्रिया या भाव। पुं०=पिछाड़ी।
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पिछाड़ी  : स्त्री० [हिं० पीछा] १. किसी काम, चीज या बात का पिछला भाग या पीछे का हिस्सा। पृष्ठ भाग। २. घोड़े के पिछले दोनों पैर बाँधने की रस्सी। क्रि० प्र०—बाँधना।—लगाना। पद—अगाड़ी-पिछाड़ी (दे०)।
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पिछान  : स्त्री०=पहचान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—मैं पिय लियो पिछान।—पद्माकर।
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पिछानना  : स०=पहचानना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछानी  : पुं० [हिं० पहचान] १. पहचाननेवाला। उदा०—ऐसा बेद मिलै कोई भेदी देस-बिदेस पिछानी।—मीराँ। २. जान-पहचानवाला। परिचित। स्त्री०=पहचान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछारी  : स्त्री=पिछाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछुआर  : पुं०=पिछवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछेलना  : स० [हिं० पीछे] १. गति, दौड़, प्रतियोगिता आदि में किसी से आगे निकलना और उसे पीछे छोड़ देना। २. धक्का देकर पीछे हटाना।
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पिछोकड़  : पुं० [हिं० पीछा] पिछवाड़ा। (राज०) उदा०—म्हारे आँगण आम, पिछोकड़ मखो। (राज०)
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पिछौंता  : अव्य० [हिं० पीछा+औता] १. पीछे की ओर। २. पीछे से। बाद में। (पूरब) वि०=पिछला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछौंहा  : वि० [सं० पश्चिम] [स्त्री० पिछौंही] पश्चिम दिशा में रहने या होनेवाला।
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पिछौंही  : स्त्री०=पिछौरी।
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पिछौंहे  : अव्य० [हिं० पीछा] १. पीछे की ओर। २. पीछे की ओर से। वि० १. पीछे होनेवाला। २. (फसल, फल आदि) जो अपनी ऋतु या समय बीत जाने पर हो।
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पिछौड़  : वि० [हिं० पीछे+औड़ (प्रत्य०)] जिसने अपना मुँह पीछे कर लिया हो। किसी के मुँह की ओर जिसकी पीठ पड़ती हो। अव्य० पीछे की ओर।
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पिछौड़ा  : अव्य० [हिं० पीछा+औड़ा (प्रत्य०)] पीछे की ओर। पुं०=पिछवाड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिछौरा  : पुं० [सं० पक्ष या पश्च+पटः प्रा० पच्छवड़; हिं० पछेवड़ा] [स्त्री० अल्पा० पिछौरी] पुरुषों के ओढ़ने की चादर। मरदाना दुपट्टा।
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पिछौरी  : स्त्री० [हिं० पिछौरा] १. ओढ़ने की छोटी चादर। २. स्त्रियों की ओढ़नी या चादर।
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पिटंकाकी  : स्त्री०=पिटकोकी।
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पिटंकोकी  : स्त्री० [सं० पिट्√कु (शब्द)+ख, मुम्,+कन् +ङीष्] इंद्रायन नामक लता।
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पिटंत  : स्त्री० [हिं० पीटना+अंत (प्रत्य०)] १. पीटने की क्रिया या भाव। २. पीटे जाने की अवस्था या भाव। ३. पड़नेवाली मार।
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पिटक  : पुं० [सं०√पिट (इकट्ठा होना)+क्वुन्—अक] १. पिटारा। २. धान्यागार। कोठार। ३. छोटा। फुंसी। ४. इंद्र की पताका में लगाया जानेवाला एक प्रकार का अलंकरण। ५. ग्रंथ का कोई खंड या विभाग।
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पिटका  : स्त्री० [सं० पिटक+टाप्] १. छोटा पिटारा। पिटारी। २. छोटा फोड़ा। फुंसी।
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पिटना  : अ० [हिं० पीटना] १. पीटा जाना। २. प्रतियोगिता आदि में हारना। जैसे—इस बाजी में तो वह बुरा पिटा। ३. कुछ खेलों में गोटी, मोहरे आदि का मारा जाना। जैसे—शतरंज में घोड़ा या वजीर का पिटना। ४. मार खाना। ५. ‘पीटना’ के सभी अर्थों का अ० रूप। पुं० वह उपकरण जिससे कोई चीज पीटी जाय। जैसे—कपड़े धोने का पिटना, छत पीटने का पिटना।
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पिटपिट  : स्त्री० [अनु०] थापी, पिटने आदि के बराबर आघात करते रहने पर होनेवाला शब्द।
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पिटपिटाना  : अ० [अनु०] १. बहुत दुःखी और लाचार होकर यों ही रह जाना। २. बहुत कष्ट में पड़कर छटपटाना।
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पिटरिया  : स्त्री०=पिटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिटरी  : स्त्री०=पिटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिटवाँ  : वि० [हिं० पीटना] जो पीटकर बनाया या तैयार किया गया हो। जैसे—पिटवाँ पत्तर।
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पिटवाना  : स० [हिं० पीटना] १. ऐसा काम करना जिससे कोई या कुछ पीटा जाय। पीटने का काम किसी दूसरे से कराना। २. ऐसा उपाय करना जिससे कोई पीटा जाय या किसी पर मार पड़े। ३. मैथुन या संभोग करना। (बाजारू)
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पिटाई  : स्त्री० [हिं० पीटना] १. पीटने की क्रिया या भाव। जैसे—छत की पिटाई। २. पीटने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक या मजदूरी। ३. किसी पर अच्छी तरह पड़नेवाली मार। पिटंत।
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पिटाक  : पुं० [सं०√पिट्+काक] पिटारा।
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पिटाना  : स० [हिं० पीटना] १. पिटवाना। २. ऐसा काम करना जिससे कोई अत्यंत दुःखी तथा विकल हो।
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पिटापिट  : स्त्री० [हिं० पीटना] बार बार पिटने, पीटने आदि की क्रिया या भाव। जैसे—वहाँ खूब पिटापिट मची थी।
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पिटारा  : पुं० [सं० पिटक] [स्त्री० अल्पा० पिटारी] बाँस, बेंत, मूंज आदि के नरम छिलकों से बना हुआ एक प्रकार का ढक्कनदार बड़ा पात्र।
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पिटारी  : स्त्री० [हिं० पिटारा का स्त्री० और अल्पा०] छोटा पिटारा। पद—पिटारा का खर्च=(क) वह धन जो स्त्रियों को पान के खर्च के लिए दिया जाय। पानदान खर्च। (ख) व्यभिचार कराने पर दुश्चरित्रा स्त्री को मिलनेवाला थोड़ा धन।
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पिटावना  : स० [हिं० पीटना] किसी को किसी व्यक्ति के द्वारा मार खिलवाना।
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पिट्टक  : पुं० [सं०√पिट्+ण्वुल—अक, पृषो० सिद्धि] दाँतों की जड़ों में जमनेवाली मैल।
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पिट्टस  : स्त्री० [हिं० पिटना+स (प्रत्य०)] १. शोक या दुःख से छाती पीटने की क्रिया या भाव। २. पिटने की अवस्था या भाव। पिटंत। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।
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पिट्ट  : वि० [हिं० पीटना] १. जो बराबर मार खाता रहता हो। २. जो मार खाकर ही कोई काम करता या सीधे रास्ते पर आता हो।
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पिट्ठी  : स्त्री०=पीठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिट्ठू  : पुं० [हिं० पीठ+ऊ (प्रत्य०)] १. किसी की पीठ के साथ लगा रहनेवाला अर्थात् पीछे चलनेवाला। पिछलगा। अनुयायी। २. छिपे-छिपे किसी के साथ रहकर उसकी सहायता करनेवाला। ३. कुछ विशिष्ट खेलों में किसी खिलाड़ी का वह कल्पित साथी जिसकी पारी आने पर उक्त खिलाड़ी को अपनी पारी खेल चुकने के उपरांत, पुनः खेलने का अवसर मिलता है। ४. किसी पक्ष के खिलाड़ी का साथी।
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पिठमिल्ला  : पुं० [हिं० पीठ+मिलना] अँगरखे का पीठ की तरफ का भाग।
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पिठर  : पुं० [सं०√पिठ् (क्लेश देना)+करन्] १. मोथा। मुश्तक। २. मथानी। ३. थाली। ४. एक तरह का घर। ५. एक अग्नि का नाम।
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पिठरक  : पुं० [सं० पिठर+कन्] १. थाली। २. एक नाग। ३. कड़ाही।
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पिठरक-कपाल  : पुं० [ष० त०] बरतन का टुकड़ा।
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पिठर-पाक  : पुं० [ष० त०] भिन्न-भिन्न परमाणुओं के गुणों में तेज के संयोग से होनेवाला फेर-फार। जैसे घड़े का पककर लाल होना।
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पिठरिका  : स्त्री० [सं० पिठर+कन्+टाप्, इत्व] १. बटलोई। २. हाँड़ी।
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पिठरी  : स्त्री०=पिठरिका।
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पिठवन  : स्त्री० [सं० पृष्ठवर्णी] जमीन पर फैलनेवाला तथा दो-ढाई फुट ऊँचा एक प्रसिद्ध क्षुप् जिसके गोल पत्ते तथा बीज दवा के काम आते हैं। ये रक्त-अतिसार, तृषा और वमननाशक तथा वीर्यवर्धक होते हैं। पिछौनी। पिथिवन।
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पिठी  : स्त्री०=पीठी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिठीनस  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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पिठौनी  : स्त्री०=पिठवन (क्षुप और उसके बीज)।
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पिठौरी  : स्त्री० [हिं० पीठी+औरी (प्रत्य०)] १. पीठी की पकौड़ी। २. पीठी की बरी।
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पिडक  : पुं० [सं०√पीड् (कष्ट देना)+ण्वुल्, नि० सिद्धि] छोटा फोड़ा। फुंसी।
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पिडका  : स्त्री० [सं० पिडक+टाप्]=पिड़क।
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पिड़काना  : स० [सं० पीडा] ऐसा काम करना जिससे कोई झुंझलाता और दुःखी होता हो।
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पिड़की  : स्त्री० [सं० पिडक] छोटा फोड़ा। फुंसी। स्त्री०=पेंडुकी।
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पिड़िया  : स्त्री० [सं० पिंड] चौरेठे को गूँधकर बनाया जानेवाला लोंदा जो उबालकर खाया जाता है।
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पिड़ी  : स्त्री० [सं० पिंड] १. पिंड। २. वृक्ष का तना। (राज०)
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पिढ़ई  : स्त्री० [हिं० पीढ़ा+अई (प्रत्य०)] १. छोटा पीढ़ा या पाटा। २. काठ का वह टुकड़ा जिस पर कोई यंत्र रखा रहता हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिढ़ी  : स्त्री०=पीढ़ी।
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पिण  : अव्य० [?] भी। (डि०) उदा०—परदल पिण जीणि पदमणी परणे।—प्रिथीराज।
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पिण्या  : स्त्री० [सं० पण् (स्तुति करना)+यत्, पृषो० इत्व] मालकंगनी।
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पिण्याक  : पुं० [सं०√पण्+अकन्, नि० सिद्ध] १. तिल या सरसों की खली। २. हींग। ३. शिलाजीत। ४. शिलारस। ५. केसर।
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पितंबर  : पुं०=पीताम्बर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पित-पापड़ा  : पुं० [सं० पर्पट] गेहूँ की फसल में होनेवाला छोटे तथा बारीक पत्तोंवाला एक तरह का पौधा जिसमें लाल अथवा नीले रंग के फूल लगते हैं। यह ओषधि के काम में आता है। तथा पिपासानाशक माना जाता है। दमनपापड़।
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पितर  : पुं० [सं० पितृ, पितर] किसी व्यक्ति की दृष्टि से उसके वे पूर्वज जो स्वर्ग सिधार गये हों। परलोकवासी पूर्वज। कर्मकाण्ड के अनुसार इनके नाम पर श्राद्ध, तर्पण, आदि कृत्य किये जाते हैं।
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पितरपख  : पुं०=पितृपक्ष।
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पितरपति  : पुं० [सं० पितृपति] यमराज।
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पितराई  : स्त्री०=पितरायँध।
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पितरायँध  : स्त्री० [हिं० पीतल+गंध] पीतल के बरतन में किसी पदार्थ विशेषतः किसी खट्टे पदार्थ के पड़े रहने तथा विकारयुक्त होने पर निकलनेवाली गंध जो अप्रिय होती है।
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पितरिहा  : वि० [हिं० पीतल+हा] १. पीतल-संबंधी। पीतल का। २. पीतल का बना हुआ। पुं० पीतल का घड़ा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पितलाना  : अ० [हिं० पीतल+आना (प्रत्य०)] किसी पदार्थ के पीतल के बरतन में पडे रहने पर पीतल के कसाव से युक्त होना।
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पित-ससुर  : पुं० दे० ‘पितिया ससुर’।
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पिता (तृ)  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+तृच्] संबंध के विचार से वह पुरुष जिसने किसी को जन्म दिया और उसका पालन-पोषण किया हो जनक। बाप।
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पितामह  : पुं० [सं० पितृ+डामह] [स्त्री० पितामही] १. पिता का पिता। दादा। २. ब्रह्म। ३. शिव। ४. भीष्म। ५. एक धर्म-शास्त्रकार ऋषि।
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पितिजिया  : पुं० [?] महाराष्ट्र के कुछ प्रदेशों में होनेवाला एक ऊंचा तथा छायादार वृक्ष जिसके पत्ते तथा बीज कफ तथा वातविनाशक और वीर्यवर्द्धक होते हैं। पितौजिया। जियापोता।
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पितिया  : पुं० [सं० पितृव्य] [स्त्री० पितियानी] बाप का भाई। चाचा।
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पितियानी  : स्त्री० [हिं० पितिया+नी (प्रत्य०)] चाचा की स्त्री। चाची।
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पितिया-ससुर  : पुं० [हिं० पितिया+ससुर] १. किसी पुरुष की दृष्टि से चाचा। २. किसी स्त्री की दृष्टि से उसके पति का चाचा। चचिया ससुर।
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पितियासास  : स्त्री० [हिं० पितिया+सास] संबंध के विचार से ससुर के भाई की पत्नी। चचिया सास।
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पितु  : पुं०=पिता।
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पितृ  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+तृच्] १. किसी व्यक्ति के बाप, दादा, परदादा आदि मृत-पूर्वज। २. ऐसा मृत व्यक्ति जो प्रेतत्व से मुक्त हो चुका हो। ३. एक प्रकार के देवता जो सब जीवों के आदि पूर्वज माने गये हैं। ४. पिता।
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पितृ-ऋण  : पुं० [ष० त०] धर्म-शास्त्रों के अनुसार, मनुष्य के तीन ऋणों में से एक जिसे लेकर वह जन्म ग्रहण करता है। कहा गया है कि पुत्र उत्पन्न करने से उस ऋण से मुक्ति होती है।
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पितृक  : वि० [सं० पैतृक, पृषो० सिद्धि] १. पितृ-संबंधी। पितरों का। पैतृक। २. पिता का दिया हुआ। पिता के द्वारा प्राप्त। पैतृक। ३. (उत्तराधिकार, व्यवहार आदि की प्रथा) जिसमें गृहपति या पिता का पक्ष प्रधान माना जाता है, गृहस्वामिनी या माता के पक्ष का कोई विचार नहीं होता। (पेट्रिआर्कल)
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पितृ-कर्म (न्)  : पुं० [मध्य० स०] पितरों के उद्देश्य से किये जानेवाले श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म।
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पितृ-कल्प  : पुं० [मध्य० स०] श्राद्धादि कर्म।
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पितृ-कानन  : पुं० [ष० त०] श्मशान। मरघट।
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पितृ-कार्य  : पुं० [मध्य० स०]=पितृ-कर्म।
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पितृ-कुल  : पुं० [ष० त०] बाप-दादा, परदादा या उनके भाई बंधुओं आदि का कुल।
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पितृ-कुल्या  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तीर्थस्थान। (महाभारत)
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पितृ-कृत्य  : पुं० [मध्य० स०] श्राद्ध, तर्पण आदि कार्य जो पितरों के उदेश्य से किये जाते हैं।
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पितृ-गण  : पुं० [ष० त०] १. पितर। २. मरीचि आदि ऋषियों के पुत्र।
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पितृ-गाथा  : स्त्री० [मध्य० स०] पितरों द्वारा पढ़े जाने वाले कुछ विशेष श्लोक या गाथाएँ।
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पितृगामी (मिन्)  : वि० [सं० पितृ√गम् (जाना)+ णिनि] पिता-सम्बन्धी।
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पितृ-गृह  : पुं० [ष० त०] १. बाप का घर। विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मायका। २. श्मशान।
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पितृ-ग्रह  : पुं० [ष० त०] स्कंद आदि नौ ग्रहों में से एक।
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पितृघात  : पुं० [सं० पितृ√हन् (हिंसा)+अण्] [वि० पितृघातक, पितृघाती] पिता की की जानेवाली हत्या।
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पितृ-तर्पण  : पुं० [ष० त०] १. पितरों के उद्देश्य से किया जानेवाला जलदान। विशेष दे० तर्पण। २. तिल जिसमें पितरों का तर्पण किया जाता है। ३. गया नामक तीर्थ जहाँ श्राद्ध करने से पितरों का प्रेतयोनि से मुक्त होना माना जाता है।
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पितृता  : स्त्री० [सं० पितृ+तल्+टाप्]=पितृत्व।
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पितृ-तिथि  : स्त्री० [मध्य० स०] अमावस्या।
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पितृतीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] १. गया नामक तीर्थ। २. मत्स्य पुराण के अनुसार गया, वाराणसी प्रयाग, विमलेश्वर आदि २२२ तीर्थ। ३. अँगूठे और तर्जनी के बीच का भाग, जिसमें से तर्पण का जल गिराया या छोड़ा जाता है।
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पितृत्व  : पुं० [सं० पितृ+त्व] पिता होने का भाव।
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पितृ-दान  : पुं० [च० त०] पितरों के उद्देश्य से किया जानेवाला दान।
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पितृ-दान  : पुं० [सं० ष० त०] उत्तराधिकार में पिता से मिलनेवाली संपत्ति। बपौती।
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पितृ-दिन  : पुं० [ष० त०] अमावस्या।
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पितृ-देव  : पुं० [ष० त०] पितरों के अधिष्ठाता देवता। अग्निष्वातादि पितरगण।
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पितृ-देश  : पुं० [ष० त०] किसी की दृष्टि से उसके पितरों या पूर्वजों के रहने का देश। वह देश जिसमें कोई अपने पूर्वजों के समय से रहता आया हो। (फादरलैंड)।
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पितृ-दैवत  : वि० [सं० पितृदेवता+अण्] पितृदेवता-संबंधी। पितरों की प्रसन्नता के लिए किया जानेवाला (यज्ञ आदि) पुं० मघा नक्षत्र।
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पितृदैवत्य  : वि० [सं० पितृदेवता+ष्यञ्] पितृदैवत। पुं० (कुछ विशिष्ट मासों की) अष्टमी के दिन किया जानेवला एक पितृ-कृत्य।
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पितृ-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. यमराज। २. अर्यमा नाम के पितर जो सब पितरों में श्रेष्ठ हैं।
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पितृ-पक्ष  : पुं० [ष० त०] १. कुआर या आश्विन का कृष्णपक्ष। २. पितृकुल।
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पितृ-पति  : पुं० [ष० त०] यम।
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पितृ-पद  : पुं० [ष० त०] १. पितरों का देश या लोक। २. पितृ या पितर होने का पद या स्थिति।
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पितृ-पिता (तृ)  : पुं० [ष० त०] पितामह।
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पितृपैतामह  : वि० [सं० पितृपितामह+अण्] जिसका संबंध पिता-पितामह आदि से हो। बाप-दादों का।
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पितृ-प्रसू  : स्त्री० [ष० त०] १. पिता की माता। दादी। २. सायंकाल। संध्या।
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पितृ-प्राप्त  : वि० [पं.त०] जो पिता से मिला हो।
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पितृप्रिय  : पुं० [ष० त०] १. भँगेरा। भँगरैया। भृंगराज। २. अगस्त का पेड़।
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पितृ-बंधु  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिससे संबंध पिता-पितामह आदि के विचार से हो। ‘मातृबंधु’ का विपर्याय।
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पितृ-भक्त  : वि० [ष० त०] [भाव० पितृभक्ति] अपने पिता की सेवा करने तथा उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करनेवाला।
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पितृ-भक्ति  : स्त्री० [ष० त०] पितृभक्त होने की अवस्था या भाव। पिता के प्रति होनेवाली भक्ति।
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पितृ-भोजन  : पुं० [ष० त०] १. पितरों को अर्पित किया जानेवाला भोजन। २. उड़द। माष।
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पितृ-मंदिर  : पुं० [ष० त०] १. पिता का घर। पितृ-गृह। २. श्मशान या मरघट जो पितरों का वास-स्थान माना गया है।
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पितृ-मेध  : पुं० [मध्य० स०] वैदिक काल का एक अंत्येष्टि क्रम जिसमें अग्निदान और दस पिंडदान आदि कृत्य होते थे। (श्राद्ध से भिन्न)
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पितृ-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०]=पितृ-तर्पण।
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पितृ-याण  : पुं० [ष० त०] १. मृत्यु के अनंतर जीव के पर-लोक जाने का वह मार्ग जिससे वह चंद्रमा में पहुँचता है। कहते है कि इस मार्ग में जाने वाले मृत व्यक्ति की आत्मा को निश्चित काल तक स्वर्ग आदि में सुख भोगकर फिर संसार में आना पड़ता है। २. वह मार्ग जिस पर पितर चलते हैं और अपने लिए नियत लोकों में जाते हैं।
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पितृ-राज  : पुं० [ष० त०] यम।
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पितृ-रिष्ट  : पुं० [ब० स०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जिसमें जन्म लेनेवाला बालक पिता के लिए घातक समझा जाता है।
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पितृरूप  : पुं० [सं० पितृ+रूपम्] शिव।
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पितृ-लोक  : पुं० [ष० त०] वह लोक जिसमें पितरों का निवास माना जाता है।
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पितृ-वंश  : पुं० [ष० त०] पिता का कुल।
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पितृ-वन  : पुं० [ष० त०] मरघट। श्मशान।
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पितृवनेचर  : पुं० [सं० अलुक् स०] १. पितृ-वन अर्थात् श्मशान में बसनेवाले जीव। भूत-प्रेत। २. शिव
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पितृ-वसति  : स्त्री० [ष० त०] श्मशान।
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पितृ-वित्त  : पुं० [ष० त०] बाप-दादों द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति। पैतृक या मौरूसी जायदाद।
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पितृ-वेश्म (न्)  : पुं० [ष० त०] स्त्री के पिता का घर। नैहर। मायका।
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पितृव्य  : पुं० [सं० पितृ+व्यत्] १. पिता के तुल्य आदरणीय व्यक्ति। २. चाचा।
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पितृ-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] पितृ-कर्म। वि० पितरों की पूजा करनेवाला।
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पितृषद्  : पुं० [सं० पितृ√सद्+क्विप्] =पितृ-गृह। (स्त्रियों के लिए)
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पितृषदन  : पुं० [सं० ष० त०] कुश।
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पितृष्वसा (स्)  : स्त्री० [सं० ष० त०] पिता की बहन। बूआ। फूफी।
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पितृष्वस्राय  : पुं० [सं० पितृष्वसृ+छ—ईय] बूआ का पुत्र । फुफेरा भाई।
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पितृ-सद्म (न्)  : पुं० [ष० त०] स्त्री के पिता का घर। मायका।
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पितृसू  : स्त्री० [सं० पितृ√सू (प्रसव करना)+क्विप्] १. दादी। २. सायंकाल।
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पितृ-स्थान  : पुं० [ष० त०] पिता का स्थान या पद।
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पितृस्थानीय  : वि० [सं० पितृस्थान+छ—ईय] १. पिता के स्थान पर होनेवाला या उसका समकक्ष। २. अभिभावक।
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पितृ-हंता (तृ)  : वि० [ष० त०]=पितृहा।
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पितृहा (हन्)  : वि० [सं० पितृ√हन् (हिंसा)+क्विप्] जिसने पिता की हत्या की हो।
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पितृहू  : पुं० [सं० पितृ√ह्वे (बुलाना)+क्विप्] दाहिना कान।
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पितृहूय  : पुं० [सं० पितृ√ह्वे+क्यप् ?] श्राद्ध आदि कार्यों के समय पितरों का आह्वान करना। पितरों को बुलाना।
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पितौंजिया  : पुं०=पितिजिया।
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पित्त  : पुं० [सं० अपि√दो (काटना)+क्त, तादेश, अकार-लोप] १. वैद्यक के अनुसार शरीर के तीन मुख्य तत्त्वों में से एक (अन्य दो वात और कफ है) जो नीलापन लिये तरल होता है और यकृत में बनता है। (बाइल) २. उक्त का प्रमुख गुण, ताप या शक्ति जो भोजन पचाती है। मुहा०—पित्त उबलना=दे० ‘पित्ता’ के अंतर्गत ‘पित्ता खौलना’। पित्त उभरना=पित्त का प्रकोप या विकार उत्त्पन्न होना। (किसी का) पित्त गरम होना=स्वभावतः क्रोधी होना। मिजाज में गरमी होना। जैसे—अभी तुम जवान हो इसी से तुम्हारा पित्त इतना गरम है। पित्त डालना=कै करना।
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पित्त-कर  : वि० [ष० त०] पित्त को बढ़ानेवाला (पदार्थ)।
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पित्त-कास  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने के फलस्वरूप होनेवाली एक तरह की खाँसी।
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पित्त-कोष  : पुं० [ष० त०] पित्ताशय। (दे०)
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पित्त-क्षोभ  : पुं० [ष० त०] पित्त के बिगड़ने से होनेवाले विकार।
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पितगदी (दिन्)  : वि० [सं० पित्त-गद, ष० त०,+इनि] जिसका पित्त बिगड़ा हुआ हो।
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पित्त-गुल्म  : पुं० [सं०] पित्त की अधिकता के कारण होनेवाला पेट फूलने का एक रोग।
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पित्तध्न  : वि० [सं० पित्त√हन्+टक्] पित्त का नाश अथवा उसके विकारों को दूर करनेवाला। पुं० घी। घृत।
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पित्तघ्नी  : स्त्री० [सं० पित्तघ्न+ङीष्] गुरुच।
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पित्तज  : वि० [सं० पित्त√जन् (उत्त्पत्ति)+ड] पित्त अथवा उसके प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला। जैसे-पित्तज ज्वर, पित्तज शोथ आदि।
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पित्त-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] पित्त बिगड़ने से होनेवाला ज्वर।
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पित्तदाह  : पुं० [सं०] पित्त-ज्वर। (दे०)
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पित्तद्रावी (विन्)  : वि० [सं० पित्त√द्रु (गति)+णिच्+णिनि] पित्त को द्रवित करने अर्थात् पिघलानेवाला। पुं० मीठा नींबू।
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पित्त-धरा  : स्त्री० [ष० त०] पित्त को धारण करनेवाली एक कला या झिल्ली। ग्रहणी।
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पित्त-नाड़ी  : स्त्री० [ष० त०] एक प्रकार का नाड़ी-व्रण जो पित्त के प्रकोप से होता हो। (वैद्यक)
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पित्त-नाशक  : वि० [ष० त०] १. पित्त का नाश करनेवाला। २. पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-निर्वहण  : वि० [ष० त०]=पित्त-नाशक।
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पित्त-पथरी  : स्त्री० [सं० पित्त+हिं० पथरी] एक प्रकार का रोग जिसमें पित्ताशय अथवा पित्तवाहक नलियों में पित्त की कंकडियाँ बन जाती है। यद्यपि ये पित्ताशय में ही बनती हैं, पर यकृत और पित्त-प्रणालियों में भी पाई जाती है।
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पित्त-पांडु  : पुं० [ब० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें रोगी के मूत्र, विष्ठा, और नेत्र के सिवा सारा शरीर पीला हो जाता है।
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पित्त-पाप़ड़ा  : पुं०=पित्तपापड़ा (दे०)।
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पित्त-प्रकृति  : वि० [ब० स०] जिसके शरीर में वात और कफ की अपेक्षा पित्त की प्रधानता या अधिकता हो।
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पित्त-प्रकोप  : पुं० [ष० त०] पित्त के अधिक बढ़ जाने अथवा उसमें विकार होने के फलस्वरूप उसका उग्र रूप धारण करना (जिसके फलस्वरूप अनेक रोग होते हैं)।
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पित्त-प्रकोपी (पिन्)  : वि० [सं० पित्त-प्रकोप, ष० त०+इनि] पित्त को बढ़ाने या कुपित करनेवाला (द्रव्य) जिसे खाने से पित्त की वृद्धि हो।
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पित्त-भेषज  : पुं० [ष० त०] मसूर की दाल।
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पित्त-रंजक  : पुं० [सं०]=पित्तारूण।
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पित्त-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] रक्तपित्त नामक रोग।
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पित्तल  : वि० [सं० पित्त+लच्] १. जिसमें पित्त की बहुलता हो। २. जिससे पित्त का प्रकोप या दोष बढ़े। पित्तकारी (द्रव्य)। पुं० १. पीतल। २. हरताल। ३. भोजपत्र।
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पित्तला  : स्त्री० [सं० पित्तल+टाप्] १. जल-पीपल। २. वैद्यक के अनुसार योनि का एक रोग जो दूषित पित्त के कारण होता है। इसके कारण योनि में अत्यन्त दाह, पाक तथा शरीर में ज्वर होता है।
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पित्त-वर्ग  : पुं० [ष० त०] मछली, गाय, घोड़े, रुरु और मोर के पित्तों का समूह। पंचविधपित्त।
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पित्त-वल्लभा  : स्त्री० [ष० त०] काला अतीस।
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पित्त-वायु  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप से पेट में उत्पन्न होनेवाली वायु।
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पित्त-विदग्ध  : वि० [तृ० त०] जिसका पित्त कुपित हो।
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पित्त-विदग्ध-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] आँख का एक रोग जो दूषित पित्त के दृष्टि स्थान में आ जाने के कारण होता है। इसके कारण रोगी दिन में नहीं देख सकता केवल रात में देखता है।
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पित्त-विसर्प  : पुं० [मध्य० स०] विसर्प रोग का एक भेद।
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पित्त-व्याधि  : स्त्री० [मध्य० स०] पित्त के कुपित होने से होनेवाला रोग।
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पित्त-शमन  : वि० [ष० त०] पित्त का प्रकोप दूर करनेवाला।
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पित्त-शूल  : वि० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होने वाला शूल।
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पित्त-शोथ  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के प्रकोप के कारण होनेवाला शोथ या सूजन।
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पित्त-श्लेष्म ज्वर  : पुं० [सं० पित्त-श्लेष्मन्, द्व० स०, पित्तश्लेष्म-ज्वर, मध्य० स०] पित्त और कफ दोनों के प्रकोप से होनेवाला एक तरह का ज्वर।
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पित्त-श्लेष्मोल्वण  : पुं० [सं० पित्तश्लेष्म-उल्वण, मध्य० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर जिसमें पतला मल निकलता है और सारे शरीर में पीड़ा होती है।
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पित्त-शंसमन  : पुं० [ष० त०] आयुर्वेदोक्त ओषधियों का एक वर्ग। इस वर्ग की ओषधियाँ प्रकुपित पित्त को शांत करनेवाली मानी जाती हैं। चन्दन, लालचंदन, खस, सतावर, नीलकमल, केला, कमलगट्टा आदि इस वर्ग में माने गये हैं।
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पित्त-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. पित्ताशय। २. शरीर के अंदर के वे पाँच स्थान जिनमें वैद्यक के अनुसार पाचक, रंजक आदि ५ प्रकार के पित्त रहते हैं. ये स्थान आमाशय-पक्वाशय, यकृत, प्लीहा हृदय, दोनों नेत्रों और त्वचा हैं।
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पित्त-स्यंदन  : पुं० [मध्य० स०] पित्त के विकार से उत्पन्न एक नेत्र रोग।
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पित्त-स्राव  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार, एक प्रकार का नेत्ररोग जिसमें आँखों से पीला (या नीला) और गरम पानी बहता है।
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पित्त-हर  : पुं० [ष० त०] खस। उशीर।
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पित्तहा (हन्)  : पुं० [सं० पित्त√हन्+क्विप्] पित्त पापड़ा। वि० पित्त का प्रकोप शांत करनेवाला।
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पित्तांड  : पुं० [पित्त-अंड, ब० स०] घोडों के अंडकोश में होनेवाला एक रोग।
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पित्ता  : पुं० [सं० पित्त] १. वह थैली जिसमें पित्त रहता है। पित्ताशय। (देखें) २. शरीर के अंदर का पित्त, जिसका मनुष्य के मनोभावों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। पद—पित्तामार काम=ऐसा कठिन काम जो बहुत देर में पूरा होता हो और जिसमें बहुत अधिक तल्लीनता अथवा सहिष्णुता की आवश्यकता हो। मुहा०—पित्ता उबलना या खौलना=किसी कारणवश मन में बहुत अधिक क्रोध उत्पन्न करना। पित्ता निकलना=बहुत अधिक, कष्ट, परिश्रम आदि के कारण शरीर की दुर्दशा होना। पित्ता पानी करना=किसी काम को पूरा करने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करना। पित्ता मरना=शरीर में उत्साह, उमंग आदि का बहुत कुछ अंत या अभाव हो जाना। पित्ता मारना=(क) मन के दूषित भाव या बुरी बातें उमड़ने न देना। (ख) मन के उत्साह, उमंग आदि को दबा या रोककर रखना। जैसे—पित्ता मारकर काम करना सीखो। ३. हिम्मत। साहस। हौसला। जैसे—उसका क्या पित्ता है जो तुम्हारे सामने ठहरे। ४. कुछ पशुओं के शरीर से निकला हुआ पित्त नामक पदार्थ जिसका उपयोग औषध के रूप में होता है। जैसे—बैल का पित्ता।
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पित्तातिसार  : पुं० [पित्त-अतिसार, मध्य० स०] वह अतिसार रोग जो पित्त के प्रकोप या दोष से होता है।
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पित्ताभिष्यंद  : पुं० [पित्त-अभिष्यंद, मध्य० स०] पित्त कोप से आँख आने का रोग।
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पित्तारि  : पुं० [पित्त-अरि, ष० त०] १. पित्त-पापडा। २. लाख। ३. पीला चंदन।
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पित्तारुण  : पुं० [सं० पित्त-अरुण] आधुनिक विज्ञान में, शरीर के रक्त रस में रहनेवाला एक रंगीन तत्त्व जिसकी अधिकता से आदमियों को कामला या पीलिया नामक रोग हो जाता है। (बिली रुबिन)।
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पित्ताशय  : पुं० [पित्त-आशय, ष० त०] शरीर के अंदर यकृत के पीछे की ओर रहनेवाली थैली के आकार का वह अंग जिसमें पित्त रहता है। (गालब्लैडर)
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पित्तिका  : स्त्री० [सं० पित्त+कन्+टाप्, इत्व] एक प्रकार की शतपदी (ओषधि)।
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पित्ती  : स्त्री० [हिं० पित्त+ई] १. एक रोग जो पित्त के प्रकोप से रक्त में बहुत अधिक उष्णता होने के कारण होता है तथा जिसमें शरीर के विभिन्न अंगों में छोटे-छोटे ददोरे निकल आते हैं जिन्हें खुजलाते-खुजलाते रोगी विकल हो जाता है। क्रि० वि०—उछलना। २. वे लाल महीन दाने जो गरमी के दिनों में पसीना मरने से शरीर पर निकल आते हैं। अंभौरी। क्रि० प्र०—निकलना। पुं० [सं० पितृव्य] पिता का भाई। चाचा।
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पित्तोत्क्लिष्ट  : पुं० [पित्त-उत्क्लिष्ट, ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पलकों में दाह, क्लेद और पीड़ा होती है तथा ज्योति कम हो जाती है। (वैद्यक)
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पित्तोदर  : पुं० [पित्त-उदर, मध्य० स०] पित्त-गुल्म। (देखें)
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पित्तोन्माद  : पुं० [पित्त-उमाद, मध्य० स०] [वि० पित्तोन्मादिक] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का उन्माद, रोग जिसमें साधारणतः बिना किसी कारण के रोगी बहुत ही खिन्न, चिन्तित और दुःखी रहता है और जो पित्ताशय के ठीक काम न करने से उत्पन्न होता है। (हाइपोकान्ड्रिया)
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पित्तोपहत  : वि० [पित्त-उपहत, तृ० त०] जिसे पिता का प्रकोप हुआ हो।
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पित्तोल्वण सन्निपात  : पुं० [पित्त-उल्वण, तृ० त०, पित्तोल्वण—सन्निपात, कर्म० स०] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। भ्रम, मूर्छा, मुँह और शरीर में लाल दाने निकलना आदि इसके लक्षण हैं। (वैद्यक)
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पित्र्य  : वि० [सं० पित्तृ+यत्] पिता-संबंधी। पुं० १. बड़ा भाई। २. पितृतीर्थ। ३. तर्जनी और अँगूठे का अंतिम भाग। ४. शहद। ५. उड़द।
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पित्र्या  : स्त्री० [सं० पित्र्य+टाप्] १. मघा नक्षत्र। २. पूर्णिमा। पूर्णमासी। ३. अमावस्या। अमावस।
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पिथ  : पुं०=पृथ्वीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिथौरा  : पुं०=पृथ्वीराज (दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिदारा  : पुं०=पिद्दा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पिद्दा  : पुं० [हिं० पिद्दी] १. पिद्दी का नर। विशेष दे० ‘पिद्दी’। २. गुलेले की ताँत में लगी हुई निवाड़ आदि की वह गद्दी जिस पर फेंकने के समय गोली रखते हैं। फटकना।
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पिद्दी  : स्त्री० [हिं० पिद्दा] १. बया की तरह की एक सुन्दर छोटी चिड़िया जो अनेक रंगों की होती है। इसे ‘फुदकी’ भी कहते हैं। २. अत्यन्त तुच्छ या नगण्य जीव।
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पिधना  : स० [सं० परिधारण] शरीर पर धारण करना, पहनना। उदा०—पीत बसन हे जुवति पिधिलेह।—विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिधान  : पुं० [सं० अपि√धा (धारण करना)+ल्युट—अन, अकार, लोप] १. आच्छादन। आवरण। २. पर्दा। गिलाफ। ३. ढक्कन। ४. तलवार का कोष। म्यान। ५. किवाड़ा। दरवाजा।
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पिधानक  : पुं० [सं० पिधान+कन्] १. ढक्कन। २. कोष। म्यान।
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पिधायक  : वि० [सं० अपि√धा+ण्वुल्—अक, अकार-लोप] १. ढकनेवाला। २. छिपानेवाला।
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पिन  : स्त्री० [अं०] धातु की तरह की पतली, नुकीली कील जिसमें कागज नत्थी किये जाते हैं। आलपीन।
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पिनक  : स्त्री० [हिं० पिनकना] १. पिनकने की क्रिया या भाव। २. अफीमची की वह अवस्था जिमसें वह नशे की अधिकता के कारण सिर झुकाकर बैठे रहने की दशा में बेसुध या सोया हुआ सा रहता है। क्रि० प्र० लेना।
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पिनकना  : अ० [हिं० पीनक] १. अफीमची का नशे की हालत में रह-रहकर ऊँघते हुए आगे की ओर झुकना। पीनक लेना। २. अधिक नींद आने के कारण सिर का रह-रहकर झुक पड़ना।
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पिनकी  : पुं० [हिं० पीनक] वह जो अफीमचियों की तरह बैठे-बैठे सोता हो और नीचे की ओर सिर रह-रहकर झुकाता हो।
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पिनद्ध  : भू० कृ० [सं० अपि√नह् (बाँधना)+क्त, अकार-लोप] १. कसा या बाँधा हुआ। २. पहना या धारण किया हुआ। ३. छाया ढका या लपेटा हुआ।
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पिनपिन  : स्त्री० [अनु०] १. बच्चों के रह-रहकर रोने पर होनेवाला अनुनासिक और अस्पष्ट शब्द। २. रोगी या दुबले पतले बच्चे के रोने का शब्द। क्रि० प्र०—करना।—लगाना।
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पिनपिनहाँ  : वि० [हिं० पिनपिन+हा (प्रत्य०)] १. पिनपिन करनेवाला (बच्चा)। जो हर समय रोया करे। २. प्रायः रोगी रहनेवाला दुबला-पतला (बच्चा)।
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पिनपिनाना  : अ० [हिं० पिनपिन] १. रोते समय नाक से पिनपिन का सा स्वर निकलाना। २. धीरे-धीरे, रुक-रुककर या हिचकियाँ लेते हुए रोना।
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पिनपिनाहट  : स्त्री० [हिं० पिनपिनाना] पिनपिन करने की क्रिया, भाव या शब्द।
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पिनसन  : स्त्री०=पेंशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिनाक  : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+आकन्, नुट्, इत्व] १. शिव का वह धनुष जो श्रीरामचन्द्र ने सीता स्वयंबर में तोड़ा था। अजगव। २. धनुष। ३. त्रिशूल। ४. नीला अभ्रक।
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पिनाक-गोप्ता (प्तृ)  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पिनाक-धृत्  : पुं० [सं० पिनाक√घृ (धारण करना)+क्विप्] शिव।
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पिनाक-पाणि  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पिनाक-हस्त  : पुं० [ब० स०] शिव।
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पिनाकी (किन्)  : पुं० [सं० पिनाक+इनि] १. पिनाक धारण करनेवाले, महादेव। शिव। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसमें बजाने के लिए तार लगा रहता था।
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पिन्नस  : स्त्री०=पीनस (रोग)।
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पिन्ना  : वि० [हिं० पिनपिनाना] प्रायः पिनपिन करने अर्थात् रोता रहने-वाला। पुं० [हिं० पींजना] धुनिया। पुं० [हिं० पिन्नी का पुं०] बड़ी पिन्नी।
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पिन्नी  : स्त्री० [सं० पिंडी] १. एक प्रकार का लड्डू जो आटे आदि में कई तरह के मसाले और चीनी या गुड़ मिलाकर बनाया जाता है। २. सूत, धागे आदि को लपेटकर गोलाकार बनाया हुआ छोटा पिंड। जैसे—डोर या नग की पिन्नी।
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पिन्यास  : पुं० [सं० अपि-न्यास, ब० स० अकार-लोप] हींग।
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पिन्हाना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपर  : पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपरमिंट  : पुं० [अं० पेपरमिंट] १. पुदीने की जाति का परन्तु उससे भिन्न एक प्रकार का पौधा जो यूरोप और अमेरिका में होता है। इसकी पत्तियों में एक विशेष प्रकार की गंध और ठंढक होती है। २. उक्त पत्तियों का निकाला हुआ सत्त या सार भाग जो छोटे सफेद रवे के रूप में होता और पाचक माना जाता है।
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पिपरामूल  : पुं० [हिं० पीपल+सं० मूल] पीपल की जड़।
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पिपराही  : पुं० [हिं० पिपर+आही (प्रत्य०)] पीपल का जंगल या वन।
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पिपरिहा  : पुं० [पिपरहा (स्थान)] राजपूतों की एक शाखा या अल्ल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपली  : स्त्री० [देश०] नैपाल, दार्जिलिंग आदि पहाड़ी इलाकों में होनेवाला एक तरह का वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारती कामों में आती है।
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पिपही  : स्त्री०=पिपीली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिपास  : स्त्री०=पिपासा (प्यास)।
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पिपासा  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+सन्+अ—टाप्] १. पानी या और कोई तरल पदार्थ पीने की इच्छा। तृष्णा। तृषा। प्यास। २. कोई चीज पाने की इच्छा या लोभ।
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पिपासित  : वि० [सं० पिपासा+इतच्] जिसे प्यास लगी हो। प्यासा।
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पिपासी (सिन्)  : वि० [सं० पिपासा+इनि] प्यासा।
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पिपासु  : वि० [सं०√पा+सन्+उ] १. जिसे पिपासा या प्यास लगी हो। तृषित। प्यासा। २. पीने का इच्छुक। ३. जिसके मन में किसी प्रकार की उग्र कामना या लोभ हो। जैसे—रक्तपिपासु।
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पिपियाना  : अ० [हिं० पीप=मवाद] फोड़े आदि में पीप पैदा होना। स० फोड़े आदि में मवाद उत्पन्न करना। फोड़ा पकाना।
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पपिली  : स्त्री०=पिपीली।
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पिपीतकी  : स्त्री० [सं० पिपीतक+अच्+ङीष्] वैशाख शुक्ल द्वादशी जो व्रत का दिन माना गया है। पहले-पहल कहते है कि पिपीतक नाम के एक ब्राह्मण ने किया था। इसी से इसका यह नाम पड़ा है।
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पिपीलक  : पुं० [सं० अपि√पील् (रोकना)+ण्वुल्—अक, अकार-लोप] [स्त्री० अल्पा० पिपीलिका] १. बड़ा चींटा। २. एक तरह का सोना।
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पिपीलिक  : पुं०=पिपीलक।
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पिपीलिका  : स्त्री० [सं० पिपीलक+टाप्, इत्व] १. च्यूँटी या चींटी नाम का छोटा कीड़ा। २. च्यूँटियों की तरह एक के पीछे एक चलने की प्रवृत्ति।
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पिपीलिका भक्षी (क्षिण)  : पुं० [सं० पिपीलिका√भक्ष् (खाना)+ णिनि] दक्षिण अफ्रीका का एक जंतु जिसका बहुत लंबा थूथन और बहुत बड़ी जीभ होती है। इसके दाँत नहीं होते यह अपने पंजों से चीटियों के बिल खोदता है और उन्हें खाता है।
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पिपीलिका-मार्ग  : पुं० [ष० त०] योग की साधना में से दो मार्गो में से एक जिसके द्वारा साधक क्रमशः धीरे-धीरे आगे बढ़ता और षट् चक्रों को बेधता हुआ अपने प्राण ब्रह्माण्ड तक पहुँचाता है। इसकी तुलना में दूसरा अर्थात् विहंगम मार्ग (देखें) श्रेष्ठ समझा जाता है।
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पिपीलिकोद्वाप  : पुं० [पिपीलिका-उद्वाप, ष० त०] वल्मीक।
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पिपीली  : स्त्री० [सं० अपि√पील्+अच्+ङीप् अलोप] चींटी। च्यूँटी।
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पिप्पटा  : स्त्री० [सं०] १. पुरानी चाल की एक तरह की मिठाई। २. चीनी।
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पिप्पल  : पुं० [सं०√पा+अलच्, पृषो० सिद्धि] १. पीपल का पेड़। अश्वत्थ। २. एक प्रकार का पक्षी ३. रेवती से उत्पन्न मित्र का एक पुत्र। (भागवत) ४. नंगा आदमी। ५. जल। पानी। ६. वस्त्रखंड। कपड़े का टुकड़ा। ७. अंगे आदि की बाँह या आस्तीन।
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पिप्पलक  : पुं० [सं० पिप्पल+कन्] स्तनमुख।
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पिप्पलयांग  : पुं० [सं०] चीन और जापान में होनेवाला एक प्रकार का पौधा जो अब भारतवर्ष में भी गढ़वाल, कुमाऊँ और काँगड़े की पहाडियों में पाया जाता है। इसके फलों के बीज के अन्दर चरबी की तरह का चिकना पदार्थ होता है जिसे चीनी मोम कहते हैं। मोमचीना।
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पिप्पला  : स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी।
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पिप्पलाद  : पुं० [सं० पिप्पल√अद् (खाना)+अण्] पुराणानुसार एक ऋषि जो अथर्ववेद की एक शाखा के प्रवर्तक माने गये हैं।
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पिप्पलाशन  : वि० [पिप्पल-अशन, ब० स०] जो पीपल का फल या गूदा खाता हो।
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पिप्पलि  : स्त्री० [सं० पिप्पल+इन्] पीपल नामक लता और उसकी कली जो दवा के काम आती है।
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पिप्पली  : स्त्री० [सं० पिप्पली+ङीष्] पीपल (लता)।
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पिप्पली-खंड  : पुं० [ष० त०] वैद्यक के अनुसार एक औषध जो पीपल के चूर्ण, घी, शतमूली के रस, चीनी आदि को दूध में पकाकर बनाई जाती है।
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पिप्पलीमूल  : पुं० [ष० त०] पीपल की जड। पिपरामूल।
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पिप्पल्यादिगण  : पुं० [सं० पिप्पली-आदि, ब० स०, पिप्पल्यादि-गण, ष० त०] सुश्रुत के अनुसार ओषधियों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत पिप्पली, चीता, अदरख, मिर्च, इलायची, अजवायन, इन्द्रजव, जीरा, सरसों, बकायन, हींग, भारंगी, अतिविषा, वच, विडंग और कुटकी है।
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पिप्पिका  : स्त्री० [सं०] दाँतों की मैल।
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पिप्पीक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी।
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पिप्लु  : पुं० [सं० अपि√प्लु (गति)+डु, अकार-लोप] १. समा। २. तिल।
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पिय  : पुं० [सं० प्रिय] १. स्त्री की दृष्टि से वह व्यक्ति जिससे वह प्रेम करता हो। प्रियतम। २. पति।
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पियर  : वि० [भाव० पियरई]=पियरा (पीला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियरई  : स्त्री० [हिं० पियर=पीला] पीलापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियरवा  : पुं०=प्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियरा  : वि० [स्त्री० पियरी]=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियराई  : स्त्री०=पियरई (पीलापन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियराना  : अ० [हिं० पियरय] १. पीला पड़ना। २. पीले रंग का होना।
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पिपरी  : स्त्री० [हिं० पियरा] १. पीलापन। २. पीली रंगी हुई वह धोती जो प्रायः देवियों, नदियों आदि को चढ़ाई जाती है। उदा०—कोउ थाननि के थान तानि पियरी पहिरावत।—रत्ना०। ३. उक्त प्रकार की वह धोती जो वर और वधू को विवाह के समय पहनाई जाती है। ४. एक प्रकार की चिड़िया।
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पियरोला  : पुं० [हिं० पीयर] मैना से कुछ छोटी तथा पीले रंग की मधुर स्वरवाली एक चिड़िया।
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पियली  : स्त्री० [हिं० प्याली] नारियल की खोपरी का वह टुकड़ा जिसे बढ़ई आदि बरमे के ऊपरी सिरे के काँटे पर इसलिए रख लेते हैं कि छेद करने के लिए बरमा सहज में घूम सके।
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पियल्ला  : पुं० [हिं० पीना] दूध पीनेवाला बच्चा। पुं०=पियरोला।
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पियवास  : पुं०=पियाबाँसा (कटसरैया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिया  : पुं०=प्रिय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाज  : वि०=प्याज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाजी  : वि०=प्याजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियादा  : पुं०=प्यादा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाना  : स०=पिलाना। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियानो  : पुं० [अं०] हारमोनियम की तरह का एक प्रकार का बड़ा अंगरेजी बाजा जो मेज के आकार का होता है।
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पियाबाँसा  : पुं० [हिं० पिय+बाँस] कटसरैया। कुरवक।
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पियामन  : पुं० [?] राजजामुन। (वृक्ष)
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पियार  : पुं० [सं० पियाल] मझोले आकार का एक पेड़ जो देखने में महुए की तरह होता है। इसका फल फालसे के बराबर और गोल होता है। बीज की गिरी बादाम और पिस्ते की तरह मीठी होती है और चिरौंजी कहलाती है। वि०=प्यारा। पुं०=प्यार।
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पियारा  : वि०, पुं०=प्यारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाल  : पुं० [सं०√पी (पीना)+कालन्, इयङ्] १. चिरौंजी का पेड़। पयार। २. उक्त पेड़ का बीज। पुं० [सं० पाताल] १. पाताल। २. गहराई। उदा०—पैसि पियाल काली नाग नाथ्यो।—मीराँ। पुं०=पयाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाला  : पुं०=प्याला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियाव-बड़ा  : पुं० [पियाव ?+बड़ा] एक तरह की मिठाई।
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पियास  : स्त्री०=प्यास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियासा  : वि०=प्यासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिया-साल  : पुं० [सं० पीतसाल, प्रियसालक] बहेड़े या अर्जुन की जाति का एक प्रकार का बड़ा पेड़ जो भारतवर्ष के जंगलों में प्रायः सब जगह होता है। इसके पत्ते, छाल तथा लकड़ी कई तरह के कामों में आती है।
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पियासी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पियूख (ष)  : पुं०=पियूष। (अमृत)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पियौसार  : स्त्री० [पिय+शाला] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके पति का घर अर्थात् ससुराल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरकी  : स्त्री० [सं० पिड़क, पिड़का] छोटा फोड़ा। फुंसी। (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरता  : पुं० [सं० पट्ट] काठ या पत्थर का वह टुकड़ा जिस पर रूई की पूनी रखकर दबाते हैं।
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पिरथी  : स्त्री०=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरथीनाथ  : पुं०=पृथ्वीनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरन  : पुं० [देश०] चौपायों का लंगड़ापन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिराई  : स्त्री०=पियरई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिराक  : पुं० [सं० पिष्टक, प्रा० पिट्ठक; पिड़क] [स्त्री० अल्पा० पिराकड़ी] गुझिया या गोझा नामक पकवान, जो मैदे की पतली लोई के अंदर सूजी खोआ, मेवे आदि भरकर और उसे अर्द्धचंद्राकार मोड़कर घी में तलकर बनाया जाता है।
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पिराग  : पुं०=प्रयाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिराना  : अ० [सं० पीड़ा+हिं० आना (प्रत्य०)] १. (किसी अंग का) दर्द करना। पीड़ा होना। २. पीड़ा या दुःख अनुभव करना। ३. किसी को दुःखी देखकर स्वयं दुखी होना।
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पिरारा  : पुं० १.=पिंडारा (साग)। २.=पिंड़ारी (डाकू)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरिच  : स्त्री० [देश०] तश्तरी विशेषतः चीनी मिट्टी की।
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पिरिया  : पुं० [देश०] १. कूएँ से पानी निकालने का रहँट। २. एक तरह का बाजा।
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पिरीतना  : अ० [सं० प्रीति] १. प्रीति या प्रेम करना। २. प्रसन्न होना। उदा०—समउ फिरैं रिपु होहिं पिरीते।—तुलसी।
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पिरीतम  : पुं०=प्रियतम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरीता  : वि० [सं० प्रीत=प्रसन्न] प्रिय।
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पिरीती  : स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरोज  : पुं० [?] १. कटोरा। २. तश्तरी।
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पिरोजन  : पुं० [सं० प्रयोजन] १. बालक के कान छेदने की रीति। कनछेदन। २. दे० ‘प्रयोजन’।
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पिरोजा  : पुं०=फीरोजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरोजी  : वि०=फिरोजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरोड़ा  : स्त्री० [देश०] पीली, क़ड़ी मिट्टीवाली भूमि।
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पिरोना  : स० [सं० प्रोत; प्रा० पोइअ, प्रोअ+ना (प्रत्य०)] १. किसी छेदवाली वस्तु में धागा डालना। जैसे—सूई में धागा पिरोना। २. छेदवाली बहुत सी वस्तुओं को एक साथ धागे में नत्थी करना। जैसे—माला पिरोना।
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पिरोला  : पुं० [हिं० पीला] पियरोला नामक पक्षी।
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पिरोहना  : स०=पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिरौहाँ  : वि० [सं० पीड़ा] [स्त्री० पिरौंही] मन में पीड़ा उत्पन्न करनेवाला। कष्टदायक। उदा०—तब लखिमिनि दुख पूँछ पिरौहीं।—जायसी।
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पिलई  : स्त्री० [सं० प्लीहा] १. शरीर के अंदर का तिल्ली नामक अंग। २. ताप-तिल्ली या प्लीहा नामक रोग।
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पिलक  : पुं० [हिं० पीला] १. पीले रंग की एक चिड़िया जो मैना से कुछ छोटी होती है और जिसका स्वर बहुत मधुर होता है। पियरोला। जर्दक। २. अबलक कबूतर।
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पिलकना  : स० [सं० पिच्छिल] १. गिरना। २. ढकेलना। ३. झूलना। लटकना। अ० १. गिरना। २. लुढ़कना।
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पिलकिया  : पुं० [देश०] पीलापन लिये खाकी रंग की एक तरह की छोटी चिड़िया जो पंजाब से आसाम तक दिखाई देती है।
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पिलखन  : पुं० [सं० प्लक्ष] पाकर वृक्ष।
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पिलचना  : अ० [सं० पिल=प्रेरणा] १. दो आदमियों का आपस में भिड़ना। गुथना। लिपटना। २. किसी काम में तत्पर या लीन होना।
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पिलड़ी  : स्त्री० [देश०] पकाया हुआ मसालेदार कीमा।
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पिलद्दा  : पुं० [फा० पलीद (गंदा) या पहलवी, पलीदीह] [स्त्री० अल्पा० पिलद्दी] १. गू। मल। विष्ठा। २. बहुत ही गन्दी या मैली चीज। ३. गंदगी। ४. वह रूप जो किसी चीज को बहुत बुरी तरह से कूटने-पीटने पर प्राप्त होता है। कचूमर।
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पिलना  : अ० [सं० पिल=प्रेरणा] १. वेगपूर्वक अन्दर की ओर धँसना या पठना। जैसे—सब लोग घर के अन्दर पिल पडे़। २. पूरी शक्ति से किसी काम में जुटना या लगना। ३. भिड़ जाना। संयो.० क्रि०—पड़ना। ४. ऊख तिल आदि का पेरा जाना। संयो० क्रि०—जाना।
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पिलपिल  : स्त्री० [हिं० पिलपिलाना] पिलपिल करने या होने की अवस्था या भाव। वि०=पिलपिला।
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पिलपिला  : वि० [अनु०] [भाव० पिलपिलापन, स्त्री० पिलपिली] (पदार्थ) जो इतना अधिक कोमल हो कि हल्का स्पर्श करने मात्र से उसका रस या गूदा बाहर निकलने लगे। जैसे—पिलपिला आम, पिलपिला फोड़ा।
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पिलपिलाना  : अ० [हिं० पिलपिला] पिलपिला होना। क्रि० प्र०—जाना। स० इस प्रकार किसी चीज को बार-बार हल्के हाथ से दबाना कि उसका गूदा रस में परिवर्तित होकर बाहर निकलने लगे। संयो० क्रि०—डालना।—देना।
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पिलपिलाहट  : स्त्री० [हिं० पिलपिला] पिलपिले होने की अवस्था या भाव। पिलपिलापन।
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पिलवाना  : स० [हिं० पिलाना का प्रे०] पिलाने का काम किसी दूसरे से कराना। दूसरे को पिलाने में प्रवृत्त करना। स० [हिं० पेलना का प्रे० रूप] किसी को कुछ पेलने या पेरने में प्रवृत्त करना। जैसे—कोल्हू में तिल पिलवाना।
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पिलाई  : स्त्री० [हिं० पिलाना] १. (जल आदि) पिलाने की क्रिया या भाव। २. बच्चों को अपना स्तन का दूध पिलानेवाली दाई। ३. कोई तरल पदार्थ इस प्रकार उँड़ेलना कि वह नीचे के छेदों या संधियों में समा जाय। (ग्राउटिंग) जैसे—सड़कों पर अलकतरे की पिलाई। ४. गोली के खेल में, गोली को किसी विशिष्ट गड्ढे में डालने की क्रिया या भाव।
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पिलाना  : स० [हिं० पीना] १. किसी को कुछ पीने में प्रवृत्त करना। जैसे—किसी को दवा या पानी पिलाना। २. किसी प्रकार के अवकाश या विवर में कोई पदार्थ विशेषतः तरल पदार्थ उँड़लेना या डालना। जैसे—किसी के कान में सीसा पिलाना। ३. कोई बात किसी के मन में अच्छी तरह जमाना या बैठाना। संयो० क्रि०—देना। ४. गोली के खेल में, इस प्रकार गोली फेंकना कि वह किसी विशिष्ट गड्ढे में जा गिरे।
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पिलुंडा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पिंलुंड़ी]=पुलिंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिलुक  : पुं० [सं० अपि√ला (लेना)+डु, अकार—लोप,+कन्] पीलू का पेड़।
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पिलुनी  : स्त्री० [सं० अपि√ला+डुन्+ङीष्, अकार—लोप] मूर्वा।
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पिलु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] मूर्वा (लता)।
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पिल्ल  : पुं० [सं०√क्लिद् (गीला होना)+ल, पिल्—आदेश] एक नेत्ररोग जिसमें आँखों से कीचड़ बहता रहता है। वि० जिसके नेत्रों से कीचड़ निकलता हो।
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पिल्लका  : स्त्री० [सं० पिल्ल√कै (चमकना)+क+टाप्] मादा हाथी। हथिनी।
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पिल्ला  : पुं० [तामिल] [स्त्री० पिल्ली] कुत्ते का बच्चा।
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पिल्लू  : पुं० [सं० पीलु=कृमि] सफेद रंग का एक प्रकार का छोटा लंबा कीड़ा जो सड़े हुए फलों, घावों आदि में देखा जाता है। ढोला। क्रि० प्र०—पड़ना।
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पिव  : पुं०=पिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पिवाना  : स०=पिलाना।
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पिशंग  : पुं० [सं०√पिश् (अंश होना)+अगच्] लाली लिये भूरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पिशंगक  : पुं० [सं० पिशंग+कन्] १. विष्णु। २. विष्णु का अनुचर।
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पिशंगिला  : स्त्री० [सं० पिश्√गिल् (लीलना)+ख, मुम्, टाप्] काँसा नामक मिश्र धातु।
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पिशंगी (गिन्)  : वि० [सं० पिशंग+इनि] पिशंग वर्ण का।
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पिश  : वि० [सं०√पिश्+क] १. पाप आदि न करनेवाला। पाप-रहित। २. अनेक रूपोंवाला।
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पिशंवाज़  : पुं०=पेशबाज (स्वागत)। स्त्री० [फा० पिश्वाज़] एक तरह का घाघरा जिसे नर्तकियाँ पहनकर नाचती थीं।
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पिशाच  : पुं० [सं० पिश+आ√चम् (खाना)+ड, पृषो० सिद्धि] [वि० पैशाच, पैशाची] [स्त्री० पिशाचिनी, पिशाची] एक प्रकार का भूत या प्रेत जिनकी गणना हीन देवयोनियों में होती है तथा जो वीभत्स कर्म करनेवाले माने जाते हैं। २. उक्त के आधार पर वीभत्स तथा जघन्य कर्म करनेवाला व्यक्ति। ३. किसी काम या बात के संबंध में वैसा ही उग्र और भीषण रूप रखनेवाला जैसा पिशाचों का होता है। जैसे—अर्थ-पिशाच, बुद्धि-पिशाच। ४. कश्मीर की सीमा से प्राचीन भारत की पश्चिमोत्तर सीमा तक के प्रदेश का प्राचीन नाम। वि० मांस खानेवाला। मांस-भोजी।
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पिशाचक  : पुं० [सं० पिशाच+कन्] पिशाच।
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पिशाचकी (किन्)  : पुं० [सं० पिशाचक+इनि] कुबेर।
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पिशाचघ्न  : वि० [सं० पिशाच√हन् (मारना)+ठक्] पिशाचों को नष्ट या दूर करनेवाला। पुं० पीली सरसों जिसका प्रयोग प्रायः ओझा और तांत्रिक भूत-प्रेत की बाधा दूर करने के लिए करते हैं।
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पिशाच-चर्या  : स्त्री० [ष० त०] पिशाचों की तरह श्मशान आदि में घूमना।
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पिशाचद्रु  : पुं० [मध्य० स०] सिहोर का पेड़।
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पिशाच-पति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पिशाच-बाधा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह कष्ट जो किसी पिशाच के उपद्रवों के कारण प्राप्त हो।
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पिशाच-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] पैशाची नामक प्राकृत भाषा।
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पिशाच-मोचन  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पिंडदान करने से मृत व्यक्तियों की पिशाच योनि से मुक्ति होती है। २. काशी का एक प्रसिद्ध तालाब जिसके किनारे पिंडा पारा जाता है। प्रसिद्ध है कि यहाँ पिंड-दान करने से जीवात्मा की पिशाच-योनि से मुक्ति हो जाती है।
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पिशाच-संचार  : पुं० [ष० त०] किसी के शरीर में पिशाच का होनेवाला वह संचार जिसके फलस्वरूप वह पिशाचों के से घृणित और जघन्य कार्य करने लगता है।
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पिशाचांगना  : स्त्री० [पिशाच-अंगना, ष० त०] पिशाच प्रदेश की स्त्री।
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पिशाचालय  : पुं० [पिशाच-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ फास्फोरस के कारण अँधेरे में प्रकाश होता है, और इसी लिए जिसे लोग पिशाचों के रहने का स्थान समझते हैं।
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पिशाचिका  : स्त्री० [सं० पिशाच+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. पिशाचयोनि की स्त्री। २. छोटी जटामासी।
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पिशाची  : स्त्री० [पिशाच+ङीष्] १. पिशाच स्त्री। २. जटामासी। स्त्री०=पैशाची।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिशिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश। (बृहत्संहिता)
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पिशित  : पुं० [सं०√पिश्+क्त] १. मांस। गोश्त। २. मांस का टुकड़ा या बोटी।
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पिशिता  : स्त्री० [सं० पिशित+टाप्] जटामासी।
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पिशिताशन  : पुं० [सं० पिशित-अशन, ब० स०] १. वह जो मनुष्यों को खाता हो। २. राक्षस। ३. भेड़िया।
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पिशिनी  : स्त्री० दे० ‘पिशी’।
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पिशी  : स्त्री० [सं०√पिश्+क+ङीष्] जटामासी।
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पिशील  : पुं० [सं०√पिश्+ईल] मिट्टी का प्याला या कटोरा। (शतपथ ब्रा०)
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पिशुन  : वि० [सं०√पिश्+उनन्] [भाव० पिशुनता] १. नीच। ३. क्रूर। ३. चुगलखोर। पुं० १. वह प्रेत जो गर्भिणी स्त्रियों को बाधा पहुँचाता हो। २. एक की दूसरे से बुराई करके दो पक्षों में लड़ाई करानेवाला व्यक्ति। ३. केसर। ४. तगर। ५. कपाल। ६. नारद। ७. कौआ।
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पिशुनता  : स्त्री० [सं० पिशुन+तल्+टाप्] १. पिशुन होने की अवस्था या भाव। २. चुगलखोरी। ३. असबर्ग।
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पिशुन-वचन  : पुं० [ष० त०] चुगली।
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पिशुना  : स्त्री० [सं० पिशुन+टाप्] चुगलखोरी।
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पिशोन्माद  : पुं० [ब० स०] वैद्यक में, एक प्रकार का उन्माद या पागल-पन जिसमें रोगी प्रायः ऊपर को हाथ उठाये रहता, अधिक बकता और रोता तथा गन्दा या मैला-कुचैला बना रहता है।
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पिशोर  : पुं० [देश०] हिमालय में होनेवाली एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पतली, लचीली टहनियाँ बोझ बाँधने तथा टोकरे आदि बनाने के काम आती हैं।
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पिष्ट  : वि० [सं०√पिष् (पीसना)+क्त] १. पिसा या पीसा हुआ। २. चूर्ण किया हुआ। ३. निचोड़ा हुआ। पुं० १. पानी के साथ पिसा हुआ अन्न, विशेषतः दाल। पीठी। २. कोई ऐसा पकवान जिसके अन्दर पीठी भरी हो। ३. सीसा।
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पिष्टक  : पुं० [सं० पिष्ठ+कन्] १. पिष्ट अर्थात् पीठी का बना हुआ खाद्य पदार्थ। २. तिल का चूर्ण। ३. फूली नामक नेत्र रोग।
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पिष्ट-पचन  : पुं० [ष० त०] १. कड़ाही। २. तवा।
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पिष्ट-पशु  : पुं० [ष० त०] बलि चढ़ाने के काम के लिए गुँधे हुए आटे का बनाया हुआ पशु।
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पिष्ट-पाचक  : पुं० [ष० त०] कड़ाही या तवा जिस पर पीसी हुई चीजें पकाई जाती है।
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पिष्ट-पिंड  : पुं० [ष० त०] बाटी नामक पकवान। लिट्टी।
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पिष्ट-पूर  : पुं० [सं० पिष्ट√पूर् (पूर्ण करना)+णिच्+अण्] =घृतपूर।
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पिष्ट-पेषण  : पुं० [ष० त०] १. पीसी हुई चीज को फिर से पीसना। २. उक्त के आधार पर ठीक तरह से पूरे किये हुए कार्य को फिर उसी तरह दोहराकर व्यर्थ परिश्रम करना जिस प्रकार पीसी हुई चीज को फिर से पीसने का व्यर्थ परिश्रम किया जाता है।
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पिष्ट-प्रमेह  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में, एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मूत्र के साथ चावल के पानी के समान तरल पदार्थ गिरता है।
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पिष्ट-मेह  : पुं० [ष० त०]=पिष्ट प्रमेह।
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पिष्टवर्ति  : स्त्री० [सं० पिष्ट√वृत्स (बरतना)+इन्] किसी अन्न-चूर्ण का बना हुआ पिंड।
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पिष्ट-सौरभ  : पुं० [ब०स०] पीसे जाने पर सुगंध छोड़नेवाला चंदन।
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पिष्टात  : पुं० [सं० पिष्ट√अत् (गति)+अच्] अबीर। बुक्का।
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पिष्टातक  : पुं० [सं० पिष्टात्+कन्] अबीर। बुक्का।
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पिष्टाद  : वि० [सं० पिष्ट√अद् (खाना)+अण्] जो अन्न-चूर्ण खाता हो।
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पिष्टान्न  : पुं० [पिष्ट-अन्न, कर्म० स०] पीसे हुए अन्न से बना हुआ पकवान।
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पिष्टि  : स्त्री० [सं०√पिश्+क्तिन्] १. पीसा हुआ अन्न। अन्न-चूर्ण। २. पीठी।
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पिष्टिक  : पुं० [सं० पिष्ट+ठन्—इक] चावल की पीठी।
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पिष्टोदक  : पुं० [पिष्ट-उदक, मध्य० स०] ऐसा जल जिसमें पीसा हुआ अन्न मिला या मिलाया गया हो।
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पिष्षना  : स०=पेखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसंग  : वि०, पुं०=पिशंग।
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पिसनहारा  : पुं० [हिं० पीसना+हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० पिसनहारी] वह व्यक्ति जो अन्न पीसकर अपनी जीविका चलाता हो।
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पिसना  : अ० [हिं० पीसना का अ०] १. पीसा जाना। २. बहुत बुरी तरह से इस प्रकार कुचला या दबाया जाना कि बहुत छोटे-छोटे खंड हो जायँ। ३. किसी प्रकार के कष्ट, संकट आदि में पड़ने के कारण अथवा बहुत अधिक थककर चूर या परम शिथिल हो जाना। जैसे—दिन भर कार्यालय में काम करते करते वह पिसा जाता था। संयो० क्रि०—जाना। ४. शोषित किया जाना। शोषित होना।
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पिसर  : पुं० [फा०] पुत्र। बेटा। लड़का।
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पिसरे मुतबन्ना  : पुं० [फा०] दत्तक पुत्र।
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पिसवाज  : स्त्री०=पेशवाज। स्त्री० [फा० पिश्वाज] नर्तकियों के पहनने का लँहगा।
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पिसवाना  : स० [हिं० पीसने का प्रे०] किसी को कुछ पीसने में लगाना या प्रवृत्त करना।
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पिसाई  : स्त्री० [हिं० पीसना] १. पीसने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. चक्की पीसने का व्यवसाय। ३. चक्की पीसने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक। ४. वह अवस्था जिसमें आदमी को बहतु अधिक परिश्रम करते-करते थककर चूर हो जाना पड़ता है। जैसे—दिन भर कार्यालय में पिसाई करने पर संध्या को थका-माँदा घर आता था।
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पिसाच  : पुं०=पिशाच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसान  : पुं० [हिं० पिसना+अन्न] पीसा हुआ अन्न, विशेषतः गेहूँ या जौ का आटा।
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पिसाना  : स०=पिसवाना। अ०=पिसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसानी  : स्त्री०=पेशानी (ललाट)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसिया  : पुं० [हिं० पिसना] एक तरह का लाल रंग का गेहूँ। स्त्री० आटा पीसकर अर्थात् चक्की चलाकर जीविका चलाने का काम।
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पिसी  : स्त्री० [हिं० पिसना] एक तरह का सफेद रंग का गेहूँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसुन  : वि०, पुं०=पिशुन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसुराई  : स्त्री० [देश०] सरकंडे का वह छोटा टुकड़ा जिस पर रूई लपेट कर पूनियाँ बनाते हैं।
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पिसूरी  : पुं० [?] भूरे रंग का एक प्रकार का छोटा हिरन जो मध्य-प्रदेश, उड़ीसा, लंका और दक्षिणी भारत के जंगलों में अधिकता से पाया जाता है। इसके बाल घने, पतले और मुलायम होते हैं।
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पिसेरा  : पुं०=पिसूरी (हिरन)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिसौनी  : स्त्री० [हिं० पीसना] १. पीसने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘पिसाई’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पिस्टल  : स्त्री० [अ०] पिस्तौल।
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पिस्तई  : वि० [हिं० पिस्ता] पिस्ते के रंग का। पीलापन लिए हरे रंग का। जैसे—पिस्तई धोती। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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पिस्ताँ  : पुं० [सं० पयस्तन से फा०] स्त्री का स्तन। छाती।
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पिस्ता  : पुं० [फा० पिस्तः] १. एक प्रकार का छोटा पेड़ जो इराक और अफगानिस्तान आदि देशों में होता है और जिसके फल की गिरी मेवों में गिनी जाती है। २. उक्त के फलों की गिरी जो बहुत स्वादिष्ट होती है।
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पिस्तौल  : स्त्री० [अं० पिस्टल] गोली चलाने की एक प्रकार की छोटी जेबी बंदूक। तमंचा।
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पिस्सी  : स्त्री०=पिसी। (दे०)
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पिस्सू  : पुं० [फा० पश्शः] १. एक प्रकार का छोटा उडऩेवाला कीड़ा जो मच्छर की तरह शरीर का रक्त चूसता है। २. मच्छर।
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पिहकना  : अ० [अनु०] कोयल, पपीहे, मोर आदि का पी पी या पिट्ट पिटट करके चहकना या बोलना।
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पिहात  : पुं० [सं० पिधान] [स्त्री० अल्पा० पिहानी] ढक्कन। ढकना।
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पिहानी  : स्त्री० [हिं० पिहान] १. छोटा ढक्कन। २. ऐसी गुप्त बात जो दूसरों से छिपाई जाय।
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पिहित  : वि० [सं० अपि√धा (धारण करना)+क्त, अकार—लोप] १. ढका हुआ। २. छिपा हुआ। गुप्त। पुं० साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें ऐसी क्रिया का वर्णन होता है जिसके द्वारा यह जतलाया जाता है कि हमने आपके मन का गुप्त भाव ताड़ लिया है।
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पिहुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पिहोली  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो मध्यप्रेदश में और बरार से बंबई तक होता है। इसकी पत्तियाँ सुगंधित होती हैं जिनसे इत्र बनता है। इसे पिचौली भी कहते हैं।
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पींग  : स्त्री० [हिं० पेंग] १. पेड़ की डाल में रस्सा लटकाकर बनाया जानेवाला झूला। (पश्चिम)। २. दे० ‘पेंग’।
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पीजन  : पुं० [सं० पिंजन] भेड़ों के बाल धुनने की धुनकी।
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पींजना  : स० [सं० पिंजन=धुनकी] रूई धुनना। पिंजना। पुं०=धुनिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींजर  : पुं० १. दे० ‘पिजड़ा’. २. दे० ‘पंजर’।
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पींजरा  : पुं०=पिंजरा।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड़] १. वृक्ष का धड़। तना। पेड़ी। २. कटहल के पुराने पेडों की जड़ और तने के बीच का वह अंश जो जमीन में रहता है तथा जिसमें फल लगते हैं जो खोदकर निकाले जाते हैं। ३. कोल्हू के चारों ओर गीली मिट्टी का बनाया हुआ घेरा जिससे ईख की अंगरियाँ या छोटे टुकड़े छटककर बाहर नहीं निकल सकते। ४. चरखे का मध्यभाग। बेलन। ५. दे० ‘पिंड’। ६. दे० ‘पिंड खजूर’।
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पींड़ी  : स्त्री० १.=पिंड़ी। २.=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पींडुरी  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पी  : पुं० दे० ‘पिय’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अनु०] पपीहे के बोलने का शब्द।
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पीऊ  : पुं०=प्रिय (प्रियतम) वि०=परमप्रिय।
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पीक  : स्त्री० [सं० पिच्च] १. चबाये हुए पान का वह रस जो थूका जाता है। पान की थूक। २. वह रंग जो कपड़े को पहली बार रंग में डुबाने से चढ़ता है। (रंगरेज)। वि० [?] ऊँचा-नीचा। ऊबड़-खाबड़। (लश०)
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पीकदान  : पुं० [हिं० पीक+फा० दान=पात्र] वह पात्र जिसमें पीक थूकी जाती है। उगालदान।
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पीकना  : अ० [पी-पी से अनु०] पीपी शब्द करना। जैसे—पपीहे का पीकना।
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पीका  : पुं० [?] वृक्ष का नया कोमल पत्ता। कल्ला। कोंपल। क्रि० प्र०—पनपना।—फूटना।
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पीच  : स्त्री० [सं० पिच्च] वह लसीला पदार्थ जो चावल उबालने पर बच रहता है। माँड़। पुं० [अं० पिच] अलकतरा। स्त्री०=पीक (पान की)।
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पीचना  : अ० [सं० पिच्च] पैरों से कुचलना या रौंदना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीचू  : पुं० [देश०] १. चीलू या जरदालु का पेड़। २. करील का पका हुआ फूल। कचरा टेंटी।
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पीछ  : स्त्री० [हिं० पीछे या पिछला] पक्षी की दुम। पूँछ। स्त्री०=पीच (माँड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीछा  : पुं० [सं० पश्चात्, फा० पच्छा] १. किसी व्यक्ति के शरीर का वह भाग जो उसकी छाती, पेट, मुँह आदि की विपरीत दिशा में पड़ता है। पीठ की ओर का भाग। पृष्ठ भाग। ‘आगा’ का विपर्याय। २. किसी चीज के पीछे की ओर का विस्तार। मुहा०—(किसी का) पीछा करना=(क) किसी को पकड़ने भागने, मारने-पीटने आदि के लिए अथवा उसका पता लगाने या भेद लेने के लिए उसके पीछे-पीछे तेजी से चलना या दौड़ना। जैसे—अपराधी, चोर या शिकार का पीछा करना। (ख) किसी का भेद या रहस्य जानने के लिए छिपकर उसके पीछे-पीछे चलना। जैसे—वह जहाँ जाता था, वहीं पुलिस उसका पीछा करती थी। (ग) दे० नीचे ‘पीछा पकड़ना’। (किसी काम या बात से) पीछा छुड़ाना=अपने साथ होनेवाली किसी अनिष्ट या अप्रिय बात से अपना सम्बन्ध छुड़ाना। पिंड छुड़ाना। जैसे—अफीम या शराब की लत से पीछा छुड़ाना। (किसी व्यक्ति से) पीछा छुड़ाना=जो व्यक्ति किसी काम या बात के लिए पीछे पड़कर बहुत तंग कर रहा हो, उससे किसी प्रकार छुटकारा पाना। पीछा छूटना=(क) पीछा करनेवाले या पीछे पड़े हुए व्यक्ति से छुटकारा मिलना। पिंड छूटना। जान छूटना। (ख) अनिष्ट अथवा अप्रिय काम या बात से छुटकरा मिलना। (ग) किसी प्रकार का या किसी रूप में छुटकारा मिलना। बचाव या रक्षा होना। जैसे—महीनों बाद बुखार से पीछे छूटा है। (किसी व्यक्ति का) पीछा छूटना=किसी का पीछा करने का काम बंद करना। किसी आशा या प्रयोजन से किसी के साथ लगे फिरने या उसके पीछे-पीछे दौड़ने या उसे तंग करने का काम बंद करना। (किसी काम या बात का) पीछा छोड़ना=जिस काम या बात में बहुत अधिक उत्साह या तनमयता से लगे रहे हों, उससे विरत होना अथवा उसका आसंग या ध्यान छोड़ना। पीछा दिखाना=(क) सम्मुख या साथ न रहकर अलग या दूर हो जाना। पीठ दिखाना। जैसे—संकट के समय संगी-साथियों ने भी पीछा दिखाया। (ख) प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि में डर या हारकर भाग जाना। पीठ दिखाना। पीछा देना=दे० ऊपर ‘पीछा दिखाना’। (किसी का) पीछा पकडना=किसी आशा से या अपने कोई उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी का अनुचर या साथी बनना। किसी के आश्रय या सहायता का आकांक्षी बनकर प्रायः उसके साथ लगे रहना। जैसे—किसी रईस का पीछा पकड़ना। (किसी काम या बात का) पीछा भारी होना=(क) पीछे की ओर से शत्रु या संकट की आशंका या भय होना। (ख) अधिक उपयोगी या सहायक अंश का पीछे की ओर आधिक्य होना। (ग) किसी काम के अंतिम या शेष अंश का अधिक कठिन या अधिक कष्टसाध्य होना। पिछला अंश ऐसा होना कि सँभलना कठिन हो। ३. पीछे-पीछे चलकर किसी के साथ लगे रहने की क्रिया या भाव। जैसे—बडे का पीछा है, कुछ न कुछ दे ही जायगा। उदा०—प्रभु मैं पीछौ लियो तुम्हारौ।—सूर। ४. पहनने के वस्त्रों आदि का वह भाग जो पीछे अथवा पीठ की ओर रहता है। जैसे—इस कोट का पीछा ठीक नहीं सिला है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीछू  : अव्य०=पीछे।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीछे  : अव्य० [हिं० पीछा] १. जिस ओर या जिस दिशा में किसी का पीछा या पीठ हो, उस ओर या उस दिशा में। किसी के मुख या सामनेवाली दिशा की विपरीत दिशा में। ‘आगे’ और ‘सामने’ का विपर्याय। जैसे—(क) हम लोग सभापति के पीछे बैठे थे। (ख) मकान के पीछे बहुत बड़ा मैदान था। विशेष—इस अर्थ में उक्त ओर या दिशा में होनेवाले विस्तार का भाव भी निहित है; और इसके अधिकतर मुहा० इसी आधार पर बने हैं। मुहा०—(किसी के) पीछे चलना=किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। अनुकरण करना। जैसे—आजकल तो जो नेता बन सके, उसी के पीछे हजारों आदमी चलने लगते हैं। (किसी चीज या व्यक्ति का) पीछे छूटना=किसी की तुलना में या किसी के विचार से पीछे की ओर रह जाना। जैसे— (क) यात्रियों में से कुछ लोग पीछे छूट गये थे। (ख) हम लोग बातें करते हुए आगे बढ़ गए, और उनका मकान पीछे छूट गया। (किसी काम या बात में किसी के) पीछे छूटना या रह जाना=उन्नति, गति, दौड़ प्रतियोगिता आदि में किसी से घटकर या कम योग्यता का सिद्ध होना। किसी की तुलना में पिछड़ा हुआ सिद्ध होना। जैसे—आणविक आविष्कारों के क्षेत्र में बहुत से देश अमेरिका और रूस से पीछे छूट गये हैं। इस मुहा० में ‘छूटना’ के साथ संयो० क्रि० ‘जाना’ का प्रयोग प्रायः अनिवार्य रूप से होता है। (किसी का किसी व्यक्ति के) पीछे छूटना या लगना=किसी भागे हुए आदमी को पकड़ने के लिए या किसी का भेद, रहस्य आदि जानने के लिए किसी का नियुक्त किया जाना या होना। जैसे—डाकुओं का पता लगाने के लिए बीसियों जासूस (या सिपाही उनके पीछे छूटे या लगे) थे। (किसी काम या बात में किसी को) पीछे छोडना= किसी विषय में औरों से बढ़कर इस प्रकार आगे हो जाना कि और लोग उसकी तुलना में न आ सकें या बराबरी न कर सकें। कौशल, योग्यता, सामर्थ्य आदि में औरों से आगे बढ़ जाना। जैसे—अपने काम में वह बहुतों को पीछे छोड़ गया है। (किसी को किसी के) पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना=(क) जासूस या भेदिया बनाकर किसी को किसी के साथ लगाना। भेदिया नियुक्त करना या साथ लगाना। (ख) भागे हुए व्यक्ति को पकड़कर लाने के लिए कुछ लोगों को नियुक्त करना। (किसी को किसी के) पीछे डालना=दे० ऊपर (किसी के) ‘पीछे छोड़ना, भेजना या लगाना’। (धन) पीछे डालना=भविष्यत् की आवश्यकता के लिए खर्च से बचाकर कुछ धन एकत्र करके रखना। आगे के लिए संचय करना। जैसे—हर महीने दस-पाँच रुपए बचाकर पीछे भी डालते चलना चाहिए। (किसी काम या व्यक्ति के) पीछे दौड़ना या दौड़ पड़ना=बिना सोचे समझे किसी काम या बात में लग जाना या किसी का अनुगामी अथवा अनुयायी बनना। (किसी को किसी के) पीछे दौड़ाना=गये या जाते हुए आदमी को बुला या लौटा लाने या उसे कोई संदेशा पहुँचाने के लिए किसी को उसके पीछे भेजना। (किसी काम या बात के) पीछे पड़ना या पड़ जाना=किसी काम को कर डालने पर तुल जाना। किसी कार्य के लिए बहुत परिश्रमपूर्वक निरंतर उद्योग करते रहना। (कुछ कुत्सित या हीन भाव का सूचक) जैसे—तुम्हारी यह बहुत बुरी आदत है कि तुम हर काम या बात के पीछे पड़ जाते हों। (किसी व्यक्ति के) पीछे पड़ना=(क) कोई काम करने के लिए किसी से बहुत आग्रहपूर्वक और बार बार कहना। (ख) किसी को बहुत अधिक तंग, दुःखी या परेशान करने के लिए कटिबद्ध होना। (किसी के) पीछे लगना=(क) किसी का अनुगामी या अनुयायी बनना। किसी का अनुकरण करना। (ख) दे० ऊपर (किसी काम, बात या व्यक्ति के) पीछे पड़ना। (किसी व्यक्ति को अपने) पीछे लगाना=किसी को अपना अनुगामी या अनुयायी बनाना। (कोई काम या बात अपने) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार घनिष्ठ रूप में अपने साथ सम्बद्ध करना कि सहसा उससे बचाव, रक्षा या विरक्ति न हो सके। जान-बूझकर ऐसे का या बात से सम्बद्ध होना जिससे तंग, दुःखी या परेशान होना पड़े। जैसे—तुमने यह व्यर्थ का झगडा अपने पीछे लगा लिया है। (किसी व्यक्ति को किसी के) पीछे लगाना=किसी का भेद या रहस्य जानने अथवा किसी को तंग करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को उत्साहित या नियत करना। जैसे—वे तो चुपचाप घर बैठे हैं, पर अपने आदमियों को उन्होने हमारे पीछे लगा दिया है। (कोई काम या बात किसी के) पीछे लगाना=कोई काम या बात इस प्रकार किसी के साथ सम्बद्ध करना कि वह उससे तंग, दुःखी या परेशान हो, अथवा सहज में अपना बचाव या रक्षा न कर सके। जैसे—बीड़ी पीने की लत तुम्हीं ने उसके पीछे लगा दी है। २. अनुपस्थिति या अविद्यमान होने की अवस्था में। किसी के सामने न रहने की दशा में। जैसे—किसी के पीछे उसकी बुराई करना बहुत अनुचित है। पद—पीठ पीछे=दे० ‘पीठ’ के अन्तर्गत यह पद। ३. किसी के इस लोक में न रह जाने की दशा में। मर जाने पर। मरणोपरांत। जैसे—आदमी के पीछे उसका नाम ही रह जाता है। ४. कोई काम, घटना, या बात हो चुकने पर, उसके बाद। उपरांत। फिर। जैसे—पहले तो उन्होंने बहुत धन गँवाया था, पर पीछे वे संभल गये थे। विशेष—इस अर्थ में कभी-कभी यह ‘पीछे को’ या ‘पीछे से’ के रूप में भी प्रयुक्त होता है। जैसे—पीछे को (या पीछे से) हमें दोष मत देना। ५. कालक्रम, देश आदि के विचार से किसी के पश्चात या उपरांत। घटना या स्थिति के विचार से किसी के अनंतर, कुछ दूर या कुछ देर बाद। उपरांत। पश्चात्। जैसे—सब लोग एक पंक्ति में एक दूसरे के पीछे चल रहे थे। ६. किसी के अर्थ से, कारण या खातिर। निमित्त। लिए। वास्ते। जैसे—तुम्हारे पीछे ही मैं ये सब कष्ट सह रहा हूँ। ७. प्रति इकाई के विचार से या हिसाब से। जैसे—अब आदमी पीछे पाव भर आटा पड़ता या मिलता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीटन  : पुं०=पिटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पीटना  : स० [सं० पीडन] १. किसी जीव पर उसे चोट पहुँचाने अथवा सजा देने के उद्देश्य से किसी चीज से जोर से आघात करना। जैसे—लड़के को छड़ी से पीटना। २. किसी पदार्थ पर इस प्रकार किसी भारी चीज से निरंतर आघात करना कि उसमें कुछ विशिष्ट विकार आ जाय। जैसे—(क) दुरमुस से कंकड पीटना। (ख) पिटने से कपड़ा पीटना। (ग) हथौड़ी से पत्थर पीटना। ३. घोर, दुःख, व्यथा या शोक प्रदर्शित करने के लिए दोनों हाथों की हथेलियों से अपने किसी अंग पर जोरों से आघात करना। जैसे—छाती, मुँह या सिर पीटना। ४. चौसर, शतरंज आदि के खेलों में, विपक्षी की गोट या मोहरा मारना। जैसे—हाथी, घोड़ा या प्यादा पीटना। ५. जैसे-तैसे किसी से कुछ प्राप्त या वसूल करना। ६. जैसे-तैसे कोई काम पूरा करना। पुं० १. मृत्यु-शोक। मातम। विलाप। जैसे—यहाँ यह कैसा पीटना पड़ा हुआ है ! २. आपद। मुसीबत।
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पीठ  : पुं० [सं० पा√(पीना)+ठक्, पृषो० सिद्धि] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। जैसे—चौकी, पीढ़ा, सिंहासन आदि। २. विद्यार्थियों, व्रतधारियों आदि के बैठने के लिए बना हुआ कुश का आसन। ३. नीचे वाला वह आधार जिस पर मूर्ति रखी या स्थापित की जाती है। ४. वह स्थान जहाँ बैठकर किसी प्रकार का उपदेश, शिक्षा आदि दी जाती हो। जैसे—धर्म-पीठ, विद्या-पीठ, व्यासपीठ आदि। ५. किसी बड़े अधिकारी या सम्मानित व्यक्ति के बैठने का स्थान, आसन और पद। (चेयर) जैसे—(क) अमुक विद्यालय में हिन्दी की उच्च शिक्षा के लिए एक पीठ स्थापित हुआ है। (ख) आपको जो कुछ कहना हो वह पीठ को संबोधित कर कहें। ६. न्यायाधीश अथवा न्यायाधीशों का वर्ग। (बेंच) ७. बैठने का एक विशिष्ट प्रकार का आसन, ढंग या मुद्रा। ८. राजसिंहासन। ९. वेदी। १॰. प्रदेश। प्रान्त। ११. उन अनेक तीर्थों या पवित्र स्थनों में से प्रत्येक जहाँ पुराणानुसार दक्ष-कन्या सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा था। विशेष—भिन्न-भिन्न पुराणों में ऐसे स्थानों की संख्या ५१,५३,७७ या १०८ कही गई है। इनमें से कुछ को उप-पीठ और कुछ को महापीठ कहा गया है। तांत्रिकों का विश्वास है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से सिद्धि बहुत शीघ्र प्राप्त होती है। प्रत्येक पीठ में एक-एक शक्ति और एक-एक भैरव का निवास माना जाता है। १२. कंस का एक मंत्री १३. एक असुर। १४. गणित में वृत्त के किसी अंग का पूरक। स्त्री० [सं० पृष्ठ] प्राणियों के शरीर का वह भाग जो उनके सामने वाले अंगों अर्थात् छाती, पेट आदि की विपरीत दिशा में या पीछे की ओर पड़ता है और जिसमें लंबाई के बल रीढ़ होती है। पृष्ठ। पुश्त। विशेष—यह भाग गरदन के नीचेवाले भाग से कमर तक (अर्थात् रीढ़ की अंतिम गुरिया तक) विस्तृत होता है मनुष्यों में यह भाग सदा पीछे की ओर रहता है, और कीड़े-मकोड़ों, चौपायों आदि में ऊपर या आकाश की ओर। पशुओं के इसी भाग पर सवारी की जाती और माल लादा जाता है, इसीलिए इसके कुछ पद और मुहा० इस तत्त्व के आधार पर भी बने हैं। यह भाग पीछे की ओर होता है। इसलिए इसके कुछ पदों और मुहा० में परवर्ती पिछले या बादवाले होने का तत्त्व या भाव भी निहित है। इसके सिवा इसमें सहायक साथी आदि के भाव भी इसलिए सम्मिलित हैं कि वे प्रायः पीछे की ओर ही रहते हैं। पद—पीठ का=दे० नीचे ‘पीठ’ पर का पीठ का कच्चा=(घोड़ा) जो देखने में हृष्ट-पुष्ट और सजीला हो, पर सवारी का काम ठीक तरह से न देता हो। पीठ का सच्चा=(घोड़ा) जो सवारी का ठीक और पूरा काम देता हो। पीठ पर=एक ही माता द्वारा जन्मे क्रम में किसी के तुरन्त बाद का। ठीक उपरांत का। जैसे—इस लड़की की पीठ पर का यही लड़का है। (किसी के) पीठ पीछे=किसी की अनुपस्थिति, अविद्यामानता या परोक्ष में। किसी के सामने न रहने की दशा में। किसी के पीछे। जैसे—किसी के पीठ-पीछे उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। मुहा०—(किसी की) पीठ खाली होना=पोषक या सहायक से रहित अथवा हीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। जैसे—उसकी पीठ खाली है; इसी लिए उस पर इतने अत्याचार होते हैं। (किसी की) पीठ ठोंकना=(क) कोई अच्छा काम करने पर कर्ता की पीठ थप-थपाते हुए या यों ही उसका अभिनन्दन या प्रशंसा करना, (ख) किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए उत्साहित करना (ग) दे० नीचे ‘पीठ थपथपाना’। पीठ थपथपाना=पशुओं आदि के विशेष परिश्रम करने पर उन्हें उत्साहित करने तथा धैर्य दिलाने के लिए अथवा क्रुद्ध होने अथवा बिगडने पर शांत करने के लिए उनकी पीठ पर हथेली से धीरे-धीरे थपकी देना। (किसी को) पीठ दिखाकर जाना=ममता, स्नेह आदि का विचार छोड़कर कहीं दूर चले जाना। जैसे—प्रेमी का प्रेमिका को पीठ दिखाकर जाना, या मित्र का अपने बंधुओं और स्नेहियों को पीठ दिखाकर जाना। पीठ दिखाना=प्रतियोगिता, लड़ाई-झगड़े आदि के समय सामने न ठहर सकने के कारण पीछे हटना या भाग जाना। दबने के कारण मैदान छोड़कर सामने से हट जाना। जैसे—दो ही दिन में लड़ाई में शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। पीठ देना=(क) चारपाई या बिस्तर पर पीठ रखना। लेट कर आराम करना। जैसे—लडके की बीमारी के कारण इन दिनों पीठ देना मुश्किल हो गया है। (ख) दे० नीचे ‘पीठ फेरना’। (किसी की ओर) पीठ देना=किसी की ओर पीठ करके बैठना। पीठ पर खाना=भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। (कायरता का सूचक) जैसे—पीठ पर खाना मरदों का काम नहीं है। पीठ पर हाथ फेरना=दे० ऊपर ‘पीठ ठोंकना’। (किसी का किसी की) पीठ पर होना=जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के ठीक पीछे जन्म ग्रहण करना। (किसी का) पीठ पर होना=सहायक होना। सहायता के लिए तैयार होना। मदद या हिमायत पर होना। जैसे—आज मेरी पीठ पर कोई नहीं हैं, इसी लिए न तुम इतना रोब जमाते हो। पीठ फेरना=(क) कहीं से प्रस्थान करना। बिदा होना। (ख) ममता, स्नेह आदि का ध्यान छोड़कर अलग या दूर होना। (ग) अरुचि, उदाहरण-सीनता आदि प्रकट करते हुए विमुख या विरक्त होना। अलग, किनारे या दूर होना। (घ) सामने से भाग या हट जाना। पीठ मींजना=दे० ऊपर पीठ ठोंकना। (चारपाई से) पीठ लग जाना=बीमारी के कारण उठने-बैठने में असमर्थ हो जाना। जैसे—अब तो चारपाई से पीठ लग गई हैं, वे उठ-बैठ भी नहीं सकते। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगना=कुश्ती में हारकर चित्त होना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (किसी पशु की) पीठ लगना=काठी, चारजामे, जीन आदि की रगड़ के कारण पीठ पर घाव होना। जैसे—जिस घोड़े की पीठ लगी हो, उस पर सवारी नहीं करनी चाहिए। (चारपाई से) पीठ लगना=आराम करने के लिए लेटने की स्थिति में होना। (किसी व्यक्ति की) पीठ लगाना=कुश्ती में गिरा, पछाड़ या पटक पर चित्त करना है। २. पहनने के कपड़ों का वह भाग जो पीठ की ओर रहता या पीठ पर पड़ता है। ३. आसन आदि में वह भाग जो पीठ के सहारे के लिए बना रहता है। जैसे—कुरसी की पीठ खराब हो गई है, उसे बदलवा दो। ४. किसी वस्तु की रचना में, उसके अगले, ऊपरी या सामने वाले भाग से भिन्न और पीछेवाला भाग। जैसे—(क) पत्र की पीठ पर पता भी लिख दो। (ख) पदक की पीठ पर उसके दाता का नाम भी खुदा हुआ था। ५. पुस्तक का वह भाग जिसमें अन्दर के पृष्ठों की सिलाई रहती हैं, और जो उसे अलमारी में खड़ी करके रखने पर सामने की ओर रहता है। पुट्ठा। जैसे—पुस्तक की पीठ पर सुनहले अक्षरों में उनका नाम छपा था।
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पीठक  : पुं० [सं० पीठ+कन्] १. वह चीज जिस पर बैठा जाय। जैसे—कुरसी, चौकी, पीढ़ा आदि। २. एक तरह की पालकी।
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पीठ-केलि  : पुं० [ब० स०] १. विश्वसनीय व्यक्ति। २. वह जो दूसरों का पोषण करता हो।
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पीठ-गर्भ  : पुं० [ष० त०] वह गड्ढा जिसमें मूर्ति के पैर या निचला अंश जमाकर उसे खड़ा किया जाता है।
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पीठ-चक्र  : पुं० [ब० स०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रथ।
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पीठ-देवता  : पुं० [मध्य० स०] आदि शक्ति जो सारी सृष्टि का मूल आधार है।
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पीठ-नायिका  : स्त्री० [ष० त०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठाती देवी। २. दुर्गा। ३. लोक में, वह कुमारी जिसकी पूजा दुर्गा-पूजा के दिनों में की जाती है।
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पीठ-न्यास  : पुं० [स० त०] तंत्र में एक मुख्य न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओं में आवश्यक है।
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पीठ-भू  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीर के आसपास का भू-भाग। चहारदीवारी के आसपास की जमीन।
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पीठ-दर्द  : वि० [स० त०] बहुत अधिक ढीठ और निर्लज्ज। पुं० १. साहित्य में नायक के चार प्रकार के सखाओं में से वह जो रुष्ट नायिका को मनाने और उसका मान हरण करने में सहायक होता है। २. किसी साहित्यिक रचना के मुख्य पात्र का वह सखा जो गुणों में उससे कुछ घटकर होता है। जैसे—रामायण में राम का सखा सुग्रीव। ३. वेश्याओं को नाच-गाना सिखलानेवाला व्यक्ति। उस्ताद।
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पीठ-मर्दिका  : स्त्री० [ष० त०] नायिका की वह सखी जो नायक को रिझाने में नायिका की सहायता करती है।
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पीठ-विवर  : पुं० [ष० त०] पीठगर्भ। (दे०)
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पीठ-सर्प  : वि० [सं० पीठ√सृप् (गति)+अच्] लंगड़ा।
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पीठ-सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० पीठ√सृप्+णिनि] लंगड़ा।
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पीठ-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वे स्थान जो यक्ष की कन्या सती के अंग या आभूषण गिरने के कारण पवित्र माने जाते हैं। (दे० ‘पीठ’ १. ) २. प्रतिष्ठान (आधुनिक झूसी का एक पुराना नाम)।
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पीठा  : पुं० [सं० पिष्टक्, प्रा० पिट्ठक्] आटे की लोई में पीठी भरकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान। पुं०=पीढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीठासीन  : वि० [पीठ-आसीन; स० त०] जो पीठ अर्थात् अध्यक्ष के स्थान पर आसीन हो। (प्रेसाइडिंग)
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पीठासीन-अधिकारी  : पुं० [कर्म० स०] वह अधिकारी जो अध्यक्ष पद पर रहकर अपनी देख-रेख में कोई काम कराता हो। (प्रेसाइडिंग आफिसर)।
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पीठि  : स्त्री०=पीठ।
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पीठिका  : स्त्री० [सं० पीठ+कन्+टाप्. इत्व] १. छोटा पीढ़ा। पीढ़ी। २. वह आधार जिस पर कोई चीज विशेषतः देवमूर्ति रखी, लगाई या स्थापित की गई हो। ३. ग्रंथ के विशिष्ट विभागों में से कोई एक। जैसे—पूर्वपीठिका, उत्तर-पीठिका।
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पीठी  : स्त्री० [सं० पिष्ट या पिष्टक, प्रा० पिट्ठा] १. भींगी हुई दाल को पीसने पर तैयार होनेवाला रूप। जैसे—उड़द या मूँग की पीठी। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना। विशेष—पीठी की टिकिया तलकर बड़े, सुखाकर बरियाँ और लोई भरकर कचौड़ियाँ आदि बनाई जाती है।
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पीड़  : पुं० [सं० पिंड] मिट्टी का वह आधार जिसे घड़े को पीटकर बढ़ाते समय उसके अन्दर रख लेते हैं। पुं०=आपीड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीड़क  : वि० [सं०√पीड़+ण्वुल्—अक] पीड़क। (दे०)
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पीड़क  : वि० [सं० पीड़क से] १. जो दूसरों को शारीरिक कष्ट पहुँचाता हो। पीड़ा देनेवाला। २. अधिक व्यापक अर्थ में, बहुत बड़ा अत्याचारी या जुल्मी। ३. दबाने या पीसनेवाला। जैसे—पीड़क-चक्र=वह पहिया जो दबाता या पीसता हो।
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पीड़न  : पुं० [सं०√पीड+ल्युट्—अन] पीड़न। (दे०)
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पीड़न  : पुं० [सं० पीडन से] [कर्ता, पीड़क, वि० पीड़नीय, भू० कृ० पीड़ित] १. व्यक्तियों के सम्बन्ध में, किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाना। तकलीफ देना। २. चीजों के संबंध में, जोर से कसना, दबाना या पीसना। ३. पेरना। ४. अच्छी तरह से या मजबूती से पकड़ना। ५. नष्ट करना। ६. ग्रहण। जैसे—ग्रह-पीड़न। ७. स्वरों के उच्चारण करने में होनेवाला एक तरह का दोष।
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पीडनीय  : वि० [सं०√पीड़+अनीयर] पीड़नीय। (दे०)
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पीड़नीय  : वि० [सं० पीडनीय से] १. जिसका पीड़न हो सके या किया जाने को हो। २. जिसे कष्ट पहुँचाया या पहुँचाया जाने को हो। पुं० याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार ऐसा राजा या राज्य जो अच्छे मंत्री और उपयुक्त सेना से रहित हो और इसी लिए सहज में दबाकर अपने अधिकार में किया जा सकता है।
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पीड़-पखा  : पुं० [सं० अपीड+पक्ष=पंख] [स्त्री० अल्पा० पीड़-सखी] १. सिर पर की चोटी या बालों की पट्टी। २. सिर पर पहना जानेवाला एक प्रकार का आभूषण। उदा०—कै मयूर की पीड़ पखी री।—सूर।
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पीड़ा  : स्त्री० [सं०√पीड्+अङ्+टाप्] पीड़ा। (दे०)
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पीड़ा  : स्त्री० [सं० पीडा से] १. प्राणियों को दुःखित या व्यथित करनेवाली वह अप्रिय अनुभूति जो किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक आघात लगने, कष्ट पहुँचने, या हानि होने पर उत्पन्न होती है उसे बहुत ही खिन्न, चिंतित तथा विकल रखती है। तकलीफ। वेदना। (पेन) जैसे—धन-नाश,पुत्र-शोक,प्रिय के वियोग या विरह के कारण होनेवाली पीड़ा। २. सामान्य अर्थ में, शरीर के किसी अंग पर चोट लगने या उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होने पर अथवा शारीरिक क्रियाओं को अव्यवस्थित होने पर उत्पन्न होनेवाली उक्त प्रकार की वह अनुभूति जिसका ज्ञान सारे शरीर को स्नायविक तंत्र के द्वारा होता है। दरद। (पेन) जैसे—अपच के कारण पेट में, ज्वर के कारण सिर में अथवा ऊँचाई से गिर पड़ने के कारण हाथ-पैर में पीड़ा होना। ३. कोई ऐसी खराबी या गड़बड़ी जिससे किसी प्रकार की व्यवस्था में बाधा होती हो और वह ठीक तरह से न चलने पाती हो। कष्टदायक अव्यवस्था। जैसे— (क) राक्षसों के उपद्रव से ऋषि मुनियों के आश्रम में पीड़ा होती थी। (ख) दरिद्रता की पीड़ा से सारा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया (ग) काम वासना की पीडा से वह विकल हो रहा था। ४. बीमारी। रोग। व्याधि। ५. प्रतिबंध। रुकावट। ६. विनाश। ७. क्षति। नुकसान। हानि। ८. करुणा। दया। ९. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण। उपराग। १॰. सिर पर लपेटकर बाँधी जानेवाली माला। शिरोमणि। ११. धूप-सरल या सरल नामक वृक्ष।
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पीडाकर  : वि० [सं० पीड़ा√कृ (करना)+ट] पीड़ा या कष्ट देनेवाला।
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पीडा-गृह  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ किसी को कष्ट पहुँचाया जाता हो।
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पीडा़-स्थान  : पुं० [सं० स० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार जन्मकुण्डली में उपचय अर्थात् लग्न से तीसरे, छठे, दसवें और ग्यारहवें स्थान के अतिरिक्त शेष स्थान जो अशुभ ग्रहों के स्थान माने गये हैं।
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पीडिका  : स्त्री० [सं० पीड़ा+कन्—टाप्, इत्व] फुड़िया। फुंसी।
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पीडित  : वि० [सं०√पीड़+क्त] पीड़ित। (दे०)
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पीड़ित  : वि० [सं० पीड़ित] १. जो किसी प्रकार की पीड़ा से ग्रस्त हो। जैसे—रोग से पीड़ित। २. जो दूसरों के अत्याचार, जुल्म आदि से आक्रांत और फलतः कष्ट में हो। जैसे—पीड़ित जन समाज। ३. जिसे दबाया या पीसा गया हो। ४. जो नष्ट कर दिया गया हो। ५. जो किसी चीज के प्रभाव या फल से अपने को दुःखी समझता हो। सताया हुआ। जैसे—जग पीड़ित रे अति सुख से।—पंत।
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पीड़ी  : स्त्री० [सं० पीठ] १. देव-स्थान। देवपीठ। २. वेदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीडुरी  : स्त्री०=पिंडली।
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पीढ़ा  : पुं० [सं० पीठ अथवा पीढक] [स्त्री० अल्पा० पीढ़ी] १. प्रायः लकड़ी का बना हुआ चौकी के आकार का वह छोटा आसन जिसके पाये बहुत कम ऊँचे होतें हैं, और जिस पर हिन्दू लोग भोजन करते समय बैठते हैं। २. विस्तृत अर्थ में, बैठने का कोई आसन। मुहा०— (किसी को) ऊंचा पीढ़ा देना=विशेष आदर-सम्मान प्रकट करते हुए अच्छे या ऊँचे आसन पर बैठना। ३. सिंहासन।
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पीढ़ी  : स्त्री० [हिं० पीढ़ा का स्त्री० अल्पा०] बैठने के लिए एक विशेष प्रकार की छोटी चौकी। छोटा पीढ़ा। स्त्री० [सं० पीठिका] १. किसी कुल या वंश की परम्परा में, क्रम क्रम से आगे बढ़नेवाली संतान की प्रत्येक कड़ी या स्थिति। जैसे—(क) बाप, दादा और परदादा ये तीन पीढ़ियाँ, अथवा बाप-बेटे और पोते की तीन पीढ़ियाँ। (ख) हमारे पास अपने पूर्वजों के बीस पीढ़ियों के वंश-वृक्ष है। २. उक्त कड़ी या स्थिति के वे सब लोग जो रिश्ते या संबंध में आपस में प्रायः बराबरी के हों। वंश-क्रम में प्रत्येक श्रृंखला के क्षेत्र के सब लोग। जैसे—(क) उनकी दूसरी पीढ़ी में तो दस ही आदमियों का परिवार था; पर चौथी पीढ़ी में परिवार वालों की संख्या बढ़कर साठ तक पहुँची थी। (ख) हमारी सात पीढ़ियों में से किसी पीढी ने कभी ऐसा अनाचार न किया होगा। ३. किसी जाति देश या समाज के वे सब लोग जो किसी विशिष्ट काल में प्रायः कुछ आगे-पीछे जन्म लेकर साथ ही रहते हों। किसी विशिष्ट समय का वह सारा जन समुदाय जिनकी अवस्था या वय में अधिक छोटाई-बड़ाई न हो। जैसे—ये नई पीढ़ी के लोग ठहरे, इनमें पुरानी पीढ़ी के लोगों का सा आचार-विचार नहीं रह गया है। ४. किसी प्रकार की परम्परागत स्थिति। उदा०—सदा समर्थन करती उसका तर्क-शास्त्र की पीढ़ी।—प्रसाद।
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पीत  : वि० [सं०√प+क्त+अच्] [स्त्री० पीता] १. पीले रंग का। पीला। २. भूरा। (क्व०)। पुं० [√पा+क्त] १. पीला रंग। भूरा रंगा। ३. हरताल। ४. हरिचंदन। ५. कुसुम। बर्रे। ६. अंकोल का वृक्ष। ढेरा। ७. सिहोर का पेड़। ८. धूप सरल। ९. बेंत। १॰. पुखराज। ११. तुन। नंदिवृक्ष। १२. एक प्रकार की सोमलता। १३. पीली कटसरैया। १४. पद्मकाष्ठ। पदमाख १५. पीला खस। १६. मूँगा। भू० कृ० [सं० √पा (पीना)+क्त] जो पान किया गया हो। पीया हुआ।
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पीतकंद  : पुं० [ब० स०] गाजर।
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पीतक  : पुं० [सं० पीत+क] १. हरताल। २. केसर। ३. अगर। ४. पदमाख। ५. सोनामाखी। ६. तुन। ७. विजयसार। ८. सोनापाठा। ९. हल्दी। हरिद्रा। १॰. किंकिरात। ११. पीतल। १२. पीला चंदन। १३. एक प्रकार का बबूल। १४. शहद। १५. गाजर। १६. सफेद जीरा। १७. पीली लोध। १८. चिरायता। १९. अंडे के आकार का पीला अंश। अंडे की जरदी। वि० पीले रंग का । पीला।
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पीत-कदली  : स्त्री० [कर्म० स०] सोन केला।
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पीतक-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] हलदुआ। हरिद्रवृक्ष।
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पीत-करवीरक  : पुं० [कर्म० स०+क] पीले फूलोंवाला केना।
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पीतका  : स्त्री० [सं० पीतक+टाप्] १. कटसरैया। २. हलदी।
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पीत-कावेर  : पुं० [सं० कु-वेर=शरीर, प्रा० स०, पीत-कावेर, ब० स०] १. केसर। २. पीतल के योग से बनी हुई एक मिश्र धातु जिसके घंटे आदि बनाये जाते हैं।
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पीत-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] १. पीला चंदन। २. पीला अगरु।
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पीत-कीला  : स्त्री० [कर्म० स०] अवर्तकी लता। भागवत वल्ली।
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पीत-कुरवक  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुरुंट  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-कुष्ट  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कोढ़।
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पीत-कुष्मांड  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का कुम्हड़ा।
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पीत-कुसुम  : पुं० [कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीत-केदार  : पुं० [ब० स०] एक तरह का धान।
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पीत-गंध  : पुं० [द्व० स०] पीला चंदन। हरिचंदन।
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पीत-गन्धक  : पुं० [कर्म० स०] गंधक।
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पीत-घोषा  : स्त्री० [कर्म० स०] पीले फूलोंवाली एक तरह की लता।
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पीत-चंदन  : पुं० [कर्म० स०] पीले रंग का चंदन जो पहले द्रविड़ देशों से आता था। हरिचंदन।
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पीत-चंपक  : पुं० [कर्म० स०] १. पीली चंपा। २. दीपक। चिराग।
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पीत-चोप  : पुं० [सं०] पलास का फूल। टेसू।
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पीत-झिंटी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पीले फूलवाली कटसरैया २. एक तरह की कटाई।
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पीत-तंडुल  : पुं० [ब० स०] कँगनी नामक कदन्न।
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पीतता  : स्त्री० [सं० पीत+तल्+टाप्] पीलापन। जद्री।
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पीत-तुंड  : पुं० [ब० स०] बत्तख या हंस की जाति का एक तरह का पक्षी। कारंडव। बया।
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पीत-तैल  : स्त्री० [ब० स०] मालकँगनी।
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पीतत्व  : पुं० [सं० पीत+त्व] पीतता। पीलापन।
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पीतदंतता  : स्त्री० [सं० पीत-दंत, कर्म० स०+तल्+टाप्] दाँतों का एक पित्तज रोग जिसमें दाँत पीले हो जाते हैं।
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पीत-दारु  : पुं० [कर्म० स०] १. देवदारु। २. धूपसरल। ३. हलदुआ। ४. हलदी। ५. चिरायता। ६. कायकरंज।
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पीत-दीप्ता  : स्त्री० [द्व० स०, टाप्] बौद्धों की एक देवी।
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पीत-दुग्धा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] १. दूध देनेवाली गाय। २. वह गाय जिसका दूध महाजन को ऋण के बदले में दिया जाता हो। ३. कटेहरी। ४. ऊँटकटारा। भड़भाँड़। ५. सातला। थूहर।
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पीतद्रु  : पुं० [कर्म० स०] १. दारु-हलदी। २. धूप-सरल। ३. देव-दारू।
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पीत-धातु  : पुं० [कर्म० स०] १. रामरज। २. गोपीचंदन।
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पीतन, पीतनक  : पुं० [सं० पीत√नी+ड] [सं० पीतन+कन्] १. केसर। २. हरताल। ३. धूपसरल। ४. अमड़ा। ५. पाकर।
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पीत-निद्र  : वि० [ब० स०] गहरी नींद में सोया हुआ।
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पीतनी  : स्त्री० [सं० पीतन+ङीष्] सखिन। शालपर्णी।
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पीत-नील  : पुं० [कर्म० स०] नीले और पीले रंग के संयोग से बना हुआ रंग। हरा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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पीत-पराग  : पुं० [कर्म० स०] कमल का केसर।
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पीत-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] वृश्चिकाली (क्षुप)।
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पीत-पादप  : पुं० [कर्म० स०] १. श्योनाक वृक्ष। सोना पाढ़ा। २. लोध।
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पीत-पादा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मैना। सारिका।
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पीत-पुष्प, पीत-पुष्पक  : पुं० [ब० स०] १. कनेर। २. घीया तरोई। ३. पीली कटसरैया। ४. चंपा। ५. पेठा। ६. तगरू। ७. हिंगोट। ८. लाल कचनार।
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पीत-पुष्पका  : स्त्री० [ब० स०,+कप्+टाप्] जंगली ककंड़ी।
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पीत-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. झिझरीटा। २. सहदोई। ३. अरहर। ४. तरोई। तोरी ५. पीली कटसरैया। ६. पीला कनेर। ७. सोन-जूही।
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पीत-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] १. शंखाहुली। २. सहदोई बूटी। ३. बड़ी तरोई। ४. खीरा। ५. इन्द्रा-यण। ६. सोन-जूही।
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पीत-पृष्ठा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] वह कौड़ी जिसकी पीठ पीली हो।
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पीत-प्रसव  : पुं० [ब० स०] १. हिंगपुत्री। २. पीला कनेर।
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पीत-फल  : पुं० [ब० स०] १. सिहोर। २. कमरख। ३. धव का पेड़।
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पीत-फलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] १. सिहोर। २. रीठा। ३. कमरख। ४. धव वृक्ष।
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पीत-फेन  : पुं० [ब० स०] रीठा। अरिष्ठक वृक्ष।
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पीत-बालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-बीजा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] मेंथी।
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पीत-भद्रक  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बबूल। देववर्व्वर।
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पीत-भृंगराज  : पुं० [कर्म० स०] पीला भंगरा।
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पीतम  : वि०=प्रियतम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-मणि  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पुष्पराज मणि।
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पीत-मस्तक  : पुं० [ब० स०] पीले मस्तकवाला एक तरह का पक्षी।
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पीत-माक्षिक  : पुं० [कर्म० स०] सोनामाखी।
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पीत-मारूत  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का साँप।
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पीतमुंड  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का हिरन।
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पीत-मुग्द  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का मूँग।
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पीत-मूलक  : पुं० [ब० स०,+कप्] गाजर।
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पीत-मूली  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] रेवंद चीनी।
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पीत-यूथी  : स्त्री० [कर्म० स०] सोनजूही। स्वर्णयूथिका।
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पीतर  : पुं०=पीतल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-रक्त  : पुं० [कर्म० स०] १. पुखराज। २. पीलापन लिये लाल रंग। वि० पीलापन लिये लाल रंग का।
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पीत-रत्न  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज। पीतमणि।
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पीत-रस  : पुं० [ब० स०] कसेरू।
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पीत-राग  : पुं० [ब० स०] १. पद्मकेसर। २. मोम। ३. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीत-रोहिणी  : स्त्री० [सं० पीत√रुह् (उगना)+णिनि+ङीप्] १. जंबीरी नींबू। २. पीली कुटकी। कुंभेर।
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पीतल  : पुं० [सं० पित्तल] १. एक प्रसिद्ध मिश्र धातु जो ताँबे और जस्ते के मेल से बनती हैं और जिसके प्रायः बरतन बनते हैं। (ब्राँस) २. पीला रंग। वि० पीले रंग का।
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पीतलक  : पुं० [सं० पीतल√कै (भासित होना)+क] पीतल।
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पीत-लोह  : पुं० [कर्म० स०] पीतल (धातु)।
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पीत-वर्ण  : पुं० [ब० स०] १. पीला मेढक। स्वर्ण मंडूक। २. ताड़ का पेड़। ३. कदंब ४. हलदुआ। ५. लाल कचनार। ६. मैनसिल। ७. पीली चंदन। ८. केसर।
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पीत-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] आकाश बेल।
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पीतवान  : पुं० [?] हाथी की दोनों आँखों के बीच का स्थान।
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पीत-वालुका  : स्त्री० [ब० स०] हलदी।
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पीत-वास (स्)  : पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण।
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पीत-बिंदु  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु के चरण-चिह्नों में से एक।
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पीत-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] सोनापाठा।
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पीत-शाल  : पुं० [सं० पीत√शल् (जाना)+अण्] विजयसार नामक वृक्ष।
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पीतशालक  : पुं० [स० पीतशाल+कन्]=पीतशाल।
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पीत-शेष  : वि० [सं० सहसुपा स०] पीने के उपरांत बचा हुआ। (तरल पदार्थ)।
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पीत-शोणित  : वि० [ब० स०] १. जिसने किसी का रक्त पिया हो। २. खूनी। हत्यारा।
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पीतसरा  : पुं० [सं० पितृव्य, हिं० पितिया=ससुर] चचिया ससुर। ससुर का भाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीत-सार  : पुं० [ब० स०] १. पीत चंदन। हरिचंदन। २. सफेद चंदन। ३. गोमेद। ४. अंकोल। ५. विजयसार। ६. शिलारस।
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पीतसारक  : पुं० [सं० पीतसार+कन्] १. नीम का पेड़। २. ढेरे का पेड़।
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पीतसारिका  : स्त्री० [सं० पीत√सृ (गति)+णित्+इन्+कन्+टाप्] काला सुरमा।
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पीतसाल (क)  : पुं०=पीतसाल।
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पीत-स्कंध  : पुं० [ब० स०] १. सूअर। शूकर। २. एक वृक्ष।
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पीत-स्फटिक  : पुं० [कर्म० स०] पुखराज।
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पीत-स्फोट  : पुं० [कर्म० स०] खुजली। १. खसरा नामक रोग।
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पीत-हरित  : वि० [कर्म० स०] पीलापन लिये हरा रंग का। पुं० पीलापन लिये हरा रंग।
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पीतांग  : वि० [पीत-अंग, ब० स०] पीले अंगोंवाला। पुं० १. एक तरह का मेढक जिसका रंग पीला होता है। २. सोनापाठा (वृक्ष)।
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पीताबंर  : पुं० [पीत-अंबर, ब० स०] १. पीले रंग का वस्त्र। पीला कपड़ा। २. एक प्रकार की रेशमी धोती जो हिन्दू लोग प्रायः पूजा-पाठ के समय पहनते हैं। ३. पीले वस्त्र धारण करनेवाला व्यक्ति। जैसे—कृष्ण, नट, संन्यासी विष्णु आदि। वि० जो पीले वस्त्र पहने हुए हो।
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पीता  : स्त्री० [सं० पीत+टाप्] १. हलदी। २. दारूहलदी। ३. बड़ी मालकँगनी। ४. भूरा शीशम। ५. प्रियंगु फल। ६. गोरोचन। ७. अतीस। ८. पीला केला। ९. जंगली बिजौरा नींबू। १॰. जर्दचमेली। ११. देवदारू। १२. राल। १३. असगंध। १४. शालिपर्णी। १५. आकाश बेल। वि० पीले रंगवाली।
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पीताब्धि  : पुं० [पीत-अब्धि, ब० स०] समुद्र पान करनेवाले अगस्त्य मुनि।
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पीताभ  : वि० [पीत-आभा, ब० स०] जिसमें से पीली आभा निकलती हो। जिसमें से पीला रंग झलक रहा हो। पुं० पीला चंदन।
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पीताभ्र  : पुं० [पीत-अभ्र, कर्म० स०] पीले रंग का एक तरह का अभ्रक।
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पीताम्लान  : पुं० [पीत-अम्लान, कर्म० स०] पीली कटसरैया।
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पीतारुण  : पुं० [पीत-अरुण,कर्म० स०] पीलापन लिए हुए लाल रंग। वि० [कर्म० स०] उक्त प्रकार के रंग का। पीलापन लिये लाल।
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पीतावशेष  : वि० [सं० पीत-अवशेष, सहसुपा स०] पीत-शेष।
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पीताश्म (न्)  : पुं० [पीत-अश्मन, कर्म० स०] पुखराज। पुष्परागमणि।
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पीताह्व  : पुं० [पीता-आह्वा] राल।
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पीति  : स्त्री० [सं०√पा (पीना)+क्तिन्] १. पीने की क्रिया या भाव। २. गति। ३. सूँड़। वि० घोड़ा।
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पीतिका  : स्त्री० [सं० पीत+क+टाप्, इत्व] १. हलदी। २. दारु हल्दी। ३. सोनजूही।
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पीती (तिन्)  : पुं० [सं० पीत+इनि] घोड़ा। स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीतु  : पुं० [सं०√पा (पीना या रक्षा करना)+तुन्, कित्व] १. सूर्य २. अग्नि। ३. झुंड का प्रधान हाथी। यूथपति। ४. सेना में हाथियों के दल का नायक।
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पीतदारु  : पुं० [ब० स०] १. गूलर। २. देवदार।
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पीतोदक  : पुं० [पीत-उदक, ब० स०] नारियल (जिसके अन्दर जल या रस रहता है)।
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पीथ  : पुं० [सं०√पा (पीना)+थक्] १. पानी। २. पेय। पदार्थ। ३. घी। ४. अग्नि। ५. सूर्य। ६. काल। ७. समय।
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पीथि  : पुं० [सं० पीति, पृषो० सिद्धि] घोड़ा।
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पीदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।
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पीन  : वि० [सं०√प्याय (बढ़ाना)+क्त, संप्रसारण, नत्व, दीर्घ] [भाव० पीनता] १. आकार-प्रकार की दृष्टि से भारी-भरकम। दीर्घकाय। बहुत बड़ा और मोटा। २. पुष्ट। ३. भरा-पूरा। संपन्न। पुं० मोटाई। स्थूलता।
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पीनक  : स्त्री०=पिनक।
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पीनता  : स्त्री० [सं० पीन+तल्+टाप्] १. पीन होने की अवस्था या भाव। २. मोटाई। स्थूलता।
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पीनना  : सं०=पींजना।
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पीनस  : पुं० [सं० पीन√सो (नष्ट करना)+क] १. सर्दी या जुकाम। २. एक रोग जिसमें नाक से दुर्गन्धमय गाढ़ा पानी निकलता है। स्त्री० [फा० फीनस] १. पालकी नाम की सवारी। २. एक प्रकार की नाव।
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पीनसा  : स्त्री० [सं० पीनस+टाप्] ककड़ी।
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पीनसित, पीनसी (सिन्)  : वि० [सं० पीनस+इतच्] [पीनस+इनि] जिसे पीनस रोग हुआ हो। पीनस रोग से ग्रस्त।
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पीना  : स० [सं० पान] १. जीवों के मुँह के द्वारा या वनस्पतियों का जड़ों के द्वारा स्वाभाविक क्रिया से तरल पदार्थ विशेषतः जल आत्मसात् करना। २. किसी तरह पदार्थ में मुँह लगाकर उसे धीरे-धीरे चूसते हुए गले के रास्ते पेट में उतारना। जैसे—यहाँ रात भर मच्छर हमारा खून पीतें हैं। ३. गाँजे, तमाकू आदि का धूँआ नशे के लिए बार-बार मुँह में लेकर बाहर निकालना। धूम्रपान करना। जैसे—चिलम, बीड़ी, सिरगेट या हुक्का पीना। ४. एक पदार्थ का किसी दूसरे तरल पदार्थ को अपने अन्दर खींचना या सोखना। जैसे—इतना ही आटा (या चावल) पाव भर घी पी गया। ५. लाक्षणिक अर्थ में, धन आत्मसात् करना या ले लेना। जैसे—(क) यह मकान मरम्मत में ५०० रुपए पी गया। (ख) लड़का बुढ़िया का सारा धन पी गया। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ६. मन में कोई या तीव्र मनोविकार होने पर भी उसे अन्दर ही अन्दर दबा लेना और ऊपर या बाहर प्रकट न होने देना। चुपचाप सहकर रह जाना। जैसे—किसी के अपमान करने या गाली देने पर भी क्रोध या गुस्सा पीकर रह जाना। ७. कोई अप्रिय या निंदनीय घटना या बात हो जाने पर उसे चुपचाप दबा देना और उसके संबंध में कोई कारवाई न करना या लोगों में उसकी चर्चा न होने देना। जैसे—ऐसा जान पड़ता है कि सरकार इस मामले को पी गई। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—(कोई गुण या भाव) घोलकर पी जाना=इस बुरी तरह से आत्मसात् करना या दबा डालना कि मानों उसका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था। जैसे—लज्जा (या शरम) तो तुम घोलकर पी गये हों। पुं० १. पीने की क्रिया या भाव। २. शराब पीने की क्रिया या भाव। जैसे—उनके यहाँ पीना-खाना सब चलता है। पुं० [सं० पीडन=पेरना] १. तिल, तीसी आदि की खली। २. किसी चीज के मुँह पर लगाई जानेवाली डाट (लश०)।
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पीनी  : स्त्री० [सं० पिंड या पीडन] तिल, तीसी या पोस्ते की खली।
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पीनोरु  : वि० [सं० पीन-ऊरु, ब० स०] जिसकी जाँघे भारी और मोटी हों।
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पीनोहनी  : स्त्री० [सं० पीन-ऊधस्, ब० स० ङीष्, अनङ+आदेश] बड़े और भारी थन वाली गाय।
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पीप  : स्त्री० [सं० पूय] पके हुए घाव या फोड़े के अन्दर से निकलनेवाला वह सफेद लसदार पदार्थ जो दूषित रक्त का रूपान्तर और विषाक्त होता है। पीब। मवाद। विशेष—रक्त में श्वेत कणों की अधिकता होने से ही इसका रंग सफेद हो जाता है। क्रि० प्र०—निकलना।—बहना।
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पीपर  : पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीपर-पर्न  : पुं० [हिं० पीपल+सं० पर्ण=पत्ता] १. पीपल का पत्ता। २. कान में पहनने का एक आभूषण।
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पीपरा-मूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] पीपल नामक लता की जड़।
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पीपरि  : पुं० [सं० अपि√पृ (बचाना)+इन्, अकार-लोप, दीर्घ] छोटा पाकर वृक्ष। पुं०=पीपल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [सं० पिप्पली] एक लता जिसके फल और जड़े औषध के काम आती हैं। इस लता के पत्ते पान के पत्तों की तरह परन्तु कुछ छोटे, अधिक नुकीले तथा अधिक चिकने होते हैं।
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पीपल  : पुं० [सं० पिप्पल] बरगद की जाति का एक प्रसिद्ध वृक्ष जो भारत में प्रायः सभी स्थानों में अधिकता से पाया जाता है। पर इसमें जटाएँ नहीं फूटती। इसका गोदा (फल) पकने पर मीठा होता है। हिन्दू इसे बहुत पवित्र मानते और पूजते हैं। चलदल। चलपत्र। बोधिद्रुम। स्त्री० [सं० पिप्पली] एक प्रकार की लता जिसकी कलियाँ ओषधि के रूप में काम में आती है। कलियाँ तीन-चार अंगुल लंबी शहतूत (फल) के आकार की और स्वाद में तीखी होती है। पिप्पली। मागधी।
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पीपलामूल  : पुं० [सं० पिप्पलीमूल] एक प्रसिद्ध ओषधि जो पीपल नामक लता की जड़ है। यह चरपरा, तीखा, गरम, रूखा, दस्तावार, पाचक, रेचक तथा कफ वात, आदि को दूर करनेवाला माना जाता है।
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पीपा  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० पीपी] १. लकडी, लोहे आदि का बना हुआ तेल आदि रखने का एक प्रकार का बड़ा आधान। २. राजस्थान के एक प्रसिद्ध राजा जो अपना राज्य छोड़कर साधु और रामानंद के शिष्य बन गये थे।
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पीब  : पुं०=पीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीय  : पुं०=पिय (प्रियतम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयर  : वि०=पीला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीया  : पुं०=प्रिय। (प्रियतम)
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पीयु  : पुं० [सं०√पा (पीना)+कु, नि, सिद्धि] १. काल। २. सूर्य। ३. थूक। ४. कौआ। ५. उल्लू। वि० १. हिंसक। २. प्रतिकूल।
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पीयूक्षा  : स्त्री० [सं० पीयु√उक्ष् (सींचना)+अ+टाप्] पाकर की एक जाति।
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पीयूख  : पुं०=पीयूष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीयूष  : पुं० [सं०√पीय् (संतुष्ट करना)+ऊषन्] १. अमृत। सुधा। २. दूध। ३. गाय आदि के प्रसव के उपरांत, पहले सात दिनों का दूध जो अग्राह्य माना जाता है। पेऊस।
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पीयूष-ग्रंथि  : स्त्री० [मध्य० स०] शरीर के अन्दर मस्तिष्क के निचले भाग की एक ग्रंथि जो कफ उत्पन्न करती है। (पिटयूटरी ग्लैंड)।
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पीयूष-पाणि  : वि० [ब० स०] १. जिसके हाथ में अमृत हो। २. जिसके हाथ की दी हुई चीज में अमृत का सा गुण हों। जैसे—वे पीयूष-पाणि वैद्य थे।
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पीयूष-भानु  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-रुचि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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पीयूष-वर्ष  : पुं० [सं० पीयूष√वृष् (बरसना)+अण्] १. अमृत की वर्षा करनेवाला, चंद्रमा। २. संस्कृत के जयदेव नामक कवि। ३. कपूर। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १॰ और ९ के विश्राम से १९ मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होता है। इसे आनन्दवर्द्धक भी कहते हैं।
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पीर  : स्त्री० [सं० पीड़ा] १. कष्ट। तकलीफ। दुःख। २. दर्द। वेदना। ३. दूसरे का कष्ट या पीड़ा देखकर उसके प्रति मन में होनेवाली करुणा-पूर्ण भावना या सहानुभूति। दूसरे के दुःख से कातर होने की अवस्था या भाव। ४. प्रसव-काल के समय स्त्रियों को होनेवाली पीड़ा या दर्द। क्रि० प्र०—आना।—उठना। मुहा०—(किसी की) पीर जानना या पाना=सहानुभूतिपूर्वक किसी का कष्ट या दुःख समझना। वि० [फा०] [भाव० पीरी] १. वृद्ध। बुड्ढा। २. बड़ा और पूज्य। बुजुर्ग। ३. चालाक। धूर्त। पुं० १. परलोक का मार्ग-दर्शक धर्म-गुरु। २. महात्मा और सिद्ध पुरुष। ३. मुसलमानों का धर्मगुरु। ४. सोमवार का दिन। चंद्रवार।
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पीरजादा  : पुं० [फा० पीरजादा] [स्त्री० पीरजादी] किसी पीर या धर्मगुरु का पुत्र।
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पीरतन  : पुं० [हिं० पियरा+तन (प्रत्यय)] पीलापन। उदा०—कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनुन रहाइ।—कबीर।
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पीरना  : स०=पेरना। उदा०—तेली ह्वै तन कोल्हू करिहौ पाप पुन्नि दोऊ पीरौं।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पीर-नाबालिग  : पुं० [फा० पीर+अ० नाबालिग] ऐसा वृद्ध जो बच्चों के से आचरण, काम या बातें करे। सठियाया हुआ बुड्ढा। बुद्धि भ्रष्ट बूढ़ा।
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पीर-भुचड़ी  : पुं० [फा०+अनु०] जनखों या हिजड़ों के संप्रदाय के एक कल्पित पीर।
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पीरमान  : पुं० [लश०] मस्तूल के ऊपर बँधे हुए वे डंडे जिनके दोनों सिरों पर लट्ट लगे रहते हैं और जिन पर पाल चढ़ाई जाती है। अडडंड़ा।
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पीर-मुरशिद  : पुं० [फा०] गुरु, महात्मा और पूज्यनीय व्यक्ति। प्रायः राजाओं, बादशाहों और बड़ों के लिए भी इसका प्रयोग होता है।
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पीरा  : स्त्री०=पीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [स्त्री० पीरी] पीला।
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पीराई  : पुं० [फा० पीर+आई (प्रत्य०)] १. डफालियों की तरह की एक जाति जिसकी जीविका पीरों के गीत गाने से चलती है। २. उक्त जाति का व्यक्ति। स्त्री०=पीरी (‘पीर’ का भाव०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीरानी  : स्त्री० [फा०] पीर अर्थात् मुसलमानी धर्मगुरु की पत्नी।
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पीरी  : स्त्री० [फा०] १. वृद्ध होने की अवस्था, या भाव। वृद्धावस्था। २. किसी इस्लामी धर्म-स्थान के पीर (महन्त) होने की अवस्था या भाव। ३. दूसरों को अपना अनुयायी या शिष्ट बनाने का धन्धा या पेशा। ४. बहुत बड़ी चालाकी या बहादुरी। जैसे—इतना सा-काम करके तुमने कौन-सी पीरी दिखला दी। ५. किसी प्रकार का विशेषाधिकार। इजारा। ठेका। (व्यंग्य) जैसे—यहाँ क्या तुम्हारे बाबा की पीरी है। ६. कोई अलौकिक या चमत्कापूर्ण कृत्य करने की शक्ति। वि० हिं० ‘पीरा’ (पीला) का स्त्री०।
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पीरु  : पुं० [फा० पील मुर्ग] एक प्रकार का मुरगा।
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पीरोजा  : पुं० दे०=फीरोजा।
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पील  : पुं० [सं० पीलु (हाथी) इसे फा०] १. हाथी। गज। हस्ति। २. शतरंज के खेल का हाथी नामक मोहरा। पुं०=पीलु (पिल्लू नामक कीड़ा)। पुं०=पीलु।
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पीलक  : पुं० [देश०] पीले रंग का एक प्रकार का पक्षी जिसके डैने काले और चोंच लाल होती है।
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पीलखा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।
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पील-पाँव  : पुं०=फील पाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलपाया  : पुं० [फा० पीलपायः] १. आधार या आश्रय के लिए किसी चीज के नीचे लगाई जानेवाली टेक या थूनी। २. किलों आदि की दीवारों के नीचे या साथ सहारे के लिए बनी हुई बहुत मोटी दीवार।
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पीलपाल  : पुं०=फीलवान।
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पीलवान  : पुं०=फीलवान।
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पीलसोज  : पुं० [फा० फतीलसोज] दीयट। चिरागदान।
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पीला  : वि० [सं० पीत] [स्त्री० पीली, भाव० पीलापन] १. (पदार्थ) जो केसर, सोने या हलदी के रंग का हो। पीत। जर्द। २. (शरीर का वर्ण) जो रक्त की कमी के कारण हलका सफेद हो गया हो और जिसमें स्वास्थ्य की सूचक चमक या लाली न रह गई हो। जैसे—बीमारी के कारण उनका सारा शरीर पीला पड़ गया है। क्रि० प्र०—पड़ना। ३. (शरीर का वर्ण) जो भय, लज्जा आदि के कारण उक्त प्रकार का हो गया हो। जैसे—मुझे देखते ही उसका चेहरा पीला पड गया। क्रि० प्र०—पड़ना। पुं० [?] एक प्रकार का रंग जो हलदी या सोने के रंग से मिलता-जुलता होता है। पुं० [सं० पीलु फा० पील] शतरंज का पील, फील या हाथी नामक मोहरा।
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पीला-कनेर  : पुं० [हिं० पीला+कनेर] एक तरह का कनेर जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं।
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पीला-धतूरा  : पुं० [हिं० पीला+धतूरा] ऊँटकटारा। घमोय। भँड़-भाँड़। सत्यानासी।
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पीलापन  : पुं० [हिं० पीला+पन (प्रत्य०)] १. पीले होने की अवस्था, गुण या भाव। पीतता। जर्दी। २. खून की कमी अथवा भय आदि के कारण होनेवाली शरीर की रंगत।
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पीला-बरेला  : पुं० [देश०] बनमेथी। बरियारा।
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पीला-बाला  : पुं०=लामज (तृण)।
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पीला-शेर  : पुं० [हिं० पीला+फा० शेर] अफ्रीका के जंगलों में रहनेवाले शेरों की एक जाति जिसका रंग पीला होता है।
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पीलित  : भू० कृ० [सं०] जिसमें बल डाले गये हों, या पड़े हों। ऐंठा या मरोडा हुआ।
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पीलिमा  : स्त्री० [हिं० पीला] पीलापन। (‘कालिमा’ के अनुकरण पर; असिद्ध रूप)।
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पीलिया  : पुं० [हिं० पीला+इया (प्रत्य०)] कमल नामक रोग जिसमें मनुष्य की आँखें और शरीर पीला पड़ जाता है।
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पीली  : स्त्री० [हिं० पीला=पीत] तड़के या प्रभात के समय आकाश में दिखाई देनेवाली लाली जो कुछ पीलापन लिये होती है। मुहा०—पीली फटना=तड़का या प्रभात होना। पौ फटना।
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पीली-चमेली  : स्त्री० [हिं०] चमेली के पौधों की एक जाति।
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पीली-चिट्ठी  : स्त्री० [हिं० पीला+चिट्ठी] विवाह आदि शुभ कृत्यों का निमंत्रण-पत्र जो प्रायः पीले रंग के कागज पर छपा या लिखा रहता है अथवा जिस पर केसर आदि छिड़का रहता है।
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पीली-जुही  : स्त्री०=सोन-जुही।
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पीली-मिट्टी  : स्त्री० [हिं० पीला+मिट्टी] १. पीले रंग की मिट्टी। २. पटिया आदि पर पोतने की पीले रंग की जमी हुई कड़ी चिकनी मिट्टी।
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पीलु  : पुं० [सं०√पील (रोकना)+ड] १. दो-तीन हाथ ऊँचा एक तरह का क्षुप जिसमें पीले रंग के गुच्छाकार फूल तथा कालापन लिये हुए लाल रंग के छोटे-छोटे गोल फल लगते हैं। ३. उक्त क्षुप का फल। ४. पुष्प। फूल। ५. हाथी। ६. परमाणु। ७. तालु वृक्ष का तना। ८. हड्डी का टुकड़ा। ९. तीर। वाण। १॰. कृमि। कीड़ा। ११. चने का साग। १२. सरकंडे या सरपत का फूल। १३. लाल कटसरैया। १४. अखरोट का पेड़। १५. हाथ की हथेली।
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पीलुआ  : पुं० [देश०] मछली पकड़ने का बहुत बड़ा जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीलुक  : पुं० [सं० पीलु√कै+क] च्यूँटा।
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पीलुनी  : स्त्री० [सं०√पील+उन+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. चने का साग।
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पीलु-पत्र  : पुं० [ब० स०] मोरट नाम की लता।
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पीलु-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] १. चुरनहार। मूर्वा। २. कुँदुरू।
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पीलु-पाक  : पुं० [ष० त०] वैशेषिक का यह सिद्धान्त कि तेज के प्रभाव से पदार्थों के परमाणु पहले अलग-अलग होते और फिर मिलकर एक हो जाते हैं। जैसे—कच्ची मिट्टी के घड़े का जब अग्नि या ताप से संयोग होता है तब पहले परमाणु अलग-अलग होते हैं और फिर लाल होने पर मिलकर एक हो जाते हैं।
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पीलुपाक-वाद  : पुं० [ष० त०] वैशेषिकों का पीलुपाक-संबंधी। मत या सिद्धान्त।
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पीलुपाकवादी (दिन्)  : वि० [पीलुपाकवादी+इनि, (बोलना)+णिनि] पीलुपाकवादा संबंधी। पुं० १. पीलु-पाक का सिद्धान्त माननेवाला व्यक्ति। २. वैशेषिक दर्शन का अनुयायी या पंडित।
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पीलु-मूल  : पुं० [ष० त०] १. पीलु वृक्ष की जड़। २. सतावर। ३. शाल-पर्णी।
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पीलु-मला  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] जवान गाय।
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पीलू  : पुं० [सं० पीलु] १. एक प्रकार का का काँटेदार वृक्ष जो दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। इसकी पत्तियाँ ओषधि के काम आती है। २. पिल्लू नाम का कीड़ा। ३.संगीत में एक प्रकार का राग जिसके गाने का समय दिन के तीसे पहर कहा गया है।
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पीव  : वि० [सं० पीवन] १. मोटा। स्थूल। २. हृष्ट-पुष्ट। पुं०=पीप (मवाद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १.=प्रिय (प्रियतम)। २. साधकों की परिभाषा में, परमेश्वर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवट  : स्त्री० [?] युक्ति। उपाय। तरकीब। उदा०—न मालूम कौन सी पीवट लगाए होगा।—वृन्दावनलाल वर्मा।
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पीवन  : स०=पीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीवर  : वि० [सं०√प्यौ (वृद्धि)+ष्वरच्, संप्रसारण, दीर्घ] [स्त्री० पीवरा] [भाव० पीवरता, पीवरत्व] पीन (दे० सभी अर्थों में)। पुं० १. कछुआ। २. जटा। ३. तापस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक।
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पीवरा  : स्त्री० [सं० पीवर+टाप्] १. असगंध। २. सतावर।
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पीवरी  : स्त्री० [सं० पीवर+ङीष्] १. सतावर। शालिपर्णी। वर्हिषद् नामक पिता की मानसी कन्याओं में से एक। ४. युवती स्त्री। ५. गाय। गौ।
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पीवा  : स्त्री० [सं०√पी (पीना)+व+टाप्] जल। पानी। वि०=पीवर।
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पीविष्ठ  : वि० [सं० पीवन्+इष्ठन्] अतिशय स्थूल। बहुत मोटा।
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पीसना  : स० [सं० पेषण] १. कोई पदार्थ दो कठोर या कड़े तलों के बीच में डाल या रखकर बार बार इस प्रकार रगड़ते हुए दबाना कि उसके बहुत छोटे-छोटे खंड या कण हो जायँ। घन पदार्थ को चूर्ण के रूप में लाना। जैसे—चक्की में आटा पीसना, सिल पर चटनी, भाँग या मसाला पीसना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. बहुत ही कठोरता, निर्दयता या हृदयहीनतापूर्वक किसी को बुरी तरह से कुचलना, दबाना या पीड़ित करना। जैसे—(क) मुझसे पाजीपन करोगे तो पीसकर रख दूँगा। (ख) सन् १९५७ के उपद्रवों के बाद अंगरेजों ने सारे देश को एक तरह से पीस डाला था। ३. खूब दबाते हुए रगड़ना। जैसे—दाँत पीसना। ४. इस प्रकार कष्ट भोगते हुए कठोर परिश्रम का काम करना कि मानों चक्की में डालकर पीसे जा रहे हों। ५. बहुत परिश्रम का काम करना। जैसे—दोनों भाइयों को दिन भर दफ्तर में पीसना पड़ता है। पुं० १. पीसने की क्रिया या भाव। २. वह या उतनी वस्तु जो किसी को पीसने को दी जाय। जैसे—गेहूँ पीसना। ३. एक व्यक्ति के जिम्मे या हिस्से के कठोर परिश्रम का काम।
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पीसी  : स्त्री० [सं० पितृष्वसा] पिता की बहन। बूआ। (बंगाल)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीसू  : वि० [हिं० पीसना] बहुत पीसनेवाला। पुं०=पिस्सू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पीह  : स्त्री० [सं० पीव=मोटा ?] चरबी।
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पीहर  : पुं० [सं० पितृ+गृह, हिं० घर] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मैका।
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पीहा  : पुं० [अनु०] पपीहे का शब्द। उदा०—पीहा पीहा रटत पपीहा मधुबन मैं।—रत्नाकर।
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पीहू  : पुं०=पिस्सू (कीड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंकेसर  : पुं० [सं०] फूलों का वह केसर जिसमें पुंसत्ववाला तत्त्व रहता है और जिसके पराग या धूलि-कणों के संयोग से स्त्री केसर मे गर्भाधान होता है। (स्टेमन)
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पुंख  : पुं० [सं० पुंस√खन् (खोदना)+ड] १. तीर या वाण का वह हिस्सा जिसमें पंख लगाया जाता था। २. बाज (पक्षी) ३. मंगलाचार।
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पुंखित  : वि० [सं० पुंख+इतच्] १. जो पंख या पंखो से युक्त हो। २. वाण जिसके पिछले भाग में पंख लगे हों।
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पुंग  : पुं० [सं०=पूग, पृषो० सिद्धि] बहुत बड़ा ढेर। राशि।
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पुंगफल  : पुं०=पूंगीफल।
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पुंगल  : पुं० [सं० पुंग√ला (लेना)+क] आत्मा।
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पुंगव  : पुं० [सं० कर्म० स०,+षच्] १. बैल। वृष। सांड़। २. ओषधि के काम में आनेवाली एक वनस्पति। वि० उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे—नर-पुंगव=मनुष्यों में श्रेष्ठ।
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पुंगव-केतु  : पुं० [ब० स०] वृषभध्वज। शिव।
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पुंगी  : स्त्री० [हिं० खोंगी] पत्ते का वह पतला चोंगा जिसमें तम्बाकू भरकर पीते हैं। उदा०—पुंगी के सिरे पर आग चिलचिला उठी।—वृन्दावनवलाल वर्मा।
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पुंगीफल  : पुं०=‘पूंगीफल’।
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पुँछल्ला  : पुं०=‘पुछल्ला’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुँछवाना  : स० [हिं० पोंछना का प्रे०] पोंछने की काम किसी से कराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=पुछवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंछार  : वि० [हिं० पूंछ+आर (प्रत्य०)] बड़ी पूँछवाला। पुं० मोर।
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पुंछाला  : वि० [हिं० पूँछ+ला (प्रत्य०)] १.=पुछल्ला। २.=पिछलगा।
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पुंज  : पुं० [सं०√पिञ्ज् (सामर्थ्य)+अच्, पृषो० सिद्धि] १. ढेर। २. राशि। समूह।
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पुंज-दल  : पुं० [ब० स०] सुसना नाम का साग।
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पुंजन  : पुं० [सं० पुंज+णिच्+ल्युट्—अन] १. पुंज अर्थात् राशि बनाने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘संचयन’।
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पुंजशः  : अव्य० [सं० पुंज+शस्] ढेर का ढेर। ढेरों।
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पुंजा  : पुं० [सं० पुंज] १. गुच्छा। २. समूह। ३. गट्ठा। पूला।
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पुंजातीय  : वि० [सं० पुम्स्-जाति, ष० त०+छ—ईय] लिंग के विचार से नर या पुरुष जाति का। पुं० जाति या वर्ग का। (मेल)
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पुंजि  : पुं० [सं०√पिञ्ज्+इन, पृषो० सिद्धि] समूह। ढेर।
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पुंजिक  : पुं० [सं० पुंज+ठन्—इक] ओला। (आकाश से गिरनेवाला)।
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पुंजित  : भू० कृ० [सं० पुंज+इतच्] १. पुंज अर्थात् ढेर के रूप में बनाया या लगाया हुआ। २. एकत्र किया हुआ। संचित। (एक्यूमुलेटेड)
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पुंजिष्ठ  : भू० कृ० [सं० पुंज+इष्ठन्] पुंजित। (दे०)
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पुंजी  : स्त्री०=पूँजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंजीभूत  : वि० [सं० पुंज+च्वि, ईत्व√भू (होना)+क्त] पुंज या ढेर के रूप में बना या लगा हुआ। जो राशि के रूप में हो गया हो।
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पुंजोत्पादन  : पुं० [सं० पुंज-उत्पादन, ष० त०] यंत्रों आदि की सहायता से चीजों का बहुत अधिक मात्रा, राशि या संख्या में तैयार करना। (मासप्रोडक्शन)
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पुंड  : पुं० [सं०√पुंड् (मलना)+अच्] १. चंदन आदि का टीका। तिलक। २. दक्षिण भारत में बसने वाली एक जाति जो पहले रेशम के कीड़े पालती थी।
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पुंडरिया  : पुं० [सं० पुंडरीक] पुंडरी का पौधा।
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पुंडरी (रिन्)  : पुं० [सं० पुंड√ऋ (गति)+णिनि] एक प्रकार का पौधा जिसकी सुगंधित पत्तियाँ शालपर्णी की पत्तियों की-सी होती है। इसका रस आँख के रोगों में हितकर माना गया है।
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पुंडरीक  : पुं० [सं०√पुंड+ईक्, नि० सिद्धि] १. श्वेत कमल। २. कमल। ३. रेशम का कीडा। ४. बाघ। शेर। ५. एक सुगंधित पौधा। पुंडरिया। ६. सफेदा छाता। ७. कमंडल। ८. तिलक। ९. एक यज्ञ। १॰. सफेदा आम। ११. एक तरह का धान। १२. सफेद हाथी। १३. एक तरह की ईख। पौंड़ा १४. चीनी। १५. सफेद रंग का साँप। १६. एक प्रकार का बाज पक्षी। १७. श्वेतकुष्ठ। १८. हाथियों का ज्वर। १९. एक नाग। २॰. अग्निकोण का दिग्गज। २१. क्रौंच द्वीप का एक पर्वत। २२. एक तीर्थ। २३. अग्नि। आग। २४. तीर। वाण। २५. आकाश। २६. जैनों के एक गणधर। २७. दमन या दौना नाम का पौधा। २८. सफेद रंग।
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पुंडरीकाक्ष  : पुं० [पुंडरीक-अक्षि, ब० स०,+षच्] १. विष्णु या नारायण, जिनके नेत्र कमल के समान माने गये हैं। २. रेशम के कीड़े पालनेवाली एक प्राचीन जाति। वि० जिसके नेत्र कमल के समान बड़े और सुन्दर हों।
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पुंडरीकाख  : पुं०=पुंडरीकाक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंडरीयक  : पुं० [सं० पुंडरिन्+क्यच्+ण्वुल—अक] १. पुंडरी का पौधा। २. स्थल कमल। ३. एक औषध। ४. एक विश्वदेव।
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पुंडर्य  : पुं० [सं०√पुण्ड+अच्, पुण्ड-अर्य, ष० त०, पररूप] पुंडरी नामक पौधा।
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पुंड्र  : पुं० [सं०√पुण्ड+रक्] १. लाल रंग का एक तरह का मोटा गन्ना। पौंड़ा। २. तिनिश का वृक्ष। ३. माधवी लता। ४. पाकर वृक्ष। ५. सफेद कमल। ६. माथे पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक। ७. तिलक का पौधा। ८. बलि के पुत्र एक दैत्य का नाम। ९. उक्त दैत्य के नाम पर बसा हुआ भारत का एक प्राचीन देश। १॰. उक्त प्रदेश का प्राचीन नाम जिसमें आज-कल पुरनियाँ, मालदह, दीनाजपुर और राजशाही के कुछ क्षेत्र सम्मिलित थे। ११. उक्त देश का निवासी।
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पुंड्रक  : पुं० [सं० पुंड्र+कन्] १. माधली लता। २. टीका। तिलक। ३. तिलक का वृक्ष। ४. पुंड्र या पौड़ा नामक ईख। ५. रेशम के कीड़े पालनेवाला व्यक्ति। ६. घोड़े के शरीर का एक चिह्न या लक्षण जो रोएँ के रंग के भेद से होता है और जो शंख, चक्र, गदा, पद्य, खड्ग अंकुश या धनुष के आकार का होता है।
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पुंड्र-केलि  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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पुंड्र-वर्द्धन  : पुं० [ष० त०] प्राचीन प्रंड्र देश की राजधानी जो तीर्थ भी थी।
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पुंध्वज  : पुं० [ष० त०] नरपशु।
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पुंनक्षत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह नक्षत्र जिसके स्थिति काल में नर संतान उत्पन्न हो। नर नक्षत्र।
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पुंनाग  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. सुलताना चंपा। २. श्वेत कमल। ३. जायफल। ४. श्रेष्ठ पुरुष।
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पुंनाट  : पुं० [सं० पुंस्√नट् (नृत्य)+णिच्+अच्] १. चक्रमर्द। चकवड़ का पौधा। २. कर्नाटक के निकट का एक देश। ३. दिगंबर जैन संप्रदाय का एक संघ।
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पुंनाड  : पुं०=पुंनाट।
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पुंनिम  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुंमुत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसा मंत्र जिसके अंत में ‘स्वाहा’ या ‘नमः’ न हो।
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पुंयान  : पुं० [सं० मध्य० स०] पालकी।
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पुंरत्न  : पुं० [उपमि० स०] पुरुष रत्न। श्रेष्ठ पुरुष।
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पुंराशि  : पुं० [कर्म० स०] कोई नर राशि। जैसे—मकर, कुंभ आदि।
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पुंलिंग  : पुं० [ष० त०] १. पुरुष का चिह्न। २. पुरुष का शिश्र, लिंग। ३. व्याकरण में संज्ञा शब्दों के दो वर्गों में से एक, जिसकी संज्ञाएँ नरों की सूचक होती हैं अथवा ऐसी चीजों की सूचक होती है, जो पुरुष वर्ग की समझी जाती हैं। (मैसकुलिन)। वि० नर या पुरुष वाचक (शब्द)।
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पुंवृष  : पुं० [सं० पुंस√वृष् (बरसना)+क] छछूँदर।
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पुंश्चली  : वि०स्त्री० [सं० पुंस√चल् (चलना)+अच्+ङीष्] पर-पुरुषों से गुप्त संबंध रखनेवाली (स्त्री)। व्यभिचारिणी। कुलटा। स्त्री० कुलटा या व्यभिचारिणी स्त्री।
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पुंश्चलीय  : पुं० [सं० पुंश्चली+छ—ईय] पुंश्चली का पुत्र या सन्तान। व्यभिचारिणी से उत्पन्न व्यक्ति।
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पुंश्चिह्न  : पुं० [सं० ष० त०] पुरुष का लिंग, शिश्र।
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पुंस्  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+डुमसुन] पुरुष। नर। मर्द।
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पुं-संतति  : स्त्री० [सं०] वह संतान या वंशज जो पुरुष हो। (स्त्री न हो)।
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पुंसत्व  : पुं०=पुंस्त्व।
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पुंसवन  : वि० [सं० पुंस्√सू (प्रसव करना)+ल्युट्—अन] पुत्र उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. द्विजातियों के सोलह संस्कारों में से दूसरा संस्कार जो गर्भाधान से तीसरे महीने इस उद्देश्य से किया जाता है कि गर्भिणी स्त्री पुत्र प्रसव करे। २. वैष्णवों का एक प्रकार का व्रत। ३. दूध।
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पुंसवान (वत्)  : वि० [सं० पुंस्+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पुंसवती] जिसे पुत्र हो। पुत्रवाला।
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पुंसी  : स्त्री० [सं० पुंस्+अच्+ङीष्] ऐसी गाय जिसके आगे बछड़ा हो। सवत्सा गौ।
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पुंस्त्व  : पुं० [सं० पुंस्+त्व] १. नर होने की अवस्था या भाव। पुरुषत्व। २. पुरुष की काम-शक्ति। ३. शुक्र। वीर्य। ४. व्याकरण में शब्द के पुंलिग होने की अवस्था या भाव।
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पुंस्त्व-विग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] भूतण नाम की सुगंधित घास।
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पुआ  : पुं०=पूआ (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुआई  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी चिकनी और पीले रंग की होती है। २. उक्त पेड की लकड़ी।
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पुआल  : पुं० [देश] एक ऊँचा जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबूत और पीले रंग की होती है और इमारतों में लगती है। पुं०=पयाल (धान का)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुकार  : स्त्री० [हिं० पुकारना] १. पुकारने अर्थात् जोर से नाम लेकर संबोधित करने की क्रिया या भाव। २. कहीं उपस्थित होने के लिए किसी का जोर से लिया जानेवाला नाम। जैसे—कचहरी में पुकार होने पर कैदी न्यायाधीश के सामने लाया गया। ३. आत्मरक्षा, सहायता आदि के लिए दूसरों को बुलाने की क्रिया या भाव। मुहा०—पुकार उठाना या मचाना=कोई काम कराने या अनौचित्य, अन्याय आदि रोकने के लिए सबसे चिल्लाकर कहना या आंदोलन करना। ४. किसी चीज का अभाव होने पर उसके लिए जन-साधारण द्वारा की जानेवाली बहुत जोरों की माँग। जैसे—शहर में चीनी की पुकार मची है। ५. अपना कष्ट जतलाते हुए किसी से न्याय करने के लिए की जानेवाली प्रार्थना। फरियाद। ६. किसी काम या बात के लिए दिया जानेवाला निमंत्रण। बुलावा। ७. जोर देते हुए किसी काम या बात के लिए किया जानेवाला निवेदन या प्रार्थना। ८. किसी बात का अभाव या आवश्यकता सूचित करने के लिए कही जानेवाली बात। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। ९. संगीत में कंठ या वाद्य से निकाला हुआ कोई ऐसा बहुत ऊंचा स्वर जिसका क्रम अपेक्षया अधिक समय तक चलता रहे। जैसे—शहनाई की यह पुकार बहुत ही सुन्दर हुई है।
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पुकारना  : स० [सं० प्रकुश] १. किसी को बुलाने, संबोधित करने या उसका ध्यान आकृष्ट करने के लिए जोर से उसका नाम लेना। २. रक्षा, सहायता आदि के लिए किसी का आवाहन करना। जैसे—भारत-माता नवयुवकों को पुकार रही है। ३. किसी के नाम का जोर से उच्चारण करना। धुन लगाना। रटना। जैसे—ईश्वर का नाम पुकारना। ४. लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए जोर से किसी पद या शब्द का उच्चारण करना। उदा०—हरी हरी पुकारती हरी हरी लतान में। ५. कोई वस्तु पाने के लिए आकुल होकर बार बार उसका नाम लेना। चिल्लाकर माँगना। जैसे—प्यास के मारे सब ‘पानी पानी’ पुकार रहे है। ६. छुटकारे, बचाव, रक्षा आदि के लिए जोर से आवाज लगाना या चिल्लाना। ७. किसी नाम या संज्ञा से किसी को अभिहित करना। कहना। नाम धरना। (क्व०) जैसे—यहाँ तो इसे ‘तीतर’ पुकारते हैं।
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पुक्कश  : पुं०=पुक्कस।
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पुक्कस  : वि० [सं० पुक्√कस् (गति)+अच्, पृषो० सिद्धि] अधम। नीच। पुं० एक प्राचीन जाति जिसकी उत्पत्ति निषाद पिता और शूद्रा माता से कही गई है।
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पुक्कसी  : स्त्री० [सं० पुक्कस+ङीष्] १. कालापन। कालिमा। २. नील का पौधा।
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पुक्की  : स्त्री० [हिं० पुकारना या फूँकना] सीटी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुख  : पुं०=पुण्य (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुखता  : वि०=पुख्ता।
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पुखर (रा)  : पुं०=पोखरा (तालाब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुखराज  : पुं० [सं० पुष्पराग] नौ प्रकार के रत्नों में से एक जो पीले रंग का होता है तथा जो धारण किये जाने पर बृहस्पति ग्रह का दोष हरता है। अन्य आठ रत्न ये हैं—मोती, हीरा, लहसुनिया, पद्मराग, गोमेद, नीलम, पन्ना और मूँगा।
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पुख्ता  : वि० [फा० पुख्तः] [भाव० पुख्तगी] १. गठन, प्रकार, रचना आदि की दृष्टि से उच्च कोटि का, टिकाऊ और दृढ़। पक्का। मजबूत। २. जानकार। अनुभवी। ३. पूरी उम्र का। प्रौढ़। ४. पूरी तरह से निश्चित या स्थिर किया हुआ।
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पुगना  : अ० १.=पूजना। २.=पूगना।
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पुगाना  : स० [हिं० पूगना (पूजना) का स०] १. उद्दिष्ट, सीमा, स्थान आदि तक पहुँचाना। २. नियत या स्थिर अवधि या सीमा तक पहुंचाना। जैसे—गोली के खेल में गोली पुगाना=नियत गड्ढे में उसे प्रविष्ट करना। ३. जो उचित हो उसे पूरा करना, देना या भरना। जैसे—महाजन का रुपया पुगाना।
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पुचकार  : स्त्री० [हिं० पुचकारना] पुचकारने की क्रिया या भाव। प्यार जताने के लिए होठों से निकाला हुआ चूमने का-सा शब्द। चुमकार।
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पुचकारना  : स० [अनु०] प्यार जतलाते हुए मुँह से पुच-पुच शब्द करना।
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पुचकारी  : स्त्री० [हिं० पुचकारना] १. पुचकारने की क्रिया या भाव। पुचकार २. मुँह से किया जानेवाला पुचपुच शब्द। क्रि० प्र०—देना।
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पुचपुच  : स्त्री०=पुचकारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुचरस  : पुं० [देश०] ऐसी धातु जिसमें कई और धातुओं की मिलावट हो। मिश्रधातु।
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पुचारना  : स० [हिं० पुचारा] १. पुचारा देना। पोतना। २. उजला या साफ करना। चमकाना। ३. सज्जित करना। सजाना। (क्व०)।
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पुचारा  : पुं० [अनु० पुचपुच=भीगे कपड़े को दबाने का शब्द या हिं० पोतना से पुचारा] १. किसी चीज पर पतला लेप करने या पोतने का काम। २. भीगे हुए कपड़े से जमीन रगड़कर पोंछने का काम। क्रि० प्र०—देना।—फेरना। ३. वह कपड़ा या और कोई ऐसी चीज जिससे उक्त क्रिया या भाव। ४. वह घोल या तरल पदार्थ जो किसी दूसरी चीज पर पोता या लेपा जाय। क्रि० प्र०—फेरना—लगाना। ५. उक्त प्रकार के लेप से किसी चीज पर चढ़ी हुई तह या परत। ६. छोड़ी या दगी हुई तोप या बंदूक की गरम नली ठंढी करने के लिए उस पर गीला कपड़ा फेरने की क्रिया। ७. किसी को पुचकारने या प्रसन्न करते हुए कही जानेवाली ऐसी बात जो उसे अपने अनुकूल करने या किसी के विरुद्ध उभारने के लिए कही जाय। क्रि० प्र०—देना।
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पुच्छ  : स्त्री० [सं०√पुच्छ् (प्रसन्न होना)+अच्] १. दुम। पूँछ। २. किसी चीज का पिछला और प्रायः नुकीला या लंबा भाग।
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पुच्छकंटक  : पुं० [ब० स०] बिच्छू, जिसकी दुम में डंक होता है।
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पुच्छदा  : स्त्री० [सं० पुच्छ√दै (शोधन करना)+क+टाप्] लक्ष्मणा कंद।
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पुच्छ-फल  : पुं० [सं० ब० स०] बेर का पेड़।
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पुच्छल  : वि० [हिं० पुच्छ] १. जिसमें या जिसके पीछे पूँछ या दुम हो। पूँछवाला। २. जिसमें पूँछ की तरह पीछे कोई लंबा और प्रायः व्यर्थ का अंग लगा हो। जैसे—पुच्छलवाला।
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पुच्छल तारा  : पुं० [सं०] सूर्य के चारों ओर घूमनेवाला एक चमकीला पिंड जिसका मध्ववर्ती केन्द्र ठोस पदार्थ का बना होता है और साथ में गैस की एक पूँछ सी लगी रहती है। (कॉमेट)
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पुच्छिका  : स्त्री० [सं० पुच्छ+क+टाप्, इत्व] माषपर्णी।
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पुच्छी (च्छिन्)  : वि० [सं० पुच्छ+इनि] पूँछवाला। दुमदार। पुं० १. आक। मदार। २. मुरगा।
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पुछना  : अ० [हिं० पोंछना का अनु०] १. पुचारे से स्थान आदि का पोंछा जाना। २. न रह जाना। मिट जाना। उदा०—पुछ गया प्रतिगेह से दो एक का सिंदूर।—दिनकर।
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पुछल्ला  : पुं० [हिं० पूँछ+ला (प्रत्य०)] १. बड़ी या लंबी दुम। २. पूँछ की तरह पीछे जोड़ी या लगी हुई कोई लंबी चीज या धज्जी। जैसे—गुड्डी या पतंग का पुछल्ला। ३. वह जो प्रायः अनावश्यक रूप से या व्यर्थ किसी के पीछे या साथ लगा रहता हो और जल्दी उसका संग न छोड़ता हो। जैसे—वह जहाँ जाता है, अपने भाई को भी पुछल्ला बना कर अपने साथ ले जाता है। ४. करघे में लपेटन की बाई ओर का खूँटा। (जुलाहे)
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पुछवैया  : वि० [हिं० पुछवाना] किसी से कुछ पुछवानेवाला। वि० [हिं० पूछना] १. पूछनेवाला। पुछैया। २. खोज-खबर लेनेवाला।
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पुछार  : पुं० [हिं० पूँछना] १. पूछनेवाला। २. खोज-खबर लेनेवाला। ३. आदर करनेवाला। पुं०=पुंछार। (मोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुछारी  : पुं० [हिं० पूँछ] मोर। मयूर।
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पुछिया  : पुं० [हिं० पूंछ] दुंबा मेढ़ा।
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पुछैया  : पुं०=पुछवैया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुजंता  : वि० [सं० पूजा+हिं० अंता (प्रत्य०)] पूजा करनेवाला।
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पुजना  : अ० [हिं० पूजना] १. दूसरों द्वारा पूजित या सेवित होना। पूजा जाना। २. आदर, सम्मान आदि का भाजन होना। ३. पूजा, भेंट आदि का अधिकारी या पात्र बनना। जैसे—देहातों में नीम हकीम ही पुजते हैं।
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पुजवना  : स० [हिं० पूजना] १. पूरा करना। २. पूर्ण करना। जैसे—किसी की आस पुजवना। २. भरना। ३. देवी, देवता आदि की पूजा दूसरे से कराना। ४. सफल या सिद्ध करना। जैसे—कामना पुजवना।
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पुजवाना  : स० [हिं० ‘पूजना’ का प्रे०] १. किसी को पूजा करने में प्रवृत्त करना। आराधन या पूजन कराना। २. किसी से धन प्राप्त करने के लिए उससे किसी की पूजा कराना। जैसे—पुजारी का मंदिर में बैठकर पुजवाना। ३. अपनी या अपने किसी अंग की औरों से पूजा करवाना। जैसे—वे शिष्यों से पैर पुजवाते हैं।
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पुजाई  : स्त्री० [हिं० पूजना=पूजा करना] १. पूजने की क्रिया या भाव। जैसे—गंगा पुजाई। २. पुजाने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक। स्त्री० [हिं० पूजना=पूजा होना] १. पूरा करने या होने की क्रिया या भाव। २. पूरा करने या कराने का पारिश्रमिक।
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पुजाना  : स० [हिं० पूजना=(पूजन करना) का प्रे०] १. दूसरे से देवी-देवता आदि का पूजन या पूजा कराना। किसी को पूजा में प्रवृत्त या नियुक्त करना। जैसे—पुजारी से ठाकुर पुजाना। २. किसी से अपनी पूजा, प्रतिष्ठा या आदर-सम्मान कराना अथवा देवतुल्य बनकर किसी से अपनी पूजा कराना और उनसे भेंट आदि प्राप्त करना। जैसे—आज कल पंडित जी यजमानों से पुजाते फिरते हैं। ३. किसी तरह से डरा-धमका या दबाकर अथवा उसके मन में किसी प्रकार का पूज्यभाव उत्पन्न, करके उससे कुछ धन या भेंट प्राप्त करना। दबा और फुसलाकर वसूल करना। संयो० क्रि०—लेना। स० [हिं० पूजना=पूरा होना] १. पूरा करना। पूर्ति करना। २. भरना। जैसे—दवा से घाव पुजाना। ३. सफल या सिद्ध करना। जैसे—किसी के मनोरथ पुजाना। अ०=पुजना (पूरा होना) ?(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुजापा  : पुं० [सं० पूजा+पात्र] पूजन की सब सामग्री। जैसे—फल, फूल, धूप आदि। मुहा०—पुजापा फैलना=(क) देव-पूजा आदि की आडंबर पूर्ण व्यवस्था करना। (ख) बहुत-सी व्यर्थ की चीजें इधर-उधर फैलाना या बिखेरना। २. पूजा की सामग्री रखने का झोला। पुजाही।
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पुजारी  : पुं० [सं० पूजा+हिं० कारी (प्रत्य०)] १. किसी देवी-देवता की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा पूरने वाला व्यक्ति। विशेष रूप से ऐसा व्यक्ति जो किसी देवमूर्ति की पूजा, सेवा आदि करने के लिए नियुक्त किया गया हो। जैसे—उन्होंने अपने मंदिर में दो पुजारी भी रख दिये थे। २. किसी को देव-तुल्य मानकर उसकी भक्ति करनेवाला व्यक्ति। जैसे—धन या लक्ष्मी के पुजारी।
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पुजाही  : स्त्री० [हिं० पूजा+आही (प्रत्य०)] पूजन की सामग्री रखने की थैली या पात्र। पुजापा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुजेरी  : पुं०=पुजारी।
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पुजेला  : पुं०=पुजारी।
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पुजैया  : वि० [हिं० पूजना=पूजा करना] पूजा पूरनेवाला। पूजनेवाला। पूजक। स्त्री० विशेष उद्देश्य और समारोहपूर्वक की जानेवाली पूजा। पुजाई। जैसे—गंगा-पुजैया। वि० [हिं० पूजना=भरना] पूरा करनेवाला। भरनेवाला। स्त्री० पूरा करने या करने की क्रिया या भाव।
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पुजौरा  : पुं० [हिं० पूजा] १. अर्चना और पूजा। पूजन। २. पूजा के समय देवता के सामने रखी जानेवाली सामग्री।
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पुट  : पुं० [सं०√पुट्(=मिलना)+क] १. किसी चीज की मोड़कर लगाई हुई तह या बनाई हुई परत। २. पत्तों आदि को मोड़कर बनाया हुआ पात्र। दोना। ३. खाली या खोखली जगह या स्थान। ४. किसी प्रकार का बना या बनाया हुआ आधान या पात्र। जैसे—अंजलि-पुट, श्रवण-पुट आदि। उदा०—पियत नयन पुट रूप पियूखा।—तुलसी ५. आच्छादित करने या ढकनेवाला आवरण या चीज। जैसे—नेत्र पुट (पलक); रद पुट (होंठ)। ६. वैद्यक में, वह मुँह-बंद बरतन जिसके अन्दर रखकर कोई ओषधि या दवा पिलाई, फूँकी या सिद्ध की जाती है। ७. वैद्यक में, औषध सिद्ध करने या भस्म, रस आदि बनाने की उक्त प्रकार की कोई प्रक्रिया। जैसे—गज-पुट, भांड पुट, महापुट आदि। विशेष—इसमें प्रायः एक पात्र में दवा रखी जाती है और उसके मुँह पर दूसरा पात्र रखकर चारों ओर से वह मुँह इस प्रकार बंद कर दिया जाता है कि न तो उसके अंदर कोई चीज जा सके और न अन्दर की कोई चीज बाहर आ सके। इसी लिए इसे ‘संपुट’ भी कहते हैं। ८. घोड़े की टाप। ९. जायफल। १॰. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक मगण और एक यगण होता है। ११. अंतःपट। अंतरौटा। १२. कली के आकार का पौधे का वह अंग जिसमें से नये किल्ले फुटकर निकलते हैं। पुं० [सं० पुट=तह या परत] १. किसी चीज के ऊपर किसी दूसरी चीज की चढ़ाई, जमाई या लगाई हुई तह या परत। जैसे—इस पर गुलाबी रंग का एक पुट चढ़ा दो। २. किसी चीज में किसी दूसरी चीज का वह थोड़ा सा अंश जो हलकी मिलावट के लिए उसमें डाला जाता है। जैसे—(क) शीरा पकाते समय उसमें दूध का पुट भी देते चलते हैं। (ख) इस शरबत में संतरे का भी पुट है। मुहा०—पुट देना=कपड़े पर माँडी का छींटा देना। (जुलाहे)। ३. लाक्षणिक रूप में, किसी बात की हलकी मिलावट या थोड़ा सा मेल। जैसे—उनके भाषण में परिहास का भी कुछ पुट रहता है। पुं० [अनु०] किसी प्रकार उत्पन्न होनेवाला पुट शब्द। जैसे—उँगलियाँ चटकाने या कलियों के चटकने के समय होनेवाला पुट शब्द।
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पुट-कंद  : पुं० [सं० ब० स०] कोलकंद। वाराही कंद।
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पुटक  : पुं० [सं० पुट√कै (भासित होना)+क] कमल।
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पुटकिनी  : स्त्री० [सं० पुटक+इनि—ङीष्] १. पद्मिनी। कमलिनी। २. कमलों का समूह। पद्म-जाल। ३. ऐसा स्थान जहाँ कमल अधिकता से होते हों।
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पुटकी  : स्त्री० [सं० पुटक=दोना] छोटी गठरी। पोटली। स्त्री० [पुट से अनु०] १. कीड़े-मकोड़े की तरह होनेवाली आकस्मिक तथा तुच्छतापूर्ण मृत्यु। २. आकस्मिक दैवी विपत्ति। बहुत बड़ी आफत। गजब। मुहा०—(किसी पर) पुटकी पड़ना=(क) आकस्मिक दुर्घटना, रोग आदि के कारण चटपट मर जाना। (ख) बहुत बड़ी दैवी विपत्ति आना या पड़ना। (स्त्रियों की गाली या शाप) जैसे—पुटकी पड़े ऐसी मजदूरनी पर। स्त्री० [हिं० पुट=हलका मेल] वह बेसन या आटा जो तरकारी के रसे में उसे गाढ़ा करने के लिए मिलाया जाता है। आलन।
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पुट-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] गगरा। कलसा।
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पुट-पाक  : पुं० [तृ० त०] १. पत्ते के दोने या और किसी प्रकार के पुट में रखकर औषध पकाने अथवा भस्म या रस बनाने की क्रिया या विधान (वैद्यक)।
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पुट-भेद  : पुं० [सं० पुट√भिद् (फाड़ना)+अण्] १. जल का भँवर। २. नगर। पत्तन। ३. पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।
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पुटरिया  : स्त्री०=पोटली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुटरी  : स्त्री०=पोटली।
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पुटालु  : पुं० [सं० पुट-आलु, कर्म० स०] कोलकंद।
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पुटास  : पुं०=पोटास।
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पुटिका  : स्त्री० [सं० पुट+ठन्—इक, टाप्] १. पुड़िया। २. इलायची।
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पुटित  : भू० कृ० [सं० पुट+इतच्] १. जो किसी प्रकार के पुट में आया या लाया गया हो। २. जो सिमटकर दोने के आकार का हो गया हो। ३. संकुचित। सिकुड़ा हुआ। ४. पटा या पाटा हुआ। ५. मिला हुआ। ६. चारों ओर से बन्द किया हुआ। ७. (औषध) जो पुटी के रूप में किसी आवरण के अंदर हो। (कैप्स्यूल्ड)
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पुटिया  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली।
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पुटियाना  : स० [हिं० पुट+देना] फुसला या समझा-बुझाकर किसी को अनुकूल या राजी करना।
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पुटी  : स्त्री० [सं० पुट+ङीष्] १. छोटा दोना। छोटा कटोरा। २. खाली स्थान जिसमें कोई वस्तु रखी जा सके। जैसे—चंचुपुटी। ३. पुड़िया। ४. लंगोटी। ५. खाने के लिए गोली या टिकिया के रूप में, वह औषध जो किसी ऐसे आवरण में बंद हो जो औषध के साथ खाया जा सके। (कैप्स्यूल) वि० (औषध) जो पुट-पाक की विधि में प्रस्तुत हो। (समस्त पदों के अन्त में) जैसे—सहस्रपुटी अभ्रक।
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पुटीन  : पुं० [अं० पुटी] लकड़ी की संधियों या छेदों आदि में भरने का एक तरह का मसाला जो अलसी के तेल में खड़िया मिट्टी मिलाकर मिलाया जाता है।
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पुटोटज  : पुं० [सं० पुट-उटज, उपमि० स०] सफेद छाता।
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पुटोदक  : पुं० [सं० पुट-उदक, ब० स०] नारियल।
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पुटटी  : स्त्री० [देश०] मछलियाँ पकड़ने का बड़ा झाबा।
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पुट्ठा  : पुं० [सं० पृष्ठ] १. कमर के पास का चूतड़ का ऊपरी भाग। २. चौपाये, विशेषतः घोड़े का चूतड़। मुहा०—पुट्ठे पर हाथ न रखने देना=(क) चंचलता और तेजी के कारण सवार को पास न आने देना। (घोड़ों के लिए) (ख) अपना दोष छिपाने के लिए चतुर व्यक्ति का कौशलपूर्वक कोई ऐसी बात न होने देना जिससे वह पकड़ में आ सके। ३. उक्त अंग पर का चमड़ा जो अपेक्षया अधिक मजबूत होता है। (मोची) ४. घोड़ों की संख्या का सूचक शब्द। रास। जैसे—इस साल उसने चार पुट्ठे खरीदे हैं। ५. किसी पुस्तक की जिल्द या मोटाई का वह पिछला भाग, जिसके अन्दर उसकी सिलाई रहती है।
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पुठवार  : अव्य० [हिं० पुट्ठा] १. पीछे। २. बगल में।
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पुठवाल  : पुं० [हिं० पुट्ठा+वाला (प्रत्य०)] १. चोरों के दल का वह आदमी जो सेध के मुहाने पर पहरे के लिए खड़ा रहता है। २. पृष्ठ पोषक। ३. मददगार। सहायक।
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पुठ्ठ  : स्त्री० दे० ‘पीठ’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुठ्ठी  : स्त्री० [हिं० पुट्ठा] बैलगाड़ी के पहिए के घेरे का वह भाग जिसमें आरा और गज घुसे रहते हैं। किसी पहिये के ऐसे पूरे घेरे में ४ और किसी में ६ भाग होते हैं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुड़  : पुं० [सं० पुट] तल। सतह। (डिं०) उदा०—मुयंग छनी प्रथकी पुड़ भेदे।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुड़ा  : पुं० [सं० पुट] [स्त्री० अल्पा० पुडिया, पुड़ी] १. बड़ी पुड़िया या बंडल। २. गौ का गर्भाशय। मुहा०—पुड़ा टूटना=गौ का गर्भवती होना। पुं० [हिं० पूरी=तबले पर का चमड़ा] ढोल पर मढ़ा जानेवाला चमड़ा। पुं० पुट्ठा।
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पुड़िया  : स्त्री० [सं० पुटिका] १. कागज के टुकड़े को कुछ विशिष्ट प्रकार से मोड़ तथा उसके किनारों पर विशिष्ट प्रकार से बल चढ़ाकर ऐसा रूप देना कि उसमें रखी जानेवाली चीज बंद हो जाय। जैसे— (क) सौंफ या धनिये की पुड़िया। (ख) दवा की पुड़िया। २. पुड़िया में लपेटी हुई दवा या ऐसी ही और कोई चीज। जैसे—एक पुड़िया आज और दो पुडिया कल खानी होगी। ३. उक्त के आधार पर ऐसी चीज जो देखने में छोटी सी हो परन्तु प्रभाव की दृष्टि से उग्र या प्रबल हो। जैसे—यह लड़का जहर की पुड़िया है। ४. मुसलमानों में अबीर, गुलाल आदि की वह पुड़िया जो किसी कब्र या मजार पर भेंट के रूप में चढ़ाई जाती है। मुहा०—पुडि़या उड़ाना=आकांक्षा या मन्नत पूरी होने पर कब्र या मजार पर अबीर, गुलाल आदि उड़ाना या चढ़ाना। ५. किसी के पास होनेवाली सारी पूँजी या सम्पत्ति। जैसे—अब तो उनके पास पचास हजार की पुड़िया हो गई है।
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पुड़ी  : स्त्री० १.=पुड़िया। २.=पूरी। ३.=पुटी।
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पुढ़वी  : स्त्री०=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुढ़ाई  : स्त्री०=प्रौढता।
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पुणग  : अव्य० [सं० पुनः] भी । (राज०) उदा०—प्राण दिये पाणी पुणग, जावा न दिये जेह।—बाँकीदास। पुं०=पन्नग।
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पुणच  : स्त्री० [सं० प्रत्यंचा] धनुष की डोरी। प्रत्यंचा। उदा०—संग्रहि धनुख पुणच सर संधि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुणिंद  : पुं०=फणीन्द्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुणि  : अव्य० [सं० पुनर] पुनः। फिर। उदा०—परमेसर प्रणवि सरसति पुणि।—प्रिथीराज।
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पुण्य  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+यत्, णुक्-आगम, ह्रस्व] १. पवित्र। शुद्ध। जैसे—पुण्य-स्थान। २. मंगलकारक। शुभ। जैसे—पुण्य दिन। ३. धर्म विहित और उत्तम फल देनेवाला। जैसे—पुण्य-काम। ४. प्रिय और सुन्दर या सुखद। जैसे—पुण्य-लक्ष्मी। पुं० वह धर्म विहित कर्म जिसका फल शुभ हो। सुकृत। जैसे—उन्होंने अपनी सारी संपत्ति-पुण्य खाते में दे दी थी। २. अच्छा या भला कार्य। जैसे—दीनों को दान देना पुण्य का कार्य है। ३. कोई धार्मिक कृत्य, विशेषतः वह कृत्य जो स्त्रियाँ अपने पति और पुत्र की मंगल-कामना करती हैं। ४. धार्मिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट अवसरों पर कुछ विशिष्ट कर्म करने से प्राप्त होनेवाला शुभ फल। जैसे—कार्तिक स्नान का पुण्य, कथा सुनने का पुण्य आदि। ५. अच्छे और शुभ कर्मों का संचित रूप जिसका आगे चलकर उत्तम फल मिलता हो। जैसे—ऐसा सुशील लड़का बड़े पुण्य से मिलता है। ६. परोपकार का काम।
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पुण्यक  : पुं० [सं० पुण्य√कै (भासित होना)+क] १. व्रत, अनुष्ठान आदि धार्मिक कृत्य जिनके संपादन से पुण्य होता है। २. वे व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं। ३. विष्णु।
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पुण्य-कर्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०] पुण्य कर्म करनेवाला।
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पुण्य-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा कर्म जिसे करने से पुण्य होता हो। भला या शुभ कर्म।
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पुण्य-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] अच्छे और शुभ कर्म करनेवाला।
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पुण्य-काल  : पुं० [मध्य० स०] धार्मिक दृष्टि से वह शुभ समय जिसमें दान आदि से पुण्य का विशेष फल मिलता है। जैसे—पूर्णिमा, संक्रान्ति आदि।
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पुण्य-कीर्तन  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु। २. [ष० त०] पुराणों या धार्मिक ग्रन्थों का पाठ या वाचन।
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पुण्य-कीर्ति  : वि० [ब० स०] जिसकी कीर्ति के वर्णन से पुण्य हो। स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी कीर्ति जो पुण्यात्मक हो।
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पुण्य-कृत्य  : पुं० [कर्म० स०]=पुण्य कर्म।
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पुण्य-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] वह स्थान, विशेषतः कोई तीर्थ स्थान जहाँ जाने और धार्मिक कृत्य करने से विशेष पुण्य होता हो।
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पुण्य-गंध  : पुं० [ब० स०] चंपा।
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पुण्य-गंधा  : पुं० [ब० स०, टाप्] सोनजुही का फूल।
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पुण्य-जन  : पुं० [कर्म० स०] १. धर्मात्मा। सज्जन। २. राक्षस। ३. यक्ष।
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पुण्यजनेश्वर  : पुं० [पुण्यजन-ईश्वर, ष० त०] कुबेर।
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पुण्य-जित्  : वि० [तृ० त०] पुण्य कर्मों के द्वारा जीता या प्राप्त किया जानेवाला।
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पुण्य-तिथि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. ऐसा शुभ दिन जिसमें धर्म, लोकोपकार आदि की दृष्टि से अच्छे कर्म (जैसे—दान, स्नान आदि) करने का विधान हो। २. कोई शुभ कार्य करने के लिए उपयुक्त दिन। ३. किसी महापुरुष के निधन की वार्षिक तिथि। जैसे—महात्मा गाँधी या लोकमान्य तिलक की पुण्य-तिथि।
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पुण्य-तृण  : पुं० [कर्म० स०] सफेद कुश।
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पुण्य-दर्शन  : वि० [ब० स०] १. जिसके दर्शन मात्र से पुण्य होता हो। २. ऐसा जीव जिसके दर्शन का फल शुभ या अच्छा माना जाता या अच्छा होता हो। पुं० नीलकंठ नामक पक्षी जिसका लोग विजयादशमी के दिन दर्शन करना पुण्यात्मक और शुभ समझते हैं।
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पुण्य-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] धर्मात्मा और पुण्यात्मा मनुष्य।
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पुण्य-प्रताप  : पुं० [ष० त०] किये हुए पुण्य से प्राप्त हुई विशेष कीर्ति या शक्ति। जैसे—बड़ो के पुण्य-प्रताप से सब काम ठीक हो जाते हैं।
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पुण्य-फल  : पुं० [ष० त०] १. धार्मिक कर्मों का शुभ फल। २. [ब० स०] लक्ष्मी के निवास करने का उद्यान।
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पुण्यभाक् (ज्)  : वि० [सं० पुण्य√भज् (सेवा)+ण्वि] धर्मात्मा। पुण्यात्मा।
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पुण्य-भूमि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. तीर्थ-स्थान। २. आर्यावर्त देश। ३. पुत्रवती स्त्री।
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पुण्य-योग  : पुं० [ष० त०] पूर्वजन्म में किये हुए शुभ कर्मों का मिलनेवाला फल।
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पुण्य-लोक  : पुं० [मध्य० स०] स्वर्ग जहाँ पुण्य अर्थात् शुभ कर्म करनेवाले लोग रहते हैं या मरने के बाद जाते हैं।
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पुण्यवान् (यत्)  : वि० [सं० पुण्य+मतुप्, वत्व] [स्त्री० पुण्यवती] पुण्य अर्थात् शुभ कर्म करनेवाला
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पुण्य-शील  : वि० [ब० स०]=पुण्यात्मा।
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पुण्य-श्लोक  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पुण्यश्लोका] जिसका चरित्र या यश बहुत शुभ और सुन्दर हो। शुभ-चरित्र। पुं० १. राजा नल। २. युधिष्ठिर। ३. विष्णु।
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पुण्य-स्थान  : पुं० [मध्य० स०] १. अच्छे कर्म करने से मिलनेवाला स्थान या लोक। २. तीर्थ-स्थान जहाँ पुण्य-कर्म करने का विधान है। ३. जन्मकुंडली में लग्न से नवाँ स्थान जिसमें कुछ विशिष्ट ग्रहों की स्थिति से यह जाना जाता है कि अमुक व्यक्ति पुण्यवान होगा या नहीं।
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पुण्या  : स्त्री० [सं० पुण्य+टाप्] १. तुलसी। २. पुनपुना नदी।
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पुण्याई  : स्त्री० [हिं० पुण्य+आई (प्रत्य०)] पुण्य का परिणाम, प्रभाव या फल।
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पुण्यात्मा (त्मन्)  : वि० [पुण्य-आत्मन्, ब० स०] प्रायः पुण्यकर्म करनेवाला। पुण्यशील।
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पुण्यार्थ  : वि० [पुण्य-अर्थ, ब० स०] १. (कार्य) जो पुण्य की प्राप्ति के विचार से किया गया हो। २. (धन) जो लोकोपकारी कार्यों के लिए दान रूप में दिया गया हो। (चैरिटेबुल) अव्य० पुण्य अर्थात् परोपकार या शुभ फल की प्राप्ति के विचार से। पुं० १. लोकोपकार की भावना। २. लोकोपकार की भावना से दिया जानेवाला धन।
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पुण्यार्थ-निधि  : स्त्री० [कर्म० स०] वह निधि या धन-संपत्ति जो पक्की-लिखा पढ़ी करके किसी धार्मिक या सामाजिक लोकोपकारी शुभ कार्य के लिए दान की गई हो। (चैरिटेबुल एन्डाउमेन्ट)
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पुण्याह  : पुं० [पुण्य-अहस्, ब० स०] मंगल कारक या शुभ दिन।
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पुण्याह-वाचन  : पुं० [ष० त०] १. मांगलिक कार्य के अनुष्ठान के पहले मंगल की कामना से तीन बार ‘पुण्याह’ शब्द कहना। २. कर्म-कांड में उक्त से सम्बद्ध एक प्रकार का कृत्य जो विवाह आदि शुभ कार्यों से पहले किया जाता है।
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पुण्योदय  : पुं० [पुण्य-उदय, ष० त०] शुभ कर्मों के फलस्वरूप होनेवाला सौ-भाग्य का उदय।
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पुत्  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति)+डुति, पृषो० सिद्धि] एक नरक का नाम जिससे पुत्र होने पर ही उद्धार होता हो या हो सकता है।
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पुतना  : अ० [हिं० पोतना का अ०] पुताई होना। जैसे—दीवार पुतना। स्त्री०=पूतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुतरा  : पुं०=पुतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुतरिका  : स्त्री०=पुत्रिका।
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पुतरिया  : स्त्री०=पुतली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुतरी  : स्त्री०=पुतली।
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पुतला  : पुं० [सं० पुत्रक] [स्त्री० अल्पा० पुतली] किसी व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने के लिए उसकी अनुपस्थिति में बनाई जानेवाली धातु, कागज, कपड़े आदि की आकृति। विशेष—जब कोई आदमी विदेश में या किसी ऐसी स्थिति में मर जाता है कि उसका शव प्राप्त न हो सकता हो तब हिन्दू लोग उसका पुतला बनाकर दाह कर्म करते हैं। मुहा०—किसी का पुतला बाँधना=किसी की निंदा करते फिरना। किसी की अपकीर्ति फैलाना। विशेष—मध्य-युगीन भारत में, भाट आदि जिससे असंतुष्ट होते थे, उसकी उक्त प्रकार की आकृति बनाकर गली-गली उसका उपहास और निन्दा करते फिरते थे। इसी से यह मुहावरा बना है। मुहा०—पुतला जलाना=(क) मृत व्यक्ति का पुतला बनाकर उसका दाह-कर्म करना। (ख) किसी को अपमानित तिरस्कृत करने अथवा उसकी मृत्यु की कामना करने के लिए उसका पुतला बनाकर जलाना।
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पुतली  : स्त्री० [हिं० पुतला] १. लकड़ी, मट्टी, धातु, कपड़े आदि की बनी हुई स्त्री की आकृति विशेषतः वह जो विनोद या क्रीड़ा (खेल) के लिए हो। गुडिया। २. उक्त प्रकार की पुरुष या स्त्री की आकृति जिसका अभिनय या नृत्य मनोविनोद के लिए होता है। इसके अंगों मे डोरे, तार या बाल बंधे रहते हैं, जिनके संचालन से इसके अंग तरह तरह से हिलते-डुलते हैं। पद—पुतली का नाच=उक्त प्रकार की आकृतियों का अभिनय जो एक प्रकार की कला है। ४. बहुत ही सुन्दर, सजी हुई और सुकुमार स्त्री। ५. आँख का वह काला भाग जिसके बीच में वह छेद होता है जिससे होकर प्रकाश की किरणें अन्दर जाती हैं और मस्तिष्क में पदार्थों का प्रतिबिंब उपस्थित करती हैं। नेत्र के ज्योतिष्केन्द्र के चारों ओर का काला मंडल। मुहा०—पुतली फिर जाना=(क) आँखें पथरा जाना या नेत्र स्तब्ध होना जो किसी के मर जाने या मरणासन्न होने का लक्षण होता है। (ख) अभिमान, विरक्ति आदि के कारण पहले का सा स्नेहपूर्ण संबंध न रह जाना। रुख बदल जाना। ५. उक्त के आधार पर ऐसी चीज जिसे सुरक्षित रुप में रखा जाय। जैसे-बना रखूँ पुतली दृग की निर्धन का यही प्यार सखी।—दिनकर। ६. घोड़े की टाप का उभरा हुआ मांस पिंड।
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पुतली-घर  : पुं० [हिं०] १. वह कारखाना जहाँ कलों या यंत्रों से सूत बनाया और कपड़ा बुना जाता है। विशेष—पहले प्रायः ऐसे कारखानों के मुख्य-द्वार पर पुतली की आकृति बनाकर खड़ी की जाती थी; इसी से इसका यह नाम पड़ा था। २. आजकल कोई बहुत बड़ा कारखाना जहाँ कलों या यंत्रों से कोई चीज बनती हो।
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पुताई  : स्त्री० [हिं० पोतना+आई (प्रत्य०)] १. किसी चीज पर कोई दूसरी चीज का घोल पोतने की क्रिया या भाव। २. उक्त का पारिश्रमिक।
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पुतारा  : पुं० [हिं० पुतना] १. जमीन, चूल्हा आदि गीले कपड़े से पोंछकर साफ करने की क्रिया या भाव। २. पोतने का कपड़ा। पोतनी। ३. दे० ‘पुचारा’।
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पुत्तल  : पुं० [सं० पुत्त (गति)+घञ्√ला (लेना)+क] [स्त्री० अल्पा० पुत्तली] पुतला।
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पुत्तलक  : पुं० [सं० पुत्तल+कन्] [स्त्री० पुत्तलिका] पुतला।
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पुत्तलिका  : स्त्री० [सं० पुत्तल+ङीष्+कन्+टाप्, इत्व] १. पुतली। २. गुड़िया।
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पुत्तिका  : स्त्री०[सं० पुत्त√तन् (विस्तार)+ड+क+टाप्, इत्व] १. एक प्रकार की मधुमक्खी। २. दीमक।
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पुत्र  : पुं० [सं० पुत्√त्रै (रक्षा करना)+क] [स्त्री० पुत्री] १. विवाहिता स्त्री से उत्पन्न नर सन्तान। बेटा। २. लड़का।
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पुत्र-कंदा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] लक्ष्मणकंद जिसके सेवन से गर्भाशय के दोष दूर होते हैं।
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पुत्रक  : पुं० [सं० पुत्र+कन्] १. पुत्र। बेटा। २. पतंग। ३. दौने का पौधा। ४. एक प्रकार का चूहा जिसके काटने से बहुत पीड़ा और सूजन होती है।
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पुत्रकामेष्टि  : पुं० [सं० पुत्र-काम, ष० त०, पुत्र√काम-इष्टि, मध्य० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो पुत्र की कामना से किया जाता है।
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पुत्र-कृतक  : पुं० [ब० स०, कप्] बनाया हुआ पुत्र। दत्तक पुत्र।
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पुत्रघ्नी  : स्त्री० [सं० पुत्र√हन् (मारना)+टक्+ङीप्] एक प्रकार का योनि रोग जिसके कारण गर्भ नहीं ठहरता।
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पुत्र-जात  : वि० [ब० स०] जिसे पुत्र उत्पन्न हुआ हो। पुत्रवान्।
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पुत्रजीव  : पुं० [सं० पुत्र√जीव् (जीना)+अण्] इंगुदी से मिलता-जुलता एक प्रकार का बड़ा और सुन्दर पेड़ जिसके बीज सूखने पर रूद्राक्ष की तरह हो जाते हैं साधु लोग उसकी माला पहनते हैं।
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पुत्रजीवक  : पुं० [ष० त०] पुत्रजीव।
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पुत्रद  : वि० [सं० पुत्र√दा (देना)+क] [स्त्री० पुत्रदा] जिसके कारण या द्वारा पुत्र प्राप्त हो। पुत्र देनेवाला।
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पुत्रदा  : स्त्री० [सं० पुत्र+टाप्] १. बंध्या कर्कोटकी। बांझ ककोड़ा या खेखसा। २. लक्ष्मणकंद। ३. श्वेत कंटकारि। सफेद भटकटैया। ४. जीवंती।
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पुत्र-दात्री  : स्त्री० [ष० त०] १. एक प्रकार की लता। २. श्वेत कंटकारि। ३. भ्रमरी।
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पुत्र-धर्म  : पुं० [ष० त०] पुत्र का पिता के प्रति अपेक्षित कर्तव्य या धर्म।
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पुत्र-पौत्रीण  : वि० [सं० पुत्रपौत्र, द्व० स०,+ख—ईन] पुत्र से पौत्र और इसी प्रकार आगे भी क्रम क्रम से प्राप्त होनेवाला। आनुवांशिक।
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पुत्र-प्रतिनिधि  : पुं० [ष० त०] गोद लिया हुआ लड़का। दत्तक पुत्र।
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पुत्रपदा  : स्त्री० [सं० पुत्र+प्र√दा (देना)+क+टाप्] १. सफेद कंटकारि। २. क्षुविका।
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पुत्र-प्रसू  : वि० [ष० त०] पुत्र उत्पन्न करनेवाली (स्त्री)।
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पुत्र-प्रिय  : पुं० [ब० स] एक प्रकार का पक्षी। वि० पुत्र का प्यार।
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पुत्र-भद्रा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] बड़ी जीवंती।
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पुत्र-भांड  : पुं० [ष० त०] दत्तक पुत्र।
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पुत्र-भाव  : पुं० [ष० त०] १. पुत्र का भाव। पुत्रत्व। २. फलित ज्योतिष में लग्न में लग्न से पंचम स्थान का विचार जिसके द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि किसके कितने पुत्र या कन्याएँ होंगी।
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पुत्र-लाभ  : पुं० [ष० त०] घर में पुत्र उत्पन्न होना पुत्र की प्राप्ति।
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पुत्रवती  : स्त्री० [सं० पुत्र+मतुप्, म—व+ङीप्] स्त्री जिसके आगे पुत्र हो। पुत्रवाली। पूती।
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पुत्र-वधू  : स्त्री० [ष० त०] पुत्र की पत्नी। पतोहू।
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पुत्रवल  : वि० [सं० पुत्र+वलच्] पुत्रवाला।
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पुत्र-श्रृंगी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] अजश्रृंगी।
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पुत्र-श्रेणी  : स्त्री० [ब० स०+ङीष्] मूसाकानी।
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पुत्र-सख  : पुं० [ष० त०,+टाच्] बच्चों का प्रेमी
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पुत्र-सप्तमी  : स्त्री० [मध्य० स०] आश्विन शुक्ला सप्तमी।
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पुत्रसहम  : पुं० [सं० पुत्र+अ० सहम] ५॰ प्रकार के सहमों में से एक जिससे पुत्र लाभ का विचार किया जाता है।
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पुत्रसू  : वि० [सं० पुत्र√सू (प्रसव करना)+क्विप्] पुत्र उत्पन्न करने वाली (स्त्री)।
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पुत्र-हीन  : वि० [तृ० त०] [स्त्री० पुत्रहीना] जिसके घर पुत्र न हो या न हुआ हो।
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पुत्राचार्य  : वि० [पुत्र-आचार्य, ब० स०] अपने पुत्रों से विद्या पढ़नेवाला।
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पुत्रादिनी  : वि०, स्त्री० [सं० पुत्र√अद्(खाना)+णिनि+ङीप्] पुत्रों को स्वयं खा जानेवाली जैसे—व्याघ्री, सर्पिणी आदि।
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पुत्रादी (दिन्)  : वि० [सं० पुत्र√अद्+णिनि] [स्त्री० पुत्रादिनी] पुत्रभक्षक। बेटे को खानेवाला। (गाली)
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पुत्रान्नाद  : पुं० [पुत्र-अन्न, ष० त०√अद् (खाना)+अण्] १. पुत्र की कमाई खानेवाला व्यक्ति। २. यतियों का एक भेद। कुटीचक।
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पुत्रार्थी (र्थिन्)  : वि० [पुत्र-अर्थिन, ष० त०] जिसे पुत्र की कामना हो।
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पुत्रिक  : वि० [सं० पुत्र+ठन्—इक] पुत्रवाला।
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पुत्रिका  : स्त्री० [सं० पुत्र+ङीष्+कन्+टाप्, ह्रस्व] १. लड़की। बेटी। २. पुत्र न होने की दशा में वह पुत्री या लड़की जो पुत्र के समान मानकर ही रखी गई हो। ऐसी कन्या का पुत्र अपने नाना को पिंडदान देने और उसकी संपत्ति पाने का अधिकारी होता है। ३. गुड़िया। पुतली। ४. आँख की पुतली।
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पुत्रिका-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. वह कन्या जो पुत्र के समान मानी गई हो और जो आगे चलकर पिता की संपत्ति की अधिकारिणी होने को हो। २. पुत्रिका का पुत्र।
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पुत्रिणी  : वि०, स्त्री० [सं० पुत्र+इनि+ङीष्] पुत्रवाली। पुत्रवती।
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पुत्रिय  : वि० [सं० पुत्रीय] पुत्र-संबंधी।
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पुत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० पुत्र+इनि] [स्त्री० पुत्रिणी] जिसे पुत्र हो। पुत्रवाला।
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पुत्री  : स्त्री० [सं० पुत्र+ङीष्] बेटी। लड़की।
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पुत्रीय  : वि० [सं० पुत्र+छ—ईय] पुत्र-संबंधी। पुत्र का।
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पुत्रीया  : स्त्री० [सं० पुत्र+क्यच्, ईत्व,+अ+टाप्] पुत्रलाभ की इच्छा।
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पुत्रेप्सु  : वि० [पुत्र+ईप्सु, ष० त०] पुत्र प्राप्त करने का इच्छुक।
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पुत्रेष्टि, पुत्रेष्टिका  : पुं० [सं० पुत्र-इष्टि, मध्य० स०, पुत्रेष्टि+कन्+टाप्] पुत्र की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जानेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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पुत्रय  : वि० [सं० पुत्र+यत्] पुत्र-संबंधी।
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पुदीना  : पुं० [फा० पोदीनः] एक छोटा पौधा जो या तो जमीन पर ही फैलता है अथवा अधिक से अधिक एक बित्ता ऊपर जाता है। इसकी पत्तियों में बहुत अच्छी गंध होती है इससे लोग इसे चटनी आदि में पीसकर मिलाते हैं। यह तीन प्रकार का होता है—साधारण, पहाड़ी और जलपुदीना।
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पुद्गल  : पुं० [सं० पुत-गल, कर्म० स०] १. जैन शास्त्रानुसार ६ द्रव्यों में से एक। स्पर्श, रस और वर्णवाला अर्थात् रुपवान् पदार्थ। २. देह। शरीर। (बौद्ध)। ३. परमाणु ४. आत्मा। ५. गंधतृण। ६. शिव। वि० सुन्दर।
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पुद्गलास्तिकाय  : पुं० [पुद्गल-अस्तिकाय, ष० त०] जैनों के अनुसार पाँच प्रकार के द्रव्यों में से एक।
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पुनः  : अव्य० [सं०√पन् (स्तुति)+अर्, उत्व] १. फिर। दोबारा। दूसरी बार। २. अनंतर। पीछे। उपरांत। ३. इसके अतिरिक्त। जैसे—तुम्हें पुनः ऐसा सहायक नहीं मिलेगा। पद—पुनःपुनः—बार बार। कई बार।
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पुनःकरण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. फिर से कोई काम करना। २. दोहराना।
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पुनःकल्पन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० पुनः कल्पित] किसी पदार्थ विशेषतः पुराने यंत्र आदि को जाँचकर और उसके कल-पुर्जे अलग-अलग करके फिर से उसकी मरम्मत करते हुए उसे ठीक करना। (ओवरहालिंग)
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पुनःखुरी (खुरिन्)  : पुं० [सं० पुनः खुर, मध्य० स०+इनि] घोड़ों के पैर का एक रोग जिसमें उनकी टाप फैल जाती है वे चलने में लड़खड़ाते हैं।
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पुनःपाक  : पुं० [सं० मध्य०] पकाई हुई चीज दोबारा पकाने की क्रिया या भाव।
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पुनःसंधान  : पुं० [सं० मध्य०] अग्निहोत्र की बुझी हुई अग्नि फिर से जलाना।
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पुनःसंस्कार  : पुं० [सं० मध्य०] कोई ऐसा संस्कार फिर से करना जिसका पुराना महत्व या मान नष्ट हो गया हो। फिर से किया जानेवाला संस्कार।
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पुनःस्तोम  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का योग।
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पुन  : पुं०=पुण्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० [सं० पुनः] १. फिर। २. भी। ३. दे० ‘पुनः’।
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पुनना  : स० [हिं० पूरना] गालियाँ देना। दुर्वचन कहना। उदा०—माँ बहने पुनी जा रही हों, और ये खुश हैं, बाछे खिली जा रही हैं।— मिरजा रुसवा। स०=छानना। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० [सं० पूर्ण] पूरा होना। पूजना। उदा०—पाप करंता मरि गइआ, अउध पुनि खिन मांहि।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० पूरा करना।
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पुनपुना  : स्त्री० [सं० पुनःपुना] बिहार राज्य की एक छोटी नदी जो गया से होकर बहती है और पवित्र मानी जाती है। इसके किनारे लोग पिंडदान करते हैं।
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पुनरपगम  : पुं० [सं० पुनर-अपगम, मध्य० स०] पुनः जाना।
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पुनरपि  : अव्य० [सं० पुनर-अपि, द्व० स०] १. फिर भी। २. फिर से। दोबारा।
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पुनरबसु  : पुं०=पुनर्वसु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनरभिधान  : पुं० [सं० पुनर्-अभिधान, मध्य० स०] कोई बात फिर से या पुनः कहना।
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पुनरवलोकन  : पुं० [सं० पुनर-अवलोकन, मध्य० स०] फिर से या दोबारा देखना।
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पुनरस्त्रीकरण  : पुं० [सं० पुनर-अस्त्रीकरण, मध्य० स०] [वि० पुनरस्त्रीकृत] जिस राष्ट्र, देश या सेना के अस्त्र, शस्त्र आदि पहले छीन लिये गये हों, उसे फिर से अस्त्र,शस्त्रों आदि से युक्त और सज्जित करना। (री-आर्मामेन्ट)।
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पुनरागत  : वि० [सं० पुनर्-आगत, मध्य० स०] १. पुनः आया हुआ। २. लौटा हुआ।
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पुनरगम  : पुं० [सं० पुनर-आगम, मध्य० स०] फिर से या लौटकर आना। पुनरागमन।
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पुनरागमन  : पुं० [सं० पुनर्-आगमन, मध्य० स०] १. एक बार आ चुकने के बाद दोबारा या फिर से आना। २. मृत्यु होने पर फिर शरीर धारण करके इस संसार में आना। पुनर्जन्म।
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पुनरागामी (मिन्)  : वि० [सं० पुनर-आगामिन्, मध्य० स०] फिर से आनेवाला।
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पुनरादि  : वि० [सं० पुनर-आदि, ब० स०] फिर से आरम्भ या शुरु करनेवाला।
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पुनराधान  : पुं० [सं० पुनर-आधान, मध्य० स०] श्रौत या स्मार्त अग्नि का एक बार छूट या बुझ जाने पर फिर से किया जानेवाला ग्रहण। अग्निस्थापन।
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पुनराधेय  : वि० [सं० पुनर-आधेय, मध्य० स०] फिर से स्थापित की जानेवाली अग्नि। पुं० दे० ‘पुनराधान’।
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पुनरानयन  : पुं० [सं० पुनर्-आनयन, मध्य० स०] लौटा लाना।
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पुनरारंभ  : पुं० [सं० पुनर्-आरंभ, मध्य० स०] छोडा या स्थगित किया हुआ काम पुनः या फिर से आरंभ करना। (रिज़म्पशन)।
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पुनरावर्त  : पुं० [सं० पुनर्-आवर्त, मध्य० स०] १. लौटना। २. बार-बार जन्म लेना।
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पुनरावर्तक  : वि० [सं० पुनर-आवर्तक, मध्य० स०] पुनः पुनः आनेवाला ज्वर।
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पुनरावर्तन  : पुं० [सं० पुनर-आवर्तन, मध्य० स०] १. फिर से या दोबारा होनेवाला आवर्तन। फिर से लौटकर आना। २. किसी रोग के बहुत कुछ अच्छे हो जाने पर भी फिर से होनेवाला उसका प्रकोप। (रिलैप्स)
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पुनरावर्ती (तिन्)  : वि० [सं० पुनर्-आवर्तिन्, मध्य० स०] बार-बार जन्म लेनेवाला।
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पुनरावर्ती ज्वर  : पुं० [सं०] किलनी, जूँ आदि के काटने से होनेवाला एक प्रकार का विकट ज्वर जो पहले तो एक सप्ताह तक निरन्तर रहता है, और तब उतर जाने के बाद भी फिर आने लगता है। (रिलैप्सिंग फीवर)
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पुनरावलोकन  : पुं० [सं० पुनरवलोकन] [वि० पुनरावलोकित] १. देखी हुई चीज का फिर से देखना। २. किये हुए काम निश्चय आदि को सुधार के विचार से फिर से देखना या दोहराना। (रिवीज़न)
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पुनरावृत्त  : वि० [सं० पुनर्-आवृत्त, मध्य० स०] १. फिर से घूम या लौटकर आया हुआ। २. फिर से किया या दोहराया हुआ।
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पुनरावृत्ति  : स्त्री० [सं० पुनर-आवृत्ति, मध्य० स०] १. फिर से घूमना या घूमकर आना। २. किये हुए काम या बात की फिर से होनेवाली आवृत्ति। किसी काम या बात का दोहराया जाना। जैसे—पढ़े हुए पाठ की पुनरावृत्ति।
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पुनरीक्षण  : पुं० [सं० पुनर-ईक्षण, मध्य० स०] [भू० कृ० पुनरीक्षित] १. किये हुए काम को जाँचने के लिए फिर से देखना। (रिव्यू) २. न्यायालय का एक बार सुने हुए मुकदमे को कुछ विशेष अवस्थाओं में फिर से सुनना। (रिवीजन)।
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पुनरीक्षित्  : भू० कृ० [सं० पुनर-ईक्षित्, मध्य० स०] जिसका पुनरीक्षण किया गया हो या किया जा चुका हो। (रिवाइज्ड)
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पुनरुक्त  : वि० [सं० पुनर-उक्त, मध्य० स०] एक बार कहने के उपरान्त दोबारा या फिर से कहा हुआ। पुं० साहित्य में एक प्रकार का दोष जो उस दशा में माना जाता है जब कोई बात एक बार कही जाने पर फिर से दोबारा या कई बार व्यर्थ ही कही जाती है।
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पुनरुक्तवद-भास  : पुं० [सं० पुनरुक्त+वति, पुनरुक्तवत-आ+ भास, ब० स०] एक प्रकार का शब्दालंकार जिसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जो सुनने में एकार्थक और फलतः पुनरुक्त से जान पड़ें पर वास्तव में प्रसंगतः भिन्न-भिन्न अर्थ रखते हैं।
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पुनरुक्ति  : स्त्री० [सं० पुनर-उक्ति, मध्य० स०] १. एक बार कही हुई बात शब्द आदि को फिर कहना। २. इस प्रकार दोबारा कही हुई बात। (रिपीटीशन)
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पुनरुज्जीवन  : पुं० [सं० पुनर-उज्जीवन, मध्य० स०] [वि० पुनरुज्जीवित] फिर से जीवित होना। (रिवाइल)
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पुनरुज्जीवित  : वि० [सं० पुनर-उज्जीवन, मध्य० स०] जिसे फिर से जीवित किया गया हो अथवा जिसने फिर से जीवन प्राप्त किया हो। (रिवाइव्ड)
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पुनरुत्थान  : पुं० [सं० पुनर-उत्थान, मध्य० स०] [भू० कृ० पुनरुत्थित] १. गिरे हुए का फिर से उठना। २. जिसका एक बार पतन या ह्रास हो चुका हो, उसका फिर से उठकर उन्नति करना। (रिनेसान्स)
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पुनरुत्थित  : भू० कृ० [सं० पुनर्-उत्थित, मध्य० स०] जिसका पुनरुत्थान किया गया हो। अथवा हुआ हो।
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पुनरुद्धार  : पुं० [सं० पुनर-उद्धार, मध्य० स०] टूटी-फूटी या नष्ट हुई चीज को फिर से ठीक करके उसे यथास्थान या उसका उद्धार करना। (रिस्टोरेशन, रिनोवेशन)
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पुनरुपगम  : पुं० [सं० पुनर-उपगम, मध्य० स०] वापस आना। लौटना।
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पुनरुपोढा  : वि० स्त्री० [सं० पुनर-उपोढ़, मध्य० स०] जो दोबारा या फिर से किसी के साथ ब्याही गई हों।
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पुनरुढ़  : स्त्री० [सं० पुनर-रुढ़ा, मध्य० स०] जो फिर से ब्याही गई हो।
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पुनर्गमन  : पुं० [सं० मध्य० स०] दोबारा जाना।
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पुनर्गेय  : वि० [सं० मध्य० स०] जो फिर से गाया जाय। पुं० पुनरुक्ति।
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पुनर्ग्रहण  : पुं० [सं० मध्य० स०] कोई कार्य, पद भार आदि एक बार छोड़ चुकने के बाद फिर से ग्रहण करना। (रिजम्पशन)
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पुनर्जन्म (न्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] जीवात्मा का एक शरीर त्यागने के उपरांत दूसरा शरीर धारण करते हुए जन्म लेना। पुनः होनेवाला जन्म। (ट्रान्समाइग्रेशन)
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पुनर्जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] ब्राह्मण।
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पुनर्जागरण  : पुं० [सं०] १. सोये हुए का फिर से जागना। २. युरोप के इतिहास में १४ वीं, १५ वीं और १६ वीं शताब्दियों की वह स्थिति जिसमें कला, विद्या और साहित्य का नये सिरे से अनुसंधान और प्रचार होने लगा था, और जिसके कारण मध्य युग का अंत तथा आधुनिक युग का आरंभ हुआ था। (रिनेसन्स)
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पुनर्जात  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] जिसने पुनः जन्म लिया हो।
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पुनर्जीवन  : पुं० [सं० मध्य० स०] फिर से प्राप्त होनेवाला जीवन। पुनर्जन्म। पुं०=पुनरुज्जीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनर्डीन  : पुं० [सं० मध्य० स०] पक्षियों के उड़ने के एक प्रकार।
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पुनर्णव  : पुं० [सं० मध्य० स०] नख। नाखून।
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पुनर्नव  : वि० [सं० मध्य० स०] [भाव० पुनर्नवता, स्त्री० पुनर्नवा] जो पुराना हो जाने पर फिर से नया हो गया हो या नया कर दिया गया हो।
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पुनर्नवा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] गदह-पूरना नाम की वनस्पति जिसके सेवन से आँखों की ज्योति का फिर से बहुत बढ़ जाना माना जाता है।
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पुननिर्माण  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी टूटी-फूटी वस्तु का फिर से होनेवाला निर्माण। (री-कन्स्ट्रक्शन)
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पुनर्परीक्षण  : पुं० [सं० पुनः परीक्षण] [भू० कृ० पुनर्परीरक्षित] फिर से या पुनः परीक्षण करना. दूसरी बार या दोबारा जाँचना। (रीएक्जामिनेशन)।
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पुनर्भव  : पुं० [सं० पुनर्√भू (होना)+अप्] १. पुनः होनेवाला जन्म। २. नख। नाखून। ३. रक्त पुनर्भवा। वि० जो फिर हुआ हो। फिर से उत्पन्न।
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पुनर्भाव  : पुं० [सं० मध्य० स०] पुनर्जन्म।
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पुनर्भू  : स्त्री० [सं० पुनर्√भू+क्विप्] वह स्त्री जिसने पति के मरने पर दूसरे पुरुष से विवाह कर लिया हो।
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पुनर्भोग  : पुं० [सं० मध्य० स०] धार्मिक दृष्टि से पूर्व कर्मों का प्राप्त होनेवाला फल-भोग।
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पुनर्मुद्रण  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. एक बार छपी हुई चीज का फिर से उसी रूप में छपना। २. पुस्तकों आदि का इस प्रकार छपकर तैयार होनेवाला संस्करण। (री-प्रिन्ट)
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पुनर्वचन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पुनरुक्ति। २. शास्त्र द्वारा किसी बात का बार-बार विदित होना।
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पुनर्वसु  : पुं० [सं० पुनर√वस् (निवास आच्छादन)+उ] १. सत्ताईस नक्षत्रों में से सातवाँ नक्षत्र। २. विष्णु। ३. कात्यायन मुनि। ५. एक लोक।
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पुनर्वाद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. कोई बात पुनः ज्यों की त्यों अथवा कुछ उलट-पुलट कर कहना। २. छोटे न्यायालय के निर्णय के असंतोषजनक प्रतीत होने पर बडे न्यायालय से उस पर फिर से विचार करने के लिए दी जानेवाली प्रार्थना। (अपील)
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पुनर्वादी (दिन्)  : पुं० [सं० पुनर्वाद+इनि] वह जो बड़े न्यायालयों से किसी छोटे न्यायालय द्वारा किये हुए निर्णय पर फिर से विचार करने के लिए कहे। (एपेलेन्ट)
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पुनर्वास  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. पुनः बसना। २. घर बार न रह जाने पर अथवा छीन लिये जाने पर फिर से नया घर आदि बनाकर रहना। ३. उजड़े हुए लोगों को फिर से बसाना या आबाद करना। (री-हैबिलिटेशन)
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पुनर्वासन  : पुं० [सं० मध्य० स०] उजड़े हुए लोगों को फिर से बसाने की क्रिया या भाव।
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पुनर्विधान  : पुं० [सं० मध्य० स०] फिर से विधान करना या बनाना।
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पुनर्विधायन  : पुं० [सं० मध्य० स०] [भू० कृ० पुनर्विहित] किसी बने हुए विधान को घटा या बढ़ाकर नये सिरे से विधान का रूप देना। (री-एनैक्टमेन्ट)
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पुनर्विधायित  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०]=पुनर्विहित।
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पुनर्विभाजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक बार विभाजन हो चुका हो, उसका फिर से विभाजन करना। (री-डिस्ट्रीब्यूशन)
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पुनर्विलोकन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक बार देखी हुई वस्तु, बात आदि को फिर से अच्छी तरह से देखना। (रिव्यू)
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पुनर्विवाह  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक बार विवाह हो चुकने पर (पति या पत्नी के मर जाने पर) दोबरा होनेवाला विवाह। दूसरा ब्याह।
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पुनर्विवाहित  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] जिसका एक बार विवाह हो चुकने के उपरांत किसी कारण-वश फिर से विवाह हुआ है।
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पुनर्विहित  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] १. जिसका फिर से विधान हुआ या किया गया हो। २. (पहले से बना हुआ विधान) जो फिर से घटा-बढ़ाकर ठीक किया गया और नये विधान के रूप में लाया गया हो। (री-एनैक्टैड)
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पुनर्व्यजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] पहले से बनी हुई चीज जो अब अस्तित्व में न रह गयी हो, उसे फिर से उसी तरह बनाकर सबके सामने रखना। (री-प्रोडक्शन)
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पुनर्व्यक्त  : भू० कृ० [सं० मध्य० स०] जिसका पुनर्व्यजन हुआ हो। दोबारा बनाकर अस्तित्व में लाया हुआ।
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पुनर्सारण  : पुं० [सं० पुनःसारण] [भू० कृ० पुनर्सारित] किसी एक रेडियो आस्थान से प्रसारित होनेवाला कार्य-क्रम ज्यों का त्यों उसी समय दूसरे रेडियों-आस्थानों से भी प्रसारित किया जाना (रिले)
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पुनर्सारित  : भू० कृ० [सं० पुनःसारित] (कार्य-क्रम) जो अन्य रेडियों आस्थानों से भी प्रसारित किया गया हो या किया जा रहा हो। (रिलेड)
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पुनर्स्थापन  : पुं० [सं० पुनःस्थापन] [भू० कृ० पुनर्स्थापित] जो पहले अपने स्थान से हटाया गया हो उसे फिर से उसी स्थान पर रखना या स्थापित करना। (रिप्लेसमेन्ट)
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पुनवाँसी  : स्त्री०=पूर्णमासी।
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पुनश्च  : अव्य० [सं० पुनर्-च] १. इसके बाद। फिर। २. दूसरी बार। दोबारा। ३. जो कुछ कहा जा चुका हो उसके बाद या साथ इतना और भी या यह भी। पुं० एक पद जिसका प्रयोग पत्र आदि लिखकर समाप्त कर लेने पर बाद में याद आई हुई बात नीचे लिखने से पहले होता है। (पोस्टस्क्रिप्ट)
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पुनश्चवर्ण  : पुं० [सं० पुनर-चवर्ण, मध्य० स०] चौपायों का पागुर करना। पगुरी।
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पुनह  : अव्य०=पुनः।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनि  : अव्य० [सं० पुनः] १. फिर से। दोबारा। पुनः। पद—पुनि-पुनि=बार-बार। २. ऊपर से। तिस पर। और भी।
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पुनिम (ा)  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुनी  : पुं० [सं० पुण्य, हिं० पुन] पुण्य करनेवाला। पुण्यात्मा। स्त्री०=पूर्णिमा। अव्य०=पुनि।
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पुनीत  : वि० [सं० पूत] [स्त्री० पुनीता] १. जिसमें पवित्रता हो। पवित्र। २. जो उत्तम और इसी लिए जो पवित्र और प्रशंसनीय माना जाता हो। जैसे—पुनीत-कर्तव्य।
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पुन्न  : पुं०=पुण्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुन्नक्षत्र  : पुं०=पु-नक्षत्र।
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पुन्नपुंसक  : पुं० [सं०] संस्कृत व्याकरण में ऐसा शब्द जो पुलंग और नपुंसक लिंगी दोनों में चलता हो। जैसे—शिशिर।
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पुन्नाग  : पुं० [सं०] सुल्तान चंपा (देखें) नामक वृक्ष।
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पुन्नार  : पुं०=पुंनाट।
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पुन्नाड़  : पुं०=पुंनाट।
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पुन्य  : पुं०=पुण्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुन्यता (ई)  : स्त्री० [सं० पुण्य] १. पुण्य का कार्य या भाव। २. पवित्रता। ३. धर्मशीलता।
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पुपलावा  : अ० [हिं० पोपला] पोपला होना। स० पोपला करना।
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पुपली  : स्त्री० [हिं० पोपला=पोला] १. आम की गुठली घिसकर बनाया हुआ बाजा या सीटी। २. बाँस की पतली और पोली नली। विशेष—कुछ विशिष्ट प्रकार के हाथ से चलाये जानेवाले खपचियों के बने हुए पंखों की डंडियों में पुपली पहनाई जाती है। इसे पकड़कर पंखा चलाने पर वह चारों ओर घूमने लगता है। ३. बच्चों के खेलने का काठ का एक प्रकार का छोटा खिलौना जो छोटी डंडी के आकार का होता है और जिसके दोनों सिरे कुछ मोटे होते हैं। इसे प्रायः छोटे बच्चे चूसते हैं, इसीलिए इसे ‘चुसनी’ भी कहते हैं।
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पुपूषा  : स्त्री० [सं०√पू (पवित्र करना)+सन्+अ+टाप्] शुद्धि करने की इच्छा।
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पुप्पू  : पुं०=पुष्प।
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पुप्फुल  : पुं० [सं० पुप् फुस् पृषो० स—ल] १. फेफड़ा। २. कमल का बीज कोश। कँवलगट्टे का छत्ता। स्त्री०=फुसफुस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुब्बय  : वि० [सं० पूर्वीय] १. पूर्वकाल का। २. पुराना।
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पुमर्थ  : पुं० [सं० ष० त०] चार प्रकार के पुरुषार्थों में से हर एक।
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पुमान् (मस्)  : पुं० [सं०√पू+डुमसुन्] मर्द। नर। पुरुष।
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पुरंजन  : पुं० [सं० पुर√जन् (उत्पन्न करना)+ख, मुम्] जीवात्मा।
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पुरंजनी  : स्त्री० [सं० पुरंजन+ङीष्] बुद्धि। समझ।
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पुरंजय  : वि० [सं० पुर√जि (जीतना)+खच्, मुम्] पुर को जीतनेवाला। पुं० एक सूर्यवंशी राजा जिसका दूसरा नाम काकुत्स्थ था।
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पुरंजर  : स्त्री० [सं०] काँख। बगल।
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पुरंदर  : वि० [सं० पुर√दृ (तोड़ना, फाड़ना)+खच्, मुम्] पुर (नगर या घर) को तोड़नेवाला। पुं० १. इंद्र। २. चोर। ३. चव्य। चाब। ४. मिर्च। ५. ज्येष्ठा नक्षत्र। ६. विष्णु।
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पुरंदरा  : स्त्री० [सं० पुरंदर+टाप्] गंगा।
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पुरंध्री  : स्त्री० [सं० पुर√भृ (पालन करना)+खच्+ङीष्] १. ऐसी सौभाग्यवती स्त्री जिसके आगे पति पुत्र और कन्याएँ हों। २. स्त्री।
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पुरः (रस्)  : अव्य० [सं० पूर्व+असि, पुर्-आदेश] १. काल, दिशा आदि के विचार से आगे या सामने। समझ। २. किसी के पहले या पूर्व। ३. पूर्व दिशा का। पूर्वी। ४. पूर्व की ओर उन्मुख। विशेष—पुरस्कार, पुराक्रिया, पुरस्कृत, पुरस्सर आदि शब्दों में उनके पहले इसका उक्त पुरस् रूप ही सम्मिलित रहता है।
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पुरःदत्त  : वि० [सं० पुरोदत्त] (परिव्यय या शुल्क) पहले से किया हुआ। जो पहले दिया गया हो। (प्रीपेड)
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पुरःदान  : पुं० [सं० पुरोदान] [भू० कृ० पुरःदत्त] (देन, परिव्यय, शुल्क आदि) नियत समय से पहले ही चुकाना या दे देना। (प्री-पेमेन्ट)
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पुरःप्रत्यय  : पुं० [सं० मध्य० स०] व्याकरण में ऐसा प्रत्यय जो किसी शब्द के पहले लगकर उसके अर्थ में कोई विशेषता उत्पन्न करता है। जैसे— ‘अनुगत’ में का ‘अनु’ पुरःप्रत्यय है।
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पुरःसंगी  : वि० [सं०] किसी कार्य, तथ्य या विषय में, उससे पहले सम्बद्ध या सहायक रूप मे आने, होने या साथ रहनेवाला। (एक्सेसरी बिफोर दी फैक्ट)
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पुरःसर  : वि० [सं० पुरस्√सृ (गति)+ट] १. मिला हुआ। युक्त। २. संग या साथ रहने या होनेवाला। पुं० १. आगे-आगे चलनेवाला। २. अगुआ। नेता। ३. संगी। साथी।
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पुर  : वि० [सं०√पुर् (आगे जाना)+क] भरा हुआ। पुं० [स्त्री० अल्पा० पुरी] १. वह बड़ी बस्ती जिसमें बड़ी बड़ी इमारतें भी हों। गाँव से बड़ी परन्तु नगर से छोटी बस्ती। विशेष—प्राचीन काल में पुर का क्षेत्रफल एक कोस से अधिक होता था और उसके चारों ओर खाई होती थी। २. घर। मकान। ३. अटारी। कोठा। ४. भुवन। लोक। ५. नक्षत्रों का पुंज राशि। ६. देह। शरीर। ७. कुएँ से पानी खींचने का मोट।—चरसा। ८. मोथा। ९. पीली कसरैया। १॰. गुग्गुल। ११. किला। गढ़। दुर्ग। १२. चोगे की तरह का एक प्रकार का पुराना पहनावा। अव्य० [सं० पुरः] आगे। सामने। उदा०—स्वान। निशंक कहौ पुर मेरे।—केशव। पुं०=पुरवट (लखनऊ) मुहा०—पुर लेना=पानी से भरा हुआ पुरवट खींचकर उसका पानी नाली में गिराना।
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पुरइन  : स्त्री० [सं० पुटकिनी, प्रा० पुड़इनी=कमलिनी, पुं० हिं० पुरइनि] १. कमल का पत्ता। २. कमल। ३. जरायु।
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पुरउना  : स०=पुरवना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरउबि  : स० [सं० पूर्ण] पूरा कीजिएगा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुर-कायस्थ  : पुं० [सं० ष० त०] प्राचीन भारत में पुर (या नगर) का वह अधिकारी जिसके पास मुख्य लेखों, दस्तावेजों आदि की नकलें रहती थीं। (इसका पद प्रायः आज-कल के रजिस्ट्रार के पद के समान होता था।)
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पुर-कोट्ट  : पुं० [ष० त०] नगर का रक्षा के लिए बनाया हुआ दुर्ग।
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पुरखा  : पुं० [सं० पुरुष] [स्त्री० पुराविन] १. पूर्वज। मुहा०—पुरखे तर जाना=पूर्व पुरुषों को (पुत्र आदि के कृत्यों से) पर लोक में उत्तम गति प्राप्त होना। बहुत बड़ा पुण्य या उसका फल होना। कृत्य कृत्य होना। जैसे—उनके आने से तुम क्या, तुम्हारे पुरखे भी तर जायँगे। २. सयाना और वृद्ध व्यक्ति।
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पुरग  : वि० [पुर√गम् (जाना)+ड] १. नगरगामी। २. जिसकी मनोवृत्ति अनुकूल हो।
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पुरगुर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसकी लकड़ी, खिलौने, हल आदि बनाने के काम आती है।
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पुरचक  : स्त्री० [हिं० पुचकार] १. चुमकार। पुचकार। २. बढ़ावा। प्रेरणा। क्रि० प्र०—देना। ३. पृष्टपेषण। ४. समर्थन हिमायत। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ५. बुरा अभ्यास या परिपाटी। (पश्चिम)
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पुर-जन  : पुं० [ष० त०] पुर या नगर के रहनेवाले लोग। पुरवासी।
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पुरजा  : पुं० [फा० पुर्जः] १. टुकड़ा। खंड। मुहा०—पुरजे पुरजे उड़ाना या करना=कागज, पत्र आदि को फाड़कर उसके अनेक छोटे-छोटे टुकड़े कर देना। २. काटकर निकाला हुआ टुकड़ा। कतरन। धज्जी। ३. कागज के टुकड़े पर लिखी हुई बात या सूचना। ४. किसी के हस्ते भेजी जाने वाली चिट्टी। ५. किसी बड़े यंत्र का कोई अंग, अंश या खंड। जैसे—घड़ी के कई पुरजे खराब हो गये हैं। पद—चलता पुरजा=बहुत बड़ा चालाक। मुहा०—(किसी के दिमाग का) पुरजा ढीला होना=कुछ खबती, झक्की या सनकी होना।
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पुरजित्  : पुं० [सं० पुर√जि (जीतना)+क्विप्] १. शिव। २. कृष्ण का एक पुत्र जो जांबवती के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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पुरट  : पुं० [सं०√पुर्+अटन्] सुवर्ण। सोना।
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पुरण  : पुं० [सं०√पृ+क्यु—अन] समुद्र।
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पुरतः (तस्)  : अव्य० [सं० पुर+तस्] आगे। सामने। उदा०—पुरुतो में प्रेषितम् पत्र।—प्रिथीराज।
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पुर-तटी  : स्त्री० [मध्य० स०] छोटा बाजार। हाट।
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पुर-तोरण  : पुं० [ष० त०] नगर का बाहरी दरवाजा या मुख्य-द्वार।
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पुर-त्राण  : वि० [ब० स०] पुर की रक्षा करनेवाला। पुं० परकोटा।
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पुर-देव  : पुं०=नगर देवता।
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पुर-द्वार  : पुं० [ष० त०] पुर का मुख्य द्वार। नगर का मुख्य फाटक।
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पुरद्विट (ष्)  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पुरना  : अ० [हिं० पूरा] १. पूरा या पूर्ण होना। २. यथेष्ट मात्रा या मान में प्राप्त होना। उदा०—पुरती न जो पै मोर-चंद्रिका किरीटकाज, जुरती कहा न काँच किरचै कुमाय की।—रत्नाकर। ३. समाप्त होना।
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पुर-नारी  : स्त्री० [ष० त०] नगर-नारी। रंडी। वेश्या।
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पुनरियाँ  : वि० [हिं० पुरान] बुड्ढा (या बुड्ढी) वृद्ध। (या वृद्धा)
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पुर-निवेश  : पुं० [ष० त०] पुर या नगर बनाना और बसाना।
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पुर-निवेशन  : पुं० [ष० त०] पुर या नगर बसाने का कार्य।
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पुरनी  : स्त्री० [हिं० पूरना=भरना] १. अँगूठे में पहनने का छल्ला। २. तुरही। ३. बंदूक की नली साफ करने का कागज।
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पुर-पक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] १. पुर या नगर में रहनेवाला पक्षी। २. पालतू पक्षी।
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पुरपाल  : पुं० [सं० पुर√पाल् (रक्षा)+णिच्+अच्] १. पुर या नगर का प्रधान अधिकारी। २. कोतवाल। ३. आत्मा। जीव।
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पुरबला  : वि० [सं० पूर्व+हिला (प्रत्य०)] [स्त्री० पुरबली] १. पूर्व का। पहले का। २. पूर्व जन्म का। पिछले जन्म का।
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पुरबा  : वि०=पुरवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरबिया  : वि० [हिं० पूरब] [स्त्री० पुरबिनी] १. पूर्व देश में उत्पन्न या रहनेवाला परब का। २. पूर्व दिशा से आनेवाला। जैसे—पुरबिया हवा। पुं० पूर्वी देश का निवासी।
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पुरबिहा  : वि०, पुं०=पुरबिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरबी  : वि०=पूरबी।
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पुरभिद्  : पुं० [सं० पुर√भिद् (विदीर्ण करना)+क्विप्] पुर (त्रिपुर) का भेदन करनेवाले, शिव।
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पुरमथन  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पुर-मथिता (तृ)  : पुं० [सं०] शिव।
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पुर-मार्ग  : पुं० [ष० त०] १. पुर या नगर की ओर जानेवाला रास्ता। २. शहर की सड़क।
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पुर-रक्षी  : पुं०=पुर-रक्षक।
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पुर-रक्षा  : पुं० [ष० त०] नगर या रक्षा करनेवाला कर्मचारी।
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पुर-रक्षा (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०]=पुर-रक्षक।
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पुर-रोध  : पुं० [ष० त०] शत्रु के नगर को घेरा डालना। चारों ओर से घेरना।
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पुरला  : स्त्री० [सं०√पुर्+कलच्+टाप्] दुर्गा।
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पुर-लोक  : पुं० [ष० त०]=पुरजन।
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पुरवइया  : स्त्री०=पुरवाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरवट  : पुं० [सं० पूर] चमड़े का एक तरह का बड़ा उपकरण या डोल जिससे सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकालते हैं। चरसा। मोट। क्रि० प्र०—खींचना।—चलना।—चलाना। मुहा०—पुरवट नाधना= पुरवट चलाने के लिए उसमें बैल जोतना।
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पुर-वधू  : स्त्री० [ष० त०] वेश्या।
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पुरवना  : स० [हिं० पूरना का प्रेर०] १. पूर्ण या पूरा करना। जैसे—मनोरथ पुरवना। मुहा०—साथ पुरवना=अन्त तक या पूरी तरह से साथ देना। २. इच्छा, कामना, प्रतिज्ञा आदि पूरी करना। उदा०—जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पुरई सखा बिप्र दरिद्र हयौ।—सूर। अ० १. पूरा या पूर्ण होना। २. पूरा पड़ना। यथेष्ट होना। ३. पूर्ति होना। कमी दूर होना।
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पुर-वर  : पुं० [स० त०] १. अच्छा और बढ़िया या श्रेष्ठ नगर। २. राजनगर। राजधानी।
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पुरवा  : पुं० [सं० पुर] छोटा गाँव। पुरा। खेडा। वि० [सं० पूव] पूर्व दिशा का। पुं० [सं० पूर्व+वात] १. पूर्व की ओर से आने या चलनेवाली हवा। पुरवाई। २. उक्त वायु के चलने पर पशुओं को होनेवाला एक रोग, जिसमें उनका गला और पेट फूल जाता है। पुं० [सं० पुटक] मिट्टी का एक प्रकार का छोटा बरतन जिसमें पानी, दूध, शराब आदि पीते हैं। कुल्हड़।
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पुरवाई  : स्त्री० [सं० पूर्व+वायु, हिं० पूरब+बाई] पूर्व की वायु। वह वायु जो पूर्व दिशा से आती हो।
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पुरवाना  : स० [हिं० पुरवना का प्रे०] पूरा कराना।
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पुरवासी (सिन्)  : पुं० [सं० पुर√वस् (बसना)+णिनि] पुर या नगर का रहनेवाला। नागरिक।
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पुर-वास्तु  : पुं० [ष० त०] वह भूमि या स्थान जहाँ नगर अच्छी तरह बनाया या बसाया जा सकता हो।
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पुरवैया  : स्त्री०=पुरवाई।
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पुर-शासन  : पुं० [सं० पुर√शास् (शासन करना)+ल्यु—अन] १. दैत्यों के त्रिपुर का ध्वंस करनेवाले शिव। २. विष्णु।
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पुरश्चरण  : पुं० [सं० पुरस्√चर् (गति)+ल्युट्—अन] १. किसी कार्य की सिद्धि के लिए पहले से ही उपाय सोचना और उसका अनुष्ठान करना। किसी काम की पहले से की जानेवाली तैयारी। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए नियम और विधान पूर्वक कुछ निश्चित समय तक किया जानेवाला तांत्रिक पूजा-पाठ। तांत्रिक प्रयोग।
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पुरश्चर्या  : स्त्री० [सं० पुरस्√चर्+क्यप्+टाप्] पुरश्चरण।
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पुरश्छद  : पुं० [सं० पुरस्√छद (ढंकना)+णिच्,+घ, ह्रस्व] कुश या डाभ की तरह की एक घास।
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पुरषा  : पुं०=पुरखा (पूर्व पुरुष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरस  : पुं० [सं० पुरीष] खाद।
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पुरसाँ  : वि० [फा० पुसाँ] पूछने या खोज-खबर लेनेवाला।
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पुरसा  : पुं० [सं० पुरुष] ऊँचाई या गहराई नापने की एक नाप जो उतनी ऊँची होती है जितना ऊँचा हाथ ऊपर उठाकर खड़ा हुआ साधारण मनुष्य होता है। लगभग साढ़े चार या पाँच हाथ की एक माप। जैसे—यह कुआँ या नदी चार पुरसा गहरी है।
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पुरसी  : स्त्री० [फा०] समस्त पदों के अंत में, जानने के लिए कुछ पूछने की क्रिया या भाव। जैसे—मातम-पुरसी, मिजाज-पुरसी आदि।
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पुरस्कार  : पुं० [सं० पुरस्√कृ (करना)+घञ्] [भू० कृ० पुरस्कृत] १. आगे करने की क्रिया। २. आदर। पूजा। ३. प्रधानता। ४. स्वीकार। ५. अच्छी तरह कोई बड़ा और कठिन काम करने पर उसके कर्ता को आदर या सत्कार के रूप में दिया जानेवाला धन या पदार्थ। इनाम (प्राइज)। क्रि० प्र०—देना।—पाना।
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पुरस्कृत  : भू० कृ० [सं० पुरस्√कृ+क्त] १. आगे किया हुआ। २. पूजित। ३. स्वीकृत। ४. जिसे पुरस्कार मिला हो।
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पुरस्तात्  : अव्य० [सं० पूर्व+अस्ताति, पुर-आदेश] १. आगे। सामने। २. पूर्व दिशा में। ३. पूर्व काल में। ४. आरंभ में।
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पुरस्सर  : वि०=पुरः सर।
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पुरहँड़  : पुं० [सं० पुरोघट या पूर्णघट] मंगलकलश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरहत्  : पुं० [सं० पुरः-अक्षत] वह अन्न और द्रव्य जो विवाह आदि मंगल कार्यों में पुरोहित और नेगियों को कृत्य करने के प्रारंभ में दिया जाता है। आखत।
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पुरहन्  : पुं० [सं०पुर√हन्(हिंसा)+क्विप्] १. विष्णु। २. शिव।
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पुरहर  : पुं० [सं० पूर्ण-भर] मांगलिक पात्र। मंगलघट। उदा०—धवल कमल फुल पुरहर भेल।—विद्यापति। वि०=पूरा।
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पुरहा  : पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु। पुं० [हिं० पुर] वह व्यक्ति जो खेतों की नालियों में पुरवट का पानी गिराता हो। (पूरब)
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पुरही  : स्त्री० [?] एक प्रकार की झाड़ी जिसकी पत्तियाँ और जड़े औषध के काम आती है। हर-जेवड़ी।
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पुरहूत  : वि०, पुं०=पुरुहूत।
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पुरांगना  : स्त्री० [सं० पुर-अगना, ष० त०] नगर में रहनेवाली स्त्री। नगर-निवासिनी।
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पुरांतक  : पुं० [सं० पुर-अंतक, ष० त०] शिव।
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पुरा  : अव्य० [सं०√पुर (अग्रगति)+का] १. पुराने समय में। पूर्व या प्राचीन काल में। २. अब तक। ३. थोड़े समय में। वि० समस्त पदों के आरंभ में विशेषण के रूप में लगकर यह पुराना या प्राचीन का अर्थ देता है। जैसे—पुराकल्प, पुरावृत्त। स्त्री० १. पूर्व दिशा। पूरब। २. मुरा नामक गंध द्रव्य। ३. छोटी बस्ती। गाँव।
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पुराई  : स्त्री० [हिं० पूरना-भरना] १. पूरा करने की क्रिया या भाव। २. पुरवट आदि के द्वारा खेतों में पानी देने की क्रिया। सिंचाई। क्रि० प्र०—चलना। ३. उक्त का पारिश्रमिक या मजदूरी।
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पुरा-कथा  : स्त्री० [कर्म० स०] १. प्राचीन काल की बातें। २. इतिहास।
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पुराकल्प  : पुं० [कर्म० स०] १. पूर्व कल्प। पहले का कल्प। २. प्राचीन इतिहास युग। ३. एक प्रकार का अर्थवाद जिसमें प्राचीन काल का कहकर किसी विधि के करने की ओर प्रवृत्त किया जाय। जैसे—ब्राह्मणों ने इससे हविः पवमान सामस्तोम की स्तुति की थी। ४. आधुनिक भू० विज्ञान के अनुसार उत्तर पाँच कल्पों में से तीसरा कल्प, जिसमें पृथ्वी तल पर जगह-जगह छिछले समुद्र बनने लगे थे; खूब बाढ़े आती थीं, मछलियाँ सरीसृप और कीड़े-मकोड़े उत्पन्न होने लगे थे, और कुछ विशिष्ट प्रकार के बहुत बड़े-बड़े वृक्ष होते थे। यह कल्प प्रायः बीस से पचास करोड़ वर्ष पहले हुआ था। पुराजीवकाल। (पेलियो जोइक एरा) विशेष—शेष चार कल्प ये हैं—आदि कल्प, उत्तर कल्प, मध्य कल्प और नवकल्प।
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पुराकालीन  : वि० [सं० पुरा-काल, कर्म० स०,+ख—ईन] १. प्राचीन काल का। बहुत पुराना। २. इतना अधिक पुराना कि जिसका प्रचलन, प्रयोग या व्यवहार बहुत दिन पहले से उठ गया हो। बहुत पुराने जमाने का। (एन्टीक)
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पुराकृत  : भू० कृ० [सं० स० त०] १. पूर्व काल में किया हुआ। २. पूर्वजन्म में किया हुआ। पुं० पूर्वजन्म में किये हुए वे भले और बुरे काम जिनका फल दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है।
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पुरा-कोश  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा शब्दकोश जिसमें प्राचीन भाषाओं के अथवा बहुत पुराने शब्दों का विवेचन होता है। निघण्टु। (लेक्सिकन)
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पुराग  : वि० [सं० पुरा√गम् (जाना)+ड] पूर्वगामी।
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पुराचीन  : वि० १.=पुराकालीन। २.=प्राचीन।
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पुराजीव  : पुं०=जीवाश्म। (देखें)
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पुराजीवकाल  : पुं०=पुराकाल।
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पुराजैविकी  : स्त्री०=जीवाश्म विज्ञान। (देखें)
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पुराण  : वि० [सं० पुरा√टयु—अन] [भाव० पुराणता] १. बहुत प्राचीन काल का। बहुत पुराना। पुरातन। जैसे—पुराण पुरुष। २. बहुत अधिक अवस्था या वय वाला। वृद्ध। बुड्ढा। ३. जो पुराना होने के कारण जीर्ण-शीर्ण हो गया हो। पुं० १. बहुत पुरानी घटना या उसका वृत्तांत। २. प्रायः सभी प्राचीन जातियों, देशों और धर्मों में प्रचलित उन पुरानी और परम्परागत कथा-कहानियों का समूह जिनका थो़ड़ा-बहुत ऐतिहासिक आधार होता है; पर जिनके रचयिता अज्ञात कवि होते हैं। (मिथ) जैसे—चीन, यूनान, या रोम के पुराण, जैन या बौद्ध पुराण। विशेष—ऐसी कथाओं में प्रायः घटनाओं मानव जाति की उत्पत्ति, सृष्टि की रचना, प्राचीन कृत्यों और सामाजिक रीति-रिवाजों के कुछ अत्युक्तिपूर्ण विवरण होते हैं, तथा देवी-देवताओं और वीर-पुरुषों के जीवन-वृत्त होते हैं। ३. भारतीय धार्मिक क्षेत्र में उक्त प्रकार के वे विशिष्ट बहुत बड़े-बड़े काव्य-ग्रंथ, जिनमें इतिहास की बहुत सी घटनाओं के साथ-साथ सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय देवी-देवताओं, दानवों, ऋषि-महर्षियों, महाराजाओं, महापुरुषों आदि के गुणों तथा पराक्रमों की बहुत सी बातें, और अनेक राजवंसों की वंशावलियाँ आदि भी दी गई है, और धार्मिक दृष्टि से जिनकी गणना पाँचवें वेद के रूप में होती है। विशेष—हिंदू धर्म में कुल १८ पुराण माने गये हैं। प्रायःसभी पुराणों में शेष सभी पुराणों के नाम और श्लोक-संख्याएं थोड़े-बहुत अन्तर से दी है। पुराणों के नाम प्रायः ये है—ब्रह्म, पद्म, विष्णु, वायु अथवा शिव, लिंग अथवा नृसिंह, गरुड़, नारद, स्कंद, अग्नि, श्रीमद्भागवत अथवा देवी भागवत, मार्कण्डेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, वामन, वाराह, मत्स्य, कूर्म और ब्रह्माण्ड पुराण। साहित्यकारों के अनुसार पुराणों मे पाँच बातें होती हैं—सर्ग अर्थात् सृष्टि, प्रतिसर्ग अर्थात् प्रलय और उसके उपरांत फिर से होनेवाली सृष्टि, वंशों, मन्वन्तरों और वंशानुचरित की बातों का वर्णन; परन्तु कुछ पुराणों में इस प्रकार की बातों के सिवा राजनीति राजधर्म, प्रजा-धर्म, आयुर्वेद, व्याकरण, शस्त्र-विद्या, साहित्य अवतारों देवी-देवताओं आदि की कथाएँ तथा इसी प्रकार की और भी बहुत सी बातें मिलती हैं। धार्मिक हिंदू प्रायः विशेष भक्ति और श्रद्धा से इन पुराणों की कथाएँ सुनते हैं। साधारणतः वेद-मंत्रों के संग्रहकर्ता वेदव्यास ही इन सब पुराणों के भी रचयिता माने जाते हैं। इन १८ पुराणों के सिवा १८ उप-पुराण भी माने गये हैं। और जैन तथा बौद्ध-धर्मों में भी इस प्रकार के कुछ पुराण बने हैं। आधुनिक विद्वानों का मत है कि भिन्न-भिन्न पुराण भिन्न-भिन्न समयों में बने हैं। कुछ प्राचीन पुराणों के नष्ट हो जाने पर उनके स्थान पर उन्हीं के नाम से कुछ नये पुराण भी बने हैं। और इनमें बहुत सी बातें समय-समय पर घटती-बढ़ती रही हैं। ४. उक्त ग्रन्थों के आधार पर १८ की संख्या का वाचक शब्द। ५. शिव। ६. कार्षाषण नाम का पुराना सिक्का।
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पुराण-कल्प  : पुं०=पुराकल्प। (दे०)
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पुराणग  : पुं० [सं० पुराण√गम् (जाना)+ड] १. पुराणों की कथाएं पढ़ने अथवा पढ़कर दूसरों को सुनानेवाला पंडित या व्यास। २. ब्रह्मा।
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पुराणता  : स्त्री० [सं० पुराण+तल्+टाप्] १. पुराण का भाव। २. बहुत ही प्राचीन होने की अवस्था या भाव। (एन्टिक्विटी)
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पुराण-दृष्ट  : भू० कृ० [तृ० त०] जो पुराने लोगों द्वारा देखा और माना गया हो।
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पुराण-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] १. विष्णु। २. वृद्ध व्यक्ति।
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पुरातत्त्व  : पुं० [कर्म० स०] वह विद्या जिसमें मुख्यतः इतिहास पूर्वकाल की वस्तुओं के आधार पर पुराने अज्ञात इतिहास का पता लगाया जाता है। प्रत्न विज्ञान। (आर्कियॉलोजी)
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पुरातत्त्वज्ञ  : पुं० [सं० पुरातत्व√ज्ञा (जानना)+क] वह जो पुरातत्व विद्या का ज्ञाता हो। (आकियालाजिस्ट)
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पुरातन  : वि० [सं०पुरा+ट्यु—अन, तुट्] १. सब से पहले का। आद्य। २. पुराना। प्राचीन। पुं० विष्णु।
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पुरा-तल  : पुं० [कर्म० स०] तलातल। (दे०)
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पुराधिप  : पुं० [सं० पुरा-अधिप, ष० त०] पुर अर्थात् नगर का प्रधान शासनिक अधिकारी।
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पुराध्यक्ष  : पुं० [सं० पुर-अध्यक्ष, ष० त०] पुराधिप।
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पुरान  : वि०=पुराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पुराण।
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पुराना  : वि० [सं० पुराण] [स्त्री० पुरानी] १. जो प्रस्तुत समय से बहुत पहले का हो। बहुत पूर्व या प्राचीन काल का। जैसे—पुराना जमाना, पुरानी सभ्यता। २. जिसे अस्तित्व में आये या जीवन धारण किये बहुत समय हो चुका हो। जैसे—पुराना पेड़, पुराना बुखार, पुराना मकान आदि। ३. जो बहुत दिनों का हो जाने के कारण अच्छी दशा में न रह गया हो या ठीक तरह से और पूरा काम न दे सकता हो। जीर्ण-शीर्ण। जैसे—पुराना कपड़ा, पुरानी चौकी। ४. जिसे किसी काम या बात का बहुत दिनों से अनुभव होता आय़ा हो,अथवा जो बहुत दिनों से अभ्यस्त हो रहा हो। यथेष्ट रूप में परिपक्व। जैसे—पुराना कारीगर, पुराने पंडित या विद्वान। पद—पुराना खुर्राट=बहुत बड़ा अनुभवी। पुराना घाघ=बहुत बड़ा चालाक। ५. जो किसी निश्चित या विशिष्ट काल से चला आ रहा हो। जैसे—(क) पाँच सौ वर्ष का पुराना चावल, सौ वर्ष का पुराना पेड़। ६. जो उक्त प्रकार का होने पर भी अब प्रचलित न हो। जिसका चलन अब उठ गया हो, या उठता जा रहा हो। जैसे—पुराना पहनावा, पुरानी परिपाटी या प्रथा। स० [हिं० पूरना का प्रे०] १. पूरने का काम किसी और से कराना। पूरा कराना। २. आज्ञा, निर्देश, वचन आदि का निर्वाह या पालन कराना। ३. अवकाश, गड्ढे आदि के प्रसंग में, समतल कराना। भरवाना। स० [हिं० पूरना] १. पूरा करना। २. निर्वाह या पालन करना। अ०=पूरना (पूरा होना)।
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पुराराति  : पुं० [सं० पुर-अराति, ष० त०] शिव।
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पुरारि  : पुं० [सं० पुर-अरि, ष० त०] शिव।
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पुराल  : पुं० [हिं०]=पयाल (धान के डंठल) धान के ऐसे डंठल, जिसमें से बीज झाड़ लिये गये हों। पद।
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पुरा-लेख  : पुं० [कर्म० स०] किसी प्राचीन भवन या स्मृति-चिह्र पर अंकित किया हुआ कोई ऐसा लेख जो किसी प्राचीन लिपि में अंकित हो। (एपिग्राफी)
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पुरालेखशास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें प्राचीन काल की लिपियाँ पढ़ने का विवेचन होता है। (एपिग्राफी)
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पुरावती  : स्त्री० [सं० पुर+मतु, वत्व+ङीष्, दीर्घ] एक प्राचीन नदी। (महाभारत)
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पुरावशेष  : पुं० [सं० पुरा-अवशेष, कर्म० स०] बहुत प्राचीन काल की चीजों के टूटे-फूटे या बचे-खुचे अंश या अवशेष जिनके आधार पर उस काल की सभ्यता, इतिहास आदि के संबंध में जानकारी प्राप्त की जाती है। (एन्टिक्विटीज)
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पुरावसु  : पुं० [कर्म० स०] भीष्म।
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पुराविद्  : वि० [सं० पुरा√विद् (जानना)+क्विप्] पुरानी अर्थात् प्राचीन काल की ऐतिहासिक सामाजिक आदि बातों को जाननेवाला। पुरातत्वज्ञ। (आर्कियालोजिस्ट)
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पुरा-वृत्त  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन काल का कोई वृत्तांत।
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पुरासाह्  : पुं० [सं० पुरा√सह् (सहन करना)+ण्वि] इन्द्र।
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पुरासिनी  : स्त्री० [सं० पुर√अस् (फेंकना)+णिनि+ङीप्] सहदेवी नाम की बूटी।
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पुरि  : स्त्री० [सं०√पृ+इ] १. पुरी। २. शरीर ३. नदी। पुं० १. राजा। २. दशनामी संन्यासियों में से एक।
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पुरिखा  : पुं०=पुरखा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरिया  : स्त्री० [हिं० पूरना] १. बाना फैलाने की नरी। २. ताना। स्त्री०=पुड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरिश  : पुं० [सं० पुरि√शी (सोना)+ड, अलुक्स] जीव।
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पुरिष  : पुं०=पुरीष (विष्ठा)।
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पुरी  : स्त्री० [सं० पुरी+ङीष्] १. छोटा पुर। नगरी। २. जगन्नाथ पुरी। ३. गढ़। दुर्ग। ४. देह। शरीर।
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पुरीतत्  : स्त्री० [सं० पुरी√तन् (विस्तार+क्विप्, तुक] १. हृदय के पास की एक नाड़ी। २. आँत।
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पुरीमोह  : पुं० [सं० पुरी√मुह् (मुग्ध होना)+णिच्+अण्] धतूरा।
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पुरीष  : पुं० [सं०√पृ+ईषन्, कित्] १. विष्ठा। मल। गू। २. जल। पानी।
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पुरीषण  : पुं० [सं० पुरी√ईष् (त्याग)+ल्युट जैसे—अन] विष्ठा।
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पुरीषम  : पुं० [सं० पुरीष√मा (शब्द)+क] १. मल। विष्ठा। २. गंदगी। कूड़ा।
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पुरीष-स्थान  : पुं० [ष० त०] मल त्याग करने का स्थान। जैसे—खुड्डी पाखाना, संडास आदि।
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पुरीषाधान  : पुं० [सं० पुरीष-आधान, ष० त०] मलाशय।
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पुरीषोत्सर्ग  : पुं० [सं० पुरी-उत्सर्ग, ष० त०] मल-त्याग।
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पुरु  : वि० [सं०√पृ (पालन पोषण)+कु, उत्व] बहुत अधिक। विपुल। पुं० १. देवलोक। स्वर्ग। २. एक दैत्य जिसे इन्द्र ने मारा था। ३. एक प्राचीन पर्वत। ४. फूलों का पराग। ५. देह। शरीर। ६. पुराणानुसार एक देश का नाम। ७. छठवें चन्द्रवंशी राजा, जो नहुष के पोते तथा ययाति के पुत्र थे। अपने पाँचों भाइयों में से इन्होंने अपने पिता ययाति के माँगने पर उन्हें अपना यौवन और रूप दे दिया, जिन्हें हजार वर्षों तक भोगने के बाद ययाति ने फिर इन्हें लौटा दिया था और अपने राज-सिंहासन का अधिकारी बनाया था। इन्ही के वंश में दुष्यन्त और भरत हुए थे। जिनके वंशज आगे चलकर कौरव लोग हुए। ८. पंजाब का एक प्रसिद्ध राजा जो ई० पू० ३२७ में सिकन्दर से लड़ा था।
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पुरुकुत्स  : पुं० [सं०] एक राजा जो मांधाता का पुत्र और मुचुकुंद का भाई था और जो नर्मदा नदी के आसपास के प्रदेश पर राज्य करता था। इसने नाग कन्या नर्मदा के साथ विवाह किया था।
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पुरुख  : पुं०=पुरुष।
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पुरुजित्  : पुं० [सं० पुरु√जि (जीतना)+क्विप्] १. कुंतिभोज का पुत्र जो अर्जुन का मामा था। २. विष्णु।
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पुरुदंशक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] हंस।
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पुरुदंशा (शस्)  : पुं० [सं० पुरु√दंश (काटना)+असुन्] इंद्र।
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पुरुदस्म  : पुं० [सं० पुरु√दस् (काटना)+मन्] विष्णु।
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पुरुब  : पुं०=पूर्व (दिशा या देश)।
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पुरुभोजा (जस्)  : पुं० [सं० पुरु√भुज् (खाना)+असुन] बादल।
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पुरुमित्र  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन राजा जिसका नाम ऋग्वेद में आया है। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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पुरुमीढ़  : पुं० [सं०] अजमीढ़ का छोटा भाई।
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पुरुष  : पुं० [सं०√पुर् (आगे जाना)+कुषण्] १. मानव जाति का नर प्राणी। आदमी। मर्द। (स्त्री से भिन्न) २. उक्त प्रकार का वह व्यक्ति जिसमें विशिष्ट शक्ति या सामर्थ्य हो और जो वीरता तथा साहस के काम कर सकता हो; जैसे—तुम्हें पुरुषों की तरह मैदान में आना चाहिए। ३. राज्य की ओर से सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त किया हुआ कोई अधिकारी। राज-पुरुष। ४. ऊँचाई की एक नाप जो सामान्य वयस्क मनुष्य की ऊँचाई के बराबर होती है। पुरसा। ५. शरीर में रहनेवाली आत्मा या जीव। ६. वह प्रधान सत्ता, जो सारे विश्व में आत्मा के रूप में वर्तमान है। विश्वात्मा। विशेष—सांख्यकार ने इसे आकृति से भिन्न एक ऐसा चेतन मूल तत्त्व या पदार्थ माना है, जिसमें कभी कोई परिणाम या विकार नहीं होता, और जो स्वयं कुछ भी न करने और सबसे अलग रहने पर भी प्रकृति के सान्निध्य से ही सृष्टि की उत्पत्ति करता है। ७. किसी व्यक्ति की ऊपरवाली पीढ़ी या पीढ़ियाँ। पूर्व पुरुष। पूर्वज। उदाहरण—सों सठ कोटिक पुरुष समेता। बसहिं कलप सत नरक-निकेता।—तुलसी। ८. स्त्री का पति या स्वामी। ९. व्याकरण में, वक्ता की दृष्टि से किया जानेवाला सर्वनामों का वर्गीकरण। विशेष—इसके उत्तम पुरुष, प्रथम पुरुष और मध्यम पुरुष ये तीन विभाग हैं। वक्ता अपने संबंध में जिस सर्वनाम का उपयोग करता है, वह उत्तम पुरुष कहलाता है। जैसे—मैं या हम। वह जिससे कोई बात-चीत करता है, उसके संबंध में प्रयुक्त होनेवाले विशेषण मध्यम पुरुष कहलाते हैं। जैसे—तू, तुम और आप। किसी तीसरे अनुपस्थित या दूरस्थ व्यक्ति या पदार्थ के लिए प्रयुक्त होनेवाले सर्वनामों की गणना प्रथम पुरुष में होती है। जैसे—वह या वे। कुछ वैयाकरण अँगरेजी व्याकरण के अनुकरण पर इन्हें क्रमात्, प्रथम पुरुष, द्वितीय पुरुष और तृतीय पुरुष भी कहते हैं। हमारी भाषा में इन पुरुषों का परिणाम या प्रभाव क्रिया-पदों पर भी होता है। जैसे—मैं जाता हूँ; तुम जाते हो; वह जाता है आदि। १॰. विष्णु। ११. सूर्य। १२. शिव। १३. पारा। १४. गुग्गुल। १५. पुन्नाग। १६. घोड़े का अपने पिछले दोनों पैरों पर खडा होना। पुरुषक (देखें)। वि० [सं०] १. तीखा। तेज। जैसे—पुरुष पवन। २. नर। ‘स्त्री’ का विपर्याय। जैसे—पुरुष मकर। ३. जोरदार। बलवान।
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पुरुषक  : पुं० [सं० पुरुष√कै (भासित होना)+क] घोड़े की वह स्थिति जिसमें वह अपने दोनों पैर ऊपर उठाकर दोनों पिछले पैरों पर खड़ा हो जाता है। अलफ। सीख-पाँव। विशेष—लोक में इसे ‘घोडे का जमना’ कहते हैं।
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पुरुष-कार  : पुं० [ष० त०] १. पुरुषार्थ। पौरुष। २. उद्योग।
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पुरुष-केशरी  : पुं० [उपमि० स०] १. सिंह के समान वीर पुरुष। बहुत बड़ा वीर। २. नृसिंह अवतार।
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पुरुष-गति  : स्त्री० [सं० ष० त०] एक प्रकार का साम।
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परुष-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार, मंगल, सूर्य और बृहस्पति, ये तीन ग्रह।
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पुरुषध्नी  : स्त्री० [सं० पुरुष√हन् (हिंसा)+टक्+ङीप्] पति की हत्या करनेवाली स्त्री।
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पुरुषत्व  : पुं० [सं० पुरुष+त्व] पुरुष होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पुरुष-दंतिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्+टाप्, इत्व] मेदा नामक जड़ी।
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पुरुषदध्न  : पुं० [सं० पुरुष+दघ्नच्]=पुरुषद्वयस्।
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पुरुषद्वयस्  : पुं० [सं० पुरुष+द्वयसच्] ऊँचाई में पुरुष के बराबर।
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पुरुष-द्विष  : पुं० [सं० पुरुष√द्विष् (शत्रुता करना)+क्विप्] विष्णु का शत्रु।
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पुरुषद्वेषिणी  : स्त्री० [सं० पुरुष-द्विष्+णिनि+ङीप्] अपने पति से द्वेष करनेवाली स्त्री।
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पुरुष-नक्षत्र  : पुं० [ष० त०] हस्त, मूल, श्रवण, पुनर्वस्, मृगशिरा और पुष्य ये नक्षत्र। (ज्यो०)
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पुरुषनाय  : पुं० [सं० पुरुष√नी (ले जाना)+अण्] १. सेनापति। २. राजा।
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पुरुष-पशु  : पुं० [उपमि० स०] पशुओं जैसा आचरण करनेवाला व्यक्ति।
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पुरुष-पुंगव  : पुं० [उपमि० स०] श्रेष्ठ पुरुष।
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पुरुष-पुंडरीक  : पुं० [उपमि० स०] १. श्रेष्ठ पुरुष। २. जैनियों के मतानुसार नौ वासुदेवों में सातवें वासुदेव।
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पुरुष-पुर  : पुं० [ष० त०] आधुनिक पेशावर का पुराना नाम। किसी समय यह गांधार की राजधानी थी।
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पुरुष-प्रेक्षा  : स्त्री० [ष० त०] वह खेल या तमासा जो केवल पुरुषों के देखने योग्य हो, और जिसे देखना स्त्रियों के लिए वर्जित हो।
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पुरुषमात्र  : वि० [सं० पुरुष+मात्रच्] मनुष्य की ऊँचाई के बराबर का।
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पुरुषमानी (निन्)  : वि० [सं० पुरुष√मन् (समझना) +णिनि] अपने को वीर समझनेवाला।
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पुरुष-मुख  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पुरुषमुखी] पुरुष के समान मुख वाला।
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पुरुष-मेध  : पुं० [मध्य० स०] एक वैदिक यज्ञ, जिसमें पुरुष अर्थात् मनुष्य की बलि दी जाती थी। यह यज्ञ करने का अधिकार केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय को था।
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पुरुष-राशि  : स्त्री० [ष० त०] मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धन और कुंभ नामक विषम राशियों में से हर एक। (ज्यो०)
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पुरुष-वर  : पुं० [स० त०] १. श्रेष्ठ पुरुष। २. विष्णु।
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पुरुषवाद  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में एक नास्तिक दार्शनिक मत, जो ईश्वर को नहीं, बल्कि पुरुष और उसके पौरुष को ही सर्वप्रधान मानता था।
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पुरुषवादी  : वि० [सं०] पुरुषवाद-संबंधी। पुं० पुरुषवाद का अनुयायी व्यक्ति।
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पुरुष-वार  : पुं० [ष० त०] रवि, मंगल, बृहस्पति और शनि इन चार वारों में हर एक। (ज्यो०)
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पुरुषवाह  : पुं० [सं० पुरुष√वह् (ढोना)+अण्] गरूड़। पुं० [ब० स०] कुबेर।
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पुरुष-व्याध्र  : पुं० [उपमि० स०] सिंह के समान बलवाला व्यक्ति। शेर के समान पराक्रमवाला। पुरुष-सिंह।
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पुरुष-शार्दूल  : पुं० [उपमि० स०] पुरुष-व्याध्र (दे०)
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पुरुष-शीर्ष (क)  : पुं० [ष० त०] काठ का बना हुआ मनुष्य का सिर, जिसे चोर सेंध में यह देखते को डालते थे कि वह प्रवेश योग्य है या नहीं।
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पुरुष-सिंह  : पुं० [उपमि० स०] ऐसा व्यक्ति जो पराक्रम या वीरता के विचार से पुरुषों में सिंह के समान हो। परम वीर पुरुष।
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पुरुष-सूक्त  : पुं० [मध्य० स०] ऋग्वेद का एक अति पवित्र तथा प्रसिद्ध माना जानेवाला सूक्त जो ‘सहस्रशीर्षा’ से आरंभ होता है।
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पुरुषांग  : पुं० [पुरुष-अंग, ष० त०] पुरुष की लिगेंद्रिय। शिश्न।
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पुरुषांतर  : पुं० [पुरुष-अंतर, मयू० स०] अन्य व्यक्ति।
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पुरुषाद  : पुं० [सं० पुरुष√अद् (खाना)+अण्] १. मनुष्यों को खानेवाला अर्थात् राक्षस। २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य के अधिकार में माना गया है।
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पुरुषादक  : पुं० [सं० पुरुषाद+कन्] १. मनुष्यों को खानेवाला अर्थात् राक्षस। २. कल्माषपाद का एक नाम।
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पुरुषाद्य  : पुं० [पुरुष-आद्य, ष० त०] १. जिनों के प्रथम आदिनाथ। (जैन) २. विष्णु। ३. राक्षस।
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पुरुषाधम  : पुं० [पुरुष-अधम, स० त०] अधम पुरुष। हेय व्यक्ति।
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पुरुषानुक्रम  : पुं० [पुरुष-अनुक्रम, ष० त०] [वि० पुरुषानुक्रमिक] १. पुरखों की अनेक पीढ़ियों से चली आई हुई परंपरा। २. एक के बाद एक पीढ़ी का क्रम।
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पुरुषानुक्रमिक  : वि० [पुरुष-आनुक्रमिक, ष० त०] जो पुरुषानुक्रम से चला आया हो, या चला आ रहा हो। जो पूर्वजों के समय से हर पीढी़ में होता आया हो। वंशानुक्रमिक। (हेरिडेटरी)
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पुरुषायित  : क्रि० वि० [सं० पुरुष+क्यड०+क्त] पुरुषों या मर्दों की तरह। वीरतापूर्वक। बहादुरी से। पुं० १. वीर अथवा सुयोग्य पुरुषों का सा आचरण। २. दे० ‘पुरुषायित बंध’।
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पुरुषायित-बंध  : पुं० [कर्म० स०] कामशास्त्र के अनुसार एक प्रकार की संभोग-मुद्रा जिसमें स्त्री ऊपर और पुरुष नीचे रहता है। साहित्य में इसे विपरीत रति कहते हैं।
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पुरुषायण  : पुं० [पुरुष-अयन, ब० स०] प्राणादि षोडश कला (प्रश्नोपनिषद्)।
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पुरुषायुष  : पुं० [पुरुष-आयुस्, ष० त०, अच्] पुरुष की आयु जो सामान्यतः १॰॰ वर्षों की मानी जाती है।
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पुरुषारथ  : पुं०=पुरुषार्थ।
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पुरुषार्थ  : पुं० [पुरुष-अर्थ, ष० त०] १. वह मुख्य अर्थ उद्देश्य या प्रयोजन, जिसकी प्राप्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्न करना पुरुष या मनुष्य के लिए आवश्यक और कर्त्तव्य हो। पुरुष के उद्देश्य और लक्ष्य का विषय़। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति की दृष्टि से ये चार प्रकार के होते हैं। विशेष—सांख्य-दर्शन में सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना ही परम पुरुषार्थ है। परवर्ती पौराणिकों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ माना है, और इसी लिए उक्त चारों बातों की गिनती उन मुख्य पदार्थों में की जाती है, जिनकी ओर सदा मनुष्य का ध्यान या लक्ष्य रहना चाहिए। २. वे सब विशिष्ट उद्योग तथा प्रयत्न जो अच्छा और सशक्त मनुष्य करता है अथवा करना अपना कर्तव्य समझता है। पुरुषकार। ३. पुरुष में होनेवाली शक्ति या सामर्थ्य। मनुष्योचित बल। पौरुष।
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पुरुषार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० पुरुषार्थ+इनि] १. पुरुषार्थ करनेवाला। २. उद्योगी। ३. परिश्रमी। ४. बली। पुं० पश्चिमी पाकिस्तान से आये हुए हिंदू और सिक्ख शरणार्थियों के लिए सम्मान-सूचक शब्द।
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पुरुषावतार  : पुं० [पुरुष-अवतार, ष० त०] व्यापक ब्रह्म का पुरुष या मनुष्य के रूप में होनेवाला वह अवतार जिसमें वह शुद्ध सत्व को आधार बनाकर परमधाम से इस लोक में आविर्भूत होता है।
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पुरुषाशी (शिन्)  : पुं० [सं० पुरुष√अश् (खाना)+ णिनि] [स्त्री० पुरुषाशिनी] मनुष्य (खानेवाला) राक्षस।
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पुरुषी  : स्त्री० [सं० पुरुष+ङीष्] स्त्री।
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पुरुषोत्तम  : [सं० पुरुष-उत्तम, स० त०] जो पुरुषों में सब से उत्तम या सर्वश्रेष्ठ हो। पुं० १. वह जो पुरुषों में सब से उत्तम या सर्व-श्रेष्ठ हो। श्रेष्ठ पुरुष। २. धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसा निष्पाप व्यक्ति जो शत्रु और मित्र सब से उदासीन रहे। ३. विष्णु। ४. जगन्नाथ की मूर्ति। ५. जगन्नाथ का मन्दिर। ६. जैनियों के एक वासुदेव का नाम। ७. श्रीकृष्ण। ८. ईश्वर। ९. चांद्र गणना के अनुसार होनेवाला अधिक मास। मलमास।
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पुरुषोत्तम-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] जगन्नाथपुरी।
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पुरुषोत्तम-मास  : पुं० [ष० त०] चांद्र गणना के अनुसार होनेवाला अधिक मास। मलमास।
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पुरुहूत  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका आह्वान बहुतों ने किया हो। २. जिसकी बहुत से लोगों ने स्तुति की हो। पुं० इन्द्र।
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पुरु-हूति  : स्त्री० [सं० ब० स०] दाक्षायणी। पुं० विष्णु।
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पुरूरवा (वस्)  : पुं० [सं० पुरु√रु (शब्द करना)+अस, दीर्घ] १. एक प्राचीन राजा जिसे ऋग्वेद में इला का पुत्र कहा गया है। ये चंद्रवंश के प्रतिष्ठाता थे। राजा पुरुरवा और उर्वशी अप्सरा की प्रेम-कथा प्रसिद्ध है। २. विश्वदेव। ३. एक देवता, जिनका पूजन पार्वण श्राद्ध में होता है। वि० अनेक प्रकार के रव या ध्वनियाँ प्रकट करनेवाला।
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पुरेथा  : पुं० [हिं० पूरा+हथा] हल की मूठ।
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पुरेन  : स्त्री० [सं० पुटकिनी] १. कमल का पत्ता। २. कमल।
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पुरेभा  : स्त्री०=कुरेभा (ऐसी गाय जो वर्ष में दो बार बच्चा देती है)।
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पुरैन  : स्त्री०=पुरेन।
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पुरैना  : स० [हिं० पूरा] पूरा करना। उदा०—जज्ञ पूरैबो ठानि विज्ञ दैवज्ञ बुलाए।—रत्नाकर। अ०=पूरा होना। स्त्री०=पुरइन (कमल)।
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पुरोगंता (तृ)  : वि०, पुं० [सं० पुरस्√गम् (जाना)+ तृच्]=पुरोगामी।
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पुरोगत  : वि० [सं० पुरस्√गम+क्त] [भाव० पुरोगति] १. जो सामने हो। २. जो पहले गया हो। पुराना।
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पुरोगति  : स्त्री० [सं० पुरस्√गम्+क्तिन्] १. पुरोगत होने की अवस्था या भाव। २. अग्रगामिता। पुं० [ब० स०] कुत्ता। वि० आगे-आगे चलनेवाला।
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पुरोगमन  : पुं० [सं० पुरस्√गम्+ल्युट—अन] १. आगे की ओर चलना या बढ़ना। २. उन्नति, वृद्धि आदि की ओर अग्रसर या प्रवृत्त होना। (प्रोगेशन)।
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पुरोगामी (मिन्)  : वि० [सं० पुरस्√गम्+णिनि] १. आगे आगे चलनेवाला। अगुआ। अग्रगामी। (पायोनियर) २. बराबर उन्नति करता और आगे बढ़ता हुआ। ३. किसी विषय में उदार विचार रखने और अग्रसर रहनेवाला। (प्रोग्रेसिव) पुं० १. नायक। २. अग्रदूत। ३. कुत्ता।
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पुरोचन  : पुं० [सं०] दुर्योधन का एक मित्र, जो पांडवों को लाक्षागृह में जलाने के लिए नियुक्त किया गया था।
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पुरोजव  : वि० [सं० पुरस्-जव, ब० स०] १. जिसके सामनेवाले भाग में वेग हो। २. आगे बढानेवाला। पुं० पुराणानुसार पुष्कर द्वीप के सात खंडों में से एक खंड।
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पुरोडा  : पुं० [सं० पुरस्√दाश् (दान)+घञ्, डत्व] १. जौ के आटे की बनी हुई वह टिकिया जो कपाल में पकाई जाती थी। यज्ञों में इसमें से टुकड़ा काटकर देवताओं के लिए मंत्र पढ़कर आहुति दी जाती थी। २. उक्त आहुति देने के समय पढ़ा जानेवाला मंत्र। ३. उक्त का वह अंश जो हवि देने के बाद बच रहता था। ४. यज्ञ में दी जानेवाली आहुति या हवि। ५. सोमरस।
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पुरोत्सव  : पुं० [सं० पुर-उत्सव, मध्य० स०] पूरे पुर या नगर में सामूहिक रूप से मनाया जानेवाला उत्सव।
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पुरोदर्शन  : पुं० [सं० पुरस्-दर्शन, ब० स०] १. सामने की ओर से दिखाई देनेवाला रूप। २. वास्तु-रचना का वह चित्र, जो उसके सामनेवाले भाग के स्वरूप का परिचायक हो। (फ्रंट एलिवेशन)।
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पुरोद्भवा  : स्त्री० [सं० पुर√उद्√भू (उत्पन्न होना)+अच्+टाप्] महामेदा।
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पुरोद्यान  : पुं० [सं० पुर-उद्यान, ष० त०] पुर या नगर का मुख्य उद्यान या बाग।
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पुरोध  : पुं०=पुरोधा।
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पुरोवा (धस्)  : पुं० [सं० पुरस्√धा (धारण)+असि] पुरोहित।
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पुरोधानीय  : पुं० [सं० पुरस√धा+अनीयर्] पुरोहित।
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पुरोनुवाक्या  : स्त्री० [सं० पुरस्-अनुवाक्या, स० त०] १. यज्ञों की तीन प्रकार की आहुतियों में से एक। २. उक्त आहुति के समय पढ़ी जानेवाली ऋचा।
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पुरोभाग  : पुं० [सं० पुरस्√भज्+घञ्] १. अग्रभाग। अगला हिस्सा। २. दोष निकालने या बतलाने की क्रिया।
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पुरोभागी (गिन्)  : वि० [सं० पुरस√भज्+णिनि] [स्त्री० पुरोभागिनी] १. आगे की ओर रहने या होनेवाला। अग्र भाग का। २. जो गुणों को छोड़कर केवल दोष देखता हो। छिद्रान्वेषी दोषदर्शी।
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पुरोरवस  : पुं० [सं०=पुरुवस्, पृषो० सिद्धि] =पुरूरवा।
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पुरोवात  : पुं० [सं० पुरस्-वात, मध्य० स०] पूर्व दिशा से आनेवाली हवा। पुरवा।
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पुरोवाद  : पुं० [सं० पुरस्-वाद, कर्म० स०] पूर्व कथन।
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पुरोहित  : वि० [सं० पुरस्√धा+क्त,हि—आदेश] १. आगे या सामने रखा हुआ। २. किसी काम या बात के लिए नियुक्त किया हुआ। पुं० [स्त्री० पुरोहितानी] १. प्राचीन भारत में वह प्रधान याचक, जो अन्य याचकों का नेता बनकर यजमान से गृह-कर्म, श्रौत-कर्म, तथा धार्मिक संस्कार आदि कराता था। २. आज-कल कर्मकांड आदि जाननेवाला वह ब्राह्मण, जो अपने यजमान के यहाँ मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार कराता तथा अन्य अवसरों पर उनसे दान, दक्षिणा आदि लेता है। ३. साधारण लोक-व्यवहार में, किसी जाति या धर्म का वह व्यक्ति, जो दूसरों से धार्मिक कृत्य, संस्कार आदि कराता हो। (प्रीस्ट)
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पुरोहित-तंत्र  : पुं० [ष० त०] ऐसा तंत्र या शासन प्रणाली जिसमें पुरोहितों के मत का ही प्राधान्य हो। (हायरार्की)
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पुरोहिताई  : स्त्री० [सं० पुरोहित+आई (प्रत्य०)] पुरोहित का काम, पद या भाव। यजमानों को धार्मिक कृत्य आदि कराने का काम या वृत्ति।
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पुरोहितानी  : स्त्री० [सं० पुरोहित] पुरोहित की स्त्री।
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पुरोहिती  : वि० [हिं० पुरोहित] पुरोहित-सम्बन्धी। पुरोहित का। स्त्री०=पुरोहिताई।
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पुरौ  : पुं०=पुरवट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरौती  : स्त्री० [हिं० पुरवना=पूरा करना] कमी पूरी करना। पूर्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुरौनी  : स्त्री० [हिं० पूरना=पूरा करना] १. पूरा करना। २. समाप्ति।
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पुर्जा  : पुं०=पुरजा।
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पुर्त्तगाल  : पुं० [अं०] योरप के दक्षिण पश्चिम कोने पर पड़नेवाला एक छोटा प्रदेश, जो स्पेन से लगा हुआ है।
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पुर्त्तगाली  : वि० [हिं० पुर्त्तगाल] १. पुर्तगाल देश संबंधी। पुर्त्तगाल का। पुं० पुर्त्तगाल देश का निवासी। स्त्री० पुर्त्तगाल देश की भाषा।
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पुर्तगीज  : वि०=पुर्त्तगाली।
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पुर्वला  : वि० [हिं० पुरवला] १. पहले का। २. पूर्व जन्म का
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पुर्सा  : पुं०=पुरसा।
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पुर्सी  : स्त्री० [फा०] पुरसी। (दे०)
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पुलंदा  : पुं०=पुलिंदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुल  : पुं० [फा०] १. खाइयों, नदी-नालों, रेललाइनों आदि के ऊपर आर-पार पाटकर बनाई हुई वह वास्तु रचना, जिस पर से होकर आदमी और गाड़ियाँ इधर से उधर आते—जाते हैं। सेतु। विशेष—मूलतः पुल प्रायः नदियाँ पार करने के लिए नावों की श्रृंखला से बनते थे। बाद में पीपों आदि के आधार पर अथवा बड़े-बड़े ऊँचे खंभों पर भी बनने लगे। २. लाक्षणिक रूप में, किसी चीज या बात का कोई बहुत लंबा क्रम या सिलसिला। झड़ी। ताँता। जैसे—किसी की तारीफ का पुल बाँधना; बातों का पुल बाँधना। क्रि० प्र०—बाँधना। मुहावरा—(किसी चीज या बात का) पुल टूटना=इतनी अधिकता या भरमार होना कि मानों उसकी राशि को रोक रखनेवाला बंधन टूट गया हो। जैसे—मेला देखने के लिए आदमियों का पुल टूट पड़ा था। ३. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी चीज, जो दो या कई पक्षों के बीच में रहकर उन्हें मिलाये रखती हो। माध्यम। पुं० [सं०√पुल (ऊँचा होना)+क] १. पुलक। रोमांच। २. शिव का एक अनुचर। वि० १. बहुत अधिक। विपुल। २. बहुत बड़ा, विशाल या विस्तृत।
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पुलक  : पुं० [सं० पुल+कन्] १. प्रेम, भय, हर्ष आदि मनोविकारों की प्रबलता के समय शरीर में होनेवाला रोमांच। त्वककंप। विशेष—पुलक और रोमांच के अंतर के लिए दे० ‘रोमांच’ का विशेष। २. मन में होनेवाली वह कामना या वासना जो कोई काम करने की प्रवृत्ति करती हो। (अर्ज) जैसे—संभोग पुलक। ३. एक प्रकार का मोटा अन्न। ४. एक प्रकार का नगीना या रत्न, जिसे चुन्नी, महताब और याकूत भी कहते हैं। ५. एक प्रकार का कीड़ा जो शरीर के गले हुए अंगों में उत्पन्न होता है। ६. जवाहिरात या रत्नों का एक प्रकार का दोष। ७. हाथी का रातिब। ८. हरताल। ९. प्राचीन काल का एक प्रकार का मद्यपात्र। १॰. एक प्रकार की राई। ११. एक प्रकार का कंदा। १२. एक गंधर्व का नाम।
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पुलकना  : अ. [सं० पुलक+ना (प्रत्य०)] प्रेम, हर्ष आदि से पुलकित होना।
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पुलक-बंध  : पुं० [सं० ब० स०] चुनरी। चुंदरी।
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पुलकांग  : पुं० [सं० पुलक-अंग, ब० स०] वरुण का पाश।
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पुलकाई  : स्त्री०=[सं० पुलक] पुलकित होने की अवस्था या भाव। पुलक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुलकालय  : पुं० [सं० पुलक-आलय, ब० स०] कुबेर का एक नाम।
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पुलकालि  : [सं० पुलक-आलि, ष० त०]=पुलकावलि।
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पुलकावलि  : स्त्री० [सं० पुलक-आवलि, ष० त०] हर्ष से प्रफुल्ल रोम। हर्षजन्य रोमांच।
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पुलकित  : भू० कृ० [सं० पुलक+इतच्] प्रेम, हर्ष आदि के कारण जिसे पुलक हुआ हो, या जिसके रोएँ खड़े हो गये हों। प्रेम या हर्ष से गद्गद। रोमांचित।
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पुलकी (किन्)  : वि० [सं० पुलक+इनि] १. जिसे पुलक हुआ हो। पुलकित। २. जो प्रेम, हर्ष आदि में गद्गद् और रोमांचित हुआ हो। पुं० १. कदंब। २. धारा कदंब।
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पुलकोद्गम, पुलकोदभेद  : पुं० [सं० पुलक-उद्गम, पुलक-उद्भेद, ष० त०] रोम खड़े होना। लोमहर्षण।
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पुलट  : स्त्री०=पलट।
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पुलटिस  : स्त्री० [सं० पोल्टिस] फोड़ों आदि को पकाने या बहाने के लिए उस पर चढ़ाया जानेवाला अलसी, रेंडी आदि का मोटा लेप। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—बाँधना।
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पुलना  : अ० [देश०] चलना। उदा०—जेती जउ मनमाँहि पँजर जइ तेती, पुलइ।—ढो० मा०।
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पुलपुल  : स्त्री० [अनु०] किसी फूली हुई चीज के बार बार या रह-रहकर थोड़ा पिचकने और फिर उभरने या फूलने की क्रिया या भाव। वि०=पुलपुला।
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पुलपुला  : वि० [अनु०] १. जो अन्दर से इतना ढीला और मुलायम हो कि जरा-सा दबाने से उसका तल सहज में कुछ दब या धँस जाय। जैसे—ये आम पककर पुलपुले हो गये हैं। २. दे० ‘पोला’।
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पुलपुलाना  : स० [हिं० पुलपुलाना] [भाव० पुलपुलाहट] १. किसी मुलायम चीज को मुँह में लेकर या हाथ से दबाकर पुलपुला करना। जैसे—आम पुल-पुलाना। अ० पुलपुला होना। जैसे—आम पुलपुला गया है। (पूरब)
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पुलपुलाहट  : स्त्री० [हिं० पुलपुला+हट (प्रत्य०)] पुलपुले होने की अवस्था, गुण या भाव। पुलपुलापन।
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पुलस्त  : पुं०=पुलस्त्य।
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पुलस्ति  : पुं० [सं०पुल√अस् (जाना)+ ति, शक० पररूप]=पुलस्त्य।
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पुलस्त्य  : पुं० [सं० पुलस्ति+यत्] १. ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक जिसकी गिनती सप्तऋर्षियों और प्रजापतियों में होती है। २. शिव का एक नाम।
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पुलह  : पुं० [सं०] १. सप्तऋर्षियों में से एक ऋषि जो ब्रह्मा के मानस पुत्रों और प्रजापतियों में थे। २. शिव का एक नाम।
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पुलहना  : अ०=पलुहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पुलाक  : पुं० [सं०√पुल्+कलाक, नि० सिद्धि] १. एक प्रकार का कदन्न। अँकरा। २. भात। ३. माँड़। ४. पुलाव। ५. अल्पता। ६. छिप्रता। जल्दी।
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पुलाकी (किन्)  : पुं० [सं० पुलाक+इनि] वृक्ष।
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पुलायित  : पुं० [सं० पुल+क्यङ्+क्त] घोडे का सरपट दौड़ना।
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पुलाव  : पुं० [सं० पुलाव से फा० पलाव] एक प्रकार का व्यंजन जो मांस और चावल को एक साथ पकाने से बनता है। मांसोदन। २. पकाये हुए मीठे चावल।
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पुलिंद  : पुं० [सं०√पुल+किन्दच्] १. भारतवर्ष की एक प्राचीन असभ्य जाति। २. उक्त जाति के बसने का देश। ३. उक्त जाति का व्यक्ति।
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पुलिंदा  : स्त्री० [सं०] एक छोटी नदी, जो ताप्ती में मिलती है। महाभारत में इसका उल्लेख है। पुं० [सं० पुल=ढेर; या हिं० पूला] कागज, कपड़े आदि में बँधी बड़ी गठरी।
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पुलिकेशि  : पुं० [सं०] १. ईसवी छठी शताब्दी के एक राजा, जिन्होंने दक्षिण भारत में पल्लवों की राजधानी वातापिपुरी जीतकर चालुक्य वंशीय राज्य स्थापित किया था। २. उक्त वंश के एक प्रतापी राजा, जिन्होंने ७ वीं शताब्दी के आरंभ में पूरे दक्षिण भारत और महाराष्ट्र पर शासन किया था।
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पुलिन  : पुं० [सं०√पुल्+इनन्] १. ऐसी गीली भूमि, जो नदी आदि का पानी हटने से निकल आई हो। चर। २. नदी, समुद्र आदि का किनारा विशेषतः रेतीला किनारा। तट। (बीच) ३. नदी आदि के बीच में निकला हुआ रेत का ढूह। चर। ४. एक यक्ष का नाम।
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पुलिनमय  : वि० [सं० पुलिन+मयट्] (स्थान) जो बहते हुए पानी के सम्पर्क से गीला या तर हो। (एल्यूवियल)
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पुलिनवती  : स्त्री० [सं० पुलिन+मतुप्, वत्व, ङीप्] तटिनी। नदी।
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पुलिरिक  : पुं० [सं०] साँप।
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पुलिश  : पुं० [सं०] ज्योतिष के एक प्राचीन आचार्य जिनके नाम से पौलिश सिद्धान्त प्रसिद्ध है और जो वराहमिहिरों के कहे हुए पंच सिद्धान्तों में से एक है। अलबरूनी ने इसे यूनानी (यवन) और कुछ इतिहासज्ञों ने इसे मिश्र देश का निवासी बताया है।
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पुलिस  : स्त्री० [अं०] १. किसी नगर राज्य आदि का वह राजकीय विभाग, जिसका मुख्य काम शांति तथा व्यवस्था बनाये रखना है और जो अपराधों को रोकने के लिए अपराधियों को पकड़ता तथा न्यायालय द्वारा उन्हें दण्डित कराता है। २. उक्त विभाग के लोगों का दल। ३. उक्त विभाग का कोई अधिकारी या कर्मचारी। सिपाही।
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पुलिसमैन  : पुं० [अं०] पुलिस (विभाग) का सिपाही।
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पुलिहोरा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पकवान।
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पुली  : स्त्री० [देश०] उत्तर भारत में होनेवाली काली और भूरे रंग की एक चिड़िया। स्त्री० [अं० पूली] १. एक चक्कर या पहिया, जिस पर रस्सा रखकर भार खींचते हैं। २. उक्त प्रकार के चक्करों या पहियों का वह सामूहिक यांत्रिक रूप जिसकी सहायता से बहुत बड़े-बड़े भार उठा कर इधर-उधर किये जाते हैं। ३. उक्त प्रकार का वह चक्कर या पहिया, जिस पर पट्टा रखकर इंजन आदि की संचालक शक्ति यंत्रों तक पहुँचाई जाती है।
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पुलोम (न्)  : पुं० [सं०] इंद्र की पत्नी शची के पिता, जो एक राक्षस थे तथा जिन्हें इंद्र ने युद्ध में मारा था।
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पुलोमजा  : स्त्री० [सं० पुलोमन√जन् (उत्पत्ति)+ड+ टाप्] पुलोम राक्षस की कन्या शची, जो इन्द्र की पत्नी थी।
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पुलोमजित्  : पुं० [सं० पुलोमन√जि (जीतना)+क्विप्] इन्द्र।
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पुलोमही  : स्त्री० [सं०] अहिफेन। अफीम।
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पुलोमा  : पुं० [सं०] पुलोम नामक राक्षस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुल्कस  : पुं० [सं०] उपनिषद्-काल की एक संकर जाति, जिसकी उत्पत्ति निषाद पुरुष और शूद्रा स्त्री से मानी गई है।
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पुल्ला  : पुं० [?] १. नाक में पहनने का एक गहना। २. हिलसा मछली।
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पुल्लिंग  : पुं०=पुंलिंग।
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पुल्ली  : स्त्री० [देश०] घोड़े के सुम के ऊपर का हिस्सा। स्त्री० १.=पुली। २.=पूली (पूला का भी०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुवा  : पुं०=पूआ (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुवार  : पुं०=पयाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुश्त  : स्त्री० [फा०] १. पशुओं, मनुष्यों आदि की पीठ। जैसे—पुश्तखम=टेढी पीठवाला, अर्थात् कुबड़ा। २. किसी चीज का पिछला भाग। पृष्ठ-भाग। पोछा। ३. वंश-परम्परा में की प्रत्येक श्रेणी या स्थान जिस पर कोई पुरुष रहा हो या आने को हो। पीढी़। (जेनरेशन)। पद—पुश्त-दरपुश्त=बराबर या लगातार हर पीढी में। पुश्तहा-पुश्त=(क) कई पीढ़ियों से। (ख) कई पीढ़ियों तक।
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पुश्तक  : स्त्री० [फा०] पशुओं द्वारा पिछले दोनों पैर उठाकर किया जानेवाला आघात। दोलत्ती। क्रि० प्र०—झाड़ना।—मारना।
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पुश्तखार  : पुं० [फा०] पीठ खुजलाने का सींग, हाथी दाँत आदि का एक तरह का पंजा।
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पुश्तनामा  : पुं० [फा० पुश्तनामः] वह कागज जिस पर पूर्वापर क्रम से किसी कुल में उत्पन्न हुए लोगों के नाम लिखे होते हैं। वंशावली। कुरसीनामा।
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पुश्तवानी  : स्त्री० [फा० पुश्त+हिं० वान् (प्रत्य०)] वह आड़ी लकड़ी जो किवाड़ के पीछे पल्ले की मजबूती के लिए लगाई जाती है।
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पुश्ता  : पुं० [फा० पुश्तः] १. ईंट, पत्थर मिट्टी आदि की वह ढालुईं वास्तु-रचना जो (क) नदियों के किनारे पानी की बाढ़ रोकने अथवा (ख) बड़ी और भारी दीवारों या ऊँची सड़कों को गिरने से बचाने के लिए उनके पार्श्व में खड़ी की जाती है। (एम्बैंकमेन्ट) २. किताब की जिल्द के पीछे, अर्थात् पुट्ठे पर लगा हुआ चमड़ा या ऐसी ही और कोई चीज। ३. संगीत में पौने चार मात्राओं का एक प्रकार का ताल जिसमें तीन आघात होते हैं और एक खाली रहता है।
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पुश्तापुश्त  : अव्य० [फा०] १. कई पीढ़ियों से। २. कई पीढ़ियों तक।
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पुश्ताबंदी  : स्त्री० [फा०] पुश्ता उठाने, खड़ा करने या बाँधने की क्रिया या भाव।
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पुश्तारा  : पुं० [फा० पुश्तवारः] वह बोझ जो पीठ पर उठाया जाय, या उठाया जा सके।
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पुश्ती  : स्त्री० [फा०] १. टेक। सहारा। आश्रय। थाम। २. वह टेक या सहारा जो किसी चीज के पीछे उसे खड़ी रखने या गिरने से बचाने के लिए लगाया जाय़। ३. पीछे की ओर से की जानेवाली मदद या दी जानेवाली सहायता। पृष्ठ-पोषण। ४. पक्षपात। तरफदारी। ५. पालन-पोषण। क्रि० प्र०—लेना। ६. पीठ टेककर बैठने का बहुत बड़ा तकिया। गाव-तकिया।
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पुश्तैन  : स्त्री० [फा० पुश्त] वंशपरंपरा। पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
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पुश्तैनी  : वि० [हिं० पुश्तैन] १. जो पुरानी पीढ़ी के लोगों के अधिकार में रहा हो। जैसे—हमारा पुश्तैनी मकान बिक चुका है। २. जो कई पीढ़ियों से बराबर चला आ रहा हो। जैसे—पुश्तैनी रोग।
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पुष  : वि० [सं०√पुष् (पुष्ट करना)+क] १. पोषण प्रदान करनेवाला। २. दिखलाने या प्रदर्शित करनेवाला।
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पुषा  : स्त्री० [सं० पुष+टाप्] कलियारी का पौधा।
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पुषित  : भू० कृ० [सं० पुष्ट] १. पोषित। २. वर्द्धित।
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पुष्कर  : पुं० [सं०√पुष्+क, कित्व, पुष्क√रा (देना)+ क] १. जल। पानी। २. जलाशय। पोखरा। ३. कमल। ४. कलछी के आगे लगी हुई कटोरी। ५. ढोल, मृदंग आदि का मुँह। ६. हाथी की सूँड़ का अगला भाग। ७. आकाश। आसमान। ८. तीर। वाण। ९. तलवार का फल। १॰. म्यान। ११. पिंजड़ा। १२. पद्यकंद। १३. नृत्यकला। १४. सर्प। १५. युद्ध। लड़ाई। १६. अंश। भाग। १७. नशा। मद। १८. भग्नपाद नक्षत्र का एक अशुभ योग जिसकी शांति का विधान किया गया है। १९. पुष्कर-मूल। २॰. कुष्ठौषधि। कुट। २१. एक तरह का ढोल। २२. एक प्रकार का रोग। २३. एक दिग्गज। २४. सारस पक्षी। २५. विष्णु का एक रूप। २६. शिव। २७. भरत के एक पुत्र। २८. कृष्ण के एक पुत्र। २९. एक असुर का नाम। ३॰. गौतम बुद्ध का एक नाम। ३१. पुराणानुसार ब्रह्मांड के सात लोकों में से एक। ३२. मेघों का एक नायक। ३३. आधुनिक अजमेर के पास का एक प्रसिद्ध तीर्थ।
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पुष्कर-कर्णिका  : स्त्री० [सं० पुष्कर√कर्ण+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] १. स्थलपद्मिनी। २. सूँड़ की नोक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुष्कर-चूड़  : पुं० [सं०] लोलार्क पर्वत पर स्थित दिग्गज का नाम।
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पुष्कर-जटा  : स्त्री० [सं०] १. कुट नामक औषधि। २. कमल की जड़। भसींड।
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पुष्कर-नाड़ी  : स्त्री० [सं० पुष्कर√नड् (नष्ट करना)+ णिच्+अच्—ङीष्] स्थल पर होनेवाला एक तरह का कमल। स्थलपद्मिनी।
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पुष्कर-नाभ  : पुं० [ब० स०, अच्] विष्णु।
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पुष्कर-पर्ण  : पुं० [ष० त०] १. कमल का पत्ता। २. यज्ञ के वेदी बनाने के काम में आनेवाली एक प्रकार की ईंट।
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पुष्कर-प्रिय  : पुं० [ब० स०] मधुमक्षिका। मधुमक्खी।
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पुष्कर-बीज  : पुं० [ष० त०] कमल का बीज। कमल-गट्टा।
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पुष्कर-मुख  : पुं० [ब० स०] सूँड़ का विवर। वि० सूँड़ जैसे मुँहवाला।
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पुष्कर-मूल  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार की वनस्पति की जड़, जिसके संबंध में कहा जाता है कि यह कश्मीर के सरोवरों में उत्पन्न होती है। यह ओषधि आजकल नहीं मिलती, वैद्य लोग इसके स्थान पर कुष्ठ या कुट का व्यवहार करते हैं।
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पुष्कर-व्याघ्र  : पुं० [स० त०] घड़ियाल।
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पुष्कर-शिफा  : स्त्री० [ष० त०] पुष्कर-मूल।
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पुष्कर-सागर  : पुं० [उपमि० स०] पुष्कर-मूल।
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पुष्कर-सारी  : स्त्री० [ष० त०+ङीष्] एक प्राचीन लिपि।
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पुष्कर-स्थपति  : पुं० [ष० त०] शिव।
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पुष्करस्रक् (ज्)  : पुं० [ब० स०] अश्विनीकुमार। स्त्री० कमलों की गूँथी हुई माला।
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पुष्कराक्ष  : वि० [पुष्कर-अक्षि, ब० स०, अच्] कमल- नयन। पुं० विष्णु।
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पुष्कराख्य  : पुं० [सं० पुष्कर-आख्या, ब० स०] सारस पक्षी।
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पुष्कराग्र  : पुं० [सं० पुष्कर-अग्र, ष० त०] सूँड़ का अगला भाग।
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पुष्करावती  : स्त्री० [सं० पुष्कर+मतुप्, वत्व, दीर्घ] एक प्राचीन नदी।
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पुष्करावर्तक  : पुं० [सं० पुष्कर-आ√वृत्त (बरतना)+ णिच्+ण्वुल्—अक] मेघों के एक अधिपति।
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पुष्कराह्व  : पुं० [सं० पुष्कर-आह्वा, ब० स०] सूँड़ का अग्र भाग।
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पुष्करिका  : स्त्री० [सं० पुष्कर+ठन्—इक्+टाप्] लिंग का एक रोग।
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पुष्करिणी  : स्त्री० [सं० पुष्कर+इनि+ङीष्] १. हथिनी। २. छोटा जलाशय। ३. ऐसा जलाशय, जिसमें कमल खिले हों। ४. कमल का पौधा। ५. एक प्राचीन नदी। ६. चाक्षुष मनु की पत्नी। ७. भूमन्यु की पत्नी और ऋचीक की माता।
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पुष्करी (रिन्)  : पुं० [सं० पुष्कर+इनि] हाथी। वि० जिसमें कमल हों।
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पुष्कल  : पुं० [सं०√पुष्+कलच्, कित्व] १. वह भिक्षा जो केवल चार गाँवों से लाई जाती थी। २. अनाज नापने का एक प्राचीन मान, जो ६४ मुट्ठियों के बराबर होता था। ३. शिव। ४. वरुण के एक पुत्र। ५. राम के भाई भरत का एक पुत्र। ६. एक बुद्ध का नाम। ७. एक प्रकार का ढोल। ८. एक प्रकार की वीणा। वि० १. बहुत। अधिक। ढेर-सा। प्रचुर। २. भरा-पूरा परिपूर्ण। ३. श्रेष्ठ। ४. उपस्थित। प्रस्तुत। ५. पवित्र।
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पुष्कलक  : पुं० [सं० पुष्कल+कन्] १. कस्तूरी-मृग। २. अर्गला। सिटकनी। ३. कील।
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पुष्कलावती  : स्त्री० [सं० पुष्कल+मतुप्, वत्व, दीर्घ] पुराणानुसार भरत के पुत्र पुष्कल की बसाई हुई गांधार देश की प्राचीन नगरी।
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पुष्ट  : वि० [सं०√पुष्+क्त] [भाव.पुष्टता, पुष्टि] १. जिसका अच्छी तरह पोषण हुआ हो; फलतः दृढ़ या मजबूत। २. मोटा-ताजा और बलवान। पद—हृष्टपुष्ट (देखें)। ३. जिसमें कोई कचाई या कोर-कसर न हो, और इसी लिए जिसका भरोसा किया जा सके। पक्का। ४. (कथन या बात) जो प्रमाणों से सत्य सिद्ध होती हो, फलतः जिसके ठीक या सत्य होने में कोई संदेह न रह गया हो। ५. सब तरह से पूरा। परिपूर्ण। ६. प्रमुख। मुख्य। ७. दे० ‘पौष्टिक’। पुं० विष्णु।
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पुष्टई  : स्त्री० [सं० पुष्ट+ई (प्रत्य०)] १. पुष्टता। २. वह ओषधि या खाद्य-वस्तु, जो शरीर को पुष्ट करने के लिए खाई जाय।
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पुष्टता  : स्त्री० [सं० पुष्ट+तल्+टाप्] पुष्ट होने की अवस्था या भाव। पुष्टि।
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पुष्टि  : स्त्री० [सं०√पुष+क्तिन] १. पुष्ट अर्थात् दृढ़ या मजबूत होने की अवस्था या भाव। दृढ़ता। मजबूती। २. पुष्ट करने की क्रिया या भाव। पोषण। ३. धन, संतान आदि की होनेवाली वृद्धि। बढ़ती। ४. वह उदाहरण, तर्क या प्रमाण, जिसमें कोई बात पुष्ट की जाय। ५. किसी कही हुई बात का ऐसा अनुमोदन या समर्थन जिससे वह और भी अधिक या पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय। जैसे—आपकी इस बात से मेरे मत (या संदेह) की पुष्टि होती है। ६. सोलह मातृकाओं में से एक। ७. मंगला, विजया आदि आठ प्रकार की चारपाइयों में से एक। ८. धर्म की पत्नियों में से एक। ९. एक योगिनी का नाम। १॰. असगंध नामक ओषधि। अश्वगंध। ११. दे० ‘पुष्टिमार्ग’।
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पुष्टि-कर  : वि० [ष० त०] १. पुष्ट करनेवाला। २. पुष्टि करनेवाला। ३. बल या वीर्य्यवर्द्धक।
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पुष्टिकरी  : स्त्री० [सं० पुष्टिकर+ङीष्] गंगा। (काशी-खंड)
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पुष्टि-कर्म (र्मन्)  : पुं० [ष० त०] अभ्युदय के लिए किया जानेवाला एक धार्मिक कृत्य।
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पुष्टिका  : स्त्री० [सं० पुष्टि+कन्—टाप्] जल की सीप। सुतही सीपी।
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पुष्टि-काम  : वि० [ब० स०] अभ्युदय का इच्छुक।
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पुष्टि-कारक  : वि० [ष० त०] पुष्टिकर। (दे०)
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पुष्टिद  : वि० [सं० पुष्टि√दा (देना)+क] पुष्टिकर। (दे०)
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पुष्टिदग्धयत्न  : पुं० [सं० दग्ध-यत्न, ष० त०, पुष्टिदग्धयत्न, मध्य० स०] चिकित्सा का एक प्रकार जिसमें आग में जले हुए अंग को आग से सेंक कर या किसी प्रकार का गरम-गरम लेप करके अच्छा किया जाता है।
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पुष्टिदा  : स्त्री० [सं० पुष्टिद+टाप्] १. अश्वगंधा। असगंध। २. वृद्धि नाम की ओषधि।
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पुष्टिपति  : पुं० [सं० ष० त०] अग्नि का एक भेद।
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पुष्टि-मत  : पुं०=पुष्टि-मार्ग।
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पुष्टि-मार्ग  : पुं० [ष० त०] भक्ति-क्षेत्र में, श्री वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत मन की साधना-व्यवस्था जो श्रीमद्भागवत के ‘पोषणं तदनुग्रहः’ वाले तत्त्व पर आधारित है। इसमें भक्त कर्म-निरपेक्ष होकर भगवान श्रीकृष्ण को आत्म-समर्पण करके ही सुखी रहता है; और अपने कर्मों के फल की कामना नहीं करता।
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पुष्टीकरण  : पुं० [सं० पुष्ट+च्वि, ईत्व√कृ+ल्युट—अन] किसी कही हुई बात या किये हुए काम को ठीक मानते हुए उसकी पुष्टि करना। (कन्फर्मेशन)
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पुष्पंधय  : वि० [सं० पुष्प√धे (पीना)+श, मुम्] मकरंद पान करनेवाला। पुं० भौंरा। भ्रमर।
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पुष्प  : पुं० [सं०√पुष्प (खिलना)+अच्] १. पेड-पौधों के फूल। कुसुम। २. मधु। शहद। ३. पुष्पराग नामक मणि। पुखराज। ४. आँख का फूली नामक रोग। ५. ऋतुमती या रजस्वला स्त्री का रज। ६. घोडों के शरीर पर का एक चिह्न या लक्षण। चित्ती। ७. खिलने और फैलने की क्रिया। विकास। ८. आँख में लगने का एक प्रकार का अंजन या सुरमा। ९. रसौत। १॰. पुष्कर-मूल। ११. लौंग। १२. वाम-मार्गियों की परिभाषा में खाया जानेवाला मांस। गोश्त। १३. पुष्पक विमान।
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पुष्पक  : पुं० [सं० पुष्प+कन् या पुष्प√कै (भासित होना)+क] १. फूल। कुसुम। पुष्प। २. कुबेर का विमान। ३. जड़ाऊ कंगन। ४. रसांजन। रसौत। ५. आँख का फूली नामक रोग। ६. हीरा कसीस। ७. पीतल लोहे आदि की मैल। ८. पीतल। ९. एक प्रकार का बिना विष का साँप। १॰. एक प्राचीन पर्वत। ११. प्रासाद बनाने में एक प्रकार का मंडप। १२. वह खंभा जिसके कोने आठ भागों में बँटें हों।
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पुष्प-करंडक  : पुं० [सं० ब० स०] १. उज्जयिनी का एक प्राचीन शिवोद्यान। २. डलिया, जिसमें तोड़े हुए फूल रखे जाते हैं।
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पुष्प-करंडिनी  : स्त्री० [सं० पुष्प-करंड, ष० त०, इनि+ ङीप्] उज्जयिनी।
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पुष्प-काल  : पुं० [ष० त०] १. वसंतऋतु। २. स्त्रियों का ऋतु काल।
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पुष्प-कासीस  : पुं० [उपमि० स०] एक तरह का कसीस। हीरा कसीस।
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पुष्प-कीट  : पुं० [मध्य० स०] १. फूल का कीड़ा। २. भौंरा।
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पुष्प-कृच्छ्र  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें केवल फूलों का क्वाथ पीकर निर्वाह किया जाता है।
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पुष्प-केतन  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-केतु  : पुं० [ब० स०] १. पुष्पांजन। २. कामदेव। ३. बुद्ध।
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पुष्प-गंडिका  : स्त्री० [ष० त०] लास्य के दस भेदों में से एक।
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पुष्प-गंधा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] जूही।
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पुष्प-गवेधुका  : स्त्री० [स० त०] नागवला।
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पुष्प-घातक  : पुं० [ष० त०] बाँस।
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पुष्प-चयन  : पुं० [ष० त०] पुष्प तोड़ना। फूल चुनना।
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पुष्प-चाप  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-चामर  : पुं० [ब० स०] १. दौना। २. केवड़ा।
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पुष्पज  : वि० [सं० पुष्प√जन् (उत्पन्न होना)+ड] फूल से उत्पन्न होनेवाला। पुं० फूल का मकरंद या रस।
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पुष्पजीवी (विन्)  : पुं० [सं० पुष्प√जीव् (जीना)+ णिनि] माली।
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पुष्प-दंड  : पुं० [ष० त०] पेड़-पौधों की वह डंडी जिसमें फूल या फल लगते हैं।
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पुष्प-दंत  : पुं० [ब० स०] १. वायुकोण का दिग्गज। २. प्राचीन भारत में एक प्रकार का नगरद्वार। ३. शिव का अनुचर एक गंधर्व, जिसका रचा हुआ महिम्नस्तोत्र कहा जाता है। ४. एक विद्याधर। ५. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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पुष्पद  : वि० [सं० पुष्प√दा (देना)+क] पुष्प या फूल देनेवाला। पुं० पेड़। वृक्ष।
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पुष्पध  : पुं० [सं० पुष्प√धा (धारण करना)+क] व्रात्य ब्राह्मण से उत्पन्न एक जाति।
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पुष्पधनु  : पुं०=पुष्प-धन्वा।
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पुष्प-धनुस्  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-धन्वा (न्यन्)  : पुं० [ब० स०] १. कामदेव। २. वैद्यक में एक प्रकार का रसौषध जो रससिंदूर, सीसे अभ्रक और वंग में धतूरा भाँग जेठी मधु आदि मिलाने से बनता है और जो कामोद्दीपक तथा शक्तिवर्द्धक माना जाता है।
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पुष्प-ध्वज  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्पनिक्ष  : पुं० [सं० पुष्प√निक्ष् (चूसना)+अण्] भ्रमर। भौंरा।
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पुष्प-निर्यास  : पुं० [ष० त०] फूलों का रस। मकरंद।
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पुष्प-नेत्र  : पुं० [मध्य० स०] वस्ति की पिचकारी की सलाई।
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पुष्प-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. फूल की पँखड़ी। २. दे० ‘पत्र-पुष्प’। ३. एक प्रकार का बाण।
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पुष्प-पत्री (त्तिन्)  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-पथ  : पुं० [ष० त०] स्त्रियों के रज के निकलने का मार्ग अर्थात् भग। योनि।
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पुष्प-पदवी  : स्त्री० [ष० त०] भग। योनि।
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पुष्प-पांडु  : पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार साँप।
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पुष्प-पिंड  : पुं० [ब० स०]=पिंड पुष्प (अशोक वृक्ष)।
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पुष्प-पुट  : पुं० [ष० त०] १. फूल की पंखड़ियों का वह आधार, जो कटोरी के आकार का होता है। २. हाथ का चंगुल जो उक्त आकार का होता है।
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पुष्प-पुर  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन पाटलिपुत्र। आधुनिक पटना का एक नाम।
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पुष्प-पेशल  : वि० [उपमि० स०] फूल की तरह सुकुमार।
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पुष्प-प्रचाय  : पुं० [सं० पुष्प-प्र√चि (चुनना)+घञ्] फूलों का चुना या तोड़ा जाना।
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पुष्प-प्रस्तार  : पुं० [ष० त०] फूलों का बिछावन। पुष्पशय्या।
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पुष्प-फल  : पुं० [ब० स०] १. कुम्हड़ा। २. कैथ। ३. अर्जुन वृक्ष।
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पुष्प-बाण  : पुं० [ब० स०] १. कामदेव। २. कुश द्वीप का एक पर्वत। ३. एक दैत्य।
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पुष्प-भद्र  : पुं० [ब० स०] प्राचीन भारत की वास्तु-रचना में, एक प्रकार का मंडप जिसमें ६२ खंभे होते थे।
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पुष्प-भद्रक  : पुं० [ब० स०+कप्] देवताओं का एक उपवन।
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पुष्पभद्रा  : स्त्री० [सं० पुष्पभद्र+टाप्] पुराणानुसार मलय पर्वत के पश्चिम की एक नदी।
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पुष्प-भव  : पुं० [ष० त०] फूलों का रस। मकरंद।
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पुष्प-भाजन  : पुं० [ष० त०] तोड़े हुए फूल रखने का पात्र।
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पुष्प-भूति  : पुं० [ब० स०] १. सम्राट हर्षवर्द्धन के एक पूर्व पुरुष, जो शैव थे। २. ईसवीं सातवीं शताब्दी के कांबोज (आधुनिक काबुल) के एक हिन्दू राजा।
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पुष्प-मंजरिका  : स्त्री० [ष० त०] १. नील कमलिनी। २. फूल की मंजरी।
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पुष्प-मंजरी  : स्त्री० [ष० त०] १. फूल का मंजरी। २. घृतकरंज।
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पुष्प-मास  : पुं० [मध्य० स०] १. चैत्रमास। चैत का महीना। २. बसंत काल।
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पुष्पमित्र  : पुं० दे० ‘पुष्पमित्र’ (शुंग वंश के राजा का नाम)।
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पुष्प-मृत्यु  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का नरकट। बड़ा नरसल। देव नल।
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पुष्प-मेघ  : पुं० [मध्य० स०] पुराणानुसार फूलों की वर्षा करनेवाला बादल।
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पुष्प-रक्त  : पुं० [ब० स०] सूर्य्यमणि नामक पौधा और उसका फूल।
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पुष्प-रचन  : पुं० [ष० त०] फूलों की माला गूँथने, गुच्छे आदि बनाने की क्रिया या भाव।
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पुष्प-रज (स्)  : पुं० [ष० त०] पराग।
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पुष्प-रथ  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का रथ, जिस पर चढ़कर लोग हवा खाने निकलते थे।
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पुष्प-रस  : पुं० [ष० त०] पराग।
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पुष्परसाह्वय  : पुं० [पुष्परस-आह्वय, ब० स०] मधु। शहद।
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पुष्प-राग  : पुं० [ब० स०] पुखराज नामक रत्न।
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पुष्पराज  : पुं० [सं० पुष्प√राज् (शोभित होना)+अच्] पुखराज या पुष्पराग नामक रत्न।
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पुष्प-रेणु  : पुं० [ष० त०] फूल की धूल। पुष्परज।
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पुष्प-रोचन  : पुं० [ब० स०] नाग-केसर।
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पुष्पलक  : पुं० [सं० पुष्पकलंक] १. कस्तूरी मृग। २. बौद्ध भिक्षु।
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पुष्पलाव  : पुं० [सं० पुष्प√लू (काटना)+अण्] [स्त्री० पुष्पलावी] १. वह जो फूल चुनता हो। २. माली।
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पुष्पलावन  : पुं० [सं० पुष्प√लू+णिच्+ल्यु—अन] उत्तर दिशा का एक देश। (वृहत्संहिता)
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पुष्पलिक्ष  : पुं० [सं० पुष्प√लिह् (स्वाद लेना)+क्स] भ्रमर। भौंरा।
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पुष्पलिट् (ह्)  : पुं० [सं० पुष्प√लिह्+क्विप्] भौंरा।
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पुष्प-लिपि  : स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार की पुरानी लिपि। (ललित विस्तर)
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पुष्पवती  : स्त्री० [सं० पुष्प+मतुप्, वत्व+ङीष्] १. ऋतुमती या रजस्वला। २. एक तीर्थ (महा०)
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पुष्प-वर्ग  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में अगस्त्य, कचनार, सेमल आदि वृक्षों के फूलों का एक विशिष्ट समाहार।
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पुष्पवर्त्म (न्)  : पुं० [सं०] द्रुपद।
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पुष्प-वर्ष  : पुं० [मध्य० स०] १. पुराणानुसार एक वर्षा पर्वत का नाम। २. [ष० त०] फूलों की वर्षा। पुष्पवर्षण।
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पुष्प-वर्षण  : स्त्री० [ष० त०] फूलों का बरसना। पुष्पवृष्टि।
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पुष्प-वर्षा  : स्त्री० [ष० त०] बहुत से फूलों की ऊपर से होनेवाली या की जानेवाली वर्षा।
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पुष्प-वसंत  : पुं० [उपमि० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पुष्प-वाटिका  : स्त्री० [ष० त०] ऐसा छोटा उद्यान जिसमें फूलोंवाले अनेक पौधे तथा वृक्ष हों। फुलवारी।
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पुष्प-वाटी  : स्त्री० [ष० त०] पुष्पवाटिका। (दे०)
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पुष्प-वाण  : पुं० [ष० त०] १. फूलों का वाण। २. कामदेव। ३. कुशद्वीप के एक राजा। ४. एक दैत्य।
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पुष्प-वाहिनी  : स्त्री० [ष० त०] पुराणानुसार एक प्राचीन नदी।
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पुष्प-विचित्रा  : स्त्री० [उपमि० स०] एक प्रकार का वृत्त।
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पुष्प-विशिख  : पुं० [ब० स०] कामदेव। २. कुशद्वीप का एक पर्वत। ३. एक राक्षस।
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पुष्प-वृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] फूलों का बरसना या बरसाया जाना। फूलों की वर्षा।
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पुष्प-वेणी  : स्त्री० [ष० त०] फूलों को गूँथकर बनाई हुई माला।
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पुष्प-शकटिका  : स्त्री [ष० त०] आकाशवाणी।
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पुष्प-शकटी  : स्त्री०=पुष्प-शकटिक।
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पुष्प-शकली (लिन्)  : पुं० [सं० पुष्पशकल, ष० त०,+इनि] एक तरह का विषहीन साँप। (सुश्रुत)
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पुष्प-शय्या  : स्त्री० [मध्य० स०] वह शय्या जिस पर फूल बिछे हों। फूलों का बिछौना।
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पुष्प-शर  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-शरासन  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-शाको  : पुं० [मध्य० स०] ऐसे फूल जिनकी तरकारी बनाई जाती हो। जैसे—अगस्त, कचनार, खैर, नीम, रासना, सहिंजन, सेमल आदि।
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पुष्प-शिलीमुख  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-शून्य  : वि० [तृ० त०] जिसमें पुष्प न हों। बिना फूल का। पुं० गूलर।
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पुष्प-शेखर  : पुं० [ष० त०] फूलों की माला।
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पुष्प-श्रेणी  : स्त्री० [ब० स०] मूसाकानी नामक जमीन पर फैलनेवाला क्षुप।
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पुष्प-समय  : पुं० [ष० त०] वसंत काल
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पुष्प-साधारण  : पुं० [ब० स०] वसंत काल।
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पुष्प-सायक  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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पुष्प-सार  : पुं० [ष० त०] १. फूल या मधु का रस। २. फूलों का इत्र।
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पुष्प-सारा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] तुलसी।
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पुष्प-सिता  : स्त्री० [मध्य० स०] एक तरह की चीनी।
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पुष्प-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] गोभिल के सूत्र ग्रन्थ का नाम।
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पुष्प-सौरभा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] कलिहारी का पौधा। करियारी।
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पुष्प-स्नान  : पुं० दे० ‘पुष्पस्नान’।
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पुष्प-स्नेह  : पुं० [ष० त०] १. मकरंद। २. मधु शहद।
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पुष्प-स्वेद  : पुं० [ष० त०] १. मकरंद २. मधु।
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पुष्प-हास  : पुं० [ष० त०] १. फूलों का खिलना। २. विष्णु।
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पुष्पहासा  : स्त्री० [सं० पुष्पहास+टाप्] रजस्वला स्त्री। ऋतुमती स्त्री।
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पुष्पहीन  : वि० [ब० स०] [स्त्री० पुष्पहीना] (पेड़) जिसमें फूल न लगते हों। पुं० गूलर का वृक्ष।
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पुष्पहीना  : वि० स्त्री० [सं० पुष्पहीन+टाप्] १. (स्त्री) जिसे रजोदर्शन न हो। २. बाँझ। वंध्या। ३. (स्त्री) जिसकी बच्चे पैदा करने की अवस्था बीत चुकी हो।
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पुष्पांक  : पुं० [पुष्प-अंक, ष० त०] माधवी लता।
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पुष्पांजन  : पुं० [पुष्प-अंजन, ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का अंजन जो पीतल के हरे कसाव में कुछ औषधियों को मिलाकर बनाया जाता है।
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पुष्पांजलि  : स्त्री० [पुष्प-अंजलि, ष० त०] फूलों से भरी हुई अंजलि जो किसी देवता या महापुरुष को अर्पित की जाती है।
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पुष्पांबुज  : पुं० [सं० पुष्प-अंबु, ष० त०, पुष्पांबु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मकरंद।
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पुष्पांभस्  : पुं० [ब० स०] एक प्राचीन तीर्थ।
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पुष्पा  : स्त्री० [सं०√पुष्प+अच्+टाप्] आधुनिक चम्पारन का प्राचीन नाम जहाँ किसी जमाने में अंगदेश की राजधानी थी।
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पुष्पाकर  : पुं० [पुष्प-आकार, ष० त०] वसंत ऋतु।
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पुष्पागम  : पुं० [पुष्प-आगम, ब० स०] वसन्त ऋतु।
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पुष्पाजीवी (विन्)  : पुं० [सं० पुष्प+आ√जीव्+णिनि] माली।
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पुष्पानन  : पुं० [पुष्प-आनन, ब० स०] एक तरह की शराब।
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पुष्पापीड  : पुं० [पुष्प-आपीड़, ष० त०] १. सिर पर धारण की जानेवाली फूलों की माला आदि। २. फूलों का मुकुट या सेहरा।
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पुष्पाभिषेक  : पुं० [पुष्प-अभिषेक, तृ० त०] दे० ‘पुण्य-स्नान’।
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पुष्पायुध  : पुं० [पुष्प-आयुध, ब० स०] वह जिसका फूल अस्त्र हो; कामदेव।
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पुष्पाराम  : पुं० [पुष्प-आराम, ष० त०] फुलवारी। पुष्पवाटिका।
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पुष्पावचय  : पुं० [पुष्प-अवचय, ष० त०] फूल चुनना।
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पुष्पावचायी (यिन्)  : पुं० [सं० पुष्प+अव√चि (चुनना) +णिनि] माली।
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पुष्पासव  : पुं० [पुष्प-आसव, मध्य० स०] १. मधु। शहद। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के फूलों को सड़ाकर बनाई जानेवाली एक तरह की शराब।
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पुष्पासार  : पुं० [पुष्प-आसार, ष० त०] फूलों की वर्षा।
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पुष्पास्तरक  : पुं० [पुष्प-आस्तरक, ष० त०] १. फूल बिखेरनेवाला। २. फूलों का बिछौना तैयार करनेवाला।
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पुष्पास्तरण  : पुं० [पुष्प-आस्तरण, ष० त०] १. फूल बिखेरने की क्रिया या भाव। २. शय्या पर फूल बिछाने का काम।
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पुष्पास्त्र  : पुं० [पुष्प-अस्त्र, ब० स०] पुष्पायुध (कामदेव)।
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पुष्पाह्वा  : स्त्री० [सं० पुष्प+आ√ह्वे+क+टाप्, ब० स०, प्] सौंफ।
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पुष्पिका  : स्त्री० [सं०√पुष्प+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] १. दाँत की मैल। २. लिंग की मैल। ३. अधिकतर प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों या उनके अध्यायों के अन्त में वह वाक्य या पद्य जिससे कहे हुए प्रसंग की समाप्ति सूचित होती है और जिसमें प्रायः लेखक का नाम और रचना-संवत् भी रहता है।
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पुष्पिणी  : स्त्री० [सं० पुष्प+इनि+ङीष्] रजस्वला स्त्री०। ऋतुमती स्त्री।
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पुष्पित  : वि० [सं० पुष्प+इतच्] [स्त्री० पुष्पिता] १. (वृक्ष या पौधा) जिसमें फूल निकले हों। पुष्पों से युक्त। फूलों से लदा हुआ। २. उन्नत और समृद्ध। पुं० १. कुशद्वीप का एक पर्वत। २. एक बुद्ध का नाम।
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पुष्पिता  : वि० स्त्री० [सं० पुष्पित+टाप्] रजस्वला (स्त्री)।
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पुष्पिताग्रा  : स्त्री० [सं० पुष्पित-अग्र, ब० स०+टाप्] एक प्रकार का अर्द्धसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरणों में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरणों में एक नगण, दो जगण, एक रगण और गुरु होता है।
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पुष्पी (ष्पिन्)  : वि० [सं० पुष्प+इनि] (पौधा या वृक्ष) जिसमें फूल लगें हों।
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पुष्पेषु  : पुं० [पुष्प-इषु, ब० स०] कामदेव।
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पुष्पोत्कटा  : स्त्री० [पुष्प-उत्कटा, तृ० त०] रावण, कुंभकरण आदि राक्षसों की माता जो सुमाली राक्षस की कन्या थी।
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पुष्पोद्गम  : पुं० [पुष्प-उदगम, ष० त०] पौधे, वृक्षों आदि में फूल निकलना आरंभ होना।
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पुष्पोद्यान  : पुं० [पुष्प-उद्यान, ष० त०] फुलवारी। पुष्पवाटिका। बगीचा।
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पुष्पोपजीवी (दिन्)  : पुं० [सं० पुष्प+उप√जीव् (जीना)+णिनि] माली।
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पुष्य  : पुं० [सं०√पुष् (पुष्टि)+क्यप्] १. पुष्टि। पोषण। २. पौष का महीना। ३. सत्ताईसे नक्षत्रों में से ८वाँ नक्षत्र जिसमें तीन तारे हैं तथा जिसकी आकृति वाण की सी कही गई है, और जो अनेक कार्यों के लिए शुभ माना जाता है। इसे ‘तिष्य’ और ‘सिध्य’ भी कहते हैं।
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पुष्प-नेत्रा  : स्त्री० [सं० ब० स०, अच,+टाप्] ऐसी रात्रि जिसमें पुष्य नक्षत्र दिखाई पड़ता हो।
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पुष्यमित्र  : पुं० [सं०] मगध में मौर्य शासन समाप्त करके शुंगवंशीय राज्य स्थापित करनेवाला एक प्रतापी राजा।
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पुष्यरथ  : पुं०=पुष्प-रथ।
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पुष्यलक  : पुं० [सं०√पुष्+कि, पुषि√अल् (पर्याप्ति)+ अच्+क] १. कस्तूरी मृग। २. वह जैन साधु जो हाथ में चँवर लिए रहता हो। ३. बड़ी और मोटी कील या खूँटा।
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पुष्य-स्नान  : पुं० [स० त०] राजाओं या राज्य के विध्नों की शांति के लिए एक विशिष्ट स्नान जो पूस के महीने में चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर किया जाता है।
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पुष्याभिषेक  : पुं०=पुष्य-स्नान।
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पुष्यार्क  : पुं० [सं० पुष्य-अर्क, स० त०] १. फलित ज्योतिष में, एक योग जो कर्क की संक्राति में सूर्य के पुष्य नक्षत्र में होने पर होता है। यह प्रायः श्रावण में दस दिन के लगभग रहता है। २. रविवार के दिन होनेवाला पुष्य-नक्षत्र।
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पुस  : अव्य० [देश०] होंठों को सिकोड़कर हवा झटके से अन्दर की ओर खींचने से होनेवाला शब्द जो प्रायः प्यार से बिल्ली, कुत्ते आदि को अपने पास बुलाने के लिए किया जाता है। जैसे—आ पुस पुस।
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पुसकर  : पुं०=पुष्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुसाना  : अ. [हिं० पोसना का अ०] १. पोसा जाना। पोषण होना। २. कार्य आदि का शक्य या संभव होना। पूरा पड़ना। बन पड़ना। ३. अच्छा, उचित या भला लगना।
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पुस्त  : पुं० [सं०√पुस्त् (बाँधना)+अच्] १. गीली मिट्टी, लकड़ी, कपड़े, चमड़े, लोहे या रत्नों आदि को गढ़, काट या छील-छालकर बनाई जानेवाली वस्तु। सामान। २. कारीगरी। रचना-कौशल। ३. किताब। पुस्तक। जैसे—पुस्त-पाल (देखें)। स्त्री०=पुश्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुस्तक  : स्त्री० [सं० पुस्त+क] [स्त्री० अल्पा० पुस्तिका] १. हाथ से लिखे हुए या छपे हुए पन्नों का जिल्द बँधा हुआ रूप। (पत्रिका से भिन्न) २. कोई वैज्ञानिक या साहित्यिक कृति।
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पुस्तकाकार  : वि० [सं० पुस्तक-आकार, ब० स०] जो पुस्तक के आकार या रूप में हो। जैसे—उनके सब लेख पुस्तकाकार छप गये हैं।
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पुस्तकागार  : पुं० [सं० पुस्तक-आगार, ष० त०] पुस्तकालय।
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पुस्तकालय  : पुं० [सं० पुस्तक-आलय] १. वह भवन या घर जिसमें अध्ययन और संदर्भ के लिए पुस्तकें रखी गई हों। जैसे—उनके पुस्तकालय में ५ हजार से अधिक पुस्तकें थीं। २. उक्त प्रकार का भवन या स्थान जहाँ से सर्वसाधारण को पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलती हों। जैसे—इस नगर में एक बहुत बड़ा पुस्तकालय खुलनेवाला है।
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पुस्तकालयाध्यक्ष  : पुं० [सं० पुस्तकालय-अध्यक्ष, ष० त०] पुस्तकालय का प्रधान अधिकारी। (लाइब्रेरियन)
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पुस्तकास्तरण  : पुं० [सं० पुस्तक-आस्तरण, ष० त०] १. पुस्तक की बेठन। २. पुस्तक पर उसे धूल, मैल आदि से बचाने के लिए चढ़ाया जानेवाला कागज।
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पुस्तकी  : स्त्री० [सं० पुस्तक+ङीष्] पुस्तिका।
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पुस्तकीय  : वि० [सं० पुस्तक+छ—ईय] १. पुस्तक- संबंधी। २. पुस्तकों से प्राप्त होनेवाला। जैसे—पुस्तकीय ज्ञान।
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पुस्त-डाक  : स्त्री० [सं० पुस्तक+हिं० डाक] वह डाक या डाक से भेजने की वह विधि जिसके अनुसार समाचार-पत्र पुस्तकें आदि विशेष रिआयती दर से भेजी जाती हैं। (बुक पोस्ट)
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पुस्तपाल  : पुं० [सं० पुस्त√पालु (रक्षा)+णिच्+अच्] १. प्राचीन भारत में वह अधिकारी जो किसी राजकीय कार्यालय के कागज-पत्र संभालकर रखता था। २. आज-कल किसी पुस्तकालय का प्रधान अधिकारी। (लाइब्रेरियन)
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पुस्तशिंबी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सेम।
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पुस्तिका  : स्त्री० [सं० पुस्तक+टाप्, इत्व] छोटी पुस्तक विशेषतः ऐसी छोटी पुस्तक जिसका आवरण कागज का ही हो, दफ्ती का न हो।
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पुस्ती  : स्त्री० [सं० पुस्त+ङीप्] १. हाथ की लिखी हुई पोथी या किताब। २. पुस्तक।
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पुहकर  : पुं०=पुष्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहकरमूल  : पुं०=पुष्करमूल।
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पुहतना  : अ० [सं० प्रभूत, प्रा० पहूच] पहुँचना। उदा०—पहिलुँ इजाद लगन ले पुहतौ।—प्रिथीराज।
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पुहना  : अ० [हिं० पोहना] पोहा जाना। गूँथा जाना। स०=पोहना।
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पुहप (प्प)  : पुं०=पुहुप (पुष्प)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहाना  : स० [हिं० पोहना का प्रे०] पोहने या पिरोने का काम दूसरे से कराना। गुथवाना।
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पुहुप  : पुं० [सं० पुष्प] फूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुपराग  : पुं०=पुखराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पुहुमी  : स्त्री० [सं० भूमि, प्रा० पुहवी] १. पृथ्वी। २. भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुरेनु  : पुं० [सं० पुष्परेणु] फूल की धूल। पराग।
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पुहुव  : पुं०=पुहुप (पुष्प)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पुहुवि  : स्त्री०=पुहुमि (पृथ्वी)। उदा०—चंपकें कएल पुहुवि निरमान।—विद्यापति।
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पूँगरण  : पुं० [सं० पुंग=राशि या समूह] वस्त्र। कपड़ा। (डिं०)
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पूँगरा  : वि० दे० ‘पोंगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँगा  : पुं० [देश०] सीप के अन्दर रहनेवाला कीड़ा। स्त्री० [अनु०] [स्त्री० अल्पा० पूँगी] १. सँपेरों की बीन। महुअर। २. एक तरह की बाँसुरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० दे० ‘पोंगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछ  : स्त्री० [सं० पुच्छ] १. चौपायों तथा जंतुओं का वह गावनुमा तथा लचीला पिछला भाग जो गुदा-मार्ग के ऊपर रीढ़ की हड्डी की संधि में या उससे निकलकर नीचे की ओर कुछ दूर तक लम्बा चला जाता या नीचे लटकता रहता है। पुच्छ। लांगूल। दुम। जैसे—कुत्तें, लंगूर या घोड़े की पूँछ, चिडि़या चूहे या घड़ियाल की पूँछ। मुहा०—किसी की पूँछ पकड़कर चलना=(क) बिना सोचे-समझे किसी का अनुयायी बनकर चलना। (ख) किसी का सहारा पकड़कर चलना। (किसी के आगे) पूँछ हिलाना=किसी के आगे उसी तरह से दीन बनकर आचरण करना जिस प्रकार कुत्ते अपने स्वामी या भोजन देनेवाले के सामने पूँछ हिलाकर दीनता प्रकट करते हैं। २. किसी काम, चीज या बात के पीछे का वह लंबा अंश जो प्रायः अनावश्यक या निरर्थक हो। ३. पतंग, पुच्छल तारे, उल्का आदि के पीछे का चमकनेवाला रेखाकार अंग। जैसे—पतंग की पूँछ। ४. वह जो हरदम दीन भाव से किसी के पीछे या साथ लगा रहता हो।
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पूँछ-गाछ  : स्त्री०=पूछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछट  : स्त्री०=पूँछ (दुम)। (उपेक्षा सूचक)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछड़ी  : स्त्री० [हिं० पूँछ+ड़ी (प्रत्य०)] छोटी पूँछ।
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पूँछ-ताछ  : स्त्री०=पूँछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछना  : स०=पूछना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछ-पाँछ  : स्त्री०=पूँछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँछल-तारा  : पुं०=पुच्छल तारा (केतु)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूँजना  : स० [देश०] नया बंदर पकड़ना। (कलंदर)।
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पूँजी  : स्त्री० [सं० पुँज] १. जोड़ा या जमा किया हुआ धन। २. विशेषतः ऐसा धन जो और अधिक धन कमाने के उद्देश्य से व्यापाक आदि में लगाया गया हो अथवा ऋण आदि पर उधार दिया गया हो। मूलधन। (कैपिटल) ३. सम्पत्ति, विशेषतः ऐसी सम्पत्ति जिससे आय होती हो। जैसे—विधवा की पूँजी यही एक मकान था। ४. उन सब वस्तुओं का समूह जो पास में हो। ५. किसी विषय में किसी की सारी योग्यता या ज्ञान।
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पूँजीदार  : पुं० [हिं० पूँजी+फा० दार] [भाव० पूँजीदारी] १. वह जिसके पास अधिक या अत्यधिक पूँजी या धन-संपत्ति हो। २. वह जो आर्थिक लाभ के लिए किसी उद्योग या व्यवसाय में पूँजी या धन लगाता हो। पूँजीपति।
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पूँजीदारी  : स्त्री० [हिं० पूँजीदार] १. पूँजीदार होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘पूँजीवाद’।
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पूँजीपति  : पुं० [हिं० पूँजी+सं० पति] १. जिसके पास अधिक पूँजी हो। २. ऐसा व्यक्ति जो लाभ की दृष्टि से विभिन्न उद्योग-धन्धों में पूँजी लगाता हो। पूँजीदार।
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पूँजीवाद  : पुं० [हिं० पूँजी+सं० वाद] १. आधुनिक अर्थशास्त्र में, वह आर्थिक प्रणाली या व्यवस्था जिसमें देश के प्रमुख उत्पत्ति तथा वितरण के साधनों पर धनिकों या पूँजीपतियों का व्यक्तिगत रूप से पूरा अधिकार होता है। इसमें धनवान् लोग अपनी पूँजी से वस्तुओं का उत्पादन करते-कराते और उसका सारा लाभ अपने सुख-भोग तथा पूँजी बढ़ाने में लगाते हैं। (कैपिटलिज़्म)।
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पूँजीवादी  : पुं० [हिं०+सं०] वह जो पूँजीवाद से सिद्धान्त मानता हो या उसका अनुयायी हो। वि० पूँजीवाद-संबंधी। जैसे—पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था।
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पूँठ  : स्त्री०=पीठ।
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पू  : वि० [सं० पूर्वपद के रहने पर] समस्त पदों के अन्त में, पवित्र या शुद्ध करनेवाला। जैसे—खलपू=खलों को पवित्र करनेवाला
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पूआ  : पुं० [सं०पूप, अपूप] पूरी की तरह का एक मीठा पकवान जो आटे को गुड़ या चीनी के रस में घोलकर घी में तलने से बनता है।
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पूखन  : पुं०=पूषण (सूर्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पोषण।
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पूग  : पुं० [सं०√पू+गन्] १. सुपारी का पेड़ और उसका फल। २. ढेरा। ३. शहतूत का पेड़। ४. कटहल। ५. एक प्रकार की कटेरी। ६. भाव। ७. छंद। ८. समूह। ढेर।
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पूग-कृत  : भू० कृ० [स० त०] १. स्तूप के आकार में बनाया हुआ। जो टीले के आकार का हो। २. एकत्र किया हुआ संगृहीत। संचित।
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पूगना  : अ० [हिं० पूजना] १. पूरा होना। जैसे—हुंडी की मिती पूगना २. चौसर आदि के खेलों में गोटी, पासे आदि का नियत मार्ग से होते हुए अन्त में कोठे या घर में पहुँचना जो जीत का सूचक माना जाता है। ३. दे० ‘पूजना’।
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पूगपात्र  : पुं० [ष० त०] पीकदा। उगालदान।
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पूग-पीठ  : पुं० [ष० त०] पीकदान।
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पूग-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्,+टाप्, इत्व] विवाह-संबंध स्थिर हो जाने पर दिया जाने वाला पुष्प सहित पान। पानफूल।
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पूग-फल  : पुं० [ष० त०] सुपारी।
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पूगरीठ  : पुं० [सं० पूग√रुट् (दीप्ति)+अच्] एक प्रकार का ताड़।
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पूगी (गिन्)  : पुं० [सं० पूग+इनि] सुपारी का पेड़। स्त्री० सुपारी।
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पूगीफल  : पुं० [सं० पूगफल] सुपारी।
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पूग्य  : वि० [सं० पूग+यत्] पूग-संबंधी। पूग का।
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पूछ  : स्त्री० [हिं० पूछना] १. पूछने की क्रिया या भाव। जिज्ञासा। २. चाह। तलब। जरूरत। ३. आदर। खातिर। स्त्री०=पूँछ (दुम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूछ-गाछ  : स्त्री०=पूछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूछ-ताछ  : स्त्री० [हिं० पूछना+ताछना अनु०] १. कुछ जानने के लिए किसी से प्रश्न करने की क्रिया या भाव। किसी बात का पता लगाने के लिए बार-बार या कई लोगों से कुछ पूछना या प्रश्न करना. २. किसी विषय में खोज, अनुसंधान या जाँच पडताल करने के लिए बार-बार जिज्ञासा या प्रश्न करना। जैसे—बहुत पूछ-ताछ करने पर इस मामले का कुछ पता चला।
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पूछना  : स० [सं० पृच्छण] १. किसी से कोई बात जानने या समझने के लिए शब्दों का प्रयोग करना। जिज्ञासा करना। जैसे—किसी से कहीं का रास्ता (या किसी का नाम) पूछना। २. जाँच, परीक्षा आदि के प्रसंग में इसलिए किसी के सामने कुछ प्रश्न रखना कि वह उसका उत्तर दे। प्रश्न करना। जैसे—परीक्षा के समय विद्यार्थियों से तरह-तरह की बातें पूछी जाती हैं। ३. किसी के प्रति सहानुभूति रखते हुए उससे यह जानने का प्रयत्न करना कि आज-कल तुम कैसे हो या किस प्रकार जीवन यापन करते हो। किसी का हाल-चाल या खोज-खबर लेना। जैसे—(क) वह महीनों बीमार पड़ा रहा पर कोई उसके पास पूछने तक न गया। (ख) अजी, गरीबों को कौन पूछता है। ४. किसी के प्रति आदर-सत्कार का भाव प्रकट करते हुए उसकी ओर उचित ध्यान देना। जैसे—इतनी भीड़ भाड़ में कौन किसे पूछता है। मुहा०—(किसी से) बात तक न पूछना या बात न पूछना=(क) कुछ भी ध्यान न देना। (ख) बहुत ही उपेक्षापूर्ण व्यवहार करना। ५. उचित महत्व या मूल्य समझते हुए आदर या कदर करना। जैसे—आज-कल गुण या योग्यता को कौन पूछता है। ६. किसी प्रकार का ध्यान देते हुए कोई जिज्ञासा करना या कुछ कहना। जैसे—उनके घर पहुँचकर सीधे ऊपर चले जाना; कोई कुछ नहीं पूछेगा।
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पूछ-पाछ  : स्त्री०=पूछ-ताछ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूछरी  : स्त्री०=पूँछ (दुम)।
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पूछा-ताछी, पूछा-पाछी  : स्त्री० [हिं० पूछना]=पूछ-ताछ।
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पूज  : स्त्री० [सं० पूजन] कुछ विशिष्ट जातियों में विवाह, यज्ञोपवीत, आदि शुभ कार्यों से एकाध दिन पहले होनेवाला एक कृत्य जिसमें गणेश पूजन किया जाता है और बिरादरी के आमंत्रित व्यक्तियों को बताशे, लड्डू आदि दिये जाते हैं। स्त्री० [हिं० पूजना] पूजने की क्रिया या भाव। पुं० [सं० पूज्य] देवता। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=पूज्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूजक  : वि० [सं०√पूज् (पूजना)+णिच्+ण्वुल्—अक] पूजा करनेवाला। जैसे—अग्निपूजक।
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पूजन  : पुं० [सं०√पूज्+णिच्+ल्युट—अन] [वि०पूजक, पूजनीय, पूजितव्य, पूज्य] १. देवी-देवता या किसी अन्य पूज्य वस्तु की की जानेवाली आराधना या वंदना। २. आदर। सम्मान। जैसे—अतिथि पूजन।
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पूजना  : स० [सं० पूजन] १. देवी-देवता को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए यथाविधि श्रद्धाभाव से जल, फूल, नैवेद्य आदि चढ़ाना। पूजन करना। २. किसी को परम श्रद्धा या भक्ति की दृष्टि से देखना और आदरपूर्वक उसकी सेवा तथा सत्कार करना। ३. किसी को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए उसे किसी रूप में कुछ धन देना। जैसे—कचहरी के अमलों को पूजना। ४. व्यंग्य और परिहास में, खूब मारना-पीटना। जैसे—वे आज इसकी खूब पूजा करेगें। अ० [सं० पूर्यते, प्रा० पूज्जति] १. पूरा होना। भरना। २. कमी, त्रुटि, देन आदि की पूर्ति होना। जैसे—किसी की रकम पूजना=दिया या लगाया हुआ धन पूरा पूरा वसूल होना। ३. अवधि या नियत समय पूरा होना। जैसे—हुंडी की मिती पूजना=रूपया चुकाने की तिथि नियत आना। ४. गहराई का भरना या बराबर होना। जैसे—गड्ढा पूजना, घाव पूजना। ५. ऋण या देन चुकता होना। ६. किसी की बराबरी तक पहुँचना। उदा०—ये सब पतति न पूजत मो सम।—सूर। ७. दे० ‘पूगना’। स० १. पूरा करना। २. नया बंदर पकड़ना। (कलंदर)
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पूजनी  : स्त्री० [सं० पूजन+ङीप्] मादा गौरैया।
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पूजनीय  : वि० [सं०√पूज्+णिच्+अनीयर] १. जिसका पूजा करना कर्तव्य या उचित हो। पूजन करने के योग्य। अर्चनीय। २. आदरणीय।
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पूजमान  : वि०=पूज्यमान।
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पूजयितव्य  : वि० [सं०√पूज्+णिच्+तव्यम] जिसकी पूजा की जा सकती हो अथवा जिसकी पूजा करना उचित हो। पूज्य।
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पूजयिता (तृ)  : वि०, पुं० [सं०√पूज्+णिच्+तृच्] पूजा करनेवाला। पूजक।
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पूजा  : स्त्री० [सं०√पूज्+णिच्+अ+टाप्] १. देवी-देवता के प्रति विनय, श्रद्धा और समर्पण का भाव प्रकट करनेवाले कार्य। अर्चना। पूजन। २. किसी देवी-देवता पर जल, फूल, फल, अक्षत आदि चढ़ाने का धार्मिक कृत्य। पूजन। ३. बहुत अधिक या यथेष्ट आदर-सत्कार। आव-भगत। खातिरदारी। ४. किसी को प्रसन्न या संतुष्ट करने के लिए किया जानेवाला कोई कार्य। ५. उक्त के आधार पर, लाक्षणिक रूप में, घूस या रिश्वत। जैसे—अब तो पहले दफ्तरवालों की पूजा करो, तब कहीं जाकर नौकरी मिलती है। ६. व्यंग्य के रूप में, किसी को मारने-पीटने अथवा तिरस्कृत या दंडित करने की क्रिया या भाव। जैसे—चलो देखो, आज घर पर तुम्हारी कैसी पूजा होती है।
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पूजाधार  : पुं० [सं० पूजा-आधार, ष० त०] देवपूजा में विधेय, वस्तुएँ और बातें। जैसे—जल, विष्णुचक्र, मंत्र, प्रतिमा, शालग्राम आदि।
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पूजार्ह  : वि० [सं० पूजा√अर्ह् (पूजना)+अच्] पूजनीय।
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पूजित  : भू० कृ० [सं०√पूज्+क्त] [स्त्री० पूजिता] जिसका पूजा की गई हो।
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पूजितव्य  : वि० [सं०√पूज्+तव्यत्] पूजनीय। पूज्य।
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पूजिल  : पुं० [सं०√पूज्+इलच्] देवता। वि० पूजनीय।
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पूजी  : स्त्री० [फा० पूजबंद] घोड़े का एक प्रकार का साज जो उसके मुँह पर रहता है। उदा०—पूजी कलगी करनफूल कल हैकल सेली।—रत्ना०।
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पूजोपकरण  : पुं० [सं० पूजा-उपकरण, ष० त०] देवता की पूजा के लिए आवश्यक उपकरण या सामग्री।
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पूजोपचार  : पुं० [सं० पूजा-उपचार, ष० त०] पूजन के लिए किया जानेवाला उपचार और उसकी सामग्री।
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पूजोपहार  : पुं० [सं० पूजा-उपहार, ष० त०] पूजा के समय देवी-देवता को चढ़ाई जानेवाली वस्तु। चढ़ावा।
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पूज्य  : वि० [सं०√पूज्+यत्] [स्त्री० पूज्या] १. पूजा किये जाने के योग्य। २. आदर, श्रद्धा आदि के योग्य। माननीय। पुं० श्वसुर। ससुर।
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पूज्यता  : स्त्री० [सं० पूज्य+तल्+टाप्] पूज्य होने की अवस्था या भाव। पूजे जाने के योग्य होना। पूजनीयता।
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पूज्य-पाद  : वि० [ब० स०] इतना महान् कि उसके पैरों की पूजा करना उचित हो। परम पूज्य और मान्य।
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पूज्यमान  : वि० [सं०√पूज्+यक्+शानच्] जिसकी पूजा की जा रही हो। पूजा जाता हुआ। सेव्यमान। पुं० सफेद जीरा।
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पूज्यवर  : वि० [स० त०] परम आदरणीय, पूज्य और बड़ा। जैसे—पूज्यवर मालवीय जी।
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पूटरी  : स्त्री० [देश] ईख के रस की वह अवस्था जो उसके खाँड़ बनने से पहले होती है। स्त्री०=पोटली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूटीन  : स्त्री०=पुटीन।
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पूठ  : पुं०=पुट्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पीठ।
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पूठा  : वि० [सं० पुष्ठ] [स्त्री० पूठी] १. पुष्ट। मजबूत। २. पक्का। प्रौढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पुट्ठा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूठि  : स्त्री० १.=पीठ। २.=पुष्टि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूड़ा  : पुं०=पूआ (पकवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूड़ी  : स्त्री० [हिं० पूरी] १. तबले या मृदंग पर मढ़ा हुआ गोल चमड़ा। २. दे० ‘पूरी’।
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पूणू  : पुं०=पत्थर (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पूनो (पूर्णिमा)।
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पूत  : वि० [सं०√पू (पवित्र करना)+क्त] १. पवित्र। शुद्ध। शुचि। २. सत्य। पुं० १. शंख। २. सफेद कुश। ३. पलास। ४. तिल का पेड़। ५. भूसी निकाला हुआ अन्न। ६. जलाशय। पुं० [सं० पुत्र; प्रा० पुत्त] बेटा। लडका। पुत्र। उदा०—एक पहेली मैं कहूँ, तुम बूझो मेरे पूत। पुं० [देश०] चूल्हे के दोनों किनारों और बीच के वे नुकीले उभार जिनके सहारे पर कड़ाही, तवा, देगची आदि रखते हैं।
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पूतक्रतायी  : स्त्री० [सं० पूतक्रतु+ङीष्, ऐ-आदेश] इंद्र की पत्नी। इन्द्राणी। शची।
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पूत-क्रतु  : पुं० [ब० स०] इन्द्र।
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पूत-गंध  : पुं० [ब० स०] बर्बर नामक सुगंधित तृण।
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पूतड़ा  : पुं०=पोतड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूत-तृण  : पुं० [कर्म० स०] सफेद कुश।
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पूत-दारु  : पुं० [कर्म० स०] पलास। ढाक।
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पूत-द्रु  : पुं० [कर्म० स०] १. ढाक। पलास। २. खैर का पेड़। ३. देवदार।
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पूत-धान्य  : पुं० [कर्म० स०] तिल।
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पूतन  : पुं० [सं० पूत+णिच्+ल्यु—अन] १. वैद्यक के अनुसार गुदा में होनेवाला एक प्रकार का रोग २. बेताल। ३. कब्र में रखा हुआ शव।
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पूतना  : स्त्री० [सं० पूतन+टाप्] १. एक राक्षसी जो कंस के कहने पर बालक कृष्ण को मारने के उद्देश्य से अपने स्तनों पर विष लगाकर, उसे स्तन-पान कराने आई थी। बालक कृष्ण ने इसका दुष्ट उद्देश्य जान लिया और इसे मार डाला। २. राक्षसी। दानवी। ३. सुश्रुत के अनुसार, एक बाल-ग्रह या बाल रोग जिसमें बच्चे को जल्दी अच्छी नींद नहीं आती। उसे पतले, मैले दस्त आते हैं, बहुत प्यास लगती है और बार-बार कै होती है। ४. कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका। ५. पीली हर्रे। ६. सुगंधित जटामासी। गन्ध-मासी।
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पूतनारि  : पुं० [सं० ष० त०] पूतना के शत्रु; श्रीकृष्ण।
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पूतना-दूषण  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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पूतना-सूदन  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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पूतनाहर्रे  : स्त्री० [सं० पूतना+हिं० हर्रे] छोटी हर्रे।
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पूतनिका  : स्त्री० [सं० पूतन+कन्+टाप्, इत्व] १. पूतना (राक्षसी)। २. पूतना नामक बाल रोग।
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पूत-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] तुलसी।
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पूत-फल  : पुं० [ब० स०] कटहल का पेड़ और उसका फल।
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पूतभृत्  : पुं० [सं० पूत√भृ (धारण करना)+क्विप्] वह पवित्र बरतन जिसमें सोम रस रखा जाता था।
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पूत-मति  : वि० [ब० स०] पवित्र बुद्धिवाला। पवित्र अंतःकरणवाला। पुं० शिव का एक नाम।
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पूतर  : पुं० [सं० पूत√रा (देना)+क] १. एक प्रकार का जल-जंतु। २. तुच्छ व्यक्ति।
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पूतरा  : पुं० [स्त्री० पूतरी]=पुतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पूत (बेटा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूतरी  : स्त्री०=पुतली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूता  : स्त्री० [सं० पूत+टाप्] दुर्गा। वि० स्त्री०=शुद्ध। पवित्र। पुं० [सं० पुत्र, हिं० पुत्र, हिं० पूत] पुत्र। बेटा। प्रायः सम्बोधन कारक में प्रयुक्त)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूतात्मा (त्मन्)  : वि० [पूत-आत्मन्, ब० स०] पवित्रात्मा। शुद्ध अंतःकरण का। पुं० विष्णु।
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पूति  : स्त्री० [सं०√पू+क्तिन्, कितच्] १. पवित्रता। शुचिता। २. दुर्गंध। ३. गंध-मार्जार। ४. रोहित तृण। ५. घावों, फोड़ों आदि में विषाक्त कीटाणुओं आदि के उत्पन्न होने के कारण उनका सड़ने-लगना जो प्रायः रोगी के लिए घातक सिद्ध होता है। सड़ायँध (सेप्टिक)
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पूतिक  : पुं० [सं० पूति√कै (भासित होना)+क] १. दुर्गंध। करंज। काँटा करंज। पूति करंज। २. पाखाना। विष्ठा। वि० १. जिसमें से दुर्गंध निकल रही हो। बदबूदार। २. (घाव) जिसमें विषाक्त कीटाणुओं के कारण सड़ायँध उत्पन्न कर सकता हो। (सेप्टिक, अन्तिम दोनों अर्थों के लिए)
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पूति-कन्या  : स्त्री० [मध्य० स०] पुदीना।
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पूति-करंज  : पुं० [मध्य० स०] फसल के रक्षार्थ प्रायः मेड़ों पर लगाया जानेवाला एक क्षुप जिसमें बहुत अधिक काँटे होते हैं। काँटा-करंज।
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पूति-कर्ण, पूति-कर्णक  : पुं० [ब० स०] [ब० स०+कप्] कान का एक रोग जिसमें अन्दर घाव या फुंसी होने के कारण बदबूदार पीब निकलता है।
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पूतिका  : स्त्री० [सं० पूतिक+टाप्] १. पोई का साग। २. एक प्रकार की मधुमक्खी। ३. बिल्ली।
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पूतिका-मुख  : पुं० [ब० स०] घोंगा। शंबूक।
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पूति-काष्ठ  : पुं० [कर्म० स०] देवदारु।
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पूतिकाष्ठक  : पुं० [पूतिकाष्ठ+कन्] धूपसरल।
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पूतिकाह्र  : पुं० [सं० पूतिक-आह्रा, ब० स०] पूति करंज। (दे०)
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पूति-कीट  : पुं० [मध्य० स०] एक तरह की मधुमक्खी। पूतिका।
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पूति-कुंड  : पुं० [ष० त०] आज-कल एक प्रकार का गड्ढा या कुंड जो गृहस्थों के घर के पास मल-मूत्र इकट्ठा करने के लिए बनाया जाता है। (सेप्टिक टैंक) विशेष—ऐसे कुंडों की आवश्यकता उन्हीं नगरों या स्थानों में होती है जहाँ मल-मूत्र वहन करनेवाले नल नहीं होते।
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पूति-केशर  : पुं० [ब० स०] १. नागकेशर। २. गंध-मार्जार। मुश्क-बिलाव।
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पूति-गंध  : पुं० [ब० स०] १. राँगा। २. हिगोट। इंगुदी ३. गंधक। ४. दुर्गंध। वि० दुर्गंधवाला। बदबूदार।
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पूतिगंधा  : स्त्री० [सं० पूतिगंध+टाप्] एक प्रसिद्ध क्षुप जिसके गुच्छों में काले-काले फूल लगते हैं तथा जिसके बीज उग्रगंध वाले होते हैं और दवा के काम आते हैं। बकुची।
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पूति-गंधि (क)  : वि० [ब० स०,+कप्] दुर्गंधवाला। बदबूदार।
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पूतिगंधिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्,+टाप्, इत्व] १. दे० ‘पूतगंधा’। २. पोय का शाक। पूतिका।
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पूतिघास  : पुं० [सं० पूति√घस् (खाना)+अण्] सुश्रुत में वर्णित एक तरह का जंतु।
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पूति-दला  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] तेजपत्ता।
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पूति-नस्य  : पुं० [कर्म० स०] पीनस रोग।
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पूति-नासिका  : वि० [ब० स०] पीनस रोग से पीड़ित।
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पूति-पत्र  : पुं० [ब० स०] १. सोनापाठा। २. पीला लोध।
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पूति-पत्रिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्,+टाप्, इत्व] प्रसारिणी लता। परसन।
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पूति-पर्ण (क)  : पुं० [ब० स०] [ब० स०, कप्] पूति-करंज। (दे०)
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पूति-पलल्वा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] बड़ा करेला।
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पूति-पुष्प  : पुं० [ब० स०] इँगुदी वृक्ष। गोंदी। हिंगोट।
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पूति-फल  : पुं० [ब० स०] बकुची। सोमराजी।
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पूतिफला, पूतिफली  : स्त्री० [सं० पूतिफल+टाप्] [सं० पूतिफल+ङीष्] बावची।
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पूति-बर्बर  : स्त्री० [कर्म० स०] बनतुलसी। जंगली तुलसी। काली बर्बरी।
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पूति-भाव  : पुं० [ष० त०] सड़ने की क्रिया या भाव। सड़ायँध।
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पूति-मज्जा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] गोंदी। इंगुदी वृक्ष।
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पूति-मयूरिका  : स्त्री० [पूति-मयूरी, उपमि० स०+ क+ टाप्, ह्रस्व] अजवायन की तरह का एक पौधा। वि० दे० ‘अजमोदा’।
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पूतिभाव  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि।
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पूतिमुद्गल  : स्त्री० [सं०] रोहिष तृण।
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पूति-मूषिका  : स्त्री० [कर्म० स०] छछूँदर।
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पूति-मृत्तिक  : स्त्री० [ब० स०] पुराणानुसार इक्कीस नरकों में से एक नरक का नाम।
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पूति-मेद  : पुं० [ब० स०] दुर्गंध खैर। अरिमेद।
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पूति-योनि  : पुं० [ब० स०] एक तरह का योनि-रोग।
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पूति-रक्त  : पुं० [ब० स०] एक रोग जिसमें नाक में से दुर्गंध युक्त रक्त निकलता है।
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पूति-रज्जु  : स्त्री० [ब० स०] एक प्रकार की लता।
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पूति-वक्त  : वि० [ब० स०] जिसके मुँह से दुर्गन्ध निकलती हो।
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पूति-वात  : पुं० [ब० स०] १. बेल का पेड़। २. गंदी वायु। ३. पाद।
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पूति-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] सोनापाठा।
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पूति-व्रण  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा फोड़ा जिसमें निकलनेवाला मवाद अत्यधिक दुर्गंधयुक्त होता है।
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पूति-शाक  : पुं० [कर्म० स०] अगस्त। वक वृक्ष।
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पूति-शारिजा  : स्त्री० [कर्म० स०] बनबिलाव।
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पूती  : स्त्री० [सं० पोत=गट्ठा] १. गाँठ के रूप में होनेवाली पौधों की जड़। २. लहसुन आदि की गाँठ।
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पूतीक  : पुं० [सं०=पूतिक, पृषो० सिद्धि] १. पूतिकरंज (दे०) २. गंध मार्जार।
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पूतीकरंज  : पुं० [सं०=पूतिकञ्ज्, पृषो० सिद्धि] पूतिकरंज। (दे०)
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पूतीकरण  : पुं० [सं०=पूत+च्वि√कृ+ल्युट—अन] पूत अर्थात् पवित्र या शुद्ध करने की क्रिया, प्रणाली या भाव। (प्योरिफिकेशन)
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पूतीका  : स्त्री० [सं०=पूतिक, पृषो० सिद्धि] पोई। पूतिका। शाक।
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पूत्कारी  : स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. नाग-लोक की राजधानी।
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पूत्यंड  : पुं० [सं० पूति-अंड, ब० स०] १. कस्तूरी मृग। २. एक बदबूदार कीड़ा। गंध-कीट।
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पूथ  : पुं०=पूथा।
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पूथा  : पुं० [देश०] बालू का ऊँचा टीला या ढूह।
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पूथिका  : स्त्री० [सं०=पूतिका, पृषो० सिद्धि] पोई नामक पौधा और उसकी पत्ती।
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पूदना  : पुं० [देश०] भूरे रंग का एक प्रकार का पक्षी जो प्रायः जमीन पर चला करता है; और घास-फूस का घोसला बनाकर रहता है। पुं०=पुदीना।
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पून  : पुं० [देश०] जंगली बादाम का पेड़ जो पाकिस्तान के पश्चिमी किनारों पर होता है। इसके फूल और पत्तियाँ दोनों दवा के काम आती हैं। इसमें से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है। पुं०=पूर्ण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं०] नष्ट।
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पूनना  : पुं० [देश०] १. कलपून या पून नाम का सदा बहार पेड़। २. एक तरह की ईख। स०=पुनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूनव  : स्त्री०=पूर्णिमा।
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पून-सलाई  : स्त्री० [हिं० पूनी+सलाई] लोहे की सींक अथवा बेंत, नरसल आदि की वह छोटी पतली नली या पोर जिस पर रूई लपेटकर पूनी बनाई जाती है।
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पूनाक  : पुं० [देश०] तिलों में से तेल निकाल लिए जाने पर बच रहनेवाली सीठी। खली।
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पूनिउँ  : स्त्री०=पूनो (पूर्णिमा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूनी  : स्त्री० [सं० पिंजिका] १. चरखे पर सूत कातने के उद्देश्य से बनाई हुई सलाई आदि पर लपेटकर रूई की बत्ती। २. वह बहुत लम्बी रूई की बत्ती जिससे मशीनों पर सूत काता जाता है।
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पूनो  : स्त्री० [सं० पूर्णिमा] किसी महीने के शुक्ल पक्ष का अन्तिम दिन। पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पून्यो  : स्त्री०=पूनो (पूर्णिमा)।
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पूप  : पुं० [सं०√पू (पवित्र करना)+पक्] एक तरह की मीठी पूरी। वि० दे० ‘पूआ’।
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पूपला  : स्त्री० [सं०पूप√ला (लेना)+क+टाप्] पूआ नामक पकवान।
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पूपली  : स्त्री० [सं० पूपल+ङीष्] छोटा पूआ।
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पूपशाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ पूप आदि पकवान बनते या बनने पर रखे जाते हैं।
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पूपाली  : स्त्री० [सं० पूप√अल् (पर्याप्त होना)+अच्+ ङीष्] पूआ।
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पूपाष्टका  : स्त्री० [सं० पूप-अष्टका, मध्य० स०] पूस के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, इस दिन मालपूओं से श्राद्ध करने का विधान है।
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पूपिक  : पुं० [सं० पूप+ठन्—इक] पूआ।
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पूय  : पुं० [सं०√पूय (दुर्गन्ध करना)+अच्] फोड़े में से निकलनेवाला सफेद गाढ़ा तरल पदार्थ। पीप।
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पूय-कुंड  : पुं० [ष० त०] १. पुराणानुसार एक नरक का नाम। २. दे० ‘पुतिकुंड’।
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पूय-दंत  : पुं० [ब० स०] दाँतों का एक विशिष्ट रोग जिस में मसूढ़ों में से मवाद निकलता है। (पायरिया)।
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पूयन  : पुं० [सं०√पूय+ल्युट्—अन] १. पूय। मवाद। २. प्राणी या वनस्पति के अंग का इस प्रकार गलना या सड़ना कि उसमें से दुर्गन्ध आने लगे। सड़न। (प्यूट्रिफिकेशन)।
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पूय-प्रमेह  : पुं० [सं० ब० स०] वैद्यक में एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मूत्र पीप की तरह गाढा और दुर्गन्धमय होता है।
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पूयभुक् (ज्)  : वि० [सं० पूय√भुज् (खाना)+क्विप्] सड़ा मुर्दा खानेवाला।
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पूय-मेह  : पुं० [ब० स०] पूय-प्रमेह।
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पूय-रक्त  : पुं० [ब० स०] १. रक्तपित्त की अधिकता अथवा सिर पर चोट लगने के कारण नाक में से पीप मिला हुआ लहू निकलने का एक रोग। २. नाक में से निकलनेवाला पीब मिला हुआ रक्त।
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पूयवह  : पुं० [सं० पूय√वह् (बहना)+अण्] एक नरक।
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पूय-शोणित  : पुं०=पूय-रक्त। (दे०)
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पूय-स्राव  : पुं० [ब० स०] सुश्रुत के अनुसार आँखों का एक रोग जिसमें उसका संधिस्थान पक जाता है और उसमें से पीब बहने लगता है।
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पूयारि  : पुं० [पूय-अरि, ष० त०] नीम।
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पूयालस  : पुं० [पूय-अलस, ब० स०] आँखों का एक लोग जिसमें उसकी पुतली के संधिस्थल में से पीब निकलने लगता है।
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पूयोद  : पुं० [पूय-उदक, ब० स०, उदादेश] एक नरक का नाम।
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पूर  : पुं० [हिं० पूरना=भरना] १. कोई काम पूरा करने की क्रिया या भाव। मुहा०—पूर देना=किसी बात का अन्त या समाप्ति करना। उदा०—दुइ सुत मारेउ दहेउ अजहुँ पूर पिय देहु।—तुलसी। २. वे मसाले या दूसरे पदार्थ जो किसी पकवान के अन्दर भरे जाते हैं। जैसे—समोसे का पूर। ३. नदियों आदि में आनेवाली बाढ़। वि०=पूर्ण। पुं० [सं०√पूर (दुर्गन्ध करना)+क] १. दाह अगर। दाहागुरु। २. बाढ़। ३. घाव का पूरा होना या भरना। ४. प्राणायाम में पूरक क्रिया। वि० दे० ‘पूरक’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरक  : वि० [सं०√पूर्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. पूर्ति करनेवाला। कमी, त्रुटि आदि पर दूर करनेवाला। २. (अंश या मात्रा) जिसके योग से किसी दूसरे तत्त्व या बात में पूर्णता आती हो या किसी प्रकार की पूर्ति होती हो। संपूरक। (कॉम्लिमेन्टरी) ३. किसी के सामने आकर उसकी बराबरी या सामना कर सकनेवाला। उदाहरण-पूरक है तेरा यहाँ एक युधिष्ठिर ही।—मैथिलीशरण। दे० ‘संपूरक’। पुं० १. प्राणायाम विधि के तीन भागों में से पहला भाग जिसमें श्वास को नाक से खींचते हुए अन्दर की ओर ले जाते हैं। २. वे दस पिंड जो हिदुओं में किसी के मरने पर उसके मरने की तिथि से दसवें दिन तक नित्य दिये जाते हैं। कहते हैं कि जब शरीर जल जाता है तब इन्हीं पिंडों से मृत व्यक्ति का पारलौकिक शरीर फिर से बनता है। ३. गणित में वह अंक जिसके द्वारा गुणा किया जाता है। गुणक अंक। ४. बिजौरा नींबू। ५. दे० ‘समायोजक’।
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पूरण  : पुं० [सं०√पूर+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० पूरणीय] १. पूरा करने की क्रिया। २. अवकाश, रिक्त स्थान आदि में किसी को बैठना या रखना। पूर्ति करना। ३. कान आदि में तेल डालने की क्रिया। ४. अंकों का गुणा करना। ५. मृतक के दसवें दिन दिया जानेवाला पिंड जो मृतक के पर-लोक-गत शरीर को पूरा करनेवाला माना जाता है। ६. वर्षा। वृष्टि। ७. केवटी। मोथा। ८. पुल। सेतु। ९. समुद्र। १॰. गदह-पूरना। पूनर्नवा। ११. वैद्यक में वात के प्रकोप से होनेवाला एक प्रकार का फोड़ा या व्रण। वि० [सं०√पूर+णिच्+ल्यु—अन] पूरा करनेवाला। पूरक।
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पूरणी  : स्त्री० [सं० पूरण+ङीप्] सेमर। शाल्मकी वृक्ष।
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पूरणीय  : वि० [सं०√पूर+अनीयर्] १. जो पूर्ण किये जाने के योग्य हो। २. भरे जाने के योग्य।
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पूरन  : वि० [सं० पूर्ण] पूर्ण। पूरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० कचौरी, समोसे आदि पकवानों के बीच में भरा जानेवाला मसाला या और कोई वस्तु। पूर। पुं० [हिं० पूर] १. जलाशय, नदी आदि की बाढ़। २. नदी की धारा या प्रवाह।
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पूरन-काम  : वि०=पूर्ण-काम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० पूर्णकाम] जिसकी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हों।
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पूरन-परब  : पुं० [सं० पूर्णपर्व] पूर्णमासी।
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पूरन-पूरी  : स्त्री० [सं० पूर्ण+हिं० पूरी] एक प्रकार की मीठी कचौरी या पूरी जिसके अन्दर पूर भरा रहता है।
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पूरनमासी  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरना  : स० [सं० पूरण] १. कमी या त्रुटि दूर करना या पूरी करना। पूर्ति करना। २. किसी के अन्दर कोई चीज अच्छी तरह से भरना। उदा०—सतगुरु साँचा सूरमा नखसिख मारे पूर।—कबीर। ३. आच्छादित करना। ढाँकना। ४. (अभिलाषा या मनोरथ) पूर्ण और सफल करना। ५. आवश्यक और उपयुक्त स्थान पर रखना या लगाना। उदा०—हरि रहीम ऐसी करी ज्यों कमान सर पूर।—रहीम। ६. सूत आदि की कोई चीज बटकर तैयार करना। जैसे—पूनी पूरना, सेवई पूरना। ७. कपड़ा बुनने से पहले ताने के सूत फैलाना। ८. मंगल अवसरों पर आटे, अबीर आदि से देवताओं के पूजन आदि के लिए तिकोने, चौखूँटे आदि क्षेत्र बनाना। चौंक बनाना। जैसे—चौक पूरना। ९. शंख बनाने के लिए मुँह से फूँककर उसमें हवा भरना और फलतः उसे बजाना। जैसे—शंख पूरना। अ० १. पूरा होना। २. किसी चीज से भरा जाना या व्याप्त होना। ३. पूरा या समाप्त होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरनिमा  : स्त्री०=पूर्णिमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरब  : पुं० [सं० पूर्व] १. वह दिशा जिसमें सूर्य का उदय होता है। पूर्व। प्राची। २. उक्त दिशा में स्थित कोई क्षेत्र या प्रदेश। जैसे—पूरब में रहनेवाला व्यक्ति। वि०=पूर्व। क्रि० वि०=पूर्व।
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पूरबल  : पुं० [सं० पूर्व+वेला] १. पुराना जमाना। २. इस जन्म से पहलेवाला जन्म। पूर्व जन्म।
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पूरबला  : वि० [सं० पूर्व, हिं०+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० पूरबली] १. पुराने जमाने से संबंधित। २. पूर्व जन्म-संबंधी।
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पूरबली  : स्त्री० [हिं० पूरबला] पूर्व जन्म का कर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरबिय  : पुं० [हिं० पूरब] पूरब अर्थात् पूर्वी भू-भाग या पूर्वी प्रान्त में रहनेवाला व्यक्ति। वि०=पूरबी।
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पूरबी  : वि० [हिं० पूरब+ई (प्रत्य०)] १. पूरब का। पूरब संबंधी। २. पूर्व दिशा से आनेवाला। जैसे—पूरबी हवा। ३. जिसमें पूर्व देश के लक्षण, विशेषताएँ आदि हों। जैसे—पूरबी दादरा, पूरबी हिंदी, पूरबी पहनावा। पुं० १. एक प्रकार का दादरा जो बिहारी भाषा में होता और बिहार प्रान्त में गाया जाता है। २. एक प्रकार का तमाकू। स्त्री०=पूर्वी (रागिनी)।
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पूरयितव्य  : वि० [सं०√पूर+णिच्+तव्यत्] जिसे पूरा या पूर्ण करना आवश्यक या उचित हो। पूरणीय।
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पूरयिता (तृ)  : पुं० [सं०√पूर्+णिच्+तृच्] १. पूर्णकर्ता। पूरक। पूर्ण करनेवाला। २. विष्णु का एक नाम।
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पूरा  : वि० [सं० पूर्ण] [स्त्री० पूरी] १. जिसके अन्दरवाले अवकाश में कुछ भी स्थान खाली न बचा हो। जिसका भीतरी भाग अच्छी तरह भर चुका हो। परिपूर्ण। जैसे—पूरा भरा हुआ कमरा या घड़ा। २. जितना आवश्यक, उचित या संभव हो, उतना। भरपूर। यथेच्छ। यथेष्ट। जैसे—यहाँ सब चीजें पूरी हैं, किसी चीज की कमी नहीं होगी। मुहा०—पूरा पड़ना=जितनी आवश्यकता हो, उतना होना। यथेष्ट होना। जैसे—तुम्हारा तो सौ रूपये में भी पूरा नहीं पड़ेगा। ३. समग्र। समूचा। सारा। कुल। जैसे—(क) उन्होंने पूरा जंगल ठेके पर ले लिया है। (ख) यह पूरा मकान किराये पर दिया जायेगा। ४. जो आकार, घनता, विस्तार आदि के विचार से अच्छी तरह विस्तृत या व्याप्त हो चुका हो। जैसे—पूरा जवान, पूरा जोर, पूरी तेजी। ५. जिसमें कोई कमी या कोर-कसर न हो या न रह गई हो। पक्का। जैसे—(क) अब वह अपने काम में पूरा होशियार हो गया है। (ख) अब तो वह हमारा पूरा दुश्मन हो गया है। पद—किसी काम या बात का पूरा=अच्छी तरह से निर्वाह या पालन कर सकने के योग्य या कर सकनेवाला। जैसे—(क) बात या वचन का पूरा। (ख) गुण या विद्या का पूरा। ६. (काम) जो क्रिया रूप में लाकर अन्त या समाप्ति तक पहुँचा दिया गया हो। पूर्ण रूप से कृत संपन्न या संपादित। जैसे—(क) साल भर में यब पुस्तक पूरी हुई है। (ख) जब तक काम पूरा न हो जायगा, तब तक वह दम (या साँस) न लेगा। मुहा०—(कोई काम) पूरा उतरना=ठीक तरह से संपन्न या संपादित होना। जैसे—रहने दो, तुमसे यह काम पूरा नहीं उतरेगा। ७. (बात) जो कार्यरत या व्यावहारिक रूप से ठीक सिद्ध हो। जैसे— तुम्हारा कहना पूरा होकर ही रहेगा। मुहा०— (कथन) पूरा करना=ठीक या सत्य सिद्ध होना। जैसे—तुम्हारी भविष्यवाणी पूरी उतरी। पूरा पाना=अपने उद्देश्य या प्रयत्न की सिद्धि में सफल होना। उदा०—नाच्यौ नाचलच्छ चौरासी कबहुँन पूरौ पायौ।—सूर। ८. (समय) व्यतीत करना। बिताना। जैसे—(क) हम भी यहाँ अपने दिन पूरे कर रहे हैं; अर्थात् किसी प्रकार समय बिता रहे हैं। (ख) पांडवों ने अज्ञातवास की अवधि भी पूरी कर ली। मुहा०—(किसी के) दिन पूरे होना=अवधि, आयु आदि का अन्त या समाप्ति तक पहुँचना। (गर्भवती के) दिन पूरे होना=गर्भ-धारण का समय समाप्ति पर होना और प्रसव का समय समीप आना। ८. (कामना या इच्छा) संतोषजनक रूप में सफल या सिद्ध होना। जैसे—अब हमारी सभी वासनाएँ पूरी हो चुकी हैं; हमें कुछ नहीं चाहिए। ९. अवस्था या वय में यथेष्ट मान तक पहुँचा हुआ। वयस्क। जैसे—कच्चा तो कचौरी माँगे, पूरी माँगे पूरा।—(कहा०) क्रि० वि० पूर्ण रूप से। पूरी तरह से। जैसे—यह घड़ा पूरा भर दो।
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पूराम्ल  : पुं० [सं०पूर-अम्ल, ब० स०] १. इमली। २. अम्लबेंत।
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पूरिका  : स्त्री० [सं० पूरक+टाप्, इत्व] आटे आदि की बनी हुई पूरी।
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पूरित  : भू० कृ० [सं०√पूर+णिच्+क्त] १. पूर्ण किया या भरा हुआ। परिपूर्ण। लबालब। २. तृप्त। ३. गुणित। गुणा किया हुआ।
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पूरिया  : पुं० [देश०] संध्या के समय गाया जानेवाला षाड़व जाति का एक राग। इसमें पंचम स्वर वर्जित है।
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पूरिया-कल्याण  : पुं० [हिं० पूरिया+कल्याण (राग)] रात के पहले पहर में गाया जानेवाला संपूर्ण जाति का एक संकर राग।
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पूरी  : स्त्री० [सं० पूलिका] १. एक प्रकार का प्रसिद्ध पकवान जिसे साधारण रोटी आदि की तरह बेलकर खौलते घी या तेल में छानकर पकाते हैं। २. ढोल, तबले, मृदंग आदि में वह गोलाकार चमड़ा जो उनके मुँह पर मढ़ा रहता है और जिस पर आघात होने से वे बजते हैं। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—मढ़ना। वि० हिं० ‘पूरा’ का स्त्री०। (मुहा० के लिए दे० ‘पूरा’) वि० [सं० पूरिन्] पूरा करनेवाला। पूरक। स्त्री० घास आदि का छोटा पूला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूरु  : पुं० [सं०√पृ (पूर्ति)+कु] १. मनुष्य। २. राजा ययाति के पुत्र का नाम। ३. वैराज मनु के एक पुत्र। ४. जदु के एक पुत्र। ५. एक राक्षस।
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पुरुख  : पुं०=पूरुष (पुरुष)।
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पूरुजित  : पुं० [सं० पूरु√जि (जीतना)+क्विप्] विष्णु।
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पूरुब  : पुं०=पूरब।
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पूरुष  : पुं० [सं०√पूर+उषन्] १. पुरुष। २. आत्मा।
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पूर्ण  : वि० [सं०√पूर+क्त, त—न] १. (आधान या पात्र) जो पूरी तरह से भरा हुआ हो। जिसमें काम का कोई अवकाश या स्थान खाली न रह गया हो। जैसे—जल से पूर्ण घट। २. लाक्षणिक रूप में, किसी तत्त्व या बात से भरा हुआ पूरी तरह से युक्त। जैसे—शोक-पूर्ण समाचार, हर्ष-पूर्ण सामारोह। ३. सब प्रकार की यथेष्टता के कारण जिसमें कुछ भी अपेक्षा, अभाव या आवश्यकता न रह गई हो। जितना आवश्यक या उचित हो, उतना सब। जैसे—धन-धान्य से पूर्ण गृहस्थी या परिवार। ४. (आवश्यक या इच्छा) जिसके पूरे होने में कोई कसर या सन्देह न रह गया हो। हर प्रकार से तृप्त और संतुष्ट। जैसे—आपने मेरी सभी कामनाएँ पूर्ण कर दी। ५. सब का सब। पूरा। समूचा। सारा। समस्त। संपूर्ण। जैसे—पूर्ण योजना सफल हो गई। ६. जिसमें किसी आवश्यक अंग या संयोजक तत्त्व का ठीक अभाव न हो। हर तरह से ठीक और पूरा। जैसे—पूर्ण उपमा अलंकार। ८. (उद्देश्य या प्रयत्न) सफल। सिद्ध। जैसे—आज आपका संकल्प पूर्ण हुआ। ९. जो अपनी अवधि या सीमा के सिरे पर पहुँच गया हो। जैसे—आयु पूर्ण होना, दंड की अवधि पूर्ण होना। पुं० १. प्रचुरता। बाहुल्य। २. जल। पानी। ३. विष्णु का एक नाम। ४. बौद्ध कथाओं के अनुसार मैत्रायणी का एक पुत्र।
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पूर्ण-अतीत  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. संगीत में ताल का वह स्थान जो ‘सम अतीत’ के एक मात्रा के बाद आता है। यह स्थान भी कभी-कभी सम का काम देता है।
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पूर्णक  : पुं० [सं० पूर्ण+कन्] १. मुर्गा। कुक्कुट। २. देवताओं की एक योनि। ३. दे० ‘पूर्ण’।
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पूर्ण-कलानिधि  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पूर्ण-काम  : वि० [ब० स०] १. जिसकी कामनाएँ पूर्ण या पूरी हो चुकी हो। २. कामना-रहित। निष्काम। पुं० परमेश्वर।
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पूर्ण-काश्यप  : पुं० [कर्म० स०] उन छः तीर्थिकों में से एक जिन्हें भगवान् बुद्ध ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। कहते हैं कि इसी दुःख में ये अपने गले में बालू भरा घड़ा बाँधकर डूब मरे थे।
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पूर्णकुंभ  : पुं० [कर्म० स०] १. जल से भरा हुआ घड़ा जो मांगलिक और शुभ माना जाता है। पूर्ण घट। २. घड़े के आकार का दीवार में बनाया जानेवाला छेद। ३. एक तरह का युद्ध।
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पूर्णकोशा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] एक प्रकार की लता जो ओषधि के काम आती है।
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पूर्णकोषा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. कचौरी। २. प्राचीन काल में जौ के आटे से बननेवाला एक प्रकार का पकवान। ३. दे० ‘पूर्णकोशा’।
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पूर्णकोष्ठा  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] नागरमोथा।
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पूर्णगर्भा  : स्त्री० [ब० स०,+टाप्] १. वह स्त्री जिसे शीघ्र प्रसव होने की संभावना हो। वह स्त्री जिसके गर्भ के दिन पूरे हो चले हों। २. कचौरी, जिसमें पीठी आदि भरी रहती हैं। ३. पूरन-पूरी नाम का पकवान।
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पूर्णघट  : पुं०=पूर्ण-कुंभ।
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पूर्णचंद्र  : पुं० [कर्म० स०] पूर्णिमा का चन्द्रमा जो अपनी सब कलाओं से पूर्ण या युक्त रहता है।
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पूर्ण-चंद्रिका  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पूर्णतः  : अव्य० [सं० पूर्ण+तस्] पूरी तरह से। पूर्णतया।
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पूर्णतया  : अव्य० [सं० पूर्णता की तृ० विभक्ति का रूप] पूरी तरह से। पूण रूप से।
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पूर्णता  : स्त्री० [सं० पूर्ण+तल्+टाप्] १. पूर्ण होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी प्रकार का अभाव, कमी या त्रुटि न हो। (परफेक्शन)।
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पूर्ण-परिवर्तक  : पुं० [कर्म० स०] वह जीव जो अपने जीवन में अनेक बार रूप आदि बदलता हो। जैसे—कीड़े-मकोड़े, तितली, मेढक आदि।
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पूर्णपर्वेंदु  : पुं० [पूर्ण-पर्व-इंदु, ब० स०] पूर्णिमा। पूर्णमासी।
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पूर्णपात्र  : पुं० [कर्म० स०] १. वह घड़ा जो प्राचीन काल में चावलो से भरकर होम या यज्ञ के अन्त में दक्षिणा के रूप में पुरोहित को दिया जाता था। इसमें साधारणतः २५६ मुट्ठी चावल हुआ करता था। २. उक्त के आधार पर २५६ मुट्ठियों की एक नाप। ३. पुत्र-जन्म आदि शुभ अवसरों पर शुभ संवाद सुनानेवाले लोगों को बाँटे जानेवाले कपड़े और गहने।
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पूर्णप्रज्ञ  : वि० [ब० स०] १. जिसकी बुद्धि में कोई कमी या त्रुटि न हो। २. बहुत बड़ा बुद्धिमान। ३. पूर्ण ज्ञानी। पुं० पूर्ण प्रज्ञदर्शन के कर्ता मध्वाचार्य जो वैष्णव मत के संस्थापक आचार्यों में माने जाते हैं। हनुमान और भीम के बाद ये वायु के तीसरे अवतार कहे गये हैं। इनका एक नाम आनन्दतीर्थ भी है।
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पूर्णप्रज्ञदर्शन  : पुं० [ष० त०] सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार एक दर्शन जिसके प्रवर्तक पूर्णप्रज्ञ या मध्वाचार्य हैं। इसके अधिकतर सिद्धान्त रामानुज दर्शन के सिद्धान्तों से मिलते हैं।
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पूर्णबीज  : पुं० [ब० स०] बिजौरा नींबू।
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पूर्णभद्र  : पुं० [कर्म० स०] १. स्कंद पुराण के अनुसार हरिकेश नामक यक्ष के पिता। २. एक नाग का नाम।
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पूर्णभेदी (दिन्)  : पुं० [सं०पूर्ण√भिद् (विदारण)+णिनि ] एक प्रकार का पौधा।
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पूर्णमा  : स्त्री० [सं०पूर्ण√मा (मापना)+क+टाप्] पूर्णिमा। पूर्णमासी।
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पूर्णमानस  : वि० [ब० स०] जो मन से भली भांति संतुष्ट हो।
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पूर्णमास  : स्त्री० [ब० स०] १. चन्द्रमा। २. [पूर्णमासी+अच्] प्राचीन काल में पूर्णिमा को किया जानेवाला एक तरह का यज्ञ।
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पूर्णमासी  : स्त्री० [सं० पूर्णमास+ङीष्] शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि जिसमें चन्द्रमा अपनी सोलहों कलाओं से युक्त होता है। पूर्णिमा। पूनो।
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पूर्ण-मैत्रायनी पुत्र  : पुं० [सं० मैत्रायनी-पुत्र, ष० त०, पूर्ण-मैत्रायनी पुत्र, कर्म० स०] बुद्ध भगवान् के अनुचरों में से एक जो पश्चिम भारत के सुरपाक नामक स्थान में रहते थे।
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पूर्णयोग  : पुं० [ब० स०] प्राचीन भारत में एक प्रकार का बाहुयुद्ध। भीम और जरासंघ में यही बाहु-युद्ध हुआ था।
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पूर्णरथ  : पुं० [ब० स०] बहुत कुशल और पक्का योद्धा।
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पूर्णलक्ष्मीक  : वि० [ब० स०] लक्ष्मी या धन से भली भाँति सम्पन्न।
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पूर्णवर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं०] महाराज अशोक के वंश के अंतिम मगध सम्राट। गौड़राज शशांक द्वारा बोधिवृक्ष के नष्ट किये जाने पर इन्होंने उसे फिर से जीवित कराया था।
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पूर्णवर्ष  : वि० [ब० स०] बीस वर्ष की अवस्था वाला नौजवान।
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पूर्णविराम  : पुं० [कर्म० स०] लिखाई, छपाई आदि में एक प्रकार का चिह्र जो वाक्य के अन्त में उसकी पूर्णता या समाप्ति जतलाने के लिए खड़ी पाई के रूप में लगाया जाता है। (फुल-स्टॉफ)
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पूर्णविषम  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में ताल का एक स्थान जो कभी कभी सम का काम देता है।
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पूर्णवैशानिक  : पुं० [कर्म० स०] वह बौद्ध जिसकी आस्था सर्वशून्य तत्त्ववाद में हो।
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पूर्णशैल  : पुं० [कर्म० स०] योगिनी तंत्र के अनुसार उल्लिखित एक पर्वत का नाम।
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पूर्ण-श्री  : वि० [ब० स०] प्रतिष्ठित, सम्पन्न तथा सुखी (व्यक्ति)।
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पूर्णहोम  : पुं० [कर्म० स०] पूर्णाहुति। (दे०)
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पूर्णांक  : पुं० [पूर्ण-अंक, कर्म० स०] १. पूरी संख्या। २. गणित में अविभक्त संख्या। ३. किसी प्रश्न-पत्र के लिए निर्धारित अंक। (फुल मार्क्स)।
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पूर्णांजलि  : वि० [पूर्ण-अंजलि, ब० स०] जितना अँजुली में आ सके, उतना। अंजुलि भर।
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पूर्णा  : स्त्री० [सं० पूर्ण+टाप्] १. चंद्रमा की पंद्रहवी कला। २. पंचमी, दसमी, अमावस और पूर्णमासी की तिथियाँ। ३. दक्षिण भारत की एक नदी।
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पूर्णाघात  : पुं० [पूर्ण-आघात, कर्म० स०] संगीत में ताल का वह स्थान जो अनाघात के उपरांत एक मात्रा के बाद आता है। कभी-कभी वह स्थान भी सम का काम देता है।
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पूर्णानंद  : पुं० [पूर्ण-आनन्द, ब० स०] परमेश्वर।
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पूर्णाभिलाष  : वि० [पूर्ण-अभिलाष, ब० स०] १. जिसकी अभिलाषा पूरी हो चुकी हो। २. तृप्त। संतुष्ट।
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पूर्णाभिषिक्त  : भू० कृ० [पूर्ण-अभिषिक्त, कर्म० स०] जिसका पूर्णाभिषेक संस्कार हो चुका हो। पुं० तांत्रिकों और शाक्तों का एक भेद या वर्ग।
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पूर्णाभिषेक  : पुं० [पूर्ण-अभिषेक, कर्म० स०] वाममार्गियों का एक तांत्रिक संस्कार जो किसी नये साधन के गुरु द्वारा दीक्षित होने के समय किया जाता है। अभिषेक। महाभिषेक।
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पूर्णामुता  : स्त्री० [पूर्ण-अमृता, कर्म० स०] चन्द्रमा की सोलहवीं कला।
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पूर्णायु (स्)  : वि० [पूर्ण-आयुस्, ब० स०] जिसने पूरी अर्थात् सौ वर्षो की आयु पाई हो। स्त्री० [पूर्ण-अवतार, कर्म० स०] १. पूरी आयु। सारा जीवन। २. सौ वर्षों की आयु।
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पूर्णावतार  : पुं० [पूर्ण-अवतार, कर्म० स०] अंशावतार से भिन्न ऐसा अवतार जो किसी देवता की संपूर्ण कलाओं से युक्त हो। सोलहों कलाओं से युक्त अवतार।
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पूर्णाशा  : स्त्री० [पूर्ण-आशा, ब० स०+टाप्] महाभारत में उल्लिखित एक नदी।
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पूर्णाहुति  : स्त्री० [पूर्ण-आहुति, कर्म० स०] १. यज्ञ की समाप्ति पर दी जानेवाली आहुति। २. लाक्षणिक अर्थ में किसी कार्य की समाप्ति के समय होनेवाला अन्तिम कृत्य।
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पूर्णि  : स्त्री० [सं०√पू+णिङ्] पूर्णिमा।
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पूर्णिका  : स्त्री० [सं० पूर्णि+कन्+टाप्] एक प्रकार की चिड़िया जिसकी चोंच का दोहरा होना माना जाता है। नासाच्छिनी पक्षी।
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पूर्णिमांत  : पुं० [सं०] गौण चांद्रमास का दूसरा नाम।
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पूर्णिमा  : स्त्री० [सं० पूर्णि√मा (मापना)+क+टाप्] चांद्रमास के शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि जिसमें चन्द्रमा अपने पूरे मंडल से उदय होता है। पूर्णमासी।
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पूर्णमासी  : स्त्री०=पूर्णिमा।
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पूर्णेंदु  : पुं० [पूर्ण-इन्दु, कर्म० स०] पूर्णिमा का चन्द्रमा जो अपनी सोलहों कलाओं से युक्त होता है। पूर्णचन्द्र।
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पूर्णोत्कट  : पुं० [पूर्ण-उत्कट, कर्म० स०] मार्कडेय पुराण में उल्लिखित एक पूर्व देशीय पर्वत।
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पूर्णोदरा  : स्त्री० [पूर्ण-उदर, ब० स०, टाप्] एक देवी।
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पूर्णोपमा  : पुं० [पूर्ण-उपमा, कर्म० स०] उपमा अलंकार के दो मुख्य भेदों में से पहला जिसमें उपमेय, उपमान, वाचक और धर्म चारों अंग प्रकट रूप से वर्तमान रहते हैं। यथा—सुभग सुधाधर तुल्य मुख, मधुर, सुधा से बैन—पद्याकर। विशेष—इसके आर्थी और श्रौती दो भेद होते हैं।
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पूर्त  : वि० [सं०=पृ (पालन करना)+क्त] १. पूरी तरह से भरा हुआ। २. छाया या ढका हुआ। आवृत्त। ३. पालित। ४. रक्षित। पुं० १. पूर्णता। २. देवगृह, वापी आदि का बनवाना जो धार्मिक दृष्टि से उत्तम कर्म माना गया है।
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पूर्त-विभाग  : पुं० [ष० त०] आज-कल की राजकीय विभाग जो सड़कें, पुल, नहरें आदि लोकोपयोगी वास्तु-रचनाओं का निर्माण कराता है।
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पूर्त-संस्था  : स्त्री० [ष० त०] धर्मार्थ कार्यों के लिए स्थापित की हुई संस्था (चैरिटेबिल इंस्टीट्यूशन)
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पूर्ति  : स्त्री० [सं० पृ+क्ति] १. पूरे या पूर्ण होने की क्रिया या भाव। पूर्णता। २. जो वस्तु अपेक्षित, आवश्यक या कम हो, उसे लाकर प्रस्तुत करने की क्रिया। कमी पूरी करने का काम। जैसे—अभाव की पूर्ति, समस्या की पूर्ति। ३. अर्थशास्त्र में, वे वस्तुएँ जो किसी विशिष्ट मूल्य पर बिकने के लिए बाजार में आई हों। (सप्लाई)। ४. वापी, कूप या तड़ाग आदि का उत्सर्ग। ५. किसी बही, आकार-पत्र आदि के कोष्टकों में आवश्यकतानुसार कुछ लिखने या खाने भरने का काम। ६. गुणा करने की क्रिया या भाव। गुणन।
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पूर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० पूर्त्त+इनि] १. तृप्ति देनेवाला। २. इच्छा पूर्ण करनेवाला। ३. भरा हुआ। पूरित। पुं० श्राद्ध।
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पूर्ब  : पुं० दे० ‘पूर्व’। वि० दे० ‘पूर्व’।
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पूर्य  : वि० [सं०√पृ+क्यप् वा√पूर्+ण्यत्] १. जिसे पूरा करना आवश्यक या उचित हो। पूरणीय। २. जो पूरा किया जाने को हो। ३. (आज्ञा) जिसका पालन करना आवश्यक और उचित हो। पुं० एक प्रकार का तृण-धान्य।
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पूर्व  : वि० [सं०√पूर्व+अच्] १. जो सबसे आगे, सामने या पहले हो। २. जो किसी से पहले अस्तित्व में आया या बना हो। ३. अत्यधिक पुराना। प्राचीन। ४. किसी कृति के पहलेवाले अंश से संबद्ध। ‘उत्तर’ का विपर्याय। क्रि० वि० पहले। आगे। पुं० [सं०√पूर्व (निवास)+अच्] १. वह दिशा जिसमें से प्रातःकाल सूर्य निकलता हुआ दिखाई देता है। पश्चिम के सामने की दिशा पूरब। २. जैनों के अनुसार सात नील, पाँच खरब, साठ अरब वर्ष का एक काल-विभाग।
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पूर्वक  : अव्य० [सं०] समस्त पदों के अन्त में (क) सहित या साथ। (ख) (कोई काम) अच्छी तरह से करते हुए। जैसे—ध्यानपूर्वक, विचारपूर्वक।
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पूर्व-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार रोगी के सम्बन्ध में किये जानेवाले तीन कर्मों में से पहला कर्म। रोगोत्पत्ति के पहले किये जानेवाले काम।
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पूर्वकल्प  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन काल।
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पूर्वकल्याण  : पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का राग।
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पूर्व-कल्याणी  : स्त्री० [कर्म० स०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पूर्वकाय  : पुं० [एकदेशित०] शरीर का पूर्व या ऊपरी भाग। नाभि से ऊपर का भाग।
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पूर्वकाल  : पुं० [कर्म० स०] १. बीता हुआ समय। २. पुराना जमाना।
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पूर्वकालिक  : वि० [सं० पूर्व-काल, कर्म० स०,+ठन्—इक] १. जिसकी उत्पत्ति या जन्म पूर्वकाल में हुआ हो। पूर्वकाल जात। २. पूर्व समय या पुराने जमाने से संबद्ध। ३. जिसका अवस्थान या स्थिति पूर्वकाल में रही हो। पुराने जमाने का।
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पूर्वकालिक क्रिया  : स्त्री० [सं०] व्याकरण में धातु से बना हुआ वह कृदंत जो क्रिया विशेषण की तरह युक्त होता है तथा जिससे सूचित होता है कि अमुक कार्य होने के बाद ही मुख्य क्रिया द्वारा निर्देशित कार्य हुआ या होगा। यह रूप धातु में ‘कर’ लगने से बनता है। विशेष—यह घटना क्रम के विचार से होनेवाले क्रिया के दो भेदों में एक है। दूसरा भेद समापक या समापिका क्रिया कहलाता है।
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पूर्वकालीन  : वि० [सं० पूर्वकाल+ख—ईन] पुराने जमाने का। प्राचीन पुराना।
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पूर्वकृत्  : पुं० [सं० पूर्व√कृ (करना)+क्विप्] पूर्व दिशा के कर्ता सूर्य। भू० कृ० पहले किया हुआ।
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पूर्व गंगा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] नर्मदा नदी।
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पूर्वग  : वि० [सं० पुर्व√गम् (जाना)+ड] आगे या पहले चलनेवाला। पूर्वगामी।
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पूर्वगत  : वि० [सुप्सुसा स०] १. जो पहले चला गया हो या जा चुका हो। २. बीता हुआ।
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पूर्वगामी (मिन्)  : वि० [सं० पूर्व√गम् (जाना)+णिनि ] आगे या पहले चल या निकल जानेवाला। जो पहले चला गया हो।
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पूर्वग्रस्त  : भू० कृ० [सं०] १. (बात या विषय जिसके संबंध में मन में कोई पूर्व-ग्रह हो। २. (व्यक्ति) जिसके मन में किसी बात या विषय के संबंध में कोई पूर्व-ग्रह हो। (प्रेजुडिस्ट)
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पूर्वग्रह  : पुं० [कर्म० स०] १. चिकित्सा शास्त्र में, वह सिहरन या इसी प्रकार की और कोई अनुभूति जो मिरगी आदि विकट रोगों का दौरा शुरू होने से पहले होती है। २. किसी अनिश्चित अप्रमाणित या विवादास्पद बात या विषय के संबंध में वह आग्रपूर्वक धारणा जो पहले से बिना जाने या समझे-बूझे अपने मन में स्थिर कर ली गई हो। (प्रेजुडिस)
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पूर्वचित्ति  : स्त्री० [सं०] एक अप्पसरा का नाम।
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पूर्वचेतन  : पुं० [सं०] आधुनिक मनोविज्ञान में वे अचेतन इच्छाएँ या वासनाएँ या प्रतिक्रियाएँ जो पहले से मन में सोई रहती है और सहज में चेतन अवस्था में आ सकती या आ जाती है। यह अहं का बौद्धिक अंश माना गया है। (प्रीकॉशेन्स) विशेष—अचेतन और पूर्व-चेतन में यह अन्तर किया गया है कि अचेतन तो दमित और गतिशील होता है, पर पूर्व चेतन का दमित होना आवश्यक नहीं है। यह अचेतन और चेतन के बीच की स्थिति है।
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पूर्वज  : वि० [सं० पूर्व√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जिसकी उत्पत्ति या जन्म पूर्वजन्म में अथवा किसी के पूर्व या पहले हुआ हो। पुं० १. बड़ा भाई। अग्रज। २. बाप, दादा, परदादा आदि पूर्व पुरुष। पुरखा ३. एक प्रकार के दिव्य पितृगण जिनका निवास चन्द्रलोक में माना गया है।
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पूर्व-जन  : पुं० [कर्म० स०] पुराने समय के लोग। पुराकालीन पुरुष।
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पूर्व-जन्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] १. प्रस्तुत या वर्तमान से भिन्न पहले वाला कोई जन्म। २. इस जन्म से पहलेवाला जन्म। पिछला जन्म।
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पूर्वजन्मा (न्मन्)  : पुं० [ब० स०] बड़ा भाई। अग्रज।
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पूर्वजा  : स्त्री० [सं० पूर्वज+टाप्] बड़ी बहन।
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पूर्वजाति  : स्त्री० [कर्म० स०] पूर्व जन्म। पिछला जन्म।
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पूर्वजिन  : पुं० [कर्म० स०] १. अतीत जिन या बुद्ध। २. मंजुश्री का एक नाम।
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पूर्वज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. पूर्व जन्म की बात का ज्ञान। पूर्व जन्म में अर्जित ज्ञान जो इस जन्म में भी विद्यमान हो। २. पूर्वाजित या पहले का ज्ञान। ३. आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाओं या बातों का पहले से ही परिज्ञान हो जाना जो अभी घटित न हुई हों, बल्कि भविष्य में कभी घटित होने को हों। (फोर-नॉलेज)।
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पूर्वतः (तस्)  : अव्य० [सं० पूर्व+तस्] १. पहले। २. प्रथमत। ३. सामने।
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पूर्वतन  : वि० [सं० पूर्व+ट्यु—अन, तुट्] १. पहला। २. पुराना।
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पूर्वतर  : वि० [सं० पूर्व+तरप्] [भाव० पूर्वतरता] १. पहला। २. पूर्व का।
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पूर्व-तिथि  : स्त्री० [कर्म० स०] पत्रों, लेखों आदि पर लिखी जानेवाली वह तिथि जो अभी कुछ दिन बाद आने को हो। आज की तिथि या दिनांक के बाद की कोई तिथि या दिनांक।
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पूर्वतिथित  : भू० कृ० [सं० पूर्वतिथि+णिच्+क्त] (वह) जिस पर पहले से कोई पहले की तारीख या तिथि दे या लिख दी गई हो।
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पूर्वत्र  : अव्य० [सं० पूर्व+त्रल्] १. पहले। २. पहलेवाले भाग या स्थान में।
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पूर्व-दक्षिणा  : स्त्री० [ब० स०] पूर्व और दक्षिण के बीच का कोना।
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पूर्वदत्त  : भू० कृ० [कर्म० स०] जो पहले दिया जा चुका हो। पहले का दिया हुआ (प्री-पेड)।
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पूर्वदर्शन  : पुं० [कर्म० स०] आत्मिक शक्ति की सहायता से ऐसी घटनाएँ या बातें पहले से दिखाई देती हुई जान पड़ना जो अभी घटित न हुई हों बल्कि भविष्य में कभी घटित होने को हों। (प्रीकाग्निशन)
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पूर्वदान  : पुं० [सं०] पहले या पेशगी देना। पहले ही चुका देना है।
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पूर्वदिक्-पति  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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पूर्वदिक्-वदन  : पुं० [ब० स०]=पूर्व-दिगीश।
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पूर्वदिगीश  : पुं० [पूर्वदिश्-ईश, ष० त०] १. इन्द्र। २. सिंह, मेष और धनु तीनों राशियाँ।
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पूर्वदिन  : पुं० [एकदेशित०] मध्याह्र से पहले का समय।
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पूर्वदिश्य  : वि० [सं० पूर्वदिश्+यत्] पूर्व दिशा का या उससे सम्बन्ध रखनेवाला।
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पूर्वदिष्ट  : पुं० [कर्म० स०,+अच्] वे सुख-दुःख आदि जो पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के परिणामस्वरूप भोगने पड़ें।
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पूर्वदुष्कृत  : पुं० [ष० त०] पूर्व जन्म का पाप।
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पूर्वदृष्टि  : स्त्री० [कर्म० स०] वह दृष्टि या विचार-शक्ति जिसकी सहायता से किसी होनेवाली बात के सब अंग पहले से ही देख या सोच-समझ लिये जाते हैं। (फोर साइट)।
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पूर्व-देव  : पुं० [कर्म० स०] १. नर और नारायण। २. असुर जो पहले देव या सुर थे, पर अपने दुष्कर्मों के कारण बाद में सुरों के वर्ग से अलग हो गये थे।
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पूर्वदेवता  : पुं० [कर्म० स०] पितर।
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पूर्वदेह  : स्त्री० [कर्म० स०] १. पूर्व जन्मवाला शरीर। २. शरीर का अगला भाग।
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पूर्वदेहिक, पूर्वदैहिक  : वि० [सं० पूर्व-देह, कर्म० स०,+ ठन्—इक ?] [सं० पूर्वदेह+ठक्—इक ?] पूर्व जन्म में किया हुआ।
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पूर्व-निरूपण  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी बात का पहले से किया जानेवाला निरूपण। २. किस्मत। तकदीर। भाग।
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पूर्वन्याय  : पुं० [कर्म० स०] किसी अभियोग में प्रतिवादी का यह कहना कि ऐसे अभियोग में मैं वादी को पराजित कर चुका हूँ। यह उत्तर का एक प्रकार है।
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पूर्वपक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी शास्त्रीय विषय के संबंध में उठाया हुआ ऐसा प्रश्न, बात या शंका जिसका दूसरे पक्ष को उत्तर देना या समाधान करना पड़े। २. व्यवहार या अभियोग में वादी द्वारा उपस्थित किया हुआ अभियोग या बात। मुद्दई का दावा। ३. चांद्रमास का कृष्णपक्ष।
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पूर्वपक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० पूर्वपक्ष+इनि] १. वह जो पूर्वपक्ष उपस्थित करे। २. वह जो न्यायालय में कोई अभियोग या वाद उपस्थित करे। मुद्दई।
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पूर्वपक्षीय  : वि० [सं० पूर्वपक्ष+छ—ईय] पूर्वपक्ष संबंधी। पूर्वपक्ष का।
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पूर्वपद  : पुं० [कर्म० स०] १. यौगिक या समस्त पद में का पहले का पद। ‘उत्तर-पद’ का विपर्याय। जैसे—लोकगीत में का ‘लोक’ पूर्व-पद है। २. किसी सोपाधिक बात का पहला अंश जिस पर दूसरा अंश अवलंबित हो। ३. कोई ऐसी बात जिस पर तार्किक दृष्टि से कोई दूसरी बात अवलंबित हो। ४. काल-क्रम के विचार से पहले घटित होनेवाली ऐसी घटना जिसके फलस्वरूप बाद में कोई घटना घटित होती है।
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पूर्व-पर्वत  : पुं० [कर्म० स०] उदयाचल।
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पूर्वपाली (लिन्)  : पुं० [सं० पूर्व√पाल् (रक्षा करना)+ णिच्+णिनि] इन्द्र।
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पूर्वपितामह  : पुं० [ष० त०] १. पुरखा। पूर्वज। २. प्रपितामह। परदादा।
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पूर्वपीठिका  : स्त्री० [कर्म० स०] वह अवस्था, रूप या स्थिति जिसके आगे या सामने कोई नई स्थिति या रूप खड़ा हो। भूमिका। (बेकग्राउन्ड)
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पूर्वपुरुष  : पुं० [कर्म० स०] दादा-परदादा। पूर्वज। (फोर-फादर्स)
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पूर्व-प्रत्यय  : पुं० [कर्म० स०] वह प्रत्यय जो शब्द के पहले लगाया जाता है।
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पूर्व-प्लावनिक  : वि० [सं०] १. वैवस्वत मनु अथवा हजरत नूर के समय के प्लावन से पहले का। २. बहुत पुराना फलतः बिलकुल निकम्मा। (एन्टी-डिलूविअल)
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पूर्व-फाल्गुनी  : स्त्री० [कर्म० स०] सत्ताईस नक्षत्रों में से ग्यारहवाँ नक्षत्र जिसमें दो तारे हैं।
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पूर्वबंधु  : पुं० [कर्म० स०] पहले या सबसे अच्छा मित्र।
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पूर्वबाध  : पुं० [ष० त०] पहले के निश्चय को स्थगित या रद्द करना।
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पूर्वबाहु  : स्त्री० [एकोशित] कोहनी से आगे का वह भाग जिसमें कलाई और पंजा होता है। (फोर आर्म)
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पूर्वभक्षिका  : स्त्री० [कर्म० स०] प्रातःकाल किया जानेवाला भोजन। जलपान। नाश्ता।
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पूर्वभाद्रपद  : पुं० [कर्म० स०] सत्ताईस नक्षत्रों में २५वाँ नक्षत्र जिसमें दो तारे हैं।
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पूर्वभाव  : पुं० [कर्म० स०] १. पूर्व सत्ता। २. प्राथमिकता। ३. विचार की अभिव्यक्ति। ४. ‘पूर्वराग’। (साहित्य)
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पूर्वभावी (विन्)  : पुं० [सं० पूर्व√भू+णिनि] कारण। वि० पूर्ववर्ती।
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पूर्वभाषी (षिन्)  : वि० [सं० पूर्व-भाष् (बोलना)+णिनि] १. पहले बोलने का इच्छुक। २. नम्र। विनयी।
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पूर्व-मीमांसा  : पुं० [कर्म० स०] जैमिनी मुनि द्वारा कृत एक प्रसिद्ध भारतीय दर्शन जिसमें कर्मकांड सम्बन्धी बातों का विवेचन है।
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पूर्वयज्ञ  : पुं० [कर्म० स०] जैनों के अनुसार एक जिनदेव जो मणिभद्र और जलेंद्र भी कहलाते हैं।
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पूर्व-रंग  : पुं० [कर्म० स०] १. अभिनय में वह संगीत या स्तुति आदि दो नाटक आरंभ होने से पहले विघ्नों की शांति और दर्शकों को अनुरक्त करने के लिए होता है। यद्यपि इसके प्रत्याहार आदि अनेक अंग है; फिर भी इसमें नान्दी का होना परम आवश्यक है। २. रंग-शाला।
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पूर्व-राग  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में किसी के प्रति मन में उत्पन्न होनेवाला वह प्रेम जो बिना प्रिय को देखे केवल उसका गुण या नाम सुनने, चित्र आदि देखने से होता है। इसकी ये दस दशाएँ कही गई हैं
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पूर्व-रूप  : पुं० [कर्म० स०] १. किसी काम, चीज या बात का पहलेवाला आकार, रूप या रंग-ढंग। जैसे—इस पुस्तक का पूर्वरूप ऐसा ही था। २. किसी वस्तु का वह रूप जो उस वस्तु के पूर्ण रूप से प्रस्तुत होने से पहले बनता और तैयार होता है। ३. साहित्य में एक अर्थालंकार, जिसमें किसी के विनष्ट, गुण; रूप, वैभव आदि के फिर से वापस या लौट आने का उल्लेख होता है।
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पूर्वलेख  : पुं० दे० ‘संलेख’।
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पूर्ववत्  : अव्य० [सं० पूर्व+वति] १. जिस प्रकार पहले हुआ या किया गया हो, उसी प्रकार या उसी के अनुसार। २. पहले की ही तरह। ज्यों का त्यों (अर्थात् बिना किसी प्रकार के परिवर्तन के)। पुं० किसी कार्य का वह अनुमान जो उसके कारणों को देखकर उसके होने से पहले ही किया जाता है।
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पूर्ववर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० पूर्व√वृत्त (बरतना)+णिनि] जो पहले से वर्तमान हो या रह चुका हो। पूर्व में या पहले रहने या होनेवाला। जैसे—यहाँ के पूर्ववर्ती अध्यापक बहुत वृद्ध हो गये थे।
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पूर्ववाद  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्यवहार शास्त्र के अनुसार वह पहला अभियोग जो कोई व्यक्ति न्यायालय आदि में उपस्थित करे। पहला दावा। नालिश।
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पूर्ववादी (दिन्)  : पुं० [सं० पूर्व√वद् (बोलना)+णिनि] वादी। मुद्दई।
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पूर्वविचार  : पुं० [कर्म० स०] किसी होनेवाली बात के संबंध में पहले से किया जानेवाला विचार। (फोर थॉट)
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पूर्वविद्  : वि० [सं० पूर्व√विद् (जानना)+क्विप्] पुराने समय की बातें जाननेवाला। इतिहास आदि का ज्ञाता।
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पूर्व-विवेचन  : पुं० [सं०] किसी विषय से संबंध रखनेवाली सब बातें पहले से अच्छी तरह सोच-समझ लेने की क्रिया या भाव। (प्राविडेन्स)
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पूर्व-विहित  : वि० [कर्म० स०] १. जिसका पहले से विधान किया जा चुका हो या हो चुका हो। २. पहले का जमा किया हुआ या गाड़ा हुआ (धन)।
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पूर्ववृत्त  : पुं० [कर्म० स०] पुराने समय की घटनाओं का विवरण। पूर्वकाल की बातें। इतिहास।
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पूर्वव्यापित  : वि० [सं०] (आदेश, नियम या निश्चय) जिसका प्रभाव बीते हुए काल के कार्यों, व्यवस्थाओं पर भी पड़ता हो। (रिट्रास्पेक्टिव)
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पूर्व-शैल  : पुं० [सं० कर्म० स०] उदयाचल।
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पूर्व-संचित  : भू० कृ० [कर्म० स०] पहले से इकट्ठा या संचित किया हुआ।
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पूर्व-संध्या  : स्त्री० [कर्म० स०] दिन की पहली सन्ध्या, अर्थात् प्रातःकाल।
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पूर्व-सक्थ  : पुं० [एकदेशि त०] जाँघ का ऊपरी भाग।
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पूर्व-सभिक  : पुं० [कर्म० स०] जूए खाने का प्रधान या मालिक।
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पूर्वसर  : वि० [सं० पूर्व√सृ (गति)+ट] आगे चलनेवाला। अग्रगामी।
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पूर्व-सागर  : पुं० [कर्म० स०] पूर्वी समुद्र।
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पूर्वसाहस  : पुं० [कर्म० स०] पहला या सबसे बड़ा दंड।
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पूर्वसाचित्य  : पुं० [कर्म० स०] किसी काम में पहले से सोच-समझकर अपनी रक्षा के विचार से किया जानेवाला साचित्य (प्रिकाशन)।
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पूर्वसिंधु  : पुं० [कर्म० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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पूर्वसूचन  : पुं० [कर्म० स०] १. सूचना या चेतावनी पहले से देना। २. किसी भावी कार्य या बात के संबंध में बचत, रक्षा आदि के विचार से पहले से दी जानेवाली सूचना या चेतावनी।
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पूर्वा  : स्त्री० [सं० पूर्व+टाप्] १. पूर्व दिशा। पूरब। २. दे० ‘पूर्वा-फाल्गुनी’। ३. राजाओं आदि के बडे़ बड़े कार्यों का उल्लेख या वर्णन। प्रशास्ति।
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पूर्वागम  : पुं० [पूर्व-आगम, कर्म० स०] भाषा-विज्ञान में, शब्द के आदि में रहनेवाले व्यंजन के साथ उच्चारण के सुभीते के लिए स्वाभाविक रूप से इ या उ स्वर का लगना। प्रोथेसिस। जैसे—‘स्त्री’ का उच्चारण ‘इस्त्री’ के रूप में करना।
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पूर्वाग्नि  : स्त्री० [पूर्व-अग्नि, कर्म० स०] आवसस्थ अग्नि।
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पूर्वाचल, पूर्वाद्रि  : पुं० [पूर्व-अचल, पूर्व-अद्रि कर्म० स०] उदयाचल।
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पूर्वादेश  : पुं० [पूर्व-आदेश, कर्म० स०] किसी बात के सम्बन्ध में पहले से दिया हुआ आदेश या बतलाई हुई कार्य-प्रणाली। (प्रीवियस इन्स्ट्रक्शन)
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पूर्वाधिकारी (रिन्)  : पुं० [पूर्व-अधिकारी, कर्म० स०] वह जो किसी पद पर पहले अधिकारी के रूप में रह चुका हो। (प्रोडिसेसर)
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पूर्वानिल  : पुं० [पूर्व-अनिल, कर्म० स०] पूरबी वायु। पुरवा। हवा।
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पूर्वानुमान  : पुं० [पूर्व-अनुमान, कर्म० स०] किसी भावी काम या बात के स्वरूप आदि के सम्बन्ध में पहले से किया जानेवाला अनुमान या कल्पना। (फोर कास्ट) जैसे—सल या वर्षा का पूर्वानुमान।
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पूर्वानुराग  : पुं०=पूर्व-राग।
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पूर्वापर  : अव्य० [पूर्व-अपर, द्व० स०] आगे पीछे। वि० आगे का और पीछे का। पुं० किसी बात का आगा-पीछा, ऊंच-नीच या भला-बुरा।
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पूर्वापराधी (धिन्)  : पुं० [पूर्व-अपराधिन, कर्म० स०] १. वह जो पहले कोई अपराध कर चुका हो। २. विशेषतः ऐसा अपराधी जो दंड भोग चुका हो। (एक्स-कॉन्विक्ट)
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पूर्वापर्य  : पुं० [सं० पूर्वापर+यत्] पूर्वापर की अवस्था या भाव।
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पूर्वा-फाल्गुनी  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] ज्योतिष में ग्यारहवाँ नक्षत्र जिसका आकार पलंग की तरह और नीचे की ओर मुँहावाला माना जाता है। इसमें दो तारे हैं; और इसके अधिष्ठाता देवता यम कहे गए हैं।
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पूर्वा-भाद्रपद  : पुं० [व्यस्त पद]=पूर्वाभाद्रपदा।
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पूर्वाभाद्रपदा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] ज्योतिष में, पचीसवाँ नक्षत्र जिसका आकार घंटे के समान माना गया है और जिसमें दो नक्षत्र हैं।
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पूर्वाभिनय  : पुं० [पूर्व-अभिनय, कर्म० स०] अभिनय या इसी प्रकार के और किसी बड़े आयोजन के सम्बन्ध में उसके नियत समय से कुछ पहले उसका किया जानेवाला यथा-तथ्य अभ्यास। (रिहर्सल)
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पूर्वाभिमुख  : वि० [पूर्व-अभिमुख, ब० स०] जिसका रूख पूरब की ओर हो। अव्य० पूरब की ओर मुँह करके।
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पूर्वाभिषेक  : पुं० [पूर्व-अभिषेक, कर्म० स०] एक प्रकार का मंत्र।
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पूर्वाभ्यास  : पुं० [पूर्व-अभ्यास, कर्म० स०] कोई कार्य दर्शकों के सम्मुख करने से पहले उसे पक्का करने के लिए किया जानेवाला अभ्यास। रिहर्सल। वि० दे० ‘पूर्वाभिनय’।
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पूर्वाराम  : पुं० [पूर्व-आराम, कर्म० स०] एक प्रकार का बौद्धसंघ या मठ।
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पूर्वाचिंक  : पुं० [पूर्व-अर्चिक, कर्म० स०] सामवेद का पूर्वार्द्ध।
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पूर्वार्जित  : वि० [पूर्व-अर्जित, कर्म० स०] पहले का अर्जित किया हुआ। पहले का कमाया हुआ। पुं० पैतृक संपत्ति।
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पूर्वार्द्ध  : पुं० [सं० पूर्व-अर्द्ध, कर्म० स०] किसी काम चीज या बात का पहला आधा भाग। शुरू का आधा हिस्सा।
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पूर्वावेदक  : पुं० [सं० पूर्व-आवेदक, कर्म० स०]= पूर्ववादी।
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पूर्वाश्रम  : पुं० [सं० पूर्व-आश्रय, कर्म० स०] १. ब्रह्मचर्याश्रम। २. वह आश्रम जिसमें कोई व्यक्ति नये आश्रम में प्रविष्ट होने से पहले रहा हो। जैसे—संन्यासी होने से पहले इनका पूर्वाश्रम ब्राह्मण था
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पूर्वाषाढ़  : पुं०=पूर्वाषाढ़ा।
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पूर्वाषाढ़ा  : स्त्री० [सं० पूर्वा-आषाढ़ा, कर्म० स०] ज्योतिष में, बीसवाँ नक्षत्र जिसमें दो तारे होते हैं और जिसका आकार सूप का सा और अधिष्ठाता देवता जल माना गया है।
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पूर्वाह  : पुं०=पूर्वाह्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूर्वाह्र  : पुं० [सं० पूर्व-अहन्, एकदेशित०] दिन का पहला भाग। सबेरे से दोपहर तक का समय।
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पूह्लिक  : पुं० [सं० पूर्वाह्ल+ठन्—इक] वह कृत्य जो दिन के पहले भाग में किया जाता है। जैसे—स्नान, संध्या, पूजा आदि।
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पूर्विका  : स्त्री० [सं० पूर्व+कन्+टाप्, इत्व] पहले की कोई घटना या मामला जो बाद की वैसी ही घटनाओं के लिए उदाहरण या नजीर का काम दे। किसी न्यायालय का वह अभिनिर्णय या कार्यविधि जिसे आदर्श माना जाता हो। (प्रिसीडेन्ट)
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पूर्वी  : वि० [सं० पूर्वीय] पूर्व दिशा में संबंध रखनेवाला। पूरब का। पुं० १. एक प्रकार का चावल जो पूर्व प्रदेशों में होता है। २. सन्ध्या समय गाया जानेवाला सम्पूर्ण जाति का एक राग। ३. उत्तर-प्रदेश के पूर्वी भागों तथा बिहार आदि में गाये जानेवाला कुछ विशिष्ट प्रकार के गीत। (इस अन्तिम अर्थ में कुछ लोग स्त्री० में भी इसका प्रयोग करते हैं।)
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पूर्वी घाट  : पुं० [हिं० पूर्वी+घाट] दक्षिण भारत के पूर्वी किनारे पर का पहाड़ों का सिलसिला जो बालासोर से कन्या कुमारी तक चला गया है और वहीं पश्चिमी घाट के अंतिम अंश से मिल गया है।
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पूर्वीण  : वि० [सं० पूर्व+ख—ईन] १. पुराना। २. पैतृक।
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पूर्वेद्युः  : पुं० [सं० पूर्व+एद्युस्] १. एक प्रकार का श्राद्ध जो अगहन, पूस, माघ, और फागुन के कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है। २. प्रातःकाल। सबेरा।
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पूर्वोक्त  : वि० [सं० पूर्व-उक्त, कर्म० स०] जिसका जिक्र पहले आ चुका हो। जो पहले कहा जा चुका हो।
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पूर्वोत्तर  : वि० [सं० पूर्व-उत्तर, ब० स०] पूर्व और उत्तर के बीच का। जैसे—पूर्वोत्तर रेलवे।
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पूर्वोत्तरा  : स्त्री० [सं० पूर्वोत्तर+टाप्] पूर्व और उत्तर के बीच की दिशा। ईशान कोण।
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पूर्वोपाय  : पुं० [सं० पूर्व+उपाय] बात, रक्षा व्यवस्था आदि का ध्यान रखते हुए पहले से किया जानेवाला उपाय। (प्रिकॉशनरी मेज़र)
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पूलक  : पुं० [सं०√पूल् (इकट्ठा करना)+ण्वल्—अक] घास आदि का पूला।
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पूला  : पुं० [सं० पूलक] [स्त्री० अल्पा० पूली] घास-तृणों आदि का बँधा हुआ गट्ठर।
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पूलाक  : पुं० [सं०=पुलाक, पृषो० सिद्धि]=पुलाक। (दे०)
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पूलिया  : पुं० [देश०] मालाबार प्रदेश में रहनेवाले मुसलमानों की एक उप-जाति।
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पूली  : स्त्री० [हिं० पूला का अल्पा०] छोटा पूला।
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पूलीची  : स्त्री० [देश०] मालाबार प्रदेश की एक असभ्य जंगली जाति।
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पूल्य  : पुं० [सं०√पूल्+ण्यत्] अनाज का कोई खोखला दाना।
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पूवा  : पुं०=पूआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पूष  : पुं० [सं०√पूष् (बढ़ना)+क] १. शहतूत का पेड़। २. पौष मास।
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पूषक  : पुं० [सं०√पूष+ण्वुल्—अक] १. शहतूत का पेड़ और उसका फल।
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पूषण  : पुं० [सं०√पूष्+कनिन्] १. सूर्य। २. बारह आदित्यों में से एक। (पुराण) ३. एक दैविक देवता।
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पूषदंतहार  : पुं० [सं० पूषन्-दन्त, ष० त०, पूषदन्त√हृ (हरण)+अच्] वीर भद्र। (जिसने दक्ष के यज्ञ के समय सूर्य का दाँत तोड़ा था)।
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पूषमित्र  : पुं० [सं०] गोभिल का एक नाम।
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पूषा  : स्त्री० [सं० पूष+टाप्] १. चन्द्रमा की तीसरी कन्या। २. हठयोग के अनुसार दाहिने कान की एक नाड़ी।
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पूषाकल्याणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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पूषात्मज  : पुं० [सं० पूषन्-आत्मज, ष० त०] १. मेघ। बादल। २. इंद्र। ३. कर्ण।
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पूस  : पुं० [सं० पौष] विक्रमी संवत् का दसवाँ महीना। पौष।
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पृंग  : स्त्री० [सं० पिंग से] मध्य एशिया में बननेवाला एक तरह का रेशमी कपड़ा।
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पृंगा  : स्त्री० [पृंग से] एक प्रकार की ढीली सलवार। पिंगा।
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पृक्का  : स्त्री० [सं०√पृच् (संपर्क)+कन्+टाप्] असवरग नाम का गंध-द्रव्य।
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पृक्ति  : स्त्री० [सं०√पृच्+क्तिन्] १. संबंध। लगाव। २. स्पर्श। ३. मिलन। ४. जोड़।
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पृक्ष (स्)  : पुं० [सं०√पृच्+असि, सुट्] अन्न। अनाज।
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पृच्छक  : वि० [सं०√पृच्छ् (पूछना)+ण्वुल्—अक] १. प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला। २. जिज्ञासु।
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पृच्छन  : पुं० [सं०√प्रच्छ+ल्युट्—अन] पूछने की क्रिया या भाव। प्रश्न करना। पूछना।
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पृच्छना  : स्त्री० [सं०√प्रच्छ+णिच्+युच्—अन,+टाप्] पूछना। जिज्ञासा करना।
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पृच्छा  : स्त्री० [सं०√प्रच्छ+अड्+टाप्] प्रश्न। सवाल।
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पृच्छय  : वि० [सं०√पृच्छ+क्यप्] जो पूछे जाने के योग्य हो। जिसके सम्बन्ध में प्रश्न हो सकता हो या होने को हो।
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पृतना  : स्त्री० [सं०√पृ (व्यायाम)+तनन्+टाप्] १. सेना। २. सेना का एक प्राचीन विभाग जिसमें तीन वाहिनियाँ अर्थात् २४३ हाथी, इतने ही रथ, ७२९ घुड़सवार और १२१५ पैदल सिपाही होते थे। ३. लड़ाई। युद्ध।
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पृतनानी  : पुं० [सं० पृतना√नी (ले जाना)+क्विप्] १. पृतना नामक सेना विभाग का अधिकारी या नायक। २. सेनापति।
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पृतना-पति  : पुं० [ष० त०]=पृतनानी।
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पृतनाषाट्, पूतनासाह्  : पुं० [सं० पृतना√सह् (सहा)+ण्वि] इंद्र।
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पृतन्या  : स्त्री० [सं० पृतना+यत्+टाप्] सेना। फौज।
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पृथक्  : वि० [सं०√प्रथ् (फेंकना)+अजि, कित्, संप्रसारण] [भाव० पृथक्ता] १. जो प्रस्तुत से संबंधित न हो और उससे अतिरिक्त हो। २. जो अंगों से अलग हो चुका हो। ३. आकार-प्रकार, गुण रूप आदि की दृष्टि से प्रस्तुत से भिन्न प्रकार का। ४. अपने कार्य पद से हटाया हुआ।
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पृथक्करण  : पुं० [सं० पृथक्-करण, सुप्सुपा स०] १. पृथक् या अलग करने की क्रिया या भाव। २. किसी पदार्थ को काटकर उसके अंग अलग-अलग करना। ३. एक में मिली हुई बहुत सी वस्तुओं को छाँटकर उनके वर्ग या श्रेणियाँ बनाना। ४. अधिकार, पद आदि से हटाना।
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पृथक्-क्षेत्र  : पुं० [सं० ब० स०] एक ही पिता परन्तु विभिन्न माताओं से उत्पन्न भाई और बहन।
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पृथक्ता  : स्त्री० [सं० पृथक्+तल्+टाप्] पृथक् होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य।
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पृथक्त्व  : पुं० [सं० पृथक्+त्व] पृथक् होने की अवस्था या भाव। अलगाव। पार्थक्य।
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पृथकत्वचा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] मूर्वा लता।
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पृथकपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] पिठवन नामक लता।
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पृथगात्मता (त्मन्)  : स्त्री० [सं० पृथगात्मन्, ब० स० +तल्+टाप्] १. विरक्ति। वैराग्य। २. अंतर। भेद। वि० १. भिन्न। २. विशिष्ट।
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पृथगात्मिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+कप्,+टाप्, इत्व] (दूसरे से भिन्न) व्यक्तिगत सत्ता।
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पृथग्जन  : पुं० [सं० ष० त०] १. मूर्ख। बेवकूप। २. नीच या कमीना। आदमी। ३. पापी।
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पृथग्बीज  : पुं० [सं० ब० स०] भिलावाँ।
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पृथग्वासन  : पुं० [सं० कर्म० स०] विभिन्न जातियों के लोगों को विशेषतः गोरी और काली जातियों के लोगों को अलग-अलग बसाने का काम। (एपारथीड)
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पृथवी  : स्त्री०=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पृथा  : स्त्री० [सं०] कुंतिभोज की कन्या कुंती जिसका विवाह पांडु से हुआ था तथा जो युधिष्ठिर भीम और अर्जुन की माता थी।
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पृथाज  : पुं० [सं० पृथा√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. पृथा या कुंती के पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन। २. अर्जुन का पेड़।
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पृथिका  : स्त्री० [सं०√प्रथ्+क+,क+टाप्, इत्व] गोजर।
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पृथिवी  : स्त्री० [√प्रथ्+षिवन्, संप्रसारण, ङीष्]= पृथ्वी।
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पृथिवी-कंप  : पुं० [ष० त०]=भूकंप।
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पृथिवीक्षित्  : पुं० [सं० पृथिवी√क्षि (निवास हिंसा)+ क्विप्] राजा।
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पृथिवी-तल  : पुं० [ष० त०] पृथिवी की ऊपरी सतह। धरातल।
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पृथिवी-नाथ  : पुं० [ष० त०] राजा।
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पृथिवि-पति  : पुं० [ष० त०] १. राजा। २. यम। २. ऋषभ नामक ओषधि।
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पृथिवीपाल  : पुं० [सं० पृथिवी√पाल्+णिच्+अण्] राजा।
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पृथिवीभुज्  : पुं० [सं० पृथिवी√भुज् (पालन करना)+ क्विप्] राजा।
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पृथिवीश  : पुं० [सं० पृथिवी-ईश, ष० त०] राजा।
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पृथिवी-शक्र  : पुं० [सं० स० त०] राजा।
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पृथिवी-शत्रु  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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पृथी  : स्त्री०=पृथ्वी। पुं०=पृथु (राजा)
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पृथीनाथ  : पुं० [सं० पृथिवी-नाथ] राजा।
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पृथु  : वि० [सं०√प्रथ्+कु, संप्रसारण] [भाव० पृथुता] १. अधिक विस्तारवाला। विस्तीर्ण। २. बड़ा। महान। ३. अगणित। बहुत। अधिक। ४. चतुर। होशियार। ५. महत्त्वपूर्ण। पुं० १. एक हाथ का मान। दो बालिश्त की लंबाई। २. अग्नि। आग। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. एक विश्वेदेवा। ६. चौथे मन्वंतर के एक सप्तर्षि। ७. तामस मन्वंतर के एक ऋषि। ८. वेणु के एक पुत्र एक प्रसिद्ध राजा जिनके नाम से भूमि का नाम पृथ्वी पड़ा था। कहते हैं कि इन्होंने गो रूप धारिणी पृथ्वी से ओषधियों का दोहन किया था। (मार्कण्डेय पुराण) स्त्री० [सं०] १. काला जीरा। २. हिगुपत्री। ३. अफीम।
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पृथुक्  : पुं० [सं० पृथु+कन्, या√प्रथू+कुकन्, संप्रसारण] [स्त्री० पृथुका] १. बच्चा। बालक। २. चाक्षुष मन्वंतर के एक देव-गण। हिंगुपत्री। ३. चिड़वा।
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पृथुका  : स्त्री० [सं० पृथुक्+टाप्] १. हिंगुपत्री। २. बालिका।
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पृथुकीर्ति  : स्त्री० [सं०] पुराणानुसार पृथा (कुंती) की एक छोटी बहन का नाम। वि० जिसकी चारों ओर कीर्ति हो। यशस्वी।
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पृथुकोल  : पुं० [सं० कर्म० स०] बड़ा बेर।
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पृथुच्छद  : पुं० [ब० स०] १. एक प्रकार का दो रंगा कुश। २. हाथीकंद।
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पृथुता  : स्त्री० [सं० पृथु+तल्+टाप्] १. पृथु होने की अवस्था या भाव। २. फैलाव। विस्तार।
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पृथुत्व  : पुं० [सं० पृथु+त्व] पृथुता। (दे०)
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पृथुदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० पृथु√दृश् (देखना)+णिनि] दूरदर्शी।
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पृथुपत्र  : पुं० [ब० स०] १. लाल लहसुन २. हाथी कंद।
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पृथु-पलाशिका  : पुं० [सं० ब० स०,+कप्,+टाप्, इत्व] कचूर।
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पृथुपाणि  : पुं० [ब० स०] जिसके हाथ घुटनों तक लंबे हों। आजानुबाहु।
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पृथु-प्रथ  : वि० [ब० स०] अति प्रसिद्ध। विख्यात।
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पृथु-बीजक  : पुं० [ब० स०,+कप्] मसूर।
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पृथु-भैरव  : पुं० [कर्म० स०] बौद्धों के एक देवता।
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पृथु-यशा (शस्)  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा यशस्वी।
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पृथु-रोमा (मन्)  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीप्] १. मछली। २. मीनराशि।
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पृथुल  : वि० [सं० पृथु+लच्] १. अधिक विस्तारवाला। विस्तीर्ण। पृथु। २. बहुत बड़ा। जैसे—पृथु-लोचन। ३. भारी। जैसे—पृथु विक्रम। ४. अधिक। ढेर।
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पृथुला  : स्त्री० [सं० पृथुल+टाप्] हींग की जाति का एक वृक्ष। हिंगुपत्री।
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पृथु-लोचन  : वि० [ब० स०] बड़ी-बड़ी आँखोंवाला।
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पृथु-शिंब  : पुं० [ब० स०] सोनापाठा।
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पृथुशेखर  : पुं० [ब० स०] पहाड़। पर्वत।
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पृथु-श्रवा (वस्)  : पुं० [ब० स०] १. कार्तिकेय का एक अनुचर। २. पुराणानुसार नवें मनु का एक पुत्र। वि० १. बड़े-बड़े कानोंवाला। २. बहुत प्रसिद्ध।
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पृथु-श्रोणि  : वि० [ब० स०] जिसकी कमर चौड़ी हो।
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पृथु-संपद्  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा धनवान्।
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पृथु-स्कंध  : पुं० [ब० स०] सूअर।
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पृथुदक  : पुं० [सं० पृथु-उदक, ब० स०] सरस्वती नदी के दक्षिण तट पर का एक प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ जिसका आधुनिक नाम पोहोआ है।
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पृथूदर  : वि० [सं० पृथु-उदर, ब० स०] बड़े या मोटे पेटवाला। पुं० मेढ़ा। मेष।
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पृथ्वी  : स्त्री० [सं० पृथु+ङीष्] १. सौर जगत् का पाँचवाँ सबसे बड़ा ग्रह जिसमें हम लोग रहते हैं। २. उक्त का अकाश तथा जल से भिन्न और अतिरिक्त अंश, जिस पर मनुष्य तथा पशु विचरण करते तथा पेड़-पौधे उगते हैं। जमीन। ३. स्वर्ग और नरक से भिन्न हमारा यह संसार। ४. मिट्टी। ५. पंचभूतों या तत्त्वों में एक जिसका प्रधान गुण गंध है, पर जिसमें गौण रूप से शब्द, स्पर्श रूप और रस चारों गुण भी माने गये हैं। दे० ‘भूत। ६. हिंगु पत्री। ७. काला जीरा। ८. सोंठ। ९. बड़ी इलायची। १॰. सत्रह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें ८, ९ पर यति और अंत में लघु-गुरु होते हैं। ११. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त।
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पृथ्वीका  : स्त्री० [सं० पृथ्वी+कन्+टाप्] १. बडी इलायची। २. छोटी इलायची। ३. काला जीरा। ४. हिंगुपत्री।
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पृथ्वी-कुखक  : पुं० [स० त०] सफेद मदार या आक।
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पृथ्वीखात  : पुं० [ष० त०] गुफा।
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पृथ्वीगर्भ  : पुं० [ब० स०] गणेश। वि० बड़े पेटवाला।
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पृथ्वीज  : वि० [सं० पृथ्वी√जन् (उत्पन्न होना)+ड] जो पृथ्वी से उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. पेड़-पौधे। २. सांभर नमक। ३. मंगल ग्रह।
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पृथ्वीतनया  : स्त्री० [ष० त०] सीता।
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पृथ्वीतल  : पुं० [ष० त०] १. जमीन का वह ऊपरी धरातल जिस पर हम लोग रहते हैं। २. दुनियाँ। संसार।
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पृथ्वीधर  : वि० [ष० त०] पृथ्वी को धारण करनेवाला। पुं० पर्वत। पहाड़।
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पृथ्वी-नाथ  : पुं० [ष० त०] राजा।
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पृथ्वी-पति  : पुं० [ष० त०] राजा।
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पृथ्वीपाल  : पुं० [सं० पृथ्वी√पाल् (पालन करना)+ णिच्+अण्] राजा।
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पृथ्वी-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. वीर पुरुष २. मंगल ग्रह।
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पृथ्वीभुक् (ज्)  : पुं० [सं० पृथ्वी√भुज् (पालन)+ क्विप्] राजा।
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पृथ्वी-भृत्  : पुं० [सं० पृथ्वी√भृ (पोषण)+क्विप्] राजा।
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पृथ्वीश  : पुं० [सं० पृथ्वी-ईश, ष० त०] राजा।
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पृदाकु  : पुं० [सं०√पर्द+काकु, संप्रसारण, अकार-लोप] १. साँप। २. बिच्छू। ३. चीता। बाघ। ४. हाथी। ५. पेड। वृक्ष।
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पृश्नि  : स्त्री० [सं०√स्पृश् (छूना)+नि०, पृषो० सिद्धि] १. चित्तकबरी गौ। २. किरण। ३. पिठवन। ४. श्रीकृष्ण की माता देवकी का एक नाम। पुं० १. अनाज। २. जल। पानी। ३. अमृत। ४. वेद। ५. एक प्राचीन ऋषि। ६. बौना। वि० १. दुबला-पतला। कृश। २. चितकबरा। ३. सफेद। ५. साधारण। मामूली।
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पृश्नि-का  : स्त्री० [सं० पृश्नि=स्वल्प,+क=जल, ब० स०, टाप्] जलकुंभी।
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पृश्नि-गर्भ  : पुं० [सं० ष० त०,+अच्] श्रीकृष्ण।
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पृश्नि-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] पिठवन लता।
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पृश्नि-श्रृंग  : पुं० [सं० ब० स०] १. विष्णु। २. गणेश।
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पृश्नी  : स्त्री० [सं० पृश्नि+ङीष्] जलकुंभी।
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पृषत्  : वि० [सं०√पृष् (सींचना)+अति] १. सिक्त करनेवाला। २. चितकबरा। पुं० १. चितकबरा हिरन। चीतल। २. विंदु।
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पृषत  : पुं० [सं०√पृष्+अतच्] १. चितला हिरन। चीतल मृग। २. एक प्रकार का साँप। ३. रोहू मछली ४. पानी की बूँद। ५. राजा द्रुपद के पिता का नाम।
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पृषताश्व  : पुं० [सं० पृषत-अश्व, ब० स०] वायु। हवा।
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पृषत्क  : पुं० [सं० पृषत्+कन्] बाण। तीर।
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पृषदंश  : पुं० [सं०] १. वायु। २. शिव।
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पृषदश्व  : पुं० [सं० पृषत्-अश्व, ब० स०] १. वायु। हवा। २. एक राजर्षि। (महाभारत) ३. विरूपाक्ष के पुत्र। (भागवत)
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पृषदाज्य  : पुं० [सं० पृषत्-आज्य, मध्य० स०] वह घी जिसमें कुछ अंशों में दही भी मिला हो।
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पृषद्वरा  : स्त्री० [सं०] मेनका की कन्या का नाम।
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पृषद्वल  : पुं० [सं० पृषद्+वलच्] वरुण देवता का घोड़ा।
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पृषभाषा  : स्त्री० [सं० पृष्√पृष् (सेक)+क, टाप्, पृषा (अमृतवर्षिणी)+भाषा, ब० स०] इंद्र की पुरी, अमरावती।
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पृषाकरा  : स्त्री० [सं०√पृष्+क्विप्, पृष्+आ√कृ+अप्, पृषो० सिद्धि] भार तौलने का पत्थर का बटखरा।
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पृषातक  : पुं० [सं० पृषत्+आ√तक् (हँसना)+ अच्, पृषो० सिद्धि] पृषदाज्य (दे०)
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पृषोदर  : वि० [स० ब०, पृषत्-उदर, त—लोप] छोटे पेटवाला। पुं० वायु। हवा।
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पृषोद्यान  : पुं० [सं० पृषत्-उद्यान, कर्म० स०, त—लोप] छोटा उपवन।
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पृष्ट  : वि० [सं०√प्रच्छ् (पूछना)+क्त, संप्रसारण] १. जो पूछा गया हो पूछा हुआ। २. जिससे पूछा गया हो। ३. सींचा हुआ। सिक्त पुं०=पृष्ठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पृष्टि  : स्त्री० [सं०√प्रच्छ्+क्तिन्] १. पूछने की क्रिया या भाव। प्रश्न करना। पूछना। २. पिछला भाग पृष्ठभाग। ३. स्पर्श। ४. किरण। रश्मि।
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पृष्ठ  : पुं० [सं०√पृष् या√स्पश्+थक्, नि० सिद्धि] १. किसी पदार्थ के पीछे की ओर का तल या भाग। पीठ। २. किसी पदार्थ का ऊपरी तल या भाग। सतह। ३. पुस्तक आदि के पन्नों के दोनों तलों में से प्रत्येक। पन्ना। मुहा०—पृष्ठ पलटना=(क) अकर्मक रूप में, एक क्रम की समाप्ति के बाद दूसरे क्रम या घटना-प्रकार का आरंभ होना। (ख) सकर्मक रूप में, नया क्रम, घटना-प्रकार, प्रसंग आदि आरंभ करना। उदा०—पलटा पृष्ठ उसी ने तुमको सुर-पुर कैसा भाया ?—मैथली शरण।
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पृष्ठक  : पुं० [सं० पृष्ठ+कन्] पिछला भाग। पीछे या पीठ की ओर का भाग।
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पृष्ठ-करण  : पुं० [सं० ष० त०] किसी पदार्थ का ऊपरी अथवा और कोई तल चौरस या बराबर करना। (सर्फेसिंग)
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पृष्ठ-गत  : वि० [सं० द्वि० त०] पीछे की ओर का। पीछे का। जैसे—पृष्ठगत चित्र।
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पृष्ठ-गोप  : पुं० [सं० पृष्ठ√गुप् (रक्षा करना) +अण्, उप० स०] सेना का वह अधिकारी जो युद्ध में लड़ती हुई सेना के पिछले अंग पर निगरानी रखता है।
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पृष्ठ-ग्रह  : पुं० [सं० पृष्ठ√ग्रह (पकड़ना)+अच्, उप० स० ] घोडे का एक रोग।
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पृष्ठ-चक्षु (स्)  : वि० [ब० स०] जिसकी आँखे पीठ पर हों। पुं० १. भालू। रीछ। २. केकड़ा।
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पृष्ठज  : वि० [सं० पृष्ठ√जन् (उत्पत्ति)+ड] किसी के बाद में या पीछे जन्म लेनेवाला।
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पृष्ठ-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] १. रीछ। भालू। २. केकड़ा।
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पृष्ठ-देश  : पुं० [ष० त०] किसी चीज के पीछे की ओर का तल या भाग।
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पृष्ठ-पर्णी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] पिठवन लता।
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पृष्ठ-पोषक  : वि० [ष० त०] पृष्ठ पोषण करनेवाला। पीठ ठोकने और मदद करनेवाला। रक्षक।
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पृष्ठ-पोषण  : पुं० [ष०त०] किसी के पीछे या साथ रहकर उसका हर बात में समर्थन करना तथा उसे प्रोत्साहन और सहायता देना।
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पृष्ठ-भंग  : पुं० [ब० स०] युद्ध का एक ढंग जिसमें शत्रु-सेना के पिछले भाग पर आक्रमण करके उसे नष्ट किया जाता है।
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पृष्ठ-भाग  : पुं० [ष० त०] १. किसी चीज का पिछला अंश या भाग। पीठ की ओर का विस्तार २. पीठ।
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पृष्ट-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] १. पिछला भाग। २. पहले की वे सब बातें और परिस्थितियाँ जिसके आगे या सामने कोई नई विशेष बात या घटना हो और जिनके साथ मिलान करने पर उस बात या घटना का रूप स्पष्ट होता है। भूमिका। जैसे—हिंदी भाषा की पृष्ठ-भूमि। ३. दे० ‘पृष्ठिका’।
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पृष्ठ-मर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार पीठ पर के वे चौदह मर्मस्थान जिन पर आघात लगने से मनुष्य मर जाता है, अथवा उसका कोई अंग बेकाम हो सकता है। ये सब स्थान गरदन से चूतड़ तक मेरुदंड के दोनों ओर युग्म संख्या में हैं और इन सबके अलग-अलग नाम हैं।
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पृष्ठ-मांस  : पुं० [ष० त०] पीठ का मांस।
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पृष्ठ-मांसाद  : पुं० [सं० पृष्ठमांस√अद् (खाना)+अण्] वह जो पीठ के पीछे किसी की बुराई करता हो। चुगलखोर व्यक्ति।
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पृष्ठ-मांसादन  : पुं० [सं० पृष्ठमांस-अदन, ष० त०] १. पीठ पीछे किसी की निन्दा करना। २. चुगली।
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पृष्ठयान  : पुं० [तृ० त०] किसी की पीठ पर की जानेवाली सवारी।
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पृष्ठ-रक्ष  : पुं० [सं० पृष्ठ√रक्ष (रक्षा)+अण्] १. वह जो किसी के पीछे रहकर उसकी रक्षा करता हो। २. दे० ‘पृष्ठ-गोप’।
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पृष्ठ-रक्षण  : पुं० [ष० त०] किसी के पीछे रहकर उसकी रक्षा करना।
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पृष्ठ-लग्न  : वि० [स० त०] १. किसी के पीछे लगा रहनेवाला। २. अनुयायी।
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पृष्ठ-वंश  : पुं० [ष० त०] पीठ के बीच की हड्डियों की माला। रीढ़। (स्पाइन)
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पृष्ठ-वास्तु  : पुं० [मध्य० स०] एक मकान के ऊपर बना हुआ अथवा ऐसा मकान जिससे नीचेवाले खंड के ऊपर दूसरा खंड भी प्रायः उसी रूप में बना हो। दो-मंजिला मकान या इमारत।
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पृष्ठ-वाह्य  : पुं० [ब० स०] वह पशु जो पीठ पर बोझ लादकर ले चलता हो। जैसे—ऊँट, घोड़ा, बैल आदि।
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पृष्ठ-शीर्षक  : पुं० दे० ‘पताकाशीर्षक’।
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पृष्ठ-शूल  : पुं० [सं०] पीठ में होनेवाला एक विशेष प्रकार का कष्टदायक तेज दर्द। (बैक-एक)
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पृष्ठ-श्रृंग  : पुं० [ब० स०] जंगली बकरा।
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पृष्ट-श्रृंगी (गिन्)  : पुं० [सं० पृष्ठ-शृंग, स० त०,+इनि] १. भेंड़ा। २. भैंसा। ३. नामर्द। हिजड़ा। ४. भीमसेन का एक नाम।
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पृष्ठांकन  : पुं० [पृष्ठ-अंकन, स० त०] [भू० कृ० पृष्ठांकित] हुंडी। लेन-देन के पुरजे आदि लेख्यों की पीठ पर यह लिखना कि इसका, भुगतान अमुक व्यक्ति, या संस्था को दे दिया जाय। (एन्डोर्समेन्ट)
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पृष्ठांकित  : भू० कृ० [पृष्ठ-अंकित, स० त०] जिस पर या जिसकी पीठ पर पृष्ठांकन के रूप में हस्ताक्षर कर दिया गया हो या कुछ लिख दिया गया हो। (एन्डोर्सड्)
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पृष्ठाधान  : पुं० [पृष्ठ-आधान, ब० स०] वह चीज जो किसी दूसरी चीज के पीछे उसके सहारे के लिए अथवा उसमें दृढ़ता लाने के लिए उसके पीछे रखी या लगाई जाय (बैकिंग)
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पृष्ठानुग  : वि० [सं० पृष्ठ अनु√गम् (जाना)+ड]= पृष्ठानुगामी।
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पृष्ठानुगामी (मिन्)  : वि० [सं० पृष्ठ अनु√गम्+णिनि] अनुगमन करनेवाला। अनुगामी।
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पृष्ठास्थि  : स्त्री० [पृष्ठ-अस्थि, ष० त०] पीठ की लंबी हड्डी। रीढ़।
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पृष्ठिका  : स्त्री० [सं० पृष्ठ+कन्+टाप्, इत्व] १. पिछला भाग। २. वह भूमि या तल जो किसी वस्तु के पिछले भाग में हो। ३. पहले की वे सब बातें या परिस्थितियाँ जिनके आगे या सामने कोई नई विशेष बात या घटना हो और जिनके साथ मिलान करने पर उस बात या घटना का ठीक रूप स्पष्ट होता हो। ४. मूर्ति या चित्र में वह सब से पीछे का भाग जो अंकित दृश्य या घटना का आश्रय होता है। पृष्ठ-भूमि। ५. पीछे की ओर का वह स्थान या अवस्था जिस पर जल्दी ध्यान न जाता हो। (बैकग्राउन्ड, उक्त सभी अर्थों में)
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पृष्ठेमुख  : पुं० [अलुक् स०] कार्तिकेय का एक अनुचर।
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पृष्ठोदय  : पुं० [पृष्ठ-उदय, ब० स०] ज्योतिष में मेष, वृष, कर्क, धन, मकर और मीन ये छः राशियाँ जिनके विषय में यह माना जाता है कि ये पीठ की ओर से उदित होती है।
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पृष्ठ्य  : वि० [सं० पृष्ठ्+यत्] १. पृष्ठ संबंधी। पीठ का। २. पुस्तक आदि के पन्ने से संबंधित। पुं० [स्त्री० पृष्ठया] वह घोड़ा या और कोई पशु जिसकी पीठ पर बोझ लादा जाता हो।
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पृष्णि  : स्त्री० [सं०√पृश्नि, पृषो० सिद्धि] १. एड़ी। २. पिछला भाग। ३. किरण।
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पें  : स्त्री० [अनु०] १. पें पें का शब्द, जो रोने, बाजा फूँकने आदि से निकलता है। २. लाक्षणिक रूप में अभिमान या घमंड।
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पेंग  : स्त्री० [हिं० पटेंग, पट=पटड़ा+वेग अथवा प्लवंग ] हिंडोले या झूले का झूलते समय एक ओर से दूसरी ओर जाना। मुहा०—पेंग मारना या लेना=झूले पर झूलते समय उस पर इस प्रकार जोर पहुँचाना जिसमें उसका वेग बढ़ जाय़ और दोनों ओर वह दूर तक झूले। पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी।
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पेंगा  : स्त्री०=पेंगिया (मैना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेंगिया  : स्त्री० [हिं० पेग+मैना] एक प्रकार की मैना (पक्षी) जिसे सतभैया भी कहते हैं।
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पेंघट  : पुं०=पेंघा।
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पेंघा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका शरीर मटमैले रंग का आँखें, लाल और सफेद होती है।
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पेंच  : पुं०=पेच।
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पेंचकश  : पुं०=पेचकश।
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पेंजनी  : स्त्री०=पैजनी।
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पेंठ  : स्त्री०=पैंठ।
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पेंड़  : पुं० [सं० पंडुक] एक प्रकार का सारस पक्षी जिसकी चोंच पीली होती है। पुं०=पेड़ (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेंड़ना  : स०=बेंड़ना।
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पेंडुकी  : स्त्री० [सं० पंडुक] १. पंडुक पक्षी। फाखता। २. सुनारों की फुँकनी जिससे वे आग सुलगाते हैं। स्त्री०=पिराक (गुझिया) नाम का पकवान।
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पेंडुली  : स्त्री०=पिंडली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेंदर  : पुं० [हिं० पेंदा या पेड़ू] पेड़ू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेंदा  : पुं० [सं० पिंड] [स्त्री० अल्पा० पेंदी] १. किसी वस्तु का वह निचला भाग जिसके सहारे वह खड़ी, ठहरी या रखी जाती हो। तला। जैसे—लोटे का पेंदा, जहाज का पेंदा। पद—बे पेंदी का लोटा=ऐसा व्यक्ति जिसे स्वयं कोई बात समझने और किसी निर्णय तक पहुँचने की बुद्धि न हो, बल्कि उसे जो कोई जैसी राय देता हो उसे ठीक मान लेता हो। मुहा०—पेंदें के बल बैठना=(क) चूतड़ टेककर या पलथी मारकर बैठना। (ख) हार मानकर चुप हो जाना। २. सबसे नीचेवाला अंश या स्तर।
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पेंदी  : स्त्री० [हिं० पेंदा] १. किसी वस्तु का बिलकुल निचला भाग। पेंदा। २. मलत्याग की इंद्रिय। गुदा। ३. तोप, बंदूक आदि की कोठी, जिसमें बारूद भरते थे। ४. गाजर, मूली आदि कन्दों की जड़। ५. कोई ऐसा आधार जिसके सहारे कोई चीज सीधी खड़ी रहती हो।
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पधना  : स०=पहनना। (पूरब)
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पेंपी  : स्त्री० [अनु०] १. कोमल कल्ला। कोंपल। २. दे० ‘पोंपी’।
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पेंशन  : स्त्री०=निवृत्ति वेतन।
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पेंसिल  : स्त्री०=पेन्सिल।
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पेंसिलिन  : पुं० [अं०] आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में, एक प्रकार का प्रबल और शक्तिशाली तत्त्व जो विषाक्त कीटाणुओं का नाशक होता है। इसका आविष्कार दूसरे युरोपीय महायुद्ध के समय हुआ था।
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पेंअना  : स० १.=पेखना। २.=पीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पेई  : स्त्री० [?] छोटा सन्दूक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेउस  : पुं० [सं० पीयूष] १. ब्याई हुई गाय या भैंस का पहले कई दिनों का दूध जो बहुत गाढ़ा और कुछ पीले रंग का होता है और जो मनुष्यों के पीने के योग्य नहीं होता। इसे तेली भी कहते हैं। २. उक्त दूध में सोंठ आदि मसाले मिलाकर बनाया जानेवाला एक प्रकार का मीठा पकवान जो पौष्ठिक और स्वादिष्ट होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेउसरी  : स्त्री०=पेउस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेउसी  : स्त्री०=पेउस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेक  : पुं० [फा० पेकार] १. घूम-घूमकर माल बेचनेवाला व्यापारी। फेरीवाला। २. छोटा व्यापारी। उदा०—पेक पेक तन हेरि कै गरुवे तोरत बाट।—रहीम।
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पेंका  : पुं० [सं० पितृ-गृह] ब्याही हुई स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। मायका। पीहर।
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पेखक  : वि० [हिं० पेखना] देखनेवाला। दर्शक।
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पेखन  : पुं० [सं० प्रेक्षण] १. कतूहलपूर्वक और मनोविनोद के लिए देखी जानेवाली कोई चीज या दृश्य। उदा०—जगुपेखन, तुम देखन हारे।—तुलसी। २. तमाशा।
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पेखना  : स० [सं० प्रेक्षण, प्रा० पेक्खण] १. कुतूहलपूर्वक और मनोविनोद के लिए कुछ समय तक देखते रहना। २. अवलोकन करना। देखना। पुं० १. दृश्य। २. तमाशा। उदा०—दिवस चारि कौ पेखना, अंति खेह की खेह।—कबीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेखनि  : स्त्री० [हिं० पेखना] १. पेखने की क्रिया या भाव। देखना। २. दे० ‘पेखन’।
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पेखनियाँ  : वि० [हिं० पेखना] १. पेखनेवाला २. विनोद के लिए तमाशा आदि देखनेवाला।
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पेखनी  : स्त्री० [सं० प्रेक्षण, हिं० पेखन] देखने योग्य बढ़िया और विलक्षण चीज या बात। उदा०—नटवरबाजी पेखनी।...कबीर।
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पेग  : पुं० [अं०] १. शराब और सोडावाटर के मिश्रण का पान। २. पीने के लिए शराब की एक नाप। ३. उतनी शराब जितनी एक बार पीने के लिए गिलास में उँडेली या डाली जाय। ४. खूँटी।
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पेच  : पुं० [फा०] १. वह स्थिति जिसमें कोई चीज किसी दिशा में सीधी रेखा में न गई हो, बल्कि जिसमें जगह-जगह कई तरह के घुमाव, चक्कर, मोड़ या लपेट हों। जैसे—तुम सीधा रास्ता छोड़ कर ऐसे रास्ते चलना चाहते हो जिमसें सौ तरह के पेच हैं। २. उक्त के आधार पर चालबाज़ी या चालाकी की कोई ऐसी बात जिसमें निकल भागने, पीछे हटने, मुकरने आदि के लिए और दूसरों को धोखे में रखने के लिए बहुत-कुछ अवकाश हो। घुमाव-फिराव या हेर-फेर की स्थिति। क्रि० प्र०—डालना। ३. ऐसी स्थिति जिसमें आगे बढ़ने के लिए कोई सरल या सीधा मार्ग न हो, बल्कि जगह-जगह कठिनाइयाँ घुमाव-फिराव, चक्कर या फेर पड़ते हों। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. चारों ओर लपेटी जानेवाली चीज का प्रत्येक फेरा या लपेट। जैसे—पगड़ी का पेच, पटके या कमरबंद का पेच। ५. गुड्डी या पतंग लड़ाने के समय की वह स्थिति जिसमें दो या अधिक गुड्डियों या पतंगों की डोरें या नखें चक्कर काटती या एक दूसरी को घेरती हुई आपस में उलझ या फँस जाती हैं; और एक डोर या नख की रगड़ से दूसरी डोर या नख के कट जाने की संभावना होती है। मुहा०—पेच काटना=दूसरे की गुड्डी या पतंग की डोर में अपनी डोर फँसा कर उसकी डोर काटना। गुड्टडी या पतंग काटना। पेंच लड़ाना=दूसरे की पतंग काटने के लिए उसकी डोर या नख में अपनी डोर या नख फँसाना। ६. उक्त के आधार पर, गुड्डी या पतंग लड़ाने में हर बार की ऐसी स्थिति जिसमें एक की डोर या नख दूसरे की डोर या नख में उलझाई या फँसाई जाती हो। जैसे—आओ, एक पेंच तुमसे भी हो जाय। क्रि० प्र०—लड़ाना। ७. कुश्ती में वह विशेष शारीरिक क्रिया या युक्ति जिससे प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने में सहायता मिलती है। दाँव। क्रि० प्र०—लगाना। ८. कौशल या चालाकी से भरी हुई कोई ऐसी तरकीब या युक्ति जिसका प्रतिपक्षी को सहज में पता न चले और जिससे बच निकलना उसके लिए कठिन हो। दौ०—दाँव-पेच। (देखें)। ९. एक प्रकार का चक्करदार आभूषण जो टोपी या पगड़ी में सामने की ओर खोंसा या लगाया जाता है। सिरपेच। १॰. कानों में पहना जानेवाला उक्त प्रकार का एक आभूषण या गहना। गोश-पेच। ११. एक विशिष्ट प्रकार का काँटा या कील जिसके आगे वाले आधे भाग में गड़ारीदार चक्कर बने होते हैं और जो ऊपर से ठोंककर नहीं, बल्कि दाहिनी ओर घुमाते हुए जड़ी या अंदर धँसाई जाती है। (स्क्रू) क्रि० प्र०—कसना।—खोलना।—जड़ना।—निकलना। पद—पेच-कश। १२. यंत्र का कोई ऐसा विशिष्ट अंग या पुरजा जिसे घुमाने, चलाने, दबाने या हिलाने से वह यंत्र अथवा उसका कोई अंश चलता या रुकता हो। क्रि० प्र०—घुमाना।—चलाना।—दबाना। मुहा०—पेच घुमाना=ऐसी युक्ति करना जिससे किसी के कार्य या विचार की दिशा बदल जाय। तरकीब से किसी का मन फेरना या एक ओर से हटाकर दूसरी ओर लगाना। (किसी का) पेच हाथ में होना=किसी के विचारों को परिवर्तन करने की शक्ति होना। प्रवृत्ति आदि बदलने में समर्थ होना। जैसे—उनकी चिंता छोड़ दो, उनका पेच तो हमारे हाथ में है। (अर्थात् हम जब जिधर चाहेगें, तब उधर उन्हें प्रवृत्त कर सकेंगे)। १३. किसी प्रकार का कल या यंत्र। (मशीन) जैसे—कपास ओटने या तेल पेरने का पेच। १४. मृदंग आदि के किसी परन या ताल के बोल में से कोई एक टुकड़ा निकाल कर उसके स्थान पर ठीक उतना ही बड़ा कोई दूसरा टुकड़ा बैठाने या लगाने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—लगाना। १५. पेट में होनेवाली पेचिश। मरोड़
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पेचक  : पुं० [सं०√पच् (पकाना)+वुन्—अक, एत्व] [स्त्री० पेचिका] १. उल्लू पक्षी। २. जूँ नाम का कीड़ा। ३. बादल। मेघ। ४. खाट। चारपाई। ५. हाथी की दुम। स्त्री० [फा०] १. कपड़े सीने के लिए बटे हुए तागे की गोली या गुच्छी। २. ऐसी रचना जो घूमती हुई सीधी ऊपर या नीचे चली गई हो। ३. चित्र-कला में फूल-पत्तियाँ आदि का उक्त प्रकार का अंकन। डंडा-मुर्री (स्पिरल)।
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पेच-कश  : पुं० [फा०] १. बढ़इयों, लोहारों आदि का एक औजार जिससे वे पेच कसते, जड़ते अथवा निकालते हैं। यह आगे से चपटा और कुछ नुकीला होता है जिसके पिछले भाग में मुठिया लगी रहती है। यही मुठिया से पेच अन्तर धँसता और बाहर निकलता है। २. लोहे का बना हुआ घुमावदार पेचदार उपकरण जिसकी सहायता से बोतलों का काग बाहर निकाला जाता है।
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पेचकी  : स्त्री० [सं० पेचक+ङीष्] उल्लू की मादा।
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पेचताब  : पुं० [फा०] १. ऐसा क्रोध जो विवशता आदि के कारण प्रकट या सार्थक न किया जा सके, और जो उसी लिए अंदर ही अंदर रोककर चुप रह जाना पड़े। क्रि० वि०—खाना। २. उक्त के फल-स्वरूप मन में होनेवाली बेचैनी या विकलता।
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पेचदार  : वि० [फा०] १. जिसमें किसी तरह का पेच या चक्कर बना या लगा रहता हो। पेचवाला। २. (काम या बात) जिसमें बहुत से पेच अर्थात् घुमाव-फिराव, चक्कर या झंझटें हों। पेचीला। ३. (बात) जिससे सत्यता और सरलता के बदले घुमाव-फिराव या हेर-फेर बहुत हों; और इसी लिए जिसमें से निकल भागने या जिसे उलट-पुलट कर दूसरा अर्थ निकालने और लोगों को धोखे में रखने के लिए यथेष्ट अवकाश हो। पुं० एक प्रकार का कसीदे का काम जिसमें सीधी रेखा के इधर-उधर जगह-जगह फंदे भी लगाये जाते हैं।
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पेचना  : स० [फा० पेच] दो चीजों के बीच में उसी प्रकार की कोई तीसरी चीज इस प्रकार बैठाना या लगाना कि साधारणतः वह ऊपर से दिखाई न पडें। इस प्रकार लगाना कि पता न लगे।
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पेचनी  : स्त्री० [हिं० पेंच] कसीदे में, किसी सीधी रेखा के दोंनों ओर किया हुआ ऐसा काम जो देखने में बेल या श्रृंखला की तरह जान पड़े।
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पेचवान  : पुं० [फा०] १. वह बड़ी और लंबी सटक जो फरशी या हुक्के में लगाई जाती है। २. वह बड़ा हुक्का जिसमें उक्त प्रकार की सटक लगी हो। विशेष—ऐसा हुक्का प्रायः कुछ दूरी पर रखकर पीया जाता है।
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पेचा  : पुं० [सं० पेचक] [स्त्री० पेची] उल्लू पक्षी। पुं० [फा० पेच] उड़ती हुई पतंगों की नगों या डोरों का एक दूसरी को काटने के उद्देश्य से परस्पर उलझना। पेच। क्रि० प्र०—लड़ना।
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पेचिका  : स्त्री० [सं० पेचक+टाप्, इत्व] उल्लू पक्षी की मादा।
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पेचिश  : स्त्री० [फा०] १. एक उदर रोग जिसमें आँतों में घाव हो जाते हैं जिससे पेट में ऐंठन होने लगती है और बार-बार ऐसा पाखाना होने लगता है जिसमें सफेद रंग का लसीला गाढा पदार्थ मिला रहता है। २. उक्त रोग में पेट में होनेवाली ऐंठन या मरोड़। क्रि० प्र०—पड़ना।
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पेचीदगी  : स्त्री० [फा०] १. पेचीदा अर्थात् पेचीले होने की अवस्था या भाव। घुमावदार होने की अवस्था या भाव। २. बहुत ही उलझी हुई स्थिति या ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेवाली बात या उलझन।
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पेचीदा  : वि० [फा० पेचीदः] पचीला (दे०)
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पेचीला  : वि० [हिं० पेच+ईला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पचीली] १. जिसमें बहुत से पेच हों। घुमाव-फिराववाला। २. (काम या बात) जो इतना अधिक कठिन और जटिल हो कि उसे सामान्यतः न समझा जा सके।
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पेचीलापन  : पुं० [हिं० पेचीला+पन (प्रत्य०)] पेचीले होने की अवस्था, गुण या भाव।
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पेज  : स्त्री० [सं० पेय] रबड़ी। बसौंधी। पुं० [अं०] पुस्तक, बही, मासिक, पत्रिका, समाचारपत्र आदि के पृष्ठ का एक ओर का भाग। पन्ना। वरक। स्त्री० [हिं० पैज] १. लाज। शरम। २. प्रतिष्ठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पेट  : पुं० [सं० पेट=थैला] १. शरीर के मध्य भाग का वह सामनेवाला अंग जो छाती के नीचे और पेडू के ऊपर रहता है और जिसके भीतरी भाग में आमाशय, गुरदा, प्लीहा, यकृत आदि अंग होते हैं। २. उक्त अंग के भीतरी भाग की वह थैली जिसमें पहुँचकर खाया हुआ भोजन पचता है। आमाशय। ओझर। पचौनी। विशेष—पेट में होनेवाले विकारों तथा उसकी आवश्यकताओं से संबंधित पद और मुहावरे इसी अर्थ के अंतर्गत आये हैं। पद—पेट का कुत्ता=जो केवल भोजन के लालच से सब कुछ करता या कर सकता हो। केवल पेट के लिए सब कुछ करनेवाला। पेट का धंधा=(क) रसोई बनाने का काम या व्यवस्था। जैसे—स्त्रियाँ सबेरे उठते ही पेट के धंधे में लग जाती हैं। (ख) जीविका-निर्वाह के लिए किया जानेवाला उद्योग। काम-धंधा। पेट की आग=भूख। क्षुधा। पेट के लिए= इस उद्देश्य से कि पेट भरने का साधन। बना रहे। उदर पूर्ति या जीविका-निर्वाह के लिए। मुहा०—पेट अफरना=पेट में ऐसा विकार होना कि वायु से भर और फूल जाय। पेट आना=पतले दस्त आना। (क्व०) पेट और पीठ एक हो जाना या पेट पीठ से लग जाना=(क) बहुत भूख लगना। (ख) बहुत अधिक दुबला हो जाना। (अपना) पेट काटना=पैसे बचाने के लिए कम खाना। इसलिए कम खाना कि पैसों की कुछ बचत हो जाय। (किसी का) पेट काटना=ऐसा काम करना जिससे किसी को खाने के लिए आवश्यक या उचित से कम अन्न या धन मिले। जैसे—गरीब का पेट नहीं काटना चाहिए। पेट का पानी तक न हिलना=कुछ भी कष्ट या परिश्रम न पड़ना। जरा भी तकलीफ या मेहनत न होना। पेट का पानी न पचना=किसी काम या बात के लिए इतनी उत्सुकता और विकलता होना कि उसके बिना रहा न जा सके। पेट की आग बुझाना=पेट में भोजन पहुँचाना। खाकर भूख मिटाना। किसी को पेट की मार देना (या मारना)=(क) भूखा रखना। भोजन न देना। (ख) जीविका उपार्जन में बाधक होना। पेट को धोखा देना=दे० ऊपर ‘(अपना) पेट काटना’। पेट खलाना=(क) अपने भूखे होने का संकेत करना। यह इशारा करना कि हमें बहुत भूख लगी है। (ख) बहुत अधिक दीनता या नम्रता प्रकट करना। पेट को लगना=बहुत अधिक भूख लगना। पेट गड़ना=अपच के कारण पेट में दर्द होना। पेट गुड़गुड़ाना=पेट में अपच, वायु आदि के कारण गुड़-गुड़ का सा शब्द होना। पेट चलना=(क) ऐसी व्यवस्था होना कि जीविका चलती रहे या उसका साधन बना रहे। जैसे—सौ रुपये महीने में सारी गृहस्थी का पेट भर चलता है। (ख) रह-रहकर पतले दस्त होना। पेट छँटना=(क) पेट का मल या विकार निकल जाना जिससे वह हल्का हो जाय। (ख) पेट की मोटाई कम होना। पेट छूटना=पतले दस्त आना। पेट जलना=(क) बहुत भूख लगना। (ख) मन ही मन बहुत अधिक क्रोध होना। रोष होना। पेट जारी होना=पतले दस्त आना। (अपना) पेट दिखाना=अपने भूखे होने का संकेत करना। यह इशारा करना कि मुझे भूख लगी है। पेट पकड़े फिरना=बहुत अधिक कष्ट, विकलता आदि के चिह्न प्रकट करते हुए जगह-जगह घूमना या जाना। पेट पाटना=जो कुछ मिल जाय, उसी से पेट भर लेना। भूख के मारे खाद्य या अखाद्य का विचार छोड़कर खा लेना। पेट पानी होना=बार-बार बहुत अधिक पतले दस्त आना। पेट पालना=कठिनता से खाने भर को कमा लेना। किसी तरह या जैसे-तैसे जीविका-निर्वाह करना। पेट फूलना=पेट अफरना। (देखें ऊपर) (कुछ करने, कहने या जानने के लिए) पेट फूलना=बहुत अधिक हँसने के फल-स्वरूप पेट में बहुत अधिक वायु भर जाना और अधिक गँसने के योग्य न रह जाना। पेट भरना=(क) जो कुछ मिले, फसे खाकर भूख मिटाना। (ख) खूब अच्छी तरह और यथेष्ठ भोजन करना। (ग) इच्छा, कामना आदि पूर्ण करना या होना। जी भरना। पेट मार कर मर जाना=आत्म-घात कर लेना (पेट में छूरा मारकर मर जाने के आधार पर) पेट मारन=पेट काटना (दे० ऊपर)। पेट में आँत और मुख में दांत न होना=इतना अधिक वृद्धि होना कि पाचन शक्ति बिलकुल न रह गई हो और सब दाँत झड़ या टूट गये हों। पेट में चूहा कूदना या दौड़ना=बहुत अधिक भूख लगना। पेट में च्यूँटे की गाँठ होना=बहुत ही थोड़ा भोजनकर सकने के योग्य होना। बहुत ही अल्पाहारी होना। पेट में डालना=जो कुछ मिले, वही खाकर भूख मिटाना। किसी तरह पेट भरना। पेट में दाढ़ी होना=थोड़ी अवस्था में ही वयस्कों की तरह बहुत अधिक चालाक या होशियार होना। पेट में पाँव होना=अत्यंत छली या कपटी होना। बहुत चालू होना या धोखेबाज होना। (हँसते हँसते) पेट में बल पड़ना=इतनी हँसी आना कि पेट में दर्द-सा होने लगे। पेट मोटा होना या हो जाना=ऐसी स्थिति होना कि थोड़े या सहज में तृप्ति या संतोष न हो सके। जैसे—जिन रोजगारियों को पेट मोटा हो जाता है, वे कम मुनाफे पर माल नहीं बेचते। पेट लगना या लग जाना=भूख से पेट अंदर धँस जाना। पेट से पाँव निकालना=(क) किसी अच्छे आदमी का बुरा काम करने लग जाना। कुमार्ग में लगना। (ख) योग्यता, सामर्थ्य आदि से बहुत बढ़कर कोई काम करने के लिए प्रवृत्त होना। ३. स्त्री का गर्भाश्य; अथवा उसमें स्थित होनेवाला गर्भ। हमल। पद—पेट चोट्टी=वह स्त्री जिसके गर्भ तो हो, परंतु ऊपर से उसका कोई लक्षण जल्दी दिखाई न देता हो। गर्भवती होने पर भी जिसके गर्भ के बाहरी लक्षण दिखाई न पड़ें। पेट-पोंछना=किसी स्त्री की वह संतान जिसके उपरांत और कोई संतान न हुई हो। अंतिम संतान। पेट-वाली=गर्भवती स्त्री। मुहा०—पेट गदराना=गर्भवती होने के कारण पेट का चिकना होकर कुछ उभरना या भारी पड़ जाना। पेट गिरना=गर्भाश्य में ठहरा हुआ गर्भ निकल जाना। गर्भपात होना। पेट गिरवाना=गर्भपात कराना। पेट गिराना=गर्भवती होने की दशा में जान-बूझकर ऐसा उपाय, प्रयोग या युक्ति करना कि गर्भपात हो जाय। पेट छँटना=संतान का प्रसव होने के उपरांत पेट के अंदर का सारा बचा-खुचा विकाल निकल जाने पर पेट का साफ और हलका हो जाना। पेट ठंडा रहना=संतान का जीवित रहना और फलतः माता का सुखी रहना। (स्त्री का) पेट फुलाना या फुला देना=किसी स्त्री को गर्भवती कर देना। पेट फूलना=गर्भवती होना। पेर रखाना=पुरुष के साथ संभोग कर के गर्भाश्य में गर्भ स्थित कराना। जैसे—न जाने कहाँ से पेट रखाकर आई है। पेट रहना=गर्भवती होना। पेट में होना=गर्भवती होना। पेट होना=गर्भवती होना। ४. लाक्षणिक रूप में, अंतःकरण या मन जिसमें अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ वासनाएँ और विचार उठते या रहते हैं। पद—पेट का गहरा=(व्यक्ति) जो अपने मन की बात किसी पर प्रकट न होने दे। पेट का हलका=(क) जो कोई भेद की बात सुनकर उसे छिपा न रख सकता हो। ओछे या क्षुद्र स्वाभाववाला। पेट की बात=मन में छिपाकर रखा हुआ गूढ़ उद्देश्य या और कोई बात। पेट में=मन या हृदय में। जैसे—तुम्हारे पेट में जो कुछ हो, वह भी कह डालो। मुहा०—(किसी को अपना) पेट देना=अपना गूढ़ भेद या विचार किसी का बतलाना। उदा०—अपनौ पेट दियौ तैं उनकौं नाकबुद्धि तिय सबै कहैरी।—सूर पेट में खलबली पड़ना, मचना या होना=कुछ करने, कहने या जानने-सुनने के लिए मन में बहुत अधिक उत्सुकता और विकलता होना। छटपटी पड़ना। (किसी के) पेट में घुसना=किसी का भेद लेने के लिए उससे मेल-जोल बढ़ाना। पेट में चूहे कूँदना या दौड़ना=कोई काम या बात जानने के लिए बहुत अधिक उत्सुकता छटपटी या विकलता होना। (कोई बात) पेट में डालना=देखी या सुनी हुई बात अपने मन में छिपाकर रखना। किसी पर प्रकट न होने देना। (किसी के) पेट में पैठना या बैठना=दे० ऊपर (किसी के) पेट में घुसना। ५. लाक्षणिक रूप में कोई चीज अधिकार या भोग में होने की अवस्था। मुहा०—(कोई चीज किसी के) पेट में होना=किसी के अधिकार या भाग में होना। जैसे—सारा माल उसी के पेट में है। (कोई चीज किसी के) पेट से निकालना=जो चीज किसी ने उड़ा, छिपा या दबाकर रख छोड़ी हो, वह किसी प्रकार उससे प्राप्त करना या उसके अधिकार से निकलवाना या निकालना। जैसे—इतने दिनों बाद भी तुमने यह कलम (या पुस्तक) उसके पेट से निकालकर ही छोड़ी। ६. किसी खुली या पोली चीज के बीच का भीतरी खाली या खोखला भाग। किसी पदार्थ के अंदर का वह स्थान जिसमें कोई भरी जा सके या भरी जाती हो। जैसे—बोतल या लोटे का पेट, बगीचे या मकान का पेट। ७. बंदूक या तोप में का वह स्थान जहाँ गोली या गोला भरा या रखा जाता है। ८. चक्की के दोनों पाटों के बीच का वह स्थान जिसमें पहुँचकर कोई चीज पिसती है। ९. सिल आदि का वह भाग जो कूटा हुआ और खुरदरा रहता है और जिस पर रखकर कोई चीज पीसी जाती है। १॰. किसी प्रकार का ऐसा अवकाश जिसमें कोई चीज आ ठहर या रह सके। गुंजाइश। समाई। जैसे—जिस काम का जितना पेट होगा, उसमें उतना ही खरच पड़ेगा।
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पेटक  : पुं० [सं०√पिट् (इकट्ठा होना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० अल्पा० पेटिका] १. पिटारा। मंजूषा। २. संदूक। ३. ढेर। राशि। समूह।
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पेटकैयाँ  : क्रि० वि० [हिं० पेट+कैया (प्रत्य०)] पेट के बल। जैसे—पेटकैयाँ चलना या लेटना।
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पेट पूजा  : स्त्री० [हिं०] भोजन करना। खाना। (परिहास और व्यंग्य)
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पेट-पोसुआ  : वि० [हिं० पेट+पोसना] १. (केवल) अपने उदर की पूर्ति करने और चाहनेवाला। २. स्वार्थी। ३. पेटू।
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पेटरिया  : स्त्री०=पिटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेटल  : वि० [हिं० पेट+ल (प्रत्य०)] बहुत बड़े पेटवाला। तोंदल।
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पेटा  : पुं० [हिं० पेट] १. किसी पदार्थ में पेट के स्थान पर पड़नेवाला अर्थात् मध्य भाग। बीच का हिस्सा। २. किसी चीज का मध्य भाग, विशेषतः ऐसा मध्य भाग जो खाली हो तथा भरा जाने को हो। ३. किसी मद या शीर्षक के अंतर्गत होनेवाला अंश या भाग। ४. उक्त अंश में लिखा जानेवाला या लिखा हुआ विवरण। ५. उक्त के आधार पर किसी प्रकार का विस्तृत विवरण। ब्योरेवार बातें। मुहा०—पेट भरना=विवरण आदि लिखा जाना। ६. घेरा। वृत्त। ७. फैलाव। विस्तार। ८. विस्तार की अंतिम सीमा। हद। ९. वह गड्ढा जिसमें से होकर नदी और नाला बहता है। १॰. नदी या नाले के ऊपरी तल की चौड़ाई या विस्तार। पाट। ११. पशुओं की आँतें जो उनके पेट के अंतिम सिरे पर रहती हैं। १२. बड़ा टोकरा। दौरा। १३. उड़ती हुई पतंग की डोर का वह भाग जिसमें झोल पड़ा रहता है। मुहा०—पेट छोड़ना=उड़ती हुई गुड्डी की डोर का बीच में से लटक या झूल जाना। पेटा तोड़ना=अपनी डोर या नख से दूसरे की गुड्डी या पतंग की उक्त अंश काट देना।
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पेटागि  : स्त्री० [हिं० पट+आग] १. खाली पेट होने पर लगनेवाली भूख। २. उदर पूर्ति की चिंता।
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पेटारा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० पेटारी] पिटारा।
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पेटार्थी, पेटार्थू  : वि० दे० ‘पेटू’।
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पेटिका  : स्त्री० [सं०√पिट् (इकट्ठा होना)+ण्वुल्—अक, टाप्,+इत्व] १. पिटारी नाम का वृक्ष। २. छोटी पेटी। ३. छोटी पिटारी।
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पेटिया  : पुं० [हिं० पेट] भोजन आदि के लिए मिलनेवाला दैनिक भत्ता।
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पेटिया जड़  : स्त्री० [हिं० पेट] वनस्पति विज्ञान में ऐसी मूसला जड़ जो खूब फूली हुई और मोटी हो। गाजर, मूली, शलजम आदि कंद इसी के अंतर्गत हैं।
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पेटी  : स्त्री० [हिं० पेट] १. मनुष्य के शरीर में, छाती और पेड़ू के बीच का वह स्थान जो प्रायः कुछ उभरकर आगे निकल आता है और जिसमें त्रिबली नाम के दो या तीन बल पड़ते हैं। मुहा०—पेटी निकलना या पड़ना=पेट का उक्त भाग फूलकर आगे की ओर निकलना। (किसी से) पेटी लड़ाना=मैथुन या संभोग करना। २. अन्न के दानों का भीतरी भाग जिसके पुष्ट होने से वे अधिक समय तक बिना घुने रह सकते हैं। जैसे—कच्ची (या पक्की) पेटी का गेहूँ। ३. कमर में लपेट कर बाँधने का तस्मा। कमरबंद। ४. उक्त प्रकार का वह तस्मा जिसमें चपरास भी लगी रहती है। मुहा०—पेटी उतरना=सिपाही का मुअत्तल या बरखास्त किया जाना। ५. उक्त प्रकार का वह तस्मा या पेट्टी जो बुलबुल आदि पक्षियों की कमर में इसलिए बाँधी जाती है कि उसमें लगे हुए डोरे के आधार पर वे अड्डे या हाथ पर बैठाये जा सकें। (बेल्ट, अंतिम तीनों अर्थों में) क्रि० प्र०—बाँधना। स्त्री० [सं० पेटिका] १. छोटा संदूक। संदूकची। जैसे—रोकड़ रखने या माल बाहर भेजने की पेटी। २. छोटी डिबिया। जैसे—दियासलाई की पेटी, सिगरेट की पेटी। ३. उक्त प्रकार का वह आधान जिसमें हज्जाम अपना उस्तरा कैंची, नहरनी आदि रखते हैं। किसबत।
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पेटीकोट  : पुं० [अं०] छोटे घेरेवाले एक तरह का घाघरा जिसे आज-कल स्त्रियाँ धोती या साड़ी के नीचे पहनती हैं।
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पेटू  : वि० [हिं० पेट] १. जो बहुत अधिक खाता हो। २. जो सदा उदरपूर्ति की ताक में लगा रहता हो। भुक्खड़।
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पेटेंट  : वि० [अं०] जो आविष्कृत तथा किसी विशिष्ट नाम से प्रसिद्ध हो और जिसे उक्त विशिष्ट नाम से बनाने तथा बेचने का एकाधिकार सरकार से किसी को प्राप्त हो। जैसे—पेटेंट दवाएँ।
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पेट्रोल  : पुं० [अं०] काले रंग का एक प्रसिद्ध ज्वलनशील खनिज तेल जिसके ताप से मोटरों के इंजन आदि चलते हैं और जिसके कई प्रकार की उपयोगी चीजें निकलती या बनती हैं। पुं० [अं. पैट्रोल] १. सैनिक रक्षा के लिए घूम-घूम कर पहरा देना। २. पहरा देनेवाला सैनिक।
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पेठ  : स्त्री०=पैंठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेठा  : पुं० [देश०] १. कुम्हड़े के आकार-प्रकार का एक तरह का फल जिसका मुरब्बा डाल तथा मिठाई बनाई जाती है। सफेद कुम्हड़ा। २. उक्त की बनी हुई मिठाई या मुरब्बा।
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पेड़  : पुं० [प्रा० पेष्ठ=पिंड] १. वृक्ष। दरख्त। पुं० [सं० पिंड] आदि या मूल कारण।
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पेड़ना  : स०=पेरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेडल  : पुं० [अं०] साइकिल, रिक्शे आदि का वह अंग जिस पर पैर रखा जाता है और जिसके चलाये जाने पर साइकिल या रिक्शा आगे बढ़ता है।
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पेड़ा  : पुं० [सं० पिंड] १. खोए और चीनी खाँड़ से बनी हुई एक प्रसिद्ध गोलाकार चिपटी टिकिया के आकार की मिठाई। २. उक्त आकार या रूप में लाई हुई (गुँध हुए) आटे की लोई जिसे बेल कर पूरी रोटी आदि का रूप दिया जाता है। स्त्री० [सं०] बड़ा टोकरा या पिटारा।
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पेड़ार  : पुं० [सं० पिंड] एक प्रकार का वृक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेड़ी  : स्त्री० [हिं० पेड़] १. छोटा पेड़ या पौधा। जैसे—नील की पेड़ी। २. पान का पुराना पौधा। ३. उक्त पौधे का पान। ४. मनुष्य का धड़। ६. प्रति पेड़ के हिसाब से लगनेवाला कर। ६. ऐसा खेत जिसमें ऊख की फसल कट चुकी हो और जिसे जोतकर गेहूँ आदि बोने के योग्य बनाया गया हो।
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पेड़ू  : पुं० [हिं० पेट] १. मनुष्य के शरीर में मूत्रेंद्रिय से ऊपर तथा नाभि से कुछ नीचे का स्थान। पेट के नीचे का अगला अंश या भाग। उपस्थ। २. गर्भाशय। पद—पेड़ू की आँच=(क) स्त्री के मन में होने-वाली काम-वासना। (ख) केवल कामुकता के कारण किसी पुरुष के साथ होनेवाली आसक्ति।
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पेदड़ी  : स्त्री०=पिद्दी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेदर  : पुं० [देश०] आंध्र, बंगाल आदि प्रदेशों में होनेवाला एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी का रंग सफेद होता है और जो इमारत के काम आती है।
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पेन  : पुं० [देश०] लसोड़े की जाति का एक वृक्ष जो गढ़वाल में होता है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है। इसे ‘कूम’ भी कहते हैं। पुं० [अं०] अंगरेजी ढंग की कलम जिसमें धातु की निब लगी रहती है।
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पेनी  : स्त्री० [अं०] इंग्लैंड में प्रचलित एक सिक्का, जिसका मूल्य शिलिंग के बारहवें भाग के बराबर होता है।
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पेन्शन  : स्त्री० [अं०] अनुवृत्ति। (दे०)
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पेन्सिल  : स्त्री० [अं०] लकड़ी का बना हुआ एक प्रकार का लंबोतरा ओर पतला लिखने का प्रसिद्ध उपकरण जिसमें मसाले की बत्ती भरी होती है और जिससे कागज आदि पर लिखते हैं।
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पेन्हाना  : अ० [सं० पयः स्रवनः, प्रा० पह् णबन] दुहे जाने के समय भैंस आदि के धन में दूध उतरना। स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेपर  : पुं० [अं०] १. कागज। २. समाचार-पत्र। अखबार। ३. तमस्सुक, दस्तावेज आदि विधिक पत्र। लेख्य। ४. किसी तरह या विषय के कागज-पक्ष। ५. प्रश्न-पत्र।
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पेपपमिन्ट  : पुं०=पिपरमिंट।
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पेम  : पुं०=प्रेम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पेमचा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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पेमेंट  : पुं० [अं०] देन का चुकाया जाना। भुगतान। (दे०)
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पेय  : वि० [सं०√पा (पीना)+यत्] जो पीया जा सके। पीये जाने के योग्य। पुं० १. कोई ऐसा स्वादिष्ट तरल पदार्थ जो पीने के काम में आता हो। पीये जाने के योग्य तरल पदार्थ। (ड्रिंक) जैसे—दूध, शरबत, शराब आदि। २. जल। पानी। ३. दूध।
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पेया  : स्त्री० [सं०] १. वैद्यक में चावलों की बनी हुई एक प्रकार की लपसी जो रोगियों को पथ्य के रूप में दी जाती थी। २. चावल की माँड़। पीच। ३. अदरक। आदी। ४. सोआ नामक साग। ५. सौंफ। ६. कोई पेय पदार्थ। जैसे—दूध, मद्य, शरबत आदि।
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पेयूष  : पुं० [सं०√पीय् (तृप्त करना)+ऊषन्] १. वह दूध जो गौ के बच्चा देने के सात दिन बाद तक निकलता है। उसका स्वाद अच्छा नहीं होता और पीने पर विकार उत्पन्न करता है। पेउस। २. ताजा घी या मक्खन। ३. अमृत। सुधा।
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पेरना  : स० [सं० पीड़न] १. वनस्पति, बीजों आदि में से उनका तरल अंश (जैसे—तेल, रस आदि) निकालने के लिए उन्हें कोल्हू आदि में डालकर दबाना। दो भारी तथा कड़ी वस्तुओं के बीच में डालकर किसी तीसरी वस्तु से दबाना। २. लाक्षणिक अर्थ में, किसी को बहुत अधिक कष्ट देना। ३. किसी काम में बहुत अधिक देर लगाना। स० [सं० प्रेरण] १. प्रेरित करना। २. भेजना। स० [सं० परिधान] पहनना। (राज०)
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पेरली  : स्त्री० [?] तांडव नृत्य का एक भेद जिसमें अंगों का विक्षेपण विशेष रूप से होता है।
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पेरवा, पेरवाह  : पुं० [हिं० पेरना] वनस्पतियों, बीजों आदि के पेरकर उनमें से तरल पदार्थ निकालनेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेरा  : पुं० [हिं० पीला] एक प्रकार की कुछ पीली मिट्टी जिससे दीवार, धर इत्यादि पोतने का काम लिया जाता है। पोतनी मिट्टी। पुं०=पेड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेराई  : स्त्री० [हिं० पेरना] पेरने की क्रिया, भाव और मजदूरी।
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पेरी  : स्त्री० [हिं० पीली] पीले रंग में रंगी हई धोती जो शुभ अवसरों पर पहनी तथा देवियों या नदियों को चढ़ाई जाती है। पियरी।
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पेरू  : पुं० [सं०√पुरे (आगे जाना)+ऊ, नि० एत्व] १. सागर। समुद्र। २. सूर्य। ३. अग्नि। आग। वि० १. रक्षा करनेवाला। रक्षक। २. पूर्ण या पूरा करनेवाला।
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पेरोल  : पुं० [अं०] कारावास में रखे गये दंडित अपराधी को कुछ नियत अवधि के लिए खुला छोड़ना।
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पेलक  : पुं० [सं०√पेल् (काँपना)+अच्,+क] अंडकोष।
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पेलढ़  : पुं० [सं० पेलक] अंडकोश।
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पेलना  : स० [सं० पीड़न] १. दबा या ढकेलकर किसी को कहीं घुसाना या धँसाना। २. धक्का देना। ढकेलना। ३. आज्ञा, विधि आदि का उल्लंघन करना। ४. त्यागना। हटाना। फेंकना। ५. दूर करना। हटाना। ६. बल-प्रयोग करना। गुंदा-भंजन करना। अप्राकृतिक संभोग करना। (बाजारू) ८. दे० ‘पेरना’। स० [सं० प्रोण] किसी पर आक्रमण करने के लिए हाथी, घोड़ा आदि उसके आगे या सामने छोड़ना।
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पेलव  : वि० [सं०√पेल्+घञ्, पेल√वा (गति)+क] १. कोमल। २. दुबला-पतला। कृश। क्षीण। ३. छितरा हुआ। विरल।
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पेलवाना  : स० [हिं० पेलना का प्रेरणार्थक रूप] पेलने का काम दूसरे से कराना।
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पेला  : पुं० [हिं० पेलना] १. एक दूसरे पर पिल पड़ने की क्रिया या भाव। २. हाथा-बाँही या उसके साथ होनेवाली मार-पीट। ३. झगड़ा। तकरार। ४. आक्रमण। चढ़ाई। ५. अपराध। कसूर।
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पेलास  : पुं० [अं०] मंगल और बृहस्पति के बीच का एक क्षुद्र ग्रह जो सूर्य से २५.७ करोड़ मील दूर है।
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पेलू  : वि० [हिं० पेलना+ऊ (प्रत्य०)] १. पेलनेवाला। जो पेलता हो। २. जबरदस्त। बलवान्। पुं० १. वह जो किसी लड़के के साथ अप्राकृतिक मैथुन करता हो। गुदा-मंजन करनेवाला। २. स्त्री का उपपति। जार।
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पेल्हड़  : पुं०=पेलढ़।
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पेवँ  : पुं०=प्रेम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पेवकड़ा  : पुं०=पेका (मायका) उदा०—पेवकड़े दिन चारि है साहुरेड़ जाणा।—कबीर।
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पेवक्कड़  : वि०=पियक्कड़ (बहुत अधिक पीनेवाला)।
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पेवड़ी  : स्त्री० [सं० पीत] १. पीले रंग की बुकनी। २. रामराज नाम की पीली मिट्टी।
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पेवर  : पुं० [सं० पीत] १. पीले रंग की बुकनी। २. रामराज नाम की पीली मिट्टी।
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पेवर  : पुं० [सं० पीत] पीला रंग।
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पेवस  : पुं० [सं० पेयूष] एकाध सप्ताह की ब्याई हुई गाय या भैंस का दूध जो कुछ पीलापन लिये गाढ़ा होता है और पीने योग्य नहीं माना जाता। पेउस।
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पेवसी  : स्त्री०=पेवस।
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पेश  : अव्य० [फा०] (किसी की) उपस्थिति में। समक्ष। सामने। मुहा०—(किसी से) पेश आना=बरताव करना। व्यवहार करना। पेश करना=(क) उपस्थिति करना। (क) भेंट करना। पेश जाना या चलना=वश चलना। पुं० दे० ‘पेश-कश’। पुं० [सं० पेशस्] कसीदे का काम।
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पेश-कब्ज  : पुं० [फा० पेश+कब्ज] छोटी कटार।
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पेश-कश  : पुं० [फा०] १. आदरपूर्वक उपस्थित किया जानेवाला उपहार। नजर। भेंट। २. तोहफा। सौगात। ३. प्रार्थना। ४. प्रस्ताव। तजवीज।
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पेशकार  : पुं० [फा०] [भाव० पेशकारी] १. वह जो किसी के सम्मुख कोई चीज पेश या उपस्थित करता हो। २. न्यायालय में वह कर्मचारी जो न्यायाधीश के सम्मुख मुकदमों के कागज-पत्र पेश करता है। पुं० [सं० पेशस्+कार (प्रत्य०)] वह जो कसीदा कढ़ने का काम करता हो।
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पेशकारी  : स्त्री० [फा०] पेशकार का काम, पद या भाव।
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पेश-खेमा  : पुं० [फा० पेश खेमः] १. वह खैमा जो अधिकारी, सेना आदि के अगले पड़ाव पर पहुँचने से पहले इस दृष्टि से लगा दिया जाता है कि किसी प्रकार का कष्ट न हो। २. किसी पड़ाव में ठहरी हुई सेना का सबसे आगेवाला खेमा। ३. पहले से किया जानेवाला प्रबंध या बनायी जानेवाली योजना।
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पेशगी  : स्त्री० [फा० पेश्गी] मूल्य, पारिश्रमिक आदि का वह अंश जो किसी से कोई चीज खरीदने से पहले अथवा कोई काम करने से पहले ही उसे दे दिया जाता है (शेष मूल्य या पारिश्रमिक चीज लेते समय या काम करने के उपरांत दिया जाता है। अग्रिम धन। अगाऊ। (एडवान्स)
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पेशतर  : अव्य० [फा०] किसी की तुलना में पूर्वकाल में। पहले जैसे—वहाँ जाने से पेशतर यहाँ का काम खत्म कर लो।
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पेशताख  : स्त्री० [फा० पेशतांक़] एक प्रकार की मेहराब जो सुन्दरता के लिए बड़ी इमारतों में दरवाजे के ऊपर तथा कुछ आगे बढ़ाकर बनाई जाती है।
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पेशदस्त  : वि० [फा०] [भाव० पेशदस्ती] १. पेश करनेवाला। २. छेड़खानी करनेवाला।
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पेशबंद  : पुं० [फा०] चारजामे में लगा हुआ वह दोहरा बन्द जो घोड़े की गर्दन से लाकर दूसरी ओर बाँध दिया जाता है। इससे वह दुम की ओर नहीं खिसक सकता।
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पेशबंदी  : स्त्री० [फा०] १. आक्रमण, रक्षा आदि के लिए पहले से किया हुआ प्रबंध, युक्ति या व्यवस्था। २. षड्यंत्र। साजिश।
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पेशबीन  : वि० [फा० पेशबीं] अग्रशोची। दूरदर्शी।
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पेशबीनी  : स्त्री० [फा०] आगे की बात पहले से सोचना। दूरदर्शिता।
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पेशराज  : पुं० [फा० पेश+हिं० राज] मकान बनानेवाला वह मजदूर जो राज या मेमार के लिए पत्थर ढो ढोकर लाता हो। पत्थर ढोनेवाला मजदूर।
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पेशल  : वि० [सं०√पिश् (अवयव बनाना)+अलच्] १. मनोमुग्धकारी। मनोहर। सुन्दर। २. कुशल। प्रवीण। ३. चालाक। धूर्त। ४. कोमल। मुलायम। पुं० विष्णु।
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पेशलता  : स्त्री० [सं० पेशल+तल्+टाप्] पेशल होने की अवस्था या भाव।
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पेशवा  : पुं० [फा०] १. वह जो किसी दल के आगे चलता हो; अर्थात् नेता। सरदार। २. मध्ययुग में दक्षिण भारत के महाराष्ट्र साम्राज्य के प्रधान मंत्रियों की उपाधि।
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पेशवाई  : स्त्री० [फा०] १. पेशवा होने की अवस्था या भाव। नेतृत्व। २. महाराष्ट्र साम्राज्य में पेशवाओं की शासनप्रणाली या शासन-काल। ३. अतिथि का आगे बढ़कर किया जानेवाला स्वागत।
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पेशवाज  : स्त्री० [फा० पिश्वाज़] बहुत बड़े घेरेवाला घाघरा या लहँगा जो नर्तकियाँ नाचने के समय पहनती हैं।
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पेशा  : पुं० [फा० पेशः] १. वह कार्य, सेवा या व्यवसाय जो जीविका-उपार्जन का साधन हो। व्यवसाय। (प्रोफेसन)। २. वेश्यावृत्ति। मुहा०—पेशा कमाना=स्त्री का व्यभिचार के द्वारा धन कमाना। ३. समस्त पदों के अन्त में, वह जिसका पेशा अमुक (पूर्वपद में उल्लिखित) हो। जैसे—नौकरी-पेशा।
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पेशानी  : स्त्री० [फा०] १. ललाट। भाल। मस्तक। माथा। २. प्रारब्ध। भाग्य। (क्व०) ३. किसी पदार्थ का अगला और ऊपरी भाग।
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पेशाबी  : पुं० [फा०] १. मूत। मूत्र। मुहा०—(किसी चीज पर) पेशाब करना=बहुत ही तुच्छ या हेय समझना। (धन) पेशाब के रास्ते बहाना=लैंगिक भोग-विलास में नष्ट होना। बहुत अधिक भयभीत होने के लक्षण प्रकट करना। (किसी के देखकर) पेशाब बन्द होना=अत्यन्त भयभीत हो जाना। (किसी के) पेशाब से चिराग जलना=किसी का अत्यन्त प्रभावशाली और वैभवशाली होना। २. पुरुष की धातु। वीर्य। ३. औलाद। संतान।
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पेशाब-खाना  : पुं० [फा०] पेशाब करने के लिए बनाया हुआ स्थान।
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पेशावर  : वि० [फा० पेशःवर] १. जो कोई पेशा करता हो। २. (व्यक्ति) जिसने किसी परोपकार या लोक-रंजन के काम को ही पेशा बना लिया हो। जैसे—पेशावर शायर। ३. (स्त्री) जो व्यभिचार के द्वारा जीविका उपार्जन करे। पुं० [सं० पुरुष पुर] अखंड भारत की उत्तर पश्चिमी सीमा का एक प्रसिद्ध नगर जो अब पाकिस्तान में चला गया है।
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पेशि  : स्त्री० [सं०√पिश्+इन्]=पेशी। (देखें)
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पेशि-कोष  : पुं० [सं० ष० त०] अंडा।
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पेशिका  : स्त्री० [सं० पेशि+कन्,+टाप्] अंडा।
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पेशी  : स्त्री० [सं०] १. मांस का टुकड़ा।। मांस-खंड। २. शरीर के अंदर मांस के रेशों की वह गुलथी या समूह जिससे भिन्न भिन्न अंगों को मोड़ने, सिकोड़ने आदि में सहायता मिलती है। (मसल्) ३. गर्भाश्य में स्थिति होनेवाला गर्भ का आरंभिक रूप। ४. अंडा। ५. तलवार की म्यान। ६. फूल की कली। ७. जटामासी। ८. जूता। ९. एक प्राचीन नदी। १॰. इंद्र का वज्र। ११. पुरानी चाल का एक प्रकार का ढोल। स्त्री० [फा०] १. पेश होने की अवस्था या भाव। २. मुकदमे की तारीख़ के दिन न्यायालय में वादी और प्रतिवादी का न्यायाधीश के सन्मुख उपस्थित होना। ३. मुख्तार, वकील आदि को उसकी पेशी के दिन की सेवाओं के बदले में दिया जानेवाला धन।
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पेशीन-गो  : पुं० [फा० पेशींगो] [भाव. पेशीनगोई] भविष्यदवक्ता।
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पेशीन-गोई  : स्त्री० [फा०] भविष्य कथन। भविष्यवाणी।
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पेशेवर  : वि०=पेशावर।
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पेश्तर  : अव्य०=पेशतर।
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पेषक  : वि० [सं०√पिष् (पीसना)+ण्वुल्—अक] पीसनेवाला।
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पेषण  : पुं० [सं०√पिष्+ल्युट्—अन] १. पीसने की क्रिया या भाव। पीसना। २. विशेषतः ठोस चीज को पीसकर चूर्ण के रूप में लाना। (पल्वशइज़ेशन) ३. थूहड़। तिधारा। पद—पिष्ट-पेषण। (दे०)
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पेषणी  : स्त्री० [सं० पेषण+ङीप्] वह सिल जिस पर कोई चीज पीसी जाय।
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पेषना  : स०=पेखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पेखन।
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पेषि  : स्त्री० [सं०√पिष्+इन्] वज्र।
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पेषी  : स्त्री० [सं० पेषि+ङीष्] पिशाचिनी।
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पेस  : अव्य०, पुं०=पेश।
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पेसना  : स० [सं० पेषण] कोई छोटी चीज किसी बड़ी चीज के अन्दर धँसाना या घुमाना। अ० प्रवेश करना। घुसना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पेसल  : वि० [सं० पेशल] कोमल। उदा०—पिय रस पेसल प्रथम समाजे।—विद्यापति।
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पेहँटा  : पुं० [देश०] कचरी नाम की लता का फल जो कुँदरू के आकार का होता है और जिसकी तरकारी बनती है।
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पेहर  : पुं० [?] १. वह स्थान जहाँ हरी घास उगी हो। चरागाह। २. एक प्रकार का गीत जो किसान बैल चराते समय गाते हैं।
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पैंकड़ा  : पुं० [हिं० पायँ=कड़ा] १. पैर का कड़ा। २. बेड़ी। पुं० [?] ऊँट की नकेल।
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पैंग  : स्त्री०=पेंग।
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पैंगि  : पुं० [सं० पैंग+इज्] यास्क का एक नाम।
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पैंच  : स्त्री० [सं० प्रतंची] धनुष की डोरी। स्त्री० [सं० युद्ध] मोर की दुम। पुं०=पंच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैंचना  : स० [देश०] १. अनाज फटकना। पछोरना। २. पलटना। फेरना।
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पैंचा  : पुं० [देश०] १. अदला-बदली। हेर-फेर। २. बहुत थोड़े समय के लिए उधार या मँगनी लेने की क्रिया या भाव। मंगनी। ३. उक्त प्रकार से माँगकर ली हुई चीज़। वि० उधार या मँगनी लिया हुआ।
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पैंजना  : पुं० [हिं० पाँय+अनु० झन, झन] [स्त्री० अल्पा० पेंजनी] पैर का एक प्रकार का आभूषण जो कड़े के आकार का पर उससे मोटा और खोखला होता है। इसके अन्दर कंकड़ियाँ रहती हैं जिससे चलने में यह बजता है।
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पैंजनियाँ  : स्त्री०=पैंजनी।
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पैंजनी  : स्त्री० [हिं० पाँय+अनु० झन, झन] १. छोटा पैंजना। २. सग्गड़ या बैलगाड़ी के पहिए के आगे की वह टेढ़ी लकड़ी जिसके छेद में धुरा निकला रहता है।
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पैंट  : पुं० [अं०] पायजामे की तरह का एक अंग्रेजी पहनावा। पतलून।
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पैंठ  : स्त्री० [सं० पण्यस्थान, प्रा० पणठ्ठा; अप० पहँठ्ठा] १. वह खुला स्थान जहाँ किसी निश्चित दिन या समय छोटे व्यापारी माल बेचने के लिए आकर बैठते हों। २. सप्ताह का वह विशिष्ट दिन जिसमें किसी विशिष्ट स्थान पर बाजार या हाट लगता हो। ३. छोटी दूकान। ४. महाजनी बोलचाल में, वह डुंडी जो पहली हुंडी जो खाने पर उसके स्थान पर फिर से लिखकर दी जाती है। ५. कृषकों की रमैती (देखें) नामक प्रथा।
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पैठोर  : पुं०=पैंठ।
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पैंड  : पुं० [हिं० पाँय+ड़(प्रत्य०) या पाददंड, प्रा० पायडंड] १. कदम। डग। पग। मुहा०—पैंड भरना=कदम या पैर उठाते हुए किसी ओर चलाना। डग भरना। २. चलने के समय एक पैर से दूसरे पैर तक की दूरी। जैसे—जरा उठकर चार पैंड चला तो सही। ३. पैंडा। मार्ग। ४. विधि। ढंग।
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पैंड़ा  : पुं० [हिं० पैंड़] १. वह दूरी या रास्ता जो कोई चलकर आया हो अथवा चलने को हो। मुहा०—पैंडा मारना=बहुत दूर तक पैदल चलते हुए जाना या कहीं पहुँचना। जैसे—तुम्हारे लिए ही हम इतनी दूर से पैंडा मार कर आये हैं। (किसी के) पैंड़े पड़ना=(क) किसी के कार्य या मार्ग में बाधक होना या बाधा खड़ी करना। (ख) तग या परेशान करना। २. नियत या नियमित रूप से कहीं आने-जाने की प्रथा। उदा०—राजों घर पैंडा मेरा, जल को होत अवेर। ३. प्रणाली। प्रथा। ४. पानी का घड़ा रखने का स्थान। ५. अस्तबल। घुड़साल।
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पैंडिक्य  : पुं० [सं० पिंड+ठन्—इक,+ष्यञ्] भिक्षावृत्ति।
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पैंडिन्य  : पुं० [सं० पिंड+इनि, ष्यञ्] भिक्षावृत्ति।
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पैंडिया  : पुं० [देश०] कोल्हू में पेरने के लिए गन्ने लगानेवाला मजदूर।
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पैंत  : स्त्री० [सं० पणकृत; प्रा० पणइत] १. दाँव। बाजी। २. जूआ। खेलने का पाँसा। मुहा०—पैंत पूरना=चौसर के खेल में पाँसा फेंकना। उदा०—प्रमुदित पुलकि पैंत पूरे जनु...।—तुलसी। पुं० [सं० पद+अंत, प्रा० पईत] १. अंतिम पद या स्थान। २. पायँता। उदा०—सिर सौं खेलि पैंत जिनु लावौं।—जायसी। वि० [?] जो गिनती या संख्या में सात हो। पुं० सात की सूचक संख्या। (दलाल)
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पैंतरा  : पुं० [सं० पदांतर; प्रा० पयांतर] १. पटा, तलवार आदि चलाने या कुश्ती लड़ने में घूम-फिरकर ठीक ऐसी जगह पैर रखने की मुद्रा जहाँ से अच्छी तरह वार किया या रोका जा सके। मुहा०—पैंतरा बदलना=पटा, तलवार आदि चलाने या कुश्ती लड़ने में पहलेवाली मुद्रा छोड़कर दूसरी ओर अधिक उपयुक्त मुद्रा में आना। पैंतरा भाँजना=बार बार इधर-उधर घूमते या हटते हुए पैर जमाकर रखना और वार करने तथा बचाने के लिए हाथ घुमाना या चलाना। २. चालाकी से भरी हुई कोई चाल। ३. धूल पर पड़ा हुआ पैर का निशान।
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पैंतरी  : स्त्री० १.=पग-तरी (जूती)। २. दे० ‘पैतरी’।
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पैंतरेबाज  : पुं० [हिं० पैंतरा+फा० बाज] [भाव० पैंतरेबाजी] १.वह जो कुश्ती लड़ने, हथियार आदि चलाने के पैंतरे या ठीक ढंग जानता हो। २. वह जो समय समय पर अवसर देखता हुआ उसी के अनुसार अपने रंग-ढंग या आचरण-व्यवहार बदलना जानता हो।
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पैंतरेबाजी  : स्त्री० [हिं० पैंतरेबाजी] पैंतरेबाज होने की अवस्था, कला या भाव।
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पैंतलाय  : वि० [?] सत्रह। (दलाल)
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पैंतालीस  : वि० [सं० पंचचत्वारिशत्, प्रा० पंचक्ताली-सति, अप० पंचतीसा] जो गिनती या संख्या में चालीस से पाँच अधिक हो। चालीस और पाँच। पुं० चालीस और पाँच के योग की संख्या जो इस प्रकार लिखा जाती है—४५।
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पैंती  : स्त्री० [सं० पवित्त; प्रा० पवित्र, पइत्त] १. कुश को लपेटकर बनाया हुआ छल्ला जो श्राद्धादि कर्म करते समय उँगली में पहनते हैं। पवित्री। २. ताँबे या त्रिलौह का बना हुआ उक्त प्रकार का छल्ला।
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पैंतीस  : वि० [सं०] पंचत्रिंशत; प्रा० पंचत्तिंसतिं; अप० पंचतीसो] जो गिनती या संख्या में तीस से पाँच अधिक हो। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—३५।
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पैंया  : स्त्री० [हिं० पाँय] १. पैर। पाँव। २. विशेषतः छोटा पैर। बालक का पैर।
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पैंसठ  : वि, [सं० पंचषष्ठि; प्रा० पंचसट्ठि] जो गिनती या संख्या में साठ से पाँच अधिक हो। साठ और पाँच। पुं० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—६५।
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पै  : अव्य० [सं० परं] १. पर। परन्तु। लेकिन। पद—जो पै=यदि। तोपै=तो। २. उपरांत। पीछे। बाद। ३. निश्चित रूप से। अवश्य। जरूर। अव्य० [सं० प्रति, प्रा० पडि, प्र० हिं० पँह] १. पास। समीप। २. ओर। तरफ। प्रति। प्रत्य० [सं० उपरि, हिं० ऊपर] १. पुरानी हिन्दी में अधिकरण कारक की सूचक विभक्ति। पर। ऊपर। २. करण कारक की सूचक विभक्ति। द्वारा। से। उदा०—बिदा ह्वै चले राम पै शत्रुहंता।—केशव। स्त्री० [सं० आपत्ति=दोष, भूल] दोष। ऐब। नुक्स। मुहा०—(किसी चीज या बात में) पै निकलना=व्यर्थ का और तुच्छ दोष दिखलाना। छिद्रान्वेषण करना। पुं० [देश०] कपड़े पर माँडी लगाने की क्रिया। कलफ चढ़ाना। (जुलाहे) पुं० [सं० पद] पाँव। पैर। पुं० [फा०] वह ताँत जो कमान, गुलेल आदि में लगाई जाती है। पुं० [फा० पा या पाय (=पैर) का संक्षिप्त रूप] पाँव। पैर। पद—प-दर-पैं=(क) कदम कदम पर। पग पग पर। (ख) थोड़ी थोड़ी दूरी पर। (ग) एक के बाद एक। निरंतर। लगातार। पुं०=पय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैक  : पुं० [फा०] संदेशवाहक। दूत।
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पैकर  : पुं० कपास से रूई इकट्ठा करनेवाला। पुं० [अं०] पैकिंग करनेवाला व्यक्ति। पुं० [फा०] १. देह। शरीर। २. आकृति।
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पैकरमा  : स्त्री०=परिक्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैकरा  : पुं० [हिं० पैर+कड़ा] बेड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैकरी  : स्त्री० [हिं० पाँय+कूड़ा] पाँव में पहनने का एक गहना। पैरी।
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पैकार  : पुं० [फा०] युद्ध। लड़ाई। पुं० [?] थोड़ी पूँजीवाला छोटा व्यापारी।
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पैकारी  : स्त्री० [हिं० पैकार] पैकार का काम, पद या भाव। वि० पैकार-सम्बन्धी।
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पैकिंग  : स्त्री० [अं०] १. किसी चीज को कहीं भेजने या ले जाने के समय बक्स आदि में अंदर रखने अथवा कागज, कपड़े आदि में मजबूती और हिफाजत से बाँधने की क्रिया और भाव। २. उक्त काम का पारिश्रमिक।
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पैकी  : पुं० [फा० पैक=हरकारा] मेले-तमाशे में घूम-घूमकर लोगों को हुक्का पिलानेवाला व्यक्ति।
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पैकेट  : पुं० [अं०] १. किसी चीज का बँधा हुआ छोटा पुलिंदा। २. वह डिबिया जिसमें एक तरह की कई या बहुत सी चीजें भरी होती हैं। जैसे—सिगरेटों का पैकेट। क्रि० प्र०—बाँधना।
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पैखाना  : पुं०=पाखाना।
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पैगंबर  : पुं० [फा० पैगंबर] इस्लाम, ईसाई, मूसाई आदि कुछ धर्मों में, वह पूज्य व्यक्ति जो ईश्वर का संदेश सुनानेवाला माना जाता और किसी नये धर्म या संप्रदाय का प्रवर्त्तक होता है। (प्रॉफेट)
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पैगंबरी  : वि० [फा०] पैगंम्बर-संबंधी। पैगंबर का। जैसे—पैगंबरी धर्म। स्त्री० १. पैगंम्बर होने की अवस्था, पद या भाव। २. एक प्रकार का गेहूँ।
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पैग  : पुं०=पग (कदम)
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पैगाम  : पुं० [फा० पैग़ाम] १. किसी को किसी के द्वारा भेजे जानेवाला संदेश या समचार। २. विशेषतः ऐसा संदेश या प्रस्ताव जो लड़केवालों की तरफ से लड़कीवालों के यहाँ विवाह-संबंध स्थिर करने के लिए भेजा जाय। क्रि० प्र०—डालना।—भेजना
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पैगोड़ा  : पुं० [फा० बुत-कुदः=देवमंदिर, पुर्त० पैगोड] दक्षिण पूर्वी एशिया के मंदिरों में बौद्ध मंदिरों की संज्ञा।
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पैज  : स्त्री० [सं० प्रतिज्ञा; प्रा० प्रतिञ्जा; अप० पइज्जाँ] १. प्रतिज्ञा। प्रण। मुहा०—पैज सारना=(क) प्रतिज्ञा पूरी करना। (ख) अपनी बात या हठ रखना। उदा०—बरबस ही लै जान कहते हैं पैज अपनी सारत।—सूर। २. जिद। हठ। क्रि० प्र०—करना।—गहना।—बाँधना। ३. लाग-डाँट के कारण बराबरी करने का प्रयत्न। रीस। मुहा०—(किसी से) पैज पड़ना=प्रतिद्वंद्विता या लाग-डाँट होना। ४. दे० ‘पैंतरा’।
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पैंजनी  : स्त्री०=पैंजनी।
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पैजा  : पुं० [हिं० पाय+सं० जट, हिं० जड़] लोहे का कड़ा जो किवाड़ के छेद में इसलिए पहनाया रहता है जिसमें किवाड़ उतर न सके। पायजा।
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पैजामा  : पुं०=पाजामा।
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पैजार  : स्त्री० [फा० पैज़ार] जूता। पनही। जोड़ा। पद—जूती-पैजार। (दे०)
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पैठ  : स्त्री० [सं० प्रविष्ठ; प्रा० पइट्ठ] १. पैठने की क्रिया या भाव। प्रवेश। उदा०—जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी बैठ।—कबीर। २. किसी स्थान पर बैठने की क्षमता, सुभीता या स्थिति। पहुँच। जैसे—वहाँ तुम्हारी पैठ नहीं हो सकेगी। स्त्री०=पैंठ (बाजार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैठना  : अ० [हिं० पैठ+ना (प्रत्य०)] १. किसी स्थान विशेषतः किसी गहरे स्थान के अन्दर जाना या घुसना। २. बैठना।
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पैठाना  : स० [हिं० पैठना] बलपूर्वक अन्दर ले जाना। प्रवेश कराना। संयो० क्रि०—देना।
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पैठार  : पुं० [हिं० पैठ+आर (प्रत्य०)] १. पैठ। प्रवेश। २. प्रवेशद्वार। फाटक।
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पैठारी  : स्त्री० [हिं० पैठार] १. पैठ। प्रवेश। २. गति। पहुँच।
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पैठी  : स्त्री० [हिं० पैंठ] बदला। एवज।
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पैड  : पुं० [अं०] सोख्ते, पत्र लिखने आदि के काम आनेवाला कागज की गद्दी। २. कोई छोटी मुलायम गद्दी। जैसे—मोहर की स्याही का पैड।
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पैडा  : पुं० [हिं० पैर] खड़ाऊँ।
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पैडिक  : वि० [सं० पीडा+ठक्—इक] फुंसी-संबंधी।
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पैड़ी  : स्त्री० [हिं० पैर] १. मकानों आदि में ऊपर चढ़ने की सीढ़ी। जीना। जैसे—हरिद्वार में हर की पैड़ी। २. कूएँ पर चरसा खींचनेवाले बैलों के चलने के लिए बना हुआ ढालुआँ रास्ता। ३. वह गड्ढा जिसमें सिंचाई के लिए जलाशय से पानी लेकर ढालते हैं। पौदर।
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पैतरा  : पुं०=पैंतरा।
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पैतरी  : स्त्री० [हिं० पैतरा] रेशम फेरने की परेती। स्त्री०=पग-तरी (जूता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैतला  : वि०=पैथला। (देखें)
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पैताना  : पुं०=पायँता।
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पैतामह  : वि० [सं० पितामह+अण्] पितामह-संबंधी। पितामह का।
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पैतामहिक  : वि० [सं० पितामह+ठक्—इक] पितामह से प्राप्त धन, संपत्ति आदि।
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पैतृक  : वि० [सं० पितृ+ठञ्—क] १. पितृ या या पिता संबंधी। २. बाप-दादा तथा अन्य पूर्वजों के समय चला आया हुआ। पुरखों का। पुश्तैनी। जैसे—पैतृक संपत्ति।
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पैतृमत्य  : पुं० [सं० पितृमय+ण्य] १. वह शिशु या (व्यक्ति) जो अविवाहित बालिका के गर्भ से उत्पन्न हुआ हो। २. विख्यात।
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पैत्त  : वि० [सं० पित्त+अण्] पैतिक। (दे०)
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पैत्तल  : वि० [सं० पित्तल+अण्] पीतल का बना हुआ।
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पैत्तिक  : वि० [सं० पित्त+ठञ्—इक] १. पित्त-संबंधी। पित्त का। २. (रोग) जिसमें पित्त के प्रकोप के विकार की प्रधानता हो। (बिलिअरी)
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पैत्र  : पुं० [सं० पितृ+अण्] १. अँगूठे और तर्जनी के बीच का भाग। पितृतीर्थ। २. पितरों के उद्देश्य से किया जानेवाला श्राद्ध।
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पैत्रिक  : वि०=पैतृक।
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पैथल  : वि० [हिं० पाँय+थल] उथला। छिछला। (मुख्यतः जलाशयों आदि के लिए प्रयुक्त)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैदर  : वि०, पुं०=पैदल।
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पैदल  : वि० [सं० पादतल; प्रा० पायतल] (व्यक्ति) जो अपने पैरों से ही चल रहा हो या चलता हो (किसी वाहन या सवारी पर न हो। जैसे—राजा साहब पैदल चले आ रहे थे। पुं० १. पाँव पाँव चलना। पादचारण। जैसे—पैदल का रास्ता, पैदल का सफर। २. ऐसा सिपाही जो पैदल चलता हो और जिसे चलने के लिए सवारी न मिलती हो। (घुड़सवार आदि से भिन्न) जैसे—दस सवार और सौ पैदल सिपाही। ३. शतरंज में वह गोटी जो पैदल सैनिक के प्रतीक के रूप में होती है। यह घर सीधी आगे चलती है; और इसकी मार दाहिने या बाएँ आड़े घर पर होती है।
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पैदा  : वि० [फा०] १. जिसनें अभी जन्म लिया हो। नया जन्मा हुआ। नव-प्रसूत। उत्पन्न। जैसे—कल उनके यहाँ लड़का पैदा हुआ है। २. जो पहले न रहा हो; और अभी हाल में अस्तित्व में आया अथवा प्रकट हुआ हो। उत्पन्न। जैसे—कोई नई बात या नई बीमारी पैदा होना। ३. (गुण, तत्त्व या पदार्थ) जो प्रयत्नपूर्वक अर्जित या प्राप्त किया गया हो। जैसे—खेत में अनाज या फसल पैदा करना, रोजगार में रुपया पैदा करना; किसी हुनर में कमाल या नाम पैदा करना। स्त्री० आय। आमदनी। जैसे—यहाँ उन्हें सैकड़ों रुपया रोज की पैदा है।
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पैदाइश  : स्त्री० [फा०] १. पैदा होने की अवस्था या भाव। उत्पत्ति। २. जन्म। ३. उपज। पैदावार। ४. आय। जैसे—दस रुपए रोज की पैदाइश। ५. वह जो किसी के द्वारा उत्पन्न हुआ अथवा जनमा हो। जैसे—वह कमीने की पैदाइश (संतान) है। ६. प्रारंभ। शुरुआत।
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पैदाइशी  : वि० [फा०] १. जो पैदा होने के समय से ही साथ आया, रहा या लगा हो। जन्म-जात। जैसे—पैदाइशी निशान। पैदाइशी बीमारी। २. उक्त के आधार पर, जो जन्म से ही प्रकृति या स्वभाव के रूप में प्राप्त हुआ हो। जन्मसिद्ध।
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पैदावार  : स्त्री० [फा०] १. अन्न आदि जो खेत में बोने से प्राप्त होता है। फसल। २. कारखाने आदि में होनेवाला किसी चीज का उत्पादन।
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पैदावारी  : स्त्री०=पैदावार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैन  : स्त्री० [सं० प्रणाली] १. नाली। २. पनाला।
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पैना  : वि० [सं० पैण=घिसना,] [स्त्री० पैनी] जिसकी धार बहुत पतली या काटनेवाली हो। चोखा। धारदार। तीक्ष्ण। तेज। जैसे—पैनी कटार, पैनी छुरी। पुं० १. बैल हाँकने की हलवाँहों की छोटी छड़ी। २. धातु आदि का नुकीला छड़। ३. हाथी चलाने का अंकुश। पुं० [?] कुछ विशिष्ट धातुएँ गलाने का मसाला। पुं०=पैन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैनाक  : वि० [सं० पिनाक+अण्] पिनाक-संबंधी। पिनाक का।
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पैनाना  : स० [हिं० पैना] छुरे आदि की धार रगड़कर तेज या पैनी करना। चोखा करना। टेना। मुहा०—(किसी चीज पर) दाँत पैनाना=कोई चीज पाने के लिए उस पर निगाह रखना। दाँत गड़ाना।
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पैन्हना  : स०=पहनना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैन्हानी  : स०=पहनाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैप्पल  : वि० [सं० पिप्पली+अण्] १. पीपल संबंधी। पीपल का। २. पीपल की लकड़ी या उसके किसी और अंग से तैयार किया या बना हुआ।
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पैप्पलाद  : पुं० [सं० पिंप्पलाद+अण्] पिप्पलाद ऋषि के ग्रंथों का अध्ययन करनेवाला।
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पैमक  : स्त्री० [?] कलाबत्तू की बनी हुई एक प्रकार की सुनहरी गोट जो अँगरखे, टोपी आदि के किनारों पर टाँकी जाती है।
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पैमाइश  : स्त्री० [फा०] १. नापने या मापने की क्रिया या भाव। २. विशेष रूप से खेतों, जमीनों आदि का क्षेत्र-फल जानने के लिए की जाने वाली नाप। (सर्वे)
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पैमाना  : पुं० [फा० पैमानः] १. वह वस्तु (छड़, डंडा, सूत, डोरी, बरतन आदि) जिससे कोई वस्तु नापी या मापी जाय। मापने का औजार। मानदंड। २. विशेषतः वह प्याला जिसमें कुछ विशिष्ट मात्रा में भरकर शराब पीते हैं। मद्य-चषक।
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पैमाल  : वि०=पामाल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पैयाँ  : स्त्री० [हिं० पायँ] पाँव। पैर। अव्य० पैरों से चलते हुए। पाँव पाँव।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
पैया  : पुं० [सं० पाय्य=निकृष्ट] १. बिना सत का अनाज का दाना। खोखला या मारा हुआ दाना। वि० १. निःसार। २. दीन-हीन। ३. तुच्छ। ४. निकृष्ट। बुरा। पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो पूरबी बंगाल, चटगाँव और बरमा में बहुत होता है। इसमें बड़े-बड़े फल लगते हैं जो खाए जाते हैं। इसे मूली-मतंगा और तिराई का बाँस भी कहते हैं। पुं०=पहिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैर  : पुं० [सं० पद+दंड; प्रा० पयदंड; अप० पयँड़] १. प्राणियों के शरीर का वह अंग या अवयव जिस पर खड़े होने की दशा में शरीर का सारा भार रहता है और जिससे वे चलते-फिरते हैं। पाँव। चरण। पद—पैर (या पैरों) की आहट=परोक्ष में किसी के आने या चलने से होनेवाली हलकी पद-ध्वनि या शब्द। जैसे—बगलवाले कमरे में किसी के चलने की आहट सुनकर मैं सचेत हो गया। पैर की जूती=बहुत ही तुच्छ और हीन वस्तु या व्यक्ति। मुहा०—पैर उखड़ना या उखड़ जाना=प्रतियोगिता, लड़ाई आदि में सामना करने की शक्ति या साहस न रह जाने पर पीछे हटना या भागना। (किसी के) पैर उखाड़ना=प्रतियोगिता, युद्ध विरोध आदि में इतनी दृढ़ता या वीरता दिखलाना कि विरोधी या शत्रु सामने ठहर न सकें और पीछे हटने लगे। पैर उठाना=दे० नीचे ‘पैर बढ़ाना’। पैर काँपना या थरथराना=आशंका, दुर्बलता, भय आदि के कारण खड़े रहने या चलने की शक्ति अथवा साहस न होना। (स्त्री के) पैर छूटना=मासिक धर्म अधिक होना। बहुत रजःस्राव होना। (किसी के) पैर छूना=दे० ‘पाँव’ के अन्तर्गत ‘पाँव छूना या लगाना’। (किसी जगह) पैर जमाना=(क) दृढ़ता पूर्वक स्थिर भाव से खड़े होने या ठहरने में समर्थ होना। (ख) अपने स्थान पर इस प्रकार दृढ़तापूर्वक अड़े या ठहरे रहना कि सहसा विचलित होने या हटने की नौबत न आए। (किसी जगह) पैर जमाना=कहीं पहुँचकर वहाँ अपनी स्थिति दृढ़ करना। (किसी जगह) पैर टिकना=(क) कहीं खड़े होने के लिए आधार या आश्रय मिलना। (ख) कहीं कुछ समय तक स्थायी रूप या स्थिर भाव से अवस्थित रहना या होना। जैसे—बरसों से वह इधर-उधर मारा फिरता था, पर अब दिल्ली में उसके पैर टिक गये हैं। पैर डगमगाना या डिगना=खड़े रहने या चलनें में पैरों का ठीक स्थिति में न रहना और काँपना या विचलित होना। (ख) प्रतिज्ञा, प्रयत्न आदि में ठीक रास्ते से कुछ इधर-उधर या विचलित होना। पैर (पैरों) तले से जमीन खिसकना या निकलना=होश-हवास गायब होना। (अपने) पर तोड़ना=(क) बहुत अधिक चल-फिरकर थकना। (ख) किसी काम के लिए बहुत अधिक दौड़-धूप करना। (किसी के) पैर तोड़ना=किसी को चलने-फिरने या कुछ करने-धरने में असमर्थ करना। पैर दबाना=किसी की सेवा-टहल करना या थकावट दूर करने के लिए पैर दबाना। पैर दबाकर चलना=इस प्रकार चलना कि आहट तक न हो। पैर धुनना=खिजलाकर पैर काटना। पैर न उठना=आगे चलने या बढ़ने की प्रवृत्ति या साहस न होना। जैसे—माधव के घर जाने के लिए उसके पैर ही न उठते थे। (जमीन या धरती पर) पैर न रखना=(क) बहुत अधिक घमंड के कारण साधारण आचार-व्यवहार छोड़कर बहुत बड़े आदमी होने का ढोंग करना। (ख) बहुत अधिक प्रसन्नता के कारण सब सुध-बुध भूल जाना। फूले अंगों न समाना। (किसी के) पैर न होना=कोई ऐसा आधार या बल न होना जिससे दृढ़तापूर्वक कहीं टिकने या ठहरने का साहस हो सके। जैसे—चोर (या झूठे) के पैर नहीं होते। (किसी का) पैर निकालना=(क) घूमने-फिरने या सैर-सपाटे की आदत पड़ना। (ख) बुरे कामों की ओर उन्मुख होना। (किसी के) पैर पकड़ना=दे० ‘पाँव’ के अन्तर्गत ‘पाँव धरना या पकड़ना’। (किसी के) पैर (या पैरों) पड़ना=(क) झुककर नमस्कार या प्रणाम करना। (ख) दीनतापूर्वक आग्रह या विनती करना। पैर पसार देना=(क) बहुत ही शिथिल या हतोत्साह होकर चुपचाप पड़ या बैठे रहना। दौड़-धूप या प्रयत्न छोड़ देना। (ख) शरीर छोड़कर परलोक सिधारना। मर जाना। पैर पसारना=दे० नीचे ‘पैर फैलाना’। पैर फैलना=दे० ‘पाँव’ के अन्तर्गत ‘पाँव पूजना’। पैर फैलाना=(क) विश्राम करने के लिए सुखपूर्वक पैर पसार कर लेटना। (ख) कुछ अधिक पाने या लेने के लिए विशेष आग्रह या हठ करना। (ग) आडंबर खड़ा करना। ठाट-बाट बढ़ाना। (घ) अपनी शक्ति या सामर्थ्य देखते हुए कोई काम करना। पैर बढ़ाना=चलने के समय, देर हो जाने के भय से, जल्दी-जल्दी आगे पैर रखना। जल्दी जल्दी डग भरते हुए चाल तेज करना। पैर भरना या भर जाना=बहुत अधिक चलने के कारण थकावट से पैरों में बोझ सा बँधा हुआ जान पड़ना। अधिक चलने की शक्ति या सामर्थ्य न रह जाना। (स्त्री का) पैर भारी होना=गर्भवती होना। हमल रहना। विशेष—गर्भवती होने की दशा में स्त्रियाँ अधिक चलने-फिरने के योग्य नहीं रह जातीं। इसी आधार पर यह मुहावरा बना है। मुहा०—(किसी को) पैर में (या से) बाँधकर रखना=सदा अपने पास या साथ रखना। जल्दी अलग या दूर न होने देना। (किसी रास्ते पर) पैर रखना=किसी ओर अग्रसर या प्रवृत्त होना। जैसे—जब से तुमने इस बुरे रास्ते पर पैर रखा है, तब से तुम सबकी नजरों से गिर गये हो। पैर सो जाना=किसी विशिष्ट स्थिति में देर तक पड़े रहने के कारण पैरों में का रक्त-संचार रुकना और उसके फलस्वरूप कुछ देर के लिए पैर सुन्न हो जाना। पैरों चलना=पैदल चलना। पैरों तले की जमीन (धरती या मिट्टी) निकल जाना=कोई बहुत ही भीषण या विकट बात सुनकर स्तब्ध या सन्न हो जाना ? (किसी के) पैरों पर सिर रखना=(क) पैरों पर सिर रखकर प्रणाम करना। (ख) प्रार्थना या विनती स्वीकृत कराने के लिए बहुत ही दीन भाव से आग्रह करना। फूँक-फूँक कर पैर रखना=बहुत ही सचेत या सावधान रहकर किसी काम में आगे बढ़ना। बहुत सँभलकर कोई काम करना। विशेष—‘पाँव’ और ‘पैर’ के प्रयोगों और मुहावरों से संबंध रखनेवाली कुछ विशिष्ट बातों और ‘पैर’ के शेष मुहा० के लिए दे० ‘पाँव’ और उसके विशेष तथा उसके मुहा०। २. धूल आदि पर पड़ा हुआ पैर का चिह्न। पैर का निशान। जैसे—बालू पर पड़े हुए पैर देखते चले जाओ। पुं० [हिं० पया, पयार] १. वह स्थान जहाँ खेत से कटकर फसल दाने झाड़ने के लिए फैलाई जाती है। खलिहान। २. खेत से काटकर लाये हुए डंठल सहित अनाज का अटाला, ढेर या राशि। ३. किसी चीज का ढेर या राशि। पुं०=प्रदर (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैर-गाड़ी  : स्त्री० [हिं० पैर+गाड़ी] वह गाड़ी जो पैरों से चलाई जाय। जैसे—साइकिल, रिक्शा आदि।
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पैरना  : अ० [सं० प्लावन; प्रा० पवण; हिं० पौड़ना] पानी के ऊपर उतरते और हाथ-पैर चलाते हुए आगे बढ़ना। तैरना। संयो० क्रि०—जाना। वि० १. जो पैरता या तैरता हो। २. किसी बात या विषय में कुशल। दक्ष। पारंगत। स०=पहनना। (बुन्देल०) उदा०—जियना रजऊ न पैरो गारो।—लोक-गीत।
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पैरवी  : स्त्री० [फा०] १. किसी के पीछे-पीछे चलने की क्रिया या भाव। २. आज्ञा-पालन। (क्व०) ३. कोई काम या बात पूरी या सिद्ध करने के लिए किया जानेवाला निरंतर प्रयत्न। ४. आज-कल विशेष रूप से विधिक क्षेत्रों में किसी अभियोग या वाद (मुकदमें) के संबंध में की जानेवावी वे सब कार्रवाइयाँ जो जीतने अथवा अपना पक्ष प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए की जाती हैं। जैसे—वकीलों के यहाँ दौड़-धूप करना, अच्छे गवाह इकट्ठे करके उन्हें तैयार करना, कागजी सबूत आदि पेश करना आदि।
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पैरवीकार  : पुं० [फा०] १. वह जो किसी काम या बात की पैरवी करता हो। २. वह जो अदालत में किसी मुकदम की पैरवी करने के लिए नियुक्त हो।
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पैरहन  : पुं० [फा० पैराहन का संक्षिप्त] १. पहनने का कुरता। २. पहनने के कपड़े। पोशाक। वस्त्र। ३. एक प्रकार का कश्मीरी गहना।
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पैरा  : पुं० [हिं० पहरा या पैर ?] १. आया हुआ कदम। पड़े हुए चरण। पौरा। जैसे—नई बहूँ का पैरा अच्छा है। इसके आते ही आमदनी बढ़ गई। २. पैरों में पहनने का एक प्रकार का कड़ा। ३. किसी ऊँची जगह पर चढ़ने के लिए लकड़ियों के बल्ले आदि रखकर बनाया हुआ रास्ता। स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत में होनेवाली एक प्रकार की कपास जिसके पौधे बहुत दिनों तक रहते हैं। वि० [हिं० पैर] पैरोंवाला। पुं० [सं० पिटक; प्रा० पिड़ा] लकड़ी का वह खाना जिसमें सोनार अपना काँटा, बटखरे आदि रखते हैं। पुं० पयाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं० पैराग्राफ का सक्षि०] लेख का उतना अंश जितने में कोई एक बात पूरी हो जाय और इसी प्रकार के दूसरे अंश से कुछ जगह छोड़ कर अलग किया गया हो। अनुच्छेद। विशेष—जिस पंक्ति में एक पैरा समाप्त होता है, दूसरा पैरा उस पंक्ति को छोड़ कर नई पंक्ति से रम्भ किया जाता है।
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पैराई  : स्त्री० [हिं० पैरना] पैरने अर्थात् तैरने की क्रिया या भाव।
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पैराउ  : पुं०=पैराव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पैराक  : पुं० [हिं० पैरना] वह जो पैरने की कला में कुशल हो। तैराक।
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पैराग्राफ  : पुं०=पैरा (अनुच्छेद)।
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पैराना  : स० [हिं० ‘पैरना’ का प्रे०] किसी को पैरने या तैरने में प्रवृत्त करना। तैरना। सयो० क्रि०—देना।
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पैराफिन  : पुं० [अ०] एक प्रकार का गाढ़ा चिकना पदार्थ जो कुछ कोमल पत्थरों, और लकड़ियों से निकाला जाता और मोमबत्तियाँ आदि बनाने के काम आता है।
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पैराव  : पुं० [हिं० पैरना] नदी, नाले आदि का वह स्थान जो तैर कर पार करने योग्य हो। अधिक जलवाला गहरा स्थान।
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पैराशूट  : पुं० [अं०] १. कपड़े का एक प्रकार का थैला जो खुलने पर छाते के आकार का हो जाता है और जिसकी सहायता से हवाई जहाज़ों से गिरनेवाले आदमी या गिराई जानेवाली चीजें धीर-धीरे और सुरक्षित दशा में उतरकर जमीन पर आ टिकती हैं। २. एक तरह का बढ़िया गफ कपड़ा जिससे उक्त उपकरण बनाये हैं।
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पैरी  : स्त्री० [हिं० पैर] १. फूल, काँसे आदि का बना हुआ पैर में पहनने का एक प्रकार का चौड़ा गहना। २. फसल के वे कटे हुए पौधे जो दौनी करने के लिए फैलाये जाते हैं। ३. अनाज की दौनी। दँवाई। दौरी। स्त्री० [?] भेड़ों के बाल कतरने का काम। (गड़ेरिए) स्त्री०=पीढ़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैरेखना  : स०=परेखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पैरोकार  : पुं०=पैरवीकार।
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पैलगी  : स्त्री० [हिं० पायँ=पैर+लगना] पैरों पर सिर रखकर अथवा पैर छूकर किया जानेवाला अभिवादन। पालागन। प्रणाम।
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पैलां  : अव्य० हिं० ‘पहले’ का स्थानिक रूप। (पंजाब, राज०)
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पैला  : वि० [सं० पर] [स्त्री० पैली] उस ओर का। उस पार का। परला। उदा०—अजामिल, गनिकादि पैरि पार गाहि पैलों।—पूर। पुं० [हिं० पैली] १. नांद के आकार का मिट्टी का वह बरतन जिससे दूध-दही ढ़कते हैं। बड़ी पैली। २. अनाज तौलने की ४ सेर की एक नाप। ३. उक्त नाप की डलिया। ४. टोकरी। दौरी।
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पैली  : स्त्री० [सं० पातिली; प्रा० पाइली] १. मिट्टी का एक प्रकार का चौड़ा बरतन जिसमें अनाज या तेल रखते हैं। २. दे० ‘पैला’।
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पैवंद  : पुं० [फा०] १. किसी बड़ी चीज के साथ कोई छोटी चीज जोड़ने की क्रिया या भाव। २. फटे हुए कपड़े पर लगाई जानेवाली चकती। थिगली। ३. किसी पेड़ की वह टहनी जो काटकर उसी जाति के दूसरे पेड़ की टहनी में बाँधी जाती है। (ऐसी टहनी में लगनेवाले फल अधिक स्वादिष्ट होते हैं) मुहा०—(किसी बात में) पैवंद लगाना=कोई ऐसी कल्पित या नई बात कहना जिससे पहलेवाली किसी बात की त्रुटि या दोष दूर हो जाय, अथवा वह अच्छी ठीक जान पड़ने लगे। जैसे—तुम भी बातों में पैवंद लगाना खूब जानते हो।
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पैवंदी  : [फा०] १. जिसमें पैवंद लगाना या लगाया गया हो। २. (पौधा या वृक्ष) जो पैवंद या कलम लगाकर तैयार किया गया हो। (‘बीजू’ में भिन्न) ३. वर्णसंकर। दोगला। (व्यंग और परिहास) पुं० बड़ा आड़ू। शफतालू।
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पैवस्त  : वि० [फा०] [भाव० पैवस्तगी।] १. (तरल पदार्थ) जो किसी चीज के अंदर घुसकर सब भागों में फैल गया हो। अच्छी तरह सोखा और समाया हुआ। जैसे—सिर में तेल पैवस्त होना। २. (घन पदार्थ) जो किसी के अंदर धँसकर अच्छी तरह बैठ गया हो।
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पैशल्य  : पुं० [सं० पेशल+ष्यञ्] पेशलता। कोमलता।
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पैशाच  : वि० [सं० पिशाच+अण्] १. पिशाच-संबंधी। पिशाच का। २. पिशाच देश का। पुं० १. पिशाच। २. प्राचीन भारत की एक आयुधजीवी जाति।
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पैशाच-काय  : पुं० [सं० कर्म० स०] सुश्रुत में कही हुई कायों (शरीरों) में से वह काया (व्यक्ति) जिसके स्वभाव में उग्रता आदि दोष यथेष्ट हों और जिसे धार्मिकता, नैतिकता आदि का कोई ध्यान नहीं रहता।
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पैशाच-विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] धर्म-शास्त्रों के अनुसार आठ प्रकार के विवाहों में से एक। ऐसा विवाह जो सोई हुई कन्या का हरण करके या मदोन्मत्त कन्या को फुसलाकर छल से किया गया हो। स्मृतियों में इस प्रकार का विवाह बहुत निदंनीय कहा गया है।
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पैशाचिक  : वि० [सं० पिशाच+ठक्—इक] १. पिशाच-संबंधी। पिशाचों का। राक्षसी। २. पिशाचों की तरह का घोर और वीभत्स। जैसे—पैशाचिक अत्याचार।
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पैशाचिकी  : स्त्री० [सं०] वह विद्या जिसमें इस बात का अव्ययन और विवचन होता है कि भिन्न भिन्न जातियों और देशों में असुरों, राक्षसों आदि के क्या क्या रूप माने जाते हैं और उनके संबंध में लोगों की किस प्रकार की धारणाएँ और विश्वास होते हैं। (डेमनालोजी)
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पैशाची  : स्त्री० [सं० पैशाच+ङीप्] पिशाच (दे०) देश का प्राचीन प्राकृत भाषा जिससे आज-कल की दरद वर्ग की बोलियाँ निकली हैं। वि० १. पिशाच-संबंधी। पैशाचिक। २. पिशाचों की तरह का।
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पैशाच्य  : पुं० [सं० पिशाच+ष्यञ्] पिशाचों का अथवा पिशाचों का सा क्रूर और निर्दय स्वभाव।
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पैशिक  : वि० [सं०] शरीर की पेशियों से संबंध रखनेवाला। पेशी-संबंधी।
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पैशुन  : पुं० [सं० पिशुन+अण्] पैशुन्य।
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पेशुन्य  : पुं० [सं० पिशुन+ष्यञ्] किसी के पीठ पीछे उसे हानि पहुँचाने के लिए दूसरों से की जानेवाली उसकी निन्दा। चुगल खोरी। पिशुनता। (बैक-बाइटिंग)
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पैष्ट  : वि० [सं० पिष्ट+अण्] आटे का बना हुआ। आटे का बना हुआ।
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पैष्टिक  : वि० [सं० पिष्ट+ठञ्—इक]=पेष्ट।
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पैष्टी  : स्त्री० [सं० पैष्ट+ङीष्] एक तरह की मदिरा जो अन्न से बनाई जाती है।
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पैसंगी  : स्त्री० [फा० पेशीनगोई] भविष्यवाणी।
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पैसना  : अ० [सं० प्रविश; प्रा० पइस+ना (प्रत्य०)] प्रविष्ट होना। घुसना। पैठना।
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पैसरा  : पुं० [सं० परिश्रम] १. परिश्रम। मेहनत। २. झंझट। बखेड़ा।
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पैसा  : पुं० [सं० पाद, प्रा० पाप=चौथाई+अंश, प्रा० अंस या पणांश] १. ताँबे का सबसे अधिक चलता सिक्का जो कुछ दिन पहले तक एक आने का चौथा रुपये का चौंसठवा भाग होता था; पर अब जो एक रुपये का सौवाँ भाग हो गया है। २. धन-संपत्ति। दौलत। माल। जैसे—वह बहुत पैसेवाला आदमी है। मुहा०—पैसा धोकर उठाना=किसी देवता की पूजा की मनौती करके उसके नाम पर अलग पैसा निकालकर रखना। (मनौती पूरी हो जाने पर यह पैसा उसी देवता के पूजन में लगाया जाता है।)
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पैसार  : पुं० [हिं० पैसना] १. पैठ। प्रवेश। २. अंदर जाने का मार्ग। ३. प्रवेश द्वार।
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पैसारना  : स० [हिं० पैसार] पैठाना। घुसना। उदा०—पाँच भूत तेहि मह पैसारा।—जायसी।
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पैसिंजर  : पुं० [अं०] यात्री।
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पैसिंजर-गाड़ी  : स्त्री० [अं० पैसिंजर+हिं० गाड़ी] मुसाफिरों को ले जानेवाली वह रेलगाड़ी जिसकी चाल अपेक्षया कुछ मंद होती और जो प्रायः सभी स्टेशनों पर ठहरती चलती है। सवारी गाड़ी (डाक और एक्सप्रेस से भिन्न)।
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पैसेवाला  : वि० [हिं०] [स्त्री० पैसेवाली] धनवान्। मालदार। धनी।
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पैहम  : अव्य० [फा०] निरंतर। लगातार।
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पैहरा  : पुं० [देश०] कपास के खेत में रुई इकट्ठी करनेवाला मजदूर। पैकर। बिनिया।
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पैहारी  : वि० [सं० पयस्+आहारी] केवल दूध पीकर जीवित रहनेवाला। पुं० एक तरह के साधु जो केवल दूध पीकर रहते हैं।
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पों  : स्त्री० [अनु०] १. लंबी नाल के आकार का एक बाजा जिसमें फूँकने से पों शब्द निकलता है। भोंपा। २. उक्त बाजे से निकलनेवाला पों शब्द। मुहा०—(किसी की) पों बजाना=किसी की बात का समर्थन बिना समझे-बूझे करना। (व्यंग्य और परिहास) २. अधोवायु। पाद। मुहा०—पों बोलना=(क) हार मानना। (ख) थककर बैठ रहना। (ग) दिवाला निकालना। दिवालिया बनना।
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पोंकना  : अ० [अनु० पों से] १. बहुत डरकर पों पों शब्द करना। २. पतला पाखाना फिरना। पुं० पशुओं का पतला पाखाना होने का रोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोंका  : पुं० [सं० पुत्तिका] पौधों आदि पर उड़नेवाला एक तरह का फतिंगा। बोंका।
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पोंगरा  : वि०=पोंगा (मूर्ख)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० बच्चा।
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पोंगली  : स्त्री० [हिं० पोंगा] १. वह नरिया जो दोबारा चाक पर से बनाकर उतारी गई हो। (कुम्हार) २. दे० ‘पोंगी’।
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पोंगा  : पुं० [सं० पुटक=खोंखला बरतन] [स्त्री० अल्पा० पोंगी] १. बाँस की नली। बाँस का खोखला पोर। २. धातु का बना हुआ उक्त प्रकार का नल। ३. पैर की लंबी हड्डी। नली। वि० १. पोला। २. निरा मूर्ख। ना-समझ। ३. निकम्मा। बेकाम। स्त्री० मूर्खतापूर्ण आचरण या व्यवहार।
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पोगियाँ  : स्त्री०=सतभइया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोंगी  : स्त्री० [हिं० पोंगा] १. छोटी पोली नली। २. नरकुल की वह नली जिस पर जुलाहे तागा लपेटकर ताना या भरनी करते हैं। ३. चार या पाँच अंगुल के बाँस की वह पोली नली जो बाँस के पंखे की डंडी में उन्हें घुमाने या चलाने के लिए लगी होती है। हाँकनेवाले इसे पकड़कर पंखे को घुमाते हैं। ४, ऊँख, गन्ने आदि का पोर।
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पोंघना  : अ०=पहुँचना। (बुन्दे०)
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पोंछ  : स्त्री०=पूँछ (दुम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोंछन  : स्त्री० [हिं० पोंछना] १. पोंछने की क्रिया या भाव। २. किसी पात्र में लगी हुई वस्तु का बचा हुआ वह अंश जो पोंछकर निकाला जाता है। पद—पेट की पोंछन=स्त्री की अंतिम संतान। ३. पोंछने के काम आनेवाला कपड़ा या कोई चीज। झाड़न।
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पोंछना  : स० [सं० प्रोञ्छन, प्रा० पोंछन] १. सूखे कपड़े के टुकड़े को इस प्रकार किसी अंग, वस्तु या स्थान पर फेरना कि वह उस स्थान की आर्द्रता या नमी सोख ले। जैसे—रूमाल से आँसू या पसीना पोंछना; नहाकर तौलिये से गीला शरीर पोंछना। २. किसी स्थान पर जमी हुई मैल, बना हुआ चिह्न आदि हटाने आदि या दूर करने के उद्देश्य से उस पर सूखे अथवा कपड़े का टुकड़ा रगड़ते फेरना। जैसे—जमीन या फरश पोंछना, तख्ता या स्लेट पोंछना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। —लेना। पुं० १. वह चीज जो कुछ पोंछने का काम में आती हो। जैसे—पैर-पोंछना=पाँवदान। २. वह चीज जो पोंछने पर निकलती हो। जैसे—पेट पोंछना। (देखें)
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पोंटा  : पुं० [देश०] १. नाक या मल। २. पोटा। (देखें)
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पोंद  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली।
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पोंद  : स्त्री० [सं० पाणु या हिं० पेंदा] १. मल-त्याग की इंद्रिय। गुदा। २. चूतड़।
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पोंपी  : स्त्री० [अनु०] १. छोटी गोलाकार नली। २. उक्त आकार का कोई ऐसा बाजा जिससे ‘पों’ ‘पों’ शब्द निकलता हो।
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पोआ  : पुं० [सं० पुत्रक] १. साँप का छोटा बच्चा। संपोला। २. कोई छोटा कीड़ा।
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पोआना  : स० [हिं० ‘पोना’ का प्रे०] किसी से पोने का काम कराना।
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पोइणि  : स्त्री०=पद्मिनी (कमलिनी)।
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पोइया  : स्त्री० [फा० पोयः] घोड़े की वहचाल जिसमें वे दो दो पैर फेंकते हुए आगे बढ़ते हैं। सरपट चाल। मुहा०—पोइयों जाना=घोड़े का दोनों पैर फेंकते हुए दौड़ना।
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पोइसों  : स्त्री० [फा० पोयः] दे० ‘पोइया’। अव्य० [फा० पोश] देखो। हटो। बचो। विशेष—इस शब्द का प्रयोग मुख्यतः पशु हाँकने और बैल-गाड़ियाँ आदि चलानेवाले लोग राह चलतों को सावधान करने के लिए करते हैं।
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पोई  : स्त्री० [सं० पोत की या पोदकी] १. वर्षा तथा शिशिर ऋथुओं में होनेवाली एक प्रसिद्ध लता जिसकी पान की तरह की मोटी हरी पत्तियाँ होती हैं; जिसका साग, पकौड़े आदि बनाये जाते हैं। वैद्यक में इसकी पत्तियाँ वात और पित को दूर करनेवाली मानी गई हैं। २. किसी पौधे का छोटा और नरम कल्ला। अंकुर। जैसे—ईख की पोई। क्रि० प्र०—निकलना।—फूटना। ३. गेहूँ, जौ मटर आदि का छोटा नया पौधा। ४. दे० ‘पोर’।
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पोकल  : वि० [देश०] १. पुलपुला। २. कोमल। नाजुक। ३. दुबला। कमजोर। ४. खोखला। पोला। ५. तत्त्व हीन। निःसार।
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पोका  : पुं०=पोंका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोकार  : पुं०=पुकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोख  : पुं० [सं० पोषण] १. पालने-पोसने की क्रिया या भाव। २. पालन, पोषण आदि के कारण उत्पन्न होनेवाली पारस्पसिक ममता। ३. दे० ‘पोस’।
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पोख-नरी  : स्त्री० [हिं०] ढरकी के बीच का गड्ढा जिसमें नरी लगाकर कपड़ा बुना जाता है।
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पोखना  : स० [सं० पोषण] पालना। पोसना। स०=पोंकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=पोखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोखर  : पुं०=पोखरा।
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पोखरा  : पुं० [सं० पुष्कर] [स्त्री० पोखरी] वह गहरा तथा अधिक विस्तृत गड्ढा जिसमें बरसाती पानी जमा होता हो। छोटा ताल। पुं० [?] वह आधान जिसमें पाखाना किया जाता है और पानी डालने से बहकर नाले में चला जाता है।
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पोखराज  : पुं०=पुखराज।
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पोखरी  : स्त्री० हिं० ‘पोखरा’ का स्त्री० अल्पा० रूप।
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पोगंड  : पुं० [सं० √पू (पवित्र करना)+विच्, पो,+गंड ब० स०] १. पाँच से दस वर्ष तक की अवस्था या बालक। २. वह जिसके शरीर में कोई अंग अधिक, कम या विकृत हो।
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पोगर  : पुं०=पोखरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोच  : वि० [फा०] १. निकृष्ट। खराब। बुरा। २. क्षुद्र। तुच्छ। ३. सब प्रकार के गुणों शक्तियों आदि से रहित या हीन। ४. निःसार। ५. अकुलीन। ६. आवारा।
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पोचाई  : स्त्री० [?] बिहारी आदिवासियों और कोल-भीलों के पीने की एक प्रकार की देशी शराब जो भात और मांड में कोई जंगली जड़ी-बूटी डालकर बनाई जाती है।
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पोचारा  : पुं०=पुचारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोची  : स्त्री० [हिं० पोच] पोच अर्थात् व्यर्थ, निकम्मा अथवा अकुलीन होने की अवस्था या भाव। पोचपन।
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पोछना  : स० १.=पोंछना। २.=पोतना। अ०=पहुँचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोट  : पुं० [सं०√पुट् (मिलना)+घञ्] १. घर की नीव। २. मेल मिलान। स्त्री० [सं० पोट=ढेर, हिं० पोटली] १. ऐसी पोटली या गठरी जो चारों ओर से कपड़े, कागज, टाट आदि से बँधी हुई हो। २. ढेर। राशि। स्त्री० [सं० पृष्ठ] पुस्तकों की सिलाई में उसका पुट्ठा। स्त्री० [सं० पोत=वस्त्र] शव पर डाली जानेवाली चादर। कफन के ऊपर का कपड़ा।
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पोटक  : पुं० [सं०√पुट्+अच्,+कन्] सेवक। नौकर।
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पोटगल  : पुं० [सं० पोट√गल् (चुआना, खाना]+अच्] १. नरसल। नरकट। २. काँस। ३. मछली। ४. एक प्रकार का साँप।
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पोटडाक  : स्त्री० [हिं० पोट+डाक] १. डाक से चीजें भेजने को वह व्यवस्था जिसमें चीजें आदि चारों ओर से कपड़े, टाट आदि से सीकर या बक्सों में बंद करके भेजी जाती हैं। (पारसल पोस्ट) २. इस प्रकार भेजी हुई कोई चीज।
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पोटना  : स० [हिं० पुट] १. इकट्ठा करना। समेटना। २. अपने अधिकार या हाथ में करना। ३. फुसला या बहकाकर अपने पक्ष में करना।
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पोटरी  : स्त्री०=पोटली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोटलक  : पुं० [सं० पोट√ली (समाना)+ड,+क] [स्त्री० अल्पा० पोटलिका] पोटली।
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पोटला  : पुं० [हिं० पोटलक] [स्त्री० अल्पा० पोटली] बड़ी पोटली।
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पोटली  : स्त्री० [सं० पोटलिका] १. बहुत छोटि गठरी जिसमें आवश्यक वस्तुएँ रखकर लोग साथ लेकर विशेषतः बगल में रखकर चलते हैं। २. छोटी थैली।
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पोटा  : पुं० [सं० पुट=थैली] [स्त्री० अल्पा० पोटी] १. पेट की थैली। उदराशय। जैसे—चिड़िया या बकरी का पोटा। मुहा०—पोटा तर होना=पास में धन-संपत्ति होने से प्रसन्नता और निश्चिंतता होना। २. हृदय में होनेवाला उत्साह, बल और साहस। जैसे—किसका पोटा है जो तुम्हारे सामने आकर खड़ा हो। ३. समाई। सामर्थ्य। जैसे—जितना जिसका पोटा होगा उतना ही वह खरच करेगा। ४. आँख की पलक। ५. उँगली का अगला भाग या सिरा। ६. चिड़िया का वह छोटा बच्चा जिसके अभी पर न निकले हों। ७. नाक का मल। सींड। क्रि० प्र०—हना। स्त्री० [सं०√पुट्+अच्+टाप्] १. वह स्त्री जिसमें पुरुषों के से लक्षण हों। जैसे—दाढ़ी या मूँछ के स्थान पर बाल। २. दासी। सेविका। पुं० घड़ियाल।
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पोटास  : पुं० [अं०] एक प्रकार का क्षार जो वनस्पतियों और लकड़ियों की राख, कई प्रकार के खनिज पदार्थों और कल-कारखानों की कोई तरह की फालतू चीजों में से निकलना और खाद, साबुन आदि बनाने के काम आता है।
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पोटिक  : पुं० [सं०] फोड़ा।
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पोटिक  : पुं० [हिं० पोट] पोट अर्थात् बोझा ढोनेवाला मजदूर। पोटिया।
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पोट्टली  : स्त्री० [सं०=पोटलिका, पृषो० सिद्धि]=पोटली।
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पोठी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोढ़ (ा)  : वि० [सं० प्रौढ़] [स्त्री० प्रौढ़ी] १. जो यथेष्ट रूप से वयस्क हो चुका हो। २. हृष्ट-पुष्ट। ३. कठोर। ४. दृढ़। पक्का।
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पोढ़ना  : अ० [हिं० पोढ़] १. दृढ़ होना। मजबूत होना। २. निश्चित या पक्का होना। ३. उपयुक्त अथवा यथेष्ट पद को प्राप्त होना। स० १. दृढ़ या पुष्ट होना। पक्का या मजबूत करना।
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पोत  : पुं० [सं० √पू+तन्] १. किसी पशु या पक्षी का छोटा बच्चा। २. दस वर्ष की अवस्थावाला हाथी। ३. छोटा पौधा या उसमें से निकला हुआ नया कल्ला। ४. वह गर्भस्थ पिंड जिस पर अभी झिल्ली न चढ़ी हो। ५. पहनने के वस्त्र। पोशाक। ६. सूत के प्रकार, बुनावट आदि के विचार से कपड़े के तल की चिरनई और मोटाई। (टेक्सचर) ७. पानी पर चलने वाला यान।। जैसे—जहाज, नाव आदि। पुं० [हिं० पोतना] पोतने की क्रिया या भाव। पुताई। पुं० [सं० प्रवृत्ति, प्रा० पउत्ति] १. प्रकृति। स्वभाव। २. ढब। ढंग। तरीका। ३. कोई काम करने का क्रमागत अवसर। दाँव। बारी। पुं० [फा० पोतः] जमीन का लगान। भू-कर। मुहा०—पोत पूरा करना=उसी प्रकार जैसे-तैसे कोई काम या त्रुटि पूरी करना जिस प्रकार चुकाने के लिए भू-कर या लगान इकट्ठा करते हैं। पुं० १.=पुत्र। २.=पौत्र। स्त्री० [सं० प्रोता, प्रा० पोता] १. माला की गुरिया या दाना। २. कांच आदि की गुरिया जो माला के रूप में पिरोई जाती है। उदा०—मानों मनि मोतिन लाल माल मागे पोति है।—सेनापति।
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पोतक  : पुं० [सं० पोत√कै (शब्द करना)+क] १. छोटा बच्चा। २. छोटा पौधा या कल्ला। ३. वह स्थान जहाँ घर बनाया जाने को हो।
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पोतकी  : स्त्री० [सं० पोतक+ङीष्] पोई नाम की लता।
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पोत-घाट  : पुं० [सं० पोत+हिं० घाट] समुद्र आदि के किनारे बना हुआ वह पक्का घाट या घेरा जिसके अंदर आकर यात्रियों आदि को उतारने-चढ़ाने के लिए जहाज ठहरते हैं। (पिअर)
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पोतड़ा  : पुं० [हिं० पोतना+ड़ा (प्रत्य०)] वह कपड़ा जो नन्हें बच्चों के नीचे इसलिए बिछाया जाता है कि उसका गुह-मूत उसी पर गिरे या लगे, नीचेवाला बिस्तर खराब न करे। पद—पोतड़ों के अमीर=सम्पन्न घराने में उत्पन्न होनेवाला।
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पोतदार  : पुं० [हिंच पोत=भूकर+फा० दार] १. वह जो लगान या कर का रुपया जमा करके रखता हो। २. खजानची। ३. वह जो खजाने में रुपए, रेजगी आदि परखकर थैलियों में रखने का काम करता हो।
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पोत-धारी (रिन्)  : पुं० [सं० पोत√धृ (धारण करना)+णिनि] जहाज का अधिकारी या मालिक।
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पोत-ध्वज  : पुं० [सं० ष० त०] जहाज़, बड़ी नाव आदि का वह झंड़ा जो उसके राष्ट्र का सूचक होता है। (एन्साइन)
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पोतन  : वि० [सं०√पू+तन] १. पवित्र या शुद्ध करनेवाला। २. पवित्र। शुद्ध। स्त्री० [हिं० पोतना] पोतने की क्रिया, ढंग या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोतनहर  : स्त्री० [हिं० पोतना+हर (प्रत्य०)] १. वह बरतन जिसमें आँगन, चौका आदि पोतने के लिए मिट्टी घोलकर रखी जाती है। २. वह स्त्री० जो आँगन चौका आदि पोतने का काम करती है। स्त्री० [?] अँतड़ी। आँत।
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पोतना  : स० [सं० प्लुत; प्रा० पुत+ना] १. किसी विशिष्ट तरल पदार्थ में तर किये हुए कपड़े के टुकड़े को इस प्रकार किसी चीज पर फेरना कि उस पर तरल पदार्थ की तह चढ़ जाय। लेप करना। लीपना। जैसे—किवाड़ों पर रंग पोतना। २. किसी गीले या सूखे पदार्थ को किसी वस्तु पर इस प्रकार लगाना कि वह उस पर बैठ जाय या जम जाय। जैसे—किसी के मुँह पर गुलाल पोतना। ३. आँगन, चौके आदि को पवित्र करने के उद्देश्य से उस पर गोबर, मिट्टी आदि का लेप करना। ४. लाक्षणिक अर्थ में, किसी चीज या बात के ऊपर ऐसी क्रिया करना कि वह छिप या ढक जाय। पुं० वह कपड़ा जिससे कोई चीज पोती जाय। पोतने का कपड़ा।
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पोत-प्लव  : पुं० [सं० पोत√प्लु+अच्] मल्लाह। माँझी।
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पोत-भंग  : पुं० [सं० ष० त०] जहाज पर चट्टानों आदि से टकराकर टूट-फूट जाना।
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पोत-भार  : पुं० [सं० मध्य स०] पोत या जलयान पर लादा जानेवाला या लदा हुआ माल। (कारगो)
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पोत-भारक  : पुं० [सं०] वह पोत या जलयान जो माल ढोता हो। (कारगोशिप)
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पोतला  : पुं० [हिं० पोतना] तवे पर घी पोतकर सेंकी हुई चपाती। पराँठा। पुं०=पुतला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोत-वणिक् (ज्)  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] वह व्यापारी जो जहाजों पर लादकर माल भेजता या माँगता हो।
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पोतवाह  : पुं० [सं० पोत√वह्+अण्] मल्लाह। माँझी।
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पोत-संतरण  : पुं० [ष० त०] कारखाने से बनकर निकले हुए जहाज को पहली बार समुद्र में उतारना या तैरना।
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पोता  : पुं० [सं० पौत्र; प्रा० पोत्त] [स्त्री० पोती] बेटे का बेटा। पुत्र का पुत्र। पुं० [हिं० पोतना] १. वह कपड़ा या कूची जिससे घरों में चूना पोता या फेरा जाता है। २. धुली हुई मिट्टी जो आँगन, चौका, दीवार आदि पोतने के काम आती है। क्रि० प्र०—फेरना।—लगाना। मुहा०—पोता फेरना=पूरी तरह से चौपट या बरबाद करना। चौका लगाना। पुं० [फा० फ़ोतः] १. भूमिकर। लगान। पोत। २. अंड-कोश। पुं० [सं० पोत] १५ या १६ अंगुल लंबी एक प्रकार की मछली जो भारत की प्रायः सभी नदियों में मिलती है। पुं० [सं०√पू+तृच्] १. यज्ञ में सोलह प्रधान ऋत्विजों में से एक। २. वायु। हवा। ३. विष्णु। पुं०=पोटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोताई  : स्त्री० [हिं० पोतना] पोतने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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पोताच्छादन  : पुं० [सं० पोत+आ√छद्+णिच्+ल्यु—अन] तंबू। छौलदारी। डेरा।
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पोताधान  : पुं० [सं० पोत-आधान, ष० त०] मछलियों के बच्चों का गोल या समूह। छाँवर।
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पोतारा  : पुं०=पुतारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोतारी  : स्त्री०=पुतारा।
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पोताश्रय  : पुं० [सं० पोत-आश्रय, ष० त०] समुद्र के किनारे का वह प्राकृतिक या कृत्रिम स्थान जहाँ पहुँचकर जहाज ठहरते तथा माल आदि उतारते-चढाते हैं। बन्दरगाह। (हार्बर)
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पोतास  : पुं० [सं०] भीमसेनी कपूर। बरास।
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पोति  : स्त्री०=पोत (काँच की गुरिया)।
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पोतिका  : स्त्री० [सं०=पूर्तिका; पृषो० सिद्धि] १. पोई की बेल। २. कपड़ा। वस्त्र।
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पोतिया  : पुं० [सं० पोत] १. वह कपड़ा जो साधु लुंगी की तरह कमर में बाँधकर पहनते हैं। २. पान, सुपारी, सुरती आदि रखने की छोटी थैली या बटुआ। ३. एक प्रकार का खिलौना। वि० [?] बाद में आने या पड़नेवाला। परवर्ती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोती  : स्त्री० [हिं० पोतना] १. पोतने की क्रिया या भाव। पोताई। २. मिट्टी का वह लेप जो हँड़िया आदि की पेंदी पर इसलिए चढ़ाया जाता है कि उसमें अधिक आँच न लगे। उदा०—जैन नीरसों पोती किया।—जायसी। २. किसी गरम चीज को ठंढ़ा रखने के लिए उस पर पानी से तर कपड़ा फेरने की क्रिया या भाव। ३. दे० ‘पुतारा’। स्त्री० हिं० पोता (पौत्र) का स्त्री०।
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पोत्या  : स्त्री० [सं० पोत+य+टाप्] पोतों अर्थात् जलयानों का समूह।
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पोत्र  : पुं० [सं०√पू+ष्ट्रन्] १. सूअर का खाँग। २. वज्र। ३. एक प्रकार का यज्ञ-पात्र जो पोता नामक याजक के पास रहता था। ४. जहाज या नाव। पोत। ५. नाव खेने का डाँड़ा।
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पोत्रायुध  : पुं० [सं० पोत्र-आयुध, ब० स०] जंगली सूअर।
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पोत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० पोत्र+इनि] सूअर।
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पोथा  : पुं० [हिं० पोथी] १. बहुत बड़ी पोथी या पुस्तक। (व्यंग्य और हास्य) २. कागजों आदि की बहुत बड़ा गड्डी या पुलिंदा।
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पोथिया  : पुं०=पोतिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोथी  : स्त्री० [सं० पुस्तिका; प्रा० पोत्थिआ] छोटी पुस्तक। विशेषतः कोई धार्मिक पुस्तक। स्त्री० [हिं० पोट ?] प्याज, लहसुन आदि की गाँठ।
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पोदना  : पुं० [अनु० फुदकना] १. एक छोटी चिड़िया। २. बहुत ही ठिंगना या नाटा आदमी। ३. प्रेत या भूत। पुं०=पुदीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोदीना  : पुं०=पुदीना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोद्दार  : पुं०=पोतदार। (देखें)
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पोन  : पुं०=पवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=पोंद(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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पोना  : स० [सं० पूय; हिं० पूवा+ना (प्रत्य०)] १. गुँधे हुए आटे की लोई को उँगलियों और हथेलियों से बार बार दबाते तथा बढ़ाते हुए रोटी के आकार में लाना। जैसे—आटा पोना। २. (रोटी) पकाना या सेंकना। स०=पिरोना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोप  : पुं० [अं०] रोम के कथोलिक गिरजों का सर्वप्रधान आचार्य या धर्म गुरु।
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पोपटा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का जंगली झाड़ी जिसे झड़बेरी या करौंदा भी कहते हैं।
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पोपला  : वि० [हिं० पुलपुला] [स्त्री० पोपली] १. जो अंदर से बिलकुल खाली होने के कारण ऊपर से पचक या दब गया हो। पिचका और सिकुड़ा हुआ। २. (मुँह) जिसके अंदर के दाँत टूट या निकल गये हों और इसी लिए अंदर से पोला हो गया हो।
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पोपलाना  : अ०, स०=पुपलाना।
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पोपली  : वि० स्त्री० ‘पोपला’ का स्त्रीलिंग रूप। स्त्री०= पुपली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोप-लीला  : स्त्री० [अं० पोप+सं० लीला] पोपों आदि धर्म-पुरोहितों के आडंबरपूर्ण कार्य।
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पोमचा  : पुं० [?] कपड़ों की छपाई, बुनाई, रँगाई आदि में ऐसी आकृति जिसमें चारों कोनों पर चार कमल या बूटे हों और बीच में एक वैसा की कमल या बूटा हो और बाकी जमीन खाली हो।
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पोमिनि  : स्त्री०=पद्मिनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोय  : स्त्री०=पोई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोयण  : पुं० [सं० पद्य] कमल। उदा०—मेवाड़ो तिण माँह पोयण फूल प्रतायसी।—पृथ्वीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोयणि  : स्त्री०=पद्मिनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोया  : पुं० [सं० पोत] १. वृक्ष का नरम पौधा। २. बहुत छोटा बच्चा। जैसे—चिड़िया या साँप का पोया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोर  : स्त्री० [सं० पर्व] १. उँगली, अँगूठे आदि में का कोई जोड़। २. उक्त के दो जोड़ों के बीच का अंश, भाग या विस्तार। ३. अनेक गाँठों या जोड़ों वाली किसी वस्तु के दो भागों या जोड़ों के बीच का अंश, भाग या विस्तार। जैसे—ईख या बाँस के पोर। ४. शरीर का अंग। ५. पृष्ठ भाग। पीठ। उदा०—निकसे सबै कुँवर असवारी उच्चश्रवा के पोर।—सूर। ६. जूए में किसी के जिम्मे बाकी पड़ने वाली रकम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोरा  : पुं० [हिं० पोर] १. लकड़ी का मंडलाकार टुकड़ा। लकड़ी का गोल कुंदा। २. दे० ‘पोर’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोरिया  : स्त्री० [हिं० पोर] उंगलियों के पोरों पर पहनने का एक तरह का पुरानी चाल का गहना।
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पोरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कड़ी मिट्टी। स्त्री०=पोरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोरुआ  : पुं०=पोरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोर्ट  : पुं० [पुर्त्त० पोर्टो] अंगूर के रस से बनी हुई एक प्रकार की शराब जो धूप में सड़ाकर बनाई जाती है। इसमें नशा बहुत कम होता है; पर यह पुष्टकारक होती है। पुं० [अं०] बंदरगाह।
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पोल  : स्त्री० [हिं० पोला] १. पोले होने की अवस्था या भाव। पोलापन। २. किसी चीज के अंदर का पोला स्थान। खाली जगह। अवकाश। जैसे—ढोल के अंदर पोल। ३. अंदर का आवश्यक भराव न होने या न रह जाने के फल-स्वरूप होनेवाली शून्यता। ३. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसी स्थिति जो ऊपर से देखने में तो आडंबरपूर्ण हो, परंतु जिसमें सार या तत्त्व कुछ भी न हो। मुहा०—(किसी की) पोल खुलना=भीतरी दुरवस्था, सारहीनता आदि प्रकट हो जाना। छिपा हुआ दोष या बुराई प्रकट हो जाना। भंडा फूटना। (किसी की) पोल खोलना=ऐसा कार्य करना जिससे किसी के अंदर की दुरवस्था, दोष, सारहीनता आदि बातें सब पर प्रकट हो जायँ। पुं० [सं० प्रतोली; प्रा० पओली] १. नगर का मुख्य प्रवेश द्वार। उदा०—अबिनासी की पोल पर जी, मीराँ करै छै पुकार।—मीराँ। २. बड़ा दरवाजा। फाटक। ३. घर का आँगन। सहन। पुं० [सं०√पुल् (उठना, महत्व का होना)+ण] एक प्रकार का फुलका। पोली।
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पोलक  : पुं० [हिं० पूला] लंबे बाँस के छोर पर चरखी में बँधा हुआ पयाल जिसे लुक की तरह जलाकर मस्त हाथी को डराते और वश में करते हैं।
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पोलच (ा)  : पुं० [हिं० पोल] १. वह परती भूमि जो पिछले वर्ष रबी बोने के पहले जोती गई हो। जौनाल। २. ऐसा ऊसर जो बहुत दिनों से जोता-बोया न गया हो।
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पोला  : वि० [हिं० फूलना, या सं० पोल=फुलका] [स्त्री० पोली] १. जिसके अंदर कुछ न हो, खाली जगह या हवा ही हो। अंदर से खाली। खोखला। ‘ठोस’ का विपर्याय। जैसे-पोला छड़, पोली नली। २. जिसके नीचे का तल कड़ा या ठोस न हो। जिसके अंदर उचित या पूरा भराव न हो। जो कड़ा या ठोस न हो। जैसे—पोली जमीन। ३. जिसमें विशेष तत्त्व या सार न हो। निस्सार और इसी लिए प्रायः निरर्थक या रद्दी। थोथा। पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसकी छाल से रस्सी बनाई जाती है। इसकी लकड़ी साफ और नरम होती है। पुं०=पूला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोलाद  : पुं०=फौलाद।
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पोलारी  : स्त्री० [हिं० पोल] छेनी के आकार का एक छोटा औजार जिससे सुनार, कंगन, घुँघरु आदि के दाने बनाते हैं।
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पोलाव  : पुं०=पुलाव।
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पोलिया  : स्त्री० [हिं० पोला] पैरों में पहनने का एक प्रकार का पोला गहना। पुं०=पौरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोली  : स्त्री० [सं०√पुल्+ण+ङीष्] एक प्रकार की पूरी। स्त्री० [देश०] जंगली कुसुम या बर्रे जिसका तेल मोमजामा बनाने के काम में आता है।
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पोलीड़ा  : पुं० [हिं० पोल=फाटक] फाटक पर पहरा देनेवाला दरबान। (राज०)
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पोलो  : पुं० [अं०] घोड़ों पर चढ़कर खेला जानेवाला गेंद का खेल। चौगान।
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पोवना  : स०=पोना।
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पोश  : वि० [फा०] (शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर) १. छिपाने या ढकनेवाला। जैसे—मेजपोश, तख्तपोश आदि। २. पहननेवाला। जैसे—सफेदपोश। पुं० सामने से हटाने का संकेत जिसका अर्थ है—बचो, हट जाओ।
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पोशाक  : स्त्री० [फा० पोश या पोशिश से उर्दू] १. पहनने के कपड़े। परिधान। २. वे कपड़े जो किसी प्रदेश के रहनेवाले विशेष रूप से पहनते हों। पहनावा।
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पोशाका  : पुं० [फा० पोशाकः] १. एक प्रकार का कपड़ा जो गाढ़े से महीन औरतनजेब से मोटा होता है। २. अच्छा या बढ़िया कपड़ा।
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पोशाकी  : वि० [हिं० पोशाक] पोशाक या पहनावे से संबंध रखनेवाला। स्त्री० वेतन के अतिरिक्त वह धन जो नौकरों को नियमित रूप से अथवा विशिष्ट अवसरों पर अपनी पोशाक या पहनने के कपड़े बनवाने के लिए दिया जाता है।
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पोशीदगी  : स्त्री० [फा०] पोशीदा (छिपा हुआ) होने की अवस्था या भाव। गुप्ति। छिपाव।
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पोशीदा  : वि० [फा० पोशीदः] १. ढका या ढाँका हुआ। २. छिपा या छिपाया हुआ। ३. गुप्त।
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पोष  : पुं० [सं०√पुष् (पुष्टि)+घञ्] १. पोषण। पुष्टि। २. अभ्युदय। उन्नति। ३. बढ़ती। वृद्धि। ४. धन-संपत्ति। ५. तुष्टि। तृप्ति।
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पोषक  : पुं० [सं०√पुष्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० पोषिका] दे० ‘विटामिन’।
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पोषक-तत्त्व  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘विटामिन’।
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पोषण  : पुं० [सं०√पोषण+ल्युट्—अन] [वि० पोषित, पुष्ट, पोषणीय, पोष्य] १. किसी को इस उद्देश्य से खिलाने-पिलाने और देखते-भालते रहना कि वह सुखपूर्वक जीवन बिता सके, और ठीक तरह से बढ़ता चले। २. किसी वस्तु में आवश्यक और उपयोगी तत्त्व पहुँचाकर उसे अच्छी तरह से बढ़ाना या पुष्ट करना। ३. किसी रूप मे बढ़ाने की क्रिया या भाव। वर्धन। (मेन्टेनेन्स, उक्त तीनों अर्थो में) ४. किसी काम या बात की पुष्टि या समर्थन। जैसे—(क) किसी के मत का पोषण करना। (ख) किसी का पृष्ठ-पोषण करना।
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पोषण-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह वृत्ति जो किसी को भरण-पोषण या जीविका-निर्वाह के लिए दी जाती हो। (मेन्टेन्स एलाउन्स)
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पोषणीय  : वि० [सं०√पुष्+अनीयर्] जिसका पोषण करना आवश्यक या उचित हो।
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पोषध  : पुं० [सं० उपवसथ-उपोषध-पोषध] उपवास व्रत। (बौद्ध)
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पोषना  : स०=पोसना।
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पोषियता (तृ)  : वि०, पुं० [सं०√पुष्+णिच्+तृच्]= पोषक।
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पोषाहार  : पुं० [सं० पोष-आहार, ष० त०] ऐसा आहार या खाद्य पदार्थ का ऐसा तत्त्व जिससे प्राणियों के शरीर की पोषण और वर्धन होता है। (न्यूट्रिशन)
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पोषित  : भू० कृ० [सं०√पुष्+णिच्+क्त] १. जिसका पोषण किया गया हो अथवा हुआ हो। २. पाला हुआ। पालित।
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पोष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं०√पुष्+तृच्]=पोषक।
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पोष्य  : वि० [सं०√पुष्+ण्यत्] १. जिसका पालन-पोषण करना आवश्यक या उचित हो। २. जिसका पालन-पोषण किया जाने को हो। ३. पाला हुआ अर्थात् गोद लिया हुआ। जैसे—पोष्य पुत्र। पुं० नौकर। सेवक।
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पोष्य-वर्ग  : पुं० [ष० त०] ऐसे संबंधित लोग जिनका भरण-पोषण तथा रक्षण आवश्यक रूप से करना उचित हो।
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पोस  : पुं० [सं० पोषण; हिं० पोसना] १. पालने-पोसने की क्रिया या भाव। २. पालन-पोषण के फलस्वरूप होनेवाली पारस्परिक ममता या स्नेह। वह स्थिति जिसमें किसी का ठीक से तरह पालन-पोषण होता हो। मुहा०—पोस मानना=उक्त प्रकार की स्थिति को अनुकूल और हितकर समझकर उसमें शांति और सुखपूर्वक रहना। जैसे—(क) साधारणतः सभी कुत्ते पोस मानते हैं। (ख) यहाँ की जमीन में कपास के पौधे पोस नहीं मानते। विशेष—जीव-जंतुओं के सम्बन्ध में इस शब्द के अन्तर्गत पालनकर्ता या पोषक के प्रति कृतज्ञ और निष्ठ रहने का भाव भी सम्मिलित रहता है। पुं० [फा० पोश] पहनावा। पोशाक।
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पोसन  : पुं०=पोषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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पोसना  : स० [सं० पोषण] १. पोषण अर्थात् पालन या रक्षा करना। पालना। २. पशु-पक्षी आदि में से किसी को अपने पास रखकर उसका पालन करना। जैसे-कुत्ता या तोता पोसना। ३. लाक्षणिक रूप में कोई दुर्व्यसन आदि जान-बूझकर अपने साथ लगाये रखना और उससे बचने या उसे दूर करने का कोई विशेष प्रयत्न न करना। (परिहास और व्यंग्य)।
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पोस्ट  : स्त्री० [अं०] १. जगह। स्थान। २. कर्मचारी या कार्यकर्ता का पद। ३. नौकरी। ४. डाक विभाग।
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पोस्ट-आफिस  : पुं० [अं०] डाकघर। डाकखाना।
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पोस्टकार्ड  : पुं० [अं०] टिकट लगा हुआ मोटे कागज का वह टुकड़ा जिस पर पत्र लिखकर डाक के द्वारा कहीं भेजते हैं।
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पोस्टमार्टम  : पुं० [अं०]=शव-परीक्षा
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पोस्टमास्टर  : पुं० [अं०] किसी डाकघर का सबसे बड़ा और प्रधान अधिकारी।
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पोस्टमैन  : पुं० [अं०] डाक में आई चिट्ठियाँ आदि घर-घर पहुँचानेवाला कर्मचारी। डाकिया। चिट्ठीरसाँ।
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पोस्टर  : पुं० [अं०] किसी बड़े कागज पर मोटे अक्षरों में छपी हुई वह सूचना जो जनता की जानकारी के लिए जगह-जगह दीवारों आदि पर चिपकाई जाती है। प्रज्ञापक।
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पोस्टल  : वि० [अं०] १. डाक-विभाग संबंधी। जैसे—पोस्टल गाइड। २. डाक विभाग के द्वारा आने या जानेवाला। जैसे—पोस्टल आर्डर।
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पोस्टल आर्डर  : पुं० [अं०] कहीं कुछ रुपए भेजने की एक विशिष्ट प्रकार की व्यवस्था (मनी आर्डर से भिन्न) जिसमें निश्चित मूल्य का कोई ऐसा कागज खरीदकर कहीं भेजा जाता है, जिसका प्राप्य धन किसी डाकखाने से लिया जा सकता है।
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पोस्टल-गाइड  : स्त्री० [अं०] वह पुस्तक जिसमें डाक द्वारा भेजे जानेवाले पत्रों, पारसलों आदि के संबंध में आवश्यक निर्देश होते हैं।
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पोस्टेज  : पुं० [अं०] डाक द्वारा चिट्ठी पारसल आदि भेजने का महसूल। डाकव्यय।
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पोस्टेज स्टाप  : पुं० [अं०] डाक का वह टिकट जो डाक द्वारा भेजी जानेवाली चीज का महसूल चुकाने के लिए उस चीज पर चिपकाया या लगाया जाता है।
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पोस्त  : पुं० [फा०] १. खाल। त्वचा। २. पेड़ की छाल। ३. पोस्ते का डोडा। ४. दे० ‘पोस्ता’। ५. पिशुनता।
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पोस्ता  : पुं० [फा० पोस्त] एक प्रकार का पौधा जिसके डोडों से अफीम तैयार की जाती है।
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पोस्ती  : पुं० [फा०] १. अफीम खानेवाला। २. मदक पीनेवाला। ३. वह जो बहुत बड़ा अकर्मण्य तथा आलसी हो। ४. गुडि़या के आकार का कागज का एक खिलौना जिसके पेदें में मिट्टी का ठोस गोला रहता है। यह फेंकने पर जमीन पर खड़ा होकर कुछ देर तक झूमता रहता है। इसे ‘मतवाला’ और ‘खड़े खाँ’ भी कहते हैं।
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पोस्तीन  : पुं० [फा०] १. गरम और मुलायम रोएँवाले लोमड़ी, सूअर, आदि कुछ जानवरों की खाल जिसे कई रूपों में बना और सीकर पामीर, तुर्किस्तान और मध्य एशिया के लोग पहनते थे, और जिसका प्रचलन अब सरदी के दिनों में अन्य स्थानों में भी होने लगा है। २. उक्त खाल का बना हुआ कोई पहनावा। ३. पुस्तक की जिल्द के भीतरी भाग पर चिपकाया जानेवाला कागज।
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पोहना  : स० [सं० प्रोत, प्रा० पोइड़ पोय+ना (प्रत्य०)] १. पिरोना। गूँथना। २. कोई चीज पिरोने के लिए उसमें आर-पार छेद करना। ३. ऊपर से लेप लगाना। पोतना। ४. घुमाना। घँसाना। ५. जमाकर बैठाना। ६. घिसना। रगड़ना। वि० [स्त्री० पोहनी] पोहनेवाला। स०=पौना (देखें)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोहमी  : स्त्री०=पुहमी (पृथ्वी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोहर  : पुं० [हिं० पोहा] १. वह स्थान जहाँ पशु चरते हैं। २. पशुओं के खाने का चारा। चरी।
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पोहा  : पुं० [सं० पशु] पशु। चौपाया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पोहिया  : पुं० [हिं० पोह] चरवाहा।
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पौचा  : पुं० [हिं० पाँच] साढे पाँच का पहाड़ा।
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पौंड  : पुं०=पाउन्ड (अंग्रेजी सिक्का)।
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पौंड़ना  : अ०=पौडना (तैरना)।
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पौंडरीक  : पुं० [सं० पुंडरीक+अण्] १. स्थलपद्म। पुंडरीक। २. एक प्रकार का कुष्ठ रोग जिसमें कमल के पत्ते के रंग का-सा वर्ण हो जाता है। ३. एक प्रकार का यज्ञ।
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पौंडर्य्य  : पुं० [सं० पुण्डर्य+अण्] स्थलपद्म।
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पौंड़ा  : पुं०=पौढ़ा (गन्ना)।
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पौंड़ी  : स्त्री०=पौंरी।
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पौंड्र  : वि० [सं० पुण्ड्र+अण्] पुंड्र देश का। पुं० १. पुंड्र देश का निवासी। २. पुंड्र देश का बना रेशमी जो किसी समय बहुत प्रसिद्ध था। ३. भीमसेन के शंख का नाम। ४. मनु के अनुसार एक प्राचीन जाति जो पहले क्षत्रिय थी पर पीछे संस्कार भ्रष्ट होकर वृषल हो गई थी। ५. दे० ‘पौंड्रक’।
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पौंड्रक  : पुं० [सं० पुण्ड्रक+अण्] एक प्रकार का मोटा गन्ना। पौंढ़ा। २. पुंड्र नामक प्राचीन जाति। ३. पुंड्र देश का एक राजा जो जरासंध का संबंधी था; और जिसे लोग मिथ्या वासुदेव भी कहते थे।
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पौंड्रिक  : पुं० [सं० पुण्ड्र+ठञ्—इक] १. मोटा गन्ना। पौढ़ा। २. लवा नामक पक्षी। ३. पुंड्र नामक देश। ४. एक गोत्र-प्रवर्त्तक ऋषि।
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पौंढ़ई  : विस०, पुं०=गन्नई (रंग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौंढ़ना  : सं०=पौंढ़ना।
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पौंढ़ा  : पुं० [सं० पौंड्रक] एक तरह का क़ड़े छिलकेवाला मोटा गन्ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौंद  : स्त्री०=पोंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौंरना  : अ० [सं० प्लवन] तैरना।
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पौंरि  : स्त्री०=पौरि या पौरी।
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पौंरिया  : पुं०=पौरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौश्चलेय  : पुं० [सं० पुंश्चली+ढक्—एय] पुंश्चली या कुलटा का पुत्र।
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पौंश्चल्य  : पुं० [सं० पुंश्चली+ष्यञ्] पुंश्चली होने की अवस्था या भाव। स्त्री का व्यभिचार। छिनाला।
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पौ  : स्त्री० [सं० पाद, प्रा० पाय, पाव=किरन] १. ज्योति या प्रकाश की रेखा। २. सूर्य निकलने से पहले दिखाई देनेवाला हलका प्रकाश। मुहा०—पौ फटना=प्रभात के समय सूर्योदय के सामीप्य के कारण कुछ कुछ उजाला दिखाई पड़ना। ३. पैर। ४. जड़। मूल। ५. पाँसे का वह तल जिस पर एक बिंदी रहती है। मुहा०—पौ बारह पड़ना=(तीन पाँसों के खेल में) पाँसों का इस प्रकार पड़ना कि एक पाँसे में पौ और बाकी पाँसों में छः छः के दाँव (६+६+१) आएँ। (यह जीत का सबसे बड़ा दाँव होता है)। (किसी की) पौ बारह होना=(क) बहुत बड़ी जीत या लाभ होना। (ख) बहुत अधिक लाभ या सौभाग्य का सुयोग आना। पुं० [सं० प्रपा] पौसला (प्याऊ)।
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पौआ  : पुं० [सं० पाद, हिं० पाव] १. एक सेर का चौथाई भाग। सेर का चतुर्थांश। पाव। २. पाव भर के मान का बटखरा। ३. नापने का वह बरतन जिसमें कोई तरल पदार्थ पाव भर आता हो। जैसे-तेल या दूध नापने का पौआ।
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पौगंड  : पुं० [सं० पोगण्ड+अण्] पाँचवें वर्ष से लेकर सोलहवें वर्ष तक की अवस्था।
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पौटिया  : पुं० [?] हिन्दुओं में एक जाति जो चाँदी-सोने के तार आदि बनाने का काम करती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौठ  : स्त्री० [सं० प्रवर्त्त, प्रा० पवट्ट] ब्रिटिश शासन में, जोत की एक रीति जिसके अनुसार प्रति वर्ष जोतने का अधिकार नियमानुसार बदलता रहता था। भेजवारी। विशेष—इसमें गाँव के सब किसानों को जोतने के लिए जमीन मिलती रहती थी।
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पौडर  : पुं०=पाउडर। (देखें)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौड़ी  : स्त्री० [हिं० पाँव+ड़ी] १. लकड़ी का वह मोढ़ा जिस पर मदारी बंदर को नचाते समय बैठाता है। २. दे० ‘पाँव़ड़ी’। स्त्री० [?] एक प्रकार की कड़ी मिट्टी।
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पौढ़ना  : अ० [सं० प्रलोठन] आराम करने या सोने के लिए लेटना। अ० [सं० प्लवन, प्रा० पव्वलन] आगे पीछे हिलना। झूलना। जैसे—झूले का प्रौढ़ना। अ०=पैरना (तैरना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौढ़ाना  : स० [हिं० प्रौढ़ना] १. किसी को पौढ़ने में प्रवृत्त करना। लेटाना या सुलाना। २. इधर-उधर हिलाना, डुलाना। झुलाना। माल की तौल तथा बटखरों आदि की जाँच या देख-रेख।
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पौताना  : पुं० [हिं० पाँव] १. जुलाहों के करघे में लकड़ी का एक औजार जो चार अंगुल लंबा और चौकोर होता है। २. दे० ‘पैताना’।
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पौतिक  : वि० [सं० पूतिक+अण्] (घाव या फोड़ा) जो पूर्ति अर्थात् विषाक्त कीटाणुओं के उत्पन्न होने से सड़ने लगा हो। पूति-दूषित। (सेप्टिक)
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पौतिनासिक्य  : पुं० [सं० पूति-नासिका, मध्य० स०,+ ष्यञ्] पीनस रोग।
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पौती  : स्त्री०=पिटारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौत्तलिक  : वि० [सं० पुत्तलिका+अण्] १. पुत्तलिका संबंधी। पुतलों या पुतलियों का। जैसे—पौत्तलिक अभिनय या नृत्य। २. मूर्तिपूजक।
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पौत्तिक  : पुं० [सं० पुत्तिका+अण्] पुत्तिका नाम की मधु-मक्खी द्वरा इकट्ठा किया हुआ मधु जो घी के समान गाढ़ा होता है।
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पौत्र  : पुं० [सं० पुत्र+अण्] [स्त्री० पौत्री] लड़के का लड़का। पोता।
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पौत्रिक  : वि० [सं० पुत्र+ठक्—इक] १. पुत्र-संबंधी। २. पौत्र संबंधी।
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पौत्रिकेय  : पुं० [सं० पुत्रिका+ढक्—एय] अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए पुत्र के स्थान पर माना हुआ कन्या का पुत्र।
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पौत्री  : स्त्री० [सं० पुत्र+अञ्+ङीप्] १. दुर्गा। ‘पौत्र’ का स्त्री० लड़के की लड़की। पोती।
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पौद  : स्त्री० [सं० पोत] १. नया निकलता हुआ छोटा पौधा। २. कुछ विशिष्ट प्रकार के पौधों और वृक्षों का वह नया कल्ला जो एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाया जाता है। क्रि० प्र०—जमाना। लगाना। ३. उपज। पैदावार। ४. नई पीढ़ी जिसमें अधिकतर बच्चे और नवयुवक ही होते हैं। स्त्री० [सं० पाद+पट] पाँवड़ा।
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पौदर  : स्त्री० [हिं० पाँव+डालना] १. चलने के समय पैर का चिह्र। २. पैदल चलने का रास्ता। ३. पगदंडी। ४. वह रास्ता जिस पर कोल्हू मोंट आदि के बैल चक्कर लगाते या आते-जाते हैं।
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पौदा  : पुं०=पौधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौद्गलिक  : वि० [सं० पुद्गल+ठक्—इक] १. पुद्गल- संबंधी। द्रव्य या भूत-संबंधी। २. जीव-संबंधी। ३. जो सांसारिक सुख-भोगों में लिप्त हो।
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पौध  : स्त्री०=पौद। (देखें)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौधन  : स्त्री० [सं० पयस्+आधान] मिट्टी का वह बरतन जिसमें भोजन रखकर परोसा जाता है।
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पौधा  : पुं० [सं० पोत] १. वृक्ष का वह आरंभिक रूप; जो दो-तीन हाथ तक ऊँचा होता है तथा एक स्थान से उखा़ड़कर दूसरे स्थान पर लगाया जा सकता है। जैसे—आम या जामुन का पौधा। २. वे वनस्पतियाँ (लताओं, पेडों और झाड़ियों से भिन्न) जो दो-तीन हाथ तक ऊपर बढ़ती है तथा जिनके तने और शाखाएँ बहुत कोमल होते हैं। जैसे—गुलाब या बेले का पौधा। ३. रेशम या सूत का वह फुंदना जो बुलबुल पालनेवाले लोग सुन्दरता बढ़ाने के लिए बुलबुल की पेटी में बाँध देते हैं। ४. किसी प्रकार का झब्बा या फुँदना।
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पौधि  : स्त्री० १.=पौधा। २.=पौद।
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पौनःपुनिक  : वि० [सं० पुनः पुनः+ठञ्—इक] पुनः पुनः या फिर फिर होनेवाला। जो बार बार होता हो।
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पौनःपुन्य  : पुं० [सं० पुनः पुनः+ष्य़ञ्.] कोई काम या बात बार-बार होने की अवस्था या भाव।
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पौन  : पुं० [सं० पवन] १. वायु। हवा। २. चीज या प्राण जिसका रूप वायु के समान सूक्ष्म माना गया है। ३. भूत-प्रेत। मुहा०—(किसी पर) पौन बैठाना=किसी पर भूत-प्रेत की बाधा उपस्थित करना। ४. जादू-टोना जिसका प्रभाव लोक-विश्वास के अनुसार वायु के संसर्ग से दूर तक पहुँचता है। मुहा०—पौन चलाना या मारना=जादू या टोना चलाना। मूठ चलाना। वि० [सं० पाद+ऊन=पादोन, प्रा० पाओन] पूरे एक में से चौथाई कम। तीन चौथाई। जैसे—पौन घंटे में काम हो जायगा।
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पौनरुक्त  : पुं० [सं० पुनरुक्त+अण्] वह अवस्था जिसमें कोई बात दो बार अर्थात् फिर से कही गई हो। पुनरुक्त होने की अवस्था या भाव।
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पोनर्भव  : वि० [सं० पुनर्भू+अण्] [स्त्री० पौनर्भवा] १. उस विधवा से संबंध रखनेवाला जिसने दूसरा विवाह कर लिया हो। २. पुनर्भू से उत्पन्न या प्राप्त। पुं० १. विधवा के दूसरे पति से उत्पन्न पुत्र। २. ऐसा व्यक्ति जिसने किसी विधवा अथवा किसी के द्वारा परित्याग स्त्री से विवाह किया हो।
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पौनर्भवा  : स्त्री० [सं० पौनर्भव+टाप्] वह कन्या जिसका किसी के साथ एक बार विवाह संस्कार हो चुका हो और फिर दूसरी बार किसी दूसरे के साथ विवाह हुआ हो।
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पौनर्वादिक  : वि० [सं० पुनर्वाद+ठक्—इक] १. पुनर्वाद संबंधी। पुनर्वाद का। (एपेलेट) जैसे—पौनर्वादिक न्यायालय। (ऐपेलेट कोर्ट)। २. पुनर्वाद के विचार से परिणाम स्वरूप होनेवाला। जैसे—पौनर्वादिक आज्ञा। (एपेलेट आर्डर)
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पौन-सलाई  : स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का बेलन जिस पर सूत कातने के पहले रूई तैयार की जाती है।
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पौना  : पुं० [सं० पाद+ऊन, प्रा० पाव+ऊन=पाऊन] पौने का पहाड़ा। वि०=पौन (तीन चौथाई)। पुं० [?] काठ लोहे आदि की एक प्रकार की कलछी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौनार  : स्त्री० [सं० पद्मनाल] कमल के फूल की नाल या डंठल जो बहुत नरम और कोमल होता है।
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पौनारी  : स्त्री०=पौनार (पद्मनाल) उदा०—भुजन छपानि कँवल पौनारी।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौनिया  : पुं० [हिं० पौना] छोटे अरज या कम चौड़ाई का एक प्रकार का कपड़ा जिसका थान प्रायः थान के साधारण मान का तीन-चौथाई होता था।
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पौनी  : स्त्री० [हिं० ‘पौना’ का स्त्री० अल्पा०] छोटा पौना या एक प्रकार की कलछी। पुं० [हिं० पावना] कुम्हार, धोबी, नाई आदि वे लोग जिन्हें मंगल अवसरों पर नेग मिलता है।
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पौने  : वि० [हिं० पौन] हिं० ‘पौन’ या ‘पौना’ का वह रूप जो उसे संख्यावाचक शब्दों के पहले लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—पौने चार रुपए, पौने दस बजे। पद—पौने सोलह आने=बहुत अधिक अंशों में, बहुत अधिक रूप में। जैसे—आपकी बात पौने सोलह आने ठीक है; अर्थात् उसके ठीक न होने की बहुत कम संभावना है। मुहा०—(कोई चीज) औने-पौने करना= थोडा़-बहुत जो दाम मिले, उसी पर बेच डालना।
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पौमान  : पुं० [?] जलाशय। पुं०=पवमान।
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पौरंदर  : पुं० [सं० पुरन्दर+अण्] ज्येष्ठा नक्षत्र। वि० पुरन्दर-संबंधी। पुरन्दर का।
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पौरंध्र  : वि० [सं० पुरन्ध्री+अण्] स्त्री० संबंधी।
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पौर  : वि० [सं० पुर+अण्] १. पुर या नगर-संबंधी। पुर का। २. पुर में उत्पन्न होनेवाला। ३. पूर्वकाल या पूर्व दिशा में उत्पन्न। ४. सदा पेट भरने की चिंता में रहनेवाला। पेटू। पुं० [सं०] १. नगर-निवासी। नागरिक। २. पुरु राजा का पुत्र। ३. रोहिष या रूसा नाम की घास। ४. नखी नामक गन्ध-द्रव्य। पुं०=प्रहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० पौरि] १. ड्योढ़ी। २. दरवाजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौरक  : पुं० [सं० पौर√कै+क] १. पुर या नगर के समीप का बाग। २. घर के आस-पास का बगीचा।
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पौर-जन  : पुं० [कर्म० स०] नागरिक।
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पौर-जानपद  : पुं० [कर्म० स०] प्राचीन भारतीय राज्य तंत्र में पुर या नगर और जनपद या बाकी देश के प्रतिनिधियों की सभाओं का सम्मिलित रूप।
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पौर-मुख्य  : पुं० [स० त०] नगर का प्रमुख या प्रधान।
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पौर-लेखक  : पुं० [ष० त०] प्राचीन भारतीय राजतंत्र में वह अधिकारी जिसके पास पुर या नगर के लेख्यों या दस्तावेजों की नकल और विवरण रहता था।
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पौरव  : वि० [सं० पुरु+अण्] [स्त्री० पौरवी] १. पुरु-संबंधी। पुरु का। २. पुरु के वंश का। पुरु से उत्पन्न। पुं० १. पुरु का वंशज या संतान। २. महाभारत के अनुसार उत्तर पूर्व दिशा का एक देश। ३. उक्त देश का निवासी।
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पौरवी  : स्त्री० [सं० पौरव+ङीष्] १. युधिष्ठिर की एक स्त्री का नाम। २. वासुदेव की एक स्त्री ३. संगीत में, एक प्रकार की मूर्च्छना, इसका सरगम इस प्रकार है—ध, नि, स, रे, ग, म, प। प, ध, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि, स, रे।
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पौर-वृद्ध  : पुं० [स० त०] प्रमुख और वयोवृद्ध तथा प्रतिष्ठित नागरिक।
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पौर-सख्य  : पुं० [स०त०] एक ही पुर या नगर में रहनेवाले लोगों में उत्पन्न होनेवाली मित्रता या सुहृदता।
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पौरस्त्य  : वि० [सं० पुरस्+त्यक्] १. पूर्वी दिशा या पूर्वी देशों से संबंध रखने या उनमें होनेवाला। २. पहले का पुराना।
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पौरस्त्री  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. पुर या नगर में रहनेवाली स्त्री। ‘ग्राम्या’ का विपर्याय। २. पढी़-लिखी या सुशील स्त्री। ३. अंतःपुर में रहनेवाली स्त्री।
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पौरा  : पुं० [हिं० पहरा या पैर ?] शुभाशुभ फलों के विचार से, घर में परिवार के सदस्य के रूप में किसी नये व्यक्ति का होनेवाला आगमन। जैसे—(क) बहू का पौरा अच्छा है, जब से आई है, तब से घर में बरकत दिखाई देने लगी है। (ख) इस नये शिष्य का पौरा अनर्थ-कारक सिद्ध हुआ।
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पौराणिक  : वि० [सं० पुराण+ठक्—इक] [स्त्री० पौराणिकी] १. पुराण संबंधी। पुराण या पुराणों का। २. जिसका उल्लेख पुराणों में हुआ हो। जैसे—पौराणिक आख्यान या कथा। ३. प्राचीन काल का। पुराना। पुं० १. वह ब्राह्मण जो पुराणों का पंडित हो, और पुराणों की कथाएँ लोगों को सुनाता हो। २. अठारह की संख्या का सूचक शब्द।
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पौरि  : स्त्री०=पौरी।
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पौरिक  : पुं० [सं० पुर+ठक्—इक] १. पुर में रहनेवाला व्यक्ति। २. पुर का प्रधान शासनिक अधिकारी। ३. दक्षिण भारत का एक प्राचीन देश। वि० पुर-संबंधी। पुर का।
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पौरिया  : पुं० [हिं० पौरी] द्वारपाल। ड्योढ़ीदार। दरबान।
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पौरी  : स्त्री० [सं० प्रतोली; प्रा० पओली] घर के मुख्य द्वार के अन्दर का वह भाग जिसमें से होकर घर के कमरों, आँगन आदि में जाया जाता है। ड्योढ़ी।
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पौरुकुत्स  : पुं० [सं० पुरुकुत्स+अण्] पुरुकुस के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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पौरुष  : वि० [सं० पुरुष+अण्] १. पुरुष या मनुष्य से संबंध रखनेवाला। पुरुष का। पुरुष-संबंधी। २. पुरुष की शक्ति विशेषतः शारीरिक शक्ति से संबंध रखनेवाला। पुं० १. पुरुष होने की अवस्था या भाव। २. पुरुषों में सामान्य रुप से होनेवाला गुण तथा विशेषताएँ। जैसे—बल, शौर्य, साहस आदि। ३. पुरुष का कर्म। पुरुषार्थ। ४. पुरुष की लिंगेंद्रिय। ५. वीर्य। शुक्र। ६. ऊँचाई या गहराई की ‘पुरसा’ नामक माप।
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पौरुषी  : स्त्री० [सं० पौरुष+ङीष्] स्त्री।
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पौरुषेय  : वि० [सं० पुरुष+ढञ्—एय] १. पुरुष-संबंधी। पुरुष का २. पुरुष का किया, बनाया या रचा हुआ। ३. आध्यात्मिक। पुं० १. पुरुष का काम। २. पुरुषों या मनुष्यों का समूह। जन-समुदाय। ३. वह मजदूर जो दैनिक वेतन पर काम करता हो।
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पौरुष्य  : पुं० [सं० पुरुष+ष्यञ्]=पौरुष।
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पौरुहूत  : वि० [सं० पुरुहूत+अण्] इंद्र-संबंधी।
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पौरू  : स्त्री० [देश०] मिट्टी के विचार से भूमि का एक भेद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौरोगव  : पुं० [सं० पुरस्-गो, ब० स०, पुरोगु+अण्] राजभवन की पाकशाला का प्रधान अधिकारी।
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पौरोडाश  : वि० [सं० पुरोडाश+अण्] पुरोडाश-संबंधी। पुरोडाश का। पुं० पुरोडाश के समर्पण के समय पढ़ा जानेवाला एक मंत्र।
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पौरोडाशिक  : पुं० [सं० पुरोडाश+ठक्—इक] परोडाश नामक मंत्र का पाठ करनेवाला। ऋत्विक।
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पौरोधस  : पुं० [सं० पुरोधस्+अण्] १. पुरोहित। २. पुरोहित का काम या पद।
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पौरोभाग्य  : पुं० [सं० पुरोभागिन्+ष्यञ्] १. दूसरों के दोष दिखलाना। २. ईर्ष्या या द्वेषपूर्ण भावना। ३. ईर्ष्या या द्वेष-वश किया हुआ कार्य।
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पौरोहित्य  : पुं० [सं० पुरोहित+ष्यञ्] १. पुरोहित होने की अवस्था या भाव। २. पुरोहित का काम, कृत्य या वृत्ति। ३. पुरोहितों का वर्ग या समाज। (प्राइस्टहुड)
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पौर्णमास  : पुं० [सं० पौर्णमासी+अण्] प्राचीन भारत में पूर्णिमा के दिन किया जानेवाला एक तरह का यज्ञ। वि० पूर्ण चन्द्र से संबंध रखनेवाला।
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पौर्णामासिक  : वि० [सं० पूर्णमासी+ठञ्—इक] १. पूर्णिमा-संबंधी। २. पूर्णिमा के दिन होनेवाला।
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पौर्णमासी  : स्त्री० [सं० पूर्णमास+अण्—ङीष्] पूर्णिमा।
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पौर्णमास्य  : पुं० [सं० पौर्णमासी+यत्] पूर्णिमा के दिन होनेवाले यज्ञ आदि।
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पौर्वात्य  : पुं० [सं० पूर्व+त्यक्] ‘पाश्चात्य’ के अनुकरण पर बना हुआ असिद्ध शब्द। शुद्ध रूप पौरस्त्य (पूर्व दिशा का)।
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पौर्वापर्य  : पुं० [सं० पूर्वापर+ष्यञ्] १. पूर्व और पर अर्थात् आगे और पीछे होने की अवस्था या भाव। पूर्वापरता। २. अनुक्रम। सिलसिला।
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पौर्वाद्धिक  : वि० [सं० पूर्वार्द्ध+ठञ्—इक] पूर्वार्द्ध-संबंधी।
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पौर्वाहिणक  : वि० [सं० पूर्वाह्ल+ठञ्—इक] [स्त्री० पौर्वाह्लिकी] पूर्वाह्ल संबंधी। पूर्वाह्ल का।
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पौर्विक  : वि० [सं० पूर्व+ठञ्—इक] १. जो पूर्व में अर्थात् पहले हुआ हो। २. जो पूर्व में अर्थात् पहले किया जाने को हो।
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पौल  : स्त्री०=पोल (बड़ा द्वार)।
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पौलना  : स० [?] काटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=पौला (भद्दा जूता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौलस्ती  : स्त्री० [पुलस्त+अण, ङीप्] रावण की बहन, शूर्पणखा।
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पौलस्त्य  : पुं० [सं० पुलस्त+यञ्] [स्त्री० पौलस्त्यी] १. पुलस्त्य का पुत्र या उनके वंश का पुरुष। २. रावण, विभीषण और कुंभकर्ण ३. कुबेर। ४. चन्द्रमा।
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पौला  : पुं० [हिं० पाँव, पाड+ला (प्रत्य०)] एक प्रकार की खड़ाऊँ जिसमें खूँटी नहीं होती, बल्कि छेद में बँधी हुई रस्सी में अँगूठा फँसा रहता है। पुं० [हिं० पाँव+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० पौली] १. एक तरह का देहाती भद्दा जूता। (पश्चिम) २. जूता।
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पौलिया  : पुं०=पौरिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौलिश  : वि० [यू० पालस=एक यूनानी ज्योतिषी] पुलिस या पालस नामक यूनानी ज्योतिषी का (ज्योतिषिक सिद्धान्त)।
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पौली  : स्त्री० [सं० प्रतोली; पा० पओली] पौरी। ड्योढ़ी। स्त्री० [हिं० पाँव, पाउ+ली (प्रत्य०)] १. पैर का वह भाग जो खडे होने पर जमीन से आड़ा लगा रहता है। एड़ी से लेकर उँगलियों तक का भाग। पैर का तलुआ। २. चलने से जमीन पर पड़नेवाला पैर का निशान। पद-चिह्र।
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पौलुषि  : पुं० [सं० पुलुष+इञ्] १. पुलुवंश में उत्पन्न व्यक्ति। २. सत्ययज्ञ नामक एक ऋषि जो पुलु ऋषि के वंश में उत्पन्न हुए थे। (शतपथ ब्राह्मण)
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पौलोम  : वि० [सं० पुलोमन्+अण्] [स्त्री० पौलोमी] पुलोम-संबंधी। पुलोम का। पुं० १. पुलोमा ऋषि का अपत्य या वंशज। २. उपनिषद् काल में, दैत्यों की एक जाति या वर्ग।
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पौलोमी  : स्त्री० [सं० पौलोम+ङीप्] १. इंद्राणी। २. महर्षि भृगु की पत्नी।
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पौल्कस  : वि० [सं० पुल्कस+अण्] पुल्कस (एक संकर जाति) जाति संबंधी। पुल्कसों का। पुं० पुल्कस जाति का व्यक्ति।
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पौवा  : पुं०=पौआ। (देखें)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौष  : पुं० [सं०पुष्य+अण्,य-लोप] विक्रम संवत् का दसवाँ महीना। उसमें पड़नेवाली पूर्णमासी पुण्य नक्षत्र में होती है।
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पौष्कर  : वि० [सं० पुष्कर+अण्] पुष्कर संबंधी। पुष्कर का। पुं० १. पुष्करमूल। २. कमल की नाल। मृणाल। भसीड़। ३. स्थल-पद्म ४. एरंड या रेंड की जड़।
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पौष्कल  : पुं० [सं० पुष्कल+अण्] एक तरह का अनाज।
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पौष्कल्य  : पुं० [सं० पुष्कल+ष्यञ्] १. पुष्कल होने की अवस्था या भाव। २. संपूर्णता।
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पौष्टिक  : वि० [सं० पुष्टि+ठक्—इक] १. शरीर का बल और वीर्य बढ़ाकर उसे पुष्ट करनेवाला (पदार्थ)। जैसे—पौष्टिक औषध, पौष्टिक भोजन। पुं० १. ऐसे कर्म जिनसे धन, जन आदि की वृद्धि होती हो। २. वह कपड़ा जो बच्चे का मुंडन हो चुकने पर उसके सिर पर ओढ़ाया जाता है।
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पौष्ण  : वि० [सं० पूषन्+अण्, उपधा-लोप] पुषा देवता संबंधी। पूषा देवता का। पुं० रेवती नक्षत्र।
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पौष्प  : वि० [सं० पुष्प+अण्] पुष्प-संबंधी। फूल का। पुं० १. फूलों के रस से बनाया जानेवाला मद्य। २. पुष्प-रेणु। पराग।
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पौष्पक  : पुं० [सं० पुष्पक+अण्] पीतल के कसाव से तैयार किया जानेवाला एक तरह का अंजन। कुसुमांजन। पुष्पांजन।
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पौसला  : पुं० [सं० पयःशाला] वह स्थान जहाँ लोगों को परोपकार की दृष्टि से पानी पिलाया जाता है। प्याऊ। क्रि० प्र०—चलाना।—बैठना।
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पौसार  : स्त्री० [हिं० पाँव] करघे में लकड़ी का वह डंडा जो ताने और राछ के नीचे लगा रहता है। इसी को दबाकर राछ ऊँची-नीची की जाती है।
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पौ-सेरा  : पुं० [हिं० पाव+सेर] पाव सेर की तौल या बटखरा।
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पौहर  : पुं०=प्रहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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पौहारी  : वि० [सं० पयस्=दूध+आहार] जिसका आहार केवल दूध हो। पुं० वह जो केवल दूध पीकर रहता हो, अन्न न खाता हो।
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प्याऊ  : वि० [सं० प्रपा, हिं० प्याना= पिलाना+ऊ (प्रत्य०)] पिलानेवाला। पुं० वह स्थान जहाँ गरमी के दिनों में राह-चलते प्यासे लोगों को पानी, शरबत, लस्सी आदि पिलाई जाती है।
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प्याज  : पुं० [फा० प्याज] १. एक प्रसिद्ध छोटा क्षुप या पौधा जिसके सफेद रंग के फूल गुच्छे में लगते हैं। २. उक्त पौधे का कंद जो गोल गाँठ के रूप में होता है तथा जिसका स्वाद बहुत चरपरा या तीखा और गंध बहुत उग्र होती है। वैद्यक में यह बल तथा वीर्यवर्धक और वातघ्न माना जाता है।
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प्याजी  : वि० [फा० प्याजी] प्याज के ऊपरी छिलके के रंग का। हलका गुलाबी। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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प्यादा  : पुं० [फा० पयादः] १. पैदल चलनेवाला व्यक्ति। पदाति। २. वह सैनिक जो पैदल चलता हो (सवार से भिन्न)। ३. दूत। ४. हरकारा। ५. शतरंज का एक मोहरा जो एक घर सीधा चलता और एक घर तिरछे मार करता है। पैदल। वि० जो सवारी पर न हो, बल्कि पैरों से चल रहा हो।
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प्याना  : स०=पिलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्यायित  : वि० [सं० प्याय् (वृद्धि)+क्त] १. जिसकी वृद्धि हुई हो। बढ़ा हुआ। २. जिसकी शक्ति बढ़ गई हो। ३. जो मोटा हो गया हो। ४. जो तृप्त किया गया हो।
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प्यार  : पुं० [सं० प्रीति] १. किसी के प्रति होनेवाली आसक्तिपूर्ण या श्रद्धापूर्ण भावना। २. पुरुष की स्त्री के प्रति अथवा स्त्री की पुरुष के प्रति होनेवाली ऐसी आसक्तिपूर्ण भावना जो पारस्परिक आकर्षण के कारण होती है। प्रेम। मुहब्बत। ३. प्रेमपूर्वक किया जानेवाला आलिंगन, चुंबन आदि। पुं० [सं० पियाल] अचार या पियाल नाम का वृक्ष जिसका बीज चिरौंजी है।
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प्यारा  : वि० [हिं० प्यार] [स्त्री० प्यारी] १. जो अच्छे, आकर्षण या सुंदर होने के कारण प्रेम-पूर्ण भाव का अधिकारी हो। प्रीतिपात्र। प्रिय। २. उक्त गुणों के कारण जिसे प्यार करने को जी चाहे। जो देखने में अच्छा और भला लगे। जैसे—प्यारा सा बच्चा उसकी गोद में था। ३. जिसके प्रति बहुत अधिक प्रेम, मोह या स्नेह हो। जैसे—जीवन सबको प्यारा होता है। पुं०=अमरूत (फल)।
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प्यारा-फूली  : पुं० [हिं० प्यार+फूलना] एक प्रकार का बढ़िया आम जो प्रायः दक्षिणी भारत में होता है।
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प्याल  : पुं०=पयाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्याला  : पुं० [फा० पियालः] [स्त्री० अल्पा० प्याली] १. चीनी मिट्टी, धातु आदि का बना हुआ कटोरी के आकार का एक प्रसिद्ध बरतन जिसका ऊपरी भाग या मुँह नीचेवाले भाग या पेंदे की अपेक्षा कुछ अधिक चौड़ा होता है और जिसका व्यवहार साधारणतः चाय, शराब आदि पीने में होता है। जाम। २. उक्त पात्र में भरा हुआ तरल पदार्थ। मुहा०—प्याला पीना या लेना=मद्य पीना। शराब पीना। (किसी चीज या बात का) प्याला पीना=किसी चीज या बात से अपना अंतःकरण या मन अच्छी तरह ओत-प्रेत या पूर्ण करना। जैसे—पीले पीले पीले हरी नाम का प्याला। (गीत)। (किसी व्यक्ति का) प्याला भरना=आयु या जीवन-काल पूर्ण होना। जीवन के दिन पूरे होना। ३. जुलाहों का मिट्टी का वह बरतन जिसमें वे नरी भिगोते है। ४. स्त्री का गर्भाशय। मुहा०—प्याला बहना=गर्भपात होना। गर्भ गिरना। ५. भीख माँगने का पात्र। भिक्षा-पात्र। ६. तोप या बंदूक आदि में वह गड्ढा या स्थान जिसमें रंजक रखते हैं।
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प्यावना  : स०=पिलाना।
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प्यास  : स्त्री० [सं० पिपासा] १. वह स्थिति जिसमें जल या और कोई तरल पदार्थ पीने की उत्कट इच्छा होती है तथा जो शरीर के जलीय पदार्थ के कम हो जाने पर उत्पन्न होती है। तृष्णा। पिपासा। २. लाक्षणिक रूप में, किसी पदार्थ की प्राप्ति की प्रबल इच्छा या कामना। क्रि० वि०—बुझाना।—मिटना।—लगना।
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प्यासा  : वि० [हिं० प्यास] [स्त्री० प्यासी] १. जिसे प्यास लगी हो। जो पानी पीना चाहता हो। तृषित। पिपासित। २. जिसे किसी काम या बात की प्रबल कामना या वासना हो। उदा०—अँखिया हरि दरसन की प्यासी।—सूर।
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प्यासी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की छोटी मछली।
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प्यून  : पुं० [अं० पियन] १. पैदल सिपाही। २. कागज, पत्र आदि इधर-उधर ले जानेवाला छोटा कर्मचारी या चपरासी।
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प्यूनी  : स्त्री०=पूनी (रूई की)।
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प्यूस  : पुं०=पेउस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्यूसी  : स्त्री०=पेवसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्योंदा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० प्योंदी]=पैबंद।
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प्यो  : पुं० [हिं० पिय] १. स्त्री का पति। २. स्त्री का प्रियतम। ३. पिता (पश्चिम)।
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प्योड़ी  : स्त्री० [देश०] चित्र-कला में, एक प्रकार का स्थायी और तेज पीला रंग जो ऐसी गौओं के मूत्र से बनाया जाता था जिन्हें कुछ दिनों तक आम की पत्तियाँ खिलाकर रखा जाता था।
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प्योसर  : पुं० [सं० पीयूष] हाल की ब्याही हुई गौ का दूध, जो विशेष गुणकारक और स्वादिष्ट होता है।
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प्योसार  : पुं० [सं० पितृशाला] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर। पीहर। मायका।
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प्यौंदा  : पुं०=पैवंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्यौर  : पुं० [सं० प्रिय] १. प्रियतम। २. पति। ३. साधकों की परिभाषा में, परमेश्वर।
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प्यौसाल  : पुं० [सं० पितृशाला] स्त्री का मायका। पीहर। उदा०—पिय बिछुरन को दुसह दुख हरखि जात प्यौसाल।—बिहारी।
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प्रकंप  : पुं० [सं० प्र√कम्प् (काँपना)+घञ्] १. बहुत काँपना या हिलना। २. कँपकँपी। थरथराहट। वि० कँपाने या हिलानेवाला। पुं० [सं० प्र√कम्प्+णिच्+युच्—अन] १. वायु। हवा। २. पुराणा-नुसार एक नरक का नाम।
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प्रकंपमान  : वि० [सं० प्र√कम्प्+शानच्] १. जो काँपता या थरथराता हो। २. बहुत हिलता हुआ।
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प्रकंपित  : भू० कृ० [सं० प्र√कम्प्+क्त] १. कँपाया या हिलाया हुआ। २. काँपता या थरथराता हुआ। ३. हिलता हुआ।
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प्रकच  : वि० [सं० ब० स०] लंबे और खड़े बालोंवeला।
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प्रकट  : वि० [सं० प्र√कट्+अच्] १. जो इस प्रकार अस्तित्व में आया हो या वर्तमान हो कि सहज में देखा जा सके। २. जो इस प्रकार व्यक्त तथा स्पष्ट हो कि उससे ठीक-ठीक बोध होता हो। ३. जिसका अभी अभी प्रादुर्भाव हुआ हो। उद्भूत। उत्पन्न। जैसे—अब तो ज्वर के लक्षण प्रकट होने लगे हैं।
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प्रकटाना  : स० [सं० प्रकटन] प्रकट या जाहिर करना। उदा०—आज आखिल विज्ञान, ज्ञान को रूप गंध, रस में प्रगटाओ।—पन्त।
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प्रकटित  : भू० कृ० [सं० प्र√कट्+क्त] १. जो प्रकट हुआ हो। २. प्रकट किया हुआ।
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प्रक्टीकरण  : पुं० [सं० प्रकट+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ ल्युट्-अन] प्रकट करने की क्रिया या भाव।
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प्रकथन  : पुं० [सं० प्र√कथ् (कहना)+ल्युट्—अन] विशेष रूप से कोई बात कहना या घोषित करना।
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प्रकर  : पुं० [सं० प्र√कृ (करना)+अच्] १. वह जो कोई काम करने में बहुत अधिक कुशल या दक्ष हो। २. [प्र√कृ+अप्] अगर नामक गंधद्रव्य। अगरु। ३. खिला हुआ फूल ४. अधिकार ५. मदद। सहायता। ६. आश्रय। सहारा ७. झुंड। समूह। ८. दोस्ती। मित्रता। ९. सम्मान १॰. प्रथा। रवाज। ११. गुलदस्ता।
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प्रकरण  : पुं० [सं० प्र√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. उत्पन्न करना। अस्तित्व में लाना। २. बनाना। ३. कोई बात या विषय अच्छी तरह समझने-समझाने के लिए उस पर वादविवाद या विचार करना। ४. कोई ऐसी विशिष्ट बात या विषय जो उपस्थिति या प्रस्तुत हो और जिसका उल्लेख या विचार हो रहा हो। प्रसंग विषय। जैसे—अब विवादवाला प्रकरण समाप्त होना चाहिए। ५. वह कथन या वचन जिसमें आवश्यक रूप से कोई काम या बात करने का विधान हो। ६. किसी ग्रंथ के अंतर्गत विभिन्न अध्यायों में से कोई एक। ७. रूपक के दस भेदों में से एक, ऐसा नाटक जिसकी कथा-वस्तु प्रख्यात न हो, बल्कि लौकिक और कल्पित, हो; नायक धीर या शांत हो तथा नायिका कुल कन्या या वेश्या हो।
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प्रकरण-वक्रता  : स्त्री० [ष० त०] साहित्य में, काव्य-प्रबंध के किसी एक अंग या प्रकरण की चमत्कारपूर्ण रमणीयता।
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प्रकरणसम  : पुं० [सं०] भारतीय नैयायिकों के अनुसार ५ प्रकार के हेत्वाभासों में से एक।
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प्रकरणिका  : स्त्री० [सं० प्रकरणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] साहित्य में, एक प्रकार का छोटा प्रकरण (नायक या रूपक) जिसमें नायक कोई व्यापारी और नायिका उसकी सजातीय स्त्री होती है। शेष बातें प्रकरण (देखें) के समान होती हैं।
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प्रकरणी  : स्त्री० [सं० प्रकरण+अच्+ङीष्] नाटिका।
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प्रकरी  : स्त्री० [सं० प्रकर+ङीष्] १. एक प्रकार का गान। २. नाटक में किसी स्थानिक घटना की अवांतर कथा की सहायता से कथा-वस्तु का प्रयोजन सिद्ध करना जो एक अर्थ प्रकृति है। ३. नाटक में, उन छोटी छोटी प्रासंगिक कथाओं में से कोई एक जो समय समय पर तथा बीच-बीच में आकर मुख्य कथा की सहायक बनकर समाप्त हो जाती है। जैसे—‘प्रसाद’ के चंद्रगुप्त नामक नाटक में चंद्रगुप्त और दंडायन का मिलन। प्रासंगिक कथाओं का एक अन्य भेद है—पताका। (दे०)
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प्रकर्ष  : पुं० [सं० प्र√कृश् (खींचना)+घञ्] १. उत्कर्ष। उत्तमता। २. अधिकता। बहुतायत।
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प्रकर्षक  : [सं० प्र√कृष्+ण्वुल्—अक] प्रकर्ष या उत्कर्ष करनेवाला।
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प्रकर्षण  : पुं० [सं० प्र√कृष्+ल्युट्—अन] १. पीछे की ओर ढकेलना। २. प्रकर्ष। उत्कर्ष। ३. अधिकता। बहुतायत।
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प्रकर्षणीय  : वि० [सं०√कृष्+अनीयर्] जिसका उत्कर्ष करना आवश्यक या उचित हो।
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प्रकला  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] कला (समय का एक विशिष्ट मान) का साठवाँ भाग
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प्रकल्पना  : स्त्री० [सं० प्र√कृष् (कल्पनाकरना)+णिच्+ युच्—अन्+टाप्] लोक-व्यवहार और विधिक क्षेत्र में किसी घटना या बात से निकलनेवाला ऐसा आनुमानिक निष्कर्ष जो बहुत-कुछ ठीक और संभाव्य जान पड़ता हो। यह मान लिया जाना कि इस बात का यही अर्थ या आशय हो सकता है। (प्रिज़म्पशन)
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प्रकल्पित  : भू० कृ० [सं० प्र√कृप्+णिच्+क्त] १. जिसकी प्रकल्पना हुई हो। २. निश्चित या स्थिर किया हुआ।
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प्रकल्प्य  : वि० [सं० प्र√कृप्+णिच्+यत्] १. जिसके संबंध में प्रकल्पना हो या होने को हो। २. निश्चित या स्थिर किये जाने के योग्य।
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प्रकश  : पुं० [सं० प्र√कश् (शब्द करना)+अच्] १. चाबुक। २. कष्ट पहुँचाना। पीडित करना। ३. मूत्रनलिका।
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प्रकशी  : स्त्री० [सं० प्रकश+ङीष्] शूक नामक रोग जिसमें पुरुषों की मूत्रेंद्रिय सूज जाती है। (यह रोग प्रायः इन्द्रिय को बढ़ानेवाली औषधियों के प्रयोग से होता है)।
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प्रकांड  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत बड़ा। विशाल। २. बहुत अधिक विस्तृत। ३. उत्तम। सर्वश्रेष्ठ पुं० १. वृक्ष का तना। स्कंध। २. वृक्ष की टहनी या डाल। शाखा। ३. पेड़। वृक्ष।
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प्रकाम  : वि० [सं० ब० स०] १. जितना आवश्यक हो। उतना। २. पूरा। यथेष्ट। ३. जिसमें अत्यधिक काम वासना हो। पुं० १. इच्छा। कामना। २. तृप्ति।
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प्रकार  : पुं० [सं० प्र√कृ+घञ्] १. वस्तुओं, व्यक्तियों आदि का वह समुदाय या समूह जिसमें सामान्य रूप से कुछ ऐसे विशिष्ट गुण, तत्त्व या लक्षण मिलते हों जिनके आधार पर उसी जाति या श्रेणी के अन्य समुदायों या समूहों को उससे अलग किया जाता हो। (टाइप, काइंड) २. उन तत्त्वों, गुणों, विशेषताओं आदि का समूह जिनसे किसी वस्तु का स्वतंत्र स्वरूप प्रकट होता है। भेद (डेस्क्रिप्शन) ३. कोई काम करने के लिए व्यवहार में लाई जानेवाली क्रिया या प्रक्रिया। ढंग। (मैनर)। ४. वह प्राकृतिक तत्त्व जिसके कारण किसी वस्तु का कोई अलग वर्ग बनता है। स्त्री०=प्राकार (प्राचीर)।
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प्रकालन  : वि० [सं० प्र√कल् (प्रेरित करना)+णिच्+ ल्युट्—अन] १. हिंसक। २. पीछा करनेवाला। पुं० १. हिंसा करना। २. मार डालना। ३. एक प्रकार का साँप। ४. एक नाग का नाम।
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प्रकाश  : पुं० [सं० प्र√काश् (दीप्ति)+घञ्] १. साधारणतः वह स्थिति जिसमें आँखों से सब चीजें देखने में आती हैं और जिसके अभाव में कुछ भी दिखाई नहीं देता। चाँदना। रोशनी। ‘अन्धकार’ का विपर्याय। जैसे—दीपक या सूर्य का प्रकाश। २. पारिभाषिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में, गति और शक्ति का एक परिणाम या रूप जो ज्योतिष्मान् पदार्थों में से निकलनेवाली तरंगों के रूप में होता है। (लाइट)। विशेष—वैज्ञानिकों का मत है कि ज्योतिष्मान् पदार्थों में से निकलनेवाली तरंगो के कारण आकाश (ईथर) में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, वही प्रकाश की तरंगों के रूप में चारों ओर फैलता है। आँखों पर उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, उसी के फलस्वरूप सब चीजें दिखाई देती हैं। इसका प्रत्यक्ष तथा मौलिक संबंध किसी न किसी प्रकार के ताप से होता है और इसकी गति प्रति सेकेंड १८६००० मील होती है। यह कोई द्रव्य नहीं है, इसीलिए इसमें कोई गुरुत्व या भार नहीं होता। ३. उक्त का वह रूप जो हमें दिखाई देता है। रोशनी। जैसे—अग्नि, दीपक या सूर्य का प्रकाश। ४. वह उद्गम या स्रोत जिससे उक्त प्रकार की ज्योतिर्मय तरंगें निकलकर हमारी दृष्टि-शक्ति की सहायक होती है। जैसे—यहाँ तो बिलकुल अँधेरा है, कोई प्रकाश (अर्थात् जलता हुआ दीआ, मोमबत्ती आदि) लाओ तो कुछ दिखाई भी दे। ५. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसा तत्व या बात जिससे किसी विषय का ठीक और पूरा रूप समझ में आता या स्पष्ट दिखाई देता हो। जैसे—(क) ज्ञान का प्रकाश। (ख) किसी के उपदेश, प्रवचन या भाषण से किसी गूढ़ विषय पर पड़नेवाला प्रकाश। ६. वह स्थिति जिसमें आने पर कोई चीज या बात प्रत्यक्ष रूप में सबके सामने आती है। जैसे—दो हजार वर्ष बाद यह पुस्तक प्रकाश में आई है। ७. आँखों की वह शक्ति जिससे चीज़े दिखाई देती हैं। ज्योति। जैसे—उनकी आँखों का प्रकाश दिन पर दिन कम होता जा रहा है। ८. कोई ऐसा विकास या स्फुटन जो दृश्य, प्रत्यक्ष या व्यक्ति हो। ९. ख्याति। प्रसिद्धि १॰. सूर्य का आतप। धूप। ११. किरण। १२. किसी ग्रंथ या पुस्तक का कोई अध्याय, खंड या विभाग। १३. घोडे की पीठ पर की चमक। वि० १. जगमगाता हुआ। दीप्त। प्रकाशित। २. खिला हुआ। विकसित। ३. जो प्रत्यक्ष या सामने हो। गोचर। ४. प्रसिद्ध। विख्यात। ५. खुला हुआ। स्पष्ट।
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प्रकाश  : पुं० [सं० प्र√काश् (दीप्ति)+ण्वुल्—अक] १. वह जो प्रकाश करे। जैसे—सूर्य। २. पुस्तकें, समाचार-पत्र आदि प्रकाशित करनेवाला व्यक्ति। ३. कांसा। ४. महादेव।
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प्रकाश-धृष्ट  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] धृष्ट नायक के दो भेदों में से एक। वह नायक जो प्रकट रूप में धृष्टता करे, झूठी सौंगध खाता हो, नायिका के साथ साथ लगा फिरता हो या इसी तरह की धृष्टता की बातें खुले आम करता हो।
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प्रकाशन  : वि० [सं० प्र√काश्+णिच्+ल्यु—अन] १. प्रकाश करनेवाला। २. चमकीला। ३. दीप्तिमान्। पुं० १. प्रकाश करने की क्रिया या भाव। २. प्रकाश में या सबके सामने लाने की क्रिया या भाव। ३. आज-कल मुख्य रूप से ग्रन्थ आदि छपवाकर बेचने तथा प्रचारित करने का व्यवसाय। ४. प्रकाशित की जानेवाली कोई पुस्तक। (पब्लिकेशन; अंतिम दोनों अर्थों के लिए)। ५. विष्णु।
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प्रकाश-परावर्तक  : पुं० [ष० त०] शीशे आदि का वह टुकड़ा या उससे युक्त वह उपकरण जो कहीं से प्रकाश-ग्रहण कर उसे अन्य दिशा में ले जाकर फेंकता हो। (रिफ्लेक्टर)
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प्रकाशमान  : वि० [सं० प्र√काश्+शानच्] १. चमकता हुआ। चमकीला। प्रकाशयुक्त। २. प्रसिद्ध। विख्यात। मशहूर।
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प्रकाश-रसायन  : पुं० [ष० त०] रसायनशास्त्र का वह अंग या शाखा जिसमें प्रकाश की किरणों का विश्लेषण और विवेचन होता है। (फोटो कैमिस्ट्री)
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प्रकाश-वर्ष  : पुं० [सं० मध्य० स० ?] बहुत अधिक दूर के आकाशस्थ पिडों या तारों की दूरी मापने का एक मान जो प्रकाश की गति के विचार से स्थिर किया गया है और जो उतनी दूरी का सूचक है जितना प्रकाश एक वर्ष में पार करता है। (लाइट ईयार) जैसे—अमुक तारा पृथ्वी से दस प्रकाश वर्षों की दूरी पर है। विशेष—प्रकाश की गति प्रति सेकेंड १८६००० मील होती है। अतः प्रकाश वर्ष की दूरी लगभग ६० खरब ६०००००००००००० मील होती है।
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प्रकाश-वियोग  : पुं० [सं० मध्य० स०] केशव के अनुसार वियोग के दो भेदों में से एक। प्रेमी और प्रेमिका का ऐसा वियोग जो सब पर प्रकट हो जाय।
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प्रकाश-वियोग  : पुं० [सं० मध्य० स०] केशव के अनसार संयोग के दो भेदों में से एक। प्रेमी और प्रेमिका का ऐसा संयोग जो सब पर प्रकट हो।
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प्रकाश-संश्लेषण  : पुं० [ष० त०] इस बात का संश्लेषण या विवेचन कि प्रकाश पड़ने पर जल, वायु आदि किस प्रकार विकृत होकर दूसरे तत्त्वों में रासायनिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। (फोटो-सिन्थेसिस)
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प्रकाश-स्तंभ  : पुं० [ष० त० या मध्य० स०] वह ऊँची इमारत विशेषतः समुद्र में बना हुआ वह स्तंभ जहाँ से बहुत प्रबल प्रकाश निकलकर चारों ओर फैलता तथा जिससे जलयानों, वायुयानों आदि का रात के समय पथ-प्रदर्शन होता है। (लाइट-हाउस)
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प्रकाशात्मा (तमस्)  : पुं० [सं० प्रकाश-आत्मन्, ब० स०] १. सूर्य। २. विष्णु।
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प्रकाशित  : भू० कृ० [सं० प्र√काश्+क्त] १. प्रकाश से युक्त किया अथवा प्रकाश में लाया हुआ। २. (ग्रन्थ या लेख) जो छापकर सबके सामने लाया गया हो। ३. जो प्रकाश निकलने या पड़ने से चमक रहा हो। चमकता हुआ।
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प्रकाशी (शिन्)  : वि० [सं० प्रकाश+इनि] [स्त्री० प्रकाशिनी] १. जिसमें प्रकाश हो। चमकता हुआ। २. प्रकाश करनेवाला। जैसे—आत्म-प्रकाशी।
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प्रकाश्य  : वि० [सं० प्र√काश्+ण्यत्] प्रकाश में आने या लाये जाने के योग्य। अव्य० १. प्रकट या स्पष्ट रूप में। २. (नाटक में कथन) जोर से बोलते और सबको सुनाते हुए। ‘स्वगत’ का विपर्य्याय।
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प्रकास  : पुं०=प्रकाश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रकासना  : स० [सं० प्रकाश] प्रकाश से युक्त करना। चमकाना। अ० प्रकाशित होना।
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प्रकिरण  : पुं० [सं० प्र√कृ (विक्षेप)+ल्युट्—अन] १. फैलाना। बिखेरना। २. मिश्रण। मिलाना।
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प्रकीर्ण  : वि० [सं० प्र√कृ+क्त] १. फैला हुआ। विस्तृत। २. इधर-उधर यों ही छितराया या बिखरा हुआ। ३. मिला हुआ। मिश्रित। ४. जिसमें अनेक प्रकार की चीजें मिली हो। (विशेषतः ऐसा आय-व्यय जो किसी एक निश्चित मद में न हो, बल्कि इधर-उधर की फुटकर मदों का हो। (मिस्लेनिअस)। ५. पागल। विक्षिप्त। ६. उच्छृंखल। उद्दंड। ७. क्षुब्ध। पुं० [सं०] १. पुस्तक का अध्याय या प्रकरण। २. फुटकर कविताओं का संग्रह। ३. चँवर। ४. ऐसा करंज जिसमें से दुर्गंध निकलती हो। पूति। करंज।
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प्रकीर्णक  : पुं० [सं० प्रकीर्ण+कन्] १. चँवर। २. ग्रंथ का अध्याय या प्रकरण। ३. फैलाव। विस्तार। ४. ऐसा वर्ग या संग्रह जिसमें अनेक प्रकार की ऐसी वस्तुओं का मेल हो जो किसी विशिष्ट वर्ग या शीर्षक में न रखी जा सकती हों। फुटकर। ५. वह छोटा-मोटा पाप जिसके प्रायश्चित का उल्लेख किसी धर्म-ग्रंथ में न हो।
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प्रकीर्णकेशी  : स्त्री० [सं० ब० स०+ङीष्] दुर्गा।
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प्रकीर्णन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० प्रकीर्णत] चीजें इधर-उधर छितराना या बिखेरना। (स्कैटरिंज)
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प्रकीर्तन  : पुं० [सं० प्र√कृत् (जोर से शब्द करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रकीर्तित] १. जोर जोर से कीर्तन करना। २. घोषणा।
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प्रकीर्ति  : स्त्री० [सं० प्र√कृत्+क्तिन्] १. घोषणा। २. ख्याति।
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प्रकीर्तित  : भू० कृ० [सं० प्र√कृत्+क्त] १. जिसका यश गाया गया हो। प्रशंसित। २. जिसकी घोषणा की गई हो।
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प्रकुपित  : वि० [सं० प्रा० स०] जिसका प्रकोप बहुत बढ़ा हो या बढ़ाया गया हो।
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प्रकृत  : वि० [सं० प्र√कृ (करना)+क्त] [भाव० प्रकृतता, प्रकृति] १. जो प्रकृति अर्थात विसर्ग से उत्पन्न या प्राप्त हुआ हो अथवा उसका बनाया हुआ हो। प्रकृतिजन्य। जैसे—प्रकृत झीलें-प्रकृत वनस्पतियाँ। २. जो ठीक उसी रूप में हो जिस रूप में प्रकृति उसे उत्पन्न करती हो। जिसमें कोई कृत्रिमता, बनावट, मेल या विकार न हो अथवा न हुआ हो। ‘विकृत’ इसी का विपर्याय है। ३. जो शरीर की प्रकृति अर्थात् स्वभाव के आधार पर हो या उससे संबंध रखता हो। स्वाभाविक। (नैचुरल, उक्त सभी अर्थों में) जैसे—प्रकृत क्रोध, प्रकृत बल। ४. जो अपनी ठीक वास्तविक या साधारण स्थिति में हो। जिसमें कुछ घटाया-बढाया या अदल-बदला न गया हो। प्रसम। सहज। साधारण। (नार्मल) ५. जो प्रस्तुत प्रकरण या प्रसंग के विचार से उपयुक्त, यथेष्ट या वांछनीय हो। संगत। (रेलेवेन्ट) उदा०—यहाँ इतना ही प्रकृत है कि कबीरदास का ‘पंडित’ बहुत अपना आदमी है।—हजारीप्रसाद द्विवेदी। पुं० श्लेष अलंकार का एक प्रकार का भेद।
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प्रकृतता  : स्त्री० [सं० प्रकृत+तल्+टाप्] १. प्रकृत होने की अवस्था या भाव। २. असलियत। यथार्थता। वास्तविकता।
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प्रकृतत्व  : पुं० [सं० प्रकृत+त्व]=प्रकृतता।
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प्रकृतवाद  : पुं० [सं०] आज-कल साहित्य में यथार्थवाद (देखें) का वह बहुत आगे बढ़ा हुआ रूप जिसमें समाज के प्रायः नग्न चित्र उपस्थति करना ही ठीक समझा जाता है। इसमें प्रायः समाज के अश्लील, कुरुचिपूर्ण और हेय अंगों के ही चित्र होते हैं।
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प्रकृतवादी  : वि० [सं०] प्रकृतवाद-संबंधी। प्रकृतवाद का। पुं० प्रकृतवाद का अनुयायी।
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प्रकृतार्थ  : वि० [सं० प्रकृत-अर्थ, कर्म० स०] असल। वास्तविक। पुं० प्रकृत अर्थात् यथार्थ और वास्तविक अर्थ, आसय या अभिप्राय।
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प्रकृति  : स्त्री० [सं० प्र√कृ+क्तिन्] १. किसी पदार्थ या प्राणी का वह विशिष्ट भौतिक सारभूत तथा सहज और स्वाभाविक गुण या तत्त्व जो उसके स्वरूप के मूल में होता है और जिसमें कभी कोई परिवर्तन या विकार नहीं होता। ‘विकृति’ इसी का विपर्याय है। जैसे—(क) जन्म लेना और मरना प्राणी मात्र की प्रकृति है। (ख) ताप उत्पन्न करना और जलाना अग्नि की प्रकृति है। (ग) जानवरों का शिकार करके भरना और चीतों और शेरों की प्रकृति है। २. विश्व में रचना या सृष्टि करनेवाली वह मूल नियामक तथा संचालक शक्ति जो सभी कारणों या कार्यों का उद्गम है और जिससे सभी जीव तथा पदार्थ बनते, विकसित होते तथा अंत में नष्ट या समाप्त होते रहते हैं। निसर्ग। विशेष—अधिकतर दार्शनिक, ‘प्रकृति’ को ही सारी सृष्टि का एक मात्र उपादान कारण मानते हैं। पर सांख्यकार ने कहा है कि इसके साथ एक दूसरा तत्व ‘पुरुष’ नाम का भी होता है। जिसके सहयोग से प्रकृति सब प्रकार की सृष्टियाँ करती है। भौतिक जगत् में हमें जो कुछ दिखाई देता है, वह सब इसी का परिणाम या विकार माना जाता है। इसी में सत्व, रज और तम नामक तीनों गुणों का अधिष्ठान कहा गया है। आध्यात्मिक क्षेत्रों और विशेषतः वेदांत में इसे परमात्मा या विश्वात्मा की मूर्तिमती इच्छा-शक्ति के रूप में माना गया है, और इसे ‘माया’ का रूपान्तर कहा गया है। कभी-कभी इसका प्रयोग ईश्वर के समानक के रूप में भी होता है। ३. वह सारा दृश्य जगत् जिसमें हमें पशु-पक्षियों, वनस्पतियाँ आदि अपने मौलिक या स्वाभाविक रूप में दिखाई देती हैं। जैसे—वहाँ प्रकृति की छटा देखने ही योग्य थी। ४. मनुष्यों का वह चारित्रिक मूल-भूत गुण, तत्व या विशेषता जो बहुत-कुछ जन्म-जात तथा प्रायः अविकारी होती है। जैसे—वह प्रकृति से ही उदार या दयालु (अथवा क्रोधी और लोभी) था। विशेष—इसमें इन सभी आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों, वासनाओं आदि का अंतर्भाव होता है जिनके वश में रहकर मनुष्य सब प्रकार के काम करते हैं और जिनके फल-स्वरूप उनका चरित्र अथवा जीवन बनता-बिगड़ता है। ५. जीवन यापन का वह सरल और सहज प्रकार जिस पर आधुनिक सभ्यता का प्रभाव न पड़ा हो और जो निरोधक प्रतिबन्धों से बहुत-कुछ मुक्त या रहित हो। जैसे—जंगली जातियाँ सदा प्रकृति की गोद में ही खेलती और पलती हैं। (अर्थात् खुले मैदानों में, झगडे-बखेड़ों और भीड़-भाड़ से दूर रहते हैं)। ६. प्राणियों की जीवन-दायिनी और स्वास्थ्य पद प्रवृत्ति या स्थिति। जैसे—आजकल उन्होंने अपने रोग की दवा करना बन्द कर दिया है और उसे प्रकृति पर छोड़ दिया है। ७. वैद्यक में, शारीरिक रचना और प्रवृत्ति के आधार पर मनुष्य की मूल स्थितियाँ के ये सात विभाग—वातज, पित्तज, कफज, वात-पित्तज, वात कफज, कफ-पित्तज और समधातु। ८. व्याकरण में, किसी शब्द का वह आधार-भूत, मूल या धातु रूप जिसमें उपसर्ग, प्रत्यय आदि लगने अथवा और प्रकार के विकार होने पर उसके अनेक दूसरे रूप बनते हैं। ९. प्राचीन भारतीय राजनीति में राजा, अमात्य या मंत्री, सुहृद, कोश, राष्ट्र, दुर्ग, बल और प्रजा इन आठों का समूह। १॰. परवर्ती दार्शनिक क्षेत्र में, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार इन आठों का समूह। ११. कर्मकांड में वह प्रतिमान या मानक रूप जिसे देखकर उसी तरह की और रचनाएँ प्रस्तुत की जाती हों। १२. आकृति। रूप। १३. प्रजा। रिआया। १४. नारी। स्त्री।
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प्रकृतिज  : वि० [सं० प्रकृति√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. जो प्रकृति से उत्पन्न हुआ हो। प्राकृतिक २. जो स्वभाव से ही होता हो। प्रकृति जन्य।
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प्रकृति-देववाद  : पुं० [सं० ष० त०] एक दार्शनिक मतवाद जिसमें यह माना जाता है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना तो अवश्य की परंतु उसके बाद उसने उस पर से अपना सारा निंयत्रण हटा लिया, आगे के सब काम प्रकृति पर छोड़ दिये। (डीइज़्म)
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प्रकृति-पुरुष  : पुं० [ष० त०] राजमंत्री।
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प्रकृति-भाव  : पुं० [ष० त०] १. स्वभाव। २. अविकृति और मूल रूप अथवा स्थिति। ३. व्याकरण में शब्दों की सन्धि की वह अवस्था जिसमें नियतमः शब्दों के रूपों में कोई विकार नहीं होता।
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प्रकृति-मंडल  : पुं० [ष० त०] १. राज्य के अधिपति, अमात्य, सुहृदृ, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और बल इन सातों अंगों का समूह। २. प्रजा का वर्ग या समूह।
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प्रकृति-लय  : पुं० [स० त०] प्रलय। (सांख्य)
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प्रकृति-वाद  : पुं० [ष० त०] १. यह मत या सिद्धान्त कि मनुष्य के सभी आचरण, कार्य, विचार आदि प्रकृति अर्थात् निसर्ग से उत्पन्न होनेवाली कामनाओं तथा प्रवृत्तियों पर आश्रित होते हैं। २. दार्शनिक क्षेत्र की मुख्य दो धाराएँ (क) यह मत या सिद्धान्त कि सारी सृष्टि प्रकृति से ही उत्पन्न है और इसके मूल में कोई अलौकिक तत्व या दैवी शक्ति काम नहीं करती। (ख) यह मत या सिद्धान्त कि मनुष्यों में धर्म तत्व का आविर्भाव किसी अलौकिक या दैवी शक्ति की प्रेरणा से नहीं हुआ है, बल्कि मनुष्यों ने धर्म-संबंधी सभी भावनाएँ और विचार प्राकृतिक जगत् से ही प्राप्त किये हैं। ३. कला और साहित्य के क्षेत्र में यह मत या सिद्धान्त कि संसार में प्राकृतिक तथा वास्तविक रूप में जो कुछ होता हुआ दिखाई देता है, उसका अंकन या चित्रण ज्यों का त्यों और ठीक उसी रूप में होना चाहिए और जिसमें नैतिक आदर्शों या भावनाओं का अतिरिक्त आरोप या मिश्रण नहीं किया जाना चाहिए। (नैचुरलिज़्म, उक्त सभी अर्थों में) विशेष—वस्तुतः उक्त अंतिम मत यथार्थवाद का वह आगे बढ़ा हुआ रूप है जिससे अशिष्ट अश्लील, कुरुचिपूर्ण और हेय पक्षों का भी अंकन या चित्रण होने लगा है। इसका आरम्भ युरोप १९ वीं शती में हुआ था।
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प्रकृतिवादी (दिन्)  : पुं० [सं० प्रकृतिवादी+इनि] वह जो प्रकृतिवाद का सिद्धान्त मानता हो या उसका अनुयायी हो (नैचुरलिस्ट)। वि० प्रकृतिवाद-संबंधी। प्रकृतिवाद का।
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प्रकृति-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें प्राकृतिक बातों अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, लय आदि का निरूपण होता है। २. पारिभाषिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में, वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें प्राकृतिक या भौतिक जगत् के भिन्न-भिन्न अंगों, क्षेत्रों, रूपों स्थितियों आदि का विचार या विवेचन होता है। (नैचुरल सायन्स) विशेष—जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, भौतिक और रसायन विज्ञान भू-गर्भशास्त्र आदि इसी के अन्तर्गत या इसकी शाखाओं के रूप में है। ३. उक्त के आधार पर साधारण लौकिक व्यवहार में वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें पशु-पक्षियों, वनस्पतियों, वृक्षों, खनिज पदार्थों और भूगर्भ की बातों का अध्ययन और विवेचन अ-पारिभाषिक रुप में होता है। (नैचुरल हिस्टरी)
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प्रकृतिविद्  : पुं० [सं० प्रकृति√विद्+क्विप्] प्रकृतिवेत्ता।
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प्रकृतिवेत्ता (तृ)  : पुं० [ष० त०] वह जो प्रकृति विज्ञान का ज्ञाता या पंडित हो। (नैचुरलिस्ट)
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प्रकृतिशास्त्र  : पुं० दे० ‘प्रकृति विज्ञान’।
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प्रकृतिसिद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] १. जो प्रकृति के विषयों के अनुसार हुआ हो या होता हो। २. प्राकृतिक। नैसर्गिक। ३. स्वाभाविक।
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प्रकृतिस्थ  : वि० [सं० प्रकृति√स्था (ठहरना)+क] १. जो अपनी प्राकृतिक अवस्था में स्थित या वर्तमान हो और जिसमें किसी प्रकार का क्षोभ या विकार न हुआ हो। जो अपनी मामूली हालत में हो। २. जिसका चित्त या मन ठिकाने हो अर्थात् उद्दिग्न या विचलित न हो। ठहरा हुआ और शान्त।
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प्रकृतिस्थ-सूर्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] उस समय का सूर्य जब वह उत्तरायण को पार करके अर्थात् दक्षिणायन होता है।
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प्रकृतीश  : पुं० [सं० प्रकृति-ईश, ष० त०] राजा।
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प्रकृत्या  : अव्य० [सं० तृतीया विभक्ति का रूप] प्रकृति की दृष्टि या विचार से। प्रकृतिशः। स्वभावतः।
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प्रकृष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√कृष् (खीचना)+क्त] १. खींचा या निकाला हुआ। २. उत्तम। श्रेष्ठ। ३. मुख्य। प्रधान। ४. तीव्र। तेज।
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प्रकृष्टता  : स्त्री० [सं० प्रकृष्ट+तल्+टाप्] प्रकृष्ट होने की अवस्था या भाव। उत्तमता। श्रेष्ठता।
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प्रकोध  : पुं० [सं० प्र√कुद् (पतित होना)+घञ्] १. सड़ने की अवस्था या भाव। २. दूषित होना। ३. सूखना। शोष।
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प्रकोप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक या बढ़ा हुआ कोप। २. क्षोभ। ३. चंचलता। ४. शरीर के वात, पित्त अथवा कफ के बढ़ने अथवा उसमें किसी प्रकार का विकार होने के फलस्वरूप उसका उग्र रूप धारण करना जिससे रोग उत्पन्न होता है। २. सार्वजनिक रूप से होनेवाली किसी रोग की अधिकता या प्रबलता। जैसे—आज-कल नगर में हैजे का प्रकोप है।
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प्रकोपन  : पुं० [सं० प्र√कुप् (क्रोध करना)+णिच्+ल्युट् —अन] १. प्रकुपित करना या होना। २. शोभा।
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प्रकोष्ठ  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कोहनी के आगे का भाग। २. मुख्य द्वार या सदर दरवाजे के पास का कमरा। ३. वह बड़ा आँगन जिसके चारों ओर कमरे और बरामदे हों। ४. आज-कल संसद विधानसभा आदि के बाहर का वह कमरा, बरामदा या प्रांगण जहाँ बैठकर सदस्य व्यक्तिगत रूप से बातचीत करते तथा पत्रकारों आदि से मिलते हों। (लॉबी)
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प्रकोष्ठक  : पुं० [सं० प्रकोष्ठ+कन्] प्राचीन भारत में प्रासाद के मुख्य द्वार के पास का कमरा।
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प्रक्रम  : पुं० [सं० प्र√क्रम् (गति)+घञ्] १. क्रम। सिलसिला। २. अतिक्रमण। उल्लंघन। ३. वह उपाय या योजना जो कोई कार्य आरम्भ करने से पहले की जाय। उपक्रम। ४. अवसर। मौका। ५. किसी प्रकार की प्रगति के क्रम या मार्ग के बीच-बीच में पड़नेवाली वे स्थितियाँ जो अलग-अलग अंगों या विभागों के रूप में होती हैं; और जिनके उपरांत कोई नया क्रम आरम्भ होता है। मंजिल। (स्टेज) ६. किसी कार्य की सिद्धि में आदि से अंत तक होनेवाली वे आवश्यक बातें जिनसे वह काम आगे बढ़ता है। ७. कोई चीज बनाने या माल तैयार करने की सारी क्रियाएँ। प्रक्रिया। (प्रोसेस)
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प्रक्रमण  : पुं० [सं० प्र√क्रम्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह घूमना। खूब भ्रमण करना। २. आगे बढ़ना। ३. पार करना। ४. आरम्भ करना।
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प्रक्रम-भंग  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में पहले कुछ बातें एक क्रम से कहना और तब उनसे संबद्ध कुछ दूसरी बातें किसी दूसरे क्रम से कहना जो एक दोष माना गया है।
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प्रक्रांत  : वि० [सं० प्र√क्रम्+क्त] १. जिसका प्रकरण चल रहा हो। जिसका उल्लेख या वर्णन हो रहा हो। २. प्रकरण में आया हुआ।
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प्रक्रिया  : स्त्री० [सं० प्र√कृ+श+टाप्, इयङ्] १. कोई काम करने या चीज बनाने की वह निश्चित और विशिष्ट क्रिया, ढंग या प्रकार जिसके बिना वह ठीक तरह से संपन्न या प्रस्तुत न हो सके। जैसे—धातु-मल से धातुएँ निकालने की प्रक्रिया। २. कोई ऐसा प्रक्रम या विकास जिसमें बीच-बीच में कुछ परिवर्तन या विकार होते चलें। जैसे—पेट में भोजन के पाचन की प्रक्रिया। ३. किसी काम या बात में क्रम-क्रम से आगे बढ़ने की क्रिया या भाव। (प्रासेस, उक्त सभी अर्थों में) ४. किसी कृत्य विशेषतः अभियोग आदि की सुनवाई में होनेवाले आदि से अन्त तक के सब काम या उनका क्रम। (प्रोसीज़र) ५. वह कार्रवाई ज़ो अबतक किसी कार्य की सिद्ध के लिए की जा चुकी हो। (प्रोसीडिंग)। ६. ऊंचा स्थान या स्थिति ७. पुस्तक का अध्याय या प्रकरण। ८. प्रस्तावना। भूमिका। ९. राजाओं का चँवर, छत्र आदि राज-चिह्र धारण करना। १॰. व्याकरण में, शब्द अथवा उसके प्रयोग का किया जानेवाला साधन।
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प्रक्लिन्न  : वि० [सं० प्र√क्लिद् (गीला)+क्त] १. आर्द्र। गीला। २. दयार्द्र।
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प्रक्लेद  : पुं० [सं० प्र√क्लिद् (गीला होना)+घञ्] १. आर्द्रता। तरी। नमी। २. दयाद्रिता।
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प्रक्लेदन  : पुं० [सं० प्र√क्लिद्+णिच्+ल्युट्—अन] गीला या तर करना। भिगोना। वि० तर या गीला करनेवाला। प्रक्लेदी।
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प्रावण  : पुं० [सं० प्र√क्वण् (शब्द करना)+अप्] बाँसुरी से निकलनेवाली मधुर ध्वनि।
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प्रक्वाण  : पुं०=प्रक्वण।
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प्रक्वाथ  : पुं० [सं० प्र√क्वथ् (उबलना)+घञ्] १. उबालने की क्रिया या भाव। २. उबाल।
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प्रक्ष  : वि० [सं० प्रच्छक] प्रश्न करनेवाला। पूछनेवाला।
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प्रक्षय  : पुं० [सं० प्र√क्षि (नाश)+अच्] =क्षय।
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प्रक्षयण  : पुं० [सं० प्र√क्षि+ल्युट्—अन] नष्ट या बरबाद करना।
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प्रक्षर  : पुं० [सं० प्र√क्षर् (झरना)+अच्] घोड़ों आदि की पक्खर या पांखर।
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प्रक्षरण  : पुं० [सं० प्र√क्षर्+ल्युट्—अन] १. चूना। रिसना। २. बहना।
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प्रक्षालन  : पुं० [सं० प्र√क्षल्+णिच्+ल्युट्—अन] १. कोई चीज जल से साफ करने की क्रिया। धोना। २. वैज्ञानिक क्षेत्र में जल के संयोग से या विशिष्ट प्रक्रिया से किसी वस्तु में की मैल या अवांछित अंश अलग करना (ब्लीचिंग)। ३. स्वच्छ या निर्मल करना। ४. नहाना। ५. नहाने, कपड़े धोने आदि का जल।
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प्रक्षालन-गृह  : पुं० [ष० त०] हाथ-मुँह आदि धोने का कमरा या प्रकोष्ठ।
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प्रक्षालयिता (तृ)  : पुं० [सं० प्र√क्षल्+णिच्+क्त] १. धोनेवाला। २. अतिथियों के चरण धोनेवाला।
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प्रक्षालित  : भू० कृ० [सं० प्र√क्षल्+णिच्+क्त] १. जिसका प्रक्षालन हुआ हो। २. धोया हुआ।
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प्रक्षाल्य  : वि० [सं० प्र√क्षल्+णिच्+यत्] धोये जाने के योग्य।
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प्रक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० प्र√क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. फेंका हुआ। २. अलग, ऊपर या बाहर से लाकर बढ़ाया या मिलाया हुआ। जैसे—तुलसी-कृत रामायण का प्रक्षिप्त अंश। ३. आगे की ओर बढ़ा या निकला हुआ। (प्रॉजेक्टेड)
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प्रक्षीण  : वि० [सं० प्रा० स०] जो पूरी तरह से क्षीण, नष्ट या लुप्त हो चुका हो। विनष्ट। पुं० वह स्थल या स्थिति जहाँ पहुँचकर पूर्ण विनाश होता हो।
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प्रक्षीवित्  : वि० [सं० प्र√क्षीव् (नशे में होना)+क्त] जो नशे में हो।
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प्रक्षुण्ण  : वि० [सं० प्र√क्षुद् (पीसना)+क्त] १. कूटा या पीसा हुआ। २. चूर्ण किया हुआ। ३. उत्तेजित किया हुआ।
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प्रक्षेप  : पुं० [सं० प्र√क्षिप्+घञ्] १. आगे की ओर जोर से फेंकना। २. युद्ध में दूरवर्ती शत्रु पर कोई अस्त्र फेंकना। ३. छितराना। बिखेरना। वह जो फेंका या छितराया गया हो। ५. बढ़ाने के लिए इधर-उधर से लाकर कुछ मिलाना। ६. वह अंश जो उक्त प्रकार से मिलाया जाय। ७. वह पदार्थ जो औषध आदि के ऊपर से डाला या मिलाया जाय। ८. किसी कारोबार या व्यापार में लगा हुआ किसी हिस्सेदार का मूल धन।
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प्रक्षेपक  : वि० [सं० प्र√क्षिप्+ण्वुल्—अक] प्रक्षेपण करनेवाला। पुं० १. वह यंत्र जिसके द्वारा किसी आकृति या चित्र का प्रतिबिंब सामनेवाले परदे पर डाला जाता है। (प्रोजेक्टर)। २. लिखाई में वह चिह्र जो इस बात का सूचक होता है कि इसके आगे का अंश मूल में नहीं है, बल्कि बाद में किसी ने क्षेपक के रूप में बढ़ाया है।
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प्रक्षेपण  : पुं० [सं० प्र√क्षिप्+ल्युट—अन्] १. सामने की ओर कोई चीज फेकने की क्रिया या भाव। २. ऊपर से मिलाना। ३. जहाज आदि चलाना। ४. निश्चित करना। ५. साधारण सीमा या नियमित रेखा से आगे निकालना या बढ़ाना। ६. उक्त प्रकार से निकला या बढ़ा हुआ अंश (प्रोजेक्शन)।
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प्रक्षेपणीय  : वि० [सं० प्र√क्षिप्+अनीयर्] प्रक्षेपण के योग्य।
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प्रक्षोभण  : पुं० [सं० प्र√क्षुभ् (विचलित होना)+णिच्+ ल्युट्—अन] १. क्षोभ उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. घबराहट। बेचैनी।
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प्रखंड  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी खंड या विभाग का कोई छोटा खंड या विभाग। (डिवीजन)
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प्रखर  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० प्रखरता] १. जिसमें बहुत अधिक उग्रता, ताप या तेजी हो। २. चोखा। पैना। पुं० १. खच्चर। २. कुत्ता। ३. घोडे की पाखर।
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प्रखरता  : स्त्री० [सं० प्रखर+तल्+टाप्] प्रखर होने की अवस्था, गुण या भाव।
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प्रखल  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत बड़ा खल या दुष्ट।
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प्रखोलना  : स० [सं० प्रक्षालन] १. धोना। पखारना। २. छिड़कना। ३. सुवासित करना।
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प्रख्या  : स्त्री० [सं० प्र√ख्या (कहना)+अङ+टाप्] १. दिखलाई देना। २. प्रकट या प्रकाश रूप में उपस्थित होना। ३. विख्याति। प्रसिद्धि। ४. बराबरी। समता। ५. उपमा। तुलना।
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प्रख्यात  : वि० [सं० प्र√ख्या+क्त] जिसे सब या बहुत से लोग जानते हों। प्रसिद्ध। मशहूर। विख्यात। पुं० नाटक की कथा-वस्तु के स्वरूप की दृष्टि से किये गये तीन भेदों में एक, जिसमें कथा-वस्तु का मुख्य रूप से इतिहास, पुराण आदि की प्रसिद्ध कहानियाँ होती हैं, और नाटककार द्वारा कल्पना से जोड़े गये प्रक्षिप्त अंगों से उसमें विकृति नहीं आती। हिन्दी के चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, रक्षाबन्धन, वितस्वा की लहरें आदि नाटकों की कथा-वस्तु इसी भेद के अंतर्गत हैं। (शेष दो भेद उत्पाद्य और मिश्र कहलाते हैं)।
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प्रख्याति  : स्त्री० [सं० प्र√ख्या+क्तिन्] प्रख्यात होने की अवस्था या भाव। प्रसिद्धि। विख्याति।
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प्रख्यान  : पुं० [सं० प्र√ख्या+ल्युट्—अन] १. खबर देना। सूचित करना। २. दी हुई खबर या सूचना। ३. अनुभूति।
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प्रख्यापन  : पुं० [सं० प्र+ख्या√णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रख्यापित] १. लोगों को जतलाने के लिए कोई बात औपचारिक, निश्चित और स्पष्ट रूप से कहना। (प्रोमल्गेशन) २. इस प्रकार का कोई ऐसा कथन लेख या वक्तव्य जो किसी अधिकारी के सामने सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेते हुए उपस्थित किया जाता है। (डिक्लेरेशन)
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प्रख्यापित  : भू० कृ० [प्र√ख्या+णिच्, पुक+क्त] जिसका प्रख्यापन हुआ हो। जो प्रख्यापन के रूप में उपस्थित किया गया हो।
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प्रगंध  : पुं० [सं० ब० स०] दवन पापड़ा।
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प्रगट  : वि०=प्रकट।
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प्रगटन  : पुं०=प्रकटन।
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प्रगटना  : अ० [सं० प्रकटन] प्रकट होना। सामने आना। जाहिर होना। स०=प्रगटाना।
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प्रगटाना  : स० [सं० प्रकटन; हिं० प्रगटना का स० रूप ] प्रकट या जाहिर करना। सामने लाना।
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प्रगत  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जिसने प्रस्थान किया हो। जो चल पड़ा हो। २. आगे गया हुआ या बढ़ा हुआ। जो अलग या अधिक दूरी पर हो। ३. छूटा हुआ। मुक्त। ४. मरा हुआ। मृत।
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प्रगत-जानुक  : वि० [सं० ब० स०,+कप्] (जीव या प्राणी) जिसके घुटने एक दूसरे से अधिक अलग या कुछ दूरी पर हों। ऐसे जीवों की टाँगे प्रायः धनुषाकार होती हैं।
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प्रगति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. आगे की ओर बढ़ना। २. विशेषतः किसी कार्य को पूर्णता की ओर बढ़ाते चलना। ३. सामूहिक रूप से विभिन्न कार्यों में होनेवाली क्रमिक उन्नति। (प्रोग्रेस) जैसे—देश प्रगति के पथ पर है।
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प्रगति-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का आधुनिक साहित्यिक वाद या सिद्धान्त जिसका मुख्य उद्देश्य जनवादी शक्तियों को संघटित करके मार्क्सवाद और भौतिक यथार्थवाद के लक्षित उद्देश्यों की सिद्धि करना है। सामाजिक यथार्थवाद को प्रतिष्ठित करने के कारण ही इसे प्रगतिवाद कहा गया है।
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प्रगतिवादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रगतिवाद+इनि] प्रगतिवाद-संबंधी। प्रगतिवाद का। पुं० वह जो प्रगतिवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक हो।
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प्रगति-शील  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० प्रगतिशीलता] जो प्रगति कर रहा हो। जो आगे बढ़ रहा या उन्नति कर रहा हो। (प्रोग्रेसिव)
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प्रगम  : पुं० [सं० प्र√गम् (जाना)+अप्] १. प्रेम में अग्रसर होना। २. ऐसे लक्षण जिनसे पहले-पहल प्रेम होना सूचित हो।
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प्रगमन  : पुं० [सं० प्र√गम्+ल्युट्—अन] [वि० प्रगमनीय] १. आगे बढ़ना। २. उन्नति। तरक्की। ३. लड़ाई-झगड़ा। ४. ऐसा भाषण या उक्ति जिसमें किसी बात का उचित, उपयुक्त और पूरा उत्तर निहित हो।
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प्रगल्भ  : वि० [सं० प्र√गल्भ् (धृष्टता करना)+अच्] [स्त्री० प्रगल्भा] १. चतुर। होशियार। २. प्रतिभाशाली। ३. उत्साही। हिम्मती। ४. हाजिर-जवाब ५. निडर। निर्भर। ६. बोलने में संकोच न करनेवाला। प्रायः बढ़-बढ़कर बोलनेवाला। वाचाल। ७. गंभीर। ८. मुख्य। ९. निर्लज्ज। १॰. जिसमें नम्रता न हो। उद्धत। ११. अभिमानी। अहंकारी। १२. पुष्ट। प्रौढ़।
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प्रगल्भता  : स्त्री० [सं० प्रगल्भ्+तल्+टाप्] १. प्रगल्भ होने की अवस्था या भाव। २. बुद्धिमत्ता। समझारी। होशियारी। ३. प्रतिभा। ४. उत्साह। ५. वाक्-चातुरी। ६. वाचलता। ७. निर्भयता। निर्भीकता। ८. गंभीरता। गहनता। ९. प्रधानता। मुख्यता। १॰. ढिठाई। धृष्टता। ११. निर्लज्जता। बेहयाई। १२. उच्छृ खलता। उद्दंडता। १३. अभिमान। घमंड। १४. पुष्टता। मजबूती। १५. व्यर्थ की बात-चीत। बकवाद। १६. शक्ति। सामर्थ्य। १७. साहित्य में, नायिका के सात प्रकार के अयत्नज और स्वाभाविक अलंकारों में से एक। प्रायः प्रौढ़ा, सामन्या आदि नायिकाओं के वे आवरण या हाव-भाव जो प्रायः निःशंक ये निःसंकोच होकर करती हैं। यथा-फूलत फूल गुलाबन के, चटकाहट चौंकि चली चपला सी। कान्ह के काननि ऑगुरि नाइ रही लपटाइ लवंग लता सी।—पद्माकर।
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प्रगल्भ-वचना  : स्त्री० [सं० ब० स०] साहित्य में मध्या नायिका के चार भेदों में से एक। वह नायिका जो बातों ही बातों में अपना दुःख और क्रोध भी प्रकट करें और उलाहना भी दे।
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प्रगल्भा  : स्त्री० [सं० प्रगल्भ्+टाप्] १. प्रौढ़ा (नायिका)। २. धृष्ट स्त्री। ३. दुर्गा।
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प्रगल्भित  : वि० [सं० प्र+गल्भ्√क्त] प्रगल्भता से युक्त।
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प्रगसना  : अ० [सं० प्रकाश] १. प्रकट होना। २. प्रकाशित होना। चमकना। स०=प्रगासना।
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प्रगाढ़  : वि० [सं० प्र√गाह् (हलचल पैदा करना)+क्त] [भाव० प्रगाढ़ता] १. तर किया या भिगोया हुआ। २. बहुत अधिक। ३. बहुत गाढ़ा या गहरा। ४. घना। ५. कठिन।
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प्रगाता (तृ)  : वि० [सं० प्र√गै (गाना)+तृच्] गानेवाला। पुं० बहुत बड़ा गवैया।
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प्रगामी (मिन्)  : वि० [सं० प्र√गम् (जाना)+णिनि] गमन करनेवाला। जानेवाला।
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प्रगायी (यिन्)  : पुं० [सं० प्र√गै+णिनि] गानेवाला।
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प्रगासना  : स० [सं० प्रकाशन] १. प्रकट करना। २. प्रकाश से युक्त करना। चमकाना।
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प्रगीत  : पुं० [सं० प्र√गै+क्त] १. गीत। गाना। २. आज-कल मुख्य रूप से ऐसा गीत जिसमें गीतकार की निजी अनुभूतियों का प्रतिबिम्ब हो और जो उसका विशिष्ट व्यक्तित्व प्रकट करता हो। (लिरिक) जैसे—श्रीमती महादेवी वर्मा के प्रगीत। ३. दे० ‘प्रगीत’।
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प्रगीति  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. एक प्रकार का छंद। २. दे० ‘गीतिकाव्य’।
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प्रगुण  : वि० [सं० ब० स०] १. गुणवान्। गुणी। २. चतुर। होशियार। ३. अच्छा और लाभदायक। ४. शुभ। पुं० कोई ऐसा गुण या विशिष्टता जो परिश्रम तथा प्रयत्नपूर्वक अर्जित या प्राप्त की गई हो। दक्षता। निपुणता। (एफिशिएन्सी)
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प्रगुणता  : स्त्री० [सं० प्रगुण+तल्—टाप्] किसी प्रगुण से युक्त होने की अवस्था या भाव। दक्षता। निपुणता (एफीशिएन्सी)
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प्रगुणी (णिन्)  : वि० [सं० प्रा० स०] १. गुणवान्। २. चालाक। होशियार।
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प्रगृहीत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. जो अच्छी तरह से ग्रहण किया गया हो। २. (व्याकरण में शब्द या पद) जिसका उच्चारण सन्धि के नियमों का ध्यान रखे बिना किया गया हो। ३. आज-कल किसी सभा-समिति का वह सदस्य जिसे दूसरे सदस्यों ने अपनी सहायता के लिए चुनकर अपने साथ सम्मिलित किया हो। सहयोजित। (कोऑप्टेड)
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प्रगृह्य  : वि० [सं० प्र√गह् (ग्रहण करना)+क्यप्] १. जो ग्रहण किए जाने के योग्य हो। ग्राह्य। २. जो पकड़ा जा सके। ३. (शब्द) जिसका उच्चारण संधि के नियमों का ध्यान रखे बिना किया जा सकता या किया जाता हो। पुं० १. स्मरण-शक्ति। २. वाक्य।
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प्रग्रह  : पुं० [सं० प्र√गह्+अप्] १. अच्छी तरह पकड़ने की क्रिया, ढंग या भाव। २. ग्रहण या धारण करने की क्रिया या भाव। ३. कुश्ती आदि लड़ने का एक ढंग या प्रकार। ४. सूर्य या चंद्र के ग्रहण का आरम्भ। ग्रस्त होना। ५. आदर। सत्कार। ६. अनुग्रह। कृपा। ७. उद्धतता। उद्दंडता। ८. घोड़े आदि की लगाम। बाग। ९. किरण। १॰. डोरी, विशेषतः तराजू आदि में बँधी हुई डोरी। ११. पशुओं के गले में बाँधने की रस्सी। पगहा। १२. डोरी। रस्सी। १३. घोड़ों, बैलों आदि को जुताई, सवारी आदि के काम में लाने के लिए सधाने या सिखाने की क्रिया या भाव। १४. मार्ग-दर्शक। नेता। १५. किसी बड़े ग्रह के साथ रहनेवाला छोटा ग्रह। उपग्रह। १६. कैदी। बंदी। १७. इंद्रियों का दमन या निग्रह। १८. सोना। स्वर्ण। १९. विष्णु। २॰. बाँह। हाथ। २१. एक प्रकार का अमलतास। २२. कर्णिकार। कनियारी। (वृक्ष)
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प्रग्रहण  : पुं० [सं० प्र√गह्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रगृहीत] १. ग्रहण करने की क्रिया या भाव। धारण। २. सूर्य या चन्द्रमा के ग्रहण का आरम्भ। ३. घोड़ों आदि को बोझ ढोने, सवारी के काम आदि में लाने के लिए सधाने की क्रिया या भाव। ४. वह डोरी जिसमें तराजू के पल्ले बँधे रहते हैं। ५. घोड़े की बाग। लगा। ६. पशुओं के गले में बाँधने की रस्सी। पगहा। ७. आज-कल किसी सभा समिति में उसके सदस्यों द्वारा किसी बाहरी आदमी को अपनी सहायता के लिए चुनकर अपना सदस्य बनाना। सहयोजन। (कोऑप्शन)
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प्रग्राह  : पुं० [सं० प्र०√गह्+घञ्] १. तराजू आदि की डोरी। २. लगाम। ३. पगहा।
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प्रग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] १. किसी मकान के चारों तरफ का वह घेरा जो लट्ठे, बाँस आदि गाड़कर बनाया गया हो। २. छोटी खिड़की। झरोखा। ३. अस्तबल। ४. वृक्ष का ऊपरी भाग। ५. आमोद-प्रमोद का स्थान। ६. विलास-भवन। रंग-भवन।
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प्रघट  : वि० दे० ‘प्रकट’। पुं०=प्रघटक।
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प्रघटक  : पुं० [सं० प्रा० स०] सिद्धांत।
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प्रघटन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. विशिष्ट रूप से घटित होने की क्रिया या भाव। २. वह कार्य, घटना या स्थिति जो वस्तुतः घटित हुई हो और जिसके संबंध में कुछ अध्ययन, अनुसन्धान, निर्णय या विचार होने को हो। मामला। (केस) जैसे—आज-कल नगर में चोरियों के प्रघटन बहुत होने लगे हैं।
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प्रघटना  : अ० [सं० प्रकट] प्रकट होना।
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प्रघटा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी विज्ञान या शास्त्र की मोटी और साधारण बातें।
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प्रघट्टक  : पुं० [सं० प्र√घट् (चलाना)+ण्वुल्—अक] सिद्धांत। वि० [सं० प्रकट] प्रकट करने या सामने लानेवाला। (क्व०)
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प्रघण  : पुं० [सं० प्र√हन् (हिंसा)+अप्, कुत्व, णत्व] १. बरामदा। अलिंद। २. लोहे का मुद्गर। ३. ताँबे का घड़ा।
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प्रघल  : वि०=प्रबल। उदा०—राणो षिमै न रास, प्रघलो साँड प्रतापसी।—पृथ्वीराज।
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प्रघस  : पुं० [सं० प्र√अद् (खाना)+अप्, घसादेश] १. रावण की सेना का एक सेनापति जिसे हनुमान ने प्रमदा-वन उजाड़ने के समय मारा था। २. दैत्य। राक्षस। ३. बहुत अधिक खाना। वि० बहुत अधिक खानेवाला। पेटू।
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प्रघात  : पुं० [सं० प्र√हन्+घञ्] १. आघात। चोट। २. आघात करने या चोट पहुँचाने की क्रिया। ३. युद्ध। ४. मार डालना।
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प्रघुण  : पुं० [सं० प्र√घुण् (घूमना)+क] अतिथि। अभ्यागत।
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प्रघोर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. बहुत अधिक। घोर। २. बहुत अधिक कठिन या विकट।
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प्रचंड  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० प्रचंडता] १. जिसमें अत्यधिक उग्रता, तीव्रता या तेजी हो। २. बहुत अधिक गरम। ३. भयंकर। भीषण। ४. कठिन। कठोर। ५. असह्य। ६. भारी। ७. बलवान्। पुष्ट। ८. प्रतापी। पुं० १. शिव का एक गण। २. सफेद कनेर।
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प्रचंडता  : स्त्री० [सं० प्रचंड+तल्+टाप्] १. प्रचंड होने की अवस्था या भाव। तेजी। तीखापन। प्रबलता। उग्रता। २. भयंकरता।
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प्रचंडत्व  : पुं० [सं० प्रचंड+त्व] प्रचण्डता।
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प्रचंडा  : स्त्री० [सं० प्रचंड+टाप्] १. एक तरह की सफेद दूब जिसमें सफेद रंग के फूल लगते हैं। २. चंडी। दुर्गा। ३. दुर्गा की एक सहेली।
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प्रचई  : स्त्री०=परचई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रचय  : पुं० [सं० प्र√चि (चयन करना)+अच्] १. वेद-पाठ विधि में एक प्रकार का स्वर जिसके उच्चारण के विधानानुसार पाठक को अपना हाथ नाक के पास ले जाने की आवश्यकता पड़ती है। २. बीजगणित में एक प्रकार का संयोग। ३. झुंड। दल। ४. ढेर। राशि। ५. बढ़ती। वृद्धि। ६. लकड़ी आदि की सहायता से फलों, फूलों आदि का होने वाला चयन।
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प्रचर  : पुं० [सं० प्र√चर् (गति)+अप्] १. मार्ग। रास्ता। २. रीति। रिवाज।
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प्रचरण  : पुं० [सं० प्र√चर्+ल्युट्—अन] १. आगे बढ़ना। कदम बढ़ाना। २. घूमना-फिरना। ३. उपभोग करना। ४. प्रचलित होना।
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प्रचरना  : अ० [सं० प्रचार] १. चलना। २. प्रचलित होना। फैलना।
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प्रचरित  : वि० [सं० प्र√चर्+क्त] १. जो प्रचरण में हो। २. प्रचलित।
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प्रचल  : वि० [सं० प्र√चल् (चलना)+अच्] बहुत अधिक चंचल। पुं० मोर।
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प्रचलन  : पुं० [सं० प्र√चल्+ल्युट्—अन] १. चलना या व्यवहार में होना। चलनसार होना। २. उपयोग, व्यवहार आदि में आना। ३. रीति, रिवाज, नियम, सिद्धांत आदि का जारी रहने का भाव। ४. प्रथा। रिवाज।
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प्रचला  : स्त्री० [सं० प्रचल+टाप्] १. वह निद्रा जो बैठे या खड़े हुए मनुष्य को आती है। २. वह पाप-कर्म जिसके उदित होने से उक्त प्रकार की निद्रा आती है।
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प्रचलित  : भू० कृ० [सं० प्र√चल्+क्त] १. जिसका प्रचलन हो। चलनसार। (करेंट) २. जो उपयोग, व्यवहार आदि में आ रहा हो। जो इस समय चल रहा हो। ३. कार्य या व्यवहार के रूप में चलाया या लाया हुआ। (इनफोर्स)
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प्रचाय  : पुं० [सं० प्र√चि (चयन करना)+घञ्] १. हाथ से कोई चीज एकत्र करना। २. एकत्र की हुई वस्तु का बनाया हुआ ढेर। राशि। ३. अधिकता। वृद्धि।
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प्रचायक  : वि० [सं० प्र√चि+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रचायिका] १. चयन करने या चुननेवाला। २. संग्रह करनेवाला। ३. ढेर लगानेवाला।
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प्रचार  : पुं० [सं० प्र√चर्+घञ्] १. किसी वस्तु या बात का बराबर व्यवहार में आना या चलता रहना। २. वह प्रयास जो किसी बात, सिद्धांत आदि को जानता या लोक में फैलाने के लिए विशेष रूप से किया जाता है और जिसका प्रमुख उद्देश्य किसी चीज को लोकप्रिय बनाना अथवा किसी लोक-प्रिय वस्तु को हेय सिद्ध करना होता है। ३. उक्त के आधार पर प्रचारित की हुई कोई बात। ४. प्रसिद्धि। ५. आकाश। गोचर-भूमि। ७. घोड़ों की आँख का एक रोग जिसमें आँखों के आस-पास का माँस बढ़कर दृष्टि रोक लेता है।
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प्रचारक  : वि० [सं० प्र√चर्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रचारिणी] किसी बात, विषय, सिद्धांत आदि का प्रचार करनेवाला। जैस—हिन्दी प्रचारक।
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प्रचारण  : पुं० [सं० प्र√चर्+णिच्+ल्युट्—अन] प्रचार करने की क्रिया या भाव।
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प्रचारना  : स० [सं० प्रचारण] १. प्रचारित करना। फैलाना। २. ललकारना।
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प्रचारित  : भू० कृ० [सं० प्र+चर्+णिच्√क्त] १. (बात, वस्तु या सिद्धांत) जिसका प्रचार हुआ या किया गया हो। २. (नियम, विधान आदि) जिसे काम में लाने या जिसके अनुसार काम करने की आज्ञा दी जा चुकी हो। (प्रोमल्गेटेड)। ३. जिसे लड़ाई आदि के लिए ललकारा गया हो। जिसके प्रति प्रचारणा की गई हो।
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प्रचारी (रिन)  : वि० [सं० प्र√चर्+णिनि] १. घूमने-फिरनेवाला। २. प्रकट होनेवाला। ३. प्रचार करनेवाला। दे० ‘प्रचारक’।
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प्रचालन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० प्रचालित] १. अच्छी तरह चलाने की क्रिया या भाव। २. प्रचलन में लाने की क्रिया या भाव। ३. दे० ‘संचालन’।
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प्रचालित  : भू० कृ० [सं० प्र√चल्+णिच्+क्त] १. जिसे प्रचलन में लाया गया हो।। परिचालित या संचालित किया हुआ।
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प्रचित  : वि० [सं० प्र√चि+क्त] १. संग्रहीत। २. चयन किया हुआ। ३. (स्वर) जो अनुदात हो। पुं० दंडकवृत्त का एक भेद। (पिंगल)
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प्रचुर  : वि० [सं० प्र√चुर्] (चुराना)+क] [भाव० प्रचुरता] १. (किसी वस्तु का उतना मान या मात्रा) जिससे आवश्यकता, अपेक्षा, न्यूनता आदि की पूर्ति अच्छी तरह हो जाती या हो सकती हो। २. बहुत अधिक। विपुल। ३. भरा-पूरा। पूर्ण। पुं० चोर।
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प्रचुरता  : स्त्री० [सं० प्रचुर+तल्—टाप्] प्रचुर होने की अवस्था या भाव। अधिकता।
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प्रचूषण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [सं० कृ० प्रचूषित] १. अच्छी तरह चूसना। २. शोषण करना। सोखना। अवशोषण। (एब्जार्पशन)
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प्रचेता (तस्)  : पुं० [सं० प्र√चित्+असुन्] १. वरुण का एक नाम। २. बारहवें प्रजापति का एक नाम। ३. एक प्राचीन ऋषि जो अनेक विधि-विधानों के निर्माता माने जाते हैं। ४. पृथु के परपोते और प्राचीन वर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हज़ार वर्ष तक समुद्र के अन्दर रह कर कठिन तपस्या की थी। वि० १. चतुर। होशियार। २. बुद्धिमान। समझदार।
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प्रचेय  : वि० [सं० प्र√चि+यत्] १. (फूल या ऐसी ही और कोई चीज) जिसका चयन होने को हो या किया जाना उचित हो। २. चुने जाने या संग्रह करने के योग्य। ३. ग्रहण किये जाने के योग्य। ग्राह्य।
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प्रचोदक  : वि० [सं० प्र√चुद्+ण्वुल्—अक] १. प्रचोदन या प्रेरणा करनेवाला। २. उत्तेजित करनेवाला। उत्तेजक।
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प्रचोदन  : पुं० [सं० प्र√चुद्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रचोदित] १. कोई काम करने के लिए दिया जानेवाला बढ़ावा। उत्तेजना। २. प्रेरणा करना। उकसाना। ३. आज्ञा, नियम या सिद्धांत। ४. प्रेषण। भेजना। ५. घोषणा।
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प्रचोदित  : भू० कृ० [सं० प्र√चुद्+णिच्+क्त] १. जिसे बढ़ावा दिया गया हो। २. उत्तेजित किया हुआ। जिसे प्रेरणा की गई हो। प्रेरित किया हुआ। ३. जिसे आज्ञा, आदेश आदि मिला हो। ४. भेजा हुआ। ५. घोषित किया हुआ।
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प्रच्छक  : वि० [सं० प्र√प्रच्छ् (पूछना)+ण्वुल्—अक] प्रश्न करने या पूछनेवाला।
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प्रच्छद  : पुं० [सं० प्र√छद् (ढकना)+णिच्+घ] १. वह जिसमें कोई चीज ढकी या लपेटी जाय। २. बिस्तर पर बिछाई जानेवाली चादर। ३. चाँदनी। ४. कंबल। ५. चोगा।
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प्रच्छना  : स० [सं० पृच्छन] प्रश्न करना। पूछना।
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प्रचछन्न  : वि० [सं० प्र√छद्+क्त] १. किसी आच्छादन, आवरण, वस्त्र आदि से ढका हुआ। जैसे— प्रच्छन्न शरीर। २. जो जान-बूझकर दूसरों से छिपाया गया हो। (हिडिन) जैसे—प्रच्छन्न धन। ३. जो अपना वास्तविक रूप औरों से छिपाकर रखता हो। जैसे—प्रच्छन्न बौद्ध। पुं० १. चोर दरवाजा। २. खिड़की।
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प्रच्छर्दक  : वि० [सं० प्र√छर्द् (वमने)+ण्वुल्—अक] १. बाहर निकालनेवाला। २. (ऐसी ओषधि) जिसके सेवन से कै या वमन होता हो। ३. कै या वमन करनेवाला।
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प्रच्छर्दन  : पुं० [सं० प्र√छर्द् (वमन करना)+ल्युट्—अन] १. बाहर निकालना। २. नाक के रास्ते प्राण-वायु बाहर निकालना। रेचन। ३. उल्टी, कै या वमन करना।
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प्रच्छर्दिका  : स्त्री० [सं० प्र√छर्द्+ण्वुल्—अक+टाप्, इत्व] १. ऐसी ओषधि जिसके सेवन से कै होती हो। २. बराबर कै या वमन करते रहने का एक रोग।
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प्रच्छादक  : वि० [सं० प्र√छद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह से ढकने या आच्छादित करनेवाला। २. छिपानेवाला।
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प्रच्छादन  : पुं० [सं० प्र√छद्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० प्रच्छादित] १. कोई चीज ढकने की क्रिया या भाव। २. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज ढकी जाय। ३. उत्तरीय वस्त्र। ४. दूसरों से चुराने, छिपाने या दबाने की क्रिया या भाव। ५. आँख की पलक।
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प्रच्छादित  : भू० कृ० [सं० प्र√छद्+णिच्+क्त] १. ढका हुआ। आवृत्त। २. छिपाया हुआ। (कन्सील्ड)
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प्रच्छाय  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह स्थान जहाँ घनी छाया हो। २. घनी छाया। ३. अन्धकार। अँधेरा।
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प्रच्छाया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी ग्रह या उपग्रह की वह छाया जो सूर्य की विपरीत दिशा में कोण के रूप में पड़ती है। २. गहरी छाया। ३. ग्रहण के समय चन्द्रमा या सूर्य पर पड़नेवाली छाया। ४. भौतिक विज्ञान में, वह गहरी छाया जिसमें प्रकाश के उद्गम से कुछ भी प्रकाश प्रत्यक्ष रूप से या सीधा न आता हो। (अम्ब्रा)
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प्रच्छालना  : स० [सं० प्रक्षालन] धोना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रच्छिल  : वि० [सं० √प्रच्छ्+इलच्] १. शुष्क। सूखा। २. जिसमें जलीय तत्त्व न हों। जल-रहित।
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प्रच्छेदन  : पुं० [सं० प्र√छिद्+ल्युट्+अन] १. कोई चीज इस प्रकार काटना कि उसके छोटे-छोटे टुकड़े हो जायँ। टुकड़े-टुकड़े करना। २. भेद न करना। छेदना।
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प्रच्युत्  : वि० [सं० प्र√त्यु+क्त] [भाव० प्रच्युति] १. अपने स्थान से हटा या हटाया हुआ। २. विशेषत
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प्रच्युति  : स्त्री० [सं० प्र√च्यु+क्तिन्] अपने स्थान से गिरने या हटने की अवस्था क्रिया या भाव। च्युति।
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प्रछन  : वि०=प्रच्छन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रश्न।
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प्रजंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रजंत  : अव्य०=पर्यंत (तक)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रज  : पुं० [सं०√जन् (उत्पन्न होना+ड] स्त्री का पति। स्वामी। स्त्री०=प्रजा।
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प्रजन  : पुं० [सं०√जन्+घञ्] १. गर्भधारण करने के लिए (पशुओं का) मैथुन। जोड़ा खाना। २. पशुओं के गर्भाधारण का समय। ३. नर या पुरुष जननेन्द्रिय। लिंग। ४. दे० ‘प्रजनन’। वि० जन्म देनेवाला। जनक।
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प्रजनक  : वि० [सं० प्रजन्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रजनिका] जन्म देने या उत्पन्न करनेवाला। पुं० जनक। पिता।
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प्रजनन  : पुं० [सं० प्र√जन्+णिच्+ल्युट्—अन] १. अपने ही जैसे नये जीवों को जन्म देकर अपने वंश या वर्ग की वृद्धि करना। संतान उत्पन्न करना। (रिप्रोडक्शन)। २. जीवों का होनेवाला जन्म। ३. दाई या धात्री का काम। ४. पशुओं आदि को पाल-पोसकर उनकी उन्नति और वृद्धि करना। (ब्रीडिंग)
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प्रजनिका  : स्त्री० [सं० प्र√जन्+णिच्+ण्वुल्—अक,+टाप्, इत्व] माता। जननी।
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प्रजनिष्णु  : वि० [सं० प्र√जन्+णिच्+इष्णुच्] प्रजनन करने या जन्म देनेवाला।
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प्रजरंत  : वि०=प्रज्वलित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रजरना  : अ० [सं० प्र+हिं० जरना] अच्छी तरह जलना। प्रज्वलित होना। उदा०—प्रजरयो आग वियोग की बह्यो विलोचन नीर।—बिहारी। स०=प्रजारना।
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प्रजल्प  : पुं० [सं० प्र√जल्प् (बोलना)+घञ्] १. इधर-उधर की या व्यर्थ की बातचीत। बकवाद। २. प्रिय को प्रसन्न करने के लिए कही जानेवाली बात या हाँकी जानेवाली गप्प।
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प्रजल्पित  : भू० कृ० [सं० प्र√जल्प्+क्त] बकवाद के रूप में कहा हुआ। पुं० बकवाद।
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प्रजवी (विन्)  : पुं० [सं० प्र√जु+इनि] १. दूत। २. हरकारा।
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प्रजांतक  : पुं० [सं० प्रजा-अन्तक, ष० त०] यम।
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प्रजा  : स्त्री० [सं० प्र√जन्+ड+टाप्] १. संतान। औलाद। २. किसी विशिष्ट राज्य या शासन में रहनेवाले वे सब लोग जो उसके द्वारा शासित होते हैं। रिआया। (सब्जेक्ट) ३. भारतीय देहाती समाज में छोटी जातियों के वे लोग जो बिना वेतन लिये काम करते हैं, और जिन्हें नियमित रूप से समय-समय पर अन्न, धन, वस्त्र, आदि मिलते रहते हैं। जैसे—नाऊ, बारी, भाट, नट, लोहार, कुम्हार, चमार, धोबी आदि। ४. सृष्टिकर्ता। ब्रह्मा।
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प्रजाकाम  : वि० [सं० प्रजा√कम् (चाहना)+णिङ्+अण्] जिसे पुत्र की कामना हो।
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प्रजाकार  : पुं० [सं० प्र√जा+कृ (करना)+अण्] सृष्टि के रचयिता। ब्रह्मा।
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प्रजागर  : वि० [सं० प्र√जाग् (जागना)+अच्] १. जागता रहने वाला। २. पहरा देने या चौकसी करनेवाला। पुं० १. जागरण। २. निद्रा न आने का रोग। उन्निद। ३. विष्णु। ४. प्राण।
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प्रजागरण  : पुं० [सं० प्र√जाग्+ल्युट्—अन] १. जागते रहने का भाव। जागरण। २. पहरा देना। चौकसी करना।
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प्रजा-तंतु  : पुं० [सं० ष० त०] १. संतान। संतति। २. कुल। वंश। ३. किसी वंश की विभिन्न पीढ़ियों की श्रृंखला। वंश-परम्परा।
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प्रजातंत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘लोकतंत्र’।
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प्रजात  : भू० कृ० [सं० प्र√जन् (उत्पन्न होना)+क्त] जिसे जन्म दिया गया हो। उत्पन्न किया हुआ।
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प्रजाता  : स्त्री० [सं० प्रजात+टाप्] वह स्त्री जिसने बच्चे को जन्म दिया हो। जच्चा। प्रसूतिका।
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प्रजाति  : स्त्री० [सं० प्र√जन्+क्तिन्] १. प्रजा। २. संतान। ३. संतान उत्पन्न करना। ४. प्रजनन। जन्म देने या उत्पन्न करने की शक्ति। ५. बच्चे को जन्म देना।
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प्रजाद  : वि० [सं० प्रजा√दा+क] १. जन्म देने या उत्पन्न करनेवाला। २. बाँझपन दूर करनेवाला। प्रजादा
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प्रजाध्यक्ष  : पुं० [प्रजा-अध्यक्ष, ष० त०] १. प्रजापति। २. सूर्य।
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प्रजानाथ  : पुं० [ष० त०] १. ब्रह्मा। २. मनु। ३. दक्ष। ४. राजा।
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प्रजापति  : पुं० [ष० त०] १. सृष्टि का रचयिता। सृष्टि कर्ता। ब्रह्मा। २. वे दस लोककर्ता जिन्हें ब्रह्मा ने सृष्टि के आरंभ में प्रजा-वृद्धि के लिए उत्पन्न किया था। ३. मनु। ४. राजा। ५. सूर्य। ६. अग्नि। ७. विश्वकर्मा। ८. पिता। ९. तितली। १॰. घर का मालिक या स्वामी। ११. एक नक्षत्र का नाम। १२. एक प्रकार का यंत्र। १३. जमाता। दामाद। १४. कुंभकार। कुम्हार। १५. साठ संवत्सरों में से पाँचवा संवत्सर। १६. प्राजापत्य (देखें) नामक विवाह-प्रकार।
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प्रजापती  : स्त्री० [सं०, प्रजापति] गौतम-बुद्ध को पालने वाली गोमती का नाम। पुं०=प्रजापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रजा-पालक  : पुं० [सं० ष० त०, णिच्+अच्] प्रजा का पालन-पोषण करनेवाला अर्थात् राजा।
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प्रजा-पालन  : पुं० [ष० त०] प्रजा का पालन और भरण-पोषण तथा रक्षा।
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प्रजायी (यिन्)  : वि० [सं० प्र√जन्+णिनि] [स्त्री० प्रजायिनी] उत्पन्न करने या जन्म देनेवाला। जैसे—वीरप्रजायी।
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प्रजारना  : स० [सं० प्र (उप०)+हिं० जारना] अच्छी तरह जलाना। प्रज्वलित करना।
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प्रजालना  : स० प्रजारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रजावती  : स्त्री० [सं० प्रजा+मतुप्, वत्व,+ङीष्] १. ऐसी स्त्री जिसके बहुत से बच्चे या संतानें हों। २. गर्भवती स्त्री। ३. भाई की स्त्री। ४. बड़े भाई की स्त्री। भाभी। भौजाई। ५. राजा प्रियव्रत की पत्नी का नाम।
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प्रजा-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] १. संतान की बढ़ती। २. जनता या जन-संख्या की वृद्धि।
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प्रजा-सत्ता  : स्त्री० [ष० त०]=प्रजातंत्र।
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प्रजा-सत्ताक  : वि० [ब० स०,+कप्] १. (शासन प्रणाली)] जिसमें शासन सूत्र प्रजा अथवा उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में होता है। २. (राज्य) जिसका शासन सूत्र प्रजा या उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में होता है।
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प्रजित्  : वि० [सं० प्र√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] जीतनेवाला। विजेता। विजयी।
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प्रजिन  : पुं० [सं० प्र√ज्या (जीर्ण होना)+नक्, सम्प्रसारण] वायु। हवा।
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प्रजीवन  : पुं० [सं० प्रा० स०] जीविका। रोजी।
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प्रजरित, प्रजुलित  : वि०=प्रज्वलित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रजेप्सु  : वि० [सं० प्रजा-ईप्सु, ष० त०] प्रजा या संतान की कामना करनेवाला।
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प्रजेश  : पुं० [सं० प्रजा+ईश, ष० त०]=प्रजापति।
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प्रजोग  : पुं०=प्रयोग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रज्ञ  : वि० [सं० प्र√ज्ञा (जानना)+क] [स्त्री० प्रजा, भाव० प्रज्ञता] १. जाननेवाला। जानकार। २. जिसमें प्रजा-शक्ति यथेष्ट हो। बहुत चतुर और बुद्धिमान। पुं० १. किसी विषय का बहुत अच्छा ज्ञाता, पंडित या विद्वान। २. बुद्धिमान।
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प्रज्ञता  : स्त्री० [सं० प्रज्ञ√तल्+टाप्] १. प्रज्ञ होने की अवस्था या भाव। २. पांडित्य। विद्वता। ३. अच्छी जानकारी।
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प्रज्ञप्त  : भू० कृ० [सं० प्र√ज्ञप्+क्त] १. जतलाया, बतलाया या सूचित किया हुआ। २. जिसके संबंध में कोई प्रज्ञप्ति निकली या हुई हो।
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प्रज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० प्र√ज्ञप् (जताना)+क्तिन्] १. जतलाने या सूचित करने की क्रिया या भाव। २. सूचना।
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प्रज्ञा  : स्त्री० [सं० प्र√ज्ञा+अङ+टाप्] १. बुद्धि। समझ। २. बुद्धि का वह परिष्कृत, विकसित तथा संस्कृत रूप जो उसे अध्ययन, अभ्यास, निरीक्षण आदि के द्वारा प्राप्त होता है और जिससे मनुष्य सब बातों का आगा-पीछा या वास्तविक रूप जल्दी और सहज में समझ लेता है। न्याय-बुद्धि। (इन्टलेक्ट) विशेष—यह मुख्यतः अनुभव, पांडित्य और विचारशीलता का प्रकाशमान् सम्मिश्रण और साधारण बुद्धि का खरादा, गढ़ा और तराशा हुआ रूप है। ३. सरस्वती का एक नाम। ४. विदुषी और सभ्य स्त्री।
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प्रज्ञा-चक्षु (स्)  : वि० [ब० स०] जिसके लिए उसकी बुद्धि ही आँखों का काम देती हो। पुं० १. ऐसा अन्धा व्यक्ति जो अपनी बुद्धि से ही सब बातें जान या समझ लेता हो। २. अन्धा व्यक्ति। (परिहास और व्यंग्य) ३. धृतराष्ट्र। ४. ज्ञानी पुरुष।
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प्रज्ञात  : भू० कृ० [सं० प्र√ज्ञा+क्त] १. जिसका प्रज्ञान हुआ हो या किया गया हो। २. अच्छी तरह से जाना और समझा हुआ। ३. स्पष्ट। ४. विवेचित। ५. प्रसिद्ध। विख्यात।
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प्रज्ञाता  : वि० [सं०] प्रज्ञान करनेवाला। (कॉग्निजेन्ट)
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प्रज्ञा-दृष्टि  : पुं०=प्रज्ञा-चक्षु।
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प्रज्ञान  : पुं० [सं० प्र√ज्ञा+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रज्ञात, वि० प्रज्ञेय] १. किसी बात या विषय का विशेष रूप से किया हुआ ज्ञान। २. विधिक क्षेत्र में किसी कार्य विशेषतः आपराधिक कार्य की ओर अधिकारिक रूप से किया जानेवाला ध्यान। (काग्निजेन्स) ३. विवेक। बुद्धि। ४. चिह्न। निशान। ५. चैतन्य। विद्वान।
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प्रज्ञापक  : वि० [सं० प्र√ज्ञा+णिच्+ण्वुल्—अक, पुक् आगम] प्रज्ञापन करने या जतानेवाला। सूचित करनेवाला। पुं० बड़े बड़े या मोटे मोटे अक्षरों में लिखा या छपा हुआ विज्ञापन। (पोस्टर)
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प्रज्ञापन  : पुं० [सं० प्र√ज्ञा+णिच्, पुक्,+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रज्ञाचित] किसी को विशेष रूप से किसी घटना, बात या विषय का ज्ञान कराना।
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प्रज्ञा-पारमिता  : स्त्री० [सं० ष० त०] पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने की स्थिति जो बौद्धों के अनुसार दस (या छः) गुणों (पारमिताओं) में से एक है।
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प्रज्ञापित  : भू० कृ० [सं० प्र√ज्ञा+णिच्,पुक्+क्त] १. (विषय) जिसका प्रज्ञापन हुआ हो। २. (व्यक्ति) जिसे सूचना दी गई हो।
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प्रज्ञामय  : पुं० [सं० प्रज्ञा+मयट्] प्रज्ञाशील। पंडित। विद्वान्।
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प्रज्ञाल  : वि० [सं० प्रज्ञा+लच्] बुद्धिमान।
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प्रज्ञावाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० प्रज्ञावादी] यह मत या सिद्धांत कि मनुष्य को सदा सब काम अपनी प्रज्ञा के अनुसार सब समझ-बूझकर करने चाहिए। (इन्टलेकचुअलिज़्म)
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प्रज्ञावान् (वत्)  : वि० [सं० प्रज्ञा+मतुप्, वत्व] जो खूब सोच-समझ कर काम करता हो।
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प्रज्ञा-शील  : वि० [सं० ब० स०] जो हर काम सोच-समझकर करता हो। जिसमें न्याय-बुद्धि हो।
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प्रज्ञेय  : वि० [सं०] जिसका प्रज्ञान हो सकता हो या होने को हो। (काग्निज़ेबुल)
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प्रज्वलन  : पुं० [सं० प्र√ज्वल् (दीप्ति)+ल्युट्—अन] [वि० प्रज्वलनीय, भू० कृ० प्रज्वलित] ताप, प्रकाश आदि उत्पन्न करने के लिए कोई चीज जलाना।
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प्रज्वलित  : भू० कृ० [सं० प्र√ज्वल्+क्त] १. ताप, प्रकाश आदि उत्पन्न करने के उद्देश्य से जलाया हुआ। २. चमकता हुआ। ३. व्यक्त और सुस्पष्ट।
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प्रज्वलिया  : पुं० [?] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं।
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प्रज्वार  : पुं० [सं० प्र√ज्वर् (दाह)+घञ्] ज्वर से पीड़ित होने पर शरीर में से निकलनेवाला ताप।
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प्रज्वालन  : स० [सं० प्र√ज्वल्+णिच्+ल्युट्—अन] प्रज्वलित करना।
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प्रडीन  : पुं० [सं० प्र√डी (उड़ना)+क्त] पक्षियों की १0१ तरह की उड़ानों में से एक उड़ान। वि० जो डैनों या परों की सहायता से उड़ गया हो या उड़ रहा हो।
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प्रण  : वि० [सं० पुराण+न, प्र—आदेश] पुराना। प्राचीन। पुं० [सं० पण] कोई काम विशेषतः कोई कठिन और वीरतापूर्ण काम करने का अटल या दृढ़ निश्चय। दृढ़ प्रतिज्ञा।
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प्रणख  : पुं० [सं० प्र-नख, प्रा० स०, णत्व] नाखून का अगला नुकीला भाग।
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प्रणत  : वि० [सं० प्र√नम् (झुकना)+क्त] १. बहुत झुका हुआ। २. जो झुककर किसी को प्रणाम कर रहा हो। ३. नम्र। विनीत। दीन। पुं० १. दास। २. नौकर। सेवक। ३. उपासक या भक्त।
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प्रणतपाल  : वि० [ष० त०]=प्रणतपालक।
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प्रणतपालक  : वि० [सं० प्रणत√पाल् (पालना) +णिच्+ अच्] [स्त्री० प्रणतिपालिका] शरण में आये हुए दीन-दुखियों की रक्षा करनेवाला।
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प्रणति  : स्त्री० [सं० प्र√नम् (झुकना)+क्तिन्] १. झुकने की क्रिया या भाव। २. प्रणाम। प्रणिपात। दंडवत्। ३. नम्रता। ४. विनती।
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प्रणवन  : पुं० [सं० प्र√नद् (शब्द करना)+ल्युट्—अन] जोर से नाद या आवाज करना। गरजना या चिल्लाना।
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प्रणपति  : स्त्री० [सं० प्रणिपत्] १. प्रणति। २. प्रणाम। उदा०—करि प्रणपति लागी कहण।—प्रिथीराज।
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प्रणमन  : पुं० [सं० प्र√नम्+ल्युट्—अन] १. झुकना। २. प्रणाम करना।
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प्रणम्य  : वि० [सं० प्र√नम्+यत्] १. जिसके आगे झुकना उचित हो। २. जिसके सामने झुककर प्रणाम करना उचित हो। पूज्य और वन्दनीय।
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प्रणय  : पुं० [सं० प्र√नी (पहुँचना)+अच्] १. प्रेमपूर्वक की जानेवाली प्रार्थना। २. प्रेम विशेषतः ऐसा श्रृंगारिक प्रेम जो साधारण अनुराग या स्नेह से बहुत आगे बढ़ा हुआ होता है। ३. भरोसा। विश्वास। ४. मोक्ष। निर्वाण। ५. श्रद्धा। ६. प्रसव।
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प्रणय-कोप  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] परेमियों का एक दूसरे पर बिगड़ना या रोष प्रकट करना।
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प्रणयन  : पुं० [सं० प्र√नी+ल्युट्—अन] १. कोई चीज कहीं से ले आना या ले जाकर कहीं पहुँचाना। २. कोई काम पूरा करना। ३. कोई नई चीज बनाकर तैयार करना। रचना। ४. साहित्यिक काव्य, सामने लाना। ६. होम आदि के समय किया जानेवाला अग्नि का एक संस्कार।
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प्रणयमान  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] प्रेम में किया जानेवाला मान। रूठना।
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प्रणयिता  : स्त्री० [सं० प्रणयिता+तल्,+टाप्] प्रणय-युक्त होने की अवस्था या भाव। अनुरक्ति।
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प्रणयिनी  : स्त्री० [सं० प्रणयिन्+ङीप्] पुरुष की दृष्टि से वह स्त्री जिससे वह प्रणय या बहुत अधिक प्रेम करता हो।
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प्रणयी (यिन्)  : पुं० [सं० प्रणय+इनि] [स्त्री० प्रणयिनी] वह पुरुष जो किसी स्त्री से प्रेम करता हो। स्त्री का प्रेमी।
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प्रणव  : पुं० [सं० प्र√नु (स्तुति)+अप्] १. ॐकार। ब्रह्मा बीज। ओंकार मंत्र। २. (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) त्रिदेव। ३. परमेश्वर।
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प्रणवना  : स० [सं० प्रणमन] १. प्रणाम करना। नमस्कार करना। २. प्रणाम करने के उद्देश्य से किसी के आगे झुकना। ३. किसी के आगे झुकना। हार मानना।
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प्रनष्ट  : वि० [सं० प्र√नश् (नष्ट होना)+क्त] १. जो लुप्त हो गया हो। विनष्ट। २. मृत। मरा हुआ।
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प्रणस  : पुं० [सं० प्र-नासिका, ब० स०, नस—आदेश] वह व्यक्ति जिसकी नाक बड़ी और मोटी हो। (ऐसा व्यक्ति भाग्यवान् समझा जाता है।)
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प्रणाद  : पुं० [सं० प्र√नद् (शब्द करना)+घञ्] १. बहुत जोर से होनेवाला शब्द। २. आनन्द या प्रसन्नता के समय मुँह से निकलने वाला शब्द। ३. झंकार। जैसे—आभूषणों या नूपुरों का प्रणाद। ४. घोड़ों के हिनहिनाने का शब्द। ५. कर्ण-नाद नाम का रोग जिसमें कानों में गूँज या साँयँ साँयँ सुनाई पड़ती है।
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प्रणाम  : पुं० [सं० प्र√नम् (झुकना)+घञ्] बड़ों के आगे नत मस्तक होकर उनका अभिवादन करने का एक ढंग या प्रकार।
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प्रणामांजलि  : स्त्री० [सं० प्रणाम-अंजलि, च० त०] हाथ जोड़कर किया जानेवाला प्रणाम। करबद्ध प्रणाम।
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प्रणामी (मिन्)  : पुं० [सं० प्रणाम+इनि] प्रणाम करनेवाला। स्त्री० [सं० प्रणाम] वह दक्षिणा या धन जो बड़ों को प्रणाम करते समय उनके चरणों पर आदरपूर्वक रखा जाता है।
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प्रणायक  : पुं० [सं० प्र√नी+ण्वुल्—अक] १. वह जो मार्ग दिखलाता हो। पथप्रदर्शक। २. नेता। ३. सेनापति।
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प्रणाल  : पुं० [सं० प्र√नल् (बाँधना)+घञ्] १. बड़ा जल-मार्ग। २. पनाला।
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प्रणालिका  : पुं० [सं० प्रणाली+कन्,+टाप्, ह्वस्व] १. परनाली। नाली। २. बंदूक की नली।
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प्रणाली  : स्त्री० [सं० प्रणाल+ङीष्] १. वह मार्ग जिसमें से होकर जल बहता हो। २. विशेषतः ऐसा जल-मार्ग जो दो जल-राशियों को मिलाता हो। ३. कोई काम करने का उचित, उपयुक्त, नियता या विधि विहित ढंग, प्रकार या साधन। (चैनल, उक्त सभी अर्थों में) ४. वह सारी व्यवस्था और उसके सब अंग जिनसे कोई निश्चित या विशिष्ट कार्य होता हो। तरीका। ५. द्वार। ६. परम्परा।
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प्रणाश  : पुं० [सं० प्र√नश्+घञ्] १. पूर्णरूप से होनेवाला विनाश। २. मृत्यु। ३. पलायन। भागना।
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प्रणाशी (शिन्)  : वि० [सं० प्र√नश्+णिच्+णिनि] [स्त्री० प्रणाशिनी] नाश करनेवाला।
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प्रणिधान  : पुं० [सं० प्र-नि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन्] १. देखा जाना। २. प्रयत्न। ३. योग-साधन में, समाधि। ४. पूरी भक्ति और श्रद्धा से की जानेवाली उपासना। ५. मन को एकाग्र करके लगाया जानेवाला ध्यान। ६. किये जानेवाले कर्म के फल का त्याग। ७. अर्पण। ८. भक्ति। ९. किसी बात या विषय में होनेवाली गति, पहुँच या प्रवेश। १॰. भावी-जन्म के संबंध में की जानेवाली कोई प्रार्थना।
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प्रणिधि  : पुं० [सं० प्र-नि√धा+कि] दूत या भेदिया जो किसी विशेष कार्य के लिए कहीं भेजा गया हो। स्त्री० १. प्रार्थना। २. मन की एकाग्रता। ३. तत्परता।
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प्रणिधेय  : पुं० [सं० प्र-नि√धा+यत्] १. गुप्तचर भेजना। २. नियुक्ति। ३. प्रयोग।
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प्रणिनाद  : पुं०=प्रणाद।
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प्रणिपात  : पुं० [सं० प्र-नि√धा (रखना)+क्त, हि-आदेश] १. जिसकी स्थापना की गई हो। स्थापित। २. मिला या मिलाया हुआ। मिश्रित। ३. पाया हुआ। प्राप्त। ४. किसी के पास रखा या किसी को सौंपा हुआ। ५. जिसका ध्यान किसी चीज या बात पर एकाग्रतापूर्वक लगा हो।
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प्रणी  : पुं० [सं० प्र√नी+क्विप्] ईश्वर। वि० [सं० प्रण] प्रण या दृढ़ प्रतिज्ञा करनेवाला।
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प्रणीत  : भू० कृ० [सं० प्र√नी+क्त] १. जिसका प्रणयन किया गया हो। बना या तैयार किया हुआ हो। निर्मित। रचित। २. जिसका संशोधन या संस्कार हुआ हो। संस्कृत। ३. भेजा हुआ। ४. लाया हुआ। पुं० १. वह जल जिसका मंत्र से संस्कार किया गया हो। २. यज्ञ के लिए मंत्रों द्वारा संस्कृत की हुई अग्नि। ३. अच्छी तरह पकाया हुआ भोजन।
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प्रणीता  : स्त्री० [सं० प्रणीत+टाप्] १. वह जल जो यज्ञ के कार्य के लिए वेद मंत्र पढ़ते हुए कुएँ से निकाला और छानकर रखा जाता है। २. वह पात्र जिसमें उक्त जल रखा जाता है।
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प्रणीय  : वि० [सं० प्र√नी+क्यप्] १. ले जाने योग्य। २. जिसका संस्कार होने को हो।
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प्रणेता (तृ)  : वि० [सं० प्र√नी+तृच्] १. ले जानेवाला। २. प्रणयन करने अर्थात् निर्मित करने या बनानेवाला। जैसे—ग्रन्थ का प्रणेता।
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प्रणेय  : वि० [सं० प्र√नी+यत्] १. ले जाने योग्य। २. अधीन। वशवर्ती। ३. जिसका संस्कार किया जाने को हो या होने को हो।
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प्रणोदन  : पुं० [सं० प्र√नुद्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रणोदित] १. किसी को कहीं भेजाना। प्रेषण। २. प्रेरित करना।
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प्रतंचा  : स्त्री०=प्रत्यंचा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतच्छ  : वि०=प्रत्यक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतत  : भू० कृ० [सं० प्र√तन् (फैलना)+क्त] १. फैलाया हुआ। २. कोई चीज ढ़कने के लिए उस पर फैलाया हुआ।
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प्रतति  : स्त्री० [सं० प्र√तन्+क्तिन्] १. फैले हुए होने की अवस्था या भाव। २. फैलाव। विस्तार। प्रतन
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प्रतना  : स्त्री०=पृतना (सेना का एक विभाग)।
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प्रतनु  : वि० [सं० प्र-तनु, प्रा० स०] १. क्षीण-काय। दुबला-पतला। २. बहुत ही कोमल या सुकुमार। ३. सूक्ष्म। बहुत छोटा। ४. तुच्छ। हीन।
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प्रतपन  : पुं० [सं० प्र√तप् (तपना)+ल्युट्—अन] १. गरम करना। गरमाहट पहुँचाना। २. तप्त करना। तपाना। वि० १. गरम करने या गरमाहट पहुँचानेवाला। २. तपाने वाला।
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प्रतप्त  : भू० कृ० [सं० प्र√तप्+क्त] १. तपाया या बहुत गरम किया हुआ। पुं० ऐसा साधु जिसने तपस्या के द्वारा अपनी शरीर सुखा डाला हो।
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प्रतमाली  : स्त्री० [?] कटारी। (डिं०)
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प्रतरण  : पुं० [सं० प्र√तृ (तैरना)+ल्युट्—अन] १. तैरना। २. तैरकर पार करना।
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प्रतर्क  : पुं० [सं० प्र√तर्क (बहस या ऊह करना)+घञ्] १. वाद-विवाद। तर्क-वितर्क। २. अनुमान। ३. कल्पना।
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प्रतर्कण  : पुं० [सं० प्र√तर्क्+ल्युट्—अन] १. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद करना। २. अनुमान या कल्पना करना। ३. संशय।
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प्रतर्क्य  : वि० [सं० प्र√तर्क+ण्यत्] १. जिसके संबंध में तर्क किया जा सके या किया जाने को हो। २. जिसके संबंध में अनुमान या कल्पना की जा सके या की जाने हो।
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प्रतर्दन  : पुं० [सं० प्र√तर्द् (अनादर करना)+ल्युट्—अन] १. वेदों में उल्लिखित काशी के प्रथम राजा दिवोदास के एक पुत्र का नाम जिसका विवाह मंदालसा के साथ हुआ। २. एक प्राचीन ऋषि जो इन्द्र के शिष्य थे। ३. विष्णु। ४. ताड़ना। वि० ताड़ना करनेवाला।
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प्रतल  : पुं० [सं० प्र-तल, ब० स०] १. हाथ की हथेली। २. [प्रा० स०] पृथ्वी के नीचेवाले सात लोकों में से अन्तिन जिसमें नाग जाति के लोग बसते हैं। पाताल।
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प्रता  : स्त्री० [सं० प्रतति] छोटी लता। उदा०—लता प्रता से मंडित कुसुमित पर्ण-कुटी में।—पन्त।
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प्रतान  : पुं० [सं० प्र√तन् (फैलना)+घञ्] १. पेड़-पौधे का नया कल्ला। २. झाड़ या लता विशेषतः ऐसा झाड़ या लता जो जमीन पर फैलती हो। ३. लता तंतु। रेशा। ४. विस्तार। फैलाव। ५. एक रोग जिसमें प्रायः मूर्च्छा आती है। वि० १. फैला हुआ। विस्तृत। २. रेशेदार।
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प्रतानिनी  : स्त्री० [सं० प्रतानिन्+ङीप्] शाखाओं-प्रशाखाओं की सहायता से दूर तक फैलनेवाली लता।
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प्रतानी (निन्)  : वि० [सं० प्रतान+इनि] १. झाड़, लता आदि जो दूर तक फैली हुई हो। २. फैलनेवाला। ३. रेशेदार।
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प्रताप  : पुं० [सं० प्र√तप्+घञ्] १. बहुत अधिक गरमी या ताप। २. ऐसा ताप जिसमें खूब चमक हो। तेज़। किसी बहुत बड़े आदमी की कर्मठता, योग्यता, नाम, यश आदि पर आश्रित ऐसा तेज, बल या महत्त्व जिसके प्रभाव से अनेक बड़े-बड़े काम अनायास या सहज में हो जाते हैं। इकबाल। जैसे—आप वहाँ नहीं गये तो क्या हुआ, आपके प्रताप से ही वहाँ का सारा काम हो गया। पद—पुण्य प्रताप=सत्कर्मों और तेज का प्रभाव। जैसे—बड़ों के पुण्य-प्रताप से सब काम बहुत अच्छा तरह हो गये। ४. पौरुष। मरदानगी। ५. बहादुरी। वीरता। ६. साहस। हिम्मत। ७. प्राचीन भारत में वह छत्र जो युवराज के सिर पर लगाया जाता था। ८. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग। ९. आक य मदार का पौधा।
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प्रतापन  : पुं० [सं० प्र√तप+णिच्+ल्युट्—अन] १. खूब गरम करना। तपाना। २. ताप अर्थात् कष्ट या पीड़ा पहुँचाना। ३. एक नरक क नाम। ४. कुंभी-पाक नरक। ५. विष्णु। वि० १. ताप पहुँचानेवाला। २. कष्ट या पीड़ा देनेवाला।
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प्रतापवान् (वत्)  : वि० [सं० प्रताप+मतुप्] [स्त्री० प्रतापवती] (व्यक्ति) जिसका यथेष्ट प्रताप हो। प्रतापशाली। इकबालमंद।
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प्रताप-सारंग  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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प्रताप-हंसी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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प्रतापी (पिन्)  : वि० [सं० प्रताप+इनि] १. प्रताप-संबंधी। २. जिसका चारों ओर प्रताप फैला हो। ३. जिसके प्रताप से सब काम होते हों। प्रतापशाली। ४. दुःख देने या सतानेवाला।
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प्रतारक  : वि० [सं० प्र√तृ (तैरना)+ण्वुल्—अक] १. प्रतारण करने अर्थात् ठगनेवाला। २. चालाक। धूर्त। ३. धोखेबाज।
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प्रतारण  : पुं० [सं० प्र√तृ+णिच्+ल्युट्—अन] १. धोखा देना या ठगना। २. धूर्तता। धोखेबाजी।
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प्रतारणा  : स्त्री० [सं० प्र√तृ+णिच्+युच्—अन,+टाप्] धोखा देने या ठगने की कोई क्रिया, ढंग या युक्ति।
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प्रतारित  : भू० कृ० [सं० प्र√तृ+णिच्+क्त] (व्यक्ति) जिसे धोखा दिया या ठगा गया हो। छला हुआ।
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प्रतिंचा  : स्त्री०=प्रत्यंचा (धनुष का डोरा)।
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प्रति  : अव्य० [सं०] १. एक संस्कृत अव्यय जो क्रियाओं और संज्ञाओं से पहले उपसर्ग के रूप में लगकर नीचे लिखे अर्थ देता है—(क) किसी काम या बात के आधार, परिणाम या फलस्वरूप होनेवाला। जैसे—प्रतिक्रिया, प्रतिध्वनि, प्रतिफल। (ख) विपरीत, विरोधी या समानान्तर पक्ष या स्थिति में होनेवाला। जैसे—प्रतिकूल, प्रतिद्वंद्वी, प्रतिवाद, प्रतिक्रिया। (ग) किसी के अनुकरण पर अथवा अनुरूप बनने या होनेवाला। जैसे—प्रतिकृति, प्रतिच्छाया, प्रतिमान, प्रतिमूर्ति, प्रतिलिपि। (घ) आगे या सामने। जैसे—प्रत्यक्ष। (च) अच्छी तरह। भली भाँति। जैसे—प्रतिपादन, प्रतिबोध। (छ) चारों ओर अथवा चारों ओर से। जैसे—प्रतिमंडल, प्रतिरक्षा। (ज) पहले या पूर्व से। जैस—प्रति-नियत। (झ) साधारण या सामान्य। जैसे—प्रति-नियम। (ट) पुनः या फिर। जैसे—प्रतिनिर्देश। (ठ) किसी के अधीन, सहायक अथवा स्थानापन्न रूप से काम करनेवाला। जैस—प्रति-अधीक्षक, प्रति निर्देशन, प्रतिनिधि। (ड) समान। जैसे—प्रतिबल। २. विशुद्ध अव्यय की तरह और स्वतंत्र रूप में प्रयुक्त होने पर यह नीचे लिखे अर्थ देता है—(क) किसी की ओर या दिशा में। (ख) किसी को उद्दिष्ट या लक्षित करते हुए। जैसे—देवता (या पति) के प्रति उसमें यथेष्ट श्रद्धा थी। (ग) कइयों या बहुतों में से हर एक और अलग-अलग। जैसे—प्रति व्यक्ति एक रुपया कर लाया था। स्त्री० १. चित्र, पुस्तक, लेख, सामयिक-पत्र आदि की बहुत सी छपी अथवा लिखी हुई नकलों या प्रतिकृतियों में से हर एक। नकल। (कापी) जैसे—(क) इस पुस्तक के पहले संस्करण की दो हजार प्रतियाँ छपी थीं। (ख) इस चित्र (अथवा लेख) की एक प्रति हमारे लिए भी तैयार करा देना। २. किसी चीज की कोई अनुकृति या नकल। ३. प्रतिबिंब। परछाईं। ४. कोटि। वर्ग। जैसे—उच्च प्रति के लोग।
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प्रतिक  : वि० [सं० कार्षापण+ठिठन्—इक्, प्रति-आदेश] १. जो एक कार्षापण में खरीदा गया हो। २. पुस्तकों आदि की प्रति से सम्बन्ध रखनेवाला। जैसे—पुस्तक का प्रतिक स्वत्व।
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प्रतिकर  : पुं० [सं० प्रति√कृ (फेंकना)+अप्] अपकार, क्षति, हानि आदि के बदले में दिया जानेवाला धन। मुआवजा। (कम्पेन्सेशन)
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प्रतिकरण  : पुं० [सं० प्रति√कृ+ल्युट्—अन] किसी कार्य, उत्तर, प्रतिकार या विरोध में किया जानेवाला कार्य। (काउन्टर एक्शन)
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प्रतिकर्त्ता (तृ)  : वि० [सं० प्रति√कृ+तृच] प्रतिकरण या प्रतिकार करनेवाला।
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प्रतिकर्म (न्)  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वेश। भेस। २. किसी के कर्म के उत्तर में या उसका बदला चुकाने के लिए किया जानेवाला कर्म। प्रतिकार। बदला। ३. शरीर को सजाने-सँवारने के लिए किये जानेवाले अंग-कर्म। श्रृंगार।
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प्रतिकर्मक  : वि० [सं०] प्रतिकर्म करनेवाला।
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प्रतिकर्मक  : पुं० [सं०] रसायन शास्त्र में किसी द्रव्य के अस्तित्व या विद्यमानता की जाँच करने के लिए उसमें मिलाया जानेवाला वह द्रव्य जो पहलेवाले परीक्ष्य द्रव्य में प्रतिक्रिया उत्पन्न करता हो। (रि-एजेन्ट)
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प्रतिकर्ष  : पुं० [सं० प्रति√कृष् (खींचना)+घञ्] १. एकत्र करना। २. संयोग।
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प्रतिकश  : वि० [सं० प्रति√कश् (गति और शासन)+अच्] चाबुक की परवाह न करनेवाला (घोड़ा)।
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प्रतिकष  : पुं० [सं० प्रति√कष् (गति)+अच्] १. नेता। २. सहायक। ३. दूत।
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प्रतिक स्वत्व  : पुं० [सं०] किसी कवि, लेखक, कलाकार आदि की कृति की प्रतियाँ छापने अथवा और किसी प्रकार प्रस्तुत करने का वह स्वत्व जो उसके कर्ता की अनुमति के बिना और किसी को प्राप्त नहीं होता। (कॉपी राइट)
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प्रति-कामिनी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] सौत। सपत्नी।
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प्रतिकाय  : पुं० [सं० प्रति√चि (चयन करना)+घञ्, कुत्व] १. किसी की काया के अनुरूप बनाई हुई काया। प्रतिमूर्ति। पुतला। २. दुश्मन। शत्रु। ३. लक्ष्य।
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प्रतिकार  : पुं० [सं० प्रति√कृ (करना)+घञ्] १. किसी काम, चीज या बात के बदले में या क्षतिपूर्ति के निमित्त दिया जानेवाला धन। २. किसी काम या बात का बदला चुकाने के लिए किया जानेवाला कार्य। बदला। ३. किसी काम या बात को दबाने, रोकने आदि के लिए किया जानेवाला उपाय या प्रयत्न। (काउन्टर-एक्शन) जैसे—उन्होंने जो यह व्यर्थ का उपद्रव खड़ा कर रखा है, इसका कुछ प्रतिकार होना चाहिए। ४. रोग की चिकित्सा। इलाज।
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प्रतिकारक  : वि० [सं० प्रति√कृ+ण्वुल्—अक] १, किसी प्रकार कि क्रिया या प्रतिकार या विरोध करनेवाला। २. किसी क्रिया के गुण या प्रभाव को नष्ट करनेवाला। मारक। (एन्टीडोट)
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प्रतिकारिक  : वि० [सं० प्रतिकार से] १. प्रतिकार के रूप में होने या उससे संबंध रखनेवाला। २. किसी गुण, परिणाम, प्रभाव आदि के विपरीत होकर उसे निष्फल या व्यर्थ करनेवाला। (काउन्टर-एक्टिव)
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प्रतिकार्य  : वि० [सं० प्रति√कृ+ण्यत् जिसका प्रतिकार किया जा सके या किया जाना चाहिए।
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प्रति-कितव  : [ सं० प्रा० स०] १. वह जुआरी जो किसी दूसरे जुआरी के मुकाबले में जुआ खेलते हो। २. जोड़ीदार।
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प्रतिकुंचित  : पुं० [सं० प्रति√कुंच् (टेढ़ा होना)+क्त] झुका हुआ। टेढ़ा।
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प्रतिकूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] परिखा। खाईं।
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प्रतिकूल  : पुं० [सं० ब० स०] नदी का सामनेवाला अर्थात् उस ओर का कूल अर्थात् किनारा या तट। वि० [भाव० प्रतिकूलता] १. जो इस ओर या हमारे पक्ष में नहीं, बल्कि उस, दूरवर्ती या सामनेवाले पक्ष में हो। ‘अनुकूल’ का विपर्याय। २. (व्यक्ति) जो हमसे अलग या दूर रहकर हमारे कामों में बाधक होता हो। ३. (कार्य, वस्तु या स्थिति) जो किसी अन्य कार्य, वस्तु या स्थिति के मार्ग में बाधक होती हो। (एडवर्स) ४. रुचि, वृत्ति, स्वभाव आदि के विरुद्ध पड़ने या होनेवाला। जैसे—यहाँ का जलवायु हमारे लिए प्रतिकूल है। ‘अनुकूल’ का विपर्याय, उक्त सभी अर्थों में।
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प्रतिकूलता  : स्त्री० [सं० प्रतिकूल+तल्+टाप्] १. प्रतिकूल होने की अवस्था, गुण या भाव। विपरीतता। २. विरोध।
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प्रतिकूलत्व  : पुं० [सं० प्रतिकूल+त्व] प्रतिकूलता।
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प्रतिकूला  : स्त्री० [सं० प्रतिकूल+टाप्] सौत। सपत्नी।
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प्रतिकूलाक्षर  : पुं० [सं० प्रतिकूल-अक्षर, ब० स०] साहित्य में किसी प्रसंग के वर्णन में ऐसे खटकनेवाले अक्षरों या वर्णों का प्रयोग जो वस्तुत
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प्रतिकृत  : वि० [सं० प्रति√कृ (करना)+क्त] १. जिसका प्रतिकार हो चुका हो। २. जिसका उत्तर दिया अथवा बदला चुकाया जा चुका हो। ३. जिसके अन्त या विनाश का उपाय किया जा चुका हो।
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प्रतिकृति  : स्त्री० [सं० प्रति√कृ+क्तिन्] १. किसी चीज के आकार-प्रकार आदि के अनुरूप बनी या बनाई हुई वैसी ही दूसरी चीज। जैसे—यह लड़का अपने पिता की प्रतिकृति है। २. प्रतिमा। प्रतिमूर्ति। ३. चित्र। तसवीर। ४. छाया। प्रतिबिंब। ५. प्रतिकार। बदला। ६. पूजा। ७. प्रतिनिधि।
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प्रतिकृत्य  : वि० [सं० प्रति√कृ+क्यप्] १. जिसका प्रतिकार किया जा सकता हो या किया जाने को हो। २. जिसका प्रतिकार करना उचित हो। पुं० ऐसा कार्य जो किसी के विरोध में किया गया हो। प्रतिकार।
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प्रतिकृष्ट  : वि० [सं० प्रति√कृष्+क्त] १. दोबारा जोता हुआ (खेत)। २. जिसका निवारण किया गया हो। ३. छिपा हुआ। ४. तुच्छ। हेय।
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प्रतिक्रम  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उलटा या विपरीत क्रम। २. प्रतिकूल अथवी विपरीत आचरण या कार्य। वि० जो किसी नियत या मानक क्रम के अनुसार न होकर विपरीत क्रम से बना या लगा हुआ हो।
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प्रतिक्रमात्  : अव्य० [सं० प्रतिक्रम का पञ्चम्यन्त] उल्लिखित, निर्दिष्ट या बताये हुए क्रम के उलटे या विपरीत क्रम से। (वाइस-वर्सा)
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प्रतिक्रांति  : स्त्री० [सं०] किसी क्रांति के बल या वेग के बहुत बढ़ने पर उसे दबाने या रोकने के लिए होनेवाली क्रांति। (काउन्टर रिवोल्यूशन)
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प्रतिक्रिया  : वि० [सं० प्रतिक्रिया से] १. (पदार्थ) जिससे कोई रसायनिक क्रिया हो चुकने पर उसके विपरीत कोई क्रिया उत्पन्न हो। २. कोई क्रिया होने पर उसके फलस्वरूप या विपरीत क्रिया उत्पन्न या सम्पन्न करनेवाला। (रि-एक्टिव)
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प्रतिक्रियक  : वि० दे० ‘प्रतिक्रियावादी’।
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प्रतिक्रिया  : स्त्री० [सं० प्रति√कृ+श, इयङ-देश,+टाप्] १. किसी के किये हुए काम या बात का होनेवाला प्रतिकार। बदला। (रिएक्शन) २. कोई क्रिया या घटना होने पर उसके विपक्ष या विरोध में अथवा उसकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए होनेवाली क्रिया या घटना। जैसे—वह दमन की प्रतक्रिया ही थी, जिसने आंदोलन का रूप और भी उग्र कर दिया था। ३. कोई क्रिया होने पर उसकी विपरीत दिशा में आप से आप प्राकृतिक नियमों के अनुसार या स्वाभाविक रूप से होनेवाली क्रिया। जैसे—फेंका हुआ पत्थर जहाँ गिरता है, वहाँ से इसी लिए उछल कर दूर जा पड़ता है कि उस पर आघात की प्रतिक्रिया होती है। ४. किसी काम, चीज या बात के बहुत आगे बढ़ चुकने पर पीछे की ओर अथवा किसी अन्य विपरीत दिशा में होनेवाली उसकी गति या प्रवृत्ति। जैसे—इस थकावट (या शिथिलता) को परिश्रम की प्रतिक्रिया समझना चाहिए। ५. रसायन शास्त्र में, दो या अधिक द्रव्यों का मिश्रण या संयोग होने पर उनमें से किसी पर दूसरे द्रव्य का पड़नेवाला प्रभाव या होनेवाला परिणाम। ६. भौतिक शास्त्र में, एक अवस्था का अन्त होने पर स्वभाविक रूप से दूसरी विपरीत अवस्था का आविर्भाव या संचार। जैसे-बहुत अधिक गरमी के बाद होनेवाली ठंढ़क, या ज्वर उतर जाने पर शरीर का बिलकुल ठंढ़ा हो जाना। ७. प्राचीन संस्कृत साहित्य में (क) परिष्करण या संस्कार। (ख) श्रृंगार या सजावट।
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प्रतिक्रियात्मक  : वि० [सं० प्रतिक्रिया-आत्मन्, ब० स०,+कप्] १. जिसके साथ कोई प्रतिक्रिया लगी हो। या लगी रहती हो। प्रतिक्रिया से युक्त। २. दे० ‘प्रतिक्रियक’।
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प्रतिक्रियावाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० प्रतिक्रियावादी] यह मत या सिद्धान्त की जो बातें पहले से चली आ रही हैं, उनमें परिवर्तन या सुधार करनेवालों का विरोध करना चाहिए। (रिएक्शनिज़्म)
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प्रतिक्रियावादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रतिक्रियावाद+इनि] प्रतिक्रिया वाद-संबंधी। पुं० वह जो प्राचीन मान्यताओं, सिद्धान्त आदि को माननेवाला तथा नवीन मान्यताओं, सिद्धान्तों आदि का विरोधी हो।
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प्रतिक्रोश  : पुं० [सं० प्रति√क्रुश् (आह्वाण)+घञ्] बिक्री का वह प्रकार जिसमें प्रतिस्पर्धा ग्राहकों में से किसी चीज का बढ़-चढ़कर और सबसे अधिक मूल्य लगानेवाले ग्राहक के हाथ चीज बेची जाती है। नीलामी। (ऑक्शन)
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प्रतिक्षय  : पुं० [सं० प्रति√क्षि (ऐश्वर्य)+अच्] अंगरक्षक।
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प्रतिक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० प्रति√क्षिप्] (प्रेरणा करना)+क्त] १. किसी के प्रति फेंका हुआ। २. जो अमान्य किया गया हो। ३. बलपूर्वक पीछे की ओर ढकेला या हटाया हुआ। (रिपल्सड)
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प्रतिक्षेप  : पुं० [सं० प्रति√क्षिप् (प्रेरित करना)+घञ्] १. बलपूर्वक पीछे की ओर फेंकना या हटाना। जैसे—आक्रमण करनेवाले शत्रु का प्रतिक्षेप। २. गृहीत, मान्य या स्वीकृत न करना। अग्राह्य, अमान्य या अस्वीकृत करना। ३. अपने अनुकूल न समझकर या अरुचिकर होने पर अलग या दूर करना अथवा हटाना। ४. किसी प्रकार के गुण, प्रकृति आदि का उत्कट विरोध होने के कारण एक तत्त्व या पदार्थ का दूसरे तत्त्व या पदार्थ को दूर हटाना। (रिपल्सन; उक्त सभी अर्थों में) ५. रोकना। ६. तिरस्कार।
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प्रतिक्षेपण  : पुं० [सं० प्रति√क्षिप्+ल्युट्—अन] प्रतिक्षेप करने की क्रिया या भाव।
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प्रतिखुर  : पुं० [सं० प्रा० स०] गर्भ में मरा हुआ बच्चा, जिसके कारण योनिमार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
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प्रतिख्यात  : वि० [सं० प्रति√ख्या (कहना)+क्त] [भाव० प्रतिख्याति] जिसकी चारों ओर प्रसिद्धि हो।
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प्रतिगत  : भू० कृ० [सं० प्रति√गम् (जाना)+क्त] १. जो कहीं जाकर लौट या वापस आ गया हो। २. जो पुनः प्राप्त हुआ हो। ३. भूला हुआ। विस्मृत। पुं० पक्षियों की एक प्रकार की उढ़ान।
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प्रतिगमन  : पुं० [सं० प्रति√गम्+ल्युट्—अन] वापस आना। लौटना।
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प्रतिगामी (मिन्)  : पुं० [सं० प्रति√गम् (जाना)+णिनि] [भाव० प्रतिगामिता] दे० ‘प्रतिक्रियावादी’।
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प्रतिगिरि  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. एक पहाड़ के सामनेवाला दूसरा पहाड़। २. वह जो देखने में पहाड़ के समान हो।
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प्रतिगृहीत  : भू० कृ० [सं० प्रति√ग्रह् (ग्रहण करना)+क्त] १. जिसका प्रतिग्रहण हुआ हो। गृहीत या स्वीकृत किया हुआ। २. ब्याहा हुआ। विवाहित।
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प्रतिगृहीता  : स्त्री० [प्रतिगृहीत+टाप्] १. वह स्त्री जिसका पाणिग्रहण किया गया हो। विवाहिता स्त्री। २. धर्पपत्नी।
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प्रतिगृह्य  : वि० [सं० प्रति√ग्रह्+क्यप्]=प्रतिग्राह्य।
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प्रतिग्या  : स्त्री०=प्रतिज्ञा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिग्रह  : पुं० [सं० प्रति√गह्+अप्] १. किसी की दी हुई चीज ग्रहण करना। लेना। २. अधिकार या वश में करना। ३. मंजूरी। स्वीकृति। ४. ब्राह्मण का ऐसा दान लेना जो उसे विधिपूर्वक दिया जाय। ५. दान आदि ग्रहण करने का अधिकार। ६. ग्रहण किया हुआ उपहार या भेंट। ७. अभ्यर्थना। ८. सूर्य, चन्द्रमा आदि को लगनेवाला ग्रहण। उपराग। ९. किसी बात का किया जानेवाला प्रतिकार या विरोध। १॰. किसी बात का दिया जानेवाला उत्तर। जवाब। ११. सेना का पिछला भाग। १२. रक्षा पूर्वक रखने के लिए मिली हुई संपत्ति। धरोहर। १३. अभियुक्त या संदिग्ध व्यक्ति का अधिकारियों के हाथ में जाँच या विचार के लिए लिया जाना। (कस्टडी) १४. सिलाई के समय उँगली में पहनने का अंगश्ताना। १५. उगालदान। पीकदान।
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प्रतिग्रहण  : पुं० [सं० प्रति√गह्+ल्युट्—अन] १. विधिपूर्वक दी हुई चीज ग्रहण करना या लेना। प्रतिग्रह। २. दे० ‘प्रतिग्रह’।
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प्रतिग्रही (हिन्)  : वि० [सं० प्रतिग्रह+इनि] प्रतिग्रहण करने या प्रतिग्रह लेनेवाला।
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प्रतिग्रहीता (तृ)  : पुं० [सं० प्रति√गह्+तच्]=प्रतिग्रही।
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प्रतिग्राह  : पुं० [सं० प्रति√गह्+ण] १. प्रतिग्रहण। २. दे० ‘प्रतिग्रह’। ३. उगालदान। पीकदान।
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प्रतिग्राहक  : वि० [सं० प्रति√गह्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रतिग्राहिका] प्रतिग्रह या दान लेनेवाला। दी हुई चीज लेनेवाला। पुं० १. दे० ‘आदाता’। २. आज-कल न्यायालय द्वारा नियुक्त वह अधिकारी जो कसी विवादास्पद या ऋण-ग्रस्त संपत्ति आदि की व्यवस्था के लिए नियुक्त किया जाता है। ३. बिजली की सहायता से आई हुई ध्वनियाँ आदि ग्रहण करनेवाले यंत्रों का वह अंग जो उन ध्वनियों को ग्रहण कर उपयोग के लिए सुरक्षित रखता है। (रिसीबर, उक्त दोनों अर्थों के लिए)
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प्रतिग्राह्य  : वि० [सं० प्रति√ग्रह्+ण्यत्] १. जो प्रतिग्रह या दान के रूप में लिया जा सके। २. जो ठीक मानकर गृहीत किया जा सके। स्वीकार्य।
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प्रतिघ  : पुं० [सं० प्रति√हन् (हिंसा)+ड, कुत्व] १. विरोध। २. द्धयु। लड़ाई। ३. शत्रु। ४. क्रोध। गुस्सा। ५. मूर्च्छा।
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प्रतिघात  : स्त्री० [सं० प्रति√हन्+णिचि+अप्] १. वह आघात जो किसी के आघात करने पर किया जाय। २. आघात लगने पर उसके फलस्वरूप आप से आप होनेवाला दूसरा आघात। टक्कर। ३. बाधा। रुकावट।
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प्रतिघातक  : वि० [सं० प्रति√हन्+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रतिघात करनेवाला।
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प्रतिघातन  : पुं० [सं० प्रति√हन्+णिच्√ल्युट्—अन] १. प्रतिघात करने की क्रिया या भाव। २. जान से मार डालना। प्राणघात। हत्या। ३. रुकावट। बाधा।
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प्रतिघाती (तिन्)  : वि० [सं० प्रति√हन्+णिच्+णिनि] १. प्रतिघात करनेवाला। २. टक्कर मारने या लेनेवाला। ३. सामने आकर मुकाबला या विरोध करनेवाला। प्रतिद्वंद्वी।
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प्रतिघ्न  : पुं० [सं० प्रति√हन्+क] काया। शरीर।
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प्रतिचार  : पुं० [सं० प्रति√चर् (गति)+घञ्] सजावट करना। अपने आपको सजाना।
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प्रतिचिंतन  : पुं० [सं० प्रति√चित् (स्मरण करना)+ल्युट्—अन] पुनः या फिर से चिंता या विचार करना।
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प्रतिचिकीर्षा  : स्त्री० [सं० प्रति√कृ+सन्+अ,+टाप्] बदला लेने की भावना।
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प्रतिच्छन्न  : भू० कृ० [सं० प्रति√छद् (ढकना)+क्त] १. छाया या ढका हुआ। २. छिपा हुआ।
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प्रतिच्छवि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. प्रतिबिंब। परछाईं। २. चित्र। तसवीर।
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प्रतिच्छा  : स्त्री०=प्रतीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिच्छाया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. परछाईं। प्रतिबिंब। २. पत्थर, मिट्टी आदि की बनी हुई मूर्ति। प्रतिकृति। ३. चित्र। तसवीर।
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प्रतिछाँई  : स्त्री०=परछाईं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिछाँहरी  : स्त्री०=परछाईं।
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प्रतिछाया  : स्त्री०=प्रतिच्छाया (परछाईं)।
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प्रतिजन्म  : पुं० [सं० प्रा० स०] दुबारा होनेवाला जन्म। पुनर्जन्म।
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प्रतिजल्प  : पुं० [सं० प्रति√जल्प् (बोलना)+घञ्] १. किसी के उत्तर में कहीं हुई बात। २. विपरीत या विरुद्ध बात।
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प्रतिजल्पक  : पुं० [सं० प्रति√जल्प्+ण्वुल्—अक] टाल-मटोल करने के लिए दिया जानेवाला उत्तर। वि० किसी के विरुद्ध बोलनेवाला।
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प्रतिजागर  : पुं० [सं० प्रति√जागृ+घञ्] किसी चीज की खूब सचेत होकर देख-रेख करना।
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प्रति-जिह्वा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] गले के अन्दर की घंटी। छोटी जीभ। कौआ।
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प्रति-जिह्विका  : स्त्री० [सं०]=प्रतिजिह्वा।
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प्रतिजीवन  : पुं० [सं० प्रति√जीव् (जीना)+ल्युट्—अन] पुनः या फिर से मिलने या प्राप्त होनेवाला। जीवन। पुनर्जन्म।
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प्रतिज्ञांतर  : पुं० [सं० प्रतिज्ञा-अंतर, मयू० स०] तर्क में एक प्रकार का निग्रह-स्थान, जिसमें अपनी की हुई प्रतिज्ञा का खंडन होने पर वादी अपने मन से कोई और दृष्टान्त देता हुआ अपनी प्रतिज्ञा में किसी नये धर्म का आरोप करता है। जैसे—यदि कहा जाय, ‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान इंद्रियों का विषय है।’ तो उसके उत्तर में यह कहना कि प्रतिज्ञांतर होगा—शब्द नित्य है, क्योंकि वह जाति के समान इन्द्रियों का विषय है।
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प्रतिज्ञा  : स्त्री० [सं० प्रति√ज्ञा (जानना)+अङ्+टाप्] १. किसी बात की जानकारी की दी जानेवाली स्वीकृति। २. कोई बात कह चुकने के बाद अथवा कोई काम कर चुकने के बाद इस बात का किया जानेवाला दृढ़ निश्चय कि भविष्य में पुनः ऐसा काम नहीं करेंगे। ३. कुछ करने या न करने के संबंध में किया जानेवाला दृढ़ निश्चय। मुह०—प्रतिज्ञा पारना=प्रतिज्ञा पूरी करना। उदा०— जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी।—सूर। ४. किसी प्रकार का कथन या वक्तव्य। ५. किसी के विरुद्ध उपस्थित किया जानेवाला अभियोग। ६. शपथ। सौगंध। ७. न्याय में किसी पक्ष से कही जानेवाली वह बात या उपस्थित किया जानेवाला वह मत जिसे आगे चलकर उसे प्रमाण, युक्ति आदि की सहायता से ठीक सिद्ध करना पड़ता हो। (प्रॉपोज़ीशन) विशेष—यह अनुमान के पाँच अवयवों में से एक माना गया है।
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प्रतिज्ञात  : वि० [सं० प्रति√ज्ञा+क्त] १. घोषित किया हुआ। कहा हुआ। २. जिसके संबंध में प्रतिज्ञा की गई हो। जो प्रतिज्ञा की विषय बन चुका हो। ३. जो किया जा सकता या हो सकता हो। संभव। साध्य।
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प्रतिज्ञान  : पुं० [सं० प्रति√ज्ञा+ल्युट्—अन] १. प्रतिज्ञा। २. किसी बात के संबंध में शपथ या सौगन्ध न खाकर सत्य-निष्ठापूर्वक कोई बात कहना।
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प्रतिज्ञा-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा पत्र जिस पर कोई की हुई प्रतिज्ञा लिखी हो। २. इकरारनामा।
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प्रतिज्ञापन  : पुं० [सं०] विशेष रूप से जोर देकर कोई बात कहना। (एफरमेशन)
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प्रतिज्ञा-पालन  : पुं० [ष० त०] की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार काम करना या चलना।
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प्रतिज्ञा-भंग  : पुं० [ष० त०] प्रतिज्ञा का भंग होना। प्रतिज्ञा के विरुद्ध कार्य कर बैठना, जिससे उस प्रतिज्ञा का महत्त्व समाप्त हो जाता है।
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प्रतिज्ञेय  : वि० [सं० प्रति√ज्ञा+यत्] १. (कार्य या बात) जिसके करने या न करने की प्रतिज्ञा की गई हो या की जाने को हो। २. प्रशंसा या स्तुति करनेवाला। प्रशंसक।
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प्रतितंत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह शासन या शासन-प्रणाली जो किसी दूसरे प्रकार के शासन या शासन-प्रणाली के बिलकुल विपरीत हो। २. प्रतिकूल शास्त्र।
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प्रतितंत्र-सिद्धान्त  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा सिद्धांत जो कुछ शास्त्रों में हो तो और कुछ में न हो। जैसे—मीमांस में ‘शब्द’ को नित्य माना जाता है परन्तु न्याय में वह अनित्य माना जाता है; इसलिए यह प्रति-तंत्र सिद्धान्त है।
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प्रति तर  : पुं० [सं० प्रति√तृ (तैरना)+अप्] वह जो उस पार ले जाता हो। मल्लाह। माँझी।
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प्रतिताल  : पुं० [सं० प्रा० स०] संगीत में ताल का एक वर्ग जिसके अन्तर्गत कांतार, समराव्य, वैकुंठ और वांछित ये चारों ताल हैं।
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प्रतितुलन  : पुं० [सं० प्रति√तुल्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतितुलित] १. किसी ओर पड़े या बढ़े हुए भार की तुलना में दूसरी ओर का भार बढ़ाकर दोनों को समान करना। (काउन्टर-बैलेन्स) २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसी स्थिति जिसमें दोनों पक्षौं की शक्ति बराबर-बराबर हो। संतुलन।
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प्रतिदत्त  : भू० कृ० [सं० प्रति√दा (लेना)+क्त] १. प्रतिदान के रूप में अर्थात् किसी चीज के बदले में दिया हुआ। २. लौटाया या वापस किया हुआ।
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प्रतिदान  : पुं० [सं० प्रति√दा+ल्युट्—अन] १. किसी से पाई या ली हुई चीज उसे वापस करना या लौटाना। वापस करना। २. एक चीज लेकर उसके बदले में दूसरी चीज देना। विनिमय। ३. वह चीज जो किसी को किसी दूसरी चीज के बदले में दी गई हो। (रिटर्न)
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प्रतिदूत  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के यहाँ से दूत आने पर उसके बदले में भेजा जानेवाला दूत।
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प्रतिदेय  : वि० [सं० प्रति√दा+यत्] १. जो लौटाया या वापस किया जाने को हो। २. जिसके बदले में कुछ दिया जाने को हो।
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प्रति-दृष्टांत सम  : पुं० [सं० प्रति-दृष्टांत, प्रा० स०, प्रतिदष्टांत-सम तृ० स०] न्याय में एक प्रकार की जाति।
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प्रतिद्वंद्व  : पुं० [सं० प्रा० स०] दो समान व्यक्तियों या शक्तियों का पारस्परिक विरोध। बराबर वालों का झगड़ा या मुकाबला।
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प्रतिद्वंद्विता  : स्त्री० [सं० प्रतिद्वंद्विन्+तल्+टाप्] प्रतिद्वंद्वी होने की अवस्था या भाव।
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प्रतिद्वंद्वी (द्विन्)  : पुं० [सं० प्रतिद्वंद्व+इनि] [भाव० प्रतिद्वंद्विता] १. वह व्यक्ति या वस्तु जो किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु के मुकाबले की हो अथवा जिससे उसका मुकाबला हो। २. एक व्यक्ति की दृष्टि से वह दूसरा व्यक्ति जो उसी की तरह किसी एक-ही पद का उम्मीदवार हो अथवा किसी एक ही वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो।
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प्रतिधान  : पुं० [सं० प्रति√धा (धारण)+ल्युट्—अन] १. कहीं धरना या रखना। २. लौटाना। ३. निराकरण।
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प्रतिध्रुव  : पुं० [सं०] भूगोल में किसी देश या स्थान के विचार से वह देश या स्थान जो उससे १८0० देशांतर पर स्थित हो।
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प्रतिध्वनि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी तल या रचना से परावर्तित होकर सुनाई पड़नेवाली ध्वनि-तरंगे। गूँज। प्रति-शब्द। २. उक्त के आधार पर लाक्षणिक रूप में दूसरे के विचारों आदि का कुछ परिवर्तित रूप में इस प्रकार दोहराया जाना कि उनमें से मूल विचारों की ध्वनि या छाया निकलती हो। (ईको, उक्त दोनों अर्थों में)
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प्रतिध्वनिक  : वि० [सं० प्रतिध्वनि से] प्रतिध्वनि-संबंधी। प्रतिध्वनि का।
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प्रतिध्वनिक शब्द  : पुं० [सं० प्रतिध्वनि से] भाषा विज्ञान में, कोई ऐसा निरर्थक शब्द जो प्रायः बोल-चाल में किसी शब्द के अनुकरण पर ठीक उसके अनुरूप बना लिया जाता है। (ईको वर्ड) जैसे—कुछ काम करो तो पैसा-वैसा मिले। में ‘वैसा’ निरर्थक शब्द ‘पैसा’ का प्रतिध्वनिक शब्द है।
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प्रतिध्वनित  : भू० कृ० [सं० प्रति√ध्वन् (शब्द)+क्त] जो प्रतिध्वनि के रूप में शब्द करता हो। गूँजा हुआ।
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प्रतिध्वान  : पुं० [सं० प्रति√ध्वन्+घञ्]=प्रतिध्वनि।
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प्रतिनंदन  : पुं० [सं० प्रति√नन्द् (प्रशंसा करना)+ल्युट्—अन] वह अभिनन्दन जो आशीर्वाद देते हुए किया जाय। बधाई देनेवाले के प्रति प्रकट की जानेवाली शुभ कामना।
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प्रतिनप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रपौत्र। परपोता।
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प्रतिना  : स्त्री०=पृतना।
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प्रतिनाद  : पुं० [सं० प्रति√नद्+घञ्]=प्रतिध्वनि।
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प्रतिनायक  : पुं० [सं० प्रा० स०] नाटकों, काव्यों आदि में वह पात्र जो नायक का प्रतिद्वंद्वी हो या नायक से प्रतिद्वंद्विता होती हो।
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प्रतिनाह  : पुं० [सं० प्रति√नह् (बाँधना)+घञ्] एक प्रकार को रोग जिसमें नाक के नथनों में कफ रुकने से श्वास चलना बन्द हो जाता है।
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प्रति-निचयन  : पुं० [सं० प्रति-नि√चि+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिनिचित] कहीं से आया या किसी का दिया हुआ देय। शुल्क आदि उचित से अधिक या अनियमित होने पर उसे दाता को लौटाना या उसके खते में जमा करना। (रिफन्ड)
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प्रतिनिधान  : पुं० [सं० प्रति-नि√धा+ल्युट्—अन] १. दे० ‘शिष्ट-मण्डल’। २. वह व्यक्ति या व्यक्तियों का दल जो इस प्रकार प्रतिनिधि बनकर कहीं भेजा जाय। प्रतिनिधि मण्डल। (डेपुटेशन)
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प्रतिनिधि  : पुं० [सं० प्रति-नि√धा (धारण)+कि] १. प्रतिमा। प्रतिमूर्ति। २. वह व्यक्ति जो दूसरों की ओर से कहीं भेजा जाय अथवा उनकी तरफ से कार्य करता हो। अभिकर्ता। ३. संसद, विधान-सभा आदि का वह सदस्य जो किसी निर्वाचन-क्षेत्र से चुना गया हो, और जिसे उस क्षेत्र के लोगों की ओर से बोलने तथा काम करने का अधिकार होता है। ४. वह जिसे देखकर उसी के वर्ग, जाति आदि के औरों के स्वरूप रंग-ढंग, आचार-विचार आदि का अनुमान या कल्पना की जा सके। ५. वह जो अपने वर्ग के औरों की जगह काम आ सके। (रिप्रेजेंटेटिव; उक्त चारों अर्थों के लिए) ६. दे० ‘प्रतिनिधि द्रव्य’
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प्रतिनिधित्व  : पुं० [सं० प्रतिनिधि+त्व] प्रतिनिधि होने की अवस्था या भाव। प्रतिनिधि होने का काम। (रिप्रेजेंटेशन)
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प्रतिनिधि-द्रव्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में, वह औषध जो किसी अन्य औषध के अभाव में दी जाती हो। जैसे—चित्रक के अभाव में दंती, तगर के अभाव में कुंठ, नखी के अभाव में लौंग दिया जाना।
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प्रतिनिधि-शासन  : पुं० [सं० ष० त०] वह शासन जिसमें विधान आदि बनाने और शासन की नीति आदि स्थिर करने के प्रायः सभी अधिकार जनता को चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में रहते हैं। (रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट)
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प्रतिनियम  : पुं० [सं० प्रति-नि√यम्+अप्] सामान्य नियम या व्यवस्था।
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प्रतिनियुक्त  : वि० [सं० प्रति-नि√युज् (जोड़ना)+क्त] प्रतिनिधि या अधीनस्थ अधिकारी के रूप में बनकर कहीं भेजा हुआ। (डेप्यूटेड)
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प्रतिनियोजन  : पुं० [सं० प्रति-नि√युज्+ल्युट्—अन] किसी को कहीं भेजने के लिए अधीनस्थ कर्मचारी के रूप में नियुक्त करना। (डिप्यूटेशन)
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प्रतिनिर्देश  : पुं० [सं० प्रति-निर्√दिश् (बताना)+घञ्] पुनः उल्लेख या कथन करना।
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प्रतिनिर्देश्य  : वि० [सं० प्रति-निर्√दिश्+ण्युत्] जिसका पुनः कथन या निर्देशन करना आवश्यक या उचित हो अथवा किया जाने को हो।
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प्रति-निर्वतन  : पुं० [सं० प्रति-नि√यत् (प्रयत्न)+णिच्+ल्युट्—अन्] [भू० कृ० प्रतिनिवर्तित] १. लोटाना। २. बदला लेना।
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प्रतिनिविष्ट  : वि० [सं० प्रति-नि√निश् (घुसना)+क्त] जो दृढ़ हो गया हो।
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प्रतिपक्ष  : पुं० [प्रा० स०] १. मुकाबले का या विरोध पक्ष। अन्य या दूसरा पक्ष। २. दूसरे या विरोधी की कही हुई बात या उसके द्वारा उपस्थित किया हुआ मत या विचार। ३. [ब० स०] प्रतिवादी। ४. शत्रु। वैरी। ५. [प्रा० स०] बराबरी। समानता।
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प्रतिपक्षता  : स्त्री० [सं० प्रतिपक्ष+तल्—टाप्] १. प्रतिपक्षी होने की अवस्था या भाव। २. विरोध।
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प्रतिपक्षी(क्षिन्)  : वि० [सं० प्रतिपक्ष+इनि] १. दूसरे या विरोधी पक्ष में रहनेवाला। २. वह जो विरोधी पक्ष में रहकर सदा हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता हो। (हॉस्टाइल)
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प्रतिपक्षीय  : वि०=प्रतिपक्षी।
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प्रतिपच्छ  : पुं०=प्रतिपक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिपच्छी  : पुं० प्रतिपक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिपत्  : स्त्री०=प्रतिपद्।
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प्रतिपत्ति  : स्त्री० [सं० प्रति√पद् (गति)+क्तिन्] १. प्राप्ति। पाना। २. ज्ञान। ३. अनुमान। ४. दान देना। ५. कार्य के रूप में लाना। कार्यान्वित या प्रतिपादन। ७. कोई बात अच्छी तरह और प्रमापूर्वक कहते हुए किसी के मन में बैठना। ८. उक्त प्रकार से कही हुई बात मान लेना। ग्रहण। स्वीकार। ९. मान-मर्यादा। गौरव। प्रतिष्ठा। १॰. शक्तिमत्ता आदि की धाक या साख। ११. आदर-सत्कार। १२. प्रवृत्ति। १३. दृढ़ निश्चय या विचार। १५. परिणाम। नतीजा।
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प्रतिपत्ति-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] १. श्राद्ध आदि में, वह कर्म जो सब के अन्त में किया जाय। २. अन्त या समाप्ति के समय किया जाने वाला काम।
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प्रतिपत्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० प्रतिपत्ति+मतुप्] १. [स्त्री० प्रतिपत्तिमती] २. बुद्धिमान। ३. प्रसिद्ध। ४. कार्यकुशल।
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प्रतिपत्ति-मूढ़  : वि०=किंकर्तव्य-विमूढ़।
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प्रतिपत्र-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०] करेली।
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प्रतिपद्  : स्त्री० [सं० प्रति√पद् (गति)+क्विप्] १. मार्ग। रास्ता। २. आरम्भ। ३. बुद्धि। समझ। ४. पंक्ति। श्रेणी। ५. पुरानी चाल का एक प्रकार का ढोल। ६. चांद्र मास के प्रत्येक पक्ष की पहली तिथि। प्रतिपदा।
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प्रतिपद  : स्त्री० [सं०] एकम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिपन्न  : वि० [सं० प्रति√पद्+क्त] १. अवगत। जाना हुआ। २. अंगीकृत। स्वीकृत। ३. प्रचंड। ४. प्रमाणित। निरूपित। ५. भरा-पूरा। ६. शरणागत। ७. सम्मानित। ८. प्राप्त।
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प्रतिपन्नक  : पुं० [सं० प्रतिपन्न+कन्] बौद्ध शास्त्रों के अनुसार श्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी, और अर्हत् ये चार पद।
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प्रतिपन्नत्व  : पुं० [सं० प्रतिपन्न+त्व] प्रतिपन्न होने की अवस्था या भाव।
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प्रति-परीक्षण  : पुं० [सं० प्रा० स०] न्यायालय आदि में, किसी के कुछ कह चुकने पर उससे दबी-दबाई बातों का पता लगाने के लिए उससे कुछ और प्रश्न करना। (क्रास-इग्ज़ामिनेशन)
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प्रतिपर्ण  : पुं० [सं० प्रा० स०] दो टुकड़ोंवाली पावती या रसीद, प्रमाण-पत्र आदि में का वह टुकड़ा जो देनेवाले के पास रह जाता है और जिस पर किसी को दिये हुए दूसरे टुकड़े की प्रतिलिपि रहती है। (काउन्टर फॉयल)
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प्रतिपाण  : पुं० [सं० प्रति√पण् (शर्त रखना)+घञ्] वह धन जो दाँव पर प्रतिपक्षी ने लगाया हो।
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प्रतिपादक  : वि० [सं० प्रति√पद्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. प्रतिपादन करनेवाला। २. प्रतिपन्न करनेवाला। ३. उत्पादन करनेवाला। ४. निर्वाह करनेवाला।
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प्रतिपादन  : पुं० [सं० प्रति√पद्+णिच्+ल्युट्—अन] १. भली भाँति ज्ञान कराना। अच्छी तरह समझाना। प्रतिपत्ति। २. प्रमाण देते हुए कोई बात कहना या सिद्ध करना। निरूपण। निष्पादन। ३. प्रमाण। सबूत। ४. उत्पत्ति। जन्म। ५. दान। ६. इनाम। पुरस्कार।
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प्रतिपादयिता (तृ)  : वि० [सं० प्रति√पद्+णिच्+तृच्] प्रतिपादन करने अर्थात् अच्छी तरह बतलाने-समझानेवाला। पुं० १. शिक्षक। २. व्याख्याकार।
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प्रतिपादित  : भू० कृ० [सं० प्रति√पद्+णिच्+क्त] १. जिसका प्रतिपादन हो चुका हो। २. निर्धारित। निश्चित। ३. जो दिया जा चुका हो। दत्त।
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प्रतिपाद्य  : वि० [सं० प्रति√पद्+णिच्+यत्] १. जिसका प्रतिपादन किया जा सकता हो या किया जाने को हो। २. जो दिया जा सकता हो या दिया जाने को हो।
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प्रति-पाप  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह कठोर और पाप-रूप व्यवहार जो किसी पापी के साथ किया जाय।
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प्रतिपार  : वि०, पुं०=प्रतिपाल।
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प्रतिपारना  : स०=प्रतिपालना।
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प्रतिपाल  : वि० [सं० प्रति√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अच्] १. प्रतिपालन करनेवाला। प्रतिपालक। २. रक्षा करनेवाला। रक्षक। पुं० १. रक्षा। २. सहायता।
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प्रतिपालक  : वि० [सं० प्रति√पाल्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रतिपालिका] १. पालन-पोषण करनेवाला। पोषक २. रक्षक। पुं० राजा।
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प्रतिपालक-अधिकरण  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह राजकीय अधिकरण या विभाग जो ऐसे लोगों की संपत्ति की व्यवस्था करता है जो अल्पवयस्क, बौद्धिक दृष्टि से अयोग्य अथवा शारीरिक दृष्टि से असमर्थ हों। (कोर्ट ऑफ वार्डस्)
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प्रतिपालन  : पुं० [सं० प्रति√पाल्+णिच्+ल्युट्—अन्] [भू० कृ० प्रतिपालित] १. दूसरों से रक्षित रखते हुए किसी का किया जानेवाला पालन। २. आज्ञा, आदेश आदि का कर्तव्यपूर्वक किया जानेवाला पालन। ३. देख-रेख। निगरानी। रक्षण।
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प्रतिपालना  : सं० [स० प्रतिपालन] १. प्रतिपालन करना। २. भरण-पोषण और रक्षा करना। ३. आज्ञा, आदेश आदि का निर्वाह करना।
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प्रतिपालनीय  : वि० [सं० प्रति√पाल्+णिच्+अनीयर्] जिसका प्रतिपालन करना आवश्यक या उचित हो।
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प्रतिपालित  : भू० कृ० [सं० प्रति√पाल्+णिच्+क्त] [स्त्री० प्रतिपालिता] १. जिसका प्रतिपालन किया गया हो या हुआ हो। २. अपनी देख-रेख में पाला-पोसा हुआ। ३. (आज्ञा, आदेश आदि) जिसके अनुसार आचरण किया गया हो।
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प्रतिपाल्य  : वि० [सं० प्रति√पाल्+णिच्+ल्युट्+यत्] १. प्रतिपालन किये जाने के योग्य। २. जिसका प्रतिपालन किया जा सकता हो। ३. जिसका पालन और रक्षा करना उचित हो। रक्षणीय।
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प्रतिपीडन  : पुं० [सं० प्रति√पीड् (कष्ट पहुँचाना)+ल्युट्—अन्] [भू० कृ० प्रतिपीडित] पीडित करनेवाले को पीड़ा पहुँचाना। (रिप्राइज़ल)
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प्रतिपुरुष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह पुरुष जो किसी दूसरे पुरुष के स्थान पर उसका प्रतिनिधि या स्थानापन्न होकर काम करता हो। प्रतिनिधि। २. बराबर या जोड़ का व्यक्ति। ३. वह पुतला जिसे चोर किसी घर में घुसने से पहले यह जानने के लिए अंदर फेंकते थे कि लोग सोये हैं या जागते।
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प्रतिपुरुष-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को किसी के बदले कुछ काम करने, मत देने आदि का अधिकार दिया जाता है। (प्रॉक्सी)
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प्रतिपूजक  : वि० [सं० प्रति√पूज् (पूजा करना) णिच्+ल्युट्—अक] प्रतिपूजन अर्थात् अभिवादन करनेवाला। अभिवादक।
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प्रतिपूजन  : पुं० [सं० प्रति√पूज्+णिच्+ल्युट्—अन] १. अभिवादन। साहब-सलामत। २. पारस्परिक किया जानेवाला अभिवादन। अभिवादन का आदान-प्रदान।
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प्रतिपूजा  : स्त्री० [सं० प्रति√पूज्+अ+टाप्] प्रतिपूजन। (दे०)
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प्रतिपूजित  : भू० कृ० [सं० प्रति√पूज्+णिच्+क्त] १. जिसका प्रतिपूजन का अभिवादन किया गया हो। अभिवादित। २. (व्यक्ति) जिसके साथ आदरपूर्वक व्यवहार किया गया हो। सम्मानित।
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प्रतिपूज्य  : वि० [सं० प्रति√पूज्+ण्यत्] जिसका प्रतिपूजन या अभिवादन करना आवश्यक हो। अभिवाद्य।
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प्रतिमूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रति√पृ+क्तिन] किसी व्यक्ति या मद से लिया हुआ या लेकर व्यय किया हुआ धन उसे देकर या उसमें जमाकर उस की पूर्ति करना। (रि-इम्बार्समेन्ट)
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प्रतिपोषक  : वि० [सं० प्रति√पुष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिपोषित] सहायता। मदद।
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प्रति-पौतिक  : वि० [सं० प्रा० स०] जो पूति (सड़ायँध आदि) का नाश करनेवाला हो। पूतिका-मारक। (एन्टिसेप्टिक)
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प्रतिप्रभा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. प्रतिबिंब। २. परछाईं। छाया।
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प्रतिप्रसव  : पुं० [सं० प्रति-प्र√सू (उत्पन्न करना)+अप्] ऐसा तथ्य या बात जो किसी सामान्य नियम के अपवाद का भी अपवाद हो। (काउन्टर-एक्सेपशन्)
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प्रति-प्रसूत  : वि० [सं० प्रति-प्र√सू+क्त] १. प्रतिप्रसव-संबंधी। २. प्रतिप्रसव के रूप में होनेवाला।
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प्रति-प्राकार  : पुं० [सं० प्रा० स०] दुर्ग के बाहर की ओर का प्राकार। बाहरी परकोटा।
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प्रति-प्राप्ति  : स्त्री० [सं०] [भू० कृ० प्रतिप्राप्त] १. पुनः प्राप्त करने या होने की अवस्था या भाव। २. किसी के हाथ में गई हुई अथवा अधिकार से निकली हुई चीज से प्राप्त करना। (रिकवरी)
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प्रतिफल  : पुं० [सं० प्रति√फल् (फलना)+अच्] १. चीज या फल के रूप में होनेवाली वह प्राप्ति जो किसी को कोई काम करने के बदले में, अथवा कोई काम करने के परिणामस्वरूप होती है। किसी काम या बात के पहले में या परिणाम के रूप में प्राप्त होनेवाला फल। २. परिणाम। नतीजा। ३. प्रतिबिंब।
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प्रतिफलक  : पुं० [सं० प्रतिफल+णिच्+ण्वुल्—अक] १. वह फलक जिसकी सहायता से किसी चीज की पड़नेवाली परछाईं दूसरी ओर या दूसरी चीज पर परावर्तित की जाती है।
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प्रतिफलित  : भू० कृ० [सं० प्रति√फल्+क्त] १. जो प्रतिफल के रूप में हो। २. जो प्रतिफल दे रहा हो। ३. जिसका प्रतिफल मिल रहा हो। ४. प्रतिबिंबित।
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प्रतिबंध  : पुं० [सं० प्रति√बन्ध् (बाँधना)+घञ्] १. वह बंधन या रोक जो किसी काम बात या व्यक्ति पर लगाई गई हो। २. विशेषतः ऐसी आज्ञा, आदेश या सूचना जो किसी बात को कोई प्रायिक, स्वाभाविक या अधिकृत आचरण, व्यवहार आदि करने से पहले ही रोकने के लिए दी गई हो। मनाही। (रेस्ट्रिक्शन) ३. किसी काम या बात में लगाई हुई शर्त। पण। (कन्डिशन) ४. निश्चय, विधि आदि में पड़नेवाली कठिनता से बचने के लिए निकाला हुआ ऐसा मार्ग या निश्चित किया हुआ विधान जिसके साथ कोई शर्त भी लगी हो। उपबंध। (प्राविजो) जैसे—परन्तु प्रतिबंध यह है कि...।
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प्रतिबंधक  : वि० [सं० प्रति√बन्ध्+ण्वुल्—अक] १. प्रतिबंध लगाने वाला। मनाही करनेवाला। २. रुकावट डालनेवाला। बाधक। पुं० पेड़। वृक्ष।
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प्रतिबंधकता  : स्त्री० [सं० प्रतिबंधक+तल्+टाप्] १. प्रतिबंधक होने की अवस्था या भाव। २. प्रतिबंध। रुकावट। बाधा। विघ्न।
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प्रतिबंधि  : स्त्री० [सं० प्रति√बन्ध्+इन्] १. ऐसा तर्क या दलील जो दोनों पक्षों पर समान रूप से घटती या लागू होती हो। २. आपत्ति।
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प्रतिबंधु  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो समान पद या पदवीवाला हो।
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प्रतिबद्ध  : भू० कृ० [सं० प्रति√बन्ध्+क्त] १. बँधा हुआ। २. जिसके सम्बन्ध में कोई प्रतिबंध या रुकावट लगी हो। ३. जिसके मार्ग में बाधा खड़ी की गई हो। ४. नियंत्रित। ५. जो इस प्रकार किसी से संबद्ध हो कि उससे अलग न किया जा सके।
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प्रति-बल  : वि० [सं० ब० स०] १. समर्थ। सशक्त। २. बल या शक्ति में बराबरी का। सम-बल।
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प्रतिबाधक  : वि० [सं० प्रति√बाध् (रोकना)+ण्वुल्—अक] १. बाधा खड़ी करनेवाला। बाधक। २. रोकने या रुकावट खड़ी करनेवाला। ३. कष्ट पहुँचाने या पीड़ा देनेवाला।
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प्रतिबाधन  : पुं० [सं० प्रति√बाध्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिबाधित] १. विघ्न। बाधा। २. कष्ट। पीड़ा।
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प्रतिबाधित  : भू० कृ० [सं० प्रति√बाध्+क्त] १. जिसके लिए किसी प्रकार की बाधा या रुकावट खड़ी की गई हो। २. हटाया हुआ। निवारित। ३. पीड़ित।
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प्रतिबाधी (धिन्)  : वि० [सं० प्रति√बाध्+णिनि] १. रोकनेवाला २. बाधा डालनेवाला। ३. कष्ट पहुँचानेवाला। ४. विरोध करनेवाला। पुं० वैरी। शत्रु।
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प्रतिबाहु  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. बाँह का अगला भाग। २. ज्यामिति में; वर्गिक क्षेत्र में किसी एक बाहु की दृष्टि से उसकी सामनेवाली बाहु। ३. पुराणानुसार श्वफल्क के एक पुत्र और अक्रूर के भाई का नाम।
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प्रतिबिंब  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी पारदर्शक तल में किसी वस्तु की दिखलाई पड़नेवाली आकृति। परछाई। प्रतिच्छाया। जैसे—जल में दिखाई देनेवाला चंद्रमा का प्रतिबिंब, शीशे में दिखाई पड़नेवाला मुख का प्रतिबिम्ब। २. छाया। ३. मूर्ति। ४. चित्र। ५. शीशा। झलक।
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प्रतिबिंबक  : वि० [सं० प्रतिबिंब+कन्] परछाई के समान पीछे-पीछे चलनेवाला। पुं० अनुगामी। अनुचर।
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प्रतिबिंबन  : पुं० [सं० प्रतिबिंब+क्विप्+ल्युट्—अन] १. छाया या परछाईं डालना या पड़ना। २. अनुकरण। ३. तुलना।
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प्रतिबिंबना  : अ० [सं० प्रतिबिंबन] प्रतिबिंबित होना। स० प्रतिबिंबित करना।
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प्रतिबिंबवाद  : पुं० [सं० ष० त०] वेदांत का एक सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि जीव वास्तव में ईश्वर का प्रतिबिंब मात्र है।
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प्रतिबिंबवादी (दिन्)  : पुं० [सं० प्रतिबिंबवाद+इनि] प्रतिबिंबवाद का अनुयायी या समर्थक।
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प्रतिबिंबित  : भू० कृ० [सं० प्रतिबिंब+इतच्] १. जिसका प्रतिबिंब पड़ता हो। जिसकी परछाईं पड़ती हो। २. जो परछाईं के कारण दिखाई देता या होता हो। कुछ-कुछ या अस्पष्ट रूप से दिखाई देनेवाला। झलकता हुआ।
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प्रतिबीज  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसका बीज नष्ट हो गया हो। २. जिसकी उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गई हो। निर्बीज। पुं० मरा या सड़ा हुआ हुआ बीज।
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प्रतिबुद्ध  : वि० [सं० प्रति√बुध् (जानना)+क्त] १. जिसे प्रतिबोध मिला हो या हुआ हो। २. जागा हुआ। ३. चतुर। होशियार। ४. प्रसिद्ध।। मशहूर। ५. उन्नत
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प्रतिबुद्धि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. प्रतिबुद्ध होने की अवस्था या भाव। २. विपरीत बुद्धि।
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प्रतिबोध  : पुं० [सं० प्रति√बुध्+घञ्] १. जागरण। जागना। २. ज्ञान। ३. चातुर्य। होशियारी।
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प्रतिबोधक  : वि० [सं० प्रत्ति√बुध्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. प्रतिबोध करानेवाला। २. जगानेवाला। ३. ज्ञान उत्पन्न करनेवाला। ४. शिक्षा देनेवाला। ५. तिरस्कार करनेवाला। पुं० अध्यापक। शिक्षक।
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प्रतिबोधन  : पुं० [सं० प्रति√बुध्+णिच्+ल्युट्—अन] १. जगाना। २. ज्ञान उत्पन्न करना।
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प्रतिबोधित  : भू० कृ० [सं० प्रति√बुध्+णिच्+क्त] १. जगाया हुआ। २. जिसे किसी बात का ज्ञान या प्रतिबोध कराया गया हो।
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प्रतिबोधी (धिन्)  : वि० [सं० प्रति√बुध्+णिनि] १. जागता हुआ। २. जो शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त करने को हो।
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प्रतिभट  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भाव० प्रतिभटता] १. बराबर का योद्घा। समान शक्तिवाला योद्धा। २. वह जिससे मुकाबला या लड़ाई होती हो। प्रतिद्वन्द्वी। ३. वैरी। शत्रु। ४. विपक्षी दल का सैनिक।
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प्रतिभय  : वि० [ब० स०] भयंकर। पुं० [प्रा० स०] भय। डर।
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प्रतिभा  : स्त्री० [सं० प्रति√भा (दीप्ति)+अङ्+टाप्] १. ऊपर या सामने दिखाई देनेवाली आकृति या रूप। २. प्रकाश। ३. चमक। ४. ऐसी प्राकृतिक बुद्धि या मानसिक शक्ति जिसमें असाधारण तीव्रता या प्रखरता हो; और जिसके फल-स्वरूप मनुष्य अपनी कल्पना के द्वारा कला, विज्ञान, साहित्य, आदि के क्षेत्रों में उच्च कोटि की बिलकुल नई या मौलिक तथा रचनात्मक कृतियों को प्रस्तुत करने में समर्थ होता है। असाधारण बुद्धि-बल। (जीनियस)
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प्रतिभाग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० प्रातिभागिक] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का राजकर। २. आज-कल वह शुल्क जो राज्य में बनाने वाले कुछ विशिष्ट पदार्थों (यथा—नमक, मादक, द्रव्य, दीया-सलाई कपड़ों आदि) पर उनके बनते ही और बाजार में बिक्री के लिए जाने से पहले ही ले लिया जाता है। उत्पादनकर। (एक्साइज़ ड्यूटी)
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प्रतिभागिक  : वि०=प्रतिभागिक।
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प्रतिभात  : वि० [सं० प्रति√भा+क्त] १. प्रभायुक्त। चमकदार। २. जाना हुआ। ज्ञात। ३. सामने आया हुआ। ४. प्रतीत।
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प्रतिभान  : पुं० [सं० प्रति√भा+ल्युट्—अन] १. प्रभा। चमक। २. बुद्धि। समझ। ३. उपस्थित बुद्धि। ४. विश्वास। ५. प्रगल्भता।
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प्रतिभान्वित  : वि० [सं० प्रतिभा-अन्वित, तृ० त०] जिसमें प्रतिभा हो। असाधारण बुद्धिवाला। प्रतिभाशाली।
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प्रतिभाव  : पुं० [सं०] १. किसी भाव के प्रतिकूल या विरुद्ध पड़नेवाला भाव। २. प्रतिच्छाया। परछाईं।
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प्रतिभावान् (वत्)  : वि० [सं० प्रतिभा+मतुप् ] १. प्रतिभाशाली। २. दीप्तिमान्। चमकीला।
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प्रतिभाव्य  : वि० [सं० प्रति√भू (होना)+णिच्+यत्] (अपराधी या अभियुक्त) जो निर्णय काल तक के लिए छुड़ाय़ा जा सकता हो। जिसकी जमानत हो सकती हो। (वेलेबुल)
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प्रतिभाशाली (लिन्)  : वि० [सं० प्रतिभा√शाल्+णिनि] [स्त्री० प्रतिभाशाली] १. जिसमें प्रतिभा हो। प्रभावशाली।
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प्रतिभाषा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. उत्तर। जवाब। २. उत्तर मिलने पर दिया जानेवाला उसका दूसरा उत्तर। प्रत्युत्तर।
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प्रतिभास  : पुं० [सं० प्रति√भास् (चमकना)+घञ्] १. आकस्मिक रूप से या एकाएक होनेवाला ज्ञान या बोध। २. यों ही या ऊपर से देखने पर होनेवाला भ्रम। ३. भ्रम। ४. आकृति।
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प्रतिभासन  : पुं० [सं० प्रति√भास्+ल्युट्—अन्] [भू० कृ० प्रतिभासित] १. चमकना। २. दिखाई देना। ३. भासित होना। जान पड़ना।
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प्रतिभिन्न  : भू० कृ० [सं० प्रति√भिद् (फाड़ना)+क्त] १. जिसका भेदन किया गया हो। २. जो अलग हो गया हो। विभक्त।
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प्रतिभू  : पुं० [सं० प्रति√भू+क्विप्] १. वह व्यक्ति जो ऋण देनेवाले (उत्तमर्ण) के सामने ऋण लेनेवाले (अधमर्ण) की जमानत करता हो। जामिन। २. वह जो किसी की किसी तरह की जमानत दे। जमानतदार। जामिन। ३.प्रतिभूति। (दे०)
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प्रतिभूत  : भू० कृ० [सं० प्रति√भू+क्त] १. (व्यक्ति) जिसकी जमानत की गई हो। २. (धन) जो जमानत के रूप में जमा किया गया हो। ३. (संपत्ति) जो जमानत या रहने के रूप में किसी को दी या सौंपी गई हो। (प्लेज्ड)
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प्रतिभूति  : स्त्री० [सं० प्रति√भू+क्तिन्] १. कोई काम या वचन पूरा करने आदि के लिए दिया गया निश्चित आश्वासन या उसके बदले जमा की गई वस्तु या धन। मुचलका। (सिक्योरिटी) २. ऋण आदि के प्रमाण-स्वरूप जारी किया गया सरकारी कागज। साख-पत्र। ३. प्रतिभू के द्वारा दी हुई जमानत। (बेल)
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प्रतिभू-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें कोई प्रतिभू या जमानतदार अपने उत्तरदायित्व की स्वीकृति लिखकर देता है। (बांड आफ श्योरिटी)
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प्रतिभेद  : पुं० [सं० प्रति√भिद्+घञ्] १. प्रभेद। अन्तर। फरक। २. विभाग। ३. भेद या रहस्य प्रकट करना या खोलना।
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प्रतिभेदन  : पुं० [सं० प्रति√भिद्+ल्युट्—अन] १. प्रतिभेद या अन्तर उत्पन्न करना। २. विभाग करना। विभाजन। ३. बंद करना।
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प्रतिभोग  : पुं० [सं० प्रति√भुज् (भोगना)+घञ्] उपभोग।
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प्रतिभोजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] चिकित्साशास्त्र में, किसी के लिए या कुछ विशिष्ट स्थितियों के विचार से या निर्दिष्ट किया हुआ भोजन। (प्रेस्क्राइब्ड डायट)
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प्रतिभौ  : पुं० [सं० देप्रति+भाव] शरीर का तेज और बल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—हा जदुनाथ, जरा तनु ग्रास्यौ। प्रतिभौ उतरि गयो।—सूर।
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प्रतिमंडल  : पुं० [सं० प्रा० स०] ग्रह, नक्षत्र आदि के चारों ओर का घेरा। परिवेश। भा-मंडल।
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प्रतिमंडित  : भू० कृ० [सं० प्रति√मंड् (अलंकृत करना)+क्त] सजाया हुआ। अलंकृत।
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प्रतिमंत्रण  : पुं० [सं० प्रति√मंत्र् (गुप्त भाषण करना)+ल्युट्—अन] १. अभिमन्त्रण। २. उत्तर। जवाब।
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प्रतिमंत्रित  : भू० कृ० [सं० प्रति√मंत्र्+क्त] १. मन्त्र द्वारा पवित्र किया हुआ। अभिमंत्रित। २. जिसका जवाब दिया जा चुका हो। उत्तरित।
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प्रतिमर्श  : पुं० [सं० प्रति√मृश् (छूना)+घञ्] एक तरह का चूर्ण।
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प्रतिमा  : स्त्री० [सं० प्रति√मा (मापना)+अङ्+टाप्] १. किसी की वास्तविक अथवा कल्पित आकृति के अनुसार बनाई हुई मूर्ति या चित्र। अनुकृति। २. आराधन, पूजन आदि के लिए धातु, पत्थर मिट्टी आदि की बनाई हुई देवता या देवी की मूर्ति। देव-मूर्ति। ३. प्रतिबिंब। परछाईं। ४. साहित्य में एक अलंकार जिससे किसी मुख्य पदार्थ या व्यक्ति के न होने की दशा में उसी के समान किसी दूसरे पदार्थ या व्यक्ति की स्थापना का उल्लेख होता है। ५. हाथियों के दांतों पर जड़ा जानेवाला पीतल, ताँबे आदि का छल्ला या मंडल। ६. तौलने का बटखरा। बाट।
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प्रतिमान  : पुं० [सं० प्रति√मा+ल्युट्—अन] १. समान मानवाली मुकाबले की दूसरी वस्तु। २. वह वस्तु या रचना जिसे आदर्श मानकर उसके अनुरूप और वस्तुएँ बनाई जाती हों। (मॉडल) ३. वह अच्छी और बढ़िया चीज जो पहले एक बार नमूने के तौर पर बनाकर रख ली जाती है और तब उसी के अनुरूप या वैसी ही चीजें बनाकर तैयार की जाती हैं। (पैटर्न) ४. उदाहरण। दृष्टांत।
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प्रतिमानीकरण  : पुं० [सं०] १. प्रतिमान के रूप में लाने की प्रक्रिया या भाव। २. दे० ‘मानकीकरण’।
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प्रतिमाला  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] स्मरणशक्ति का परिचय देने के लिए दो आदमियों का एक दूसरे के बाद लगातर एक ही तरह के अथवा एक दूसरे के बाद लगातार एक ही तरह के अलावा एक दूसरे के जोड़ के श्लोक या पद पढ़ना।
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प्रतिमावली  : स्त्री० [सं०] दे० ‘मूर्तिविधान’।
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प्रतिमित  : भू० कृ० [सं० प्रति√मा+क्त] १. जिसका प्रतिबिंब पड़ा हो। प्रतिबिंबित। २. अनुकृत। ३. जिसकी तुलना की गई हो।
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प्रतिमुक्त  : वि० [सं० प्रति√मुच् (छोड़ना)+क्त] १. पहना हुआ (कपड़ा या गहना)। २. छोड़ा या त्यागा हुआ। परित्यक्त। ३. खुला हुआ। मुक्त।
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प्रतिमुख  : वि० [सं० प्रा० स०] मुकाबले या सामने का। जैसे—प्रतिमुख वायु। पुं० १. मुख के पीछेवाला भाग। पीठ। २. दे० ‘प्रतिमुख सन्धि’।
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प्रतिमुख सन्धि  : स्त्री० [सं० मयू० स०] साहित्य में, रूपक (नाटक) की पाँच प्रकार की सन्धियों में से दूसरी सन्धि जिसमें ‘विन्दु’ नामक अर्थ नामक अर्थ-प्रकृति और ‘प्रयत्न’ नामक अवस्था का मिश्रण होता है। मुख-सन्धि में जो बीज बोया जाता है, उसके विकास का आरंभ इसी में दिखाई देता है। विलास, परिसर्प, विद्युत्, तपन, नर्म, नर्मद्युति, प्रगमन, विरोध, पर्यपासुन, पुप्प, वज्र, उपन्यास और वर्ण-संहार इसके १३ अंग कहे गये हैं जो प्रायः प्रयोग में नहीं लाये जाते।
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प्रतिमुद्रण  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० स०] १. खुदी या लिखी हुई आकृति, लेख आदि पर से उसकी यथा-तथ्य प्रतिलिपि उतारने या छापने की क्रिया या भाव। २. उक्त प्रकार से ज्यों की त्यों उतारी या छापी हुई प्रति। जैसे—शिलालेख या हस्तरेखा का प्रति-मुद्रण।
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प्रतिमुद्रांकन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० प्रतिमुद्रांकित] १. जिस पर पहले किसी अधीनस्थ अधिकारी का मुद्रांकन हो चुका हो या मुहर लग चुकी हो उस पर किसी बड़े अधिकारी का अपनी स्वीकृति या सहमति सूचित करने के लिए अपनी मोहर भी लगाना। २. उक्त प्रकार से किया हुआ मुद्रांकन या लगाई हुई मोहर। (काउन्टर-सील)
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प्रतिमुद्रा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. मुद्रण से ली जानेवाली छाप। २. मुद्रा (अँगूठी या मोहर) से ली जानेवाली छाप।
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प्रतिमूर्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी की आकृति को देखकर उसके अनुरूप बनाई हुई मूर्ति या चित्र आदि। प्रतिमा।
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प्रतिमूल्य  : पुं० [सं०] किसी काम, चीज या बात के बदले में दिया जानेवाला धन। मुआवजा। (कम्पेसेशन)
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प्रतिमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] मोक्ष की प्राप्ति।
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प्रतिमोचन  : पुं० [सं० प्रति√मुच् (खोलना)+ल्युट्—अन] बंधन से मुक्त करना। छुड़ाना। मोचन।
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प्रतियत्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. लालच। प्राप्ति या लाभ की इच्छा। २. उपग्रह। ३. कैदी। ४. संस्कार।
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प्रतियाग  : पुं० [सं० प्रा० स०] विशेष उद्देश्य से किया जानेवाला यज्ञ।
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प्रतियातन  : पुं० [सं० प्रति√यत्+णिच्+ल्युट्—अन] १. प्रतिकार। २. प्रतिशोध। बदला।
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प्रतियातना  : स्त्री० [सं० प्रति√यत्+णिच्+युच्—अन, टाप्] प्रतिमा। मूर्ति।
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प्रतियान  : पुं० [सं० प्रति√या (जाना)+ल्युट्—अन] वापस आना। लौटना।
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प्रतियुत  : भू० कृ० [सं० प्रति√यु (मिश्रित होना)+क्त] बँधा हुआ।
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प्रतियुद्ध  : पुं० [सं० प्रा० स०] बराबरवालों का या बराबरी का युद्ध।
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प्रतियोग  : पुं० [सं० प्रति√युज् (जोड़ना)+घञ्] १. किसी चीज का विरोध पक्ष बनाना या तैयार करना। २. दो विरोधी तत्त्वों, पदार्थों आदि का होनेवाला मिश्रण या संयोग। ३. विरोधी तत्त्व या भाव। ४. किसी बात या मत का खण्डन। ५. किसी व्यक्ति का विरोधी। ६. वैर। शत्रुता। ७. किसी चीज, बात का परिणाम या प्रभाव नष्ट करनेवाला कार्य या तत्त्व। मारक। ८. एक बार विफल होने पर फिर से किया जानेवाला उद्योग या प्रयत्न।
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प्रतियोगिता  : स्त्री० [सं० प्रतियोगिन्+तल्—टाप्] १. वह स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति किसी चीज को ठीक समय से प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हों। २. दुश्मनी। शत्रुता। ३. किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि या फल की प्राप्ति के लिए कुछ लोगों में आपस में होनेवाली चढ़ा-ऊफरी या होड़। मुकाबला। (कम्पीटीशन)
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प्रतियोगी (गिन्)  : पुं० [सं० प्रति√युज्+घिनुण्] १. उन कई व्यक्तियों में से हर एक जो किसी एक ही चीज को पाने के लिए किसी एक समय में समान रूप से प्रयत्नशील हों। प्रतियोगिता करनेवाला व्यक्ति। २. साझेदार। हिस्सेदार। ३. वह जो मुकाबला या सामना कर रहा हो। वैरी शत्रु। ४. विरोधी। ५. मददगार। सहायक। ६. संगी। साथी। ७. वह जो तुलना आदि के विचार से बराबरी का हो। जोड़ीदार।
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प्रतियोद्धा (द्धृ)  : पुं० [सं० प्रति√युध् (लड़ाई करना)+तृच्] १. बराबरी का या मुकाबले में रहकर युद्ध करनेवाला। २. विरोधी। ३. शत्रु। दुश्मन।
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परिक्षण  : पुं०=प्रतिरक्षा।
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प्रतिरक्षा  : स्त्री० [सं० प्रति√रक्ष्+अ—टाप्] १. रक्षण। हिफाजत। २. आज-कल, राजनीतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में किसी के आक्रमण से अपनी रक्षा करने का कार्य या व्यवस्था। ३. विधिक क्षेत्र में, अपने ऊपर लगे हुए अभियोग से अपना बचाव करने या अपनी निर्दोषिता दिखाने का प्रयत्न। सफाई। (डिफेन्स)
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प्रतिरथ  : पुं० [सं० ब० स०] १. बराबरी का लड़नेवाला योद्धा या रथी। २. वह जो मुकाबला करे। प्रतिद्वंद्वी।
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प्रतिरव  : पुं० [सं० प्रति√रु (शब्द)+अप्] १. विवाद। झगड़ा। २. प्रतिध्वनि। गूँज।
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प्रतिरुद्ध  : वि० [सं० प्रति√रुध् (रुकना)+क्त] १. जिसका प्रतिरोध हुआ हो। २. रुका हुआ। अवरुद्ध। ३. अटका या फँसा हुआ।
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प्रतिरूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. प्रतिमा। मूर्ति। २. चित्र। तस्वीर। ३. प्रतिनिधि। ४. एकदानव (महाभारत)। वि० नकली। जाली। (काउन्टरफीट)
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प्रतिरूपक  : पुं० [सं० प्रतिरूप+कन्] वह जो नकली या बनावटी चीजें विशेषतः सिक्के, नोट आदि बनाता हो। (काउन्टरफीटर)
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प्रतिरोद्धा (द्ध)  : वि० [सं० प्रति√रुध्+तृच्] १. प्रतिरोध करनेवाला। विरोधी। २. बाधा डालनेवाला। बाधक। ३. शत्रुता करनेवाला।
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प्रतिरोध  : पुं० [सं० प्रति√रुध्+घञ्] १. अड़चन। बाधा। रुकावट २. शत्रु के गढ़, सेना आदि के चारों ओर डाला जानेवाला घेरा। ३. आवेग, आक्रमण आदि को रोकने के लिए किया जानेवाला कार्य। ४. छिपाव। दुराव। ५. विरोध। ६. चोरी, डाका आदि दुष्कृत्व। ७. तिरस्कार। प्रतिबिंब। परछाईं।
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प्रतिरोधक  : वि० [सं० प्रति√रुध्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रतिरोधिका] प्रतिरोध करनेवाला। रोकने या बाधा डालनेवाला। पुं० चोर, ठग, डाकू आदि जो शान्तिपूर्वक जीवन बिताने में बाधक होते हैं।
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प्रतिरोधन  : पुं० [सं० प्रति√रुध्+ल्युट्—अन] प्रतिरोध करने की क्रिया या भाव।
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प्रतिरोधित  : भू० कृ० [सं० प्रति√रुध्+णिच्+क्त] १. जो रोका गया हो। २. जिसमें बाधा डाली गई हो।
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प्रतिलंभ  : पुं० [सं० प्रति√लभ् (प्राप्ति)+अप्, मुम्] १. बुरी चाल। कुरीति। २. किसी पर लगाया जानेवाला अभियोग, कलंक या दोष। ३. निंदा। बुराई। ४. प्राप्ति। लाभ।
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प्रतिलब्धि  : स्त्री० [सं० प्रति√लभ्+क्तिन] प्रतिप्राप्ति। (दे०)
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प्रतिलाभ  : पुं० [सं० प्रति√लभ्+घञ्] १. प्रति-प्राप्ति। (दे०) २. शालक राग का एक भेद।
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प्रतिलिपि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] मूल लेख, पत्र आदि की ज्यों का त्यों और अक्षरशः तैयार की हुई नकल। (कॉपी)
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प्रतिलिपिक  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो मूल लेखों, पत्रों आदि की प्रतिलिपियाँ तैयार करने का काम करता हो। (कापीइस्ट)
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प्रतिलिपित  : भू० कृ० [सं० प्रतिलिपि+णिच्+क्त] (पत्र-लेख आदि) जिसकी प्रतिलिपि तैयार हो चुकी हो।
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प्रतिलिप्त  : वि०=प्रतिलिपित।
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प्रतिलेखक  : पुं० [सं० प्रति√लिख्+ण्वुल्—अक] प्रतिलेख का काम करनेवाला लेखक।
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प्रतिलेखन  : पुं० [सं० प्रति√लिख+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिलिखित] १. किसी लिखी हुई चीज की ज्यों की त्यों नकल उतारने या उसी तरह लिखने की क्रिया या भाव। २. भाषण, संकेत-लिपि आदि की टिप्पणियों के आधार पर पढ़ने योग्य लिखित प्रति तैयार करना। (ट्रान्सक्रिप्शन)
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प्रतिलोम  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो प्राकृतिक या प्रसम क्रम के ठीक विपरीत हो। उलटा। विपरीत। ‘अनुलोम’ या विपर्याय। जैसे—१,२,३,४ आदि का क्रम अनुलोम और ४,३,२,१ का क्रम प्रतिलोम कहलायेगा। (कानवर्स) २. तुच्छ और नीच।
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प्रतिलोमक  : पुं० [सं० प्रतिलोम+कन्] उलटा या विरीत क्रम। वि०=प्रतिलोम।
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प्रतिलोमज  : पुं० [सं० प्रतिलोम√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. वह जिसकी उत्पत्ति प्रतिलोम-विवाह (देखें) के फलस्वरूप हुई हो। २. वर्ण-संकर।
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प्रतिलोमतः  : अव्य० [सं० प्रतिलोम+तस्] प्रतिलोम अर्थात् उलटे क्रम से।
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प्रतिलोम विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह विवाह जिसमें पुरुष छोटे वर्ण का और स्त्री उच्च वर्ण की हो। विशेष—शास्त्रों में उच्च वर्ण के पुरुष को तो छोटे या नीचे वर्ण की स्त्री के साथ विवाह करना विहित माना गया है, पर इसके विपरीत रूप का विवाह वर्जित है।
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प्रतिवक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वह जो किसी की बात का उत्तर दे। २. कानून या विधान की व्याख्या करनेवाला व्यक्ति।
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प्रतिवचन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उत्तर। जवाब। २. प्रतिध्वनि। गूँज।
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प्रतिवर्णिक  : वि० [सं० प्रति-वर्ण, प्रा० स०,+ठन्—इक] १. एक ही जैसे रंगवाला। २. समान। सदृश।
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प्रतिवर्तन  : पुं० [सं० प्रति√वृत् (बरतना)+ल्युट्—अन] १. वापस आना या होना। लौटना। २. वापस करना। लौटाना। ३. किसी प्रकार के आचरण या व्यवहार के बदले में किया जानेवाला वैसा ही दूसरा आचरण या व्यवहार। उदा०—दोनों का समुचित प्रतिवर्तन जीवन में शुद्ध विकास हुआ।—प्रसाद। ४. पिछली या पुरानी घटनाओं, तथ्यों आदि को फिर से देखना या विचार करना। अनुदर्शन। सिंहावलोकन। (रिट्रास्पेक्शन)
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प्रतिवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० प्रति√वृत्+णिनि] [स्त्री० प्रति वर्तिनी] १. पीछे की ओर घूमने, मुड़ने या लौटानेवाला। २. वापस होने या लौटानेवाला। ३. जो किसी के प्रति उसके द्वारा किये हुए आचरण के अनुसार व्यवहार करता हो। ४. जिसका संबंध पिछली या बीती हुई घटनाओं या भूत काल से भी हो। (रिट्रास्पेक्टिव) जैसे—वेतन-वृद्धि के इस निश्चय का प्रभाव इस वर्ष के लिए प्रतिवर्ती भी होगा (अर्थात् इस वर्ष के जो महीने बीत चुके हैं, उनके वेतन में इसी प्रकार की वृद्धि होगी।)
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प्रतिवस्तु  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. वह जो रूप आदि में किसी वस्तु के तुल्य हो। दूसरी सदृश् वस्तु। २. किसी वस्तु के बदले में दी जानेवाली वस्तु। ३. उपनाम।
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प्रतिवस्तूपमा  : स्त्री० [सं० प्रतिवस्तु-उपमा, ष० त०] साहित्य में, एक प्रकार का अलंकार जिसे कुछ लोग ‘उपमा’ अलंकार के अंतर्गत और कुछ लोग उसके पृथक् स्वतंत्र अलंकार मानते हैं। इस काव्यालंकार के प्रत्येक वाक्यार्थ में उपमा अर्थात् साधर्म्य का उल्लेख होता है अथवा एक ही साधारण धर्म का उपमान-वाक्य में भी और उपमेय-वाक्य में भी समान रूप से कथन होता है। जैसे—मैं तुम्हारे मुख पर अनुरक्त हूँ, चकोर चंद्रमा पर ही अनुरक्त होता है। विशेष—दृष्टांत और प्रतिवस्तूपमा अलंकारों का अन्तर जानने के लिए। दें० ‘दृष्टांत’ (अलंकार) का विशेष।
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प्रतिवहन  : पुं० [सं० प्रति√वह् (ढोना)+ल्युट्—अन] पीछे की ओर या विपरीत दिशा में ले जाने की क्रिया या भाव।
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प्रतिवाक्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रतिवचन। (दे०)
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प्रतिवाणी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. कोई शब्द सुनकर उसके उत्तर में कही जानेवाली उसी तरह की दूसरी बात। २. जवाब का जवाब। प्रत्युत्तर।
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प्रतिवाद  : पुं० [सं० प्रति√वद् (बोलना)+घञ्] १. किसी बात के विरुद्ध कही जानेवाली बात। २. विशेषतः ऐसा कथन या वक्तव्य जो किसी के द्वारा उपस्थित किये हुए तर्क, लगाये गये अभियोग आदि का खण्डन करने तथा उसे मिथ्या सिद्ध करने के लिए दिया जाता है। ३. विवाद। बहस। ४. उत्तर। जवाब।
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प्रतिवादक  : वि० [सं० प्रति√वद्+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रतिवाद करने वाला। जो प्रतिवाद करे।
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प्रतिवादिता  : स्त्री० [सं० प्रतिवादिन्+तल्—टाप्] १. प्रतिवाद करने की क्रिया या भाव। २. प्रतिवादी होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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प्रतिवादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रति√वद्+णिनि] १. प्रतिवाद-संबंधी। प्रतिवादक। २. (व्यक्ति या वस्तु) जो किसी का प्रतिवाद करता हो अथवा जिससे प्रतिवाद होता हो। ३. तर्क-वितर्क या वाद-विवाद करनेवाला। ४. प्रतिपक्षी। पुं० १. वह जो दूसरों द्वारा लगाये गये अभियोगों आदि का उत्तर दे। २. विधिक क्षेत्र में, वह जिसके संबंध में वादी ने न्यायालय में कोई अभियोग या वाद उपस्थित किया हो और जिसका उत्तर देने के लिए वह न्यायतः बाध्य हो। मुद्दालेह।
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प्रतिवाप  : पुं० [सं० प्रति√वप् (काटना)+घञ्] १. ओषधियों का वह चूर्ण जो किसी काढ़े आदि में डाला जाय। चूर्ण। बुकनी। ३. वैद्यक में धातुओं को भस्म करने की क्रिया या भाव।
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प्रतिवारण  : पुं० [सं० प्रति√वृ (रोकना)+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिवारित] १. मना करना। रोकना। २. चेतावनी।
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प्रतिवारित  : भू० कृ० [सं० प्रति√वृ+णिच्+क्त] १. रोका हुआ। २. जिसे चेतवानी दी गई हो।
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प्रतिवार्ता  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी की बात का दिया जानेवाला उत्तर।
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प्रतिवास  : पुं० [सं० प्रति√वास् (सुगंधित् करना)+घञ्] १. सुगंधि। सुवास। खुशबू। २. समीप रहना। पास या बगल में रहना। ३. प्रतिवेश। पड़ोस।
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प्रतिवासिता  : स्त्री० [सं० प्रतिवासिन्+तल्—टाप्] प्रतिवासी अर्थात् पड़ोसी होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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प्रतिवासी (सिन्)  : पुं० [सं० प्रति√वस्+णिनि] प्रतिवास अर्थात् पड़ोस में रहनेवाला व्यक्ति। पड़ोसी। प्रति-वासुदेव
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प्रतिविधान  : पुं० [सं० प्रति-वि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. प्रतिकार। २. धर्म-शास्त्र में वह कृत्य जो किसी अन्य कृत्य के बदले में किया जाता है।
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प्रतिविधि  : स्त्री० [सं० प्रति-वि√धा+कि] १. प्रतिकार। २. ऐसा काम या बात जिससे किसी प्रकार की क्षति, दोष आदि का प्रतिमार्जन हो। (रेमेडी)
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प्रतिविधिक  : वि० [सं० प्रतिविधि] प्रतिविधि (उपचार या प्रतिकार) के रूप में किया हुआ अथवा होनेवाला। (रेमीडिएल)
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प्रतिविष  : पुं० [सं० ब० स०] विष का प्रभाव नष्ट करनेवाला पदार्थ। वि० विष का मारक।
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प्रतिवीर्य  : पुं० [सं० ब० स०] वह जिसमें प्रतिरोध करने का यथेष्ट बल या शक्ति हो।
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प्रतिवेदन  : पुं० [सं० प्रति√विद् (जानना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिवेदित] १. प्रार्थना। २. किसी कार्य, घटना, तथ्य, योजना आदि के संबंध में छान-बीन, पूछ-ताछ आदि करने के उपरांत तैयार किया हुआ विवरण जो किसी बड़े अधिकारी के पास भेजा जाता है। (रिपोर्ट)
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प्रतिवेदित  : भू० कृ० [सं० प्रति√विद्+णिच्+क्त] १. प्रार्थित। २. जिसके संबंध में प्रतिवेदन तैयार करके बड़े अधिकारी के पास भेजा जा चुका हो। (रिपोर्टेड)
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प्रतिवेदी (दिन्)  : पुं० [सं० प्रति√विद्+णिच्+णिनि] १. वह जो प्रतिवेदन तैयार करता हो। २. वह जो समाचार-पत्रों में छपने के लिए समाचार लिखकर भेजता हो। (रिपोर्टर) वि० प्रतिवेदन-संबंधी।
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प्रतिवेश  : पुं० [सं० प्रति√विश्+घञ्] १. अपने घर के अगल-बगल या आस-पास का स्थान। पड़ोस। २. घर के आस-पास या सामने के मकान। पड़ोस। ३. किसी के अगल-बगल या आस-पास में रहने की अवस्था या भाव।
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प्रतिवेशी (शिन्)  : पुं० [सं० प्रतिवेश+इनि] प्रतिवेश अर्थात् पड़ोस में रहनेवाला व्यक्ति। पड़ोसी।
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प्रतिवेश्म  : पुं० [सं० प्रा० स०] पड़ोस या पड़ोसी अर्थात् पड़ोस का घर।
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प्रतिवेश्य  : पुं० [सं० प्रतिवेश+यत्] पड़ोसी।
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प्रतिवैर  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. वैर के बदले में किया जानेवाला वैर। २. वैर का प्रतिकार।
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प्रतिव्यूह  : पुं० [सं० प्रा० स०] शत्रु के विरुद्ध की जानेवाली व्यूह-रचना या मोर्चेबंदी।
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प्रतिशंका  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. किसी शंका के उत्तर में की जाने वाली दूसरी शंका। २. ऐसी शंका जो बराबर बनी रहे।
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प्रतिशत  : अव्य० [सं० अव्य० स०] हर सैकड़े के हिसाब से। हर सौ पर। फी सदी। (पर सेन्ट)
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प्रतिशतक  : पुं० [सं०] वह अनुपात जो प्रति सैकड़े के हिसाब से ठीक किया गया हो। सौ के हिसाब से लगाया जानेवाला लेखा या बैठाया जानेवाला पड़ता। (परसेन्टेज)
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प्रतिशब्द  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पर्याय। २. प्रतिध्वनि। गूँज।
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प्रतिशयन  : पुं० [सं० प्रति√शी (सोना)+ल्युट्—अन्] किसा मनोरथ की सिद्धि के लिए किसी देवता के समक्ष निराहार पड़े रहने की अवस्था या भाव। धरना।
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प्रतिशयित  : भू० कृ० [सं० प्रति√शी (सोना)+क्त] जो प्रतिशयन कर रहा हो या धरना दे रहा हो।
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प्रतिशासन  : पुं० [सं० प्रति√शास् (शासन करना)+ल्युट्—अन] १. किसी को बुलाकर किसी काम के लिए कहीं भेजना। २. ऐसा शासन जिसमें शासक कोई वैरी या शत्रु हो।
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प्रतिशिष्य  : पुं० [सं० अव्या० स०] शिष्य का शिष्य।
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प्रतिशीत  : वि० [सं० प्रति√श्या (गति)+क्त] १. पिघला हुआ। २. तरल। चूता हुआ।
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प्रतिशोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी के द्वारा कोई अनिष्ट होने पर उसके बदले में उसके साथ किया जानेवाला वैसा ही अनिष्ट व्यवहार। बदला। प्रतिकार। (रिवेंज)
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प्रतिश्या  : स्त्री० [सं० प्रति√श्यै+अङ्—टाप्] प्रतिश्याय।
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प्रतिश्यान  : पुं० [सं० प्रति√श्यै+अन]=प्रतिश्याय।
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प्रतिश्याय  : पुं० [सं० प्रति√श्यै+घञ्] १. जुकाम या सरदी नामक रोग। २. पीनस नामक रोग।
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प्रतिश्रम  : पुं० [सं० प्रति√श्रम् (आयास)+घञ्] परिश्रम। मेहनत।
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प्रतिश्रय  : पुं० [सं० प्रति√श्रि+अच्] १. आश्रम। २. सभा। ३. जगह। स्थान। ४. निवास-स्थान। ५. यज्ञशाला।
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प्रतिश्रव  : पुं० [सं० प्रति√श्रु (सुनना)+अप्] १. प्रतिज्ञा। २. प्रतिध्वनि। गूँज।
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प्रतिश्रवण  : पुं० [सं० प्रति√श्रु+ल्युट्—अन्] १. अच्छी तरह से सुनना। २. प्रतिज्ञा करना।
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प्रतिश्रित  : पुं० [सं० प्रति√श्रि+क्त] आश्रय-स्थान।
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प्रतिश्रुत्  : स्त्री० [सं० प्रति√श्रु+क्विप्, तुक्] प्रतिशब्द। प्रतिध्वनि।
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प्रतिश्रुत  : भू० कृ० [सं० प्रति√श्रु+क्त] १. अच्छी तरह सुना हुआ। २. माना या स्वीकृत किया हुआ। ३. (विषय) जिसके सम्बन्ध में कोई प्रतिज्ञा की गई हो या वचन दिया गया हो। ४. (व्यक्ति) जिसने किसी बात की कोई प्रतिज्ञा की हो अथवा किसी बात की जिम्मेदारी ली हो।
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प्रतिश्रुति  : स्त्री० [सं० प्रति√श्रु+क्तिन्] १. प्रतिध्वनि। २. किसी बात के लिए दिया जानेवाला वचन। (प्रामिस) ३. इस बात की जिम्मेदारी कि कोई चीज या बात ऐसी ही है इससे भिन्न, विपरीत या अन्यथा नहीं है। (गारन्टी)
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प्रतिश्रोता (तृ)  : वि० पुं० [सं० प्रति√श्रु+तृच्] १. अनुमति देनेवाला। २. मंजूर करनेवाला। ३. किसी बात या विषय की प्रतिश्रुति करनेवाला।
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प्रतिषिद्ध  : भू० कृ० [सं० प्रति√सिध् (गति)+क्त] (कार्य का बात) जिसे करने से किसी को रोका गया हो।
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प्रतिषेद्धा (द्धृ)  : पुं० [प्रति√सिध्+तृच्]=प्रतिषेधक।
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प्रतिषेध  : पुं० [सं० प्रति√सिद्ध+घञ्] १. निषेध। मनाही। २. खंडन। ३. साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें चमत्कार-पूर्ण ढंग से प्रसिद्ध अर्थ का निषेध किया जाता है। उदा०—मोहन कर मुरली नहीं है कछु बड़ी बलाय। यहाँ मुरली का निषेध किया गया है।
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प्रतिषेधक  : वि० [सं० प्रति √सिध्+णिच्+ण्वुल्—अक] (आज्ञा, कथन आदि) जिसमें या जिसके द्वारा किसी प्रकार का प्रतिषेध हो। (प्राहिबिटरी) पुं० वह जो प्रतिषेध करे। (प्राहिबिटर)
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प्रतिषेधन  : पुं० [सं० प्रति√सिध्+णिच्+ल्युट्—अन] प्रतिषेध करने की किया या भाव।
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प्रतिषेध-लेख  : पुं० [ष० त०] आज-कल विधिक क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय की वह लिखित आज्ञा जो किसी को अन्तरिम काल में या अन्तिम निर्णय होने तक कोई काम करने से रोकने के लिए दी जाती हैं। (रिट आफ प्रोहिबिशन)
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प्रतिषेधाधिकार  : पुं० [प्रतिषेध-अधिकार, ष० त०] किसी शासक, संसद आदि को प्राप्त वह संवैधानिक अधिकार जिससे वह शासन के किसी अन्य अंग की आज्ञा, निर्णय, प्रस्ताव आदि अमान्य या रद्द कर सकता है। निषेधाधिकार। (वीटो)
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प्रतिषेधोपमा  : स्त्री० [सं० प्रतिषेध-उपमा, ष० त०] उपमालंकार का एक भेद जिसमें कुछ प्रतिषेधक तत्त्व होता है।
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प्रतिष्टंभ  : पुं० [सं० प्रति√स्तम्भ् (रोकना)+घञ्] [भू० कृ० प्रतिष्टब्ध] १. स्तब्ध या निश्चेष्ठ होने या करने की किया या भाव। २. बाधा।
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प्रतिष्ठ  : वि० [सं० प्रति√स्था (ठहरना)+क] प्रसिद्ध। प्रख्यात। मशहूर।
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प्रतिष्ठा  : स्त्री० [सं० प्रति√स्था+अङ्+टाप्] १. किसी चीज का कहीं अच्छी तरह रखा या स्थापित किया जाना। स्थापन। जैसे—मन्दिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा; देव-मूर्ति में की जानेवाली प्राण-प्रतिष्ठा। २. ठहराव। स्थिति। ३. जगह। स्थान। ४. मान-मर्यादा। इज्जत। ५. आदर। सत्कार। ६. प्रख्याति। प्रसिद्धि। ७. कीर्ति। यश। ८. यश की प्राप्ति। ९. देह। शरीर। १॰. पृथ्वी। ११. व्रत का उद्यापन। १२. चार वर्णों के वृत्तों की संज्ञा। १३. एक प्रकार का छन्द।
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प्रतिष्ठान  : पुं० [सं० प्रति√स्था+ल्युट—अन] १. प्रतिष्ठित या स्थापित करने की क्रिया या भाव। बैठाना। स्थापन। २. मन्दिर आदि में देव-मूर्ति की स्थापना। ३. उपाधि। पदवी। ४. जड़। मूल। ५. जगह। स्थान। ६. व्रत आदि की समाप्ति पर किया जाने-वाला कृत्य। ७. दें० ‘प्रतिष्ठानुपुर’। ८. दक्षिण भारत का एक प्राचीन नगर जिसका आधुनिक नाम पैठण है।
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प्रतिष्ठानपुर  : पुं० [सं० ष० त०] १. गंगा और यमुना के संगम पर बसी हुई झूसी नामक बस्ती का पुराना नाम। २. गोदावरी के तट पर महाराष्ट्र देश का एक प्राचीन नगर जहाँ राजा शालिवाहन की राजधानी थी।
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प्रतिष्ठापन  : पुं० [सं० प्रति+स्था√णिच्, पुक्+ल्युट्—अन] प्रतिष्ठत अर्थात् स्थापित करने की क्रिया या भाव।
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प्रतिष्ठापयिता (तृ)  : पुं० [सं० प्रति √स्था+णिच्, पुक्, +तृच] प्रतिष्ठापन करनेवाला।
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प्रतिष्ठापित  : भू० कृ० [सं० प्रति+स्था√णिच्, पुक्+क्त] जिसका प्रतिष्ठापन किया गया हो या हुआ हो।
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प्रतिष्ठित  : भू० कृ० [सं० प्रति√स्था+क्त] १. जिसकी प्रतिष्ठा या इज्जत की गई हो या हुई हो। आदर-प्राप्त। २. जिसकी स्थापना की गई हो। स्थापित। जैसे—मन्दिर में मूर्ति प्रतिष्ठित करना। ३. जो किसी स्थान पर बैठा या बैठाया गया हो। जैसे—आसन पर प्रतिष्ठत। पुं० विष्णु।
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प्रतिष्ठिति  : स्त्री० [सं० प्रति√स्था+क्तिन्] स्थापित करने या होने की क्रिया या भाव। प्रतिष्ठान।
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प्रतिसंख्या  : स्त्री० [सं० प्रति-सम्√ख्या (कहना)+अङ्—टाप्] १. चेतना। २. सांख्य के अनुसार ज्ञान की एक अवस्था या रूप।
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प्रतिसंचर  : पुं० [सं० प्रति-सम्√चर् (गति)+अप्] पुराणानुसार प्रलय का एक भेद।
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प्रतिसंदेश  : पुं० [सं० प्रा० स०] संदेश के जबाव में भेजा हुआ संदेश।
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प्रतिसंधान  : पुं०=अनुसंधान।
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प्रतिसंधि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १. वियोग। विछोह। २. अनुसंधान। खोज। तलाश। ३. अन्त। समाप्ति। ४. दो युगों का संधि-काल। ५. भाग्य की प्रतिकूलता। ६. पुनर्जन्म।
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प्रतिसंविद्  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी विषय का सांगोपांग ज्ञान।
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प्रतिसंवेदक  : वि० [सं० प्रति-सम्√विद् (जानना)+णिच्+ण्वुल—अक] जिससे किसी के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती हो।
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प्रतिसंस्कार  : पुं० [सं०] [भू० कृ० प्रतिसंस्कृत] १. फिर से किया जानेवाला संस्कार। २. मरम्मत।
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प्रतिसंहरण  : पुं० [सं०] किसी की दी हुई आज्ञा या किये हुए कार्य या निश्चय को नई आज्ञा या निर्णय से रद्द अथवा नहीं के समान करना। रद्द करना। (रिवोकेशन)
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प्रतिसंहार  : पुं० [सं० प्रति-सम्√हृ+घञ्] १. समेट लेना। २. त्यागना। ३. किसी वस्तु से दूर रहना। ४. निरर्थक या रद्द करना। मिटाना।
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प्रतिसम  : विं० [सं० प्रा० स०] १. जो समान हो। २. जो बराबरी या मुकाबले का हो।
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प्रतिसमाधान  : पुं० [सं० प्रति-सम्-आ√धा+ल्युट्—अन] १. प्रतिकार। बदला। २. इलाज।
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प्रतिसर  : पुं० [सं० प्रति√सृ (गति)+अच्] १. सेवक। नौकर। २. सेना का पिछला भाग। ३. विवाह के समय पहना जानेवाला कंगन। ४. कंगन नाम का गहना। ५. जादू-टोना करने का मंत्र। ६. घाव का भराव। ७. प्रातःकाल। सवेरा। ८. माला। हार।
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प्रतिसरण  : पुं० [सं० प्रति√सृ+ल्युट्—अन] किसी के सहारे उठँघने की क्रिया।
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प्रतिसर्ग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पुराणानुसार वे सब सृष्टियाँ जो ब्रह्मा के मानस-पुत्रों रुद्र, विराट पुरुष, मनु, यक्ष, मारीचि आदि ने उत्पन्न की थीं। २. प्रलय। ३. पुराणों का वह अंश जिसमें सृष्टि के प्रलय का वर्णन है।
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प्रतिसव्य  : वि० [सं० प्रा० स०] १. विरुद्ध आचरण करनेवाला। विरुद्धाचारी। २. प्रतिकूल। विपरीत।
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प्रतिसारक  : वि० [सं० प्रति√सृ+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रतिसरण करनेवाला।
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प्रतिसारण  : पुं० [सं० प्रति√सृ+णिच्+ल्युट्—अन] १. अलग या दूर करना। हटाना। २. मसूड़े साफ करने के लिए किया जानेवाला मंजन। ३. किसी अंग पर कोई दवा या मरहम लगाकर मलना। ४. वैद्यक में एक प्राचीन प्रकिया जिसमें किसी रुग्ण अंग की चिकित्सा के लिए उसे जलाने के लिए घी या तेल से दागा जाता था। ५. आज-कल, घावों और फोड़े-फुन्सियों को धोकर और उन पर दवा लगाकर पट्टी आदि बाँधने की क्रिया। मरहम-पट्टी। (ड्रेसिंग)
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प्रतिसारण-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह स्थान या कमरा जहाँ रोगियों के घावों आदि का प्रतिसारण या मरहम-पट्टी होती है। (ड्रेंसिंग रूम)
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प्रतिसारणीय  : वि० [सं० प्रति√सृ+णिच्+अनीयर्] १. हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाने के योग्य। प्रतिसारण के योग्य। २. (घाव) जिस पर मरहम-पट्टी की जाने को हो या की जानी चाहिए। पुं० सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की क्षार-पाक-विधि जो कुष्ठ, भकंदर, दाह, कुष-व्रण, झाँई, मुँहासे और बवासीर आदि में अधिक उपयोगी होती है।
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प्रतिसारी (रिन्)  : वि० [सं० प्रति√सृ (गति)+णिनि] उलटी दिशा में जानेवाला।
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प्रतिसूर्य  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. सूर्य का मंडल या घेरा। २. गिरगिट। ३. आकाश में होनेवाला एक प्रकार का उत्पात जिसमे सूर्य के सामने एक और सूर्य निकलता हुआ दिखाई देता है।
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प्रतिसृष्ट  : भू० कृ० [सं० प्रति√सृज् (भेजना, त्यागना)+क्त] १. भेजा हुआ। प्रेषित। २. जिसका अस्वीकरण या निराकरण हुआ या किया गया हो। ३. मत्त। मतवाला।
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प्रतिसेना  : स्त्री० [स० प्रा० स०] विपक्षी की सेना।
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प्रतिस्त्री  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] पराई स्त्री।
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प्रतिस्थापन  : पुं० [सं० प्रति√स्था+णिच्, पुक्+ल्यूट्—अन] [भू० कृ० प्रतिस्थापित] १. किसी चीज के न रह जाने, नष्ट हो जाने अथवा हट जाने पर उसके स्थान पर वैसी ही दूसरी चीज रखना। २. किसी व्यक्ति के हट जाने पर उसका काम चलाने के लिए उसके स्थान पर दूसरा व्यक्ति रखना। (सब्स्टिट्यूशन)
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प्रतिस्थापित  : भू० कृ० [सं० प्रति√स्था+णिच्, पुक्+क्त] काम चलाने के लिए किसी के स्थान पर बैठाया या रखा हुआ। (सब्स्टिट्यूट)
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प्रतिस्पर्धा  : स्त्री० [सं० प्रति√स्पर्ध (होड़ लगाना)+अ-टाप्] वह स्थिति जिसमें दो या अधिक व्यक्ति एक दूसरे से किसी काम में आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील तथा कटिबद्ध होते हैं। (राइवलरी)
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प्रतिस्पर्धी (र्धिन्)  : पुं० [प्रति+स्पर्ध्√णिनि] वह जो किसी से प्रतिस्पर्धा करता हो। प्रतिद्वंद्वी। (राइवल)
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प्रतिस्त्राव  : पुं० [सं० प्रति√स्त्रु (बहना)+घञ्] १. एक रोग जिसमें नाक में से पीला या सफेद रंग का बहुत गाढ़ा कफ निकलता है। २. पीले या सफेद रंग का उक्त कफ।
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प्रतिस्वन  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रतिशब्द। ध्वनि।
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प्रतिस्वर  : पुं० [सं० प्रा० स०] प्रतिशब्द।
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प्रतिहंता (तृ)  : वि० [सं० प्रति√हन् (हिंसा)+तृच्] १. रोकनेवाला। बाधक। २. मुकाबले में खड़ा होनेवाला।
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प्रतिहत  : भू० कृ० [सं० प्रति√हन्+क्त] १. जिसे कोई ठोकर या आघात लगा हो। २. जिसके सामने कोई बाधा या विध्न हो। ३. हटाया हुआ। ४. फेका हुआ। ५. गिरा हुआ। ६. निराश।
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प्रतिहति  : स्त्री० [सं० प्रति√हन्+क्तिन]=प्रतिहनन।
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प्रतिहनन  : पुं० [सं० प्रति√हन+ल्युट,—अन] १. किसी हनन करनेवाले को मार डालना। २. आघात के बदले में आघात करना। प्रतिघात।
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प्रतिहरण  : पुं० [प्रति√हृ (हरण करना)+ल्युट—अन] १. विनाश। बरबादी। २. निवारण।
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प्रतिहर्त्ता (र्तृ)  : वि० [सं० प्रति√हृ+तृच्] प्रतिहरण का विनाश करनेवाला। पुं० यज्ञ के १६ ऋत्विजों में से बारहवाँ ऋत्विज।
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प्रतिहस्त  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह जो किसी के न होने की दशा में उसके स्थान पर हो या रखा गया हो। २. प्रतिनिधि।
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प्रतिहस्ताक्षरण  : पुं० [सं० प्रतिहस्ताक्षर+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रतिहस्ताक्षरित] किसी के हस्ताक्षर का अनुमोदन या समर्थन करने के लिए किसी बड़े अधिकारी का भी उसके साथ हस्ताक्षर करना। (काउन्टर-साइनिंग)
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प्रतिहस्ताक्षरित  : भू० कृ० [सं० प्रतिहस्ताक्षर, प्रा० स०,+इतच्] जिस पर किसी के हस्ताक्षर को साक्षीकृत करने के लिए किसी बड़े अधिकारी ने हस्ताक्षर किये हों। (काउन्टरसाइन्ड)
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प्रतिहार  : पुं० [सं० प्रति√हृ+अण्] [भाव० प्रतिहारत्व, स्त्री० प्रतिहारी] १. प्राचीन काल का एक राजकर्मचारी जो सदा राजाओं के पास रहा करता था और राजाओं के संदेश लोगों तक पहुँचाता था। २. द्वारपाल। दरबान। ३. चोबदार। ४. ऐंद्रजालिक। जादूगर। ५. सामवेद गान का एक अंग। ६. दो दलों या व्यक्तियों में होनेवाली वह सन्धि या समझौता जिसमें यह निश्चय होता है कि पहले हम तुम्हारा अमुक काम कर देते हैं; पर इसके उपरान्त तुम्हे भी हमारा अमुक काम करना पड़ेगा।
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प्रतिहारक  : पुं० [सं० प्रति√हृ+ण्वुल्—अक] १. इंद्रजाल दिखानेवाला। बाजीगर। २. वह जो प्रतिहार नामक सामक गान करता हो।
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प्रतिहरण  : पुं० [प्रति√हृ+णिच्+ल्युट—अन] [भू० कृ० प्रतिहारित] १. द्वार। दरवाजा। २. द्वार में प्रवेश करने की अनुमति। ३. द्वार पर पहुँचकर किया जानेवाला स्वागत।
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प्रतिहारत्व  : पुं० [सं० प्रतिहार+त्व] ड्योढ़ीदारी। प्रतिहार या द्वारपाल का काम या पद।
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प्रतिहारित  : भू० कृ० [सं० प्रति√हृ+णिच्+क्त] जिसका स्वागत किया गया हो।
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प्रतिहारी (रिन्)  : पुं० [सं० प्रति √हृ+णिनि] [स्त्री० प्रतिहारिणी] द्वारपाल। दरबान। स्त्री० वह स्त्री जो प्राचीनकाल में राजाओं के यहाँ प्रतिहार का काम करती थी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतिहार्य  : पुं० [सं० प्रति√हृ+ण्यत्] इंद्रजाल। बाजीगरी।
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प्रतिहिंसा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] हिंसा के बदले में की जानेवाली हिंसा।
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प्रतिहित  : भू० कृ० [सं० प्रति√धा (रहना)+क्त, हि-आदेश] १. रखा हुआ। २. जमाया या स्थापित किया हुआ।
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प्रतीक  : वि० [सं० प्रति+कन्, नि० दीर्घ] १. जो किसी ओर अग्रसर या प्रवृत्त किया गया हो। किसी तरफ बढ़ाया हुआ। २. उलटा या विपरीत रूप में लाया हुआ। ३. जो अनुकूल न हो। प्रतिकूल। विरुद्ध। ४. जो उलटे क्रम से चल रहा हो। प्रतिलोम। विलोम। पुं० १. अंग। अवयव। २. अंश। भाग। ३. मुख। मुँह। ४. आगे या सामने का भाग। सामना। ५. आकृति। रूप। सूरत। ६. किसी वस्तु के अनुरूप बनाई हुई वैसी ही दूसरी वस्तु। प्रतिरूप। प्रतिमा। मूर्ति ८. वह गोचर या वस्तु के ठीक या बहुत-कुछ अनुरूप होने के कारण उसके गुण-रूप का परिचय कराने के लिए उसका प्रतिनिधित्व करती हो। (सिम्बल) जैसे—देव मूर्ति ईश्वर का प्रतीक है। ९. साहित्य में वह बात या वस्तु जो अपने आकस्मिक सादृश्य, अभिसमय अथवा तर्क-संगत संबंध के आधार पर किसी दूसरी बात या वस्तु या स्थान ग्रहण करती हो। (सिम्बल) १॰. कविता या उसके किसी चरण अथवा किसी वाक्य का वह पहला शब्द जिसका उपयोग किसी को उस कविता, चरण या वाक्य का स्मरण कराने के लिए किया जाता है। ११. वसु के पुत्र और ओघवान् के पिता का नाम। १२. मरु के पुत्र का नाम। १३. परवल।
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प्रतीक-कथा  : स्त्री० [सं०] कथा का वह प्रकार या भेद जिसमें गुण, प्रवत्ति, भाव आदि अमूर्त तत्वों की पात्र मानकर और उन्हें शरीरधारी मानव का रूप देकर उनसे आचरण या व्यवहार कराये जाते हैं। (एलिमोरी) जैसे ‘प्रसाद’ कृत ‘कामना’ और ‘एक घूँट’।
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प्रतीक-भाषा  : स्त्री० [सं० ष० त०] ऐसी भाषा जिसमें कुछ शब्द दूसरी संज्ञाओं के प्रतीक रूप में (उनके स्थान पर) प्रयुक्त होते हैं। जैस—हठ-योग की प्रतीक भाषा में ‘सखी’ का अर्थ ‘सुरति’ होता है।
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प्रतीक-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] आज-कल कला और साहित्य के क्षेत्र में अभिव्यंजना की वह विशिष्ट प्रणाली अथवा उस प्रणाली से संबंध रखने-वाला मूल तथा स्थूल सिद्धान्त जिसके अनुसार प्रतीकों के आधार पर भावों, वस्तुओं, विषयों आदि को बोध कराया जाता है। (सिम्बलिज्म़)
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प्रतीक-वादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रतीक-वाद+इनि] प्रतीक-वाद सम्बन्धी। प्रतीक-वाद का। पुं० प्रतीकवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक।
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प्रतीकात्मक  : वि० [सं० प्रतीक-आत्मन् ब० स०, कप्] १. जो प्रतीक या प्रतीकों से संबद्ध हो। २. (साहित्यिक रचना) जिसमें प्रतीकों की सहायता से भावों, वस्तुओं, विषयों आदि का बोध कराया गया हो।
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प्रतीकानुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० प्रतीक-अनुक्रमणिका, ष० त०] किसी व्यक्ति, ग्रन्थ या काव्य-संग्रह में आये हुए छन्दों या पद्यों के प्रतीकों की अक्षर-क्रम से लगी हुई सूची।
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प्रतीकार  : पुं० [सं० प्रति √कृ+घञ्, दीर्घ] बदला। प्रतिकार।
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प्रतीकार्य  : वि० [सं० प्रति√कृ+ण्यत्, दीर्घ] जिसका प्रतिकार हो सकता हो या किया जाने को हो।
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प्रतीकोपासना  : स्त्री० [सं० प्रतीक-उपासना, ष० त०] प्रतीकों के आधार पर ईश्वर या ब्रह्मा की की जानेवाली उपासना।
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प्रतीक्षक  : वि० [सं० प्रति√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल—अक] १. प्रतीक्षा करने या आसरा देखने वाला। किसी का रास्ता देखने या बाट जोहनेवाला। २. पूजा करनेवाला। पूजक।
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प्रतीक्षण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० प्रतीक्षित] प्रतीक्षा करने की क्रिया या भाव। बाट जोहना। आसरा देखना।
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प्रतीक्षा  : स्त्री० [सं० प्रति√ईक्ष्+अ+टाप्] १. वह स्थिति जिसमें कोई उत्सुकतापूर्वक किसी आनेवाले व्यक्ति या वस्तु की बाट जोहता या रास्ता देख रहा होता है। इंतजार। इंतजारी। जैसे—वे डाकिये की प्रतीक्षा में हैं। २. किसी का भरण-पोषण करना। ३. पूजा।
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प्रतीक्षागृह  : पुं०=प्रतीक्षालय।
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प्रतीक्षालय  : पुं० [सं० प्रतीक्षा+आलय, ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पर यात्री लोग देर से आनेवाले यानों की प्रतीक्षा में ठहरते या रुकते हैं। २. किसी अधिकारी, बड़े आदमी आदि से मिलनेवालों के लिए बैठकर, प्रतीक्षा करने का कमरा या घर। (वेटिंग रूम)
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प्रतीक्षित  : भू० कृ० [सं० प्रति√ईक्ष्+क्त] १. जिसकी प्रतीक्षा की गई हो अथवा की जा रही हो। २. जिसका यथेष्ठ ध्यान रखा गया हो। ३. पूजित।
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प्रतीक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० प्रति√ईक्ष्+णिनि]=प्रतीक्षक।
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प्रतीक्ष्य  : वि० [सं० प्रति √ईक्ष्+ण्यत्] जिसकी प्रतीक्षा की जाय या की जा सके।
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प्रतीची  : स्त्री० [सं० प्रत्यच्+ङीप्] पश्चिम (दिशा)।
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प्रतीचीन  : वि० [सं० प्रत्यच् +ख—ईन] १. पश्चिम संबंधी। पश्चिम का। २. जो अभी या भविष्य में होने को हो। ३. जिसने मुँह फेरकर दूसरी ओर कर लिया हो। पराङमुख। ४. पीछे से आनेवाला।
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प्रतीचीश  : पुं० [सं० प्रतीची-ईश, ष० त०] १. पश्चिम दिशा के स्वामी, वरुण। २. समुद्र। सागर।
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प्रतीच्छक  : पुं० [सं० प्रति-इच्छा, ब० स०, कप्] ग्राहक। (मनु०) वि०=प्रतीक्षक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रतीच्य  : विं. [सं० प्रतीची+यत्] १. पश्चिम-संबंधी। २. पश्चिम में होने या रहनेवाला।
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प्रतीत्या  : स्त्री० [सं० प्रतीच्य+टाप्] पुलस्त्य की माता।
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प्रतीत  : वि० [सं० प्रति√इ (गति)+क्त] [भाव० प्रतीति] अटकल, अनुमान, विश्वास आदि के आधार पर जान पड़नेवाला या जान पड़ा हुआ। जैसे—ऐसा प्रतीत होता था कि वह अभी तक हमारे अनुकूल ही होगा। २. प्रसिद्ध। विख्यात। ३. प्रसन्न और सन्तुष्ट।
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प्रतीति  : स्त्री० [सं० प्रति√इ+क्तिन्] १. प्रतीत होने की क्रिया या भाव। २. जानकारी। ज्ञान। ३. किसी बात या विषय के सम्बन्ध में होनेवाला दृढ़ निश्चय या विश्वास। यकीन। ४. प्रसन्नता। हर्ष। ५. आदर। सम्मान।
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प्रतीत्य  : पुं० [सं० प्रति√इ+क्यप्] सांत्वना।
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प्रतीत्य-समुत्पाद  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्धों के अनुसार अविद्या, संस्कार विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भय, जाति और दुःख से बारहों पदार्थ जो उत्तरोत्तर संबद्ध हैं और क्रमात् एक दूसरे से उत्पन्न होते हैं।
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प्रतीनाह  : पुं० [सं० प्रति√नह् (बाँधना)+घञ्] झंडा।
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प्रतीप  : वि० [सं० प्रति-आप्, ब० स०,+अ, ईत्व] १. क्रम के विचार से उलटा। वलोम। २. प्रतिकूल। विरुद्ध। ३. पिछड़ा हुआ। ४. पीछे की ओर चलने या होने वाला। जैसे—प्रतीप गति। ५. रुचि के विरुद्ध। अप्रिय। ६. हठी। ७. बाधक। ८. विरोधी। ९. उद्दंड। उद्घत। क्रि० वि० विपरीत अवस्था में। उलटे। उदा०—फाड़ सुनहली साड़ी उसकी तू हँसती क्यों अरी प्रतीप।—प्रसाद। पुं० १. एक प्रसिद्ध राजा जो शान्तनु के पिता और भीष्म के प्रपिता थे। २. साहित्य में एक प्रसिद्ध अलंकार जिसमें प्रसिद्ध उपमान का अपकर्ष दिखलाने के लिए उसे उपमेय रूप में वर्णित किया जाता और इस प्रकार वर्णनीय उपमेय का निरादर किया जाता है। इसके पाँच भेद माने गये है जो प्रथम, द्वितीय विशेषणों से युक्त होते हैं।
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प्रतीपक  : वि० [सं० प्रतीप√कन्] विरुद्ध। प्रतिकूल।
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प्रतीप-गमन  : पुं० [सं० कर्म० स०] पीछे की ओर जाना।
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प्रतीप-गामी (मिन्)  : वि० [सं० प्रतीप√गम्+णिनि] पीछे की ओर जानेवाला।
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प्रतीप-दर्शनी  : स्त्री० [सं० प्रतीप√दृश, (देखना)+णिनि] औरत। स्त्री।
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प्रतीपादन  : पुं० [सं०] १. लौटकर फिर पहले स्थान पर आना। प्रतिगमन। २. मनोविज्ञान में, वह स्थिति जिसमें किसी अप्रिय या कष्टदायक मनोदशा से छूटकर मन फिर अपनी पहलेवाली स्वाभाविक स्थिति में आता है। (रिग्रेशन)।
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प्रतीपी (पिन्)  : वि० [सं० प्रतीत+इनि] प्रतिकूल। विरुद्ध।
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प्रतीपोक्ति  : स्त्री० [सं० प्रतीप-उक्ति, कर्म० स०] किसी के कथन के विरुद्ध कही जानेवाली बात। खंडन।
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प्रतीयमान  : वि० [सं० प्रति√इ (गति)+शानच्] १. जिसकी प्रतीति हो रही हो। २. जो ध्यान या समझ में आ रहा हो। ३. (रूप) जो ऊपर से दिखाई देता या प्रतीत होता हो। ४. (रूप) जो वास्तविक से भिन्न होने पर भी देखने में बहुत-कुछ वास्तविक-सा जान पड़ता हो। (एपेरेन्ट) ५. (अर्थ) जो ध्वनि, व्यंग्य आदि के रूप में निकलता हो। ६. अभिप्राय या आशय के रूप में जान पड़नेवाला। उद्देश्य के रूप में जान पड़नेवाला। (पर्पटेड)
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प्रतीयमानतः  : अव्य० [सं० प्रतीयमान+तस्] (ज्ञान या प्रतीति के संबंध में) प्रतीयमान के रूप में। ऊपर या बाहर से देखने पर। (एपेरेन्टली)
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प्रतीर  : पुं० [सं० प्र√तीर् (पार जाना)+क] किनारा। तट। तीर।
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प्रतीवाप  : पुं० [सं० प्रति√वप् (बोना)+घञ्, दीर्घ] १. वह दवा जो पीने के लिए काढ़े आदि में मिलाई जाय। २. दैवी उत्पात या उपद्रव। ३. फेंकना। क्षेपण। ४. किसी चीज का रूप बदलने के लिए उसे किसी दूसरी चीज में मिलाना।
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प्रतीवेश  : पुं० [सं० प्रति√विश् (घुसना)+घञ्, दीर्घ]=प्रतिवेश।
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प्रतीवेशी (शिन्)  : पुं० [सं० प्रति√विश्+णिनि, दीर्घ]=प्रतिवेशी।
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प्रतीहार  : पुं० [सं० प्रत√हृ (हरण करना)+अण्, दीर्घ]=प्रतिहार।
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प्रतीहारी (रिन्)  : पुं० [सं० प्रति√हृ+णिनि, दीर्घ]=प्रतिहारी।
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प्रतुद्  : पुं० [सं० प्र√तुद् (व्यथित होना)+क] चोंच से तोड़कर अपना भक्ष्य खानेवाले पक्षियों की संज्ञा।
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प्रतूर्ण  : वि० [सं० प्र√त्वर् (वेग)+क्त] वेगवान।
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प्रतूलिका  : स्त्री० [सं० प्र-तूल०, ब० सं०, कप्] तोशक। गद्दा।
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प्रतोद  : पुं० [सं० प्र√तुद्+घञ्] १. पशु हाँकने की छड़ी। औगी। पैना। २. कोड़ा। चाबुक। ३. एक प्रकार का साम गान।
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प्रतोली  : स्त्री० [सं० प्र√तुल् (तोलना)+अच्+ङीष्] १. वह चौड़ा रास्ता जो नगर के मध्य से होकर निकला हो। चौड़ी सड़क। राजमार्ग। २. गली। बीथी। ३. वह दुर्ग या द्वार जो नगर की ओर हो। ४. नगर के प्राकार में बना हुआ फाटक। ५. फोड़ों पर बाँधी जाने-वाली एक विशिष्ट प्रकार की पट्टी।
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प्रतोष  : पुं० [सं० प्र√तुष (प्रीति)+घञ्] १. स्वायंभू—मनु के एक पुत्र। २. परितोष।
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प्रतोषना  : स० [सं० परितोषण] १. संतुष्ट करना। २. समझाना-बुझाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रत्त  : वि० [सं० प्र√दा (देना)+क्त, दा=त] प्रदत्त।
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प्रत्न  : वि० [सं० प्र+त्नप्] १. प्राचीन। पुराना। २. पहले का। ३. परंपरा से चला आया हुआ।
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प्रत्न-जीव-विज्ञान  : पुं० [सं० प्रत्न-जीव, कर्म० स०, प्रत्न-जीव-विज्ञान, ष० त०] वह विज्ञान जिसमें बहुत प्राचीन काल के ऐसे जीव-जंतुओं की जातियों, आकृतियों आदि का विवेचन होता है, जो अब कहीं नहीं मिलते। (पेलियन्टॉलोजी)
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प्रत्नतत्व  : पुं०=पुरातत्व।
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प्रत्यंकन  : पुं० [सं० प्रति√अंक् (चिह्निन करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रत्यंकित] दे० ‘अनुरेखन’।
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प्रत्यंग  : पुं० [सं० प्रति-अंग, प्रा० स०] १. शरीर का कोई गौण या छोटा अंग। जैसे—अंग-प्रत्यंग में पीड़ा होना। २. किसी चीज के गौण या छोटे अंग या अंश। जैसे—इस विषय के सभी अंग-प्रत्यंग उन्होंने देख डाले हैं। ३. ग्रन्थ का अध्याय या परिच्छेद। ४. अस्त्र। ५. एक प्रकार की पुरानी तौल।
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प्रत्यंगिरा (रस्)  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार चाक्षुष मन्वंतर के अंगिरस के पुत्र एक ऋषि का नाम। २. सिरस का पेड़। ३. बिसखोपड़ा नामक जन्तु। स्त्री० तांत्रिकों की एक देवी।
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प्रत्यंचा  : स्त्री० [प्रति√अंच् (गति)+क्विप् या विच्—टाप्] धनुष की डोरी जिसकी सहायता से बाण छोड़ा जाता है। चिल्ला।
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प्रत्यंचित  : भू० कृ० [सं० प्रति√अंच्+क्त] पूजित। सम्मानित।
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प्रत्यंत  : पुं० [सं० प्रति-अंत, अव्या० स०] म्लेच्छों के रहने का देश।
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प्रत्यंत-पर्वत  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह छोटा पहाड़ जो किसी बड़े पहाड़ के पास हो।
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प्रत्यंतर  : पुं० [सं० प्रति+अन्तर] १. किसी अंतर के अंदर होनेवाले कोई दूसरा छोटा या विभागीय अंतर। २. उक्त प्रकार के अंतर की अवधि या काल। जैसे—आदि-कल बुध की दशा में राहु का प्रत्यंतर चल रहा है। (फलित ज्योतिष)
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प्रत्यक्  : क्रि० वि० [सं० प्रति√अंच् (गति)+क्विन्] पीछे।
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प्रत्यक्-चेतन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. योग के अनुसार वह निर्मल चित्त-वृत्तिवाला व्यक्ति जिसने आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। २. अंतरात्मा। ३. परमेश्वर।
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प्रत्यक्-पर्णी, प्रत्यक्-पुष्पी  : स्त्री० [सं० ब० स०,+ङीप्] दंती वृक्ष। मूंसाकानी। २. अपामार्ग। चिचडा।
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प्रत्यक्ष  : वि० [सं० प्रति-अक्षि, अव्य० स०+अच्] १. जो आँखों के सामने उपस्थित हो तथा स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा हो। २. जिसका ज्ञान इंद्रिय या इन्द्रियों से स्पष्ट रूप में हो रहा हो। जैसे—प्रत्यक्ष झूठा। ३. जिसमें कोई घुमाव-फिराव या पेचीलापन न हो। नियम, परिपाटी आदि के विचार से सीधा। जैसे—प्रत्यक्ष कर। ४. जिसमें किसी बाहरी आधार या साधन का उपयोग न हुआ हो। जैसे—प्रत्यक्ष प्रमाण। ५. सीधे जनता के मतों के आधार पर या अनुसार होनेवाला। जैसे—प्रत्यक्ष निर्वाचन। (डाइरेक्ट, उक्त तीनों अर्थों में) पुं० चार प्रकार के प्रमाणों में से एक जिसके स्पष्ट होने के कारण किसी प्रकार का आपत्ति या सन्देह न किया जा सके। यह सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। जैसे—नित्य ज्वर आना ही उसके रोगी होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। क्रि० वि० आँखों के आगे। सामने।
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प्रत्यक्ष कर  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह कर जो उपभोक्ताओं तथा करदाताओं से प्रत्यक्ष रूप में लिया जाता हो, किसी माध्यम से नहीं। (डाइरेक्ट टैक्स)
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प्रत्यक्ष ज्ञान  : पुं० [सं०] इन्द्रियों के द्वारा होनेवाला किसी वस्तु या विषय का ज्ञान या जानकारी। (पर्सेप्शन)
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प्रत्यक्षता  : स्त्री० [सं० प्रत्यक्ष+तल्+टाप्] प्रत्यक्ष होने की अवस्था, गुण या भाव।
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प्रत्यक्षदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० प्रत्यक्ष√दृश्+णिनि] [स्त्री० प्रत्यक्ष-दर्शिनी] जिसने प्रत्यक्ष रूप से कोई घटना या बात होती हुई देखी हो। साक्षी। (आई-विटनेस)
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प्रत्यक्षर  : अव्य० [सं० प्रति-अक्षर, अव्य० स०] प्रत्येक अक्षर के विचार से।
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प्रत्यक्षरी  : स्त्री० [सं० प्रत्यक्षर+अच्+ङीष्] लेखो आदि की अक्षरशः की हुई नकल। प्रतिलिपि।
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प्रत्यक्ष-लवण  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह नमक जो भोजन परोसने के समय किसी चीज में डालने के लिए अतिरिक्त रूप में और अलग दिया जाता है।
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प्रत्यक्ष-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] दार्शनिक क्षेत्र में, यह मत या सिद्धान्त कि जो कुछ इन्द्रियों से प्रत्यक्ष दिखाई देता हो, या जो अनुभूत होता हो, वही ठीक है; उसके सिवा और सब बातें अथवा अज्ञात और अदृश्य कारण आदि मिथ्या या व्यर्थ और सब बातें अथवा अज्ञात और अदृश्य कारण आदि मिथ्या या व्यर्थ हैं। (एम्परिसिज्म)
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प्रत्यक्ष-वादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रत्यक्ष-वाद+इनि] प्रत्यक्ष-वाद सम्बन्धी। प्रत्यक्ष-वाद का। पुं० वह जो प्रत्यक्ष-वाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक हो। वह जो केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता हो।
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प्रत्यक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० प्रत्यक्ष+इनि] प्रत्यक्षदर्शी।
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प्रत्यक्षीकरण  : पुं० [सं० प्रत्यक्ष+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्+अन] [भू० कृ० प्रत्यक्षीकृत] १. किसी वस्तु या विषय को ऐसा रूप देना कि वह प्रत्यक्ष हो जाय। २. कोई बात या विषय प्रत्यक्ष रूप से सामने लाना।
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प्रत्यगात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० प्रत्यक्-आत्मन्, कर्म० स०] व्यापक ब्रह्मा। परमेश्वर।
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प्रत्यग्र  : वि० [सं० प्रति-अग्र, ब० स०] १. हाल का। ताजा। नया। २. शुद्ध किया हुआ। शोधित। पुं० पुराणानुसार उपरिचर वसु का एक पुत्र।
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प्रत्यग्रथ  : पुं० [सं०] गंगा और रामगंगा के बीच का प्राचीन जनपद जो ‘पंचाल’ भी कहलाता था।
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प्रत्यनंतर  : वि० [सं० प्रति-अनंतर, अव्या० स०] किसी के उपरान्त या उसके स्थान अथवा पद पर बैठनेवाला। पुं० उत्तराधिकारी।
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प्रत्यनीक  : पुं० [सं० प्रति-अनीक, अव्य० स०] १. प्रतिपक्षी। विरोधी। २. प्रतिवादी। ३. बाधा। विध्न। ४. वैरी। दुश्मन। ५. साहित्य में, एक प्रकार का अलंकार जिसमें शत्रु का प्रतिकार या नाश न कर सकने पर उसके पक्षवालों के किये जानेवाले तिरस्कार का उल्लेख होता है। ६. साहित्य में रस संबंधी एक दोष जो उस समय माना जाता है जब एक ही छंद या प्रसंग में श्रृंगार और वीभत्स अथवा रौद्र और करुण सरीखे परस्पर विरोधी रस एक साथ लाये जाते हैं।
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प्रत्यनुमान  : पुं० [सं० प्रति-अनुमान, प्रा० स०] तर्क में किया जानेवाला वह अनुमान जिसका उद्देश्य दूसरे के अनुमान को खंडित करना होता है।
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प्रत्यपकार  : पुं० [सं० प्रथि-अपकार, प्रा० स०] अपकार करनेवाले के साथ किया जानेवाला अपकार।
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प्रत्यब्द  : अव्य० [सं० प्रति-अब्द, अव्य० स०] प्रति वर्ष। हर साल।
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प्रत्यभिज्ञा  : स्त्री० [सं० प्रति-अभिज्ञा, अव्य० स०] १. ज्ञान प्राप्त करना। जानना। २. पहले से देखे हुए को पहचानना। ३. पहले से देखी हुई चीज की तरह की कोई दूसरी चीज देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना। ४. वह अभेद ज्ञान जिसमें ईश्वर और जीवात्मा दोनों एक माने जाते हैं। ५. दे० ‘प्रत्यभिज्ञादर्शन’।
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प्रत्यभिज्ञात  : भू० कृ० [सं० प्रति-अभि√ज्ञा (जानना)+क्त] जाना या पहचाना हुआ।
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प्रत्यभिज्ञा-दर्शन  : पुं० [सं० ष० त०] माहेश्वर या शैव संप्रदाय का एक दर्शन जिसमें सब सिद्धान्तों का तर्क-बद्ध निरूपण है और जिसके अनुसार भक्त-वत्सल महेश्वर ही परमेश्वर माने गये हैं।
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प्रत्यभिज्ञान  : पुं० [सं० प्रति-अभि√ज्ञा+ल्युट्—अन] १. प्रत्यभिज्ञा। २. स्मृति की सहायता से होनेवाला ज्ञान।
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प्रत्यभिदेश  : पुं० [सं० प्रति-अभिदेश, प्रा० स०] [भू० कृ० प्रत्यभिदिष्ट] जिससे अभिदेश लेना या कुछ जानना चाहें उसका किसी और को अभिदिष्ट करना या किसी दूसरे की ओर संकेत करना। अन्योन्य संदर्भ। (क्रास रेफरेंस) जैसे—कोश में किसी शब्द का अर्थ जानने के लिए उसके आगे किया हुआ किसी दूसरे शब्द का अभिदेश।
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प्रत्यभिभूत  : वि० [सं० प्रति-अभि√भू (होना)+क्त]=पराभूत।
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प्रत्यभियुक्त  : भू० कृ० [सं० प्रति-अभि√युज् (जोड़ना)+क्त] जिस पर प्रत्यभियोग लगाया गया हो।
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प्रत्यभियोग  : पुं० [सं० प्रति-अभि√युज्+घञ्] वह दूसरा अभियोग जो अभियुक्त अपने वादी अथवा अभियोग लगानेवाले पर लगावे।
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प्रत्यभिवाद  : पुं०=प्रत्यभिवादन।
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प्रत्यभिवादन  : पुं० [सं० प्रति-अभि√वद्+णिच्+ल्युट—अन] अभिवादन करनेवाले को उत्तर के रूप में किया जानेवाला अभिवादन।
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प्रत्यय  : पुं० [सं० प्रति√इ (गति)+अच्] १. किसी के संबंध में होनेवाली विश्वासमय दृढ़ धारणा। (आइडिया) २. प्रमाण। ३. विचार। ख्याल। ४. ज्ञान। ५. आवश्यकता। ६. व्याख्यापन। ७. कारण। हेतु। ८. प्रसिद्धि। ९. लक्षण। चिह्न। १॰. निर्णय। फैसला। ११. सम्मति। राय। १२. स्वाद। १३. सहायक। मददगार। १४. विष्णु का एक नाम। १५. छंदशास्त्र या पिंगल का वह अंग जिसके द्वारा छंदों के भेद या विस्तार और उनकी संख्याएँ जानी जाती है। इसके प्रस्तार, सूची, उद्दिष्ट, नष्ट, पाताल, मेरु, खंडमेरु, पताका और मर्कटी ये नौ भेद माने गये हैं। १६. व्याकरण में वह अक्षर या अक्षर-समूह जो धातुओं अथवा विकारी शब्दों के अंत में लगाकर उनके अर्थो का विकास करता अथवा उनमें कोई विशेषता उत्पन्न करता है। जैसे—ना, ता, पन आदि।
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प्रत्यय-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] किसी राज्य अथवा उसके सर्व-प्रधान अधिकारी के हस्ताक्षर और मुद्रा से युक्त वह प्रमाण-पत्र जो इस बात का परिचायक होता है कि अमुक व्यक्ति को आधिकारिक रूप में अमुक पद पर नियुक्त किया गया है। (किडेन्शल्स) जैसे—अमेरिका के राजदूत ने आज राष्ट्रपति महोदय की सेवा में अपना प्रत्यय-पत्र उपस्थित किया। किसी व्यक्ति को दिया हुआ वह पत्र या प्रमाण पत्र जो इस बात का परिचायक होता है कि उसे अमुक पद पर काम करने का अधिकार दिया गया है।
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प्रत्ययवाद  : पुं० [सं० ष० त०] दार्शनिक क्षेत्र में, यह मान्यता या सिद्धान्त कि यह दृश्य जगत किसी चेतन सत्ता की सृष्टि है, इसलिए मनुष्य को बौद्धिक विचारों का आधार छोड़कर चिरन्तन तथा शाश्वत विचारों का आश्रम लेना चाहिए। आदर्शवाद (आइडियलिज्म) विशेष—यह मत बौद्धों के विज्ञानवाद से बहुत-कुछ मिलता-जुलता और भौतिकवाद का प्रायः विपर्याय-सा है।
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प्रत्ययवादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रत्ययवाद+इनि] प्रत्यवाद-सम्बन्धी। प्रत्यवाद का। पुं० वह जो प्रत्यवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थन हो।
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प्रत्यय-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] भाषा विज्ञान में, वह वृत्ति या विधि जिससे शब्दों के अन्त में प्रत्यय लगाकर नये शब्द बनाये जाते हैं। निष्पति विधि। जैसे—परिवार से पारिवारिक, राज्य से राजकीय आदि शब्द इसी वृत्ति से बने हैं।
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प्रत्ययांत  : वि० [सं० प्रत्यय-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसके अन्त में कोई प्रत्यय लगा हो। प्रत्यय से युक्त शब्द। जैसे—दूकानदार, मिलनसार, लिखावट आदि शब्द प्रत्यांत है।
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प्रत्ययिक  : वि० [सं० प्रात्ययिक] १. प्रत्यय-सम्बन्धी। प्रत्यय का। २. (बात या विषय) जो किसी को इस प्रत्यय या विश्वास पर बतलाया जाय कि वह इसे किसी और पर प्रकट न करेगा। विश्रंभी। विश्वस्त। (कान्फिडेन्शल)
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प्रत्ययित  : वि० [सं० प्रत्यय+इतच्] १. (व्यक्ति) जिसका प्रत्यय या विश्वास किया गया हो या किया जा सकता हो। २. (विषय) जिस पर प्रत्यय या विश्वास किया गया हो। ३. (शब्द) जिसमें प्रत्यय लगा या लगाया गया हो। ४. दे० ‘प्रत्ययिक’।
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प्रत्ययी (यिन्)  : वि० [सं० प्रत्यय+इनि] १. प्रत्यय या विश्वास करनेवाला। २. ‘प्रत्ययिक’।
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प्रत्यर्क  : पुं० [सं० प्रति-अर्क, प्रा० स०] सूर्य के पास कभी-कभी दिखाई पड़नेवाला सूर्य-मंडल की तरह का एक प्रकाश। प्रतिसूर्य।
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प्रत्यर्थ  : वि० [सं० प्रति-अर्क, प्रा० स०] सूर्य के पास कभी-कभी दिखाई पड़नेवाला सूर्य-मंडल की तरह का एक प्रकाश। प्रतिसूर्य।
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प्रत्यर्थ  : वि० [सं० प्रति-अर्क, प्रा० स०] उपयोगी। पुं० १. उत्तर। जवाब। २. विरोध।
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प्रत्यर्थक  : पुं० [सं० प्रत्यर्थ+कन्] १. उत्तर। जवाब। ३. विरोध।
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प्रत्यर्थक  : पुं० [सं० प्रत्यर्थिन्+कन्]=प्रत्यर्थक।
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प्रत्यर्थी (र्थिन्)  : पुं० [सं० प्रति√अर्थ्, (पीड़ित करना)+णिनि] [स्त्री० प्रत्यर्थिनी] १. प्रतिवादी। मुद्दालेह। २. प्रतिस्पर्धा करनेवाला व्यक्ति। प्रतिद्वंद्वी। ३. शत्रु।
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प्रत्यर्पण  : पुं० [सं० प्रति√ऋ (गति)+णिच्, पुक्,+ल्युट—अन] [भू० कृ० प्रत्यर्पित] १. वापस करना। लौटाना। २. लिया हुआ अधिक धन उसके मालिक को लौटाना। ३. जिसकी कोई चीज किसी तरह अपने पास आ गई हो उसे वापस करना या उसके स्थान पर वैसी ही दूसरी चीज देना। लौटाना। ४. किसी देश या राज्य के द्वारा दूसरे देश के अपराधी, कैदी या भगोड़े को अपने यहाँ से पकड़कर उस देश या राज्य को लौटाने की क्रिया। (एक्स्ट्राडिशन)
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प्रत्यर्पित  : भू० कृ० [सं० प्रति√ऋ+णिच्, पुक्,+क्त] लौटाया या वापस किया हुआ।
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प्रत्यवरोध  : पुं० [सं० प्रति-अव√रुध्+घञ्] बाधा। रुकावट।
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प्रत्यवरोधन  : पुं० [सं० प्रति-अव√रुध् (रोकना)+ल्युट—अन] प्रत्यवरोध उत्पन्न करना। बाधा डालना।
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प्रत्यवरोह  : पुं० [सं० प्रति—अव√रुह्+घञ्] १. अवरोह। उतार। २. सीढ़ी।
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प्रत्यवरोहण  : पुं० [सं० प्रति-अव√रुह्+ल्युट्—अन] नीचे की ओर आना। उतरना।
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प्रत्यवलोकन  : पुं० [सं० प्रति-अव√लोक् (देखना)+ल्युट्—अन] पीछे की ओर देखना।
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प्रत्यवसान  : पुं० [सं० प्रति-अव√सो (समाप्त करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रत्यवसित] १. भोजन करना। खाना। २. भोजन।
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प्रत्यवस्कंद  : पुं० [सं० प्रति-अव√स्कन्द् (गति)+घञ्] किसी के द्वारा लगाया हुआ अभियोग इस ढंग से स्वीकार करना कि उसकी गिनती अभियोग में न होने पावे।
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प्रत्यवस्थाता (तृ)  : पुं० [सं० प्रति—अव√स्था+तृच्] १. प्रतिवादी। २. शत्रु।
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प्रत्यवस्थान  : पुं० [सं० प्रति-अव√स्था+ल्युट्—अन] किसी स्थान से हटाना। २. विरोध। ३. शत्रुता। ४. दे० ‘यथापूर्व स्थिति’।
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प्रत्यवहार  : पुं० [सं० प्रति-अव√हृ (हरण करना)+घञ्] १. वापस लेना। २. संहार। ३. लड़ते हुए सैनिकों को लड़ने से रोकना। युद्ध स्थगित करना।
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प्रत्यवाय  : पुं० [सं० प्रति-अव√इ+अच्] १. कम होना। घटना। ह्नास। २. दैनिक विहित कर्मों के न करने से लगनेवाला पापा। ३. बहुत बड़ा उलट-फेर या परिवर्तन। ४. बुरा काम। दुष्कर्म। ५. जो न हो, उसका आविर्भाव न होना। ६. जो हो, उसका न रह जाना। विनाश। नाश।
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प्रत्यवेक्षण  : पुं० [सं० प्रति-अव√ईक्ष् (देखना)+ल्युट—अन] १. देख-रेख करना। चौकसी करना। २. ध्यान रखना। ३. किसी काम, चीज या बात का किसी की देख-रेख में रहना या होना। अवधान।
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प्रत्यवेक्षा  : स्त्री० [सं० प्रति-अव√ईक्ष्+अ+टाप्]=प्रत्यवेक्षण।
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प्रत्यष्ठीला  : पुं० [सं० प्रति-अष्ठीला, प्रा० स०] सुश्रुत के अनुसार, एक प्रकार का वात रोग जिसमें नाभि के नीचे पेड़ू में एक गुठली-सी हो जाती है, और जिसके फलस्वरूप मल-मूत्र बंद हो जाते हैं।
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प्रत्यस्थ  : वि० [सं०] जो खींचने या तानने पर बढ़ जाय या लंबा हो जाय परन्तु खिचाव या तनाव हटने पर फिर ज्यों का त्यों हो जाय। तन्यक। (इलैस्टिक)
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प्रत्यस्थता  : स्त्री० [सं०] प्रत्यस्थ होने की अवस्था या भाव। तन्यता। (इलैस्टिसिटी)
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प्रत्याक्रमण  : पुं० [सं० प्रति-आकमण, प्रा० स०] आक्रमण होने पर उसके उत्तर या बदले में किया जानेवाला आक्रमण। जवाबी हमला। (काउन्टर अटैक)
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प्रत्याख्यात  : भू० कृ० [सं० प्रति-आ√ख्या (कहना)+क्त] जिसका प्रत्याख्यान हुआ हो या किया गया हो।
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प्रत्याख्यान  : पुं० [सं० प्रति-आ√ख्या+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रत्याख्यात] १. किसी कही हुई बात के विरोध में कुछ कहना। २. अस्वीकृत करना। न मानना। ३. किसी कार्य, निश्चय आदि के सम्बन्ध में की जानेवाली आपत्ति या विरोध। (प्रोटेस्ट) ४. निर्णय आदि को सर्वतः या आंशिक रूप में अग्राह्य या अमान्य करना। ५. अनादर या अवज्ञापूर्वक कोई चीज लेने से इन्कारा करना या लौटाना। ६. दे० ‘अपासन’।
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प्रत्यागत  : वि० [सं० प्रति-आ√गम् (जाना)+क्त] १. जो कहीं जाकर लौट आया हो। वापस आया हुआ। २. जो पुनः प्राप्त या हस्तगत हुआ हो। पुं० १. कुश्ती में, एक प्रकार का दाँव या पेच। २. तलवार, लाठी आदि की लडाई में एक प्रकार का पैंतरा।
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प्रत्यागित  : स्त्री० [सं० प्रति-आ√गम्+क्तिन] वापस आने या होने का भाव। वापसी।
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प्रत्यागम  : पुं० [सं० प्रति-आ√गम्+अप्] १. वापस आना या लौटना। २. दोबारा या फिर से आना। ३. किसी काम का व्यापार में लगी हुई पूंजी के बदले में मिलनेवाला धन। मुनाफा। लाभ
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प्रत्यागमन  : पुं० [सं० प्रति-आ√गम्+ल्युट्—अन] प्रतिगमन।
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प्रत्याघात  : पुं० [सं० प्रति-आघात, प्रा० स०] १. आघात के बदले में किया जानेवाला आघात। २. टक्कर। ३. आधुनिक राजनीति में (युद्ध से भिन्न) वह कड़ी आर्थिक या राजनीतिक कार्रवाई जो किसी राज्य के साथ अपनी शिकायतें दूर कराने अथवा अपनी किसी क्षति का बदला चुकाने के उद्देश्य से की जाती है। (रेप्रिजल)
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प्रत्याचार  : पुं० [सं० प्रति-आचार, प्रा० स०] १. किसी प्रकार के आचरण के बदले में किया जानेवाला वैसा ही आचरण या व्यवहार। २. अनुकूल व्यवहार।
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प्रत्यातप  : पुं० [सं० प्रति-आतप, प्रा० स०] छाया। परछाईं।
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प्रत्यादान  : पुं० [सं० प्रति-आदान, प्रा० स०] पुनः या दोबारा किसी से कोई चीज लेना।
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प्रत्यादित्य  : पुं० [प्रति-आदित्य, प्रा० स०] दे० ‘प्रतिसूर्य’।
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प्रत्यादेश  : पुं० [सं० प्रति-आ√दिश्+घञ्] [भू० कृ० प्रत्यादिष्ट] १. आदेश। आज्ञा। २. घोषणा। ३. अस्वीकरण। इनकार। ४. खंडन। ५. ऐसी आकाशवाणी जो चेतावनी के रूप में हो। ६. किसी को मात करने या हराने की क्रिया या भाव।
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प्रत्याधान  : पुं० [सं० प्रति-आ√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] १. मस्तक। (वेद) २. ऐसा स्थान जहाँ चीजें जमा की जाती हों।
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प्रत्यानयन  : पुं० [सं० प्रति-आनयन, प्रा० स०] [भू० कृ० प्रत्यानीत] १. किसी को वापस लाना। २. दे० ‘प्रत्यर्पण’।
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प्रत्यानीत  : भू० कृ० [सं० प्रति-आनीत, प्रा० स०] वापस लाया या लौटाया हुआ।
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प्रत्यापत्ति  : स्त्री० [सं० प्रति-आपत्ति, प्रा० स०] १. पुनरागमन। २. वैराग्य। ३. उत्तराधिकारी के न रहने पर किसी संपत्ति का राज्य के अधिकार में आना। ४. उक्त प्रकार से राज्य को प्राप्त होनेवाली अचल सम्पत्ति। नजूल।
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प्रत्यापन्न  : वि० [सं० प्रति-आ√पद+क्त] लौटा या लौटकर आया हुआ।
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प्रत्याभास  : पुं० [सं० प्रति+आभास] किसी प्रकार के तेज या शक्ति की प्रतिक्रिया के रूप में अथवा फलस्वरूप होनेवाला आभास। जैस—(क) मन में आत्मा का प्रत्याभास निहित रहता (अथवा लक्षित होता) है। (ख) सूर्य के प्रत्याभास से ही चंद्रमा प्रकाशमान् होता है।
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प्रत्याभूति  : स्त्री० [सं० प्रति-आ√भू (होना)+क्तिन्] किसी चीज या बात के संबंध में दृढ़ता और निश्चयपूर्वक यह कहना या विश्वास दिलाना कि यह ऐसी ही है या ऐसी ही होगी। (गारंटी) विशेष—यह कई प्रकार की होती और कई रूपों में की जाती है। यथा—(क) यदि अमुक वस्तु वैसी न होगी जैसी कही या दिखाई गई है तो बदल दी जायगी या ठीक कर दी जायगी। (ख) अमुक काम अमुक प्रकार से ही किया जायगा अथवा होगा; और किसी प्रकार से नहीं। आदि आदि।
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प्रत्याभोग  : पुं० [सं० प्रति-आभोग, प्रा० स०] १. धन या सम्पत्ति का ऐसा भोग जो उस पर अधिकार प्राप्त होने से पहले ही, केवल उसकी प्राप्ति की आशा या निश्चय होने पर ही आरंभ कर दिया जाय।
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प्रत्याम्नाय  : पुं० [सं० प्रति-आ√म्ना (अभ्यास)+घञ्] १. तर्क में, वाक्य का पाँचवा अवयव। १. प्रतिनिधि या स्थानापन्न।
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प्रत्याय  : स्त्री० [सं० प्रति-आय, प्रा० स०] १. राजस्व। कर। २. आय; विशेषतः ऐसी आय या लाभ जो किसी काम में कुछ धन लगाने या व्यवस्था आदि करने के बदले में मिलता या प्राप्त होता हो। प्रत्यागम। (रिटर्न)
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प्रत्यामक  : वि० [सं० प्रत√इ+णिच्+ण्वुल्—अक] १. प्रत्यय करने या विश्वास दिलानेवाला। २. जिससे विश्वास उत्पन्न होता है। ३. व्याख्यापित या सिद्ध करनेवाला। पुं० १. वह पत्र जो इस बात का सूचक होता है कि दूसरा धारक या वाहक अमुक बात के लिए विश्वसनीय है। २. वह परिचायक-पत्र या प्रमाण-पत्र जिसे दिखलाकर राज-प्रतिनिधि विदेशों में अपना अधिकार और पद प्राप्त करते हैं। (क्रिडेन्शल)
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प्रत्यायन  : पुं० [सं० प्रति√इ+णिच्+ल्युट—अन] १. विश्वास दिलाने की किया या भाव। २. (वधू को) लिवा ले जाना। ३. विवाह करना। ४. सूर्य का अस्त होना।
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प्रत्यायोजन  : पुं० [सं० प्रति-आ√युज् (जुटना)+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रत्यायोजित] १. पुनः आयोजन करना। २. दे० ‘प्रति-निधायन’।
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प्रत्यारंभ  : पुं० [सं० प्रति-आरंभ, प्रा० स०] १. फिर से या दोबारा आरंभ होना। २. पुनरारंभ।
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प्रत्यारोप  : पुं० [सं० प्रति-आरोप, प्रा० स०] वह आरोप जो किसी आरोप के उत्तर या बदले में किया या लगाया जाय। (काउंटर-चार्ज)
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प्रत्यालीढ़  : पुं० [सं० प्रति-आलीढ़, प्रा० स०] धनुष चलाने के समय बायाँ पैर आगे की ओर और दाहिना पैर पीछे की ओर ले जाकर बैठने की एक मुद्रा। वि० खाया हुआ।
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प्रत्यालोचन  : पुं० [सं० प्रति-आलोचन, प्रा० स०] [भू० कृ० प्रत्यालोचित] १. किसी के किए हुए निर्णय या निर्णीत व्यवहार को फिर से देखना कि वह ठीक है या नहीं। (रिव्यू) २. प्रत्यालोचना। (दे०)
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प्रत्यालोचना  : स्त्री० [सं० प्रति-आलोचना, प्रा० स०] किसी बात या विषय की आलोचना की भी की जानेवाली आलोचना। आलोचना की समीक्षा।
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प्रत्यावर्तन  : पुं० [सं० प्रति-आ√वृत् (बरतना)+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रत्यावर्तित] १. वापस आना। लौटाना।
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प्रत्यावर्तित  : भू० कृ० [सं० प्रति-आ√वृत्+णिच्+क्त] जिसका प्रत्यावर्तन हुआ हो या किया गया हो।
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प्रत्याशा  : स्त्री० [सं० प्रति-आ√अश् (व्यक्ति)+अच्+टाप्] १. आशा। उम्मीद। भरोसा। २. आज-कल किसी बात के सम्बन्ध में पहले से की जानेवाली ऐसी आशा या उसके सम्बन्ध की कल्पना जिसके घटितहोने की बहुत कुछ संभावना हो। प्रवेक्षा। (एन्टिसिपेशन) विशेष—आशा तो साधारणतः इसी बात की सूचक होती है कि हमारे मन में किसी बात की इच्छा या कामना है; परन्तु प्रत्याशा से यह सूचित होता है कि हमें इस बात का बहुत-कुछ विश्वास है कि हमारी इच्छा या कामना पूरी हो जायगी।
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प्रत्याशित  : वि० [सं० प्रति-आ√अश्+क्त] जिसकी आशा या अपेक्षा पहले की गई हो। जिसका पहले से अनुमान किया गया हो। (एन्टिसिपेटेड)
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प्रत्याशी (शिन्)  : वि० [सं० प्रति-आ√अश्+णिनि] प्रत्याशा अर्थात् आशा करनेवाला। पुं० १. वह जो किसी पद की प्राप्ति के लिए इच्छुक हो। २. उम्मीदवार। (कैन्डिडेट)
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प्रत्याश्रय  : पुं० [सं० प्रति-आश्रय, प्रा० स०] वह स्थान जहाँ आश्रय लिया जाय। पनाह लेने की जगह। आश्रम-स्थल।
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प्रत्याश्वासन  : पुं० [सं० प्रति-आ√श्वस्+णिच्+ल्युट्—अन] आश्वासन के बदले में दिया जानेवाला आश्वासन।
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प्रत्यासत्ति  : स्त्री० [सं० प्रति आ√सद् (गति)+क्तिन्] १. निकटता। सामीप्य। नजदीकी। २. दे० ‘आसक्ति’।
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प्रत्यासन्न  : वि० [सं० प्रति-आ√सद्+क्त] [भाव० प्रत्यासन्नता] निकट या पास आया हुआ।
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प्रत्यासर  : पुं० [सं० प्रति-आ√सृ (गति)+अप्] १. सेना का पिछला भाग। सैनिक व्यूह।
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प्रत्याहत  : भू० कृ० [सं० प्रति-आ√ हन् (हिंसा)+क्त] १. हटाया हुआ। २. अस्वीकृत किया हुआ।
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प्रत्याहरण  : पुं० [सं० प्रति-आ√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] १. पुनः या वापस लेना। २. हटाना। ३. निग्रह करना। ४. इंद्रियों को विषयों से निवृत्त करना।
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प्रत्याहार  : पुं० [सं० प्रति-आ√हृ+घञ्][भू० कृ० प्रत्याहृत] १. पीछे की ओर खींचना या ले जाना। २. आज्ञा, निश्चय वचन आदि का वापस लिया जाना। ३. पाणिनि व्याकरण के अनुसार, वह संक्षिप्त रूप जो किसी सूत्र के प्रथम और अंतिम वर्णों को जोड़कर बनाया जाता है। जैसे-अइउण् सूत्र का प्रत्याहार अण्। ४. योग के आठ अंगों में से एक जिसमे इंद्रियों को सब विषयों से हटाकर एकाग्र किया जाता है।
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प्रत्याहूत  : वि० [सं० प्रति-आ√ह्वे (बुलाना)+क्त] (व्यक्ति) जिसे वापस बुलाया गया हो।
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प्रत्याहृत  : भू० कृ० [सं० प्रति-आ √हृ+क्त] १. पीछे खींचा या हटाया हुआ। २. (इंद्रिय) जिसे संयम में रखा गया हो।
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प्रत्याह्वान  : पुं० [सं० प्रति-आ√ह्वे+ल्युट्—अन] १. किसी दूसरे स्थान पर भेजे हुए व्यक्ति को वापस बुलाना। २. वापस बुलाने के लिए दी जानेवाली आज्ञा। (रिकाल)
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प्रत्युक्त  : भू० कृ० [सं० प्रति√वच् (बोलना)+क्त] १. जिसका उत्तर दिया गया हो। उत्तरित। २. जिसका उत्तर देकर खंडन किया गया हो।
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प्रत्युक्ति  : स्त्री० [सं० प्रति √वच् +क्तिन्] उत्तर। जवाब।
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प्रत्युच्चार  : पुं० [सं० प्रति-उद्√चर् (गति)+णिच्+घञ्] पुनः या दोबारा उच्चारण करना।
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प्रत्युज्जीवन  : पुं० [सं० प्रति-उद्√जीव् (जीना)+ल्युट्—अन] पुनरुज्जीवन।
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प्रत्युत  : अव्य० [सं० प्रति-उत, सुप्सुपा स०] १. बल्कि। वरन्। २. इसके विपरीत।
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प्रत्युत्क्रम  : पुं० [सं० प्रति-उद्√कम् (गति)+घञ्] १. युद्ध के समय पहले-पहल किया जानेवाला आक्रमण। २. आक्रमण के बदले में किया जानेवाला आक्रमण। ३. ऐसा गौण कार्य जो किसी मुख्य कार्य की सिद्धि में सहायक हो।
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प्रत्युत्तर  : पुं० [सं० प्रति-उत्तर, प्रा० स० ] किसी से प्राप्त होनेवाले उत्तर के जवाब में उसे दिया जानेवाला उत्तर। (रिज्वाइंडर)
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प्रत्युत्थान  : पुं० [सं० प्रति-उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रत्युत्थित] १. किसी के स्वागत और सत्कार के लिए खड़े होना। २. विरोध का सामना करने के लिए खड़े होना।
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प्रत्युत्पन्न  : वि० प्रति-उद्√पद् (गति)+क्त] १. जो फिर से उत्पन्न हुआ हो। जो पुनः या दोबारा उत्पन्न हुआ हो। २. जो ठीक समय फर उत्पन्न हुआ या सामने आया हो। उपस्थित और वर्तमान। जैसे—प्रत्युत्पन्नमति (जो तुरंत उपयुक्त बात या युक्ति सोच ले)।
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प्रत्युदाहरण  : पुं० [सं० प्रति-उद्-आ√हृ+ल्युट्—अन] किसी उदाहरण के विरोध में विशेषतः उसका खंडन करने के लिए दिया जानेवाला प्रतिकूल उदाहरण।
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प्रत्युद्गमन  : पुं० [प्रति-उद्√गम्+ल्युट्—अन] प्रत्युत्थान।
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प्रत्युद्गमनीय  : वि० [सं० प्रति-उद्√गम्+अनीयर्] १. सामने या पास रखने योग्य। २. सम्मानित किये जाने के योग्य। आदरणीय। पूज्य। पुं० यज्ञ के समय पहना जानेवाला अधोवस्त्र और उत्तरीय।
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प्रत्युद्धरण  : पुं० [सं० प्रति-उद्√धृ (रखना)+ल्युट्—अन] गई हुई चीज फिर से प्राप्त करना। कोई चीज पुनः या दोबारा प्राप्त करना।
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प्रत्युद्यम  : पुं० [सं० प्रति-उद्यम, प्रा० स०] १. वह कार्य जो किसी के विरोध में किया जाय। २. प्रतिकार।
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प्रत्युपकार  : पुं० [सं० प्रति-उपकार, प्रा० स०] वह उपकार जो किसी के किए हुए उपकार के बदले में किया जाय।
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प्रत्युपकारी (रिन्)  : पुं० [सं० प्रत्युपकार+इनि] प्रत्युपकार, करने अर्थात् उपकार का बदला उपकार द्वारा चुकानेवाला।
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प्रत्युपदेश  : पुं० [सं० प्रति-उपदेश, प्रा० स० ] १. उपदेश के बदले में दिया जानेवाला उपदेश। २. राय के बदले में दी जानेवाली राय।
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प्रत्युपपन्न  : वि० [सं० प्रति-उपन्न, प्रा० स०]=प्रत्युत्पन्न।
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प्रत्युपमान  : पुं० [सं० प्रति-उपमान, प्रा० स०] उपमान को उपमित करनेवाला उपमान। उपमान का उपमान।
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प्रत्युष (स्)  : पुं० [सं० प्रति√उष+अस्] प्रभात। प्रातःकाल।
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प्रत्यूष  : पुं० [सं० प्रति√ऊष्+क] १. प्रभात। तड़का। प्रातःकाल। २. सूर्य। ३. आठ वसुओं में से एक।
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प्रत्यूह  : पुं० [सं० प्रति√ऊह, (वितर्क करना)+घञ्] बाधा। रुकावट।
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प्रत्येक  : वि० [सं० प्रति-एक, अव्य० स०] [भाव० प्रत्येकत्व] संख्या के विचार से दो या अधिक इकाइयों, समूहों आदि में से हर एक। जैसे—प्रत्येक कण में ईश्वर व्याप्त है।
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प्रत्येकत्व  : पुं० [सं० प्रत्येक+त्व] प्रत्येक होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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प्रत्येक बुद्ध  : पुं० [सं०] वह बुद्ध जो एकांत में रहकर केवल अपने कल्याण का उपाय करता हो; लोक-कल्याण की चिता न करता हो।
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प्रथन  : पुं० [सं, √प्रथ् (फैलना)+ल्युट्—अन] १. विस्तार करना। २. प्रक्षेपण करना। ३. ऐसा स्थान जहाँ कोई चीज फैलाई जाय। प्रकाश में लाना। ५. घोषणा करना। ६. एक प्रकार का गुल्म।
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प्रथम  : वि० [सं०√प्रथ्+अमच्] [भाव० प्रथमता] १. क्रम, संख्या, श्रृंखला आदि में जो सबसे आगे या पहले हो। २. जो गुण, महत्त्व योग्यता आदि में सबसे उत्तम या बढ़कर हो। सर्वश्रेष्ठ। ३. परीक्षा, प्रतियोगिता आदि में जिसने सबसे अधिक अंक प्राप्त किये हों अथवा सबको पराजित किया हो। क्रि० वि० आगे। पहले।
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प्रथमकारक  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में कर्ता कारक।
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प्रथमतः  : अव्य० [सं० प्रथम√तस्] महत्त्व आदि के विचार से, आगे या पहले। सबसे पहले। (फर्स्टली)
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प्रथमता  : स्त्री० [सं० प्रथम+तले+टाप्] १. ‘प्रथम’ होने की अवस्था या भाव। २. औरों की तुलना में पहला अवसर या स्थान मिलने की अवस्था या भाव। प्राथमिकता। (प्रायॉरिटी) अव्य० साधारण रूप में देखने पर। (प्राइमा-फेसी)
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प्रथम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में वे सर्वनाम जिन्हें वक्ता अपने लिए प्रयुक्त करता है (मध्यम पुरुष तथा अन्य पुरुष से भिन्न)। जैसे—मैं, हम।
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प्रथम साहस  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्राचीन व्यवहारशास्त्र के अनुसार एक प्रकार का दंड जिसमें २५0 पण तक जुरमाना होता था।
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प्रथमा  : स्त्री० [सं० प्रथम+टाप्] १. मदिरा। शराब। (तांत्रिक) २. व्याकरण में कर्ता कारक।
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प्रथमाक्रमण  : पुं० [सं० प्रथम-आकमण, कर्म० स०] दूसरे पर आक्रमण करने की क्रिया या भाव। अग्रघर्षण। (एग्रेशन)
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प्रथमाक्रमणकारी (रिन्)  : पुं० [सं० प्रथमाक्रमण√कृ (करना)+णिनि] प्रथम आकमण करनेवाला व्यक्ति, दल, पक्ष या राष्ट्र। (एग्रेसर)
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प्रथमार्द्ध  : पुं० [सं० प्रथम-अर्व, कर्म० स०] किसी चीज के दो समान खंडों या भागों में से पहलेवाला खंड या भाग। जैसे—यह पुस्तक का प्रथमार्द्ध है।
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प्रथमाश्रम  : पुं० [सं० प्रथम-आश्रम, कर्म० स० ] ब्रह्मचर्याश्रम।
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प्रथमी  : स्त्री० [सं० प्रथम+ङीष्]=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रथमे, प्रथमै  : क्रि० वि० [सं० प्रथम] आरंभ में। पहले। उदा०—प्रथमै गगन कि पुहुमई प्रथमै-कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रथमेतर  : वि० [सं० प्रथम-इतर, पं० त०] पहले के बाद का या उससे भिन्न।
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प्रथमोक्त  : वि० [सं० प्रथम+उक्त] जो पहले कहा गया हो। पूर्वोक्त।
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प्रथमोपचार  : पुं० [सं० प्रथम-उपचार, कर्म० स०] दे० ‘प्राथमिक उपचार’।
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प्रथा  : स्त्री० [सं० √प्रथ्+ अ+टाप्] १. किसी जाति, समाज आदि में किसी विशिष्ट अवसर पर किसी विशिष्ट ढंग से किया जानेवाला कोई काम। रीति। जैसे—प्रथा के अनुसार विवाह के अवसर पर कन्या पक्षवाले दहेज देते हैं। २. नियम। ३. प्रसिद्धि। ख्याति। विशेष—पद्धति तो कोई काम करने का ऐसा ढंग या प्रकार है जिससे मूल में किसी कला, विधान या शास्त्र का कोई सर्व-मान्य सिद्धान्त होता है। परिपाटी उक्त प्रकार के तत्त्व से प्रायः रहित या हीन होती है; और किसी चली आई हुई पुरानी रीति मात्र की सूचक होती है। प्रथा इसी परिपाटी का वह उत्कृष्ट और बढ़ा हुआ रूप है जो किसी देश या समाज में सार्विक रूप में मान्य हो चुका हो और जिसका उल्लंघन अनुचित या दूषित माना जाता हो। उदाहरणार्थ—विवाह की प्रथा तो सभी देशों और समाजों में समान रूप से प्रचलित है; परन्तु उसकी पद्धतियाँ सभी देशों और समाजों में एक दूसरे से भिन्न हैं। हाँ, प्रत्येक पद्धति में कुछ अलग-अलग प्रकार की परिपाटियाँ भी हो सकती हैं और होती ही हैं।
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प्रथित  : भू० कृ० [सं० √प्रथ्+क्त] [स्त्री० प्रथिता] १. लंबा-चौड़ा विस्तृत। २. प्रसिद्घ। मशहूर।
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प्रथिति  : स्त्री० [सं०√प्रथ्+क्तिन्] १. विस्तार। २. ख्याति। प्रसिद्धि।
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प्रथिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० पृथु+इमनिच्, प्रथ्-आदेश] स्थूलता। पृथुत्व।
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प्रथिमी  : स्त्री०=पृथ्वी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रथिवी  : स्त्री० [सं० पृथिवी, पृषो० सिद्धि] पृथ्वी।
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प्रथी  : स्त्री०=पृथ्वी।
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प्रद  : वि० [सं० प्र√दा+क] समस्त पदों के अन्त में, (क) देनेवाला। दाता। जैसे—सुखप्रद, फलप्रद। (ख) उत्पन्न करनेवाला। जैसे—तापप्रद।
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प्रदक्षिण  : विं. [सं० प्रा० स०] १. योग्य। समर्थ। २. चतुर। होशियार। पुं०=प्रदक्षिणा।
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प्रदक्षिणा  : स्त्री० [प्रा० स०] धार्मिक क्षेत्र में, देवमूर्ति या पवित्र स्थान के प्रति भक्ति और श्रद्धा प्रकट करने के लिए उसके चारो ओर एक प्रकार घूमना या चक्कर लगाना कि वह देवमूर्ति या पवित्र स्थान बराबर दाहिनी ओर रहे। परिक्रमा।
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प्रदग्ध  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] बहुत जला हुआ।
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प्रदच्छिन  : पुं०=प्रदक्षिण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रदच्छिना  : स्त्री०=प्रदक्षिणा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रदत्त  : भू० कृ० [सं० प्र√दा (देना)+क्त] दिया या प्रदान किया हुआ।
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प्रदर  : पुं० [सं० प्र√दृ (फाड़ना)+अप् १. तोड़ने फोड़ने की क्रिया या भाव। २. तितर-बितर होना। ३. स्त्रियों का एक रोग जिसमें उनके गर्भाशय से सफेद या लाल रंग का लसदार गंदा तरल पदार्थ बहता रहता है। (ल्यूकोरिया) ४. तीर। वाण। ५. दरार।
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प्रदर्प  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक या बढ़ा हुआ दर्प।
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प्रदर्श  : पुं० [सं० प्र√दृश, (देखना)+घञ्] १. आकृति। रूप। शकल। २. आदेश। आज्ञा।
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प्रदर्शक  : वि० [सं० प्र√दृश्+णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० प्रदर्शिका] १. प्रदर्शन करनेवाला। २. दिखलानेवाला। ३. पथप्रदर्शक। ४. दे० प्रादर्शनिक’। पुं० १. गुरु। २. दर्शक। ३. सिद्धान्त।
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प्रदर्शन  : पुं० [सं० प्र√दृश्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० प्रादर्शनिक, भू० कृ० प्रदर्शित] १. लोगों की जानकारी के लिए कोई काम उन्हें दिखालाना। जैसे—बालकों द्वारा व्यायाम प्रदर्शन। २. जनता को अपना असंतोष, दुःख आदि बतलाने तथा उसकी सहानुभूति प्राप्त करने रूप से संबंद्ध अधिकारियों के अन्याय के विरोध में नारे आदि लगाते हुए निकाला जानेवाला जुलूस। (डिमांस्ट्रेन) ३. दे० ‘प्रदर्शनी’।
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प्रदर्शनी  : स्त्री० [सं० प्रदर्शन+ङीप्] ऐसा स्थान जहाँ विशेष रूप में नई तथा चामत्कारिक चीजों का प्रदर्शन किया जाता है। (एक्सहिबिशन)
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प्रदर्शित  : भू० कृ० [सं० प्र√दृश्+णिच्+क्त] १. जिसका सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन हुआ हो। दिखलाया हुआ। २. प्रदर्शनी में रखा हुआ।
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प्रदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० प्र√दृश्+णिनि] [स्त्री० प्रदर्शिनी] १. जो देखता हो। दर्शक। २. दे० ‘प्रदर्शक’।
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प्रदल  : पुं० [सं० प्र√दल् (रौंदना)+अच्] वाण। तीर।
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प्रदाता (तृ)  : वि० [सं० प्र√दा (देना)+तृच्] प्रदान करने या देनेवाला। दाता। पुं० १. बहुत बड़ा दानी। २. इन्द्र। ३. एक विश्वेदेवा।
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प्रदान  : पुं० [सं० प्र√दा+ल्युट्—अन्] [भू० कृ० प्रदत्त, वि० प्रेदय] १. देने की क्रिया या भाव विशेषतः बड़ों के द्वारा छोटों को दिया जानेवाला दान। २. इस प्रकार दी जानेवाली वस्तु। ३. इनाम। पुरस्कार। ४. कन्या-दान। ५. अंकुश।
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प्रदानक  : पुं० [सं० प्रदान+कन्] १. दान। २. उपहार। भेंट। वि०, पुं० दे० ‘प्रदाता’।
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प्रदानी  : वि०=प्रदायक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रदाय  : पुं० [सं० प्र√दा+घञ्] १. प्रदान की हुई वस्तु। २. उपहार। भेंट।
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प्रदायक  : वि० [सं० प्र√दा+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रदायिका] १. प्रदान करनेवाला। २. समस्त पदों के अन्त में, देनेवाला। जैसे—सुखप्रदायक।
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प्रदायी (यिन्)  : वि० [सं० प्र√दा+णिनि] [स्त्री० प्रदायिनी] प्रदायक।
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प्रदाह  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ज्वर आदि के कारण अथवा और किसी कारण शरीर में होनेवाली जलन। दाह। २. किसी प्रकार का मानसिक कष्ट या ताप। ३. विनाश। बरबादी।
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प्रदिक्  : स्त्री०=प्रदिशा।
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प्रदिशा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] दो मुख्य दिशाओं के बीच कि दिशा। कोण। विदिशा।
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प्रदिष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√दिश् (बताना)+क्त] १. दिखाया हुआ। २. बताया हुआ। ३. नियत किया हुआ। ठहराया हुआ। ४. जिसके विषय में प्रदेशन हुआ हो। आदिष्ट। (प्रेसकाइब्ड) ५. सुभीते के लिए खंड या भाग के रूप में लोगों में बाँटा या उन्हें दिया हुआ। नियत। (एलॉटेड)
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प्रदीप  : वि० [सं० प्र√ दीप् (चमकना)+अच्] प्रकाश करने या देनेवाला। पुं० १. दीपक। दीया। २. प्रकाश। रोशनी। ३. संपूर्ण जाति का एक राग जिसके गाने का समय तीसरा प्रहर है। किसी किसी ने इसे दीपक राग का पुत्र माना।
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प्रदीपक  : वि० [सं० प्र√दीप्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रदीपिका] १. प्रदीपन करनेवाला। २. प्रकाश या रोशनी करनेवाला। पुं० वैद्यक के अनुसार नौ प्रकार के विषों में से एक प्रकार का भयंकर स्थावर विष। कहते हैं कि इसके सूँघने मात्र से मनुष्य मर जाता है।
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प्रदीपकी  : स्त्री० [सं० प्रदीपक+ङीष्] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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प्रदीपति  : स्त्री० =प्रदीप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रदीपन  : पुं० [सं० प्र√दीप्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रदीप्त] १. प्रकाश करने का काम। उजाला करना। २. उज्ज्वल करना। चमकाना। ३. उत्तेजित करना। भड़काना। ४. तीव्र या तेज करना। ५. [प्र√दीप्+णिच्+ल्यु—अन] वह जिससे पेट की अग्नि तीव्र हो, भूख लगे तथा भोजन पचे। ६. प्रदीपक नाम का स्थावर विष।
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प्रदीप-न्याय  : पुं० [ष० त०] सांख्य का यह मत या सिद्धान्त कि जिस प्रकार आग, तेल और बत्ती के संयोग से प्रतीप या दीया जलता है, उसी प्रकार सत्त्व, रज और तम के सहयोग के शरीर से सब काम होते हैं।
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प्रदीपिका  : स्त्री० [सं० प्रदीपक+टाप्, इत्व] १. छोटी लालटेन। २. संगीत में एक रागिनी जो किसी किसी के मत में दीपक राग की स्त्री है। ३. आज-कल टीका, व्याख्या आदि के रूप में कोई ऐसी पुस्तक जिससे कोई दूसरी कठिन पुस्तक पढ़ने या समझने में सहायता मिलती हो।
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प्रदीप्त  : वि० [सं० प्र√दीप्+क्त] [भाव० प्रदीप्ति] १. जलता हुआ। २. चमकता या जममगाता हुआ। प्रकाशित। ३. उज्ज्वल। चमकीला।
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प्रदीप्ति  : स्त्री० [सं० प्र√दीप्+क्तिन्] १. रोशनी। प्रकाश। २. चमक।
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प्रदुमन  : पुं०=प्रद्युम्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रदुष्ट  : वि० [सं० प्र√दुष् (बिगड़ना)+क्त] १. बिगड़ा हुआ। दोषयुक्त। २. बुरे स्वभाववाला। दुष्ट। ३. लंपट। व्यभिचारी। ४. लोभ, स्वार्थ आदि के कारण नैतिक दृष्टि से गिरा हुआ। (कोरप्ट)
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प्रदूषक  : वि० [सं० प्र√दूष् (नष्ट करना)+णिच्+ण्वुल्—अक्] १. नष्ट करनेवाला। २. अपवित्र करनेवाला।
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प्रदूषण  : पुं० [सं० प्र√दूष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. नष्ट करना। चौपट या बरबाद करना। २. अपवित्र करना।
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प्रदूषित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. नष्ट किया हुआ। २. अपवित्र किया हुआ। दूषित। ३. प्रदुष्ट (व्यक्ति)।
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प्रदेय  : वि० [सं० प्र√दा (देना)+यत्] १. जो प्रदान किये जाने के योग्य हो। जो दिया जा सके। २. (कन्या) जो विवाह करके किसी को देने के योग्य हो। पुं० ऐसी अच्छी चीज जो उपहार या भेंट के रूप में दी जा सके।
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प्रदेयक  : पुं० [सं० प्रदेय+कन्] इनाम। पुरस्कार।
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प्रदेश  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० प्रादेशिक] १. भू-भाग का कोई खंड, विशेषतः कोई बड़ा खंड। २. किसी संघ राज्य की कोई इकाई। जैसे—उत्तर या मध्यप्रदेश। ३. प्रांत। (दे०) ४. अंग। अवयव। ५. दीवार। ६. नाम। संज्ञा। ७. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की तंत्र-युक्ति। ८. अँगूठे के अगले सिरे से होकर तर्जनी के अगले सिरे तक की दूरी। छोटा बित्ता या बालिश्त।
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प्रदेशकारी (रिन्)  : पुं० [सं० प्रदेश√कृ (करना)+णिनि] योगियों ता एक सम्प्रदाय।
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प्रदेशन  : पुं० [सं० प्र√दिश्+ल्युट्—अन] १. उपहार। भेंट। २. आज्ञा, आदेश, नियम आदि के रूप में यह बतलाया कि यह काम इस प्रकार होना चाहिए। (प्रेसक्रिप्शन) ३. कार्य, वस्तु आदि के छोटे-छोटे भाग करके सुभीते के लिए उन्हें अलग-अलग लोगों को देना या उनमें बाँटना। नियतन। (एलॉटमेन्ट)
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प्रदेशनी  : स्त्री [सं० प्र√दिश्+ल्युट्—अन,+ ङीष्] अँगूठे के पास की उंगली। तर्जनी।
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प्रदेशित  : भू० कृ० [सं० प्र√दिश्+णिच्+क्त] १. दिखलाया या बतलाया हुआ। २. जिसका प्रदेशन हुआ हो। प्रदिष्ट।
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प्रदेशी (शिन्)  : वि० [सं० प्रदेश +इनि] प्रदेश-संबंधी। प्रदेश का।
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प्रदेशीय  : वि० [सं० प्रदेश+छ—ईय] किसी प्रदेश में होनेवाला अथवा उससे सम्बन्ध रखनेवाला।
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प्रदेष्टा (ष्टृ)  : पुं० [सं० प्र√दिश्+तृच्] १. प्रधान विचारपति। २. वह जो प्रदेशन करता हो। (प्रेसक्राइबर)
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प्रदेह  : पुं० [सं० प्र√दिह्+घञ्] १. वह औषध या लेप जो फोड़े पर, उसे दबाने या बैठाने के लिए लगाया जाय। २. एक तरह का व्यंजन।
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प्रदोष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. सूर्य के अस्त होने का समय। संध्या। २. एक प्रकार का उपवास या व्रत जो प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी को होता है और जिसमें सूर्यास्त से कुछ पहले ही शिव का पूजन करने भोजन किया जाता है। ३. बहुत बड़ा दोष। ४. पक्षपात, आर्थिक लाभ, स्वार्थ आदि के अभिभूत होने के फलवस्वरूप होनेवाला नैतिक पतन। (कोरप्शन)
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प्रदोषक  : वि० [सं० प्रदोष+वुन्—अक] १. प्रदोषकाल सम्बन्धी। २. जो प्रदोषकाल में उत्पन्न हुआ हो। ३. दे० ‘प्रदुष्ट’।
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प्रद्धटिका  : स्त्री० =पज्झटिका।
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प्रद्युम्न  : पुं० [सं० ब० सं०] १. कामदेव। कंदर्प। २. श्रीकृषण के एक पुत्र का नाम। ३. मनु के एक पुत्र का नाम। ४. वैष्णवों में, चतुर्व्यूहात्मक विष्णु के एक अंश का नाम। ५. बहुत बड़ा बहादुर या वीर पुरुष।
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प्रद्योत  : पुं० [सं० प्र√द्युत्+घञ्] १. किरण। रश्मि। २.दीप्ति। आभा।। चमक। 3. एक यक्ष।
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प्रद्योतन  : पुं० [सं० प्र√द्युत्+युत्—अन] १. दीप्ति से युक्त करना। चमकाना। २. चमक। दीप्ति। ३. सूर्य।
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प्रद्धार  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. मुख्य द्वार के अगल-बगल या आस-पास का भाग। २. बड़ा या मुख्य द्वार।
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प्रद्वेषी (षिन्)  : स्त्री० [सं० प्र√द्विष्+णिनि] दीर्घतमा ऋषि की पत्नी। (महा०) वि० मन में द्वेष रखनेवाला। द्वेषी।
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प्रधन  : पुं० [सं० ब० स०] १. धनवान्। २. [प्र√धा+क्यु—अन] युद्ध।
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प्रधमन  : [सं० प्र√धम् (शब्द)+ल्युट्—अन] १. नाक के रास्ते सूँघकर ओषधि ग्रहण करने की क्रिया या भाव। २. इस प्रकार सूंघी जानेवाली ओषधि। ३. वैद्यक में एक प्रकार की सूँघनी।
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प्रधर्ष  : पुं० [सं० प्र√धृष् (डाँटना, बलात्कार करना)+घञ्] १. अपमान। २. पराभव। ३. स्त्री का सतीत्व नष्ट करना। बलात्कार। ४. आकमण।
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प्रधर्षक  : वि० [सं० प्र√धृष्+ण्वुल्—अक] प्रधर्ष करनेवाला।
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प्रधर्षण  : पुं० [सं० प्र√धृष्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रधर्षित] १. अपमान। बेइज्जती। २. आक्रमण। चढ़ाई। ३. स्त्री का बलपूर्वक किया जानेवाला सतीत्व हरण।
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प्रधर्षित  : भू० कृ० [सं० प्र√धृष्+क्त] १. जिस पर आक्रमण किया गया हो। २. अपमानित। ३. (स्त्री) जिसका बलपूर्वक सतीत्व हरण किया गया हो। जिसके साथ बलात्कार हुआ हो।
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प्रधा  : स्त्री० [सं० प्र√धा+अङ्+टाप्] दक्ष प्रजापति की एक कन्या जिसका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था।
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प्रधान  : वि० [सं० प्र√धा+ल्युट्—अन] [भाव० प्रधानता] अधिकारी, पद, महत्त्व आदि की दृष्टि से जो सबसे बड़ा या बढ़कर हो। पुं० १. नेता। मुखिया। सरदार। २. मंत्री। सचिव। ३. आज कल किसी संस्था या सभा का वह सबसे बड़ा अधिकारी जो कुछ नियत काल के लिए चुना जाता और समापति के रूप में उसके सब कामों का निरीक्षण तथा संचालन करता है। ४. संसार का उपादान कारण। ५. बुद्धि। समझ। ६. ईश्वर। ७. सेनापति।
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प्रधानक  : पुं० [सं० प्रधान+कन्] सांख्य के अनुसार बुद्धि-तत्त्व।
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प्रधान-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] सुश्रुत के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों में से एक कर्म जो रोग की उत्पत्ति हो जाने पर किया जाता है।
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प्रधान-कार्यालय  : पुं० [कर्म० स०] व्यापारिक अथवा अन्य संस्थाओं का मुख्य और सबसे बड़ा कार्यालय जिसके अधीन कई छोटे-छोटे कार्यालय हों और जहाँ से सब कार्यों तथा शाखाओं का संचालन होता हो। (हेड आफिस)
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प्रधानता  : स्त्री० [सं० प्रधान+तल्+टाप् ] प्रधान होने की अवस्था, गुण या भाव।
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प्रधान-धातु  : पुं० [सं० कर्म० स०] शरीर की सब धातुओं में से प्रधान शुक्र या वीर्य।
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प्रधान-मंत्री (त्रिन्)  : पुं० [कर्म० स०] १. संस्था आदि का वह सबसे बड़ा मंत्री जिसके अधीन और भी की विभागीय मंत्री हों। (जनरल सेक्रेटरी) २. किसी देश या राज्य का सबसे बड़ा मंत्री। (प्राइम मिनिस्टर)
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प्रधानाचार्य  : पुं० [सं०] आज-कल किसी महाविद्यालय (कालेज) का प्रधान अधिकारी और सर्वप्रमुख अघ्यापक। (प्रिंसिपल)
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प्रधानाध्यापक  : पुं० [प्रधान अध्यापक, कर्म० स०] किसी विद्यालय का सबसे बड़ा अध्यापक। (हे़ड मास्टर)
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प्रधानामात्य  : पुं० [प्रधान-अमात्य, कर्म० स०] प्रधान मंत्री।
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प्रधानिक  : वि०=प्राधानिक।
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प्रधानी  : स्त्री० [सं० प्रधान+हिं० ई (प्रत्य०)=प्रधानता।
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प्रधारणा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी विषय पर एकाग्र होकर ध्यान जमाये रखना।
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प्रधि  : पुं० [सं० प्र√धा+कि] गाड़ी का धुरा। अक्ष।
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प्रधी  : विं. [सं० ब० स०] बहुत अधिक चतुर या बुद्धिमान। स्त्री० उत्तम और प्रखर बुद्धि।
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प्रधूपति  : भू० कृ० [सं० प्र√धूप् (तपाना)+क्त] १. तप्त। तपाया हुआ। २. चमकता हुआ। ३. संतप्त।
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प्रधूपिता  : स्त्री० [सं० प्रघूपित+टाप्] वह दिशा जिधर सूर्य बढ़ रहा हो।
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प्रधूमित  : भू० कृ० [सं० प्र-धूम, प्रा० स०,+इतच्] १. जो धुआँ उत्पन्न करने के लिए जलाया गया हो। २. जिसमें से धुआँ निकल रहा हो। ३. जो अन्दर ही अन्दर धधक या सुलग रहा हो।
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प्रधृष्ट  : वि० [सं० प्र√घृष्+क्त] १. जिसके साथ दुर्व्यवहार किया गया हो। अपमानित। २. घमंडी। ३. उद्धत। उद्दंड।
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प्रध्मापन  : पुं० [सं० प्र√ध्मा (शब्द)+णिच्, युक्+ल्युट्—अन] वैद्यक में, वह उपचार या क्रिया जो स्वर-नलिका में का अवरोध दूर करने और श्वास-प्रश्वास की क्रिया ठीक करने के लिए की जाती है।
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प्रध्वंस  : पुं० [सं० प्र√ध्वंस् (नाश करना)+घञ्] [भू० कृ० प्रध्वंसित] १. नष्ट हो जाना। ध्वंस। नाश। विनाश। २. सांख्य के मत से, किसी वस्तु की अतीत अवस्था।
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प्रध्वंसक  : वि० [सं० प्र√ध्वंस्+णिच्+ण्वुल्—अक] ध्वंस या नाश करनेवाला।
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प्रध्वंसाभाव  : पुं० [सं० प्रध्वंस-अभाव, सं० त० या मध्य० स०] ऐसा अभाव जो किसी वस्तु के नष्ट होने से हुआ हो। (न्याय)
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प्रध्वंसी (सिन्)  : वि० [सं० प्र√ध्वंस्+णिच्+णिनि] विनाश करनेवाला।
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प्रध्वस्त  : भू० कृ० [सं० प्र√ध्वंस्+क्त ] जिसका विनाश हो चुका हो। पुं० एक प्रकार का तांत्रिक मंत्र।
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प्रन  : पुं०=प्रण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनत  : वि०=प्रणत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनति  : स्त्री०=प्रणति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनना  : अ० [सं० प्रणन] १. प्रणाम करना। २. झुकना। ३. शरण में जाना। उदा०—प्रनत जन कुमुद बन इंदु कर जालिका।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनप्ता (प्तृ)  : पुं० [सं० प्रा० स०] परनाती। नाती का लड़का।
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प्रनमन  : पुं०=प्रणमन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनमना  : अ०=प्रनना (प्रणाम करना)।
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प्रनय  : पुं०=प्रणय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनर्तित  : भू० कृ० [सं० प्र√नृत् (नाचना)+णिच्+क्त] १. जो नचाया गया हो या नाच रहा हो। २. काँपता या हिलता हुआ।
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प्रनव  : पुं०=प्रणव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनवना  : अ०=प्रनना (प्रणाम करना)।
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प्रनष्ट  : वि० [सं० प्रा० स०] १. विनष्ट। २. लुप्त। ३. भागा हुआ।
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प्रनाम  : पुं०=प्रणाम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनामी  : स्त्री०=प्रणामी। (दे०) वि० प्रणाम करनेवाला।
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प्रनायक  : वि० [सं० ब० स०] जिसका नायक साथ न हो। नायकहीन। पुं० बड़ा या श्रेष्ठ नायक।
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प्रनासना  : स० [सं० प्रशान] पूरी तरह से नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रनिपात  : पुं०=प्रणिपात (प्रणाम)।
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प्रनियम  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी बड़े नियम के अन्तर्गत उसके अंगों के रूप में बने हुए छोटे नियम या विभाग।
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प्रन्यास  : पुं० [सं० प्रा० स० ] [भू० कृ० प्रन्यस्त] किसी विशेष कार्य के लिए किसी को या कुछ विशिष्ट लोगों को सौंपा हुआ धन या संपत्ति। (ट्रस्ट)
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प्रपंच  : पुं० [सं० प्र√पञ्च् (विस्तार)+घञ्] १. फैलाव। विस्तार। २. फैला हुआ यह दृश्य जगत् जो मायावी और मिथ्या कहा गया है, तथा जिसमें परस्पर विरोधी तथा विभिन्न कार्य होते रहते हैं। ३. कोई ऐसा कार्य जिसमें कई तरह की परस्पर विरोधी बातें होती हैं, और सार कुछ भी नहीं होता या बहुत कम होता है। ४. विशेषतः कोई ऐसा कार्य जो छल-कपट या झगड़े-झंझट से भरा हो और जो तुच्छ अथवा हीन उद्देश्य से किया जा रहा हो। ५. झंझट। बखेड़ा।
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प्रपंचन  : पुं० [सं० प्र√पञ्च्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रपंचित] १. विस्तार बढ़ाना। २. प्रपंच खड़ा करना।
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प्रपंची (चिन्)  : वि० [सं० प्रपंच+इनि] १. प्रपंच रचनेवाला। २. कपटी। छली।
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प्रपंजी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी बैंक, व्यापारिक संस्था आदि की वह मुख्य पंजी या रजिस्टर जिसमें रुपयों का लेन-देन करनेवाला आदि का पूरा विवरण लिखा रहता है। खाता। बही। (लेजर)
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प्रपक्ष  : पुं० [सं० अत्या० स०] सेना के किसी पक्ष का अग्र भाग।
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प्रपठन  : पुं० [सं० प्र√पठ् (पढ़ना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रपठित] १. लेख आदि का ज्यों का त्यों पढा जाना। पाठ। (रिसाइटेशन) जैसे—कवि-सम्मेलना में दूसरे कवियों की कविताओं का प्रपठन भी होगा। २. उद्धरणी।
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प्रपत्ति  : स्त्री० [सं० प्र√पद्+क्तिन्] १. किसी के प्रति होनेवाली अनन्य भक्ति। २. भक्ति का वह प्रकार या भेद जिसमें भक्त अपने आप को भगवान की शरण में सौंपकर यह विश्वास रखता है कि वह मुझ पर अवश्य दया करेगा। शरणागति।
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प्रपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह छपा हुआ पत्र जिसमें के निरंक स्थलों में पूछी गई बातों के विवरण लिखे जाते हैं। जैसे—विद्यालय में भरती होने के लिए भरा जानेवाला प्रपत्र। (फॉर्म)
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प्रपथ  : वि० [सं० ब० स०] शिथिल। थका-माँदा। पुं० बहुत दूर जानेवाला कोई बड़ा चौड़ा मार्ग।
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प्रपद  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पैर का अगला भाग। पंजा। २. पैर के अँगूठे का सिरा।
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प्रपत्र  : भू० कृ० [सं० प्र√ पद्+क्त] १. प्राप्त। आया हुआ। पहुँचा हुआ। २. शरणागत।
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प्रपर्ण  : पुं० [सं० प्रा० स०] गिरा हुआ पत्ता।
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प्रपलायन  : पुं० [सं०] कोई अनुचित काम कर चुकने पर उसके दंड से बचने के लिए भाग जाना। फरार होना। (एब्स्कांड)
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प्रपलायी  : पुं० [सं० प्रपलायिन्] वह जो कोई अनुचित काम करके उसके दंड-भोग से बचने के लिए भाग गया हो। फरार। भगोड़ा। (एब्स्कांडर)
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प्रपा  : पुं० [सं० प्र√पा (पीना)+क+टाप्] १. व्यायों, विशेषतः प्यासे यात्रियों आदि को जल अथवा कोई पेय पिलाने का सार्वजनिक स्थान। प्याऊ। २. यज्ञशाला।
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प्रपाक  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. घाव, फोड़े आदि का पकना। २. उक्त के पकने से होनेवाली सूजन।
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प्रपाठ  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पुस्तक में का पाठ। २. पुस्तक का अध्याय। ३. द० ‘प्रपठन’।
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प्रपाणि  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. हाथ का अगला भाग। २. हथेली।
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प्रपात  : पुं० [सं० प्र√पत् (गिरना)+घञ्] १. एकबारगी और बहुत तेजी से ऊपर से नीचे आना या गिरना। २. वह बहुत ऊँचा स्थान जहाँ से कोई चीज नीचे गिरती हो। ३. जल की वह धारा जो किसी पहाड़ी प्रदेश में बहुत ऊँचे स्थान से नीचे गिरती हो। (वाटर फाल)
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प्रपातन  : पुं० [सं० प्र√पत्+णिच्+ल्युट—अन] जोर से नीचे गिराना या फेंकना।
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प्रपाती (तिन्)  : पुं० [सं० प्रपात+इनि] वह चट्टान या पहाड़ जिसका किनारा खड़ा हो। स्त्री० [सं० प्रताप] नदियों के प्रवाह में कुछ ऊँची-नीची चट्टानें पड़ने के कारण बननेवाला प्रपात। (कैस्केड)
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प्रपादिक  : पुं० [सं० प्रपद+ठक्—इक] मयूर। मोर।
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प्रपान  : पुं० [सं० प्र√पा+ल्युट्—अन] १. पीने की क्रिया या भाव। २. प्रपा। पौंसला।
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प्रपानक  : पुं० [सं० प्रपान, ब० स०,+कप्] आम अथवा किसी अन्य फल के गूदे का बना हुआ एक तरह का खट-मीठा शरबत। पना। पन्ना।
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प्रपाली (लिन्)  : पुं० [सं० प्र√पाल् (पालन करना)+णिच्+णिनि] कृष्ण के भाई; बलराम।
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प्रपितामह  : पुं० [सं० अत्या० स०] [स्त्री० प्रपितामही] १. पितामह का पिता। बाप का दादा। परदादा। २. परब्रह्म।
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प्रपितृव्य  : पुं० [सं० अत्या० स०] परदादा का भाई।
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प्रपीडक  : वि० [सं० प्र√पीड् (कष्ट देना)+णिच्+ण्वुल्—अक] १. दबाने या पेरनेवाला। २. बहुत अधिक कष्ट देने या सतानेवाला।
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प्रपीडिन  : पुं० [सं० प्र√पीड्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रपीड़ित] १. इस प्रकार किसी चीज को दबाना कि उसका रस निकल आये। पेरना। २. बहुत अधिक सताना या कष्ट देना।
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प्रपील  : स्त्री०=पिपीलिका (चींटी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रपुंज  : पुं० [सं० प्रा० स०] बहुत बड़ा ढेर या राशि।
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प्रपुत्र  : पुं० [सं० अत्या० स०] [स्त्री० प्रपुत्री] पुत्र का पुत्र। पोता।
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प्रपूरक  : वि० [सं० प्र√पूर् (पूर्ण करना)+णिच्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह पूरा करने या भरनेवाला। २. तृप्त करनेवाला।
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प्रपूरण  : पुं० [सं० प्र√पूर्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रपूरित] १. अच्छी तरह पूरा करना या भरना। २. तृप्त करना। ३. मिलाना।
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प्रपूरित  : भू० कृ० [सं० प्र√पूर्+णिच्+क्त] १. अच्छी तरह पूरा किया या भरा हुआ। २. अच्छी तरह तृप्त किया हुआ।
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प्रपौत्र  : पुं० [सं० अत्या० स०][स्त्री० प्रपौत्री] पुत्र का पोता। पोते का पुत्र। परपोता।
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प्रफुलना  : अ० [सं० प्रफुल्ल] फूलों से युक्त होना। फूलना।
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प्रफुल्ल  : वि० [सं० प्र√फुल्ल् (विकसित होना)+अच्] १. (फूल) जो खिला हुआ हो। २. (पौधा या वृक्ष) जिसमें फूल खिले हुए हों। ३. (व्यक्ति) जो अत्यधिक प्रसन्न हो। ४. (पदार्थ) जो खुला हुआ हो।
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प्रफुल्ल-वदन  : वि० [ब० स०] जिसका मुख प्रसन्न दीखता हो।
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प्रफुल्ला  : स्त्री० [सं० प्रफुल्ल=खिला हुआ] १. कुमुदिनी। कोई। २. कमलिनी।
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प्रफुल्लित  : भू० कृ० [सं० प्रफुल्ल] १. खिला हुआ। कुसुमित। २. फूल की तरह खिला हुआ अर्थात् प्रसन्न तथा हँसता हुआ।
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प्रबंध  : पुं० [सं० प्र√बंध् (बाँधना)+घञ्] १. वह चीज जिससे कोई दूसरी चीज बाँधी जाय। बंधन। जैसे—डोरी, रस्सी आदि। २. अच्छा पक्का और श्रेष्ठ बंधन। ३. ठीक तरह से निरंतर चलता रहने वाला कम। जैसे—प्रबन्ध वर्षा अर्थात् लगातार होती रहनेवाली वर्षा। ४. ऐसी रचना जिसमें सभी अंग, बातें या विषय उपयुक्त स्थानों पर रखकर और ठीक तरह से बाँध या सजाकर रखे गये हों। अच्छी और ठीक तरहग से तैयार की हुई चीज। ५. प्राचीन भारतीय साहित्य में काव्य के दो भेदों में से एक (दूसरा भेद निर्बध कहलाता था) जिसमें कोई कथा या घटना कमबद्ध रूप में कही गई हो। खंडकाव्य और महाकाव्य इसी के उपभेद हैं। ६. भारतीय संगीत में, शास्त्रीय नियमों के अनुसार राग-रागिनियाँ गाने की वह प्रथा (खयाल, ध्रुपद आदि के गाने की प्रथा से भिन्न) जो मध्य युग के साधु-संतों में प्रचलित थी। ७. आज-कल उच्च श्रेणी के विचारशील विद्यार्थियों की वह कृति या रचना जो किसी विशिष्ट विशय या उसके किसी अंग-उपांग के संबंध में यथेष्ट अनुसंधान और छानबीन करके और उसके संबंध में अपना नया तथा स्वत्रंत मत प्रतिपादित करते हुए प्रस्तुत की गई हो। (थीसिस) ८. आर्थिक, राजनीतिक तथा समाजिक क्षेत्रों में घर-गृहस्थी, निर्माण-शालाओं या संस्थाओं के विभिन्न कार्यों तथा आयोजनों का अच्छी तरह से तथा कुशलतापूर्वक किया जानेवाला संचालन। (मैनेजमेंट)। ९. किसी तरह के काम के लिए की जानेवाली कोई योजना। जैसे—कपट-प्रबंध अर्थात् किसी को फँसाने के लिए बिछाया जानेवाला जाल।
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प्रबंध-अभिकर्ता  : पुं० [ष० त०] किसी व्यावसायिक संस्था के किसी अभिकरण का मुख्य प्रबंधकर्ता। (मैनेजिंग एजेंट)
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प्रबंधक  : वि० [सं० प्र√बन्ध्+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रबन्ध या व्यवस्था करनेवाला। पुं० वह जो किसी कार्य, कार्यालय या विभाग के कार्यों का संचालन करता हो। व्यवस्थापक। (मैनेजर)
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प्रबंधकल्पना  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. साहित्यकि प्रबन्ध की रचना। २. वह साहित्यिक रचना जो मूलतः किसी घटना या तथ्य पर आश्रित हो और जिसमें कवि या लेखक ने अपनी कल्पना-शक्ति से भी बहुत सी बातें बढ़ाई हों।
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प्रबंधन  : पुं० [सं० प्र√बन्ध्+ल्युट्—अन] १. किसी काम या बात का प्रबन्ध अर्थात् व्यवस्था करने की किया या भाव। २. साहित्यिक रचना का ढंग, प्रकार या शैली। जैसे—कबीर या तुलसी की रचनाओं का प्रबन्धन।
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प्रबंध-परिव्यय  : पुं० [ष० त०] वह परिव्यय या खर्च जो किसी काम का प्रबन्ध करने के बदले में किसी को दिया जाय। (मैनेजमेन्ट चार्जेज)
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प्रबंध-परिषद्  : स्त्री० [ष० त०] वह परिषद् या सभा-समिति जो किसी बड़े कार्य या संस्था का परिचालन और व्यवस्था करती हो। (गवर्निंग बॉडी)
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प्रबंध-व्यय  : पुं० [ष० त०] वह व्यय या खर्च जो किसी काम या बात का प्रबन्ध करने में लगे। (कॉस्ट ऑफ मैनेजमेन्ट)
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प्रबंध-संपादक  : पुं० [ष० त०] पत्र, पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग का प्रबंध करनेवाला संपादक। (मैनेजिंग एडिटर)
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प्रबंध-समिति  : स्त्री० [ष० त०] किसी बड़ी संस्था, सभा आदि के चुने हुए लोगों की वह समिति जो उसकी सब बातों का प्रबन्ध या व्यवस्था करती हो। (मैनेजिंग कमिटी)
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प्रबंधार्थ  : पुं० [प्रबंध-अर्थ, ष० त०] वह विषय जिसका उल्लेख या विचार किसी साहित्यिक रचना में हुआ हो।
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प्रबंधी (धिन्)  : वि० [स० प्रबंध+इनि]=प्रबंधक। जैसे—प्रबंधी संचालक।
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प्रबंधी संचालक  : पुं० [सं० व्यस्त पद] किसी बहुत बड़ी संस्था के विभिन्न संचालकों में से वह व्यक्ति जिस पर उसके प्रबंध आदि का भी सब भार हो। (मैनेजिंग डाइरेक्टर)
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प्रब  : पुं० =पर्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रबरष (स) न  : पुं०=प्रवर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रबल  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० प्रबला] १. जिसमें बहुत अधिक बल या शक्ति हो। बलवान। २. जो बल में किसी से बीस पड़ता हो। अपेक्षाकृत अधिक बलवाला। ३. उग्र। तेज। प्रचंड। ४. बहुत जोरों का। घोर या भारी।
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प्रबल झंझा  : स्त्री०=चंडवात।
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प्रबलन  : पुं० [सं० प्र√बल्+ल्यूट्—अन] १. बल या शक्ति बढ़ाने की क्रिया या भाव। प्रबल करना। २. किसी दुर्बल को अधिक बलवान बनाने के लिए किया जानेवाला उपाय या दी जानेवाली सहायता।
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प्रबला  : स्त्री० [सं० प्रबल+टाप्] प्रसारिणी नाम की ओषिध। वि० सं० ‘प्रबल’ का स्त्री०।
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प्रबाधित  : भू० कृ० [सं० प्र√वाध् (बाधा देना)+क्त] १. सताया हुआ। २. दबाया या धकेला हुआ।
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प्रबाल  : पुं०=प्रवाल।
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प्रबास  : पुं०=प्रवास।
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प्रबाह  : पुं०=प्रवाह।
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प्रबाहु  : पुं० [सं० अत्या० स०] हाथ का आगेवाला अंश। पहुँचा।
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प्रबिसना  : अ०=प्रविसना (प्रवेश करना)।
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प्रबीन  : वि०=प्रवीण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रबृद्ध  : वि० [सं० प्र√बुध् (जानना)+क्त] १. जागा हुआ। जाग्रत। २. जिसकी बुद्धि ठिकाने हो और अच्छी तरह काम कर रही हो। ३. जो होश में हो। चैतन्य। सचेत। ४. जिसे प्रबोध हो या हुआ हो। यथार्थ ज्ञान से परिचित। ५. खिला हुआ। विकसित। पुं० १. नौ योगेश्वरों में से एक योगेश्वर। २. ज्ञानी। ३. पंडित। विद्वान्।
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प्रबोध  : पुं० [सं० प्र√बुध्+घञ्] [वि० प्रबुद्ध] १. सोकर उठना। जागना। २. किसी बात या विषय का ठीक और पूरा ज्ञान। यथार्थ ज्ञान। ३. किसी को समझा-बुझाकर शांत या स्थिर करना। ढारस। दिलासा। सांत्वना। ४. साहित्य में, दूत या दूती का नायिका या नायक को कोई बात अच्छी तरह और युक्तिपूर्वक समझाकर उत्साहित या शांत करना या सांत्वना देना। ५. चेतावनी। ६. विकास। ७. महाबुद्ध की एक अवस्था। (बौद्ध)
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प्रबोधक  : वि० [सं० प्र√बुध्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. जगानेवाला। २. चेताने या सचेत करनेवाला। ३. समझाने-बुझानेवाला। ४. यथार्थ ज्ञान कराने या बतलानेवाला। ५. ढारस या सांत्वना देनेवाला।
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प्रबोधन  : पुं० [सं० प्र√बुध्+ल्युट्—अन, या णिच्+ल्युट्] १. जागरण। जागना। २. नींद से उठाना। जगाना। ३. यथार्थ ज्ञान। बोध। ४. बोध कराना। जताना। ५. सचेत या सावधान करना। ६. ढारस, तसल्ली या सान्त्वना देना। ७. विकसित करना।
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प्रबोधन  : [सं० प्रबोधन] १. सोये हुए को उठाना। जगाना। २. सचेत या सजग करना। ३. अच्छी तरह समझाना-बुझाना। ४. ढारस या सान्त्वना देना। उदा०—मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा।—तुलसी। ५. अपने अनुकूल करने के लिए सिखाना-पढ़ाना। ६. आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त करना।
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प्रबोधनी  : स्त्री० [सं० प्र√बुध्+णिच्+ल्युट्—अन, ङीप्]=प्रबोधिनी।
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प्रबोधित  : भू० कृ० [सं० प्र√बुध्+णिच्+क्त] १. जो जगाया गया हो। २. जिसे उपयुक्त ज्ञान दिया गया हो। ३. जिसे समझाया-बुझाया गया हो। ४. जिसे ढारस या सान्त्वना दी गई हो।
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प्रबोधिता  : स्त्री० [सं० प्रबोधित+टाप्] एक प्रकार की वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण, सगण और अंत में गुरु (सजसजग) होता है। दे० ‘मंजुभाषिणी’।
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प्रबोधिनी  : स्त्री० [सं० प्र√बुध्+णिच्+णिनि+ङीप्] १. कार्तिक शुक्ला एकादशी। २. जवासा। धमासा।
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प्रबोधी (धिन्)  : वि० [सं० प्र√बुध्+णिच्+णिनि] [स्त्री० प्रबोधिनी] १. जगानेवाला। २. प्रबोधन करनेवाला। प्रबोधक।
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प्रब्ब  : पुं०=पूर्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभंजन  : पुं० [सं० प्र√भंज् (भंग करना)+ल्युट्—अन][भू० कृ० प्रभग्न] १. अच्छी या पूरी तरह से तोड़ने-फोड़ने और नष्ट करने की क्रिया या भाव। २. रोकना या निवारण करना। ३. हराना। पराजित करना। ४. वैज्ञानिक क्षेत्र में, मुख्यतः वह बहुत तेज हवा जो ७५ से १00 मील प्रति घंटे के हिसाब से चलती हो। (ह्युरिकेन) ५. वायु। हवा। ६. वायु का वह देव रूप जिससे हनुमान उत्पन्न हुए थे।
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प्रभंजन-जाया  : पुं०=हनुमान (प्रभंजन के पुत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभग्न  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. तोड़-फोड़कर नष्ट-भष्ट किया हुआ। २. हराया हुआ।
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प्रभणना  : स० [सं० प्रभणन] कहना। उदा०—प्रमणंति पुत्र इम मात पिता प्रति।—प्रिथीराज।
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प्रभणाना  : सं० [हिं० प्रभणना का प्रे०] कहलाना। उदा०—पधरावि त्रिया वामै प्रभणावै।—प्रिथीराज।
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प्रभत  : स्त्री० [सं० प्रभुता] बड़प्पन। बड़ाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभद्र  : पुं० [सं० प्र—भद्र, ब० स०] नीम।
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प्रभद्रक  : पुं० [सं० प्रभद्र+कन् ] प्रभद्रिका (वर्ण वृत्ति)।
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प्रभद्रिका  : स्त्री० [सं० प्रभद्र+कन्+टाप्, इत्व] पंद्रह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में नगण, भगण फिर जगण और अंत में एक रगण होता है। जैसे—निजभुज राघवेन्द्र दस-तीस ढाइ हैं।
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प्रभव  : पुं० [सं० प्र√भू (होना)+अप्] १. उत्पत्ति या सृष्टि का मूल कारण। २. उत्पत्ति। जन्म। ३. उत्पत्ति का स्थान। ४. सृष्टि। ५. जगत्। संसार। ६. नदी का उद्गम या मूल स्थान। ७. पराक्रम।
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प्रभवन  : पुं० [सं० प्र√भू+ल्युट्—अन] १. उत्पत्ति। २. आकार। ३. मूल। ४. अधिष्ठान।
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प्रभविता (तृ)  : पुं० [सं० प्र√भू+तृच्] १. शासक। २. प्रभु। स्वामी।
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प्रभविष्णु  : वि० [सं० प्र√भू+इष्णुच्] [भाव० प्रभविष्णुता] १. दूसरों पर प्रभाव डालनेवाला। प्रभावशील। २. बलवान। पुं० १. प्रभु। २. विष्णु।
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प्रभविष्णुता  : स्त्री० [सं० प्रभविष्णु+तल्+टाप्] १. औरों की तुलना में होनेवाली प्रधानता या श्रेष्ठता। २. किसी वस्तु में निहित अथवा स्थायी गुण या तत्त्व जिसका दूसरी वस्तुओं पर कुछ परिणाम होता या प्रभाव पड़ता हो। (पोटेन्सी)। जैसे—बरसात आने पर इस ओषधि की प्रभविष्णुता कुछ कम हो जाती है।
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प्रभा  : स्त्री० [सं० प्र√भा (दीप्ति)+अङ्+टाप्] १. प्रकाश। दीप्ति। २. सूर्य का बिंब या मंडल। ३. सूर्य की एक पत्नी। ४. दुर्गा की एक मूर्ति या रूप। ५. कुबेर की नगरी। ६. बारह अक्षरों की एक वर्ण-वृत्ति जिसे मन्दाकिनी भी कहते हैं।
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प्रभाउ  : पुं०=प्रभाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभाकर  : पुं० [सं० प्रभा√कृ (करना)+ट] १. सूर्य। २. चंद्रमा। ३. अग्नि। ४. आक। मदार। ५. समुद्र। ६. शिव। ७. मार्कडेय पुराण के अनुसार आठवें मंवंतर के देवगण के एक देवता। ८. एक प्रसिद्धि मीमांसक जो मीमांसा-दर्शन की एक शाखा के प्रवर्तक थे। ९. कुश द्वीप के एक वर्ष का नाम।
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प्रभाकरी  : स्त्री० [सं० प्रभाकर+ङीप्] बोधि सत्त्वों की तृतीय अवस्था दो प्रमुहिता और विमला के उपरांत प्राप्त होती है।
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प्रभाकीट  : पुं० [सं० मध्य० स०] खद्योत। जुगुनू।
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प्रभाक  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. किसी बड़े विभाग के अंतर्गत कोई छोटा भाग या विभाग। (सेक्शन) २. गणित में भिन्न का भिन्न। जैसे—१/२ का २/३।
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प्रभात  : पुं० [सं० प्र√भा (दीप्ति)+क्त] १. सूर्य निकलने से कुछ पहले का समय। तड़का। २. प्रभा (सूर्य की पत्नी) के एक पुत्र। ३. संगीत में, एक राग। वि० जो कुछ-कुछ स्पष्ट रूप से सामने आने लगा हो।
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प्रभात-फेरी  : स्त्री० [सं०+हिं०] प्रचार आदि के लिए बहुत तड़के दल बाँधकर गाते-बजाते और नारे लगाते हुए बस्तियों में चक्कर लगाना।
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प्रभाती  : स्त्री० [सं० प्रभात+ङीष्] १. प्रत्यूष और प्रभात नामक वसुओं की माता। (महाभारत) २. प्रभात के समय गाये जानेवाले गीत। ३. दातुन। वि० प्रभात-संबंधी।
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प्रभान  : पुं० [सं० प्र√भा+ल्युट्—अन] १. ज्योति। प्रकाश। २. चमक। दीप्ति।
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प्रभापन  : पुं० [सं० प्र√भा+णिच्, पुक्, +ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रभापित] दीप्तिमान् करना।
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प्रभापूर्य  : वि० [सं० प्रभा-आपूर्य, तृ० त० ] १. प्रकाश से युक्त। २. प्रकाश करनेवाला। ३. प्रकाशित करनेवाला। उदा०—भारत के नभ का प्रभापूर्य।—निराला।
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प्रभा-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] दिव्य पुरुषों, देवताओं आदि के मुख के चारों ओर का वह आभायुक्त मंडल जो चित्रों, मूर्तियों आदि में दिखाया जाता है। परिवेश। भा-मंडल। (हैलो)
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प्रभाव  : पुं० [सं० प्र√भू (होना)+घञ्] १. अस्तित्व में आना। उद्भव। २. वह दबाव जो किसी के बुद्धि-बल, चारित्रिक विशेषता, उच्च पद आदि के फल-स्वरूप दूसरों पर पड़ता है। (इन्फ्लुएन्स) ३. वह अच्छा या बुरा परिणाम जो किसी चीज के गुणों के फलस्वरूप लक्षित होता है। (एफेक्ट) जैसे—शिक्षा या सिनेमा का प्रभाव, औषध या पुस्तक का प्रभाव। ४. ज्योतिष में, ग्रह या ग्रहों की विशिष्ट स्थिति के फल-स्वरूप किसी में सामान्य से भिन्न दिखलाई पड़नेवाले विकार। ५. दूसरों को किसी विशिष्ट विचारधारा का अनुयायी, समर्थक आदि बनाने अथवा किसी ओर से चलने का सामर्थ्य। जैसे—वे अपने प्रभाव से ही बहुत से काम करा लेते हैं। ६. उक्त सामर्थ्य के फलस्वरूप चारों छाया आतंक। जैसे—यहाँ भी उनका प्रभाव काम कर रहा है। ७. स्वारोचिष् मनु के एक पुत्र जो कलावती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। (मार्कडेय पुराण)। ८. सूर्य के एक पुत्र। ९. सुग्रीव के एक मंत्री।
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प्रभावक  : वि० [सं० भू+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रभाव उत्पन्न करने या डालनेवाला। प्रभावशाली। उदा०—नवयुग का वाहक हो, नेता, लोक प्रभावक।—पंत।
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प्रभाव-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक राज-तंत्र में, वह क्षेत्र या प्रदेश जो किसी प्रबल और बड़े राज्य के प्रभाव या दबाव में रहता हो और जिस पर किसी दूसरे राज्य या राष्ट्र का प्रभाव अथवा हस्तपेक्ष सहन न किया जाता हो। (स्फीयर ऑफ इन्फ्लुएन्स)
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प्रभावज  : वि० [सं० प्रभाव√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. प्रभाव से उत्पन्न। प्रभावजात। पुं० १. राज्य की वह शक्ति जो उसके कोष, सेना आदि के मान पर आश्रित होती है। २. एक प्रकार का रोग जिसके सम्बन्ध में यह माना जाता है कि यह देवताओं, महात्माओं आदि के शाप अथवा ग्रहों के प्रकोप से उत्पन्न होता है।
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प्रभावती  : स्त्री० [सं० प्रभा+मतुप्, वत्व,+ङीप्] १. महाभारत के अनुसार सूर्य की पत्नी का नाम। २. कार्तिकेय की एक मातृका। ३. शिव के एक गण की वीणा। ४. प्रभाती नामक गीत। ५. रुचि नामक छन्द का एक नाम।
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प्रभावना  : स्त्री० [सं० प्र√भू+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. उद्भावना। २. प्रकाश।
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प्रभाववान् (वत्)  : वि० [सं० प्रभाव+मतुप्, वत्व]=प्रभावशाली।
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प्रभावशाली (लिन्)  : वि० [सं० प्रभाव√शाल्+णिनि] जिसमें यथेष्ट प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति हो। जो अच्छा या बहुत प्रभाव डाल सकता हो।
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प्रभावान्वित  : भू० कृ० [सं० प्रभाव-अन्वित, तृ० त०] किसी से प्रभावित।
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प्रभावित  : भू० कृ० [सं० प्र√भू+णिच्+क्त] जिस पर किसी का प्रभाव पड़ा हो। किसी के प्रभाव से दबा हुआ।
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प्रभाषण  : पुं० [सं० प्र√भाष्+ल्युट्—अन] कठिन पदो, वाक्यों, शब्दों आदि की व्याख्या।
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प्रभास  : वि० [सं० प्र√भास+अच; प्र√भास्+घञ्] १. जिसमें बहुत अधिक या यथेष्ट प्रभा हो। प्रभापूर्ण। २. बहुत चमकीला। पुं० १. ज्योति। २. दीप्ति। चमक। ३. एक वसु का नाम। ४. कार्तिकेय का एक अनुचर। ५. आठवें मंवंतर के एक देव-गण। ६. एक प्राचीन तीर्थ जिसे सोमतीर्थ भी कहते थे। ७. एक जैन गणाधिप।
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प्रभासन  : पुं० [सं० प्र√भास्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रभासित] १. प्रभास या दीप्ति उत्पन्न करना। २. दीप्ति। ज्योति।
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प्रभासना  : अ० [सं० प्रभासन] १. प्रकाशित होना। चमकना। २. भासित होना। कुछ कुछ दिखाई पड़ना। आभास होना। सं० १. प्रकाशित करना। २. चमकाना।
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प्रभीत  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक डरा हुआ। भयभीत।
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प्रभु  : वि० [सं० प्र√भू+डु] [भाव० प्रभुता, प्रभुत्व] जो बहुत अधिक बलवान हो। पुं० १. स्वामी। मालिक। २. ईश्वर। ३. बड़ों के लिए प्रय़ुक्त होनेवाला संबोधन।
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प्रभुता  : स्त्री० [सं० प्रभु+तल्+टाप्] १. प्रभु होने की अवस्था या भाव। प्रभुत्व। २. अधिकार, शक्ति आदि से युक्त बड़प्पन। महत्त्व। ३. शासन आदि का अधिकार। हुकूमत। ४. वैभव। ५. दे० ‘प्रभुसत्ता’।
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प्रभुताई  : स्त्री०=प्रभुता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभुत्व  : पुं० [सं० प्रभु+त्व] प्रभुता।
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प्रभु-राज्य  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा राज्य जिसकी प्रभु-सत्ता उसकी वैधानिक सरकार या जन-साधारण में निहित हो। (सावरेन स्टेट)
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प्रभु-सत्ता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] [वि० प्रभु-सत्ताक] दे० ‘संप्रभुता’।
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प्रभु-सत्ताक  : वि० [सं० ब० स०,+कप्] १. प्रभु-सत्ता से युक्त। जिसे प्रभुसत्ता प्राप्त हो। २. (देश या राज्य) जिस पर दूसरों का कोई नियंत्रण प्रभाव या शासन न हो। परम स्वतंत्र। (सॉवरेन)
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प्रभू  : पुं०=प्रभु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभूत  : वि० [सं० प्र√भू+क्त] १. जो अच्छी तरह हुआ हो। २. जो उत्पन्न हुआ या निकला हो। उद्भूत। ३. बहुत अधिक। प्रचुर। ४. उन्नत। ५. पूर्ण। पूरा। ६. पका हुआ। पक्व। पुं०=पंच-भूत।
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प्रभूति  : स्त्री० [सं० प्र√भू+क्तिन्]१. प्रभूत होने की अवस्था या भाव २. उत्पत्ति। ३. अधिकता। प्रचुरता।
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प्रभृति  : अव्य० [सं० प्र√भृ (धारण-पोषण)+क्तिच्) इत्यादि। आदि। वगैरह।
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प्रभेद  : पुं० [सं० प्र√भिद् (विदारण)+घञ्] १. किसी बड़े भदे, वर्ग या विभाग के अन्तर्गत कोई छोटा भेद, वर्ग या विभाग। २. अन्तर। भेद।
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प्रभेदक  : वि० [सं० प्र√भिद्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह भेदन करने या तोड़ने-फोड़नेवाला। २. भेद या प्रभेद उत्पन्न करनेवाला।
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प्रभेदन  : पुं० [सं० प्र√भिद्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह भेदन अर्थात् तोड़ने-फोड़ने की क्रिया या भाव। २. भेद या प्रभेद उत्पन्न करना। वि०=प्रभेदक।
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प्रभेव  : पुं०=प्रभेद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रभ्रष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र √भ्रंश्+क्त ] १. गिरा हुआ। ३. टूटा हुआ। ४. भ्रष्टा।
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प्रभ्रष्टक  : पुं० [सं० प्रभ्रष्ट+कन्] सिर से लटकती हुई माला।
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प्रमंडल  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. पहिये के बाहरी हिस्से का खंड। चक्के का खंड। २. प्रदेश का वह विभाग जिससे अनेक मंडल या जिले हों। (कमिश्निरी)
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प्रमग्न  : वि० [सं० प्र √मस्ज् (स्थान)+क्त]=निमग्न।
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प्रमत्त  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० प्रमत्तता] १. जो बहुत अधिक मत हो। नशे में चूर। मतवाला। २. पागल। बावला। ३. अधिकार, पद आदि का जिसे बहुत अधिक अभिमान हो। ४. लापरवाही के कारण धार्मिक कृत्य न करनेवाला।
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प्रमत्तता  : स्त्री० [सं० प्रमत्त+तल्+टाप्] प्रमत्त होने की अवस्था या भाव।
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प्रमथ  : वि० [सं० प्र√मथ् (मथना)+अच्] १. मंथन करनेवाला। २. कष्ट देने या पीड़ित करनेवाला। पुं० १. शिव के एक प्रकार के गण या परिषद् जिनकी संख्या ३६ करोड़ कही गई है। २. घोड़ा। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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प्रमथन  : पुं० [सं० प्र√मथ्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह मथना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना। ३. वध करना। मार डालना। ४. चौपट, नष्ट या बरबाद करना।
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प्रमथ-नाथ  : पुं० [ष० त०] महादेव। शिव।
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प्रमथ-पति  : पुं० [ष० त०] महादेव। शिव।
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प्रमथा  : स्त्री० [सं० प्रमथ+टाप्] १. हरीतकी। हर्रे। २. पीड़ा।
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प्रमथाधिप  : पुं० [सं० प्रमथ-अधिप, ष० त०] शिव।
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प्रमथालय  : पुं० [सं० प्रमथ-आलय, ष० त०] दुःख या यंत्रणा का स्थान, नरक।
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प्रमथित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह मथा हुआ। २. सताया हुआ। पुं० दही मथने पर निकला हुआ शुद्ध मठा जिसमें पानी न मिलाया गया हो।
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प्रमद  : पुं० [सं० प्र√मद् (हर्ष)+अप्] १. मतवालापन। २. धतूरे का फल। ३. आनंद। हर्ष। ४. एक प्रकार का दान। ५. वशिष्ठ के एक पुत्र। वि० १. नशे में चूर। २. असावधान।
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प्रमदक  : वि० [सं० प्र√मद्+अच्,+कन्] १. परलोक को न मानने-वाला, अर्थात् नास्तिक। २. मन-माना आचरण करनेवाला। ३. कामुक।
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प्रमदवन  : पुं० [सं० ष० त०] राजमहल के पास का वह उद्यान जिसमें रानियाँ सैर करती थीं।
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प्रमदा  : स्त्री० [सं० प्रमद+टाप्] १. सुंदर तथा युवती स्त्री। २. स्त्री। ३. पत्नी। ४. प्रियंगु। मालकँगनी। ५. एक प्रकार का छंद।
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प्रमद्वर  : वि० [सं० प्र √मद्+वरच्] १. ध्यान देनेवाला। २. असावधान। लापरवाह।
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प्रमन (स्)  : वि० [सं० ब० स०] प्रसन्न। सुखी। उदा०—भूले थे अब तक बंधु प्रमन।—निराला।
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प्रमना  : वि०=प्रमन।
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प्रमन्यु  : वि० [सं० ब० स०] १. क्रुद्ध। २. दुःखी। संतप्त। पुं० १. बहुत अधिक क्रोध। २. दुःख। संताप।
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प्रमर्दन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. अच्छी तरह मर्दन करना। अच्छी तरह मलना-दलना। मसल, रगंड़ या रौंदकर नष्ट-भ्रष्ट करना। २. दमन करना। ३. विष्णु। वि० नष्ट करने या रौंदनेवाला।
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प्रमस्तिष्क  : पुं० [सं०] [विं० प्रमास्तिक] रीढ़वाले पशुओं और मनुष्यों की खोपड़ी के अंदर का वह ऊपरी भाग जहाँ से शारीरिक क्रियाओं, व्यापारों आदि का प्रवर्तन और संचालन होता है। (सेरिब्रम)
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प्रमा  : स्त्री० [सं० प्र√मा (मापना)+अड+टाप्] १. तर्क और प्रमाणों आदि के आघार पर प्राप्त होनेवाला यथार्थ ज्ञान। २. वह ज्ञान जो बिना बुद्धि की सहायता के या बिना सोचे-विचारे आप से आप तत्काल उत्पन्न हो। (इन्ट्यूशन)। ३. नींव। ४. नाप। माप।
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प्रमाण  : पुं० [सं० प्र√मा+ल्युट्—अन] १, लंबाई, चौ़ड़ाई आदि नापने या भार आदि तौलने का मान। नाप या तौल। जैसे—गज, बटखरे आदि। २. नाप, तौल आदि की नियत इकाई या इयत्ता। जैसे—इस धोती का प्रमाण दस हाथ है; अर्थात् यह इससे न कम होती है और न अधिक। ३. लंबाई-चौड़ाई। विस्तार। ४. सीमा। हद। ५. ऐसा कथन, तथ्य या बात जिससे किसी अन्य कथन, तथ्य या बात के सत्यपूर्ण होने की प्रतीति होती है। सबूत। (प्रूफ) जैसे—धुआँ इस बात का प्रमाण है कि कहीं आग जल रही है। ६. वह चीज या बात जिससे विवादास्पद दूसरी बात के किसी एक पक्ष या मत का ठीक होने का निश्चय होता हो। पद—प्रमाणपत्र। (देखें)। ७. वह चीज या बात जो किसी कथन को ठीक सिद्ध करने के लिए औरों के सामने रखी जाती हो। साथी (एविडेन्स) ८. ऐसा कथन, तथ्य या बात जिसे सब लोग ठीक, प्रामाणिक या यथार्थ मानते हों। ९. किसी चीज या बात के ठीक या यथार्थ होने की अवस्था या भाव। सचाई। सत्यता। उदा०—कान्ह जू कैसे दया के निधान हौ, जानौ न काहू के प्रेम प्रमानहिं।—दास। १॰. किसी की सत्यता आदि पर किया जानेवाला विश्वास। प्रतीति। ११. ऐसी चीज या बात जो बिलकुल ठीक होने के कारण सबके लिए आदरणीय या मान्य हो। उदा०—अति ब्रह्मशास्त्र प्रमाण मानि सो वश्य मो मन यु्द्ध कै।—केशव। १२. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी बात का कोई प्रमाण मिलने घर उस बात के प्रत्यक्ष या सिद्ध होने का उल्लेख होता है। विशेष—न्यायशास्त्र में प्रमाण के जो आठ भेद कहे गये हैं, उन्हीं के अनुसार इस अलंकार के भी आठ भेद माने गये हैं। १३. किसी बात का ठीक, पूरा और सच्चा ज्ञान। १४. चित्रकला में, अंकित पदार्थों, व्यक्तियों आदि के सब अंगों का पारस्परिक ठीक अनुपात। (प्रोपोर्शन) १५. शास्त्र, जो प्रमाण के रूप में माने जाते हैं। १६. मूल-धन। पूँजी। १७. एकता। १८. कारण। सबब। १९. गणित में त्रैराशिक की पहली राशि या संख्या। २0. विष्णु का एक रूप। २१. शिव। वि० १. जो ठीक या सत्य सिद्ध हो चुका हो अथवा माना जाता हो। २. जो सबके लिए मान्य हो। ३. जो यह जानता हो कि क्या ठीक है, और क्या ठीक नहीं है। अव्य० १. अवधि या सीमा सूचक शब्द। पर्यन्त। तक। उदा०—सत जोजन प्रमान लै धावै।—तुलसी। २. किसी के तुल्य, सदृश या समान।
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प्रमाणक  : वि० [सं० प्रमाण+कन् या प्रमाण+णिच्+ण्वुल्—अंक] १. समस्त पदों के अंत में, परिणाम या विस्तार-संबंधी। २. प्रमाणित करनेवाला। पुं० १. वह पत्र जिस पर लिखी हुई बातें प्रामाणिक और सही मानी जाती हैं। (सर्टिफिकेट) २. किसी रकम के आय-व्यय के खाते में चढ़ाये जाने की संपुष्टि या प्रमाण के रूप में साथ में नत्थी किये जाने-वाले हिसाब के ब्यौरे का पुरजा। (वाउचर)
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प्रमाणकर्त्ता (तृ)  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जो कोई बात प्रमाणित करता हो। (सर्टिफायर)
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प्रमाण-कुशल  : वि० [स० त०] अच्छा तर्क करने और उपयुक्त प्रमाण देनेवाला।
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प्रमाणकोटि  : स्त्री० [ष० त०] प्रमाण मानी जानेवाली बातों या वस्तुओं का वर्ग।
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प्रमाणतः (तस्)  : अव्य० [सं० प्रमाण+तस्] प्रमाण के अनुसार या आधार पर।
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प्रमाणन  : पुं० [सं० प्रमाण+णिच्+ल्युट्—अन] १. कथन, लेख आदि के सम्बन्ध में यह कहना या सिद्ध करना कि यह ठीक और प्रामाणिक है। (सर्टिफ़िकेशन) २. प्रमाण उपस्थित करके किसी तथ्य या बात को सही सिद्ध करना।
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प्रमाणना  : सं०=प्रमानना।
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प्रमाण-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें कोई संबंधित अधिकारी यह कहता है कि किसी के संबंध की अमुक-अमुक बातें सत्य हैं। प्रमाणक। (सर्टिफिकेट)
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प्रमाण-पुरुष  : पुं० [मध्य० स०] वह जिसके निर्णय मानने के लिए दोनों पक्षों के लोग तैयार हों। पंच।
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प्रमाण-शास्त्र  : पुं०=तर्क-शास्त्र। (न्याय)
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प्रमाणिक  : वि० [सं० प्रमाण+ठन्—इक] प्रामाणिक।
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प्रमाणिका  : स्त्री० [सं० प्रमाणिक+टाप्] प्रमाणी। (दे०)
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प्रमाणित  : भू० कृ० [सं० प्रमाण+णिच्+इतच्] १. जो प्रमाण द्वारा ठीक सिद्ध किया जा चुका हो। २. जिसके संबंध में किसी आधिकारिक व्यक्ति ने यह लिखा हो कि यह प्रामाणिक, सत्यपूर्ण या सही है।
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प्रमाणी  : स्त्री० [सं० प्रमाण+ङीष्] चार चरणों का एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से जगण, रगण, लघु और गुरु (ज, र, ल, ग) होते हैं। नाग स्वरूपिणी।
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प्रमाणीकृत  : भू० कृ० [सं० प्रमाण+च्वि√कृ+क्त] जो प्रमाण के रूप में मान लिया गया हो। या प्रमाण के द्वारा सत्य या सिद्ध हो चुका हो।
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प्रमातव्य  : वि० [सं० प्र√मा+तव्यत्] मारे जाने के योग्य।
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प्रमाता (तृ)  : पुं० [सं० प्र०√मा+तृच्] १. प्रमाणों को मानने अर्थात् उनके आधार पर न्याय करनेवाला अधिकारी। २. न्यायाधीश। ३. आत्मा या चेतना पुरुष जिसे या जिससे ज्ञान होता है। ४. वह जो विषय से भिन्न और द्रष्टा या साक्षी हो।
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प्रमातामह  : पुं० [सं० अत्या० स०] [स्त्री० प्रमातामही] परनाना।
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प्रमात्रा  : स्त्री . [सं० प्रा० स०] उतनी मात्रा जितनी आवश्यक, इष्ट या निर्दिष्ट हो। (क्वैन्टम)
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प्रमाथ  : पुं० [सं० प्र√मथ्+घञ्] १. मथन। २. कष्ट देना। पीड़न। ३. नष्ट करना। न रहने देना। ४. मार डालना। ५. बलात् किया जानेवाला संभोग। बलात्कार। ६. बलपूर्वक किसी से कुछ छीन लेना। ७. प्रतिद्वद्वी को जमीन पर पटककर उस पर चढ़ बैठना और उसे घस्सा देना। ८. शिव का एक गण। ९. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। १॰. कार्तिकेय का एक अनुचर।
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प्रमाथी (थिन्)  : वि० [सं० प्र√मथ्+णिनि] [स्त्री० प्रमाथिनी] १. प्रमथन करने या मथनेवाला। २. कष्ट देने या पी़ड़ित करनेवाला। ३. नष्ट करनेवाला। नाशक। ४. मार डालनेवाला। ५. घातक। ६. काटनेवाला। पुं० १. बृहत्संहिता के अनुसार बृहस्पति के ऐंद्र नामक तीसरे युग का दूसरा संवत्सर जो निकृष्ण माना गया है। २. वह ओषध जो मुँह, आँख, कान आदि में जमा हुआ कफ बाहर निकाल दे। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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प्रमाद  : पुं० [सं० प्र√मद्+घञ्] १. किसी प्रकार के मद या नशे में होने की अवस्था या भाव। २. वह मानसिक स्थिति जिसमें मनुष्य अभिमान, असावधानता, उपेक्षा, प्रभुत्व, भ्रम आदि के कारण बिना कुपरिणाम का विचार किये कोई अनुचित काम, बात या भूल कर बैठता है। ३. उक्त प्रकार की मानसिक अवस्था में की जानेवाली कोई बहुत बड़ी भूल। ४. दुर्घटना। ५. बेहोशी। मूर्च्छा। ६. अंतःकरण की दुर्बलता। ७. उन्माद। पागलपन। ८. योग-शास्त्र में समाधि के साधनों की ठीक तरह से भावना न करना या उन्हें ठीक न समझना।
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प्रमादतः  : अव्य० [सं० प्रमाद+तस्] प्रमाद के कारण।
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प्रमादवान् (वत्)  : वि० [सं० प्रमाद+तुप्, वत्व] (व्यक्ति) जो प्रमाद करता हो अर्थात् बिना कुपरिणाम का विचार किये अनुचित या गलत काम करता हो।
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प्रमादिक  : वि० [सं० प्रमाद+ठन्—इक] १. प्रमाद-सम्बन्धी। प्रमाद का। २. प्रमाद करनेवाला। प्रमादशील।
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प्रमादिका  : स्त्री० [सं० प्रमादिक+टाप्] ऐसी कन्या जिसके साथ किसी ने बलात्कार किया हो।
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प्रमादिनी  : स्त्री० [सं० प्रमादिन्+ङीप्] संगीत में एक रागिनी जो हिंडोल राग की सहचरी कही गई है।
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प्रमादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रमाद+इनि] [स्त्री० प्रमादिनी] १. (व्यक्ति) जो प्रमाद करता हो। प्रमादवान्। २. पागल।
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प्रमान  : वि० [सं० प्रमाण या प्रामाणिक] १. प्रामाणिक। २. निश्चित। पक्का। उदा०—यह प्रमान मन मोरे।—तुलसी। अव्य० की तरह। की भाँति। के समान।
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प्रमानना  : स० [सं० प्रमाण+ना (प्रत्य०) ] १. प्रमाण के रूप में या बिलकुल सत्य मानना। ठीक समझना। २. प्रमाणित या सिद्ध करना। साबित करना। ३. निश्चित या स्थिर करना। ठहराना।
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प्रमानी  : वि०=प्रामाणिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रमापक  : वि० [सं० प्र√मा+णिच्, पुक्,+ण्वुल्—अक ] प्रमाणित करने-वाला। पुं० प्रमाण।
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प्रमापन  : पुं० [सं० प्र√मा+णिच्, पुक्,+ ल्युट्—अन] १. मार डालना। मारण। २. नाश। ३. आकृति। रूप।
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प्रमापियता (तृ)  : वि० [सं० प्र√मा+णिच् पुक्,+तृच्] [स्त्री० प्रमापयित्री] १. घातक। २. नाशक। ३. अनिष्टकारक। हानिकारक।
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प्रमापित  : भू० कृ० [सं० प्र√मा+णिच्, पुक्,+तृच्] १. जो मार डाला गया हो। हत। २. ध्वस्त। विनष्ट।
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प्रमापी (पिन्)  : वि० [सं० प्र√मा+णिच्, पुक्,+णिनि] १. वध करने-वाला। २. नष्ट करनेवाला।
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प्रमायुक  : वि० [सं० प्र√मी (हिंसा)+उकञ्] जो ध्वस्त या नष्ट हो सकता है।
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प्रमार्जक  : वि० [सं० प्र√मृज् (शुद्ध करना)+णिच् +ण्वुल्—अक] १. पोंछने या साफ करनेवाला। २. दूर करने या हटानेवाला।
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प्रमार्जन  : पुं० [सं० प्र√मृज+णिच्+ल्युट्—अन] १. झाड़-पोंछ या धोकर साफ करना। २. मरम्मत या सुधार करना। ३. दूर करना। हटाना।
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प्रमावाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० प्रमावादी] १. मनोविज्ञान का यह मत या सिद्धान्त कि कोई सार्विक शब्द या संज्ञा सुनकर उसके अनुरूप आकृति प्रस्तुत करने की शक्ति मन में होती है। (कन्सेप्चुअलिज़्म)
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प्रमास्तिष्क  : वि० [सं०] प्रमस्तिष्क से संबंध रखने या उसमें होनोवाला। (सेरिब्रल)
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प्रमित  : भू० कृ० [सं० प्र√मन्+क्त] १. नापा या मापा हुआ। २. परिमित (अल्प या सीमित)। ३. जाना हुआ। ज्ञात। ४. निश्चित। ५. जिसके सम्बन्ध में प्रमा (अर्थात् प्रमाणों के द्वारा यथार्थ ज्ञान) की प्राप्ति हुई हो। ६. प्रमाणित।
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प्रभिताक्षरा  : स्त्री० [सं० प्रमित-अक्षर, ब० स०, टाप्] बारह अक्षरो की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में सगण, जगण, सगण और सगण (स, ज, स, स) होते है।
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प्रमिति  : स्त्री० [सं० प्र√मि+क्तिन्]। १. नापने कि क्रिया या भाव। २. नाप। ३. प्रमाणों के आधार पर प्राप्त किया जाने या होनेवाला यथार्थ ज्ञान।
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प्रमीढ़  : वि० [सं० प्र√मिह् (सींचना)+क्त] १. गाढ़ा। २. घना। ३. जो मूत्र बनकर या मूत्र के रूप में शरीर के बाहर निकला हो।
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प्रमीत  : भू० कृ० [सं० प्र√मी+क्त] १. प्रकृत या स्वाभाविक रूप से मरा हुआ। मृत (डिसीज़्ड) ३. वैदिक युग में, (पशु) जो यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिए मारा गया हो। ३. नष्ट। बरबाद। पुं० बलि चढ़ाया हुआ पशु।
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प्रमीति  : स्त्री० [सं० प्र√मी+क्तिन्] १. हनन। वध। २. मनुष्य का प्रकृत या स्वाभाविक रूप से मरना। साधारण रूप से होनेवाली मृत्यु। (डीसीज) ३. नाश। बरबादी।
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प्रमीलन  : पुं० [सं० प्र√मील् (मूँदना)+ल्युट्—अन] निमीलन। मूँदना।
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प्रमीला  : स्त्री० [सं० प्र√मील्+अ+टाप्] १. तंद्रा। २. थकावट। शिथिलता। ३. मूँदना। ४. एक स्त्री जिसने अर्जुन से युद्ध किया था। और पराजित होने पर उससे विवाह करना स्वीकार किया था।
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प्रमीलित  : भू० कृ० [सं० प्र√मील्+क्त] मुँदा या मूँदा हुआ।
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प्रमीली (लिन्)  : वि० [सं० प्र√मील्+णिनि] [स्त्री० प्रमीलिनी] निमीलित करनेवाला। आँखे मूँदनेवाला।
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प्रमुख  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० प्रमुखता] १. जो दूसरों के प्रति मुँह करके खड़ा हो। २. सबसे आगे या पहलेवाला। प्रथम। ३. जो सब बातों में औरों से बढ़कर या श्रेष्ठ हो। प्रधान। मुख्य। ४. समस्त पदों के अंत में, जो प्रधान के पद पर हो। जैसे—राज-प्रमुख। पुं० १. प्रधान। २. प्रधान शासक। ३. विधान-सभा या ससंद् का अध्यक्ष। (स्पीकर) अव्य० १. आगे। सामने। २. उसी समय। तत्काल। ३. इससे आरंभ करके और भी अनेक। आदि। प्रभृति।
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प्रमुखता  : स्त्री० [सं० प्रमुख+तल्+टाप्] प्रमुख होने की अवस्था, गुण या भाव।
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प्रमुग्ध  : वि० [सं० प्रा० स०] १. मूर्च्छित। अचेत। २. हत बुद्धि। ३. बहुत सुंदर।
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प्रमृद  : वि० [सं० प्र√मुद्+क]=प्रमुदित। पुं०=प्रमोद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रमुदित  : भू० कृ० [सं० प्र√मुद्+क्त] जिसे प्रमोद हुआ हो। प्रसन्न तथा हर्षित।
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प्रमुदित-वदना  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] बारह अक्षरों की मंदाकिनी नामक एक प्रकार की वर्णवृत्ति।
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प्रमुषित  : भू० कृ० [सं० प्र√मुष् (चुराना)+क्त] १. चुराया या छीना हुआ। २. हतबुद्धि।
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प्रमुषिता  : स्त्री० [सं० प्रमुषित+टाप्] एक प्रकार की पहेली।
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प्रमूढ़  : वि० [सं० प्र√मुह् (अविवेक)+क्त] १. घबराया हुआ। २. मोहित ३. मूर्ख। मूढ़।
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प्रमृत  : भू० कृ० [सं० प्र√मृ (मरना)+क्त ] १. मरा हुआ। २. ढका हुआ। ३. दृष्टि से दूर गया हुआ। पुं० १. मृत्यु। २. कृषि। खेती।
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प्रमृष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√भृष (सहना)+क्त] १. साफ या स्वच्छ किया हुआ। २. ओप, मसाले आदि से चमकाया हुआ।
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प्रमेय  : वि० [सं० प्र√मा (माँपना)+यत्] १. नापने योग्य। २. जिसका मान अर्थात तौल या नाप जान सकें। ३. जिसका अवधारण हो सके। जो समझ में आ सके। ४. जो प्रमाणों से सिद्ध किया जा सके। पुं० १. कोई ऐसी बात, मत या विचार जो स्वयं सिद्ध न हो, बल्कि जिसे तर्क, प्रमाण आदि के द्वारा प्रमाणित या सिद्ध करना अपेक्षित अथवा आवश्यक हो। (थियोरम) २. गणित और ज्यामिति में कोई ऐसी बात जो प्रमाणित या सिद्ध की जानेवाली हो। (थियोरम) ३. ग्रन्थ का अध्ययन या परिच्छेद।
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प्रमेह  : पुं० [सं० प्र√मिह् (सींचना)+घञ्] एक रोग जिसमें थोड़ी-थोडी देर पर पेशाब होने लगता है और उसके साथ शरीर की शुक्र आदि धातुएँ निकलने लगती हैं।
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प्रमेही (हिन्)  : वि० [सं० प्रमेह+इनि] प्रमेह रोग से ग्रस्त या पीड़ित।
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प्रमोक्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] मोक्ष।
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प्रमोद  : पुं० [सं० प्र√मुद् (हर्ष)+घञ्] १. बहुत अधिक बढ़ा हुआ मोद, प्रसन्नता या हर्ष। आमोद या मोद का बहुत बढ़ा हुआ रूप। (मेरिमेन्ट) २. आराम। सुख। बृहस्पति के पहले युग के चौथे वर्ष का नाम। ४. कार्तिकेय का एक अनुचर। ५. प्रमोदा (देखें) नामक सिद्धि। ६. कड़ी सुगंधि।
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प्रमोदक  : पुं० [सं० प्र√मुद्+णिच्+ण्वुल—अक] एक प्रकार का जड़हन। वि० प्रमोद अर्थात् आनन्द उत्पन्न करेवाला।
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प्रमोदकर  : पुं० [ष० त०] दे० ‘मनोरंजन-कर’।
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प्रमोदन  : पुं० [सं० प्र√मुद्+णिच्+ल्युट्—अन] १. प्रमुदित करना। आनंदित करना। २. [प्र√मुद्+णिच्+ल्यु—अन] विष्णु।
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प्रमोदा  : स्त्री० [सं० प्रमोद+टाप्] सांख्य के अनुसार आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जिसकी प्राप्ति से आध्यात्मिक दुःखों का नाश हो जाता है और साधक परम प्रसन्न होता है।
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प्रमोदित  : भू० कृ० [सं० प्रमोद+इतच्] जो प्रमोद या आनन्द से युक्त किया गया हो। पुं० कुबेर।
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प्रमोदिनी  : स्त्री० [सं० प्रमोदिन्+ङीप्] जिंगिनी।
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प्रमोदी (दिन)  : वि० [सं० प्र√मुद्+णिच्+णिनि] १. प्रमोद संबंधी। २. प्रमुदित रहनेवाला।
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प्रमोधना  : सं०=प्रबोधना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रमोह  : पुं० [सं० प्र√मुह+घञ्] १. मोह। २. मूर्च्छा। ३. मूर्खता।
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प्रमोहन  : पुं० [सं० प्र√मुह्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रमोहित] १. मोहित करने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार का अस्त्र जिसके विषय में कहा जाता है कि इसे चलाने से शत्रु के सैनिक मोह के वश में हो जाते थे।
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प्रमोहित  : भू० कृ० [सं० प्र√मुह+णिच्+क्त] १. मोहित। २. प्रमोह अस्त्र के चलने के फलस्वरूप जो मोह में पड़ गया हो।
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प्रमोही (हिन्)  : वि० [सं० प्र√मुह+णिच्+णिनि] १. प्रमोह या मोहसंबंधी। २. मोहित करनेवाला।
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प्रयंक  : पुं०=पर्यंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रयंत  : अव्य०=पर्यन्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रयत  : वि० [सं० प्र√यम् (नियंत्रण)+क्त] १. पवित्र। २. संयत। ३. दीन। नम्र। ४. प्रयत्नशील।
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प्रयतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० प्रयत-आत्मन्, ब० स०] जितेंद्रिय। संयमी।
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प्रयति  : स्त्री० [सं०√सं प्र√यम्+क्तिन्] संयम।
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प्रयत्न  : पुं० [सं० प्र√यत्+नङ्] १. वह शारीरिक या मानसिक चेष्टा जो कोई उदेश्य या कार्य पूरा करने के लिए की जाती है। २. किसी कठिन कार्य की सिद्धि अथवा किसी चीज की प्राप्ति के लिए आदि में अंत तक अध्यवसायपूर्वक किये जानेवाले सभी उद्योग, कृत्य या चेष्टाएँ। कोशिश। चेष्टा। प्रयास। (एफर्ट) ३. न्याय दर्शन के अनुसार जीव या प्राणी के छः गणों में से एक जो उसकी सक्रिय चेष्टा का सूचक होता है। यह प्रकृति, निवृत्ति और जीवन-कारण या जीवन योनि के भेद से तीन प्रकार का माना गया है। ४. क्रियाशीलता। सक्रियता। ५. सतर्कता। सावधानी। ६. भाषाविज्ञान और व्याकरण में, गले और मुख के अन्दर की वह क्रिया या चेष्टा जो ध्वनियों के उच्चारण के लिए होती है और जिसमें जीभ आस-पास के किसी भीतरी अवयव को छूकर तथा श्वास को रोक या विकृत करके ध्वनियों का उच्चारण कराती है। इसके आभ्यंतर और बाह्य ये दो भेद कहे गये हैं।
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प्रयत्नवान् (वत्)  : वि० [सं० प्रयत्न+मतुप्, वत्व] [स्त्री० प्रयत्नवती] किसी प्रकार के प्रयत्न या उद्योग में लगा हुआ।
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प्रयत्न-शील  : वि० [सं० ब० स०]=प्रयत्नवान्।
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प्रयस्त  : भू० कृ० [सं० प्र√यस् (प्रयत्न)+क्त] १. प्रयत्न में लगा हुआ। २. छौंका, तड़का या बघारा हुआ।
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प्रयाग  : पुं० [सं० ब० स०] १. वह स्थान जहाँ बहुत से यज्ञ हुए हों। २. यज्ञ। याग। ३. गंगा और यमुना के संगम पर स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ जो आज-कल इलाहाबाद के नाम से प्रसिद्ध है। ४. इन्द्र। ५. घोड़ा।
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प्रयागवाल  : पुं० [हिं० प्रयाग+वाला (प्रत्य०)] प्रयागतीर्थ का पंडा।
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प्रयाचन  : पुं० [सं० प्र√याच् (माँगना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रयाचित गिड़गिडाकर माँगना।
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प्रयाज  : पुं० [सं० प्र√यज्ञ् (देवपूजन)+घञ्] दर्शपौण मास यज्ञ के अंतर्गत एक अंग-यज्ञ।
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प्रयाण  : पुं० [सं० प्र√या (गति)+ल्युट्—अन] १. कहीं जाने के लिए यात्रा आरंभ करना। कूच। प्रस्थान। २. यात्रा। सफर। ३. विशेषतः सैनिक यात्रा। अभियान। चढ़ाई। ४. उक्त अवसर पर बजाया जानेवाला नगाड़ा। ५. मर कर किसी अन्य लोक मे जाना। ६. कार्य का अनुष्ठान या आरंभ।
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प्रयाणक  : पुं० [सं० प्रयाण+कन्] १. यात्रा। २. प्रस्थान। ३. गति।
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प्रयाण-काल  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्रयाण करने अर्यात् चलने या जाने का समय। यात्रा का समय। २. इस लोक से पर-लोक जाने अर्थात् मरने का समय।
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प्रयाण-गीत  : पुं० [सं० ष० त०] १. सैनिक अभियान के समय गाये जानेवाले गीत। २. आधुनिक हिंदी साहित्य में वीर-गाथावाले गीतों का वह अंश जिसमें योद्धाओ के वि उल्लासपूर्ण गीत होते हैं, जो वे युद्ध-भूमि की ओर प्रस्थान के समय या किसी प्रकार के संघर्ष के लिए आगे बढ़ने के समय मिलकर गाते चलते हैं। (मार्चिंग साँग) जैसे— ‘प्रसाद’ का ‘हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से...’ वाला गीत।
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प्रयात  : भू० कृ० [सं० प्र√या (जाना)+क्त] १. गया हुआ। गत। २. मरा हुआ। मृत। ३. सोया हुआ। ४. बहुत चलनेवाला। पुं० बहुत ऊँचा किनारा जिस पर से गिरने से कोई चीज एकदम नीचे चली जाय। कगार। भृगु।
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प्रयान  : पुं०=प्रयाण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रयापण  : पुं० [सं० प्र√या+णिच्, पुक्,+ल्युट्—अन] [वि० प्रयापणीय, प्रयाप्य, भू० कृ, प्रयापित] १. प्रस्थान कराना। २. चलता करना। भगाया या हटाना। ३. किसी से आगे निकलना या बढ़ना।
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प्रयास  : पुं० [सं० प्र√यस् (प्रयत्न)+घञ्] १. किसी नये अथवा कठिन काम को आरंभ करने के लिए किया जानेवाला उद्योग या प्रयत्न। परिश्रम। मेहनत। २. वह कार्य या पदार्थ जो इस प्रकार किया या बनाया गया हो। जैसे—यह पुस्तक प्रशंसनीय प्रयास है। ३. इच्छा।
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प्रयुक्त  : भू० कृ० [सं० प्र√युज् (जोड़ना)+क्त] [भाव० प्रयुक्ति] १. जोड़ा या मिलाया हुआ। सम्मिलित। २. जिसे प्रयोग या व्यवहार में लाया गया हो अथवा लाया जा रहा हो। ३. जो किसी काम मे लगाया गया हो। ४. ‘व्यावहारिक’।
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प्रयुक्ति  : स्त्री० [सं० प्र√युज्+क्तिन्] १. प्रयुक्त होने की अवस्था या भाव। २. प्रयोग। ३. प्रयोजन।
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प्रयोक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० प्र√युज्+तृच्] १. प्रयुक्त करने अर्थात् किसी चीज को प्रयोग में लाने वाला। २. काम में लगाने या नियुक्त करनेवाला। पुं० १. ऋण देनेवाला। उत्तमर्ण। महाजन। २. नाटक का सूत्रधार।
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प्रयुत  : भू० कृ० [सं० प्र√यु (मिलना)+क्त] १. खूब मिला हुआ। २. अस्पष्ट। गड़बड़। ३. समेत। सहित। ४. दस लाख। पुं० दस लाख संख्या।
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प्रयोग  : पुं० [सं० प्र√युज्+घञ्] १. किसी चीज या बात को आवश्यकता अथवा अभ्यासवश काम में लाना। इस्तेमाल। व्यवहार। (यूज़) जैसे—(क) वाक्य में शब्दों का किया जानेवाला प्रयोग। (ख) जाड़ें में गरम कपड़ों का किया जानेवाला प्रयोग। (ग) किसी काम या बात के लिए अधिकार या बल का किया जानेवाला प्रयोग। २. आज-कल वैज्ञानिक क्षेत्रों में, किसी प्रकार का अनुसंधान करने या कोई नई बात ढूँढ़ निकालने के लिए की जानेवाली कोई परीक्षणात्मक क्रिया अथवा उसका साधन। ३. जो तथ्य उक्त प्रकार के अनुसंधान से सिद्ध हो चुका हो, उसे दूसरों को समझाने के लिए की जानेवाली वह क्रिया जिससे वह तथ्य ठीक और मान्य सिद्ध होता है। प्रत्यक्ष रूप से कोई काम या बात प्रमाणित या सिद्ध करने की क्रिया। ४. वह क्रिया जो यह जानने के लिए कि जाती है कि कोई काम, चीज या बात ठीक तरह से पूरी उतर सकेगी या नहीं। जाँच। परीक्षण। (एक्सपेरिमेन्ट, उक्त तीनों अर्थों के लिए) ५. किसी प्रकार कि क्रिया का प्रत्यक्ष रूप से होनेवाला साधन। ६. ठीक तरह से काम करने का ढंग या विधि। ७. प्राचीन भारतीय राजनीति में साम, दाम, दंड और भेद की नीति का किया जानेवाला उपयोग या व्यवहार। ८. तंत्रशास्त्र में, वह पूजा-पाठ जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए नियमित रूप से कुछ समय तक विधिपूर्वक किया जाता है। उच्चाटन, मारण, मोहन आदि के लिए किये जानेवाले तांत्रिक उपचार। ९. वैद्यक में, रोगी का ऐसा उपचार या चिकित्सा जो उसके देश, काल, शारीरिक स्थिति आदि का ध्यान रखते हुए की जाती है। १॰. व्याकरण में, कर्ता, कर्म अथवा कियार्थक संज्ञा के लिंग, वचन आदि के अनुसार प्रयुक्त होनेवाला क्रिया-पद की संज्ञा के लिंग, वचन आदि के अनुसार प्रयुक्त होनेवाला क्रिया-पद की संज्ञा जो कर्ता के अनुसार होने पर कर्तृ प्रयोग, कम के अनुसार होने पर कर्माणि प्रयोग और भाव के अनुसार होने पर भावे प्रयोग कहलाता है। ११. साहित्य में, रुपकों आदि का अभिनय। १२. तर्क-शास्त्र में अनुमान के पाँचों अवयवों का कथन या प्रतिपादन। १५. वह उपकरण जिससे कोई काम होता हो। १६. वैदिक युग में यज्ञ आदि कर्मों के अनुष्ठान का बोध करानेवाली विधि। पद्धति १७. धार्मिक ग्रन्थ या शास्त्र। १८. प्राचीन भारतीय लोक-व्यवहार में अपनी आय बढ़ाने के लिए लोगों को सूद पर ऋण देने का व्यवसाय। १९. कार्य का अनुष्ठान या आरम्भ। २॰. तरकीब। युक्ति। २१. उदाहरण। दृष्टांट। २२. परिणाम। फल। २३. उपहार। भेट। २४. इंद्रजाल। २५. घोड़ा।
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प्रयोगतः (तस्)  : अव्य० [सं० प्रयोग+तस्] प्रयोग द्वारा। परिणामरूप में। अनुसार। कार्यतः।
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प्रयोद-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह आधुनिक साहित्यकि मत या सिद्धांत कि अब तक जो साहित्यिक परम्पराएँ चली आ रही है, उन्हें प्रयोगात्मक परीक्षण के द्वारा जाँच लेना चाहिए। और उनमें से जो अनावश्यक या निरर्थक हों, उनके स्थान पर नई परम्पराएँ चलाने के लिए नये प्रयोग करके देखना चाहिए। (एक्सपेरिमेन्टलिज्म) विशेष—इस वाद के अनुयायी कवि या लेखक संसार में छापे हुए अन्धकार, अनाचार और विषाद में अपने आपको नये उचित मार्ग का अन्वेषक तथा अपनी कृतियों या रचनाओं को प्रयोग मात्र मानते हैं।
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प्रयोगवादी(दिन्)  : वि० [सं० प्रयोगवाद+इनि] प्रयोगवाद-सम्बन्धी। प्रयोगवाद का। पुं० वह जो प्रयोगवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक हो।
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प्रयोग-शाला  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान जहाँ पदार्थ-विज्ञान, रसायन शास्त्र आदि-विषयक तथ्यों को समझने, जानने या नई बातों का पता लगाने की दृष्टि से विविध प्रयोग किये जाते हों। (लेबोरेटरी)
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प्रयोगतिशय  : पुं० [सं० प्रयोग-अतिशय, ष० त०] साहित्य में, रूपक की पाँच प्रकार की प्रस्तावनाओं में से एक जिसमें सूत्रधार प्रस्तावना की समाप्ति होते होते किसी नट या पात्र को मंच की ओर आते हुए देखकर यह कहता हुआ प्रस्थान करता हूँ—अरे...वह तो आ रहा है या आ पहुँचा।
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प्रयोगार्थ  : पुं० [सं० प्रयोग-अर्थ, ष० त०] मुख्य कार्य की सिद्धि के लिए किया जानेवाला गौण कार्य।
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प्रयोगार्ह  : वि० [सं० प्रयोग√अर्ह (योग्य होना)+अच्] जिसका प्रयोग किया जा सके। प्रयोग के योग्य।
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प्रयोगी (गिन्)  : वि० [सं० प्रयोहस+इनि] १. प्रयोग करनेवाला प्रयोगकर्ता। २. प्रेरक। ३. जिसके सामने कोई उद्देश्य हो।
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प्रयोग्य  : पुं० [सं० प्र√युज्+ण्यत्] (गाड़ी में जोता जानेवाला) घोड़ा। वि० प्रयोग में आने या लाये जाने के योग्य।
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प्रयोजन  : पुं० [सं० प्र√युज्+ल्युट्—अन] [वि० प्रयोजनीय, प्रयोज्य, भू० कृ० प्रयुक्त] १. किसी काम, चीज या बात का प्रयोग करने अर्थात् उसे व्यवहार में लाने की क्रिया या भाव। उपयोग। प्रयोग। व्यवहार। २. वह उद्देश्य जिससे प्रेरित होकर मनुष्य कोई काम करने में प्रवृत्त होता और उसे पूरा करता है। अभिप्राय। मतलब। (पर्पज़) जैसे—इन बातों से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। ३. हिन्दुओं में, कोई अच्छा, धार्मिक, बड़ा या शुभ काम या उत्सव। जैसे—जब उनके यहाँ कोई प्रयोजन होता है, तब वे हमें अवश्य बुलाते हैं।
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प्रयोजनवती लक्षणा  : स्त्री० [सं० प्रयोजन+मतुप् वत्व,+ङीप्, प्रयोजनवती लक्षणा, व्यस्तपद] साहित्य में, लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें मुख्य अर्थ का बाध होने पर किसी विशेष प्रयोजन के लिए मुख्य अर्थ से संबद्ध किसी दूसरे अर्थ का ज्ञान कराया जाता है। जैसे—‘वह गाँव पानी में बसा है।’ इसलिए कहा जाता है कि वह गाँव किसी जलशय के किनारे पर या रई ओर पानी से घिरा हुआ होता है। यह लक्षणा दो प्रकार की होती है—गौणी और शुद्धा।
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प्रयोजनीय  : वि० [सं० प्र√युज्+अनीयर्] १. प्रयोग में लाने योग्य। उपयोगी। २. काम या मतलब का।
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प्रयोज्य  : वि० [सं० प्र√युज्+ण्यत्] १. जो प्रयोग मे लाया जाने को हो अथवा लाया जा सके। (एप्लिकेबुल) २. जो अधिकार के रूप में काम में लाये जाने के योग्य हो अथवा लाया जा सके। ३. आचरित होने के योग्य। जिसका आचरण हो सके। पुं० १. नौकर। भृत्य। २. वह धन जो किसी काम में लगाया जाने को हो।
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प्ररक्षण  : पुं० [सं० प्र√रक्ष् (रक्षा करना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्ररक्षित]=रक्षण।
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प्ररुह  : वि० [सं० प्र√रुह्+क] ऊपर की ओर जाने या बढ़नेवाला।
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प्ररूढ़  : भू० कृ० [सं० प्र√रूह्+क्त] [भाव० प्ररूढ़ि] १. उगा हुआ। २. आगे या ऊपर बढ़ा हुआ।
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प्ररूप  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० प्रारूपिका] किसी वर्ग की वस्तुओं, व्यक्तियों आदि में से कोई एक ऐसी वस्तु या व्यक्ति जिससे उस वर्ग में सामान्य गुणों, विशेषताओं आदि का बोध हो जाता हो। (टाइप)
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प्ररूपण  : पुं० [सं० प्र√रूप्+णिच्+ल्युट्—अन] १. व्याख्या करना। २. समझाना।
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प्ररूपी (पिन्)  : वि० [सं० प्ररूप+इनि] प्ररूप के रूप में माना या स्वीकार किया जानेवाला। प्रारूपिक। (टिपिकल्)
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प्ररोचन  : पुं० [सं० प्र√रुच् (दीप्ति)+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्ररोचित] १. किसी काम या बात के प्रति रुचि उत्पन्न करना। शौक पैदा करना २. अनुरक्त या मोहित करना। ३. उत्तेजित करना। उत्तेजन।
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प्ररोचना  : स्त्री० [सं० प्र√रुच्+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. नाटक के अभिनय में प्रस्तावना के समय सूत्रधार नट, नटी आदि का नाटक और नाटककार की प्रशंसा में कुछ ऐसी बातें कहना जिससे दर्शकों में अभिनय के प्रति रुचि उत्पन्न हो। २. अभिनय के अन्तर्गत कही जानेवाली ऐसी बात जिससे किसी भाव, घटना या दृश्य के प्रति लोगों में रुचि उत्पन्न हो। ३. दे० ‘प्ररोचन’।
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प्ररोधन  : पुं० [सं० प्र√रुध् (रोकना)+णिच्+ल्युट्—अन] ऊपर उठाना या चढाना।
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प्ररोह  : पुं० [सं० प्र√रुह्+अच्] १. आरोह। चढ़ाव। २. पौधों आदि का उगकर ऊपर की ओर बढ़ना। ३. अंकुर। ४. कल्ला। कोंपल। ५. संतान। ६. किस्सा। ७. तुन का पेड़। नदी वृक्ष। ८. अर्बुद।
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प्ररोहण  : पुं० [सं० प्र√रुह्+ल्युट्—अन] १. ऊपर की ओर जाने या बढ़ने की क्रिया या भाव। २. अंकुर, कल्ले आदि का निकलना। उत्पन्न होना।
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प्ररोह-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०] उर्वरा भूमि। उपजाऊ जमीन।
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प्ररोहशाखी (खिन्)  : पुं० [सं० प्ररोह-शाखा, मध्य० स० प्ररोहशाखाइनि] ऐसा वृक्ष जिसकी कलम लगाने से लग जाती हो और नये वृक्ष का रूप धारण कर लेती हो।
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प्ररोही (हिन्)  : वि० [सं० प्ररोह+इनि] [स्त्री० प्ररोहिणी] १. ऊपर की ओर जाने या बढ़नेवाला। २. उगनेवाला। ३. उत्पन्न होनेवाला।
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प्रलंब  : वि० [सं० प्र√लंब्+अच्] १. जो ऊपर से नीचे की ओर लटक रहा हो। २. टाँगा या लटकाया हुआ। ३. लम्बा। ४. किसी ओर निकला या बढ़ा हुआ। ५. काम करने में ढीला। सुस्त। पुं० १. लटकने की क्रिया या भाव। २. काम में होनेवाला व्यर्थ का विलंब। ३. पेड़ की टहनी। डाल। शाखा। ४. बीच आदि का अंकुर। ५. खीरा। ६. राँगा। ७.स्त्री या मादा की छाती। स्तन। ८. गले में पहनने का एक प्रकार का हार। ९. एक दानव जिसे बलराम ने मारा था।
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प्रलंबक  : पुं० [सं० प्रलंब+कन्] एक सुगंध-तृण। रोहिष।
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प्रलंबल  : पुं० [सं० प्र√लंब्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रलंबित] १. प्रलंब की स्थिति में किसी को लाना। २. लंबा करना। ३. देर लगाना। ४. अवलंबन। सहारा लेना।
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प्रलंबित  : भू० कृ० [सं० प्र√लंब्+क्त] १. प्रलंब के रूप में लाया हुआ। २. (कर्मचारी) जिसका प्रलंबन हुआ हो।
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प्रलंबी (बिन्)  : वि० [सं० प्र√लंब्+णिनि] [स्त्री० प्रलंबिनी] १. नीचे की ओर दूर तक लटकनेवाला। २. लंबा। ३. अवलंब। या सहारा लेनेवाला। ४. काम में व्यर्थ देर लगानेवाला। ५. दे० ‘प्रलंब’।
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प्रलंभन  : पुं० [सं० प्र√लभ्+ल्युट्—अन, मुम्] [वि० प्रलब्ध] १. लाभ होना। प्राप्ति होना। २. धोखा देना।
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प्रलपन  : पुं० [सं० प्र√लप् (कहना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रलपित] १. बात-चीत या वार्तालाप करना। २. प्रलाप या बकवाद करना।
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प्रलब्ध  : भू० कृ० [सं० प्र√लभ्+क्त] १. जो छला गया हो। २. घोखा खाया हुआ। ३. ग्रहण किया गया हो। ग्रहीत।
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प्रलब्धा (ब्धृ)  : वि०[सं० प्र√लभ्+तृच्] धोखा देने या छलनेवाला।
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प्रलयंकर  : वि० [सं० प्रलय√कृ (करना)+खच्, मुम्] [स्त्री० प्रलयंकारी] प्रलयकारी। सर्वनाशकारी।
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प्रलय  : पुं० [सं० प्र√ली (विलीन होना)+अच्] १. पूरी तरह से होनेवाला लय अर्थात् नाश या विलीनता। २. अधिकतर प्राचीन जातियों और देशों में प्रचलित प्रवादों के अनुसार सारी सृष्टि का वह विनाश जो बहुत प्राचीन काल में किसी बहुत बड़ी और जगत्व्यापी बाढ़ के फल-स्वरूप हुआ था। (डिल्यूज़) विशेष—भारतीय पुराणों के अनुसार प्रत्येक कल्प का अन्त होने पर अर्थात् ४३,२॰,॰॰,॰॰॰ वर्ष बीतने पर सारी सृष्टि का प्रलय होता है; और सृष्टि अपने मूल कारण अर्थात् प्रकृति में लीन हो जाती है; और इसके उपरांत नये सिरे से सृष्टि की रचना होती है। पिछली बार वैवस्वत मनु, के समय ऐसा प्रलय हुआ था। ईसाइयों, मुसलमानों आदि में प्रचलित प्रवादों के अनुसार पिछली बार हजरत नूह के समय ऐसा प्रलय हुआ था। वेदांत में प्रलय के ये चार प्रकार या भेद कहे गये हैं—नित्य, नैमित्तिक, प्राकृत और आत्यंतिक। ३. बहुत ही उत्कट या तीव्र रूप में और विस्तृत भू-भाग में होने वाला भयंकर नाश या बरबादी। जैसे—दोनों महायुद्धों के समय सारे युरोप में प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था। ४. मृत्यु। ५. बेहोशी। मूर्च्छा। ६. साहित्य में नौ सात्विक अनुभावों में से एक जिसमें प्रिय के वियोग के कारण मूर्च्छा, निद्रा, चेतनहीनता, निश्चेष्टता, श्वासावरोध स्तब्धता आदि बातें होती है और फलतः प्रिया की प्राण-हीनता दीख पड़ने लगती है। ७. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।
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प्रलव  : पुं० [सं० प्र√ल+अप्] किसी चीज का छोटा टुकड़ा।
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प्रलाप  : पुं० [सं० प्र√लप् (कहना)+घञ्] [कर्त्ता प्रलापी] १. बात-चीत करना। वार्तालाप। २. मानसिक विकार या शारीरिक कष्ट के कारण पागलों की तरह या बे-सिर-पैर की बातें करना। ३. रो-रोकर किसी को अपना कष्ट या व्यथा सुनाना। ४. साहित्य में, श्रृंगार रस के प्रसंग में विरह से व्याकुल होकर इस रूप में बातें करना कि मानो वे सामने बैठे हुए प्रेमी या प्रेमिका से ही कही जा रही हों। ५. कुछ विकट रोगों में वह अवस्था जिसमें रोगी बहुत ही विकल होकर पागलों की तरह अंडबंड बातें बकता है। (डिलीरियम)
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प्रलापक  : पुं० [सं० प्र√लप्+णिच्+ण्वुल्—अक] एक प्रकार का सन्त्रिपात जिसमें रोगी प्रलाप करता अर्थात् अनाप-शनाप बकता है और उसका चित्त ठिकाने नहीं रहता। वि० १. प्रलाप करनेवाला। २. व्यर्थ या अंड-बंड बकनेवाला।
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प्रलापी (पिन्)  : वि० [सं० प्र√लप्+धिनुण्] [स्त्री० प्रलापिनी] १. प्रलाप करनेवाला। २. व्यर्थ बकवाद करने या अंड-बंड बकनेवाला।
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प्रलाभ  : पुं० [सं० प्रा० स०] यथेष्ठ या विशिष्ट रूप में होनेवाला लाभ।
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प्रलाभी (भिन्)  : वि० [प्रलाभ+इनि] १. (काम, पद या व्यवस्था) जिससे या जिसमें यथेष्ठ आर्थिक लाभ होता हो। २. (व्यक्ति) जो प्रायः या सदा बहुत अधिक आर्थिक लाभ के लिए उत्सुक तथा प्रयत्नशील रहता हो। (ल्यूक्रेटिव, उक्त दोनों अर्थो में)
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प्रलीन  : भू० कृ० [सं० प्र√ली+क्त] [भाव० प्रलीनता] १. गला या धुला हुआ। २. (स्थान) जहाँ प्रलय हुई हो फलतः ध्वस्त और नष्ट भ्रष्ट। ३. जड़ के समान निश्चेष्ट। ४. मरा हुआ। ५. छिपा हुआ। तिरोहित।
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प्रलीनता  : स्त्री० [सं० प्रलीन+तल्+टाप्] १. प्रलीन होने की अवस्था या भाव। २. जड़त्व। जड़ता। ३. विनाश।
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प्रलीनेंद्रिय  : वि० [सं० प्रलीन-इन्द्रिय, ब० स०] जिसकी इन्द्रियाँ शिथिल या नष्ट हो गई हों।
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प्रलुब्ध  : वि० [सं० प्र√लुभ् (चाहना)+क्त] [स्त्री० प्रलुब्धा] १. लोभ में पड़ा हुआ। २. किसी पर अनुरक्त या लुभाया हुआ। मोहित। ३. दूसरों को धोखा देनेवाला। वंचक।
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प्रलेख  : पुं० [सं० प्र√लिख् (लिखना)+घञ्] १. विधिक क्षेत्र में काम आ सकने योग्य कोई लिखा हुआ कागज या लेख। लेख्य। दस्तावेज। (डॉक्यूमेन्ट) २. ऐसा अनुबंध-पत्र जो निष्पादक या लिखनेवाला अपने हस्ताक्षर करके दूसरे पक्ष को देता है। (डीड)
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प्रलेखक  : पुं० [सं० प्र√लिख्+ण्वुल—अक] लेख्य लिखनेवाला कर्मचारी। अर्जीनवीस। कातिब।
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प्रलेखन  : पुं० [सं०] लेख्य आदि लिखने का काम।
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प्रलेख-पोषण  : पुं० [सं०] आवश्यकता के अनुसार प्रलेखों या उद्दिष्ट निर्देशों का यथास्थन अंकन या उल्लेख करना। (डाक्यूमेन्टेशन)
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प्रलेप  : पुं० [सं० प्र√लिप्+घञ् ] १. किसी अंग विशेषतः त्वचा पर किसी ओषधि का किया जानेवाला लेप। २. किसी गाढ़ी चीज का किसी दूसरी चीज पर किया जानेवाला लेप। ३. वह चीज जो उक्त रूप में लगाई जाय।
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प्रलेपक  : वि० [सं० प्र√लिप्+ण्वुल्—अक] प्रलेप या लेप करनेवाला। पुं० वह ज्वर जो क्षय आदि रोगों के साथ होता है और जिसमें शरीर का चमड़ा रूखा या शुष्क होने लगता है। (हेक्टिक फीवर)
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प्रलेपन  : पुं० [सं० प्र√लिप्+ल्युट्—अन] १. लेप करने या लगाने की क्रिया या भाव। २. पोताई।
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प्रलेप्य  : वि० [सं० प्र√लिप्+ण्यत्] १. जो लेप के रूप में लगाया जा सके। २. जिस पर लेप लगाया जा सके या लगाया जाने को हो। पुं० घुँघराले बाल।
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प्रलेह  : पुं० [सं० प्र√लिह् (आस्वादन करना)+घञ्] मांस के कूटे या पीसे हुए अंशों को तलकर बनाया जानेवाला एक व्यंजन। कोरमा।
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प्रलेहन  : पुं० [सं० प्र√लिह्,+ल्युट्—अन] चाटना।
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प्रलोप  : पुं० [सं० प्र√लुप् (काटना)+घञ्] लोप।
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प्रलोभ  : पुं० [सं० प्र√लुभ् (लालच करना)+घञ्] बहुत अधिक लालच या लोभ। २. प्रलोभन।
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प्रलोभक  : वि० [सं० प्र√लुभ्+णिच्+ण्वुल—अक] १. प्रलोभन देनेवाला। लालच देनेवाला। २. लुभानेवाला।
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प्रलोभन  : पुं० [सं० प्र√लुभ्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी के मन में लोभ उत्पन्न करना। किसी को लोभी बनाना। २. वह चीज या बात जो किसी के मन में लोभ या लालच उत्पन्न करती हो। (टेम्पटेशन) ३. कोई कार्य विशेषतः बुरा कार्य करने के लिए होनेवाली वृत्ति। लोभ। ४. किसी के मन में अपने प्रति अनुराग या प्रेम उत्पन्न करना। लुभाना।
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प्रलोभित  : भू० कृ० [सं० प्र√लुभ्+णिच्√क्त] १. जिसके मन में लोभ उत्पन्न किया गया हो या हुआ हो। ललचाया हुआ। २. लुभाया हुआ।
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प्रलोभी (भिन्)  : वि० [सं० प्र√लुभ्+णिनि] प्रलोभ में फँसनेवाला। लोभ या लालच करनेवाला।
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प्रलोल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. लटकता और हिलता हुआ। २. क्षुब्ध।
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प्रवंचक  : पुं० [सं० प्र√वञ्व्+णिच्+ण्वुल—अक] १. वंचन करनेवाला। ठग। २. धोखेबाज। धूर्त।
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प्रवंचन  : पुं० [सं० प्र√वञ्च्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रवंचित] धोखा देने, छलने या ठगने का काम। धोखेबाजी। ठगी।
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प्रवंचना  : स्त्री० [सं० प्र√वञ्च्+णिच्+युच्—अन, टाप्] छलने, धोखा देने अथवा ठगने का कोई कार्य। छलपूर्ण कार्य।
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प्रवंचित  : भू० क. [सं० प्र √वञ्च्+णिच्+क्त] जो अथवा जिसे छला, या ठगा गया हो। धोखा दिया या खाया हुआ।
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प्रवक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० प्रा० स०] १. प्रवचन करनेवाला। २. अच्छी तरह समझानेवाला। पुं० १. प्राचीन भारत में वह विद्वान् जो प्रोक्त साहित्य का प्रवचन करता या शिक्षा देता था। २. आज-कल वह जो किसी शासक-मंडल, संस्था आदि की ओर से आधिकारिक रूप से कोई बात कहता या मत प्रकट करता हो। (स्पोक्समैन)
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प्रवचन  : पुं० [सं० प्र√वच् (बोलना)+ल्युट्—अन] [वि० प्रवचनीय] १. कोई बात या विषय अच्छी तरह और पांडित्यपूर्वक बतलाना या समझाना। २. धार्मिक, नैतिक आदि गंभीर विषयों में परोपककारी की दृष्टि से कही जानेवाली अच्छी तथा विचारपूर्ण बातें। ३. उक्त प्रकार से होनेवाला उपदेशपूर्ण भाषण।
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प्रवट  : पुं० [सं० √प्रु (सरकना)+अट] गेहूँ।
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प्रवण  : वि० [सं० √प्रु+ल्युट् (अधिकरण) —अन] [भाव० प्रवणता] १. जो नीचे की ओर झुका चला गया हो। ढालुआँ। २. झुका हुआ। नत। ३. किसी काम या बात की ओर ढला हुआ। प्रवृत। ४. नम्र। विनीत। ५. सच्चा और साफ व्यवहार करनेवाला। खरा। ६. उदार और सहृदय। ७. अनुकूल। मुआफिक। ८. चिकना। स्निग्ध। ९. लंबा। १॰. कुशल। दक्ष। निपुण। पुं० १. ढलान। २. १. चौराहा। ३. उदर। ४. क्षण। ५. आहुति।
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प्रवणता  : स्त्री० [सं० प्रवण+तल्+टाप्] १. प्रवण होने की अवस्था, गुण या भाव। २. ढलान। ३. प्रवृत्ति।
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प्रवत्यथ  : वि० [सं०] जो विदेश यात्रा को उद्यत हो।
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प्रवत्स्यत्पतिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+कप्+टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसका पति विदेश जानेवाला हो।
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प्रवत्यदभर्तृका  : स्त्री० [सं० प्रवत्स्यत्-भर्तृ, ब० स०,+कप्+टाप्]=प्रवत्स्यत्पतिका।
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प्रवदन  : पुं० [सं० प्र√वद् (बोलना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रवदत] घोषणा।
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प्रवर  : वि० [सं० प्रा० स०] १. सबसे अच्छा, बढ़कर या श्रेष्ठ। २. अवस्था या वय में सबसे बड़ा। (सीनियर) ३. अधिकार, योग्यता आदि में सबसे बड़ा माना जानेवाला। (सुपीरियर) पुं० १. अग्नि का एक विशिष्ट प्रकार का आवाहन या आहुति २. पूर्व पुरुषों का क्रम या श्रृंखला। ३. कुल। वंश। ४. ऐसे ऋषि या मुनि की वंश-परम्परा या शिष्य-परम्परा जो किसी गोत्र का प्रर्वतक या संस्थापक रहा हो। विशेष—हमारे यहाँ प्रवरों एक-प्रवर द्विप्रवर, त्रिप्रवर और पंचप्रवर भेद या प्रकार कहे गये हैं। ५. वंशज। संतान। ६. हिन्दुओं के ४२ गोत्रों में से एक। ६. उत्तरीय वस्त्र। चादर। ८. अगर की लकड़ी।
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प्रवर-गिरि  : पुं० [सं० कर्म० स०] मगध देश के एक पर्वत का प्राचीन नाम।
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प्रवरण  : पुं० [सं० प्र√वृ+ल्युट्—अन] १. देवताओं का आवाहन। २. बौद्धों का एक उत्सव जो वर्षा ऋतु के अन्त में होता था।
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प्रवर समिति  : स्त्री० [कर्म० स०] किसी विषय की छानबीन करने और विचार-विमर्श के बाद निश्चित मत प्रकट करने के लिए बनाई जानेवाली वह समिति जिसमें उस विषय के चुने हुए विशेषज्ञ रखे जाते है। (सिलेक्ट कमेटी)
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प्रवरा  : स्त्री० [सं० प्रवर+टाप्] १. अगुरु या अगर की लकड़ी। २. दक्षिण भारत की एक छोटी नदी जो गोदावरी में मिलती है।
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प्रवर्ग  : पुं० [सं० प्र√वृज् (छोड़ना)+घञ्] १. हवन करने की अग्नि। होमाग्नि। २. किसी वर्ग के अन्तर्गत किया हुआ कोई छोटा विभाग। ३. विष्णु।
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प्रवर्त  : पुं० [सं० प्र√वृत् (बरतना)+घञ्] १. कोई कार्य आरम्भ करना। अनुष्ठान। प्रवर्तन। ठानना। २. एक प्रकार के मेघ या बादल। ३. वैदिक काल का एक प्रकार का गोलाकार आभूषण या गहना।
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प्रवर्तक  : वि० [सं० प्र√वृत्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. प्रवर्तन (देखें) करनेवाला। २. किसी काम या बात का आरंभ अथवा प्रचलन करनेवाला। प्रतिष्ठाता। ३. काम में लगाने या प्रवृत्त करनेवाला। प्रेरित करनेवाला। ४. उभारने या उसकानेवाला। ५. गति देने या चलानेवाला। ६. नया आविष्कार करनेवाला। ७. न्याय या विचार करनेवाला। पुं० साहित्य में, रूपकों की प्रस्तावना का वह प्रकार या भेद जिसमें प्रस्तुत कार्य से संबद्ध कृत्य का परित्याग करके कोई और काम कर बैठने का दृश्य उपस्थित किया जाता है। जैसे—संस्कृत के ‘महावीर चरित’ में राम की वीरता से प्रसन्न होकर परशुराम उनसे लड़ने का विचार छोड़कर प्रेमपूर्वक उनका आलिगन करने लगते हैं।
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प्रवर्तन  : पुं० [सं० प्र√वृत्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रवर्तित, वि० प्रवर्तनीय, प्रवर्त्य] १. नया काम या नई बात का आरंभ करना। श्रीगणेश करना। ठानना। २. नये सिरे से प्रचलित करना। ३. जारी करना। जैसे—अध्यादेश का प्रवर्तन। ४. प्रवृत्त करना। ५. उत्तेजित करना। ६. दुरुत्साहन। प्रवर्तना
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प्रवर्तित  : भू० क. [सं० प्र√वृत्त+णिच्+क्त] १. ठाना हुआ। आरब्ध। २. चलाया हुआ। ३. निकाला हुआ। ४. उत्पन्न। ५. उभरा हुआ। ६. उत्तेजित।
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प्रबर्द्घन  : पुं० [सं० प्र√वृध+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रवर्द्धित] १. अच्छी तरह बढाना। २. बढ़ती। वृद्घि।
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प्रवर्षण  : पुं० [सं० प्र√वृष् (बरसना)+ल्युट्—अन] १. वर्षा ऋतु की पहली वर्षा। ३. किष्किधा का एक पर्वत जहाँ राम-लक्ष्मण के कुछ समय तक निवास किया था।
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प्रवर्ह  : वि० [सं० प्र√वृह् (बढ़ना)+अच्] प्रधान। श्रेष्ठ।
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प्रवलाकी(किन्)  : पुं० [सं०] १. मोर। मयूर। २. साँप।
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प्रवल्हिका  : स्त्री० [सं०]=प्रहेलिका (पहेली)।
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प्रवसथ  : पुं० [सं० प्र√वस् (बसना)+अथच्] १. प्रस्थान। २. प्रवास।
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प्रवसन  : पुं० [सं० प्र√वस्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रसवसित] अपना मूल निवास स्थान छोड़कर किसी दूसरी जगह जा रहना या जा बसना।
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प्रवस्तु  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] वह वस्तु जो वस्तुओं के किसी बड़े वर्ग या विभाग के अन्तर्गत या उसके अंग के रूप में हो। (आर्टिकिल) जैसे—कपड़े बनाने के उपकरण या सामग्री में कपास के सिवा ऊन भी एक प्रमुख प्रवस्तु है।
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प्रवह  : पुं० [सं० प्र√वह् (बहना)+अच्] १. बहुत अधिक या तेज बहाव। २. ऐसा कुंड या तालाब जिसमें नाली से पानी पहुँचता हो। ३. सात वायुओं में से एक वायु। ४. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक जिह्वा। ५. घर या बस्ती से बाहर निकलना।
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प्रवहरण  : पुं० [सं० प्र √वह्+ल्युट्—अन] १. ले जाना। २. छकड़ा, डोली, नाव, पालकी, रथ आदि सवारियाँ विशेषतः छाई हुई सवारियाँ ३. एक प्रकार का छोटा परदेदार रथ। बहली। ४. कन्या का विवाह करके उसे वह के हाथ सौंपना।
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प्रवहमान  : वि० [सं० प्र√वह्+ शानच्, मुक्] जो बह रहा हो।
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प्रवाक् (च्)  : वि० [सं० ब० स०] १. घोषणा करनेवाला। २. बकवादी। ३. शेखी बघारनेवाला।
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प्रवाचक  : पुं० [सं० प्रा० स०] अच्छा प्रवचन करनेवाला व्यक्ति या महापुरुष।
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प्रवाण  : पुं० [सं० प्र√वे (बुनना)+ल्युट्—अन] कपड़े का छोर या अंचल बनाना।
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प्रवात  : पुं० [सं० प्रा० स०; ब० सं० ] १. स्वच्छ वायु। साफ हवा। २. जोर की या तेज हवा। ३. ऐसा स्थान जहाँ प्रायः तेज हवा चलती हो। ४. ढालुई जमीन या स्तर। उतार। प्रवण। ५. दे० ‘प्रभंजन’। वि० जो तेज हवा के कारण झोंके खा रहा या इधर-उधर हिल रहा हो। हिलता हुआ।
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प्रवाद  : पुं० [सं० प्र√वद् (बोलना)+घञ्] १. परस्पर होनेवाली बातचीत। वार्तालाप। २. जनरव। जन-श्रुति। ३. झूठी बदनामी।
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प्रवादक  : वि० [सं० प्र√वद्+णिच्+ण्वुल्—अक] बाजा बजानेवाला।
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प्रवादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रवाद+इनि] १. प्रवाद-संबंधी। २. प्रवाद करनेवाला।
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प्रवान  : वि० [सं० प्रमाण] १. प्रमाणिक। २. समान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० प्रमाण।
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प्रवार  : पुं० [सं० प्र√वृ (ढकना)+घञ्] १. प्रवर। २. वस्त्र। ३. चादर या दुपट्टा।
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प्रवारण  : पुं० [सं० प्र√वृ+णिच्+ल्युट्—अन] १. वारण करना। मनाही। २. किसी कामना से किया जानेवाला दान। ३. बौद्धों का एक उत्सव जो वर्षा ऋतु बीत जाने पर होता था।
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प्रवाल  : पुं० [सं० प्र√वल् (काँपना)+ण] १. मूँगा। विद्रुम। २. नया और मुलायम पत्ता। कल्ला। कोंपल। ३. बीन, सितार आदि का बीचवाला लंबा दंड।
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प्रवाह-द्वीप  : पुं० [सं० ष० त०] प्रवाल या मूँगे के वे बड़े और लंबे-चौड़े ढूह जो समुद्रों में अनेक स्थानों में पाये जाते हैं और जिनमें मूँगे के जन्तुओं के उपनिवेश होते हैं। दे० ‘मूँगा’। (कॉरल आइलैंड)
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प्रवाल श्रेणी  : पुं० [सं०] समुद्र की सतह पर प्रकट होनेवाली मूँगे के कीड़ों से बनी हुई चट्टानों की श्रृंखला।
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प्रवाली (लिन्)  : वि० [सं० प्रवाल+इनि] १. मूँगे के रंग का। मूँगिया। २. मूँगे का। स्त्री० समुद्र में मूँगे की चट्टानों का वृत्ताकार घेरा। (एटोल)
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प्रवास  : पुं० [सं० प्र√वस् (बसना)+घञ्] १. अफनी जन्म-भूमि छोड़कर विदेश में जाकर किया जानेवाला वास। २. यात्रा। सफर ३. विदेश। परदेश।
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प्रवासन  : पुं० [सं० प्र√वस्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० प्रवासित, प्रवास्य] १. विदेश में रहना। २. देश-निकाला। ३. वध।
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प्रवास-पत्र  : पुं० [सं०] राजकीय अधिकारियों से मिलनेवाला वह अधिकारपत्र, जिससे किसी को अपना देश छोड़कर दूसरे देश में बसने या रहने की अनुमति मिलती है।
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प्रवासित  : भू० कृ० [सं० प्र√वस्+णिच्+क्त] १. देश से निकाला हुआ। जिसे देश-निकाले का दंड मिला हो। २. मारा हुआ।
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प्रवासी (सिन्)  : वि० [सं० प्रवास+इनि] [स्त्री० प्रवासिवी] जो प्रवास में हो।
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प्रवास्य  : वि० [सं० प्र√वस्+णिच्+यत्] १. विदेश भेजने के योग्य। २. जिसे देशनिकाला देना उचित हो।
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प्रवाह  : पुं० [सं० प्र√वह् (बहना)+घञ्] १. किसी तरल पदार्थ के किसी ओर वेगपूर्वक निरन्तर चलते या बहते रहने की क्रिया या भाव। २. जल की वह धारा या राशि जो किसी दिशा में वेगपूर्वक बढ़ रही हो। बहाव। ३. किसी काम या बात का ऐसा क्रम जो बराबर चलता हो और बीच में कहीं से टूटता न हो। जैसे—आज-कल सारे संसार में जन-मत का प्रवाह स्वतंत्रता की ओर है। ४. विद्युत की गति जो जल की धारा के सदृश प्रवाहमान होती है। ५. कोई अच्छा वाहन या सवारी।
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प्रवाहक  : वि० [सं० प्र√वह्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. अच्छी तरह वहन करनेवाला। २. अच्छी तरह प्रवाहित करने या बहनेवाला। पुं० राक्षस।
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प्रवाहण  : पुं० [सं० प्र√वह्+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० प्रवाहित] १. अच्छी तरह से वहन करना। २. बहाना।
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प्रवाहणी  : पुं० [सं० प्रवाहण+ङीप्] मलद्वार में सबसे ऊपर की कुंडली जो आँतों में का मल बाहर निकालती है।
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प्रवाह-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] दार्शनिक क्षेत्र में, सब प्रकार के साधना-मार्गों (अर्थात् पुष्टि-मार्ग और मर्यादा-मार्ग) से भिन्न सांसारिक सुख-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने की प्रथा या मार्ग जिस पर चलनेवाला जीव सदा जन्म-मरण के बन्धन में पड़ा रहता है।
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प्रवाहिका  : स्त्री० [सं० प्र√वह्+ण्वुल्—अक,+टाप्, इत्व] आँतों के विकार के कारण होनेवाला एक रोग जिसमें पेट में दर्द या मरोड़ होत और पतले दस्त आते हैं। पेचिश। (डिसेन्ट्री)
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प्रवाहित  : भू० कृ० [सं० प्र√वह्+णिच्+क्त] १. वहन किया या ढोया हुआ। २. जो नदी की धारा में बह जाने के लिए छोड़ा गया हो। ३. बहता हुआ या बहाया हुआ।
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प्रवाहिनी  : स्त्री० [सं० प्र√वह्+णिनि+ङीप्] नदी।
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प्रवाही (हिन्)  : वि० [सं० प्र√वह्+णिनि] [स्त्री० प्रवाहिनी] १. वहन करनेवाला। २. बहानेवाला। ३. जो बह रहा हो। ४. प्रवाह से युक्त। ५. तरल। द्रव। स्त्री० [सं० प्र√वह्+णिच्+अच्+ङीष्] बालू। रेत।
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प्रविग्रह  : पुं० [सं० प्रा० स०] राजाओ, राज्यों आदि में, पुरानी सन्धि की बातों का पालन न होना या उनके विरुद्ध व्यवहार होना। संधि भंग। (कौटिल्य)
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प्रविचय  : [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० प्रविचित] १. अनुसंधान। खोज। २. परीक्षा। जाँच।
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प्रवितत  : भू० कृ० [सं० प्र-वि√तन्+क्त] १. फैला हुआ। २. बिखरा हुआ।
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प्रविद्ध  : भू० कृ० [सं० प्र√व्यध् (बेधना)+क्त] १. फेंका हुआ। २. विद्ध।
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प्रविधान  : पुं० [सं० प्र-वि√धा (धारण करना)+ल्युट्—अन] [वि० प्राविधानिक] १. किसी विषय पर विचार करना। २. कार्य रूप देना। ३. वे उपाय जिनके अनुसार काम किया जाता हो। ४. दे० संविधि।
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प्रविधि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] [वि० प्राविधिक] १. कला, विज्ञान, यंत्र-निर्माण आदि के क्षेत्रों में, कोई काम करने या कोई चीज तैयार करने की वह विशिष्ट क्रियात्मक पारिभाषिक विधि जो अनुभव, प्रयोग आदि के आधार पर स्थिर होती है। २. उक्त विधि के आधार पर अर्जित कौशलपूर्ण दक्षता या प्रवीणता। (टेकनीक) ३. किसी विशिष्ट विषय का विधान या कानून। प्रविधान।
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प्रविधिज्ञ  : पुं० [सं०] वह जो कला, विज्ञान, यंत्रों आदि की विधियों का अच्छा ज्ञाता हो। (टेक्नीशियन)
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प्रविपल  : पुं० [सं० अत्या० स०] विपल (पल का साँठवा भाग) का एक अंश-मान।
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प्रविरत  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जिसने अपने को किसी के साथ से अथवा कहीं से अलग कर लिया हो। विरत।
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प्रविषा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] अतीस।
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प्रविष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√विश् (घुसना)+क्त] १. जिसका कहीं या किसी के अन्दर प्रवेश हो चुका हो। २. अन्दर पहुँचा, घुसा या पैठा हुआ। ३. जिसकी प्रविष्टि हुई हो।
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प्रविष्टि  : स्त्री० [प्र√विश्+क्तिन्] १. प्रवेश। २. रोकड़ बही खाते आदि में लेखे, विवरण आदि लिखना। ३. इस प्रकार लिखी जानेवाली कोई बात, रकम या विवरण। (एंट्री, उक्त दोनों अर्थों में)
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प्रविसना  : अ० [सं० प्रविश] प्रविष्ट होना। घुसना। पैठना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रवीण  : वि० [सं० प्र-वीणा, प्रा० स०, प्र√वीण+णिच्+अच्] [भाव० प्रवीणता] १. अच्छा गाने-बजाने या बोलनेवाला। २. किसी काम के सभी अंगो-उपांगों का पूरा ज्ञाता। (एक्सपर्ट) ३. कुशल। दक्ष। पुं० वह जो वीणा बजाने में दक्ष हो।
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प्रवीणता  : स्त्री० [सं० प्रवीण+तल्+टाप्] प्रवीण होने की अवस्था, गुण या भाव।
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प्रवीन  : पुं०=प्रवीण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रवीर  : वि० [स० प्रा० स०] [भाव० प्रवीरता] बहुत बड़ा वीर या योद्धा। २. उत्तम।
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प्रवृत्त  : भू० कृ० [सं० प्र√वृ (चुनना)+क्त] १. चुना हुआ। २. (दत्तक के रूप में) ग्रहण किया हुआ।
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प्रवृत्त  : भू० कृ० [सं० प्र√वृत् (बरतना)+क्त] १. जिसकी प्रवृत्ति या मन का झुकाव किसी काम या बात की ओर हो और इसीलिए जो उसके संपादन में लगा हो या लगना चाहता हो। २. किसी की ओर घुमा या मुड़ा हुआ। २. उद्यत। प्रस्तुत। ४. उत्पन्न। जात।
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प्रवृत्ति  : स्त्री० [सं० प्र√वत्+क्तिन्] १. निरंतर बढ़ते रहने की क्रिया या भाव। २. किसी काम, विषय या बात की ओर अथवा किसी विशिष्ट दिशा में प्रवृत्त होने या बढ़ने की क्रिया या भाव। ३. मनुष्य के व्यक्तित्व का वह अंग जो इस बात का सूचक होता है कि वह अपने उद्देश्यों या कार्यों की सिद्धि के लिए किस प्रकार या किस रूप में सचेष्ट रहता है। ४. मन की वह स्थिति जिसमें वह किसी ऐसे काम या बात की ओर अग्रसर होता है जो उसे प्रिय तथा रुचिकर होती है। (टेन्डेन्सी) ५. दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्रों में जीवन-यापन का वह प्रकार जिसमें मनुष्य घर-गृहस्थी सांसारिक कार्यों, सुख-भोगों आदि में प्रवृत्त रहता है। ‘निर्वत्ति’ विपर्याय। ६. मनुष्यों का साघारण आचरण व्यवहार या रहन-सहन। ७. साहित्य में, नाटकों आदि का वह तत्त्व या पद्धित जो भिन्न-भिन्न देशों के आचार-व्यवहार, रहन-सहन, वेश-भूषा आदि प्रकट या सूचित करती है। देश-भेद के विचार से ये चार प्रवृत्तियाँ मानी गई हैं—आवन्ती, दक्षिणात्य, पांचाली और मागधी। विशेष—वृत्ति और प्रवृत्ति में यह अन्तर है कि वृत्ति का मुख्य संबंध आन्तर व्यापारों से और प्रवृत्ति का वाह्य व्यापारों से होता है। वृत्ति तो केवल शब्दों के द्वारा काम करती है, पर प्रवृत्ति आचार-व्यवहार के माध्यम से व्यक्त होती है। इसलिए वृत्ति तो काव्य, नाटक आदि सभी प्रकार की साहित्यिक कृतियों में होती है; परन्तु प्रवृत्ति केवल अभिनय या नाटक में होती है। ८. वर्णन। वृत्तांत। ९. उत्पत्ति। जन्म। १॰. कार्य का अनुष्ठान या आरंभ। ११. यज्ञ आदि कृत्य। १२. हाथी का मद।
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प्रवृत्ति-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] जीवन-यापन का वह प्रकार जिसमें मनुष्य सांसारिक कार्यों और बंधनों में पड़ा रहकर दिन बिताता है। ‘निवृत्ति-मार्ग’ का विपर्याय।
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प्रवृत्ति-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] बाह्य पदार्थों से प्राप्त होगेवाला ज्ञान।
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प्रवृद्ध  : वि० [सं० प्र√वृध् (बढ़ना)+क्त] १. बहुत अधिक बढ़ा हुआ। २. खूब पक्का। प्रौढ़। ३. फैला हुआ। विस्तृत। पुं० १. अयोध्या के राजा रघु का एक पुत्र जो गुरु के शाप से १२ वर्षों के लिए राक्षस हो गया था। २. तलवार चलाने के ३२ ढंगों या हाथों मे से एक जिसे प्रसृत भी कहते हैं।
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प्रवेक्षण  : पुं०=प्रवेक्षा।
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प्रवेक्षा  : स्त्री० [सं० प्रवीक्षा] [भू० कृ० प्रेक्षित] ऐसा अनुमान या आशा कि आगे चलकर अमुक बात होगी। प्रत्याशा। (एन्टिसिपेशन)
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प्रवेक्षित  : वि० [सं० प्रवीक्षित] जिसकी प्रवेक्षा की गई हो या की जा रही हो। प्रत्याशित। (एन्टिसिपेटेड)
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प्रवेग  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० प्रावेगिक] १. तीव्र या प्रबल वेग। २. वैज्ञानिक क्षेत्र में गति या वेग का वह मान जिसमें कोई चीज आगे बढ़ रही हो अथवा कोई क्रिया हो रही हो। ३. दे० ‘संवेग’।
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प्रवेणी  : स्त्री० [सं० प्र√वेण्+इन्+ङीप्] १. सिर के बालों की चोटी कवरी। वेगी। २. हाथी की पीठ पर डाली जानेवाली रंग-बिरंगी झूल। ३. महाभारत-काल की एक नदी।
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प्रवेता (तृ)  : पुं० [सं० प्र√वी (गति)+तृच] सारथी। रथवान।
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प्रवेदन  : पुं० [सं० प्र√विद् (जानना) णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रवेदित] प्रकट करना। जाहिर करना।
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प्रवेपन  : पुं० [प्र√वेप्+ल्युट्—अन] १. हिलना-डुलना। २. काँपना।
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प्रवेश  : पुं० [सं० प्र√विश् (पैठना)+घञ्] १. किसी निश्चिय या विशिष्ट सीमा को लाँधकर उसके अन्दर जाने की क्रिया या भाव। अन्दर जाना। जैसे—गृह-प्रवेश, जल-प्रवेश। २. किसी विशिष्ट संस्था आदि में भरती होना। (एडमिशन) २. किसी विशिष्ट संस्था आदि में भरती होना। (एडमिशन) ३. गति। पहुँच। रसाई। ४. किसी विषय की होनेवाली साधारण जानकारी। (एडमिशन)
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प्रवेशक  : वि० [सं० प्र√विश्+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रवेश करनेवाला। पुं० नाटक में एक प्रकार का अर्थोपक्षेपक जो दो अंकों के बीच में होता है, और जिसमें नीच पात्रों के द्वारा किसी भावी या भूत कथांश की सूचना मात्र होती है।
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प्रवेश-द्वारा  : पुं० [सं० ष० त०] वह द्वारा या दरवाजा जिसमें से होकर अन्दर जाना पड़ता है।
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प्रवेशन  : पुं० [सं० प्र√विश्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रविष्ट, प्रवेशनीय, प्रवेश्य] १. प्रवेश करना या अन्दर जाना। घुसना। पैठना। २. सिंहद्वार।
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प्रवेशना  : अ० [सं० प्रवेश] प्रवेश करना। स० प्रविष्ट करना। प्रवेश कराना।
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प्रवेश-पत्र  : पुं० [ष० त०] १. वह पत्र जिसमें किसी को कहीं प्रवेश करने के लिए अनुमति दी गई हो। पास। २. टिकट।
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प्रवेश-शुल्क  : पुं० [ष० त०] वह शुल्क जो किसी संस्था को उसमें प्रवेश करते समय दिया जाता है।
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प्रवेशार्थी  : पुं० [सं० प्रवेश+अर्थी] वह जो कहीं प्रवेश करना या पाना चाहता हो। प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक या उद्यत व्यक्ति।
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प्रवेशिका  : स्त्री० [सं० प्र√विश्+णिच्+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] १. प्रवेश-पत्र। २. उक्त के बदले में दिया जानेवाला धन या शुल्क। ३. आज-कल कुछ संस्थाओं में एक प्रकार की परीक्षा जो आरम्भिक शिक्षा के उपरान्त ली जाती है और जिसमें उत्तीर्ण होने पर विद्यार्थी उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी होता है।
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प्रवेशित  : भू० कृ० [सं० प्र√विश्+णिच्+क्त] १. जिसे प्रविष्ट किया या कराया गया हो। २. अन्दर पहुँचाया हुआ।
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प्रवेश्य  : वि० [सं० प्र√विश्+ण्यत्] १. (स्थान) जिसमें प्रवेश हो सके। २. (व्यक्ति) जिसका कहीं प्रवेश हो सके। ३. (बाजा) जो बजाया जाता हो। पुं० प्राचीन भारत में वह माल जो विदेशों से आता था। आयात।
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प्रवेष  : पुं० [सं० विष्+घञ्]=परिवेश।
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प्रवेष्ट  : पुं० [सं० प्र√वेष्ट् (लपेटना)+अच्] १. बाहु। बाँह। २. कलाई पर का भाग। पहुँचा। ३. हाथी का मसूड़ा। ४. हाथी की पीठ, जिस पर बैठकर सवारी की जाती है।
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प्रवेष्टक  : पुं० [सं० प्र√वेष्ट्+णिच+ण्वुल्—अक] दाहिना हाथ।
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प्रवेष्टा (ष्टृ)  : वि० [सं० प्र√विश्+तृच्] प्रवेश करनेवाला। प्रवेशक।
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प्रवेसना  : अ० [सं० प्रवेश] प्रवेश करना।
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प्रव्याहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] वार्तालाप। वाद-विवाद आदि का चलता रहना।
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प्रवजन  : पुं० [सं० प्र√व्रज् (गति)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रव्रजित] १. एक स्थान से चलकर दूसरे स्थान पर जाना। २. आज-कल मुख्य रूप से (क) लोगों का अपना निवास-स्थान छोड़कर दूसरे देश या स्थान में बसने के लिए जाना। (ख) पक्षियों आदि का कुछ विशिष्ट ऋतुओं के एक स्थान से उड़कर दूसरे स्थान पर कुछ समय तक रहने के लिए जाना। (माइग्रेशन)
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प्रव्रजिक  : भू० कृ० [सं० प्र√व्रज्+क्त] [स्त्री० प्रव्रजिता] १. (व्यक्ति) जिसने संन्यास ग्रहण किया हो। २. जीविका के लिए विदेश जाकर बसा हुआ।
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प्रव्रज्या  : स्त्री० [सं० प्र√व्रज्+क्पप्+टाप्] १. चलकर कहीं दूर जाना। २. घर-बार छोड़कर दूर के किसी एकान्त स्थान में जा रहना। ३. सांसारिकं बंधनों को छोड़कर संन्यास ग्रहण करना। ४. आज-कल जीविका, निवास आदि के सुभीते के विचार से अपना देश या स्थान में जा बसना। (माइग्रेशन) ५. देश-निकाला।
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प्रव्रज्या-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] नैपाली बौद्धों का एक संस्कार जो हिन्दुओं के यज्ञोपवीत की तरह का होता है।
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प्रव्राज  : पुं० [सं० प्र√व्रज्+घञ्] १. बहुत नीची जमीन। २. संन्यास।
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प्रव्राजक  : पुं० [सं० प्र√व्रज्+ण्वुल्—अक][स्त्री० प्रव्राजिका] १. परिव्राजक। २. संन्यासी।
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प्रशंस  : स्त्री०=प्रशंसा। वि०=प्रशंस्य (प्रशंसनीय)।
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प्रशंसक  : वि० [सं० प्र√शंस् (स्तुति करना)+ण्वुल्—अक] १. प्रशंसा करनेवाला। २. किसी के अच्छे गुणों या बातों को आदर की दृष्टि से देखनेवाला। (एडमायरर)
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प्रशंसन  : पुं० [सं० प्र√शंस्+ल्युट्—अन] [वि० प्रशंसनीय, प्रशंस्य, भू० कृ० प्रशसित] प्रशंसा या तारीफ करना। सराहना।
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प्रशंसना  : स० [सं० प्रशंसन] किसी की प्रशंसा या तारीफ करना। गुणानुवाद करना। सराहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रशंसनीय  : वि० [सं० प्र√शंस्+अनीयर्] जिसकी प्रशंसा की जा सकती हो। प्रशंसा का अधिकारी या पात्र।
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प्रशंसा  : स्त्री० [सं० प्र√शंस्+अ+टाप्] [भू० कृ० प्रशंसित] १. प्रसन्नतापूर्वक किसी के अच्छे गुणों या कार्यों का किया जानेवाला ऐसा उल्लेख जिससे समाज में उसका आदर तथा प्रतिष्ठा बढ़ती हो। २. प्रसन्न होकर यह कहना कि कोई चीज बहुत अच्छी है, तथा गुण-संपन्न है। (पेज)
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प्रशंसित  : भू० कृ० [सं० प्रशंसा+इतच्] जिसकी प्रसंशा की गई हो या हुई हो। सराहा हुआ।
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प्रशंसोपमा  : स्त्री० [सं० प्रशंसा-उपमा, मध्य० स०] उपमालंकार का एक भेद जिसमें उपमेय की प्रशंसा करके उपमान को प्रशंसनीय सिद्ध किया जाता है।
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प्रशंस्य  : वि०=प्रशंसनीय।
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प्रशक्य  : वि० [सं० प्र√शक् (सकना)+यत्] अपनी शक्ति के अनुसार ठीक और पूरा काम करनेवाला।
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प्रशत्वरी  : स्त्री० [सं० प्रशत्वन्+ङीप्, र-आदेश] नदी।
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प्रशत्वा (त्वन्)  : पुं० [सं० प्र√शद्क्व+निप्, तुट्] समुद्र।
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प्रशम  : पुं० [सं० प्र√शम् (शांत होना)+घञ्] १. शमन। उपशम। शांति। २. निवृत्ति। ३. ध्वंस। नाश।
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प्रशमन  : पुं० [सं० प्र√शम्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रशमित] १, शांत करना। २. कोप, रोग आदि को दबाना। ३. नाशन। ध्वंसक। ४. मारण। वध। वि० शमन या शांत करनेवाला।
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प्रशमित  : भू० कृ० [सं० प्र√शम्+णिच्+क्त] १. शांत किया हुआ। २. दबाया हुआ।
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प्रशम्य  : वि० [सं० प्र√शम्+यत्] जिसका शमन हो सकता हो या होने को हो।
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प्रशस्त  : भू० कृ० [सं० प्र√शंस्+क्त ] १. जिसकी प्रशंसा हुई हो या की गई हो। २. जो उत्तम प्रकार का हो तथा जिसमें दोष, विकार विध्न आदि न हों।
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प्रशस्त-पाद  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्राचीन आचार्य जिनका वैशेषिक दर्शन पर ‘पदार्थ-धर्म-संग्रह’ नामक ग्रन्थ है।
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प्रशस्त-वचन  : पुं० [कर्म० स०] स्तुति।
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प्रशस्ति  : स्त्री० [सं० प्र√शंस्+क्तिन्] १. प्रशंसा। स्तुति। २. विवरण। ३. किसी के विशेषतः अपने पालक या संरक्षक के गुणों, विशेषताओं आदि की कुछ बढ़ा-चढाकर की जानेवाली विशद और विस्तृत प्रसंशा। (ग्लोरिफ़िकेशन) ४. प्राचीन भारत में, वह ईश्वर-प्रार्थना जो किसी नये राजा के सिहासन पर बैठने के समय राज्य और लोक की मंगल-कामना से की जाती थी। ५. परवर्ती भारत में (क) राजाओं के एक प्रकार के प्रख्यापन जो चट्टानों, ताम्रपत्रों आदि पर अंकित किये जाते थे। (ख) ग्रंथों के आदि या अंत का वह अंश जिसमें उनके कर्ता, रचना-काल, विषय आदि का उल्लेख रहता था। पुष्पिका। और (ग) वे प्रशंसा-सूचक पद या वाक्य जो पत्रों आदि के आरंभ में संबोधन के रूप में लिखे जाते थे।
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प्रशस्य  : वि० [सं० प्र√शंस्+क्यप्] प्रशंसनीय।
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प्रशांत  : वि० [सं० प्र√शम्+क्त] [भाव० प्रशांति] १. बहुत अधिक शान्त या स्थिर। २. (व्यक्ति) जिसकी वृत्ति निश्चल और शान्त हो।
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प्रशांत-महासागर  : पुं० [सं० कर्म० स०] विश्व का सबसे बड़ा महासगार जो अमेरिका के पश्चिमी तट से एशिया के पूर्वी तटों तक फैला हुआ है और जिसका क्षेत्रफल ६ करोड़ ८0 लाख वर्ग मील है। (पैसिफिक ओशन)
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प्रशांति  : स्त्री० [प्र√शम्+क्तिन] १. प्रशांत होने की अवस्था या भाव। २. देश, राज्य आदि में होनेवाली वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार का असंतोष या क्षोभ न हो और सब लोग शांतिपूर्वक जीवन-यापन कर रहे हों। (टैक्विलटी)
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प्रशाख  : वि० [सं० प्रशाखा, ब० स०] जिसमें या जिसकी अनेक शाखाएँ हों। पुं० गर्भ में भ्रूण की पाँचवीं अवस्था जिसमें उसकी शाखाएँ निकलने लगती है अर्थात् हाथ-पैर बनने लगते हैं।
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प्रशाखा  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी बड़ी शाखा या डाली से निकली हुई छोटी शाखा या डाल।
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प्रशाखिका  : स्त्री० [सं०] खेल के मैदान में बनी हई वह इमारत जिसमें लोग बैठकर खेल देखते हैं। २. छाया हुआ मंडप। (पैविलियन)
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प्रशासक  : पुं० [सं० प्र√शास्+ण्वुल्—अक] १. शासन करनेवाला अधिकारी। २. किसी नगर, संस्था आदि का वह प्रधान अधिकारी जिस पर वहाँ के शासन का पूरा उत्तरदायित्व तथा भार रहता है। (एडमिनिस्ट्रेटर)
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प्रशासन  : पुं० [सं० प्र√शास्+ल्युट्—अन] १. किसी नगर, संस्था आदि के अधिकारों, कर्तव्यों आदि को कार्य का रूप देना। जैसे—विद्यालय का प्रशासन। २. अधिक विस्तृत क्षेत्र में, राज्य के सार्वजनिक अधिकारों विशेषतः कार्यकारी अधिकारों की सुव्यवस्था की दृष्टि से किया जानेवाला निष्पादन। (एडमिनिस्ट्रेशन)
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प्रशासनिक  : वि० [सं० प्राशासनिक] प्रशासन-सम्बन्धी। प्रशासन का। (एडमिनिस्ट्रेटिव्)
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प्रशासनीय  : वि० [सं० प्रशासन+छ—ईय]=प्रशासनिक।
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प्रशासित  : भू० कृ० [सं० प्र√शास्+णिच+क्त] १. जिसका प्रशासन हो रहा हो। २. अच्छी तरह से शासित किया गया।
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प्रशास्ता (स्तृ)  : पुं० [सं० प्र√शास्+तृच्] १. एक ऋत्विक जो होता का सहकारी होता था और जिसे मैत्रावरुण भी कहते थे। २. ऋत्विक्। ३. मित्र। ४. शासक। ५. प्रासक।
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प्रशास्त्र  : पुं० [सं० प्रशास्तृ+अण्] १. एक प्रकार का याग। २. प्रशास्ता नामक ऋत्विक् का कर्म। ३. वह पात्र जिसमें प्रशास्ता सोमपान करता था।
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प्रशिक्षण  : पुं० [सं० प्र√शिक्ष् (सीखना)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रशक्षित] १. किसी व्यावहारिक या प्रायौगिक शिक्षा पद्धति से या नियमित रूप से दी जाने या प्रात्य की जानेवाली शिक्षा। २. उक्त पद्धति से शिक्षा प्राप्त करने या देने की अवस्था, क्रिया या भाव। (ट्रेनिंग)
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प्रशिक्षण-महाविद्यालय  : पुं० [सं० ष० त०] वह महाविद्यालय जिसमें ऊँची कक्षाओं के शिक्षक तैयार करने के उद्देश्य से लोगों को शिक्षण के सिद्घान्त बतलाये और शिक्षा देने की पद्धति सिखाई जाती है। (ट्रेनिंग कालेज)
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प्रशिक्षण-विद्यालय  : पुं० [सं० ष० त०] वह विद्यालय जिसमें भारतीय भाषाओं के शिक्षको को शिक्षण विज्ञान की शिक्षा दी जाती और शिक्षा-पद्धति सिखाई जाती है। (ट्रेनिंग स्कूल)
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प्रशिक्षा  : स्त्री०=प्रशिक्षण।
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प्रशिक्षित  : भू० कृ० [सं० प्र√शिक्ष्+क्त] (व्यक्ति) जिसे किसी प्रकार का प्रशिक्षण मिला हो। विशेष रूप से सिखाकर तैयार किया हुआ। (ट्रेन्ड)
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प्रशष्टि  : स्त्री० [सं० प्र√शास्+क्तिन्] १. अनुशासन। २. शिक्षा ३. आदेश।
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प्रशिष्य  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. शिष्य का शिष्य। २. ठंढ़ से जमा हुआ।
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प्रशीतक  : वि० [सं० प्रशीत+णिच्+ण्वुल—अक] बहत ठंढा करने या रखनेवाला। पुं० आज-कल, लोहे की एक विशिष्ट प्रकार की अलमारी जिसमें औषध, खाद्य पदार्छ आदि ठंढ़े रखने और सड़ने-गलने या विकृत होने से बचाने के लिए रखे जाते हैं। हिमीकर। रेफ्रिजरेटर)
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प्रशीतन  : पुं० [सं० प्रशीत+णिच्+ल्युट्—अन] १. बहुत अधिक ठंढ़ा करना या रखना। २. प्राकृतिक कारणों से पृथ्वी का भीतरी ताप कुछ कम होना। ३. शरीर का तापमान कम होना। शरीर ठंढ़ा होना। ४. खाद्य पदार्थों, औषधों आदि को इस प्रकार ठंढा रखना कि वे सड़ने-गलने या विकृत होने से बची रहें। (रेफ्रिजरेशन)
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प्रशीताद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें मसूड़े गरने लगते हैं; मुँह से दुर्गध आती है, हाथ-पैरों में पीड़ा होती है और रोगी दिन-पर-दिन दुबला होता जाता है। (स्कर्वी)
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प्रशोभन  : वि० [सं० प्रा० स०] बहुत अधिक शोभा देने या भला लगनेवाला। फबनेवाला। पुं० [भू० कृ० प्रशोभित] बहुत अधिक शोभा से युक्त करना।
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प्रशोभित  : भू० कृ० [सं० प्रा० स०] जो बहुत अधिक शोभा से युक्त हो या किया गया हो।
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प्रशोषण  : पुं० [सं० प्र√शुष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. अच्छी तरह सोखना। २. एक कल्पित राक्षस जिसके सम्बन्ध में यह माना जाता है कि वह बच्चों को सुखंडी रोग से पीड़ित करता है।
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प्रश्न  : पुं० [सं०√प्रच्छ (पूछना)+नङ्] १. वह बात जिसका उत्तर अभीष्ट हो या दिया जाता हो। जैसे—गणित का प्रश्न। २. वह बात जिसका उत्तर किसी से माँगा गया हो। ३. किसी से पूछी जानेवाली ऐसी गंभीर या गूढ़ बात जिसका स्पष्टीकरण सब लोग सहज में न कर सकते हों। सवाल। ४. कोई ऐसा विषय जिस पर अच्छी तरह अनुसंधान, मनन, विचार अथवा निर्णय करने की आवश्यकता हो। समस्या। सवाल। (क्वेश्चन, उक्त सभी अर्थो में) ५. न्यायालय में, उपस्थित वाद के संबंध की विचारणीय बात या बातें। ६.. न्यायालय आदि के द्वारा होनेवाला अनुसंधान या जाँच-पड़ताल। ७. उपनिषद् का नाम।
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प्रश्नचिह्न  : पुं० [सं० ष० त०] १. छपाई, लेखन आदि में, प्रश्नात्मक वाक्यों के अन्त में लगाया जानेवाला विराम चिह्न। इसका रूप यह है—(नोट ऑफ इन्टेरोगेशन) जैसे—‘क्या वह चला गया ?’ २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसी विकट समस्या जिसके निदान के संबंध में कुछ सूझ न रहा हो।
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प्रश्न-विवाक  : पुं० [सं० ष० त०] १. वैदिक काल के विद्वानों का एक भेद जो भावी घटनाओं के विषय में प्रश्नों का उत्तर दिया करते थे। २. सरपंच। पंच।
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प्रश्नावली  : स्त्री० [सं० प्रश्न—आवली, ष० त०] १. प्रश्नों की सूची। २. किसी विषय में सम्बन्ध रखनेवाले प्रश्नों की वह सूची जो आधिकारक रूप से किसी बात की जाँच करने, आँखड़े प्राप्त करने अथवा कुछ अभिमत प्राप्त करने के लिए संबद्ध लोगों के पास भेजी जाती है। (क्वेश्चनेयर)
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प्रश्नी (शिन्)  : वि० [सं० प्रश्न+इनि] प्रश्न-कर्ता।
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प्रश्नोत्तर  : पुं० [सं० प्रश्न-उत्तर, द्व० स०] १. प्रश्न और उसका उत्तर। सवाल और जवाब। २. पूछ-ताछ। ३. साहित्य में उत्तर नामक अर्थालंकार का एक भेद जिसमें कुछ प्रश्न और उनके उत्तर रहते हैं।
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प्रश्नोत्तरी  : स्त्री० [सं० प्रश्नोत्तर+अच्+ङीष्] किसी विषय से सम्बन्ध रखनेवाले प्रश्नों और उनके उत्तरों का संग्रह। विशेषतः ऐसा संग्रह जिसमें कुछ प्रश्न और उनके उत्तर देकर उस विषय का स्वरूप स्पष्ट किया जाता है। (कैटेकिज्म)
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प्रश्नोपनिषद्  : स्त्री० [सं० प्रश्न-उपनिषद्, मध्य० स०] अथर्ववेद की एक उपनिषद्।
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प्रश्रब्धि  : स्त्री० [सं० प्र√श्रम्भ् (विश्वास)+क्तिन्]=विश्राब्धि।
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प्रश्रय  : पुं० [सं० प्र√श्रि+अच्] १. आश्रयस्थान। २. आधार। टेक। सहारा। ३. नम्रता। विनय।
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प्रश्रयण  : पुं० [सं० प्र√श्रि+ल्युट्—अन] १. विनय। नम्रता। २. शिष्टाचार। ३. सौजन्य।
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प्रश्रयी(यिन्)  : वि० [सं० प्रश्रय+इनि] १. शिष्ट। सुजन। भलामानुस। २. नम्र। विनयी। ३. धीर। शान्त। ४. शिष्ट। सज्जन।
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प्रश्रित  : भू० कृ० [सं० प्र√श्रि+क्त] विनीत।
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प्रश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√श्लिष् (चिपटना)+क्त] १. जुड़ा हुआ। युक्त। २. युक्तियुक्त।
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प्रश्लेष  : पुं० [सं० प्र√श्लिष्+घञ्] १. घनिष्ट संबंध २. व्याकरण में, स्वरों की संधि होने पर उनका परस्पर मिलकर एक होना।
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प्रश्वास  : पुं० [सं० प्र√श्वस् (साँस लेना) १. वह वायु जो साँस लेने के समय नथने से बाहर निकलती है। बाहर आता हुआ साँस। २. उक्त प्रकार से वायु बाहर निकलने की क्रिया या भाव।
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प्रष्टव्य  : वि० [सं०√प्रच्छ्+ तव्यत्] प्रश्न के रूप में पूछे जाने के योग्य।
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प्रष्टा (ष्ट्)  : वि० [सं०√प्रच्छ्+तृच्] पूछनेवाला। प्रश्नकर्ता।
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प्रष्टि  : पुं० [सं०√प्रच्छ्+ति (बा०)] १. वह घोड़ा या बैल जो तीन घोड़ों के रथ या तीन बैलों की गाड़ी में सब से आगे जुता। रहता है। २. जोड़ी में दाहिनी ओर जोता जानेलाला घोड़ा या बैल। ३. तिपाई।
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प्रष्ठ  : वि० [सं० प्र√स्था (ठहरना)+क, षत्व] १. आगे-आगे चलनेवाला अग्रगामी। अगुआ। २. प्रधान। मुख्य। ३. श्रेष्ठ।
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प्रसंख्या  : स्त्री०[सं० प्रा० स०] १. दो या अनेक संख्याओं को जोड़ने से प्राप्त होनेवावा फल। जोड़। योग।
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प्रसंख्यान  : पुं० [सं० प्र—सम्√ख्या+ल्युट—अन] १. जोड़ करना या लगाना। २. सम्यक् ज्ञान। सत्य ज्ञान। ३. आत्मानुसंधान। ध्यान।
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प्रसंग  : पुं० [सं० प्र√सञ्ज् (मिलना)+घञ्] ४. संबंध। लगाव। २. अनुराग। आसक्ति। २. मैथन। संभोग। ४. विवेचन विषय अथवा बातचीत का वह पहलेवाला अंश जिसके संबंध में अब कुछ और कहा जा रहा हो। (कानटेक्ट) ५. प्रकरण। ६. हेतु। ७. फैलाव।
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प्रसंग-विध्वंस  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में, मान-मोचन के छः प्रकारों में से एक जिसमें मानिनी का मान उसे भय दिखलाकर दूर किया जाता है।
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प्रसंगविभ्रंश  : पुं०=प्रसंग-विध्वंस।
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प्रसंग-सम  : पुं० [सं० तृ० त०] न्याय में, यह कथन कि प्रमाण का भी प्रमाणित सिद्ध करके दिखलाओ। (एक प्रकार का दोष)
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प्रसंगी (गिन्)  : वि० [सं० प्रसंग+इनि] १. प्रसंगयुक्त। २. प्रसंग या मैथुन करनेवाला। ३. अनुरक्त।
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प्रसंधान  : पुं० [सं०-सम्√धा (धारण)+ल्युट्—अन] संधि। योग।
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प्रसंविदा  : स्त्री० [सं०] वह पत्र जिसमें कोई बात करने या न करने के संबंध में लिखित रूप में वचन दिया गया हो। (कावनेन्ट)
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प्रसंसना  : सं०=प्रसंशना (प्रशंसा करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसक्त  : भू० कृ० [सं० प्र√सज्ज् (मिलना)+क्त] १. किसी के साथ लगा हुआ। संश्लिष्ट। २. बराबर या सदा साथ लगा रहनेवाला। ३. सबंद्ध। ४. आसक्त। ५. प्रस्तावित।
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प्रसक्ति  : स्त्री० [सं० प्र√सञ्ज्+क्तिन] १. प्रसंग। संपर्क। २. अनुमिति। ३. आपत्ति। ४. व्याप्ति।
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प्रसज्य  : वि० [सं० प्र√सञ्ज्+ण्यत्] १. जो संबद्घ किया जाय। २. जो प्रयोग मे लाया जाय। ३. संभव।
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प्रसज्य प्रतिषेध  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] ऐसा निषेध जिसमें वर्जन का भाव ही प्रधान होता है और अनुमति, आज्ञा या विधि अल्प तथा गौण रहती है। ’पर्युदास’ का विपर्याय।
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प्रसणां  : पुं० [?] शत्रु। उदा०—प्रसणां सोण अहोनसपातल यग सावरत रहै षूमांण।—प्रिथीराज।
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प्रसति  : स्त्री० [सं० प्र√सद्+क्तिन] १. प्रसन्नता। २. शुद्धि।
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प्रसत्वा (त्वन्)  : पुं० [सं० प्र√सद्+वनिप्] १. धर्म। २. प्रजापति।
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प्रसद्द  : पुं० [सं० प्र-शब्द] जोर का शब्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसन  : पुं० [सं० प्रस्त्रवण] गिरना, झरना या बहना। उदा०—पेखि रुषमणी जल प्रसन।—प्रिथीराज। पुं०=प्रश्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=प्रसन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसन्न  : वि० [सं० प्र√सद्+क्त] [भाव० प्रसन्नता] १. जो अनुकूल परिस्थितियों से संतुष्ट और प्रफुल्लित रहता हो। २. जो किसी कार्य या बात के गुणों या फलों को देखकर संतुष्ट तथा प्रफुल्लित हुआ हो। पुं० महादेव। शिव। स्त्री०=पसंद।
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प्रसन्नता  : स्त्री० [सं० प्रसन्न+तल्+टाप्] १. प्रसन्न होने या रहने की अवस्था या भाव। खुशी हर्ष। २. अनुग्रह। ३. निर्मलता। स्वच्छता।
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प्रसन्न-मुख  : वि० [सं० ब० स०] जिसके चेहरे से ही उसका प्रसन्न होना प्रकट हो रहा हो।
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प्रसन्ना  : स्त्री० [सं० प्रसन्न+टाप्] १. प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। २. चावल से बनाई हुई एक तरह की शराब।
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प्रसन्नात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० प्रसन्न-आत्मन्, ब० स०] सदा प्रसन्न रहनेवाला। पुं० विष्णु।
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प्रसन्नित  : वि०=प्रसन्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसभ  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बल। शक्ति। २. बल-प्रयोग। दमन। ४. बलात्कार। क्रि० वि० १. बलपूर्वक। २. दमन करते हुए। ३. बहुत अधिक।
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प्रसम  : वि० [सं० प्रा० स०] [भाव० प्रसमता] जो किसी अपनाये हुए प्रचलित, मानक अथवा मान्य आदर्श मान, सिद्धांत आदि के अनुरूप या अनुसार हो। प्रसामान्य। (नार्मल)
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प्रसमतः  : क्रि० वि० [सं० प्रश+तम्] दें० सामान्यतः’।
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प्रसमता  : स्त्री० [सं० प्रश+तल्+टाप्] प्रसम होने की अवस्था या भाव। (नार्मेल्टी)
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प्रसमा  : स्त्री० [हिं० प्रसम से] उन्नति, सफलता आदि की दृष्टि से माना हुआ वह मानक जो प्रायः किसी समूह की औसत उन्नति, सफलता आदि का सूचक होता है। प्रसामान्यक। (नार्म) जैसे—यदि कुछ स्थानों पर जाँच करके यह स्थिर कर लिया जाय कि १0 या १२ वर्ष की अवस्था के लड़के इतनी बातें जान या सीख सकते हैं तो यही मानक साधारणतः उक्त अवस्था के सभी लड़कों की योग्यता की प्रसमा के रूप में मान लिया जायगा।
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प्रसर  : पुं० [सं० प्र√सृ+अप्] १. आगे बढ़ना। २. ऐसी गति जिसमें कोई बाधा न हो। ३. फैलाव। विस्तार। व्याप्ति। ४. वेग। तेजी। ५. वात, पित्त आदि प्रकृतिय़ों का संचार या घटाव-बढ़ाव। (वैद्यक) ६. राशि। समूह। ७. प्रधानता। प्रकर्ष। ८. युद्ध। ९. न्यायालय का वह आज्ञापत्र जिसमें किसी व्यक्ति को न्यायलाय में उपस्थित होने अथवा कोई चीज उपस्थित करने का आदेश होता है। आदेशिका। (प्रोसेस)
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प्रसरण  : पुं० [सं० प्र√सृ+ल्युट्—अन] [वि० प्रसरणीय, प्रसरित] १. आगे की ओर खिसकना, फैलना या बढ़ना। २. व्याप्ति। ३. विस्तार। ४. उत्पत्ति। ५. अपने काम में लगना। ६. सेना का लूट-पाट के लिए इधर-उधर घूमना।
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प्रसरणी  : स्त्री० [सं० प्र√सृ+अनि+ङीप्] १. प्रसरण। २. सेना का वह घेरा जो विपक्षी सेना के चारों ओर बनाया जाता है।
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प्रसर-शुल्क  : पुं० [सं० ष० त०] वह शुल्क जो न्यायालय से कोई प्रसर (देखें) निकलवाने के लिए देना पड़ता है। (प्रोसेस फ़ी)
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प्रसरा  : स्त्री० [सं० प्रसर+टाप्] प्रसारणीय (लता)।
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प्रसरित  : भू० कृ० [सं० प्रसृत] १. पसर या फैला हुआ। २. आगे की ओर निकला या बढ़ा हुआ। ३. विस्तृत।
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प्रसर्ग  : पुं० [सं० प्र√सृज् (त्यागना)+घञ्] १. गिराना। २. फेंकना। ३. अलग करना। ४. बरसाना।
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प्रसर्जन  : पुं० [सं० प्र√सृज्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रसर्जित] १. गिराना। २. फेंकना।
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प्रसर्प  : पुं० [सं० प्र√सृ (गति)+घञ्] १. आगे की ओर चलना। गमन। २. एक प्रकार का सामगान।
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प्रसर्पक  : वि० [सं० प्र√सृप्+ण्वुल्—अक]=प्रसर्पी।
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प्रसर्पण  : पुं० [सं० प्र√सृप्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रसर्पित] १. आगे की ओर चलना या बढ़ना। २. घुसना। पैठना। ३. चारों ओर से घेरना या छाना। ४. शत्रु-सेना को घेरने के उद्देश्य से सेना का चारों ओर फैलना। ५. शरण या रक्षा का स्थान। ६. गति। चाल।
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प्रसर्पी (पिन्)  : वि० [सं० प्र√सृप्+णिनि] १. रेंगनेवाला। २. आगे की ओर बढ़नेवाला। गतिशील। ३. बिना बुलाये कहीं जा पहुँचने या घुस आनेवाला।
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प्रसव  : पुं० [सं० प्र√सू (बच्चा)+अप्] १. स्त्री का अपने गर्भ से बच्चा जनने की क्रिया या भाव। जनना। प्रसूति। (डेलिवरी)। २. इस प्रकार बच्चे का होनेवाला जन्म। उत्पत्ति। ३. जन्मा हुआ बच्चा। अपत्य। संतान। ४. फल। ५. फूल। ६. बढ़ती। वृद्धि। ७. विकास।
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प्रसवक  : पुं० [सं० प्रसव√कै (प्रतीत होना)+क] चिरौंजी का पेड़।
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प्रसवन  : [सं० प्र√सू+ल्युट्—अन] [वि० प्रसवनीय] स्त्री का अपने गर्भ से बच्चा जनना। प्रसव करना।
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प्रसवना  : स० [सं० प्रसवन] प्रसव करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ० प्रसव होना।
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प्रसव-बंधन  : पुं० [सं० ब० स०] वनस्पतियों में वह पतला सींका जिसके सिरे पर पत्ता या फूल लगता है। नाल।
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प्रसवावकाश  : पुं० [सं० प्रसव-अवकाश, च० त०] वह अवकाश या रियायती छुट्टी जो कहीं नौकरी करनेवाली गर्भवती स्त्रियों को प्रसव के दिनों में दी जाती है। (मैटर्निटी लीव)
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प्रसविता (तृ)  : वि० [सं० प्र√सू+तृच्] [स्त्री० प्रसवित्री] १. जन्म देनेवाला। २. उत्पन्न करनेवाला। पुं० जनक। पिता। बाप।
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प्रसवित्री  : वि० [सं० प्रसवितृ+ङीप्] १. जन्म देनेवाली। स्त्री० माता। माँ।
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प्रसविनी  : वि० स्त्री० [सं० प्र√सू+इनि+ङीष्] अपने गर्भ से संतान उत्पन्न करनेवाली। जननेवाली।
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प्रसवी (विन्)  : वि० [सं० प्र√सू+इनि] [स्त्री० प्रसविनी] प्रसव करने या जन्म देनेवाला।
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प्रसह  : पुं० [सं० प्र√सह् (सहना)+अच्] १. शिकारी चिड़िया। २. अमलतास।
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प्रसहन  : पुं० [सं० प्र√सह्+ल्युट्—अन] १. हिंसक पशु। २. आलिंगन। सहनशीलता। क्षमा। वि० हिंसक। २. सहनशील।
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प्रसह्य-हरण  : पुं० [सं० सुप्सपा स०] किसी से जबरदस्ती कोई चीज छीनना।
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प्रसाद  : पुं० [सं० प्र√सद्+घञ्] १. प्रसन्नता। २. किसी पर की जानेवाली ऐसी कृपा जिससे उसका बहुत बड़ा उपकार होता हो। ३. ईश्वरीय कृपा। ४. देवी-देवता को भोग लगाई हुई वह वस्तु जो भक्त जनों में बाँटी जाती है। क्रि० प्र०—बँटना।—बाँटना। ५. उक्त का वह अंश जो किसी भक्त जन को प्राप्त होता है। ६. साधु-संतों की परिभाषा में, भोजन जिसका पहले देवता को भोग लगाया जाता है और जो बाद में उसके प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। मुहा०—प्रसदा पानी=यह समझकर भोजन करना कि यह देवता के अनुग्रह का फल और उसकी प्रसन्नता का सूचक है। ७. भोजन। (पश्चिम) क्रि० प्र०—छकना।—पाना। ८. देवता, गुरुजन आदि को देने पर बची हुई वस्तु जो काम में लाई जाय। ९. ऐसी चीज जो किसी गुरुजन से उसके अनुग्रह के फल-स्वरूप मिली हो। १॰. साहित्य में, काव्य का एक गुण जो उस व्यवस्था में माना जाता है। जब काव्य-रचना बहुत ही सरल, सहज और स्वच्छ होती है और जिसमें पाठक या श्रोता को उसका आशय समझने में कुछ भी कठिनता नहीं होती; तथा उसके हृदय में उद्दिष्ट भावों का संचार या परिपाक अनायास हो जाता है। ११. शब्दालंकार के अंतर्गत कोमला वृत्ति जो काव्य में उक्त गुण उत्पन्न करनेवाली होती है। १२. धर्म की पत्नी मूर्ति से उत्पन्न एक पुत्र। १३. निर्मलता। स्वच्छता। १४. स्वास्थ्य। पुं० दे० ‘प्रासाद’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसादक  : वि० [सं० प्र√सद्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. बहुत बड़ी कृपा करनेवाला। २. आनन्द बढ़ाने या प्रसन्न करनेवाला। ३. प्रीतिकार। ४. निर्मल। स्वच्छ। पुं० १. प्रसाद। २. देवधन। ३. बथुए का साग।
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प्रसाद-दान  : पुं० [सं० ष० त०] वह चीज जो प्रसन्न होकर या प्रेम भाव से किसी को दी जाय। (एफेक्शन गिफ्ट)
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प्रसादन  : पुं० [सं० प्र√सद्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी को अपने अनुकूल रखने के लिए प्रसन्न करना। २. अन्न। वि० १. प्रसन्न करनेवाला। २. आनन्द या सुख देनेवाला।
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प्रसादना  : स्त्री० [सं० प्र√सद्+णिच्+युच्—अन+टाप्] सेवा। परिचर्या। स० [सं० प्रसादन] प्रसन्न करना(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० प्रसन्न होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसादनीय  : वि० [सं० प्र√सद्+णिच्+अनीयर्] जिसे प्रसन्न किया जा सके या प्रसन्न करना उचित हो।
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प्रसादित  : भू० कृ० [सं० प्र√सद्+णिच्+क्त] १. जो प्रसन्न किया गया हो। २. आराधित। ३. साफ या स्वच्छ किया हुआ।
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प्रसादी (दिन्)  : वि० [सं० प्र√सद्+णिच्+णिनि] १. प्रसन्न करनेवाला। २. प्रीति या प्रेम उत्पन्न करनेवाला। प्रीतिकार। ३. शांत। ४. अनुग्रह या कृपा करनेवाला। ५. निर्मल। स्वच्छ। स्त्री० [सं० प्रसाद] १. देवताओं को चढ़ाया हुआ पदार्थ। नैवेद्य। प्रसाद। २. उक्त का वह अंश जो प्रसाद के रूप में लोगों को दिया जाता है। ३. वह चीज जो बड़े लोग प्रसन्न होकर छोटों को देते हैं।
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प्रसाद्य  : वि० [सं० प्र√सद्+णिच्+यत्] [स्त्री० प्रसाद्या] १. जिसे प्रसन्न करना या रखना उचित हो। २. जिसे प्रसन्न किया या रखा जा सके।
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प्रसाधक  : वि० [सं० प्र√साध्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रसाधिका] १. प्रसाधन करनेवाला। २. कार्य का निर्वाह या सम्पादन करनेवाला। ३. अलंकृत करने या सजानेवाला। सजावट करनेवाला। ४. किसी के शरीर या अंगों का श्रृंगार करनेवाला। पुं० प्राचीन भारत में, वह भृत्य जो राजाओं को वस्त्र, आभूषण आदि पहनाता था।
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प्रसाधन  : पुं० [सं० प्र√साध्+णिच्+युच्—अन] १. किसी (व्यक्ति) को सजाने के लिए वस्त्र, अलंकार आदि पहनाना। श्रृंगार करना। सजाना। २. कंघी से सिर के बाल झाड़ना। ३. वे कार्य जो शरीर सजाने अथवा उसका रूप या सौंदर्य बढ़ाने के लिये किये जाते हैं। ४. उक्त प्रकार के कार्यों के लिए उपयोगी आवश्यक सामग्री। (टॉयलेट)। ५. वेश-भूषा। ६. ठीक तरह से कोई काम पूरा करना। कार्य का सम्पादन। ७. किसी चीज को अच्छी तरह काट-छाँटकर अथवा परिष्कृत करके काम में आने के योग्य बनाना। (ड्रेसिंग) ८. वे पदार्थ सा सामग्री जो किसी काम के लिए आवश्यक और उपयोगी होते हैं। उपस्कर। सज्जा। (इक्विपमेन्ट)
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प्रसाधनी  : स्त्री० [सं० प्रसाधन+ङीप्] कंघी।
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प्रसाधिका  : स्त्री० [सं० प्रसाधक+टाप्,इत्व] १. प्राचीन भारत में वह दासी जो रानी-महारानियों की कंघी-चोटी करती और उनको गहने कपड़े आदि पहचानती थी। २. निवार नामक घान।
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प्रसाधित  : भू० कृ० [सं० प्र√साध्+णिच्+क्त] १. जिसे आभूषण, वस्त्र आदि पहनाकर सजाया गया हो। सजाया हुआ। २. सुसंपादित।
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प्रसामान्य  : वि० [सं०]=प्रसम।
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प्रसार  : पुं० [सं० प्र√सृ (गति)+णिच्+घञ्] १. दीर्घ अवकाश में अथवा दीर्घ समय तक फैले रहने या होने की अवस्था, गुण या भाव। २. संचार। ३. गमन। ४. निकास। इधर-उधर जाना। ६. वह सीमा जहाँ तक कोई चीज फैली हो या पहुँचती हो। (एक्सटेंट)
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प्रसारण  : पुं० [सं० प्र√सृ+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रसारित, वि० प्रसारणीय, प्रसार्य] १. दीर्घ अवकाश या काल में किसी चीज को फैलाना। २. संस्था आदि का कारोबार अथवा अधिक्षेत्र विस्तृत प्रदेश में विशेषतः नये प्रदेशों तक बढ़ाना। ३. रेड़ियो के द्वारा अथवा ऐसे ही किसी और साधन द्वारा कविता, गीत, समाचार आदि दूर-दूर के लोगों को सुनाने के लिए आकाशवाणी द्वारा चारों ओर फैलाना। (ब्राडकास्टिंग)
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प्रसारणीय  : वि० [सं० प्र√सृ+णिच्+अनीयर्] १. जो फैलाया जा सके। २. जो प्रसारित किये जाने को हो अथवा उसके योग्य हो।
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प्रसारना  : स० [सं० प्रसारण] १. प्रसारण करना। रेड़ियो आदि के द्वारा गीत, समाचार आदि प्रसारित करना। २. पसारना। फैलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसारिणी  : स्त्री० [सं० प्रसारिन्+ङीप्] १. गंधप्रसारिणी नामक लता। गंध प्रसारी। २. लज्जावंती या लजालू नाम की लता। ३. देव-धान्य। ४. वह सेना जो चारों ओर लूट पाट करने के लिए निकली हो। ५. संगीत में, मध्यम स्वर की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रुति।
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प्रसारित  : भू० कृ० [सं० प्र√सृ+णिच्+क्त] १. पसारा या फैलाया हुआ। २. रेड़ियो आदि के द्वारा जिसका प्रसारण किया गया हो।
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प्रसारी (रिन्)  : वि० [सं० प्र√सृ+णिनि] [स्त्री० प्रसारिणी] १. प्रसारण करनेवाला। २. फैलाने या फैलनेवाला।
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प्रसार्य  : वि० [सं० प्र√सृ+णिच्+यत्]=प्रसारणीय।
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प्रसाव  : पुं० [सं० प्रसाद] १. अनुग्रह। प्रसाद। उदा०—...सपने भी मुझ पर सही, यदि हरि-गौरि प्रसाव।—निराला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=प्रस्ताव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसावक  : वि० [सं० प्र√सू+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रसाविका] प्रसव करानेवाला।
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प्रसाविका  : स्त्री० [सं० प्रसावक+टाप्, इत्व] वह स्त्री जो गर्भवती स्त्रियों के सन्तान प्रसव करने के समय उनकी देख-भाल और सेवा-शुश्रूषा करने का पेशा करती हो। प्रसव करानेवाली दाई। धात्री। (मिड-वाइफ़)
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प्रसाह  : पुं० [सं० प्र+सह्√घञ्] १. आत्मशासन। संयम। २. किसी पर विजय प्राप्त करना। किसी को हराना।
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प्रसित  : भू० कृ० [सं० प्र√सि (बंधन)+क्त] [भाव० प्रसिति] १. कसा या बँधा हुआ। २. लक्षित और स्पष्ट। पुं० पीब। मवाद।
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प्रसिति  : स्त्री० [सं० प्र√सि+क्तिन्] १. कँसे या बँधे होने की अवस्था या भाव। २. वह चीज जिससे किसी को कसा या बाँधा गया हो। जैसे—रस्सी। ३. जाल। ४. रश्मि। ५. ज्वाला। लपट।
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प्रसिद्ध  : वि० [सं० प्र√सिध्+क्त] [भाव० प्रसिद्धि] १. (व्यक्ति) जो अपने कार्यों, गुणों आदि के फलस्वरूप ऐसी स्थिति में हो कि उसे किसी विशिष्ट क्षेत्र के लोग अच्छी तरह जानते हों। ख्यात। मशहूर। २. (वस्तु या व्यवहार) जो विशेष रूप से प्रचलन में हो और इसी लिए जिसे बहुत से लोग जानते हों। ३. अलंकृत। भूषित। क्रि० वि० स्पष्ट शब्दों में। साफ-साफ। उदा०—दै बरदान प्रसिद्ध सिद्ध कीन्हौं रण रुद्धहि।—केशव।
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प्रसिद्धता  : स्त्री० [सं० प्रसिद्ध+तल्+टाप्]=प्रसिद्धि।
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प्रसिद्धि  : स्त्री० [सं० प्र√सिध्+क्तिन] १. प्रसिद्ध होने की अवस्था, गुण या भाव। ख्याति। मशहूरी। २. बनाव-सिंगार। भूषा।
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प्रसीदिका  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] छोटा उद्यान। वाटिका।
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प्रसुत  : भू० कृ० [सं० प्र√सु (निचोड़ना)+क्त] दबा या निचोड़कर निकाला हुआ। पुं० एक संख्या का नाम।
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प्रसुप्त  : भू० कृ० [सं० प्र√स्वप् (सोना)+क्त] [भाव० प्रसुप्ति] १. अच्छी तरह या गहरी नींद में सोया हुआ। २. इस प्रकार अन्दर छिपा हुआ या दबा हुआ कि बाहर से अस्तित्व का कोई लक्षण दिखाई न दे या अपना कार्य न कर रहा हो। सुषुप्त। जैसे—शरीर के अन्दर रोग के प्रसुप्त कीटाणु या विष।
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प्रसुप्ति  : स्त्री० [सं० प्र√स्वप्+क्तिन्] गहरी या गाढ़ी नींद। सुषुप्ति।
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प्रसू  : वि० [सं० प्र√सू (जानना)+क्विप्] १. जाननेवाली। जन्म-दात्री। २. उत्पन्न करनेवाली। जैस—रत्न-प्रसू भूमि। स्त्री० १. माता। जननी। २. घोड़ी। ३. मुलायम घास। ४. कुशा। ५. केला।
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प्रसूत  : भू० कृ० [सं० प्र√सू+क्त] [स्त्री० प्रसूता] १. (वह) जो प्रसव के रूप में हुआ हो। उत्पन्न। पैदा। पुं० १. प्रसव-काल के समय होनेवाला एक रोग। २. फूल। ३. चाक्षुष। मन्वंतर के एक देवगण।
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प्रसूता  : स्त्री० [सं० प्रसूत+टाप्] १. वह स्त्री जिसने प्रसव किया अर्थात् बच्चा जना हो। नवजात शिशु की माता। २. घोड़ी।
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प्रसूतालय  : पुं० [सं० प्रसूता-आलय, ष० त०]=प्रसूति-भवन।
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प्रसूति  : स्त्री० [सं० प्र√सू+क्तिन्] १. स्त्री का प्रसव करना। बच्चे को जन्म देना। २. जीवों का बच्चा या अंडे देना। ३. उद्भव। उत्पत्ति स्थान। ४. संतति। ५. प्रसूता। जिसने प्रसव किया हो। ६. दक्ष प्रजापति की स्त्री सती की माता। ७. कारण।
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प्रसूतिका  : स्त्री० [सं० प्रसूत+ठन्—इक,+टाप्] प्रसूता स्त्री।
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प्रसूतिज  : पुं० [सं० प्रसूति√जन् (उत्पन्न होना)+ड] गर्भवती को प्रसव के समय होनेवाली पीड़ा।
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प्रसूतिज्वर  : पुं० [ष० त०] प्रसव के कुछ दिन बाद होनेवाला ज्वर।
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प्रसूति-भवन  : पुं० [ष० त०] १. अस्पतालों आदि का वह कमरा जिसमें रह कर स्त्रियाँ प्रसव करती अर्थात् बच्चा जन्मती हैं। (लेबररूम) २. वह घर या स्थान जहाँ स्त्रियों को बच्चे जनाने का काम होता हो।
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प्रसूति-विज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें गर्भवती स्त्रियों को संतान प्रसव कराने की कला या विद्या का विवेचन होता है। (अब्स्ट्रेट्रिक्स)
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प्रसूत्यवकाश  : पुं० [प्रसूति-अवकाश, च० त०] दे० ‘प्रसवावकाश’।
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प्रसून  : वि० [सं० प्र√सू+क्त] १. जन्मा हुआ। प्रसूत। २. उत्पन्न पैदा। पुं० १. पुष्प। फूल। २. कली।
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प्रसूनक  : पुं० [सं० प्रसून+कन्] १. फूल। २. कली। ३. एक तरह का कदंब।
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प्रसून-शर  : पुं० [ब० स०] कामदेव।
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प्रसृत  : भू० कृ० [सं० प्र√सृ (गति)+क्त] १. फैला हुआ। २. बढ़ा हुआ। ३.. विनीत। ४. भेजा हुआ। ५. तत्पर। लगा हुआ। ६. प्रचलित। ७. इन्द्रियलोलुप। पुं० १. हथेली भर का मान। २. अर्द्धांजलि। ३. दो पलों का मान।
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प्रसृतज  : पुं० [सं० प्रसृत√जन्+ड] महाभारत के अनुसार वह पुत्र जो व्यभिचार से उत्पन्न हुआ हो। जारज पुत्र।
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प्रसृति  : स्त्री० [सं० प्र√सृ+क्तिन्] १. फैले हुए होने की अवस्था या भाव। प्रसार। फैलाव। २. संतति। संतान। ३. गहरी की हुई अंजलि या हथेली। ४. सोलह तोले की एक पुरानी तौल। पसर। ५. जल्दी। शीघ्रता।
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प्रसृष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√सृज (सर्जन करना)+क्त] त्यागा हुआ। परित्यक्त।
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प्रसेक  : पुं० [सं० प्र√सिच् (सींचना)+घञ्] १. सेचन। सींचना। २. निचुड़ने या निचोड़ने की क्रिया या भाव। ३. निचुड़ने या निचोड़ने पर निकलनेवाला जल या और कोई तरल पदार्थ। ४. छिड़काव। ५. थोड़ा-थोड़ा बहना। रसना। ६. बाहर निकलना। ७. जुकाम या सरदी में नाक से पतला पानी निकलने का रोग। ८. वीर्य के पतले होकर, धीरे-धीरे निकलते रहने का रोग। जिरियान।
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प्रसेकी (किन्)  : वि० [सं० प्र√सिच्+घिणुन्] १. बहनेवाला। २. जिससे मवाद निकलता रहे। ३. ऐसे व्रणवाला। ४. कै करता हुआ। पुं० एक प्रकार का असाध्य व्रण या घाव।
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प्रसेद  : पुं०=प्रस्वेद (पसीना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रसेदिका  : स्त्री०=प्रसीदिका (वाटिका)।
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प्रसेन  : पुं०=प्रसेनजित्।
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प्रसेनजित्  : पुं० [सं०] भागवत् के अनुसार, इसी के पास वह स्यमंतक मणि थी जिसे चुराने का कलंक श्रीकृष्ण पर लगा था।
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प्रसेव  : पुं० [सं० प्र√सिव् (सीना)+घञ्] १. बीन की तूँबी। २. थैली।
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प्रसेवक  : पुं० [सं० प्र√सिव्+ण्वुल्—अक] १. वह जो थैलियाँ बनाता हो। २. दे० ‘प्रसेव’।
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प्रसोपा  : स्त्री० [अं० प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आरंभिक अक्षर प्र+सो+पा] भारत का एक राजनीतिक दल और जिसका पूरा नाम प्रजा सोशलिस्ट था और अब जिसका संयुक्त समाजवादी दल में विलयन हो गया है।
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प्रस्कंदन  : पुं० [सं० प्र√स्कन्द् (गति)+ल्युट्—अन्] १. कूदकर कोई चीज लाँघना। २. इस प्रकार भरी जानेवाली छलाँग। ३. महादेव। शिव। ४. जुलाब। विरेचन। ५. अतिसार।
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प्रस्कन्न  : वि० [सं० प्र√स्कंद+क्त] २. गिरा हुआ। २. समाज का नियम भंग करनेवाला। ३. जो समाज का नियम तोड़ने के कारण पतित समझा जाता हो। ४. जिस पर आक्रमण किया गया हो। पुं० घोड़ों का एक प्रकार को रोग।
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प्रस्खलन  : पुं० [सं० प्र√स्खल् (पतन)+ल्युट्—अन]=स्खलन।
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प्रस्तर  : पुं० [सं० प्र√स्तृ (फैलाना)+अच्] १. पत्थर। २. सम-तल स्थान। ३. कुश या डाभ का पूला। ४. पत्तों आदि का आसन या बिछावन। ५. बिछौना। बिस्तर। ६. चमड़े की थैली। ७. संगीत में, एक प्रकार का ताल। ८. दे० ‘प्रस्तर’।
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प्रस्तर कला  : स्त्री० [ष० त०] पत्थरों को काट-छाँट या गढ़कर उनकी विशिष्ट आकृतियों बनाने और उन पर ओप आदि लाने की कला या विद्या।
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प्रस्तरण  : पुं० [सं० प्र√स्तृ+ल्युट्—अन] १. बिछाना। फैलाना। २. बिछावन।
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प्रस्तरणी  : स्त्री० [सं० प्रस्तरण+ङीप्] १. श्वेत दूर्वा। २. गोजिह्वा।
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प्रस्तरभेद  : पुं० [ष० त०] पाषाण भेद।
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प्रस्तर मुद्रण  : पुं० [तृ० त०] छापे या मुद्रण का वह प्रकार जिसमें छापे जानेवाले लेख आदि पहले एक विशेष प्रकार से तैयार किये हुए कागज पर लिखकर तब एक विशेष प्रकार के पत्थर पर उतारे और तब छापे जाते हैं। (लीथोग्राफ)
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प्रस्तरोपल  : पुं० [सं० प्रस्तर-उपल, मयू० स०] चंद्रकांत मणि।
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प्रस्तार  : पुं० [सं० प्र√स्तृ+घञ्] १. फैलाव। विस्तार। २. अधिकता। ३. तह। परत। ४. सीढ़ी। ५. समतल स्थान। ६. ऐसा मैदान जिसमें दूर तक घास की घास हो। (लॉन) ७. घास-फूस, पत्तियों आदि का बिछौना। ८. छंदः शास्त्र में नौ प्रत्ययों में से पहला प्रत्यय जिसकी सहायता से यह जाना जाता है कि किसी मात्रिक या वर्णिक छंद के कितने भेद या रूप हो सकते हैं। इसी आधार पर इसके ये दो भेद होते हैं—मात्रिक प्रस्तार और वर्णिक प्रस्तार। ९. अंकों, वस्तुओं आदि के पंक्तिबद्ध समूहों या वर्गों के क्रम या विन्यास में संगत और संभव परिवर्तन करना। (परम्युटेशन)
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प्रस्तार-पंक्ति  : स्त्री० [मयू० स०] एक प्रकार का वैदिक छंद जो पंक्ति छंद का एक भेद है।
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प्रस्तारी (रिन्)  : वि० [सं० प्र√स्तृ+णिनि] फैलने या फैलानेवाल (समास में)। पुं० एक नेत्र रोग।
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प्रस्ताव  : पुं० [सं० प्र√स्तु (स्तुति)+घञ्] १. आरंभ। शुरू। २. विषय के आरंभ में परिचय देने के लिए कही जानेवाली बात। प्रस्तावना। प्राक्कथन। ३. किसी प्रसंग या विषय की छिड़ी हुई बात। चर्चा। ४. प्रकरण। विषय। ५.उपयुक्त समय। अवसर। मौका। ६. सामवेद का एक अंश जो प्रस्तोता नामक ऋत्विक द्वारा गाया जाता था। ७. पहली भेंट या मुलाकात। ८. आज-कल मुख्य रूप से (क) वह बात जो किसी के सामने इस उद्देश्य से विचारार्थ रखी जाय कि यदि वह उसे उपयुक्त समझे तो मान ले और उसके अनुसार कार्य करे। (ऑफर, प्रोपोज़ल) जैसे—मेरा तो यही प्रस्ताव है कि लोग न्यायालय में न जाकर पंचायत से ही इसका निर्णय करा लें। (ख) उक्त का वह रूप जो किसी संस्था या सभा के सदस्यों के सामने इसलिए विचारार्थ रखा जाता है कि यदि अधिकतर सदस्य मान लें तो उसी के अनुसार भविष्य में काम हुआ करे। (मोशन) जैसे—तक घटाने या बढ़ाने का प्रस्ताव।
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प्रस्तावक  : वि० [सं० प्र√स्तु+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रस्ताव करनेवाला।
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प्रस्तावन  : वि० [सं० प्र√स्तु+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रस्तावित] प्रस्ताव करने की क्रिया या भाव।
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प्रस्तावना  : स्त्री० [सं० प्र√स्तु+णिच्+युच्-अन,+टाप्] १. आरंभ। २. प्रस्ताव। ३. वह आरंभिक कथन या वक्तव्य जो किसी विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन करने से पहले उसके संबंध की कुछ मुख्य बाते बतलाने के लिए हो। उपोद्घात। प्राक्कथन। भूमिका। (इन्ट्रोडक्शन)
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प्रस्तावित  : भू० कृ० [सं० प्र√स्तु+णिच्+क्त] जिसके लिए या जिसके विषय में प्रस्ताव हुआ हो या किया गया हो।
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प्रस्ताविती  : पुं० [सं० प्रस्तावित से] वह जिसके सामने कोई झगड़ा निपटाने या समझौता करने के लिए कोई नया प्रस्ताव रखा जाय। (ऑफरी)
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प्रस्ताव्य  : वि० [सं० प्र√स्तु+णिच्+यत्] १. जो प्रस्ताव के रूप में उपस्थित किया जाने को हो अथवा किये जाने के योग्य हो। २. जिसके संबंध में प्रस्ताव किया जा सके या करना उचित हो।
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प्रस्तुत  : वि० [सं० प्र√स्तु+क्त] १. जिसकी स्तुति या प्रशंसा की गई हो। २. जिसका आरंभ हुआ हो या किया गया हो। आरब्ध। ३. जो कार्य रूप में किया गया अथवा घटित हुआ हो। ४. जिसकी अभिलाषा और आशा की गई हो। ५.जो कहा गया हो। उक्त। कथित। ६. जो किसी उपयोग या काम में आने के लिए ठीक और पूरा हो चुका हो। तैयार। जैसे—(क) भोजन प्रस्तुत है। (ख) मैं चलने को प्रस्तुत हूँ। ७. (बात या विषय) जो प्रस्ताव के रूप में किसी के सामने निर्णय, विचार आदि के लिए रखा गया हो। (प्रेजेन्टेड) ८. जो इस समय उपस्थित या वर्तमान हो। मौजूद। (प्रेजेन्ट) ९. बनाकर या और किसी प्रकार तैयार किया हुआ। तैयार। (प्रोड्यूसर) पुं० १. साहित्य में, वह बात, वस्तु या विषय जिसकी चर्चा या वर्णन प्रत्यक्ष रूप से हो रहा हो; और प्रसंगवश जिसके जिसके साथ दूसरी बात, वस्तु या विषय का भी (उपमा, तुलना आदि के विचार से) उल्लेख या चर्चा हो जाती हो। (इसका विपर्याय ‘अ-प्रस्तुत’ है।) विशेष—अलंकार शास्त्र में, इस प्रकार के वर्णनीय विषय को उपमा के चाक मुख्य उपादानों में से एक उपादान माना है और ‘उपमेय’ को ही ‘प्रस्तुत’ कहा है। जैसे—‘उसका मुख चंद्रमा के समान है।’ में ‘मुख’ ही वर्ण्य विषय होने के कारण ‘प्रस्तुत’ है जिसकी उपमा चंद्रमा से दी गई है।
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प्रस्तुतांकुर  : पुं० [सं० प्रस्तुत-अंकुर, ष० त०] साहित्य में, अप्रस्तुत प्रशंसा की तरह का एक अलंकार जिसमें एक अर्थ में से एक दूसरी अर्थ भी अंकुर के रूप में निकलता है। जैसे—यदि नायिका भ्रमर से कहे कि तुम मालती को छोड़कर कँटीली केतकी के पास क्यों जाते हो। तो इसमें से एक दूसरा अर्थ यह निकलेगा कि तुम कुलीन वधू के रहते हुए पर-स्त्री या वेश्या के पास क्यों जाते हो ? अथवा यदि कहा जाय—‘तुम उनकी क्या निंदा करते हो। उनके सामने तो बड़े बड़े लोग सिर झुकाते हैं।’ तो यहाँ एक ही निंदा के साथ दूसरे की प्रशंसा भी अंकुर के रूप में लगी रहेगी।
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प्रस्तुतार्थ  : पुं० [सं० प्रस्तुत-अर्थ, ष० त०] पद, वाक्य या शब्द का वह अर्थ जो प्रस्तुत प्रसंग या विषय के विचार से ठीक निकलता या बैठता हो (संकेतार्थ से भिन्न)।
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प्रस्तुति  : स्त्री० [सं० प्र√स्तु+क्तिन] १.प्रस्तुत होने की अवस्था या भाव। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. प्रस्तावना। भूमिका। ४. उपस्थिति। ५. तैयारी।
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प्रस्तुतीकरण  : पुं० [सं० प्रस्तुत+च्वि, इत्व, दीर्घ,√कृ(करना)+ल्युट्—अन] प्रस्तुत करने की क्रिया या भाव।
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प्रस्तोक  : पुं० [सं० प्र√स्तुच् (प्रसन्न होना)+घञ्] १. एक प्रकार का सामगान। २. संजय का एक पुत्र।
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प्रस्तोता (तृ०)  : पुं० [सं० प्र√स्तु+तृच] एक सामवेदी ऋत्विक् जो यज्ञ में पहले सामगान का प्रारंभ करता है। पुं० प्रस्ताव करनेवाला व्यक्ति। प्रस्तावक।
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प्रस्तोभ  : पुं० [सं० प्र√स्तुभ् (स्तम्भन)+घञ्] एक प्रकार का साम।
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प्रस्थ  : वि० [सं० प्र√स्था (ठहरना)+क] १. प्रस्थान करनेवाला। २. कहीं पहुँचकर वहाँ रहनेवाला। जैसे—वानप्रस्थ। पुं० १. पहाड़ के ऊपर की चौरस भूमि। (टेबुल लैंड) २. सम-तल भूमि। चौरस मैदान। ३. पहाड़ का ऊँचा किनारा। ४. किसी चीज का बहुत ऊपर उठा हुआ भाग। ५. फैलाव। विस्तार। ६. प्राचीन काल का एक मान जो दो प्रकार का होता था—एक तौलने का और दूसरा मापने का।
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प्रस्थ-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. छोटे पत्तोंवाली तुलसी। २. मरुआ। ३. जँबीरी। नीबू।
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प्रस्थल  : पुं० [सं० प्रस्थ√ला (लेना)+क] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश।
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प्रस्थान  : पुं० [सं० प्र√स्था+ल्युट्—अन] १. एक स्थान से दूरवाले किसी दूसरे स्थान की ओर चलना। यात्रा आरंभ करना। रवानगी। (डिपार्चर)। २. सेना का युद्ध-क्षेत्र की ओर जाना। कूच। ३. आस्तिक हिंदुओं की एक प्रथा जिसमें वे शुभ मुहूर्त में यात्रा आरंभ न कर सकने पर उसके प्रतीक के रूप में अपने ओढ़ने-पहनने का कोई कपड़ा उस दिशा के किसी समीपस्थ गृहस्थ के घर रख देते हैं जिस दिशा में उन्हें जाना होता है। क्रि० प्र०—रखना। ४. मरण। मरना। ५. मार्ग। रास्ता। ६. ढंग। तरीका। ७. वैखरी वाणी के ये अठारह अंग-चारों वेद, चारों उपवेद, ६ वेदांग, धर्मशास्त्र न्याय, मीमांसा और पुराण।
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प्रस्थान-त्रयी  : स्त्री० [सं० ष० त०] उपनिषदों, वेदांत सूत्रों और भगवद्गीता का सामूहिक नाम जिनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों का तात्त्विक विवेचन है।
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प्रस्थानी (निन्)  : वि० [सं० प्रस्थान+इनि] प्रस्थान अर्थात् यात्रा आरंभ करनेवाला। प्रस्थानकर्ता। पुं० दे० प्रस्थान ‘३’।
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प्रस्थानीय  : वि० [सं० प्र√स्था+अनीयर्] जहाँ या जिसके लिए प्रस्थान किया जा सके।
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प्रस्थापक  : वि० [सं० प्र√स्था+णिच्, पुक्√ण्वुल्-अक] १. प्रस्थापन करनेवाला २. प्रस्ताव करनेवाला। प्रस्तावक। प्रस्तोता।
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प्रस्थापन  : पुं० [सं० प्र√स्था+णिच्, पुक्√ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रस्थापित, वि० प्रस्थानी, प्रस्थाप्य] १. प्रस्थान करना। भेजना। २. प्रेरणा। ३. कोई बात या विषय प्रमाणों आदि से सिद्ध करते हुए किसी के सामने उपस्थित करना या रखना। स्थापना। ४. उपयोग या व्यवहार करना। ५. मशीनों, यंत्रों आदि को किसी स्थान पर लगाना। प्रतिष्ठित करना। ६. उक्त रूप में बैठाये या लगाये हुए यंत्रों की सामूहिक संज्ञा। संस्थापन। (इन्स्टालेशन, अंतिम दोनों अर्थों में)
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प्रस्थापना  : स्त्री०=प्रस्थापन।
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प्रस्थापित  : भू० कृ० [सं० प्र√स्था+णिच्, पुक्,+क्त] १. जिसका प्रस्थापन हुआ हो या किया गया हो। भेजा हुआ। प्रेषित।
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प्रस्थापी (पिन्)  : वि० [सं० प्र√स्था+णिनि] १. प्रस्थान करनेवाला। २. जो कहीं भेजा जाने को हो। २. स्थायी। चिरस्थायी।
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प्रस्थिका  : स्त्री० [सं० प्रस्थ+ठन्—इक्,+टाप्] १. आमड़ा। २. पुदीना।
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प्रस्थित  : भू० कृ० [सं० प्र√स्था+क्त] [भाव० प्रस्थिति] १. जिसने प्रस्थान किया हो। २. जिसे कहीं भेजा गया हो। ३. जो अच्छी तरह या दृढ़तापूर्वक स्थित हो।
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प्रस्थिति  : स्त्री० [सं० प्र√स्था+क्तिन्] १. प्रस्थित होने की अवस्था या भाव। २. प्रस्थान। गमन।
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प्रस्न  : पुं० [सं० प्र√स्ना (नहाना)+क] नहाते समय शरीर पर जल उलीचने का पात्र। पुं०=प्रश्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रस्नव  : पुं० [सं० प्र√स्नु (बहना)+अप्] १. धारा के रूप में बहने का भाव। २. धारा। ३. मूत की धार।
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प्रस्नुत  : वि० [सं० प्र√स्नु+क्त] टपकाने या बहानेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रस्नुत-स्तरी  : स्त्री० [ब० स०,+ङीष्] वह स्त्री जिसके स्तनों से वात्सल्य के कारण दूध की धारें, बह रही हों।
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प्रस्नुषा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०, पृषो० सिद्धि] पोते की स्त्री। पौत्र-वधू।
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प्रस्नेय  : वि० [सं० प्र√स्ना+यत्] (जल) जिससे स्नान किया जा सके। स्नान के काम आने योग्य।
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प्रस्फुट  : वि० [सं० प्र√स्फुट् (विकसित होना)+क] १. खिला हुआ विकसित। भू० कृ० १. (फूल) जो खिला हुआ हो। २. (बात या विषय) जो बिलकुल स्पष्ट हो। ३. प्रकट। व्यक्त।
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प्रस्फुटन  : पुं० [सं० प्र√स्फुट् (पुराना, गति आदि)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रस्फुटित] १. (फूलों का) खिलना। फूटना। निकलना। २. व्यक्त होना। ३. प्रकाशित होना। ४. स्फूर्ति होना।
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प्रस्फुरण  : पुं० [सं० प्र√स्फुर्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रस्फुरित] १. काँपना। २. फैलाना। ३. चमकना। ४. स्पष्ट होना।
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प्रस्फोट  : पुं० [सं०] अन्दर से फूटकर बाहर निकलने की क्रिया या भाव। (दे० ‘प्रस्फोटन’)
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प्रस्फोटक  : वि० [सं०] प्रस्फोट करने या फोड़नेवाला। पुं० किसी यंत्र का वह अंग या कोई ऐसा उपकरण जो स्फोटन करता हो। (डिटोनेटर)
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प्रस्फोटन  : पुं० [सं० प्र√स्फुट् (फूटना)+ल्युट्—अन] १. प्रस्फोट उत्पन्न करने की क्रिया या भाव। २. किसी वस्तु का इस प्रकार एक बारगी खुलना या फूटना कि उसके अन्दर के पदार्थ वेग से ऊपर या बाहर निकल पड़ें। ३. तोड़-फोडकर अन्दर की चीज निकालना। ऐसी क्रिया करना जिससे कोई चीज (जैसे—गैस या बारूद) जोर का शब्द करती हुई जलकर उड़े। (डिटोनेशन) ४. खिलना या खिलाना। ५. विकसित करना। ६. अन्न आदि फटकना। ७. अन्न फटकने का सूप।
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प्रस्मृत  : भू० कृ०=विस्मृत।
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प्रस्मृति  : स्त्री० [सं० प्र√स्मृ+क्तिन्]=विस्मृति (भूलना)।
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प्रस्यंद  : पुं० [सं० प्र√स्यद् (बहना)+घञ्] १. बहना। २. चूना। टपकना।
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प्रस्रसन  : पुं० [सं० प्र√स्रंस्+ल्युट्—अन] १. गिरना। २. गर्भपात होना। ३. बहनेवाला पदार्थ।
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प्रस्रंसी (सिन्)  : वि० [सं० प्र√स्रंस+णिनि] [स्त्री० प्रस्रंसिनी] १. पतनशील। गिरनेवाला। २. असमय ही गिर जानेवाला (गर्भ)।
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प्रस्रव  : पुं० [सं० प्र√स्र (गति)+अप्] १. धारा के रूप में बहना या चूना। २. इस प्रकार बहने या चूनेवाली धारा। ३. स्तन या थन में से वात्सल्य या दूध की अधिकता के कारण बहनेवाली दूध की धारा। ४. मूत्र। पेशाब। ५. चावल की माँड़। ५. आँसू।
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प्रस्रवण  : पुं० [सं० प्र√स्रु+ल्युट्—अन] १. तरल पदार्थ के चूने या बहने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. पानी का झरना। सोता। ३. दूध। ४. पसीना। प्रस्वेद। ५. माल्यवान पर्वत।
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प्रस्रवणी  : स्त्री० [सं० प्रस्रवण+ङीप्] वैद्यक के अनुसार बीस प्रकार की योनियों में से एक।
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प्रस्राव  : पुं०=प्रस्रव।
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प्रस्रुत  : भू० कृ० [सं० प्र√स्रु+क्त] १. प्रस्रव के रूप में होनेवाला। २. गिरा, झड़ा या बहा हुआ।
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प्रस्वन  : पुं० [सं० प्रा० स०] जोरों का शब्द। ऊँचा स्वर।
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प्रस्वाप  : पुं० [सं० प्र√स्वप् (सोना)+णिच्+घञ्] १. वह वस्तु जिसके प्रयोग से निद्रा आए। नींद लानेवाली चीज या दवा। २. नींद। ३. एक प्रकार का अस्त्र जिसके संबंध में यह प्रसिद्ध है कि इसे चलाने पर शत्रु-पक्षवालों को नींद आ जाती थी। ४. स्वप्न।
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प्रस्वापक  : वि० [सं० प्र√स्वप्+णिच्+ण्वुल्—अक] नींद लाने या सुवानेवाला। २. मारक।
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प्रस्वापन  : पुं० [सं० प्र+स्वप्√णिच्√ल्युट्—अन] ऐसा काम करना जिससे कोई सो जाय। सुलाना।
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प्रस्विन्न  : वि० [सं० प्र√स्विद्+क्त] पसीने से लथ-पथ।
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प्रस्वेद  : पुं० [सं० प्र√स्विद्+घञ्] त्वचा में से निकलनेवाला जलकण।
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प्रस्वेदक  : वि० [सं० प्र√स्विद्+णिच्+ण्वुल्—अक] प्रस्वेद या पसीना लानेवाला। पुं० ऐसी दवा जो पसीना लाकर शरीर के अन्दर का विष पसीने के रूप में बाहर निकाल दे। (डायोफोरेटिक)
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प्रस्वेदन  : पुं० [सं० प्र√स्विद्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रस्वेदित] १. पसीना निकालने या लाने की क्रिया या भाव। २. रसायन शास्त्र में, किसी चीज पर की जानेवाली वह प्रक्रिया जिससे वह चीज हवा की नमी के कारण पसीजने या गलने लगती है। (डिलीक्विसेन्स)
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प्रस्वेदित  : वि० [सं० प्रस्वेद+इतच्] १. पसीने से भींगा हुआ। २. पसीना लानेवाला। ३. गरम।
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प्रस्वेदी (दिन्)  : वि० [सं० प्रस्वेद+इनि] पसीने से भींगा हुआ।
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प्रस्वेद्य  : वि० [सं० प्र√स्विद्+णिच्+यत्] जिस पर या जिसमें प्रस्वेद या प्रस्वेदन की क्रिया होती या हो सकती हो अथवा की जा सकती हो या की जाने को हो। (डिलीक्वेसेन्ट)
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प्रह  : पुं० [सं० प्रभा] १. चमक। २. प्रकाश।
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प्रहणन  : पुं०=हनन।
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प्रहत  : भू० कृ० [सं० प्र√हन्+क्त] [भाव० प्रहति] १. मारा हुआ। हत। २. जिस पर आघात हुआ हो। ३. पराजित। ४. प्रसारित। पुं० १. आघात। प्रहार। २. पासा आदि फेंकने की क्रिया।
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प्रहति  : स्त्री० [सं० प्र√हन्+क्तिन्] १. प्रहत होने की अवस्था या भाव। २. आघात। प्रहार।
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प्रहर  : पुं० [सं० प्र√हृ (हरण करना)+अप्] काल-मापन की दृष्टि से दिन के किये हुए आठ भागों में से प्रत्येक जिनकी अवधि ३-३ घंटे की होती है।
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प्रहरक  : पुं०=प्रहरी।
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प्रहरखना  : अ० [सं० प्रहर्षण] हर्षित या प्रसन्न होना। आनंदित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रहरण  : पुं० [सं० प्र√हृ (हरण करना)+ल्युट्—अन] १. बलपूर्वक किसी से कुछ ले लेना। छीनना। २. अस्त्र। ३. युद्ध। ४. आघात। प्रहार। वार। ५. फेंकना। ६. परित्याग। ७. चित्त की एकाग्रता। ८. एक तरह की पालकी। ९. पालकी में बैठने का स्थान। १॰. मृदंग का एक प्रबंध।
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प्रहरणीय  : वि० [सं० प्र√हृ+ल्युट्—अन] १. जिसे छीना जा सके। २. जिसपर आक्रमण किया जा सके। ३. जिससे युद्ध किया जा सके। ४. नष्ट किये जाने के योग्य। पुं० प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र।
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प्रहरी (रिन्)  : पुं० [सं० प्रहार+इनि] १. पहर-पहर पर घंटा बजानेवाला कर्मचारी। घड़ियाली। २. पहरेदार।
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प्रहर्ता (तृ)  : पुं० [सं० प्र√हृ+तृच] [स्त्री० प्रहर्त्री] १. वह जो किसी पर प्रहार करे। २. योद्धा।
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प्रहर्ष  : पुं० [सं० प्रा० स०] हर्ष का वह तीव्र रूप जिसमें हृदय उमड़ने लगता है।
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प्रहर्षण  : पुं० [सं० प्र√हृष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. हर्षित या प्रसन्न करने की क्रिया या भाव। २. आनन्द। प्रसन्नता। ३. [सं० प्र√हृष्+णिच्+ल्युट्—अन] बुध नामक ग्रह। ४. परवर्ती साहित्य में एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें अनायास या सहज में किसी उद्देश्य की आशा से अधिक सिद्धि या आशातीत फल प्राप्ति की स्थिति का उल्लेख होता है। (यह ‘विषादन’ अलंकार के विपरीत भाव का सूचक है।)
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प्रहर्षणी  : स्त्री० [सं० प्रहर्षण+ङीप्] १. हरिद्रा। हलदी। २. तेरह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः म, न, ज, र, ग होता है।
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प्रहर्षित  : भू० कृ० [सं० प्रहर्ष+इतच्] १. जिसे प्रहर्ष हुआ हो। २. जिसके मन में प्रहर्ष हुआ हो। ३. जिसके मन में प्रहर्ष उत्पन्न किया गया हो।
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प्रहसन  : पुं० [सं० प्र√हस्+ल्युट्+अन] १. प्रसन्नतापूर्वक हँसना। विशेषतः जोरों से हँसना। २. किसी को उपहासास्पद ठहराना या बनाना। ३. एक प्रकार का रूपक जो भाण की तरह हास्य-रस-प्रधान होता है। इसमें एक या दो अंग तथा अनेक पात्र होते हैं; इसका विषय प्रायः कवि-कल्पित होता है; और इसमें दूषित तथा हेय आचार-विचार की दिल्लगी उड़ाई जाती है।
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प्रहसित  : पुं० [सं० प्र√हस्+क्त] १. खूब जोर से होनेवाली हँसी। ठहाका। २. एक बुद्ध का नाम। भू० कृ० हँसता हुआ।
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प्रहस्त  : पुं० [सं० ब० स०] १. हथेली की वह स्थिति जिसमें उँगलियाँ खुली तथा अकड़ी हुई हों। पंजा। २. चपत। थप्पड़ ३. रावण का एक सेनापति। (रामायण)
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प्रहाण  : पुं० [सं० प्र√हा (त्याग)+ल्युट्—अन] १. छोड़ना। त्यागना। २. अनुमान करना। ३. उद्योग। चेष्टा।
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प्रहान  : पुं०=प्रहाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रहानि  : स्त्री० [सं०] १. बहुत बड़ी हानि। २. कमी। ३. त्रुटि।
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प्रहार  : पुं० [सं० प्र√हृ+घञ्] १. आहत या हत करने के लिए किसी पर किया जानेवाला आघात। वार। जैसे—लाठी या तलवार से किया जानेवाला प्रहार। २. आघात। चोट।
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प्रहारक  : वि० [सं० प्र√हृ+ण्वुल्—अक] प्रहार करनेवाला।
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प्रहारण  : पुं० [सं० प्र√हृ+णिच्+ल्युट्—अन] १. प्रहार करना। २. काम्यदान। मनचाहा दान।
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प्रहारना  : स० [सं० प्रहार] आघात या प्रहार करना। मारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रहारार्त  : वि० [सं० प्रहार-आर्त, तृ० त०] जिस पर प्रहार किया गया हो; फलतः आहत या हत। पुं० १. प्रहार लगने से होनेवाला घाव। २. उक्त घाव से होनेवाली पीड़ा।
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प्रहारित  : भू० कृ० [सं० प्रहृत] जिस पर आघात या प्रहार हुआ हो जिसे चोट लगी या मार पड़ी हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रहारी (रिन्)  : वि० [सं० प्र√हृ+णिनि] [स्त्री० प्रहारिणी] १. प्रहार करने या मरनेवाला। २. दूर करने या हटानेवाला। ३. नष्ट करनेवाला। नाशक। ४. (अस्त्र, शस्त्र आदि) चलाने या छोड़नेवाला।
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प्रहारुक  : वि० [सं० प्र√हृ+उकञ्] १. छीननेवाला। २. प्रहार करनेवाला।
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प्रहार्य  : वि० [सं० प्र√हृ+ण्यत्] १. जो हरण किया या छीना जा सके। २. जिस पर प्रहार या आघात किया जा सके।
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प्रहास  : पुं० [सं० प्र√हस् (हँसना)+घञ्] १. प्रहसन। हँसी। २. अट्टहास। ३. नट। ४. शिव। ५. कार्तिकेय का एक अनुचर। ६. सोमतीर्थ का एक नाम।
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प्रहासी (सिन्)  : वि० [सं० प्र√हस्+णिनि] जोर से हँसने या हँसानेवाला।
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प्रहित  : भू० कृ० [सं० प्र√धा (धारण)+क्त, धा=हि] १. भेजा हुआ। प्रेरित। २. फेंका हुआ। ३. फटका हुआ। ४. निष्कासित। पुं० १. सूप २. दाल। ३. सालन।
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प्रहुत  : पुं० [सं० प्र√हु (होम करना)+क्त] बलिवैश्वदेव। भूतयज्ञ।
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प्रहुति  : पुं० [सं० प्र√हु+क्तिन्] आहुति।
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प्रहृत  : भू० कृ० [सं० प्र√हृ (हरण)+क्त] १. फेंका हुआ। २. चलाया हुआ। ३. मारा हुआ। ४. फैलाया हुआ। ५. ठोंका या पीटा हुआ। पुं० १. प्रहार। मार। २. एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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प्रहृष्ट  : भू० कृ० [सं० प्र√हृष् (प्रसन्न होना)+क्त] अत्यन्त प्रसन्न। आह्लादित।
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प्रहेलक  : पुं० [सं० प्र√हिल् (हाव-भाव करना)+अच्√कन] लपसी।
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प्रहेला  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] स्वच्छन्द रूप से की जानेवाली क्रीड़ा।
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प्रहेलि  : स्त्री०=प्रहेलिका।
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प्रहेलिका  : स्त्री० [सं० प्र√हिल्+क्वुन्—अक,+टाप्, इत्व] पहेली। (दे०)
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प्रह्वाद  : पुं०=प्रह्लाद।
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प्रह्लाद  : पुं० [सं० प्र√ल्हाद्+णिच्+अच्] १. आहलाद। आनन्द। २. एक प्राचीन देश। ३. दैत्यराज हिरण्यकशिपु का एक पुत्र जो बहुत बड़ा ईश्वर-भक्त था। कहा जाता है कि इसी की रक्षा करने के लिए भगवान ने नृसिंह अवतार धारण करके हिरण्युकशिपु को मारा था।
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प्रह्लादक  : वि० [सं० प्र√हलाद्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रह्लादिका] प्रसन्न करनेवाला। हर्षकारक।
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प्रह्लादन  : पुं० [सं० प्र√ह्लाद+णिच+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रह्लादित] आह्लादित या प्रसन्न रहनेवाला।
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प्रह्लादी (दिन्)  : वि० [सं० प्रह्लाद+इनि] प्रसन्न होनेवाला।
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प्रांकुर  : पुं० [सं०] वनस्पतियों में बीज का वह अगला भाग जिससे पत्तियों, शाखाओं आदि का अंकुरण आरंभ होता है। (ण्लुम्यूल)
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प्रांग  : वि० [सं० प्र-अंग, ब० स०] लंबे डीलडौल का। पुं० एक तरह का छोटा ढोल। पणव।
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प्रांगण  : पुं० [सं० प्र-अंगन, ब० स०] १. मकान के आगे का खुला छोड़ा हुआ स्थान। २. मकान के अन्दर का वह स्थान जो चारों ओर से घिरा परन्तु ऊपर से खुला होता है। ३. एक तरह का ढोल।
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प्रांगन  : पुं०=प्रांगण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रांजन  : पुं० [सं० प्र—अंजन, प्रा० स०] आँखों में अंजन लगाना। २. आँख में लगाने का अंजन। ३. रंग। ४. प्राचीन भारत में तीर या वाण पर लगाया जानेवाला एक प्रकार का रंग या लेप।
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प्रांजल  : वि० [सं० प्र√अञ्ज् (चिकना करना)+अलच्] [भाव० प्रांजलता] १. (भाव या भाषा) जो सरल तथा स्पष्ट हो और जिसमें जटिलता न हो। निर्मल। २. सच्चा। ३. समान। बराबर ४. साफ। स्वच्छ।
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प्रांजलि  : वि० [सं० प्र-अंजलि, ब० स०] जो अंजलि बाँधे हो। अंजलिबद्ध। स्त्री० १. वह मुद्रा जिसमें दोनों हाथ जुड़े हुए हों। २. अंजलि।
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प्रांत  : पुं० [सं० प्र-अंत,प्रा० स०] [वि० प्रांतिक] १. अंत। शेष। सीमा। २. किनारा। छोर। सिरा। ३. ओर। तरफ। दिशा। ४. भारत में, अंगरेजी शासन में वह शासनिक इकाई जिसमें कई प्रमंडल होते थे, तथा जिसका प्रधान शासक राज्यपाल होता था। प्रदेश। (प्राविन्स) ५. एक प्राचीन ऋषि। ६. उक्त ऋषि के गोत्र के लोग।
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प्रांतग  : वि० [सं० प्रांत√गम् (जाना)+ड] सीमा पर का निवासी।
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प्रांतदुर्ग  : पुं० [मध्य० स०] प्राचीन भारत में, वह दुर्ग जो नगर के किनारे प्राचीर के बाहर होता था। २. दुर्ग के आस-पास की बाहर की बस्ती।
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प्रांत पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०] १. एक प्रकार का पौधा। २. उक्त पौधे का फूल।
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प्रांतभूमि  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी पदार्थ का अंतिम भाग। किनारा। सिरा। २. योग में सिद्धि की अंतिम सीमा; समाधि। ३. सीढ़ी।
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प्रांतर  : पुं० [सं० प्र-अन्तर, ब० स०] १. छाया आदि से रहित विस्तृत निर्जन पथ। २. दो गाँवों के बीच की जमीन। ३. दो प्रदेशों के बीच का स्थान। ४. जंगल। वन। ५. पेड़ के तने का खोखला अंश। खोडर।
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प्रांतायन  : पुं० [सं० प्रांत+फ़क्—आयन्] प्रांत नामक ऋषि के गोत्रज।
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प्रांतिक  : वि० [सं० प्रांत+ठक्—इक]=प्रांतीय।
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प्रांतीय  : वि० [सं० प्रांत+छ—ईय] [भाव० प्रांतीयता] १. प्रांत से संबंध रखनेवाला। प्रांत में होनेवाला। २. प्रांत की सरकार के अधि-क्षेत्र का (अर्थात् जिस पर केन्द्रीय सरकार का अधिकार न हो)।
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प्रांतीयता  : स्त्री० [सं० प्रांतीय+तल—टाप्] १. प्रांतीय होने की अवस्था या भाव। २. अपने प्रांतवासियों के प्रति होनेवाली ऐसा मोहजन्य तथा पक्षतापूर्ण भावना जिसके कारण अन्य प्रांतों के वासियों के प्रति उदासीनता या उपेक्षा दिखाई जाती है। (प्राविन्शलिज़्म)
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प्रांशु  : वि० [सं० प्र-अंशु, ब० स०] [भाव० प्रांशुता] १. ऊँचा। उच्च। २. लंबा।
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प्राइमर  : स्त्री० [अं०] १. किसी भाषा की वर्ण-माला आदि सिखानेवाली प्रांरभिक पुस्तक जिसके द्वारा बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखलाया जाता है। २. किसी विषय की आरंभिक मोटी-मोटी बातें बतलानेवाली पुस्तक। पहली पुस्तक।
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प्राइमरी  : वि० [अं०] १. प्राइमर-संबंधी। २. आरंभिक। ३. प्राथमिक।
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प्राइवेट  : वि० [अं०] १. जिसका संबंध केवल किसी व्यक्ति से हो। निज का। जैसे—प्राइवेट सेक्रेटरी=वह सहायक जो किसी के साथ रहकर उसके पत्र-व्यवहार आदि का काम करता हो। निजी सचिव। २. (बात या रहस्य) जिसका संब अपने से अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति से हो और इसी लिए जिसे लोगों पर प्रकट न किया जा सकता हो।
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प्राक्  : अव्य० [सं० प्र√अञ्च् (गति)+क्विप] १. सम्मुख। सामने। २. आगे। पहले ३. पिछले प्रकरण या भाग में। वि० पुराना। पुं० पूर्व दिशा। पूरब।
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प्राकट्य  : पुं० [सं० प्रकट+ष्यञ्] प्रकट होने की अवस्था या भाव। प्रकटता।
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प्राकर्ष  : पुं० [सं० प्रकर्ष+अण्] एक प्रकार का साम।
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प्राकर्षिक  : वि० [सं० प्रकर्ष+ठञ्—इक] जो औरों से अच्छा समझा जा सके और इसी लिए ग्राह्य हो। वरेण्य। पुं० [सं० प्र+आ√कर्ष (हिंसा)+किकन्] १. स्त्रियों के साथ नाचने वाला पुरुष। २. स्त्रियों का दलाल। कुटना।
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प्राकाम्य  : पुं० [सं० प्रकाम+ष्यञ्] आठ प्रकार के ऐश्वर्यों या सिद्धियों में से एक जिसकी प्राप्ति से सब प्रकार की कामनाएँ बहुत सहज में और तुरन्त पूरी की जा सकती हैं।
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प्राकार  : पुं० [सं० प्र√कृ (विक्षेप)+घञ्] १. किसी स्थान या इमारत के चारों ओर की दीवार। चहारदीवारी। २. घेरा।
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प्राकारीय  : वि० [सं० प्राकार+छ—ईय] १. प्राकार-संबंधी। २. प्राकार या परकोटे से घिरा हुआ।
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प्राकाश  : पुं०=प्रकाश।
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प्राकाशिकी  : स्त्री० [सं० प्रकाश से] दे० ‘प्रकाशिकी’।
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प्राकाश्य  : पुं० [सं० प्रकाश+व्यञ्] १. प्रकाशित होने की अवस्था या भाव। २. प्रकटता। प्रकाट्य। ३. कीर्ति। यश।
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प्राकृत  : वि० [सं० प्रकृति+अण्] [भाव० प्राकृतत्व] १. प्रकृति संबंधी। प्रकृति का। २. प्रकृति से उत्पन्न। नैसर्गिक। ३. जो अपने उसी मूल रूप में हो, जिसमें प्रकृति ने उसे उत्पन्न किया हो। ४. भौतिक। ५. लौकिक। सांसारिक। ६. स्वाभाविक। ७. साधारण। मामूली। ८. प्रांतीय। ९. अशिक्षित। १॰. क्षुद्र, तुच्छ या नीच। स्त्री० १. किसी विशिष्ट क्षेत्र या प्रांत के लोगों की बोल-चाल की भाषा जो छोटे-बड़े, शिक्षित-अशिक्षित सभी प्रकार के लोग सामान्य रूप से आपस के नित्य के व्यवहारों में बोलते हों। यह उच्च और शिक्षित समाज की परिष्कृत या संस्कृत भाषा से भिन्न होती है। २. उक्त प्रकार की वह विशिष्ट भाषा जो भारत के प्राचीन आर्य लोग बोलते थे और जिसका संस्कार करके शिक्षित समाज तथा साहित्यक रचनाओं के लिए बाद में संस्कृत भाषा बनाई गई थी। विशेष—(क) यों तो वैदिक युग में भी अपने समय की प्राकृत भाषा ही बोलते थे, परन्तु स्वतंत्र भाषा के रूप में ‘प्राकृत’ का नामकरण संस्कृत भाषा बन जाने पर ही और उससे पाथक्य दिखलाने के लिए हुआ था। (ख) आज-कल संकुचित अर्थ में पालि, प्राकृति और अपभ्रंश को क्रमशः प्राकृत के आरंभिक, मध्यकालीन और उत्तरकालीन रूप माना जाने लगा है। मागधी, अर्धमागधी, पैशाची, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि इसी के बाद के साहित्यिक रूप हैं। इन भाषाओं में भी किसी समय प्रचुर साहित्य प्रस्तुत होता था, जिसका बहुत-सा अंश अब भी अनेक स्थानों में मिलता है। ४. पराशर मुनि के मत से बुधग्रह की सात प्रकार की गतियों में पहली और उस समय की गति जब वह स्वाती, भरणी और कृत्तिका नक्षत्रों में रहता है। यह गति चालीस दिनों तक रहती है।
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प्राकृत ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक के अनुसार वह ज्वर जो ऋतु के प्रभाव से वर्षा, शरद और वसन्त ऋतुओं में होता है; और जिसमें क्रमात वात, पित्त और कफ का प्रकोप होता है।
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प्राकृतत्व  : पुं० [सं० प्राकृत+त्व] प्राकृत होने की अवस्था, धर्म या भाव।
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प्राकृत-प्रलय  : पं० [कर्म० स०] वेदांत के अनुसार अर्थात् प्रलय का वह उग्र रूप जिसमें तीनों लोकों के सिवा महतत्त्व अर्थात प्रकृति के पहले और मूल विकार तक का क्षय या विनाश हो जाता है; और प्रकृति भी ब्रह्म में लीन हो जाती है।
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प्राकृतिक  : वि० [सं० प्रकृति+ठञ्—इक] १. प्रकृति से उद्भूत। नैसर्गिंक। २. प्रकृति में होनेवाले किसी विकार के फलस्वरूप होनेवाला। ३. मनुष्य की प्रकृति या स्वाभाव से संबंध रखनेवाला। ४. मानुषिक भावों, गुणों, स्वभावों आदि के अनुसार होनेवाला; फलतः जो कृत्रिम अथवा क्रूर न हो। जैसे—(क) स्त्री पुरुष में होनेवाला प्रेम का प्राकृतिक बन्धन। (ख) प्राकृतिक, हास। ५. प्रकृति। आवश्यकता आदि के फलस्वरूप स्वाभाविक रूप से जो आदिकाल से उपयोग में चला आ रहा हो। जैसे—हिंसक जीवों के लिए आमिष प्राकृतिक भोजन है। ६. साधारण। मामूली। ७. भौतिक। ८. सांसारिक। ९. नीच।
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प्राकृतिक चिकित्सा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] चिकित्सा का एक प्रकार, जिसमें रोगों का निदान प्राकृतिक उपायों से किया जाता है। (नेचर क्योर)
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प्राकृतिक भूगोल  : पुं० [सं० कर्म० स०] भूगोल विद्या का वह अंग जिसमें प्राकृतिक तत्त्वों का तुलनात्मक दृष्टि से विचार होता है। इसमें पृथ्वी-तल की वर्तमान तथा भिन्न-भिन्न प्राकृतिक अवस्थाओं का विचार होता है।
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प्राक्कथन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. पहले कही हुई बात। २. पुस्तक के विषय आदि के संबंध में पहले कही जानेवाली बात। प्रस्तावना।
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प्राक्कर्म (र्मन)  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. आरंभ में या पहले किया जानेवाला काम। २. पूर्व जन्म के किये हुए कर्म। ३. अदृष्ट। भाग्य।
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प्राक्कलन  : पुं० [सं० कर्म० स०] अनुमान, कल्पना या संभावना के आधार पर पहले से किया जानेवाला आकलन या गणना। कृत। तखमीना। (एस्टिमेशन)
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प्राक्कल्प  : पुं०=पुराकल्प।
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प्राक्चरण  : पुं० [सं० ब० स०] योनि। भग।
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प्राक्छाय  : पुं० [सं० ब० स०] वह समय जब छाया पूर्व की ओर पड़ती हो। अर्थात् अपराह्नकाल तीसरा प्रहर।
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प्राक्तन  : वि० [सं० प्राच्+ट्यु—अन, तुट्] १. पहले का। २. पूर्व जन्म का। ३. पुराना। प्राचीन। पुं० भाग्य। प्रारब्ध।
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प्राक्फाल्गुन  : पुं० [सं० प्राक्फाल्गुनी+अण्] बृहस्पति ग्रह।
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प्राक्फाल्गुनी  : स्त्री०=पूर्वा फाल्गुनी।
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प्राक्संध्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] सूर्योदय के समय की संध्या अर्थात् सबेरा।
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प्रॉक्सी  : स्त्री० दे० ‘प्रतिपुरुषपत्र’।
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प्राखर्य  : पुं० [सं० प्रखर+ष्यञ्]=प्रखरता।
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प्राग  : वि० [सं० प्राक्] १. पहले का। पहलेवाला। २. पहला माना या समझा जानेवाला; अर्थात् मुख्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रागल्भ  : पुं० [सं० प्रगल्भ+ष्यत्र्]=प्रगल्भता।
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प्रागभाव  : पुं० [सं० प्राग्-अभाव, मध्य० स०] १. पहले से अथवा पूर्वकाल से वर्तमान रहने या होने की अवस्था। (प्रि-एग्ज़िस्टेन्स) २. वैशेषिक दर्शन के अनुसार, पाँच प्रकार के अभावों में से पहला। ऐसा अभाव जिसकी पूर्ति पीछे या शब्द में हो गई हो। जैसे—बनकर तैयार होने-से पहले घर या वस्त्र का प्रागभाव होता है। ३. ऐसा पदार्थ जिसका आदि तो न हो, परन्तु अंत होता हो। अनादि परंतु सांत।
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प्रागार  : पं० [सं० प्र-अगार, प्रा० स०] १. घर। मकान। २. प्रासाद। महल।
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प्रागुक्ति  : स्त्री० [सं० प्राची-उक्ति, कर्म० स०] पहले कही हुई बात। पूर्व-कथन।
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प्रागुत्तर  : वि० [सं० प्राच्-उत्तर, कर्म० स०] पूर्वोत्तर।
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प्रागुत्तर  : स्त्री० [सं० प्राची-उत्तरा, कर्म० स०] ईशान कोण।
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प्रागुदीची  : स्त्री० [सं० प्राची-उदीची, कर्म० स०] ईशान कोण।
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प्रागैतिहासिक  : वि० [सं० प्राक्-ऐतिहासिक, कर्म० स०] क्रम-बद्ध रूप में प्राप्त होनेवाला लिखित इतिहास से पूर्व काल का। इतिहास में वर्णित और निश्चित काल से पहले का। (प्री-हिस्टारिक)
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प्रागज्योतिष  : पुं० [सं० ब० स०] महाभारत आदि के अनुसार असम राज्य। कामरूप देश।
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प्राग्ज्योतिषपुर  : पुं० [सं०] प्राग्ज्योतिष की राजधानी जिसे अब गोहाटी कहते हैं। कहते हैं कि यह नगर कुश के पत्र अमूर्तरज ने बसाया था और परवर्ती काल में नरकासुर की राजधानी यही थी।
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प्राग्दक्षिणा  : स्त्री० [सं० प्राची-दक्षिण, कर्म० स०] अग्निकोण।
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प्राग्द्वार  : पुं० [सं० कर्म० स०] पूर्वीद्वार।
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प्राग्भक्त  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. वैद्यक में, भोजन करने से कुछ पहले का समय जिसमें ओषधि खाई जाती है। २. उक्त समय में ओषधि खाना।
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प्राग्भव  : पं० [सं० कर्म० स०] पूर्व-जन्म।
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प्राग्भाग  : पुं० [सं० कर्म० स०] अगला या आगे का भाग।
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प्राग्र  : पुं० [सं० प्र-अग्र, प्रा० स०] चरम या शीर्षविंदु।
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प्रावंश  : पं० [सं० कर्म० स०] १. पहले का वंश। २. [ब० स०] यज्ञशाला में हविर्गृह के पूर्व स्थित स्थान। ३. विष्णु।
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प्राग्वचन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. प्राक्कथन। २. मन्वादि महर्षियों के वचन। (महा०) ३. पहले से किसी को दिया हुआ वचन।
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प्राग्वर्ण  : पुं० [सं० कर्म० स०] वर्णमाला का प्रारम्भिक अक्षर या वर्ण। उदा०—ये नयन डूबे अनेकों बार हैं, काव्य के प्राग्वर्ण पर भी हैं रुके।—पन्त।
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प्राघात  : पुं० [सं० प्र+आ√हन् (हिंसा)+घञ्] १. भारी आघात। कड़ी चोट। २. युद्ध।
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प्राघार  : पुं० [सं० प्र+आ√घृ (चूना)+घञ्] चूना। रसना।
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प्राघुण  : पुं० [सं० प्र+आ√घुर्ण (भ्रमण)+क] अतिथि।
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प्राघुर्णिक  : पुं० [सं० प्र+आ√घूर्ण+घञ्, प्राघूर्ण+ठञ्-इक] अतिथि। मेहमान।
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प्राङ्न्याय  : वि० [सं० ब० स०] जिसका न्याय पहले हो चुका हो। पुं० न्याय में, किसी दोबारा चलाये हुए अभियोग के संबंध में प्रतिवादी का यह कहना कि इसका न्याय पहले ही (वादी के विरुद्ध) हो चुका है।
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प्राङ्मुख  : वि० [सं० ब० स०] जो पूर्व दिशा की ओर मुख किये हुए हो। पूर्व दिशा की ओर देखता हुआ। क्रि० वि० पूर्व की ओर मुख किये हुए।
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प्राचंड्य  : पुं० [सं० प्रचंड+ष्यञ्]=प्रचंडता।
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प्राचार्य  : पुं० [सं० प्र+आचार्य प्रा० स०] दे० ‘प्रधानाचार्य’।
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प्राची  : स्त्री० [सं० प्राच्+ङीष्] १. पूर्व दिशा। पूरब। २. अपने अथवा देवता के सामने की दिशा। ३. जल-आँवला।
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प्राचीन  : वि० [सं० प्राच्+ख—ईन] [भाव० प्राचीनता] १. पूर्व दिशा में होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. जो पूर्व अर्थात् पहलेवाले समय में बना, रहा या हुआ हो। बहुत दिनों का। (एशेन्ट) ३. पुराना। पुं०=प्राचीर।
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प्राचीनता  : स्त्री० [सं० प्राचीन+तल्+टाप्] प्राचीन होने की अवस्था, गुण या भाव। पुरानापन।
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प्राचीनत्व  : पुं०=प्राचीनता।
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प्राचीन-पनस  : पुं० [सं० कर्म० स०] बेल (पेड़)।
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प्राचीनबर्हि(स्)  : पुं० [सं०] इंद्र।
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प्राचीन-योग  : पुं० [सं० ब० स०] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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प्राचीना  : स्त्री० [सं० प्राचीन+टाप्] १. पाठा। २. रास्ता। ३. दे० ‘नित्यप्रिया’ (गोपियाँ)। वि० स्त्री० प्राचीन का स्त्री० रूप।
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प्राची-पति  : पुं० [सं० ष० त०] इन्द्र।
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प्राचीर  : पुं० [सं० प्र+आ√चि+क्रन्, दीर्घ] ऐसी ऊँची तथा पक्की दीवार जो किले, नगर आदि के रक्षार्थ उसको चारों ओर बनाई गई हो। चहारदीवारी। परकोटा।
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प्राचुर्य  : पुं० [सं० प्रचुर+ष्यत्र्]=प्रचुरता।
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प्राचेतस  : पुं० [सं० प्रचेतस्+अण्] १. प्रचेता के अपत्य या वंशज। २. प्रचेतागण जो प्राचीनवर्हि के पुत्र थे और जिनकी संख्या दस थी। ३. विष्णु। ४. दक्ष प्रजापति। ५. वरुण के एक पुत्र। ६. वाल्मीकि मुनि का एक नाम।
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प्राच्छित  : पुं०=प्रायश्चित्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्राच्य  : वि० [सं० प्राच्+यत्] १. जो पूरब अर्थात् पूर्वी भू-भाग में बना, रहता या होता हो। पूरबी। २. पूर्वीय देशों अर्थात् एशिया महाद्वीप के देश और उनके निवासियों से संबंध रखनेवाला। पूर्वीय। जैसे—प्राच्य सभ्यता। ३. पुराना। प्राचीन। पुं० १. पूर्वी भूभाग। २. पूर्वी देश। ३. कोशल, काशी, विदेह और अंग देश की प्राचीन सामूहिक संज्ञा।
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प्राच्यक  : वि० [सं० प्राच्य+कन्]=प्राच्य।
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प्राच्यविद्  : पुं० [सं०]=प्राच्यवेत्ता।
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प्राच्य-विद्या  : स्त्री० [सं०] पुरातत्व की वह शाखा जिसमें प्राच्य देशों अर्थात्, तुर्की, ईरान, भारत, बरमा, चीन, स्याम, मलाया आदि पूर्वीय देशों के इतिहास, धर्म, भाषा, संस्कृत, साहित्य आदि का अनुसंधानात्मक विचार और विवेचन होता है। (ओरियन्टलिज्म)
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प्राच्य-वृत्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] साहित्य में वैताली वृत्ति का एक भेद जिनके समपादों में चौथी और पाँचवीं मात्राएँ मिलकर गुरु हो जाती हैं।
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प्राच्यवेत्ता  : पं० [सं०] वह जो प्राच्य-विद्या का अच्छा ज्ञाता हो। (ओरिएन्टलिस्ट)
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प्राच्य-व्रण  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का व्रण या घाव जो उष्ण कटिबन्ध के देशों में चेहरे या हाथ-पैर पर होता है। (ओरिएन्टल सोर)
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प्राच्या  : स्त्री० [सं० प्राच्य+टाप्] प्राच्य (कोशल, काशी, विदेह और अंग) के निवासियों की भाषा। अर्द्ध-मागधी और मागधी इसी के विकसित रूप हैं।
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प्राजक  : पुं० [सं० प्र√अज् (गति)+णिच्+ण्वुल्—अक] रथ चलानेवाला। सारथी।
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प्राजन  : पुं० [सं० प्र√अज्+ल्युट्—अन] कोड़ा। चाबुक।
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प्राजापत  : पुं० [सं० प्रजापति+अण्] प्रजापति का कार्य, पद या भाव।
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प्राजापत्य  : वि० [सं० प्रजापति+ण्य] १. प्रजापति-संबंधी। प्रजापति का। २. प्रजापति से उत्पन्न। पुं० १. हिंदू धर्म-शास्त्रों के अनुसार आठ प्रकार के विवाहों में से वह विवाह जिसमें कन्या का पिता वर से बिना कुछ लिए उसे अपनी कन्या दे देता है। विशेष—ऐसे विवाह में वर और कन्या को प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि हम दोनों मिलकर गार्हस्थ्य धर्म का पालन करेंगे, और एक दूसरे के प्रति निष्ठ रहेंगे। २. एक प्रकार का व्रत जो बारह दिनों का होता है। इसमें पहले तीन दिन तक सायंकाल २२ ग्रास, फिर तीन दिन तक प्रातः काल २६ ग्रास, फिर तीन दिन तक अपाचित अन्न २४ ग्रास खाकर अन्त में तीन दिन उपवास करना पड़ता है। ३. रोहिणी नक्षत्र। ४. यज्ञ। ५. प्रयोग तीर्थ का एक नाक।
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प्राजापत्या  : स्त्री० [सं० प्राजापत्य+टाप्] १. संन्यास ग्रहण करने से पूर्व अपनी संपत्ति दान करने की क्रिया या भाव। २. वैदिक छंदों के आठ भेदों में से एक।
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प्राजिता (तृ)  : पुं० [सं० प्र√अज्+तृच्]=प्राजक (सारथी)।
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प्राजी (जिन्)  : पुं० [सं० प्र√अज्+णिनि] बाज (पक्षी)।
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प्राजेश  : पुं० [सं० प्रजेश+अण्] १. रोहिणी, नक्षत्र। २. यज्ञ में प्रजापति देवता के उद्देश्य से रखा जानेवाला पदार्थ।
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प्राज्ञ  : वि० [सं० प्र√ज्ञा (जानना)+क+अण्] [स्त्री० प्राज्ञा, प्राज्ञी, भाव० प्राज्ञता, प्राज्ञत्व] १. बुद्धिमान। समझदार। २. चतुर। होशियार। ३. (ऐसा व्यक्ति) जिसने अध्ययन द्वारा बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त किया हो। पुं० १. चतुर व्यक्ति। २. विद्वान व्यक्ति। ३. जीवात्मा।
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प्राज्ञत्व  : पुं० [सं० प्राज्ञ+त्व] १. प्राज्ञ होने की अवस्था या भाव। पांडित्य। विद्वत्ता। २. कौशल। चातुर्य। ३. बुद्धिमत्ता। ४. मूर्खता। बेवकूफी। (व्यंग्य)
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प्राज्ञमानी (निन्)  : पुं० [सं० प्राज्ञ+मन्+णिनि] वह जिसे अपने पांडित्य का विशेष अभिमान हो।
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प्राज्ञी  : स्त्री० [सं० प्राज्ञ+ङीप्] १. ऐसी स्त्री जसने अध्ययन द्वारा बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त किया हो। २. सूर्य्य की भार्या का नाम।
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प्राज्य  : वि० [सं० प्र√अज्+ण्यत्] १. प्रचुर। अधिक। २. ऊँचा। विशाल। ३. जिसमें बहुत घी पड़ा हो।
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प्राड्विवाक  : पुं० [सं०√प्रच्छ् (पूछना)+क्विप्=प्राट्-विवाक, कर्म० स०] १. वह जो व्यवहार-शास्त्र का ज्ञाता हो और विवाद आदि का निर्णय करता हो। न्यायाधीश। २. प्राचीन काल में वह अधिकारी जिसे राजा न्याय करने के लिए नियुक्त करता था। ३. वकील।
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प्राण  : पुं० [सं० प्र√अन्+घञ्] १. श्वास। साँस। २. वह वायु या हवा जो साँस के साथ अन्दर जाती है और बाहर निकलती है। ३. वह हवा जो जीव-जंतुओं, पेड-पौधों आदि में रहकर उन्हें जीवित रखती और उन्हें अपने सब व्यापार चलाने में समर्थ करती है। जीवनी-शक्ति। जान। (लाइफ़) विशेष—हमारे यहाँ शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में रहनेवाले ये पाँच प्रकार के प्राण माने गये हैं—प्राण, अपान, ,मान, उदान और व्यान। इसी आधार पर ‘प्राण’ का प्रयोग प्रायः बहुवचन में होता है। इसके सिवा शरीर की कुछ विशिष्ट क्रियाएँ करानेवाले और भी पाँच प्राण कहे गये हैं जो वायु रूप में हैं और जिन्हें नाग, कूर्म, कृकिल, देवदत्त तथा धनंजय कहते हैं। छांदोग्य ब्राह्मण में जीवनी शक्ति, वाक्, चक्षु, श्रोत्र और मन को ‘प्राण’ कहा गया है। कुछ ग्रंथों में मूलाधार में रहनेवाली वायु को ही मुख्य रूप से ‘प्राण’ कहा गया है। जैन शास्त्रों में पाँचों इंद्रियाँ, त्रिविध बलों (मनोबल, वाक्बल और काय-बल) तथा उच्छ्वास और आयु के समूह को प्राण कहा गया है। कुछ अवसरों पर और विशेषतः कुछ मुहावरों में यह शारीरिक बल या शक्ति का भी वाचक होता है। मुह०—प्राण उड़ जाना=दुःख, भय आदि के कारण होश-हवास जाता रहना। बहुत घबराहट या विकलता होना। (किसी के) प्राण खाना=बहुत तंग या परेशान करना। प्राण गले (या मुँह) तक आना=रोग, संकट आदि के कारण मृत्यु के समीप तक पहुँचना। मरणासन्न होना। प्राण घूटना=मृत्यु होना। मरना। प्राण छोड़ना, तजना या त्यागना=यह शरीर छोड़कर परलोक जाना। मरना। प्राण जाना या निकालना=मृत्यु होना। (किसी में) प्राण डालना=(क) किसी में जीवन का संचार करना। (ख) किसी मरते हुए को जीवन प्रदान करना। (अपने) प्राण देना=मर जाना। मरना। (किसी के लिए) प्राण देना=किसी के किसी काम से बहुत दुःखी या रुष्ट होकर मरना। (किसी पर) प्राण देना=किसी से इतना अधिक प्रेम करना कि उसके बिना रहा न जा सके। प्राणों के समान प्रिय समझना। (किसी काम या बात से) प्राण निकलने लगना=कोई काम या बात करते हुए इतनी आशंका या भय होना कि मानों प्राण निकल जायँगे। भय, शंका आदि के कारण अथवा और किसी प्रकार अपने आप को बचाने के लिए बिल्कुल अलग या बहुत दूर रहना। प्राण (या प्राणों) पर खेलना=ऐसा काम करना जिसमें जान जाने का भय हो। प्राणों को संकट में डालना। प्राण या (प्राणों) पर बीतन=(क) जीवन संकट में पड़ना। जान जोखिम होना। (ख) मृत्यु होना। मर जाना। (किसी के) प्राण बचाना=जीवन की रक्षा करना। जान बचाना। (अपने) प्राण बचाना=(क) किसी प्रकार अपने जीवन की रक्षा करना। (ख) कोई काम करने से बचना या भागना। जान या पीछा छुड़ाना। प्राण मुट्ठी या हथेली में लिये फिरना=जीवन को कुछ न समझना। प्राण देने पर हर समय तैयार रहना। किसी के प्राण रखना=जान बचाना। जीवन की रक्षा करना। (किसी के) प्राण लेना या हरना=जीवन का अन्त कर देना। मार डालना। प्राण हारना=(क) मरजाना। (ख) साहस या हिम्मत छोड़ देना। हतोत्साह होना। प्राणों पर आ पड़ना या आ बनना=जीवन संकट में पड़ना। जान जोखिम में होना। प्राणों में प्राण आना=घबराहट या भय कम होना। चित्त कुछ ठिकाने या शांत होना। ३. वह जो प्राणों के समान परम प्रिय हो। ४. ब्रह्म। ५. ब्रह्मा। ६. विष्णु। ७. अग्नि। आग। ८. वैवस्वत मंवतर के सप्तर्षियों में से एक। ९. धाता के एक पुत्र का नाम। १॰. एक साम का नाम। ११. यवर्ण। यकार। १२. वाराहमिहिर आर्यभट्ट के अनुसार उतना काल जितनें में दस दीर्घ मात्राओं का उच्चारण होता है। यह विनाडिका का छठा भाग है। १३. पुराणानुसार एक कल्प जो ब्रह्मा के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को होता है।
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प्राण-अधार  : पुं०=प्राणाधार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्राणक  : पुं० [सं० प्राण√कै (प्रकाशित होना)+क] १. जीवक वृक्ष। २. जीव। प्राणी। ३. गोंद।
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प्राण-कर  : वि० [सं० प्राण√कृ (करना)+ट] जिससे शरीर का बल बढ़ता हो। शक्ति-वर्द्धक। पौष्टिक।
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प्राण-कष्ट  : पुं० [ष० त० या मध्य० स०] वह कष्ट जो प्राण निकलने या मरने के समय होता है। मरण-काल की यातना या वेदना।
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प्राण-कृच्छ्  : पुं०=प्राण-कष्ट।
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प्राण-ग्रह  : पुं० [ष० त०] नासिका। नाक।
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प्राण-घातक  : वि० [सं० ष० त०] १. प्राण लेने या मार डालनेवाला। २. (विष या और कोई पदार्थ) जिसके व्यवहार से प्राण निकल जायँ।
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प्राणघ्न  : वि० [सं० प्राण√हन्+टक्]=प्राण-घातक।
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प्राणच्छेद  : पुं० [ष० त०] हत्या। वध।
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प्राण-जीवन  : पुं० [ष० त०] १. वह जो प्राणों का आधार हो। प्राणाधार। २. परम प्रिय व्यक्ति। ३. विष्णु।
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प्राण-त्याग  : पुं० [ष० त०] प्राण का शरीर से निकल जाना। मर जाना।
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प्राणथ  : पुं० [सं० प्र√अन् (जीना)+अथ] १. वायु। हवा। २. प्रजापति। ३. पवित्र स्थान। तीर्थ। ४. जैन शास्त्रानुसार एक देवता जो कल्पभव नामक वैभानिक देवताओं के अंतर्गत हैं। वि० बलवान। सशक्त।
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प्राण-दंड  : पुं० [ष० त०] हत्या या ऐसे ही किसी दूसरे गंभीर अपराध के लिए किसी को दी जानेवाली मौत की सजा। मृत्यु-दंड। (कैपिटल पनिशमेन्ट)
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प्राणद  : वि० [सं० प्राण√दा+क] १. प्राणों की प्रतिष्ठा या संचार करनेवाले। प्राण-दाता। २. प्राणों की रक्षा करनेवाला। प्राणरक्षक। ३. शरीर की प्राण-शक्ति बढ़ानेवाला। पुं० १. जल। २. खून। ३. जीवक वृक्ष। ४. विष्णु।
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प्राणदा  : स्त्री० [सं० प्राणद+टाप्] १. हरीतकी। हर्रे। २. ऋद्धि नामक ओषधि।
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प्राण-दाता (तृ)  : वि० [ष० त०] प्राणों की प्रतिष्ठा या संचार करने वाला। प्राणद।
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प्राण-दान  : पुं० [ष० त०] १. किसी में प्राण डालना या उसे प्राणों से युक्त करना। २. जिसे मार डालना चाहते हों, उसे दया करके यों ही छोड़ देना। किसी के प्राणों की रक्षा करना। ३. अपने प्राणों का किसी शुभ काम के निमित्त किया जानेवाला बलिदान। जीवन-दान।
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प्राणद्यूत  : पुं० [ष० त०] अपने को ऐसी स्थिति में डालना जिसमें प्राण तक जाने का भय हो। जान जोखिम में डालना। जान की बाजी लगाना।
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प्राण-द्रोह  : पुं० [ष० त०] किसी के प्राण लेने के लिए किया जानेवाला दुस्साहस जो विधिक दृष्टि में अपराध होता है।
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प्राण-धन  : पुं० [ष० त०] १. वह जो किसी को प्राणों के समान प्रिय हो। २. पति या प्रियतम।
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प्राणधार  : वि० [सं० प्राण√धृ (धारण करना)+अण्] जो प्राण धारण किये हुए हो। जीता हुआ। पुं० प्राणी। जीव।
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प्राण-धारण  : पुं० [ष० त०] १. प्राणों की रक्षा तथा उन्हें पोषित करते रहने का भाव। २. उक्त का कोई साधन। ३. शिव।
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प्राणधारी (रिन्)  : वि० [सं० प्राण√धृ+णिनि] जो साँस लेता हो। साँस लेकर जीवित रहने वाला। पुं० जीव। प्राणी।
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प्राण-ध्वनि  : स्त्री० [सं०] १. भाषा विज्ञान और व्याकरण में, शब्दों के उच्चारण के समय मुँह से निकलनेवाली ऐसी ध्वनि जिसमें किसी स्वर के उच्चारण से पहले उस पर श्वास का कुछ अधिक जोर पड़ता या झटका लगता है। जैसे—‘ए’ (संबोधन) के उच्चारण में प्राण-ध्वनि लगने पर ‘हे’ और होंठ में के ‘ओं’ के उच्चारण में लगने पर ‘हों’ (होंठ) का उच्चारण होता है। २. वर्ण-माला में का ‘ह’ वर्ण।
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प्राणन  : पुं० [सं० प्र√अन्+ल्युट्—अन] १. किसी में प्राण डालने की क्रिया या भाव। प्राण-प्रतिष्ठा करना। २. जीवन। ३. इस प्रकार हिलना-डुलना कि जीवित होने का प्रमाण मिले। ४. जल। पानी।
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प्राण-नाथ  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० प्राणनाथा] १. वह जो प्राणों फलतः शरीर का स्वामी हो। २. स्त्री की दृष्टि से उसका पति। ३. प्रियतम। प्रेमी। ४. यम। ५. औरंगजेब के शासन-काल में एक क्षत्रिय आचार्य जो प्राण-नाथी धार्मिक संप्रदाय के प्रवर्तक थे।
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प्राण-नाथी (थिन्)  : पुं० [सं० प्राण-नाथ+इनि] १. प्राण-नाथ का चलाया हुआ एक धार्मिक संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी।
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प्राण-नाश  : पुं० [ष० त०] १. प्राणों का नष्ट हो जाना। मृत्यु। २. जान से मार डालना। हत्या।
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प्राण-नाशक  : वि० [ष० त०] प्राण नष्ट करने या मार डालनेवाला।
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प्राण-निग्रह  : पुं० [ष० त०] प्राणायाम।
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प्राण-पति  : पुं० [ष० त०] १. प्राण-नाथ। २. आत्मा। ३. वैद्य।
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प्राण-परिक्रय  : पुं० [ष० त०] प्राणों की बाजी लगाना।
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प्राण-परिग्रह  : पुं० [ष० त०] प्राण धारण करना। जन्म लेना।
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प्राण-प्यारा  : वि०, पुं०=प्राण-प्रिय।
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प्राण-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी में प्राण डालकर उसे प्राणयुक्त अर्थात् सजीव बनाना। २. देवालय स्थापित करते समय किसी विशिष्ट मूर्ति में वास करने के लिए उसके देवता का किया जानेवाला आवाहन तथा स्थापना जो कर्म-कांड का धर्मिक कृत्य है।
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प्राणप्रद  : वि० [सं० प्राण+प्र√दा (देना)+क] १. प्राणद। (दे०) २. शरीर का स्वास्थ्य ठीक करने और बढ़ानेवाला।
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प्राण-प्रदायक  : वि० [ष० त०] प्राणद। प्राणदाता।
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प्राण-प्रिय  : वि० [स्त्री० प्राण-प्रिया] प्राणों के समान प्रिय। पुं० १. परम प्रिय व्यक्ति। २. प्रियतम।
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प्राणभृत्  : वि० [सं० प्राण√भृ (धारण करना)+क्विप] १. प्राण धारण करनेवाला। २. प्राण-पोषक। पुं० १. जीव। २. विष्णु।
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प्राणमय  : वि० [सं० प्राण+मयट्] [स्त्री० प्राणमयी] जिसमें प्राण या जीवनी-शक्ति हो। जानदार। सजीव।
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प्राणमय-कोश  : पुं० [सं० कर्म० स०] आत्मा को आवृत करनेवाले पाँच कोशों में से दूसरा जो पाँचों प्राणों (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान) तथा पाँचों कर्मेन्द्रियों का समूह कहा गया है। (वेदान्त)
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प्राण-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. श्वास-प्रश्वास के आने-जाने की क्रिया। साँस का आना-जाना। २. भोजन, स्नान आदि के दैनिक कृत्य जिनसे मनुष्य या प्राणियों का जीवन चलता है। ३. जीविका।
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प्राण-योनि  : पुं० [सं० ष० त०] १. परमेश्वर। २. वायु। स्त्री० प्राणों का स्रोत्र।
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प्राणरंध्र  : पुं० [सं० ष० त०] शरीर ने छिद्र या रन्ध्र। मुख्यतः नाक और मुँह जिनसे मनुष्य साँस लेता है।
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प्राणरोध (न्)  : पुं० [सं० ष० त०] १. साँस रोकना। २. प्राणायाम।
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प्राण-वध  : पुं० [सं० ष० त०] जान से मार डालना। वध। हत्या।
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प्राण-वल्लभ  : पुं० [सं० उपमति स०] [स्त्री० प्राणवल्लभा] १. वह जो बहुत प्यारा हो। अत्यंत प्रिय। २. पति। स्वामी। ३. प्रियतम।
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प्राणवान् (वत्)  : [सं० प्राण+मतुप्, वत्व] जिसमें प्राण हों। प्राणों से युक्त।
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प्राण-वायु  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] १. प्राण। २. जीव। ३. आज-कल वातावरण में रहनेवाला एक प्रसिद्ध गैस जिसमें कोई गन्ध, वर्ण या स्वाद नहीं होता और जो प्राणियों, वनस्पतियों आदि को जीवित रखने के लिए परम आवश्यक तत्त्व है। (ऑक्सीजन)
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प्राण-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] उपनिषदों का वह प्रकरण जिसमें प्राणों का वर्णन है।
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प्राण-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राण, अपना, उदान आदि पंच प्राणों के कार्य।
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प्राण-व्यय  : पुं० [सं० ष० त०] प्राणनाश। मत्यु।
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प्राण-शरीर  : पुं० [सं० ष० त०] १. उपनिषदों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो मनोमय विज्ञान और क्रिया का हेतु माना गया है। २. परमेश्वर।
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प्राण-शोषण  : पुं० [सं० ष० त०] वाण। तीर।
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प्राण-संकट  : पुं० [सं० ष० त०] १. ऐसी स्थिति जिसमें प्राण जाने का भय हो। २. ऐसी बात जिसके कारण जान जोखिम में पड़ी हो।
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प्राण-संदेह  : पुं० [ष० त०] वह अवस्था जिसमें जान जाने का डर हो। प्राणान्त होने की आशंका।
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प्राण-संन्यास  : पुं० [ष० त०] मृत्यु। मौत।
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प्राण-संयम  : पुं० [सं० ब० स०] प्राणायाम।
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प्राण-शय  : पं० [ष० त०] १. जीवन के नष्ट होने की आशंका। २. मरणासन्नता। ३. प्राण-संकट।
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प्राण-हर  : वि० [सं० प्राण√हृ (हरण करना)+अच्] १. जान से मार डालनेवाला। प्राण लेनेवाला। २. बलनाशक। पुं० विष आदि ऐसे पदार्थ जिनके सेवन से प्राण निकल जाते हैं।
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प्राण-हानि  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राणों का नाश। मत्यु।
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प्राण-हारक  : वि० [सं० ष० त०]=प्राण-हर। पुं० वत्सनाभ। बछनाग।
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प्राणहारी (रिन्)  : वि० [सं० प्राण√हृ+णिनि] प्राण लेनेवाला। प्राण-नाशक।
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प्राणांत  : पुं० [सं० प्राण-अंत, ष० त०] प्राणों का होनेवाला अंत या नाश। मृत्यु।
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प्राणांतक  : वि० [सं० प्राण-अंतक, ष० त०] १. प्राण या जान लेनेवाला। घातक। २. मरने का-सा कष्ट देनेवाला। जैसे—प्राणांतक परिश्रम।
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प्राणांतिक  : पुं० [सं० प्राणांत+ठक्—इक] १. वध। हत्या। २. वधिक। वि०=प्राणांतक।
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प्राणाग्नि-होत्र  : पुं० [सं० प्राण-अग्नि, कर्म० स०, प्राणाग्नि-होत्र, स० त०] भोजन के समय पहले किया जानेवाला वह कृत्य जिसमें ‘प्राणाय स्वाहा’, ‘अपानाय स्वाहा’, ‘व्यानाय स्वाहा’, ‘उदानाय स्वाहा’ और ‘समानाय स्वाहा’ कहते हुए पाँच ग्रास निकालकर अलग रखते हैं।
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प्राणाघात  : पुं० [सं० प्राण-आघात, स० त०] १. वह आघात जो किसी के प्राण लेने के उद्देश्य से किया गया हो। २. मार डालना। वध। हत्या।
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प्राणाचार्य  : पुं० [सं० प्राण-आचार्य, ष० त०] वैद्य विशेषतः राजवैद्य।
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प्राणातिपात  : पुं० [सं० प्राण अतिपात, ष० त०] जान से मार डालना। हत्या।
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प्राणातिपात-विरमण  : पुं० [सं० पं० त०] जैन मतानुसार अहिंसा व्रत। यह दो प्रकार का कहा गया है—द्रव्य-प्राणातिपात-विरमण और भाव-प्राणातिपात-विरमण।
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प्राणात्मा (त्मन्)  : पुं०=जीवात्मा।
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प्राणात्यय  : पुं० [सं० प्राण-अत्यय, ष० त०] १. प्राण-नाश। २. मरने का समय। मृत्यु-काल। ३. वह बात जिसके कारण मारे जाने का भय हो।
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प्राणाद  : वि० [सं० प्राण√अद् (खाना)+अण्] प्राणनाशक।
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प्राणाधार  : वि० [सं० प्राण-आधार, ष० त०] जिसके कारण प्राण टिके या बने हुए हों। अत्यंत प्रिय। प्यारा। पुं० १. प्रेम-पात्र। २. स्त्री का पति। स्वामी।
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प्राणाधिक  : वि० [सं० प्राण-अधिक, पं० त०] [स्त्री० प्राणाधिका] प्राणों से भी अधिक प्रिय। बहुत प्यारा। पुं० स्त्री का पति। स्वामी।
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प्राणाधिप  : पुं० [सं० प्राण-अधिप, ष० त०] आत्मा।
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प्राणाबाध  : पुं० [सं० प्राण-आबाध, ष० त०] प्राण जाने की आशंका या संभावना।
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प्राणायतन  : पुं० [सं० प्राण-आयतन, ष० त०] शरीर से प्राणों के निकलने के नौ मार्ग—दो कान, नाक के दोनों छेद, दोनों आँखें, मुख, गुदा और उपस्थ।
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प्राणायाम  : पुं० [सं० प्राण-आयाम, ष० त०] १. प्राणों को अपने वश में रखने की क्रिया या भाव। २. योग के आठ अंगों में चौथा जिसमें मन को शांत और स्थिर करने के लिए श्वास और प्रश्वास की वायुओं को नियंत्रित और नियमित रूप से अंदर खींचा और बाहर निकाला जाता है। प्राण-निरोध।
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प्राणायामी (मिन्)  : वि० [सं० प्राणायाम+इनि] १. प्राणायाम संबंधी। २. प्राणायाम करनेवाला।
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प्राणावरोध  : पुं० [सं० प्राण-अवरोध, ष० त०] श्वास को अंदर खींचकर रोक रखना।
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प्राणाशय  : पुं० [सं० प्राण-आशय, ष० त०] प्राण-शक्ति। उदा०—अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय।—निराला।
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प्राणासन  : पुं० [सं० प्राण-आसन, मध्य० स०] तांत्रिक साधना में एक प्रकार का आसन।
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प्राणाहुति  : स्त्री० [सं० प्राण-आहुति, ष० त०] पाँचों प्राणों को पाँच ग्रासों के रूप में दी जानेवाली आहुति।
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प्राणि  : पुं०=प्राणी।
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प्राणिक  : वि० [सं० प्राण+ठन्—इक] १. प्राण-संबंधी। प्राणों का। २. बिना शोर मचाये बोलनेवाला। वि० [सं० प्राणी से] प्राणियों या जीव-धारियों से सम्बन्ध रखनेवाला। प्राणियों का।
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प्राणित  : भू० कृ० [सं० प्र√अन्+णिच्+क्त] १. प्राणों या जीवनी-शक्ति से युक्त किया हुआ। उदा०— शशि मुख प्राणित नील गगन था, भीतर से आलोकित मन था।—पंत। २. जीता हुआ।
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प्राणि-द्यूत  : पं० [सं० ष० त०] वह बाजी जो भेड़े, तीतर, घोड़े आदि जीवों की लड़ाई, दौड़ आदि में लगाई जाय। (धर्म-शास्त्र)
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प्राणि-भूगोल  : पुं० [सं० ष० त०] भूगोल की वह शाखा जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पृथ्वी पर कहाँ की जल-वायु के प्रभाव के कारण कैसे-कैसे प्राणी और वनस्पतियाँ होती हैं। (बायोजियाग्रैफी)
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प्राणि-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] वैज्ञानिक क्षेत्रों में जल, स्थल और आकाश का उतना अंश जिसमें कीड़े, मकोड़े, जीव-जंतु, वनस्पतियाँ आदि रहती तथा होती हैं। जीव-मंडल। (बायोस्फीयर)
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प्राणि-विज्ञ  : पुं० [सं० ष० त०] वह जो प्राणि-शास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो। (जूलाजिस्ट)
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प्राणि-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक विज्ञान की वह शाखा जिसमें प्राणियों की जातियों, वर्गों, विभेदों आदि का अध्ययन होता है। (जलाँजी)
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प्राणिशास्त्र  : पुं०=प्राणि-विज्ञान।
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प्राणी (णिन्)  : वि० [सं० प्राण+इनि] जिसमें पाँचों प्राणों का निवास हो। जीव-धारी। प्राण-धारी। पुं० १. प्राणों से युक्त शरीर। २. मनुष्य। ३. व्यक्ति। ४. स्त्री की दृष्टि से उसका पति। ५. पति की दृष्टि से उसकी पत्नी। पद—दोनों प्राणी=पति और पत्नी। पुरुष और स्त्री। दंपति।
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प्राणेश  : पुं० [सं० प्राण-ईश, ष० त०] [स्त्री० प्राणेशा] १. प्राणों का स्वामी। २. स्त्री० की दृष्टि से उसका पति। ३. परम प्रिय व्यक्ति।
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प्राणेश्वर  : पुं० [सं० प्राण-ईश्वर, ष० त०] [स्त्री० प्राणेश्वरी] १. पति। स्वामी। २. परम प्रिय व्यक्ति।
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प्राणोत्सर्ग  : पुं० [सं० प्राण-उत्सर्ग, ष० त०] मृत्यु।
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प्राणोपेत  : वि० [सं० प्राण-उपेता पुं० त०] प्राणों से युक्त। जीवित।
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प्रातःकर्म  : पुं० [सं० ष० त० वा स० त०] कर्म जो नित्य प्रातःकाल किये जाते हैं।
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प्रातःकार्य  : पुं०=प्रातःकर्म।
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प्रातःकाल  : पुं० [सं० कर्म० स० या ष० त०] १. पौ फटने का समय। तड़का। रात का अंतिम एक दंड और दिन का पहला एक दंड। २. सूर्य निकलने से कुछ पहले और बाद का समय। ३. कार्यालयों, निर्माण-शालाओं तथा विद्यालयों में जाने तथा काम करने का सवेरे ६-७ बजे से लेकर ११-१२ बजे दोपहर तक का समय। ‘दिन’ से भिन्न। जैसे—कल से कार्यालय प्रातःकाल हो गया है।
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प्रातःकालिक  : वि० [सं० प्रातःकाल+ठञ्—इक] प्रातःकाल-संबंधी। प्रातःकाल का।
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प्रातःकालीन  : वि० [सं० प्रातःकाल+ख—ईन]=प्रातःकालिक।
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प्रातःसंध्या  : स्त्री० [सं० सप्त० स०] प्रातःकाल की जानेवाली संध्या (ईश्वरोपासना)।
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प्रातःसवन  : पुं० [सं० मध्य० स०] तीन प्रधान सवनों (सोम-यागों) में से पहला सवन जो प्रातःकाल किया जाता है।
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प्रातःस्नान  : पुं० [सं० ष० त० वा स० त०] प्रातःकाल या सबेरे का स्नान।
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प्रातःस्नायी (यिन्)  : वि० [सं० प्रातः√स्ना+णिनि] प्रातः काल स्नान करनेवाला। सबेरे नहानेवाला।
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प्रातःस्मरण  : पुं० [सं० स० त०] सबेरे के समय ईश्वर, देवतादि का किया जेनावाला जप, पाठ या भजन।
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प्रातःस्मरणीय  : वि० [सं० स० त०] जिसे प्रातःकाल स्मरण करना उचित हो; अर्थात् परम पूज्य और श्रेष्ठ।
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प्रात  : अव्य. [सं० प्रातः] प्रभात के समय। बहुत सबेरे। तड़के। पुं० प्रातःकाल। सबेरा।
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प्रातकाली  : स्त्री० दे० ‘पाराती’ (गीत)।
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प्रात-कृत  : पुं०=प्रातःकृत्य।
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प्रातनाथ  : पुं० [सं० प्रातर्नाथ] सूर्य।
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प्रातर्  : अव्य० [सं० प्र√अत्+अरन्] प्रभात के समय। सबेरे। पुं० पुष्पार्ण के पुत्र एक देवता जो प्रभा के गर्भ से उत्पन्न हुए।
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प्रातरनुवाक  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऋग्वेद के अंतर्गत वह अनुवाक जो प्रातःसवन नामक कर्म के समय पढ़ा जाता है।
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प्रातरभिवादन  : पुं० [सं० ष० त०] बड़ों का वह अभिवादन जो प्रातःकाल सोकर उठने के समय किया जाय।
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प्रातराश  : पुं० [सं० ष० त०] प्रातःकाल किया जानेवाला हलका भोजन। जलपान। कलेवा।
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प्रातर्दन  : पुं० [सं० प्रातर्दन+अण्] प्रतर्दन के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। प्रतर्दन का अपत्य। वि० प्रतर्दन-संबंधी। प्रतर्दन का।
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प्राति  : स्त्री० [सं०√प्रा (पूर्ति)+क्तिन] १. अँगूठे और तर्जनी के बीच का स्थान। पितृ-तीर्थ। २. लाभ। ३. पूर्ति।
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प्रातिकूलिक  : वि० [सं० प्रतिकूल+ठक्—इक] विरुद्ध।
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प्रातिकूल्य  : पुं० [सं० प्रतिकूल+ष्यञ्] १. प्रतिकूल या विरुद्ध होने का अवस्था या भाव। २. हिन्दू धर्म-शास्त्रों के अनुसार इस बात का विचार कि परस्पर प्रतिकूल अवस्थाओं में कोई काम कब और कैसे करना चाहिए। जैसे—घर में अशौच होने पर मांगलिक और शुभ कार्य करने के समय आदि का विचार।
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प्रातिज्ञ  : पुं० [सं० प्रतिज्ञा+अण्] तर्क या विवाद का विषय।
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प्रातिदैवासिक  : वि० [सं० प्रतिदिवस+ठञ्-इक] प्रति दिवस अर्थात् नित्य होनेवाला। दैनिक।
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प्रातिनिधिक  : वि० [सं० प्रतिनिधि√ठक्—इक] १. प्रतिनिधि सम्बन्धी। प्रतिनिधि का। २. प्रतिनिधि के रूप में होनेवाला। पुं० १. प्रतिनिधि। २. स्थानापत्र।
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प्रातिपक्ष  : वि० [सं० प्रतिपक्ष+अण्] १. विरुद्ध। प्रतिकूल। २. प्रतिपक्षवाला।
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प्रातिपथिक  : वि० [सं० प्रतिपथ+ठक्—इक] यात्रा करनेवाला। पुं० यात्री।
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प्रातिपद  : वि० [सं० प्रतिपद्+अण्] १. प्रतिपदा-संबंधी। २. प्रतिपदा के दिन होनेवाला। ३. आरंभिक।
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प्रातिपदिक  : पुं० [सं० प्रतिपद्+ठञ्—इक] १. अग्नि। २. धातु। ३. संस्कृत व्याकरण में धातु और प्रत्यय से भिन्न कोई सार्थक शब्द। ४. कोई वृदान्त, तद्धित और समस्त पद। वि०=प्रातिपद।
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प्रातिभ  : वि० [सं० प्रतिभा√अण्] १. प्रतिभा-संबंधी। प्रतिभा का। २. प्रतिभा से उद्भूत। प्रतिभाजन्य। ३. मानसिक। पुं० १. प्रतिभा से युक्त या संपन्न व्यक्ति। प्रतिभाशाली मनुष्य। २. योग साधन में होनेवाले पाँच प्रकार के उपसर्गों या विघ्नों में से एक जो साधक की प्रतिभा क कारण उत्पन्न होता हैं; और जिसमें वेद-शास्त्रों, कलाओं, विद्याओं आदि से संबंध रखनेवाले विचार मन में उत्पन्न होकर उसे एकाग्र नहीं होने देते।
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प्रातिभाज्य  : वि० [सं० प्रति√भज्+णिच्+यत्] (पदार्थ) जिस पर प्रति-भाग नामक शुल्क लगता या लग सकता हो।
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प्रातिभाव्य  : पुं० [सं० प्रतिभू+ष्यञ्] १. प्रतिभू होने की अवस्था या भाव। २. जमानत।
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प्रातिभासिक  : वि० [सं० प्रतिभास+ठक्—इक] १. प्रतिभास-संबंधी। अनुरूपक। २. जो अस्तित्व में न हो, या जिसका अस्तित्व भ्रममूलक हो।। ३. जो व्यवहारिक न हो।
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प्रातिलोमिक  : वि० [सं० प्रतिलोम+ठक्—इक] प्रतिलोम-संबंधी; या प्रतिलोम के रूप में होनेवाला। ‘अनुलोमिक’ का विपर्याय। २. प्रतिकूल। विरुद्ध। ३. अप्रिय। अरुचिकर।
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प्रातिलोम्य  : पुं० [सं० प्रतिलोम+ष्यञ्] प्रतिलोम होने की अवस्था या भाव।
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प्रातिवेशिक  : पुं० [सं० प्रतिवेश+ठक्—इक]=प्रतिवेशी (पड़ोसी)।
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प्रातिवेश्य  : पुं० [सं० प्रतिवेश+ष्यञ्] प्रतिवेश में रहने की अवस्था या भाव। पड़ोस।
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प्रातिवेश्यक  : पुं० [सं० प्रातिवेश्य+कन्] पड़ोसी।
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प्रातिशाख्य  : पुं० [सं० प्रतिशाख+ञ्य] ऐसा ग्रंथ जिसमें वेदों के किसी शाखा के स्वर, पद, संहिता, संयुक्ता वर्णों के उच्चारण आदि का निर्णय या विचार किया गया हो।
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प्रातिहत  : पुं० [सं० प्रतिहत+अण्] स्वरित।
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प्रातिहर्त्र  : पुं० [सं० प्रतिहर्तृ+अण्] प्रतिहर्ता का काम, पद या भाव।
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प्रातिहार  : पुं० [सं० प्रतिहार+अण्] १. जादूगर। बाजीगर। २. दरबान। द्वार-पाल।
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प्रातिहारक  : पुं०=प्रातिहार।
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प्रातिहारिक  : वि० [सं० प्रतिहार+ठञ्—इक] प्रतिहार-संबंधी। पुं० प्रातिहार।
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प्रातिहार्य  : पुं० [सं० प्रतिहार+ष्यञ्] १. इंद्रजाल। बाजीगरी। २. कोई चमत्कारी खेल। करामात। ३. द्वारपाल का काम, पद या भाव।
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प्रातीतिक  : वि० [सं० प्रतीति+ठञ्—इक] १. जिसमें प्रतीति होती हो या जो प्रतीति कराता हो। २. मन या कल्पना में होनवाला। काल्पनिक या मानसिक।
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प्रातीप  : पुं० [सं० प्रतीप+अण्] १. प्रतीप का अपत्य या वंशज। २. प्रतीप के पुत्र शांतनु।
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प्रातीपिक  : वि० [सं० प्रतीप+ठत्र्—इक] १. प्रतीप-संबंधी। प्रतीप का। २. प्रतिकूल आचरण करनेवाला। विरुद्धाचारी। ३. उलटा। विपरीत।
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प्रात्यंतिक  : पुं० [सं० प्रत्यंत+ठञ्—इक] १. सीमा पर स्थित राज्य। २. सीमा की रक्षा करनेवाला अधिकारी।
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प्रात्यक्ष  : वि० [सं० प्रत्यक्ष्+अण्] १. प्रत्यक्ष नामक प्रमाण के रूप में होनेवाला। २. उक्त प्रमाण-संबंधी।
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प्रात्यक्षिक  : वि० [प्रत्यक्ष+ठक्—इक]=प्रत्यक्ष।
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प्रात्ययिक  : पुं० [सं० प्रत्यय+ठक्—इक] मिताक्षरा के अनुसार तीन प्रकार के प्रतिभूओं में से दूसरा। वह जो किसी को पहचान कर के उसका प्रतिभू बने। वि० १. प्रत्यय के रूप में होनेवाला। २. प्रत्यय-संबंधी।
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प्रात्यहिक  : वि० [सं० प्रत्यह+ठक्—इक] प्रतिदिन का। दैनिक।
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प्राथमकल्पिक  : पुं० [सं० प्रथमकल्प+ठक्—इक] वह विद्यार्थी जिसने वेद का अध्ययन अथवा योग साधन का आरंभ कर दिया हो। वि० प्रथम कल्प का।
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प्राथमिक  : वि० [सं० प्रथम+ठक्—इक] [भाव० प्राथमिकता] १. क्रम, गिनती आदि के विचार से आरंभ में आने या पड़नेवाला। २. जो उक्त विचार के आधार पर आरंभ में या पहले होता हो। (प्राइमरी)। जैसे—प्राथमिक विद्यालय। ३. जिससे किसी चीज या बात का आरम्भ सूचित होता है। जैसे—कमल रोग के यह प्राथमिक लक्षण हैं।
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प्राथमिक उपचार  : पुं० [सं० (कर्म० स०)] अचानक किसी के बीमार पड़ने, घायल होने, जल जाने आदि की अवस्था में, योग्य चिकित्सक के पहुँचने से पहले किया जानेवाला वह उपचार जो पीड़ित या रोगी की पीड़ा या रोग अधिक बढ़ने न दे। प्राथमिक चिकित्सा। (फर्स्ट एड)
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प्राथमिक चिकित्सा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०]=प्रथमोपचार। (देखें)
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प्राथमिकता  : स्त्री० [सं० प्राथमिक+तल्—टाप्] १. प्रथम स्नान में होने अथवा रखे जाने की अवस्ता या भाव। २. किसी काम, बात या व्यक्ति को औरों से पहले दिया जानेवाला अथवा मिलनेवाला अवसर या स्थान। प्रथमता। (प्रायोरिटी)
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प्राथमिक शिक्षा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वह शिक्षा जो नये विद्यार्थियों को आरंभ में दी जाती है। विशेषतः छोटे बालकों को बिलकुल आरंभिक कक्षाओं में दी जानेवाली शिक्षा जिसमें उन्हें लिखना-पढ़ना सिखलाया जाता है। (प्राइमरी एजुकेशन) विशेष—आज-कल विद्यालयों की आरंभिक ४ या ५ कक्षाओं तक की शिक्षा इसी के अंतर्गत मानी जाती है।
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प्राथम्य  : पुं० [सं० प्रथम+ष्यञ्] १. ‘प्रथम’ होने की अवस्था या भाव। प्रथमता। पहलापन। २. दे० ‘प्राथमिकता’।
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प्रादक्षिण्य  : वि० [सं० प्रदक्षिण+ष्यञ्] प्रदक्षिण-संबंधी।
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प्रादर्शनिक  : वि० [सं० प्रदर्शन+ठक्—इक] १. प्रदर्शन-संबंधी। २. (काम या बात) जो प्रदर्शन के रूप में अथवा प्रदर्शन के लिए हो। प्रदर्शनात्मक। (डिमान्स्ट्रेटिव)
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प्रादानिक  : वि० [सं० प्रदान+ठक्—इक] १. प्रदान-संबंधी। २. जो दान या प्रदान करने के योग्य हो।
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प्रादीपिक  : पुं० [सं० प्रदाप+ठक्—इक] घर-खेत आदि में आग लगानेवाले व्यक्ति। वि० प्रदाप संबंधी। प्रदाप का।
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प्रादुर्भवन  : पुं० [सं०] दे० ‘प्रोद्भवन’।
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प्रादुर्भाव  : पुं० [सं० प्रादुर्√भू (होना)+घञ्] [भू० कृ० प्रादुर्भूत] १. जन्म धारण कर अस्तित्व में आने का भाव। २. पुनः, दोबरा या नये सिरे से अस्तित्व में आना या पनपना। २. विकास।
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प्रादुर्भूत  : भू० कृ० [सं० प्रादुर्√भू+क्त] १. जिसका प्रादुर्भाव हुआ हो। २. विकसित। ३. उत्पन्न। ४. दे० प्रोद्भूत।
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प्रादुर्भूत-मनोभवा  : स्त्री० [ब० स०] केशव के अनुसार मध्या नायिका के चार भेदों में से एक। ऐसी नायिका जिसके मन में काम का पूरा प्रादुर्भाव होता हो और कामकला के समस्त चिह्न प्रकट होते हों। साहित्य दर्पण में इसे प्ररूढ़-स्मर यौवना लिखा है।
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प्रादेश  : पुं० [सं० प्र+दिश (बताना)+घञ्, दीर्घ] १. अधिकारिक रूप से दिया हुआ कोई आदेश, विशषतः लिखित आदेश। २. वह आदेशात्मक अधिकार जो प्रथम महायुद्ध के बाद राष्ट्र-संघ (लीग आफ नेशन्स) की ओर से कुछ बड़े-बड़े राष्टों को विजित उपनिवेशों, प्रदेशों आदि की शासनिक व्यवस्था के लिए दिया गया था। (मैनडेट) ३. तर्जनी और अँगूठे के सिरों के बीच की अधिकतम दूरी जो नाप में १२ उँगलियों के बराबर होती है। ४. तर्जनी और अँगूठे का बीच का भाग। ५. प्रदेश। ६. जगह। स्थान।
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प्रादेशात्मक  : वि० [सं० प्रदेशात्मक+अण्] (व्यवस्था) जो किसी प्रादेश के अनुसार हो। (मैनडेटरी)
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प्रादेशिक  : वि० [सं० प्रदेश+ठक्—इक] [भाव० प्रादेशिकता] १. प्रदेश-संबंधी। किसी एक प्रदेश का। जैसे—प्रादेशिक परिषद्, प्रादेशिक भाषा। २. प्रदेश के भीतरी कामों या भागों से संबंध रखने वाला अथवा उनमें रहने या होनेवाला। (टेरिटोरियल) जैसे—प्रादेशिक सेना। ३. किसी प्रसंग या प्रस्तुत विषय के अनुसार या उससे संबद्ध। प्रसंग-गत। पुं० १. सरदार। सामंत। २. किसी प्रदेश का प्रधान अधिकारा। सूबेदार।
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प्रादेशिकता  : स्त्री० [सं० प्रादेशिक+तल्—टाप्] प्रांतीयता।
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प्रादेशिक समुद्र  : पुं० [सं०] किसी देश या प्रदेश के समुद्री तट के सामने के समुद्र का कुछ विशिष्ट भाग जिसमें दूसरे देशों के जहाजों को बिना अनुमति प्राप्त किये आने का अधिकार नहीं होता। विशेष—पहले इसका विस्तार समुद्री तट से तीन मील की दूरी तक माना जाता था, परन्तु अब बड़ी-बड़ी दूरमार तोपों के बन जाने के कारण यह विस्तार बढ़ाकर बारह मील कर दिया गया है।
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प्रादेशिक सेना  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] किसी देश या प्रदेश के भीतरी भागों या सीमाओं के अन्दर रहकर स्थानिक सुरक्षा, शांति आदि की व्यवस्था करनेवाली सेना। (टेरिटोरियल आर्मी)
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प्रादेशी (शिन्)  : वि० [सं० प्रदोष+इनि] जो लंबाई में एक प्रादेश हो।
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प्रादोष  : वि० [सं० प्रदोष+अण्]=प्रादोषिक।
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प्रादोषिक  : वि० [सं० प्रदोष+ठक्—इक्] १. प्रदोष-संबंधी। प्रदोष का।
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प्राधनिक  : वि० [सं० प्रधन+ठक्—इक] १. विध्वंसक या विनाशकारी अस्त्र। २. लड़ाई में काम आनेवाला अस्त्र-शस्त्र।
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प्राधा  : स्त्री० [सं० प्रधा+ण—टाप्] दक्ष की एक कन्या दो कश्यप् ऋषि को ब्याही थी। पुराणों में इसे गन्धर्वों और अप्सराओं की माता बतलाया है।
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प्राधानिक  : वि० [सं० प्रधान+ठक्—इक] १. प्रधान (अध्यक्ष या मुखिया) से संबंध रखनेवाला। जैसे—प्राधानिक शासन। २. उच्च कोटि का। उत्तम।
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प्राधानिक शासन  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह शासन प्रणाली जिसमें प्रधान अर्थात् अध्यक्ष राज्य का मुख्य तथा सर्वोंपरि शासक होता है। मन्त्रि-मंडलीय शासन-प्रणाली से भिन्न। (प्रेजीडेंशियल गवर्नमेंट)
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प्राधान्य  : पुं० [सं० प्रधान+व्यञ्] १. प्रधान होने की अवस्था या भाव। २. वह स्थान या स्थिति जिसमें किसी चीज की अधिकता होती है। श्रेष्ठता।
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प्राधिकरण  : पुं० [सं० प्र-अधिकरण, प्रा० स०] १. प्राधिकार देना। (अथारिज़ेशन) २. प्राधिकारी का विशिष्ट अधिकार, कार्यालय या पद।
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प्राधिकार  : पुं० [सं० प्र+अधिकार] १. वह विशिष्ट अधिकार या शक्ति जिसके अनुसार औरों को कुछ करने की आज्ञा या आदेश दिया जा सकता हो, उसका पालन कराया जा सकता हो और महत्त्व की बातों का अंतिम निर्णय किया जा सकता हो (ऑथारिटी) २. वह अधिकार जिससे अनेक प्रकार की ऐसी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, जिनसे कठिनाइयों, बाधाओं आदि से सहज में बचा जा सकता हो। (प्रिविलेज)
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प्राधिकारिक  : वि० [सं० प्राधिकार+ठक्—इक] १. प्राधिकार से संबंध रखने या प्राधिकार के रूप में होनेवाला। २. प्राधिकार से संबंध रखनेवाला।
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प्राधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० प्र-अधिकारिन्, प्रा० स०] १. राज्य, शासन आदि का वह अधिकारी जिसे किसी क्षेत्र या विभाग में अधिकार प्राप्त हों। २. कोई ऐसा व्यक्ति जिसे किसी कार्य या विषय का बहुत अच्छा अनुभव या ज्ञान हो; और इसी लिए जिसका मत साधारणतः सबके लिए मान्य होता हो। (अथॉरिटी, उक्त दोनों अर्थों के लिए)
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प्राधिकृत  : भू० कृ० [सं० प्र०-अधिकृत, प्रा० स०] १. जिसे कोई प्राधिकार या सुभीता दिया गया हो या मिला हो। जैसे—प्राधिकृत अभिकर्ता। २. जिसके लिए या जिसके संबंध में प्राधिकार मिला हो। (आथोराइज़्ड) जैसे—प्राधिकृत पूँजी।
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प्राध्यापक  : पुं० [सं० प्र-अध्यापक, प्रा० स०] १. उच्च अथवा महाविद्यालय में किसी विषय की शिक्षा देनेवाला सबसे बड़ा अध्यापक। (प्रोफेसर) २. दे० ‘प्रधानाध्यापक’।
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प्राध्यापन  : पुं० [सं० प्र०-अध्यापन प्रा० स०] उच्च श्रेणियों के विद्यार्थियों का पढ़ाना।
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प्राध्व  : पुं० [सं० प्र-अध्वन् प्रा० स०] १. बहुत बड़ा या लम्बा रास्ता। २. यात्रा के काम में आनेवाली सवारी। ३. रथ। वि० अधिक अंतर पर स्थित। दूर।
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प्रान  : पुं०=प्राण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रानी  : पुं०=प्राणी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रानेस  : पुं०=प्राणेश।
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प्राप  : पुं० [सं० प्र√आप् (पाना)+घञ्] १. प्राप्ति। २. पहुँचना। जैसे—दुष्प्राप। ३. जल का प्रचुर होना। वि० १.=प्राप्त। २.=प्राप्य।
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प्रापक  : वि० [सं० प्र√आप्+ण्वुल्—अक] १. प्राप्ति-संबंधी। २. प्राप्त करने या कराने वाला। (रिसीवर) ३. प्राप्त होने या मिलनेवाला। पुं० दे० ‘आदायक’।
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प्रापण  : पुं० [सं० प्र√आप्+ल्युट्—अन] [वि० प्रापणीय, प्राप्य] १. प्राप्त करना या कराना। २. पहुँचाना।
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प्रापणिक  : पुं० [सं० प्रापण्√ठक्—इक्] व्यापारी।
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प्रापणीय  : वि० [सं० प्र√आय+अनीयर] १. जो प्राप्त किया जा सके। प्राप्य। २. पहुँचाने योग्य।
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प्रापत  : वि०=प्राप्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रापति  : स्त्री०=प्राप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रापना  : अ० [सं० प्रापण] प्राप्त होना। मिलना। स० प्राप्त करना। पाना।
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प्रापयिता (तृ)  : वि० [सं० प्र√आप्+णिच्+तृच्] प्राप्त करनेवाला।
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प्रापी (पिन्)  : वि० [सं० प्र√आप्+णिनि] १. प्राप्त करनेवाला। २. पहुँचानेवाला। (समासांत में)
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प्राप्त  : भू० कृ० [सं० प्र√आप्+क्त] [भाव० प्राप्ति] १. (अधिकार) गुण, धन, वस्तु आदि जिसे प्रयत्न करके अधिकार में लाया गया हो अथवा जो यों ही या किसी अभिकरण के द्वारा हस्तगत हुआ हो। २. सामने आया हुआ। उपस्थित। जैसे—मृत्यु प्राप्त करना। ३. जो अनुभूत हुआ हो। जैसे- सुख प्राप्त होना।
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प्राप्तकाल  : पुं० [ब० स०] १. कोई काम करने का उपयुक्त समय। २. मरने का समय। अंतिम समय। वि० (काम या बात) जिसका काल या समय आ गया हो।
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प्राप्त-जीवन  : वि० [ब० स०] जिसे जीवन मिला हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्राप्त-दोष  : वि० [ब० स०] १. जिसमें कोई दोष आ गया हो। २. जिसने कोई दोष किया हो।
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प्राप्त-पंचत्व  : वि० [ब० स०] जो पंचतत्त्वों को प्राप्त हुआ हो; अर्थात् मरा हुआ।
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प्राप्त-प्रसवा  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] जो बच्चे को देनेवाली हो। जो प्रसव करने को हो।
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प्राप्त बुद्धि  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने फिर से चेतना या संज्ञा प्राप्त की हो। २. चतुर। ३. बुद्धिमान।
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प्राप्त-यौवन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० प्राप्त-यौवना] जिसमें जवानी आ गई हो।
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प्राप्त रूप  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे रूप की प्राप्ति हुई हो; अर्थात् सुन्दर। २. आकर्षक। मनोहर। ३. बुद्धिमान। ४. विद्वान।
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प्राप्तघ्य  : वि० [सं० प्र√आप्+तव्यत्] जो प्राप्त किया जा सके अथवा हो सके।
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प्राप्तार्थ  : वि० [सं० प्राप्त-अर्थ, ब० स०] १. जिसे अर्थ की प्राप्ति हुई हो। २. सफल। पुं० मिला हुआ धन या वस्तु।
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प्राप्ति  : स्त्री० [सं० प्र√आप्+क्तिन्] १. प्राप्त होने अर्थात् अपने अधिकार या हाथ में आने या मिलने की क्रिया, अवस्था या भाव। हासिल होना। पाया जाना। मिलना। उपलब्धि। जैसे—धन या पत्र की प्राप्ति। २. कोई अवस्था या स्थिति आकर पहुँचना या प्रत्यक्ष होना। जैसे—दुःख या सुख की प्राप्ति। ३. इस रूप में कोई चीज मिलना या हाथ में आना कि उससे अपना आर्थिक या और किसी प्रकार का लाभ या हित हो। फायदा। लाभ। (गेन, उक्त सभी अर्थों में) जैसे—(क) आज-कल उन्हें व्यापार में अच्छी प्राप्ति हो रही है। (ख) जहाँ उन्हें कुछ प्राप्ति की आशा होती है, वहीं वे जाते हैं। ४. किसी चीज या बात के आकर उपस्थित होने या पास पहुँचने की क्रिया या भाव। जैसे—(क) पत्र या उसके उत्तर की प्राप्ति। (ख) यौवनावस्था की प्राप्ति। ५. कहीं से आनेवाली किसी चीज या बात को ग्रहण करना। (रिसेप्शन) जैसे—ध्वनियों की प्राप्ति हमारे कानों को होती है। ६. योगशास्त्र में, आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जो सभी अभीष्ट उद्देश्य या कामनाएँ पूरी करनेवाली कही गई है। ७. नाट्यशास्त्र में, अभिनय का शुभ और सुखद अंत या उपसंहार। ८. किसी गुण, तत्त्व या बात का अधिगम या अर्जन। ९. फलित ज्योतिष में, चंद्रमा का ग्यारहवाँ स्थान जो किसी चीज या बात की प्राप्ति या लाभ के लिए शुभ माना गया है। १॰. भाग्य। ११. उदय। १२. मेल। संगति। १३. समिति या संघ। १४. प्रवृत्ति। १५. व्याप्ति। १६. कामदेव की एक पत्नी। १७. जरासंध की एक पुत्री जो कंस को ब्याही थी।
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प्राप्तिका  : स्त्री० [सं० प्राप्ति+कन्—टाप्] वह पत्र जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति या पहुँच का नियमित रूप से उल्लेख हो। पावती। रसीद। (रिसीट)
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प्राप्तिसम  : पुं० [सं० वृ० त०] तर्क या न्याय में एक प्रकार की जाति। ऐसी आपत्ति जो प्रस्तुत हेतु और साव्य अवशिष्ट बतलाकर की जाय।
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प्राप्तयाशा  : स्त्री० [सं० प्राप्ति-आशा, ष० त०] १. प्राप्ति की आशा। मिलने की आशा। २. नाट्यशास्त्र में आरब्ध कार्य की वह अवस्था या स्थिति जिसमें उद्देश्य के सिद्ध होने की आशा होने लगती है।
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प्राप्य  : वि० [सं० प्र√आप+ण्यत्] १. जो कहीं से या किसी से प्राप्त हो सकता हो। मिल सकने के योग्य। (एवेलेबुल) २. (बाकी धन या वस्तु) जो किसी की ओर निकलता हो और इसी लिए उससे अधिकारिक और आवश्यक रूप से प्राप्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो। (ड्यू) ३. जिस तक पहुँच हो सके। गम्य।
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प्राप्यक  : पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें किसी प्राप्त धन का ब्योरा होता है। विपत्र। (बिल)
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प्राप्यक-समाहर्ता (तृ)  : पुं० [ष० त०] वह अधिकारी जो प्राप्यक का बाकी धन उगाहने का काम करता है। (बिल कलक्टर)
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प्राबल्य  : पुं० [सं० प्रबल+ष्यञ्] १. प्रबलता। २. प्रधानता।
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प्राबोधक  : पुं० [सं० प्रबोधक+अण्] प्रातःकल राजाओं को उनकी स्तुति सुनाकर जगाने के लिए नियुक्त किया हुआ कर्मचारी। बंदी।
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प्राबोधिक  : [सं० प्रबोध√ठक्—इक]=प्रबोधक।
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प्राभंजन  : वि० [सं० प्राभंजन√अण्] १. प्रभंजन या वायुदेवता-संबंधी। २. वायु देवता द्वारा आधिष्ठित। पुं० स्वाति (नक्षत्र)।
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प्राभव  : पुं० [सं० प्रभु+अण्] प्रभुता। प्रभुत्व।
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प्रभावत्य  : पुं० [सं० प्रभवत्+ष्यञ्] प्रभुता। प्रभुत्व।
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प्राभातिक  : वि० [सं० प्रभात√ठक्—इक] १. प्रभात में होनेवाला। २. प्रभात-संबंधी। पुं० प्रभात में गाये जानेवाले एक तरह के गीत।
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प्राभाविक  : वि० [सं० प्रभाव√ठक्—इक] प्रभाव उत्पन्न करने या दिखलानेवाला। (एफेक्टिव)
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प्राभासिक  : वि० [सं० प्रभास+ठक्—इक] १. प्रभास देश-संबंधी। २. प्रभास देश में बनने, रहने या होनेवाला।
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प्राभियोजक  : वि०=अभियोजक।
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प्राभियोजन  : पुं०=अभियोजन।
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प्राभृत  : पुं० [सं० प्र-आ+भृ (धारण)√क्त] १. उपहार। भेंट। २. राजाओं, साम्राटों आदि को दिया जानेवाला नजराना।
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प्रामंडलिक  : वि० [सं० प्रमंडल+ठक्—इक] १. प्रमंडल-संबंधी। २. दे० ‘प्राखंडिक’।
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प्रामाणिक  : वि० [सं० प्रमाण+ठक—इक्] [भाव० प्रामाणिकता] १. जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा सिद्ध हो। २. जो प्रमाण के रूप में माना जाता हो या माना जा सकता हो। (ऑथारिटेटिव) ३. ठीक या सत्य। ४. जिसके अच्छे या सच्चे होने में किसी को संदेह न हो। जिसकी साख जमी या बनी हो। सब जगह ठीक माना जानेवाला। ५. जो शास्त्रों आदि से प्रमाणित या सिद्ध हो। ६. (व्यक्ति) जो अच्छे प्रमाण मानता हो। पुं० १. शास्त्रज्ञ। २. व्यापारियों का चौधरी या मुखिया।
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प्रामाण्य  : पुं० [सं० प्रमाण+ष्यञ्] १. प्रमाण। २. प्रमाणों के ज्ञाता होने की अवस्था या भाव। ३. मर्यादा। ४. विश्वसनीयता।
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प्रामादिक  : वि० [सं० प्रमाद+ठक्—इक] १. प्रमाद-संबंधी। प्रमाद का। २. प्रमाद के कारण होनेवाला। ३. जिसमें कोई दोष या भूल हो।
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प्रामिसरी  : वि० [अं०] १. जो प्रतिज्ञा, वचन आदि के रूप में हो। २. जिसमें किसी बात की प्रतिज्ञा की गई हो। जैसे—प्रामिसरी नोट। (दे०)
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प्रामिसरी नोट  : पुं० [अं०] १. वह पत्र जिसमें आधिकारिक रूप से यह लिखा होता है कि अमुक मिति को माँगने पर मैं इतना धन इसके बदले में दूँगा। २. वह राजकीय ऋणपत्र जिसमें शासन द्वारा अपनी प्रजा से लिये हुए ऋण का उल्लेख तथा यह प्रतिज्ञा लिखी रहती है; कि मूल तथा सूद अमुक समय पर चुका दिया जायगा।
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प्रामोदिक  : वि० [सं० प्रमोद+ठक्—इक] १. प्रमोदजनक। आनंददायक। २. सुंदर।
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प्रायः  : अव्य. [सं० प्र√अय् (गति)+असुन्] १. अधिकतर अवसरों, अवस्थाओं आदि में। अवसर। २. करीब-करीब। लगभग। ३. बीच बीच में। जल्दी जल्दी। जैसे—मुझे प्रायः उनके यहाँ जाना पड़ता है।
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प्राय  : वि० [सं० प्र√अय् (गति)+घञ्] १. रूप, स्थिति आदि के विचार से किसी के बहुत-कुछ अनुरूप या समान। कुछ बातों में किसी से मिलता-जुलता या उस तक पहुँचता हुआ। (प्रायः यौ० के अंत में) जैसे—नष्ट प्राय, मृतपाय आदि। (और कभी कभी यौ० के आरंभ में भी) जैसे—प्राय-द्वीप। २. किसी तत्त्व या बात से बहुत अधिक युक्त या भरा हुआ। जैसे—कष्ट-प्राय शरीर, जल-प्राय देश। पुं० १. अनशनादि जिनसे मनुष्य शक्तिहीन होकर मृतक से तुल्य हो जाता या मर जाता है। २. मृत्यु। मौत। ३. अवस्था। उमर। वय।
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प्रायगत  : वि० [सं० द्वि० त०] जिसके मरने में अधिक विलंब न हो। मरणासन्न।
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प्रायण  : पुं० [सं० प्र√अय्+ल्युट्—अन] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। प्रयाण। २. एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करना। ३. दूसरा जन्म। जन्मान्तर। ४. अनशन करते हुए अर्थात् खाना-पीना छोड़कर प्राणदेना या मरना। ५. अनशन, व्रत आदि की समाप्ति पर किया जानेवाला जलपान या भोजन। ६. एक तरह का दूध से बनाया हुआ व्यंजन। ७. प्रदेश। ८. आरंभ। ९. शरण।
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प्रायणीय  : पुं० [सं० प्रयण+छ—ईय] १. सोमयोग में पहली सुत्या के दिन में का कर्म। २. आरंभिक कृत्य। वि० आरंभ या शुरू में होनेवाला। आरंभिक। जैसे—प्रायणीय कर्म, प्रायणीय याग।
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प्रायद्वीप  : पुं० [सं० प्रायोद्वीप] स्थल का वह भाग जो, तीन ओर से समुद्र से घिरा हो और जिसके केवल एक ओर स्थल मिला हो। (पेन्निशुला)
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प्रायद्वीप खंड  : पुं० [सं०] भूगोल में स्थल खंड का वह छोटा संकरा भाग जिसके तीन ओर जल रहता हो और जल में नुकीली चोंच के रूप में बढ़ा हुआ होता है।
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प्रायशः  : अव्य० [सं० प्राय०+शस्] प्रायः। अक्सर।
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प्रायश्चित  : पुं० [सं० प्राय-चित् ष० त०, सुट् आगम] १. किये हुए दुष्कर्म या पाप के फल-भोग से बचने के लिए किये जानेवाला शास्त्र विहित कर्म जो बहुंधा दंड के रूप में होते हैं। जैसे—दान, व्रत आदि। जैनों के अनुसार आलोचना, प्रतिक्रण, आलोचना प्रतिक्रमण, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहर और उपस्थान ये नौ प्रकार के प्रायश्चित माने गये हैं। २. अपने पति क्रिया जानेवाला वह कठोर आचरण जो अपने किसी कार्य अथवा उसके परिणाम से क्षुब्ध होकर या ग्लानिवश किया जाता है। ३. साधारण बोल-चाल में, अपने किसी दोष, प्रमाद, भूल आदि के फलस्वरूप होनेवाला किसी प्रकार का कष्ट या हानि।
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प्रायश्चित्तिक  : वि० [सं० प्रायश्चित+ठञ्—इक] १. प्रायश्चित-संबंधी। प्रायश्चित्त का। २. (दूषित कार्य) जिसके लिए प्रायश्चित करना आवश्यक या उचित हो।
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प्रायश्चित्ती (त्तिन्)  : वि० [सं० प्रायश्चित्त+इनि] १. (व्यक्ति) जिसे प्रायश्चित्त करना आवश्यक या उचित हो। २. प्रायश्चित्त करनेवाला।
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प्रायश्चित्तीय  : वि० [सं० प्रायश्चित्त+छ—ईय] प्रायश्चित-संबंधी। प्रायश्चित्त् का।
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प्रायाणिक  : वि० [सं० प्रयाण+ठक्—इक] प्रयाण-संबंधी। प्रयाण या यात्रा का। पुं० यात्रा के समय शुभ माने जानेवाले शंख, चवँर, दही आदि मांगलिक द्रव्य।
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प्रायिक  : वि० [सं० प्राय+ठक्—इक] [भाव० प्रायिकता] १. जो नियमित रूप से या सदा तो नहीं फिर भी बीच-बीत में प्रायः होता रहता हो। (यूज़ुअल) जैसे—सावन-भादों में वर्षा प्रायिक होती है। २. अनुमान, संभावना आदि के विचार से बहुत-कुछ ठीक तथा संभव।
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प्रायोगिक  : वि० [सं० प्रयोग+ठक्—इक] १. प्रयोग-संबंधी। प्रयोग का। २. उपयोगी, ठीक या मान्य सिद्ध करने के लिए अभी जिसका प्रयोग या परीक्षा मात्र हो रही हो। (एक्सपेरिमेन्टल) ३. प्रयोग के रूप में किया या काम में लाया जानेवाला। (एप्लाएड) ४. क्रियात्मक। व्यावहारिक।
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प्रायोगिक-कला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] व्यवहारिक कला।
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प्रायोगिका-विज्ञान  : पुं० [सं० कर्म० स०] व्यावहारिक विज्ञान।
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प्रायोज्य  : वि० [सं० प्र-आ√युज् (जोड़ना)+णिच् ण्यत्] जिससे कोई प्रयोजन सिद्ध होता हो। उपयोग या प्रयोग में आनेवाला। पुं० ऐसी वस्तु या वस्तुएँ जिनका काम किसी को नित्य पड़ता हो।
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प्रायोपगमन  : पुं० [सं० प्राय-उपगमन, ष० त०] आमरण अनशन।
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प्रायोपविष्ट  : वि० [सं० प्राय-उपविष्ट, ष० त०] जो आमरण अनशन कर रहा हो।
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प्रायोपवेश  : पुं० [सं० प्राय-उपवेश, सुप्सपा स०] प्रायोपगमन। आमरण अनशन।
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प्रायोपवेशन  : पुं०=प्रायोपमन।
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प्रायोपवेशी (शिन्)  : वि० [सं० प्रायोपवेश+इनि] [स्त्री० प्रायोपवेशिनी] आमरण अनशन करनेवाला।
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प्रायोभावी (विन्)  : वि० [सं० प्रयास्√भू (होना)+णिनि] जो प्रायः या सब जगह हो अर्थात् साधारण या सामान्य।
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प्रायौगिक  : वि०=प्रायोगिक।
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प्रारंभ  : पुं० [सं० प्र-आ√रभ्+घञ्, मुम्] १. किसी काम या बात का चलने लगना या जारी होना। २. किसी कार्य या बात का पहले या शुरूवाला अंश। जैसे—प्रारंभ में तो आपने कुछ और ही कहा था।
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प्रारंभण  : पुं० [सं० प्र-आ√रभ्+ल्युट्-अन, मुम्] [भू० कृ० प्रारब्ध] प्रारंभ या शुरू करना।
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प्रारंभिक  : वि० [सं० प्रारंभ+ठक्—इक] १. प्रारंभ में होनेवाला अथवा उससे संबंध रखनेवाला। २. दे० ‘प्राथमिक’।
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प्रारक्षण  : पुं० [सं० प्र√रक्ष्+ल्युट्—अन अण्] [भू० कृ० प्रारक्षित] कोई ऐसी क्रिया करना जिसके द्वारा कोई पद, वस्तु, व्यक्ति या स्थान मुख्य रूप से या किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए अलग करके रक्षित रखा जाता हो। किसी काम या बात के लिए निश्चित रूप से पृथक् करने अथवा रखने की क्रिया या भाव। (रिज़र्वेशन) जैसे—रंग-मंच पर संसद् के सदस्यों (अथवा स्त्रियों) के लिए होनेवाला आसनों या स्थानों का प्रारक्षण।
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प्रारक्षित  : भू० कृ० [सं० प्र-अ√रक्ष+क्त] जिसका या जिसके संबंध में प्रारक्षण हुआ हो। किसी विशष्ट उद्देश्य से या विशिष्ट व्यक्ति के लिए अलग किया या रखा हुआ। (रिज़वर्ड) जैसे—इस विभाग में प्रारक्षित १॰ पद हरिजनों (या पिछड़ी हुई जातियों के लोगों) के लिए हैं।
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प्रारब्ध  : वि० [सं० प्र-आ√रभ्+क्त] (काम) आरंभ किया हुआ। जो शुरू किया गया हो। पुं० पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किये हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा हो। २. उक्त कर्मों का फलभोग। विशेष—इसके दो मुख्य भेद हैं—(क) संचित प्रारब्ध जो पूर्व जन्मों के कर्मों के फल-स्वरूप होता है; और (ख) क्रियमान प्रारब्ध जो इस जन्म में किये हुए कर्मों के फलस्वरूप होता है। इसके सिवा अनिच्छा प्रारब्ध, परेच्छा प्रारब्ध और स्वेच्छा प्रारब्ध नाम के तीन गौण भेद भी हैं। ३. किस्मत। तकदीर। भाग्य।
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प्रारब्धि  : स्त्री० [सं० प्र-आ√रभ्+क्तिन्] १. आरंभ। २. हाथी बाँधने का रस्सा।
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प्रारब्धी (ब्धिन्)  : वि० [सं० प्रारब्ध+इनि] भाग्यवाला। भाग्यवान्।
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प्रारूप  : पुं०=प्रालेख। ‘प्रारूप’ व्याकरण से असिद्ध है।
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प्रारूपिक  : वि० [सं० प्रारूप+ठक् इक] गुण, रूप आदि के विचार से जो अपने वर्ग की सब विशेषताओं से युक्त हो और अपने वर्ग के प्रतिनिधि या प्रतीक का काम देता हो। प्ररूपी। (टिपिकल)
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प्रार्ज्जुन  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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प्रार्थक  : वि०=प्रार्थी।
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प्रार्थन  : पुं० [सं० प्र√अर्थ+णिच्+ल्युट्—अन] प्रार्थना करने की क्रिया या भाव।
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प्रार्थना  : स्त्री० [सं० प्र√अर्थ+णिच् युय्—अन, टाप्] १. नम्रतापूर्वक निवेदित की जानेवाली बात। निवेदन। (रिक्वेस्ट) २. भक्ति और श्रद्धापूर्वक ईश्वर, देवता आदि से अपने किसी के अथवा सबके कल्याण के लिए कही जानेवाली बात। ३. विशिष्ट संप्रदायों आदि के वे गेय पद जिनमें मंगल-कामना के भाव होते हैं। ४. तंत्र में, प्रार्थना के समय की एक विशिष्ट मुद्रा। ५. मुकदमे के आरंभ के लिए न्यायालय से किया जानेवाला लिखित निवेदन। अरजी-दावा। ६. इच्छा। सं० प्रार्थना करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रार्थना-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी प्रकार की प्रार्थना लिखी हो। निवेदनपत्र। अर्जी। जैसे—अमुक बालक का छुट्टी के लिए प्रार्थना-पत्र आया था।
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प्रार्थना-भग  : पुं० [ष० त०] प्रार्थना अस्वीकृत करना।
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प्रार्थना-समाज  : पुं० [सं० ष० त०] एक आधुनिक संप्रदाय जिसके अनुयायी महाराष्ट्र की ओर अधिक हैं।
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प्रार्थनीय  : वि० [सं० प्र√अर्थ+णिच्+अनीयर] जिसके संबंध में प्रार्थना की गई हो या की जाने को हो। पुं० द्वापर युग।
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प्रार्थयितव्य  : वि० [सं० प्र√अर्थ+णिच्√तव्यत्] जिसके लिए या जिससे प्रार्थना की जा सके या की जाने को हो।
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प्रार्थयिता (तृ)  : वि० [सं० प्र√अर्थ+णिच्+तृच्]=प्रार्थी।
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प्रार्थित  : भू० कृ० [सं० प्र√अर्थ+णिच्+क्त] जिसके लिए प्रार्थना की गई हो। माँगा हुआ। याचित।
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प्रार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० प्र√अर्थ+णिच्+णिनि] [स्त्री० प्रार्थिनी] १. प्रार्थना करनेवाला। याचक। २. प्रार्थना-पत्र देनेवाला। ३. इच्छुक। ४. उम्मीदवार।
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प्रार्थ्य  : वि०=प्रार्थनीय।
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प्रालंब  : पुं० [सं० प्र-आ लम्ब् (लटकना)+अच्] १. रस्सी या ऐसी ही कोई चीज जो किसी ऊँचे वस्तु में टँगी और लटकती हो। २. ऐसी माला या हार जो पहना जाने पर छाती तक लटकता हो।
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प्रालंबक  : पुं० [सं० प्रालंब+कन्] [स्त्री० प्रालंबिका] छाती तक लटकनेवाली माला या हार।
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प्राल  : पुं०=पराल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रालब्ध  : पुं०=प्रारब्ध।
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प्रालेख  : पुं० [सं० प्र-अ√लिख् (लिखना)+घञ्] लेख, लेख्य, विधान आदि का वह टंकित-मुद्रित या हस्तलिखित आरंभिक रूप जो काटछांट संशोधन आदि के लिए तैयार किया जाता है। खाका। मसौदा। (ड्राफ़्ट)
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प्रालेय  : वि० [सं० प्रलय+अण् नि० एत्व, अथवा प्र-आ√ली (मिल जाना)+यत्] प्रलय-संबंधी। उदा०—व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर।—प्रसाद। पुं० १. तुषार। २. बरफ। हिम। ३. भूगर्भशास्त्रानुसार वह समय जब बहुत अधिक हिम पड़ने के कारण उत्तरीय ध्रुव पर सब पदार्थ नष्ट हो जाते हैं और शीत की अधिकता के कारण कोई जंतु या वनस्पति वहाँ नहीं रह सकती।
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प्रालेय-रश्मि  : पुं० [ब० स०] चंद्रमा।
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प्रालेयांशु  : पुं० [सं० प्रालेय-अंशु, ब० स०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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प्रालेयाद्रि  : पुं० [सं० प्रालेय-अद्रि, ष० त०] हिमालय।
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प्रावट  : पुं० [सं० प्र√अव् (रक्षण, गति आदि)+अट] जौ। यव।
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प्रावर  : पुं० [सं० प्र-आ√वृ (घेरना)+अप्] प्राचीर। चहारदीवारी।
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प्रावरण  : पुं० [सं० प्र—आ√वृ+ल्युट्—अन] १. ढाँकने का कपड़ा। आवरण। २. ढँकना। ढक्कन। ३. उत्तरीय या ओढ़ने का कपड़ा। चादर।
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प्रावरणीय  : पुं० [सं० प्र—आ√वृ+अनीयर] ओढ़ने का वस्त्र। उपरना या दुपट्टा। वि० जिससे कुछ ढका जाय या ढाका जा सके।
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प्रावर्तन  : पुं० [सं० प्र—आ√वृत् (बरतना)+ल्युट्—अन] दे० ‘परावर्तन’।
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प्रावसादन  : पुं० [सं० प्र+अवसादन] १. वह स्थिति जिसमें मनुष्य थक या हारकर अकर्मण्य अक्रिय या उत्साहहीन हो। २. किसी तत्व या पदार्थ की वह स्थिति जिसमें वह अपनी क्रियाशीलता, शक्ति आदि से रहित होकर कुंठित हो रहा हो। ३. बाजार, रोजगार आदि में बेकारी या मंदी की स्थिति। ४. आकाश में वातावरण के दबाव का कम होना जिससे तापमापक आदि का पारा गिर जाता है। (डिप्रेशन, उक्त सभी अर्थों में)
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प्रावार  : पुं० [सं० प्र-आ√वृ+घञ्] [वि० प्रावारिक] १. एक प्रकार का प्राचीनकाल का बहुमूल्य कपड़ा। २. उत्तरीय वस्त्र।
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प्रावारक  : पुं० [सं० प्रावार+कन्] ओढ़ने का वस्त्र। उत्तरीय।
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प्रावारिक  : वि० [सं० प्रावार+ठक्—इक] प्रावार-संबंधी। पुं० प्रवार बनानेवाला कारीगर।
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प्रावालिक  : पुं० [सं० प्रवाल+ठक्—इक] प्रवाल या मूँगें का व्यापार करनेवाला व्यापारी।
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प्रावास  : वि०=प्रावासिक।
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प्रावासिक  : वि० [सं० प्रवास+ठक्—इक] १. प्रवास-संबंधी। प्रवास का। २. जो प्रवास या यात्रा के लिए उपयुक्त हो।
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प्राविट  : स्त्री० [सं० प्रावृट्] पावस। वर्षा ऋतु।
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प्राविधानिक  : वि० [सं० प्रविधान+ठक्—इक] १. प्रविधान-संबंधी। २. प्रविधान के रूप में होनेवाला।
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प्राविधिक  : वि० [सं० प्रविधि+ठक्—इक्] १. प्रविधि-संबंधी। प्रविधि का। कला, शिल्प, यंत्र आदि से संबंधित। (टेकनिकल) २. किसी कार्य की विशिष्ट प्रायौगिक तथा व्यावहारिक प्रक्रियाओं से संबंध रखनेवाला। तकनीकी। (टेकनिकल)
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प्राविधिकता  : स्त्री० [सं० प्राविधिक+तल्—टाप्] १. प्राविधिक होने की अवस्था या भाव। २. प्राविधिक को होनेवाली जानकारी। ३. ऐसी बात जिसका संबंध किसी प्राविधिज्ञ से हो और जिसका वही जानकार हो। (टेक्नीकेलिटी)
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प्राविधिज्ञ  : पुं० [सं० प्रविधिज्ञ] दे० ‘प्रविधिज्ञ’।
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प्राविष्ट्य  : पुं० [सं०] क्रौंचद्वीप के एक खंड का नाम। (केशव)
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प्रावीण्य  : पुं० [सं० प्रवीण+ष्यञ्] प्रवीणता।
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प्रावृट्  : पुं० [सं० प्र√वृष् (बरसना)+क्विप्, दीर्घ] वर्षा ऋतु।
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प्रावृत्त  : पुं० [सं० प्र—आ√वृ (आच्छादित करना)+क्त] १. ओढ़ने का कपड़ा। चादर। २. ढकने का कपड़ा। आच्छादन। वि० १. घिरा हुआ। २. ढका हुआ। आवृत।
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प्रावृति  : स्त्री० [सं० प्र—आ√वृ+क्तिन] १. प्राचीर। चहारदीवारी। २. जैनों के अनुसार आत्मा की शक्ति को आच्छादित करनेवाला मल। ३. आध्यात्मिक अज्ञान।
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प्रावृत्तिक  : पुं० [सं० प्रवृत्ति+ठक्—इक] [स्त्री० प्रावृत्तिका] संदेशवाहक दूत। वि० १. प्रावृत्ति-संबंधी। २. गौण। २. विशेष जानकारी रखनेवाला।
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प्रावृष्  : स्त्री० [सं० प्र√वृष्+क्विप, दीर्घ] वर्षा ऋतु।
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प्रावृषा  : स्त्री० [सं० प्रावृष्+टाप्] वर्षा ऋतु।
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प्रावृषिक  : वि० [सं० प्रावृषि√कै+क, अलुक् स०] १. वर्षा ऋतु-संबंधी। २. वर्षा ऋतु में होनेवाला। पुं० मयूर। मोर।
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प्रावृषिज  : पुं० [सं० प्रावृषि√जन् (उत्पन्न होना)+ड] बरसाती तेज हवा। वि० वर्षा ऋतु में होनेवाला।
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प्रावृषीण  : वि० [सं० प्रावृष्+ख—ईन]=प्रावृषिज्ञ।
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प्रावृषेय  : वि० [सं० प्रावृष्+ढक्—एय] वर्षा ऋतु में होनेवाला। पुं० एक प्राचीन देश का नाम।
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प्रावृष्य  : वि० [सं० प्रावृष्+यत्] जो वर्षा काल में हो। पुं० १. वैदूर्य मणि। २. कुटज। कुटैया। ३. धारा कदंब। ४. विकटक।
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प्रावेष्य  : पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक तरह की बढ़िया ऊनी चादर।
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प्रावेशन  : वि० [सं० प्रवेशन+अण्] १. प्रवेश-संबंधी। २. कहीं प्रवेश करने के समय किया या दिया जाने वाला। पुं० निर्माणशाला।
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प्रावेशिक  : वि० [सं० प्रवेश+ठञ्—इक] [स्त्री० प्रावेशिकी] १. प्रवेश-संबंधी। २. जिसके कारण या द्वारा प्रवेश हो। ३. प्रवेश करने के लिए शुभ।
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प्राव्राज्य  : वि० [सं० प्रवज्या+अण्] प्रव्रज्या अर्थात् संन्यास संबंधी। पुं० १. संन्यासियों का जीवन। २. घूमते रहने की प्रवृत्ति। धुमक्कड़पन।
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प्राश  : पुं० [सं० प्र√अश् (खाना)√घञ्] १. भोजन करना। २. स्वाद लेना। चखना। आहार। भोजन।
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प्राशक  : वि० [सं० प्र√अश्+ण्वुल्—अक] १. खाने या भोजन करनेवाला। २. चखने या चाटने वाला।
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प्राशन  : पुं० [सं० प्र√अश्+ल्युट्—अन] १. भोजन करना। खाना। २. चखना या चाटना। ३. अन्न-प्राशन।
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प्राशनीय  : वि० [सं० प्र√अश्+अनीयर्] १. प्राशन अर्थात् खाने या चखने के योग्य। २. जो खाया या चखा जाने को हो।
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प्राशस्त्य  : पुं० [सं० प्रशस्त+ष्यञ्] प्रशस्तता।
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प्राशास्त्र  : पुं० [सं० प्रशास्तृ+अण्] १. प्राशास्ता नामक ऋत्विक का कर्म या पद। २. शासन। ३. राज्य।
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प्राशित  : भू० कृ० [सं० प्र√अश्+क्त] १. खाया या चखा हुआ। २. जिसका उपभोग किया गया हो। पुं० [प्र-अशित, ब० स०] १. पितृ-यज्ञ। तर्पण। २. भक्षण। खाना।
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प्राशित्र  : पुं० [सं०] यज्ञों में पुरोडाश आदि में से काटकर निकाला हुआ वह छोटा टुकड़ा जो ब्राह्मण के लिए एक पात्र में अलग रखा जाता था। २. गाय के कान की तरह का एक पात्र जिसमें उक्त पदार्थ रखा जता था। ३. कोई खाद्य पदार्थ।
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प्राशी (शिन्)  : वि० [सं० प्र√अशु+णिनि] [स्त्री० प्राशिनी] प्राशन करने अर्थात् खाने या चखनेवाला। प्राशक।
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प्राश्निक  : वि० [सं० प्रश्न+ठक्—इक] १.प्रश्न करने या पूछनेवाला। २. प्रश्न से संबंध रखने या प्रश्न के रूप में होनेवाला। ३. (पत्र आदि) जिसमें बहुत से प्रश्न लिखे हुए हों। ४. (व्यक्ति) जो अनेक प्रश्न करता हो। (क्वेश्चनर) पुं० १. प्रश्न-कर्ता। २. वह जो प्रश्न-पत्र (परीक्षार्थियों के लिए) तैयार करता या बनाता हो। (एग्ज़ामिनर)। ३. सभासद। ४. पंच। मध्यस्थ।
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प्राश्य  : वि० [सं० प्र√अश्+ण्यत्] प्राशन के योग्य। जो खाया जा सके।
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प्रासंग  : पुं० [सं० √सन्ज् (सटना)+घञ्] १. हल का जूआ या जुआठा जिसमें नये बैल निकाले जाते हैं। २. तराजू की डंडी। ३. तराजू। तुला।
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प्रासंगिक  : वि० [सं० प्रसंग+ठञ्—इक] १. प्रसंग-संबंधी। प्रसंग का। २. प्रस्तुत प्रसंग से संबंध रखनेवाला। ३. किसी अवसर, विषय आदि के अनुकूल और प्रसंग-प्राप्त। (रेलेवेन्ट; उक्त दोनों अर्थों में) पुं० दृश्य काव्य में कथा-वस्तु के दो अंशों में से वह दूसरा अंश जो मूल या अधिकारिक अंश से प्रसंगात् सहायक होता है। दे० ‘आधिकारिक’ (दृश्य काव्य का)।
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प्रास  : पुं० [सं० प्र√अस् (फेंकना)+घञ्] १. फेंकना। २. पुरानी चाल का एक तरह का भाला जो फेंककर चलाया जाता था। ३. आजकल, उतनी क्षैतिज दूरी जितनी कोई चलाई या फेंकी जानेवाली चीज पार करती है। मार। ४. वह पूरी दूरी या विस्तार जिसमें कोई चीज होती, रहती, सुनी जाती या कार्यकारी होती हो। (रेंज, अंतिम दोनों अर्थों में)
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प्रासक  : पुं० [सं० प्रास+कन्] १. प्रास नामक अस्त्र। २. जूआ खेलने का पासा। पाशक।
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प्रासन  : पुं० [सं० प्र√अस्+ल्युट्—अन] फेंकना। पुं० दे० ‘प्रासायन’। पुं०=प्राशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रासना  : स० [सं० प्राशन] खाना या चाटना। उदा०—प्रासै जो बीजौपरण।—प्रिथीराज।
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प्रासमिक  : वि० [सं० प्रसम+ठक्—इक] १. प्रसम-संबंधी। प्रसम का। २. प्रसम।
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प्रासविक  : वि० [सं० प्रसव+ठक्—इक] १. प्रसव-संबंधी। २. प्रासविक-विज्ञान-संबंधी। (ऑब्स्टेट्रिकल)
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प्रासविक-विज्ञान  : पुं० [सं० कर्म० स०] दे० ‘प्रसूति-विज्ञान’।
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प्रासविकी  : स्त्री०=प्रासविक विज्ञान।
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प्रासाद  : पुं० [सं० प्र√सद्+घञ्—दीर्घ] १. वह विशाल इमारत जिसमें अनेक श्रृंग, श्रृंखलाएँ, अंडकादि हों। २. राज-भवन। राज-महल। ३. बौद्धों के संघाराम में वह बड़ी शाला जिसमें साधु लोग एकत्र होते थे। ४. देवमंदिर। देवालय।
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प्रासादिक  : वि० [सं० प्रसाद+ठक्—इक्] १. सहज में प्रसन्न होकर कृपा करने या दया दिखनेवाला। २. प्रसाद के रूप में दिया जाने या मिलने वाला। ३. सुंदर। ४. प्रासाद-संबंधी।
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प्रासादीय  : वि० [सं० प्रासाद+छ—ईय] १. प्रासाद अर्थात् राजमहल संबंधी। २. विशाल। ३. भव्य तथा सुसज्जित।
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प्रासायन  : पुं० [सं० प्रास-अयन उपमति स०] १. आयुध शास्त्र में, वह अर्ध चंद्राकार मार्ग जिससे होकर तोप या बंदूक का गोला या गोली नाल में से निकलकर निशाने तक पहुँचती है। (ट्रेजेक्टरी) २. दे० ‘प्रक्षेप-वक्र’।
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प्रासिक  : वि० [सं० प्रास+ठक्—इक] १. जिसके पास प्रास अर्थात् भाला हो। प्रास-संबंधी। प्रास का। प्रासीय।
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प्रासूतिक  : वि० [सं० प्रसूति+ठक्—इक्] प्रसूति-संबंधी।
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प्रास्तारिक  : वि० [सं० प्रस्तार+ठक्—इक्] १. प्रस्तार-संबंधी। २. जिसका व्यवहार प्रस्तार में हो। प्रस्तार में काम आनेवाला।
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प्रास्ताविक  : वि० [सं० प्रस्ताव+ठक्—इक] १. प्रस्ताव के रूप में होनेवाला। २. प्रस्तावना के रूप में होनेवाला। ३. प्रासंगिक। प्रसंग-प्राप्त।
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प्रस्थानिक  : पुं० [सं० प्रस्थान+ठञ्—इक्] वह पदार्थ जो प्रस्थान के समय मंगलकारक माना जाता हो। जैसे शंख की ध्वनि, दही, मछली आदि। वि० प्रस्थान-संबंधी। २. (समय आदि) जो प्रस्थान करने के लिए शुभ हो।
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प्रास्थिक  : वि० [सं० प्रस्थ+ठञ्—इक्] १. प्रस्थ-संबंधी। २. प्रस्थ (तौल या मान) के हिसाब से दिया या लिया जानेवाला। ३. पाचन करानेवाला। पाचक।
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प्राहारिक  : पुं० [सं० प्रहर+ठक्—इक] १. चौकीदार। पहरुआ। २. प्रहरियों का प्रधान अधिकारी।
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प्राहुण  : पुं० [सं० प्रहूण+अण्] अतिथि। पाहुन।
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प्राहुणक  : पुं० [सं० प्राहुण+कन्] प्राहुण।
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प्राह्ल  : पुं० [सं० प्र-अहन् प्रा० स०, टच्]=पूर्वाह्व।
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प्राह्लाद  : पुं० [सं० प्रह्लाद+अण्] प्रहलाद का वंशज।
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प्रिथिमी  : स्त्री०=पृथिवी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रियंकर  : वि० [सं० प्रिय√कृ+खच्, मुम्] प्रसन्न करनेवाला।
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प्रियंकारी  : स्त्री० [सं० प्रियंकर+ङीष्] १. सफेद कटेरी। २. बड़ी जीवंती। ३. असगंध।
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प्रियंगु  : स्त्री० [सं० प्रिय√गम् (जाना)+डु, मुम्] १. कँगनी नाम का अन्न। २. राजिका। राई। ३. पिप्पली। ४. कुटकी।
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प्रियंवद  : वि० [सं० प्रिय√वद् (बोलना)+खच्, मुम्] [स्त्री० प्रियंवदा] प्रिय या मधुर बोलनेवाला। प्रिय-भाषी। पुं० चिड़िया। पक्षी।
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प्रियंवदा  : स्त्री० [सं० प्रियंवद+टाप्] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक एक नगण, मगण, जगण और रगण होता है और ४-४ पर यति होती है।
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प्रिय  : वि० [सं०√प्री (तृप्त करना)+क] [भाव० प्रियता, प्रियत्व,] [स्त्री० प्रिया] १. जिसके प्रति बहुत अधिक प्रेम हो। बहुत प्यारा। २. पत्र लेखन में, सौजन्यपूर्वक किसी का आदर, महत्त्व आदि सूचित करने के लिए प्रयुक्त होनेवाला संबोधक विशेषण। जैसे—प्रिय महोदय। ३. मनोहर या शुभ। पुं० पति या प्रेमी। २. जामाता। दामाद। ३. ईश्वर। ४. कार्तिकेय। ५. भलाई। हित। ६. ऋद्धि नामक ओषधि। ७. जीवक नामक ओषधि। ८. कंगनी नामक कदन्न। ९. हरताल। १॰. बैंत। ११. धारा कदंब। ११. एक प्रकार का हिरन।
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प्रियक  : पुं० [सं० प्रिय+ककन् वा] १. पीत शालक। पीत साल। २. कदम का पेड़। ३. कँगनी नाम का अन्न। ४. केसर। ५. धारा कदंब। ६. चितकबरा हिरन। ७. शहद की मक्खी। ८. एक प्रकार का पक्षी।
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प्रियकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० प्रिय√काङक्ष्, (चाहना)+णिनि] शुभाभिलाषी। हितैषी।
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प्रिय-काम  : वि० [सं० ब० स०]=प्रियकांक्षी।
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प्रियकृत्  : पुं० [सं० प्रिय√कृ+क्विप् तुक्] विष्णु।
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प्रिय-जन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. स्नेहपात्र व्यक्ति। २. सगा-संबंधी। ३. सौजन्यपूर्वक श्रोताओं को संबोधित करने के लिए प्रयुक्त होनेवाला शब्द।
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प्रियतम  : वि० [सं० प्रिय√तमप्] [स्त्री० प्रियतमा] जो सबसे अधिक प्रिय हो। परम प्रिय। उदा०— प्रियतम सुअन सँदेश सुनाओ।—तुलसी। पुं० १. स्त्री० का पति। स्वामी। २. प्रेमी। ३. मोर-शिखा नामक वृक्ष।
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प्रियतमा  : स्त्री० [सं० प्रियतम+टाप्] १. पत्नी। २. प्रेमिका। माशूका। वि० प्रियतम का स्त्री० रूप।
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प्रियता  : स्त्री० [सं० प्रिय+तल्-टाप्] प्रिय होने की अवस्था, गुण या भाव। (प्रायः समस्त पदों के अंत में प्रयुक्त) जैसे—जन-प्रियता, लोक-प्रियता।
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प्रिय-तोषण  : पुं० [सं० प्रिय√तुष् (प्रीति)+णिच्+ल्युट्—अन] एक प्रकार का रतिबंध। (काम-शास्त्र)
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प्रियत्व  : पुं० [सं० प्रिय+त्व]=प्रियता।
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प्रियद  : वि० [सं० प्रिय√दा (देना)+क] प्रिय वस्तु देनेवाला।
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प्रिय-दत्ता  : स्त्री० [सं० तृ० त० वा च० त० ?] भूमि, विशेषतः दान की जानेवाली भूमि।
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प्रिय-दर्शन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० प्रियदर्शना] १. जो देखने में भला और सुखद प्रतीत होता हो। २. मनोहर। सुंदर। पुं० १. तोता। शुक। २. खिरनी का पेड़। ३. एक गंधर्व राजा।
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प्रिय-दर्शी (र्शिन)  : वि० [सं० प्रिय√दृश् (देखना)+णिनि] [स्त्री० प्रियदर्शिनी] प्रेमपूर्वक किसी को या दूसरों को देखनेवाला। पुं० अशोक वृक्ष।
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प्रिय-पात्र  : वि० [सं० कर्म० स०] प्रेम-पात्र। प्यारा।
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प्रियभाषी (षिन्)  : वि० [सं० प्रिय√भाष् (बोलना)+णिनि] [स्त्री० प्रियभाषिणी] मधुर वचन बोलनेवाला। मीठी बात कहनेवाला।
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प्रिय-रूप  : वि० [सं० ब० स०] मनोहर। सुंदर।
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प्रिय-वक्ता (क्तृ)  : वि० [सं० ष० त० सं०]=प्रियभाषी।
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प्रिय-वर  : वि० [सं० स० त०] प्रिय या प्यारों में श्रेष्ठ। बहुत प्रिय। (इसका व्यवहार प्रायः पत्रों आदि में संबोधन के रूप में होता है।)
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प्रियवादी (दिन्)  : पुं० [सं० प्रिय√वद् (बोलना)+णिनि] [स्त्री० प्रियवादिनी] प्रिय वचन कहनेवाला। मधुर-भाषी।
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प्रिय-व्रत  : पुं० [सं० ब० स०] १. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र का नाम जो उत्तानपाद का भाई था। वि० जिसे वत प्रिय हो।
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प्रिय-श्रवा (वस्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. भगवान् कृष्ण। २. विष्णु।
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प्रिय-संगमन  : पुं० [सं० ब० स०] वह स्थान जहाँ प्रेमी और प्रेमिका अभिसार करते हों। संकेत-स्थल।
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प्रिय-संदेश  : पुं० [सं० प्रिय-सम्√दिश् (बताना)+अण,उप० स० भावे घञ्, ष० त०] चंपा का पेड़।
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प्रिय-सख  : पुं० [सं० कर्म० स० त० त० वा] खैर का पेड़।
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प्रियांबु  : पुं० [सं० प्रिय-अम्बु ब० स०] १. आम का पेड़ या उसका फल। वि० जिसे जल बहुत प्रिय हो।
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प्रिया  : स्त्री० [सं० प्रिय+टाप्] १. नारी। स्त्री। २. पत्नी। भार्या। ३. प्रेमिका। ४. इलायची। ५. चमेली। मल्लिका। ६. मद्य। शराब। ७. कँघनी नामक अन्न। ८. एक प्रकार का वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में रगण (ऽiऽ) होता है; इसका दूसरा नाम मृगी है। ९. चौदह मात्राओं का एक छंद।
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प्रियाख्य  : वि० [सं० प्रिय-आख्या ब० स०] जिसका चित्त उदार और सरल हो।
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प्रियाल  : पुं० [सं० प्रिय√अल् (पर्याप्त होना)+अच्] चिरौंजी का पेड़।
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प्रियाला  : स्त्री० [सं० प्रियाल+टाप्] दाख।
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प्रियोक्ति  : स्त्री [सं० प्रिया-उक्ति, कर्म० स०] १. मधुर कथन। २. चापलूसी। खुशामद।
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प्री  : [सं०√प्री (तृप्त करना)+क्विप्] १. प्रेम। प्रीति। २. कांति। चमक। ३. इच्छा। ४. तृप्ति। ५. तर्पण। वि०=प्रिय।
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प्रीअंक  : पुं०=प्रियक (कदंब)।
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प्रीणन  : पुं० [सं०√प्री+णिच्, नुक्, ल्युट्—अन] किसी के प्रसन्न तथा संतुष्ट करना। वि० प्रसन्न तथा संतुष्ट करनेवाला।
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प्रीणित  : भू० कृ० [सं० √प्री+णिच्, नुक्+क्त] प्रसन्न तथा संतुष्ट किया हुआ।
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प्रीत  : वि० [सं० √प्री+क्त] १. जिसके मन में प्रीति उत्पन्न हुई हो। २. जो किसी पर प्रसन्न हुआ हो। प्यारा। प्रिय। स्त्री०=प्रीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—प्रीत मानना=प्रीति करनेवाले के प्रीति से प्रसन्न होकर उससे प्रीति करना।
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प्रीतम  : वि०, पुं०=प्रियतम।
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प्रीतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० प्रीत-आत्मन् ब० स०] शिव।
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प्रीति  : स्त्री० [सं० √प्री+क्तिन्] १. किसी के हृदय में होनेवाला वह सद्भाव जो बरबस किसी दूसरे के प्रति ध्यान ले जाता है और उसके प्रीत ममत्व की भावना उत्पन्न करता है। २. प्रेम। प्यार। ३. आनन्द। हर्ष। ४. कामदेव की एक पत्नी। ५. संगीत में, मध्यम स्वर की चार श्रुतियों में से अंतिम श्रुति। ६. फलित ज्योतिष के २७ योगों में से दूसरा योग जिसमें शुभ कर्म करने का विधान है।
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प्रीति-कर  : वि० [सं० ष० त०] प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला। प्रेमजनक।
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प्रीतिकारक, प्रीतिकारी  : वि०=प्रीति-कर।
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प्रीतिद  : वि० [सं० प्रीति√दा+क] सुख या प्रेम उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. विदूषक। २. भाँड़।
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प्रीति-दान  : पुं० [सं० तृ० त०] १. प्रेमपूर्वक दी जानेवाली कोई वस्तु २. विशेषतः वह वस्तु जो सास अथवा ससुर अपने जामाता या पुत्र-बधु को, या पति अपनी पत्नी को प्रेम-पूर्वक भोग के लिए दे।
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प्रीति पात्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह जिससे प्रीति या प्रेम किया जाय। प्रेम-भोजन।
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प्रीति-भोज  : पुं० [सं० तृ० त० स०] किसी मांगलिक या सुखद अवसर पर इष्ट-मित्रों तथा बंधु-बांधवों को अपने यहाँ बुलाकर कराया जाने वाला भोजन। दावत।
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प्रीतिमान् (मत्)  : वि० [सं० प्रीति+मतुप्] प्रेम रखनेवाला। जिसमें प्रेम-भाव हो।
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प्रीति-रीति  : स्त्री० [सं० ष० त०] वे कार्य जो प्रीति निभाने के लिए आवश्यक माने जाते हों।
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प्रीति-विवाह  : [सं० तृ० त०] पारस्परिक प्रेम संबंध के फलस्वरूप होनेवाला विवाह। (माता-पिता की इच्छा से किये जानेवाले विवाह से भिन्न।)
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प्रीत्यर्थ  : अव्य० [सं० ष० त०] १. प्रीति के कारण। २. किसी को प्रसन्न करने के लिए। जैसे—विष्णु के प्रीत्यर्थ दान करना।
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प्रूफ  : पुं० [अं०] १. दे० ‘प्रमाण’। २. छपाई में किसी छपनेवाली चीज़ का वह आरंभिक नमूना जो छपाई संबंधी भूलें ठीक करने के उद्देश्य से छापा जाता है।
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प्रूफ-रीडर  : पुं० [अं०] वह जो छपनेवाली चीज का प्रूफ देखकर छापेवाली भूलें ठीक करता हो।
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प्रूम  : पुं० [?] नदी, समुद्र आदि की गहराई जानने का एक छोटा यंत्र जो सीसे का बना हुआ और लट्टू के आकार का होता है और जो डोरी के सहारे नीचे तल तक लटकाया जाता है।
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प्रेंख  : पुं० [सं० प्र√इङ्ख+घञ्] १. झूलना। पेंग लेना। २. एक प्रकार का साम-गान। वि० जो काँप, झूल या हिल रहा हो।
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प्रेंखण  : पुं० [सं० प्र√इङ्ख+ल्युट्—अन] अच्छी तरह हिलना या झूलना। २. अठारह प्रकार के रूपकों में से एक प्रकार का रूपक जिसमें वीर रस की प्रधानता रहती है।
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प्रेंखा  : स्त्री० [सं० प्र√इङ्ख√अ—टाप्] १. हिलना। २. झूलना। ३. यात्रा। ४. नाच। नृत्य। ५. घोड़े की चाल।
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प्रेंखोलन  : पुं० [सं०+प्रेङ्खोल् (चलना)+ल्युट्—अन] १. झूलना। २. काँपना।
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प्रेक्षक  : पुं० [सं० प्र√ईक्ष+ण्वुल्—अक] १. वह जो खेल-तमाशा या ऐसा ही और काम या बात चाव से या ध्यानपूर्वक देखता हो। दर्शक। २. वह जो किसी काम, चीज या बात को किसी विशिष्ट उद्देश्य से बहुत ध्यानपूर्वक रहता हो। (अबसर्वर)
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प्रेक्षण  : पुं० [सं० प्र√ईक्ष+ल्युट्—अन] १. किसी काम, चीज या बात को किसी विशेष उद्देश्य से ध्यानपूर्वक देखने रहने का भाव (अब्सर्वेन्स) २. आँख।
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प्रेक्षण-कूट  : पुं० [सं० ष० त०] आँख का डेला।
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प्रेक्षणीय  : वि० [सं० प्र√ईक्ष+अनीयर्] जो देखे जाने के योग्य हो। दर्शनीय।
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प्रेक्षा  : स्त्री० [सं० प्र√ईक्ष+अ—टाप्] १. देखना। २. दृष्टि। निगाह। ३. नाच-तमाशा, नाटक आदि देखना। ४. प्रजा। बुद्धि। ५. नाच, तमाशा, अभिनय आदि। ६. किसी विषय की अच्छी और बुरी बातों का विचार करना। ७. वृक्ष की शाखा। डाल। ८. शोभा।
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प्रेक्षाकारी (रिन्)  : वि० [सं० प्रेक्षा√कृ+णिनि] सोचसमझ कर काम करनेवाला।
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प्रेक्षागार  : पुं०=गृह।
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प्रेक्षा-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन काल में राज-महल का वह कमरा जहाँ राजा मंत्रियों से मंत्रणा करते थे। २. नाटकों के अभिनय आदि के लिए बनी हुई रंग-शाला।
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प्रेक्षावान् (वत्)  : वि० [सं० प्रेक्षा+मतुप्] सोच-समझ कर काम करनेवाला।
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प्रेक्षा-समाज  : पुं० [सं०] दर्शकों का समूह। दर्शक-वृंद।
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प्रेक्षित  : भू० कृ० [सं० प्र√ईक्ष्+क्त] अच्छी तरह और ध्यानपूर्वक देखा हुआ।
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प्रेक्षिता (तृ)  : पुं० [सं० प्र√ईक्ष्+तृच्]=प्रेक्षक।
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प्रेक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० प्रेक्षा+इनि] १. प्रेक्षक। २. बुद्धिमान। समझदार।
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प्रेक्ष्य  : वि० [सं० प्र√ईक्ष्+ण्युत्] १. अच्छी तरह देखे जाने के योग्य। २. जो देखा जाने को हो।
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प्रेत  : वि० [सं० प्र√इ (गति)+क्त] जो यह संसार छोड़कर चला गया हो; अर्थात् मरा हुआ या मृत। पुं० [स्त्री० प्रेता, प्रेतनी] १. आत्मा जो शरीर से निकलकर और यह संसार छोड़कर चली जाती है। २. पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है। विशेष—कहते हैं कि आत्मा को दुष्कर्मों के फल-भोग के लिए यह रूप धारण करना पड़ता है और गंदे स्थानों में रहकर बहुत ही घृणित कर्म करने पड़ते हैं। लोगों का विश्वास है कि यह कभी-कभी छाया रूप धारण करके अनेक प्रकार के अलौकिक, भयावने तथा विकट कार्य करता हुआ दिखाई देता है। पुराणों में भूतों को देवयोनियों के वर्ग में रखा गया है; और इनका रंग काला तथा आकार-प्रकार विकराल बतलाया गया है। ३. मृत व्यक्ति का शरीर। लाश। शव। ४. प्रेत-शरीर। (देखें) ५. पितर। ६. नरक में रहनेवाले प्राणी। ७. लाक्षणिक रूप में, बहुत बड़ा कंजूस या धूर्त व्यक्ति।
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प्रेत-कर्त (र्मन्)  : पुं० [सं० ष० त०] हिंदुओं में दाह आदि लेकर सर्पिडी तक के वे कृत्य जो मृतक को प्रेत शरीर से मुक्त कराने के उद्देश्य से किया जाते हों। प्रेत-कार्य।
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प्रेत-कार्य, प्रेत-कृत्य  : पुं०=प्रेतकर्म।
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प्रेत-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] ऐसा स्थान जहाँ मृत शरीर गाड़े, जलाये या रखे जाते हों।
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प्रेत-तर्पण  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी मृतक के निमित्त उसके मरने के दिन से लेकर सपिंडी के दिन तक किया जानेवाला तर्पण। २. किसी प्रेत के निमित्त वर्ष भर किया जानेवाला तर्पण।
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प्रेतता  : स्त्री० [सं० प्रेत+तल्—टाप्]=प्रेतत्व।
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प्रेतत्व  : पुं० [सं० प्रेत+त्व] प्रेत होने की अवस्था, धर्म या भाव। प्रेतता।
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प्रेत-दाह  : पुं० [सं० ष० त०] मृत व्यक्ति के शरीर को जलाना।
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प्रेत-देह  : पुं०=प्रेत-शरीर। (देखें)
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प्रेत-नदी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वैतरणी नामक पैशाचिक नदी।
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प्रेतनी  : स्त्री, [सं० प्रेत+हि० नी (प्रत्य०)] १. स्त्री प्रेत। भूतनी। २. लाक्षणिक अर्थ में, बहुत बड़ी धूर्त या अर्ध-पिशाच स्त्री।
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प्रेत-पक्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] पितृ-पक्ष।
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प्रेत-पटह  : पुं० [सं० मध्य० मे.] पुरानी चाल का एक बाजा जिसके बजने पर यह जाना जाता था कि कोई मर गया है।
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प्रेत-पति  : पुं० [सं० ष० त०] प्रेतों के स्वामी, यम।
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प्रेत-पर्वत  : [सं० मध्य० स०] गया तीर्थ के अन्तर्गत एक पर्वत।
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प्रेत-पावक  : पुं० [सं० ष० त०] वह प्रकाश दो प्रायः दलदलों, जंगलों, कब्रिस्तानों आदि में रात के समय जलता हुआ दिखाई पड़ता है। और जिसे लोग प्रेतों की लीला समझते हैं। लुक।
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प्रेत-पिंड  : [सं० च० त०] कर्मकांड में अन्न आदि का बना वह पिंड जो किसी के मरने के दिन से लेकर सपिंडी के दिन तक उसके नाम पर नित्य पारा जाता है।
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प्रेत-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] यमपुर।
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प्रेत-भाव  : पुं० [सं० ष० त०] मृत्यु।
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प्रेत-भूमि  : स्त्री० [सं० ष० त०]=श्मशान।
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प्रेत-मेध  : पुं० [सं० ष० त०] मृतक के उद्देश्य से किया जानेवाला श्राद्ध।
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प्रेत-यज्ञ  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो कुछ लोग प्रेत-योनि प्राप्त करने के लिए करते थे।
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प्रेत-राक्षसी  : स्त्री० [सं० ष० त०] तुलसी (पौधा)। (ऐसा माना जाता है कि जहाँ तुलसी रहती है, वहाँ भूत-प्रेत नहीं आते)
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प्रेतराज  : पुं० [सं० ष० त०] १. यमराज। २. शिव।
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प्रेत-लोक  : पुं० [सं० ष० त०] यमपुर। यम-लोक।
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प्रेत-वन  : पुं० [सं० ष० त०] श्मशान। मरघट।
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प्रेत-वाहित  : भू० कृ० [सं० तृ० त०] जिस पर प्रेत या भूत का आवेश हो।
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प्रेत-विधि  : स्त्री० [सं० ष० त०] मृतक-संस्कार।
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प्रेत-विमाना  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] भगवती का एक रूप। (कहते हैं कि यह पाँच प्रेतशरीरों पर सवार होकर अवकाश में विचरण करती है।)
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प्रेत-शरीर  : पुं० [सं० ष० त०] पुराणों के अनुसार मृत व्यक्ति की जीवात्मा की वह अवस्था जिसमें वह तब तक लिंग रूप में, या सूक्ष्म शरीर धारण करके रहती है, जब तक उसका सपिंडी नामक श्राद्ध नहीं हो जाता। भोग-शरीर। विशेष—कहते हैं कि सपिंडी हो जाने पर उसका प्रेतत्व नष्ट हो जाता है और वह अपने कर्मों का फल भोगने के लिए नरक या स्वर्ग में चला जाता है।
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प्रेत-शिला  : स्त्री० [सं० ष० त०] गया तीर्थ की एक पहाड़ी। (कहते हैं कि जब तक यहाँ मृतक के उद्देश्य से पिंड दान न किया जाय, तब तक प्रेतत्व से उसकी मुक्ति नहीं होती।)
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प्रेत-श्राद्ध  : पुं० [सं० मध्य० स०] किसी के मरने की तिथि में एक वर्ष के अंदर होनेवाले सोलह श्राद्धों में से हर एक।
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प्रेतहार  : पुं० [सं० प्रेत√हृ+अण्] वह जो मृत शरीर उठाकर श्मशान तक ले जाने का व्यवसाय करता हो। मुरदा-फरोश।
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प्रेता  : स्त्री० [सं० प्रेत+टाप्] १. स्त्री० प्रेत। प्रेतनी। २. प्रेतनी। २. कात्यायनी देवी।
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प्रेतात्मक  : वि० [सं० प्रेतात्मन् से] प्रेतात्मा-संबंधी। प्रेतात्मा का। (स्पिरिचुअल)
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प्रेतात्म-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह विश्वास कि प्रेतात्माएँ जीवित व्यक्तियों से कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अथवा कुछ विशिष्ट माध्यमों के द्वारा संबंध स्थापित करती और वार्तालाप करती हैं। (स्पिरिचुअलिज़्म)
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प्रेतात्मवादिक  : वि० [सं० प्रेतात्मवाद+ठक—इक] प्रेतात्म-वाद से संबंध रखनेवाला। (स्पिरिचुअलिस्टिक)
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प्रेतात्मवादी (दिन्)  : पुं० [सं० प्रेतात्मवद्+णिनि] वह व्यक्ति, जिसका इस बात में विश्वास हो कि प्रेतात्माएँ जीवित व्यक्तियों से संबंध स्थापित करती और वार्तालाप करती हैं। वि०=प्रेतात्मवादिक।
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प्रेतात्मविद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह विद्या जिसके द्वारा प्रेतात्माओं से संपर्क स्थापित करके वार्तालाप किया जाता है। (साइकिक्स)
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प्रेतात्मा (त्मन्)  : स्त्री० [सं० प्रेत-आत्मन्, मयू० स०] प्राणी, विशेषतः मनुष्य की आत्मा की वह अवस्था या रूप जो उसे मृत्यु के उपरान्त प्राप्त होता है और हिंदू शास्त्रकारों के अनुसार लिंग-शरीर (देखें) से युक्त होता है। (स्पिरिट)
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प्रेतात्मिक  : वि० [सं० प्रेतात्मन्+ठक्—इक] १. प्रेतात्मा-संबंधी। २. प्रेतात्माओं द्वारा किया जाने या होनेवाला।
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प्रेताधिप  : पुं० [सं० प्रेत-अधिप, ष० त०] यमराज।
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प्रेतान्न  : पुं० [सं० प्रेत-अन्न मध्य० स०] १. पिंडा जो प्रेतों के उद्देश्य से दिया जाता है। २. बिना घी के योग से पकाया जानेवाला भोजन।
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प्रेतावास  : पुं० [सं० प्रेत-आवास, ष० त०] प्रेतों के रहने का स्थान। श्मशान।
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प्रेताशी (शिन्)  : वि० [सं० प्रेत√अश् (खाना)+णिनि] [स्त्री० प्रेताशिनी] प्रेत अर्थात् मृत शरीर खानेवाला।
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प्रेताशौच  : पुं० [सं० प्रेत-अशौच, मध्य० स०] किसी संबंधी के मरने पर होनेवाला अशौच। सूतक।
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प्रेति  : पुं० [सं० प्र√इ+क्तिन्] १. मरण। मृत्यु। २. अन्न। अनाज।
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प्रेतिनी  : स्त्री०=प्रेतनी।
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प्रेती  : पुं० [सं० प्रेत+हिं० ई (प्रत्य०)] प्रेतात्माओं की पूजा करनेवाला तथा उन्हें प्रसन्न करके उनके द्वारा कुछ विशिष्ट काम करानेवाला व्यक्ति।
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प्रेत्तेश  : पुं० [सं० प्रेत-इश, ष० त०] यमराज।
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प्रेतोन्माद  : पुं० [सं० प्रेत-उन्माद, मध्य० स०] प्रेत-बाधा अर्थात् प्रेतात्मा के प्रकोप से होनेवाला उन्माद।
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प्रेम  : पुं० [सं० प्रिय+इमनिच, प्र आदेश] [वि० प्रेमी] किसी के मन में होनवाला कोमल भाव जो किसी ऐसे काम, चीज, बात या व्यक्ति के प्रति होता है जिसे वह बहुत अच्छा, प्रशंसनीय तथा सुखद समझता है अथवा जिसके साथ वह अपना घनिष्ठ संबंध बनाये रखना चाहता है। प्रीति। मुहब्बत। जैसे—(क) काव्य, चित्रकला, जाति, देश आदि के प्रति होनेवाला प्रेम। (ख) भाई-बहन माता-पुत्र में होनेवाला प्रेम। विशेष—अपने विशुद्ध और विस्तृत रूप में यह ईश्वरीय तत्त्व या ईश्वरता का व्यक्त रूप माना जाता है और सदा स्वार्थ-रहित तथा दूसरों क सर्वतोमुखी कल्याण के भावों से ओतप्रोत होता है। इसमें दया, सहानुभूति आदि प्रचुर मात्रा में होती है। २. श्रृंगारिक तथा साहित्यिक क्षेत्रों में, वह मनोभाव जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के गुण, रूप, व्यवहार, स्वभाव आदि पर रीझकर सदा पास या साथ रहना और एक दूसरे को अपना बनाकर प्रसन्न तथा संतुष्ट रखना चाहते हैं। प्रीति। मुहब्बत। विशेष—यह अनुराग तथा स्नेह का बहुत आगे बढ़ा हुआ रूप है; और प्रायः इसके मल में या काम-वासना या तृप्ति से प्राप्त होनेवाला सुख होता है; या काम-वासना की तृप्ति करना इसका उद्देश्य होता है। अनुराग या स्नेह तो मुख्यतः लैंगिक सम्बन्ध होने से पहले होते हैं; परन्तु प्रेम प्रायः किसी न किसी प्रकार के शारीरिक संबंध का परिचायक होता है। स्त्री और पुरुष जाति के जीव जन्तुओं में यह कामज की होता है। ३. केशव के अनुसार एक प्रकार का अलंकार। ४. संसारिक बातों के प्रति होनेवाली माया या लोभ। ५. आनन्द। प्रसन्नता।
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प्रेम-कलह  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] प्रेम के प्रसंग में किया जानेवाला या होनेवाला झगड़ा।
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प्रेम-गर्विता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] साहित्य में वह नायिका जो इस बात का गर्व आ अभिमान करती है कि मेरा पति या प्रेमी मुझसे अधिक प्रेम करता है।
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प्रेम-जल  : पुं० [सं० ष० त० या मध्य० स०] प्रेमाश्रु।
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प्रेमजा  : स्त्री० [सं०] मरीचि (ऋषि) की पत्नी का नाम।
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प्रेम-नीर  : पुं०=प्रेमाश्रु।
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प्रेमपात्र  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० प्रेम-पात्री] १. वह व्यक्ति जिससे प्रेम किया जाय। २. वह जिस पर किसी की विशेष कृपा-दृष्टि हो।
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प्रेम-पाश  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. प्रेम का फंदा या जाल। २. आलिंगन।
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प्रेम-पुलक  : स्त्री० [सं० तृ० स०] आवेग के कारण होनेवाला रोमांच।
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प्रेम-भक्ति  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=प्रेम-लक्षणा।
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प्रेम-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] वह मार्ग जो मनुष्य को सांसारिक विषयों में फंसाता है। अविद्या-मार्ग।
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प्रेम-लक्षणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] भक्ति का वह प्रकार जिसकी साधना पुष्टमार्ग (देखें) में होती है। उदा०—श्रवण, कीर्तन, पाद-रत, अरचन, वंदन, दास, सख्य अरु आत्मनिवेदन प्रेम-लक्षणा जास।—सूर।
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प्रेम-लेश्या  : स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार वह वृत्ति जिसके अनुसार मनुष्य विद्वान, दयालु, विवेकी होता तथा निस्वार्थ भाव से सबसे प्रेम करता है।
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प्रेमवती  : स्त्री० [सं० प्रेमन्+मतुप्] १. पत्नी। २. प्रेमिका।
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प्रेम-वारि  : पुं०=प्रेमाश्रु।
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प्रेमा  : पुं० [सं० प्रेमन्] १. प्रेम। २. प्रेमी। ३. इंद्र। ४. वायु। ५. उपजाति वृत्त का ग्यारहवाँ भेद जिसके पहले, दूसरे और चौथे चरणों में क्रमशः जतजगण और दो गुरु और तीसरे चरण में क्रमशः ततज और दो गुरु होते हैं।
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प्रेमाक्षेप  : पुं० [सं० प्रेमन्-आक्षेप, ब० स०] केशव के अनुसार आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें भेद का निवेदन करते समय किसी प्रेम-जन्य कार्य से ही उसमें बाधा होने का वर्णन होता है।
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प्रेमालाप  : पुं० [सं० प्रेमन्-आलाप मध्य० स०] १. आपस में प्रेमपूर्वक होनेवाली बातचीत। २. दो प्रेमियों में होनेवाली बातचीत।
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प्रेमालिंगन  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. किसी को प्रेमपूर्वक गले लगाना। २. कामशास्त्र के अनुसार नायक और नायिका का एक विशेष प्रकार का आलिंगन।
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प्रेमाश्रु  : पुं० [प्रेमन्-अश्रु, मध्य० स०] वे आँसू जो प्रेम के आधिक्य के समय आप से आप आँखों से निकलने लगते हैं।
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प्रेमिक  : वि० [सं०] [स्त्री० प्रेमिका]=प्रेमी।
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प्रेमी (मिन्)  : वि० [सं० प्रेमन्+इनि] किसी से प्रेम करनेवाला। जैसे—देश-प्रेमी, साहित्य-प्रेमी। पुं० १. वह व्यक्ति जो किसी स्त्री विशेषतः प्रेमिकी से प्यार करता हो। २. किसी स्त्री के साथ अनुचित रूप से संबंध रखनेवाला व्यक्ति। यार।
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प्रेय (स्)  : वि० [सं० प्रिय+इयसुन् प्रादेश] [स्त्री० प्रेयसी] बहुत प्यारा। विशेष प्रिय। पुं० परम प्रिय व्यक्ति। २. स्त्री का पति या स्वामी। ३. स्त्री का प्रेमी। ४. धार्मिक क्षेत्र में यह कामना कि हम स्वर्ग प्राप्त करके अनेक प्रकार के सुख भोगें (मोक्ष-प्राप्ति की कामना से भिन्न)। ५. कल्याण। मंगल। ६. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक भाव किसी दूसरे भाव अथवा स्थायी का अंग होता है। जैसे—प्रभु-पद सौंह करैं कहत, वाहि तुच्छ एक तीर। लखत इन्द्रजित् कौं बनहु तौ तुम लछमन बीर। इस प्रसंग में व्यभिचार भाव ‘गर्व’ कुछ गौण होकर स्थायी भाव ‘क्रोध’ का अंग हो गया है।
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प्रेयसी  : स्त्री० [सं० प्रेयस्ङीप्] १. वह स्त्री जिसके साथ कोई पुरुष बहुत अधिक प्रेम करता हो। प्रेमिका। २. पत्नी। भार्या।
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प्रेरक  : वि० [सं० प्र√ईर्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. किसी को प्रेरित करनेवाला। जो प्रेरणा करता हो। २. भेजनावाला।
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प्रेरण  : पुं० [सं० प्र√ईर्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी को कोई काम करने के लिए बहुत अधिक उत्साहित करना। २. कोई काम करने के लिए प्रवृत्त करना।
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प्रेरणा  : स्त्री० [सं० प्र√ईर्+णिच्+युच्—अन्, टाप्] १. किसी को किसी कार्य में लगाने अथवा प्रवृत्त करने की क्रिया या भाव। २. मन में उत्पन्न होनेवाला वह भाव या विचार जिसके संबंध में यह कहा जाता हो कि वह दैवी साधन या कृपा से उत्पन्न हुआ है। ३. किसी प्रभावशाली व्यक्ति या क्षेत्र की ओर से कुछ करने या कहने के लिए होनेवाला संकेत। (इन्सिपरेशन, उक्त दो अर्थों में) ४. दबाव। ५. झटका। धक्का।
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प्रेरणार्थक  : वि० [सं० प्रेरण-अर्थ, ब० स०, कप्] १. प्रेरणा-संबंधी। २. प्रेरणा के रूप में होनेवाला।
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प्रेरणार्थक क्रिया  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में, क्रिया का वह रूप जिसमें क्रिया के व्यापार के संबंध में यह सूचित होता है कि यह क्रिया स्वयं नहीं की जा रही है बल्कि किसी दूसरे को प्रेरित करके या किसी दूसरे से कराई जा रही है। जैसे—खाना से खिलाना, चलना से चलाना। भागना से भगाना आदि बननेवाले रूप प्रेरणार्थक क्रिया कहलाते हैं।
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प्रेरणीय  : वि० [सं० प्र√ईर्+अनीयर्] प्रेरणा किये जाने के योग्य। किसी के लिए प्रवृत्त या नियुक्त किये जाने या होने के योग्य।
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प्रेरना  : स० [सं० प्रेरणा] १. प्रेरणा करना। २. फेंकना। चलाना। ३. भेजना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रेरयिता (तृ)  : वि० [सं० प्र√ईर्+णिच्+तृच्] [स्त्री० प्रेरयित्री] १. प्रेरक। २. आज्ञा देनवाला।
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प्रेरित  : भू० कृ० [सं० प्र√ईर्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे दूसरे व्यक्ति से किसी बात की प्रेरणा मिली हो। २. किसी प्रकार की प्रेरणा से होनेवाला (कार्य)। ३. भेजा हुआ। प्रेषित। ४. ढकेला हुआ।
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प्रेषक  : वि० [सं० प्र√ईष् (गति)+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रेषिका] भेजनेवाला।
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प्रेषण  : पुं० [सं० प्र√ईष्+णिच्+ल्युट्—अन] १. प्रेरणा करना। २. रवाना करना। भेजना।
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प्रेषण-पुस्तक  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह पुस्तक या बही जिसमें बाहर भेजी जानेवाली चिट्ठियों, पारसलों आदि की तिथि, विवरण, डाक-व्यय आदि लिखा जाता है। (डिस्पैच बुक)
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प्रेषणीय  : वि० [सं० प्र√ईष्+णिच्+अनीयर्] १. प्रेरणा पाने योग्य। २. भेजे जाने के योग्य।
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प्रेषणीयता  : स्त्री० [सं० प्रेषणीय+तल्—टाप्] १. प्रेषणीय होने की अवस्था या भाव। २. किसी पदार्थ या बात का वह गुण या तत्व जिसके द्वारा कुछ कहीं से कहीं पहुँचता हो। (कम्यूनिकेशन) जैसे—साहित्यिक कृतियों में जब तक भावों की प्रेषणीयता तत्त्व न हो, तब तक उनका कोई महत्त्व नहीं होता। (अर्थात् उनमें यह गुण होना चाहिए कि वे कवि या लेखक के भाव पाठकों तक पहुँचा सकें।)
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प्रेषित  : भू० कृ० [सं० प्र√ईष्+णिच्+क्त] रवाना किया हुआ। भेजा हुआ। पुं० संगीत में स्वर-साधना की एक प्रणाली जिसका रूप है—सारे, रेग, गम, मप, पध, धनि, निसा। सानि, निध, धप, पम, मग, गरे, रेसा। (संगीत)
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प्रेषितव्य  : वि० [सं० प्र√ईष्+णिच्+तव्यत्] जो भेजा जाने को हो या भेजा जा सकें।
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प्रेष्ठ  : भू० कृ० [सं० प्रिय+ईष्ठन्, प्रआदेश] [स्त्री० प्रेष्ठा] सबसे अधिक प्रिय। परम प्रिय। प्रियतम।
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प्रेष्य  : वि० [सं० प्र√ईष्+णिच्+यत्] जो भेजा जाने को हो या भेजा जा सकता हो। पुं० [स्त्री० प्रेष्या] १. नौकर। सेवक। २. दूत। हरकारा।
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प्रेष्यता  : स्त्री० [सं० प्रेष्य+तल्—टाप्] प्रेष्य होने की अवस्था या भाव।
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प्रेस  : पुं० [अं०] १. रूई आदि चीजें दबाने की कल। २. पुस्तकें, समाचार-पत्र आदि छापने की कल या यंत्र। ३. छापाखाना। मुद्रणालय। मुहा०—(किसी चीज का) प्रेस में होना=(किसी चीज की) छपाई का काम जारी रहना। जैसे—अभी वह पुस्तक प्रेस में है। (अर्थात् छप रही है।) ४. समाचार पत्रों का सामूहिक वर्ग। सभी अखबार। पद—प्रेस ऐक्ट।
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प्रेस ऐक्ट  : पुं० [अं०] वह कानून जिसमें छापेखानेवालों तथा समाचार-पत्रों के अधिकारों की सीमाओं का उल्लेख होता है।
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प्रेसमैन  : पुं० [अं०] छापे खाने या मुद्रणालय का कर्मचारी।
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प्रेसिडेंट  : पुं० [अं०] १. सभापति। २. अध्यक्ष। ३. राष्ट्रपति।
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प्रेसिडेंसी  : स्त्री० [अं०] १. प्रेसिडेंट का पद या कार्य। २. ब्रिटिश भारत में शासन के सुभीते के लिए कुछ निश्चित प्रदेशों प्रांतों का किया हुआ विभाग जो एक गवर्नर या लाट की अधीनता में होता था।
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प्रोंचिया  : स्त्री०=पहुँची (कलाई पर पहनने की)। उदा०—गजरा नवग्रही प्रोंचिया प्रींचे।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रोंछन  : पं० [सं० प्र√उञ्छ+ल्युट्+ण्वुल्—अन] १. पोंछने की क्रिया। २. पोंछने का कपड़ा। ३. बचे हुए खंडों को चुनना।
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प्रोक्त  : भू० कृ० [सं० प्र√वच् (कहना)+क्त] कथित या कहा हुआ। उक्त। पुं० कही हुई बात या वचन। उक्ति।
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प्रोक्षण  : पुं० [सं० प्र√उक्ष् (सींचना)+ल्युट्—अन] १. जल छिड़कना। छिड़काव करना। २. यज्ञ में, बलि देने से पहले पशु पर पानी छिड़कना। ३. पानी का छींटा। ४. बध। हत्या। ५. विवाह का परिछन नामक कृत्य। ६. श्राद्ध आदि में होनेवाले एक कृत्य।
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प्रोक्षणी  : स्त्री० [सं० प्रोक्षण+ङीप्] १. यज्ञ आदि में छिड़का जानेवाला जल। २. वह पात्र जिसमें उक्त जल रखा जाता था। ३. कुश की मुद्रिका जो हो आदि के समय अनामिका में पहनी जाती है।
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प्रोक्षित  : भू० कृ० [सं० प्र√उक्ष्+क्त] १. सींचा हुआ। २. जिस पर जल छिड़का गया हो। ३. जिसका वध या हत्या की गई हो। ४. (पशु) जो बलि चढ़ाया गया हो। पुं० वह मांस जो यज्ञ के लिए संस्कृत किया गया हो। (ऐसा मांस खाने में कोई दोष नहीं माना जाता।)
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प्रोक्षितव्य  : वि० [सं० प्र+उक्ष्√तव्यत्] जिसका प्रोक्षण होने को हो या हो सकता हो।
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प्रोग्राम  : पुं० [अ०] १. दे० ‘कार्यक्रम’। २. वह पत्र जिसमें कार्यक्रम छपा या लिखा हो।
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प्रोज्जवल  : वि० [सं० प्र-उज्जवल, प्रा० स०] विशेष रूप से या बहुत उज्जवल।
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प्रोज्झन  : पुं० [सं० प्र√उज्झ् (त्याग)+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रोज्झित] परित्याग।
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प्रोटीन  : पुं० [अं०] खाद्य पदार्थों में पाया जानेवाला वह तत्त्व जिसमें कारबन, नाइट्रोजन, आक्सीजन, गंधक आदि मिले होते हें, और जो प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन-धारण के लिए आवश्यक और उपयोगी होता है।
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प्रोटेस्टेंट  : पुं० [अं०] १. ईसाइयों का एक संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी।
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प्रोढ़  : वि०=प्रौढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रोढ़ा  : स्त्री०=प्रौढ़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रोत  : भू० कृ० [सं० प्र√वे—(बुझना)+क्त,सम्प्रसारण] १. किसी के साथ या किसी में अच्छी तरह मिला हुआ। पद—ओतप्रोत। २. गाँठ लगाकर बाँधा हुआ। ३. सीया हुआ। ४. छिपा हुआ। गुप्त। पुं० कपड़ा। वस्त्र।
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प्रोत्कंठ  : वि० [सं० प्र-उत्कंठा, ब० स०]=उत्कंठित।
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प्रोत्कट  : वि० [सं० प्र-उत्कट, प्रा० स०] [भाव० प्रोत्कटता] १. उत्कट। २. विशेष रूप में बहुत बड़ा।
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प्रोत्तुंग  : वि० [सं० प्र-उत्तुंग, प्रा० स०] बहुत ऊँचा।
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प्रोत्तेजन  : पुं० [सं० प्र-उत्तेजन, प्रा० स०] [भू० कृ० प्रोत्तेजित] बहुत बढ़े हुए रूप में उत्तेजना उत्पन्न करना। ३. बहुत उत्कट या तीव्र उत्तेजन।
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प्रोत्थित  : भू० कृ० [सं० प्र-उत्थित, प्रा० स०] १. आधार पर रखा हुआ। किसी पर टिका या ठहरा हुआ। २. ऊपर उठाया हुआ। ३. बहुत ऊपर निकला या बढ़ा हुआ।
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प्रोत्फुल्ल  : वि० [सं० प्र-उत्√फुल्ल्+अच्] १. अच्छी तरह खिला हुआ। २. विशेष रूप से प्रसन्न या हर्षित।
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प्रोत्सारण  : पुं० [सं० प्र-उत्√सृ (गति)+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रोत्सारित] १. हटाना। २. निकालना। ३. पिंड या पीछा छुड़ाना।
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प्रोत्साह  : पुं० [सं० प्र-उत√सह्+णिच्+घञ्] बहुत अधिक बढ़ा हुआ उत्साह या उमंग।
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प्रोत्साहक  : वि० [सं० प्र-उत्√सह्+णिच्+ण्वुल्—अक] उत्साह बढ़ानेवाला। हिम्मत बँधानेवाला।
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प्रोत्साहन  : पुं० [सं० प्र-उत्√सह्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रोत्साहित] १. बहुत अधिक उत्साह बढ़ाना। हिम्मत बाँधना। २. प्रोत्साहित करने के लिए कही जानेवाली बात। उत्तेजित करना।
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प्रोत्साहित  : भू० कृ० [सं० प्र-उत्√सह्+णिच्+क्त] जिसे विशेष रूप में प्रोत्साहन दिया गया हो। अच्छी तरह उत्साहित किया हुआ।
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प्रोथ  : पुं० [सं० प्रु+थक] १. घोड़े के नाक के आगे का भाग। २. सूअर का थूथन। ३. कमर। ४. पेड़ू। ५. स्त्री का गर्भाशय।
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प्रोद्भवन  : पुं० [सं० प्र+उद्भवन] १. प्रादुर्भाव होने की क्रिया या भाव। २. आय, फल, लाभ आदि के रूप में होनेवाली प्राप्ति। (एक्रूअल)
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प्रोद्भूत  : भू० कृ० [सं०] १. जिसका प्रोद्भवन हा हो। जो आय, फल, लाभ, आदि के रूप में प्राप्त हुआ हो। (एक्रूड)
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प्रोनोट  : पुं० [अं०]=हैंडनोट।
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प्रोपगेंडा  : पुं० [अं०]=प्रचार। (दें०)
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प्रोफेसर  : पुं० [अं०] १. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता। भारी पंडित या विद्वान। २. प्राध्यापक। (देखें)
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प्रोल  : पुं०=पोल (दरवाजा)।
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प्रोलि  : स्त्री० [सं० प्रतोली] द्वार। फाटक। (राज०) उदा०—प्रोलि प्रोलि मैं मारग।—प्रिथीराज।
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प्रोष  : पुं० [सं०√प्रुष् (दाह)+घञ्] १. जलना। २. बहुत अधिक दुःख या कष्ट। संताप। वि० १. जलता हुआ। २. दुखी। ३. संतप्त।
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प्रोषित  : पुं० [सं० प्र-उषित, प्रा०स०] साहित्य में श्रृंगार-रस का आलंबन वह नायक जो प्रिया को छोड़कर विदेश चला गया हो। भू० कृ० १. प्रवासी। २. बीता हुआ। जैसे—प्रोषित यौवन।
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प्रोषित-नायक  : पुं० [सं० कर्म० स०]=प्रोषित।
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प्रोषित-नायिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, कप्-टाप्, इत्व] वह स्त्री जो अपने पति (या नायक) के विदेश चले जाने के कारण उसके विरह में दुःखी या विकल हो। प्रवत्स्यपतिका।
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प्रोषित-प्रेयसी  : स्त्री०=प्रोषितपतिका।
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प्रोषित-भर्तृका  : स्त्री०=प्रोषितपतिका।
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प्रोषित-भार्य  : पुं० [सं० ब० स०] वह पुरुष जो अपनी पत्नी के विदेश चले जाने के कारण उसके विरह में दुःखी या विकल हो।
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प्रोषित-यौवन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० प्रोषित-यौवना] जिसका यौवन समाप्त हो चुका हो। जिसकी जवानी बीत चुकी हो।
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प्रोष्ठ  : पुं० [सं० प्र-ओष्ठ, ब० स०] १. सौरी मछली। २. गाय। ३. एक प्राचीन देश।
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प्रोष्ठ-पद  : पुं० [सं० ब० स०, अच्, पदादेश] भाद्रपद। भादों (महीना)।
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प्रोष्ठ-पदा  : स्त्री० [सं० प्रोष्ठपद+टाप्] पूर्व भाद्रपद और उत्तर भाद्रपद नक्षत्र।
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प्रोष्ठपदी  : स्त्री० [सं० प्रोष्ठपदा+अण्—ङीष्] भादों की पूर्णिमा।
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प्रोष्ण  : वि० [सं० प्र-उष्ण, प्रा० स०] अत्यन्त उष्ण। बहुत गरम।
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प्रोह  : पुं० [सं० प्र√ऊह् (वितर्क)+घञ्] १. हाथी का पैर। २. तर्क। ३. पर्व। वि० १. चतुर। २. बुद्धिमान।
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प्रोहित  : पुं०=पुरोहित।
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प्रौढ़  : वि० [सं० प्र√वह्+क्त, सम्प्रसारण, वृद्धि] [स्त्री० प्रौढ़ा] [भाव० प्रौढ़ता] १. जो अच्छी तरह बढ़कर या विकसित होकर अपनी पूरी बाढ़ तक पहुँच चुका हो। अच्छी या पूरी तरह से बढ़ा हुआ। जैसे—प्रौढ़ बुद्धि, प्रौढ़ वृक्ष। २. (व्यक्ति) जो अपनी आरंभिक अवस्था पार करके मध्य अवस्था तक पहुँच चुका हो। ३. बलवान। शक्तिशाली। ४. दृढ़। पक्का। मजबूत। ५. अच्छी तरह भरा हुआ। ६. गंभीर। गूढ़। ७. चतुर। चालाक। निपुण। ८. जिसका विवाह हो चुका हो। विवाहित। ९. पुराना। १॰. घना। जैसे—प्रौढ़ घन (बादल)। पुं० तांत्रिकों का चौबीस अक्षरों का एक मंत्र।
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प्रौढ़ता  : स्त्री० [सं० प्रौढ़+तल्—टाप्] १. प्रौढ़ होने की अवस्था, गुण या भाव। २. प्रौढ़ अवस्था या वयस। ३. विश्वास। ४. क्रोध। गुस्सा।
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प्रौढ़त्व  : पुं० [सं० प्रौढ़+त्व]=प्रौढ़ता।
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प्रौढ़-पाद  : पुं० [सं० ब० स०] पैर के दोनों तलुए जमीन पर रखकर बैठना। उकड़ू बैठना। (शास्त्रों में इस प्रकार बैठकर भोजन, स्नान, तर्पण आदि करने का निषेध है)।
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प्रौढ़ा  : स्त्री० [सं० प्रौढ़+टाप्] १. अधिक या प्रौढ़ वयसवाली स्त्री। २. साहित्य में प्रौढ़ वयसवाली नायिका जिसमें लज्जा कम और काम वासना अधिक होती है और जो बातचीत में चतुर तथा काम-केलि में प्रवीण होती है। उसके रति-प्रीता, आनन्द-सम्मोहिता, विचित्र-विभ्रमा, आक्रान्ता आदि अनेक भेद कहे गये हैं।
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प्रौढ़ा-अधीरा  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] साहित्य में वह प्रौढ़ा नायिका जो अपने नायक में विलास-सूचक चिह्न देखने पर प्रत्यक्ष प्रकोप करे।
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प्रौढ़ाधीरा  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] व्यंग्यपूर्ण बातें कहकर अपना कोप प्रकट करनेवाली प्रौढ़ा नायिका।
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प्रौढ़ाधीराधीरा  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] साहित्य में वह नायिका जो अपने नायक में पर-स्त्री-गमन के चिह्न देखकर कुछ तो प्रत्यक्ष और कुछ व्यंग्यपूर्वक कोप प्रकट करे।
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प्रौढ़ि  : स्त्री० [सं० प्र√वह+क्तिन] १. प्रौढ़ता। २. सामर्थ्य। शक्ति। ३. धृष्टता। ढिठाई। ४. तर्क-वितर्क। वाद-विवाद।
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प्रौढोक्ति  : स्त्री० [सं० प्रौढ़ा-उक्ति, कर्म० स०] १. ऐसी उक्ति था कथन जिसमें कोई गूढ़ रहस्य हो। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी कल्पित अथवा वास्तविक उत्कर्ष का आविर्भाव ऐसी चीज या बात से बतलाया जाता है जो वस्तुतः उस उत्कर्ष का हेतु नहीं होता अथवा नहीं हो सकता। जैस—यदि कहा जाय कि यमुना के किनारे पर उगने के कारण ही सरल वृक्ष नीले रंग का हो गया है तो यहाँ प्रौढोक्ति अलंकार होगा, क्योंकि वास्तव में यमुना के जल में आसपास के वृक्षों को नीला करने का गुण या शक्ति नहीं है।
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प्रौष्ठ-पदी  : स्त्री० [सं० ब० स०,+अण—ङीप्] भाद्र मास की पूर्णिमा।
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प्लक्ष  : पुं० [सं० प्र√प्लक्ष् (खाना)+घञ्] १. पुराणानुसार सात द्वीपों में एक द्वीप। अश्वत्थ। पीपल। ३. पाकर या पिलखा नाम का वृक्ष। ४. बड़ी खिड़की या छोटा दरवाजा। ५. दरवाजे के पास की जमीन। ६. एक प्राचीन तीर्थ।
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प्लक्षजाता  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती। (नदी)।
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प्लक्षराज  : पुं० [सं० ष० त०] सरस्वती नदी का उद्गम।
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प्लक्षा  : स्त्री० [सं० √प्लक्ष्+अ—टाप्] सरस्वती (नदी)।
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प्लक्षावतरण  : पुं० [सं० प्लक्षा-अवतरण, ष० त०]=प्लक्षराज।
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प्लवंग  : पुं० [सं० प्लव√गम्+खच्, टिलोप्, मुम्] १. बंदर। २. साठ संवत्सरों में से इकतालीसवाँ सवंत्सर। ३. हिरण। ४. वानर। बन्दर। ५. प्लक्ष या पाकर का वृक्ष।
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प्लवंगम  : पुं० [सं० प्लव्√गम्+खच्, मम्] १. २१-२१ मात्राओं के चरणों वाला एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण का पहला वर्ण गुरु और अंत में १ जगण और १ गुरु होता है। २. बन्दर। ३. मेढ़क।
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प्लव  : पुं० [सं० प्र√प्लु+अच्] १. साठ संवत्सरों में से पैतीसवाँ संवत्सर। २. कुक्कुट। मुरगा। ३. उछल-कूद कर चलनेवाला पक्षी। ४. कारंडव पक्षी। ५. मेढ़क। ६. बंदर। ७. भेड़। ८. चांड़ाल। ९. वैरी। शत्रु। १॰. नागरमोथा। ११. मछलियाँ फंसाने का टापा या दौरा। १२. नदी की बाढ़। १३. नहाना। १४. तैरना। १५. जल-पक्षी। १६. एक प्रकार का बगला। १७. आवाज। शब्द। १८. अनाज। अन्न। वि० १. तैरता हुआ। २. झुकता हुआ। ३. क्षण-भंगुर।
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प्लवक  : वि० [सं० प्लावक] तैरनेवाला। तैराक। पुं० १. [सं० प्लव+कन्] १. तलवार, रस्सी आदि पर नाचनेवाला पुरुष। २. मेढ़क। ३. प्लक्ष या पाकर का वृक्ष।
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प्लवग  : वि० [सं० प्लव√गम्+ड] १. कूदने या उछलनेवाला। २. तैरनेवाला। पुं० १. बंदर। २. हिरन। ३. मेढ़क। ४. जल-पक्षी। सिरस का पेड़। ६. सूर्य के सारथी का नाम।
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प्लवन  : पुं० [सं० √प्लु (गति)+ल्युट्—अन] १. उछलना। कूदना। २. तैरना। ३.=प्लावन। वि० ढालुआँ।
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प्लविक  : पुं० [सं० प्लव+ठन्—इक्] माँझी। मल्लाह।
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प्लांचट  : पुं० [अं०] तीन पायोंवाली एक तरह की छोटी चौकी जिसकी सहायता से प्रेतात्माओं में से संबंध स्थापित करके वार्तालाप किया जाता है।
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प्लाक्ष  : वि० [सं० प्लक्ष+अण्] प्लक्ष संबंधी। प्लक्ष का। पुं० १. प्लक्ष होने की अवस्था या भाव। २. प्लक्ष या पाखर वृक्ष का फल।
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प्लाक्षायन  : पुं० [सं० प्लाक्षि√फक्—आयन] प्लाक्षि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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प्लाट  : पुं० [अं०] १. इमारत बनाने या खेती आदि करने के लिए जमीन का टुकड़ा। २. उपन्यास, नाटक आदि की कथा-वस्तु। ३. षड़यंत्र।
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प्लान  : पुं० [अं०] दे० ‘आयोजना’।
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प्लाव  : पुं० [सं० √प्लु+घञ्] १. पीपे की तरह की कोई खोखली चीज़ जो किसी जलाशय में लंगर आदि के सहारे ठहरी और तैरती रहती है, और जो प्रायः इस बात की सूचक होती है कि यहाँ नीचे चट्टान है अतः जहाजों, नावों आदि के टकराने का डर है। २. रबर आदि का वह गोलाकार खोखला पट्टा जिसके अन्दर हवा भरी रहती है और जिसका सहारा लेकर आदमी डूबने से बचकर तैरता रहता है। (बोई) ३. गोता। डुबकी। ४. परिपूर्णता।
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प्लावन  : पुं० [सं० √प्लु+णिच्+ल्युट्—अन] १.चारों ओर जल का उमड़कर बहना। २. जल की बहुत बड़ी बाढ़ जिसमें सारी पृथ्वी या उसका बहुत बड़ा अंश डूब जाता है। ३. अच्छी तरह डुबाने या धोने की क्रिया। ४. ऊपर फेंकना। उछालना। ५. तैरना।
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प्लावित  : भू० कृ० [सं० √प्लु+णिच्+क्त] १. बाढ़ के पानी से भरा हुआ। २. जो जल में डूब अथवा बह गया हो।
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प्लाव्य  : वि० [सं० √प्लु+णिच्+यत्] जल में डुबाये जाने के योग्य।
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प्लास्टर  : पुं०=पलस्तर।
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पलीहा (हन्)  : स्त्री० [सं० √प्लिह्+कनिन्, नि-दीर्घ] १. पेट के अंदर का तिल्ली नामक अंग जो पेट के ऊपरी बाएँ भाग में होता है और जो शरीर का रक्त बनाने में सहायक होता है। (स्प्लीन) २. उक्त अंग के सूजकर बढ़ने का रोग।
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प्लीहाविद्रधि  : पुं० [सं० ब० स०] दिल्ली का एक रोग जिसमें साँस रुक-रुक कर आने लगता है।
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प्लीहोदर  : पुं० [सं० प्लीहा-उदर, ब० स०] प्लीहा के बढ़ने का रोग। तिल्ली।
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प्लीहोदरी (रिन्)  : वि० [सं० प्लीहोदर+इनि] [स्त्री० प्लीहोदरिणी] जिसे प्लीहा रोग हुआ हो।
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प्लुत  : वि० [सं० √प्लु+क्त] जो काँपता हुआ चलता हो। २. डूबा हुआ। प्लावित। ३. बहुत गीला या तर। ४. ताल, स्वर आदि मात्राओं में युक्त। तीन मात्राओंवाला। पुं० १. टेढ़ी और उछालवाली चाल। २. घोड़े की एक प्रकार की चाल जिसे पोइया या पोई कहते हैं। ३. (व्याकरण में किसी स्वर-वर्ण के उच्चरित होने की वह अवस्था) जिसमें धारणा की अपेक्षा तिगुना समय लगा हो। इसका चिह्न ऽ है। जैसे—ओऽम्।
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प्लुति  : स्त्री० [सं० √प्लु+क्तिन्] १. उछल-कूद की चाल। २. पोई नामक साग। ३. तीन मात्राओं से युक्त वर्ण।
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प्लेग  : पुं० [अं०] १. कोई ऐसा भयंकर संक्रामक रोग जिसके फैलने पर बहुत अधिक लोग मरते हैं। महामारी। २. एक विशिष्ट प्रकार का घातक संक्रामक रोग जिसमें रोगी को ज्वर होता है और जाँघ या बगल में गिलटी निकलती है।
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प्लेट  : पुं० [अं०] १. धातु के पत्तर, मिट्टी आदि की एक तरह की छोटी थाली। तश्तरी। २. उक्त प्रकार का ऐसा पत्तर जिसपर कोई लेख अंकित या उत्कीर्ण हो। तश्तरी। रिकाबी। ४. कपड़ों की वह पट्टी जो पहने जानेवाले वस्त्रों में कहीं तो मजबूती के लिए और कहीं शोभा के लिए लगाई जाती है। क्रि० प्र०—डालना।—देना। ५. फोटो लेने का वह शीशा जो प्रकाश में पहुँचते ही अपने ऊपर पड़नेवाली छाया को स्थायी रूप से ग्रहण कर लेता है।
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प्लेटफार्म  : पुं० [अं०] जमीन से कुछ ऊँचा, चौकोर तथा समतल चबूतरा। जैसे—रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म।
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प्लैंचेट  : पुं०=प्लांचट।
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प्लैटिनम  : पुं० [अं०] स्वर्ण में भी अधिक बहुमूल्य, अधिक भारी तथा अधिक कड़ी सफेद रंग की एक धातु।
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