शब्द का अर्थ
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क्षिप :
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वि० [सं०√क्षिप् (फेंकना)+क] फेंकने वाला। पुं० (कोई चीज) फेंकने की क्रिया या भाव। |
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समानार्थी शब्द-
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क्षिपक :
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वि० [सं० क्षेपक+कन्] फेंकनेवाला। पुं० १. तीरंदाज। २. योद्धा। |
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क्षिपण :
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पुं० [सं०√क्षिप्+क्युन्—अन] १. कोई चीज गिराने या फेंकने की क्रिया या भाव। २. मारना। ३. आक्षेप करना। ४. अभियोग लगाना। |
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क्षिपणी :
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स्त्री० [सं०√क्षिप्+अनि, ङीप् (बा०)] १. ऐसा अस्त्र जो हाथ से अथवा किसी उपकरण से फेंक कर चलाया जाय। क्षेप्यास्त्र। (मिस्सिल वेपन) २. डाँड़। |
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क्षिपुण :
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पुं० [सं०√क्षिप्+अनुङ्] १. फेंक कर चलाया जानेवाला अस्त्र। २. वायु। ३. व्याघ। |
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क्षिपा :
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स्त्री० [सं०√क्षिप्+अङ्, टाप्] १. फेंकना २. रात। |
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क्षिप्त :
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वि० [सं०√क्षिप्+क्त] १. फेंका हुआ (अस्त्र)। २. (पदार्थ) जो इधर-उधर फेंका या बिखेरा गया हो। विकीर्ण। ३. भेजा हुआ। ४. अपमानित। ५. पतित। ६. उचटा हुआ। चंचल। ७. वातरोग-ग्रस्त। ८. पागल। विक्षिप्त। पं० चित्त की पाँच वृत्तियों में से एक जिसमें चित्त रजोगुण के द्वारा सदा अस्थिर रहता है। (दे० ‘चित्तभूमि’)। |
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क्षिप्ता :
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स्त्री० [सं०√क्षिप्+क्त, टाप्] रात्रि। |
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क्षिप्ति :
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स्त्री० [सं०√क्षिप्+क्तिन्] फेंकने की क्रिया या भाव। |
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क्षिप्र :
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अव्य० [सं०√क्षिप् (प्रेरणा)+रक] १. शीघ्र। जल्दी। २. तत्काल। तुरंत। वि० १. तेजी से चलता हुआ। २. अस्थिर। चंचल। पुं० १. शरीर में अँगूठे और तर्जनी या दूसरी ऊंगली के बीच का स्थान जो वैद्यक में मर्मस्थल माना गया है। २. एक मुहूर्त्त का पन्द्रहवाँ भाग। |
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क्षिप्रपाकी :
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पुं० [सं० क्षिप्र√पच् (पाक)+घिनुण्, (बा०)] गर्दभांड नामक वृक्ष। पारस पीपल। |
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क्षिप्र-मूत्र :
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पुं० [सं० ब० स०] जल्दी-जल्दी और बार-बार पेशाब होने का रोग। बहुमूत्र। |
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क्षिप्र-श्येन :
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पुं० [कर्म० स०] एक प्रकार का बाज पक्षी। |
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क्षिप्र-हस्त :
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वि [ब० स०] जिसका हाथ बहुत तेज चलता हो। बहुत जल्दी काम करनेवाला। कुशल। पुं० १. अग्नि। २. एक राक्षस। |
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क्षिप्र-होम :
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पुं० [मध्य० स०] जल्दी-जल्दी किया जाने वाला होम (जिसमें बहुत-सी बातें छोड़ दी जाती हैं)। |
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