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चिंता  : स्त्री० [सं० चिंत्+णिच्+अङ्-टाप्] १. चिंतन करने का कार्य या भाव। किसी बात या विचार का मन में होनेवाला ध्यान या स्मरण। मन में उठने और कुछ समय तक बनी रहने वाली भावना जो कोई कष्ट या संकट उपस्थित होने या सामने आने पर उसका निवारण करने या उससे बचने के उपाय सोचने के संबंध में होती है। फिक्र। सोच। (वरी) विशेष–साहित्य में तैंतीस संचारी भावों में से एक जिसके विभाव धनहानि, वस्तु का अपहरण, निर्धनता आदि और अनुभाव उच्छ्वास, चिंतन, दुर्बलता, नत मुख होना आदि कहे गये हैं। और इसे वियोग की दस दशाओं में दूसरा स्थान दिया गया है। ३. किसी बात के महत्व का विचार। परवाह। (सदा नहिक रूप में) जैसे–तुम्हें इसकी क्या चिंता है। मुहा०–(किसी बात की)चिंता लगना=चिंता का बराबर बना रहना। जैसे–तुम्हें तो दिन-रात खाने की चिंता लगी रहती है। पद-कुछ चिंता नहीं= कुछ परवाह नहीं। खटके की कोई बात नही हैं। चिंता मत करो। ४. कोई ऐसी बात या विषय जिसके लिए चिंतन या फ्रिक की जाती हो या की जानी चाहिए।
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चिंताकुल  : वि० [चिंता-आकुल, तृ० त०] चिंता से आकुल या उद्दिग्न।
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चिंता-जनक  : वि० [ष० त०] १. चिंता उत्पन्न करनेवाला। जिसके कारण मन में चिंता हो। २. जिसकी अवस्था गंभीर या शोचनीय हो।
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चिंतातुर  : वि० [चिंता-आतुर, तृ० त०] चिंता से उद्विग्न या घबराया हुआ।
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चिंतापर  : वि० [चिंता-पर ब० स०] जो चिंतन या चिंता में लगा हुआ या लीन हो।
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चिंता-मणि  : पुं० [स० त०] १. एक प्रसिद्ध कल्पित मणि या रत्न जिसके संबंध में कहा जाता है कि जिसके पास यह रहता है, उसकी सब आवश्यकताएँ आप से आप और तुरंत पूरी हो जाती हैं। २. कोई ऐसी चीज या तत्त्व जो किसी विषय की आवश्यकताएँ और इच्छाएँ पूरी कर दे। ३. ब्रह्मा। ४. परमात्मा। ५. सरस्वती का एक मंत्र जो लड़के के जीभ पर इसलिए लिखा जाता है कि उसे खूब विद्या आवे। ६. एक बुद्ध का नाम। ७. घोड़े के गले की एक भौरी जो शुभ मानी जाती है। ८. वह घोड़ा जिसके गले में उक्त भौंरी हों। ९. फलित ज्योतिष में यात्रा का एक योग। १॰. वैद्यक में एक प्रकार का रस जो अभ्रक गंधक पारे आदि के योग से बनता है। ११. पुराणानुसार एक गणेश जिन्होंने कपिल के यहाँ जन्म लेकर महाबाहु नामक दैत्य से उस चिंतामणि रत्न का उद्धार किया था जो उसने कपिल से छीन लिया था।
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चिंता-वेश्म(न्)  : वि० [ष० त०] गोष्ठी, मंत्रणा विचार आदि करने का स्थान। मंत्रणागृह।
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चिंता-शील  : वि० [ब० स०] १. जो किसी बात की प्रायः या बहुत चिंता करता रहता हो। २. दे० ‘चिंतन’ शील’।
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