शब्द का अर्थ
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चिंत :
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स्त्री० १.=चिंतन। २.=चिंता। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
चिंतक :
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वि० [सं०√चिंत् (सोचना-विचारना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. चिंतन या मनन करनेवाला। २. चिंता करनेवाला। ३. चाहने तथा सोचनेवाला। जैसे–शुभ चिंतक। |
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चिंतन :
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पुं० [सं० चिंत्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० चिंतनीय, चिंतित, चिंत्य] १. कोई बात समझने या सोचने के लिए मन में बार-बार किया जानेवाला उसका ध्यान या विचार। मन ही मन किया जानेवाला विवेचन। गौर। जैसे–यह विषय अच्छी तरह से चिंतन करने के योग्य है। २. किसी वस्तु या विषय का स्वरूप जानने या समझने के लिए मन में रह-रहकर होनेवाला उसका ध्यान या स्मरण। जैसे–ईश्वर चिंतन में समय बिताना। |
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चिंतना :
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स्त्री० [सं०√चिंत्+णिच्+युच्-अन्, टाप्] १. चिंतन करने की क्रिया या भाव। चिंतन। २. चिंता। फिक्र। ३. सोच-विचार। स० १. किसी का चिंतन या ध्यान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) २. किसी बात की चिंता या फ्रिक करना। ३. किसी विषय का विचार करना। गौर करना। सोचना-समझना। |
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चिंतनीय :
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विं० [सं०√चिंत्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका चिंतन किया जा सके या हो सके। जो चिंतन का विषय हो सके। २. जिसके संबंध में चिंता, फ्रिक या सोच करना आवश्यक अथवा उचित हो। जो चिंता का विषय हो। जैसे– रोगी की दशा चिंतनीय है। |
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चिंतवन :
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पुं०=चिंतन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिंता :
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स्त्री० [सं० चिंत्+णिच्+अङ्-टाप्] १. चिंतन करने का कार्य या भाव। किसी बात या विचार का मन में होनेवाला ध्यान या स्मरण। मन में उठने और कुछ समय तक बनी रहने वाली भावना जो कोई कष्ट या संकट उपस्थित होने या सामने आने पर उसका निवारण करने या उससे बचने के उपाय सोचने के संबंध में होती है। फिक्र। सोच। (वरी) विशेष–साहित्य में तैंतीस संचारी भावों में से एक जिसके विभाव धनहानि, वस्तु का अपहरण, निर्धनता आदि और अनुभाव उच्छ्वास, चिंतन, दुर्बलता, नत मुख होना आदि कहे गये हैं। और इसे वियोग की दस दशाओं में दूसरा स्थान दिया गया है। ३. किसी बात के महत्व का विचार। परवाह। (सदा नहिक रूप में) जैसे–तुम्हें इसकी क्या चिंता है। मुहा०–(किसी बात की)चिंता लगना=चिंता का बराबर बना रहना। जैसे–तुम्हें तो दिन-रात खाने की चिंता लगी रहती है। पद-कुछ चिंता नहीं= कुछ परवाह नहीं। खटके की कोई बात नही हैं। चिंता मत करो। ४. कोई ऐसी बात या विषय जिसके लिए चिंतन या फ्रिक की जाती हो या की जानी चाहिए। |
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चिंताकुल :
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वि० [चिंता-आकुल, तृ० त०] चिंता से आकुल या उद्दिग्न। |
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चिंता-जनक :
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वि० [ष० त०] १. चिंता उत्पन्न करनेवाला। जिसके कारण मन में चिंता हो। २. जिसकी अवस्था गंभीर या शोचनीय हो। |
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चिंतातुर :
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वि० [चिंता-आतुर, तृ० त०] चिंता से उद्विग्न या घबराया हुआ। |
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चिंतापर :
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वि० [चिंता-पर ब० स०] जो चिंतन या चिंता में लगा हुआ या लीन हो। |
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चिंता-मणि :
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पुं० [स० त०] १. एक प्रसिद्ध कल्पित मणि या रत्न जिसके संबंध में कहा जाता है कि जिसके पास यह रहता है, उसकी सब आवश्यकताएँ आप से आप और तुरंत पूरी हो जाती हैं। २. कोई ऐसी चीज या तत्त्व जो किसी विषय की आवश्यकताएँ और इच्छाएँ पूरी कर दे। ३. ब्रह्मा। ४. परमात्मा। ५. सरस्वती का एक मंत्र जो लड़के के जीभ पर इसलिए लिखा जाता है कि उसे खूब विद्या आवे। ६. एक बुद्ध का नाम। ७. घोड़े के गले की एक भौरी जो शुभ मानी जाती है। ८. वह घोड़ा जिसके गले में उक्त भौंरी हों। ९. फलित ज्योतिष में यात्रा का एक योग। १॰. वैद्यक में एक प्रकार का रस जो अभ्रक गंधक पारे आदि के योग से बनता है। ११. पुराणानुसार एक गणेश जिन्होंने कपिल के यहाँ जन्म लेकर महाबाहु नामक दैत्य से उस चिंतामणि रत्न का उद्धार किया था जो उसने कपिल से छीन लिया था। |
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चिंता-वेश्म(न्) :
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वि० [ष० त०] गोष्ठी, मंत्रणा विचार आदि करने का स्थान। मंत्रणागृह। |
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चिंता-शील :
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वि० [ब० स०] १. जो किसी बात की प्रायः या बहुत चिंता करता रहता हो। २. दे० ‘चिंतन’ शील’। |
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चिंति :
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पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश। २. उक्त देश का निवासी। |
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चिंतित :
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भू० कृ० [सं०√चिंत्+क्त] जो चिंता से विकल हो रहा हो। जिसे किसी बात की चिंता या फिक्र हो रही हो। चिंतायुक्त। |
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चिंतिति :
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स्त्री० [सं०√चिंत्+क्तिन्] चिंता। |
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चिंतीड़ी :
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स्त्री०[सं०-तिंतिड़ी,पृषो.सिद्धि] इमली। |
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चिंत्य :
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वि०[सं०चित्+ण्यत्] १.जिसके संबंध में चिंता करना आवश्यक उचित हो। २. दे० ‘चिंतनीय’। |
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चिंतेरा :
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पुं० [सं० चित्रकार, गु० चितारो, पं० चितेरा, सिंह, सितिए र] [स्त्री० चितेरिन, चितेरी] वह जो चित्र अंकित करने या बनाने का काम करता हो। चित्रकार। मुसौवर। |
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