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आ  : देवनागरी वर्णमाला के स्वरों में दूसरा स्वर जो अ का दीर्घ रूप है और जिसका उच्चारण कंठ से होता है। संस्कृत में इसका प्रयोग अव्यय के रूप में भी और उपसर्ग के रूप में भी होता है। अव्यय के रूप में यह नीचे लिखे अर्थ देता है—(क) तक या पर्यत। जैसे आ-जानु घुटनों तक या समुद्र-समुद्र तक (ख) आदि से अंत तक या अंदर सब जगह व्याप्त, जैसे—आ-जीवन जीवन भर या आ-पाताल-पाताल के अंदर तक। (ग) कुछ या थोड़ा जैसे—आ-पिगल कुछ कुछ या हलका पीला और (घ) किसी अ—वधि या सीमा के आगे-पीछे या बाहर भी, जैसे—आ-कालिक नियत काल से पहले या पीछे भी, अर्थात् बिना मौसिम का। उपसर्ग के रूप में यह क्रियार्थक संज्ञाओं के पहले लगकर कई प्रकार की विशेषताएँ (अतिरिक्त लगभग वस्तुतः आदि के भाव) सूचित करता है। जैसे—आकंपन आरोहण आदि। प्रायः संस्कृत विशेषणों और संज्ञाओं के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर यह उन्हें स्त्रीलिंग रूप देता है। जैसे—कोमल से कोमला, शिष्य से शिष्या आदि। हिंदी में यह कभी-कभी कुछ शब्दों के अंत में प्रत्यय के रूप में लगकर युक्त या वाला का अर्थ देता है। जैसे—चौमंजिला, दो मुँहा, पँच रंगा आदि। पुं० [सं० आप् (व्याप्त होना)+क्विप्, पृषो० पलोप] १. दादा। पितामह। २. शिव। स्त्री० लक्ष्मी। सर्व० १. यह। २. वह। (गुज० राज० आदि)।
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आँ  : अव्य० [अनु०] ऐं ! है ! (आश्चर्य सूचक) पुं० बच्चों के रोने का शब्द। जैसे—लगे बच्चों की तरह आँ आँ करने !
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आँक  : पुं० [सं० अंक] १. संख्या का सूचक अंक। उदाहरण—कहत सबै बेदी दिए आँक दस गुनों होत।—बिहारी। २. चिन्ह। लक्षण। ३. अक्षर। वर्ण। उदाहरण—गुण पै अपार साधु कहै आँक चारिही में अर्थ विस्तारि कविराज टकसार है।—प्रिया। ४. दृढ़ निश्चय। उदाहरण—एकहिं० आँक इहइ मन मांही। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाही।—तुलसी। ५. अंश। भाग। हिस्सा। ६. अँकवार। गोद। उदाहरण—पीछे ते गहि लाँकरी गही आँकरी फेरि। श्रं० त। ७. बैलगाड़ी की बल्लियों के नीचे का ढाँचा जिसमें पहिए की धुरी लगी रहती है। ८. नौ मात्राओं वाले छंदों की संज्ञा। ९. लकीर। १. किसी चीज पर संकेत के रूप में लिखा हुआ उसका मूल्य या पहचान। स्त्री० [हिं० आँकना] १. आँकने की क्रिया या बात। २. मन-गढ़ंत बात।
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आँकड़ा  : पुं० [सं० अंक, हिं० आँक+डा(प्रत्यय)] १. अंक। अदद। २. पाश। फंदा। ३. पशुओं का एक रोग। पुं० [अ-नहीं,+कण-दाना] बिना दाने की ज्वार की बाल की खुखड़ी।
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आँकड़े  : पुं० [हिं० आँकड़ा] गणित से किसी विषय या विभाग के संबंध में स्थिर किए हुए अंक जो उस विषय या विभाग का कोई पक्ष या स्थिति सूचित करते है। (स्टैटिस्टिक्स) जैसे—आँकड़ों के आधार पर जन्म और मृत्यु की संख्या का अनुपात स्थिर करना।
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आँकना  : स० [सं० अंकन] १. अंक या चिन्ह्र लगाना। निशान लगाना। २. चित्र० रूप-रेखा आदि अंकित करना। ३. मान, मूल्य आदि का अनुमान करना। अंदाज लगाना। कूतना। ४. महत्त्व, स्थिति या ऐसी ही किसी और बात का अनुमान करना या अंदाज लगाना। स० [सं० अंक] गले लगाना। आलिंगन करना। उदाहरण—होइ करि ताहिं को आँको भरि।—सूरदास मदनमोहन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँकर  : वि० [सं० आकर-खान] १. गहरा। २. बहुत अधिक। स्त्री० खेत की गहरी जुताई। सेव (उथली जोताई) का विपर्याय। वि० [सं० अक्रय्य] अकरा। (महँगा)।
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आँकरा  : वि० =आँकर। (बहुत अधिक)। पुं० १. आँकड़ा। २. -अंकुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आँकल  : पुं० [सं० अंक, हिं० आँक] दागा हुआ साँड़। (डिं०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँकुड़ा  : पुं० =अँकुड़ा।
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आँकुशिक  : पुं० [सं० अंकुश+ठक्-इक] अंकुश से हाथी चलानेवाला महावत।
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आँकुस  : पुं० =अंकुश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँकू  : वि० पुं० [हिं० आँक+ऊ(प्रत्यय)] आँकने या कूतनेवाला।
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आँख  : स्त्री० [सं० अक्षिन्, प्रा० अक्खि, गुं० आँख, सिं० अख, पं० अक्ख० का अछ, बँ० आँकि, सिंह० अक्] १. (क) प्राणियों की वह इंद्रिय जिससे उन्हें दूसरों जीवों और पदार्थों के आकार-प्रकार आयत-विरतार रूप-रंग भेद-विभेद,पारस्परिक दूरी आदि का ज्ञान होता है। देखने की इंद्रिय। चक्षु। नयन। नेत्र। (ख) उक्त इंद्रिय का कार्य और उसके द्वारा होनेवालापरिज्ञान जिसमें चीजें दिखाई देती है। देखने की क्रिया भाव या शक्ति। दृष्टि। निगाह। (ग) लाक्षणिक रूप में, मनोभाव व्यक्त या सूचित करनेवाली भंगिमा, रंग-ढंग, संचालन आदि के विचार से उक्त इंद्रिय या उसके द्वारा होनेवाला कार्य या व्यापार। विशेष—(क) स्तनपायी जीवों के सिर के सामने भाग में माथे या ललाट के नीचे और नाक के ऊपर दोनों ओर कुछ संबोतरी दो आँखे होती है। बीच का सारा काला भाग और उसके चारों ओर का सफेद भाग दोनों मिलकर डेरा कहलाते है। बड़े काले भाग को पुतली और उसके ठीक बीच की बिन्दी को तारा या तिल कहते है। प्रकाश की सहायता से तारे और पुतली पर बाहरी पदार्थों का जो प्रतिबिंब पड़ता है उसका परिज्ञान अदर के संवेदन सूत्रों के द्वारा मस्तिष्क को होता है। इसी को (चीज) दिखाई देना कहते है। डेले के ऊपर और नीचे चमड़े के जो आवरण या परतें होती है उन्हें पलकें कहते है और उन पलकों के आगे वाले बालों की पंक्ति बरौनी कहलाती है। निम्न कोटि के जीवों में आँखों की संख्या ४, ६ या ८ तक भी होती है। उनमें इनकी ऊपरी बनावट भी कुछ प्रकार की भिन्न होती है और वे शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में स्थिर होती है। (ख) प्रयोग के क्षेत्र में कुछ अवस्थाओं में इस शब्द का केवल एकवचन में, कुछ अवस्थाओं में केवल बहुवचन में और कुछ अवस्थाओं में विकल्प से दोनों में से किसी वचन में व्यवहार होता है। मुहावरा—आँख आना=एक रोग जिसमें आँख लाल होती सूजती और दुखती है। आँख उठने या उठने आना=दे० ऊपर आँख आना (रोग)। (किसी ओर) आँख या आँखे उठना=दृष्टि या निगाह पड़ना। जैसे—जिधर आँख उठेगी उधर चल पड़ेगे। आँख उठाना=जिस समय आँखे बंद हो या नीचे की ओर झुकी हों, उस समय देखने के लिए आँखे खोलना या ऊपर करना। जैसे—दिन भर बाद अब बच्चे ने आँख उठाई है। (किसी चीज की ओर) आँख उठाना=प्राप्ति की इच्छा या लोभ-भरी दृष्टि से देखना। जैसे—यह लड़का दूसरे की खाने-पीने की चीजों की तरफ कभी आँख नहीं उठाता। (किसी व्यक्ति की ओर) आँख उठाना या उठाकर देखना=किसी को हानि पहुँचाने के उद्देश्य या विचार से उसकी ओर देखना। जैसे—हमारे रहते हुए कोई तुम्हीर तरफ आँख उठाकर नहीं देख सकता। (किसी व्यक्ति के सामने) आँख या आँखे उठाना=साहसपूर्वक किसी की ओर देखना। निगाह मिलाना। सामना करना। जैसे—उनकी मजाल नहीं कि वे मेरे सामने आँख उठाये। आँख या आँखे उलटना=बेहोश होने पर या मरने के समय आँखों की पुतलियों का कुछ ऊपर चढ़ जाना। (किसी के सामने) आँख या आँखें ऊँची करना—दे० ऊपर। (किसी के सामने) आँख उठाना=आँख या आँखें कडुआना—अधिक जागने धुँआ लगने या लगातार चक लगाकर देखते रहने से आँखों में जलन थकावट या दर्द होना। (किसी की) आँख या आँखों का काँटा बनना या होना—किसी की दृष्टि में बहुत ही अप्रिय या अवांछित होना। (आँखों में खटकना या गड़ना की अपेक्षा बहुत उग्र विरक्ति का सूचक) आँख या आँखों का काजल चुराना—ऐसी चालाकी या सफाई से तथा चोरी से अपना काम निकालना कि किसी को पता न चले। (अपनी) आँख या आँखों का तेल निकालना=निरंतर कोई ऐसा बारीक काम करते रहना कि आँखों से पानी निकलने लगे। आँख या आँखों का पानी ढलना—किसी की मर्यादा का ध्यान या लज्जाशीलता न रह जाना। निर्लज्ज हो जाना। जैसे—जब आँख का पानी ढल गया तब नंगे होकर नाच भी सकते हो। आँख किरकिराना=आँख में बालू आदि का कण पड़ने से उसमें कसक या खटक होना। आँख या आँखों के आगे अधेरा छाना=आघात निराशा भय शोक आदि के कारण आँखों और बुद्धि का ठीक तरह से काम न करना। सामने अँधेरा दिखाई देना। आँख या आँखों के सामने या आगे नाचना=मन में ध्यान बना रहने के कारण किसी व्यक्ति की आकृति य़ा घटना का दृष्य रहरहकर काल्पनिक रूप से सामने आना। आँख खटकना=आँख में कोई चीज पड़ने पर उसमें खटक होना। आँख किरकिराना। उदाहरण—देखो लला मेरी आँखन खटकै कौने तरह से रंग फेंकत हो री। (होली) आँख या आँखें खुलना=(क) नींद टूटना। जागना। (ख) लाक्षणिक रूप में अज्ञान प्रेम मोह आदि दूर होना और उसके फलस्वरूप वास्तविक रूप या स्थिति का ज्ञान होना। जैसे—उनकी आज की बातों से मेरी आँखें खुल गई। (किसी की) आँख या आँखें खोलना=ऐसा काम करना जिससे किसी का अज्ञान भ्रम या मोहदूर हो और उसे वास्तविकता का ज्ञान हो। आँख गड़ना=आँख में कोई चीज पड़ने या पलक में फुंसी सूजन आदि होने पर हलकी खटक चुनचुनाहट या पीड़ा होना। (किसी ओर या किसी चीज पर) आँख गड़ना=(क) ध्यानपूर्वक देखने के समय निगाह जमना। (ख) कोई चीज पाने के लिए उस पर ध्यान लगा रहना। जैसे—तुम्हारी कलम पर हमारी आँख गड़ी है। आँख या आँखे चमकाना, नचाना या मटकाना=स्त्रियों का (या स्त्रियों की तरह) भाव-भंगी प्रकट करने केलिए पलकें और पुतलियाँ चलाना या हिलाना। (किसी से) आँख या आँखें चुराना या छिपाना-लज्जा, संकोच आदि के कारण किसी का सामना करने से बचना या हिचकना। आँख चूकना=दृष्टि या ध्यान का कुछ समय के लिए नियत स्थान से हटकर इधर-उधर होना। जैसे—जरा-सी आँख चूकते ही वह पुस्तक उठा ले गया। (किसी से) आँख या आँखें छिपाना=दे० ऊपर। आँख या आँखें चुराना। (किसी चीज पर) आँख या आँखें जमाना=ध्यानपूर्वक देखने के समय निगाह जमाना। दृष्टि स्थिर होना। (किसी की) आँख जाना—आँख में देखने की शक्ति न रह जाना। जैसे—एक आँख तो गई अब दूसरी तो बचाओं। (किसी चीज या बात की ओर) आँख जाना=दृष्टि या निगाह पड़ना। आँख झपकना=(क) आंख पर की पलक गिरना। जैसे—आँख झपकते ही उसने कलम उठा ली। (ख) थोड़े समय के लिए नींद आना। झपकी आना। जैसे—आज राज भर आँख नहीं झपकी। आँख या आँखें झेपना=दोषी या लज्जित होने के कारण निगाह नीची करना या सामने न देखना। आँख या आँखें टोरना=लज्जा से आँखे या निगाह नीची करना। आँख या आँखें टेकना=दे० ऊपर। या आँखें उलटना आँख=(किसी ओर या किसी चीज पर) आँख डालना-दृष्टिपात करना। देखना। आँख या आँखे तरेरना=आखें इस प्रकार कुछ तिरछी करना कि उनसे क्रोध या रोष सूचित हो। आँख तले आना=(क) दिखाई देना। जैसे—अभी तक तो ऐसी पुस्तक हमारी आँख तले नहीं आई। (ख) देखने में अच्छा लगना। जँचना। उदाहरण—अब न आँख तर आवत कोऊ।—तुलसी। (किसी को) आँख या आँखें दिखाना=क्रोध के आवेश में होकर या डराने-धमकाने के लिए किसी की ओर उग्र दृष्टि से देखना। उदाहरण—बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाए।—तुलसी। आँख या आँखें दुकने आना=दे० ऊपर। आँख आना या उठना। (किसी बड़े की) आँख या आँखें देखे हुए होना=संगति या सामना करने का अनुभव या सौभाग्य होना। जैसे—हम भी बड़े-बड़े उस्तादों की आँखें देखे हुए हैं। आँख या आँखें दौड़ना—कुछ ढूढ़ने या देखने के लिए दूर तक दृष्टि या ध्यान ले जाना। जैसे—चारों ओर आँखें दौड़ाने पर भी कोई दिखाई न दिया। आँख न उठना=दे० नीचे। आँख न खोलना। आँख या आँखें न खोलना=रोगजन्य शिथिलता के कारण आँखें बन्द करके तंद्रा में पड़े रहना। जैसे—आज दिन भर बच्चे ने आँख नहीं खोली। आँख या आँखें नचाना=दे० ऊपर। आँख या आँखें चमकाना। (किसी पर) आँख न ठहरना=तीव्र गति, दीप्ति, विशेष शोभा आदि के कारण किसी चीज पर निगाह न जमना। (किसी की) आँख या आँखें निकालना=दंड़ स्वरूप अंधा करने के लिए किसी की आँखों के गोलक या डेले काटकर अलग करना। (किसी के सामने) आँख या आँखें निकालना=क्रोधपूर्वक आँखें तरेरकर या ला पीले होकर देखना। उदाहरण—आँखें निकालिएगा जरा देखभाल कर।—कोई शायर। (किसी के सामने) आँख या आँखे नीची होना=लज्जा संकोच आदि के कारण ऐसी स्थिति में होना कि सिर न उठ सके। जैसे—तुमने उनसे रुपये उधार लेकर सदा के लिए उनके सामने मेरी आँख नीची कर दी। आँख पटपटाना=आँख या देखने की शक्ति नष्ट होना। (किसी पर) आँख पडना=दृष्टि या निगाह पड़ना। दिखाई देना। आँख या आँके पथराना=(क) मरने के समय आँखों की चमक और पारदर्शिता नष्ट होने के कारण उनका कठेर और निश्चल होना। (ख) प्रतीक्षा आदि में टक लगाकर देखते रहने के कारण आँखें कठोर और निश्चल होना। आँख या आँखों पर पट्टी बँधना या परदा पड़ना=भ्रम, मोह आदि के कारण भले-बुरे या हानि लाभ का ठीक ठीक ज्ञान न हो सकना। जैसे—उस समय मेरी आँखों पर पट्टी बँधी थी। (या परदा पड़ा था) जिससे मैने तुम्हारे सदभाव का तिरस्कार किया था। आँख या आँखें पसीजना=अनुराग दया आदि के कारण आँखों में कुछ जल भर आना। आँखे आर्द्र होना। आँख फड़कना=पलक या भौंह के कुछ अंश का कुछ देर तक रह—रहकर फड़क उठना या हिलना जो उक्त अंग की एक क्षणिक प्राकृतिक क्रिया और सामुदिक के अनुसार शुभ या अशुभ फल की सूचक है। (किसी की ओर से) आँख या आँखे फिरना या फिर जाना=पहले का सा अनुराग कृपा या सद्व्यवहार न रह जाना। आँख फूटना=आघात रोग आदि के कारण आँख इस प्रकार बिगड़ जाना कि देखने की शक्ति नष्ट हो जाए। आँख पसारना या फैलाना=अच्छी तरह ध्यानपूर्वक देखना या देखने का प्रयत्न करना। जैसे—आँख पसारकर देखो घड़ी मेज पर ही रखी है। (किसी की ओर से) आँख या आँखे फेरना या फोड़ना=बहुत देर तक लगातार ऐसा बारीक या परिश्रम साध्य काम करते रहना जिसमें आँखों को बहुत कष्ट हो या उन पर बहुत जोर पड़े। जैसे—कसीदा काढ़ने या लेखों का संसोधन करने में आँख फोड़ना। (किसी की) आँख या आँखें फोड़ना=दंड देने के लिए आँखों पर आघात करके किसी को अंधा करना। आँख या आँखें बंद करके कुछ करना=बिना कुछ भी ध्यान दिये या सोचे-समझे कोई काम करना। (किसी ओर या बात से) आँखें बंद करना या मूँदना=अभिमान, अरुचि संकोच आदि के कारण जान-बूझकर किसी होते हुए काम या बात पर ध्यान न देना। जान-बूझकर अनजान बनना। (किसी की) आँख या आँखें बंद होना=जीवन का अंत या मृत्यु होना। जैसे—पिता की आँखें बंद होते ही लड़कों में मुकदमें बाजी होने लगी। (किसी की) आँख बचाकर कुछ करना=इस प्रकार चोरी से कोई काम करना कि किसी उद्दिष्ट व्यक्ति का ध्यान उधर न जाने पावे। (किसी की) आँख बचाना=ऐसे प्रयत्न में रहना कि किसी उद्दिष्ट व्यक्ति का सामना न हो। (किसी की) आँख बदलना=पहले का-सा कुछ अनुराग या सद्भाव न रह जाना। उदाहरण—चीन्हत नाहीं बदल गये नैना।—गीत। (किसी से) आँख या आँखें बदलना=कुछ क्रोध या शील-संकोच किसी की ओर देखना। जैसे—अपना रुपया लीजिए आँखे क्या बदलते हैं। आँख बनना=शल्यक्रिया के द्वारा मोतियाबिन्दु संबलबाई आदि रोगों की ऐसी चिकित्सा होना कि आँखे ठीक तरह से काम देने लगे। आँख बनवाना=शल्य द्वारा मोतियाबिंदु या इसी प्रकार का आँख का कोई और रोग अच्छा कराना। आँख बनाना=उक्त आँख बनना=का संकर्मक रूप। (किसी की आँख या आँखें बराबर करना या मिलाना=सामना होने पर अच्छी तरह किसी की ओर देखना। दृष्टि या निगाह मिलाना। आँख बिगड़ना=रोग या उसकी अनुपयुक्त चिकित्सा के कारण आँख का ऐसी स्थिति में होना कि वह ठीक या पूरा काम न दे सके। जैसे—चेचक होने (या तेजाब पड़ने) से उनकी आँख बिगड़ गई। (किसी के आगे) आँखे बिछाना=आगत व्यक्ति का बहुत अधिक आदर-सत्कार करना। आँख बैठना=रोग आदि के कारण देखने की शक्ति नष्ट हो जाना। आँख भरकर देखना=अच्छी तरह दृष्टि जमाकर या ध्यान से देखना। आँख भर देखना=कुछ समय तक अच्छी तरह ध्यान से इस प्रकार देखना कि मन को तृप्ति या शांति हो। जैसे—हम उन्हें आँख भरकर देखने भी न पाए और वे चले गये। आंख या आँखें मटकाना=दे ऊपर। आँख या आँखें चमकाना=आँख मारना या मिचकाना—पलक और पुतली हिलाकर कुछ संकेत करना। आँख या आँखें मूदना=(क) आँखें बंद करना जिससे कुछ दिखाई न पड़े। उदाहरण—मूँदहुँ आँख कतहुँ कछु नाहीं।—तुलसी। (ख) मर जाना। मृत्यु होना। जैसे—जहाँ उन्होंने आँखें मूदी, सब चौपट हो जायेगा। (किसी ओर या बात से) आँख या आँखें मूदना—दे० ऊपर। (किसी ओर या बात से) ‘आँखें बंद करना’। आँख या आँखों से खटकना या गड़ना=अनुराग के अभाव, दोष, द्वेष आदि के कारण अनुचित, अप्रिय या अवांछित जान पड़ना। (आँखों का काँटा होना’ या ‘आँखों में चुभना’ की अपेक्षा कुछ हलकी विरक्ति का सूचक) जैसे—अब तो उनकी हर बात हमारी आँखों में खटकने लगी है। आँख या आँखों में खून उतरना या उत्तर आना=(क) बहुत अधिक क्रोध के कारण आँखें बहुत लाल हो जाना (दूसरों के संबंध में) जैसे—उस समय उनकी आँखों में खून उतर आया। (ख) बहुत अधिक क्रोध या रोष होना (स्वयं वक्ता के पक्ष में) जैसे—उसकी पाशविकता देखकर मेरी आँखों में खून उतर आया। आँख या आँखों में घर करना=बहुत ही प्रिय या सुन्दर होने के कारण बराबर अकाल्पनिक रूप में आँखों के सामने या ध्यान में बना रहना। आँख या आँखों में चरबी छाना=इतना अभिमान होना कि सब चीजें या लोग तुच्छ या हीन जान पड़ें। आँखों में टेसू या सरसों फूलना =स्वयं प्रसन्न या सुखी रहने के कारण दूसरों के कष्ट या दुःख से बिलकुल अनभिज्ञ या उदासीन रहना। (किसी की) आँख या आँखों में धूल झोंकना=स्वार्थ-साधन के लिए किसी को बहुत बड़ा धोखा देना या भ्रम में डालना। जैसे—आँखों में धूल झोंककर वह दस रुपए की चीज के बीस रुपए ले गया। आँख या आँखों में फिरना =सामने न होने पर भी प्रायः प्रत्यक्ष-सा दिखाई देता रहना। जैसे—आँखों में फिरती है सूरत किसी की।—कोई शायर। आँख या आँखों में बसना =दे० ऊपर ‘आँखों में घर करना’। उदा०—बसो मेरे नैनन में नँदलाल।—गीत। आँखों में सरसों फूलना=दे० ऊपर ‘आँखों में टेसू फूलना।’ (किसी व्यक्ति पर) आँख रखना=किसी व्यक्ति की गतिविधि पर सतर्क रहकर दृष्टि या ध्यान रखना। (किसी ओर) आँख या आँखें लगाना =किसी की ओर दृष्टि या ध्यान जमाना या स्थिर होना। जैसे—किसी की प्रतीक्षा में दरवाजे पर आँख लगाना। (किसी की) आँख लगना=(क) थोड़े समय के लिए हलकी नींद आना। झपकी लगना। जैसे—दो दिन बाद आज भइया की जरा आँख लगी है। (किसी चीज पर) आँख लगना =श्रृंगारिक प्रसंग में, काम-वासना की तृप्ति के लिए किसी से प्रायः अनुरागपूर्ण देखा-देखी या सम्पर्क होना। (किसी से) आँख लड़ना =(क) अचानक या संयोग से देखा-देखी होना। जैसे—आँख लड़ते ही वह घूमकर गली में घुस गये। (ख) दे० ऊपर (किसी व्यक्ति से) ‘आँख लगना’। (किसी से) आँख या आँखें लड़ाना=श्रृंगारिक प्रसंग में, प्रायः रह-रहकर कुछ देर तक अनुरागपूर्वक एक-दूसरे को देखते रहना। आँख या आँखें लाल करना=क्रोध से भरकर इस प्रकार आँखें गड़ाकर देखना कि उनमें खून आया या भरा जान पड़े। आँख या आँखें सफेद होने को आना=इतनी अधिक प्रतीक्षा करना कि आँखें ज्योतिहीन हो जायँ और उनमें देखने की शक्ति न रह जाय। आँख या आँखें सेंकना=तृप्त होने या लालसा पूरी करने के लिए सुंदर रूप की ओर रह-रहकर देखना। आँख या आँखों से खून टपकना =(क) दे० ऊपर ‘आँखों में खून उतरना’। (ख) बहुत अधिक दुःख के कारण इस प्रकार आँसू निकलना कि मानों कलेजा फटने के कारण उसमें से खून टपक रहा हो। खून के आँसू रोना। (किसी की) आँख या आँखों से चिनगारियाँ छूटना=आँखों से बहुत अधिक क्रोध या रोष के लक्षण प्रकट होना। आँख या आँखों से नीर (या नील) ढलना=मरने के समय आँखों से अंतिम बार जल निकलना। आँख या आँखों से लगाना=कोई चीज मिलने पर उसके प्रति आदर या स्नेह दिखाने के लिए उसे आँखों से स्पर्श कराना। आँख होना =(क) कोई चीज पहचानने या कोई बात समझने की योग्यता या शक्ति होना। उदा०—भई तक आँखें दुख सागर कोई चाखैं, अब वही हमें राखें, भाखैं वारो धन माल हो।—प्रिया। (ख) किसी बात का अनुभव या परख होना। आँखें घुलाना=एक-दूसरे को रह-रहकर प्रेमपूर्वक बराबर देखते रहना। आँखें चढ़ना=(क) नशे के कारण आँखें लाल और भारी होना। (ख) अप्रसन्नता, क्रोध आदि के कारण भौंहें तनना। त्योरी चढ़ना। आँखें चार करना=किसी की दृष्टि से दृष्टि मिलाना। आमने-सामने होकर एक दूसरे को देखना। आँखें चार होना=किसी से देखा-देखी और सामना होना। आँखें ठंढी होना=किसी को देखने से परम प्रसन्नता या संतोष होना। आँखें डबडबाना=दुःख के कारण आँखों में आँसू भर आना। आँखें तरसना=किसी को देखने की अत्यंत अभिलाषा और उत्कंठा होना। आँखें फाड़कर देखना=अविश्वास अथवा आश्चर्य होने की दशा में अथवा कुछ ढूँढ़ने के लिए देखने की सारी शक्ति एकाग्र करके देखना। (किसी के लिए) आँखें बिछाना =बहुत अधिक आदर और प्रेमपूर्वक स्वागत करना। आँखें भर आना=दे० ऊपर ‘आँखों डबडबाना’। आँखों की सूइयाँ निकालना=किसी बहुत कठिन और बड़े काम का अंतिम और सहज अंश पूरा करके सारे काम का यश और श्रेय प्राप्त करना। (एक प्रसिद्ध कहानी के आधार पर) जैसे—अब सारा काम हो चुका, तब आप आँखों की सूइयाँ निकालने आये हैं। (किसी की) आँखों में आँखें डालना=जो इस ओर देख रहा हो, उसकी आँखों की ओर सारी शक्ति लगाकर प्रेमपूर्वक देखना। (किसी को) आँखों में पालना या रखना=सदा अपने साथ रखकर परम प्रेम से और बहुत ही यत्नपूर्वक पालन-पोषण करना। आँखों में रात काटना या बिताना=सारी रात जागकर बिताना। (किसी की) आँखों में मलाई फेरना=दंडस्वरूप अंधा करने के लिए लोहे की सलाई गरम करके उसे सुरमे की सलाई की तरह आँखों में लगाकर उन्हें जलाना। (किसी को) आँखों पर बैठाना=आये हुए व्यक्ति का बहुत अधिक आदर-सत्कार करना। फूटी आँख या आँखों न सुहाना=किसी अवस्था में भी अच्छा न लगना। बहुत ही अप्रिय जान पड़ना। पद—आँख का अंधा=वह जिसे कुछ भी ज्ञान न हो। परम मूढ़। आँख का तारा या तिल=आँख की पुतली=आँख का वह सारा काला भाग जिसके बीच में तारा या तिल होता है। आँखों के डोरे=आँखों में एक सिरे से दूसरे सिरे तक दिखाई देनेवाली लालधारियाँ जो सौंदर्य बढ़ानेवाली होती हैं। आँखें चरने हई हैं=आँखें या दृष्टि कुछ भी काम नहीं कर रही हैं ! (आश्चर्य-सूचक अथला व्यंग्यात्मक) जैसे—तुम्हारी आँखें तो चरने गई हैं; सामने रखी हुई चीज तुम्हें कैसे दिखाई दे। आँख वाला=(क) चतुर। होशियार। (ख) गुणग्राहक। पारखी। २. वह शक्ति जिससे मनुष्य अच्छी बातें समझकर उन्हें ग्रहण करता है। धारणा और विचार की शक्ति। जैसे—हिये की आँख। ३. किसी के संबंध में मन में होनेवाली धारणा, मत या विचार। दृष्टि। निगाह। जैसे—जनता की आँख या आँखों में अब वे बहुत गिर गये हैं। ४. गुणदोष आदि परखने की शक्ति। निगाह। परख। पहचान। जैसे—उन्हें कपड़े (या जवाहरात) की अच्छी आँख है। ५ वस्तु, व्यक्ति आदि पर रखा जानेवाला ठीक और पूरा ध्यान। सतर्कतापूर्ण दृष्टि। निगाह। जैसे—(क) इस लड़के पर आँख रखना; कुछ लेकर भाग न जाय। (ख) आज-कल उनपर पुलिस की आँख है। ६. प्राप्ति की इच्छा से होनेवाली लोभपूर्ण दृष्टि। जैसे—गठरी या बक्स पर चोर की आँख होना। ७. कृपापूर्ण दृष्टि। दयाभाव। जैसे—जब इन पर आपकी आँख है, तो यह भी कुछ हो जायेंगे। ८. आकार, रूप, स्थिति आदि के विचार से आँखों से मिलती-जुलती कोई चीज या बनावट। जैसे—अन्नास, आलू, या ऊख की आँख, मोर-पंख पर की आँख आदि। ९. आँख के आकार का कोई ऐसा छोटा छेद जिसमें कोई दूसरी चीज डाली या पहनाई जाती हो। जैसे—सूई की आँख (छेद या नाका)। (आई, उक्त सभी अर्थों के लिए)
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आँखड़ी  : पुं०=आँख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आँख-फोड़ टिड्डा  : पुं० [सं० आक-मदार+हिं० फोड़ना] १. हरे रंग का एक फतिंग जो प्रायः मदार के पौधों पर रहता है। २. वह जो दूसरों का अपकार या हानि करता-फिरता हो।
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आँख-मिचौनी  : स्त्री०=आँख-मिचौली।
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आँख-मिचौली (मिचौली)  : स्त्री० [हिं० आँख+मीचना] बच्चों का एक खेल जिसमें एक लड़का किसी दूसरे लड़का की आँख मूदता है। इस बीच और लड़के छिप जाते है तब आँख मुदानेवाले की आँखे खोल दी जाती है और वह लड़कों को ढूंढ़कर छूता है।
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आँख-मीचली  : स्त्री०=आँख-मिचौली। (खेल) उदाहरण—कहुँ खेलत मिलि ग्वाल मंडली आँख-मिचौली खेल-सूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आँख-मुँदाई  : स्त्री०=आँख-मिचैनी।
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आँखा  : पुं० वि० -आखा।
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आँग  : पुं० [सं० अङ्] १. अंग। २. प्रति चौपाये के हिसाब से ली जानेवाली चराई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आंगक  : वि० [सं० अंग+वुञ्-अक] अंग देश से संबंध रखनेवाला। अंग देश का।
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आँगन  : पुं० [सं० अंगण√अञ्ज्, प्रा० मरा० अंगण, गु० आंगुणु, आंगनियु० सिं० अङणु, बँ० उ० पं० अं (आं) गन] १. घर के अंदर या सामने का खुला चौकोर स्थान जो ऊपर से छाया हो। चौक। सहन। २. रहस्य संप्रदाय में अंतःकरण।
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आँगरी  : स्त्री०=उँगली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आंगारिक  : वि० [सं० अंगार+ठक्-इक] १. अंगार-संबंधी। २. अंगारों पर पकने या बननेवाला (खाद्य पदार्थ)।
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आंगिक  : वि० [सं० अंग+ठक्-इक] १. अंग या अंगो से संबंध रखनेवाला। २. शारीरिक क्रियाओं, चेष्टाओं या संकेतों द्वारा अभिव्यक्त होनेवाला। जैसे—आंगिक अनुबाव आंगिक अभिनय आदि। ३. दे० ‘कायिक’। पुं० वह जो मृदंग बजाता हो। पखावजी।
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आंगिक-अभिनय  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसा अभिनय जिसमें नट या नर्तक अपनी शारीरिक क्रियाओं, चेष्टाओं, संकेतों आदि से ही अपने मनोगत भावों की अभिव्यक्ति करता अथवा कोई स्थिति दिखाता हो। अभिनय के चार भेदों में से एक (शेष तीन अंग है—आहार्य, वाचिक और सात्त्विक)।
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आंगिरस  : पुं० [सं० अंगिरस+अण] १. अँगिरा ऋषि के तीन पुत्र-बृहस्पति, उतथ्य तथा संवर्त। २. अंगिरा के गोत्र का व्यक्ति। वि० अंगिरा संबंधी अंगिरा का।
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आँगी  : स्त्री०=अँगिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँगुर  : स्त्री०=उँगली(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आँगुरी  : स्त्री०=उँगली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँगुल  : पुं० [सं० अंगुल+अण] दे० ‘अंगुल’।
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आँघी  : स्त्री० [सं० घृ-क्षरण, झरना] मैदा आदि चलाने की चलनी।
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आँच  : स्त्री० [सं० अर्चिस्-ष् (आग की लपट), प्रा० अच्चा, सि० गु० बँ० आच, कान, इचु] १. अग्नि। आग। जैसे—चूल्हें आँच, न घड़े पानी। कहा। २. आग की लपट। ३. आग से निकलनेवाली गरमी या ताप। ४. आग पर पकाये जाने की क्रिया। जैसे—अभी इसमें एक आँच की कसर है। मुहावरा—आँच खाना=(क) किसी चीज का आग पर चढ़कर उसका ताप सहना। आँच दिखाना=(ख) गरम करने के लिए आँच के पास रखना। ५. किसी प्रकार का कष्ट या हानि। उदाहरण—इन पाँचन को बस करै ताहि न आवै आँच।—कबीर। ६. कोई कष्टदायक या घातक चीज या बात। जैसे—तलवार की आँच। ७. किसी मनोवेग की उग्र या तीव्र अनुभूति। जैसे—काम-वासना या ममता की आँच। ८. विपत्ति। संकट। मुहावरा—आँच आना=अपकार या हानि होना। संकट में पड़ना। ९. प्रेम। मुहब्बत। १. काम-वासना।
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आंचन  : पुं० [सं० अञ्जन+अण] [√आञ्छ्(ठीक करना)+ल्युट्-अन] १. हड्डी के टूटने अथवा किसी अंग में मोट पड़ने पर उसे जोड़ना अथवा ठीक करना। २. शरीर में धँसी कोई चीज विशेषतः काँटा, बाण आदि निकालना। अ० १. गरम होना। तपना। २. ताप से पीड़ित होना।
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आँचर  : पुं० =आँचल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँचल  : पुं० [सं० अञ्चल] १. मनुष्य (विशेषतः स्त्री) द्वारा पहने हुए वस्त्र (जैसे—धोती, साड़ी या दुपट्टा) का वह छोर या सिरा जो प्रायः छाती या वक्षस्थल पर पड़ता है। पल्ला। मुहावरा—(किसी के आगे) आँचल ओड़ना या पसारना=किसी के कुछ माँगने के लिए दीनतापूर्वक उसके आगे कपड़े का पल्ला फैलाना। आँचल देना=(क) स्त्री का बच्चे को दूध पिलाना। (ख) आँचल से हवा करना। (ग) किसी स्त्री को यों ही घर में पत्नी के रूप में रख लेना। (मुस०) (कोई बात) आंचल में बाँधना—अच्छी तरह और सदा के लिए याद रखना। जैसे—हमारी यह बात आँचल में बाँध रखो। आंचल लेना=(क) घर में आयी हुई बड़ी स्त्री का आँचल छूकर उसका सत्कार तथा स्वागत करना। स्त्रियाँ। (ख) स्त्रियों का आंचल से अपना वक्षस्थल ढकना। २. कपड़े का कोई छोर या सिरा। पद—आँचल पल्लू-धोती, साड़ी आदि पर टाँका हुआ ठप्पेदार, चौड़ा पट्टा। ३. कपड़े का छोटा टुकड़ा। उदाहरण—सोभित दूलह राम सीस पर आँचर हो।—तुलसी। ४. दे० ‘अंचल’।
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आंचलिक  : वि० [सं० अंचल+ठक्-इक] १. अंचल संबंधी। अंचल का। २. किसी अंचल (प्रदेश या प्रांत)में होनेवाले या उसेस संबंध रखनेवाला।
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आँचू  : पुं० [देश] एक प्रकार की कँटीली झाड़ी जिसमें शरीफे के आकार के फल लगते है।
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आँजन  : =अंजन।
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आँजना  : स० [सं० अञ्जन] आँखों में अंजन लगाना।
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आंजनी  : स्त्री० [सं० अंजन+अण्-ङीष्] आँखों में लगाने का अंजन।
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आंजनेय  : पुं० [सं० अंजना+ढक्-एय] अंजना के पुत्र। हनुमान।
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आँजू  : पुं० [देश] फसल की बाढ़ रोकनेवाली एक घास।
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आँट  : पुं० [हिं० अंटी] १. तर्जनी और अँगूठे के बीच का स्थान। घाई। २. दाँव। पेच। मुहावरा— आँट पर चढ़ना=दाँव लगाना। ३. वैर-विरोध। लाग-डाँट। मुहावरा—आंट पड़ना=मन मुटाव होना। ४. गाँठ। गिरह। ५. गट्ठा। पूला। ६. ऐंठन। स्त्री० दे० अंटी और आँटी। स्त्री० [सं० आनद्ध] सोना को परखने के लिए कसौटी पर उससे लगाया हुआ निशान। कस।
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आँट-साँट  : पुं० [हिं० आँट+साँटना] १. षड्यंत्र। २. मेल-जोल। वि०=अंट-संट।
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आँटना  : अ०=अँटना (समान)। स० [हिं० अंटी] १. अंटी बनाना। अँटियाना। २. (किसी को) अपने अधिकार या पक्ष में करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आँटी  : स्त्री० [सं० ऋतु>प्रा०अट्ट>आँट, आँटी] परंपरा। रीति। उदाहरण—देवन्ह चलि आई असि आँटी। सुजन कँचन दुर्जन भा माँटी।—जायसी। स्त्री० [सं० अण्ड] १. घास-पात का छोटा गड्ढा। पूला। २. सूत आदि की लच्छी। ३. लड़कों के खेलने की गुल्ली। ४. दे० अंटी। ५. कुश्ती का एक दाँव जिसमें पहलवान अपने विपक्षी की टाँग में टाँग अड़ाकर उसे चित्त पटकते है। ६. दे० ‘अंटी’।
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आँठी  : स्त्री० [सं० अष्टि, प्रा० अट्ठि] १. दही, मलाई आदि का लच्छा। २. गाँठ। गिरह। ३. गुठली। ४. गुठली की तरह का कोई कड़ी और गोल चीज। ५. नवोढ़ा के स्तन।
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आँड़  : पुं० [सं० अण्डम्, प्रा० गुं० मरा० अंड, पं० का० आंड, सिं० आनो० उ० बं० आंडा] १. अंडकोश।२. हिरण्यगर्भ।
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आँडज  : वि० [सं० आंड√जन् (उत्पन्न होना)+ड] अंडज।
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आँड़ी  : स्त्री० [सं० अण्ड] १. अंटी। गाँठ। २. गाँठ के रूप में होनेवाला कंद। जैसे—प्याज या लहसुन की आँड़ी। ३. कोल्हू की जाठ का गोल सिरा। ४. पहिए की सामी या हल। बंद।
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आँड़ू  : वि० [सं० अण्ड-अण्डकोश] (पशु) जो बधिया न किया गया हो। जिसके अंडकोश वर्त्तमान हों। (अन्-कैस्ट्रेटेड)।
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आँत  : स्त्री० [सं० अन्त्र, प्रा० गु० अंतर, सिं० अंदरू, पं० आँदराँ] आमाशय के अंदर की वह लंबी नली जो प्राणियों की नाभि से गुदा तक गई है तथा जिससे होकर मन बाहर निकलता है। अँतड़ी। लाद। (इन्टेस्टाइन्स) मुहावरा—आंत उतरना=एक रोग जिसमें आँत ढीली होकर अँडकोश में उतर आती और बहुत कष्ट देती है। आँतें कुलकुलाना=बहुत भूख लगने के कारण व्याकुल होना। आँते मुँह में आना=संकट में पड़ने के कारण बहुत अधिक कष्ट होना। आँते गले में आना—कष्ट या विपत्ति से बहुत अधिक दुःखी तथा व्यग्र होना। आँते समेटना=बहुत अधिक भूख लगने पर भी उसे दबाये रखना। आँतों का बल खुलना—बहुत समय तक भूखे रहने के बाद जी भर के भोजन करना। आँतो में बल पड़ना=पेट में दर्द होना। उदाहरण—हँसते-हँसते आँतो में बल पड़ने लगा।
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आँत कट्टू  : पुं० पशुओं का एक रोग जिसमें उन्हें पतले दस्त आते है।
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आँतर  : पुं० [सं० अन्तर-भीतर] १. अंतर। भद। २. दूरी। ३. खेत का वह भाग जो किसी निश्चित समय में या एक बार जोता जाए। ४. पान के भीटे में क्यारियों के बीच का रास्ता। ५. कपड़े के तानों में दोनों सिरों की खूटियों के बीच साँथी अलग करने के लिए थोड़ी-थोड़ी दूर पर गाड़ी जानेवाली लकड़ियाँ। (जुलाहे)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आँतर  : वि० [सं० अंतर्+अण] १. अंदर का। भीतरी। २. किसी क्षेत्र या सीमा के अंदर होने या उससे संबंध रखनेवाला। ३. किसी वस्तु व्यक्ति आदि के निजी गुण महत्त्व विशेषता आदि से संबंध रखनेवाला। (इँट्रिडिंक) जैसे—आंतर मूल्य। (अंकित मूल्य से भिन्न) (इंट्रिजिंक वैल्यू)
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आंतरागारिक  : वि० [सं० अन्तरागार+ठक्-इक] घर के भीतरी भाग, विशेषतः अंतपुर से संबंध रखनेवाला। पुं० १. भंडारी। २. कोषाध्यक्ष।
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आंतरिक  : वि० [सं० अंतर+ठक्-इक] १. अंदर का। भीतरी। २. किसी देश की घरेलू या भीतरी बातों से संबंध रखनेवाला। जैसे—आंतरिक नीति या आंतरिक व्यवस्था। (इन्टर्नल) ३. किसी निश्चित क्षेत्र या सीमा में होनेवाला। ४. अंतःकरण से होनेवाला। सच्चा। वास्तविक। जैसे—आंतरिक वेदना।
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आंतरिक्ष  : वि० [सं० अन्तरिक्ष+अण्] अंतरिक्ष संबंधी।
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आंतर्गेहिक  : वि० [सं० अनतर्गेह+ठक्-इक]=आंतरागारिक।
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आंतर्वेश्मिक  : वि० [सं० अन्तर्वेस्म+ठक्-इक]=आँतरागारिक।
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आँतिक  : वि० [सं० अंत+ठक्-इक] [भाव० अंतिकता, आँतिक्य] जो किसी के अंत में या समाप्ति पर हो तथा उसकी पूर्णता विस्तार या वृद्धि की सीमा का सूचक हो। (टरमिनल) जैसे—आंतिक कर आंतिक परीक्षा आदि।
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आंतिक-हेतु  : पुं० [सं० कर्म०स०] यह दार्शनिक सिद्धांत कि सृष्टि की रचना एक विशिष्ट उद्देश्य से और पूरी योजना के अनुसार हुई है।
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आंतिका  : स्त्री० [सं० अन्तिका+अण्-टाप्] बड़ी बहन।
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आंतिक्य  : पुं० [हिं० आंतिक+ण्यत्] आंतिक होने की अवस्था, गुण या भाव। आँतिकता।
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आंत्र  : वि० [सं० अन्त्र+अण्] आँत-संबंधी। पुं० आँत।
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आंत्रिक  : वि० [सं० अन्त्र+ठञ्-इक] आँतो में होनेवाला। आँत-संबंधी। जैसे—आंत्रिक रोग।
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आंत्रिक-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का विकट और प्रायः घातक ज्वर जो आँतों में विकार होने से उत्पन्न होता है और प्रायः तीन-चार सप्ताह तक निरंतर बना रहता है। (टाइफ़ॉयड)
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आंदू  : पुं० [सं० अन्दू-बेड़ी] १. बेड़ी। २. साँकल। ३. हाथी के पाँव में बाँधने का सीकड़। उदाहरण—पगन लाज आँदू परी चढ्यौं महावत तेह।—मतिरास।
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आंदोल  : पुं० [सं०√आन्दोल् (बार-बार चलाना)+घञ्] आँदोलन।
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आंदोलक  : वि० [सं०√आन्दोल्+ण्युल्-अक] १. झूलने या झूलानेवाला। २. आंदोलन करने या हलचल मचानेवाला। पुं० झूला।
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आंदोलन  : पुं० [सं०√आन्दोल्+ल्युट्-अन] १. इधर-उधर झूलना, लहराना या हिलना। २. कंपन करना। ३. लोगों को उत्तेजित करने के लिए अथवा कोई आवेगपूर्ण या असांत परिस्थिति बनाने के लिए किया जानेवाला कार्य या प्रयास। (एजीटेशन)
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आंदोलनकारी (रिन्)  : पुं० [सं० आन्दोलन√कृ (करना)+णिनि] वह जो आंदोलन करता या हलचल मचाता हो।
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आंदोलित  : भू० कृ० [सं०√आन्दोल्+क्त] १. जो खूब हिलाया या झुलाया गया हो। २. आवेगपूर्ण। उत्तेजित या हलचल से भरा हुआ।
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आँध  : स्त्री० [सं० अन्ध] १. अँधेरा। २. रतौधी। वि० -अंधा।
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आँधना  : अ० [हिं० आँधी] अकस्मात् तथा वेग से आक्रमण या धावा करना। आँधी की तरह किसी पर टूट पड़ना।
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आँधर, आँधरा  : वि० [सं० अन्ध] [स्त्री० आँधरी] अंधा। नेत्रहीन।
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आंधसिक  : पुं० [सं० अन्धस्+ठक्-इक] रसोइया।
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आँधारंभ  : पुं० [सं० अन्ध-अधंकार, अंधेर+आरम्भ] बिना समझे-बूझे कोई कार्य करना।
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आँधी  : स्त्री० [सं० अन्ध-अँधेरा] १. हवा का वह वेगपूर्ण रूप जो धूल मिट्टी आदि से युक्त होता है तथा जिसके चारों ओर प्रायः अंधकार सा छा जाता है। अंधड़। (विंड-स्टार्म)। मुहावरा—आँधी उठना=आंदोलन करना या हलचल मचाना। आँधी होना—बहुत तेज चलना। आँदी के आम-(क) बिना परिश्रम किये मुफ्त में या सस्ते में मिली हुई कोई वस्तु।(ख) जिसका अस्तित्व कुछ ही दिनों तक हो। २. वह जिसमें आँधी जैसा तेजी हो। बहुत ही जल्दी में या आवेश में काम करनेवाला।
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आंधै  : स्त्री०=आँधी।
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आंध्य  : पुं० [सं० अन्ध+ण्यत्] १. अंधे होने की अवस्था या भाव। अंधापन। २. अंधकार। अँधेरा।
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आंध्र  : पुं० [सं० आ√अन्ध् (अंधा होना)+रन्] १. स्वतंत्र भारत का एक राज्य जो दक्षिण भारत में स्थित है तथा जहाँ तेलगू भाषा बोली जाती है। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. दक्षिण भारत की एक प्राचीन जाति, जो बाद में आर्यों से मिल गई थी। वि० उक्त देश में होने या उससे संबंध रखनेवाला।
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आँब  : पुं० =आम (वृक्ष और फल)।
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आंवष्ठ  : वि० [सं० अम्बष्ठ+अण्] अंबष्ठ देश में होने या उनसे संबंध रखनेवाला। पुं० अंबष्ठ देश का निवासी।
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आंबा हलदी  : स्त्री० [सं० आम्र-हरिद्रा, प्रा० अवंहलद्दा, मरा० अंबहलद] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ हलदी की तरह होती और दवा के काम में आती है।
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आंबिकेय  : पुं० [सं० अंबिका+ढक्-एय]=अंबिकेय।
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आँयँ-बाँयँ  : पुं० [अनु०] आँय-बाँय-शाँय।
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आँय बाँय शाँय  : वि० [सं० अतिपात, शान्ति या विशुद्ध अनु०] व्यर्थ का। बिना सिर-पैर का और असंबद्ध (कथन या प्रलाप)।
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आँव  : पुं० [सं० आम्र या आमय, मरा० आव, आँव, सिं० अमु० का० ओम] १. अधपके या कच्चे अन्न या फल के पेट में न पचे होने की स्थिति अथवा उक्त के फलस्वरूप होनेवाला रोग जिसमें पेट में ऐंठन और पीड़ा होती है तथा थोड़ा-थोड़ा करके लसीला मल निकलता है। २. उक्त रोग में पेट से निकलनेवाला लसीला मल।
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आँवठ  : पुं० [सं० ओष्ठ, हिं० ओठ] १. किनारा। तट। २. किसी चीज की कुछ ऊँची उठी हुई बाढ़। ३. कपड़े आदि का किनारा या हाशिया।
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आँवड़ना  : अ०=उमड़ना।
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आँवड़ा  : वि० [सं० अव-गर्त्त] गहरा।
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आँवन  : पुं० [सं० आनन-मुँह] १. पहिए में लोहे की वह सामी जिसके अंदर से धुरी जाती है। २. लोहारों का वह औजार जिससे वे लोहे में छेद बड़ा करते है।
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आँवरा  : पुं०=आँवला।
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आँवल  : पुं० [सं० उल्वम्-जरायु] वह झिल्ली जिसमें गर्भ में बच्चे लिपटे रहते हैं। खेड़ी। जेरी।
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आँवलगट्टा  : पुं० [हिं० आँवला+गट्टा या गाँठ] आँवले का सूखा हुआ फल। सूखा आँवला।
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आँवल-नाल  : स्त्री०=आँवला।
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आँवला  : पुं० [सं० आमलक, प्रा० आमलग, बँ० आम्ला, गु० आंवला, सि० आंविशे, का ओम (म्) मरा० अवला] १. इमली की तरह की छोटी पत्तियोंवाला वृक्ष जिसमें गोल छोटे फल लगते है। २. उक्त फल जो स्वाद में खट्टे और खाने तथा दवा के काम आते है। ३. कुश्ती का एक दाँव या पेंच।
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आँवलापत्ती  : स्त्री० [बिं० आँवला+पत्ती] सिलाई का एक प्रकार जिसमें सीयन के दोनों ओर पत्ती जैसे तिरछे टाँके लगते हैं।
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आँवलासार गंधक  : स्त्री० [हिं० आँवला+सं० सारगंधक] साफ की हुई गंधक जो औषध आदि के काम में आती है।
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आँवाँ  : पुं० [सं० आपाक] विशेष प्रकार से बनाया हुआ वह गड्ढा जिसमें मिट्टी की कच्ची ईटें बरतन आदि पकाते जाते है। मुहावरा—आँवा बिगड़ना=किसी वर्ग या विषय की सभी बातें खराब हो जाना।
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आँशिक  : वि० [सं० अंश+ठक्-इक] १. अंश या भाग से संबंध रखनेवाला। २. केवल अंश या भाग के रूप में होनेवाला। कुछ या थोड़ा। (पार्शिअल)।
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आंशुक-जल  : पुं० [सं० अंशुक+अण्, आंशुक-जल, कर्म० स०] ताँबे के बरतन में रखा हुआ वह जल जो दिन भर धूप में और रात भर चाँदनी में पड़ा रहा हो।
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आंश्य  : वि० [सं० अंश+ष्यञ्]-आंशिक।
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आंषु  : [सं० आखु] चूहा। मूसा। उदाहरण—आँषु धरन हित दुष्ट मँजारी।—नंददास।
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आंस  : स्त्री० [हिं० गाँस] हलकी पीड़ा या वेदना। कसक। स्त्री० [?] १. डोरी। रस्सी। २. रेशा। ३. मूँछों के निकलने का आरंभिक रूप। रेख। (बुदे०) पुं० १. अंश। २. -आँसू।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आँसना  : अ० [हिं० आँस] कष्टकारी सिद्ध होना। खटकना। गड़ना। उदाहरण—लगान थोड़ा होने पर भी आँसता था।—वृन्दावनलाल वर्मा। स० कष्ट देना।
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आँसला  : वि० [हिं० आँसू] जिसकी आँखों में आँसू भरे हो। वि० [हिं० आँस] जिसके ह्रदय में वेदना हो। उदाहरण—पटक्योई परै यह अंकुर आसंली, ऐसे कछु रस रीति घुरी।—घनानंद।
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आँसी  : स्त्री० [सं० अंश-भाग] बैने या भेंट के रूप में किसी को दिया जाने वाला अंश या भाग। उदाहरण—काम किलोलनि में मतिराम लगे मनो बाँटन मोद की आँसी।
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आँसू  : पुं० [सं० अंश्रु, पा० अस्सु, प्रा० गु० आंजु, आंसु, ने० आँसु, सि० इंज, पं० अंझू, का० ओश, सिंह० अस, मरा० अँसू] आँखो की अश्रुग्रंथि में से स्रवित होने वाली बूँदे। विशेष—आँसू प्रायः दुख के आवेग या क्षोभ और कभी-कभी विशेष हर्ष के कारण भी निकलते है। मुहावरा—आँसू गिराना=रोना। आँसू डबडबाना—आँखों में आँसू भर आना। आँसू ढालना—रोना। आँसू पीकर रह जाना—कष्टपूर्ण आवेग मन में ही रोक रखना और प्रकट न होने देना। (किसी के) आँसू पोंछना=(क) आश्वासन देना। ढ़ाढस बँधाना। (ख) ऐसा काम करना, जिससे किसी का दुःख या पाश्चाताप कम हो। जैसे—सौ रूपये देकर उनके भी आँसू पोंछ दों। आँसूओं का तार बँधना=रोने का क्रम निरंतर चलते रहना। आँसूओं में मुँह धोना—इतना अधिक रोना कि सारे चेहरे पर आँसू फैल जाएँ।
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आँसूढाल  : पुं० [हिं० आँसू+ढालना] चौपायों का एक रोग जिसमें उनकी आँखों से प्रायः आँसू या जल बहता रहता है।
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आँहड़  : पुं० [सं० आ+भांड] १. मिट्टी का बरतन। २. पात्र। बरतन।
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आँहाँ  : अव्य० [अनु०] १. निषेधसूचक शब्द। ऐसा मत करो। २. अस्वीकृतिसूचक शब्द। यह या ऐसी बात नहीं है।
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आइंदा  : वि० [फा० आइन्दाः] आनेवाला। भावी। जैसे—आइँदा साल। अव्य० आनेवाले समय में। आगे चलकर। भविष्य में।
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आइ  : अ० [हिं० आहि] होना क्रिया का पुराना भूतकालिक रूप। उदाहरण—खान-पान, सय्या शयन, जासु भरोसे आइ।—मदमाकर। स्त्री० आयु (जीवन काल)।
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आइना  : पुं०=आईना।
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आइस  : पुं० -आयसु। (आज्ञा या आदेश)। स्त्री०-आयु।
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आई  : स्त्री० [हिं० आना] मृत्यु। मौत। स्त्री०-आयु। स्त्री०=माता (माँ)।
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आईन  : पुं० [फा०] [वि० आईनी] १. कायदा। नियम। २. कानून। विधि।
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आईना  : पुं० [फा० आईन] १. दर्पण। शीशा। मुहावरा—(कोई बात) आईना होना=बिलकुल साफ या स्पष्ट होना। २. किवाड़ के पल्ले में का दिलहा।
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आईनी  : वि० [फा०] आईन या कानून से संबंध रखनेवाला। विधिक।
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आउंकार  : पुं०=ओंकार।
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आउंस  : पुं० [सं० ] एक पाश्चात्य मान जो (क) तौल या सवा तोले के बराबर और (ख) नाप में सोलह ड्राम या ९६0 बूँदों का होता है।
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आउ  : स्त्री० =आयु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आउज  : पुं०=आवज (ताशा नाम का बाजा)।
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आउध  : पुं० १=आयुध। २. =युद्ध।
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आउबाउ  : वि०=आँय-बाँय। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आउस  : पुं० [सं० आशु, बंग० आउश] एक प्रकार का धान। ओसहन।
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आऊ  : प्रत्यय० [?] एक प्रत्यय जो धातुओं के अन्त में लगकर उनके कर्ता का अर्थ देता है। जैसे—(क) उड़ाऊ-उड़ानेवाला। (ख) खाऊ-खाने-पीनेवाला आदि। स्त्री०=आयु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकंपन  : पुं० [सं० आ√कम्प् (काँपना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आकंपित] १. कंपन होना। काँपना। २. हिलना-डुलना।
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आकंपित  : भू० कृ० [सं० आ√कम्प्+क्त] जो कँपाया या हिलाया गया हो।
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आक  : पुं० [सं० अर्क, पा० अक्क] मदार का पौधा। पद—आक की बुढिया—(क) आक या मदार के भीतर का बहुत हलका और मुलायम पदार्थ। (ख) ऐसा वृद्धा स्त्री जिसमें कुछ भी दम न हो।
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आकड़ा  : पुं० -आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकन  : पुं० [सं० आखनन-खोदना] १. खेत में से व्यर्थ की घास आदि निकाल कर बाहर फेंकना। चिखुरी। २. इस प्रकार निकली हुई घास आदि।
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आकबत  : स्त्री० [अ० आकिबत] १. मृत्यु होने के पश्चाताप के अवस्था। २. अंत। ३. परलोक। मुहावरा—आकबत में दिया दिखाना=परलोक में काम आना। जैसे—कुछ गरीबों को भी दिया करो, यहीं आकबत में दिया दिखाएगा।
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आकबती लंगर  : पुं० [अ० आकिबत+हिं० लंगर] जहाज में एक प्रकार का लंगर, जो विशेष संकट के समय गिराया या डाला जाता है।
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आकबाक  : वि० [सं० वाक्य] अंडबंड या ऊटपटांग।
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आकर  : पुं० [सं० आ√कृ(करना)+घ] १. खान। २. वह स्थान जहाँ किसी वस्तु की बहुतायत हो। आधान। ३. खजाना। जैसे—गुणाकर, रत्नाकर। ४. उत्पत्ति का स्थान। ५. तलवार चलाने का एक ढंग। वि० १. श्रेष्ठ। २. बहुत अधिक या यथेष्ठ। ३. खान में निकलने या प्राप्त होनेवाला। पुं०=आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकरकरहा  : पुं० [अ०] दे० ‘अकरकरा’।
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आकरखाना  : स० [सं० आकर्षण] अपनी ओर आकृष्ट करना। खीचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकर-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] वह मूल भाषा जो किसी दूसरी भाषा की जननी हो तथा उसे अपने शब्दभांडार से निरंतर पुष्ट तथा संवर्द्धित करती हो। जैसे—गुजराती, बंगला, हिन्दी आदि की आकर भाषा संस्कृत है।
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आकरसना  : स० [सं० आकर्षण] अपनी ओर आकृष्ट करना। खींचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आकरिक  : वि० [सं० आकर+ठञ्+इनि] १. खान में काम करनेवाला। २. सुरंग बनाने या खोदनेवाला।
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आकरिक  : वि० [सं० आकर+ठञ-इक] १ खान में काम करनेवाला। २. सुरंग बनाने या खोदनेवाला।.
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आकरी (रिन्)  : वि० [सं० आकर+इनि] १. खान से निकाला हुआ (खनिज पदार्थ)। २. अच्छी जाति या नस्ल का। स्त्री० [सं० आकर] १. खान खोदकर उसमें से चीजें निकालने का काम या व्यवसाय। २. सुरंग बनाने का काम। स्त्री०-आकुलता। पुं० दे० ‘आकरिक’।
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आकर्ण  : अव्य० [सं० अव्य० स०] काम तक। वि० कानों में पहुँचा या सुना हुआ।
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आकर्णित  : भू० कृ० [सं० आ√कर्ण् (सुनना)+क्त] सुना हुआ।
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आकर्ष  : पुं० [सं० आ√कृष् (खींचना)+घञ्] १. अपनी ओर खींचना। २. पासे से खेला जानेवाला जुआ। ३. ऐसे खेल की बिसात। ४. इंद्रिय। ५. धनुष चलाने का अभ्यास। ६. कसौटी। ७. चुंबक पत्थर।
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आकर्षक  : वि० [सं० आ√कृष्+ण्वुल्-अक] १. आकर्षण करने या खींचनेवाला। २. प्रभावित या मोहित करके अपनी ओर ध्यान खींचनेवाला। (एट्रैक्टिव)
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आकर्षण  : पुं० [सं० आ+कृष्+ल्युट्-अन] [वि० आकर्षक, भू० कृ० आकर्षित, आकृष्ट] १. अपने बल या शक्ति की सहायता से किसी को अपनी ओर ले आना। खीचंना। २. अपने गुण, विशेषता आदि के बल पर किसी का ध्यान अपनी ओर ले आना। ३. वह व्यापार जो किसी का ध्यान या मन अपनी ओर खींचने या अपने पास बुलाने के लिए किया जाता है। (एट्रैक्शन)
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आकर्षण-शक्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. ऐसी शक्ति जो किसी को अपनी ओर खींचे। २. वह गुण, विशेषता या शक्ति जो किसी को प्रभावित तथा मोहित करे या अपनी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त करे।
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आकर्षणी  : स्त्री० [सं० आकर्षण+ङीष्] १. एक प्राकर का पुराना सिक्का। २. अँकुसी।
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आकर्षन  : पुं०=आकर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आकर्षना  : स० [सं० आकर्षण] १. अपनी ओर खींचना। २. प्रभावित या मोहित करके अपनी ध्यान खींचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आकर्षित  : भू० कृ० [सं० आकृष्ट] १. खिंचा हुआ। २. जो किसी से प्रभावित होकर उसकी ओर अनुरक्त या प्रवृत्त हुआ हो।
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आकर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० आ√कृष्+णिनि]-आकर्षक।
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आकलन  : पुं० [सं० आ+कल् (गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आकलित, वि० आकल्य] १. किसी को साथ बाँधना, मिलाना या लगाना। २. इच्छा। कामना। ३. संग्रह। ४. हिसाब लगाना। गणना करना। ५. आज-कल गणना का वह प्रकार जिसमें संभावनाओं का ध्यान रखते हुए भावी कार्य के संबंध में अनुमान या कल्पना की सहायता से कोई विचार या व्यय स्थिर किया जाता है। अंदाज। (एस्टिमेशन) जैसे—मकान बनाने से पहले उसके व्यय का आकलन।
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आकलनीय  : वि० [सं० आ√कृल्+अनीयर] १. जिसका आकलन होने को हो। २. जिसका आकलन करना उचित हो।
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आकलित  : भू० कृ० [सं० आ√कृल्+क्त] जिसका आकलन हुआ हो या किया गया हो।
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आकली  : स्त्री० [सं० आकुल+ई (प्रत्यय)] व्याकुलता। बेचैनी। स्त्री० [?] गौरैया पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकल्प  : पुं० [सं० आ√कृप् (सामर्थ्य)+णिच्+घञ्] १. वेश-भूषा। २. सज्जित होने या सज्जित करने की क्रिया या भाव। ३. अस्वस्थता।
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आकल्पक  : पुं० [सं० आ√कृप्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अँधकार। २. मोह। ३. उत्कंठा। ४. हर्ष। ५. मूर्च्छा। ६. गाँठ। ७. दुःखमय स्मृति।
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आकल्प  : पुं० [सं० आकल+यत्] बीमारी। रोग।
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आकल्लक  : पुं० [सं० ] अकरकरा नामक पौधा।
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आकष  : पुं० [सं० आ√कष् (कसना)+अच्] कसौटी।
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आकमात्  : अव्य=आकस्मात्।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकस्मिक  : वि० [सं० अकस्मात्+ष्ठक्-इक] अकस्मात् अर्थात् अप्रत्याशित रूप से या एकाएक घटित होनेवाला। अचानक सामने आने या होनेवाला।
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आकस्मिक छुट्टी  : स्त्री [सं० +हिं० ] वह छुट्टी जो यों ही या अचानक कोई काम पड़ने पर ली जाए। (कैजुअल लीव)
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आकम्मिकता  : स्त्री० [सं० आकस्मिक+तल्-टाप्] आकस्मिक रूप से या अचानक घटित होने का भाव।
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आकस्मिकतावाद  : पुं० [सं० ष० त०] दर्शन शास्त्र का एक सिद्धांत जो यह प्रतिपादित करता है कि संसार में जो कुछ होता है वह सब अप्रत्यशित रूप से, अचानक तथा आप से होता है। (ऐक्सीडेन्टलिज्म)
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आकस्मिक-निधि  : स्त्री० [कर्म० स०] किसी संस्था या राज्य की वह सुरक्षित निधि जो किसी भावी आकस्मिक विपत्ति या संकट की स्थिति के निवारण के लिए बचाकर रखी गयी हो।
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आकस्मिकी  : स्त्री० [सं० आकस्मिक+ङीष्] अचानक घटित होनेवाली घटना या बात (कैजुएलिटी)
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आकांक्षक  : वि० [सं० आ√कृङ्क्ष् (चाहना)+ण्वुल्-अक] आकांक्षा करने या चाहनेवाला।
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आकांक्षित  : भू० कृ० [सं० आ√कृङ्क्ष्+क्त] (बात या विषय) जिसके लिए आकांक्षा की गई हो।
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आकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० आ√काङ्क्ष्+णिनि] [स्त्री० आकांक्षिणी] जिसे किसी बात की आकांक्षा हो। आकांक्षा करने या रखनेवाला।
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आका  : पुं० [सं० आकाय] १. कौड़ा। अलाव। २. भट्ठी। ३. आँवाँ। पंजावा। पुं० [तु० आका] मालिक। स्वामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आकाय  : पुं० [सं० आ√चि (चयन करना)+घञ्, कुत्व] १. चिता की आग। २. चिता। ३. निवास-स्थान।
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आकार  : पुं० [सं० आ√कृ (करना)+घञ्] १. पुकारना। बुलाना। २. बाहरी रेखाओं का वह विन्सास जिससे किसी पदार्थ विषय या व्यक्ति के रूप का ज्ञान या परिचय होता है। आकृति। शकल। मुहावरा—आकार दिखाना=चित्रकला में, रेखन के द्वारा पदार्थों या मनुष्यों का आकार मात्र दिखानेवाली रेखाएँ अंकित करना। ३. आकृति या चेहरे का ऐसा रंग-ढंग जिसमें मन का कोई भाव या विचार प्रकट होता हो। जैसे—आकार-गुप्ति-मन के भाव छिपाना। ४. आजकल मुख्य रूप से किसी वस्तु या व्यक्ति की लंबाई-चौड़ाई, ऊँचाई आदि जो उसके छोटे-बड़े, मँझोले आदि होने की सूचक होती हैं। (साइज) जैसे—इस बार यह पुस्तक बड़े आकार मे छपेगी। ५. [आ+कार] आ की मात्रा या वर्ण।
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आकारक  : पुं० [सं० आ√कृ+णिचि+ण्वुल्-अक] न्यायालय का वह पत्र जिसमें किसी को सात्री आदि देने के लिए न्यायालय में उपस्थित होने के लिए कहा जाता है। (सम्मन साइटेशन)
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आकारण  : पुं० [सं० आ√कृ+णिच्+ल्युट्-अन] किसी को अपने पास बुलाना।
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आकार-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘रूपक’। (फार्म)।
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आकार-रेखन  : पुं० [सं० आकार-लेखन] चित्रों आदि में पदार्थों या मनुष्यों का आकार मात्र दिखाने के लिए रेखाएँ बनाना। (स्केचिंग)
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आकार-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] दे० ‘रूप-रेखा’।
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आकारवान् (वत्)  : वि० [सं० आकार+मतुप्, वत्व] १. जिसका कोई आकार या रूप हो। साकार। २. अच्छे या बड़े आकार या डीलडौल वाला।
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आकारांत  : वि० [सं० आकार-अन्त, ब० स०] (शब्द) जिसके अंत में आ हो।
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आकरिका  : स्त्री० [सं० आ√कृ+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] दे० ‘रूप विधान’।
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आकारित  : भू० कृ० [सं० आ√कृ+णिच्+क्त] जिसे कोई आकार या रूप दिया गया हो। किसी आकार में लाया हुआ।
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आकारी  : वि० [सं० आकार+हिं० ई(प्रत्यय)] आकारवाला। आकति या शक्लवाला।
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आकारीठ  : पुं० [सं० आकारण-बुलाना] लड़ाई। युद्ध। (डिं०)।
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आकाल  : पुं० [सं० प्रा०स०] १. उपयुक्त या ठीक समय। २. [आकाल+अण्] अनुपयुक्त या बुरा समय।
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आकालिक  : वि० [सं० अकाल+ठञ्-इक] अपने ठीक समय से पहले या पीछे होनेवाला।
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आकालिकी  : स्त्री० [सं० आकालिक+ङीष्] बिजली।
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आकाश  : पुं० [सं० आ√काश् (चमकना)+घञ्] १. शब्द, गुण से युक्त वह शून्य अनंत अवकाश जिसमें विश्व के सभी पदार्थ (सूर्य, चंद्र, ग्रह, उपग्रह आदि) स्थित है और जो सब पदार्थों में व्याप्त है। २. खुले स्थान में ऊपर की ओर दिखाई देनेवाला नीला अपार स्थान। अंतरिक्ष। आसमान। मुहावरा—आकाश खुलना=आंकाश से बादलों का हटना। आकाछूना या चूमना— (क) बहुत ऊँचा या लंबा होना। (ख) बहुत लंबीश चौड़ी बाते करना। आकाश पाताल एक करना—पूरी शक्ति से कोई काम करना। कोई बात उठा न रखना। आकाश बाँधना—असंभव तथा अनोहनी बातें कहना। आकाश से बातें करना—बहुत ऊंचा होना। जैसे—उनका महल आकाश से बातें करता था। पद—आकाश कुसुम=(क) ऐसी बात या वस्तु जिसका कुछ भी अस्तित्व न हो। (ख) ऐसी वस्तु जिसकी प्राप्ति असंभव हो। आकाश पाताल का अंतर—बहुत बड़ा अंतर। आकाश पुष्प=आकाश कुसुम। ३. एक लचीला पारदर्शी तत्त्व जो उक्त खाली स्थान में व्याप्त माना जाता है और जिसमें से होकर सूर्य की किरणों, विद्युत तरंगों आदि का संचार होता है। व्योम। (ईथर) ४. ऐसा शून्य स्थान जिसमें वायु के अतिरिक्त और कुछ न हो। ५. छिद्र। ६. ब्रह्म। ७. अभ्रक। ८. रहस्य संप्रदाय में (क) अंतःकरण (ख) आत्मा (ग) परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग।
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आकाश-कक्षा  : स्त्री० [ष० त०] आकाश का उतना क्षेत्र, भाग या स्थान जहाँ तक सूर्य के प्रकाश की व्याप्ति होती है।
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आकाश-गंगा  : स्त्री० [मध्य० स०] १. ब्रह्मांड में फैले हुए बहुत से छायापथों में से वह जो हमें रात के समय आकाश में उत्तर-दक्षिण फैला हुआ चमकीली चौड़ी पट्टी या सड़क के रूप में दिखाई देता है। हाथी की डहर। (मिल्कीवे) २. पुराणों के अनुसार स्वर्ग की नदी। मंदाकिनी।
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आकाशचारी (रिन्)  : वि० [सं० आकाश√चर् (गति)+णिनि] [स्त्री० आकाशचारिणी] आकाश में गमन करने या विचरनेवाला। आकाशगामी। पुं० १. सूर्य, चंद्र, ग्रह नक्षत्र आदि जो आकाश में चक्कर लगाते रहते है। २. वायु। ३. पक्षी। ४. देवता। ५. भूत-प्रेत, राक्षस आदि।
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आकाश-चोटी  : स्त्री० [सं० आकाश+हिं० चोटी]=शीर्षबिन्दु।
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आकश-जल  : पुं० [मध्य० स०] १. आकाश में बरसनेवाला जल। वर्षा का पानी। २. ओस।
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आकाश-दीआ  : पुं०=आकाश दीप।
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आकाश-दीप  : पुं० [मध्य० स०] १. बहुत अधिक ऊँचाई पर जलनेवाला दीआ। २. कार्तिक मास में विष्णु और देवताओं के उद्देश्य से जलाया जानेवाला वह दीआ, जो ऊँचे बाँस के ऊपरी सिरे पर बँधा रहता है।
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आकाश-धुरी  : स्त्री० [सं० आकाश-धुरी] आकाश ध्रुव।
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आकाश-ध्रुव  : पुं० [मध्य० स०] ज्योतिष में खगोल का ध्रुव।
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आकाश-नदी  : स्त्री० [मध्य० स०]=आकाश गंगा।
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आकाश-नीम  : स्त्री० [सं० आकाश+हिं० नीम] नीम के पेड़ पर होने वाली एक प्राकर का वनस्पति। नीम का बाँदा।
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आकाश-फल  : पुं० [ष० त०] संतान। संतति।
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आकाश-बेल  : स्त्री० [सं० आकाश+हिं० बेल] दे० ‘अमर बेल’।
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आकाश-भाषित  : पुं० [स० त०] नाटक के अभिनय में, किसी पात्र का आकाश की ओर देखकर इस प्रकार कोई बात कहना कि मानों कि वह ऊपर के किसी प्रश्नकर्ता के प्रश्न का उत्तर दे रहा हो।
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आकाश-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] हठ-योग में सहस्रार चक्र का एक नाम।
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आकाश-मुखी  : वि० [सं० आकाश-मुख] जिसका मुँख आकाश की ओर हो। पुं० एक प्रकार के साधु जो आकाश की ओर मुँह करके तपस्या करते है।
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आकाश-मूली  : स्त्री० [सं० आकाश-मूल, ब० स० ङीष्]=जलकुंभी।
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आकाश-यान  : पुं० [मध्य० स०] वायुयान। (दे०)।
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आकाश-लोचन  : पुं० [स० त०]=वेधशाला। (दे०)।
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आकाश-वाणी  : स्त्री० [मध्य०स०] १. वह कथन या बात जो किसी देवता या ईश्वर की ओर से कही हुई तथा आकाश से सुनाई पड़नेवाली मानी जाती है। २. रेडियों-यंत्र की सहायता से विद्युत-तरंगों के द्वारा दूर-दूर तक प्रसारित की जानेवाली ध्वनियाँ (संगीत, समाचार वार्ताएँ आदि) ३. वह भवन या स्थान जहाँ से विद्युत तरंगों द्वारा संगीत, समाचार, वार्ताएँ आदि प्रसारित की जाती है। प्रसारण ग्रह। (ब्राडकास्टिंग हाउस) जैसे—आकाश-वाणी पटना या लखनऊ।
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आकाश-वृत्ति  : स्त्री० [मध्य० स०] ऐसी वृत्ति या जीविका जिसका कुछ भी निश्चय या ठिकाना न हो। अनिश्चित वृत्ति। जैसे—दान, भिक्षा आदि।
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आकाश-वृत्तिक  : पुं० [ब० स० कप्] वह जो केवल आकाश वृत्ति के सहारे जीवन बिताता हो।
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आकाश-स्फटिक  : पुं० [मध्य० स०] १. एक प्रकार का पत्थर जो आकाश में निर्मित माना जाता है। २. ओला।
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आकाशी  : स्त्री० [सं० आकाश+ई (प्रत्यय)] १. धूप आदि से बचने के लिए ताना जानेवाला चँदोआ। २. ताड़ी। वि०=आकाशीय।
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आकाशीय  : वि० [सं० आकाश+छ-ईय] १. आकाश में होनेवाला। आकाशी संबंधी। २. जो आकाश में स्थित हो। ३. दैवी।
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आकिलं  : वि० [सं० आकिल]=अक्लमंद (बुद्धिमान्)।
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आकिलखानी  : पुं० [सं० आकिलखाँ (नाम)] कालापन लिए हुए एक प्रकार का लालरंग। कत्थई रंग।
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आकीर्ण  : वि० [सं० आ√कृ (छितराना)+क्त] १. छितराया या बिखेरा हुआ। २. भरा हुआ। व्याप्त। पुं० भीड़।
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आकुंचन  : पुं० [सं० आ√कुञ्च्(सिकुड़ना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आकुंचित] १. विस्तार में कमी होना। सिकुड़ना। सिमटना। (कन्ट्रैक्शन) २. सिकुड़ने से विस्तार में होनेवाली कमी। (श्रिंकेज) ३. वैशेषिक मत के अनुसार पाँच प्रकार के कर्मों में से एक कर्म।
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आकुंचित  : भू० कृ० [सं० आ√कुञ्च्+क्त] १. सिकुड़ा हुआ। २. जिसमें सिकुड़न पड़ी हो।
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आकुंठन  : पुं० [सं० आ√कुण्ठ् (कुंद होना)+ल्युट्-अन] १. कुंद होने की अवस्था या भाव। २. लज्जा।
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आकुंठित  : भू० कृ० [सं० आ√कुण्ठ+क्त] १. जो तीखा या धारदार न हो। २. जो तेज न हो। मंद। जैसे—आकुंठित बुद्धि। ३. लज्जित।
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आकुल  : वि० [सं० आ√कुल् (बाँधना, इकट्ठाहोना)+क] [भाव० आकुलता] १. जो किसी काम या बात के लिए बहुत ही उत्सुक, चितिंत या व्यग्र हो। उद्धिग्न। २. विह्वल। कतार। ३. अव्यवस्थित। ४. भरा हुआ। व्याप्त। ५. अस्पष्ट और संदिग्ध। पुं० १. खच्चर। २. बस्ती।
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आकुलता  : स्त्री० [सं० आकुल+तल्-टाप्] [भू० कृ० आकुलित] १. आकुल होने की अवस्था या भाव। घबराहट। २. व्याप्ति।
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आकुलि  : पुं० [सं० आ√कुल्+इनि] असुरों का एक प्रसिद्ध पुरोहित।
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आकुलित  : भू०कृ० [सं० आ√कुल+क्त] १. जो आकुल हुआ हो या किया गया हो। २. घबराया हुआ। ३. बेचैन। विकल। ४. व्याप्त।
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आकूजन  : पुं० [सं० आ√कूज् (शब्द)+ल्युट्-अन] १. पक्षियों का कूजना। २. गुनगुनाना।
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आकूत  : पुं० [सं० आ√कू (शब्द)+क्त] १. इच्छा। चाह। २. उद्देश्य। ३. प्रायोजन। ४. उत्तेजना। बढ़ावा। पुं० [सं० आकूति] उत्साह।
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आकूति  : पुं० [सं० आ√कू+क्तिन्] १. इच्छा। २. उद्देश्य। ३. प्रयोजन। ४. उत्साह। ५. सदाचार। ६. स्वायंभुव मनु की एक कन्या जो रुचि नामक प्रजापति को ब्याही गयी थी।
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आकूवारी  : पुं०=अकूपार समुद्र।
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आकृत  : भू० कृ० [सं० आ√कू (करना)+क्तिन्] १. जिसे कोई (आकार या रूप) दी गई हो या मिली हो। बना हुआ। २. क्रम से लगा या लगाया हुआ। व्यवस्थित।
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आकृति  : स्त्री० [सं० आ√कृ+क्तिन्] १. किसी वस्तु व्यक्ति या ढाँचे का निश्चित, स्पष्ट तथा स्थिर रूप जिससे उसकी पहचान होती है। २. उक्त के अनुसार किसी वस्तु या व्यक्ति का अंकित या चित्रित किया हुआ रूप। ३. ज्यामिति में केवल रेखाओं की सहायता से क्षेत्रों आदि के बनाये जानेवाले रूप। (फिगर उक्त सभी अर्थों मे) ४. भाव-भंगी प्रकट करनेवाली मुद्रा। ५. सवैया नामक छंद का एक प्रकार जिसमें मद्रक मंदारमाला मदिरा हंसी आदि कई भेद है।
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आकृति-विज्ञान  : पुं० [ष० त०] मनुष्य की आकृति (उसके अंगों की गठन तथा मुद्रा) के आधार पर उसकी प्रवृत्ति, स्वभाव, गुण-दोष आदि बतलाने की विद्या। (फिसियोग्नाँमी)
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आकृष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√कृष्+क्तिन्] १. खिंचा या खींचा हुआ। २. जो किसी के गुण, रूप आदि पर मुग्ध या मोहित हुआ हो।
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आकृष्टि  : स्त्री० [सं० आ√कृष्+क्तिन्] १. आकृष्ट करने या अपनी ओर खींचने की क्रिया या भाव। ३. मुग्ध या मोहित होने का भाव।
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आकोप  : पुं० [प्रा०स०] थोड़ा या हलका कोप या क्रोध।
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आक्रंद  : पुं० [सं० आ√कंद्र(रोना)+घञ्] १. जोर से पुकारना या बुलाना। २. जोर का शब्द। घोष। ३. शोर। हल्ला। ४. विलाप करना। रोना। ५. इष्ट-मित्र और भाई-बन्धु। ६. घोर युद्ध। ७. ज्योतिष में, एक ग्रह का दूसरे ग्रह प्रबल होना। ८. प्राचीन भारतीय राजनीति में गुप्त रूप से प्रधान शत्रु की सहायता करनेवाला देश या राज्य।
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आक्रंदन  : पुं० [सं० आ√कंद+ल्युट्-अन] १. जोर से पुकारने बुलाने या चिल्लाने की क्रिया या भाव। २. रुदन। रोना।
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आक्रंदी (दिन्)  : वि० [सं० आ√कन्द+णिनि] १. रो-रो कर प्रार्थना करनेवाला। २. चीखने-चिल्लानेवाला।
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आक्रम  : पुं० [सं० आ√क्रम (चरण क्षेप)+घञ्] १. किसी की ओर जाना या पहुंचना। २. ऊपर की ओर जाना। ३. धावा करना। ४. अधिक भार लादना। ५. पराक्रम। वीरता।
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आक्रमण  : पुं० [सं० आ√क्रम+ल्युट्-अन] [वि० आक्रमणीय, आक्रांत] १. किसी की ओर जाने अथवा किसी की सीमा का उल्लंघन करने की क्रिया या भाव। २. विपक्षी या शत्रु पर शस्त्रों से किया जानेवाला प्रहार। ३. एक राज्य का दूसरे राज्य को दबाने या हड़पने के लिए उसकी सीमा का बलपूर्वक उल्लंघन। ४. किसी के आचरण कार्य विचार या सिद्धांत पर किया जानेवाला निंदात्मक आक्षेप। (अटैक, अंतिम तीनो अर्थों के लिए)
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आक्रमित  : भू० कृ० [सं० आक्रांत] [स्त्री० आक्रमिता] जिस पर आक्रमण किया गया हो या हुआ हो। आक्रांत।
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आक्रमिता  : स्त्री० [सं० आक्रांत] साहित्य में केशव के अनुसार प्रौढ़ा नायिका जो मन, वचन और कर्म से अपने पति या प्रेमी को अपने वश में करने का प्रयत्न करती है। (देव ने इसी को आक्रांता कहा है)
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आक्रय  : पुं० [सं० आ√क्री (खरीदना)+अच्] क्रय करना। खरीदना।
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आक्रस्स  : पुं०=आक्रोश।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आक्रांत  : भू० कृ० [सं० आ√क्रम+क्त] १. जिसपर आक्रमण हुआ हो। २. जो किसी की अधीनता में हो। वशीभूत। ३. व्याप्त।
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आक्रांता  : स्त्री० दे० आक्रमिता।
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आक्रांति  : स्त्री० [सं० आ√क्रम+क्तिन्] १. आक्रांत करने या होने की अवस्था या भाव। २. किसी को दबाकर उसे अपने अधीन करना। ३. ऊपर चढ़ना। आरोहण।
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आक्रामक  : वि० [सं० आ√क्रम+ण्वुल्-अक] आक्रमण करनेवाला।
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आक्रीड़  : पुं० [सं० आ√क्रीड़ (खेल करना)+घञ्] खेलने का मैदान। क्रीड़ा-स्थल। २. विहार-स्थल। ३. बगीचा। वि० क्रीड़ा करनेवाला। खेलाड़ी।
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आक्रीडन  : पुं० [सं० आ√क्रीड्+ल्युट्-अन] क्रीड़ा करना। खेलना।
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आक्रीडी (डिन्)  : वि० [सं० आ√क्रीड़+घिनुण्] [स्त्री० आक्रीडिनी] १. क्रीड़ा करनेवाला। खेलाड़ी।
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आक्रुष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√क्रुश+(कोसना)+क्त] =आक्रोशित।
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आक्रोश  : पुं० [सं० आ√क्रुश्+घञ्] १. क्रोधपूर्वक कठोर कर्कश स्वर में की जानेवाली भर्त्सना। २. गालियाँ देते हुए कोसना, भला-बुरा कहना या शाप देना। ३. चीख-पुकार। चिल्लाहट। ४. कसम। शपथ।
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आक्रोशक  : पुं० [सं० आ√क्रुश्+ण्वुल्-अक] आक्रोश करने या बिगड़कर भला-बुरा कहनेवाला।
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आक्रोशन  : पुं० [सं० आ√क्रुश्+ल्युट्-अन] आक्रोश करने (कोसने या शाप देने) की क्रिया या भाव।
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आक्रोशित  : भू० कृ० [सं० आक्रोश+इतच्] जिसपर आक्रोश किया गया हो। जिसे गालियाँ या शाप मिला हो।
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आक्रोष्टा  : (ष्टु) वि० [सं० आ√क्रुश्+तृच्]-आक्रोशक।
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आक्लांत  : वि० [सं० आ√क्लम (ग्लानि)+क्त] १. भीगा हुआ। तर। २. लथ-पथ। सना हुआ। जैसे—रुधिराक्लांत।
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आक्लिन्न  : वि० [सं० आ√क्विद्+घञ्] तर या नम होना। भीगना।
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आक्ष  : वि० [सं० अक्ष+अण्] अक्ष संबंधी। (सभी अर्थों में)।
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आक्षपाद  : वि० [सं० अक्षपाद+अण्] अक्षपाद संबंधी अक्षरपाद का। पुं० १. न्याय शास्त्र। २. न्याय-शास्त्र का ज्ञाता। नैयायिक।
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आक्षिक  : वि० [सं० अक्षि+ठक्-इक] १. अक्षृ-संबंधी। आक्ष। २. पासा या शतरंज खेलनेवाला। पुं० १. जुए में लगाया जानेवाला दाँव या धन। २. आल का वृक्ष।
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आक्षिप्त  : भू० कृ० [सं० आ√क्षिप् (फेंकना)+क्त] १. जिसका आक्षेपण हुआ हो। फेका या हटाया हुआ। २. जिसपर आक्षेप किया गया हो। ३. घबराया हुआ। व्याकुल। ४. लगा हुआ। युक्त।
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आक्षीरी (रिन्)  : वि [सं० आ√क्षिप्, प्रा० स०+इनि] (पेड़ या पौधा) जिसके डंठल तने या पत्ते में से दूध जैसा गाढ़ा तरल पदार्थ निकलता हो। (लैटिसिफेरस)।
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आक्षेप  : पुं० [सं० आ√क्षिप्+घञ्] [कर्ता आक्षेपक] १. दूर हटाना या फेकना। २. किसी के ऊपर कुछ गिरना या गिराना। ३. किसी के आचरण, कथन या कार्य के संबंध में कही जानेवाली कोई ऐसी अप्रिय कटु या कठोर बात जिससे वह कुछ दोषी सिद्ध हो या मन में लज्जित हो। व्यंग्यपूर्ण दोषारोपण। ४. साहित्य में, एक अर्थालंकार जिसमें पहले कोई बात कहकर फिर अपवाद रूप में उसका प्रतिषेध किया जाता है। (पैरालैप्सिस) जैसे—(क) जदपि कवित रस एकौ नाँही। राम-प्रताप प्रकट एहिं मांही। (ख) उपकार तो दुर्जनों का भी करना चाहिए, पर होता है वह ऊपर में बीज बोने के ही समान। ५. एक बात रोग जिसमें हाथ पैर रह-रहकर ऐंठतें और काँपते हैं। (कन्वल्शन)
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आक्षेपक  : वि० [सं० आ√क्षिप्+ण्वुल्-अक] १. गिराने फेकने या दूर हटानेवाला। २. आक्षेप या व्यंग्यपूर्ण आपत्ति करनेवाला। पुं० आक्षेप नामक वात रोग।
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आक्षेपण  : पुं० [सं० आ√क्षिप्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आक्षिप्त] १. गिराना, दूर हटाना या फेकना। २. व्यग्यपूर्ण आपत्ति या आक्षेप करना।
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आक्षेपी (पिन्)  : वि० [सं० आ√क्षिप्+णिनि]=आक्षेपक।
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आक्षोट  : पुं० [सं० आ√अक्ष्(व्याप्ति)+ओट] अखरोट (पेड़ और फल)।
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आखंडल  : पुं० [सं० आ√खण्ड (भेदन करना)+डलच्] इंद्र।
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आखंडलीय  : वि० [सं० आखंडल+छ-ईय] इंद्र-संबंधी। इंद्र का।
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आखत  : पुं० [सं० अक्षत, प्रा० अक्खत] १. मांगलिक अवसरों पर पूजा आदि के काम में आनेवला कच्चा चावल जिसमें प्रायः दही या गीली रोली मिली रहती है। २. शुभ अवसरों पर ब्राह्मणों को दिया जानेवाला निमंत्रण जिसमें प्रायः उक्त चावल से उन्हें तिलक लगाया जाता है। ३. उक्त अवसरों पर नाइयों, भाटों बाजेवालों आदि को दिया जानेवाला निमंत्रण और बिदाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आखता  : वि० [फा० आख्तः] (पशु) जिसका अंडकोश निकाल दिया गया हो। बधिया किया हुआ।
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आख  : थू-पद— [अनु०] १. खखार या खाँसकर मुँह से कफ थूखने का शब्द। २. किसी को धिक्कारते हुए उसे परम निंदनीय सिद्ध करने के लिए कहा जाने वाला पद।
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आखन  : अव्य० [सं० आ+क्षण] प्रतिक्षण। हर समय।
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आखना  : स० [सं० आख्यान, पा० अक्खान, पं० आखना] १. किसी से कोई बात कहना। उदाहरण—तोहिं सेवा बिछुरन नहि आखौं। पीजर हिए घालि तोहिं रखौ। जायसी। अ० [सं० आकांक्षा] इच्छा करना। चाहना। स० [हिं० आँख] देखना।
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आखनिक  : वि० [सं० आ√खन्(खोदना)+इकन्] खोदनेवाला। पुं० १. वह व्यक्ति जो खोदता हो। जैसे—खान में काम करनेवाला व्यक्ति। २. चूहा, सूअर आदि पशु जो जमीन खोदते रहतें हैं। ३. खोदने के औजार या करण।
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आखर  : पुं० [सं० अक्षर, प्रा० अक्खर] १. अक्षर। वर्ण। उदाहरण—एको आखर पढ़यौ नाहिं।—कबीर। २. शब्द। ३. वचन। मुहावरा—आखर देना=वचन देना। वादा करना। पुं० [सं० आखनिक] कुदाली। पुं० [१] अस्तबल।
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आखा  : वि० [सं० अक्षय, प्रा० अक्खय] १. समूचा। सारा। २. कुल। समस्त। पुं० दे० ‘खुरजी’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आखात  : पुं० [सं० आ√खन्+क्त] १. जमीन आदि खोदना। खनन। २. जमीन खोदने का कोई औजार या करण। जैसे—कुदाल या खंता। ३. समुद्र का खाड़ी। (गल्फ)
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आखातीज  : स्त्री० [सं० अक्षय तृतीया, प्रा० अख्खयतइज्ज० गुं० अखत्रीज, का० अखित्रद] वैशाख सुदी तीज। अक्षय तृतीया।
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आखा नवमी  : स्त्री० =अक्षय नवमी।
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आखिर  : वि० [फा० आखिर] १. बाद में या पीछे होनेवाला। २. अंत में होनेवाला। अंतिम। पुं० १. अंत। २. नतीजा। परिणाम। फल। अव्य० अंत में। अंततोगत्वा।
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आखिरकार  : अ०भ० [फा०आखिरी] सब के अंत में होनेवाला। अंतिम।
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आखिरी  : पुं० [फा० आखिरी] सब के अंत में होनेवाला। अंतिम।
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आखीर  : पुं० [फा० आखिर] अंत। समाप्ति।
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आखु  : पुं० [सं० आ√खन्+डु] १. चूहा। २. जंगली चूहा। ३. चोर। ४. सूअर। ५. देवदार वृक्ष। वि० १. खोदनेवाला। २. कृपण। कंजूस।
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आखु-कर्णी  : स्त्री० [ब० स०ङीष्] मूसाकरणी नामक लता।
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आखेट  : पुं० [सं० आ√खिट (भय)+घञ्] [कर्त्ता आखेटक] पशुपक्षियों को पकड़ने अथवा मारने के उद्देश्य से उनका पीछा करना। मृगया। शिकार।
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आखेटक  : पुं० [सं० आखेट+कन्] १. आखेट। शिकार। २. [आ√खिट्+ण्वुल्-अक] आखेट या शिकार करनेवाला। अहेरी। शिकारी।
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आखेटिक  : वि० [सं० आखेट+ठक्-इक] १. (पशु या व्यक्ति) जो शिकार करने में दक्ष हो। २. भयंकर। भीषण। पुं० १. निपुण या सिद्धहस्त शिकारी। २. शिकारी कुत्ता।
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आखेटी (टिन्)  : वि० [सं० आखेट+इनि] [स्त्री० आखेटिनी]-आखेटक।
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आखोट  : पुं० [सं० अक्षोट] अखरोट का वृक्ष और उसका फल।
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आखोर  : पुं० [तु० आखुर] १. वह चारा जो जानवर के खा चूकने के बाद बच रहता है। २. निकम्मी, रद्दी या सड़ी-गली चीजें। कूड़ा-करकट। वि० १. गला-सड़ा। २. निकम्मा और रद्दी। ३. गंदा। पद—आखोर की भरती=(क) निकम्मी या रद्दी चीजों का ढेर। (ख) व्यर्थ के लोगों का जमावड़ा।
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आख्ता  : वि० [फा० आख्तः] (पशु) जिसके अंडकोश काट या निकाल दिये गये हों। बधिया।
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आख्या  : स्त्री० [सं० आ√ख्या (कहना)+अङ्-टाप्] [वि० आख्यात] १. नाम। संज्ञा। २. कीर्ति। यश। ३. किसी को सूचित करने के लिए किसी कार्य या घटना का विवरण लिखना या लिखाना।
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आख्यात  : वि० [सं० आ√ख्या(कथन)+क्त] १. कहा या जतलाया हुआ। २. बहुत अधिक प्रसिद्ध। पुं० व्याकरण में क्रिया पद।
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आख्यातव्य  : वि० [सं० आ√ख्या+तव्यत्] जो कहे जाने, वर्णन किए जाने अथवा सूचित किये जाने के योग्य हो अथवा किया जाने को हो।
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आख्याता (तृ)  : वि० [सं० आ√ख्या+तृच्] १. कहनेवाला। २. सूचना देने या विवरण बतालनेवाला।
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आख्याति  : स्त्री० [सं० आ√ख्या+क्तिन्] १. किसी से कुछ कहने अथवा उसे सूचित करने की क्रिया या भाव। २. ख्याति या प्रसिद्धि।
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आख्यातिक  : पुं० [सं० आख्यात+ठक्-इक] वह ग्रंथ जिसमें क्रियाओं का विवेचन किया ख्याति गया हो।
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आख्यान  : पुं० [सं० आ√ख्या+ल्युट्-अन] १. कहने या सूचित करने की क्रिया या भाव। २. वह जो कुछ कहा जाए। वर्णन। वृत्तांत। ३. नाटक में किसी पात्र का पिछली या पुरानी घटनाओं से लोगों को अवगत कराना। ४. पिछली या पुरानी घटना का किया हुआ वर्णन या विखा हुआ विवरण। कथा। ५. उपन्यास का एक प्रकार जिसमें उपन्यासकार पात्रों से कुछ न कहलवाकर स्वयं सब बातें कहता चलता है।
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आख्यानक  : पुं० [सं० आख्यान+कन्] छोटा आख्यान।
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आख्यानकी  : स्त्री० [सं० आख्यानक+नीष्] दंडक वृत्त का एक भेद जिसके विषम चरणों में त, त० ज० तथा दो गुरु और सम चरणों में ज,त०ज तथा दो गुरु होते हैं। यह इंद्रवज्रा और उपेद्रज्रा के योग से बनती है।
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आख्यान-पट  : पुं० [सं० ष० त०] चित्र कला में वह पट या लंबा खर्रा जिसपर किसी कथा आदि की भिन्न भिन्न घटनाएँ क्रम से अंकित होती है। (पेन्टेड स्कोल)
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आख्यापक  : पुं० [सं० आ√ख्या +णिच्, पुक्+ण्वुल्-अन] [स्त्री० अध्यापिकी] १. वह जो कोई बात घोषित अथवा सूचित करे। २. संदेहशवाहक। दूत।
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आख्यापन  : पुं० [सं० आ√ख्या (कहना)+णिच्,पुक्,ल्युट्-अन] १. कोई कथा, घटना या विवरण दूसरों से कहना। २. घोषित करना।
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आख्यायिका  : स्त्री० [सं० आ√ख्या+ण्वुल्-अक+टाप्] १. शिक्षाप्रद कल्पित लघु कथा। २. एक प्रकार का लघु आख्यान जिसमें पात्र कुछ —कुछ या कहीं कही अपनी चरित्र अपने मुँह से भी कहते है।
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आख्येय  : वि० [सं० आ√ख्या+यत्] जो कहे जाने अथवा सूचित किये जाने के य़ोग्य हो अतवा किया जाने के योग्य हो।
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आगंतव्य  : वि० [सं० आ√गम् (जाना)+तव्यम्] १. जो आने को हो। २. जिसके आने की संभावना हो।
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आगंता (तृ)  : वि० [सं० आ√गम् (जाना)+तृच्] आनेवाला।
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आगंतु  : वि० [सं० आ√गम्+तनु]=आगंतुक।
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आगंतुक  : वि० [सं० आगन्तु+कन्] १. जो कही से आया हो। आया हुआ। अचानक यों ही कही इधर-उधर से या भूल-भटककर आ जानेवाला। जिसके घूमने का कोई निश्चित उद्देश्य या निश्चित दिसा न हो। जैसे—आंगुतक पक्षी या पशु। ३. कहीं से अनावस्यक रूप से आकर बीच मे मिल जाने वाला। प्रक्षिप्त। ४. (रोग) जो शरीर के किसी भीतरी दोष के कारण नहीं बल्कि ऊपरी या बाहरी कारणों से उत्पन्न हुआ हो। जैसे—आगंतुक ज्वर या व्रण (देखें)। पुं० अतिथि। पाहुना।
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आगंतुक-ज्वर  : पुं० [कर्म० स०] १. वह ज्वर जो चोट, परिश्रम भूत-प्रेत आदि की बाधा के कारण आता हो। २. वह ज्वर जो शरीर में हुए किसी दूसरे रोग के फलस्वरूप आता हो। (सिम्पैथेटिक फीवर)
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आगंतुक-व्रण  : पुं० [कर्म० स०] वह फोड़ा या व्रण जो केवल आघात या चोट लगने के कारण हुआ हो। शरीर के भीतरी विकार के कारण न हुआ हो।
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आग  : स्त्री० [सं० अग्नि, प्रा० अग्गि, अग्गी, गु० मरा० आग, मै० सिं० आगि, का० ओगुन, पं० अग्ग, बँ० आगुन, सिंह, अग] १. ताप और तेज का वह पुंज जो किसी चीज (कपड़ा कोयला लकड़ी आदि) के जलने से समय अंगारे या लपट के रूप में दिखाई देता है और जिसमें से प्रायः कुछ धुआँ तथा प्रकाश निकलता रहता है। किसी चीज के जलते रहने की दशा। विशेष—हमारे यहाँ इसकी गिनती पाँच तत्त्वों या भूतों में हुई है, पर पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे शक्ति मात्र मानते है। तत्त्व या भूत नहीं मानते, क्योंकि यह कोई द्रव्य या पदार्थ नहीं है। मुहावरा—आग कँजियाना=आग झवाना (दे)। आग गाड़ना-अंगारों या जलते हुए कोयलों को राख में दबाना, जिससे व अधिक समय तक जलते रहे। आग जलाना=ऐसी क्रिया करना जिससे आग उत्पन्न हो। आग जिलाना-बुझती हुई आग फिर से तेज करना या सुलगाना। आग जोड़ना=आग जलाना। आग झवाँना=दहकते हुए कोयलों का धीरे-धीरे ठंडा पड़ना या बुझने को होना। आग झाड़ना=चकमक या पत्तर की रगड़ से चिनगारियाँ उत्पन्न करना। आग दिखाना=(क) गरम करने सुखाने आदि के लिए कोई चीज आग के पास ले जाना। (ख) दे० आग देना। आग देना-किसी चीज को जलाने के लिए आग से उसका संयोग कराना। जैसे—आतिशबाजी, चिंता या तोप में आग देना। आग धोना=अंगारों या जलते हुए कोयलों पर चढ़ी हुई राख इस लिए हटाना कि वे फिर से दहकनें लगे। आग लगाना=(क) किसी चीज को जलाने के लिए उसपर या उसमें आग रखना। (ख) भारी उपद्रव खड़ा करना। आग लेने आना-बहुत ही थोड़ी देर के लिए आना या आते ही इतनी जल्दी लौट जाना मानों आग की चिनगारियाँ ही लेने आयें हों, और कोई काम न हो। (स्त्रियों का वाक्य व्यंग्य) आग सुलगाना-आग जलाना और हवा की सहायता से उसे तेज करना। अग्नि प्रज्वलित करना। पद—आग का आग=(क) सुनारों की अँगीठी। (ख) आतिशबाजी। २. इमारतों, जंगलों आदि का इस प्रकार जलना कि वे नष्ट हो जाए। जैसे—इस सप्ताह नगर में तीन जगह आग लगी। ३. किसी पदार्थ में रहनेवाली या कहीं से निकलने वाली किसी प्रकार की बहुत अधिक गरमी या ताप। मुहावरा—आग फूँकना=किसी पदार्थ का शरीर पर लगकर या उसके अंदर पहुँचकर बहुत अधिक गरमी या ताप उत्पन्न करना। जैसे—इस कंबल (या दवा की पुड़िया) ने तो शरीर में आग फूँक दी। आग बरसना-प्राकृतिक रूप से बहुतअधिक गरमी पड़ना। जैसे—जेठ में तो यहाँ आग बरसती है। ४. लाक्षणिक रूप में मनोविकारों विचारों आदि की अथवा स्वाभाव की ऐसी तीव्रता, उग्रता या विकटता जो घातक नाशक या हानिकारक परिणाम उत्पन्न करनेवाली हो। मुहावरा—आग खाना और अँगारे उगलना=पहले तो बहुत अधिक अनुचित कार्य करके दुर्भाव या द्वेष बढ़ाना और तब ऐसी बातें करना कि बिगाड़ और विरोध और भी बढ़े। आग फाँकना-अपने हाथ में दुर्भाव, दुर्विचार आदि भरते रहना। आग बबूला या आग भभूका होना=बहुत अधिक क्रोध के आवेश में होना। आग बोना-ऐसा अनुचित कार्य करना जिससे आगे चलकर बहुत अधिक कष्ट संताप या हानि हो। जैसे—तुमने भी उसकी चुगली खाकर अच्छी आग बोई है। आग में कूदना=जानबूझकर किसी आपत्ति या संकटपूर्ण स्थिति में पड़ना या सम्मिलित होना। (किसी के) आग में झोकना=विपत्ति या संकटपूर्ण स्थिति में डालना। जैसे—बिना सोचे-समझे संबंध करके उन्होंने लड़की को आग में झोक दिया। आग में मूतना=ऐंठ या शेखी के कारण ऐसा निंदनीय काम करना जिससे हर हालत में खराबी ही खराबी हो। (चीज या बात में) आग लगना-(क) बहुत बुरी तरह से नष्ट होना। जैसे—आजकल तो हमारे रोजगार में आग लग गई है। (ख) बहुत दुर्लभ या महँगा होना। जैसे—आजकल तो अनाज में आग लगी हुई है। आग लगाना=पारस्परिक व्यवहार के क्षेत्र में, ऐसी स्थिति उत्पन्न करना जिससे बहुत अधिक वैर-विरोध बढ़े और विनाश हो। (किसी चीज या बात में) आग लगाना=(क) बहुत बुरी तरह से नष्ट करना। जैसे—दो ही वर्षों में उन्होंने लाखों की सम्पत्ति में आग लगी दी। (ख) उपेक्षा या तिरस्कार दूर हटाना। (स्त्रियाँ) जैसे—आग लगाओं ऐसो मेंल-जोल (या धन-दौलत) को। पानी में आग लगाना=जहाँ किसी तरह से खराबी या बुराई न हो सकती हो, वहाँ भी बहुत बड़ी खराबी या बुराई खड़ी कर देना। आग लगाकर पानी के लिए दौड़ना=पहले तो कोई अनिष्ट स्थिति खड़ी करना तब उसके शमन या शांत का उपाय अथवा प्रयत्न करना। आग लगने पर कुँआ खोदना-जब कोई विकट स्थिति सामने आकर बहुत उग्र रूप धारण कर ले, तब उसके शमन या शांति का प्रयत्न करना। पद—आग का पुतला=बहुत ही उग्र और क्रोधी स्वभाव का आदमी। आग के मोल-बहुत अधिक मँहगा। जैसे—आजकल तो अनाज आग के मोल हो रहा है। ५. आवश्यकता, ईर्ष्या, क्रोध, प्रेम, विरह आदि के प्रबल आवेग के कारण होने वाला ऐसा मानसिक या शारीरिक कष्ट, जिसका शमन तत्काल अपेक्षित हो। मुहावरा—आग पर लोटना=उक्त कारणों में से किसी के फलस्वरूप बहुत अधिक मानसिक कष्ट या संताप भोगना या सहना। (मनकी) आग बुझाना=ऐसा काम करना जिससे मानसिक कष्ट या संताप दूर हो। जैसे—उसने भी खूब गालियाँ देकर मन की आग बुझा ली। आग भड़कना=(क) मन में दबा हुआ कष्ट, क्षोभ वेदना या वैमनस्य फिर से प्रबल होना। जैसे—इस छोटी सी घटना से फिर दोनों भाइयों में फिर से आग भड़की है। (ख) उक्त कारणों से कोई भारी उत्पात या उपद्रव खड़ा होना। जैसे—आजकल एशिया के कई देशों में परतंत्रता के विरूद्ध खूब आग भड़की है। (शरीर में) आग लगना=बहुत ही उत्तेजक, कष्टदायक या घातक मनोविकार उत्पन्न होना। जैसे—उसे देखते ही हमें तो आग लग जाती है। आग होना=दे आग बबूला होना। पद—पेट की आग=(क) क्षुधा। भूख। (ख) संतान के प्रति होनेवाली ममता या स्नेह। ६.आग्नेय अस्त्रों आदि के द्वारा विकट रूप से होनेवाला निरंतर प्रहार। मुहावरा—आग बरसना=युद्ध क्षेत्र में बहुत अधिक गोले गोलियाँ बरसना। जैसे—सन्ध्या होते ही युद्धक्षेत्र में आग बरसने लगी। वि० १. आग की तरह बहुत गरम। अति उष्ण। जैसे—तुम्हारी हथेली तो आग हो रही है। २. गरमी या ताप उत्पन्न करनेवाला। पुं० [सं० अग्र] १. ऊख की ऊपरी भाग जिसमें पत्तियाँ होती है। अगौरी। २. हल के अगले भाग के वे गड्ढे जिनमें रस्सी फसाकर जुएँ में बाँधते है। पुं०=आगा (अलगा भाग)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आगड़ा  : पुं० [१] गेहूँ, ज्वार आदि की वह बाल जिसके दाने रोग आदि के कारण नष्ट हो गये हों।
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आगण  : पुं० [सं० आग्रहायण] अगहन। मार्गशीर्ष। (डि०)।
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आगणन  : पुं० [सं० आ√गण(गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आगणित] १. (वस्तु या व्यक्ति) किसी अन्य स्थान से आया हुआ। २. प्राप्त। ३. घटित। पुं० १. अतिथि। मेहमान। २. दे० ‘आयात’।
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आगत-पतिका  : स्त्री० [ब० स० कप्-टाप्] साहित्य में वह नायिका जिसका पति परदेश से लौट आया हो।
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आगत-स्वागत  : पुं० [ष० त०] घर आये हुए अतिथि का किया जानेवाला आदर-सत्कार या आव भगत।
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आगति  : स्त्री० [सं० आ√गम्(जाना)+क्तिन्] कहीं जाने या पहुँचने की क्रिया या भाव। अवाई। आगमन।
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आगपीछा  : पुं०=आगा-पीछा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगबाण  : पुं०=अग्नि बाण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगम  : पुं० [सं० आ√गम् (जाना)+घञ्] [वि० आगमिक] १. किसी वस्तु या व्यक्ति के कहीं से आने उपस्थित होने पहुँचने आदि की क्रिया या भाव। अवाई। आगमन। जैसे—अर्थागम। उदाहरण—संध्या कौ आगम भयो-सूर। २. किसी प्रकार का अविर्भाव, उपद्रव या उत्पत्ति। ३. मिलन। समागम। ४. स्त्री०-प्रसंग। संभोग। ५. आनेवाला समय। भविष्य। ६. भविष्य में होनेवाली घटना या उत्पन्न होनेवाली स्थिति। मुहावरा—आगम जताना=भविष्य में होनेवाली घटना की सूचना देकर उसके संबंध में सचेत करना। ७. भावी कार्य घटना आदि के संबंध में पहले से किया जानेवाला प्रबंध या व्यवस्था। उपक्रम। मुहावरा—आगम करना या बाँधना=पहले से किसी काम या बात का प्रबंध या व्यवस्था करना। ८. भविष्य में होनेवाली बातों का सचेत करनेवाला उल्लेख चर्चा या वर्णन। ९. धन आदि की होनेवाली आमदनी। आय। १. राज्य को प्राप्त होनेवाला कर या राजस्व। ११. भारतीय हिंदुओं के वेद शास्त्र आदि प्रमाणिक और मान्य धर्म-ग्रंथ। १२. किसी धर्म के वे सब प्रामाणिक और मान्य ग्रंथ जिसके अनुसार उस धर्म के अनुयायी अपना आचरण और व्यवहार करते हों। (स्किपचर्स) १३. धार्मिक आचरण व्यवहार में माने जानेवाले शब्द प्रमाण। १४. व्याकरण में, कोई ऐसा अक्षर या वर्ण जो शब्द को कोई विशिष्ट रूप बनाने के लिए ऊपर या बाहर से आया हो अथवा लाया जाए। (आँगमेण्ट) १५. तंत्र शास्त्र का वह अंग जिसमें सृष्टि प्रलय देवताओं के पूजन सिद्धि पुरश्चरण आदि का वर्णन होता है। १६. आधुनिक विधिक क्षेत्र में, वह अधिकार या अधिकार-पत्र जिसके आधार पर कोई व्यक्ति किसी वस्तु या संपत्ति का उत्तराधिकारी अथवा स्वामी होता है। (टाइटिल) वि० आगे चलकर आने या होनेवाला। भावी।
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आगमजानी  : वि० [सं० आगमज्ञानी] जो भविष्य में होनेवाली घटनाएँ पहले से जानता हो।
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आगमज्ञानी (निन्)  : वि० [सं० आगम-ज्ञान, ष० त०+इनि] जिसे आगम या भविष्य की सब बातों का ज्ञान हो।
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आगमन  : पुं० [सं० आ√गम् (जाना)+ल्युट्-अन] १. कहीं से चलकर आने या पहुँचने की क्रिया या भाव। अवाई। आगति। २. किसी कार्य या भात के लिए नये सिरे से सामने आने या होने की क्रिया या भाव। (एडवेण्ड) ३. प्राप्ति। लाभ।
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आगमना  : अ० [सं० आगमन] आना या आकर पहुँचना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगम-पतिका  : स्त्री०=आगत-पतिका।
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आगम-वक्ता (क्तृ)  : वि० [ष० त०] भविष्य की बातें कहने या बतलाने वाला। पुं० ज्योतिषी।
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आगम-वाणी  : स्त्री० [ष० त०] भविष्य वाणी। (दे०)।
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आगम-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] वेद-विद्या।
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आगम-वृद्ध  : वि० [स० त०] जिसे वेद-शास्त्रों या धर्म-ग्रंथों का बहुत अधिक ज्ञान हो।
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आगम-सोची  : वि० [सं० आगम+हिं० सोचना] आगे या भविष्य में होनेवाली बातों का पहले से ही विचार करनेवाला। दूरदर्शी।
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आगमित  : भू० कृ० [सं० आ√गम् (ज्ञान)+णिच्+क्त] (ग्रन्थ या विषय) जिसका अच्छी तरह से अध्ययन किया गया हो। अधीत।
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आगमी (मिन्)  : पुं० [सं० आगम+इनि] वह जो आगम या भविष्य की बातें जानता या बतलाता हो। जैसे—ज्योतिषी या भविष्यवक्ता।
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आगर  : पुं० [सं० आकर-खान] [स्त्री०आगरी] १. खान। २. वह जिसमें गुण या विशेषता बहुत अधिक मात्रा में हो। भंडार। उदाहरण—एहन सुंदरि गुन क आगरि।—विद्यापति। ३. रहने की जगह। जैसे—घर झोपड़ी मकान आदि। ४. कोष। खजाना। ५.व ह गड्डा जिसमें खार पानी भरकर नमक जमाया जाता है। वि० [सं० आकर-श्रेष्ठ] १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. कुशल। दक्ष। ३. चतुर। होशियार। अव्य०१. बहुत अधिक। २. बहुत बढ़कर या आगे। ३. आगे सामने। स्त्री० अगरी (अर्गल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगरा  : वि० [हिं० आगे] [स्त्री० आगरी] १. किसी की तुलना में बहुत अधिक आगे बढ़ा हुआ। बढ़-चढ़ा। उदाहरण—सील सिंगार गुन सबनितें आगरी।—हितहरिवंश। २. बहुत। अधिक।
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आगरी  : पुं० [सं० आकर] १. खान में काम करनेवाला मजदूर। २. वह नमक बनाने का काम करता हो। नोनिया। लोनिया।
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आगल  : वि० [हिं० अगला] १. सबसे आगे जानेवाला। २. बढ़ा-चढ़ा। अव्य० आगे। सामने। पुं०=अर्गल।
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आगला  : वि०=अगला। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगलित  : भू० कृ० [सं० आ√गल् (क्षरित होना)+क्त] १. डूबता हुआ। २. उदास। खिन्न। ३. मुरझाया हुआ। म्लान। ४. नीचे की ओर लाया हुआ।
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आगवन  : पुं० =आगमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगवाह  : पुं० [सं० अग्निवाह-धूम] धुआँ। (डि०)।
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आगस्ती  : वि० [सं० अगस्त्य+अण्+ङीष्, यलोप] =आगस्त्य। स्त्री० दक्षिण दिशा।
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आगस्त्य  : वि० [सं० अगस्त्य+यञ्,यलोप] १. अगस्त्य मुनि से संबंध रखनेवाला। २. दक्षिण दिशा संबंधी। ३. अगस्त्य नामक पेड़ से उत्पन्न। पुं० १. अक प्रसिद्ध मुनि। २. उक्त मुनि के वंशज। ३. दक्षिण दिशा। ४. एक वृक्ष का नाम।
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आगा  : पुं० [सं० अग्र, पा० अग्ग] १. किसी चीज के आगे या सामने का भाग। जैसे—कुरते, मकान या सेना का आगा। मुहावरा—(स्त्री का) आगा भारी होना=गर्भवती होना। पद—आगा-पीछा-(दे०)। २. आगे रहकर चलने या बढ़नेवाला अंश। जैसे—आक्रमण करनेवालों का आगा। मुहावरा—आगा सँभालना=आगे होकर आरंभिक कठिनाइयों आदि का सामना करना। ३. भविष्य में आनेवाला समय या उसमें होनेवाला कार्य। जैसे—हमें तो आगा अँधेरा दिखाई देता है। मुहावरा—(किसी का) आगा मारना=आगे बढ़कर कार्य गति वृद्धि आदि में पूरी तरह से बाधक होना। ४. आगे बढ़कर किया जानेवाला स्वागत। मुहावरा—आगातागा लेना=आदर सत्कार करना। पुं० [तु० आगा] १. मालिक। सरदार। २. काबुली। अफगान।
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आगाता (तृ)  : वि० [सं० आ√गै(गाना)+तृच्] कुछ गाकर कार्य सिद्धि या प्राप्त करनेवाला।
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आगाध  : वि० [सं० अगाध+अण्] १. बहुत अधिक गहरा। २. जिसका क्षेत्र या विस्तार बहुत अधिक हो। जैसे—आगाध विषय।
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आगान  : पुं० [सं० आ-गान-बात] १. गाकर कहीं जानेवाली बात। २. वृत्तांत। हाल।
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आगा-पीछा  : पुं० [हिं० आगा+पीछा] १. आगे और पीछे का अंश या बाग। २. इस बात का विचार कि किसी काम में आगे बढ़ने पर क्या होगा और पीछे रहने या हटने में क्या होगा। ३. उक्त स्थिति में मन में होनेवाला असमंजस। दुबिधा।
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आगामिक  : वि० [सं० आगामिन्+क] १. आनेवाला। २. आनेवाला भविष्य या समय सं संबंध रखनेवाला। भावी।
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आगामी (मिन्)  : वि० [सं० आ√गम्+णिनि] [स्त्री० आगामिनी] १. आने या पहुँचनेवाला। २. आगे चलकर या भविष्य में होनेवाला। ३. वर्त्तमान के तत्त्काल उपरांत या बाद में आने या होनेवाला। जैसे—आगामी वर्ष या सप्ताह।
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आगामुक  : वि० [सं० आ√गम्(जाना)+उकञ्] =आगामिक।
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आगार  : पुं० [सं०√अग् (टेढ़ी चाल)+घञ्, आग√ऋ (गति)+अण्] [वि० आगारिक] १. रहने का स्थान। घर। मकान। २. किसी विशेष कार्य के लिए नियत घर का कोई भाग। कमरा। कोठरी। जैसे—भोजनागार, शयनागार आदि। ३. ऐसा स्थान जहाँ चीजें इकट्ठा करके रखी जाती हों। जैसे—अस्त्रागार। ४. भवन। मंदिर। ५. कोश। खजाना।
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आगाह  : वि० [फा०] [भाव० आगाही] १. जिसे सचेत रहने के लिए पहले से किसी बात की सूचना मिल चुकी हो। २. जिसे सूचित कर दिया गया हो। ३. परिचित। अव्य० [हिं० आगे] आगे या पहले से। उदाहरण—चाँद गहन आगाह जनावा।—जायसी।
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आगाही  : स्त्री० [फा०] १. पहले से मिलने वाली जानकारी या सूचना। २. जानकारी। सूचना।
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आगि  : स्त्री०=आग। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगिआ  : स्त्री० =आज्ञा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगिल  : वि० [हिं० आगे] १. आगे का। अगला। २. भविष्य में होनेवाला। भावी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगिला  : वि०=अगला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगिवर्त्त  : पुं०=अग्निवर्त्त (मेघ का एक भेद)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगी  : स्त्री०=आग।
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आगुआ  : पुं० [हिं० आगे] औजारों, शस्त्रों आदि की मूठ के सिरे का गोल भाग।
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आगू  : पुं० =आगा। अव्य०=आगे।
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आगृहीत  : भू० कृ० [सं० आ√ग्रह (ग्रहण करना)+क्त, संप्रसारण] १. निकाला हुआ। २. कहीं जमा किये हुए धन में से निकाला या लिया हुआ (धन)। (ड्रान)
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आगृहीती (तिन्)  : वि० [सं० आगृहीत+इनि] १. जमा किए हुए धन में से कुछ निकालने या लेने वाला। (ड्रायर) २. दे० ‘आग्राहक’।
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आगे  : अव्य० [सं० अग्रे, प्रा० पं० अग्गे० गुज० अगवो० सिं० अगिआँ० अगी, बँ० आगे, का० आगे० ओग्] १. जिस ओर मुँह का अगला भाग हो, उस ओर, सामनेवाले भाग की ओर। समक्ष। संमुख। सामने। जैसे—(क) आगे देखकर चला करो। (ख) बड़ों के आगे इस तरह बढ़-बढ़कर बोलना ठीक नहीं। मुहावरा—(किसी चीज या बात का) आगे आना=(क) उपस्थित या घटित होना। जैसे—जो कुछ मैंने कहा था, वहीं सब आगे आया। (ख) किसी बात के परिणाम या फल के रूप में उपस्थित या घटित होनेवाला। बदला मिलना। जैसे—जैसा करोगे वैसा तुम्हारें आगे आयेगा। (किसी के) आगे आना=मुकाबला या सामना करने के लिए आकर उपस्थित होना। जैसे—देखें कौन उसके आगे आता हैं। (किसी को) आगे करना=(क) आगे की ओर चलाना या बढ़ाना। (ख) अगुआ नेता या मुखिया बनाना। जैसे—जब कोई बात होगी तब तुम्हीं को आगे कर देगें। आगे का पैर पीछे पड़ना=घबराहट चिंता भय आदि के कारण आगे बढ़ने का साहस न होना। (किसी के) आगे डालना, देना या रखना=किसी को खिलाने, देने आदि के लिए उसके सामने उपस्थित करना। जैसे—उसने अपना सारा भोजन उस भिखमंगे के आगे डाल (दे या रख) दिया। (किसी के) आगे निकलना=प्रतियोगिता या होड़ में किसी के आगे बढ़ जाना। श्रेष्ठ सिद्ध होना। जैसे—दरजे में तुम्हीं सब के आगे निकलोगे। आगे बढ़कर (किसी को) लेना-कुछ दूर आगे बढ़कर आगंतुक का स्वागत करना। आगे बढ़ना या होना=औरो की तुलना में सबसे पहले किसी काम या बात में सम्मिलित या साहयक होना। जैसे—उस संकट की स्थिति में वही सबसे आगे बढ़ा था। (किसी के) आगे(कुछ) होना-बाल=बच्चा या संतान होना। जैसे—कौन कहे तुम्हारें आगे दो चार बाल-बच्चे हैं। पद—आगे का कपड़ा=(क) आँचल। (ख) घूँघट। (स्त्रियाँ) २. किसी की उपस्थिति में या सामने। जैसे—तुम सब के आगे मेरी निंदा करते फिरते हो। ३. जीवित रहने या वर्त्तमान होने की दशा में। जैसे—तुम्हारे आगे जो कुछ होगा वहां हो जायगा, नहीं तो बाद में कोई कुछ न करेगा। ४. इसके अनंतर उपरांत या बाद। जैसे—अब आगे कै सुनो हवाल। -आल्हा। ५. आनेवाले समय में। भविष्य में। जैसे—आगे जो होगा देखा जायगा। पद—आगे आगे=भविष्य में। जैसे—आगे आगे देखिए होता है क्या। मुहावरा—आगे को-कुछ दिनों बाद। भविष्य में। जैसे—समझ लो आगे को ऐसा न होने पावे। आगे चलकर=भविष्य में। जैसे—कौन जाने आगे चलकर क्या होगा। ६. इससे पहले। जैसे—आगे हमारी बात सुन लो, तब अपनी कहना। ७. कुछ दूर और आगे बढ़ने पर। जैसे—आगे एक तालाब मिलेगा। पद—आगे पीछे (देखें)।
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आगे-पीछे  : अव्य० [हिं० आगे+पीछे] १. कभी आगे की ओर कभी पीछे की ओर। जैसे—जब देखो तब तुम उन्हीं के आगे पीछे लगे रहते हो। २. आगे भी और पीछे भी। जैसे—दस-पाँच आदमी सदा उनके आगे-पीछे लगे रहते हैं। ३. एक के बाद एक। निश्चित क्रम से। जैसे—सब लड़के आगे-पीछे होकर चलें। ४. आस-पास इधर-उधर। जैसे—अच्छी तरह देखो पुस्तक वहीं कही आगे पीछे होगी। ५.कभी (अथवा कहीं) पहले और कभी (अथवा कहीं) बाद में। जैसे—आगे-पीछे सभी को यहाँ से चलना है। ६. अव्यवस्थित क्रम से। इधर-उधर। तितर-बितर। जैसे—लड़कों ने सब कागज आगे पीछे कर दिये। ७. अवकाश या फुरसत मिलने पर। जैसे—पले अपना पाठ याद करो और काम आगे पीछे होते रहेगें। ८. पारिवारिक संबंध के विचार से। नाते रिश्ते में। जैसे—जब तुम्हारें आगे पीछे कोई है ही नही तब क्यों व्यर्थ इतना परिश्रम करते हों।
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आगो  : पुं० १. -आगा। २. =अगवानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगौ  : अव्य० [सं० अग्र] १. आगे या सामने। २. आगे बढ़कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगौन  : पुं० =आगमन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आगौल  : पुं० [हिं० आगा=अगला भाग] सेना का अगला भाग।
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आग्नीध्र  : पुं० [सं० अग्नि√इन्ध्र (दीप्ति)+क्विप्, अग्नीत-शरण० ष० त०+रण्, भ० आदेश] १. यज्ञ की अग्नि जलाने का स्थान। २. यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित करना। ३. अग्निहोत्र करनेवाला यजमान। ४. स्वायंभुवमनु के बारह लड़कों में से एक।
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आग्नेय  : वि० [सं० अग्नि+ढक्-एय] [स्त्री० आग्नेयी] १. अग्नि संबंधी। आग का। २. जिसका देवता अग्नि हो। ३. अग्नि से उत्पन्न। ४. जिसमें से आग निकलती हो। जैसे—आग्नेय अस्त्र, आग्नेय पर्वत आदि। ५. आग भड़काने या ज्वाला उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. अग्नि के पुत्र कार्तिकेय। २. ब्राह्मण जिनकी उत्पत्ति अग्नि से मानी गई है। ३. पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा। अग्निकोण। ४. किष्किंधा के पास का एक पुराना देश जिसकी राजधानी माहिष्मती थी। ५. ज्वालामुखी पर्वत। ६. अग्नि का दीपन करने वाली ओषधि या औषध। ७. भाषा विज्ञान के अनुसार भारत के दक्षिण पूर्व में बोली जानेवाली भाषाओं का एक वर्ग जिसमें इंडोनेशिया और उसके आस-पास के द्वीपों में बोली जाने वाली भाषाएँ सम्मिलित हैं। ८. खून या रक्त, जिसकी उत्पत्ति शरीर की अग्नि या ताप से मानी गई है। ९. कोई ऐसा कीड़ा जिसके काटने से शरीर में जलन होती हो। १. अग्नि पुराण का एक नाम। ११. कृतिका नक्षत्र। १२. सोना। स्वर्ण। १३. चांद्र मास के पक्ष की पहली तिथि। प्रतिपदा।
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आग्नेय अस्त्र  : पुं० [कर्म० स०] वे अस्त्र जो किसी प्रकार की अग्नि या ताप के संयोग से चलते या चलाये जाते हैं। (फायर आर्म्स) जैसे—तोप बन्दूक आदि।
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आग्नेय स्नान  : पुं० [सं० कर्म० स०] सारे शरीर में भस्म या राख पोतना।
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आग्नेयास्त्र  : पुं० [आग्नेय-अस्त्र, कर्म० स०] ऐसा अस्त्र जो अग्नि की सहायता से चलता हो। जैसे—तोप बन्दूक आदि। (फायर आर्म्स)
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आग्नेयी  : स्त्री० [सं० आग्नेय+ङीष्] पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा। अग्नि-कोण।
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आग्रह  : पुं० [आ√ग्रह (ग्रहण करना)+अप्] १. किसी से विनयपूर्वक तथा बार-बार यह कहना कि आप अमुक काम इस रूप में करे। २. किसी बात पर जोर देते हुए तथा अड़ते हुए यह कहना कि यह बात ऐसी ही है अथवा इसी रूप में होनी चाहिए। हठ।
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आग्रहण  : पुं० [सं० आ√ग्रह+ल्युट्-अन] [कर्ता आग्राहक, भू० कृ० आगृहीत] जमा किये हुए धन में से रुपये निकालना या लेना। (ड्रॉ)।
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आग्रहायण  : पुं० [सं० अग्रहायण+अण्-ङीष् आग्रहायणी+अण्] १. अगहन मास। मार्गशीर्ष। २. मृगशिरा नक्षत्र।
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आग्रही (हिन्)  : वि० [सं० आग्रह+इनि] आग्रह करनेवाला।
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आग्राहक  : वि० [सं० आ√ग्रह+ण्वुल्-अक] जमा किये हुए धन में से कुछ या सब धन निकालनेवाला। (ड्रॉअर)
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आघ  : पुं० [सं० अर्घ, पा० अग्घ-मूल्य] १. आदर। सम्मान। उदाहरण—जनमु जलधि पानिपु विमल भौ जग आघ अपारू-बिहारी। २. महत्व या मूल्य। ३. अपना अस्तित्व। आपा। उदाहरण—चीते तिदुएँ बाघ भभरि निज आघ भुलाए। रत्ना। पुं० [सं० आघ्रा,प्रा०अग्घा] सूँघने की क्रिया या भाव। उदाहरण—राघौ आघौ होत जौ कत आछत जिय साध।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आघना  : अ०=अघाना।
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आघर्षण  : पुं० [सं० आ√घृष् (रगड़ना)+ल्युट्-अन] घर्षण। रगड़।
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आघात  : पुं० [सं० आ√हन् (मारना)+घञ्] १. अचानक लगनेवाली ठोकर या धक्का। २. चोट पहुँचाने के लिए किसी चीज से मारना। प्रहार। ३. उक्त के फलस्वरूप लगनेवाली चोट। (इंजरी)। ४. किसी दुर्घटना के कारण होनेवाला मानसिक कष्ट या व्यथा। ५. वध। हत्या। ६. पशु वध करने का स्थान। बूचड़खाना।
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आघातक  : वि० [सं० आ√हन्+ण्वुल्-अक] आघात करनेवाला। पुं० १. यंत्र में वह अंग या पुरजा जो किसी दूसरे अंग या पुरजे पर आघात करके उसे कोई काम करने के लिए प्रवृत्त करता है। २. तोप, बन्दूक आदि वह खटका जिसके गिरने से बारूद में विस्फोट होता है। (स्ट्राइकर)
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आघातन  : पुं० [सं० आ√हन्+णिच्+ल्युट्-अन] १. आघात करने की क्रिया या भाव। २. वध स्थान।
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आघार  : पुं० [सं० आ√घृ(क्षरण)+घञ्] हवन, यज्ञ आदि के समय घी से दी जानेवाली आहुति।
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आघारना  : स० [सं० आघार] १. आहुति देना। २. छिड़कना।
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आघी  : स्त्री० [सं० अर्घ, पा० अग्घ-मूल्य] १. देहातों में लेनदेन का वह प्रकार जिसमें कर्ज लेनेवाला महाजन को अनाज के रूप में ब्याज चुकाता है। २. उक्त प्रकार से दिया जानेवाला अन्न।
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आघु  : स्त्री०=आघ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आघूर्णन  : पुं० [सं० आ√घूर्ण (घूमना)+ल्युट्-अन] अच्छी तरह घूमना या चक्कर खाना।
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आघोष  : पुं० [सं० आ√घुष् (शब्द करना)+घञ्] १. जोर से किया जानेवाला घोष या शब्द। २. गर्वपूर्ण उक्ति।
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आघ्राण  : पुं० [सं० आ√घ्रा (सूँघना)+ल्युट्-अन] १. सूँघने की क्रिया या भाव। २. तृप्त या संतुष्ट होना।
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आघ्रात  : भू० कृ० [सं० आ√घ्रा+क्त] सूँघा या सूघाया हुआ। पुं० [सं० ] ग्रहण के दस भेदों में से एक जिसमें चंद्रमंडल या सूर्यमंडल एक ही ओर कुछ मलिन दिखाई देता है।
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आघ्रेय  : वि० [सं० आ√घ्रा+यत्] जो सूँघे जाने के योग्य हो या सूँघा जाने को हो।
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आच  : पुं० [सं० सच=संधान करना] हाथ। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आचमन  : पुं० [सं० आ√चम् (पान)+ल्युट्-अन] [वि० आचमनीय भू० कृ० आचमित] १. जल पीना। पान करना। २. हिन्दुओं में धार्मिक कृत्य आरम्भ करने के समय दाहिने हाथ की हथेली में थोड़ा जल लेकर मंत्र पढ़ते हुए उसे पीना। ३. नेत्र-बाला नामक ओषधि।
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आचमनक  : पुं० [सं० आचमन+कन्] १. वह जल जो आचमन के लिए हाथ में लिया जाता है। २. [ब० स०] उगालदान।
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आचमनी  : स्त्री० [सं० आचमन+ङीष्] कलछी के आकार का बहुत छोटा चम्मच जिससे आचमन करते तथा चरणामृत आदि देते हैं।
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आचमनीय  : वि० [सं० आ√चम्+अनीयर्] आचमन के योग्य (जल)।
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आचमित  : भू० कृ० [सं० आचान्त] आचमन किया हुआ। पिया हुआ।
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आचय  : पुं० [सं० आ√चि(चयन)+अच्] १. चयन। २. संचय।
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आचयक  : वि० [सं० आचायक] १. चयन करने या चुननेवाला। २. संकलन संचय या संग्रह करनेवाला।
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आचरज  : पुं० =अचरज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आचरजित  : भू० कृ० =आश्चर्यित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आचरण  : पुं० [सं० आ√चर् (गति)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आचरित] १. चलना या चलकर कहीं पहुँचना। २. कोई कार्य आरंभ करके चलाना या आगे बढ़ाना। अनुष्ठान। ३. जीवन-यात्रा में किये जाने वाले वे सभी कार्य या व्यापार जिनका संबंध और लोगों से भी होता है और जो लोक में नैतिक दृष्टि से आँके जाते है। चाल-चलन। (काँन्डक्ट) जैसे—(क) तुम्हारा यह आचरण ठीक नहीं है। (ख) आपको अपने विद्यार्थियों के आचरण पर ध्यान रखना चाहिए। ४. गाड़ी, छकड़ा रथ या ऐसी ही कोई सवारी।
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आचरण-पंजी  : स्त्री० [सं० ष०त०] वह पुस्तिका जिसमें कर्मचारियों के आचरण, चाल-चलन व्यवहार आदि से संबंधित बातें लिखी जाती है। (कैरेक्टर बुक)
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आचरण-पुस्तिका  : स्त्री०=आचरण पंजी।
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आचरणीय  : वि० [सं० आ√चर्+अनीयर] (कार्य या व्यवहार) जिसका आचरण किया जा सकता हो या करना उचित हो।
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आचरन  : पुं० =आचरण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आचरना  : स० [सं० आचरण] कार्य या व्यवहार के रूप में लाना। आचरण करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आचरित  : भू० कृ० [सं० आ√चर्+क्त] १. आचरण या व्यवहार के रूप में लाया हुआ। २. वि० नियमित और निर्दिष्ट। पुं० १. प्राचीन भारत में दिया हुआ ऋण वसूल करने की वह परिपाटी जिसमें या तो ऋणी के दरवाजे पर बैठकर धरना दिया जाता था या उसकी स्त्री पुत्र आदि ले लिये जाते थे। २. दे० ‘जीवक’ (कोरियर)
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आचर्य  : वि० [सं० आ√चर्+यत्] आचरणीय।
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आचान  : अव्य० =अचान।
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आचानक  : अव्य० =अचानक।
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आचाम  : पुं० [सं० आ√चम्+घञ्] १. पका हुआ चावल। भात। २. माँड। ३. आचमन।
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आचार  : पुं० [सं० आ√चर्+घञ्] [वि० आचारिक] १. आचरण। २. आचरण या व्यवहार का वह परिष्कृत नैतिक रूप जो कुछ नियमों, रूढियों, सिद्धान्तों आदि के आधार पर स्थित होता है। और जिसका अनुसरण या पालन लोक में आवश्यक समझा जाता है। ३. उक्त के आधार पर लोक में प्रचलित रीति व्यवहार आदि। जैसे—लोकाचार, शास्त्रोक्त आचार आदि। ४. उत्तम चरित्र शील और स्वभाव। ५. बहुत दिनों से चली आई परिपाटी, प्रथा या रीति। रूढ़ व्यवहार। ६. एक जगह से दूसरी जगह आने जाने की क्रिया या इसी प्रकार का और कोई अन्योन्याश्रित या पारस्परिक व्यवहार। जैसे—पत्राचार-पत्र व्यवहार।
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आचारज  : पुं० =आचार्य।
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आचारजी  : स्त्री० [सं० आचार्य] १. आचार्य होने की अवस्था या भाव। २. आचार्य का कार्य या पद। ३. पुरोहित का कर्म या व्यवसाय। पुरोहिताई।
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आचार-तंत्र  : पुं० [ष० त०] बौद्धों के चार तंत्रों में से एक।
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आचार-दीप  : पुं० [ष० त०] आरती की दीया।
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आचारवान्  : वि० [सं० आचार+मतुप्, वत्व] [स्त्री० आचारवती] १. जो अच्छे और शुद्ध आचार का पालन करता हो। २. अच्छे तथा शुद्ध आचरणवाला।
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आचार-विचार  : पुं० [द्वं० द्व० स०] लौकिक क्षेत्र में किया जानेवाला आचरण और उनसे संबंध रखनेवाला विचार।
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आचार-वेदी  : स्त्री० [ष० त०] १. पुण्य भूमि। २. आर्यावर्त्त।
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आचार-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] नीति शास्त्र (देखें)।
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आचार-हीन  : वि० [तृ० त०] १. शास्त्रों में बतलाये हुए आचार न करनेवाला। २. आचरण भ्रष्ट।
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आचारिक  : वि० [सं० आचार+ठक्-इक] १. आचार संबंधी। २. (प्रथा या रीति) जो किसी कुल समाज आदि में बहुत दिनों से आचार के रूप में चली आ रही हो। (कस्टमरी)
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आचारी (रिन्)  : वि० [सं० आचार+इनि] [स्त्री० आचरिणी] अच्छे आचरण और शुद्ध आचार-विचार वाला। पुं० रामानुज संप्रदाय का वैष्णव आचार्य।
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आचार्य  : पुं० [सं० आ√चर्+ण्यत्] [स्त्री० आचार्यानी] १. वह जो आचार (नियमों सिद्धातों आदि) का अच्छा ज्ञाता हो और दूसरों को उसकी शिक्षा देता हो। २. वह जो कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञाता हो और यज्ञों आदि में मुख्य पुरोहित का काम करता हो। ३. यज्ञोपवीत संस्कार के समय गायत्री मंत्र का उपदेश करनेवाला। ४. प्राचीन भारत में, वेद शास्त्रों आदि का बहुत बड़ा ज्ञाता या पंडित। जैसे—शंकराचार्य, वल्लभाचार्य आदि। ५. आज-कल किसी महाविद्यालय का प्रधान अधिकारी और अध्यापक। (प्रिंसिपल) ६. किसी विषय का बहुत बड़ा ज्ञात या पंडित। जैसे—आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि।
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आचार्या  : स्त्री० [सं० आचार्य+टाप्] १. स्त्री आचार्य या गुरु। २. पूजनीय तथा विदुषी स्त्री। ३. स्त्री।
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आचार्यानी  : स्त्री० [सं० आचार्य+ङीष्, आनुक्] आचार्य की पत्नी।
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आचिंत्य  : वि० [सं० आ√चिन्त् (स्मृति)+यत्] १. सब प्रकार से चिंतन करने योग्य। २. अचिंत्य। पुं० परमेशवर।
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आचिज्ज  : पुं० =आश्चर्य।
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आचित  : वि० [सं० आ√चि(चयन)+क्त] व्याप्त।
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आचूषण  : पुं० [सं० आ√चूस् (चूसना)+ल्युट्-अन] १. अच्छी तरह चूसना। २. शरीर के किसी अंग में तुंबीं लगाकर उसमें का दूषित रक्त चूसना।
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आच्छन्न  : भू० कृ० [सं० आ√छद् (ढकना)+क्त] १. जिस पर आवरण पड़ा हो। ढका हुआ। आवृत्त। २. ऊपर से छाया हुआ। ३. छिपा हुआ। तिरेहित।
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आच्छादक  : वि० [सं० आ√छद्+णिच्+ण्वुल्-अक] आच्छादन करने या ऊपर से ढकनेवाला। पुं० वह वस्तु जिससे ढका जाए।
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आच्छादन  : पुं० [सं० आ√छद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. ढकने की क्रिया या भाव। २. ढकने की वस्तु। आवरण। ३. वस्त्र। कपड़ा। ४. छाजन।
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आच्छादित  : भू० कृ० [सं० आ√छद्+णिच्+क्त] १. ढका हुआ। आवृत्त। २. छाया हुआ।
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आच्छादी (दिन्)  : पुं० [सं० आ√छद्+णिच्+णिनि] आच्छादक।
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आच्छिप्त  : वि० =आक्षिप्त।
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आच्छेद  : पुं० [सं० आ√छिद् (काटना)+घञ्] १. काटना। २. काट-छाँट।
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आच्छेदन  : पुं० [सं० आ√छिद्+ल्युट-अन] काटना या छेदना।
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आच्छोटन  : पुं० [सं० आ√स्फुट् (बजाना)+ल्यट्-अन, पृषो० सिद्धि] १. चुटकी बजाना। २. आखेट करना। शिकार खेलना।
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आछना  : अव्य० [सं० अस्ति] १. उपस्थित या विद्यमान होना। रहना। २. होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछरि  : स्त्री० =अप्सरा। उदाहरण—आछरि छपीं छपी गोपीता।—जायसी।
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आछा  : वि० [स्त्री० आछी] अच्छा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछिप्त  : वि० =आक्षिप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछी  : वि० =आशी (खानेवाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछे  : अव्य० [हिं० अच्छा] अच्छी तरह। भलीभाँति। उदाहरण—तिनके लच्छन लच्छ अब आछे कही बकानि।—मतिराम। अ०=हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछेप  : पुं० =आक्षेप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछो  : वि० =अच्छा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आछोटण  : पुं० [सं० आच्छोदन] मृगया। शिकार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आज  : अव्य० [सं० अद्य,प्रा०अज्ज,अज्जु,उ०आजि,गु०अज०आजे,पं०अज्ज,का०अजि,आजि,मरा०आज] १. जो दिन इस समय चल रहा है, उस दिन। वर्तमान दिन में। २. इन दिनों में। इस काल में। पुं० प्रस्तुत या वर्त्तमान दिन।
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आज-कल  : अव्य० [हिं० आज+कल] १. प्रस्तुत या वर्त्तमान दिनों में। २. एक-दो दिन में। मुहावरा—आजकल करना-टाल-मटोल करना। हीला-हवाला करना। आज-कल लगना-मरण काल निकट आना। पद—आज कल में-कुछ ही दिनों में। ३. वर्त्तमान काल या युग में। इन दिनों।
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आजगर  : वि० [सं० अजगर+अण्] १. अजगर संबंधी। २. अजगरों की तरह का। अजगरों जैसा।
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आजगव  : पुं० [सं० अजगव+अण्] शिव का धनुष।
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आजन्म  : अव्य० [सं० अव्य,स०] १. जन्म से लेकर अब तक। २. जीवन पर्यन्त। जीवन भर।
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आजमाइश  : स्त्री० [फा०] जाँच। परीक्षण।
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आजमाइशी  : वि० [फा०] जो आजमाइश या परीक्षण के रूप में हो।
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आजमाना  : स० [फा०आजमाइश=परीक्षा] [वि० आजमूदा] परीक्षण या परीक्ष करना। जाँचना। परखना।
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आजमीढ़  : वि० [सं० अजमीढ़+अण्] १. अजमीढ़ राजा के वंश का। २. अजमीढ़ देश का।
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आजमूदा  : वि० [फा० आजमूदः] आजमाया या परखा हुआ। परीक्षित।
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आजा  : पुं० [सं० आर्य, प्रा० अज्ज] [स्त्री० आजी, वि० अजिया] पिता का पिता। पितामह। दादा।
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आजाद  : वि० [फा० आजाद] [संज्ञा० आजादी, आजादगी] १. खुला हुआ। मुक्त। २. स्वच्छंद। ३. स्वतंत्र। ४. मन मौजी। पुं० एक प्रकार के मुसलमान सूफी फकीर जो इस्लाम धर्म के अधिकतर बंधनों से मुक्त और स्वतंत्र रहते है।
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आजादगी  : स्त्री० [फा०]=आजादी।
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आजादी  : स्त्री० [फा०] १. आजाद होने की अवस्था या भाव। २. मुक्ति। ३. स्वतंत्रता। ४. स्वच्छंदता।
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आजान  : पुं० [सं०√जन् (उत्पन्न होना)+घञ्, आ-जान, अव्य० स०] १. जन्म। २. उत्पत्ति। ३. जन्म या उत्पत्ति का स्थान।
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आजान-देव  : पुं० [आ-जान, अव्य० स०, आजान-देव, कर्म० स०] वह देवता जो सृष्टि के आदि में देव रूप में उत्पन्न हुआ हो। जन्मजात। देवता।
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आजानि  : स्त्री० [सं० आ√जन्+इण्] १. उच्च कुल या उत्तम वंश में जन्म लेना। २. जन्म देनीवाली माता।
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आ-जानु  : वि० [सं० अव्य० स०] घुटनों तक लंबा या लटकता हुआ।
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आजानु-बाहु  : पुं० [सं० ब० स०] वह जिसके हाथ इतने लंबे हों कि लटकाने पर नीचे घुटनों तक पहुँचते हों। (बहुत बड़े कर्मठों या वीरों का लक्षण)
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आजाने  : अव्य० =अनजाने।
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आजार  : पुं० [फा०] १. बीमारी। रोग। व्याधि। २. कष्ट। दुख।
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आजिज  : वि० [अ०] [भाव० आजिजी] १. विनीत। दीन। २. तंग। परेशान। ३. लाचार। विवश।
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आजिजी  : स्त्री० [अ०] १. विनय। दीनता। २. लाचारी। विवशता।
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आजीव  : पुं० [सं० आ√जीव्(जीना)+घञ्] १. उचित लाभ या आय। २. जीवन निर्वाह के लिए प्राप्त होने वाली आय या मिलनेवाला धन। ३. जीविका। पेशा।
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आजीवक  : वि० [सं० आ√जीव्+ण्वुल्-अक] जीवन निर्वाह में कुछ निश्चित नियमों का पालन करनेवाला। पु० जैन साधु।
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आ-जीवन  : अव्य० [सं० अव्य० स०] पूरे या सारे जीवन में। जीवन भर। (लाइफ-लांग)।
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आजीविका  : स्त्री० [सं० आ√जीव्+णिच्+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] ऐसा कार्य या व्यवसाय जिसकी आय से जीवन निर्वाह होता हो। रोजी।
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आजीव्य  : वि० [सं० आ√जीव्+ण्यत्] (कार्य या व्यवसाय) जिससे जीवन निर्वाह होता हो। पुं० जीवन निर्वाह के साधन।
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आजु  : अव्य० =आज। पुं० =आज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आजुल  : पुं० =आज्ञा। दादा। उदाहरण— साग की क्यारी हमरे आजुल ने लगाई।—लोकगीत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आजू  : पुं० [सं० आ√जु (गति)+क्विप्] बेगार। अव्य० =आज।
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आज्ञप्त  : भू० कृ० [सं० आ√ज्ञा(जानना)+णिच्, पुक्, ह्रस्व+क्तिन्] १. जिसे आज्ञा दी गई हो। २. जो आज्ञा के रूप में प्राप्त हुआ हो।
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आज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० आ√ज्ञा+णिच्+पुक्, हस्व+क्तिन्] १. कानून या विधि के आधार पर दी जानेवाली आधिकारिक आज्ञा या होनेवाला निर्णय। २. न्यायालय या न्यायाधीश का लिखित निर्णय। (डिक्री, उक्त दोनों अर्थों में)
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आज्ञा  : स्त्री० [सं० आ√कर्म+अङ-टाप्] १. किसी अधीनस्थ कर्मचारी या व्यक्ति से मौखिक रूप से कहा हुआ अथवा लिखित रूप से दिया हुआ ऐसा निर्देश जिसका पालन करना अनिवार्य हो। हुकुम। (आर्डर) २. किसी कार्य या बात के लिए मिलनेवाली अनुमति। ३. दे० ‘आज्ञाचक्र’।
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आज्ञाकारिता  : स्त्री० [सं० आज्ञाकारिन्+तल्-टाप्] आज्ञाकारी होने की अवस्था या भाव।
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आज्ञाकारी (रिन्)  : वि० [सं० आ√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० आज्ञाकारिणी] किसी की आज्ञा का अनुसरण या पालन करनेवाला। पुं० १. दास। २. सेवक।
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आज्ञा चक्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] हठयोग में, शरीर के अंदर से आठ चक्रों में से छठा चक्र जो दो दलों का श्वेत वर्णका और दोनों भौहों के बीच में स्थित माना गया है। कहते है कि इसके साधन से वाक्-सिद्धि प्राप्त होती है।
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आज्ञाता (तृ)  : पुं० [सं० आज्ञापयिता] वह जो दूसरों को आज्ञा दे। आज्ञा देनेवाला।
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आज्ञान  : पुं० [सं० आ√ज्ञा+ल्युट्-अन] देखने या समझने की क्रिया भाव या शक्ति।
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आज्ञापक  : वि० [सं० आ√ज्ञा+णिच्,पुक्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० आज्ञापिका] आज्ञा देनेवाला। आज्ञाता। पुं० प्रभु। स्वामी।
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आज्ञा-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें कोई आज्ञा लिखकर दी गई हो। हुकुमनामा।
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आज्ञापन  : पुं० [सं० आ√ज्ञा+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आज्ञापित] आज्ञा देने की क्रिया या भाव।
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आज्ञा पालक  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० आज्ञापालिका] आज्ञा पालनकरनेवाला। आज्ञाकारी। पुं० १. दास। २. सेवक।
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आज्ञा-पालन  : पुं० [सं० ष० त०] [स्त्री० आज्ञापालक] किसी की दी हुई आज्ञा के अनुसार कार्य करना।
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आज्ञापित  : भू० कृ० [सं० आज्ञप्त] १. (व्यक्ति) जिसे आज्ञा दी गई हो। २. (कार्य) जिसके संबंध में आज्ञा दी गई हो।
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आज्ञा फलक  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी विषय या व्यवहार संबंधी आज्ञा लिखी हो। (आर्डर शीट)
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आज्ञा भंग  : पुं० [सं० ष० त०] आज्ञा न मानना अथवा उसके विरुद्ध आचरण करना। (डिस्ओबीडिएन्स)
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आज्ञायी (यिन्)  : वि० [सं० आ√ज्ञा+णिनि, युक्, आगम] १. जानने या समझनेवाला। २. अनुभव करनेवाला।
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आज्ञार्थक  : पुं० [सं० आज्ञा-अर्थ, ब० स० कप्] व्याकरण में क्रिया पद का वह रूप जिसमें किसी को कोई काम करने का आदेश दिया जाता है। विधि। (इम्परेटिव मूड) जैसे—आओ, बैठो।
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आज्य  : पुं० [सं० आ√अंज् (दीप्ति)+क्यप्] १. वह घी जिससे आहुति दी जाए। २. दूध या तेल, जो घी के स्थान पर आहुति में दिया जाए। ३. यज्ञ में दी जानेवाली हवि। ४. प्रातः कालीन यज्ञ का एक स्त्रोत।
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आज्यपा  : पुं० [सं० आज्य√पा (पीना)+क्विप्] सात प्रकार के पितरों में से एक जो पुलस्त्य के पुत्र वैश्यों के पितर हैं।
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आज्य-भाग  : पुं० [सं० ष० त०] यज्ञ में अग्नि और सोमदेव को दी जाने वाली घृत की दो आहुतियाँ।
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आज्य-भुक्  : पुं० [सं० आज्य√भुज् (खाना)+क्विप्] १. अग्नि। २. देवता।
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आज्य-स्थाली  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह यज्ञ पात्र जिसमें हवन के लिए घी रखा जाता है।
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आटना  : स० [सं० अट्ट] ऊपर से इतना अधिक रखना या लादना कि नीचे की चीज छिप जाए।
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आटरूष  : पुं० [सं० अटरूष+अण्] अड़से का पेड़। वासक वृक्ष।
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आटा  : पुं० [सं० आर्द-दबाना ?, अन्न०अट्टसु,गु०सि०आटी,बँ०आटा,कश्मी०ओटु,फा०मरा०आट, आटवल] १. गेहूँ, जौ, मकाई आदि को पीसकर तैयार किया हुआ चूर्ण जिससे पूरियाँ रोटियाँ आदि बनाई जाती है। पिसान। मुहावरा—आटे दाल का भाव मालूम होना=यह पता चलना या इस बात की शिक्षा मिलना कि (क) जीविका का निर्वाह या (ख) सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिए या करना होता है। गरीबी में आटा गीला होना=(क) पैसे की तंगी के समय पास से कुछ और चला जाना। (ख) और अधिक संकट आना। पद—आटे की आया=भोली भाली स्त्री। आटे दाल की फिक्र-जीविका निर्वाह की चिंता। २. आटे की तरह भुरभुरी वस्तु। क्रि० प्र-होना।
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आटी  : स्त्री० [हिं० अटक] १. पच्चड़। २. डाट। ३. अवरोध। रुकावट।
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आटोप  : पुं० [सं० आ√तुप्(वध करना)+घञ्, पृषो० टत्व] १. ऊपर से ढकने वाली चीज आच्छादन। २. बहुत अधिक फूलना या फैलना। ३. पेट में होनेवाली गड़गड़ाहट। ४. अभिमान। घमंड। ५. आजकल ऐसा आडंबर या तड़क-भड़क जो दूसरों को अपना बल और वैभव बहुत बढ़ाकर दिखलाने के लिए की जाए। (पाम्प) आठ
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आठक  : वि० [सं० अष्ट,पा०अट्ठ+हिं० एक] आठ के लगभग। प्रायः आठ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आठव  : वि० =आठवाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आठवाँ  : वि० [हिं० आठ+वाँ(प्रत्यय)] गिनती या क्रम के विचार से आठ के स्थान पर पड़नेवाला। अष्टम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आठें, आठैं, आठों  : स्त्री० [सं० अष्टमी] अष्टमी। (तिथि)।
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आडँग  : पुं० [सं० आगम ?] लक्षण। चिन्ह। उदाहरण—जो गिणि आवी आडँग जाँणे।—पृथीराज।
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आडंबर  : पुं० [सं० आ√डम्ब् (फेंकना)+अरन्] [वि० आडंबरी] १. एक प्रकार का ढोल या नगाड़ा। २. ढोल या नगाड़े से होनेवाला शब्द। ३. हाथी की चिघाड़। ४. शरीर में की जानेवाली मालिश। ५. खेमा। तंबू। ६. उच्च स्वर या घोर नाद। ७. बहुत अधिक या अनावश्यक रूप से बोलना अथवा निरर्थक बड़े-बड़े शब्दों का प्रयोग करना। ८. अपना वास्तविक रूप छिपाकर लोगों के लिए बनाया हुआ बाहरी कृत्रिम भव्य रूप। दिखावटी ठाट-बाठ। (आस्टेन्टेशन)
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आडंबरी (रिन्)  : वि० [सं० आडम्बर+इनि] १. जिसमें आडंबर हो। आडंबर से युक्त। २. आडंबर करने या रचनेवाला।
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आड़  : स्त्री० [सं० आटि, आति, सि० आटी, मरा० आडष्ठी आड़ी] १. वह चीज जिसके पीछे छिपा जाए। ओट। परदा। २. रक्षा का स्थान। मुहावरा—आड़ देना=आश्रय या शरण देना। आड़ लेना-किसी की शरण में जाना। ३. टेक। थूनी। ४. बाधा। रोक। ५. वह बिंदी जो स्त्रियाँ माथे पर लगाती है। उदाहरण—केसरि आड़ ललाटनि लसै।—नंददास। मुहावरा—आड़ चितरना=माथे और मुख पर कई प्रकार की बिदियाँ लगाकर बेल-बूटे आदि बनाना। ६. माथे पर पहनने का एक प्रकार का गहना। टीका। ७. एक प्रकार का बड़ा कलछा। स्त्री० [सं० अल=डंक] बर्रे, बिच्छू, मधु मक्खी आदि का डंक।
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आड़गीर  : पुं० [हिं० आड़+फा० गीर] १. आड़ करने के लिए लगाया जानेवाला परदा या खड़ी की जानेवाली दीवार। २. खेत की किनारे की घास।
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आड़न  : स्त्री० [हिं० आड़ना-रोकना] १. आड़। ओट। २. ढाल, जो तलवार का वार रोकती हो। (डि०)
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आड़ना  : स० [सं० अल्-वारण करना] १. बीच में आड़ या रोक खड़ी करना। २. बीच में आकर रुकावट डालना या बाधक होना। रोकना। ३. कोई चीज गिरवी (बंधक या रेहन) रखना। ४. मना करना। ५. बाँधना। स० [हिं० आड़] स्त्रियों की सोभा के लिए अपने मुख पर विशेष ढंग से बिदियाँ लगाना। आड़ चितरना।
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आड़बंद  : पुं० [हिं० आड़=फा० बंद] फकीरों, पहलवानों आदि के पहनने का एक प्रकार का लँगोट।
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आड़ा  : वि० [सं० अल्-रोकना या डिं०आड़] १. आँखों के समानांतर दाहिने से बाएँ अथवा बाएँ से दाहिने गया हुआ अथवा इस बल में रखा हुआ। क्षैतिज। (हाँरिजेन्टल) २. जो नीचेवाले कोने के सामने के ऊपरवाले कोने की तरफ उठता हुआ गया हो। तिरछा। तिर्यक। जैसे—कपड़े की आड़ी काट। मुहावरा—आड़ा या आड़े आना या होना=सामने आकर बाधा या रुकावट खड़ी करना। उदाहरण— मर्यादा आड़ी भई, आगे दियो न पाँव।—लक्ष्मण सिंह। आड़े तिरछे होना=नाराज होकर झगड़ा बढ़ानेवाली बाते करना। ३. उग्र या कठोर। विकट। जैसे—आड़ा समय। उदाहरण—पाँव न चालै पंथ दुहेलो आड़ा औघट घाट।—मीराँ। मुहावरा—(किसी के) आड़े आना=संकट में पड़े हुए व्यक्ति के पास जाकर उसके कष्ट निवारण में सहायक होना। जैसे—यों मित्र तो सभी थे पर उस विपत्ति के समय आप ही हमारे आड़े आये। (किसी को) आड़े हाथों लेना=खरी-खोटी सुनाकर निरुतर और लज्जित करना। ४. जिसका क्रम या गति बिलकुल सीधी न हो, बल्कि बीच में नियत से कुछ इधर-उधर हो जाता हो। जैसे—आड़ा खेमटा, आड़ा चौताल। ५. जो कहीं से बीच में आ पड़ा हो। उदाहरण—त्रिणि दीह लगन वेला आड़ा तै।—पृथीराज। पुं० [सं० आलि-देखा] १. एक प्रकार का कपड़ा जिसपर आड़ी तिरछी धारियाँ होती हैं। २. जुलाहों का लकड़ी का वह ढ़ाँचा जिसपर सूत फैलाये जाते है। ३. जहाज या नाव का लट्ठा या शहतीर।
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आड़ा-खेमटा  : पुं० [हिं० आड़ा+खेमटा] संगीत में तेरह मात्राओं का एक ताल।
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आड़ा-चौताला  : पुं० [हिं० आड़ा+चौताल] संगीत में सात मात्राओं का एक ताल।
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आड़ा पंच ताल  : पुं० [हिं० आड़ा+पंच+ताल] संगीत में ५ आघातों और ९ मात्राओं का एक ताल।
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आड़ा-लोट  : वि० [हिं० आडा+लोटना] डगमगा कर एक ओर गिरता हुआ। मुहावरा—आडा लोट मारना=जहाज का लहरों में पड़कर उलटने लगना।
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आड़ी  : स्त्री० [हिं० आड़] १. खेल में वक्ता के पक्ष का खेलाड़ी या साथी। २. छुट्टी या विश्राम का दिन। (चमार) अव्य० ओर। तरफ।
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आड़ू  : पुं० [संभवतः किसी ईरानी शब्द का अप०] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसमें छोटे खट-मीठे फल लगते हैं। २. उक्त वृक्ष का फल। शफ्तालू।
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आढ  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली। वि० [सं० आढ्यक] कुशल। दक्ष। स्त्री० [हिं० आड़ ?] १. बीच में पड़नेवाला अंतर या विस्तार। २. टाल-मटोल। बहाने-बाजी। ३. दे० आड़। पुं० =आढ़क।
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आढक  : पुं० [सं० आ√ढौक (देखना)+घञ्, पृषो० सिद्धि] १. चार सेर की एक तौल। २. नापने का काठ का वह पात्र जिसमें चार सेर अनाज आता है। ३. अरहर। ४. गोपी चंदन।
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आढ़की  : स्त्री० [सं० आ√ढौक्+अच्, पृषो० अकार आदेश, ङीष्] १. अरहर। २. गोपी चंदन।
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आढ़त  : स्त्री० [सं० अट्ट, प्रा० आड़हति, पा० आड़हइ, पं० बँ० मरा० आड़त, तेल० अड़िति] १. व्यवसाय की वह प्रथा जिसमें व्यवसायी दूसरे का माल अपने यहाँ थोक ब्रिकी के लिए रखता और उनकी ब्रिकी होने पर कुछ नियत धन अपने लिए लेता है। २. वह धन जो उक्त व्यवसाय में व्यवसायी को पारिश्रमिक या लाभ के रूप में मिलता है। ३. वह स्थान जहाँ बैठकर कोई व्यक्ति उक्त प्रकार का व्यवसाय करता है। ४. किसी कुटनी का वह स्थान जहाँ दुश्चरित्रा स्त्रियाँ चोरी से पहुँचकर धन के लोभ से व्यभिचार कराती हैं।
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आढ़तदार  : पुं० [हिं० आढ़त+फा० दार(प्रत्यय)]-आढ़तिया।
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आढ़तिया  : पुं० [हिं० आढ़त+इया (प्रत्यय)] वह जो आढ़त का काम करता हो।
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आढ्यंकर  : वि० [सं० आढ्य√कृ (करना)+ट,मुम्] गरीब को धन देकर धनी बनानेवाला।
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आढ़्य  : वि० [सं० आ√ध्यै (चिंतन करना)+क, पृषो० सिद्धि] १. किसी चीज या बात से पूरी तरह से युक्त। जैसे—धनाढ्य गुणाढ्य आदि। २. धनी। संपन्न।
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आढ्यक  : पुं० [सं० आढ्य] धन-राशि।
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आणंद  : पुं० =आनंद।
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आणक  : पुं० [सं० अणक+अण्] १. एक रुपए का सोलहवाँ भाग। आना। २. काम-शास्त्र में संभोग के आसन। वि० १. अधम। नीच। २. निंदनीय।
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आणना  : स० =आनना। (लाना या ले आना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आणव  : पुं० [सं० अणु+अण्] अणु का भाव। अणुता। वि० =आणविक।
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आणविक  : वि० [सं० अणु+ठक्-इक] अणुओं के रूप में होने या उनसे संबंध रखनेवाला। अणु संबंधी। (मोलक्यूलर)।
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आणा  : वि० =अन्य। अव्य० =अन्यत्र। (राज)।
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आणुक  : वि० =आणविक।
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आतंक  : पुं० [सं० आ√तङ (अस्वस्थ होना)+घञ्] [भू० कृ० आतंकित] १. पीड़ा, रोग आदि शारीरिक कष्ट। २. बेचैनी। विकलता। ३. भारी अत्याचार संकट के समय उसके भय से उत्पन्न वह विकलतापूर्ण मानसिक स्थिति जिसमें कुछ सोचने-समझने या करने-धरने में प्रायः असमर्थ हो जाता है। (टेरर) ४. किसी का प्रभाव प्रभुत्व शक्तिमत्ता आदि देखने पर उसके फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाली विकलतापूर्ण मानसिक स्थिति। ५. किसी बात या वस्तु का वह विकट प्रभाव जो भयभीत करके प्रायः रोग या मानसिक विकार उत्पन्न कर देता है। (फोबिया) जैसे—जलांतक। क्रि० प्र०-जमना। छाना।
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आतंक-युद्ध  : पुं० [तृ० त०] पारस्परिक वैमनस्य या शत्रुता के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाली वह स्थिति जिसमें दोनों पक्ष बिना लड़े-भिड़े केवल एक-दूसरे के मन में भारी आतंक उत्पन्न करके उसे दबाने या हटाने का प्रयत्न करते हैं। (वार आँफ नर्व्ज)।
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आतंकवाद  : पुं० [ष० त०] लोगों को डरा-धमकाकर अपना उद्देश्य सिद्ध करने का सिद्धांत। (टेररिज्म)
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आतंकवादी (दिन्)  : वि० [सं० आतंक√वद् (बोलना)+णिनि] १. आतंकवाद से संबंध रखनेवाला। २. आतंकवाद का सिद्धांत मानने और उसके अनुसार काम करनेवाला। (टेररिस्ट)
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आतंकित  : भू० कृ० [सं० आतंक+इतच्] जिसपर किसी प्रकार का आतंक छाया हो। आतंक से प्रभावित।
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आतंचन  : पुं० [सं० आ√तञ्च् (वेग)+ल्युट्-अन] १. दूध जमाने की क्रिया या भाव। २. दूध जमाने का जामन।
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आतत  : भू० कृ० [सं० आ√तन् (विस्तार)+क्त, नलोप] १. फैला या फैलाया हुआ। २. खिंचा या खींचा हुआ। ३. तना या ताना हुआ।
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आतताई  : पुं०=आततायी।
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आततायी (यिन्)  : पुं० [सं० आतत√अय्(गति)+णिनि] [स्त्री० आततायिनी] १. वह जिसने किसी की जान लेने के लिए धनुष पर तीर चढ़ाया हो। २. वह जो आग लगाकर विष देकर अथवा हत्या करके लोगों को लूटना और सताता हो। ३. बहुत बड़ा उपद्रवी और दुष्ट।
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आतनन  : पुं० [सं० आ√तन्+ल्युट्-अन] खींचने, तानने या फैलाने की क्रिया या भाव।
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आतनिक  : वि० [सं० ] १. जिसमें किसी प्रकार का खिंचाव या तनाव हो। तनाव से युक्त। २. (स्थिति) जिसमें किसी प्रकार की आशंका, उत्तेजना, विकलता आदि हो। (टेन्स उक्त दोनों अर्थों में)।
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आतप  : पुं० [सं० आ√तप् (तपना या तपाना)+घ] [वि० आतपी, भू० कृ० आतप्त, भाव० आतपता] १. सूर्य का प्रकाश। धूप। घाम। २. गरमी। ताप। ३. ज्वर। बुखार। वि० दुःख या पीड़ा देनेवाला।
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आतपत्र  : पुं० [सं० आतप√त्रै (रक्षा करना)+क] १. राजा का छत्र। २. धूप से बचने के लिए पत्तों या रेशम का बनाया हुआ छोटा छाता। (पैशसोल)।
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आतपन  : पुं० [सं० आ√तप्+ल्युट्-अन] १. तपाना। २. कष्ट देना। ३. [आ√तप्+ल्यु-अन] शिव का एक नाम।
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आतप-स्नान  : पुं० [सं० तृ० त०] स्वास्थ्य ठीक रखने के विचार से धूप में इस प्रकार बैठना या लेटना कि सारे शरीर पर उसका प्रभाव पड़े। (सन-बाथ)।
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आतपीय  : वि० [सं० आतप+छ-ईय] आतप-संबंधी। आतप का।
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आतपोदक  : पुं० [सं० आतप-उदक, मध्य० स०] मृग-तृष्णा।
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आतम  : वि० =आत्म। पुं० १. आत्मा। २. ब्रह्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आतमहन  : पुं० दे० ‘आत्मघाती’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आतमा  : स्त्री० =आत्मा।
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आतर  : पुं० [सं० आ√तृ (तैरना)+अप्] १. नाव आदि से पार उतरने का भाड़ा। उतराई। खेवा। २. मार्ग या यात्रा संबंधी शुल्क।
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आतर्पण  : पुं० [सं० आ√तृप् (तृप्ति)+णिच्+ल्युट्-अन] तृप्त या प्रसन्न करना।
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आतश  : स्त्री०-आतिश। (आतश के यौ० के लिए दे० ‘आतिश’ के० यौ)
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आतशक  : पुं० [फा०] [वि० आतशकी] दुष्ट मैथुन से जननेद्रिंय में होनेवाला एक रोग। गरमी या फिरंग नाम का रोग।
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आतस  : स्त्री० =आतिश (आग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आतापि  : पुं० [सं० आ√तप्+इणि] एक राक्षस जिसे अगस्त्य मुनि ने चबा डाला था।
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आतापी (पिन्)  : पुं० [सं० आ√तप्+णिनि] १. चील पक्षी। २. आतापि नामक राक्षस।
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आति  : स्त्री० [सं० √अत्+इण्] एक प्रकार का पक्षी।
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आतिथेय  : पुं० [सं० अतिथि+ढक-एय] १. अतिथि सत्कार की सामग्री। २. वह जो अच्छी तरह से अतिथियों का स्वागत करता हो। ३. अतिथि के रूप में किसी को अपने यहाँ ठहरानेवाला। मेजबान। (होस्ट) वि० [सं० ] १. अतिथि संबंधी। २. अतिथियों के लिए उपयुक्त या योग्य।
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आतिथ्य  : पुं० [सं० अतिथि+ञ्य] १. अतिथि होने की अवस्था या भाव। २. अतिथि का होनेवाला स्वागत और सत्कार। मेहमानदारी।
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आतिथ्य-सत्कार  : पुं० [सं० कर्म०स०] घर आये हुए अतिथि का स्वागत तथा उसकी सेवा तथा सत्कार करना।
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आतिदेशिक  : वि० [सं० अतिदेश+ठक्-इक] अतिदेश संबंधी।
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आतिपात्य  : वि० [सं० अतिपात+ष्यञ्] अतिपात या हिंसा से संबंध रखनेवाला।
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आतिपात्य-शांति  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह धार्मिक कृत्य जो अनजान में नित्य होनेवाली हिंसा या अतिपात के पापों से छूटने के लिए किया जाता है।
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आतिवाहिक  : वि० [सं० अतिवाह+ठक्-इक] १. अतिवाह-संबंधी। २. आत्मा के एक शरीर से निकलने पर उसे दूसरे शरीर में ले जानेवाला। (माध्यम)। पुं० १. मृत्यु के बाद प्राप्त होनेवाला वह लिंग शरीर जिसे धारणकर जीव दूसरे लोक में जाता है। २. उपनिषदों के अनुसार वे देवता जो आत्मा के एक शरीर से दूसरे शरीर में पहुँचाते हैं। ३. पाताल का निवासी।
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आतिश  : स्त्री० [फा०] १. अग्नि। आग। २. बहुत अधिक गरमी या सहज में और चतुरता से कर लेता हो। ३. कोप। क्रोध। गुस्सा। वि० १. बहुत गरम। २. बहुत उग्र या तीव्र।
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आतिशखाना  : पुं० [फा०] १. कमरे में वह स्थान जहाँ उसे गरम करने के लिए आग रखी जाती है। २. पारसियों का अग्नि-मंदिर।
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आतिशदान  : पुं० [फा०] १. आग रखने का पात्र। अँगीठी। २. दे० ‘अतिशखाना’।
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आतिशपरस्त  : पुं० [फा०] १. अग्नि की पूजा करनेवाला व्यक्ति। २. पारसी।
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आतिशबाज  : पुं० [फा०] आतशदबाजी बनाने तथा छोड़नेवाला।
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आतिशबाजी  : स्त्री० [फा०] बारूद, गंधक, शीरे आदि के योग से बनी हुई चीजें जिनके जलने पर रंग बिरंगी चिनगारियाँ निकलती है। अग्निकीड़ा।
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आतिशयिक  : वि० [सं० अतिशय+ठक्-इक] १. अतिशय-संबंधी। २. बहुत अधिक। अतिशय।
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आतिशय्य  : पुं० [सं० अतिशय+ष्यञ्] अतिशय होने की अवस्था या भाव।
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आतिशी  : वि० [फा० आतशी] १. आतश या आग से संबंध रखनेवाला। अग्नि संबंधी। २. आग की लपट जैसा लाल। जैसे—आतिशी रंग। ३. अग्नि उत्पन्न करनेवाला। जैसे—आतिशी शीशा। ४. जो आग में रखने पर भी न टूटे या न जले। पुं० कुछ बादामी रंगत लिए हुए एक प्रकार का लाल रंग। (फायररेड)
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आतिशी शीशा  : पुं० [फा०] एक प्रकार का शीशा जिसमें से सूर्य की किरणें किसी एक बिंदु से होकर निकलती तथा अग्नि उत्पन्न करती है।
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आती  : स्त्री० =आति।
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आतीत  : वि० पुं०=अतीत। उदाहरण—अजपा जाप जपंता गोरष आतीत अनूपन ग्यानं।—गोरखनाथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आतीपाती  : स्त्री० [दे० पाती-पत्ती] लड़को का एक खेल जिसमें एक लड़के को चोर बनाकर उसे किसी पेड़ की पत्ती लेने भेजते हैं और आप छिप जाते हैं। पत्ती लेकर लौटने पर वह लड़का जिसे छू लेता है वहीं चोर माना जाता है।
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आतुर  : वि० [सं० आ√अत् (सतत गमन)+उरच्] १. जिसे घाव या चोट नगी हो। घायल। २. उत्कट आकांक्षा या इच्छावाला। ३. जो किसी कार्य या फल की विकलता पूर्वक प्रतीक्षा करता हो और बहुत जल्दी उसकी सिद्धि या प्राप्ति चाहता हो। उतावला। ४. (कार्य) जो बिना अच्छी तरह सोचे समझे केवल विकलता की दशा में जल्दी-जल्दी कर लिया जाए। जैसे—आतुर संन्यास। ५. बेचैन। विकल। अव्य० बहुत जल्दी और घबराहट में। पुं० १. बीमारी। रोग। २. बीमार। रोगी।
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आतुरता  : स्त्री० [सं० आतुर+तल्-टाप्] १. आतुर होने की अवस्था या भाव। २. उतावलापन। जल्दी। ३. बीमारी। रोग।
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आतुरताई  : स्त्री० =आतुरता।
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आतुर-सन्यास  : स्त्री० [सं० ष०त०] ऐसा सन्यास जो रुग्ण अथवा सांसारिक जीवन से दुखी और निराश होने की दशा में केवल घबराहट और जल्दी में ग्रहण किया जाए।
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आतुराना  : अ० [सं० आतुर] किसी काम या बात के लिए बहुत अधिक आतुर या उतावला होना। स०किसी को आतुर या उतावला करना।
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आतुरालय  : पुं० [सं० आतुर-आलय, ष० त०] आतुरशाला। चिकित्सालय।
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आतुरी  : स्त्री० [सं० आतुर्य+ङीष्, यलोप]=आतुरता।
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आतुर्य  : पुं० [सं० आतुर+ष्यञ्]-आतुरता।
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आतृप्त  : वि० [सं० आ√तृप्+क्त] जो अच्छी तरह हुआ हो। अव्य० [सं० ] अच्छी तरह से तृप्त होकर। उदाहरण—पै पीबो आतृप्त ठिकाने मुनि तेहिं ल्यावै।—रत्ना०।
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आतोद्य  : पुं० [सं० आ√तृद् (पीड़ित करना)+ण्यत्] पुरानी चाल का एक प्रकार का बाजा।
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आत्त  : भू० कृ० [सं० आ√दा(दान)+क्त] १. अपने ऊपर लिया हुआ। अंगीकृत। २. लिया हुआ। गृहीत। जैसे—आत्त प्रतिदान-ली हुई चीज लौटाना। ३. माना हुआ। स्वीकृत। ४. खिचा या खीचा हुआ। आकृष्ट। ५. दूर किया निकाला या हटाया हुआ। ६. चूर या भंग किया हुआ। जैसे—आत्तगर्व-जिसका गर्व चूर्ण किया गया हो। ७. अपमानित। तिरस्कृत। ८. हराया या हारा हुआ। पराजित।
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आत्मंभरि  : पुं० [सं० आत्मन्√भृ(भरण पोषण)+इन्, नि० मुम्] १. जो केवल अपना पेट पालन करना जानता हो। उदरंभरि। २. स्वार्थी।
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आत्म  : वि० [सं० आत्मन्] १. स्वयं अपने व्यक्तित्व या अपनी आत्मा के चेतन स्वरूप या मन से संबंध रखनेवाला। जैसे—आत्म जिज्ञासा, आत्म दर्शन। आदि। २. अपना। निज का। जैसे—आत्म कथा, आत्म परिचय आदि। पुं० व्यक्ति का निजी चेतन तत्त्व या सत्ता जो समस्त बाह्रा पदार्थों से अलग और भिन्न है। (सेल्फ) जैसे—आत्म चेतन आत्म-पुरुष।
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आत्मक  : वि० [सं० आत्मन् से] [स्त्री० आत्मिका] १. आत्मा से संबंध रखनेवाला। आत्मा संबंधी। २. मय। युक्त। (यौगिक शब्दों के अंत में) जैसे—ध्वंसात्मक, व्यंग्यात्मक, हास्यात्मक आदि।
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आत्म-कथा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. अपने संबंध में स्वयं कही या लिखी हुई बातें। २. साहित्य में ऐसी पुस्तक जिसमें किसी व्यक्ति ने सभी मुख्य बातों का वर्णन किया हो। आत्म चरित। (आटोबायोग्राफी)।
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आत्म-कहानी  : स्त्री० =आत्म-कथा।
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आत्म-काम  : वि० [सं० आत्मन्√कम्(चाहना)+णइङ्+अण्] [स्त्री० आत्म कामा] १. अपने संबंध में अथवा आत्मा के संबंध में सब बातें जानने की कामना करने वाला। २. स्वार्थी। मतलबी।
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आत्मकीय  : वि० [सं० आत्मन्+क+छ-ईय] आत्म या आत्मा के प्रति अनुराग रखनेवाला। २. जिस पर अपना अधिकार हो। अपना। निजी। ३. दे० ‘आत्म’।
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आत्म-गत  : वि० [सं० द्वि०त०] १. जो अपने (व्यक्तित्व) में आया या हुआ हो या अपने (आत्मा) से सबंध रखता हो। अपनी आत्मा में आया या मिला हुआ। २. अपने आप में होनेवाला। ३. अध्यात्म और दर्शन में जो कर्त्ता और विचारक के आत्म (चेतन या मन) में ही उत्पन्न हुआ हो। अथवा उससे संबंध रखता हो। ब्रह्म तत्त्वों या भौतिक पदार्थों से संबद्ध न हो। पर-गत का विपर्याय। (सब्टेक्टिव) ४. कला और साहित्य में (अभिव्यंजना और कृति) जो किसी के आत्म (चेतना या मन) से ही उद्भूत हुई हो और उसकी अनुभूतियों तथा विचारों पर ही आश्रित रहकर उन्हें प्रदर्शित करता हो, ब्राह्म पदार्थों पर आश्रित न हो। परगत का विपर्याय। (सब्जेक्टिव)। पुं० दे० ‘स्वगत-कथन’।
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आत्म-गुप्ता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. केवाँच। कौछ। २. शतावर।
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आत्म-गौरव  : पुं० [सं० स० त०] अपनी इज्जत या प्रतिष्ठा का ध्यान। आत्म संमान। स्वाभिमान। (सेल्फ रेस्पेक्ट)
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आत्म-घात  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० आत्मघाती] १. स्वयं अपनी हत्या करना। आत्म हत्या। २. स्वयं कोई ऐसा काम करना, जिससे अपनी ही बहुत अधिक हानि हो।
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आत्म-घाती (तिन्)  : वि० [सं० आत्मन्√हन् (हिंसा)+णिनि] १. अपने प्राण आप देने या अपनी हत्या करनेवाला।
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आत्म-घोष  : वि० [सं० आत्मन्√घुष् (शब्द करना)+णिच्+अच्] अपनी प्रशंसा अपने आप करनेवाला। पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में बढ़-चढ़कर बातें करना। २. कौआ। ३. मुरगा।
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आत्म-चक्र  : पुं० [ष० त०] दे० ‘आत्मायन’।
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आत्म-चरित  : पुं० [ष० त०] किसी का वह जीवन-चरित जो उसने स्वयं लिखा हो। (आटोबायोग्राफी)
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आत्म-चेतना  : स्त्री० [ष० त०] दर्शन और मनोविज्ञान में वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की अनुभूति होने पर उसके साथ ही इस बात की भी चेतना या ज्ञान होता है कि हमें यह अनुभूति हो रही है।
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आत्मज  : वि० [सं० आत्मन्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] अपने से या अपने द्वारा उत्पन्न। पुं० १. पुत्र। बेटा। लड़का। २. कामदेव। ३. खून। रक्त।
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आत्म-जात  : वि० [ष० त०]=आत्मज।
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आत्म-जिज्ञासा  : स्त्री० [ष० त०] [वि० आत्मजिज्ञासु] स्वयं अपने या अपनी आत्मा के सबंध में सब बातें जानने की इच्छा।
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आत्मज्ञ  : पुं० [सं० आत्मन्√ज्ञा (जानना)+क] अपने आपको अथवा अपनी आत्मा को जाननेवाला व्यक्ति।
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आत्म-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में अथवा आत्मा के संबंध में होनेवाला ज्ञान। २. जीवात्मा और परमात्मा का ज्ञान। ३. ब्रह्म का साक्षात्कार।
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आत्म-ज्ञानी (निन्)  : पुं० [आत्म-ज्ञान+इनि] वह व्यक्ति जिसे आत्म-ज्ञान हुआ हो। आत्मा का स्वरूप जाननेवाला।
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आत्म-तुष्टि  : स्त्री० [ष० त०] १. अपने मन को होनेवाली तुष्टि और प्रसन्नता। २. आत्मज्ञान होने पर मिलने वाला आनंद।
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आत्म-त्याग  : पुं० [ष० त०] परोपकार के लिए अपने स्वार्थ या हित का विचार बिलकुल छोड़ देना।
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आत्म-दर्श  : पुं० [ब० स०] दर्पण। शीशा।
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आत्म-द्रोह  : पुं० [ष० त०] स्वयं अपने साथ किया जानेवाला द्रोह या शत्रुता।
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आत्म-द्रोही (हिन्)  : पुं० [सं० आत्मद्रोह+इनि] [स्त्री० आत्म-द्रोहिणी] स्वयं अपने साथ द्रोह या शत्रुता (अपनी हानि) करनेवाला व्यक्ति।
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आत्म-निर्णय  : पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में स्वयं सब बातों का निर्णय या निश्चय करना। २. किसी देश के लोगों का अपनी राजकीय और राजनीतिक व्यवस्था स्वयं निश्चित करना। (सेल्फ डिटर्मिनेशन)
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आत्म-निवेदन  : पुं० [ष० त०] १. अपने आपको किसी के हाथ नम्रतापूर्वक सौंपना। आत्म-समर्पण। २. नवधा भक्तियों में से एक जिसमें भक्त अपने आप को पूरी तरह से इष्ट देव के चरणों में समर्पित कर देता है।
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आत्म-निष्ठा  : स्त्री० [ष० त०]=आत्मविश्वास।
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आत्मनीन  : पुं० [सं० आत्मन्+ख-ईन] पुत्र। बेटा।
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आत्मनेपद  : पुं० [अलुक्० स०] १. संस्कृत व्याकरण में धातु में लगनेवाला एक प्रत्यय। २. क्रिया या वह रूप जो उसे उक्त प्रत्यय लगने पर प्राप्त होता है।
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आत्म-पद  : पुं० [ष० त०] १. वह अवस्था जिसमें आत्मा ब्रह्म के साथ मिलकर उसमें लीन हो जाती है। २. मोक्ष।
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आत्म-पीड़न  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में ऐसी प्रवृत्ति या रुचि जिससे अपने आपको पीड़ित करके अथवा किसी के द्वारा पीड़ित कराके ही मनुष्य तृप्त या संतुष्ट होता है।
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आत्म-प्रक्षेपण  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में मानस की वह स्थिति जिसमें वह अपनी भावनाओं,वासनाओं, विचारों आदि का अनजाने में ही दूसरों पर आरोप करने लगता है अथवा दूसरों में उनका विकास, स्थिति आदि पाकर संतुष्ट और सुखी होता है।
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आत्म-प्रत्यक्ष  : पुं० [ष० त०] दर्शन और धर्म के क्षेत्र में, आत्मा के स्वरूप आदि का होनेवाला ज्ञान व परिचय।
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आत्म-प्रलंबन  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में आत्मप्रक्षेपण का ही अधिक उन्नत या उदात्त रूप।
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आत्म-प्रशंसा  : स्त्री० [ष० त०] अपने मुँह से की जानेवाली प्रशंसा या बढ़ाई।
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आत्म-बल  : पुं० [ष० त०] १. अपना या निजी बल। २. आत्मा में निहित बल या शक्ति। आत्मिक शक्ति।
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आत्म-बोध  : पुं० [ष० त०] अपने आप या अपनी आत्मा के संबंध में होनेवाला ज्ञान या बोध।
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आत्म-भरित  : वि० [तृ० त०] १. जो स्वयं भरा हो। २. जिसकी सब आवश्यकतायें अपने भीतरी अंगों से ही पूरी हो जाती हों और जिसे बाहर से कुछ लेना न पड़ता हो। (सेल्फ कन्टेन्ड)।
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आत्म-भू  : वि० [सं० आत्मन्√भू (होना)+क्विप्] १. जो अपनी देह या शरीर से उत्पन्न किया गया हो। २. जो आप ही या स्वतः उत्पन्न हुआ हो। आप से आप उत्पन्न होने वाला। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. कामदेव। ३. ब्रह्मा, विष्णु और शिव, जिनके संबंध में यह माना जाता है कि ये आप ही आप उत्पन्न हुये थे।
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आत्म-योनि  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. कामदेव। वि० =आत्मभू।
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आत्म-रक्षक  : वि० [ष० त०] [स्त्री० आत्मरक्षिका] अपनी रक्षा आप करनेवाला।
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आत्म-रक्षण  : पुं० [ष० त०] अपनी रक्षा आप या स्वयं करना।
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आत्म-रक्षा  : स्त्री० [ष० त०] स्वयं की जानेवाली अपनी रक्षा।
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आत्म-रत  : वि० [स० त०] [भाव० आत्मरति] १. जो सदा अपने आप में लीन रहता हो, फलतः ब्रह्मज्ञानी। २. सदा अपना ही ध्यान रखनेवाला। पुं० बड़ी इंद्रायन।
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आत्म-रति  : स्त्री० [स० त०] १. अपने आप में रत या लीन रहने की अवस्था या भाव। २. ऐसा आत्म-ज्ञान (ब्रह्म-ज्ञान) जो और किसी ओर ध्यान न जाने दे।
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आत्म-वंचक  : वि० [ष० त०] अपने आप को धोखा देनेवाला।
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आत्मवाद  : पुं० [ष० त०] दार्शनिक क्षेत्र की दो मुख्य धाराओं या भेदों में से एक जिसमें आत्मा की वास्तविक सत्ता मानी जाती है अथवा उसे अजर, अमर अविकारी चेतन और सब बातों का साक्षी समझते हैं।
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आत्मवादी( दिन्)  : वि० [आत्मन्√वद् (बोलना)+णिनि] आत्मवाद संबंधी। आत्मवाद का। पुं० वह जो आत्मवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक हो।
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आत्म-विक्रय  : पुं० [ष० त०] [वि० आत्म-विक्रयी] १. स्वयं ही अपने आप को बेच डालना। २. धन लेकर अपने आप को पूरी तरह से किसी के अनुयायी या दास बनाना। ३. आत्म-सम्मान त्याग कर किसी के अधीन होना।
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आत्मविक्रयी (यिन्)  : वि० [सं० आत्म-विक्रय+इनि] १. अपने आप को स्वयं बेचनेवाला। २. धन लेकर दूसरों का अनुयायी या दास बननेवाला।
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आत्म-विघटन  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में मनुष्य की वह मानसिक स्थिति जिसमें वह किसी प्रकार के मानसिक द्वंद्व या संघर्ष के समय अपने अहं को अपने से भिन्न और स्वतंत्र वस्तु मानकर उसका अध्ययन, आलोचन, निरीक्षण या विश्लेषण करता है।
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आत्म-विचय  : पुं० [ष० त०] अपनी तलाशी या नंगा-झोली स्वयं देना।
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आत्म-विचार  : पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में अपने मन में कुछ सोचना। २. यह सोचना कि हमारा शरीर या आत्मा क्या है और परमात्मा से हमारा कैसा संबंध है।
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आत्म-विद्  : पुं० [सं० आत्म√विद् (जानना)+क्विप्] वह जो आत्मा और परमात्मा का स्वरूप पहचानता हो। ब्रह्मज्ञानी।
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आत्म-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] आत्मा और परमात्मा का ज्ञान करानेवाली विद्या। अध्यात्मविद्या। ब्रह्मविद्या।
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आत्म-विश्वास  : पुं० [स० त०] अपने कार्य, मत, शक्ति, सिद्धांत आदि की उपयुक्तता या सत्यता के संबंध में होनेवाला दृढ़ निश्चय। अपने पर भरोसा होना। (सेल्फ काँन्फिडेन्स)
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आत्म-विस्मृत  : वि० [ब० स०] [भाव० आत्मविस्मृति] जो किसी मनोविकार की प्रबलता के कारण अपने आपको भूल गया हो।
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आत्म-विस्मृति  : स्त्री० [ष० त०] किसी ध्यान में मग्न या लीन रहने के कारण अपने आप को बिलकुल भूल जाना। आत्म विस्मृत होने की अवस्था या भाव।
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आत्म-श्लाघा  : स्त्री० [ष० त०] [वि० आत्मश्लाघी] अपने मुँह से की जानेवाली प्रशंसा। आत्म-प्रशंसा। (सेल्फ-प्रेज)
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आत्मश्लाघी (घिन्)  : पुं० [सं० आत्म-श्लाघा+इनि] वह जो अपनी प्रशंसा स्वयं करे। आत्म-प्रशंसक।
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आत्म-संभव  : वि० [ब० स०] [स्त्री० आत्मसंभवा] १. अपने शरीर से उत्पन्न। २. दे० आत्मभू। पुं० पुत्र। बेटा।
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आत्म-संयम  : पुं० [ष० त०] अपनी अनुचित इच्छाओं वासनाओं आदि को दबाकर ठीक मार्ग पर चलना और नीति संगत आचरण करना।
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आत्म-संवेदन  : पुं० [ष० त०] अपनी आत्मा और अनुभव का ज्ञान। आत्म-बोध।
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आत्म-संस्कार  : पुं० [ष० त०] स्वयं किया जानेवाला अपना संस्कार या सुधार।
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आत्म-समर्पण  : पुं० [ष० त०] १. अपने आपको किसी के हाथ सौंपना। पूरी तरह से किसी के वश या अधीन में हो जाना। २. अपने आपको किसी काम में, अपनी सारी शक्तियाँ सहित लगा देना। ३. युद्ध विवाद आदि अपनी ओर से बंद करके अपने आपको प्रतिपक्षी या शत्रु के हाथ में सौंपना। (सरेन्डर)
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आत्म-सम्मान  : पुं० [ष० त०] निजी या व्यक्तिगत सम्मान।
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आत्म-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] जीवों का ब्रह्म।
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आत्मसात्  : वि० [सं० आत्मन्+साति] जो पूरी तरह से अपने अंतर्गत कर लिया गया हो। अपने आप में लीन किया, मिलाया या समाया हुआ।
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आत्म-सिद्ध  : वि० [तृ० त०] १. (बात) जो आप ही सिद्ध हो। जिसे सिद्ध करने की आवश्यकता न हो। २. (कार्य) जिसे किसी ने स्वयं सिद्ध किया हो।
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आत्म-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] १. आत्मा तथा परमात्मा का ठीक और पूरा ज्ञान। २. मोक्ष।
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आत्म-स्तुति  : स्त्री० [ष० त०] =आत्म-प्रशंसा।
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आत्म-हत्या  : स्त्री० [ष० त०] १. अपने आपको स्वयं मार डालना। अपने प्राण जान-बूझकर अपने हाथों नष्ट करना। आत्म-घात। (सूइसाइड्)।
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आत्महन्  : पुं० [सं० आत्मन्√हन्+क्विप्] वह जो अपनी हत्या स्वयं करे।
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आत्म-हिंसा  : स्त्री० =आत्महत्या।
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आत्मा  : स्त्री० [सं०√अत् (सततगमन)+मनिण्] [वि० आत्मिक आत्मीय] १. एक अविनाशी अतींद्रिय और अभौतिक शक्ति जो काया या शरीर में रहने पर उसे जीवित रखती और उससे सब काम करवाती है और उसके शरीर में न रहने पर अचेष्ट निक्रिष्य तथा मृत हो जाता है। (सोल)। मुहावरा—आत्मा ठंड़ी होना=इच्छा पूरी होने पर पूर्ण तृप्ति या संतोष होना। २. किसी वस्तु आदि का गूढ़, मूल तथा सार भाग। (स्परिट) जैसे—काव्य की आत्मा, शब्द की आत्मा। ३. चित्त। ४. बुद्धि। ५. मन। ६. अंहकार। ७. ब्रह्म। ८. सूर्य। ९. अग्नि। १. पवन। वायु। हवा। ११. वस्तु या व्यक्ति का धर्म या स्वभाव।
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आत्माधिक  : वि० [सं० आत्म-अधिक, पं० त०] १. जो अपने आप (या शरीर) से भी बढ़कर प्रिय हो। २. वक्ता के व्यक्तित्व से बढ़कर होनेवाला।
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आत्माधीन  : वि० [सं० आत्म-अधीन, ष० त०] जो स्वयं अपने वश में हो। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. विदूषक। मसखरा।
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आत्मानंद  : पुं० [सं० आत्म-आनंद, ष० त०] वह आनंद या सुख जो अपनी आत्मा का ज्ञान और उसमें लीन होने पर प्राप्त होता है। परमानंद।
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आत्मानुभव  : पुं० [सं० आत्म-अनुभव, ष० त०] १. स्वयं प्राप्त किया हुआ अनुभव। २. अपनी आत्मा के अस्तित्व तथा स्वरूप के संबंध में होनेवाला अनुभव या ज्ञान।
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आत्मानुभूति  : स्त्री० [सं० आत्म-अनुभूति, ष० त०] १. आत्मा के स्वरूप आदि के संबंध में होनेवाला अनुभव या ज्ञान। २. अपने आपको होनेवाली अनुभूति।
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आत्मानुरूप  : पुं० [सं० आत्म-अनुरूप, ष० त०] जो गुण जाति आदि के विचार से अपने अनुरूप या अपने जैसा हो।
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आत्माभिमान  : पुं० [सं० आत्म-अभिमान, ष० त०] [वि० आत्मभिमानी] अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान या विचार। अपने मान-अपमान का ध्यान।
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आत्माभिमानी (निन्)  : पुं० [सं० आत्म-अभिमानी, ष० त०] [स्त्री० आत्मभिमानिनी] वह जिसे अपनी प्रतिष्ठा और उसकी रक्षा का सदा पूरा ध्यान रहता हो।
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आत्माभिमुख  : वि० [सं० आत्म-अभिमुख, ष० त०] जो आत्मा की ओर अभिमुख हो। अंतर्मुख।
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आत्मायन  : पुं० [सं० आत्म-अयन, ष० त०] १. आत्माओं के आने-जाने का मार्ग। २. प्रेतात्मवादियों की वह बैठक या चक्र जिसमें परलोक गत आत्माओं से संपर्क स्थापित करके प्रेतात्मवाद के रहस्य जाने जाते है। आत्म-चक्र। (सियंस)
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आत्माराम  : पुं० [सं० आत्म-आराम, ब० स०] १. अपनी आत्मा में रमण करने या लीन रहनेवाला अथवा आत्मज्ञान से तृप्त योगी। २. आत्मा या जीवरूपी व्यक्ति। ३. स्वयं अपनी आत्मा और व्यक्तित्व के संबंध में प्रयुक्त होनेवाली संज्ञा। जैसे—हमारे आत्माराम तो यह बात नहीं मानते। ४. तोते का लोक-प्रचलित नाम।
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आत्मार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० आत्म-अर्थिन्,ष०त०] [स्त्री० आत्मर्थिनी] १. अपना ही भला चाहनेवाला। २. स्वार्थी।
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आत्मार्पण  : पुं० [सं० आत्म-अर्पण, च० त०] १. दे० ‘आत्म-निवेदन’। २. दे० ‘आत्म-समर्पण’।
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आत्मावलंबन  : पुं० [सं० आत्म-अवलंबन, ष० त०] [वि० आत्मवलंबी] दूसरे के आसरे न रहकर सदा अपने आप पर पूरा भरोसा रखने की क्रिया या भाव।
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आत्मावलंबी (बिन्)  : पुं० [सं० आत्म-अवलंब, ष० त०+इनि] आत्मावलंबन करने अर्थात् अपने भरोसे सब काम करनेवाला व्यक्ति।
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आत्माश्रय  : पुं० [सं० आत्म-आश्रय, ष० त०] अपनी बुद्धि योग्यता या शक्ति पर अथवा अपनी आत्मा का ही आसरा या भरोसा होना।
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आत्मिक  : वि० [सं० आत्मन्+ठञ्-इक] [स्त्री०आत्मिका] १. आत्मा संबंधी। आत्मा का। २. अपना। निजी। ३. मानसिक। ४. बहुत आत्मीय या समीपी। (इन्टिमेट)।
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आत्मिकता  : स्त्री० [आत्मिक+तल्-टाप्] १. आत्मिक होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘आत्मीयता’।
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आत्मिकी  : स्त्री० [सं० आत्मा० से] वह विद्या या शास्त्र जिसमें आत्माओं के क्रिया-कलापों उनके संदेशों आदि का अध्ययन होता है। (साइकिक)।
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आत्मिकीय  : वि० [हिं० आत्मकीय] आत्मिकी से सबंधित। आत्मिकी का।
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आत्मीकृत  : भू० कृ० [सं० आत्मन्+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+क्त] अपनाया हुआ। अंगीकृत।
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आत्मीभाव  : पुं० [सं० आत्मन्+च्वि, ऊत्व√भू०(होना)+घ़ञ्] आत्मा या परमात्मा में विलीन होना।
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आत्मीय  : वि० [सं० आत्मन्+ईय] [स्त्री० आत्मीया] १. आत्म या निज का। अपना। २. आंतरिक। घनिष्ठ। आत्मिक। (इन्टिमेट)। पुं० इष्ट-मित्र और बहुत पास के सबंधी जिनके साथ अपनायत का व्यवहार होता हो।
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आत्मीयता  : स्त्री० [सं० आत्मीय+तल्-टाप्] अपनापन। स्नेह संबंध। आत्मीय होने की अवस्था या भाव। (इन्टिमेसी)
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आत्मोक्ति  : स्त्री० [सं० आत्म-उक्त, स० त०] अभिनय आदि के समय किसी पात्र का आपसे आप, बिना किसी को उद्दिष्ट किये कोई बात कहना। स्वगत कथन। (माँनोलोग)
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आत्मोत्सर्ग  : पुं० [सं० आत्म-उत्सर्ग, ष० त०] दूसरे के हित के लिए अपने आपको पूरी तरह से लगा देना। आत्मबलिदान।
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आत्मोदय  : पुं० [सं० आत्म-उदय, ष० त०] अपना अभ्युदय या उत्थान।
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आत्मोद्वार  : पुं० [सं० आत्म-उद्धार,ष०त०] १. अपनी आत्मा को संसार के बंधनों से मुक्त करके मोक्ष का अधिकारी बनना। २. स्वयं किया जाने वाला अपना उद्धार या छुटकारा।
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आत्मोद्भव  : पुं० [सं० आत्म-उद्भव,ब० स०] १. पुत्र। २. कामदेव। वि० =आत्मभू।
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आत्मोन्नति  : स्त्री० [सं० आत्म-उन्नति, ष० त०] १. आत्मा की उन्नति। २. स्वयं की जानेवाली अपनी भौतिक उन्नति।
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आत्मोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० आत्मन्-उप√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो अपने परिश्रम से जीविका उपार्जित करता हो।
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आत्मोपम  : वि० [सं० आत्म-उपमा, ब० स०] अपने जैसा। अपने समान। जैसे—सबको आत्मोपम समझना ही बुद्धिमानों का काम है। पुं० पुत्र।
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आत्मौपम्य  : पुं० [सं० आत्म-औपम्य, ष० त०] १. आत्मोपम का अभाव। २. सबको अपने जैसा मानना।
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आत्यंतिक  : वि० [सं० अत्यंत+ठञ्-इक] [स्त्री० आत्यंतिकी] १. अत्यंत संबंधी। २. अत्यंत या बहुत अधिक मात्रा में होनेवाला। हद दरजे का। ३. अत्यंत या चरम सीमा तक पहुँचा हुआ। ४. अनंत। असीम। ५. सार्वकालिक।
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आत्ययिक  : वि० [सं० अत्यय+ठक्-इक] १. अत्यय संबंधी या अत्यय के रूप में होनेवाला। २. हानिकारक। ३. अशुभ। ४. दे० आपातिक। (एमर्जेन्ट)
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आत्रेय  : वि० [सं० अत्रि+ढक्-एय] १. अत्रि संबंधी। २. अत्रि ऋषि के गोत्र का। पुं० १. अत्रि ऋषि का वंशज। २. अत्रि के पुत्र दत्त, दुर्वासा और चंद्रमा। ३. आत्रेयी नदी के आस-पास का प्रदेश। (आधुनिक दीनाजपुर)।
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आत्रेयायण  : पुं० [सं० आत्रेय+फक्-आयन] आत्रेय का वंशज।
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आत्रेयी  : स्त्री० [सं० आत्रेय+ङीष्] १. अत्रि वंश की तपस्वनी स्त्री जो वेदांत की अच्छी ज्ञाता थी। २. एक प्राचीन नदी जो आज-कल के दीनाजपुर में है। ३. ऋतुमती या रजस्वला स्त्री।
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आथ  : पुं० [सं० अर्थ] १. अर्थ। मतलब। माने। २. अभिप्राय। आशय। ३. गूढ़ अर्थवाली बात। उदाहरण—गीता वेद भागवत में प्रभु यों बोले है आथ।—सूर। अव्य० लिए। वास्ते।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आथन  : पुं० [सं० अस्तमन] अस्त होने की क्रिया या भाव।
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आथना  : अ० [सं० अस्-होना,सं० अस्ति,प्रा०अत्थि] अस्तित्व से युक्त या वर्त्तमान होना। उदाहरण—यह जग कहा जो अथहि न आथी।—जायसी। अ० [सं० अस्तमन] अस्त होना। डूबना। उदाहरण—गहथा आथा गहथो ऊगै।—भड्डरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आथर्वण  : पुं० [सं० अर्थवन्+अण्] १. अथर्व वेद का ज्ञाता ब्राह्मण। २. अथर्व वेद में बतलाये हुए कर्म या कृत्य। ३. अथर्वा ऋषि का वंशज या उनके गोत्र का व्यक्ति। ४. पुरोहित।
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आथि  : स्त्री० [सं० अस्ति, प्रा० अत्थि, आथि] अस्तित्व। उदाहरण—एहिं जग काह जो आथि बिआयी।—जायसी।
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आथी  : स्त्री० [सं० स्थात्, हिं० थाती] १. पूँजी। थाती। उदाहरण—साथी आथि निजाथि जो सकै साथ निरबाहि।-जायसी। २. धन संपत्ति। ३. धन-संपन्नता। स्त्री० [सं० अस्ति] स्थिरता। अ०=है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आदंश  : पुं० [सं० आ√दंश् (डसना)+घञ्] १. दाँत से काटना। २. दाँत से काटने पर होनेवाला घाव।
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आद  : वि० [सं० आ√दा(दान)+क] १. ग्रहण या प्राप्त करनेवाला। २. समस्त पदों के अन्त में, प्रत्यय के रूप में खाने या खा जानेवाला। जैसे—व्यालाद=गरुड़। स्त्री० =याद। (राज०) स्त्री० =आदी। (अदरख)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आदत  : स्त्री० [अ०] १. अभ्यास। २. टेव। बान। ३. प्रकृति। स्वभाव।
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आदत्त  : वि० [सं० आ√दा+क्त] १. ग्रहण किया या लिया हुआ। गृहीत। २. दे० आत्त।
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आदम  : पुं० [अ०] १. ईसाइयों मुसलमानों यहूदियों आदि के अनुसार वह पहला व्यक्ति (हिन्दुओं के मनु का सम-कक्ष) जिससे सारी मानव जाति उत्पन्न हुई है। सृष्टि का आदि मनुष्य या व्यक्ति। २. आदम की संतान अर्थात् आदमी मनुष्य।
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आदम-कद  : पुं० [अ०+फा०] जो ऊँचाई में साधारणतः मनुष्य की ऊँचाई के बराबर हो। जैसे—आदम कद पेड़, आदम-कद शीशा आदि।
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आदम-खोर  : वि० [अ०+फा०] आदमी या मनुष्य को अथवा उसका मांस खानेवाला। नर-भक्षी।
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आदमजाद  : पुं० [अ०+फा०] आदम की संतान। आदमी। मनुष्य।
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आदमियत  : स्त्री० =आदमीयत।
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आदमी  : पुं० [अ०] [भाव० आदमीयत] १. आदम के वंशज या संतान। मनुष्य। मानव। जैसे—सड़क पर हजारों आदमी इकट्ठे हो गये। २. प्रौढ़ या वयस्क मनुष्य (बालक और स्त्री से भिन्न)। जैसे—अभी तक इस संबंध में तीन आदमी पकड़े गये है। ३. समझदार और होशियार व्यक्ति। जैसे—अब लड़कपन छोड़कर आदमी की तरह बातें करना सीखों। ४. किसी विशिष्ट कार्य के लिए नियुक्त किया हुआ व्यक्ति। जैसे—(क) उनका आदमी आकर यह पुस्तक ले जायगा। (ख) काम जल्दी कराना हो तो चार आदमी और रख लो। ५. विवाहित स्त्री के विचार से उसका पति। स्वामी। जैसे—मजदूरनी तो आ गयी पर उसका आदमी अभी नहीं आया।
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आदमीयत  : स्त्री० [अ०] १. आदमी होने की अवस्था या भाव। मनुष्यत्व। २. भले आदमी का सा आचरण और व्यवहार। शिष्टता। सभ्यता।
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आदर  : पुं० [सं० आ√दृ(सम्मान करना)+अप्] १. किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा सम्मान का वह पूज्य भाव जो दूसरों के मन में रहता है। २. उक्त के विचार से किया जाने वाला सत्कार। ३. किसी के प्रति अनुराग होने के कारण किया जानेवाला सत्कार और सम्मान। ४. बच्चों के साथ किया जानेवाला दुलार। (पूरब)। पुं० =आर्द्रा (नक्षत्र)। वि० =आर्द्र (गीला या तर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आदरण  : पुं० [सं० आ√दृ+ल्युट्-अन] अनुराग श्रद्धा आदि के कारण किसी का आदर या सत्कार करना।
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आदरणीय  : वि० [सं० आ√दृ+अनीयर] [स्त्री० आदरणीया] जो आदर प्राप्त करने का अधिकारी हो। आदर किये जाने के योग्य।
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आदरना  : स० [सं० आदरण] १. आदर या सत्कार करना। २. इज्जत या सम्मान करना।
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आदर-भाव  : पुं० [सं० आदर-भाव,ष०त०] किसी का किया जानेवाला आदर या सत्कार। आव-भगत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आदरस  : पुं०=आदर्श।
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आदर्य  : वि० [सं० आ√दृ (आदर करना)+यत्] =आदरणीय।
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आदर्श  : पुं० [सं० आ√दृश् (देखना)+घञ्] १. अवलोकन करना। देखना। २. दर्पण। शीशा। ३. टीका या व्याख्या। ४. प्रतिलिपि। ५. मानचित्र। नक्शा। ६. किसी बात या वस्तु की वह काल्पनिक श्रेष्ठतम अवस्था रूप या स्थिति जिसका हम अनुकरण करना चाहते हों, अथवा जिसके पास तक पहुँचना चाहते हों। जैसे—राम-राज्य का आदर्श। ७. वह श्रेष्ठतम वस्तु (या व्यक्ति) जिसके अनुकरण पर वैसी ही और वस्तु (या व्यक्ति) बनने बनाने की भावना उत्पन्न होती है। नमूना। प्रतिमान। (आइडियल, अंतिम दोनों अर्थों के लिए)।
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आदर्शक  : वि० [सं० आ√दृश्+णिच्+ण्वुल् वा√दृश+ण्वुल्-अक] १. दिखलाने या देखनेवाला। २. आदर्श संबंधी। पुं० [आदर्श+कन्] दर्पण। शीशा।
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आदर्शन  : पुं० [सं० आ√दृश्+ल्युट्-अन] १. देखना या दिखलाना। २. दृश्य। ३. दर्पण। शीशा। ४. आदर्श प्रस्तुत करना या बनाना।
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आदर्श-मंदिर  : पुं० [सं० ष० त०] शीशे का बना हुआ अथवा ऐसा घर जिसमें बहुत से शीशे लगे हों। शीश महल।
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आदर्शवाद  : पुं० [ष० त०] [वि० आदर्शवादी] १. यह सिद्धांत जो मनुष्य को सदा आदर्श (अच्छी से अच्छी बाते) अपने सामने रखकर उनकी सिद्धि या प्राप्ति के लिए सब कार्य करने चाहिए। २. दार्शनिक क्षेत्र में यह सिद्धांत कि संसार के सभी दृश्य पदार्थ मनुष्य की कल्पना या मन से ही संभूत है और यह नहीं कहा जा सकता कि मन से पृथक् या भिन्न कोई वास्तविकता है। ३. कला और साहित्य में कल्पनागत बात या विषय को आदर्श रूप देने की प्रणाली या शैली यथार्थवाद, का विपर्याय। (आइडियलिज्म)।
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आदर्शवादी(दिन्)  : वि० [सं० आदर्शवाद+इनि] आदर्शवाद संबंधी। पुं० १. आदर्शवाद को मानने और उसके अनुसार चलनेवाला व्यक्ति। २. ऐसा कलाकर या लेखक जो काल्पनिक आदर्श को अपनी कृति का विषय बनाता हो। (आइडियलिस्ट, दोनों अर्थों में)
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आदर्श-विज्ञान  : पुं० [सं० ष०त०] विज्ञान की दो शाखाओं में से एक जिसमें वे विज्ञान आते हैं जो कल्पना आदि के आधार पर आदर्शों का विवेचन करते हैं। (नाँरमेटिव साइंस) जैसे—नीति विज्ञान। (दूसरी शाखा तात्त्विक विज्ञान है)
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आदर्शित  : भू० कृ० [सं० आ√दृश्+णिच्+क्त] १. दिखलाया हुआ। प्रदर्शित। २. निर्देश किया हुआ। निर्दिष्ट।
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आदर्शीकरण  : पुं० [सं० आदर्श+च्वि,ईत्व√कृ(करना)+ल्युट्-अन] किसी वस्तु कार्य आदि को आदर्श रूप देने की क्रिया या भाव। (आइडियलाइजेशन)
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आदहन  : पुं० [सं० आ√दह् (जलाना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह जलना या जलाना। २. जलन। दाह। ३. ईर्ष्या। डाह। ४. शमशान।
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आदा  : पुं० =अदरक। (आदी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आदाता (तृ)  : वि० [सं० आ√दा(दान)+तृच्] १. पानेवाला। २. प्रापक। (रिसीवर) पुं० १. किसी विवाद ग्रस्त संपत्ति का अथवा दिवालिया संस्था का वह व्यवस्थापक जो न्यायालय द्वारा नियुक्त हो। (रिसीवर) २. =आग्राहक। ४. =प्रतिग्राहक।
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आदान  : पुं० [सं० आ√दा+ल्युट-अन] १. ग्रहण, प्राप्त या स्वीकार करना। लेना। २. लक्षण। चिन्ह। ३. निदान। ४. बंधन। ५. वह धन जो कर, शुल्क आदि के रूप में लिया जाने को हो या प्राप्य हो।
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आदान-प्रदान  : पुं० [सं० द्वन्द्व० स०] किसी से कुछ लेना और उसे कुछ देना। जैसे—वस्तुओं और विचारों का आदान-प्रदान।
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आदाद  : पुं० [अ० अदब का बहु०] १. आचरण, व्यवहार आदि के नियम। २. नमस्कार। प्रणाम।
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आदाय  : वि० [सं० आदेय] १. जो किसी से लेने, ग्रहण करने या प्राप्त करने के येग्य हो। प्राप्य। २. प्राप्त किया हुआ। पुं० १. किसी से कुछ लेने या ग्रहण करने की क्रिया या भाव। २. वह धन या लोन जो किसी से अधिकारपूर्वक लिया जा सकता हो।
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आदायी (यिन्)  : पुं० [सं० आ√दा+णिनि, युक् आगम] =आदाता।
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आदि  : पुं० [सं० आ√दा+कि] १. मूल कारण। २. आरंभ। शुरू। ३. परमात्मा। वि० १. पहला। जैसे—आदि कवि। २. आरंभ का। अव्य० एक अव्यय जिसका अर्थ होता है- इसी प्रकार या और बाकी सब भी, और जिसका प्रयोग कुछ चीजें गिनाने या बातें बताने के बाद यह सूचित करता है कि इस प्रकार की और सब चीजें या बातें भी इसी वर्ग में समझ ली जानी चाहिए। इत्यादि। वगैरह। (एट-सेट्रा) जैसे—(क) गौ, घोड़ा हाथी आदि। (ख) कपड़े गहने बरतन आदि।
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आदिक  : अव्य० [सं० आदि+क] आदि। वगैरह। (इस बात का सूचक कि ऐसे ही और भी समझें) जैसे—धर्म गुरु, पुरोहित आदिक। वि० किसी काम के आरंभ में होनेवाला। (इनीशियल) जैसे—(क) झगड़े या आदिक कारण। (ख) उत्सप का आदिक व्यय।
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आदि-कल्प  : पुं० [सं० कर्म० स०] भू० विज्ञान के अनुसार पाँच कल्पों से पहला कल्प जिसमें प्रायः सारे पृथ्वीतल पर ज्वालामुखियों का विस्फोट होता रहा था। अनुमान है कि यह कल्प आज से दो अरब वर्ष पहले हुआ था। (आर्कियाजोइक एरा)
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आदि-कवि  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. वाल्मीकी। २. शुक्राचार्य।
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आदि-कारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] सृष्टि का पहला उपादान या मूल कारण। विशेष—सांख्य के मत से प्रकृति वैशेषिक के मत से परमाणु और वेदांत के मत से ब्रह्म इस सृष्टि के आदि कारण माने गये हैं।
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आदित  : पुं० =आदित्य (सूर्य)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आदितेय  : पुं० [सं० अदिति+ठक्-एय] अदिति के पुत्र, सूर्य।
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आदित्य  : पुं० [सं० अदिति+ण्य] १. अदिति के पुत्र धाता, मित्र अर्यमा, रुद्र, वरुण, सूर्य, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु। २. सूर्य। देवता। ४. इंद्र। ५. वसु। ६. विश्वेदेव। ७. वामन अवतार। ८. मदार का पौधा। आक। ९. बारह मात्राओं के छंदों (तोमर लीला आदि) की संज्ञा।
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आदित्य-केतु  : पुं० [ष० त०] सूर्य का सारथि, अरुण।
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आदित्य-पर्णी  : स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. सूरजमुखी नाम का पौधा और उसका फूल। २. एक प्रकार की बूटी जिसमें लाल फूल लगते हैं।
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आदित्य-पुराण  : पुं० =सूर्य-पुराण।
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आदित्य-मंडल  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य के चारों ओर का प्रभा मंडल। २. वह वृत्त जिसपर सूर्य भ्रमण करता है।
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आदित्य-वार  : पुं० [ष० त०] रविवार। एतवार।
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आदि-देव  : पुं० [कर्म० स०] विष्णु। नारायण।
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आदि-नाथ  : पुं० [कर्म० स०] शिव। महादेव।
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आदि-पुराण  : पुं० [क्रम० स०] =ब्रह्मा पुराण।
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आदि-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] १. परमेश्वर। विष्णु। २. वह जिससे किसी वंश का आरंभ हुआ हो। मूल-पुरुष।
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आदिम  : वि० [सं० आदि+डिमच्] १. सबके आदि में होनेवाला। प्रथम। पहला। २. जो बहुत पुराना आरंभिक अविकसित और बिलकुल सीधे-सादे ढंग का हो। (प्रिमिटिव)।
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आदिम-जाति  : स्त्री० [कर्म० स०] किसी देश में रहनेवाला सबसे पहली और पुरानी मनुष्य जाति। (प्रिमिटिव रेस)
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आदिम-निवासी (सिन्)  : पुं० [कर्म० स०] दे० आदि वासी।
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आदि-मान  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. वह आदर या मान जो किसी व्यक्ति वस्तु या कार्य को औरों से पहले दिया जाता है। २. किसी विशेष अवस्था में किसी मान्य व्यक्ति को दिया जानेवाला कोई विशिष्ट अधिकार। विशेषाधिकार। (प्रेरोगेटिव)
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आदि-रस  : पुं० [सं० कर्म० स०] साहित्य में श्रंगार रस।
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आदि-रूप  : पुं० [सं० ब० स०] ईश्वर। परमात्मा।
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आदिल  : वि० [अ०] सदा अदल (न्याय) करनेवाला। न्यायशील।
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आदिलशाही  : पुं० [आदिलशाह(एक बादशाह का नाम)] पुरानी चाल का एक प्रकार का कागज जो दक्षिण भारत में बनता था।
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आदि-वासी (सिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. किसी देश या प्रांत के वे निवासी जो बहुत पहले से वहाँ रहते आयें हों और जिनके बाद और लोग भी वहाँ आकर बसे हों। आदिम निवासी। २. आधुनिक भारत में, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि में रहनेवाली ओराँव खरिया पहाड़िया, मुंडा संथाल आदि पुरानी जन-जातियाँ।
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आदि-विपुला  : पुं० [सं० त०] आर्या छंद का एक रूप या भेद।
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आदि-विपुला-जघन-चपला  : पुं० [जघन-चपला, तृ० त० आदि विपुला, जघन-चपला, द्वं० स०] आर्या छंद का एक भेद जिसके पहले चरण के तीन गणों में पाद अपूर्ण होता और दूसरे दल में दूसरा और चौथा गण जगण होता हैं।
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आदि-शक्ति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दुर्गा। महामाया।
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आदिश्यमान  : वि० [सं० आ√दिश् (बताना)+यक्+शानच्] जो आदेश के रूप में हुआ हो। आदिष्ट।
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आदिष्ट  : वि० [सं० आ√दिश्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे कोई आदेश दिया या मिला हो। २. (विषय) जिसके संबंध में कोई आदेश दिया गया हो या मिला हो।
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आदी  : स्त्री० [सं० आर्द्रक] अदरख। अव्य० [सं० आदि] १. आदि या आरंभ में ही। २. जरा भी। बिलकुल। उदाहरण—मातु न जानसि बालक आदी।—जायसी। वि० [अ०] जिसे किसी बात की आदत पड़ी हों। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आदीचक  : पुं० [हिं० आदी] आदी या अदरख की तरह का एक प्रकार का कंद जिसकी तरकारी बनती है।
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आदीपन  : पुं० [सं० आ√दीप् (दीप्ति)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आदीपित,आदीप्त] १. दीपक जलाना। २. आग जलाना या सुलगाना। ३. उत्तेजित करना। उकसाना। ४. स्वच्छ या चमकीला करना। चमकाना।
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आदृत  : भू० कृ० [सं० आ√दृ(आदर करना)+क्त] जिसका आदर या सम्मान किया गया हो।
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आदेय  : वि० [सं० आ√दा (देना)+यत्] १. किसी से प्राप्त करने या लेने योग्य। जो लिया जा सके। २. जिसपर कर, शुल्क आदि लिया या लगाया जा सके। ३. जिसपर कर, शुल्क आदि लगाया गया हो। (लेवीड)
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आदेश  : पुं० [सं० आ√दिश् (बताना)+घञ्] [कर्त्ता आदेशक, भू० कृ० आदिष्ट] १. अधिकारपूर्वक यह कहना कि ऐसा करो या ऐसा मत करो। आज्ञा। हुकुम। (आर्डर) २. नमस्कार। प्रणाम। उदाहरण—विद्या है तो करहिंगे सब कोऊ आदेस (आदेस)।—वृन्द। ३. ज्योतिषशास्त्र में ग्रहों का फल। ४. व्याकरण में किसी नियम के अनुसार एक वर्ण के स्थान पर दूसरे वर्ण का आ लगना।
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आदेशक  : वि० [सं० आ√दिश्+ल्वुट्-अक] आदेश करने या देनेवाला। (दे० आदेश।)
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आदेशन  : पुं० [सं० आ√दिश्+ल्युट-अन] [भू० कृ० आदिष्ट] आदेश देने की क्रिया या भाव।
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आदेश-लेख  : पुं० [ष० त०] न्यायालय की वह लिखित आज्ञा जिसमें कोई काम करने या न करने के लिए कहा गया हो। (रिट)।
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आदेशवाद  : पुं० [ष० त०] [वि० आदेशवादी] १. विचार किये हुए किसी आदेश मानने का सिद्धांत। २. वह दार्शनिक प्रणाली जिसमें ऐसे तत्त्व या सिद्धांत ठीक मान लिये जाते है, जो परीक्षा द्वारा अभी तक ठीक सिद्ध नहीं हुए हैं। (डॉगमैटिज्म)
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आदेशी (शिन्)  : पुं० [सं० आ√दिश्+णिनि] १. वह जो आदेश दे। २. शासक। ३. ज्योतिषी।
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आदेष्टा (ष्ट्रा)  : पुं० [सं० आ√दिश्+तृच्] =आदेशक।
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आदेस  : पुं० =आदेश। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आदौ  : अव्य० [सं० आदि० से] १. आदि या आरंभ से। शुरू से। २. आदि या आरंभ में। पहले।
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आद्यंत  : अव्य० [सं० आदि-अंत, अव्य० स०] आदि से अंत तक। पुं० किसी चीज या बात का आरंभ और अंत।
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आद्य  : वि० [सं० आदि+यत्] १. आदि या आरंभ में रहने या होनेवाला। २. आरंभिक। ३. प्रधान। मुख्य। ४. जो खाया जा सके।
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आद्यक्षिक  : पुं० [सं० अद्यक्ष+ठञ्-इक] वह नास्तिक जो केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता हो। (तार्किक से भिन्न)।
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आद्य-शेष  : पुं० [सं० ब० स०] हिसाब में वह धन जो पहले रोकड़ बाकी के रूप में रहा हो और अब नये खाते या पृष्ठ में गया हो। (ओपनिंग बैलेंस)
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आद्या  : स्त्री० [सं० आद्य+टाप्] १. दुर्गा। २. काली। ३. दस महाविद्याओं में से पहली महाविद्या। ४. भूमि। जमीन।
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आद्याक्षर  : पुं० [सं० आद्य-अक्षर, कर्म० स०] कई पदोंवाले नाम के प्रत्येक पद का आरंभिक अक्षर जिसका प्रयोग प्रायः संक्षिप्त रूप में नाम बताने हस्ताक्षर करने आदि के समय होता है। (इनीशियल) जैसे—महावीर प्रसाद द्विवेदी के आद्याक्षर हैं-म० प्र० द्वि।
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आद्याक्षरित  : भू० कृ० [सं० आद्याक्षरं+णिच्+क्त] जिस पर हस्ताक्षर की जगह नाम के केवल आद्याक्षर लिखे गये हों। (इनीशियल्ड)
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आद्योत  : पुं० [सं० आ√द्युत्(दीप्ति)+घञ्] १. क्रांति। चमक। २. प्रकाश। से अंत तक।
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आद्योपांत  : अव्य० [सं० आद्य-उपांत, अव्य० स०] आदि का आरंभ।
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आद्रा  : स्त्री० =आर्द्रा।
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आध  : वि० [हिं० आधा] दे० आधा। पद—एक आध=बहुत ही थोड़ा या कम। कदाचित एक या दो।
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आधमर्ण्य  : पुं० [सं० अधर्मण+ष्यज्] अधमर्ण या ऋणी होने की अवस्था या भाव।
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आधर्मिक  : वि० [सं० अधर्म+ठञ्-इक] १. जो धार्मिक न हो। २. जो धर्म-संगत आचरण न करता हो। जैसे—अन्यायी, असाधु आदि।
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आधर्षण  : पुं० [सं० आ√धृप् (पीड़न)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आधर्षित] न्यायालय द्वारा अभियुक्त को अपराधी ठहराना और दंड देना। (कन्विक्शन)
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आधर्षित  : भू० कृ० [सं० आ√धृष्+क्त] १. न्यायालय द्वारा अपराधी या दोषी ठहराया हुआ हो। २. दंड़ित। (कन्विक्टेड)
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आधा  : वि० [सं० अर्ध, प्रा० अड्ढ, पा० अद्ध, गु० आड़, का० मरा० सिह० अड] १. किसी वस्तु के दो बराबर भागों में से हर एक। पद
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आधाझारा  : पुं० [सं० आधाट] अपामार्ग या चिचड़ा नाम का पौधा।
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आधाता (तृ)  : वि० [सं० आ√धा(धारण करना)+तृच्] कहीं से कोई चीज लाकर रखने या स्थापित करनेवाला। आधान करनेवाला। पुं० १. अध्यापक। शिक्षक। २. वह जो कोई चीज किसी के पास गिरवी या बंधक रखे।
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आधा-तीहा  : वि० [हिं० आधा+तिहाई] आधे या तिहाई के लगभग। आधे से कुछ कम या तिहाई से कुछ अधिक।
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आधान  : पुं० [सं० आ√धा+ल्युट्-अन] १. बैठाने, रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव। जैसे—अग्नि या गर्भ का आधान। २. गर्भ। उदाहरण—कितिक दिवस अंतरह रहिय आधान राखि उर।—चंदबरदाई। ३. गर्भाधान से पहले होनेवाला एक संस्कार। ४. ग्रहण करना। लेना। ५. वह अवकाश पात्र या स्थान जिसमें कोई चीज रखी जाए या रखी जा सके। पात्र। (रिसेप्टेकल) ६. घेरा। ७. प्रयत्न। ८. कोई चीज किसी के पास बंधक या रेहन रखना।
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आधानवती  : वि० स्त्री० [सं० आधान+मतुप्० वत्व-ङीष्] गर्भवती।
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आधानिक  : पु० [सं० आधान+ठञ वत्व-ङीष्] गर्भाधान से पहले होनेवाला एक संस्कार।
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आधायक  : पुं० [सं० आ√धा+ण्वुल्-अक] १. आधान करने (लाकर रखने, बैठाने या स्थापित करने) वाला। जैसे—दोषाधायक-दोष से युक्त करनेवाला। २. प्रभावित करनेवाला। ३. देनेवाला।
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आधार  : पुं० [सं० आ√धृ (धारण)+घञ्] १. नीचे की वस्तु जिसके ऊपर कोई दूसरी वस्तु टिकी ठहरी या रखी हो। जैसे—इस जल का आधार यह घड़ा (या लोटा) है। २. वह जो किसी को किसी प्रकार का आश्रय या सहारा देता हो। जैसे—जीवन का आधार भोजन है। ३. वह जिसके बल पर कोई काम या बात चलती या होती है। अवलंब। भरोसा। सहारा। जैसे—(क) जल-पान कर लिया, इससे दिन भर के लिए आधार हो गया। (ख) यहाँ तो बस भगवान का ही आधार है। ४. जड़। नींव। बुनियाद। ५. आधान। पात्र। ६. वृक्ष का थाँवला। थाला। आल-बाल। ७. व्याकरण में अधिकरण कारक। ८. योगशास्त्र में शरीर के अंदर के छः चक्रों में से एक जिसका स्थान गुदा का ऊपरी भाग कहा गया है। यह लाल रंग का और चार दलों वाला माना गया है। और इसके देवता गणेश कहे गये हैं। ९. ज्यामिति में वह रेखा या तल जिस पर कोई आकृति या घनपिंड ठहरा हुआ या स्थित माना जाता है। (बेस)।
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आधारक  : पुं० [सं० आधार+कन्] १. वह जिसके ऊपर कोई ढाँचा खड़ा हो। आधार। नींव।
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आधारण  : पुं० [सं० आ√धृ+णिच्+ल्युट्-अन] धारण करने या अपने ऊपर लेने की क्रिया या भाव।
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आधार-रूपा  : स्त्री० [सं० ब० स० टाप्] गले का एक आभूषण।
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आधार-शक्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. सृष्ट उत्पन्न करनेवाली मूल प्रकृति। २. माया।
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आधार-शिला  : स्त्री० [ष० त०] वह पहला पत्थर जो नींव में रखा जाता है और जिसके ऊपर भवन या इमारत बनता है। (फाउन्डेशन स्टोन)
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आधार-स्तंभ  : पुं० [ष० त०] वह जिसके ऊपर किसी का सारा ढाँचा या अस्तित्व आश्रित हो।
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आधाराधेयभाव  : पुं० [सं० आधार-आधेय, द्व० स० आधाराधेय-भाव, ष० त०] परस्पर उस प्रकार का भाव या संबंध, जैसा आधार और आधेय में होता है।
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आधारिक  : वि० [सं० आधार+ठक्-इक] १. आधार-संबंधी। २. जो किसी काम या बात के लिए आधारस्वरूप हो। (बेसिक) जैसे—आधारिक भाषा। आधारिक शिक्षा।
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आधारिक-भाषा  : स्त्री० [कर्म० स०] किसी भाषा का वह बहुत हलका और सब के समझने योग्य रूप जिसमें थोड़े से परम प्रचलित शब्दों से ही सब काम चलाये जाते हैं। (बेसिक लैग्वेज) विशेष—ऐसी भाषा का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि अन्य भाषा-भाषियों में सहज में उसका यथेष्ट प्रचार हो सके।
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आधारित  : वि० [सं० आधार+णिच्+क्त] जो किसी के आधार पर टिका या ठहरा हो। किसी को आधार बनाकर उस पर आश्रित रहनेवाला। आधृत।
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आधारी (रिन्)  : पुं० [सं० आधार+इनि] [स्त्री०आधारिणी] १. वह जो किसी आधार पर ठहरा या टिका हो। २. लकड़ी का वह ढाँचा जिसके सहारे साधु लोग बैठते है। टेवकी।
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आधा-सीसी  : स्त्री० [हिं० आधा+सीस(शीर्ष) =सिर] आधे सिर का दर्द। अध-कपारी।
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आधि  : स्त्री० [सं० आ√धा (धारण करना)+कि] १. मानसिक कष्ट या चिंता। २. धरोहर या बंधक के रूप में रखी हुई चीज। ३. आशा। ४. लक्षण। ५. रहने की जगह। आवास।
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आधिक  : वि० [हिं० आधा+एक] १. आधे के लगभग। आधे से कुछ ही कम या अधिक। २. अल्प। थोड़ा। अव्य० प्रायः। लगभग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आधिकरणिक  : वि० [सं० आधिकरण+ठक्-इक] अधिकरण संबंधी। जैसे—आधिकरणिक विक्रय। (कोर्ट सेल)। पुं० अधिकरण विक्रय। (कोर्ट आँफिसर)
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आधि-कर्त्ता (र्तृ)  : पुं० [सं० ष० त०] किसी के पास कोई चीज गिरवी या बंधक रखनेवाला व्यक्ति।
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आधिकरिक  : वि० [सं० अधिकार+ठक्-इक] १. अधिकार संबंधी। २. किसी अधिकारी के द्वारा या अधिकारपूर्वक किया या कहा हुआ। (आँथॉरिटेटिव) ३. सरकारी। (आँफिशल) पुं० १. वह जिसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त हो और वह उस अधिकार का प्रयोग करता हो। अधिकारी। (आँथॉरिटी) २. परमात्मा। ३. दृष्य-काव्य में मूल कथा-वस्तु।
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आधिकारिकी  : स्त्री० [सं० आधिकारिक से] व्यक्तियों का वह वर्ग या समूह जो किसी कार्य या विषय से संबंध रखनेवाली सब बातों का नियंत्रण और संचालन करता हो। (आँथॉरिटी)।
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आधिक्य  : पुं० [सं० अधिक+ष्यञ्] मान, मात्रा आदि में अधिक होने की अवस्था या भाव। अधिकता।
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आधिदैविक  : वि० [सं० अधिदेव+ठञ्-इक] १. दैव, प्रकृति आदि के द्वारा प्राप्त होनेवाला। (दुख ताप या कष्ट) देवता-कृत। २. जो साधारणतः प्राकृतिक या लोक गत न हो, बल्कि उससे बहुत बढ़-चढ़कर हो। (सुपर नेचुरल)
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आधि-वर्त्ता (र्तृ)  : पुं० [ष० त०] वह जिसके पास कोई चीज गिरवी या रेहन रखी जाए।
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आधिपत्य  : पुं० [सं० अधिपति+ष्यञ्] १. अधिपति होने की अवस्था या भाव। २. किसी वस्तु पर प्राप्त होनेवाला ऐसा अधिकार जो किसी को उस वस्तु के संबंध में सब कुछ कहने में समर्थ करता हो। (पजेशन)।
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आधि-भोग  : पुं० [ष० त०] धरोहर या बंधक रखी हुई वस्तु का उपभोग या उपयोग।
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आधिभौतिक  : वि० [सं० अधिभूत+ठञ्-इक] आधिभूतों अर्थात् भौतिक पदार्थों और जीव-जंतुओं आदि के कारण या उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाला। जैसे—आधिभौतिक ताप-भौतिक पदार्थों या जीव-जंतुओं के कारण मनुष्य को होनेवाला कष्ट या रोग।
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आधिराज्य  : पुं० [सं० अधिराज+ष्यञ्] अधिराज होने की अवस्था या भाव।
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आधि-व्याधि  : स्त्री० [द्व० स०] मानसिक कष्ट या चिंता और शारीरिक पीड़ा। दुःख और वेदना।
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आधीन  : वि०=अधीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आधीनता  : स्त्री०=अधीनता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आधुनिक  : वि० [सं० अधुना+ठञ्-इक] १. जो इधर थोड़े समय से ही चला निकला या अस्तित्व में आया हो। हाल का। जैसे—आधुनिक युग आधुनिक साहित्य। २. जिसपर वर्त्तमानकाल की बातों या विशेषताओं की पूरी छाप पड़ी हो। सांप्रतिक। (मार्डन) जैसे—आधुनिक पहनावा। आधुनिक शिष्टाचार।
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आधुनिका  : स्त्री० [सं० आधुनिक+टाप्] आधुनिक सभ्यता के अनुसार रहने और आचरण करनेवाली स्त्री।
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आधूत  : वि० [सं० आ√धू (काँपना)+क्त] १. काँपता हुआ। कंपित। २. विकल। व्याकुल। पुं० पागल। विक्षिप्त।
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आधूपन  : पुं० [सं० आ√धूप् (तपाना)+ल्युट्-अन] धूएँ से ढँकना या आवृत्त करना।
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आधूमित  : भू० कृ० [सं० आ-धूम, प्रा० स,०+इतच्] धुएँ से आवृत्त या ढका हुआ।
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आधूस्र  : वि० [सं० प्रा० स०] जिसका रंग धुएँ जैसा काला हो।
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आधृत  : वि० अव्य० [सं० आ√धृ (धारण)+क्त] आधारित।
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आधेक  : [हिं० आधा+एक] आधे के लगभग। प्रायः आधा।
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आधेय  : पुं० [सं० आ√धा (धारण करना)+यत्] वह जो किसी आधार पर ठहरा बना या रहता हो। वि० १. ठहराने या स्थापित किये जाने के योग्य। २. रचने योग्य। ३. रेहन रखे जाने के योग्य।
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आधोफर  : पुं० [?] छज्जा। (डिं०)
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आधोरण  : पुं० [सं० आ√धोर्+ल्यु-अन] महावत। हाथीवान।
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आध्मान  : पुं० [सं० आ√ध्मा (शब्द करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आध्मात] १. पेट फूलने का रोग। अफरा। २. जलोदर रोग।
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आध्यात्मिक  : वि० [सं० अध्यात्म+ठञ्-इक] [भाव० आध्याम्मिकता] जिसमें आत्मा और ब्रह्म के संबंध तथा स्वरूप का विचार या विवेचन हो। अध्यात्म से संबंध रखनेवाला। भौतिक लौकिक आदि से भिन्न। (स्पिरिचुअल)
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आध्यात्मिकी  : स्त्री० [सं० आध्यात्म से] वह विद्या जिसमें हर वस्तु के आध्यात्मिक स्वरूप पर विचार किया जाता है। (स्प्रिचुअलिज्म)
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आध्यापक  : पुं० [सं० अध्यापक+अण्] =अध्यापक।
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आध्यायिक  : पुं० [सं० अध्याय+ठञ्-इक] १. वह जो वेदों का अध्ययन करता हो। २. वह जो बराबर अध्ययन करता रहता हो। वि० अध्ययन संबंधी।
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आध्यासिक  : वि० [सं० अध्यास+ठक्-इक] धोखे या भूल से आरोपित किया या माना हुआ। अयथार्थ और कल्पित। जैसे—रस्सी को साँप समझना आध्यासिक भ्रम है।
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आनंतर्य  : पुं० [सं० अनन्तर+ष्यञ्] अनंतर होने की अवस्था या भाव।
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आनंत्य  : पुं० [सं० अनन्त+ष्यञ्] अनंत होने की अवस्था या भाव। अनंतता।
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आनंद  : पुं० [सं० आ√नन्द् (समृद्धि)+घञ्] [वि० आनंदित,आनंदी] १. मन में होनेवाली ऐसी अनुकूल तथा प्रिय अनुभूति जो अभीष्ट तथा सुखद परिस्थितियों में होती है तथा जिसमें अभाव, कष्ट, चिंता आदि नाम को भी नही होतें। (हैपिनेस) पद—आनंद बधाई, आनंद मंगला (दे०)। २. मद्य। शराब। ३. ब्रह्म। ४. विष्णु। ५. शिव। ६. एक प्रकार का छंद। वि० [आनंद+अच्] आनंदपूर्ण। प्रसन्न और सुखी। (क्व०)
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आनंदक  : वि० [सं० आ√नन्द्+ण्वुल्-अक] आनंद करने या मनानेवाला।
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आनंद-कोश  : पुं० [ष० त०]=आनंदमय कोश।
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आनंदन  : पुं० [सं० आ√नन्दं+णिच्+ल्युट्-अन] आनंदित करने की क्रिया या भाव। वि०=आनंददायक।
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आनंदना  : अ० [सं० आनन्द] आनंदित या प्रसन्न होना। स० आनंदित या प्रसन्न करना।
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आनंद-बधाई  : स्त्री० [सं० आनन्द+हिं० बधाई] शुभ अवसरों पर या मांगलिक उत्सव के समय (क) दी जानेवाली बधाई और (ख) होनेवाला राग और रंग।
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आनंद-बधावा  : पुं० =आनंद बधाई।
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आनंद-भैरव  : पुं० [कर्म० स०] १. शिव का एक रूप। २. आयुर्वेद में एक रस।
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आनंद-भैरवी  : स्त्री० [कर्म० स०] भैरव राग की एक रागिनी।
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आनंद-मंगल  : पुं० [द्व०स०] १. शुभ तथा सुखद अवसर पर मनाया जानेवाला आनंद और होनेवाला राग रंग। २. सुख और चैन।
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आनंद-मत्ता  : स्त्री० [तृ० त०] आनंद सम्मोहिता (नायिका)।
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आनंदमय कोश  : पुं० [सं० आनंद+मयट्, आनंदमय-कोश, कर्म० स०] आत्मा को आवृत्त करनेवाले पाँच कोशों में से अंतिम जो कारण शरीर या सुषुप्ति के रूप में माना गया है। (वेदांत)
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आनंद-सम्मोहिता  : स्त्री० [तृ० त०] साहित्य में वह नायिका जो संभोग के आनंद में मग्न या मुग्ध हो रही हो।
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आनंद्रातिरेक  : पुं० [सं० आनंद-अतिरेय, ष० त०] अत्यानंद।
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आनंदाश्रु  : पुं० [सं० आनंद-अश्रु, मध्य० स०] बहुत अदिक आनंद के समय आँखों से निकलने वाले आँसू या भर आनेवाला जल।
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आनंदित  : भू० कृ० [सं० आ√नन्द्+क्त] जिसे आनंद हुआ हो। हर्षित। प्रसन्न।
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आनंदी (दिन्)  : पुं० [सं० आ√नन्द्+णिनि] वह जो सदा आनंद मनाता रहता हो।
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आन  : स्त्री० [फा० या० सं० आणि-मर्यादा] १. परंपरा प्रतिज्ञा संकल्प सिद्धांत आदि के निर्वाह या पालन की वह दृढ़ भावना जिसके भूल में अपनी या अपनी जाति वर्ग समाज आदि की प्रतिष्ठा या मर्यादा की रक्षा का विचार प्रधान होता है। जैसे—(क) वीर लोग अपनी आन पर प्राण देते है। (ख) वह आनवाला रोजगारी है, सहज में नहीं दबेगा। २. किसी की उक्त भावना या गौरव के आधार पर या उसका स्मरण कराते हुए दी जानेवाली दुहाई या मचनेवाली पुकार। मुहावरा—आन फेरना=(क) दुहाई फिरना। (ख) पुकार मचना। उदाहरण—मेरे जान जनकपुर फिरिहै रामचंद्र की आन।—सूर। आन फेरना-चारों ओर अपने प्रभुत्व विजय आदि की डुग्गी या ढिढोरा पिटवाना। उदाहरण—आन आन फेरी मदम करी मान तजि मान।—विक्रम सतसई। ३. उक्त के आधार पर दी जानेवाली शपथ या सौगंध। जैसे—तुम्हें भगवान की आन है, वहाँ मत जाना। ४. प्रतिष्ठा। मर्यादा। सम्मान। ५. जिद। टेक। हठ। ६. अकड़। ऐँठ। स्त्री० [सं० आणि=मर्म-स्थान] किसी काम या बात का ऐसा ढंग प्रकार या स्वरूप जो अनोखा या निराला होने के सिवा आकर्षक तथा हृदयग्राही हो। लुभावनी अंग भंगी या मनोहर हाव-भाव। जैसे—उसने ऐसी आन से ठुमरी गाई कि सब लोग वाह-वाह करने लगे। स्त्री० [अ०मि०सं० आन=साँस] १. बहुत ही थोड़ा समय। क्षण। पल। पद—आन की आन में-बहुत थोड़े समय में। बात ही बात में। पलक मारते। जैसे—उस भूकंप में आन की आन में प्रलय का दृष्य उपस्थित कर दिया। २. काल। समय। उदाहरण—मिलिकै बिछुरन मरन की आना-जायसी। स्त्री० [सं० अत्यन्त, प्रा० अण्ण, गुज० आण, आन० अना, मरा० आणि, आणरवी० सिं० अनुम, आनिक] और कोई। अन्य। दूसरा। (पूरब) पद—आन की आन या आन का तान-जो हो उसके स्थान पर उससे भिन्न। और का और। स्त्री० [हिं० आन=दूसरा] निषिद्ध चीजों या बातों से बचने का ध्यान या विचार। उदाहरण—ठंढियाँ निकली है बच्चें के पड़ा फिरता है। कुछ किसी बात की भी आन है। गोइयाँ तुमको।—कोई शायर। प्रत्यय-[?] एक प्रत्यय जो कुछ धातुओं के अंत में लगकर उन्हें भाव वाचक संज्ञाओं का रूप देता है। जैसे—
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आनक  : पुं० [सं० आ√अन् (जीना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. एक प्रकार का बहुत बड़ा सैनिक नगाड़ा। २. गरजता हुआ बादल।
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आनक-दृंदुभि  : पुं० [कर्म० स०] १. बहुत बड़ा नगाड़ा। २. [ब० स०] कृष्ण के पिता वासुदेव।
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आनत  : वि० [सं० आ√नम् (झुकना)+क्त] १. जो झुका हुआ या नत हुआ हो। २. जो किसी को नम्रतापूर्वक प्रणाम करने के लिए झुका हो। ३. नम्र। सुशील। ४. जिसका झुकाव या प्रवृत्ति किसी ओर हो। पुं० -एक जैन देवता।
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आन-तान  : स्त्री० [हिंआन+तान=खिंचाव] १. आन या प्रतिष्ठा और तान का खिचाव का भाव या विचार। ठसक। २. टेक। हठ। ३. अभिमानपूर्ण और बेतुका आचरण या व्यवहार।
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आनति  : स्त्री० [सं० आ√नम्+क्तिन्] १. आनत होने की अवस्था या भाव। २. झुकाव। नति। ३. प्रणाम।
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आनद्ध  : भू० कृ० [सं० आ√नह् (बाँधना)+क्त] १. बँधा हुआ। बाधा आदि के कारण रुका हुआ। ३. किसी चीज से ढका या मढ़ा हुआ। ४. सजाया हुआ। पुं० १. कोई ऐसा बाजा जो चमड़े से मढ़ा हो। जैसे—ढोल, मृदंग आदि। २. सजावट।
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आनन  : पुं० [सं० आ√अन्+ल्युट्-अन] १. मुख। मुँह। २. मुख की आवृत्ति या बनावट। ३. चेहरा। मुखड़ा। पुं० [सं० आनक] दृदुभी। उदाहरण—कर पद पत्र धनुख्ख ढाल आनन सुचक्क रक।—चंदबरदाई।
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आनन-फानन  : अष्य० [अ०] १. बात की बात में। २. अतिशीघ्र। तुरंत।
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आनना  : स० [सं० आनयन, प्रा० आणणें, सिं० आअणु का० अनुन्० मरा० आइणणो] कहीं से (वस्तु आदि) ले आना। लाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आनबान  : स्त्री० [हिं० आन+अनु० बान] १. ठाट-बाट। सजधज। २. ठसक।
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आनमन  : पुं० [सं० आ√नम्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आनमित] १. झुकने या नत होने की क्रिया या भाव। २. नम्रतापूर्वक किसी के आगे सिर झुकाना।
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आनम्य  : वि० [सं० आ√नम्+यत् बा०णइच्+यत्] [भाव० आनम्यता] १. झुकनेवाला। २. जो झुक सके या झुकाया जा सके। (प्लाइएबुल) ३. जो आवश्यकता होने पर हर नई स्थिति के अनुकूल बनाया जा सके। (फ्लेक्सिबुल) जैसे—आनम्य-संविधान।
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आनयन  : पुं० [सं० आ√नी (पहुँचना)+ल्युट्-अन] १. ले आना। लाना। २. उपनयन संस्कार।
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आनरेरी  : वि० [अ०] १. केवल कर्त्तव्य के विचार से अपनी मर्यादा का ध्यान रखते हुए बिना वेतन लिये काम करनेवाला। (व्यक्ति) २. उक्त प्रकार से होनेवाला (कार्य या पद)
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आनर्त  : पुं० [सं० आ√नृत् (नाचना)+घञ्] [वि० आनर्त्तक] १. आधुनिक सौराष्ट्र देश का पुराना नाम। २. उक्त देश का निवासी। ३. नृत्यशाला। नाच-घर। ४. युद्ध। ५. जल।
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आनर्तक  : वि० [सं० आनर्त+वुञ्-अक] १. आनर्त संबंधी। २. [आ√नृत्+ण्वुल्-अक] नर्त्तक।
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आनर्तन  : पुं० [सं० आ√नृत्+ल्युट्-अन] नाचना। नर्तन।
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आनर्त्त-नगरी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] द्वारकापुरी।
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आनर्थक्य  : पुं० [सं० अनर्थक+ष्यञ्] अनर्थक या निरर्थक होने की अवस्था या भाव।
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आना  : अ० [सं० आगमन, पुं० हिं० आगवन, आवना] १. किसी चीज का कहीं से चलकर इस ओर (अर्थात् वक्ता की ओर) उपस्थित, प्राप्य या वर्त्तमान होना। आगमन होना। जैसे—अतिथि आना, बरसात आना, हवा आना आदि। मुहावरा—आ धमकना=अचानक या सहसा आ पहुँचना। आ पड़ना=(क) सहसा आ पहुँचना। (ख) सहसा गिर पड़ना। आ पड़ना=(क) टूट पड़ना। (ख) विपत्ति या संकट आना। आ बनना=(क) घटना के रूप में उपस्थित होना। घटित होना। उदाहरण—आइ बना भल सकल समाजू।—तुलसी। (ख) लाभ उठाने का अच्छा अवसर हाथ आना। आ लगना=किसी स्थान या ठिकाने पर पहुँचना। आ लेना=(क) पकड़ लेना। (ख) पास पहुँचना। पद—आता जाता=इधर या इस ओर आने तथा उधर या उस ओर जानेवाला। आना-जाना=(क) जन्म-मृत्यु। (ख) मिलना जुलना। आया गया=(क) वह जो किसी काम से आय और चला जाए। (ख) अतिथि। २. उत्पन्न होकर सामने उपस्थित होना। घटित होना। जैसे—पौधे में फल या फूल आना। ३. गुण योग्यता आदि की अभिवृद्धि या विकास होना। जैसे—जवानी आना। ४. ज्ञान या जानकारी होना। जैसे—अँगरेजी या हिन्दी आना। ५. अनुभूति होना। जैसे—यह नया विचार अभी मस्तिष्क में आया है। ६. किसी अवस्था या स्थिति में पहुँचना या होना। जैसे—गाड़ी के नीचे आना। किसी निश्चय पर आना। पुं० [सं० आणक] १. रुपयें का सोलहवाँ अंश या भाग। २. किसी चीज का सोलहवाँ अंश या भाग। जैसे—व्यापार में चार आने का हिस्सा। प्रत्यय-[फा०आन] होनेवाला। अवधि पर होनेवाला। जैसे—रोज़ाना, सलाना।
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आनाकारी  : स्त्री० [सं० अनाकर्णन] १. कोई बात सुनकर भी न सुनी के समान करना। २. टाल-मटोल या हीला-हवाला। स्त्री०-काना-फूसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आनाथ्य  : पुं० [सं० अनाथ+ष्यञ्] अनाथ होने की अवस्था या भाव। अनाथता।
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आनाय  : पुं० [सं० आ√नी+घञ्] जाल। फंदा।
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आनाह  : पुं० [सं० आ√नह् (बाँधना)+घञ्] [वि० आनाहिक] १. बाँदना। २. मलावरोध से पेट फूलने का एक रोग। कब्जियत। ३. (कपड़े आदि की) लंबाई।
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आनि  : स्त्री० =आन।
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आनिल  : वि० [सं० अनिल+अण्] अनिल या (वायु) से संबंध रखनेवाला। पुं० १. हनुमान। २. भीम। ३. स्वाति नक्षत्र।
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आनीत  : भू० कृ० [सं० आ√नी+क्त] [भाव० आनीति] जिसका आनयन हुआ हो। लाया हुआ।
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आनुकूलित  : वि० [सं० अनुकूल+ठक्-इक] अनुकूल होने का भाव। अनुकूलता।
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आनुक्रमिक  : वि० [सं० अनुक्रम+ठक्-इक] १. किसी अनुक्रम के अनुसार होनेवाला। २. अनुक्रम से लगा या लगाया हुआ।
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आनुगतिक  : वि० [सं० अनुगत+ठक्-इक] अनुगत या अनुगति से संबंध रखनेवाला।
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आनुगत्य  : पुं० [सं० अनुगत+ष्यञ्] १. अनुगत होने की अवस्था या भाव। २. अनुगमन। ३. घनिष्ठ परिचय।
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आनुग्रहिक  : वि० [सं० अनुग्रह+ठक्-इक] १. अनुग्रह संबंधी। २. अनुग्रह (कृपा दया आदि) के रूप में होनेवाला।
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आनुतोषिक  : पुं० [सं० अनुतोष+ठक्-इक] वह धन जो किसी को किसी कार्य या सेवा के बदले में उसे संतुष्ट या प्रसन्न करने के लिए (उसके वेतन आदि के अतिरिक्त) विशेष रूप से दिया जाए। (ग्रेचुइटी)
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आनुदानिक  : वि० [सं० अनुदान+ठक्-इक] अनुदान से संबंध रखने अथवा अनुदान के रूप में मिलने या होनेवाला।
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आनुपातिक  : वि० [सं० अनुपात+ठक्-इक] अनुपात के विचार या दृष्टि से होनेवाला। अनुपात संबंधी। (प्रपोर्शनल) जैसे—आनुपातिक प्रतिनिधित्व।
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आनुपूर्व  : वि० [सं० अनुपूर्व+अण्] एक के बाद एक या क्रम में होनेवाला।
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आनुपूर्वी  : स्त्री० [सं० अनुपूर्व+ष्यञ्-ङीष्,यलोप] आगे-पीछे के क्रम से होने की क्रिया या भाव। जैसे—वाक्य में शब्दों की आनुपूर्वी।
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आनुभविक  : वि० [सं० अनुभव+ठक्-इक] अनुभव निरीक्षण प्रयोग आदि से प्राप्त होनेवाला। (एम्पिरिकल्) जैसे—आनुभविक ज्ञान।
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आनुमानिक  : वि० [सं० अनुमान+ठक्-इक] अनुमान से संबंध रखने या उसके आधार पर माना या समझा जानेवाला। जैसे—आनुमानिक व्यय।
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आनुवंशिक  : वि० [सं० अनुवंश+ठक्-इक] १. [भाव० आनुवंशिकता] वंश परम्परा से प्राप्त। पुश्तैनी। २. जो किसी वंश में बराबर होता आया हो। और जिसके आगे भी उस वंश में होने रहने की संभावना हो। वंशानुक्रमिक। (हेरिडेटरी) जैसे—आनुवंशिक हठ या आनुवंशिक रोग।
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आनुवंशिकता  : स्त्री० [सं० आनुवंशिक+तल्-टाप्] १. आनुवंशिक होने की अवस्था परंपरा या भाव। २. जीव-विज्ञान में वे गुण या तत्त्व जो प्राकृतिक रूप से जीवों को अपने-अपने पूर्वजों से प्राप्त होते है। (हेरेडिटी)
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आनुवेश्य  : पुं० [सं० अनुवेश+ष्यञ्] पड़ोसी। प्रतिवेशी।
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आनुश्रविक  : वि० [सं० अनुश्रव+ठक्-इक] जिसे परंपरा से सुनते चले आए हो।
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आनुषंगिक  : वि० [सं० अनुषंग+ठक्-इक] १. आप से आप या यों ही घटित होनेवाला। (एक्सीडेण्टल)। २. अनावश्यक रूप से अथवा गौण रूप से किसी के साथ या पीछे होनेवाला। (इनसीडेण्टल)
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आनूप  : वि० [सं० अनूप+अण्] १. अनूप देश में होने या उससे संबंध रखनेवाला। २. प्रायः जल में या उसके पास रहने या होनेवाला। जैसे—भैसे, मछलियाँ आदि आनूप प्राणी हैं। पुं० १. ऐसा देश या प्रदेश जिसमें जल की अधिकता हो। २. दलदल।
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आनृत  : वि० [सं० अनृत+अण्] १. सदा झूठ बोलनेवाला। २. झूठ से भरा हुआ। जैसे—आनृत कथन।
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आनृशंस्य  : वि० [सं० अनृशंस+ष्यञ्] दे ‘आनृशंस’।
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आनेता  : (तृ) वि० [सं० आ√नी(ले जाना)+तृच्] आनयन करने अर्थात् लानेवाला।
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आनैपुण  : वि० [सं० अनिपुण+अण्] अनिपुण होने की अवस्था या भाव।
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आनैपुण्य  : पुं० [सं० अनिपुण+ष्यञ्] दे० ‘आनैपुण’।
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आनैश्वर्य  : पुं० [सं० अनीश्वर+ष्यञ्] ऐश्वर्य का अभाव।
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आन्न  : वि० [सं० अन्न+अण्] १. अन्न संबंधी। अन्न का। २. जिसके पास अन्न हो। ३. जिसमें अन्न मिला हो। ४. अन्न से बना या बनाया हुआ।
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आन्वयिक  : वि० [सं० अन्वय+ठक्-इक] १. व्यवस्थित। २. कुलीन।
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आन्वीक्षिणी  : स्त्री० [सं० अन्वीक्षा+ठञ्-इक-ङीष्] १. आत्म विद्या। २. तर्कशास्त्र। न्याय।
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आप  : सर्व० [सं० आत्मन्, आत्म, प्रा० अप्प० अप्पणो (षष्ठी) अप० आपणउ० पुं० हिं० आपनो, गुज० आप, आपणा० मरा० आपण, ने० आपु, आपन, पं० आप, आप्पाँ, बँ० आपाँ, आपनि, उ० आपे, आपण, सिं० पाण, पाणु, कन्न० पान, सिंह० अपि] १. अपने शरीर से। स्वयं। खुद। (तीनों पुरुषों मे) जैसे—तुम आप चले जाओ। मुहावरा—आप ही आप पड़ना=अपनी अपनी रक्षा या लाभ का ध्यान रहना। अपने आपको जानना=दे० आपको जानना। अपने आपको भूलना=(क) किसी मनोवेग के कारण बेसुध होना। (ख) घमंड चूर होना। आपको जानना=अपना अस्तित्व महत्त्व आदि प्रकट सूचित या स्थापित करना। उदाहरण—जहाँ जहँ गाढ़ परी भक्तनि कौ तहँ तहँ आपु जनायौ।—सूर। आप से आप या आप ही आप=(क) स्वयं। खुद। मन ही मन। स्वगत। आप से आप-बिना किसी चेष्टा या प्रयास के। २. एक आदर सूचक प्रयोग तुम या वे के स्थान पर प्रयुक्त सर्वनाम। जैसे—आप ही चले जाएँ। पुं० [सं० आपः-जल] १. जल। २. आकाश। ३. प्राप्ति। ४. एक वसु।
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आपक  : वि० [सं० आ√आप्(पाना)+ण्वुल्-अक] पाने या प्राप्त करनेवाला।
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आपकाज  : पुं० [हिं० आप+काज-कार्य] [वि० आपकाजी] १. अपना या निजी काम। २. स्वार्थ।
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आपकाजी  : वि० [हिं० आपकाज] मतलबी। स्वार्थी।
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आपक्व  : वि० [सं० प्रा० स०] १. जो अच्छी तरह पका न हो। २. कम, थोड़ा या हीन।
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आपगा  : स्त्री० [सं० आप√गम् (जाना)+ड] नदी।
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आपगेय  : वि० [सं० आपगा+ठक्-एय] आपगा या नदी से संबंध रखनेवाला। पुं० भीष्म।
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आपचारी  : स्त्री० [हिं० आप+आचरण] अपनी इच्छानुसार मनमाना काम करने की क्रिया या भाव। स्वेच्छाचार। वि० मनमानी करनेवाला। स्वेच्छाचारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपजात्य  : पुं० [सं० अपजात+ष्यञ्] [वि० अपजात] १. अपजाति होने की अवस्थछा या भाव। २. गुण आदि के विचार से अपने जनक उत्पादक या मूल से घटकर तथा हीन होना। (डीजेनरेशन)
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आपण  : पुं० [सं० आ√पण् (सौदा करना)+घ] १. हाट। बाजार। २. दुकान। ३. हाट या बाजार में उगाहा जानेवाला कर। सर्व० १.=अपना। २.=हम।
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आपणिक  : वि० [सं० आपण+ठक्-इक] बाजार में होनेवाला क्रय-विक्रय से संबंध रखनेवाला। (मरकेन्टाइल) जैसे—आपणिक लेख या विधि।
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आपत्  : स्त्री० [सं० अ√पद् (गति)+क्विप्]=आपद्।
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आ-पतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. कहीं पर आना या पहुँचना। २. घटित होना। ३. ऊपर से आकर किसी पर गिरना या पड़ना। ४. अचानक या संयोग या संबंध में आना। ५. विज्ञान में, किसी प्रकार की रेखा या किसी तल पर आकर पड़ना। (इन्सिडेन्स)
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आपत्काल  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० आपत्कालिक] १. आपत्ति या विपत्ति का समय। २. बुरा दिन या समय। कुसमय।
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आपत्कृत-ऋण  : पुं० [सं० आपत्-कृत, स० त० आपत्कृत-ऋण, कर्म० स०] आपत्ति काल में लिया जानेवाला ऋण।
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आपत्ति  : स्त्री० [सं० आ√पद्+क्तिन्] १. कष्ट। क्लेश। दुःख। २. अचानक आकर उपस्थित होने वाली ऐसी स्थिति जिसमें बहुत कुछ मानसिक कष्ट या चिंता और आर्थिक शारीरिक आदि हानियाँ हों या हो सकती हों। आफत। मुसीबत। ३. किसी काम या बात के अनुचित अव्यावहारिक नीति-विरुद्ध या हानिकारक जान पड़ने पर उसे रोकने के उद्देश्य से कही जानेवाली विरोधी बात। (आँब्जेक्शन) ४. सार्वजनिक भाषणों आदि के समय वक्ता की उक्त प्रकार की अथवा कोई अनुचित या संदिग्ध बात सामने आने पर श्रोताओं की ओर से कहा जानेवाला ‘आपत्ति’ शब्द जो इस बात का सूचक होता है कि हमें इस कथन या बात के ठीक होने में संदेह है। (क्वेश्चन)
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आपत्ति-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी कार्य या विषय के संबंध में अपनी आपत्ति और मत-भेद लिखा हो। (पेटिशन आफ आब्जेक्शन)
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आपत्य  : वि० [सं० अपत्य+अण्] अपत्य संबंधी। पुं० अपत्य या संतान होने की अवस्था या भाव। संतानत्व।
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आपद्  : स्त्री० [सं० आ√पद्+क्तिन्] कष्ट और संकट की स्थिति। आपत्ति।
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आपद  : स्त्री० =आपद्।
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आपदर्थ  : पुं० [सं० आपद्-अर्थ, च० त०] ऐसी संपत्ति जिसे प्राप्त करने पर अपना अनिष्ट होता हो।
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आपदा  : स्त्री० [सं० आपद्+टाप्] १. क्लेश। दुःख। २. विपत्ति। आफत। ३. कष्ट या विपत्ति का समय।
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आपद्धर्म  : पुं० [सं० आपद्-धर्म, मध्य० स०] १. ऐसा दूषित निंदनीय या वर्जित आचरण या व्यवहार जो आपत्तिकाल में विवशता पूर्वग्रहण किया जा सकता हो और इसी लिए दूषित न माना जाता हो। २. किसी वर्ण के लिए वह व्यवसाय या काम जो दूसरा कोई जीवनोपाय न होने की ही दशा में ग्रहण किया जा सकता हो। जैसे—ब्राह्मण के लिए वाणिज्य। (स्मृति)
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आपधाय  : स्त्री०=आपा-धायी।
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आपन  : पुं० [हिं० आप] अपना अस्तित्व या स्वरूप। सर्व०-अपना। अव्य० अपने आप। आप से आप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपनपौ  : पुं०=अपनवै।
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आपना  : सर्व०=अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आपनिक  : पुं० [सं० आपर्णिक] पन्ना नामक रत्न।
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आप-निधी  : पुं० [सं० आपः-जल+निधि] समुद्र। सागर।
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आपनो  : सर्व० =अपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपन्न  : वि० [सं० आ√पद्+क्त] १. जो कष्ट में पड़ा हो। विपत्ति-ग्रस्त। २. किसी के चक्कर या फेर में पड़ा हुआ। ग्रस्त। जैसे—संकटग्रस्त।
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आपपर  : पद [हिं० आप-स्वयं+पर-दूसरा] अपने और दूसरे के बीच परस्पर। उदाहरण—पुणे सुणै जण आपपर।—प्रिथीराज।
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आप-बीती  : स्त्री० [हिं०] स्वयं अपने ऊपर बीती हुई घटना या उसका उल्लेख।
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आपया  : स्त्री० =आपगा (नदी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपराह्रक  : वि० [सं० अपराह्र+ठञ्-इक] अपराह्में या दिन के तीसरे पहर होनेवाला। अपराह्र-संबंधी।
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आपराधिक  : वि० [सं० अपराध+ठक्-इक] १. ऐसे कार्यों या बातों से संबंध रखनेवाला जिनकी गणना अपराधों में हो और जिनके लिए न्यायालय से दंड मिल सकता हो। (क्रिमिनल) जैसे—आपराधिक प्रकिया। (क्रिमिनल प्रोसीजर) २. ऐसी बातों से संबंध रखनेवाला जिनमें अपराध का विचार, भाव या ईप्सा हो। (कल्पेबुल) जैसे—आपराधिक बल प्रयोग, आपराधिक अपचार, आपराधिक प्रमाद। ३. दे० ‘आपराधशील’। पुं० ऐसा कार्य जो धर्म या विधि की दृष्टि में अपराध हो।
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आप-रूप  : वि० [हिं० आप+सं० रूप] अपने रूप से युक्त। मूर्तिमान। सर्व० स्वयं आप (व्यंग्यात्मक) जैसे—यह सब आपरूप की करतूत है।
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आपर्तुक  : वि० [सं० अप-ऋतु, प्रा० स०+कञ्] १. अप्-ऋतु (अपनी वास्तविक ऋतु) से भिन्न ऋतु में होनेवाला। २. सभी कालों और ऋतुओं में होनेवाला।
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आपवर्ग्य  : वि० [सं० अपवर्ग+ष्यञ्] अपवर्ग या मोक्ष देने अथवा उससे संबंध रखनेवाला।
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आपस  : अव्य० [हिं० आप+स(प्रत्यय)] पारस्परिक संबंध का सूचक एक अव्यय जिसका प्रयोग कुछ विभक्तियों के लगने पर कहीं क्रिया विशेषण की तरह और कहीं विशेषण की तरह होता है। जैसे—आपस का-पारस्परिक या एक-दूसरे के साथ का। आपस में-परस्पर या एक-दूसरे के साथ। कही-कहीं यह आत्मीकता अथवा घनिष्ठ व्यवहार का भी सूचक होता है। जैसे—आपस के लोग।
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आपसदारी  : स्त्री० [हिं० आपस+फा० दारी(प्रत्यय)] १. एक दूसरे के साथ होनेवाली आत्मीयता अथवा घनिष्ठ व्यवहार या संबंध। जैसे—यहाँ तो आपसदारी की बात है। २. ऐसे लोगों का वर्ग या समूह जिनसे उक्त प्रकार का संबंध हो। जैसे—आपसदारी में तो हर काम में आना जाना ही पड़ता है।
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आपसी  : वि० [हिं० आपस] आपस का। आपस में होनेवाला। पारस्परिक। जैसे—आपसी मतभेद।
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आपस्तंब  : पुं० [सं० ] [वि० आपस्तंबीय] एक प्राचीन ऋषि जिनके बनाये हुए कल्प गृह्य और धर्म नामक तीन सूत्र-ग्रंथ माने जाते हैं।
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आपा  : पुं० [हिं० आप-स्वयं] १. अपना अस्तित्व या सत्ता। निजस्व। २. अपनी सत्ता के संबंध में हनेवाला ज्ञान या भान। अहंभाव। मुहावरा—आपा खोना, डालना, तजना या मिटाना=अपनी सत्ता का विचार या ध्यान छोड़ देना। मन में अहंभाव या अहंमन्यता न रहने देना। निरभिमान होना। (त्याग निस्प-हता विरक्ति आदि का लक्षण) आपा सँभालना-वयस्क या सयाने होकर अपना भला बुरा समझने के योग्य होना। ३. अपने पद, योग्यता आदि का ध्यान या विचार। मुहावरा—आपा खोना=दे०आपे से बाहर होना। आपे में आना=क्षणिक आवेश या मनोविकार के प्रभाव से निकलकर साधारण स्थिति में आना। होश-हवास ठिकाने रखना। जैसे—बहुत बहक चुके अब जरा आपे में जाओ। आपे से बाहर होना=क्रोध के वश में अपने पद मर्यादा आदि का ध्यान छोड़कर उग्र रूप धारण करना।
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आपात  : पुं० [सं० आ√पत् (गिरना)+घञ्] [वि० आपातिक] १. ऊपर या बाहर से आकर गिरना। २. गिरना। पतन। ३. घटना का अचानक घटित होना। ४. वह घटना या बात जो अचानक ऐसे रूप में सामने आ जाए जिसकी पहले से कोई आशा, कल्पना या संभावना न हो। (एमर्जेन्सी)।
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आपाततः  : अव्य० [सं० आपात+तस्] १. अकस्मात्। अचानक। २. अंत में। आखिरकार।
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आपातलिका  : स्त्री० [सं० ] एक प्रकार का छंद जो वैताली छंद के विषम चरणों में ६ और सम चरणों में ८ मात्राओं के उपरांत एक भगण और दो गुरु रखने से बनता है।
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आपातिक  : वि० [सं० आपात+ठक्-इक] १. नीचे उतरनेवाला। २. अचनाक सामने आनेवाला। ३. इस प्रकार या ऐसे रूप में सामने आनेवाला जिसकी पहले से कल्पना या संभावना न हो। आत्यायिक। (एमर्जेन्ट)
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आपाती (तिन्)  : वि० [सं० आ√पत्+णिनि] १. नीचे आने उतरने या गिरनेवाला। २. आक्रमण करने या ऊपर टूट पड़नेवाला। ३. बिना आशा या संभावना के अचानक घटित होनेवाला। (एमर्जेन्ट)
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आपाद  : अव्य० [सं० आ√पद्(गति)+घञ्] पैर या पैरों तक। पुं० १. वह जो प्राप्त या सिद्ध किया गया हो। २. पुरस्कार। ३. पारिश्रमिक।
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आपाद-मस्तक  : अव्य० [सं० पाद-मस्तक, द्वं० स० आ-पादमस्तक, अव्य० स०] १. पैरों से सिर तक। २. आदि से अंत तक।
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आपा-धापी  : स्त्री० [हिं० आपा=धापी का अनुकरण+धापना] १. ऐसी स्थिति जिसमें सभी लोग अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहें हों और दूसरे के हानि लाभ का ध्यान न रखतें हों। २. खींचतान। लाग-डाँट।
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आपान  : पुं० [सं० आ√पा (पीना)+ल्युट्-अन] १. कई आदमियों का साथ बैठकर मद्य या शराब पीना। २. उक्त प्रकार से बैठकर मद्य पीने का स्थान।
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आपानक  : पुं० [सं० आपान+कन्] १. मद्य पान की गोष्ठी। २. मद्य पीनेवाला व्यक्ति। उदाहरण—रजनी के आपानक का अब अंत है।—प्रसाद।
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आपा  : पद—पुं० आत्मपद (मोक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपायत  : वि० [सं० आप्यायित-वर्धित] प्रबल। बलवान। (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपी  : पुं० [सं० आप्य] पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र। अव्य० आप ही। स्वतः। स्वयं। (बोल-चाल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपीड़  : पुं० [सं० आ√पीड़ (दबाना)+अच्] १. ऊपर से दबाकर बैठाई या लगाकर रखी हुई चीज। २. सिर पर पहनने या बाँधने का कपड़ा या गहना। जैसे—पगड़ी मुकुट आदि। ३. वास्तु में छाजन के बाहर पाख से निकली हुई बँडेरी का अँश। मँगौरी। ४. एक प्रकार का विषम वृत्त जिसके पहले चरण में ८, दूसरे चरण में १२, तीसरे चरण में १६ और चौथे चरण में २0 अक्षर होते हैं। वि० १. दबानेवाला। २. कष्ट देनेवाला।
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आपीडन  : पुं० [सं० आ√पीड़+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आपीड़ित] १. कसकर या जोर से दबाना या बाँधना। २. कष्ट देना। पीड़ित करना।
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आ-पीत  : वि० [सं० प्रा० स०] सोनामाखी के रंग का। हलका पीला। पुं० सोनामक्खी। स्वर्णमाक्षिक।
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आपु  : सर्व० दे० आप। पुं० =आपा (अहंभाव)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपुन  : सर्व० दे० अपना। अव्य० आप। खुद। स्वयं। उदाहरण—(क) आपु न आवे ताहि पहँ ताहि तहाँ लेइ जाइ।—तुलसी। (ख) आपुन अध अधगति चलतिं।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपुनपौ  : पुं० =अपनपौ। (अपनापन)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपुनो  : सर्व० =अपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपुस  : अव्य० =आपस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपूर  : पुं० [सं० आ√पूर् (पूर्णकरना)+घञ्] १. पूरा या पूर्ण करना। भरना। २. वह जो बहुत अधिक भरा हो। ३. पानी की बाढ़।
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आपूरण  : पुं० [सं० आ√पूर्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आपूरित] अच्छी तरह या पूरी तरह से भरना।
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आपूरना  : स० [सं० आपूरण] अच्छे तरह भरना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आपूर्ति  : स्त्री० [सं० आ√पूर्+क्तिन्] १. अच्छी तरह से भरे होने की अवस्था या भाव। २. तृप्ति।
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आपेक्षिक  : वि० [सं० अपेक्षा+ठक्-इक] १. किसी प्रकार की या किसी दूसरे की अपेक्षा रखनेवाला। अपेक्षा से युक्त। २. जिसका अस्तित्व दूसरी वस्तु पर अवलंबित हो। निर्भर करनेवाला। ३. किसी की तुलना में होनेवाला। तुलनात्मक। जैसे—आपेक्षिक गुरुत्व।
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आपो  : पुं० =आपा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आप्त  : वि० [सं० आप् (पाना)+क्त] [भाव०आप्तता, आप्ति] १. आया पहुँचा या मिला हुआ। जैसे—आप्त-गर्भा=गर्भवती, आप्त गर्व अभिमानी। २. विश्वास करनेयोग्य। ३. कुशल। दक्ष। पुं० १. ऐसा व्यक्ति जिसपर विश्वास किया जा सकता हो। २. ऋषि। ३. योग में, ऐसा प्रमाण जो केवल कथन या शब्दों के आधार पर हो। शब्द प्रमाण। ४. गणित में किसी सांख्य को भाग देने पर प्राप्त होनेवाला मान या संख्या। लब्धि।
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आप्त-काम  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसकी इच्छाएँ पूरी हो चुकी हों। २. वह जिसने सांसारिक बंधनों और वासनाओं से मुक्ति पा ली हो।
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आप्तकारी (रिन्)  : पुं० [सं० आप्त√कृ(करना)+णिनि] १. वह जो ठीक प्रकार से तथा विश्वस्त ढंग से काम करता हो। २. गुप्तचर।
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आप्त-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] वह व्यक्ति जो तत्त्वों वस्तुओं आदि के यथार्थ रूप अच्छी तरह जानता हो और जिसकी उपदेशपूर्ण बातें प्रामाणिक मानी जाती हों।
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आप्त-वचन  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा कथन जिसमें कुछ भी प्रमाद या भूल न हो। बिलकुल ठीक और मानने योग्य बात। २. ऋषि मुनियों के वचन जो श्रुतियों समृतियों आदि से मिलते हैं।
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आप्त-वर्ग  : पुं० [ष० त०] आत्मीयों और बंधु बांधवों का वर्ग या समूह।
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आप्तागम  : पुं० [आप्त-आगम, कर्म० स०] वेद, श्रुतियाँ स्मृतियाँ आदि।
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आप्ति  : स्त्री० [सं०√आप्+क्तिन्] १. आप्त होने की अवस्था या भाव। २. प्राप्ति। लाभ।
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आप्तोक्ति  : स्त्री० [सं० आप्त-उक्ति, ष० त०] आप्त वचन के रूप में मानी जानेवाली उक्ति या कथन।
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आप्य  : वि० [सं० आ√आप्+ण्यत्] १. प्राप्त करने या लेने योग्य। २. जो प्राप्त किया जाने को हो।
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आप्यायन  : पुं० [सं० आ√प्याय् (वृद्धि)+ल्युट्-अन] १. एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना। जैसे—दूध में खट्टा पदार्थ पड़ने से दही जमना। २. तृप्त करना। ३. वैद्यक में मारी हुई धातु को घी शहद सुहागे आदि से फिर से जीवित करना। ४. कर, विशेषतः जल संबंधी वस्तुओं पर लगनेवाला कर।
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आप्याथित  : भू० कृ० [सं० आ√व्याय्+णिच्+क्त] १. जिसे तृप्त या संतुष्ट किया गया हो। २. आर्द्र। गीला। तर। ३. बढ़ा या बढ़ाया हुआ। परिवर्धित। ४. एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचाया या लाया हुआ। परिवर्तित।
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आप्रच्छन्न  : वि० [सं० आ+प्र√छद् (अपवारण)+क्त] १. गुप्त। रहस्यपूर्ण। २. छिपा हुआ।
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आप्लव  : पुं० [सं० आ√प्लु (गति)+अप्] पानी से तर करना। २. स्नान।
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आप्लवन  : पुं० [सं० आ√प्लु+ल्यूट-अन] अच्छी तरह पानी से भरना या तर करना।
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आप्लवनव्रती (तिन्)  : पुं० [सं० आप्लवन-व्रत, ष० त०+इनि] ब्रह्मचर्य समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेवाला स्नातक।
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आप्लावन  : पुं० [सं० आ√प्लु+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० आप्लावित] अच्छी तरह पानी में डुबाना या पानी से भरना।
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आप्लावित  : भू० कृ० [सं० आ√प्लु+णिच्+क्त] १. अच्छी तरह डूबा या डुबाया हुआ। २. भींगा या भिगोया हुआ। ३. नहाया या नहलाया हुआ। स्नात।
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आप्लुत  : भू० कृ० [सं० आ√प्लु+क्त] अच्छी तरह भींगा हुआ। खूब तर या सराबोर। पुं० वह स्नातक जो गुरुकुल की पढ़ाई अच्छी तरह समाप्त कर चुका हों।
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आफत  : स्त्री० [फा० मि० स० आपत्ति] आपत्ति। विपत्ति। संकट। मुहावरा—आफत उठाना=(क) कष्ट या विपत्ति सहना। (ख) दे० आफत खड़ी करना। आफत खड़ी करना=ऐसा काम करना जिससे दूसरों को कष्ट या विपत्ति में पड़ना पड़े। आफत ढाना=बहुत अधिक विपत्ति की अवस्था उत्पन्न करना। आफत मचाना=दे० आफत खड़ी करना। आफत मोल लेना=जान-बूझकर ऐसी स्थिति उत्पन्न करना जिसमें स्वयं को कष्ट या विपत्ति में पड़ना पड़े। पद—आफत का परकाला-ऐसा व्यक्ति जो अपनी बहुत बढ़ी हुई चालाकी के कारण सभी प्रकार के विकट काम कर सके। आफत का मारा-जिस पर बहुत बड़ी विपत्ति या संकट पड़ा हो।
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आफताप  : पुं० =आफताब (सूर्य)।
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आफ-ताब  : पुं० [फा०] [वि० आफताबी] १. सूर्य। २. कड़ी धूप।
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आफ-ताबा  : पुं० [फा०] एक तरह का गड़ुआ जिसके मुँह पर ढक्कन लगा रहता है।
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आफ-ताबी  : स्त्री० [फा०] १. गोल या पान के आकार का बना हुआ जरदोजी पंखा जिसपर सूर्य का चिन्ह बना रहता है और जो जलूसों आदि में झंडे के साथ आगे आगे चलता है। २. गोलबत्ती के आकार की एक प्रकार की आतिशबाजी जिसके जलने पर सूर्य का सा सफेद प्रकाश होता है। ३. दरवाजे या खिड़की के सामने का छोटा छज्जा या सायबान जो धूप के बचाव के लिए लगाया जाता है। झांप। वि० १. सूर्य-संबंधी। २. सूर्य के ताप या धूप में पकाया हुआ। जैसे—आफताबी गुलकंद। ३. गोलाकार। गोल।
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आफरीन  : अव्य० [फा० आफी] बहुत अच्छा या बड़ा काम करने पर कहा जाने वाला शब्द, जिसका अर्थ है-वाह ! बहुत अच्छा किया ! धन्य हो ! शाबाश ! आदि।
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आफियत  : स्त्री० [अ०] कुशल-मंगल। खैरियत।
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आफिस  : पुं० [अ०] कार्यालय।
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आफू  : स्त्री०=अफीम। उदाहरण—अमली मिसरी छाँड़ि कै आफू खात सराहि।—वृंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आबंध  : पुं० [सं० आ√बन्ध् (बाँधना)+घञ्] [वि० आबंधक] १. वह जिससे बाँधा जाए। बंधन। २. गाँठ। ३. प्रेम। स्नेह। ४. कोई बात निश्चित या पक्की करना। ५. कर, राजस्व आदि नियत या स्थिर करना।
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आबंधक-अधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० आ√बन्ध्+ण्वुल्-अक, आबंधक-अधिकारी, कर्म० स०] वह राजकीय अधिकारी जो भूमि का कर या राजस्व निश्चित करता है।
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आबंधन  : पुं० [आ०√बन्ध्+ल्युट्-अन] १. अच्छी तरह से बाँधने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘आबंध’।
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आब  : पुं० [फा०] जल। पानी। पद—आब-दाना=अन्न जल। मुहावरा—आबदाना उठना=ऐसी स्थिति आना कि कही से उठकर दूसरी जगह चले जाना पड़ें। स्त्री० [सं० आभा] १. क्रांति। चमक। २. छवि। शोभा। मुहावरा—आब चढ़ाना=(क) शोभा से युक्त करना या चढ़ाना (ख) चमकाना। पुं० [सं० अभ्र] बादल। मेघ। उदाहरण—बिहरि मिले जनु मेघ धुरि सावन भद्दव आब।—चंदवरदाई।
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आबकार  : पुं० [फा०] वह जो शराब बनाता या बेचता हो। कलवार।
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आबकारी  : स्त्री० [फा०] १. वह स्थान जहाँ शराब चुआई या बेची जाती हो। शराबखाना या भट्ठी। २. मादक वस्तुओं से संबंध रखने वाला सरकारी विभाग।
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आबकारी-शुल्क  : पुं० [फा०+सं० ] वह शुल्क जो शराब, अफीम, भांग आदि मादक द्रव्यों के उत्पादन और बिक्री पर राज्य की ओर से लगाया जाता है। (एक्साइज ड्यूटी)
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आबखोरा  : पुं० [फा० आबखोरः] वह पात्र जिसमें पानी पीते हैं। जैसे—कटोरा या गिलास।
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आबगीना  : पुं० [फा० आबगीनः] १. शीशे की बड़े पेटवाली बोतल। २. दर्पण। शीशा। ३. स्फटिक। ४. हीरा।
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आवगीर  : पुं० [फा०] १. जुलाहों की कूची जिससे वे तारी पर पानी छिड़कते है। २. पानी का गड्ढा या तालाब।
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आबजोश  : पुं० [फा०] १. लाल मुनक्का। २. शोरबा।
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आबड़  : स्त्री० [दे०] घेरा। (बुदेल।) जैसे—वह सपेरा। क्या डाकुओं की आबड़ में पड़ गया।—वृंदावनलाल वर्मा।
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आबताब  : स्त्री० [फा० आबोताफ] १. चमक। द्युति। २. क्रांति। शोभा।
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आबदस्त  : पुं० [फा०] मल त्याग के उपरांत गुदंद्रिय को जल से धोना। पानी छूना। क्रि० प्र०=लेना।
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आबदानी  : स्त्री०=आबादाना।
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आबदार  : वि० [फा०] [भाव० आबदारी] १. आब या चमकवाला। चमकीला। २. पानी पिलानेवाला। पुं० १. आत्मभिमानी। २. वह आदमी जो तोप में सुंबा और पानी का पुचारा देता है।
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आबदारी  : स्त्री० [फा०] १. आबदार होने की अवस्था या भाव। २. हाथीदांत की चित्रकारों में बालों, कपड़ो आदि की चमक दिखाने के लिए उन पर मसाले लगाने की क्रिया।
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आबद्ध  : भू० कृ० [सं० आ√बन्ध्+क्त] १. अच्छी तरह से जकड़ा या बँधा हुआ। २. बंधन में पड़ा हुआ। कैद।
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आबनूस  : पुं० [फा० आब्नूस] [वि० आबनूसी] एक प्रकार का वृक्ष जिसके हीर की लकड़ी बहुत काली होती है। तेंदू। (एंबनी) पद—आबनूस का कुंदा-अत्यंत काले रंग का और कुरूप व्यक्ति।
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आब-पाशी  : स्त्री० [फा०] खेतों की सिचाई।
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आब-रंग  : पुं० [फा०] चित्र कला में एक प्रकार का रंग जो प्योड़ी, किरमिज और काजल के योग से बनता है। लिकटी।
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आबरवाँ  : पुं० [फा० आबेरवाँ] बहता हुआ पानी। स्त्री० एक प्रकार का बढ़िया महीन मलमल।
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आबरू  : स्त्री० [फा०] इज्जत। प्रतिष्ठा। क्रि० प्र० =उतरना। उतारना। खोना। गँवाना। जाना। बिगड़ना। रखना। रहना।
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आबला  : पुं० [फा० आबलः] छाला। फफोला।
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आब-हवा  : स्त्री० [फा० आबो हवा] जीव-जन्तुओं या मनुष्यों पर पड़नेवाले प्रभाव के विचार से किसी स्थान का जल और वायु। जल-वायु।
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आबाद  : वि० [फा०] १. (स्थान) जिसमें बस्ती हो। बसा हुआ। २. (भूमि) जो जोती-बोई गई हो या जाती हो। ३. (व्यक्ति) सब प्रकार से प्रसन्न या सुखी।
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आबादकार  : पुं० [फा०] ऐसा खेतिहर जो जंगल काटकर या पड़ती जमीन को ठीक करके उसे आबाद करने के उद्देश्य से उसमें बसा हो और वहाँ खेती-बारी करता हो।
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आबादानी  : स्त्री० [फा०] १. बसा हुआ और रमणीक स्थान। उदाहरण—भूखे को अन्न पियासे को पानी, जंगल जगंल आबादानी।—काह०। २. ऐसी शोभापूर्ण स्थिति जो उन्नति, संस्कृति, संपन्नता सौभाग्य आदि का सूचक हो।
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आबादी  : स्त्री० [फा०] १. आबाद अर्थात् बसे हुए होने की अवस्था या भाव। २. वह स्थान जहाँ लोग आबाद या बसे हों। बस्ती। ३. वह भूमि जिस पर खेती होती हो। ४. किसी स्थान पर बसे हुए सब लोगों की संख्या। जन-संख्या। जैसे—बनारस की आबादी ५ लाख हैं।
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आबाधा  : स्त्री० [सं० आ√बाध् (विघ्न या हानि पहुँचाना)+आ-टाप्] चिंतित या विकल करने वाली बात या बाधा। जैसे—कष्ट, हानि आदि।
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आ-बाल  : अव्य० १. बाल्यावस्था से। बचपन या लड़कपन से। २. [अव्य० स०] लड़के या लड़कों तक।
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आबाल्य  : पुं० [सं० अव्य० स०] शैशव से समाप्त होनेवाली अवस्था। अव्य० बाल्यावस्था तक।
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आबिल  : वि० [सं० आ√बिल् (फाड़ना)+क] १. कीचड़ में भरा हुआ। पंकिल। २. गंदा या मैला।
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आबी  : वि० [फा०] १. आब (अर्थात् जल) संबंधी। जल का। २. पानी के रंग का। हलका नीला। ३. जल में रहने या होनेवाला। ४. जल के योग से बनाया जानेवाला। जैसे—आबी नमक=समुद्री नमक। ५. (भूमि) जिसमें खेती के लिए किसी प्रकार से सिचाई होती हो। खालो का विपर्याय। स्त्री०१. जल के किनारे रहनेवाली एक चिड़िया जिसकी चोंच और पैर हरे तथा सफेद होते हैं। २. ऐसी रोटी जिसमें पलेथन के स्थान पर पानी लगाया गया हो। पु० एक प्रकार का अंगूर।
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आबेस  : पुं० [सं० आवेश] १. आवेश। जोश। २. आनंद या सुख का अतिरेक। ३. व्याप्ति। संचार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आब्द  : वि० [सं० अब्द+अण्] १. अब्द संबंधी। अब्द या वर्ष का। २. बादल से उत्पन्न या संबंधित।
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आब्दिक  : वि० [सं० अब्द+ठक्-इक] वर्ष संबंधी। प्रति वर्ष होनेवाला। वार्षिक।
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आभंग  : वि० -अभंग।(बिना टूटा हुआ)। उदाहरण—अनल कुंड आभंग उपजि चहुआन अनिल थल।—चंदवरदाई।
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आभ  : स्त्री० [सं० आभा] आभा। कांति। शोभा। पुं० [सं० अभ्र] आकाश। (डिं०) उदाहरण—(क) भला चीत भुर जालरा, आभ लगावा सींग।—बाकीदास। (ख) बीजुलियाँ चहालवलि आगइ आभइ एक।—ढोला मारू। पुं० =आब (जल)। प्रत्य० [सं० ] किसी चीज की आभा रखनेवाला। आभा से युक्त। (यौं०के०अंत में) जैसे—रक्ताभ, स्वर्णाभ आदि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आभरण  : पुं० [सं० आ√भृ (भरण करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आभरित] १. आभूषण। गहना। २. भरण-पोषण।
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आभरित  : भू० कृ० [सं० आ√भृ+अप् आभर+इतच्] १. आभूषणों या गहनों से युक्त अलंकृत। २. जिसका भरण-पोषण हुआ हो। ३. पाला-पोसा हुआ।
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आभा  : स्त्री० [सं० आ√भा (दीप्ति)+अङ्-टाप्] १. हलकी कांति या चमक। २. रंगत, स्वाद आदि की साधारण से कुछ कम या हलकी छाया या प्रतीति। (टिंज) ३. किसी चीज की कुछ अस्थायी झलक या प्रतिबिंब। (शेड)
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आभाणक  : पुं० [सं० आ√भण्(बोलना)+ण्वुल्-अक] १. एक प्रकार के नास्तिक। २. कहावत। लोकोक्ति।
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आभार  : पुं० [सं० प्रा०स०] १. बोझा। भार। २. घर-गृहस्थी की देखभाल और पालन-पोषण का बार। ३. किसी के उपकार के लिए प्रकट की जानेवाली कृतज्ञता। एहसान-मंदी। ४. उत्तरदायित्व। जिम्मेदारी। (आँब्लिगेशन, अंतिम दोनों अर्थों के लिए) ५. चार चरणों का एक वर्णवृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में आछ तगण होते हैं।
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आभारी (रिन्)  : पुं० [सं० आभार+इनि] आभार मानने या कृतज्ञता प्रकट करनेवाला। कृतज्ञ।
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आभावन  : पुं० [प्रा० स०] अनुमान। अंदाज।
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आभाष  : पुं० [सं० आ√भाष् (बोलना)+घञ्] १. कहना। बोलना। २. भूमिका। ३. संबोधन।
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आभाषण  : पुं० [सं० आ√भाष्+ल्युट्-अन] १. बात-चीत करना। बोलना। २. संबोधन।
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आभास  : पुं० [सं० आ√भास् (दीप्ति)+अच्] १. चमक। दीप्ति। द्युति। २. कांति। शोभा। ३. छाया। प्रतिबिम्ब। ४. ऐसी बाहरी आकृति रूप या रंग जिसे देखने पर किसी और चीज का धोखा हो सकता हो। ५. उक्त प्रकार की आकृति या रूपरंग के कारण होनेवाला धोखा या भ्रम। जैसे—रस्सी में सांप या सीपी में चांदी का आभास होना। ६. किसी चीज के अनुकरण या ढंग पर बनी हुई कोई दूसरी ऐसी चीज जो ठीक पूरी या शुद्ध न होने पर भी बहुत कुछ मूल की छाया से युक्त हो और देखने में बहुत कुछ वैसी ही जान पड़ती हों। जैसे—यह रस नहीं बल्कि रस का आभास (रसभास) मात्र है। ७. किसी चीज या बात में दिखाई देने वाली किसी दूसरी चीज या बात की ऐसी छाया या झलक जो उस दूसरी चीज या बात का कुछ अनुमान कराती हो। जैसे—उनकी बातों में ही इस बात का आभास था कि वे किसी तरह नहीं मानेगें। ८. ऐसा तर्क या प्रतिपादन जो वास्तव में ठीक न होने पर भी ऊपर से देखने में अच्छा और ठीक जान पड़े। जैसे—हेतु और हेत्वाभास (हेतु का आभास) में बहुत अंतर है।
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आभासन  : पुं० [सं० आ√भास्+ल्युट्-अन] १. आभास या आलोक से युक्त करना। प्रकाश से युक्त करना। २. स्पष्ट करना। ३. किसी बात का आभास या झलक देना अथवा उसकी हलकी प्रतीति कराना।
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आभासवाद  : पुं० [सं० ष० त०] वह दार्शनिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि जितनी अमूर्त्त धारणाएँ या भावनाएँ हैं, वे आभास मात्र या देखने भर की हैं, उनकी वास्तविक सत्ता नहीं हैं। (नॉमिनलिज़्म)
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आभासीन  : वि० [सं० आभास से] १. आभास से युक्त। चमकीला। २. आभास रूप में अर्थात् बहुत हलके रूप में दिखाई देनेवाला।
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आभास्वर  : वि० [सं० आ√भास्+वरच्] जिसमें बहुत अधिक आभा या चमक हो। बहुत चमकीला। पुं० एक देव-वर्ग।
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आभिचारिक  : वि० [सं० अभिचार+ठक्-इक] अभिचार संबंधी। तंत्रोक्त। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि अभिचारों से संबंध रखनेवाला। पुं० उक्त अभिचारों के समय पढ़े जानेवाले मंत्र।
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आभिजन  : वि० [सं० अभिजन+अण्] जन्म या कुल से संबंध रखनेवाला। पुं० कुलीनता।
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आभिजात्य  : पुं० [सं० अभिजात+ष्यञ्] अभिजात होने की अवस्था या भाव।
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आभिजित  : वि० [सं० अभिजित+अण्] अभिजित् नक्षत्र में होने या उससे संबंध रखनेवाला।
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आभिधा  : स्त्री० [सं० अभिधा+अण्-टाप्] १. ध्वनि। शब्द। २. उल्लेख। ३. नाम।
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आभिधानिक  : वि० [सं० अभिधान+ठक्-इक] अभिधान अर्थात् शब्द कोष में होनेवाला या उससे संबंध रखनेवाला। शब्द-कोश संबंधी। पुं० वह जो अभिधान या शब्द-कोश की रचना करता हो। कोशकार।
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आभिप्रायिक  : वि० [सं० अभिप्राय+ठक्-इक] १. अभिप्राय संबंधी। २. अभिप्राय के रूप में होनेवाला।
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आभिमुख्य  : पुं० [सं० अभिमुख+ष्यञ्] १. अभिमुख या आमने-सामने होने की अवस्था या भाव।
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आभिषेचनिक  : वि० [सं० अभिषेचन+ठक्-इक] अभिषेचन या राजतिलक संबंधी।
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आभिहारिक  : भू० कृ० [सं० अभिहार+ठक्-इक] १. उपहार या भेंट के रूप में दिया हुआ। २. छीनकर या बलपूर्वक लिया हुआ। पुं० उपहार। भेंट।
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आभीर  : पुं० [सं० आ-बी, प्रा० स० आभी√रा (दान)+क] [स्त्री०आभीरी] १. अहीर। गोप। ग्वाला। २. एक प्राचीन देश या जनपद जिसमें गोप जाति के लोग रहते थे। ३. एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ मात्राएँ और अंत में जगण होता है। ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा गया है।
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आभीरक  : वि० [सं० आभीर+अण्+कन्] अहीर या गोप संबंधी। पुं० १. आभीर या गोप जाति। अहीर। २. इस जाति का कोई व्यक्ति। अहीर।
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आभीरी  : स्त्री० [सं० आभीर+ङीष्] १. अहीर की स्त्री। २. अहीर जाति की स्त्री। ३. प्राचीन आभीरो की एक बोली जो ईसवी आरंभिक शतियों में उत्तरी पंजाब में बोली जाती थी और जो आगे चलकर अपभ्रश बन गई थी। ४. संगीत में एक संकर रागिनी।
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आभुक्ति  : स्त्री० [सं० आ√भुज् (भोगना)+क्तिन्] १. आभोग करने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘आभोग’ (ईजमेण्ट)
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आभूत  : भू०कृ० [सं० आ√भू (होना)+क्त] जो उत्पन्न हो चुका हो अथवा अस्तित्व में आ चुका हो।
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आभूषण  : पुं० [सं० आ√भूष् (सजाना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० आभूषित] १. अलंकार। गहना। जेवर। २. वह चीज या बात जो किसी दूसरी चीज या बात की शोभा का सौन्दर्य बढ़ाती हों। (आँर्नामेण्ट)
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आभूषन  : पुं० =आभूषण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आभूषित  : भू० कृ० [सं० आ√भूष्+क्त] १. गहनों आदि से सजाया हुआ। अलंकृत। २. किसी प्रकार सजाया हुआ।
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आभृत  : भू० कृ० [सं० आ√मृ (भरण करना)+क्त] १. अच्छी तरह से या पूरा भरा हुआ। २. जिसका भरण-पोषण किया गया हो। ३. पास लाया हुआ। ४. जकड़ा या बँधा हुआ।
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आभोग  : पुं० [सं० आ√भुज्+घञ्] १. किसी वस्तु का उपभोग करके उससे सुख प्राप्त करना। भोग। २. ऐसी सब बातें या लक्षण जिनसे किसी दूसरी बात या स्थिति अथवा उसके भोग का पता चले। जैसे—आभोग से पता चलता है कि किसी समय यह बहुत संपन्न नगर रहा होगा। ३. विधिक क्षेत्र में, किसी प्रकार के सुख या सुभीते का ऐसा भोग जो कुछ समय से होता आया हो और इसी प्रकार आगे भी चल सकता हो। आभुक्ति। (ईजमेन्ट) ४. किसी पद्य में कवि के नाम का उल्लेख। ५. तक्षक या नाग का फन जो वरुण के सिर पर छत्र के रूप में रहता है। ६. साँप।
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आभोगी (गिन्)  : वि० [सं० आभोग+इनि] १. आभोग या भोग करनेवाला। २. खाने या भोजन करनेवाला। पुं० १. वह जो बराबर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता आया हो। २. आराम तलब।
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आभोग्य  : वि० [सं० आ√भुज्+ण्यत्] (पदार्थ) जिसका भोग होता हो या हो सकता हो।
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आभोजी (जिन्)  : वि० [सं० आ√भुज्+णिनि] खानेवाला। भोजी।
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आभ्यंतर  : वि० [सं० अभ्यंतर+अण्] १. अभ्यंतर में होनेवाला। अंदर का। भीतरी। २. देश, शरीर आदि के भीतरी भाग में होनेवाला। जैसे—आभ्यंतर कोप।
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आभ्यंतरिक  : वि० [सं० अभ्यंतर+ठञ्-इक] अभ्यंतर में या बिलकुल अंदर होनेवाला।
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आभ्युदयिक  : वि० [सं० अभ्युंतर+ठञ्-इक] १. अभ्युदय-संबंधी। २. अभ्युदय या उन्नति करने या करानेवाला। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० नांदीमुख श्राद्ध, जो कर्ता का अभ्युदय करानेवाला माना गया है।
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आमंत्रण  : पुं० [सं० आ√मंत्र (गुप्त भाषण)+ल्युट-अन] [भू०कृ०आमंत्रित] १. पुकारना। बुलाना। २. किसी को निमंत्रण या बुलावा भेजकर अपने यहाँ बुलाना। ३. अपने यहाँ बुलाने के लिए दिया जाने वाला निमंत्रण।
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आमंत्रयिता (तृ)  : पुं० [सं० आ√मंत्र्+णइच्+तृच्] वह जो किसी को अपने यहाँ आमंत्रित करे या बुलावें।
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आमंत्रित  : भू० कृ० [सं० आ√मंत्र्+क्त] १. जिसका आमंत्रण हुआ हो। पुकारा या बुलाया हुआ। २. (अतिथि) जिसे निमंत्रण देकर अपने यहाँ बुलाया गया हो।
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आमंद  : वि० [सं० आम√दो (खंडन करना)+ड, मुम] जिसकी ध्वनि या स्वर कुछ गंभीर हो। पुं० ऐसी ध्वनि या स्वर जो कुछ गंभीर या भारी हो।
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आम  : पुं० [सं० आभ्र, प्रा० अम्ब, गु० आँबो, सि० अंबु, आमो, का० पं० सिंह० अंब, बँ० उ० आँव, आम, मरा० आँबा] १. एक प्रकार का बडा वृक्ष जो अपने मधुर और रसीले फलों के लिए प्रसिद्ध है। २. उक्त वृक्ष का फल। पद—अमचूर, अमहर। कहा०-आम के आम गुठली के दाम=ऐसा काम, चीज या बात जिससे होनेवाले मुख्य लाभ के साथ कोई गौण लाभ भी होता हो। आम खाने से काम या पेड़ गिनने से-इस वस्तु से अपना काम निकालो, इसके विषय में निरर्थक प्रश्न करने से क्या प्रायोजन ? वि० [सं० आ√अम्(पकना)+घञ्(कर्म०स०] १. थोड़ा पका हुआ। २. बिना पका हुआ। अपक्व। कच्चा। पुं० -आँव (रोग)। वि० [अं०] १. जो लोक में बहुत प्रचलित हो। २. जिसमें सब लोग सम्मिलित हो सकें। सार्वजनिक। जैसे—आम जलसा। ३. साधारण। सामान्य। पुं० जन-साधारण। जनता।
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आम-खास  : पुं० [अ०] राजमहल के भीतर का वह भाग जहाँ राजे-महाराजे बैठकर दरबार करते थे।
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आम-गंधि (धिन्)  : स्त्री० [ब० स० इत्व] कच्ची और सड़ी हुई चीजों के जलने की गंध। बिसायँध।
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आम-गर्भ  : पुं० [कर्म० स०] भ्रूण।
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आमड़ा  : पुं० [सं० आभ्रातक, प्रा० आम्माडओ, अप० अबाडय, गु० अमेडा, मरा० अंवाड़ी] १. एक पेड़ जिसके छोटे गोल फल आम की तरह खटटे होते है। २. इस पेड़ का फल जिसका अचार पड़ता और तरकारी बनती है।
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आमण-दूमण  : वि० [सं० उन्मनाः+दुर्मनाः] १. अन्यमनस्क। २. अशील और खिन्न। उदाहरण—अंतिर आमण दूमणा किसउ ज खड़उ काज।—ढोलामारू।
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आमद  : स्त्री० [फा०] १. आने की क्रिया या भाव। आगमन। अवाई। आना। २. आमदनी। आय।
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आमदनी  : स्त्री० [फा०] १. बाहर से अंदर अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने की क्रिया या भाव। २. अपने देश में दूसरे देशों से चीज या माल का आना। ३. आने या प्राप्त होनेवाला धन। आय।
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आमनी  : स्त्री० [देश] १. वह भूमि जिसमें एक वर्ष में एक ही फसल उत्पन्न होती हो। २. जाड़े में होनेवाली धान की फसल। (बंगाल) ३. उक्त फसल में होनेवाला चावल।
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आमन-सामन  : अव्य० =आमने-सामने।
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आमनस्य  : पुं० [सं० अमनस्+ष्य़ञ्] अन्यमनस्क होने की अवस्था या भाव।
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आमना  : अ०=आवना या आना। पुं० [सामना के अनु० पर] इस ओर का पक्ष या भाग। सामना का विपर्याय। (केवल आमना सामना या आमने-सामने पदों में प्रयुक्त।)
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आमनाय  : पुं० =आम्नाय।
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आमना-सामना  : पुं० [हिं० आमना(अनु०)+सामना] १. परस्पर एक दूसरे के सामने होने की अवस्था या भाव । २. एक दूसरे के सामनेवाला अंश या भाग। ३. भेंट। साक्षात्कार।
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आमनी  : स्त्री० [देश] १. वह भूमि जिसमें जाड़े का धान बोया जता है। २. जाड़े में होनेवाला धान। (बंगाल)
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आमने-सामने  : अव्य० [हिं० सामने] १. एक दूसरे के सामने या मुकाबले में। २. इस ओर तथा उस ओर। इधर तथा उधर।
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आमय  : पुं० [सं० आम√या(जाना)+क] रोग। व्याधि। बीमारी।
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आमरक्तातिसार  : पुं० [सं० रक्त-अतिसार, ष० त०, आम-रक्तातिसार, कर्म० स०] एक रोग जिसमें शौच के समय आँव के साथ खून भी गिरता है।
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आमरख  : पुं० =आमर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आमरखना  : अ० [सं० आमर्षण] आमर्ष या क्रोध करना। गुस्सा होना। उदाहरण—उठे भूप आमरखि सगुन नहिं पायउ।—तुलसी।
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आमरण  : अव्य० [सं० अव्य० स०] मरते समय तक। मरम काल तक।
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आमरष  : पुं० =आमर्ष (क्रोध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आमरषना  : अ० =आमरखना (क्रोध करना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आमरस  : पुं० =अमरस।
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आमर्दकी  : स्त्री० =आमलकी।
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आमर्दन  : पुं० [सं० आ√मृद् (कुचलना)+ल्युट्-अन] अच्छी तरह कुचलने, पीसने, मसलने आदि की क्रिया या भाव।
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आमर्ष  : पुं० [सं० आ√मृष् (सहसा)+घञ्] १. कोई अनुचित या अप्रिय बात न सह सकना। असहनशीलता। विशेष—साहित्य में यह एक संचारी भाव माना गया है और इसका लक्षण यह बतलाया गया है कि इसमें दूसरे का गर्व न सह सकने के कारण उसे नष्ट करने की प्रवृत्ति होती है। २. क्रोध। गुस्सा।
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आमलक  : पुं० [सं० आ√मला (धारण करना)+क्वुन्-अक] [स्त्री० अल्पा० आमलकी] १. आँवला नामक वृक्ष और उसका फल। २. भारतीय वास्तु में उक्त फल के आकार की वह बनावट जो शिखरों के ऊपरी भाग में होती हैं।
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आमलकी  : स्त्री० [सं० आमलक+ङीष्] १. छोटी जाति का आँवला। २. फाल्गुन शुक्ला एकादशी।
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आमला  : पुं० =आँवला (वृक्ष और फल)।
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आम-वात  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक रोग जिसमें पेट से आँव गिरता है और शरीर सूज -वात तथा पीला पड़ जाता है।
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आमाँ  : पुं० =आँवाँ।
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आमातिसार  : पुं० [सं० आ-अतिसार, मध्य० स०] एक रोग जिसमें रह-रहकर आँव के दस्त आते हैं।
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आमात्य  : पुं० [सं० अमात्य+अण्]-अमात्य।
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आमादा  : वि० [फा० आमादः] जो कोई काम करने के लिए तैयार हो गया हो। उद्यत। जैसे—चलने या लड़ने के लिए आमादा होना।
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आमानाह  : पुं० [सं० आम-आनाह, मध्य० स०] आँव होने के कारण पेट फूलने का रोग।
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आमान्न  : पुं० [सं० आम-अन्न, कर्म० स०] कच्चा (अर्थात् बिना पका या पकाया हुआ) अन्न।
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आमाल  : पुं० [सं० अमल (कार्य) का बहु०] १. जीवन में अथवा किसी के किए हुए सब अच्छे और बुरे काम। २. अनुचित और निंदनीय कार्य। ३. करतूत। करनी। ४. जादू टोना और जंतर-मंतर।
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आमालक  : पुं० [देश] पहाड़ के पास की भूमि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आमालनामा  : पुं० [अ०] १. मुसलमानी धर्म के अनुसार वह पुस्तक जिसमें लोगों के भले और बुरे कर्मों को कयामत में पेश करने के लिए नित्य दर्ज किया जाता है। २. वह लेख जिसमें किसी के (विशेषतः कर्मचारियों के) अच्छे और बुरे सभी प्रकार के कामों का उल्लेख या विवरण होता है।
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आमावास्य  : वि० [सं० अमावस्या+अण्] अमावस्या के दिन होने या उससे संबंध रखनेवाला।
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आमाशय  : पुं० [सं० आम-आशय, ष० त०] प्राणियों के पेट के अंदर की वह थैली जिसमें भोजन पचता है। मेदा। (स्टमक)
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आमा-हल्दी  : स्त्री० [सं० आम्रहरिद्रा] =आँबा हलदी।
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आमिख  : पुं० =आमिष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आमिन  : स्त्री० [हिं० आम(फल) का अल्पा० स्त्री० रूप] क प्रकार का बहुत छोटा परर बहुत मीठा आम (फल)।
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आमिर  : पुं० =आमिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आमिल  : वि० [अ०] १. अमल करने या प्रयोग करनेवाला। २. ठीक सतह से काम प्रयोग या व्यवहार करनेवाला। पुं० १. ईश्वर तक पहुँचा हुआ फकीर। २. अमल या शासन चलाने अथवा आज्ञा देनेवाला, अर्थात् प्रधान अधिकारी। हाकिम। ३. कर्मचारी। ४. कार्यकर्त्ता। ५. ओझा। सयाना। पुं० [हिं० आम] कच्चे आम को सुखाकर बनाई हुई एक प्रकार की खटाई।
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आमिष  : पुं० [सं० आ√मिष् (सींचना)+क] १. खाया जानेवला मांस। गोश्त। २. वह जंतु या पशु जो मांस खाने के लिए मारा जाए। शिकार। ३. पशुओं का चारा। ४. घूस। रिश्वत। ५. भोज्य पदार्थ। ६. लालच। लोभ। ७. लोभ उत्पन्न करनेवाली वस्तु। ८. जँवीरी नीबू। ९. आकृति। शकल। १. पत्र।
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आमिषभोजी (जिन्)  : पुं० [सं० आमिष√भुज् (खाना)+णिनि] वह जो गोश्त खाता हो। मांसाहरी। (नाँनवेजिटेरियन)
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आमिषाशी (शिन्)  : पुं० [सं० आमिष√अश् (खाना)+णिनि] [स्त्री० आमिषाशिनी]—आमिष-भोजी।
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आर्मी  : अव्य० [अ०आमीन] =आमीन।
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आमी  : स्त्री० [हिं० आम(फल)का अल्पा० स्त्री० रूप] छोटा अम। अँबिया। स्त्री० [सं० आम्र] जौ आदि की बुनी हुई बाल।
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आमीन  : अव्य० [अ०] १. ईश्वर करे, ऐसा ही हो। एवमस्तु। तथावस्तु। (आशीर्वाद के रूप में या प्रार्थना के अंत में) २. हाँ, आपका कहना ठीक है।
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आमीलन  : पुं० [सं० आ√मील् (बंद करना)+ल्युट्-अन] बंद करना। मूँदना। (मुख्यतः आँखों के संबंध से प्रयुक्त)
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आमुख  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आरंभ। २. नाटक की प्रस्तावना। ३. प्रस्तावना (पुस्तक की)।
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आमुक्त  : भू० क० [सं० आ√मुच् (छोडऩा)+क्त] १. मुक्त किया हुआ। २. छोड़ा या त्यागा हुआ।
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आमुक्ति  : स्त्री० [सं० आ√मुच्+क्तिन्] १. मुक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। छुटकारा। मुक्ति। २. मोक्ष। (धार्मिक क्षेत्र में आत्मा के संबंध में)
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आमुख  : पुं० [सं० आमुख+णइच्+अच्] १. आरंभ या शुरू होने की क्रिया या भाव। २. आंरभ या शुरू का अंश या भाग। ३. किसी पुस्तक विशेषतः नाटक की प्रस्तावना या भूमिका। (प्रिफेस)।
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आमुष्मिक  : वि० [सं० अमुष्मिन्+ठक्-इक, अलुक्० स०] दूसरे लोक से संबंध रखनेवाला। पुं० [स्त्री० आमुष्मिकी] दूसरे लोक का निवासी।
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आमूल  : अव्य० [सं० अव्य० स०] १. आरंभ या मूल तक। जैसे—आमूल परिवर्तन या सुधार। २. बिलकुल। सब।
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आमेज  : वि० [फा० आमेज] १. मिलने या मिलानेवाला। २. मिला हुआ। मिश्रित।
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आमेजना  : स० [फा० आमेजन] मिश्रित या सम्मिलित करना। मिलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आमेजिश  : स्त्री० [फा०] मिलाने की क्रिया या भाव। मिलावट।
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आमोचन  : पुं० [सं० आ√मुच्(छोडऩा)+ल्युट्-अन] मुक्त करने की क्रिया या भाव।
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आमोद  : पुं० [सं० आ√मुद् (हर्ष)+णिच्+अच्] १. मन बहलाने और प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जानेवाला काम। २. ऐसे कर्मों से होनेवाली प्रसन्नता। (एम्यूजमेण्ट) ३. महक। सुगंधि। ४. शतावर (कंद)।
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आमोदन  : पुं० [सं० आ√मुद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. दूसरों को प्रसन्न या मुदित करना। २. अपना मन बहलाना। ३. सुगंधि से युक्त करना। सुवासित किया हुआ।
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आमोद-प्रमोद  : पुं,० [सं० द्व०स०] भोग-विलास। सुख-चैन। पुं० [सं० ] १. ऐसे काम जो केवल मन-बहलाव या चित्त प्रसन्न करने के लिए होते या किये जाते हों। जैसे—खेल तमाशे, संगीत, नृत्य, जादू के खेल आदि। (एन्टरटेन्टमेण्ट) २. हँसी-ठटठा।
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आमोदित  : भू० कृ० [सं० आ√मुच्+णिच्+क्त] १. जिसका आमोदन (या मन-बहलाव) किया गया हो या हुआ हो। २. सुगंधि से युक्त या सुवासित किया हुआ।
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आमोदी (दिन्)  : पुं० [सं० आ√मुद्+णिच्+णिनि] वह जो स्वयं भी प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न करता हो।
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आमोष  : पुं० [सं० आ√मुष्+घञ्] चुरा या छीन कर ले लेना। अपहरण। मूसना।
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आमोषी (षिन्)  : पुं० [सं० आ√मुष्+णिनि] छीनने या मूसनेवाला व्यक्ति।
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आम्नात  : वि० [सं० आ√म्ना (अभ्यास)+क्त] १. किसी से कहा हुआ या सिखलाया हुआ। २. जिसका अध्ययन, अभ्यास या विचार हुआ हो। ३. जिसका उल्लेख या चर्चा हुई हो। ४. जो पवित्र स्मृति के रूप में चला आ रहा हो। जैसे—वेद आदि।
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आम्नाय  : पुं० [सं० आ√म्ना+घञ्] १. पवित्र प्रथा या रीति। २. वेदों आदि का अध्ययन, अभ्यास और पाठ। ३. वेद। ४. अध्ययन के उद्देश्य से किया जाने वाला अभ्यास।
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आम्र  : पुं० [सं० आ√अम् (गति आदि)+रन्, दीर्घ] आम का पेड़ तथा उसका फल।
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आम्र-कूट  : पुं० [ब० स०] अमरकंटक पहाड़ का पुराना नाम।
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आम्र-वन  : पुं० [ष० त०] आमों का वन या उपवन। अमराई।
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आम्रातक  : पुं० [सं० आम्र√अत् (गति)+ण्वुल्-अक] आमड़ा (पेड़ और उसका फल)।
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आम्ल  : वि० [सं० अम्ल+अण्] १. अम्ल संबंधी या अम्ल रस से युक्त। (एसिडिक) पुं० १. खट्टापन। २. इमली।
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आम्लिक  : वि० [सं० अम्ल+ठक्-इक] =आम्ल।
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आम्लिका  : स्त्री० [सं० आम्ल+कन्-टाप्,इत्व] १. भोजन अच्छी तरह न पचने के कारण मुँह का स्वाद बिगड़ना और खट्टे डकार आना। २. इमली।
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आयँता-पायँता  : पुं० [सं० अंगस्थ+फा०पायताना] [स्त्री० आँयती-पाँयती] सोने के समय खांट बिछाने आदि का सिरहाना और पैताना।
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आयदा  : अव्य० =आइंदा।
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आय  : स्त्री० [सं०√अय् (गति)+घञ्] १. आगमन। आना। २. व्यक्ति, संस्था आदि को पारिश्रमिक, लाभ, ब्याज आदि के रूप में प्राप्त होनेवाला धन। आमदनी। (इन्कम) ३. जन्म कुंडली में ग्यारहवाँ स्थान। पुं० अंतपुर का रक्षक। अ० [सं० अस्-होना] पूरबी हिन्दी में आसना या आहना क्रिया की वाचक आदि का स्थानिक रूप है। जैसे—को आय ?-कौन है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आय-कर  : पुं० [ष० त०] राज्य की ओर से लोगों की आय पर लगनेवाला कर। (इन्कम-टैक्स)
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आयत  : वि० [सं० आ√यम् (उपरत होना)+क्त] १. विस्तृत। लंबा-चौड़ा। दीर्घ। विशाल। २. (लंबा और अपेक्षाकृत कम चौड़ा ऐसा क्षेत्र) जिसके चारों ओर समकोण हों। पुं० चार भुजाओंवाला वह क्षेत्र जिसकी आमने-सामने की भुजाएँ समानान्तर और चारों कोण समकोण हों। (रेक्टैगिल) स्त्री० [अ०] इंजील या कुरान का कोई वाक्य।
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आयतन  : पुं० [सं० आ√यत् (प्रयत्न करना)+ल्युट्-अन] [वि० आयतनीय] १. मकान। घर। २. ठहरने की जगह। ३. देवातओं की वन्दना का स्थान। मंदिर। ४. कोई पदार्थ ग्रहण करने की पात्रता या क्षमता के विचार से किसी पात्र या खाली जगह के अंदर का स्थान या अवकाश। (कैपेसिटी)
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आयतन-मिति  : स्त्री० [ष० त०] किसी वस्तु का आयतन नापने की विद्या। (वाल्यूमेट्री)
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आयतनीय  : वि० [सं० आ√यत्+अनीयर] आयतन से संबंध रखनेवाला। (वाल्यूमेट्रिक)।
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आयताकार  : वि० [सं० आयत-आकार, ब० स०] जिसका आकार आयत जैसा हो। जिसकी चार भुजायें और चार समकोण हों। (रैक्टैग्यूलर)
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आयति  : स्त्री० [सं० आ√या (जाना)+ङति] १. आयतन। विस्तार। २. वह सीमा जहाँ तक कोई चीज या बात पहुँचती या पहुँच सकती हो। (एक्सटेन्ट) ३. भविष्य में होनेवाली आय। (क्व०) ४. प्रेम। ५. सम्मान।
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आयतिक  : वि० [सं० आयत+ठक्-इक] भविष्य में होनेवाला।
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आयत्त  : वि० [सं० आ√यत्(प्रयत्न)+क्त] [भाव०आयत्ति] १. जो किसी के अधिकार या वश में हो। २. अधीन। जैसे—स्वायत्तशासन।
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आयत्ति  : स्त्री० [सं० आ√यत्+क्तिन्] १. आयत्त की अवस्था या भाव। २. अधीनता। वशता।
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आयद  : वि० [अ०] १. (नियम, विचार या सिद्धांत जिसका कही आरोप या व्यवहार हो सकता हो। ठीक बैठने या लगनेवाला) २. (अपराध या अभियोग) जो किसी पर लग सकता हो या लगता हो। जैसे—किसी पर कोई जुर्म आयद होना।
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आयमन  : पुं० [सं० आ√यम् (नियमन)+ल्युट-अन] १. तानने या फैलाने की क्रिया या भाव। २. तनाव व फैलाव। ३. लंबाई-चौड़ाई। विस्तार।
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आय-व्यय  : पुं० [सं० द्व० स०] आनेवाला और खर्च होनेवाला धन। आमदनी और खर्च।
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आय-व्ययक  : पुं० [सं० आय-व्यय से] १. वह आनुमानिक लेख जिसमें किसी निश्चित समय में संभावित रूप में होनेवाली आय तथा व्यय के संबंध की मदें ब्योरें की बातें और धन-राशियाँ लिखी रहती है। (बजट) २. आमदनी और खर्च का ब्योरा।
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आयव्यय-फलक  : पुं० [ष० त०] देने-पावने आदि का लेखा जो प्रायः सारणी के रूप में होता है। (बैलेंसशीट)
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आयव्ययिक  : पुं० [सं० आयव्यय+ठक्-इक] =आयव्यय।
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आयस  : पुं० [सं० अयस्+अण्] [वि० आयसी] १. लोहा। २. लोहे का कवच। ३. अस्त्र-शस्त्र। हथियार। ४. मणि। रत्न। ५. अगर की लकड़ी। स्त्री० =आयसु (आज्ञा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आयसी  : पुं० [सं० आयसीस] कवच। जिरहबख्तर। वि० आयस अर्थात् लोहे का बना हुआ।
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आयसीय  : वि० [सं० अयस्+छण्-ईय] १. आयस या लोहे से संबंध रखनेवाला। २. लोहे का बना हुआ।
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आयसु  : स्त्री० [सं० आदेश] आज्ञा। हुक्म।
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आया  : अ० [सं० आगत, प्रा० आअ, सिंह० आ, का० आव] हिंदी आना (क्रिया) का भूतकालिक रूप। जैसे—वह आया था। पद—आया=गया-अकस्मात् आने और आकर चला जानेवाला कोई ऐसा व्यक्ति जिससे घनिष्ठ परिचय या संबंध न हो। ऐसा अजनबी ऊपरी या बाहरी आदमी जो यों ही आवे और चला जाय। मुहावरा—आया गया करना=किसी बात के हो जाने पर उसे उपेक्ष्य और तुच्छ समझकर उसका ध्यान छोड़ देना। जैसे—जो बात हो गई उसे आई गई करो। स्त्री० [पुर्त्त०] बच्चों को दूध पिलाने और उनकी देख-रेख करनेवाली स्त्री। दाई। धात्री। धाय। अव्य० [फा०] अनुकल्पात्मक अवस्थाओं में प्रयुक्त होनेवाला एक प्रश्नवाचक अव्यय जो प्रायः क्या का अर्थ देता है। जैसे—आया तुमने क्या बात कही या नहीं ? स्त्री० दे० ‘आयु’।
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आयाचन  : पुं० [सं० आ√याच् (माँगना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आयचित्त] आग्रहपूर्वक कुछ कहना या माँगना।
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आयात  : पुं० [सं० आ√या (जाना)+क्त] वह वस्तु या माल जो व्यापार के लिए विदेश से अपने देश में लाया या मँगाया जाए।(इम्पोर्ट) वि० (माल) जो दूसरे स्थान या देश से आया हो। बाहर से आया या मँगाया हुआ। (इम्पोर्टेड)
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आयातक  : पुं० [सं० आयात से] वह जो दूसरे देश से किसी वस्तु का आयात करता हो।
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आयात-शुल्क  : पुं० [ष० त०] विदेश से आनेवाले माल पर लगनेवाला शुल्क। (इम्पोर्ट-ड्योटी)
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आयान  : पुं० [सं० आ√यम्+ल्यूट-अन] १. आगमन २. प्रकृति। स्वभाव।
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आयाम  : पुं० [सं० आ√यम् (उपरति)+घञ्] १. लंबाई। विस्तार। २. नियत या नियमित करने की क्रिया। नियमन। अव्य० एक याम या पहर तक।
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आयामन  : पुं० [सं० आ√यम्+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आयामित] १. खींचना, तानना या फैलाना। आयाम या विस्तार बढ़ाना। २. निमय में बाँदना। ३. नियंत्रण में लाना।
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आयामी (मिंन्)  : वि० [सं० आयाम+इनि] १. जिसका आयाम या विस्तार अधिक हो। लंबा चौड़ा। २. नियम या नियंत्रण में रखनेवाला।
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आयास  : पुं० [सं० आ√यस्(उपक्षय)+घञ्] १. ऐसा काम जिसे पूरा करनें में शरीर थक जाय। परिश्रम। (एग्जर्शन) २. उद्योग। प्रयत्न।
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आयासी (सिन्)  : वि० [सं० आ√यस्+णिनि] १. जो आयास कर के थक गया हो। २. आयास या प्रयत्न करनेवाला।
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आयु-शेष  : पुं० [ष० त०] आयु का शेष भाग।
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आयुःष्टोम  : पुं० [ष० त०] दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिए किया जानेवाला यज्ञ।
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आयु (स्)  : स्त्री० [सं०√इ (गति)+असि, वृद्धि] १. जीवन से मरण तक का सारा समय। जीवनकाल। (एज) मुहावरा—आवु खुटाना=आयु या जीवन समाप्त होना। मृत्यु पास आना। आयु सरना=(क) जीवन बिताना। (ख) जीवन समाप्त होना। २. जीवन शक्ति। ३. आहार। ४. आयुष्टोम (यज्ञ)
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आयुक्त  : पुं० [सं० आ√युज् (जोड़ना)+क्त] १. वह जो कोई काम करने के लिए नियुक्त किया गया हो। अभिकर्त्ता। कारिंदा। २. किसी आयोग का सदस्य। दे० आयोग। वि० किसी से लगा या सटा हुआ।
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आयुर्तिक  : पुं० [सं० अयुत+ठक्-इक] एक अयुत अर्थात् दस हजार सिपाहियों का नायक।
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आयुध  : पुं० [सं० आ√यम् (उपरत होना)+क्त] १. अस्त्र। हथियार। २. ऐसा सोना जो आभूषण बनाने के काम आ सके।
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आयुध जीवी (विन्)  : पुं० [आयुध√जीव्(जीना)+णिनि] अस्त्रों के द्वारा जीविका उपार्जित करनेवाला सिपाही।
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आयुध-पाल  : पुं० [ष० त०] शस्त्रागार का अधिकारी।
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आयुधभृत्  : पुं० [आयुध√मृ (भरण करना)+क्विप्] योद्धा। सैनिक।
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आयुध-विधान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विधान जो यह बतलाता है कि जनता किन नियमों के अनुसार अपने पास आयुध रख सकती और किन परिस्थियों में उनका प्रयोग कर सकती है। (आर्म्स एक्ट)
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आयुध-शाला  : स्त्री० [ष० त०] शस्त्रागार।
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आयुधागार  : पुं० [आयुध-आगार, ष० त०] अस्त्र-शस्त्र रखने का स्थान। शस्त्रागार।
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आयुधिक  : वि० [सं० आयुध+ठक्-इक] आयुध संबंधी। पुं० योद्धा। सैनिक।
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आयुधीय  : वि० [सं० आयुध+छ-ईय] आयुधों से संबंध रखनेवाला। शस्त्रों का। पुं० युद्ध में काम आनेवाले अस्त्र-शस्त्र और उनके सभी आवश्यक उपकरण। जैसे—गोला बारूद, बंदूकें, तोपें आदि। (एम्युनिशन)
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आयुर्दाय  : पुं० [सं० आयुस्-दाय, ष० त०] १. पलित ज्योतिष में, जन्म कुण्डली के आधार पर आयु या जीवनकाल के संबंध में होनेवाला निर्णय या विचार। २. जीवन-काल। आयु। उमर।
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आयुर्बल  : पुं० [आयुस्-बल, ष० त०] आयु या उमर के रूप में माना जाना वाला बल। आयु का परिणाम।
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आयुर्योग  : पुं० [आयुस्-योग, मध्य० स०] फलित ज्योतिष में ग्रहों का ऐसा योग जिसके आधार पर मनुष्य की आयु निश्चित की जाती है।
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आयुर्वेद  : पुं० [सं० आयुस√विद्(लाभ)+घञ्] [वि० आयुर्वेदीय] भारतीय चिकित्सा शास्त्र जो अर्थवेद का उपभेद या उपांग माना गया है और जो नीचे लिखे आठ अंगो में विभक्त है-शल्य (चीर-फाड़) शालाक्य (सालइयों आदि का प्रयोग) काय-चिकित्सा (औषधों से रोग दूर करना) भूत-विद्या (झाड़-फूँक और टोना-टोटका) कौमार तंत्र (बच्चों के रोगों की चिकित्सा) अंगद तंत्र (जहरीले जानवरों के काटने पर होनेवाली चिकित्सा) रसायन (भस्म आदि बनाने की क्रिया) और वाजीकरण। इसके मूल आचार्य अशिवनीकुमार कहे गये है।
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आयुर्वेदिक  : वि० [सं० आयुर्वेद+ठक्-इक] आयुर्वेद से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। जैसे—आयुर्वेदिक चिकित्सा।
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आयुर्वेदी (दिन्)  : पुं० [सं० आयुर्वेद+इनि] आयुर्वेद का ज्ञाता। चिकित्सक। वैद्य।
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आयुष  : पुं० [सं० आयुस+अण्] =आयु।
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आयुष्कर  : वि० [सं० आयुस्√कृ (करना)+ट] आयु बढ़ानेवाला (कार्य या पदार्थ)।
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आयुष्मान (ष्मत्)  : वि० [सं० आयुस्+मतुप्] [स्त्री० आयुष्मती] चिरंजीवी। दीर्घजीवी। पुं० १. फलित ज्योतिष में २७ योगों में से एक जिससे आयु का विचार होता है। २. प्राचीन नाटकों में राजकुमार, रथी, सूत आदि के लिए संबोधन वाचक शब्द।
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आयुष्य  : पुं० [सं० आयुस्+यत्] उम्र। आयु।
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आयोग  : पुं० [सं० आ+√युज् (जोड़ना)+घञ्] १. कोई काम पूरा करने के लिए होनेवाली किसी की नियुक्ति। २. आज-कल राज्य के सर्वप्रधान अधिकारी के द्वारा किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की होनेवाली नियुक्ति जो कोई विशिष्ट कार्य संपन्न करने अथवा किसी विचारणीय विषय की छान-बीन या जाँच पड़ताल करने के लिए होती है। (कमीशन) ३. साहित्य में विप्रलंभ के दो भेदों में से एक (दूसरा भेद विप्रयोग कहलाता है) जो अविवाहित अवस्था में होनेवाले प्रेम-जन्य विरह का सूचक है। ४. गाड़ी, हल आदि का जुआ। ५. अलंकरण। सजावट।
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आयोगव  : पुं० [सं० आयोगव+अण्] १. पुराणानुसार एक प्राचीन संकर जाति। २. बढ़ई।
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आयोजक  : पुं० [सं० आ√युज्+णिच्-अक+ण्वुल्] आयोजन करनेवाला व्यक्ति।
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आयोजन  : पुं० [सं० आ√युज्+णिच्+ल्युट्-अन] [स्त्री० आयोजनकर्ता-आयोजक, वि० आयोजित] १. किसी कार्य में लगाना। नियुक्ति। २. इंतजाम। प्रबंध। व्यवस्था। ३. उद्योग। प्रयत्न। ४. सामग्री। सामान।
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आयोजित  : भू०कृ० [सं० आ√मुज्+णिच्+क्त] जिसका या जिसके संबंध में आयोजन हुआ हो या किया गया हो। पुं० १. युद्ध। लड़ाई। २. लड़ाई का मैदान। युद्ध क्षेत्र।
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आरंभ  : पुं० [सं० आ√रभ् (शब्द)+घञ्,मुम्] १. किसी काम में हाथ लगाना। शुरू करना। (कमन्समेण्ट) २. वह अवस्था जिसमें कोई कार्य पहले या शुरू होने के समय रहता है। आदि का अंश या भाग। (बिंगनिंग) ३. किसी चीज या बात की उत्पत्ति या उसका स्थान। ४. ठाट-बाट। शान शौकत। ५. परिश्रम। ६. व्यायाम।
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आरंभक  : वि० [सं० आ√रभ्+ण्वुल्-अक, मुम्] आरंभ या शुरू करनेवाला।
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आरंभण  : पुं० [सं० आ√रभ्+ल्युट्-अन, मुम्] [भू० कृ० अरंभित आरब्ध] १. आरंभ करने या आरंभ होने की क्रिया या भाव। २. अपने अधिकार या कब्जे में करना।
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आरंभतः  : अव्य० [सं० आरंभ+तस्] १. आरंभ या शुरू से। २. बिलकुल नये सिरे से।
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आरंभनाद  : अ० [सं० आरंभण] आरंभ या शुरू होना। स० कोई काम आरंभ या शुरू करना। काम में हाथ लगाना।
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आरंभवाद  : पुं० [सं० ष० त०] न्यायशास्त्र का एक सिद्धांत जिसके अनुसार सृष्टि का आरंभ और रचना ईश्वर की इच्छा से परमाणुओं के योग से हुई है।
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आरंभ-शूर  : पुं० [सं० त०] [भाव आरंभ शूरता] वह जो किसी कार्य के केवल आरंभ में बहुत अधिक उत्साह या तत्परता दिखलाता हो और कुछ समय बाद उदासीन या शिथिल हो जाता हो।
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आरंभिक  : वि० [सं० आरंभ+ठक्-इक] १. आरंभ से संबंध रखनेवाला। पहले का। २. कोई काम करने से पहले उसकी तैयारी, व्यवस्था आदि से संबंध रखनेवाला। ३. बिलकुल आरंभ की अवस्था में होनेवाला। (एलिमेन्टरी)
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आरंभी (मिन्)  : वि० [सं० आरंभ+इनि] १. आरंभ करनेवाला। २. नये सिरे या ढंग से और विशेष उत्साहपूर्वक कोई जोखिम का नया काम करने या योजना चलानेवाला। (एन्टरप्राइजिंग)
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आर  : पुं० [सं० आ√ऋ<(गति)+घञ्] १. खान से निकाला हुआ वह लोहा जो अभी साफ या शुद्ध न किया गया हो। २. पीतल। ३. हरताल। ४. पहिए का आरा। ५. लोहे की पतली कील जो साँटे में लगी रहती है। ६. मुर्गे के पंजे का ऊपर का काँटा। ७. चमड़ा छेदने या सीने की सुतारी। ८. वह कलछी जिससे ईख का रस निकालने है। पुं० [सं० अल्-डंक] बर्रें, बिच्छू आदि का डंक। स्त्री० [अ०] १. लज्जा। शर्म। २. वैर। शत्रुता। स्त्री० [हिं० आड़] जिद। हठ। मुहावरा—आर पड़ना=जिद या हट करना। पुं० [हिं० पारा का अनु०] १. इस ओर का किनारा। तट। जैसे—आर-पार। २. किनारा। सिरा।
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आरकत  : वि० =आरक्त।
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आरक्त  : वि० [सं० आ√रञ् (रँगना)+क्त] १. थोड़ा या हलका लाल। कुछ लाल। ३. लाल। पुं० लाल चंदन।
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आ-रक्तिम  : वि० [सं० प्रा०स०] जो कुछ लाली लिए हो। थोड़ा या हलका लाल।
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आरक्ष  : पुं० [सं० आ√रक्ष् (बचाना)+घञ्] १. सँभालकर रखना। २. रक्षा करना। ३. गजकुंभ संधि। वि० [आ√रक्ष्+अच्] संभालकर या रक्षित रखे जाने के योग्य।
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आरक्षक  : वि० [सं० आ√रक्ष्+ण्वुल्-अक] १. रक्षा करनेवाला। बचानेवाला। २. अच्छी तरह से सँभालकर रखनेवाला। ३. दे० आरक्षिक। पुं० १. पहरेदार। प्रहरी। २. आरक्षिक बल का कोई कर्मचारी या सदस्य। आरक्षी।
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आरक्षा  : स्त्री० [सं० आ√रक्ष्+अङ्-टाप्] अच्छी तरह की जानेवाली रक्षा।
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आरक्षिक  : वि० [सं० आरक्षा+ठक्-इक] आरक्षक या आरक्षा से संबध रखने या उसके क्षेत्र में होनेवाला। जैसे—आरक्षिक बल, आरक्षिक कार्य आदि। पुं० -आरक्षक।
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आरक्षिक कार्य  : पुं० [ष० त०] राजकीय व्यवस्था, शासन आदि के क्षेत्र में ऐसी कार्यवाही या कार्य जो अराजकता, अव्यवस्था, उपद्रव आदि शांति कराने के उद्देश्य से (सैनिक बल की सहायता से) किये जाएँ। (पुलिस एक्शन) जैसे—हैदराबाद राज्य में भारत सरकार को आरक्षित कार्य करना पड़ा था।
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आरक्षिक-कारवाई  : स्त्री० =आरक्षिक कार्य।
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आरक्षिक-बल  : पुं० [सं० ष० त०] राज्य शासन की वह शक्ति जो स्वतंत्र विभाग के रूप में रहकर देश तथा समाज में नियम-पालन शांति, स्थापन आदि की व्यवस्था करती और अपराधियों, अभियुक्तों आदि को विचारार्थ न्यायालय के सामने उपस्थित करती है। (पुलिस फोर्स)
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आरक्षी (क्षिन्)  : पुं० [सं० आरक्ष+इनि]—आरक्षिक।
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आरख  : स्त्री० =आयुष्प। (राज।)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आरग्वध  : पुं० [सं० आ√रग् (शंका)+क्विप्, आरग√हन्(हिंसा)+अच्, वधोदेश] अमलतास।
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आरचित  : भू० कृ० [सं० आ√रच्(रचना करना)+क्त] बनाया हुआ। रचित।
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आरज  : पुं० =आर्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरजा  : पुं० [अ० आरिजः] बीमारी। रोग।
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आरजी  : वि० [अ० अराजी] १. जो वास्तविक या सैद्धांतिक न हो। आरोपित या कल्पित। २. अस्थायी।
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आरजू  : स्त्री० [फा० आरजू] १. अभिलाषा। कामना। मुहावरा—आरजू निकालना या मिटाना=इच्छा पूरी करना। २. प्रार्थना। आरजू। विनती।
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आरट  : वि० [सं० आ√रट् (रटना)+अच्] चिल्लाने या शोर करनेवाला। पुं० -विदूषक।
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आरट्ठ  : पुं० [सं० आ√रट्+ठच्] १. उत्तर-पूर्व पंजाब का एक प्राचीन जनपद। २. वहाँ का निवासी। ३. उक्त प्रदेश का घोडा।
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आरण  : पुं० अरण्य। (जंगल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरणि  : पुं० [सं० आ√ऋ (गति)+अनि] १. आवर्त्त। भँवर। स्त्री० [सं० आर-लोह] लोहे का घन। उदाहरण—रूकमइयों पेखि तपत आरणि रणि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आरण्य  : वि० [सं० अरण्य+ण] अरण्य या वन से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। जंगली।
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आरण्यक  : वि० [सं० अरण्य+वुञ्-अक] १. अरण्य या वन से संबंध रखनेवाला। २. वन में उत्पन्न या वन में रहनेवाला। जंगली। वन्य। पुं० १. वन का निवासी। २. वेदों का वह अंश या भाग जिसमें वानप्रस्थ आश्रम से संबंध रखनेवाली बातों का विवेचन होता है, और जिनका अध्ययन-अध्यापन वनों में ही होता था।
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आरत  : वि० [सं० ] १. जिसका अंत हो चुका हो। २. शांत। ३. सुशील। ४. (मुद्रा या सिक्का) जिसपर ठप्पे से कोई चिन्ह आदि अंकित हो, उसे चलानेवाले का नाम या समय अंकित न हो। (पंचमार्कड्) वि० =आर्त्त।
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आरति  : स्त्री० [सं० आ-रम् (क्रीड़ा)+र्क्त्ति] विरक्ति। स्त्री० १. आरती। २. =आर्त्ति।
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आरभट  : वि०=आर्त्त। (दुःखी)।
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आरती  : स्त्री० [सं० आरात्रिका] १. देव-पूजन अथवा परम आदरणीय या आराध्य व्यक्ति के स्वागत के समय घी का दिया, कपूर या धूप आदि जलाकर बार-बार घुमाते हुए सामने रखना। नीराजन। मुहावरा—आरती उतारना या करना=घी का दिया कपूर आदि जलाकर बार-बार देवता के मुख तथा अन्य अंगों के सामने भक्तिपूर्वक घुमाना। आरती लेना-आरती कर चुकने के बाद उसकी लौ पर दोनों हथलियाँ रखकर फिर उनसे अपनी आँखें और मुँह छूना। २. वह विशेष प्रकार का आधान या पात्र जिसमें उक्त क्रिया के लिए घी और रूई की बत्ती या बत्तियाँ रखी जाती है। ३. वह विशिष्ट स्त्रोत जो किसी देवता को आरती करने के समय पढ़ा जाता है।
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आरथ  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह गाड़ी या रथ जिसमें एक घोड़ा या बैल जुतता है।
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आरन  : पुं० =अरण्य। उदाहरण— कीन्हेंसि साउज आरन रहही।—जायसी।
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आर-पार  : पुं० [सं० आर-किनारा या कोना+सं० पार] १. किसी दलदार या मोटी चीज का इस ओर का तल और दूसरी ओर का तल। जैसे—शीशे का आर-पार। २. किसी विस्तार वाली चीज का इधर का किनारा या सिरा और उधर या दूसरी तरफ का किनारा या सिरा। जैसे—झील या नदी का आर-पार। अव्य० इधरवाले तल या सिरे से उधर वाले तल या सिरे तक। इस ओर से उस ओर तक। जैसे—शीशे के आर-पार दिखाई देना, तीर का शरीर के आर-पार होना आदि।
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आरबला  : स्त्री० =आयुर्बल।
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आरब्ध  : भू० कृ० [सं० आ√रभ् (उत्सुक होना)+क्त] जिसका आरंभ हो चुका हो या किया जा चुका हो। शुरू किया हुआ।
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आरब्धि  : स्त्री० [सं० आ√रभ्+क्तिन्] आरंभ। शुरू।
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आरभट  : पुं० [सं० आ√रभ्+अट] १. वह जो साहसपूर्वक जोखिम से कार्य करता हो। २. नाटक में वीरतापूर्ण और साहस के कामों का अभिनय। ३. साहस।
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आरभटी  : स्त्री० [सं० आ√रभ्+अटि-हीष्] १. दृढ़ता, साहस आदि की मनोवृत्ति। २. दुःखात्मक मनोविकारों का तीव्र वेग। ३. बल-वैभव आदि का अभिमान या गर्वपूर्वक किया जानेवाला उनका प्रदर्शन। उदाहरण—झूठों मन, झूठी यह काया, झठी आरभटी।—सूर। ४. साहित्य में एक प्रकार की वृत्ति या शैली जिसमें यमक का अधिक प्रयोग होता है जो भयानक, रौद्र, वीभत्स आदि रसों के लिए प्रयुक्त कई गयी है।
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आरमण  : पुं० [सं० आ√रभ् (क्रीड़ा)+ल्युट्-अन] १. रमण करना। २. भोग से प्राप्त होनेवाला सुख। इंद्रिय-सुख। ३. आनन्द, मोद या सुख। ४. रमणीय स्थान।
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आरव  : पुं० [सं० आ√रु (शब्द)+अप्] जोरों का शब्द। नाद।
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आरषी  : वि० =आर्ष।
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आरस  : पुं० -आलस्य। स्त्री० =आरसी।
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आरसा  : पुं० [हिं० रस्सा] १. मोटा तथा लंबा रस्सा। २. रस्से या रस्सी में लगी हुई गांठ या मुद्धी।
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आरसी  : स्त्री० [सं० आदर्श, प्रा० आरिस] १. दर्पण। शीशा। आइना। २. हाथ के अँगूठें में पहनने की वह अँगूठी जिसमें शीशा जड़ा होता है।
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आरस्य  : पुं० [सं० अरस+ष्यञ्] अ-रस या रस-हीन होने की अवस्था या भाव। अ-रसता। नीरसता।
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आरा  : पुं० [सं० आ√ऋ(गति)+अच्-टाप्] [स्त्री० अल्प० आरी] १. लोहे की वह दाँतीदार पट्टी जिससे लकड़ी, लोहा आदि से चीरते है। २. चमड़ा सीने का सूजा। ३. लकड़ी की वह पट्टियाँ जो पहिए की बीच की गड़ारी या उसके बाहरी चक्कर तक जडी होती है। ४. लकड़ी की कड़ी या पत्थर की पटरी जिसे दीवार पर रखकर उसके ऊपर घोड़ियां या टाँटा बैठाते हैं। दीवार-दासा। प्रत्यय-[फा०] (यौगिक शब्दों के अंत में) जिसके रहने से किसी की शोभा बढ़े। सुशोभित करनेवाला। जैसे—जहाँ आरा।
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आराइश  : स्त्री० [फा०] सजावट।
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आराइशी  : वि० [फा०] आराइश या सजावट के काम में आनेवाला।
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आराकस  : पुं० [फा०] वह जो आरे से लकड़ी, लोहा आदि चीरता हो। आरा चलानेवाला।
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आराज  : पुं० =अराजकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आराज़ी  : स्त्री० [अ०] १. भूमि। जमीन। २. कृषि के योग्य भूमि। खेत।
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आराण  : पुं० [सं० रण] युद्ध। (डि०) उदाहरण—अरि देखें आराण में, तृण मुख माँझल त्याँह।—बाँकीदास।
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आरात  : अव्य० [सं० आरात्] निकट। पास। उदाहरण—अंबिकालय नयर आरात।—प्रिथीराज।
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आराति  : पुं० [सं० आ√रा(देना)+क्तिच्] वैरी। शत्रु।
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आरात्रिक  : पुं० [सं० अरात्रि+ठञ्-इक] १. आरती करनेवाला व्यक्ति। २. आरती के लिए धूप, दीप आदि ऱखने का आधान या पात्र।
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आराधक  : वि० [सं० आ√राध् (उपासना करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० आराधिका] आराधना करनेवाला।
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आराधन  : पुं० [सं० आ√राध्+ल्युट्-अन] [वि० आराधक, आराधित, आराधनीय, आराध्य] आराधना करने की क्रिया या भाव।
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आराधना  : स्त्री० [सं० आ√राध्+णिच्+मुच्-अन-टाप्] देवी, देवता आदि को संतुष्ट तथा अपने अनुकूल करने के लिए की जानेवाली उनकी उपासना या पूजा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आराधनीय  : वि० [सं० आ√राध्+णिच्+अनीयर] जिसकी आराधना करना इष्ट तथा उचित हो।
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आराधित  : भू० कृ० [सं० आ√राध्+णिच्+क्त] [स्त्री० आराधिता] जिसकी आराधना की गई हो।
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आराध्य  : वि० [सं० आ√राध्+णिच्+यत्] [स्त्री० आराध्या] जिसकी आराधना की जाती हो। पूजनीय। पूज्य।
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आराम  : पुं० [सं० आ√रम् (क्रीड़ा)+घञ्] उपवन। वाटिका। बगीचा। पुं० [फा०] १. ऐसी स्थिति जिसमें शांति, संतोष तथा सुख हो। जैसे—हम यहाँ आराम से हैं। मुहावरा—आराम से-धीरे-धीरे। जैसे—काम आराम से होता रहेगा। २. रोग में कमी होने या रोग दूर हो जाने की अवस्था। जैसे—आजकल उन्हें पहले से आराम है। वि० जिसका रोग कम हो गया हो या दूर हो गया हो। जैसे—वह जल्दी ही आराम हो जायँगे।
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आराम-कुर्सी  : स्त्री० [फा०] एक प्रकार की लंबी कुर्सी जिसमें सहारा लगाकर लेटने तथा दोनों ओर हाथ रखने के लिए लंबी पटरियाँ होती है। सुखासन। (ईजी चेअर।
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आराम-गाह  : स्त्री० [फा०] सोने की जगह। शयनागर।
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आराम-तलब  : वि० [फा०] [भाव० आराम० तलबी] १. सुख चाहनेवाला। २. सुकुमार। ३. आलसी।
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आराम-तलबी  : स्त्री० [फा०] आराम तलब होने की अवस्था या भाव।
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आराम-दान  : पुं० [फा०आराम+दान] १. पायदान। २. सिंगारदान।
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आराम-पाई  : स्त्री० [फा०आराम+हिं० पाय] एक प्रकार का हलका जूता।
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आरालिक  : पुं० [सं० अराल+ठक्-इक] [स्त्री० आरालिका] रसोई या भोजन पकानेवाला। पाचक। रसोइया।
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आरास्ता  : वि० [फा० आरास्तः] सजा या सजाया हुआ। सुसज्जित।
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आरि  : स्त्री० [सं० अल् या आर ? हिं० अड़ का पुराना रूप] जिद। टेक। हठ। उदाहरण—(क) कबहूँ सस माँगत आरि करै। -तुलसी। (ख) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै। (दे० आर)। स्त्री० [?] झिल्ली या झीगुर नाम का कीड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आरित्रिक  : वि० [सं० अरित्र+ष्ठञ्-इक] अरा से संबंध रखनेवाला अरा-संबंधी।
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आरिया  : स्त्री० [सं० आरू-ककड़ी] ककड़ी की तरह का एक प्रकार का फल। पुं०=आर्य-समाजी।
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आरी  : स्त्री० [हिं० आरा का स्त्री०अल्पा०] १. लकड़ी, लोहा आदि चीरने का एक प्रसिद्ध दाँतदार औजार। २. लोहे की वह कील जो बैल हाँकने के पैने की नोक में लगी रहती है। ३. चमड़ा सीने का सूजा। सुतारी। स्त्री० [देश] १. बबूल की जाती का एक पेड़। स्थूल-कंटक। २. दुर्गंध खैर। बबुरी। स्त्री० [सं० आर=किनारा] १. ओर। तरफ। २. किनारा। सिरा। ३. खेत की मेड़। उदाहरण— थोर जोताई बहुत हेगाई,ऊँचे बाँधै आरी।—घाघ। वि० [अ०] १. दीन। २. लाचार।
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आरुक  : वि० [सं० आरू+कन्] हानिकारक।पुं० १. हिमालय में होनेवाली आड़ नाम की जड़ी। २. आलू-बुखारा।
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आरुण  : वि० [सं० अरुण+अण्] अरुण-संबंधी।
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आरुणि  : पुं० [सं० अरूण+इञ्] १. अरुण के वंशज। २. सूर्य के यम पुत्र आदि। ३. उद्दालक ऋषि। पुं० [सं० अरि] वैरी। शत्रु। उदाहरण—लौहानो अज्जान जित्त आरुणि जसुन्यन्नौ।—चंदवरदाई।
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आरुण्य  : पुं० [सं० अरूण+ष्टञ्] अरुणता। लाली।
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आरूढ़  : वि० [सं० आ√रूह् (उत्पन्न होना)+क्त] [भाव० आरूढ़ता] १. किसी के ऊपर चढ़ा हुआ। २. (घोड़े पर) चढ़ा हुआ। सवार। ३. (प्रतिज्ञा वचन आदि पर) दृढ़ या स्थिर। ४. तत्पर। सनन्द्ध।
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आरूढ़-यौवना  : स्त्री० [ब० स०] साहित्य में चार प्रकार की मध्यमा नायिका में से एक जो पूर्ण रूप से युवती हो चुकी हो।
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आरूढ़ि  : स्त्री० [सं० आ√रुह्+क्तिन्] आरूढ़ होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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आरेक  : पुं० [सं० आ√रिच्(मिलाना, अलग करना)+घञ्] १. रिक्त या खाली करना। २. संदेह।
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आरेचन  : पुं० [सं० आ√रिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आरेचित] १. खाली करना या कराना। बाहर निकलना या निकालना। २. संकुचित करना या होना।
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आरेस  : स्त्री०-ईर्ष्या। उदाहरण—कबहुँ न कियहु सवति आरेसू।—तुलसी। पुं० -आलस्य।
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आरो  : पुं० [सं० आख] घोर शब्द। नाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरोग  : पुं० =आरोग्य।
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आरोगना  : स० [सं० आरोग्य] भोजन करना। खाना। (आदरार्थक)।
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आरोग्य  : पुं० [सं० अरोग+ष्यञ्] अरोग होने की अवस्था या भाव।
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आरोग्यता  : स्त्री० [सं० आरोग से] अरोग होने की अवस्था या भाव।
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आरोग्य-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] किसी व्यक्ति के संबंध का वह प्रमाणपत्र जो यह सूचित करता है कि अमुख व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से बिलकुल निरोग और स्वस्थ है। (हेल्थ सर्टिफिकेट)।
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आरोग्य-शाला  : स्त्री० [ष० त०] दे० स्वास्थ्य-निवास।
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आरोग्य-स्नान  : पुं० [सं० मध्य० स०] वह स्नान जो बहुत दिनों का रोगी से मुक्त और स्वस्थ होने पर पहले पहल करता है।
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आरोध  : पुं० [सं० आ√रुध्(रोकना)+घञ्] १. अच्छी तरह से खड़ी की हुई बाधा या रूकावट।२. अवरोध। घेरा। ३. ऐसी आज्ञा या उसके अनुसार होनेवाली रूकावट जिसमें कोई माल कहीं भेजा या कहीं से मँगाया न जा सके। (एम्बार्गो)।
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आरोधना  : स० [सं० आ+रुंधन-छेकना] १. बाधा या रुकावट खड़ी करना। २. काँटों की बाढ़ लगाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरोप  : पुं० [सं० आ√रुह् (बीज उत्पन्न करना)+णिच्,पुक्+घञ्] [भू०कृ०आरोपित,वि० आपोप्य०कर्त्ता आरोपक] १. ऊपर से या कहीं से लाकर बैठाना या लगाना। जैसे—कही से कोई पेड़-पौधा लाकर उसका आरोप करना। २. साहित्य में किसी वस्तु में दूसरी वस्तु का गुण या धर्म लाकर लगाना या उसकी कल्पना करना। ३. किसी के संबंध में यह कहना कि अमुक अनुचित दंडनीय या नियम-विरुद्ध कार्य किया है। (एलिगेशन) मुहावरा—(किसी पर कोई) आरोप लगाना=(क) साधारण रूप में यह कहना कि इसने अमुक अनुचित काम किया है। (ख) विधिक क्षेत्र में, आरंभिक जाँच गवाही आदि के बाद न्यायालय का यह स्थिर करना कि अभियुक्त अमुक अपराध का कर्त्ता हो सकता है। दफा लगाना। ४. अधिकारपूर्वक किसी पर कोई कर या शुल्क नियत करना। (लेवी)।
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आरोपक  : वि, [सं० आ√रुह्+णिच्,पुक्+ण्वुल्-अक] १. आरोप करनेवाला। २. अभियोग या दोष लगानेवाला।
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आरोपण  : पुं० [सं० आ√रुह्+णिच्+पुक्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आरोपित, वि० आरोप्य] आरोप करने की क्रिया या भाव।
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आरोपना  : स० [सं० आरोपण] आरोप या आरोपण करना। लगाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आरोप-फलक  : पुं० [ष० त०] वह फलक या लेख्य, जिसमें न्यायालय द्वारा किसी पर लगाये हुए आरोपों आदि का विवरण लिखा होता है। (चार्ज शीट)।
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आरोपित  : भू० कृ० [सं० आ√रुह्+णिच्, पुक्+क्त] १. जिसका आरोपण हुआ हो। स्थापित किया या लगाया हुआ। २. रोपा हुआ।
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आरोपी (पिन्)  : वि० [सं० आ√रुह्+णिच्, पुक्+णिनि]-आरोपक।
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आरोप्य  : वि० [सं० आ√रुह्+णिच्,पुक्+यत्] १. आरोप किये जाने के योग्य। जिसपर आरोप करना उचित या संगत हो। २. रोपे जाने के योग्य।
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आरोप्यमाण  : वि० [सं० आ√रुह्+णिच्, पुक्+यक्+शानच्] जिसमें किसी वस्तु या तत्त्व का आरोप किया जाए। जैसे—दूध ही मेरा जीवन है में दूध आरोप्यमाण और ‘जीवन’ आरोप्य है।
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आरोह  : पुं० [सं० आ√रुह्+घञ्] १. किसी के ऊपर आरूढ़ होना या चढ़ना। सवार होना। २. नीचे से क्रमात् ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। चढ़ाव। ३. वेदांत में, जीवात्मा की उत्तरोत्तर होनेवाली उन्नति या ऊर्ध्व गति। क्रमशः उत्तमोत्तम योनियों की होनेवाली प्राप्ति। ४. दर्शन और विज्ञान में कारण से कार्य का आविर्भाव होना या किसी पदार्थ का आरंभिक या हीन अवस्था से बढ़कर उन्नत और विकसित अवस्था में पहुँचना। जैसे—बीज से अंकुर या अंकुर से वृक्ष बनना, अथवा अल्प, चेतना वाले जीवों क्रमात् प्राणियों की सृष्टि होना। ५. संगीत में, पहले नीचे वाले स्वरों का उच्चारण करते हुए उत्तरोत्तर ऊँचे स्वरो का उच्चारण करना। जैसे—सा,रे,ग,म,प,ध,नि, अथवा रे,ग,प,नि,सा। ६. ऐसा मार्ग जो क्रमशः ऊँचा होता गया हो। चढ़ाई। (एस्सेन्ट, सभी अर्थों के लिए)। ७. फलित ज्योतिष में ग्रहण लगने का एक विशिष्ट प्रकार का भेद। ८. प्राचीन भारत में पशुओं के वे चमड़े जो ऊपर ओढ़ें जाते थे। ९. चूतड़। नितंव।
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आरोहक  : वि० [सं० आ√रुह्+ण्वुल्-अक] आरोहण करने या चढ़ानेवाला।
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आरोहण  : पुं० [सं० आ√रुह्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता आरोहक, भू० कृ० आरोहित] १. ऊपर की ओर जाना या बढ़ना। २. किसी के ऊपर चढ़ना या सवार होना। ३. चढ़ाई का मार्ग का रास्ता। ४. सीढ़ी।
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आरोहना  : अ० [सं० आरोहण] ऊपर चढ़ना। आरोहण करना। उदाहरण—दरसन लागि लोग अदनि आरो हैं।—तुलसी।
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आरोहित  : भू० कृ० [सं० आरोह+इतच्] १. जिसने आरोहण किया हो। चढ़ा हुआ। २. ऊपर गया या ऊपर की ओर बढ़ा हुआ।
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आरोही (हिन्)  : पुं० [सं० आ√रुह्+णिनि] [स्त्री०आरोहिणी] १. आरोहण करने या ऊपर चढ़नेवाला। (एसेंडिग)। २. वह जो किसी के ऊपर चढ़ा हो। सवार। ३. संगीत में, स्वर-साधन का वह भेद जिसमें पहले नीचे के स्वरो का उच्चारण करते हुए क्रमशः ऊँचे स्वरों का उच्चारण किया जाता है। इसका विपर्याय अवोरही है। जैसे—सा,रे,ग,म,प,ध,नि,सा।
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आरौ  : पुं० आरव (घोरशब्द)। उदाहरण—घुरघुरात हय आरौ पाए।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आर्क  : वि० [सं० अर्क+अण्] अर्क (सूर्य मदार आदि) से संबंध रखने वाला। अर्क-संबंधी।
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आर्कि  : पुं० [सं० अर्क+इञ्] सूर्य के पुत्र, यथा-शनि, यम, कर्ण आदि।
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आर्गल  : पुं० [सं० अर्गल+अण्]-अर्गल।
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आर्घा  : स्त्री० [सं० आ√अर्ध् (मूल्य)+अच्-टाप्] पीले रंग की एक बड़ी मधु-मक्खी। सारंग।
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आर्ध्य  : पुं० [सं० आर्धा+यत्] १. आर्धा नामक मधु-मक्खियों का मधु। सारंग-मधु। २. एक प्रकार का महुआ जिसका गोंद सफेद होता है।
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आर्जव  : पुं० [सं० ऋजु+अण्] १. ऋजु होने की अवस्था, गुण या भाव। ऋजुता। साधापन। २. सरलता। सुगमता। ३. व्यवहार आदि की सरलता या साधुता। (स्ट्रेट-फार्वर्डनेस)
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आर्जुनि  : पुं० [सं० अर्जुन+इञ्] अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु।
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आर्त्त  : वि० [सं० आ√ऋ (गति)+क्त] [भाव० आर्ति, आर्त्तता] १. विपत्ति या संकट में पड़ा हुआ। २. जिसे आघात लगा या कष्ट पहुँचा हुआ हो। पीड़ित। ३. जो उक्त स्थिति में पड़कर विह्रल हो रहा हो और अपने छुटकारे के लिए सहायता चाहता हो। ४. जिससे विशेष दुःख या संकट प्रकट होता हो। जैसे—आर्त्त स्वर। ५.अस्वस्थ। रूग्ण। बीमार। ६.नश्वर। पुं० चार प्रकार के भक्तों में से एक जो संसार के कष्टों से परम दुःखी होकर भगवान की शरण में जाता है।
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आर्त्तता  : स्त्री० [सं० आर्त्त+तल्-टाप्] १. आर्त्त होने की अवस्था या भाव। २. कष्ट। दुःख।
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आर्त्तध्वनि  : स्त्री० [ष० त०] आर्त्त नाद।
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आर्त्तनाद  : पुं० [ष० त०] जोर का ऐसा नाद या शब्द जो घोर संकट में पड़े हुए व्यक्ति के मुहँ से निकलता है। परम दुखिया की दर्द भरी पुकार।
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आर्त्तभक्ति  : स्त्री० [ष० त०] गौणी भक्ति का भेद जिसमें भक्त कष्ट में पड़कर तथा उसे दूर करने के लिए आर्त्त-भाव से उपासना और प्रार्थना करता है।
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आर्त्तव  : वि० [सं० ऋतु+अण्] [स्त्री० आर्त्तवी ऋतु+अण्] १. ऋतु या मौसिम से संबंध रखनेवाला। २. किसी विशिष्ट ऋतु में उत्पन्न होनेवाला। मौसिमी। पुं० ऋतुमती स्त्रियों के मासिक धर्म के समय निकलनेवाला रज। पुष्प।
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आर्त्तव-दोष  : पुं० [कर्म० स०] स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी। ऋतु-दोष।
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आर्त्तवेयी  : स्त्री० [सं० ऋतु+ञक्-एय-ङीष्] ऋतुमती या रजस्वला स्त्री।
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आर्त्ति  : स्त्री० [सं० आ√ऋ+क्तिन्] १. आर्त्त होने की अवस्था या भाव। आर्त्तता। २. कष्ट। दुःख। ३. रुग्णता। बीमारी।
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आर्त्त्विज  : वि० [सं० ऋत्विज्+अण्] [स्त्री० आर्त्त्विजी] ऋत्विज संबंधी।
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आर्थ  : वि० [सं० अर्थ+अण्] [स्त्री०आर्थी] १. जिसका कोई विशेष अर्थ या महत्व हो। २. शब्दों या वाक्यों के अर्थ से संबंध रखनेवाला। ३. साहित्य में, स्पष्ट कथन के अभाव में केवल अर्थ से निकलने अथवा उससे संबंध रखनेवाला। ‘शब्द’ से भिन्न और उसका विपर्याय। जैसे—आर्थी व्यंजना या विभावना। ४. दे० ‘आर्थिक’।
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आर्थिक  : वि० [सं० अर्थ+ठक्-इक] १. अर्थ से संबंध रखनेवाला। अर्थ संबंधी। २. राजनीति और समाजशास्त्र में धन-संपत्ति और इसके अर्जन,उत्पादन,विभाजन व्यवस्था आदि से संबंध रखनेवाला। रुपए-पैसे, आय-व्यय आदि से संबंध रखने या इनके विचार से होनेवाला। (इकाँनामिक) जैसे—देश की आर्थिक उन्नति। ३. दे० ‘आर्थी’।
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आर्थिकी  : स्त्री० [सं० अर्थ से] अर्थशास्त्र।
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आर्थी  : वि० [सं० आर्थ+ङीष्] शब्दों के अर्थ से संबंध रखनेवाला। जैसे—आर्थी व्यंजना।
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आर्थी-अपह्रति  : स्त्री० [सं० व्यस्त०पद] दे० ‘कैतवापह्वति’।
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आर्थी-व्यंजना  : स्त्री० [सं० व्यस्त०पद] साहित्य में, व्यंजना (शब्द शक्ति) का वह प्रकार या भेद जिसमें स्वयं शब्दों से नहीं, बल्कि उनके द्वारा निकलनेवाले अभिप्राय या आशय से अथवा शारीरिक चेष्टा, व्यंग्य काकु, प्रसंग आदि के द्वारा कोई विशेष अर्थ या भाव व्यंजित होता है। जैसे—‘बाल-मराल कि मंदर लेही’। से वक्ता यह बतलाना चाहता है कि रामचंद्र धनुष नहीं उठा सकते।
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आर्द्ध  : वि० [सं० अर्द्ध+अण्] अर्ध-संबंधी। अर्ध का। यौ० शब्दों के आरंभ से। जैसे—आर्द्ध वार्षिकी।
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आर्द्र  : वि० [सं० √अर्द्(गति)+रक्, दीर्घ] [भाव० आर्द्रता] १. गीला। तर। नम। २. पिघला हुआ। ३. किसी प्रकार के रस या तरल पदार्थ से युक्त। जैसे—आर्द्र काष्ठ, आर्द्र नेत्र आदि। ४. सना हुआ। लथ-पथ।
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आर्द्रक  : पुं० [सं० आर्द्र+कन्] अदरक। आदी।
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आर्द्रता  : स्त्री० [सं० आर्द्र+तल्-टाप्] आर्द्र होने की अवस्था या भाव। नमी।
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आर्द्रा  : स्त्री० [सं० आर्द्र+टाप्] १. एक नक्षत्र जो प्रायः आषाढ़ में पड़ता है और साधारणयतः जिसमें वर्षा आरंभ होती है। २. एक वर्णवृत्त जिसके पहले और चौथे चरण में जगण, तगण और दो गुरु और दूसरे तथा तीसरे चरणों में दो तगण, जगण और दो गुरू होते हैं। ३. अदरक। आदी। ४. अतीस।
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आर्नव  : पुं० =आर्णव (समुद्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आर्य  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+ण्यत्] [भाव० आर्यत्व, स्त्री० आर्या] १. आदरणीय, प्रतिष्ठित या श्रेष्ठ व्यक्ति। २. वह जो अपने धर्म के प्रति पूरी निष्ठा और श्रद्धा रखता हो। ३. एक प्रसिद्ध प्राचीन उन्नत और सभ्य जाति जो मध्य एशिया से आकर आर्यावर्त्त या भारत में बसी थी, और जिसकी कुछ शाखाएँ यूरोप आदि की ओर फैली थी। ४. आचार्य, गुरु, पति आदि पूज्य व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक पुराना संबोधन। ५. मनु, सावर्ण का एक पुत्र। ६. एक बुद्ध। वि० १. उत्तम। श्रेष्ठ। २. पूज्य। मान्य। ३. कुलीन। ४. उपयुक्त।
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आर्य-घोटक  : पुं० [सं० कर्म० स०] जलूस में निकाला जानेवाला बिना सवार का सजा हुआ घोड़ा। कोतल।
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आर्यत्व  : पुं० [सं० आर्य+त्व] आर्य होने की अवस्था, गुण, या भाव। आर्यपन।
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आर्य-पुत्र  : पुं० [ष० त०] १. आर्यों की संतान। २. स्त्री की ओर से पति के प्रति प्रयुक्त होने वाला एक प्राचीन संबोधन।
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आर्यव  : पुं० [सं० आर्य√वा (गति)+क] १. अच्छा और श्रेष्ठ आचरण। सदाचार। २. उचित और न्याय संगत व्यवहार।
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आर्य-वृत्त  : पुं० [ष० त०] धर्मात्मा और सदाचारी।
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आर्य-सत्य  : पुं० [ष० त०] बौद्धों में माने जानेवाले चार मूल और परम उत्कृष्ट सत्य सिद्धांत जो बौद्ध धर्म के मूल आधार माने गये हैं।
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आर्य-समाज  : पुं० [ष० त०] [वि० आर्य-समाजी] हिंदुओं के अंतर्गत एक आधुनिक संप्रदाय जिसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्थापित किया था। और जो मूर्ति-पूजा, पुराणों आदि का खंडन तथा मूल वैदिक धर्म का पोषण करता है।
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आर्य-समाजी (जिन्)  : पुं० [सं० आर्यसमाज+इनि] वह जो आर्यसमाज के सिद्धांत मानता हो और उसका अनुयायी हो। वि० १. आर्यसमाज संबंधी। २. आर्य समाजियों की तरह का।
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आर्य्या  : स्त्री० [सं० आर्य+टाप्] १. पार्वती। २. पितामही, सास आदि बड़ी बूढ़ियों के लिए आदर सूचक-संबोधन। ३. एक प्रकार का अर्ध-मात्रिक छंद।
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आर्या-गीति  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] आर्या छंद का एक भेद जिसके सम चरणों में बीस और विषम चरणों में बारह मात्राएँ होती है।
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आर्यावर्त्त  : पुं० [सं० आर्य-आ√वृत्त (रहना)+घञ्] भारतवर्ष का वह उत्तरी और मध्य भाग जिसमें आर्य जाति पहले पहल आकर बसी थी।
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आर्येतर  : वि० [सं० आर्य-इतर, पं० त०] १. जो आर्यन हो, बल्कि उससे भिन्न हो।
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आर्ष  : वि० [सं० ऋषि+अण्] १. ऋषियों से संबंधित। ऋषियों का। २. ऋषियों का बनाया हुआ। ३. वैदिक रचनाओं और स्तोत्रों से संबंधित। ४. जो ऋषियों द्वारा प्रचिलित होने के कारण ही मान्य हो। जैसे—आर्ष प्रयोग।
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आर्ष-प्रयोग  : पुं० [सं० कर्म० स०] भाषा के क्षेत्र में, किसी पद या शब्द का ऐसा प्रयोग जो व्याकरण के नियमों से ठीक न सिद्ध न होने पर भी इसलिए प्रचलित तथा मान्य हो कि प्राचीन ऋषि आदि ऐसा प्रयोग कर गये हैं।
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आर्षभ  : वि० [सं० ऋषभ+अण्] ऋषभ संबंधी। ऋषभ का। पुं० ऋषभ का वंशज।
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आर्ष-विवाह  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्मृतियों के अनुसार आठ प्रकार के विवाहों में से तीसरा जिसमें कन्या का पिता वर से दो गौएँ या बैल शुल्क के रूप में लेकर उसे अपनी कन्या देता था।
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आर्षेय  : वि० [सं० ऋषि+ढक्-एय] १. ऋषियों से संबंध रखने या उनमें होनेवाला। २. पूज्य। मान्य। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। पुं० १. ऋषियों का गोत्र। २. मंत्र-दृष्टा ऋषि। ३. यजन-याजन और अध्ययन-अध्यापन आदि जो ऋषियों के कार्य है।
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आर्हत  : वि० [सं० अर्हत्+अण्] अर्हत से या जैन-सिद्धांतों से संबंध रखनेवाला। पुं० १. जैन-सिद्धांत। २. जैन-सिद्धांतो का अनुयायी।
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आलंकारिक  : वि० [सं० अलंकार+ठक्-इक] १. अलंकार संबंधी। २. अलंकरण या सजावट के रूप में होनेवाला। (आँर्नामेन्टल) जैसे—आलंकारिक चित्रण। ३. (कथन या रचना) जो अलंकारों से युक्त हो। (फिगरेटिव) जैसे—आलंकारिक भाषा। ४. साहित्य-सेवी। साहित्यिक। (प्राचीन शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द)। पुं० अलंकार शास्त्र का ज्ञाता या पंडित।
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आलंग  : पुं०=अलंग।
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आलंब  : पुं० [सं० आ√लंब् (आश्रित रहना)+घञ्] १. वह जिसके ऊपर या सहारे पर कोई खड़ा टिका या ठहारा हो। सहारा। २. किसी पर रखा जानेवाला भरोसा या किया जानेवाला पूरा विश्वास। ३. नींव।
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आलंबन  : पुं० [सं० आ√लंब्+ल्युट्-अन] १. वह जिसपर कुछ ठहरा या टिका हो। आधार। सहारा। २. किसी पर आश्रित रहने अथवा टिके या ठहरे होने की अवस्था या भाव। आश्रय। ३. नींव। ४. साहित्य में, वस्तु, (वस्तु या व्यक्ति) जिसके आधार पर मन में रस की अनुभूति या आर्विभाव होता है। जैसे—श्रंगार रस के नायक और नायिका, हास्य रस में विलक्षण उक्ति या रूप और वीभत्स रस में मांस रक्त आदि घृणित पदार्थ आलंबन होते है। ५. वह मानसिक क्रिया या प्रयोग जो योगी लोग ब्रह्मा का साक्षात्कार करने के लिए करते है। ६. इंद्रियों के विषय (रूप, रस, गंध आदि) जिनके द्वारा या सहारे मानसिक ज्ञान प्राप्त होता है।
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आलंबित  : भू० कृ० [सं० आ√लंब्+क्त] किसी पर ठहरा या टिका हुआ। आश्रित।
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आलंबी (बिन्)  : पुं० [सं० आ√लंब्+णिनि] वह जो किसी पर ठहरा या टिका हो।
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आलंभ  : पुं० [सं० आ√लभ्(प्राप्ति)+घञ्,नुम्] १. स्पर्श करना। छूना। २. पकड़ना। ३. प्राप्ति। ४. हत्या।
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आलंभन  : पुं० [सं० आ√लभ्+ल्युट्-अन,नुम्] छूने पकड़ने या प्राप्त करने की क्रिया।
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आलंभी (भिन्)  : वि० [सं० आ√लभ्+ल्युट्-अन,नुम्] छूने, पकड़ने या प्राप्त करने वाला। २. वध, हत्या या हिंसा करनेवाला।
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आल  : पुं० [सं० अल (-बिच्छू का डंक)+अण्] १. जहरीले कीड़े या जानवरों के शरीर से निकलनेवाला कोई विषाक्त तरल पदार्थ या रस। २. हरताल। पुं० [सं० √अल्(भूषित करना)+णिच्+अच्] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी खेती पहले रंग के लिए की जाती थी। २. उक्त पौधे से निकाला हुआ लाल रंग। ३. एक प्रकार का कँटीला पौधा। ४. गाँव या बस्ती का भाग। ५. झंझट। बखेड़ा। ६. सरसों की फसल को हानि पहुँचाने वाला कीड़ा। माही। ७. प्याज का हरा डंठल। ८. कद्दू। लौकी। वि० [सं० आर्द्र] गीला। तर। पुं० १. गीलापन। तरी। २. अश्रु। आसूँ। स्त्री० [अ०] १. बेटी की संतति। २. औलाद। संतान। ३. कुल। खानदान। परिवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आलकस  : पुं० [सं० आलस्य] [वि० आलकसी, अ० अलकसाना] आलस्य।
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आल-जाल  : वि० [हिं० आल-झंझट] व्यर्थ का। ऊटपटांग। पुं० १. व्यर्थ की या बे-सिर पैर की बात। २. फालतू या व्यर्थ की चीज।
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आलथी-पालथी  : स्त्री० [हिं० पालथी] बैठने की वह मुद्रा जिसमें दाहिनी एड़ी बाएँ जंघे पर और बाइँ एड़ी दाहिने जँघे पर रहती है। क्रि० प्र०-मरना। लगाना।
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आलन  : पुं० [हिं० सालन का अनु०] १. वह घास, भूसा आदि जो चूल्हा, दीवार आदि बनाने की मिट्टी में मिलाया जाता है। २. वह आटा या बेसन जो पकौड़िया आदि बनाने के साग या फलों के टुकड़ों में मिलाया जाता है।
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आलना  : पुं० [सं० आलय, मि० फा० लानः-मधु-मक्खियों का छत्ता] चिड़ियों का घोंसला। नीड़।
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आलपाका  : पुं० दे० ‘अलपका’। (कपड़ा)।
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आलपीन  : स्त्री० [पुर्त्त० आलफिनेट] सुई के आकार की बिना छेद की घुंडीदार लोहे की वह छोटी सलाई जिससे कागज आदि नत्थी किये जाते हैं। (पिन)।
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आलम  : पुं० [अ०] १. जगत। दुनियाँ। संसार। २. संसार में रहनेवाले मनुष्य। ३. मनुष्यों की भीड़-भाड़। जन-समूह। ४. अवस्था। दशा। हालत। ५. दृश्य। ६. एक प्रकार का नृत्य।
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आलमारी  : स्त्री० =अलमारी।
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आलय  : पुं० [सं० आ√ली (समाना)+अच्] १. घर। मकान। २. जगह। स्थान। ३. किसी विशिषट कार्य के लिए बना हुआ भवन तथा स्थान। जैसे—चिकित्सालय, छात्रालय आदि।
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आलवाल  : पुं० [सं० आ-लव,प्रा०स०आ√ला(लेना)+क] वृक्ष के नीचे का थाँवला। थाला।
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आलस  : पुं० [सं० आलस्य] [वि० आलसी] आलस्य।
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आलसी  : वि० [हिं० आलस] हर काम में आलस करने वाला। निकम्मा और सुस्त।
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आलस्य  : पुं० [सं० अलस+ष्यञ्] १. ऐसी मानसिक या शारीरिक शिथिलता जिसके कारण कोई काम करने में मन नहीं लगता। सुस्ती। २. वह उत्साह, हीनता और शिथिलता जो बहुत समय तक जागते रहने पर बहुत अधिक परिश्रम करने पर अथवा इसी प्रकार के कुछ और कारणों से उत्पन्न होती है। साहित्य में यह एक संचारी भाव माना गया है।
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आला  : पुं० [सं० आलय, आलवाल, पा० आलक, कन्न, आलि० गु० आलियो, मरा० आलें] १. दीवार में थोड़ा-सा खाली छोड़ा हुआ वह स्थान जिसमें छोटी-मोटी चीजें रखी जाती है। ताक। ताखा। पुं० [सं० अलात] कुम्हार का आँवाँ। पजावा। वि० [सं० ओल-गीला] १. गीला। तर। नम। २. ताजा। ३. कच्चा और हरा। उदाहरण—आले ही बाँस के माँडव मनिगन पूरन हो।—तुलसी। पुं० [अ० आलः] कारीगरों के काम करने के कोई उपकरण। औजार। वि० [अ० आला] ऊँचे दरजे का और बढ़िया। श्रेष्ठ।
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आलाइश  : स्त्री० [फा०] पेट के अँदर से या शरीर के किसी अंग में से निकलनेवाली गंदी चीजें। जैसे—पीब, मल, रक्त आदि।
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आलात  : पुं० [सं० अलात+अण्] ऐसी लकड़ी जिसका एक सिरा जल रहा हो। लुआठी। लुक। पुं० [सं० आल० का० बहु] १. उपकरण। औजार। २. जहाज का रस्सा। (लश०)।
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आलात-चक्र  : पुं० [ष० त०] जलती हुई लक़ड़ी को वेग से घुमाने पर उससे बननेवाला चमकीला मंडल।
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आलान  : पुं० [सं० आ√ली+ल्युट्-अन] १. वह खूँटा या खंभा जिसमें हाथी बाँधा जाता है। २. हाथी बाँधने का रस्सा या सिक्कड़। ३. बाँधने की रस्सी आदि।
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आलाप  : पुं० [सं० आ√लप्(बोलना)+घञ्] १. कहना। बोलना। २. आपस में होनेवाली बात-चीत। जैसे—वार्तालाप। ३. चिड़ियों की चहचहाट। ४. संगीत में राग-रागिनों के गाने का वह विशिष्ठ आरंभिक अंश या प्रकार जिसमें तानयुक्त स्वरों में केवल धुन का प्रदर्शन होता है, गीत के बोलों का उच्चारण नहीं होता है।
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आलापक  : वि० [सं० आ√लप्+ण्वुल्-अक] आलाप या बातचीत करनेवाला। २. संगीत में स्वरों का आलाप करनेवाला।
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आलापचारी  : स्त्री० [सं० आलाप-चार] संगीत में, स्वरों का आलाप करने की क्रिया।
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आलापना  : स० =अलापना
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आलापित  : भू० कृ० [सं० आ√लप्+णइच्+क्त] १. कहा हुआ। कथित। २. संगीत में, आलाप के रूप में उच्चरित किया हुआ। ३. गाया हुआ।
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आलापिनी  : स्त्री० [सं० आलाप+इनि-ङीष्] बाँसुरी। बंसी।
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आलापी (पिन्)  : वि० [सं० आलाप+इनि वा आ√लप्+णिनि] [स्त्री०आलापिनी] =आलापक।
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आलारासी  : वि० [सं० आलस्य ?] १. आलसी। २. ला-परवाह। स्त्री० ऐसी अव्यवस्थित स्थिति जिसमें कही किसी की चिंता या पूछ न हो।
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आलावर्त्त  : पुं० [सं० आल-आ√वृत्त (बरतना)+णिच्+अच्] कपड़े का बना हुआ या कपड़े से मढ़ा हुआ पंखा।
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आलिंग  : पुं० [सं० आ√लिंग (चित्रित करना)+घञ्] १. आलिंगन। २. पखावज की तरह का एक प्रकार का बाजा।
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आलिंगन  : पुं० [सं० आ√लिंग+ल्युट्-अन] [वि० आलिंगित, आलिंगी, आलिग्य] प्रेमपूर्वक किसी को गले या छाती से लगाने की क्रिया या भाव। परिरंभण।
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आलिंगना  : स० [सं० आलिंगन] आंलिगन करना। गले लगाना।
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आलिंगित  : भू० क० [आ√लिंग्+क्त] प्रेमपूर्वक गले या छाती से लगाया हुआ।
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आलिंगी (गिन्)  : पुं० [सं० आलिंग+इनि] [स्त्री० आलिंगिनी] वह जो किसी को गले या छाती से लगावे। आलिंगन करनेवाला।
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आलिंग्य  : वि० [सं० आ√लिग्+ण्यत्] १. गले या छाती से लगाये जाने के योग्य। २. लाक्षणिक अर्थ में स्वीकार किये जाने के योग्य। पुं० एक प्रकार का मृदंग।
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आलिंद  : पुं० [सं० आलिंद+अण्] =अलिंद।
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आलि  : स्त्री० [सं० आ√अल्(पर्याप्ति)+इन्] १. सखी। सहेली। २. बिच्छू। ३. भ्रमरी। भौरी। ४. अवली। पंक्ति। ५. रेखा। लकीर। ६. पानी का बाँध।
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आलिखित  : भू० कृ० [सं० आ√लिख्(लिखना)+क्त] १. आलेख के रूप में अंकित किया हुआ। अंकित या चित्रित। २. लिखा हुआ। लिखित।
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आलिप्त  : भू० कृ० [सं० आ√लिप्+क्त] लिपा-पुता या लीपा-पोता हुआ।
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आलिम  : वि० [अ०] पंडित। विद्वान।
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आली  : स्त्री० [सं० आलि] सखी। सहेली। वि० [हिं० आल] आल के रंग का। लाल। वि० [अं०] १. उच्च। २. मान्य। श्रेष्ठ। वि० स्त्री० [सं० आर्द्र] गीली। तर। नम। स्त्री० [देश०] १. भूमि का एक नाप जो एक बिस्वे के बराबर होती है। २. खेतों, बगीचों आदि की क्यारी।
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आलीजाह  : वि० [अ०] ऊँचे स्थान पर बैठनेवाला। उच्च। पदस्थ। (बहुत बड़े और मान्य व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त)।
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आलीढ़  : भू० कृ० [सं० आ√लिह् (स्वाद लेना)+क्त] १. खाया हुआ। भक्षित। ३. जीभ से चाटा हुआ। पुं० बाण चलाने के समय की एक प्रकार की मुद्रा।
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आलीन  : वि० [सं० आ√ली (समाना)+क्त] १. किसी के पास आया हुआ। २. किसी स्थान में रहनेवाला। ३. झुका हुआ। पुं० संपर्क।
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आलीशान  : वि० [अ०+फा०] बहुत बड़ा और भव्य। बहुत शानदार।
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आलु  : पुं० [सं० आ√ली+डु] १. आबनूस। २. एक प्रकार का कंद या मूल। ३. उल्लू। ४. नावों का बेड़ा।
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आलुक  : पुं० [सं० आ√ला(लेना)+डु+कन्] १. आलू नाम का कंद। २. शेषनाग।
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आलुझना  : अ० =उलझना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आलू  : पुं० [सं० आ√लू (काटना)+क्विप्] एक प्रसिद्ध छोटा कंद जिसकी तरकारी बनती है। (पोटैटो) स्त्री० [सं० आलु] झारी या लिटिया नाम का छोटा जल-पात्र।
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आलूचा  : पुं० [फा० आलूचा] १. एक प्रकार का वृक्ष जिसके फल खाये जाते है। २. उक्त वृक्ष का छोटा, गोल, रसीला फल।
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आलूदम  : पुं० [हिं० आलू+फा०दम] दम लेकर या भाप की सहायता से कुछ विशिष्ट प्रकार से पकाया हुआ साबूत आलू।
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आलूदा  : वि० [फा० आलूदः] १. सना हुआ। २. अच्छी तरह सजा हुआ। उदाहरण—आलूदा ठाकुर अल्ल।—प्रिथीराज।
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आलूबालू  : पुं० [देश] आलूचे की जाति का एक पेड़।
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आलूबुखारा  : पुं० [फा०] सुखाया हुआ आलूचा नामक फल।
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आलेख  : पुं० [सं० आ√लिख् (लिखना)+घञ्] १. लिखना। २. लिखावट। लिपि। ३. वह जो कुछ लिखा हो। जैसे—चित्र लेख आदि। ४. तवे के आकार का वह वैज्ञानिक उपकरण जिसमें वक्ता की आवाज भरी होती है, और जिसे ग्रामोफोन में रख कर बजाया जाता है। (रेकार्ड)
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आलेखन  : पुं० [सं० आ√लिख्+ल्युट्-अन] [वि० आलैखिक, आलिखित, कर्त्ता, आलेखक] १. लिखने की क्रिया या भाव। २. चित्र अंकित करना।
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आलेखनी  : स्त्री० [सं० आलेखन+ङीष्] १. कलम। २. चित्र अंकित करने की कूँची।
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आलेख-रूपक  : पुं० [ष० त०] आज-कल रेडियो पर होने वाला ऐसा रूपक जिसमें पहले से तैयार किये हुए आलेखों (रेकार्ड) का अधिक व्यवहार किया जाता है।
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आलेख्य  : वि० [सं० आ√लिख्+ण्यत्] १. लिखे जाने के योग्य। २. जो लिखा जाने को हो। पुं० १. वह जो कुछ लिखा गया हो। २. चित्र। तसवीर।
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आलेख्य-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] चित्र अंकित करने का काम। चित्रांकन (पेटिंग)
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आलेख्य-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] चित्रकारी।
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आलेप  : पुं० [सं० आ√लिप्(लीपना)+घञ्] =लेप।
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आलेपन  : पुं० [सं० आ√लिप्+ल्युट्-अन] लेप लगाने या लेपने की क्रिया या भाव।
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आलै  : पुं० =आलय (घर)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आलैखिक  : वि० [सं० आलेख+ठक्-इक] आलेख-संबंधी। पुं० लिखनेवाला व्यक्ति।
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आलोक  : पुं० [सं० आ√लोक(देखना)+घञ्] [वि० आलोक्य, भू० कृ० आलोकित] १. देखना। २. प्रकाश। रोशनी। ३. दर्शन। ४. प्रशंसा। ५. पुस्तक का अध्याय या प्रकरण। ६. किसी विषय पर लिखी हुई टिप्पणी या सूचना। (नोट)।
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आलोक-चित्रण  : पुं० [स० त०] एक वैज्ञानिक प्रक्रिया जिसमें प्रकाश में रखी हुई छाया या प्रतिबिंब इस प्रकार ग्रहण किया जाता है कि उस पर से उसका चित्र छप जाता है। (फोटोकापी)।
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आलोकन  : पुं० [सं० आ√लोक्+ल्युट्-अन] [वि० आलोकनीय, भू० कृ०, आलोकित] १. अच्छी तरह से देखना। अवलोकन। २. दिखलाना। ३. आलोक या प्रकाश से युक्त करना। ४. चमकाना।
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आलोकनीय  : वि० [सं० आ√लोके+अनीयर] आलोकन किये जाने के योग्य।
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आलोक-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र या लेख जो किसी विषय को स्पष्ट करने के लिए स्मारक के रूप में लिखा गया हो। जैसे—किसी सभा, मंडली आदि के उद्देश्यों और व्यवस्था से संबंध रखनेवाला पत्र या पुस्तिका। (मेमोरैन्डम)
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आलोकित  : भू० कृ० [सं० आ√लोक+क्त] १. देखा हुआ। २. जो आलोक या प्रकाश से युक्त किया गया हो। ३. चमकता हुआ।
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आलोच  : पुं० [सं० आ-लुञ्चन] वे दाने जो खेत काटने के समय जमीन पर गिर जाते हैं। शीला।
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आलोचक  : पुं० [सं० आ√लोच् (देखना)+णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० आलोचिका] १. देखनेवाला। २. गुण-दोष आदि की आलोचना या विवेचना करनेवाला। ३. समीक्षक।
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आलोचण  : पुं० =आलोच। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आलोचन  : पुं० [सं० आ√लोच्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० आलोच्य, भू० कृ० आलोचित] १. दर्शन करना। देखना। २. किसी चीज के गुण, दोष आदि की जाँच, परख या विवेचन। ३. जैनों के अनुसार अपने किये हुए पापों का विवेचन और प्रकाशन।
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आलोचना  : स्त्री० [सं० आ√लोच्+णिच्+युच्-अन-टाप्] [वि० आलोचित] १. किसी कृति या रचना के गुण-दोषों का निरूपण या विवेचन करना। २. इस प्रकार किया हुआ विवेचन।
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आलोचनीय  : वि० [सं० आ√लोच्+अनीयर] =आलोच्य।
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आलोचित  : भू० कृ० [सं० आ√लोच्+क्त] जिसकी आलोचना हुई हो या की गई हो।
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आलोच्य  : वि० [सं० आ√लोच्+ण्यत्] जिसकी आलोचना की जा सकती हो या की जाने को हो।
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आलोज  : पुं० [सं० आलोच] विवेचन। विचार। उदाहरण—अंतरजामी सूँ आलोज।—प्रिथीराज। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आलोड़न  : पुं० [सं० आ√लोड्(उन्मत्त होना)+ल्युट्-अन] [भू०कृआलोड़ित] १. मथना। विलोना। २. मन में होनेवाला ऊहापोह या सोच-विचार। ३. क्षोभ।
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आलोड़ना  : स० [सं० आलोड़न] १. अच्छी तरह से मथना। २. अच्छी तरह सोचना विचारना। ऊहा-पोह करना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आलोड़ित  : भू० कृ० [सं० आ√लोड़+क्त] १. मथा या बिलोया हुआ। २. सभी दृष्टियों से अच्छी तरह सोचा हुआ। जिसपर खूब विचार किया हो।
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आ-लोप  : पुं० [सं० आ√लुप् (न दीखना)+घञ्] १. पद, स्थान आदि न रहने देना। लुप्त करना। २. पहले का आदेश या निश्चय रद्द करना।
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आ-लोल  : वि० [सं० प्रा० स०] १. हिलता-डोलता या लहराता हुआ। २. चंचल। ३. क्षुब्ध।
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आलोलित  : भू० कृ० [सं० आ√लुल् (चंचल होना)+णिच्+क्त] १. हिलाया हुआ। २. क्षुब्ध।
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आल्हा  : पुं० [व्यक्ति का नाम] १. महोबे (बुदेलखंड) के एक प्रसिद्ध वीर योद्धा जो पृथ्वीराज के समकालीन थे और जिनकी वीरता के आख्यान तथा गाथाएँ अब तक बुदेलखंड तथा उत्तर भारत के वीर छंद में गाई जाती है। २. उक्त आधार पर वीर नामक छंद का एक नाम। ३. किसी घटना या बात का व्यर्थ का लंबा-चौड़ा वर्णन या विस्तार।
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आवंतिक  : वि० [सं० अवंति+ठक्-इक] अवंती (नगरी) से संबंध रखनेवाला। अवंती का। पुं० अवंति का निवासी।
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आवंत्य  : वि० [सं० अवंति+ञ्य]-आवंतिक। पुं० अवंति का निवासी।
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आव  : प्रत्यय [हिं० आई(प्रत्यय)या सं० भाव] एक हिंदी प्रत्यय जो क्रियाओं की धातुओं में लगकर उनमें स्थिति भाव आदि के अर्थ सूचित करता है। जैसे—चढ़ना से चढ़ाव, बढ़ना से बढ़ाव आदि। स्त्री० [सं० आयु] आयु। उदाहरण—तुच्छ आव कवि चंद की, सिर चहु आना भार।—चंदबरादाई।
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आवज  : पुं० [सं० आवाद्य, पा० आवज्ज] ताशे की तरह का एक पुराना बाजा।
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आवझ  : पुं० =आवज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवट  : प्रत्यय [सं० आवृति] एक स्त्री प्रत्यय जो कुछ धातुओं में उनके भाव वाचक रूप बनाने के लिए लगाया जाता है। जैसे—बनाना से बनावट, मिलना से मिलावट।
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आवटना  : स० [सं० आवर्त्त, पा० आवट्ट] १. उलटना-पलटना। २. उथल-पुथल मचाना। ३. ऊहापोह या संकल्प विकल्प करना। अ० स०-औटना या औटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आवध  : पुं० -आयुध। उदाहरण—चिति ईस चहुआन, चढ़यौ हय सज्जि सु आवध।-चंदवरदाई।
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आवधिक  : वि० [सं० अवधि+ठञ्-इक] १. किसी अवधि या सीमा से संबंध रखनेवाला। २. किसी नियत अवधि में होनेवाला।
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आवन  : पुं० [सं० आगमन, पुं० हिं० आगवन] आगमन। आना। स्त्री० =अवनि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवनि-जावानी  : स्त्री० =आनी-जानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवनेय  : वि० [सं० अवनी+ढक्-एय] १. अवनि संबंधी। २. अवनि से उत्पन्न होनेवाला। पुं० मंगल ग्रह जो अवनि (अर्थात् इस पृथ्वी) का पुत्र कहा गया है।
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आ-वपन  : पुं० [सं० आ√वप्(बोना,काटना)+ल्युट्-अन] १. खेत में बीज बोना। वपन। बोआई। २. वृक्ष आदि रोपना या लगाना। ३. वृक्ष का थाला। ४. सारा सिर मूँड़ा जाना।
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आव-भगत  : स्त्री० [हिं० आवना-आना+सं० भक्ति] किसी के आने पर किया जानेवाला उसका आदर-सत्कार। खातिर-तवाजा।
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आवभाव  : पुं० =आव-भगत।
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आवरक  : वि० [सं० आ√वृ(वरण करना,छिपाना)+अप्+कन्] आवरण खड़ा करने या ढकनेवाला। पुं० आवरण। परदा।
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आवरण  : पुं० [सं० आ√वृ+ल्युट-अन] १. कोई चीज आड़ में करने या छिपाने के लिए उसके ऊपर रखी या सामने खड़ी की जानेवाली कोई दूसरी चीज। परदा। २. ढकना। ढक्कन। ३. वह कपड़ा जिसमें कोई चीज लपेटी जाए। बेठन। ४. घेरा। ५. आघात या वार रोकने वाली कोई चीज। जैसे—ढाल।
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आवरण-पत्र  : पुं० [ष० त०] =आवरण-पृष्ठ।
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आवरण-पृष्ठ  : पुं० [ष० त०] पुस्तक के ऊपर जिल्द के कागज जो उसकी रक्षा के लिए लगा रहता है तथा जिसपर उस ग्रंथ तथा उसके ग्रंथकार,प्रकाशक आदि के नाम छपें रहते हैं। (कवर)
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आवरना  : स० [सं० आवरण] १. आवरण से युक्त या आवृत्त करना। ढकना। २. घेरना। ३. छिपाना। अ० १. आवृत्त होना। घिनरा। २. ओट या परदे में होना। छिपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवरा  : वि० [सं० अवर] [स्त्री० आवरी] १. विमुख। २. विपरीत। ३. मलिन। मैला। ४. विकल। व्याकुल। उदाहरण—घन आनंद कौन अनोखी दसा मति आवरी बावरी ह्वै थरसै।—घनानंद। पुं० [सं० आवरण] ओढने की चादर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आवरित  : भू० कृ०=आवृत्त।
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आवरी  : स्त्री० [सं० अवर ?] व्याकुलता।
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आवर्जक  : वि० [सं० आ√वृज् (वरण)+ण्वुल्-अक] आवर्जन करनेवाला।
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आवर्जन  : पुं० [सं० आ√वृज्+ल्युट्-अन] १. अपनी ओर आकृष्ट करना, खींचना या लाना। २. अपने अधिकार या वश में करना। ३. पराजय। हार।
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आवर्जना  : स्त्री० [सं० आ√वृज्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. आवर्जन। २. पराजय। हार। उदाहरण—बन आवर्जना मूर्ति दीना, अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।—प्रसाद।
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आवर्जित  : भू० कृ० [सं० आ√वृज्+णिच्+क्त] १. किसी ओर खिंचा हुआ। आकृष्ट। २. किसी के अधिकार या वश में आया हुआ। ३. हारा हुआ। पराजित।
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आवर्त  : पुं० [सं० आ√वृत् (रहना+घञ्] १. किसी ओर घूमना या मुड़ना। २. चारों ओर घूमना। चक्कर काटना या लगाना। जैसे—आकाशस्थ पिडों का आवर्त्त काल या आवर्त्त गति। ३. पानी, रोमावली आदि का चक्कर। भँवर। भौरी। ४. किसी चिंता या विचार का रह-रह कर मन में आना। ५. यह जंगत या संसार जिसमें जीवों को बार-बार और रह-रहकर आना पड़ता है। ६. घनी आबादी या बस्ती। ७. ऐसा बादल या मेघ जिससे अधिक पानी बरसे। ८. उक्त आधार पर मेघों के एक राजा का नाम। ९. लाजवर्द नामक रत्न। १. सोना-माखी।
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आवर्तक  : वि० [सं० आ√वृत्+ण्वुल्-अक] १. चक्कर खाने या घूमनेवाला। २. जो बार-बार रह-रहकर किसी निश्चित या अनिश्चित समय पर सामने आता या होता है। समय-समय पर जिसकी आवृत्ति होती रहती हो। (रेकरिंग) जैसे—आवर्त्तक अनुदान (सहायता के रूप में दिया जानेवाला या मिलनेवाला धन)। पुं० [आवर्त्त+कन्] =आवर्त्त।
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आवर्तक-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] किलनी, जूँ आदि के काटने से होनेवाला एक प्रकार का विकट ज्वर जिसमें एक सप्ताह तक निरंतर ज्वर रहने के बाद उतर जाता और तब फिर आने लगता है। (रिलैप्सिंग फीवर)
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आवर्तन  : पुं० [सं० आ√वृत्+ल्युट-अन] [वि० आवर्तनीय, आवर्तित] १. किसी की ओर या उसके चारों घूमना। २. चक्कर खाना। ३. मंथन। विलोड़न। ४. धातु आदि गलाना। ५. तीसरे पहर का समय जब छाया पश्चिम से पूर्व की ओर मुड़ती है। ६. किसी बात का बार-बार होना।(रिपीटीशन) ७. रोगी के कुछ अच्छे होने पर उसे फिर से वही रोग होना। (रिलैप्स)।
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आवर्तनीय  : वि० [सं० आ√वृत्+णिच्+अनीयर] जिसका आवर्तन होता हो या हो सकता हो।
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आवर्त-बिंदु  : पुं० [सं० ष०त०] वह बिंदु या स्थान जहाँसे किसी वस्तु की गति किसी ओर घूमती या मुड़ती हो। इधर-उधर मुड़ने या पीछे लौटने की जगह या बिंदु। (टर्निग प्वाइंट)।
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आवर्तित  : भू० कृ० [सं० आ√वृत्त+णिच्+क्त] १. आवर्तन के रूप में आया हुआ। २. घूमा या मुड़ा हुआ।
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आवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० आ√वृत्त+णिनि] १. वह जो चारों ओर घूमता या चक्कर खाता हो। २. वह घोड़ा जिसके शरीर पर भौरियाँ हों।
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आवर्धन  : पुं० [सं० आ√वृध्(बढ़ना)+णिच्+ल्युट्-अन] किसी पदार्थ का आकार, मान, शक्ति आदि बढ़ाने की क्रिया या भाव। (आँग्मेन्टेशन)
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आवलि  : स्त्री० [सं० आ√वल्(संचारित होना)+इन्] पंक्ति। कतार। श्रेणी।
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आवलित  : भू० कृ० [सं० आ√वल्(संचारित होना)+इन्] हल खाया या मुड़ा हुआ।
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आवली  : भू० कृ० [सं० आवलि+ङीष्] पंक्ति। कतार। स्त्री० [?] एक प्रकार का कूत जिसमें बिस्वें की उपज का अंदाजा लगाया जाता है।
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आवश्य  : पुं० [सं० अवश्य+अण्] =आवश्यकता।
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आवश्यक  : वि० [सं० अवश्य+वुञ्-अक] १. जिसे बिना काम न चल सकता हो। जरूरी। जैसे—प्राणी मात्र के लिए भोजन आवश्यक है। २. जिसके बिना साधारणयतः काम न चलता हो। प्रयोजनीय। जैसे—विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए सुयोग्य गुरु का होना आवश्यक है। ३. जिसके संबंध में तुरन्त और निश्चित रूप से कोई कारवाई होती हो या होने को हो। जरूरी। जैसे—सरकार के लिए इस विषय में कुछ निर्णय करना आवश्यक हो गया हो। (नेसेसरी उक्त सभी अर्थों में)
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आवश्यकता  : स्त्री० [सं० आवश्यक+तल्-टाप्] १. आवश्यक होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें विवश होकर कुछ करना पड़े अथवा किसी चीज या बात के बिना काम चल ही न सकता हो। जरूरत। (नेसेसिटी)
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आवश्यकीय  : वि० [सं० अवश्य+छण्-ईय,कुक्] जिसकी आवश्यकता पड़े। जिसके बिना प्रयोजन सिद्ध न हो। आवश्यक।
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आवस  : स्त्री० दे० ‘ओस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवसति  : स्त्री० [सं० प्रा०स०] १. रात के समय विश्राम करने का स्थान। बसेरा। २. रात्रि। रात।
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आवसथ  : पुं० [सं० आ√बस्(बसना)+अथच्] १. रहने क जगह। निवास स्थान। २. आबादी। बस्ती।
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आवसथ्य  : वि० [सं० अवसथ+ञ्य] घर का। गृह-संबंधी। स्त्री० भोजन पकाने आदि के काम आनेवाली अग्नि जो पंचाग्नियों में से एक है। लौकिकाग्नि।
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आवसानिक  : वि० [सं० अवसान+ठक्-इक] १. अवसान से संबंध रखने या अंत में होनेवाला। २. जो किसी रेखा, विस्तार आदि के अंत में पड़कर उसकी समाप्ति सूचित करता हो। (टर्मिनल)
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आवसानिक-कर  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह कर जो किसी यात्रा की समाप्ति के स्थान पर वहां पहुँचनेवालों से लिया जाता है। (टर्मिनल टैक्स)
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आवस्थिक  : वि० [सं० अवस्था+ठञ्-इक] किसी अवस्था या स्थिति के अनुकूल या अनुरूप।
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आवह  : वि० [सं० आ√वह (डोना बहना)+अच्] १. वहन करने या लानेवाला। २. उत्पन्न या आविर्भाव करनेवाला। जैसे—भयावह। पुं० भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी से बारह योजन ऊपर बहनेवाली वह हवा या वायु जिसमें बिजली चमकती है और जिसमें से ओले गिरते हैं।
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आवहन  : पुं० [सं० आ√वह+ल्युट्-अन] (उठा या ढोकर अथवा और किसी प्रकार) निकट या पास लाना।
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आवाँ  : पुं० =आँवाँ।
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आवागमन  : पुं० [सं० अव-आ√गम्(जाना)+ल्युट्-अन, अवागमन+अण्] १. आना और जाना। २. बार-बार इस संसार में आने (जन्म लेने) और जाने (मरने) का चक्र। मुहावरा—आवागमन छूटना=जीवन और मरण के बंधन से मुक्त होना।
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आवागवन  : पुं=आवागमन।
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आवागौन  : पुं० =आवागमन।
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आवाज  : स्त्री० [फा० आवाज, मिलाओ, सं० आवध, पा० आवज्ज] १. आघात आदि से होनेवाला शब्द। २. प्राणियों के कंठ से शब्दों, पदों आदि के रूप में निकलनेवाली ध्वनि। शब्द। मुहावरा—आवाज उठाना=किसी के संबंध में जोर देकर कुछ कहना। आवाज खुलना=(क) मुँह से बात निकलना। (ख) बैठी हुई आवाज का फिर से साफ होना। आवाज बैठना=कफ आदि के कारण कंठ से पूरा और स्पष्ट उच्चारण न होना। आवाज भर्राना=भय आदि के कारण गले में से आवाज का निकलते समय भारी हो जाना। आवाज मारी जाना=आवाज का सुरीला न रह जाना। ३. किसी को बुलाने के लिए जोर से उच्चारित किया जानेवाला शब्द। मुहावरा—आवाज देना या लगाना=बहुत जोर से किसी का नाम लेकर उसे पुकारना। ४. फकीरों या सौदा बेचनेवालों की कुछ जोर से लगनेवाली पुकार।
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आवाजा  : पुं० [फा० आवाजः] जोर से कही जानेवाली वह व्यंग्यपूर्ण बात जो परोक्ष रूप से किसी को सुनाने के लिए कही जाए। मुहावरा—आवाजा कसना या छोड़ना=व्यग्यपूर्ण बात कहना।
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आवाजा-कशी  : स्त्री० [अ०+फा०] परोक्ष रूप से किसी को सुनाने के लिए जोर से कोई व्यंग्यपूर्ण बात कहना।
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आवा-जानी  : स्त्री० =आवागमन।
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आवाजाही  : स्त्री० [हिं० आना+जाना] बार-बार किसी जगह आना और वहाँ से चले जाना। जैसे—यहाँ तो दिन भर आवाजाही लगी रहती है।
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आवाप  : पुं० [सं० आ√वप्(बोना)+घञ्] १. चारों ओर छितराना या बिखेरना। २. बीज बोना। ३. वृक्ष का थाला। थावल। ४. हाथ में पहनने का कंकण। कंगन।
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आवापन  : पुं० [सं० आ√वप्+णिच्+ल्युट्-अन] १. छितारने बिखेरने होने आदि की क्रिया। २. करघा।
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आवाय  : पुं० [सं० आ√वे (बुनना)+घञ्] सेना का वह अंश जो व्यूह रचना के बाद बच रहा हो।
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आवार  : पुं० [सं० आ√वृ (रोकना)+अण्] १. रक्षा। बचाव। २. रक्षा का स्थान। शरण।
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आवारगी  : स्त्री० [फा०] आवारा होने की अवस्था या भाव।
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आवारजा  : पुं० [फा०] जमा-खर्च लिखने की बही। अवारजा।
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आवारा  : वि० [फा०] १. (व्यक्ति) जो इधर-उधर बिना मतलब घूमता-फिरता हो तथा जिसका जीवन अनिश्चित और आचरण अवांछनीय हो। २. जिसके रहने आदि का कोई ठौर-ठिकाना न हो। ३. दुष्ट, पाजी या लुच्चा।
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आवारागर्द  : वि० [फा०] [भाव० आवारगर्दी] व्यर्थ इधर-उधर घूमनेवाला।
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आवाल  : पुं० [सं० आ√वल् (छिपाना)+णिच्+अच्] वृक्ष का थाला।
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आवास  : पुं० [सं० आ√वस् (बसना)+घञ्, गुज० अवास, सिंह० अहस्० अवा, मरा० आवसा] [वि० आवासिक] १. निवास स्थान। रहने की जगह। (एबोड) २. कहीं ठहरने या रहने का अस्थायी स्थान।
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आवासन  : पुं० [सं० आवास+क्विप्+ल्युट्-अन] [भू०कृ०आवासित] किसी दूसरे देश मे जाकर स्थायी रूप से बसने की अवस्था क्रिया या भाव। (इमिग्रेशन)
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आवासिक  : वि० [सं० आवास+ठक्-इक] १. अस्थायी रूप से किसी स्थान पर रहने या बसनेवाला। २. निवासी।
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आवाह  : पुं० [सं० आ√वह्(वहन करना)+घञ्] १. आमंत्रण। २. विवाह।
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आवाहक  : वि० [सं० आ√वह+णिच्+ण्वुल्-अन] आवाहन करने (पुकारने या बुलाने) वाला।
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आवाहन  : पुं० [सं० आ√वह+णिच्+ल्युट्-अन] १. किसी को अपने पास बुलाने की क्रिया या भाव। २. पूजन के समय मंत्र द्वारा किसी देवता को अपने निकट बुलाने का कार्य।
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आवाहना  : स० [सं० आवाहन] आवाहन करना। बुलाना। उदाहरण—सुय सुखमा सुख लहन काज औरनि आवाहन।—रत्नाकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आविक  : वि० [सं० अवि+ठक्-इक] १. भेड़ संबंधी। २. ऊनी। पुं० ऊनी वस्त्र।
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आबिद्ध  : भू० कृ० [सं० आ√व्यध् (बेचना)+क्त] १. भेदा या छेदा हुआ। जैसे—आविद्ध कर्ण। २. फेंका हुआ।
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आविर्भाव  : पुं० [सं० आविस√भू (होना)+घ़ञ्] [भू० कृ० आविर्भूत] १. अस्तित्व में आकर प्रकट या प्रत्यक्ष होना। उत्पन्न होकर सामने आना या उपस्थित होना। जैसे—संसार में अवतार का या मन में विचार का आविर्भाव होना। २. प्रकट होना।
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आविर्भूत  : भू० कृ० [सं० आविस√भू+क्त] [स्त्री० आविर्भाव] १. जिसका आविर्भाव हुआ हो। उत्पन्न। २. सामने आया हुआ। उपस्थित।
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आविर्हित  : भू० कृ० [सं० आविस√धा (धारण करना)+क्त] १. प्रत्यक्ष किया हुआ। २. सामने आया हुआ।
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आविल  : वि० [सं० आ√विल् (फैलाना)+क] गँदला। मलिन। उदाहरण—दुख से आविल सुख से पंकिल।—महादेवी।
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आविष्करण  : पुं० [सं० आविस√कृ(करना)+ल्युट्-अन] आविष्कार करना।
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आविष्कर्त्ता  : पुं० [सं० आविस√कृ+तृच्] वह जो अविष्कार करे। (इन्वेंटर)
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आविष्कार  : पुं० [सं० आविस√कृ+अण्] [वि० आविष्कारक,आविष्कर्त्ता,आविष्कृत] १. प्राकट्य। प्रकाश। २. ऐसी नई चीज बनाना या नई बात निकलना जिसका ढंग या प्रकार पहले किसी को मालूम न रहा हो। नई तरह की चीज पहले पहल निकालना। (इन्वेंशन) जैसे—भाप के इंजन या बिजली के पंखे का आविष्कार।
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आविष्कारक  : वि० [सं० आविस√कृ+ण्वुल्-अक] आविष्कार करने वाला। आविष्कर्त्ता। (इन्वेंटर)
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आविष्कृत  : भू० कृ० [सं० आविस√कृ+क्त] जिसका आविष्करण या आविष्कार हुआ हो।
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आविष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√विष्(फैलना)+क्त] १. किसी प्रकार के आवेश या संचार आदि से युक्त। जैसे—क्रोध या भूत के उपद्रव से आविष्ट। २. किसी उद्योग या काम में लगा हुआ। लीन। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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आवृत  : भू० कृ० [सं० आ√वृ(आच्छादन करना)+क्त] [स्त्री० आवृत्ता] १. ढका हुआ। आच्छादित। २. घिरा या घेरा हुआ।
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आवृत्ति  : स्त्री० [सं० आ√वृत् (बरतना)+क्तिन्] १. बार-बार होने की क्रिया या भाव। २. पुस्तक आदि का हर बार छपना। संस्करण। (एडिशन)
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आवृत्ति-दीपक  : पुं० [तृ० त०] दीपक अंलकार का एक भेद।
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आवृत्तिवाद  : पुं० [ष० त०] आधुनिक समाज शास्त्र का यह मत या सिद्धांत कि कला दर्शन साहित्य आदि के क्षेत्रों में प्रतिभाशाली पुरुषों की कुछ विशिष्ट अवसरों पर अथवा कालक्रम से रह-रह कर आवृत्ति या आगमन होता रहता है।
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आवेग  : पुं० [सं० आ√विज् (विचलित होना)+घञ्] १. मानसिक उत्तेजना या चित्त के क्षोभ के फलस्वरूप होनेवाली आकुलता या उत्कट भावना। जोश। २. सहसा मन में उत्पन्न होनेवाला वह विकार जो मनुष्य को बिना सोचे-समझे कुछ कर डालने में प्रवृत्त करता है। (इम्पल्स) ३. साहित्य में मन की वह चंचल स्थिति जो अकस्मात् इष्ट या अनिष्ट व्यक्ति अथवा घटना के सामने आकर उपस्थित होती है और जिसकी गिनती संचारी भावों में की गई है।
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आवेदक  : वि० [सं० आ√विद्(जानना)+णिच्+ण्वुल्-अक] आवेदन या प्रार्थना करनेवाला।
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आवेदन  : पुं० [सं० आ√विद्+णिच्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता आवेदन, आवेदी, वि, आवेदनीय, आवेद्य, भू० कृ० आवेदित] १. नम्रतापूर्वक किसी को कोई सूचना देना या कोई बात बतलाना। २. निवेदन। प्रार्थना।
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आवेदन-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी बड़े की सेवा में भेजा जानेवाला वह पत्र जिसमें अपनी कोई बात या प्रार्थना लिखकर सूचित की गई हो। २. प्रार्थना-पत्र। अरजी। (एप्लिकेशन)
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आवेदनीय  : वि० [सं० आ√विद्+णिच्+अनीयर] (बात या सूचना) जो आवेदन के रूप में उपस्थित की जाने को हो अथवा जिससे किसी को परिचित कराना आवश्यक हो।
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आवेदित  : भू० कृ० [सं० आ√विद्+णिच्+क्त] जो आवेदन के रूप में किसी के सामने उपस्थित किया गया हो।
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आवेदी (दिन्)  : पुं० [सं० आ√विद्+णिच्+णिनि] वह जो आवेदन करे।
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आवेद्य  : वि० [सं० आ√विश्+णिच्+यत्]=आवेदनीय।
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आवेश  : पुं० [सं० आ√विश्(घुसना)+घञ्] [भू०कृ०आविष्ट] १. पैठ। प्रवेश। २. व्याप्ति। संचार। ३. मन में कोई उग्र मनोविकार उत्पन्न होने पर उसके फलस्वरूप होनेवाली वह स्थिति जिसमें मनुष्य बिना आगा-पीछा सोचे कुछ कर या कह चलता है। जोश। झोंक। ४. भूत-प्रेत आदि की बाधा जिसमें मनुष्य सुध-बुध भूलकर अंड-बंड बातें बकने और उसके-सीधे काम करने लगता है। ५. मिरगी नामक रोग।
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आवेशन  : पुं० [सं० आ√विश्+ल्युट्-अन] १. प्रविष्ट होना। घुसना या पैठना। २. आवेश में होना। ३. पकड़ना। ४. बैठने या रहने का स्थान। ५. सूर्य या चंद्रमा का परिवेश या मंडल। ६. शिल्पशाला।
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आवेशिक  : वि० [सं० आवेश+ठञ्-इक] १. आवेश संबंधी। २. अंदर छिपा या दबा हुआ। ३. असाधारण। पुं० १. अतिथि। अभ्यागत। २. आतिथ्य।
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आवेष्टक  : वि० [सं० आ√वेष्ट्(घेरना)+णिच्+ण्वुल्-अक] चारों ओर से घेरने वाला। पुं० १. घेरा। २. चार-दीवारी। परकोटा। ३. चिडियाँ मछलियाँ आदि फँसाने का जाल।
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आवेष्टन  : वि० [सं० आ√वेष्ट्र+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृआवेष्टित] १. चारों ओर से घेरने की क्रिया या भाव। २. चारों ओर से छिपाने, ढकने या लपेटने वाली वस्तु।
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आवेष्टित  : भू० कृ० [सं० आ√वेष्ट+णिच्+क्त] जिसका आवेष्टन हुआ हो। चारों ओर से घिरा या ढका हुआ।
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आवेस्ता  : स्त्री०-अवेस्ता (भाषा)।
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आशंकनीय  : वि० [सं० आ√शंक् (संदेह करना)+अनीयर] जिसके संबंध में आशंका हो या की जा सकती हो।
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आशंका  : स्त्री० [सं० आ√शंक्+अ-टाप्] [वि० आसंकित] १. भय। डर। शंका। संदेह। २. वह चिंतापूर्ण मानसिक स्थिति जो वास्तविक या कल्पित अनिष्ट की संभावना होने पर उत्पन्न होती है और जिसमें मनुष्य भयभीत तथा विकल हो जाता है। खटका खुटका। (एप्रिहेन्शन)
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आशंकित  : भू० कृ० [सं० आ√शंक्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसे किसी प्रकार की आशंका हुई हो। २. (विषय) जिसके संबंध में आशंका हुई हो। जैसे—आशंकित युद्ध पास आता हुआ दिखाई देता है।
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आशंकी (किन्)  : पुं० [सं० आ√शंक्+णिनि] १. वह जिसे किसी प्रकार की आशंका हो। २. वह जिसे आशंका करने का अभ्यास हो।
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आशंसन  : पुं० [सं० आ√शंस् (स्तुति)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आशंकित] १. इच्छा या कामना करना। २. कहना बतलाना या घोषित करना। ३. तारीफ या प्रशंसा करना।
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आशंसा  : स्त्री० [सं० आ√संस्+-टाप्] १. किसी चीज या बात की अपेक्षा या आवश्यकता। २. इच्छा। कामना। ३. आशा, विशेषतः ऐसी आशा जिसकी पूर्ति आवश्यकता, औचित्य आदि के विचार से बहुत कुछ संभावित हो या जो जल्दी पूरी होती हुई जान पड़े। (एक्सपेक्टेशन) ४. उल्लेख, कथन या चर्चा। ५. संदेह। शक। ६. तारीफ। प्रशंसा। ७. आदर-सत्कार। अभ्यर्थन।
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आशंसित  : भू० कृ० [सं० आ√शंस्+क्त] १. जो अपेक्षित या अभिलषित हो। २. कहा या बतलाया हुआ। ३. जिसकी प्रशंसा या बढ़ाई की गई हो।
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आशंसी (सिन्)  : वि० [सं० आ√शंस्+णिनि] १. इच्छा करनेवाला। २. घोषणा करनेवाला। ३. प्रशंसा करनेवाला।
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आशंसु  : वि० [सं० आ√शंस्+उ] =आशंसी।
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आश  : पुं० [सं० आ√शंस् (खाना)+घञ्] आहार। भोजन। जैसे—प्रात-राश-प्रातःकाल का भोजन। स्त्री० =आशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आशक  : वि० [सं० आ√शंस्+ण्वुल्-अक] १. खानेवाला। २. भोगनेवाला। भोक्ता। पुं० आशिक।
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आशन  : वि० [सं० आ√शंस्+णिच्+ल्यु-अन] खिलानेवाला। पुं० १. अशन नामक वृक्ष। २. वज्र।
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आशना  : वि० [फा०] [भाव० अशनाई] १. जिससे जान-पहचान या हो। २. जिससे परिचय प्रेम या प्रीति हो। ३. (पुरुष या स्त्री) जिससे अनुचित या अवैध प्रेम-संबंध हो।
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आशय  : पुं० [सं० आ√शी (शयन करना+घञ्] १. ठहरने, रहने आदि का स्थान। २. शरीर के अंदर थैली के आकार का कोई ऐसा अंग या अवकाश जिसमें कोई विशिष्ट क्रिया करनेवाला तत्त्व या शक्ति रहती हो। (रिसैप्टैकल्) जैसे—आमाशय, गर्भाशय, पित्ताशय, मूत्राशय आदि। ३. मन। हृदय। ४. मन में रहनेवाला वह उद्देश्य, भाव या विचार जो कोई काम करने या बात कहने के लिए प्रवृत्त करता है। (इन्टेन्शन) जैसे—मैंने उसे मार डालने के आशय से उस पर प्रहार नहीं किया था। ५. उक्ति कथन आदि से निकलनेवाला अर्थ या उसका सारांश। मतलब। जैसे—उनके अँगरेजी भाषण का आशय सब लोगों को सरल हिंदी में समझा दिया गया था। ६. धन संपत्ति। वैभव। ७. अच्छा भाग्य। ८. कामना या वासना।
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आशर  : पुं० [सं० आ√शु (हिसा)+अच्] १. राक्षस। २. अग्नि। ३. वायु। हवा।
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आशव  : पुं० [सं० आशु+अण्] १. आशु का भाव। तेजी। वेग। २. दे० ‘आसव’।
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आशा  : स्त्री० [सं० आ√अश्(व्याप्ति)+अच्-टाप्] १. किसी भावी अभीष्ट या प्रिय कार्य या बात के संबंध में मन में उत्पन्न होनेवाला यह भाव कि यह जल्दी ही पूरी हो जायगी या हो जानी चाहिए। उम्मेद। (होप) जैसे—आशा है कि आप अब जल्दी ठीक हो जायँगे। मुहावरा—आशा टूटना=आशा न रह जाना। आशा देना-यह विश्वास कराना कि अमुक अभीष्ट, उद्देश्य या कार्य सिद्ध हो जायेगा। आशा पूरी होना-आशा के अनुसार काम पूरा होना। आशा बँधना=आशा पूरी होने के कुछ लक्षण दिखाई देना या संभावना होना। २. दिशा। ३. दक्ष की एक कन्या। ४. संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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आशा-गज  : पुं० [ष० त०] दिग्गज।
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आशा-जनक  : वि० [ष० त०] (ऐसे कार्य, बात या लक्षण) जिनसे किसी काम के पूरे हो जाने की आशा की जा सकती हो।
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आशाढ़  : पुं० =आषाढ़।
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आशातीत  : वि० [आशा-अतीत, द्वि० त०] आशा से अधिक या बढ़कर। बहुत अधिक।
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आशापाल  : पुं० [सं० आशा√पाल् (पालनकरना)+णिच्+अण्] दिक्पाल।
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आशा-मुखी  : वि० [सं० आशा-मुख] किसी आशा से किसी की ओर देखनेवाला।
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आसा-वाद  : पुं० [ष० त०] [वि० आशावादी] वह लौकिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि इस संसार में अंत में सब दोषों और बुराइयों का नाश होगा और उनपर सद्गुणों और सद्भावों को विजय प्राप्त होगी। निराशावाद का विपर्याय। (अप्टिमिज्म)
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आशावादिता  : स्त्री० [सं० आशावादिन्+तल्-टाप्] १. आशावादी होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘आशावाद’।
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आशावादी (दिन्)  : वि० [सं० आशावाद+इनि] १. आशावाद संबंधी। २. सदा अच्छी बातों की आशा करनेवाला। (आँप्टिमिस्ट) पुं० वह जो आशावाद का अनुयायी और माननेवाला हो। (अप्टिमिस्ट)
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आशिंजन  : पुं० [सं० आ√शिञ्ञ् (अव्यक्त शब्द करना)+ल्युट्-अन] गहनों का झंकार।
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आशिंजित  : भू० कृ० [सं० आ√शिञ्ज्+क्त] झनकार करता हुआ। (गहना)।
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आशिक  : वि० [अ० आशिक, मि० सं० आसक्त] [भाव० आशिकी] १. इश्क या प्रेम करनेवाला। २. किसी के प्रेम में पगा हुआ। अनुरक्त। आसक्त। ३. काम-वासना के वश में होकर किसी की ओर प्रवृत्त होनेवाला। पुं० =प्रेमी।
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आशित  : वि० [सं० आ√अश् (खाना)+क्त] १. (पदार्थ) जो खाया गया हो। २. (व्यक्ति) जो भोजन कर चुका हो। ३. बहुत खाने की इच्छा रखनेवाला। पेटू। पुं० भोजन करना। खाना।
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आशिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० आशु+इमानिच्] तीव्रता। तेजी।
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आशियाना  : पुं० [फा० आश्यानः] १. चिडियों का घोंसला। नीड़। २. लाक्षणिक अर्थ में रहने का स्थान।
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आशिष् (श्)  : स्त्री० [सं० आ√शास् (इच्छा)+क्विप्, इत्व] १. आशीर्वाद। असीस। २. साहित्य में, एक अलंकार जिसमें किसी प्रकार का आर्शीवाद प्राप्त करने की कामना का उल्लेख होता है।
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आशिषाक्षेप  : पुं० [सं० आशिश्-आक्षेप, ष० त०] आचार्य केशव के अनुसार एक काव्यालंकार जिसमें दूसरे का हित दिखलाते हुए ऐसी बातों की शिक्षा दी जाए जिससे वास्तव में अपने ही दुःख की निवृत्ति हो।
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आशी (शिन्)  : वि० [सं० आश+इनि] [स्त्री० आशिनी] खानेवाला। भक्षक। स्त्री० [सं० आ√शृ (हिंसा)+क्विप्, पृषो० सिद्धि] १. साँप का विषैला दाँत। २. वृद्धि नाम की औषधि। पुं० आशीर्वाद। उदाहरण—मुझ अंचलवासी को तुमने शैशव में आशी दी तुमने।—पंत।
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आशीर्वचन  : पुं० [सं० आशिश्-वचन, ष० त०] किसी के कल्याण की कामना करते हुए कहे जानेवाले शुभवचन। आशीर्वाद।
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आशीर्वाद  : [सं० आशिश्-वाद, ष० त०] किसी की मंगल कामना के लिए बड़ों की ओर से कहे हुए शुभ-वचन।
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आशी-विष  : पुं० [सं० ब० स०] सर्प। साँप।
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आशीष  : पुं० दे० ‘आशिष्’।
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आशु  : पुं० [सं०√अश् (व्याप्ति)+उण्] १. सावन-भादों में होनेवाला एक प्रकार का धान। आउस। पाटल। साठी। २. घोड़ा। अव्य० जल्दी। शीघ्र।
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आशु-कवि  : पुं० [मध्य० स०] तुरंत कविता बनाने में समर्थ कवि। वह कवि जो किसी दिए हुए विषय पर अथवा किसी विशेष स्थिति में तत्काल कविता की रचना करता हो।
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आशुग  : वि० [सं० आशु√गम् (जाना)+ड] १. बहुत तेज चलनेवाला। शीघ्रगामी। २. (पत्र, तार आदि) जो पानेवाले के पास बहुत जल्दी पहुँचाया जाने को हो। (एक्सप्रेस) पुं० वायु। हवा। २. तीर। वाण।
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आशुगामी (मिन्)  : वि० [सं० आशु√गम्+णिनि] तेज चलनेवाला। पुं० सूर्य।
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आशु-तोष  : वि० [ब० स०] बहुत जल्दी या सहज में प्रसन्न हो जानेवाला। पुं० शिव।
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आशु-पत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह पत्र जो भेजे जानेवाले (प्रेषिती) को बहुत जल्दी पहुँचाया जाय। (एक्सप्रेस लेटर)
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आश्चर्य  : पुं० [सं० आ√चर् (गति)+यत्, सुट्] [वि० आश्चर्यित] मन का वह कुतूहलपूर्ण भाव या स्थिति जो कोई अद्भुत, अप्रत्याशित, असाधारण या विलक्षण बात या वस्तु सहसा देखने अथवा ऐसी घटना घटित होने पर इसलिए होती है कि उसका कारण, रहस्य या स्वरूप समझ में नही आता। अचरज। अचंभा। ताज्जुब। विस्मय। (सर्प्राइज) विशेष—हमारे यहाँ साहित्य में यह नौ स्थायी भावों में से एक माना गया है।
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आश्चर्यित  : वि० [सं० आश्चर्य+णिच्+क्त] जिसे आश्चर्य हुआ हो। चकित।
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आश्ना  : वि० =आशना।
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आश्नाई  : स्त्री० =आशनाई।
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आश्म  : वि० [सं० अश्मन्+अण्] १. अश्म (पत्थर) संबंधी। पत्थर का। २. पत्थर का या पत्थर से बना हुआ।
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आश्मन  : वि० [सं० अश्मन्+अण्] =आश्म। पुं० सूर्य का सारथि अर्थात् अरुण।
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आश्मरिक  : वि० [सं० अश्मरी+ठञ्-इक] १. अश्मरी संबंधी। २. जिसे अश्मरी या पथरी का रोग हो। पुं० पथरी नामक रोग।
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आश्मिक  : वि० [सं० अश्मन्+ठण्-इक] १. पत्थर संबंधी। पत्थर का। २. पत्थरों से युक्त। पथरीला। ३. पत्थर ढोनेवाला। ४. पत्थर से बना हुआ।
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आश्रम  : पुं० [सं० आ√श्रम्(तपस्या करना)+घञ्] [वि० आश्रमी] १. प्राचीन भारत में, वनों में वह स्थान जहाँ ऋषि-मुनि कुटी बनाकर रहते और तपस्या करते थे। जैसे—कण्व ऋषि या भरद्वाज मुनि का आश्रम। २. आज-कल साधु-संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों, धार्मिक यात्रियों के रहने का कोई ऐसा विशिष्ट स्थान या भवन जिसमें लोग सासांरिक झंझटों से बचकर शांति-पूर्वक रह सकते हों। (एसाइलम) जैसे—श्री अरविंद आश्रम अथवा अनाथाश्रम विधवाश्रम आदि। ३. स्मृतियों आदि में बतलाई हुई जीवन यापन की वह व्यवस्था जिसमें सौ वर्षों की पूरी आयु चार समान भागों में बाँटकर प्रत्येक के अलग-अलग कर्त्तव्य कर्म और विधान बतलाये गये हैं। यथा-ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। ४. विष्णु का एक नाम।
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आश्रम-धर्म  : पुं० [ष० त०] स्मृतियों में बतलाये हुए चारों आश्रमों (दे० आश्रम) में से प्रत्येक के लिए निश्चित अलग अलग कर्त्तव्य कर्म।
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आश्रमवासी (सिन्)  : वि० [सं० आश्रम√वस्(बसना)+णिनि] आश्रम में रहनेवाला। पुं० वानप्रस्थ।
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आश्रमिक  : वि० [सं० आश्रम+ठन्-इक] १. आश्रम संबंधी। आश्रम का। २. आश्रम में रहनेवाला। ३. आश्रम धर्म का पालन करनेवाला।
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आश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० आश्रम+इनि] १. आश्रम संबंधी। आश्रम का। २. किसी आश्रम (देखें) में रहनेवाला या उससे युक्त। जैसे—संन्यासाश्रमी।
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आश्रय  : पुं० [सं० आ√श्रि (सेवा करना)+अच्] [वि० आश्रयी] १. वह जिस पर कुछ टिका या ठहरा हो। आधार। २. वह जिसका सहारा लेकर या जिसके आसरे पर रहा जाय। अवलंब। सहारा। ३. ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जो किसी को निश्चित, शांत और सुखी रखकर उसके अस्तित्व या निर्वाह में सहायक हो सके। अथवा जिसकी शरण में रहने पर संकटों आदि से रक्षा हो सके। शरण देनेवाला तत्त्व या स्थान (शेल्टर) जैसे—(क) सब प्रकार के तापों से बचने के लिए ईश्वर का आश्रय लेना। (ख) किसी समय अमेरिका में सब प्रकार के राजनीतिक पीड़ितों को आश्रय मिलता था। ४. कोई ऐसा पदार्थ या व्यक्ति जिसमें किसी प्रकार के गुण या विशिष्टता का निवास हो या जिसके आधार पर वह गुण या विशेषता ठहरी हो। जैसे—साहित्य में यदि नायक के रूप में उत्पन्न होनेवाले प्रेम का वर्णन हो तो नायक उस प्रेम का आश्रय माना जाएगा। (जिसके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है,उसे साहित्यमें आलंबन कहते हैं) ५. उक्त आधार पर बौद्ध दर्शन में पाँचों ज्ञानेंद्रियों और मन जिनमें सुख-दुख अथवा उनके आलंबनों आदि की अनुभूति ज्ञान का परिचय होता है। ६. व्याकरण में उद्देश्य नामक तत्त्व जिसके संबंध में कुछ विधान किया जाता है अथवा जिसके आधार पर विधेय स्थित रहता है। ७. ठहरने रहने आदि का कोई सुरक्षित स्थान। ८. घर। मकान। ९. जड़। मूल। १. लगाव। संपर्क। ११. बहाना। मिस। १२. निकटता। समीपता।
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आश्रयण  : पुं० [सं० आ√श्रि+ल्युट-अन] किसी का आश्रय लेने या किसी को आश्रय देने की क्रिया या भाव। सहारा लेना या देना।
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आश्रयासिद्ध  : वि० [सं० आश्रय-असिद्ध, ब० स०] (कथन या तर्क) जिसका आश्रय या आधार असिद्ध अर्थात् गलत हो। फलतः मिथ्या और अमान्य।
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आश्रयासिद्धि  : स्त्री० [सं० आश्रय-सिद्धि, ष० त०] न्यायशास्त्र में किसी बात के आश्रयासिद्ध होने की अवस्था या भाव। (इसकी गणना हेत्वाभास में हुई है)।
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आश्रयी (यिन्)  : वि० [सं० आ√श्रि+इनि] १. किसी का आश्रय या सहारा लेनेवाला। २. आश्रय में रहनेवाला।
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आश्रव  : पुं० [सं० आ√श्रु (सुनना, जाना)+अप्] १. किसी की कोई बात सुनकर उसके अनुसार काम करना। किसी के कहने पर चलना। २. अंगीकार या ग्रहण करना। ३. नदी की धारा या बहाव। ४. अपराध। दोष। ५. कष्ट। क्लेश। ६. जैन और बौद्ध दर्शनों में कोई ऐसी बात जो जीव के बंधन का कारण हो अथवा उसके मोक्ष में बाधक हो। जैसे—जैनों में पापाश्रव और पुण्याश्रव अथवा बौद्धों में अविद्याश्रव कायाश्रव आदि।
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आश्रित  : वि० [सं० आ√श्रि+क्त] १. किसी के सहारे, टिका, ठहरा या रुका हुआ। २. किसी की देख-रेख या शरण में रहकर अपना निर्वाह या रक्षा करनेवाला। ३. अपने भरण-पोषण आदि के लिए किसी दूसरे व्यक्ति के भरोसे रहनेवाला। पं० १. न्याय-दर्शन में अनित्य द्रव्यों की वह अवस्था जिसमें वे किसी न किसी रूप में एक दूसरे का आश्रय लेकर रहते और एक दूसरे के सहारे अपना काम करते हैं। २. दास। गुलाम। ३. नौकर। सेवक। ४. आज-कल वह व्यक्ति जो अपनी किसी शारीरिक असमर्थता, हीनता आदि के कारण किसी दूसरे की देख-रेख में रहता हो। (वार्ड) जैसे—आजकल उनके पास दो बालक (अथवा चार विधवाएँ) आश्रित हैं।
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आश्रुत  : भू० कृ० [सं० आ√श्रु+क्त] १. सुना हुआ। २. ग्रहण या स्वीकार किया हुआ। गृहीत या स्वीकृत। ३. जिसे या जिसके संबंध में कोई प्रतिज्ञा की गई हो या वचन दिया गया हो।
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आश्रुति  : स्त्री० [सं० आ√श्रु+क्तिन्] १. सुनने की क्रिया या भाव। २. ग्रहण या स्वीकार करना। ३. प्रतिज्ञा करना या वचन देना।
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आश्लिष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√श्लिष् (आलिंगन करना)+क्त] १. गले से लगा या लगाया हुआ। २. लिपटा या सटा हुआ। साथ लगा हुआ।
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आश्लेष  : पुं० [सं० आ√श्लिष्+घञ्] १. गले लागना। आलिंगन। २. लगाव। संपर्क।
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आश्लेषण  : पुं० [सं० आ√श्लिष्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आशिलष्ट, आश्लेषित] १. मिश्रित करना। मिलाना। २. मिश्रण। मिलावट। ३. गले लगाना। आलिंगन।
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आश्लेषा  : पुं० [सं० अश्लेषा] =श्लेषा (नक्षत्र)।
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आश्लेषित  : भू० कृ० [सं० आश्लेष+इतच्] १. मिलाया या लगाया हुआ। २. गले लगाया हुआ। आलिंगित।
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आश्व  : वि० [सं० अश्व+अण्] १. अश्व या घोड़े से संबंध रखनेवाला। २. घोड़ों द्वारा ढोया अथवा उनसे खींचा जानेवाला। पुं० घोड़ों का समूह।
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आश्वत्थ  : वि० [सं० अश्वत्थ+अण्] १. अश्वत्थ (पीपल) से संबंध रखनेवाला। २. अश्वत्थ-संबंधी। पुं० पीपल का फल।
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आश्वमेघिक्  : वि० [सं० अश्वमेघ+ठञ्-इक] अश्वमेध-यज्ञ से संबंध रखनेवाला।
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आश्वयुज  : पुं० [सं० अश्वयुज्+अण्-ङीष्, आश्वयुजी+अण्] आश्विन या क्वार नाम का महीना।
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आश्वलक्षणिक  : पुं० [सं० अश्वलक्षण+ठञ्-इक] घोड़ों के अच्छे-बुरे लक्षण पहचाननेवाला व्यक्ति। शालिहोत्री।
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आश्वस्त  : भू० कृ० [सं० आ√श्वस् (जीना)+क्त] जिसे आश्वासन मिला हो।
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आश्वास  : पुं० [सं० आ√श्वस्+घञ्] [भू० कृ० आश्वस्त, कर्त्ता आश्वासक] १. श्वास लेना। सांस खींचना। २. यह कहना कि तुम्हारें लिए घबराने या डरने की बात नहीं है। ढारस। तसल्ली। सांत्वना। उदाहरण—तुम्हारी ही विधि पर विश्वास हमारा चिर आश्वास।—पंत। ३. कथा आदि का कोई भाग।
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आश्वासक  : वि० [सं० आ+श्वस्+णिच्+ण्वुल्-अक] आश्वासन देनेवाला। पुं० कपड़ा। वस्त्र।
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आश्वासन  : पुं० [सं० आ√श्वस्+णिच्+ल्युट्-अन] [वि० आश्वसनीय, भू० कृ० आश्वासित, आश्वास्य] १. कष्ट में पड़े हुए व्यक्ति से कहना कि डरो मत, सब ठीक हो जायेगा। दिलासा या धैर्य देना। २. किसी का कोई काम पूरा करने के लिए अथवा उस काम में सहायक होने के लिए दिया जानेवाला वचन। (एश्योरेन्स)
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आश्वासनीय  : वि० [सं० आ√श्वस्+णिच्+अनीयर] १. (व्यक्ति) जिसे आश्वासन दिया जा सके। २. (विषय) जिसके लिए आश्वासन दिया जा सके।
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आश्वासित  : भू० कृ० [सं० आ√श्वस्+णिच्+क्त] सांत्वना पाया हुआ। दिलासा पाया हुआ। जिसे आश्वासन दिया गया हो या मिला हो।
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आश्वासी (सिन्)  : वि० [सं० आ√श्वस्+णिनि] आश्वासन देनेवाला। आश्वासक। २. अपने आप पर दृढ़ विश्वास रखनेवाला।
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आश्वास्य  : भू० कृ० [सं० आ√श्वस्+णिच्+यत्]-आश्वासनीय।
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आश्विक  : वि० [सं० अश्व+ठ़ञ्-इक] —आश्व। पुं० -अश्वारोही सैनिक। सवार।
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आशिवन्  : पुं० [सं० अश्विनी+अण्-ङीष्, आश्विनी+अण्] भादों और कार्तिक के बीच में पड़नेवाला महीना। क्वार।
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आश्विनेय  : वि० [सं० अश्विनी+ढक्-एय] १. अश्विनी संबंधी। अश्विनी का। २. अशिवनी से उत्पन्न। पुं० १. अश्विनीकुमार। २. पाँचों पांडवों में के नकुल और सहदेव।
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आषना  : स०=आखना। (कहना)। उदाहरण—सत्य सन्ध साँचे सदा जो आषर आषे।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आषर  : पुं० =आखर (अक्षर)।
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आषा  : पुं० [सं० अक्षत] चावल। अक्षत।
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आषाढ़  : पुं० [सं० आषाढा+अण्-ङीष्, आषाढ़ी+अण्] १. ज्येष्ठ के बाद सावन से पहले पड़नेवाला महीना। असाढ़। २. बादल। मेघ। ३. ढाक। पलास। ४. पलास का वह दंड जो यज्ञोपवीत के समय धारण किया जाता है। ५. मलय पर्वत।
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आषाढक  : वि० [सं० आषाढ+वुञ्-अक] आषाढ़ में होनेवाला। आषाढ़ संबंधी। पुं० [आषाढ़+कन्] =आषाढ़।
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आषाढा  : स्त्री० [सं० आ√संह् (सहना)+क्त-टाप्] ज्योतिष के सत्ताइस नक्षत्रों में से बीसवें तथा इक्कीस वें नक्षत्रों का संयुक्त नाम। (पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा) पुं० [सं० आषाढ़] दंड जो ब्रह्मचारी हाथ में रखते हैं।
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आषाढा  : स्त्री० [सं० आषाढ़ा+अण्+ङीष्] १. आषाढ़ महीने की पूर्णिमा। गुरुपूर्णिमा। २. उक्त दिन होनेवाले धार्मिक कृत्य।
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आषाढीय  : वि० [सं० आषाढ़+छ-ईय] १. आषाढ़ संबंधी। असाढ़ महीने का। २. [आषाढ़ा+छ-ईय] आषाढ़ा नक्षत्र में होनेवाला।
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आषु  : पुं० =आखु। (चूहा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसंग  : पुं० [सं० आ√संज्(मिलना)+घञ्] १. संग या साथ रहने की क्रिया या भाव। २. लगाव। संपर्क। ३. किसी काम, विशेषतः भोग-विलास के प्रति होनेवाली तीव्र प्रवृत्ति या लीनता। आसक्ति। लिप्पता। ४. यह समझना कि अमुक कार्य विशेष रूप से मैंने ही किया है। अपने कर्तृव्य का अभिमान। ५. मुलतानी मिट्टी। ६. सुगंधित मिट्टी। ७. दे० आसंजन। अव्य० निरंतर। बराबर। लगातार।
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आसंगत्य  : पुं० [सं० असंगत+ष्यञ्] १. असंगत होने की अवस्था या भाव। २. वियोग।
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आसंगी (गिन्)  : वि० [सं० आ√संज्+णिनि] आसंग (विशेष प्रवृत्ति या संपर्क) रखनेवाला।
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आसंजन  : पुं० [सं० आ√संज्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता-आसंजक, भू० कृ० आसंजित] १. किसी के साथ अच्छी तरह जोड़ना,बाँधना या लगाना। २. धारण करना। पहनना। जैसे—वस्त्र आदि। ३. अधिक मात्रा में होनेवाला अनुराग या आसक्ति। ४. आज-कल न्यायालय की आज्ञा से किसी अपराधी या ऋणी की संपत्ति पर होनेवाला अधिकार। कुर्की। (एटैचमेन्ट)
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आसंजित  : भू० कृ० [सं० आ√संज्+णिच्+क्त] (संपत्ति) जिसका आसंजन न हुआ हो। कुर्क किया हुआ। (एटैच्ड)
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आसंद  : पुं० [सं० आ√सद्(बैठना)+घञ्, नुम्] विष्णु या वासुदेव।
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आसंदी  : स्त्री० [सं० आ√सद्+(नि०)अच्,नुम्-ङीष्] १. बैठने का कुछ ऊँचा छोटा आसन। जैसे—चौकी, मोढा आदि। २. खटोला।
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आस  : पुं० [सं० आ√आस्(बैठना)+घञ्] १. कमान। धनुष। २. दिशा। ३. चूतड़। नितंब। स्त्री० [सं० आशा] आशा। उम्मेद। मुहावरा—आस टूटना=आशा या उम्मेद न रह जाना। आस पूजना-आशा पूरी होना। अव्य०=१. भरोसे। सहारे। २. (किसी बात के) कारण। वजह से। मारे। उदाहरण—सचिव बैद गुरु तोनि जो प्रिय बोलहि भय आस।—तुलसी।
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आसक  : पुं० =आशिक (प्रेमी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसकत  : स्त्री० [सं० अशक्ति] [वि० आसकती, क्रि० असकताना] कोई काम करने के समय होनेवाला आलस्य या सुस्ती। वि० =आसक्त। उदाहरण—नैना निरखत हरखत आसकत हैं-सेनापति।
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आसकती  : वि० [हिं० आसकत] आलसी।
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आसक्त  : पुं० [सं० आ√संज्+क्त] [भाव० आसक्ति] १. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। २. किसी के साथ बहुत अधिक अनुराग या प्रेम करनेवाला। जो किसी पर लुब्ध या मुग्ध हो। मोहित। (अटैच्ड) ३. लिप्त। लीन।
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आसक्ति  : स्त्री० [सं० आ√संज्+क्तिन्] [वि० आसक्त] १. आसक्त होने की अवस्था या भाव। २. किसी के प्रति विशेष रूप से और बहुत अधिक होनेवाला अनुराग या प्रेम। (अटैचमेन्ट) ३. लिप्तता। लीनता।
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आसतीन  : स्त्री० =आस्तीन।
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आसते  : अव्य० [फा० आहिस्तः] पुं० हिं० आछत का स्थानिक रूप। अव्य० [सं० अस्ति] (किसी के) रहते या होते हुए।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसतोष  : पुं० =आशुतोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसत्ति  : स्त्री० [सं० आ√सद्+क्तिन्] १. समीपता। २. न्याय में, पास-पास रहनेवाले शब्दों का पारस्परिक संबंध।
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आसथा  : स्त्री० =आस्था।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसथान  : पुं० =आस्थान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसन  : पुं० [सं०√आस्+ल्युट्-अन] १. बैठने की क्रिया या भाव। बैठक। २. बैटने का कोई विशिष्ट ढंग प्रकार या मुद्रा। क्रि०प्र०-मारना। लगाना। मुहावरा—आसन उखड़ना=(क) बैठने की निश्चित मुद्रा में हिलते-डोलने आदि के कारण बाधा होना। उठकर इधर-उधर या खड़ा होना। (ख) ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि रहने बैठने आदि के स्थान से हटकर कहीं और जाना पडे। आसन जमना=बैठने में स्थायित्व या स्थिरता आना। आसन डिगना या डोलना=(क) आसन उखाड़ना। (ख) किसी प्रकार के आकर्षण बाधा आदि के कारण चित्त या मना चंचल होना। ३. कपड़े कुश आदि का बना हुआ वह चौकोर टुकड़ा जिसपर लोग बैठते हैं। मुहावरा—(किसी को) आसन देना=सत्कारार्थ बैठने के लिए कोई चीज सामने रखना या बतलाना। ४. साधु-सन्यासियों आदि के बैठने और रहने का स्थान। ५. योग-साधन के लिए बैठने की कोई विशिष्ट मुद्रा या स्थिति। जैसे—पदमसन वीरासन आदि। मुहावरा—आसन लगाना=उक्त प्रकार की किसी विशिष्ट मुद्रा में स्थित होना। ६. काम-शास्त्र में, संभोग की कोई विशिष्ट मुद्रा या स्थिति। बंध। ७. हाथी का कंधा, जिसपर बैठकर उसे चलाते हैं। ८. प्राचीन राजनीति में, शत्रु के आक्रमण, दाँव-पेंच आदि के सामने अच्छी तरह जमे या ठहरे रहने का भाव या स्थिति। किसी प्रकार अपनी मर्यादा, स्थान आदि से विचलित न होना।
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आसना  : अ० [सं० अस्-होना] होना। पुं० [सं० आसन√आस्+ल्युट्] १. वृक्ष। २. जीव। वि० -आसन्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसनी  : स्त्री० [सं० आसन का हिं० अल्पा०] बैठने का छोटा आसन (कपड़े, कुश आदि का)।
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आसन्न  : वि० [सं० आ√सद्+क्त] १. (मात्रा, समय, स्थान आदि के विचार से) किसी के पास या समीप आया या पहुँचा हुआ। निकटवर्ती। समीपस्थ। जैसे—आसन्न प्रसवा। आसन्न मृत्यु आदि। २. किसी के साथ सटा या लगा हुआ। संलग्न।
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आसन्न-काल  : पुं० [ष० त०] मृत्यु का समय। मृत्युकाल।
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आसन्न-कोण  : पुं० [कर्म० स०] ज्यामिति में, उन दोनों कोणों में से हर एक जो एक सीधी रेखा के ऊपर खड़ी दूसरी रेखा के दोनों ओर बनते हैं। (एडैजसेंट एंगिल)
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आसन्नता  : स्त्री० [सं० आसन्न+तल्-टाप्] आसन्न होने की अवस्था या भाव। निकटता। समीपता।
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आसन्न-प्रसवा  : स्त्री० [ब० स०] वह जिसे शीघ्र ही प्रसव होने को हो।
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आसन्न-भूत  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में भूत-काल का वह रूप जिससे सूचित होता है कि भूतिकालिक क्रिया या तो वर्तमान काल में पूरी हुई है (जैसे—मैं वहाँ हो आया हूँ) अथवा उसकी पूर्णता या स्थिति वर्तमान काल में भी व्याप्त है (जैसे—(क) तुलसी दास ने राम का ही गुण गाया है, (ख) वह अभी तक वहाँ खड़ा है या खड़ा हुआ है)।
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आसपास  : अव्य० [सं० अश्र+पार्श्व, प्रा० अस्स, पस्स, का० गु० मरा० आस-पास, सिंह० आसि यासि, पं० आसे पासे] १. अलग-बगल। इर्द-गिर्द। जैसे—उस मकान के आस-पास कई खेत (या पेड़) थे। २. किसी स्थान के समीप इस ओर, उस ओर या चारों तरफ। इधर-उधर।
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आसबंद  : पुं० [हिं० आस (आधार या आश्रय)] वह मोटा तागा जिसे पटुए अपने घुटने पर (गूँथा जानेवाला गहना अटकाने के लिए) बाँधे रहते हैं।
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आसमाँ  : पुं० =आसमान।
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आसमान  : पुं० [फा० मिलाओ सं० आशा-दिशा या स्थान+मान] [वि० आसमानी] आकाश (दे०)। मुहावरा—आसमान के तारे तोड़ना=बहुत ही विकट और श्रम साध्य काम भी पूरा कर दिखलाना। आसमान जमीन के कुलाबे मिलाना=(क) खूब बढ़चढ़कर बातें करना। लंबी चौड़ी हाँकना। (ख) असंभव तथा बहुत विकट कार्य करने के मँसूबे बाँधना। आसमान झाँकना या ताकना=(क) अभिमानपूर्वक सिर ऊँचा करना या तानना। (ख) वास्तविकता का ध्यान छोड़कर असंभव बातों की ओर ध्यान देना। (किसी पर या सिर पर) आसमान टूटना या टूट पड़ना=सहसा विपत्तियों का पहाड़ ऊपर आ गिरना। (किसी को) आसमान दिखाना=(क) कुश्ती में, एक पहलवान का दूसरे को पछाड़कर चित्त गिराना। (ख) प्रतिपक्षी को पूरी तरह से हराना। आसमान पर उड़ना=(क) अभिमान पूर्ण आचरण करना। (ख) बढ़चढ़ कर बातें करना। लंबी चौड़ी हाँकना। आसमान पर चढ़ना=अपने आपको बहुत ऊँचा या बड़ा समझना। (किसी को) आसमान पर चढ़ाना=किसी की इतनी अत्यधिक प्रशंसा करना कि उसे अभिमान होने लगे। आसमान पर थूकना=किसी महान व्यक्ति को तुच्छ ठहराने की चेष्ठा करना, जिसके फलस्वरूप स्वयं ही तुच्छ और हास्यास्पद बनना पड़े। आसमान में छेद करना या थिगली लगाना=आसमान के तारे तोड़ना। आसमान में छेद हो जाना=बहुत अधिक वर्षा होना (व्यग्य और हास्य)। आसमान सिर पर उठाना=बहुत अधिक उपद्रव, ऊधम या हलचल मचाना। (कोई चीज) आसमान से गिरना=(क) अकारण या असमय प्रकट होना। (ख) अनायास प्राप्त होना। (वस्तु रचना आदि का) आसमान से बातें करना=बहुत अधिक ऊँचा या उन्नत होना। जैसे—वहाँ के महल (या पहाड़) आसमान से बातें करते थे। (किसी का) दिमाग आसमान पर होना-इतना अधिक अभिमान होना कि तथ्य या वास्तविक की उपेक्षा होने लगे।
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आसमान-खोंचा  : वि० [फा० आसमान+हिं० खोंचा-खोंचने या चुभनेवाली चीज] १. इतना ऊँचा या लंबा जो ऊपर आसमान तक चला गया हो। गगन-चुंबी। जैसे—आसमान-खोंचा धरहरा, बाँस या लग्घा। पुं० बहुत लंबी नली वाला एक प्रकार का हुक्का जो नीचे जमीन पर रखा रहता था और जो बहुत ऊँचे तख्त या कोठे पर बैठकर पीया जा सकता था।
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आसमानी  : वि० [फा०] १. आकाश-संबंधी। आसमान का। २. आकाशस्थ। जैसे—आसमानी तारे, आसमानी लोग। ३. ईश्वर की ओर से होनेवाला। दैवी। ४. आसमान के रंगवाला। हलका नीला। (स्काई-ब्ल्यू) स्त्री० १. ताड़ी। २. मिस्र देश की एक प्रकार की कपास। ३. कहारों की बोली में, रास्तें में पडनेवाली पेड़ की डाल। पुं० एक प्रकार का रंग जो हलका नीला होता है।
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आसय  : पुं० =आशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसर  : पुं० =आशर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसरना  : अ० [सं० आश्रय] १. आसरा या सहारा लेना। २. शरण लेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसरा  : पुं० [सं० आश्रय] १. वह जिसके आधार या सहारे पर कुछ टिका, ठहरा, रुका या लगा हो। अवलंब। आधार। जैसे—गिरनेवाली छत के नीचे खंभे का आसरा लगाना। २. वह जिसपर काल-यापन, जीवन-निर्वाह, भरण-पोषण, स्थिति आदि आश्रित हो। अवलंब। ३. रक्षा, शरण आदि का स्थान। ४. किसी आशा की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के संबंध में होनेवाली आशा या विश्वास। जैसे—हमें तो बस आपका ही सहारा है। ४. इंतजार। प्रतीक्षा। मुहावरा—(किसी की) आसरा देखना=प्रतीक्षा करना। रास्ता देखना। पुं०=आशा।
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आसरैत  : वि० [हिं० आसरा से] किसी के आसरे या सहारे रहनेवाला। आश्रित। स्त्री० वह स्त्री जो किसी पर पुरुष का आश्रय लेकर उसके साथ पत्नी के रूप में रहती हो। रखेली।
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आसव  : पुं० [सं० आ√सु+अण्] १. फलों आदि के खमीर से बनाया हुआ एक प्रकार का मद्य जो भभके से बिना चुआये ही बनता है। (वाइन) २. वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार से बनाया हुआ वह मद्य जिसका प्रयोग पौष्टिक पेय के रूप में होता है। जैसे—द्राक्षासव। ३. कोई मधुर और मादक पदार्थ जो किसी रूप में पान किया जाता हो। जैसे—अधरासव। ४. कोई उत्तेजक या बलवर्धक चीज या बात। ५. वह पात्र जिसमें मद्य पीते हैं।
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आसवक  : पुं० [सं० आ√सु+ण्वुल्-अक] वह जो भभके आदि से अरक, शराब आदि चुआता हो। आसव बनानेवाला। (डिस्टिलर)
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आसवन  : पुं० [सं० आ√सु+ल्युट्-अन] [कर्त्ता, आसवक, भू० कृ० आसवित, आसुत] १. किसी तरल पदार्थ को गरमाकर उसे वाष्प के रूप में लाना और फिर उस वाष्प को ठंढा करके तरल रूप देना। २. भभके आदि की सहायता से अरक, शराब आदि का चुआना या टपकाना। (डिस्टिलेशन)
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आसवनी  : स्त्री० [सं० आसवन से] १. वह स्थान जहाँ आसवन का काम होता हो। २. वे यंत्र आदि जिनकी सहायता से आसवन किया जाता है। (डिस्टिलरी)
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आसवित  : भू० कृ० [सं० आसवन] जिसका आसवन किया गया हो। आसव के रूप में तैयार किया हुआ। (डिस्टिल्ड) जैसे—आसवित जल।
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आसवी (दिन्)  : पुं० [सं० आसव+इनि] वह जो शराब पीता हो। वि० आसन-संबंधी।
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आसा  : पुं० [अ० असा] सोने या चाँदी का डंडा जिसे सजावट के लिए राजा-महाराजाओं की सवारी, बरात आदि के आगे चोबदार लेकर चलते हैं। स्त्री० =आशा। स्त्री० =दिशा।
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आसाढ़  : पुं० =आषाढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसादान  : पुं० [सं० आ√सद्+णिच्+ल्युट्] [भू० कृ० आसादित] १. नीचे रखना। २. आक्रमण करना। ३. प्राप्त या हस्तगत करना।
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आसान  : वि० [फा०] [वि० आसानी] (काम) जो सहज में किया जा सकता हो। सरल। सुगम।
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आसानी  : स्त्री० [फा०] [वि० आसान] सरलता। सुगमता।
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आसा-बरदार  : पुं० [अ० असा+फा० बरदार] वह सेवक जो राजा की सवारी, जलूस, बरात आदि में शोभा के लिए आसा लेकर आगे-आगे चलता है।
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आसा-बल्लभ  : पुं० [हिं० आसा+बल्लभ-भाला] आसा या सोंटा और बल्लभ या भाला जो राजा की सवारी, बरात आदि में साथ-साथ आगे चलते हैं।
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आसाम  : पुं० [सं० असम] भारतीय गणराज्य का एक उत्तर-पूर्वी प्रदेश। असम राज्य। प्राचीन कामरूप देश।
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आसामी  : वि० [हिं० आसाम] १. आसाम या असम देश का। २. आसाम या असम-संबंधी। पुं० आसाम या असम देश का निवासी। स्त्री० आसाम या असम देश की भाषा।
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आसामुखी  : वि० [स० आशा+मुख] अपनी आशा की पूर्ति के लिए दूसरों का मुँह देखनेवाला। उदाहरण—जो जाकर अस आसामुखी। दुख महँ ऐसन मारै दुखी।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसार  : पुं० [सं० आ√सृ+घञ्] १. शत्रु को चारों ओर से घेरकर उस पर किया जानेवाला आक्रमण। २. मूसलाधार वृष्टि। ३. मेघ-माला। (डिं०) ४. युद्ध आदि में मित्रों से मिलनेवाली सहायता। ५. खाने-पीने की सामग्री। रसद। पुं० [अ०] १. चिह्न। निशान। २. किसी बात या व्यक्ति की भावी गति विधि आदि का लक्षण। ३. इमारत की नींव। ४. दीवार की चौड़ाई।
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आसावरी  : स्त्री० [?] १. प्रातःकाल। १ दंड से ५ दंड के बीच में गाई जानेवाली श्रीराग की एक रागिनी। २. एक प्रकार का सूती कपड़ा। पुं० एक प्रकार का कबूतर।
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आसिक  : पुं० [सं० असि+ठक्-इक] तलवार चलानेवाला योद्धा। वि० -आशिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसिख  : स्त्री० =आशिष (असीस)।
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आसिद्ध  : वि० [सं० आ√सिध्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसपर किसी प्रकार का असेध, प्रतिबंध या रुकावट लगाई गयी हो। २. (कार्य या बात) जिसके संबंध में आसेध या प्रतिबंध लगा हो। (रेस्ट्रिक्टेड)
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आसिन  : पुं० =आश्विन (महीना)।
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आसिरबचन  : पुं० =आशीर्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसिरबाद  : पुं० =आशीर्वाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसिष  : स्त्री० =आशीष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसी  : वि० =आशी (खानेवाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसीन  : वि० [सं० √आस्+शानच्, इत्व] [स्त्री० आसीना] १. जिसने आसन ग्रहण किया हो। बैठा हुआ। २. जो किसी पद पर नियुक्त होकर बैठा हो।
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आसीबिख  : पुं० [सं० आशीविषः] वह साँप, जिसका जहर बहुत जल्दी चढ़ता हो।
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आसीस  : स्त्री० =आशिष (आशीर्वाद)। पुं० =आसीसा।
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आसीसा  : पुं० =[सं० आ+शीर्ष] तकिया।
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आसु  : सर्व० [सं० अस्य] इसका। पुं० [सं० आश] प्राण। जीवनी शक्ति। अव्य० =आशु (जल्दी)। उदाहरण—जारहि भवन चारि दिसि आसू।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसुग  : वि० =आशुग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसुत  : भू० कृ० [सं० आ√सु+क्त] =आसवित।
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आसुति  : स्त्री० [सं० आ√सु+क्तिन्] १. आसवन करने की क्रिया या भाव। २. प्रसव।
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आसर  : वि० [सं० असुर+अण्] १. असुर-संबंधी। २. असुरों की तरह का। जैसे—आसुर-विवाह (देखें)। पुं० सोंचर नमक। विड्लवण। पुं० [सं० असुर] असुर। राक्षस। उदाहरण—काहू कहूँ सुर असुर मार्यौ।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसुर-विवाह  : पुं० [सं० ] आठ प्रकार के विवाहों में से एक जिसमें कन्या के माता-पिता को धन देकर उनसे कन्या ली जाती थी और तब पत्नी के रूप में अपने घर में रखी जाती थी।
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आसुरी  : वि० [सं० आसुर] १. असुर संबंधी। असुरों का। जैसे—आसुरीमाया। २. असुरों की तरह का। जैसे—आसुरी विवाह। ३. असुरों के ढंग से (अर्थात् उग्रता, क्रूरता, निर्दयता आदि से) किया हुआ। जैसे—आसुरी चिकित्सा, आसुरी संपत् आदि। स्त्री० [सं० असुर+अण्+ङीष्] १. असुर या राक्षस जाति की स्त्री। २. वैदिक छंद का एक भेद। ३. राई। ४. सरसों। ५.एक प्रकार का सिरका।
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आसुरी चिकित्सा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] १. ऐसी उग्र या क्रूरतापूर्ण चिकित्सा जिसमें रोगी के उन शारीरिक कष्टों का कुछ भी ध्यान न रखा जाए जो चिकित्सा के फलस्वरूप होते है। २. चीर-फाड़ आदि के रूप में होनेवाली चिकित्सा। शल्य-चिकित्सा।
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आसुरी-विवाह  : पुं०=आसुर-विवाह।
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आसुरी संपत्  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] असुरों की तरह अनीति, अन्याय या कुमार्ग से अर्जित अथवा प्राप्त किया हुआ धन या वैभव। बुरी कमाई।
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आसूँ  : पुं० [सं० अश्वयुज्] आश्विन का महीना।
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आसू  : अव्य० =आशु (शीघ्र)। पुं०=आसूँ (आश्विन महीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसूदगी  : स्त्री० [फा०] १. धन-धान्य आदि की दृष्टि से निश्चितता और सुख से युक्त अवस्था या स्थिति। २. तृप्ति।
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आसूदा  : वि० [फा० आसूदः] १. धन-धान्य आदि केविचार से निश्चित और सुखी। २. तृप्त। संतुष्ट।
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आसेक  : पुं० [सं० आ√सिच्+घञ्] १. तर करना। भिगोना। २. खेत या पेड़-पौधे सींचना। सिंचाई। (इरिगेशन)
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आसेचन  : पुं० [सं० आ√सिच्+ल्युट्] =आसेक।
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आसेध  : पुं० [सं० आ√सिध्+घञ्] [भू० कृ० आसिद्ध] १. राज्य या राज्याधिकारी की दी हुई ऐसी आज्ञा जो किसी को कोई काम करने से रोकती हो। २. किसी प्रकार का प्रतिबंध। (रेस्ट्रिक्शन)
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आसेधक  : पुं० [सं० आ√सिध्+ण्वुल्-अक] आसेध करने या प्रतिबंध लगानेवाला।
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आसेब  : पुं० [फा०] १. भूत-प्रेत। २. उनके कारण होनेवाला कष्ट या बाधा। ३. कष्ट। विपत्ति।
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आसेर  : पुं० [सं० आश्रय या फा० असीर (कैदी) ?] किला। दुर्ग (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसेवन  : पुं० [सं० आ√सेव्+ल्युट्] [भू० कृ० आसेवित, वि० आसेव्य, कर्त्ता आसेवी] १. अच्छी या पूरी तरह से किया जानेवाला सेवन। २. दे० ‘आसेवा’।
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आसेवा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह की जानेवाली सेवा।
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आसोज  : पुं० [सं० अश्वयुज्] =आश्विन (महीना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसौ  : अव्य० [सं० अस्मिन्,प्रा०अस्मि-इस+सम-वर्ष] इस वर्ष। इस साल। पुं०=आसव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आस्तर  : पुं० [सं० आ√स्तृ+अप्] १. आवरण। २. बिछाने की कोई चीज। जैसे—चटाई चादर, गलीचा आदि। ३. हाथी की झूल।
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आस्तरण  : पुं० [सं० आ√स्तृ+ल्युट्] १. बिछाने, ढकने या फैलाने की क्रिया या भाव। २. वह जो बिछाया जाए अथवा किसी के ऊपर डाला जाए। जैसे—चादर या झूल। ३. यज्ञ में वेदी पर फैलाये हुए कुश।
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आस्तार-पंक्ति  : पुं० [सं० ] ४0 वर्णों का वैदिक छंद जिसके प्रथम और चतुर्थ चरणों में १२-१२ और द्वितीय तथा तृतीय चरणों में ८-८ वर्ण होते हैं।
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आस्ति  : स्त्री० =आस्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आस्तिक  : पुं० [सं० अस्ति+ठक्-इक] [भाव० आस्तिकता] १. वह जिसका विश्वास ईश्वर, परलोक पुनर्जन्म आदि में हो। २. वह जिसका विश्वास पुरानी प्रथाओं, रीतियों आदि में हो।
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आस्तिकता  : स्त्री० [सं० आस्तिक+तल्-टाप्] आस्तिक होने की अवस्था या भाव। ईश्वर, परलोक पुनर्जन्म आदि में विश्वास होना। (थीइज्म)
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आस्तिकपन  : पुं० =आस्तिकता।
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आस्तिक्य  : पुं० [सं० आस्तिक+ष्यञ्]=आस्तिकता।
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आस्तीक  : पुं० [सं० ] एक ऋषि जिन्होंने जनमेजय के नागयज्ञ में तक्षक के प्राण बचाये थे।
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आस्तीन  : स्त्री० [फा०] शरीर के मध्यभाग में पहने जानेवाला वस्त्र का कंधे से कलाई तक का भाग। बाँह। पद—आस्तीन का साँप=वह व्यक्ति जो मित्र होकर धोखा दे। मुहावरा—आस्तीन चढ़ाना=(क) कोई काम करने के लिए तैयार होना। (ख) लड़ने के लिए उतारू होना। आस्तीन में साँप पालना=ऐसे व्यक्ति को अपने साथ रखना जो आगे चलकर बहुत बड़ा शत्रु सिद्ध हो।
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आस्ते  : अव्य० [सं० आहिस्तः] धीरे। पद—आस्ते-आस्ते-धीरे-धीरे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आस्त्र  : वि० [सं० अस्त्र+अण्] अस्त्र-संबंधी। अस्त्रों का।
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आस्थगन  : पुं० [सं० आ√स्थग् (संवरण)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आस्थगित] किसी काम या बात को किसी दूसरे समय के लिए रोक रखने की क्रिया या भाव। (डेफरमेंट)
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आस्था  : स्त्री० [सं० आ√स्था+अङ्] १. कहीं स्थिति होने की अवस्था, साधन या स्थान। २. किसी महान या पूज्य व्यक्ति या देवता में होनेवाली विश्वासपूर्ण भावना। ३. सभा का अधिवेशन। बैठक। ४. अवलंब। सहारा। ५. प्रयत्न। ६. वचन। वादा।
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आस्थाता (तृ)  : पुं० [सं० आ√स्था+तृच्] १. वह जो अच्छी तरह से या दृढ़तापूर्वक खड़ा हो। २. वह जो ऊपर चढ़ता हो या चढ़ा हो। आरोही।
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आस्थान  : पुं० [सं० आ√स्था+ल्युट्]१. स्थान। जगह। २. बैठने का स्थान। बैठक। ३. दरबार। सभा। ४. दे० ‘आस्थान मंडप’।
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आस्थान-मंडप  : पुं० [ष० त०] १. प्राचीन भारत में, राजकुमार का वह भवन जिसमें राजा के सामने लोग उपस्थित होकर निवेदन करते थे। दरबार आम। २. दे० ‘आस्थानिका’।
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आस्थानिका  : स्त्री० [सं० ] बैठने का कोई विशेष स्थान। (सीट)
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आस्थानी  : स्त्री० [सं० आ√स्था+ल्युट्-अन-ङीष्] १. किसी भवन का वह अंश या भाग जिसमें लोग कोई महत्त्व की बात सुनने के लिए एकत्र हों। (आँडिटोरियम)।२. दे० ‘आस्थान मंडप’।
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आस्थापन  : पुं० [सं० आ√स्था+णिच्+पुक्+ल्युट्-अन] १. अच्छी तरह से कोई चीज बैठाने, रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव। २. वैद्यक में स्नेह-वस्ति। ३. पौष्टिक औषध। ताकत की दवा।
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आस्थित  : भू० कृ० [सं० आ√स्था+क्त] १. जो किसी स्थान में रहता हो। २. ठहरा या टिका हुआ। ३. प्राप्त किया हुआ। ४. घेरा हुआ।
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आस्थिति  : स्त्री० [सं० आ√स्था+क्तिन्] १. स्थिति होने की अवस्था या भाव। २. स्थित होने या रहने का स्थान। निवास।
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आस्पद  : पुं० [सं० आ√पद+घ,सुट्] १. जगह। स्थान। २. रहने की जगह। आवास। ३. आधान, आधार या पात्र। ४. वर्ण व्यवस्था आदि की दृष्टि से सामाजिक स्थिति जो किसी के पद, मर्यादा आदि का सूचक होती है। ५. वंश गत नाम। अल्ल। ६. जन्म कुंडली में लग्न से दसवाँ स्थान।
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आस्पर्धा  : स्त्री० [सं० आ√स्पर्ध्+अ+टाप्]=स्पर्धा।
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आस्पर्धी (र्धिन्)  : पुं० [सं० आ√स्पर्ध+णिनि] स्पर्धा करनेवाला।
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आस्फालन  : पुं० [सं० आ√स्फल्+णिच्+ल्युट्] १. किसी को पीछे हटाने के लिए ढकेलना, दबाना या मारना। २. संघर्ष। ३. आत्मश्लाघा। डींग। ४. उछल-कूद।
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आस्फोट  : पुं० [सं० आ√स्फुट्+णिच्+अच्] १. शस्त्रों की खड़खड़ाहट या झंकार। २. ताल ठोंकने का शब्द। ३. अखरोट। ४. मदार का पौधा।
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आस्फोटन  : पुं० [सं० आ√स्फुट्+णिच्+ल्युट-अन] १. प्रकट या व्यक्त करना। २. गात्र, पद आदि फड़फाड़ाना। ३. ताल ठोंकना। ४. अनाज या फसल ओसाना। बरसाना।
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आस्मान  : पुं० =आसमान।
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आस्मानी  : वि० पुं० स्त्री० =आसमानी।
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आस्मारक  : पुं० =स्मारक।
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आस्यंदन  : पुं० [सं० आ√स्यंद+ल्युट-अन] १. प्रवाहित होना। बहना। २. क्षरण। रसना।
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आस्य  : पुं० [सं० √अस्+ण्यत्] १. चेहरा। मुख। २. मुँह। ३. मुँह का वह अंश जिससे शब्दों का उच्चारण होता है। वि० मुँह या मुख संबंधी।
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आस्र  : पुं० [सं० अस्र+अण्] खून। रक्त।
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आस्रप  : वि० [सं० आस्र√पा+क] रक्त पीनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. मूल नक्षत्र।
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आस्रव  : पुं० [सं० आ√स्रु+अप्] १. पकते हुए चावल की झाग या फेन। २. पनाला। उदाहरण—आस्रव इंद्रिय द्वार कहावै। जीवहिं विशयन ओर बहावै। ३. कष्ट। क्लेश। ४. मन के दोष, मल या विकार। (बौद्ध)। ५. आत्मा की शुभ और अशुभ गतियाँ। (जैन)।
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आस्राव  : वि० [आ√स्रु+घञ्] बहता हुआ। पुं० १. बहाव। २. थूक। ३. ऐसा घाव या फोड़ा जिसमें कुछ बहता हो।
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आस्वांत  : वि० [सं० आ√स्वन्+क्त] ध्वनि या शब्द करता हुआ।
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आस्वाद  : पुं० [सं० आ√स्वद्+घ़ञ्] कोई चीज खाने या पीने के समय मिलनेवाला उसका रस या जीभ को होनेवाली उसकी अनूभूति। स्वाद।
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आस्वादन  : पुं० [सं० आ√स्वद्+णिच्+ल्युट्] [वि० आस्वादनीय, आस्वाद्य, भू० कृ० आस्वादित] १. कोई चीज खा या चख कर यह देखना कि उसका स्वाद कैसा है। २. लाक्षणिक रूप में प्रयोग के द्वारा यह जानना या समझना कि किसी चीज या बात में कैसा रस होता है।
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आस्वादनीय  : वि० [सं० आ√स्वद्+णिच्+अनीयर] जिसका आस्वादन किया जा सके या किया जाने को हो।
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आस्वादित  : भू० कृ० [सं० आ√स्वद्+णिच्+क्त] जिसका आस्वादन किया गया हो। चखकर देखा हुआ।
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आह  : अव्य० [सं० अहह] दुःख, पीड़ा, शोक, पश्चाताप आदि का सूचक एक अव्यय। मुहावरा—आह करना या खींचना=कष्ट या दुःख के कारण ठंडी साँस भरना या आह शब्द कहना। (किसी की) आह पड़ना=जिसे बहुत कष्ट दिया गया हो, उसकी आह या वेदना का कुफल प्राप्त होना। (किसी की) आह लेना=ऐसा अनुचित काम करना किसी को बहुत कष्ट पहुँचे और वह आह आह करे। अ०=आहि (है)। पुं० दे० ‘आहु’।
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आहट  : स्त्री० [सं० आना+हट(प्रत्यय)] १. वह मंद ध्वनि या धीमा शब्द जो किसी के आने-जाने, बोलने-चालने, हिलने-डोलने आदि के कारण कुछ दूर बैठे हुए व्यक्ति तक पहुँचता है। मुहावरा—आहट मिलना=उक्त प्रकार के शब्द से यह पता चलना कि कहीं कोई आया है या कोई बात हो रही है। आहट लेना=उक्त प्रकार का शब्द सुनाई पड़ने पर या संदेह, संभावना आदि होने पर धीरे से छिपकर यह जानने का प्रयत्न करना कि कौन आया है या क्या बात हो रही है। टोह या थाह लेना। प्रत्यय-एक हिंदी प्रत्यय जो कुछ क्रियाओं के अंत में लगकर उन्हें भाव वाचक संज्ञा का रूप देता है। जैसे—घबराना से घबराहट, चिल्लाना से चिल्लाहट, बुलाना से बुलाहट आदि।
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आहत  : वि० [सं० आ√हन्+क्त] १. जिसपर आघात हुआ हो। २. जिसे चोट आदि लगने के कारण घाव आदि हुआ हो। घायल। जखमी। पद—हताहत-मरे हुए तथा घायल लोग। ३. (व्याकरण में, ऐसा वाक्य) जिसमें परस्पर विरोधी बातें आदि हों। व्याघात नामक दोष से युक्त। ४. (गणित में, वह संख्या) जिसका गुणा किया गया हो। गुणित। ५. (कपड़ा) जो तुंरत पटक-पटक करके धोया और साफ किया गया हो। ६. पुराना। प्राचीन। पुं० १. कपड़ा। वस्त्र। २. ढोल।
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आहत-मुद्रा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] आरंभिक काल की वह मुद्रा (सिक्का) जो चाँदी, ताँबे आदि के छडों के छोटे टुकडो के रूप में केवल काट-पीट कर बनाई जाती थी और जिसपर किसी प्रकार का अंक या चिन्ह नहीं होता था। (वेन्टबार क्वायन)
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आहति  : स्त्री० [सं० आ√हन्+क्तिन्] १. आहत होने की अवस्था या भाव। २. आघात। चोट। मार। ३. गणित में, गुणा करने की क्रिया या भाव। गुणन।
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आहन  : पुं० [फा०] [वि० आहनी] लोहा। [सं० अह्न] दिन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहनन  : पुं० [सं० आ√हन्+ल्युट्] १. किसी को जान से मार डालना। २. बहुत निर्दयतापूर्वक मारना-पीटना।
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आहनी  : वि० [फा०] लोहे का।
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आहर  : पुं० [सं० अहः] १. काल। वक्त। समय। २. दिन। दिवस। पुं० [सं० आहव] [स्त्री० अल्पा० आहरी] १. छोटा तालाब। २. युद्ध। पुं० =आहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहरण  : पुं० [सं० आ√हृ+ल्युट्] [वि० आहरणीय, आहृत, कर्तृ० आहर्ता] कुछ चुराकर या छीनकर कहीं ले जाना। पुं० =आभरण (गहना)।
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आहरणीय  : वि० [सं० आ√ह्र+अनीयर] जिसे हरण किया जा सके। चुराये, छीने या हरे जाने के योग्य।
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आहरन  : पुं० [सं० आहनन] लोहारों, सुनारों आदि की निहाई। अहरन।
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आहरी  : स्त्री० [हिं० आहार का स्त्री अल्पा०] १. पशुओं के पानी पीने के लिए बना हुआ छोटा हौज। २. थाला। (दे०)।
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आहर्ता  : वि० [सं० आ√हृ+तृच्] १. आहरण करने (चुराने या छीनने) वाला। २. अनुष्ठान करनेवाला।
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आहला  : पुं० [सं० आ+हला-जल] नदियों आदि की बाढ़।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहव  : पुं० [सं० आ√ह्वे+अप्] १. चुनौती। ललकार। प्रचारण। २. युद्ध। संग्राम। ३. यज्ञ।
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आहवन  : पुं० [सं० आ√हु+ल्युट्] [वि० आहवनी] हवन करने की क्रिया या भाव।
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आहवनीय  : स्त्री० [सं० आ√हु+अनीयर] तीन प्रकार की अग्नियों में तीसरी, जो हवन आदि के लिए होती है। (कर्मकाण्ड)
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आहाँ  : स्त्री० [सं० आह्वान] १. हाँक। २. पुकार। अव्य० [अ-नहीं+हाँ] अस्वीकृति, वर्जन आदि का सूचक शब्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आहा  : अव्य० [सं० अहह] १. उल्लास, हर्ष आदि का सूचक एक अव्यय। जैसे—आहा कैसा आनंद आया २. खेद, विस्मय आदि का सूचक एक अव्यय। जैसे—आहा क्षमा कीजिए, आपको चोट लग गई।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहार  : पुं० [सं० आ√हृ+घञ्] १. भोजन करना। २. खाने की सामग्री या वस्तु। खाद्य पदार्थ। भोजन।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहारक  : वि० [सं० आ√हृ+ण्वुल्-अक] अपने पास लानेवाला। पुं० जैन शास्त्रानुसार वह उपलब्धि जिसमें मुनिराज अपनी शंका के समाधान के लिए हस्त-मात्र शरीर धारण कर तीर्थकारों के पास उपस्थित होते हैं।
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आहार-मंडप  : पुं० [सं० ष०त०] किसी विशाल भवन का वह बड़ा कमरा जिसमें अतिथियों, मित्रों आदि को भोज दिये जाते हों। (बैन्क्वेंटिंग हाँल)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहार-विज्ञान  : पुं० [सं० ष० त०] वह विज्ञान जिसमें खाद्य पदार्थों के गुण-दोष,पोषक तत्त्व आदि का विवेचन होता है। (डायटेटिक्स)
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आहार-विहार  : पुं० [सं० द्व० स०] नित्यप्रति के शारीरिक कार्य या व्यापार और व्यवहार। जैसे—खान-पीना, काम-करना, हँसना-बोलना सोना आदि।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहारशास्त्र  : पुं० =आहार-विज्ञान।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहारिक  : वि० [सं० आहार+ठक्-इक] आहार या भोजन संबंधी। पुं० जैनों में आत्मा के पाँच प्रकार के शरीरों में से वह जो मनुष्य के आहार विहार आदि का कर्ता और भोक्ता है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहारी (रिन्)  : वि० [सं० आहार+इनि] [स्त्री० आहारिणी] आहार (भोजन) करनेवाला। जैसे—मांसाहारी, शाकाहारी आदि।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
आहार्य्य  : वि० [सं० आ√हृ+ण्यत्] १. हरण किये जाने के योग्य। २. आहार (भोजन) किये जाने के योग्य। ३. बनावटी। कृत्रिम। ४. दिखौआ। ५. पूज्य। पुं० १. अभिनय का वह विशिष्ट प्रकार जो विशेष प्रकार की वेष-भूषा धारण करके किया जाता है। २. साहित्य में चार प्रकार के अनुभवों में से एक जिसमे नायक और नायिका एक दूसरे का वेष धारण करके विहार करते हैं। ३. वैद्यक में, ऐसा रोग जिसे अच्छा करने के लिए चीर-फाड़ या शल्य-चिकित्सा की आवश्यकता हो।
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आहार्य्याभिनय  : पुं० [सं० आहार्य-अभिनय कर्म०स०] अभिनय का वह अंश जो रूप, वेष आदि पर आश्रित हो। आहार्य्य।
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आहि  : अ० [सं० अस्] पूर्वी हिंदी में असना या आसना (होना) क्रिया का वर्त्तमानकालिक रूप। है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहित  : भू० कृ० [सं० आ√धा+क्त] १. रखा या स्थापित किया हुआ। २. धरोहर, गिरों या रेहन के रूप में रखा हुआ। ३. किया हुआ। पुं० प्राचीन भारत में, वह दास जो पहले अपने स्वामी से इकट्ठा धन लेकर और तब उसकी सेवा में रहकर वह धन चुकाता था।
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आहिताग्नि  : पुं० [सं० आहित-अग्निकर्म० स०] १. धार्मिक दृष्टि से स्थापित की हुई अग्नि। २. अग्निहोत्री।
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आहिति  : स्त्री० [सं० आ√धा+क्तिन्] आहित करने या होने की अवस्था या भाव।
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आहिस्ता  : अव्य० [फा० आहिस्तः] [भाव० आहिस्तगी] धीमे से। धीरे से। पद—आहिस्ता आहिस्ता=(क) धीरे-धीरे। शनैःशनैः। (ख) क्रम-क्रम से।
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आहु  : पुं० [सं० आहव-ललकार] लड़ने आदि के लिए दी जानेवाली ललकार। चुनौती। प्रचरण। उदाहरण—गह्मौ राहु अति आहु करि, मनु ससि सूर समेत।—बिहारी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहुटि  : स्त्री०=आहट।
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आहुड़  : पुं० [सं० आहव] युद्ध। संग्राम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहुति  : स्त्री० [सं० आ√हु+क्तिन्] १. यज्ञ या हवन की अग्नि प्रज्वलित रखने के लिए उसमें बार-बार कोई जलनेवाली अच्छी चीज डालते रहना। जैसे—घी, जौ या तिल की आहुति। २. उक्त प्रकार से यज्ञ या हवन की अग्नि में डालने की सामग्री, अथवा हर बार डाली जानेवाली उसकी मात्रा। जैसे—रूद्र की ११ आहुतियाँ दी जाती है। ३. किसी उद्देश्य की सिद्धि या कर्त्तव्य-पालन के लिए उसमें लगकर पूरी तरह से व्यय तथा समाप्त हो जानेवाली चीज। जैसे—स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हजारों देशप्रेमियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
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आहुती  : स्त्री०=आहुति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहू  : पुं० [फा०] मृग। हिरन। उदाहरण— मनु कलिंद पर कलिन कनक मंडप आहू कौ।—रत्नाकर।
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आहूत  : भू० कृ० [सं० आ√ह्रे+क्त] १. जिसका आह्रान हुआ हो। जो बुलाया गया हो। २. आमंत्रित। निमंत्रित।
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आहूति  : स्त्री० [सं० आ√ह्वे+क्तिन्] आह्वान करना। बुलाना। स्त्री०=आहुति।
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आहृत  : भू० कृ० [सं० आ+हृ+क्त] १. हरण किया या बलपूर्वक लिया हुआ। २. कहीं से लाया हुआ।
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आहै  : अ० [सं० अस्] ‘आसना’ क्रिया का वर्त्तमानकालिक रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आहौ  : अ० ‘होना’ क्रिया के वर्त्तमानकालिक ‘हूँ’ का पुराना अवधी रूप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आह्र  : वि० [सं० अहन्+अञ्] प्रति दिन होनेवाला। दैनिक।
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आह्रिक  : वि० [सं० अहन्+ठक्] दैनिक। रोजाना। पुं० १. एक दिन का काम या उसकी मजदूरी। २. नित्य प्रतिदिन किये जानेवाले धार्मिक कृत्य। जैसे—पाठ, पूजन, संध्या, वंदन आदि।
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आह्राद  : पुं० [सं० आ√ह्रद+घञ्] [वि० आह्रादक,आह्रादित] किसी अच्छी बात से होनेवाली अस्थायी या क्षणिक प्रसन्नता। (ग्लैडनेस)
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आह्लादक  : वि० [सं० आ√ह्लद+णिच्+ण्वुल्] आह्राद या प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला।
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आह्लादित  : वि० [सं० आ√ह्लद+णिच्+क्त] जिसे आह्लाद हुआ हो। प्रसन्न। हर्षित।
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आह्वाय  : पुं० [सं० आ√ह्वे+श] १. नाम। संज्ञा। २. तीतर, बटेर, मेढ़े आदि जीवों की लड़ाई की बाजी।
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आह्वान  : पुं० [सं० आ√व्हे+ल्युट्] १. किसी से यह कहना कि यहाँ या हमारे पास अमुक काम के लिए आओ। पुकारना। बुलाना। २. पूजन, यज्ञ आदि के समय देवताओं से यह कहना कि आप यहाँ आकर अपना भाग और हमारी सेवा-पूजा ग्रहण करें। ३. आधिकारिक या विधिक रूप से किसी को आज्ञा देना कि यहाँ आओ। ४. वह पत्र जिसमें उक्त प्रकार का बुलावा लिखा हो। (समन)।
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आह्वायक  : वि० [सं० आ√ह्वे+ण्वुल्-अक] आह्वान करने या बुलानेवाला।
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