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कवि  : पुं० [सं०√कव् (स्तुति)+इन्] १. वह जो कविता या काव्य की रचना करता हो (पोएट)। २. ऋषि। ३. ब्रह्मा। ४. सूर्य। ५. शुक्राचार्य। ६. उल्लू।
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कविक  : पुं० [सं० कवि+कन्] १. लगाम। २. एक प्रकार का फलदार वृक्ष। ३. उक्त वृक्ष का छोटा रसीला फल जिसे कहीं-कहीं जामरूल भी कहते हैं।
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कविका  : स्त्री० [सं० कविक+टाप्] १. लगाम। २. केवड़ा। ३. कवई नाम की मछली।
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कविता  : स्त्री० [सं० कवि+तल, टाप्] कवि की वह लय-प्रधान साहित्यिक कृति या रचना, जो छंदों में होती है। काव्य। शायरी। (पोएट्री)
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कविताई  : स्त्री०=कविता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कवित्त  : पुं० [सं० कवित्व] १. कविता। २. घनाक्षरी छंद का एक नाम। (दे० ‘घनाक्षरी’)
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कवित्व  : पुं० [सं० कवि+त्व] १. काव्य का गुण, भाव या विशिष्ट रूप। २. काव्य-रचना की क्रिया, गुण या शक्ति।
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कविनासा  : स्त्री०=कर्मनाशा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कवि-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. भृगु के एक पुत्र का नाम। २. शुक्राचार्य।
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कवि-प्रसिद्धि  : स्त्री० [स० त०] भारतीय कवियों में परंपरा से चली आई हुई कुछ ऐसी प्रसिद्ध बातें जो वस्तुतः ठीक न होने पर भी ठीक मान ली गई हैं। जैसे—चकवा चकई का दिन में साथ-साथ और रात में अलग-अलग रहना; केले से कपूर निकलना; बाँस, साँप, हाथी आदि में भी मोती होना आदि-आदि।
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कविराज  : पुं० [ष० त०] १. कवियों का राजा अर्थात् श्रेष्ठ कवि। २. चारण या भाट। ३. अच्छा और शिक्षित वैद्य (बंगाल)।
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कविराय  : पुं०=कविराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कविलास  : पुं०=कविलास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कवि-शेखर  : पुं० [ष० त०] संगीत में ताल के ६॰ मुख्य भेदों में से एक।
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कवि-समय  : पुं० [ष० त०] कवियों में परम्परा से चली आई हुई वर्णनसंबंधी कुछ विशिष्ट परिपाटियाँ या मान्यताएँ जिनमें देश, काल आदि के विरुद्ध बातों का वर्णन भी अनुचित या दूषित नहीं माना जाता। जैसे—स्त्री के पदाघात से अशोक के फूलने का वर्णन आदि। (दे० वृक्ष-दोहद)
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