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द  : देवनागरी वर्णमाला के तवर्ग वर्ण, जो उच्चारण तथा भाषा-विज्ञान की दृष्टि से घोष, अल्पप्राण, स्पर्शी, दन्त्य व्यंजन है। प्रत्य० [सं०√दा (दान करना)+क] [स्त्री० दा] शब्दों के अंत में लगकर यह प्रत्यय के रूप में ‘देनेवाला’ का अर्थ देता है। जैसे—करद, जलद, फलद और कामदा, धनदा आदि।
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दंग  : वि० [फा०] अप्रत्याशित अथवा अनोखी बात देखकर जो बहुत अधिक चकित या स्तब्ध हो गया हो। क्रि० प्र०—रह जाना।—हो जाना। पुं० १. डर। भय। २. घबराहट। पुं० दे० ‘दंगा’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दंगई  : वि० [हि० दंगा] १. दंगा या लड़ाई-झगड़ा करनेवाला। उपद्रवी। झगड़ालू। २. उग्र। तीव्र। प्रचंड। ३. बहुत बड़ा या भारी। दंगल। (क्व०)। स्त्री० १. दंगा-फसाद या लड़ाई-झगड़ा करने की प्रवृत्ति। २. दंगा-फसाद। उपद्रव।
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दंगल  : पुं० [फा०] १. पहलवानों की वह प्रतियोगिता, जिसमें प्रतिद्वन्दी को कुश्ती में जीतने पर प्रायः पुरस्कार के रूप में विशिष्ट धन-राशि मिलती है। २. उक्त के आधार पर कुश्ती लड़ने का अखाड़ा जिसमें उक्त प्रकार की बहुत सी प्रतियोगिताएँ होती हैं। ३. कोई ऐसी प्रतियोगिता जिसमें बहुत से प्रतियोगी सम्मिलित हुए यो होते हों। जैसे—कवियों या गवैयों का दंगल। ४. मोटा गद्दा। तोशक। वि० सामान्य आकार-प्रकार से बहुत अधिक या बड़े आकार-प्रकार वाला। जैसे—दंगल मकान।
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दंगली  : वि० [फा०] १. दंगल संबंधी। २. दंगलों में सम्मिलित होनेवाला। (पूरब) ३. जिसने दंगलों में विजय प्राप्त की हो। ४. बहुत बड़ा या भारी।
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दँगवारा  : पुं० [हिं० दंगल+वारा (प्रत्य०)] एक किसान द्वारा दूसरे किसान को हल-बैल आदि देकर की जानेवाली सहायता। जिता। हरसीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दंगा  : पुं० [फा० दंगल] १. ऐसा झगड़ा या लड़ाई, जिसमें मार-पीट भी हो। उपद्रव। उदा०—जियत पिता से दंगम-दंगा। मुए पिता पहुँचाये गंगा।—कबीर। २. विधिक क्षेत्र में, ऐसा उपद्रव जिसमें बहुत से लोग विशेषतः विभिन्न दलों के लोग आपस में मार-पीट, लूट-पाट आदि करके सार्वजनिक शांति भंग करते हों। ३. गुल-गपाड़ा। हो-हल्ला। शोर।
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दंगाई  : पुं० [हं० दंगा] दंगा या उपद्रव करनेवाला व्यक्ति। स्त्री०=दंगाई।
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दंगैत  : पुं०=दंगाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दंड  : पुं० [सं०√दंड (दंड देना)+घञ्] १. बाँस, लकड़ी आदि का वह गोलाकार लंबा डंडा, जो प्रायः चलने के समय सहारे के लिए हाथ में रखा जाता अथवा किसी को मारने-पीटने के काम आता है। लाठी। सोंटा। २. उक्त आकार की कोई लंबी लकडी, जो कुछ चीजों में उन्हें चलाने, पकड़ने आदि के लिए लगी रहती है। डंडा। डाँड़ी। जैसे—तुला का दंड, ध्वजा या पताका का दंड, मथानी का दंड, हल में का दंड आदि। ३. उक्त प्रकार की वह पतली, लंबी लकड़ी जो संन्यासी सदा हाथ में रखते हैं। मुहावरा—दंड ग्रहण करना=संन्यास आश्रम ग्रहण करना या उसमें प्रवेश करना। ४. उक्त आकार-प्रकार की कोई पतली, लंबी चीज। जैसे—भुंज-दंड, मेरु-दंड। ५. जहाज या नाव का मस्तूल। ६. लंबाई की एक पुरानी नाप जो प्रायः चार हाथ की होती थी। ७. समय का एक मान जो ६॰ पलों का होता है। घड़ी। ८. वास्तुशास्त्र में, ऐसा आँगन जिसके उत्तर एवं पूर्व में कोठरियाँ हों। ९. ज्योतिष में, एक प्रकार का योग। १॰. एक प्रकार की कसरत, जो जमीन पर हाथों और पैरों के पंजो के बल उलटे लेटकर की जाती है और जिससे भुज-दंडों की शक्ति बढ़ती है। क्रि० प्र०—करना।—पेलना।—मारना।—लगाना। ११. अश्व। घोड़ा। १२. उत्पात, उपद्रव आदि का दमन या शमन। शासन। १३. कोई अनुचित काम या अपराध करनेवालों को बदले में दी जानेवाली सजा। (पनिशमेन्ट) १४. सेना, जो प्राचीन काल में अपराधियों को दंड देने के उद्देश्य से रखी जाती थी। १५. अर्थ-दंड। जुरमाना। १६. कोई अपराध, प्रतिज्ञा-भंग अथवा किसी का कोई अपकार या हानि करने के बदले में दिया या लिया जानेवाला धन। हरजाना। (पैनेल्टी)। क्रि० प्र०—पड़ना।—भोगना।—लगना।—सहना। मुहावरा—(किसी पर) दंड डालना=यह कहना या निश्चित करना कि अमुक व्यक्ति दंड के रूप में इतना धन दे। दंड भरना=किसी के अपकार या हानि के बदले में अथवा प्रतिकार-स्वरूप कुछ धन देना। १७. यमराज जो मरने पर प्राणियों को दंड या सजा देते हैं। १८. विष्णु। १९. शिव। २॰. कुबेर के एक पुत्र का नाम। २१. इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में से एक। २२. दे० ‘दंडवत्’। २३. दे० ‘दंड-व्यूह’।
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दंड-कंदक  : पुं० [सं० ब० स०, कप्] सेमल का मुसला। धरणी-कंद।
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दंडक  : वि० [सं०√दंड+णिच्+ण्वुल्—अक] दंड देने या दंडित करनेवाला। पुं० १. डंडा। सोंटा २. दंड देनेवाला व्यक्ति। ३. राजा इक्ष्वाकु के एक पुत्र जिनके मान पर दंडकारण्य का नामकरण हुआ था। ४. छंदशास्त्र के अनुसार (क) ऐसा मात्रिक छंद, जिसके प्रत्येक चरण में ३२ से अधिक मात्राएँ हों अथवा (ख) ऐसा वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २६ से अधिक वर्ण हों। ५. एक प्रकार का वात रोग जिसमें हाथ, पैर, पीठ, कमर आदि अंग स्तब्ध होकर ऐंठ-से जाते हैं। ६. संगीत में शुद्ध राग का एक प्रकार या भेद। ७. दे० ‘दंडकारण्य’।
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दंडक-ज्वर  : पुं० [सं०] मच्छरों के दंश से फैलनेवाला एक प्रकार का ज्वर जिसमें सारे शरीर में पीडा होती है और शरीर तथा आँखे लाल हो जाती हैं। (डेंग्यु)
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दंडकला  : स्त्री० [सं०] दुर्मिल छंद का एक भेद, जिसके अंत में एक गुरु अथवा सगण होता है।
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दंडका  : स्त्री० [सं० दण्यक+टाप्]=दंडकारण्य। (दे०)
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दंडकारण्य  : पुं० [सं० दण्डक-अरण्य मध्य० स०] एक प्रसिद्ध बहुत बड़ा वन, जो विंध्यपर्वत और गोदावरी नदी के बीच में पड़ता है। सीता का हरण रावण ने इसी वन में किया था। आज-कल इसका कुछ अंश साफ करके मनुष्यों के बसने योग्य किया जाने लगा है।
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दंडकी  : स्त्री० [सं० दण्डक+ङीष्] १. छोटा डंडा। २. छड़ी।
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दंडगौरी  : स्त्री० [सं०] एक अप्सरा।
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दंडघ्न  : वि० [सं० दण्ड√हन् (चोट पहुँचाना)+टक्] १. डंडे से मारनेवाला। २. दंड या सजा न मानने या उसकी परवाह न करनेवाला।
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दंडचारी (रिन्)  : पुं० [सं० दण्ड√चर् (घूमना)+णिनि] सेना का अध्यक्ष। सेनापति। (कौ०)।
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दंड-ढक्का  : पुं० [मध्य० स०] एक तरह का ढोल या नगाड़ा।
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दंड-ताम्र  : स्त्री० [मध्य० स०] जलतरंग बाजा, जिसमें पहले ताँबे की कटोरियाँ काम में लाई जाती थीं।
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दंड-दास  : पुं० [मध्य० स०] वह व्यक्ति जो अर्थ-दंड न दे सकने पर उसके बदले में किसी की दासता करता हो।
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दंड-धर  : वि० [ष० त०] १. हाथ में डंडा या लाठी रखनेवाला। २. दंड धारण करनेवाला। पुं० १. यमराज। २. शासक। हाकिम। ३. संन्यासी। ४. प्राचीन भारत में एक प्रकार के राजपुरुष जो शासन आदि की व्यवस्था में सहायता देते थे। ५. वह, जो लाठियों से मार-पीट या लड़ाई-झगड़ा करते हों। लठैत। लठबंद।
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दंडधारी (रिन्)  : वि० [सं० दंड√धृ (धारण करना)+णिनि] डंडा रखनेवाला। पुं०=दंडधर।
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दंडन  : पुं० [सं०√दण्ड्+ल्युट्—अन] [वि० दंडनीय, दंडित, दंड्य] १. दंड देने अथवा किसी को दंडित करने की क्रिया या भाव। दंड देना। २. शासन।
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दंडना  : स० [सं० दंडन] किसी को दंड देना या किसी पर दंड लगाना। दंडित करना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दंड-नायक  : पुं० [ष० त०] १. वह शासनिक अधिकारी जो प्राचीन भारत में अपराधियों को दंड देने तथा राज्य में सुव्यवस्था तथा शान्ति बनाये रखने का काम करता था। २. शासक। हाकिम। ३. सेनापति। ४. सूर्य के एक अनुचर का नाम।
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दंड-नीति  : स्त्री० [ष० त०] १. अपराधी को दंडित करने की नीति। २. दंड देकर किसी को वश में लाने या रखने की नीति। ३. दे० ‘दंड-विधान’।
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दंडनीय  : वि० [सं०√दण्ड्+अनीयर्] १. (व्यक्ति) जिसे दंड दिया जाने को हो। २. जिसे दंड दिया जा सकता हो। दंडित किये जाने के योग्य। ३. (कार्य) जिसे करने पर दंड मिल सकता हो। जैसे—दंडनीय अपराध।
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दंड-पांशुल  : पुं० [तृ० त०] द्वारपाल।
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दंड-पाणि  : वि० [ब० स०] १. जिसके हाथ में दंड या डंडा हो। पुं० १. यमराज। २. काशी में भैरव की एक मूर्ति। ३. दंडनायक। (दे०)
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दंड-पात  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का सन्निपात जिसमें रोगी को नींद नहीं आती और वह पागलों की तरह इधर-उधर दौड़ता-फिरता है।
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दंड-पारुष्य  : पुं० [ष० त०] १. उचित से अधिक और बहुत ही कठोर दंड या सजा। विशेष—प्राचीनों ने इसे भी राजाओं के सात मुख्य दुर्व्यसनों में माना था। २. आक्रमण। चढ़ाई।
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दंडपाल  : पुं० [सं० दण्ड√पाल् (रक्षा करना)+णिच्+अण्, उप० स०] १. न्यायाधीश। २. वह पहरेदार, जो हाथ में डंडा लेकर घूमता हो। ३. ड्योढ़ीदार। द्वारपाल। ४. एक प्रकार की मछली।
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दंडपालक  : पुं० [दण्डपाल+कन्]=दंडपाल।
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दंडपाशक  : पुं० [ब० स०, कण्] १. दंड देनेवाला अधिकारी या कर्मचारी। २. फाँसी देनेवाला कर्मचारी। जल्लाद।
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दंड-प्रणाम  : पुं० [मध्य० स०] भूमि में डंडे के समान पड़कर प्रणाम करने की मुद्रा। दंडवत्।
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दंडबालधि  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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दंडभृत  : वि० [सं० दण्ड√भृ (धारण करना)+क्विप्] डंडा रखने, चलाने या घुमानेवाला। पुं० कुम्हार। कुंभकार।
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दंड-मत्स्य  : पुं० [उपमि० स०] एक तरह की मछली। बाम मछली।
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दंड-माथ  : पुं० [मध्य० स०] मुख्य और सीधा रास्ता।
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दंडमान  : वि० [सं० दंड+हिं० मान (प्रत्य०)] दे० दंडनीय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंड-मानव  : पुं० [मध्य० स०] १. वह व्यक्ति जिसे अधिक या बराबर दंड दिया जाता हो। २. बालक।
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दंड-मुख  : पुं० [ब० स०] सेनापति।
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दंड-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. तंत्र की एक मुद्रा जिसमें हाथ के बीच की उँगली दंड के समान खड़ी रहती है और शेष उँगलियाँ बँधी या मुँदी रहती हैं। २. साधुओं के दो चिन्ह्र—दंड और मुद्रा।
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दंड-यात्रा  : स्त्री० [च० त०] १. सेना की वह चढ़ाई, जो किसी देश या राजा को दंड देने के उद्देश्य से हो। २. दिग्विजय के लिए होनेवाली यात्रा। ३. किसी प्रकार का सैनिक आक्रमण या चढ़ाई। ४. वरयात्रा। बरात।
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दंडयाम  : पुं० [सं० दण्ड√यम् (नियंत्रण करना)+अण, उप० स०] १. यम। २. अगस्त्य मुनि। ३. दिन। दिवस।
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दंडरी  : स्त्री० [सं० दण्ड√रा (देना)+क—ङीष्] एक तरह का ककड़ी की जाति का फल। डँगरी फल।
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दंडवत्  : पुं० [सं० दण्ड+वति] दंड के समान सीधे होकर तथा पृथ्वी पर औंधे लेटकर किया जानेवाला नमस्कार। साष्टांग प्रणाम। वि० डंडे के समान, खड़ा या सीधा।
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दंड-वध  : पुं० [तृ० त०] वध करने या किये जाने का दंड। प्राण-दंड। मृत्यु-दंड।
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दंडवासी (सिन्)  : पुं० [सं० दण्ड√वस् (बसना)+णिनि] १. द्वारपाल। दरबान। २. गाँव का हाकिम या मुखिया।
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दंडवाही (हिन्)  : पुं० [सं० दण्ड√वह् (वहन करना)+णिनि] वह प्राचीन कर्मचारी जो हाथ में डंडा रखकर शान्ति की व्यवस्था करता था (आज-कल के पुलिस-सिपाही की तरह का)।
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दंड-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] समाज शास्त्र की वह शाखा, जिसमें इस बात का विचार होता है कि अपराधियों पर दंड का कैसा उल्टा परिणाम होता है और अपराधियों को दंड न देकर किस प्रकार सहानुभूति-पूर्वक अन्य उपायों से सुधारा जा सकता है। (पेनॉलोजी)
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दंड-विधान  : पुं० [ष० त०] १. दंड देने के लिए किया जानेवाला विधान या व्यवस्था। २. दे० ‘दंडविधि’।
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दंड-विधि  : स्त्री० [ष० त०] वह विधि या विधान जिसमें विभिन्न अपराधों तथा उनके अनुरूप दंडों का अभिदेश होता है।
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दंड-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] सेंहुड़ या थूहर का पेड़, जिसकी डालियाँ डंडे की तरह मोटी और सीधी होती हैं।
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दंड-व्यूह  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का प्राचीन व्यूह-रचना, जो प्रायः डंडे के आकार की होती थी और जिसमें आगे बलाध्यक्ष, बीच में राजा, पीछे सेनापित, दोनों ओर हाथी, हाथियों के बगल में घोड़े और घोड़ों के बगल में पैदल सिपाही रहते थे।
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दंड-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] १. वह शास्त्र, जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि किसे अथवा कौन सा अपराध करने पर कितना अथवा क्या दंड दिया जाना चाहिए। २. दे० ‘दंड-विधान’।
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दंड-संधि  : स्त्री० [मध्य० स०] लड़ाई में सेना का सामान लेकर की जानेवाली संधि।
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दंड-संहिता  : स्त्री० [ष० त०] वह ग्रंथ जिसमें किसी देश में अपराधों के लिए दिये जानेवाले दंडों का विधान हो। दंड-विधि। (पेनलकोड)
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दंड-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. वह स्थान जहाँ लोगों को दंड दिया जाता हो। २. वह जनपद या राष्ट्र जिस पर मुख्यतः सेना के बल पर ही शासन होता हो। (कौ०)
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दंड-हस्त  : पुं० [ब० स०] तगर का फूल। वि० जिसके हाथ में डंडा हो।
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दंडा  : पुं०=डंडा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दंडाकरन  : पुं०=दंडकारण्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंडाक्ष  : पुं० [सं०] चंपा नदी के किनारे का एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत)।
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दंडाजिन  : पुं० [दण्ड-अजिन, द्व० स०] १. वह दण्ड और मृगचर्म जो साधु-सन्यासी अपने पास रखते हैं। २. व्यर्थ का आडंबर। ३. लोगों को धोखा देने के लिए धारण किया जानेवाला वेष। ४. एक प्रकार का बहुत सूक्ष्म उद्भिज जो तृणाणु से कुछ बड़ा होता है और जिसका प्रजनन-प्रकार भी उससे कुछ भिन्न होता है।
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दंडात्मक  : वि० [दण्ड-आत्मन्, ब० स०, कप्] दंड-संबंधी। २. दंड के रूप में होनेवाला।
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दंडादंडि  : स्त्री० [दण्ड-दण्ड, ब०स० (इच् समा० पूर्वपद दीर्घ)] डंडों की मार-पीट। लट्ठबाजी।
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दंडादेश  : पुं० [दण्ड-आदेश, ष०त०] किसी को उसके अपराध के फलस्वरूप मिलनेवाले दंड की दी जानेवाली सूचना।
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दंडादेशित  : भू० कृ० [सं० दण्डादेश+इतच्] जिसे दंडादेश दिया जा चुका या मिल चुका हो।
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दंडाधिकारी (रिन्)  : पुं० [दण्ड-अधिकारिन्, ष० त०] वह राजकीय अधिकारी, जिसे आपराधिक अभियोगों का विचार करने और अपराधियों को दंड देने का अधिकार होता है। (मजिस्ट्रेट)।
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दंडाधिप  : पुं० [दण्ड-अधिप, ष० त०] कोई स्थानीय प्रधान शासक।
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दंडापूपन्याय  : पुं० [दण्ड-अपूप, मध्य० स० दण्डापूप-न्याय मध्य० स०?] एक प्रकार का न्याय जिसके अनुसार दो परस्पर संबंधित बातों में से एक के सिद्ध होने पर दूसरे की सिद्धि उसी प्रकार निश्चित मान ली जाती है, जिस प्रकार डंडे के चूहे द्वारा खा लेने पर उसमें बँधे हुए पूए का भी चूहे द्वारा खा लिया जाना निश्चित होता है।
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दंडायमान  : वि० [सं० दण्ड+क्यङ्+शानच्] जो डंडे की तरह सीधा खड़ा हो। क्रि० प्र०—होना।
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दंडार  : पुं० [सं० दण्ड√ऋ (जाना)+अण्] १. रथ। २. नाव। ३. कुम्हार का चाक। ४. धनुष। ५. ऐसा हाथी, जिसके मस्तक से मद बह रहा हो।
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दंडार्ह  : वि० [सं० दण्ड√अर्ह्+अण्] जिसे दण्ड दिया जाना उचित हो। दंड पाने योग्य।
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दंडालय  : पुं० [सं० दण्ड-आलय, ष० त०] १. न्यायालय, जहाँ अपराधियों के लिए दंड का विधान होता है। २. वह स्थान जहाँ अपराधियों को शारीरिक दंड दिया जाता है। ३. दंडकला छंद का दूसरा नाम।
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दंडाश्रम  : पुं० [सं० दण्ड-आश्रम, मध्य० स०] वह आश्रम या स्थिति, जिसमें तीर्थयात्री हाथ में डंडा लेकर पैदल चलते हुए तीर्थों की ओर जाते थे, अथवा अब भी कहीं-कहीं जाते हैं।
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दंडाश्रमी (मिन्)  : पुं० [सं० दण्डाश्रम+इनि] संन्यासी।
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दंडाहत  : वि० [दण्ड-आहत, तृ० त०] डंडे से मारा हुआ। पुं० छाछ। मट्ठा।
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दंडिका  : स्त्री० [सं० दण्डक+ताप्, इत्व] बीस अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में एक रगण के उपरान्त एक जगण, इस प्रकार के गणों के जोड़े तीन बार आते हैं और अंत में गुरु-लघु होता है। इसे वृत्र और गड़का भी कहते हैं।
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दंडित  : भू० कृ० [सं०√दण्ड (दण्ड देना)+क्त] जिसे किसी प्रकार का दंड दिया गया हो। दंडप्राप्त।
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दंडिनी  : स्त्री० [सं० दण्डिन्+ङीष्] क्षाग। दंडोत्पला।
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दंडी (डिन्)  : पुं० [सं० दण्ड+इनि] १. दंड धारण करनेवाला व्यक्ति। २. यमराज। ३. राजा। ४. द्वारपाल। ५. दंड और कमंडलु धारण करनेवाला संन्यासी। ६. सूर्य के एक पार्श्वचर। ७. जिनदेव। ८. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ९. दाने का पौधा। १॰. मंजुश्री। ११. शिव। १२. दशकुमार चरित के रचयिता एक प्रसिद्ध संस्कृत कवि।
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दंडोत्पल  : पुं० [दण्ड-उत्पल० मध्य० स०] एक प्रकार का पौधा जिसे गूमा, कुकरौंधा, सहदेया भी कहते हैं।
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दंडोत्पला  : स्त्री० [सं० दण्डोत्पल+टाप्]=दंडोत्पल।
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दंडोपनत  : वि० [दण्ड-उपनत, तृ० त०] (राजा या शासक) जो पराजित या परास्त हो चुका हो।
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दंड्य  : वि० [सं०√दण्ड+ण्यत्] दंड पाने के योग्य। दंडनीय।
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दंत  : पुं० [सं०√दम (दण्ड देना)+तन्] १. दांत। २. ३२ की संख्या। ३. गाँव की हिस्सेदारी में बहुत ही छोटा हिस्सा, जो पाई से भी कम होता था। (कौड़ियों में दाँत के जो चिह्न होते हैं, उनके आधार पर स्थित मान) ४. कुंज। ५. पर्वत की चोटी। पुं० [सं० दन्ती] हाथी। उदाहरण—खाग त्याग करि दीपतों, के वी दंत कुदाल।—जटमल।
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दंतक  : पुं० [सं० दन्त+कन्] १. दाँत। २. पहाड़ की चोटी। ३. एक तरह का पत्थर।
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दंत-कथा  : स्त्री० [मध्य० स०] कोई ऐसी अप्रामाणिक अथवा कल्पित कथा, जिसे लोग परम्परा से सुनते चले आये हों।
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दंतकर्षण  : पुं० [सं० दन्त√कृष् (खींचना)+ल्यु—अन] जंभीरी नींबू।
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दंतकार  : पुं० [सं० दन्त√कृ (करना)+अण्] टूटे या निकाले हुए दाँत नये सिरे से बनानेवाला चिकित्सक। दाँतों का डाक्टर। (डेन्टिस्ट)।
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दंत-काष्ठ  : पुं० [मध्य० स०] दतुवन। दातुन।
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दंत-काष्ठक  : पुं० [ब० स०, कप्] आहुल्य वृक्ष। तरवट का पेड़।
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दंतकूर  : पुं० [ब० स०] युद्ध। संग्राम।
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दंतक्षत  : पुं० [सं०] दाँत काटने से अंग पर बननेवाला चिह्न या निशान।
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दँतखोदनी  : स्त्री० [हिं० दाँत+खोदना] धातु का वह छोटा पतला, लंबा टुकड़ा जिससे दाँतों की संधियों में फँसी चीजें खोदकर बाहर निकाली जाती हैं।
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दंत-घर्ष  : पुं० [ष० त०] १. ऊपर और नीचे के दाँतों में होनेवाली रगड़। २. उक्त रगड़ से होनेवाला शब्द। ३. दे० ‘दाँता-किटकिट।’
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दंतच्छद  : पुं० [सं० दन्त√छद् (ढकना)+णिच्+घ, ह्रस्व] होंठ।
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दंतच्छदोपमा  : स्त्री० [सं० दन्तच्छद-उपमा, ब० स०] बिंबाफल। कुँदरू।
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दंत-जात  : वि० [ब० स० (पर निपात)] १. (बच्चा) जिसके दाँत निकल आए हों। २. बच्चों के नये दाँत निकलने के लिए उपयुक्त (काल या समय)।
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दंत-ताल  : पुं० [ब० स०] ताल देने का एक तरह का प्राचीन बाजा।
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दंत-दर्शन  : पु० [ष० त०] (क्रोध या चिड़चिड़ाहट में) दाँत निकालने की क्रिया या भाव। दाँत दिखाना।
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दंत-धावन  : पु. [ष० त०] १. दातुन, मंजन आदि से दाँत और मुँह का भीतरी भाग साफ करने की क्रिया। २. दातुन। ३. करंज का पेड़। ४. खैर का पेड़। ५. मौलसिरी।
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दंत-पत्र  : पुं० [ब० स०] कान में पहनने का एक गहना।
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दंत-पत्रक  : पुं० [ब० स०, कप्] कुंद का फूल।
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दंत-पवन  : पुं० [ष० त०] १. दाँत शुद्ध करने की क्रिया। दंतधावन। २. दतुवन। दातुन।
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दंतपार  : स्त्री० [हिं० दंत+उपारना] दाँत की पीड़ा। दाँत का दर्द।
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दंत-पुप्पुट  : पुं० [ष० त० ?] एक रोग, जिसमें मसूढ़ों में सूजन आ जाती है और पीड़ा होती है।
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दंतपुर  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन नगर, जिसमें राजा ब्रह्मदत्त ने महात्मा बुद्ध का एक दाँत स्थापित करके उस पर एक मंदिर बनवाया था।
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दंत-पुष्प  : पुं० [ब० स०] १. निर्मली। २. [उपमि० स०] कुंद का फूल।
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दंत-फल  : पुं० [ब० स०] १. कनकफल। निर्मली। २. कपित्थ। कैथ।
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दंतफला  : स्त्री० [सं० दन्तफल+टाप्] पिप्पली।
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दंत-मांस  : पुं० [मध्य० स०] मसूड़ा।
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दंतमूल  : पुं० [ष० त०] १. दाँत की जड़। २. दाँत का एक रोग।
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दंत-मूलिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्+टाप् (इत्व)] जमालगोटे का पेड़। दंती वृक्ष।
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दंतमूलीय  : वि० [सं० दन्तमूल+छ—ईय] (वर्ण) जिसका उच्चारण करते समय जिह्वा का अग्रभाग दंत-मूल को स्पर्श करता हो। जैसे—त, थ, द और ध वर्ण।
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दंत-लेखन  : पुं० [ष० त०] एक तरह का यंत्र जिससे प्राचीन काल में मसूढ़ों में से मवाद निकाली जाती थी।
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दंतवक्र  : पुं० [ब० स०] शिशुपाल के भाई का नाम, जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था।
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दंत-बीज  : पुं० [ब० स०] अनार।
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दंत-वस्त्र  : पुं० [ष० त०] होंठ। ओष्ठ।
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दंत-वीणा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. एक तरह का बाजा। २. दाँत किटकिटाने की क्रिया या उससे होनेवाला शब्द।
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दंत-वेष्ट  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार का दंत-रोग। २. मसूढ़ा। ३. हाथी के दाँत पर चढ़ाया जानेवाला धातु का छल्ला।
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दंत-वैदर्भ  : पुं० [ष० त०] दाँत का एक रोग।
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दंतव्यसन  : पुं० [ष० त०] दाँतों का टूटना।
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दंत-शंकु  : पुं० [मध्य० स०] चीर-फाड़ करने का एक उपकरण जो जौ के पत्तों के आकार का होता था। (सुश्रुत)।
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दंत-शठ  : पुं० [स० त०, टाप्] वे वृक्ष जिनके फल खाने से खटाई के कारण दाँत गुठले हो जाएँ। जैसे—कैथ, कमरख, जंभीरी नींबू आदि।
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दंत-शठा  : स्त्री० [स० त०, टाप्] १. खट्टी नोनिया। अमलोनी। २. चुक। चूक।
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दंत-शर्करा  : स्त्री० [ष० त०] दाँतों का एक रोग।
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दंत-शाण  : पुं० [ष० त०] दाँतों पर लगाने का रंगीन मंजन। मिस्सी।
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दंत-शूल  : पुं० [ष० त०] दाँत की जड़ में होनेवाली पीड़ा।
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दंत-शोफ  : पुं० [ष० त०] दाँत के मसूड़ों में होने वाला एक प्रकार का फोड़ा। दंतार्बुद।
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दंत-हर्ष  : पुं० [ब० स०] दाँतों की वह टीस, जो अधिक ठंढी या खट्टी वस्तु खाने से होती है। दाँतों का खट्टा होना।
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दंतहर्षक  : पुं० [सं० ष० त०] जंभीरी नींबू।
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दंताघात  : पुं० [दन्त-आघात, तृ० त०] दाँत से किया जानेवाला आघात। पुं० [दन्त+आ√हन् (पीड़ा पहुँचाना)+अण्] नींबू, जिससे दाँतों को आघात पहुँचता है।
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दंताज  : पुं० [सं० दन्त+आ√जन् (प्रादुर्भाव)+ड] १. दाँतों की जड़ों या संधियों में लगनेवाले कीड़े। २. उक्त कीड़े के कारण होनेवाला दाँतों का रोग, जिसमें मसूड़ों से मवाद निकलता है। (पायरिया)।
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दंतादंति  : स्त्री० [दन्त-दन्त, ब० स० (नि० सिद्धि)] ऐसी लड़ाई जिसमें दोनों पक्ष, एक दूसरे को दाँत काटे। दाँत-कटौअल।
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दंतायुध  : पुं० [दन्त-आयुध, ब० स०] जंगली सूअर।
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दँतार  : वि० [हिं० दाँत+आर (प्रत्य०)] जिसके बड़े-बडे दाँत हों।
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दंतारा  : वि०=दँतार।
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दंतार्बुद  : पुं० [दन्त-अबुंद, ष० त०] मसूड़े में होनेवाला फोड़ा।
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दंताल  : पुं० [हिं० दँतार] हाथी।
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दंतालय  : पुं० [दन्त-आलय, ष० त०] मुख।
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दंतालिका  : स्त्री० [सं०√अल् (पर्याप्ति)+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व, दन्त-आलिका, ष० त०] लगाम।
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दंताली  : स्त्री० [सं० दन्त√अल्+अण्+ङीष्] लगाम।
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दंतावल  : पुं० [सं० दन्त+वलच्] (पूर्वपद दीर्घ) हाथी।
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दंताहल  : पुं० [सं० दंतावल] हाथी (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंतिका  : स्त्री० [सं० दन्ती+कन्—टाप्, ह्रस्व] जमाल-गोटा। दंती।
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दंतिया  : स्त्री० [हिं० दाँत+इया (प्रत्य०)] बच्चों के छोटे-छोटे दाँत। पुं० [देश०] एक तरह का पहाड़ी तीतर। नीलमोर।
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दंती  : स्त्री० [सं० दन्त+ङीष्] अंडी की जाति का एक पेड़। दंती दो प्रकार की होती है—लघुदंती और बृहद्दंती।
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दंतीबीज  : पु० [ब० स०] जमालगोटा।
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दंतुर  : वि० [सं० दन्त+उरच्] जिसके दाँत आगे निकले हों। दंतुला। दाँतू। पुं० १. हाथी। २. सूअर।
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दंतुरक  : वि० [सं० दन्तुर+कन्] जिसके दाँत निकले हों।
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दंतुरच्छद  : पुं० [ब० स०] बिजौरा नींबू।
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दंतुरिया  : स्त्री० [हिं० दाँत] बच्चों के छोटे-छोटे दाँत। दँतिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंतुल  : वि० [सं० दंतुर] दाँतोंवाला।
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दंतुला  : वि० [सं० दंतुर] [स्त्री० दँतुली] बड़े-बड़े दाँतोंवाला।
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दंतोद्भेद  : पुं० [दन्त-उद्भेद, ष० त०] बच्चों के मुँह में दाँतों का निकलना।
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दंतोलूखलिक  : पुं० [सं० दन्त-उलूखल, उपमि० स०, दन्तोलूखल+ठन्—इक] एक प्रकार के संन्यासी जो केवल फल और बीज खाते हैं, काटी, कूटी या पीसी हुई चीजें नहीं खाते।
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दंतोष्ठ्य  : वि० [सं० दन्त-ओष्ठ, द्व० स०,+यत्] दाँतों और होठों की सहायता से उच्चरित होनेवाला। (वर्ण) जैसे—‘व्’।
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दंत्य  : वि० [सं० दन्त+यत्] १. दांत-संबंधी। दाँतों का। जैसे—दंत्य रोग। २. (वर्ण) जिसका उच्चारण दाँतों की सहायता से होता हो। विशेष—त् थ् द् और ध् दंत्य वर्ण कहे गये हैं। ‘न्’ वर्त्स्य है। ३. (औषध) जो दाँत के रोगों के लिए हितकारी हो।
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दंद  : स्त्री० [सं० दहन, दंदह्यमान] गरम चीज या जगह में से निकलनेवाली गरमी। वैसी गरमी, जैसी तपी हुई भूमि पर पानी पड़ने से निकलती या खानों के अन्दर होती है। पुं०=दांत। (पंजाब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० द्वन्द्व] १. उत्पात या उपद्रव। २. लड़ाई-झगड़ा। ३. हो-हल्ला। शोर। क्रि० प्र०—मचाना।
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दंदन  : स्त्री० [हिं० दंद=दाँत] एक रोग जिसमें मनुष्य के ऊपर नीचे के दांत आपस में कुछ समय के लिए सट जाते हैं और वह मूर्च्छित हो जाता है। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) क्रि० प्र०—पड़ना। वि० [सं० दमन] [स्त्री० दंदनी] दमन करनेवाला।
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दंदश  : पुं० [सं०√दंश् (काटना)+यङ्,+अच्] दाँत।
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दंदशूक  : पुं० [सं०√दंश्+यङ्,+ऊक] १. सूर्य। २. एक राक्षस।
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दंदह्यमान  : वि० [सं०√दह (जलना)+यङ+शानच्,] दहकता हुआ।
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दंदा  : पुं० [देश०] ताल देने का पुरानी चाल का एक तरह का बाजा।
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दंदान  : पुं० बहु० [फा० दंदाँ] दाँत।
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दंदाना  : पुं० [हिं० दन्दान] [वि० दंदानेदार] दाँत के आकार की उभरी हुई नोकों की पंक्ति। जैसे—कंधी या आरे के दंदाने। अ० [हिं० दंद=द्वन्द्व] १. गरमी के प्रभाव में आना या पड़ना। गरम होना। जैसे—धूप में सारा घर दंदाने लगता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० सरदी से बचने के लिए आग के पास बैठकर या कंबल, रजाई आदि ओढ़कर अपना शरीर गरम करना।
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दंदानेदार  : वि० [फा०] जिसमें दंदाने हों।
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दंदारु  : पुं० [हिं० दंद+आरू (प्रत्य०)] छाला। फफोला।
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दंदी  : वि० [हिं० दंद] १. झगड़ालू। २. उपद्रवी।
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दंपति  : पुं०=दंपती।
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दंपती  : पुं० [सं० जाया-पति, द्व० स० (जाया शब्द को दम् आदेश)] पति-पत्नी का जोड़ा।
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दंपा  : स्त्री० [हिं० दमकना] बिजली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंभ  : पुं० [सं०√दम्भ् (पाखंड करना)+घञ्] अपनी योग्यता, शक्ति आदि का उचित मात्रा से अधिक होनेवाला असद् अभिमान।
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दंभक  : वि० [सं०√दम्भ्+ण्वुल्—अक] दंभी।
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दंभान  : पुं०=दंभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंभी (भिन्)  : वि० [सं०√दम्भ्+णिनि] जिसमें दंभ हो। असद् अभिमानी।
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दंभोलि  : पुं० [सं०√दम्भ्+असुन्, दम्भस्(प्रेरणा)√अल्(पर्याप्ति)+इन्] १. इंद्र का अस्त्र। वज्र। २. हीरा।
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दँवरिया  : स्त्री०=दँवरी।
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दँवरी  : स्त्री० [सं० दमन, हिं० दाँवना] कटी हुई फसल को इस उद्देश्य से बैलों से रौंदवाना कि उसमें के बीज डंठलों से अलग हो जायँ।
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दँवारि  : स्त्री० दे० ‘दवाग्नि’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दंश  : पुं० [सं०√दंश् (काटना)+घञ्,अथवा अच्] १. दाँत से काटने की क्रिया या भाव। २. वह क्षत या घाव, जो किसी के दाँतों से काटने पर होता है। दंत-क्षत। ३. किसी कीड़े या जानवर के काटने से होनेवाला क्षत या घाव। जैसे—सर्प-दंश। ४. दाँत। ५. जहरीले जानवरों का डंक। ६. एक प्रकार की मक्खी, जिसके डंक में जहर होता है। डाँस। ७. कोई ऐसी बहुत कठोर और चुभती हुई बात जिससे मन को बहुत अधिक कष्ट हो। कष्टप्रद कटूक्ति। ८. द्वेष। वैर। क्रि० प्र०—रखना। ९. लड़ाई में पहना जानेवाला बखतर। वर्म। १॰. महाभारत के अनुसार सत्ययुग का एक असुर, जो भृगु मुनि की पत्नी को उठा ले गया था और जो उक्त मुनि के शाप से मल-मूत्र का कीड़ा हो गया था।
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दंशक  : वि० [सं०√दंश् (काटना)+ण्वुल्—अक] दाँतों से काटनेवाला। पुं० डाँस या दंश नाम की मक्खी।
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दंशन  : पुं० [सं०√दंश्+ल्युट्—अन] [वि० दंशित, दंशी] १. दाँतों से काटने की क्रिया या भाव। २. वर्म। बखतर।
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दंशना  : स० [सं० दंशन] १. दाँत से काटना। २. डंक मारना। डसना।
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दंशभीरु  : पुं० [पं० त०] भैंस या भैसा, जो मच्छरों से बहुत डरता हो।
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दंश-मूल  : पुं० [ब० स०] सहिंजन का पेड़।
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दंशित  : भू० कृ० [सं०√दंश्+णिच्+क्त] १. जिसे किसी ने दाँत से काटा हो। दाँत से काटा हुआ। २. जिसे किसी ने डंक मारा या डसा हो।
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दंशी (शिन्)  : वि० [सं०√दंश्+णिनि] [स्त्री० दंशिनी] १. दाँत से काटने या डसनेवाला। २. कड़ी और चुभती या लगती हुई बात कहनेवाला। ३. द्वेष या वैर का भाव रखकर हानि पहुँचानेवाला। स्त्री० [सं० दंश+ङीष्] एक प्रकार का छोटा मच्छर।
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दंशूक  : वि० [सं०√दंश् (डसना)+ऊक (बा०)] डँसनेवाला। (जीव)।
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दंष्ट्र  : पुं० [सं० दंश्+ष्ट्रन] दाँत, विशेषतः मोटा और बड़ा दाँत।
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दंष्ट्रा  : स्त्री० [सं०दंष्ट्र+टाप्] १. दाढ़। चौभर। २. बिच्छू नाम का पौधा।
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दंष्ट्रा-नखविष  : वि० [ब० स०] (जन्तु) जिसके दाँतों और नखों में विष हो।
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दंष्ट्रायुध  : वि० [दंष्ट्रा-आयुध, ब० स०] जो अपने दाँतों से ही आयुध या अस्त्र का काम लेता हो। पुं० सूअर।
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दंष्ट्राल  : वि० [सं० दंष्ट्रा+ल] जिसके बड़े-बड़े दाँत हों। पुं० एक राक्षस का नाम।
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दंष्ट्रास्त्र  : वि० पुं०=दंष्ट्रायुध।
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दंष्ट्रिक  : वि० [सं० दंष्ट्रा+ठन्—इक] दाढ़ोंवाला।
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दंष्ट्रिका  : स्त्री० [सं० दंष्ट्रा+क+टाप् (ह्रस्व, इत्व)]=दंष्ट्रा।
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दंष्ट्री (ष्ट्रिन्)  : वि० [सं० दंष्ट्रा+इनि] बड़े-बड़े दाँतोंवाला। पुं० १. सूअर। २. साँप।
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दंस  : पुं०=दंश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दँहगल  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी चितकबरी चिड़िया; जिसकी आँख की पुतली भूरी, चोंच काली, और पैर गाढ़े सिलेटी रंग के होते हैं।
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दइअ  : पुं०=दैव। (ईश्वर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दइउ  : पुं०=दैव।
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दइजा  : पुं०=दायजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दइत  : पुं०=दैत्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दइमारा  : वि०=दईमारा।
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दई  : पुं० [सं० दैव] १. ईश्वर। पद—दई का खोया, घाला या मारा=जिस पर ईश्वर का कोप हो। दईदई= हे दैव ! हे दैव ! (रक्षा के लिए ईश्वर से की जानेवाली पुकार) २. दैव-संयोग। ३. अदृष्ट। प्रारब्ध। वि० [सं० दया] दयालु।
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दईमारा  : वि० [हिं० दई+मारना] [स्त्री० दईमारी] १. जिस पर दई (दैव) या ईश्वर का कोप हो। २. अभागा।
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दउवना  : अ०=दौड़ना।
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दउरा  : पुं०=दौरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दक  : पुं० [सं० उदक, पृषो० सिद्धि] जल। पानी।
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दकन  : पुं० [सं० दक्षिण से फा०] १. दक्खिन दिशा। २. दक्षिणी भारत।
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दकनी  : वि०=दक्षिणी। स्त्री० उर्दू भाषा का वह आरम्भिक रूप जो दक्षिण हैदराबाद में विकसित हुआ था। विशेष दे० ‘दक्खिनी’।
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दकार  : पुं० [सं० द+कार] तवर्ग का तीसरा अक्षर ‘द’।
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दकार्गल  : पुं० [सं० दक-अर्गल ष० त०]=दगार्गल।
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दकियानूस  : पुं० [यू० से अ०] एक रोमन सम्राट जो ३४९ ईं० में सिंहासनारूढ़ हुआ था तथा जो अपने अत्याचारों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। वि०=दकियानूसी।
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दकियानूसी  : वि० [अ०] १. दकियानूस के समय का; अर्थात् बहुत पुराना। २. नवीनता का विरोधी और पुरानी तथा अनद्यतन विचारधाराओं का समर्थक।
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दकीका  : पुं० [अ० दक़ीक़ः] १. कोई सूक्ष्म बात या विचार। २. उपाय। उक्ति। मुहावरा—कोई दकीका बाकी न रखना=प्रयत्न करते समय अपनी ओर से कोई कमी या त्रुटि न करना। ३. बहुत थोड़ा समय। क्षण। पल।
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दक्काक  : वि० [अ० दक्क़ाक़] १. आटा पीसनेवाला। २. कूटनेवाला।
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दक्खिन  : पुं० [सं० दक्षिण] [वि० दक्खिनी] १. दक्षिण दिशा। २. उक्त दिशा का कोई प्रदेश। ३. भारत का दक्षिणी भाग।
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दक्खिनी  : वि० [हिं० दक्खिन] १. दक्षिण की ओर या दिशा का। दक्खिन का। २. दक्षिण देश का। पुं० दक्षिण दिशा में पडऩेवाले देश का निवासी। स्त्री० १. दक्षिण देश की भाषा। २. मध्ययुग में दक्षिण भारत में प्रचलित हिंदी का वह रूप जिसमें मुसलमान कवि कविता करते थे और जिससे आधुनिक उर्दू के विकास का घनिष्ठ संबंध है।
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दक्ष  : वि० [सं०√दक्ष् (शीघ्रता से करना)+अच्] [भाव० दक्षता] १. जिसमें कोई या सब काम तुरंत, सहज में और सुन्दरतापूर्वक करने की योग्यता हो। कुशल। निपुण। होशियार। २. दाहिनी ओर का। दाहिना। पुं० १. एक प्रजापति, जिनसे देवता उत्पन्न हुए हैं। २. विष्णु। ३. महादेव। शिव। ४. शिव की सवारी का बैल। नन्दी। ५. अत्रि ऋषि का एक नाम। ६. बल। शक्ति। ७. वीर्य ८. कुक्कुट। मुरगा। ९. राजा उशीनर का एक पुत्र।
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दक्ष-कन्या  : स्त्री० [ष० त०] सती।
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दक्षक्रतुध्वंसी (सिन्)  : पुं० [सं० दक्ष-क्रतु, ष० त०,√ध्वंस (नष्ट करना)+णिनि] १. दक्ष प्रजापति के यज्ञ का ध्वंस या नाश करनेवाले शिव। २. शिव के अंश से उत्पन्न वीरभद्र, जो शिव के उक्त कार्य के सहायक हुए थे।
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दक्षत  : स्त्री० [सं० दक्ष+तल्—टाप्] १. दक्ष होने की अवस्था, गुण या भाव। २. निपुणता।
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दक्षता-अर्गल  : पुं० दे० ‘प्रगुणता अर्गल’।
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दक्ष-दिशा  : स्त्री० [मध्य० स०] दक्षिण की दिशा।
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दक्ष-विहिता  : स्त्री० [तृ० त०] एक प्रकार का गीत।
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दक्ष-सावर्णि  : पुं० [मध्य० स०] नवें मनु का नाम।
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दक्षांड  : पुं० [सं० दक्षा-अंड, ष० त०] मुर्गी का अंडा।
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दक्षा  : वि० स्त्री० [सं० दक्ष+टाप्] कुशला। निपुणा। स्त्री० पृथ्वी।
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दक्षाय्य  : पुं० [सं०√दक्ष्+आय्य] १. गरूड़। २. गिद्ध पक्षी।
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दक्षिण  : वि० [सं०√दक्ष् (गति)+इनन्] १. दाहिना। ‘बायाँ’ का विपर्याय। २. उस ओर या दिशा का जिधर दाहिना हाथ पड़ता है, जब हम सूर्य की ओर मुँह करके खड़े होते हैं। ३. आचरण, व्यवहार में अनुकूल, कृपालु और प्रसन्न रहनेवाला। किसी प्रकार का अपकार, द्वेष या विरोध न करनेवाला। ४. दक्ष। निपुण। होशियार। पुं० १. वह दिशा जो उस समय हमारे दाहिने हाथ की ओर पड़ती है जब हम सूर्य की ओर मुँह करके खड़े होते हैं। २. साहित्य में, वह नायक जिसका प्रेम अपनी सभी प्रेमिकाओं के साथ एक-सा होता है। ३. तंत्र में, एक प्रकार का आचार या मार्ग जो वाममार्ग से बिलकुल भिन्न और विपरीत होता है। ४. विष्णु का एक नाम। ५. परिक्रमा। प्रदक्षिणा।
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दक्षिण-गोल  : पुं० [कर्म० स०] विषुवत् रेखा से दक्षिण पड़नेवाली ये छः राशियाँ—तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन।
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दक्षिण-नायक  : पुं० [कर्म० स०] साहित्य में, श्रृंगार रस का आलंबन वह नायक जो अनेक नायिकाओं से अनुराग का व्यवहार समान रूप से करता हो।
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दक्षिण-प्रवण  : पुं० [स० त०] वह स्थान, जो उत्तर की अपेक्षा दक्षिण की ओर अधिक नीचा या ढालुआँ हो। मनु के अनुसार श्राद्ध आदि के लिए ऐसा ही स्थान उपयुक्त होता है।
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दक्षिण-मार्ग  : पुं० [कर्म० स०] [वि० दक्षिणमार्गी] १. वैदिक धर्म या मार्ग, जिसके विपरीत होने के कारण तांत्रिक मत या धर्म ‘वाममार्ग’ कहलाता है। २. परवर्ती तांत्रिक मत के अनुसार एक प्रकार का आचार जो वैदिक वैष्णव और शैव मार्गों से निम्न कोटि का बताया गया है। ३. आधुनिक राजनीति में, वह मार्ग या पक्ष जो साधारण और वैधानिक रीति तथा शान्त उपायों से उन्नति तथा विकास चाहता हो और उग्र उपायों से क्रांति करने का विरोधी हो। (राइट विंग)।
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दक्षिणा  : स्त्री० [सं० दक्षिण+टाप्] १. दक्षिण दिशा। २. वह धन, जो ब्राह्मणों को कर्मकांड, यज्ञ आदि कराने के बदले में अथवा दान देने, भोजन कराने आदि के उपरांत या साथ दिया जाता है। ३. वह धन जो किसी के प्रति आदर-सम्मान प्रकट करने के लिए उसे भेंट किया जाता है। ४. लाक्षणिक रूप में, किसी को नगद दिया जानेवाला धन। ५. साहित्य में वह नायिका जो नायक के दूसरी स्त्रियों के साथ संबंध करने पर भी उससे पूर्ववत् प्रेम रखती है और किसी प्रकार का द्वेष या रोष नहीं करती।
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दक्षिणाग्नि  : पुं० [दक्षिण-अग्नि, कर्म० स०] गार्हपत्य अग्नि के दक्षिण में रखी जानेवाली अग्नि।
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दक्षिणाग्र  : वि० [दक्षिण-अग्र, ब० स०] जिसका अग्रभाग दक्षिण की ओर हो।
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दक्षिणाचल  : पुं० [दक्षिण-अचल, मध्य० स०] मलयगिरि पर्वत।
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दक्षिणाचार  : पुं० [दक्षिण-आचार, कर्म० स०] १. अच्छा और शुद्ध आचरण। सदाचार। २. वाममार्ग का एक पंथ या शाखा जिसमें उपासक अपने आपको शिव मानकर पंच तत्त्वों से शिव की पूजा करता है।
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दक्षिणाचारी (रिन्)  : वि० [सं० दक्षिणाचार+इनि] १. दक्षिण अर्थात् अच्छे और शुद्ध मार्ग पर चलनेवाला। २. धर्मशील और सदाचारी।
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दक्षिणा-पथ  : पुं० [सं० दक्षिणा, दक्षिण+आच्, दक्षिणापथ, स० त०] १. दक्षिण दिशा की ओर चलनेवाला पथ। २. दक्षिण भारत या उसमें के प्रदेश।
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दक्षिणापरा  : स्त्री० [दक्षिणा-अपरा, ब० स०] नैर्ऋत कोण।
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दक्षिणाभिमुख  : वि० [दक्षिण-अभिमुख, ब० स०] १. जिसका मुँह दक्षिण की ओर हो। २. जो दक्षिण की ओर उन्मुख हो।
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दक्षिणा-मूर्ति  : पुं० [ब० स०] तंत्र के अनुसार शिव की एक मूर्ति।
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दक्षिणायन  : वि० [दक्षिण-अयन ब० स०] १. जो दक्षिण की ओर हो २. भू-मध्य रेखा से दक्षिण की ओर का। जैसे—दक्षिणायन सूर्य। पुं० [स० त०] १. सूर्य की वह गति जो कर्क रेखा से दक्षिण और मकर रेखा की ओर होती है। २. वह छः महीनों का समय जिसमें सूर्य की गति उक्त प्रकार की रहती है।
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दक्षिणावर्त  : वि० [सं० दक्षिणा+आ√वृत् (बरतना)+अच्, उप० स०] जिसका घुमाव, प्रकृति या मुँह दाहिनी दिशा की ओर को हो। जैसे—दक्षिणावर्त्त शंख। पुं० एक प्रकार का शंख, जिसका घुमाव या मुँह (साधारण के विपरीत) दक्षिण या दाहिने हाथ की ओर होता है।
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दक्षिणावर्तकी  : स्त्री० [सं० दक्षिणावर्त्त√कै (शब्द करना)+क—ङीष्] वृश्चिकाली नाम का पौधा।
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दक्षिणावह  : पुं० [सं० दक्षिणा√वह् (बहना)+अच्] दक्षिण दिशा से आनेवाली वायु। दक्खिनी हवा।
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दक्षिणाशा  : स्त्री० [सं० दक्षिण-आशा, कर्म० स०] दक्षिण दिशा।
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दक्षिणाशा-पति  : पुं० [ष० त०] १. यम, जो दक्षिण-दिशा के स्वामी माने गये हैं। २. मंगल ग्रह।
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दक्षिणी  : वि० [सं० दक्षिणीय] १. दक्षिण दिशा संबंधी। २. दक्षिण प्रदेश में होनेवाला। पुं० दक्षिण प्रदेश का निवासी। स्त्री० भारत के दक्षिण प्रदेश की भाषा।
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दक्षिणी-ध्रुव  : पुं० [हिं० दक्षिणी+ध्रुव] पृथ्वी के गोले का दक्षिणी सिरा। कुमेरु (साउथ पोल)
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दक्षिणीय  : वि० [सं० दक्षिण+छ—ईय] १. दक्षिण का। दक्षिण संबंधी। २. दक्षिण देश का। ३. [दक्षिणा+छ-ईय] जिसे दक्षिणा दी जानी चाहिए अथवा दी जाने को हो।
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दक्षिण्य  : वि० [सं० दक्षिणा+यत्]=दक्षिणीय।
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दक्षिन  : पुं०=दक्षिण।
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दक्षिनी  : वि०, पुं०, स्त्री०=दक्षिणी।
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दखन  : पुं०=दकन।
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दखनी  : वि०, स्त्री० १.=दकनी। २.=दक्खिनी।
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दखमा  : पुं० [फा० दख्मः] पारसियों का कब्रिस्तान, जो गोलाकार खोखली इमारत के रूप में होता है और जिसमें कौओं, चीलों आदि के खाने के लिए शव फेंक दिये जाते हैं।
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दखल  : पुं० [अ० दख्ल] १. प्रवेश। २. पैठ। पहुँच। ३. जानकारी। ४. अधिकार। जैसे—वह मकान आज-कल हमारे दखल में है। ५. अनधिकार-पूर्वक या अनुचित रूप से किया जानेवाला हस्तक्षेप। जैसे—तुम उनकी बातों में दखल मत दिया करो।
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दखल-दिहानी  : स्त्री० [अ० दख़्ल०+फा० दिहानी] विधिक क्षेत्र में, अधिकारियों या शासन द्वारा ऐसी संपत्ति पर किसी को कब्जा दिलाना जिस पर किसी दूसरे का दखल चला आ रहा हो।
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दखल-नामा  : पुं० [अ० दखल+फा० नामः] वह पत्र जिसमें दखलदिहानी की आज्ञा लिखी हुई हो।
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दखिन  : पुं०=दक्षिण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दखिनहरा  : पुं० [हिं० दखिन+हारा (प्रत्य०)] दक्षिण दिशा से आनेवाली हवा।
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दखिनहा  : वि० [हिं० दखिन+हा (प्रत्य०)] १. दक्षिण में होनेवाला। दक्षिण का। २. दक्षिण से आनेवाला।
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दखिना  : पुं० [हिं० दखिन+आ (प्रत्य०)] दक्षिण से आनेवाली हवा। स्त्री०=दक्षिणा। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दखील  : वि० [अ० दख़ील] १. जो दखल देता हो। हस्तक्षेप करनेवाला। २. जिसकी कहीं पहुँच हो। ३. जिसने कहीं या किसी चीज पर दखल या कब्जा कर रखा हो। काबिज।
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दखीलकार  : पुं० [अ० दख़ील+फा० कार] वह असामी, जो पिछले बारह वर्षों अथवा उससे अधिक समय से जमींदार का खेत जोत-बो रहा हो और इस प्रकार जिसे सदा के लिए वह खेत जोतने-बोने का अधिकार मिल गया हो। (आकुपेन्सी टेनेन्ट)।
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दखीलकारी  : स्त्री० [अ० दख़ील+फा० कारी] १. दखीलकार होने की अवस्था, पद या भाव। २. वह जमीन, जिस पर दखीलकार का अधिकार हो।
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दगइल  : वि० १. =दगैल। २=दगाई।
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दगड़  : पुं० [?] १. लड़ाई में बजाया जाने वाला बड़ा ढोल। जंगी ढोल। (राज०) २. पत्थर। (मराठी)।
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दगड़ना  : अ० [हिं० दगड़] १. दगड़ बजाना। २. सच्ची बात पर विश्वास करना।
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दगदगा  : पुं० [अ० दग़दग़ः] १. डर। भय। २. कोई अप्रिय घटना या बात होने की आशंका। खटका। ३. पुरानी चाल की एक प्रकार की कंडील।
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दगदगाना  : अ० [भाव० दगदगाहट]=चमकना। स०=चमकाना।
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दगदगी  : स्त्री०=दगदगा।
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दगध  : वि०=दग्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दाह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दगधना  : स० [सं० दग्ध+हिं० ना (प्रत्य०)] १. दग्ध करना। जलाना। २.बहुत अधिक दुःखी या सन्तप्त करना। दाहना। अ० १. जलना। २. दुःखी या संतप्त होना।
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दगना  : अ० [अ० दग्ध+ना (प्रत्य०)] १. दाग, चिन्ह आदि से दागा जाना या अंकित होना। २. गरम लोहे, तेजाब, दवा आदि से किसी अंग का इस प्रकार जलाया जाना कि उस पर दाग पड़ जाय। ३. झुलस जाना। ४. (तोप, बंदूक आदि के संबंध में) दागा, चलाया या छोड़ा जाना। ५. दाग या कलंक से युक्त होना। कलंकित होना। ६. किसी नये या विशिष्ट नाम से प्रसिद्ध होना। उदाहरण—लोक बेदहूँ लौ दगौ नाम भले को पोच।—तुलसी। स०=दागना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दगर  : पुं०=दगरा।
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दगरा  : पुं० [?] देर। विलंब। पुं०=डगर। (रास्ता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दगरी  : स्त्री० [?] ऐसा दही जिस पर मलाई न जमी या लगी हुई हो।
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दगल  : पुं० [अ० दग़ल] फरेब। धोखा। छल। उदाहरण—पहिरहु राता दगल सोहावा।—जायसी। पुं० [?] रूईदार ढीला अँगरखा।
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दगलना  : अ० [अ० दग़ल] छल करना। धोखा देना।
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दगल-फसल  : पुं० [अ० दग़ल+अनु० फसल या हिं० फँसाना] कपट। छल। धोखा। फरेब।
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दगला  : पुं० [?] [स्त्री० अल्पा० दगली] रूईदार ढीला-ढाला अंगरखा। दगल। उदाहरण—वाह वाह मियाँ बाँके, तेरे दगले में सौ सौं टाँके।—कहा०।
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दगवाना  : स० [हिं० दागना का प्रे०] दागने का काम किसी से कराना। (दागना के सभी अर्थों में)।
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दगहा  : वि० [हिं० दगना+हा (प्रत्य०) अथवा सं० दग्ध] १. जिसमें दाग हों। दागवाला। २. (पशु) जो किसी उद्देश्य से दग्ध किया या दागा गया हो। जैसे—दगहा घोड़ा, दगहा साँड़। ३. (व्यक्ति) जिसके शरीर पर कोढ़ के सफेद दाग हों। वि० [हिं० दाह=प्रेतकर्म+हा (प्रत्य०)] (व्यक्ति) जिसने अभी हाल में किसी मृतक का दाह-संस्कार किया हो और जो अभी तक अशौच में हो।
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दगा  : पुं० [अ० दग़ा] १. छल। कपट। धोखा। २. विश्वासघात। क्रि० प्र०—देना। पद—दगाबाज, दगादार आदि।
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दगाई  : स्त्री० [हिं० दागना] १. दागने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. दागे जाने का चिन्ह। वि० [अ० दग़ा] दगा देनेवाला। स्त्री०=दगा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दगादार  : वि० [अ० दग़ा+फा० दार] दगा देनेवाला। धोखेबाज।
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दगाबाज  : वि० [फा० दग़ाबाज] [भाव० दग़ाबाजी] दगा देनेवाला। धोखेबाज।
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दगाबाजी  : स्त्री० [फा० दग़ाबाज़ी] १. दगाबाज होने की अवस्था या भाव। २. दगा देने की क्रिया या भाव। ३. कोई ऐसा कार्य जो किसी को धोखा देने से लिए किया गया हो।
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दगार्गल  : पुं० [सं० दकार्गल (पृषो० सिद्धि)] एक प्राचीन विद्या, जिसके अनुसार भूमि के ऊपरी लक्षण देखकर यह बतलाया जाता था कि इसके नीचे जल है या नहीं।
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दगैल  : वि० [अ० दाग़+हिं० एल (प्रत्य०)] १. जिसमें किसी प्रकार के दाग या धब्बे हों। २. जो किसी रूप में दग्ध करके अंकित या चिह्नित किया गया हो। ३. जिसमें कोई दाग लगा हो। दूषित। कलंकित। ४. जो कारागार का दंड भोग चुका हो। वि०=दगाबाज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दग्ध  : वि० [सं० दह (जलाना)+क्त] १. जला या जलाया हुआ। २. जिसके शरीर पर दागे जाने का कोई चिह्न हो। ३. जिसे बहुत अधिक मानसिक कष्ट या संताप हुआ हो। परम दुःखी और संतप्त। ४. अशुभ।
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दग्ध-काक  : पुं० [कर्म० स०] डोम कौवा।
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दग्ध-मंत्र  : पुं० [कर्म० स०] तंत्र के अनुसार वह मंत्र जिसके मूर्द्धा प्रदेश में वह्नि और वायु-युक्त वर्ण हों।
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दग्ध-रथ  : पुं० [ब० स०] इंद्र का सारथी चित्ररथ गंधर्व।
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दग्द-रुह  : पुं० [सं० दग्ध+√रूह् (उगना)+क] तिलक वृक्ष।
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दग्ध-रुहा  : स्त्री० [सं० दग्धरूह+टाप्] कुरू नामक वृक्ष।
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दग्धा  : स्त्री० [सं० दग्ध+टाप्] १. सूर्य के अस्त होने की दिशा। पश्चिम दिशा। २. कुरू नामक वृक्ष। ३. ज्योतिष में कुछ विशिष्ट राशियों से युक्त होने पर कुछ विशिष्ट तिथियों की संज्ञा। वि०, पुं० [सं०√दह् (जलाना)+तृच्] जलाने वाला।
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दग्धाक्षर  : पुं० [सं० दग्ध-अक्षर, कर्म० स०] पिंगल के अनुसार झ, ह, र, भ, और ष ये पाँचों अक्षर, जिनका छंद के आरंभ में रखना वर्जित है।
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दग्धाह्न  : पुं० [सं० दग्ध-आह्वा, ब० स०] एक तरह का वृक्ष।
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दग्धिका  : स्त्री० [सं० द्ग्धा+कन्—टाप्, ह्लस्व, इत्व]=दग्धा।
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दग्धित  : वि०=दग्ध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दग्धेष्टका  : स्त्री० [सं० दग्धा-इष्टका, कर्म० स०] झाँवाँ।
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दचक  : स्त्री० [हिं० दचकना] १. दचकने की क्रिया या भाव। २. झटके या दबाव से लगी हुई चोट। ३. धक्का। ठोकर। ४. दबाव।
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दचकना  : अ० [अनु०] [भाव० दचक, दचकन] १. ठोकर या धक्का खाना। २. झटका। खाना। ३. भार के नीचे पड़कर इस प्रकार दबना कि ऊपरी अंश कुछ कट या फट जाय। स० १. ठोकर या धक्का लगाना। २. झटका देना। ३. इस प्रकार दबाना कि ऊपरी अंश कुछ क्षत-विक्षत हो जाय।
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दचका  : पुं० दे० ‘दचक’।
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दचना  : अ० [देश०] एकाएक ऊपर से नीचे आ पड़ना। गिरना। अ०, स०=दचकना।
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दच्छ  : वि०, पुं०=दक्ष।
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दच्छकुमारी  : स्त्री०=दक्षकुमारी (सती)।
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दच्छना  : स्त्री०=दक्षिणा।
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दच्छसुता  : स्त्री० [सं० दक्ष+सुता] दक्ष की कन्या, सती।
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दच्छिन  : वि०=दक्षिण।
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दज्जाल  : वि० [अ०] बहुत बड़ा धोखेबाज या धूर्त। पुं० मुसलमानों के मतानुसार वह व्यक्ति जो कयामत से पहले जन्म लेगा और खुदा होने का झूठा दावा करेगा।
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दज्झना  : अ० [सं० दहन] १. दहन होना। जलना। २. बहुत अधिक दुःखी या संतप्त होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० १. दहन करना। जलाना। २. बहुत अधिक दुःखी या संतप्त करना।
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दड़घल  : पुं० [सं० दण्डोत्पल] सहदेई नामक पौधा।
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दड़बा  : पुं०=दरबा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दड़ोकना  : अ० [अनु०] दहाड़ना। गरजना।
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दड़ोबड़  : अव्य०=धड़ाधड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दढ़ना  : अ० [सं० दग्ध] जलना। उदाहरण—भई देह जो खेह करम बस ज्यों तट गंगा अनल दढ़ी।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=दढ़ाना।
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दढ़ाना  : स० [हिं० दढ़ना] जलाना।
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दढ़ियल  : वि० [हिं० दाढ़ी+इयल (प्रत्य०)] (व्यक्ति) जिसे दाढ़ी हो। दाढ़ीवाला।
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दढ्ढ  : वि० [सं० दग्ध] दग्ध। जला हुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दणियर  : पुं० [सं० दिनमणि] सूर्य। (डिं०)।
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दतना  : अ० [सं० दत्तचित्त] १. किसी काम में दत्तचित्त होकर लगना। २. मग्न या लीन होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=डटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दतवन  : स्त्री०=दातुन।
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दतारा  : वि०=दँतार।
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दतिसुत  : पुं० [सं० दितिसुत] दैत्य। राक्षस। (डिं०)।
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दतुअन  : स्त्री०=दातुन।
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दतुवन  : स्त्री०=दातुन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दतून  : स्त्री०=दातुन।
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दतौन  : स्त्री०=दातुन।
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दत्त  : वि० [सं०√दा (देना)+क्त] [स्त्री० दत्ता] १. जो किसी को दिया जा चुका हो। २. जिसका कर, देन, परिव्यय आदि चुकता कर दिया गया हो। (पेड) पुं० १. दान। २. चंदे, सहायता आदि के रूप में किसी संस्था को दी जानेवाली रकम। (डोनेशन) ३. दत्तक संतान। ४. दत्तात्रेय। ५. जैनों के नौ वासुदेवों में से एक।
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दत्तक  : पुं० [सं० दत्त+कन् (स्वार्थे)] संतान न होने पर दूसरे कुल और परिवार का वह लड़का जो विधिवत् गोद लेकर अपना पुत्र बनाया गया हो। मुतबन्ना। (एडोप्टेड सन)। विशेष—ऐसा पुत्र धर्म और विधि (या कानून) दोनों के अनुसार हर तरह से औरस या स्वजात पुत्र के समान माना जाता है।
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दत्तक-ग्रहण  : पुं० [सं० ष० त०] किसी लड़के को अपना दत्तक पुत्र या मुतबन्ना बनाने की क्रिया या विधान (एडाप्शन)।
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दत्तक-ग्राही  : वि० [सं० दत्तक-ग्राहिन] जो किसी दूसरे के लड़के को अपना दत्तक पुत्र बनावे।
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दत्त-चित्त  : वि० [ब० स०] जो किसी कार्य के संपादन में मनोयोग पूर्वक लगा हुआ हो। जो किसी काम में पूरा मन लगा रहा हो।
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दत्ततीर्थकृत  : पुं० [सं०] गत उत्सर्पिणी के आठवें अर्हत। (जैन)
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दत्तस्यानपा कर्म  : पुं० [सं० व्यस्त पद] दी हुई चीज फिर वापस ले लेना।
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दत्ता  : पुं०=दत्तात्रेय।
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दत्तात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० दत्त-आत्मन्, ब० स०] वह अनाथ अथवा माता-पिता द्वारा त्यक्त बालक जो स्वंय किसी के पास जाकर उसका दत्तक बने। स्वयं अपने आपको किसी का दत्तक पुत्र बनानेवाला बालक या व्यक्ति।
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दत्तात्रेय  : पुं० [सं० दत्त-आत्रेय, कर्म० स०] अत्रि मुनि और अनुसूया के पुत्र अवधूत वेषधारी महात्मा जिनकी गिनती २४ अवतारों में होती है।
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दत्ताप्रदानिक  : पुं० [सं० दत्त-अप्रदान, ष० त०+ठन्—इक] दान किये हुए किसी पदार्थ को अन्याय पूर्वक फिर से प्राप्त करने का प्रयत्न जो व्यवहार में अठारह प्रकार के विवाद-पदों में से पाँचवाँ विवाद पद माना गया है।
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दत्तावधान  : वि० [सं० दत्त-अवधान, ब० स०] १. किसी ओर अवधान या ध्यान देनेवाला। २. सावधान।
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दत्ति  : स्त्री० [सं० द+क्तिन्] दान।
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दत्ती  : स्त्री० [?] विवाह-संबंध या सगाई पक्की होना।
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दत्तेय  : पुं० [सं० दत्ता+ढक्—एय] इंद्र।
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दत्तोपनिषद्  : पुं० [सं० दत्त-उपनिषद्, मध्य० स०] एक उपनिषद् का नाम।
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दत्तोलि  : पुं० [सं०] पुलस्त्य मुनि का एक नाम।
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दत्र  : पुं० [सं०√दा+कत्रन् (बा०)] १. धन। २. सोना। ३. दान।
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दत्रिम  : पुं० [सं०√दा+क्त्रि (मप्)] दत्तक पुत्र।
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ददन  : पुं० [सं०√दद् (दान)+ल्युट—अन] कुछ देने अथवा दान देने की क्रिया या भाव। देना।
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ददमर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वृक्ष।
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ददरा  : पुं० [देश०] [स्त्री० ददरी] वह महीन कपड़ा जिससे बारीक पिसा हुआ चूर्ण छाना जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ददा  : पुं०=दादा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ददिऔर  : पुं०=ददिहाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ददिता (तृ)  : वि० [सं०√दद्+तृच्] देनेवाला। दाता।
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ददियाल  : पुं०=ददिहाल।
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ददिया ससुर  : पुं० [हिं० दादा+ससुर] जो संबंध में ससुर का बाप हो।
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ददिया सास  : स्त्री० [हिं० दादी+सास] जो संबध में सास की सास हो।
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ददिहाल  : पुं० [हिं० दादा+सं० आलय] १. वह घर, नगर या प्रदेश जिसमें दादा अथवा उसके पूर्वज या वंशज रहते चले आये हों अथवा रह रहे हों। २. दादा का कुल या वंश।
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ददोड़ा  : पुं०=ददोरा।
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ददोरा  : पुं० [हिं० दाद] १. त्वचा में होनेवाला एक प्रकार का विकार जिसमें उसका कोई अंश सूजकर लाल हो जाता है। चकत्ता। उदाहरण—हंसी करति औषधि सखिनु देह ददोरनु भूलि—बिहारी। २. मच्छर, बर्रे आदि के काटने पर बननेवाला उक्त प्रकार का चकत्ता। क्रि० प्र०—पड़ना।
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ददौरा  : पुं०=ददोरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दद्रु  : पुं० [सं०√दद्+रू(ब०)] १. दाद नामक चर्म रोग। २. कछुआ।
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दद्रुक  : पुं० [सं० दद्रु+कन्] दद्रु। (दे०)
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दद्रुघ्न  : पुं० [सं० दद्रु√हन् (मारना)+टक्] चकवँड़। चकमर्दा।
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दद्रुण  : वि० [सं० दद्रु+न] जिसको दाद निकली हुई हो। दाद रोग से पीड़ित।
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दद्रू  : पुं० [सं० दरिद्रा+उ (नि० सिद्धि)] दाद नामक रोग।
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दद्रूण  : वि०=दद्रुण।
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दध  : पुं०=दधि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दधना  : अ० [सं० दग्ध] जलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स०=जलाना।
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दधसार  : पुं०=दधिसार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दधि  : पुं० [सं०√धा (धारण करना)+कि (द्वित्व)] १. दही। २. वस्त्र। कपड़ा। पुं० [सं० उदधि] १. समुद्र। २. छोटा दह या तालाब। उदाहरण—और रवि होहु कँवल दधि माहाँ।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दधि-काँदों  : पुं० [सं० दधि+हिं० काँदों=कीचड़] जन्माष्टमी के अवसर पर होनेवाला एक उत्सव जिसमें हल्दी मिला हुआ दही एक दूसरे पर फेंका जाता है। (कृष्ण जन्म के अवसर पर आमोद-सूचक)
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दधि-कूर्चिका  : स्त्री० [मध्य० स०] फटे या फाड़े हुए दूध का सार भाग। छेना।
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दधिचार  : पुं० [सं० दधि√चर् (चलना)+णिच्+अण्] मथानी जिससे मथने के समय दही चलाया जाता है।
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दधिज  : वि० [सं० दधि√जन् (पैदा होना)+ड] दही से उत्पन्न। पुं० मक्खन।
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दधि-जात  : वि० पुं० [पं० त०] दधि या दही से उत्पन्न या बना हुआ। पुं० [सं० उदधि+जात] चंद्रमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दधित्थ  : पुं० [सं० दधि√स्था (ठहरना)+क, पृषो० सिद्धि] कैथ।
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दधित्थाख्य  : पुं० [सं० दधित्थ-आ√ख्या (कहना)+क] लोबान।
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दधिधेनु  : स्त्री० [मध्य० स०] पुराणानुसार दान के लिए कल्पित गौ जिसकी कल्पना दही के मटके में की जाती है।
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दधि-नामा (मन्)  : पुं० [सं० ब० स०] कैथ का पेड़।
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दधि-पुष्पिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्+टाप्, इत्व] सफेद अपराजिता का वृक्ष।
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दधि-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] सेम।
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दधि-पूप  : पुं० [मध्य० स०] साठी के चावल के चूर्ण को दही में मिलाकर और घी में तलकर बनाया जानेवाला एक तरह का पकवान।
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ददि-फल  : पुं० [ब० स०] कैथ।
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दधि-बरी  : स्त्री० [सं०+हिं०] दही में डाली हुई बरी या पकौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दधि-मंड  : पुं० [ष० त०] दही का पानी।
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दधि-मंडोद  : पुं० [दधिमंड-उदक, ब० स० उद-आदेश] दही का समुद्र। (पुराण)।
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दधि-मुख  : पुं० [ब० स०] सुग्रीव का मामा जो मधुबन का रक्षक था।
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दधियार  : पुं० [देश०] अर्कपुष्पी। अंधाहुली।
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दधिषाय्य  : पुं० [सं० दधि√सो (नाश करना)+आय्य षत्व] घी।
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दधि-सागर  : पुं० [ष० त०] दही का समुद्र। (पुराण)
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दधिसार  : पुं० [ष० त०] मक्खन।
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दधि-सुत  : पुं० [ष० त०] मक्खन। नवनीत। पुं० [सं० उदधि-सुत] १. कमल। २. मोती। ३. जहर। विष। ४. चन्द्रमा। ५. जालंधर नामक दैत्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दधि-सुता  : स्त्री० [सं० उदधि-सुता] १. लक्ष्मी। २. सीपी।
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दधि-स्नेह  : पुं० [ष० त०] दही की मलाई।
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दधि-स्वेद  : पुं० [ष० त०] छाछ। मठा।
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दधीच  : पुं० [सं० दध्यञ्च्]=दधीचि।
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दधीचि  : पुं० [सं० दध्यञ्च्] एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि जो परोपकार और उदारता के लिए प्रसिद्ध हैं। इन्होंने इन्द्र के माँगने पर अपनी हड्डियाँ इसलिए उन्हें दे दी थीं जिनसे वे अस्त्र बनाकर वृत्रासुर को मार सकें।
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दधीच्यस्थि  : पुं० [सं० दधीचि-अस्थि, ष० त०] १. वज्र। २. हीरा। हीरक।
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दध्न  : पुं० [सं०√दध् (दान)+न (बा०)] चौदह यमों में से एक यम।
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दध्यानी  : पुं० [सं० दधि-आ√नी (लेजाना)+क्विप्] सुदर्शन वृक्ष।
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दध्युत्तर  : पुं० [सं० दधि-उत्तर, ष० त०] दही की मलाई।
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दन  : पुं० [सं० दिन] दिन। (डिं०) पुं० [अनु०] बंदूक, तोप आदि चलने से होनेवाला शब्द। पद—दन से=चट-पट। तुरंत। जैसे—दन से यह काम कर डालो।
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दनकर  : पुं० [सं० दिनकर] सूर्य। (डिं०)
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दनगा  : पुं० [देश०] खेत का छोटा टुकड़ा।
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दनदनाना  : अ० [अनु०] १. दन-दन शब्द होना। २. खुशी मनाना। आनंद करना। स० दन-दन शब्द उत्पन्न करना।
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दनमणि  : पुं० [सं० दिनमणि] सूर्य। (डिं०)
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दनादन  : अव्य० [अनु०] १. दन-दन शब्द करते हुए। २. निरंतर। लगातार। ३. चटपट। तुरंत।
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दनियाँ  : वि०=दानी। उदाहरण—अंग अंग सुभग सकल सुख दनियाँ।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दनु  : स्त्री०[सं०√दा (दान)+नु (नि०सिद्धि)] दक्ष की एक कन्या जो कश्यप की पत्नी थी तथा जिसके गर्भ से चालीस पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो सब के सब दनुज या दानव कहलाये।
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दनुज  : वि० [सं० दनु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दनु के गर्भ से उत्पन्न। पुं० दानव। राक्षस।
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दनुज दलनी  : स्त्री० [ष० त०] दुर्गा।
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दनुजराय  : पुं० [सं० दनुज+हिं० राय] दनुजों अर्थात् राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप।
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दनुजारि  : पुं० [दनुज-अरि, ष० त०] दानवों के शत्रु, देवता।
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दनुजेंद्र  : पुं० [दनुज-इंद्र, ष० त०] दानवों का राजा रावण।
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दनुसम्भव  : पुं० [ष० त०] दनु से उत्पन्न, दानव।
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दनू  : स्त्री० [सं० दनु+ऊङ०]=दनु।
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दन्न  : पुं० [अनु०]=दन (शब्द)। (दे०)
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दपट  : स्त्री०=डपट।
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दपटना  : अ०=डपटना।
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दपु  : पुं०=दर्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दपेट  : स्त्री०=डपट।
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दपेटना  : अ०=डपटना।
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दप्प  : पुं०=दर्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दफ  : स्त्री० [फा० दफ़] बड़ी डफली।
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दफतर  : पुं०=दफ्तर।
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दफतरी  : पुं०=दफ्तरी।
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दफतरी खाना  : पुं०=दफ्तरी खाना।
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दफती  : स्त्री०=दफ्ती।
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दफदर  : पुं०=दफ्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दफन  : पुं० [अ० दफ़्न] १. किसी चीज को जमीन में गाड़ने की क्रिया या भाव। २. मृत शरीर को बनाए हुए गढ़े में रखकर उसे मिट्टी से तोपने की क्रिया। वि० १. जमीन के नीचे गाड़ा हुआ। २. कब्र के अन्दर रखा या गाड़ा हुआ।
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दफनाना  : स० [अ० दफ्न+हिं० आना (प्रत्य०)] १. मृत शरीर को कब्र में रखकर उसे मिट्टी से ढकना। २. जान-बूझकर कोई बात इस प्रकार दबाना जिससे वह दूसरों पर प्रकट न हो सके।
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दफरा  : पुं० [देश०] काठ का वह टुकड़ा जो नाव के दोनों ओर इसलिए लगा दिया जाता है कि किसी दूसरी नाव की टक्कर से उसका कोई अंग टूट न जाय। होंस। (लश०)
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दफराना  : स० [देश०] १. किसी नाव को किसी दूसरी नाव के साथ टक्कर लगने से बचाना। २. (पाल) खड़ा करना। (लश०) ३. रक्षा करना। बचाना।
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दफा  : स्त्री० [अ० दफ़ऽ] १. क्रम, संख्या आदि के विचार से किसी परम्परा में का वह अवसर या काल जिसमें कोई काम या बात हुई हो जिसकी फिर भी आवृत्ति हो या होने को हो। बार। बेर। जैसे—(क) वे दिन में तीन दफा भोजन करते हैं। (ख) आज कलकत्ते में पुलिस ने चार दफा भीड़ पर गोली चलाई। २. बिना किसी क्रम, परम्परा या श्रृंखला के विचार से, वह अवसर या काल जिसमें कोई विशिष्ट तथा स्वतंत्र घटना घटित हुई हो या होने को हो। बार। बेर। जैसे—(क) एक दफा की बात है कि हम लोग मसूरी गये थे। (ख) एक दफा तो मैं भी उन्हें यहाँ बुलाकर समझाना चाहता हूँ। ३. विधिक क्षेत्र में, किसी कानून, विधान, विधि आदि का वह कोई ऐसा पूरा तथा स्वतंत्र अंश या खंड जिसमें किसी एक विषय की सब आवश्यक बातें कही या लिखी हों। धारा। जैसे—इस कानून की ७ वीं दफा गवाहों की पात्रता या योग्यता (अथवा लगान चुकने के प्रकार) से संबंध है। ४. साधारण लोक-व्यवहार में दंड-विधि का उक्त प्रकार का वह अंश या खंड जिसमें किसी विशिष्ट अपराध और उसके लिए नियत दंड का उल्लेख या विवेचन होता है। धारा। जैसे—(क) आज-कल शहर में १४४ वीं दफा लगी हुई है। (ख) पुलिस ने उन पर दफा ९॰९ का मुकदमा चलाया है। मुहावरा—(किसी पर कोई) दफा लगाना=अभियुक्त के संबंध में यह कहना कि इसने अमुक दफा से संबंद्ध अपराध किया है। जैसे—उस पर चोरी की नहीं; डकैती की दफा लगाई गई है। वि० [अ० दफ़अ] तिरस्कारपूर्वक दूर किया या हटाया हुआ। जैसे—इस पाजी को तो किसी तरह यहाँ से दफा करना चाहिए। पद—दफा दफान करना=(क) किसी व्यक्ति को तिरस्कार करके दूर करना या हटाना। (ख) किसी बात या विषय का उपेक्षापूर्वक अंत या समाप्ति करना। रफा—दफा (देखें स्वतंत्र पद)।
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दफादार  : पुं० [अ० दफ़अ+फा० दार] [भाव० दफादारी] पुलिस या सेना का एक छोटा अधिकारी।
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दफादारी  : स्त्री० [हिं० दफादार+ई (प्रत्य०)] दफादार का काम या पद।
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दफाली  : पुं०=डफाली। स्त्री०=डफली।
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दफीना  : पुं० [अ० दफ़ीनः] जमीन में गाड़ा हुआ धन का खजाना या निधि।
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दफ्तर  : पुं० [फा० दफ़्तर] १. वे सब कागज-पत्र जिनमें आय-व्यय के विवरण अथवा काम-काज के विवरण आदि लिखे हों। २. बहुत लंबी-चौड़ी चिट्ठी या पत्र जिसमें कोई विस्तृत विवरण हो। ३. वह स्थान जहाँ बैठकर कुछ लोग लिखने-पढ़ने या हिसाब-किताब रखने का काम करतें हों। कार्यालय। (आफ़िस)।
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दफ्तरी  : पुं० [फा० दफ्तरी] १. किसी दफ्तर या कार्यालय का वह कर्मचारी जो कागज आदि ठीक तरह से रखने, संभालने आदि का काम करता हो। २. वह कारीगर जो पुस्तकों आदि की जिल्द बाँधता या प्रतियाँ बनाकर तैयार करता हो।
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दफ्तरी खाना  : पुं० [फा० दफ्तरी+खानः] वह स्थान जहाँ दफ्तरी लोग बैठकर पुस्तकों की जिल्दें बाँधते या प्रतियाँ तैयार करते हों।
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दफ्ती  : स्त्री० [अ० दफ्तीन] एक तरह का बहुत मोटा, कड़ा और प्रायः रूखा कागज जो जिल्द बाँधने आदि के काम आता है।
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दबंग  : वि० [हिं० दबाव या दबाना] १. जो बिना भयभीत हुए विशेषतः अधिमूलक अथवा विरोध-सूचक कोई काम करता हो। बिना किसी से दबे हुए और दृढ़तापूर्वक सब काम करने वाला। २. प्रभावशाली।
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दबक  : स्त्री० [हिं० दबकना] १. दबकने या छिपने की क्रिया या भाव। २. सिकु़ड़न। शिकन। ३. लंबा तार या पत्तर बनाने के लिए धातुओं को पीटने की क्रिया।
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दबकगर  : पुं० [फा० तबकगर] तबक अर्थात् धातु को पीटकर उसके पत्तर बनानेवाला कारीगर।
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दबकना  : अ० [हिं० दबना] १. भय के कारण किसी के सामने से हट या छिप जाना। दुबकना। २. लुकना। छिपना। क्रि० प्र०—जाना।—रहना। स० धातु का पत्तर पीटकर चौड़ा करना।
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दबकनी  : स्त्री० [हिं० दबना] भाथी का मुँह जिसके द्वारा हवा उसके अंदर आती है।
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दबका  : पुं० [हिं० दबकाना=तार आदि पीटना] कामदानी का सुनहला या रूपहला चिपटा तार। पद—दबके का सलमा=एक प्रकार का सलमा जो बहुत चमकीला होता है। पुं०=दबदबा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दबकाना  : स० [हिं० दबकना] १. छिपाना। लुकाना। २. आड़ में करना।
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दबकिया  : पुं०=दबकगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दबकी  : स्त्री० [देश०] सुराही की तरह का मिट्टी का एक बरतन जिसमें पानी रखकर खेतिहर आदि खेत पर ले जाते हैं। स्त्री० [हिं० दबकना] १. दबकने की क्रिया या भाव २. धातु पीटकर तार, पत्तर आदि बनाने की क्रिया या मजदूरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दबकैया  : पुं०=दबकगर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० १. दबकने या छिपनेवाला। २. दबकाने या छिपानेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दबगर  : पुं० [देश०] १. ढाल बनानेवाला। २. चमड़े के कुप्पे बनानेवाला।
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दबड़ू-घुसड़ू  : वि० [हिं० दबाना+घुसाना] हर बात में दबकर कहीं घुस या छिप जानेवाला। बहुत बड़ा कायर या डरपोक।
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दब-दबा  : पुं० [अ० दब्दबः] किसी व्यक्ति के संबंध की वह महत्त्वपूर्ण स्थिति जिसमें उसके अधिकार, प्रभाव तथा भय से सब लोग सहमते हों और उसके विरुद्ध कुछ कर या कह न सकते हों। रोब।
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दबन  : स्त्री० [हिं० दबना] दबने की क्रिया, अवस्था या भाव।
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दबना  : अ० [सं० दमन] [भाव० दबाब, दाब] १. किसी प्रकार के भार के नीचे आ या पड़कर ऐसी स्थिति में होना कि या तो इधर-उधर न हो सके या कुछ क्षति-ग्रस्त हो। जैसे—(क) संदूक के नीचे किताब या कपड़ा दबना। (ख) पत्थर के नीचे उँगली या हाथ दबना। २. ऐसी अवस्था में पड़ना या होना जिसमें किसी ओर से बहुत जोर या दबाब पड़े। दाब में आना। जैसे—भीड़ में बहुत से लोग दब गये। ३. ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में आना या होना कि इच्छानुसार कोई या यथेष्ट गति-विधि न हो सके। जैसे—आज-कल मँहगी से सब लोग बे-तरह दबे हुए हैं। ४. किसी चीज का ऐसी स्थिति में पड़ या पहुँच जाना कि जल्दी वहाँ से निकल न सकें। जैसे—उनके यहाँ हमारे बहुत से कपड़े या किताबे दब गईं। ५. किसी के उत्कृष्ट गुण, प्रभाव, शक्ति आदि की बराबरी या सामना करने में असमर्थ होने के कारण उसकी तुलना में ठहर न सकना अथवा अपनी इच्छा के अनुसार अपने अधिकार का प्रयोग या ऐसा ही और कोई कार्य न कर सकना। जैसे—(क) जब से ये नये अध्यापक आये हैं, तब से कई पुराने अध्यापक दब गये हैं। (ख) बड़ों के सामने छोटों को दबना ही पड़ता है। ६. किसी अच्छी चीज के सामने उस वर्ग की दूसरी साधारण चीज का अपनी शोभा या सौन्दर्य दिखाने अथवा देखनेवालों पर प्रभाव डालने में असमर्थ होना। अच्छा या ठीक न जँचना। जैसे—इस नये मकान के आगे मुहल्ले के पुराने मकान दब गये हैं। ७. किसी चीज या बात का विशेष कारणवश अधिक फैल या बढ़ न सकना और धीमा या मंद पड़ना। जैसे—रोग का प्रकोप दबना। ८. किसी मनोविकार या मनोवेग का मंद, मद्धिम या शान्त होना। कम होना। घटना। जैसे—क्रोध या बैर-विरोध करना। ९. अधिक समय बीत जाने के कारण किसी बात का पहलेवाला प्रबल रूप न रह जाना या लोगों के ध्यान से उतर जाना। जैसे—दबी हुई बात फिर से नहीं उठानी चाहिए। १॰. किसी बात का अपनी प्रकृत या साधारण अवस्था या मान से कुछ कम, रूका हुआ या हलका होना। जैसे—आमदनी कम होने (या नौकरी छूट जाने) के कारण किसी का हाथ दबना। मुहावरा—दबी आवाज (या जबान) से कोई बात कहना=ऐसे अस्पष्ट या मंद रूप में कहना जिसमें यथेष्ट दृढ़ता, शक्ति, साहस आदि का अभाव दिखाई देता हो। दबे-दबाये पड़े रहना=भय, लज्जा, संकोच आदि के कारण क्रिया-शीलता से रहित होकर या शांत भाव से अपने स्थान पर पडे या बने रहना। दबे पाँव या पैर (चलना)=इस प्रकार धीरे-धीरे पैर रखते हुए चलना कि दूसरों को आहट न मिले या किसी प्रकार का शब्द न होने पावे।
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दबमो  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बकरा जो हिमालय में होता है।
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दबवाना  : स०[हिं० दबना० का प्रे०] किसी को कुछ दबाने में प्रवृत्त करना। जैसे—टाँगे दबवाना।
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दबस  : पुं० [?] जहाज पर की रसद तथा दूसरा सामान। जहाजी गोदाम में का माल।
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दबाई  : स्त्री० [हिं० दबाना] १. दबाने की क्रिया, भाव या मजदूरी। २. अनाज निकालने के लिए बालों या डंठलों को बैलों के पैरों से रौंदवाने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
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दबाऊ  : वि० [हिं० दबाना] १. दबानेवाला। २. (गाड़ी आदि) जिस का अगला हिस्सा पिछले हिस्से की अपेक्षा अधिक बोझिल हो।
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दबाना  : स० [हिं० दबना का स०] [भाव० दबाब, दाब] १. ऐसा काम करना जिसमे कुछ या कोई दबे। २. किसी के ऊपर कोई भार रखकर उसे ऐसी स्थिति में लाना कि वह कुछ क्षतिग्रस्त हो जाय अथवा हिल-डुल न सके। जैसे—सब कपडे या कागज दबाकर रख दो जिससे हवा से उड़ या बिखर न जायँ। ३. किसी चीज पर कोई भार डाल या रखकर ऐसी स्थिति में लाना कि उसका ऊपरी तल अथवा सब अंग बहुत नीचे जायँ। जैसे—गड्ढे में या जमीन के नीचे रखकर ऊपर से मिट्टी आदि इस प्रकार डालना कि ऊपर या बाहर से दिखाई न दे। गाड़ना। ४. इस प्रकार अपने अधिकार में करके या छिपाकर रखना कि और लोग देख न सकें। जैसे—इस नौकरी में उन्होने बहुत से रूपए दबाकर अपने पास रख लिये थे। ५. अनुचित रूप से या बलपूर्वक अपने अधिकार में कर के रख लेना। जैसे—बाजारवालों के बहुत से रूपए उन्होने दबा लिये थे। संयो० क्रि०—बैठाना।—रखना।—लेना। ६. किसी पर किसी ओर से ऐसा जोर या दाब पहुँचाना कि उसे अपने स्थान से बहुत-कुछ पीछे हटना पड़े। जैसे—सिपाही भीड़ को दबाते हुए सड़क के उस पार तक ले गये। ७. शरीर के किसी अंग पर उसकी थकावट, पीडा आदि कम करने के लिए अथवा उसमें रक्त का संचार करने के लिए रह-रहकर हाथों से उस पर कुछ हलका भार डालना। जैसे—किसी के पैर या सिर दबाना। ८. ऐसी स्थिति में डालना या पहुँचाना कि मनुष्य बहुत कुछ दीन-हीन बनकर या विवश होकर रहे अथवा समय बिताये। जैसे—आपस के झगड़ों (या नित्य की बीमारियों) ने उन्हें आज-कल बहुत कुछ दबा रखा है। ९. अपने प्रभाव, शक्ति आदि से किसी को ऐसी स्थिति में लाना कि वह अपनी इच्छा के अनुसार कोई काम न कर सके अथवा अपनी इच्छा के विरूद्ध कोई काम करने के लिए विवश हो। जैसे—उन्हीं के दबाने से हमें सौ रूपए छोड़ने पड़े (या उनकी तरफ से गवाही देनी पड़ी)। १॰. अपने गुण, महत्त्व, विशेषतः आदि से किसी को कुछ घटकर या हलका सिद्ध करना। जैसे—हाट के इस नगीने ने और सब नगीनों को दबा दिया है। ११. कोई विशेष उपाय या प्रयत्न करके किसी चीज या बात को उभरने, फैलने या बढ़ने से रोकना। दमन करना। जैसै—(क) अराजकता या विद्रोह दबाना (ख) अपमान या कलंक दबाना १२. कुछ रूक या सोच-समझकर अथवा संकीर्णता या संकोचपूर्वक कोई काम करना। जैसे—हाथ दबाकर खरच करना।
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दबाबा  : पुं० [देश०] मध्य युग में, वह संदूक जिसमें कुछ आदमी बैठाकर गुप्त रूप से शत्रु-पक्ष में उपद्रव आदि कराने के लिए पहुँचाये या ले जाये जाते थे।
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दबाब  : पुं० [हिं० दबाना] १. दबाने की क्रिया या भाव। दाब। २. किसी बडे या महत्वपूर्ण व्यक्ति का ऐसा प्रभाव जिससे दबकर लोग कोई काम करते हों। क्रि० प्र०—डालना। पड़ना।—मानना।—में आना।—
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दबिला  : पुं० [देश०] हलवाई का एक उपकरण जिससे भूनते समय खोआ, बेसन आदि चलाते हैं।
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दबीज  : वि० [फा० दबीज़] जिसका दल मोटा हो। संगीन। जैसे—दबीज कपड़ा या कागज।
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दबीर  : पुं० [फा०] १. लिखनेवाला। मुंशी। २. एक प्रकार के महाराष्ट्र ब्राह्मणों की उपाधि।
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दबूसा  : पुं० [देश०] १. जहाज का पिछला भाग। पिच्छल। २. नाव का वह अंश जिसमें पतवार लगी होती है। ३. जहाज का कमरा। (लश०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दबेला  : वि० [हिं० दबना+एला (प्रत्य०)] १. दबा हुआ। जिस पर दबाब पड़ा हो। २. (काम) जो जल्दी-जल्दी पूरा किया जाने को हो। (लश०) ३. दे० ‘दबैल’।
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दबैल  : वि० [हिं० दबना+ऐल (प्रत्य०)] १. जिस पर किसी का प्रभाव या दबाव हो। २. किसी से बहुत दबने या डरनेवाला। ३. किसी के आंतक, उपकार आदि से दबा हुआ। ४. कमजोर। दुर्बल।
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दबोचना  : स० [हिं० दबाना] १. किसी को सहसा झपटकर पकड़ते हुए दबा लेना। धर दबाना। २. छिपाना। संयो० क्रि०—लेना।
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दबोरना  : स०=दबाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दबोस  : पुं० [देश०] चकमक पत्थर।
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दबोसना  : स० [देश०] अधिक मात्रा में कोई चीज पीना। जैसे—शराब दबोसना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दबौनी  : स्त्री० [हिं० दबाना+औनी (प्रत्य०)] १. कसेरों का लोहे का एक औजार जिससे वे बरतनों पर फूल-पत्ते आदि उभारते हैं। २. करघे में की वह लकड़ी जो भँजनी के ऊपर लगी रहती है।
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दब्ब  : पुं०=द्रव्य।
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दब्बू  : वि० [हिं० दबाना] [भाव० दब्बूपन] जो स्वभावतः दूसरों से डरता और दबकर रहता हो।
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दभ्र  : वि० [सं०√दम्भ् (कपट करना)+रक्] अल्प। थोड़ा।
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दमँगल  : पुं० [फा० दंगल ?] युद्ध। उदाहरण—दमँगल बिण अपचौ दियण वीर धणी रो धान।—कविराजा सूर्यमल।
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दमंस  : स्त्री० [हिं० दाम+अंश] खरीदी या मोल ली हुई चीज, विशेषतः जायदाद या संपत्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दम  : पुं० [सं०√दम् (दमन करना)+घञ्] १. दमन करने की क्रिया या भाव। २. वह काम जो किसी का दमन करने के लिए किया जाय। ३. शरीर की इंद्रियों को वश में रखने और उन्हें अनुचित कामों या बातों में लगाने से रोकने की क्रिया। ४. दंड। सजा। ५. घर। मकान। ६. एक प्राचीन महर्षि जिनका उल्लेख महाभारत में है। ७. पुराणानुसार मरूत् राजा के पौत्र जो वभ्र की कन्या इंद्रसेना के गर्भ से उत्पन्न हुए थे और जो वेद-वेदांगों के बहुत अच्छे ज्ञाता तथा धनुर्विद्या में बहुत प्रवीण थे। ८. बुद्ध का एक नाम ९. विष्णु। १॰. दबाव। ११. कीचड़। पुं० [फा०] साँस। श्वास। क्रि० प्र०—आना।—चलना।—रूकना।—लेना। मुहावरा—दम अटकना=साँस रूकना। दम उखड़ना=बहुत देर-देर पर साँस आना या सहसा चलना जो मृत्यु के बहुत पास होने का लक्षण माना जाता है। दम उलझना या उलटना=इतनी अधिक घबराहट या विकलता होना कि ठीक तरह से साँस न लिया जा सके। दम खींचना=(क) साँस अंदर की ओर खींचना, चढ़ाना या लेना। (ख) बिलकुल चुप या शान्त रह जाना। दम खाना=कुछ भी उत्तर न देना। बिलकुल चुप रह जाना। (क्व०) दम घुटना=साँस का इस प्रकार रूकना या रूककर आना कि जीवित रहना कठिन और कष्टप्रद जान पड़े। दम घोटकर मारना=(क) गला घोंट या दबाकर मारना। (ख) बहुत अधिक शारीरिक कष्ट देकर मारना। दम चढ़ना=दम फूलना। दम चुराना=जान-बूझकर इस प्रकार साँस रोकना कि दूसरे को आहट न मिलें। दम टूटना=(क) बहुत अधिक थक जाने के कारण और अधिक काम करने के योग्य न रह जाना। (ख) साँस का आना-जाना या चलना बंद हो जाना। मृत या मृतप्राय हो जाना। दम तोड़ना=मरने के समय बहुत ठहर-ठहर या रूक-रूककर साँस लेना। (किसी के सामने) दम न मारना=किसी की उपस्थिति में बहुत ही चुपचाप और विनीत तथा शांत भाव से रहना। दम पचाना=निरंतर कोई परिश्रम या काम करते रहने से ऐसा अभ्यास हो जाना कि अधिक या जल्दी साँस न फूलने लगे। दम फूलना=(क) अधिक परिश्रम करने या तेज चलने दौड़ने आदि के कारण साँस जल्दी-जल्दी चलना। हाँफना। (ख) दमे या श्वास का रोग होना। दम फूँकना=मुँह से किसी चीज के अंदर हवा भरना। दम भरना=परिश्रम करते-करते इतना थक जाना कि और अधिक काम न हो सके। (किसी बात या व्यक्ति का) दम भरना=अभिमानपूर्वक यह विश्वास प्रकट करना कि हम अमुक काम या बात कर सकेंगे, अथवा अमुक व्यक्ति से हमें कभी धोखा न होगा या सहारा मिलता रहेगा। जैसे—अपनी बहादुरी या किसी की दोस्ती (अथवा प्रेम) का दम भरना। दम मारना=बहुत अधिक परिश्रम के उपरांत कुछ विश्राम करना। सुस्ताना। दम साधना= (क) साँस रोकने का अभ्यास करना। (ख) बिलकुल चुप या मौन रह जाना। कुछ भी उत्तर न देना। (ग) निश्चेष्ट होकर चुपचाप पड़ जाना या पड़े रहना। (किसी की) नाक में दम करना=बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। बहुत तंग या परेशान करना। २. साँस खींचकर जोर से बाहर फेंकने की क्रिया। ३. जादू-टोना करने के लिए मंत्र आदि पढ़कर किसी पर फूँक मारने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—करना।—पढ़ना।—फूँकना। ३. गाँजे, चरस, तमाकू, आदि का धूआँ (नशे के लिए) साँस के साथ अंदर खींचने की क्रिया। मुहावरा—दम लगाना=चिलम पर गाँजा रखकर उसका धूआँ साँस के साथ अंदर खींचना। ४. संगीत में किसी स्वर का ऐसा लंबा उच्चारण जो एक ही साँस में पूरा किया जाय। जैसे—(क) गवैये के गले का दम। (ख) बाँसुरी या शहनाई का दम। मुहावरा—दम भरना=गाने के समय साँस रोककर एक ही स्वर का देर तक लंबा उच्चारण करते रहना। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार के खाद्य पदार्थ पकाने की वह क्रिया जिसमें उन्हें किसी बरतन में रखकर और उसका मुँह ढककर या बंद करके आग पर चढ़ा देते हैं या उसके ऊपर कुछ जलते हुए कोयले रख देते हैं। पद—दम आलू। मुहावरा—दम खाना=खाद्य पदार्थ का उक्त प्रकार की क्रिया से पकना। जैसे—चावल अभी कुछ कच्चा है, जरा दम खा जाता तो ठीक हो जाता। दम लेना=किसी चीज को बरतन में रखकर इसलिए उसका मुँह बंद करके आग पर चढ़ा देना कि वह अंदर की भाप से ही पक जाय। (किसी चीज का) दम पर आना=पूरी तरह से पकने में इतनी ही कसर रह जाना कि थोड़ा दम देने से ही अच्छी तरह पक जाय। ६. कलंदरों की वह क्रिया जिसमें वे भालू के मुँह पर लकड़ी या हाथ रखकर साँस खींचना सिखाते हैं। (कहते है कि इससे भालू की पाचन क्रिया ठीक होती और शांत रहता है।) ७. उतना अधिक जितना एक बार साँस लेने में लगता है। क्षण। पल। पद—दम के दम=बहुत थोडी देर। क्षण (या पल) भर। जैसे—दम के दम ठहर जाओ मै भी तुम्हारे साथ चलूँगा। दम पर दम=बहुत थोड़ी-थोड़ी देर पर। जैसे—वहाँ दम पर दम शराब का दौर चलता था। दम-ब-दम=दम पर दम। हर दम=प्रति क्षण। हर समय। सदा। हमेशा। जैसे—मै तो आपकी सेवा के लिए हर दम तैयार रहता हूँ। ९. जान। प्राण। जैसे—अब इसका दम निकलने में अधिक देर नहीं है। मुहावरा—दम खुश्क होना=दे० नीचे दम सूखना। दम चुराना=काम या परिश्रम करने से अपने आप को बचाना। जी चुराना। दम निकलना=जीवन का अंत होना। प्राण निकलना। मरना। (किसी पर) दम निकलना=किसी पर इतना अधिक प्रेम होना कि उसके वियोग में प्राण निकलने का-सा कष्ट हो। (कोई काम करने मे) दम निकलना=किसी काम के प्रति परम अरूचि या विरक्ति होना। जैसे—लिखने-पढ़ने (या पैसा खरच करने) में तो इनका दम निकलता है। दम पर आ बनना=ऐसी नौबत या स्थिति आना कि मानों अब जीवित नहीं बचेगें। बहुत ही परेशान या हैरान होना। दम पड़क उठना या जाना=किसी चीज का गुण, रूप आदि देखकर चित्त का बहुत प्रसन्न होना। दम फना होना=दे० नीचे ‘दम सूखना’। दम में दम आना=घबराहट, भय आदि दूर होने पर चित्त कुछ सांत और स्थिर होना। दम में दम रहना या होना=जीवित रहना। जिंदगी बनी रहना। दम सूखना=बहुत अधिक भय के कारण ऐसी अवस्था होना कि खुलकर साँस भी न लिया जा सके। १॰. किसी बड़े आदमी के संबंध में, उसके महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व का सूचक पद। जैसे—अतिथियों का सारा आदर-सत्कार बस आपके दम से ही है। (अर्थात् आप ही ऐसा कर सकतें हैं; आपके बाद और कोई ऐसा आदर-सत्कार करनेवाला दिखाई नहीं देता)। मुहावरा—किसी का दम गनीमत होना=किसी प्रकार के अभाव की दशा में किसी का अस्तित्व और व्यक्तित्व ही दूसरों के लिए बहुत-कुछ आशा-प्रद उत्साहवर्द्धक या संतोष की बात होना। जैसे—पुराने रईसों में अब आपका ही दम गनीमत है (अर्थात् और सब तो चले गये, आप ही बच रहे हैं)। ११. वह शक्ति जिससे कोई पदार्थ ठीक तरह से बना रहता और अपना पूरा काम देता है। जीवनी-शक्ति। जैसे—अब इस कुरते (या उनके शरीर) में कुछ भी दम नहीं रह गया। १२. तत्त्व। सार। जैसे—तुम्हारी इन बातों में कुछ भी दम नहीं है। १३. तलवार या छुरी आदि की बाढ़। धार। पद—दम-खम (देखें)। १४. किसी को छलने या धोखा देने के लिए कही जानेवाली ऐसी बात जिससे उसके मन में आशा, धैर्य साहस आदि का संचार हो। पद—दम-झाँसा, दम-दिलासा, दम-पट्टी। (देखें)। क्रि० प्र०—देना।—में आना।—में लाना। मुहा०—दम खाना=किसी के धोखे में आना। पुं० [देश०] दरी बुननेवालों की एक प्रकार की तिकोनी कमाची जिसमें तीन लंबी लकड़ियों एक साथ बँधी रहती है।
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दमक  : स्त्री० [हिं० ‘चमक’ का अनु०] चमक-दमक। जैसे—चमक दमक।
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दमकना  : अ० [हिं० दमक (चमक का अनु०)] १. चमकना। २. प्रज्वलित होना। सुलगना। (क्व०)
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दमकल  : स्त्री० [हिं० दम+कल] १. वह यंत्र जिसमें ऐसे नल लगे हों जिनके द्वारा कोई तरल पदार्थ किसी ओर जोर या झोंके से फेंका जा सके। (पंप) २. उन यंत्रों का वर्ग या समूह जिनके द्वारा कारखानों, घरों आदि में लगी हुई आग बुझाई जाती है। ३. उक्त सिद्धांत पर बना हुआ वह यंत्र जिससे कूओं आदि का पानी निकाला जाता है। ४. दे० ‘दमकला’।
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दमकला  : पुं० [हिं० दम+कल] १. वह बड़ा पात्र जिसमें लगी हुई पिचकारी से महफिलों आदि में लोगों पर गुलाब-जल छिड़का जाता है। २. जहाज में, वह यंत्र जिसमें पाल खड़े करते हैं। ३. दे० ‘दम-चूल्हा’। ४. दे० ‘दमकल’।
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दम-खम  : पुं० [फा० दम=जीवनी-शक्ति+खम=वक्रता या बाँकपन] १. कोई विशिष्ट कार्य करने की शक्ति जो अब भी किसी में यथेष्ट रूप में हो। २. दृढता। मजबूती। ३. तलवार के संबंध में, उसकी धार तथा लचीलापन। विशेष—तलवार की धार और लचीलेपन से ही यह पता चलता है कि वह कितना और कैसा वार या काट कर सकती है। ४. मूर्ति की सुन्दरता और सुडौल गढ़न। ५. चित्र में, विशेष आकर्षण लाने के लिए खींची जानेवाली कोई गोलाई लिये लंबी रेखा।
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दमघोख  : पुं०=दमघोष।
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दमघोष  : पुं०=शिशुपाल के पिता।
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दमचा  : पुं० [?] मचान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दम-चूल्हा  : पुं० [देश०] लोहे का बना हुआ एक प्रकार का बड़ा गोल चूल्हा जिसमें कोयला जलाया जाता है।
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दमजोड़ा  : पुं० [?] तलवार। (डि०)
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दम-झाँसा  : पुं० [फा० दम+हिं० झाँसा]=दम-पट्टी।
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दमड़ा  : पुं० [हिं० दाम+ड़ा (प्रत्य०)] १. दमडी। दाम। २. रुपया-पैसा। धन।
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दमड़ी  : स्त्री० [सं० द्रविण और धन] १. एक प्रकार का पुराना सिक्का जिसका मूल्य एक आने के बत्तीसवें अंश के बराबर होता था। पैसे का आठवाँ भाग। मुहावरा—दमड़ी के तीन होना=बहुत ही तुच्छ या हीन होना। पद—दमड़ी का पूत=बहुत ही अयोग्य तथा हीन व्यक्ति। उदाहरण—लंपट धूत पूत दमरी को विषय जाप को जापी।—सूर। २. चिल-चिल नाम का पक्षी। दमथ
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दमथु  : वि० [सं०√दम्+अथु]=दमथ।
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दम-दमडी  : स्त्री० [फा० दम+हिं० दमड़ी] शक्ति और धन-संपत्ति। जैसे—हमारे पास दम-दमड़ी तो है ही नहीं हम वहाँ जाकर क्या करेंगे !
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दमदमा  : पुं० [फा० दमदम] १. किले के चारों ओर की चहारदीवारी। २. वह कृत्रिम चहारदीवारी जो युद्ध के समय बोरों में बालू, मिट्टी आदि भरकर तथा उन्हें एक-दूसरे पर रखकर खड़ी की जाती है। क्रि० प्र०—बाँधना।
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दमदार  : वि० [फा०] १. जिसमें अधिक दम अर्थात् जीवनी-शक्ति हो। २. दृढ़। पक्का। मजबूत। ३. जो अच्छी तरह और पूरा काम करने या देने के योग्य हो।
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दम-दिलासा  : पुं० [फा० दम+हिं० दिलासा] समय पर किसी के सहायक होने के लिए उसे दिया जानेवाला आश्वासन और उसमें किया जानेवाला उत्साह या बल का संचार।
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दमन  : पुं० [सं०√दम् (दंड देना)+ल्युट्—अन] १. इंद्रियों, मनोवेगों आदि को किसी ओर प्रवृत्त होने अथवा कोई काम करने से रोकना। निग्रह। जैसे—इच्छा या वासना का दमन। २. उठते, उभरते या बढ़ते हुए किसी प्रकार के विरोध-मूलक कार्य तथा उसके कर्ताओं को बल तथा कठोरतापूर्वक दबाना, कुचलना या नष्ट करना। ३. किसी को नियंत्रण में रखने के लिए दिया जानेवाला दंड। ४. विष्णु। ५. शिव। ६. एक ऋषि जिनके आश्रम में दमयंती का जन्म हुआ था। ७. एक राक्षस का नाम। ८. दमनक। दौना। ९. कुंद (पौधा और फूल)। १॰. द्रोणपुष्पी। स्त्री० दमयंती का वह विकृत नाम जिससे वह उर्दू-फारसी साहित्य में प्रसिद्ध है।
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दमनक  : वि० [सं० दमन+कन्] दमन करने या दबानेवाला। पुं० १. दौना नाम का पौधा। २. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में तीन नगण, एक लघु और एक गुरू होता है।
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दमनपापड़  : पुं० दे० ‘पित्त पापड़ा’।
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दमन-शील  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० दमनशीलता] जो दमन करता हो। जिसका स्वभाव दमन करने का हो।
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दमना  : अ० [फा० दम] काम करते-करते थक जाना और फलतः दम या साँस फूलने लगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० दमन] दमन करना। पुं० दे० ‘दौना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमनी  : स्त्री० [सं० दमन+ङीष्] अग्निदमनी नाम का क्षुप। वि० [सं० दमन] दमन करनेवाला। स्त्री० लज्जा। संकोच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमनीय  : वि० [सं०√दम् (दमन)+अनीयर्] १. जिसका दमन किया जा सके। २. दमन किये जाने के योग्य।
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दम-पट्टी  : स्त्री० [फा० दम=धोखा+हिं० पट्टी=तख्ती] किसी को धोखे में रखकर काम निकालने के लिए उससे कही जानेवाली आशापूर्ण मीठी-मीठी बातें। क्रि० प्र०—देना।—पढ़ाना।
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दम-पुख्त  : वि० [फा०] १. दम देकर पकाया हुआ (खाद्य पदार्थ)। पुं० हाँड़ी अथवा देग का मुँह बंद करके पकाया जानेवाला मांस या पुलाव।
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दम-बाज  : वि० [फा० दम+बाज] [भाव० दमबाजी] १. चकमा या दम-बुत्ता देनेवाला। २. गाँजे आदि का दम लगानेवाला।
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दमबाजी  : स्त्री० [हिं० दमबाज] दमबाज होने की अवस्था या भाव।
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दम-बुत्ता  : पुं० [हिं० दम] किसी को फुसलाने या कुछ समय के लिए शांत रखने के लिए दिया जानेवाला झूठा आश्वासन।
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दम-मार  : पुं० [हिं०] वह जो गाँजे या चरस का दम लगाता हो। गाँजा या चरस (का धूआँ) पीनेवाला। उदाहरण—दम-मार यार किसके, दम लगाया और खिसके। (कहा०)
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दमयंतिका  : स्त्री० [सं० दमयंती+कन्—टाप्, ह्वस्व] मदनबान। (लता)।
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दमयंती  : स्त्री० [सं०√दम् (दमन करना)+णिच्+शतृ+ङीष्, नुम्] १. पुराणानुसार विदर्भ देश की एक राजकुमारी जो राजा भीमसेन की पुत्री थी और जिसका विवाह राजा नल से हुआ था। २. एक तरह की लता। मदनबान।
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दमयिता (तृ)  : वि० [सं०√दम्+णिच्+तृच्] दमन करनेवाला।
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दमरक (ख)  : स्त्री० दे० ‘चमरख’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमरी  : स्त्री०=दमड़ी।
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दमशील  : वि०=दमन-शील।
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दमसना  : स० [सं० दमन] १. दमन करना। २. आघात करना।
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दमसाज  : पुं० [फा०] १. किसी के साथ रहकर उससे सहानुभूति रखने और उसकी सहायता करनेवाला व्यक्ति। २. संगीत में, वह व्यक्ति जो किसी गवैये के साँस लेने पर उसके बोल के स्वरों को दोहराता या पूरा करता हो।
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दमा  : पुं० [फा०] फेफड़ों में कुछ विशिष्ट प्रकार का विकार होने पर उत्पन्न होनेवाला एक प्रसिद्ध रोग जिसमें साँस बहुत अधिक तेजी से फूलने लगता है और जिसके फलस्वरूप रोगी को बहुत अधिक और बराबर खाँसते रहना पड़ता है।
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दमाग  : पुं०=दिमाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमाज  : पुं० [फा० दमामा ?] धौंसा। नगाड़ा।
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दमाणक  : स्त्री०=दमानक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमाद  : पुं० [सं० जामातृ] संबंध के विचार से वह व्यक्ति जिसको कन्या ब्याही गई हो। जामाता। दामाद।
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दमादम  : अ० य० [अनु०] १. दमदम शब्द करते हुए। २. निरंतर। बराबर। लगातार।
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दमान  : पुं० [देश०] पाल का कपड़ा (लश०)
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दमानक  : स्त्री० [देश०] युद्द के समय तीरों, गोले, गोलियों आदि की कुछ समय तक बराबर होनेवाली बौछार या मार। उदाहरण—ज्यौं कमनैत दमानक मैं फिर तीर सों मारि लै जात निसानो।—रहीम।
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दमाम  : पुं०=दमामा।
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दमामा  : पुं० [फा० दमामः] बहुत बड़ा नगाड़ा। धौंसा।
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दमार  : स्त्री०=दमारि। (दावानल)
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दमारि  : पुं० [सं० दावानल] जंगल की आग। दावानल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दमावति  : स्त्री०=दमयंती।
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दमाह  : पुं० [हिं० दमा] १. बैलों के हाँफने का एक रोग। २. वह बैल जिसे उक्त रोग हो।
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दमित  : भू० कृ० [सं० दम्+णिच्+क्त] १. (मनोवेग या वासना) जिसका दमन किया गया हो। २. (उपद्रव, विद्रोह या उसका कर्ता) जो बलपूर्वक प्रयोग करके दबाया गया हो।
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दमी (मिन्)  : वि० [सं० दम+इनि] दमनशील। वि० [फा० दम] दम लगाने या साधनेवाला। पुं० १. गँजेड़ी। २. हुक्के का एक प्रकार का छोटा सफरी नैचा जो जेब में भी रखा जा सकता है। पुं० [हिं० दमा] वह जिसे दमे या श्वास का रोग हो।
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दमुना  : पुं० [सं० दावानल] अग्नि। आग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमैया  : वि० [हिं० दमन+ऐया (प्रत्य०)] दमन करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दमोड़ा  : पुं० [हिं० दाम+ओड़ा (प्रत्य०)] दाम। मूल्य। (दलाल)
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दमोदर  : पुं०=दामोदर।
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दमोय  : पुं० [दमोह; मध्य प्रदेश का एक स्थान] एक प्रकार का बैल जो बोझ ढोने के लिए अच्छा समझा जाता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दम्य  : वि० [सं०√दम् (दमन करना)+यत्] १. जिसका दमन किया जा सके या हो सके। दमन किये जाने के योग्य। २. (पशु) जो बधिया किया जा सकता हो या किये जाने के योग्य हो।
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दयत  : पुं०=दैत्य।
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दयनीय  : वि० [सं०√दय्+अनीयर] १. जिसे देखकर मन में दया उत्पन्न होती है। २. जैसे—दयनीय स्थिति। घोर विपत्ति या संकट में पड़ा हुआ।
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दया  : स्त्री० [सं०√दय्+अङ—टाप्] १. मन में स्वतः उठनेवाली वह मनुष्योचित सात्त्विक भावना या वृत्ति जो दुःखियों और पीड़ितो के कष्ट, दुःख आदि दूर करने में प्रवृत्त करती है। २. अपने व्यक्ति या अपने से दुर्बल व्यक्ति के साथ किया जानेवाला उक्त प्रकार का कोमल व्यवहार। मेहरबानी। (मरसी) ३. दक्ष प्रजापति की कन्या जो धर्म की पत्नी थी।
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दया-कूर्च  : पुं० [स० त०] बुद्धदेव।
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दया-दृष्टि  : स्त्री० [मध्य० स०] किसी के प्रति होनेवाली अनुग्रहपूर्ण दृष्टि या भावना।
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दयानत  : स्त्री० [अ०] १. देने की भावना। २. ईमानदारी। सत्यनिष्ठा।
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दयानतदार  : वि० [अ० दयानत+फा० दार] [भाव० दयानतदारी] ईमानदार। सच्चा।
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दयानतदारी  : स्त्री० [अ० दयानत+फा० दारी] दयापूर्ण व्यवहार करने में प्रवृत्त होना। दयालु होना।
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दयाना  : अ० [हिं० दया+न (प्रत्य०)] दयापूर्ण व्यवहार करने में प्रवृत्त होना। दयालु होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दया-निधान  : पुं० [ष० त०] दया-निधि।
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दया-निधि  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा दयालु। २. ईश्वर का एक विशेषण जो संज्ञा, संबोधन आदि के रूप में भी प्रयुक्त होता है। जैसे—दयानिधि, तोरी गति लखि न परै।
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दया-पात्र  : वि० [ष० त०] जो दया प्राप्त करने का अधिकारी या पात्र हो। जिस पर दया करना उचित हो।
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दयामय  : वि० [सं० दया+मयट्] १. दया से पूर्ण। परम दयालु। २. ईश्वर का एक विशेषण।
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दयार  : पुं० [फा०] प्रदेश। अंत। भू-खंड। वि०=दयालु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=देवदार (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दयार्द्र  : वि० [दया-आर्द्र, तृ० त०] [भाव० दयार्द्रता] जिसका मन दया से आर्द्र हो गया हो।
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दयाल  : पुं० [?] एक प्रकार की चिड़िया जो बहुत मधुर स्वर में बोलती है। वि०=दयालु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दयालु  : वि० [सं०√दय् (पालन करना)+आलुच्] [भाव० दयालुता] जो सब पर दया करता हो। दयावान्।
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दयालुता  : स्त्री० [सं० दयालु+तल्—टाप्] दयालु होने की अवस्था गुण या भाव।
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दयावंत  : वि० [सं० दयावत्] [स्त्री० दयावती] दयावान्।
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दयावती  : वि० स्त्री० [सं० दयावत्+ङीष्] दया करनेवाली।
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दयावना  : अ०=दयाना। वि०=दयापात्र।
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दयावान् (वत्)  : वि० [सं० दया+मतुप्] जिसके चित्त में दया हो। दयालु।
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दयावीर  : पुं० [तृ० त०] वह जो दया करने में वीर हो। वह जो दूसरों पर दया करने में सबसे बढ़-चढ़कर हो।
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दया-शील  : वि० [ब० स०] जो स्वभावताः दूसरों पर दया करता हो।
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दया-सागर  : पुं० [ष० त०] जिसके चित्त में अगाध दया हो। अत्यंत दयालु मनुष्य।
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दयित  : वि० [सं०√दय् (दान, रक्षण)+क्त] [स्त्री० दयिता] प्रिय। प्यारा। पुं० विवाहिता स्त्री का पति। स्वामी।
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दयिता  : स्त्री० [सं० दयित+टाप्] १. प्रियतमा। २. पत्नी।
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दयित्नु  : वि० [सं०√दय्+इत्नु] दया-शील।
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दरंग  : पुं० [?] टीला। (राज०)
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दर  : पुं० [सं०√दृ (भय, विदारण)+अप्] १. डर। भय। २. शंख। ३. कंदरा। खोह। गुफा। ४. गड्ढा। ५. दरार। ६. चीरने या फाड़ने की क्रिया। विदारण। ७. जगह। स्थान। ८. ठौर-ठिकाना। वि० चीरने या फाड़नेवाला। (यौ० के अंत में।) जैसे—पुरंदर। वि० किंचित। थोड़ा। स्त्री० [हिं०] १. किसी चीज का वह दाम जिस पर वह हर जगह मिलती हो अथवा खरीदी या बेची जाती हो। जैसे—गेहूँ (या सोने) की दर बराबर चढ रही है। निर्ख। भाव। २. महत्व आदि के विचार से होनेवाला आदर या कदर। प्रतिष्ठा। जैसे—इस जगह अपनी दर घटाओ। पुं०=दल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [फा०] १. दरवाजा। द्वार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहावरा—दर दर मारा मारा (या मारे मारे) फिरना=बुहत दुर्दशा में पड़कर इधर-उधर घूमते और ठोंकरे खाते रहना। २. कमरे, खाने, दालान आदि के रूप में किया हुआ विभाग। जैसे—अलमारी के दर। ३. वह स्थान जहाँ जुलाहे ताना फैलाने के लिए डंडियाँ गाडते हैं। स्त्री० [सं० दारु=लकड़ी] ईख। ऊख।
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दर-कंटिका  : स्त्री० [ब० स०, कप् टाप्, इत्व] सतावर नाम की ओषधि।
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दरक  : वि० [सं०√दृ+वुन्—अक] डरपोक। भीरू। स्त्री० [हिं० दरकना] दरकने के कारण होनेवाला अवकाश या चिह्न। दरार।
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दरकच  : स्त्री० [हिं० दरकचना] १. दरकचने की क्रिया या भाव। २. दरकचने के कारण किसी चीज पर पड़नेवाला चिह्न या उसके कारण होनेवाला क्षत।
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दरकचना  : स० [अनु०] १. हलके आघात से थोड़ा दबाना या पीसना। कूटकर मोटे-मोटे टुकडे करना। अ० उक्त क्रिया से दबना या क्षत होना।
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दरकटी  : स्त्री० [हिं० दर (भाव)+काटना] १. किसी चीज की दर या भाव में की जाने या होनेवाली कमी। २. दर या भाव के संबंध में किया जानेवाला निश्चय।
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दरकना  : अ० [सं० दर=फाड़ना] आघात लगाने या दबने के कारण किसी चीज का कुछ कट या फट जाना। स० हलके आघात या दाब से कोई चीज काटना, कुचलना या तोड़ना।
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दरका  : पुं० [हिं० दरकना] १. दरकने की क्रिया या भाव। २. दरकने के कारण पड़ा हुआ चिह्न या लकीर। दरार। ३. ऐसा आघात जिससे कोई चीज दरक या फट जाय।
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दरकाना  : स० [हिं० दरकना] दरकने में प्रवृत्त करना। थोड़ा काटना, कुचलना या पीटना।
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दरकार  : वि० [फा०] किसी काम में लाने के लिए जिसकी अपेक्षा या आवश्यकता हो। जैसे—इस समय हमें सौ रुपये दरकार हैं। स्त्री० अपेक्षा। आवश्यकता। जैसे—जितनी दरकार हो ले जाओ।
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दरकारी  : वि० [फा० दरकार] जिसकी अपेक्षाया आवश्यकता हो। आवश्यक। जरूरी। जैसे—सब दरकारी चीजें अपने साथ रख लो।
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दर किनार  : वि० [फा०] किसी प्रकार के क्षेत्र से अलग या बाहर किया हुआ। पद—दर किनार=अलग या दूर रहे। चर्चा ही छोड दी जाय। जैसे—इनाम देना तो दर किनार, वे तनख्वाह तक नहीं देते।
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दरकूच  : क्रि० वि० [फा०] बराबर कूच या यात्रा करते हुए। यात्रा में बराबर आगे बढ़ते हुए।
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दरखत  : पुं०=दरख्त (वृक्ष)।
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दरखास्त  : स्त्री० [फा० दरख्वास्त] १. किसी काम या बात के लिए किसी से किया जानेवाला निवेदन या प्रार्थना। २. प्रार्थना-पत्र। मुहावरा—(किसी पर) दरखास्त पड़ना=किसी के विरूद्ध अधिकारी के सामने कोई अभियोग-पत्र उपस्थित किया जाना। नालिश या फरियाद होना।
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दरखास्ती  : वि० [फा० दरख्वास्त] दरखास्त या प्रार्थना-पत्र संबंधी। जैसे—दरखास्ती कागज=ऐसा चिकना, बढ़िया और मोटा कागज जिस पर दरखास्त लिखी जाती है।
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दरख्त  : पुं० [फा० दरख्त] पेड़। वृक्ष।
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दरगाह  : स्त्री० [फा०] १. चौखट। दहलीज। २. कचहरी। ३. राजसभा। दरबार। ४. किसी पीर या बहुत बड़े फकीर का मकबरा। मजार।
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दर-गुजर  : वि० [फा० दर-गुज़र] जो गुजर या बीत चुका हो। व्यतीत। पुं० १. किसी में अवगुण या दोष देखकर भी उसे अनदेखा करना अर्थात् उस पर ध्यान न देना। मुहावरा—(कोई बात) दर-गुजर करना=बीती हुई घटना या बात को उपेक्षापूर्वक भूल जाना। ध्यान न देना। जाने देना। २. क्षमा। माफी।
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दर-गुजरना  : अ० [फा० दर-गुजर] उपेक्षापूर्वक छोड़कर अलग होना। रहित रहने में ही अपना कल्याण समझना। बाज आना। जैसे—माफ कीजिए हम ऐसी दावत (या मेहमानदारी) से दर-गुजरे।
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दरज  : स्त्री० [फा० दर्ज़] १. वह पतला लंबा अवकाश जो दो चीजों को एक दूसरे से सटाने पर बीच में बच रहे या दिखाई दे। दरार। २. दीवार आदि ठोस रचनाओं के बीच में फटने के कारण उसमें टेढ़ी-सीधी रेखा के समान बननेवाला चिह्न जिसमें पानी समाता है। वि०=दर्ज (लिखा हुआ)।
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दरज-बंदी  : स्त्री० [हिं० दरज+फा० बंदी] दीवार आदि की दरजें बंद करने के लिए उसमें मसाला लगाना।
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दरजन  : पुं० [अं० डज़न] १. गिनती में बारह वस्तुओं का समूह। २. उक्त को एक इकाई मानकर चीजों की की जानेवाली गिनती। जैसे—चार दरजन संतरे (अर्थात् १२.४=४८ संतरे)। स्त्री०=दरजिन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरजा  : पुं० [अ० दर्जः] १. प्रतिष्ठा, महत्त्व या सम्मान का पद या स्थान। २. ऐसा स्थान जहाँ रहकर अधिकारपूर्वक किसी कर्त्तव्य का पालन या किसी प्रकार का प्रबंध आदि करना पड़े। ओहदा। पद। जैसे— अब तो उनका दरजा बढ़ गया है। ३. ऐसा वर्गीकरण या विभाजन जो गुण, योग्यता आदि की कमी, बेशी के विचार से किया गया हो अथवा जिसमें ऊँचे-नीचे, छोटे-बडे आदि का भाव निहित या सम्मिलित हो। श्रेणी। जैसे—यह पुस्तक हजार दरजे अच्छी (या बढ़कर) है। ४. पाठशालाओं, विद्यालयों आदि में उक्त दृष्टि से स्थिर किये हुए ऐसे विभाग जिनमें से प्रत्येक में समान योग्यता रखनेवाले या समान परीक्षा में उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों को एक साथ और एक ही तरह की शिक्षा दी जाती है। श्रेणी। जैसे—इस विद्यालय में १॰ वें दरजे तक पढ़ाई होती है। मुहावरा—दरजा चढ़ाना=विद्यार्थी को परीक्षा में उत्तीर्ण होने अथवा योग्य समझे जाने के कारण आगे या बादवाले बड़े दरजे में पहुँचाना। ५. किसी रचना के अन्तर्गत सुभीते आदि के विचार से बनाये हुए खाने या किये हुए विभाग। जैसे—पाँच दरजोंवाली अलमारी, तीन दरजोंवाला संदूक। ६. धातु की बनी हुई चीजों की ढलाई में, कोई चीज ढालने का वह साँचा (फरमें से भिन्न) जो मौलिक या स्वतंत्र रूप से न बनाया गया हो, बल्कि फरमें से ढाली हुई चीज के अनुकरण और आधार पर तैयार किया गया हो। जैसे—ये मूर्तियाँ तो दरजे की ढली हुई है, हमें तो फरमे की ढली हुई मूर्तियाँ चाहिए। विशेष—जो चीजें मौलिक या स्वतंत्र रूप से नये बनाये हुए साँचे में (जिसे पारिभाषिक क्षेत्रों में ‘फरमा’ कहते हैं) ढली होती हैं, वे रचना-कौशल सफाई, सुंदरता आदि के विचार से अच्छी होती हैं। परंतु इस प्रकार ढली हुई चीज से अथवा उसके अनुकरण पर जो दूसरा साँचा बनाया जाता है वह ‘दरजा’ कहलाता है। दरजे की ढली हुई चीजें अपेक्षया घटिया या निम्न वर्ग की समझी जाती है।
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दरजावार  : अ० य० [अ०+फा०] क्रमशः एक दरजे या श्रेणी से दूसरे दरजे या श्रेणी में होते हुए। वि० जो दरजे या श्रेणियों के रूप में विभक्त हो। श्रेणीबद्ध।
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दरजिन  : स्त्री० [हिं० दरजी का स्त्री०] १. कपड़े सीने का काम करनेवाली स्त्री। २. दरजी की पत्नी। ३. दरजी जाति की स्त्री।
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दरजी  : पुं० [फा० दर्जी] [स्त्री० दरजिन] १. वह व्यक्ति जो दूसरों के कपड़े सीकर जीविका उपार्जित करता हो सूचिक। पद—दरजी की सूई=ऐसा आदमी जो कई प्रकार के काम कर सके या कई बातों में योग दे सके। २. कपड़ा सीने का काम करनेवाले लोगों की एक जाति। ३. एक प्रकार की चिड़िया जो अपना घोसला पत्ते सीकर बनाती है।
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दरण  : पुं० [सं०√दृ (विदारण)+ल्युट्+अन] १. दलन करने अर्थात् चक्की में डालकर कोई चीज पीसने की क्रिया या भाव। २. ध्वंस। विनाश।
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दरणि  : स्त्री० [सं०√दृ+अनि]=दरणी।
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दरणी  : स्त्री० [सं० दरणि+ङीष्] १. भँवर। २. लहर। ३. प्रवाह।
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दरथ  : पुं० [सं०√दृ+अर्थ] १. गुफा। २. पलायन। ३. चारे की तलाश में किसी दूसरे स्थान पर जाना।
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दरद  : वि० [सं० दर√दा (देना)+क] भयदायक। भयंकर। पुं० १. काश्मीर और हिंदूकुश पर्वत के बीच के प्रदेश का प्राचीन नाम। २. उक्त देश में रहनेवाली एक पुरानी म्लेच्छ जाति। ३. [दर (किंचित) दै (शुद्धि)+क] ईंगुर। शिंगरफ। पुं० [फा० दर्द] १. शारीरिक कष्ट। पीड़ा। २. प्रसव के समय स्त्रियों को होनेवाली पीड़ा। ३. किसी प्रकार की अप्रिय या दुःखद हार्दिक अनुभूति। जैसे—मेरो दरद न जाने कोय।—मीराँ। ४. कोई ऐसी विशेषता जो हृदय को अभिभूत कर ले। हृदय में होनेवाली एक प्राकार की मीठी टीस। जैसे—उसके स्वर या गले में दरद है।
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दरदमंद  : वि० [फा० दर्दमंद] [भाव० दर्दमंदी] १. जिसे दर्द हो। पीड़ित। २. जो दूसरों का दर्द या पीड़ा समझकर उनके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करता हो। सहानुभूति करनेवाला।
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दर-दर  : अव्य० [फा० दर=दरवाजा] १. दरवाजे-दरवाजे। २. प्रत्येक स्थान पर। जगह-जगह। मुहावरा— दर-दर की ठोकरें खाना=सब जगहों से तिरस्कृत होते हुए इधर-उधर घूमना। मारे-मारे फिरना। वि० दरदरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरदरा  : वि० [सं० दरण=दलना] [स्त्री० दरदरी] [भाव० दरदरापन] (दला हुआ पदार्थ) जिसके कम महीन चूर्ण के कणों की अपेक्षा कुछ मोटे तथा कठोर होते हैं। जैसे—दरदरा आटा।
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दरदराना  : स० [सं० दरण] १. इस प्रकार कोई चीज पीसना जिससे उसके कण दरदरें बनते हों। २. दाँत कटकटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरदरी  : स्त्री० [सं० धरित्री] पृथ्वी। भूमि। (डिं०) वि० हिं० ‘दरदरा’ का स्त्री०।
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दरदवंत  : वि० [हिं० दरद+वंत (प्रत्य०)] १. दूसरों का दरद समझने और उसे दूर करने की मनोवृत्ति या सहानुभूति रखनेवाला। २. जिसे कष्ट या व्यथा हो। पीड़ित।
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दरदबंद  : वि०=दरदवंत।
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दर-दालान  : पुं० [फा०] एक दालान के अंदर का दूसरा दालान। दोहरा दालान।
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दर-दामन  : पुं० [फा०] ओढ़नी, चादर आदि का दामन अर्थात् आँचल का भाग।
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दरदावन  : पुं०=दर-दामन। उदाहरण—बादले की सारी दरदावन जगमगी जरतारी झीने झालरि के साज पर।—देव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरदीला  : वि० [हिं० दरद+ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें या जिसे दरद हो। २ .दूसरों का दर्द अर्थात् कष्ट या पीड़ा समझनेवाला। उदाहरण—नारायन दिल दरदीले।—नारायण स्वामी।
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दरद्द  : पुं०=दर्द।
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दरध  : पुं०=दर्द।
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दरन  : पुं०=दरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दरना  : स० [सं० दरण] १. दलना। पीसना। २. ध्वस्त या नष्ट करना। ३. शरीर पर रगड़कर लगाना। मलना। उदाहरण—कहै रत्नाकर धरैगी मृगछाला अस धूरि हूँ दरैगी जऊ अंग छिलि जाइगै।—रत्ना०।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरप  : पुं०=दर्प।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दरपक  : पुं० [सं० दर्पक] कामदेव। उदा०—ऐसे जैसे लीने संग दरपक रति है।—सेनापति। पुं०=दर्प।
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दरपन  : पुं० [स्त्री० अल्पा० दरपनी]=दर्पण।
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दरपना  : अ० [सं० दर्पण] १. दर्प से युक्त होना। क्रोध करना। २. अहंकार या अभिमान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दरपनी  : स्त्री० [हिं० दरपन] चौखटे में मढ़ा हुआ छोटा शीशा।
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दर-परदा  : वि० [फा० दर-पर्दः] जो परदे या आवरण के अंदर या पीछे हो। अव्य० १. परदे की आड़ या ओट में। २. दूसरों की दृष्टि बचाकर। छिपकर।
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दर-पेश  : अव्य० [फा०] किसी के समक्ष। सामने। जैसे—कोई मामला दर-पेश होना।
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दर-बंद  : पुं० [फा०] १. चहार-दीवारी। २. पुल। ३. दरवाजा।
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दरबंदी  : स्त्री० [फा० दर+बंदी] १. चीजों की दर या भाव निश्चित करने की क्रिया। २. जमीन की लगान की दर निश्चित करने की क्रिया। ३. अलग-अलग दर (खाने या विभागों के) निश्चित करने या बनाने की क्रिया। स्त्री०=दरबंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरब  : पुं० [सं० द्रव्य] १. द्रव्य। धन। २. धातु। ३. चीज। वस्तु। ४. एक प्रकार की मोटी चादर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरबर  : वि० [?] १. दरदरा। २. (जमीन या रास्ता) जिसमें कंकर, ठीकरें अधिक हो। (कहार)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरबराना  : स० [हिं० दरबर] १. थोड़ा पीसना। दरदरा करना। २. दबाना। ३. किसी को इस प्रकार भयभीत करना कि वह खंडन या विरोध न कर सके। ४. किसी प्रकार का दबाव डालना।
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दरबहरा  : पुं० [देश०] एक तरह की शराब।
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दरबा  : पुं० [फा० दर] १. काठ आदि की खानेदार अलमारी या संदूक जिसमें कबूतर, मुरगियाँ आदि रखी जाती है। २. दीवारों, पेड़ों आदि में का वह कोटर जिसमें पक्षी रहते हैं।
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दरबान  : पुं० [फा० मि० स० द्वारवान्] वह व्यक्ति जो दरवाजे पर चौकसी करता हो। द्वारपाल।
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दरबानी  : स्त्री० [फा०] दरबान (द्वारपाल) का काम या पद।
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दरबार  : पुं० [फा०] [वि० दरबारी] [भाव० दरबारदारी] १. वह स्थान जहाँ राजा या सरदार अपने मुसाहबों के साथ बैठते और लोगों के निवेदन या प्रार्थना सुनते है। राज-सभा। क्रि० प्र०—करना।—लगना।—लगाना। मुहावरा—(किसी के लिए) दरबार खुलना=दरबार में आते-जाते रहने का अधिकार या सुभीता मिलना। (किसी के लिए) दरबार बंद होना=प्रायः राजा के अप्रसन्न होने के कारण दरबार में आने-जाने का निषेध होना। २. दरबार करनेवाला प्रधान अर्थात् राजा। (राज०) ३. किसी ऋषि या मुनि का आश्रम। ४. दरवाजा। द्वार। (क्व०) ५. दे० ‘दरबार साहब’।
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दरबारदार  : पुं०=दरबारी।
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दरबारदारी  : स्त्री० [फा०] १. प्रायः दरबार में उपस्थित होकर राजा के पास बैठने और बात-चीत करने की अवस्था। २. किसी बड़े आदमी के यहाँ बराबर आते-जाते रहने की वह अवस्था जिसमें बड़े आदमी का चित्त प्रसन्न करके उसका अनुग्रह प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। खुसामद करने के लिए की जानेवाली हाजिरी।
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दरबार-विलासी  : पुं० [फा० दरबार+सं० विलासी] द्वारपाल। दरबान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दरबार साहब  : पुं० [फा०+अं०] अमृतसर में सिक्खों का वह प्रधान गुरूद्वारा जिसमें ‘गुरुग्रंथ साहब’ का पाठ होता है और जो सिक्खों का प्रधान तीर्थ है।
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दरबारी  : पुं० [फा०] १. वह जो किसी के दरबार में सम्मिलित होता हो। २. बड़े आदमियों के पास बैठकर उनकी खुशामद करनेवाला व्यक्ति। दरबार-दार। वि० १. दरबार-संबंधी। दरबार का। २. दरबार के लिए उपयुक्त या शोभन।
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दरबारी-कान्हड़ा  : पुं० [फा० दरबारी+हिं० कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक राग जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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दरबी  : स्त्री० [सं० दर्वी] कलछी। उदाहरण—दरबी लै कै मूढ़ जरावत हाथ कौ।—हित हरिवंश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरभ  : पुं० [?] बंदर। पुं० १.=दर्भ। २.=द्रव्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरम  : पुं०=दिरम।
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दरमन  : पुं० [फा० दर्मा] १. उपचार। इलाज। २. औषध। दवा।
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दर माँदा  : वि० [फा० दस्माँदः] [भाव० दरमाँदगी] १. जो बहुत अधिक थककर किसी के दरवाजे पर पड़ा हो। २. दीन-हीन। बेचारा। ३. विवश। लाचार। उदाहरण—दरमाँदे ठाढ़े दरबार।—कबीर।
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दरमा  : स्त्री० [देश०] बाँस की वह चटाई जो बंगाल में झोपडियों की दीवार बनाने के काम आती है। पुं० [सं० दाड़िम] अनार (वृक्ष और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरमाहा  : पुं० [फा० दरमाहः] हर महीने मिलनेवाला वेतन।
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दरमियान  : पुं० [फा०] मध्य। बीच। अव्य० बीच या मध्य में।
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दर-मियाना  : वि० [फा० दरमियानः] १. बीचवाला। २. जो आकार में न बहुत बड़ा हो न बहुत छोटा। मँझला। मझोला।
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दरमियानी  : वि० [फा०] बीच या मध्य का। पुं० १. वह जो दलों या पक्षों के बीच में पड़कर उनका झगड़ा निपटाता या मामला तै कराता हो। मध्यस्थ। २. दलाल।
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दरया  : पुं०=दरिया। (नदी)।
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दरयाई  : वि०, स्त्री०=दरियाई।
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दरयाफ्त  : भू० कृ०=दरियाफ्त।
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दररना  : स० १.=दरना। (दलना) २.=दरेरना।
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दरराना  : अ० [अनु०] १. वेगपूर्वक आना। २. इस प्रकार आगे बढ़ना कि आस-पास के लोगों को दबना पड़े या उन्हें धक्का लगे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दरवाजा  : पुं० [फा० दरवाजा] १. कुछ विशिष्ट प्रकार से बना हुआ वह मुख्य अवकाश जिसमें से होकर कमरे, कोठरी, मकान, मैदान आदि में प्रवेश करते हैं। द्वार। मुहावरा—(किसी के) दरवाजे की मिट्टी खोद डालना=इतनी अधिक बार किसी के यहाँ आना-जाना कि वह खिन्न हो जाय या उसे बुरा लगने लगे। २. वह चौखट जो उक्त अवकाश में लगा रहता है और जिसमें प्रायः किवाड़ या पल्ले जड़े रहते हैं। ३. किवाड। पल्ला। क्रि० प्र०—खड़खड़ाना।—खोलना।—बंद करना।—भेड़ना। ४. लाक्षणिक रूप में, कोई ऐसा उपाय या साधन जिसकी सहायता से अथवा जिसे पार करके कहीं प्रवेश किया जाता हो।
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दरबी  : स्त्री० [सं० दर्वी] १. कलछी। २. सँड़सी। ३. सांप का फन।
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दरबीकर  : पुं०=दर्वीकर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरवेश  : पुं० [फा०] [वि० दरवेशी] १. भिखारी। २. मुसलमान साधुओं का एक संप्रदाय।
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दरश  : पुं०=दर्श या दर्शन।
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दरशन  : पुं०=दर्शन।
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दरशनी  : वि० [सं० दर्शन] दर्शन या देखने से संबंध रखनेवाला। जैसे—दरशनी हुंडी। स्त्री० दर्पण।
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दरशनी हुंडी  : स्त्री० [हिं०] १. महाजनी लेन-देन में ऐसी हुंडी जिसे देखते ही महाजन को उसका धन चुकाना या भुगतान करना पड़े। २. ऐसी हुंडी जिसका भुगतान तुरंत करना पड़े। ३. कोई ऐसी चीज जिसे दिखाते ही कोई उद्देश्य सिद्ध हो जाय या उसके बदले में कोई दूसरी चीज मिल जाय।
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दरशाना  : अ०=दरसाना।
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दरस  : पुं० [सं० दर्श] १. देखा-देखी। दर्शन। २. भेंट। मुलाकात। ३. खूबसूरती। सुंदरता। ४. छबि। शोभा।
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दरसन  : पुं०=दर्शन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरसना  : अ० [सं० दर्शन] दिखाई पड़ना। देखने में आना। स०=देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दरसनिया  : पुं० [सं० दर्शन] १. मंदिरों में लोगों को दर्शन करानेवाला पंडा २. शीतला आदि की शांति के लिए पूजा-पाठ करनेवाला व्यक्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरसनी  : स्त्री० [सं० दर्शन] दर्पण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दरशनी।
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दरसनीय  : वि०=दर्शनीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरसाना  : स० [सं० दर्शन] १. दर्शन कराना। दिखलाना। २. प्रकट या स्पष्ट रूप में सामने रखना। ३. स्पष्ट रूप में बिना कुछ कहे केवल आचरण, व्यवहार आदि के द्वारा जतलाना। झलकाना। जैसे—उन्होंने अपनी बात-चीत से दरसा दिया कि वे सहमत नहीं है। अ० दिखाई देना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरसावना  : स०=दरसाना।
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दर-हकीकत  : अव्य० [फा०+अं०] हकीकत में। वास्तव में। वस्तुतः।
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दरहम  : वि० [फा०] अस्त-व्यस्त। पद—दरहम-बरहम=अस्त-व्यस्त।
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दराँती  : स्त्री० [सं० दात्री] घास, फसल आदि काटने का हँसिया नाम का औजार। मुहावरा(खेत में) दराँती पड़ना या लगना=फसल की कटाई का आरंभ होना।
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दराई  : स्त्री०=दलाई।
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दराज  : वि० [फा० (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) दराज़] [भाव० दराजी] १. बहुत बड़ा या लंबा। दीर्घ। जैसे—दराज कद, दराज दुम। २. दूर तक फैला हुआ। विस्तृत। क्रि० वि० अधिक। बहुत। स्त्री० [अं० ड्राअर] मेज में लगा हुआ संदूकनामा वह लंबा खाना जिसमें वस्तुएँ आदि रखी जाती हैं और जो प्रायः खींचकर आगे या बाहर निकाला जा सकता है। स्त्री०=दरार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरार  : स्त्री० [सं० दर] किसी तल के कुछ फटने पर उसमें दिखाई देनेवाला रेखाकार अवकाश। दरज।
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दरारना  : अ० [हिं० दरार+ना (प्रत्य०)] विदीर्ण होना। फटना। स० विदीर्ण करना। फाड़ना।
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दरारा  : पुं० १.=दरेरा। २.=दरार।
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दरिंदा  : पुं० [फा० दरिन्दः] वह हिंसक जन्तु या पशु जो दूसरे जीवों को चीड़-फाड़कर खा जाता हो। जैसे—चीता, भालू, शेर आदि।
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दरि  : स्त्री० [सं०√दृ (विदारण)+इन्]=दरी।
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दरित  : भू० कृ० [सं० दर+इतच्] १. डरा हुआ। २. फटा हुआ।
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दरिद  : वि०, पुं०=दरिद्र। पुं०=दरिद्रता।
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दरिद्दर  : वि०, पुं०=दरिद्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दरिद्रता।
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दरिद्र  : वि० [सं०√दरिद्रा (दुर्गति)+अच्] [स्त्री० दरिद्रा] [भाव० दरिद्रता] १. जिसके पास निर्वाह के लिए कुछ भी धन न हो। निर्धन। कंगाल। २. बहुत ही घटिया या निम्न कोटि का। ३. सारहीन। पुं० कंगाल या निर्धन व्यक्ति।
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दरिद्रता  : स्त्री० [सं० दरिद्र+तल्+टाप्] दरिद्र होने की अवस्था या भाव। कंगाली। निर्धनता।
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दरिद्रायक  : वि० [सं०√दरिद्रा+ण्वुल्—अक]=दरिद्र।
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दरिद्रित  : वि० [सं०√दरिद्रा+क्त] १. दरिद्र। २. दुःखी।
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दरिद्री  : वि०=दरिद्र।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरिया  : पुं० [फा० दर्या] १. नदी। २. समुद्र। सागर। पुं०=दलिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० दरना] १. दलनेवाला। २. नाश करनेवाला। पुं०=दलिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरियाई  : वि० [फा० दर्याई] १. दरिया अर्थात् नदी-संबंधी। दरिया या नदी का। २. नदी में या उसके आस पास रहने या होनेवाला। जैसे—दरियाई घोड़ा। ३. समुद्र-संबंधी। समुद्र का। स्त्री० पतंग उड़ाने में वह क्रिया जिसमें एक आदमी उसे पकड़कर पहले कुछ दूर ले जाता है और तब वहाँ से ऊपर आकाश में छोड़ता है। चुड़ैया। स्त्री० [फा० दाराई] एक प्रकार का धारीदार रेशमी कपड़ा। (पश्चिम) उदाहरण—केसरी चीर दरयाई को लेंगो।—मीराँ।
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दरियाई-घोड़ा  : पुं० [फा० दरियाई+हिं० घोड़ा] अफ्रीक़ा के जंगलों में मिलनेवाला घोड़े के आकार का एक तरह का जंगली जानवर जो नदियों के किनारे झाड़ियों में रहता है।
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दरियाई-नारियल  : पुं० [फा० दरियाई+हिं० नारियल] १. समुद्र के किनारे होनेवाला एक प्रकार का नारियल (वृक्ष) जिसके फल साधारण नारियल से बहुत छोटे हैं। २. उक्त वृक्ष का फल।
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दरियादास  : पुं० [?] विक्रमी १७वीं-१८वीं शती में वर्तमान एक हिंदू (परंतु जन्म से मुसलमान) संत जिन्होंने दरिया नामक संप्रदाय चलाया था।
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दरियादासी  : पुं० [हिं० दरियादास+ई (प्रत्य०)] दरियादास का चलाया हुआ पंथ जिसमे निर्गुण की उपासना का विधान है।
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दरियादिल  : वि० [फा०] [भाव० दरियादिली] जिसका हृदय नदी की तरह विशाल और उदार हो। परम उदार।
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दरियादिली  : स्त्री० [फा०] उदारता।
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दरियाफ्त  : भू० कृ० [फा० दर्याफ़्त] जिसके संबंध में पूछ-ताछ करके जानकारी प्राप्त कर ली गई हो। पता लगाकर जाना हुआ।
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दरिया-बुर्द  : पुं० [फा०] ऐसा खेत या जमीन जो किसी नदी के बहाव या बाढ़ के कारण कट या डूबकर खराब या निरर्थक हो गयी हो।
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दरियाव  : पुं० १.=दरिया। (नदी) २.=दरिया (समुद्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरी  : वि० [सं० दरि+ङीष्] १. फाड़नेवाला। विदीर्ण करनेवाला। २. डरनेवाला। डरपोक। स्त्री० [सं० दरि+ङीष्] १. खोह। गुफा। २. पहाड के नीचे का वह खड्ड जिसमें कोई नदी गिरती या बहती हो। स्त्री० [सं० दर=चटाई] मोटे सूत का बुना हुआ मोटे दल का एक प्रकार का बिछौना। शतंरजी। स्त्री०=[फा०] ईरान देश की एक प्राचीन भाषा।
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दरीखाना  : पुं० [फा० दर+खाना] १. ऐसा कमरा या मकान जिसके चारों ओर बहुत से दरवाजे हों। २. बारह-नदी।
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दरीचा  : पुं० [फा० दरीचः] [स्त्री० दरीची] १. छोटा दरवाजा। २. खिड़की। ३. रोशनदान।
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दरीबा  : पुं० [हिं० दर या दरबा ?] १. वह स्थान जहाँ एक ही तरह की बहुच-सी चीजें इकट्ठी बिकती हों। जैसे—पान का दरीबा। २. बाजार।
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दरी-भृत्  : पुं० [सं० दरी√भृ (धारण करना)+क्विप्] पर्वत। पहाड़।
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दरी-मुख  : पुं० [ष० त०] १. गुफा का मुख। २. राम की सेना का एक बंदर।
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दरती  : स्त्री० [सं० दर-यंत्र] छोटी चक्की। स्त्री० दराँती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरेक  : पुं० [सं० द्रेक] बकायन (वृक्ष)।
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दरेग  : पुं० [अं० दरेग] कसर। त्रुटि।
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दरेज  : स्त्री० [?] एक प्रकार की छपी मलमल या छींट।
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दरेर  : स्त्री० [हिं० दरेरना] १. दरेरने की क्रिया या भाव। २. दरेरे जाने के कारण होनेवाला क्षत या क्षति। ३. नाश। बरबादी।
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दरेरना  : स० [सं० दरण] १. किसी पदार्थ के तल के साथ इस प्रकार अपना तल रगड़ते हुए उसे दबाना कि उसमें कुछ क्षत हो जाय अथवा उसकी कुछ क्षति हो। २. रगड़। ३. नाश करना।
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दरेरा  : पुं० [सं० दरण] १. दरेरने के लिए दिया जानेवाला धक्का। २. दबाव। चाप। ३. बहाव का तोड़।
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दरेस  : स्त्री० [अं० ड्रेस] एक प्रकार का फूलदार छींट। वि० [भाव० दरेसी] जो बना-बनाया तैयार हो और तुरंत काम में लाया जा सके।
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दरेसी  : स्त्री० [अं० ड्रेसिंग] १. कोई चीज हर तरह से उपयुक्त और काम में आने योग्य बनाने की क्रिया या भाव। तैयारी। २. इमारत के काम में, ईंटों के फरश में, मसाले से दरज भरना।
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दरैया  : पुं० [सं० दरण] १. दलनेवाला। जो दले। २. ध्वस्त या नष्ट करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दरोग  : वि० [अ० दुरोग़] असत्य। झूठा। पुं० असत्य कथन।
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दरोग-हलफी  : स्त्री० [अ० दुरोग हल्फ़ी] १. सच बोलने की कसम खाकर या शपथ लेकर भी झूठ बोलना जो विधिक क्षेत्रों में दंडनीय अपराध माना गया है।
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दरोगा  : पुं०=दारोगा।
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दरोदर  : पुं० [सं० दुरोदर (पृषो० सिद्धि)] १. जुआरी। २. पासा।
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दर्कार  : स्त्री०=दरकार।
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दर्गाह  : स्त्री०=दरगाह।
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दर्ज  : वि० [अ०] जो स्मृति, हिसाब-किताब आदि के लिए अपने उपयुक्त स्थान (कागज, किताब, बही आदि) पर लिखा गया हो। स्त्री० दे० ‘दरज’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दर्जन  : पुं०=दरजन। स्त्री०=दरजिन।
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दर्जा  : पुं०=दरजा।
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दर्जावार  : वि०, क्रि० वि०=दरजावार।
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दर्जिन  : स्त्री०=दरजिन।
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दर्जी  : पुं०=दरजी।
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दर्द  : पुं०=दरद (कष्ट या पीड़ा)।
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दर्दमंद  : वि०=दरदमंद।
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दर्दर  : वि० [सं०√दृ (विदारण)+यङ्+अच् (पृषो०, सिद्धि)] फटा हुआ। पुं० १. थोड़ा टूटा या चटका हुआ कलसा। २. पहाड़।
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दर्दरीक  : पुं० [सं०√दृ+णिच्+ईकन्] १. मेंढक। २. बादल। ३. एक तरह का बाजा।
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दर्दी  : वि०=दरदमंद।
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दर्दुर  : पुं० [सं०√दृ+उरच् (नि० सिद्धि)] १. मेढक। २. बादल। मेघ। ३. अबरक। अभ्रक। ४. एक प्रकार का पुराना बाजा। ५. कवित्त का एक प्रकार का भेद। ६. बहुत से गाँवों से समूह। ७. नगाड़े का शब्द। ८. एक राक्षस का नाम। ९. पश्चिमी घाट पर्वत का एक भाग। मलय पर्वत से लगा हुआ एक पर्वत। १॰. उक्त पर्वत के आस-पास का प्रदेश।
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दर्दुरक  : पुं० [सं० दर्दुर+कन्] १. मेंढ़क। २. [दर्दुर√कै (शब्द)+क] एक तरह का बाजा।
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दर्दुरच्छदा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] ब्राह्मी बूटी।
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दर्दु  : पुं० [सं०√दरिद्रा (दुर्गति)+उ, नि० सिद्धि] दाद (रोग)।
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दर्प  : पुं० [सं०√दृष् (गर्व करना)+घञ्] १. अभिमान। घमंड। २. वह तेजस्वितापूर्ण राग या क्रोध जो स्वाभिमान पर अनुचित आघात होने या उसे ठेस लगने पर उत्पन्न होता है और जिसके फल-स्वरूप वह अभिमान तथा दृढ़तापूर्वक प्रतिपक्षी को फटकार बताता है। जैसे—महिला ने बहुत दर्प से उसे गुंडे की भर्त्सना की। ३. अहंकार करनेवाले के प्रति मन में होनेवाला क्षणिक विराग। मान। ४. अक्खड़पन। उद्दंडता। ५. वैभव, शक्ति आदि का आतंक। रोब। ६. कस्तूरी।
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दर्पक  : वि० [सं०√दृप्+ण्वुल्—अक] दर्प करनेवाला। पुं० [√दृप्+णिच्+ण्वुल्] कामदेव।
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दर्पण  : पुं० [सं०√दृप्(चमकना)+णिच्+ल्यु—अन] १. मुँह देखने का शीशा। आईना। २. आँख। नेत्र। ३. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। ४. उत्तेजित या उद्दीप्त करने की क्रिया या भाव।
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दर्पन  : पुं०=दर्पण।
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दर्पित  : भू० कृ० [सं० दृप् (गर्व)+णिच्+क्त] १. जो दर्प से युक्त हुआ हो। जिसने दर्प दिखलाया हो। २. अभिमानी। घमंडी।
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दर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० दर्प+इनि] १. जिसमें दर्प हो। जो दर्प दिखलाता हो। २. अभिमानी। घमंडी।
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दर्ब  : पुं० [सं० द्रव्य] १. द्रव्य। धन। २. चीज। पदार्थ। ३. धातु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दर्बान  : पुं०=दरबान।
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दर्बार  : पुं०=दरबार।
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दर्बारी  : पुं०=दरबारी।
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दर्बी  : स्त्री०=दरबी।
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दर्भ  : पुं० [सं०√दृभ्+घञ्] १. एक प्रकार का कुश। डाभ। २. कुश का बना हुआ बैठने का आसन।
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दर्भ-केतु  : पुं० [ब० स०] राजा जनक के भाई कुशध्वज।
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दर्भट  : पुं० [सं०√दृभ् (निर्माण करना)+अटन्(बा०)] घर का वह कमरा जिसमें गुप्त रूप से विचार-विमर्श आदि किया जाता हो।
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दर्भण  : पुं० [सं०√दृभ्+ल्युट्—अन] कुश की बनी हुई चटाई।
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दर्भ-पत्र  : पुं० [ब० स०] काँस नामक घास।
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दर्भाकुर  : पुं० [दर्भ-अंकुर, ष० त०] डाभ का नोकीला अंग।
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दर्भासन  : पुं० [दर्भ-आसन, मध्य० स०] दर्भ या कुश का बना हुआ आसन। कुशासन।
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दर्भाह्रय  : पुं० [सं० दर्भ+आ√ह्रे (बुलाना)+श] मूँज।
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दर्भेषिका  : स्त्री० [दर्भ-ईषिका, ष० त०] कुश का डंठल।
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दर्मियान  : पुं०=दरमियान।
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दर्मियानी  : वि०=दरमियानी।
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दर्याव  : पुं०=दरिया। (नदी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दर्रा  : पुं० [फा० दर्रः] पहाड़ों के बीच का संकरा तथा दुर्गम मार्ग। पुं० [हिं० दलना] १. किसी चीज का मोटा पीसा हुआ चूर्ण। जैसे—गेहूँ या दाल का दर्रा। २. ऐसी मिट्टी जिसमें बहुत-से छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर हों। (ऐसी मिट्टी प्रायः सड़कों पर बिछाई जाती है।) पुं०=दरार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दर्राज  : स्त्री० [फा० दराज़-लंबा] बढ़इयों का एक उपकरण जिससे वे लकड़ी सीधी करते हैं।
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दर्राना  : अ० [अनु० दड़-दड़, धड़-धड़] तेजी से और बेधड़क चलते हुए आगे बढ़ना या कहीं प्रवेश करना। जैसे—दर्राते हुए किसी के घर में घुस या चले जाना।
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दर्व  : पुं० [सं०√दृ (विदारण)+व] १. हिंसा करनेवाला मनुष्य। २. राक्षस। ३. उत्तरी पंजाब के एक प्रदेश का पुराना नाम। ४. उक्त देश में बसनेवाली एक प्राचीन जाति। पुं०=द्रव्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दर्वरीक  : पुं० [सं०√दृ+ईकन्, नि० सिद्धि] १. इंद्र। २. वायु। ३. एक बाजा।
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दर्वा  : स्त्री० [सं०] उशीनर की पत्नी।
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दर्विक  : पुं० [सं०√दृ+विन्+कन्] करछुल।
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दर्विका  : स्त्री० [सं० दर्विक+टाप्] १. घी की बत्ती जलाकर बनाया जानेवाला काजल। २. बनगोभी।
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दर्विदा  : स्त्री० [सं० दर्वि√दो (खण्डन)+ड+टाप्] कठफोड़वे की तरह की एक चिड़िया।
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दर्वी  : स्त्री० [सं० दर्वि+ङीष्] १. करछी। कलछी। २. साँप का फन।
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दर्वी-कर  : पुं० [सं० ब० स०] फनवाला साँप।
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दर्श  : पुं० [सं०√दृश् (देखना)+घञ्] १. दर्शन। २. अमावास्या तिथि जिसमें चंद्रमा और सूर्य का संगम होता है; अर्थात् वे एक ही दिशा में रहते हैं। ३. अमावास्या के दिन होनेवाला यज्ञ। ४. चांद्रमास की द्वितीया तिथि। दूज। ५. नया चाँद।
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दर्शक  : वि०[सं०√दृश्+ण्वुल्—अक] १. (वह) जो कोई चीज देख रहा हो अथवा देखने के लिए आया हो। जैसे—खेल आरंभ होने से पहले मैदान दर्शकों से भर चुका था। २. [दृश्+णिच्+ण्वुल्] दिखलाने या दर्शानेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—मार्ग-दर्शक। पुं० १. वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह जो कहीं बैठकर कोई घटना, तमाशा दृश्य आदि देखता हो। २. द्वारपाल। दरबान।
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दर्शन  : पुं० [सं०√दृश्+ल्युट—अन] १. देखने की क्रिया या भाव। २. नेत्रों द्वारा होनेवाला ज्ञान, बोध या साक्षात्कार। ३. प्रेम, भक्ति और श्रद्धापूर्वक किसी को देखने की क्रिया या भाव। जैसे—किसी देवता या महात्मा के दर्शन के लिए कहीं जाना। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पाना।—मिलना।—होना। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग संस्कृत के आधार पर बहुधा बहुवचन में ही होता है। जैसे—अब आप के दर्शन कब होंगे। ४. आपस में होनेवाला आमना-सामना या देखा-देखी। भेंट। मुलाकात। ५. आँख या दृष्टि के द्वारा होनेवाला ज्ञान या बोध। ६. आँख। नेत्र। ७. स्वप्न। ८. अक्ल। बुद्धि। ९. धर्म या उसके त्तत्व का ज्ञान। १॰. दर्पण। शीशा। ११. रंग। वर्ण। १२. नैतिक गुण। १३. विचार या उसके आधार पर स्थिर की हुई सम्मति। १४. किसी को कोई बात अच्छी तरह समझाते हुए बतलाना। १५. कोई बात या ध्यान या विचारपूर्वक देखना और अच्छी तरह समझाना। १६. वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें प्राणियों को होनेवाले ज्ञान या बोध, सब तत्त्वों तथा पदार्थों के मूल और आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, विश्व, सृष्टि आदि के संबंध रखनेवाले नियमों, विधानों, सिद्धांतों, आदि का गंभीर अध्ययन, निरूपण तथा विवेचन होता है। सब बातों के रहस्य, स्वरूप आदि का ऐसा विचार जो तत्त्व, नियम आदि स्थिर करता हो। दर्शन-शास्त्र। विशेष—तर्क और युक्ति के आधार पर व्यापक दृष्टि से सब बातों के मौलिक नियम ढूँढ़ने वाले जो शास्त्र बनाते हैं, उन सब का अंतर्भाव दर्शन में होता है। हमारे यहाँ सांख्य, योग, वैशषिक, न्याय, मीमांसा (पूर्व मीमांसा) और वेदान्त (उत्तर मींमांसा) ये छः दर्शन बने है, जिनमें अलग-अलग ढंग से उक्त सब बातों को विचार और विशेषण हुआ है। इनके सिवा चार्वाक, बौद्ध, आर्हत, पाशुपत, शैव आदि और भी अनेक गौण तथा सांप्रदायिक दर्शन है। अनेक पाश्चात्य देशों में भी उक्त सब बातों की जो बिलकुल स्वतंत्र रूप से और गहरी छान-बीन हुई है, वह भी दर्शन के अंतर्गत ही है। १७. किसी प्रकार की बड़ी और महत्त्वपूर्ण क्रिया या ज्ञान के क्षेत्र के सभी मौलिक तत्त्वों, नियमों, सिद्धान्तों आदि का होनेवाला विचार-पूर्ण अध्ययन और विवेचन। जैसे—जीवन धर्म, नीति शास्त्र आदि का दर्शन, पाश्चात्य दर्शन, भारतीय दर्शन आदि। १८. उक्त विषय पर लिखा हुआ कोई प्रमाणिक और महत्वपूर्ण ग्रंथ। १९. कोई विशिष्ट प्रकार की तात्त्विक या सैद्धांतिक विचार प्रणाली। जैसे—गाँधी- दर्शन।
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दर्शन-प्रतिभू  : पुं० [च० त०] वह प्रतिभू या जमानतदार, जो किसी व्यक्ति की किसी विशिष्ट समय तथा स्थान पर उपस्थित होने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हो।
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दर्शनीय  : वि० [सं०√दृश्+अनीयर्] १. जिसके दर्शन करना उचित या योग्य हो। २. देखने योग्य। मनोहर। सुंदर।
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दर्शनी-हुंडी  : स्त्री०=दरशनी हुंडी।
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दर्शाना  : स०=दरसाना।
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दर्शित  : भू० कृ० [सं०√दृश्+णिच्+क्त] जो दिखलाया गया हो। दिखलाया हुआ।
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दर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं०√दृश्+णिनि] १. देखनेवाला। जैसे—आकाशदर्शी। २. मनन या विचार करनेवाला। जैसे—तत्त्वदर्शी।
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दर्स  : पुं० [अ०] १. पठन। पढ़ना। २. उपदेश। ३. शिक्षा।
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दल  : पुं० [सं०√दल् (भेद करना)+अच्] १. किसी वस्तु के उन दो सम खंडो में से हर एक जो एक दूसरे से स्वभावतः जुड़े हो पर जरा-सा दबाव पड़ने से अलग हो जायँ। जैसे—अरहर, उरद, चने आदि का दानों के दो दल। २. पौधों के कोमल छोटे पत्ते। जैसे—तुलसी-दल। ३. फूलों के वे अंग जो छोटे कोमल पत्ते के रूप में होते है। पंखड़ी। जैसे—कमल या गुलाब के फूल के दल। ४. किसी बड़ी इकाई के अलग-अलग छोटे खंड या टुकड़े जो स्वतंत्र रूप से काम करते हों जैसे—सैनिकों के कई दल नगर में घूम रहे हैं। ५. ऐसे व्यक्तियों का वर्ग या समूह जो किसी विशिष्ट (अच्छे चाहे बुरे) उद्देश्य की सिद्धि के लिए संघठित हुआ हो और साथ मिलाकर काम करता हो। (पार्टी) जैसे—डाकुओं या स्वयंसेवकों का दल। ६. एक ही जाति या वर्ग के प्राणियों का गिरोह या झुंड। जैसे—कबूतरों, च्यूँटियों या बंदरों का दल। ७. आधुनिक राजनीति में किसी विशिष्ट विचार धारा के अनुसायियों का वह संघटित समूह जो देश, संस्था आदि का शासन सूत्र संभालने के लिए चुनाव आदि लड़ता है। ८. परत की तरह फैली हुई चीज की मोटाई। जैसे—दल का शीशा। ९. फुंसी, फोड़े आदि के आस-पास कुछ दूर तक होनेवाली वह सूजन जिससे वहाँ का चमड़ा मोटा हो जाता है। जैसे—इस फोड़ो ने बहुत दल बाँध रखा है। क्रि० प्र०—बाँधना। १॰. अस्त्र के ऊपर का आच्छादन। कोष। म्यान। ११. धन। दौलत। १२. जलाशयों में होनेवाला एक प्रकार का तृण। १३. तमालपत्र।
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दलक  : स्त्री० [हिं० दलकना] १. दलकने की क्रिया या भाव। २. कुछ देर तक होता रहनेवाला बहुत हलका कंप। थरथराहट। ३. रह-रह कर होनेवाली हलकी पीड़ा। टीस। पुं० छुरी की तरह का एक उपकरण जिससे राजगीर नक्काशी के अंदर का मसाला साफ करते हैं। स्त्री० [फा०] गुदड़ी।
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दरकन  : स्त्री० [हिं० दलकना] १. दकलने की क्रिया या भाव। दलक। २. थरथराहट। ३. आघात आदि के कारण होनेवाला झटका।
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दलकना  : अ० [सं० दल या दलन] १. किसी चीज के ऊपर के दल या मोटी तह का रह-रहकर कुछ ऊपर उठते और नीचे गिरते हुए काँपना या हिलना। जैसे—चलने में तोंद दलकना। २. डर से काँपना या थर्राना। ३. उद्दिग्न या विकल होना। घबराहट से बेचैन होना उदाहरण—दलकि उठेउ सुनि हृदै कठोरू।—तुलसी। अ० दरकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० [सं० दलन] डराकर या भयभीत करके काँपाना।
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दल-कपाट  : पुं० [ब० स०] हरी पंखड़ियों का वह कोश जिसमें कली बंद रहती है.
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दल-कपाट  : पुं० [ब० स०] कुंद का पौधा।
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दल-गंजन  : वि० [सं०√गञ्ञ (नाश करना)+ल्यु—अन, ष० त०] अनेक दलों या व्यक्तियों के समूहों को नष्ट करने या मारनेवाला, अर्थात् बहुत बड़ा वीर। पुं० एक प्रकार का धान।
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दल-गंध  : पुं० [ब० स०] सप्तपर्ण वृक्ष। सतिवन।
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दल-घुसरा  : पुं० [हिं० दाल+घुसड़ना] वह रोटी जिसमें दाल या पीठी भरी हो।
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दल-थंभ  : पुं० [सं० दल+हिं० थामना] सेनापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दलथंभन  : पुं० [हिं० दल+थामना] १. कमराख बुननेवालों का एक औजार जो बाँस की तरह होता है। जिसमें अँकुड़ा और नकशा बँधा रहता है। २. दलथंभ।
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दल-दल  : स्त्री० [सं० दलाढ्य] १. बहुत गीला और मुलायम निम्नतल जिसमें मिट्टी के साथ इतना अधिक पानी मिला हो कि उस पर आदमी का बोझ टिक या ठहर न सकें, बल्कि नीचे धस जाय। (मार्श) 2. लाक्षणिक रूप में, वह विकट या संकटपूर्ण स्थिति जिसमें हर प्रकार से खराबी या बुराई होती हो तथा जिससे जल्दी छुटकारा या बचाव न हो सके। क्रि० प्र०—में पड़ना (या फँसना)। स्त्री० [अनु०] कहारों की परिभाषा में बुड्ढी स्त्री (जो डोली या पालकी पर सवार हो)।
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दलदला  : वि० [हिं० दलदल] [स्त्री० दलदली] (प्रदेश) जिसमें दलदल बहुत अधिक हो।
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दलदार  : वि० [हिं० दल+फा० दार] जिसकी तह, दल या परत मोटी हो। जैसे—दलदार आम।
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दलन  : पुं० [सं०√दल् (भेदन)+ल्युट्—अन] [वि० दलित] १. पीस कर छोटे-छोटे टुकड़े करने की क्रिया। चूर-चूर करने का काम। २. ध्वंस। विनाश। संहार। वि० ध्वंस या नाश करनेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—दुष्टदलन।
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दलना  : स० [सं० दलन] १. चक्की, जाँते आदि में डालकर बीज आदि पीसना। जैसे—गेहूँ या जौ दलना। २. दरदरा पीसना। ३. बुरी तरह से कुचल, मसल या रौंदकर नष्ट करना। ४. बहुत अधिक कष्ट देना या दमन करना। ५. पत्तियाँ, फूल आदि तोड़ना। ६. झटके से कई खंड या टुकड़े करना। (क्व०)
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दलनि  : स्त्री०=दलन।
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दल-निर्मोक  : पुं० [सं० ब० स०] भोजपत्र का पेड़।
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दलप  : पुं० [सं० दल√पा (रक्षण)+क] १. दल का नायक, प्रधान या मुखिया। दलपति। २. [√दल+कपन्] अस्त्र। ३. सोना। स्वर्ण।
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दल-पति  : पुं० [ष० त०] १. दल का नायक। यू-थूप। २. सेनानायक।
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दल-पुष्पा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] केतकी का पौधा।
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दल-बंदी  : स्त्री० [हिं० दल+फा० बंदी] १. दलों का निर्माण तथा संघटन करना। (क्व०) २. कसी दल के अंतर्गत अथवा किसी संस्था के कार्यकर्ताओं में प्रायः फूट, राग-द्वेष के कारण छोटे-छोटे समूह बनाने की क्रिया या भाव।
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दल-बल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. लाव-लश्कर। फौज। २. अनुयायी, संगी-साथी, नौकर-चाकर आदि। जैसे—मंत्री महोदय दल-बल सहित पहुँचे थे।
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दलबा  : पुं० [हिं० दलना] वह अशक्त पक्षी (जैसे—तीतर, बटेर आदि) जिसे उसका स्वामी दूसरे पक्षियों से लड़ाकर और मार खिलाकर दूसरे पक्षियों का साहस बढ़ाते हैं।
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दल-बादल  : पुं० [हिं० दल+बादल] १. बादलों का समूह। २. किसी के साथ चलने या रहनेवाले बहुत से लोगों का समूह। ३. बहुत बड़ी सेना। ४. एक प्रकार का बहुत बड़ा खेमा या शामियाना।
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दलमलना  : स० [हिं० दलना+मलना] १. किसी चीज को खूब दलना और मलना। २. अच्छी तरह कुचलना, मसलना या रौंदना। ३. पूरी तरह से ध्वस्त या नष्ट करना।
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दलमलाना  : स० हिं० ‘दलमलना’ का प्रे० रूप। अ०=दलमलना।
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दलवाना  : स० [हिं० दलना का प्रे० रूप] १. दलने का काम दूसरे से कराना। २. ध्वस्त कराना। ३. दमन कराना।
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दलवान  : पुं० [सं० दलपाल] सेनापति। फौज का सरदार।
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दलवैया  : वि० [हिं० दलना] दलनेवाला।
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दलसारिणी  : स्त्री० [सं० सार+इनि+ङीष्, दल-सारिणी, स० त०] केमुचा। बंडा। कच्चू।
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दल-सूचि  : पुं० [सं० ब० स०] १. ऐसा पौधा जिसके पत्तों में काँटे हों। २. [ष० त०] उक्त प्रकार के पत्तों का काँटा। ३. किसी प्रकार का काँटा।
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दलसूसा  : स्त्री० [सं० दलज्रसा] पत्तों की नसें। दलों की शिराएँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दलहन  : पुं० [हिं० दाल+अन्न] ऐसे बीज जिनकी दाल बनाई जाती है। जैसे—अरहर, उड़द, चना, मूँग आदि।
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दलहरा  : पुं० [हिं० दाल+हारा] १. वह जो दलहन पीसकर दाल बनाता हो। २. केवल दालें बेचनेवाला रोजगारी।
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दलहा  : पुं० [सं० दल, हिं० थाल्हा] थाला। आलबाल।
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दलाढक  : पुं० [सं० दल-आढ़क, तृ० त०] १. जंगली तिल। २. गेरू। ३. नागकेसर। ४. सिरिस का पेड़। ५. कुंद का पौधा या फूल। ६. एक प्रकार का पलाश जिसे गजकर्णी भी कहते हैं। ७. फेन। ८. खाईं। ९. बवंडर। १॰. गाँव का मुखिया। ११. हाथी का कान।
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दलाढ्य  : पुं० [सं० दल-आढ्य, तृ० त० ] नदी के किनारे का कीचड़।
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दलादली  : स्त्री० [सं० दल+अनु०] आपस में होनेवाली दल-बंदियाँ और उनकी लाग-डाँट या होड़।
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दलान  : पुं०=दालान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दलाना  : स० [हिं० दलना का प्रे० रूप] कोई चीज दलने में किसी को प्रवृत्त करना। अ० दला जाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दलामल  : पुं० [सं० दल-अमल, तृ० त०] १. दौना। २. मरूआ। मैनफल।
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दलाम्ल  : पुं० [सं० दल-अम्ल, ब० स०] लोनिया साग। अमलोनी।
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दलारा  : पुं० [देश०] एक तरह का झूलनेवाला बिस्तर (लश०)
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दलाल  : पुं० [अ० दल्लाल] १. वह व्यक्ति जो किसी चीज के लेन-देन के समय क्रेता और विक्रेता के बीच में पड़कर उस वस्तु का दर या भाव निश्चित कराता या सौदा पक्का कराता हो और एक या दोनों पक्षों से अपनी सेवा के प्रतिफल में कुछ धन लेता हो। २. वह व्यक्ति जो कामुक, पुरूषों को पर-स्त्रियों से मिलाता और उनसे धन प्राप्त करता है। ३. जाटों, पारसियों आदि में एक जाति या वर्ग।
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दलाली  : स्त्री० [फा०] १. दलाल का काम। क्रेता-विक्रेता के बीच में पड़कर सौदा तै कराने का काम। २. दलाल को उसके परिश्रम या सेवा के बदले में मिलनेवाला धन या पारिश्रमिक।
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दलाह्रय  : पुं० [सं० दल-आह्रय, ब० स०] तेजपत्ता।
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दलि  : स्त्री० [सं०√दल (भेदन)+इन्]=दलनी।
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दलिक  : पुं० [सं० दलि+कन्] काष्ठ।
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दलित  : भू० कृ० [सं०√दल+क्त] १. जिसका दलन हुआ हो। २. जो कुचला, दला, मसला या रौंदा गया हो। ३. टुकड़े-टुकड़े किया हुआ। चूर्णित। ४. जो दबाया गया हो अथवा जिसे पनपने या बढ़ने न दिया गया हो। हीन-अवस्था में पड़ा हुआ। ५. ध्वस्त या नष्ट किया हुआ।
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दलित वर्ग  : पुं० [सं०] समाज का वह निम्न तम वर्ग जो उच्च वर्ग के लोगों के उत्पीड़न के कारण आर्थिक दृष्टि से बहुत ही हीन अवस्था में हो। जैसे—दास, प्रथावाले देशों में दास, सामंत-शाही व्यवस्था में कृषक, या पूजीवाँदी व्यवस्था में मजदूर दलित वर्ग में माने जाते हैं। (डिप्रेस्ड क्लासेज)
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दलिद्दर  : वि० [सं० दरिद्र] १. दरिद्र। २. बिलकुल गया-बीता और बहुत ही निम्न कोटि का। परम निकृष्ट। पुं० १. दरिद्रता। २. कूड़ा-करकट। झाड़-झंखाड़। बिलकुल निकम्मी और रद्दी चीजें। जैसे—दीवाली पर घर का सारा दलिद्दर निकाल कर फेंका जाता है।
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दलिद्र  : पुं०=दरिद्र।
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दलिया  : पुं० [हिं० दलना] १. किसी खाद्यान्न के बीजों का पीसा हुआ मोटा या दानेदार चूर्ण। २. उक्त का दूध आदि में पकाया हुआ गाढ़ा रूप।
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दली (लिन्)  : वि० [सं० दल+इनि] १. जिसमें दल या मोटाई हो २. जिसमें दल या पत्ते हों। ३. जो किसी दल (वर्ग या समूह) में मिला हुआ या उसके साथ हो।
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दलीप  : पुं०=दिलीप।
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दलील  : स्त्री० [अ०] १. कोई ऐसी पूर्ण युक्ति या विचार जिससे किसी बात या मत का यथेष्ट समर्थन या खंडन होता हो। युक्ति। २. वाद-विवाद। बहस।
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दले-गंधि  : पुं० [सं० ब० स०] सप्तपर्णी वृक्ष।
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दलेपंज  : पुं० [हिं० ढलना+पंजा] वह घोड़ा जिसकी उमर ढल गयी हो या ढल चली हो। वि० जिसकी उमर ढल गई हो या ढल चली हो।
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दलेल  : स्त्री० [अ० ड्रिल] १. सिपाहियों को दिया जानेवाला एक प्रकार का दंड या सजा जिसमें उन्हें पूरी वर्दी पहनाकर और कई प्रकार के हथियारों से युक्त करके टहलाते हैं। २. वह कवायद जो सजा की तरह पर कराई जाती हो। मुहावरा—दलेल बोलना=सजा की तरह पर कवायद करने पर या उक्त प्रकार से टहलते रहने की आज्ञा या दंड देना।
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दलै  : अव्य० [अनु०] फीलवानों का एक छंद जिसका उच्चारण वे हाथी से उसका मुँह खुलवाने के लिए करते हैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दलैया  : पुं० [हिं० दलना] १. दलन या नाश करनेवाला। २. दलने या पीसनेवाला।
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दल्भ  : पुं० [सं० दल (भेदन)+भ] १. छल। धोखा। प्रतारणा। २. पाप। ३. चक्र।
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दल्भि  : पुं० [सं०√दल+भि] १. शिव। २. इंद्र का वज्र।
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दल्लाल  : पुं०=दलाल।
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दल्लाला  : स्त्री० [अ०] कुटनी
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दल्लाली  : स्त्री०=दलाली।
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दवँगरा  : पुं० [सं० दव+अँगार ?] पावस ऋतु की पहली वर्षा।
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दवँरी  : स्त्री०=दवनी।
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दव  : पुं० [सं०√दु (जलाना)+अच्] १. वन। जंगल। २. जंगल में प्राकृतिक रूप से लगने वाली आग। दावाग्नि। ३. अग्नि। आग।
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दवथु  : पुं० [सं०√दु+अथुच्] १. जलन। दाह। २. कष्ट। दुःख। पीड़ा।
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दवन  : पुं० १.=दमन। २.=दमनक (दौना)।
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दवन-पापड़ा  : पुं० [सं० दमनपर्पट] पित पापड़ा।
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दवना  : स० [सं० दव] जलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अ०=जलना। पुं०=दौना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दवनी  : स्त्री० [सं० दमन] कटी हुई फसल को इस प्रकार बैलों से रौंदवाना जिससे बीज डंठलों से अलग हो जायँ। मिसाई। मिंडाई।
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दवरिया  : स्त्री०=दवारि।
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दवा  : स्त्री० [फा०] १. वह वस्तु जिससे कोई रोग या व्यथा दूर हो। औषध। २. कोई ऐसा उपचार या चिकित्सा जिससे रोग शांत हो। ३. किसी प्रकार का अनिष्ट, दोष या बुराई दूर करने या किसी बिगड़ी हुई बात को ठीक करने का उपाय, युक्ति या साधन। जैसे—इस बेवकूफी की कोई दवा नहीं है। स्त्री० [सं० दव] दावानल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दवाई  : स्त्री०=दवा (ओषधि)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दवाईखाना  : पुं०=दवाखाना।
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दवाखाना  : पुं० [फा०] १. वह स्थान जहाँ ओषधियाँ बनती या बिकती हों। २. अस्पताल। चिकित्सालय।
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दवागि  : स्त्री० [सं० दावाग्नि] वनाग्नि। दावानल। दावाग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दवागिन  : स्त्री०=दावाग्नि।
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दवाग्नि  : स्त्री० [सं० दव-अग्नि, कर्म० स०] वन में लगनेवाली आग। दावानल।
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दवात  : स्त्री० [अ०] १. मिट्टी, धातु, शीशे आदि का वह छोटा पात्र जिसमें लिखने की स्याही घोली जाती है। मसि-पात्र। २. स्याही से भरा हुआ उक्त पात्र।
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दवान  : पुं० [देश०] एक तरह का अस्त्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दवानल  : पुं० [सं० दव-अनल, कर्म० स०] दावाग्नि।
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दवामी  : वि० [अ०] बराबर बना रहनेवाला। स्थायी। चिरस्थायी।
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दवामी-काश्तकार  : पुं० [अ० दवामी+फा० काश्तकार] वह जिसे स्थायी रूप से काश्तकारी का अधिकार प्राप्त हो।
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दवामी-पट्टा  : पुं० [अ० दवामी+हिं० पट्टा] वह पट्टा जिसके अनुसार स्थायी रूप से किसी चीज के भोग का अधिकार किसी को मिले।
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दवामी-बंदोबस्त  : पुं० [फा०] वह अवस्था जिसमें जमीन की सरकारी मालगुजारी चिरकाल के लिये निश्चित हो जाती है।
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दवार  : स्त्री०=दवारि।
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दवारि  : स्त्री० [सं० दावाग्नि, हिं० दवागि] १. वनाग्नि। दावानल। २. संताप।
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दश (न्)  : वि० [सं०√दृंश् (हिंसा करना)+कनिन् (बा०)] दस। (संख्या)
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दश-कंठ  : वि० [ब० स०] दस कंठोवाला। पुं० रावण।
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दशकंठारि  : पुं० [दशकंठ-अरि, ष० त०] (रावण के शत्रु) श्रीराम चंद्र।
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दस-कंध  : पुं० [सं० दश-स्कंध, हिं० कंध] रावण।
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दश-कंधर  : पुं० [ब० स०] रावण।
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दशक  : पुं० [सं० दशन्+कन्] १. दस का समूह। २. दस वर्षों का समूह। ३. सन्, संवत् आदि में हर एक इकाई से दहाई तक के दस-दस वर्षों का समूह। (डीकेट) जैसे—बीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक अर्थात् १९२१ से १९३॰ तक के वर्षों का समूह।
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दश-कर्म (न्)  : पुं० [मध्य० स०] गर्भाधान से लेकर विवाह तक के हिंदू- धर्म के अनुसार बालक के दस संस्कार-गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, निठक्रमण, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, उपनयन और विवाह।
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दश-कुलवृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] तंत्र के अनुसार ये दश वृक्ष—लिसोडा, करंज, बेल, पीपल, कदंब, नीम, बरगद, गूलर, आँवला और इमली।
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दश-कोषी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] संगीत में, रुद्रताल के ग्यारह भेदों में से एक।
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दश-क्षीर  : पुं० [मध्य० स०] १. सुश्रुत के अनुसार दूध देनेवाले ये दस जीव-गाय, बकरी, ऊँटनी, भेड़, घोड़ी, स्त्री, हथनी, हिरनी और गदही। २. उक्त जीवों का दूध।
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दश-गात्र  : पुं० [द्विगु० स०] १. शरीर के दस प्रधान अंग। २. कर्मकांड में, वे कृत्य जिनमें किसी के मरने पर दस दिनों तक दस पिंड इस उद्देश्य से बनाकर दिये जाते हैं कि मृतात्मा के दसों अंग फिर से बन जाएँ और उसका शरीर पूरा हो जाय।
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दश-ग्राम-पति  : पुं० [दश-ग्राम, द्विगु० स०, दशग्राम-पति, ष० त०] प्राचीन भारत में दस गाँवों का अधिकारी या स्वामी।
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दश-ग्रीव  : पुं० [ब० स०] रावण।
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दशति  : स्त्री० [सं० दश-दश (नि० सिद्धि)] सौ। शत।
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दशद्वार  : पुं० [मध्य० स०] शरीर के ये दस छिद्र-२ कान, २ आँखें, २ नाक, १ मुख, १ गुदा, १ लिंग और १ ब्रह्मांड।
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दशधा  : वि० [सं० दशन्+धा] दस प्रकार का। दस रूपोंवाला। अव्य० दस प्रकार से।
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दशधा भक्ति  : स्त्री० [सं०] नवधा भक्ति और उसमें सम्मिलित की हुई दसवीं प्रेम-लक्षणा भक्ति का समाहार।
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दशन  : पुं० [सं०√दृंश् (काटना)+ल्युट्—अन, नलोप] १. दाँत। २. कवच। ३. चोटी शिखर।
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दशनच्छद  : पुं० [सं० दशन√छद् (ढकना)+णिच्,+घ, ह्रस्व] होंठ।
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दसन-बीन  : पुं० [सं० ब० स०] अनार।
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दशनांशु  : पुं० [दशन-अंशु, ष० त०] दाँतों की चमक।
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दशना  : वि० [सं० दशन से] दाँतोंवाली (स्त्री)।
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दशनाढ्य  : स्त्री० [दशनाढ्य, ब० स०, टाप्] लोनिया शाक।
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दश-नाम  : पुं० [सं०द्विगु०स०] तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी संन्यासियों के ये दस भेद।
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दशनामी  : पुं० [हिं०दश+नाम] संन्यासियों का एक वर्ग जो अद्वैतवादी शंकराचार्य के शिष्यों से चला है और जिसमें दशनाम (देखें) वर्ग के दश भेद हैं। वि० १. दशनाम-संबधी। २. दशनाम वर्ग के अंतर्गत किसी नामधारी शाखा या भेद से संबंध रखनेवाला।
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दशप  : पुं०[सं० दशन्√पा (रक्षण)+क]=दशग्रामपति।
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दश-पारमिता-धर  : पुं० [दश-पारमिता, द्विगु स०, दशपारमिता-धर, ष० त०] बुद्धदेव।
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दशपुर  : पुं० [सं० दशन्√पृ (पूर्ण करना)+क] १. केवटी मोथा। २. मावल देश का एक प्राचीन विभाग जिसमें दस मुख्य नगर थे।
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दश-पेय  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का यज्ञ।
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दश-बल  : पुं० [ब० स०] बुद्धदेव।
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दश-बाहु  : पुं० [ब० स०] महादेव।
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दश-भूमिग  : पुं० [दश-भूमि, द्विगु स०,√गम् (जाना)+ड] बुद्धदेव। (जो दस भूमियों या बलों से युक्त समझे जाते हैं)।
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दश-भूमीश  : पुं० [दशभूमि-ईश ष० त०]=दश भूमिग।
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दशम  : वि० [सं० दशन्+ड ट मट्—आगम] १. गिनती में १॰ के स्थान पर पड़नेवाला। २. जो किसी चीज के दसवाँ भाग हो।
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दशम-दशा  : स्त्री० [कर्म० स०] साहित्य में वियोगी की वह दसवीं और अंतिम दशा जिसमें वह परम दुःखी होकर प्राण त्याग देता है।
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दशम-भाव  : पुं० [कर्म० स०] जन्म कुंडली में लग्न के स्थान से दसवाँ घर (ज्यो०)
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दशमलव  : पुं० [सं०] १. गणित में वह बिंदु जो किसी इकाई, का दसवें, सौवें आदि के बीच का कोई अंश सूचित करने के लिए उससे पहले लगाया जाता है। जैसे—६ (६/१॰ भाग); .॰६ (६/१॰॰ भाग) २. उक्त चिह्न लगाकर सूचित की जानेवाली संख्या। (विशेष देखे ‘दशमिक प्रणाली’)
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दशमलवकरण  : पुं० [सं०] गणित में इकाई से कम मान सूचित करनेवाले अंशों को दशमलव का रूप देना। (डेसिमलाइजेशन)
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दशमांश  : पुं० [दशम-अंश, कर्म० स०] किसी चीज के दस समान भागों में से हर एक। दसवाँ भाग या हिस्सा।
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दशमाल  : पुं०=दशमालिक।
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दशमालिक  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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दशमास्य  : वि० [सं० दश-मास, द्विगु स०,+यत्] दस मास की अवस्थावाला। पुं० बालक, जो दस महीने गर्भ में रहता है।
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दशमिक  : वि० [सं०] दशमलव भाग से संबंध रखनेवाला।
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दशमिक प्रणाली  : स्त्री० [सं०] नाप, तौल, मान आदि स्थिर करने की वह गणितीय पद्धति या प्रणाली जिसमें हर मान अपने निकटस्थ बड़े मान का दसवाँ भाग और निकटस्थ छोटे मान का दस गुना होता है। (डेसिमल सिस्टम) जैसे—(क) यदि दस पैसों का एक आना और दस आनों का एक रूपया मान लिया जाय अथवा दस तोले की एक छटाँक, दस छटाँक का एक सेर का एक मन लिया जाय तो यह अवस्था दशमिक प्रणाली के अनुसार होगी। इससे आना तो पैसे का दस-गुना और रुपये का दसवाँ भाग होगा। इस प्रकार सेर तो छटाँक का दस गुना होगा और मन का दसवाँ भाग। (ख) आज-कल भारत में तौल, दूरी, सिक्के आदि के नये मान इसी प्रणाली के अनुसार स्थिर होने लगे हैं।
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दशमिक-भग्नांश  : पुं० [सं०] दशमलव। (दे०)
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दशमी  : स्त्री० [सं० दशम+ङीष्] १. चांद्र मास के प्रत्येक पक्ष की दसवीं तिथि। २. विजया दशमी। ३. मनुष्य की दसवीं और अंतिम दशा, अर्थात् मरण। मृत्यु। मौत। 4. सांसारिक आवागमन और बंधनों से मुक्त होने की अवस्था। मुक्ति। वि० [सं० दशम+इनि] जो अपने अस्तित्व या जीवन के ९॰ वर्ष पार कर सौ वर्षों के लगभग हो रहा हो, अर्थात् बहुत पुराना या बुड्ढा।
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दश-मुख  : पुं० [सं० ब० स०] रावण, जिसके दस मुख थे।
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दश-मूत्रक  : पुं० [सं० द्विगु स०+क] वैद्यक में हाथी, भैंस, ऊँट, गाय, बकरा, मेढ़ा, घोड़ा, गदहा, मनुष्य और स्त्री इन दस जीवों का मूत्र।
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दश-मूल  : पुं० [सं० द्विगु० स०] १. सरिवन, पिठवन, छोटी कटाई बड़ी कटाई, गोखरू, बेल, सोनपाठा, गंभारी, गनियारी और पाठा इन दस वृक्षों की जड़। २. उक्त पेडों की जडों या छालों का बनाया हुआ काढ़ा।
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दश-मौलि  : पुं० [सं० ब० स०] रावण।
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दश-योग-भंग  : पुं० [सं० ष० त०] एक नक्षत्रवेध जिसमें विवाह आदि शुभ कर्म नहीं किये जाते। (फलित ज्योतिष)
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दश-रथ  : पुं० [सं० ब० स०] अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा जिनके राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ये चार पुत्र थे।
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दश-रश्मि-शत  : पुं० [सं० ब० स०] सूर्य।
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दश-रात्र  : पुं० [सं० द्विगु स०,+अच् समा०] एक प्रकार का यज्ञ जो दस रातों में समाप्त होता था।
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दश-वक्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] रावण।
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दश-वदन  : पुं० [सं० ब० स०] रावण।
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दश-वाजी  : (जिन्) पुं० [सं० ब० स०] चंद्रमा, जिसके रथ में दस घोड़े जुते हुए माने जाते हैं।
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दश-वीर  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का यज्ञ।
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दश-शिर (रस्)  : पुं० [सं० ब० स०] रावण।
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दश-शीर्ष  : पुं० [सं० ब० स०] १. रावण। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र, जिससे दूसरों के चलाये हुए अस्त्र व्यर्थ किये जाते थे।
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दशशीश  : पुं०=दश-शीर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दश-स्पंदन  : पुं० [सं० ब० स०] राजा दशरथ जिनके यहाँ दस रथ थे।
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दशहरा  : पुं० [सं० दश हिं० हरा] १. वह उत्सव जिसमें गंगा नदी की पूजा तथा आराधना की जाती है। ३. अश्निवन शुक्ल प्रतिपदा से दशमी तक के दस दिन। ४. विजया दशमी।
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दश-हरा  : स्त्री० [सं०] १. गंगा नदी जो दस प्रकार के पापों की विनाशिनी मानी जाती है।
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दशांग  : पुं० [सं० दशन्-अंग, ब० स०] दस प्रकार के सुगंधित द्रव्यों के योग से बननेवाला एक तरह का धूप।
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दशांग-क्वाथ  : पुं० [सं० मध्य० स०] दस प्रकार की ओषधियों के योग से बननेवाला काढ़ा।
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दशांगुल  : पुं० [सं० दशन्-अंगुलि, ब० स०,+अच्] खरबूजा।
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दशांत  : पुं० [सं० दशा-अंत, ष० त०] जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ।
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दशा  : स्त्री० [सं०√दंश् (काटना)+अङ्, नलोप, टाप्] १. कुछ समय तक बराबर चलने या बनी रहनेवाली कोई घटना अथवा बात हुई हो, होती हो अथवा हो सकती हो। हालत। जैसे—देश की आर्थिक दशा का चित्रण। २. मनुष्य के जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं, परिवर्तनों आदि के विचार से भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ जो संख्या में कहीं ४, कहीं ८ (जन्म शैशव, बाल्य, कौमार, पौगंड, यौवन, जरा और मरण) और कहीं १॰ (अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, संताप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण) कहीं गई है। ३. साहित्य में, रस के अंतर्गत विरही या विरहिणी की अवस्था या हालत। ४. फलित ज्योतिष में, अलग-अलग ग्रहों का नियत या निश्चित भोग-काल जिसका प्रभाव मनुष्य के जीवन-यापन पर पड़ता है। जैसे—आज-कल उनके जीवन पर शनिश्चर(अथवा मंगल, बुध आदि) की दशा चल रहीं है। ५. कपड़े का छोर या सिरा। पल्ला। ६. दीए की बत्ती। उदाहरण—ज्योति बढ़ावति दशा उनारि।—केशव। ७. चित्त या मन। ८. प्रज्ञा। ९. कर्मों का फल। १॰. भाग्य। ११. दे० ‘दशिका’।
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दशाकर्ष  : पुं० [सं० दशा+आ√कृष् (खींचना)+अच्] १. कपड़े का छोर या सिरा। २. दीआ। दीपक।
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दशाकर्षी (र्षिन्)  : पुं० [सं० दशा+आ√कृष्+णिनि]=दशाकर्ष।
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दशाक्षर  : पुं० [सं० दशन्-अक्षर, ब० स०] एक तरह का छंद।
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दशाधिपति  : पुं० [सं० दशा-अधिपति, ष० त०] १. दशाओं के अधिपति ग्रह। (ज्योतिष) २. वह अधिकारी जिसके अधीन दस सैनिक रहते थे।
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दशानन  : पुं० [सं० दशन्-आनन, ब० स०] रावण।
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दशानिक  : पुं० [सं०√अन् (जीना)+घञ् आन+ठक्—इक, दशाआनिक,स० त०] जमाल-गोटा।
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दशा-पवित्र  : पुं० [सं० उपमि० स०] वस्त्र के वे टुकड़े जो श्राद्ध आदि में दान दिये जाते हैं।
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दशाब्द  : पुं० [सं० दशन्-अब्द, द्विगु स०] दस वर्षों का समूह। दशक।
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दसामय  : पुं० [सं० दशन्-आमय, ब० स०] रुद्र।
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दसारुहा  : स्त्री० [सं० दशन्+आ√रुह(उगना)+क—टाप्] कैवर्तिका नाम की लता जिसके पत्तों से तैयार किये हुए रंग के कपड़े रंगे जाते हैं।
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दशार्ण  : पुं० [सं० दशन्-ऋण, ब० स०, वृद्धि] १. विंध्य पर्वत के पूर्व-दक्षिण के उस प्रदेश का प्राचीन नाम जिससे होकर धसान नदी बहती है। विदिशा। (आधुनिक भिलसा) इसी प्रदेश की राजधानी थी। २. जैन पुराणों के अनुसार उक्त प्रदेश का राजा। जिसका अभिमान तीर्थंकर ने चूर्ण किया था। ३. तंत्र में एक दसाक्षर मंत्र।
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दसार्णा  : स्त्री० [सं० दसार्ण+अच्—टाप्] विंध्य पर्वत से निकली हुई धसान नामक नदी।
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दशार्द्ध  : पुं० [सं० दशन्√ऋध् (बढ़ना)+अण्] बुद्धदेव, जो दस बलों से युक्त माने जाते हैं।
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दशार्ह  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश जिस पर किसी समय वृष्णियों का अधिकार था। २. उक्त देश का राजा वृष्णि। ३. राजा वृष्णि के वंश का व्यक्ति। ४. विष्णु। ५. बौद्ध।
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दशावतार  : पुं० [सं० द्विगु स०] विष्णु के दस अवतार।
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दशावरा  : स्त्री० [सं० ] दस सदस्यों की शासन-सभा।
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दशाश्व  : पुं० [सं० दशन्-अश्व, ब० स०] चंद्रमा (जिसके रथ में दस घोड़े लगते हैं)।
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दशाश्वमेध  : पुं० [सं० दशन्-अश्वमेध, ब० स०] १. काशी के अंतर्गत एक प्रसिद्ध घाट और तीर्थ। २. प्रयाग के अंतर्गत एक घाट और तीर्थ। विशेष—कहते हैं कि किसी समय वाकाटकों ने उक्त दोनों स्थानों पर दस-दस अश्वमेध यज्ञ किये थे।
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दशास्य  : पुं० [सं० दशन्-आस्य, ब० स०] दशमुख। रावण।
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दशाह  : पुं० [सं० दशन्-अहन्, द्विगु स०, टच् समा०] १. दस दिन। २. मृतक की मृत्यु के दसवें दिन होने वाले कृत्य।
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दशिका  : स्त्री० [सं० दशा+कन्-टाप्, ह्रस्व, इत्व] कपड़े के थान का छोर या सिरा। छीर। दसी।
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दशी  : स्त्री० दे० ‘दशक’।
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दर्शेधन  : पुं० [सं० दशा-इंधन, ब० स०] दीपक।
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दशेर(क)  : पुं० [सं० दशेर+कन्] १. मरु देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. ऊँट का बच्चा।
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दशेश  : पुं० [सं० दशन-ईश, ष० त०] १. दस ग्रामों का नायक। २. [दश-ईश] सूर्य।
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दष्ट  : भू० कृ० [सं०√दंश्+क्त,षत्व] जो किसी द्वारा डसा गया हो।
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दष्षना  : स०=देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दस  : वि० [सं० दश] १. जो गिनती में नौ से एक अधिक हो। पाँच का दूना। २. अनेक। कई। जैसे—वहाँ दस तरह की बातें होती रहती हैं। पुं० १. नौ और एक के योग की सूचक संख्या। २. उक्त संख्या का सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—१॰.
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दसखत  : पुं०=दस्तखत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दसठौन  : पुं० [सं० दश+स्थान] बुंदेलखंड में प्रचलित एक रीति जिसमें बच्चा जनने के दसवें दिन प्रसूता स्त्री नहाकर सौरीवाले कोठरी से निकलकर दूसरी कोठरी या कमरे में जाती है।
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दस-तपा  : पुं० [हिं० दस+तपना] जेठ महीने में मृगशिरा नक्षत्र के अंतिम दस दिन जिनके खूब तपने पर आगे चलकर अच्छी वर्षा की आशा की जाती है।
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दसन  : पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी झाड़ी जो पंजाब, सिंध, राजपूताने आदि में होती है। दसरनी। पुं०=दशन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दसना  : अ० [हिं० डासना] हिं० ‘दसाना’ का अ० रूप। बिछाया जाना। बिछना। स० दे० ‘दसाना’ (बिछाना)। पुं० बिछौना। बिस्तर। स० दे० ‘डसना’।
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दसबदन  : पुं०=दशवदन (रावण)।
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दस-मरिया  : स्त्री० [हिं० दस+मढ़ना] एक साथ दस तख्ते लंबाई के बल में जोड़कर बरसाती नदी में तैरने के लिए बनाई जानेवाली एक तरह की बड़ी रचना।
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दसमाथ  : पुं० [हिं० दस+माथ] रावण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दसमी  : स्त्री०=दशमी।
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दसरंग  : पुं० [हिं० दस+रंग] मालखंभ की एक प्रकार की कसरत।
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दसरनी  : स्त्री० दे० ‘दसन’ (झाड़ी)।
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दसरान  : पुं० [हिं० दस+रान ?] कुश्ती का एक पेंच।
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दसवाँ  : वि० [सं० दशम] गिनती में दस के स्थान पर आने, पड़ने या होनेवाला। जैसे—महीने का दसवाँ दिन। मुहावरा—दसवाँ द्वार खुलना=(क) मृत्यु के समय ब्रह्मांड (मस्तक का ऊपरी भाग) खुलना या फटना, जिसमें से होकर आत्मा का शरीर से निकलना माना जाता है। (ख) लाक्षणिक रूप में अक्ल या होशहवास गुम हो जाना। पुं० हिंदुओं में वह कृत्य जो किसी के मरने के दसवें दिन होता है।
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दसहरा  : पुं०=दशहरा।
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दसहरी  : पुं० [हिं० दसहरा] एक तरह का बढ़िया आम।
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दसांग  : पुं०=दशांग (एक तरह की धूप)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दसा  : पुं० [हिं० दस] अग्रवाल वैश्यों के दो प्रधान भेदों मे से एक। (दूसरा भेद ‘बीसा’ कहलाता है।) स्त्री०=दशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दसाना  : स०=डसाना। (बिछाना)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दसारन  : पुं०=दशार्ण। (दे०)
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दसारी  : स्त्री० [देश०] एक तरह का छोटा जल-पक्षी।
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दसी  : स्त्री० [सं० दशा या दशिका=कपड़े का छोर] १. कपड़े के थान, दुपट्टे, धोती आदि में लंबाई के बल में दोनों सिरों पर भिन्न रंगों के डोरों में बने हुए चिह्न जो थान के पूरे होने के सूचक होते हैं। छीर। २. ओढ़ने या पहनने के कपड़े का आंचल या पल्ला। ३. चिह्न। निशान। ४. बैल-गाडी में दोनों ओर लगी हुई पटरियाँ। ५. चमड़ा छीलने की राँपी।
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दसेंई  : पुं० [देश०] तेंदू का पेड़।
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दसैं  : स्त्री० [सं० दशमी, हिं० दसई] दशमी तिथि। (पूर्व)
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दसोतरा  : वि० [सं० दशोत्तर] गिनती में जो दस से अधिक हो। पुं० प्रति सौ में दस। क्रि० वि० दस प्रतिशत।
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दसौंधी  : पुं० [सं० दास=दानपत्र+बंदी=भाट] बंदियों या चारणों की एक जाति जो अपने को ब्राह्मण मानती है। ब्रह्मभट्ट। भाट।
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दस्तंदाज़  : वि० [फा०] [भाव० दस्तंदाजी] बीच में हाथ डालने अर्थात् दखल देनेवाला। हस्तक्षेप करनेवाला।
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दस्तंदाजी  : स्त्री० [फा०] किसी काम में हाथ डालने की क्रिया या भाव। किसी होते हुए काम में की जाने वाली छेड़-छाड़ जो प्रायः अनुचित समझी जाती है। हस्तक्षेप।
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दस्त  : पुं० [सं० हस्त से फा०] १. हस्त। हाथ। पद—दस्तकार, दस्तखत, दस्तबरदार आदि। २. पेट में विकार होने के कारण निकलनेवाला असाधारण रूप से पतला मल। प्रायः पानी की तरह पतला शौच होने की क्रिया। मुहावरा—दस्त लगना=बार-बार बहुत पतला मल निकलना या शौच होना।
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दस्तक  : स्त्री० [फा००] १. हाथ से किया हुआ हलका आघात। २. ताली। ३. किसी को बुलाने के लिए उसके दरवाजे पर उक्त प्रकार से खटखटाने की क्रिया। क्रि० प्र०—देना। ४. अधिकारियों द्वारा किसी के नाम निकाला हुआ वह आज्ञा-पत्र जिसमें उससे अपना देन चुकाने के लिए कहा गया हो। क्रि० प्र०—भेजना। पद—दस्तक सिपाही=वह सिपाही जो किसी से मालगुजारी आदि वसूल करने या किसी को पकड़ने के लिए दस्तक (आज्ञा-पत्र) देकर भेजा जाय। मुहावरा—दस्तक माफ करना=(क) क्षमा करना। (ख) उत्तरदायित्व से मुक्त करना। ५. कहीं से कोई माल ले आने या ले जाने के लिए मिला हुआ वह अधिकारपत्र जो कुछ विशिष्ट स्थानों पर दिखाना पड़ता है। निकासी या राहदारी का परवाना। ६. कर। महसूल। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ७. ऐसा आकस्मिक अनावश्यक काम जिसमें कुछ व्यय करना पड़े। मुहावरा—दस्तक बाँधना या लागना=व्यर्थ का व्यय ऊपर डालना। नाहक का खर्च जिम्मे लगाना या लेना। जैसे—तुमने यह चंदे की अच्छी दस्तक बाँध ली है।
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दस्तकार  : पुं० [फा०] [भाव० दस्तकारी] वह कारीगर जो हाथ से छोटे-मोटे उपकरणों की सहायता से (मशीनों से नहीं) चीजें तैयार करता हो। शिल्पी।
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दस्तकारी  : स्त्री० [फा०] १. हाथ से चीजें बनाकर तैयार करने का काम। २. इस प्रकार तैय़ार की हुई कोई वस्तु।
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दस्तकी  : स्त्री० [फा०] १. वह छोटी बही जो याददाश्त के लिए बात आदि टाँकने के काम आती है और प्रायः हर-दम पास रखी जाती है। २. बहेलियों का दस्ताना जो शिकारी पक्षियों के वार को रोकने के लिए हाथ में पहना जाता है।
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दस्तखत  : पुं० [फा०] १. किसी के हाथ के लिखे हुए अक्षर। २. (लेख के अंत में) हाथ से लिखा हुआ अपना नाम जो इस बात का सूचक होता है कि उक्त लेख मेरी इच्छा से लिखा गया है और मैं उससे अनुबद्ध होता हूँ। हस्ताक्षर।
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दस्तखती  : वि० [फा० दस्तखत] जिसपर दस्तखत हो। २. (लेख) जिस पर लिखने या लिखानेवाले का नाम उसी के हाथ का लिखा हो। हस्ताक्षरित। जैसे—दस्तखती चिट्ठी।
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दस्तगीर  : पुं० [फा०] [भाव० दस्तगीरी] किसी का हाथ विशेषतः संकट के समय किसी का हाथ पकड़ने अर्थात् उसका सहायक होनेवाला।
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दस्तगीरी  : स्त्री० [फा०] दस्तगीर अर्थात् सहायक होने की अवस्था या भाव।
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दस्तपनाह  : पुं० [फा०] चिमटा।
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दस्तबरदार  : वि० [फा०] [भाव० दस्तबरदारी] १. जिसने किसी वस्तु पर से अपना अधिकार या स्वत्व छोड़ दिया या हटा लिया हो। २. किसी चीज या बात से बिलकुल अलग रहनेवाला।
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दस्तबरदारी  : स्त्री० [फा०] किसी चीज से अपना अधिकार हटाकर सदा के लिए छोड या त्याग देने की क्रिया या भाव।
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दस्त-बस्ता  : अव्य० [पा० दस्त बस्तः] १. किसी के आगे हाथ बाँधे अर्थात् जोड़े हुए (प्रार्थना करना)। २. विनम्रतापूर्वक।
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दस्तयाब  : वि० [फा०] [भाव० दस्तयाबी] हाथ में आया या मिला हुआ। प्राप्त। हस्तगत।
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दस्तर  : स्त्री०=दस्तार (पगड़ी)।
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दस्तरखान  : पुं० [फा० दस्तरख्वान] वह कपड़ा जिसके ऊपर खाने के लिए भोजन के थाल आदि सजाये या रखे जाते हैं।
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दस्ता  : पुं० [फा० दस्तः] १. हाथ में पकड़ने या रखने की चीज। जैसे—गुल-दस्ता। २. औजारों, हथियारों आदि का वह अंश जो उन्हें काम में लाने या चलाने के समय हाथ से पकड़ा जाता है। बेंट। मूठ। जैसे—आरी, चाकू, तलवार या हथौड़ी का दस्ता। ३. किसी चीज का उतना अंश या भाग जो सहज में हाथ में रखा या लिया जा सकता हो। ४. कागज के २४ या २५ तावों की गड्डी। ५. हाथ में रखने का डंडा। सोंटा। ६. कबा, चोगे आदि में की वह घुंडी जो प्रायः बंद में लगी रहती है। ७. सिपाहियों या सैनिकों का छोटा दल। टुकड़ी। ८. चपरास। ९. गोट। मगजी। संजाफ। १॰. एक प्रकार का बगला जिसे हरगिला भी कहते हैं। पुं० दे० ‘जस्ता’ (कपड़ों आदि का)।
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दस्ताना  : पुं० [फा० दस्तानः] १. पंजे और हथेली में पहनने का बुना हुआ कपड़ा। हाथ का मोजा। २. उक्त प्रकार का लोहे का वह आवरण जो युद्ध के समय हाथों पर (उनकी रक्षा के लिए) पहना जाता था। ३. वह लंबी किर्च या सीधी तलवार जिसकी मूठ के ऊपर कलाई तक पहुँचनेवाला लोहे का आवरण लगा रहता है।
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दस्तावर  : वि० [फा० दस्त आवर] (औषध या खाद्य पदार्थ) जिसे खाने से दस्त आने लगे। रेचक। जैसे—हर्रे दस्तावर होती है।
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दस्तावेज  : स्त्री० [फा०] विधिक क्षेत्रों में, वह कागज जिस पर दो या अधिक व्यक्तियों के पारस्परिक लेन-देन, व्यवहार समझौते आदि की शर्ते लिखी हों और जिस पर संबद्ध लोगों के हस्ताक्षर प्रमाण स्वरूप अंकित हों। लेख्य। (डीड) जैसे—तमस्सुक, दानपत्र, बैनामा, रेहननामा आदि।
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दस्तावेजी  : वि० [फा० दस्तावेज] दस्तावेज-संबंधी। दस्तावेज का। जैसे—दस्तावेजी कागज।
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दस्ती  : वि० [फा० दस्त=हाथ] १. हाथ में रहने या होने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। जैसे—दस्ती रूमाल। २. जो किसी व्यक्ति के हाथ दिया या भेजा गया हो। जैसे—दस्ती, खत, दस्ती वारंट। स्त्री० १. छोटा दस्ता। छोटी बेंट या मूठ। २. वह बत्ती या मशाल जो हाथ में लेकर चलते हों। ३. छोटा कलमदान। ४. वह इनाम या भेंट जो राजा-महाराज स्वयं अपने हाथ से सरदारों आदि को दिया करते थे। ५. कुश्ती का एक पेंच जिसमें पहलवान अपने विपक्षी की दाहिना हाथ दाहिने हाथ से अथवा बायाँ हाथ बाएं हाथ से पकड़कर अपनी ओर खींचता है और तब झटके से उसे गिरा या पटक देता है।
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दस्तूर  : पुं० [फा०] १. बहुत दिनों से चली आई हुई प्रथा या रीति। चाल। परिपाटी। २. कायदा। नियम। विधि। ३. पारसियों के धर्म-पुरोहितों की उपाधि जो दस्तूर (नियम या प्रथा) के अनुसार सब कृत्य करते-कराते हैं। ४. जहाज के वे छोटे पाल जो सबसे ऊपरवाले पाल के नीचे की पंक्ति में दोनों ओर होते हैं। (लश०)
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दस्तूरी  : वि० [फा०] दस्तूर अर्थात् नियम संबंधी। स्त्री० वह धन जो सौदा खरीद कर ले जानेवाले नौकर को दूकानदारों से (कोई सौदा लेनेपर) पुरस्कार रूप में मिलता है।
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दस्पना  : पुं० [फा० दस्तपनाह] चिमटा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दस्म  : पुं० [सं०√दस् (ऊपर फेंकना)+मक्] १. यजमान। २. चोर। ३. दुष्टि व्यक्ति। ४. अग्नि।
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दस्यु  : पुं० [सं०√दस्+युच्] [भाव० दस्युता] १. एक प्राचीन अनार्य जाति। २. अनार्य या म्लेच्छ जो पहले प्रायः यज्ञों में लूट-मार करके निर्वाह करते थे। ३. डाकू। लुटेरा। ४. खल। दुष्ट।
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दस्युता  : स्त्री० [सं० दस्यु+तल्+टाप्] १. दस्यु होने की अवस्था या भाव। २. डकैती। लुटेरापन। ३. क्रूरता और खलता। दुष्टता।
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दस्युवृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. डकैती। लुटेरापन। २. चोरी।
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दस्युहन्  : पुं० [सं० दस्यु√हन् (मारना)+क्विप्] (असुरों को मारनेवाले) इंद्र।
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दस्र  : वि० [सं०√दस्+रक्] १. दोहरा। २. क्रूर। ३. ध्वंसक ४. असम्य। जंगली। पुं० १. दो की संख्या। २. दो का जोड़ा। युग्म। ३. अश्विनी कुमार। ४. शिशिर ऋतु। ५. गधा।
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दस्सी  : स्त्री० [सं० दशा या दशिका] थान के सिरे पर का अंश। छीर।
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दह  : पुं० [सं० ह्रद (आद्यंत विपर्यय)] १. नदी में वह स्थान जहाँ पानी गहरा हो। नदी के अंदर का गहरा गड्ढा। पाल। जैसे—कालीदह। २. पानी का कुंड। हौज। स्त्री०=दाह (जलन)। वि० [सं० दश से फा०] नौ और एक। दस।
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दहक  : स्त्री० [हिं० दहकना] १. दहकने की क्रिया या भाव। २. आग की लपट। धधक। ३. जलन। दाह। ४. पश्चात्ताप या उसके कारण होनेवाली लज्जा।
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दहकन  : स्त्री० [हिं० दहकना] दहकने की क्रिया या भाव। दहक।
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दहकना  : अ० [सं० दहन] १. आग का इस प्रकार जलना कि लपट ऊपर उठने लगे। धधकना। २. तापमान के अत्यधिक बढ़ने के कारण शरीर का जलने लगना। तपना। ३. दुःखी या संतप्त होना।
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दहकान  : पुं० [फा०] १. देहात या गाँव का रहनेवाला व्यक्ति। २. किसान। ३. मूर्ख व्यक्ति।
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दहकाना  : स० [हिं० दहकना] १. आग या और कोई चीज दहकने अर्थात् अच्छी तरह जलने में प्रवृत्त करना। इस प्रकार जलाना कि लपटें निकलने लगें। जैसे—कोयला या लकड़ी दहकाना। २. उत्तेजित करना। भड़काना। संयो० क्रि०—देना।
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दहकानियत  : स्त्री० [फा०] दहकान होने की अवस्था या भाव। गँवारपन।
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दहकानी  : पुं० [फा०] दहकान। वि० दहकानों या गँवारों की तरह का।
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दहग्गी  : स्त्री० [हिं० दाह+आग] गरमी। ताप।
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दहड़-दहड़  : क्रि० वि० [सं० दहन वा अनु०] (आग की लपटों के संबंध में) दहड़-दहड़ शब्द करते हुए।
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दहदल  : स्त्री०=दलदल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहन  : पुं० [सं०√दह् (जलना,जलाना)+ल्युट्—अन] [वि० दहनीय, दह्ममान] १. जलने की क्रिया या भाव। दाह। जैसे—लंका-दहन। २. [√दह+ल्यु—अन] अग्नि। आग। ३. एक रूद्र का नाम। ४. ज्योतिष में एक योग जो पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती नक्षत्रों में शुक्र, ग्रह के आने पर होती है। ५. उक्त के आधार पर तीन की संख्या। ६. कृत्तिका नक्षत्र। ७. क्रूर, क्रोधी और दुष्ट स्वभाववाला मनुष्य। ८. चित्रक या चीता नामक वृक्ष। ९. भिलावाँ। १॰. कबूतर। वि० १. जलानेवाला २. नष्ट करनेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—त्रिपुरदहन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [फा०] मुँह। मुख। पुं० [सं० दैन्य] दीनता (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदाहरण—दहन मानै, दोष न जानै...।—विद्यापति। पुं० [?] कंजा नाम की कँटीली झाड़ी या पौधा।
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दहन-केतन  : पुं० [ष० त०] धूम। धूआँ।
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दहनर्क्ष  : पुं० [दहन-ऋक्ष, कर्म० स०] कृत्तिका नक्षत्र।
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दहन-शील  : वि० [ब० स०] जो जल्दी या सहज में जलता या जल सकता हो।
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दहना  : स० [सं० दहन] १. दहन करना। जलाना। २. बहुत अधिक दुःखी या संतप्त करना। कुढ़ाना या जलाना। अ० १. दहन होना। जलना। २. बहुत अधिक दुःखी या संतप्त होकर मन ही मन कुढ़ना या जलना। वि०-दाहिना। अ० [हिं० दह] नीचे बैठना। धँसना। वि०=दाहिना।
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दहनागुरु  : पुं० [दहन-अगुरू, च० त०] धूप।
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दहनाराति  : पुं० [दहन-अराति, ष० त०] पानी।
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दहनि  : स्त्री० [हिं० दहना] दहन होने अर्थात् जलने की क्रिया या भाव। २. जलन। ताप। ३. मन ही मन होनेवाला संताप। कुढ़न। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहनीय  : वि० [सं०√दह्+अनीयर्] जलने या जलाये जाने के योग्य। जो जलाया जा सके या जलाया जाने को हो।
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दहनोपल  : पुं० [दहन-उपल, च० त०] सूर्यकांतमणि। सूर्यमुखी। आतशी शीशा।
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दहपट  : वि० [हिं० दह=दहन+पट=समतल] १. गिराकर जमीन के बराबर किया हुआ। ढाया हुआ। ध्वस्त। २. चौपट, नष्ट या बरबाद किया हुआ। ३. कुचला, मसला या रौंदा हुआ।
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दहपटना  : स० [हिं० दहपट] १. ध्वस्त करना। ढाना। २. चौपट, नष्ट या बरबाद करना। ३. कुचलना। रौदना। स०=डपटना। (क्व०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहबाट  : वि० [हिं० दह=दस+बाट=रास्ता] छिन्न-भिन्न। तितर-बितर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहबासी  : पुं० [फा० दह=दस+बाशी (प्रत्य०)] दस सिपाहियों का नायक।
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दहर  : पुं० [सं०√दह्+अर] १. छोटा चूहा। चुहिया। २. छछूंदर। ३. भाई। ४. बालक। लड़का। ५. नरक। ६. वरूण। वि० १. छोटा या हल्का। २. कम। थोड़ा। ३. बारीक। महीन। सूक्ष्म। ४. गहन। दुर्बोध। पुं० [सं० ह्रद (वर्ण-विपर्यय)] १. जलाशय के अंदर का गहरा गड्ढा। दह। २. जल का कुंड। हौज।
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दहर-दहर  : क्रि० वि०=दहड़-दहड़।
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दहरना  : अ०=दहलना। स०=दहलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहराकाश  : पुं० [सं० दहर-आकाश, कर्म० स०] १. चिदाकाश। ईश्वर। २. हठयोग के अनुसार हृदय में स्थिति वह छोटा सा अवकाश या स्थान जिसमें विशुद्ध आकाश व्याप्त है, और जिसमें निरंतर अनाहत नाद होता रहता है।
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दहरौरा  : पुं० [हिं० दही+बड़ा] [स्त्री० अल्पा० दहरौरी] १. दही में पड़ा हुआ बड़ा दही-बड़ा। २. एक तरह का गुलगुला।
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दहल  : स्त्री० [हिं० दहलना] १. दहलने की क्रिया या भाव। २. किसी बड़े या विकट काम या चीज को देखकर मन में उत्पन्न होनेवाला वह भय जो सहसा उस काम या चीज की ओर बढ़ने न दे।
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दहलना  : अ० [सं० दर=डर+हिं० हलना=हिलना] १. किसी बड़े या विकट काम या चीज को देखकर इस प्रकार कुछ डर जाना कि वह काम करने अथवा उस चीज की ओर बढ़ने का साहस न हो। इतना डरना कि आगे बढ़ने की हिम्मत न हो। जैसे—शेर की दहाड़ या हाथी की चिंघाड़ सुनकर जी दहलना। २. भय से स्तंभित होकर रुक जाना। संयो० क्रि०—उठना।—जाना। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग स्वयं व्यक्ति के लिए होता है और उसके कलेजे या जी के संबंध में भी। जैसे—सिपाही का दहलना, और सिपाही का कलेजा या जी दहलना।
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दहला  : पुं० [फा० दह=दस+ला (प्रत्य०)] ताश या गंजीफे का वह पत्ता जिस पर दस बूटियाँ हों। दस बूटियोंवाला ताश का पत्ता। पुं०=थाँवला। (वृक्ष का) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहलाना  : स० [हिं० दहलना का स०] ऐसा काम करना जिससे कोई दहल जाय या डरकर आगे बढ़ने से रुक जाय। संयो० क्रि०—देना।
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दहली  : स्त्री०=दहलीज।
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दहलीज  : स्त्री० [हिं० देहरी या देहली का उर्दू रूप] द्वार के चौखट के नीचेवाली लकड़ी जो जमीनपर रहती है। देहरी। डेहरी। देहली।
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दहशत  : स्त्री० [फा० दहशत] किसी भयंकर या विकट आकृति, कार्य या पदार्थ को देखने पर होनेवाला ऐसा डर या भय जो आदमी का साहस छुड़ा दे। जैसे—शेर या साँप की दहशत बहुत जबरदस्त होती है।
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दह-सनी  : स्त्री० [फा० दह=दस+सन्=संवत्] ऐसा खाता या बही जिसमें दस-दस सनों (अर्थात् संवतो) के लेखे या हिसाब अलग-अलग लिखे हों या लिखे जाते हों।
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दहा  : पुं० [सं० दश से फा० दह] १. मुहर्रम मास के प्रारम्भिक दस दिन जिनमें मुसलमान ताजिया रखते और मातम करते हैं। २. ताजिया। ३. मुहर्रम का महीना।
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दहाई  : स्त्री० [फा० दह+आई (प्रत्य०)] १. गिनती में दस होने की अवस्था, भाव या मान। जैसे—पाँच दहाई पचास। २. गिनती के विचार से लिखे हुए अंको का दाहिनी ओर से (बाई ओर से नहीं) दूसरा स्थान जिस पर लिखे हुए अंक का मान उसकी अपेक्षा ठीक दस गुना अधिक माना जाता है। जैसे—१२६ में का ६ इकाई के स्थान पर, २ दहाई के स्थान पर और १ सैकड़े के स्थान पर है।
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दहाड़  : स्त्री० [अनु०] १. दहाड़ने की क्रिया या भाव। २. शेर के जोर से गरजने का शब्द। ३. जोरों की ऐसी चिल्लाहट जो दूसरों को डरा दे।
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दहाड़ना  : अ० [हिं० दहाड़+ना (प्रत्य०)] १. शेर का जोर से शब्द करना। २. इस प्रकार जोर से चिल्लाना कि लोग डर जायँ।
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दहाना  : पुं० [फा० दहानः] १. किसी चीज का मुँह विशेषतः चौड़ा और बड़ा मुँह। २. मशक का मुँह। ३. घोड़े की लगाम जो उसके मुँह में रहती है। ४. भिश्ती की मशक का मुँह। ५. पनाला। मोरी। ६. दे० ‘मुहाना’। (नदी का)।
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दहार  : पुं० [अ० दयार=प्रदेश] १. प्रांत। प्रदेश। २. गाँव के आस-पास की भूमि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० दहाड़।
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दहिऔरी  : स्त्री०=दहरौरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहिँगल  : पुं० [देश०] कीड़े-मकोड़े खानेवाली एक छोटी चिड़िया जिसके परों पर सफेद और काली लकीरे होती हैं। यह रह-रहकर अपनी पूँछ ऊपर उठाया करती है।
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दहिजरा  : वि० १.=दारी-जार। २.=दाढ़ी-जार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहिजार  : वि० १.=दारी-जार। २.=दाढ़ी-जार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहिना  : वि०=दाहिना।
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दहिनावर्त्त  : वि०=दक्षिणावर्त्त।
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दहिने  : अव्य०=दाहिने।
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दहियक  : पुं० [फा० दह=दस] दशमांस। दसवाँ भाग या हिस्सा।
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दहियल  : पुं०=दहला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दही  : पुं० [सं० दधि] दूध में जामन लगाकर जमाये जाने पर उसका तैयार होनेवाला रूप जो थक्के की तरह होता है। पद—दही का तोड़=दही का वह पानी जो उसे कपड़े में बाँधकर रखने पर निकलता है। मुहावरा=दही-दही करना=कोई चीज देने या बेचने के लिए चारों ओर घूम-घूमकर लोगों से उसे लेने के लिए कहते फिरना।
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दहीला  : वि० [सं० दाह] [स्त्री० दहीली] १. जला या जलाया हुआ। २. परम दुःखित। संतप्त। उदाहरण—तातै नहिन काम-दहीली।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दहुँ  : अव्य० [सं० अथवा] १. अथवा। या। किवा। २. कदाचित। शायद। वि० [सं० दश] पुं० हिं० दह (दस) का समष्टि-वाचक रूप। दसों। उदाहरण—बिनु चरनन कौ दहुँ दिसि धावै बिनु लोचन जग सूझै।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दहेंगर  : पुं० [हिं० दही+घड़ा] दही रखने का घड़ा या मटका।
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दहेंड़ी  : स्त्री० [हिं० दही+हाँड़ी] दही रखने की हाँड़ी। उदाहरण—अहै दहेंड़ी जनि धरै, जनि तू लेहि उतार।—बिहारी।
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दहेज  : पुं० [अ० दहेज] कन्या-पक्ष की ओर से विवाह के अवसर पर कन्या को दिया जानेवाला धन और वस्तुएँ जो वह अपने साथ ससुराल ले जाती है। दायजा।
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दहेला  : वि० [हिं० दहना+एला (प्रत्य०)] [स्त्री० दहेली] १. जला हुआ। दग्ध। २. दुःखी। संतप्त। दहीला। वि० [?] १. भींगा हुआ। आर्द्र। २. ठिठुरा या सिकुड़ा हुआ। ३. जिसने किसी रस का अनुभव या भोग किया हो। उदाहरण—जिनकी मति की देह दहेली।—केशव।
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दहोतरसो  : पुं० [सं० दशोत्तरशत्] एक सौ से दस ऊपर अर्थात् एक सौ दस।
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दह्य  : वि० [सं० दाह्य] जो जल सकता हो या जलाया जा सकता हो। (कंबसचिबुल)
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दह्यमान  : वि० [सं०√दह्+शानच्] जो जल रहा हो। जलता हुआ।
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दह्यो  : पुं०=दही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाँ  : पुं० [सं० दाच् (प्रत्य०) जैसे एकदा] दफा। बार। बारी। वि० [फा०] जाननेवाला। ज्ञाता। (यौ० के अंत में) जैसे—फारसी-दाँ=फारसी भाषा जाननेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाँई  : वि०=दाईं।
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दाँग  : स्त्री० [फा०] १. छः रत्ती की तौल। २. किसी चीज का छठा भाग। ३. ओर। दिशा। पुं० [हिं० डूँगर] १. टीला। २. पहाड़ की चोटी। पुं० [हिं० डगा ?] नगाड़ा।
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दाँगर  : वि०, पुं०=डाँगर।
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दाँगी  : स्त्री० [सं० दंडक=डंडा] जुलाहों की कंघी में लगी रहनेवाली लकड़ी।
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दाँज  : स्त्री० [सं० उदाहार्य] १. तुलना। बराबरी। २. स्पर्धा। होड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दांड़  : वि० [सं० दण्ड+अण्] दंड से संबंध रखनेवाला। दंड का।
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दांडक्य  : पुं० [सं० दण्डक+ष्यञ्] ‘दंडक’ होने की अवस्था या भाव। (दे० ‘दंडक’)
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दाँड़ना  : स० [सं० दंडन] १. दंड या सजा देना। २. अर्थ दंड या जुरमाना लगाना।
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दाँड़ाजिनिक  : पुं० [सं० दण्डाजिन+ठञ्—इक] वह जो दंड और अजिन धारण करके अपना अर्थ-साधन करता फिरे। साधु के वेष में लोगों को धोखा देने या ठगनेवाला व्यक्ति।
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दाँड़ा-मेड़ा  : पुं०=डाँड़ामेड़ा।
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दाडिंक  : वि० [सं० दण्ड+ठञ्—इक] दंड देनेवाला। पुं० जल्लाद।
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दाँड़ी  : स्त्री०=डाँड़ी।
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दाँत  : पुं० [सं० दंत, प्रा० दंद] १. अधिकतर रीढ़वाले प्राणियों के मुँह में नीचे और ऊपर की अर्ध-चंद्राकार पंक्तियों में के वे छोटे-छोटे अंश जो हड्डियों की तरह के और अंकुर के रूप में उठे हुए होते हैं और जिनसे वे काटने, खाने, चबाने, जमीन खोदने आदि का काम लेते हैं। विशेष—कुछ रीढ़वाले प्राणी ऐसे भी होते है जिनके गले, तालू या पेट में उक्त प्रकार के कुछ अंग या रचनाएँ होती है। २. मानव जाति के बालकों और वयस्कों के जबड़ों में मसूड़ों के साथ जुड़े हुए वे उक्त अंकुर या अंश जिनकी संख्या प्रायः ३२ (१६ नीचे और १६ ऊपर) होती है; और जिनसे खाने-चबाने आदि के सिवा कुछ वर्णों के उच्चारण में भी सहायता मिलती है। विशेष—अनेक मुहावरों के प्रसंगो में ‘दाँत’ कोई चीज पाने या लेने, क्रोध, दीनता, प्रसन्नता और प्रकट करने अथवा किसी को कष्ट या हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति के भी प्रतीक अथवा सूचक होते हैं। मुहावरा—दाँत उखाड़ना=(क) मसूड़े से दाँत निकालकर अलग करना। (ख) किसी पर ऐसा आघात या प्रहार करना अथवा उसे दंड देना कि वह फिर कोई उपद्रव या दुष्टता करने के योग्य न रह जाय। (किसी से ) दाँत काटी रोटी होना=इतनी अधिक घनिष्ठ मित्रता या मेल-जोल होना कि एक दूसरे के साथ बैठकर एक थाली में भोजन करते हों। दांत काढ़ना=दाँत निकालना। (देखें नीचे) दाँत किरकिराना=कुछ खाने के समय दाँतों के नीचे कंकड़ी, रेत आदि पड़ने के कारण भोजन चबाने में बाधा होना। दाँत किरकिरे होना=प्रतियोगिता, विरोध आदि में कष्ट भोगते हुए बुरी तरह से विफल होना। (किसी के पास) दाँत कुरेदने को तिनका तक न होना=सर्वस्य नष्ट हो जाने के कारण बिलकुल कंगाल हो जाना। (किसी के) दाँत खट्टे करना=किसी को प्रतियोगिता, लड़ाई, विरोध आदि में बुरी तरह से परास्त करना। बुरी तरह से पूरा हराना। (किसी चीज पर) दाँत गड़ाना=कोई चीज अपने अधिकार में करने या पाने के लिए निरंतर उस पर दृष्टि लगाये रहना। दाँत चबाना=दाँत पीसना। (देखें नीचे) दाँत टूटना=(क) दाँत का अपने स्थान से निकलकर अलग होना। (ख) बुढ़ापा या वृद्धावस्था आना। (ग) किसी को कष्ट देने या हानि पहुँचाने की शक्ति से रहित या हीन होना। (किसी के) दाँत तोड़ना=किसी को ऐसी स्थिति में पहुँचाना कि वह कष्ट देने या हानि पहुँचाने के योग्य न रह जाय। (अपने) दाँत दिखाना=तुच्छता और निर्लज्जतापूर्वक हँसना। दाँत निकालना। (किसी क) दाँत दिखाना=इस प्रकार क्रोध प्रकट करना मानों काट ही लेगें या खी ही जायँगे। (पशुओं के) दाँत देखना=घोड़े, बैल आदि की अवस्था या उमर का अंदाज करने के लिए उनके दाँत गिनना। दाँत निकालना=ओछेपन से या निर्लज्जतापूर्वक हँसना। (किसी के आगे या सामने) दाँत निकालना=(क) बहुत ही दीन बनकर कोई प्रार्थना या याचना करना। गिड़गिड़ाना। (ख) तुच्छतापूर्वक अपनी अयोग्यता, असमर्थता या हीनता प्रकट करना। दाँत निपोरना=दाँत निकालना। (देखें ऊपर) दाँत पीसना=बहुत अधिक क्रोध में आकर दाँतों पर दाँत रखकर ऐसी मुद्रा दिखलाना कि मानों खा या चबा ही जायँगे। दाँत बनवाना=गिरे या टूटे हुए दाँतों के स्थान पर नये नकली दाँत बनवाकर लगवाना। दाँत बैठना या बैठ जाना=पक्षाघात, मिरगी, मूर्छा आदि रोगों के आक्रमण की दशा में पेशियों की स्तब्धता के कारण दाँतों की ऊपर ओर नीचेवाली पंक्तियों का परस्पर इस प्रकार मिल या सट जाना कि मुँह जल्दी न खुल सके। नीचे ऊपर के जबड़ों का सट जाना। दाँत मसलना या मिसना=दाँत पीसना। (देखें ऊपर) (किसी चीज पर) दाँत लगना=(क) दांत चुभने या घाव या निशान होना। (ख) (किसी चीज पर) दाँत गड़ना। (देखें ऊपर) (किसी चीज पर) दाँत लगाना=(क) दाँत गड़ाना या धँसाना। (ख) कोई चीज पाने के लिए उसकी घात या ताक में लगे रहना। दाँत से दांत बजना=बहुत अधिक सरदी लगने पर दाढ़ों का इस प्रकार काँपना कि नीचे और ऊपर के दाँत आपस में हलका कट-कट शब्द करते हुए टकराने या बजने लगें। (किसी चीज पर) दाँत होना=कोई चीज पाने या लेने की बहुत अधिक इच्छा होना। (किसी व्यक्ति पर) दाँत होना=(क) बदला चुकाने आदि के उद्देश्य से किसी पर क्रूर दृष्टि होना और उले हानि पहुँचाने की घात या ताक में रहना या होना। (ख) किसी से अनुचित लाभ उठाने की ताक में होना। दाँतों उँगली काटना या दबाना=बहुत अधिक अचरज में आना। चकित हो जाना। दंग रह जाना। (किसी के) दाँतों चढ़ना=ऐसी स्थिति में होना कि कोई हर दम कोसता, गालियाँ देता या बुरा मानता रहे। दाँतों तले उँगली दबाना=दाँतों उँगली काटना या दबाना। (देखें ऊपर) दाँतों धरती पकडकर=(क) अत्यंत दीनता और नम्रतापूर्वक (ख) अत्यंत कष्ट और विवशता या संकीर्णता से। (बच्चे का) दाँतों पर आना या होना=उस अवस्था को पहुँचना जिसमें दाँत निकलनेवाले हों या निकलने लगे हों। दाँतों पर मैल तक न होना=अत्यंत निर्धन होना। कंगाल या बहुत गरीब होना। दाँतों पसीना आना=इतना अधिक परिश्रम होना कि मानों दाँतों तक में पसीना आ गया हो। (किसी का) दाँतो में जीभ की तरह होना=उसी प्रकार सब ओर से विरोधियों या शत्रुओं से घिरे रहना जिस प्रकार जीभ हर तरफ दाँतों से घिरी रहती है। दाँतों मे तिनका गहना, पकड़ना या लेना=दया के लिए उसी प्रकार गौ बनकर अर्थात् दीन-भाव से प्रार्थना या याचना करना जिस प्रकार गौ मुँह में तिनका लेकर सामने आती है। (कोई चीज) दाँतों से उठाना या पकड़ना=बहुत कंजूसी से बचाकर इकट्ठा या संचित करना। (किसी के) तालू में दाँत जमना=दुर्भाग्य के कारण किसी का इस प्रकार आवश्यकता से अधिक उद्दंड, क्रूर या स्वेच्छाचारी होना कि लोगों को उसके पतन या विनाश के दिन पास आते जान पड़े। ३. कुछ विशिष्ट पदार्थों में उक्त आकार-प्रकार के वे अंश जो एक पंक्ति में अंकुरों के रूप में उठे, उभरे या निकले हुए होते हैं। दंदाना। दाँता। जैसे—आरी या कंघी के दाँत, कुछ पौधों के पत्तों में दोनों ओर निकले हुए दाँत, यंत्रों में के चक्करों या पहियों के दाँत। ४. उक्त प्रकार का कोई चिह्न या रूप। मुहावरा—(किसी वस्तु का) दाँत निकालना=जोड़, तल, सीअन का इस प्रकार उखड़, उधड़ या फट जाना कि जगह-जगह दाँत की तरह के चिन्ह दिखाई देने लगे। जैसे—इस जूते ने तो दो महीनों मे दाँत निकाल दिये।
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दाँत  : वि० [सं० दान्त] १. जिसका दमन किया गया हो। दबाया हुआ। २. वस में किया या लाया हुआ। ३. जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया हो। जितेंद्रिय। वि० [सं० दन्त से] १. दाँत का। दाँत-संबंधी। २. दाँत का बना हुआ। पुं० १. मैनफल। २. पहाड़ के ऊपर का जलाशय या बावली। ३. विदर्भ के राजा भीमसेन के दूसरे पुत्र जो दमयंती के भाई थे।
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दाँत-घुँघनी  : स्त्री० [हिं० दाँत+घुँघनी] पोस्ते के दाने की घुँघनी जो बच्चे का पहला दाँत निकलने पर बाँटी जाती है।
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दाँतना  : अ० [हिं० दाँत] १. दांतों से युक्त होना। २. जवान होना। ३. किसी अस्त्र के ताँतों का कुंठित होना।
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दाँतली  : स्त्री० [हिं० डाट] डाट। काग।
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दाँता  : पुं० [हिं० दाँत] दाँत के आकार का बड़ा और नुकीला सिरा। दंदाना। मुहावरा—दाँता पड़ना=किसी हथियार की धार में गुठले होने के कारण कहीं कुछ उभार और कहीं कुछ गड्ढे हो जाना, जिससे वह ठीक काम करने के योग्य नहीं रह जाता।
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दांता  : स्त्री० [सं० दान्त्√दम् (दमन)+क्त+टाप्] एक अप्सरा का नाम (महाभारत)
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दाँता-किटकिट  : स्त्री० [हिं० दाँत+किटकिट(अनु०)] १. प्रायः होती रहनेवाली कहा-सुनी या जबानी लड़ाई। कलह।
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दाँता-किलकिल  : स्त्री०=दाँता-किटकिट।
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दांति  : स्त्री० [सं०√दम् (वश में करना)+क्तिन्], [वि० दांत] १. इंद्रियों को वश में रखना। इंद्रियनिग्रह। २. अधीनता। वश्यता। ३. नम्रता। विनय।
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दांतिक  : वि० [सं० दंत+ठक्—इक] १. दाँत का बना हुआ। २. हाथी दाँत का बना हुआ।
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दाँतिया  : पुं० [?] रेह का नमक जो पीने के तंबाकू में उसे तेज करने के लिए मिलाया जाता है।
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दाँती  : स्त्री० [सं० दांत्री] घास, फसल आदि काटने की हँसिया। स्त्री० [?] १. किनारे पर का वह खूँटा जिसमें रस्से से नाव बाँधी जाती है। २. काली भिड़। ३. छोटा दरी। स्त्री० [हिं० दाँत] दंतावलि। बत्तीसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) मुहावर—दाँती बैठना या लगना=दाँत बैठना या बैठ जाना। (दे० ‘दाँत’ के अंतर्गत मुहा०)
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दाँना  : सं० [सं० दमन] १. कटी हुई फसल के डंठलों से दाने या बीज अलग करना। २.उक्त काम के लिए डंठलों को बैलों से रौंदवाना। दँवरी करना।
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दांपत्य  : वि० [सं० दम्पती+यञ्] वि० दंपति-संबंधी। दंपती या पति और पत्नी में होनेवाला। जैसे—दांपत्य प्रेम। पुं० १. दंपत्ति होने की अवस्था या भाव। २. एक प्रकार का अग्निहोत्र जो दंपती अर्थात् पति और पत्नी दोनों मिलकर करते हैं।
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दांभ  : वि० [सं० दम्भ+अण्] दांभिक। (दे०)
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दांभिक  : वि० [सं० दम्भ+ठक्—इक] १. जिसे दंभ हो। दंभ करनेवाला। २. अभिमानी। घमंडी। ३. ठग। वंचक। ४. पाखंडी। ५. धोखेबाज। पुं० बगला। (पक्षी)
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दायँ  : स्त्री० [अनु०] बंदूक, तोप आदि छूटने का शब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दँवरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाँयाँ  : वि०=दाहिना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाँव  : पुं० [सं० दा (दाच्), जैसे—एकदा] १. दफा। बार। मरतबा। २. क्रम, परम्परा, योग्यता आदि की दृष्टि कोई काम करने के लिए आनेवाली पारी। बारी। जैसे—जब हमारा दाँव आवेगा, तब हम भी समझ लेगें। ३. खेल में प्रत्येक खेलाड़ी के खेलने का अवसर या समय जो एक दूसरे के पीछे क्रम से आता है। खेलने की बारी। मुहावरा—दाँव देना=लड़कों का खेल में हारने पर नियत दंड भोगना या परिश्रम करना। दाँव पूरना= (क) ठीक तरह से बाजी खेलकर अपना पक्ष निभाना। (ख) अपना कर्त्तव्य पूरा करना। उदाहरण—अब की बार जो होय पुकारा कहहिं कबीर ताकों पूर दाँव।—कबीर। दाँव लेना=खेल में हारनेवाले से नियत दंड भोगवाना या परिश्रम कराना। ४. जुए के खेलों में, कौडीं, पाँसे आदि के पड़ने का वह रूप या स्थिति जिससे किसी खेलाड़ी या पक्ष की जीत होती है। हाथ। मुहावरा—(किसी का) दाँव कहना=किसी के कथन यों ही समर्थन करना। हाँ में हाँ मिलना। उदाहरण—रहिमन जौ रहिबौ चहै, कहै वाहि कै दाँव।—रहीम। (अपना) दाँल चलाना=खेल में अपनी पारी या बारी आने पर कौड़ी, गोटी, पत्ता या पाँसा आगे बढ़ाना, फेंकना या सामने रखना। जैसे—अब तुम्हारी बारी है, तुम अपना दाँव चलो। दाँव पर (कुछ) रखना या लगाना=(क) जीत-हार के लिए कुछ धन अथवा कोई वस्तु सामने रखना। किसी चीज की बाजी लगाना। जैसे—(क) उसने ताव में आकर सौ रुपये का एक नोट (या सोने का छल्ला) दाँव पर रख (या लगा) दिया। (ख) कोई ऐसा जोखिम या साहस का काम करना जिसका परिणाम या फल बिलकुल अनिश्चित हो। जैसे—इस रोजगार (या सौदे) में उन्होने अपनी सारी संपत्ति दाँव पर रख दी थी। दाँव फेकना=अपनी बारी आने पर कौडी या पाँसा फेंकना। ५. किसी काम या बात के लिए अनुकूल या उपयुक्त अवसर, समय या स्थिति। ठीक जगह मौका, या हालत। जैसे—वहाँ से उसके बच निकलने का कोई दाँव नहीं रह गया था। मुहावरा—दाँव चूकना=ठीक अवसर या मौके पर आवश्यक या उचित काम करने से रह जाना या वंचित होना। दाँव ताकना=अवसर या मौके की ताक में रहना। दाँव पड़ना=अनुकूल या उपयुक्त अवसर प्राप्त होना। उदाहरण—पूरब पुन्यनि दाँव पर्यौ अब राज करौ...।—कबीर। दाँव लगना=उपयुक्त अवसर या मौका हाथ आना। ६. अपना काम निकालने का अच्छा ढंग या युक्ति। सोच-समझकर निकाली हुई तरकीब। मुहावरा— (किसी के) दाँव पर चढ़ना=किसी को अपनी युक्ति के जाल में इस प्रकार पडऩा या फँसना कि उसका उद्देश्य सिद्ध हो जाय। (किसी को) अपने दाँव पर चढ़ना या लाना=किसी को अपनी युक्ति के जाल में इस प्रकार फँसाना कि सहज में उससे काम निकाला जा सके। जैसे—कुश्ती में हर पहलवान अपने प्रतिद्वंद्वी को दाँव पर लाने की तरकीब करता है। (किसी के) दाँव में आना=(किसी के) दाँव पर चढ़ना। (देखें ऊपर) ७. अपना काम निकालने का ऐसा ढंग या युक्ति जिसमें कुछ कुटिलता या चालबाजी हो। कपट या छल से भरी हुई तरकीब। चालाकी। मुहावरा—(किसी के साथ) दाँव करना या खेलना=चालाकी से भरी हुई तरकीब करना। चालबाजी या धूर्त्तता करना। (किसी से) दाँव लेना=जिसने बुरा व्यवहार किया हो, उपयुक्त अवसर लाने पर उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करना। बदला चुकाना, निकालना या लेना। विशेष—यद्यपि इस शब्द का उच्चारण सदा ‘दाँवँ’ ही होता है; फिर भी लिखने में ‘दाँव’ रूप ही प्रशस्त और शिष्ट-सम्मत है।
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दाँवना  : स०=दाँना।
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दाँवनी  : स्त्री० १.=दावनी। (गहना) २.=दँवरी। ३.=दाँवरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाँवरी  : स्त्री० [सं० दाम] रस्सी। डोरी। स्त्री०=दँवरी।
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दा  : अव्य० [हिं०] दफा। बार। (यौ० के अंत में) जैसे—एकदा। प्रत्य० [सं०] समस्त पदों के अंत में, देनेवाला। जैसे—धनदा, पुत्रदा। पुं० [अनु०] सितार का एक बोल। उदाहरण—दा दि दाड़ा इत्यादि। विभ० [पं०] ‘का’ विभक्ति का पंजाबी रूप। जैसे—मिट्टी दा पुतला।
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दाइ  : पु० १.=दाय। २.=दाँव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाइज  : पुं०=दायजा। (दहेज)।
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दाइजा  : पुं०=दायजा।
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दाई  : स्त्री० [सं० दाक् या दाँ] दफा। बार। वि० हिं० ‘दाँयाँ’ (दाहिना) का स्त्री० रूप। स्त्री०=दाँज (बराबरी) जैसे—देखो तुम्हारी दाईं का लड़का कैसा काम करता है।
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दाई  : स्त्री० [सं० धात्री, मि० फा० दायः] १. दूसरे के बच्चे को अपना दूध पिलानेवाली स्त्री। धाय। दाया। २. बच्चों की देख-रेख करने और उन्हें खेलाने वाली दासी या नौकरानी। ३. घर का चौका-बरतन तथा इसी तरह के दूसरे काम करनेवाली नौकरानी। मजदूरनी। ४. वह स्त्री जो प्रसव-काल में बच्चा जनाने का काम जानती और करती है। प्रसूता की उपचारिका। मुहावरा—दाई से पेट छिपाना=अच्छी तरह से जाननेवाले से कोई बात छिपाना। ऐसे व्यक्ति से कोई बात छिपाना जो सारा रहस्य जानता हो। स्त्री० [हिं० दादी] १. पिता की माता। दादी। २. बढ़ी-बूढ़ी स्त्रियों के लिए संबोधन। वि० देनेवाला। जैसे—सुखदाई।
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दाउँ  : पुं०=दाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाउ  : स्त्री०=दावानल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दाँव।
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दाउनी  : स्त्री०=दावनी। (सिर पर का गहना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाउर  : पुं० [सं० दारु] कपड़ा धोने का काठ का डंडा। पिटना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाऊ  : पुं० [सं० देव] १. बड़ा भाई। २. बलदेव या बलराम। (कृष्ण के बड़े भाई)।
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दाऊद  : पुं० [अ०] एक पैगंबर जिनका स्वर बहुत मधुर था।
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दाउदखानी  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार का चावल। २. एक प्रकार का बढ़िया गेहूँ। दाऊदी। गंगाजली।
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दाऊदिया  : पुं० [अ० दाऊद] १. एक प्रकार का गेहूँ। दाऊदी। २. गुलदावदी का फूल। ३. एक प्रकार की आतिशबाजी जिसमें उक्त फूल के सदृश चिनगारियाँ निकलती हैं। ४. एक प्रकार का कवच।
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दाऊदी  : पुं० [अ० दाऊद] १. एक प्रकार का बढ़िया जाति का गेहूँ जिसका छिलका बहुत नरम तथा सफेद रंग का होता है। २. एक प्रकार का नरम छिलकेवाला बढिया आम।
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दाक  : पुं० [सं०√दा (देना)+क, कलोपाभाव] १. यजमान। २. दाता।
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दाक्ष  : वि० [सं० दक्ष+अण्] दक्ष संबंधी। पुं० दक्षिण दिशा।
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दाक्षायण  : वि० [सं० दाक्षि+फक्—आयन] १. दक्ष-संबंधी। दक्ष का। २. दक्ष से उत्पन्न या उसके वंश का। ३. दक्ष के गोत्र का। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. सोने की मोहर। अशरफी। ३. सोने का बना हुआ गहना। ४. एक यज्ञ जो वैदिक काल में दक्ष प्रजापति ने किया था।
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दक्षायणी  : स्त्री० [सं० दक्ष+फिञ्—आयन,+ङीष्] १. दक्ष की कन्या। सती। २. दुर्गा। ३. कश्यप की पत्नी अदिति। ४. अश्विनी, भरणी, रोहिणी आदि नक्षत्र। ५. दंती वृक्ष।
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दाक्षायणी-पति  : पुं० [ष० त०] चंद्रमा।
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दाक्षायण्य  : पुं० [सं० दाक्षायणी+यत्] सूर्य।
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दाक्षि  : पुं० [सं० दक्ष+इञ्] दक्ष का पुत्र।
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दाक्षि-कंथा  : स्त्री० [ष० त०] वाह्लीक देश।
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दाक्षिण  : वि० [सं०] दक्षिण दिशा में होनेवाला। दक्षिण-संबंधी। पुं० एक होम का नाम (शतपथब्राह्मण)
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दाक्षिणक  : पुं० [सं० दक्षिणा+वुञ्—अक] वह बंध जो दक्षिणा की कामना से इष्टापूर्ति आदि कर्म करने पर प्राप्त होता है।
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दाक्षिणात्य  : वि० [सं० दक्षिणा+त्यक्, नि० आदि पद वृद्धि] दक्षिण दिशा में होनेवाला। दक्षिणी। पुं० १. दक्षिण भारत। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. उक्त प्रदेश में होनेवाला नारियल।
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दाक्षिणिक  : वि० [सं० दक्षिण+ठक्—इक] दक्षिण-संबंधी। दक्षिणी।
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दाक्षिण्य  : वि० [सं० दक्षिण+ष्यञ्] दक्षिण संबंधी। पुं० १. दक्षिण होने की अवस्था या भाव। २. अनुकूल या प्रसन्न आदि होने की अवस्था या भाव। ३. दूसरे को प्रसन्न करने का भाव अथवा योग्यता। (साहित्यशास्त्र)
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दाक्षी  : स्त्री० [सं० दाक्षि+ङीष्] १. दक्ष की कन्या। २. पाणिनी की माता का नाम।
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दाक्षेय  : पुं० [सं० दाक्षी+ढक्—एय] पाणिनी मुनि।
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दाक्ष्य  : पुं० [सं० दक्ष+ष्यञ्] दक्षता।
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दाख  : स्त्री० [सं० द्राक्षा] १. अंगूर नामक लता और उसका फल। २. मुनक्का। ३. किशमिश। वि०=दक्ष। उदाहरण—ताकों विहित बखानहीं, जिनकी कविता दाख।—मतिराम।
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दाखना  : स० १.=दिखाना। २.=देखना।
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दाख-निर्विषी  : स्त्री० [हिं० दाख+ सं० निर्विषी] हर-जेवड़ी नामक झाड़ी जिसकी पत्तियों और जड़ों का औषध के रूप में व्यवहार होता है। पुरही।
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दाखिल  : वि० [फा०] १. जो किसी विशिष्ट क्षेत्र या स्थान की सीमा लाँघ कर उसमें प्रविष्ट कर चुका हो। २. कहीं आया या पहुँचा हुआ। ३. जो कहीं दिया या पहुँचाया गया हो। (फाइल्ड)
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दाखिल-खारिज  : पुं० [अ०] किसी वस्तु पर से किसी का स्वामित्व बदलने पर पुराने स्वामी का नाम काटकर नये स्वामी का नाम सरकारी कागज पत्रों पर चढ़ाया जाना।
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दाखिल-दफ्तर  : वि० [फा० दाखिल] (निवेदन, याचना आदि संबंधी पत्र) जो बिना किसी प्रकार का निर्णय या विचार किये, परंतु रक्षित रखने के लिए दफ्तर के कागज-पत्रों, नत्थियों आदि में रख दिया गया हो।
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दाखिला  : पुं० [फा० दाखिलः] १. किसी व्यक्ति के कहीं दाखिल या प्रविष्ट होने की क्रिया या भाव। २. नियत शुल्कों आदि के अतिरिक्त वह धन जो पहले-पहल किसी संस्था में दाखिल या सम्मिलित होकर उसके सदस्यों के नाम लिखाने के समय अथवा विद्यालयों आदि में भरती होने के समय विद्यार्थियों को देना पड़ता है। प्रवेश-शुल्क। ३. वह पत्र जो कहीं कुछ चीजें दाखिल या जमा करने पर उसके प्रमाण के रूप में लिखा करनेवाले का नाम, पता आदि बातें लिखी रहती हैं।
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दाखिली  : वि० [अ०] १. आंतरिक। भीतरी। अंतरंग। ‘खारिजी’ का विपर्याय। २. दिली। हार्दिक।
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दाखी  : स्त्री०=दाक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाग  : पुं० [सं० दाह] १. जलाने की क्रिया या भाव। दाह। २. हिंदुओं में मृतक का शव जलाने की क्रिया या भाव। मुहावरा—दाग देना=मृतक का दाह कर्म करना। मुरदे का शव जलाना। ३. जलने के कारण अंग या वस्तु पर पड़नेवाला दाग या चिन्ह। ४. जलन। ताप। ५. ईर्ष्या। डाह। पुं० [फा० दाग] [वि० दागी] १. किसी वस्तु के तल पर बना या लगा हुआ वह चिह्न जो उसका सौन्दर्य कम करता हो। धब्बा। जैसे—धोती या कमीज पर लगा हुआ स्याही या रंग का दाग। पद—सफेद दाग। (देखें) २. किसी प्रकार के भीतरी विकार का सूचक ऐसा चिह्न जो किसी वस्तु के बाहरी तल पर दिखाई देता हो। जैसे—इस सेव पर सड़ने का दाग है। ३. मुगल शासन-काल की एक प्रथा जिसके अनुसार सैनिकों के घोड़ों के पुट्ठों पर, पहचान के लिए गरम लोहे से जलाकर चिह्न या निशान बना दिया जाता था। ४. चरित्र, यश आदि पर (अपराध, दोष आदि के कारण) लगनेवाला कलंक। धब्बा। लांछन। जैसे—इसने अपने खानदान पर दाग लगाया है। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। ५. किसी प्रकार की दुर्घटना आदि के कारण मन को होनेवाला ऐसा कष्ट या दुःख जो जल्दी दूर न हो सके या भुलाया न जा सके। जैसे—जवान लड़के के मरने का दाग। पद—दागे जिगर=संतान का शोक।
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दागदार  : वि० [फा०] १. जिस पर किसी तरह का दाग या धब्बा लगा हो। २. जो किसी अपराध या दोष में दंडित या सम्मिलित हो चुका हो। ३. जिस पर कोई कलंक लगा हो या लग चुका हो।
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दागना  : स० [फा० दाग़] १. किसी चीज का तल गरम लोहे आदि से इस प्रकार जलाना या झुलसाना कि उस पर दाग पड़ जाय। जैसे—शरीर पर शंख, चक्र आदि की मुद्राएँ दागना। विशेष—प्रायः किसी को दंड या कष्ट देने, भूत-प्रेत की बाधा या यम-यातना आदि के बचाने के लिए यह क्रिया की जाती है। २. तेजाब, दाहक औषध आदि से किसी घाव या फोड़े पर इस उद्देश्य से लगाना जिसमें उसका विषाक्त अंश जल जाय और इधर-उधर फैलने न पावे। ३. तोप, बंदूक आदि की प्याली में के बारूद में इसलिए आग लगाना कि उसके फल-स्वरूप गोली निकलकर अपने निशाने पर जा लगे। ४. आज-कल (यांत्रिक और रासायनिक प्रक्रियाओं में) चलनेवाली तोप, बंदूक आदि चलाना। ५. पहचान आदि के लिए किसी चीज पर कोई अंक, चिह्न या निशान बनाना। अंकित या चिह्रित करना। जैसे—बाजाजों का कपड़े का थान दागना; अर्थात् उन पर मूल्य आदि अंकित करना। संयो० क्रि०—देना।
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दाग-बेल  : स्त्री० [फा० दाग+हिं० बेल] वे रेखाएँ या चिह्न जो किसी जमीन पर इमारत आदि की नीव खोदने के समय अथवा किसी प्रकार के विभाग सूचित करने के लिए बनाये या लगाये जाते हैं।
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दागर  : वि० [हिं० दागना] १. नष्ट करनेवाला। २. दागदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दागल  : वि० [फा० दाग़] दागदार। उदाहरण—अकबरिये, इकबार, दागल की सारी दुनी।—दुरसा जी।
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दागी  : वि० [फा० दाग़] १. जिस पर किसी तरह का दाग या धब्बा लगा हो। २. जिसके ऊपर कोई ऐसा चिह्न हो जो भीतरी विकार, सड़न आदि का सूचक हो। जैसे—दागी फल। ३. जिस पर कोई कलंक या लांछन लगा हो या लग चुका हो। ४. जिसे न्यायालय से करावास का दंड मिल चुका हो। जो किसी अपराध में जेल की सजा भोग आया हो।
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दाघ  : पुं० [सं०√दह् (जलाना)+घञ्] १. गरमी। ताप। २. जलन। दाह।
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दाज  : पुं० [?] १. अँधेरी रात। २. अंधकार। अँधेरा। पुं०—दहेज। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दाझ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाजन  : स्त्री०=दाझन।
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दाजना  : अ०, स०=दाझना।
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दाझ  : स्त्री० [सं० दाह] जलन। ताप। उदाहरण—धूप दाझ तैं छाँह तकाई मति तरबर सचुपाऊँ।—कबीर।
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दाझन  : स्त्री० [सं० दग्ध] दाझने अर्थात् दग्ध करने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाझना  : अ० [सं० दग्ध वा दाहन] १. जलना। २. ईर्ष्या या डाह करना। स० १. जलाना। २. बहुत अधिक दुःखी, पीड़ित या संतप्त करना।
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दाझनि  : स्त्री०=दाझन।
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दाटक  : वि० [?] १. दृढ़। पक्का। २. बलवान्। बलिष्ठ। उदाहरण—दाटक अनड़ दंड नह दीधौ, दोयण धड सिर दाब दियो।—दुरसा जी। ३. पराक्रमी।
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दाटना  : स०=डाँटना। अ० [?] जान पड़ता। प्रतीत होना।
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दाड़क  : पुं० [सं०√ल् (दलन करना)+णिच्+ण्वुल्—अक] १. दाढ़। डाढ़। २. दाँत।
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दाड़व  : पुं० [?] पुराणानुसार काशी से दो योजन पश्चिम एक गाँव जिसमें कल्कि भगवान अधर्मी म्लेच्छों का नाश करने के उपरांत शांतिपूर्वक निवास करेंगे।
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दाड़स  : पुं० [हिं० दाढ़] एक प्रकार का साँप। पुं०=ढारस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाड़िंब  : पुं० [सं० दाडिम] अनार का वृक्ष और उसका फल।
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दाड़िम  : पुं० [सं०√दल् (भेदन)+घञ्, दाल+इमप्,ल—ड] १. एक प्रसिद्ध पौधा और उसका फल। अनार। २. इलायची।
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दाड़िम-पुष्पक  : पुं० [ब० स०, कप्] रोहितक नामक वृक्ष। रोहेड़ा।
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दाड़िम-प्रिय  : पुं० [ब० स०] शुक। तोता।
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दाड़िममाष्टक  : स्त्री० [दाडिम-अष्टक, मध्य० स०] वैद्यक में एक प्रकार का चूर्ण जिसमें अनार का छिलका तथा कुछ और चीजें पड़ती हैं।
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दाड़िमीसार  : पुं०=दाडिम।
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दाड़ी  : स्त्री० [√दल् (भेदन)+घञ्,+ङीष्] दे० ‘दाड़िम’। स्त्री०=दाढ़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाढ़  : स्त्री० [सं० दंष्ट्रा; प्रा० डड्डा या सं० दाड़क] जबड़े के भीतर के मोटे चौखूँटें दाँत जो दोनों ओर दो-दो ऊपर और नीचे होते हैं। चौभर। मुहावरा—दाढ़ गरम गरम होना=अच्छी-अच्छी चीजें अधिक मात्रा में खाने को मिलना। स्त्री०=दहाड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाढ़ना  : स०=दाहना। (जलाना) अ०=दहाड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाढ़ा  : पुं० [सं० दाह] १. बन की आग। दावानल। २. अग्नि। आग। ३. जलाने के लिए लकडियों, पत्तों आदि का बनाया या लगाया हुआ ढेर। ४. गरमी। ताप। ५. जलन। दाह। मुहावरा—दाढ़ा फूँकना=बहुत अधिक जलन या दाह उत्पन्न करना। पुं० [हिं० दाढ़ी] ऐसी बड़ी दाढ़ी जिसमें बहुत अधिक घने और लंबे बाल हों बड़ी दाढ़ी। पुं०=दाढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=डाढ़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाढ़िका  : स्त्री० [सं० दाढ़ा+क+टाप्] दाढ़ी।
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दाढ़ी  : स्त्री० [सं० दाढ़िका] १. मनुष्यों में पुरुष जाति के लोगों की ठोढ़ी पर उगनेवाले बाल जो या तो मुँड़वाकर साफ किये जाते हैं या बढ़ाकर बड़े बड़े किये जाते हैं। मुहावरा—दाढ़ी घुटवाना या बनवाना=दाढ़ी पर के बाल उस्तरे से मुँड़वाना। २. ठोढ़ी। चिबुक। ३. कुछ विशिष्ट प्रकार के पशुओं की ठोढ़ी पर के वे बाल जो प्रायः बढ़कर झूलने या लटकने लगते हैं। जैसे—बकरे की दाढ़ी।
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दाढ़ीजार  : पुं० [हिं० दाढ़ी+जलना] स्त्रियों की एक गाली जो वे बहुत क्रुद्ध होने पर पुरुषों को देती हैं, और जिसका अर्थ होता है—जिसकी दाढ़ी जलाई गई हो अथवा मुँह झुलसा या फूँका गया हो। विशेष—कुछ लोग इसको सं० ‘दारी-जार’ (अर्थात् दुश्चरित्रा स्त्री का यार और संगी-साथी) से व्युत्पन्न मानते हैं।
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दाण  : पुं०=दान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दात  : पुं० [सं० जातव्य] १. दान के रूप में शुभ अवसर पर किसी को दिया जानेवाला पदार्थ। २. दान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० दाता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दातन  : स्त्री०=दातुन।
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दातव्य  : वि० [सं०√दा (देना)+तव्यत्] १. जो दिया जाने को हो या दिया जा सकता हो। २. दान संबंधी। दान का। ३. जहाँ से दान रूप में कुछ दिया जाता हो। जैसे—दातव्य औषधालय। पुं० १. दान। २. दानशीलता। ३. वह धन जो चुकाना या देना आवश्यक हो। (ड्यू) जैसे—कर या महसूल।
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दाता (तृ)  : वि० [सं०√दा+तृच्] [स्त्री० दात्री] १. समस्त पदों के अंत में, देनेवाला। जैसे—सुखदाता। २. बहुत अधिक दान करनेवाला। दानशील। पुं० १. ईश्वर या परमात्मा जो सब को सब-कुछ देता है। २. बहुत बड़ा दानी व्यक्ति।
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दातापन  : पुं० [सं० दाता+हिं० पन] बहुत बड़ा दाता होने की अवस्था या भाव। दानशीलता।
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दातार  : वि० [सं० दाता का बहु०] दाता। देनेवाला। बहुत दान देनेवाला। बहुत बड़ा दाता।
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दाति  : स्त्री० [सं०√दा(दान)+क्तिच्] १. देने की क्रिया या भाव। २. वितरण। ३. किसी दूसरे स्थान से किसी के नाम आई हुई वस्तु उसे देना या पहुँचाना। (डिलीवरी)
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दाती  : स्त्री० [हिं० ‘दाता’ का स्त्री०] देनेवाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दातुन  : स्त्री० [हिं० दाँत+अवन (प्रत्य०)] १. किसी पेड़ की पतली नरम टहनी का वह टुकड़ा जिसका अलग सिरा कुचलकर दाँत साफ किये जाते हैं। २. दाँत और मुँह अच्छी तरह साफ करने की क्रिया।
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दातुन  : स्त्री० [सं० दंती] १. दंती की जड़। २. जमालगोटे की जड़। स्त्री०=दातून।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दातृता  : स्त्री० [सं० दातृ+तल्+टाप्] दाता होने की अवस्था या भाव। दानशीलता।
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दातृत्व  : पुं० [सं० दातृ+त्व] दानशीलता। दातृता।
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दातौन  : स्त्री०=दतुवन। स्त्री०=दातुन।
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दात्यूह  : पुं० [सं० दाति√ऊह् (वितर्क)+अण्] १. पपीहा। चातक। २. बादल। मेघ।
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दात्योनि  : स्त्री०=दातुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दात्यौह  : पुं० [सं० दात्यूह (पृषो० सिद्धि)] १. पपीहा। २. बादल।
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दात्र  : पुं० [सं०√दो (काटना)+ष्ट्रन्] [स्त्री० अल्पा० दात्री] घास, फूस आदि काटने की दरांती। दाँती। हँसिया।
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दात्री  : स्त्री० [सं० दातृ+ङीष्] देनेवाली। स्त्री० दराँती या हँसिया नामक औजार।
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दात्व  : पुं० [सं०√दा (दान)+त्वन्] १. दाता। २. यज्ञ का अनुष्ठान। ३. यज्ञ।
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दाद  : स्त्री० [सं० दद्रु] एक प्रसिद्ध चर्म रोग जिसमें शरीर के किसी अंग में ऐसे चकते पड़ जाते हैं, जिनमें बहुत खुजली होती है। वि० [फा०] समस्त पदों के अंत में दिया हुआ। जैसे—खुदादाद। स्त्री० १. इंसाफ। न्याय। क्रि० प्र०—चाहना।—देना।—माँगना। २. न्याय के लिए की जानेवाली प्रार्थना। ३. न्यायपूर्वक (अर्थात् बिना किसी प्रकार के पक्षपात के) किसी द्वारा किये हुए किसी काम और उसके कर्त्ता की भी की जानेवाली प्रशंसा। सराहना। मुहावरा—दाद देना=न्यायपूर्वक और बिना पक्षपात किये किसी की उक्ति, कार्य आदि की प्रशंसा करना। दाद पाना=उचित, अनुग्रह, न्याय, सत्कार आदि का पात्र या भाजन बनना। उदाहरण—सदा सर्बदा राज राम कौ सूर दादि तहँ पाई।—सूर।
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दाद-ख्वाह  : वि० [फा०] न्याय चाहनेवाला। फरियाद करनेवाला।
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दादगर  : वि० [फा०] न्याय करनेवाला।
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दादनी  : स्त्री० [फा०] १. वह जो दिया जाने को हो। दातव्य २. वह धन जो किसी काम के लिए अग्रिम या पेशगी दिया जाय; विशेषतः वह धन जो खेतिहरों को अनाज पैदा होने के पहले बनिया या महाजन इसलिए पेशगी देता है कि अनाज दूसरों के हाथ न बिकने पावे।
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दादमर्दन  : पुं० [सं० दद्रुमर्दन] चकवँड़ नामक पौधा, जिसकी पत्तियाँ पीसकर दाद पर लगाई जाती हैं।
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दाद-रस  : वि० [फा०] न्याय करनेवाला।
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दादरा  : पुं० [?] संगीत में एक प्रकार का चलता गाना। (पक्के या शास्त्रीय गानों से भिन्न)।
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दादस  : स्त्री० [हिं० दादा+सास] सास की सास। ददिया सास।
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दादा  : पुं० [सं० तात] [स्त्री० दादी] १. पिता का पिता। पितामह। २. बड़े-बूढ़ों के लिए आदरसूचक संबोधन। पुं० [स्त्री० दीदी] बड़ाभाई।
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दादि  : स्त्री०=दाद (न्याय)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दादी  : पुं० [फा० दाद] वह जो दाद (अर्थात् कष्ट का प्रतिकार) चाहता हो। दाद या न्याय का प्रार्थी। स्त्री० हिं० ‘दादा’ (पितामह) का स्त्री०।
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दादु  : स्त्री० [सं० दद्रु] दाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दादुर  : पुं० [सं० दर्दुर] मेंढक। मंडूक।
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दादुल  : पुं०=दादुर। (मेंढक)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दादू  : पुं० [अनु० दादा] १. दादा के लिए संबोधन या प्यार का शब्द। २. बडे भाई के लिए स्नेहसूचक संबोधन। पुं० दे० ‘दादू दयाल’।
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दादूदयाल  : पुं० एक प्रसिद्ध संत जिनके नाम पर दादू नाम का पंथ चला है। कहते हैं कि ये अहमदाबाद के धुनिया थे। जो अकबर के शासन काल में हुए थे। कबीर-पंथी इन्हें कबीर का अनुयायी कहते हैं।
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दादूपंथी  : पुं० [हिं० दादू+पंथी] दादू दयाल नामक संत के चलाये हुए पंथ या संप्रदाय का अनुयायी।
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दाध  : स्त्री० [सं० दाह] जलन। दाह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाधना  : अ० [सं० दग्ध] जलाना। भस्म करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाधिक  : वि० [सं० दधि+ठक्—इक] दही का बना हुआ। जिसमें दही डाला गया हों।
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दाधिचि  : पुं०=दाधीच।
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दाधीच  : पुं० [सं० दधीचि+अण्] दधीचि ऋषि का वंशज।
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दान  : पुं० [सं०√दा (दान)+ल्युट्—अन] १. किसी को कुछ देने की क्रिया या भाव। देन। २. धर्म, परोपकार, सहायता आदि के विचार से अथवा उदारता, दया आदि से प्रेरित होकर किसी को कुछ देने की क्रिया या भाव। खैरात। ३. उक्त प्रकार से दिया हुआ धन या कोई वस्तु। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। ४. राजनीति के चार उपायों में से एक, जिसमें किसी को कुछ देकर शत्रु का पक्ष निर्बल किया जाता है अथवा विरोधी को अपनी ओर मिलाया जाता है। ५. कर। महसूल। ६. हाथी के मस्तक से निकलनेवाला मद। ७. शुद्धि। ८. छेदने की क्रिया या भाव। छेदन। ९. एक प्रकार का मधु या शहद। वि० [फा०] १. जाननेवाला। जैसे—कद्र-दान। २. (यौ० के अंत में संज्ञा रूप में प्रयुक्त) आधार या पात्र बनकर अपने अंतर्गत रखनेवाला। जैसे—कलमदान, पानदान।
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दानक  : पुं० [सं० दान+कन्] कुत्सित या निकृष्ट दान। बुरा दान।
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दान-कुल्या  : स्त्री० [ष० त०] हाथी का मद।
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दान-धर्म  : पुं० [मध्य. स०] दान देने का धर्म।
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दान-पति  : पुं० [ष० त०] १. बहुत बड़ा दानी। २. अक्रूर का एक नाम जो स्यमंतक मणि के प्रभाव से सदा बहुत अधिक दान करता रहता था।
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दान-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें अपनी संपत्ति सदा के लिए किसी को दान रूप में देने का उल्लेख किया जाता है।
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दान-पात्र  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिसे दान देना उचित हो। दान प्राप्त करने का अधिकारी।
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दान-प्रतिभू  : पुं० [ष० त०] किसी के द्वारा लिये जानेवाले धन की जमानत करनेवाला व्यक्ति।
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दान-प्रतिष्ठा  : स्त्री० [ष० त०] किसी दान की हुई संपत्ति के साथ दक्षिणा रूप में दिया जानेवाला धन। दक्षिणा। उदाहरण—पुनि कछु गुनि बोले अब दान-प्रतिष्ठा दीजै।—रत्ना०।
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दान-लीला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] १. कृष्ण की वह लीला जिसमें वे ग्वालिनों से गोरस बेचने का कर वसूल करते थे। २. वह पुस्तक जिसमें उक्त लीला का विस्तृत वर्णन हो।
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दानलेख  : पुं०=दान-पत्र।
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दानव  : पुं० [सं० दनु+अण्] दनु (कश्यप की स्त्री) के वे पुत्र जो देवताओं के घोर शत्रु थे। असुर। राक्षस।
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दानव-गुरु  : पुं० [ष० त०] शुक्राचार्य।
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दानवज्र  : पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्रकार के घोड़े जो देवताओं और गंधर्वों की सवारी में रहते हैं, कभी बुड्ढे नहीं होते और मन की तरह वेगवान् होते हैं।
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दान-वारि  : पुं० [कर्म० स०] हाथी का मद।
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दानवारि  : पुं० [सं० दानव-अरि, ष० त०] १. दानवों का नाश करनेवाले, विष्णु। २. देवता। ३. इंद्र।
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दानवी  : वि० [सं० दानवी] दानवों का। दानव-संबंधी। जैसे—दानवी माया। स्त्री० [सं० दानव+ङीष्] दानव जाति की स्त्री। राक्षसी।
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दान-वीर  : पुं० [स० त०] वह जो सदा बहुत बड़े-बड़े दान करता रहता हो और दान करने में कभी पीछे न हटता हो।
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दानवेंद्र  : पुं० [सं० दानव-इंद्र, ष० त०] राजा बलि।
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दान-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० दानशीलता] जो स्वभावतः बहुत कुछ दान देता रहता हो। बहुत बड़ा दानी।
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दान-शीलता  : स्त्री० [सं० दानशील+तल्+टाप्] दानशील होने की अवस्था या भाव।
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दान-सागर  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का बहुत बड़ा दान जिसमें भूमि, आसन आदि सोलह पदार्थों का दान किया जाता है। (बंगाल)
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दानांतराय  : पुं० [दान-अंतराय, ष० त०] जैनशास्त्र के अनुसार अंतराय या पाप-कर्म जिनके उदय होने पर मनुष्य दान करने में असमर्थ होता है।
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दाना  : पुं० [फा० दानः] १. अन्न का कण या बीज। २. अन्न जो पकाकर खाया जाता है। अनाज। पद—दाना पानी। (देखें) मुहावरा—दाने-दाने को तरसना या मोहताज होना=कुछ भी भोजन न मिलने के कारण बहुत ही दीन भाव से कष्ट भोगना। दाना बदलना=एक पक्षी का अपने मुँह का दाना दूसरे पक्षी के मुँह में डालना। चारा बाँटना। दाना भरना या भराना=पक्षियों का अपने छोटे बच्चों के मुँह में अपनी चोंच से दाना डालना या रखना। ३. भाड़ में भूँजा हुआ अन्न। ४. वनस्पतियों आदि के बीज। जैसे—राई या सरसों का दाना। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार की छोटी गोलाकार चीजों का वाचक शब्द। जैसे—घुँघरू, मूँगे या मोती का दाना, गले में पहनने के कंठे या माला के दाने। ६. कुछ विशिष्ट प्रकार के पदार्थों का गोलाकार छोटा कण। जैसे—घी, चीनी, दही या मलाई के ऊपर दिखाई देनेवाले दाने। ७. उक्त प्रकार की गोलाकार छोटी चीजों के साथ प्रयुक्त होनेवाला संख्या-सूचक शब्द। जैसे—चार दाना आम, तीन दाना काली मिर्च, दो दाना मुनक्का। ८. रोग, विकार आदि के कारण शरीर के चमड़े पर होनेवाले गोलाकार छोटे उभार। जैसे—खुजली या शीतला के दाने। ९. किसी तल पर दिखाई देनेवाले छोटे गोलाकार उभार। जैसे—नारंगी के छिलके पर के दाने, नकाशीदार बरतनों पर के दाने। वि० [फा०] [भाव० दानाई] बुद्धिमान। अक्लमंद। जैसे—नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा होता है।
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दानाई  : स्त्री० [फा०] अक्लमंदी। बुद्धिमत्ता।
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दाना-चारा  : पुं० [फा० दाना+हिं० चारा] जीव-जन्तुओं को दिया जानेवाला भोजन।
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दाना-चीनी  : स्त्री० [हिं०] वह चीनी जो महीन चूर्ण के रूप में नहीं, बल्कि कुछ मोटे कणों या दानों के रूप में होती है।
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दानादेश  : पुं० [सं० दान-आदेश, च० त०] १. किसी को कुछ दान दिये जाने की आज्ञा। २. ‘देयादेश।’
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दानाध्यक्ष  : पुं० [सं० दान-अध्यक्ष, ष० त०] मध्ययुग में किसी देशी राज्य का वह अधिकारी जो यह निश्चय करता था कि राजा या राज्य की ओर से किये कितना दान दिया जाना चाहिए।
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दाना-पानी  : पुं० [फा० दाना+हिं० पानी] १. जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक खाने-पीने की चीजें। अन्न-जल। २. पेट भरने के लिए कुछ चीजें खाने या पीने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—छोड़ना।—मिलना। ३. भरण-पोषण का आयोजन। जीविका। ४. भाग्य की वह स्थिति जिसके कारण किसी को कहीं जाकर रहना और वहाँ कुछ खाना-पीना पड़ता हो, अथवा वहाँ रहकर जीविका का निर्वाह करना पडता हो। अन्न-जल। मुहावरा—(कहीं से किसी का) दाना-पानी उठना=भाग्य या विधि का ऐसा विधान होना जिससे किसी व्यक्ति को किसी स्थान से (कहीं और जाने के लिए) हटना पड़े।
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दाना-बंदी  : स्त्री० [फा० दान+बंदी] खड़ी फसल से उपज का अंदाज करने के लिए खेत को नापने का काम।
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दानिनी  : स्त्री० [सं०] दान करनेवाली स्त्री।
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दानिया  : पुं० [सं० दान] १. वह जो दान अर्थात् कर उगाहता हो। २. दानी। दाता। वि० १. दान-संबंधी। २. दान लेनेवाला। जैसे—दानिया ब्राह्मण।
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दानिश  : स्त्री० [फा०] १. अक्ल। बुद्धि। विवेक। २. विद्या।
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दानिस  : स्त्री० [फा० दानिस्त] १. समझ। बुद्धि। २. राय। सम्मति। स्त्री०=दानिश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दानी (निन्)  : वि० [सं० दान+इनि] [स्त्री० दानिनी] १. बहुत दान करनेवाला। दानशील। २. देनेवाला। (यौ० के अंत में) पुं० १. वह जो दान देने में बहुत उदार हो। बहुत बड़ा दाता या दानशील। पुं० [सं० दानीय] १. कर आदि उगाहनेवाला अधिकारी। २. नैपालियों की एक जाति या वर्ग। स्त्री० [फा० दान से] कोई चीज रखने का छोटा आधान या पात्र। (यौ० के अंत में) जैसे—चूहेदानी, बालूदानी सुरमेदानी।
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दानीय  : वि० [सं०√दा (देना)+अनीयर] दान किये जाने योग्य। जो दान के रूप में दिया जा सके।
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दानु  : वि० [सं०√दा+नु] १. दाता। २. विजयी। ३. वीर। बहादुर। पुं० १. दान। २. दानव। ३. वायु। हवा। ४. तृप्ति। तुष्टि। ५. अभ्युदय। ६. पानी आदि की बूँद।
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दानेदार  : वि० [फा०] जिसके अंश दानों अर्थात् कणों के रूप में हों। जैसे—दानेदार घी, दानेदार चीनी।
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दानो  : पुं०=दानव।
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दाप  : पुं० [सं० दर्प प्रा० दप्य] १. अभिमान। घमंड। २. बल। शक्ति। ३. दबदबा। ४. तेज। प्रताप। ५. बल। शक्ति। ६. क्रोध। गुस्सा। ७. जलन। ताप।
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दापक  : पुं० [हिं० दापना] १. दबानेवाला। २. रोकनेवाला।
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दापना  : स० [हिं० दाप] १. दबाना। २. मना करना। रोकना।
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दापित  : भू० कृ० [सं०√दा(देना)+णिच्+क्त] १. जो देने के लिए बाध्य किया गया हो। २. जिस पर अर्थ-दंड लगाया गया हो। ३. जिसका निर्णय या फैसला किया गया हो।
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दाब  : स्त्री० [हिं० दबाना] १. दबाने की क्रिया या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी प्रकार का दबाव या भार पड़ता हो। दबने या दबे होने की अवस्था। क्रि० प्र०—पहुँचाना।—रखना।—लगाना। ३. वह भारी वस्तु जो किसी दूसरी चीज के ऊपर दबाये रखने के लिए रखी जाती है। भार। क्रि० प्र०—डालना।—रखना। ४. पत्थर, सीशे आदि का वह छोटा टुकडा जो कागजों को उड़ने से बचाने या उन्हें दबाये रखने के लिए उन पर रखा जाता है। (पेपर वेट) ५. नैतिक, वैयक्तिक या शारीरिक दृष्टि से प्रबल व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति पर पड़नेवाला प्रभाव या दबाव। मुहावरा—किसी की दाब तले होना=किसी के वश में या अधीन होना। (किसी की) दाब मानना=किसी बड़े अधिकारी या प्रभाव मानना और उसकी आज्ञा, इच्छा आदि के वशवर्ती होकर रहना। (किसी को) दाब में रखना=नियंत्रण, वश या शासन में दबाकर रखना। ६. यंत्रों आदि में किसी चीज पर यंत्र के किसी ऊपरी, बड़े भाग का इस प्रकार आकर पड़ना कि उसके फल-स्वरूप उस चीज पर कुछ अंकित हो या किसी प्रकार का अभीष्ट फल हो। जैसे—छापे के यंत्र में कागज पर पडनेवाली दाब। पुं०=द्रव्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाबकस  : पुं० [हिं० दाब+कसना] लोहरों के छेदने के औजारों (किरकिरा, बरदुआ आदि) का एक हिस्सा।
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दाबदार  : वि० [हिं० दाब+फा० दार] रोबदार। आतंक रखनेवाला। प्रभावशाली। प्रतापी।
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दाबना  : सं० १.=दबाना। २.=गाड़ना।
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दाब-मापक  : पुं० [हिं०+सं०] वह यंत्र जिससे यह जाना जाता है कि किसी चीज पर दूसरी चीज का किताब दाब या भार पड़ रहा है। (मैनो मीटर, प्रेशर गेज)
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दाबा  : पुं० [हिं० दाब] कलम लगाने के लिए पौधों की टहनी को मिट्टी में गाड़ने या दबाने की क्रिया या पद्धति। पुं० [?] नदियों में रहनेवाली एक प्रकार की छोटी मछली।
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दाबिल  : पुं० [हिं० दाब] एक प्रकार की बड़ी सफेद चिड़ियाँ जिसकी चोंच दस बारह अंगुल लंबी और सिरे पर गोल और चिपटी होती है। यह प्रायः जलाशयों के कीड़े-मकोड़े और छोटी मछलियाँ खाती है।
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दाबी  : स्त्री० [हिं०] कटी हुई फसल के बँधे हुए एक-जैसे पूले जो मजदूरी में दिए जाते हैं।
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दाभ  : पुं० [सं० दर्भ] कुश की जाति का एक तरह का तृण जिसकी पत्तियाँ सूई की नोक के समान नोकदार होती है। डाभ।
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दाभ्य  : पुं० [सं०] जो योग्य हो कि नियंत्रण या शासन में रखा जा सके। जो दबाकर रखा जा सके।
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दाम (न्)  : पुं० [सं०√दो (खण्ड करना)+मनिन्] १. रस्सी। रज्जु। २. माला। हार। ३. ढेर। राशि। ४. भुवन। लोक। ५. राजनीति की चार प्रकार की युक्तियों में से वह जिसमें शत्रु को धन देकर वश में किया जाता है। जैसे—साम, दाम, दंड और भेद सभी तरह से वे अपना काम निकालते हैं। विशेष—यद्यपि दाम का एक अर्थ धन भी है, पर जान पड़ता है कि राजनीतिक क्षेत्र वाला दाम का उक्त अर्थ उसके रस्सी वाले अर्थ के आधार पर विकसित होकर लगा है, और इसका आशय रहा होगा-किसी को धन देकर अपने जाल में फँसाना या बाँधकर अपनी ओर करना। यहाँ यह भी ध्यान रहे कि फारसी में दाम का एक अर्थ जाल या फंदा भी है। पुं० [यब० ड्रैम (चाँदी का एक सिक्का) से सं० द्रम्म, फा० दाम] १. प्राचीन भारत का एक छोटा सिक्का जो एक दमड़ी के तीसरे भाग और एक पैसे के चौबीसवें भाग के बराबर होता था। मुहावरा—दाम-दाम भर देना=जितना देन या ऋण हो, वह सब पूरा पूरा चुका देना। कुछ भी बाकी न रखना। २. सिक्कों आदि के रूप में वह धन जो कोई चीज खरीदने पर बदले में उसके मालिक को दिया जाता है। कीमत। मूल्य। विशेष—यह शब्द अपने पुराने अर्थ के आधार पर बहुवचन में बोला जाता था। जैसे—इस कपडे के कितने दाम होंगे। अर्थात् दाम नाम के कितने सिक्के देने पड़ेंगे। परंतु आज-कल इसका प्रयोग अधिकतर एकवचन के रूप में ही होता है। जैसे—इस पुस्तक का क्या दाम है। मुहावरा—दाम उठना=किसी चीज का जो उचित मूल्य हो या उसमें जो लागत लगी हो, वह बिकने पर मिल जाना। दाम करना=कोई चीज खरीदने के समय कुछ घटा-बढ़ाकर उसका दाम या भाव निश्चित करना। दाम तै या निश्चित करना। दाम खड़ा करना या खड़े करना=उचित मूल्य प्राप्त करना। कीमत ले लेना। दाम चुकाना=(क) कीमत या मूल्य दे देना। (ख) दाम करना। (देखें ऊपर) दाम भरना=कोई चीज खो जाने या टूट-फूट जाने पर उसके मालिक को उसका दाम चुकाना या देना। दाम भर पाना=पूरा-पूरा मूल्य प्राप्त कर लेना। ३. धन। रुपया-पैसा। जैसे—दाम खरचने पर सब काम हो जाते हैं। ४. सिक्का। मुहावरा—दाम के दाम चलाना=अपने अधिकार या प्रभुत्व के बल पर अनोखे और विलक्षण काम या मनमाना अँधेर करने लगना। (एक भिश्ती के राजा बन जाने पर चमड़े के सिक्के चलाने के प्रवाद के आधार पर) ५. जाल। पाश। फंदा। स्त्री० दामिनी। उदाहरण—मुकुट नव-घन दाम।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दाम-कंठ  : पुं० [ब० स०] एक गोत्र प्रर्वतक ऋषि।
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दामक  : पुं० [सं० दाम+क] १. गाड़ी के जुए मे बाँधी जानेवाली रस्सी। २. बाग-डोर। लगाम।
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दाम-ग्रंथि  : पुं० [ब० स०] महाभारत में वर्णित राजा विराट के सेनापति का नाम।
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दाम-चंद्र  : पुं० [सं० ब० स० ?] राजा द्रुपद के एक पुत्र का नाम।
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दामन  : पुं० [फा०] १. गले में या वक्षःस्थल पर पहने हुए अंगरखे, कुरते आदि का कमर के नीचे का वह भाग जो झूलता या लटकता रहता है। मुहावरा—दामन छुड़ाना=संबंध छोड़कर अलग होना। (किसी का) दामन पकड़ना=संकट आदि के समय किसी ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेना जो संकट के समय पूर्ण रूप से सहायक हो सके। २. पहाड़ के नीचे का कुछ ढालुआँ भाग। ३. जहाज का पाल। ४. नाव या जहाज के जिस ओर हवा का झोंका लगता हो उसके सामने की दिशा। (लश०)
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दामनगीर  : वि० [फा०] १. न्याय, संरक्षण, सहायता आदि के लिए किसी का दामन या पल्ला पकड़नेवाला। २. अपना कोई काम कराने या अपना प्राप्य लेने के लिए किसी का दामन या पल्ला पकड़ने या पीछे पकड़नेवाला।
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दामन-पर्व (न्)  : पुं० [सं० दमन+अण्, दामन-पर्वन्, ब० स०] १. दमन भंजन तिथि। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी। २. चैत्र शुक्ल की द्वादशी तिथि।
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दामनी  : स्त्री० [सं० दामन+अण्+ङीप्] रस्सी। डोरी। स्त्री० [फा० दामन] १. ओढ़ने की चादर विशेषतः वह चादर जो मुसलमान औरतों के जनाजे पर डाली जाती है २. घोड़ों की पीठ पर डाला जानेवाला कपड़ा।
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दामर  : स्त्री० [देश०] १. राल जो दरार भरने के लिए नावों में लगाई जाती है २. वह भेड़ जिसके कान छोटे हों। (गड़ेरिये) स्त्री० [सं० दामन] रस्सी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=डामर।
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दामरि  : स्त्री०=दामर।
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दामरी  : स्त्री० [सं० दाम] १. रस्सी। रज्जु। २. छोटा जाल।
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दामलिप्त  : पुं० [सं० ताम्रलिप्त (पृषो० सिद्धि)] दे० ‘ताम्रलिप्त’।
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दामांचल  : पुं० [सं० दामन-अंचल, ष० त०.] वह रस्सी जिसे घोड़े के पिछले पैरों में फँसाकर खूँटे में बाँधते हैं।
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दामांजल  : पुं०=दामांचल।
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दामा  : पुं० [?] एक प्रकार का पक्षी जो प्रायः अपनी दुम नीचे ऊपर उठाता-गिराता रहता है। नर मादा का रंग काला और मादा का बादामी होता है। इसे कलचिरी भी कहते हैं। स्त्री०=दावा (दावानल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दामाद  : पुं० [सं० जामातृ से फा०] संबंध के विचार से वह व्यक्ति जिसे कन्या ब्याही गई हो। जँवाई। जामाता। दमाद।
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दामादी  : वि० [हिं० दामाद] १. दामाद संबंधी। जैसे—दामादी धन। २. दामादों की चाल-ढाल जैसा। दामादों की तरह का। जैसे—दामादी ऐंठ। स्त्री० दामाद या जामाता होने की अवस्था, पद या भाव। मुहावरा— (किसी को) दामादी में लेना=किसी के साथ अपनी कन्या का विवाह करके उसे अपना जँवाई या दामाद बनाना। (मुसल०)
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दामासाह  : पुं० [हिं० दाम+साहु=बनिया] वह दिवालिया महाजन जिसकी संपत्ति लहनदारों में उनके लहने के अनुपात में बराबर बट गयी हो; अर्थात् जिससे लोगों को बहुत-कुछ पावना मिल गयी हो।
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दामासाही  : स्त्री० [हिं० दामासाह] १. किसी दिवालिये महाजन की संपत्ति का लहनदारों के बीच में होनेवाला बँटवारा। २. पावने का वह अंश जो उक्त बँटवारे के अनुसार लहनदारों को मिले या मिलने को हो।
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दामिनी  : [स० दामा+इनि+ङीप्] १. बिजली। विद्युत। २. दावनी नामक आभूषण।
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दामिल  : स्त्री० [?] प्राचीन भारत की एक स्थानिक भाषा (कदाचित् आधुनिक तमिल भाषा)
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दामी  : स्त्री० [हिं० दाम] कर। मालगुजारी। वि० १. अधिक दाम या मूल्य का। २. मूल्यवान्।
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दामोद  : पुं० [सं०] अथर्ववेद की एक शाखा का नाम।
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दामोदर  : पुं० [सं० दामन्-उदर, ब० स०] १. श्रीकृष्ण। विशेष—यशोदा ने एक बार बालक कृष्ण की कमर और पेट में रस्सी बाँध दी थी, इसी से उनका यह नाम पड़ा। २. विष्णु। ३. एक जैन तीर्थकर। ४. बंगाल का एक प्रसिद्ध नद जो छोटा नागपुर के पहाड़ों से निकलकर भागीरथी में मिलता है। वि० इन्द्रियों को वश में रखनेवाला।
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दायँ  : पुं० १.=दांव। २.=दाँज (बराबरी)। स्त्री० १.=दाई। २.=दवँरी। वि० दायाँ (दाहिना)।
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दाय  : वि० [सं०√दा (देना)+घञ्] १. (धन या पदार्थ) जो किसी को दिया जाने को हो अथवा दिया जा सकता हो। २. जिसका दिया जाना आवश्यक या कर्तव्य हो। पुं० १. देने की क्रिया या भाव। दान। २. वह अवस्था जिसमें किसी को कुछ देना या किसी के लिए कुछ करना आवश्यक, उचित अथवा कर्त्तव्य हो। दायित्व। उदाहरण—सिर धुनि धुनि पछतात मीजि कर, कोउ न मीत हित दुसह दाय।—तुलसी। ३. ऐसा धन या संपत्ति जिसका बँटवारा या विभाजन उत्तराधिकारियों में होने को हो या न्यायतः होना उचित हो। ४. बँटवारा होने पर हिस्से में आने या मिलनेवाला धन या संपत्ति। ५. ऐसा धन या पदार्थ जो अनिवार्य रूप से किसी को मिलने को हो या मिल सकता हो। उदाहरण—और सिंगार म्हारे दाय न आवै।—मीराँ। ६. कन्या को उसके विवाह के समय दिया जानेवाला धन या पदार्थ। दहेज। दायजा। स्त्री०=दाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० दायित्व] १. जिम्मेदारी। दायित्व। २. उत्तरदायित्व। जवाब-देही। जैसे—जमदाज-यमराज के सामने उपस्थित होनेवाला लेखा और उसका दिया जानेवाला उत्तर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० १. दाँव। २. दाव।
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दायक  : वि० [सं०√दा( दान)+ण्वुल्—अक] १. समस्तपदों के अंत में लगने पर देनेवाला। जैसे—सुखदायक, दुःखदायक, पिंडदायक। २. (कार्य) जिसमें आर्थिक दृष्टि से लाभ होता या हो रहा हो। (पेइन्ग)
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दायज  : पुं०=दायजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दायजा  : पुं० [सं० दायसे फा०] दहेज। वह धन जो विवाह के उपरान्त कन्या को विदा करते समय अपने साथ ले जाने के लिए दिया जाता है।
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दाय-भाग  : पुं० [सं० ष० त०] १. धर्म-शास्त्र का वह अंश या विभाग जिसमें यह बतलाया गया है कि पिता अथवा पूर्वजों का धन उसके उत्तराधिकारियों अथवा संबंधियों में किस प्रकार और किन सिद्धान्तों के अनुसार बाँटा जाना चाहिए। २. पैतृक संपत्ति का वह अंश जो उक्त व्यवस्था के आधार पर किसी उत्तराधिकारी को मिले। उदाहरण—सोचो यह स्वार्थ क्या तुम्हारा दायभाग है ?—गुप्त।
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दायम  : अव्य० [अ० दाइम] सदा। हमेशा।
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दायमी  : वि० [अ० दाइमी] नित्य या सदा बना रहनेवाला।
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दायमुलहब्स  : पुं० [अ० दाइमुल हब्स] १. जन्म भर के लिए दी जानेवाली कैद की सजा। आजीवन कारावास का दंड।
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दायर  : वि० [अ० दाइर] १. घूमता या चलता-फिरता हुआ। २. जारी। प्रचलित। ३. (अभियोग या मुकदमा) जो निर्णय या विचार के लिए न्यायालय में उपस्थित किया गया हो। जैसे—किसी पर कोई मुकदमा दायर करना।
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दायरा  : पुं० [अ० दाइरः] १. गोल घेरा। २. वृत्त। ३. कक्षा। ४. मंडली। ५. क्रिया या व्यवहार का क्षेत्र। हल्का। ६. खँजड़ी, डफली आदि बाजे जिनमें मेंडरा लगा होता है।
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दायाँ  : वि०=दाहिना।
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दाया  : स्त्री० [फा० दायः] १. वह स्त्री जो दूसरों के बच्चों को अपना दूध पिलाकर पालती हो। २. बच्चा जनाने की विद्या जाननेवाली स्त्री। बच्चाजनाने वाली स्त्री। ३. नौकरानी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दायागत  : वि० [सं० दाय-आगत, तृ० त०] जो दाय अर्थात् पैतृक संपत्ति के बँटवारे में मिला हो। पुं० पन्द्रह प्रकार के दायों में से वह जो दाय अर्थात् पैतृक संपत्ति के बँटवारे में मिला हो।
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दायागरी  : स्त्री० [फा० दायगरी] १. दाई का पेशा या काम। २. बच्चा जनाने की विद्या या वृत्ति। धात्रीकर्म।
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दायाद  : वि० [सं० दाय+आ√दा (देना)+क] [स्त्री० दायादा] जो दाय का अधिकारी हो। जिसे पैतृक संबंध के कारण किसी की जायदाद में हिस्सा मिले। पुं० १. कुटुंब का ऐसा व्यक्ति जो संपत्ति के उक्त प्रकार के बँटवारे में हिस्सा पाने का अधिकारी हो। सपिंड। कुटुँबी। पुत्र। बेटा।
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दायादा  : स्त्री० [सं० दायाद+टाप्] १. उत्तराधिकारिणी। २. कन्या।
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दायादी  : स्त्री० [सं० दाय√अद् (भक्षण)+अण्+ङीप्] कन्या। पुं० ऐसा संबंधी जो पैतृक संपत्ति में हिस्सा बँटवा सकता हो। दायाधिकारी। स्त्री० लोगों में परस्पर उक्त प्रकार का संबंध होने की अवस्था या भाव।
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दायाद्य  : पुं० [सं० दायाद+ष्यञ्] वह संपत्ति जिस पर सपिंड कुटुंबियों का अधिकार माना जाय या माना जा सकता हो।
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दायाधिकारी  : पुं० [सं० दाय-अधिकारिन्, ष० त०] वह जो किसी का उत्तराधिकारी होने के नाते उसकी संपत्ति का कुछ अंश पाने का न्यायतः अधिकारी हो। उत्तराधिकारी। वारिस। (हेयर)
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दायापवर्तन  : पुं० [सं० दाय-अपवर्त्तन, ष० त०] किसी जायदाद में मिलनेवाले हिस्से की जब्ती।
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दायित  : भू० कृ० [√दय् (देना)+णिच्+क्त] १. दिलाया हुआ। २. दाम के रूप में सदा के लिए दिलाया हुआ।
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दायित्व  : पुं० [सं० दायिन्+त्व] १.दायी (जबावदेह) होने की अवस्था या भाव। जिम्मेदारी। (ऑब्लिगेशन) २. देनदार होने की अवस्था या भाव। (लायबिलिटी)
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दायिनी  : वि०, स्त्री० [सं० दायिन्+ङीप्] सं० दायी का स्त्री रूप। देनेवाली। जैसे—जन्मदायिनी, सुखदायिनी।
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दायी (यिन्)  : वि० [सं०√दा+णिनि] [स्त्री० दायिनी] १. देनेवाला। (व्यक्ति) जिस पर किसी कार्य या बात का दायित्व या जबावदेही हो। जैसे—इस गड़बड़ी के लिए आप ही दायी है।
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दायें  : क्रि० वि० [हिं० दायाँ] दाहिनी ओर। दाहिने। मुहा० के लिए दे० दाहिना के मुहा०।
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दायोपगतदास  : पुं० [सं० दाय-उपगत, तृ० त० दायोपगत-दास, कर्म० स०] वह दास जो बँटवारे में मिला हो।
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दार  : स्त्री० [सं०√दृ (विदारण करना)+णिच्+अच्] पत्नी। भार्या। पुं० [√दृ+घञ्] १. चीरना। विदारण। २. छेद। ३. दरार। पुं० दारू। वि० [फा०] [भाव० दारी] एक विशेषण जो कुछ शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर रखनेवाला या वाला का अर्थ देता है। जैसे—(क) किरायेदार, दुकानदार। (ख) छज्जेदार, छायादार।
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दारक  : पुं० [सं०√दृ+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० दारिका] १. पुत्र। बेटा। २. बालक। लड़का। वि० विदीर्ण करने या फाड़नेवाला।
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दार-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] दार अर्थात् भार्या ग्रहण करने की क्रिया या भाव। पुरुष का विवाह।
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दारचीनी  : स्त्री० [सं० दारु+चीन] १. तज की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत और सिंहल में होता है। सिंहल में ये पेड़ सुंगधित छाल के लिए बहुत लगाये जाते हैं। यह दो प्रकार की होती है—जीलानी और कपूरी। कपूरी की छाल मे बहुत अधिक सुगंध होती है और उससे बहुत अच्छा कपूर निकलता है। भारतवर्ष अरब आदि देशों में पहले इसकी सुगंधित छाल चीन देश से आती थी, इसी से इसे दारु चीनी कहने लगे २. उक्त पेड़ की सुगंधित छाल जो दवा और मसाले के काम में आती है।
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दारण  : पुं० [सं०√दृ (विदारण करना)+णिच्+ल्युट—अन] १. चीरने-फाड़ने या विदीर्ण करने की क्रिया या भाव। चीर-फाड़। विदारण। २. फोड़ा या व्रण चीरने की क्रिया या भाव। चीर-फाड़। शल्य चिकित्सा। ३. चीरने-फाड़ने आदि का अस्त्र या औजार। ४. ऐसी चीज या दवा जिसके लगाने से फोड़ा फट या फूट जाय। ५. निर्मली का पेड़।
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दारणी  : स्त्री० [सं० दारण+ङीप्] दुर्गा।
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दारद  : पुं० [सं० दरद+अण्] १. एक प्रकार का विष जो दरद देश में होता है। २. पारद। पारा। ३. ईंगुर। वि० दरद देश का।
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दारन  : वि०=दारुन। पुं०=दारण।
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दारना  : स० [सं० दारण] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। २. नष्ट करना। न रहने देना। ३. मार डालना। उदाहरण—दारहि दारि मुरादहिं मारिकै, संगर साह सुजै बिचलायौ।—भूषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दार-परिग्रह  : पुं० [ष० त०] विवाह करके किसी को अपनी पत्नी बनाना। पाणि-ग्रहण।
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दार-मदार  : पुं० [फा० दारोमदार] १. आश्रय। सहारा। २. ऐसा अवलंब या आधार जिस पर दूसरी बहुत सी बातें आश्रित हों। जैसे—अब तो सारा दार-मदार आपके न या हाँ करने पर ही है।
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दारव  : वि० [सं० दारु+अञ्] १. दारु अर्थात् लकड़ी से संबंध रखनेवाला। २. काठ या लकड़ी का बना हुआ।
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दार-संग्रह  : पुं० [ष० त०] पुरुष का अपना विवाह करके किसी स्त्री को पत्नी या भार्या के रूप में ग्रहण करना। दार-परिग्रह। पाणि-ग्रहण।
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दारा  : स्त्री० [सं० दार+टाप्] पत्नी। भार्या। स्त्री० [?] एक प्रकार की समुद्री मछली जो प्रायः तीन हाथ तक लंबी होती है। पुं० [?] किनारा। तट। (लश०)
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दाराई  : स्त्री० [फा०] पुरानी चाल का एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। दरियाई।
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दारि  : स्त्री०=दारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दाल।
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दारिउँ  : पुं०=दाड़िम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दारिका  : स्त्री० [सं० दारक+टाप्, इत्व] १. वह युवती स्त्री जिसका अभी तक विवाह न हुआ हो। कुँवारी लड़की। कुमारी। २. बालिका। लड़की। ३. पुत्री। बेटी। ४. कठ-पुतली।
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दारिका-सुन्दरी  : स्त्री० [सं०] वेश्या की वह लड़की जिसका अभी तक किसी पुरुष से संबंध न हुआ हो। नथिया-बंद।
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दारित  : भू० कृ० [सं०√दृ (विदारण)+णिच्+क्त] १. चीरा फाड़ा हुआ। विद्रीर्ण किया हुआ। २. विभक्त किया हुआ।
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दारिद्र  : पुं०=दारिद्रय। (दरिद्रता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दारिद्र  : पुं०=दारिद्रय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दारिद्रय  : पुं० [सं० दरिद्र+ष्यञ्] दरिद्र होने की अवस्था या भाव। दरिद्रता।
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दारिम  : पुं०=दाड़िम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दारी  : स्त्री० [सं०√दृ+णिच्+इन्—ङीप्] पैर के तलवे का चमड़ा फटने का एक रोग। बिवाई। स्त्री० [सं० दारिका] १. दासी या लौंड़ी विशेषतः ऐसी दासी या लौंड़ी जो लड़ाई में जीतकर लाई गई हो। २. परम दुश्चरित्रा स्त्री। छिनाल। पुंश्चली। उदाहरण—चंचल सरस एक काहू पै न रहै दारी।—भूषण। पद—दारी-दार (देखें) स्त्री० [फा०] दार अर्थात् रखनेवाला होने की अवस्था या भाव। जैसे—किरायेदारी, दुकानदारी आदि।
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दारीजार  : पुं० [हिं० दारी+सं० जार] १. लौंड़ी का उपपति या पति। (गाली) 2. दासी-पुत्र। 3. परम दुश्चरित्र से अनुचित संबंध रखनेवाला पुरुष। परम व्यभिचारी। विशेष—हिं० का ‘दाढ़ीजार’ संभवतः इसी ‘दारीजार’ का विकृत रूप है।
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दारू  : पुं० [सं०√दृ(चीरना)+उण्] १. काष्ठ। काठ। लकड़ी। २. देवदारु। ३. कारीगर। शिल्पी। ४. पीतल। वि० १. दानशील। दानी। २. उदार। ३. जल्दी टूटने-फूटनेवाला।
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दारुक  : पुं० [सं० दारु+कन् (स्वार्थे)] १. देवदारु। २. काठ का पुतला। ३. श्रीकृष्ण के सारथी का नाम। ४. एक योगाचार्य जो शिव के अवतार कहे गए हैं।
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दारु-कदली  : स्त्री० [उपमि० स०] जंगली केला। कठ-केला।
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दारुका  : स्त्री० [सं० दारु√कै (शब्द करना)+क+टाप्] कठपुतली।
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दारुका-वन  : पुं० [मध्य० स०] एक वन जो पवित्र तीर्थ माना गया है।
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दारु-गंधा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] बिरोजा जो चीड़ से निकलता है।
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दारुचीनी  : स्त्री०=दारचीनी।
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दारुज  : वि० [सं० दारु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. दारु अर्थात् लकड़ी में (या से) उत्पन्न होनेवाला। २. दारु अर्थात् लकड़ी का बना हुआ। पुं० मृदंग की तरह का एक प्रकार का बाजा। मर्दल।
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दारुण  : वि० [सं०√दृ (भय)+णिच्+उनन्] [भाव० दारुणता] १. भयानक। भीषण। २. घोर। विकट। ३. उग्र। प्रचंड। ४. जिसे सहना कठिन हो। जैसे—दारुण कष्ट या विपत्ति। ५. (रोग) जो बहुत बढ़ गया हो और सहज में अच्छा न हो सकता हो। (सीरियस) ६. फाड़ डालनेवाला। विदारण। पुं० १. चित्रक वृक्ष। चीते का पेड़। २. रौद्र नामक नक्षत्र। ३. साहित्य में, भयानक रस ४. विष्णु। ५. शिव। ६. राक्षस। ७. पुराणानुसार एक नरक का नाम।
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दारुणक  : पुं० [सं०दारुण√कै (मालूम होना)+क] सिर में होनेवाला रूसी। (देखें) नामक रोग।
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दारुणता  : स्त्री० [सं० दारुण+तल्+टाप्] दारुण होने की अवस्था या भाव। दारुण्य।
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दारुणा  : स्त्री० [सं० दारुण+टाप्] १. नर्मदा खंड की अधिष्ठात्री देवी का नाम। २. अक्षय तृतीया।
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दारुणारि  : पुं० [सं० दारुण+अरि, ष० त०] विष्णु।
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दारुण्य  : पुं० [सं० दारुण+ष्यञ्] दारुण होने की अवस्था या भाव। दारुणता।
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दारुन  : वि०=दारुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दारु-नटी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कठपुतली।
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दारु-नारी  : स्त्री० [मध्य० स०] कठपुतली।
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दारु-निशा  : स्त्री० [मध्य० स०] दारु हलदी।
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दारु-पत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] हिंगुपत्री।
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दारु-पर्वतक  : पुं० [सं०] वह नकली पर्वत जो राजप्रसाद के उद्यान में क्रीड़ा आदि के लिए बनाया जाता था।
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दारु-पात्र  : पुं० [ष० त०] काठ का बना हुआ बरतन।
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दारु-पीता  : स्त्री० [तृ० त०] दारु हलदी।
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दारु-पुत्रिका  : स्त्री० [मध्य० स०] कठपुतली।
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दारु-फल  : पुं० [मध्य० स०] पिस्ता।
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दारुमय  : वि० [सं० दारु+मयट्] [स्त्री० दारुमयी, दारुमय+ङीप्] सिर से पैर तक काठ का बना हुआ।
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दारुमुच्  : पुं० [सं० दारु√मुच् (त्यागना)+क्विप्] एक प्रकार का स्थावर विष।
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दारुमूषा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार की जड़ी।
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दारु-योषित्  : स्त्री० [मध्य० स०] कठपुतली।
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दारुल्-शफा  : पुं० [अ० दारुश्शिफा] १. चिकित्सालय। २. आरोग्य शाला।
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दारुल्-सलतनत  : स्त्री० [अ० दारूस्सल्तनत] राजधानी।
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दारु-सिता  : स्त्री० [स० त०] दार-चीनी।
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दारु-हरिद्रा  : स्त्री० [स० त०] दारु हलदी।
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दारु-हलदी  : स्त्री० [सं० दारुहरिद्रा] गुल्म जाति का सात-आठ हाथ लंबा एक सदाबहार झाड़ जिसमें पत्ते दंतयुक्त, फल पीपल के फलों जैसे, और फूल पीले रंग के छः छः दंलोंवाले होते हैं। यह हिमालय के पूर्वी भाग से लेकर आसाम तक होता है। इसकी लकड़ी दवा के काम मे आती है।
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दारू  : स्त्री० [फा०] १. उपचार। चिकित्सा। २. दवा। औषध। ३. मद्य। शराब। ४. बारूद। विशेष—यह शब्द मूलतः स्त्री० ही है, फिर भी लोक में प्रायः पुं० ही बोला जाता है।
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दारूकार  : पुं० [फा० दारू+हिं० कार] शराब बनानेवाला। कलवार।
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दारूड़ा  : पुं० [फा० दारू] मद्य। शराब। (राज०)
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दारूड़ी  : स्त्री०=दारूड़ा।
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दारूधरा  : पुं० [फा० दारू=बारूद+हिं० धरना] तोप या बंदूक चलाने वाला। उदाहरण—जुर्रा रु बाज कूही गुहा, धानुक्की दारूधरा।—चंदबरदाई।
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दारो  : पुं०=दार्यों। (दाड़िम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दारोगा  : पुं० [फा० दारोगः] १. निगरानी रखनेवाला अफसर। देख-भाल रखनेवाला या प्रबंध करनेवाला अधिकारी। जैसे—चुंगी या जेल का दारोगा। २. पुलिस-विभाग का वह अधिकारी जिसके अधीन बहुत से सिपाहियों की टुकड़ी और प्रायः एक थाना होता है।
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दारागाई  : स्त्री० [हिं० दारोगा] दारोगा का काम, पद या भाव।
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दारोमदार  : पुं० [फा०] दार-मदार। (देखें)
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दार्ढ्य  : पुं० [सं० दृढ़+ष्यञ्] दृढ़ होने की अवस्था या भाव। दृढ़ता।
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दार्दुर  : वि० [सं० दर्दुर+अण्] दर्दुर-संबंधी। दर्दुर का। पुं० एक प्रकार का दक्षिणावर्त्त शंख।
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दार्दुरिक  : पुं० [सं० दर्दुर+ठञ्—इक] कुम्हार।
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दार्भ  : वि० [सं० दर्भ+अण्] १. दर्भ अर्थात् कुश-संबंधी। २. दर्भ या कुश का बना हुआ। जैसे—दार्भ आसन।
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दार्यों  : पुं०=दाड़िम (अनार)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दार्वड़  : पुं० [सं० दारु-अंड, ब० स०] [स्त्री० दार्वडी] मयूर या मोर पक्षी (जिसका अंडा काठ की तरह कड़ा होता है।)
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दार्व  : पुं० [सं० दारु+अण्] एक प्राचीन प्रदेश जो कूर्म विभाग के ईशान कोण में और आधुनिक कश्मीर के अन्तर्गत था।
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दार्वट  : पुं० [सं० दारु√अट् (भ्रमण)+क] मंत्रणा करने का गुप्त स्थान। मंत्रणा गृह।
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दार्वाघाट  : पुं० [सं० दारु आ√हन् (चोट करना)+अण्, नि० टत्व] कठफोड़वा।
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दार्वाट  : पुं० [फा० ‘दरबार’ से] मंत्रणा-गृह।
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दार्विका  : स्त्री० [सं० दार्वी+क (स्वार्थे)-टाप्, ह्रस्वत्व] १. दारुहलदी से निकाला हुआ तूतिया। २. वन-गोभी।
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दार्वि-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+कन्+टाप्, इत्व] गोजिह्रा। गोभी।
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दार्वी  : स्त्री० [सं०√दृ(विदारण करना)+णिच्+उण्+ङीष्] दारुहलदी।
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दार्श  : स्त्री० [सं० दर्श+अण्] दर्श-अमावास्या के दिन होनेवाला।
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दार्शनिक  : वि० [सं० दर्शन+ठञ्—इक] १. दर्शन-शास्त्र संबंधी। दर्शन-शास्त्र की तरह का। पुं० वह जो दर्शनशास्त्र का अच्छा ज्ञाता या पंडित हो।
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दार्षद  : वि० [सं० दृषद्+अण्] १. पत्थर पर पीसा हुआ। २. पत्थर का बना हुआ। ३. खान से निकला हुआ। खनिज।
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दार्षद्वत  : पुं० [सं० दृषद्वती+अण्] कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार एक यज्ञ जो द्ववद्वती नदी के किनारे किया जाता था।
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दाष्टांतिक  : वि० [सं० दृष्टान्त+ठञ्—इक] १. दृष्टान्त-संबंधी। २. जो दृष्टान्त के रूप में हो।
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दाल  : स्त्री० [सं० दालि] १. अरहर, उरद, चना, मसूर, मूँग आदि अन्न जिनके दाने अन्दर से दो दलों में विभक्त होते हैं, और जिन्हें उबाल कर खाते हैं, या जिनसे पकौड़ी, बरी आदि बनाते हैं। क्रि० प्र०—दलना। मुहावरा—(किसी की) दाल गलना=किसी का प्रयोजन सिद्ध होना। मतलब निकलना। जैसे—ये बातें किसी और से करना यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलेगी। २. हलदी, मसाला आदि के साथ पानी में उबाला हुआ कोई उक्त दला हुआ अन्न जो भात, रोटी आदि के साथ सालन की तरह खाया जाता है। पद—दाल-दलिया, दाल-रोटी। (देखें) मुहावरा—दाल चप्पू होना=एक का दूसरे से उसी प्रकार गुथ या लिपट जाना जिस प्रकार बरतन में दाल निकालने के समय चप्पू (कलछी) के साथ लिपट जाती है। दाल में कुछ काला होना=ऐसी अवस्था होना जिससे खटके या संदेह की कोई बात हो। जूतियों दाल बाँटना=आपस में खूब लड़ाई-झगड़ा और थुक्का-फजीहत होना। ३. चेचक, फोड़े, फुन्सी आदि के ऊपर का चमड़ा जो सूखकर छूट जाता है। खुरंड। पपड़ी। क्रि० प्र०—छूटना।—बँधना। ४. सूर्यमुखी शीशे में से होकर आयी हुई किरणों की वह गोलाकार छाया जो दाल के आकार की हो जाती है और जिससे आग पैदा होने लगती है। मुहावरा—दाल बँधना=धूप में रखे हुए सूर्यमुखी शीशे का ऐसी स्थिति में होना कि उसकी किरणों का समूह एक केन्द्र में स्थित होकर दाल का का-सा रूप बना दें। ५. अंडे की जरदी (अपने पीले रंग और द्रव रूप के कारण) पुं० [सं० दल+अण्] १. पेड़ के खोंडर में मिलनेवाला शहद। २. कोदों नाक कदन्न। पुं० [?] पंजाब और हिमालय मे होनेवाला तुन की जाति का एक पेड़ जिसकी लकडी बहुत मजबूत होती है।
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दालचीनी  : स्त्री०=दारचीनी।
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दाल-दलिया  : पुं० [हिं०] गरीबों के खाने का रूखा-सूखा भोजन। जैसे—जो कुछ दाल-दलिया मिल जाय, वही खाकर गुजर कर लेते हैं।
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दालन  : पुं० [सं०√दल् (नाश करना)+णिच्+ल्युट्—अन] दाँत का एक रोग।
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दालना  : स०=दलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दालभ्य  : पुं०=दाल्भ्य।
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दाल-मोठ  : स्त्री० [हिं० दाल+मोठ=एक कदन्न] घी, तेल आदि में तली तथा नमक, मिर्च लगी हुई मोठ (अथवा चने मूँग या मसूर आदि) की दाल जिसकी गिनती नमकीन खानों में होती है।
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दाल-रोटी  : स्त्री० [हिं० पद] १. नित्य का साधारण भोजन। जैसे—किराए की आमदनी से ही उनकी दाल-रोटी चलती है। पद—दाल-रोटी से खुश=जिसे साधारण भोजन मिलने में कोई कष्ट न होता हो। २. जीविका या उसका साधन। मुहावरा—दाल-रोटी चलना=जीविका निर्वाह होना।
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दालव  : पुं० [सं०√दल् (दलन करना)+उन्, दलु+अण्] एक तरह का स्थावर विष।
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दाला  : स्त्री० [सं०√दल्+घञ् (कर्मणि)+टाप्] महाकाल नामक लता।
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दालान  : पुं० [फा०] किसी भवन या मकान के अन्तर्गत वह लंबी वास्तु-रचना जिसके तीन ओर दीवारें, ऊपर छत और सामनेवाला भाग बिलकुल खुला होता है। बरामदा।
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दालि  : स्त्री० [सं०√दल्+इन्, नि० सिद्धि] १. दाल। २. देवदाली लता। ३. अनार। दाड़िम।
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दालिद  : पुं०=दारिद्र्य। (दरिद्रता)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दालिम  : पुं० [सं० दाडिम, नि० लत्व] दाड़िम। अनार।
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दाली  : स्त्री० [सं० दालि+ङीष्] देवदाली नामक पौधा।
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दाल्भ्य  : वि० [सं० दल्भ+यञ्] दल्भ ऋषि के गोत्र का। पुं० वृक मुनि का दूसरा नाम।
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दाल्मि  : पुं० [सं०√दल् (नाश करना)+णिच्+मि (बा०)] इंद्र।
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दावँ  : पुं०=दाँव।
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दाव  : पुं० [सं०√दु (पीड़ित करना)+ण] १. वन। जंगल। २. जंगल में लगी हुई आग। दावानल। ३. अग्नि। आग। ४. जलन। ताप। ५. धावरा नामक वृक्ष। ६. एक प्रकार का प्राचीन शस्त्र। पुं०=दाँव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० दर्भ] कुश। घास। दाभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दावत  : स्त्री० [अ० दअवत] १. किसी को कोई काम करने के लिए दिया जानेवाला निमंत्रण। आवाहन। २. भोजन के लिए दिया जानेवाला निमंत्रण। ३. ज्योनार। भोज। जैसे—विवाह पर दावत भी देनी चाहिए। क्रि० प्र०—खाना।—देना।—मिलना। पद—दावत नामा=निमंत्रण पत्र।
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दावदी  : स्त्री०=गुलदावदी।
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दावन  : वि० [सं० दमन] [स्त्री० दावनी] दमन करनेवाला। उदाहरण—त्रिविध दोष दुख दारिद दावन।—तुलसी। पुं० १. दमन। २. ध्वंस। नाश। ३. खुजड़ी नाम का हथियार। ४. दराँती या हँसिया नाम का औजार। स्त्री० [सं० दाम] खाट या चारपाई में पैंताने की ओर बाँधी जानेवाली रस्सी। उनचन। पुं०=दामन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दावना  : स०=दाँवना। (दाँना)। स० [हिं० दावन, सं० दमन] दमन करना। स० [सं० दाव] १. आग लगाना। २. प्रकाशमान करना। चमकाना। उदाहरण—दामिनी दमकि दसो दिसि दावति छूटि छुवत छिति छोर।—भारतेन्दु।
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दावनी  : स्त्री० [सं० दामनी=रस्सी] माथे पर पहनने का एक तरह का झालदार लंबोतरा गहना।
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दावरा  : पुं० [देश०] धावरा नामक पेड़।
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दावरी  : स्त्री०=दाँवरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दावा  : स्त्री० [सं० दाव] दावानल। पुं० [अ०] १. किसी वस्तु पर अपना अधिकार या स्वत्व करने की क्रिया या भाव। यह कहते हुए किसी चीज पर हक जाहिर करना कि यह हमारी है या होनी चाहिए। २. अधिकार। स्वत्व। हक। जैसे—उस मकान पर तुम्हारा कोई दावा नहीं है। ३. न्यायालय में प्रार्थना-पत्र उपस्थित करते हुए यह कहना कि अमुक व्यक्ति से हमें इतना धन अथवा अमुक वस्तु मिलनी चाहिए जो हमारा प्राप्य है अथवा न्यायतः जिसके अधिकारी हम हैं। ४. दीवानी अदालत का अभियोग। नालिश। जैसे—महाजन ने उन पर जो हजार रूपयों का दावा किया है। ५. फौजदारी अदालत में कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में उपस्थित किया जानेवाला उक्त प्रकार का अभियोग। जैसे—किसी पर मानहानि (अथवा लड़का भगा ले जाने) का दावा करना। ६. नैतिक अथवा लौकिक दृष्टि से किसी वस्तु या व्यक्ति पर होनेवाला अधिकार, जोर या वश। जैसे—तुम पर हमारा कोई दावा तो है नहीं जो हम तुम्हें वहाँ जबरदस्ती भेज सकें। ७. अभिमान या गर्वपूर्ण कही जानेवाली बात। जैसे—वे इस बात का दावा करते हैं कि हमने कभी झूठ नहीं बोला।
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दावागीर  : पुं० [अ० दावा+फा० गीर] दावा करनेवाला। अपना अधिकार या हक जतानेवाला।
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दावाग्नि  : स्त्री० [सं० दाव-अग्नि, मध्य० स०] वन में लगनेवाली आग। दावानल।
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दावात  : स्त्री०=दवात।
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दावादार  : पुं०=दावेदार।
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दावानल  : पुं० [सं० दाव-अनल, मध्य० स०] वन की भीषण आग जो बाँसों, वृक्षों आदि की टहनियों की रगड़ से उत्पन्न होती है और दूर तक फैलती है। वनाग्नि।
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दावित  : भू० कृ० [सं०√दु (पीड़ित करना)+णिच्+क्त] पीड़ित।
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दाविनी  : स्त्री० [सं० दामिनी] १. बिजली। तड़ित्। २. बेंदी नाम का गहना जिसे स्त्रियाँ माथे पर पहनती हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दावी  : पुं० [सं० धव] धव का पेड़।
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दावेदार  : पुं० [अ० दावा+फा० दार] १. वह जिसने किसी पर दावा किया हो। २. किसी चीज पर अपना अधिकार या हक जतलानेवाला व्यक्ति।
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दाश  : पुं० [सं०√दंश् (मारना)+ट, आत्व] १. मछलियाँ मारकर खानेवाला। मछुआ। २. केवट। मल्लाह। ३. नौकर। सेवक।
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दाश-पुर  : पुं० [ष० त०] १. धीवरों या मछुओं की बस्ती। २. [दाश√पृ (पूर्ति)+क] केवटीमोथा। कैवर्त्त मुस्तक।
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दर्शामक  : वि० [सं०] १. दशम संबंधी। २. दशमिक। दशमलव संबंधी।
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दाशरथ  : वि० [सं० दशरथ+अण्] १. दशरथ संबंधी। दशरथ का। २. दशरथ के कुल में उत्पन्न। पुं० दशरथ के चारों पुत्रों में से कोई एक, विशेषतः श्रीरामचन्द्रजी।
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दाशरथि  : पुं० [सं० दशरथ+इञ्]=दाशरथ।
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दाशरात्रिक  : वि० [सं० दशरात्र+ठञ्—इक] दशरात्र संबंधी।
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दाशार्ण  : पुं० [सं०दशार्ण+अण्] १. दशार्ण देश। २. उक्त देश का निवासी। वि० दशार्ण देश का।
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दाशार्ह  : पुं० [सं० दशार्ह+अण्] दशार्ह के वंश का मनुष्य। यदुवंशी।
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दाशेय  : वि० [सं० दाशी+ढक्—एय] दाश से उत्पन्न। पुं० दाश का पुत्र।
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दाशेयी  : स्त्री० [सं० दाशेय+ङीप्] सत्यवती।
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दाशेर  : पुं० [सं० दाशी+ढक्—एय, यलोप] धीवर की संतति।
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दाशेरक  : पुं० [सं० दाशेर+कन्] १. मरू प्रदेश। मारवाड़ देश। २. उक्त प्रदेश का निवासी। मारवाड़ी। ३. दशपुर का निवासी।
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दाशौदनिक  : वि० [सं० दशन्ओदन ब० स०, दशौदन+ठञ्—इक] दशोदन यज्ञ संबंधी। पुं० दशोदन यज्ञ में मिलनेवाली दक्षिणा।
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दाश्त  : स्त्री० [फा०] किसी को अपने पास रखने की क्रिया या भाव। जैसे—याद-दाश्त। २. अपने पास रखकर पालन-पोषण तथा देख-रेख करने की क्रिया या भाव। वि० [स्त्री० दाश्ता] अपने पास रखा हुआ।
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दाश्ता  : स्त्री० [फा० दाश्तः] उपपत्नी के रूप में रखी हुई स्त्री। रखनी। रखेली।
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दाश्व  : वि० [सं०√दाश् (दान करना)+वन्] १. देनेवाला। २. उदार।
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दास  : पुं० [सं०√दास् (दान)+अच्] [स्त्री० दासी] १. ऐसा व्यक्ति जिसे किसी ने धन-संपत्ति आदि की तरह अपने अधिकार या स्वामित्व में रखा हो और जिससे वह अपनी छोटी-मोटी सेवाएँ कराता रहता हो। गुलाम। विशेष—प्राचीन काल में योद्धा लोग और धनवान् लोग गरीबों को खरीदकर अपना दास बना लेते थे और अपने ही घर में तुच्छ सेवकों की तरह रखते थे। ऐसे लोगों की संतान भी दास वर्ग में रहती थी। कभी-कभी लोग अपना ऋण या देन चुका सकने के कारण, जुए में हार जाने के कारण या अकाल में अपना या परिवार का भरण-पोषण न कर सकने के कारण भी अपनी इच्छा से ही दूसरों के दास बन जाते थे। पाश्चात्य देशों में प्रबल जातियाँ दुर्बल जाति के लोगों को पकड़कर और विदेशों में ले जाकर दास रूप में बेचने का व्यवसाय भी करती थीं। ऐसे लोगों को किसी प्रकार की विधिक या सामाजिक स्वतंत्रता नहीं होती थी। हमारे यहाँ मनु ने सात प्रकार के और परवर्ती स्मृतिकारों ने पन्द्रह प्रकार के दास बतलाये हैं। हमारे यहाँ भी विधान था कि ब्राह्मण न तो कभी दास बना सकता था और न तो बनाया जा सकता था। क्षत्रिय और वैश्य कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में दासत्व से मुक्त भी हो सकते थे, परन्तु शूद्र कभी दासत्व के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता था। २. ऐसा व्यक्ति जो अपने आपको किसी की सेवा करने के लिए पूर्ण रूप से समर्पित कर दे। उदाहरण—(क) दास कबीरा कह गए सबके दाता राम।—कबीर। (ख) देश या जाति का दास। ३. वह जो हर तरह से किसी के अधिकार, प्रभाव या वश में हो। जैसे—इंद्रियों या दुर्व्यसनों का दास; परिस्थितियों का दास। ४. वह जो वेतन लेकर दूसरों की छोटी-मोटी सेवाएँ करता हो। चाकर। नौकर। सेवक। ५. शूद्र। केवट। ६. धीवर। ७. डाकू या लुटेरा। दस्यु। ८. वृत्तासुर का एक नाम। ९. वह जो किसी बात या विषय मुख्यतः दान का उपयुक्त पात्र हो। १॰. वह जिसने आत्मा या ब्रह्म का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। आत्मज्ञानी। पुं०=डासन। (बिछौना) उदाहरण—सेज सवाँरि कीन्ह भक्त दासू।—जयासी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दासक  : पुं० [सं० दास+कन्] १. दास। सेवक। २. एक प्राचीन गोत्र प्रवर्त्तक ऋषि।
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दासता  : स्त्री० [सं० दास+तल्—टाप्] १. दास होने की अवस्था या भाव। गुलामी। २. दास का काम।
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दासत्व  : पुं० [सं० दास+त्व]=दासता।
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दास-नंदिनी  : स्त्री० [सं० ष० त०] धीवर की कन्या सत्यवती जो व्यास की माता थी।
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दासन  : पुं०=डासन (बिछौना)।
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दासपन  : पुं० [सं०दास+पन (प्रत्य०)] दासत्व। सेवाकर्म।
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दासमीय  : वि० [सं० दसम+छण्—ईय] १. दसम देश में उत्पन्न। २. दसम देश संबंधी। पुं० दसम देश का निवासी।
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दासमेय  : वि०=दासमीय। पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद।
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दासा  : पुं० [सं० दासी=वेदी] १. दीवार से सटाकर उठाया हुआ वह ऊंचा बाँध या पुश्ता जिसपर घर की चीजें रखी जाती हैं। २. आँगन के चारों ओर दीवार से सटाकर उठाया हुआ वह चबूतरा जो आंगन के पानी की घर या दालान में जाने से रोकने के लिए बनाया जाता है। ३. वह पत्थर या मोटी लकड़ी जो दरवाजे के चौखटे के ठीक ऊपर रहती है और जिससे दीवार का बोझ चौखट पर नहीं पड़ने पाता। ४. पत्थरों की वह पंक्ति जो दीवार के नीचेवाले भाग में लंबाई के बल बैठाई जाती है। पुं० [सं० दशन] हँसिया।
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दासानुदास  : पुं० [सं० दास+अनुदास, ष० त०] १. दासों का भी दास। २. अत्यन्त या परम तुच्छ दास। (नम्रता सूचक)
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दासायन  : पुं० [सं० दास+फक्—आयन] दास पुत्र।
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दासिका  : स्त्री० [सं० दासी+क+टाप्, ह्रस्व] दासी।
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दासी  : स्त्री० [सं० दास+ङीष्] १. दास वर्ग की स्त्री। २. सेवा करनेवाली स्त्री। टहलनी। लौंड़ी। ३. मजदूरनी। ४. शूद्र वर्ण की स्त्री। ५. काक जंघा। ६. कटसरैया। ७. काला करोठा या नीलाम्लान नाम का पौधा। ८. वेदी।
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दासेय  : वि० [सं० दासी+ढक्—एय] [स्त्री० दासेयी] दासी का वंशज। पुं० १. दास। गुलाम। २. धीवर। मछुआ।
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दासेयी  : स्त्री० [सं० दासेय+ङीष्] व्यास की माता सत्यवती, जो धीवर कन्या थी। दासनंदिनी।
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दासेर  : पुं० [सं० दासी+ढक्-एय, यलोप] १. दास। २. केवट। धीवर। मछुआ। ३. ऊँट।
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दासेरक  : पुं० [सं० दासेर+कन्] १. दासी पुत्र। २. ऊँट।
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दास्तान  : स्त्री० [फा०] १. ऐसा विस्तृत विवरण या वृतान्त जिसमें किसी के जीवन के उतार-चढ़ाव की भी चर्चा हो। २. वृतान्त। हाल। कथा। कहानी। ३. बहुत लंबा-चौड़ा वर्णन।
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दास्य  : पुं० [सं० दास+व्यञ्] १. दासता। दासत्व। २. भक्ति के नौ भेदों में से एक जिसमें उपासक अपने उपास्य देवता को स्वामी और अपने आपकों उसका दास समझता है।
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दास्यमान्  : वि० [सं०√दा (देना)+ल्युट्—शानच्] जो दिया जानेवाला हो। जिसे दूसरे को देना हो।
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दास्र  : पुं० [सं० दस्र+अण्] अश्विनी नक्षत्र।
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दाह  : पुं० [सं०√दह्(जलाना)+घञ्] १. जलाने की क्रिया या भाव। २. हिन्दुओं में शव जलाने की क्रिया या कृत्य। क्रि० प्र०—देना। ३. जलन। ताप। ४. किसी प्रकार के रोग के कारण शरीर में होनेवाली ऐसी जलन जिसमें खूब प्यास लगती और मुँह सूखता हो। ५. शोक। संताप। ६. ईर्ष्या या डाह के कारण मन में होनेवाली जलन। पुं० [फा०] दास।
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दाहक  : वि० [सं०√दह् (जलाना)+ण्वुल्—अक] [भाव० दाहकता] १. जलानेवाला। २. दाहकर्म करनेवाला। पुं० १. अग्नि। आग। २. चित्रक या चीता नाम का पेड़।
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दाहकता  : स्त्री० [सं० दाहक+तल्—टाप्] जलने या जलाने की क्रिया, गुण या भाव।
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दाहकत्व  : पुं० [सं० दाहक+त्व]=दाहकता।
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दाह-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] १. मृत शरीर या शव जलाने का कृत्य। २. दाह-संस्कार। (दे०)
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दाह-काष्ठ  : पुं० [च० त०] अगर, जिसे सुगंध के लिए जलाते हैं।
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दाह-क्रिया  : स्त्री० [ष० त०] दाह-कर्म। (दे०)
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दाह-गृह  : पुं० [ष० त०] शव जलाने के लिए श्मशान से भिन्न वह स्थान जहाँ मृत शरीर किसी यंत्र में रखकर विद्युत आदि की सहायता से जलाये जाते है। (क्रिमेटोरियम)
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दाह-ज्वर  : पुं० [मध्य० स०] वह ज्वर जिसमें शरीर में बहुत अधिक जलन होती है।
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दाहन  : पुं० [सं०√दह्+णिच्+ल्युट्—अन] १. जलाने की क्रिया या भाव।
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दाहना  : स० [सं० दाहन] १. जलाना। भस्म करना। २. बहुत अधिक कष्ट देना। वि०=दाहिना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाह-संस्कार  : पुं० [ष० त०] हिन्दुओं के दस संस्कारों में से एक और अंतिम संस्कार जिसमें मृत शरीर चिता पर रखकर जलाया जाता है।
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दाह-सर  : पुं० [सर,√सृ (गति)+अप्, दाह-सर,ष० त०] मरघट। श्मशान।
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दाह-हरण  : पुं० [सं०] खस।
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दाहा  : पुं० [सं० दश से फा० दह=दस] १. मुर्हरम के दिस दिन जिनमें ताजिया रखा जाता और जिनकी समाप्ति पर दफन किया जाता है दहा। २. ताजिया।
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दाहागुरु  : पुं० [दाह-अगुरु, च० त०] वह अगुरु जिसकी लकडी़ सुगंधि के लिए जलाई जाती है।
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दाहिन  : वि०=दाहिना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाहिना  : वि० [सं० दक्षिण] [स्त्री० दाहिनी] १. मानव वर्ग के प्राणियों में उस हाथ की दिशा या पार्श्व का जिस हाथ से वह साधारणतः खाता-पीता और अपने अधिकतर काम करता है। मनुष्य के शरीर में जिधर हृदय होता है उसके विपरीत पक्ष या पार्श्व का। दायाँ। बायाँ। का विपर्याय। जैसे—दाहिनी आँख। विशेष—(क) जब हम पूर्व अर्थात् सूर्योदयवाली दिशा की ओर मुँह करके खड़े होते है तब हमारा जो अंग या पार्श्व दक्षिण दिशा की तरफ पड़ता है वहीं हमारा दाहिना कहलाता है। और इसके विपरीत जो अंग या पार्श्व उत्तर की ओर पड़ता है वह हमारा बाँया कहलाता है। (ख) शरीर शास्त्र की दृष्टि से अधिकतर प्राणियों में दाहिनी ओर की पेशियाँ ही अपेक्षया अधिक सबल होती है, और फलतः उसी ओर के अंगों में सब तरह के काम करने की अधिक तत्परता और शक्ति होती है। इसी लिए सब लोग खाने, पकड़ने, मारने लिखने आदि के काम दाहिने हाथ से ही करते हैं। कुछ लोग बाएँ हाथ से भी उक्त सब काम करते हैं। पर उनकी गिनती अपवाद में होती है। (ग) जीव-जंतुओं के शरीर में दाहिने-बाएँ अंगों या पार्श्वों का निरूपण भी उक्त सिद्धांत के आधार पर ही होता है। मुहावरा—(किसी का) दाहिना हाथ होना=किसी का बहुत बडा सहायक होना। जैसे—इस काम में वही तो हमारे दाहिने हाथ रहे हैं। पद—दाहिने बाएँ-(क) किसी की दाहिनी और बायीं ओर। दोनों तरफ। जैसे—उनके दाहिने बायँ राजे-महाराजे खड़े थे। (ख) चारों ओर। २. मनुष्य के दाहिने हाथ की दिशा में स्थित। जैसे—आगे बढ़कर दाहिनी गली में घूम जाना। ३. अचल, जड़ या स्थावर पदार्थों के संबंध में, वह अंग या पार्श्व जो उनके मुँह या सामनेवाले भाग का ध्यान रखते हुए अथवा उनकी गति, प्रवृत्ति आदि के विचार के उक्त सिद्धांत के आधार पर निश्चित या स्थिर होता है। जैसे—(क) पंडित जी का मकान हमारे मकान की दाहिनी ओर पड़ता है। (ख) पटना और बाँकीपुर दोनों गंगा के दाहिने किनारे पर स्थित है। (ग) रंगमंच पर नायिका दाहिने कक्ष से आई और नायक बाँय कक्ष से आया था। ४. जड़, परन्तु चल पदार्थों के संबंध में (उस स्थिति में जब वे हमारे सामने आते या पड़ते हो) उस दिशा या पार्श्व का जो हमारे दाहिने हाथ के ठीक सामने पड़ता है। जैसे—(क)उर्दूँ लिपि दाहिने ओर से लिखी जाती है। (ख) अलमारी के नीचेवाले खाने में दाहिने सिरे पर जो किताब रखी है वह उठा लाओ। विशेष—ऐसी स्थिति में उस पदार्थ या वस्तु का जो अंग या पार्श्व उक्त आधार पर वास्तव में दाहिना होता है वह हमारे लिए बायाँ हो जाता है। उदाहरणार्थ—यदि किसी चित्र में दस आदमी एक पंक्ति में खड़े हों और हमें उन दसों आदमियों के नाम उस चित्र के नीचे लिखने पड़े तो हम लिखेंगे। चित्र में खड़े हुए लोगों के नाम बाई ओर से इस प्रकार है। यहाँ उक्त सिद्धांत के आधार पर चित्र का जो वास्तविक दाहिना पार्श्व होगा, वह हमारे लिए बायाँ हो जायेगा और उसके बायँ पार्श्व को हम अपनी दृष्टि से दाहिना कहेंगे। परन्तु पहनने की कुछ चीजें जब हमारे सामने आवेंगी, तब भी हम उनके दाहिने बायँ का निरूपण अपने शरीर के अंगों के विचार से ही करेगें। जैसे—(क) दरजी ने इस कुरते की दाहिनी आस्तीन कुछ टेढ़ी (या तिरछी) काटी है। (ख) हमारा दाहिना जूता एड़ी पर से घिस गया है। (ग) हमारा दाहिना दास्ताना (या मोजा) खो गया। ५. जो आचरण, व्यवहार आदि में अनुकूल, उदार, प्रसन्न अथवा कार्यों में विशिष्ट रूप में सहायक हो। उदाहरण—सदा भवानी दाहिने, गौरी पुत्र गणेश। पुं० गाड़ी, हल आदि में जोड़ी के साथ जोता जानेवाला वह पशु जो सदा दाहिने ओर रखा जाता हो।
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दाहिनावर्त्त  : वि०, पुं०=दक्षिणावर्त। पुं०=परिक्रमा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दाहिनी  : स्त्री० [हिं० दाहिना] देवता आदि की वह परिक्रमा जो उन्हें अपने दाहिने हाथ की ओर रखकर की जाती है। दक्षिणावर्त परिक्रमा। प्रदक्षिणा। क्रि० प्र०—देना।—लगाना। मुहावरा—दाहिनी लाना=दक्षिणावर्त परिक्रमा करना। प्रदक्षिणा करना।
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दाहिने  : क्रि० वि० [हिं० दाहिना] १. दाहिने हाथ की ओर। उस तरफ जिस तरफ दाहिना हाथ हो। जैसे—उनका मकान हमारे मकान के दाहिने पड़ता है। २. आचरण, व्यवहार आदि में अनुकूल उदार या प्रसन्न रहकर। जैसे—हम तो यहीं चाहते है कि आप सदा दाहिने रहें।
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दाही (हिन्)  : वि० [सं०√दह् (जलाना)+णिनि] [स्त्री० दाहिनी दाहिन्+ङीष्] १. जलानेवाला। भस्म करनेवाला। २. दुःख देनेवाला।
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दाहुक  : वि० [सं०√दह्+उरञ् (बा०)] दाही। (दे०)
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दाह्य  : वि० [सं०√दह्+ष्यत्] जलाने योग्य।
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दिंक  : पुं० [सं० दिङ√कै (शब्द करना)+क] जूँ।
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दिंड  : पुं० [?] एक तरह का नृत्य।
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दिंडि  : पुं० [सं० तिण्डि (पृषो० सिद्धि)] दिंडिर। (दे०)
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दिंडिर  : पुं० [सं० हिण्डिर (पृषो० सिद्धि)] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा।
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दिंडी  : पुं० [सं० दिण्डि+ङीष्] उन्नीस मात्राओं का एक छंद जिसमें नौ और दस मात्राओं पर विश्राम होता है और अंत में दो गुरु होते है।
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दिंडीर  : पुं० [सं० हिण्डीर, पृषो० सिद्धि] समुद्रफेन।
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दिअना  : पुं० दीया (दीपक) उदाहरण—सबके महल मे दिअना जरतु है, हमारी झोपडि़या प्रभु कीन्ह अँधेरा।—गीत। स० दीया जलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिअरी  : स्त्री०=दिअली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिअला  : पुं०=बड़ी दिअली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) दे० ‘दिअली’।
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दिअली  : स्त्री० [हिं० दीया (छोटा कसोरा) का स्त्री० अल्पा०] १. मिट्टी का बना हुआ बहुत छोटा दीया या कसोरे के आकार का पात्र, जिसमें प्रायः बत्ती जालाई जाती है। २. चमकी, बादले आदि की अथवा धातुओं आदि की बनी हुई वह छोटी कटोरी जो झालर आदि बनाने के लिए कपड़ो में टाँकी जाती है। ३. चेचक सूखे हुए घाव आदि के मुँह पर जमी हुई पपड़ी। खुरंड। ४. मछली के ऊपर का गोलाकार छोटा चमकीला छिलका। सेहरा।
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दिआ  : पुं०=दीया (दीपक)।
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दिआना  : स०=दिलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिआबत्ती  : स्त्री०=दीया-बत्ती।
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दिआर  : पुं०=दयार।
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दिआरा  : पुं० [?] १. दे० ‘दयार’। २. दे० ‘दियारा’।
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दिआसलाई  : स्त्री०=दिया-सलाई।
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दिउला  : पुं०=बड़ी दिउली।
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दिउली  : स्त्री०=दिअली।
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दिक् (श्)  : स्त्री० [सं०√दिश्+क्विन्] दिशा। तरफ। ओर। विशेष—दिक् शब्द का मूल रूप दिश् है किन्तु समस्त शब्दों में संधि के अनुसार कहीं इसके रूप दिक्, कहीं दिग् और कहीं दिङ दिखाई पड़ेंगे।
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दिक  : वि० [अ० दिक] १. जिसे बहुत कष्ट पहुँचाया गया हो। हैरान। तंग। जैसे—तुम तो बहुत दिक करते हों। २. अस्वस्थ। बीमार। पुं० क्षय नामक रोग। तपेदिक।
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दिकचन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊख जिसका गुड़ बहुत अच्छा बनता है।
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दिकदाह  : पुं० दे० ‘दिग्दाह’।
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दिकली  : स्त्री० [?] चने की दाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिकाक  : पुं० [अ० दकीक=बारीक] किसी चीज का कटा हुआ छोटा टुकड़ा। कतरन। धज्जी। वि० [अ० दकियानूस] बहुत बड़ा चालक। खुर्राट। स्त्री० [?] बर्रे। भिड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिक्क  : पुं० [सं० दिश्√कै (शब्द करना)+क] हाथी का बच्चा। वि०, पुं०=दिक।
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दिक्कत  : स्त्री० [अ०] १. दिक होने की अवस्था या भाव। २. कष्ट। तकलीफ। ३. परेशानी। हैरानी। ४. कठिनता। मुश्किल। जैसे—यह काम बहुत दिक्कत से होगा।
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दिक्-कन्या  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दिशारूपी कन्या। प्रत्येक दिशा जो ब्रह्मा की कन्या के रूप में मानी गई है।
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दिक्कर  : पुं० [सं० दिक्√कृ (करना)+टच्] [स्त्री० दिक्करिका] १. महादेव। शिव। २. नवयुवक। जवान।
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दिक्करवासिनी  : स्त्री० [सं० दिक्कर√वस् (बसना)+णिनि+ङीष्] पुराणानुसार दिक्कर अर्थात् महादेव मे निवास करनेवाली एक देवी।
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दिक्किर  : पुं०=दिक्करी।
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दिक्करिका  : स्त्री० [सं० दिक्करिन्√कै (शौभिक होना)+क+टाप्] पुराणानुसार एक नदी जो मानसरोवर के पश्चिम में बहती है। यह नदी दिग्गजों के क्षेत्र से निकली हुई मानी गई है।
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दिक्करी (रिन्)  : पुं० [सं० दिश्(क्)-करि (री) न्, ष० त०] आठों दिशाओं के ऐरावत आदि आठ हाथी। दिग्गज।
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दिक्कांता  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दिक् कन्या।
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दिक्-कुमार  : पुं० [ष० त०] जैनियों के अनुसार भवनपति नामक देवताओं में से एक।
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दिक्-चक्र  : पुं० [ष० त०] आठों दिशाओं का समूह।
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दिक्-पति  : पुं० [ष० त०] १. ज्योतिष के अनुसार दिशाओं के स्वामी ग्रह। २. दे० ‘दिक्पाल’।
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दिक्पाल  : पुं० [सं० दिक्√पाल् (पालना)+णिच्+अण्] १. पुराणानुसार दसों दिशाओं का पालन करनेवाला देवता। यथा-पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्यकोण के नैऋत, पश्चिम के वरूण, वायु कोण के मरूत्, उत्तर के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधो दिशा के अनंत। २. चौबीस मात्राओं का एक छंद जिसमे १२ मात्राओं पर विराम होता है। उर्दू का रेख्ता यही छंद है।
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दिक्-शूल  : पुं० [स० त०]=दिशा मूल।
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दिक्-साधन  : पुं० [ष० त०] वह उपाय या क्रिया जिससे दिशाओं का ठीक ज्ञान हो।
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दिक्-सुन्दरी  : स्त्री० [कर्म० स०] दे० ‘दिक्कन्या’।
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दिक्-स्वामी (मिन्)  : पुं० [ष० त०]=दिक्पति।
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दिक्षा  : स्त्री०=दीक्षा।
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दिक्षागुरु  : पुं०=दीक्षा गुरु।
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दिक्षित  : भू० कृ०=दीक्षित।
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दिखणी  : वि० [सं० दक्षिणी] दक्षिणी। उदाहरण—झूठा पाट पटंबरा रे, झूठा दिखणी चीर।—मीराँ
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दिखना  : अ० [हिं० देखना] दिखाई देना। देखने में आना।
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दिखराना  : स०=दिखलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिखरावना  : स०=दिखलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिखरावनी  : स्त्री०=दिखावनी।
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दिखलवाई  : स्त्री० [हिं० दिखलाना] १. दिखलवाने की क्रिया,या भाव या पारिश्रमिक। २. दे० ‘दिखलाई’।
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दिखलवाना  : स० [हिं० दिखलाना का प्रे० रूप] किसी को कोई चीज दिखलाने में प्रवृत्ति करना। स०=दिखलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिखलाई  : स्त्री० [हिं० दिखलाना] १. दिखलाने की क्रिया, या भाव या पारिश्रमिक। २. वह चीज जो धन जो कुछ देखने के बदले में दिया जाय। दिखाई।
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दिखलाना  : स० [हिं० देखना का प्रे० रूप]=दिखलवाना।
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दिखलावा  : पुं० [हिं० दिखलाना] १. दिखलाने या दिखलवाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. दे० ‘दिखावा’।
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दिखवैया  : पुं० [हिं० दिखाना+वैया (प्रत्य०)] १. वह जो किसी को कुछ दिखलाये। २. स्वयं जिसने कुछ देखा हो। देखनेवाला।
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दिखहार  : वि० [हिं० देखना+हार (प्रत्य०)] १. देखनेवाला। द्रष्टा। २. जिसे दिखाई देता हो।
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दिखाई  : स्त्री० [हिं० दिखाना+आई (प्रत्य०)] १. देखने की क्रिया या भाव। २. देखने के बदले में दिया जानेवाला धन, पारिश्रमिक, या पुरस्कार। जैसे—नई आई हुई बहू को दी जाने वाली मुँह-दिखाई। ३. दिखाने की क्रिया या भाव। ४. दिखाने के बदले में दिया जानेवाला धन, पारिश्रमिक या पुरस्कार। ५. देखे जाने की अवस्था या भाव।
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दिखाऊ  : वि० [हिं० दिखाना या देखना+आऊ (प्रत्य०)] १. (चीज) जो दिखाई जाय। २. देखे जाने के योग्य। दर्शनीय। ३. जो देखने या दिखाने भर में अच्छा हो, परन्तु जिसमें वास्तविक सार या तत्त्व कुछ भी न हो। दिखौआ। दिखावटी। ४. दिखानेवाला।
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दिखादिखी  : स्त्री०=देखा-देखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिखाना  : स० [हिं० देखना का प्रे० रूप] १. किसी को कुछ देखने में प्रवृत्त करना। जैसे—मुँह दिखाना, हाथ दिखाना। २. स्पष्ट रूप में सामने उपस्थित करना। जैसे—नफा या नुकसान दिखाना। ३. अभिव्यक्त या प्रगट करना. जैसे—गुस्सा या रोब दिखाना। ४. वास्तविक रूप छिपाकर केवल ऊपरसे प्रगट करना जैसे—उन्होने ऐसा भाव दिखाया कि मानों सचमुच अप्रसन्न हों। ५. लोगों के सामने दृश्य रूप में उपस्थित या प्रदर्शित करना। जैसे—खेल या नाटक दिखाना। ६. अच्छी तरह समझाकर बतलाना या सिद्ध करना। जैसे—हम अब यह दिखायेंगे कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कैसे करती है।
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दिखाव  : पुं० [हिं० देखना+आव (प्रत्य०)] १. देखने का भाव या क्रिया। २. ऊपर का बाहर से दिखाई देनेवाला दृश्य या रूप। नजारा। (व्यू) ३. दे० ‘दिखावा’।
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दिखावट  : स्त्री० [हिं० देखना+आवट (प्रत्य०)] १. कुछ दिखाने या दिखलाने की क्रिया, ढंग या भाव। २. ऊपर या बाहर से दिखाई देनेवाला आकार-प्रकार या रूप-रंग। ३. ऊपरी या बाहरी तड़क-भड़क। ४. ऐसा आचरण या व्यवहार जो दिखाने भर के लिए हो, और जिसके अन्दर तथ्य या वास्तविकता का बहुत कुछ अभाव हो। बनावट।
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दिखावटी  : वि० [हिं० दिखावट+ई (प्रत्य०)] १. जो देखने में भड़कीला हो, परन्तु जिसमें कुछ सार या तत्त्व हो। २. केवल औपचारिक रूप से और को दिखलाने भर के लिए होनेवाला। नाम मात्र का। दिखौआ जैसे—दिखावटी शिष्टाचार। ३. झूठा। मिथ्या।
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दिखावा  : पुं० [हिं० देखना+आवा (प्रत्य०)] १. दिखलाने की क्रिया या भाव। जैसे—दहेज का दिखावा। 2. झूठा ठाट-बाट। ऊपरी तड़क —भड़क। आडंबर। 3. ऐसा काम जो केवल दूसरों को दिखाने के लिए किया गया हो, पर जिसमें तत्त्व या सार कुछ भी न हो।।
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दिखैया  : वि० [वि० देखना+ऐया (प्रत्य०)] देखनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० दिखाना] दिखानेवाला।
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दिखौआ  : वि० [हिं० देखना+औआ (प्रत्य०)] १. जो केवल देखने योग्य हो, पर काम में न आ सके। बनावटी। २. जो केवल दूसरों को दिखलाने भर को हो और जिसमें तथ्य, वास्तविकता, सत्यता आदि का अभाव हो। जैसे—दिखौआ व्यवहार।
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दिखौवा  : वि०=दिखौआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिग्  : स्त्री० [सं० दिक्] दिशा।
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दिगंगना  : स्त्री० [सं० दिक्-अंगना, कर्म० स०] दिगांगना।
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दिगंत  : पुं० [सं० दिक्-अंत, ष० त०] १. दिशा का अंत, छोर या सिरा। २. आकाश की अंतिम सीमा या छोर। क्षितिज। ३. ओर। दिशा। ४. चारों दिशाएँ। ५. दसों दिशाएँ। पुं० [सं० दृक्+अंत] आँख का कोना।
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दिगंतर  : पुं० [सं० दिक्-अंतर, ष० त०] दो दिशाओं के बीच का कोना। कोण।
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दिगंबर  : वि० [सं० दिक्-अम्बर, ब० स०] जिसका अंबर दिशाओं के सिवा और कुछ न हो; अर्थात् बिलकुल नंगा। नग्न। पु० १. अंधकार जो दिशाओं का अम्बर कहा गया। २. महादेव। शिव। ३. एक प्रकार के जैन साधु जो सदा नंगे रहते हैं।
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दिगंबरता  : स्त्री० [सं० दिगम्बर+तल्+टाप्] दिगंबर होने की अवस्था या भाव। नंगापन। नग्नता।
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दिगंबरी  : स्त्री० [सं० दिगंबर+ङीष्] दुर्गा।
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दिगंश  : पुं० [सं० दिक्-अंश, ष० त०] खगोल विद्या में, क्षितिज वृत्त का ३६॰ वाँ अंश। (गणना में इसका उपयोग आकाश में रहनेवाले ग्रहों, नक्षत्रों आदि की स्थिति जानने के लिए होता है।)
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दिगंश-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह यंत्र जिसके द्वारा किसी ग्रह या नक्षत्र का दिगंश जाना जाय।
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दिगंशीय  : वि० [सं० दिगं+छ-ईय] दिगंश-संबंधी।
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दिगधिप  : पुं० [सं० दिक्+अधिप, ष० त०] दिक्पाल।
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दिगपाल  : पुं०=दिक्पाल।
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दिगमंग  : वि०=डगमग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिगर  : वि० [फा० दीगर] दूसरा। अन्य।
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दिगवस्थान  : पुं० [सं० दिक्+अवस्थान, ब० स०] वायु।
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दिगशूल  : पुं०=दिशा-शूल।
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दिगागत  : वि० [सं० दिक्+आगत, पं० त०] दूर से आया हुआ।
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दिगिभ  : पुं० [सं० दिक्+इभ, ष० त०] दिग्गज।
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दिगीश  : पुं० [सं० दिक्+ईश, ष० त०] दिक्पाल।
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दिगीश्वर  : पुं० [सं० दिक्+ईश्वर, ष० त०] १. आठों दिक्पाल। २. सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रह।
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दिगेश  : पुं० [सं० दिगीश] दिक्पाल।
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दिग्गज  : पुं० [सं० दिक्+गज, ष० त०] पुराणानुसार वे आठों हाथी जो चारों दिशाओं और चारों कोणों में पृथ्वी को दबाए रखने और उन दिशाओं की रक्षा करने के लिए स्थापित हैं। वि० हाथी की तरह बहुत बड़ा या भारी। जैसे—दिग्गज पंडित, दिग्गज भवन।
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दिग्यंद  : पुं०=दिग्गज।
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दिग्गी  : स्त्री०=दीघी।
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दिग्घ  : वि०=दीर्ध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिग्घी  : स्त्री० [सं० दीर्घिका] बड़ा तालाब। दीघी।
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दिग्जय  : पुं० [सं० ष० त०] दिग्विजय।
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दिग्जया  : स्त्री० [सं० ष० त०] दिगंश। (दे०)
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दिग्दंत  : पुं०=दिग्दंती (दिग्गज)।
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दिग्दंती (तिन्)  : पुं० [सं० ष० त०] दिग्गज।
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दिग्दर्शक  : वि० [सं० ष० त०] १. दिशा बतलाने अथवा उसका ज्ञान करानेवाला। २. दिग्दर्शन कराने वाला।
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दिग्दर्शक-यंत्र  : पुं० [कर्म० स०] दिशाओं का ज्ञान करानेवाला घड़ी के आकार का एक छोटा यंत्र। कुतुबनुमा। (कंपास)
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दिग्दर्शन  : पुं० [ ष० त०] १. दिशा या ओर दिखलाना। २. किसी को यह बतलाना कि किस ओर, किसकाम में अथवा किस प्रकार आगे बढ़ चलना या बढ़ना चाहिए। ३. यह बतलाना कि किस ओर अथवा दिशा में क्या-क्या है अथवा हो रहा है। ४. वह तथ्य जो उदाहरण—स्वरूप उपस्थित किया जाय। ५. अभिज्ञता। जानकारी। ६. दे० ‘दिग्दर्शक यंत्र’।
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दिग्दर्शनी  : स्त्री० [दिग्दर्शन+ङीष्] दिग्दर्शक यंत्र।
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दिग्दाह  : पुं० [सं० ष० त०] क्षितिज में होनेवाली एक प्राकृतिक विलक्षण घटनाएँ जिनमें कोई दिशा ऐसी लाल दिखाई देती है कि मानों आग-सी लगी हो। यह अशुभ मानी जाती है।
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दिग्देवता  : पुं० [सं० ष० त०]=दिक्पाल।
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दिग्ध  : वि० [सं०√दिह् (लेपन)+क्त] १. जहर में बुझा या बुझाया हुआ। २. लिप्त। लीन। ३. दीर्घ। लंबा। पुं० १. जहर में बुझाया हुआ तीर या बाण। २. तेल। ३. अग्नि। आग। ४. निबन्ध।
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दिग्पट  : पुं० [सं० दिक्+पट, कर्म० स०] दिक् रूपी वस्त्र। २. दे० ‘दिगंबर’।
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दिग्पति  : पुं० [सं० दिक्+पति, ष० त०]=दिक्पाल।
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दिग्पाल  : पुं० दिक्पाल।
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दिग्बल  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार आदि पर स्थित ग्रहों का बल। फलित ज्योतिष में वह बल जो ग्रहों के किसी विशिष्ट स्थिति में रहने पर प्राप्त होता है।
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दिग्वली (लिन्)  : पुं० [सं० दिग्बल+इनि] १. फलित ज्योतिष में वह ग्रह जो किसी दे के लिए बली हो। २. वह राशि जिसे किसी ग्रह से बल प्राप्त हो रहा हो।
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दिग्भू  : स्त्री० [सं० द्व० स०] दिशाएँ और पृथ्वी। उदाहरण—कंपित दिग्भू अंबर, ध्वस्त अहमद डंबर।—पंत।
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दिग्भ्रम  : पुं० [सं० ष० त०] दिशाओं के संबंध में होनेवाला भ्रम। जैसे—भूल से पश्चिम को दक्षिण या पूर्व समझना।
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दिग्मंडल  : पुं० [सं० दिङ+मंडल, ष० त०] दिशाओं का समूह। समस्त दिशाएँ।
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दिग्राज  : पुं० [सं० ष० त०,+टच्०] दिक्पाल।
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दिग्वसन  : पुं० [सं० ब० स०] दिग्वस्त्र। (दे०)
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दिग्वस्त्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. महादेव। शिव। २. लग्न। ३. दिगंबर जैन यति।
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दिग्वान् (वत्)  : पुं० [सं० दिग्+मतुप्, म-व] चौकीदार। पहरेदार।
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दिग्वारण  : पुं० [सं० ष० त०] दिग्गज।
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दिग्वास (स्)  : पुं० [सं० ब० स०] दिग्वस्त्र। (दे०)
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दिग्बिंन्दु  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह बिन्दु या निश्चित स्थान जो सीध या ठीक उत्तर, दक्षिण, पूर्व या पश्चिम में पड़ता है। (कार्डिनल प्वाइंट)
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दिग्विजय  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. प्राचीन भारतीय महाराजाओं की एक प्रथा जिसमें वे अपना पौरूष और बल दिखाने के लिए सेना सहित निकलकर आस-पास विशेषतः चारों ओर के देशों और राज्यों को अपने अधीन करते चलते थे। २. किसी बहुत बड़े गुणी या पंडित का दूसरे स्थानों पर आकर वहाँ के गुणियों और विद्वानों को अपनी कलाओं, गुणों आदि से परास्त करके उन पर अपनी विशिष्टता का सिक्का जमाना।
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दिग्विजयी (यिन्)  : वि० [सं० दिग्विजय+इनि] [स्त्री० दिग्विजयनी दिग्विजयिन्+ङीष्] जिसने दिग्विजय प्राप्त की हो।
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दिग्विभाग  : पुं० [सं० ष० त०] दिशा। ओर। तरफ।
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दिग्विभावित  : वि० [सं० ष० त०] जिसकी प्रसिद्धि सभी दिशाओं में अर्थात् सब जगह हो।
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दिग्वयापी (पिन्)  : वि० [सं० दिक्+वि√आप् (पहुँचना)+णिनि] [स्त्री० दिग्व्यापिनी दिग्व्यापिन्+ङीप्] सब दिशाओं में व्याप्त रहने या होनेवाला।
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दिग्व्याप्त  : वि० [सं० स० त०] सब दिशाओं में व्याप्त।
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दिग्व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह का व्रत जिसमें कुछ निश्चित समय के लिए किसी निश्चित दिशा में नही जाया जाता। (जैन)
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दिग्शिखा  : स्त्री० [सं० ष० त०] पूर्व दिशा।
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दिग्शूल  : पुं०=दिशा शूल।
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दिग्सिंधुर  : पुं० [सं० ष० त०] गिदग्ज।
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दिघी  : स्त्री०=दीघी।
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दिघोंच  : पुं० [देश०] एक तरह का पक्षी जिसके डैने कुछ काले तथा सुनहले रंग के होते हैं।
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दिग्घ  : वि०=दीर्घ।
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दिङ-नक्षत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] चारों दिशाओं से संबंधित कुछ विशिष्ट नक्षत्रों का समूह। विशेष—प्रत्येक दिशा में ऐसे सात-सात नक्षत्र माने गये हैं।
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दिङनाग  : पुं० [सं० ष० त०] १. दिग्गज २. एक प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य जो ईंसवी चौथी शती में हुए थे।
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दिङ-नाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. दिग्गज। २. एक प्राचीन बौद्ध आचार्य जो कालिदास के समकालीन और प्रतिद्वंद्वी कहे जाते हैं।
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दिङ-नारी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०, वा ष० त०] १. वेश्या। रंडी। २. कुलटा या दुश्चरित्रा स्त्री। पुंश्चली।
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दिङ-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] दिशाओं का समूह।
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दिङ-मातंग  : पुं० [सं० ष० त०] दिग्गज।
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दिङ-मात्र  : पुं० [सं० दिक्+मात्रच्] १. उदाहरण मात्र। २. संकेत मात्र।
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दिङमूढ़  : वि० [सं० ष० त०] १. जिसे दिशाओं का ज्ञान न होता हो। २. बेवकूफ। मूर्ख।
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दिङ-मोह  : पुं० [सं० ष० त०] दिग्भ्रम।
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दिच्छा  : स्त्री०=दीक्षा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिच्छित  : भू० कृ०=दीक्षित।
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दिजराज  : पुं०=द्विजराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिजोत्त  : पुं०=द्विजोत्तम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिट्ट  : वि०=दृष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिट्टि  : स्त्री०=दृष्टि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिठवन  : स्त्री०=देवोत्थान एकादशी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिठादिठी  : स्त्री० [हिं० दीठ] देखादेखी। उदाहरण—लहि सूतैं घट करु गहत दिठादिठी की ईठि।—बिहारी।
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दिठाना  : स० [हि० दीठ+आना (प्रत्य०)] १. नजर लगाना। दृष्टि लगाना। २. दिखाना। (क्व०) अ० १. नजर लगाना। २. दिखाई देना। (क्व०)
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दिठियार  : वि० [हि० दीठ=दृष्टि+इयार (प्रत्य०)] १. देखनेवाला। २. जिसे दिखाई देता हो। ३. समझदार। बुद्धिमान।
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दिठौना  : पुं० [हिं० दीठ=दृष्टि+औना (प्रत्य०)] काजल का वह बेढंगा चिह्न या बिंदी जो लोग छोटे बच्चों के माथे या गाल पर उन्हें दूसरों की बुरी नजर से बचाने के लिए लगाते हैं। क्रि० प्र०—लगाना।
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दिढ़  : वि०=दृढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिढ़ता  : स्त्री०=दृढ़ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिढ़ाई  : स्त्री०=दृढ़ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिढ़ाना  : स० [सं० दृढ़+हिं० आना (प्रत्य०)] १. दृढ़ अर्थात् ठीक और पक्का करना या बनाना। २. पूर्ण रूप से निश्चित या स्थिर करना। अ० १. दृढ़ या पक्का होना। २. निश्चित या स्थिर होना।
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दिढ़ाव  : पुं० [हिं० दिढ़ाना] १. दृढ़ या निकुचन करने की क्रिया या भाव। २. दृढ़ता। उदाहरण—है दिढ़ाइवे जोग जो ताको करत दिढ़ाव।—भूषण।
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दिणयर  : पुं०=दिनकर (सूर्य)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दित  : भू० कृ० [सं०√दो (खण्डन करना)+क्त इत्व] १. कटा हुआ। २. विभक्त। ३. खंडित।
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दितवार  : पुं०=आदित्यवार (रविवार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिति  : स्त्री० [सं०√दो+क्विच्, इत्व] १. कश्यप ऋषि की एक पत्नी जो दक्ष प्रजापति की कन्या और दैत्यों की माता थी। २.काटने, तोडने-फोड़ने आदि की क्रिया या भाव। वि० देनेवाला। दाता।
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दिति-कुल  : पुं० [ष० त०] दैत्यों का कुल या वंश।
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दितिज  : वि० [सं० दिति√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] [स्त्री० दितिजा] दिति से उत्पन्न। पुं०=दैत्य।
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दति-सुत  : पुं० [ष० त०] दैत्य। राक्षस।
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दित्य  : पुं० [सं० दिति+यत्] दैत्य। वि० काटे या छेदे जाने के योग्य। जो काटा या छेदा जा सके।
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दित्सा  : स्त्री० [सं०√दा (देना)+सन्+अ+टाप्] १. दान करने या देने की इच्छा। २. वह व्यवस्था जिसके अनुसार कोई अपनी संपति का बँटवारा अमुक-अमुक लोगों में अपने मरने के उपरांत चाहता है। (विल)
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दित्साक्रोड़  : पुं० [ष० त०] १. दित्सापत्र के अंत में लिखा हुआ परिशिष्ट रूप में कोई संक्षिप्त लेख या टिप्पणी जो किसी प्रकार की व्यवस्था या स्पष्टीकरण के रूप में होती है। २. दित्सा पत्र का वह अंश जिसमें उक्त प्रकार का लेख हो। (कोडिसिल)
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दित्सापत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र या लेख जिसमें यह निर्देश होता है कि मेरे मरने के उपरांत मेरी संपत्ति अमुक-अमुक लोगों को अमुक-अमुक मात्रा में दी जाय। वसीयतनामा। इच्छापत्र। (विल)
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दित्सु  : वि० [सं०√दा (देना)+सन्+उ] १. जो दान करने या देने को इच्छुक हो २. जिसने अपनी संपत्ति के संबंध में दित्सा पत्र लिखा हो। वसीयत करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दित्स्य  : वि० [सं०√दा+सन्+ण्यत्] जो दान किया जा सके। किसी को दिये जाने के योग्य।
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दिदार  : पुं०=दीदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिदृक्षा  : स्त्री० [सं०√दृश् (देखना)+सन्+अ+टाप्] देखने की अभिलाषा या इच्छा।
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दिदृक्षु  : वि० [सं०√दृश्+सन्+उ] देखने की अभिलाषा या इच्छा रखनेवाला।
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दिक्षृक्षेण्य  : वि० [सं० √दृश्+सन्+केन्य] दिदृक्षेय। (दे०)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिदृक्षेय  : वि० [सं० दिदृक्षा+ढक्—एय (बा०)] देखने योग्य। दर्शनीय।
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दिद्यु  : पुं० [सं० दिद्युत् से] १. वज्र। २. तीर। बाण।
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दिद्युत्  : पुं० [सं०√द्युत् (चमकना)+क्विप् (नि० सिद्धि)] वज्र।
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दिधि  : पुं० [सं०√धा (धारण करना)+कि] १. धारण करने की क्रिया या भाव। २. धैर्य। ३. दृढ़ता।
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दिधिषु  : पुं० [सं० दिधि√सो (नष्ट करना)+कु] १. पहले एक बार व्याही हुई स्त्री का दूसरा पति। दोबारा व्याही हुई स्त्री का दूसरा पति। २. गर्भाधान करनेवाला व्यक्ति। ३. स्त्री की दृष्टि से उसका दूसरा पति।
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दिधिषू  : स्त्री० [सं० दिधि√सो+कू] १. वह स्त्री जिसके दो ब्याह हुए हों। २. वह स्त्री जिसका विवाह उसकी बडी बहन के विवाह से पहले हुआ हो।
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दिविधू-पति  : पुं० [ष० त०] विधवा भावज से अनुचित संबंध रखनेवाला व्यक्ति।
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दिन  : पुं० [सं०√दो (खण्ड करना)+इनच्] १. उतना पूरा समय जितने में सूर्य हमारे ऊपर अर्थात् आकाश में रहता है। सूर्य के उदय से लेकर अस्त तक का अर्थात् सबेरे से सन्ध्या तक का सारा समय। दिवस। मुहावरा—दिन उतरना=दिन ढलना। दिन को तारे दिखाई देना=इतना अधिक मानसिक कष्ट पहुँचना या विहवल होना कि बुद्धि ठिकाने न रहे। उदाहरण—तारे ही दिखायी दिये दिन में विपक्ष को।—मैथिलीशरण। दिन को दिन और रात को रात जानना या न समझना=कोई बड़ा कार्य करते समय अपने आराम, सुख, विश्राम आदि का कुछ भी ध्यान न रखना। दिन चढ़ना=सूर्य निकलने के उपरांत कुछ और समय बीतना। दिन छिपना या डूबना=दिन का अंत होने पर सूर्य का अस्त होना। दिन ढलना=दोपहर बीत जाने पर दिन का अंत अर्थात् सूर्यास्त का समय पास आने लगना। दिन दूना या रात चौगुना होना या बढ़ना=बहुत जल्दी-जल्दी और बहुत अधिक बढ़ना। खूब उन्नति पर होना। दिन निकलना=सूर्य का उदय होना। दिन चढ़ना। दिन बूढ़ना या मुँदना=दिन डूबना। (देखें ऊपर) पद—दिन दहाड़े या दिन दोपहर=ऐसे समय जब कि दिन पूरी तरह से निकला हो और सब लोग जागते या देखते हों। दिन धौले=दिन दहाड़े। दिन रात=(क) हर समय। सदा। (ख) उतना सब समय जितने में पृथ्वी एक बार अपने अक्ष पर पूरा घूमती है। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का समय। दिन और रात दोनों का सारा समय जो २४ घंटों का होता है। विशेष—(क) ज्योतिष में दिन की गणना या विचार दो प्रकार से होता है—एक तो नक्षत्र के विचार से, जिसे नाक्षत्र दिन कहते हैं और दूसरा सूर्य के विचार से जिसे सौर या सावन कहते हैं। नाक्षत्र दिन उतने समय का होता जितने में एक नक्षत्र याम्योतर रेखा पर से होता हुआ आगे बढ़ता और फिर याम्योतर रेखा पर आता है। यहीं समय पृथ्वी को एक बार अपने अक्ष पर घूमने लगता है। नक्षत्र के याम्योत्तर रेखा पर दोबारा आने और पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने में सदा एक सा समय लगता है। उसमें कभी क्षणमात्र का भी अंतर नहीं पड़ता। सौर या सावन दिन उतने समय का होता है, जितना समय सूर्य को एक बार याम्योत्तर रेखा पर से होकर आगे बड़ने और फिर दोबारा याम्योत्तर रेखा पर आने में लगता है। यह समय बराबर थोड़ा बहुत घटता-बढ़ता रहता है, इसी लिए चांद्र वर्ष और सौर वर्ष में कुछ अंतर पडता है जो किसी विशिष्ट युक्ति से दूर किया जाता है। हमारे यहाँ तथा अनेक प्राचीन जातियों मे एक सूर्योदय तक का सारा समय एक पूरा दिन माना जाता था और आज-कल भी एशिया तथा यूरोप के अनेक देशों में ऐसा ही माना जाता है। परन्तु आज-कल पाश्चात्य देशों के प्रभाव के कारण नागर कार्यों के लिए और विधिक क्षेत्रों में एक मध्य रात्रि से दूसरी मध्य रात्रि तक का समय दिन माना जाता है। आधुनिक पाश्चात्य ज्योतिष एक मध्याह्न से दूसरे मध्याह्न तक के समय को पूरा दिन मानते है। (ख) दिनों की गिनती सप्ताह, महीनों और वर्ष के हिसाब से भी की जाती है। पद—दिन दिन या दिन पर दिन=नित्यप्रति। सदा। हर रोज। ३. वार। जैसे—आज कौन दिन है ? क्रि० प्र०—काटना।—गवाना।—बिताना। ४. प्रस्तुत परिस्थितियों या वर्तमान स्थितियों के विचार से बीतनेवाला काल या समय। काल। वक्त। जैसे—उनके अच्छे दिन तो चले गये, अब बुरे दिन आ रहे हैं। मुहावरा—(किसी पर) दिन पड़ना=कष्ट या विपत्ति के दिन आना। दिन पूरे करना=जैसे तैसे कष्ट का समय बिताना। दिन फिरना या बहुरना=कष्ट या विपत्ति के दिन निकल या बीत जाने पर अच्छे और सौभाग्य के दिन आना। दिन बिगड़ना=कष्ट या विपत्ति के दिन आना। दिन भरना या भुगतना=दिन पूरे करना। (देखें ऊपर) पद—दिनों का फेर=भाग्य बिगड़ हुए होने का समय। अच्छे दिनों के बाद बुरे दिन आना। ५. नियत या उपयुक्त काल। निश्चित या उचित समय। मुहावरा—(किसी काम या बात का) दिन आना=उचित या नियत समय आना। जैसे—मृत्यु का दिन आना; स्त्री के रजस्वला होने का दिन आना। (किसी काम या बात के लिए) दिन धरना=तिथि या दिन निश्चित करना। ६. ऐसा समय जिसमें कोई विशिष्ट घटना या बात हो अथवा होती हो। मुहावरा—(स्त्रियों के पक्ष में) दिन चढ़ना या लगना=स्त्री का रजस्वला होने का समय निकल जाने पर भी कुछ और दिन बीतना जो उसके गर्भवती होने का सूचक होता है। जैसे—उसकी बहू को दिन चढ़े (या लगे) हैं। दिनों से उतरना=युवावस्था बीत जाना। जवानी ढलना। अव्य० १. नित्य-प्रति। हर रोज। २. निरंतर। बराबर। सदा। उदाहरण—दिन दूलह मेरो कुंवर कन्हैया।—गदाधर भट्ट।
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दिनअर  : पुं०=दिनकर (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिनकंत  : पुं० [सं० दिन+हिं० कंत (कांत)] सूर्य।
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दिनकर  : पुं० [सं० दिन√कृ (करना)+द्यच्] १. सूर्य। २. आक या मदार का पौधा।
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दिनकर-कन्या  : स्त्री० [ष० त०] यमुना।
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दिनकर-कांति  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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दिनकर-सुत  : पुं० [ष० त०] १. यम। २. शनि। ३. सुग्रीव। ४. कर्ण। ५. अश्विनीकुमार।
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दिन-कर्त्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०]=दिनकर (सूर्य)।
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दिन-कृत्  : पुं० [सं० दिन√कृ (करना)+क्विप्]=दिनकर।
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दिन-केसर  : पुं० [ष० त०] अंधकार। अँधेरा।
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दिन-क्षय  : पुं० [ष० त०] तिथि-क्षय। (दे०)
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दिनचर्या  : स्त्री० [ष० त०] नित्य प्रति किये जानेवाले कार्यों का क्रमिकरूप। नित्य किये जानेवाले सब काम। जैसे—नहाना-धोना, खाना-पीना, काम-धंधे या नौकरी पर जाना आदि।
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दिनचारी (रिन्)  : पुं० [सं० दिन्√चर् (गति)+णिनि] सूर्य।
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दिन-ज्योति (स्)  : स्त्री० [ष० त०] १. दिन का उजाला या प्रकाश। २. धूप।
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दिन-दानी (निन्)  : पुं० [ष० त०] प्रतिदिन दान करनेवाला। सदा या हमेशा देनेवाला।
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दिन-दीप  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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दिन-दुःखित  : पुं० [स० त०] चकवा। (पक्षी)
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दिन-नाथ  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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दिन-नायक  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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दिननाह  : पुं०=दिननाथ (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिन-पंजी  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘दैनंदिनी’।
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दिनप  : पुं० [सं०दिन√पा (रक्षा करना)+क, उप० स०]=दिन पति। (सूर्य)
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दिन-पति  : पुं० [ष० त०] १. दिन या वार के पति या स्वामी। २. सूर्य। ३. आक। मदार।
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दिन-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र या पत्र-समूह जिसमें अलग-अलग दिन या वार, तिथियाँ, तारीखें, आदि क्रम से दी रहती है। तिथि-पत्र। (कैलेंडर)
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दिन-पाकी अजीर्ण  : पुं० [सं० दिन पाकी, दिन√पच् (पचना)+णिनि, दिनपाकी और अजीर्ण व्यस्त पद] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें एक बार का किया हुआ भोजन आठ पहर में पचता है, बीच में भूख नहीं लगती।
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दिन-पात  : पुं० [ष० त०] तिथि-क्षय। (दे०)
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दिन-पाल  : पुं० [सं० दिन√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] सूर्य।
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दिन-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दिन-बल  : पुं० [ब० स०] दिन के समय सबल पड़नेवाली राशि। (ज्यो०)
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दिन-भृति  : स्त्री० [ष० त०] वह मजदूरी जो काम करने के दिनों के अनुसार मिले। (मासिक वेतन से भिन्न)
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दिन-मणि  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दिन-मनि  : पुं०=दिन-मणि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिन-मयूख  : पुं० [ब० स०.] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दिन-मल  : पुं० [ष० त०] मास। महीना।
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दिन-मान  : पुं० [ष० त०] ज्योतिष में, काल-गणना के लिए, सूर्योदय से सूर्य़ास्त तक का समय अर्थात् पूरे दिन का मान, जो घड़ियों और पलों अथवा घंटों और मिनटों में निश्चित होता है। और बराबर कुछ न कुछ घटता-बढ़ता रहता है। पुं०=दिन-मणि। (सूर्य) उदाहरण—गिरि-शिखर पर थम गया है डूबता दिन-मान।—दिनकर।
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दिनमाली (लिन्)  : पुं० [सं० दिनमाला, ष० त०+इनि] सूर्य।
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दिन-मुख  : पुं० [ष० त०] प्रभात। सबेरा।
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दिन-रत्न  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दिनराई  : पुं०=दिन-राज। (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिनराउ  : पुं०=दिन-राज (सूर्य)।
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दिन-राज  : पुं० [ष० त०, टच् समा०] सूर्य।
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दिनरी  : स्त्री० [?] बुंदेलखंड में गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत जो स्त्रियाँ चैती फसल काटने पर गाती है।
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दिन-शेष  : पुं० [ष० त०] सायंकाल। संध्या।
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दिनांक  : पुं० [दिन-अंक, ष० त०] वह क्रमिक संख्या जो किसी विशिष्ट वर्ष के विशिष्ट मास के दिन का ठीक-ठीक बोध कराती हो। तारीख। तिथि (डेट)
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दिनांकित  : भू० कृ० [सं० दिनांक+इतच्] जिस पर दिनांक लिखा हुआ या लिखा गया हो।
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दिनाँड  : पुं० [सं० दिनांत] अंधकार। अँधेरा।
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दिनांत  : पुं० [दिन-अंत, ष० त०] सायंकाल। संध्या। शाम।
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दिनांतक  : पुं० [दिन-अंतक, ष० त०] अंधकार। अँधेरा।
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दिनांध  : वि० [दिन-अंध, स० त०] जिसे दिन में कुछ दिखलाई न पड़ता हो।
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दिनांश  : पुं० [दिन-अंश, ष० त०] १. दिन के अंश या विभाग। २. दिन के प्रातःकाल, मध्याह्र और सायंकाल ये तीन अंश या विभाग।
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दिनाइ  : पुं० [देश०] दाद (रोग)।
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दिनाई  : स्त्री० [सं० दिन, हिं० आना.] कोई ऐसी विषाक्त वस्तु जिसे खा लेने के कुछ समय उपरांत मृत्यु हो जाय। अंतिम दिन (मृत्यु काल) लानेवाली चीज। स्त्री०=दाद (रोग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिनागम  : पुं० [दिन-आगम, ष० त०] प्रभात। तड़का।
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दिनाती  : स्त्री० [हिं० दिन+आती (प्रत्य०)] १. मजदूरों विशेषतः खेत में काम करनेवालों का एक दिन का काम। २. उक्त प्रकार के एक दिन का पारिश्रमिक या मजदूरी। दिहाड़ी।
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दिनातीत  : वि० [दिन-अतीत, द्वि० त०] १. जिसका चलन या प्रचलन न रह गया हो। जिसके दिन बीत चुके हों। २. रुचि, शैली आदि के विचार से पिछड़ा हुआ। (आउट आँफ डेट)
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दिनात्यय  : पुं० [दिन-अत्यय, ष० त०] सूर्यास्त।
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दिनदि  : पुं० [दिन-आदि, ष० त०]=दिनागम।
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दिनाधीश  : पुं० [दिन-अधीश, ष० त०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दिनानुदिन  : क्रि० वि० [दिन-अनुदिन, अव्य० स०] दिन पर दिन। नित्य प्रति। प्रति दिन।
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दिनाप्त  : वि० [दिन-आप्त, द्वि० त०] आज-कल या वर्तमान काल की आवश्यकता, रुचि, प्रचलन, शैली आदि के अनुसार ठीक। अद्यावधिक। (अपटुडेट)
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दिनाय  : स्त्री०=दाद (चर्मरोग)।
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दिनार  : पुं०=दीनार।
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दिनारु  : वि० [सं० दिनालु] बहुत दिनों का। पुराना।
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दिनार्द्ध  : पुं० [दिन-अर्द्ध, ष० त०] मध्याह्र। दोपहर।
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दिनावा  : स्त्री० [देश०] पहाड़ी नदियों में होनेवाली एक तरह की मछली।
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दिनास्त  : पुं० [दिन-अस्त, ष० त०] सूर्यास्त। संध्या।
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दिनिआ  : पुं० [सं० दिनकर] सूर्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिनिका  : स्त्री० [सं०दिन+ठन्-इक+टाप्] एक दिन का पारिश्रमिक या मजदूरी। दिनाती। दिहाड़ी।
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दियर  : पुं०=दिनकर। (सूर्य)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिनी  : वि० [हिं० दिन+ई (प्रत्य०)] १. कई या बहुत दिनों का पुराना। २. बासी।
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दिनेर  : पुं०=दिनकर। (सूर्य)
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दिनेश  : पुं० [दिन-ईश, ष० त०] १. सूर्य। २. किसी विशिष्ट दिन का अधिपति ग्रह। ३. आक। मदार।
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दिनेशात्मज  : पुं० [सं० दिनेशात्मन् (ष० त०)√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. शनि। २. कर्ण। ३. सुग्रीव। ४. यम।
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दिनेशात्मजा  : स्त्री० [सं० दिनेशात्मज+टाप्] १. यमुना। २. तापती।
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दिनेश्वर  : पुं० [दिन-ईश्वर, ष० त०]=दिनेश।
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दिनेस  : पुं०=दिनेश।
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दिनौंधी  : स्त्री० [हिं० दिन+अंध+ई (प्रत्य०)] एक रोग जिसमें रोगी को दिन के समय बहुत कम दिखलाई पडता है। दिवांधता।
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दिप  : स्त्री०=दीप्ति।(चमक)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिपति  : स्त्री०=दीप्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिपना  : अ० [सं० दीपन] चमकना। प्रकाशमान होना। अ० [हिं० दीपा=मन्द] १. मंद पड़ना। २. बुझना। ३. धुंधला पड़ना या होना। उदाहरण—इस धने कुहासे के भीतर, दिप जाते तारे इन्दु पीत।—पन्त।
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दिपाना  : स० [हिं० दिपना] दीप्त करना। चमकाना। स० [हिं० दीपा=मन्द] १. बुझाना। २. धुंधला करना। ३. मंद करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ०=दिपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिब  : पुं० १.=दिव्य (परीक्षा)। २.=दिवस। वि०=दिव्य।
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दिमंकर सो  : वि० [सं० द्वि-उत्तर-शत] सौ और दो। एक सौ दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिमांक  : पुं०=दिमाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिमाकदार  : वि०=दिमागदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिमाग  : पुं० [अ०] १. सिर का गूदा। भेजा। २. सोचने-समझने आदि की शक्ति, जिसका निवास सिर के भीतरी भाग में माना गया है। मस्तिष्क। मुहावरा—दिमाग आसमान पर होना=ऐसा घमंड होना जो साधारण बातों, व्यक्तियों आदि की ओर प्रवृत्त न होने दे अथवा उन्हें उपेक्ष्य समझे। दिमाग ऊँचा होना=ऐसी मानसिक स्थिति होना, जिसमें केवल बड़ी-बड़ी बातों की ओर ही ध्यान रहे। (किसी का) दिमाग खाना या चाटना=व्यर्थ की बातें कहना जिससे किसी के सिर में दर्द होने लगे। बहुत बकवाद करना। (किसी का) दिमाग खाली करना=दिमाग चाटना। ऐसा काम करना, जिससे किसी की मानसिक शक्ति का बहुत अधिक व्यय हो (किसी काम में) दिमाग खाली करना=सोच-विचार आदि में पड़कर अपनी मानसिक शक्ति का क्षय या व्यय करना। दिमाग चढ़ना=दिमाग आसमान पर होना। (किसी का) दिमाग न पाया जाना या न मिलना=किसी में इतना अधिक अभिमान होना कि वह साधारण लोगों से बात करना तक पसंद न करे। दिमाग परेशान करना= दे० ऊपर ‘दिमाग खाली करना’। दिमाग में खलल होना=मस्तिष्क में ऐसा विकार होना, जिससे वह ठीक तरह से काम करने के योग्य न रह जाय। पागल होना। (किसी काम में) दिमाग लड़ाना=कोई काम पूरा करने के लिए बहुत अधिक सोच-विचार से काम लेना। ३. मानसिक शक्ति। बुद्धि। समझ। जैसे—वह बहुत बड़े दिमाग का आदमी है पद—दिमागदार (देखें) ४. अभिमान। घमंड। शेखी। जैसे—बस रहने दीजिए; बहुत दिमाग मत दिखलाइए। मुहावरा—दिमाग झड़ना=अभिमान या घमंड दूर हो जाना।
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दिमाग-चट  : वि० [अ० दिमाग+हिं० चट (चाटना)] बहुत अधिक बकवाद करके दूसरों का दिमाग चाटने अर्थात् उन्हें व्याकुल करनेवाला। बहुत बड़ा बकवादी।
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दिमागदार  : वि० [अ० दिमाग+फा० दार (प्रत्य०)] १. जिसका दिमाग या मानसिक शक्ति बहुत अच्छी हो। बहुत बड़ा समझदार। २. अभिमानी। घमंडी।
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दिमाग रौशन  : पुं० [अ० दिमाग+फा० रौशन] मगज-रौशन नाम। सुँघनी। (परिहास और व्यंग्य)
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दिमागी  : वि० [अ० दिमाग] १. दिमाग या मस्तिष्क-संबंधी। दिमाग का। मानसिक। जैसे—दिमागी मेहनत। २. जिसे दिमाग हो। दिमागवाला। ३. घमंडी।
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दिमात  : वि० [सं० द्विमातृ] दो माताओंवाला। जिसकी दो माताएँ हों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [सं० द्विमात्र] दो मात्राओंवाला।
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दिमान  : पुं०=दीवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिमाना  : वि०=दीवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिम्मस  : स्त्री० [हिं० दुरभट] घासदार ढेलों में से घास अलग करने के लिए उन्हें दुरमद से पीटने की क्रिया।
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दियट  : स्त्री०=दीअट।
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दियत  : स्त्री० [हिं० देना] वह धन जो किसी अन्य व्यक्ति को मार डालने या अंग-भंग करने के बदले में दिया जाय।
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दियना  : पुं०=दीया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अ० दीप्त होना। स० दीप्त करना।
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दीयरा  : पुं० [हिं० दीया=दीपक] १. वह बड़ा सा लुक जो शिकारी हिरनों को आकर्षित करने के लिए जलाया जाता है। उदाहरण—सुभग सकल अंग अनुज बालक संग देखि नरनारि रहै ज्यों कुरंग दियरे।—तुलसी। २. [स्त्री० अल्पा० दियरी] दे० ‘दीया’। पुं० [?] एक तरह का पकवान।
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दियरी  : स्त्री० [हिं० दियरा का स्त्री० अल्पा०] छोटा दीया। दिअली।
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दियला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० दियली]=दीया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दियवा  : पुं०=दीया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दियाँर  : स्त्री०=दीमक।
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दिया  : पुं०=दीया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स० हिं० देना क्रिया का भूत० का० एक वचन रूप।
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दियानत  : स्त्री०=दयानत।
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दियानतदार  : वि०=दयानतदार।
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दिया-बत्ती  : स्त्री०=दीया-बत्ती।
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दियारा  : पुं० [फा० दयार=प्रदेश] १. नदी के किनारे की जमीन। कछार। खादर। दरियाबरार। २. दायर। प्रदेश। पुं० [सं० दिवाकर] १. मृगतृष्णा। २. रात के समय मैदान में दिखाई पड़नेवाला अगिया बैताल। छलावा। लुक।
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दियासलाई  : स्त्री०=दीया-सलाई।
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दिर  : पुं० [अनु०] सितार का एक बोल। जैसे—दिर दा दिर दारा।
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दिरद  : पुं०=द्विरद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिरम  : पुं० [अ० दरहम से फा०] १. मिश्र देश का चाँदी का एक पुराना सिक्का। दिरहम। २. साढ़े तीन माशे की एक तौल।
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दिरमान  : पुं० [फा० दरमानः] चिकित्सा। इलाज।
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दिरमानी  : पुं० [फा० दरमानः=चिकित्सा+ई (प्रत्य०)] इलाज करनेवाला व्यक्ति। चिकित्सक।
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दिरहम  : पुं० [फा० दर्हम] दिरम नाम का सिक्का और तौल।
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दिरानी  : स्त्री०=देवरानी। (देवर की पत्नी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिरिस  : पुं०=दृश्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिरेस  : स्त्री०, पुं०=दरेस।
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दिर्हम  : पुं०=दिरम।
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दिल  : पुं० [फा०] १. शरीर के अंदर का हृदय नामक अंग, जिसकी सहायता से शरीर मे रक्त का संचार होता है। कलेजा। (मुहा० के लिए दे० ‘कलेजा’ के मुहा०) २. लाक्षणिक रूप में चित्त। जी। मन। पद—दिल की फाँस=मन में खटकता रहनेवाला कष्ट, दुःख या पीड़ा। मुहावरा—(किसी से) दिल अटकना=श्रृंगारिक क्षेत्र में, प्रेम या स्नेह होना। (किसी पर) दिल आना=किसी के प्रति अनुराग या प्रेम होना। दिल उमड़ना=चित्त का दया, स्नेह आदि कोमल मनोविकारों के कारण द्रवीभूत होना। दिल उलटना=(क) जी घबराना। (ख) जी मिचलाना। दिल कड़ा या कडुवा करना=कोई काम या बात करने के लिए मन में साहस या हिम्मत करना। दिल कबाब होना=बहुत अधिक मानसिक कष्ट या संताप होना। जी जलना। (किसी काम, चीज या बात के लिए) दिल करना=मन में प्रवृत्ति उत्पन्न होना। जी चाहना। दिल का कँवल या कमल खिलना=चित्त या मन बहुत प्रसन्न होना। दिल का गुबार या बुखार निकालना=मन में दबा हुआ कष्ट कुछ कटु शब्दों में किसी के सामने प्रकट करना। दिल की गाँठ या घुंडी खोलना=(क) मन में छिपाकर रखी हुई बात किसी से कहना। (ख) मन में दबा हुआ द्वेष या वैर दूर करना। दिल कुढ़ना=चित्त या मन अन्दर ही अन्दर दुःखी होना। दिल के फफोले फोड़ना=दिल का गुबार या बुखार निकालना। (देखें ऊपर) दिल को करार होना=चित्त में शांति होना। चैन मिलना। (कोई बात) दिल में लगना=किसी बात का चित्त या मन पर ऐसा प्रभाव पड़ना जो सहज में भुलाया न जा सके। दिल खोलकर=(क) पूरी उदारता से। (ख) बिलकुल शुद्ध हृदय से। जैसे—दिल खोलकर किसी से बातें करना। (किसी काम या बात में) दिल गवाही देना=अंतःकरण या विवेंक से किसी काम या बात का अनुमोदन या समर्थन होना। जैसे—जिस काम में दिल गवाही न दे, वह काम नहीं करना चाहिए। दिल जमना=(क) किसी काम में चित्त या मन लगना। जी लगना। (ख) किसी बात की ओर से मन संतुष्ट होना। दिल ठिकाने होना=चित्त सांत या स्थिर होना। दिल ठोंककर=चित्त या मन मे दृढ़ता और साहस रखकर (कोई काम करना)। (किसी का) दिल देखना=किसी प्रकार का यह पता लगाना कि इसके मन में क्या बात या विचार है अथवा यह क्या करेगा। (किसी को) दिल देना=किसी से अत्यधिक प्रेम करना। पूरी तरह से अनुरक्त होना। दिल दौडाऩा=चित्त या मन को किसी ऐसे काम या बात की ओर प्रवृत्त करना जिसकी प्राप्ति या सिद्धि दूर हो अथवा सहज न हो। (हाथों में या से) दिल पकड़े फिरना=ममता, मोह आदि के कारण बहुत ही विकल होकर इधर-उधर घूमना। (कोई बात) दिल मे नक्श होना=मन में अच्छी तरह अंकित होना या बैठ जाना। दिल में मैल लाना=मन में दुर्भाव, द्वेष आदि को स्थान देना। मन ही मन बुरा मानना। दिल पसीजना या पिघलना=मन में उदारता, दया स्नेह आदि कोमल वृत्तियों का आविर्भाव होना। दिल फटना=(क) आघात, कष्ट आदि के कारण मन में असह्य वेदना होना। (ख) पहले का-सा सदभाव या स्नेह न रह जाना। (किसी की ओर से) दिल फिरना या फिर जाना=चित्त या मन हट जाना। विरक्ति होना। दिल फीका होना=जी खट्टा होना। पहले का सा अनुराग या सद्भाव न रह जाना। दिल भटकना=चित्त या व्यग्र या चंचल होना। मन मे इधर-उधर के विचार उठना। दिल मसोसना या मसोसकर रह जाना=क्रोध, दुःख आदि तीव्र मनोविकारों को मन में दबाकर रह जाना। (किसी के) दिल पर घर या जगह करना=किसी के अनुराग, आदर आदि का पात्र बनना। दिल में बल पड़ना=दिल में फरक आना। (देखें ऊपर) दिल में फरक आना=पहले का- सा अनुराग या सद्भाव न रह जाना। मन में दुर्भाव की सृष्टि होना। दिल मैला करना=मन में दुर्भाव, द्वेष आदि दूषित मनोविकार उत्पन्न करना। (किसी का) दिल रखना=किसी की इच्छा के अनुसार कोई काम करके उसे प्रसन्न या संतुष्ट करना। (किसी का) दिल रखना=किसी की इच्छा के अनुसार कोई काम करके उसे प्रसन्न या संतुष्ट करना। (किसी का दिल लेना=(क) किसी के मन की बातों की थाह या पता लेना। (ख) किसी को पूरी तरह से अपनी ओर अनुरक्त करना। दिल से=अच्छी तरह, चित्त या मन लगाकर। (कोई बात) दिल से उठना=मन में किसी बात की प्रवृत्ति या स्फूर्त्ति होना। जैसे—जब तुम्हारा दिल ही नहीं उठता, तब तुम्हारा उनसे मिलने जाना व्यर्थ है। (कोई बात) दिल से दूर करना=उपेक्ष्य समझकर कुछ भी ध्यान न देना या बिलकुल भूल जाना। (किसी का) दिल हाथ में करना या लेना=किसी को पूरी तरह से अपनी ओर अनुरक्त करके उसके विश्वास, स्नेह आदि के भाजन बनना। दिल हिलना=(क) चित्त या मन का दयार्द्र होना। (ख) मन में कुछ भय होना। जी दहलना। दिल ही दिल में=अन्दर ही अन्दर। मन ही मन। दिलोजान से=पूरी शक्ति और सामर्थ्य से; अथवा अच्छी तरह मन लगाकर। ३. ऐसा हृदय, जिसमें उत्साह, उदारता उमंग, स्नेह आदि कोमल भाव यथेष्ठ मात्रा में हों। जैसे—वह दिल और दिमाग का आदमी है। पद—दिल का बादशाह=(क) बहुत बड़ा उदार या दानी। (ख) मनमौजी। मुहावरा—दिल टूटना=किसी दुःखद या विपरीत घटना के कारण मन का सारा उत्साह या उमंग कम होना या दब जाना। (किसी का) दिल तोड़ना=ऐसा काम करना, जिससे किसी का सारा उत्साह या उमंग दब जाय या नष्ट हो जाय। दिल बढना=अनुराग, उत्साह, उमंग आदि में ऐसी वृद्धि होना जो किसी काम या बात की ओर प्रवृत्त करे। दिल बुझना=मन में अनुराग, उत्साह, उमंग आदि बिलकुल न रह जाना। (किसी से) दिल मिलना=प्रकृति या स्वभाव की समानता के कारण परस्पर अनुराग और सदभाव होना। पद—दिल-चला, दिल-दार, दिलवर आदि। विशेष—दिल के शेष मुहा० के लिए देखें ‘चित्त’, ‘जी’ और ‘मन’ के मुहा०।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलगीर  : वि० [फा०] [भाव० दिलगीरी] १. उदास। २. खिन्न। दुःखी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलगीरी  : स्त्री० [फा० दिलगीर+ई (प्रत्य०)] १. उदासी। २. मानसिक खिन्नता या दुःख।
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दिल-गुरदा  : पुं० [फा० दिल+गुरदा] १. हिम्मत। सहारा। २. बहादुरी। वीरता।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-चला  : वि० [फा० दिल+हिं० चलना] १. हिम्मतवाला। दिलेर। साहसी। २. बहादुर। वीर। ३. मनमौजी। ४. रसिक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलचस्प  : वि० [फा०] [भाव० दिलचस्पी] (काम, चीज या बात) जिसमें दिल रमता या लगता हो। चित्ताकर्षक मनोरंजक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलचस्पी  : स्त्री० [फा०] १. दिलचस्प होने की अवस्था या भाव। मनोरंजकता। २. किसी काम या बात के प्रति होनेवाला ऐसा अनुराग, जिसके फलस्वरूप कुछ सुख मिलता या स्वार्थ सिद्ध होता हो। रस। जैसे—इन बातों में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-चोर  : वि० [फा० दिल+हिं० चोर] १. जो काम करने से जी चुराता हो। कामचोर। २. चित्त या मन हरण करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-जमई  : स्त्री० [फा० दिल+अ० जमअः+ई (प्रत्य०)] किसी काम या बात की ओर से मन में होनेवाली तसल्ली या सन्तोष। अच्छी तरह जी भरने की अवस्था या भाव। इतमीनान। जैसे—अच्छी तरह अपनी दिल- जमई करके तक मकान खरीदें।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-जला  : वि० [फा० दिल+हिं० जलना] जिसे बहुत अधिक मानसिक कष्ट पहुँचा हो। अत्यंत दुःखी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-दरिया  : वि०=दरिया-दिल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-दरियाव  : वि०=दरिया-दिल।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलदार  : वि० [फा०] [भाव० दिलदारी] १. अच्छे दिल और स्नेहपूर्ण स्वभाववाला २. जिसके प्रति अनुराग किया जाय और जिसे दिल या मन दिया जाय। ३. रसिक। ४. उदार। दाता। दानी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलदारी  : स्त्री० [फा० दिलदार+ई (प्रत्य०)] १. दिलदार होने की अवस्था या भाव। २. प्रेमिक होने की अवस्था या भाव। प्रेमिकता ३. रसिकता।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलदौर  : वि०=दिलदार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिलपसंद  : वि० [फा०] जो दिल को पसंद हो। चित्ताकर्षक।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिल-फेंक  : वि० [फा० दिल+हिं० फेंकना] (व्यक्ति) जो बिना समझे-बूझे जगह-जगह या कभी इस पर और कभी उस पर अनुरक्त या आसक्त होता फिरे। जो मिल जाय, इसी को अपना प्रेम-पात्र बनानेवाला।
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दिलबर  : वि० [फा०] प्यारा। प्रिय। पुं० प्रेमपात्र।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दिलबस्त  : वि० [फा०] [भाव० दिलबस्तगी] जिसका दिल या मन किसी ओर या किसी से बँधा अर्थात् लगा हो।
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दिलबस्तगी  : स्त्री० [फा०] ऐसी स्थिति, जिसमें दिल या मन किसी काम या बात में सुखद रूप से बँधा अर्थात् लगा हो या लगा रहे। जैसे—चार मित्रों के आ जाने से हमारी दिलबस्तगी रहती (या होती) है।
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दिल-बहार  : पुं० [फा० दिल+बहार] खशखाशी रंग का एक भेद।
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दिलरुबा  : वि० [फा०] मनोरंजक। रमणीय। पुं० १. प्रेमी। माशूक। २. एक प्रकार का बाजा, जिसमें बजाने के लिए ताल लगे होते हैं।
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दिलवल  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़।
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दिलवाना  : स०=दिलाना।
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दिलवाला  : वि० [फा० दिला+हिं० वाला (प्रत्य०)] १. जिसमें दिल हो अर्थात् बहुत उदार और सहृदय। २. रसिक। ३. साहसी।
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दिलवैया  : वि० [हिं० दिलवाना+ऐसा (प्रत्य०)] जो किसी को किसी दूसरे से कोई चीज दिलवाने में सहायक होता हो। दिलानेवाला।
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दिलशाद  : वि० [फा०] १. जिसका दिल सदा प्रसन्न रहे। प्रसन्नचित्त। २. चित्त या मन को प्रसन्न करने या रखनेवाला।
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दिलहर  : वि० [फा० दिल+हिं० हरना] मन हरनेवाला। मनोहर। वि०=दिलेहेद (दिल्लेदार)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिलहा  : पुं०=दिल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिलहेदार  : वि०=दिलहेदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिलाना  : स० [हिं० देना का प्रे०] १. किसी को किसी दूसरे से कुछ प्राप्त कराना। दिलवाना। २. किसी को कुछ प्राप्त करने में सहायता देना। संयो० क्रि०—देना।
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दिलारा  : वि० [फा०] १. दिल की प्रसन्नता बढ़ानेवाला २. मनोहर। लुभावना। २. परमप्रिय। (श्रृंगारिक क्षेत्र में) पुं० प्रेम-पात्र। माशूक।
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दिलावर  : वि० [फा०] [भाव० दिलावरी] १. बहादुर। वीर। २. हिम्मत या हौसलेवाला। साहसी।
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दिलावरी  : स्त्री० [फा०] १. बहादुरी। वीरता। २. साहस। हिम्मत।
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दिलावेज  : वि० [फा० दिलावेज़] सुन्दर। प्रियदर्शन।
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दिलासा  : पुं० [फा० दिल+हिं० आसा] क्षुब्ध या दुःखित हृदय को दिया जानेवाला आश्वासन। ढारस। तसल्ली। धैर्य। क्रि० प्र०—दिलाना।—देना।
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दिली  : वि० [फा०] १. दिल या हृदय से संबंध रखनेवाला। हार्दिक। जिससे बहुत अधिक अभिन्नता और घनिष्ठता हो। घनिष्ठ। जैसे—दिली दोस्त।
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दिलीप  : पुं० [सं०] इक्ष्वाकु-वंशी एक प्रसिद्ध राजा जो अंशुमान् के पुत्र राजा सागर के परपोते तथा भागीरथ के पिता थे। (वाल्मीकि) विशेष—कालिदास ने इन्हें रघु का पिता बतलाया है। २. चंद्रवंशी राजा कुरु के वंशज एक राजा।
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दिलीर  : पुं० [सं०√दल् (नष्ट करना)+ईर्, पृषो० सिद्धि] भुइँफोड़। ढिंगरी।
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दिलेर  : वि० [फा०] [भाव० दिलेरी] १. बहादुर। वीर। २. हिम्मतवाला। साहसी। ३. उदारता-पूर्वक देनेवाला। दाता।
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दिलेरी  : स्त्री० [फा०] १. बहादुरी। वीरता। २. साहस। हिम्मत। ३. दानशीलता। उदारता। क्रि० प्र०—दिखाना।
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दिल्लगी  : स्त्री० [फा० दिल+हिं० लगना] १. दिल लगने या लगाने की क्रिया या भाव। २. परिहास। मनोविनोद। मुहावरा—(किसी की) दिल्लगी उडाना=हास-परिहास की बातें कहकर तुच्छ सिद्ध करने का प्रयत्न करना। उपहास करना। पद—दिल्लगी में=केवल दिल्लगी के विचार से। यों ही। हँसी में। ३. ऐसी घटना या बात, जिससे लोगों का मनोरंजन होने के सिवा उन्हें हँसी भी आवे। जैसे—कल सड़क पर एक दिल्लगी हो गई; एक आदमी के कन्धे पर कहीं से एक बन्दर आ कूदा। ४. ऐसा काम या बात, जो हास-परिहास की तरह सुगम हो या जो सब लोग कर सकें। जैसे—कविता करना क्या तुमने दिल्लगी समझ रखा है।
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दिल्लगीबाज  : पुं० [हिं० दिल्लगी+फा० बाज] [भाव० दिल्लगीबाजी] वह जो प्रायः दूसरों को हँसानेवाली बातें कहता हो। हँसी या दिल्लगी करनेवाला। ठठोल। हँसोड़।
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दिल्लगीबाजी  : स्त्री० [हिं० दिल्लगी+फा० बाजी] १. दिल्लगी करने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘दिल्लगी’।
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दिल्ला  : पुं० [देश०] दरवाजे के पल्ले के ढाँचे में कसा तथा जड़ा हुआ लकड़ी का चौकोर टुकड़ा, जो प्रायः उसे सुन्दर रूप देने के लिए होता है। दिलहा।
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दिल्ली  : स्त्री० [इन्द्रप्रस्थ के मयूरवंशी राजा दिलू के नाम पर] पश्चिमोत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नगरी जहाँ मध्ययुग में बहुत दिनों तक हिंदू राजाओं तथा मुगल बादशाहों की राजधानी थी; और जिसे सन् १९१२ में अंगरेजों ने फिर से राजधानी बनाया था। इस समय स्वतन्त्र भारत की राजधानी भी यहीं है।
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दिल्लीवाल  : वि० [हिं० दिल्ली+वाल (प्रत्य०)] १. दिल्ली-संबंधी। दिल्ली का। २. दिल्ली का रहनेवाला। ३. दिल्ली में बनने या होनेवाला। पुं० एक प्रकार का देशी जूता, जो पहले दिल्ली में बनता था।
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दिल्लेदार  : वि० [देश० दिलहा+फा० दार] (दरवाजे का पल्ला) जिसमें दिल्ले लगे हों।
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दिव्  : पुं० [सं०√दिव (चमकना)+डिवि (बा०)]=दिव।
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दिवंगत  : वि० [सं० द्वि० त०] जिसकी आत्मा इस लोक को छोड़कर स्वर्ग चली गई हो, अर्थात् परलोकवासी। स्वर्गीय।
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दिवंगम  : वि० [सं० दिव√गम+खच्, मुम्] स्वर्गगामी।
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दिव  : पुं० [सं०√दिव्+क] १. स्वर्ग। २. आकाश। ३. दिन। ४. जंगल। वन।
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दिवगृह  : पुं०=देवगृह।
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दिव-दाह  : पुं० [ष० त०] १. आकाश का जलता हुआ-सा जान पड़ना। दिकदाह। २. बहुत बड़ा आन्दोलन, उत्पात या क्रांति।
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दिवराज  : पुं० [ष० त० (ट्च समा०)] स्वर्ग के राजा इंद्र।
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दिवरानी  : स्त्री०=देवरानी।
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दिवला  : पुं० [स्त्री० अल्पा० दिवली]=दीया।
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दिवस  : पुं० [सं० √दिव्+असच्] दिन। वासर। रोज।
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दिवस-अंध  : वि० पुं० [सं० दिवसान्ध, स० त०]=दिवांध।
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दिवस-कर  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। दिनकर। २. आक। मदार।
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दिवस-नाथ  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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दिवस-मणि  : पुं० [ष० त०] सूर्य।
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दिवस-मुख  : पुं० [ष० त०] प्रातःकाल। सबेरा।
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दिवस-मुद्रा  : स्त्री० [मध्य० स०] एक दिन की मजदूरी या वेतन।
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दिवस-स्वप्न  : पुं० [स० त०] दिवास्वप्न। (दे०)
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दिवसांतर  : वि० [दिवस-अंतर ब० स० ] जो सिर्फ एक दिन का हो।
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दिवसेश  : पुं० [दिवस-ईश, ष० त०] सूर्य।
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दिवस्पति  : पुं० [सं० दिव>दिवस-पति ष० त० (अलुक समास)] १. सूर्य। २. तेरहवें मन्वन्तर के इन्द्र का नाम।
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दिवस्पृश्  : पुं० [सं० दिव√स्पृश् (स्पर्श करना)+क्विन्] (वामनावतार में) पैर से स्वर्ग को छूनेवाले, विष्णु।
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दिवांध  : वि० [सं० दिवा-अंध, स० त०] जिसे दिन में दिखाई न देता हो। पुं० १. एक प्रकार का रोग, जिसमें मनुष्य को दिन के समय दिखाई नहीं देता। दिनौंधी। २. उल्लू जिसे दिन में दिखाई नहीं देता।
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दिवांधकी  : स्त्री० [सं० दिवान्ध+क (स्वार्थ)—ङीष्] छछूँदर।
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दिवा  : पुं० [सं०√दिव् (चमकना)+का०] १. दिन। दिवस। २. एक वर्णवृत्त, जिसे मालिनी और मदिरा भी कहते हैं। पुं०=दीया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिवाकर  : पुं० [सं० दिवा√कृ (करना)+द्यच्] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. कौआ। ४. एक प्रकार का पौधा और उसका फूल।
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दिवा-कीर्ति  : पुं० [ब० स०] १. नापित। नाई। हज्जाम। २. उल्लू। ३. चांडाल।
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दिवा-कीर्त्य  : पुं० [स० त०] गवानयन यज्ञ में विषुव संक्रांति के दिन गाया जानेवाला एक सामगान।
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दिवाचर  : वि० [सं० दिवा√चर् (गति)+ट] दिन में विचरण करनेवाला। पुं० १. चिड़िया। पक्षी। २. चांडाल।
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दिवाटन  : पुं० [सं० दिवा√अट् (घूमना)+ल्यु—अन] काक। कौआ।
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दिवातन  : पुं० [सं० दिवा+ट्यु—अन, तुर्ट आगम] एक दिन काम करने पर मिलनेवाला पारिश्रमिक या मजदूरी। वि० पूरे एक दिन का। दिन भर का।
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दिवान  : पुं०=दीवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिवाना  : स०=दिलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दिवाना (पागल)।
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दिवा-नाथ  : पुं० [ष० त०] दिन के स्वामी, सूर्य।
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दिवानी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेड़, जो बरमा में अधिकता से होता है। इसकी लकड़ी से मेज, कुर्सियाँ आदि बनती है। स्त्री०=दीवानी।
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दिवा-पुष्ट  : पुं० [स० त०] सूर्य।
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दिवाभिसारिका  : स्त्री० [सं० दिवा-अभिसारिका, स० त०] साहित्य में वह नायिका जो दिन के समय श्रृंगार करके प्रिय से मिलने संकेत स्थान पर जाय।
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दिवा-भीत  : वि० [स० त०] दिन (अर्थात् दिन के प्रकाश) से डरनेवाला। पुं० १. चोर। २. उल्लू।
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दिवा-मणि  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दिवा-मध्य  : पुं० [ष० त०] मध्याह्र। दोपहर।
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दिवार  : स्त्री०=दीवार।
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दिवा-रात्र  : क्रि० वि० [द्व० स० अच्] दिन-रात। हर समय।
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दिवारी  : स्त्री० [हिं० दीवाली] १. कुआर-कार्तिक में विशेषतः दीवाली के अवसर पर गायेजानेवाले एक तरह के लोक गीत। (बुंदेल) २. दीपमालिका। दीवाली।
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दिवाल  : वि० [हिं० देना+वाल (प्रत्य०)] देनेवाला। जो देता हो। जैसे—यह एक पैसे की दीवाल नहीं है। (बाजारू) स्त्री०=दीवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिवालय  : पुं०=देवालय (मंदिर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिवाला  : पुं० [हिं० दिया+बालना=जलाना] १. महाजन या व्यापारी की वह स्थिति जिसमें वह विधिवत् यह घोषित करता है कि मेरे पास अब यथेष्ट धन नहीं बचा है, और इसलिए मैं लोगों का ऋण चुकाने में असमर्थ हूँ। क्रि० प्र०—बोलना। विशेष—ऐसी स्थिति में लेनदार न्याय की दृष्टि से या तो उससे कुछ भी वसूल नहीं कर सकते या उसके पास जो थोड़ा-बहुत धन बचा होता है, वही सब लेनदार अपने-अपने हिस्से के मुताबित बाँट लेते हैं। मुहावरा—दिवाला निकालना या मारना=दिवालिया बन जाना। ऋण चुकाने में असमर्थ हो जाना। २. किसी पदार्थ का कुछ भी बचा न रह जाना। पूर्ण अभाव। जैसे—उनकी अक्ल का तो दिवाला निकल गया है।
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दिवालिया  : वि० [हिं० दिवाला+इया (प्रत्य०)] जिसने दिवाला निकाला हो। जिसके पास ऋण चुकाने के लिए कुछ भी न बच रहा हो।
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दिवाली  : स्त्री० [देश०] वह तस्मा या पट्टी, जिसे खींचकर खराद, सान आदि चलाई जाती है। स्त्री०=दीवाली।
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दिवा-स्वप्न  : पुं० [स० त०] अकर्मण्य, निराश या विफल व्यक्ति का बैठे-बैठे तरह-तरह के हवाई किले बनाना या मंसूबे बाँधना और यह सोचना कि इस बार हम यह करेगें हम वह करेगें अथवा आगे चलकर हमारा यों उत्थान होगा और हम यों सुखी होंगे आदि आदि। (डे ड्रीम)
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दिविं  : पुं० [सं०√दिव् (चमकना)+कि (बा०)] १. नीलकंठ पक्षी। २. दे० ‘दिव’।
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दिविज  : पुं० [सं०दिवि√जन् (उत्पन्न होना)+ड, (अलुक् समास)] देवता।
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दिविता  : स्त्री० [सं० दीप+इतच् (बा०), पृषो० सिद्धि] दीप्ति। चमक।
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दिविदिवि  : पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़, जो दक्षिण अमेरिका से भारतवर्ष में आया है। इसकी पत्तियाँ चमड़ा सिझाने और रंगने के काम आती है।
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दिविरथ  : पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार पुरुवंशी राजा भूमन्यु के पुत्र का नाम।
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दिविषत्  : पुं० [सं० दिवि√सद् (बैठना)+क्विप्, षत्व, (अलुक् समास)] देवता। वि० स्वर्गवासी।
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दिविष्ट  : पुं० [सं०इष्ट,√यज् (देवपूजन)+क्त, दिव्-इष्ट, च० त०] यज्ञ।
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दिविष्ठ  : पुं० [सं० दिवि√स्था (स्थित होना)+क, षत्व] १. स्वर्ग में रहनेवाला, देवता। २. पुराणानुसार ईशान-कोण का एक देश।
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दिविस्थ  : पुं० [सं० दिविष्ठ] देवता।
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दिवेश  : पुं० [सं० दिव-ईश, ष० त०] दिक्पाल।
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दिवैया  : वि० [हिं० देना+वैया (प्रत्य०)] जो देता हो। देनेवाला। दाता। वि० [हिं० दिवाना=दिलाना] दिलानेवाला। दिलवैया।
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दिवोका (कस्)  : पुं० [सं० दिव-ओकस, ब० स०] दिवौका (दे०)।
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दिवोदास  : पुं० [सं० दिवस् दास, ब० स०] १. चंद्र वंशी राजा भीमरथ के एक पुत्र, जो इंद्र के उपासक और काशी के राजा थे और धन्वन्तरि के अवतार माने जाते हैं। महादेव ने इन्हीं से काशी ली थी। कहते हैं कि देवताओं ने इन्हें आकाश से पुष्प, रत्न आदि दिये थे, इसी से इनका नाम पड़ा। २. हरिवंश के अनुसार ब्रह्मर्षि इंद्रसेन के पौत्र का नाम, जो मेनका के गर्भ से अपनी बहन अहल्या के साथ ही उत्पन्न हुए थे।
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दिवोद्भवा  : स्त्री० [सं० दिव-उद्√भू (पैदा होना)+अच्+टाप्] इलायची।
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दिवोल्का  : स्त्री० [सं० दिव-उल्का, मध्य० स०] दिन के समय आकाश से गिरनेवाला चमकीला पिंड या उलका।
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दिवौका (कस्)  : पुं० [सं० दिव-ओकस, ब० स०] १. वह जो स्वर्ग में रहता हो। २. देवता। ३. चातक पक्षी।
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दिव्य  : वि० [सं० दिव्+यत्] [भाव० दिव्यता] १. स्वर्ग से संबंध रखनेवाला। स्वर्गीय। २. आकाश से संबंध रखनेवाला। आकाशीय। ३. अलौकिक। लोकोत्तर। ४. प्रकाशमान। चमकीला। ५. मनोहर। सुन्दर। ६. तत्त्वज्ञ। पुं० [सं०] १. यव। जौ। २. गुग्गुल। ३. आँवला। ४. सतावर। ५. ब्राह्मी। ६. सफेद दूब। ७. लौंग। ८. हर्रे। ९. हरिचंदन। १॰. महामेदा नामकी औषधि। ११. कपूर कचरी। १२. चमेली। १३. जीरा। १४. सूअर। १५. धूप के समय बरसते हुए पानी में किया जानेवाला स्नान। १६. आकाश में होनेवाला एक प्रकार का दैवी उत्पात। १७. कसम। शपथ। सौगंध। १८. प्राचीन काल में, एक प्रकार की परीक्षा, जिससे किसी का अपराधी या निरपाध होना सिद्ध होता था। क्रि० प्र०—देना। १९. तांत्रिक उपासना के तीन भेदों में से एक, जिसमें पंच मकार, श्मशान और चिता के साधन किया जाता है। २॰. तीन प्रकार के केतुओं में से एक जिनकी स्थिति भूवायु से ऊपर मानी गई है। २१. साहित्य में तीन प्रकार के नायकों में से एक। वह नायक जो स्वर्गीय या अलौकिक हो। जैसे—इंद्र, राम, कृष्ण आदि।
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दिव्यक  : पुं० [सं० दिव्य+कन्] १. एक प्रकार का साँप। २. एक प्रकार का जंतु।
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दिव्य-कर  : पुं० [सं० ब० स० ?] पश्चिम दिशा का एक प्राचीन देश। (महाभारत)
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दिव्य-कवच  : पुं० [कर्म० स०] १. अलौकिक तनत्राण। देवताओं का दिया हुआ कवच। २. ऐसा स्तोत्र जिसका पाठ करने से सब अंगों की रक्षा होती है।
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दिव्य-क्रिया  : स्त्री० [मध्य० स०] दे० ‘दिव्य’ १८।
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दिव्य-गंध  : पुं० [ब० स०] १. लौंग। २. गंधक।
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दिव्य-गंधा  : स्त्री० [सं०] १. बड़ी इलायची। २. बड़ी चेंच का साग।
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दिव्य-गायन  : पुं० [ब० स०] स्वर्ग में गानेवाले, गंधर्व जाति के लोग।
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दिव्य-चक्षु (स्)  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो। २. दे० ‘तेजोन्वेष’। ३. एक प्रकार का गंध द्रव्य। ४. बंदर। ५. अंधा। (परिहास और व्यंग्य)
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दिव्य-तरंगिणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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दिव्यता  : स्त्री० [सं० दिव्य+तल्+टाप्] १. दिव्य होने की अवस्था या भाव। २. देवता होने की अवस्था या भाव। देवत्व। ३. उत्तमता। श्रेष्ठता। ४. मनोहरता। सुन्दरता।
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दिव्य-तेज (स्)  : स्त्री० [सं० ब० स०] ब्राह्मी बूटी।
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दिव्य-देवी  : स्त्री० [कर्म० स०] पुराणानुसार एक देवी का नाम।
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दिव्य-दोहद  : पुं० [कर्म० स०] मनोकामना की पूर्ति के हेतु किसी इष्टदेव को चढ़ाई जानेवाली भेंट या वस्तु।
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दिव्य-दृष्टि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. ऐसी अलौकिक दृष्टि जिससे मनुष्य भूत, भविष्य और वर्तमान की अथवा परोक्ष की सब बातें प्रत्य़क्ष की तरह देख सकता हो। जैसे—उन्होने दिव्य दृष्टि से देख लिया कि स्वर्ग में देवताओं की सभा हो रही है, अथवा कलियुग में कैसे-कैसे अनर्थ और पाप होगें। २. ज्ञानदृष्टि।
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दिव्य-धर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० दिव्य-धर्म, कर्म० स०+इनि] १. जिसका आचरण, कर्म और व्यवहार बहुत ही निष्कलंक और पवित्र हो। परम शुभ धर्म का पालन करनेवाला। २. सदाचारी और सुशील।
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दिव्य-नगर  : पुं० [कर्म० स०] ऐरावती नगरी।
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दिव्य-नदी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. आकाश गंगा। २. पुराणानुसार एक नदी का नाम।
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दिव्य-नारी  : स्त्री० [कर्म० स०] अप्सरा।
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दिव्य-पंचामृत  : पुं० [सं० दिव्यपंचामृत, कर्म० स०] घी, दूध, दही, मक्खन और चीनी इन पाँच चीजों को मिलाकर बनाया हुआ पंचामृत।
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दिव्य-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] अलौकिक या पारलौकिक व्यक्ति। जैसे—देवी, देवता, गंधर्व, यक्ष आदि।
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दिव्य-पुष्प  : पुं० [ब० स०] करबीर। कनेर।
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दिव्य-पुष्पा  : स्त्री० [सं०] बड़ा गूमा नामक वृक्ष, जिसमें लाल फूल लगते हैं। बडी द्रोणपुष्पी।
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दिव्यपुष्पिका  : स्त्री० [सं० दिव्यपुष्प+कन्+टाप्, इत्व] लाल रंग के फूलोंवाला मदार का पौधा।
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दिव्य-यमुना  : स्त्री० [कर्म० स०] कामरूप देश की एक नदी, जो बहुत पवित्र मानी गई है।
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दिव्य-रत्न  : पुं० [कर्म० स०] चिंतामणि नामक कल्पित रत्न, जो सब कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ माना जाता है।
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दिव्य-रथ  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं का विमान।
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दिव्य-रस  : पुं० [कर्म० स०] पारद। पारा।
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दिव्य-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] मूर्वा लता। मूरहरी। चुरनहार।
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दिव्य-वस्त्र  : पुं० [कर्म० स०] १. सुन्दर वस्त्र। बढ़िया कपड़ा। २. सूर्य का प्रकाश।
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दिव्य-वाक्य  : पुं० [कर्म० स०] देववाणी। आकाशवाणी।
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दिव्य-श्रोत्र  : वि० [कर्म० स०] जो अपने कानों से हर जगह की सब बातें सुन लेता हो। पुं० ऐसा कान जिससे दूर-दूर तक की सब बातें सुनाई दें।
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दिव्य-सरिता  : स्त्री० [सं० दिव्य-सरित्] आकाश गंगा।
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दिव्य-सानु  : पुं० [ब० स०] एक विश्वदेव।
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दिव्य-सार  : पुं० [ब० स०] साखू का पेड़। साल वृक्ष।
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दिव्य-सूरि  : पुं० [कर्म० स०] रामानुज संप्रदाय के बारह आचार्य जिनके नाम ये हैं—कासार, भूत, महत्, भक्तसार, शठारि कुलशेखर, विष्णु चित्त, भक्ताधिरेणु, मुनिवाह, चतुष्कविंद्र, रामानुज और गोदादेवा या मधुकर कवि।
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दिव्य-स्त्री  : स्त्री० [कर्म० स०] दिव्य नारी। अप्सरा।
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दिव्यांगना  : स्त्री० [दिव्य-अंगना, कर्म० स०] १. अप्सरा। २. देवता की स्त्री। देव-पत्नी।
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दिव्यांबरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाट की पद्धति की एक रागिनी।
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दिव्यांशु  : पुं० [दिव्य-अंशु, ब० स०] सूर्य।
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दिव्या  : स्त्री० [सं० दिव्य+टाप्] १. साहित्य में, तीन प्रकार की नायिकाओं में से एक। स्वर्गीय या अलौकिक नायिका। जैसे—पार्वती, सीता, राधिका आदि। २. महामेदा। ३. शतावर। ४. आँवला। ५. ब्राह्मी। ६. सफेद दूब। ७. हर्रे। ८. कपूर कचरी। ९. बड़ा जीरा। १॰. बाँझककोड़ा।
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दिव्यादिव्य  : पुं० [दिव्य-अदिव्य, कर्म० स०] साहित्य में तीन प्रकार के नायकों में से एक। वह मनुष्य या इहलौकिक नायक जिसमें देवताओं के भी गुण हों। जैसे—नल, पुरुरवा, अभिमन्यु आदि।
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दिव्यादिव्या  : स्त्री० [दिव्या-अदिव्या, कर्म० स०] साहित्य में, तीन प्रकार की नायिकाओं में से एक। वह इहलौकिक नायिका जिसमें स्वर्गीय स्त्रियों के भी गुण हों। जैसे—दमयंती, उर्वशी, उत्तरा आदि।
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दिव्याश्रम  : पुं० [दिव्य-आश्रम, कर्म० स०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ जहाँ विष्णु ने तपस्या की थी। कुरुक्षेत्र का दर्शन करके बलदेव जी यहीं से होते हुए हिमालय गए थे।
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दिव्यासन  : पुं० [दिव्य-आसन, कर्म० स०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का आसन।
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दिव्यास्त्र  : पुं० [दिव्य-अस्त्र, कर्म० स०] १. देवताओं का दिया हुआ अस्त्र या हथियार। २. मंत्रों के प्रभाव से चलनेवाला अस्त्र या हथियार।
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दिव्येलक  : पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का साँप।
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दिव्योदक  : पुं० [दिव्य-उदक, कर्म० स०] वर्षा का जल जो सबसे अधिक पवित्र और शुद्ध होता है।
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दिव्योपपादुक  : पुं० [दिव्य-उपपादुक (उप√पद् (गति)+उकञ्) कर्म० स०] देवता, जिनका जन्म बिना माता-पिता के माना जाता है।
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दिव्यौषधि  : स्त्री० [दिव्य-ओषधि कर्म० स०] मैनसिल।
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दिश्  : स्त्री० [सं०√दिश्+क्विन्] दिशा। दिक्। पुं० [सं०√दिश् (बताना, देना)+क] एक देवता जो कान के अधिष्ठाता देवता माने जाते हैं।
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दिशा  : स्त्री० [सं० दिश्+टाप्] १. क्षितिज वृत्त के चार मुख्य कल्पित विभागों में से प्रत्येक विभाग। विशेष—ये चार कल्पित विभाग उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम कहलाते हैं। इनके निरूपण का मूल आधार वह है, जिधर से नित्य सूर्य निकलता है। इन चारों दिशाओं के बीच के चार कोंणों और ऊपर तथा नीचे की कुल छः दिशाएं और भी मानी जाती हैं। २. किसी नियत स्थान से उक्त चारों विभागों में से किसी ओर के विभाग का सारा विस्तार। जैसे—काशी के पूर्व की अथवा हिमालय के उत्तर की दिशा। ३. दिसाओं की उक्त संख्या के आधार पर १॰ की संख्या। ४. रुद्र की एक पत्नी का नाम। ५. पाखाने या शौच जाने की क्रिया जो पहले घर से निकलकर और किसी ओर अथवा दिशा में जाकर की जाती थी (दे० ‘दिसा’)।
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दिशा-गज  : पुं० [मध्य० स०] दिग्गज।
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दिशा-चक्षु (स्)  : पुं० [ब० स०] गरुड़ के एक पुत्र का नाम। (पुराण)
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दिशाजय  : पुं० [ष० त०] दिग्विजय।
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दिशापाल  : पुं० [सं० दिशा√पाल् (पालना)+णिच्√अण् उप० स०] दिकपाल।
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दिशा-भ्रम  : पुं० [ष० त०] दिशाओं की ठीक-ठीक ज्ञान न होना। दिक्-भ्रम।
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दिशावकाश  : पुं० [दिशा-अवकाश, ष० त०] दो दिशाओं के बीच का अवकाश या विस्तार।
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दिशावकाशक व्रत  : पुं० [सं० दिशावकाश+क (स्वार्थ) दिशावकाशक-व्रत मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें यह निश्चित किया जाता है कि आज अमुक दिशा में इतनी दूर से अधिक नहीं जायँगें। (जैन)
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दिशा-शूल  : पुं० [स० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार वह घड़ी, पहर या दिन जिसमें किसी विशिष्ट दिशा की ओर जाना बहुत अनिष्टकार माना जाता हो और इसी लिए उस दिशा में जाना वर्जित हो।
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दिशासूल  : पुं०=दिशा-शूल।
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दिशि  : स्त्री०=दिशा।
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दिशि-नियम  : पुं० दिशावकाशकव्रत (दे०)।
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दिशेभ  : पुं० [दिशा-इभ, ष० त०] दिग्गज।
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दिश्य  : वि० [सं० दिश्+यत्] दिशा संबंधी। दिक् या दिशा का। वि० दे० ‘निर्दिष्ट’।
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दिष्ट  : वि० [सं०√दिश् बताना, दान)+क्त] १. निश्चित। निर्दिष्ट। २. दिखलाया या बतलाया हुआ। पुं० १. भाग्य। किस्मत। २. उपदेश। ३. काल। समय। ४. वैवस्वत मनु के एक पुत्र। ५. दारुहल्दी।
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दिष्ट-बंधक  : पुं०=दृष्ट बंधक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिष्टांत  : पुं० [सं० दिष्ट-अंत, ब० स०] मृत्यु। मौत। पुं०=दृष्टांत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिष्टि  : स्त्री० [सं०√दिश्+क्तिन्] १. भाग्य। २. उत्सव। ३. प्रसन्नता। ४. दे० ‘दिष्ट’। स्त्री०=‘दृष्टि’।
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दिसंतर  : पुं० [सं० ‘देशांतर’] १. देशांतर। विदेश। परदेश। २. देश देशांतरों का पर्यटन। भ्रमण। पुं०=दिशांतर।
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दिसंबर  : पुं० [अं० डिसेंबर] अँगरेजी वर्ष का बारहवाँ महीना।
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दिस  : स्त्री०=दिशा।
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दिसना  : अ०=दिखना (दिखाई देना)।
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दिसा  : स्त्री० [सं० दिशा=ओर] १. मल त्याग करने की क्रिया। पैखाने जाना। झाड़ा फिरना। क्रि० प्र०—जाना।—फिरना। २. दे० ‘दिशा’। स्त्री०=दशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसाउर  : पुं०=दिसावर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसादाह  : पुं०=दिक्दाह।
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दिसावर  : पुं० [सं० देशांतर] [वि० दिसावरी] १. दूसरा देश। परदेश। विदेश। २. व्यापारियों की बोलचाल में वह स्थान या देश जहाँ कोई माल भेजा जाता हो या जहाँ से आता हो। पद—दिसावरी माल=ऐसा माल जो दिसावर से आया हो या दिसावर जाने को हो।
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दिसावरी  : वि० [हिं० दिसावर+ई (प्रत्य०)] १. दिसावर-संबंधी। दिसावर का। २. दिसावर से आया हुआ।
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दिसाशूल  : पुं०=दिशा-शूल।
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दिसासूल  : पुं०=दिशा-शूल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसि  : स्त्री०=दिशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसिटि  : स्त्री०=दृष्टि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसिदुरद  : पुं०=दिग्गज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसिनायक  : पुं०=दिक्पाल।
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दिसिप  : पुं०=दिक्पाल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिसिराज  : पुं०=दिक्पाल।
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दिसैया  : वि० [हिं० दिसना=दिखना+ऐया (प्रत्य०)] १. देखनेवाला। २. दिखानेवाला।
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दिस्टि  : स्त्री०=दृष्टि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दिस्टि-बंध  : पुं० [सं० दृष्टिबंध] इंद्रजाल। जादू। उदाहरण—राधव दिष्टि बंध कल्हि खेला। सभा माँझ चेटक अस मेला।—जायसी।
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दिस्टिवंत  : वि० [सं० दृष्टि-वंत] १. जिसे दिखाई देता हो। २. ज्ञानी। उदाहरण—दिस्टिवंत कहँ निअरे, अंध मूरुख कहँ दूरि।—जायसी।
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दिस्ता  : पुं०=दस्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिहंदा  : वि० [फा० दिहन्दः] देनेवाला।
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दिहंरा  : पुं० [सं० देव+हिं० घर=देवहर] १. देवालय। देवमंदिर। २. ग्राम-देवता, स्थान देवता आदि का स्मारक चिह्न।
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दिहला  : स्त्री०=दहलीज।
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दिहाड़ा  : पुं० [हिं० दिन+हार (प्रत्य०)] दिन। दिवस।
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दिहाड़ी  : स्त्री० [हिं० दिहाड़ा+ई (प्रत्य०)] १. दिन। दिवस। २. उतना पूरा समय जिसमें कोई मजदूर दैनिक पारिश्रमिक लेकर काम करता हो। ३. मजदूरों आदि को दिया जानेवाला दैनिक पारिश्रमिक या मजदूरी।
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दिहात  : पुं०=देहात।
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दिहाती  : वि०, पुं०=देहाती।
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दिहातीपन  : पुं०=देहातीपन।
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दिहुढ़ी  : स्त्री०=ड्योढ़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिहुला  : पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो बिहार में होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिहेज  : पुं०=दहेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दी  : स्त्री०=दीमक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीअट  : स्त्री०=दीयट।
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दीआ  : पुं०=दीया। (दीपक)
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दीक  : पुं० [देश०] एक प्रकार का तेल, जो काटू या हिजली के पेड की छाल से निकलता है और जाल में मांजा देने के काम आता है।
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दीक्षक  : पुं० [सं०√दीक्ष् (शिष्य बनाना)+ण्वुल्—अक] १. दीक्षा देनेवाला। मंत्र का उपदेश करनेवाला। २. शिक्षक। गुरु।
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दीक्षण  : पुं० [सं०√दीक्ष+ल्यु—अन] [वि० दीक्षित] दीक्षा देने की क्रिया या भाव।
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दीक्षणीय  : वि० [सं०√दीक्ष्+अनीयर्] १. दीक्षा देने जाने या पाने के योग्य। २.(विशिष्ट तत्त्व या सिद्धांत) जो उसी को बतलाया जा सके जो दीक्षा ग्रहण करके किसी समाज या संप्रदाय में सम्मिलित हो। (एसोटेरिक)
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दीक्षांत  : पुं० [सं० दीक्षा-अंत ष० त०] वह अवभृथ यज्ञ जो किसी यज्ञ के अन्त में उसकी दृष्टि, दोष आदि की शांति के लिए किया जाता है। २. किसी सत्र की पढ़ाई का सफलतापूर्ण अंत। वि० दीक्षा के अंत में होनेवाला। जैसे—दीक्षांत भाषण।
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दीक्षांत-भाषण  : पुं० [स० त०] आज-कल विश्वविद्यालयों में किसी विद्वान का वह भाषण जो उच्च परीक्षाओं में उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियों को उपाधि, प्रमाण-पत्र आदि देने के उपरान्त होता है। (कान्वोकेशन एड्रेस)
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दीक्षा  : स्त्री० [सं०√दीक्ष् (यज्ञ करना)+अ-टाप्] १. सोमयागादि का संकल्प-पूर्वक अनुष्ठान करना। २. यज्ञ करना। यजन। ३. किसी पवित्र मंत्र की वह शिक्षा जो आचार्य या गुरू से विधिपूर्वक शिष्य बनने अथवा किसी संप्रदाय में सम्मिलित होने के समय ली जाती है। क्रि० प्र०—देना।—लेना। ४. उपनयन संस्कार, जिसमें विधिपूर्वक गुरु से मंत्रोपदेश लिया जाता है। ५. गुरुमंत्र। ६. पूजन।
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दीक्षा-गुरु  : पुं० [स० त०] वग गुरु जो धार्मिक दृष्टि के कान में मंत्र फूँकता हो। मंत्रोपदेश करनेवाला गुरु।
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दीक्षा-पति  : पुं० [ष० त०] दीक्षा या यज्ञ का रक्षक, सोम।
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दीक्षित  : वि० [सं०√दीक्ष् (यज्ञ करना)+क्त वा दीक्षा+इतच्] जिसने सोमयागादि का संकल्पपूर्वक अनुष्ठान करने के लिए दीक्षा ली हो। पुं० कई प्रदेशों में ब्राह्मणों का एक भेद या वर्ग।
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दीखना  : अ० [हिं० देखना] दिखाई देना। देखने में आना। दृष्टिगोचर होना। क्रि० प्र०—पड़ना।
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दीगर  : वि० [फा०] अन्य। दूसरा।
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दीघी  : स्त्री० [सं० दीर्घिका] १. बडा तालाब। जैसे—कलकत्ते की लाल दीघी। २. बावली।
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दीच्छा  : स्त्री०=दीक्षा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीच्छित  : वि०=दीक्षित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीठ  : स्त्री० [सं० दृष्टि, प्रा० दिट्ठि] १. देखने की वृत्ति या शक्ति। दृष्टि। निगाह। क्रि० प्र०—डालना।—पड़ना। पद—दीठबंद, दीठबंदी। (हि०) मुहावरा—दीठ करना या फेंकना=देखना। दीठ फेरना=दृष्टि या निगाह हटाकर दूसरी तरफ कर लेना। दीठ बचाना=(क) इस प्रकार किसी के सामने से हट जाना कि उसकी निगाह न पड़ने पावे। (ख) इस प्रकार कोई चीज छिपा या दबा लेना कि उसे कोई देखने न पावे। (किसी की) दीठ बाँधना=इंद्रजाल, जादू-मंतर, टोने-टोटके आदि से ऐसा उपाय करना कि कोई विशिष्ट चीज किसी के देखने में न आवे। दीठ में आना या पड़ना=दिखाई पड़ना। (किसी ओर या किसी की ओर) दीठ लगाना=(क) दृष्टि या निगाह जमाकर देखना। अच्छी तरह या ध्यान से देखना। (ख) किसी प्रकार की आशा से प्रवृत्त या युक्त होकर देखना। कुछ पाने या मिलने के विचार से देखना। २. देखने की इंद्रिया। आँख। नेत्र। मुहावरा—(किसी की ओर) दीठ उठाना=देखने के लिए किसी की ओर आँखें या निगाह करना। दीठ गड़ाना या जमाना=कोई चीज देखने के लिए उस पर टक लगाना। स्थिर दृष्टि से देखना। दीठ चुराना=जहाँ तक हो सके किसी का सामना करने से बचना। (किसी से) दीठ जुड़ना या मिलना=(क) देखा-देखी या सामना होना। (ख) श्रृंगारिक क्षेत्र में प्रेम या स्नेह होना। दीठ जोड़ना या मिलाना=आँखें मिलाना या सामना करना। दीठ भर देखना=अच्छी तरह या जी भर कर देखना। दीठ मारना=आँखें या पलकें हिलाकर इशारा या संकेत करना। (किसी से) दीठ लगना=श्रृंगारिक क्षेत्र में प्रेम या स्नेह का संबंध होना। ३. आँख या दृष्टि की वह वृत्ति या स्थिति, जिसमें कोई विशिष्ट उद्देश्य क्रिया या फल अभीष्ट या निहित हो। ४. अनुग्रह, कृपा, स्नेह आदि से युक्त या मनोवृत्ति। मुहावरा—(किसी की) दीठ पर चढ़ना=किसी का ऐसी स्थिति में होना कि लोगों का ध्यान प्रायः या बराबर उसकी ओर बना या लगा रहे। निगाह पर चढ़ना। (देखें ‘निगाह’ का मुहा०)। (किसी की ओर से) दीठ फेरना=पहले का-सा ध्यान भाव या संबंध न रखना। दीठ बिछाना=(क) अत्यंत आदरपूर्वक स्वागत करना। (ख) बहुत उत्सुकता से प्रतीक्षा करना। (किसी की) दीठ में समाना=बहुत अच्छा लगने के कारण बराबर किसी के ध्यान पर चढ़ा रहना। नजरों में समाना। (किसी की) दीठ से उतरना या गिरना=ऐसी स्थिति में आना कि पहले का-सा अनुराग या आदर न रह जाय। ५. अच्छी या सुंदर चीज पर किसी की पड़नेवाली ऐसी दृष्टि, जिसका परिणाम या फल बहुत ही अनिष्टकारक या घातक सिद्ध हो। बुरा प्रभाव उत्पन्न करनेवाली दृष्टि। नजर। जैसे—इस बच्चे को तो उस बुढ़िया दी दीठ खा गई। (स्त्रियाँ) मुहावरा—दीठ उतरना या झाडऩा=टोने-टोटके, मंत्र-यंत्र आदि के बल से किसी की उक्त की दृष्टि या नजर का बुरा प्रभाव दूर या नष्ट करना। दीठ जलाना=टोना-टोटका करके कपड़े का टुकड़ा, राई नोन आदि इस उद्देश्य से जलाना कि बुरी दीठ या नजर का कुपरिणाम दूर या नष्ट हो जाय। ६. देख-भाल। देख-रेख। निगरानी। ७. गुण-दोष आदि समझने की योग्यता या शक्ति। परख। पहचान। क्रि० प्र०—रखना। विशेष—शेष मुहावरा के लिए ‘देखें’, ‘आँख, ‘नजर’ और ‘निगाह’ के मुहा०।
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दीठना  : अ० [हिं० दीठ] दिखाई देना। स० देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीठबंद  : पुं०=दीठबंदी।
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दीठबंदी  : स्त्री० [हिं० दीठ+सं० बंध] इंद्र-जाल, टोने-टोटके आदि की वह माया जिसमे लोगों की दृष्टि इस प्रकार बाँध दी जाती अर्थात् प्रभावित कर दी जाती है कि उन्हें और का और या कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगे। नजर-बंद।
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दीठवंत  : वि० [हिं० दीठ+वंत (प्रत्य०)] १. जिसे दिखाई पड़ता हो। २. जिसे दिव्य-दृष्टि प्राप्त हो।
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दीठि  : स्त्री०=दीठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीत  : पुं० [सं० आदित्य] सूर्य। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीद  : वि० [फा०] देखा हुआ। स्त्री० देखने की क्रिया या भाव। दर्शन।
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दीदबान  : पुं० [फा०] १. बंदूक की नली पर का छोटा गोल टुकड़ा जिसकी सहायता से निशाना साधा जाता है। बंदूक की मक्खी। २. भेदिया। ३. निगरानी करनेवाला व्यक्ति।
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दीदा  : पुं० [फा० दीदः] १. आंख का डेला। २. आँख। नेत्र। क्रि० प्र०—फूटना।—मटकाना। मुहावरा—दीदे का पानी ढल जाना=बुरा काम करने में लज्जा का अनुभव न होना। निर्लज्ज हो जाना। दीदे-गोड़ों के आगे आना=किसी किये हुए बुरे काम का बुरा फल मिलना। (स्त्रियों का शाप) जैसे—तू मेरे साथ जो-जो कर रही है, वह सब तेरे दीदे-गोड़ों के आगे आवेगी अर्थात् इसका बुरा फल तुझे इस रूप में मिलेगा कि तू अंधी लूली-लँगड़ी हो जायगी या बहुत कष्ट भोगेगी। (किसी की तरफ) दीदे निकालना=क्रोध की दृष्टि से देखना। आँखें नीली-पीली करना। दीदे पट्टम होना=आँखों का फूट जाना। अँधा हो जाना। (स्त्रियाँ) दीदे फाड़कर देखना=अच्छी तरह आँखें खोलकर अर्थात् ध्यानपूर्वक देखना। २. दृष्टि। नजर। ३. कोई काम करने के समय ध्यानपूर्वक उसकी ओर जमनेवाली दृष्टि या लगनेवाली नजर। मुहावरा=(किसी काम में) दीदा फोडना=दृष्टि जमाकर ऐसा बारीक काम करना जिससे आँखों को बहुत कष्ट हो। (किसी काम में) दीद लगना=काम में जी या ध्यान लगना। जैसे—तुम्हारा दीदा तो किसी काम में लगता ही नहीं। ४. ऐसा अनुचित साहस जिसमें भय, लज्जा, संकोच आदि का कुछ भी ध्यान न रहे। ढिठाई। धृष्टता जैसे—इस लकड़ी का दीदा तो देखों किस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करती है। (स्त्रियाँ)
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दीदा-धोई  : स्त्री० [हिं०] ऐसी स्त्री जिसकी आँखों में शर्म न हो। वेशर्म। निर्लज्ज।
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दीदाफटी  : स्त्री०=दीदा-धोई।
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दीदार  : पुं० [फा०] १. दर्शन। देखा-देखी। साक्षात्कार। (प्रिय या बड़े के संबंध में प्रयुक्त) २. छवि। सौंदर्य।
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दीदारबाजी  : स्त्री० [फा०] किसी प्रिय व्यक्ति से आँखें लड़ाना।
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दीदारू  : वि० [फा० दीदार] दर्शनीय। देखने योग्य।
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दीदा व दानिस्ता  : अव्य० [फा० दीद व दानिस्तः] अच्छी तरह देखते हुए और जान-बूझकर या सोच-समझकर।
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दीदी  : स्त्री० [हिं० दादा=(बड़ा भाई) का स्त्री०] बड़ी बहिन को पुकारने का शब्द। ज्येष्ठ भगिनी के लिए संबोधन का शब्द।
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दीधिति  : स्त्री० [सं०√दी (चमकना)+क्तिच्] १. सूर्य, चंद्रमा आदि की किरण। २. उँगली।
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दीन  : वि० [सं०√दी (क्षय होना)+क्त नत्व] [भाव० दीनता] १. जो बहुत ही दयनीय तथा हीन दशा में हो २. गरीब। दरिद्र। ३. जो बहुत दुःखी या संतप्त हो। ४. जिसमें उत्साह, प्रसन्नता आदि का अभाव हो। उदास। खिन्न। ५. जो दुःख, भय आदि के कारण बहुत नम्र हो रहा हो। पुं० तगर का फूल। पुं० [अ०] धार्मिक मत या संप्रदाय। धर्म। मजहब। पद—दीन-दुनिया=धार्मिक विश्वास के कारण मिलनेवाला परम पद और लोक या संसार। जैसे—दीन-दुनिया दोनों से गये (रहित हुए)। मुहावरा—दीन दुनिया दोनों से जाना=न इस लोक के काम का रह जाना और न पर-लोक सुधार सकना।
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दीन-इलाही  : पुं० [अ०] मुगल सम्राट अकबर का चलाया हुआ एक धार्मिक संप्रदाय जो अधिक समय तक न चल सका था।
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दीनक  : वि० [सं० दीन+क (स्वार्थे)] दीन।
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दीनता  : स्त्री० [सं० दीन+तल्—टाप्] १. दीन होने की अवस्था या भाव। २. कातरता। ३. उदासीनता। खिन्नता। ४. नम्रता। विनय।
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दीनताई  : स्त्री०=दीनता।
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दीनत्व  : पुं० [सं० दीन+त्व] दीनता।
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दीनदयाल  : वि०=दीनदयालु।
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दीन-दयालु  : वि० [सं० स० त०] दीनों पर दया करनेवाला। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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दीनदार  : वि० [अ० दीन+फा० दार] [भाव० दीनदारी] जिसे अपने धर्म पर पूर्ण विश्वास हो, और जो उसके नियमों, शिक्षाओं आदि का ठीक तरह से पालन करता हो। धार्मिक। जैसे—दीनदार मुसलमान।
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दीनदारी  : स्त्री० [फा०] दीनदार होने की अवस्था या भाव। धार्मिकता।
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दीनदुनी  : स्त्री०=दीन-दुनिया (दे० ‘दीन’ के अन्तर्गत)
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दीन-बंधु  : वि० [सं० ष० त०] दीनों और दुःखियों का सहायक। पुं० ईश्वर। परमात्मा।
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दीन-वास  : पुं० [सं० ] बहुत ही गरीबों में या गरीबों की तरह रहकर दिन बिताना।
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दीना  : स्त्री० [सं० दीन+टाप्] मूषिका। चुहिया।
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दीनानाथ  : पुं० [सं० दीन-नाथ ष० त० दीर्घ] १. वह जो दीनों का स्वामी या रक्षक हो। दुखियों का पालक और सहायक। २. ईश्वर। परमात्मा।
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दीनार  : पुं० [सं०√दी (क्षय करना)+आरक् (नुट्)] १. सोने का गहना। २. सोने का एक पुराना सिक्का जो ईरान में प्रचलित था। ३. एक निष्क की तौल।
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दीनारी  : पुं० [सं० दीनार] लोहारों का ठप्पा।
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दीपंकार  : पुं० [सं०] बुद्ध के अवतारों में से एक।
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दीप  : पुं० [सं०√दीप (चमकना)+क] १. दीया। चिराग। २. दस मात्राओं का एक छंद जिसके अंत में तीन लघु फिर एक गुरु और फिर एक लघु होता है। पुं० द्वीप। (टापू)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपक  : वि० [सं०√दीप्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० दीपिका] १. उजाला या प्रकाश करनेवाला। २. कीर्ति, यश आदि बढ़ानेवाला। जैसे—कुल-दीपक। ३. दीप्त करने अर्थात् पाचन-शक्ति बढ़ानेवाला। जैसे—अग्निदीपक-औषध। ४. शरीर में उमंग, ओज, तेज आदि बढ़ानेवाला। पुं० [दीप+कन्] १. चिराग। दीया। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म कहा जाता है। अथवा बहुत ही क्रियाओं का एक ही कारक होता है। ३. संगीत में छः मुख्य रागों में से एक। ४. संगीत में एक प्रकार का ताल। ५. अजवायन, जो अग्नि दीपक होती है। ६. केसर। ७. बाज नामक पक्षी। ८. मोर की चोटी या शिखा। ९. एक प्रकार की आतिशबाजी।
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दीपक-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. एक प्रकार के वर्ण-वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण, जगण और एक गुरु होता है। २. दीपक अलंकार का एक भेद।
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दीप-कलिका  : स्त्री० [ष० त०] दीये की टेम। चिराग की लौ।
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दीप-कली  : स्त्री० [सं० दीपकलिका] चिराग की टेम। दीपशिखा। दीए की लौ।
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दीपक-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] वह बड़ा दीवट जिसमें दीए रखने के लिए कई शाखाएँ इधर-उधर निकलती हों। झाड़।
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दीपक-सुत  : पुं० [ष० त०] कज्जल। काजल।
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दीप-काल  : पुं० [मध्य० स०] दीया जलाने का समय। संध्या।
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दीपकावृत्ति  : स्त्री० [दीपक-आवृत्ति] १. दीपक अलंकार का एक भेद। २. पनशाखा।
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दीप-किट्ट  : पुं० [ष० त०] कज्जल। काजल।
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दीप-कूपी  : स्त्री० [सं० ष० त०] दीये की बत्ती।
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दीपग  : पुं०=दीपक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपगर  : पुं० [सं० दीपगृह] दीयट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपत  : स्त्री० [सं० दीप्त] १. चमक। दीप्ति। २. शोभायुक्त सौंदर्य। ३. कीर्ति। यश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीपता  : वि० [सं० दीप्ति] १. प्रकाशित। चमकीला। २. शोभित। ३. प्रसिद्ध।
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दीपति  : स्त्री०=दीप्ति (प्रकाश)।
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दीप-दान  : पुं० [ष० त०] १. देवता के सामने दीपक जलाने का काम जो पूजन का एक अंग है। २. कार्तिक में राधा-दामोदर के उद्देश्य से बहुत से दीपक जलाने का कृत्य। ३. हिंदुओं में एक रसम जिसमें मरणासन्न व्यक्ति के हाथ से जलते हुए दीपक का दान कराया जाता है।
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दीपदानी  : स्त्री० [सं० दीप-आधान] पूजा के लिए घी, बत्ती आदि (दीपक जलाने की सामग्री) रखने की डिबिया।
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दीप-ध्वज  : पुं० [ष० त०] काजल।
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दीपन  : पुं० [सं० दीप् (प्रकाशित करना)+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० दीपनीय, दीपित, दीप्त, दीप्य] १. प्रकाश करने के लिए दीपक या और कोई चीज जलाना। २. जठराग्नि तीव्र और प्रज्वलित करना। पाचन-शक्ति बढ़ाना। ३. किसी प्रकार का मनोवेग उत्तेजित और तीव्र करना। उत्तेजन। ४. [√दीप्+णिच्+ल्यु—अन] एक संस्कार जो मंत्र को जाग्रत और सक्रिय करने के लिए किया जाता है। ५. पारा शोधने के समय किया जानेवाला एक संस्कार। ६. तगर की जड़ या लकड़ी। ७. मयूरशिखा नाम की बूटी। ८. केसर। ९. प्याज। १॰. कसौंधा। कासमर्द। वि० १. अग्नि को प्रज्वलित करनेवाला। आग भड़कानेवाला। २. जठराग्नि तीव्र करने पाचन-शक्ति बढ़ानेवाला।
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दीपन-गण  : पुं० [ष० त०] जठराग्नि को तीव्र करनेवाले पदार्थों का एक गण या वर्ग। भूख लगने वाली औषधियों का वर्ग।
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दीपना  : अ० [सं० दीपन] प्रकाशित होना। चमकाना। जगमगाना। स० तीव्र या प्रज्वलित करना।
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दीपनी  : स्त्री० [सं० दीपन+ङीष्] १. मेथी। २. पाठा। ३. अजवायन।
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दीपनीय  : वि० [सं०√दीप् (दीप्ति)+अनीयर्] १. जो दीपन के लिए उपयुक्त हो। जो जलाया या प्रज्वलित किया जा सके। २. जो उत्तेजित, तीव्र या प्रबल किये जाने के योग्य हो।
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दीपनीयक  : वि० [सं०] दीपन।
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दीपनीय-वर्ग  : पुं० [ष० त०] चक्रदत्त के अनुसार एक ओषधि वर्ग जिसके अंतर्गत जठराग्नि तीव्र करनेवाली ये ओषधियाँ हैं—पिप्पली, पिप्पलामूल, चव्य, चीता और नागर।
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दीप-पादप  : पुं० [ष० त०] दीयट।
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दीप-पुष्प  : पुं० [ब० स०] चंपक-वृक्ष। चंपा।
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दीप-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. जलते हुए दीपों की पंक्ति। जगमगाते हुए दीयों की श्रेणी। २. आरती या दीपदान के लिये जलाई जानेवाली बत्तियों की पंक्ति या समूह।
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दीप-मालिका  : स्त्री० [ष० त०] १. दीयों की पंक्ति। जलते हुए दीपों की श्रेणी। २. दीवाली का त्योहार जो कार्तिक की अमावस्या को होता है।
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दीप-माली  : स्त्री० [सं० दीपमालिका] दीवाली।
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दीपवती  : स्त्री० [सं० दीप+मतुप्—ङीष्] कालिका पुराण के अनुसार एक नदी जो कामाख्या में है और जिसके पूर्व में श्रृंगार नाम का प्रसिद्ध पर्वत है।
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दीप-वृक्ष  : पुं० [ष० त०] दीअट।
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दीप-शत्रु  : पुं० [ष० त०] पतंग या फतिंगा। (जो दीपक को बुझा देता है)।
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दीप-शिखा  : स्त्री० [ष० त०] १. दीपक की लौ। टेम। २. दीपक से निकलनेवाला धुआँ।
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दीप-सुत  : पुं० [ष० त०] कज्जल। काजल।
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दीप-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] १. वह आधार या स्तंभ जिसके ऊपर रखकर दीया जलाया जाता है। दीयट। २. समुद्र में जहाजों को रात के समय रास्ता दिखाने और उन्हें चट्टानों आदि से बचाने के लिए बना हुआ उक्त प्रकार का स्तंभ जिसके ऊपरी भाग में रात को बहुत तेज रोशनी होती है। (लाइट हाउस)
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दीपांकुर  : पुं० [दीप-अंकुर, ष० त०] दीए की लौ।
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दीपा  : वि० [?] १. मंद। धीमा। २. फीका।
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दीपाग्नि  : पुं० [दीप-अग्नि, ष० त०] १. दीये की लौ। २. उक्त की आँच या ताप।
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दीपाधार  : पुं० [दीप-आधार, ष० त०] वह आधार या स्तंभ जिस पर रखकर दीये जलाये जायँ। दीयट।
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दीपान्विता  : स्त्री० [दीप-अन्विता, तृ० त०] कार्तिक मास की अमावास्या। दीवाली की रात।
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दीपाराधन  : पुं० [दीप-आराधन, ष० त०] दीप जलाकर तथा उन्हें किसी के सम्मुख घुमाते हुए आराधन करना। आरती करना।
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दीपालि, दीपाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दीपमाला। २. दीपावली। दीवाली।
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दीपावती  : स्त्री० [सं० दीप+मतुप्—ङीष् (दीर्घ)] एक रागिनी जो दीपक और सरस्वती रागों के योग से बनी है।
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दीपावली  : स्त्री० [दीप-आवली, ष० त०] १. दीप-श्रेणी। दीयों की पंक्ति। २. दीवाली।
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दीपिका  : स्त्री० [सं० दीप+क—टाप्, इत्व] १. छोटा दीया। २. [√दीप्+णिच्+ण्वुल्—अक, टाप्, इत्व] चाँदनी। ३. संध्या के समय गाई जानेवाली एक रागिनी जो हिंडोल राग की पत्नी कही गई है। ४. किसी कठिन ग्रंथ का सरल आशय बतानेवाली टीका या पुस्तक। वि० स्त्री० [हिं० दीपक का स्त्री०] समस्त पदों के अंत में, दीपन अर्थात् उजाला या प्रकाश करनेवाली।
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दीपिका-तैल  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का आयुर्वेदोक्त तेल जो कान की पीड़ा दूर करता है।
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दीपित  : भू० कृ० [सं०√दीप्+णिच्+क्त] १. दीप्त किया अर्थात् जलाया हुआ। २. दीपों से युक्त। ३. उजाले या प्रकाश से युक्त किया हुआ। प्रकाशित। प्रज्वलित। ४. चमकता या जगमगाता हुआ। ५. जिसे उत्तेजना दी गई हो या मिली हो। उत्तेजित।
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दीपी (पिन्)  : वि० [सं० उत्तरपद में] १. जलता हुआ। २. चमकता हुआ। ३. दीपन करनेवाला।
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दीपोत्सव  : पुं० [दीप-उत्सव, ष० त०] १. दीप जलाकर मनाया जानेवाला उत्सव। २. दीवाली।
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दीप्त  : वि० [सं०√दीप्+क्त] [स्त्री० दीप्ता] १. जलता हुआ। प्रज्वलित। २. चमकता या जगमगाता हुआ। प्रकाशित। पुं० १. सोना। स्वर्ण। २. हींग। ३. नींबू। ४. सिंह। शेर। ५. एक रोग जिसमें नाक में जलन होती है तथा उसमें से गरम हवा निकलती है।
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दीप्तक  : पुं० [सं० दीप्त+क (स्वार्थे)] १. सोना। सुवर्ण। २. दे० ‘दीप्त’ (नाक का रोग)।
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दीप्त-किरण  : पुं० [ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दीप्त-कीर्ति  : पुं० [ब० स०] कार्तिकेय।
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दीप्त-केतु  : पुं० [ब० स०] दक्ष सावर्णि मनु के एक पुत्र का नाम। (भागवत)
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दीप्त-जिह्वा  : स्त्री० [ब० स०] १. मादा गीदड़। सियारिन। २. लाक्षणिक अर्थ में, झगड़ालू स्त्री।
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दीप्त-पिंगल  : पुं० [उपमि० स०] सिंह।
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दीप्त-रस  : पुं० [ब० स०] केंचुआ।
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दीप्त-रोमा (मन्)  : पुं० [ब० स०] एक विश्वदेव का नाम। (महाभारत)
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दीप्त-लोचन  : पुं० [ब० स०] बिल्ला।
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दीप्त-लौह  : पुं० [कर्म० स०] काँसा।
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दीप्त-वर्ण  : वि० [ब० स०] चमकते या दमकते हुए वर्णमाला। पुं० कार्तिकेय।
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दीप्त-शक्ति  : पुं० [ब० स०] कार्तिकेय।
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दीप्तांग  : वि० [दीप्त-अंग, ब० स०] जिसका शरीर चमकता हो। पुं० मोर पक्षी। मयूर।
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दीप्तांशु  : पुं० [दीप-अंशु, ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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दीप्ता  : वि० स्त्री० [सं० दीप्त+टाप्] चमकती हुई। प्रकाशमान। जैसे—सूर्य के प्रकाश से दीप्ता दिशा। स्त्री० १. ज्योतिष्मती। मालकंगनी। २. कलियारी। ३. सातला (थूहर)।
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दीप्ताक्ष  : वि० [दीप्त-अक्षि, ब० स० (षच् समा०)] चमकती हुई आँखोंवाला। पुं० बिल्ला। बिड़ाल।
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दीप्ताग्नि  : वि० [दीप्त-अग्नि, ब० स०] १. जिसकी जटराग्नि बहुत तीव्र हो। जिसकी पाचन-शक्ति अत्यंत प्रबल हो। २. जिसे बहुत भूख लगी हो। भूखा। पुं० अगस्त्य मुनि जो वातापि राक्षस को खाकर पचा गये थे और समुद्र का सारा जल पी गये। स्त्री० प्रज्वलित अग्नि।
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दीप्ति  : स्त्री० [सं०√दीप्+क्तिन्] १. दीप्त होने की अवस्था या भाव। प्रकाश। उजाला। रोशनी। २. आभा। चमक। ३. छवि। शोभा। ४. योग में ज्ञान का प्रकाश जिससे हृदय का अंधकार दूर होता है। ५. लाक्षा। लाख। ६. काँसा। ७. थूहर। ८. एक विश्व-देव का नाम।
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दीप्तिक  : पुं० [सं० दीप्ति√कै (मालूम पड़ना)+क] शिरशोला। दुग्धपाषाण वृक्ष।
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दीप्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० दीप्ति+मतुप्] [स्त्री० दीप्तिमती] १. दीप्तयुक्त। प्रकाशित। चमकता हुआ। २. कांति या शोभा से युक्त। पुं० श्रीकृष्ण के एक पुत्र, जो सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
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दीप्तोद  : पुं० [दीप्त-उदक, ब० स० उद आदेश] एक प्राचीन तीर्थ-क्षेत्र जिसमें बहनेवाली वसूधर नामक नदी में स्नान करके परशुराम ने अपना खोया हुआ तेज फिर से प्राप्त किया था। इसी क्षेत्र में महर्षि भृगु ने भी कठोर तपस्या की थी।
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दीप्तोपल  : पुं० [सं० दीप्त-उपल, कर्म० स०] सूर्यकांत मणि।
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दीप्य  : वि० [सं० दीप+यत्] १. जो जलाया जाने को हो। प्रज्वलित किया जानेवाला। २. जो जलाकर प्रकाश से युक्त किया जा सके। ३. जठराग्नि अर्थात् भूख बढानेवाला। पुं० १. अजवायन। २. जीरा। ३. मयूर- शिखा। ४. रुद्र-जटा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दीप्यक  : पुं० [सं० दीप्य+कन्] १. अजवायन। २. अजमोदा। ३. मयूरशिखा। ४. रुद्रजटा।
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दीप्यमान  : वि० [सं० दीप (चमकना)+शानच् (यक्)] चमकता हुआ। दीप्त।
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दीप्या  : स्त्री० [सं० दीप्य+टाप्] पिंड खजूर।
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दीप्र  : वि० [सं०√दीप्+र] दीप्तिमान।
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दीबाचा  : पुं० [फा० दीवाचः] ग्रंथ की भूमिका। प्रस्तावना।
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दीबो  : पुं० [हिं० देना] देने की क्रिया या भाव। उदाहरण—दीनदयाल दीबो ई भावैं जाचक सदा सोहाहीं।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीमक  : स्त्री० [फा०] च्यूँटी की जाति का सफेद रंग का एक प्रसिद्ध छोटा कीड़ा जो समूहों मे रहता है और लकड़ी कागज पौधों आदि को खा जाता है।
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दीयट  : स्त्री० [सं० दीवस्थ, प्रा० दीवट्ठ] पुरानी चाल का धातु, लकड़ी आदि का बना हुआ वह छोटा स्तम्भ या आधार जिस पर दीया रखकर जलाया जाता है।
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दीयमान  : वि० [सं० दा (देना)+शानच् (यक्)] जो दिया जाने को हो या दिया जाने के लिए हो।
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दीया  : पुं० [सं० दीपक, प्रा० दीअ] १. बत्ती तथा तेल अथवा घी से युक्त छोटा पात्र। क्रि० प्र०—जलना।—जलाना।—बलना।—बालना।—बुझना।—बुझाना। मुहावरा—दीया जलाना=दीवाली निकालना (पहले जो लोग दीवाला निकालते थे वे अपनी कोठी या दूकान का टाट-उलटकर उस पर एक चौमुखा दीया जलाकर रख देते थे और काम-धंधा बंद कर देते थे। दीया ठंढा करना=दीया बुझाना। (किसी के घर का) दीया ठंढा होना=किसी के मरने के फल-स्वरूप उसके परिवार मे अँधेरा छा जाना। दीया दिखाना=मार्ग में प्रकाश करने के लिए दीया सामने करना। दीया बढ़ाना=दीया बुझाना। दीया बत्ती करना=संध्या होने पर दीया जलाना। दीया संजोना=दीया जलाकर प्रकाश करना। दीयें का हँसना=दीये की बत्ती से फूल या गुल झड़ना। दीये से फूल झड़ना=दीये की जलती हुए बत्ती से चमकते हुए गोल पुचड़े या रवे निकलना। गुल झड़ना। पद—दीये बत्ती का समय=संध्या का समय जब दीया जलाया जाता है। २. [स्त्री० अल्पा० दियली] बत्ती जलाने का छोटी कटोरी के आकार का बरतन। वह बरतन जिसमें तेल भरकर जलाने के लिए बत्ती डाली जाती है। ३. उक्त प्रकार की कटोरी के आकार का मिट्टी का छोटा पात्र। मुहावरा—दीये में बत्ती पड़ना=संध्या का समय होने पर दीया जलाया जाना।
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दीया-सलाई  : स्त्री० [हिं० दीया+सलाई] लकड़ी की वह छोटी सलाई या सींक जिसके एक सिरे पर लगा हुआ मसाला रगड़ने से जल उठता है। आग जलाने की सींक या सलाई।
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दीरघ  : वि०=दीर्घ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दीर्घ  : वि० [सं०+जृ (विदारण)+घञ्] १. काल-मान, दूरी आदि के विचार से अधिक विस्तार वाला। अधिक अवकाश या समय में व्याप्त। जैसे—दीर्घकाम, दीर्घ क्षेत्र। २. लंबी अवधि या भोगकालवाला। जैसे—दीर्घ आयु, दीर्घ निद्रा, दीर्घ श्वास। ३. (अक्षर या वर्ण) जो दो मात्राओं का अर्थात् गुरु हो। जिसका उच्चारण अपेक्षया अधिक खींचकर किया जाता हो। ‘ह्वस्व’ का विपर्याय। जैसे—‘इ’ का दीर्घ ‘ई’ और ‘उ’ का दीर्घ ‘ऊ’ है। पुं० १. ऊँट। २. ताड़ का पेड़। ३. लता शाल नामक वृक्ष। ४. रामशर। नरकट। ५. ज्योतिष में पाँचवी, छठी, सातवीं और आठवीं अर्थात् सिंह, कन्या, तुला और वृश्चिक राशियों की संज्ञा।
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दीर्घ-कंटक  : पुं० [ब० स०] बबूल का पेड़।
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दीर्घ-कंठ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घ, कंठी, दीर्घकंठ+ङीष्] जिसकी गरदन लंबी हो। पुं० १. बगला पक्षी। २. एक राक्षस का नाम।
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दीर्घ-कंद  : पुं० [ब० स०] मूली।
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दीर्घ-कंदिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप् (इत्व)] मुसली। ताल-मूली।
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दीर्घ-कंधर  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घकंधरी] लंबी गरदनवाला। पुं० बगला पक्षी।
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दीर्घ-कणा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सफेद जीरा।
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दीर्घ-कर्ण  : वि० [ब० स०] बड़े-बड़े कानोंवाला। पुं० एक प्राचीन जाति का नाम।
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दीर्घ-कांड  : पुं० [ब० स०] १. गुंडतृण। गोदला। २. पाताल गारुड़ी लता। ३. तिक्तांगा।
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दीर्घ-कांडा  : स्त्री० [सं० दीर्घकांड+टाप्] दीर्घकांड। (दे०)
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दीर्घ-काय  : वि० [ब० स०] जिसकी काया अर्थात् शरीर दीर्घ या बहुत बड़ा हो। शारीरिक दृष्टि से बड़े डील-डौलवाला।
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दीर्घ-काल  : पुं० [ब० स०] दीर्घकीलक। (दे०)
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दीर्घ-कीलक  : पुं० [सं० दीर्घकील+कन्] अंकोल का पेड़।
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दीर्घ-कुल्या  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] गजपिप्पली।
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दीर्घ-कूरक  : पुं० [कर्म० स०] आंध्र प्रदेश में होनेवाला एक तरह का धान। रजान्न।
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दीर्घ-केश  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घकेशी, दीर्घकेश+ङीष्] जिसके केश दीर्घ अर्थात् बड़े या लंबे हों। पुं० १. भालू। रीछ। २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो कूर्म विभाग के पश्चिमोत्तर में हो।
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दीर्घ-कोशिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप् (इत्व)] शुक्ति नामन जल-जंतु। सुतुही।
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दीर्घ-गति  : पुं० [ब० स०] ऊँट। वि० तेज या बहुत चलनेवाला।
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दीर्घ-ग्रंथिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप्] गजपिप्पली।
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दीर्घ-ग्रीव  : वि० [ब० स०] [स्त्री० दीर्घग्रीवी] जिसकी गरदन लंबी हो। पुं० १. सारस पक्षी। २. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश जो कूर्म विभाग के दक्षिण-पश्चिम में है।
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दीर्घ-घाटिक  : वि० [सं० दीर्घा-घाटा, कर्म० स०,+ठन्—इक] लंबी गरदनवाला। पुं० ऊँट।
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दीर्घच्छद  : वि० [ब० स०] जिसके लंबे-लंबे पत्ते हों। पुं० ईख। ऊख। गन्ना।
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दीर्घ-जंगल  : पुं० [कर्म० स०] एक तरह की मछली। बड़ा झींगा।
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दीर्घ-जंघ  : वि० [ब० स०] जिसकी टाँगे लंबी हों। पुं० १. बगला पक्षी। २. ऊँट।
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दीर्घ-जिह्वा  : वि० [ब० स०] जिसकी जीभ लंबी हो। पुं० १. साँप। २. एक राक्षस का नाम।
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दीर्घजिह्वा  : स्त्री० [ सं० दीर्घ जिह्वा+टाप्] १. विरोचन की पुत्री एक राक्षसी जिसे इंद्र ने मारा था। २. कार्तिकेय की एक अनुचरी या मातृका।
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दीर्घजीवी (विन्)  : वि० [सं० दीर्घ√जीव् (जीना)+णिनि] बहुत दिनों तक जीने वाला। दीर्घ जीवनवाला।
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दीर्घतपा (पस्)  : वि० [ब० स०] जिसने बहुत दिनों तक तपस्या की हो। पुं० उतथ्य ऋषि के एक पुत्र का नाम।
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दीर्घतरु  : पुं० [कर्म० स०] ताड़ का पेड़।
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दीर्घता  : स्त्री० [सं० दीर्घ+तल्—टाप्] दीर्घ होने की अवस्था, गुण या भाव। लंबाई और चौड़ाई।
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दीर्घ-तिमिषा  : स्त्री० [तिमिषा, √ तिम् (गीला होना)+किषन् (बा०) टाप् दीर्घ तिमिषा कर्म० स०] ककड़ी कर्कटी।
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दीर्घ-तुंडा  : वि० स्त्री० [ब० स०, टाप्] जिसका मुँह लंबा हो। स्त्री० छछूँदर।
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दीर्घ-तृण  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार की घास जिसके खाने से पशु निर्बल हो जाते हैं। पल्लिवाह तृण। ताम्रपर्णी।
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दीर्घ-दंड  : पुं० [कर्म० स०] दीर्घदंडक। (दे०)
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दीर्घदंडक  : पुं० [सं० दीर्घदण्क+क (स्वार्थे)] १. अंडी का पेड़। रेंड़। २. ताड़।
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दीर्घ-दंडी  : स्त्री० [सं० दीर्घदण्ड+ङीष्] गोरख इमली।
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दीर्घदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं० दीर्घ√ दृश (देखना)+णिनि] [भाव० दीर्घदर्शिता] बहुत दूर तक की बातें सोचने-समझनेवाला। दूरदर्शीं। पुं० १. भालू। २. गीध।
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दीर्घ-द्रु  : पुं० [कर्म० स०] ताड़ का पेड़।
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दीर्घ-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] सेमल का पेड़। शाल्मली।
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दीर्घ-दृष्टि  : वि० [ब० स०] १. जिसकी दृष्टि दूर तक जाय। २. दूर-दर्शी। स्त्री० दूरदर्शिता। पुं० गिद्ध पक्षी।
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दीर्घ-द्धार  : पुं० [ब० स०] विशाल देश के अंतर्गत एक प्राचीन जनपद जो गंडकी नदी के किनारे कहा गया है।
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दीर्घ-नाद  : वि० [ब० स०] जिससे जोर का या भारी शब्द निकलता हो। पुं० शंख।
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दीर्घ-नाल  : पुं० [ब० स०] १. रोहिस घास। २. गुंड तृण। गोंदला। ३. यवनाल। ज्वार।
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दीर्घ-निद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] मृत्यु। मौत। मरण।
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दीर्घ-निःश्वास  : पुं० [कर्म० स०] चिंता, दुःख, भय आदि के कारण लिया जानेवाला गहरा या लंबा साँस।
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दीर्घ-पक्ष  : वि० [ब० स०] बड़े-बड़े परोंवाला। पुं० कलिंग (पक्षी)।
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दीर्घ-पत्र  : वि० [ब० स०] जिसके पत्ते बहुत लंबे होते हों। पुं० १. हरिदर्भ जो कुश का एक भेद है। २. विष्णुकंद। ३. लाल प्याज। ४. कुचला। ५. एक प्रकार की ईख या ऊख।
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दीर्घ-पत्रक  : पुं० [सं० दीर्घपत्र+कन्] १. लाल लहसुन। २. एरंड। रेंड़। ३. बेंत। ४. समुद्र-फल। हिंजल। ५. करील। टेंटी। ६. जलमहुआ।
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दीर्घपत्रा  : स्त्री० [सं० दीर्घपत्र+टाप्] १. केतकी २. चित्रपर्णी। ३. जंगली जामुन। ४. शालपर्णी।
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दीर्घपत्रिका  : स्त्री० [सं० दीर्घपत्र+कन्—टाप् (इत्व)] १. सफेद बच। २. घीकुआँर। ३. शालपर्णी। सरिवन। ४. सफेद गदहपूरना। श्वेत पुनर्नवा।
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दीर्घपत्री  : स्त्री० [सं० दीर्घपत्र+ङीष्] १. पलाशी लता। बौंरिया पलाश। वह पलाश जो लता के रूप में फैलता है। २. बड़ा चेंच या चेना। (साग)
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दीर्घ-पर्ण  : वि० [ब० स०] लंबे-लंबी पत्तोंवाला।
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दीर्घपर्णी  : स्त्री० [सं० दीर्घपर्ण+ङीष्] पिठवन। पृश्निपर्णी।
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दीर्घ-पल्लव  : वि० [ब० स०] बड़े-बड़े फूलोंवाला। पुं० सन का पौधा।
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दीर्घ-पाद  : वि० [ब० स०] लंबी टांगोंवाला। पुं० कंक पक्षी। सफेद चील। २. सारस।
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दीर्घ-पादप  : पुं० [कर्म० स०] १. ताड़ का पेड़। २. सुपारी का पेड़।
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दीर्घ-पृष्ठ  : पुं० [ब० स०] सर्प। साँप।
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दीर्घ-प्रज्ञ  : वि० [ब० स०] दूरदर्शी। पुं० पुराणानुसार द्वापर के एक राजा जो असुर के अवतार कहे गये हैं।
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दीर्घ-फल  : पुं० [ब० स०] अमलतास।
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दीर्घ-फलक  : पुं० [सं० दीर्घफल+कन्] अगस्त का पेड़।
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दीर्घफला  : स्त्री० [सं० दीर्घफल+टाप्] १. जतुका लता। पहाड़ी नाम की लता। २. लंबे दाने का अंगूर।
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दीर्घ-फलिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप् (इत्व)] १. कपिल द्राक्षा। लंबा अंगूर। २. जतुका लता।
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दीर्घ-बाली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] चमरी। सुरागाय।
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दीर्घ-बाहु  : वि० [ब० स०] जिसकी भुजा लंबी हो। पुं० १. शिव का एक अनुचर। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दीर्घ-मारुत्  : पुं० [ब० स०] हाथी।
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दीर्घ-मुख  : वि० [ब० स०] बड़े मुँहवाला। पुं० १. हाथी। २. शिव के एक अनुचर का नाम।
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दीर्घ-मूल  : पुं० [ब० स०] १. मोरट नाम की एक लता। २. लामज्जक तृण। ३. बिल्वांतर नामक वृक्ष।
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दीर्घ मूलक  : पुं० [ब० स०, कप्] मूलक। मूली।
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दीर्घ-मूला  : स्त्री० [सं० दीर्घमूल+टाप्] १. शालिपर्णी। सरिवन। २. श्यामा लता। कालीसर।
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दीर्घ-मूली  : स्त्री० [दीर्घमूल+ङीप्] धमासा।
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दीर्घयज्ञ  : वि० [ब० स०] जिसने बहुत दिनों तक यज्ञ किया हो। पुं० अयोध्या के एक राजा जो पुराणानुसार द्वापर युग में हुए थे।
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दीर्घ-रत  : वि० [ब० स०] अधिक समय तक मैथुन में रत रहनेवाला। पुं० कुत्ता।
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दीर्घ-रद  : वि० [ब० स०] जिसके दांत लंबे और बाहर निकले हुए हों। पुं० सूअर। शूकर।
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दीर्घ-रसन  : पुं० [ब० स०] सर्प। साँप।
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दीर्घ-रागा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] हरिद्रा। हल्दी।
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दीर्घ-रोमा (मन्)  : पुं० [ब० स०] १. भालू। २. शिव का एक अनुचर।
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दीर्घ-रोहिषक  : पुं० [कर्म० स०+कन्] एक तरह का सुंगधित तृण।
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दीर्घ-लोचन  : वि० [ब० स०] बड़ी आँखोंवाला। पुं० १. शिव का एक अनुचर। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दीर्घ-वंश  : पुं० [कर्म० स०] नरसल। नरकट।
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दीर्घ-वक्त्र  : वि० [ब० स०] स्त्री० दीर्घवक्ता, दीर्घवक्त्र-टाप्] लंबे मुँहवाला। पुं० हाथी।
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दीर्घवच्छिका  : स्त्री० [सं० दीर्घवत्√शीक् (सींचना)+क—टाप्, पृषो० सिद्धि] कुंभीर। घड़ियाल।
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दीर्घ-बल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] १. बड़ा इंद्रायन। महेंद्रवारुणी। २. पाताल-गारुड़ी लता। छिरेटा। ३. पलाशी लता। बौरिया पलास।
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दीर्घ-वृंत  : पुं० [ब० स०] १. श्योनाक वृक्ष। सोनापाठा। २. लताशाल।
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दीर्घवृंता  : स्त्री० [सं० दीर्घवृंत+टाप्] इंद्रचिर्मिटि लता।
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दीर्घवृंतिका  : स्त्री० [सं० जीर्घ-वृंत+कन्—टाप् (इत्व)] एलापर्णी।
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दीर्घ-शर  : पुं० [कर्म० स०] ज्वार।
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दीर्घ-शाख  : पुं० [ब० स०] १. सन। २. शाल (वृक्ष)। साखू।
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दीर्घ-शिंबिक  : पुं० [ब० स०, कप् (हृस्वत्व)] एक तरह की राई। क्षव।
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दीर्घ-शूक  : पुं० [ब० स०] एक तरह का धान।
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दीर्घश्रवा (वस्)  : पुं० [ब० स०] एक ऋषिपुत्र जिन्होंने अनावृष्टि होने पर वाणिज्य वृत्ति स्वीकार की थी। (ऋग्वेद)
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दीर्घ-सत्र  : वि० [ब० स०] जिसने बहुत दिनों तक यज्ञ किया हो। पुं० [कर्म० स०] १. जीवन भर किया जानेवाला अग्निहोत्र। २. एक प्रकार का यज्ञ। ३. एक प्राचीन तीर्थ।
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दीर्घ-सुरत  : वि० [ब० स०] बहुत देर रति करने वाला। पु० कुत्ता।
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दीर्घ-सूक्ष्म  : पुं० [कर्म० स०] प्राणायाम का एक भेद।
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दीर्घ-सूत्र  : वि० [ब० स०] दीर्घसूत्री। (दे०)
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दीर्घ-सूत्रता  : स्त्री० [सं० दीर्घसूत्र+तल्—टाप्] दीर्घसूत्र या दीर्घसत्री होने की अवस्था, भाव या स्थिति।
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दीर्घ-सूत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० दीर्घ-सूत्र कर्म० स०,+इनि] [भाव० दीर्घ सूत्रिता] (व्यक्ति) जो हर काम में आवश्यकता से बहुत अधिक देर लगाता हो। बहुत धीरे-धीरे और देर में काम करनेवाला।
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दीर्घ-स्कंध  : पुं० [ब० स०] ताड़ का पेड़।
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दीर्घ-स्वर  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा स्वर जो साधारण से कुछ अधिक खींच-कर उच्चारित होता हो। दो मात्राओंवाला स्वर।
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दीर्घा  : स्त्री० [सं० दीर्घ+टाप्] १. पिठवन। पृश्निपर्णी। २. पुरानी चाल की वह नाव जो ८८ हाथ लंबी, ४४ हाथ चौड़ी और ४४ हाथ ऊँची होती थी। ३. आने-जाने के लिए कोई लंबा और ऊपर से छाया हुआ मार्ग। ४. आज-कल किसी भवन के अंदर कुछ ऊँचाई पर दर्शकों आदि के बैठने के लिए बना हुआ स्थान। (गैलरी)
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दीर्घाकार  : वि० [दीर्घ-आकार, ब० स०] दीर्घ आकारवाला। लंबा-चौड़ा।
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दीर्घाध्वग  : पुं० [दीर्घ-अध्वग कर्म० स०] १. दूत। २. हरकारा।
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दीर्घायु (स्)  : वि० [दीर्घ-आयुस् ब० स०] दीर्घजीवी। चिरजीवी। पुं० १. मार्कडेय ऋषि। २. जीवकवृक्ष। ३. सेमल का पेड़। ४. कौआ।
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दीर्घायुध  : पुं० [दीर्घ-आयुध कर्म० स०] १. कुंभास्त्र। २. [ब० स०] सूअर। शूकर।
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दीर्घायुष्य  : वि०, पुं० [दीर्घ-आयुष्य ब० स०]=दीर्घायु।
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दीर्घालर्क  : पुं० [दीर्घ-अलक कर्म० स०] सफेद मदार।
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दीर्घाष्य  : वि० [दीर्घ-आस्य] बड़े मुँहवाला। पुं० १. शिव का एक अनुचर। २. पुराणानुसार पश्चिमोत्तर दिशा का एक देश। ३. हाथी।
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दीर्घाह (न्)  : वि० [दीर्घ-अहन्] बड़े दिनवाला। पुं० १. बड़ा दिन। २. ग्रीष्मकाल।
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दीर्घिका  : स्त्री० [सं० दीर्घ+कन्—टाप, इत्व] १. छोटा जलाशय या तालाब। बावली। २. हिंगुपत्री। ३. एक प्रकार की पुरानी नाव जो ३२ हाथ लंबी, ४ हाथ चौड़ी और ३ १/५ हाथ ऊँची होती थी।
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दीर्घीकरण  : पुं० [सं० दीर्घ+च्वि√कृ+ल्युट्—अन] किसी वस्तु को पहले से अधिक दीर्घ करना। विस्तार बढ़ाना। (एलागेशन)
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दीर्घेर्वारु  : पुं० [दीर्घा-इर्वारु कर्म० स०] लंबी ककड़ी। डँगरी।
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दीर्ण  : वि० [सं०√(विदारण)+क्त] फटा हुआ। विदारित। दरका हुआ।
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दीली  : स्त्री० १.=दिल्ली। २.= दिली।
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दीवँक  : स्त्री०=दीमक।
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दीवट  : स्त्री०= दीयट।
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दीवला  : पुं० [हिं० दिवाला (प्रत्य०)] [स्त्री० दिवली, दिल्ली] दीया।
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दीवा  : पुं०=दीया। पुं०=धव (वृक्ष)।
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दीवान  : पुं० [अ०] १. राजसभा। न्यायालय। कचहरी। २. मंत्री। वजीर। ३. अर्थ-मंत्री। ४. उर्दू में किसी कवि या शायर की रचनाओं का संग्रह। जैसे—गालिब का दीवान।
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दीवान-आम  : पुं० [अ०] १. ऐसा दरबार जिसमें राजा या बादशाह से सब लोग मिल सकते थे। आम दरबार। २. वह स्थान जहाँ उक्त प्रकार का दरबार लगता हो।
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दीवान-खाना  : पुं० [फा० दीवनखानः] १. बैठक। कमरा। २. बड़े-बड़े लोगों के बैठने का स्थान।
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दीवान-खास  : पुं० [फा०+अ०] ऐसी सभा जिसमें राजा या बादशाह, मंत्रियों तथा चुने हुए प्रधान लोगों के साथ बैठता है। खास दरबार। २. वह स्थान जिसमें उक्त दरबार लगता हो।
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दीवाना  : वि० [फा० दीवानः] [स्त्री० दीवानी] [भाव० दीवानापन] १. पागल। विक्षिप्त। २. जो किसी के प्रेम में पागल रहता हो। ३. किसी काम में तन्मय।
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दीवानापन  : पुं० [फा० दीवाना+पन (प्रत्य०)] दीवाने होने की अवस्था या भाव।
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दीवानी  : स्त्री० [फा०] १. दीवान का पद। दीवान का ओहदा। वि० [फा०] १. दीवान-संबंधी। दीवान का। २. आर्थिक। स्त्री० १. दीवान का कार्य और पद। २. न्याय का वह विभाग जिसमें केवल आर्थिक विवादों पर विचार होता है। ३. वह अदालत या कचहरी जिसमें उक्त प्रकार के विवादों का विचार होता है। वि० हिं० दीवान का स्त्री० रूप।
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दीवार  : स्त्री० [फा०] १. मिट्टी, ईटों, पत्थरों आदि की प्रायः लंबी सीधी और ऊँची रचना जो कोई स्थान घेरने के लिए खड़ी की जाती है। भीत। क्रि० प्र०—उठाना।—खड़ी करना। २. उक्त रचना का कोई पक्ष या पहलू। जैसे—दीवार पर चूना करना। ३. कोई ऐसी रचना, जो सुरक्षा के लिए बनी या बनाई गई हो। जैसे—लोहे की दीवार। ४. किसी वस्तु का घेरा जो ऊपर उठा हो। जैसे—जूते, टोपी या थाली की दीवार।
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दीवारगीर  : स्त्री० [फा०] १. दीया, मोमबत्ती, लम्प आदि रखने का आधार जो दीवार में जड़ा जाता है। २. उक्त प्रकार से जलनेवाला दीया, लम्प आदि। ३. दीवार पर टाँगा जानेवाला रंगीन विशेषतः छपा हुआ परदा।
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दीवार-दंड  : पुं० [फा० दीवर+हिं० दंड] एक प्रकार की दंड नाम की कसरत जो दीवार पर हाथ रखकर की जाती है।
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दीवाल  : स्त्री०=दीवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीवाला  : पुं०=दिवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीवाली  : स्त्री० [सं० दीपावली] १. कार्तिक की अमावास्या को होने-वाला वैश्यों का एक प्रसिद्ध त्योहार जिसमें संध्या के समय घर में सब जगह बहुत से दीपक जलाये जाते और लक्ष्मी की पूजा की जाती है। विशेष—(क) भगवान राम १४ वर्षों के बनवास के उपरांत कार्तिकी अमावस्या को अयोध्या लौटे थे, उन्हीं के आगमन के उपलक्ष्य में यह उत्सव आरंभ हुआ था। (ख) पुराणानुसार दीवाली वस्तुतः वैश्यों का त्योहार है, परन्तु अब इसे सभी वर्णों के लोग मनाते हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा शुभ अवसर या घड़ी जिसमें लोग खुशियाँ मनायें।
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दीवि  : पुं० [सं० दे० दिवि] नीलकंठ (पक्षी)।
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दीवी  : स्त्री० [हिं० दीवा] दीयट। चिरागदान।
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दीसना  : अ० [सं० दृश=देखना] दिखाई देना या पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दीह  : पुं० [सं० दिवस] दिन। दिवस। उदा०—त्रिणि दीह लगन वेला घाड़ा तै।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दीर्घ।
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दुंका  : पुं० [सं० स्तोक] (अनाज का) छोटा कण। कन। दाना।
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दुँगरी  : स्त्री० [देश०] पुरानी चाल का एक तरह का मोटा कपड़ा।
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दुंडुक  : वि० [सं० दुंडुभ√कै (मालूम होना)+क, पृषो० भलोप] १. व्यक्ति जो ईमानदार न हो। बेईमान। २. दुष्ट। ३. जालसाज।
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दुंडुभ  : पुं० [सं०√द्रुड् (डूबना)+उभ, नुम्, रलोप] एक तरह का विषहीन सर्प। डुंडुभ।
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दुंद  : पुं० [सं० द्वंद्व] १. दो मनुष्यों के बीच होनेवाला झगड़ा या युद्ध। द्वंद्व। २. उत्पात। उपद्रव। ऊधम। ३. हो-हल्ला। शोर-गुल। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। ४. जोड़ा। युग्म। पुं०=दुंदुभि (नगाड़ा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुंदका  : पुं० [देश०] वह कोल्हू, जिसमें ऊख पेरी जाती है।
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दुंदभ  : पुं० [सं० द्वंद्व] मरणादि का क्लेश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुंदम  : पुं० [सं० दुंद√मण् (शब्द करना)+ड] एक तरह का नगाड़ा।
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दुंदु  : पुं० [सं०] १. एक तरह का नगाड़ा। २. भगवान् कृष्ण के पिता वसुदेव का एक नाम। पु०= दुंदभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुंदुभ  : पुं० [सं० दुंदु√भण् (शब्द)+ड] बड़ा नगाड़ा। धौंसा।
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दुंदभि  : स्त्री० [सं० दुंदु√भा (शोभित होना)+कि] १. एक तरह का नगाड़ा। २. विष्णु। ३. कृष्ण। ४. वरुण। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. पुराणानुसार कौंच द्वीप का एक विभाग। ७. जूए में पासे का एक दाँव। ८. एक राक्षस जिसे बलि ने मारा था। ९. जहर। विष।
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दुंदुभिक  : पुं० [सं०] एक तरह का विषैला कीड़ा।
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दुदुभि-स्वन  : पुं० [सं० ब० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की विष-चिकित्सा।
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दुंदुभी  : स्त्री०=दुंदभि।
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दुंदमा  : स्त्री० [सं०] दुंदुभि पर आघात लगने से होनेवाली ध्वनि।
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दुंदुमार  : पुं० दे० ‘धुंधुमार’।
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दुंदुह  : पुं० [सं० डुंडभ] पानी में रहनेवाला साँप। डेंड़हा।
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दुंबक  : पुं० [सं०] १. एक तरह का मेढ़ा। दुंबा।
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दुंबा  : पुं० [फा० दुंबालः] मेढ़ों की एक जाति जिनकी दुम चक्की की पाट की तरह गोल भारी होती है। २. उक्त जाति का मेढ़ा।
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दुंबाल  : पुं० [फा० दुंबालः] १. चौड़ी पूँछ। २. नाव की पतवार। ३. जहाज या नाव का पिछला भाग।
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दुंबुर  : पुं० [सं० उदुंबर] गूलर की जाति का एक पेड़ जिसकी टहनियों पर कुछ विशिष्ट कीड़े लाख बनाते हैं।
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दुःकुंत  : पुं०=दुष्यंत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुःख  : पुं० [सं०√दुःख (क्लेश)+अच्] भू० कृ० दुःखित, वि० दुःखी] १. मन में होनेवाली वह अप्रिय और अवांछित अनूभूति जो किसी प्रकार के उपकार, आघात, आपत्ति, दुर्घटना, दुष्कर्म, निराशा, व्याधि, हानि आदि के फलस्वरूप होती है। अनिष्ट, बुरी या विरोधी मानी जानेवाली बातों के कारण उत्पन्न होनेवाली मन की वह स्थिति जिससे आदमी छूटना या बचना चाहता है। ‘सुख’ का विपर्याय। (ग्रीफ, सारो) विशेष—(क) शास्त्रों में ‘दुःख’ का विवेचन और स्वरूप-निर्धारण अनेक प्रकार से किया गया है; उसके कई प्रकार के वर्गीकरण किये गये हैं। और उसके निवारण के अलग-अलग उपाय बताये गये हैं। सांख्य ने उसे चित्त का धर्म माना है, पर न्याय और वैशेषिक ने उसे आत्मा का धर्म कहा है। योग के अनुसार वे सभी बातें दुःख हैं जो समाधि में बाधक होती हैं। गौतम बुद्घ ने तो जन्म से मृत्यु तक की सभी बातों को दुःख माना है; और उसे चार आर्य सत्यों में पहला स्थान दिया है। (ख) लौकिक दृष्टि से ‘सुख’ का अभाव या विनाश ही दुःख है और वह मानसिक तथा शारीरिक दोनों प्रकार का होता है। कारण या मूल के विचार से यह शास्त्रों में तीन प्रकार का कहा गया है—आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। (ग) आर्थी दृष्ट से इसके कष्ट, क्लेश, खेद, पीड़ा, विषाद, वेदना, व्यथा, शोक, संताप आदि ऐसे भेद-विभेद हैं, जो मुख्यतः अलग प्रकार की मानसिक या शारीरिक परिस्थितियों के सूचक हैं और जिनमें यह अनुभूति या मनः स्थिति कभी कुछ हलकी, कभी कुछ तेज और कभी बहुत तेज होती है। क्रि० प्र०—देना—पहुँचना।—पाना।—भोगना।—मिलना।—सहना। मुहा०—दुःख उठाना=दुःख भोगना या सहना। (किसी का) दुःख बँटाना=दुःख, विपत्ति आदि के समय किसी की सहायता करके उसका दुःख कम करना। दुःख भरना=कष्ट या दुःख भोगना या सहना। २. आपत्ति। विपत्ति। संकट। जैसे—इधर बरसों से उन पर बराबर दुःख पर दुःख आते रहे हैं। ३. बीमारी। रोग। (क्व०)
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दुःखकर  : वि० [सं० दुःख√कृ (करना)+ट] दुःखद। दुःखदायक।
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दुःख-ग्राम  : वि० [ब० स०] दुःखों से भरा हुआ। पुं० संसार।
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दुःखजीवी (विन्)  : वि० [सं० दुःख√जीव् (जीना)+णिनि] दुःखों में पलने तथा रहनेवाला।
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दुःख-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक ये तीन प्रकार के दुःख।
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दुःखद  : वि० [सं० दुःख√दा (देना)+क] १. दुःख या कष्ट देनेवाला। २. जिसके कारण या फलस्वरूप मन को दुःख पहुँचे। जैसे—मृत्यु का दुःखद समाचार।
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दुःख-दग्ध  : वि० [तृ० त०] बहुत अधिक दुःखी।
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दुःखदाता (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] दुःख पहुँचानेवाला (मनुष्य)।
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दुःखदायक  : वि० [ष० त०] १.= दुःख दायिन्। २.=दुःखद।
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दुःखदायी (यिन्)  : वि० [सं० दुःख√दा+णिनि] [स्त्री० दुःखदायनी] १. (व्यक्ति) जो दूसरों को दुःख देता हो। २. दुःखद।
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दुःखदोह्या  : वि०, स्त्री० [तृ० त०] गाय या भैंस जिसे कठिनता से दूहा जा सके।
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दुःख-निवह  : वि० [ब० स०] दुःसह।
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दुःख-प्रद  : वि० [ष० त०]=दुःखद।
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दुःख-बहुल  : वि० [ब० स०] जिसमें बहुत अधिक दुःख (कष्ट या क्लेश) हो। दुःखमय।
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दुःखमय  : वि० [सं० दुःख+मयट्] बहुत अधिक दुःख या दुःखों से भरा हुआ। दुःखों से परिपूर्ण। जैसे—दुःखमय जगत।
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दुःख-लभ्य  : वि० [तृ० त०] १. जो दुःख या कष्ट से प्राप्त होता हो।२. जो कठिनता से मिले।
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दुःख-लोक  : पुं० [ष० त०] संसार।
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दुःख-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह मत या सिद्घांत कि यह सारा संसार और इसमें का जीवन दुःखमय है। ‘सुखवाद’ का विपर्याय।
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दुःखवादी (दिन्)  : वि० [सं० दुःखवाद+इनि] दुःखवाद-संबंधी। दुःखवाद का। पुं० वह जो दुःखवाद का पोषक या समर्थक हो।
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दुःख-सागर  : पुं० [ष० त०] संसार जो दुःखों का घर माना गया है।
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दुःख-साध्य  : वि० [तृ० त०] (कार्य) जिसके साधन में अनेक प्रकार के दुःख सहने पड़े हों।
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दुःखांत  : वि० [दुःख-अंत ब० स०] जिसका अंत या अंतिम अंश दुःखद, दुःखमय या दुःखों से परिपूर्ण हो। जैसे—दुःखांत नाटक या कहानी। पुं० १. दुःख की समाप्ति। २. दुःख की पराकाष्ठा।
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दुःखातीत  : वि० [दुःख-अतीत द्वि० त०] दुःखों से जिसे मुक्ति मिली हो।
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दुःखान्वित  : वि० [दुःख-अन्वित तृ० त०] १. दुःखमय। २. बहुत अधिक दुःखी।
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दुःखायतन  : पुं० [दुःख-आयतन ष० त०] दुःखसागर। संसार।
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दुःखार्त  : वि० [दुःख-आर्त तृ० त०] बहुत अधिक दुःखी।
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दुःखित  : भू० कृ० [सं० दुःख+इतच्] जिसे बहुत अधिक दुःख (कष्ट या क्लेश) हुआ हो।
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दुःखी (खिन्)  : वि० [सं० दुःख+इनि] १. जिसे दुःख मिला या पहुँचा हो। २. जिसके मन में किसी प्रकार का दुःख हो। (विशेष दे० ‘दुःखी’)
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दुःशकुन  : पुं० [सं० प्रा० स०] बुरा शकुन।
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दुःशला  : स्त्री० [सं०] सिंधु देश के राजा जयद्रथ की पत्नी का नाम जो धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी।
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दुःशासन  : वि० [सं० दुर्√शास् (शासन करना)+युच्—अन्] जिस पर शासन करना बहुत अधिक कठिन हो। पुं० १. बुरा शासन। २. धृतराष्ट्र का एक पुत्र जो अपने बड़े भाई राजा दुर्योधन का मंत्री था। इसी ने द्रौपदी का वस्त्र खींचकर उसे नग्न करने का प्रयत्न किया था।
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दुःशील  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० दुःशीलता] दुष्ट या बुरे स्वभाव-वाला।
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दुःशीलता  : स्त्री०[सं० दुःशील+तल्—टाप्] दुःशील होने की अवस्था या भाव। दुःस्वभाव।
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दुःशोध  : वि० [सं० दुर्√शुध् (शुद्धि)+खल्] १. जिसका सुधार कठिन हो। २. (धातु) जिसका शोधन बहुत कठिन हो।
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दुःश्रव  : पुं० [सं० दुर्√श्रु (सुनना)+खल्] काव्य में वह दोष जो उसमें कर्णकटु वर्णों के आने से होता है। श्रुतिकटु दोष।
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दुःषम (स्)  : पुं० [सं० अव्य० स०] निंदा।
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दुःषेध  : वि० [सं० दुर्√सिध् (गति)+खल्] जिसका निवारण कठिन हो।
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दुःसंकल्प  : वि० [सं० ब० स०] बुरा विचार या संकल्प करने वाला। पुं० बुरा संकल्प।
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दुःसंग  : पुं० [सं० ब० स०] बुरी संगत या सोहबत। बुरा साथ कुसंग।
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दुःसंधान  : पुं० [सं० ब० स०] १. दुःख साध्य कार्य का संधान। २. केशव के अनुसार काव्य में एक रस जो उस स्थल पर होता है जहाँ एक व्यक्ति तो अनुकूल होता है और दूसरा प्रतिकूल।
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दुसह  : वि० [सं० दुर्√ सह (सहना)+खल्] जिसे सहन करना बहुत कठिन हो।
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दुःसहा  : स्त्री० [सं० दुःसह+टाप्] नागदमनी। नागदौन।
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दुःसाध  : वि०=दुःसाध्य।
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दुःसाधी (धिन्)  : पुं० [सं० दुर्√साध् (सिद्ध करना)+णिच्+णिनि] द्वारपाल।
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दुःसाध्य  : वि० [सं० सुप्सुपा समास] १. (कार्य) जिसका साधन या पूरा करना कठिन हो। जैसे—दुःसाध्य परिश्रम। २. जिसका उपाय या प्रतिकार करना बहुत कठिन हो। ३. (रोग) जिसका उपचार या चिकित्सा बहुत कठिनता से हो।
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दुःसाहस  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा साहस जो साधारणतः अनुचित हो या न किया जाने के योग्य हो।
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दुःसाहसिक  : वि० [सं० दुःसाहस+ठन्—इक] १. (कार्य) जिसे करने का साहस करना अनुचित या निष्फल हो। जैसे—दुःसाहसिक कार्य। २. दे० ‘दुःसाहसी’।
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दुःसाहसी (सिन्)  : वि० [सं० दुःसाहस+इनि] दुःसाहस अर्थात् अनुचित साहस करनेवाला।
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दुःस्थ  : वि० [सं० दुर्√स्था (ठहरना)+क] १. जिसकी स्थिति बुरी हो। दुर्दशाग्रस्त। २. दरिद्र। निर्धन। ३. मूर्ख।
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दुःस्थिति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] बुरी अवस्था। दुरास्था। दुर्दशा।
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दुःस्पर्श  : वि० [सं० दुर्√स्पृश (छूना)+खल्] जिसे छूना कठिन हो। २. जिसे पाना कठिन हो। पुं० १. केवाँच। कौंछ। २. लता करंज। ३. कंटकारी। ४. आकाश-गंगा।
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दुःस्पर्शा  : स्त्री० [सं० दुःस्पर्श+टाप] काँटेदार मकोय।
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दुःस्फोट  : पुं० [सं० दुर्√ स्फूट (फूटना)+णिच्+अच्] प्राचीन काल का एक प्रकार का शस्त्र।
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दुःस्वप्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. ऐसा स्वप्न जिसमें दुःखद घटनाएँ दिखलाई पड़ें। २. ऐसा स्वप्न जिसका परिणाम या फल बुरा हो।
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दुःस्वभाव  : वि० [सं० ब० स०] बुरे स्वभाववाला। बद-मिजाज। पुं० बुरा स्वभाव।
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दुःस्वरनाम  : पुं० [सं०] वह पाप कर्म जिसके उदय से प्राणियों के कंठ-स्वर कठोर और कर्कश होते हैं। (जैन)
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दु  : वि० [हिं० दो] दो का संक्षिप्त रूप जो उसे समस्त पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—दुभाषिया, दुसूती।
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दुअ  : अव्य० [सं० द्रुत] शीघ्र। वि०=दो
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दुअन  : वि०, पुं०=दुवन।
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दुअन्नी  : स्त्री० [हिं० दो+आना] पुराने दो आने अर्थात् ८ पैसों के मूल्य का एक छोटा सिक्का जो पहिले चाँदी का होता था; पर बाद में निकल का बनने लगा था।
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दुअरवा  : पुं०=दुआर (द्वार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुअरा  : पुं०=द्वार।
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दुअरिया  : स्त्री०=दुआरी (छोटा दरवाजा)।
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दुआ  : स्त्री० [अ०] १. किसी बड़े अथवा ईश्वर से की जानेवाली प्रार्थना। निवेदन। विनती। २. किसी के कल्याण या मंगल के लिए ईश्वर से की जानेवाली प्रार्थना। कि० प्र०—करना।—माँगना। ३. आशीर्वाद। असीस। क्रि० प्र०—देना।मुहा०—(किसी की) दुआ लगना=आशीर्वाद फलीभूत होना। पुं० [हिं० दो] १. गले में पहनने का एक गहना। २. दे० ‘दूआ’।
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दुआदस  : पुं०=द्वादश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुआदसी  : स्त्री०=द्वादशी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुआब  : पुं०=दुआबा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुआबा  : पुं० [फा० दोआबः] १. दो नदियों के बीच का प्रदेश। २. गंगा और यमुना के बीच का प्रदेश।
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दुआर  : पुं० [स्त्री० दुआरी]=द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुआरा  : पुं०=द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुआरामती  : स्त्री० [सं० द्वारावती] द्वारिका। उदा०—देव सु आ दुआरामती।—प्रिथीराज।
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दुआरी  : स्त्री० [हिं० दुआर] छोटा दरवाजा।
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दुआल  : स्त्री० [फा०] १. चमड़े का तमसा। २. रिकाब का तस्मा।
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दुआला  : पुं० [देश०] लकड़ी का एक बेलन जो सुनहरी छपी हुई छोंटों के छापों को बैठने के लिए उन पर फेरा जाता है।
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दुआली  : स्त्री० [फा० द्वाल=तसमा] खराद का तसमा। सान की बद्घी।
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दुआह  : पुं० [हिं० दु+सं० विवाह] १. पहली पत्नी के मरने के उपरांत पुरुष का होनेवाला दूसरा विवाह। २. पहले पति के मरने पर स्त्री का होनेवाला दूसरा विवाह।
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दुई  : वि०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुइज  : स्त्री०=दूज (द्वितीया तिथि)।
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दुई  : वि० [हिं० दु (दो)+ई (प्रत्य०)] १. दो। २. दोनों। स्त्री० १. दो महीने की अवस्था या भाव। २. अपने को ईश्वर से भिन्न समझने की अवस्था या भाव। द्वैत-भाव। ३. किसी को दूसरा या पराया समझकर उसी के अनुसार उससे व्यवहार करना। दुजायगी। भेद-भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुऊ  : वि०=दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुऔ  : वि०=दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुकड़हा  : वि० [हिं० दुकड़ा+हा (प्रत्य०)] [स्त्री० दुकड़ही] १. जिसका मूल्य टुकड़े के बराबर हो, फलतः बहुत ही तुच्छ और हीन। २. बहुत ही तुच्छ और हीन प्रकृतिवाला। कमीना। नीच।
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दुकड़ी  : स्त्री० [हिं० टुकड़ा] १. एक साथ जुड़ी या मिली हुई दो चीजें। २. चारपाई की वह बुनावट जिसमें दो-दो रस्सियाँ एक साथ बुनी जाती हैं। ३. ऐसी गाड़ी या बग्धी जिसमें दो घोड़े एक साथ जुतते हों। ४.
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दुकना  : अ० [देश०] लुकना। छिपना।
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दुकम  : वि० [सं० दुष्क्लम्प] १. जिस पर आक्रमण करना कठिन हो। २. जिसे पार करना या लाँघना कठिन हो।
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दुकान  : स्त्री० [फा०] १. वह कमरा या भवन जहाँ से किसी एक अथवा कई प्रकार की चीजें ग्राहकों के हाथ प्रायः फुटकर बेची जाती हैं। जैसे—घी की दुकान, मिठाई की दुकान। २. ऐसा स्थान जहाँ कोई व्यक्ति कुछ पारिश्रमिक प्राप्त करने के लिए दूसरों की सेवाएँ करता हो। जैसे—दरजी या हज्जाम की दुकान। मुहा०—दुकान करना या खोलना=दुकान लेकर किसी चीज की बिक्री आरंभ करना। दुकान खोलना। दुकान चलना=दुकान में होने-वाले व्यवसाय की वृद्धि होना। दुकान बढ़ाना= दुकान में बाहर रखा हुआ माल उठाकर अंदर रखना और किवाड़ें बंद करना। दुकान बंद करना। दुकान लगाना=(क) दुकान का सामान फैलाकर यथास्थान बिकी के लिए रखना। (ख) बहुत-सी चीजें चारों ओर फैलाकर रखना।
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दुकानदार  : पुं० [फा०] १. वह जो दुकान करता हो। २. वह जो उस कमरे का स्वामी हो जिसमें कोई दुकान लगाये हो। ३. बहुत अधिक मोल-भाव करनेवाला व्यक्ति। (व्यंग्य) ४. वह जिसने अपनी आय का साधन बनाने के लिए कोई ढोंग रच रखा हो। ५. चालाक व्यक्ति।
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दुकानदारी  : स्त्री० [फा०] १. दुकान लगाकर सौदा आदि बेचने का काम। २. ऐसा ढोंग जो केवल अपनी आय का साधन बनाने के लिए रचा जाय। ३. बहुत अधिक मोल-भाव करना।
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दुकाना  : स० [हिं० दुकना] छिपाना। (बुंदेल०)
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दुकाल  : पुं० [सं० दुष्काल] अकाल। दुर्भिक्ष। क्रि० प्र०—पड़ना।
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दुकुल्ली  : स्त्री० [देश०] पुरानी चाल का एक तरह का बाजा जिस पर चमड़ा मढ़ा होता है।
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दुकूल  : पुं० [सं० √दु+ऊलच्, कुक्] १. सन या तीसी के रेशे का बना हुआ कपड़ा। क्षौम-वस्त्र। २. बढ़िया और महीन कपड़ा। ३. कपड़ा। वस्त्र। ४. स्त्रियों के पहनने की साड़ी। ५. बौद्घों के अनुसार एक प्राचीन मुनि।
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दुकेला  : वि० [हिं० दुक्का+एला (प्रत्य०)] [स्त्री० दुकेली] जिसके साथ कोई दूसरा भी हो। जो अकेला न हो, बल्कि किसी के साथ हो। पद—अकेला-दुकेला। (दे०)
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दुकेले  : अव्य० [हिं० दुकेला] किसी एक के साथ। दूसरे को साथ लिये हुए।
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दुक्कड़  : पुं० [हिं० दो+कूँड़] १.तबले की तरह का एक बाजा, जो शहनाई के साथ बजाया जाता है। २. एक प्रकार का छोटा नगाड़ा जो एक डुगी के साथ रखकर बजाया जाता है। ३. दो बड़ी नावों का एक साथ जोड़ या बाँधकर बनाया हुआ बेड़ा।
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दुक्कना  : अ० [सं० दोष] किसी को दोष देना। दोषी ठहराना।
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दुक्का  : वि० [सं० द्विक] [स्त्री० दुक्की] १. जिसके साथ कोई और भी हो। दुकेला २. जो एक साथ दो हों। जोड़ा। युग्म। पद—इक्का-दुक्का। पुं० ताश का वह पत्ता जिस पर दो बूटियाँ होती हैं। दुक्की। दुक्की
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दुखंडा  : वि० [हिं० दो+खंड] १. जिसमें दो खंड या विभाग हों। २. (घर या मकान) जिसमें ऊपर एक और खंड या तल्ला भी हो। दो मरातिबवाला।
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दुखंत  : पुं०=दुष्यंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दुःखांत।
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दुख  : पुं० [सं० दुःख] १. दुःख। (दे०) कि० प्र०—देना।—पहुँचाना। पाना।—भोगना।—मिलना। मुहा०—दुख उठाना=कष्ट या तलकीफ भोगना या सहना। ऐसी स्थिति में पड़ना जिसमें सुख या शांति हो। दुख बँटाना=किसी के कष्ट या संकट के समय उसका साथ देना। दुख भरना=कष्ट या संकट के दिन जैसे-तैसे बिताना।२. आपत्ति। विपत्ति। संकट। मुहा०—(किसी पर) दुख पड़ना=आपत्ति आना। संकट उपस्थित होना। ३. मानसिक कष्ट। खेद। रंज। जैसे—उन्हें लड़के के मरने का बहुत दुख है। मुहा०—दुख मानना=खिन्न या संतप्त होना। दुःखी होना। ४.
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दुखड़ा  : पुं० [हिं० दुख+ड़ा (प्रत्य०)] १. ऐसी विस्तृत बातें जिनमें अपने कष्टों, दुःखों विपत्तियों आदि का उल्लेख या चर्चा हो। तकलीफों का हाल। मुहा०—(अपना) दुखड़ा रोना= अपने दुःख का वृत्तांत दीन भाव से कहना। अपने कष्टों का हाल सुनाना। २. कष्ट। तकलीफ। विपत्ति। क्रि० प्र०—पड़ना। मुहा०—दुखड़ा पीटना या भरना= बहुत कष्ट से जीवन बिताना।
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दुखद  : वि०=दुःखद।
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दुखदाई  : वि०=दुःखदायी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुःखदानि  : वि० स्त्री० [सं० दुःखदायिनी] दुःख देनेवाली। तकलीफ पहुँचानेवाली। उदा०—यह सुनि गुरु बानी धनु गनु तानी जानी द्विज दुखदानि।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुखदायक  : वि० १.= दुःखद। २.=दुःखदाता।
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दुख-दुंद  : पुं० [सं० दुःखद्वंद्व] अनेक प्रकार के दुःख, कष्ट और विपत्तियाँ।
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दुखना  : अ० [सं० दुःख] १. (किसी अंग का) पीड़ित होना। दर्द करना। पीड़ा युक्त होना। जैसे—आँखें या सिर दुखना। २. किसी पीड़ित अंग या व्रण पर आघात आदि लगने से उसकी पीड़ा बढ़ना। जैसे—घाव या फोड़ा दुखना।
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दुखरा  : पुं०=दुखड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुखवना  : स०=दुखाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुखहाया  : वि० [हिं० दुःख+हाया (प्रत्य०)] [स्त्री० दुखहाई] दुःख से भरा हुआ। परम दुःखी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुखांत  : वि०=दुःखांत।
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दुखाना  : स० [सं० दुःख] १. कष्ट या पीड़ा पहुँचाना। दुःखित या व्यथित करना। जैसे—किसी का जी या मन दुखाना। २. किसी के पीड़ित अंग पर कोई ऐसी क्रिया करना जिससे उसकी पीड़ा फिर से बढ़े। जैसे—किसी का घाव या फोड़ा दुखाना। अ०=दुखना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुखारा  : वि० [हिं० दुख+आर (प्रत्य०)] [स्त्री० दुखारी] दुःखी। पीड़ित।
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दुखारो  : वि०=दुखारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुखित  : वि०=दुःखित।
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दुखिनी  : वि० स्त्री० हिं० ‘दुखिया’ का स्त्री०।
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दुखिया  : वि० [हिं० दुख+इत्या (प्रत्य०)] [स्त्री० दुखिनी] १. जो दुःख या कष्ट में पड़ा हो। जिसे किसी प्रकार की व्यथा हो। २. जिसके मन में बराबर किसी तरह का दुःख बना रहता हो। ३. बीमार। रोगी।
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दुखियारा  : वि०=दुखिया।
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दुखी  : वि० [सं० दुःखिन्] [स्त्री० दुखिनी] १. जिसे बहुत दुःख हुआ हो। २. जिसे बहुत अधिक मानसिक या शारीरिक कष्ट पहुँचा हो। ३. जो अधिकतर या सदा कष्टों में रहता हो। दीनहीन। ४. बीमार। रोगी।
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दुखीला  : वि० [हिं० दुख+ईला (प्रत्य०)] १. दुःख से युक्त। दुःखी। २. मन में दुःख का अनुभव करनेवाला।
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दुखौहाँ  : वि० [हिं० दुख+ओहीं] [स्त्री० दुखौहीं] १. दुःख देनेवाली। दुःखदायी। २. मन में बराबर दुःखी बना रहनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगंछा  : स्त्री० [सं० दुं
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दुग  : स्त्री०=धुक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दो।
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दुगई  : स्त्री० [देश०] घर के आगे का ओसारा। दालान या बरामदा। (बुंदे०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगदा  : वि० दुर्गम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगदुगी  : स्त्री० [अनु० धुक धुक] १. मनुष्य के शरीर में गरदन के नीचे और छाती के ऊपर बीचों-बीच में होनेवाला छोटा गड्ढा। मुहा०—दुगदुगी में दम होना=प्राण का कंठगत होना। मरणासन्न होना। २. गले में पहनने का धुकधुकी नाम का गहना। ३. दे० ‘धुकधुकी’।
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दुगध  : पुं०=दुग्ध (दूध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगध-नदीस  : पुं०=क्षीर-सागर।
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दुगधा  : स्त्री०=दुविधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगन  : वि०=दूना।
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दुगना  : वि० [सं० द्विगुण] [स्त्री० दुगनी]=दूना। अ० [?] छिपाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगाड़ा  : पुं० [दो+गाड़=गड्ढा] १. दुनाली बंदूक। दोनली बंदूक। २. दोहरी गोली।
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दुगाना  : वि० उभय० [फा० दोगानः] जो दो एक में मिले हों। जुड़वाँ। युग्म। जैसे—दुगाना केला=ऐसा केला जिसमें दो फलियाँ एक साथ जुड़ी हों। दुगाना सिंघाड़ा=एक में जुड़े हुए दो सिंघाड़े। स्त्री० १. मुसलमान स्त्रियों में एक विशिष्ट प्रकार का सहेलियों का-सा संबंध जो प्रायः बहुत आत्मीयता या घनिष्ठता का सूचक होता है। विशेष—यह संबंध इस प्रकार स्थापित होता था कि एक स्त्री भुलावा देकर अपनी सखी को कोई दुगाना चीज या फल देती थी। यदि वह चीज या फल लेने के समय। वह सखी कह देती—‘याद है’ तब तो ठीक था। पर यदि वह ‘याद है’ कहना भूल जाती, तब चीज या फल देनेवाली स्त्री कहती—‘फरामोश’ अर्थात तुम ‘याद है’ कहना भूल गई। उस दशा में फल या चीज देनेवाली स्त्री को वही चीज या फल गिनती में दो सौ गुनी दो हजार गुनी देनी पड़ती थी जो संबंधियों और सहेलियों में बाँटी जाती थी और इस प्रकार दोनों में दुगाना का संबंध स्थापित होता था। २. उक्त प्रकार का संबंध स्थापित हो जाने पर परस्पर किया जाने-वाला संबोधन। ३. वे दो सखियाँ या सहेलियाँ जो आपस में अप्राकृतिक मैथुन करती अर्थात् भग-संघर्षण करती या चपटी लड़ाती हों। पुं०=दोगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगासरा  : पुं० [सं० दुर्ग+आश्रय] वह गाँव जो किसी दुर्ग के नीचे या पास हो और इसी लिए उसके आसरे या रक्षा में हो।
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दुगुण  : वि०=द्विगुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगुन  : वि० =दुगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुगून  : वि० [सं० द्विगुण] दो-गुना। दूना। स्त्री० गाने-बजाने में वह बढ़ी हुई लय जो आरंभिक लय से दूनी गतिवाली होती है और जिसमें आरंभिक लय में लगनेवाले समय से अपेक्षया लगभग आधा समय लगता है। गाने-बजाने की आरंभिक गति से कुछ और आगे बढ़ी हुई या तेज गति। विशेष—यही गति और आगे बढ़ने या तीव्र होने पर कमात्, तिगून और चौगून कहलाती है।
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दुगूल  : पुं०=दुकूल।
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दुग्ग  : पुं०=दुर्ग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुग्गम  : वि०=दुर्गम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुग्ध  : वि० [सं०√दुह् (दुहना)+क्त] १. दूहा हुआ। २. भरा हुआ। पुं० १. दूध। २. कुछ विशिष्ट पौधों, वृक्षों आदि में से निकलनेवाला दूध जैसा सफेद तथा लसीला पदार्थ। (दे० ‘दूध’)
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दुग्ध-कल्प  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में, एक प्रकार की चिकित्सा जिसमें रोगी को केवल दूध पिलाकर नीरोग किया जाता है।
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दुग्ध-कूपिका  : स्त्री० [सं० दुग्ध-कूप ष० त०,+ठन्—इक, टाप्] एक प्रकार का पकवान जो पिसे हुए चावल और दूध के छेने से बनता था।
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दुग्ध-तालीय  : पुं० [सं० दुग्ध-ताल ष० त०, छ-ईय] १. दूध का फेन। झाग। २. मलाई।
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दुग्ध-पाषाण  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का वृक्ष जिसे बंगाल की ओर शिरगोला कहते हैं।
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दुग्ध-पुच्छी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] एक प्रकार का वृक्ष।
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दुग्ध-फेन  : पुं० [ष० त०] १. दूध का फेन। झाग। २. [ब० स०] क्षीर हिंडीर नाम का पौधा।
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दुग्ध-फेनी  : पुं० [ब० स० ङीष्] एक प्रकार का छोटा पौधा। पयस्विनी। जाय। स्त्री० दूध में भिगोई हुई फेनी।
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दुग्ध-बीजा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] ज्वार।
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दुग्ध-मापक  : पुं० [ष० त०] शीशे की वह नली जिसमें भरे हुए पारे के उतार-चढ़ाव से पता चलता है कि दूध में पानी की कितनी मिलावट है। (लैक्टोमीर)
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दुग्ध-शर्करा  : स्त्री० [ष० त०] दूध में से चूर्ण के रूप में निकाला हुआ उसका मीठा सार भाग। (मिल्क-शूगर)
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दुग्धशाला  : स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ गौएँ आदि रखकर बेचने के लिए दूध आदि तैयार किया जाता है।
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दुग्ध-समुद्र  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार सात समुद्रों में से एक। क्षीर-सागर।
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दुग्धांक  : पुं० [दुग्ध-अंक ब० स०] एक तरह का पत्थर जिस पर दूध के रंग के सफेद छोटे चिह्न होते हैं।
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दुग्धाक्ष  : पुं० [दुग्ध-अक्ष ब० स०] एक तरह का सफेद छींटोंवाला नग।
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दुग्धाग्र  : पुं० [दुग्ध-अग्र ष० त०] मलाई।
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दुग्धाब्धि  : पुं० [दुग्ध-अब्धि ष० त०] क्षीर समुद्र।
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दुग्धाब्धि-तनया  : स्त्री० [ष० त०] लक्ष्मी।
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दुग्धाश्मा (श्मन्)  : पुं० [दुग्ध-अश्मन् ब० स०] शिरगोला (वृक्ष)।
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दुग्धिका  : स्त्री० [सं० दुग्ध+उन्—इक, टाप्] १. दुद्धी नाम की घास या जड़ी। २. गंधिका नाम की घास।
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दुग्धिनिका  : स्त्री० [सं०] लाल चिचड़ा। रक्त्तापामार्ग।
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दुग्धी (ग्धिन्)  : वि० [सं० दुग्ध+इनि] जिसमें दूध हो। दूध से युक्त। पुं० क्षीर वृक्ष। स्त्री० [दुग्ध+अच+ङीष्] दुद्धी नाम की घास या जड़ी। दूधिया।
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दुग्धोद्योग  : पुं० [दुग्ध-उद्योग, ष० त०] दूध या उससे विभिन्न पदार्थ (मक्खन, घी आदि) तैयार करने का उद्योग।
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दुघ  : वि० [सं०] १. दुहनेवाला। २. देनेवाला। (प्रायः समासांत में)
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दुघड़िया  : वि० [हिं० दो-घड़ी] दो घड़ियों का। दो घड़िया। जैसे—दुघड़िया मुहूर्त।
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दुघड़िया मुहूर्त्त  : पुं० [हिं० दो घड़ी+सं० मुहूर्त्त] दो घड़ियों का ऐसा मुहूर्त जो विशेष आवश्यकता पड़ने पर तत्काल काम चलाने के लिए निकाला जाता है। द्विघटिका मुहूर्त्त। कि० प्र०—देखना।—निकालना।
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दुघरी  : स्त्री०=दुघड़िया मुहूर्त्त।
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दुचंद  : वि० [फा०] दूना। दुगना।
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दुचल्ला  : पुं० [हिं० दो+चाल] ऐसी छत जिसके दोनों ओर ढाल हों।
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दुचित  : वि० [हिं० दो+सं० चित्त] १. जिसका चित्त दो बातों में लगा हुआ हो। जो असमंजस या दुबिधा में पड़ा हो। २. संदेह में पड़ा हुआ।
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दुचितई  : स्त्री०=दुचिताई।
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दुचिताई  : स्त्री० [हिं० दुचित] १. दुचित्ते होने की अवस्था या भाव।२. चित्त की अस्थिरता। असमंजस। दुविधा। ३. संदेह।
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दुचित्ता  : वि० [हिं० दो+चित्त] [स्त्री० भाव० दुचित्ती] १. जिसका चित्त या मन किसी एक बात पर स्थिर न हो। जो असमंजस या दुबिधा में पड़ा हो। २. आशंका या खटके के कारण जिसका मन शांत या स्थिर न हो। ३. दो कठिनाइयाँ सामने होने पर जो कभी एक ओर और कभी दूसरी ओर ध्यान देता हो।
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दुचित्ती  : स्त्री० [हिं० दुचित्ता] दुचित्ते होने की अवस्था या भाव।
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दुच्छक  : पुं० [सं० दु (ताप)+क्विप्, तुक्, दुत्√शक् (सकना) +अच्] कपूरकचरी।
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दुछण  : पुं० [सं० द्वेषण=शत्रु] सिंह। (डिं०)
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दुज  : पुं०=द्विज। (दुज के यौगिक शब्दों लिए दे० ‘द्विज’ के यौ०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुजड़  : स्त्री० [देश०] [स्त्री० अल्पा० दुजड़ी] तलवार। (डिं०)
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दुजड़ी  : स्त्री० [देश०] कटारी। (डिं०)
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दुजन्मा  : पुं०=द्विजन्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुजानू  : क्रि० वि० [फा० दुजानू] दोनों घुटनों के बल।
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दुजायगी  : स्त्री० [हिं० दो+फा० जायगाहा ?] १. जिनके साथ आपसदारी का व्यवहार रहा हो, उनके साथ किया जानेवाला परायेपन का व्यवहार। २. जिनके प्रति समान व्यवहार करना आवश्यक या उचित हो उनमें से किसी एक के साथ किया जानेवाला भेद-भाव।
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दुजिह्व  : वि०, पुं०=द्विजिह्व।
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दुजीह  : पुं०=द्विजिह्व।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुजेश  : पुं०=द्विजेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुज्ज  : पुं०=द्विज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुज्जन  : वि०=दुर्जन।
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दुझारना  : स० [हिं० झाड़ना] झटकारना। झाड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुटूक  : वि० [हिं० दो+टूक] दो टुकड़ों में किया या तोड़ा हुआ। पद—दुटूक बात=थोड़े में कहीं हुई ऐसी बात जिसमें साफ-साफ यह बतलाया गया हो कि हम या तो यह काम या बात करेंगे अथवा वह काम या बात करेंगे। (प्रश्न, विवाद आदि के प्रसंग में)
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दुडि  : स्त्री० [सं०] दुलि। कच्छपी। स्त्री०=दुक्की (ताश की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुड़ियंद  : पुं० [?] सूर्य। (डिं०)
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दुड़ी  : स्त्री०=दुक्की (ताश की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुत  : अव्य० [अनु०] एक शब्द जो उपेक्षा, तिरस्कार या निरादरपूर्वक दूर करने या हटाने के समय कहा जाता है। दुतकारने का शब्द। स्त्री०=द्युति। उदा०—गुण भूषण भुरजालरो, जस मैं दुत जागंत।—बाँकीदास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुतकार  : स्त्री० [अनु० दुत+कार] १. दुतकारने की क्रिया या भाव। २. वह बात जो किसी को उपेक्षा या तिरस्कारपूर्वक ‘दुत’ कहते हुए दूर करने या हटाने के लिए कही जाय। कि० प्र०—बताना।
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दुतकारना  : स० [हिं० दुतकार] १. उपेक्षा या तिरस्कारपूर्वक दुत् दुत् शब्द करके किसी को अपने पास से अलग या दूर करना। बुरी तरह से अपमानित करके दूर हटाना। २. तिरस्कृत करना।
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दुतर  : वि०=दुस्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुतरणि  : वि० [सं० दुस्तरण] १. कठिन। २. दुःखदायक। (राज०)
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दुतरफा  : वि० [फा० दुतर्फ़ः] [स्त्री० दुतरफी] जो दोनों ओर हो। इधर भी और उधर भी होने या रहनेवाला। जैसे—कपड़े की दुतरफा छपाई। २. (आचरण या व्यवहार) जो निश्चित रूप से किसी एक ओर न हो, बल्कि आवश्यकतानुसार दोनों तरफ माना या लगाया जा सकता हो। जैसे—दुतरफा काट या चाल।
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दुताबी  : स्त्री० [हिं० दो+फा० ताब] पुरानी चाल की एक तरह की दुधारी तलवार।
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दुतारा  : पुं० [हिं० दो+तार] सितार की तरह का एक प्रकार का बाजा जिसमें दो तार लगे होते हैं और जो तर्जनी उँगली से बजाया जाता है।
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दुति  : स्त्री०=द्युति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुतिमान  : वि०=द्युतिमान्।
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दुतिय  : वि०=द्वितीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुतिया  : वि०=द्वितीय। स्त्री०=द्वितीया।
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दुतिवंत  : वि० [हिं० दुति+वंत (प्रत्य०)] १. आभायुक्त। चमकीला। प्रकाशमान्। २. शोभायुक्त। सुंदर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुती  : वि०=द्वितीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=द्युति (चमक)।
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दुतीय  : वि०=द्वितीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुतीया  : वि०=द्वितीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=द्वितीया।
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दुत्तर  : वि०=दुस्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुथन  : स्त्री० [?] पत्नी। जोरू। (कुमाऊँ)
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दुथरी  : स्त्री० [देश०] एक तरह की मछली।
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दुदल  : वि० [सं० द्विदल] फूटने या टूटने पर जिसके दो बराबर दल या खंड हो जायँ। द्विदल। पुं० १. एक प्रकार का पहाड़ी पौधा जिसे कान-फूल और बरन भी कहते हैं। २. दे० ‘दाल’।
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दुदलाना  : स० [अनु०] दुतकारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुदहँड़ी  : स्त्री०=दुधहँड़ी।
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दुदामी  : स्त्री० [हिं० दो+दाम] पुरानी चाल का एक तरह का सूती कपड़ा। (मालवा)
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दुदिला  : वि० [हिं० दो+फा० दिल] १. असमंजस या दुविधा में पड़ा हुआ। २. जिसका मन कभी एक ओर कभी दूसरी ओर होता हो। दुचित्ता। ३. चिंतित और व्यग्र।
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दुदकारना  : स०=दुतकारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुद्धी  : स्त्री० [सं० दुग्धी] १.एक प्रकार की घास जिसके डंठलों में थोड़ी थोड़ी दूर पर गाँठें होती हैं और जिनके दोनों ओर एक-एक पत्ती होती है। २. थूहर की जाति का एक छोटा पौधा जो भारतवर्ष के सब गरम प्रदेशों में होता है। इसका दूध दमे या श्वास के रोग में दिया जाता है। ३. सारिवा नाम की लता। ४. जंगली नील। ५. एक प्रकार का बड़ा पेड़ जो मध्य प्रदेश और राजस्थान में होता है। स्त्री० [हिं० दूध] १. दूधिया नाम की मिट्टी। खड़िया। २. एक प्रकार का धान।
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दुद्रुम  : पुं० [सं० दुर्-द्रुम प्रा० स, पृषों० रलोप] प्याज का हरा पौधा।
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दुध  : पुं० [ हिं० दूध] १. ‘दूध’ का वह संक्षिप्त रूप जो उसे यौ० पदों के आरंभ में लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—दुध-मुँहाँ, दुध-हँडी। २. दूध। (पश्चिम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुध-कट्टू  : वि० [हिं० दूध+काटना] वह शिशु जिसकी माँ को दूसरी संतान हो गई हो और इस कारण या अन्य कारण से जो माँ का दूध उचित अवधि तक न पी सका हो।
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दुध-पिठवा  : पुं० [सं० दुग्ध, हिं० दूध+सं० पिष्टक, हिं० पीठा] एक प्रकार का पकवान जो गुंधे हुए मैदे की लंबी-लंबी बत्तियों को दूध में उबाल कर बनाया जाता है।
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दुधमुख  : वि०= दुध-मुहाँ।
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दुध-मुँहाँ  : वि० [हिं० दूध+मुँह] (शिशु) जो अभी तक अपनी माँ का दूध पीता हो। माँ का दूध पीनेवाला (छोटा बच्चा)।
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दुधहँड़ी  : स्त्री० [हिं० दूध+हाँड़ी] मिट्टी की वह हाँड़ी जिसमें दूध गरम किया जाता है।
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दुधाँडी  : स्त्री० =दुधहँड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुधा  : अव्य० [सं० द्विधा] दो प्रकार से। दो तरह से। उदा०—एकहि देव दुदेह दुदेहरे देव दुधायक देह दुहू मैं।—देव। स्त्री०=दुबिधा।#
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दुधार  : वि० [हिं० दूध+आर (प्रत्य०)] १. दूध देनेवाली। जो दूध देती हो। जैसे—दुधार गौ। २. जिसमें दूध रहता या होता हो। वि०=दुधारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुधारा  : वि० [हिं० दो+धार] [स्त्री० दुधारी] जिसमें दोनों ओर धार हो (तलवार, छुरी आदि)। जैसे—दुधारा खाँडा। पुं० एक प्रकार का चौड़ा खाँड़ा जिसमें दोनों ओर धार होती है।
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दुधारी  : स्त्री० [हिं० दूध+आर (प्रत्य०)]एक प्रकार की कटार जिसमें दोनों ओर धार होती हैं। वि० १.=दुधार। २. ‘दुधारा’ का स्त्री०।
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दुधारु  : वि०, स्त्री०=दुधार।
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दुधित  : वि० [सं०] १. पीड़ित। २. व्याकुल।
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दुधिया  : वि०, पुं०, स्त्री०=दूधिया। विशेष— ‘दुधिया’ के यौ० के लिए देखें ‘दूधिया’ के यौ०।
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दुधेली  : स्त्री० [सं० दुग्धी] थूहर की जाति का दुद्धी नाम का पौधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुधैल  : वि०=दुधार।
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दुध्र  : वि० [सं० दुर्√धृ (धारण)+क, पृषो० सिद्धि] हिंसक।
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दुनया  : पुं० [सं० द्वि०, हिं० दो+सं० नदी, प्रा० णई] दो नदियों का संगम-स्थान।
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दुनरना  : अ०, स०=दुनवना।
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दुनवना  : अ० [हिं० दो+नवना=झुकना] नरम या लचीली चीज का इस प्रकार झुकना कि उसके दोनों छोर एक दूसरे से मिल जायँ अथवा पास-पास हो जायँ। लचकर दोहरा हो जाना। स० १. झुका या लचाकर दोहरा करना। २. कुचल या रौंदकर नष्ट-भ्रष्ट करना। उदा०— तरनि जवार नभवार नभतरनि जै तरनि दैव तरनि कै दुखत्तम दुने हैं।—देव। ३. धुनना।
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दुनहुँ  : वि०=दोनों।
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दुनाली  : वि० स्त्री० [हिं० दो+नाल] जिसमें दो नल या नलियाँ हों।स्त्री० एक प्रकार की बंदूक जिसके आगे दो नलियाँ होती हैं और जिसमें से दो गोलियाँ एक साथ छूटती या निकलती हैं।
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दुनावा  : वि० [हिं० दो+नाल=खाँचा] [स्त्री० दुनावी] (कटार, तलवार आदि का फल) जिस पर दो खाँचे बने हों।
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दुनियवी  : वि०=दुनियावी (सांसारिक)।
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दुनिया  : स्त्री० [अ० दुन्या] १. जगत। संसार। मुहा०—दुनिया की हवा लगना=(क) सांसारिक बातों का अनुभव होना। (ख) संसार में होनेवाले अनुचित कार्यों की ओर प्रवृत्त होना। दुनिया से उठ जाना या चल बसना=मर जाना। पद—दुनिया के परदे पर=सारे संसार में। दुनिया भर का=बहुत अधिक परंतु व्यर्थ का अथवा इधर-उधर का। २. संसार के लोग। लोक। जनता। जैसे—जरा यह तो सोचो कि दुनिया क्या कहेगी। ३. संसार और घर-गृहस्थी के झगड़े-बखेड़े।
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दुनियाई  : वि० [अ० दुन्या+हिं० ई० (प्रत्य०)] सांसारिक। लौकिक स्त्री०=दुनिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुनियादार  : पुं० [फा०] [भाव० दुनियादारी] १. सांसारिक प्रपंच में फँसा हुआ मनुष्य। संसारी। गृहस्थ। २. जो सांसारिक आचरण, व्यवहार आदि में कुशल या दक्ष हो।
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दुनियादारी  : स्त्री० [फा०] १. सांसारिक कार्यों और घर-गृहस्थी का निर्वाह। २. सांसारिक कार्यों और घर-गृहस्थी के झगड़े-बखेड़े या प्रपंच। ३. संसार में रहकर उचित ढंग से आचरण या व्यवहार करने का कौशल या योग्यता। ४. लोकाचार। ५. ऐसा आचरण या व्यवहार जो केवल लौकिक दृष्टि से या लोगों को दिखलाने भर के लिए किया जाय।
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दुनियावी  : वि० [अ० दुन्यवी] दुनिया का। संसार-संबंधी। सांसारिक।
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दुनियासाज  : पुं० [अ० दुन्या+फा० साज] [भाव० दुनियासाजी] लोगों के रंग-ढंग देखकर उन्हीं के अनुसार आचरण या व्यवहार करते हुए अपना काम चलाने या निकालने वाला व्यक्ति।
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दुनियासाजी  : स्त्री० [हिं० दुनियासाज] १. दुनियासाज होने की अवस्था या भाव। २. लोगों के रंग-ढंग देखकर उन्हीं के अनुसार आचारण या व्यवहार करके अपना काम निकालने का कौशल।
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दुनी  : स्त्री० [अ० दुन्या] संसार। जगत।
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दुनो (नों) ना  : अ०, स०=दुनवना।
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दुपटा  : पुं० [स्त्री० अल्पा० दुपटी]=दुपट्टी।
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दुपटी  : स्त्री० [हिं० दुपटा] १. छोटा दुपट्टा। २. चादर।
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दुपट्टा  : पुं० [हिं० दो+पाट] [स्त्री० अल्पा० दुपट्टी] १. स्त्रियों के सिर पर ओढ़ने का वह कपड़ा जो दो पाटों को जोड़कर बना हो। दो पाट की ओढ़ने की चद्दर। मुहा०—(मुँह पर) दुपट्टा तान कर सोना=निश्चिंत होकर सोना। बेखटके सोना। (किसी से) दुपट्टा बदलना=किसी को अपनी सहेली बनाना। २. कंधे या गले पर डालने का लंबा कपड़ा।
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दुपद  : पुं०=द्विपद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दु-परता  : वि० [हिं० दो+परत] [भाव० दुपरती] जिसमें दो परतें हों।
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दुपर्दी  : स्त्री० [हिं० दो+फा० पर्दा] एक तरह की बगलबंदी।
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दु-पलिया  : वि० [हिं० दो+पल्ला] जिसमें दो पल्ले हों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दु-पल्ला  : वि० [हिं० दो+पल्ला] [स्त्री० दुपल्ली] जिसमें दो पल्ले एक साथ जुड़े या लगे हों। जैसे—दुपल्ला दरवाजा, दुपल्ली टोपी।
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दुपहर  : स्त्री०=दोपहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुपहरिया  : स्त्री० [ हिं० दो+पहर] १. मध्याह्न का समय। दोपहर।२. गुल-दुपहरिया नाम का पौधा और उसका फूल। वि० जिसका गर्भाधान दोपहर को हुआ हो, अर्थात् बहुत दुष्ट या पाजी। (बाजारू)
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दुपहरी  : स्त्री०=दुपहरिया।
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दु-पासिया  : पुं० [हिं० दो+पाँस] चौपड़ का वह खेल जो चार आदमियों के साथ बैठकर खेलने पर इस प्रकार खेला जाता है कि आमने-समाने के दोनों खेलाड़ी अपने-अपने पाँसों में एक दूसरे के साथी होते हैं।
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दुपी  : पुं० [सं० द्विप] हाथी। (डिं०)
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दुफसला  : वि० [हिं० दो+अ० फस्ल] [स्त्री० दुफसली] दोनों फसलों में उत्पन्न होनेवाला। जो रबी और खरीफ दोनों में हो।
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दुफसली  : वि० [हिं० दुफसला] १. जिसके दो रुख या पक्ष हों। दोनों तरह का। जैसे—तुम तो हमेशा दुफसली बातें करते हो। २. दे० ‘दुफसला।’
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दुबकना  : अ०=दबकना।
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दु-बगली  : स्त्री० [हिं० दो+बगल] मालखंभ की एक कसरत।
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दुब-ज्यौरा  : पुं० [हिं० दूब+जेंवरी] गले में पहनने का एक गहना।
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दुबड़ा  : पुं० [हिं० दूब] एक तरह की घास।
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दुबधा  : स्त्री०=दुविधा।
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दुबया  : पुं० दे० ‘हुदहुद’ (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुबरा  : वि० [भाव० दुबराई]=दुबला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुबराना  : अ०, स०=दुबलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुबराल गोला  : पुं० [हिं० दो+अं० बैरल+हिं० गोला] तोप का लंबों-तरा गोला।
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दुबराल पलंग  : पुं० [ हिं० दुबराल+अं० पुलिंग] पाल की वह डोरी जिसे खींचकर पाल के पेट की हवा निकालते हैं।
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दुबला  : वि० [सं० दुर्बल] [स्त्री० दुबली, भाव० दुबलापन] १. क्षीण शरीरवाला। हलके और पतले बदनवाला। कृश। २. कम शक्ति वाला। निर्बल।
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दुबलाना  : अ० [हिं० दुबला] दुबला होना। जैसे—चार दिन के बुखार में लड़का दुबला गया है। स० किसी को दुबला करना। जैसे—चिन्ता ने उन्हें दुबला दिया है।
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दुबलापन  : पुं० [हिं० दुबला+पन] दुबले होने की अवस्था या भाव।
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दुबाँहिया  : वि० [सं० द्विबाहु] जो दोनों हाथों से कोई काम समान रूप से कर सकता हो। पुं० वह योद्घा जो दोनों हाथों से तलवार चलाता या चला सकता हो।
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दुबाइन  : स्त्री० [हिं० ‘दूबे’ का स्त्री०] १. दूबे जाति की स्त्री। २. ‘दूबे’ की पत्नी।
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दुबागा  : पुं० [हिं० दो+फा० बाग=लगाम] सन की बटी हुई मोटी रस्सी।
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दुबारा  : क्रि० वि० [फा० दुबारः] दोबारा। (दे०)
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दुबाला  : वि०=दोबाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुबिद  : पुं०=द्विविद (वानर)।
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दुबिध  : स्त्री०=दुबिधा।
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दुबिधा  : स्त्री०=दुविधा।
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दुबिसी  : स्त्री० [हिं० दो+बीच] ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य कुछ निर्णय न कर पा रहा हो। दुविधा की स्थिति।
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दुबीचा  : पुं० [हिं० दो+बीच] १. दो परस्पर विरोधी बातों आदि के बीच की ऐसी स्थिति जिसमें सहसा किसी पक्ष में निर्णय न हो सके। असमंजस। दुबिधा। २. अनिष्ट की आशंका। खटका।
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दुबे  : पुं०=दूबे (द्विवेदी)।
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दुभाखी  : पुं०=दुभाषिया।
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दुभालिया  : पुं० [हिं० दो+भाला] एक तरह का दो फलोंवाला अस्त्र।
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दुभाषिया  : वि० [सं० द्विभाषी] दो भाषाएँ जानने और बोलनेवाला। पुं० ऐसा व्यक्ति जो दो विभिन्न भाषा-भाषियों को एक दूसरे की बातें समझाता और उनके भावों के आदान-प्रदान का माध्यम बनता हो। मध्यस्थ।
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दुभाषी  : वि०, पुं० [सं० द्विभाषिन्] दुभाषिया।
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दुभिख  : पुं०=दुर्भिक्ष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुभुज  : वि०=द्विभुज।
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दुमंजिला  : वि० [फा०] [स्त्री० दुमंजिली] (घर या मकान) जिसमें दो मंजिल अर्थात खंड या तल्ले हों।
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दुम  : स्त्री० [फा०] १. पशुओं तथा रीढ़वाले अन्य जंतुओं के पिछले भाग में लटकता रहनेवाला लचीला मांसल लंबा अंग जिस पर प्रायः बाल भी होते हैं। पूँछ। जैसे—हाथी या शेर की दुम, चूहे या नेवले की दुम। विशेष—(क) पक्षियों का उक्त भाग कड़े तथा घने पंखों का बना होता है। (ख) सरी-सृपों आदि में उनका पिछला अंश दूसरे भाग की अपेक्षा पतला होता है। जैसे-साँप की दुम। मुहा०—(किसी की) दुम के पीछे लगे फिरना=किसी के पीछे-पीछे लगे फिरना। दुम दबाकर भागना= डरपोक कुत्ते की तरह डरकर पीछे हटना या भागना। दुम दबा जाना=(क) डर के मारे पीछे हट जाना। डर से भाग जाना। (ख) डरकर चुपचाप जहाँ के तहाँ बैठे रहना। (किसी के सामने) दुम हिलाना=कुत्ते की तरह दीन बनकर किसी को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना। २. लाक्षणिक रूप में, किसी वस्तु का अंतिम या पिछला लंबा तथा लचीला सिरा जो देखने में दुम के समान जान पड़े। जैसे—गुड्डी या पतंग की दुम। मुहा०—(किसी बात का) दुम में घुसना=गायब हो जाना। दूर हो जाना। जैसे—सारी शेखी दुम में घुस गई। (किसी की) दुम में घुसा रहना=खुशामद के मारे पीछे-पीछे घूमना या लगे रहना। ३. किसी बड़े तारे के पीछे के छोटे-छोटे तारे जो एक पंक्ति में हों। ४. किसी के पीछे-पीछे लगा रहनेवाला हीन व्यक्ति। ५. किसी काम या बात का अंतिम और तुच्छ अंश या भाग। पुं०=द्रुम (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुमची  : स्त्री० [फा०] १. घोड़े के साज में वह तमसा जो पूँछ के नीचे दबा रहता है। २. कमर के नीचे दोनों चूतडों के बीच की हड्डी। ३. पतली या हलकी डाल अथवा शाखा।
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दुमदार  : वि० [फा०] १.जिसे दुम हो। पूँछवाला। पुच्छल। २. जिसके पीछे या साथ दुम की तरह कोई पतली लंबी चीज लगी हो। जैसे—दुमदार तारा।
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दुमन  : वि० दे० ‘दुचित्ता’।
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दुमात  : स्त्री० =दुमाता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुमाता  : स्त्री० [सं० दुर्मातृ] १. बुरी माता। २. सौतेली माँ। विमाता।
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दुमाला  : पुं० [हिं० दो+ माला] पाश। फंदा।
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दुमाहा  : [वि० हिं० दो+माह] १. दो महीने की अवस्थावाला। २. हर दो महीने पर होनेवाला।
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दुमुँहा  : वि० [हिं० दो+मुँह] १. जिसके दो मुँह हों। २. जिसके दोनों ओर मुँह हों।
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दुर्  : उप० [सं०√दु (पीड़ित करना)+रुक् या सुक्] १. एक संस्कृत उपसर्ग जिसका प्रयोग शब्दों के आरम्भ में नीचे लिखे अर्थ या भाव सूचित करने के लिए होता है—(क) अनुचित, दूषित या बुरा। जैसे—दुरात्मा, दुर्जन, दुर्भाव। (ख) जो सहज में न हो सके अर्थात, कठिन या कष्ट-साध्य। जैसे—दुर्गम, दुर्बोध, दुर्वह। (ग) अभावपूर्ण। जैसे—दुर्बल।
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दुरंग  : पुं० [सं० दुर्ग] किला। गढ़। (राज०) उदा०—लड़ नह लीधो जाय ओ दीघो जाय दुरंग।—बाँकीदास। वि०=दुरंगा।
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दुरंगा  : वि० [हिं० दो+रंग] [स्त्री० दुरंगी, भाव० दुरंगापन] १. दो रंगोंवाला। जिसमें दो रंग हों। २. दो तरह या प्रकार का। ३. दो तरह का अर्थात् दोहरी चाल चलनेवाला।
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दुरंगी  : स्त्री० [हिं० दोरंगा] १. दो रंगों या प्रकारों के होने का भाव। दोरंगापन। २. दो तरह का अर्थात् कभी इस पक्ष के अनुकूल और कभी उस पक्ष के अनुकूल किया जानेवाला आचारण या व्यवहार।
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दुरंत  : वि० [सं० दूर-अंत प्रा० ब० स०] १. जिसका अंत या पार पाना कठिन हो। अपार उदा०—द्रौपदी का यह दुरंत दुकूल है।—पंत। २. बहुत कठिन। दुस्तर। ३. तीव्र। प्रचंड। ४. बहुत विकट। घोर। ५. खल। दुष्ट। ६. जिसका अंत या परिणाम बहुत बुरा हो या होने को हो।
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दुरंतक  : पुं० [सं० दुरंत+कन्] शिव।
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दुरंतर  : पुं० [सं० दुरंत] १. कठिन। २. दुर्गम।
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दुरंधा  : वि० [ सं० द्विरंध्र] १. जिसमें दो छेद हों। २. जिसके दोनों ओर छेद हो। ३. आर-पार छिदा हुआ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुर  : अव्य० [हिं० दूर] एक अव्यय जिसका प्रयोग किसी को तिरस्कार पूर्वक दूर हटाने के लिए होता है और जिसका अर्थ है— ‘दूर हो।’ पद—दूर-दूर फिट फिट=बहुत बुरी तरह से या परम तुच्छ और हीन समझकर किया जानेवाला तिरस्कार। मुहा०—(किसी को) दुर दुर करना=तिरस्कारपूर्वक कुत्ते की तरह हटाना या भगाना। पुं० [फा०] १. मोती। मुक्ता। २. नाक में पहनने का मोती का लटकन। बुलाक। लोलक। ३. कान में पहनने की ऐसी छोटी वाली जिसमें मोती पिरोये हों।
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दुरक्ष  : वि० [सं० दुर्-अक्षि ब० स०] १. जिसे कम दिखाई पड़ता हो। २. बुरी या दूषित निगाहवाला। पुं० [दुर्-अक्ष प्रा० स०] १. जूए में बेईमानी करने के लिए खास तौर से बनाया हुआ पासा। २. उक्त पासे पर खेला जानेवाला जूआ।
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दुरखा  : पुं० [देश०] [स्त्री० दुरखी] एक प्रकार का फतिंगा जो गेहूँ, तमाकू, नील, सरसों आदि की खेती को हानि पहुँचाता है।
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दुरचुम  : पुं० [देश०] दरी के ताने के दो-दो सूतों को इसलिए एक में बाँधना कि वे उलझ न जायँ।
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दुरजन  : पुं०=दुर्जन।
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दुरजोधन  : पुं०=दुर्योधन।
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दुरति  : स्त्री० [हिं० दु+सं० रति] १. दो परस्पर विरोधी या विभिन्न बातों के प्रति होनेवाली रति या अनुराग। २. द्वैध-भाव। उदा०—दुरित दूर करो नाथ, अशरण हूँ गहो हाथ-निराला।
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दुरतिक्रम  : वि० [सं० दुर्-अति√क्रम (गति)+खल्] १.जिसका अतिक्रमण या उल्लंघन सहज में न हो सके अर्थात् प्रबल या विकट। २. जिसका या जिससे पार पाना बहुत कठिन हो।
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दुरत्यय  : वि० [सं० दुर्-अति√इ (गति)+खल्] १. जिसका या जिससे पार पाना कठिन हो। २. जिसका अतिकमण सहज न हो। दुस्तर।
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दुरथल  : पुं० [सं० दुःस्थल] १. बुरा स्थान। २. कुठाँव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)उदा०—दुरदिन परे रहीम कहि दुरथल जैयत भाग।—रहीम।
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दुरद  : पुं०=द्विरद।
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दुरदाम  : वि०=दुर्दम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरदाल  : स० [स० द्विरद] हाथी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरदुराना  : स० [हिं० दुरदुर] दुरदुर कहते हुए तिरस्कारपूर्वक दूर करना। अपमान करते हुए भगाना या हटाना। संयो० क्रि०—देना।
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दुरदृष्ट  : वि० [सं० दुर्-अदृष्ट प्रा० ब० स०] अभागा। पुं० १. दुर्भाग्य। २. पाप।
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दुरधिगम  : वि० [सं० दुर-अधि√गम् (जाना)+खल्] १. जिसके पास पहुँचना बहुत कठिन हो। २. जिसे प्राप्त करना बहुत कठिन हो। दुर्लभ। दुष्प्राप्य। ३. जो जल्दी समझ में न आवे। दुर्बोध।
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दुरधिष्ठित  : वि० [सं० दुर्-अधि√स्था (स्थिति)+क्त] १. बुरी तरह से किया हुआ। २. अव्यवस्थित।
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दुरधीत  : पुं० [सं० दुर्-अधीत प्रा० स०] वेदों का अशुद्ध उच्चारण तथा अशुद्ध स्वर में किया जानेवाला अध्ययन या पाठ। वि० बुरी तरह से पढ़ा जानेवाला या पढ़ा हुआ।
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दुरधुरा  : स्त्री० [यू० दुरोथोरिया] बृहज्जातक के अनुसार जन्म कुंडली का एक योग जिसमें अनफा और सुनफा दोनों योगों का मेल होता है।
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दुरध्व  : वि० [सं० दुर्-अध्वन् प्रा० स०, अच्] जिस पर चलना कठिन हो। पुं० १. कुमार्ग। १. विकट मार्ग। बीहड़ रास्ता। उदा०—चलना होगा कब तक दुरध्व पर हृदय बाल।—दिनकर।
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दुरना  : अ० [हिं० दूर] १. किसी का आँखों से दूर होना। आड़ या ओट में होना। २. प्रत्यक्ष या सामने न होना। छिपना। संयो० क्रि०—जाना।
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दुरन्वय  : वि० [सं० दुर्-अनु√ इ (गति)+खल्] दुष्प्राप्य। पुं० अशुद्घ निष्कर्ष।
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दुरपदी  : स्त्री०=द्रौपदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरपवाद  : पुं० [सं० दुर्-अपवाद प्रा० स०] १. निदा। २. बदनामी।
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दुरबचा  : पुं० [फा० दुर+हिं० बच्चा] ऐसी छोटी बाली जिसमें एक ही मोती हो।
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दुरबल  : वि०=दुर्बल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरबस  : पुं०=दुर्वासा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरबार  : वि० [सं० दुर्वार] जिसका निवारण न किया जा सके।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरबास  : स्त्री० [सं० दुर्वास] बुरी गंध। दुर्गंध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरबीन  : स्त्री०=दूरबीन।
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दुरबेस  : पुं०=दरवेश।
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दुरभिग्रह  : वि० [ सं० दुर्-अभि√ ग्रह, (पकड़ना)+खल्] जो सरलता से पकड़ा न जा सके। पुं० अपामार्ग। चिचड़ा।
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दुरभिग्रहा  : स्त्री० [सं० दुरभिग्रह+टाप्] १. केवाँच। कौंछ। २. धमासा।
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दुरभिसंधि  : स्त्री० [सं० दुर्-अभिसंधि प्रा० स०] दुष्ट उद्देश्य से की जानेवाली मंत्रणा सलाह। कुमंत्रणा। षड्यंत्र।
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दुरभेव  : पुं०=दुर्भाव।
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दुरमति  : वि० स्त्री०=दुर्मति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरमुट  : पुं०=दुरमुस।
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दुरमुस  : पुं० [सं० दुर (उप०)+मुस=कूटना] जमीन पीटकर समतल करने का पत्थर का गोल टुकड़ा जो लंबे डंडे में जड़ा रहता है।
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दुरलभ  : वि०=दुर्लभ।
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दुरवग्रह  : वि० [सं० दुर्-अव√ग्रह (पकड़ना) खल्] जिसे रोकना अथवा नियंत्रित करना कठिन हो।
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दुरवधार्य  : वि० [सं० दुर्-अव√ध् (धारण)+ण्यत्] १. जिसका अवधारण सहज में न हो सके। २. जो ठीक तरह से ठहरा या बना न रह सके। ३. (भार) जो सहज में सँभाला न जा सके।
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दुरवस्थ  : वि० [सं० दुर्-अवस्था प्रा० ब० स०] हीन अवस्था में पड़ा हुआ।
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दुरवस्था  : स्त्री० [सं० दुर्-अवस्था प्रा० स०] १. बुरी दशा। २. कष्ट, दरिद्रता आदि के कारण होनेवाली हीन अवस्था। ३. दुर्दशा।
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दुरवाप  : वि० [सं० दुर्-अव√आप् (प्राप्त)+खल्] दुष्प्राप्य।
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दुरवार  : वि०=दुर्वार।
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दुरस  : पुं० [हिं० दो+औरस] सहोदर भाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुराउ  : पुं०=दुराव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुराक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन म्लेच्छ जाति। २. एक प्राचीन देश जिसमें उक्त जाति रहती थी।
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दुराक्रम  : वि० [सं०] दुर्जय।
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दुराक्रमण  : पुं० [सं० दुर्-आक्रमण प्रा० स०] १. कपटपूर्ण आक्रमण। २. ऐसा स्थान जहाँ जाना या पहुँचना कठिन हो।
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दुरागम  : पुं० [सं० दुर्-आ√गम् (जाना)+खल्] अनुचित या अवैध रूप से आना, मिलना या प्राप्त होना।
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दुरागमन  : पुं०=द्विरागमन।
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दुरागौन  : पुं० [द्विरागमन] वधू का दूसरी बार अपनी ससुराल जाना। द्विरागमन। गौना। क्रि० प्र०—करना।—कराना।—लाना। मुहा०—दुरागौन देना=लड़की को दूसरी बार ससुराल भेजना।
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दुराग्रह  : पुं० [सं० दुर-आ√ग्रह (ग्रहण)+खल्] १. किसी काम या बात के लिए ऐसा आग्रह जो उचित या उपयुक्त न हो। अनुचित जिद या हठ। २. अपना कथन या मत ठीक न होने पर भी जिद करते हुए उसे ठीक कहते या मानते रहने की अवस्था या भाव।
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दुराग्रही (हिन्)  : वि० [सं० दुराग्रह+इनि] दुराग्रह या अनुचित हठ करनेवाला।
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दुराचरण  : पुं० [सं० दुर-आचरण प्रा० स०]=दुराचार।
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दुराचार  : पुं० [सं० दुर्-आचार प्रा० स०] अनुचित और निंदनीय आचरण। बुरा चाल-चलन।
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दुराचारी (रिन्)  : वि० [सं० दुराचार+इनि] [स्त्री० दुराचारिणी] दुराचरण या दुराचार करनेवाला। बदचलन।
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दुराज  : पुं० [सं० द्विराज्य] १. ऐसा राज्य या शासन जिसमें दो राजा मिलकर एक साथ शासन करते हो। २. ऐसा प्रदेश या स्थान जहाँ उक्त प्रकार का राज्य या शासन हो। पुं० [सं० दुर+राज्य] १. बुरा राज्य। २. बुरा शासन।
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दुराजी  : वि० [सं० दुराज्य] १. जिस पर दो राजाओं का अधिकार हो। २. जिसमें दो राजे हों। पुं०=दुराज।
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दुरात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० दुर-आत्मन् प्रा० ब० स०] नीच। दुष्ट प्रकृतिवाला।
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दुरादुरी  : स्त्री० [हिं० दुरना=छिपना] छिपाव। दुराव।
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दुराधन  : पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दुराधर  : पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दुराधर्ष  : वि० [सं० दुर्-आ√धृष् (दबाना)+अच्] १. जिसका दमन करना कठिन हो। २. जो बहुत कठिनाई से जीता जा सके। ३. उग्र। प्रचंड। प्रबल। पुं० १. विष्णु का एक नाम। २. पीली सरसों।
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दुराधर्षता  : स्त्री० [सं० दुराधर्ष+तल्—टाप्] १. दुराधर्ष होने की अवस्था या भाव। २. प्रचंडता। प्रबलता।
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दुराधर्षा  : स्त्री० [सं० दुराधर्ष+टाप्] कुटुंबिनी का पौधा।
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दुराधार  : पुं० [सं० दुर्-आ√धृ (धारणा)+णिच्+खल्] महादेव।
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दुरानम  : वि० [सं० दुर्-आ√नम् (झुकना)+णिच्+ऋखल्] जिसे कठिनाई से झुकाया या दबाया जा सके।
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दुराना  : अ० [हिं० दूर] १. दूर होना। हटना। २. आड़ या ओट में होना। छिपना। स० १. दूर करना। हटाना। २. गुप्त रखना। छिपाना। ३. छोड़ना। त्यागना।
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दुराप  : वि० [सं० दुर्√आप् (प्राप्ति)+खल्] जिसे प्राप्त करना कठिन हो। दुर्लभ। दुष्प्राप्य।
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दुराबाध  : पुं० [सं० दुर्-आ√बाध् (पीड़ा)+खल्] शिव।
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दुराराध्य  : वि० [सं० दुर्-आ√राध् (सिद्धि)+ण्यत्] जिसे आराधन से प्रसन्न या संतुष्ट करना बहुत कठिन हो। पुं० विष्णु।
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दुरारुह  : पुं० [सं० दुर्-आ√रुह् (चढ़ना)+क] १. बेल। २. नारियल।
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दुरारुहा  : स्त्री० [सं० दुरारुह+टाप्] खजूर का पेड़।
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दुरारोह  : वि० [सं० दुर्-आ+रुह+खल्] जिस पर कठिनता से चढ़ा जा सके। पुं० ताड़ का पेड़।
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दुरारोहा  : स्त्री० [सं० दूरारोह+टाप्] १. सेमल का पेड़। २. खजूर का पेड़।
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दुरालंभ  : वि० [सं० दुर्-आ√ (पाना)+खल्, नुम्]=दुरालभ।
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दुरालभ  : वि० [सं० दुर्-आ√लभ् खल्] दुर्लभ। दुष्प्राप्य।
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दुरालभा  : स्त्री० [सं० दुरालभ+टाप्] १. जवासा। धमासा। हिंगुंवा। २. कपास।
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दुरालाप  : पुं० [सं० दुर्-आलाप प्रा० स०] [वि० कर्ता दुरालापी] १. अनुचित या बुरी बातचीत। २. गाली। दुर्वचन।
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दुरालापी (पिन्)  : वि० [सं० दुरालाप+इनि] बुरी बातें या दुर्वचन कहनेवाला।
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दुरालोक  : वि० [सं० दुर्-आलोक प्रा० स०] जो सरलता से देखा न जा सके।
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दुराव  : पुं० [हिं० दुराना+आव (प्रत्य०)] १. कोई भेदपूर्ण बात अथवा मनोभाव गुप्त रखने की क्रिया या भाव। छिपाव। २. किसी के प्रति होनेवाली कपटपूर्ण भावना।
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दुरावार  : वि० [सं० दुर्-आ√वृ (वर्जन)+घञ्] जिसका वारण करना बहुत कठिन हो।
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दुराश  : वि० [सं० दुर्-आशा ब० स०] जिसे दुराशा हो।
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दुराशय  : पुं० [सं० दुर्-आशय प्रा० स०] [भाव० दुराशयता]दुष्ट या बुरा आशय। बुरी नीयत। वि० दुष्ट या बुरे आशयवाला। बद-नीयत।
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दुराशा  : स्त्री० [सं० दुर्-आशा प्रा० स०] १. अनुचित या बुरी आशा। २. व्यर्थ की आशा।
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दुरासद  : वि० [सं० दुर्-आ√सद् (प्राप्ति)+खल्] १. दुष्प्राप्य। २. कठिन। दुस्साध्य।
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दुरासा  : स्त्री०=दुराशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुरित  : पुं० [सं० दुर्-इत प्रा० ब० स०] १. पाप। २. पापी। ३. पातक। ४. पातकी।
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दुरित-दमनी  : स्त्री० [ष० त०] शमी वृक्ष।
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दुरियाना  : स० [सं० दूर] १. दूर करना या हटाना। २. दे० ‘दुरदुराना’। अ० दूर हटना या होना।
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दुरिष्ट  : पुं० [सं० दुर्-इष्ट प्रा० स०] १. पाप। पातक। २. उच्चाटन, मारण, मोहन आदि अभिचारों की सिद्धि के लिए किया जानेवाला यज्ञ।
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दुरिष्टि  : स्त्री० [सं० दुर्-इष्टि प्रा० स०] दुरिष्ट यज्ञ। अभिचारार्थ यज्ञ।
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दुरी  : स्त्री० [सं० डः] बुरे दिन। दुर्दिन। उदा०—दिन नेड़द् आइयाँ दुरी।—प्रिथीराज। वि० खराब। बुरा। (राज०)
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दुरीषणा  : स्त्री० [सं० दुर्-ईषणा प्रा० स०] १. किसी के अहित की कामना। अनुचित या बुरी इच्छा। २. शाप।
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दुरुक्त  : वि० [सं० दुर्-उक्त प्रा० स०] बुरी तरह से कहा हुआ। स्त्री०= दुरुक्ति।
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दुरुक्ति  : स्त्री० [सं० दुर्-उचित प्रा० स०]१. खराब या बुरी युक्ति अथवा कथन। २. गाली। दुर्वचन।
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दुरुखा  : वि० [फा० दुरुखः] [स्त्री० दुरुखी] १. जिसके दो रुख या मुँह हों। २. जिसके दोनों ओर मुँह हों। ३. जिसके दोनों ओर किसी एक प्रकार का अंकन या चिह्न हो। जैसे—दुरुखी छींट, दुरुखा शाल। ४. जिसके दोनों ओर दो प्रकार के अंकन, चिन्ह या रंग हों। जैसे—दुरुखा कपड़ा, दुरुखा किनारा, दुरुखी छपाई।
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दुरुच्छेद  : वि० [सं० दुर्-उद्√छिद् (काटना)+खल्] जिसका उच्छेदन कठिनता से हो सके।
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दुरुत्तर  : वि० [सं० दुर्-उद्√तृ (पार होना)+खल्] जिसका पार पाना कठिन हो। दुस्तर। पुं० [दुर्-उत्तर प्रा० स०] दुष्ट या बुरा उत्तर।
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दुरुत्साहक  : पुं० [सं० दुर्-उत्साह प्रा० ब० स०] वह जो किसी को किसी अनुचित या नियम के विरुद्घ कार्य में या किसी दुष्ट उद्देश्य से प्रवृत्त करे या लगावे। (एबेटर)
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दुरुत्साहन  : पुं० [सं० दुर्-उत्साहन प्रा० स०] किसी को कोई अनुचित या विधि-विरुद्ध कार्य के लिए उत्साहित या प्रवृत्त करना। (एबेटमेन्ट)
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दुरुत्साहित  : भू० कृ० [सं० दुर्-उद्√सह् (सहना)+णिच्+क्त] जिसे किसी ने किसी अनुचित कार्य के लिए उकसाया हो।
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दुरुद्वह  : वि० [सं० दुर्-उद्√वह (ढोना)+खल्] जिसे वहन या सहन करना बहुत कठिन हो। दुर्वह।
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दुरुपयोग  : पुं० [सं० दुर्-उपयोग प्रा० स०] किसी चीज या बात का ठीक ढंग या प्रकार से अथवा उपयुक्त अवस्था या समय में उपयोग न करके अनुचित रूप से किया जानेवाला या बुरा उपयोग। जैसे—अधिकारों का दुरुपयोग।
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दुरुपयोजन  : पुं० [सं० दुर्-उप√युज् (योग)+णिच्+ल्युट्—अन] दुरुपयोग करने की क्रिया या भाव।
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दुरुफ  : पुं० [?] नीलकंठ ताजिक के मतानुसार फलित ज्योतिष में एक योग।
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दुरुम  : पुं० [देश०] एक प्रकार का गेहूँ जिसका दाना पतला और लंबा होता है। पुं०= द्रुम (वृक्ष)।
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दुरुस्त  : वि० [फा०] [भाव० दुरुस्ती] १. जिसमें भूल, दोष या विकार न हो अथवा निकाल या दूर कर दिया गया हो। २. जो अच्छी या ठीक दशा में हो। मुहा०—(किसी को) दुरुस्त करना=इस प्रकार किसी को दंडित करना कि वह सीधे रास्ते पर आ जाय। ३. उचित। उपयुक्त। ४. यथार्थ।
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दुरुस्ती  : स्त्री० [फा०] १. दुरुस्त होने की अवस्था या भाव। २. दुरुस्त करने की क्रिया या भाव। शुद्धि। संशोधन। सुधार।
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दुरूह  : वि० [सं० दुर्√ऊह् (वितर्क)+खल्] जो जल्दी समझ में न आ सके। दुर्बोध।
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दुरेफ  : पुं०=द्विरेफ।
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दुरोदर  : पुं० [सं०] १. जुआरी। २. जूआ। द्यूत। ३. पासा। ४. पासे से खेला जानेवाला खेल।
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दुरौंधा  : पुं० [सं० द्वारोर्द्ध] दरवाजे के ऊपर की लकड़ी। भरेठा।
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दुर्कुल  : पुं०=दुष्कुल।
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दुर्गंध  : स्त्री० [सं० दुर्-गंध प्रा० स०] १. बुरी गंध या महक। बदबू। २. लोक में, किसी बुराई का होनेवाला प्रसार। पुं० [ प्रा० ब० स०] १. आम का पेड़। २. प्याज ३. काला नमक।
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दुर्गंधता  : स्त्री० [सं० दुर्गंध+तल्—टाप्] १. वह अवस्था जिसमें किसी वस्तु में से बदबू निकल रही हो। २. वह तत्त्व जिसके कारण दुर्गंध फैलती हो।
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दुर्ग  : वि० [सं० दुर्√गम् (जाना)+ड](स्थान) जहाँ तक पहुँचना बहुत कठिन हो। दुर्गम। पुं० १. दु्र्गम पथ। २. बहुत बड़ा किला (विशेषतः किसी पहाड़ी पर स्थित) ३. एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका वध दुर्गा ने किया था।
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दुर्ग-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] दुर्ग बनाने का काम।
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दुर्ग-कारक  : पुं० [ष० त०] १. दुर्ग बनानेवाला कारीगर। २. एक तरह का वृक्ष।
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दुर्ग-कोपक  : पुं० [स० त०] किले में बगावत फैलानेवाला विद्रोही।
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दुर्गच्छा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का मोहनीय कर्म जिसके उदय से मलिन पदार्थों में ग्लानि उत्पन्न होती है। (जैन)
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दुर्गत  : वि० [ सं० दुर्√गम्+क्त] १. जिसकी दुर्गति हुई हो। २. गरीब। दरिद्र। स्त्री०=दुर्गति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुर्ग-तरणी  : स्त्री० [ष० त०] १. एक देवी का नाम। २. सावित्री।
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दुर्गति  : स्त्री० [सं० दुर्√गम्+क्तिन्] १. दुर्गम होने की अवस्था या भाव। २. दुर्दशाग्रस्त होने की अवस्था या भाव। ३. दुर्दशाग्रस्त करने की क्रिया या भाव।
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दुर्ग-पाल  : पुं० [सं० दुर्ग√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] दुर्ग अर्थात् किले का प्रधान अधिकारी और रक्षक। किलेदार।
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दुर्ग-पुष्पी  : पुं० [ब० स०, ङीष्] एक तरह का वृक्ष।
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दुर्गम  : वि० [सं० दुर्√गम्+खल्] [भाव० दुर्गमता] १. जिसमें गमन करना अर्थात् जाना, चलना या आगे बढ़ना बहुत कठिन हो। २. जिसे जानना या समझना कठिन हो। दुर्बोध। ३. कठिन। विकट। पुं० १. दुर्ग। किला। गढ़। २. जंगल। वन। ३. संकटपूर्ण स्थान या स्थिति। ४. विष्णु का एक नाम। ५. एक असुर का नाम।
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दुर्गमता  : स्त्री० [सं० दुर्गम+तल्—टाप्] दुर्गम होने की अवस्था, गुण या भाव।
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दुर्गमनीय  : वि० [सं० दुर्√गम्+अनीयर्] दुर्गम।
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दुर्ग-रक्षक  : पुं० [ष० त०] दुर्गपाल। किलेदार।
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दुर्ग-लंघन  : पुं० [ष० त०] (रेतीले दुर्गम पथ को पार करनेवाला) ऊँट।
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दुर्गल  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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दुर्ग-संचर  : पुं० [ष० त०] वह जिसके द्वारा या माध्यम से दुर्गम पथ पार किया जाय। जैसे—पुल, बेड़ा, सीढ़ी इत्यादि।
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दुर्गा  : पुं० [सं० दुर्ग+टाप्] १. आदि शक्ति के रूप में मानी जानेवाली एक प्रसिद्ध देवी जिसका यह नाम दुर्ग राक्षस का वध करने के कारण पड़ा था। २. नौ वर्षों की अवस्थावाली कन्या। ३. नील का पौधा। ४. अपराजिता। ५. श्यामा पक्षी। ६. गौरी, मालश्री, सारंग और लीलावती के योग से बनी हुई एक संकर रागिनी।
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दुर्गा-कल्याण  : पुं० [सं०] ओडव संपूर्ण जाति का एक राग जो रात के पहले पहर में गाया जाता है।
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दुर्बाढ, दुर्गाध  : वि० [सं० दुर्√गाह् (थाह लेना)+क्त दुर्-गाध प्रा० ब० स०] जिसकी थाह कठिनता से मिल सके।
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दुर्गाधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० दुर्ग-अधिकारिन् ष० त०] [स्त्री० दुर्गाधिकारिणी] दुर्ग का प्रधान अधिकारी। किलेदार।
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दुर्गा-नवमी  : स्त्री० [मध्य० स०] १. कार्तिक शुक्ल नवमी जिस दिन दुर्गा के पूजन का विधान है। २. चैत्र शुक्ल नवमी। ३. आश्वनी शुक्ल नवमी।
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दुर्गापाश्रया भूमि  : स्त्री० [सं० दुर्ग-अपाश्रया ष० त०, दुर्गापाश्रया भूमि व्यस्त पद] वह भूमि जिसमें अनेक किले हों।
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दुर्गा-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] १. दु्र्गा का पूजन। २. चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन जिनमें लोग दुर्गा या देवी की प्रतिमा स्थापित करके उसका पूजन करते हैं।
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दुर्गाष्टमी  : स्त्री० [दुर्गा-अष्टमी मध्य० स०] १. आश्विन शुक्ल पक्ष की अष्टमी। २. चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी।
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दुर्गाह्य  : वि० [सं० दुर्√गाह्+ण्यत्] जिसका अवगाहन करना बहुत कठिन हो।
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दुर्गाह्व  : पुं० [सं० दुर्गा-आ ह्वा ब० स०] भूमि गूगल।
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दुर्गुण  : पुं० [सं० दुर्-गुण प्रा० स०] १. व्यक्ति में होनेवाली ऐसी दूषित स्वभावजन्य क्रियाशीलता जिसके कारण वह बुरे कामों में प्रवृत्त होता है। ऐब। २. किसी पदार्थ में होनेवाला ऐसा दोष जिससे विकार उत्पन्न होता हो।
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दुर्गुणी (णिन्)  : वि० [सं० दुर्गुण+इनि] जिसमें दुर्गुण या ऐब हों।
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दुर्गेश  : पुं० [सं० दुर्ग-ईश ष० त०] १. दुर्ग का स्वामी। २. दुर्ग का प्रधान अधिकारी।
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दुर्गोत्सव  : पुं० [सं० दुर्गा-उत्सव मध्य० स०] चैत्र तथा आश्विन के नवरात्रों में मनाया जानेवाला उत्सव जिसमें दुर्गा का पूजन किया जाता है।
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दुर्ग्रह  : वि० [सं० दुर्√ग्रह (पकड़ना)+खल्] १. जिसे कठिनता से पकड़ा अर्थात् अधिकार में किया जा सके। २. कठिनता से समझ में आनेवाला। दुर्बोध। पुं० १. अपामार्ग। चिचड़ा। २. [दुर्-ग्रह प्रा० स०] बुरा या अनिष्टकारक ग्रह।
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दुर्ग्राह्य  : वि० [सं० दुर्√ह+ण्यत्] दुर्ग्रह।
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दुर्घट  : वि० [सं० दुर्√घट् (घटित होना)+खल्] जिसका घटित होना प्रायः असंभव हो। बहुत कठिनता से घटित होनेवाला।
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दुर्घटना  : स्त्री० [सं० दुर्-घटना प्रा० स०] १. ऐसी घटना जिसके फलस्वरूप किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को क्षति या हानि पहुँचे। २. आफत। विपत्ति।
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दुर्घोष  : वि० [सं० दुर्-घोष प्रा० ब० स०] जो बुरा स्वर निकाले। कटु, कर्कश या बुरा घोष अथवा शब्द करनेवाला। पुं० भालू। रीछ।
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दुर्जन  : पुं० [सं० दुर्-जन प्रा० स०] [भाव० दुर्जनता] वह व्यक्ति जो दूसरों का अपकार, अपकीर्ति या हानि करता रहता हो। खराब या बुरा आदमी।
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दुर्जनता  : स्त्री० [सं० दुर्जन+तल्—टाप्] दुर्जन होने की अवस्था या भाव।
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दुर्जय  : वि० [सं० दुर्-जय प्रा० ब० स०] जिस पर विजय पाना बहुत कठिन हो। पुं० १. विष्णु का एक नाम। २. एक राक्षस का नाम।
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दुर्जय-व्यूह  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का व्यूह जिसमें सेना चार पंक्तियों में खड़ी की जाती थी। (कौ०)
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दुर्जर  : वि० [सं० दुर्√जृ (जीर्ण होना)+अच्] १. जो सदा तरुण या युवा बना रहे। २. (अन्न) जिसे सरलता से न पचाया जा सके।
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दुर्जरा  : स्त्री० [सं० दुर्जर+टाप्] ज्योतिष्मती लता। मालकँगनी।
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दुर्जात  : वि० [सं० दुर्-जात प्रा० स०] १. जिसका जन्म बुरी रीत से हुआ हो। जैसे—दोगला या वर्णसंकर। २. जिसका जन्म व्यर्थ हुआ हो। ३. नीच। कमीना। ४. अभागा। बद-किस्मत। पुं० १. व्यसन। २. विपत्ति। संकट। ३. असमंजस। दुविधा। ४. अनौचित्य।
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दुर्जाति  : स्त्री० [सं० दुर्-जाति प्रा० स०] बुरी जाति। नीच जाति। वि० १. बुरी जाति या कुल का। २. जिसकी जातीयता बिगड़ गई या नष्ट हो चुकी हो।
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दुर्जीव  : वि० [सं० दुर्-जीव प्रा० ब० स०] १. दूसरे के दिये हुए अन्न पर पलनेवाला। २. बुरी तरह से जीविका उपार्जित करनेवाला। पुं० [प्रा० स०] निंदनीय या बुरा जीवन।
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दुर्जेय  : वि० [सं० दुर्√जी (जीतना)+अच्] दुर्जय।
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दुर्ज्ञेय  : वि० [सं० दुर्√ज्ञा (जानना)+यत्] १. जिसे जानना बहुत कठिन हो। जो जल्दी समझ में न आ सके। दुर्बोध।
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दुर्दम  : वि० [सं० दुर्√दम् (दमन करना)+खल्] १. जिसका दमन करना बहुत कठिन हो। २. प्रचंड। प्रबल। पुं० वसुदेव के एक पुत्र का नाम जो रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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दुर्दमन  : पुं० [सं० दुर्-दमन प्रा० ब० स०] जनमेजय के वंश में उत्पन्न शतानीक राजा का पुत्र। वि०=दुर्दम।
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दुर्दमनीय  : वि० [सं० दुर्√दम्+अनीयर्] १. जिसका दमन करना बहुत कठिन हो। दुर्दम। २. प्रचंड। प्रबल।
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दुर्दम्य  : वि० [सं० दुर्√दम्+यत्] दुर्दम। पुं० [सं०] गाय का बछड़ा।
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दुर्दर  : वि०=दुर्धर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुर्दर्श  : वि० [सं० दुर्√र्दृश् (देखना)+खल्] १. जिसका दर्शन करना या होना अत्यंत कठिन हो। २. जिसे देखने से डर लगे या घृणा हो। ३. देखने में खराब या बुरा। कुरूप। भद्दा। ४. जिसे देखने से कोई बुरा परिणाम या फल होता हो।
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दुर्दर्शन  : वि० [सं० दुर्—दर्शन प्रा० ब० स०] दुर्दर्श। पुं० [सं०] कौरवों का एक सेनापति।
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दुर्दशा  : स्त्री० [सं० दुर्-दशा प्रा० स०] बुरी और हीन दशा। खराब हालत।
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दुर्दांत  : वि० [सं० दुर्√दम्+क्त] १. जिसका दमन या वश में करना कठिन हो। दुर्दमनीय। २. प्रचंड। प्रबल। पुं० १. शिव का एक नाम। २. गौ का बछड़ा। ३. लड़ाई-झगड़ा। कलह।
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दुर्दान  : पुं० [?] चाँदी। (अनेकार्थ)
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दुर्दिन  : पुं० [सं० दुर्—दिन प्रा० स०] १. खराब या बुरा दिन। २. दुर्दशा के दिन या समय। ३. ऐसा दिन जिसमें प्रातःकाल से ही खूब बादल घिरे हों। पानी बरसता हो और कहीं आना-जाना कठिन हो।
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दुर्दु रूढ़  : पुं० [सं०√दुल् (फेंकना)+ऊढ़ पृषो० सिद्धि] नास्तिक।
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दुदृष्ट  : वि० [सं० दुर्-दृष्ट प्रा० स०] (व्यवहार) १. जिस पर ठीक और पूरा ध्यान न दिया गया हो। २. जिसका ठीक तरह से फैसला या न्याय न हुआ हो।
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दुर्देंव  : पुं० [सं० दुर्-दैव प्रा० स०] १. दुर्भाग्य। अभाग्य। बुरी किस्मत। २. बुरे दिन। बुरा समय।
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दुर्द्धर  : वि० [सं० दुर्√धृ (धारण)+खल्] १. जिसे कठिनता से पकड़ सकें। जो जल्दी पकड़ में न आ सके। २. प्रचंड। प्रबल। ३. जल्दी समझ में न आनेवाला। दुर्बोध। पुं० १. पारा। २. भिलावाँ। ३. एक नरक का नाम। ४. महिषासुर का एक सेनापति। ५. शंबरासुर का एक मंत्री। ६. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ७. रावण की सेना का एक राक्षस जो हनुमान् को पकड़ने के लिए अशोक-वाटिका में भेजा गया था और वहीं उनके हाथ से मारा गया था। ८. विष्णु का एक नाम।
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दुर्द्धर्ष  : वि० [सं० दुर्√धृष् (दबाना)+खल्] १. जिसका दमन करना कठिन हो। जिसे जल्दी दबाया या वश में न किया जा सके। २. जिसे परास्त करना या हराना कठिन हो। ३. प्रचंड। प्रबल। पुं० १. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। २. रावण की सेना का एक राक्षस।
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दुर्द्धर्षा  : स्त्री० [सं० दुर्द्धर्ष+टाप्] १. नागदौना। २. कथारी नाम का पेड़।
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दुर्द्धी  : वि० [सं० दुर्-धी प्रा० ब० स०] १. बुरी बुद्धिवाला। २. मंद बुद्धिवाला। स्त्री० बुरी बुद्धि।
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दुर्द्धुरूढ़  : पुं० [सं० दुर्+धुर्व् (हिंसा)+डट्, पृषो० सिद्धि] वह शिष्य जो गुरु की आज्ञा का पालन सहज में न करता हो।
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दुर्द्रिता  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता।
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दुर्द्रुम  : पुं० [सं० दुर्-द्रुम प्रा० स०] हरित्यपलांडु। हरा प्याज।
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दुर्धर  : वि० [सं० दुर्√धृ (धारण)+खल्] १. जिसे धारण करना कठिन हो। २. प्रचंड। विकट।
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दुर्धर्ष  : वि०=दुर्द्धर्ष।
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दुर्नय  : पुं० [सं० दुर्=नी (ले जाना)+अच्] १. निकृष्ट या बुरा आचरण। खराब चाल-चलन। २. अनीति। अनैतिकता। ३. अन्याय।
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दुर्नाद  : वि० [सं० दुर्-नाद प्रा० ब० स०] १. बुरे नाद या स्वरवाला। २. कर्कश ध्वनिवाला। पुं० राक्षस।
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दुर्नाम (न्)  : वि० [सं० दुर्-नामन् प्रा० ब० स०] १. बुरे नामवाला। २. बदनाम। पुं० [प्रा० स०] १. बुरा नाम। कुख्याति। बदनामी। २. गाली। दुर्वचन। ३. [प्रा० ब० स०] बवासीर नामक रोग। ४. शुक्ति। सीपी।
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दुर्नामक  : पुं० [सं० दुर्-नामन् प्रा० ब० स०, कप्] अर्श रोग। बवासीर।
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दुर्नामारि  : पुं० [सं० दुर्नामन्-अरि ष० त०] (बवासीर को दूर करनेवाला) सूरन। जिमीकंद।
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दुर्नाम्नी  : स्त्री० [सं० दुर-नाम् प्रा० ब० स०, ङीप्] शुक्ति। सीप।
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दुर्निग्रह  : वि० [सं० दुर्-नि√ग्रह् (पकड़ना)+खल्] जिसे वश में करना बहुत कठिन हो।
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दुर्निमित्त  : पुं० [सं० दुर्-निमित्त प्रा० स] अपशकुन।
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दुर्निरीक्ष  : वि० [सं० दुर्-निर्√ईक्ष (देखना)+खल्] १. जिसे देखना या देखते रहना बहुत कठिन हो। २. भयंकर। भीषण। ३. कुरूप। भद्दा।
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दुर्निवार  : वि० [सं० दुर्-नि√वृ (वारण)+घञ्]=दुर्निवार्य।
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दुर्निवार्य  : वि० [सं० दुर्-नि√वृ+ण्यत्] १. जिसका निवारण कठिनता से होता हो। जो जल्दी रोका न जा सके। २. जिसे जल्दी दूर दिया या हटाया न जा सके। ३. जिसका घटित होना प्रायः निश्चित हो। जो जल्दी टल न सके।
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दुर्नीत  : वि० [सं० दुर्√नी+क्त] नीति विरुद्ध आचरण करनेवाला। स्त्री०=दुर्नीति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुर्नीति  : स्त्री० [सं० दुर्-नीति प्रा० स०] १. निंदनीय और बुरी नीति। २. नीति विरुद्ध आचरण।
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दुर्बल  : वि० [सं० दुर्-बल प्रा० ब० स०] [भाव० दुर्बलता] १. जिसमें शारीरिक शक्ति की कमी हो। कमजोर। २. दुबला-पतला। कृश। ३. जो मानसिक, नैतिक आदि शक्तियों से रहित हो। जैसे—दुर्बल चरित्र।
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दुर्बलता  : स्त्री० [सं० दुर्बल+तल्—टाप्] १. दुर्बल होने की अवस्था या भाव। २. दुबलापन। ३. कमजोरी।
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दुर्बला  : स्त्री० [सं० दुर्बल+टाप्] जलसिरीस का पेड़।
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दुर्बाल  : पुं० [सं० दुर्-बाल प्रा० ब० स०] १. सिर का गंजापन। २. गंज नामक रोग।
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दुर्बुद्धि  : वि० [सं० दुर्-बुद्धि प्रा० ब० स०] नीच या हीन बुद्धिवाला। स्त्री० दुष्ट या नीच बुद्धि।
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दुर्बोध  : वि० [सं० दुर्-बुद्धि प्रा० ब० स०] (विषय) जिसका बोध कठिनता से हो सकता हो। जो जल्दी समझ में न आवे।
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दुर्भक्ष  : वि० [सं० दुर्√भक्ष् (खाना)+खल्] १. (पदार्थ) जिसे खाना कठिन हो। जो जल्दी न खाया जा सके। २. जो खाने में खराब या बुरा लगे। पुं० दुर्भिक्ष। अकाल।
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दुर्भग  : वि० [सं० दुर्-भग प्रा० ब० स०] [स्त्री० दुर्भगा] जिसका भाग्य बुरा हो। खराब किस्मत या प्रारब्धवाला। अभागा।
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दुर्भगा  : स्त्री० [सं० दुर्भग+टाप्] ऐसी स्त्री जो अपने पति का प्रेम या स्नेह न प्राप्त कर सकी हो। वि० सं० ‘दुर्भग’ का स्त्री०।
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दुर्भर  : वि० [सं० दुर्√भृ (भरण)+खल्] १. जिसे उठाना बहुत कठिन हो। जो सहज में उठाया न जा सके। २. भारी। वजनी।
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दुर्भाग  : पुं०=दुर्भाग्य।
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दुर्भागी  : वि० =अभागा।
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दुर्भाग्य  : पुं० [सं० दुर्-भाग्य प्रा० स०] बुरा भाग्य। खराब किस्मत।
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दुर्भाव  : पुं० [सं० दुर्-भाव प्रा० स०] १. बुरा भाव। २. किसी के प्रति मन में होनेवाला द्वेष या बुरा भाव। दुर्भावना।
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दुर्भावना  : स्त्री० [सं० दुर्-भावना प्रा० स०] १. बुरी भावना या विचार। २. आशंका। खटका।
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दुर्भाव्य  : वि० [सं० दुर√भू (होना)+ण्यत्] जो जल्दी ध्यान में न आ सके।
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दुर्भृत्य  : पुं० [सं० दुर्-भृत्य प्रा० स०] बुरा या दुष्ट नौकर।
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दुर्भिक्ष  : पुं० [सं० दुर्-भिक्षा अव्य० स०] १. ऐसा समय जिसमें भिक्षा या भोजन बहुत कठिनता से मिले। २. अकाल।
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दुर्भिच्छ  : पुं०=दुर्भिक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुर्भिद  : वि० [सं० दुर्√भिद् (फाड़ना)+क] जिसका भेदन कठिनता से हो सके।
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दुर्भेद  : वि० [सं० दुर्√भिद्+खल्] =दुर्भेद्य।
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दुर्भेद्य  : वि० [सं० दुर्√भिद्+ण्यत्] १. जो जल्दी भेदा न जा सके। जो कठिनता से छिदे। २. जो जल्दी पार न किया जा सके। ३. जिसके अन्दर पहुँचना बहुत कठिन हो। जैसे—दुर्भेद्य किला।
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दुर्मंत्रणा  : स्त्री० [सं० दुर्-मंत्रणा प्रा० स०] बुरी मंत्रणा।
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दुर्मति  : वि० [सं० दुर्-मति प्रा० ब० स०] १. बुरी मति या बुद्धिवाला। २. खल। दुष्ट। स्त्री० [प्रा० स०] बुरी या दुष्ट बुद्धि। पुं० साठ संवत्सरों में से एक संवत्सर, जिसमें अकाल पड़ता है। (फलित ज्योतिष)
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दुर्मद  : वि० [सं० दुर्-मद प्रा० ब० स०] १. जो नशे में बुरी तरह से चूर हो। २. उन्मत। पागल। ३. जिसमें बहुत अधिक मद या घमंड हो। उदा०—दुंर्मद दुरस्त धर्म दस्युओं की त्रासिनी।—प्रसाद।
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दुर्मना (नस्)  : वि० [सं० दुर्-मानस् प्रा० ब० स०] १. बुरे चित्त या मनवाला। २. दुष्ट। पाजी। ३. उदास। खिन्न।
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दुर्मनुष्य  : पुं० [सं० दुर्-मनुष्य प्रा० स०] दुष्ट मनुष्य। दुर्जन।
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दुर्मर  : वि० [सं० दुर्-मर प्रा० ब० स०] जिसकी मृत्यु सहज में न हो। बहुत कठिनता या कष्ट से मरनेवाला।
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दुर्मरण  : पुं० [सं० सद्-मरण प्रा० ब० स०] बुरे प्रकार से होनेवाली मृत्यु।
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दुर्मरा  : स्त्री० [सं० दुर्मर+टाप्] दूर्वा। दूब।
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दुर्मर्ष  : वि० [सं० दुर√मृष् (सहना)+खल्] जिसे सहन करना कठिन हो। दुःसह।
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दुर्मल्लिका  : स्त्री० [सं०] चार अंकोंवाला एक तरह का हास्य-रस-प्रधान उपरूपक।
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दुर्मल्ली  : स्त्री०=दुर्मल्लिका।
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दुर्मित्र  : पुं० [सं० दुर्-मित्र प्रा० स०] बुरा मित्र।
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दुर्मिल  : वि० [सं० दुर्√मिल् (मिलना)+क] जो सहज में न मिल सके। दुष्प्राप्य। पुं० १. भरत के सातवें लड़के का नाम। २. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १॰, ८ और १४ के विराम से, ३, २ मात्राएँ होती हैं।
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दुर्मुख़  : वि० [सं० दुर्-मुख प्रा० ब० स०] १. खराब या बुरे मुँहवाला। २. कुरूप या भद्दे मुँहवाला। ३. कड़वी और बुरी बातें करने या बोलनेवाला। पुं० १. भगवान रामचन्द्र का वह गुप्तचर जो प्रजा के भीतरी समाचार उन्हें सुनाया करता था। २. रामचंद्र की सेना का एक बंदर। ३. महिषासुर के एक सेनापति का नाम। ४. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ५. एक नाग का नाम। ६. शिव का एक नाम। ७. साठ संवत्सरों में से एक। ८. एक यक्ष का नाम। ९. गणेश के एक गण का नाम। १॰. घोड़ा। ११. गुप्तचर। जासूस। १२. ऐसा घर या मकान जिसका दरवाजा उत्तर की ओर हो।
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दुर्मुखी  : स्त्री० [सं० दुर्मुख+ङीष्] एक राक्षसी जिसे रावण ने जानकी को बहकाने के लिए अशोक-वाटिका में रखा था। वि० हिं० ‘दुर्मुख’ का स्त्री०।
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दुर्मुट  : पुं० =दुर्मस।
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दुर्मुस  : पुं० [सं० दुर्+मुस=कूटना] गदा के आकार का मिट्टी, पत्थर, सड़क आदि पीटने का एक उपकरण जिसके लंबे डंडे के निचले सिरे में पत्थर का भारी गोल टुकड़ा लगा रहता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुर्मुहूर्त  : पुं० [सं० दुर्-मुहूर्त प्रा० ब० स०] अशुभ या बुरा मुहूर्त्त।
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दुर्मूल्य  : वि० [सं० दुर-मूल्य प्रा० ब० स०] बहुत अधिक मूल्यवाला। बहुमूल्य।
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दुर्मेध (धस्)  : वि० [सं० दुर्मेधस् प्रा० ब० स०] मंद बुद्धि। नासमझ।
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दुर्मोह  : पुं० [सं० दुर√मुह् (मुग्ध होना)+घञ्] काकतुंडी। कौआठोंठी।
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दुर्मोहा  : स्त्री० [सं० दुर्मोह+टाप्] १. कौआ-ठोंठी। २. सफेद घुँघची।
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दुर्यस (स्)  : पुं० [सं० दुर्-यशस् प्रा० स०] बुरा यश। अपयश।
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दुर्योध  : वि० [सं० दुर्√युध् (लड़ना)+खल्] जिससे युद्ध करना और विजय पाना बहुत कठिन हो।
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दुर्योधन  : पुं० [सं० दुर्√युध्+युच्-अन] एक प्रसिद्ध कुरुवंशीय राजा जो धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र था तथा जो महाभारत के युद्ध में मारा गया था।
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दुर्योनि  : वि० [सं० दुर्-योनि प्रा० ब० स०] जिसका जन्म निम्न या नीच कुल में हुआ हो।
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दुर्रा  : पुं० [फा०] कोड़ा। चाबुक। जैसे—मरे पर सौ बुर्रे। (कहा०) पुं० [अ० दुर्रः] बड़ा मोती।
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दुर्रानी  : पुं० [फा०] १. अफगानों की एक जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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दुर्लघ्य  : वि० [सं० दुर्√लंघ् (लांघना)+ण्यत्] जिसे लाँघना बहुत कठिन हो।
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दुर्लक्ष्य  : वि० [सं० दुर्√लक्ष् (देखना)+ण्यत्] जो कठिनता से दिखाई पड़े या देखा जा सके। पुं० दुष्ट अथवा बुरा लक्ष्य या उद्देश्य।
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दुर्लभ  : वि० [सं० दुर्√लभ् (पाना)+खल्] १. जो कठिनता से प्राप्त होता हो। दुष्प्राप्य। २. जो बहुत कम मात्रा में, कभी-कभी अथवा कहीं-कहीं मिलता हो। (रेयर) ३. जिसके जोड़ या तरह का दूसरा जल्दी मिलता न हो। बहुत बढ़िया और अनोखा। ४. प्रिय। पुं० १. कचूर। २. विष्णु का एक नाम।
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दुर्लभ-मुद्रा  : स्त्री० [सं० दुर्लभा-मुद्रा कर्म० स०] आधुनिक अर्थशास्त्र में वह विदेशी मुद्रा जो कठिनाई से प्राप्त होती हो। विशेष—जब एक देश दूसरे देश को अधिक मूल्य का सामान निर्यात करता है और उस देश से कम मूल्य का सामान आयात करता है तो उसके लिए तो दूसरे देश की मुद्रा सुलभ रहती है (क्योंकि इसका उधर पावना होता है) परंतु दूसरे देश के लिए उस देश की मुद्रा दुर्लभ होती है (क्योंकि उसे पहले ही देना अधिक होता है)।
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दुर्ललित  : वि० [सं० दुर्√लल् (चाहना)+क्त] १. जिसका बुरी तरह से लालन या लाड़-प्यार किया गया हो और इसीलिए वह बिगड़ गया हो। २. दुष्ट। नटखट। पाजी। ३. खराब। दूषित। बुरा। उदा०—उठती अंतस्तल से सदैव दुर्ललित लालसा जो कि कांत।—प्रसाद। पुं० उद्धत या उद्दंड होने की अवस्था या भाव। उद्धतता।
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दुर्लेख्य  : वि० [सं० दुर्-लेख्य प्रा० स०] १. (लेख) जो खराब लिखा हुआ हो। जिसकी लिखावट बुरी हो। २. जो ऐसा लिखा हो कि जल्दी पढ़ा न जा सके। (स्मृति) पुं० वह लेख्य जो विधिक व्यवहार में अप्रामाणिक तथा विधि-विरुद्ध माना जाय। (इनवैलिड डीड)
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दुर्वच  : वि० [सं० दुर्√वच् (बोलना)+खल्] १. (वचन) जो सहज में न कहा जा सके। जिसे कह सकना कठिन हो। २. जिसे कहने में कष्ट हो। पुं० गाली। दुर्वचन।
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दुर्वचन  : पुं० [सं० दुर-वचन प्रा० स०] १. बुरा वचन। बुरी उक्ति या दूषित कथन। २. गाली।
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दुर्वर्ण  : वि० [सं० दुर्-वर्ण प्रा० ब० स०] बुरे या हेय वर्णवाला। पुं० १. चाँदी। रजत। २. [प्रा० स०] बुरा वर्ण।
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दुर्वर्णा  : स्त्री० [सं० दुर्वर्ण+टाप्] १. चाँदी। २. एलुआ नामक औषधि।
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दुर्वह  : वि० [सं० दुर्√वह् (ढोना)+खल्] जिसे वहन करना बहुत कठिन हो।
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दुर्वाक (च्)  : पुं० [सं० दुर-वाच् प्रा० स०]=दुर्वचन।
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दुर्वाद  : पुं० [सं० दुर्-वाद प्रा० स०] १. अपवाद। निंदा। बदनामी। २. अनुचित अथवा उपयुक्त विवाद। तकरार। हुज्जत। ३. ऐसी बात जो अच्छी होने पर भी बुरे ढंग से कही जाय।
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दुर्वादी (दिन्)  : वि० [सं० दुर्वाद+इनि] १. दूसरों की बदनामी करनेवाला। २. तकरार या हुज्जत करनेवाला। ३. दुर्वाद कहने वाला।
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दुर्वार  : वि० [सं० दुर्√वृ (वारण)+णिच्+खल्] जिसका निवारण करना कठिन हो।
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दुर्वारि  : पुं० [सं० दुर्-वारि=वारण प्रा० ब० स०] कंबोज देश का एक योद्धा जो महाभारत की लड़ाई में लड़ा था।
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दुर्वार्य  : वि० [सं० दुर्√वृ+णिच्+यत्]=दुर्वार। (देखें)
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दुर्वासना  : स्त्री० [सं० दुर्-वासना प्रा० स०] १. बुरी इच्छा, कामना या वासना। २. ऐसी कामना या वासना जो कभी अथवा जल्दी पूरी न हो सके।
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दुर्वासा (सस्)  : पुं० [सं० दुर-वासस् प्रा० ब० स०] अत्रि और अनुसूया के पुत्र एक प्रसिद्ध ऋषि जो बहुत ही क्रोधी स्वभाव के थे और जराजरा-सी बात पर शाप दे बैठते थे।
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दुर्वाहित  : वि० [सं० दुर्-वाहित प्रा० स०] जिसका वहन करना बहुत मुश्किल हो। पुं० भारी बोझ।
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दुर्विगार  : वि० [सं० दुर्-वि√गाह् (थाह लेना)+खल्] जिसका अवगाहन करना अर्थात् थाह पाना बहुत कठिन हो।
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दुर्विज्ञेय  : वि० [सं० दुर्-वि√ज्ञा (जानना)+यत्] जिसका ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन हो। जिसे जल्दी जान न सकें।
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दुर्विद  : वि० [सं० दुर्√विद् (जानना)+क] जिसे जानना तथा समझना बहुत कठिन हो।
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दुर्विदग्ध  : वि० [सं० दुर्-विदग्ध प्रा० स०] १. जो अच्छी तरह जला न हो। अधजला। २. जो पूरी तरह से पका न हो। ३. अभिमानी। घमंडी।
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दुर्विदग्धता  : स्त्री० [सं० दुर्विदग्ध तल—टाप्] दुर्विदग्ध होने की अवस्था या भाव। पूरी निपुणता का अभाव। अधकचरापन।
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दुर्विध  : वि० [सं० दुर्-विधा प्रा० ब० स०] १. दरिद्र। धन-हीन। २. खल। दुष्ट। ३. बेवकूफ। मूर्ख।
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दुर्विधि  : स्त्री० [सं० दुर्-विधि प्रा० स०] खराब या बुरी विधि। दूषित या बुरा ढंग या रीति। पुं० दुर्भाग्य।
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दुर्विनय  : वि० [सं० दुर्-विनय प्रा० ब० स०] १. जिसमें विनय का अभाव हो। २. उद्दंड। स्त्री० [प्रा० स०] १. अविनय। २. उद्दंडता।
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दुर्विनीत  : वि० [सं० दुर्-विनीत प्रा० स०] जो विनीत न हो। अवनीत।
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दुर्विपाक  : पुं० [सं० दुर्-विपाक प्रा० स०] १. बुरा परिणाम। बुरा फल। २. बुरा संयोग। जैसे—दैव दुर्विपाक से उन्हें पुत्र-शोक सहना पड़ा।
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दुर्विभाव्य  : वि० [सं० दुर्वि√भू (होना)+ण्यत्] जिसका अनुमान कठिनता से हो सके।
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दुर्विलास  : पुं० [सं० दुर्-विलास प्रा० स०] भाग्य का विपरीत होना।
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दुर्विवाह  : पुं० [सं० दुर्-विवाह प्रा० स०] बुरा या निंदनीय विवाह।
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दुर्विष  : वि० [सं० दुर्-विष प्रा० ब० स०] दुराशय। पुं० महादेव।
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दुर्विषह  : वि० [सं० दुर्-वि√सह (सहना)√खल्] जिसे सहना बहुत कठिन हो। दुःसह। पुं० १. महादेव। शिव। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दुर्वृत्त  : वि० [सं० दुर्-वृत्त प्रा० ब० स०] [भाव० दुर्वृत्ति] १. जिसका आचरण बुरा हो। दुश्चरित्र। दुराचारी। २. जो दूषित या निंदनीय उपायों से जीविका चलाता हो। बुरी वृत्तिवाला। पुं० [प्रा० स०] निन्दनीय और बुरा आचरण। बद-चलनी।
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दुर्वृत्त-फलक  : पुं० [ष० त०] दे० ‘इति-वृत्तक’।
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दुर्वृत्ति  : स्त्री० [सं० दुर-वृत्ति प्रा० स०] १. बुरी वृत्ति। २. बुरा आचरण या स्वभाव।
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दुर्वृष्टि  : स्त्री० [सं० दुर्-वृष्टि प्रा० स०] १. आवश्यक या उचित से कम वृष्टि। २. अनावृष्टि। सूखा।
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दुर्वेद  : वि [सं० दुर्√विद् (जानना)+खल्] १. जिसे समझना बहुत कठिन हो। २. जो वेदों का अध्ययन न करता हो। ३. वेदों की निंदा करनेवाला।
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दुर्व्यवस्था  : स्त्री० [सं० दुर्-व्यवस्था प्रा० स०] खराब या बुरी व्यवस्था। अव्यवस्था।
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दुर्व्यवहार  : पुं० [सं० दुर्-व्यवहार प्रा० स०] १. अनुचित और बुरा व्यवहार। बुरा बरताव। २. अनुचित या बुरा आचरण। ३. ऐसा व्यवहार या मुकदमा जिसका फैसला (अनुचित प्रभाव, घूस आदि के कारण) ठीक न हुआ हो।
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दुर्व्यसन  : पुं० [सं० दुर्-व्यसन प्रा० स०] कोई बुरा या दूषित काम करने का चस्का जो बहुत कठिनता से छूट सके।
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दुर्व्यसनी (निन्)  : वि० [दुव्यर्यसन+इनि] जिसे किसी प्रकार का दुर्व्यसन हो। जिसे बुरी तरह से कोई लत या कई लतें लगी हों।
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दुर्व्रत  : वि० [सं० दु्र-व्रत प्रा० ब० स०] जिसने कोई अनुचित या बुरा व्रत लिया हो। बुरे मनोरथों वाला। नीचाशय। पुं० [प्रा० स०] निन्दनीय, नीच अथवा बुरा आशय, मनोरथ या व्रत।
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दुर्हृद्  : वि० [सं० दुर्-हृदय प्रा० ब० स०] जो सुहृद् न हो। बुरे हृदयवाला। पुं० विरोधी या शत्रु।
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दुर्हृदय  : वि० [सं० दुर्-हृदय प्रा० ब० स०] खोटे हृदयवाला। कपटी।
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दुर्हृषीक  : वि० [सं० दुर्-हृषीक प्रा० ब० स०] जिसकी ज्ञानेंद्रियों में कुछ खराबी या विकार हो।
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दुल्कन  : स्त्री० [हिं० दुलकना] दुलकने की क्रिया या भाव। वि० दुलकनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलकना  : अ० [हिं० दलकना] (घोड़ों आदि का) अलग-अलग हर पैर उठाकर कुछ उछलते हुए चलना। अ०, स०=दुलखना।
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दुलकी  : स्त्री० [हिं० दुलकना] टट्टू, घोड़े आदि की एक प्रकार की चाल जिसमें वह हर पैर अलग-अलग उठाकर कुछ उछलता हुआ दौड़ता है। क्रि० प्र०—चलना।—जाना।
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दुलखना  : स० [हिं० दो+लक्षण] १. बार-बार बतलाना। बार-बार कहना। बार-बार दोहराना। २. किसी की कही हुई ठीक बात पर भी आपत्ति करते हुए उसका तिरस्कार करना जो अविनय, उद्दंडता आदि का सूचक है। अ० मुकर जाना।
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दुलखी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का फतिंगा जो गेहूँ, ज्वार, तमाखू नील, सरसों आदि की खेती को नुकसान पहुँचाता है।
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दुलड़ा  : वि० [हिं० दो+ल़ड़] [स्त्री० दुलड़ी] जिसमें दो लड़ या लड़ियाँ हों। दो-लड़ों का। पुं० दो लड़ोंवाली माला या हार।
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दुलड़ी  : स्त्री० [हिं. दो+लड़] दो लड़ों की माला।
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दुलत्ती  : स्त्री० [हिं. दो+लात] १. गाय, घोड़े आदि का किसी पर प्रहार करने के लिए पिछली दोनों टाँगें एक साथ उठाने तथा झटकारने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—चलना।—झाड़ना।—फेंकना।—मारना। २. उक्त प्रकार से किया जाने या लगनेवाला आघात। मुहा०—दुलत्ती झाड़ना =बहुत बिगड़ कर अलग या दूर होते हुए ऐसी बातें करना मानों गधों या घोड़ों की तरह अथवा पशुओं का-सा आचरण या व्यवहार कर रहे हों। (परिहास और व्यंग्य) ३. मालखंभ की एक कसरत जिसमें दोनों पैरों से मालखंभ को लपेटकर बाकी बदन मालखंभ से अलग झुलाकर ताल ठोंकते हैं।
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दुलदुल  : पुं० [अ०] १. वह खच्चरी (मादा खच्चर) जो इसकंदरिया (मिस्र) के हाकिम ने मुहम्मद साहब को भेंट की थी। २. मुहर्रम की आठवीं तारीख को जुलूस के साथ निकाला जानेवाला वह कोतल घोड़ा जिसके साथ शीया मुसलमान मातम करते हुए चलते हैं। विशेष—मुख्यतः यह उसी उक्त खच्चरी का प्रतीक होता है, जो मुहम्मद साहब को भेंट में मिली थी। पर लोग इसे भूल से खच्चर या घोड़ा समझते हैं, और इसी लिए इस शब्द का प्रयोग पुं० रूप में करते हैं।
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दुलन  : पुं०=दोलन।
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दुलना  : अ०=डुलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलभ  : वि०=दुर्लभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलरा  : वि०=दुलारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलराना  : सं० [हिं. दुलराना] १. बच्चों से दुलार करना। २. बहुत अधिक दुलार कर बच्चों को बिगाड़ना। संयो० क्रि०—डालना। अ० दुलारे बच्चों की-सी चेष्टा या व्यवहार करना। (परिहास और व्यंग्य)
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दुलरी  : स्त्री०=दुलड़ी।
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दुलरुआ  : वि०=दुलारा।
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दुलहन  : स्त्री० [हिं० दुलहा का स्त्री०] १. वह स्त्री जो अभी व्याह कर लाई गई हो। वधू। २. पत्नी। (पूरब)
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दुलहा  : पुं० [सं० दुर्लभ] [स्त्री० दुलहन] १. वर जिसका विवाह तुरंत होने को हो या हुआ हो। वर। २. पति। (पूरब) ३. रहस्य-संप्रदाय में, परमात्मा।
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दुलहाई  : स्त्री० [हिं० दुलहा] विवाह के समय गाये जानेवाले एक प्रकार के गीत (पूरब)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलहिन  : स्त्री०=दुलहन।
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दुलहिया  : स्त्री०=दुलहन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलही  : स्त्री०=दुलहन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलहेटा  : पुं० [सं० दुर्लभ, प्रा० दुल्लह+हिं० बेटा] १. दुलहा। २. दुलारा बेटा।
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दुलाई  : स्त्री० [सं० तूल=रूई, हिं० तुलाई, तुराई] कपड़े की दो परतोंवाला सिला हुआ वह मोटा ओढ़ना जिसमें रूई भरी होती है। हलकी रजाई।
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दुलाना  : स०=डुलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलार  : पुं० [हिं० दुलारना] १. छोटे बच्चों के प्रति किया जानेवाला ऐसा स्नेहपूर्ण व्यवहार जो उन्हें खूब प्रसन्न रखने के लिए किया जाता है। २. वह धृष्टतापूर्ण आचरण जो बच्चे उमंग में आकर बड़ों के प्रति करते हैं। मुहा०—किसी का दुलार रखना=अपने से छोटे का आग्रह या हठ मानना। उदा०—राखा मोर दुलार गोसाईं।—तुलसी।
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दुलारना  : सं० [सं० दुर्लाल, प्रा० दुल्लाउन] १. बच्चों से दुलार करना। २. बहुत दुलार करके बच्चों को बिगाड़ना।
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दुलारा  : वि० [हिं० दुलार] [स्त्री० दुलारी] जिसका बहुत दुलार किया गया हो या किया जाता हो। लाड़ला।
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दुलारी  : वि० हिं० ‘दुलारा’ का स्त्री०। स्त्री०=दुलाई (ओढ़ने की)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दुलारो (चेचक या माता)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलारो  : स्त्री० [हिं० दुलार ?] एक प्रकार की माता या चेचक।
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दुलाल  : पुं० [?] एक प्रकार का चंपा (फूल)। पुं०=दुलार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलि  : स्त्री० [सं०=डुलि] कच्छपी।
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दुलीचा  : पुं० [हिं० गलीचा का अनु०] १. गलीचा। कालीन। २. छोटा ऊनी आसन।
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दुलेहटा  : पुं०=दुलहेटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुलैचा  : पुं०=दुलीचा।
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दुलोही  : स्त्री० [हिं० दो+लोहा] एक प्रकार की तलवार जो लोहे के दो टुकड़ों को जोड़कर बनाई जाती है।
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दुल्लभ  : वि० =दुर्लभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुल्ली  : स्त्री०=दुल्लो।
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दुल्लो  : स्त्री० [हिं० दो+ला (प्रत्य०)] लड़कों के खेल में वह गोली जो मीर या पहली गोली के बाद ठहरी या पड़ी हो। दूर तक जानेवाली गोलियों में पहली के बादवाली गोली।
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दुल्हन, दुल्हैया  : स्त्री०=दुल्हन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुव  : वि० [सं० द्वि] दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुवन्  : पुं० [सं० दुर्मनस्] १. दुष्ट चित्त का मनुष्य। खल। दुर्जन। २. दुश्मन। वैरी। शत्रु। ३. राक्षस।
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दुवन्नी  : स्त्री०=दुअन्नी (सिक्का)।
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दु-वरकी  : स्त्री० [हिं० दो+वरक=पन्ना या वृष्ठ] स्त्री की भग। योनि। (बाजारू और अश्लील व्यंग्य)। मुहा०—दु वरकी का सबक पढ़ाना=(क) स्त्रियों का आपस में भग-संघर्ष के द्वारा मैथुन करना। चपटी लड़ना। (मुसलमान स्त्रियाँ) (ख) मैथुन या संभोग करना। (बाजारू)
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दुवा  : पुं०=दूआ (दुक्की)। स्त्री०=दुआ (प्रार्थना)।
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दुवाज  : पुं० [?] एक प्रकार का घोड़ा।
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दुवाद  : वि०=द्वादश।
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दुवाद बानी  : वि० [सं० द्वादश=सूर्य+वर्ण] स्वर्ण जो सूर्य के समान दमकता हुआ हो अर्थात् बिलकुल खरा। बारहबानी (सोना)।
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दुवादसी  : स्त्री०=द्वादशी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुवार  : पुं०=द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुवारिका  : स्त्री०=द्वारका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुवाल  : स्त्री० [फा०] १. चमड़े का तसमा। २. रकाब का तसमा।
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दुवालबंद  : पुं० [फा०] १. चमड़े का चौड़ा तसमा जो कमर आदि में लपेटा जाय। चपरास या पेटी का तसमा। २. वह जो पेटी बाँधता हो अर्थात् सिपाही।
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दुवाली  : स्त्री० [देश०] रंगे या छपे हुए कपड़ों पर चमक लाने के लिए घोंटने का बेलन। घोंटा। २. वह परतला जिसमें तलवार या बन्दूक लटकाई जाती है।
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दुवालीबंद  : पुं० [फा०] परतला आदि लगाये हुए तैयार सिपाही।
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दुविद  : पुं०=द्विविद।
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दुविधा  : स्त्री० [सं० द्विविधा] ऐसी मनःस्थिति जिसमें दो या कई बातों में से किसी बात का निश्चय न हो रहा हो। दुबधा।
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दुवो  : वि० [हिं० दुब=दो+उ= ही] दोनों।
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दुशमन  : पुं०= दुश्मन।
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दुशवार  : वि० [फा० दुश्वार] [भाव० दुशवारी] १. कठिन। मुश्किल। २. दुःसह।
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दुंशवारी  : स्त्री० [फां०] १. दुशवार होने की अवस्था या भाव। २. कठिन काम। ३. विपत्ति या संकट की अवस्था।
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दुशाला  : पुं० [फा० दोशालः] पशमीने की बढ़िया चादरों का जोड़ा जिसके किनारों पर पशमीने की रंग-बिरंगी बेल बनी रहती है। मुहा०—दुशाले में लपेटकर मारना या लगाना=इस प्रकार आड़े हाथ लेना कि ऊपर से देखने में अनुचित न जान पड़े अथवा अप्रिय न लगे। मीठी-मीठी बातें कहते हुए कठोर व्यंग्य करना।
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दुशाला-पोश  : वि० [फा०] जो दुशाला ओढ़े हो। जो अच्छे कपड़े पहने हो। पुं० अमीर। धनवान।
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दुशासन  : पुं०=दुःशासन।
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दुश्चर  : वि० [सं० दर्√चर् (गति)+खल] [भाव० दुश्चरण]=दुष्कर।
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दुश्चरित  : वि०=दुष्चरित्र।
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दुश्चरित्र  : वि० [सं० दुर्-चरित्र प्रा० ब० स०] [स्त्री० दुश्चरित्रा] १. बुरे या खराब आचरण या चाल-चलनवाला। बद-चलन। २. जिस पर या जिसमें चलना कठिन हो। पुं० [प्रा० स०] १. निंदनीय या बुरा आचरण। बद-चलनी। २. पाप। गुनाह।
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दुश्चर्मा  : (चर्मन) पुं० [सं० दुर्-चर्म्मन, प्रा० ब० स०] वह पुरुष जिसकी। लिंगेन्द्रिय के मुख पर ढाकनेवाला चमड़ा न हो।
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दुश्चलन  : पुं० [सं० दुः+हिं० चलन] दुराचरण। खोटी चाल।
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दुश्चिंत्य  : वि० [सं० दुर्√चिन्त् (ध्यान)+यत्] जिसका चिंतन कठिनता से हो सके।
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दुश्चिकित्स  : वि०=दुश्चिकित्स्य।
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दुश्चिकित्सा  : स्त्री० [सं० दुर्-चिकित्सा प्रा० स०] आयुर्वेद-संबंधी चिकित्सा के नियमों के विरुद्ध की जानेवाली चिकित्सा। दूषित चिकित्सा।
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दुश्चिकित्स्य  : वि० [सं० दुर्√कित्+सन्, द्वित्वादि,+यत्] १. जिसकी चिकित्सा करना बहुत कठिन हो। २. असाध्य। (रोग और रोगी दोनों के सम्बन्ध में)
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दुश्चिक्य  : पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार लग्न से तीसरा स्थान।
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दुश्चित्  : पुं० [सं० दुर्-चित् प्रा० स०] १. आशंका। खटका। २. घबराहट। विकलता।
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दुश्चेष्टा  : स्त्री० [सं० दुर्-चेष्टा प्रा० स०] [वि० दुश्चेष्टित] कुचेष्टा। बुरी चेष्टा।
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दुश्चेष्टित  : पुं० [सं० दुर्-चेष्टित प्रा० स०] १. निंदनीय या बुरा काम। दुष्कर्म। २. छोटा या नीच काम। ३. पाप। गुनाह।
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दुश्च्यवन  : वि० [सं० दुर्-च्यवन प्रा० ब० स०] १. जो जल्दी च्युत न हो सके। २. जो जल्दी विचलित न हो। पुं० इन्द्र।
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दुश्च्याव  : वि० [सं० दुर्-च्याव प्रा० ब० स०] जो जल्दी च्युत न किया जा सके। पुं० शिव। महादेव।
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दुश्मन  : पुं० [फा०] [भाव० दुश्मनी] वैरी। शत्रु।
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दुश्मनी  : स्त्री० [फा०] वैर। शत्रुता।
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दुष्कर  : वि० [सं० दुर्√कृ (करना)+खल्] (काम) जिसे करना कठिन हो। जो मुश्किल से हो सके। दुःसाध्य। पुं० आकाश। आसमान।
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दुष्कर्ण  : पुं० [सं० दुर्-कर्ण प्रा० ब० स०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दुष्कर्म (न्)  : पुं० [सं० दुर्-कर्मन् प्रा० स०] [वि० दुष्कर्म्मा] १. ऐसा काम जिसे करना बहुत कठिन हो। २. अनुचित, निंदनीय, तथा बुरा काम।
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दुष्कर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० दुर्-कर्मन प्रा० ब० स०] दुष्कर्म करनेवाला।
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दुष्कर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० दुष्कर्म+इनि] १. दुष्कर्म या बुरे काम करनेवाला। २. दुराचारी।
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दुष्काल  : पुं० [सं० दुर्-काल प्रा० स०] १. बुरा वक्त। कुसमय। २. अकाल। दुर्भिक्ष। ३. शिव का एक नाम।
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दुष्काव्य  : पुं० [सं० दुर-काव्य प्रा० स०] १. ऐसा काव्य जिसकी रचना बहुत कठिन हो अथवा जो सहज में समझा न जा सके। २. घटिया दरजे का या बुरा काव्य।
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दुष्कीर्ति  : स्त्री० [सं० दुर्-कीर्ति प्रा० स०] बुरी कीर्ति। बदनामी।
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दुष्कुल  : वि० [सं० दुर-कुल प्रा० ब० स०] नीच कुल का। तुच्छ घराने का। पुं० [प्रा० स०] नीच कुल। खराब खानदान या घराना।
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दुष्कुलीन  : वि० [सं० दुष्कुल+ख—ईन] निम्न कुल या नीच घराने का।
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दुष्कुलेय  : वि० [सं० दुष्कुला+ढक्—एय] दुष्कुलीन।
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दुष्कृत  : पुं० [सं दुर्-कृत प्रा० स०] दुष्कर्म।
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दुष्कृति  : वि० [सं० दुर्-कृति प्रा० ब० स०] दुष्कृत्य करनेवाला। कुकर्मी। पुं० [प्रा० स०] बुरा काम। कुकर्म। दुष्कृत्य।
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दुष्कृती(तिन्)  : वि० [सं० दुष्कृत+इनि] दुष्कर्म करनेवाला।
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दुष्क्रम  : पुं० [सं० दुर्-क्रम प्रा० स०] १. अनुचित या कठिन क्रम। २. साहित्य में, किसी उक्ति या रचना के अन्तर्गत लोक विहित या शास्त्र विहित क्रम की उपेक्षा या उल्लंघन जो अर्थ-संबंधी एक दोष माना गया है।
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दुष्क्रीत  : वि० [सं० दुर्√क्री (खरीदना)+क्त] १. जो बहुत कठिनाई से खरीदा गया हो। २. महँगा।
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दुष्ख़दिर  : पुं० [सं० दुर्-खदिर प्रा० स०] एक प्रकार का खैर का पेड़ जिसका कत्था घटिया दरजे का होता है। क्षुद्र खदिर।
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दुष्ट  : वि० [सं०√दुष् (विकृति)+क्त] [स्त्री० दुष्टा] १. जिसमें दोष हो। दूषित। २. जो जान-बूझकर दूसरों को कष्ट देता अथवा तंग या परेशान करता हो। दूषित मनोवृत्तिवाला। ३. पित्त आदि दोषों से युक्त (रोग या व्यक्ति)। पुं० कुष्ठ या कोढ़ नाम का रोग।
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दुष्टचारी (रिन्)  : वि० [सं० दुष्ट√चर् (गति)+णिनि] [स्त्री० दुष्टचारिणी] १. बुरा आचरण करनेवाला। दुराचारी। २. खल दुर्जन।
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दुष्ट-चेता (तस्)  : वि० [सं० ब० स०] १. बुरी बात सोचनेवाला। २. दूसरों का अहित या बुरा चाहनेवाला। अशुभ-चिन्तक। ३. कपटी। छली। धोखेबाज।
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दुष्टता  : स्त्री० [सं० दुष्ट+तल्—टाप्] १. दुष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. दोष। ऐब। ३. खराबी। बुराई। ४. पाजीपन। शरारत। ५. बदमाशी।
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दुष्टत्व  : पुं० [सं० दुष्ट+त्व]=दुष्टता।
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दुष्टपना  : पुं० [हिं. दुष्ट+पन (प्रत्य०)] दुष्टता।
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दुष्टर  : वि० = दुस्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुष्टव्रण  : पुं० [कर्म० स०] १. वह व्रण या घाव जिसमें से दुर्गंध निकलती हो। २. असाध्य व्रण या घाव।
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दुष्ट-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह गवाह जो गलत या झूठी गवाही दे। बुरा गवाह।
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दुष्टा  : वि० [सं० दुष्ट+टाप्] ‘दुष्ट’ का स्त्री०।
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दुष्टाचार  : पुं० [दुष्ट-आचार कर्म. स०] १. खराब या बुरा आचरण। २. अनुचित और निंदनीय काम। दुष्कर्म। वि०=दुराचारी।
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दुष्टाचारी (रिन्)  : वि० [सं० दुष्टाचार+इनि] [स्त्री० दुष्टाचारिणी] १. अनुचित या बुरे काम करनेवाला। २. जिसका आचरण अच्छा न हो।
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दुष्टात्मा (त्मन्)  : वि० [दुष्ट-आत्मन् ब० स०] बुरे अन्तःकरण या विचारोंवाला।
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दुष्टान्न  : पुं० [दुष्ट-अन्न कर्म० स०] १. बिगड़ा हुआ या खराब अन्न। २. बासी या सड़ा हुआ अन्न अथवा भोजन। ३. कुत्सित उपायों से प्राप्त किया हुआ अन्न या भोजन। पाप की कमाई का अन्न या भोजन। ४. कुत्सित कमाई करनेवाले यी नीच व्यक्ति का अन्न या भोजन।
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दुष्टि  : स्त्री० [सं०√दुष् (विकृति)+क्तिच्]=दोष।
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दुष्पच  : वि० [सं० दुर्√पच् (पाक)+खल्] १. (फल आदि) जो कठिनता से पके। २. (खाद्य पदार्थ) जो कठिनता से पचे।
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दुष्पत्र  : पुं० [सं० दुर्-पत्र प्रा० ब० स०] चोर या चोरक नामक गंध द्रव्य।
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दुष्पद  : वि० [सं० दुर्√पद् (गति)+खल्]=दुष्प्राय।
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दुष्पराजय  : वि० [सं० दुर-पराजय प्रा० ब० स०] जिसे पराजित करना कठिन हो। पुं० धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दुष्परिग्रह  : वि० [सं० दुर्-परि√ग्रह् (पकड़ना)+खल्] जिसे पकड़ना अर्थात् अधिकार या वश में करना कठिन हो।
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दुष्परिमेय  : वि० [सं० दुर्-परि√मा (नापना)+यत्] जिसे नापना सहज न हो।
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दुष्पर्श  : वि० [सं० दुर्-स्पृश् (छूना)+खल्] १. जिसे स्पर्श करना कठिन हो। जिसे छूना सहज न हो। २. जो जल्दी मिल न सके। दुष्प्राप्य।
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दुष्पर्शा  : स्त्री० [सं० दुष्पर्श+टाप्] जवासा।
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दुष्पार  : वि० [सं० दुर्√पार् (पार होना)+खल्] १. जिसे कठिनता से पार किया जा सके। २. (कार्य) जो बहुत कठिन या दुस्साध्य हो।
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दुष्पूर  : वि० [सं० दुर्√पूर (भरना)+खल्] १. जिसे भरना कठिन हो। २. जो जल्दी पूरा न हो सके। कठिनता से पूरा होनेवाला। ३. जिसका जल्दी या सहज में निवारण न हो सके।
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दुष्प्रकृति  : वि० [सं० दुर्-प्रकृति प्रा० बा० स०] बुरी प्रकृति या खराब स्वभाववाला (व्यक्ति)। स्त्री० खराब या बुरी प्रकृति अथवा स्वभाव।
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दुष्प्रधर्षे  : वि० [सं० दुर-प्र√धृष् (दबाना)+खल्] जिसे कठिनता से पकड़ा जा सके। पुं० धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दुष्प्रधर्षा  : स्त्री० [सं० दुष्प्रधर्ष+टाप्] १. जवासा। हिगुवा। २. खजूर।
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दुष्प्रधर्षिणी  : स्त्री० [सं० दुष्प्रधर्ष+इनि—ङीष्] १. कंटकारी। भटकटैया। २. बैगन। भंटा।
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दुष्प्रयोग  : पुं० [सं० दुर्-प्रयोग प्रा० ब० स०]=दुरुप्रयोग।
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दुष्प्रवृत्ति  : स्त्री० [सं० दुर्-प्रवृत्ति प्रा० ब० स०] अनुचित या बुरी प्रवृत्ति। वि० दुष्ट या बुरी प्रवृत्तिवाला।
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दुष्प्रवेशा  : स्त्री० [सं० दुर्-प्र√विश् (प्रवेश)+खल्—टाप्] कथारी वृक्ष।
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दुष्प्राप्य  : वि० [सं० दुर्-प्र√आप् (प्राप्त करना)+ण्यत्] जो कठिनता से प्राप्त किया जा सके। जो आसानी से या जल्दी प्राप्त न हो सकता हो।
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दुष्प्रेक्ष  : वि० [सं० दुर्-प्र√ईक्ष् (देखना)+खल्]=दुष्प्रेक्ष्य।
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दुष्प्रेक्ष्य  : वि० [सं० दुर्-प्र√ईक्ष्+ण्यत्] १. जिसे देखना कठिन हो। जो सहज में न देखा जा सके। २. जो देखने में बहुत बुरा लगे। कुरूप। भद्दा। ३. भीषण। विकराल।
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दुष्मंत  : पुं०=दुष्यंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुष्यंत  : पुं० [सं०] महाभारत में वर्णित एक प्रसिद्ध पुरुवंशी राजा जो ऐति नामक राजा के पुत्र थे। महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ में इसी दुष्यंत तथा शकुन्तला की प्रेम-गाथा लिखी है। पुं० [सं० दुःख+अंत] दुःख का अंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुष्योदर  : पुं० [सं० दुष्य-उदर ब० स०] एक प्रकार का उदर रोग जो प्रायः असाध्य होता है।
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दुसंत  : पुं०=दुष्यंत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुसट  : वि० [सं० दुष्ट] १. बुरा। खराब। २. नीच। उदा०—दुसट सासना भली दइ।—प्रिथीराज।
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दुसराता  : सं०=दोहराना।
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दुसरिहा  : वि० [हिं. दूसरा+हा (प्रत्य०)] १. अन्य। दूसरा। २. संगी। साथी। ३. दूसरी बार होनेवाला। ४. अपर या विरोधी पक्ष का। प्रतिद्वंद्वी। प्रतियोगी। (पूरब)
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दुसह  : वि० [सं० दुःसह] जो सहज में सहा न जाय। दुस्सह।
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दुसही  : वि० [हिं० दुःसह+ई (प्रत्य०)] १. जिसे सहना बहुत कठिन हो। २. जो दूसरों की उन्नति, भलाई आदि देख या सह न सके; अर्थात् ईर्ष्या या डाह करनेवाला।
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दुसाख़ा  : पुं०=दोशाखा।
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दुसाध  : पुं० [सं० दोषाद वा दुःसाध्य] हिंदुओं में एक जाति जो सूअर पालती है। वि० [?] अधम। नीच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुसार  : पुं० [हिं० दो+सालाना] आर-पार किया या गया हुआ छेद। क्रि० वि० इस पार या सिरे से उस पार या दूसरे सिरे तक। वि० [सं० दुःशल्य] बहुत कष्ट देनेवाला।
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दुसाल  : पुं०, क्रि० वि०, वि०=दुसार।
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दुसाला  : पुं०=दुशाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुसासन  : पुं० = दुःशासन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुसाहा  : पुं० [देश०] जिसमें दो फसलें होती हों। दो-फसला खेत।
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दुसूती  : स्त्री० [हिं० दो०+सूत] एक प्रकार का मोटा मजबूत कपड़ा जिसमें दो-दो तागों का ताना और बाना होता है।
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दुसेजा  : पुं० [हिं० दो+सेज] ऐसी बड़ी खाट या पलंग जिस पर दो आदमी एक साथ सो सकते हों।
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दुस्तम  : वि०=दुस्तर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुस्तर  : वि० [सं०] १. जिसे तैर कर पार करना कठिन हो। २. जिसे पूरा या संपन्न करना कठिन हो। कठिन। दुर्घट।
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दुस्त्यज  : वि० [सं० दुर्√ज्यज् (छोड़ना)+खल्] जिसे छोड़ना या त्यागना कठिन हो।
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दुस्थित  : वि० [सं० दुर√स्था (ठहरना)+क्त] [भाव० दुस्थिति] १. जो कठिन या बुरी स्थिति में हो। २. दुर्दशाग्रस्त।
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दुस्स्पर्श  : वि० [सं०] दुष्पर्श। (दे०)
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दुस्सपर्शा  : स्त्री० [सं०] १. जवासा। केवाँच। २. भटकटैया।
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दुस्स्पृष्ट  : पुं० [सं० दुर√स्पृश् (छूना)+क्त] १. हलका स्पर्श। २. जिह्वा का ईषत् स्पर्श जिससे य्, र्, ल् और व् ध्वनियों का उच्चारण होता है।
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दुस्स्मर  : वि० [सं० दुर्√स्मृ (स्मरण)+खल्] जिसे स्मरण करना या रखना कठिन हो।
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दुस्सह  : वि० [सं० दुर्√सह् (सहना)+खल्] जिसे सह सकना बहुत कठिन हो। दुःसह।
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दुहकर  : वि०=दुष्कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहता  : पुं० [सं० दौहित्र] [स्त्री० दुहती] बेटी का बेटा। दोहता। नाती।
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दुहत्थड़  : क्रि० वि०, पुं०=दोहत्थड़।
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दुहत्था  : वि०=दोहत्था।
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दुहत्था शासन  : पुं०= द्विदल शासन।
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दुहत्थी  : स्त्री०=दोहत्थी।
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दुहना  : सं०=दोहनी। स्त्री०=दुहिता।
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दुहरना  : अ० [?] दोहराया जाना। स०=दोहराना।
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दुहरा  : वि० [स्त्री० दुहरी]=दोहरा।
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दुहराना  : स०=दोहराना।
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दुहा  : वि०, स्त्री० [सं०] जो दुही जा सके। स्त्री० गाय। गौ। वि०=दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) उदा०—ऐके ठाहर दूहा बसेरा। पुं०=दूहा या दोहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहाई  : स्त्री० [सं० द्विधाकृतम् (दो टुकड़े कर डाला अर्थात् बचाओ मुझे मारडाला) का प्रा० रूप अथवा सं० द्वि=दो+आह्वाय=पुकार] १. ऐसी सूचना जो उच्च स्वर से पुकारते हुए सब लोगों को दी जाय। मुनादी। मुहा०—(किसी की) दुहाई फिरना=(क) राजा के सिंहासन पर बैठने पर उसके राज्याधिकार की घोषणा होना (ख) किसी के प्रताप, यश आदि की चारों ओर खूब चर्चा होना। २. भारी कष्ट या विपत्ति आने पर दूसरों से सहायता पाने के लिए की जानेवाली पुकार। अपने बचाव या रक्षा के लिए दीनतापूर्वक चिल्लाकर की जानेवाली याचना। क्रि० प्र०—देना। ३. शपथ। सौगंध। स्त्री० [हिं० दूहना] दूहने की क्रिया, भाव और पारिश्रमिक।
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दुहाग  : पुं० [सं० दुर्भाग्य, प्रा० दुव्भाग] १. दुर्भाग्य। बदकिस्मती। २. वैधव्य। ‘सुहाग’ का विपर्याय।
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दुहागिन  : स्त्री० [हिं० दुहागी] विधवा स्त्री। ‘सुगाहिन’ का विपर्याय।
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दुहागिल  : वि०=दुहागी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहागी  : वि० [हिं० दुहाग+ई (प्रत्य०)] १. अभागा। २. अना। ३. खाली। ४. निर्जन। सूना।
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दुहाजू  : वि० [सं० द्विभार्य] १. (पुरुष) जो पहली स्त्री के मर जाने पर दूसरा विवाह करे। २. (स्त्री) जो पहले पति के मरने पर दूसरा विवाह करे।
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दुहाना  : सं० [हिं० दूहना का प्रे०] गाय आदि दुहने में किसी को प्रवृत्त करना। दुहने का काम किसी से कराना।
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दुहाव  : पुं० [हिं० दुहाना] १. गौ, भैंस आदि दुहने की क्रिया या भाव। २. एक प्राचीन प्रथा जिसके अनुसार जमींदार प्रति वर्ष जन्माष्टमी आदि त्योहारों पर किसानों की गाय-भैंसों का दूध दुहाकर ले लेता था। ३. उक्त प्रथा के अनुसार दिया या लिया जानेवाला दूध।
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दुहावनी  : स्त्री० [हिं० दुहाना] वह धन जो ग्वाले को गौ, भैंस आदि दुहने के बदले दिया जाता है। दूध दुहने की मजदूरी।
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दुहिता (तृ)  : स्त्री० [सं०√दुह+तृच्] बेटी। लड़की। विशेष—प्राचीन काव में गौएँ आदि दुहने का काम प्रायः लड़कियाँ ही करती थीं, इसी से उनका यह नाम पड़ा था।
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दुहितृका  : स्त्री० [सं०] गुड़िया। पंचाली।
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दुहितृ-पति  : पुं० [सं० ष० त०] दुहिता अर्थात् बेटी का पति। जामाता। दामाद।
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दुहिन  : पुं० [सं० द्रुहण] ब्रह्मा।
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दुहुँधा  : क्रि० वि० [हिं० दु=दो+धा=ओर] १. दोनों ओर। उदा०—मोटी पीर परम पुरुषोत्तम दुःख मेर्यौ दुहुँधा कौ।—सूर। २. दोनों तरह से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहूँ  : वि० [हिं० दो+हूँ (प्रत्य०)] १. दोनों। उदा०—दुहूँ भाँति असमंजसै, वाण चले सुखपाय।—केशव। २. दोनों को।
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दुहेन्  : स्त्री० [हिं० दुहना] दूध देनेवाली गाय।
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दुहेरा  : वि० १.=दुहेला। २.=दोहरा।
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दुहेल  : पुं० [सं० दुर्हेल] दुःख। विपत्ति। मुसीबत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहेलरा  : वि० [स्त्री० दुहेलरी]=दुहेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दुहेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहेला  : वि० [सं० दुर्हेल=कठिन खेल] [स्त्री० दुहेली] १.कष्ट-प्रद। दुःखदायी। २. दुसाध्य। कठिन। उदा०—भगति दुहेली राम की।—कबीर। ३.कष्ट या विपत्ति में पड़ा हुआ। दीन। दुखिया। उदा०—दरस बिनु खड़ी दुहेली।—मीराँ। ४. दुःखमय। दुःखपूर्ण। पुं० विकट या दुःखदायक कार्य।
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दुहैया  : वि० [हिं० दुहना] गौ, भैंस आदि दूहने का कार्य करने वाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दुहाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुहोतरा  : वि० [हिं० दो+सं० उत्तर] गिनती में दो से अधिक। पुं०=दोहतरा (नाती)।
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दुह्य  : वि० [सं०] [स्त्री० दुह्या] १. जिसे दूहा जा सके। दूहे जाने के योग्य। २. जो दूहा जाने को हो।
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दुह्यु  : पुं० [सं०] शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न ययाती राजा के एक पुत्र का नाम।
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दूँगड़ा  : पुं०=दौंगरा।
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दूँगरा  : पुं०=दौंगरा।
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दूँद  : पुं० [सं० द्वंद्व] १. ऊधम। उपद्रव। क्रि० प्र०—मचाना। २. दे० ‘द्वंद्व’।
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दूँदना  : अ० [हिं० दूँद] १. उपद्रव करना। ऊधम मचाना। २. जोर का शब्द करना।
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दूँदर  : वि[सं० द्वंद्व] बलवान्। शक्तिशाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूँदि  : स्त्री०=दूँद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दू  : वि०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूआ  : पुं० [हिं० दो+आ (प्रत्य०)] १. ताश या गंजीफे में वह पत्ता जिस पर दो बूटियाँ या बिंदियाँ हों। दुक्की। २. पासे, सोलही आदि का ऐसा दाँव जिसमें दो बिंदियाँ ऊपर रहती अथवा दो कौड़ियाँ चित्त पड़ती हैं। (जुआरी) वि०=दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [देश०] कलाई पर सब गहनों के पीछे की ओर पहना जाने वाला पिछेली नामक गहना। स्त्री०=दुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूइ  : वि०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दुइज  : स्त्री०=दूज (द्वितीया तिथि)।
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दूई  : वि०=दो। स्त्री०=दुई।
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दूक  : वि० [सं० द्वैक] दो एक, अर्थात् कुछ या थोड़े से।
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दूकान  : स्त्री०=दुकान।
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दूकानदार  : पुं०=दुकानदार।
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दूकानदारी  : स्त्री०=दुकानदारी।
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दूख  : पुं०=दुःख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूखन  : पुं०=दूषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूखना  : स० [सं० दूषण+ना (प्रत्य०)] किसी पर दोष लगाना। किसी को बुरा ठहराना या बताना। अ० [?] नष्ट होना। स० नष्ट करना। अ०=दुखना।
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दूखित  : वि० १.=दूषित। २.=दुःखित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूगला  : पुं० [देश०] एक तरह का बड़ा टोकरा। वि०, पुं०=दोगला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूगुन  : वि०=दूना (दुगुना)। स्त्री०=दुगून।
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दूगू  : पुं० [देश०] एक तरह का पहाड़ी बकरा।
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दूज  : स्त्री० [सं० द्वितीया, प्रा० दुइय, दुइज], चांद्रमास के हर पक्ष की दूसरी तिथि। दुइज। द्वितीया। पद—दूज का चाँद=ऐसा व्यक्ति जो बहुत दिनों पर दिखाई देता या मिलता हो। (परिहास और व्यंग्य)
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दूजा  : वि० [सं०द्वितीया, प्रा० दुइय] [स्त्री० दूजी] १. दूसरा। (पश्चिम) २. पराया।
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दूझना  : स० [सं० दुःख] कष्ट या दुःख देना।
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दूझा  : वि०=दूजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूत  : पुं० [सं०√दू (दुखी होना)+क्त] [स्त्री० दूती] १. वह व्यक्ति जो किसी का सन्देश लेकर कहीं जाय। दूसरों के सन्देश अभिप्रेत व्यक्ति तक पहुँचाने वाला। २. प्रेमी और प्रेमिका के सन्देश एक दूसरे को पहुँचानेवाला व्यक्ति। ३. वह जो एक दूसरे की बातें इधर-उधर लगाकर दोनों पक्षों में लड़ाई-झगड़ा कराता हो। (क्व०) ४. दे० ‘राजदूत’।
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दूतक  : पुं० [सं० दूत+कन्] १. प्राचीन भारत में, वह कर्मचारी जो राजा की दी हुई आज्ञा का सर्व-साधारण में प्रचार करता था। २. दूत।
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दूतकत्व  : पुं० [सं० दूतक+त्व] १. दूतक का काम, पद या भाव। २. दूत का काम, पद या भाव।
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दूत-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] दूत का काम। दूतत्व।
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दूत-काव्य  : पुं० [मध्य० स०] ऐसा काव्य जिसमें मुख्यतः किसी दूत के द्वारा प्रिय के पास विरह निवेदन भेजा गया हो। जैसे—मेघदूत, पवनदूत।
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दूतघ्नी  : स्त्री० [सं० दूत√हन् (हिंसा)+टक्—ङीष्] गोरखमुंडी। कदंबपुष्पी।
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दूतता  : स्त्री० [सं० दूत+तल्—टाप्] दूत का काम, पद या भाव। दूतत्व।
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दूतत्व  : पुं० [सं० दूत+त्व] दूत का काम, पद या भाव। दूतता।
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दूतपन  : पुं० [सं० दूत+हिं० पन (प्रत्य०)] दूतत्व।
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दूत-मंडल  : पुं० [ष० त०] आधुनिक राजनीति में, एक देश से दूसरे देश को किसी काम के लिए भेजे हुए दूतों का दल या समूह।
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दूतर  : वि०=दुस्तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूतायन  : पुं० दे० ‘दूतावास’।
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दूतावास  : पुं० [दूत-आवास, ष० त०] वह भवन या क्षेत्र जिसमें किसी दूसरे राज्य के राजदूत तथा उसके साथ के कर्मचारी रहते तथा काम करते हों। राजदूत का कार्यालय। (लीगेशन)
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दूति  : स्त्री० [सं०√दू+ति]=दूती।
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दूतिका  : स्त्री० [सं० दूति+कन्—टाप्] दूती।
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दूती  : स्त्री० [सं० दूति+ङीष्] १. संदेश पहुँचानेवाली स्त्री। २. साहित्य में, वह स्त्री जो प्रेमिका का संदेश प्रेमी तक और प्रेमी का संदेश प्रेमिका तक पहुँचाती है। इसके उत्तमा, मध्यमा और अधमा तीन भेद है। ३. दे० ‘कुटनी’।
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दूत्य  : पुं० [सं० दूत+य] दूत का काम, पद या भाव।
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दूद  : पुं० [फा०] धुआँ।
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दूदकश  : पुं० [फा०] १. धूआँ बाहर निकालने की चिमनी। २. एक प्रकार का दमकला जिससे धूआँ देकर पौधों में लगे हुए कीड़े नष्ट किये जाते हैं।
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दूदला  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़। डुडला।
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दूदुह  : पुं० [सं० दुंडुभ] पानी का साँप। डेड़हा (डिं०)
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दूध  : पुं० [सं० दुग्ध] १. सफेद या हल्के पीले रंग का वह पौष्टिक तरल पदार्थ जो मादा स्तनपायी जीवों के स्तनों में शिशु के जन्म लेने पर उत्पन्न होता है, तथा जिसे वे नवजात शिशुओं को पिलाकर उनका पालन-पोषण करती है। मुहा०—दूध उतरना=संतान होने के समय मादा के स्तन में दूध का आर्विभाव होना। (किसी के मुँह से) दूद की बू आना=अवस्था या वय के विचार से दूध पीनेवाले बच्चों से कुछ ही बड़ा होना। अल्पवयस्क होना। दूध चढ़ना=दुहते समय गाय, भैंस आदि का अपने दूध को स्तनों में ऊपर की ओर खींच ले जाना जिससे दुहनेवाला उसको खींचकर बाहर न निकाल सके। (बच्चे का दूध) छुड़ाना=बच्चे को दूध पीने की प्रवृत्ति इस प्रकार धीरे-धीरे कम करना कि वह माता का दूध पीना छोड़ दे। (बच्चे का) दूध टूटना=स्तनों से निकलनेवाले दूध की मात्रा कम होना। दूध डालना=बच्चे का दूध पीते ही उसे उगलकर बाहर निकाल देना। जैसे—दो तीन दिन से यह बच्चा दूध डाल रहा है। (मादा का) दूध दुहना=स्तनों को बार बार दबाते हुए उनमें से दूध बाहर निकालना। दूध बढ़ाना=दे० ‘दूध छुड़ाना’। (देखें ऊपर) पद—दूध का बच्चा=वह छोटा बच्चा जो केवल दूध पीकर रहता हो। दूध के दाँत=छोटे बच्चे के वे दाँत जो पहले-पहल दूध पीने की अवस्था में निकलते हैं और छः सात वर्ष की अवस्था में जिनके गिरजाने पर दूसरे नये दाँत निकलते हैं। दूध-पीता बच्चा=गोद में रहनेवाला वह छोटा बच्चा जिसका आहार कभी केवल दूध हो। दूधों नहाओं, पूतों फलो=धन-संपत्ति और संतान की ओर से खूब सुखी रहो। (आशीष) २. गाय, बकरी, भैंस आदि के थनों को दूहकर निकाला जानेवाला उक्त तरल पदार्थ। मुहा०—दूध उछालना=खौलते हुए दूध को ठंढा करने के लिए कहाड़ी आदि में से निकालकर बार-बार ऊपर से नीचे गिराना। (किसी को) दूध की मक्खी की तरह निकालना या निकाल देना=किसी मनुष्य को परम अनावश्यक और तुच्छ अथवा हानिकारक समझकर अपने साथ या किसी कार्य से बिलकुल अलग कर देना। दूध तोड़ना=गरम दूध खूब हिलाकर ठंढ़ा करना। (किसी चीज का) दूध पीना=बहुत ही सुरक्षित अवस्था में बने रहना। जैसे—आपके रूपए दूध पीते हैं, जब चाहें तब ले लें। दूध फटना=दूध में किसी प्रकार का रासायनिक विकार होने अथवा विकार उत्पन्न किये जाने पर जलीय अंश का उसके सार भाग से अलग होना। दूध फाड़ना=खटाई आदि डालकर ऐसी क्रिया करना जिससे दूध का जलीय अंश और सार भाग अलग हो जाय। पद—दूध का दूध और पानी का पानी=ऐसा ठीक और पूरा न्याय जिसमें उचित और अनुचित बातें एक दूसरे से बिलकुल अलग होकर स्पष्ट रूप से सामने आ जायँ। ठीक उसी तरह का न्याय जिस तरह पानी मिले हुए दूध में से दूध का अंश अलग और पानी का अंश अलग हो जाता है। दूध का-सा उबाल=उसी प्रकार का कोई क्षणिक आवेग, आवेश या मनोविकार जो उबलते हुए दूध के उबाल की तरह बहुत थोड़ी देर में धीमा पड़ जाता या शांत हो जाता हो। ३. कई प्रकार के पत्तो, फलों, बीजों आदि में से निकलनेवाला गाढ़ा सफेद रस। जैसे—गेहूँ, बरगद या मदार का दूध। मुहा०—(किसी चीज में) दूध आना या पड़ना=उक्त प्रकार से रस का आविर्भाव होना जो दानों, बीजों आदि के तैयार होने या पकने का सूचक होता है। ४. रासायनिक क्रिया से दूध का बना हुआ सूखा चूर्ण जो प्रायः डिब्बों में बंद किया हुआ मिलता है।
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दूध-चढ़ी  : वि० [हिं० दूध+चढ़ना] जो बहुत अधिक दूध देती हो।
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दूध-पिलाई  : स्त्री० [हिं० दूध+पिलाना] १. दूध पिलानेवाली दाई। २. दूसरे के बच्चे को अपने स्तन का दूध पिलाने के बदले में मिलनेवाला धन। ३. विवाह के समय की एक रसम जिसमें वर की माँ उसे (वर को) दूध पिलाने की-सी मुद्रा करती है। ४. उक्त रसम के समय माता को मिलनेवाला नेग।
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दूध-पूत  : पुं० [हिं० दूध+पूत=पुत्र] धन और संतत्ति।
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दूध-फेनी  : स्त्री० [सं० दुग्धफेनी] एक प्रकार का पौधा जो दवा के काम आता है। स्त्री० [हिं० दूध+फेनी] दूध में भिगोई या पकाई हुई फेनी।
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दूध-बहन  : स्त्री०=दूध-भाई का स्त्री० (दे० ‘दूध-भाई’)।
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दूध भाई  : पुं० [हिं० दूध+भाई] [स्त्री० दूध-बहन] ऐसे दो बालकों में से कोई एक जो किसी एक स्त्री के स्तन का दूध पीकर पलें हों फिर भी जो अलग-अलग माता-पिता से उत्पन्न हुए हों।
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दूध-मलाई  : स्त्री० [हिं०] पुरानी चाल की एक प्रकार की बूटीदार मलमल।
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दूध-मसहरी  : स्त्री० [हिं० दूध+मसहरी] एक तरह का रेशमी कपड़ा।
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दूधमुँहाँ  : वि०=दुध-मुँहाँ।
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दूधमुख  : वि०=दुध-मुँहाँ।
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दूधराज  : पुं० [देश०] १. एक प्रकार की बुलबुल जो भारत, अफगानिस्तान और तुर्किस्तान में पाई जाती है। इसे शाह बुलबुल भी कहते हैं। २. बहुत बड़े फनवाला एक प्रकार का साँप।
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दूध-सार  : पुं० [हिं० दूध+सं० सार] १. एक प्रकार का बढिया केला। २. रासायनिक क्रियाओं से बनाया हुआ दूध का सत जो सूखे चूर्ण के रूप में बाजारों में बिकता है।
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दूध-हंडी  : स्त्री० [हिं० दूध+हंडी] वह हाँड़ी जिसमें दूध गरमाया अथवा रखा जाता है।
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दूधा  : पुं० [हिं० दूध] १. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है और जिसका चावल वर्षों तक रह सकता है। २. अन्न के कच्चे दानों में से निकलनेवाला दूध की तरह का सफेद रस।
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दूधाधारी  : वि०=दूधाहारी।
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दूधा-भाती  : स्त्री० [हिं० दूध+भात] विवाह के उपरांत की एक रसम जिसमें वर और कन्या एक दूसरे को दूध और भात खिलाते हैं।
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दूधाहारी  : वि० [हिं० दूध+आहारी] जो केवल दूध पीकर निर्वाह करता हो, अन्न, फल आदि न खाता हो।
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दूधिया  : वि० [हिं० दूध+इया (प्रत्य०)] १. जिसमें दूध मिला हो अथवा जो दूध के योग से बना हो। जैसे—दूधिया भाँग, दूधिया हलुआ २. जिसमें दूध होता हो। जैसे—दूधिया सिंघाड़ा। ३. जो दूध के रूप में हो। जैसे—दूधिया निर्यास। ४. दूध के रंग का। ५. ऐसा सफेद जिसमें कुछ नीली झलक हो। (मिल्की) पुं० १. एक तरह का सोहन हलुआ जो दूध के योग से बनता है। २. एक प्रकार का सफेद रत्न। ३. एक प्रकार का सफेद तथा मुलायम पत्थर। ४. ऐसा सफ़ेद रंग जिसमें नीली झलक हो। ५. एक तरह का बढ़िया आम। स्त्री० [सं० दुग्धिका] १. दुद्धी नाम का घास। २. एक प्रकार की चरी या ज्वार। ३. खडि़या या खड़ी नामक सफेद खनिज मिट्टी। ४. एक प्रकार की चिड़िया जिसे लटोरा भी कहते हैं।
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दूधिया-कंजई  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का रंग जो नीलापन लिये हुए भूरा अर्थात् कंजे के रंग से कुछ खुलता हो। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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दूधिया-खाकी  : वि० [हिं० दूधिया+खाकी] सफेद राख के से रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग।
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दूधिया-पत्थर  : पुं० [हिं० दूधिया+पत्थर] १. एक प्रकार का मुलायम सफेद पत्थर जिससे कटोरियाँ, प्याले आदि बनते हैं। २. एक प्रकार का बहुत चमकीला और चिकना बड़ा पत्थर जिसकी गिनती रत्नों में होती है।
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दूधिया-विष  : पुं० [हिं० दूधिया+विष] कलियारी की जाति का एक विष जिसके सुन्दर पौधे काश्मीर तथा हिमालय के पश्चिमी भाग में मिलते हैं। इसे ‘तेलिया विष’ और ‘मीठा जहर’ भी कहते हैं।
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दूधी  : स्त्री०=दुद्धी।
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दून  : स्त्री० [हिं० दूना] १. दूने होने की अवस्था या भाव। मुहा०—दून की लेना या हाँकना=अपनी शक्ति, सामर्थ्य आदि के संबंध में बहुत कुछ बढ़-बढ़कर बातें करना। शेखी हाँकना। दून की सूझना=ऐसी बात सूझना जो सहज में पूरी न हो सकती हो। २. जितना समय लगाकर गाना या बजाना आरंभ किया जाय आगे चलकर लय बढाते हुए उससे आधे समय में पूरा करना। ३. ताश के खेल में वह स्थिति जब कोई खिलाड़ी या पक्ष बदी हुई संख्या में सरें आदि न बना सकने के कारण दुगनी हार या भागी समझा जाता है। वि०=दूना। पुं० [देश०] दो पहाड़ों के बीच का मैदान। तराई। घाटी। जैसे—देहरादून।
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दूनर  : वि० [सं० द्विनम्र] जो लचकर दोहरा हो गया हो।
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दून-सिरिस  : पुं० [देश०] एक तरह का सफेद सुगंधित फूलोंवाला सिरिस का पेड़।
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दूना  : वि० [सं० द्विगुण] जितनी कोई संख्या या चीज हो, उससे उतने ही और अधिक अनुपात में होनेवाला। दुगना। दोगुना। जैसे—४ का दूना ८ होता है।
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दूनौ  : वि०=दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूब  : स्त्री० [सं० दूर्वा] एक तरह की प्रसिद्ध घास जिसका व्यवहार हिंदू लोग लक्ष्मी गणेश आदि के पूजन में करते हैं।
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दू-बदू  : क्रि० वि० [फा०] १. आमने-सामने। मुहाँ-मुँह। जैसे—उनसे मिलकर दू-बदू बातें कर लो। २. मुकाबले में। जैसे—तुम तो अपने बड़ों से भी दू-बदू कहा-सुनी करते हो।
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दूबर  : वि०=दूबरा (दुबला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूबरा  : वि० [सं० दुर्बल] १. दुबला-पतला। क्षीण-काय। कृश। २. कमजोर। दुर्बल। ३. किसी की तुलना में कम योग्यता या शक्तिवाला अथवा हीन।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
दूबला  : वि०=दुबला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूबा  : स्त्री०=दूब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूबिया  : पुं० [हिं० दूब+इया (प्रत्य०)] एक तरह का हरा रंग। हरी घास का-सा रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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दूबे  : पुं० [सं० द्विवेदी] द्विवेदी ब्राह्मण।
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दूभर  : वि० [सं० दुर्भर] १. जो कठिनता से सहन किया जा सके। २. कठिन। मुश्किल। जैसे—आज का दिन कटना दूभर हो रहा है।
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दूमना  : अ० [सं० द्रुम] हिलना-डोलना।
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दूमा  : पुं० [सं० ] एक प्रकार का पुरानी चाल का चमड़े का छोटा थैला जिसमें तिब्बत से चाय भर कर आती थी।
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दूमुहाँ  : वि०=दुमुँहाँ।
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दूरंग  : पुं०=दुर्ग (किला)। उदा०—सवा लष्ष उत्तर सयल, कमऊँ गढ़ दूरंग।—चंदबरदाई।
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दूरंगम  : वि० [सं० दूर√गम् (जाना)+खच्, मुम्]=दूरगामी।
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दूरंतरी  : अव्य० [सं० दूरांतरे] दूर से। उदा०—दुरंतरी आवतौ देखि।—प्रिथीराज।
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दूरंदेश  : वि० [फा० दूरअंदेश] [भाव० दूरंदेशी] अग्र-शोची। दूरदर्शी।
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दूरंदेशी  : स्त्री० [फा०] दूरदर्शिता।
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दूर  : वि० [सं० दूर्√इ (गति)+रक्, धातु का लोप, रलोप, दीर्घ] [फा० दूर] [भाव० दूरत्व, दूरी] जो देश, काल, संबंध, स्थिति आदि के विचार से किसी निश्चित वस्तु, बिंदु व्यक्ति आदि से बहुत अंतर या फासले पर हो। जो निकट, पास या समीप अथवा किसी से मिला हुआ न हो। पद—दूर का=जो पास या समीप का न हो। जिससे घनिष्ठ लगाव या संबंध न हो। जैसे—(क) वे भी हमारे दूर के रिश्तेदार हैं। (ख) ये सब तो बहुत दूर की बातें हैं। दूर का बात=(क) बहुत आगे चलकर आनेवाली बात। (ख) बहुत कठिन और प्रायः अनहोनी-सी बात। (ग) दूरदर्शिता और समझदारी की बात। मुहा०—दूर की कहना=बहुत समझदारी की बात और दूरदर्शिता की बात कहना। दूर की सूझना=दूरदर्शिता की बात ध्यान में आना। (ख) ऐसी बात का ध्यान में आना जो प्रायः अनहोनी या असंभव हो। (व्यंग्य) क्रि० वि० १. देश, काल, संबंध आदि के विचार से किसी निश्चित बिंदु से बहुत अंतर पर। बहुत फासले पर। ‘पास’ का विपर्याय। जैसे—उनका मकान यहाँ से बहुत दूर है। २. अलग। पृथक्। जैसे—वे झगड़ों से दूर रहते हैं। मुहा०-दूर करना=(क) अलग या जुदा करना। अपने पास से हटाना। (ख) न रहने देना। नष्ट कर देना। जैसे—बीमारी दूर करना। दूर खिंचना, भागना या रहना=उपेक्षा, घृणा, तिरस्कार आदि के कारण बिलकुल अलग रहना। पास न आना। बचना। जैसे—इस तरह की बातों में सदा दूर रहना चाहिए। दूर तक पहुँचना=दूर की या बहुत बारीक बात सोचना। दूर दूर करना=उपेक्षा, घृणा आदि के कारण तिरस्कारपूर्वक अपने पास से अलग करना या हटाना। दूर होना=(क) पास से अलग हो जाना। लगाव या संबंध न रह जाना। जैसे—अब वे पुरानी आदतें दूर हो गई हैं। (ख) नष्ट हो जाना। मिट जाना। जैसे—बीमारी दूर हो गई है। पद—दूर क्यों जायँ या जाइए=अपरिमित या दूर दृष्टांत न लेकर परिचित और निकटवाले का ही विचार करें। जैसे—दूर क्यों जायँ, अपने भाई-बंदों को ही देख लीजिए।
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दूरक  : वि० [सं० दूर+णिच्+ण्वुल्—अक] १. दूर करने या हटानेवाला। २. दूर या अलग रखनेवाला, और फलतः विरोधी। उदा०—ये उभय परस्पर पूरक हैं अथवा दूरक यह कौन कहे।—मैथिलीशरण।
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दूरगामी (मिन्)  : वि० [सं० दूर√गम् (जाना)+णिनि] दूर तक गमन करनेवाला।
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दूर-चित्र  : पुं० [मध्य० स०] [वि० दूर-चित्री] वह चित्र या प्रतिकृति जो विद्युत् की सहायता से दूरी पर प्रस्तुत की जाती है। (टेलिफोटोग्राफ)
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दूर-चित्रक  : पुं० [सं० दूरचित्र+क्विप्+णिच्+ण्वुल्—अक] वह यंत्र जिसकी सहायता से दूरचित्र प्रस्तुत किये जाते हैं। (टेलिफोटोग्राफ)
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दूर-चित्रण  : पुं० [स० त०] दूर-चित्रक यंत्र की सहायता से दूर चित्र प्रस्तुत करने की क्रिया या प्रणाली। (टेलिफोटोग्राफी)
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दूरता  : स्त्री० [सं० दूर+तल्—टाप्]=दूरी।
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दूरता-मापक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से भू-मापन, युद्ध-क्षेत्र आदि में वस्तुओं की दूरी जानी जाती है। (टेलिमीटर)
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दूरत्व  : पुं० [सं० दूर+त्व] दूर होने की अवस्था या भाव। दूरी।
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दूर-दर्श  : पुं० [ष० त०] रेडियो की तरह का एक उपकरण जिसमें अभिनय प्रसारण, भाषण, आदि करनेवाले व्यक्तियों के कथन सुनाई पड़ने के साथ-साथ उनके चित्र भी दिखाई पड़ते हैं। (टेलिवीजन)
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दूर-दर्शक  : वि० [ष० त०] १. दूरदर्शी। २. बुद्धिमान। पुं० दूर-बीन। दूर-वीक्षक। (दे०)
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दूरदर्शक-यंत्र  : पुं० [कर्म० स०] दूर-बीन। दूर-वीक्षक।
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दूर-दर्शन  : पुं० [ष० त०] १. दूर की चीज देखना या बात सोचना, समझना। २. [ब० स०] गिद्ध। २. वैज्ञानिक प्रक्रिया जिसमें विद्युत तरंगों की सहायता से बहुत दूर के दृश्य प्रत्यक्ष रूप से सामने दिखाई देते हैं। ४. दे० ‘दूर-दर्श’।
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दूर-दर्शिता  : स्त्री० [सं० दूरदर्शिन्+तल्—टाप्] दूरदर्शी होने की अवस्था, गुण या भाव। दूरंदेशी।
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दूरदर्शी (र्शिन्)  : वि० [सं०] बहुत दूर तक की बात पहले ही सोच तथा समझ लेनेवाला। पुं० १. पंडित। विद्वान २. बुद्धिमान। ३. गिद्ध नामक पक्षी।
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दूर-दृष्टि  : स्त्री० [स० त०] भविष्य की बातों को पहले से ही सोचने-समझने की शक्ति।
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दूर-पात  : वि० [ब० स०] दूर से आने के कारण थका हुआ।
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दूर-पार  : अव्य० [हिं०] इसे दूर करो; और इसका नाम तक न लो। (स्त्रियाँ) उदाह०—गाल पर ऊँगली को रखकर यूँ कहा। मैं तेरे घर जाऊँगी। ऐ दूर-पार।—रंगी।
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दूर-प्रसर  : वि० [ब० स०] दूर तक फैलनेवाला। उदा०—वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में।—निराला।
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दूर-प्रहारी (रिन्)  : वि० [सं० दूर-प्र√हृ (हरण)+णिनि] १. दूर तक प्रहार करनेवाला। २. (तोप या बंदूक) जिसके गोले-गोलियों की उड़ान का पल्ला अधिक लंबा होता है; अर्थात् जो बहुत दूर तक मार करे।
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दूरबा  : स्त्री०=दूर्वा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूरबीन  : वि० [फा०] दूर तक देखनेवाला। स्त्री० दे० ‘दूरवीक्षक’। (यंत्र)
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दूर-बोध  : पुं० [ष० त०] शारीरिक इंद्रियो की सहायता लिये बिना केवल आध्यात्मिक या मानसिक बल से दूसरे के मन की बातें या विचार जानने की क्रिया या विद्या। (टेलिपैथी)
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दूर-बोधी (धिन्)  : पुं० [सं० दूरबोध+इनि] वह जो दूरबोध की कला या विद्या जानता हो। (टेलिपैथिस्ट) वि० दूर-बोध की कला या विद्या से संबंध रखनेवाला। (टेलिपैथिक)
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दूर-भाषक  : पुं० [ष० त०] [वि० दूर-भाषिक] एक प्रसिद्ध यंत्र जिसकी सहायता से दूर बैठे हुए लोग आपस में बात-चीत करते हैं। (टेलिफोन)
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दूर-भाषिक  : वि० [सं०] दूर-भाषक यंत्र संबंधी या उसके द्वारा होनेवाला। (टेलीफोनिक) जैसे—दूर-भाषिक संवाद।
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दूर-मुद्र  : पुं० [सं०] दूर-मुदृक यंत्र की सहायता से अंकित दूर-लेख। (टेलिप्रिंट)
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दूर-मुदृक  : पुं० [सं०] एक आधुनिक यंत्र जिसकी सहायता से दूर-लेख (तार से आये हुए संदेश, समाचार आदि) कागज पर छपते चलते है। (टेलिप्रिंटर) विशेष—वस्तुतः यह दूर-लेखक यंत्र के साथ लगा हुआ एक प्रकार का टंकन यंत्र होता है, जिससे आये हुए संदेश आदि हाथ से लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती, वे आप से आप कागज पर टंकित होते रहते या छपते चलते हैं।
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दूर-मुदृण  : पुं० [सं०] दूर-मुदृक यंत्र के द्वारा संदेश टंकित करने या छापने की प्रक्रिया या प्रणाली। (टेलीप्रिंटिंग)
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दूर-मूल  : पुं० [ब० स०] मूँज।
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दूर-लेख  : पुं० [ष० त०] दूर-लेखक यंत्र कि सहायता से (अथ्राततार द्वारा) आया हुया संदेश या समाचार।(टेलीग्राम)
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दूर-लेखक  : पुं० [ष० त०] १. एक प्रकार का यंत्र जिसके द्वारा कुछ विशिष्ट संकेतों के द्वारा दूरी पर समाचार भेजने का यंत्र। (टेलीग्राफ) २. वह जो उक्त यंत्र के द्वारा समाचार भेजने और प्राप्त करने की विद्या जानता हो। (टेलीग्राफिस्ट)
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दूर-लेखतः (तस्)  : क्रि० वि० [सं० दूरलेख+तस्] दूर-लेखक यंत्र की प्रकिया अथवा सहायता से। (टेलिग्रफिकली) जैसे—उत्तर दूर लेखतः भेजेंगे।
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दूर-लेखी (खिन्)  : वि० [सं० दूरलेख+इनि] दूर-लेख के द्वारा होने या उससे संबध रखनेवाला। (टेलिग्राफिक) जैसे—दूर-लेखी धनादेश। (टेलीग्राफिक मनीआडर)
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दूरवर्ती (तिन्)  : वि० [सं० दूर√व्रत (बरतना)+णिन] जो अधिक दूरी पर स्थित हो। दूर का।
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दूर-वाणी  : स्त्री० दे० ‘दूर भाषक’।
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दूर-वीक्षक  : पुं० [ष० त०] नल के आकार का एक प्रसिद्ध उपकरण जिसे आँखों के सामने सटाकर रखने पर दूर की चीजें कुछ पास और फलतः स्पष्ट दिखाई देती है। दूर-बीन। (टेलिस्कोप)
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दूर-वीक्षण  : पुं० [ष० त०] दूर की चीजें दूर-वीक्षक की सहायता से देखने की क्रिया या भाव।
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दूरस्थ  : वि० [सं० दूर-√स्था (ठहरना)+क] १. जो दूरी पर स्थित हो। २. (घटना) जिसके वर्तमान में घटित होने की संभावना न हो।
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दूरांतरित  : वि० [दूर-अंतरित] १. दूर किया हुआ। २. दूरस्थ।
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दूरागत  : भू० क्र० [दूर-आगत पं० त०] दूर से आया हूआ। उदा०— ‘माँ’। फिर एक किलक दूरागत गूँज उठी कुटिया सूनी।—प्रसाद।
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दूरान्वय  : पुं० [दूर-अन्वय तृ० त०] रचना का वह दोष जो कर्त्ता और क्रिया, विशेष्य और विशेषण आदि के पास-पास न रहने अर्थात् परस्पर अनावश्यक रूप से दूर रहने के कारण उत्पन्न होता है।
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दूरापात  : पुं० [दूर-आपात ब०त०] वह अस्त्र जो दूर से फेंककर चलाया जाय।
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दूरारूढ़  : वि० [दूर-आरुढ़ स० त०] १. बहुत आगे बढ़ा हुआ। २. तीव्र। ३. बद्धमूल। ४. प्रगाढ़।
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दूरि  : वि०=दूर। स्त्री०=दूरी।
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दूरी  : स्त्री० [सं० दूर+ई (प्रत्य०)] १. दूर होने की अवस्था या भाव। २. दो वस्तुओं, विन्दुओं आदि के बीच के बीच का अवकाश, विस्तार या स्थान। स्त्री० [?] खाकी रंग की एक प्रकार की लवा (चिड़िया)।
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दूरीकरण  : पुं० [सं० दूर+च्वि√क्र (करना)+ल्युट्—अन] दूर करने या हटाने की क्रिया या भाव।
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दूरे-अमित्र  : पुं० [ब० स० अलुक् समास] उमचास मरुतों में से एक मरुत् का नाम।
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दूरोह  : पुं० [सं० दूर्√रुह् (चढ़ना)+खल्, दीर्घ] आदित्य सोक जहाँ चढ़कर जाना बहुत कठिन है।
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दूरोहण  : पुं० [सं० दूर्-रोहण प्रा० ब० स०] सूर्य।
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दूर्य  : पुं० [सं० दूर+यत्] १. छोटा कचूर। २. गुह। मल। विष्ठा।
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दूर्वा  : स्त्री० [सं०√ दूर्व् (हिंसा)+अच्—टाप्] एक प्रसिद्ध पवित्र घास जो देवताओं को चढ़ाई जाती है। दूब।
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दूर्वाक्षी  : स्त्री० [सं०] वसुदेव के भाई वृक की स्त्री का नाम। (भागवत)
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दुर्वा-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] १. वह क्षेत्र जिसमें दूब होती हो। २. खेल का वह मैदान जिसमें छोटी-छोटी घास लगी हुई हो। (लान)
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दूर्वाद्य घृत  : पुं० [दूर्वा-आद्य ब० स०, दूर्वद्य-घृत कर्म० स०] वैद्यक में, एक प्रकार की बकरी का घी जिसमें दूब, मजीठ, एलुआ, सफेद चंदन आदि मिलाया जाता है और जिसका व्यहार आँख, मुँह, नाक, कान आदि से रक्त जानेवाला रक्त रोकने के लिए होता है।
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दूर्वाष्टमी  : स्त्री० [दूर्वा-अष्टमी मध्य० स०] भादों सुदी अष्टमी जिस दिन हिंदू व्रत करते हैं।
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दूर्वासोम  : पुं० [सं०] एक तरह की सोमलता। (सुश्रुत)
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दूर्वेष्टिका  : स्त्री० [स० दूर्वा-इष्टिका मध्य० स०] एक तरह की ईंट जिससे यज्ञ की वेदी बनाई जाती थी।
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दूलन  : पुं०=दोलन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूलम  : वि०=दुर्लभ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूलह  : पुं० [सं० दूर्लभ, प्रा० दूल्लह] [स्त्री० दुलहिन] १. वह मनुष्य जिसका विवाह अभी हाल में हुआ हो अथवा शीर्घ ही होने को हो। दुलहा। वर। नौशा। २. स्त्री की दृष्टि से उसका पति या स्वामी। ३. बहुत बना-ठना आदमी। ४. मालिक। स्वामी। वि० जो दूल्हे के समान बना-ठना हो। उदा०—दूलह मेरो कुँवर कन्हैया।—गदाधर भट्ट।
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दूलिका  : स्त्री०=दूली।
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दूलित  : वि०=दोलित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दूली  : स्त्री० [सं० दूर+अच्—ङीष्, लत्व] नील का पेड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूल्हा  : पुं०=दूलह।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूवा  : पु०=दूआ।
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दूवौ  : स्त्री० [अ० दुआ] १. दुआ। प्रार्थना। २. आज्ञा। हुकुम। उदा०—राणी तदि दूवौ दीध रुषमणी।—प्रिथीराज। वि०=दोनों।
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दूश्य  : पुं० [सं०√दू (ताप)+क्विप्, दू√श्यै (दूर करना)+क] खेमा। तंबू।
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दूषक  : वि०[सं०√दूष् (विकार)+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० दूषिका] १. दोष निकालने या लगानेवाला। २. आक्षेप या दोषारोपण करनेवाला। ३. दोष या विकार उत्पन्न करनेवाला।
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दूषण  : पुं० [सं०√दूष् (विकार)+णिच्+ल्युट्—अन] १. दोष लगाने की क्रिया या भाव। २. दोष। ३. अवगुण। बुराई। ४. जैनियों के सामयिक व्रत में ३२ त्याज्य बातें या अवगुण जिनमें से १२ कायिक, १२ वाचिक और १॰ मानसिक हैं। ५. रावण का एक भाई जिसका वध रामचन्द्र ने पंचवटी में किया था। वि० [√दूष्+णिच्+ल्यु—अन] नष्ट करने या मारनेवाला। विनाशक। संहारक। उदा०—लक्षमण अरु शत्रुध्न रीह दानव-दल दूषण।—केशव।
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दूषणारि  : पुं०[सं० दूषण-अरि ष० त०] दूषण नामक राक्षस को मारनेवाले रामचंद्र।
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दूषणीय  : वि० [सं०√दूष+णिच्+अनीयर्] १. जिसमें दोष निकाला जा सके। २. जिस पर दोष लगाया जा सके।
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दूषन  : पुं०=दूषण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूषना  : स० [सं० दूषण] १. दोष लगाना। २. ऐब लगाकर निन्दा या बुराई करना। अ० दोष या अवगुण से युक्त होना।
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दूषि  : स्त्री० [सं०√दूष्+इन्]=दूषिका।
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दूषिका  : स्त्री० [सं० दूषि+कन्—टाप्] १. चित्र बनाने की कूची। २. आँख में से निकलनेवाली मैल। वि० सं० ‘दूषक’ का स्त्री०।
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दूषित  : वि० [सं०√दूष्+क्त] १. जिसमें दोष हो। दोष से युक्त। २. जिस पर दोष लगाया गया हो। ३. बुरा। खराब।
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दूषीविष  : पुं० [सं०√दूष्+ई, दूषी-विष कर्म० स०] शरीर में होनेवाला एक तरह का विष जो धातु को दूषित करता है। इसे हीन विष भी कहते हैं। (सुश्रुत)
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दूष्य  : वि० [सं०√दूष्+णिच्+यत्] १. जिस पर या जिसमें दोष लगाया जा सके। जो दूषित कहे जाने योग्य हो। २. निंदनीय। बुरा। ३. तुच्छ। हीन। पुं० १. कपड़ा। वस्त्र। २. प्राचीन काल की एक प्रकार का ऊनी ओढ़ना या चादर। धुस्सा। ३. खेमा। तंबू। ४. हाथी बाँधने का रस्सा। ५. जहर। विष। ६. पूय। मवाद। ७. प्राचीन भारतीय राजनीति में, ऐसा व्यक्ति जो राज्य या शासन को हानि पहुँचानेवाला हो।
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दूष्य-महामात्र  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा न्यायाधीश या महामात्र जो अंदर ही अंदर राज्य का शत्रु हो या शत्रु-पक्ष से मिला हो। (कौ०)
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दूष्सना  : स०, अ०=दूषना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूसर  : वि०=दूसरा।
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दूसरा  : वि० [हिं० दो+सर (प्रत्य०) पु० हिं० दोसर] [स्त्री० दूसरी] १. जो क्रम या संख्या के विचार से दो के स्थान पर पढ़ता हो। पहले के ठीक बादवाला। जैसे—(क) यह उनका दूसरा लड़का है। (ख) उसके दूसरे दिन वे भी चले गये। २. दो या कई में से कोई एक, विशेषतः प्रस्तुत अथवा उस एक से भिन्न जिसका उल्लेख या चर्चा हुई हो। जैसे—एक पुस्तक तो हमने छाँट ली है; दूसरी कोई आप भी ले लें। ३. प्रस्तुत से भिन्न। जैसे—यह तो दूसरी बात हुई। ४. अतिरिक्त। अन्य। और जैसे—वह दूसरे साधनों से कहीं अधिक धन कमाता है। सर्व० १. जिसकी चर्चा न हुई हो। बचा हुआ। जैसे—कोई दूसरा इसका आनन्द क्या जाने। २. जिसका दोनों पक्षों में से किसी के साथ कोई लगाव या संबंध न हों। जैसे—आपस की बात-चीत (या लड़ाई) में दूसरों को नहीं पड़ना चाहिए।
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दूहना  : स० [सं० दोहन] १.कुछ स्तनपायी मादा जीवों के स्तनों में से उन्हे निचोड़ते तथा दबाते हुए दूध निकालना। जैसे—गाय, भैस या बकरी दूहना। २. अंदर का तरल पदार्थ खींचकर या दबाकर बाहर निकालना। जैसे—थुहर या पपीते की दूध दूहना। ३. किसी वस्तु में से पूरी तरह से या अधिक मात्रा में तत्त्व या सार निकालना। ४. किसी को धोखे में रखकर उससे खूब रुपए या कोई चीज वसूल करना। जैसे—किसी से रुपए दूहना। उदा०—सूर स्याम तब तैं नहिं आए, मनजब त लीम्हों दोही।—सूर। विशेष—इसका प्रयोग (क) उस आधार या व्यक्ति के संबंध में भी होता है जिसे दूहते हैं और (ख) उस पदार्थ के संबंध में भी होता है जो दूहा जाता है।
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दूहनी  : स्त्री०=दोहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूहा  : पुं०=दोहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दूहिया  : पुं० [देश०] एक प्रकार का चूल्हा।
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दृक  : पुं० [सं० √दृ (विदारण)+कक्] छिद्र। छेद। पुं० [?] हीरा।
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दुकाण  : पुं०=दृक्कण।
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दुक्कर्ण  : पुं०[सं० दृश-कर्ण ब० स०] साँप।
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दृक्कर्म (न्)  : पुं० [सं० दृश्-कर्मन् मध्य० स०] वह संस्कार या क्रिया जो ग्रहों को अपने क्षितिज पर लाने के लिए की जाती है। यह संस्कार दो प्रकार का होता है, आक्षदृक् और आपनदृक्। (ज्यो०)
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दृक्काण  : पुं० [यू० डेकानस] फलित ज्योतिष में एक राशि का तीसरा भाग जो दस अंशों का होता है।
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दृक्क्षेप  : पुं० [सं० दृश्-क्षेप ष० त०] १. दृषिटपात। अवलोकन। २. दशम लग्न के नतांश की भुज-ज्या जिसका विचार सूर्यग्रहण के स्पष्टीकरण में किया जाता है।
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दृकपथ  : पुं० [सं० दृश्-पथिन् ष० त०] दृष्टि का मार्ग। दृष्टि-पथ। मुहा०—दृकपथ में आना=दिखाई देना। सामने होना।
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दृक्पात  : पुं०[सं० दृश-पात ष० त०] दृष्टिपात। अवलोकन।
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दृकप्रसादा  : स्त्री० [सं० दृश्-प्र√सद्+णिच्+अण्—टाप्] कुलत्था। कुलत्थांजन।
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दृक्रशक्ति  : स्त्री० [दृश-शक्ति ष० त०] १. देखने की शक्ति। २. प्रकाशरूप चैतन्य। ३. आत्मा।
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दृकश्रुति  : पुं० [सं० दृश्-श्रुति ब० स०] साँप।
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दृखत  : पुं० [सं० दृषत्] पत्थर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दरख्त (वृक्ष)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दृगंचल  : पुं० [सं० दृश्-अंचल ष० त०] १. पलक। २. चितवन। उदा०—चंचल चारु दृगंचल सों।—केशव।
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दृगंबु  : पुं० [सं० दृश्-अंबु ष० त०] आँखों से निकलने वाला पानी। २. अश्रु। आँसू।
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दृग  : पुं० [सं०] १. आँख। नेत्र। (मुहा० के लिए देखो ‘आँख’ के मुहा०) २. देखने की शक्ति। दृष्टि। ३. दो आँखों के आधार पर, दो की संख्या।
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दृगध्यक्ष  : पुं० [सं० दृश-अध्यक्ष ष० त०] सूर्य।
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दृग-मिचाव  : पुं० [सं० दृश्-मीचना] आँख-मीचौली नाम का खेल।
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दृग्गणित  : पुं० [सं० दृश्-गणित मध्य० सं०] जयोतिष में गणित की वह क्रिया जो ग्रहों का वेध करके उनकी यथार्थ या वास्तविक स्थिति के आधार पर की जाती है।
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दृग्गणितैक्य  : पुं० [सं० दृंग्यगणित्-ऐक्य ष० त०] ग्रहों को किसी समय पर गणित से स्पष्ट करके फिर उसे वेधकर णिलाना और न्यूनता या अधिकता जान पड़ने पर उसमें ऐसा संस्कार करना जिससे ग्रहों के वेध और स्पष्ट स्थिति में फिर अंतर न पड़े।
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दृग्गति  : स्त्री० [सं० दृश्-गति ष० त०] १. दृष्टि की गति या पहुँच २. दशम लग्न के नतांश की कोटि-ज्या।
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दृग्गोचर  : वि० [सं० दृश्-गोचर ष० त०] जो आँखों से दिखाई देता हो।
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दृग्गोल  : पुं० [सं० दृश्-गोल मध्य० स०] गणित ज्योतिष में, वह कल्पित व्रत जो ऊर्ध्व स्वस्तिक और अधः स्वास्तिक में होता हुआ माना जाता है और जिसे ग्रहों के उदित होने की दिशा में रखकर उनकी यथार्थ स्थिति का पता लगाया जाता है।
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दृग्ज्या  : स्त्री० [सं० दृश्-ज्या मध्य० स०] दृक्-मंडल या दृग्गोल के खस्वस्तिक से किसी ग्रह के नतांश की ज्या। (देखें ‘नतांश’)
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दृग्भू  : स्त्री० [सं० दृश्√भू (होना)+क्विप्] १. वज्र। २. सूर्य। ३. साँप।
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दृग्लंबन  : पुं० [सं० दृश्-लंबन ब० स०] वह पूर्वापर संस्कार जो ग्रहण स्पष्ट करनें में सूर्यचंद्र गर्भाभिप्राय के एक सूत्र में आ जाने पर उन्हें पृष्ठाभिप्राय से एक सूत्र में लाने के लिए किया जाता है।
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दृग्विष  : पुं०[सं० दृश्-विष ब० स०] ऐसा साँप जिसकी आँखों में विष होता हो, अर्थात जिसके देखने मात्र से छोटे-मोटे जीव मर जाते या मूर्च्छित हो जाते हों।
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दृग्व्रत्त  : पुं० [सं० दृश्-व्रत्त ष० त०] क्षितिज।
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दृङ्नति  : स्त्री० [सं० दृश्-नति ष० त०] गणित ज्योतिष में याम्योत्तर संस्कार जो ग्रहण स्पष्ट करने के समय चंद्रमा और सूर्य को एक सूत्र में लानें के लिए किया जाता है।
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दृङमंडल  : पुं० [सं० दृश्-मंडल ष० त०] दृग्गोल।
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दृढ़  : वि० [सं०√दृह् (मजबूत होना)+क्त] १. जो शिथिल या ढीला न हो। प्रगाढ़। जैसे—दृढ़बंधन। २. जो जल्दी टूट-फूट न सकता हो। पक्का। मजबूत। ३. बलवान और हृष्ट-पुष्ट। ४. जो जल्दी अपने स्थान से इधरः-उधर या विचलित् न हो। जैसे—दृढ़ मनुष्य, दृढ़ विश्वास। ५. जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन या हेर-फेर न हो सकता हो। ध्रुव। जैसे—दृढ़ निश्चय। पुं० १. लोहा। २. विष्णु। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. तेरहवें मनु का एक पुत्र। ५. संगीत में, सात प्रकार के रूपकों में से एक। ६. गणित में, ऐसा अंक जिसे विभाजित करने पर पूरे या समूचे विभाग न हो सकें, केवल खंडित विभाग हों। ताक अदद। जैसे—३, १, ७, २५ आदि।
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दृढ़-कंटक  : पुं० [ब० स०] क्षुद्रफलक वृक्ष।
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दृढ़-कर्मा (र्मन्)  : वि० [ब० स०] जो अपना काम दृढ़ता-पूर्वक अर्थात् धैर्य और स्थिरता से करता हो।
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दृढ़क-व्यूह  : पु० [सं० दृढ़+कन्, दृढ़क-व्यूह कर्म० स०] ऐसी व्यूह-रचना जिसमें पक्ष तथा कक्ष कुछ-कुछ पीछे हटे हों। (कौ०)
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दृढ़-कांड  : पुं० [ब० स०] १. बाँस। २. रोहिस घास।
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दृढ़-कांड़ा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] पातालगारुड़ी लता। छिरेंटा।
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दृढ़कारिता  : स्त्री०[सं० दृढकारिन्+तल्—टाप्] किसी चीज या बात को दृढ़ या पक्का करने की क्रिया या भाव।
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दृढकारी (रिन्)  : वि० [सं० दृढ़√कृ (करना)+णिनि] [भाव० दृढ़कारिता] १. दृढ़ता से काम करनेवाला। २. किसी चीज या बात को दृढ़ या मजबूत करनेवाला।
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दृढ़क्षत्र  : पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
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दृढ़-क्षुरा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] वल्वजा तृण। सागे-बागे।
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दृढ़-गात्रिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्, इत्व] १. राब। २. कच्ची चीनी। खाँड़।
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दृढ़-ग्रंथि  : वि० [ब० स०] जिसकी गाँठें मजबूत हों। पुं० बाँस।
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दृढ़-चेता (तस्)  : वि० [ब० स०] दृढ़ या पक्के विचारों अथवा संकल्पों वाला।
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दृढ़च्छद  : पुं० [ब० स०] दीर्घरोहिष तृण। बड़ी रोहिस।
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दृढ़-च्युत्  : पुं० [सं०] परपुरंजय नामक राजा की कन्या के गर्भ से उत्पन्न अगस्त्य मुनि के एक पुत्र।
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दृढ़-तरु  : पुं० [कर्म० स०] धव का पेड़।
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दृढ़ता  : स्त्री० [सं० दृढ़+तल्—टाप्] १. दृढ़ होने की अवस्था, गुण या भावो। २. पक्कापन। मजबूती। ३. अपने विचार, प्रतिज्ञा आदि पर जमे रहने का भाव।
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दृढ़-तृण  : पुं० [ब० स०] मूँज नाम की घास।
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दृढ़-तृणा  : स्त्री० [ब०स०, टाप्] वल्वजा तृण।
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दृढ़त्व  : पुं० [सं० दृढ़+त्व]=दृढ़ता।
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दृढ़-त्वच्  : वि० [ब० स०] जिसकी त्वचा या छाल कड़ी हो। पुं० ज्वार का पौधा।
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दृढ़-दंशक  : पुं० [कर्म० स० ] एक प्रकार का जल-जंतु।
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दृढ़-दस्यु  : पुं० [सं०] एक ऋषि जो दृढ़च्यूत के पुत्र थे।
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दृढ़-धन  : पुं० [ब० स०] शाक्य मुनि। बुद्घ।
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दृढ़-धन्वा (न्वन्)  : पुं० [ब० स०, अनङ् आदेश] वह जो धनुष चलाने में दृढ़ हो या जिसका धनुष दृढ हो।
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दृढ़धन्वी (न्विन्)  : वि० [कर्म० स०] जिसका धनुष दृढ़ हो।
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दृढ-नाभ  : पुं० [ब० स०] वाल्मीकि के अनुसार अस्त्रों के एक प्रकार का प्रतिकार जो विश्वामित्र जी नें रामचन्द्र को बताया था।
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दृढ़-निश्चय  : वि० [ब० स०] अपने निश्चय अर्थात् विचार या संकल्प पर दृढतापूर्वक अड़ा या जमा रहनेवाला। जो अपने निश्चय से जल्दी न टलता हो।
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दृढ़-नीर  : पुं० [ब० स०] नारियल, जिसके भीतर का जल धीरे-धीरे जम जाता है।
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दृढ़-नेत्र  : पुं० [ब० स०] विश्वामित्र जी के चार पुत्रों में से एक। (वाल्मीक)
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दृढ-नेमि  : वि० [ब० स०] जिसकी नेमि दृढ़ हो। जिसकी धुरी मजबूत हो। पुं० अजमीढ़ वंशीय एक राजा जो सत्यधृति के पुत्र थे।
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दृढ़-पत्र  : वि० [ब० स०] जिसके पत्ते दृढ़ या मजबूत हों। पुं० बाँस।
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दृढ़-पत्री  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] वल्वजा तृण। सागे-बागे।
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दृढ़-पद  : पुं० [ब० स०] तेइस मात्राओं का एक प्रकार का मात्रीक छंद। उपमान।
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दृढ़-पाद  : वि० [ब० स० ] अपने विचारों का पक्का।
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दृढ़-पादा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] यवतिक्ता।
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दृढ़-पादी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] भूम्यामलकी। भूआँवला।
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दृढ़-प्रतिज्ञ  : वि०[ब० स०] जो अपनी प्रतीज्ञा पर अटल रहे। अपनी प्रतीज्ञा पूरी करनेवाला।
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दृढ़-प्ररोह  : पुं० [ब० स०] बट। बरगद।
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दृढ़-फल  : पुं० [ब० स०] नारियल।
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दृढ़-बंधिनी  : स्त्री० [सं० दृढ़√बंध् (बाँधना)+णिनि—ङीप्] अनंत-मूल नाम की लता।
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दृढ़-भूमी  : स्त्री० [ब० स०] योग-साधन में ध्यान की वह भूमि या स्थित जिसमें मन पूरी तरह से एकाग्र और स्थिर हो जाता है और जिसके उपरांत सहज में संसार से विरक्ति हो सकती है।
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दृढ़-मुष्टि  : स्त्री० [ब० स०] १. जिसकी मुट्ठी की पकड़ में खूब मजबूती हो। मुट्ठी में कसकर पकड़ने-वाला २. कंजूस। कृपण। ३. वे अस्त्र जो मुट्ठी में पकड़ कर चलाये जाते हों। जैसे—तलवार, भाला आदि।
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दृढ़-मूल  : पुं० [ब० स०] १. मूँज। २. मंथानक या मथाना नाम की घास जो तालों में होती है। ३. नारियल।
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दृढ़-रंगा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] फिटकरी।
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दृढ़-रोह  : पुं० [ब० स०] पाकर का पेड़।
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दृढ़-लता  : स्त्री० [कर्म० स०] पातालगारुड़ी लता। छिरेंटा।
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दृढ़-लोम् (न्)  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० दृढ़लोम्नी, दृढ़लोमा] जिसके शरीर के रोएँ दृढ़, फलतः कठोर तथा खड़े हों। पुं० सूअर।
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दृढ़-वर्म्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र के पुत्र का नाम।
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दृढ़-वल्कल  : वि० [ब० स०] जिसकी छाल कड़ी हो। पुं० १. सुपारी का पेड़ २. लकुच का पेड़।
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दृढ़-वल्का  : स्त्री० [ब० स० टाप्] अबंष्टा।
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दृढ़-वीज  : वि० [ब० स०] जिसके बीज कडे हों। पुं० १. चकवँड़। २. बेर। ३. कीकर। बबूल।
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दृढवृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] नारियल।
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दृढ़व्य  : पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि।
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दृढ़-व्रत  : वि० [ब० स०] अपने व्रत या संकल्प पर दृढ़ रहनेवाला।
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दृढ़-संध  : वि० [ब० स०] अपनी प्रतिज्ञा या संकल्प पर दृढ़ रहनेवाला। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दृढ़-सूत्रिका  : स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप्, इत्व] मूर्वा नाम की लता। मुर्रा।
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दृढ़-स्कंध  : पुं० [ब० स०] १. पिंडखजूर। २. खिरनी का पेड़।
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दृढ़स्यु  : पुं० [सं०] लोपामुद्रा के गर्भ से उत्पन्न अगस्त्य मुनि का एक पुत्र।
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दृढ़-हस्त  : वि० [ब० स०] १. जो हथियार आदि पकड़ने में पक्का हो। २. जो हर चीज मजबूती से पकड़ सकता हो। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दृढांग  : वि० [दृढ़-अंग ब०स०] दृढ़ अर्थात् मजबूत अंहों या अवयवों-वाला। हष्ट-पुष्ट। पुं० जीरा।
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दृढाई  : स्त्री०=दृढ़ता।
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दृढ़ाना  : स० [हिं० दृढ़+ना (प्रत्य०)] १. दृढ़, मजबूत या कड़ा करना। २. निश्चित या स्थिर करना। उदा०—चलो साथ अस मंत्र दृढ़ाई।—तुलसी। अ० १. दृढ़, मजबूत या कड़ा होना। २. निश्चित या स्थिर होना। पक्का होना।
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दृढ़ायन  : पुं० [सं०] १. दृढ़ या पक्का करना। पुष्टि। २. किसी की कही हुई बात, किये हुए काम अथवा किसी की नियीक्ति आदि को पक्का या ठीक ठहराना। (कनफर्मेशन)
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दृढ़ायु  : पुं० [सं०] १. तृतीय मनु सावर्णि के एक पुत्र का नाम। २. राजा ऐल का एक पुत्र जो उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था।
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दृढ़ायुध  : वि० [दृढ़-आयुध ब० स०] १. अस्त्र ग्रहण करने में पक्का २. युद्ध में तत्पर। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
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दृढ़ाश्व  : पुं० [सं०] धुंधुमार के एक पुत्र का नाम।
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दृढ़ीकरण  : पुं० [सं० दृढ+च्वि√क्र (करना)+ल्यूट—अन)]=दृढ़ायन।
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दृत  : स्त्री० [सं०√दृ (सम्मान,हिंसा)+क्त] [स्त्री० दृता] १. सम्मानित। २. आदृत।
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दृता  : स्त्री० [सं० दृत+टाप्] जीरा।
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दृताग्रवेग  : वि० [सं० दृत-अग्रवेग ब० स०] (सेना) जिसका अग्रभाग नष्ट हो गया हो। दे० ‘प्रतिहृत’।
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दृति  : स्त्री० [सं०√दृ (विदारण)+ति, हृस्वता] १. चमड़ा। खाल। २. खाल का बना हुआ थैला या पात्र। ३. पानी भरने की मशक। ४. गौओं, बैलों आदि के गले का झूलता हुआ चमड़ा। गल-कंबल। ५. बादल। मेघ। ६. एक प्रकार की मछली।
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दृति-धारक  : पुं० [ष० त०] एक प्रकार का पौधा जिसे आनंदी और वामन भी कहते हैं।
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दृतिहरि  : पुं० [सं० दृति√हृ (हरण)+इन्] (खाल या चमड़ा चुरानेवाला) कुत्ता।
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दृतिहार  : पुं० [सं० दृति√हृ+अण्] मशक से पानी भरनेवाला, भिश्ती।
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दृन्भू  : पुं०[सं० √दृम्फ् (कष्ट देना)+कू नि० सिद्धि] १. वज्र। २. सूर्य। ३. राजा। ४. साँप।
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दृप्त  : वि० [सं० √दृप् (गर्व)+क्त] १. इतराया हुआ। गर्वित २. उग्र। प्रचंड़। ३. हर्ष से फूला हुआ। प्रफुल्लित। ४. चमकता हुआ।
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दृप्र  : वि० [सं० √दृप्+रक्] १. प्रचंड। प्रबल। २. जो इतरा रहा हो। अभिमानी। घमंडी।
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दृब्ध  : वि० [सं०√दृभ् (गूथना )+क्त] १. गुथा हुआ। ग्रंथित २. ड़रा हुआ। भयभीत।
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दृश्  : वि० [सं०√दृश् (देखना)+क्विप्] १. देखनेवाला। दर्शक २. दिखानेवाला। प्रदर्शक। पुं० देखने की क्रिया या भाव। स्त्री० १. दृष्टि। २. आँख। ३. दो की संख्या। ४.ज्ञान।
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दृशद्  : स्त्री०=दृषद्।
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दृशद्दती  : स्त्री०=दृषद्वती।
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दृशा  : स्त्री० [सं० दृश+टाप्] आँख।
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दृशाकांक्ष्य  : [सं० दृश्-आकांक्ष्य तृ० त०] कमल।
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दृशान  : पुं० [सं०√दृश्+आनच्] १. उजाला। प्रकाश। २. आभा। चमक। ३. गुरु। शिक्षक। ४. प्रजा का भली-भाँति पालन करनेवाला राजा। ५. ब्राह्मण ६. विरोचन दैत्य का एक नाम।
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दृशि  : स्त्री० [सं०√ द्शृ+इन्]=दृशी।
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दृशी  : स्त्री० [सं० दृशि+ङीष्] १. दृष्टि। २. उजाला। प्रकाश। ३. शास्त्र। ४. शरीर के अंदर का चेतन पुरुष।
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दृशीक  : वि० [सं०] १. ध्यान देने योग्य। २. सुंदर।
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दृशोपम  : पुं० [सं० दृशा-उपमा ब० स०] सफेद। कमल। पुंडरीक।
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दृश्य  : वि० [सं०√दृश्+क्यप्] १. जो देखने में आ सके या दिखाई दे सके। जिसे देख सकते हों। चाक्षुस। (विजुअल ) जैसे—दृश्य जगत् या पदार्थ। २. जो दिखाई देता हो। ३. जो ठीक तरह से जाना जाता या समझ में आता हो। ज्ञेय और स्पष्ट। ४. जो देखे जाने के योग्य हो। ५. दर्शनीय। मनोरम। सुंदर। पुं० १. वह घटना, पदार्थ या स्थल जो आँखों से दिखाई दोता हो। दिखाई दोनोवाली चीज या बात। विशेष—भारतीय श्रौत दर्शनों में दो तत्व माने गये हैं—दृष्टा और दृश्य। ज्ञान स्वरूप चैतन्य को दृष्टा और अचेतन अनात्मभूत जड़ को दृश्य कहा गया है। यह दृश्य तीन प्रकार का माना गया है।—अव्याक्रत, मूर्त और अमूर्त। २. दिखई देनेवाली घटना, वस्तु या स्थल। (व्यू) ३. ऐसी प्राकृतिक, कृत्रिम अथवा अंकित घटना या स्थल जो विशेष रूप से देखे जाने के योग्य हो। दर्शनीय स्थान।(सीनरी) ४. साहित्य में, ऐसा काव्य या रचना जिसका अभिनय हो सकता या होता हो। नाटक। ५. नाटक के किसी अंक का वह स्वतंत्र विभाग जिसमें कोई अंक घटना दिखाई जाती है। (सीन) ६. कोई ऐसा तमाशा या मनोंरंजक व्यापार जो आँखों के सामने हो रहा हो या होता हो। ७. गणित में वह ज्ञात संख्या जो अंकों के रूप दी गई हो। ८. दे० ‘दश्य जगत्’।
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दृश्य-जगत्  : पुं० [कर्म० स०] वह जगत् या संसार जो हमें अपने सामने प्रत्यक्ष दिखाई देता है। वास्तविक जगत्। (फिनामेनल वर्ल्ड)
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दृश्यमान  : वि० [सं० दृश्य+तल्—टाप्] १. दृश्य होने या दिखाई देने की अवस्था या भाव। २. वह स्थित जिसमें देखने की शक्ति अपना काम करती है। (विजिबिलिटी)
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दृश्यमान  : वि० [सं०√दृश्+शान्च्, यक, मुक्] १. जो दिखाई पड़ रहा हो। २. प्रत्यक्ष या स्पष्ट रूप में दिखाई देनेवाला। ३. मनोहर। सुन्दर।
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दृषत् (द्)  : स्त्री० [सं०√दृ (विदारण)+अदि, षुक, ह्रस्व] १. पर्वत की चट्टान। शिला। २. मसाले आदि पीसने की सिल या चक्की।
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दृषद्  : स्त्री०=दृषत्।
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दृषद्वती  : स्त्री० [सं० दृषत्+मतुप्—ङीष्] १. थानेश्वर के पास की एक प्राचीन नदी जिसका नाम ऋग्वेद में आया है। इसे आज-कल घग्घर और राखी कहते हैं। २. विश्वामित्र की एक पत्नी का नाम वि० ‘दृषद्वान्’ का स्त्री०।
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दृषद्वान(वत्)  : विं० [सं० दृषद्+मतुप्] [स्त्री० दृषद्वती] पाषाण युक्त। शिलामय। पथरीला।
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दृष्ट  : वि० [सं०√दृश् (देखना)+क्त] १. देखा हुआ। २. दिखाई पड़नेवाला। ३. प्रकट या व्यक्त होनोवाला। पुं० १. दर्शन। २. साक्षात्कार। ३. सांख्य में प्रत्यक्ष प्रमाण की संख्या।
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दृष्ट-कूट  : पुं० [कर्म० स०] १. पहेली। २. साहित्य में, ऐसी कविता जिसका अर्थ या आशय उसके शब्दों के वाच्यार्थ से नहीं, बल्कि रूढ़ अर्थों से निकलता हो और इसी लिए जिसे साधारणतः सब लोग नहीं समझ सकते।
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दृष्ट-नष्ट  : वि० [सं०] जो एक बार जरा-सा दिखाई देकर ही नष्ट या लुप्त हो जाय।
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दृष्ट-फल  : पुं० [कर्म० स०] दार्शनिक मत से, किसी काम या बात का वह फल जो स्पष्ट रूप से दिखाई देता या प्राप्त होता हो। जैसे—अध्ययन करने से हमें जो ज्ञान होता है, वह अध्ययन का दृष्ट-फल है। विशेष—यदि कहा जाय कि अमुक ग्रंथ का पाठ करने से स्वर्ग मिलेगा, तो यह उसका अदृष्ट-फल माना जायगा।
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दृष्टमान्  : वि० [सं० दृश्यमान्] १. जो दिखाई दे रहा जो। २. प्रकट। व्यक्त।
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दृष्टवत्  : वि० [सं० दृष्ट+वति] १. जो प्रत्यक्ष के समान हो। २. लौकिक। सांसारिक।
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दृष्टवाद  : पुं० [ष० त०] एक दार्शनिक सिद्धान्त जिसमें केवल प्रत्यक्ष क्रियाओं, घटनाओं, चीजों आदि की सत्ता मानी जाती है, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग आदि अदृश्य चीजों की सत्ता नहीं मानी जाती।
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दृष्टवान्  : वि० [सं० दृष्टवत्] प्रत्यक्ष के समान। प्रत्यक्षतुल्य।
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दृष्टांत  : पुं० [सं० दृष्ट-अन्त, ब० स०] १. किसी चीज या बात का अंतिम, निश्चित और प्रामाणिक रूप देखना। २. कोई नई बात कहने अथवा मत प्रकट करने के समय उसकी प्रामाणिकता या सत्यता के पोषण या समर्थन के लिए उसी से मिलती-जुलती कही जानेवाली कोई ऐसी पुरानी और प्रामाणिक घटना या बात जिसे प्रायः लोग जानते हों। मिसाल। (इन्स्टेन्स) जैसे—भाइयों के पारस्परिक प्रेम का उल्लेख करते हुए उन्होंने राम और लक्ष्मण का दृष्टांत दिया। विशेष—उदाहरण और दृष्टांत में मुख्य अंतर यह है कि उदाहरण तो बौद्धिक और व्यावहारिक तथ्यों, पदार्थों, विचारों आदि के संबंध में नियम या परिपाटी के स्पष्टीकरण करने के लिए होता है, परन्तु दृष्टांत प्रायः आचरणों और क्रतियों के संबंध में आदर्श और प्रमाण के रूप में होता है। ‘उदाहरण’ का क्षेत्र अपेक्षाया अधिक विस्तृत और व्यापक हैं, इसी लिए ‘दृष्टांत’ के अन्तर्गत नहीं होता। इसके सिवा उदाहरण का प्रयोग तो साधारण बात-चीत के अवसर पर होता है, परन्तु दृष्टांत का प्रयोग नियम, मर्यादा, विधि, विधान आदि के पालन के प्रसंग में होता है। ३. उक्त के आधार पर साहित्य में, एक प्रकार का सादृश्य-मूलक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान दोंनों से संबंध रखनेवाले वाक्यों में सेधर्म की पररस्परिक समानता और बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव दिखाया जाता है। विशेष—(क) ‘उदाहरण’ और ‘दृष्टांत’ अलंकारों में यह अंतर है कि उदाहरण में तो साधारण का विशेष से और विशेष का साधारण से समर्थन होता है; पर ‘दृष्टांत’ से साधारण की समता साधारण से और विशेष की समता विशेष से होती है। इसके सिवा उदाहरण में मुखय लक्ष्य उपमेय वाक्य (वाक्य का पूर्वार्ध) होता है; पर दृष्टांत में मुख्य लक्षण उपमान वाक्य (वाक्य का उत्तरार्ध) होता है। (ख) दृष्टांत और प्रतिवस्तूपमा में यह अन्तर है कि दृष्टांत में तो कही हुई बातों के सभी धर्मों में समानता होती है; परन्तु प्रतिवस्तूपमा में किसी एक ही धर्म की समानता का उल्लेख होता है। इसी लिए कुछ लोगों का मत है कि इन्हें एक ही अलंकार के दो भेद मानना चाहिए। ४. शास्त्र। ५. मरण। मृत्यू।
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दृष्टार्थ  : पुं० [दृष्ट-अर्थ ब० स०] १. किसी शब्द का वह अर्थ जो बिलकुल स्पष्ट हो और सबकी समझ में आता हो। २. ऐसा शब्द जिसका अर्थ बिलकुल स्पष्ट हो और सबकी समझ में आता हो। ३. ऐसा शब्द जिसका बोध करानेवाला तत्त्व या पदार्थ संसार में वर्तमान हो और प्रत्यक्ष दिखाई देता या देखा जा सकता हो। जैसे—गंगा, मनुष्य, सूर्य।
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दृष्टि  : स्त्री० [स०√दृश्+क्तिन्] १. आँखों से देखकर ज्ञानप्राप्त करने या जानने-समझने का भाव, वृत्ति या शक्ति। अवलोकन। नजर। निगाह। २. देखने के लिए खुली हुई अथवा देखने में प्रवृत्त आँखें। जैसे—जहाँ तक दृष्टि जाती थी, वहाँ तक जल ही जल दिखाई देता था। क्रि० प्र०—डालना।—देना।—फेंकना।—रखना। मुहा०—दृष्टि चलाना=किसी ओर ताकना या देखना। (किसी से) दृष्टि चुराना या बचाना=लज्जा, संकोच आदि के कारण जान-बूझकर किसी के सामने न आना या न होना। जान-बूझकर अलग, दूर या पीछे रहना। (किसी से) दृष्टि जुड़ना=देखा-देखी होना। साक्षात्कार होना। (किसी से) दृष्टि जुड़ना=आँखें मिलाते हुए देखा-देखी या सामना करना। दिखाई देना। साक्षात्कार करना। (किसी की) दृष्टि बाँधना=ऐसा जादू करना कि लोगों को और का और दिखाई दे। (किसी को) दृष्टि भर देखना=जितनी देर इच्छा हो, उतनी देर खूब देखना। जी भरकर ताकना। दृष्टि मारना=आँख या पलकें हिलाकर इशारा या संकेत करना। (किसी ओर) दृष्टि लगाना=ध्यानपूर्वक या स्थिर दृष्टि से देखना। ३. मन में कोई विशष उद्देश्य या विचार रखकर किसी की ओर देखने की क्रिया या भाव। जैसे—अच्छी या बुरी दृष्टि, आशा, कृपा या प्रेम की दृष्टि; अनुसंधान, निरीक्षण या रक्षा की दृष्टि। क्रि० प्र०—रखना। मुहा०—(किसी की) दृष्टि पर चढ़ना=(क) देखने में बहुत अच्छा लगने के कारण ध्यान में सदा बना रहना। भाना। जैसे—(क) यह किताब हमारी दृष्टि पर चढ़ी हुई है। (ख) दोष आदि के कारण आँखों में खटकना। निगाह पर चढ़ना। जैसे—जब पुलिस की दृष्टि पर चढ़ा है, तब उसका बचना कठिन है। (किसी पर) दृष्टि रखना=किसी को इस प्रकार देखते रहना कि वह इधर-उधर न हो जाय। निगरानी रखना। (किसी की) दृष्टि लगना=ईर्ष्या, द्वेष आदि की दृष्टि का बुरा प्रभाव पड़ना। नजर लगना। ४. अनुग्रह या कृपा के भाव के युक्त होकर देखने की क्रिया, भाव या व्रत्ति। मेहरबानी की नजर। उदा०—कब सो दृष्टि करि बरसइ तन तरुवर होई जाम।—जायसी। मुहा०—(किसी से) दृष्टि फिरना=पहले की-सी कृपा-दृष्टि न रहना। प्रीति या स्नेह न रहना। अप्रसन्न या खिन्न होना। (किसी से) दृष्टि फेरना=(किसी पर) पहले की-सी कृपा-दृष्टि न रखना। अप्रसन्न, खिन्न या विरक्त होना। ५. अनुराग या प्रेम के भाव से युक्त होकर देखने की क्रिया, भाव या वृत्ति। मुहा०—(किसी से) दृष्टि जुड़ना=अनुराग या प्रेम का संबंध स्थापित होना। (किसी से) दृष्टि फिरना=पहले का-सा अनुराग या प्रेम न रह जाना। (किसी से) दृष्टि लगना=(किसी से) दृष्टि जुड़ना। अनुराग या प्रेम का संबंध स्थापित होना। ६. मन में कोई बात सोचने-समझने अथवा उस पर ध्यान देने या विचार करने की विशिष्ट वृत्ति या शक्ति। जैसे—अभी इस ग्रन्थ (या विषय) पर अनेक दृष्टियों से विचार होना चाहिए। ७. कोई चीज देखकर उसकी उपादेयता, गहराई, गुण-दोष, योग्यता, हेतु आदि जानने या समझने की शक्ति। किसी विषय में होनोवाली पैठ। जैसे—(क) साहित्य रचना का ठीक सौन्दर्य समीक्षक की पैनी दृष्टि ही देखती है। (ख) कला-कृतियों के संबंध में उनकी दृष्टि बहुत पैनी है। ८. फलित ज्योतिष में, ग्रहों की कुछ विशिष्ट प्रकार की वह स्थिति जिसके फल-स्वरूप एक राशि अथवा जन्म-कुंड़ली के एक घर में स्थित किसी ग्रह पर कुछ विशेष प्रकार का प्रभाव होना माना जाता है।
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दृष्टि-कूट  : पुं०=दृष्ट-कूट।
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दृष्टिकृत्  : पुं० [सं० दृष्टि√क्र (करना)+क्विप्] १. दर्शक। २. स्थल। कमल।
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दृष्टि-कोण  : पुं० [ष० त०] किसी बात या विषय को किसी विशिष्ट दिशा या पहलू से देखने अथवा सोचने- समझने का ढंग या व्रत्ति। (व्यू-प्वाइन्ट) जैसे—(क) चाहे भाषा के दृष्टि-कोण से देखिए चाहे भाव के दृष्टि- कोण से रचना उत्तम है। (ख) इस विषय में हमारा दृष्टि-कोण कूछ और ही है।
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दृष्टि-क्रम  : पुं० [ष० त०] चित्रांकन आदि में ऐसी अभिव्यक्ति जिससे दर्शक को प्रत्येक वस्तु अपने उपयुक्त स्थान पर, ठीक तुलनात्मक मान में और यथा-क्रम स्थित दिखाई दे। मुनासिबत। (पर्सपेक्टिव) उदाहरणार्थ यदि एक वृक्ष और उस पर बैठा हुआ तोता अंकित किया जाय, तो तोते का आकार उतना ही होना चाहिए जितना साधारणतः एक वृक्ष के अनुपात में उसका आकार होता है। यदि विक्ष तो दो बित्ते भर का और तोता हो आधे या चौथाई बित्ते का तो चित्र का दृष्टिक्रम ठीक नहीं माना जायगा।
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दृष्टि-क्षेप  : पुं० [ष० त०] दृष्टिपात।
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दृष्टि-गत  : भू० क्र० [द्वि० त०] दृष्टि में आया हुआ। देखा हुआ। पुं० १. वह जो देखने का विषय हो या जिसे देख सकें। २. आँखों का एक रोग। ३. सिद्धान्त।
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दृष्टि-गोचर  : वि० [ष० त०] १. जिसे आँखों से देखा जा सके। २. जो दिखाई देता हो।
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दृष्टि-दोष  : पुं० [ष० त०] १. आँखों में होनेवाला कोई दोष या विकार। २. पढ़ने-लिखने, देखने-भालने या कोई काम करने में होनेवाला ऐसा अनवधान, असावधानी या जल्दी जिसके कारण कोई चूक या भूल हो जाय। (ओवर साइट) जैसे—इस पुस्तक में दृष्टि-दोष से छापे की बहुत-सी भूलें रह गई हैं।
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दृष्टिधृक्  : पुं० [सं०] राजा इक्ष्वाकु का एक पुत्र।
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दृष्टि-निपात  : पुं०=दृष्टिपात।
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दृष्टि-पथ  : पुं० [ष० त०] वह सारा क्षेत्र जहाँ तक निगाह जाती या पहुँचती हो। दृष्टि का प्रसार। नजर की पहुँच।
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दृष्टि-परंपरा  : स्त्री०=दृष्टि-क्रम।
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दृष्टिपात  : पुं० [ष० त०] १. देखने की क्रिया या भाव। २. सरसरी निगाह से देखना।
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दृष्टि-पूत  : पुं० [स० त०] १. जो देखने में शुद्ध हो। २. जिसे देखने से आँखे पवित्र या सफल हों।
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दृष्टि-फल  : पुं० [ष० त०] फलित ज्योतिष में, वह फल जो एक राशि में स्थित किसी ग्रह की दृष्टि (दे० ‘दृष्टि’) किसी दूसरी राशि में स्थित किसी ग्रह पर पड़ने से होता हुआ माना जाता है।
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दृष्टि-बंध  : पुं० [ष० त०] १. इंद्रजाल, सम्मोहन आदि के द्वारा किया जानेवाला ऐसा अभिचार जिसके फल-स्वरूप लोगों को कुछ का कुछ दिखई पड़ने लगता हो। २. हाथ की ऐसी चालाकी जो दूसरों को धोखा देने के लिए की जाय।
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दृष्टि-बंधु  : पुं० [ष० त०] खद्योत। जुगनूँ।
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दृष्टि-भ्रम  : पुं० [ष० त०] देखने के समय होनेवाला ऐसा भ्रम जिससे चीज कुछ हो, पर दिखाई पड़े और कुछ।
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दृष्टिमान् (मत्)  : वि० [सं० दृष्टि+मतुप्] [स्त्री० दृष्टिमती] १. जिसे दृष्टि हो। आँखवाला। २. समझदार। दृष्टिवंत। ३. ज्ञानी।
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दृष्टि-रोध  : पुं० [ष० त०] १. दृष्टि या देखने के कार्य में होनेवाली रुकावट। २. आड़। ओट। व्यवधान।
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दृष्टिवंत  : वि० [स० दृष्टिमत्] १. जिसमें देखने की शक्ति हो। जिसे दिखाई देता हो। २. जिसमें किसी चीज या बात को अच्छी तरह जाँचने, परखने या समझने की शक्ति हो। जानकार। ३. ज्ञानी।
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दृष्टि-वाद  : पुं० [ष० त०] दृष्टवाद। (दे०)
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दृष्टि-विष  : पुं० [ब० स०] ऐसा साँप जिसके देखने से ही कुछ छोटे-मोटे जीव-जन्तु या तो मर जाते या मूर्चिछत हो जाते हों।
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दृष्टि-स्थान  : पुं० [सं०] कुंडली में वह स्थान जिस पर किसी दूसरे स्थान में स्थित ग्रह की दृष्टि पडती हो। (देखें ‘दृष्टि’)
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देँवका  : स्त्री०=दीमक।
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दे  : स्त्री० [सं० देवी] स्त्रीयों के लिए एक आदर-सूचक शब्द। देवी। पुं बंगाली कायस्थों के एक वर्ग की उपाधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देई  : स्त्री० [सं० देवी] १. देवी। २. ‘देवी’ का वह विकृत रूप जो प्रायः स्त्रियों के नाम के अंत में लगता है। जैसे—हीरादेई। (पश्चिम)
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देउ  : पुं०=देव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देउर  : पुं० [स्त्री० देउरानी]=देवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देख  : स्त्री० [हिं० देखना] देखने की क्रिया या भाव। अवलोकन। (यौ० पदों के आरम्भ में) जैसै—देख-भाल, देख-रेख। मुहा०—स्त्री० देख में=(क) आँखों के सामने। (ख) निरीक्षण या देख-रेख में।
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देखन  : स्त्री० [हि० देखना] देखने की क्रिया, ढ़ंग या भाव।
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देखनहारा  : वि० [हिं० देखना+हारा (प्रत्य०)] [स्त्री० देखनहारी] देखनेवाला।
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देखना  : स० [सं० दृश का रूप दृक्ष्यति प्रा० देक्खह] १. किसी पदार्थ के रूप-रंग, आकार आदि का ज्ञान या परिचय कराने के लिए उसकी ओर आँखें करना। दृष्टि-शक्ति अथवा नेत्रों से किसी चीज की सब बातों का ज्ञान प्राप्त करना। अवलोकन करना। निहारना। जैसे—यह लडका बहुत दूर तक की चीजें देख सकता है। संयो० क्रि०—पाना।—लेना।—सकना। पद—देखते-देखते=(क) आँखों के सामने से। देखते रहने की दशा में। जैसे—देखते-देखते किताब गायब हो गई। (ख) तत्काल। तुरंत। जैसे—देखते देखते उसके प्राण निकल गये। (किसी के) देखते या देखते हुए=किसी के उपस्थित या वर्तमान रहते हुए। विद्यमानता में। समक्ष। सामने। देखने में=(क) बाह्य लक्षणों के आधार पर या बाहरी चेष्टाओं से। जैसे—देखने में तो वह बहुत सीधा है। (ख) आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि के विचार से। जैसे—यह फल देखने में बहुत अच्छा है। मुहा०—देखते रह जाना=कोई अनोखी या विलक्षण बात होने पर चकित भाव से किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर रह जाना। जैसे— सब लोग देखते रह गये, और चोर गठरी उठाकर चलता बना। २. मानसीक शक्ति के द्वारा किसी बात या विषय में सब अंगों का ठीक और पूरा ज्ञान अथवा परिचय प्राप्त करना। बुद्धि से समझना और सोचना। जैसे—(क) आपने देख लिया होगा कि तर्क में कुछ भी दम (या सार) नहीं हैं। (ख) लाओ, जरा हम भी देखे कि यह पुस्तक कैसी है। पद—देखना चाहिए, देखा चाहिए या देखिये=ना जाने क्या होगा। कौन जाने। कह नहीं सकते कि ऐसा होगाया नहीं। जैसे—देखिए, आज भी उनका उत्तर आता है या नहीं। ३. पुस्तक, लेख, समाचार आदि ध्यान से पढ़ना। जैसे—आज का अखबार तो आप देख ही चुके होंगे। ४. त्रुटियाँ, भूलें आदि निकालने अथवा गुण, विशेषताएँ आदि जानने के लिए कोई चीज पढना। जैसे—(क) जब तक हम देख न लें, तब तक अपना लेख छपने के लिए मत भेजना। (ख) परिक्षक परीक्षार्थियों की कापियाँ देखते हैं। ५. दर्शक के रूप में कही जाकर उपस्थित होना या पहुँचना अथवा किसी से मिलना या भेंट करना। जैसे—(क) आज घर के सभी लोग नाटक देखने गये है। (ख) डाक्टर रोगी देखने गये है। ६. किसी प्रकार की स्थिति में रहकर उसका अनुभव या ज्ञान प्राप्त करना अथवा उस स्थिति का भोग करना। जैसे—(क) उन्होंने अपने जीवन में कई बार बहुत अच्छे दिन देखे थे। (ख) हम लोगों ने दो-दो महायुद्ध देखे है। (ग) आपस के वैर-विरोध का परिणाम तो तुम भी देख ही चुके हो। (घ) तुम्हारा जी चाहे तो तुम भी ऐसी एक दुकान कर देखो। पद—देखा जायगा=अभी चिंता करने की आवश्यकता नहीं, जब जैसी स्थिति होगी तब वैसा किया जायगा। ७. जानकारी प्राप्त करना या पता लगाना। जैसे—जरा एक बार उनसे भी बातें करके देख लो कि वे क्या चाहते हैं। ८. जानकारी प्राप्त करने या पता लगाने के लिए कहीं या किसी के पास जाना या उससे मिलना। जैसे—इस बीमारी में उनके प्रायः सभी मित्र उन्हें देखने गये थे। पद—देखना-सुनना=जानकारी प्राप्त करना। समझना-बूझना। पता लगाना। जैसे—बिना देखे-सुने मकान नहीं लेना चाहिए। ९. कार्य प्रणाली, गुण-दोष, स्थिति आदि का पता लगाने के लिए कहीं जाना या पहुँचना। जाँच या निरीक्षण करना। जैसे—निरीक्षक महोदय हर महीने यह विद्यालय देखने आते है। १॰. पता लगाने या प्राप्त करने के लिए खोज या तलाश करना। ढूढ़ना। जैसे—(क) व महीनों से अपने रहने के लिए किराये का एक अच्छा मकान (या कन्या के लिए वर) देख रहे हैं। (ख) सारा घर देख डाला पर किताब का कहीं पता न चला। ११. किसी प्रकार की प्रतियोगिता, मुकाबला या सामना होने पर प्रतिद्वंद्वी की सब बातें सहने और उनका पूरा जवाब देने में समर्थ होना। जैसे—हम भी देख लेगें की वे कितने बहादुर हैं। १२. वरदाश्त करना। सहन करना। जैसे—हम यह अंधेर (अथवा अत्याचार) नहीं देख सकते। १३. किसी काम, बात या स्थिति का ठीक और पूरा ध्यान रखना। जैसे—(क) देखना, लडका कही भीड़ में खो या दब ना जाय। (ख) हमारे पीछे यह मकान देखते रहिएगा। पद—देखो=(क) ध्यान दो। विचार करो। जैसे—देखो, लोग अपना काम किस तरह निकालते हैं। (ख) ध्यान रखो। सावधान रहो। जैसे—देखो, वह हाथ से निकलने न पावे। (ग) सुनो। जैसे—देखो, कोई सड़ी-गली तरकारी मत उठा लाना। (घ) प्रतीक्षा करो। जैसे—देखो, वह कब घर लौटता है।
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देखनि  : स्त्री०=देखन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देख-भाल  : स्त्री० [हिं० देखना+भालना] १. अच्छी तरह देखने या भालने की क्रिया या भाव। जैसे—रुपये देख-भालकर लेना, कोई खोटा ना ले लेना। २. देखा-देखी। साक्षात्कार। ३. देख-रेख। हिफाजत।
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देखराना  : स०=दिखलाना।
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देखरावना  : स०=दिखलाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देख-रेख  : स्त्री० [हिं० देखना+सं० प्रेक्षण] इस प्रकार किसी पर दृष्टि रखना कि (क) कोई किसी विशिष्ट अवस्था या स्थिति में रहे। जैसे—चोरों या कैदियों की देख-रेख रखना। और (ख) किसी की स्थिति अच्छी बनी रहे और बिगडने न पावे। जैसे—रोगी की देख-रेख करना।
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देखाऊ  : वि०=दिखाऊ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देखा-देखी  : स्त्री० [हिं० देखना] १. आँखों से देखने की अवस्था या भाव। २. दर्शन। सक्षात्कार। अव्य० दूसरों को कोई काम करते हुए देखने के फलस्वरूप। अनुकरणवश। जैसे—लड़के देखा-देखी गाली बकते हैं।
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देखाना  : स०=दिखाना।
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देखा-भाली  : स्त्री० =देख-भाल।
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देखाव  : पुं०=दिखाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दिखावट  : स्त्री०=दिखावट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देखावना  : स०=दिखाना।
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देखौआ  : वि०=दिखौआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देग  : पुं० [फा०] स्त्री० अल्पा० देगचा] १. चौडे मुँह और चौडे पेट का वह बहुत बडा बरतन जिसमें चावल, दाल आदि खाद्य पदार्थ पकाये जाते हैं। २. दे० ‘देगचा’। पुं० [?] एक प्रकार का बाज पक्षी।
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देगचा  : पुं० [फा० देगचः] [स्त्री० अल्पा० देगची] छोटा देग।
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देगची  : स्त्री० [हिं० देगचा] छोटा देगचा।
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देगला  : पुं० [सं० दृष्टि+लग्न] १. सामना। साक्षात्कार। उदा०—देगलौ दृवौ दलाँ दुँह।—प्रिथीराज। २. दिखावा।
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देदीप्यमान  : वि० [सं०√दीप् (चमकना)+यङ्+शानच्] जिसका स्वरूप प्रकाशपूर्ण हो। चमकता हुआ। दमकता हुआ।
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देन  : स्त्री० [हिं० देना] १. देने की क्रिया या भाव। २. वह जो दिया जाय। ३. कोई ऐसी महत्वपूर्ण चीज या बात जो किसी बडे व्यक्ति, ईश्वर आदि से मिली हो तथा जिससे विशेष उपकार या हित होता हो। जैसे—(क) उनकी इस देन से हिन्दी जगत् सदा ऋणी रहेगा। (ख) पुत्र-पुत्रीयाँ तो भगवान की देन है। ४. उक्त के आधार पर कोई ऐसी चीज या बात जो किसी दूसरे से प्राप्त हुई हो और जिसका कोई व्यापक परिणाम या फल हो। जैसे—राजकीय विभागों में घूस और पक्षपात ब्रटिश शासन की देन है। ५. किसी प्रकार का देना चुकाने का दायित्व या भार। (लायबिलिटी)
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देनदार  : पुं० [हिं० देना+फा० दार] १. ऋणी। कर्जदार। २. वह जिसके जिम्मे कुछ देना बाकी हो वह जिससे किसी को आवश्यक रूप में कुछ मिलने को हो।
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देनदारी  : स्त्री० [हिं० देन+फा० दारी] देनदार होने की अवस्था या भाव।
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देन-लेन  : पुं० [हिं० देना+लेना] १. किसी को कुछ देने और उससे कुछ लेने की क्रिया या भाव। २. विनिमय। ३. इष्ट-मित्रों या संबंधियों में प्रायः कुछ न कुछ एक दूसरे के यहाँ भेजते रहने का व्यवहार। ४. ब्याज पर रुपया उधार देने का व्यापार। महाजनी का व्यवसाय।
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देनहार  : वि०=देनहारा।
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देनहारा  : वि० [हिं० देना+हारा (प्रत्य०)] देनेवाला।
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देना  : स० [स० दान] १. (अपनी) कोई चीज पूर्णतः और सदा के लिए किसी के अधिकार या नियंत्रण में करना। सुपुर्द करना। हवाले करना। जैसे—लड़के को ब्याह में मकान देना। २. बिना किसी प्रकार के प्रतिदान या प्रतिफल के किसी को कोई चीज अंतरित या हस्तांतरित करना। जैसे—प्रसाद देना। ३. श्रद्धापूर्वक अथवा किसी की सेवाओं आदि से प्रसन्न होकर उसे कुछ अर्पित या समर्पित करना। जैसे—(क) आशीर्वाद देना। (ख) भगवान का भक्त को दर्शन देना। ४. कोई चीज कुछ समय के लिए अपने पास के अलग करके दूसरे के हवाले करना। सौपना। जैसे— उसने अपना सारा असबाब कूली को (ढोने के लिए) दे दिया। ५. कोई चीज किसी के हाथ पर रखना। थमाना। पकड़ाना। जैसै—भिखमंगे को पैसा देना। ६. धन या और किसी पदार्थ के बदले में, अपनी चीज किसी के अधिकार में करना। जैसे—सौ रुपए देने पर भी ऐसी अँगूठी तुम्हें नहीं मिलेगी। ७. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी को कुछ प्राप्त हो। पाने, मिलने या लेने में सहायक या साधक होना। जैसे—(क) किसी को उपाधि या मान-पत्र देना। (ख) नौकर को छुट्टी या तनख्वाह देना। (ग) गौ या भैंस का दूध देना। ८. किसी व्यक्ति, कार्य आदि के लिए उत्सृष्ट, निछावर या प्रदान करना। जैसे—(क) किसी संस्था को अपना जीवन, धन या समय देना। (ख) किसी को परामर्श, प्रमाण या सुझाव देना। (ग) किसी के लिए अपनी जान देना। ९. ऐसी क्रिया करना जिससे किसी को कुछ कष्ट या दंड़ मिले अथवा कोई दुष्परिणाम भोगना पड़े। जैसे—दुःख देना, सजा देना। १॰. आघात या प्रहार करना। जड़ना। मारना। जैसे—थप्पड या मुक्का देना। मुहा०—(किसी को) दे मारना=उठाकर जमीन पर गिरा या पटक देना। ११. पहनी जानेवाली कुछ चीजों के संबंध में, यथा-स्थान धारण करना। पहनना। जैसे— सिर पर टोपी या मुकुट देना। १२. कुछ विशिष्ट पदार्थों के संबंध में, बंद करना। जैसे—किवाड़ देना, अंगे का बंद या कुरते का बटन देना। १३. अंकन, लेखन आदि में, अंकित करना। चिह्न बनाना। जैसे—१ आगे बिंदी देने से १॰ हो जाता है। उदा०—बंक बिकारी देत ज्यों दाम रुपैया होत।—बिहारी। संयो० क्रि०—डालना।—देना। विशेष—संयोज्य क्रिया के रूप में ‘देना’ का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है—(क)संप्रदान कारक में ‘पडना’ क्रिया की तरह; जैसे—उसें दिखाई नहीं देता। (ख) अकर्मक अवधारण-बोधक क्रियाओं के साथ सप्रत्यय कर्त्ता कारक में; जैसे—वह रुपए उठाकर चल दिया। (च) ‘देना’ क्रिया के साथ कार्य की पूर्ति सूचित करने के लिए। जैसे—उसने पुस्तक मुझे दे दी। पुं० १. किसी से लिया हुआ वह धन जो अभी चुकाया जाने को हो ऋण। कर्ज। जैसे—उन्हें बाजार के हजारों रुपए देने हैं। २. वह धन जो किसी को किसी रुप में चुकाना आवश्यक या कर्तव्य हो। देय धन। देन। जैसे—अभी तो घर का भाड़ा, नौकर की तनख्वाह, बिजली का हिसाब और कन जाने क्या-क्या देना बाकी पडा है।
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देमान  : पुं० =दिवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देय  : वि० [सं०√दा (देना)+यत्] १. जो दिया जा सके। २. जो दिये या लौटाये जाने को हो।
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देयक  : पुं० [सं० देय+कन्] वह पत्र जिसमें किसी के नाम विशेषतः बैंक के नाम यह लिखा हो कि अमुक व्यक्ति को हमारे खाते से इतने रुपए दे दो। (चेक)
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देय-धर्म  : पुं० [ष० त०] दानधर्म।
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देयादेय-फलक  : पुं० [देय-अदेय द्व० स०, देयादेय- फलक ष० त०] दे० ‘आय-व्यय फलक’।
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देयादेश  : पुं० [सं० देय-आदेश ष० त०] वह पत्र जिसमें यह लिखा हो कि अमुक व्यक्ति को इतना धन दिया जाय। (पे-आर्डर)
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देयासी  : पुं० [संच देवोपासिन् ?] [स्त्री० देयासिन] झाड़-फूँक करनेवाला ओझा।
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देर  : स्त्री० [फा०] १. किसी काम या व्यापार में आवश्यक, उचित या नियत समय से अधिक लगने वाला समय। विलंब। जैसे—यह काम कितनी देर में होगा।
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देरा  : पुं०=डेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देरानी  : स्त्री०=देवरानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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देरी  : स्त्री०=देर।
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देवँक  : स्त्री०=दिमक।
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देव  : पुं० [सं०√दिव् (क्रीड़ा आदि)+अच्] [स्त्री० देवी] १. स्वर्ग में रहनेवाला अमर प्राणी। देवता। सुर। २. तेजोमय और पूज्य व्यक्ति। ३. बडे और सम्मानित लोगों के लिए एक आदर-सूचक संबोधन। जैसे—देव, मैं तोआप ही आ रहा था। ४. ब्राह्मणों की एक उपाधि या संज्ञा। ५. प्रेमी। ६. विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसका देवर। पति का छोटा भाई। ७. बच्चा। बालक। ८. ऋत्विक्। ९. ज्ञानेंद्रिय। १॰. दैत्य। राक्षस। ११. बादल। १२. मेघ। १३. पारा। १४. देवदार का पेड़।
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देव-अंशी (शिन्)  : वि० [ष० त०] जो देवता के अंश से उत्पन्न हो। जो किसी देवता का अवतार हो।
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देव-ऋण  : पुं० [ष० त०] देवताओं के द्वारा किया हुआ ऐसा उपकार जिसका बदला तर्पण, दान-पुण्य, यज्ञ आदि धार्मिक क्रत्य करके चुकाया जाता है।
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देव-ऋषि  : पुं० [ष० त०] देवताओं के लोक में रहनेवाला और उनका समकक्ष माना जानेवाला ऋषि। देवर्षि।
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देवक  : पुं० [सं०] १. देवता। २. एक यदुवंशी राजा जो उग्रसेन के छोटे भाई, देवकी के पिता और श्रीकृष्ण के नाना थे। ३. युधिष्ठिर के एक पुत्र का नाम।
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देव-कन्या  : स्त्री० [ष० त०] १. देवता की पुत्री। २. देवी।
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देव-कपास  : स्त्री० [देश०] नरमा या मनवा नाम की कपास। राम कपास।
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देव-कर्द्दम  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का गंध दृव्य जो चंदन, अगर, कपूर और केसर को एक में मिलाने से बनता है।
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देव-कर्म (न्)  : पुं० [मध्य० स०] देवताओं को प्रसन्न कर पाने के लिए किया जानेवाला कर्म। जैसे—यज्ञ, बलि, वैश्वदेव आदि।
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देवकाँडर  : पुं० [सं० देव-कांड] जल-पीपल नामक क्षुप।
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देव-कार्य  : पुं० [मध्य० स०] देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जानेवाला कार्य। जैसे—होम, पूजा आदि।
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देव-काष्ठ  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का देवदार।
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देवकिरि  : स्त्री० [सं० देव√कृ (बिखेरना)+क—ङीष्] एक रागिनी जो मेघ राग की भार्या मानी जाती है।
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देवकी  : स्त्री०[सं० देवक+ङीष्] वसुदेव की स्त्री और श्रीकृष्ण की माता।
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देवकी-नंदन  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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देवकी-पुत्र  : पुं० [ष० त०] श्रीकृष्ण।
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देवकी-मातृ  : पुं० [ब० स०] श्रीकृष्ण (जिनकी माता देवकी हैं)।
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देवकीय  : वि० [सं० देव+छ—ईय, कुक्] देवता-संबंधी। देवता का।
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देव-कुंड  : पुं० [मध्य० स०] १. आप से आप बना हुआ पानी का गड्ढ़ा या ताल। प्राकृतिक जलाशय। २. किसी तीर्थ या देव-मंदिर के पास का पवित्र कुंड, जलाशय या तालाब।
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देव-कुरुंबा  : स्त्री० [मध्य० स०] बड़ा गूमा। गोमा।
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देवकुरु  : पुं० [सं०] जैन पुराणों के अनुसार जम्बूद्वीप के छः खंडों में से एक जो सुमेरु और निषध के बीच में स्थित माना गया है।
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देव-कुल  : पुं० [सं० देव√कुल् (संघात)+क] १. वह देवमंदिर जिसका द्वार बहुत छोटा हो। २. देव-मंदिर। ३. देवताओं का वर्ग।
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देव-कुल्या  : स्त्री० [मध्य० स०] १. गंगा नदी। २. मरीचि की एक कन्या जो पूर्णिमा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी।
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देव-कुसुम  : पुं० [ब० स०] लौंग (वृक्ष और फल)।
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देव-कुसुमावलि  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देव-कुट  : पुं० [सं०] कुबेर के आठ पुत्रों में से एक जो शिव पुजन के लिए सूँघकर कमल ले गया था और इसी लिए जो दूसरे जन्म में कंस का भाई हुआ और श्रीकृष्ण चंद्र के द्वारा मारा गया। २. एक प्राचीन पवित्र आश्रम जो वशिष्ठ मुनि के आश्रम के पास था।
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देव-कृच्छ्  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का व्रत जिसमें लपसी, शाक दूध, दही, घी में से क्रमशः एक-एक चीज तीन-तीन दिन खाने और उसके बाद तीन-तीन निराहार रहने का विधान है।
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देव-केसर  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का पुन्नाग। सुरपुन्नाग।
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देवक्रिय  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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देव-खात  : पुं० [तृ० स०] प्राकृतिक गड्ढ़ा या जलाशय।
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देव-गंग  : स्त्री० [सं०] असम प्रदेश की एक नदी। दिवंग।
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देव-गंधा  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] महामेदा नामक ओषधि।
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देवगढ़ी  : स्त्री० [देवगढ़ (स्थान)] एक तरह की ईख।
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देव-गण  : पुं० [ष० त०] १. किसी जाति या धर्म के सभी देवी-देवताओं का वर्ग या समूह। (पैन्थिअन) २. अश्विनी, रेवती, पुष्य, स्वाती, हस्त, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा और श्रवण नक्षत्रों का समूह (फलित ज्यो०) ३. किसी देवता का अनुचर।
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देव-गति  : स्त्री० [ष० त०] मरने के उपरांत प्राप्त होने वाली उत्तम गति। देव-योनि अथवा स्वर्ग की प्राप्ति।
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देवगन  : पुं०=देव-गण।
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देव-गर्भ  : पुं० [ब० स०] वह जिसका जन्म देवता के वीर्य से हुआ हो। जैसे—कर्ण।
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देव-गांधार  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का राग जो भैरव राग का पुत्र कहा गया है।
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देव-गांधारी  : स्त्री० [सं०] एक रागिनी जो श्रीराग की भार्या कही गई है। यह शिशिर ऋतु में तीसरे पहर से आधी रात तक गाई जाती है।
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देव-गायक  : पुं० [ष० त०] गंधर्व।
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देव-गायन  : पुं० [ष० त०] गंधर्व।
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देव-गिरा  : स्त्री० [ष० त०] देवताओं की भाषा अर्थात संस्कृत देववाणी।
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देवगिरि  : पुं० [सं०] १. रैवतक पर्वत जो गुजरात में है। गिरनार। २. दक्षिण भारत के आधुनिक प्रमुख नगर का पुराना नाम।
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देवगिरी  : स्त्री० [?] हेमंत ऋतु में दिन के पहले पहर में गाई जानेवाली षाड़व संपूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।
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देव-गीर्वाणी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्वति की एक रागिनी।
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देव-गुरु  : पुं० [ष० त०] १. देवताओ के गुरु अर्थात् बृहस्पति। २. देवताओ के पिता, कश्यप।
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देवगुही  : स्त्री० [सं०] सरस्वती।
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देव-गृह  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का घर। २. देवालय। मंदिर।
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देवघन  : पुं० [देश०] एक तरह का पेड़।
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देव-घनाक्षरी  : स्त्री० [सं०] ३३ वर्णों का एक वृत्त जो मुक्तक दण्डक का एक भेद है।
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देव-चक्र  : पुं० [ष० त०] गवामयन यज्ञ के एक अभिप्लव का नाम।
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देवचाली  : पुं० [सं०] इंद्रताल के छः भेदों में से एक।
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देव-चिकित्सक  : पुं० [ष० त०] १. अश्विनीकुमार। २. उक्त के अनुसार दो की संख्या।
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देवच्छद  : पुं० [सं० देव√छंद् (आकांक्षा)+घञ्] पुरानी चाल का एक तरह का बड़ा हार जिसमें ८१,१॰॰ या १॰८ लड़ियाँ होती थी।
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देवज  : वि० [सं० देव√जन् (उत्पत्ति)+ड] देवता से उत्पन्न। देवसंभूत। पुं० एक प्रकार का साम गान।
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देव-जग्ध  : पुं० [तृ० त०] रोहिष तृण। रोहिस घास।
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देव-जन  : पुं० [मध्य० स०] गंधर्व।
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देवजन-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] संगीत शास्त्र।
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देव-जुष्ट  : वि० [तृ० त०] देवता का जूठा किया हुआ अर्थात् उन्हें चढ़ाया हुआ।
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देवट  : पुं० [सं०√दिव् (क्रीड़ा, आदि)+अटन्] कारीगर। शिल्पी।
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देवठान  : पुं० दे० ‘देवोत्थान’। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवडोंगरी  : स्त्री० [सं० देव+देश० डोंगरी] देवदाली लता। बंदाल।
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देवढी  : स्त्री०=ड्योढ़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देव-तरु  : पुं० [मध्य० स०] कल्पवृक्ष।
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देव-तर्पण  : पुं० [ष० त०] देवताओं के उद्देश्य से किया जानेवाला तर्पण।
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देवता  : पुं० [सं० देव+तल्—टाप्] १. स्वर्ग में रहनेवाले प्राणी जो पूज्य तथा जरा और मृत्यु से रहित माने गये हैं। २. देव-प्रतिमा। ३. ज्ञानेंद्रिय। विशेष—संस्कृत में ‘देवता’ स्त्री० होने पर भी हिन्दी में पुंर्लिग माना जाता है।
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देवतागार  : पुं० [सं० देवता-आगार ष० त०] देवागार। (दे०)
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देव-ताड़  : पुं० [सं० देव-ताल कर्म० स०, ल को ड] १. एक प्रकार का बड़ा तृण या पौधा जो देखने में धीकुँआर के पौधे की तरह होता है। इसे रामबाँस भी कहते हैं। २. दे० ‘देव-ताड़ी’।
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देवताड़ी  : स्त्री० [सं० देव+हिं० ताड़] १. देवदाली लता। बंदाल। २. तुरई। तोरी।
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देवतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० देवता-आत्मन् ब० स०] १. पवित्र। पावन। २. देवताओं की तरह का। पुं० १. अलौकिक शक्ति। २. पीपल।
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देवताधिप  : पुं० [सं० देवता-अधिप ष० त०] देवताओं के राजा, इंद्र।
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देवताध्याय  : पुं० [सं० देवता-अध्याय ब० स०] सामवेद का एक ब्राह्मण।
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देवता-मंगल  : पुं० [सं०] रंग-मंच पर देवता को प्रसन्न करने के लिए होनेवाला मंगलात्मक नृत्य।
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देव-तीर्थ  : पुं० [ष० त०] देवपूजन का उपयुक्त समय। २. देव-पूजा का स्थान। ३. दाहिने हाथ की एक साथ सटी हुई चारों उँगलियों का अग्रभाग जिससे तर्पण का जल छोड़ा जाता है।
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देवत्त  : वि० [सं० देव-दत्त तृ० त०] देवता या दवताओं द्वारा दिया हुआ।
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देव-त्रयी  : पुं० [सं० त०] ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीन देवताओं का वर्ग।
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देवत्व  : पुं० [सं० देव+त्व] देवता होने की अवस्था, गुण, पद और भाव।
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देव-दंडा  : स्त्री० [ब० स०] गँगेरन। नागबला।
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देव-दत्त  : वि० [सं० तृ० त०] १. देवता का दिया हुआ। देवता से प्राप्त। २. [च० त०] जो देवता के निमित्त अलग किया या निकाला गया हो। पुं० १. ऐसी संपत्ति, जो किसी देवता के निमित्त अलग की गई हो। २. शरीर की पाँच वायुओं में से एक जिससे जँभाई आती है। ३. अर्जुन के शंख का नाम। ४. नागों के आठ कुलों में से एक कुल। ५. शाक्य वंशीय एक राजकुमार जो गौतम बुद्ध का चचेरा भाई था और उनसे बहुत द्वेष रखता था। यशोधरा के साथ यही विवाह करना चाहता था।
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देव-दर्शन  : पुं० [ष० त०] १. देवता का किया जाने या होनेवाला दर्शन। २. एक प्राचीन ऋषि।
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देवदानी  : स्त्री० [?] बड़ी तोरई।
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देवदार  : पुं० [सं० देवदारु] एक प्रसिद्ध सीधे तने वाला ऊँचा पेड़ जिसके पत्ते लंबे और कुछ गोलाई लिये होता हैं तथा जिसकी लकडी मजबूत किन्तु हलकी और सुगंधित होती है, और इमारतों में काम आती है। इसे स्निग्ध और काष्ठ दो भेद हैं। काष्ठ दारु लोक में अशोक वृक्ष के नाम से प्रसिद्व है। स्निग्ध देवदारु की लकडी और तैल दवा के काम भी आता है।
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देव-दारु  : पुं० [ष० त०] देवदार।
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देवदार्वादि  : पुं० [सं० देवदारु-आदि ब० स०] जच्चा अर्थात् प्रसूता स्त्री को दिया जानेवाला एक तरह का क्वाथ। (भाव प्रकाश)
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देवदालिका  : स्त्री० [सं० देवदाली√कै (प्रतीत होना)+क-टाप्, ह्रस्व] महाकाल वृक्ष।
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देव-दाली  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] एक तरह की लता जो तोरी की बेल से मिलती-जुलती होती है। इसके फल ककोडे (खेखसे) की तरह काँटेदार होते है। घघरबेल। बंदाल।
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देवदासी  : स्त्री० [सं० देव√दास्( हिंसा)+अण्-ङीष्] १. प्राचीन भारत में वह कन्या जो देवता को अर्पित कर दी जाती थी और उसके मंदिर में रहकर नाचती-गाती थी। २. नर्तकी। ३. रंडी। वेश्या। ४. बिजौरा नींबू।
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देव-दीप  : पुं० [मध्य० स०] १. किसी देवता के सम्मुख अथवा किसी देवता के निमित्त जलाया जानेवाला दीपक। २. आँख। नेत्र।
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देव-दुंदुभि  : पुं० [ष० त०] लाल तुलसी।
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देव-दूत  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० देवदूती] १. देवता या देवताओं का संदेश पहुँचानेवाला दूत। फरिश्ता। २. ऐसा व्यक्ति जो कु-समय में किसी का उद्धार या सहायता करे।
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देव-दूती  : स्त्री० [ष० त०] १. स्वर्ग की अप्सरा। २. बिजौरा नींबू।
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देव-देव  : पुं० [सं० त०] १. शिव। २. ब्रह्मा। ३. विष्णु। ४. गणेश। ५. इंद्र।
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देवद्युर  : पुं० [सं०] भरतवंशीय एक राजा जो देवाजित् के पुत्र थे। (भागवत)
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देव-द्रुम  : पुं० [ष० त०] १. कल्पव्रक्ष। २. देवदार।
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देव-द्रोणी  : पुं० [ष० त०] १. देवयात्री। २. शिवलिंग का अरधा।
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देव-धन  : पुं० [मध्य० स०] देवता के निमित्त उत्सर्ग किया या अलग निकाला हुआ धन।
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देव-धान्य  : पुं० [मध्य० स०] ज्वार।
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देव-धाम (न्)  : पुं० [ष० त०] तीर्थस्थान। देवस्थान।
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देव-धुनी  : स्त्री० [ष० त०] १. गंगा नदी। २. कोई पवित्र नदी।
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देव-धूप  : पुं० [मध्य० स०] गुग्गुल। गूगुल।
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देव-धेनु  : स्त्री० [ष० त०] कामधेनु।
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देवनंदी (दिन्)  : पुं० [सं० देव√नन्द् (समृद्धि)+णिनि] इंद्र का द्वारपाल।
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देवन  : पुं० [सं०√दिव्+ल्युट्—अन] १. किसी से आगे बढ़ जाने की कामना। २. क्रीड़ा। खेल। ३. उपवन। बगीचा। ४. कमल। पद्म। ५. कांति। चमक। ६. प्रशंसा। स्तुति। ७. गति। चाल। ८. जूआ। द्यूत। ९. खेद। रंज।
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देव-नदी  : स्त्री० [ष० त०] १. गंगा। २. दृषद्वती नदी। ३. सरस्वती नदी।
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देव-नल  : पुं० [उपमि० स०] एक तरह का सरकंडा। नरसल।
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देवना  : स्त्री० [सं० √दिव्+युच्—अन, टाप्] १. क्रीडा। खेल। २. जूआ। ३. टहल। परिचर्या। सेवा।
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देव-नागरी  : स्त्री० [सं०] आधुनिक भारत की प्रसिद्ध राष्ट्रीय लिपि, जिसमें संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि भाषाएँ लिखी जाती हैं। हिंदी में इसके ४५ ध्वनि चिह्न है जिनमें ३२ व्यंजनों के और १३ स्वरों के हैं। संयुक्त ध्वनियों के चिह्न अनेक अतिरिक्त है।
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देव-नाथ  : पुं० [ष० त०] शिव। महादेव।
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देवनामा (मन्)  : पुं० [सं०] कुश द्वीप के एक वर्ष का नाम।
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देव-नायक  : पुं० [ष० त०] देवताओं के नायक, इंद्र।
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देवनाल  : पुं० [ष० त०] एक तरह का सरकंड़ा। नरसल।
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देव-निकाय  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का समूह। २. देवताओं के रहने का स्थान; अर्थात स्वर्ग।
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देव-निर्मिता  : स्त्री० [तृ० त०] गुडूची। गुरुच।
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देव-पति  : पुं० [ष० त०] इंद्र।
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देवपत्तन  : पुं० [सं०] काठियावाड़ का वह क्षेत्र जिसमें सोमनाथ का मंदिर है।
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देव-पत्नी  : स्त्री० [ष० त०] १. देवता की स्त्री। २. मध्वालु नाम का कंद।
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देव-पथ  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं के चलने का मार्ग; आकाश। २. देव-मन्दिर की ओर जाने का रास्ता। ३. प्रचीन भारत में, वह ऊँचा मार्ग जो किले की दीवार के ऊपर चारों ओर आने-जाने के लिए होता था। दे० ‘देव-यान’।
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देवपद्मिनी  : स्त्री० [सं०] आकाश में बहनेवाली गंगा का एक नाम।
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देव-पर  : पुं० [ब० स०] ऐसा भाग्यवादी पुरुष जो संकट पडने पर भी उद्मम न करता हो, बल्कि किसी देवता के भरोसे बैठा रहता हो।
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देव-पर्ण  : पुं० [ब० स०] माचीपत्र।
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देव-पशु  : पुं० [च० त०] १. वह पशु जो देवता को बलि चढ़ाया जाने को हो। २. देवता का उपासक।
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देव-पात्र  : पुं० [ष० त०] अग्नि, जिसमें देवताओं को अर्पत की जाने वाली चीजें डाली जाती हैं।
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देव-पान  : पुं० [ष० त०] सोमपान करने का एक प्रकार का पात्र।
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देवपाल  : पुं० [सं०] शाकद्वीप के एक पर्वत का नाम।
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देव-पालित  : वि० [तृ० त०] (क्षेत्र) जिसमें सिंचाई के अन्य साधन दुर्लभ होने पर भी केवल वर्षा के जल से अन्न उत्पन्न होता हो।
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देव-पुत्र  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० देव-पुत्री] देवता का पुत्र।
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देव-पुत्रिका  : स्त्री०=देव-पुत्री।
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देव-पुत्री  : स्त्री० [ष० त०] १. देवता की पुत्री। २. इलायची ३. कपूरी साग।
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देव-पुर  : पुं० [ष० त०] अमरावती।
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देव-पुरी  : स्त्री० [ष० त०] देवताओं की नगरी जो स्वर्ग में इन्द्र की राजधानी मानी गई है। अमरावती।
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देव-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] देवताओं का किया जानेवाला पूजन।
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देव-प्रयाग  : पुं० [सं०] हिमालय में, गंगा और अलकनंदा नदियों के संगम पर स्थित एक तीर्थ।
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देव-प्रश्न  : [ष० त०] फलित ज्योतिष में, वह प्रश्न जो ग्रह, नक्षत्र, ग्रहण आदि के संबंध में हो। २. भविष्य-संबंधी प्रश्न।
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देव-प्रस्थ  : पुं० [सं०] एक प्राचीन नगरी जो कुरुक्षेत्र से पूर्व की ओर थी।
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देव-प्रिय  : पुं० [ष० त०] १. अगस्त (पेड़ और फूल)। २. पीली भँगरैया।
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देवबंद  : पुं० [सं० देववंद] घोड़ों की एक भँवरी जो उनकी छाती पर होती है और शुभ मानी जाती है।
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देव-बला  : स्त्री० [ब० स०, टाप्] सहदेई (बूटी)।
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देवबाँस  : पुं० [सं०] एक तरह का बाँस जिसके नरम हरे कल्लों का अचार डाला जाता है।
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देव-ब्रह्मन्  : पुं० [उपमि० स०] नारद।
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देव-ब्राह्मण  : पुं० [मध्य० स०] देवताओं का पूजन करके जीविका निर्वाह करनेवाला ब्राह्मण।
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देव-भवन  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का घर या स्थान। देव-मंदिर। २. स्वर्ग। ३. अश्वत्थ या पीपल जिसमें देवताओं का निवास माना जाता है।
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देव-भाग  : पुं० [ष० त०] किसी चीज विशेषतः संपत्ति का वह भाग जो किसी देवता के निमित्त अलग किया गया हो।
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देव-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] संस्कृत भाषा।
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देव-भिषक् (ज्)  : पुं० [सं० ष० त०] अश्विनी कुमार।
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देव-भू  : स्त्री० [ष० त०] स्वर्ग।
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देव-भूति  : स्त्री० [ष० त०] १. देवताओं का ऐश्वर्य। २. मंदाकिनी।
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देव-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] देवताओं की भूमि अर्थात् स्वर्ग।
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देव-भृत्  : पुं० [सं० देव√भ्र (भरण)+क्विप्] देवताओं का भरण करनेवाले (क) इन्द्र, (ख) विष्णु।
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देव-भोज्य  : पुं० [ष० त०] देवताओं का भोजन। अमृत।
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देव-मंजर  : पुं० [स०] कौस्तुभ मणि।
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देव-मंदिर  : पुं० [ष० त०] देवता का मंदिर। देवालय।
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देव-मणि  : पुं० [स० त०] १. सूर्य। २. [कर्म० स०] कौस्तुभ मणि। ३. महामेदा। ४. घोड़ों की गरदन पर की एक प्रकार की भौंरी।
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देव-मनोहरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देवमाता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] देवताओं की माता (क) अदिति, (ख) दाक्षायणी।
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देव-मातृक  : वि० [ब० स०, कप्] दे० ‘देवपालित’।
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देव-मादन  : वि० [ष० त०] देवताओं को मत्त करनेवाला। पुं० सोम।
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देव-मान  : पुं० [ष० त०] काल-गणना में वह मान जो देवताओं के संबंध में काम में लाया जाता है। जैसे—देव-मान के विचार से मनुष्यों का एक सौ वर्ष देवताओं का एक दिन होता है।
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देव-मानक  : पुं० [ब० स०, कप्] कौस्तुभ मणि। देवमणि।
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देव-माया  : स्त्री० [ष० त०] १. देवताओं की माया। २. वह ईश्वरीय या प्राकृतिक माया जो अविद्या के रुप में रहकर जीवों को सांसारिक बंधनो में फँसाये रखती है।
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देव-मार्ग  : पुं० [ष० त०] देवयान।
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देव-मालवी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देव-मास  : पुं० [च० त०] १. गर्भ का आठवाँ महीना। २. तीन हजार वर्ष के बराबर का समय जो देवताओं की काल-गणना के अनुसीर एक महीने के बराबर होता है।
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देव-मित्र  : पुं० [ब० स०] शाकल्य ऋषि का एक नाम।
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देव-मीढ  : पुं० [सं०] मिथिला के एक राजा जो महाराजा जनक के पुर्वजों में से थे।
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देव-मीढुष  : पुं० [सं०] वसुदेव के पितामह।
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देव-मुखारी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देव-मुख्या  : स्त्री० [सं०] कस्तूरी।
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देव-मुनि  : पुं० [कर्म० स०] १. नारद ऋषि। २. सूर नामक ऋषि।
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देवमूक  : पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम। (गर्गसंहिता)
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देव-मूर्ति  : पुं० [ष० त०] किसी स्थान पर प्रतिष्ठित देवता की प्रतिमा या मूर्ति।
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देव-यजन  : पुं० [ष० त०] यज्ञ की वेदी।
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देव-यजनी  : स्त्री० [ष० त०] पृथिवी।
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देव-यज्ञ  : पुं० [ष० त०] होमादि कर्म जो पंचयज्ञों में से एक है तथा जिसे करना गृहस्थों का प्रतिदिन का कर्तव्य माना गया है।
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देवयात्री (त्रिन्)  : पुं० [सं०] पुराणानुसार एक दानव।
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देव-यान  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं की ओर ले जानेवाला मार्ग। २. शरीर के अलग होने उपरांत जीवात्मा के जाने के दो मार्गो में से एक जिसमें से होता हुआ वह ब्रह्म-लोक को जाता है। ३. उत्तरायण।
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देवयानी  : स्त्री० [सं०] राजा ययाति की पत्नी जो शुक्राचार्य की कन्या थी।
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देव-युग  : पुं० [मध्य० स०] सत्ययुग।
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देव-योनि  : स्त्री० [ब० स०] स्वर्ग, अंतरिक्ष आदि में रहनेवाले उन जीवों का वर्ग जो देवताओं के अंतर्गत माने जाते है। जैसे—अप्सरा, किन्नर, गंधर्व, यक्ष आदि।
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देव-रंजनी  : स्त्री० [सं० ] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देवर  : पुं० [सं०√दिव्+अर] [स्त्री० देवरानी] १. विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके पति का छोटा भाई। २. पति का कोई भाई, चाहे उससे छोटा हो या बड़ा। (क्व०) ३. रहस्य संप्रदाय में (क) भ्रम या संशय, (ख) कामदेव।
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देव-रक्षित  : वि० [तृ० त०] जो देवताओं द्वारा रक्षित हो। पुं० राजा देवक के एक पुत्र का नाम।
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देवरक्षिता  : स्त्री० [सं०] देवक राजा की एक कन्या।
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देव-रथ  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का रथ। विमान। २. सूर्य का रथ।
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देवरा  : पुं० [सं० देव] [स्त्री० अल्पा० देवरी] १. छोटा-मोटा देवता। २. उक्त प्रकार के देवता का मंदिर। ३. ऊँचे शिखरवाला देवमंदिर। ४. किसी महापुरुष की समाधि। पुं० [?] एक प्रकार का पटसन जिससे रस्सयाँ बनती हैं।
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देवराज  : पुं० [ष० त०] देवताओं के राजा, इंद्र।
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देव-राज्य  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का राज्य, स्वर्ग।
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देव-रात  : पुं० [तृ० त०] १. देवताओं द्वारा रक्षित राजा परीक्षीत। २. शुनःक्षेप का वह नाम जो विश्वामित्र के आश्रम में पड़ा था। ३. याज्ञवल्क्य ऋषि के पिता का नाम। ४. निमि के वंश के एक राजा। ५. एक प्रकार का सारस।
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देवरानी  : स्त्री० [हिं० देवर] देवर अर्थात् पति के छोटे भाई की स्त्री। स्त्री० देवराज इंद्र की पत्नी शची। इंद्राणी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवराय  : पुं०=देवराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवरी  : स्त्री० [हि० देवरा] छोटी-मोटी देवी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवर्द्धि  : पुं० [सं०] जैनों के एक प्रसिद्ध स्थविर जिन्होंने जैन सिद्धान्त लिपिबद्ध किये थे।
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देवर्षि  : पुं० [सं० देवऋषि ष० त०] देवताओं में ऋषि। जैसे—नारद।
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देवल  : पुं० [सं० देव√ला (लेना)+क] १. वह ब्राह्मण जो देवताओं पर चढ़ाई हुई चीजों से अपनी जीविका निर्वाह करे। पंड़ा। २. धार्मिक व्यक्ति। ३. नारद मुनि। ४. एक प्रचीन स्मृतिकार। ५. देवालय। मंदिर। ६. पति का छोटा भाई। देवर। पुं० [देश०] एक प्रकार का चावल। स्त्री० दीवार।
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देवलक  : पुं० [सं० देवल+कन्]=देवल। (दे०)
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देव-लता  : स्त्री० [मध्य० स०] नवमल्लिका। नेवारी।
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देव-लांगुलिका  : स्त्री० [सं० देव=व्यथाकारक लाङ्गुलिक=शूक ब० स०, टाप्] वृश्चिकाली लता।
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देवला  : पुं० [हिं० दीवा] [स्त्री० अल्पा० देवली] मिट्टी का छोटा दीया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देव-लोक  : पुं० [ष० त०] स्वर्ग।
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देव-वक्त्र  : पुं० [ष० त०] अग्नि, जिसके द्वारा देवताओं का भाग उन तक पहुँचता है।
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देववती  : स्त्री० [सं०] ग्रामणी नामक गंधर्व की कन्या जो सुकेश राक्षस की पत्नी और माल्यवान, सुमाली तथा माली की माता थी।
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देव-वधू  : स्त्री० [ष० त०] १. देवता की स्त्री। २. देवी। ३. अप्सरा।
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देव-वर्णिनी  : स्त्री० [सं०] भरद्वाज की कन्या और कुबेर को माता जो विश्रवा मुनि की पत्नी थी।
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देव-वर्त्म (न्)  : पुं० [ष० त०] आकाश।
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देववर्द्धकि  : पुं० [ष० त०] विश्वकर्मा।
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देव-वर्द्धन  : पुं० [सं०] पुराणानुसार राजा देवक का एक पुत्र जो देवकी का भाई और श्रीकृष्ण का मामा था।
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देव-वर्ष  : पुं० [ष० त०] पुराणानुसार एक द्वीप का नाम। पुं०=दैव वर्ष।
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देव-वल्लभ  : वि० [ष० त०] देवताओं को प्रिय लगनेवाला। पुं० १. केसर। २. सुरपुन्नाग नामक वृक्ष।
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देव-वाणी  : स्त्री० [ष० त०] १. संस्कृत भाषा जो देवतओ की भाषा कही गई है। २. देवता के मुँह से निकली हुई बात। ३. देवताओं की ओर से होनेवाली आकाशवाणी।
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देववात  : पुं० [सं०] एक वैदिक ऋषि।
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देववायु  : पुं० [सं०] बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम।
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देव-वाहन  : पुं० [सं० देव=हवि√वह्+णिच्+ल्यु—अन] अग्नि (जो देवताओं का हव्य उनके पास पहुँचाती है)।
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देव-विद्या  : स्त्री० [मध्य० स०] निरुक्त।
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देव-विसर्ग  : पुं० [च० त०] १. देवताओं के लिए विसर्ग या अर्पण करना। २. वह चीज हो देवताओं को समर्पित की गई हो।
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देव-विहाग  : पुं० [सं० देवविभाग] संगीत में, एक राग जो कल्याण और विहाग अथवा कुछ लोगों के मत से सारंग और पूरबी के योग से बना है।
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देव-वृक्ष  : पुं० [मध्य० स०] १. मंदार का पौधा। आक। २. गूगुल। ३. सतिवन।
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देव-व्रत  : पुं० [मध्य० स०] १. कोई धार्मिक संकल्प। २. एक प्रकार का सामगान। ३. [ब० स०] भीष्म पितामह। ४. कार्तिकेय।
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देव-शत्रु  : पुं० [ष० त०] देवताओं का शत्रु; राक्षस।
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देव-शाक  : पुं० [सं०] एक संकर राग जो शंकरा भरण, कान्हड़ा और मल्लार के योग से बना है।
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देव-शिल्पी (ल्पिन्)  : पुं० [ष० त०] विश्वकर्मा।
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देज-शुनी  : स्त्री० [उपमि० स०] देवलोक की कुतिया, सरमा।
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देव-शेखर  : पुं० [ब० स०] दौने का पौधा। दमनक।
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देव-श्रवा (बस्)  : पुं० [सं०] १. विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम। २. वसुदेव के एक भाई का नाम।
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देव-श्रुत  : पुं० [सं० त०] १. ईश्वर। २. रद ऋषि। ३. शुक्राचार्य के एक पुत्र। ४. एक जिन देव। ५. शास्त्र।
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देव-श्रेणी  : स्त्री० [ष० त०] १. देवताओं का वर्ग। २. मरोड़-फली। मूर्वा।
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देव-श्रेष्ठ  : वि० [स० त०] देवताओं में श्रेष्ठ। पुं० बारहवें मनु के एक पुत्र का नाम।
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देव-सखा  : पुं० [सं०] उत्तर दिशा का एक पर्वत। (वाल्मीकि रा०)
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देव-सत्र  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार का यज्ञ।
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देव-सदन  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं के रहने का स्थान। स्वर्ग। २. देव-मन्दिर।
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देव-सद् (सस्)  : पुं० [ष० त०] देवस्थान।
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देव-सभा  : स्त्री० [ष० त०] १. देवतओं की सभा या समाज। २. सुधर्मा नाम का वह सभास्थल जो दानव ने अर्जुन और युधिष्ठिर के लिए बनाया था। ३. राज-सभा। ४. जूआ खेलने का स्थान।
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देव-समाज  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं का समाज। २. सुधर्मा नाम का सभास्थल।
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देवसरि (त्)  : स्त्री० [ष० त०] गंगा।
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देव-सर्षप  : पुं० [मध्य० स०] एक प्रकार की सरसों।
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देवसहा  : स्त्री० [सं० देव√सह् (सहना)अच्—टाप्] सफेद फूलोंवाला दंडोत्पल।
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देवसाक  : पुं०=देवशाक (राग)।
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देवसार  : पुं० [सं०] संगीत में, इंद्रताल के छः भेदों में से एक।
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देवसावर्णि  : पुं० [सं०] भागवत के अनुसार तेरहवें मनु।
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देव-सृष्टा  : स्त्री० [च० त०] मदिरा। शराब।
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देव-सेना  : स्त्री० [ष० त०] १. देवताओं की सेना। २. देवताओं के सेनापति स्कंद की पत्नी जो सावित्री के गर्भ से उत्पन्न प्रजापति की कन्या मानी तथा मातृकाओं में श्रेष्ठ कही गई है।
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देव-सेनापति  : पुं० [ष० त०] कार्तिकेय। स्कंद।
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देव-स्थान  : पुं० [ष० त०] १. देवताओं के रहने की जगह या स्थान। २. देवमन्दिर। ३. एक ऋषि जिन्होंने पांडवों को वनवास के समय उपदेश दिया था।
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देवस्व  : पुं० [ष० त०] १. वह संपति जो किसी देवता को अर्पित की गई हो और उसकी संपत्ति मानी जाती हो। यज्ञ करनेवाले धर्मात्मा का धन।
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देवहंस  : पुं० [देश०] हंसों की एक जाति।
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देवहरा  : पुं० [देव+सं० घर] देवालय। मंदिर। उदा०—गिरिस देव हरै उतरा सोई।—नूर मुहम्मद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवहरिया  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की नाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवहा  : स्त्री० [सं० देववहा] सरयू नदी। पुं० [?] एक प्रकार का बैल।
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देवहूति  : स्त्री० [सं०] १. देवताओं का आवाहन। २. कर्द्दम मुनि की पत्नी जो स्वयंभुव मनु की कन्या थी।
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देव-हेति  : स्त्री० [ष० त०] दिव्य अस्त्र। देवास्त्र।
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देवह्रद  : पुं० [सं०] एक सरोवर जो श्रीपर्वत पर स्थित माना गया है।
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देवांगना  : स्त्री० [देव-अंगना ष० त०] १. देवता की स्त्री। २. स्वर्ग में रहने वाली स्त्री। ३. अप्सरा।
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देवांतक  : पुं० [देव-अंतक ष० त०] रावण का एक पुत्र जिसे हनुमान् ने युद्ध में मारा था।
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देवांध (स्)  : पुं० [देव-अंधस् ष० त०] १. अमृत। २. देवता का नैवेध या भोग।
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देवांश  : पुं० [देव-अंश ष० त०] १. किसी वस्तु का वह अंश जो देवताओं को समर्पित किया गया हो अथवा किया जाना चाहिए। २. ईश्वर का अंशावतार।
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देवा  : स्त्री० [सं० देव+टाप्] १. पद्मचारिणी लता। २. पटसन पुं०=देव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) वि० [हिं० देना] देनेवाला। देवैया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवाक्रीड़  : पुं० [देव-आक्रीड ष० त०] देवताओं और इंद्र का बगीचा, नंदनवन।
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देवागार  : पुं० [देव-आगार ष० त०] १. देवतओं के रहने का स्थान; स्वर्ग। देवालय। मंदिर।
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देवाजीव  : पुं० [सं० देव,आ√जीव् (जीना)+अच्]=देवाजीवी।
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देवाजीवी (विन्)  : पुं० [सं० देव-आ√जीव्+णिनि] १. वह जिसकी जीविका देवताओं के द्वारा या उनके सहारे चलती हो। २. पंडा या पुरोहित।
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देवाट  : पुं० [सं० देव-आट ब० स०] हरिहर-क्षेत्र तीर्थ का पुराना नाम।
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देवातिदेव  : पुं० [सं० देव-अति√दिव+अच्] विष्णु।
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देवात्मा (त्मन्)  : पुं० [देव-आत्मन् ब० स०] १. वह जिसकी आत्मा देवताओं की तरह पवित्र और शुद्ध हो। २. अश्वत्थ। पीपल।
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देवाधिदेव  : पुं० [सं० देव-अधिदेव ष० त०] १. विष्णु। २. शिव।
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देवाधिप  : पुं० [सं० देव-अधिप ष० त०] १. परमेश्वर। २. देवताओं के अधिपति, इन्द्र। ३. द्वापर के एक राजा।
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देवान  : पुं०=दीवाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवानां-प्रिय  : पुं० [सं० अलुक् स०] १. देवताओं को प्रिय। २. बडों के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक आदर-सूचक विशेषण पद जो उनके परम भाग्यशाली और श्रेष्ठ होने का सूचक होता है। ३. मूर्ख। बेवकूफ। पुं० बकरा, जो देवताओं को बलि चढ़ाया जाता था।
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देवाना  : पुं० [?] एक प्रकार की चिडिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दीवाना। स०=दिलाना।
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देवनीक  : पुं० [देव-अनीक ष० त०] १. देवताओं की सेना। २. सावर्णि मनु के एक पुत्र का नाम। ३. सगर के वंशज एक राजा।
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देवानुग  : पुं० [देव-अनुग ष० त०] १. देवता का सेवक। २. विद्याधर, यक्ष आदि उपदेव जो देवताओं का अनुगमन करते हैं।
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देवानुचर  : पुं० [देव-अनुचर ष० त०]=देवानुग।
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देवानुयायी (यिन्)  : पुं० [देव-अनुयायिन् ष० त०]= देवानुग।
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देवान्न  : पुं० [देव-अन्न ष० त०] हवि। चरु।
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देवाब  : स्त्री० [देश०] धौंमर, गोंद, चूनें, बीझन आदि के योग से बनाई जानावाली एक तरह की लेई।
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देवाभरण  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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देवाभियोग  : पुं० [देव-अभियोग ष० त०] जैनों के अनुसार वह स्थिति जिसमें कोई देवता शरीर में प्रविष्ट होकर अनुचित कामों की ओर प्रव्रत्त करता है।
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देवाभीष्टा  : स्त्री० [देव-अभीष्टा ष० त०] पान की लता। तांबूली।
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देवायतन  : पुं० [देव-आयतन ष० त०] देवता के रहने का स्थान; स्वर्ग। २. देवालय। मंदिर।
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देवायु (स्)  : स्त्री० [देव-आयुस् ष० त०] देवताओं का जीवनकाल जो बहुत लंबा होता है।
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देवायुध  : पुं० [देव-आयुध ष० त०] १. देवताओं का अस्त्र। दिव्य-अस्त्र। २. इन्द्र-धनुष।
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देवारण्य  : पुं० [देव-अरण्य ष० त०] १. देवताओं का वन या उपवन। २. एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत)
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देवाराधन  : पुं० [देव-आराधन ष० त०] देवताओं का आराधन, पूजन आदि।
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देवारि  : स्त्री० [देव-अरि ष० त०] देवताओं के शत्रु, असुर। स्त्री०=दीवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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देवारी  : [सं० दावाग्नि] कछारों में दिखाई देनेवाला लुक। छलावा। उदा०—जानहुँ मिरिग देवारी मोहे।—जायसी। स्त्री०=दीवाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवार्पण  : पुं० [देव-अर्पण च० त०] देवताओं के निमित्त किया जानेवाला अर्पण या उत्सर्ग।
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देवार्ह  : पुं० [सं० देव√अर्ह् (योग्य होना)+अण्] सुरपर्ण। माचीपत्र।
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देवाल  : वि० [हिं० देना] १. देनेवाला। देवैया। २. दूसरो को कुछ देने की प्रव्रत्ति रखनेवाला। स्त्री०=दीवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देवालय  : पुं० [देव-आलय ष० त०] १. देवताओं के रहने का स्थान; स्वर्ग। २. वह स्थान जहाँ किसी देवता की प्रतिमा प्रतिष्ठित हो। मंदिर।
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देवाला  : पुं० १. दिवाला। २. देवालय।
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देवाली  : स्त्री०=दीवाली।
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देवा-लेई  : स्त्री० [हिं० देना+लेना] १. किसी के कुछ देने और उससे कुछ लेने की क्रिया या भाव २. बराबर परस्पर कुछ लेते-देते रहने का बरताव। लेन-देन का व्यवहार।
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देवावसथ  : पुं० [देव-आवसथ ष० त०] १. देवता के रहने का स्थान। २. मंदिर।
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देवावास  : पुं० [देव-आवास ष० त०] १. देवता का मंदिर। २. पीपल का पेड़।
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देवावृध्  : पुं० [सं० देव√वृध् (बढ़ना)+क्विप्] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।
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देवाश्व  : पुं० [देव-अश्व ष० त०] इंद्र का घोड़ा। उच्चैःश्रवा।
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देवाहार  : पुं० [देव-आहार ष० त०] १. देवताओं का आहार या भोजन। २. अमृत।
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देविक  : वि० [सं० दैविक] १. देवतओं में होनेवाला। देवता-संबंधी। २. देवताओं द्वारा होनावाला। दैवी। ३. दिव्य। स्वर्गीय। पुं० धर्मात्मा।
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देविका  : स्त्री० [सं० √दिव्+णवुल्—अक, टाप, इत्व] घाघरा नदी।
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देवी  : स्त्री० [सं० देव+ङीप्] १. स्त्री देवता। २. देवता की पत्नी। ३. दुर्गा, सरस्वती, पार्वती आदि स्त्री-देवताओं का नाम। ४. श्रेष्ठ गुणोंवाली और सुशीला स्त्री। ५. प्रचीन भारत में राजा की वह पत्नी जिसका राजा के साथ अभिषेक होता था। पटरानी। ६. स्त्री के लिए एक आदरसूचक संज्ञा या संबोधन। ७. स्त्रियों के नाम के अंत में लगनेवाला शब्द। जैसे—शीला देवी, कृष्णा देवी। ८. सफेद इंद्रायन। ९. असबर्ग। पृक्का। १॰. अड़हुल। आदित्यभक्ता। ११. लिंगनी नाम की लता। पँचगुरिया। १२. वन-ककोड़ा। १३. शालपर्णी। सरिवन। १४. महाद्रोणी। बड़ा गुमा। १५. पाठा। १६. नागरमोथा। १७. हरीतकी। हर्रै। १८. अलसी। तीसी। १९. श्यामा नाम की चिड़िया। २॰. सूर्य की संक्रांति। पुं० [सं० देविन्] जूआ खेलनेवाला व्यक्ति। जुआरी। स्त्री० [अ० डेविट्स] १. लकड़ी का वह चौखटा जिसमें दो खड़े खंभो के ऊपर आड़ा बल्ला लगा रहता है। २. जहाज के किनारे पर बाहर की ओर निकले या झुके हुए वे खंभे जिनमें घिरनियाँ लगी होती है।
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देवीकोट  : पुं० [सं०] वाणासुर की राजधानी। शोणितपुर।
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देवी-गृह  : पुं० [ष० त०] १. देवी या भगवती का मंदिर। २. राज-प्रासाद में राज-महिषी के रहने का निजी कमरा।
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देविदह  : पुं० [सं०] १. देवी का कुंड। २. देवी का स्थान।
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देवी-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] एक उपपुराण जिसमें दुर्गा का माहात्म्य वर्णित है।
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देवीबीज  : पुं० [सं० देवीवीर्य] गंधक।
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देवी-भागवत  : पुं० [मध्य० स०] एक पुराण जिसमें भगवती दुर्गा का माहात्म्य वर्णित है। कुछ लोग इसे उपपुराण मानते है।
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देवी-भोया  : पुं० [हिं० देवी+भोयना=भुलाना] वह ओझा जो देवी का ही उपासक हो और उसी के द्वारा सब काम करता-कराता हो।
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देवी-वीर्य  : पुं० [ष० त०] गंधक।
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देवी-सूक्त  : पुं० [मध्य० स०] ऋग्वेद शाकल संहिता का एक देवी विषयक सूक्त।
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देवेंद्र  : पुं० [देव-इंद्र ष० त०] देवताओं के अधिपति, इंद्र।
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देवज्य  : पुं० [देव-इज्य ष० त०] बृहस्पति।
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देवेश  : पुं० [देव-ईश ष० त०] देवताओं के राजा इंद्र। २. ईश्वर। ३. शिव। ४. विष्णु।
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देवेशय  : पुं० [सं० देवे√शी (सोना)+अच्, अलुक् स०] १. परमेश्वर। २. विष्णु।
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देवेशी  : स्त्री० [देव-ईश ष० त०, ङीष्] १. पार्वती। २. देवी।
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देवेष्ट  : वि० [देव-इष्ट ष० त०] जिसे देवता चाहते हों। पुं० गुग्गुल।
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देवेष्टा  : स्त्री० [सं० देवेष्ट+टाप्] बड़ा बिजौरा नींबू।
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देवैया  : वि० [हिं० देना] १. देनेवाला। २. दूसरों को कुछ देने की प्रवृत्ति रखनेवाला।
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देवोत्तर  : पुं० [देव-उत्तर ष० त० ?] देवता को अर्पित अथवा उसके निर्मित उत्सर्ग की हुई संपत्ति।
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देवोत्थान  : पुं० [देव-उत्थान ष० त०] कार्तिक शुक्ला एकादशी (विष्णु का शेष की शय्या पर से सोकर उठना, जो पर्व का दिन माना जाता है)।
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देवोद्यान  : पुं० [देव-उद्यान ष० त०] नंदन, चैत्ररथ, वैभ्राज और सर्वतोभ्रद देवताओं के उद्यान।
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देवोन्माद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का उन्माद जिसमें रोगी, पवित्रता पूर्वक रहता है, सुगंधित फूलों की मालाएँ पहनता है और प्रायः मन्दिरों में दर्शन और परिक्रमा करता फिरता है।
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देवौक (स्)  : पुं० [देव-ओकस् ष० त०] देवताओं का वासस्थान।
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देव्युन्माद  : पुं० [सं०] एक प्रकार का उन्माद जिसमें शरीर सूख जाता है। मुँह और हाथ टेढ़े हो जाते हैं और स्मरण-शक्ति जाती रहती है।
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देश  : पुं० [सं०√दिश् (बताना)+अच्] १. सब ओर फैला हुआ वह विस्तृत अवकाश जिसके अंतर्गत दिखाई देने वाली सभी चीजें रहती है। २. उक्त का कोई परिमित या सीमित अंश या भाग। जैसे—तारों का देश। ३. जगह। स्थान। ४. किसी अंग या पदार्थ के आस-पास का स्थान। जैसे—उदर देश, कटि देश, ललाट देश। ५. कोई विशिष्ट भू-भाग या खंड जिसका प्रक्रतिक या कृत्रिम आधारों पर विभाजन हुआ हो तथा जहाँ कुछ विशिष्ट जातियाँ, कुछ विशिष्ट भाषा-भाषी तथा कुछ विशिष्ट परंपराओं और संस्कृतियों वाले लोग रहते है। ६. उक्त लोग। ७. किसी का अथवा उसके पूर्वजों का जन्म स्थान। जैसे—छुट्टियों में वे देश चले जाते हैं। ८. संगीत में संपूर्ण जाति का एक राग। ९. जैन शास्त्रानुसार चौथा पंचक जिसके द्वारा अर्थानुसंधान पूर्वक तपस्या अर्थात गुरु, जन, गुहा, श्मशान, और रुद्र की वृद्धि होती है।
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देशक  : पुं० [सं०√दिश्+ण्वुल्—अक] १. देश का शासक। २. मार्ग दर्शक। ३. उपदेश करनेवाला। उपदेशक।
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देश-कली  : स्त्री० [सं०] एक रागिनी जिसमें गांधार, कोमल और बाकी सब स्वर शुद्ध लगते हैं।
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देशकारी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, संपूर्ण जाति की एकरागिनी जो मेघराग की भार्या कही गई है। यह वर्षा ऋतु में दिन के पहले पहर में गाई जाती है।
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देशगांधार  : पुं० [सं०] एक राग जो सबेरे एक दंड से पाँच दंड तक गाया जाता है।
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देश-चरित्र  : पुं० [ष० त०] देश की प्रथा। रवाज। (कौं०)
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देश-चारित्र  : पुं० [ष० त०] जैन शास्त्रानुसार गार्हस्थ्य धर्म जिसके बारह भेद हैं।
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देशज  : वि० [सं० देश√जन् (उत्पत्ति)+ड] (शब्द) जो देश में ही उपजा या बना हो। जो न तो विदेशी हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो। पुं० ऐसा शब्द जो न संस्कृत हो, न संस्कृत का अपभ्रंश हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो, बल्कि किसी प्रदेश के लोगों ने बोल-चाल में जों ही बना लिया हो। विशेष—यह शब्दों के तीन प्रकारों या विभागों में से एक है। शेष दो विभाग तत्सम और तद्भव है।
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देशज्ञ  : पुं० [सं० देश√ज्ञा (जानना)+क] किसी देश की दशा, रीति, नीति आदि सब बातें जाननेवाला।
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देश-धर्म  : पुं० [ष० त०] किसी विशिष्ट देश की रीति, नीति, आचार, व्यवहार आदि।
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देशना  : स्त्री० [सं०] १. उपदेश। (जैन) २. कोई ऐसी बात जिसके अनुसार कोई काम करने को कहा जाय। हिदायत।
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देश-निकाला  : पुं० [हिं० देश+निकालना] १. देश से निकालने की क्रिया या भाव। २. अपराधी विशेषतः देशद्रोही को दिया जानेवाला वह दंड जिसमें वह देश के बाहर निकाल दिया जाता है। क्रि० प्र०—देना।—मिलना।
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देश-पति  : पुं० [ष० त०] १. देश का स्वामी; राजा। २. देश का प्रधान शासक। राष्ट्रपति।
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देश-पाली  : स्त्री० [सं०] देशकारी (रागिनी)।
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देश-पीड़न  : पुं० [ष० त०] सारी प्रजा पर होनेवाला अत्याचार। राष्ट्र को कष्ट पहुँचाना। (कौ०)
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देश-भक्त  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जिसे अपना देश परम प्रिय हो तथा जो उसकी स्वतन्त्रता और स्वार्थो को सर्वोपरी समझता हो। ऐसा व्यक्ति किसी अच्छे उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सब-कुछ उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहता हो।
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देश-भक्ति  : स्त्री० [ष० त०] देशभक्त होने की अवस्था, गुण या भाव।
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देश-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] वह भाषा जो किसी विशिष्ट देश या प्रांत में ही बोली जाती हो। जैसे—पंजाबी, बँगला, पराठी आदि।
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देश-मल्लार  : पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग।
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देशराज  : पुं० [सं०] राजा परमाल (प्रमर्दि देव) के एक सामंत जो आल्हा और ऊदल के पिता थे।
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देशस्थ  : वि० [सं० देश√स्था (ठहरना)+क] १. देश में स्थिति। २. देश में रहनेवाला। पुं० महाराष्ट्र ब्राह्मणों का एक भेद।
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देशांकी  : स्त्री० [?] एक प्रकार की रागिनी।
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देशांतर  : पुं० [सं० देश-अंतर; मयू० स०] [वि० देशांतरी, भू० कृ० देशांतरित] १. अपने अथवा प्रस्तुत देश से भिन्न, अन्य या दूसरा देश परदेश। विदेश। २. दे० ‘देशांतरण’। ३. भूगोल में, याम्योतर रेखा के विचार से निश्चित की हुई किसी स्थान की पूर्वी या पश्चिमी दूरी जो अक्षांश की परह संख्या-सूचक अंशों में बताई जाती है। (लांगी च्यूड)
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देशांतरण  : पुं० [सं० देशांतर+णिच्+ल्युट्—अन] १. एक देश को छोडकर दूसरे देश में जाना तथा उसमें जाकर रहना। २. राज्य की ओर से दिया जानेवाला निर्वासन का दंड।
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देशांतर सूचक यंत्र  : पुं० [सं०] किसी स्थान का देशांतर सूचित करनेवाला एक प्रकार का यंत्र जिसका उपयोग मुख्यतः समुद्री जहाजों पर देशांतर जानने के लिए किया जाता है। (क्रोनोमीटर)
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देशांतरित  : भू० कृ० [सं० देशांतर+णिच्+क्त] १. जो किसी दूसरे देश जा बसा हो। २. जिसे देश-निकाले का दंड मिला हो। ३. जो किसी दूसरे देश में पहुँचा या भेज दिया गया हो।
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देशांतरित-पण्य  : पुं० [कर्म० स०] दूर देश से आया हुआ माल। विदेशी माल। (कौ०)
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देशांतरी (रिन्)  : वि०, पुं० [सं० देशांतर+इनि] विदेशी।
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देशांश  : पुं०=देशांतर।
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देशाका  : पुं० [सं०] एक प्रकार की रागिनी।
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देशाक्षी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देशाखी  : स्त्री० [सं०] षाड़व जाति की एक रागिनी जो हनुमत् के मत से हिंडोल की दूसरी रागिनी है।
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देशाचार  : पुं० [सं० देश-आचार ष० त०] किसी विशिष्ट देश के रीति-रिवाज।
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देशाटन  : पुं० [सं० देश-अटन, स० त०] भिन्न-भिन्न देशों में घूम-घूमकर की जानेवाली यात्रा या पर्यटन।
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देशावकाशिक (व्रत)  : पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार, एक प्रकार का शिक्षा-व्रत जिसमें स्वार्थ के लिए सब दिशाओं में आने-जाने के जो प्रतिबंध हैं उनकी ओर भी कठोरता तथा दृढ़ता से पालन किया जाता है।
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देशावली  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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देशिक  : वि० [सं० देश+ठन्—इक] किसी विशिष्ट देश या प्रदेश से संबंध रखने या उसकी सीमा में होनेवाला। (इन्टरनल)। पुं० पथिक बटोही।
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देशित  : भू० कृ० [सं०√दिश्+णिच्+क्त] १. जिसे आदेश दिया गया हो। आदिष्ट। २. जिसे उपदेश दिया गया हो। उपदिष्ट। ३. जिसे कोई बात बतलाई या समझाई गई हो।
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देशिनी  : स्त्री० [सं०√दिश्+णिनि—ङीप्] १. सूची। सूई। २. तर्जनी उँगली।
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देशी  : वि० [सं० देशीय] १. देश संबंधी। देश का। जैसे—देशी भाषा। २. किसी व्यक्ति की दृष्टि से, स्वयं उसके देश में बहने, रहने या होनेवाला। स्वदेशी। जैसे—देशी माल। पुं० १. संगीत के दो भेदों में से एक (दूसरा भेद ‘मार्गी’ कहलाता है)। २. एक प्रकार का ताण्डव नृत्य जिसमें अभिनय कम और अंग-विक्षेप अधिक होता है। स्त्री एक रागिनी जो हनुमत के मत से दीपक राग की भार्या है और जो ग्रीष्मकाल में मध्याह्र के समय गाई जाती है।
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देशी-राज्य  : पुं० दे० ‘रियासत’।
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देशीय  : वि० [सं० देश+छ—ईय] देश में होने अथवा उसके भीतरी भागों से संबंध रखनेवाला।
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देश्य  : वि० [सं०] १. किसी देश, प्रान्त या स्थान से संबध रखने या उसमें होनेवाला। देशी। २. प्रान्तीय या स्थानीय। ३. [√दिश्+ण्यत्] (तथ्य) जो प्रमाणित किया जाने को हो। पुं० १. देश का निवासी। २. ऐसा गवाह जिसने कोई घटना अपनी आँखों से देखी हो। प्रत्यक्षदर्शी। ३. न्याय में ऐसा कथन या तथ्य जो प्रमाणिक किया जाने को हो। पूर्व-पक्ष।
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देसंतर  : पुं० [सं० देशान्तर] दूसरा देश। विदेश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देस  : पुं० देश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देसकार  : पुं०=देशकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देसवाल  : वि० [हिं० देस+वाला] स्वदेश का, दूसरे देश का नहीं (मनुष्य के लिए) जैसे—देसवाल बनिया। पुं० एक प्रकार का पटसन।
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देसावर  : पुं० [सं० देश+अपर] [वि० सावरी] अपने देश से भिन्न कोई दूसरा देश।
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देसावरी  : वि० [हिं० देसावर] देसावर अर्थात् अन्य देश का।
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देसी  : वि०=देशी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देहंभर  : वि० [सं० देह√भृ (पोषण)+खच्, मुम्] १. अपने ही शरीर का पोषण करनेवाला। २. परम स्वार्थी।
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देह  : स्त्री० [सं०√दिह् (वृद्धि)+घञ्] [वि० देही] १. शरीर। तन। बदन। मुहा०—देह छोड़ना या त्यागना=मृत्यु होना। देह धरना या लेना=जन्म लेकर शरीर धारण करना। देह बिसरना=तन-बदन की सुध न रहना। २. शरीर का कोई अंग। ३. जिन्दगी। जीवन। ४. देवता आदि की मूर्ति। विग्रह। पुं० [फा०] गाँव। खेड़ा। विशेष—‘देहात’ वस्तुतः इसी ‘देह’ का बहु० है।
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देहकान  : पुं०=दहकान।
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देहकानी  : वि०=दहकानी।
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देह-त्याग  : पुं० [ष० त०] मरण। मृत्यु।
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देहद  : पुं० [सं० देह√दै (शोधन)+क] पारा।
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देह-धारक  : वि० [ष० त०] शरीर को धारण करनेवाला। देह-धारी। पुं० अस्थि। हड्डी।
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देह-धारण  : पुं० [ष० त०] १. शरीर प्राप्त करना। जन्म लेना। २. शरीर प्राप्त होने पर उसका पालन और रक्षा करना। शरीर के धर्मों का निर्वाह करना।
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देहधारी (रिन्)  : वि० [सं० देह√धृ (धारण)+णिनि] [स्त्री० देहधारिणी] १. जन्म लेकर शरीर धारण करनेवाला। २. जिसे शरीर हो। शरीरी। पुं० जीव। प्राणी।
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देहधि  : पुं० [सं० देह√धा+कि] चिडि़यों का पंख। डैना।
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देहधृज्  : पुं० [सं० देह√धृज् (संचरण)+क्विप्] वायु जिससे शरीर बना रहता है।
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देहनी  : पुं० [सं०] १. जीवित व्यक्ति। प्राणी। २. मनुष्य। स्त्री० पत्नी (राज०)।
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देह-पात  : पुं० [ष० त०] देह अर्थात् शरीर का नाश। मृत्यु।
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देहभुज  : पुं० [सं० देह√भुज् (भोगना)+क्विप्] जीव। प्राणी। २. आत्मा। ३. सूर्य। ४. मरण। मृत्यु।
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देहभृत्  : [सं० देह√भृ (भरण)+क्विप्] जीव। प्राणी।
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देह-यात्रा  : स्त्री० [च० त०] १. भोजन। भरण-पोषण आदि ऐसे काम जिनसे शरीर चलता रहे। २. [ष० त०] मृत्यु। मौत।
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देहर  : स्त्री० [सं० देवह्रद] नदी के किनारे की वह नीची भूमि जो बाढ़ के समय जलमग्न रहती है।
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देहरा  : पुं० [हिं० देव+घर] [स्त्री० अल्पा० देहरी] देवालय। मंदिर। पुं०=देह (शरीर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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देहरि  : स्त्री०=देहली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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देहरी  : स्त्री०=देहली।
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देहला  : स्त्री० [सं०] मदिरा। शराब।
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देहली  : स्त्री० [सं० देह√ला (ग्रहण)+कि—ङीष्] १. दीवार में लगे हुए दरवाजे में चौखट के नीचे की लकड़ी। दहलीज। २. उक्त लकड़ी के आस-पास का स्थान अथवा वह स्थान जहाँ पर उक्त लकड़ी रहती है।
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देहली-दीपक  : पुं० [मध्य० स०] १. देहरी पर रखा हुआ दीपक जो भीतर बाहर दोनों ओर प्रकाश फैलाता है। २. उक्त के आधार पर प्रचलित एक न्याय का सिद्धान्त जिसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर होता है जहाँ एक चीज या बात दोनों पक्षों पर प्रकाश डालती हो। ३. साहित्य में, एक अर्थालंकार जिसमें किसी एक बीचवाले शब्द का अर्थ पहले और बाद के अर्थात् दोनों पदों में समान रूप से लगता हो। जैसे—हम न आप में ‘न’ जिसके कारण पद का अर्थ होता है—न हम और न आप।
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देहवंत  : वि० [सं० देहवान का बहु०] जिसका देह हो। शरीरधारी।
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देहवान् (वत्)  : वि० [सं० देह+मतुप्] शरीरधारी। पुं० जीव। प्राणी।
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देह-शंकु  : पुं० [सं०] पत्थर का खंभा।
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देह-संचारिणी  : स्त्री० [सं० देह-सम्√चर् (गति)+णिनि—ङीप्] कन्या। लड़की।
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देह-सार  : पुं० [ष० त०] शरीर में की मज्जा नामक धातु।
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देहांत  : पुं० [देह-अंत ष० त०] देह का अंत। शरीरांत। मृत्यु।
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देहांतर  : पुं० [देह-अंतर, मयू० स०] एक शरीर छोड़ने पर दूसरा प्राप्त होने वाला शरीर। जन्मांतर।
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देहांतरण  : पुं० [सं० देहांतर+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० देहांतरित] आत्मा का एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जाना। नया देह या शरीर धारण करना।
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देहात  : पुं० [फा० देह (गाँव) का बहु०] [वि० देहाती] १. गाँव। ग्राम। २. देश के वे विभाग जिनमें अनेक गाँव हों।
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देहाती  : वि० [हिं० देहात] [भाव० देहातीपन] १. देहात संबंधी। २. देहात अर्थात् गाँव में रहनेवाला। ३. उक्त लोगों की प्रकृति, रुचि, व्यवहार आदि के अनुरूप। जैसे—देहाती पहनावा या रहन-सहन। पुं० गँवार।
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देहातीत  : वि० [सं० देह-अतीत द्वि० त०] १. जो शरीर से परे या स्वतंत्र हो। २. जिसे देह का अभिमान, ममता आदि न हो।
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देहातीपन  : पुं० [हिं० देहाती+पन (प्रत्य०)] देहाती होने की अवस्था या भाव।
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देहात्म-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] देह और आत्मा के अभेद का ज्ञान।
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देहात्म-वाद  : पुं० [ष० त०] एक दार्शनिक सिद्धान्त जिसके अनुसार देह को आत्मा मानते हैं और देह से भिन्न आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं मानते।
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देहात्मवादी (दिन्)  : पुं० [सं० देहात्मवादी+इनि] देहात्मवाद का अनुयायी या समर्थक।
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देहात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं०देह-आत्मन् द्व० स०] देह और आत्मा।
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देहाध्यास  : पुं० [देह-अध्याय, ष० त०] देह को ही आत्मा समझने का भ्रम।
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देहावरण  : पुं० [देह-आवरण, ष० त०] १. शरीर पर पहनने के या उसे ढकने के कपड़े। २. जिरह। बक्तर।
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देहावसान  : पुं० [देह-अवसान ष० त०] देह का अवसान अर्थात् अंत या नाश। देहांत। मृत्यु।
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देहिका  : स्त्री० [सं०√दिह्+ण्वुल्—अक, टाप् इत्व] एक प्रकार का क्रीड़ा।
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देही (हिन्)  : वि० [सं० देह+इनि] देह को धारण करनेवाला। शरीरी। पुं० जीवात्मा। आत्मा।
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देहेश्वर  : पुं० [देह-ईश्वर, ष० त०] आत्मा।
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देहोद्भव, देहोद्भूत  : वि० [देह-उद्भव ब० स० देह-उद्भूत, पं० त०] १. देह से उद्भूत या प्राप्त होनेवाला। २. जन्मजात।
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दैं  : अव्य० [अनु०] से। (किसी क्रिया के प्रकार का सूचक) जैसे—चपाक दैं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दैंती  : स्त्री०=दराँती।
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दैअ  : पुं०=दैव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दैआ  : स्त्री०=दैया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दैउ  : पुं०=दैव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दैजा  : पुं०=दायजा (दहेज)।
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दैतारि  : पुं०=दैत्यारि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दैतेय  : वि० [सं० दिति+ढक्—एय] दिति से उत्पन्न। पुं० १. दिति का पुत्र। दैत्य। राक्षस। २. राहु का एक नाम।
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दैत्य  : पुं० [सं० दिति+ण्य] [स्त्री० दैत्या] १. कश्यप के वे पुत्र जो दिति नाम्नी स्त्री से पैदा हुए थे। असुर। राक्षस। २. लाक्षणिक रूप में बहुत बड़े डील-डोलवाला और कुरूप या भद्दा आदमी। ३. राक्षसों के आकार-प्रकार और रंग-ढंग का व्यक्ति। ४. दुराचारी और नीच। ५. लोहा।
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दैत्य-गुरु  : पुं० [ष० त०] दैत्यों के गुरु; शुक्राचार्य।
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दैत्यज  : वि० [सं० दैत्य√जन् (उत्पत्ति)+ड] [स्त्री० दैत्यजा] दैत्य से उत्पन्न। पुं० दैत्य का वंशज।
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दैत्य-देव  : पुं० [ष० त०] १. दैत्यों के देवता। २. वरुण। ३. वायु।
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दैत्यद्वीप  : पुं० [सं०] गरुड़ का एक पुत्र। (महाभारत)।
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दैव्य-धूमिनी  : स्त्री० [सं०] हथेलियों के पृष्ठ भागों को मिलाने तथा उँगलियों को एक दूसरे में फँसाने पर बननेवाली एक मुद्रा। (तंत्र)।
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दैत्य-पुरोधा (धस्)  : पुं० [सं० ष० त०] दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य।
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दैत्य-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] दैत्यों की माता, दिति।
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दैत्य-मेदज्  : पुं० [दैत्य-मेद ष० त० दैत्यमेद√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. पृथ्वी। २. गुग्गुल। गूगुल।
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दैत्य-युग  : पुं० [ष० त०] दैत्यों का युग जिसकी अवधि देवताओं के बारह हजार बरसों और मनुष्यों के चार युगों के बराबर मानी गई हैं।
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दैत्य-सेना  : स्त्री० [सं०] प्रजापति की कन्या जो देवसेना की बहन थी, जिसका विवाह केशव दानव से हुआ था।
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दैत्या  : स्त्री० [सं० दैत्य+टाप्] १. दैत्य जाति की स्त्री। २. कपूर। कचरी। मुरा। ३. चंदौषधि। ४. मदिरा। शराब।
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दैत्यारि  : पुं० [दैत्य-अरि ष० त०] १. दैत्यों के शत्रु; विष्णु। २. देवता। ३. इंद्र।
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दैत्याहोरात्र  : पुं० [दैत्य-अहोरात्र ष० त०] दैत्यों का एक दिन और एक रात जो मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर कहा जाता है।
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दैत्येन्द्र  : पुं० [दैत्य-इंद्र ष० त०] १. दैत्यों का राजा। २. गंधक।
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दैत्येज्य  : पुं० [दैत्य-इज्य ष० त०] दैत्यों के गुरु; शुक्राचार्य।
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दैनंदिन  : वि० [सं० दिनंदिन+अण् नि० सिद्धि] [स्त्री० दैनंदिनी] प्रतिदिन होनेवाला। नित्य का। क्रि० वि० १. प्रतिदिन। नित्य। २. दिनों-दिन। लगातार। पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का प्रलय जो ब्रह्मा के पचास वर्ष बीतने पर होता है। मोहरात्रि।
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दैनंदिनी  : वि० [सं० दैनंदिन] दैनिक। स्त्री०=दैनिकी। (देखें)।
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दैन  : वि० [सं० दिन+अण्] दिन संबंधी। दिन का। पुं० [सं० दीन+अण्] दीन होने की अवस्था या भाव। दीनता। स्त्री०=देन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) प्रत्य० [सं० दायिन्] देनेवाला। जैसे—सुखदैन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दैनिक  : वि० [सं० दिन+ठञ्—इक] १. दिन संबंधी। दिन का। जैसे—दैनिक समाचार। २. एक दिन में होनेवाला। ३. प्रति दिन या हर रोज किया जाने या होनेवाला। जैसे—दैनिक चर्या। ४. नित्य या बराबर होता रहनेवाला। जैसे—दैनिक चिंता, दैनिक झगड़ा। पुं० १. एक दिन काम करने का पारिश्रमिक, मजदूरी या वेतन। २. वह समाचार-पत्र जो प्रति दिन या रोज प्रकाशित होता हो। (डेली)
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दैनिक-पत्र  : पुं० [कर्म० स०] वह समाचार-पत्र जो प्रतिदिन या नित्य प्रकाशित होता हो। हर रोज छपनेवाला अखबार।
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दैनिकी  : स्त्री० [सं० दैनिक+ङीष्] जेब में रखी जानेवाली वह छोटी पुस्तिका जिसमें रोज के किये जानेवाले कामों का उल्लेख होता है। (डायरी)।
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दैन्य  : पुं० [सं० दीन+ष्यञ्] १. दीन होने की अवस्था या भाव। दीनता। २. गरीबी। दरिद्रता। ३. नम्रता। ४. साहित्य में, एक प्रकार का संचारी भाव जिसमें कष्ट, दुःख आदि के कारण मनुष्य कातर, दीन और नम्र हो जाता है।
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दैयत  : पुं०=दैत्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दैया  : पुं० [हिं० दई] दई। दैव। मुहा०—दैयन कै=दैव दैव करते हुए। बहुत कठिनता से या किसी प्रकार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० दाई] १. माता। माँ। २. दाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) अव्य० आश्चर्य, भय, दुःख आदि का सूचक शब्द। हे परमेश्वर। (स्त्रियाँ)।
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दैयागति  : स्त्री०=दैवगति।
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दैर  : पुं० [फा०] १. वह स्थान जहाँ लोग धार्मिक दृष्टि से पूजा,उपासना आदि करते हों। २. देव-मंदिर। बुतखाना। ३. गिरजा।
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दैर्ध्य  : पुं० [सं० दीर्घ+ष्यञ्] दीर्घ का भाव। दीर्घता। लंबाई।
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दैव  : वि० [सं० देव+अण्] [स्त्री० दैवी] १. देवता संबंधी। जैसे—दैव-कार्य। २. देवताओं की ओर से होनेवाला। जैसे—दैव-गति। ३. देवता को अर्पित किया हुआ। पुं० १. अर्जित शुभ और अशुभ कर्म जो फल देनेवाले होते हैं। प्रारब्ध। होनी। २. विधाता। ईश्वर। मुहा०—(किसी को) दैव लगाना=(किसी पर) ईश्वर का कोप होना। ३. आकाश। मुहा०—दव बरसना=पानी बरसना। ४. योगियों के योग में होनेवाले पाँच प्रकार के विघ्नों में से एक जिसमें योगी उन्मत्तों की तरह आँखें बंद करके चारो ओर देखता है (मार्कंडेय पु०)।
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दैव-कृत-दुर्ग  : पुं० [सं० दैव-कृत्य, तृ० त०, दैवकृत-दुर्ग, कर्म० स०] वह स्थान जो चारों ओर से पर्वतों, नदियों से घिरा होने के कारण सुरक्षित हो।
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दैव-कोविद  : पुं० [सं० ष० त०] १. देवताओं के विषय की सब बातें जाननेवाला। २. ज्योतिषी। दैवज्ञ।
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दैव-गति  : स्त्री० [कर्म० स०] १. ईश्वरीय या दैवी घटना। २. भाग्य। प्रारब्ध।
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दैवग्य  : पुं०=दैवज्ञ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दैव-चिंतक  : पुं० [ष० त०] ज्योतिषी।
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दैवज्ञ  : वि० [सं० दैव√ज्ञा (जानना)+क] [स्त्री० देवज्ञा] दैव-संबंधी सब बातें जाननेवाला। पुं० १. ज्योतिषी। २. बंगाली ब्राह्मणों की एक जाति या वर्ग।
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दैव-तंत्र  : वि० [ब० स०] भाग्य पर आश्रित या उसके अधीन रहनेवाला।
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दैवत  : वि० [सं० देवता+अण्] देवता-संबंधी। पुं० १. देवता। २. देवता की प्रतिमा या मूर्ति। विग्रह। ३. यास्क मुनि के निरुक्त का तीसरा कांड।
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दैवत-पति  : पुं० [ष० त०] देवताओं का राजा इंद्र।
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दैव-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] उँगलियों के अग्रभाग या नोकें जिनसे आचमन किया जाता है।
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दैवत्य  : पुं० [सं० देवता+ण्यञ्] देवता।
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दैवत्व  : पुं० [सं० दैव+त्व] दैव होने की अवस्था, गुण या भाव।
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दैव-दुर्विपाक  : पुं० [ष० त०] १. ऐसी स्थिति जिसमें होनेवाली खराबी दैव के प्रतिकूल होने पर होती हो। २. भाग्य की खोटाई या दोष।
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दैव-प्रमाण  : पुं० [ब० स०] ऐसा व्यक्ति जो पूर्णतः भाग्य के भरोसे रहे।
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दैव-युग  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं का एक युग जो मनुष्यों के चारों युगों के बराबर होता है।
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दैव-योग  : पुं० [ष० त०] ईश्वरकृत सयोग। इत्तिफाक। जैसे—दैवयोग से आप ठीक समय पर यहाँ आ गये।
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दैवल  : पुं० [सं० देवल+अण्] देवल ऋषि का वंशज।
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दैव-लेखक  : पुं० [ष० त०] ज्योतिषी।
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दैव-वर्ष  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं का वर्ष जो १३१५२१ सौ दिनों के बराबर होता है।
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दैव-वश  : अव्य० [ष० त०] १. दैवयोग से। २. संयोगवश।
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दैव-वशात्  : अव्य०=दैववश।
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दैव-वाणी  : स्त्री० [कर्म० स०] १. देवताओं की भाषा; संस्कृत। २. देवताओं द्वारा कही हुई बात जो आकाश से सुनाई पड़ती है। आकाशवाणी।
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दैववादी (दिन्)  : वि० [सं० दैव√वद् (बोलना)+णिनि] १. मुख्यतः दैव या भाग्य के भरोसे रहनेवाला। २. आलसी।
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दैवविद्  : पुं० [सं० दैव√विद् (जानना)+क] ज्योतिषी।
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दैव-विवाह  : पुं० [कर्म० स०] स्मृतियों में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों में से एक जिसमें कन्या यज्ञ करानेवाले ऋत्विक को ब्याह दी जाती थी।
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दैव-श्राद्ध  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं के उद्देश्य से किया जानेवाला श्राद्ध।
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दैव-सर्ग  : पुं० [कर्म० स०] देवताओं की सृष्टि जिसके ब्राह्मा, प्राजापत्य, ऐंद्र, पैत्र, गांधर्व, यक्ष राक्षस और पैशाच ये आठ भेद माने गये हैं।
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दैवाकरि  : पुं० [सं० दिवाकर+इञ्] १. दिवाकर अर्थात् सूर्य के पुत्र; (क) यम। (ख) शनि।
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दैवाकरी  : स्त्री० [सं० दिवाकर+अण्—ङीप्] (सूर्य की पुत्री) जमुना नदी।
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दैवागत  : स्त्री० [सं० दैव-आगत पं० त०] १. दैव-योग से होनेवाला। २. सहसा होनेवाला। आकस्मिक।
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दैवात्  : अव्य० [सं० विभक्तिप्रतिरूपक अव्यय] १. दैवयोग से। इत्तिफाक से। २. अकस्मात्। अचानक।
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दैवात्यय  : पुं० [दैव-अत्यय, मध्य० स०] १. दैवी उपद्रव। २. आकस्मिक उत्पात या उपद्रव।
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दैवाधीन  : वि० [दैव-अधीन ष० त०] भाग्य के भरोसे रहनेवाला।
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दैवायत्त  : वि० [दैव-आयत्त ष० त०] दैवाधीन।
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दैवारिप  : पुं० [सं० देवारि√पा (रक्षा)+क, देवारिय=समुद्र+अण्] शंख।
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दैवासुर  : पुं० [सं० देवासुर+अण्] देवताओं और असुरों का पारस्परिक वैर।
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दैविक  : वि० [सं० देव+ठक—इक] १. देवता-संबंधी। देवताओं का। जैसे—दैविक श्राद्ध। २. देवताओं का किया हुआ। जैसे—दैविक ताप।
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दैवी  : वि० [सं० दैव+ङीप्] १. देवता-संबंधी। २. देवताओं की ओर से होनेवाला। ३. सात्त्विक। ४. आप से आप, प्रारब्ध या संयोगवश घटित होनेवाला। आकस्मिक। ५. दिव्य। स्वर्गीय। स्त्री० १. दैव विवाह द्वारा ब्याही हुई पत्नी। २. एक प्रकार का दैविक छंद। पुं० [सं०] ज्योतिषी।
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दैवीगति  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] १. ईश्वर की की हुई बात। २. भावी। होनहार।
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दैवोपहत  : वि० [दैव-उपहत तृ० त०] भाग्य का मारा हुआ। अभागा।
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दैव्य  : वि० [सं० देव+यञ्] देवता-संबंधी। पुं० १. दिव्य होने की अवस्था या भाव। दिव्यता। २. दैव। ३. भाग्य।
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दैशिक  : वि० [सं० देश+ठञ्—इक] १. देश या स्थान संबंधी। देश का। २. देश अर्थात् राज्य में होनेवाला। ३. राष्ट्रीय।
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दैष्टिक  : वि० [सं० दैह+ठक्—इक] भाग्य में बदा हुआ। पुं० भाग्यवादी।
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दैहिक  : वि० [सं० दैह+ठञ्—इक] १. देह-संबंधी। शारीरिक। २. देह या शरीर से उत्पन्न।
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दैहिकी  : स्त्री० [सं० दैहिक+ङीष्] वह विद्या या शास्त्र जिसमें जीवधारियों के भिन्न-भिन्न अंगों के कार्य, स्वरूप आदि का विवेचन होता है। शरीर-शास्त्र। (फिजियालोजी)।
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दैह्य  : वि० [सं० दैह+ष्यञ्] देह-संबंधी। शारीरिक। पुं० आत्मा।
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दोंकना  : अ० [अनु०] गुर्राना।
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दोंकी  : स्त्री० १.=धौंकनी। २.=गुर्राहट।
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दोंच  : स्त्री० दोच।
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दोँचना  : स०=दोचना।
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दोँर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का साँप।
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दो  : वि० [सं० द्वि] १. जो गिनती में एक से एक अधिक हो। तीन से एक कम। पद—दो-एक=एक से एक या दो अधिक। कुछ। जैसे—उनसे दो-एक बातें कर लो। दो चार=दो, तीन अथवा चार। कुछ। थोड़ा। जैसे—दो-चार दिन बाद आना। दो दिन की=बहुत थोड़े समय का। हाल का। जैसे— यह तो अभी दो दिन की बात है। किसके दो सिर हैं?=किसे फालतू सिर हैं ? कौन व्यर्थ अपने प्राण गवाना चाहता है। मुहा०—(आँखें) दो-चार होना=सामना होना। (किसी से) दो चार होना=भेंट या मुलाकात होना। दो दो बातें करना=संक्षिप्त परन्तु स्पष्ट प्रश्नोत्तर करना। साफ-साफ कुछ बातें पूछना और कहना। दो नावों पर पैर रखना=दो आश्रमों या दो पक्षों का अवलंबन करना। ऐसी स्थिति में रहना कि जब जिधर चाहे, तब उधर मुड़ या हो सकें। २. विभिन्न या परस्पर-विरोधी। जैसे—देश की सुरक्षा के संबंध में दो राय हो ही नहीं सकती। पुं० १. एक के ठीक बादवाली संख्या। एक और एक का जोड़। २. उक्त का सूचक अंक जो इस प्रकार का लिखा जाता है—२। ३. जोड़ा। ४. दुक्की।
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दो-आतशा  : वि० [फा०] जो दो बार भभके से खींचा या चुआया गया हो। दो बार का उतारा हुआ। जैसे—दो आतशा अरक या शराब।
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दोआब  : पुं०=दोआबा।
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दोआबा  : पुं० [फा० दोआबः] दो नदियों के बीच का अथवा उनसे घिरा हुआ प्रदेश।
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दोइ  : वि०, पुं०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोउ  : वि० [हिं० दो] दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोऊ  : वि० [हिं० दो] दोनों।
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दोक  : पुं० [हिं० दो+का (प्रत्य०)] दो वर्ष की उम्र का बछेड़ा।
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दोकड़ा  : पुं० [हिं० दो+टुकड़ा] टुकड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दो कला  : वि० [हिं० दो+कल] दो कलों या पेचोंवाला। पुं० १. वह ताला जिसके अंदर दो कलें या पेंच होते हैं। २. उक्त प्रकार की बेड़ी जो साधारण बेड़ी से अधिक मजबूत होती है।
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दोका  : पुं०=दोक।
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दो-कोहा  : पुं० [हिं० दो+कोह=कूबड़] वह ऊँट जिसकी पीठ पर दो कूबड़ होते हैं।
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दो-खंभा  : पुं० [हिं० दो+खंभा] एक प्रकार का नैचा जिसमें कुल्फी नहीं होती।
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दोख  : पुं०=दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोखना  : स० [हिं० दोष+ना (प्रत्य०)] किसी पर दोष लगाना।
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दोखी  : वि० [हिं० दोष] १. अपराधी। दोषी। २. ऐबी। ३. दुष्ट। पाजी। ४. वैरी। शत्रु। (ङिं०)
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दो-गंग  : पुं० [हिं० दो+गंगा] नदियों के बीच का प्रदेश। दोआब।
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दोगंडी  : स्त्री० [हिं० दो+गंडी=गोल घेरा या चिह्न] १. वह चित्ती कौड़ी या इमली की चिआँ जिसे लड़के जुआ खेलने में बेईमानी करने के लिए दोनों ओर से घिस लेते हैं। २. उक्त प्रकार की कौड़ियों से खेलनेवाला अर्थात बेईमान आदमी। ३. उपद्रवी या शरारती आदमी।
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दोगर  : पुं०=डोगरा।
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दोगला  : पुं० [फा० दोगलः] [स्त्री० दोगली] १. ऐसा जीव जो दो विभिन्न जातियों या नस्लों के माता-पिता के योग से उत्पन्न हुआ हो। वर्ण-संकर। २. उक्त के आधार पर उत्पन्न होनेवाला ऐसा जीव जो प्रायः कुरूप तथा अशक्त होता है। ३. ऐसा मनुष्य जो अपनी माता के गर्भ से परन्तु उसके उपपति या यार के योग से उत्पन्न हुआ हो। जो ऐसे व्यक्ति की संतान हो जिससे उसकी माता का विवाह न हुआ हो। जारज। पुं० [हिं० दो+कल] बाँस की कमाचियों का बना हुआ एक प्रकार का गोल और कुछ गहरा पात्र जिससे किसान खेतों में पानी उलीचते हैं।
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दोगा  : [सं० द्विक, हिं० दुक्का] १. लिहाफ के काम आनेवाला एक तरह का मोटा कपड़ा। २. पानी में घोला हुआ चूना, सीमेंट आदि जिसे दीवारों छतों आदि पर पोतकर उन्हें चिकना बनाया जाता है।
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दोगाड़ा  : पुं० [हिं० दो+?] दोनली बंदूक।
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दोगाना  : पुं० [हिं० दो+गाना] एक तरह का गीत जिसके एक चरण में एक व्यक्ति कुछ प्रश्न करता है और दूसरे चरण में दूसरा व्यक्ति उसका उत्तर देता है। स्त्री०=दुगाना। (देखें)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोगुना  : वि०=दुगना (दूना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोग्ध्री  : स्त्री० [सं०√दूह (दुहना)+तृच्—ङीप्] १. दूध देनेवाली गाय। २. दूध पिलानेवाली दाई। धाय।
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दोघ  : वि० [सं०] गौ आदि दुहनेवाला।
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दोघरा  : वि० [हिं० दो+घर] १. जिसमें दो घर (खाने या विभाग) हों। २. दो घरों से सम्बन्ध रखनेवाला।
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दोचंद  : वि० [फा० दुचंद] दुगना। दूना।
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दोच  : स्त्री०=दोचन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोचन  : स्त्री० [हिं० दबोच] १. दुबधा। असमंजस। २. कष्ट। तकलीफ। दुःख। ३. विपत्ति। संकट। ४. किसी ओर से पड़ने वाला दबाव।
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दोचना  : पुं० [हिं० दोच] कोई काम करने के लिए किसी पर बहुत जोर देना। दबाव डालना।
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दोचल्ला  : पुं० [हिं० दो+चल्ला (पल्ला) ?] वह छाजन जो बीच में उभरी हुई और दोनों ओर ढालुईं हो। दो-पलिया छाजन।
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दो-चित्ता  : वि० [हिं० दो+चित्ता] [स्त्री० दोचित्ती] जिसका चित्त एकाग्र न हो, बल्कि दो कामों या बातों में बँटा आ लगा हुआ हो।
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दोचित्ती  : स्त्री० [हिं० दो+चित्त] १. ‘दो-चित्ता’ होने की अवस्था या भाव। ध्यान का दो कामों या बातों में बँटा रहना। २. चित्त की उद्विग्नता या विकलता।
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दो-चोबा  : पुं० [हिं० दो+फा चोब] वह बड़ा खेमा जिसमें दो दो चोबें लगती हों।
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दोज  : स्त्री० [हिं० दो] चांद्र मास के किसी पक्ष की द्वितिया तिथि। दूज। पुं० [सं०] संगीत में, अष्टताल का एक भेद। वि० [फा०] १. सिलाई करने या साने वाला। जैसे—जरदोज। २. किसी के साथ बिलकुल मिला या सटा हुआ। जैसे—जमीन दोज मकान, अर्थात ऐसा मकान जो ढहकर जमीन के बराबर हो गया हो।
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दोजई  : स्त्री० [देश०] वह उपकरण जिससे नक्काश लोग वृत्त आदि बनाते हैं।
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दोजख  : पुं० [फा० दोजख] १. इस्लामी धर्म के अनुसार नरक जिसके सात विभाग कहे गये हैं और जिसमें दुष्ट तथा पापी मनुष्य मरने के उपरांत रखे जाते हैं। २. नरक। पुं० [?] सुंदर फूलों वाला एक प्रकार का पौधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोजखी  : वि० [फा०] १. दोजख-संबंधी। दोजख का। २. दोजख में जाने वाला या रहनेवाला। नरकी। ३. बहुत बड़ा दुष्ट और पापी।
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दो-जरबा  : वि० [फा०] दो बार भभके में खींचा या चुआया हुआ। दो-आतशी।
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दोजर्बी  : स्त्री० [फा०] १. दोनली बन्दूक। २. दो बार चुआई हुई शराब।
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दोजा  : पुं० [हिं० दो] [स्त्री० दोजी] पुरुष जिसका दूसरा विवाह हुआ हो। वि०=दूजा (दूसरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोजानू  : अव्य० [हिं० दो+सं० जानू (घुटना)] घुटनों के बल या दोनों घुटने टेककर।
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दोजिया  : स्त्री०=दोजीवा।
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दोजी  : स्त्री० [फा०] सीने का काम। सिलाई। जैसे—जरदोजी।
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दोजीरा  : पुं० [हिं० दो+जीरा] एक प्रकार का चावल।
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दोजीवा  : स्त्री० [हिं० दो+जीव] वह स्त्री जिसके पेट में एक और जीव या बच्चा हो। गर्भवती स्त्री।
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दोढ़  : वि०=डेढ़।
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दोत  : पुं०=दूत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दवात।
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दो-तरफा  : वि० [फा० दुतुर्फ़ः] [स्त्री० दोतरफी] दोनों तरफ का। दोनों ओर से संबेध रखने वाला। क्रि० वि० दोनों ओर। दोनो तरफ। इधर भी और उधर भी।
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दोतर्फा  : वि०=दो-तरफा।
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दोतला  : वि०=दो-तल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दो-तल्ला  : वि० [हिं० दो+तल्ला] (घर या मकान) जिसमें दो खण्ड या मंजिले हों। दो-मंजिला।
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दोतही  : स्त्री० [हिं० दो+तह] एक प्रकार की देशी मोटी चादर जो दोहरी करके बिछाने के काम में आती है। दोसूती।
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दोता  : पुं०=दोहता (दौहित्र)।
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दोतारा  : पुं० [हिं० दो+तारा] १. एक प्रकार का दुशाला। २. सितार की तरह एक बाजा, जिसमें दो तार लगे होते हैं।
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दोदना  : स० [हिं० दो (दोहराना)] १. किसी की कही हुई बात सुनकर भी यह कहना कि तुमने ऐसा नहीं कहा था। २. किसी के सामने एक बार कोई बात कहकर भी बार-बार यह कहना कि हमनें तो ऐसा नहीं कहा था। वि० दोदने या मुकरनेवाला।
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दोदरी  : स्त्री० [नैपाली] एक तरह का सदाबहार पेड़ जो पूर्वी बंगाल, सिक्किम और भूटान में होता है।
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दोदल  : पुं० [सं० द्विदल] १. चने की दाल और उससे बनी हुई तरकारी। २. कचनार की कलियाँ जिनकी तरकारी बनती और अचार पड़ता है।
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दोदस्ता  : वि० [फा० दुदस्तः] १. दोनों हाथों से किया जानेवाला या होनेवाला।
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दोदा  : पुं० [देश०] एक तरह का डेढ़-दो हाथ का लंबा कौआ।
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दोदाना  : स० [हिं० दोदना] किसी को दोदने में प्रवृत्त करना। (दे० ‘दोदना’)
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दोदामी  : स्त्री०=दुदामी।
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दोदिन  : पुं० [देश०] रीठे की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसके फलों की फेन से कपड़े साफ किये जाते हैं।
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दोदिला  : वि० [हिं० दो+फा० दिल] [भाव० दोदिली] दोचित्ता (दे०)।
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दोध  : पुं० [सं०√दुह्+अच, नि० सिद्धि] [स्त्री० दोधी] १. ग्वाला। अहीर २. गौ का बच्चा। बछड़ा। ३. पुरस्कार के लोभ से कविता करनेवाला कवि।
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दोधक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसमें तीन भगड़ और अंत में दो गुरू वर्ण होते हैं। इसे ‘बंधु’ भी कहते हैं। वि० दूहनेवाला।
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दोधार (ा)  : वि० [हिं० दो+धार] [स्त्री० दोधारी] जिसके दोनों ओर धार या बाढ़ हो। पुं० बरछा। भाला। पुं० [देश०] एक प्रकार का थूहर।
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दोन  : पुं० [हिं० दो] १. दो पहाड़ों की बीच की नीची जमीन। दून। २. दो नदियों के बीच का प्रदेश। दो आबा। ३. दो नदियों का संगम स्थान। ४. दो वस्तुओं का एक में होनेवाला मेल या संगम। पुं० [सं० द्रोण] काठ का वह खोखला लंबा टुकड़ा जिससे धान के खेतों में सिंचाई की जाती है।
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दोनली  : वि० [हिं० दो+नल्] जिसमें दो नालियाँ या नल हों। स्त्री० दो नलोंवाली बंदूक या तोप।
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दोना  : पुं० [सं० द्रोण] [स्त्री० अल्पा० दोनियाँ, दोनी] १. पलास, महुए आदि के पत्ते या पत्तों को सीकों से खोंसकर बनाया जाने वाले अंजलि या कटोरे के आकार का पात्र। २. उक्त में रखी हुई वस्तु। जैसे—एक दोना उन्हें भी तो दो। मुहा०—दोना चढ़ाना= समाधि आदि पर फूल-मिठाई चढ़ाना। दोना या दोनें चाटना=बाजार से पूड़ी, मिठाई आदि खरीद कर पेट भरने का शौक होना। दोना देना=(क) किसी बड़े आदमी का अपने भोजन के थाल में से कुछ भोजन किसी को देना जिससे देने वाले की प्रसन्नता और पानेवाले का सम्मान प्रकट होता है। (ख) दोना चढ़ाना। (देखें ऊपर) दोना लगाना=दोने में रखकर फूल-मिठाई आदि बेचने का व्यवसाय करना। दोनों की चाट पड़ना या लगना=बाजारी चीजें खाने का चस्का पड़ना। पुं०=दौना (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोनों  : वि० [हिं० दो+नों (प्रत्य०)] दो में से प्रत्येक। यह भी और वह भी। उभय। जैसे—दोनों भाई काम करते हैं।
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दोपट्टा  : पुं०=दुपट्टा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोपलका  : पुं० [हिं० दो+फलक या पलक] १. वह दोहरा नगीना जिसके अन्दर या नीचे नकली या हलका नग हो और ऊपर या चारों ओर असली या बढ़िया नग हो। दोहरा नगीना जो कम मूल्य का और घटिया होता है। २. एक प्रकार का कबूतर।
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दोपलिया  : वि०=दोपल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दोपल्ली।
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दोपल्ला  : वि० [हिं० दो+पल्ला] [स्त्री० दोपल्ली] १. जिसमें दो पल्ले हों। २. दो परतोंवाला। दोहरा।
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दोपल्ली  : वि० [हिं० दो+पल्ला+ई (प्रत्य०)] दो पल्लोंवाला जिसमें दो पल्ले हों। जैसे—दोपल्ली टोपी। स्त्री० मलमल आदि पुरानी चाल की एक प्रकार की टोपी जो कपड़े के दो टुकड़ों या पल्लों को एक में सीकर बनायी जाती थी।
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दोपहर  : स्त्री० [हिं० दो+पहर] १. दिन के ठीक मध्य का समय। मध्याह्न। २. दिन के बारह बजे और उसके आस-पास का कुछ समय। क्रि० प्र०—चढ़ना।—ढलना
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दोपहरिया  : स्त्री०=दोपहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोपहरी  : [हिं० दो+पहर] हर दो पहरों पर होनेवाला। जैसे—दोपहरी नौबत। स्त्री०=दोपहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दो-पीठा  : वि० [हिं० दो+पीठा] १. जो दोनों पीठों अर्थात दोनों ओर समान रंग-रूप का हो। दोरुखा। २. (छापेखाने में, ऐसा कागज) जो दोनों ओर छपा हो।
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दो-पौआ  : पुं० [हिं० दो+पाव] १. किसी वस्तु का दो पाव, आधा अंश या भाग। २. दो पाव का बटखरा। अध-सेरा। ३. पानी की आधी ढोली। (तमोली)
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दो-प्याजा  : पुं० [फा०] अधिक मात्रा में डालकर पकाया हुआ मांस।
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दो-फसली  : वि० [फा० दुफस्ली] १. (पौधा या वृक्ष) जो दो वर्ष में दो बार फलता और फूलता हो। २. दोनों फसलों से संबंध रखनेवाला। ३. (खेत या जमीन) जिसमें रबी और खरीफ दोनों फसलें होती हों। ४. (बात) जो दोनों पक्षों में लग सके। जिसका उपयोग दोनों ओर हो सके। फलतः अनिश्चित और संदिग्ध।
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दोबल  : पुं० [?] दोष। अपराध। लांछन। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।
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दोबा  : पुं०=दुबिधा।
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दो-बाजू  : पुं० [हिं० दो+फा० बाज] १. वह कबूतर जिसके दोनों पैर सफेद हों। २. एक प्रकार का गिद्ध।
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दोबारा  : क्रि० वि० [फा० दुबारः] एक बार हो चुकने के उपरान्त फिर दूसरी बार। दूसरी दफा। पुनः। फिर। वि० दूसरी बार होनेवाला। पुं० १. वह अरक या शराब जो एक बार चुआने के बाद फिर दूसरी बार भी चुआई गई हो और फलतः बहुत तेज हो। दो-आतशा। स्त्री० १. एक बार साफ करने के बाद फिर दूसरी बार साफ की हुई चीना। २. एक बार चैयार करने के उपरान्त उसी तैयार चीज से फिर दूसरी बार तैयार या ठीक हुई चीज।
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दोबाला  : वि० [फा० दुबाला] दूवा। दुगुना।
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दोभाषिया  : पुं०=दुभाषिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोमंजिला  : वि० [फा० दुमंजिलः] (इमारत) जिसमें दो खण्ड या तल्ले हों। पुं० दो खंडोवाला मकान।
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दोमट  : स्त्री० [हिं० दो+मिट्टी] ऐसी जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। बलुई जमीन।
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दो-मरगा  : पुं० [हिं० दो+मार्ग] १. पुरानी चाल का एक प्रकार को देशी मोटा कपड़ा।
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दो-महला  : वि० दे० ‘दोमंजिला’।
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दोमुँहा  : वि० [हिं० दो+मुँह] १. जिसके दो मुँह हों। २. जिसके दोनों ओर मुँह हो। जैसे—दो मुँहा साँप। ३. दो तरह की बातें करने वाला। ४. दोहरी चाल चलनेवाला।
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दोमुँहा साँप  : पुं० [हिं० दो+मुँहा+साँप] १. एक प्रकार का साँप जो प्रायः हाथ भर लंबा होता है और जिसकी दुम मोटी होने के कारण मुँह के समान ही जान पड़ती है। इसमें न तो विष होता है और न यह किसी को काटता है। २. एक तरह का साँप जिसके सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि छः महीने इसके एक तरफ मुँह रहता है और छः महीने दूसरी तरफ। (चुकरैंड) ३. ऐसा व्यक्ति जो दोहरी चालें चलकर बहुत अधिक घातक सिद्ध होता हो।
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दोमुँही  : स्त्री० [हिं० दो+मुँह] नक्काशी करने का सुनारों का एक उपकरण।
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दोय  : वि०, पुं०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दोनों।
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दोयण  : पुं० [फा० दुश्मन ?] शत्रु। उदा०—दाटक अनड़ दंड नह दीधो, दोयण घड़ सिर दाव दियो।—दुरसाजी।
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दोयम  : वि० [फा०] १. जो क्रम या गिनती में दूसरे स्थान पर पड़े। दूसरा। २. जो महत्व, मान आदि के विचार से अद्वितीय श्रेणी का हो।
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दोयरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी का कोयला बनाया जाता है।
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दोयल  : पुं० [देश०] बया पक्षी।
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दोरंगा  : वि० [हिं० दो+रंग] [स्त्री० दोरंगी] १. दो रंगोवाला। जिसमें दो रंग हो। जैसे—दोरंगा कागज। २. जिसमें दोनों ओर दो रंग हों। ३. (कथन) जो दोनों पक्षों में समान रूप से लग सकें। ४. दे० ‘दोगला’।
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दोरंगी  : स्त्री० [हिं० दोरंगा] १. दो रंगोवाला होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी बात या व्यवहार जो दोनों पक्षों में लग सके।
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दोर  : पुं० [सं० दोः या दोषा] हाथ। भुजा। (राज०) उदा०—दोर सु वरुण तंणा किरि डोर।—प्रिथीराज। स्त्री० [हिं० दौड़] १. पहुँच। २. स्थान। उदा०—मेरे आसा चितवनि तुमरी, और न दूजी दोर।—मीराँ। पुं०=द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० द्वार] दरवाजा। (बुन्देल०) उदा०—रोको बीरन मोरे दोर बहिन तोरी कहाँ चली।—लोक-गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० दो] दो बार जोती हुई जमीन। वह जमीन जो दो दफे जोती गई हो। स्त्री०=डोर (रस्सी)।
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दोरक  : पुं० [सं०=डोरक नि० ड को द] ? वीणा के तारों को बाँधने की ताँत। २. डोरी।
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दोरदंड  : वि०=दुर्दंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोरस  : स्त्री० [हिं० दो+रस] ऐसी जमीन जिसकी मिट्टी में बालू मिला हुआ हो।
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दो-रसा  : वि० [हिं० दो+रस] १. एक प्रकार के रस या स्वादवाला। जिसमें दो तरह के रस या स्वाद हों। जैसे—दो-रसा तमाकू (पीने का)। २. (दिन या समय) जिसमें थोड़ी-थोड़ी गरमी या सरदी दोनों पड़ती हों। ऋतु परिवर्तन के समय का। जैसे—दो-रसे दिन। ३. (स्त्रियों के संबंध में स्थिति) जिसमें दो अथवा अनेक प्रकार के भाव या विचार मन में उठते हों (अर्थात गर्भवती होने के दिन)। पुं० एक प्रकार का पीने का तमाकू जिसका धूआँ कुछ कड़ुआ और कुछ मीठा होता है।
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दोरा  : पुं० [देश०] हल की मुठिया के पास लगी हुई बाँस की वह नली जिसमें बोने के लिए बीज डाले जाते हैं।
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दोराब  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी समुद्री मछली।
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दो-राहा  : पुं० [हिं० दो+राह] वह स्थान जहाँ से दो मार्गों को जाया जा सकता हो।
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दोरी  : स्त्री०=डोरी।
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दो-रुखा  : वि० [फा०] [स्त्री० दोरुखी] १. जिसके दोनों ओर समान रंग या बेल-बूटे हों। जैसे—कपड़े का दोरुखा छापा। २. जिसमें एक ओर एक रंग दूसरी ओर दूसरा रंग हो। जैसे—ओढ़ने की दोरुखी चादर। ३. (आचरण या व्यवहार) जिसका आशय दोनों ओर या दोनों पक्षों मे प्रयुक्त हो सकता हो। पुं० सुनारों का एक प्रकार का उपकरण।
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दो-रेजी  : स्त्री० [फा० दोरेज़ी] नील की वह फसल जो एक फसल कट जाने के उपरान्त उसकी जड़ों से फिर होती है।
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दोर्ज्या  : स्त्री० [सं० दोस्-ज्या उपमि० स०] सूर्य सिद्धान्त के अनुसार वह ज्या जो भुज के आकार की हो।
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दोर्दंड  : पुं० [सं० दोस्-दंड ष० त०] भुजदंड।
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दोर्मूल  : पुं० [सं० दोस्-मूल ष० त०] भुज-मूल।
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दोर्युद्ध  : पुं० [सं० दोस्-युद्ध तृ० त०] कुश्ती।
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दोल  : पुं० [सं०√दुल् (झूलाना)+घञ्] १. झूला। हिंडोला। २. डोली।
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दो-लड़ा  : वि० [हिं० दो+लड़] [स्त्री० दोलड़ी] जिसमें दो लड़े हों। दो लड़ों वाला।
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दोलत्ती  : स्त्री०=दुलत्ती।
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दोलन  : पुं० [सं० दुल्+ल्युट्—अन] झूलना।
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दोल-यात्रा  : स्त्री० [मध्य० स०]=दोलोत्सव।
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दोला  : स्त्री० [सं० दोल+टाप्] १. झूला। २. हिंडोला। ३. डोली या पालकी। ३. ऐसी स्थिति जिसमें किसी विषय में मनुष्य का विचार कभी एक ओर, और कभी दूसरी ओर होता है। जैसे—विमर्श-दोला। ४. नील का पौधा।
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दोलाधिरूढ़  : वि० [सं० दोला-अधिरूढ़ द्वि० त०] १. झूले पर चढ़ा हुआ। २. जिसके संबंध में अभी तक कोई निश्चय न हुआ हो।
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दोला-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में, औषधियों का अरक उतारने या निकालने का एक यंत्र।
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दोलायमान  : वि० [सं० दोला+क्यङ्+शानच्] झूलता हुआ। हिलता हुआ।
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दोलायित  : वि० [सं० दोला+क्यङ+क्त] दोलित।
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दोला-युद्ध  : पुं० [सं० उपमि० स०] वह युद्ध जिसमें कभी किसी एक पक्ष का पलड़ा भारी रहता हो और कभी दूसरे पक्ष का।
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दोलावा  : पुं० [?] वह कुआँ जिसमें दो और दो गराड़ियाँ लगी हों।
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दोलिका  : स्त्री० [सं० दोला+कन्-टाप्, इत्व] १. हिंडोला। झूला। २. डोली।
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दोलित  : वि० [सं० दुल्+णिच्+क्त] १. झूलता हुआ। २. हिलता-डुलता हुआ।
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दोली  : स्त्री० [सं० √दुल्+णिच्+इन्—ङीष्] १. डोली। २. पालना। ३. झूला।
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दोलोही  : स्त्री०=दुलोही।
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दोलू  : पुं० [?] दाँत। (ङि०)
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दोलोत्सव  : पुं० [सं० दोल-उत्सव मध्य० स०] फाल्गुन की पूर्णिमा को होने वाला वैष्णवों का उत्सव जिसमें भगवान कृष्ण को हिंडोले पर झुलाते हैं।
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दोवटी (वडी)  : स्त्री० [सं० द्विपट्ट, पुं० हिं० दोवटा] १. साधारण देशी मोटा कपड़ा। गजी। गाढ़ा। (राज०) उदा०—गौणों तो म्होरो माला दोवड़ी और चंदन की कुटकी।—मीराँ। २. चादर। दुपट्टा। उदा०—पाँच राज दोवटी माँगी, चून लियौ सानि।—कबीर। ३. दो पाट की चादर।
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दोवा  : पुं०=देवबाँस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोश  : पुं० [देश०] एक प्रकार का लाख जिसका व्यवहार रंग बनाने में होता है। पुं० [फा०] कंधा। पुं०=दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोशमाल  : पुं० [फा०] वह अँगोछा या तौलिया जो कसाई अपने पास कंधे पर रखते हैं।
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दोशाखा  : पुं० [फा० दुशाखः] १. वह शमादान जिसमें दो बत्तियाँ जलती हों। २. लकड़ी का वह उपकरण जिसमें दो छोटी लकड़ियों के बीच में कपड़ा लगा रहता है और जिसमें पीसी हुई भंग, दूध आदि छानते हैं। वि० दो शाखाओं या डालोंवाला।
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दोशाला  : पुं०=दुशाला। पुं० [फा० दुशालः] एक प्रकार की बढ़िया कामदार ऊनी चादर।
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दोशीजगी  : स्त्री० [फा० दोशीज़गी] १. लड़कियों की कुमारावस्था। कौमार्य। २. अल्हड़पन।
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दोशीज़ा  : स्त्री० [फा० दोशीज़ा] १. कुमारी कन्या। २. अल्हड़ लड़की।
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दोष  : पुं० [सं०√दुष् (विकृति)+णिच्+घञ्] १. किसी चीज या बात में होने वाली कोई ऐसी खराबी या बुराई जिसके कारण उसकी उपदेयता, महत्ता आदि में कमी या बाधा होती हो। ऐब। खराबी बुराई। (फॉल्ट) विशेष—इसके अनेक प्रकार और रूप होते हैं। यथा— (क) पदार्थ या रचना में किसी अंग या अंश का अभाव या न्यूनता। जैसे—आँख या कान का दोष, जिससे ठीक तरह से दिखाई या सुनाई नहीं देता। (ख) पदार्थ या रचना में होनेवाला कोई प्राकृतिक या स्वाभाविक दुर्गुण या विकार। जैसे—नीलम या हीरे का दोष; औषध या खाद्य पदार्थ का दोष। (ग) कर्त्ता के रचना-कौशल की कमी के कारण होनेवाली कोई खराबी या त्रुटि। जैसे—वाक्य में होनेवाला व्याकरण-संबंधी दोष। (घ) रूप-रंग, शोभा, सौन्दर्य आदि में बाधक होनेवाला तत्त्व। जैसे—चन्द्रमा का दोष। सारांश यह कि किसी पदार्थ या वस्तु का अपने सम्यक् रूप में न होना अथवा आवश्यक गुणों से रहित होना ही उसका दोष माना जाता है। कुछ अवस्थाओं में परम्परा, परिपाटी, रीति-नीति आदि के आधार पर भी कुछ क्षेत्रों में पारिभाषिक वर्ग की भी कुछ बातें स्थिर हो जाती हैं जिनकी गणना दोषों में होती है। २. किसी चीज या बात में होनेवाला कोई ऐसा अभाव जिससे उसका ठीक या पूरा उपयोग न हो सकता हो। अपूर्णता। कमी। त्रुटि। (डिफेक्ट) ३. न्याय शास्त्र में, मिथ्या ज्ञान के कारण उत्पन्न होनेवाले मनोविकार जो मनुष्य को अच्छे और बुरे कामों में प्रवृत्त करते हैं। जैसे—राग, द्वेष आदि हमारे मनोगत दोष हैं। ४. नव्य न्याय में, तर्क के अवयवों के प्रयोग में होने वाली त्रुटि या भूल। ५. मीमांसा में, वह अदृष्ट फल जो विधियों का ठीक तरह से पालन न करने अथवा उनके विपरीत आचरण करने से प्राप्त होता है। ६. वैद्यक में, शरीर के अन्तर्गत रहनेवाले कफ, पित्त और वात नामक तत्त्वों अथवा अन्यान्य रसों का प्रकोप या विकार जिससे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। ७. साहित्य में, वे बातें जिनमें काव्य या रचना के निश्चित गुणों या स्वरूपों में कुछ कमी रहती या बाधा होती हो। जैसे—अर्थ-दोष, काव्य-दोष, रस-दोष। ८. आचार, चरित्र या व्यवहार में, कोई ऐसा काम, तत्त्व या बात जो धार्मिक, सामाजिक आदि दृष्टियों से अनुचित या निंदनीय मानी जाती हो। (गिल्ट) मुहा०—(किसी को) दोष देना= यह कहना है कि इसके कारण अमुक खराबी या बुराई हुई है। (किसी में) दोष निकालना= यह कहना कि इसमें अमुक दोष या बुराई है। ९. किसी पर लगाया जानेवाला अभियोग, कलंक या लांछन जो नैतिक, विधिक आदि दृष्टियों से अपराध माना जाता या दंडनीय समझा जाता हो। अपराध। कसूर। जुर्म। (गिल्ट) क्रि० प्र०—लगाना। १॰. पातक। पाप। ११. सन्ध्या का समय। प्रदोष। १२. भागवत के अनुसार आठ वसुओं में से एक। पुं०=द्वेष। उदा०—सो जन जगत-जहाज है जाके राग न दोष।—तुलसी।
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दोषक  : पुं० [सं० दोष+कन्] गौ का बच्चा। बछड़ा।
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दोषग्राही (हिन्)  : पुं० [सं०दोष√गह् (ग्रहण)+णिनि] १. वह जो केवल दूसरों के दोषों पर ध्यान दे। २. दुर्जन। दुष्ट।
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दोषघ्न  : पुं० [सं० दोष√हन् (मारना)+टक्] वह औषध जिससे शरीर के कुपित कफ, वात और पित्त का दोष शांत हो।
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दोषज्ञ  : पुं० [सं० दोष√ज्ञा (जानना)+क] पंडित।
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दोषण  : पुं० [सं०√दुष+णिच्+ल्युट्—अन] दोषारोपण।
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दोषता  : स्त्री० [सं० दोष+तल्—टाप] दोष का भाव।
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दोषत्व  : पुं० [सं० दोष+त्व] दोष का भाव।
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दोषन  : पुं० [सं० दूषण] १. दोष। २. दूषण।
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दोषना  : स० [हिं० दूषण+न (प्रत्य०)] किसी पर दोषारोपण करना। दोष लगाना।
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दोष-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें अपराधी के अपराधों, दोषों आदि का विवरण लिखा होता है।
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दोष-प्रमाणित  : वि० [ब० स०] जिसका दोष प्रमाणित हो चुका हो। जो दोषी सिद्ध हो चुका हो।
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दोषल  : वि० [सं० दोष+लच्] दोष या दोषों से भरा हुआ। दूषित।
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दोषसिद्ध  : वि० दे० ‘दोष-प्रमाणित’।
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दोषा  : स्त्री० [सं०√दुष्+आ] १. रात्रि का अंधकार। २. रात्रि। रात। ३. सांयकाल। सन्ध्या। ४. बाँह। भुजा।
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दोषाकार  : पुं० [सं० दोष-आकर ष० त०] १. दोषों का केन्द्र या भण्डार। २. [दोषा√कृ+ट] चन्द्रमा।
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दोषाक्लेशी  : स्त्री० [सं० दोषा√क्लिश् (कष्ट देना) +अण्-ङीप्] बन-तुलसी।
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दोषाक्षर  : पुं० [सं० दोष-अक्षर ब० स०] किसी पर लगाया हुआ अपराध। अभियोग।
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दोषा-तिलक  : पुं० [ष० त०] दीपक। दीया।
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दोषारोपण  : पुं० [सं० दोष-आरोपण ष० त०] १. यह कहना कि इसमें अमुक दोष है। २. यह कहना कि इसने अमुक दोष किया है।
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दोषावह  : वि० [सं० दोष-आ√वह् (वहन)+अच्] जिसमें दोष हों। दोषपूर्ण।
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दोषिक  : पुं० [सं० दोष+ठन्—इक्] रोग। बीमारी। वि० १.=दोषी। २. दूषित।
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दोषित  : वि०= दूषित।
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दोषिता  : स्त्री० [सं० दोषिन्+तल्—टाप] दोषी होने की अवस्था या भाव। (गिल्ट)
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दोषिन  : स्त्री० [हिं० दोषी का स्त्री०] १. अपराधिनी। २. पापपूर्ण आचरणवाली स्त्री। ३. दुष्ट स्वभाववाली और दूसरों पर दोष लगाती रहनेवाली स्त्री। ४. वह कन्या जिसने विवाह से पहले किसी से संबंध स्थापित कर लिया हो।
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दोषी (षिन्)  : पुं० [सं० दोष+इनि] १. जिसने कोई अपराध या दोष किया हो। २. जिस पर कोई दोष लगा हो। ३. दोषपूर्ण। ४. दुष्ट। ५. पापी। वि० [सं० द्वेष] द्वेष करनेवाला। उदा०—गुरु-दोषी सग की मृतु पाव।—गुरु गोविंद सिंह। विशेष—यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘दोष’ का प्रयोग ‘द्वेष’ के अर्थ में गोस्वामी तुलसीदास ने भी किया है। (दे० ‘दोष’)
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दोस  : पुं०=दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसदार  : पुं०=दोस्तदार (मित्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसदारी  : स्त्री०=दोस्ती।
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दोसरता  : पुं० [हिं० दूसरा+ता (प्रत्य०)] द्विरागमन। गौना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दुजायगी। (भेद-भाव)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसरा  : वि० [स्त्री० दोसरी]=दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसरी  : स्त्री० [हिं० दो] दो बार जोती हुई जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसा  : पुं० [देश०] जल में होनेवाली एक तरह की घास जिसमें एक प्रकार के दाने अधिकता से होते हैं। पुं० [?] मदरास देश में बननेवाला एक प्रकार का पकवान जो उलटे या चीले की तरह होता है और जिसके अन्दर कुछ तरकारियाँ आदि भरी होती हैं। स्त्री०=दोषा (रात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसाध  : पुं०=दुसाध।
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दोसाल  : पुं० [?] एक तरह का हाथी।
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दोसाला  : वि० [हिं० दो+साल=वर्ष] १. जिसकी अवस्था दो वर्ष की हो। २. जिसके दो वर्ष बीत चुके हों। ३. (विद्यार्थी) जो दो वर्षों तक प्रायः अनुत्तीर्ण होने के कारण एक ही कक्षा में रहे।
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दोसाही  : वि० [हिं० दो+?] (जमीन) जिसमें साल में दो फसलें पैदा हों। दो-फसला।
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दोसी  : पुं० [देश०] दही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=घोसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दोषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसूती  : स्त्री०=दुसूती।
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दोस्त  : पुं० [फा०] १. प्रायः समान अवस्था का तथा संग रहनेवाला वह व्यक्ति जिससे किसी का स्नेहपूर्ण संबंध हो। मित्र। २. वह जिससे किसी का अनुचित संबंध हो। (बाजारू)
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दोस्तदार  : पुं०=दोस्त
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दोस्तदारी  : स्त्री०=दोस्ती।
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दोस्ताना  : पुं० [फा० दोस्तानः] १. दोस्ती। मित्रता। २. मित्रता का आचरण या व्यवहार। वि० दोस्तों या मित्रों का-सा। दोस्तों या मित्रों की तरह का। जैसे—दोस्ताना बरताव।
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दोस्ती  : स्त्री० [फा०] १. दोस्त अर्थात मित्र होने की अवस्था या भाव। २. स्त्री और पुरुष का होनेवाला पारस्परिक अनुचित संबंध। (बाजारू)
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दोस्तीरोटी  : स्त्री० [फा० दोस्ती+हिं० रोटी] दो परतोंवाला एक तरह का पराठा जो लोइयाँ बेलकर और साथ मिलाकर बनाया जाता है। दुपड़ी।
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दोह  : पुं०=द्रोह।
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दोहग  : पुं०=दोहगा। (राज०)
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दोहगा  : स्त्री० [सं० दुर्भगा] पर-पुरुष के साथ पत्नी के रूप में रहनेवाली विधवा स्त्री।
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दोहज  : पुं० [सं०] दूध।
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दोहड़ा  : वि०=दोहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहता  : पुं० [सं० दौहित्र] [स्त्री० दोहती] लड़की का लड़का। नाती। नवासा।
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दोहती  : स्त्री० १.=दोस्ती। २.=दोस्ती-रोटी। स्त्री० हिं० ‘दोहता’ का स्त्री०।
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दोहत्थड़  : वि० [हिं० दो+हाथ] दोनों हाथों से किया जाने या होने वाला। जैसे—दोहत्थड़ मार पड़ना। पुं० ऐसा आघात या प्रहार जो दोनों हाथों की हथेलियों से एक साथ हो। क्रि० वि० दोनों हाथों की हथेलियों से एक साथ प्रहार करते हुए। जैसे—दोहत्थड़ छाती या सिर पीटना।
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दोहत्था  : वि० [हिं० दो+हाथ] [स्त्री० दोहत्थी] १. दोनों हाथों से किया जानेवाला। जैसे—दुहत्थी मार। २. जिसमें हत्थे या दस्ते लगे हों। दो मूठोंवाला। क्रि० वि० दोनों हाथों से।
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दोहत्थाशासन  : पुं०=द्विदल शासन।
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दोहत्थी  : स्त्री० [हिं० दो+हाथ] मालखंभ की एक कसरत जिसमें माल खंभ को दोनों हाथों से कुहनी तक लपेटा जाता है और फिर जिधर का हाथ ऊपर होता है उधर की टाँग को उठाकर मालखंभ को पकड़ा जाता या उस पर सवारी की जाती है।
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दोहद  : पुं० [सं० दोह√दा (देना)+क] १. गर्भकाल में गर्भवती स्त्री के मन में उत्पन्न होनेवाली अनेक तरह की इच्छाएँ या कामनाएँ। २. वह काम, चीज या बात जिसकी उक्त अवस्था और रूप में इच्छा या कामना होती हो। ३. गर्भवती रहने या होने की दशा में होनेवाली मिचली या ऐसा ही कोई सामान्य शारीरक विकार। डकौना। ४. गर्भवती होने की अवस्था या भाव। ५. गर्भवती होने के चिह्न या लक्षण। ६. भारतीय साहित्य में, कविसमय के अनुसार कुछ विशिष्ट पौधों, वृक्षों आदि के सम्बन्ध में यह मान्यता कि जब वे खिलने या फूलने को होते हैं, तब उनमें गर्भवती स्त्रियों की तरह कुछ इच्छाएँ और कामनाएँ होती हैं जिनकी पूर्ति होने पर वे जल्दी, समय से पहले और खूब अच्छी तरह खिलने या फूलने लगते हैं। जैसे—सुन्दरी स्त्री के पैरों की ठोकर से अशोक, पान की पाक थूकने से मौलसिरी, गाने से गम या नाचने से कचनार लिखने अथवा फलने-फूलने लगते हैं। (दे० ‘वृक्ष दोहद’) ७. फलित ज्योतिष के अनुसार यात्रा के समय ऐसी विशिष्ट चीजें खाने या पीने का विधान जिनसे तिथि, दिशा, वार आदि से संबंध रखनेवाले दोषों का परिहार या शान्ति होती है।
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दोहदवती  : स्त्री० [सं० दोहद+मतुप् ङीप्] गर्भवती स्त्री। गर्भिणी।
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दोहदान्विता  : स्त्री० [सं० दोहद+अन्वित तृ० त०]= दोहदवती।
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दोहदी (दिन्)  : वि० [सं० दोहद+इनि] जिसे प्रबल इच्छा हो। स्त्री० गर्भवती स्त्री।
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दोहदोहीय  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वैदिक गीत या साम।
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दोहन  : पुं० [सं०√दुह् (दुहना)+ल्युट्—अन्] गाय-भैंस आदि के स्तनों से दूध निकालने की क्रिया या भाव। पुं०=दोहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहना  : स० [सं० दोष+ना] १. दोष लगाना। दूषित ठहराना। २. तुच्छ या हीन ठहराना। स०=दूहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहनी  : स्त्री० [सं० दोहन] १. दूध दुहने की क्रिया या भाव। २. [सं० दोहन+ङीप्] वह पात्र जिसमें दूध दुहा जाता हो।
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दोहर  : स्त्री० [हिं० दो+धड़ी=तह] दो पाटोंवाली चादर। दोहरी सिली हुई चादर।
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दोहर-कम्मा  : पुं० [हिं० दोहरा+काम] व्यर्थ परिश्रम करके दोबारा किया जाने वाला ऐसा काम जो पहली बार ही ठीक तरह से किया जा सकता था।
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दोहराना  : स० [हिं० दोहरा] १. दोहरा करना। २. दोबारा करना। दोहराना। अ० १. दोहरा होना। २. दोबारा किया जाना। दोहराया जाना।
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दोहरक  : पुं० [हिं० दो+हरा (प्रत्य०)] [स्त्री० दोहरी] १. दो तहों, परतों या पल्लोंवाला। २. जो दो बार किया जाय या किया जाता हो। जैसे—दोहरी सिलाई। ३. दुगुना। दूना। ४. दो पक्षों पर लागू होनेवाला (कथन)। पुं० १. लगे हुए पानों के दो बीड़े जो एक ही पत्ते में लपेटे हुए हों। २. कतरी हुई सुपारी। पुं० [दोहा] दोहे की तरह का एक छन्द जो दोहे के विषम पादों में एक एक मात्रा घटा देने से बनता है।
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दोहराई  : स्त्री० [हिं० दोहराना] १. दोहराने की क्रिया या भाव। दोबारा कोई काम करना। २. किसी काम को अधिक ठीक बनाने के लिए उसे अच्छी तरह देखना। ३. दोहराने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक।
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दोहराना  : स० [हिं० दोहरा] १. किसी चीज को दो तहों या परतों में मोड़ना। दोहरा करना। २. कोई काम या बात फिर से उसी प्रकार करना या कहना। पुनरावृत्ति करना। ३. किये हुए काम को फिर से आदि से अंत तक इस दृष्टि से देखना कि उसमें कहीं कोई कसर या भूल तो नहीं रह गयी है। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—देना।
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दोहरापाट  : पुं० [हिं० दोहरी+पट] कुश्ती का एक पेंच।
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दोहल  : पुं० [सं० दोह√ला (लेना)+क] दोहद। (दे०)
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दोहलवती  : वि० [सं० दोहल+मतुप् ङीप्]=दोहदवती।
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दोहला  : वि० स्त्री० [हिं० दो+हल्ला] दो बार की ब्याही हुई (गाय या भैंस)। (गौ या भैंस) जो दो बार बच्चा दे चुकी हो।
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दोहली  : वि० [सं०] १. अशोक वृक्ष। २. आक। मदार। स्त्री० [?] ब्राह्मण को दान करके दी हुई जमीन।
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दोहा  : पुं० [सं० दोधक या द्विपदा] १. चार चरणोंवाला एक प्रसिद्ध छंद जिसके पहले और तीसरे चरणों में १३-१३ और दूसरे तथा चौथे चरणों में ११-११ मात्राएँ होती हैं। २. संगीत में, संकीर्ण राग का एक भेद।
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दोहाई  : स्त्री०=दुहाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहाक  : पुं०=दोहाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहाग  : पुं० [सं० दौर्भाग्य] दुर्भाग्य। बदनसीबी।
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दोहागा  : पुं० [हिं० दोहाग] [स्त्री० दोहागिन] अभागा। बदकिस्मत।
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दोहान  : पुं० [देश०] गौ का जवान बछड़ा।
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दोहाव  : पुं०=दुहाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहित  : पुं०=दोहता (दौहित्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोही (हिन्)  : वि० [सं०√दुह+घिनुण्] दूहनेवाला। पुं० ग्वाला। स्त्री० [हिं० दो] एक प्रकार का छंद जिसके पहले और तीसरे चरण में १५-१५ और दूसरे तथा चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में एक लघु होना आवश्यक है।
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दोहिया  : पुं० [?] एक प्रकार का पौधा। वि० [हिं० दूहना] दूहनेवाला।
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दोहुर  : स्त्री० [देश०] अधिक बलुई जमीन।
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दोह्य  : वि० [सं०√दुह+ण्यत्] जो दूहा जा सके। दूहे जाने के योग्य। पुं० १. दूध। २. ऐसे मादा पशु जो दूहे जाते या दूध देते हों।
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दोह्या  : स्त्री. [सं० दोह्य+टाप्] गाय।
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दौं  : अव्य० [सं० अथवा] अथवा। या। वा। (दे० ‘धौ’)। स्त्री० [सं० दोव] १. आग। उदा०—हिरदै अंदर दौँ लगी, धूआँ न परगट होय। २. गरमी के कारण लगनेवाली प्यास। ३. गरमी के कारण होनेवाली बेचैनी या विकलता। ४. जलन। क्रि० प्र०—लगना।
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दौंकना  : अ०=दमकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौंगरा  : पुं०=दवँगरा।
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दौंच  : स्त्री०=दोच (दुबिधा)।
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दौंचना  : स० [हिं० दबोचना] १. किसी पर दबाव डालकर उससे कुछ लेना। किसी न किसी प्रकार ले लेना। ३. लेने के लिए जोर से पकड़ना। ४. दबोचना।
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दौंजा  : पुं० [देश०] मचान।
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दौंरी  : स्त्री० [?] झुंड। स्त्री०=दँवरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौःशील्य  : पुं० [सं० दुःशील+ब्यञ्] दुःशील होने की अवस्था या भाव। स्वभाव की दुष्टता।
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दौःसाधिक  : पुं० [सं० दुर्-साध प्रा० स०,+ठक्-इक] १. द्वारपाल। २. ग्राम-निरीक्षक।
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दौ  : स्त्री० [सं० दव] १. जंगल की आग। दावानल। २. जंगल। वन। ३. दुःख। संताप। ४. दाह।
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दौकूल  : वि० [सं० दुकूल+अण्] १. दुकूल-संबंधी। २. दुकूल या कपड़े का बना हुआ।
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दौड़  : स्त्री. [हिं० दौड़ना] १. दौड़ने की क्रिया या भाव। मुहा०—दौड़ मारना या लगाना=(क) दौड़ते हुए कहीं जाना। (ख) लंबी यात्रा करना। चलकर बहुत दूर पहुँचना। २. ऐसी क्रीड़ा विशेषतः प्रतियोगिता जिसमें वेगपूर्वक आगे बढ़ा जाय। जैसे—घुड़दौड़। ३. किसी क्षेत्र में बहुत से लोगों का एक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए किया जानेवाला प्रयत्न। ४. सिपाहियों का एकाएक किसी को पकड़ने अथवा तलाशी लेने के लिए किसी के घर पर वेगपूर्वक पहुँचना। ५. उक्त उद्देश्य से आने या पहुँचनेवाले सिपाही। ६. वेगपूर्वक किया जानेवाला आक्रमण। चढ़ाई। ७. गति, प्रयत्न का वेग या सीमा। जैसे—मियाँ की दौड़ मसजिद तक। क्रि० प्र०—लगाना। ८. बुद्धि या समझ की गति या सीमा। जैसे—बस यहीं तक तुम्हारी दौड़ है। ९. लंबाई या विस्तार का वह अंश जिस पर कोई चीज चलती या लगती हो या कोई काम होता हो। जैसे—साड़ी में बेल या बूटे की दौड़। १॰. किसी पदार्थ का लंबाई के बल का विस्तार। जैसे—इस दीवार की दौड़ ४॰ गज है। ११. जहाज पर की वह चरखी जिसमें लकड़ी डालकर घुमाने से वह जंजीर खिसकती है जिसमें पतवार बँधा रहता है।
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दौड़-धपाड़  : स्त्री०=दौड़-धूप।
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दौड़-धूप  : स्त्री० [हिं० दौड़ना+धूपना=धापना] ऐसा प्रयत्न जिसमें अनेक स्थानों पर बार-बार आना-जाना तथा अनेक आदमियों से मिलना और उनसे अनुनय करनी पड़े। जैसे—चुनाव के समय उम्मीदवारों को काफी दौड़-धूप करनी पड़ती है।
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दौड़ना  : अ० [सं० धोरण] [भाव० दौड़ाई] १. जैव या अजैव वस्तुओं का तीव्र गति से किसी दिशा की ओर या किसी पथ पर बढ़ना। जैसे—(क) मनुष्य, हाथी या इंजन दौड़ना। (ख) कागज पर कलम दौड़ना। विशेष—मनुष्य तो दौड़ने के समय जब एक पैर जमीन पर रख लेता है, तब दूसरा पैर उठाता है; परन्तु पशु प्रायः उछल-उछल कर जमीन पर से अपने चारों पैरे ऊपर उठाते हुए दौड़ते हैं। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना। २. (व्यक्ति का) अपेक्षया अधिक तीव्र गति या वेग से किसी ओर जाना या बढ़ना। जैसे—दौड़कर मत चलो; नहीं तो ठोकर लगेगी। ३. किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए बार-बार कहीं आना-जाना। जैसे—अभी उसे दो-चार दिन दौड़ लेने दो, तब आप ही उसकी बुद्धि ठिकाने हो जायगी। मुहा०—दौड़ दौड़कर आना=जल्दी-जल्दी और बार-बार आना। जैसे—हमारे यहाँ दौड़-दौड़ कर तुम्हारा आना व्यर्थ है। दौड़ पड़ना=एकाएक तीव्र गति से या वेग से चलना आरंभ करना। जैसे—जहाँ तुम खेल-तमाशे का नाम सुनते हो, वहीं दौड़ पड़ते हो। (किसी काम या बात के पीछे) दौड़ पड़ना=बिना सोचे-समझे किसी ओर वेगपूर्ण प्रवृत्त होना। (किसी पर) चढ़ दौड़ना=आक्रमण या चढ़ाई करने के लिए बहुत तेजी से आगे बढ़ना। जैसे—गुंडे मार-पीट करने के लिए उनके मकान पर चढ़ दौड़े। ४. दौड़ की किसी प्रतियोगिता में सम्मिलित होना। ५. तरल पदार्थ के संबंध में, धारा का वेगपूर्वक किसी ओर बढ़ना। जैसे—(क) नसों में खून दौड़ना। (ख) नालियों में पानी दौड़ना। ६. किसी चीज का अंश या प्रभाव कार्यकारी, विद्यमान या व्याप्त होना। जैसे—(क) चेहरे पर लाली या स्याही दौड़ना। (ख) शरीर में जहर या विष दौड़ना।
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दौड़हा  : पुं० [हिं० दौड़ना+हा (प्रत्य०)] वह जिसका काम दौड़कर समाचार या पत्र आदि ले आना और ले जाना हो। हरकारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौड़ाई  : स्त्री० [हिं० दौड़ना+आई (प्रत्य०)] १. दौड़ने की क्रिया या भाव। २. बार-बार इधर से उधर आते-जाते रहने का काम या भाव। ३. दौड़ने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक या पुरस्कार।
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दौड़ा-दौड़  : क्रि० वि० [हिं० दौड़+दौड़] [भाव० दौड़ा-दौड़ी] बहुत तेजी से और बिना रुके। बेतहाशा। जैसे—सब लोग दौड़ा-दौड़ वहाँ जा पहुँचे। स्त्री०=दौड़ा-दौड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौड़ा-दौड़ी  : स्त्री० [हिं० दौड़ना] १. बहुत से लोगों के एक साथ दौड़ने की क्रिया या भाव। २. दौड़-धूप। ३. आतुरता। जल्दी। हड़बड़ी।
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दौड़ान  : स्त्री० [हिं० दौड़ना] १. दौड़ने की क्रिया या भाव। दौड़। २. गति की तीव्रता या वेग। झोंक। ३. क्रम। सिलसिला। ४. लंबाई। विस्तार।
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दौड़ाना  : सं० [हिं० दौड़ना का सकर्मक रूप] १. किसी को दौड़ने में प्रवृत्त करना। जैसे—इंजन या घोड़ा दौड़ना। २. किसी को बहुत जल्दी या तुरन्त कोई काम कर आने के लिए भेजना। जैसे—रोगी की दशा खराब देखकर डाक्टर को लाने के लिए आदमी दौड़ाया गया। संयो० क्रि०—देना। ३. किसी काम में ऐसी आनाकानी करना कि उसके लिए किसी को कई बार आना-जाना पड़े। जैसे—वे रुपए तो देते नहीं, बार-बार हमारे आदमी को दौड़ाते हैं। ४. किसी चीज को जमीन के साथ घसीटत हुए अथवा ऊपर कुछ दूर तक बढ़ाते हुए बराबर आगे ले जाना। जैसे—बिजली का तार उस कमरे तक दौड़ा दो। ५. किसी चीज को जल्दी जल्दी आगे बढ़ने में प्रवृत्त करना। जैसे—कागज पर कलम दौड़ाना। संयो० क्रि०—देना।
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दौत्य  : वि० [सं० दूत+व्यल्] दूत-संबंधी। पुं० दूत का काम, पद या भाव। दूतत्व।
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दौन  : पुं०=दमन।
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दौना  : पुं० [सं० दमनक] एक प्रकार का पौधा जिसका पत्तियाँ कटावदार होती हैं और जिनमें तेज सुगंध निकलती है। स० [सं० दमन] दमन करना। दबाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दोना (पत्तों का)।
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दौनागिरि  : पुं० [सं० द्रोणगिरि] द्रोणगिरि नामक पर्वत जो पुराणों में क्षीरोद समुद्र में स्थित कहा गया है। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर हनुमान जी यहीं संजीवनी बूटी लेने गये थे।
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दौनाचल  : पुं०=द्रोणाचल।
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दौनी  : स्त्री० १.=दावनी। २.=दँवरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौर  : पुं० [अ०] १. चक्कर। फेरा। २. वह क्रम, व्यवस्था अथवा समय जिसमें उपस्थित व्यक्ति कोई काम एक बार बारी-बारी से संपादित करे। जैसे—(क) शराब का पहला दौर। (ख) मुशायरे का दूसरा या तीसरा दौर। ३. अच्छे और बुरे अथवा सौभाग्य और दुर्भाग्य के दिनों का चलता रहनेवाला चक्र। ४. प्रताप और वैभव अथवा उसके फलस्वरूप चारों ओर फैलनेवाला आतंक या दबदबा। पद—दौर-दौरा (दे०)। स्त्री०=दौड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौर-दौरा  : पुं० [फा०] किसी की ऐसी प्रधानता या प्रबलता जिसके सामने और बातें या लोग दबे रहते हों। जैसे—आज-कल राजनीतिक नेताओं का दौर-दौरा है।
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दौरना  : अ०=दौड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौरा  : पुं० [अ० दौर] १. चारों ओर घूमने की क्रिया। चक्कर। भ्रमण। २. बराबर इधर-उधर या चारों ओर घूमते-फिरते रहने की अवस्था या दशा। ३. ऐसा आना-जाना जो समय-समय पर बराबर होता रहता हो। सामयिक आगमन। फेरा। जैसे—कभी-कभी इधर भी उनका दौरा हो जाता है। ४. जाँच-पड़ताल, निरीक्षण आदि के लिए अधिकारी का केन्द्र से चलकर आस-पास के स्थानों में घूमने या फेरा लगाने की क्रिया। मुहा०—दौरे पर रहना या होना=जाँच-पड़ताल या देख-भाल के लिए केन्द्र से बाहर रहना या आस-पास के स्थानों में घूमना। ५. जिले के प्रधान न्यायाधीश या जज के द्वारा होनेवाली फौजदारी अभियोगों की वह सुनवाई जो प्रायः आदि से अंत तक बराबर एक साथ होती है। मुहा०—(किसी को) दौरा सुपुर्द करना=निम्नस्थ अधिकारी का संगीन मुदकमें के अभियुक्त को विचार तथा निर्णय के लिए सेशन जज के पास भेजना। ६. बार-बार होती रहनेवाली बात का किसी एक बार होना। ऐसी बात होना जो समय-समय पर प्रायः होती रहती है। ७. किसी ऐसे रोग का होनेवाला कोई उत्कट आक्रमण जो प्रायः या बीच-बीच में होता रहता हो। जैसे—पागलपन, मिरगी या सिर के दर्द का दौरा। पुं० [सं० द्रोण] [स्त्री० अल्पा० दौरी] बाँस की पट्टियों, बेंत आदि का बना हुआ टोकरा।
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दौरा जज  : पुं० [हिं० दौरा+अ० जज] किसी जिले का वह प्रधान न्यायाधिकारी (जज) जो फौजदारी से संगीन मुकदमे सुनता और उनका निर्णय करता हो। (सेशन्स जज)
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दौरात्म्य  : पुं० [सं० दुरात्मन्+ब्यञ्] १. दुरात्मा होने की अवस्था, भाव या वृत्ति। २. दुर्जनता।
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दौरादौर  : क्रि० वि०, स्त्री०=दौड़ा-दौड़।
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दौरान  : पुं० [फा०] १. दौर। चक्र। २. काल का चक्र। दिनों का फेर। ३. उतना समय जितने में कोई काम बराबर चलता या होता रहता हो। भोगकाल। जैसे—बुखार के दौरान में वे कभी-कभी बेहोश भी हो जाते थे। ४. दो घटनाओं के बीच का समय। ५. पारी। फेरा। बारी।
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दौराना  : स०=दौड़ना।
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दौरति  : पुं० [सं० ?] क्षति। हानि।
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दौरी  : स्त्री० [हिं० दौरा का स्त्री० अल्पा०] १. बाँस या मूँज को छोटी टोकरी। छोटा दौरा। २. वह टोकरी जिसकी सहायता से खेतों में सिंचाई के लिए पानी डालते हैं। ३. खेतों में उक्त प्रकार से पानी सींचने की क्रिया।
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दौर्गन्ध्य  : पुं० [सं० दुर्गंध+ष्यञ्] दुर्गंध।
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दौर्ग  : वि० [सं० दुर्ग+अण्] १. दुर्ग-संबंधी। दुर्ग का। २. दुर्गा-संबंधी। दुर्गा का।
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दौर्गत्य  : पुं० [सं० दुर्गेति+ष्यञ्] दुर्गति होने की अवस्था या भाव। दुर्दशा।
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दौर्ग्य  : पुं० [सं० दुर्ग+ष्यञ्] कठिनता।
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दौर्ग्रह  : पुं० [सं० दुर्ग्रह+अण्] अश्वमेध यज्ञ।
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दौर्जन्य  : पुं० [सं० दुर्जन+ष्यञ्] दुर्जनता।
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दौर्बल्य  : पुं० [सं० दुर्बल+ष्यञ्] दुर्बल होने की अवस्था या भाव। दुर्बलता।
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दौर्भाग्य  : पुं० [सं० दुर्भग+ष्यञ्] दुर्भाग्य।
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दौभ्रत्रि  : पुं० [सं० दुर्भ्रातृ+अण्] भाइयों का परस्पर का झगड़ा या विवाद।
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दौर्मनस्य  : पुं० [सं० दुर्मनस्+ष्यञ्] १. ‘दुर्मनस’ होने की अवस्था या भाव। २. दुर्जनता।
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दौर्य  : पुं० [सं० दूर+ष्यञ्] ‘दूर’ का भाव। दूरता। दूरी।
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दौर्योधनि  : पुं० [सं० दुर्योधन+इत्र्] दुर्योधन के कुल में उत्पन्न व्यक्ति। दुर्योधन का वंशज।
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दौर्वृत्य  : पुं० [सं० दुर्वृत्त+ष्यञ्] १. दुर्वृत्त होने की अवस्था या भाव। २. दुराचार।
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दौर्हार्द  : पुं० [सं० दुर्हृद्+अण्] १. दुर्हृद होने की अवस्था या भाव। २. दुष्ट स्वभाव। ३. किसी के प्रति मन में होने वाला दुर्भाव, द्वेष और वैर।
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दौर्हृद  : पुं० [सं० दुर्हृद्+अण्] १. दुर्हृदय होने की अवस्था या भाव। २. मन या हृदय की खोटाई। दुष्टता। ३. दे ‘दोहद’।
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दौर्हृदय  : पुं० [सं० दुर्हृदय+अण्] १. दुर्हृदय होने की अवस्था या भाव। २. शत्रुता।
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दौर्हृदिनी  : स्त्री० [सं० दौर्हृद+इनि-ङीप्] गर्भवती स्त्री। गर्भिणी। लाक्षणिक अर्थ में कोई अमूल्य तथा महत्त्वपूर्ण चीज।
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दौलत  : स्त्री० [अं०] १. वे अधिकृत सभी वस्तुएँ जिनका आर्थिक मूल्य हो। धन और सम्पत्ति। २. उक्त प्रकार की वे बहुत-सी वस्तुएँ जिनके अधिकार में होने पर कोई गरीब या धनी कहलाता है। ३. लाक्षणिक अर्थ में कोई अमूल्य तथा महत्त्वपूर्ण चीज। जैसे—लेखनी ही उनकी दौलत है।
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दौलत-खाना  : पुं० [फा० दौलतखानः] १. संपत्ति रखने का स्थान। २. निवास स्थान। (बड़ों के लिए आदर सूचक) जैसे—आप के दोलत खाने पर हाजिर हो जाऊँगा।
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दौलत-मंद  : वि० [फा०] [भाव० दौलतमंदी] अमीर। धनवान। मालदार।
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दौलति  : स्त्री०=दौलत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दौलताबादी  : पुं० [दौलतवाद, दक्षिण भारत का नगर] एक प्रकार का बढ़िया कागज जो दौलताबादी (दक्षिण भारत का एक प्रदेश) में बनता है।
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दौलेय  : पुं० [सं० दुलि+ढक्—एय] कच्छप। कछुआ।
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दौल्मि  : पुं० [सं० दुल्म+इञ्] इंद्र।
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दोवारिक  : पं० [सं० द्वार+ठक्—इक] [स्त्री० दौवारिकी] १. द्वारपाल। २. एक प्रकार के वास्तुदेव।
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दौवालिक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम। २. उक्त देश का निवासी।
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दौश्चर्म्य  : पुं० [सं० दुष्चर्मन्+ष्यञ्] दुश्चर्म्मा होने की अवस्था या भाव। दे० ‘दुष्चर्मा’।
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दौश्चर्य  : पुं० [सं० दुश्चर+ष्यञ्] १. दुराचरण। २. दुष्टता। ३. दुष्कर्म।
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दौष्कुल  : वि० [सं० दुष्कुल+अण्] बुरे या हीन कुल में उत्पन्न।
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दौष्मंत  : वि० [सं०] दुष्मंत+अण्] दुष्मंत के कुल में उत्पन्न व्यक्ति।
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दौष्मंति  : पुं० [सं० दुष्मंत+इञ्]=दौष्मंत।
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दौष्यंति  : पुं० [सं० दुष्यंत+इञ्] दुष्यंत का शकुन्तला के गर्भ से उत्पन्न पुत्र, भरत।
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दौहित्र  : पुं० [सं० दुहितृ+अञ्] [स्त्री० दौहित्री] १. लड़की का लड़का। दोहता। नाती। २. तलवार। ३. तिल। ४. गौ का घी।
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दौहित्रक  : वि० [सं० दौहित्र+ठक्—क] दौहित्र-संबंधी।
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दौहित्रायण  : पुं० [सं० दौहित्र+फक्-आयन] दौहित्र का पुत्र।
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दौहित्री  : स्त्री० [दौहित्र-डीप्] बेटी की बेटी। नतनी।
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दौहृद  : पुं० [सं० दौर्हृद] गर्भवती की इच्छा। दोहद। (दे०)
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दौहृदिनी  : स्त्री [सं० दौर्हृदिनी] गर्भवती स्त्री।
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द्याना  : स०=दिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्यावना  : स०=दिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्यु  : पुं० [सं०√दिव् (चमकना)+उन्] १. दिन। दिवस। २. आकाश। ३. स्वर्ग। ४. सूर्य लोक। ५. अग्नि। आग।
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द्युक  : पुं० [सं० द्यु+कन्] उल्लू।
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द्युकारि  : पुं० [सं० द्युक-अरि ष० त०] कौआ।
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द्युग  : वि० [सं० द्यु√गम् (गति)+ड] आकाश में गमन करनेवाला। पुं० चिड़िया। पक्षी।
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द्यु-गण  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘अहर्गण’।
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द्युचर  : वि० [सं० द्यु√चर (गति)+ट] आकाश में चलने या विचरण करनेवाला। पुं० १. चिड़िया। पक्षी। २. ग्रह, नक्षत्र आदि आकाशस्थ पिंड।
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द्यु-ज्या  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] अहोरात्र वृत्त की व्यासरूप ज्या।
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द्युत  : वि० [सं०√द्युत् (प्रकाश)+क] जिसमें द्युति या प्रकाश हो। चमकीला। पुं० किरण
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द्युति  : स्त्री० [सं०√द्युत्+इन्] १. प्रकाशमान होने की अवस्था, गुण या भाव। चमक। २. शारीरिक सौन्दर्य। शरीर की कांति। ३. लावण्य। छवि। ४. किरण। पुं० चतुर्थ मनु के समय के एक ऋषि (पुराण)।
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द्युति-कर  : वि० [ष० त०] प्रकाश उत्पन्न करनेवाला। चमकनेवाला। पुं० ध्रुव।
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द्युतित  : भू० कृ०=द्योतित।
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द्युति-धर  : वि० [ष० त०] प्रकाश या कांति धारण करनेवाला। पुं० विष्णु।
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द्युतिमंत  : वि०=द्युतिमान्।
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द्युतिमा  : स्त्री० [हिं० द्युति+मा (प्रत्य०)] प्रकाश। रोशनी। २. चमक। द्युति। ३. तेज।
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द्युतिमान्(मत्)  : वि० [सं० द्युति+मतुप्] [स्त्री० द्युतिमती] जिसमें चमक या आभा हो। प्रकाशवाला। पुं० १. स्वायंभुव मनु के एक पुत्र। २. महाभारत काल में शाल्व देश के एक राजा जिन्हें क्रौच द्वीप का राज्य मिला था।
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द्युन  : पुं० [सं०] जन्मकुंडली में लग्न से सातवाँ स्थान।
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द्यु-निश  : पुं० [सं० द्व० स०] दिन और रात।
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द्यु-पति  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. इन्द्र।
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द्युपथ  : पुं० [सं०] आकाशमार्ग।
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द्यु-मणि  : पुं० [सं० ष० त०] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. वैद्यक में शोधा हुआ तांबा।
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द्युमत्सेन  : पुं० [सं०] शाल्व देश के एक राजा जो सत्यवान् के पिता थे और दुर्भाग्य से अंधे हो गये थे।
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द्युमद्गान  : पुं० [सं०] एक प्रकार का सामगान।
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द्युमयी  : स्त्री० [सं०] विश्वकर्मा की कन्या जो सूर्य को ब्याही थी।
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द्युमान् (मत्)  : वि० [सं० दिव्+मतुप्, उत्व]= द्युतिमान्।
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द्युम्न  : पुं० [सं० द्यु√म्ना (अभ्यास)+क] १. सूर्य। २. अन्न। ३. धान। ४. बल। शक्ति।
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द्यु-लोक  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्वर्गलोक।
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द्युवा (वन्)  : पुं० [सं०√द्यु (आगे बढ़ना)+कनिन्] १. सूर्य। २. स्वर्ग।
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द्युषद्  : पुं० [सं० द्यु√सद् (गति)+क्विप्] १. देवता। २. ग्रह, नक्षत्र आदि आकाशचारी पिंड।
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द्यु-सद्म (न्)  : पुं० [सं० ब० स०] स्वर्ग।
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द्यु-सरित्  : स्त्री० [सं० ष० त०] स्वर्ग की मंदाकिनी नदी।
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द्यू  : पुं० [सं०√दिव् (क्रीड़ा)+क्विप्, ऊठ्] जूआ खेलनेवाला। जुआरी।
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द्यूत  : पुं० [सं०√दिव्+क्त,ऊठ्] ऐसा खेल जिसमें दाँव पर धन लगाया जाय और उसकी हार-जीत हो। जूआ।
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द्यूत-कर, द्यूतकार  : वि० [सं० ष० त० द्यूत√कृ (करना) +अण्] जूआ खेलनेवाला। जुआरी।
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द्यूत-दास  : पुं० [मध्य० स०] [स्त्री० द्यूतदासी] जूए में जीतकर प्राप्त किया हुआ व्यक्ति, जिसे अपने विजेता का दास बनकर रहना पड़ता था।
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द्यूत-पूर्णिमा  : पुं० [च० त०] आश्विन की पूर्णिमा। कोजागरी। प्राचीन काल में लोग इस रोज रात भर जागकर जूआ खेलते थे।
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द्यूत-फलक  : पुं० [ष० त०] वह चौकी या तख्ता जिस पर बिसात बिछाई जाती थी और कौड़ी या पासा फेंका जाता था।
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द्यूत-बीज  : पुं० [ष० त०] जूआ खेलने की कौड़ी।
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द्यूत-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] जूआ खेलने का स्थान। जुआरियों का अड्डा।
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द्यूत-मंडल  : पुं० [ष० त०] १. जुआरियों की मंडली। २. वह स्थान जहाँ बैठकर लोग जूआ खेलते हों। जूआखाना।
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द्यूत-समाज  : पुं० [ष०त०] जुआरियों का जमघट।
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द्युताध्यक्ष  : पुं० [द्युत-अध्यक्ष, ष० त०] प्राचीन भारत में वह राजकीय अधिकारी जो जूए का निरीक्षण करता था और जुआरियों से राजकीय प्राप्य भाग लिया करता था। (कौ०)
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द्यूताभियोग  : पुं० [द्यूत-अभियोग ष० त०] जूआ खेलने के अपराध में चलाया जानेवाला अभियोग या मुकदमा।
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द्यूतावास  : पुं० [द्यूत-आवास, ष० त०] जूआखाना।
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द्यूति-प्रतिपदा  : स्त्री० [सं० द्यूतप्रतिपत्] कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा जिस दिन लोग जूआ खेलते हैं।
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द्यून  : पुं० [सं०√दिव्+क्त, ऊठ्, नत्व] जन्म-कुंडली में लग्न स्थान से सातवीं राशि।
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द्यो  : स्त्री० [सं०√द्युत+डो] १. स्वर्ग। २. आकाश। ३. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आठ वस्तुओं में से एक।
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द्योकार  : पुं० [सं० द्यो√कृ+अण्] भवन बनानेवाला राज।
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द्योत  : पुं० [सं०√द्युत् (चमकना)+घभ्] १. प्रकाश। २. धूप।
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द्योतक  : वि० [सं०√द्युत्+णिच्.+ण्वुल्—अक] १. द्योतन करनेवाला। २. जो किसी चीज को प्रकाश में लावे। ३. प्रकट करनेवाला। ४. अभिव्यक्त या व्यक्त करनेवाला।
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द्योतन  : पुं० [सं०√द्युत्+णिच्+ल्युट—अन] [भू० कृ० द्योतित] प्रकाश से युक्त करने की क्रिया या भाव। २. दिखाने की क्रिया या भाव। दिग्दर्शन। ३. प्रकट या व्यक्त करने की क्रिया या भाव। ४. [√द्युत्+युचअन्] दीआ। दीपक। वि० चमकीला। प्रकाशमान।
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द्योतनिका  : स्त्री० [सं० द्योतन+डीष्+कन्-टाप्, ह्रस्व] किसी ग्रन्थ की टीका या व्याख्या।
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द्योतित  : भू० कृ० [सं०√द्युत्+णिच्+क्त] १. द्युति या प्रकाश से युक्त किया हुआ। २. प्रकट या व्यक्त किया हुआ।
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द्योतिरिंगण  : पुं० [सं० ज्योतिरिंगण पृषो० सिद्धि] खद्योत। जुगनूँ।
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द्यो-भूमि  : पुं० [सं० ब० स०] पक्षी।
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द्योषद्  : पुं० [सं० द्यो√सन्+क्विप्] देवता।
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द्योहरा  : पुं०=देवहरा (देवालय)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्यौ  : स्त्री० [सं० द्यो] १. स्वर्ग। २. आकाश।
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द्यौस  : पुं० [सं० दिवस्] दिन।
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द्यौसक  : पुं० [हिं० द्योस=दिवस+एक] दो-एक दिन। कुछ ही दिन।
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द्रंक्षण  : पुं० [सं०√द्रांक्ष (आकांक्षा)+ल्युट-अन, पृषो० ह्नस्व] तौल का एक पुराना मान जो दो कर्ष अर्थात् एक तोले के बराबर होता था। इसे ‘कोल’ और ‘वटक’ भी कहते थे।
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द्रंग  : पुं० [सं०] वह नगर जो पत्तन से बड़ा और कर्बर से छोटा हो।
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द्रग  : पुं०=दृग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रगणा  : पुं० [सं०] एक प्रकार का पुराना बाजा। दगड़ा।
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द्रग्ग  : पुं०=दृग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रढ़िमा  : स्त्री० [सं० दृढ़+इमनिच्] दृढ़ता।
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द्रढिष्ठ  : वि० [सं० दृढ़+इष्ठन्] खूब दृढ़। बहुत मजबूत।
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द्रप्पन  : पुं०=दर्पण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रप्स  : वि० [सं०√दृप् (गति)+कस्, र आदेश] तेज चलनेवाला। पुं० १. वह तरल पदार्थ जो अधिक गाढ़ा न हो। २. तक्र। मठा। ३. रस। ४. वीर्य।
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द्रप्स्य  : पुं०=द्रप्स।
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द्रब  : पुं०=द्रव्य।
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द्रमिल  : पं. [सं०] तमिल देश का पुराना नाम।
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द्रम्म  : पुं० [अ० फा० दिरम] १. एक प्रकार का पुराना सिक्का, जिसका मान या मूल्य भिन्न-भिन्न समयों में अलग अलग था। २. उक्त सिक्के के बराबर की तौल।
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द्रवंती  : स्त्री० [सं०√द्रु (गति)+शत्-ङीप्] १. नदी। २. मूसाकानी (वनस्पति)।
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द्रव  : वि० [सं०√द्रु+अप्] १. पानी की तरह पतला। तरल। २. आर्द्र। गीला। तर। ३. पिघला हुआ। पुं० १. द्रव या तरल पदार्थ का चूना, बहना या रसना। द्रवण। २. आसव। ३. रस। ४. बहाव। ५. दौड़ने या भागने की क्रिया। पलायन। ६. तेजी। वेग। ७. हँसी-ठट्ठा। परिहास। ८. दे० ‘द्रवत्त्व’।
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द्रवक  : वि० [सं०√द्रु+ण्वुल-अक] १. भागनेवाला। भगेड़ू। भग्गू। २. चूने, बहने या रसनेवाला। ३. द्रवित करने या होनेवाला।
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द्रवज  : वि० [सं० द्रव√जन् (उत्पत्ति)+ड] द्रव पदार्थ से निकला या बना हुआ। पुं० किसी प्रकार के रस से बनी हुई वस्तु। जैसे—गुड़, चीनी आदि।
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द्रवड़ना  : अ०=दौड़ना (राज०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रवण  : पुं० [सं०√द्रु+ल्युट्-अन] [वि० द्रवित्] १. गमन। २. दौड़। ३. रसना या बहना। क्षरण। ४. पिघलना या पसीजना। ५. चित्त के द्रवित या दयापूर्ण होने की वृत्ति। ६. कामदेव का एक वाण जो हृदय को द्रवित करनेवाला कहा गया है। उदा०—परठि द्रविण सोखण सरपंच।—प्रिथीराज।
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द्रवण-शील  : वि० [ब० स०] [भाव० द्रवणशीलता] १. पिघलनेवाला। २. (व्यक्ति) जिसके हृदय में दूसरों का कष्ट देखकर दया उत्पन्न होती हो और फलतः जो उनके प्रति कठोर व्यवहार नहीं करता और दूसरों को वैसा करने से रोकता है। पसीजनेवाला।
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द्रवणांक  : पुं० [सं० द्रवण-अंक ष० त०] ताप का वह मान जिस पर कोई ठोस चीज पिघलने लगती है। (मेल्टिंग प्वाइंट)। विशेष—विभिन्न वस्तुओं का द्रवणांक विभिन्न होता है।
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द्रवता  : स्त्री० [सं० द्रव+तल्-टाप्] द्रवत्व।
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द्रवत्पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] चँगोनी नामक पौधा।
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द्रवत्व  : पुं० [सं० द्रव+त्व] द्रव होने की अवस्था, गुण या भाव।
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द्रवना  : अ० [सं० द्रवण] १. द्रवित होना अर्थात् पिघलना। २. प्रवाहित होना। बहना। ३. हृदय में किसी के प्रति दया उपजना। दयार्द्र होना।
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द्रव-रसा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] १. लाख। लाह। २. गोंद।
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द्रवाधार  : पुं० [सं० द्रव-आधार ष० त०] १. छोटा पात्र। २. अंजलि। ३. चुल्लू।
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द्रविड़  : पुं० [सं० द्रामिल ?] १. दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर स्थित एक विस्तृत प्रदेश का पुराना नाम। आधुनिक आंध्र और मदरास इसी प्रदेश में है। २. उक्त देश का निवासी। ३. ब्राह्मणों का एक विभाग जिसके अंतर्गत आँध्र, कर्णाटक, गुर्जर, द्रविड़ और महाराष्ट्र ये पाँच वर्ग हैं। वि० द्रविड़ प्रदेश अथवा उसके निवासियों से संबंध रखनेवाला। द्राविड़।
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द्रविड़-नाशन  : पुं० [ष० त०] सहिजन का पेड़। शोभांजन।
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द्रविड़ी  : स्त्री० [सं० द्रविड़+ङीष्] एक प्रकार की रागिनी।
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द्रविण  : पुं० [सं०√द्रु+इनन्] १. धन। द्रव्य। २. सोना। स्वर्ण। ३. पराक्रम। पौरुष। ४. पुराणानुसार कुश द्वीप का एक पर्वत। ५. क्रौंच द्वीप का एक वर्ष या देश। ६. राजा पृथु का एक पुत्र। पुं०=द्रवण (अस्त्र)।
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द्रविड़-प्रद  : पुं० [ष० त०] विष्णु।
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द्रविणाधिपति  : पुं० [द्रविड़-अधिपति, ष० त०] कुबेर।
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द्रविणोदा (स्)  : पुं० [सं०] १. वैदिक देवता। २. अग्नि।
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द्रवीभवन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० द्रवीभूत] १. किसी घन पदार्थ का द्रव रूप धारण करना। २. भाप से पानी बनने की क्रिया जिसमें या तो भाप का घनत्व या ताप-क्रम क्रम हो जाता है।
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द्रवीभूत  : भू० कृ० [सं० द्रव+च्वि√भू+क्त] १. द्रव या तरल रूप में आया या लाया हआ। २. पिघला या पिघलाया हुआ। ३. (व्यक्ति) जिसके हृदय में दया उत्पन्न हुई हो। ४. दया से विह्रल (हृदय)।
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द्रव्य  : वि० [सं०√द्रु+यत् नि० सिद्धि] १. द्रुम संबंधी। पेड़ का। २. पेड़ से निकला हुआ। ३. पेड़ की तरह का। पुं० १. चीज। पदार्थ। वस्तु। २. दार्शनिक क्षेत्र में वह पदार्थ जिसमें किसी प्रकार की क्रिया या गुण अथवा दोनों हों और जो किसी का समवाय कारण हो अर्थात् जिससे कोई चीज बनती हो। विशेष—वैशेषिकों ने जो सात पदार्थ माने हैं, उनमें से द्रव्य भी एक है। रामानुजाचार्य ने इसे तीन प्रभेदों में से एक प्रभेद माना है; और इसके ये छः भेद कहे है—ईश्वर, जीव, नित्य, विभूति, ज्ञान, प्रकृति और काल। ३. लौकिक व्यवहार में, वह उपादान या सामग्री जिससे और चीजें बनती हैं। सामान। जैसे—चाँदी, ताँबा, मिट्टी, रूई आदि वे द्रव्य हैं जिनसे गहने, कपड़े, बरतन आदि बनते हैं। ४. धन-दौलत, रुपए आदि। जैसे—उन्होंने व्यापार में बहुत-सा द्रव्य कमाया था। ५. पीतल। ६. जड़ी-बूटी अथवा ओषधि। ७. मद्य। शराब। ८. गोंद। ९. लेप। १॰. लाख। लाक्षा।
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द्रव्यक  : वि० [सं० द्रव्य+कन्] द्रव्य या कोई पदार्थ उठाने या वहन करनेवाला।
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द्रव्यत्व  : पुं० [सं० द्रव्य+त्व] ‘द्रव्य’ होने की अवस्था, गुण या भाव। द्रव्यता।
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द्रव्य-पति  : पुं० [ष० त०] १. बहुत से द्रव्यों या पदार्थों का स्वामी। २. धन का मालिक। धनवान। ३. आकाशस्थ राशियाँ, जो विभिन्न पदार्थों की स्वामी मानी गई है। (फलित ज्योतिष)।
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द्रव्यमय  : वि० [सं० द्रव्य+मयट्] १. द्रव्य अर्थात् पदार्थ से युक्त। २. पदार्थ संबंधी। ३. धन से परिपूर्ण। संपत्तिवान्।
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द्रव्य-वन  : पुं० [मध्य० स०] लकड़ियों के लिए रक्षित वन। (कौ०)।
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द्रव्यवन-भोग  : पुं० [ष० त०] वह जागीर या उपनिवेश जिसमें लकड़ी तथा अन्य वन्य पदार्थों की अधिकता हो। (कौ०)।
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द्रव्यवान (वत्)  : वि० [सं० द्रव्य+मतुप्] [स्त्री० द्रव्यवती] १. द्रव्य अर्थात् पदार्थ से युक्त। २. धनवान्। सम्पन्न।
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द्रव्य-सार  : पुं० [ष० त०] बहुमूल्य पदार्थ। उपयोगी पदार्थ।
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द्रव्यांतर  : पुं० [द्रव्य-अंतर मयू० स०] प्रस्तुत द्रव्य से भिन्न कोई और द्रव्य।
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द्रव्याधीश  : पुं० [द्रव्य-अधीश] १. धन के स्वामी, कुबेर। २. बहुत बड़ा धनवान्।
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द्रव्यार्जन  : पुं० [द्रव्य-अर्जन, ष० त०] धन अर्जित करने की क्रिया या भाव।
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द्रव्याश्रित  : वि० [द्रव्य-आश्रित ष० त०] द्रव्य में वर्तमान या विद्यमान रहनेवाला।
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द्रष्टव्य  : वि० [सं०√दृश् (देखना)+तव्यत्] १. दिखाई देने या पड़नेवाला। दृष्टिगोचर। २. देखने में बहुत अच्छा लगनेवाला। दर्शनीय। ३. देखने, जानने अथवा निरीक्षण किये जाने के योग्य। ४. जो दिखाया, बतलाया या समझाया जाने को हो। ५. जिसे कुछ दिखाया, बतलाना या समझाना हो। ६. जो निश्चित और प्रत्यक्ष रूप से किया जाने को हो। कर्त्तव्य।
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द्रष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं०√दृश्+तृच्] १. देखनेवाला। २. साक्षात् या सामना करनेवाला। ३. दिखलाने या बतलानेवाला। पुं० १. साक्षी। २. सांख्य के अनुसार पुरुष और योग के अनुसार आत्मा जिसे दार्शनिक लोग सब प्रकार के सांसारिक कार्यों को केवल देखनेवाला मानते हैं, करने या भोगनेवाला नहीं मानते।
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द्रष्टार  : पुं० [सं०] विचारपति। न्यायाधीश।
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द्रह  : पुं० [सं० ह्रद, पृषो० सिद्धि] १. बहुत गहरी झील। २. जलाशय में वह स्थान जो बहुत गहरा हो। दह।
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द्राक्ष-शर्करा  : स्त्री० [सं०] अंगूर के रस को रासायनिक प्रक्रिया से सुखा कर बनाई जानेवाली चीनी। (ग्लूकोज)।
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द्राक्षा  : स्त्री० [सं०√द्रांक्ष (चाहना)+अ—टाप्] अंगूर। दाख।
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द्राधिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० दीर्घ+इमनिच] १. दीर्घता। लंबाई। २. अक्षांश सूचित करनेवाली वे कल्पित रेखाएँ जो भूमध्य रेखा के समानांतर पूर्व-पश्चिम को मानी गई हैं। ३. किसी तरह की वह स्थिति जिसमें वह पृथ्वी से अधिकतर दूरी पर होता है। (एपेजी)।
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द्राण  : भू० कृ० [सं०√द्रा (सोना, भागना)+क्त] भागा हुआ। २. सोया हुआ। सुप्त। पुं० १. पलायन। भागना। २. स्वप्न। सपना।
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द्राप  : पुं० [सं०√द्रा+णिच्, पुक+अच्] १. आकाश। २. कौड़ी। ३. शिव। ४. मूर्ख व्यक्ति।
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द्रामिल  : वि० [सं० द्राविड़] द्रामिल वा द्रविड़ देशवासी। पुं० चाणक्य का एक नाम।
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द्राव  : पुं० [सं०√द्रु (गति)+घञ्] १. जाने या भागने की क्रिया या भाव। २. वेग। गति। ३. चूना, बहना रसना। क्षरण। ४. गलना या पिघलना। ५. ताप। ६. अनुताप। पछतावा।
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द्रावक  : वि० [सं०√द्रु+णिच्+ण्वुल्—अक] १. द्रव रूप में करने या लानेवाला। ठोस चीज को पानी की तरह पतला करने और बहानेवाला। २. गलाने या पिघलनेवाला। ३. हृदय में दया आदि कोमल भाव उत्पन्न करनेवाला। ४. पीछा करनेवाला। ५. चुरानेवाला। ६. दौड़ाने या भगानेवाला। ७. चतुर। चालाक। ८. चालबाज। धूर्त्त। ९. दिवालिया। पुं० १. चंद्रकांतमणि। २. बहुत बड़ा चालाक आदमी। ३. चोर। ४. व्यभिचारी व्यक्ति। ५. मोम। ६. सुहागा।
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द्रावक-कंद  : पुं० [ब० स०] तैलकंद। तिलकंदरा।
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द्रावकर  : वि० [सं० द्राव√कृ (करना)+ट] द्रवित करनेवाला। पुं० सुहागा जो सोने को गलाता या पिघलाता है।
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द्रावण  : पुं० [सं०√द्रु+णिच्+ल्युट—अन] १. द्रवीभूत करने का कार्य या भाव। गलाने या पिघलाने की क्रिया या भाव। २. दौड़ाने या भगाने की क्रिया। ३. रीठा।
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द्राविका  : स्त्री० [सं०√द्रु+ण्वुल—अक, टाप्, इत्व] १. थूक। लार। २. मोम।
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द्राविड़  : वि० [सं० द्रविड़+अण्] [स्त्री० द्राविड़ी] १. द्रविड़ देशसंबंधी। द्रविड़ का। २. द्रविड़ देश में रहने या होनेवाला। पुं० १. कचूर। २. आँबा हलदी। ३. द्रविड़। ४. दक्षिण भारत की भाषाओं का सामूहिक परिवार।
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द्राविड़क  : पुं० [सं० द्राविड़+कन्] १. विट् लवण। सोंचर नमक। २. आँबा हलदी।
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द्राविड़-गौड़  : पुं० [कर्म० स०] रात्रि के समय गाया जानेवाला एक राग।
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द्राविड़-प्राणायाम  : पुं० [सं० कर्म० स०] कोई काम ठीक प्रकार से और सीधे रास्ते न करके वही काम घुमा-फिराकर तथा उलटे ढंग से करना।
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द्राविड़ी  : स्त्री० [सं० द्राविड़+ङीष्] छोटी इलायची। वि० [सं०] द्रविड़-संबंधी। स्त्री० १. द्रविड़ प्रदेश की स्त्री। २. छोटी इलायची।
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द्राविड़ी-प्राणायाम  : पुं०=द्राविड़-प्राणायाम।
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द्रावित  : भू० कृ० [सं०√द्रु+णि्च्+क्त] १. द्रव किया हुआ। २. गलाया या पिघलाया हुआ। ३. दयार्द्र किया हुआ। ४. भगाया हुआ।
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द्राह्यायण  : पुं० [सं० द्रह+यंत्र+फक्—आयन] द्रह ऋषि के गोत्र में उत्पन्न एक ऋषि।
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द्रिठि  : स्त्री० [सं० दृष्टि] नजर। दृष्टि। उदा०—वेलखि अणी मूठि द्रिठिबंधि—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रिढ़  : वि०=दृढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रिब्ब  : पुं०=द्रव्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रिष्टि  : स्त्री०=दृष्टि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रु  : पुं० [सं०√द्रु+डु] १. वृक्ष। पेड़। २. वृक्ष की शाखा। पेड़ की डाल।
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द्रु-किलिम  : पुं० [सं०√किल् (श्वेत होना)+किमच्, द्रु-किलिम, स० त०] देवदारु।
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द्रुग्ग  : पुं०=दुर्ग।
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द्रुग्ध  : भू० कृ० [सं०√द्रुह (दोह)+क्त] जिसके विरुद्ध षडयंत्र रचा गया हो। २. जिसे द्वेष आदि के कारण हानि पहुँचाई गई हो।
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द्रुघण  : पुं० [सं० द्रु√हन् (मारना)+अप्, घनादेश, णत्व] १. लोहे का मुग्दर। २. कुठार। कुल्हाड़ा। ३. परशु या फरसे की तरह का एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ४. भू-चंपा। ५. ब्रह्मा।
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द्रुण  : पुं० [सं०+द्रुण (हिंसा)+क] १. धनुष। कमान। २. खड्ग। तलवार। ३. बिच्छू। ४. भृंगी नाम की कीड़ा।
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द्रुणा  : स्त्री० [सं० द्रण+अच्—टाप्] धनुष की डोरी। ज्या।
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द्रुणी  : स्त्री० [सं०√द्रुण+इन्—ङीष्] १. मादा कछुआ। कछुई। २. कन-खजूरा। ३. कठवत। कठौता।
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द्रुत  : वि० [सं०√द्रु+क्त] १. पिघला हुआ। २. शीघ्रतापूर्वक और वेग से आगे बढ़ने या कोई काम करनेवाला। ३. जो भागकर बच निकला हो। ४. (संगीत में स्वर, लय आदि) जिसकी गति साधारण की अपेक्षा द्रुत हो। जैसे—द्रुत लय या द्रुत विलंबित। क्रि० वि० जल्दी। शीघ्र। उदा०—फिर तुम तम में, मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्धान।—पंत। पुं० १. बिच्छू। २. बिल्ली। ३. वृक्ष। पेड़। ४. संगीत में उतने समय का आधा जितना साधारणतः एक मात्रा का होता या माना जाता है। लेखन में इसका चिह्न है। ५. संगीत में, गाने की वह लय जो मध्यम से भी कुछ और तीव्र होती है।
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द्रुत-गति  : वि० [ब० स०] जल्दी या तेज चलनेवाला। शीघ्रगामी।
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द्रुतगामी (मिन्)  : वि० [सं० द्रुत√गम् (जाना)+णिनि] [स्त्री० द्रुतगामिनी] जल्दी या तेज चलनेवाला। शीघ्रगामी।
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द्रुत-त्रिताली  : स्त्री०=जल्द तिताला (ताल)।
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द्रुत-पद  : पुं० [कर्म० स०] १. शीघ्रगामी चरण। २. १२-१२ अक्षरों के चार चरणोंवाला एक प्रकार का छंद जिसका चौथा, ग्यारहवाँ और बारहवाँ अक्षर गुरु और शेष अक्षर लघु होते हैं।
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द्रुत-मध्या  : स्त्री० [ब० स०] एक अर्द्ध-सम-वृत्ति जिसके प्रथम और तृतीय पद में ३ भगण और दो गुरु होते हैं।
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द्रुत-बिलंबित  : पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः १ नगण २ भगण और १ रगण होता है। इसे ‘सुंदरी’ भी कहते हैं।
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द्रुति  : स्त्री० [सं०√द्रु+क्तिन्] १. तरल पदार्थ। द्रव। २. द्रवित होने की अवस्था या भाव। ३. गति। चाल।
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द्रुतै  : अव्य० [सं० द्रुत] शीघ्रता से। जल्दी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्र-नख  : पुं० [सं० ष० त०] काँटा।
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द्रुपद  : पुं० [सं०] उत्तर पांचाल के एक प्रसिद्ध राजा जिनकी कन्या कृष्णार्जुन आदि पांडवों को ब्याही गई थी। २. खंभे का आधार या पाया। ३. खड़ाऊँ।
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द्रुपदा  : स्त्री० [सं० द्रुपद+अच्—टाप्] एक वैदिक ऋचा जिसके आदि में द्रुपद शब्द है। स्त्री०=द्रौपदी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्रुपदात्मज  : पुं० [द्रुपद-आत्मज ष० त०] [स्त्री० द्रुपदात्मजा] १. शिखंडी २. धृष्ट-द्युम्न।
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द्रुपदादित्य  : पुं० [द्रुपदा-आदित्य मध्य० स०] काशी खंड के अनुसार सूर्य की एक प्रतिमा जो द्रौपदी द्वारा प्रस्थापित मानी जाती है।
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द्रुम  : पुं० [सं० द्रु+म] १. वृक्ष। पेड़। २. पारिजात। परजाता। ३. कुबेर। ४. रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र।
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द्रुम-कंटिका  : स्त्री० [ष० त०] सेमर का पेड़।
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द्रुम-नख  : पुं० [ष० त०] पेड़ का नाखून, काँटा।
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द्रुम-मर  : पुं० [सं० द्रुम√मृ० (मरना)+अप्] काँटा। कंटक।
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द्रुम-व्याधि  : स्त्री० [ष० त०] १. पेड़ के ऊपर होनेवाला रोग। २. लाख। लाक्षा। ३. गोंद।
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द्रुम-शीर्ष  : पुं० [ष० त०] १. पेड़ का ऊपरी भाग या सिरा। २. [ब० स०] वास्तु शास्त्र में गोल मंडप के आकार की एक प्रकार की छत।
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द्रुम-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] ताड़ का पेड़।
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द्रुम-सार  : पुं० [ष० त०] अनार का पेड़।
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द्रुम-सेन  : पुं० [सं०] महाभारत का एक योद्धा जो धृष्टद्युम्न के हाथों मारा गया था।
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द्रुमामय  : पुं० [द्रुम-आमय ष० त०] १. पेड़ों को होनेवाले रोग। २. लाख। लाक्षा।
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द्रुमारि  : पुं० [द्रुम-अरि ष० त०] पेड़ का शत्रु, हाथी।
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द्रुमालय  : पुं० [द्रुम-आलय ष० त०] वृक्ष का घर। जंगल।
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द्रुमाश्रय  : वि० [द्रुम-आश्रय ब० स०] वृक्षों पर निवास करनेवाला। पुं० गिरिगिट।
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द्रुमिणी  : स्त्री० [सं० द्रुम+इनि—ङीप्] १. वृक्षों का समूह। २. जंगल। वन।
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द्रुमिल  : पुं० [सं०] १. एक दानव जो सौभ देश का राजा था। २. नौ योगेश्वरों में से एक।
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द्रुमिला  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का छंद जिसके चरणों में ३२-३२ मात्राएँ होती है।
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द्रुमेश्वर  : पुं० [सं० द्रुम-ईश्वर, ष० त०] १. चंद्रमा। २. पारिजात। परजाता। ३. ताड़ का पेड़।
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द्रुमोत्पल  : पुं० [सं० द्रुम-उत्पल ब० स०] कर्णिकार वृक्ष। कनकचंपा। कनियारी।
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द्रुवय  : पुं० [सं० द्रु+वय] लकड़ी की एक पुरानी माप।
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द्रु-सल्लक  : पुं० [सं० स० त०] चिरौंजी का पेड़।
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द्रुह  : पुं० [सं०√द्रुह् (अनिष्ठ चाहना)+क] [स्त्री० द्रुही] १. पुत्र। बेटा। २. वृक्ष। पेड़।
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द्रुहण  : पुं० [सं० द्रु√हन् (हिंसा)+अच्] ब्रह्मा।
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द्रुहिण  : पुं० [सं०√द्रुह+इनन्] ब्रह्मा।
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द्रुही  : स्त्री० [सं० द्रुह+ङीष्] कन्या।
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द्रुह्य  : पुं० [सं०] १. एक वैदिक जाति। २. राजा ययाति का शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न एक पुत्र।
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द्रू  : पुं० [सं०√द्रु (पिघलना)+क्विप्] सोना। स्वर्ण।
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द्रूण  : पुं० [सं०=द्रुण, पृषो० सिद्धि] बिच्छू।
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द्रेका  : स्त्री० [सं०] बकायन। महानिब।
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द्रेक्क  : पुं० [यू० डेकनस] राशि का तृतीयांश। वि० दे० ‘दृक्काण’।
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द्रेष्क्राण  : पुं० [यू डेकनस] ज्योतिष में, राशि का तृतीयांश।
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द्रोण  : पुं० [सं०√द्रु (गति)+न] १. लकड़ी का वह घड़ा या बरतन जिसमें वैदिक काल में सोम रखा जाता था। २. लकड़ी का बड़ा बरतन। कठवत। ३. एक प्रकार की पुरानी तौल जो चार आढ़क या सोलह सेर अथवा किसी-किसी के मते से बत्तीस सेर की होती थी। ४. नाव। नौका। ५. अरणी की लकड़ी। ६. रथ। ७. पत्तों का दोना। ८. डोम कौआ। ९. बिच्छू। १॰. पेड़। वृक्ष। ११. नील का पौधा। १२. केला। १३. दीर्घिका और पुष्करिणी से बड़ा वह तालाब जो चार सौ धनुष लंबा और इतना ही चौड़ा होता था। १४. मेघों का एक नायक जिसके भोगकाल में खूब वर्षा होती है। १५. दे० ‘द्रोणाचल’। १६. दे० ‘द्रोणाचार्य’।
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द्रोण-कलश  : पुं० [उपमि० स०] यज्ञ आदि में सोम छानने का वैकंक लकड़ी का बना हुआ एक प्राचीन पात्र।
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द्रोण-काक  : पुं० [उपमि० स०] डोम कौआ।
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द्रोण-गंधिका  : स्त्री० [ब० स० टाप्, इत्व] रासना।
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द्रोण-गिरि  : पुं० [मध्य० स०] द्रोणाचल।
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द्रोण-पदी  : स्त्री० [ब० स०, ङीष्] कुंभपदी।
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द्रोण-पुष्पी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] एक छोटा पौधा। गूमा।
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द्रोण-मुख  : पुं० [ब० स०] वह गाँव जो ४॰॰ गाँवों में प्रधान हो।
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द्रोण-मेघ  : पुं० [ब० स०] बहुत अधिक जल बरसाने वाला मेघ।
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द्रोण-शर्मपद  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ। (महाभारत)
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द्रोणस  : पुं० [सं०] एक दानव का नाम।
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द्रोणा  : स्त्री० [सं० द्रोण+अच्—टाप्] गूमा। द्रोणपर्णी।
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द्रोणाचल  : पुं० [सं० द्रोण-अचल मध्य० स०] एक प्रसिद्ध पर्वत जहाँ से लक्ष्मण के लिए हनुमान संजीवनी बूटी लाये थे। रामायण के अनुसार यह क्षीरोद सागर के किनारे था। द्रोणगिरि।
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द्रोणाचार्य  : पुं० [सं० द्रोण-आचार्य, मध्य० स०] ऋषि भारद्वाज के पुत्र तथा परसुराम के शिष्य एक प्रसिद्ध योद्धा जो कौरवों और पांडवों के गुरु थे और महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। इनका वध राजा द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने किया था।
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द्रोणायन  : पुं० [सं० द्रोण+फक्—आयन, द्रोण+फिञ्—आयन] द्रोणाचार्य के पुत्र, अश्वत्थामा। २. आठवें मन्वंतर के एक ऋषि। स्त्री०=द्रोणी।
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द्रोणिका  : स्त्री० [सं० द्रोणि√कै (मालूम पड़ना)+क—टाप्] नील का पौधा।
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द्रोणी  : स्त्री० [सं० द्रोणि+ङीष्] १. छोटी नाव। डोंगी। २. पत्तों का छोटा दोना। दोनियाँ। ३. लकड़ी का बना हुआ गोल चौड़ा पात्र। कठवत। कठौता। ४. लकड़ी की छोटी कटोरी या प्याली। डोकी। ५. दो पर्वतों के बीच की भूमि। दून। ६. दो पर्वतों के बीच का मार्ग। गिरि-संकट। दर्रा। ७. एक प्राचीन नदी। ८. द्रोण की पत्नी कृपी। ९. एक प्रकार का नमक। १॰. एक प्रकार का पुराना परिमाण जो दो सूर्प या १२८ सेर का होता था। ११. शीघ्रता। जल्दी। १२. नील का पौधा। १३. केला। १४. इन्द्रायन।
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द्रोणी-दल  : पुं० [ब० स०] केतकी का फूल।
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द्रोणी-लवण  : पुं० [मध्य० स०] कर्णाटक देश के आस-पास होनेवाला एक तरह का नमक। बिरिया।
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द्रोणोदन  : पुं० [सं०] सिंहहनु के पुत्र, जो शाक्य मुनि के चाचा थे।
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द्रोण्यामय  : पुं० [सं० द्रोणी-आश्रम मध्य० स०] शरीर के अंदर का एक प्रकार का रोग।
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द्रोन  : पुं० १.=द्रोण। २.=द्रोणाचार्य।
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द्रोब  : स्त्री०=दूर्वा (दूब)। उदा०—हरी द्रोन केसर हलिद्र।—प्रिथीराज।
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द्रोह  : पुं० [सं०√द्रुह+घञ्] [स्त्री० द्रोही] १. मन की वह वृत्ति जिसके फलस्वरूप मनुष्य किसी से असंतुष्ट और दुःखी होकर उसका अहित करते हुए उससे बदला चुकाना चाहता है। २. द्वेषवश षड्यंत्र रचकर किसी को हानि पहुँचाने की क्रिया या भाव।
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द्रोहाट  : पुं० [सं० द्रोह√अट् (गति)+अच्] १. ऐसा व्यक्ति जो ऊपर से देखने पर भला या सीदा-सादा जान पड़े, परन्तु जो अंदर से कपटी या दुष्ट हो। पाखण्डी। २. झूठा व्यक्ति। ३. शिकारी। ४. वेद की एक शाखा।
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द्रोही (हिन्)  : वि० [सं०√द्रुह+घिनुण्] [स्त्री० द्रोहिणी] १. द्रोह करनेवाला। किसी के विरुद्ध षडयंत्र रचनेवाला। पुं० वैरी। शत्रु।
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द्रौंणि  : पुं० [सं० द्रोण+इत्र्] अश्वत्थामा।
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द्रौणिक  : वि० [सं० द्रोण+ठक्न—इक] द्रोण संबंधी। द्रोण का। पुं० वह खेत जिसमें एक द्रोण (३८ सेर) बीज बोया जाय।
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द्रौणिकी  : स्त्री० [सं० द्रौणिक+ङीष्] १. १६ सेर की एक पुरानी तौल। २. नापने का वह पात्र जिसमें १६ सेर अनाज आता था।
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द्रौपद  : वि० [सं० द्रुपद+अण्] द्रुपद संबंधी। पुं० [स्त्री० द्रौपदी] द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न।
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द्रोपदी  : स्त्री० [सं० द्रौपद+ङीष्] पांचाल देश के राजा द्रुपद की कन्या जिसका वरण स्वयंवर में अर्जुन ने किया था।
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द्रौपदेय  : पुं० [सं० द्रौपदी+ढक्—एय] द्रौपदी का पुत्र।
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द्वंद  : पुं० [द्वंद] दो चीजों का जोड़ा। युग्म। पुं० [सं० द्वंद] घड़ियाल जिस पर आघात करके समय सूचित किया जाता है। पुं० [सं० द्वंद] १. जोड़ा। युग्म। २. दो आदमियों में होनेवाली लड़ाई। ३. उत्पात। उपद्रव। ४. झगड़ा। बखेड़ा। ५. उलझन। झंझट। क्रि० प्र०—खड़ा करना।—मचाना। ६. कष्ट। दुःख। ७. आशंका। खटका। ८. डर। भय। ९. असमंजस। दुविधा। १॰. दे० ‘द्वंद’। स्त्री०=दुंदुभी।
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द्वंदज  : वि०=द्वंद्वज।
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द्वंद-युद्ध  : पुं०=द्वंद्ध-युद्ध।
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द्वंदर  : वि० [सं० द्वंद्वालु] झगड़ालू। लड़का।
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द्वंद्व  : पुं० [सं० द्वि शब्द से नि० सिद्धि] १. जोड़ा। युग्म। २. ऐसे दो गुण, पदार्थ या स्थितियाँ जो परस्पर विरोधी हों। जैसे—सुख और दुःख ताप और शीत। ३. प्राचीन काल में दो शस्त्र योद्धाओं में होनेवाला संघर्ष जिसमें पराजित को विजेता की आज्ञा माननी पड़ती थी अथवा उसके वश में होकर रहना पड़ता था। ४. दो विरोधी अथवा विभिन्न शक्तियों, विचार धाराओं आदि में स्वयं आगे बढ़ने और दूसरी को पीछे हटाने के लिए होनेवाला संघर्ष। ५. मानसिक संघर्ष। ६. उत्पात। उपद्रव। ७. झगड़ा। बखेड़ा। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना। ८. व्याकरण में एक प्रकार का समास जिसमें के दोनों अथवा सभी पदों की समान रूप से प्रधानता होती है और जिसका अन्वय एक ही क्रिया के साथ होता है। जैसे—सुख-दुःख यों ही आते-जाते रहते हैं। ९. गुप्त बात। रहस्य। १॰. किला। दुर्ग।
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द्वंद्वचर  : वि० [सं० द्वंद्व√चर्(गति)+ट] (पशु या पक्षी) जो अपने जोड़े के साथ रहता हो। पुं० चकवा या चक्रवाक पक्षी।
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द्वंद्वचारी (रिन्)  : पुं० [सं० द्वंद्व√चर्+णिनि] [स्त्री० द्वंद्वचारिणी] चकवा।
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द्वंद्वज  : वि० [सं० द्वंद्व√जन् (उत्पत्ति)+ड] किसी प्रकार के द्वंद्व से उत्पन्न। जैसे—(क) कफ और वात के प्रकोप से उत्पन्न द्वंद्वज रोग। (ख) राग-द्वेष से उत्पन्न द्वंद्वज कष्ट या दूषित मनोवृत्ति।
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द्वंद्व-युद्ध  : पुं० [ष० त०] १. वह युद्ध या लड़ाई जो दो दलों, व्यक्तियों आदि में से और जिसमें कोई तीसरा सम्मिलित न हो। २. दो आदमियो में होनेवाली हाथा-पाई या कुश्ती।
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द्वंद्वी (द्विन्)  : वि० [सं० द्वंद्व+इनि] १. परस्पर मिलकर युग्म बनानेवाले (दो)। २. परस्पर विरुद्ध रहनेवाले (दो)। ३. द्वंद्व (उपद्रव या झगड़ा) करने या मचानेवाला। पुं० झगड़ालू व्यक्ति।
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द्वय  : वि० [सं० द्वि+तपप्] दो। पुं० जोड़ा। युग। (समस्त पदों के अन्त में) जैसे—देवता द्वय।
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द्वयवादी (दिन्)  : वि० [सं० द्वय√वद् (बोलना)+णिनि] दो तरह की या दोरंगी बातें कहनेवाला। पुं० गणेश।
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द्वय-हीन  : वि० [सं० तृ० त०] जो पुल्लिंग हो और न स्त्रीलिंग अर्थात् नपुंसक (शब्द)।
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द्वयाग्नि  : पुं० [सं० द्वय अग्नि ब० स०] लाल चीता।
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द्वयाहिग  : वि० [सं०] (सिद्ध पुरुष) जिसके सत्त्वगुण ने शेष दोनों गुणों (रजः और तम) को दबा लिया हो।
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द्वाःस्थ  : पुं० [सं० द्वार√स्था (ठहरना)+क] १. द्वारपाल। २. नंदिकेश्वर।
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द्वाचत्वारिंश  : वि० [सं० द्वाचत्वारिंशत्+डट्] बयालीसवाँ।
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द्वाचत्वारिंशत्  : वि० [सं० द्वि० चत्वारिंशत् मध्य० स०] बयालिस। पुं० उक्त की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—४२।
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द्वाज  : पुं० [सं० द्वि√जन्+ड पृषो० सिद्धि] किसी स्त्री का वह पुत्र जो उसके पति से नहीं, बल्कि किसी दूसरे पुरुष से उत्पन्न हुआ हो। जारज। दोगला।
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द्वात्रिंश  : वि० [सं० द्वात्रिंशत्+डट्] बत्तीसवाँ।
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द्वात्रिंशत्  : वि० [सं० द्वि-त्रिंशत् मध्य० स०] जो संख्या में तीस और दो हो। बत्तीस। पुं० बत्तीस की संख्या या उसका सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है।—३२।
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द्वादश  : वि० [सं० द्वि-दशन्, मध्य० स०] १. जो संख्या में दस और दो हो। बारह। २. क्रम के विचार से बारह के स्थान पर पड़नेवाला। बारहवाँ। पुं० बारह का सूचक अंक या संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है।—१२।
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द्वादशक  : वि० [सं० द्वादस+कन्] बारहवें स्थान पर पड़नेवाला। बारहवाँ।
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द्वादश-कर  : वि० [ब० स०] जिसके बारह हाथ हों। पुं० १. कार्तिकेय। २. कार्तिकेय के एक अनुचर। ३. बृहस्पति।
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द्वादश-बानी  : वि०=बारहवानी (खरा)।
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द्वादश-भाव  : पुं० [मध्य० स०] फलित ज्योतिष में जन्म कुंडली के बारह घर जिनके नाम क्रम से तनु, धन आदि फलानुसार रखे गये हैं।
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द्वादश-रात्र  : पुं० [द्विगु० स०] बारह दिनों में पूरा होनेवाला एक यज्ञ।
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द्वादस-लोचन  : पुं० [ब० स०] कार्तिकेय।
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द्वादश-वर्गी  : स्त्री० [द्विगु० स० ङीष्] क्षेत्र, होरा आदि बारह वर्गों का समूह जिसके आधार पर ग्रहों का बलाबल जाना जाता है। (फलित ज्यो०)।
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द्वादश-वार्षिक  : वि० [सं० द्वादश-वर्ष द्विगु० स०+ठक्—इक] बारह वर्षों में होनेवाला। पुं० एक प्रकार का व्रत जो ब्रह्म हत्या करने पर उसके पाप से मुक्ति पाने के लिए बारह वर्षों तक जंगल में रहकर किया जाता था।
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द्वादश-शुद्धि  : स्त्री० [मध्य० स०] वैष्णव संप्रदाय में तंत्रोक्त बारह प्रकार की शुद्धियाँ। जैसे—देवता की परिक्रमा करने से होनेवाली पदशुद्धि, देवता को स्पर्श करने से होनेवाली हस्त-शुद्धि, नाम कीर्तन से होनेवाली वाक्य-शुद्धि, देव-दर्शन से होनेवाली नेत्र-शुद्धि आदि।
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द्वादशांग  : वि० [द्वादश-अंग, ब० स०] जिसके बारह अंग या अवयव हों। पुं० एक प्रकार की धूप जो गुग्गल, चंदन आदि बारह गंध द्रव्यों के योग से बनती हैं।
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द्वादशांगी  : स्त्री० [द्वादंश-अंगुल ब० स० ङीष्] जैनों के द्वादश अंग ग्रन्थों का समूह।
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द्वादशांगुल  : वि० [द्वांदश-अंगुल, ब० स०] १. जो नाप में बारह अंगुल हो। २. बारह उँगलियोंवाला। पुं० बारह अंगुल की माप। बित्ता। बालिश्त।
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द्वादशांशु  : पुं० [द्वादस-अंशु ब० स०] बृहस्पति।
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द्वादशाक्ष  : पुं० [द्वादश-अक्षि ब० स०] १. कार्तिकेय। वि० [सं०] जिसकी बारह आँखें हों। पुं० १. कार्तिकेय। २. गौतम बुद्ध।
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द्वादशाक्षर  : पुं० [द्वादश-अक्षर ब० स०] विष्णु का एक मंत्र जिसमें बारह अक्षर हैं और जो इस प्रकार हैं—ओं नमो भगवते वासुदेवाय।
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द्वादशाख्य  : पुं० [द्वादश-आख्या, ब० स०] बुद्धदेव।
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द्वादशात्मा (त्मन्)  : पुं० [द्वादश-आत्मन्, ब० स०] १. सूर्य। २. आक। मदार।
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द्वादशायतन  : पुं० [द्वादश-आयतन, मध्य० स०] पाँच ज्ञानेद्रियों, पाँच कर्मद्रियों तथा मन और बुद्धि इन बारह पूज्य स्थानो का समूह। (जैन)
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द्वादशाह  : पुं० [द्वादश-अहन् द्विगुस०] १. बारह दिनों का समूह। २. एक यज्ञ जो बारह दिनों में पूरा होता था। ३. मृतक के उद्देश्य से उसकी मृत्यु के बारहवें दिन किया जानेवाला श्राद्ध।
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द्वादशी  : स्त्री० [सं० द्वादश+ङीष्] चांद्रमास के किसी पक्ष की बारहवीं तिथि।
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द्वादसबानी  : वि०=बारहबानी (खरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्वापर  : पुं० [सं० द्वि पर=प्रकार ब० स० पृषो० सिद्धि] पुराणानुसार त्रेता और कलियुग के बीच का युग जिसका सन् ८६४॰॰॰ वर्षों का कहा गया है। भगवान् कृष्ण ने इसी युग में अवतार लिया था।
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द्वामुष्यायण  : पुं० [सं०=द्वयामुष्यायण, पृषो० सिद्धि] १. वह व्यक्ति जो दो पिताओं का (एक का औरस और दूसरे का दत्तक) पुत्र हो। २. वह व्यक्ति जो दो ऋषियों के गोत्र में हो। ३. उद्दालक मुनि का एक नाम। ४. गौतम बुद्ध का एक नाम।
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द्वार  : पुं० [सं०√दृ (विदारण)+णिच्+अच्] १. किसी घेरे, चहारदीवारी, दीवार आदि में आवागमन के लिए बना हुआ कोई खुला विशेषता मुख्य स्थान जिसमें प्रायः खोलने और बंद करने के लिए दरवाजे पल्ले आदि लगे होते हैं। मुहा०—द्वार द्वार फिरना=(क) कार्य-सिद्धि के लिए अनेक प्रकार के लोगों के यहाँ पहुँचकर अनुनय करना। (ख) भीख माँगना। (किसी का आकर) द्वार लगना=किसी उद्देश्य या कार्य के लिए दरवाजे पर आकर पहुँचना। जैसे—संध्या को बरात द्वार लगेगी। (किसी के) द्वार लगना=किसी उद्देश्य या कार्य सिद्धि के लिए किसी के दरवाजे (या किसी के यहाँ) जाकर बैठना। उदा०—यह जान्यो जिय राधिका द्वारे हरि लागे।—सूर। २. उक्त स्थान या अवकाश को आवश्यकतानुसार बंद करने के लिए उसमें लगाये जानेवाले लकड़ी, लोहे आदि के पल्ले। मुहा०—द्वार लगना=दरवाजा बंद होना। (किसी बात के लिए) द्वार लगना=दूसरों की बातें चुपके से या छिपकर सुनने के लिए दरवाजों की आड़ में छिपकर खड़े होना। द्वार लगाना=किवाड़ या दरवाजा बंद करना। ३. दो स्थानों के बीच पड़नेवाला कोई ऐसा अवकाश या मार्ग जिससे होकर किसी प्रकार की आने-जाने की क्रिया होती हो। जैसे—किसी समय खैबर का दर्रा भारत वर्ष में आने-जाने का मुख्य द्वार था। ४. लाक्षणिक रूप में, काम करने का वह विधि-विहित या नियत मार्ग जो उपाय या साधन के अंग के रूप में हो। मार्ग-साधन। (चैनेल) जैसे—धन कमाने का एक ही द्वार है, पर गवाने के सैकड़ो। मुहा०—(किसी काम या बात के लिए) द्वार खुलना=किसी काम या बात के होने के लिए मार्ग या साधन निकलना। जैसे—अब आपके लिए सरकारी नौकरी का द्वार खुल गया है। ५. शारीरिक इंद्रियों के विशिष्ट छिद्र या मार्ग जिनमें से होकर शरीर के विकार बाहर निकलते रहते हैं और जिनके द्वारा कुछ चीजें शरीर के अंदर जाती है। जैसे—आँख, कान, नाक, मुँह आदि।
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द्वार-कंटक  : पुं० [ष० त०] दरवाजे की कीली या सिटकिनी।
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द्वार-कपाट  : पुं० [ष० त०] दरवाजे का पल्ला।
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द्वारका  : स्त्री० [सं० द्वार+कै (प्रकाशित होना)+क—टाप्] गुजरात की एक प्राचीन नगरी जिसे कुशस्थली भी कहते हैं, और जो आज-कल एक प्रसिद्ध तीर्थ है। जरासंध के उत्पातों से दुःखी होकर श्रीकृष्ण मथुरा छोड़कर यहाँ जा बसे थे।
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द्वारकाधीश  : पुं० [द्वारका-अधीश ष० त०] १. श्रीकृष्णचंद्र। २. श्रीकृष्ण की वह मूर्ति जो द्वारका में है।
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द्वारकानाथ  : पुं० [ष० त०]=द्वारकाधीश।
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द्वारकेश  : पुं० [द्वारका-ईश ष० त०]=द्वारकाधीश।
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द्वारचार  : पुं० दे० ‘द्वार-पूजा’।
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द्वार-छेंकाई  : स्त्री० [हिं० द्वार+छेंकना=रोकना] १. विवाह के समय की एक रीति, जो विवाह कर के वधू समेत अपने घर आने पर होती है। इसमें बहन वर और वधू का रास्ता रोककर खड़ी हो जाती और कुछ पाने पर रास्ता छोड़ती है। २. उक्त अवसर पर बहन को मिलनेवाला धन या नेग।
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द्वार-ताल  : पुं० दे० ‘ताला-बंदी’।
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द्वार-पंडित  : पुं० [मध्य० स०] मध्ययुग में, किसी राजा के यहाँ रहनेवाला प्रधान पंडित।
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द्वारप  : पुं० [सं० द्वार√पा (रक्षा)+क] १. द्वारपाल। २. विष्णु।
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द्वार-पटी  : स्त्री० [ष० त०] दरवाजे पर टाँगने का परदा। उदा०—आये सखि द्वारपटी हाथ से हटा के पिय।—तुलसी।
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द्वारलाल  : पुं० [सं० द्वार√पाल् (रक्षा)+णिच्+अण्] [स्त्री० द्वारपाली, द्वारपालिनी, द्वारपालिन] १. वह पुरुष जो दरवाजे पर पहरा देने के लिए नियुक्त हो। ड्योढ़ीदार। दरबान। २. किसी प्रधान देवता के द्वार का रक्षक कोई विशिष्ट देवता। (तंत्र)। ३. सरस्वती नदी के तट पर का एक प्राचीन तीर्थ।
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द्वार-पालक  : पुं० [ष० त०] द्वारपाल।
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द्वार-पिंडी  : स्त्री० [ष० त०] दहलीज।
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द्वार-पूजा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. पूजन आदि में वे धार्मिक कृत्य जो दरवाजे पर बरात आने के समय कन्या-पक्ष द्वारा होते है। द्वारचार। २. जैनों में एक प्रकार की पूजा।
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द्वारमती  : स्त्री०=द्वारका (पुरी)।
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द्वार-यंत्र  : पुं० [मध्य० स०] ताला।
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द्वारवती  : स्त्री० [सं० द्वार+मतुप्—ङीष् वत्व] द्वारका (नगरी)।
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द्वार-समुद्र  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत का एक पुराना नगर जहाँ कर्नाटक के राजाओं की राजधानी थी।
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द्वारस्थ  : वि० [सं० द्वार√स्था (ठहरना)+क] जो द्वार पर बैठा, लगा या स्थित हो। पुं० द्वारपाल।
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द्वारा  : पुं० [सं० द्वार] १. द्वार। २. दरवाजा। ३. स्थान। जैसे—गुरुद्वारा। अव्य० [सं० द्वारात्] १. किसी माध्यम के आधार पर। जरिये। जैसे—अब तो खबरें भी रेडियों के द्वारा भेजी जाने लगीं। २. किसी के हस्ते। हाथ से। जैसे—पत्र नौकर द्वारा भेजा गया था। ३. किसी कारण या प्रक्रिया के फलस्वरूप। जैसे—(क) उदाहरण के द्वारा समझाई हुई बात। (ख) रोग के द्वारा होनेवाला कष्ट। ४. किसी के कर्तव्य या प्रयत्न से। जैसे—बच्चन द्वारा रचित मधुशाला। ५. किसी अभिकर्त्ता की मारफत।
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द्वाराचार  : पुं० [द्वार-आचार मध्य० स०]=द्वारचार (द्वार-पूजा)।
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द्वारादेयशुल्क  : पुं० [द्वार-आदेय, स० त० द्वारादेय-शुल्क, कर्म० स०] किसी स्थान के प्रवेश-द्वार पर लिया जानेवाला शुल्क या महसूल। चुंगी (कौ०)।
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द्वाराधिप  : पुं० [द्वार-अधपि ष० त०] द्वारपाल।
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द्वाराध्यक्ष  : पुं० [द्वार-अध्यक्ष ष० त०] द्वारपाल।
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द्वारावती  : स्त्री० [सं० द्वार+मतुप्, नि० दीर्घ] द्वारका (नगरी)।
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द्वारिक  : पुं० [द्वार+ठन्—इक] द्वारपाल।
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द्वारिका  : स्त्री० [सं० द्वारिका+टाप्]=द्वारका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्वारी (रिन्)  : पुं० [सं० द्वार+इनि] द्वारपाल। स्त्री० [सं० द्वार] छोटा दरवाजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्वाल  : स्त्री० [फा० दुआल] चमड़े का तमसा।
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द्वालबंद  : पुं०=दुआलबंद।
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द्वाला  : पुं० [सं० द्विधारा] डिंगल भाषा का एक प्रकार का छंद।
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द्वाली  : स्त्री०=दुआली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्वाविंश  : वि० [सं० द्वाविंशति+डट्] बाईसवें स्थान पर पड़नेवाला।
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द्वाविंशति  : वि० [सं० द्वि—विंशति मध्य० स०] जो संख्या में बीस और दो हो। बाईस। स्त्री० उक्त की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—२२
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द्वाषष्ठ  : वि० [सं० द्वाषष्ठि+डट्] बासठवाँ।
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द्वाषष्ठि  : वि० [सं० द्वि-षष्ठि मध्य० स०] जो गिनती में साठ से दो अधिक हो। बासठ। पुं० उक्त की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—६२
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द्वासप्तत  : वि० [सं० द्वासप्तति+डट्] बहत्तरवाँ।
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द्वासप्तति  : वि० [सं० द्वि-सप्तति मध्य० स०] जो गिनती में सत्तर और दो हो। बहत्तर। पुं० उक्त की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—७२
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द्वास्थ  : पुं० [सं० द्वार्√स्था+क, विसर्गलोप] द्वारपाल।
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द्वि  : उप० [सं०√द्व (संवरण)+डि] दो।
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द्विक  : वि० [सं० द्वि+कन्] १. जिसमें दो अंग या अवयव हों। २. दोहरा। पुं० [द्वि०-क ब० स०] १. कौआ। २. चकवा।
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द्वि-ककार  : पुं० [ब० स०] १. कौआ। २. चकवा।
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द्वि-ककुद्  : पुं० [ब० स०] ऊँट।
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द्वि-कर्मक  : वि० [ब० स० कर्म०] (क्रिया) १. दो कर्मोवाला। (व्याकरण में, क्रिया) जिसके साथ दो कर्म लगे हों। २. (व्याकरण में, क्रिया) जो अकर्मक और सकर्मक दोनों रूपों में चलती हो। जैसे—खुजलाना।
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द्वि-कल  : पुं० [हिं० द्वि+कल] दो मात्राओं का समूह। (पिंगल)
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द्वि-क्षार  : पुं० [द्विंगु स०] शोरा और सज्जी का समूह।
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द्विगु  : वि० [ब० स०] जिसके पास दो गौएँ हों। पुं० तत्पुरुष समास का एक भेद जिसमें पूर्वपद संख्या वाचक होता है। जैसे—त्रिभुवन, पंचकोण, सप्तदशी आदि। विशेष—पाणिनि ने इसे कर्मधारय के अंतर्गत रखा है; पर और लोग इसे स्वतंत्र समास मानते हैं।
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द्विगुण  : वि० [सं० द्वि√गुण (गुणा करना)+अच् (कर्म में)] दुगना। दूना।
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द्वि-गुणित  : भू० कृ० [तृ० त०] १. दो से गुणा किया हुआ। २. जिसे दुगना किया हो। ३. दूना।
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द्वि-गूढ़  : पुं० [स० त०] नाट्यशास्त्र के अनुसार लास्य के दस अंगों में से एक, जिसमें सब पद सम और सुंदर होते हैं, संधियाँ वर्त्तमान होती हैं तथा रस और भाव सुसंपन्न होते हैं।
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द्विघटिका  : स्त्री० [द्विगुस-] दु-घड़िया मुहूर्त्त।
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द्विचत्वारिंश  : वि० [सं० द्विचत्वारिंशत+डट्] बयालीसवाँ।
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द्विचत्वारिंशत्  : वि० [मध्य० स०] जो चालीस से दो अधिक हो। बयालीस। पुं० उक्त की सूचक संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—४२
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द्वि-चर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसे कोई चर्म रोग हुआ हो। २. कोढ़ी।
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द्विज  : वि० [सं० द्वि√जन् (उत्पत्ति)+ड] जिसका जन्म दो बार हुआ हो। जो दो बार उत्पन्न हुआ हो। पुं० १. अंडे से उत्पन्न होनेवाले जीव-जंतु जो एक बार अंडे के रूप में और दूसरी बार अंडे में से बाहर निकलने के समय (इस प्रकार दो बार) जन्म लेते हैं। २. चिड़िया। पक्षी। ३. हिंदुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के पुरुष जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है और यज्ञोपवीत के समय जितना दूसरा जन्म होना माना जाता है। ४. ब्राह्मण। ५. चंद्रमा, जिसका पुराणानुसार दो बार जन्म हुआ था। ६. दाँत, जो एक बार लड़कपन में टूट चुकने पर फिर दोबारा निकलते हैं। ७. नेपाली धनियाँ। तुंबुरु।
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द्विज-दंपति  : पुं० [सं० द्विज-दंपती] दान, पूजा आदि के लिए बना हुआ धातु का वह पत्तर जिस पर स्त्री और पुरुष या लक्ष्मी और नारायण की युगल मूर्तियाँ बनी होती हैं।
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द्वि-जन्मा (न्मन्)  : वि० [ब० स०] जिसका दो बार जन्म हुआ हो। पुं०=द्विज।
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द्विज-पति  : पुं० [ष० त०] १. ब्राह्मण. २. चंद्रमा। ३. गरुड़। ४. कपूर।
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द्विज-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] सोमलता।
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द्विज-बंधु  : पुं० [ष० त०] १. नाममात्र का वह द्विज जिसका जन्म तो द्विज माता-पिता से हुआ हो पर जो स्वयं द्विजों के संस्कार और क्रम न करता हो। २. नाम मात्र का ब्राह्मण।
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द्विज-ब्रुव  : पुं० [द्वि√ब्रू (बोलना)+क, उप० स०]=द्विज-बंधु।
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द्विज-राज  : पुं० [ष० त०] १. श्रेष्ठ ब्राह्मण। २. चंद्रमा। ३. गरुड़। ४. कपूर।
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द्विजलिंगी (गिन्)  : पुं० [सं० द्विज-लिंग ष० त०,+इनि] १. वह जो किसी हीन वर्ण का होने पर भी ब्राह्मणों की तरह या उनके वेश में रहता हो। २. क्षत्रिय।
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द्विज-वाहन  : पुं० [ब० स०] विष्णु; जिनका वाहन गरुण (पक्षी) है।
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द्विज-व्रण  : पुं० [ष० त०] दाँत का एक रोग। दंतार्बुद।
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द्विज-शप्त  : पुं० [तृ० तृ०] बर्बट या भटवाँस, जिसे खाना ब्राह्मणों के लिए वर्जित है।
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द्विजांगिका  : स्त्री० [सं० द्विज-अंग ब० स०, कप्-टाप्, इत्व] कुटकी।
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द्विजांगी  : स्त्री० [सं० द्विज-अंग ब० स०, ङीष्] कुटकी।
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द्विजा  : स्त्री० [सं० द्विज+टाप्] १. ब्राह्मण या द्विज की स्त्री। २. पालक का साग जो एक बार काट लिये जाने पर भी दोबारा बढ़ जाता है। ३. संभालू का बीज। रेणुका। ४. नारंगी।
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द्विजाग्रज  : पुं० [सं० द्विज-अग्रज ष० तृ०] श्रेष्ठ ब्राह्मण।
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द्विजाति  : पुं० [स० ब० स०]=द्विज। (देखें)
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द्विजानि  : पुं० [सं० द्वि-जाया ब० स०, नि आदेश] ऐसा जिसकी दो पत्नियाँ हों।
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द्विजायगी  : स्त्री०=दुजायगी।
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द्विजायनी  : स्त्री० [सं० द्विज-अयन ष० तृ०, ङीप्] यज्ञोपवीत।
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द्विजालय  : पुं० [सं० द्विज-आलय ष० त०] १. द्विज का घर। २. घोंसला।
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द्विजावंती  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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द्वि-जिह्व  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे दो जीभें हों। इधर की बातें उधर और उधर की इधर कहने या लगानेवाला। ३. कठिन या दुःसाध्य। पुं० १. साँप। २. खल। दुष्ट। ३. चोर। ४. एक प्रकार का रोग।
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द्विजेंद्र  : पुं० [सं० द्विज-इंद्र ष० त०] १. चंद्रमा। २. ब्राह्मण। ३. गरुड़। ४. कपूर।
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द्विजेश  : पुं० [सं० द्विज-ईश ष० त०]=द्विजेंद्र।
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द्विजोत्तम  : पुं० [सं० द्विज-उत्तम स० त०] द्विजों में श्रेष्ठ, ब्राह्मण।
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द्विट् (ष्)  : वि० [सं०√द्विष् (शत्रुता)+क्विप] शत्रु-भाव रखनेवाला। पुं० दुश्मन। वैरी। शत्रु।
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द्विट्सेवी (विन्)  : पुं० [सं० द्विट्-सेवा ष० त०,+इनि] वह जो राजा के शत्रु से मिला हो या मित्रता रखता हो।
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द्विठ  : पुं० [सं० ब० स०] १. विसर्ग। २. स्वाहा।
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द्वित  : पुं० [सं०] १. एक देवता का नाम। २. एक प्राचीन ऋषि।
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द्वितय  : वि० [सं० द्वि+तयप्] १. दो अंगों या अवयवोंवाला। २. जो दो प्रकार की चीजों से मिलकर बना हो। ३. दोहरा।
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द्वितीय  : वि० [सं० द्वितीय] [स्त्री० द्वितीया] १. गिनती में दूसरा। २. महत्त्व, मान आदि की दृष्टि से दूसरी श्रेणी का। मध्यकोटि का। पुं० पुत्र, जो अपनी आत्मा का ही दूसरा रूप माना जाता है।
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द्वितीयक  : वि० [सं० द्वितीय+कन्] १. दूसरा। २. किसी एक चीज के अनुकरण पर या अनुरूप बना हुआ वैसा ही दूसरा। (डुप्लिकेट)।
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द्वितीय-त्रिफला  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] गंभारी।
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द्वितीया  : स्त्री० [सं० द्वितीय+टाप्] १. चांद्रमास के प्रत्येक पक्ष की दूसरी तिथि। दूज। २. वाम-मार्गियों की परिभाषा में, खाने के लिए पकाया हुआ मांस।
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द्वितीयाकृत  : वि० [सं० द्वितीय+डाच्] कृतके योग में (खेत) जो दो बार जोता गया हो।
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द्वितीयाभा  : स्त्री० [सं० द्वितीया-आ√भा (दीप्ति)+क—टाप्] दारुहल्दी।
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द्वितीयाश्रम  : पुं० [सं० द्वितीय-आश्रम कर्म० स०] गार्हस्थ्य आश्रम जो ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद पड़ता है।
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द्वित्व  : पुं० [सं० द्वि+त्व] १. एक साथ दो होने की अवस्था या भाव २. दोहरे होने की अवस्था या भाव। ३. व्याकरण में एक ही व्यंजन का एक साथ दो बार या दोहरा होनेवाला संयोग। जैसे—‘विपन्न’ में का ‘न्न’ और ‘सम्पत्ति’ में क ‘त्त’ द्वित्व है। ४. भाषा विज्ञान में, जोर, देने के लिए किसी शब्द का दो बार होनेवाला उच्चारण। जैसे—जल्दी जल्दी काम पूरा करो।
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द्वि-दल  : वि० [सं० ब० स०] १. (अन्न) जिसमें दो दल या खंड हों। जैसे—अरहर, चना, आदि। २. दो दलों या पत्तोंवाला। ३. दो पटलों या पंखड़ियोंवाला। पुं० १. वह जिसमें दो दल (खंड, पत्ते या पंखड़ियाँ) हों। २. ऐसा अन्न जिससे दाल बनती हो। जैसे—अरहर, चना, मूंग आदि। ३. दाल।
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द्वि-दल-शासन-प्रणाली  : स्त्री० [सं० द्वि-दल द्विगु स०; द्विदल-शासन ष० त०, द्विदल शासन-प्रणाली ष० त०] वह शासन प्रणाली जिसमें शासन-अधिकार दो व्यक्तियों (या दलों अथवा वर्गों) के हाथ में रहता है। दुहत्था-शासन। दे० ‘द्वैधशासन प्रणाली’। (डायार्की)
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द्वि-दाम्नी  : स्त्री० [सं० द्वि-दामन् ब० स० ङीष्] वह नटखट गाय जो दो रस्सियों से बाँधी जाय।
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द्वि-देवता  : वि० [सं० ब० स०] १. दो देवताओं से संबंध रखनेवाला (चारु आदि) २. जिसके दो देवता हों। जो दो देवताओं के लिए हों। पुं० विशाखा नक्षत्र।
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द्वि-देह  : वि० [सं० ब० स०] दो देहों या शरीरोंवाला। पुं० गणेश (जिनका सिर एक बार कट गया था, फिर हाथी का सिर जोड़ा गया था।)
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द्वि-द्वादश  : पुं० [सं० द्व० स०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का योग जो विवाह की गणना में अशुभ माना गया है।
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द्विधा  : क्रि० वि० [सं० द्वि-धाच्] १. दो प्रकार से। दो तरह से। २. दो खंडों, टुकड़ों या भागों में। ३. दोनों ओर। स्त्री०=दुबिधा।
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द्विधा-करण  : पुं० [ष० त०] दो भागों में विभाजित करना। दो खंड करना।
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द्विधा-गति  : पुं० [ब० स०] जल और स्थल दोनों में विचरण करनेवाला। प्राणी। जैसे—केकड़ा, मगर, मेढ़क आदि।
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द्विधातविक  : वि० [सं० द्विधातु+ठन्—इक] १. दो अलग-अलग धातुओं से संबंध रखनेवाला। (बाइमेटेलिक)
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द्वि-धातु  : वि० [सं० ब० स०] जो दो धातुओं के योग से बना हो। पुं० १. दो धातुओं के मेल से बनी हुई मिश्रित धातु। २. गणेश।
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द्विधातुता  : स्त्री० [सं० द्विधातु+तल्—टाप्] द्विधातु होने की अवस्था या भाव।
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द्विधातुत्व  : पुं० [सं० द्विधातु+त्व]=द्विधातुता।
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द्विधातु-वाद  : पुं० [ष० त०] अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत जिसके अनुसार किसी देश में दो विभिन्न धातुओं के सिक्के चलते हैं और दोनों की गिनती वैध मुद्रा में होती है। (बाइमेटलिज्म)
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द्विधात्मक  : पुं० [सं० द्विधा-आत्मन् ब० स०, कप्] जायफल।
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द्विधालेख्य  : पुं० [सं० द्विधा√लिख्+ण्यत् (आधा के)] हिंताल का पेड़।
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द्वि-नग्नक  : पुं० [सं० द्वि=द्वितीय-नग्नक] वह व्यक्ति जिसकी सुन्नत हुई हो।
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द्वि-नवति  : वि० [सं० मध्य० स०] बानबे। स्त्री० उक्त की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखी जाती है—९२
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द्वि-नेत्रभेदी (दिन्)  : पुं० [सं० द्वि-नेत्र द्विगु स०, द्विनेत्र√भिद् (फाड़ना)+णिनि] वह जिसने किसी की दोनों आँखें फोड़ दी हों।
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द्वि-पंचमूली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दशमूल।
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द्वि-पंचाशत्  : वि० [सं० द्विगु स०] बावन। स्त्री० उक्त की सूचक संख्या; जो इस प्रकार लिखी जाती है—५२
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द्विप  : पुं० [सं० द्वि√पा (पीना)+क] १. हाथी। २. नागकेसर।
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द्वि-पक्ष  : वि० [सं० ब० स०] दे० ‘द्विपक्षी’। पुं० १. दो पक्षों का समय अर्थात् पूरा चांद्र मास। २. चिड़िया। पक्षी। ३. महीना। मास। ४. वह स्थान जहाँ दो रास्ते मिलते हों। दो-राहा।
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द्विपक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० द्वि-पक्ष द्विगु स०,+इनि] १. सौर मास के दो पक्षों अर्थात् एक महीने में होनेवाला। २. कुछ एक पक्ष में और कुछ दूसरे पक्ष में पड़नेवाला जैसे
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द्विपट-वान  : पुं० [सं० पट-वान ष० त०, द्वि पटवान ब० स०] १. दोहरे अरज का कपड़ा। २. बड़े अरज का कपड़ा। (कौ०)
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द्वि-पद  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके दो पद या पैर हों। जैसे—मनुष्य, पक्षी आदि। २. जिसमें दो पद या शब्द हों। समस्त। यौगिक। ३. (गणित में ऐसी संख्या) जिसमें दो अलग-अलग अंक या संख्याएँ एक साथ मानी और ली जायँ। (बाईनेमिअल) जैसे—३/५+१/२। पुं० १. दो पैरोंवाला जंतु या जीव। २. आदमी। मनुष्य। ३. ज्योतिष के अनुसार मिथुन, तुला, कुंभ, कन्या और धनु लग्न का पूर्व भाग। ४. वास्तु मंडल में का एक कोठा या घर।
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द्वि-पदा  : स्त्री० [सं० द्विपद+टाप्] दो पदोंवाली ऋचा।
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द्वि-पदिक  : पुं० [सं० द्विपदी+कन्, ह्रस्व] शुद्धराग का एक भेद।
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द्वि-पदी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. प्राकृत भाषा का एक प्रकार का छंद। २. दो चरणों की कविता या गीत। ३. एक तरह का चित्र काव्य।
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द्वि-पर्णा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] एक प्रकार के जंगली बेर का पेड़।
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द्वि-पाद  : पुं०, वि०=द्विपद।
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द्विपाद-वध  : पुं० [ष० त० या तृ० तृ०] अपराधी के दोनों पैर काट लेने का दंड।
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द्वि-पायी (पिन्)  : पुं० [सं० द्वि√पा (पीना)+णिनि] [स्त्री० द्विपायिनी] हाथी।
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द्वि-पार्श्विक  : वि० [सं० द्वि-पार्श्व द्विगु सं०,+ठन्—इक] १. दो या दोनों पार्श्वों से संबंध रखनेवाला। २. दो या दोनों पक्षों की ओर से होनेवाला। द्विपक्षी।
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द्वि-पास्य  : पुं० [सं० द्विप-अस्य ब० स०] गणेश (जिनका मुख हाथी के मुख के समान है)।
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द्वि-पष्ठ  : पुं० [सं० ब० स०] जैनों के नौ वासुदेवों में से एक।
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द्वि-बाहु  : वि० [सं० ब० स०] जिसके दो बाहु हों। द्विभुज। पुं० दो हाथोंवाले जीव या प्राणी।
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द्वि-भा  : स्त्री० [सं० द्विगु० स०] १. प्रकाश। २. प्रभा। चमक। उदा०—जगत ज्योति तमस द्विभा।—पन्त।
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द्वि-भाव  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसमें दो भाव हों। २. कपटी। छली। पुं० १. किसी से रखा जानेवाला द्वेषभाव। २. दुराव। छिपाव। ३. कपट। छल।
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द्वि-भाषी (षिन्)  : पुं० [सं० द्वि√भाष् (बोलना)+णिनि] दो भाषाएँ जानने और बोलनेवाला। २. दे० ‘दुभाषिया’।
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द्वि-भुज  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसके दो हाथ हों। दो हाथोंवाला २. (क्षेत्र या आकृति) जिसकी दो भुजाएँ हों। पुं० मनुष्य।
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द्वि-भूम  : वि० [सं० ब० स० अच्] दो खंडोंवाला (मकान)।
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द्वि-मातृ  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसकी दो माताएँ हों। २. जो दो माताओं के गर्भ से उत्पन्न हो। पुं० १. जरासंध। २. गणेश।
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द्विमातृज  : वि० पुं० [सं० द्वि-मातृ द्विगु स०√जन् (उत्पत्ति)+ड]=द्विमातृ।
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द्वि-मात्र  : वि० [सं० ब० स०] दो मात्राओंवाला। पुं० दीर्घ स्वर और उनका चिह्न।
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द्विमीढ  : पुं० [सं०] हस्तिनापुर के राजा हस्ति का एक पुत्र जो अजमीढ़ का भाई था। (हरिवंश)
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द्वि-मुख  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० द्विमुखी] जिसके दो मुख हों। दो मुँहोंवाला। पुं० १. पेट में से निकलनेवाला एक प्रकार का सफेद कीड़ा। २. दो मुँहा साँप।
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द्वि-मुखा  : स्त्री० [सं० ब० स०, टाप्] जोंक।
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द्वि-मुखी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. वह गाय जो बच्चा दे रही हो। (अर्था जिसके एक ओर एक तथा दूसरी ओर दूसरा मुँह हो)। वि० सं० ‘द्विमुख’ का स्त्री०।
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द्वि-यजुष  : स्त्री० [सं० ब० स०] यज्ञ-मंडप आदि बनाने की एक तरह की ईंट। पुं० यजमान।
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द्वि-रद  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० द्विरदा] दो दाँतोंवाला। पुं० १. हाथी। २. दुर्योधन के भाई का नाम।
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द्विरदांतक  : पुं० [सं० द्विरद-अंतक ष० त०] हाथी को मार डालनेवाला, सिंह।
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द्विरदाशन  : पुं० [सं० द्विरद-अशन ब० स०] सिंह।
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द्वि-रसन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० द्विरसना] १. दो जिह्वाओं वाला। २. कभी कुछ और कभी कुछ कहनेवाला। जिसकी बात का विश्वास न किया जा सके। पुं० साँप।
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द्विरागमन  : पुं० [सं० द्विर्-आगमन सुप्सुपा स०] १. दूसरी बार आना। पुनरागमन। २. वधू का अपने पति के साथ दूसरी बार अपनी ससुराल में आना। गौना।
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द्विराज-शासन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० द्विराज-शासित] किसी देश या प्रदेश पर दो राज्यों या दो राष्ट्रों का होनेवाला सम्मिलित शासन। (कान्डोमीनियम)
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द्वि-रात्र  : पुं० [सं० द्विगु स०, अच्] दो रातों में पूर्ण होनेवाला एक तरह का यज्ञ।
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द्विराप  : पुं० [सं० द्विर्-आ√पा (पीना+क] हाथी।
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द्विरुक्त  : वि० [सं० द्विर्-उक्त सुप्सुपा स०] [भाव० द्विरुक्ति] १. दो बार कहा हुआ। २. दुबारा कहा हुआ। ३. दो प्रकार से कहा हुआ और फलतः अनावश्यक या निरर्थक। पुं० पुनर्कथन।
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द्विरुक्ति  : स्त्री० [सं० द्विर्-उक्ति सुप्सुपा स०] १. कोई बात दुबारा या दूसरी बार कहना। पुनरुक्ति। २. दे० ‘द्वित्व’।
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द्विरुढ़ा  : स्त्री० [सं० द्विर-ऊढ़ा सुप्सुपा स०] वह स्त्री जिसके एक विवाह के बाद दूसरा विवाह हुआ हो।
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द्वि-रेता (तस्)  : पुं० [सं० ब० स०] १. दो भिन्न जातियों के पशुओं से उत्पन्न पशु। जैसे—खच्चर। २. दोगला। वर्ण-संकर।
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द्वि-रेफ  : पुं० [सं० ब० स०] १. भ्रमर। भौंरा। २. बर्बर।
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द्वि-वज्रक  : पुं० [सं० मध्य० स०,+कन्] ऐसा घर जिसमें सोलह कोण हों। सोलह कोनोंवाला घर।
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द्वि-विंदु  : पुं० [सं० ब० स०] विसर्ग।
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द्विविद  : पुं० [सं०] १. एक बंदर जो रामचंद्र जी की सेना का एक सेनापति था। २. पुराणानुसार एक बंदर जिसे बलदेव ने मारा था।
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द्वि-विध  : विं० [सं० ब० स०] दो प्रकार का। दो तरह का। क्रि० वि० दो तरह या प्रकार से।
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द्वि-विधा  : पुं० [सं० द्विगु स०] दुबधा। असमंजस।
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द्वि-विवाह  : पुं० [सं० द्विगु स०] वह सामाजिक प्रथा जिसमें कोई स्त्री या पुरुष एक ही समय में एक साथ दो पुरुषों या स्त्रियों के साथ विवाह संबंध स्थापित करके दाम्पत्य जीवन बिताता हो। (बाइगैमी)
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द्वि-वेद  : वि० [सं० द्विगु स०,+अण्—लुक] दो वेदों का ज्ञाता।
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द्विवेदी (दिन्)  : पुं० [सं० द्विवेद+इनि] १. दो वेदों का ज्ञाता। २. ब्राह्मणों की एक उपजाति। दूबे।
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द्विवेशरा  : स्त्री० [सं० द्वि-वेश द्विगु स०√रा (दान)+क—टाप्] दो पहियों की छोटी गाड़ी।
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द्वि-व्रण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक ही व्यक्ति को होनेवाले दो प्रकार के व्रण या घाव।
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द्वि-शफ  : पुं० [सं० ब० स०] ऐसा पशु जिसके खुर फटे हों। जैसे—गाय, हिरन आदि।
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द्वि-शरीर  : पुं० [सं० ब० स०] ज्योतिष के अनुसार कन्या, मिथुन, धनु और मीन राशियाँ, जिनका प्रथमार्द्ध स्थिर और द्वितीयार्द्ध चर माना जाता है।
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द्विशिर  : वि० [सं० द्विशिरस्] जिसके दो सिर हों। दो सिरोंवाला। मुहा०—कौन द्विशिर=कौन अपनी जान देना चाहता है ? किसे अपने मरने का भय नहीं है ?
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द्वि-शीर्ष  : वि० [सं० ब० स०] जिसके दो सिर हों। पुं० १. वैरी। शत्रु। २. अग्नि।
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द्विसंतप  : वि० [सं० द्विषत्√तप् (संताप)+णिच्+खच्, मुम्, ह्रस्व] अपने द्वेषियों या शत्रुओं को कष्ट पहुँचानेवाला।
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द्विष्  : वि० [सं०√द्विष् (शत्रुता)+क्विप्] द्वेष रखनेवाला।
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द्विष्ट  : वि० [सं०√द्विष्+क्त] १. जो द्वेष से युक्त हो। द्वेषपूर्ण। २. जिसके प्रति द्वेष किया जाय या हो। पुं० ताँबा।
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द्विसदनात्मक  : वि० [सं० द्वि-सदन द्विगु स०, द्विसदन-आत्मन ब० स०, कप्] (शासन प्रणाली) जिसमें कानून, या विधान आदि बनानेवाली एक की जगह दो संस्थाएँ (विधानमंडल) होती हैं। (बाइकेमरल)
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द्वि-सदस्य निर्वाचीक्षेत्र  : पुं० [सं० द्वि-सदस्य, द्विगु स०, द्विसदस्य निर्वाचिन् ष० तृ०, क्षेत्र व्यस्त पद] ऐसा निर्वाचन-क्षेत्र जिसमें से एक साथ दो सदस्य निर्वाचित होते हों। (डबल मेंबर कांस्टिट्यूएन्सी)
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द्वि-सप्तति  : वि० [सं० मध्य० स०] १. बहत्तर। २. बहत्तरवाँ। पुं० बहत्तर की संख्या या उसका सूचक अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—७२।
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द्विसहस्राक्ष  : पुं० [सं० द्वि-सहस्र द्विगु स०, द्विसहस्र-अक्षि ब० स०] शेषनाग।
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द्विह्न  : पुं० [सं० द्वि√हन् (मारना)+क्विप्] हाथी (जो सूँड़ से मारता है)।
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द्वि-हरिद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] दारुहल्दी।
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द्वि-हृदया  : वि०, स्त्री० [सं० ब० स०] गर्भवती (स्त्री)।
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द्वीन्द्रिय  : वि० [सं० द्वि-इंद्रिय ब० स०] (जंतु) जिसके शरीर में दो ही इंद्रियाँ हों।
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द्वीप  : पुं० [सं० द्वि-अप् ब० स०, अच्, ईत्व] १. चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ कोई प्रदेश या भू-भाग। जल के बीच का स्थल। टापू। विशेष—द्वीप कई प्रकार के होते और कई प्राकृतिक कारणों से बनते हैं। बहुत-से छोटे-छोटे द्वीपों के समूह की द्वीपपुंज और बहुत बड़े द्वीप को महाद्वीप कहते हैं। २. पुराणानुसार पृथ्वी के सात बहुत बड़-बड़े विभागों में से प्रत्येक विभाग, जिनके नाम इस प्रकार हैं—जंबू द्वीप, पक्ष द्वीप, शाल्मलि द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप और पुष्कर द्वीप। ३. वह जिसका अवलंबन किया जा सके। आधार। आश्रय। ४. बाघ का चमड़ा।
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द्वीप-कर्पूर  : पुं० [ष० त०] चीनी कपूर।
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द्वीप-पुंज  : पुं० [ष० त०] समुद्र में होनेवाले बहुत-से छोटे-छोटे और पास-पास के द्वीपों का समूह (आर्की पैलेगो)
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द्वीपवत्  : पुं० [सं० द्वीप+मतुप्] १. समुद्र। २. मद।
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द्वीपवती  : स्त्री० [सं० द्वीपवत्+ङीप्] १. एक प्राचीन नदी का नाम। २. भूमि। जमीन
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द्वीपवान् (वत्)  : वि० [सं० द्वीप+मतुप्] जिसमें द्वीप हों। पुं० समुद्र।
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द्वीप-शत्रु  : पुं० [ष० तृ०] शतावरी। सतावर।
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द्वीप-समूह  : पुं० [सं० ब० त०]=द्वीप-पुंज।
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द्वीपांतर  : पुं० [सं० द्वीप-अंतर मयू० स०] प्रस्तुत से भिन्न कोई दूसरा द्वीप।
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द्वीपांतरण  : पुं० [सं० द्वीपांतरण+क्पि+ल्युट्—अन] १. एक द्वीप (अथवा देश) से दूसरे द्वीप में होनेवाला अंतरण। २. किसी भीषण अपराधी को दंड-स्वरूप किसी दूसरे और दूर के द्वीप में ले जाकर रखना। काले पानी की सजा।
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द्वीपिका  : स्त्री० [सं० द्वीप+ठन्—इक, टाप्] शतावरी। सतावर।
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द्वीपि-नख  : पुं० [सं० ष० त०] व्याघ्रनख एक गंधद्रव्य।
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द्वीपि-शत्रु  : पुं० [सं० ष० त०] शतमूली।
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द्वीपी (पिन्)  : वि० [सं० द्वीप्+इनि] १. द्वीप-संबंधी। द्वीप का। २. द्वीप में रहनेवाला। पुं० १. बाघ। व्याघ्र। २. चीता। ३. चित्रक नामक वृक्ष। चीता।
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द्वीप्य  : वि० [सं० द्वीप+यत्] १. द्वीप-सम्बन्धी। २. द्वीप में उत्पन्न। ३. द्वीप में रहने या होनेवाला। पुं० १. व्यास। २. रुद्र।
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द्वीश  : वि० [सं० द्वि-ईश ष० त०] १. जो दो का स्वामी हो। २. [ब० स०] जिसके दो स्वामी हों। ३. (चरु) जो दो देवताओं के लिए हो। पुं० विशाखा नक्षत्र।
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द्वेष  : पुं० [सं०√द्विष (शत्रुता)+घञ्] १. किसी को दूसरा या पराया समझने और उससे पार्थक्य का व्यवहार करने का भाव। २. किसी के प्रति होनेवाले विरोध, वैमनस्य, शत्रुता आदि के फलस्वरूप मन में रहनेवाला ऐसा भाव, जिसके कारण मनुष्य उसका बनता और होता हुआ काम बिगाड़ देता है अथवा उसे हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है।
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द्वेषाग्नि  : स्त्री० [सं० द्वेष-अग्नि कर्म० स०]=द्वेषानल।
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द्वेषानल  : पुं० [सं० द्वेष-अनल कर्म० स०] द्वेष या वैर रूपी अग्नि। द्वेष का उग्र या प्रबल रूप।
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द्वेषी (षिन्)  : वि० [सं०√द्विष्+घिनुण] [स्त्री० द्वेषिणी] द्वेष करने या रखनेवाला। पुं० वैरी। शत्रु।
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द्वेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं०√द्विष्+तृच्] [स्त्री० द्वेष्टी]=द्वेषी।
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द्वेष्य  : वि० [सं०√द्विष्+ण्यत्] १. जिससे द्वेष किया जाय। २. जिसके प्रति द्वेष रखना उचित हो। पुं० वैरी। शत्रु।
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द्वेष्य-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] क्रोध, ईर्ष्या आदि जो द्वेष के अवांतर भेद हैं।
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द्वै  : वि० [सं० द्वय] १. दो। २. दोनो।
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द्वैक  : वि० [हिं० द्वै+एक] दो-एक। थोड़े-से। कुछ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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द्वैगुणिक  : वि० [सं० द्विगुण+ठक्—इक] दूना सूद खानेवाला। (महाजन)
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द्वैगुण्य  : पुं० [सं० द्विगुण+ष्यञ्] १. द्विगुण या दूने होने की अवस्था या भाव। २. दूनी रकम या परिमाण। ३. सत्त्व, रज और तम में से दो गुणों से युक्त होने की अवस्था या भाव। ४. दे० ‘द्वैत’।
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द्वैज  : स्त्री० [सं० द्वितीया, प्रा० दुइय] द्वितीया तिथि। दूज।
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द्वैत  : पुं० [सं० द्वि-इत० तृ त, +अण्] १. दो होने की अवस्था या भाव। २. जोडा़। युग्म। ३. किसी को अन्य या पराया समझने का भाव। ४. असमंजस। ५. अज्ञान। ६. एक वन का नाम। ७. ‘द्वैतवाद’ दे०।
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द्वैत-चिंतामणि  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाट की पद्धति की एक राग।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
द्वैत-परिपूर्णी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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द्वैतवन  : पुं० [सं० द्वि=शोक, मोह—इत= नष्ट ब० स०,+अण्, द्वैतवन कर्म० स०] एक तपोवन जिसमें युधिष्ठिर वनवास के समय कुछ दिनों तक रहे थे।
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द्वैत-वाद  : पुं० [ष० त०] १. वह दार्शनिक सिद्धान्त, जिसमें आत्मा-परमात्मा अर्थात् जीव और आत्मा अथवा आत्मा और अनात्मा में भेद माना जाता है। अद्वैतवाद से भिन्न और उसका विरोधी मत या सिद्धान्त। २. उक्त के अंतर्गत वह सूक्ष्म भेद, जिसमें ओर चित्त शक्ति अथवा आत्मा और शरीर दो भिन्न पदार्थ माने जाते हैं। विशेष—उत्तर मीमांसा या वेदान्त का यह मत है कि आत्मा और परमात्मा दोनो एक है; परन्तु शेष पाँचों दर्शन इस मत के विरोधी हैं। ३. दो स्वतंत्र और विभिन्न सिद्धान्त एक साथ माननेवाली विचार-शैली।
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द्वैतवादी (दिन्)  : वि० [सं० द्वैतवाद+इनि] [स्त्री० द्वैतवादिनी] ईश्वर और जीव में भेद मानने वाला। द्वैतवाद का अनुयायी।
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द्वैतानंदी  : स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाट की पद्धति की एक रागिनी।
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द्वैतानंदी (तिन्)  : वि० [सं०द्वैत+इनि] द्वैतवादी।
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द्वैतीयीक  : वि० [सं० द्वितीय+ईकक्] दूसरा।
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द्वैध  : पुं० [सं० द्वि+घमुञ् वा द्विधा+अण्] १. दो प्रकार के होने की अवस्था या भाव। २. दो में होनेवाली भिन्नता या भेद-भाव। ३. दो तरह की चालें चलने या नीतियाँ बरतने की अवस्था, गुण या भाव। विशेष—प्राचीन भारतीय राजनीति में इसे छः गुणों के अंतर्गत माना गया है। ऊपर से कुछ और प्रकार का व्यवहार करने और अंदर-अंदर कुछ और प्रकार का व्यवहार करने की नीति ही द्वैष है। यह आधुनिक डिप्लोमेसी के समकक्ष है। ३. वह शासन-प्रणाली जिसमें कुछ विभाग सरकार के हाथ में और कुछ प्रजा के प्रतिनिधियों के हाथ में हों। (डायार्की)
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द्वैधीकरण  : पुं० [सं० द्वैध+च्वि√कृ०+ल्युट—अन] किसी चीज के दो टुकड़े करना।
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द्वैधीभाव  : पुं० [सं० द्वैध+च्वि√भू+घञ्] १. द्विधा भाव। अनिश्चय। दुबधा। २. ऊपर से कुछ और मन में कुछ और भाव रखने की अवस्था या गुण। ३. दोनों ओर मिलकर या रहने की अवस्था या भाव।
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द्वैप  : वि० [सं० द्वीपिन्+अञ्] १. बात या व्याघ्र से संबंध रखनेवाला। २. व्याघ्र के या बाघ के चमड़े का बना हुआ। पुं० बाघ का चमड़ा। व्याघ्र-चर्म। वि० दे० ‘द्वैव्य’।
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द्वैपायन  : वि० [सं० द्वीप-आयन ब० स०+अण्] द्वीप में जन्म लेनेवाला। पुं० १. वेदव्यास जी का एक नाम। २. कुरुक्षेत्र के पास का एक ताल जिसमें युद्ध से भागकर दुर्योधन छिपा था।
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द्वैप्य  : वि० [सं० द्वीप्+यञ्] १. द्वीप संबंधी। टापू-का। २. द्वीप में उत्पन्न होने या रहनेवाला।
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द्वैमातुर  : वि० [सं० द्विमातु+अण्, उत्व] जिसकी दो माताएँ हो। पुं० १. गणेश। २. जरासंध।
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द्वैमातृक  : पुं० [सं० द्वि-मातृ ब० स० कप्,+अण्] वह प्रदेश जहाँ खेती नदी के जल (सिंचाई) द्वारा भी की जाती है और वर्षा से भी होती है।
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द्वैयह्रिक  : वि० [सं० द्वि-अहन् द्विगु स०, +ठञ्—इक] १. दो दिन की अवस्थावाला। २. दो दिन में किया जानेवाला।
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द्वैराज्य  : पुं० [सं० द्विराज+ष्यञ्] वह शासन-प्रणाली, जिसमें किसी एक दुर्बल या पराजित राज्य पर या अन्य दो शक्तिशाली राज्य मिल-जुल कर शासन करते हों। (कॉन्डोमीनियम)।
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द्वैवार्षिक  : वि० [सं० द्विवर्ष+ठक्-इक] प्रति दो वर्षों पर होनेवाला। (बाईनियल)
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द्वैविध्य  : वि० [सं० द्विवर्ष+ष्यञ्] १. द्विविध अर्थात् दो प्रकार के होने की अवस्था या भाव। २. असमंजस। दुबधा।
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द्वैषणीया  : स्त्री० [सं० द्वैषण+अण्+छ-ईय, टाप्] नागवल्ली का एक भेद।
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द्वैसमिक  : वि० [सं० द्विमसा+ठक्-इक] दो वर्षों का।
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द्वैहायन  : पुं० [सं० द्विहायन+अण्] [वि० द्वैहायनिक] दो वर्ष का समय।
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द्वैहायनिक  : वि० [सं० द्विहायन+ठक्-इक] १. दो वर्षों में होनेवाला। २. प्रति दो वर्षों पर (या में) होनेवाला।
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द्वौ  : वि० [हिं० दो+ऊ, दोउ] दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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द्वयक्ष  : वि० [सं० द्वि-अक्ष ब० स०] दो नेत्रोंवाला। द्विनेत्र।
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द्वयणुक  : वि० [सं० द्वि-अणु ब० स० कप्] जिसमें दो अणु हों। दो अणुओंवाला। पुं० वह द्रव्य जो दो अणुओं के संयोग से उत्पन्न हो। वह मात्रा, जो दो अणुओं की हो।
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द्वयर्थ, द्वयर्थक  : वि० [सं० द्वि-अर्थ ब० स०] कप् विकल्प से जिसमें से दोया दो प्रकार के अर्थ निकलते हों।
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द्वयशीति  : वि० [सं० द्वि-अशीति मध्य० स०] जो गिनती में अस्सी से दो अधिक हो। बयासी। स्त्री० उक्त की सूचक संख्या—८२
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द्वयष्ट  : पुं० [सं० द्वि√अश् (व्याप्ति)+क्त] ताम्र। ताँबा।
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द्वयाक्षायण  : पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।
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द्वयाग्नि  : पुं० [सं०] लालचीता (वृक्ष)।
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द्वयातिग  : वि० [सं० द्वि-आ-अति√गम् (जाना)=+ड] जो रजोगुण तथा तमोगुण से रहित; परन्तु सत्त्वगुण से युक्त हो।
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द्वयात्मक  : पुं० [सं० द्वि आत्मन् ब० स०, कप्] दो स्वभाव की राशियाँ जो, जो ये हैं—मिथुन, कन्या, धनु और मीन।
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द्वयामुष्यायण  : पुं० [सं० अमुष्य+फक्-आयन, द्वि-आमुष्यायण, ष० त०] किसी व्यक्ति का वह पुत्र, जो दूसरे के द्वारा दत्तक के रूप में ग्रहण किया गया हो और जिसे दोनों पिता अपना, अपना पुत्र मानते हों।
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दर्द्धी (द्धिन्)  : वि० [सं०√गृध्+णिनि] [स्त्री० गर्द्धिनी] १. लोभी। २. लुब्ध।
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