शब्द का अर्थ
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					जाति					 :
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					स्त्री० [सं०√जन् (उत्पत्ति)+क्तिन्] १. जन्म। पैदाइश। २. हिंदुओं में, समाज के उन मुख्य चार विभागों में से हर एक जिसमें जन्म लेने पर मनुष्य की जीविका निर्वाह करने के लिए विशिष्ट कार्य-क्षेत्र अपनाने का विधान है। वर्ण। विशेष दे ‘वर्ण’। ३. उक्त में से हर एक बहुत से छोटे-छोटे विभाग और उपविभाग। जैसे–पांडेय, शक्ल, लोहार, सोनार आदि। ४. किसी राष्ट्र (या राष्ट्रों) के वे निवासी जिनकी नसल एक हो। जैसे–अंगरेज जाति, हिंदू जाति। विशेष–ऐसी जातियों के सदस्यों की शारीरिक बनावट, उनके स्वभाव, परम्पराएँ, विचारधाराएँ भी प्रायः एक-सी होती हैं। जैसे–आर्य, मंगोल या हब्शी जातियाँ। ५. पदार्थों या जीव-जंतुओं की आकृति, गुण धर्म आदि की समानता के विचार से किया हुआ विभाग। कोटि। वर्ग। (जेनस) जैसे–पशु जाति, पक्षी जाति। ६. उक्त में के छोटे-छोटे विभाग और उपविभाग। जैसे–घोड़े या हिरन की जाति का पशु। ७. कुल। वंश। ८. गोत्र। ९. तर्कशास्त्र और न्यायदर्शन में,किसी हेतु का वह अनुपयुक्त खंडन या उत्तर जो तथ्य के आधार पर नहीं बल्कि केवल साधर्म्य के आधार पर हो। १॰. मात्रिक छंद। ११. छोटा आँवला, चमेली, जायफल, जावित्री आदि पौधों की संज्ञा। १२. मालती नामक लता और उसका फूल।				 | 
			
			
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					जाति-कर्म(न्)					 :
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					पुं० [ष० त०] जातकर्म।				 | 
			
			
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					जाति-कोश(ष)					 :
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					पुं० [ष० त०] जायफल।				 | 
			
			
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					जाति-कोशी(षी)					 :
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					स्त्री० [जातिकोश+ङीष्] जावित्री।				 | 
			
			
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					जातिच्युत					 :
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					वि० [तृ० त०] (व्यक्ति) जिसके साथ किसी (उसी की) जाति के लोगों ने व्यवहार छोड़ दिया हो।				 | 
			
			
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					जातित्व					 :
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					पुं० [सं० जाति+त्व] जातीयता।				 | 
			
			
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					जातिधर्म					 :
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					पुं० [ष० त०] १. वे सब कार्य, गुण या बातें जो किसी जाति में समान रूप से होती हैं। १. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अपना अपना अथवा अपनी अपनी जाति के प्रति होनेवाला विशिष्ट कर्त्तव्य।				 | 
			
			
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					जाति-पत्र					 :
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					पुं० [ष० त०] जावित्री।				 | 
			
			
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					जाति-पत्री					 :
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					स्त्री० [ष० त०] जावित्री।				 | 
			
			
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					जाति-पर्ण					 :
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					पुं० [ष० त०] जावित्री।				 | 
			
			
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					जाति-पाँति					 :
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					स्त्री० दे० ‘जात-पाँत’।				 | 
			
			
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					जाति-फल					 :
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					पुं० [मध्य० स०] जायफल।				 | 
			
			
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					जाति-ब्राह्मण					 :
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					पुं० [तृ० त०] वह ब्राह्मण जिसका केवल जन्म किसी ब्राह्मण कुल में हुआ हो परन्तु अपने जाति-धर्म का पालन न करता हो।				 | 
			
			
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					जाति-भ्रंश					 :
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					पुं० [ष० त०] जाति भ्रष्टता।				 | 
			
			
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					जातिभ्रंशकर					 :
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					पुं० [सं० जातिभ्रंश√कृ (करना)+ट] मनु के अनुसार नौ प्रकार के पापों में से एक जिसमें मनुष्य अपनी जाति आश्रम आदि से भ्रष्ट हो जाता है।				 | 
			
			
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					जाति-भ्रष्ट					 :
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					वि० [तृ० त०] जाति-च्युत।				 | 
			
			
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					जाति-लक्षण					 :
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					पुं० [ष० त०] किसी जाति में विशिष्ट रूप से पाये जानेवाले चिन्ह या लक्षण।				 | 
			
			
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					जाति-वाचक					 :
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					वि० [ष० त०] १. जाति बतानेवाला। २. जाति के हर सदस्य का समान रूप से सूचक। जैसे–जातिवाचक संज्ञा।				 | 
			
			
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					जाति-वाद					 :
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					पुं० [ष० त०] [वि० जातिवादी] यह विचार-धारा या सिद्धान्त कि हमारी अथवा अमुक जाति और सब जातियों की तुलना में श्रेष्ठ है। (रेशियलिज्म)।				 | 
			
			
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					जाति-विद्वेष					 :
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					पुं० [तृ० त०] जाति-वैर।				 | 
			
			
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					जाति-वैर					 :
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					पुं० [तृ० त०] एक जाति के जीवों का दूसरी जाति के जीवों के प्रति होनेवाला प्राकृतिक या वंशगत वैर।				 | 
			
			
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					जाति-शस्य					 :
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					पुं० [ष० त०] जायफल।				 | 
			
			
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					जाति-शास्त्र					 :
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					पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें मनुष्यों की जातियों के विभागों, पारस्परिक संबंधों, जातीय गुणों आदि का विवेचन होता है। (एन्थालोजी)।				 | 
			
			
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					जाति-संकर					 :
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					पुं० [ष० त०] दोगला। वर्णसंकर।				 | 
			
			
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					जाति-सार					 :
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					पुं० [ष० त०] जायफल।				 | 
			
			
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					जाति-स्मर					 :
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					पुं० [ष० त०] वह अवस्था जिसमें मनुष्य को अपने पूर्वजन्म की बातें याद आती या रहती हैं।				 | 
			
			
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					जाति-स्वभाव					 :
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					पुं० [ष० त०] एक अलंकार जिसमें आकृति और गुण का वर्णन किया जाता है।				 | 
			
			
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					जाति-हीन					 :
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					वि० [तृ० त०] नीच जाति का।				 | 
			
			
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