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चस  : स्त्री० [अनु०] गोटे आदि की पतली धारी जो मगजी के आगे पहने जानेवाले वस्त्रों में लगाई जाती है।
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चसक  : स्त्री० [अनु०] १. हलका दर्द या पीड़ा। कसक। टीस। २. गोटे आदि की वह पतली गोट जो मगजी के आगे लगाई जाती है। पुं०=चषक।
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चसकना  : अ० [हिं० चसक] शरीर के किसी अंग में रह-रहकर हल्की पीड़ा होना। टीस उठना।
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चसका  : पुं०=चस्का।
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चसकी  : स्त्री० दे० ‘चसका’।
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चसना  : अ० [सं० चषण] १. प्राण त्यागना। मर जाना। २. ठगा जाना। अ० [हिं० चाशनी] १. दो चीजों का आपस में चिपक, लग या सट जाना। २. कपड़े आदि का खिंचने पर फट या मसक जाना।
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चसम  : पुं० [देश०] रेशम के तागों में निकला हुआ निरर्थक अंश। स्त्री०=चश्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चसमा  : पुं०=चश्मा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चस्का  : पुं० [सं० चषण] १. किसी काम या बात से होनेवाली तृप्ति या मिलने वाले सुख के कारण फिर-फिर वैसी ही तृप्ति या सुख पाने के लिए मन में होनेवाली लालसापूर्ण प्रवृत्ति या मनोवृत्ति। चाट। जैसे–जूए या शराब का चस्का, गाना सुनने या बातें करने का चस्का। २. उक्त प्रकार की प्रवृत्ति का वह पुष्ट रूप जो आदत या बान बन गया हो। लत। क्रि० प्र०–पड़ना।–लगना।–लगाना। विशेष–इस शब्द का प्रयोग मुख्यतः ऐसे ही कामों या बातों के संबंध में होता है जो लोक में या तो कुछ बुरी या प्रायः अनावश्यक और व्यर्थ की समझी जाती है। साधारणतः भगवद्भक्ति का चस्का’, या ‘साहित्य सेवा की चस्का’ सरीखे प्रयोग देखने-सुनने में नहीं आते।
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चस्पाँ  : वि० [फा०] १. गोंद, लेई, सरेस आदि की सहायता से किसी पर चिपकाया, लगाया या सटाया हुआ। २. किसी के साथ अच्छी तरह चिपका या लगा हुआ।
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चस्म  : स्त्री०=चश्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चस्सी  : स्त्री० [देश०] हथेली या पैर के तलुए में होनेवाली सुरसुराहट या हलकी खुजली।
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