शब्द का अर्थ
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					यत्					 :
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					सर्व० [सं०√यज्+आदि, डित्, डित्त्वाट्टिलोप] जो।				 | 
			
			
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					यत					 :
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					वि० [सं० यम् (नियमन)+क्त] १. नियंत्रित। २. नियमित। ३. जिसका दमन हुआ हो। ४. रोका हुआ।				 | 
			
			
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					यतन					 :
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					पुं० [सं० यत् (प्रयत्न)+ल्युट-अन] [वि० यतनीय] यत्न करने की क्रिया या भाव। पुं० =यत्न।				 | 
			
			
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					यतनीय					 :
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					वि० [सं०√यत्+अनीयर] जिसके सम्बन्ध में यत्न करना आवश्यक हो अथवा यत्न किया जाने को हो।				 | 
			
			
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					यतमान					 :
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					वि० [सं०√यत्+शानच्] १. यत्न करता हुआ। कोशिश में लगा हुआ। २. जो अनुचित विषयों का त्याग करके शुभ कार्यों की ओर प्रवृत्त होने का प्रयत्न करता हो।				 | 
			
			
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					यत-व्रत					 :
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					वि० [सं० ब० स०] संयम से रहनेवाला संयमी।				 | 
			
			
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					यतात्मा (त्मन्)					 :
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					वि० [सं० यत्-आत्मन्, ब० स०] यत-व्रत। संयमी।				 | 
			
			
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					यति					 :
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					पुं० [सं०√यत्+इन्] १. वह व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों तथा मनोविकारों को वश में कर लिया हो। फलतः जो संन्यास धारण कर सांसारिक प्रपंचों से दूर रहता हो तथा ईश्वर का भजन करता हो। २. ब्रह्मचारी। ३. विष्णु। ४. भागवत के अनुसार ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम। ५. नहुष का एक पुत्र। ६. छप्पय छन्द के ६६वें भेद का नाम। स्त्री० [सं० यम्+क्तिन्+ङीष्] १. रोक। रुकावट। २. मनोविकार। ३. सन्धि। ४. विधवा। स्त्री। ५. शालक राग का एक भेद। ६. मृदंग का एक प्रकार का प्रबन्ध या बोल। ७. छन्द शास्त्र के अनुसार कविता या पद्य के चरणों में वह स्थान जहाँ पड़ते समय उनकी लय ठीक रखने के लिए थोड़ा-सा विश्राम होता है। विश्राम। विराम।				 | 
			
			
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					यति-चांद्रायण					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] यतियों के लिए विहित एक प्रकार का चांद्रायण व्रत।				 | 
			
			
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					यतित्व					 :
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					पुं० [सं० यति+त्व०] यति होने की अवस्था, धर्म या भाव।				 | 
			
			
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					यति-धर्म					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] सन्यास।				 | 
			
			
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					यतिनी					 :
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					स्त्री० [सं० यत+इनि+ङीष्] १. संन्यासिनी। २. विधवा।				 | 
			
			
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					यति-भंग					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] [वि० यति-भ्रष्ट] काव्य का लय सम्बन्धी एक दोष जो उस समय गाया जाता है। जब पढ़ते समय किसी उद्दिष्ट या नियत स्थान पर विश्राम नहीं होता, बल्कि उसके कुछ पहले या पीछे होता है।				 | 
			
			
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					यति-भ्रष्ट					 :
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					वि० [सं० ब० स०] ऐसा चरण या छन्द जिसमें यति अपने उपयुक्त स्थान पर न पड़कर कुछ आगे या पीछे पड़ी हो। यति भंग दोष से युक्त। (छंद)।				 | 
			
			
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					यती (तिन्)					 :
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					पुं० [सं० यत्+इनि] [स्त्री० यतिनी] १. यति। संन्यासी। २. जितेंद्रिय। ३. स्वेताम्बर जैन साधु।				 | 
			
			
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					यतीम					 :
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					पुं० [अ०] १. ऐसा बालक जिसके माता पिता मर गये हों। अनाथ। २. ऐसा बड़ा मोती जो सीप में एक ही होता हो। ३. अनुपम और बहूमूल्य रत्न।				 | 
			
			
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					यतीम-खाना					 :
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					पुं० [अ० यतीम+फा० खानः] वह स्थान जहाँ यतीम अर्थात अनाथ बालकों का लालन-पोषण होता है। अनाथालय।				 | 
			
			
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					यतीमी					 :
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					स्त्री० [अ०] यतीम होने की अवस्था या भाव। अनाथता।				 | 
			
			
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					यतुका					 :
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					पुं० [सं० यच्+उक्+टाप्] चकवँड़ का पौधा। चक्रमर्द।				 | 
			
			
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					यतेंद्रिय					 :
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					वि० [सं० यत-इंद्रिय, ब० स०] जितेंद्रिय।				 | 
			
			
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					यत्किंचित					 :
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					अव्य० [सं० द्वन्द स०] थोड़ा सा। जरा सा। कुछ।				 | 
			
			
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					यत्न					 :
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					पुं० [सं० यत+नङ] १. किसी काम या बात के लिए किया जानेवाला उद्योग। कोशिश। प्रयत्न। २. किसी चीज को अच्छी तरह और सुरक्षित रखने की क्रिया या भाव। ३. उपाय। युक्ति। तदबीर। ४. रोग आदि दूर करने के लिए किया जानेवाला इलाज या उपचार। चिकित्सा। ५. कठिनता। दिक्कत। ६. न्यायशास्त्र में रूप आदि २४ गुणों के अन्तर्गत एक गुण जो तीन प्रकार का कहा गया है। यथा—प्रवृत्ति, निवृत्ति और जीवन योनि। ७. साहित्य में रूपक की पाँच अवस्थाओं में से दूसरी अवस्था, जिसमें फल-प्राप्ति के लिए अच्छी तरह और जल्दी कुछ काम किये जाते हैं, और विघ्न-बाधाओं की चिंता छोड़ दी जाती है। ८. व्याकरण में स्वरों तथा व्यंजनों का उच्चारण करते समय किया जानेवाला प्रयत्न जो अघोष और घोष दो प्रकार का होता है।				 | 
			
			
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					यत्नवान् (वत्)					 :
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					वि० [सं० यत्न+मतुप्] [स्त्री० यत्नवती] यत्न में लगा हुआ यत्न करनेवाला।				 | 
			
			
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					यत्र					 :
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					अव्य० [सं० यद्+यत्] १. जिस जगह। जहाँ। २. जिस समय। जब। ३. जब यह बात है तो। इस कारण से। यतः। पुं० =सत्र (यज्ञ)।				 | 
			
			
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					यत्र-तत्र					 :
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					अव्य० [सं० द्व० स०] १. जहाँ-तहाँ। इधर-उधर। २. कुछ यहाँ कुछ वहाँ। ३. यहाँ-वहाँ सभी जगह। अनेक स्थानों पर। जगह-जगह।				 | 
			
			
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					यत्रु					 :
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					स्त्री० [सं० जत्रु] छाती के ऊपर और गले के नीचे मंडलाकार हड्डी। हँसली।				 | 
			
			
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