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कठासी  : स्त्री० [सं० कट√आस्+णिनि] मुर्दों के गाड़ने की जगह। कबरिस्तान।
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कठंगर  : वि० [हिं० काठ+अंग] १. जिसके अंग काठ के बने हों। २. काठ की तरह दृढ़ अंगोंवाला। बहुत ही हष्ट-पुष्ट या मोटा-ताजा।
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कठंजरा  : पुं० [सं० काष्ठ-पंजर] १. लकड़ियों का बना हुआ ढाँचा। २. कठघरा। उदाहरण—अठारह भार कोट कठंजरा लाइलें।—गोरखनाथ।
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कठ  : पुं० [सं०√कठ् (कष्ट से जीवन बिताना)+अच्] १. एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि जो वैशंपायन के शिष्य थे। कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा जिसका प्रवर्त्तन उक्त ऋषि ने किया था। ३. एक प्रसिद्ध उपनिषद् जो कुछ लोगों के मत से अथर्ववेद से और कुछ लोगों के मत से कृष्ण यजुर्वेद से संबंद्ध है। ४. काठ का एक प्रकार का पुराना बाजा। वि० [हिं०काठ का संक्षिप्त रूप] एक विशेषण जो कुछ समस्त पदों के रूप में अर्थ देता है-१. काठ का बना हुआ। जैसे—कठ-घरा, कठ-पुतली। २. काठ से संबंध रखनेवाला। जैसे—कठ-रेती। ३. काठ की तरह कठोर या कडा़। (अन्नों, फलों आदि के संबंध में उनके निकृष्ट या अखाद्य होने का सूचक) जैसे—कठ-केला, कठ-जामुन। ४. काठ की तरह शुष्क और फलतः निर्मम या निष्ठुर और हृदयहीन। जैसे—(कठ-कलेजा (कठोर हृदयवाला), कठ-बाप (सौतेला पिता जो प्रायः संतान के प्रति निष्ठुर होता है), कठमुल्ला (बिना कुछ समझे बूझे धार्मिक नियमों या बंधनों का पालन करनेवाला)। ५. काठ की तरह जड़ और फलतः किसी बात की चिंता या परवाह न करनेवाला। जैसे—कठ-मस्त। पुं० [सं० कठ्=कष्ट] १. कष्ट। तकलीफ। दुःख। २. परिश्रम। मेहनत।
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कठ-कीली  : स्त्री० [हिं० काठ+कीली] १. काठ की बनी हुई कील या खूँटी। २. पच्चर।
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कठ-केला  : पु० [हिं० काठ+केला] एक प्रकार का जंगली केला जिसका फल काठ की तरह कड़ा होता है।
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कठ-कोला  : पु०=कठ-फोड़ा (पक्षी)।
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कठ-गुलाब  : पुं० [हिं० काठ+गुलाब] एक प्रकार का जंगली गुलाब।
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कठ-घरा  : पुं० [हिं० काठ+घेरा] १. काठ का बना हुआ जँगलेदार घेरा। २. वह बड़ा पिंजरा जिसमें शेर, चीते आदि बन्द किये जाते हैं।
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कठ-घोड़ा  : पुं० [हिं० काठ+घोड़ा] १. काठ का बना हुआ घोड़ा। २. खेल तमाशे आदि के लिए बनाया हुआ काठ का ऐसा घोड़ा जिस पर अभिनेता लोग सवारी करते है। लिल्ली घोड़ी।
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कठ-जामुन  : पुं० [हिं० काठ+जामुन] १. जामुन वृक्ष की एक जाति जिसके फल खट्टे तथा काट की तरह कड़े होते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल।
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कठड़ा  : पुं० [हिं० काठ] काठ का चौंड़े मुँह तथा ऊँची दीवारवाला बड़ा बरतन। कठौता। पुं० =कठघरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठताल  : पुं० =करताल।
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कठपुतली  : स्त्री० [हिं० काठ+पुतली] १. काठ की बनी हुई पुतली जिसे डोरे या तार की सहायता से नचाया जाता है। २. लाक्षणिक अर्थ में, ऐसा व्यक्ति जो दूसरों के इशारे पर नाचता हो। वह जिसे अपनी सूझ-बूझ न हो जो दूसरों के कहने के अनुसार चलता हो।
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कठ-फोड़वा  : पुं० =कठ-फोड़ा (पक्षी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठ-फोड़ा  : पुं० [हिं० काठ+फोड़ना] एक प्रकार का छोटा पक्षी जिसकी चोंच नुकीली तथा लंबी होती है। यह प्रायः अपनी चोंच से वृक्षों के तने खोदा करता है तथा उनमें से निकलनेवाले कीड़े-मकोड़े खाता है।
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कठ-फोर  : पुं० =कठ-फोड़ा।
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कठ-बंधन  : पुं० [हिं० काठ+बंधन] हाथी के पैरों में बाँधी जानेवाली बेड़ी जो काठ की बनी होती है। अँदुआ।
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कठ-बाँस  : पुं० [हिं० काठ+बाँस] एक प्रकार का बाँस जो प्रायः ठोस होता है और जिस पर बहुत पास-पास गाँठें होती हैं।
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कठ-बाप  : पुं० [हिं० काठ+बाप] काठ की तरह कठोर हृदय वाला अर्थात् सौतेला बाप, जिसे अपनी पत्नी के उन बच्चों से कोई प्रेम नहीं होता जो उस स्त्री के पहले पति से उत्पन्न हुए हों।
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कठ-बेर  : पुं० [हिं० काठ+बेर] घूँट नामक पेड़ जिसकी छाल चमड़ा रँगने के काम आती है।
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कठ-बेल  : पुं० [हिं० काठ+बेल] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसके फल बेल के आकार के परन्तु उससे कुछ छोटे तथा बहुत कड़े होते हैं। २. उक्त वृक्ष के फल।
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कठमर्द  : पुं० [सं० कठ√मृद् (चूर्ण करना)+अण्] शिव।
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कठ-मलिया  : पुं० [हिं० काठ+माला] उन वैष्णवों या साधुओं के लिए उपेक्षासूचक पद जो केवल दिखाने के लिए काठ के बने हुए मनकों की माला पहनते हैं। दिखावटी या नकली साधु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कठ-मस्त  : पुं० [हिं० काठ+मस्त] [भाव० कठमस्ती] १. ऐसा व्यक्ति जो काठ की तरह जड़ या आस-पास की सब बातों से उदासीन या बेखबर रहता हो। वह जिसे किसी बात की चिंता या ध्यान न हो। २. व्यभिचारी।
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कठ-मुल्ला  : पुं० [हिं० काठ+मुल्ला] १. वह मुल्ला, जो काठ के मनकों की माला फेरता हो। २. लाक्षणिक अर्थ में, अनपढ़, मूर्ख या नकली धर्म-गुरु या मौलवी।
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कठर  : वि० [सं०√कठ्+अरन्] कठोर। कड़ा। सख्त।
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कठरा  : पुं०=कठघरा। पुं० [स्त्री० कठरी] =कठड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठ-रेती  : स्त्री० [हिं० काठ+रेती] काठ या लकड़ी रेतने की रेती।
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कठला  : पुं० [सं० कंठ+हिं० ला (प्रत्यय)] गले में पहनने का एक प्रकार का आभूषण जिसमें सोने-चाँदी के मनके गुँथे होते हैं।
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कठलोना  : पुं० [स्त्री० कठलोनी]=कठड़ा।
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कठवत  : स्त्री०=कठौत।
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कठ-वल्ली  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा की एक उपनिषद्।
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कठारा  : पुं० [सं० कंठकिनारा+हिं० आरा (प्रत्यय)] ताल, नदी आदि का किनारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कठारी  : स्त्री० [हिं० काठ+आरी (प्रत्यय)] १. काठ का बरतन। २. कमंडल।
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कठिन  : वि० [सं० कठ्+इनच्] [भाव० कठिनता] १. (कार्य) जो सरलता या सुगमता से न किया जा सके। जिसे पूरा करने में अधिक परिश्रम शक्ति तथा समय अपेक्षित हो। मुश्किल। २. (बात, वाक्य शब्द आदि) जो बोधगम्य हो। जो सहज में समझ में न आता हो। (डिफिकल्ट) ३. कठोर। कड़ा। सख्त। ४. कठोर-हृदय। उदाहरण—मातु चिराव कठिन की नाई।—तुलसी। स्त्री०=कठिनता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कठिनई  : स्त्री० [हिं० कठिन] १. कठिनता। २. विकट परिस्थिति। मुहावरा—कठिनाई ठानना=कठिन या विकट परिस्थिति उत्पन्न करना। झंझट या बखेड़ा खड़ा करना। उदाहरण—नैननि निपट कठिनई ठानी।—सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठिनता  : स्त्री० [सं० कठिन+तल्-इन] १. कठिन होने की अवस्था, गुण या भाव। २. काम में होनेवाली अड़चन या बाधा। ३. ऐसी दशा या परिस्थिति, जिसमें प्रसंग सामने आतें हों और जिससे पार पाने के लिए विशेष कौशल, धैर्य, परिश्रम अपेक्षित हों। (डिफिकल्टी)
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कठिनत्व  : पुं० [सं० कठिन+त्व]=कठिनता।
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कठिनाई  : स्त्री०=कठिनता।
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कठिनी  : स्त्री० [सं० कठिन+ङीष्] १. खड़िया मिट्टी। २. हाथ की सबसे छोटी उँगली।
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कठिया  : वि०=काठा। स्त्री० [हिं० काठ] एक प्रकार की भाँग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठियाना  : अ०=कठुआना।
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कठिहारा  : पुं० [हिं० काठ+हारा (प्रत्यय)] [स्त्री० कठिहारिन] लकड़हारा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठीर  : पुं० [सं० कंठीरव] सिंह। (डिं०)।
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कठुआना  : अ० [हिं० काठ] १. सूखकर काठ की तरह कठोर या कड़ा होना। जैसे—फलों का कठुआना, सरदी से हाथ-पैर कठुआना। २. सूखकर लकड़ी होना। क्षीण होना। स० काठ की तरह कठोर या कड़ा करना।
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कठुला  : पुं० =कठला।
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कठुवाना  : अ०=कठुआना।
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कठूमर  : पुं० [हिं० काठ+ऊमर] जंगली गूलर।
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कठेठ  : (ा) वि० [हिं० काठ+एठ(प्रत्यय)] [स्त्री० कठेठी] १. कठोर, सख्त। २. अप्रिय। कटु। ३. कठोर अंगोंवाला अर्थात् बलवान, हृष्ट-पुष्ट।
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कठेठी  : स्त्री० १. =कठोरता। २. =कठिनता।
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कठेल  : पुं० [हिं० काठ+एल (प्रत्यय)] १. धुनियों की कमान जिसमें ऊन या रूई धुनते समय धुनकी को बाँधकर लटकाते हैं। २. केसरों का एक औजार।
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कठैला  : पुं० =कठौता।
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कठोटा  : पुं० =कठौत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कठोदर  : पुं० [हिं० काठ+उदर] एक रोग जिसमें पेट कड़ा होकर फूलने या बढ़ने लगता है।
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कठोर  : वि० [सं०√कठ्+ओरन्] [भाव० कठोरता, स्त्री० कठोरा] १. (पदार्थ) जिसका तल इतना कड़ा हो कि सहज में दबाया या धँसाया न जा सके। जो दबाने से दबे नहीं। ‘कोमल’ या ‘मुलायम’ का विपर्याय। सख्त। २. (कार्य) जिसे पूरा करने में विशेष आयास, मनोयोग आदि की आवश्यकता हो। जो सहज में निबाहा न जा सके। कठिन। कड़ा। जैसे—कठोर परिश्रम। ३. (बात या व्यवहार) जो उग्र तथा कष्टदायक होने के कारण अप्रिय या असह्य हो। जैसे—कठोर दंड, कठोर वचन। ४. जिसका अनुसरण निर्वाह या पालन सहज में न हो सके। जैसे—कठोर नियम, कठोर व्रत। ५. (व्यक्ति अथवा उसका कार्य या मन) जिसमें उदारता, दया, प्रेम आदि कोमल तथा मानवोचित्त गुणों या विशेषताओं का अभाव हो। जैसे—कठोर व्यवहार, कठोर हृदय।
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कठोरता  : स्त्री० [सं० कठोर+तल्-टाप्] १. कठोर होने की अवस्था, गुण या भाव। कड़ापन। २. कार्य, व्यवहार आदि में होनेवाली कड़ाई। सख्ती।
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कठोरताई  : स्त्री०=कठोरता।
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कठोरपन  : पुं० =कठोरता।
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कठोरीकरण  : पुं० [सं० कठोर+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट-अन] किसी कोमल वस्तु को कठोर करने या बनाने की क्रिया या भाव। कठोर करना या बनाना।
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कठोल  : वि० [सं०√कठ्+ओलच्] =कठोर।
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कठौत  : स्त्री० [हिं० काठ+औता (प्रत्यय)] [स्त्री० अल्पा० कठौती] चौड़ें मुँह का काठ का बना हुआ कटोरा या बरतन। कठरा।
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कठौता  : पुं० कठौत।
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कठ्ठना  : अ० [सं० कर्षण] बाहर आना। निकलना। उदाहरण—कठ्ठी वे घटा करे कालाहणि।—प्रिथीराज। स० निकालना (राज०)।
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कठिठ्या  : स्त्री० [सं० काष्ठा] १. घेरा। २. सीमा। (राज०)।
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कठरिया  : स्त्री० [हिं० कोठरी] छोटी कोठरी।
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