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कूट  : पुं० [सं०√कूज् (आच्छादित करना, जलाना आदि)+अच्] १. पहाड़ की ऊँची चोटी। जैसे—चित्रकूट। २. आगे की ओर निकला हुआ नुकीला सिरा। नोक। ३. सींग। ४. ढेर। राशि। जैसे—अन्नकूट। ५. हल की वह लकड़ी जिसमें फाल लगा होता है। ६. लोहे का बड़ा हथौड़ा। ७. हिरन आदि फँसाने का जाल। ८. म्यान में रखा हुआ हथियार। ९. छल। धोखा। १॰. वैर। ११. झूठ। १२. अगस्त्य ऋषि। १३. घड़ा। १४. नगर का द्वार। १५. साहित्य में ऐसा पद या रचना, जिसमें श्लिष्ट अथवा संबंध-सूचक सांकेतिक शब्दों का प्राधान्य हो और इसी लिए जिसका ठीक अर्थ जल्दी सब लोगों की समझ में न आता हो। जैसे—सूर के कूट। १६. कोई ऐसी रहस्यमय बात जिसका आशय या मतलब जल्दी समझ में न आता हो। उदाहरण—प्रश्न चित्रों का फैला कूट। ‘निराला’। १७. वह हास्य या व्यंग्य जिसमें कोई गूढ़ अर्थ या आशय छिपा हो। १८. निहाई। १९. टूटे हुए सीगोंवाला बैल। वि० [सं० ] १. झूठा मिथ्यावादी। २. छली। धोखा देनेवाला। ३. कृत्रिम। जाली। बनावटी। जैसे—कूट मुद्रा। ४. प्रधान। मुख्य। स्त्री० [हिं० कूटना] १. कोई चीज कूटने की क्रिया या भाव। २. कूटने की मजदूरी। पुं० दे० ‘कुट’ (ओषधि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटक  : वि० [सं० कूट+कन्] किसी को छलने या धोखा देने के लिए कहा, किया या बनाया हुआ। जैसे—कूटक आख्यान।
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कूट-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] ऐसा काम जो दूसरों को छलने या धोखा देने के लिए किया गया हो।
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कूट-कर्मा (र्मन्)  : पुं० [ब० स०] कूट-कर्म करने अर्थात् दूसरों को छलने या धोखा देनेवाला व्यक्ति।
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कूट-क्षेत्र  : पुं० [ष० त०] सामरिक दृष्टि से विक्षेप महत्त्व का कोई क्षेत्र (स्ट्रैटेजिक एरिया)
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कूट-तर्क  : पुं० [कर्म० स०] १. सीधी बात घुमाकर कहने की क्रिया। २. इस प्रकार की कही हुई बात। वाग्जाल।
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कूटता  : स्त्री० [सं० कूट+तल्-टाप्] १. कूट होने की अवस्था या भाव। २. कपट। छल। ३. झूठ ४. कठिनाई। दिक्कत।
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कूट-तुला  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसा तराजू जिसमें जान-बूझकर पासँग रखा गया हो, और इसलिए जिसमें चीज उचित से कम तुलती हो।
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कूटत्व  : पुं० [सं० कूट+त्व]=कूटता।
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कूटन  : स्त्री० [हिं० कूटना] १. कूटने की क्रिया। २. कोई चीज कूटने पर बननेवाला उसका रूप।
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कूटना  : स० [सं० कुट्टन] १. किसी चीज पर इस प्रकार भारी चीज से बार-बार आघात करना कि उसके बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हो जाय। जैसे—मसाला कूटना। २. धान को ऊखल में रखकर मूसल आदि से इस प्रकार बार-बार आघात करना कि उसकी भूसी अलग हो जाय। मुहावरा—(कोई चीज) कूट-कूट कर भरना=दबा-दबा कर किसी पात्र में कोई वस्तु अधिक-से-अधिक मात्रा में भरना। (किसी व्यक्ति में) कूट-कूटकर भरा होना=(किसी व्यक्ति में) कोई गुण या दोष बहुत अधिक मात्रा में होना। जैसे—चतुराई तो उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। ३. जोर-जोर से बराबर मारते रहना। खूब ठोंकना या पीटना। ४. टाँकी आदि से आघात करते हुए चक्की सिल आदि का तल इसलिए खुरदुरा करना कि उसमें चीजें अच्छी तरह पिस सकें। ५. बैल या भैसे का अंडकोश आघात से चूर-चूर करके उसे बधिया करना। ६. ऊँट का पैर मोड़कर उसे ऊपरी भाग में बाँधना।
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कूट-नीति  : स्त्री० [कर्म० स०] व्यक्तियों अथवा राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार में दाँव-पेंच की ऐसी नीति या चाल जो सहज में प्रकट या स्पष्ट न हो सके। छिपी हुई चाल। (डिप्लोमेसी)।
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कूट-पण  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा लेख्य या सिक्का जो असली या वास्तविक न हो, बल्कि जाल रचकर बनाया गया हो।
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कूट-पाठ  : पुं० [ब० स०] मृदंग के चार वर्णों में से एक वर्ण।
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कूट-पालक  : पुं० [सं० कूट√पाल् (रक्षण)+णिच्०+ण्वुल्-अक] पित्तज्वर।
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कूट-पाश  : पुं० [कर्म० स०] पक्षियों को फँसाने का जाल।
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कूट-पूर्व  : पुं० [मध्य० स०] हाथियों का त्रिदोषज ज्वर।
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कूट-प्रश्न  : पुं० [कर्म० स०] १. ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर सहज में न दिया जा सके। २. पहेली।
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कूट-बंध  : पुं० [कर्म० स०] पक्षी आदि फँसाने का जाल।
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कूट-मान  : पु० [कर्म० स०] १. ऐसी तौल या मान जो पूरा या मानक न हो। ठीक नाप से कुछ बड़ा या छोटा नाप। २. उचित से हलका या भारी बटखरा।
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कूट-मुद्र  : पुं० [ब० स०] वह जो जाली मुद्रायँ, लेख्य, सिक्के आदि बनाता हो।
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कूट-मुद्रा  : स्त्री० [कर्म० स०] खोटा या जाली मुद्रा, लेख्य या सिक्का।
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कूट-मोहन  : पुं० [सं० कूट√मुह (मुग्ध होना)+णिच्+ल्यु-अन०] कार्तिकेय।
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कूट-युद्ध  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसा युद्ध या लड़ाई जिसमें धोखा देनेवाली चालें चली जाएँ। ‘धर्म-युद्ध’ का विपर्याय।
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कूट-योजना  : स्त्री० [कर्म० स०] षडंयंत्र।
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कूट-रूप  : पुं० [कर्म० स०] जाली सिक्का।
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कूट-लेख  : पुं० [कर्म० स०] जाली दस्तावेज या लेख्य।
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कूट-लेखक  : पुं० [कर्म० स०] जाली दस्तावेज बनानेवाला व्यक्ति।
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कूट-शाल्मलि  : पुं० [कर्म० स०] जंगली शाल्मलि (सेमर) का वृक्ष।
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कूट-शासन  : पुं० [कर्म० स०] जाली राजकीय आज्ञापत्र।
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कूट-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [कर्म० स०] झूठा गवाह।
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कूट-साक्ष्य  : पुं० [कर्म० स०] झूठी गवाही।
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कूटस्थ  : वि० [सं० कूट√स्था (ठहरना)+क] १. जो कूट अर्थात् सबसे ऊँचे या श्रेष्ठ स्थान पर स्थित हो। २. अटल। अचल। ३. अविनाशी। ४. छिपा हुआ। ५. विकार रहित। निर्विकार। पुं० [सं० ] १. व्याघ्रनख नामक सुगंधित पदार्थ। २. जीव। ३. परमात्मा। ४. वेदान्त में चेतन का वह रूप जो अविद्या से आच्छन्न रहता है।
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कूट-स्थल  : पुं० [ष० त०] सामरिक दृष्टि से अधिक महत्त्व का कोई विशिष्ट केन्द्र या स्थान (स्ट्रैटेजिक प्वाइन्ट)
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कूट-स्वर्ण  : पुं० [कर्म० स०] १. खोटा या जाली सोना। २. ऐसे सोने का सिक्का।
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कूटा  : पुं० [हिं० कूटना] १. वह व्यक्ति जो चीजें कूटने का काम करता हो। २. वह उपकरण जिससे चीजें कूटी जाती हों। कुटना।
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कूटाक्ष  : पुं० [सं० कूट-अक्ष, कर्म० स०] जूआ खेलने का ऐसा बनाया हुआ पासा जिससे अधिकतर कोई या कुछ विशिष्ट दाँव ही आते हों। (छलपूर्वक किसी को जीतने का साधन)
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कूटाख्यान  : पुं० [सं० कूट-आख्यान, कर्म० स०] १. कल्पित कथा। २. ऐसी कथा जिसमें कुछ ऐसे वाक्य हों जिनका कुछ अर्थ ही न लगता हो।
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कूटागार  : पुं० [सं० कूट-आगार, कर्म० स०] १. बौद्धों के अनुसार वह मंदिर जो मानुषी बुद्धों के लिए बना हो। २. छत के ऊपर की कोठरी। चौबारा। ३. तहखाना।
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कूटायुध  : पुं० [सं० कूट-आयुध, कर्म० स०] ऐसा आयुध या हथियार जो किसी दूसरी चीज के अन्दर छिपा हुआ हो। जैसे—गुप्ती जो ऊपर से देखने में छड़ी जान पड़ती है पर जिसके अन्दर बरछी रहती है।
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कूटार्थ  : वि० [सं० कूट-अर्थ, कर्म० स०] (लेख या वाक्य) जिसका अर्थ सहज में न जाना जा सके। पुं० लेख्य या वाक्य का उक्त प्रकार का अर्थ।
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कूटावपात  : पुं० [सं० कूट-अवपात० कर्म० स०] जंगली जानवरों को फँसाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा जो ऊपर से घास-पात से ढका रहता है।
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कूटि  : स्त्री० [सं० कूट] कूट और व्यंग्यपूर्ण कथन या बात। उदाहरण—करहिं कूटि नारदहिं सुनाई।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटी  : स्त्री०=कुटी (पर्णशाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटी  : पुं० [सं० कूट+हिं० ई (प्रत्यय)] १. जाली या नकली वस्तुएँ बनानेवाला। जालिया। २. फरेबी। ३. कुटना। स्त्री०=कुटनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कूटू  : पुं० [देश०] एक पौधा, जिसके बीजों का आटा फलाहार के रूप में खाया जाता है। कोटू।
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