शब्द का अर्थ
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चोर :
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पुं० [सं०√चुर् (चुराना) +णिच्+अच्, प्रा, पा० गुज० पं० बँ० मरा० चोर, सि० चोरू, सिह, होर] १. वह जो लोगो की आँख बचाकर दूसरों की कोई चीज अपने उपयोग के लिए उठा ले जाता या रख लेता हो। बिना किसी को जतलाये हुए पराई चीज लेकर उस पर अपना अधिकार या स्वामित्व स्थापित करने वाला व्यक्ति। चुराने या चोरी करनेवाला। तस्कर। जैसे–(क) चोर उनके घर में घुसकर सब माल–असबाब उठा ले गये। (ख) आजकल नगर में चोरों का ऐसा दल आया है जो मकान किराये पर लेकर आस-पास की दूकानों या मकानों में चोरी करता है। मुहावरा–(कहीं या किसी के घर) चोर पड़ना चोर या चोरों का आकर बहुत सी चीजें चुरा ले जाना। कहा०–चोर के घर (या चोर पर) मोर पड़ना=(क) एक चोर के घर पहुंचकर दूसरे चोर का चीजें चुराना या चोरी करना। (ख) किसी दुष्ट या धूर्त के साथ उससे भी बड़े दुष्ट या धूर्त के द्वारा दुष्टता या धूर्त्तता का व्यवहार होना। २. लड़कों के खेल में, प्रायः एक दूसरे लड़के को छूकर चोर बनाना या अपनी पीठ पर चढ़ाकर कुछ दूर पहुँचाना या ले जाना हो है। ३. क्षत या घाव के संबंध में, वह दूषित और विषाक्त अंश, तत्त्व या विकार जो किसी प्रकार अन्दर या नीचे छिपा या दबा रह गया हो और आगे चलकर दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकता हो। जैसे–इस घाव का मुँह ऊपर से बंद हो गया है, पर अभी इसके अन्दर चोर है।(आशय यह है कि इसका मुँह फिर से खुलकर दूषित अंश या विकार निकलना चाहिए) ४. किसी तल में वह थोड़ा-सा या सूक्ष्म अंश जो ठीक तरह से बनने, भरने आदि से छूट गया हो, इसलिए जो दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकता या दोषमाना जाता है। जैसे–(क) जब छत बनने में कही चोर रह जाता है, तभी वह चूती या टपकती है, (ख) मेंहदी हाथ में ठीक तरह से नहीं लगी हैं, कई जगह चोर रह गया है। ५. ताश, गंजीफे आदि के खेलों में, वह हलका पत्ता जो किसी खिलाड़ी के हाथ में इसलिए रुका रहता है कि इसे चलने पर उसकी हार की सम्भावना होती है। पद–गुलाम चोर ताश का एक विशिष्ट खेल जिसमें कोई एक पत्ता चोर बनाकर अलग कर दिया जाता है। खेल के अंत में जिसके हाथ में उस पत्ते के जोड़ का दूसरा पत्ता बच रहता है, वही खिलाड़ी चोर कहलाता है। ६. लाक्षणिक रूप में, मन में उत्पन्न होने या रहनेवाला कोई अनुचित और कपटपूर्ण उद्देश्य, भाव या विचार। जैसे–यदि तुम उनसे मिलकर सब बातों का निपटारा नहीं करना चाहते तो तुम्हारे मन में जरूर कोई चोर है। ७. चोरक नाम का गंध द्रव्य। ८. रहस्य संप्रदाय में, (क) काम, क्रोध, मोह आदि विकार। (ख) मृत्यु। वि० (क) समस्त पदों में उत्तर पदों के रूप में और व्यक्तियों के संबंध में–१.किसी की कोई चीज चुरानेवाला। चोरी करनेवाला। जैसे–किताब चोर, जूता चोर। २. किसी प्रकार कुछ चुराने, छिपाने दबा रखने या सामने न करनेवाला। जैसे–मुँहचोर=जल्दी किसी को मुँह न दिखानेवाला। ३. कर्त्तव्यपालन, कष्ट, परिश्रम आदि से अपने आप को बचानेवाला। (ख) समस्त पदों में पूर्वपद के रूप में पदार्थों आदि के संबंध में–१. जो इस प्रकार आड़ में छिपा हो कि ऊपर या बाहर से देखने पर जल्दी दिखाई न दे, जिसका सब लोगों को सहसा पता न चलता हो या जिसे साधारण लोग न जानते हों। जैसे–अलमारी या संदूक में का चोर-खाना या चोर-ताला, किसी बड़ी बस्ती में चोर गली, जिसे तख्ते में का चोर छेद, किसी बड़े मकान में का चोर दरवाजा या चोर सीढ़ी आदि। २. (स्थान) जहाँ या जिसमें कोई ऐसा काम या बात होती हो जो उसके सामने या खुले-आम न हो सकती हो, बल्कि चुरा-छिपाकर की जाती हो। जैसे–चोरबाजार, चोर महल आदि। ३. (तल या स्थान) जो ऊपर से देखने पर तो बिलकुल ठीक और पक्का जान पड़े, परन्तु जिसके नीचे कुछ पोलापन हो और इसलिए जो थोड़ा-सा भार पड़ने पर या सहज में दब अथवा धँस सकता हो। जैसे–चोर जमीन, चोर बालू या चोर मिट्टी आदि। ४. शरीर या उसके किसी अंग के संबंध में, जिसकी क्रिया शक्ति, स्वरूप आदि का बाहर से देखने पर अनुमान न हो सकता हो या पूरा पता न चलता हो। जैसे–चोर थन, चोर पेट चोर बदन आदि। ५. अनाज के दानों के संबंध में जो साधारण से बहुत अधिक कड़ा हो और इसलिए कूटने-पीसने आदि पर भी ज्यों का त्यों बचा या बना रहता हो और टूटता या पिसता न हो। जैसे–चोर ऊड़द, चोर मटर, चोर मूँग आदि। |
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चोर-कंटक :
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पुं० [कर्म० स] चोरक नाम का गंद द्रव्य। |
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चोरक :
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पुं० [सं० चोर+कन्] १. एक प्रकार का गठिबन जिसकी गणना गंध द्रव्यो में होती है। २. असबरग जिसकी गिनती गंध द्रव्यों में होती है। |
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चोरकट :
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पुं० [हिं० चोर+कट=काटनेवाला] उचक्का। चोट्टा। |
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चोरखाना :
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पद पुं० [हिं०] अलमारी, संदूक आदि में का ऐसा छिपा हुआ खाना, घर या विभाग जो ऊपर से देखने पर सहसा न दिखाई देता हो। |
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चोर-खिड़की :
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स्त्री० [हिं०] छोटा चोर दरवाजा (दे० चोर दरवाजा’) |
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चोर-गणेश :
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पुं० [कर्म० स] तांत्रिकों के एक गणेश जिनके विषय में कहा जाता है कि यदि जप करने के समय हाथ की उंगलियों में संधि रह जाय, तो वे उसका फल चुरा या हरण कर लेते हैं। |
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चोरगली :
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स्त्री० [हिं०] १. नगर या बस्ती की वह छोटी या तंग गली जिसका पता सब लोगों को न हो। २. पाजामें का वह भाग जो दोनों जाँघों के बीच में पड़ता है। |
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चोर-चकार :
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पुं० [हिं० चोर+अनु० चकार] १. चोर। २. उचक्का। चोट्टा। |
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चोर-चमार :
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वि० [हिं०] [भाव० चोरी-चमारी] (व्यक्ति) जो चोरी आदि निन्दनीय तथा निकृष्ट काम करता हो। |
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चोर-छेद :
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पुं० [हिं०] दो चीजों के बीच का बहुत छोटा और छिपा हुआ अवकाश। संधि। दरज। |
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चोर-जमीन :
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स्त्री० [हिं० चोर+जमीन] ऐसी जमीन जो ऊपर से देखने में तो ठोस या पक्की जान पड़े, पर नीचे से पोली हो और जो भार पड़ते ही नीचे धँस या दब जाय। |
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चोरटा :
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वि० [हिं० चोर+टा (प्रत्य)] [स्त्री० चोरटी] १. चोरी करने या चुरानेवाला। उदाहरण–लिये जाति चित चोरटी वह गोरटी नारि।–बिहारी। २. दे० चोट्टा। पुं० चोर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चोर-ताला :
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पुं० [हिं०] ऐसा ताला जो ऊपर से सहसा दिखाई न देता हो, अथवा साधारण से भिन्न और किसी विशिष्ट युक्ति से खुलता हो। |
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चोर-थन :
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पुं० [हिं०] गौओं-भैसों का ऐसा थन जिसके अंदर दूध बचा रह जाता या बचा रह सकता हो। वि० [हिं०] (गौ, बकरी या भैंस) जो अपने बच्चे के लिए थन में कुछ दूध चुरा या बचा रखे, दुही जाने पर पूरा या सारा दूध न दे। |
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चोर-दंत :
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पुं० [हिं०] वह दांत जो बत्तीस दाँतों के अतिरिक्त निकलता और निकलने के समय बहुत कष्ट देता हो। |
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चोर-दरवाजा :
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पुं० [हिं०] किसी महल या बड़े मकान में प्रायः पिछवाड़े की ओर का वह छोटा दरवाजा जो आड़ में हो और जिसका पता सब लोगों को न हो। |
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चोर-द्वार :
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पुं० चोर-दरवाजा। |
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चोरना :
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स०=चुराना। |
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चोर-पट्टा :
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पुं० [हिं० चोर+पाट=सन] एक प्रकार का जहरीला पौधा जिसके पत्तों और डंठलों पर बहुत जहरीले रोएँ होते हैं जो शरीर में लगने से सूजन पैदा करते हैं। सूरत। |
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चोर-पहरा :
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पुं० [हिं० चोर=गुप्त+पहरा] पहरे का वह प्रकार जिसमें पहरेदार या तो छिपे रहते हैं अथवा भेष बदल कर पता लगाने के लिए घूमते-फिरते रहते हैं। |
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चोर-पुष्प :
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पुं०=चुरपुष्पी। |
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चोर-पुष्पिका :
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स्त्री०[चोरपुष्पी+कन्-टाप्,ह्रत्व]=चोर-पुष्पी। |
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चोर-पुष्पी :
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स्त्री० [ब० स० ङीष्.] एक प्रकार का क्षुप जिसमें आसमानी रंग के फूल लगते हैं। अंधाहुली। शंखाहुली। |
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चोर-पेट :
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पुं० [हिं०] १. स्त्रियों का ऐसा पेट जिसमें गर्भ की स्थिति का ऊपर से देखने पर जल्दी पता न चले। २. ऐसा छोटा उदर या पेट जिसमें साधारण से बहुत अधिक भोजन समा सकता या समाता हो। ३. किसी चीज के अन्दर का कोई ऐसा गुप्त विभाग या स्थान जो ऊपर से दिखाई न दे। |
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चोर-पैर :
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पुं० [हिं०] ऐसे पैर जिनके चलने की आहट न मिले या शब्द न सुनाई पड़े। उदाहरण–ऐसा ही मोर के चोर पैर आला के ने उन्हें पाया।–अज्ञेय। |
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चोर-बत्ती :
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पद स्त्री० [हिं०] हाथ में रखने की बिजली की वह बत्ती जो खटका या बटन दबाने पर ही जलती है। |
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चोर-बदन :
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पद पुं० [हिं०] ऐसा बदन या शरीर जो देखने में विशेष हृष्ट-पुष्ट न होने पर भी यथेष्ट बलवान या शक्तिशाली हो। |
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चोर-बाजार :
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पुं० [हिं०] [भाव चोर-बाजारी] व्यापार का वह क्षेत्र जिसमें नियंत्रित अथवा राशन में मिलनेवाली चीजें चोरी से और अधिक ऊँचें मूल्य पर खरीदी और बेची जाती हैं। |
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चोर-बाजारी :
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स्त्री० [हिं०] नियंत्रित अथवा राशन में मिलनेवाली वस्तुएँ खुले बाजार में और उचित मूल्य पर न बेचकर चोरी से और अधिक दाम पर बेचने की क्रिया, प्रकार या भाव। |
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चोर-बालू :
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पुं० [हिं० चोर+बालू] वह बालू या रेत जिसके नीचे दलदल, धँसाव या पोलापन हो। |
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चोर-महल :
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पुं० [हिं०] १. राजाओं, रईसों आदि का ऐसा महल या मकान जिसमें वे अपनी रखेली स्त्री या स्त्रियाँ रखते थे। २. घर के अन्दर का वह छिपा हुआ छोटा कमरा जो साधारणतः लोगों की दृष्टि में न आता हो। |
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चोर-मिहीचनी :
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स्त्री० [हिं० चोर+मीचना=बंद करना] आँख मिचौली नाम का खेल। |
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चोर-रास्ता :
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पुं० [हिं०] वह छिपा हुआ मार्ग जिसका जन-साधारण को पता न हो। चोरगली। |
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चोर-सीढ़ी :
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स्त्री० [हिं०] किसी बड़े मकान या महल में वह छोटी और सँकरी सीढ़ी जो कहीं आड़ में हो और जिसका पता सब लोगों को न हो। |
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चोर-स्यानु :
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पुं० [ष० त] कौवा ठोंठी। काकतुंडी। |
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चोर-हटिया :
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पुं० [हिं० चोर+हटिया] चोरों से अथवा चोरी का माल खरीदनेवाला दुकानदार। |
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चोर-हुली :
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स्त्री०=चोर-पुष्पी। |
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चोरा :
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स्त्री० [सं० चोर+अच्-टाप्]=चोर-पुष्पी। |
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चोराख्य :
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पुं० [सं० चोर-आख्या, ब० स०]=चोर-पुष्पी। |
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चोराना :
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स०=चुराना। |
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चोरिका :
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स्त्री० [[सं० चोर+ठन्-इक,टाप्]] चुराने का काम। चोरी। |
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चोरित :
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भू० कृ० [सं०√चुर् (चुराना)+णिच्+क्त] चुराया हुआ। |
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चोरिला :
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पुं० [सं० ?] एक प्रकार का बढ़िया चारा जिसके दाने या बीज कभी-कभी गरीब लोग अनाज की तरह खाते हैं। |
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चोरी :
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स्त्री० [हिं० चोर] १. चुराने या चोरी करने की क्रिया या भाव। २. दूसरों से कोई बात चुराने या छिपाने की क्रिया या भाव जैसे–खुदा की गर नहीं चोरी की तो फिर बन्दे की क्या चोरी।√ |
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चोरी-चोरी :
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क्रि० वि० [हिं० चोरी] १. धीरे-धीरे। २. चुपके-चुपके। ३. बिना किसी को कहे या बतलाये हुए। जैसे–(क) उन्होंने चोरी-चोरी विवाह कर लिया। (ख) आप चोरी-चोरी चले गये, मुझसे मिले तक नहीं। |
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