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अलं  : अव्य० दे० ‘अलम्’।
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अलंकरण  : पुं० [सं० अलम√कृ (करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अलंकृत] १. अलंकारों से युक्त करने की क्रिया या भाव। गहनों आदि से सजाना। २. किसी सुन्दर वस्तु या व्यक्ति के सौन्दर्य में और अधिक अभिवृद्धि करना। सजावट। सज्जा। ३. अलंकार। आभूषण।
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अलंकार  : पुं० [सं० अलम्√कृ+घञ्] १. वह वस्तु या सामग्री जिसके योग से किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के सौन्दर्य में अभिवृद्धि होती हो। २. शरीर पर धारण किया जानेवाला आभूषण। गहना। ३. साहित्य में, शब्दों और उनके अर्थों में अनियमित रूप से रहनेवाला वह तत्त्व या धर्म जिसके कारण किसी व्यंग्यार्थ की प्रतीति के बिना भी, शब्दों की अनोखी विन्यास शैली से ही, किसी कथन के व्यंग्यार्थ में कुच विशेष चमत्कार, रमणीयता या शोभा आ जाती है। प्रभावशाली तथा रोचकतापूर्ण रूप में किसी बात का वर्णन करने का ढंग या रीति। (फिगर आँफ स्पीच) विशेष—यह तीन प्रकार का माना गया है-शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार। इनमें से अर्थालंकार ही प्रधान हैं, जिनकी संख्या प्रायः सौ से ऊपर पहुँचती है। कुच साहित्यों कारों ने अर्थ के विचार से अलंकारों के कई वर्ग भी बनायें हैं। जैसे—(क) विरोधगर्भ (अतिशयोक्ति, असंगति, विरोध, विशेषोक्ति, सम आदि), (ख) वाक्यन्यायमूल्य (अर्थापत्ति, पर्याय, परिवृत्ति, विकल्प, समुच्चय, समाधि आदि), (ग) लोकन्यायमूल (अतदगुण, तदगुण, प्रतीप, प्रत्यनीक, सामान्य आदि), (घ) गूढ़ार्थप्रतीतिमूल (वक्रोक्ति, व्याजोक्ति, सृष्टि, सूक्ष्म, स्वभावोक्ति आदि)।
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अलंकार-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें साहित्यिक अलंकारों की परिभाषा, विवेचन तथा वर्गीकरण किया जाता है।
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अलंकित  : वि०=अलंकृत।
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अलंकृत  : भू० कृ० [सं० अलम्√कृ+क्त] [स्त्री० अलंकृता, भाव० अलंकृति] १. (वस्तु या व्यक्ति) जिसका अलंकरण हुआ हो या किया गया हो। २. सजाया हुआ। अलंकारों से युक्त। (कविता)।
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अलंकृति  : स्त्री० [अलम्√कृ+क्तिन्] अलंकृत होने की अवस्था या भाव।
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अलंग  : पु० [सं० अल-पूर्ण, बड़ा+अंग=प्रदेश] १. ओर। तरफ। दिशा। मुहावरा—अलंग पर आना या होना-घोड़ी का मस्त होकर गर्भ धारण करने के योग्य होना। २. मकान के किसी खंड का किसी ओर का भाग या विभाग।
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अलंघनीय  : वि० [सं० न० त०] १. (वस्तु) जिसे लाँघा न जा सके या जिसे लाँघना उचित न हो। २. (आज्ञा या नियम) जिसका पालन आवश्यक हो।
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अलंघ्य  : वि० [सं० न० त०] =अलंघनीय।
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अलंजर  : पुं० [सं० अलम्√जृ(जीर्ण होना)+अच्] मिट्टी का छोटा घड़ा।
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अलंब  : पुं,० दे० =आलंब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलंबुष  : स्त्री० [सं० अलम्√पुष् (पुष्टि)+क, पृषो० ब० आदेश] १. वमन। कै। २. एक राक्षस जिसे घटोत्कच ने मारा था।
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अलंबुषा  : स्त्री० [सं० अलम्बु×टाप्] १. छूई-मुई। लजालू लता। २. एक अप्सरा का नाम। ३. किसी का मार्ग रोकने के लिए खीची हुई रेखा। ४. हठ-योग में, कान के पास की एक नाड़ी जो आँख के भीतरी भाग तक जाती है।
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अल  : पुं० [सं०√अल् (भूषण, पर्याप्ति, वारण)+अच्] १. गहना। आभूषण। २. मनाही। वारण। पुं० [सं० अलं] १. बिच्छू का डंक। २. जहर। विष।
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अलइक-पलवा  : पुं० [सं० अलीक प्रलाप] १. व्यर्थ की झूठी या बिना सिर पैर की बात। बक-बक। २. गप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलई  : स्त्री०=ऐल। (कँटीली लता)।
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अलक  : स्त्री० [सं०√अल्+क्वन्-अक] १. मस्तक के इधर-उधर के लटकते हुए बाल। २. घुँघराले तथा छल्लेदार बाल। ३. हरताल। ४. सफेद आक। ५. पागल कुत्ता। ६. महावर। ७. आठ से दस वर्ष तक की कन्या की संज्ञा।
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अलकत  : वि० [अ० अल्कत] १. (लेख) जो काटकर रद्द कर दिया गया हो। २. जो निकम्मा या निरर्थक ठहराया गया हो। रद्दी। पुं० [सं० अलक] महावर। उदाहरण—झाँई नाहिं जिनकी धरत अलकत है।—सेनापति।
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अलकतरा  : पुं० [अं० अल्करतः] एक गाढ़ा तरल पदार्थ, जो पत्थर के कोयले को विशेष रासायनिक क्रिया द्वारा गलाने से बनता है।
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अलकनंदा  : स्त्री० [सं० नन्द्+अच्,टाप्, अलक=नन्दा, कर्म० स०] १. एक नदी जो हिमालय से निकलकर गंगोत्री के पास गंगा में मिलती है। २. आठ से दस वर्ष के बीच की बालिका।
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अलक-प्रभा  : स्त्री० [सं० ब० स०] कुबेर की राजधानी। अलकापुरी।
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अलक-रचना  : स्त्री० [सं० ष०त०] बालों के सँवारने तथा उनकी सुंदर लटें बनाना या उन्हें घूँघरदार या छल्लेदार बनाना।
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अलक-लड़ैता  : वि० [सं० अलक-बाल+हिं० लाड़=दुलार] [स्त्री० अलकलडैती] दुलारा। लाड़ला (लड़का)।
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अलक-संहति  : स्त्री० [ष० त०] सँवारे हुए घुँघराले बालों की पंक्तियाँ।
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अलकसलोना  : वि० [सं० अलक-बाल+हिं० सलोना-अच्छा] दुलारा। लाड़ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलका  : स्त्री० [सं० अलक+टाप्] १. आठ और दस वर्ष के बीच की बालिका। २. कुबेर की नगरी, अलकापुरी। ३. कुसुम विचित्रा नामक छंद।
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अलकाउरि  : स्त्री०=अलकावलि। उदाहरण—अलकाउरि मुरि मुरि गौ मोरी।—जायसी।
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अलकाधिप  : पुं० [सं० अलका-अधिप, ष० त०] =अलकापति।
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अलका-पति  : पुं० [सं० ष० त०] अलकापुरी का राजा, कुबेर।
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अलकाब  : पुं० [अ० ‘लकब’ का बहु०] वे आदरसूचक शब्द या पद जिनका प्रयोग संबोधन के रूप में होता है।
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अलकावलि  : स्त्री० [सं० अलक-अवलि, ष० त०] १. सँवारे हुए बालों की पंक्तियाँ। २. घुँघराले या छल्लेदार बाल।
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अलकेश  : पुं० [सं० अलका-ईश, ष० त०] १. इंद्र। २. कुबेर।
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अलक्त  : पुं० [सं० न-रक्त, न० ब० लत्व] १. कुछ वृक्षों से निकलने वाला एक प्रकार का लाल रस जो उसकी डालों या तनों पर जम जाता है। लाक, लाही, चपरा आदि इसके विभिन्न प्रकार या रूप हैं। २. उक्त लाख से तैयार किया हुआ रंग जिसे स्त्रियाँ पैरों में लगाती है। महावर।
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अलक्तक  : पुं० [सं० अलक्त+कन्]=अलक्त।
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अलक्त-राग  : पुं० [ष० त०] महावर का लाल रंग।
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अलक्षण  : पुं० [सं० न० त०] [स्त्री० अलक्षणा] १. लक्षण अथवा चिन्ह का अभाव। चिन्ह या संकेत न मिलना। २. अशुभ या बुरा लक्षण। वि० [न० ब०] (पदार्थ या व्यक्ति) जिसमें अशुभ या बुरे लक्षण हों।
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अलक्षणा  : वि० [सं० अलक्षण-टाप्] [स्त्री० अलक्षणी] अशुभ या बुरे लक्षणवाला।
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अलक्षित  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. जो लक्ष्य या ध्यान में न आया हो। २. जिसकी ओर लक्ष्य या ध्यान न गया हो। (अन-आब्जर्वड्) ३. जो दिखाई न दिया हो। ४. जिसका चिन्ह या संकेत न मिला हो।
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अलक्ष्मी  : स्त्री० [सं० न० त०] १. लक्ष्मी का अभाव। दरिद्रता। गरीबी। २. दुर्भाग्य। ३. ऐसी स्त्री जिसमें अनेक अशुभ लक्षण हो।
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अलक्ष्य  : वि० [सं० न० त०] जिस पर लक्ष्य या ध्यान न दिया गया हो, अथवा न दिया जा सकता हो।
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अलक्ष्य-गति  : पुं० [ब० स०] १. वह जो अदृश्यरूप धारण करके चलता हो। २. वह जिसकी गति का कुछ पता न चलता हो।
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अलख  : वि० [सं० अलक्ष्य] १. जिसका आकार या रूप दिखाई न पड़ता हो। अदृश्य। २. जिसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा न हो सकता हो। अगोचर। उदाहरण—तुलसी अलखै का लखै, राम नाम भजु नीच।—तुलसी। पुं० =वह जो दिखाई न पड़े अर्थात् ईश्वर। मुहावरा—अलख जगाना=(क) अलख, अलख पुकार कर अलक्ष्य (ईश्वर) को स्मरण करना और दूसरों को भी उसे स्मरण करते रहने के लिए प्रेरित करना। (ख) अलक्ष्य (ईश्वर) के नाम पर भिक्षा माँगना।
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अलखधारी  : पुं०=अलखनामी।
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अलखनामी  : पुं० [सं० अलक्ष्य+नाम] गोरखनाथ के अनुयायी साधुओं का एक संप्रदाय। अलखधारी। अलखिया। (ऐसे साधु गलियों बाजारों में ‘अलख’ ‘अलख’ पुकारते फिरते है)
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अलख-निरंजन  : पुं० [हिं० +सं० ] ईश्वर। परमात्मा।
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अलख-पुरुष  : पुं० [हिं० +सं० ] ईश्वर। परमात्मा।
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अलखित  : वि० =अलक्षित।
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अलखिया  : पुं० =अलखनामी (संप्रदाय)।
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अलगंट  : क्रि० वि० [हिं० अलग] बिना दूसरों से कोई संबंध रखें। वि० १. अकेला। २. नारला। बेजोड़।
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अलग  : वि० [सं० अलग्न, प्रा० अलंग] १. जो किसी के साथ जुड़ा, मिला, लगा या सटा न हो। पृथक्। जैसे—उँगली कटकर अलग हो गयी। २. गुण, प्रकार रूप आदि के विचार से औरों से भिन्न। विशिष्ट। जैसे—आपकी राय तो सदा सबसे अलग होती है। ३. जिसका संपर्क या संबंध न हो या न रह गया हो। दूर हटा हुआ। जैसे घर से अलग, झगड़ों से अलग, नौकरी से अलग आदि। ४. राशि, समूह आदि में से निकालकर एक ओर रखा या लाया हुआ। जैसे—(क) अपनी पुस्तक अलग कर लो। (ख) सौ रुपये अलग रखे हैं।
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अलगंगीर  : पुं० दे० ‘अरकगीर’।
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अलगनी  : स्त्री० [सं० आलग्न] दोनों सिरों पर बँधी हुई वह आड़ी रस्सी या बाँस जिस पर कपड़े आदि लटकाये जाते है।
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अलगरज  : क्रि० वि० [अ० अलगरज] गरज (तात्पर्य या सांराश) यह कि। वि० दे० ‘अलगरजी’।
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अलगरजी  : वि० [अ०] १. जिसे गरज या परवाह न रह गई हो। बेपरवाह। २. जो स्वभावतः किसी की परवाह न करता हो। लापरवाह। ३.अपने स्वार्थ साधन में पक्का। परम स्वार्थी। स्त्री० १. बेपरवाही। २. लापरवाही। ३. स्वार्थपरता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलगर्द  : पुं० [√लग्(संग)+क्विप्√अर्द (हिंसा)+अच्० न० त०] पानी में रहनेवाला एक प्रकार का साँप।
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अलगाउ  : वि० [हिं० अलगाना] अलग करने या रखनेवाला।
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अलगा-गुजारी  : स्त्री० [हिं० अलग+फा० गुजारी] १. अलग-अलग करने या होने की क्रिया या भाव। २. परिवार के सदस्यों, मित्रों या हिस्सें दारों में मत-भेद, लड़ाई-झगड़ा आदि होने के कारण सबके अंश अलग-अलग होने की क्रिया या भाव।
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अलगाना  : स० [हिं० अलग] अलग या पृथक् करना।
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अलगाव  : पुं० [हिं० अलग] अलग होने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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अलगोजा  : पुं० [अ०] एक प्रकार की बाँसुरी।
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अलगौझा  : पुं०=अलगा-गुजारी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलघु  : वि० [सं० न० त०] जो लघु (छोटा, धीमा या हल्का) न हो। विशेष दे० ‘लघु’।
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अलच्छ  : वि० -अलक्ष्य। वि० पुं० =अलक्षण। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलछ  : वि०=अलक्षण।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलज  : वि०=अलज्ज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलजी  : स्त्री० [सं० अल्√जन्(उत्पन्न होना)+ड-ङीष्] एक प्रकार की फुंसी जिसमें कुछ कालापन लिये लाली होती है।
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अलज्ज  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अलज्जता] १. जिसे लज्जा न हो। २. निर्लज्ज। बेशर्म।
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अलतई  : वि० [हिं० अलता] अलते या महावर के रंग का। महावरी। लाखी। पुं० उ क्त प्रकार का रंग। (डीप कॉरमाइन)
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अलता  : पुं० [सं० आरक्त√रञ्ज्, अलक्तक, प्रा० अलत्त, गु० अलतो, क० ओलतु, मराठी अलिता] १. लाख से बना हुआ वह लाल रंग जो स्त्रियाँ शोभा के लिए पैरों में लगाती है। महावर। २. कसाइयों की परिभाषा में, काटे या जबह किये हुए पशु का अंडकोष।
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अलत्ता  : पुं० [सं० अलक्तक] अलता।
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अलप  : वि०=अल्प।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलपहति  : वि० [सं० अल्प-अति] बहुत अल्प (कम या थोड़ा)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलपाका  : पुं० [स्पे० एलपका] १. दक्षिणी अमेरिका में होनेवाला एक प्रकार का ऊँट। २. उक्त ऊँट के बालों से बना हुआ एक प्रकार का कपड़ा।
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अलफ  : पुं० [अ० अल्फ] १. चौपायों के खाने का चारा। २. घोड़े की वह स्थिति जिसमें वह अपने दोनों पिछले पैरों पर खड़ा हो जाता है। ३. कष्ट। विपत्ति। संकट। उदाहरण—न जाने आगे कोई अलफ है या नहीं।—वृंदावनलाल।
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अलफा  : पुं० [अ०] [स्त्री० अल्पा० अलफी] मुसलमानी फकीरों के पहनने का, कुरते के आकार का एक प्रकार का ढीला-ढाला लंबा और बिना बाँहों का पहनावा।
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अलबत्ता  : अव्य० [अ० अल्बत] १. बिना शंका या संदेह के। निस्संदेह। बे-शक। २. परंतु। लेकिन। ३. हाँ। यह मान लिया। (क्व०)
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अलबम  : दे० ‘चित्राधार’।
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अलबिलल  : वि० [अनु०] =ऊल-जलूल। ऊट-पटाँग। क्रि० वि० व्यर्थ। बे-फायदा।
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अलबी-तलबी  : स्त्री० [हिं० अरबी (भाषा) का विकृत रूप+उसका अनु०] ऐसी ऊट-पटांग, अस्पष्ट या बिकट बात या बोली जो जल्दी सबकी समझ में न आवें।
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अलबेला  : वि० [सं० अलभ्य+हिं० ला (प्रत्यय)] [स्त्री० अलबेली] १. अनूठा। अनोखा। २. बना-ठना। सुंदर। पुं० १. वह जो बना-ठना हो। २. बहुत ही मनमौजी और बे-परवाह व्यक्ति। ३.नारियल का बना हुआ हुक्का।
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अलबेलापन  : पुं० [हिं० अलबेला+पन (प्रत्यय)] अलेबला होने की अवस्था गुण या भाव।
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अलब्ध  : वि० [सं० न० त०] जो लब्ध या प्राप्त न हुआ हो। जो मिला या हाथ में आया न हो।
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अलब्धभूमिकत्व  : पुं० [सं० अल्बधभूमिक, न० ब०+त्व] योग में, वह स्थिति जिसमें समाधि ठीक तरह से न लगती हो।
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अलभ  : वि०=अलभ्य।
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अलभ्य  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अलभ्यता] जो लक्ष्य न हो। जो न मिलता हो, अथवा न मिल सके फलतः दुर्लभ या बहुमूल्य।
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अलम्  : अव्य० [सं०√अलं (पर्याप्ति, भूषण)+अमु (बा०)] १. पर्याप्त। यथेष्ट। २. बस, इतना ही। बहुत हो चुका। ३. योग्य सक्षम।
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अलम  : पुं० [अ०] १. कष्ट। दुःख। २. मानसिक पीड़ा या व्यथा। पुं० [अ० अलम] १. सेना का चिन्ह या पताका। २. पर्वत। पहाड़।
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अलमर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा।
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अलमस्त  : वि० [फा०] [भाव० अलमस्ती] अपनी प्रस्तुत स्थिति में सदा मस्त रहने और कभी किसी बात की चिंता करनेवाला। सदा निश्चित और प्रसन्न रहनेवाला।
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अलमस्ती  : स्त्री० [फा०] अलमस्त होने की अवस्था या भाव।
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अलमारी  : स्त्री० [पूर्त्त० अलमारियों] १. काठ, लोहे आदि का एक प्रकार का ऊंचा या लंबा आधान, जिसमें चीजें रखने के लिए खाने या घर बने होते हैं० २. इसी के अनुकरण पर दीवारों में बनाया हुआ आधान।
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अलमास  : पुं० [फा०] हीरा।
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अलमिति  : अव्य० [सं० अलम् और इति] १. बस यहीं अंत है या होता है। बस, इतना ही। २. बस, बहुत हो चुका।
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अलय  : वि० [सं० न० त०] जिसमें लय न हो। पु० [न० त०] १. लय का अभाव। २. नित्यता।
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अलर्क  : पुं० [सं० अल√अर्क् (स्तुति)+अच् वा√अर्च् (पूजा) घञ्, पररूप] १. पागल कुत्ता। २. सफेद मदार।
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अलल  : वि० [अं० आला] संदर। बढिया। उदाहरण—आलूदा ठाकूर अलल।—प्रिथीराज।
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अलल-टप्पू  : वि० [अनु०] १. जो यों ही बिना सोचे-समझे मान या स्थिर कर लिया गया हो। अटकल-पच्चू। (हेपहेजर्ड) २. अंड-बंड। बे-ठिकाने का। ऊँट-पटाँग।
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अलल-बछेड़ा  : पुं० [हिं० अल्हड़+बछेड़ा] १. घोड़े का जवान बच्चा। २. अनुभव शून्य या अल्हड़ व्यक्ति।
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अललहिसाब  : क्रि० वि० [अ०] बिना हिसाब किये। वि० [अ०] बाद में हिसाब लेने के लिए दिया जानेवाला (धन) उचित।
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अललाना  : अ० [सं० अट्=बोलना] १. बहुत जोर से चिल्लाना। २. गला फाड़कर पुकारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लल  : पुं०=अलल्लाँ (घोड़ा)।
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अलल्लाँ  : पुं० [?] घोड़ा। (डिं०)।
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अलबाँती  : स्त्री० [सं० बालवती] वह स्त्री जिसे अभी हाल में बच्चा हुआ हो। प्रसूता। जच्चा।
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अलवाई  : स्त्री० [सं० बालवती] गाय या भैंस जिसे बच्चा हुए एक या दो महीनें हुए हों।
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अलवान  : पुं० [अ०] ऊनी या पशमीने की बढिया चादर।
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अलवाल  : पुं०=आलवाल।
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अलविदा  : अव्य० [अ०] बिदाई के समय कहा जानेवाला एक पद जिसका अर्थ है-अच्छा अब बिदा होते हैं। स्त्री० रमजान मास का अंतिम शुक्रवार।
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अलस  : वि० [सं० √लस् (कीड़ा आदि)+अच्० न० त०] [भाव अलसता] १. आलस्य से भरा हआ। २. आलस्य उत्पन्न करनेवाला। उदाहरण—वही वेदना सजक पलक में भरकर अलस सवेरा।—प्रसाद। ३. जिसमें शक्ति या सामर्थ्य न रह गया हो। ४. थका हुआ। क्लांत। शिथिल। पुं० १. एक प्रकार का छोटा विषैला जंतु। २. पैरों की उँगलियों में होनेवाली खुजली, पीड़ा, सड़न और सूजन। कँदरी। खरवात।
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अलसक  : पुं० [सं०√लस्+वुन-अक, न० त०] अजीर्ण रोग का एक भेद।
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अलसना  : अ० [सं० आलस्य] आलस्य से युक्त होना। अलसाना।
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अलसा  : स्त्री० [सं० अलस+टाप्] हंसपदी लता।
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अलसान  : स्त्री० =आलस्य। उदाहरण=आँखिन में अलसानि, चित्तौन में मंजु विलासन की सरसाई।—मतिराम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलसाना  : अ० [सं० आलस्य] १. आलस्य का अनुभव करना या आलस्य से युक्त होना। २. उक्त के फलस्वरूप शिथिल होकर कर्त्तव्य पालन से दूर रहना, बचना या हटना। ३. उदासीन विरक्त या खिन्न होना। उदाहरण—अब मोसौं अलसात जात हौ अधम उधारन हारे।—सूर।
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अलसी  : स्त्री० [सं० अतसी, गुं० अलसी, इलसी, सि० एलिसी, अलिसी, कं० अलिश, मराठी अळशी] १. एक प्रसिद्ध पौधा जिसके छोटे-छोटे दानों या बीजों को पेरकर तेल निकाला जाता है। २. उक्त पौधे के दाने या बीज। तीसी।
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अलसेठ  : स्त्री० [सं० अलस] १. व्यर्थ की ढिलाई या स्थिरता। २. जान-बूझकर खड़ा किया जानेवाला व्यर्थ का झगड़ा या तकरार। ३. झंझट। बखेड़ा। ४. अड़चन। बाधा।
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अलसेठिया  : वि० [हिं० अलसेठ] अलसेठ या व्यर्थ का झगड़ा खड़ा करनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलसौहाँ  : वि० [सं० अलस] [स्त्री० अलसौही] १. आलस्य में पड़ा हुआ। अलसाया हुआ। २. खुमारी या नींद से भरा हुआ (नेत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलह  : वि० दे० ‘अलभ्य’। पुं० दे० ‘अल्लाह’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलहदगी  : स्त्री० [अ०] अलहदा अर्थात् पृथक् होने की अवस्था या भाव। पार्थक्य।
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अलहदा  : वि० [अ० अलहदः] १. जुदा। पृथक्। २. अलग। भिन्न।
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अलहदी  : पुं० दे० ‘अहदी’।
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अलहन  : पुं० [सं० अ+लहन-प्राप्ति] १. प्राप्ति या लाभ का अभाव। न मिलना। अप्राप्ति। २. आपत्ति। संकट। ३. बुरे दिन। कुसमय।
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अलहनियाँ  : स्त्री०=अलहन। वि० =अलहदी अर्थात् अहदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलहिया  : स्त्री० [हिं० आल्हा] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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अलहैरी  : पुं० [अ०] एक प्रकार का कूबड़वाला ऊँट जो बहुत तेज चलता है।
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अलाई  : वि० [हिं० आलस्य] [स्त्री० अलाइन] आलसी और सुस्त। स्त्री० घोडों की एक जाति। स्त्री० [?] लक्ष्मी। वि० [अ० अलाउद्दीन] अलाउद्दीन का। उदाहरण—परा बाँध चहुँ ओर अलाई।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलागलाग  : पुं० [हिं० लाग=लगाव] नृत्य या नाच का एक ढंग या प्रकार।
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अलात  : पुं० [सं०√ला (आदान)+क्त, न० त०] १. जलता हुआ। कोयला। अंगारा। २. जलती हुई। लकड़ी। लुआठा। ३. वह बनैठी जो दोनों सिरों पर जलाकर चलाई जाती है।
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अलात-चक्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्रकाश का वह चक्र या मंडल जो जलती हुई लकड़ी या बनैठी को जोरों से घुमाने पर बनता हो। २. किसी प्रकार का मंडलाकार प्रकाश। उदाहरण—मनु फिर रहे अलाव चक्र में उस घन तम में।—प्रसाद। ३. गति-भेदानुसार एक प्रकार का नृत्य या नाच।
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अलान  : पुं० [सं० आलान] १. हाथी बाँधने का खूँटा। २. वह मोटा सिक्कड़, जिसमें हाथी बाँधा जाता है। ३. बेड़ी। ४. बेल या लता चढाने के लिए गाड़ी हुई लकड़ी।
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अलानिया  : क्रि० वि० [अ० अलानियः] बिलकुल प्रकाश में और स्पष्ट रूप में। सबके सामने और खुलकर।
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अलाप  : पुं०=आलाप।
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अलापना  : स० [सं० आलापन] १. गाने के समय लंबा स्वर खींचना। तान लगाना या लेना। २. शास्त्रीय पद्धति से गीत गाना। मुहावरा—अपना-अपना राग अलापना=सब लोगों का अपने-अपने स्वार्थ या हित की बात कहना। अ० आलाप या बात-चीत करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलापी  : वि० [सं० आलापी] १. संगीत में, आलाप करने अथवा तान लगानेवाला। २. गाने या बोलनेवाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलाबू  : स्त्री० [सं०√लम्ब् (लम्बा होना)+उ,णित्, नलोप, बुद्धि, न० त०] १. कददू। लौकी। २. तूंबा।
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अलाभ  : पुं० [सं० न० त०] १. लाभ का अभाव। २. घाटा। हानि।
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अलाभकर  : वि० [सं० न० त०] १. जिससे कोई लाभ न हो। बेफायदा। व्यर्थ। २. जो आर्थिक दृष्टि से लाभदायक न हो।
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अलाम  : वि० [अ० अल्लामा-चतुर] १. बातें बनानेवाला। २. मिथ्यावादी। झूठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलामत  : पुं० [अ०] चिन्ह या निशान, जिससे कोई चीज पहचानी जाए। लक्षण।
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अलायक  : पुं० [सं० अ=नहीं+अ० लायक] जो लायक या योग्य न हो। अयोग्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलाप बलाय  : स्त्री० [फा० बला-संकट] ऐसी विपत्ति या संकट जो परोक्ष से आता हो।
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अलायी  : वि० [हिं० आलसी] १. आलसी। २. अलहदी।
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अलार  : पुं० [सं०√ऋ (गति)+यङ, लुक्+अच्, ल] किवाड़। पुं० [सं० अलात] आग के ढेर। अलाव।
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अलारम  : पुं० [अं० एलार्म] १. वह चिन्ह, संकेत या ध्वनि जो खतरे की सूचक हो। २. घड़ी में लगा हुआ ऐसा यन्त्र या उपकरण जो अभीष्ट या नियत समय पर सचेत करने के लिए घंटी बजती है।
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अलाल  : वि० [सं० अलस] १. आलसी। सुस्त। २. निकम्मा।
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अलाव  : पुं० [सं० अलात-अंगार] १. आग का ढेर। २. तापने के लिए जलाई हुई आग। कौड़ा। ३. वह स्थान जहां सब लोगों के तापने के लिए जलाई जाती है।
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अलावज  : पुं० [?] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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अलावनी  : स्त्री० [?] एक प्रकार का पुराना बाजा।
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अलावा  : अव्य० [अ० इलावा] इसे छोड़कर। अतिरिक्त। सिवाय।
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अलास  : पुं० [सं०√लस् (अलग करना)+घञ्, न० त०] एक रोग जिसमें जीभ के नीचे का भाग सूजकर पक जाता है।
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अलास्य  : वि० [सं० न० ब०] नृत्य न करनेवाला।
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अलाहनी  : स्त्री० [?] पंजाब में मृतक के शोक में होनेवाला एक प्रकार का पद्यमय विलाप।
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अलिंग  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई लिंग (स्त्री पुरुष का चिन्ह अथवा किसी प्रकार का लक्षण) न हो। २. (शब्द) जिसमें लिंग का सूचक तत्त्व न हो और इसी लिए जो सब लिगों में समान रूप से प्रयुक्त होता हो। जैसे—तुम, वह, हम आदि। पुं० [न० त०] लिंग का अभाव।
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अलिंजर  : पुं० [√अल् (भूषण आदि)+इन्, अलि√जृ (जीर्ण होना)+अच्, पृषो० मुम्] पानी रखने का मिट्टी का बरतन। जैसे—घड़ा, झंझर आदि।
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अलिंद  : पुं० [सं०√अल्+किन्दच्] १. बाहरी दरवाजे के सामने का चबूतरा या छज्जा। २. किसी उद्देश्य से निमित्त किया हुआ उच्च समतल स्थल। (प्लेटफार्म) ३. एक प्राचीन जनपद। ४. प्राचीन भारत में राजद्वार के भीतरी रास्ते के दोनों ओर के कमरे जिनमें लोगों का स्वागत-सत्कार होता था। ५. शरीर विज्ञान में, हृदय के ऊपर के वे दोनों छिद्र जिनमें फेफड़ों और शिराओं में रक्त आता है। (आँरिकल्) ६. कान की तरह बाहर निकला हुआ कोई अंग। पुं० [सं० अलि] भौंरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलि  : पुं० [सं० √अल्+इन] [स्त्री० अलिनी] १. भौंरा। २. कोयल। ३. कौआ। ४. बिच्छू। ५. वृष्चिक राशि। ६. कुत्ता। ७. मदिरा। शराब। स्त्री० [?] आँख की पुतली। स्त्री० दे० ‘अली’।
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अलिक  : पुं० [सं०√अल्+इकन्] ललाट। माथा। पुं० दे० ‘अली’।
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अलिखित  : वि० [सं० न० त०] १. जो लिखा हुआ न हो। बिना लिखा। २. जो लिखा तो न हो, फिर भी प्रायः लिखे हुए के समान हो। जैसे—अलिखित विधान।
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अलिगर्द्ध  : पुं० [सं० अलि√गृध् (चाहना)+अच्] पानी में रहनेवाला एक प्रकार का साँप।
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अलि-जिह्वा  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] [वि० अलिजिह्रीय] गले के अंदर ऊपरी भाग में लटकनेवाला मांस का टुकड़ा। कौआ। घाँटी। (यूव्यूलर)।
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अलि-जिह्विका  : स्त्री० दे० ‘अलिजिह्वा’।
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अलि-जिह्वीय  : वि० [सं० अलिजि ह्वा+छ-ईय] अलि-जिह्वा संबंधी (यूव्यूलर)
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अलिपक  : पुं० [सं०√लिप्+वुन्-अक, न० त०] १. भौंरा। २. कोयल। ३. कुत्ता।
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अलि-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. वृश्चिकपत्र नामक वृक्ष। २. बिछुआ नाम की घास।
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अलिपर्णी  : स्त्री०=अलिपत्रिका।
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अलिप्त  : वि० [सं० न० त०] १. जो लिप्त न हो। २. अलग। पृथक्।
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अलि-प्रिय  : पुं० [सं० ब० स०] लाल कमल।
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अलिमक  : पुं० [सं० अलि√मक्क्+अच्, पृषो० कलोप] १. कोयल। २. मेंढक। ३. कमल के तंतु या रेशे।
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अलिमोदा  : स्त्री० [सं० अलि√मुद् (हर्ष)+णिच्+अम्-टाप्] गनियारी नाम का पौधा।
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अलियल  : पुं० [सं० अलि] भ्रमर। भौंरा। उदाहरण—सौरभ अकबर साह, अलियल आभडियो नहीं।—प्रिथीराज।
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अलिया  : स्त्री० [सं० आलय] १. एक प्रकार की तौल। २. वह गढ्ढा जिसमें कोई चीज ढककर रखी जाती है।
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अलिया-बलिया  : वि० [हिं० अलाय-बलाय] झगड़ा-बखेड़ा करनेवाला। प्रपंची। उदाहरण—न्यंद्रा कहै में अलिया बलिया, ब्रह्मा विष्णु महादेव छलिया।—गोरखनाथ। स्त्री०=अलाय-बलाय।
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अलि-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. भौंरों की तरह जगह-जगह घूमकर रस लेने की वृत्ति। २. कई घरों से पका हुआ भोजन माँगकर पेट भरना। मधुकरी (वृत्ति)। उदाहरण—उदर भरै अलिवृत्ति सों० छाँड़ि स्वान मृग भूप।—भगवतरसिक।
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अली  : स्त्री० [सं० आलि] सखी। सहेली। स्त्री० [सं० आलि] पंक्ति। कतार। स्त्री० [हिं० अलाय-बलाय] दैवी विपत्ति। संकट। पुं० [अ०] मुहम्मद साहब के दामाद का नाम और इमाम हुसैन के पिता का नाम।
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अलीक  : वि० [सं०√अल् (वारण)+ईकन्] [भाव०अलीकता] १. बे-सिर-पैर का। २. मिथ्या। झूठ। ३. मर्यादा-रहित। ४. जो रुचिकर न हो। ५. अल्प। थोड़ा। ६. सारहीन। स्त्री० [हिं० लीक=लकीर] १. प्रतिष्ठा। २. मर्यादा।
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अलीगर्द  : पुं० =अलिगर्द्ध।
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अलीजा  : वि० [अ० अलीजाह] बहुत अधिक। प्रचुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी में लीन न हो। २. जो उपयुक्त या ठीक न हो। ३. अनुचित। पुं० [सं० अलीन=मिला हुआ] १. दरवाजे की चौखट की खड़ी लंबी लकड़ी जिसमें पल्ला या किवाड़ जड़ा जाता है। साह। बाजू। २. वह आधा खंभा जो किनारे पर दीवार में सटाकर बनाया जाता है।
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अलीपित  : वि०=अलिप्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अली-बंद  : पुं० [अ०+फा०] एक तरह का बाजूबंद।
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अलील  : वि० [अ०] जिसे कोई रोग हुआ हो। बीमार। रुग्ण।
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अलीह  : वि० [सं० अलीक] १. मिथ्या। झूठ। २. अनुचित। ३. असंभव।
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अलुक्  : पुं० [सं० न० ब०] १. व्याकरण में, समास का एक भेद जिसमें बीच की विभक्ति का लोप नहीं होता। जैसे—मनसिज, सरसिज, आदि। २. आलू-बुखारा नामक फल।
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अलुभूना  : अ०=उलझना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलुटना  : अ० [सं० लुट=लोटना, लड़खड़ाना] डगमगाना। लड़खड़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलूना  : वि० [स्त्री० अलूनी] अलोना।
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अलूप  : वि० -लुप्त। पुं०=लोप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलूला  : पुं० [हिं० बुलबुला ?] १. पानी का बुलबुला। बुदबुद। २. आग की लपट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलेख  : वि० [सं० न० ब०] १. जो सहज में समझ में न आवें। दुर्बोध। २. जो जाना न जा सके। अज्ञेय। वि० [हिं० अ+लेखा] जिसका लेखा, नाप-जोख या अंदाज न हो सके। बहुत अधिक। वि० [सं० अलक्ष्य] १. जो दिखाई न दो। २. जिसपर किसी का लक्ष्य या ध्यान न गया हो।
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अलेखा  : वि० =अलेख।
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अलेखी  : वि० [सं० अलेख] जिसका कोई लेखा या हिसाब न हो, अर्थात् बहुत अधिक। वि० [सं० अलक्ष्य] १. जो दिखाई न दो। २. जो या जैसा पहले कभी देखने में न आया हो। अभूत-पूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलेपक  : वि० [सं० न० ब० कप्] १. किसी से लेप (लगाव या संपर्क) न रखनेवाला। अलिप्त। पुं० =परमात्मा।
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अलेल  : पुं० [हिं० कुलेल ?] क्रीड़ा। कलोल। उदाहरण—धन आनंद खेल-अलेल दसै, बिलसै लट झूमि झुली।—घन आनंद।
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अलेलह  : क्रि० वि० [प्रा० अलिलह=व्यर्थ] बहुत अधिक। प्रचुर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलैंगिक  : वि० [सं० लिंग+ठञ्=इक, न० त०] (जीव या वनस्पति) जिसमें स्त्री या पुरुष में से किसी का लिंग अथवा चिन्ह वर्तमान न हो। (अनसेक्सुअल)
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अलैया  : स्त्री० =अलहिया (रागिनी)।
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अलोक  : वि० [सं० ब० स०] १. जो देखने में न आवे। अदृश्य। छिपा हुआ। २. जहाँ लोक (मनुष्य) न रहते हों। ३. निर्जन। एकांत। पुं० १. परलोक। २. कलंक। ३.जैन शास्त्रों में वह स्थान जहाँ आकाश के सिवा और कुछ न हो और जिसमें मोक्षगामी के सिवा और किसी की गति न हो। ४. [न० त०] इस लोक या संसार का विनाश। पुं०=आलोक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोकना  : स० [सं० आलोक] प्रकाशित या प्रकाश से युक्त करना। आलोकित करना। अ० आलोक या प्रकाश से युक्त। स० [सं० अवलोकन] अवलोकन करना। देखना।
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अलोक्य  : वि० [सं० न० त०] १. (ऐसा कार्य) जिसे करने से स्वर्ग न प्राप्त हो सके। २. अलौकिक या असाधारण।
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अलोचन  : वि० [सं० न० त०] १. जिसे लोचन या नेत्र न हों। २. (घर या मकान) जिसमें खिड़कियाँ, झरोखे आदि न हों।
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अलोना  : वि० [सं० अ+लवणम्, प्रा० अलोण, बं० आलुणी, सिं० अलूण, मराठी० अलणी] १. (खाद्य पदार्थ) जिसमें नमक न पड़ा हो। २. जिसमें कोई रस या स्वाद न हो। फीका। ३. जिसमें लावण्य या सौन्दर्य न हो। असुंदर।
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अलोना-सलोना  : पुं० [हिं० ] दाल-मोट की तरह का एक प्रकार का खाद्य पदार्थ जो प्रायः सूखे मेवों (किशमिश, बादाम, चिरौंजी आदि) से बनता है।
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अलोप  : पुं०=लोप।
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अलोपना  : अ० [सं० लोप] लुप्त होना। स० लुप्त या गायब होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोपा  : पुं० [सं० अलोप] वह वृक्ष जो सदा हरा रहे। सदा-बहार वनस्पति।
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अलोल  : वि० [सं० न० त०] १. जो लोल अथवा चंचल न हो, फलतः शान्त या स्थिर। २. अ-सुंदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोलक  : वि० [सं० अलौकिक] विलक्षण। विचित्र। उदाहरण—एक अलोलक मैं सुनी मेरे रावलिया कानी काजर दे भली मेरे रावलिया।—राज० कहा०।
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अलोलिक  : वि०=अलोल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलोहित  : पुं० [सं० न० त०] लाल कमल। वि० १. जो लोहित अथवा लाल न हो। लाल रंग से भिन्न रंगवाला। २. रक्त से भरा हुआ।
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अलोही  : वि०=अलोहित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अलौकिक  : वि० [सं० न० त०] [भाव० अलौकिकता] जो इस लोक में न होता हो या न दिखाई देता हो, फलतः अपूर्व, अमानुषी या लोकोत्तर।
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अलौलिक  : वि० [सं० लौल्य+ठक्-इक, न० त०] १. जो युवा अवस्था की उमंग के कारण ठीक तरह से आचरण या कार्य न कर सकता हो। २. अल्हड़पन से भरा हुआ। उदाहरण—लाल अलौलिक लरकई लखि लखि सखी सिहाँति।—बिहारी।
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अलौहिक  : वि० [सं० लौह+ठक्-इक, न० त०] १. जो लौहिक न हो। २. जिसमें लोहे का अंश या तत्त्व न हो। (नॉन-फेरस)
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अल्क  : पुं० [सं० √अल्+क] १. एक प्रकार का वृक्ष। २. शरीर का अवयव। अंग।
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अल्टिमेटम  : पुं० दे० ‘अंतिमेत्थम्’।
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अल्प  : वि० [सं०√अल् (भूषण, पर्याप्ति, वारण)+प] [भाव० अल्पता, अलपत्व] १. जो मान, मात्रा आदि के विचार से प्रथम स्तर से कम या थोड़ा हो। जैसे—अल्प-मत, अल्प- व्यस्क, अल्प-संख्यक आदि। २. छोटा। ३. तुच्छ। ४. मरमाशील। ५. विरक्त। पुं० साहित्य में, एक अलंकार जिसमें आधेय की अपेक्षा आधार को अल्प या सूक्ष्म बतलाया जाता है। जैसे—अँगुरी की मुंदरी हुती, भुज में करत विहार।
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अल्पक  : वि० [सं० अल्प+कन्] १. जो बहुत ही छोटा या सूक्ष्म हो। २. कम से कम जितना आवश्यक हो, उतना। (मिनिमम्) पुं० १. वह अक्षर या शब्द जो किसी वस्तु के छोटे रूप का वाचक हो। अल्पार्थक। (डिम्यूनिटिव) जैसे—‘खाट’ का अल्पक ‘खटिया’ और ‘लोटा’ का अल्पक ‘लुटिया’ होता है। २. जवासा।
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अल्पकालिक  : वि० [सं० अल्प काल, कर्म० स०+ठन्-इक] १. जिसका अस्तित्व अल्प काल या थोड़े समय हो अथवा जो थोड़े समय तक रहे। थोड़े दिनों तक रहनेवाला। (शार्ट-लिव्ड) २. (अनुबंध या निश्चय) जो थोड़े दिनों के लिए हो या थोड़े दिन चले। जैसे—अल्प-कालिक ऋण या सहायता।
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अल्पकालीन  : वि० [सं० अल्पकाल+ख-ईन] अल्पकालिक।
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अल्पजीवी (दिन्)  : वि० [सं० अल्प√जीव् (जीना)+णिनि] सामान्यतः बहुत थोड़े दिनों तक जीवित रहनेवाला। अल्पायु। (शार्ट-लिव्ड)
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अल्पज्ञ  : वि० [सं० अल्प√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० अल्पज्ञता] १. जिसे बहुत कम या थोड़ा ज्ञान हो। २. जो अच्छा जानकार न हो। ३. कम-समझ।
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अल्पज्ञता  : स्त्री० [अल्पज्ञ+तल्-टाप्] अल्पज्ञ होने की अवस्था या भाव। जानकारी की कमी।
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अल्प-तंत्र  : पुं० [ष० त०] १. ऐसा तंत्र या शासन जो समाज के थोड़े से लोगों के द्वारा संचालित होता हो। लोक-तंत्र का विपरीत शासन। २. दे० कुल-तंत्र। (शासन प्रणाली)।
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अल्प-तनु  : वि० [ब० स०] जो आकार, परिणाम, स्वरूप आदि की दृष्टि से अल्प छोटा या दुबला-पतला हो। पुं० ठिगना या नाटा व्यक्ति।
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अल्पमत  : वि० [सं० अल्प+तमप्] जो अंश, परिणाम, मान, मात्रा आदि के विचार से सबसे अल्प, कम या थोड़ा हो। (मिनिमम्)
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अल्पता  : स्त्री० [सं० अल्प+तल्-टाप्] १. कमी। अल्प होने की अवस्था या भाव। २. न्यूनता। कमी। ३. छोटाई। लघुता।
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अल्पत्व  : पुं० [सं० अल्प+त्व] =अल्पता।
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अल्प-दर्शन  : पुं० [कर्म० स०] १. बहुत छोटे या निम्न स्तर के विचार रखना। अधिक दूर का परिणाम या फल न देखना।
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अल्प-दृष्टि  : पुं० [ब० स०] १. वह जिसके विचार बहतु ही संकीर्ण या संकुचित हों। २. अदूरदर्शी।
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अल्प-धी  : वि० [ब० स०] १. जिसे बहतु कम बुद्धि या विवेक हो। २. मूर्ख।
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अल्प-पद्य  : पुं० [कर्म० स०] लाल कमल।
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अल्प-प्राण  : पुं० [ब० स०] १. वह वर्ण जिसके उच्चारण में प्राणवायु का अल्प संचार हो। महाप्राण का विपर्याय। नामगरी वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा तथा पाँचवा अक्षर और य, र, ल, तथा व अक्षर अल्पप्राण हैं। वि० १. जिसमें प्राण या जीवनी शक्ति बहतु कम हो। २. अल्पजीवी।
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अल्प-भाषी (षिन्)  : वि० [सं० अल्प√भाष् (बोलना)+णिनि] १. कम बोलनेवाला। २. आवश्यकता से अधिक न बोलनेवाला। ३. बहुत थोड़े शब्दों में कहनेवाला।
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अल्प-मत  : पुं० [ष० त०] १. वह मत जिसके अनुयायी या समर्थक बहुत कम हों। २. बहुत कम लोगों द्वारा प्रकट किया गया मत। ‘बहु-मत’ का विपर्याय।
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अल्प-मेधा (धस्)  : [ब० स०] =अल्प-धी।
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अल्प-वयस्क  : पुं० [ब० स० कप्] १. जिसकी अवस्था अभी कम या थोड़ी हों। थोड़ी उम्र का। २. जो अभी वयस्क न हुआ हो। अवयस्क।
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अल्प-विराम  : पुं० [कर्म० स०] एक विराम चिन्ह जो वाक्य के पदों में पार्थक्य दिखलाने के लिए अथवा बोलने में कुछ विराम सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। (काँमा) इसका रूप यह है—,।
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अल्पशः  : क्रि० वि० [अल्प+शस्] १. थोड़ा-थोड़ा करके। २. कम से कम। क्रमशः। ३. धीरे-धीरे।
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अल्प-संख्यक  : वि० [ब० स०कप्] जो गिनती या संख्या में कम या थोडे हों। पुं० १. वह दल, पक्ष या समाज जिसके अनुयायियों की संख्या अन्य दलों, पक्षों या समाजों की तुलना में कम हो। २. उक्त दल या पक्ष का अनुयायी अथवा प्रतिनिधि।
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अल्प-संधि  : स्त्री० [कर्म० स०] =विराम-संधि।
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अल्पांश  : पुं० [सं० अल्प-अंश, कर्म० स०] १. किसी वस्तु का बहुत कम या थोड़ा सा अँश। अल्प-भाग। २. किसी वर्ग, समूह, समुदाय या समाज का कुछ या आधे से बहुत कम अंश या भाग। (माइनाँरिटी) जैसे—आज-कल समाज का कदाचित अल्पांश ही संतुष्ट, संपन्न या सुखी होगा।
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अल्पाक्षरिक  : वि० [सं० अल्प-अक्षर, कर्म० स० अल्पाक्षर+ठन्-इक] १. जिसमें बहुत कम या थोड़े से अधिक हों। २. (कथन या वाक्य) जो इतने थोड़े शब्दों में कहा गया हो कि उसका ठीक और पूरा आशय सहज में न समझा जा सके। (लैकोनिक)
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अल्पायु (स्)  : [अल्प-आयुस्, ब० स०] जिसकी आयु बहुत कम हो। बहुत थोड़े दिनों तक जीवित रहनेवाला। (शार्ट लिव्ड) पुं० बकरा।
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अल्पारंभ  : पुं० [अल्प-आरंभ, कर्म० स०] किसी बड़े कार्य का ऐसा आरंभ जो छोटे रूप में हो। वि० [ब० स०] (काम) जो आरंभ में बहुत छोटे या हलके रूप में छेड़ा गया हो।
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अल्पार्थक  : पुं० [अल्प-अर्थ, ब० स० कप्] दे० ‘अल्पक’।
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अल्पाहार  : पुं० [अल्प-आहार, कर्म० स०] उचित या साधारण से बहुत कम खाना। थोड़ा भोजन।
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अल्पाहारी (रिन्)  : वि० [सं० अल्पाहार+इनि] कम, थोड़ा या संयत आहार अथवा भोजन करनेवाला।
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अल्पित  : भू० कृ० [सं० अल्प+णिच्+क्त] जिसे कम, थोड़ा या छोटा किया गया हो। अल्प रूप में लाया या घटाया हुआ।
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अल्पिष्ठ  : वि० [सं० अल्प+इष्ठन्] १. जितना थोड़ा हो सकता हो, उतना ही। कम से कम। २. बहुत ही कम।
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अल्पीकरण  : पुं० [सं० अल्प+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्-अन] कम करने या घटाने की क्रिया या भाव।
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अल्ल  : पुं० [अ० आल] वंश, गोत्र, जाति आदि का विशिष्ट नाम जो बराबर हर पीढ़ी में चलता रहता हो। जैसे—मिश्र, कपूर, श्रीवास्तव आदि।
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अल्ल-बल्ल  : वि० [अनु०] बिलकुल निरर्थक या व्यर्थ का। आँय-बाँय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लम-गल्लम  : पुं० [अनु०] जिसका कुछ ठीक ठिकाना या सिर-पैर न हो। उधर-उधर का और प्रायः निरर्थक या फालतू।
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अल्ला  : स्त्री० [सं०√अल् (भूषण आदि)+क्विप्, अल्√ला(लेना)+क-टाप्] १. माता। २. पराशक्ति। पुं०=अल्लाह (ईश्वर)।
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अल्लाई  : स्त्री० [देश०] चौपायों के गले में होनेवाली एक तरह की बीमारी।
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अल्लाना  : अ० [सं० अर्-बोलना] १. ऊँचे स्वर में पुकारना या बोलना। २. जोर का शब्द करना। चिल्लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लामा  : पुं० [अ,अल्लामः] बहुत बड़ा बुद्धिमान या विद्वान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अल्लाह  : पुं० [अ०] ईश्वर। परमेश्वर। पद—अल्लाह मियाँ की गाय=बहुत ही भोला-भाला या सीधा आदमी।
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अल्लाहताला  : पद [अ०] परमेश्वर, जो सबसे बढ़कर है।
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अल्लाह बेली  : पद [अ०] ईश्वर तुम्हारा मित्र और रक्षक है।
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अल्लाहो अकबर  : पद [अ०] अल्लाह अर्थात् ईश्वर महान है।
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अल्हड़  : वि० [प्रा० ओलेहड़=प्रमत्त, गाफिल] [भाव० अल्हड़पन] १. कम अवस्था या कम उम्र का। २. जो अपने लड़कपनवाले स्वभाव के कारण व्यवहार में कुशल या दक्ष न हो। ३. उद्धत और मन-मौजी। ४. गँवार। पुं० १. वह बछड़ा जिसके दाँत अभी न निकले हों। २. ऐसा बैल या बछड़ा जो अभी तक गाड़ी या हल में न जोता गया हो।
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अल्हड़पन  : पुं० [हिं० अल्हड़+पन (प्रत्यय)] अल्हड़ होने की अवस्था या भाव।
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अलापन  : पुं० [सं० आ√लप्+णिच्+ल्युट्-अन] आलाप करने की क्रिया या भाव।
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