| शब्द का अर्थ | 
					
				| दंद					 : | स्त्री० [सं० दहन, दंदह्यमान] गरम चीज या जगह में से निकलनेवाली गरमी। वैसी गरमी, जैसी तपी हुई भूमि पर पानी पड़ने से निकलती या खानों के अन्दर होती है। पुं०=दांत। (पंजाब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० द्वन्द्व] १. उत्पात या उपद्रव। २. लड़ाई-झगड़ा। ३. हो-हल्ला। शोर। क्रि० प्र०—मचाना। | 
			
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				| दंदन					 : | स्त्री० [हिं० दंद=दाँत] एक रोग जिसमें मनुष्य के ऊपर नीचे के दांत आपस में कुछ समय के लिए सट जाते हैं और वह मूर्च्छित हो जाता है। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०—पड़ना। वि० [सं० दमन] [स्त्री० दंदनी] दमन करनेवाला। | 
			
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				| दंदश					 : | पुं० [सं०√दंश् (काटना)+यङ्,+अच्] दाँत। | 
			
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				| दंदशूक					 : | पुं० [सं०√दंश्+यङ्,+ऊक] १. सूर्य। २. एक राक्षस। | 
			
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				| दंदह्यमान					 : | वि० [सं०√दह (जलना)+यङ+शानच्,] दहकता हुआ। | 
			
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				| दंदा					 : | पुं० [देश०] ताल देने का पुरानी चाल का एक तरह का बाजा। | 
			
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				| दंदान					 : | पुं० बहु० [फा० दंदाँ] दाँत। | 
			
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				| दंदाना					 : | पुं० [हिं० दन्दान] [वि० दंदानेदार] दाँत के आकार की उभरी हुई नोकों की पंक्ति। जैसे—कंधी या आरे के दंदाने। अ० [हिं० दंद=द्वन्द्व] १. गरमी के प्रभाव में आना या पड़ना। गरम होना। जैसे—धूप में सारा घर दंदाने लगता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० सरदी से बचने के लिए आग के पास बैठकर या कंबल, रजाई आदि ओढ़कर अपना शरीर गरम करना। | 
			
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				| दंदानेदार					 : | वि० [फा०] जिसमें दंदाने हों। | 
			
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				| दंदारु					 : | पुं० [हिं० दंद+आरू (प्रत्य०)] छाला। फफोला। | 
			
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				| दंदी					 : | वि० [हिं० दंद] १. झगड़ालू। २. उपद्रवी। | 
			
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