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ई  : देव-नागरी वर्णमाला का चौथा स्वर जो ‘इ’ का दीर्घ रूप हैं और जिसका उच्चारण तालु से होता है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह घोष तथा संवृत्त स्वर है। हिंदी में यह नीचे लिखे कामों के लिए कुछ शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगता है—१. पुंलिग शब्दों के स्त्री-लिंग रूप बनाने के लिए। जैसे—ऊँचा से ऊँची, खड़ा से खड़ी, गधा से गधी आदि। २. संज्ञाओं से विशेषण बनाने के लिए। जैसे—नीलाम से नीलामी, पहाड़ से पहाड़ी,बनारस से बनारसी आदि। ३. संज्ञाओं से उनके कर्त्ता रूप बनाने के लिए। जैसे—क्रोध से क्रोधी, पाप से पापी, लोभ से लोभी आदि। ४. विशेषणों से उनकी भाववाचक संज्ञाएं बनाने के लिए। जैसे—चौड़ा से चौड़ाई, मोटा से मोटाई, लंबा से लंबाई आदि। ५. कुछ क्रियाओं से उनकी भाववाचक संज्ञाएं तथा पारिश्रमिक आदि का भाव सूचित करने के लिए। जैसे—जोड़ना से जोड़ाई, रंगना से रंगाई, सीना या सिलाना से सिलाई आदि। पुं० [सं०√ई+क्विप्] कामदेव। स्त्री० १. लक्ष्मी। २. माया। ३. शांति। सर्व० [सं० इ-यह या वह] यह। जैसे—ई नाहीं हौ गज्जी क बेचब...। अव्य०-ही (जोर देने के लिए) उदाहरण—रावरी ई गति बल विभव-विहीन की।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईंगुर  : पुं० [सं० हिंगुल, प्रा० इंगुल] लाल रंग का एक प्रसिद्ध खनिज पदार्थ जो सौभाग्यवती हिंदू स्त्रियाँ माथे पर और विशेषतः माँग में लगाती हैं। सिंदूर। (वरमीलियन)।
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ईचना  : स० [सं० अञ्चन=खींचना] खींचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईंचा-तानी  : स्त्री०=खींचा-तानी।
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ईंट  : स्त्री० [सं० इष्टका० पा० इकट्ठा] १. साँचे में ढालकर पकाया हुआ आयताकार मिट्टी का टुकड़ा जो दीवारें आदि बनाने के काम आता है। मुहावरा—ईंट से ईंट बजना=दोनों पक्षों में जमकर लड़ाई होना। ईंट से ईंट बजाना=बस्ती या घर पूरी तरह से ध्वस्त करना। ईटें चुनना=दीवार बनाना। पद—डेढ़ (या) ढाई ईंट की मसजिद अलग बनाना=किसी बात में अपनी राय दूसरों से बिलकुल अलग रखना। २. उक्त आकार का सोने, चाँदी आदि का ढाला हुआ टुकड़ा। ३. ताश के पत्तों के चार रंगों में से एक जिसमें लाल रंग की चौकोर बूटियाँ बनी होती है।
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ईंटा  : पुं०=ईंट।
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ईंडरी, ईडुरी  : स्त्री० [सं० कुंडली] गेंडुरी।
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ईढ  : वि० [सं० ईदृश] १. इस तरह का। ऐसा। २. तुल्य। बराबर। समान। (डिं०)
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ईंधन  : पुं० [सं० ईधन] १. रसोई पकाने, धातुएँ गलाने आदि के लिए चूल्हे या भट्ठी में जलाने की लकड़ी। जलावन। (फायर वुड,पयुएल) २. किसी विनाशकारी अवस्था में नष्ट होने के लिए दी जानेवाली सामग्री या पदार्थ। जैसे—तोप का ईधन-(दे० तोप के अंतर्गत पद) ३. ऐसी बात जो किसी कुद्ध व्यक्ति को और भी अधिक उत्तेजित करने या भड़काने में सहायक हो।
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ईकार  : पुं० [सं० ई+कार] ‘ई’ स्वर या उसका सूचक वर्ण।
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ईकारांत  : वि० [सं० ईकार-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसके अंत में ‘ई’ हो।
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ईक्षक  : पुं० [सं०√ईक्ष् (देखना, विचार करना)+ण्वुल्-अक] १. देखनेवाला। २. जाँच आदि करनेवाला।
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ईक्षण  : पुं० [सं०√ईक्ष्+ल्युट-अन] [वि० ईक्षणीय, ईक्षित, ईक्ष्य] १. आँखों से देखने की क्रिया या भाव। देखना। २. आँख। ३. विवेचन। विचार। ४ जाँच-पड़ताल।
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ईक्षणिक  : पुं० [सं० ईक्षण+ठन्-इक] [स्त्री० ईक्षणिका] १. भविष्यद् वक्ता। २. हस्तरेखाओं का जानकार। सामुद्रिक का ज्ञाता।
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ईक्षा  : स्त्री० [सं०√ईक्ष्+अ-टाप्] १. दृष्टि। नजर। २. देखना। ३. विचारना।
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ईक्षिका  : स्त्री० [सं०√ईक्ष्+ण्वुल्-अक-टाप्] देखने की इंद्रिय। आँख।
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ईक्षित  : भू० कृ० [सं०√ईक्ष+क्त] १. देखा हुआ। २. जाँचा हुआ।
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ईख  : स्त्री० [सं० इक्षु, प्रा० इक्खु] शर जाति का एक प्रसिद्ध पौधा। जिसके डंठलों या पोरों में मीठा रस भरा रहता है। इसी के रस से गुड़ और चीनी बनती है। ऊख। गन्ना।
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ईखना  : स० [सं० ईक्षण, प्रा० इक्खन] देखना। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईखराज  : पुं० [हिं० ईख+राज] ईख की फसल बोने का पहला दिन, जो खेतिहारों का एक पर्व है।
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ईछन  : पुं ० [सं० ईक्षण] १. देखने की क्रिया या भाव। दृष्टि-पात। देखना। उदाहरण—धीर समीर सुतीर तै तीछन ईछन कैसहु जा सहती मैं।—पद्याकर। २. आँख। नयन। नेत्र।
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ईछना  : स० [सं० इच्छा] इच्छा करना। चाहना। स० [सं० ईक्षण] देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईछा  : स्त्री०=इच्छा। उदाहरण—बिसरी सबहिं जुद्ध कै ईछा।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईजा  : स्त्री० [अ०] कष्ट। क्लेश। दुःख।
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ईजाद  : स्त्री० [अ०] आविष्कार।
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ईठ  : पुं० [सं० इष्ट, प्रा० इट्ठ] प्रिय व्यक्ति, मित्र और सखा वि० प्रिय। उदाहरण—ज्यों क्यों हूँ न मिलै केशव दोऊ ईठ।
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ईठना  : स० [सं० इष्ट] चाहना। अ० इष्ट या वांछित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईठि  : स्त्री० [सं० इष्टि, प्रा० इट्ठि] १. ईठ (अर्थात् इष्ट) होने की अवस्था या भाव। २. मित्रता। दोस्ती। उदाहरण—बोलिये न झूठ, ईठि मूढ़ पै न कीजिए।—केशव। क्रि० वि० [हिं० ईठि] इष्ट रूप में। अच्छी तरह। उदाहरण—ललन चलनु सुनि चुप रही बोली आपु न ईठि।—बिहारी। स्त्री० [?] छोटा भाला। बरछी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईडन  : पुं० [सं०√ईड् (प्रशंसा करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० ईडित] प्रशंसा या स्तुति करना।
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ईड़री  : स्त्री० [सं० कुंडली] गेडुरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईडा  : स्त्री० [सं०√ईड्+अ-टाप्] प्रशंसा। स्तुति।
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ईडित  : भू० कृ० [सं०√ईड् (स्तुति करना, प्रशंसा करना)+क्त] जिसकी प्रसंसा या स्तुति की गई हो। प्रशंसित।
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ईड्य  : वि० [सं०√ईड्+ण्यत्] १. जिसकी प्रशंसा करना उचित हो। प्रशंसनीय। २. जिसकी प्रशंसा की गई हो या की जा रही हो।
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ईढ़  : स्त्री० [सं० इष्ट, प्रा० इट्ठ] [वि० ईढ़ी] जिद। टेक। हठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईत  : स्त्री०=ईति।
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ईतर  : वि० [सं० इतर] १. इतरानेवाला। २. तुच्छ। निकृष्ट। ३. ढीठ। गुस्ताख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईति  : स्त्री० [सं०√ई (गति)+क्तिन्] १. खेती को हानि पहुँचानेवाले उपद्रव या विपत्तियाँ जो छः प्रकार की कही गई हैं-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डियाँ, चूहे, पक्षी और विदेशी आक्रमण। उदाहरण—दशरथ राज न ईति भय, नहिं दुख दुरित दुकाल। २. बाधा। ३. कष्ट। दुख। ४० झगड़ा-बखेड़ा।
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ईथर  : पुं० [अं०] १. एक लचीला पारदर्शी सूक्ष्म तत्त्व जो सारे आकाश में व्याप्त है और जिसमें से होकर प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर आती हैं। आकाश। २. एक रासायनिक वर्णहीन द्रव पदार्थ जो गंधक के तेजाब और मद्यासार के योग से बनता है।
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ईद  : स्त्री० [अ०] १. मुसलमानों का एक प्रसिद्ध त्योहार जो रमजान मास के रोजे समाप्त होने पर चंद्रमा दिखाई देने के दूसरे दिन मनाया जाता है। पद—ईद का चाँद=ऐसा प्रिय व्यक्ति जिससे जल्दी भेंट न हो सकती हो या बहुत दिनों बाद भेंट हुई हो। (परिहास)
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ईद-गाह  : स्त्री० [अ०+फा०] वह मैदान जहाँ ईद के दिन बहुत से मुसलमान इकट्ठे होकर नमाज पढते है।
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ईदी  : स्त्री० [अ० ईद+ई (प्रत्यय)] १. ईद के अवसर पर (क) मित्रों को दी जानेवाली सौगात अथवा (ख) नौकरों, बच्चों आदि को दिया जानेवाला पुरस्कार। २. ईद के अवसर पर लिखकर दी जानेवाली मंगल-कामना से युक्त कविता।
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ईदृश्  : अव्य० [सं० इदम्√दृश् (देखना)+खञ्] [स्त्री० ईदृशी] इस प्रकार। ऐसे। वि० इस प्रकार का। ऐसा।
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ईप्सा  : स्त्री० [सं०√आप् (पाना)+सन्+अ-टाप्] [वि० ईप्सित, ईप्सु] कोई वस्तु प्राप्त करने की इच्छा। अभिलाषा।
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ईप्सित  : भू० कृ० [सं०√आप्+सन्+क्त] (पदार्थ) जिसकी ईप्सा या इच्छा की गई हो। चाहा हुआ। अभिलषित।
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ईप्सु  : वि० [सं०√आप्+सन्+उ] ईप्सा या इच्छा करनेवाला। इच्छुक।
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ईमन  : पुं० [फा० यमन] संगीत में, एक रागिनी जो रात के पहले पहर में गाई जाती है।
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ईमन-कल्यान  : पुं० [हिं० ईमन+सं० कल्याण] ईमन और कल्याण रागों के मेल से बना हुआ एक संकर राग।
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ईमान  : पुं० [अ०] १. शुद्ध हृदय से ईश्वर के अस्तित्व में होनेवाला विश्वास। आस्तिक बुद्धि। २. धर्म, न्याय, सत्य आदि के संबंध में होनेवाली पूरी और सच्ची निष्ठा। मुहावरा—ईमान की कहना=बिना किसी प्रकार के पक्षपात के ठीक और सच बात कहना। ईमान से कहना=ठीक और सच बात कहना। ३. धार्मिक विश्वास। मुहावरा—ईमान देना=अपने धर्म या धार्मिक विश्वास से पतित या भ्रष्ट होना।
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ईमानदार  : वि० [अ० ईमान+फा० दार] [भाव० ईमानदारी] १. धर्म में विश्वास रखनेवाला और उसी के अनुसार आचरण करनेवाला। २. धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ। ३. सदा सचाई का व्यवहार करनेवाला। सत्यपरायण। (आँनेस्ट)।
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ईमानदारी  : स्त्री० [अ०+फा०] १. ईमानदार होने की अवस्था या भाव० २. सत्यनिष्ठा और सत्यपरायणता। (आँनेस्टी)।
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ईर  : स्त्री०=ईढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईरखा  : स्त्री०=ईर्ष्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईरज  : पुं० [सं० ईर√जन् (उत्पन्न होना)+ड] हनुमान।
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ईंरण  : पुं० [सं०√ईर् (गति)+ल्यु-अन] वायु। हवा। पुं० [सं० ईरणं] [भू० कृ० ईरति] १. किसी को आगे ढकेलने या बढ़ाने की क्रिया या भाव। २. उत्तेजना या प्रेरणा। ३. गमन। जाना। ४. घोषणा।
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ईरमद  : स्त्री० [सं० इरम्मद] १. बिजली। २. बिजली में रहने या उसमें लगनेवाली आग। वज्राग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईराकी  : वि० पुं० स्त्री० दे० ‘इराकी’।
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ईरान  : पुं० [फा० मि० सं,० आर्य] [वि० ईरानी] पश्चिमी एशिया का एक प्रसिद्ध देश जिसमें बसनेवाले आर्य अब मुसलमान हो गये हैं। फारस।
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ईरानी  : वि० [फा०] ईरान का। पुं०ईरान देश का निवासी। स्त्री० ईरान देश की भाषा।
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ईरित  : भू० कृ० [सं०√ईर्+क्त] १. आगे ढकेला या बढ़ाया हुआ। २. प्रेरित या प्रोत्साहित। उदाहरण—ऊधौ विधि ईरित भई है भाग-कीरति।...।—घनानंद।
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ईर्षणा  : स्त्री०=ईर्ष्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईर्षा  : स्त्री० [सं०√ईर्ष्य (डाह करना)+अ-टाप्, यलोप]=ईर्ष्या।
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ईर्षालु  : वि० [सं०√ईर्ष्य्+आलुच्,यलोप]=ईर्ष्यालु।
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ईर्षित  : भू० कृ० [सं० ईर्षा+इतच्] जिससे ईर्ष्या की गई हो। जिसके प्रति किसी को ईर्ष्या हो।
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ईर्षु  : वि० [सं० ईर्षा+उण्]=ईर्ष्यालु।
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ईर्ष्य  : वि० [सं०√ईर्ष्य+अच्] जिससे ईर्ष्या या डाह की जा सकती हो।
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ईर्ष्यक  : वि० [सं० ईर्ष्य+ण्वुल्-अक] किसी से ईर्ष्या करनेवाला। ईर्ष्यालु। पुं० वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का नपुंसक जिसकी कामवासना तब तक उत्तेजित नहीं होती, जब तक वह किसी को संभोग करते हुए न देखे।
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ईर्ष्या  : स्त्री० [सं०√ईर्ष्य+अ-टाप्] [वि० ईर्ष्यक, ईर्ष्यालु] किसी को अपने से अधिक उन्नत, संपन्न या सुखी देखकर मन में होनेवाला वह कष्ट या जलन जिसके साथ उस व्यक्ति को वैभव सुख आदि से वंचित करके स्वयं उसका स्थान लेने की अभिलाषा लगी रहती है। डाह। (एन्वी)।
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ईर्ष्यालु  : वि० [सं०√ईर्ष्य+आलुच्] मन में किसी के प्रति ईर्ष्या रखनेवाला। ईर्ष्या या डाह करनेवाला।
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ईल  : पुं० [देश] एक प्रकार का बनैला जंतु। स्त्री० [अ०] एक प्रकार की मछली। बाँग।
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ईली  : स्त्री० [सं०√ईड्+कि+ङीष्] एक प्रकार की छोटी तलवार या कटारी।
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ईश  : पुं० [सं०√ईश्(ऐश्वर्य)+क] १. प्रभु। मालिक। स्वामी। २. ईश्वर। ३. राजा। ४. पति। स्वामी। ५. रूद्र। ६. ग्यारह की संख्या (ग्यारह रूद्र होते हैं) ७. आर्द्रा नक्षत्र। ८. पारा। ९. ईशोपनिषद्।
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ईशता  : स्त्री० [सं० ईश+तल्-टाप्] १. ईश होने की अवस्था या भाव। २. प्रभुत्व। स्वामित्व।
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ईशन  : पुं०=ईशान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईशा  : स्त्री० [सं०√ईश्+अ-टाप्] १. ऐश्वर्य। २. ऐश्वर्यशालिनी स्त्री। ३. दुर्गा।
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ईशान  : पुं० [सं०√ईश्+चानश्] [स्त्री०ईशानी] १. अधिपति। स्वामी। २. ईश्वर। ३. महादेव। शिव। ४. ग्यारह रूद्रों में से एक। ५. ग्यारह की संख्या। ६. शिव की आठ मूर्तियों में से एक। ७. पूरब और उत्तर के बीच का कोना। ८. आर्द्रा नक्षत्र। ९. ज्योति। १0 शमी वृक्ष। वि० १. शासन करनेवाला। २. ऐश्वर्ययुक्त। ३..धनी।
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ईशानी  : स्त्री० [सं० ईशान+ङीष्] १. दुर्गा। २. शाल्मली वृक्ष। सेमल का पेड़।
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ईशिता  : स्त्री० [सं० ईशिन्+तल्-टाप्] १. महत्ता। श्रेष्ठता। २. आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जिसे प्राप्त करने पर साधक सब पर शासन करने के योग्य हो सकता है।
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ईशित्व  : पुं० [सं० ईशिन्+त्व]=ईशिता।
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ईश्वर  : पुं० [सं० ईश्+वरच्] १. परम पुरुष या परमात्मा के रूप में पूजी जानेवाली वह सर्वप्रधान सत्ता जो सारे ब्रह्माण्ड, विश्व या सृष्टि मात्र को बनाने-बिगाड़ने और उसका नियंत्रण तथा शासन करनेवाली मानी गई है। परमात्मा। भगवान। विशेष-हमारे यहाँ दर्शनों में इसे निराकार, निर्गुण, सर्वव्यापी और सब कर्मों, क्लेशों आदि से निर्लिप्त, पृथक् और रहित माना गया है। पर उपासना, कर्म-काण्ड आदि के क्षेत्रों में इसके सगुण और साकार रूपों की भी कल्पना की गई है। २. आत्मा। ३. शिव। ४. पारा। ५. पीतल।
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ईश्वर-प्रणिधान  : पुं० [सं० ष० त०] योगशास्त्र में, पाँच प्रणिधानों में से एक जिसमें मनुष्य ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा रखता हुआ अपने आप को सब प्रकार से उसके चरणों में अर्पित कर देता है।
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ईश्वर-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर की सत्ता और कर्त्तृत्व शक्ति पर पूरा विश्वास रखने का सिद्धांत। (डीइज्म)।
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ईश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० ईश्वरवाद+इनि] ईश्वरवाद का अनुयायी या समर्थक। (डीइस्ट)।
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ईश्वरा  : स्त्री० [सं० ईश्वर+टाप्] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. शक्ति।
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ईश्वराधीन  : वि० [सं० ईश्वर-अधीन, ष० त०] ईश्वर के अधिकार में रहने या उसकी इच्छा के अनुसार होनेवाला। जैसे—भाग्य और सफलता तो ईश्वराधीन है।
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ईश्वरी  : स्त्री० [सं० ईश्वर+ङीष्] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. शक्ति। ४० लिंगिनी, बंध्या, कर्कटी, क्षुद्रजटा, नाकुली आदि पौधे। वि०=ईश्वरीय।
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ईश्वरीय  : वि० [सं० ईश्वर+छ-ईय] १. ईश्वर-संबंधी। ईश्वर का। २. ईश्वर की ओर से होनेवाला।
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ईश्वरोपासना  : स्त्री० [सं० ईश्वर-उपासना, ष० त०] ईश्वर या परमात्मा की उपासना, ध्यान, भजन आदि।
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ईषत्  : क्रि० वि० [सं०√ईष्+अति] अल्प रूप में। कुछ-कुछ। बहुत थोड़ा। वि० कुछ।
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ईषत्-स्पष्ट  : वि० [कर्म० स०] जिसका किसी से बहुत ही थोड़ा स्पर्श हुआ हो। बहुत कम छुआ हुआ। पुं० व्याकरण में, वर्णों के उच्चारण का एक आभ्यंतर प्रयत्न जिसमें तालु, दाँत या मूर्द्धा को जीभ बहुत ही थोड़ा स्पर्श करती अथवा होठों को दाँत बहुत ही कम छूते हैं। (य, र, ल, और व ऐसे वर्ण हैं जिनके उच्चारण में उक्त प्रयत्न होता है)।
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ईषद्  : वि०, क्रि० वि०=ईषत्।
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ईषना  : स्त्री०=एषणा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईषा  : स्त्री० [सं०√ईष् (गति)+क-टाप्] वह लंबी लकड़ी जिसमें गाड़ी या हल जोतते समय जुआ बाँधा जाता है। हरसा। हरिस।
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ईषिका  : स्त्री० [सं० ईषा+कन्-टाप्,इत्व] १. हाथी की आँख का गोलक। २. चित्र में रंग भरने की कलम। कूँची। ३. बाण। ४. सींक।
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ईषु  : पुं० [सं० इषु] तीर। बाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईष्म  : पुं० [सं०√ईष्(सरकना)+मक्] १. वसंतऋतु। २. कामदेव।
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ईस  : पुं० दे० ‘ईश’। वि० ऐश्वर्यशाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसन  : पुं०=ईशान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसबगोल  : पुं० दे० ‘इबलगोल’।
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ईसर  : पुं० धन-सम्पत्ति। ऐश्वर्य। पुं०=ईश्वर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसरी  : वि०=ईश्वरीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसवी  : वि० [फा०] ईसा से संबंध रखनेवाला। ईसा का। मसीही। जैसे—ईसवी सन्-ईसा मसीह के मरणकाल से चला हुआ संवत्।
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ईसा  : पुं० [यहू जीसस का अ० रूप] यहूद देश के एक प्रसिद्ध पैगंबर जो एक नये धर्म के प्रवर्तक थे और जिन्हें अंत में सूली दी गयी थी। कहते है कि इन्होंने अनेक अलौकिक शक्तियाँ पाई थी,इसलिए इन्हें ईसा मसीह कहते हैं। पुं०=इश। उदाहरण—एहि बिधि भए सोच बस ईसा।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसाई  : वि० [अ०] ईसा संबंधी। ईसा का। पुं० १. ईसा नामक पैगंबर का चलाया हुआ धर्म। २. उक्त धर्म का अनुयायी।
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ईसान  : पुं०=ईशान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसानी  : स्त्री०=ईशानी (दुर्गा)।
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ईहग  : पुं० [सं० ईहा-इच्छा+ग-गमन करनेवाला] कवि। (डिं०)
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ईहा  : स्त्री० [सं० ईह् (इच्छा करना)+अ-टाप्] १. इच्छा। अभिलाषा। २. उद्योग। चेष्टा। प्रयत्न। ३. लोभ। (डिं०)
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ईहामृग  : पुं० [सं० ईहा√मृग (ढूँढ़ना)+अण्] चार अंकोंवाला एक प्रकार का रूपक जिसमें नायक और नायिका देवता और देवी होते है और जिसमें मुख्यतः नायिका की वीरता के दृश्य होते हैं।
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ईहित  : भू० कृ० [सं०√ईह्+क्त] १. जिसकी इच्छा की गई हो। वांछित। २. जिसकी प्राप्ति के लिए चेष्टा की गई हो।
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ई  : देव-नागरी वर्णमाला का चौथा स्वर जो ‘इ’ का दीर्घ रूप हैं और जिसका उच्चारण तालु से होता है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से यह घोष तथा संवृत्त स्वर है। हिंदी में यह नीचे लिखे कामों के लिए कुछ शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगता है—१. पुंलिग शब्दों के स्त्री-लिंग रूप बनाने के लिए। जैसे—ऊँचा से ऊँची, खड़ा से खड़ी, गधा से गधी आदि। २. संज्ञाओं से विशेषण बनाने के लिए। जैसे—नीलाम से नीलामी, पहाड़ से पहाड़ी,बनारस से बनारसी आदि। ३. संज्ञाओं से उनके कर्त्ता रूप बनाने के लिए। जैसे—क्रोध से क्रोधी, पाप से पापी, लोभ से लोभी आदि। ४. विशेषणों से उनकी भाववाचक संज्ञाएं बनाने के लिए। जैसे—चौड़ा से चौड़ाई, मोटा से मोटाई, लंबा से लंबाई आदि। ५. कुछ क्रियाओं से उनकी भाववाचक संज्ञाएं तथा पारिश्रमिक आदि का भाव सूचित करने के लिए। जैसे—जोड़ना से जोड़ाई, रंगना से रंगाई, सीना या सिलाना से सिलाई आदि। पुं० [सं०√ई+क्विप्] कामदेव। स्त्री० १. लक्ष्मी। २. माया। ३. शांति। सर्व० [सं० इ-यह या वह] यह। जैसे—ई नाहीं हौ गज्जी क बेचब...। अव्य०-ही (जोर देने के लिए) उदाहरण—रावरी ई गति बल विभव-विहीन की।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईंगुर  : पुं० [सं० हिंगुल, प्रा० इंगुल] लाल रंग का एक प्रसिद्ध खनिज पदार्थ जो सौभाग्यवती हिंदू स्त्रियाँ माथे पर और विशेषतः माँग में लगाती हैं। सिंदूर। (वरमीलियन)।
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ईचना  : स० [सं० अञ्चन=खींचना] खींचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईंचा-तानी  : स्त्री०=खींचा-तानी।
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ईंट  : स्त्री० [सं० इष्टका० पा० इकट्ठा] १. साँचे में ढालकर पकाया हुआ आयताकार मिट्टी का टुकड़ा जो दीवारें आदि बनाने के काम आता है। मुहावरा—ईंट से ईंट बजना=दोनों पक्षों में जमकर लड़ाई होना। ईंट से ईंट बजाना=बस्ती या घर पूरी तरह से ध्वस्त करना। ईटें चुनना=दीवार बनाना। पद—डेढ़ (या) ढाई ईंट की मसजिद अलग बनाना=किसी बात में अपनी राय दूसरों से बिलकुल अलग रखना। २. उक्त आकार का सोने, चाँदी आदि का ढाला हुआ टुकड़ा। ३. ताश के पत्तों के चार रंगों में से एक जिसमें लाल रंग की चौकोर बूटियाँ बनी होती है।
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ईंटा  : पुं०=ईंट।
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ईंडरी, ईडुरी  : स्त्री० [सं० कुंडली] गेंडुरी।
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ईढ  : वि० [सं० ईदृश] १. इस तरह का। ऐसा। २. तुल्य। बराबर। समान। (डिं०)
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ईंधन  : पुं० [सं० ईधन] १. रसोई पकाने, धातुएँ गलाने आदि के लिए चूल्हे या भट्ठी में जलाने की लकड़ी। जलावन। (फायर वुड,पयुएल) २. किसी विनाशकारी अवस्था में नष्ट होने के लिए दी जानेवाली सामग्री या पदार्थ। जैसे—तोप का ईधन-(दे० तोप के अंतर्गत पद) ३. ऐसी बात जो किसी कुद्ध व्यक्ति को और भी अधिक उत्तेजित करने या भड़काने में सहायक हो।
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ईकार  : पुं० [सं० ई+कार] ‘ई’ स्वर या उसका सूचक वर्ण।
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ईकारांत  : वि० [सं० ईकार-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसके अंत में ‘ई’ हो।
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ईक्षक  : पुं० [सं०√ईक्ष् (देखना, विचार करना)+ण्वुल्-अक] १. देखनेवाला। २. जाँच आदि करनेवाला।
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ईक्षण  : पुं० [सं०√ईक्ष्+ल्युट-अन] [वि० ईक्षणीय, ईक्षित, ईक्ष्य] १. आँखों से देखने की क्रिया या भाव। देखना। २. आँख। ३. विवेचन। विचार। ४ जाँच-पड़ताल।
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ईक्षणिक  : पुं० [सं० ईक्षण+ठन्-इक] [स्त्री० ईक्षणिका] १. भविष्यद् वक्ता। २. हस्तरेखाओं का जानकार। सामुद्रिक का ज्ञाता।
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ईक्षा  : स्त्री० [सं०√ईक्ष्+अ-टाप्] १. दृष्टि। नजर। २. देखना। ३. विचारना।
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ईक्षिका  : स्त्री० [सं०√ईक्ष्+ण्वुल्-अक-टाप्] देखने की इंद्रिय। आँख।
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ईक्षित  : भू० कृ० [सं०√ईक्ष+क्त] १. देखा हुआ। २. जाँचा हुआ।
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ईख  : स्त्री० [सं० इक्षु, प्रा० इक्खु] शर जाति का एक प्रसिद्ध पौधा। जिसके डंठलों या पोरों में मीठा रस भरा रहता है। इसी के रस से गुड़ और चीनी बनती है। ऊख। गन्ना।
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ईखना  : स० [सं० ईक्षण, प्रा० इक्खन] देखना। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईखराज  : पुं० [हिं० ईख+राज] ईख की फसल बोने का पहला दिन, जो खेतिहारों का एक पर्व है।
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ईछन  : पुं ० [सं० ईक्षण] १. देखने की क्रिया या भाव। दृष्टि-पात। देखना। उदाहरण—धीर समीर सुतीर तै तीछन ईछन कैसहु जा सहती मैं।—पद्याकर। २. आँख। नयन। नेत्र।
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ईछना  : स० [सं० इच्छा] इच्छा करना। चाहना। स० [सं० ईक्षण] देखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईछा  : स्त्री०=इच्छा। उदाहरण—बिसरी सबहिं जुद्ध कै ईछा।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईजा  : स्त्री० [अ०] कष्ट। क्लेश। दुःख।
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ईजाद  : स्त्री० [अ०] आविष्कार।
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ईठ  : पुं० [सं० इष्ट, प्रा० इट्ठ] प्रिय व्यक्ति, मित्र और सखा वि० प्रिय। उदाहरण—ज्यों क्यों हूँ न मिलै केशव दोऊ ईठ।
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ईठना  : स० [सं० इष्ट] चाहना। अ० इष्ट या वांछित होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईठि  : स्त्री० [सं० इष्टि, प्रा० इट्ठि] १. ईठ (अर्थात् इष्ट) होने की अवस्था या भाव। २. मित्रता। दोस्ती। उदाहरण—बोलिये न झूठ, ईठि मूढ़ पै न कीजिए।—केशव। क्रि० वि० [हिं० ईठि] इष्ट रूप में। अच्छी तरह। उदाहरण—ललन चलनु सुनि चुप रही बोली आपु न ईठि।—बिहारी। स्त्री० [?] छोटा भाला। बरछी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईडन  : पुं० [सं०√ईड् (प्रशंसा करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० ईडित] प्रशंसा या स्तुति करना।
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ईड़री  : स्त्री० [सं० कुंडली] गेडुरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईडा  : स्त्री० [सं०√ईड्+अ-टाप्] प्रशंसा। स्तुति।
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ईडित  : भू० कृ० [सं०√ईड् (स्तुति करना, प्रशंसा करना)+क्त] जिसकी प्रसंसा या स्तुति की गई हो। प्रशंसित।
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ईड्य  : वि० [सं०√ईड्+ण्यत्] १. जिसकी प्रशंसा करना उचित हो। प्रशंसनीय। २. जिसकी प्रशंसा की गई हो या की जा रही हो।
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ईढ़  : स्त्री० [सं० इष्ट, प्रा० इट्ठ] [वि० ईढ़ी] जिद। टेक। हठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईत  : स्त्री०=ईति।
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ईतर  : वि० [सं० इतर] १. इतरानेवाला। २. तुच्छ। निकृष्ट। ३. ढीठ। गुस्ताख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईति  : स्त्री० [सं०√ई (गति)+क्तिन्] १. खेती को हानि पहुँचानेवाले उपद्रव या विपत्तियाँ जो छः प्रकार की कही गई हैं-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डियाँ, चूहे, पक्षी और विदेशी आक्रमण। उदाहरण—दशरथ राज न ईति भय, नहिं दुख दुरित दुकाल। २. बाधा। ३. कष्ट। दुख। ४० झगड़ा-बखेड़ा।
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ईथर  : पुं० [अं०] १. एक लचीला पारदर्शी सूक्ष्म तत्त्व जो सारे आकाश में व्याप्त है और जिसमें से होकर प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर आती हैं। आकाश। २. एक रासायनिक वर्णहीन द्रव पदार्थ जो गंधक के तेजाब और मद्यासार के योग से बनता है।
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ईद  : स्त्री० [अ०] १. मुसलमानों का एक प्रसिद्ध त्योहार जो रमजान मास के रोजे समाप्त होने पर चंद्रमा दिखाई देने के दूसरे दिन मनाया जाता है। पद—ईद का चाँद=ऐसा प्रिय व्यक्ति जिससे जल्दी भेंट न हो सकती हो या बहुत दिनों बाद भेंट हुई हो। (परिहास)
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ईद-गाह  : स्त्री० [अ०+फा०] वह मैदान जहाँ ईद के दिन बहुत से मुसलमान इकट्ठे होकर नमाज पढते है।
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ईदी  : स्त्री० [अ० ईद+ई (प्रत्यय)] १. ईद के अवसर पर (क) मित्रों को दी जानेवाली सौगात अथवा (ख) नौकरों, बच्चों आदि को दिया जानेवाला पुरस्कार। २. ईद के अवसर पर लिखकर दी जानेवाली मंगल-कामना से युक्त कविता।
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ईदृश्  : अव्य० [सं० इदम्√दृश् (देखना)+खञ्] [स्त्री० ईदृशी] इस प्रकार। ऐसे। वि० इस प्रकार का। ऐसा।
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ईप्सा  : स्त्री० [सं०√आप् (पाना)+सन्+अ-टाप्] [वि० ईप्सित, ईप्सु] कोई वस्तु प्राप्त करने की इच्छा। अभिलाषा।
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ईप्सित  : भू० कृ० [सं०√आप्+सन्+क्त] (पदार्थ) जिसकी ईप्सा या इच्छा की गई हो। चाहा हुआ। अभिलषित।
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ईप्सु  : वि० [सं०√आप्+सन्+उ] ईप्सा या इच्छा करनेवाला। इच्छुक।
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ईमन  : पुं० [फा० यमन] संगीत में, एक रागिनी जो रात के पहले पहर में गाई जाती है।
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ईमन-कल्यान  : पुं० [हिं० ईमन+सं० कल्याण] ईमन और कल्याण रागों के मेल से बना हुआ एक संकर राग।
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ईमान  : पुं० [अ०] १. शुद्ध हृदय से ईश्वर के अस्तित्व में होनेवाला विश्वास। आस्तिक बुद्धि। २. धर्म, न्याय, सत्य आदि के संबंध में होनेवाली पूरी और सच्ची निष्ठा। मुहावरा—ईमान की कहना=बिना किसी प्रकार के पक्षपात के ठीक और सच बात कहना। ईमान से कहना=ठीक और सच बात कहना। ३. धार्मिक विश्वास। मुहावरा—ईमान देना=अपने धर्म या धार्मिक विश्वास से पतित या भ्रष्ट होना।
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ईमानदार  : वि० [अ० ईमान+फा० दार] [भाव० ईमानदारी] १. धर्म में विश्वास रखनेवाला और उसी के अनुसार आचरण करनेवाला। २. धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ। ३. सदा सचाई का व्यवहार करनेवाला। सत्यपरायण। (आँनेस्ट)।
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ईमानदारी  : स्त्री० [अ०+फा०] १. ईमानदार होने की अवस्था या भाव० २. सत्यनिष्ठा और सत्यपरायणता। (आँनेस्टी)।
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ईर  : स्त्री०=ईढ़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईरखा  : स्त्री०=ईर्ष्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईरज  : पुं० [सं० ईर√जन् (उत्पन्न होना)+ड] हनुमान।
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ईंरण  : पुं० [सं०√ईर् (गति)+ल्यु-अन] वायु। हवा। पुं० [सं० ईरणं] [भू० कृ० ईरति] १. किसी को आगे ढकेलने या बढ़ाने की क्रिया या भाव। २. उत्तेजना या प्रेरणा। ३. गमन। जाना। ४. घोषणा।
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ईरमद  : स्त्री० [सं० इरम्मद] १. बिजली। २. बिजली में रहने या उसमें लगनेवाली आग। वज्राग्नि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईराकी  : वि० पुं० स्त्री० दे० ‘इराकी’।
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ईरान  : पुं० [फा० मि० सं,० आर्य] [वि० ईरानी] पश्चिमी एशिया का एक प्रसिद्ध देश जिसमें बसनेवाले आर्य अब मुसलमान हो गये हैं। फारस।
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ईरानी  : वि० [फा०] ईरान का। पुं०ईरान देश का निवासी। स्त्री० ईरान देश की भाषा।
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ईरित  : भू० कृ० [सं०√ईर्+क्त] १. आगे ढकेला या बढ़ाया हुआ। २. प्रेरित या प्रोत्साहित। उदाहरण—ऊधौ विधि ईरित भई है भाग-कीरति।...।—घनानंद।
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ईर्षणा  : स्त्री०=ईर्ष्या।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईर्षा  : स्त्री० [सं०√ईर्ष्य (डाह करना)+अ-टाप्, यलोप]=ईर्ष्या।
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ईर्षालु  : वि० [सं०√ईर्ष्य्+आलुच्,यलोप]=ईर्ष्यालु।
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ईर्षित  : भू० कृ० [सं० ईर्षा+इतच्] जिससे ईर्ष्या की गई हो। जिसके प्रति किसी को ईर्ष्या हो।
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ईर्षु  : वि० [सं० ईर्षा+उण्]=ईर्ष्यालु।
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ईर्ष्य  : वि० [सं०√ईर्ष्य+अच्] जिससे ईर्ष्या या डाह की जा सकती हो।
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ईर्ष्यक  : वि० [सं० ईर्ष्य+ण्वुल्-अक] किसी से ईर्ष्या करनेवाला। ईर्ष्यालु। पुं० वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का नपुंसक जिसकी कामवासना तब तक उत्तेजित नहीं होती, जब तक वह किसी को संभोग करते हुए न देखे।
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ईर्ष्या  : स्त्री० [सं०√ईर्ष्य+अ-टाप्] [वि० ईर्ष्यक, ईर्ष्यालु] किसी को अपने से अधिक उन्नत, संपन्न या सुखी देखकर मन में होनेवाला वह कष्ट या जलन जिसके साथ उस व्यक्ति को वैभव सुख आदि से वंचित करके स्वयं उसका स्थान लेने की अभिलाषा लगी रहती है। डाह। (एन्वी)।
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ईर्ष्यालु  : वि० [सं०√ईर्ष्य+आलुच्] मन में किसी के प्रति ईर्ष्या रखनेवाला। ईर्ष्या या डाह करनेवाला।
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ईल  : पुं० [देश] एक प्रकार का बनैला जंतु। स्त्री० [अ०] एक प्रकार की मछली। बाँग।
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ईली  : स्त्री० [सं०√ईड्+कि+ङीष्] एक प्रकार की छोटी तलवार या कटारी।
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ईश  : पुं० [सं०√ईश्(ऐश्वर्य)+क] १. प्रभु। मालिक। स्वामी। २. ईश्वर। ३. राजा। ४. पति। स्वामी। ५. रूद्र। ६. ग्यारह की संख्या (ग्यारह रूद्र होते हैं) ७. आर्द्रा नक्षत्र। ८. पारा। ९. ईशोपनिषद्।
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ईशता  : स्त्री० [सं० ईश+तल्-टाप्] १. ईश होने की अवस्था या भाव। २. प्रभुत्व। स्वामित्व।
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ईशन  : पुं०=ईशान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईशा  : स्त्री० [सं०√ईश्+अ-टाप्] १. ऐश्वर्य। २. ऐश्वर्यशालिनी स्त्री। ३. दुर्गा।
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ईशान  : पुं० [सं०√ईश्+चानश्] [स्त्री०ईशानी] १. अधिपति। स्वामी। २. ईश्वर। ३. महादेव। शिव। ४. ग्यारह रूद्रों में से एक। ५. ग्यारह की संख्या। ६. शिव की आठ मूर्तियों में से एक। ७. पूरब और उत्तर के बीच का कोना। ८. आर्द्रा नक्षत्र। ९. ज्योति। १0 शमी वृक्ष। वि० १. शासन करनेवाला। २. ऐश्वर्ययुक्त। ३..धनी।
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ईशानी  : स्त्री० [सं० ईशान+ङीष्] १. दुर्गा। २. शाल्मली वृक्ष। सेमल का पेड़।
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ईशिता  : स्त्री० [सं० ईशिन्+तल्-टाप्] १. महत्ता। श्रेष्ठता। २. आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जिसे प्राप्त करने पर साधक सब पर शासन करने के योग्य हो सकता है।
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ईशित्व  : पुं० [सं० ईशिन्+त्व]=ईशिता।
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ईश्वर  : पुं० [सं० ईश्+वरच्] १. परम पुरुष या परमात्मा के रूप में पूजी जानेवाली वह सर्वप्रधान सत्ता जो सारे ब्रह्माण्ड, विश्व या सृष्टि मात्र को बनाने-बिगाड़ने और उसका नियंत्रण तथा शासन करनेवाली मानी गई है। परमात्मा। भगवान। विशेष-हमारे यहाँ दर्शनों में इसे निराकार, निर्गुण, सर्वव्यापी और सब कर्मों, क्लेशों आदि से निर्लिप्त, पृथक् और रहित माना गया है। पर उपासना, कर्म-काण्ड आदि के क्षेत्रों में इसके सगुण और साकार रूपों की भी कल्पना की गई है। २. आत्मा। ३. शिव। ४. पारा। ५. पीतल।
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ईश्वर-प्रणिधान  : पुं० [सं० ष० त०] योगशास्त्र में, पाँच प्रणिधानों में से एक जिसमें मनुष्य ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा रखता हुआ अपने आप को सब प्रकार से उसके चरणों में अर्पित कर देता है।
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ईश्वर-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर की सत्ता और कर्त्तृत्व शक्ति पर पूरा विश्वास रखने का सिद्धांत। (डीइज्म)।
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ईश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० ईश्वरवाद+इनि] ईश्वरवाद का अनुयायी या समर्थक। (डीइस्ट)।
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ईश्वरा  : स्त्री० [सं० ईश्वर+टाप्] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. शक्ति।
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ईश्वराधीन  : वि० [सं० ईश्वर-अधीन, ष० त०] ईश्वर के अधिकार में रहने या उसकी इच्छा के अनुसार होनेवाला। जैसे—भाग्य और सफलता तो ईश्वराधीन है।
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ईश्वरी  : स्त्री० [सं० ईश्वर+ङीष्] १. दुर्गा। २. लक्ष्मी। ३. शक्ति। ४० लिंगिनी, बंध्या, कर्कटी, क्षुद्रजटा, नाकुली आदि पौधे। वि०=ईश्वरीय।
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ईश्वरीय  : वि० [सं० ईश्वर+छ-ईय] १. ईश्वर-संबंधी। ईश्वर का। २. ईश्वर की ओर से होनेवाला।
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ईश्वरोपासना  : स्त्री० [सं० ईश्वर-उपासना, ष० त०] ईश्वर या परमात्मा की उपासना, ध्यान, भजन आदि।
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ईषत्  : क्रि० वि० [सं०√ईष्+अति] अल्प रूप में। कुछ-कुछ। बहुत थोड़ा। वि० कुछ।
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ईषत्-स्पष्ट  : वि० [कर्म० स०] जिसका किसी से बहुत ही थोड़ा स्पर्श हुआ हो। बहुत कम छुआ हुआ। पुं० व्याकरण में, वर्णों के उच्चारण का एक आभ्यंतर प्रयत्न जिसमें तालु, दाँत या मूर्द्धा को जीभ बहुत ही थोड़ा स्पर्श करती अथवा होठों को दाँत बहुत ही कम छूते हैं। (य, र, ल, और व ऐसे वर्ण हैं जिनके उच्चारण में उक्त प्रयत्न होता है)।
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ईषद्  : वि०, क्रि० वि०=ईषत्।
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ईषना  : स्त्री०=एषणा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईषा  : स्त्री० [सं०√ईष् (गति)+क-टाप्] वह लंबी लकड़ी जिसमें गाड़ी या हल जोतते समय जुआ बाँधा जाता है। हरसा। हरिस।
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ईषिका  : स्त्री० [सं० ईषा+कन्-टाप्,इत्व] १. हाथी की आँख का गोलक। २. चित्र में रंग भरने की कलम। कूँची। ३. बाण। ४. सींक।
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ईषु  : पुं० [सं० इषु] तीर। बाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईष्म  : पुं० [सं०√ईष्(सरकना)+मक्] १. वसंतऋतु। २. कामदेव।
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ईस  : पुं० दे० ‘ईश’। वि० ऐश्वर्यशाली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसन  : पुं०=ईशान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसबगोल  : पुं० दे० ‘इबलगोल’।
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ईसर  : पुं० धन-सम्पत्ति। ऐश्वर्य। पुं०=ईश्वर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसरी  : वि०=ईश्वरीय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसवी  : वि० [फा०] ईसा से संबंध रखनेवाला। ईसा का। मसीही। जैसे—ईसवी सन्-ईसा मसीह के मरणकाल से चला हुआ संवत्।
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ईसा  : पुं० [यहू जीसस का अ० रूप] यहूद देश के एक प्रसिद्ध पैगंबर जो एक नये धर्म के प्रवर्तक थे और जिन्हें अंत में सूली दी गयी थी। कहते है कि इन्होंने अनेक अलौकिक शक्तियाँ पाई थी,इसलिए इन्हें ईसा मसीह कहते हैं। पुं०=इश। उदाहरण—एहि बिधि भए सोच बस ईसा।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसाई  : वि० [अ०] ईसा संबंधी। ईसा का। पुं० १. ईसा नामक पैगंबर का चलाया हुआ धर्म। २. उक्त धर्म का अनुयायी।
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ईसान  : पुं०=ईशान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ईसानी  : स्त्री०=ईशानी (दुर्गा)।
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ईहग  : पुं० [सं० ईहा-इच्छा+ग-गमन करनेवाला] कवि। (डिं०)
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ईहा  : स्त्री० [सं० ईह् (इच्छा करना)+अ-टाप्] १. इच्छा। अभिलाषा। २. उद्योग। चेष्टा। प्रयत्न। ३. लोभ। (डिं०)
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ईहामृग  : पुं० [सं० ईहा√मृग (ढूँढ़ना)+अण्] चार अंकोंवाला एक प्रकार का रूपक जिसमें नायक और नायिका देवता और देवी होते है और जिसमें मुख्यतः नायिका की वीरता के दृश्य होते हैं।
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ईहित  : भू० कृ० [सं०√ईह्+क्त] १. जिसकी इच्छा की गई हो। वांछित। २. जिसकी प्राप्ति के लिए चेष्टा की गई हो।
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