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औ  : संस्कृत वर्णमाला का चौदहवाँ और हिंदी वर्णमाला का ग्यारहवाँ स्वर वर्ण जो अ+ओ के संयोग से बना है। इसका उच्चारण कंठ और ओष्ठ के योग से होता है। अवधी, व्रज आदि बोलियों में संज्ञाओं, विशेषणों आदि के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर यह ‘भी’ का अर्थ देता है। जैसे—‘सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ, ऊखौ लई उखारि’ में बनौ और ऊखौ के अंत में आया हुआ ‘औ’। पुं० [सं० आ+अव (रक्षा करना)+क्विप्, ऊठ्, आगम] अनंत। शेष। स्त्री० पृथ्वी। अव्य०=और। वि०-यह। (डिं०) उदाहरण—औ पुर हरि बोलिया इम।—प्रिथीराज।
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औंगना  : स० [सं० अंजन] गाड़ी आदि के पहिये की धुरी में तेल देना।
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औंगा  : वि० [सं० अवाक या गूँग] [स्त्री० भाव० औंगी] १. गूँगा। २. चुप्पा। मौन। पुं० [हिं० औंगना] औंगने की क्रिया या भाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंगी  : स्त्री० [हिं० औंगा] १. गूँगापन। २. चुप्पी। (मौन)। स्त्री० [सं० अवाङ्] १. जंगली जानवर फँसाने के लिए जमीन में खोदा जानेवाला गड्ढा। २. वह नुकीली लकड़ी जो जानवरों को हाँकने के लिए उनके शरीर में गड़ाते या चुभाते हैं। ३. हँसियाँ, जिससे घास काटी जाती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंघना  : अ०=ऊँघना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औघाई  : स्त्री०=ऊँघ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औछना  : स०=ओंइछना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंजना  : अ० [सं० आवेजन=व्याकुल होना] १. विकल या व्याकुल होना। घबराना। २. ऊबना। स० १. उलटना। २. उड़ेलना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंटन  : पुं० [सं० आवर्त्तन, प्रा० आवट्टन] लकड़ी की ठीहा जिस पर चौपायों का चारा अथवा गन्ने की गँड़ेरी आदि काटी जाती हैं। स्त्री० [हिं० औंटना] औटने की क्रिया या भाव।
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औंटना  : अ०=औटना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंटाना  : स०=औटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंठ  : स्त्री० [सं० ओष्ठ, प्रा० ओट्ठ] १. परती पड़ा हुआ खेत। २. दे० ‘आँवठ’।
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औंड़  : पुं० [सं० कुंड=गड्ढा] गड्ढा या मिट्टी खोदनेवाला मजदूर। बेलदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंड़ना  : अ०=उभड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंड़ा-बौड़ा  : वि०=अंड-बंड।
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औंदना  : अ० [सं० उन्माद] १. उन्मत्त या मदांध होना। २. बेसुध होना। सुध-बुध भूलना। ३. विकल या व्याकुल होना। बे-चैन होना। स०=औंधाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंदाना  : स० [हिं० औंदना का स० रूप] १. किसी को उन्मत्त या मदांध करना। २. चिंतित या व्याकुल करना। अ०=औंदना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंधना  : अ० [सं० अधः वा अवधा] औंधा या उलटा होना। उलट जाना। स० औंधा या उलटा करना।
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औंधा  : वि० [सं० अवमूर्द्ध] [स्त्री० औंधी] १. जिसका मुँह या सिर नीचे की ओर हो गया हो। मुहावरा—औंधे मुँह गिरना=बहुत ही बुरी तरह से गिरना या बहुत बड़ी भूल करना। २. जिसका ऊपरी भाग नीचे और नीचे वाला भाग ऊपर हो गया हो। ३. नीचे की ओर झुका हुआ। ४. जो अपनी सामान्य स्थिति में न होकर उससे ठीक विपरीत स्थिति में हो। उलटा। पद—औंधी खोपड़ी-ऐसा व्यक्ति जिसमें सामान्य बुद्धि का अभाव हो। वज्र मूर्ख। पुं० उलटा या चिलड़ा नामक पकवान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंधाना  : स० [हिं० औंधा] १. औधा या उलटा करना। २. ऊपरी भाग या मुँह नीचे करना। उलटना। ३. नीचा करना। झुकाना।
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औंरा  : पुं०=आँवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औंसना  : अ० [हिं० उमस] उमस होना।
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औंहर  : स्त्री० [सं० अवरोध, प्रा० ओरोह] बाधा। रुकावट।
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औआ-बौआ  : वि० [अनु०] बे-सिर-पैर का। अंड-बंड।
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औकन  : स्त्री० [देश] ढेर। समूह।
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औक्रात  : पुं० बहु० [अ० वक्त का बहु०] १. समय। वक्त। वर्त्तमान समय की परिस्थितियाँ, लाक्षणिक रूप में, शक्ति। २. सामर्थ्य। बिसात।
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औख  : स्त्री० [सं० ऊषर] ऐसी ऊसर या परती भूमि जिसे फिर से खेती के योग्य बनाया गया हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औखद  : पुं०=औषध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औखा  : पुं० [हिं० गोखा] १. गाय का चमड़ा। २. चमड़े का बना हुआ चरसा या मोठ। वि० [हिं० सौखा(सुखकर)का अनु० और विपर्याय] कठिन। मुश्किल। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औगत  : स्त्री० [सं० अव+गति] अवगति० दुर्दशा। दुर्गति। वि०=अवगत (विदित)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औगाहना  : अ०=अवगाहना। (नहाना)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औगी  : स्त्री०=औंगी। स्त्री० [?] १. रस्सी बटकर बनाया हुआ कोड़ा जिसे जमीन पर पटकने या फटकारने से आवाज होता है। (पशुओं को डराने के लिए इससे आवाज की जाती है) २. बैल हाँकने की छड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औगुन  : पुं०=अवगुण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औगुन  : वि० १.=अवगुणी। २.=निर्गुण।
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औघ  : पुं० [सं० ओघ+अण्] पानी की प्लावन।
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औघट  : वि०=अवघट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औघड़  : वि० [सं० अवघट] १. अनगढ़ और भद्दा। अंड-बंड। २. अनोखा। विलक्षण। वि०=औझड़। पुं०=अघोर पंथ का अनुयायी।
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औघर  : वि०=औघड़।
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औघी  : स्त्री० [?] वह स्थान जहाँ घोड़ों को निकालने (चलना सिखाने) के लिए चक्कर दिया जाता है।
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औघूरना  : अ० [सं० अव+घूर्णन] चक्कर खाना। उदाहरण—घर लागै औघूरि कहे मन कहा बँधावे।—सूर।
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औचक  : पुं० [हिं० अचानक] १. कोई बात अचानक घटित होने की अवस्था या भाव। २. असमंजस की या विकट स्थिति। क्रि० वि० १. अकस्मात्। अचानक। २. एकदम से। एकबारगी।
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औचट  : पुं० [हिं० औचक] ऐसी विकट स्थिति जिससे सहज में छुटकारा न मिल सके। जैसे—वह चौखट में पड़कर ही पुस्तकें लावेगा। क्रि० वि० १. अकस्मात्। अचानक। २. अनजान में। भूल में। ३. यों ही संयोग से। ४. चकित होकर। उदाहरण—लग्यौ फिरत सुरभि सुत-संग औचट गुनि गृह बन कौं।—सूर।
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औचिंत  : वि० [सं० अव=नहीं+चिंता] जिसे किसी प्रकार की चिंता न हो। निश्चिंत।
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औचिती  : स्त्री० [सं० उचित+ष्यञ्+ङीष्,यलोप] औचित्य।
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औचित्य  : पुं० [सं० उचित+ष्यञ्] उचित होने की अवस्था या भाव।
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औछ  : स्त्री० [देश] दारुहल्दी की जड़।
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औछाना  : अ०, स०=छाना।
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औज  : पुं०=ओज।
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औजड़  : वि०=औझड़।
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औजस  : पुं० [सं० ओजस्+अण्] सोना। स्वर्ण।
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औजसिक  : वि० [सं० ओजस्+ठक्-इक] जिसमें ओज हो। ओज से युक्त।
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औजस्य  : पुं० [सं० ओजस्+ष्यञ्] ओज से युक्त होने की अवस्था या भाव।
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औजार  : पुं० [अ०] हाथ से काम करते समय प्रयोग में लाई जानेवाली लकड़ी, लोहे आदि की बनी हुई ऐसी वस्तु जिससे कोई काम शीघ्रता या सरलता से अथवा सहज में संपन्न होता है। राक्ष। हथियार। (टूल) जैसे—आरी, छेनी, रेती, हथौड़ा आदि।
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औज्ज्वल्य  : पुं० [सं० उज्ज्वल+ष्यञ्] उज्ज्वल होने की अवस्था या भाव। उज्ज्वलता।
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औझक  : क्रि० वि०=औचक।
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औझड़  : क्रि० वि० [सं० अव+हिं० झड़ी] लगातार। निरंतर। वि० १. किसी बात की चिंता या परवाह न करके मनमाने ढंग से झक या पागलपन से काम या बातें करनेवाला। २. मन-मौजी। ३. झक्की।
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औझर  : क्रि० वि०, वि०=औझड़।
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औटन  : स्त्री० [हिं० औटना, प्रा० आवट्टन] १. औटने की क्रिया या भाव। २. गरमी। ताप। ३. उबाल। ४. तमाकू के पत्ते काटने की छुरी।
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औटना  : अ० [सं० आवर्त्तन] १. किसी तरल पदार्थ का इस प्रकार गरम किया जाना या होना कि वह उबल या खौलकर गाढ़ा होने लगे। २. चक्कर खाना। स०=औटाना।
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औटनी  : स्त्री० [हिं० औटना] एक प्रकार की कलछी जिससे उबलता हुआ तरल पदार्थ चलाया या हिलाया जाता है।
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औटपाय  : पुं० [सं० अष्टवाद, पु० अठपाव] नटखटी। पाजीपन। शरारत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औटा  : प्रत्यय [सं० आवर्त्त] [स्त्री० औटी] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर उनके आधान या पात्र का अर्थ सूचित करता है। जैसे—काजल से कजरौटा, लाख से लखौटा। कभी-कभी यह अल्पार्थक का भाव भी सूचित करता है, अथवा किसी पशु के बच्चे होने का भी वाचक होता है। जैसे—बिल्ली से बिलौटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औटाना  : स० [हिं० औटना] किसी तरल पदार्थ को इस प्रकार गरम करना कि वह उबल या खौलकर गाढ़ा होने लगे।
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औटी  : स्त्री० [हिं० औटना] १. वह पुष्टई जो गाय को ब्याने पर दी जाती है। २. औटाकर पकाया हुआ किसी चीज का रस।
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औठपाय  : =औटपाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औड  : वि० [सं०√उन्द् (भिगोना)+क, द=ड, उड+अण्] आर्द्र। गीला।
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औडन  : वि० [सं० औड़] जो सूखा न हो। गीला। तर।
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औडब  : वि० [सं० ओडव+अण्] उडु या तारों से संबंध रखनेवाला। पुं०=ओड़वा।
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औडुंबर  : पुं०=औदुंबर।
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औड्र  : पुं० [सं० ओड्र+अण्] उड़ीसा देश का निवासी।
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औढर  : वि० [सं० अव+हिं०ढार या ढलना] अकारण ही अथवा मनमाने ढंग से किसी ओर ढल या ढुलक पड़नेवाला। मन-मौजी। पद—औढरदानी=मनमाने ढंग से उदारतापूर्वक बहुत अधिक दान देनेवाला।
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औणक  : पुं० [सं० ?] एक प्रकार का वैदिक गीत।
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औतरना  : अ०=अवतरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औता  : प्रत्यय [सं० आवर्त्त] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर कई प्रकार के अर्थ देता है। जैसे—काठ से कठौता, इकला से इकलौता, समझना से समझौता आदि। वि० [?] [स्त्री० औती] तीव्र। तेज। उदाहरण—कहती तौ मति होती औती।—नंददास। वि०=ओता (उतना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औतार  : पुं०=अवतार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औतिक  : वि० [सं० ऊति+ठक्-इक] जिसका संबंध ऊतक (तंतुओं) से हो। ऊतक-संबंधी।
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औतिकी  : स्त्री० [सं० ऊतक से] विज्ञान की वह शाखा जिसमें जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के अंगों का संघटन करने वाले बहुत ही सूक्ष्म ऊतकों या तंतुओं का विवेचन होता है। (हिस्टालोजी)।
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औत्कंठ्य  : पुं० [सं० उत्कंठा+ष्यञ्] उत्कंठा।
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औत्कर्ष्य  : पुं० [सं० उत्कर्ष+ष्यञ्] उत्कर्ष होने की अवस्था या भाव। उत्कर्षता।
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औत्तमर्णिक  : वि० [सं० उत्तमर्ण+ठञ्-इक] (धन) जो उत्तमर्ण से ब्याज या सूद पर लिया गया हो। (शुक्र०)
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औत्तमि  : पुं० [सं० उत्तम+इञ्] चौदह मनुओं में से तीसरे मनु का नाम।
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औत्तर  : वि० [सं० उत्तर+अण्] उत्तर में रहने या होनेवाला। उत्तरी।
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औत्तरेय  : पुं० [सं० उत्तरा+ठक्-एय] उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न राजा परीक्षित।
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औत्तानपाद  : पुं० [सं० उत्तानपाद+अण्] १. उत्तानपाद के पुत्र, ध्रुव। २. ध्रुवतारा।
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औत्तापिक  : वि० [सं० उत्ताप+ठक्-इक] १. उत्ताप-संबंधी। २. उत्ताप से उत्पन्न।
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औत्पत्तिक  : वि० [सं० उत्पत्ति+ठक्-इक] उत्पत्ति-संबंधी।
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औत्पातिक  : वि० [सं० उत्पात+ठक्-इक] उत्पात-संबंधी।
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औत्स  : वि० [सं० उत्स+अण्] उत्स या झरने से संबंध रखनेवाला।
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औत्सर्गिक  : वि० [सं० उत्सर्ग+ठञ्-इक] १. उत्सर्ग-संबंधी। २. सहज और स्वाभाविक। ३. (नियम) जो साधारणतः सब जगह माना जाता या लगता हो। (व्याकरण)।
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औत्सुक्य  : पुं० [सं० उत्सुक+ष्यञ्] उत्सुक होने की अवस्था या भाव। उत्सुकता।
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औथरा  : वि०=उथला (छिछला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औदक  : वि० [सं० उदक+अण्] उदक या जल से संबंध रखनेवाला। जलीय। पु० ऐसा स्थान जहाँ जल अधिक या यथेष्ट हो।
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औदकना  : अ०=चौकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औदयिक  : वि० [सं० उदय+ठञ्-इक] उदय से संबंध रखनेवाला। पुं० पूर्व संचित कर्मों के फलस्वरूप मन में उदित होनेवाला भाव। (जैन)।
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औदर  : वि० [सं० उदर+अण्]=औदरिक।
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औदरिक  : वि० [सं० उदर+ठक्-इक] उदर या पेट से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। जैसे—औदरिक विकार। २. बहुत खानेवाला। पेटू।
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औदर्य  : वि० [सं० उदर+यत्,उदर्य+अण्] उदर-संबंधी।
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औदसा  : स्त्री० [सं० अवदशा] बुरी या हीन दशा। दुर्दशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औदान  : पुं० [सं० अवदान]=घाल (घलुआ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औदार्य  : पुं० [सं० उदार+ष्यञ्] उदारता। (साहित्य में यह नायक का एक सात्त्विक गुण माना गया है।)
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औदास्य  : पुं० [सं० उदास+ष्यञ्] उदास होने की अवस्था या भाव। सं० उदासीनता।
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औदीच्य  : पुं० [सं० उदीची+ष्यञ्] गुजराती ब्राह्मणों की एक जाति।
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औदुंबर  : वि० [सं० उदंबर+अञ्] १. उदुंबर या गूलर का बना हुआ। २. ताँबे का बना हुआ। पुं० १. एक यज्ञ-पात्र जो गूलर की लकड़ी का बनता था। २. चौदह यमों में से एक। ३. एक प्रकार के त्यागी या विरक्त जो उसी ओर निकल जाते थे, जिधर सबेरे पहले-पहल उनकी दृष्टि पड़ती थी और उधर मिलने वाले कंद, फल आदि से निर्वाह करते थे।
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औद्दालक  : वि० [सं० उद्दाल+अण्, औद्दाल+कन्] उद्दालक ऋषि के वंश का। पुं० १. बाँबी में रहनेवाले कीड़े-मकोड़ों (दीमक, बिलनी आदि) का लेप या मधु। २. एक प्राचीन तीर्थ।
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औद्धत्य  : पुं० [सं० उद्धत+ष्यञ्] उद्धत होने की अवस्था या भाव। अविनीत, अशालीन, उद्दंड और धृष्ट होना। उद्धतता।
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औदि्भज्ज  : वि० [सं० उदि्भद्√जन्(उत्पन्न होना)+ड०उदि्भज्ज+अण्] धरती से उत्पन्न या प्राप्त। पुं० खारी नमक।
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औदि्भद  : पुं० [सं० उद्भिद्+अण्] १. झरने का जल। २. सेंधा नमक। पहाड़ी नमक।
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औद्योगिक  : वि० [सं० उद्योग+ठञ्-इक] १. जिसका संबंध किसी उद्योग से हो। उद्योग संबंधी। २. वस्तुएँ तैयार करने के काम से संबंध रखनेवाला। (इण्डस्ट्रियल-दोनों अर्थों में०) ३. (सामग्री) जो उद्योगों में खपती या लगती हो।
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औद्योगिककरण  : पुं०=उद्योगीकरण।
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औद्वाहिक  : वि० [सं० उद्वाह+ठञ्-इक] १. विवाह से संबंध रखनेवाला। २. विवाह में या विवाह के समय ससुराल या मित्रों से प्राप्त होनेवाला (धन या भेंट)। पुं० विवाह में ससुराल से मिला हुआ धन जो भाइयों, भतीजों आदि में बँट नहीं सकता।
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औध  : पुं०=अवध। स्त्री०=अवधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औध-मोहरा  : पुं० [सं० ऊर्द्ध+हिं०मोहड़ा] वह हाथी जो सिर ऊपर उठाकर चलता हो।
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औधान  : पुं० [सं० आधान+अवधान] १. धारण करना। २. धारण किया हुआ गर्भ। उदाहरण—जस औधान पूर होइ तासू। दिन दिन हिएँ होइ परगासू।—जायसी।
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औधारना  : स० [?] इधर-उधर हिलाना-डुलाना। जैसे—चँवर औधारना। स०=अवधारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औधि  : स्त्री०=अवधि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औधूत  : पुं०=अवधूत।
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औन  : पुं० [सं० अवनि] १. पृथ्वी। २. जगह। स्थान। ३. घर। मकान। उदाहरण—मंडप ही में फिरत मँडरात, न जात कहूँ तजि नेह को औनो।—पद्याकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औनना  : अ० [हिं० ऊन] कम होना। स०कम करना। स० [?] लीपना-पोतना या लगाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औना-पौना  : वि० [हिं० ऊन(कम)+पौना¾भाग] तीन-चौथाई या उससे भी कुछ कम। आधा-तीहा। मुहावरा—(कोई चीज) औने-पौने करना=आधे, तिहाई या तीन चौथाई (अर्थात् उचित से बहुत कम) मूल्य पर बेच डालना। जो दाम मिल जाय उसी पर बेच देना।
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औनि  : स्त्री०=अवनि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औनिप  : स्त्री० [सं० अवनिप] राजा।
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औन्नत्य  : पुं० [सं० उन्नत+ष्यञ्] १. उन्नत होने की अवस्था या भाव। उन्नति। २. उत्थान। ३. ऊँचाई।
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औपक्रमिक  : वि० [सं० उपक्रम+ठक्-इक] १. उपक्रम-संबंधी। २. उपक्रम के रूप में होनेवाला।
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औपचारिक  : वि० [सं० उपचार+ठञ्-इक] १. उपचार-संबंधी। २. उपचार के रूप में होनेवाला। ३. (ऐसा आचरण या व्यवहार) जो वास्तविक या हार्दिक न हो, परन्तु केवल दिखाने भर को किया गया हो अथवा किसी नियम या रीति आदि के पालन स्वरूप किया गया हो। जैसे—किसी बात पर मिट्टी डालना केवल औपचारिक कथन है।
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औपचारिकता  : स्त्री० [सं० औपचारिक+तल्-टाप्] १. औपचारिक होने की अवस्था, गुण या भाव। २. बँधे हुए सामाजिक नियमों, विधियों का ऐसा आचरण या पालन जो दिखाने भर हो। दुनियादारी। (फार्मेलिज्म)।
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औपटा  : वि० [स्त्री०औपटी]=अटपटा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औपदेशिक  : वि० [सं० उपदेश+ठञ्-इक] उपदेश संबंधी। पुं० १. वह जो दूसरों को उपदेश, शिक्षा आदि देकर अपनी जीविका चलाता हो। २. उक्त प्रकार की जीविका से प्राप्त किया हुआ धन।
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औपद्रविक  : वि० [सं० उपद्रव+ठक्-इक] १. उपद्रवों से संबंध रखनेवाला। २. रोग के उपद्रवों या लक्षणों से संबंध रखनेवाला।
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औपधिक  : पुं० [सं० उपधा+ठञ्-इक] भय दिखाकर धन लेनेवाला पुरुष। वि० १. उपधा-संबंधी। २. उपधा के रूप में होनेवाला। ३. धोखा देकर किया जानेवाला (कार्य)। (फ्राँडयूलेण्ट) जैसे—किसी लेख का औपधिक प्रयोग।
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औपधर्म्य  : पुं० [सं० उपधर्म+ष्यञ्] १. ऐसी बात या सिद्धांत जो धर्म विरुद्ध या मिथ्या हो। २. तुच्छ या हीन सिद्धांत।
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औपनिधिक  : वि० [सं० उपनिधि+ठक्-इक] उपनिधि या धरोहर से संबंध रखनेवाला।
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औपनिवेशिक  : वि० [सं० उपनिवेश+ठक्-इक] उपनिवेश में होने अथवा उससे संबंध रखने वाला। उपनिवेश का। (कोलोनिअल) पुं० उपनिवेश का निवासी।
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औपनिवेशिक-स्वराज्य  : पुं० [कर्म० स] वह स्वराज्य जो साम्राज्य के अधीनस्थ उपनिवेशों को प्राप्त होता है। जैसे—ब्रिटिश साम्राज्य में आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैण्ड आदि उपनिवेशों को औपनिवेशिक स्वराज्य प्राप्त है।
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औपनिषद  : वि० [सं० उपनिषद्+अण्] उपनिषद् संबंधी। उपनिषद् में आया हुआ। पुं० १. परब्रह्म। २. उपनिषद् का अनुयायी।
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औपनिषदिक  : वि० [सं० उपनिषद्+ठक्-इक] १. उपनिषद् संबंधी। २. उपनिषदों के समान। (पवित्र या मान्य)।
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औपनी  : स्त्री०=ओपनी।
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औपन्यासिक  : वि० [सं० उपन्यास+ठक्-इक] १. उपन्यास संबंधी। २. उपन्यास में वर्णन करने के योग्य। ३. उपन्यास के ढंग का। अद्भुत। पुं० उपन्यास लेखक।
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औपपत्तिक  : वि० [सं० उपपत्ति+ठक्-इक] १. उपपत्ति संबंधी। २. तर्क या युक्ति द्वारा सिद्ध होनेवाला। पुं० लिंग शरीर।
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औपपातिक  : पुं० [सं० उपपात+ठक्-इक] उपपातक करनेवाला। वि० उपपातक संबंधी।
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औपम्य  : पुं० [सं० उपमा+ष्यञ्] उपमा या धर्म का अभाव। तुल्यता। बराबरी। समता।
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औपयौगिक  : वि० [सं० उपयोग+ठक्-इक] उपयोग-संबंधी।
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औपराजिक  : वि० [सं० उपराज+ठक्-इक] उपराज या राज प्रतिनिधि संबंधी।
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औपल  : वि० [सं० उपल+अण्] १. उपल-संबंधी। २. पत्थर का बना हुआ।
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औपवास्य  : वि० [उपवास+ष्यञ्] उपवास संबंधी। उपवास का। पुं०=उपवास।
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औपवाह्य  : वि० [सं० उपवाह्य+अण्] जिसका अथवा जिसके द्वारा उपवहन हो सके। पुं० राजा का हाथी अथवा रथ।
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औपशमिक  : वि० [सं० उपशम+ठक्-इक] १. उपशम संबंधी। २. उपशम या शांति करने या देनेवाला। शांतिकारक। शांतिदायक।
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औपश्लेषिक  : वि० [सं० उपश्लेष+ठक्-इक] उपश्लेष (विशेष लगाव) या घनिष्ठ संबंध रखनेवाला या उसके आधार पर होनेवाला। पुं० अधिकरण कारक के तीन प्रकार के आधारों में एक जिनमें किसी वस्तु के अंश से ही दूसरी वस्तु का लगाव होता है। जैसे—चौकी पर पुस्तक है। में पुस्तक सारी चौकी पर नहीं, उसके एक अंश पर ही स्थित है। इसी प्रकार का आधार औपश्लेषिक कहलाता है।
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औपसर्गिक  : वि० [सं० उपसर्ग+ठक्-इक] उपसर्ग संबंधी। २. उपसर्ग के रूप में होनेवाला। ३. (रोग) जो उपसर्ग या छूत से फैलता हो। संक्रामक। (इन्फेक्शस) जैसे—औपसर्गिक ज्वर।
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औपस्थिक  : वि० [सं० उपस्थ+ठक्-इक] उपस्थ संबंधी। पुं० वह जो उपस्थ के आधार पर (अर्थात् व्यभिचार करके) अपनी जीविका चलावे।
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औपस्थ्य  : पुं० [सं० उपस्थ+ष्यञ्] स्त्री या पुरुष का संभोग या सहवास।
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औपहारिक  : वि० [सं० उपहार+ठक्-इक] जो उपहार के रूप में दिया जाय या हो। उपहार संबधी। पुं०=उपहार।
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औपाधिक  : वि० [सं० उपाधि+ठक्-इक] १. उपाधि संबंधी या उपाधि से युक्त। २. अनावश्यक और ऊपरी या बाहरी बातों से युक्त। वि० दे० ‘औपधिक’।
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औपायनिक  : वि० [सं० उपायन+ठक्-इक] उपायन संबंधी या उपायन के रूप में होनेवाला (पदार्थ)।
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औपासन  : वि० [सं० उपासना+अण्] १. अग्नि संबंधी। २. उपासना या पूजा संबंधी। ३. पवित्र। पुं० १. उपासना, पूजा आदि के लिए जलाई जानेवाली अग्नि। २. उक्त अग्नि के योग से उपासना, पूजा आदि के रूप में किये जानेवाले कृत्य।
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औपेंद्र  : वि० [सं० उपेंद्र+अण्] उपेंद्र-संबंधी। उपेंद्र का।
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औम  : वि० [सं० उमा+अण्] सन का बना हुआ। स्त्री० दे० ‘अवम तिथि’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औमक  : वि० [सं० उमा+वुञ्-अक]=औम।
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औमतिथि  : स्त्री० दे० ‘अवम तिथि’।
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औरंग  : पुं० [फा०] १. राज-सिंहासन। २. बुद्धिमत्ता। समझदारी। ३. औरंगजेब (बादशाह) के नाम का संक्षिप्त रूप। (मध्ययुगीन कविताओं में प्रयुक्त)।
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औरंगज़ेब  : पुं० [फा०] १. राज-सिंहासन पर बैठकर शासन करनेवाला व्यक्ति। २. मुगल वंश का प्रसिद्ध सम्राट जो शाहजहाँ का पुत्र था। (सन् १६५८-१७0७)
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औरंगजेबी  : पुं० [फा०] एक प्रकार का भीषण बड़ा फोड़ा जो जल्दी अच्छा नहीं होता। विशेष—कहते है कि औरंगजेब ने अपनी सेना लेकर बहुत दिनों तक गोलकुण्डा पर घेरा डाला था, तब उसके बहुत से सैनिकों को इस तरह का फोड़ा होने लगा था, इसलिए इसका यह नाम पड़ा।
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औरंगशाह  : पुं०=औरंगजेब।
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और  : अव्य० [सं० अपर, प्रा० अवर] शब्दों पदो, वाक्याशों आदि को जोड़नेवाला एक संयोजक अव्यय जो कुछ अवस्थाओं में क्रिया विशेषण तथा विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त होकर नीचे लिखे अर्थ देता है—१. जिसका या जिनका उल्लेख हो चुका हो, उसके या उनके साथ। तथा। जैसे—(क) कृष्ण, मोहन और राम तीनों चले गये। (ख) गौवें, घोड़े और हिरन सभी खुरोंवाले पशु हैं। २. कथित या प्रस्तुत के अतिरिक्त या सिवा कुछ नया और विलक्षण। जैसे—लो और सुनो (अर्थात् अब तक जो सुन चुके हो, उसके अतिरिक्त कुछ नई परन्तु विलक्षण बात सुनो) उदाहरण—औरउ कथा अनेक प्रसंगा।—तुलसी। मुहावरा—और का और होना (क) बहुत अधिक उलट-फेर होना। भारी परिवर्तन होना। जैसे—देखते-देखते देश और का और हो गया। पद—और का औरजैसा होना चाहिए या जैसा पहले था,उससे बिलकुल अलग या भिन्न। और क्याइसके सिवा और कुछ नहीं, यही तो। जैसे—किसी के यह पूछने पर कि आप स्वयं वहाँ गये थे। प्रायः कहा जाता है—और क्या। और तो और औरों की बात तो जाने दो। औरों की बात दूर रही। जैसे—और तो और आप भी ऐसा कहने लगे। और तो क्या-दूसरी बड़ी बड़ी बातों की चर्चा ही व्यर्थ है। और सब तो जाने दो। जैसे—और तो क्या भला एक गिलास पानी तो पिला देते। और नहीं तो क्याऔर क्या (देखें ऊपर)। क्रि० वि० अधिक मात्रा या मान में,अथवा अधिक बल लगाकर। जैसे—और चिल्लाओ, और मारो, और रोओ आदि। उदाहरण—और आगि लागी न बुझावै सिधु सावनो।—तुलसी। वि० १. अधिक। ज्यादा। जैसे—कुछ और दाम बढ़े तो सौदा हो जाय। उदाहरण—और आस विस्वास भरोसो हरौ जीव जड़ताई।—तुलसी। २. प्रस्तुत से भिन्न। अन्य। दूसरा। जैसे—यह और बात है कि वे जरा कम समझ (या हठी) है। उदाहरण—बनि है बात उपाइ न और।—तुलसी। पद—और ही कुछ साधारण से भिन्न, परंतु अनोखा नया या निराला। जैसे—यह तो और ही कुछ निकला।
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औरग  : वि० [सं० उरग+अण्] उरग या साँप-संबंधी। पुं० आश्लेषा।
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औरत  : स्त्री० [अ०] १. महिला। स्त्री। २. जोरू। पत्नी।
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औरस  : वि० [सं० उरस+अण्] [स्त्री० औरसी] १. उर या हृदय संबंधी। २. उर या हृदय से उत्पन्न होनेवाला। ३. जिसका जन्म स्वयं किसी के हृदय अर्थात् व्यक्तित्व से हुआ हो। जैसे—औरस पुत्र । पुं० विवाहित स्त्री से उत्पन्न पुत्र। विशेष—स्मृतियों में १२ प्रकार के जो पुत्र कहे गये है उनमें औरस सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
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औरसना  : अ० [सं० अव=बुरा+रस] अप्रसन्न या रुष्ट होना।
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औरसी  : स्त्री० [सं० औरस+ङीष्] कन्या जो विवाहित स्त्री से उत्पन्न हुई हो।
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औरस्य  : वि० [सं० उरस+यत्, उरस्य+अण्] १. (व्याकरण में ध्वनि) जिसका उच्चारण हृदय से होता हो। २. औरस।
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औरा  : प्रत्यय [सं० वटक, हिं० बड़ा] एक प्रत्यय जो कुछ संज्ञाओं में लगकर किसी विशिष्ट वस्तु से या किसी विशिष्ट रूप में बने हुए पकवानों का वाचक होता है। जैसे—तिल से तिलौरा, फूलना से फुलौरा आदि।
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औरासी  : वि० [सं० अव+राशि] [स्त्री० औरासी] १. जो निकृष्ट या बुरी राशि में हो या उससे संबंध रखता हो। २. बे-ठिकाने का। बेढंगा। बे-ढब। उदाहरण—विसर्यो सूर विरह दुःख अपनी सुवत चाल औरासी।—सूर।
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औरेब  : पुं० [सं० अव+रेवगति] १. चक्र गति। तिरछी चाल। २. ओढ़ने या पहनने के कपड़े की तिरछी काट। ३. असमंजस झंझट या संकट की अवस्था। उलझन। मुहावरा—औरेब सुधारना उलझन या संकट दूर करना। उदाहरण—राम कथा अवरेव (औरेब) सुधारी।—तुलसी। ४. चाल या पेंच की बात। ५. थोड़ी साधारण या हलकी खराबी या हानि। जैसे—(क) इस नगीने में कुछ औरेब है। (ख) गिरने से तसवीर में औरेब आ गया है।
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और्णिक  : वि० [सं० ऊर्णा+ठञ्-इक] ऊर्ण या ऊन से संबंध रखने या उससे बननेवाला। ऊनी।
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और्ध्वदे (दै) हिक  : वि० [सं० ऊर्ध्वदेह+ठञ्-इक] उस देह (या आत्मा) से संबंध रखनेवाला जिसकी गति (मृत्यु के उपरान्त) उर्ध्व दिशा में या ऊपर की ओर होती है। पारलौकिक शरीर से संबंध रखनेवाला।
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और्व  : पुं० [सं० उर्वी+अण्] १. बड़वानल। २. पुराणों के अनुसार वह दक्षिणी भाग जिसमें सब नरक हैं और जहाँ दैत्यों का निवास है। ३. पाँच प्रवर ऋषियों में से एक। ४. नोनी मिट्टी से निकला हुआ नमक।
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और्वशेय  : पुं० [सं० उर्व+ढक्-एय] १. उर्वशी के पुत्र। २. अगस्त्य मुनि। ३. वशिष्ठ।
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औलंभा  : पुं०=उपालंभ।
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औल  : पुं० [देश] जंगली प्रदेशों में होनेवाला एक प्रकार का ज्वार।
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औलना  : अ० [अनु] १. तप्त होना। जलना। २. =औसना। स० १. गरम करना। २. तपाना। ३. कष्ट देना(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औला  : प्रत्यय [सं० पोलक, प्रा० ओलआ=बच्चा या छोटा रूप] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर उनके आरंभिक या छोटे रूप का वाचक होता है। जैसे—बिनौला (बन या कपास का आरम्भिक रूप) अगौला (गन्ने का आरम्भिक भाग या ऊपरी रूप) आदि।
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औलाद  : स्त्री० [अ०] वंशज। संतति। संतान।
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औला-दौला  : वि० [देश] जिसे किसी बात की चिन्ता या ध्यान न हो। ला-परवाह।
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औलिया  : पुं० [अ० वली का बहु०] मुसलमानी धर्म के अनुसार बहुत बड़े भक्त या पहुँचे हुए फकीर। (बहुवचनात्मक होने पर भी प्रायः एक वचन में प्रयुक्त)
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औली  : स्त्री० [सं० आवली] वह अन्न जो नई फसल में से पहली बार काटा गया हो। नवान्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औलूक्य  : पुं० [सं० उलूक+ष्यञ्] उलूक (अर्थात् कणादि) ऋषि का वैशेषिक दर्शन।
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औलूक्य-दर्शन  : पुं० [ष० त०] वैशेषिक दर्शन।
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औलूखल  : वि० [सं० उलूखल+अण्] १. उलूखल या ऊखल संबंधी। २. (अन्न) जो ऊखल में कूटा गया हो। जैसे—चिड़वा आदि।
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औलेखाँ  : पुं० दे० ‘औले भाई’।
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औलेभाई  : पद [औले-अनु०+फा० खाँ] ठगों का एक पारिभाषिक पद जिसका प्रयोग वे पारस्परिक संबोधन के समय करते हैं।
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औवल  : वि० [अ०] १. गणना, परीक्षा, प्रतियोगिता आदि के प्रसंगों में पहला। प्रथम। २. प्रधान। मुख्य। ३. उत्तर। श्रेष्ठ। पुं० आरंभ। शुरू।
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औशि  : क्रि० वि०=अवश्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औशीर  : वि० [सं० उशीर+अण्] उशीर या खस-संबधी। उशीर का। खस का। पुं० १. खस आदि की बुनी हुई चटाई। २. चँवर। चामर।
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औषध  : पुं० [सं० औषधि+अण्] रोगी को नीरोग करने अथवा रोग का इलाज या उसकी रोकथाम करने के लिए विधिपूर्वक बनाया हुआ औषधियों का मिश्रण। दवा। (मेडिसन)
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औषधालय  : पुं० [सं० औषध-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ दवाएँ बनती और बिकती हों अथवा रोगियों को दी जाती हों। दवाखाना।
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औषर  : पुं० [सं० उषर+अण्] १. खारी नमक। २. चुम्बक पत्थर।
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औषस  : वि० [सं० उषस्+अण्] उषा-संबंधी।
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औषसी  : स्त्री० [सं० औषस+ङीष्] उषःकाल। तड़का। प्रभात।
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औष्ट्र  : वि० [सं० उष्ट्र+अण्] ऊँट-संबंधी। ऊँट का। जैसे—औष्ट्र रथ। पुं० ऊँटनी का दूध।
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औष्ट्र-रथ  : पुं० [कर्म० स०] वह गाड़ी या रथ जिसे ऊँट खींचते हों। ऊँट गाड़ी।
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औष्ट्रिक  : वि० [सं० उष्ट्र+ठक्-इक] १. ऊँट संबंधी। २. ऊँट के बालों से बना हुआ।
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औष्ठ  : वि० [सं० ओष्ठ+अण्] १. ओष्ठ-संबंधी। ओंठ का। २. ओंठ के आकार या रूप का।
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औष्ठ्य  : वि० [सं० ओष्ठ्य+अण्] १. ओंठ संबधी। २. (वर्ण) जिसका उच्चारण ओष्ठ के योग से होता हो।
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औष्ण  : पुं० [सं० उष्ण+अण्] उष्णता।
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औसत  : पुं० [अ०] कई बातों, संख्याओं आदि के आधार पर किया हुआ बराबर का परता। विशेष—दे० ‘माध्य’०।
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औसना  : अ० [हिं० ऊमस+ना] १. विकल करनेवाली ऊमस होना। २. देर तक रखी हुई खाने की चीजों में सड़न उत्पन्न होना। ३. पत्तों, भूसे आदि में दबाये हुए फलों का पकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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औसर  : पुं०=अवसर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औसान  : पुं० [सं० अवसान] १. अंत। समाप्ति। २. परिणाम। पुं० [फा०] सुध-बुध। होश-हवास।
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औसाना  : स० [ हिं० औसना] फलों आदि को भूसे आदि में रखकर पकाना।
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औसि  : क्रि० वि०=अवश्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औसी  : स्त्री० दे० ‘औली’।
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औसेर  : स्त्री०=अवसेर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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औहत  : स्त्री० [सं० अपघात या अव+हत] १. अपमृत्यु आकस्मिक मृत्यु। २. दुर्गति। दुर्दशा।
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औहाती  : स्त्री०=अहिवाती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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