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जीउका  : स्त्री० दे० ‘जीविका’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जींगन  : पुं०=जुगनू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जी  : पुं० [सं० जीव] चित्त, मन, हृदय, विशेषतः इनका वह पक्ष या रूप जिसमें इच्छा, कामना, दुःख-सुख, प्रवृत्ति,संकल्प-विकल्प,साहस आदि का अवस्थान होता है। विशेष–‘जी’ हमारे शारीरिक अस्तित्व रुचि, विचार आदि सभी का प्रतिनिधित्व करता या प्रतीक होता है, और इसी लिए अनेक अवसरों पर कलेजा, चित्त, जान, मन, हृदय आदि से संबंध कुछ मुहावरे भी जी के साथ चलते और प्रायः उसी प्रकार के अर्थ देते हैं। जैसे–जी या मन का उदास या दुःखी होना, जी या मन फिर जाना, जी या चित्त चाहना, जी या मन करना या चाहना, जी या मन का बुखार निकालना आदि। पद–जी का=जीवटवाला। साहसी। हिम्मती। जी चला-मन चला (देखें) जी जानता है=हृदय ही अनुभव करता है कहा नहीं जा सकता है। जी से-चित्त या मन लगाकर पूरी तरह से ध्यान देते हुए। मुहावरा–जी अच्छा होना=शारीरिक आरोग्य के फल-स्वरूप चित्त शांत सुखी और स्वस्थ होना। (किसी व्यक्ति पर) जी आना= श्रृंगारिक दृष्टि से, मन में किसी के प्रति अनुराग या प्रेम उत्पन्न होना। जी उकताना या उचटना=किसी काम, बात या स्थान से प्रवृत्ति या मन हटना और विकलता या विरक्ति होना। जी काँपना=मन ही मन बहुत अधिक भय होना। जी उड़ जाना=आशंका भय आदि से चित्त सहसा व्यग्र हो जाना। धैर्य और होश-हवास जाता रहना। जी करना या चाहना=कुछ करने, पाने आदि की इच्छा या प्रवृत्ति होना। (किसी बात से) जी काँपना=बहुत अधिक दुर्भावना या भय होना। बहुत डर लगना। जी का बुखार निकालना=कुछ कठोर बातें कहकर मन में दबा हुआ कष्ट या संताप दूर या हल्का करना। जी का बोझ हल्का होना=इच्छा पूरी होने, खटका या चिंता दूर होने आदि पर निश्चित और स्वस्थ होना। जी की जी में रहना=अभिलाषा, कामना अथवा ऐसी ही और कोई बात पूरी न होना और मन में ही रह जाना। जी की निकालना=(क) मन में दबी हुई कटु या कठोर बात मुँह से कहकर जी हल्का करना। (ख) जी की उमंग, वासना या हौसला पूरा करना। जी की पड़ना=प्राण बचाना कठिन हो जाना। (किसी के) जी को जी समझना=दूसरे को क्लेश न पहुँचाना दूसरों पर दया करना। जी को मार कर रखना=प्रवृत्ति, वासना आदि को दबा या रोककर रखना। (कोई बात) जी को लगना=(क) चिंता आदि का मन में घर करना या स्थायी होना। (ख) मन पर पूरा प्रभाव डालना। जैसे–उनकी बात हमारे जी में लग गई। (किसी के) जी को लगना=किसी के पीछे पड़ना। किसी को सुख से न रहने देना। जैसे–यह लड़का तो खिलौने के लिए जी को लग जाता है। जी खटकना=मन में कुछ आशंका या खटका होना। (किसी से) जी खट्टा होना=किसी की ओर से (कष्ट पहुँचने पर) चित्त या मन में विरक्ति उत्पन्न होना। जी खपाना=बहुत अधिक परिश्रम या सिर पच्ची करना। जी खरा-खोटा होना=मन कभी स्थिर और कभी चंचल होना। यह निशान न कर पाना कि अमुक अच्छा काम करे या अमुक बुरा काम। जी खोलकर=(क) खूब अच्छी या पूरी तरह से और शुद्ध हृदय से। यथेच्छ। जैसे–जी खोलकर दान देना या बातें करना। जी गिरा जाना=जी बैठा जाना। जी घबराना=मन में विकलता, व्यग्रता आदि उत्पन्न होना। (किसी चीज पर) जी चलना=कुछ पाने या लेने की इच्छा या प्रवृत्ति होना। जी चाहना=इच्छा या कामना होना। जी चुराना=कोई काम करने से बचने के लिए इधर-उधर हटना या होना। जी छूटना=(क) मन में उत्साह, साहस आदि न रह जाना। (ख) पिंड या पीछा छूटना। छुटकारा मिलना। जैसे–चलो इस झगडे से तो जी छूटा। जी छोटा करना= (क) निराश या विफल होने पर उदास या खिन्न होना। (ख) उदारता के भावों से रहित या संकीर्णता के विचारों से युक्त होना। जी छोड़ना=हृदय की दृढ़ता या साहस खोना। हिम्मत हारना। जी छोड़कर भागना=अपने बचाव या रक्षा के लिए पूरी शक्ति से दूर निकल जाने का प्रयत्न करना। जी जलना=चित्त बहुत ही दुःखी या संतप्त होना। मन में बहुत अधिक कष्ट या संताप होना। (किसी का) जी जलाना=किसी को बहुत अधिक दुःखी और संतप्त करना। मुहावरा–(किसी काम में) जी जान लड़ाना या जी जान से लगना= किसी कार्य या प्रयत्न में अपनी सारी शक्ति लगा देना। (कोई काम या बात) जी जान को या जी जान से लगना=किसी काम या बात की इतनी अधिक चिंता होना कि हर समय उसका ध्यान बना रहे या उसकी सिद्धि का प्रयत्न होता रहे। (किसी ओर जी टँगा या लगा रहना=हर समय चिंता बनी रहना और ध्यान लगा रहना। जी टूट जाना=उत्साह भंग हो जाना। नैराश्य होना। जी ठंडा होना=अभिलाषा पूरी होने से चिंत शांत और संतुष्ट होना। प्रसन्नता होना। (किसी में) जी डालना=(क) मृत शरीर में प्राणों का संचार करना। (ख) किसी के मन में आशा उत्साह, बल आदि का संचार करना। (किसी के) जी में जी डालना= प्रेम, सौहार्द आदि दिखाकर किसी को अपनी ओर अनुरक्त करना। जी डूबना या ढहा जाना=चिंता, निराशा, व्याकुलता आदि के कारण बहुत ही शिथिल और हतोत्साह होना। जी दहलाना=मन में कुछ भय का संचार होना। जी दुखना=मन में कष्ट या दुःख होना। (किसी के लिए) जी देना=किसी पर जीवन या प्राण निछावर करना। जी दौड़ना= कुछ करने या पाने के लिए मन का प्रवृत्त होना। जी धँसा जाना=दे० ‘जी बैठा जाना।’ जी धक-धक करना या धड़कना=भय या आशंका से चित्त का स्थिर न रहना और उसमें धड़कन होना। जी निकलना=प्राणों के निकलने की सी अनुभूति या कष्ट होना। (व्यंग्य) जैसे–रुपया खरच करते हुए तो इनका जी निकलता है। जी निढाल होना=दुःख चिंता शिथिलता आदि के कारण चित्त ठिकाने न रहना। (किसी से) जी पर जाना=बहुत दुःखी या संप्तत होने के कारण बहुत अधिक उदासीनता या विरक्ति हो जाना। जी पकड़ा जाना= खुटका, विपत्ति आदि सुन या संभावना देखकर मन में बहुत चिंता या विकलता होना। जी पर आ बनना=किसी घटना या बात के कारण ऐसी स्थिति होना कि प्राणों पर संकट आ जाय और फलतः सुख शान्ति का अंत हो जाय। जी पर खेलना=कोई विकट काम पूरा करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देना। अपना जीवन संकट में डालना। (किसी से) जी फट जाना=किसी से बहुत दुःखी होने के कारण पूरी तरह से विरक्त हो जाना। (किसी की ओर से) जी फिर जाना=चित्त का उदासीन, खिन्न और विरक्त हो जाना। (किसी से) जी फीका होना=किसी के साथ होनेवाले व्यवहार या संबंध में पहले की सी सरसता न रह जाना। जी बाँटना=(क) मन लगाकर कोई करते रहने की दशा में किसी बाधा के कारण चित्त या ध्यान इधर-उधर होना। (ख) दे० ‘जी बहलना।’ (किसी ओर अपना) जी बढ़ाना=अपना ध्यान, मन या विचार किसी ओर प्रवृत्त करना। (किसी का) जी बढ़ाना= प्रोत्साहित करना। बढ़ावा देना। जी बहलना=ऐसा काम या बात करना जिससे खिन्न चिंतित या दुःखी मन कुछ समय के लिए प्रसन्न हो और खेद, चिंता या दुःख न रह जाय अथवा कम हो जाय। जी बिगड़ना या बुरा होना=(क) उदासीनता खिन्नता या विरक्ति होना। (ख) कै या उलटी करने को जी चाहना। मिचली होना। (ग) मन में कोई अनुचित या बुरा भाव उत्पन्न होना। जी बैठा जाना=आशंका, चिंता, दुर्बलता आदि के कारण मन आंतरिक शक्ति या साहस का बहुत ही क्षीण होने लगना। जी भर आना=करूणा आदि के कारण मन का दरिद्र होना। जी भरकर=जितना जी चाहे उतना। मनमाना। यथेष्ट। (किसी काम, चीज या बात की ओर से) जी भर जाना=(क) कटु अनुभव होने के कारण प्रवृत्ति न रह जाना। (ख) भोग आदि की अधिकता के कारण मन में पहले का सा अनुराग या उत्साह न रह जाना। (अपना जी) भरना=संदेह आदि दूर करके आश्वस्त, निश्चित या संतुष्ट होना। (किसी का) जी भरना=किसी की शंका संदेह आदि दूर करके उसका पूरा समाधान करना। जी भारी होना=रोग आदि के आगमन से कुछ पहले मन में अस्वस्थता का बोध होना। जी भिटकना=घृणा का अनुभव होने के कारण मन में विरक्ति होना। जी मलमलाना=विवशता की दशा में मन में खेद और पछतावा होना। जी मारना= कामना, वासना आदि का दमन करना। जी मिचलना या मितलाना=उलटी या कै करने की इच्छा या प्रवृत्ति होना। (किसी से) जी मिलना=प्रवृत्ति व्यवहार आदि की अनुकूलता दिखाई देने पर परस्पर प्रीति और सद्भाव उत्पन्न होना। जी में आना=किसी काम या बात की इच्छा कामना या प्रवृत्ति होना। जैसे–जो हमारे जी में आयेगा, वह हम करेगें। जी में चुभना, गड़ना या घर करना=बहुत ही प्रिय और सुखद होने के कारण मन में अपने लिए विशिष्ट स्थान बनाना। जी में जी आना=चिंता भय आदि का कारण दूर होने पर मन निश्चित और सांत होना। जी में डालना=चिंता, भय आदि का कारण दूर करके आश्वस्त और निश्चित करना। (कोई बात) जी में धरना=किसी बात या विचार को अपने मन में स्थान देना और उसके अनुसार आचरण करने का निश्चय करना। (कोई बात) जी में बैठना=बिलकुल उचित या ठीक जान पड़ना। मन पर पूरा प्रभाव होना। (कोई बात) जी में रखना=अपने मन में छिपा या दबाकर रखना। जल्दी किसी पर प्रकट न होने देना। (किसी का) जी रखना=इसलिए किसी का अनुरोध या आग्रह मान लेना कि वह अपने मन मे दुःखी या हताश न हो। (किसी काम में) जीन लगना=अनुकूल, रूचिकर आदि जान पड़ने के कारण यथेष्ट रूप से तत्पर या संलग्न होना। काम में अच्छी तरह चित्त लगाना। (किसी व्यक्ति से) जी लगना=अनुराग या प्रेम होना। (किसी ओर) जी लगा रहना=चिंता आदि के कारण बराबर ध्यान लगा रहना। जी लरजना=दे० जी काँपना। जी ललचाना=कुछ पाने के लिए मन में बहुत अधिक लालच या लोभ होना। (किसी का) जी लुभाना=किसी को मोहित करके अपनी ओर आकृष्ट करना। (किसी का) जी लेना=(क) बातों ही बातों में किसी की इच्छा, प्रवृत्ति या विचार का पता लगाने का प्रयत्न करना। (ख) जीवन या प्राण लेना। जी सन्न होना=बहुत अधिक घबराहट, चिंता आदि के कारण स्तब्ध हो जाना। जी से उतर जाना=कटु अनुभव होने या दोष आदि दिखाई देने पर किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति होनेवाला अनुराग नष्ट हो जाना। जी से जाना=जीवन या प्राण गँवाना। मरना। (किसी व्यक्ति या वस्तु से) जी हट जाना=पहले का सा अनुराग या प्रवृत्ति न रह जाने के कारण उदासीनता या विरक्ति होना जी हवा हो जाना=भय या आशंका आदि के कारण चित्त ठिकाने न रह जाना। होश-हवास गुम हो जाना। (किसी का) जी हाथ में करना, रखना या लेना=किसी को अपने अनुकूल वश में करना या रखना। जी हारना=उत्साह साहस आदि से रहित या दीन हो जाना। हिम्मत हारना। जी हिलना=(क) मन में करूणा, दया आदि का आविर्भाव होना। (ख) दे.जी दहलना। जी ही में जी जलना=ईर्ष्या,क्रोध,दुर्भाव आदि के कारण मन ही मन बहुत दुःखी होना। अव्य १. धार्मिक स्थानों मान्य व्यक्तियों आदि के अल्लों और नामों के पीछे लगनेवाला आदर सूचक अव्यय। जैसे–गया जी, गाँधी जी,शुक्ल जी आदि। २. किसी के द्वारा बुलाये जाने पर उत्तर में कहा जानेवाला एक आदर-सूचक शब्द। जैसे–जी शहर जा रहा हूँ। ३. किसी मान्य व्यक्ति के आदेश,कथन आदि के उत्तर में सहमति,स्वीकृति आदि जतलाने वाला अव्यय। जैसे–जी ऐसी ही होगा।
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जीअ  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) अव्य०=जी।
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जीअन  : पुं०=जीवन।
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जीउ  : पु०=जीव।
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जीकाद  : पुं० [अ० जीकाद] हिजरी सन् के ग्यारहवें महीने का नाम।
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जीगन  : पुं०=जूगनूँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीगा  : पुं० [तु०] कलगी। तुर्रा।
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जीजना  : अ०=जीना (जीवित रहना)।
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जीजा  : पुं० [हिं० जीजी] भाई (या बहन) की दृष्टि में, उसकी बड़ी बहन।
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जीजूराना  : पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़ियाँ।
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जीट  : स्त्री० [हिं० सीटना] डींग।
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जीण  : पुं०=जीवन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीत  : स्त्री० [सं० जिति] १. युद्ध में, जीतने की अवस्था या भाव। विजय। २. उक्त के आधार पर, किसी प्रतियोगिता, मुड़भेड़ शर्त आदि में मिलनेवाली या होनेवाली सफलता। ३. लाभ। स्त्री० [?] जहाज में पाल का बुताम या बटन। (लश०)
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जीतना  : स० [हिं० जीत+ना (प्रत्यय)] १. युद्ध में शत्रु को हराकर विजय प्राप्त करना। विजयी होना। २. किसी प्रतियोगिता, मुठभेड़, शर्त में सफल होना। जैसे–दौड़ जीतना। ३. उक्त के आधार पर तथा जीत में सफल होने पर पुस्तक या पुरस्कार जीतना।
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जीता  : वि० [हिं० जीना] १. जिसमें अभी जीवन या प्राण हो। जिन्दा। जीवित। २. तौल, नाप आदि में जो आवश्यक या उचित से थोड़ा अधिक या बढ़ा हुआ हो। जिंदा।
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जीतालू  : पुं० [सं० आलू] अरारोट।
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जीता लोहा  : पुं० [हिं० जीना+लोहा] चुंबक।
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जीति  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की लता जिसका मोटा तना धनुष की डोरी के रूप में काम में लाया जाता था।
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जीन  : पुं० [फा० जीन] १. घोड़े आदि की पीठ पर रखने की गद्दी। चारजामा। काठी। २. कजावा। पलान। ३. एक प्रकार का बढ़िया, मजबूत तथा मोटा सूती कपड़ा। वि०=जीर्ण।
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जीनत  : स्त्री० [फा० जीनत] १. शोभा। २. सजावट।
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जीनपोश  : पुं० [फा० जीन पोश] जीन पर बिछाया जानेवाला कपड़ा।
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जीनपोशी  : स्त्री०=जीनपोश।
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जीन सवारी  : स्त्री० [देश०] घोड़े की पीठ पर जीन रखकर की जानेवाली सवारी।
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जीन-साज  : पुं० [फा०] [भाव.जीनसाजी] फोड़ों की जीने बनाने वाला कारीगर।
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जीना  : अ० [सं० जीवति, प्रा० जिअइ, जीअन्त, मरा० जिणें] १. जीवित रहना। काया या शरीर में प्राण रहना।
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जीपना  : स० [सं० जिति] जीतना। उदाहरण–हल जीपिस्यै जू वाहिस्यइ हाथ।–प्रिथीराज।
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जीभ  : स्त्री० [सं० जिह्वा, जिह्विका, प्रा० जिब्भा, जिब्भया, जैन, प्रा० जिब्भा, जीहा] १. मुँह में तालु के नीचे का वह चिपटा लंबा तथा लचीला टुकड़ा जिसमें रसों का आस्वादन और ध्वनियों का उच्चारण किया जाता है। जबान। रसना। पद–छोटी जीभ=गले के अंदर की घंटी। कौआ। गलशुंडी। मुहावरा–जीभ करना=ढिठाई से जबाव देना। जीभ खोंलना=कुछ कहना। जीभ चलना=(क) विभिन्न वस्तुओं के स्वाद लेने की इच्छा होना। (ख) बहुत ही उग्र बातें कहना। जीभ निकालना=दंड देने के लिए जीभ उखाड़ना या काट लेना। (किसी की) जीभ पकड़ना=(क) किसी को कोई बात न कहने देना। किसी को विवश करना कि वह कोई विशिष्ट बात न कहे। (ख) किसी को उसकी कही हुई बात के पालन के लिए विवश करना। जीभ हिलना=मुँह से कुछ कहना। (किसी की) जीभ के नीचे जीभ होना=किसी का अपने सुभीते के अनुसार कई तरह की बातें कहना। अपने कथन या वचन का ध्यान न रखना। २. जीभ के आकार की कोई चिपटी तथा लंबोतरी वस्तु। जैसे–निब।
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जीभा  : पुं० [हिं० जीभ] १. जीभ के आकार की कोई बड़ी वस्तु। जैसे–कोल्हू का पच्चर। २. एक रोग जिसमें चौपायों की जीभ के काँटे कुछ सूज तथा बढ़ जाते हैं और जिसके कारण उन्हें कुछ खाने में बहुत कष्ट होता है। ३. एक रोग जिसमें बैलों की आँख के आगे का मांस बढ़कर लटकने लगता है।
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जीभी  : स्त्री० [हिं० जीभ] १. धातु आदि का बना हुआ वह पतला धनुषाकार पत्तर जिससे जीभ पर जमी हुई मैल उतारी या छीली जाती है। २. मैल साफ करने के लिए जीभ छीलने की क्रिया। ३. कलम की निब। ४. छोटी जीभ। गलशुंडी।
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जीमट  : पुं० [सं० जीमूत=पोषण करनेवाला] पेड़, पौधों आदि की टहनी या धड़ में का गूदा।
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जीमणवार  : स्त्री०=ज्यौनार।
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जीमना  : स० [सं० जेमन] कहीं बैठकर अच्छी तरह भोजन करना।
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जीमूत  : पुं० [सं०√जि (जीतना)+क्त, मूट्, दीर्घ] १. पर्वत। पहाड़। २. बादल। मेघ। ३ नागरमोथा। ४. देव-ताड़ नामक वृक्ष। ५. घोषा नाम की लता। ६. शाल्मलि द्वीप के एक वर्ष का नाम ७. इंद्र। ८. सूर्य। ९. विराट की एक सभा का मल्ल। १॰. एक प्रकार का दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण और ग्यारह रगण होते हैं। वि० जीवित रखने या पोषण करनेवाला।
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जीमूत-कूट  : पुं० [ब० स०] पर्वत।
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जीमूत-केतु  : पुं० [ब० स०] शिव।
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जीमूत मुक्ता  : स्त्री० [मध्य० स] एक प्रकार का कल्पित मोती जिसकी उत्पत्ति बादलों से मानी गयी है।
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जीमूत मूल  : पुं० [ब० स०] गंधमूली।
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जीमूत-वाहन  : पुं० [सं०] इंद्र।
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जीमूतवाही(हिन्)  : पुं० [सं० जीमूत√वह् (ले जाना)+णिनि] धुआँ।
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जीय  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीयट  : पुं०=जीवट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीयति  : स्त्री० [हिं० जीना] जीवन। जिंदगी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीयदान  : पुं०=जीव-दान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीर  : पुं० [सं०√जु (गति)+रक्, ई आदेश] १. जीरा। २. फूलों का केसर। ३. तलवार। वि० जल्दी या तेज चलनेवाला। पुं० [फा० जिरह] जिरह। कवच। वि०=जीर्ण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीरक  : पुं० [सं० जीर+कन्] जीरा।
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जीरण(रन)  : वि०=जीर्ण।
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जीरना  : अ० [सं० जीर्ण] १. जीर्ण या पुराना होना। उदाहरण–वह हाई वह जीरई साकर संग निवेदि।–कबीर। २. कुम्हलाना मुरझाना। ३. फटना।
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जीरह  : पुं०=जिरह।
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जीरा  : पुं० [सं० जीरक] १. एक पौधा जिसके सुगंधित छोटे फूल सुखाकर मसाले के काम में लाये जाते हैं। २. उक्त पौधे के सुखाये या सूखे हुए फूल। ३. उक्त आकार की कोई छोटी महीन लंबी चीज। ४. फूलों का केसर।
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जीरिका  : स्त्री० [सं०√जृ (जीर्ण होना)+रिक्, ई, आदेश+कन्-टाप्] वंशपत्री नामक घास।
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जीरी  : पुं० [हिं० जीरा] १. फूलों आदि का छोटा कण। २. एक प्रकार का अगहनी धान। ३. काली जीरी।
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जीरोपटन  : पुं० [देश०] एक पौधा और उसका फूल।
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जीर्ण  : वि० [सं०√जृ+क्त, ईत्व, नत्व] [स्त्री० जीर्णा] १. जो बहुत पुराना होने के कारण इतना कट-फट या टूट-फूट गया हो कि ठीक तरह से काम में न आ सकता हो। जैसे–जीर्ण दुर्ग जीर्ण वस्त्र। २. (व्यक्ति) जो बुड्ढा होने के कारण जर्जर और शिथिल हो गया हो। ३. बहुत दिनों का पुराना। जीर्ण रोग। ४. जो पुराना होने के कारण अपना महत्व गँवा चुका। जैसे–जीर्ण विचार। ५. पेट में पहुँचकर अच्छी तरह पचा हुआ। पचित या पाचित। जैसे–जीर्ण अन्न।
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जीर्णक  : वि० [सं० जीर्ण+कन्]=जीर्ण।
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जीर्ण-ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] वैद्यक में, वह ज्वर जो २१ या अधिक दिनों तक आता हो। पुराना बुखार।
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जीर्णता  : स्त्री० [सं० जीर्ण+तल्-टाप्] १. जीर्ण होने की अवस्था या भाव। २. बुढ़ापा।
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जीर्ण-दारु  : पुं० [ब० स०] वृद्धदारक वृक्ष। विधारा।
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जीर्ण-पत्र  : पुं० [ब० स०] कदंब का पेड़।
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जीर्ण-वज्र  : पुं० [कर्म० स०] वैक्रांत मणि।
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जीर्णा  : स्त्री० [सं० जीर्ण+टाप्] काली जीरी।
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जीर्णि  : स्त्री० [सं० जृ+क्तिनन्, ईत्व, नत्व] १. जीर्णता। २. पाचन।
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जीर्णोद्वार  : पुं० [सं० जीर्ण-उद्धार, ष० त०] किसी पुरानी वास्तु रचना का फिर से होनेवाला उद्धार, सुधार या मरम्मत। टूटी-फूटी इमारत या चीज फिर से ठीक और दुरुस्त करना।
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जील  : स्त्री० [फा० जीर] १. जीमा या हलका शब्द। २. संगीत में, नीचा या मध्यम स्वर। ३. तबले आदि में बाँया (बाजा)।
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जीला  : वि० [सं० झिल्ली] [स्त्री० जीली] १. झीना। पतला। २. बारीक। महीन।
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जीलानी  : पुं० [अ०] एक प्रकार का लाल रंग। वि० उक्त प्रकार का, लाल।
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जीवंजीव  : पुं० [सं० जीव√ जीव् (जीना)+णिच्+च्, मुम्+] १. चकोर पक्षी। २. एक वृक्ष का नाम।
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जीवंत  : पुं० [सं०√जीव्+झ-अन्त] १. जीवनी शक्ति। प्राण। २. औषध। दवा। ३. जीव नाम का साग। वि० जिसमें प्राण हों। जीता जागता। जीवित।
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जीवंतक  : पुं० [सं० जीवंत+कन्] जीव शाक।
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जीवंतिका  : स्त्री० [सं० जीवंत+कन्-टाप्, इत्व] १. वह वनस्पति जो दूसरे वृक्षों पर रहकर और उन्हीं के शरीर से रस चूसकर फैलती या बढती हो। बंदा। बाँदा। २. गुडूची। गुरुच। ३. जीव नामक साग। ४. जीवंत लता। ५. एक प्रकार की पीली हर्रे। ५. शमी वृक्ष।
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जीवंती  : स्त्री० [सं० जीवंत+ङीष्] १. एक प्रकार की लता जिसकी टहनियों में दूध होता है और जिसकी पत्तियाँ दवा के काम में आती है। २. एक प्रकार की पीली हर्रे। ३. गुडूची। गुरुच। ४. परगाछा। बाँदा। ५. शमी वृक्ष।
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जीव  : पुं० [सं०√जीव+घञ्] १. वह जिसमें चेतना और जीवन या प्राण हो और जो अपनी इच्छा के अनुसार खा-पी और हिल डुल सकता हो। जीवधारी। प्राणी। २. प्राणियों में रहनेवाला चेतन तत्त्व। जीवात्मा। ३. जान। प्राण। ४. विष्णु। ५. वृहस्पति। ६. आश्लेषा नक्षत्र। ७. बकायन का पेड़।
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जीवक  : पुं० [सं० जीव+कन्] १. जीवधारी। प्राणी। २. [√जीव्+णिच्+ण्वुल्-अक] बौद्ध क्षपमक या भिक्षु। ३. सूद-ब्याज से जीविका निर्वाह करनेवाला व्यक्ति। महाजन। ४. मनुष्य के वे सब कार्य जो सामूहिक रूप में उसकी उन्नति या अवनति के सूचक होते हैं। (केरियर) ५. सँपेरा। ६. नौकर। सेवक। ७. पीतसाल नामक वृक्ष। ८. वैद्यक में अष्ट-वर्ग के अन्तर्गत एक प्रकार का कंद जो कामोद्दीपक और बलवर्द्धक कहा गया है।
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जीवजीव  : पुं० [सं०=जीवञ्जीव,पृषो० सिद्धि] चकोर पक्षी।
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जीवट  : पुं० [सं० जीवक] हृदय की वह दृढ़ता जिसके कारण मनुष्य साहसिक कार्यों में निर्भय होकर प्रवृत्त होता है। दम। साहस हिम्मत।
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जीवड़ा  : पुं० [सं० जीव] १. जीव, विशेषतः तुच्छ जीव। २. जीवन। ३. जीवन। ४. धोबी, नाई आदि को उनकी सेवाओं के बदले दिया जानेवाला अनाज।
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जीवत्  : वि० [√जीव्+शतृ]=जीवित। (मुख्यतः यौगिक पदों के आरम्भ में, जैसे–जीवत्पति=सधवा स्त्री)।
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जीवति  : स्त्री० [सं० जीवत्] जीविका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवत्तोका  : स्त्री० [जीवत-तोक, ब० स] वह स्त्री जिसके बच्चे जीते हों।
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जीवत्पत्ति  : स्त्री० [ब० स०] वह स्त्री जिसका पति जीवित हो। सधवा या सौभाग्यवती स्त्री।
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जीवत्पितृक  : पुं० [ब० स० कप्] वह जिसका पिता जीवित हो।
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जीवत्पुत्रिका  : वि० [जीवत्-पुत्र, ब० स०+कन्-टाप्, इत्व] (स्त्री) जिसका पुत्र या जिसके पुत्र जीवित हों अर्थात् वर्तमान हों।
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जीवत्पुत्रिका व्रत  : पुं० [सं०] आश्विन् कृष्ण अष्टमी को होनेवाला स्त्रियों का एक व्रत या जो वे अपनी सन्तान के कल्याण के लिए कामना से करती हैं।
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जीवथ  : पुं० [सं०√जीव्+अथ] १. जीवनी शक्ति। प्राण। २. बादल। मेघ। ३. मोर। ४. कछुआ। वि० १. दीर्घ जीवी। २. =धर्म निष्ठ।
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जीवद  : वि० [सं० जीव√दा (देना)+क] जीवन या प्राण देनेवाला। पुं० १. वैद्य। २. जीवक पौधा। ३. जीवंती। ४. शत्रु।
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जीव-दया  : स्त्री० [स० त०] जीवों पर उनके जीवन की रक्षा के विचार से की जानेवाली दया।
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जीव-दान  : पुं० [ष० त०] १. वश में आये हुए अपराधी या शत्रु को बिना उसके प्राण लिए छोड़ देना। २. किसी मरते हुए प्राणी की रक्षा करके उसे मरने से बचाना।
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जीवद्बर्तृका  : स्त्री० [सं० जीवत्-भर्तृ, ब० स० कप्, टाप्]=जीवत्पति।
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जीवद्भत्सा  : वि० स्त्री० [सं० जीवत-वत्स, ब० स०] जिसका पुत्र जीवित हो।
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जीव-धन  : पुं० [ब० स०] वह जो जीवों अर्थात् पशु पक्षियों आदि को रखकर उनसे जीविका चलाता हो। वह जिसके लिए जीव या जानवर ही धन हो। वि० जो किसी के जीवन का धन या सर्वस्व हो। परमप्रिय। जीवन–धन।
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जीव-धातु  : स्त्री० [ष० त०] कुछ विशिष्ट रासायनिक तत्त्वों से बना हुआ वह पारदर्शक स्वच्छ तत्त्व या धातु जिसमें जीवनी-शक्ति होती है और जो आधुनिक विज्ञान में जीवों, जंतुओं वनस्पतियों आदि के भौतिक स्वरूप का मूल आधार माना जाता है। (प्रोटो प्लाज्म)।
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जीव-धानी  : स्त्री० [ष० त०] वह आधार जिस पर जीव रहते हैं पृथ्वी।
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जीवधारी(रिन्)  : वि० [सं० जीव√धृ (धारण)+णिनि] (वह) जिसमें जीव अर्थात् जीवनीशक्ति हो। जीव-युक्त। पुं० प्राणी।
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जीवन  : पुं० [सं०√जीव्+ल्युट-अन] [वि० जीवित] १. वह नैसर्गिक शक्ति जो प्राणियों, वृक्षों आदि को अंगों और उपांगों से युक्त करके सक्रिय और सचेष्ट बनाती है और जिसके फलस्वरूप वे अपना भरण-पोषण करते हुए अपने वंश की वृद्धि करते हैं। आत्मा या प्राणों से पिंड या शरीर से युक्त रहने की दशा या भाव। जान। प्राण। विशेष–आधुनिक विज्ञान के मत से वह विशिष्ट प्रकार की क्रिया-शीलता है जो समस्त जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और मानव जाति में पाई जाती है। इसके ये मुख्य पाँच लक्षण माने गये हैं-गतिशीलता, अनुभूति या संवदेन, आत्मपोषण, आत्म-वर्धन और प्रजनन। जब तक भौतिक तत्त्वों से बने पिंड या शरीर में आत्मा या प्राण रहते हैं तब तक वह चेतन और जीवित रहता है। इसकी विपरीत दशा में वह नष्ट हो जाता या मर जाता है। जिन पदार्थों में आत्मा या प्राण होते ही नहीं, वो अचेतन और निर्जीव कहलाते हैं २. किसी विशिष्ट रूप या शरीर में आत्मा के बने रहने की सारी अवधि या समय। जिंदगी। जैसे–अमर या शाश्वत जीवन, पार्थिव या भौतिक जीवन। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के आदि से अन्त तक अथवा जन्म से मरण तक की सारी अवधि या समय। जैसे–(क) इस प्रकार के भवनों (या मंदिरों) का जीवन कई सौ वर्षो का होता है। (ख) बहुत से कीड़ों-मकोड़ो का जीवन कुछ घंटों या (दिनों) का होता है। ४. भौतिक शरीर में प्राणों के बने रहने की अवस्था या दशा। जैसे–(क) हमारे लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है। (ख) डूबे हुए बच्चे को तुरंत जल से निकाल कर उसमें फिर से जीवन लाया गया। ५. किसी प्राणी के अस्तित्व काल का वह विशिष्ट अंग, अंश या पक्ष जिसमें वह किसी विशेष प्रकार से या विशेष रूप में रहकर अपने दिन बिताता हो। जैसे–(क) आध्यात्मिक या वैवाहिक जीवन। (ख) ग्राम्य, नागरिक सभ्य या सैनिक जीवन। (ग) दरिद्रता या पराधीनता का जीवन। ६. किसी विशिष्ट प्रकार के क्रिया-कलाप, व्यवसाय या व्यापार में बिताई जानेवाली कोई अवधि या उसका कोई अंश। जैसे–(क) खेल-कूद या भोग-विलास का जीवन। (ख) बढ़इयों, लोहारों या सुनारों का जीवन। ७. वह तत्त्व, पदार्थ या शक्ति जो किसी दूसरे तत्व पदार्थ या व्यक्ति का अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनिवार्य अथवा उसे सुखमय रखने के लिए परम आवश्यक हो। जैसे–जल (या वायु) ही सब प्राणियों का जीवन है। ८. उक्त के आधार पर, कोई परम प्रिय वस्तु या व्यक्ति। उदाहरण–जीवन मूरि हमारी अली यह कौन कह्यौ तोहि नंद लला है।-बलबीर। ९. वह जिससे किसी को कुछ करने या अपना अस्तित्व बनाये रखने की पूरी प्रेरणा या शक्ति प्राप्त होती है। जान। प्राण। जैसे–आप ही तो इस संस्था के जीवन हैं। १॰. वह तत्त्व या बात जिसके वर्तमान होने पर किसी दूसरे तत्त्व या बात में यथेष्ठ ऊर्जा, ओज आदि अथवा यथेष्ठ वांछित प्रभाव उत्पन्न करने या फल दिखाने की शक्ति दिखाई देती है। जैसे–किसी जाति या दल का संघटन में दिखाई देनेवाला जीवन। ११. वायु। हवा। १२. जल। पानी। १३. नवनीत। मक्खन। १४. हड्डियों के अन्दर का गूदा। मज्जा। १५. जीविका निर्वाह का साधन। वृत्ति। १६. पुत्र। बेटा। १७. परमात्मा। परमेश्वर। १८. जीवक नामक ओषधि। वि० परम प्रिया। बहुत प्यारा।
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जीवनक  : पुं० [सं० जीवंन+कन्] १. आहार। २. अन्न।
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जीवन-कारण  : पुं० [ष० त०] न्याय-दर्शन में जीव या प्राणी के वे कृत्य या प्रयत्न जो बिना इच्छा, द्वेष आदि के आप से आप और प्राकृतिक रूप से बराबर होते रहते हैं। जैसे–श्वास, प्रश्वास आदि।
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जीवन-चरित्र  : पुं०=जीवन-चरित।
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जीवन-धन  : वि० [ष० त०] १. जो किसी के जीवन का धन अर्थात् सर्वस्व हो। परम प्रिय। २. प्राणाधार। प्राण-प्रिय।
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जीवन-नौका  : स्त्री० [ष० त०] वह छोटी नौका जो बड़ों जहाजों पर इसलिए रखी जाती है कि जब जहाज डूबने लगे तब लोग उस पर सवार होकर अपनी जान बचा सकें। (लाइफ बोट)।
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जीवन-प्रभा  : स्त्री० [ष० त०] आत्मा।
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जीवन-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] इस बात का प्रमाण कि अमुख व्यक्ति अमुक दिन या तिथि तक जीवित था अथवा इस समय जीवित हैं। (लाइफ सर्टिफिकेट)
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जीवन-बूटी  : स्त्री० [सं० जीवन+हिं० बूटी] १. वह कल्पित जड़ी या बूटी जिसके संबंद्ध में प्रसिद्ध है कि वह मरे हुए आमदी को जिला देती है। संजीवनी। २. लाक्षणिक अर्थ में, वह चीज जो किसी के जीवन का आधार हो। ३. प्राण-प्रिय वस्तु।
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जीवनमूरि  : स्त्री०=जीवन-बूटी।
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जीवन-वृत्  : पुं० [ष० त०] १. जीवन-चरित। २. किसी जीव या प्राणी के आदि से अंत तक की सब घटनाओं या बातों का वर्णन या इतिहास। (लाइफ-हिस्ट्री)।
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जीवन-वृत्तांत  : पुं० [ष० त०] जीवन-वृत्त।
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जीवनवृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] जीविका। रोजी।
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जीवन-संग्राम  : पुं०=जीवन-संघर्ष।
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जीवन-संघर्ष  : पुं० [ष० त०] प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित बने रहने या जीविका उपार्जन करने के लिए किया जानेवाला विकट प्रयत्न या प्रयास। (स्ट्रगल फार एक्जिस्टेन्स)।
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जीवन-हेतु  : पुं० [ष० त०] जीविका। रोजी।
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जीवनांत  : पुं० [जीवन-अंत, ष० त०] जीवन का अंत अर्थात् मृत्यु।
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जीवना  : पुं० [सं०√जीवन+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. महौषध। अ०=जीना (जीवित रहना)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स०=जीमना (भोजन करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवनाघात  : पुं० [सं० जीवन-आघात, ब० स०] विष।
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जीवनावास  : वि० [सं० जीवन-आवास, ब० स०] जल में रहनेवाला। पुं० १.=वरुण। २. =देह। शरीर।
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जीवनार्ह  : पुं० [सं० जीवन-अर्ह, ष० त०] १. अन्न। २. दूध।
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जीवनि  : वि० [सं० जीवनी] १. (ऐसी ओषधि या वस्तु) जो किसी को जीवित रखने में विशिष्ट रूप से समर्थ हो। २. अत्यन्त प्रिय (वस्तु या व्यक्ति)। पुं० १. संजीवनी बूटी। २. काकोली। ३. तिक्त जीवंती। डोडी। ४. मेदा नाम की ओषधि। स्त्री=जीवनी।
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जीवनी  : स्त्री० [सं० जीवन+ङीष्] १. काकोली। २. जीवंती। ३. महामेदा। ४. डोडी। तिक्त जीवंती। स्त्री=जीवन-चरित।
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जीवनीय  : वि० [सं०√जीव+अनीयर] १. जो जीवित रखने या रहने योग्य हो। जी सकने वाला। २. जीवन या जीवनी शक्ति प्रदान करने वाला। ३. अपनी जीविका आप चलानेवाला। पुं० १. =जल। पानी। २. जयंती वृक्ष। ३. दूध (डिं०)।
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जीवनीय-गण  : पुं० [ष० त०] वैद्यक में बलकारक ओषधों का एक वर्ग जिसके अंतर्गत अष्टवर्ग, पर्णिनी, जीवंती, मधूक और जीवन नामक वनस्पतियाँ हैं।
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जीवनीया  : स्त्री० [सं० जीवनीय+टाप्] जीवंती नामक लता।
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जीवनेत्री  : स्त्री० [सं० जीव√नी (ढोना)+तृच्-ङीष्] सैंहली वृक्ष।
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जीवनोपाय  : पुं० [सं० जीवन-उपाय,ष० त० ] जीवन के निर्वाह और रक्षा के उपाय या साधन। जीविका। रोजी।
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जीवनौषध  : स्त्री० [जीवन-औषध, ष० त०] वह औषध जिसमें मरता हुआ प्राणी जी जाय। जीवन बूटी। संजीवनी।
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जीवन्मुक्त  : वि० [सं०√जीव्+शतृ, जीवन-मुक्त, कर्म० स०] [भाव० जीवनमुक्ति] (जीव) जिसने आत्म ज्ञान प्राप्त कर लिया हो और इसी लिए जो आवागमन के बंधन से मुक्त हो गया हो।
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जीवन्मुक्ति  : स्त्री० [सं० जीवत्-मृत, कर्म० स०] जीवन्मुक्त होने की अवस्था या भाव।
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जीवन्मृत  : वि० [सं० जीवत्-मृत्,कर्म.स०] (अधम प्राणी) जो जीवित होने पर भी मरे हुए के समान हो।
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जीव-न्यास  : पुं० [ष० त०] मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते समय कहा जानेवाला एक मन्त्र।
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जीव-पति  : पुं० [ष० त०] धर्मराज।
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जीव-पत्नी  : स्त्री० [ब० स०] स्त्री, जिसका पति जीवित हो। सधवा।
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जीव-पत्री  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] जीवंती नामक लता।
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जीव-पुत्र  : पुं० [ब० स०] [स्त्री० जीवपुत्रा] वह जिसका पुत्र जीवित हो।
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जीवपुत्रक  : पुं० [सं० जीवपुत्र+कन्] १. जिया-पोता या पुत्रजीव नामक वृक्ष। २. इंगुदी का पेड़। हिंगोट।
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जीव-पुष्पा  : स्त्री० [ब० स०] बड़ी जीवंती।
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जीव-प्रभा  : स्त्री० [ष० त०] आत्मा। रूह।
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जीव-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] हरीतकी। हर्रे।
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जीवबंद  : पुं०=जीवबंधु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीव-बन्धु  : पुं० [ष० त०] गुल दुपहिया या बंधूक नामक पौधा और उसका फूल।
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जीव-भद्रा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] जीवंती नामक लता।
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जीव-मातृका  : स्त्री० [ष० त०] १. वे सात देवियाँ जो जीवों का कल्याण पालन आदि माता के समान करती है। विशेष–ये सात देवियाँ है-कुमारी, धनदा, नंदा, विमला, मंगला बला और पद्मा। २. उक्त देवियों में से हर एक।
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जीव-याज  : पुं० [तृ० त०] वह यज्ञ जिसमें पशुओं की बलि दी जाती हो।
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जीव-योनि  : स्त्री० [कर्म० स०] १. सजीव सृष्टि। २. [ष० त०] जीव-जंतु का वर्ग या समूह। पुं० वह जीव या प्राणी जो इंद्रियों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता हो।
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जीव-रक्त  : पुं० [मध्य० स०] रजस्वला स्त्री की योनि से जानेवाला रक्त।
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जीवरा  : पुं०=जीव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवरी  : स्त्री०=जीवन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवला  : स्त्री० [सं० जीव√ला (लेना)+क-टाप्] सिंह पिप्पली।
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जीव-लोक  : पुं० [ष० त०] वह लोक जिसमें जीव रहते हों। भू-लोक।
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जीव-वल्ली  : स्त्री० [कर्म० स०] क्षीर काकोली (पौधा)।
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जीव-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें जीवों की उत्पत्ति, विकास शारीरिक रचना और उनके रहन सहन पर विचार किया जाता है। इसी विज्ञान की शाखाओं के रूप में, वनस्पति विज्ञान, प्राणिविज्ञान आकारिकी आदि की गिनती होती है(बायलाँजी)
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जीव-वृत्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. जीव की वृत्ति अर्थात् गुण, धर्म और व्यापार। २. [कर्म० स०] जीव-जंतुओं का पालन-पोषण करके चलाई जानेवाली जीविका।
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जीव-शाक  : पुं० [कर्म० स०] मलाया में बहुतायत से पाय़ा जानेवाला एक प्रकार का साग। सुसना।
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जीव-शुक्ला  : स्त्री० [कर्म० स०] क्षीर काकोली (पौधा)।
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जीव-संक्रमण  : पुं० [ष० त०] जीव का एक योनि से दूसरी योनि अथवा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना।
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जीव-साधन  : पुं० [ष० त०] धान।
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जीव-सुत  : पुं० [ष० त०] [स्त्री० जीव-सुता] वह जिसका पुत्र जीवित हो।
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जीवसू  : स्त्री० [सं० जीव√सू (प्रसव)क्विप्] वह स्त्री जिसकी सन्तान जीवित हो।
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जीव-स्थान  : पुं० [ष० त०] हृदय, जिसमें जीव निवास करता है।
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जीव-हत्या  : स्त्री० [ष० त०] १. जीवों को मारने की क्रिया या भाव। २. धार्मिक दृष्टि से वह पाप जो जीवों को मारने से लगता है।
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जीव-हिंसा  : स्त्री० [ष० त०] जीव-हत्या।
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जीवांतक  : वि० [जीव-अतंक, ष० त०] जीव या प्राण अथवा जीवों या प्राणियों का अन्त या नाश करनेवाला। पुं० १. यमराज। २. वधिक। ३. बहेलिया। व्याध।
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जीवा  : स्त्री० [सं०√जीव्+णिच्+अच्-टाप्.] १. एक सिरे से दूसरे सिरे तक जानेवाली सीधी रेखा। ज्या। २. धनुष की डोरी। ३. जीवंती नामक लता। ४. बच। बचा। ५. जमीन भूमि। ६. जीविका। ७. जीवन।
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जीवाजून  : स्त्री०=जीव-योनि।
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जीवाणु  : पुं० [जीव-अणु, ष० त०] १. सेन्द्रिय जीवों का वह मूल और बहुत सूक्ष्म रूप जो विकसित होकर नये जीव का रूप धारण करता है। २. जीवनी-शक्ति से युक्त ऐसे अणु जो प्रायः अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। (जर्म)।
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जीवातु  : पुं० [सं०√जीव्+आतु] वह ओषधि जिससे प्राणों की रक्षा होती हो। प्राण-दान करनेवाली ओषधि।
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जीवातुमत्  : पुं० [सं० जीवातु+मतुप्] आयुष्काम यज्ञ के एक देवता जिनसे आयुवृद्धि की प्रार्थना की जाती है।
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जीवात्मा(त्मन्)  : पुं० [जीव-आत्मन् ष० त०] १. जीव या प्राणियों में रहनेवाली आत्मा। वह शक्ति जिसके कारण प्राणी जीवित रहते हैं। २. हृदय। जैसे–किसी की जीवात्मा नहीं दुखानी चाहिए।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीवादान  : पुं० [जीव-आदान, ष० त०] बेहोशी। मूर्च्छा।
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जीवाधार  : पुं० [जीव-आधार, ष० त०] हृदय जो आत्मा का आधार या आश्रय माना जाता है।
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जींवानुज  : पुं० [जीव-अनुज, ष० त०] गर्गाचार्य मुनि जो बृहस्पति के वंशज और किसी के मत से बृहस्पति के भाई कहे जाते हैं।
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जीवावशेष  : पुं० [जीव-अवशेष, ष० त०]=जीवाश्म।
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जीवाश्म(न्)  : पुं० [जीव-अश्मन्, ष० त०] बहुत प्राचीन काल के जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि के वे अवशिष्ट रूप जो जमीन की खोदाई करने पर निकलते हैं। जीवावशेष। पुराजीव। (फ़ासिल)।
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जीवाश्म-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] वह विज्ञान जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि भिन्न प्राचीन युगों में कहाँ-कहाँ और किस प्रकार के जीव होते थे। पुराजैविकी। (पेलिएन्टालोजी)
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जीवास्तिकाय  : पुं० [जीव-अस्तिकाय, ष० त०] जैन दर्शन के अनुसार विशिष्ट कर्म करने और उनके फल भोगनेवाले जीवों का एक वर्ग।
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जीविका  : स्त्री० [सं०√जीव्+अ+कन्-टाप् इत्व] वह काम-धंधा पेशा या वृत्ति जिसके द्वारा मनुष्य को जीवन-निर्वाह के लिए धन तथा अन्य आवश्यक पदार्थ मिलते हों। क्रि० प्र०–चलना।–चलाना।–लगना।–लगाना।
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जीवित  : वि० [सं०√जीव्+क्त] १. जिसे फिर से जीवन या प्राण मिले हों। २. जो अभी जी रहा हो। जिसमें जीवन या प्राण हों। ३. (पदार्थ) जिसकी क्रियात्मक शक्ति काम कर रही हो या वर्त्तमान हो। (एलाइव) जैसे–जीवित कारतूस, बिजली का जीवित तार। पु० १. जीवन। २. जीवन-काल।
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जीवित-काल  : पुं० [ष० त०] जीवित रहने का पूरा या सारा समय। आयु। उमर।
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जीवित-नाथ  : पुं० [ष० त०] पति।
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जीवितव्य  : पुं० [सं०√जीव्+तव्यम्] जीवित रखने या रहने योग्य।
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जीवितांतक  : पुं० [जीवित-अंतक, ष० त०] शिव।
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जीवितेश  : पुं० [जीवित-ईश, ष० त०] १. जीवन का स्वामी। २. यम। ३. इंद्र। ४. सूर्य। ५. इड़ा और पिंगला नाडियाँ। वि० प्राणों से भी बढ़कर प्रिय। प्राणाधार।
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जीवी(विन्)  : वि० [सं० जीव+इनि] १. जीनेवाला। २. किसी विशिष्ट प्रकार की जीविका से अपना निर्वाह करनेवाला। जैसे–श्रमजीवी। शस्त्र-जीवी।
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जीवेश  : पुं० [जीव-ईश, ष० त०] १. जीव या जीवों का स्वामी। ईश्वर। २. प्रियतम।
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जीवोपाधि  : स्त्री० [सं० जीव-उपाधि] जीव की ये तीन उपाधियाँ या अवस्थाएँ–स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत।
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जीसो  : वि०=जैसा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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जीस्त  : स्त्री० [फा०जीस्त] जीवन।
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जीह  : स्त्री० [सं० जिह्वा] जीभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जीहि  : स्त्री०=जीह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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