शब्द का अर्थ
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भाग :
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पुं० [सं०√भज् (विभाग करना)+घञ्] १. किसी चीज के कई खंडों, टुकडों या विभागों में से हर एक। हिस्सा। (पार्ट)। जैसे—पुस्तक का पहला और दूसरा भाग छप गया है, तीसरा और चौथा अभी छपना बाकी हैं। २. किसी चीज की किसी ओर या दिशा का अंश या पार्श्व। जैसे—(क) मकान का अगला भाग। ३. किसी समूची और पूरी चीज का कोई अंश। (पोर्शन)। जैसे—पेट के बीच का भाग। ४. किसी चीज का एक चौथाई अंश। ५. वृत्त की परिधि का ३६॰ वाँ अंश। ६. गणित की वह क्रिया जिससे कोई संख्या कई बराबर टुकड़ों में बाँटी जाती है। तकसीम (डीविजन)। जैसे—१॰॰ को ४ से भाग करो। ७. ज्योतिष में राशि चक्र की किसी राशि का ३9 वाँ अंश। ८. जगह। स्थान। ९. तकदीर। भाग्य। नसीब। १॰. ऐश्वर्य या वैभवसे युक्त होने की अवस्था। सौभाग्य। ११. भाल या ललाट जहाँ भाग्य का अवस्थान माना जाता है। १२. उषःकाल। तड़का। भोर। १३. पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र। १४. एक प्राचीन देश। |
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भागक :
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पुं० [सं० भागसे] लिखाई, छापे आदि में एक प्रकार चिन्ह जो दो राशियों या संख्याओं के बीच में रहकर इस बात का सूचक होता है कि पहलेवाली राशि या संख्या को बादवाली राशि या संख्या से भाग देना चाहिए। इस प्रकार लिखा जाता है, ÷। |
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भाग-कल्पना :
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स्त्री० [सं० ष० त०] बँटवारा। |
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भागड़ :
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स्त्री० [हिं० भागना+ड़ (प्रत्यय)] १. वैसी ही उतावली या जल्दी जैसी कहीं से भागने के समय होती है। जैसे—तुम्हें तो हर काम की भागड़ पड़ी रहती है। २. दे० ‘भगदड़’। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना। |
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भागण :
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वि० [स्त्री० भागणी] भाग्यावान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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भागदुह :
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पु० [सं० भाग√दुह् (दुहना)+क] प्राचीन काल में राजकर उगाहनेवाला एक अधिकारी। |
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भाग-दौड़ :
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स्त्री० [हिं० भागना+दौड़ना] १. किसी काम या बात के लिए होनेवाली दौड़-धूप। २. दे० ‘भागड़’। |
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भाग-धान :
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पुं० [सं० ष० त०] कोश। खजाना। |
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भागधेय :
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पुं० [सं० भाग-धेय] १. भाग्य। तक़दीर। क़िस्मत। २. राज को दिया जानेवाला उसका अंश या भाग जो कर के रूप में होता है। ३. सगोत्र या सपिंड लोग। दयाद। |
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भागना :
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अ० [सं० भाज्] १. आपत्ति, भय आदि उपस्थित होने अथवा दिखाई देने पर उससे बचने के लिए कहीं से जल्दी जल्दी चल या दौड़ कर दूर निकल जाना। पलायन करना। जैसे—सिपाही को देखते ही चोर भाग गया। संयो० क्रि०—जाना।—निकलना।—पड़ना। मुहा०—सिर पर पैर रखकर भागना=बहुत तेजी से भागना। जल्दी चलकर दूर हो जाना। २. किसी काम या बात से पीछा छुड़ाने या बचने के लिए आगा-पीछा करना। कहीं से टलने या हटने का विचार करना। जैसे—जहाँ कोई कठिन काम आता है, वहीं तुम भागना चाहते हो। संयो० क्रि०—जाना ३. किसी काम, बात या व्यक्ति को बुरा समझकर उससे बिलकुल अलग या दूर रहना। जैसे—मैं तो सदा ऐसे कामों से दूर भागता हूँ। विशेष—प्रायः लोग भ्रम से ‘दौड़ना’ के अर्थ में भी इसका प्रयोग करते हैं। जो ठीक नहीं है। |
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भागनेय :
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पुं० [सं० भागिनेय] बहन का बेटा। भानजा। |
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भाग-फल :
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पुं० [सं० ष० त०] गणित में वह संख्या जो भाज्य को भाजक से भाग देने पर प्राप्त हो। लब्धि। जैसे—यदि १॰॰ को २॰ से भाग दें तो भाग-फल ५ होगा। |
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भाग-भरा :
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वि० [हिं० भाग्य-भरना] [स्त्री० भाग-भरी] १. भाग्यवान् (व्यक्ति)। २. भाग्यवान् बनानेवाला या सौभाग्यपूर्ण (पदार्थ)। |
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भाग-भरी :
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स्त्री० [हिं० भाग-भरा] १. सौभाग्यशालिनी स्त्री। २. जोरू या पत्नी के लिए संबोधन। ३. सूर्य की संक्रांति (स्त्रियाँ) |
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भाग-भुक (ज्) :
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पुं० [सं० भाग√भुज् (खाना)+क्विप्] राजा। |
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भागम भाग :
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क्रि० वि० [हिं० भागना] १. भागते या दौड़ते हुए। २. बहुत अधिक जल्दी में। स्त्री०=भागा-भाग। |
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भागरा :
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पुं० [देश०] संगीत में एक संकर राग जिसे कुछ संज्ञीतज्ञ श्रीराम का पुत्र मानते हैं। |
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भागवंत :
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वि० [सं० भाग्यवंत] जिसका भाग्य बहुत अच्छा हो। भाग्यवान्। |
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भागवत :
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वि० [सं० भाग्यवत् या भगवती+अण्] १. भगवत् अर्थात् विष्णु सम्बन्धी। भगवत् या विष्णु का। २. भगवत् अर्थात् विष्णु की उपासना और सेवा करनेवाला। पुं० १. ईश्वर या भगवान् का भक्त। हरि भक्त। २. एक पुराण जिसमें १२ स्कंध, ३१२ अध्याय और १८॰॰॰ श्लोक हैं। ३. दे० ‘देवी भागवत’। ४. वैष्णव। ४. भगवान् बुद्ध के अनुयायी या भक्त। ५. एक प्रकार का छन्द जिसके प्रत्येक चरण में १३ मात्राएँ होती हैं। |
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भागवत-धर्म :
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पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्राचीन धर्म या भक्ति-प्रधान संप्रदाय जो कि वि० पू० तृतीय शताब्दी में चला था। |
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भागवती :
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स्त्री० [सं० भाग्यवत+ङीष्] एक तरह की कंठी जो वैष्णव भक्त पहनते हैं। |
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भागहर :
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वि० [सं० भाग√हृ+अच्] भाग या अंश पाने या लेनेवाला हिस्सेदार। |
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भागहारी (रिन्) :
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वि० [सं० भाग√हृ (हरण करना)+णिनि] हिस्सेदार। पुं० उत्तराधिकारी। |
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भागाभाग :
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स्त्री० [हिं० भागना] वह स्थिति जिसमें सब लोगों को भागने की पड़ी होती है। भाग-दौड़। भागड़। क्रि० वि० १. जल्दी जल्दी दौड़ते हुए। २. बहुत जल्दी में या तेजी से। |
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भागार्थ (र्थन्) :
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वि० [सं० भाग√अर्थ्+णिनि] जो अपना भाग या हिस्सा प्राप्त करना या लेना चाहता हो। |
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भागार्ह :
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वि० [सं० भाग-अर्ह, ष० त०] १. जिसके भाग हो सकें। विभक्त होने के योग्य। २. जिसे अपना भाग या हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार हो। पुं० उत्तराधिकारी। |
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भागिक :
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वि० [सं० भाग+ठन्—इक] १. भाग या हिस्से से संबंध रखनेवाला। २. भाग या हिस्से के रूप में होनेवाला। ३. (मूलधन) जिस पर सूद मिलता हो। |
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भागिता :
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स्त्री० [सं० भागिन्+तल+टाप्] १. भागी अर्थात् हिस्सेदार होने की अवस्था या भाव। २. वह स्थिति जिसमें दो या अधिक लोग हिस्सेदार बनकर कोई उद्योग या व्यापार चलाते हैं। (पार्टनरशिप) |
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भागिनेय :
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पुं० [सं० भगिनी+ढक्—एय] [स्त्री० भगिनेयी] बहन का लड़का। भानजा। |
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भागी (गिन्) :
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पुं० [सं०√भज्+घिनुण] १. वह जो किसी प्रकार का भाग पाने का अधिकारी हो। हिस्सेदार। २. वह जिसने किसी के कार्य में सहायता दी हो और फलतः अपने उतने कार्य के फल का पात्र या भाजन हो। जैसे—पाप का भागी। पुं० शिव। |
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भागीरथ :
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पुं०=भगीरथ। वि० [सं० भगीरथ+अण्] भगीरथ-संबंधी। |
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भागीरथी :
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स्त्री० [सं० भागीरथ+ङीष्] १. गंगा नदी। जाह्नवी। ३. बंगाल की एक नदी जो गंगा में मिलती है। ३. हिमालय की एक चोटी जो गढ़वाल के पास है। |
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भागुरि :
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पुं० [सं०] सांख्य के भाष्यकर्ता एक ऋषि का नाम। |
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भागू :
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वि० [हिं० भागना+ऊ (प्रत्य०)] भागनेवाला। पुं० भगोड़ा। |
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भाग्य :
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वि० [सं०√भज्+ण्यत्, कुत्व] जिसके भाग अर्थात् हिस्से हो सकते हों या होने को हों। भागार्ह। पुं० १. वह ईश्वरीय या दैवी विधान जिसके संबंध में यह माना जाता है कि प्राणियों, विशेषतः मनुष्यों के जीवन में जो घटनाएँ घटती हैं, वे पूर्व-निश्चित और अवश्यंभावी होती हैं और उन्हीं के फलस्वरूप मनुष्यों को सब प्रकार के सुख-दुःख प्राप्त होते हैं और उनके जीवन का क्रम चलता है। किस्मत। तक़दीर। नसीब। विशेष—साधारणतः लोक में इसका निवास मनुष्य के ललाट में माना जाता है। क्रि० प्र०—खुलना।—चमकना।—फूटना। पद—भाग्य का साँढ़=बहुत बड़ा भाग्यवान्। (परिहास और व्यंग्य) मुहा० के लिए देखें ‘किस्मत’ के मुहा०। २. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का एक नाम। |
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भाग्यदा :
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स्त्री० [सं० भाग्य√दा (देना)+क+टाप्] चिट्ठी निकालकर टिकट खरीदनेवालों में इनाम बाँटने की पद्धति जिसमें केवल भाग्य से ही लोगों को धन मिलता है। (लॉटरी) |
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भाग्य-पत्रक :
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पुं० [सं० मध्य० स०] आकस्मिक रूप से उठाई या चुनी हुई दो या अधिक परचियों में सो कोई एक जिस पर कुछ लिखा रहता और जिसके अनुसार धन-संपत्ति आदि का बँटवारा, कोई नियुक्ति या निश्चय किया जाता है। (लाट) |
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भाग्य-भाव :
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पुं० [ष० त०] जन्म-कुंडली में जन्म-लग्न से नवाँ स्थान जहाँ से मनुष्य के भाग्य के शुभाशुभ का विचार किया जाता है। (फलित-ज्योतिष) |
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भाग्य-योग :
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पुं० [सं० ष० त०] ऐसा अवसर या समय जिसमें किसी का भाग्य खुलता या चमकता हो। |
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भाग्य-लिपि :
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स्त्री० [सं० ष० त०] भाग्य में लिखी हुई बातें। |
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भाग्य-वश :
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अव्य० [सं० ष० त०] भाग्य या किस्मत से ही (बुद्धि बल या प्रयत्न से नहीं।)। |
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भाग्य-वशात् :
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अव्य० [सं० ष० त०]=भाग्य-वश। |
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भाग्य-वाद :
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पुं० [सं० ष० त०] यह विचार-धारा या सिद्धान्त कि भाग्य में जो कुछ बदा या लिखा है वह अवश्य होगा और जितना बदा या लिखा है उतना नियत समय पर अवश्य प्राप्त होगा। |
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भाग्यवादी (दिन्) :
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वि० [सं० भाग्यवाद+इनि] भाग्यवाद-संबंधी। पुं० वह जो भाग्य पर भरोसा रखता हो। |
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भाग्यवान् (वत्) :
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वि० [सं०=भाग्य+मतुप्] जो भाग्य का धनी हो। अच्छे भाग्यवाला। भाग्यशाली। |
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भाग्य-विधाता (तृ) :
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पुं० [सं० ष० त०] किसी के भाग्य का विधान अर्थात् भला-बुरा निश्चित करनेवाला। |
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भाग्य-विप्लव :
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पुं० [सं० ष० त०] अच्छे भाग्य का बिगड़कर बुरा होना। दुर्भाग्य। |
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भाग्यशाली (लिन्) :
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वि० [सं० भाग्य√शाल्+णिनि] भाग्यवान्। (दे०) |
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भाग्य-संपद् :
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स्त्री० [ष० त०] अच्छा भाग्य। सौभाग्य। |
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भाग्य-हीन :
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वि० [सं० तृ० त०] अभागा। बद-किस्मत। |
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भाग्योदय :
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पुं० [सं० भाग्य-उदय, ष० त०] भाग्य का खुलना। सौभाग्य का समय आना। |
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