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शब्द का अर्थ

अक्षंतव्य  : वि० [सं० क्षम्+तव्यत्, न० त०]=अक्षम्य।
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अक्ष  : पुं० [सं०√अक्ष् (व्याप्ति) +अच् या घञ्] १. खेलने का पासा। २. चौसर नामक खेल। ३. वह कल्पित रेखा जिसके आधार पर वस्तुएँ परिभ्रमण अथवा अपने सब कार्यों का संचालन करती हुई मानी जाती हैं। जैसे—पृथ्वी के दोनों धुरों में मिलानेवाली कल्पित रेखा, जिस पर पृथ्वी घूमती हुई मानी जाती है। ४. किसी चीज का धुरा या धुरी। जैसे—गाड़ी का अक्ष। (ऐक्सिल, उक्त दोनों अर्थों में)। ५. गाड़ी। ६. अक्षांश के विचार से भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण में किसी स्थान का गोलीय अंतर। ७. तराजू की डंडी। ८. व्यवहार लेन-देन। ९. मुकदमा। १. कानून। ११. इंद्रिय। १२. तूतिया। १३. साँभर नमक। १४. सुहागा। १५. आँख। नेत्र। १६. बहेड़ा। १७. रुद्राक्ष। १८. साँप। १९. गरुण। २॰. आत्मा। २१. कर्ष नामक तौल जो १६ माशे की होती है। २२. दे० ‘अक्षकुमार'।
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अक्षक  : पुं० [सं० अक्ष√ कै+क] तिनिश का पेड़।
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अक्ष-कर्ण  : पुं० [कर्म०स०] समकोण त्रिभुज की सबसे लंबी भुजा। (ज्यामिति)
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अक्ष-कुमार  : पुं० [सयू० स०] रावण का एक पुत्र।
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अक्षकूट  : पुं० [ष० त०] आँख की पुतली।
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अक्ष-क्रीड़ा  : स्त्री० [ष० त०] पासे या चौसर का खेल।
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अक्षज  : वि० [सं० अक्ष√जन् (उत्पन्न होना) +ड] अक्ष से उत्पन्न हुआ या बना हुआ। पुं० १. विष्णु। २. हीरा। ३. वज्र। ४. प्रत्यक्ष ज्ञान।
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अक्षत  : वि० [सं०√क्षण् (हिसा) +क्त, न० त०] १. जो क्षत या टूटा-फूटा न हो अर्थात् पूरा। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हो। अखंडित। ३. क्षत या घाव से रहित। पुं० १. कच्चा चावल जिसका उपयोग देव-पूजन में किया जाता है। २. धान का लावा। ३. जौ। ४. शिव का एक नाम। ५. नपुसंक। हिजड़ा।
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अक्षत-योनि  : वि० [ब० स०] (कन्या या स्त्री०) जिसका पुरुष से संबंध या मैथुन न हुआ हो। (वर्जिन)
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अक्षत-वीर्य  : वि० [न० ब०] (पुरुष) जिसका वीर्य स्खलित न हुआ हो। पुं० १. शिव। २. नपुंसक। (क्व) ३. क्षय का अभाव।
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अक्षता  : वि० [सं०√क्षण्+क्त-टाप्, न० त०]=अक्षत योनि। स्त्री०१. वह स्त्री० जिसका पुनर्विवाह तक किसी पुरुष से संयोग न हुआ हो। २. काकड़ा सींगी।
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अक्ष-दर्शक  : पुं० [ष० त०] १. न्यायाकोश। २. धर्माध्यक्ष। ३. जूएखाने का मालिक।
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अक्ष-द्यूत  : पुं० [ष० त०] पासों से खेला जाने वाला जुआ।
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अक्ष-धर  : वि० [ष० त०] धुरा धारण करने वाला। पुं० १. विष्णु। २. गाड़ी का पहिया। ३. शाखोट नामक वृक्ष।
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अक्ष-धुर  : पुं० [ष० त०] पहिए की धुरी।
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अक्ष-पटल  : पुं० [ष० त०] १. प्राचीन भारत के राज्य के आय-व्यय के लेखों का प्रधान विभाग। २. उस विभाग का प्रधान अधिकारी।
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अक्षपद  : पुं०=अक्षपाद।
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अक्ष-पाद  : पुं० [ब० स०] १. न्याय शास्त्र के प्रवर्तक गौतम ऋषि। २. तर्क या न्याय शास्त्र का पंडित। तार्किक। नैयायिक।
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अक्ष-बंध  : पुं० [सं० ष० त०] नजर बाँधने की विद्या। नजरबंदी।
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अक्षम  : वि० [सं०√क्षम् (सहसा)+अच्, न० त०] १. जिसमें क्षमता या शक्ति न हो। अशक्त। असर्मथ। २. जिसमें कार्य करने की योग्यता न हो। अयोग्य। ३. जो साधारण दोषों के लिए भी किसी को क्षमा न करे। जिसमें सहनशीलता न हो। असहिष्णु। ४. जो किसी का उत्कर्ष या सुख अच्छी दृष्टि से न देख सके। ईर्ष्या करनेवाला।
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अक्षमता  : स्त्री० [सं० अक्षम+तल्-टाप्] १. अक्षम होने की अवस्था या भाव। २. अशक्तता। असमर्थता। ३. ईर्ष्या। डाह।
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अक्ष-मापक  : पुं० [ष० त०] ग्रह-नक्षत्र आदि देखने का एक यंत्र।
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अक्ष-माला  : स्त्री० [ष० त०] १ वसिष्ठ की पत्नी अरुंधती। २. रुद्राक्ष की माला। ३. वर्णमाला।
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अक्ष-माली (लिन्)  : वि० [सं० अक्षमाला+इनि] रुद्राक्ष की माला धारण करने वाला। पुं० शिव।
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अक्षम्य  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे क्षमा न किया जा सकता हो। २. (अपराध या दोष) जिसके लिए कर्ता को क्षमा न किया जा सकता हो।
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अक्षय  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। २. गरीब। निर्धन। पुं० परमात्मा का एक नाम या विश्लेषण।
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अक्षयकुमार  : पुं०=अक्षकुमार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्षय-तृतीया  : स्त्री० [कर्म० स०] वैशाख शुल्क-तृतीया। आखातीज। (पर्व)
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अक्षय-पद  : पुं० (कर्म० स०) मोक्ष। वि० दे० ‘परमपद'।
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अक्षय-लोक  : पुं० (कर्म० स०) स्वर्ग।
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अक्षय-वट  : पुं० (कर्म० स०) प्रयाग और गया के प्रसिद्ध वटवृक्ष जो हजारों वर्ष पुराने कहे जाते है।
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अक्षय-वृक्ष  : पुं०=अक्षयवट।
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अक्षया  : स्त्री० [सं० अक्षय+टाप्] गणित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट ऐसी तिथियाँ जो कुछ विशिष्ट दिनों में पड़ती हों। जैसे—रविवार को होने वाली सप्तमी, सोमवार को होने वाली अमावस्या या मंगलवार को होने वाली चौथ।
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अक्षयिणी  : स्त्री० [सं० क्षयिणी, क्षय+इनि-डीप्, अक्षयिणी, न० त०] पार्वती।
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अक्षयी (यिन्)  : वि० [सं० क्षय+इनि, न० त०] [स्त्री० अक्षयिणी] जिसका क्षय या नाश न हो। अक्षय।
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अक्षय्य  : वि० [सं०√क्षि (क्षय) +यत् नि०न० त०] जिसका किसी प्रकार क्षय न किया जा सके। प्रायः सदा एक सा बना रहनेवाला।
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अक्षर  : वि० [सं०√क्षर्+अच्, न० त०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। नित्य। २. अच्युत। ३. स्थिर। पुं० १. ध्वनिगत लघुतम इकाई। वर्ण (एलफाबेट) २. वह चिन्ह या संकेत जो उक्त ध्वनि का सूचक होता है। (लेटर) मुहावरा—अक्षर घोंटना=अक्षर लिखने का अभ्यास करना। पद—विधना के अक्षर=भाग्य का लेख जो बदल या मिट नहीं सकता। ३. आत्मा। ४. परमात्मा या ब्रह्वा का वह आध्यात्मिक स्वरूप जिसके आश्रय से उनके प्रकृति और पुरुष का रूप धारण किया है। ५. आकाश। ६. धर्म। ७. तपस्या। ८. मोक्ष। ९. जल। पानी। १. चिचिड़ा।
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अक्षर-क्रम  : पुं० [ष० त०] नामों, शब्दों आदि की सूची बनाते समय, उन्हें रखने या लगाने का वह क्रम जिसमें उनके आरंभिक अक्षर उसी क्रम से रहते हैं जिस क्रम से वे वर्णमाला में होते है। (एल्फाबेटिकल आर्डर)
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अक्षर-गणित  : पुं० [ष० त०] बीजगणित।
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अक्षरच्छंद  : पुं० [तृ० त०]=वर्णवृत्त।
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अक्षर-जीवक  : पुं० [सं० अक्षर√जीव्+ण्वुल्-अक्]=अक्षर-जीवी।
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अक्षर-जीवी (बिन्)  : पुं० [अक्षर√जीव्+णिनि,] पढ़ाई-लिखाई के काम से जीविका चलानेवाला व्यक्ति।
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अक्षर-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] अक्षरों के पढ़ने-लिखने का ज्ञान। साक्षरता।
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अक्षर-धाम (न्)  : पुं० [ष० त०) ब्रह्यलोक।
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अक्षर-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. लिखावट। २. लेख। ३. तांत्रिक पूजन में वह क्रिया जिसमें मंत्र के एक-एक अक्षर का उच्चारण करते हुए शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है।
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अक्षर-पंक्ति  : स्त्री० [ष० त०] चार चरणों का एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २॰ वर्ण होते हैं।
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अक्षर-बंध  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त।
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अक्षर-माला  : स्त्री० [ष० त०] वर्णमाला।
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अक्षर-योजना  : स्त्री० [ष० त०] किसी विशेष उद्देश्य से अथवा कोई विशेष रूप देने या विशेष अर्थ निकालने के लिए किसी विशेष क्रम से कुछ अक्षर बैठाना। जैसे—मुक्तर की अक्षर-योजना।
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अक्षर-विन्यास  : पुं० [ष० त०] १. लिखावट। २. शब्दों के वर्णों का विन्यास। अक्षरी। हिज्जे।
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अक्षरशः (शस्)  : क्रि० वि० [सं० अक्षर+शस्] कथन या लेख के) एक-एक अक्षर का ध्यान रखते हुए अथवा उनका अनुकरण या पालन करते हुए। ठीक ज्यों का त्यों।
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अक्षरा  : स्त्री० [सं० अक्षर+अच्, टाप्] १. शब्द। २. भाषा।
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अक्षराक्षर  : पुं० [सं० अक्षर-अक्षर, ब० स०] योग में एक प्रकार की समाधि। क्रि० वि० [अव्य० स०] अक्षरशः।
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अक्षरारंभ  : पुं० [सं० अक्षर-आरंभ, ष० त०] (किसी को) पहले पहल अक्षरों का ज्ञान या परिचय कराना। पढ़ाना आरंभ करना।
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अक्षरार्थ  : पुं० [सं० अक्षर-अर्थ, ष० त०] १. शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ। शब्दार्थ। (भावार्थ से भिन्न)
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अक्षरावस्थान  : पुं० दे० ‘अपश्रुति'।
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अक्षरी  : स्त्री० [सं०√अश्+ (व्याप्ति) सरन्, डीष्] १. शब्दों के अक्षरों का उनके ठीक क्रम के अनुसार उच्चारण करना अथवा लिखना। वर्तनी। हिज्जे। २. वर्षा ऋतु।
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अक्ष-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] वह सीधी रेखा जो किसी गोले के केन्द्र से उसके तल के किसी बिन्दु तक सीधी पहुँचती है धुरी की रेखा।
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अक्षरौटी  : स्त्री० १. दे० अखरावट। २. दे० ‘अखरौटी’।
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अक्षर्य  : वि० [सं० अक्षर+यत् अक्षर-संबंधी। पुं० एक वैदिक साम का नाम।
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अक्ष-वाट  : पुं० [ष० त०] १. अखाड़ा। २. जूआखाना।
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अक्ष-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] १. जुए से संबंध रखनेवाली सब बातों का ज्ञान। २. जूआ।
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अक्ष-शाला  : स्त्री० [ष० त०] प्राचीन भारतीय राज्यों का वह विभाग जिसके अधिकार में सोने, चाँदी, टकसाल आदि का प्रबंध रहता था।
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अक्ष-सूत्र  : पुं० [ष० त०] १. रुद्राक्ष की माला। २. जयमाला।
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अक्ष-हीन  : वि० [तृ० त०] जिसे आँखों से दिखाई न दे। अंधा।
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अक्षांश  : पुं० [सं० अक्ष-अंश, ष० त०] १. किसी चीज के बड़े बल का या चौड़ाई की ओर का विस्तार या परिणाम। २. भूगोल में वह कल्पित रेखा जो याम्योत्तर वृत्त को ३६॰ अंशों या भागों में विभक्त करके उसमें से किसी अंश से भूमध्य रेखा के समानांतर खींची जाती है। ३. उक्त रेखा के आधार पर किसी स्थान की वह स्थिति या दूरी जो भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से स्थिर की जाती और संख्या सूचक अंशों में बतलाई जाती है। (लैटीच्यूड) ४. कांतिवृत्त के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से किसी नक्षत्र का कोण बनाने वाला अंतर।
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अक्षार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षार न हो। क्षार-रहित। २. जो स्वयं क्षार न हो। क्षार से भिन्न। पुं०=अक्षार-लवण।
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अक्षार-लवण  : पुं० [सं० क्षार-लवण, कर्म० स० न०-क्षार लवण, न० त०] वह लवण (नमक) जिसमें खार न हो। प्राकृतिक नमक।
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अक्षावाप  : पुं० [सं० अक्ष-आ√ वप् (फेंकना)+अणु) जुआरी।
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अक्षि  : स्त्री० [सं०√अश् (व्याप्ति) + क्सि] १. आँख। नेत्र। २. दो की संख्या।
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अक्षिक  : पुं० [सं० अक्ष + ठन्-इक] आल का पेड़।
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अक्षि-कूट (कूटक)  : पुं० [ष०त०] आँख की पुतली।
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अक्षि-गोलक  : पुं० [ष० त०] आँख का डेला जिसके बीच में पुतली होती है। (आई-बाल)
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अक्षित  : वि० [सं० अक्षीण] १. जिसका क्षय न हुआ हो। २. न छीजने वाला। ३.जिसे चोट न लगी हो। पुं० १. जल। २. दस लाख की संख्या।
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अक्षि-तारक  : पुं० [ष० त०] आँख का तारा।
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अक्षि-तारा  : स्त्री० [ष० त०]=अक्षितारक।
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अक्षिति  : वि० [सं० न० ब०] जिसका क्षय या नाश न हो। स्त्री० (क्षि√क्तिन्, न० त०) नश्वरता।
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अक्षि-पटल  : पुं० [ष० त०) आँख का ऊपरी भाग या परदा।
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अक्षि-लोम (मन्)  : पुं० [ष०त०] बरौनी।
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अक्षि-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] तिरछी नजर। कटाक्ष।
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अक्षी  : वि० =अक्षीय।
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अक्षीण  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षीण (या दुबला-पतला) न हो। २. मोटा। हष्ट-पुष्ट। ३. जो किसी तरह घटा न हो।
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अक्षीय  : वि० [सं० अक्ष + छ-ईय] १. अक्ष से संबंध रखने वाला। (ऐक्सिअल) २. किसी वस्तु के उदर या भीतरी भाग में होने या उससे संबंध रखने वाला। (वेन्ट्रल)
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अक्षीव  : वि० [सं०√क्षीव् + क वा क्त, न० त०] जो मतवाला या मत न हो। अमत्त। पुं० १. समुद्री नमक। २. सहिंजन का पेड़।
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अक्षुण  : वि० =अक्षुण्ण।
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अक्षुण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षुण्ण, खंडित या टूटा-फूटा न हो। पूरा। समूचा। २. जो कम न हुआ हो। बिना घटा हुआ। ३. जो कुशल या चतुर न हो। अनाड़ी। ना-समझ। ४. जो हारा हो। अपराजित।
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अक्षुध्य  : वि० [सं० न० त०] (पदार्थ) जिसे खाने से भूख न लगे या बहुत कम लगे। भूख बंद करनेवाला।
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अक्षेत्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षेत्र न हो। २. जो क्षेत्र बनने के लिए उपयुक्त न हो। जैसे—अक्षेत्र भूमि, अक्षेत्र छात्र आदि। ३. जिसे प्रकृति शरीर आदि के स्वरूप का ज्ञान न हो, अर्थात् तत्त्व-ज्ञान से रहित या शून्य। पुं० १. क्षेत्र का अभाव। २. ऐसी भूमि जिसमें खेती न हो सकती हो। ३. ज्यामिति में वह आकृति जो ठीक या शुद्ध न हो।
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अक्षेत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० क्षेत्र + इनि, न० त०] जिसके पास खेत न हो।
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अक्षेम  : पुं० [सं० न० त०] १. क्षेम का अभाव। २. अशुभ हानि कारक आदि होने की अवस्था। अमंगल।
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अक्षोट  : पुं० [सं०√अक्ष् + ओट्] अखरोट।
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अक्षोनि  : स्त्री०=अक्षौहिणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्षोभ  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षोभ या उद्वेग न हो। फलतः शान्त। २. हाथी बाँधने का खूँटा।
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अक्षोभ्य  : वि० [सं० क्षुभ् (विचलित होना)+णिच्+यत्, न० त०] १. जिसमें क्षोभ न उत्पन्न किया जा सके। २. जो कभी क्षुब्ध न होता हो। सदा धीर और शान्त बना रहने वाला पुं० गौतम बुद्ध का एक नाम।
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अक्षौहिणी  : स्त्री० [सं० ऊह+इनि, अक्ष-ऊहिनी, ष० त०] प्राचीन काल की चतुरंगिणी सेना जिसमें १,॰९,३५॰ पैदल, ६५,६१॰ घोड़े, २१,८७॰ रथ और २१,८७॰ हाथी होते थे।
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