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उपज्ञा  : स्त्री० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+अङ्-टाप्] १. प्राचीन भारत में, वह बुद्धिपरक प्रयत्न जो दिग्गज विद्वान अपने मौलिक चिन्तन से नये-नये शास्त्रों की उद्भावना के लिए करते थे। २. चिंतन द्वारा किसी चीज या बात का पता लगाना। ३. कार्य करने का कोई ऐसा नया ढंग निकालना अथवा कोई नया औजार या यन्त्र बनाना जिसका पता पहले किसी को न रहा हो। नई चीज या साधन निकालना। (इन्वेंशन)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उपज्ञात  : पुं० [सं० उप√ज्ञा+क्त] प्राचीन भारत में किसी विशिष्ट आचार्य की उपज्ञा से आविर्भूत होनेवाला कोई नया ग्रंथ, विषय या साहित्य। भू० कृ० जिसका आविर्भाव उपज्ञा के द्वारा हुआ हो। (इन्वेंटिड)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उपज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+तृच्] वह जिसने उपज्ञा के द्वारा कोई नई बात या चीज ढूँढ़ निकाली हो। (इन्वेंटर)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उपज्ञा  : स्त्री० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+अङ्-टाप्] १. प्राचीन भारत में, वह बुद्धिपरक प्रयत्न जो दिग्गज विद्वान अपने मौलिक चिन्तन से नये-नये शास्त्रों की उद्भावना के लिए करते थे। २. चिंतन द्वारा किसी चीज या बात का पता लगाना। ३. कार्य करने का कोई ऐसा नया ढंग निकालना अथवा कोई नया औजार या यन्त्र बनाना जिसका पता पहले किसी को न रहा हो। नई चीज या साधन निकालना। (इन्वेंशन)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उपज्ञात  : पुं० [सं० उप√ज्ञा+क्त] प्राचीन भारत में किसी विशिष्ट आचार्य की उपज्ञा से आविर्भूत होनेवाला कोई नया ग्रंथ, विषय या साहित्य। भू० कृ० जिसका आविर्भाव उपज्ञा के द्वारा हुआ हो। (इन्वेंटिड)
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उपज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० उप√ज्ञा (जानना)+तृच्] वह जिसने उपज्ञा के द्वारा कोई नई बात या चीज ढूँढ़ निकाली हो। (इन्वेंटर)
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