शब्द का अर्थ
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ग्राम :
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पुं० [सं०√Öग्रस् (खाना)+मन् आत्व] १. मनुष्यों का समूह या उनके रहने का स्थान। आबादी। बस्ती। २. छोटी बस्ती। गाँव। ३. ढेर। राशि। समूह। जैसे–गुण ग्राम। ४. शिव। ५. षंडूज से निषाद तक क्रम से सातों स्वरों का समूह। सप्तक। वि० १.गाँव या बस्ती में रहनेवाला। २. पालतू। जैसे–ग्राम शूकर। ३. गँवार। देहाती। |
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ग्राम-कंटक :
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पुं० [ष० त०] वह जो गाँव या बस्ती में तरह-तरह के उत्पात या उपद्रव करके सब लोगों को कष्ट पहुँचाता या दुःखी रखता हो। |
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ग्राम-कुक्कुट :
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पुं० [ष० त०] पालतू मुरगा। |
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ग्राम-कूट(क) :
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पुं० [ष० त०] शूद्र। |
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ग्राम-गीत :
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पुं० [सं० मध्य० स०] गाँवों में गाये जानेवाले गीत। लोक-गीतों के अंतर्गत ग्रामगीतों और जंगली लोगों के गीतों को सम्मिलित किया या माना जाता है। |
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ग्राम-गेय :
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पुं० [स० त०] एक प्रकार का साम। वि० गांव में गाया जानेवाला । |
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ग्राम-घात :
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पुं० [ष० त०] गाँव को लूटना। |
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ग्राम-चर :
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वि० [सं० ग्रामचर् (गति)+ट, उप० स०] गाँव में रहनेवाला। |
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ग्राम-चर्या :
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स्त्री० [ष० त०] स्त्री के साथ किया जानेवाला संभोग या सहवास। |
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ग्राम-चैत्य :
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पुं० [ष० त०] गाँव का पवित्र या पूज्य वृक्ष। |
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ग्रामज :
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वि० [सं० ग्राम√जन् (उत्पन्न होना)+ड, उप० स०] गाँव में उत्पन्न होनेवाला। ग्राम में उत्पन्न। |
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ग्राम-जात :
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वि० [पं० त०]==ग्रामज। |
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ग्रामणी :
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पुं० [सं० ग्राम√नी(ले जाना)+क्विप्, उप० स०] १. गाँव के मालिक। २. गाँव का मुखिया। ३. लोगों का नेता या प्रधान व्यक्ति। ४. विष्णु। ५. यक्ष। ६. नाई। हज्जाम। स्त्री० १. वेश्या। २. नील का पौधा। |
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ग्राम-देव :
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पुं० [ष० त०]==ग्राम देवता। |
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ग्राम-देवता :
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पुं० [ष० त०] गाँव का वह स्थानिक प्रधान देवता जो उसका रक्षक माना जाता है और जिसकी पूजा गाँव के सब लोग करते हैं। |
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ग्राम-धर्म :
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पुं० [ष० त०] स्त्री-संभोग। मैथुन। |
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ग्राम-पंचायत :
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स्त्री० [सं०+हिं० ] गाँव के चुने हुए लोगों की वह पंचायत जो गाँव भर के झगड़ों बखेड़ों का निर्णय करती है और वहाँ की सब प्रकार से सुव्यवस्था करती है। |
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ग्राम-पाल :
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पुं० [सं० ग्राम√Öपाल् (रक्षक करना)+णिच्+अण्,उप.स०] १.गाँव का मालित या स्वामी। २. गाँव का प्रधान अधिकारी या रक्षक। |
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ग्राम-प्रेष्य :
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पुं० [ष० त०] वह जो गाँव के सब लोगों की सेवा करता हो। मनु के अनुसार ऐसा मनुष्य यज्ञ और श्राद्ध आदि कार्यों में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए। |
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ग्राम-मुख :
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पुं० [ब० स०] गाँव का बाजार। हाट। |
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ग्राम-मृग :
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पुं० [ष० त०] १. गाँव में रहने वाले पशु। २. कुत्ता। |
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ग्राम-याजक :
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पुं० [ष० त०] वह ब्राह्मण जो ऊँच-नीच सभी तरह के लोगों का पुरोहित हो। (ऐसा व्यक्ति प्रायः पतित माना जाता है।)। |
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ग्राम-याजी(जिन्) :
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पुं० [सं० ग्राम√Öयज् (पूजा)+णिच्+णिनि, उप० स०]==ग्राम याजक। |
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ग्राम-युद्ध :
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पुं० [ष० त०] गाँव या बस्ती भर में होनेवाला उपद्रव और मार-पीट। |
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ग्राम-वल्लभा :
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स्त्री० [ष० त०] १. वेश्या। रंडी। २. पालक का साग। |
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ग्राम-वासी(सिन्) :
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वि० [सं० ग्राम√वस् (बसना)+णिनि० उप० स०] १. गाँव में बसने या रहनेवाला। २. पालतू। |
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ग्राम-सिंह :
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पुं० [ष० त०] कुत्ता। |
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ग्राम-सुधार :
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पुं० [सं० ग्राम+हिं० सुधार] गाँव के दोष दूर करने तथा सब क्षेत्रों में उसकी उन्नति करने का काम। गाँव की अवस्था सुधारने का काम। (रूरल अपलिफ्ट) |
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ग्राम-हासक :
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पुं० [ष० त०] बहनोई, जिससे गाँव भर के लोग हँसी मजाक करते हैं। |
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ग्रामाचार :
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पुं० [ग्राम-आचार, ष० त०] किसी गाँव की विशिष्ट प्रथाएँ तथा रीति-रिवाज। |
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ग्रामाधिप, ग्रामाध्यक्ष :
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पुं० [ग्राम-अधिप, ग्राम अध्यक्ष, ष० त०] गाँव का प्रधान अधिकारी। मुखिया। |
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ग्रामिक :
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वि० [सं० ग्राम+ठञ्-इक] १. गाँव में उपजने या होनेवाला। २. ग्रामवासियों से संबंधित। पुं० १. गाँव का चुना या माना हुआ प्रधान या मुखिया। २. ग्रामवासी। |
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ग्रामिणी :
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स्त्री० [सं० ग्राम+इनि-ङीष्] नील का पौधा। |
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ग्रामी (मिन्) :
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वि० [सम० ग्राम+इनि] १. (व्यक्ति) जो गाँव में रहता हो। २. ग्राम्य। पुं० १. ग्रामवासी। देहाती। २. गाँव में रहनेवाले पशु। जैसे–कुत्ता, कौआ मुरगा आदि। स्त्री० १. पालक का साग। २. नील का पेड़। |
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ग्रामीय :
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वि० [सं० ग्राम+छ-ईय] ग्राम्य। |
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ग्रामेय :
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पुं० [सं० ग्राम+ढ़क्-एय] ग्रामवासी। वि० ग्राम्यवासी। |
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ग्रामेयी :
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स्त्री० [सं० ग्रामेय+ङीष्] वेश्या। |
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ग्रामेश,ग्रामेश्वर :
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पुं० [सं० ग्राम-ईश,ग्राम-ईश्वर,ष० त०] गाँव का प्रधान या मुखिया। |
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ग्राम्य :
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वि० [सं० ग्राम+यत्] १. गाँव से संबंध रखनेवाला। गाँव का। जैसे–ग्राम्य-गीत, ग्राम्य-सुधार। २. गाँव में रहने या पाया जानेवाला। ३. ग्रामवासियों के रीति-रिवाज, स्वभाव, व्यवहार आदि से संबंध रखनेवाला। जैसे–ग्राम्य व्यवहार। ४.जो ग्रामवासियों की प्रकृति, स्वभाव, व्यवहार आदि का सा हो। असभ्य या अरुचिपूर्ण। ५. अश्लील। ६. जिसमें किसी प्रकार का संशोधन या सुधार न हुआ हो। अनमढ़ और प्रकृत। ७. (जीव या पशु) जो पाला पोसा और गाँव या बस्ती में रखा गया हो अथवा रहता आया हो। जैसे–कुत्ता, गधा, गौ आदि ग्राम्य पशु। पुं० १. अनाड़ी। बेवकूफ। मूर्ख। २. मैथुन की एक मुद्रा या रतिबंध। ३. काव्य का एक दोष, जो किसी साहित्यिक रचना में (क) गँवारू शब्दों के प्रयोग अथवा (ख) गँवारू विषयों के वर्णन के कारण उत्पन्न माना गया है। ४. यह शब्दगत और अर्थगत दो प्रकार का होता है। ४. अशिष्ट और अश्लीलतापूर्ण कथन या बात। ५. स्त्री-प्रसंग। मैथुन। ६. मिथुन राशि। |
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ग्राम-कर्म(न्) :
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पुं० [कर्म० स०] स्त्री० प्रसंग। मैथुन। |
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ग्राम-कुंकुम :
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पुं० [कर्म० स०] बर्रे का पौधा या फूल। कुसुंभ। |
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ग्राम्य-देवता :
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पुं० [कर्म० स०]==ग्रामदेवता। |
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ग्राम्य-दोष :
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पुं० [कर्म० स० ] काव्य का ग्राम्य नामक दोष। ( दे० ‘ग्राम्य’)। |
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ग्राम्य-धर्म :
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पुं० [ष० त०] मैथुन। स्त्री० प्रसंग। |
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ग्राम्य-पशु :
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पुं० [कर्म० स०] पालतू जानवर। |
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ग्राम्य-मृग :
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पुं० [कर्म० स०] कुत्ता। |
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ग्राम्य-वल्लभा :
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स्त्री० =ग्राम-वल्लभा। |
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ग्राम्या :
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स्त्री० [सं० ग्राम्य+टाप्] १.नील का पौधा। २.तुलसी। |
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