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उत्  : उप० [सं०√उ (शब्द करना)+क्विप्] एक संस्कृत उपसर्ग जो शब्दों में लगकर ये अर्थ देता है-(क) ऊपर की उठना या जाना। जैसे—उत्कर्ष। (ख) अधिकता या प्रबलता। जैसे—उत्कट, उत्तप्त। (ग) भिन्न या विपरीत। जैसे—उत्पथ, उत्सूत्र। संधि के नियमों के अनुसार कही-कहीं इसका रूप उद् भी हो जाता है। जैसे—उदबुद्ध, उद्गमन आदि।
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उतंक  : पुं० [सं० उत्तक्क] एक प्राचीन ऋषि का नाम। वि० [सं० उत्तुंग] ऊँचा।
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उतंत  : वि० [सं० उत्तुंग] भरा-पूरा। समृद्ध। उदाहरण—भइ उतंत पदमावति बारी।—जायसी। वि० दे० ‘उत्पन्न’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतंथ  : पुं० =उतथ्य।
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उत  : क्रि० वि० [हिं० उ+त (स्थानवाचक)] उस दिशा में। उस ओर। उधर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतकरष  : पुं०=उत्कर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतथ्य  : पुं० [सं० ] एक प्राचीन ऋषि जो बृहस्पति के बड़े भाई और गौतम के पिता थे।
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उतन  : अव्य० [हिं० उ+तनु] उस दिशा में। उस ओर। उधर।
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उतना  : वि० [हिं० उत-उधर या पर वक्ष में+ना प्रत्यय] १. एक सार्वनामिक विशेषण जो इतना का पर-पक्ष रूप है, और जो उस मात्रा, मान या संख्या का सूचक होता है, जिसका उल्लेख, चर्चा या निर्धारण पहले हो चुका हो अथवा जिसका संबंध किसी दूरी या पर-पक्ष से हो। उस मात्रा या मान का। जैसे—(क) वहाँ हमें इतना रास्ता पार करने में सारा दिन लग गया था। (ख) इतना अंश हमारा है और उतना उसका। २. जितना का नित्य संबंधी और पूरक रूप। जैसे—जितना कहा जाय, उतना किया करो। ३. इतना की तरह क्रिया-विशेषण रूप में प्रयुक्त होने पर, उस परिमाण या मात्रा में। जैसे—उस समय तुम्हारा उतना डरना (या दबना) ठीक नहीं हुआ।
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उतन्न  : पुं० [अ० वतन] १. जन्म-भूमि। २. निवास स्थान। उदाहरण—तीहां देस विदेस सम,सीहाँ किसा उतन्न।—बाँकीदास।
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उतन्ना  : पुं० [हिं० उतना=ऊपर+ना प्रत्यय] कान के ऊपरी भाग में पहना जानेवाला बाला की तरह का एक गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपति  : स्त्री० १. =उत्पत्ति। २. =सृष्टि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपनना  : अ० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न या पैदा होना।
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उतपन्न  : वि० =उत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्पाटना  : स० [सं० उत्पाटन] १. उखाड़ना। २. नष्ट-भ्रष्ट करना।
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उतपात  : पुं० =उत्पात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपातना  : स०=उतपादना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपादना  : स० [सं० उत्पादन] उत्पन्न या उत्पादन करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपानन  : स० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न करना। उपजाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपाना  : स० [सं० उत्पादन] १. उत्पादन करना। २. उत्पन्न करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतबंग ( मंग)  : पुं० [सं० उत्तमांग] मस्तक। सिर। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरंग  : पुं० [सं० उत्तरंग] वह लकड़ी या पत्थर की पटरी जो दरवाजे में चौखट के ऊपर बड़े बल में लगी रहती है।
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उतर  : पुं० =उत्तर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतर-अयन  : पुं० =उत्तरायण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरन  : स्त्री० [हिं० उतरना] वह (कपड़ा या गहना) जो किसी ने कुछ दिनों तक पहनने के बाद पुराना समझकर उतार या छोड़ दिया हो। पुं० दे०‘उतरंग’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरना  : अ० [सं० अवतरण, प्रा० उत्तरण] १. ऊपर से नीचे की ओर आना या जाना। जैसे—(क) गले के नीचे भोजन उतरना। (ख) स्तन में या स्तन से दूध उतरना। (ग) अंड-कोश में पानी उतरना। मुहावरा—(कोई बात किसी के) गले के नीचे उतरना=ध्यान, मन या समझ में आना। जैसे—उसे लाख समझाओं पर कोई बात उसके गले के नीचे उतरती ही नहीं। २. किसी वस्तु या व्यक्ति का ऊपर के या ऊँचे स्थान से क्रमशः प्रयत्न पूर्वक नीचे की ओर आना। निम्नगामी होना। अवतरण करना। जैसे—आकाश से पक्षी या वायुयान उतरना, घर की छत पर से नीचे उतरना। ३. यान, वाहन या सवारी पर से आरोही का नीचे आना। जैसे—घोड़े, नाव, पालकी या रेल पर से लोगों का उतरना। ४. किसी उच्च स्तर या स्थिति से अपने नीचे वाले प्राधिक,सामान्य या स्वाभाविक स्तर, स्थिति आदि की ओर आना। कम या न्यून होना। घटना। जैसे—ज्वर या ताप उतरना,नदी या बाढ़ का पानी उतरना, गाँजे या भाँग का नशा उतरना। ५. किसी पद या स्थान से खिच, खिसक या गिरकर अथवा किसी प्रकार अलग होकर नीचे आना। जैसे—(क) तलवार से कटकर करदन या कैंची से कटकर सिर के बाल उतरना। (ख) बकरे (या भैसे) की खाल उतरना। (ग) खींचा-तानी या लड़ाई-झगड़े में कंधे या कलाई की हड्डी उतरना। (घ) अपने दुराचार या दुर्व्यवहार के कारण किसी के चित्त से उतरना। ६. किसी अंकित नियत या स्थिर स्तर से नीचे आना। जैसे—(क) विद्यालय में लड़के का दरजा उतरना। (ख) ताप-मापक यंत्र का पारा उतरना। (ग) बाजार में चीजों का भाव उतरना। (घ) गाने में गवैये का स्वर उतरना। मुहावरा—(किसी से) उतरकर होना=योग्यता, श्रेष्ठता आदि के विचार से घटिया या हलका होना। ७. आकाश या स्वर्ग से अवतार, देवदूत आदि के रूप में इस लोक में आना। जैसे—समय-समय पर अनेक अलौकिक महापुरुष इस लोक में उतरते रहते हैं। ८. कहीं से आकर किसी स्थान पर टिकना, ठहरना या रूकना। डेरा डालना। जैसे—(क) धर्मशाला या बगीचें में बारात उतरना। (ख) किसी के घर मेहमान बनकर उतरना। ९. तत्परता या दृढ़तापूर्वक कोई काम करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र में आना। जैसे—(क) पिछले महायुद्ध में प्रायः सभी बड़े राष्ट्र युद्ध क्षेत्र में उतर आये थे। (ख) अब वे कहानियाँ लिखना छोड़कर आलोचना (या कविता) के क्षेत्र में उतरे हैं। १. किसी पदार्थ के उपयोगी, वांछित या सार भाग का किसी क्रिया से खींचकर बाहर आना। जैसे—भभके से किसी चीज का अरक उतरना, उबालने से पानी में किसी चीज का तेल, रंग या स्वाद उतरना। ११. शरीर पर धारण की हुई या पहनी हुई वस्तु का वहाँ से हटाये जाने पर अलग होना। जैसे—कपड़ा, जूता या मोजा उतरना। १२. अपनी पूर्व स्थिति से नष्ट-भ्रष्ट पतित या विलुप्त होना। जैसे—कोई बात चित्त से उतरना (याद न रहना) सबके सामने आबरू या इज्जत उतरना। मुहावरा—(किसी व्यक्ति का) किसी के चित्त से उतरना=अपने दुराचार, दुर्व्यवहार आदि के कारण किसी की दृष्टि में उपेश्र्य और हीन सिद्ध होना। किसी की दृष्टि मे आदरणीय न रह जाना। जैसे—जब से वे जूआ खेलने (या झूठ बोलने) लगे, तबसे वे हमारे चित्त से उतर गये। १३. अंत या समाप्ति की ओर आना या होना। जैसे—(क) उन दिनों उनकी अवस्था उतर रही थी। (ख) अब हस्त नक्षत्र (या सावन का महीना) उतर रहा है। मुहावरा—उतर आना=(क) किसी बड़े काल विभाग या पक्ष का पूरा या समाप्त हो जाना। जैसे—अब यह पक्ष (या वर्ष) भी उतर जायगा। (ख) संतान के पक्ष में, मर जाना। मृत्यु हो जाना। (स्त्रियाँ) जैसे—इसके बच्चे हो-होकर उतर जाते है। १४. घटाव या ह्रास की ओर आना या होना। जैसे—(क) धीरे-धीरे उसका ऋण उतर रहा है। (ख) अब इस कपड़े (या तस्वीर) का रंग उतरने लगा है। १५. किसी प्रकार के आवेश का मंद पड़कर शांत या समाप्त होना। जैसे—क्रोध या गुस्सा उतरना, झक या सनक उतरना। १६. फलों, फूलों आदि का अच्छी तरह से पक या फूल चुकने के बाद सड़न की ओर प्रवृत्त होना। जैसे—कल तक यह आम (या खरबूजा) उतर जायगा। १७. किसी प्रकार कुम्हला या मुरझा जाना अथवा श्रीहीन होना। प्रभा से रहित होना। जैसे—फटकारे जाने या भेद खुलने पर किसी का चेहरा या मुँह उतरना। १८. बाजों के संबंध में, जितना कसा, चढ़ा या तना रहना चाहिए, उससे कसाव या तनाव कम होना। (और फलतः उनसे अपेक्षित या वांछित स्वर ना निकलना) जैसे—तबला या सारंगी जब उतर जाय, तब उसे तुरंत (कस या तानकर) मिला लेना चाहिए। (उसमें उपयुक्त तनाव या कसाव ले आना चाहिए)। १९. क्रमशः तैयार होने या बननेवाली चीजों का तैयार या बनकर काम में आने या बाजार में जाने के योग्य होना। जैसे—(क) पेड़-पौधों से फल-फूल उतरना। करघे पर से थान या धोतियाँ उतरना, भट्ठी पर से चाशनी या पाग उतरना। २॰ अनुकृति, प्रतिकृति, प्रतिच्छाया, प्रतिलिपि, लेख आदि के रूप में अंकित या प्रस्तुत होना। नकल बनना या होना। जैसे—(क) किसी आदमी की तस्वीर या किसी जगह का नक्शा उतरना। (ख) खाते या बही में लेखा या हिसाब उतरना। २१. अनुकूल, उपयुक्त, ठीक या पूरा होना। जैसे—(क) यह कड़ा तौल में पूरा पाँच तोले उतरा है। (ख) यह काम उमसे पूरा न उतरेगा। २२. प्राप्य धन प्राप्त होना। उगाहा जाना या वसूल होना। जैसे—आजकल चंदा (या लहना) उतरना बहुत कठिन हो गया है। २३. शतरंज के खेल में प्यादे या सिपाही का आगे बढ़ते-बढ़ते विपक्षी के किसी ऐसे घर में पहुँचना जहाँ उस घर के मरे हुए मोहरे की जगह फिर से नया मोहरा बन जाता है। जैसे—हमारा यह व्यादा अब उतरकर वजीर (या हाथी) बनेगा। अ० [सं० उत्तरण] नाव आदि की सहायता से किसी जलाशय (तालाब, नदी, नाले आदि) के उस पार पहुँचना। जैसे—धीरज धरहिं सो उतरहिं पारा।—तुलसी।
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उतरवाना  : स० [हिं० उतरना का प्रे० रूप] किसी को कुछ उतारने में प्रवृत्त करना।
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उतरहा  : वि० [हिं० उत्तर +हा (प्रत्य०] उत्तर दिशा का। उत्तरी।
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उतराँही  : स्त्री० [हिं० उत्तर (दिशा)] उत्तर दिशा से आनेवाली हवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उताराई  : स्त्री० [हिं० उतरना] १. उतरने या उतराने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज या व्यक्ति को नदी आदि पार उतारने या पहुँचाने कि लिए लगनेवाला कर या पारिश्रमिक। उदाहरण—पद कमल धोइ चढ़ाइ, नाव, न नाथ उताराई चहौं।—तुलसी। ३. रास्ते में पड़ने वाला उतार या ढाल।
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उतराना  : अ० [सं० उत्तरण] १. पानी में पड़ी हुई चीज का उसके ऊपर तैरना। २. पानी में डूबी हुई चीज का फिर से पानी के ऊपर आना। ३. विपत्ति या संकट से उद्धार पाना। पद-डूबना उतराना=चिंता, संकट आदि की स्थिति में कभी निऱाश होना और कभी उद्धार का मार्ग देखना। स० १. डूबे हुए को पानी के ऊपर लाना और रखना। तैराना। २. संकट आदि से मुक्त करना। उद्धार करना। उदाहरण—ऐसौ को जु न सरन गहे तै कहत सूर उतरायौ।—सूर। ३. दे० ‘उतरवाना’।
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उतरायल  : वि० [हिं० उतरना या उतराना] अच्छी तरह पहन चुकने के बाद उतारा हुआ (कपड़ा गहना आदि)। पुं० =उतरन।
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उतरारी  : वि० [सं० उत्तर+हिं० वारी] उत्तरी दिशा का। उत्तर का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतराव  : पुं० [हिं० उतरना] रास्ते में पड़ने वाला उतार। ढाल।
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उतरावना  : स० १. दे० उतारना। २. दे० ‘उतरवाना’।
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उतराहा  : वि० [सं० उत्तर+हा (प्रत्यय)] उत्तर दिशा का। उत्तर का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरिन  : वि०=उऋणी।
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उतरु  : पुं० =उत्तर (जवाब)। उदाहरण—जाइ उतरू अब देहरू काहा।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरौहाँ  : वि० [सं० उत्तर+हा (प्रत्यय)] उत्तर दिशा का। उत्तरी। क्रि० वि० उत्तर दिशा की ओर।
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उतलाना  : अ० [हिं० आतुर] १. आतुर होना। २. उतावली करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतल्ला  : वि=उतायल। पुं० =उपल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतसाह  : पुं० =उत्साह।
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उतहसकंठा  : स्त्री०=उत्कंठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताइल  : अव्य० [हिं० उतावला का पुराना रूप] १. उतावलेपन से। २. जल्दी या शीघ्रता से। उदाहरण—चला उताइल त्रास न थोरी।—तुलसी। स्त्री० उतावली। जल्दीबाजी। वि०=उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताइली  : स्त्री०=उतावली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतान  : वि० [सं० उत्तान] पीठ के बल लेटा हुआ। चित्त। उदाहरण—जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना-तुलसी।
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उतामला  : वि० =उतावला। उदाहरण— देखताँ पथिक उतामला दीठा।—प्रिथीराज।
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उतायल  : वि०=उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताइली  : स्त्री०=उतावली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतार  : पुं० [हिं० उतरना, उतारना] १. उतरने (नीचे की ओर आने) या उतारने (नीचे की ओर लाने) की क्रिया, भाव या स्थिति। २. किसी चीज या बात के नीचे की ओर चलने या होने की प्रवृत्ति। ढाल। नति। जैसे—अब आगे चलकर इस पहाड़ी का उतार पड़ेगा। ३. परिमाण, मात्रा, मान आदि में उत्तरोत्तर या क्रमशः होनेवाली कमी, घटाव या ह्रास। जैसे-ज्वर, नदी, बाजार-भाव या स्वर का उतार। ४. किसी चीज या बात का वह पिछला अंग या अंश जो प्रायः अंत या समाप्ति की ओर पड़ता हो। जैसे—गरमी या सरदी का उतार। ५. ऐसी चीज जो कोई उग्र आदेश या वेग करने में उपयोगी अथवा सहायक हो। मारक। (एन्टि-डोट) जैसे—(क) भाँग का उतार खटाई है। (ख) उनके गुस्से (या सेखी) का उतार हमारे पास है। ६. नदी के किनारे की वह जगह जहाँ यात्री नाव से उतरते है। ७. दे० उतारा। ८. दे० उतरन। वि० अधम। नीच। पतित। उदाहरण—अपत, उतार, अपकार को उपकार जग०००-तुलसी।
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उतार-चढ़ाव  : पुं० [हिं० उतरना+चढ़ना] १. नीचे उतरने और ऊपर चढ़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. ऐसा तल या स्थिति जिसमें कही-कहीं उतार हो और कहीं कहीं-चढ़ाव। तल में होनेवाली विषमता। ३. किसी वस्तु के मान, मूल्य, स्तर आदि का बराबर घटते-बढ़ते रहना। (फ्लक्चुएशन)।
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उतारन  : पुं० [हिं० उतारना] १. फटा-पुराना कपड़ा जो कुछ दिनों तक पहनने के बाद उतारकर छोड़ दिया गया हो। २. उच्छिष्ट और निकृष्ट वस्तु। ३. वह चीज जो टोने-टोटेके रूप में किसी पर से उतारकर या निछावर करके अलग की गई हो।
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उतारना  : स० [सं० उत्तारण] १. हिंदी उतरना का सकर्मक रूप। किसी को उतरने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई नीचे उतरे। जैसे—कुएँ या सुरंग में आदमी उतरना। २. नाव आदि की सहायता से नदी के पार पहुँचना। उदाहरण—तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपालु पार उतारिहौं।—तुलसी। ३. प्रयत्नपूर्वक कोई चीज ऊँचे स्थान से नीचे स्थान पर लाना या ले जाना। नीचे करना या रखना। जैसे—गाड़ी पर से सवारी या सामान उतारना, सिर पर से बोझ उतारना। मुहावरा—(किसी के) गले में कोई बात उतारना=इस प्रकार अच्छी तरह समझाना-बुझाना कि कोई बात किसी के मन में जम या बैठ जाए। ४. परिणाम या मान कम करके या और किसी उच्च स्तर या स्थिति से नीचे वाले स्तर या स्थिति में लाना। जैसे—चढ़ा हुआ नशा या बुखार उतारना, किसी चीज की दर या भाव उतारना। ५. किसी पद या स्थान से काट, खोल, तोड़ या निकालकर अलग करना या नीचे लाना। जैसे—तलवार से किसी का सिर उतारना, कमरे में लगी हुई घड़ी उतारना, पेड़-पौधों पर से फूल-फल उतारना। ६. किसी अंकित या नियत पद या विभाग से उसके नीचेवाले पद या विभाग में लाना। जैसे—कर्मचारी या विद्यार्थी का दरजा उतारना। ७. आकाश या स्वर्ग से अवतार आदि के रूप में प्रयत्नपूर्वक इस लोक में लाना। जैसे—इस लोक में प्राणियों के कष्ट दूर करने के लिए देवता लोग राम को पृथ्वी पर उतार लाये। ८. किसी को किसी स्थान पर लाकर टिकाना या ठहराना। जैसे—महासभा के अवसर पर चार अतिथियों को तो हम अपने यहाँ उतार लेंगें। ९. कोई काम करने के लिए किसी को किसी क्षेत्र में लाना या पहुँचाना। किसी को विशिष्ट कार्य की ओर प्रवृत्त करना। जैसे—महात्मा गाँधी ने हजारों नये लोगों को राजनीतिक क्षेत्र में उतारा था। १. किसी पदार्थ या आवश्यक या उपयोगी अंश या सार भाग किसी क्रिया से निकालकर नीचे या बाहर लाना। जैसे—किसी वनस्पति का अरक या रंग उतारना। ११. शरीर पर धारम की हुई चीज अलग करके नीचे या कहीं रखना। जैसे—कुरता, टोपी या धोती उतारना। मुहावरा—किसी की पगड़ी उतारना=(क) किसी को अप्रतिष्ठित या अपमानित करना। (ख) किसी से बहुत अधिक धन ऐंठना या वसूल करना। १२. ध्यान, विचार आदि के पक्ष में, अपनी पूर्व स्थिति में वर्त्तमान स्थित न रहने देना। जैसे—अब पिछली बातें मन से उतार दो। १३. कमी, घटाव या ह्रास की ओर ले जाना। जैसे—अब तो वे जल्दी-जल्दी अपना ऋण उतार रहे हैं। १४. किसी प्रकार का आवेग या वेग मंद अथवा शांत करना। जैसे—मीठी-मीठी बातों से किसी का गुस्सा उतारना, किसी के सिर पर चढ़ा हुआ भूत उतारना। १५. शोभा, श्री आदि से रहित या हीन करना। जैसे—आपने मेरी बात पर हँसकर उनका चेहरा (या चेहरे का रंग) उतार दिया। १६. बाजों आदि के पक्ष में, उनका तनाव या कसाव कम करना। जैसे—बजा चुकने के बाद बीन या सितार उतार देनी चाहिए। १७. करण, यंत्र आदि के द्वारा बननेवाली चीजों को तैयार करके पूरा करना। जैसे—खराद पर से थालियाँ या लोटे उतारना। १८. अनुकृति, प्रतिकृति, प्रतिलिपि आदि के रूप में अंकित या प्रस्तुत करना। बनाना। जैसे—किसी की तसवीर उतारना, निबंध या लेख की नकल उतारना। मुहावरा—किसी व्यक्ति की नकल उतारना=उपहास परिहास आदि के लिए किसी को अंग-भंगी, बोल-चाल, रंग-ढंग आदि का अनुकरण या अभिनय करके दिखलाना। १९. कर्म-कांड, टोने-टोटके आदि के क्षेत्र में, किसी प्रकार के उपचार के रूप में कोई चीज किसी के सामने या उसके ऊपर से चारों ओर घुमाना-फिराना। जैसे—देवी-देवताओं की आरती उतारना, किसी पर से राई-नोन उतारना। २0० कोई काम ठीक तरह से पूरा करना या उचित रूप से अंत या समाप्ति की ओर ले जाना। जैसे—(क) तुम यह छोटा-सा काम भी पूरा न कर सके। (ख) वह कचौरी, पूरी मजे में उतार लेता है (तल या पकाकर तैयार कर लेता है)। २१. घम-घूमकर चारों ओर से धन इकट्ठा करना। वसूल करना। उगाहना। जैसे—चंदा या बेहरी उतारना। २२. शतंरज के खेल में अपना प्यादा आगे बढ़ाते हुए ऐसे घर में पहुँचाना जहाँ वह उस घर का मोहरा बन जाए। जैसे—तुमने तो अपना प्यादा उतारकर घोड़ा बना लिया।
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उतारा  : पुं० [हिं० उतरना] १. नदी आदि से पार उतरने की क्रिया या भाव। २. किसी स्थान पर उतरने (टिकने या ठहरने) की क्रिया या भाव। डेरा या पड़ाव डालना। ३. वह स्थान जहाँ पर कोई (विशेषतः यात्री) अस्थायी रूप से उतरे, टिके या ठहरे। डेरा। पड़ाव। पद-उतारे का झोपड़ा=यात्रियों के टिकने का स्थान। विश्रामालय। पुं० [हिं० उतारना] १. नदी आदि पार कराने की क्रिया या भाव। २. यात्री, सामान आदि नदी के पार उतराने का पारिश्रमिक। ३. नदी के किनारे का वह स्थान जहाँ नाव से यात्री या सामान उतारे जाते हैं। ४. वह रुपया-पैसा आदि जो किसी मांगलिक अवसर पर किसी के चारों ओर घुमाकर नाऊ आदि को दिया जाता है। ५. भूत-प्रेत, रोग आदि की बाधा के निवारण के लिए टोने-टोटके के रूप में किसी व्यक्ति के चारों ओर कुछ सामग्री उतार या घुमाकर अलग रखना। ६. उक्त प्रकार से उतारकर रखी जानेवाली सामग्री। ७. फटे-पुराने या उतारे हुए कपड़े जो गरीबों, नौकरों आदि को पहनने के लिए दिये जाते हैं। उतारन।
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उतारू  : वि० [हिं० उतरना] किसी काम या बात के लिए विशेषतः किसी अनुचित या निंदनीय काम या बात के लिए उद्यत या तत्पर। जैसे—गालियों या चोरी-चमारी पर उतारू होना। पुं० मुसाफिर। यात्री। (लश०)।
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उताल  : स्त्री० [सं० उद्+त्वर] जल्दी। वि० [सं० उत्ताल] १. तीव्र। तेज। २. फुरतीला। ३. उतावला। जल्दबाज। क्रि० वि० जल्दी से। शीघ्रतापूर्वक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतालक  : क्रि० वि० [हिं० उताला] जल्दी से। चटपट। तुरंत। उदाहरण—बथुआ राँधि लियौ जु उतालक।—सूर।
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उताला  : वि०=उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताली  : स्त्री०=उतावली। क्रि० वि० जल्दी से।
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उतावल  : क्रि० वि० [सं० उद्+त्वर] जल्दी-जल्दी। शीघ्रता से। वि० दे० उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतावला  : वि० [सं० आतुर या उत्ताल ?] [स्त्री० उतावली] १. जो किसी काम के लिए बहुत आतुर हो। २. जो हर काम में जल्दी मचाता हो। उत्सुकतापूर्वक जल्दी मचानेवाला। ३. जो बिना समझे-बूझे तथा आवेश में आकर कोई काम करने के लिए तत्पर हो जाय।
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उतावली  : स्त्री० [सं० उद्+त्वर] १. उतावले होने की अवस्था या भाव। २. किसीकाम के लिए मचाई जानेवाली जल्दी। ३. व्यग्रता।
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उताहल  : वि० =उतावला। क्रि० वि० जल्दी से।
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उताहिल  : वि० =उतावला। क्रि० वि० जल्दी से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतिम  : वि० =उत्तम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उती  : अव्य० [हिं० उत] उधर। उस ओर। उदाहरण—तव उती नाहीं कोई।—गोरखनाथ।
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उतृण  : वि० =उऋण।
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उतै  : अव्य० [हिं० उत] उधर। उस ओर। वहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतैला  : वि०=उतावला। पुं० [देश] उड़द। उर्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्कंठ  : वि० [सं० उत्-कंठ, ब० स०] १. जिसने गरदन ऊपर उठाई हो। २. जिसे उत्कंठा हो। उत्कंठित। क्रि० वि० १. गरदन ऊपर उठाए हुए। २. उत्कंठापूर्वक।
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उत्कंठा  : स्त्री० [सं० उद्√कण्ठ् (अत्यंत चाह)+अ-टाप्] [वि० उत्कंठित] १. कोई काम करने या कुछ पाने की प्रबल इच्छा। उत्कट या तीव्र अभिलाषा। चाव। (लांगिंग) २. किसी कार्य के होने में विलंब न सहकर उसे चटपट करने की अभिलाषा। (साहित्य)
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उत्कंठातुर  : वि० [सं० उत्कंठा-आतुर, तृ० त०] जो कोई प्रबल या तीव्र अभिलाषा पूरी करने के लिए उत्कंठा के कारण आतुर हो। उदाहरण—मैं चिर उत्कंठातुर।—पंत।
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उत्कंठित  : वि० [सं० उत्कंठा+इतच्] जिसके मन में कोई तीव्र या प्रबल अभिलाषा हो। उत्कंठा या चाव से भरा हुआ।
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उत्कंठिता  : स्त्री० [सं० उत्कंठित+टाप्] साहित्य में वह नायिका जो संकेतस्थल में अपने प्रेम के न पहुँचने पर उत्कंठापूर्वक उसकी प्रतीक्षा करती हो।
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उत्कंप  : पुं० [सं० उद्√कम्प् (काँपना)+घञ्] कंपन। कँपकँपी।
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उत्कच  : वि० [सं० उत्-कच, ब० स०] जिसके बाल उठे हुए या खड़े हों। पुं० हिरण्याक्ष का एक पुत्र।
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उत्कट  : वि० [सं० उद्√कट् (गति)+अच्] [भाव० उत्कटता] १. जो मान, मात्रा आदि के विचार से बहुत ऊँचा या बढ़ा-चढ़ा हो। (इन्टेन्स) जैसे—उत्कट प्रेम, उत्कट विद्धान। २. जो अपने गुण, प्रबाव, फल आदि के विचार से बहुत उग्र या तीव्र हो। जैसे—उत्कट स्वभाव। पुं० १. मूँज। २. गन्ना। ३. दालचीनी। ४. तज। ५. तेजपता।
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उत्कर  : पुं० [सं० उद्√कृ (फेंकना)+अप्] ढेर। राशि।
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उत्कर्ण  : वि० [सं० उत्-कर्ण, ब० स०] १. जिसके कान ऊँचे उठे हों। २. जो किसी की बात सुनने के लिए उत्सुक होने के कारण कान उठाये हुए हों।
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उत्कर्ष  : पुं० [सं० उद्√कृष् (खींचना)+घञ्] १. ऊपर की ओर उठने, खिंचने या जाने की क्रिया या भाव। २. पद, मान, संपत्ति आदि में होनेवाली वृद्धि, संपन्नता या समृद्धि। ३. भाव, मूल्य आदि में होनेवाली अधिकता या वृद्धि।
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उत्कर्षक  : वि० [सं० उद्√कृष्+ण्वुल्-अक] १. ऊपर की ओर उठाने या बढ़ानेवाला। २. उन्नति या समृद्धि करनेवाला। उत्कर्ष करनेवाला।
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उत्कर्षता  : स्त्री० [सं० उत्कर्ष+तल्-टाप्] १. उत्तमता। श्रेष्ठता। २. अधिकता। ३. समृद्धि।
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उत्कर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० उद्√कृष्+णिनि] =उत्कर्षक।
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उत्कल  : पुं० [सं० ] १. भारतीय संघ के उड़ीसा राज्य का पुराना नाम। २. चिड़ीमार। बहेलिया। ३. बोझ ढोनेवाला मजदूर।
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उत्कलन  : पुं० [सं० उद्√कल् (गति, प्रेरणा, संख्या, शब्द)+ल्युट्-अन] १. बंधन से मुक्त होना। छूटना। २. फूलों आदि का खिलना या विकसित होना। ३. लहराना।
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उत्कलिका  : स्त्री० [सं० उद्√कल्+वुल्-अक-टाप्] १. उत्कंठा। २. फूल की कली। ३. लहर। तरंग। ४. साहित्य में ऐसा गद्य जिसमें बड़े-बड़े सामासिक पद हों।
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उत्कलित  : वि० [सं० उद्√कल्+क्त] १. जो बँधा हुआ न हो। खुला हुआ। मुक्त। २. खिला हुआ। विकसित। ३. लहराता हुआ।
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उत्कली  : वि० स्त्री० दे० ‘उड़िया’।
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उत्कारिका  : स्त्री० [सं० उद्√कृ+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] फोड़े आदि पकाने के लिए उन पर लगाया जानेवाला लेप। पुलटिस।
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उत्कीर्ण  : वि० [सं० उद्√कृ+क्त] १. छितरा, फैला या बिखरा हुआ। २. छिदा या भिदा हुआ। ३. खोदकर अंकित किया हुआ।
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उत्कीर्त्तन  : पुं० [सं० उद्√कृत् (जोर से शब्द करना)+ल्युट-अन] १. जोर से बोलना। चिल्लाना। २. घोषणा करना। ३. प्रशंसा या स्तुति करना।
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उत्कुण  : पुं० [सं० उद्√कुण् (हिंसा करना)+अच्] १. खटमल। २. बालों में पड़नेवाला छोटा कीड़ा। जूँ।
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उत्कूज  : पुं० [सं० उद्√कूज् (अव्यक्त शब्द)+घञ्] १. कोमल। मधुर। ध्वनि। २. कोयल की कुहुक।
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उत्कूट  : पुं० [सं० उद्√कूट् (ढकना)+अच्] बहुत बड़ा छाता।
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उत्कृष्ट  : वि० [सं० उद्√कृष् (खींचना)+क्त] [भाव० उत्कृष्टता] १. अच्छे गुण से युक्त और फलतः आकर्षक या सुंदर। २. जो औरों से बड़ा-चढ़ा हो। उत्तम। श्रेष्ठ।
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उत्कृष्टता  : स्त्री० [सं० उत्कृष्ट+तल्-टाप्] उत्कृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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उत्केंद्र  : वि० [सं० उत्-केन्द्र, ब० स०] [भाव० उत्केंद्रता] १. अपने केन्द्र से हटा हुआ। २. जो केन्द्र या ठीक मध्य में स्थित हो। ३. जो ठीक या पूरा गोला न हो। ४. अनियमित। बे-ठिकाने। (एस्सेन्ट्रिक) पुं० केन्द्र से भिन्न स्थान।
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उत्केन्द्रता  : स्त्री० [सं० उत्केन्द्र+तल्-टाप्] उत्केन्द्र होने की अवस्था या भाव। (एस्सेन्ट्रि-सिटी)।
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उत्केंद्रित  : वि० ‘उत्केंद्र’।
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उत्क्षेपण  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ।
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उत्कोच  : पुं० [सं० उद्√कुच्(संकोच)+क] १. घूस। रिश्वत। (ब्राइब) २. भ्रष्टाचार।
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उत्कोचक  : वि० [सं० उद्√कुच्+ण्वुल्-अक] १. किसी को घूस देनेवाला। २. घूस लेनेवाला। ३. भ्रष्टाचारी।
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उत्क्रम  : पुं० [सं० उद्√क्रम् (गति)+घञ्] १. ऊपर की ओर उठना या जाना। २. उन्नति या समृद्धि होना। ३. अनजान में या बिना किसी इष्ट उद्देश्य के ठीक मार्ग से इधर-उधर होना। (डिग्रेशन) विशेष-यह ‘विकल्प’ से इस बात में भिन्न है कि इसमें उचित मार्ग का त्याग किसी बुरे उद्देश्य से नहीं होता।
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उत्क्रमण  : पुं० [सं० उद्√क्रम्+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ओर जाने की क्रिया या भाव। २. आज्ञा या कार्य-क्षेत्र का उल्लंघन करना। ३. आक्रमण। चढ़ाई। ४. मृत्यु। मौत।
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उत्क्रांत  : वि० [सं० उद्√क्रम्+क्त] [भाव० उत्क्रांति] १. ऊपर की ओर चढने वाला। २. जिसका उल्लंघन या अतिक्रमण हुआ हो।
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उत्क्रांति  : वि० [सं० उद्√क्रम्+क्तिन्] १. धीरे-धीरे उन्नति या पूर्णता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति। दे० आरोह। २. अतिक्रमण। उल्लंघन। ३. मृत्यु। मौत।
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उत्क्रोश  : पुं० [सं० उद्√कुश् (चिल्लाना)+घञ्] १. शोर-गुल। हल्ला-गुल्ला। २. कुररी नामक पक्षी।
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उत्क्लेदन  : पुं० [सं० उद्√क्लिद् (भींगना)+ल्युट-अन] गीला, तर या नम करने या होने की क्रिया या भाव।
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उत्क्लेश  : पुं० [सं० उद्√क्लिश् (कष्ट पाना)+घञ्] वैद्यक में, कुछ खाने के बाद आमाशय की अम्लता के कारण कलेजे के पास मालूम होनेवाली जलन। (रोग) (हार्ड बर्न)
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उत्क्षिप्त  : भू० कृ० [सं० उद्√क्षिप्(फेंकना)+क्त] १. ऊपर की ओर उछाला या फेंका हुआ। २. दूर किया या हटाया हुआ। ३. कै या वमन के रूप में बाहर निकाला हुआ। ४. नष्ट किया हुआ। ध्वस्त।
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उत्क्षेप  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+घञ्] [वि० उत्क्षिप्त, कर्त्ता उत्क्षेपक] १. ऊपर की ओर उछालने या फेंकने की क्रिया या भाव। २. बाहर निकालना। ३. दूर हटाना। ४. परित्याग करना। छोड़ना। ५. कै। वमन।
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उत्क्षेपक  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+ण्वुल्-अक] १. ऊपर उछालने या फेंकनेवाला। २. दूर करने या हटानेवाला। ३. चोरी करनेवाला। चोर।
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उत्क्षेपण  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+ल्यूट्-अक] १. ऊपर की ओर फेंकने की क्रिया या भाव। उछालना। २. उल्टी। कै। वमन। ३. चोरी। 4. मूसल। 5. पाँव। 6. ढकना। ढक्कन।
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उत्खनन  : पुं० [सं० उद्√खन् (खोंदना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्खचित] गड़ी या जमी चीज को खोदना। खोदकर बाहर निकालना या फेंकना।
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उत्खात  : भू० कृ० [सं० उद्√खन्+क्त] १. खोदा हुआ। २. खोदकर बाहर निकाला हुआ। ३. जड़ों से उखाड़ा हुआ। (पेड़, पौधा आदि)। ४. नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ। ५. अपने स्थान से दूर किया या हटाया हुआ।
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उत्खाता (तृ)  : वि० [सं०√उद्√खन्+तृच्] ११. उखाड़नेवाला। २. कोदनेवाला। ३. समूल नष्ट करना।
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उत्खाती (तिन्)  : वि० [सं० उद्√खन्+णिनि] १. जो समतल न हो। ऊबड़-खाबड़। २. =उत्खाता।
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उत्खान  : पुं० [सं० उद्√खन्+घञ्]=उत्खनन।
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उत्खेद  : पुं० [सं० उद्√खिद् (दीनता, घात)+घञ्] १. काटना। छेदना। २. खोदना।
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उत्तंकिय  : वि० आतंकित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तंग  : वि० उत्तंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तंभन  : पुं० [सं० उद्√स्तम्भ् (रोकना)+घञ्] [उद्√स्तम्भ+ल्युट्] १. टेक या सहरा देने की क्रिया या भाव। २. टेक। सहारा। ३. रोक।
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उत्तंस  : पुं० [सं० उद्√तंस् (अलंकृत करना)+अच् या घञ्] दे० ‘अवतंस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तट  : वि० [सं० उत्-तट, अत्या० स०] किनारे या तट के ऊपर निकलकर बहनेवाला।
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उत्तप्त  : भू० कृ० [सं० उद्√तप्(तपना)+क्त] १. खूब तपा या तपाया हुआ। २. जलता हुआ। ३. लाक्षणिक अर्थ में सताया हुआ। संतप्त। ४. कुपित।
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उत्तब्ध  : भू० कृ० [सं० उद्√स्तम्भ (रोकना)+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। उन्नमित। २. उत्तेजित किया हुआ। भड़काया हुआ।
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उत्तभित  : वि० उत्तब्ध।
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उत्तमंग  : पुं० उत्तमांग।
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उत्तम  : वि० [सं० उद्+तमप्] [स्त्री० उत्तमा] १. जो गुण, विशेषता आदि में सबसे बहुत बढ़कर हो। सबसे अच्छा। २. सबसे बड़ा। प्रधान। पुं० १. विष्णु। २. ध्रुव का सौतेला भाई।
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उत्तम-गंधा  : स्त्री० [ब० स०] चमेली।
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उत्तमतया  : क्रि० वि० [सं० उत्तमता शब्द की तृतीया विभक्ति के रूप का अनुकरण] उत्तम रूप से। अच्छी तरह। भली भाँति।
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उत्तमता  : स्त्री० [सं० उत्तम+तल्-टाप्] उत्तम होने की अवस्था या भाव।
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उत्तमताई  : स्त्री० उत्तमता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तमत्व  : पुं० [सं० उत्तम+त्व] उत्तमता।
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उत्तमन  : पुं० [सं० उद्√तम् (खेद)+ल्युट-अन] १. साहस छोड़ना। २. अधीरता। अधैर्य।
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उत्तम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. व्याकरण में, वह पद जो प्रथम पुरुष अर्थात् बोलनेवाला का वाचक हो। वक्ता का वाचक सर्व-नाम। जैसे—हम, मैं। २. ईश्वर जो सब पुरुषों में उत्तम कहा गया हो।
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उत्तमर्ण  : पुं० [सं० उत्तम-ऋण, ब० स०] वह जो दूसरो को ऋण देता हो, अथवा जिसे किसी को ऋण दिया हो। महाजन।
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उत्तमर्णिक  : पुं० [सं० उत्तम-ऋण, कर्म० स०+ठन्-इक]=उत्तमर्ण।
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उत्तम-साहस  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्राचीन काल में अपराधी को दिया जानेवाला बहुत अधिक कठोर आर्थिक या शारीरिक देड। जैसे—अंग-भंग, निर्वासन, प्राण-दंड आदि।
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उत्तमांग  : पुं० [सं० उत्तम-अंग, कर्म० स०] शरीर का उत्तम या सर्वश्रेष्ठ अंग, मस्तक। सिर।
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उत्तमांभस  : पुं० [सं० उत्तम-अंभस्, कर्म० स०] सांख्य में, हिसा के त्याग से प्राप्त होनेवाली तुष्टि।
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उत्तमा  : स्त्री० [सं० उत्तम+टाप्] १. श्रेष्ठ स्त्री। २. शूक रोग का एक बेद। ३. दुद्धी या दूधी नाम की जड़ी। वि० भली। नेक।
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उत्तमादूती  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] साहित्य में, वह दूती जो रूठे हुए नायक या नायिका को समझा-बुझाकर या दूसरे उत्तम उपायों से उसके प्रिय के पास ले आती हो।
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उत्तमानायिका  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] साहित्य में, शुद्ध आचरणवाली वह स्वकीया नायिक जो पति के प्रतिकूल या विरुद्ध होने पर भी उसके अनुकूल बनी रहें।
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उत्तमार्द्ध  : पुं० [सं० उत्तम-अर्द्ध, कर्म० स०] १. किसी वस्तु का वह आधा अंश या भाग जो शेष अंश की तुलना में श्रेष्ठ हो। २. अंतिम आधा अँश या भाग। उत्तरार्ध।
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उत्तमाह  : पुं० [सं० उत्तम-अहन्, कर्म० स०] १. अच्छा या शुभ दिन। २. अंतिम या आखिरी दिन।
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उत्तमीय  : वि० [सं० उत्तम+छ-ईय] १. सबसे अच्छा और ऊपर का। सर्वश्रेष्ठ। २. प्रधान। मुख्य। ३. सबसे ऊँचा।
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उत्तमोत्तम  : वि० [सं० उत्तम-उत्तम, पं० त०] १. सबसे अच्छा। सर्वोत्तम। २. एक से एक बढ़कर, सभी अच्छे। जैसे—अनेक उत्तमोत्तम पदार्थ वहाँ रखे थे।
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उत्तमोत्तमक  : पुं० [सं० उत्तमोत्तम+कन्] लास्य नृत्य के दस प्रकारों में से एक।
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उत्तमौजा (जस्)  : वि० [सं० उत्तम-ओजस्, ब० स०] जो तेज और बल के विचार से दूसरों से बढ़कर हो। पुं० १. मनु के एक पुत्र का नाम। २. एक राजा जिसने महाभारत के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।
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उत्तरंग  : वि० [सं० उद्-तरंग, ब० स०] १. लहराता हुआ। तरंगित। २. आनंदमग्न। ३. काँपता हुआ। पुं० [सं० कर्म० स०] वह काठ जो चौखट के ऊपर लगाया जाता है।
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उत्तर  : पुं० [सं० उद्√तृ (तैरना)+अप् अथवा उद्+तरप्] १. वह दिशा जो पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होने पर मनुष्य की बाई ओर पड़ती है। उदीची। २. किसी देश का उत्तरी भाग। ३. किसी के प्रश्न या शंका करने पर या उसके समाधान या संतोष के लिए कही जानेवाली बात। ४. जाँच या परीक्षा के लिए पूछे हुए प्रश्नों के संबंध में कही हुई उक्त प्रकार की बात। ५. गणित आदि में, किसी प्रश्न का निकला हुआ अंतिम परिणाम। फल। ६. अबियोग या आरोप लगने पर अपने आचरण या व्यवहार का औचित्य सिद्ध करते हुए कुछ कहना। ७. किसी के कार्य या व्यवहार के बदले में ठीक उसी प्रकार से किया जानेवाला कार्य या व्यवहार। ८. साहित्य में एक अलंकार जिसमें (क) किसी प्रश्न के उत्तर में कोई गूढ़ आशय या संकेत किया जाता है अथवा (ख) कुछ प्रश्न इस रूप में रखे जाते है कि उनके उत्तर भी उन्हीं शब्दों में छिपे रहते हैं। ९. राजा विराट के एक पुत्र का नाम। वि० १. उत्तरी। बाद का। पिछला। २. ऊपर का। ३. श्रेष्ठ। अव्य० बाद में। पीछे।
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उत्तर-कल्प  : पुं० [सं० कर्म० स०] भू-विज्ञान के अनुसार वह दूसरा कल्प जिसमें मुख्यतः पर्वतों तथा खनिज पदार्थों की सृष्टि हुई थी। अनुमानतः यह कल्प आज से लगभग सवा अरब वर्ष पहले हुआ था।
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उत्तर-कोशला  : स्त्री० [सं० उत्तरकोशल+अच्-टाप्] अयोध्या नगरी।
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उत्तर-क्रिया  : स्त्री० [मध्य० स०] मृत्यु के उपरांत मृतक के उद्देश्य से होनेवाले धार्मिक कृत्य। अंत्येष्टि।
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उत्तर-गुण  : पुं० [कर्म० स०] मूल गुणों की रक्षा करनेवाले गौण या दूसरे गुण।( जैन)।
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उत्तरच्छद  : पुं० [कर्म० स०] १. आच्छादन। आवरण। २. बिछौने या बिछाई जानेवाली चादर।
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उत्तरण  : पुं० [सं० उद्√तृ+ल्युट-अन] तैरकर या नाव आदि के द्वारा जलाशय पार करना।
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उत्तर-तंत्र  : पुं० [कर्म० स०] किसी वैद्यक ग्रंथ का पिछला या परिशिष्ट भाग।
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उत्तर-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] —उत्तरदायी। वि० उत्तर या जवाब देना।
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उत्तरदायित्व  : पुं० [सं० उत्तरदायिन्+त्व] किसी बात या बात के लिए उत्तरदायी होने की अवस्था या भाव। जवाबदेही। जिम्मेदारी।
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उत्तरदायी (यिन्)  : वि० [सं० उत्तर√दा (देना)+णिनि] १. जिस पर कोई काम करने का भार हो। जैसे—इस काम के उत्तदायी आप ही मानें जाँयेगे। २. जो नैतिक अथवा विधिक दृष्टि से अपने किसी आचरण अथवा दूसरों द्वारा सौंपे हुए कार्य के संबंध में कुछ पूछे जाने पर उत्तर देने के लिए बाध्य हो। जैसे—उत्तरदायी शासन। (रेसपान-सिबुल, उक्त दोनों अर्थों में)।
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उत्तर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] विवाद आदि में वह पक्ष जो पहले किये जानेवाले निरूपण या प्रस्थान का खंडन या समाधान करता हो। अभियोग तर्क, प्रश्न आदि का उत्तर देनेवाला पक्ष। ‘पूर्व-पक्ष’ का विपर्याय।
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उत्तर-पट  : पुं० [कर्म० स०] १. ओढ़ने की चादर। उत्तरीय। २. बिछाने की चादर।
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उत्तर-पथ  : पुं० [ष० त०] पाटलिपुत्र से वाराणसी, कौशाम्बी, साकेत, मथुरा, तक्षशिला आदि से होता हुआ वाह्लीक तक गया हुआ एक प्राचीन मार्ग।
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उत्तर-पद  : पुं० [कर्म० स०] समस्त या यौगिक शब्द का अंतिम या पिछला शब्द। जैसे—धर्मानुसार या धर्म-साधन में का अनुसार या साधन शब्द।
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उत्तर-प्रत्युत्तर  : पुं० [द्व० स०] किसी से किसी बात का उत्तर मिलने पर उसके उत्तर में कुछ कहना-सुनना। वाद-विवाद। बहस।
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उत्तर-प्रदेश  : पुं० [सं० ] भारतीय संघ राज्य का वह प्रदेश जिसके उत्तर में हिमालय, पश्चिम में पंजाब, पूर्व में बिहार और दक्षिण में मध्य प्रदेश है। (पुराने संयुक्त प्रदेश का नया नाम)।
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उत्तर-भोगी (गिन्)  : वि० [सं० उत्तर√भुज् (भोगना)+णिनि] किसी के द्वारा छोड़ी हुई अथवा किसी की बची हुई वस्तु या संपत्ति का भोग करने वाला।
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उत्तर-मंद्रा  : पुं० [ब० स० टाप्] संगीत में एक मूर्च्छना का नाम।
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उत्तर-मीमांसा  : स्त्री० [ष० त०] वेदांत दर्शन।
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उत्तर-वयम्  : पुं० [कर्म० स०] जीवन का अंतिम समय जिसमें मनुष्य की सारी शक्तियाँ क्षीण होने लगती है। बुढ़ापा। वृद्धावस्था।
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उत्तरवर्तन  : पुं० [स० त०] दे ‘अनुवृत्ति’।
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उत्तरवादी (दिन्)  : वि० प्रतिवादी।
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उत्तर-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] दूसरों से सुनी सुनाई बातों के आधार पर साक्षी देनेवाला व्यक्ति।
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उत्तरा  : स्त्री० [सं० उत्तर+टाप्] राजा विराट की कन्या जिसका विवाह अभिमन्यु से हुआ था।
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उत्तरा-खंड  : पुं० [ष० त०] भारत का वह उत्तरी भू-भाग जो हिमालय की तलहटी में और उसके आस-पास पड़ता है।
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उत्तराधिकार  : पुं० [उत्तर-अधिकार, ष० त०] १. ऐसा अधिकार जिसके अनुसार किसी के न रह जाने अथवा अपना अधिकार छोड़ देने पर किसी दूसरे को उसकी धन-संपत्ति आदि प्राप्त होती है। २. किसी के पद या स्थान से हटने पर उसके बाद आनेवाले व्यक्ति को मिलनेवाला उसका अधिकार, गुण विशेषता आदि। वरासत। (इनहेरिटेन्स)
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उत्तराधिकार-कर  : पुं० [ष० त०] शासन की ओर से, उत्तराधिकारी को मिलनेवाली संपत्ति पर लगनेवाला कर।
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उत्तराधिकार-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] न्यायालय से मिलनेवाला यह प्रमाणक जिसमें विधिक रूप से किसी के उत्तराधिकारी माने जाने का उल्लेख होता है। (सक्सेशन सर्टिफिकेट)
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उत्तराधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० उत्तराधिकार+इनि] १. वह व्यक्ति जो किसी की संपत्ति प्राप्त करने का विधितः अधिकारी हो। (इनहेरिटर) २. अधिकारी के किसी पद या स्थान से हटने पर उस पद या स्थान पर आनेवाला दूसरा अधिकारी। (सक्सेसर)।
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उत्तरापेक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० उत्तर-अप√ईक्ष् (चाहना)+णिनि] जो अपने किसी कथन पत्र, प्रश्न, प्रार्थना आदि के उत्तर की अपेक्षा करता हो। अपनी बात का उत्तर या जवाब चाहनेवाला।
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उत्तराफाल्गुनी  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] आकाशस्थ सत्ताईस नक्षत्रों में से बारहवाँ नक्षत्र।
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उत्तराभाद्रपद  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] आकाशस्थ सत्ताईस नक्षत्रों में से छब्बीसवाँ नक्षत्र।
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उत्तराभास  : पुं० [सं० उत्तर-आभास, ष० त०] १. ऐसा उत्तर जो ठीक और समाधान कारक तो न हो, फिर देखने में ठीक-सा जान पड़ता हो। ऐसा उत्तर जिसमें वास्तविकता या सत्यता न हो, उसका आभास मात्र हो। २. झूठा या मिथ्या उत्तर।
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उत्तराभासी (सिन्)  : वि० [सं० उत्तराभास+इनि] (प्रश्न) जिसमें उसके उत्तर का भी कुछ आभास हो। जैसे—आप तो भोजन कर ही चुके हैं न ? में यह आभास है कि आप भोजन कर चुके हैं।
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उत्तरायण  : पुं० [सं० उत्तर-अयन, स० त०] १. मकर रेखा से उत्तर और कर्क रेखा की ओर होनेवाली सूर्य की गति। २. छः मास की वह अवधि या समय जिसमें सूर्य की गति उत्तर अर्थात् कर्क रेखा की ओर रहती है।
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उत्तरायणी  : स्त्री० [सं० उत्तरायण+ङीष्] संगीत में एक मूर्च्छना।
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उत्तरारणी  : स्त्री० [सं० उत्तर-अरणी, कर्म० स०] अग्निमंथन की दो लकड़ियों में से ऊपर रहनेवाली लकड़ी।
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उत्तरार्द्ध  : पुं० [सं० उत्तर-अर्द्ध, कर्म० स०] किसी वस्तु के दो खंडों या भागों में से उत्तर अर्थात् अंत की ओर या बाद में पड़नेवाला खंड या भाग। पिछला आधा भाग।
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उत्तराषाढ़ा  : स्त्री० [सं० उत्तरा-आषाढ़ा, व्यस्त-पद] सत्ताईस नक्षत्रों में से इक्कीसवाँ नक्षत्र।
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उत्तरासंग  : पुं० [सं० उत्तर-आ√सञज् (मिलना)+घञ्] उत्तरीय। उपरना।
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उत्तरी  : वि० [सं० उत्तरीय] १. उत्तर दिशा में होनेवाला। उत्तर दिशा से संबंधित। उत्तर का। स्त्री० संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिणी।
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उत्तरी-ध्रुव  : पुं० [हिं० +सं० ] पृथ्वी के गोले का उत्तरी सिरा। सुमेरु। (नार्थ पोल)
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उत्तरीय  : पुं० [सं० उत्तर+छ-ईय] १. कंधे पर रखने का वस्त्र। चादर। दुपट्टा। २. एक प्रकार का सन। वि० १. उत्तर दिशा का। उत्तर में होनेवाला। २. ऊपर का। ऊपरवाला। ३. जो दूसरों की तुलना में अच्छा या श्रेष्ठ हो।
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उत्तरोत्तर  : क्रि० वि० [सं० उत्तर-उत्तर, पं० त०] १. क्रमशः। एक के बाद एक। २. लगातार।
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उत्तल  : वि० [सं० उत्-तल, ब० स०] [भाव० उत्तलता] जिसके तल के बीच का भाग कुछ ऊपर उठा हो। उन्नतोदर। (काँन्वेन्स)।
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उत्तलित  : भू० कृ० [सं० उद्√तल् (स्थापित करना)+क्त] १. जो उत्तल के रूप में लाया हुआ हो। २. ऊपर उठाया या फेंका हुआ।
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उत्ता  : वि० उतना।
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उत्तान  : वि० [सं० उत्-तान, ब० स०] १. फैला या फैलाया हुआ। २. पीठ के बल लेटा या चित्त पड़ा हुआ। ३. जिसका मुँह ऊपर की ओर हो। ऊर्ध्व मुख। ४. जो उलटा होकर सीधा हो। ५. आवरण से रहित, अर्थात् बिलकुल खुला हुआ और स्पष्ट। नग्न। जैसे—उत्तान श्रृंगार।
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उत्तानक  : पुं० [सं० उद्√तन् (फैलना)+ण्वुल्-अक] उच्चटा नाम की घास।
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उत्तान-पाद  : पुं० [ब० स०] भक्त ध्रुव के पिता का नाम।
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उत्तान-हृदय  : वि० [ब० स०] १. जिसके हृदय में छल-कपट न हो। सरल हृदय। २. उदार और सज्जन।
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उत्तानित  : भू० कृ० [सं० उद्√तन्+णिच्+क्त] १. ऊपर उठाया या फैलाया हुआ। २. जिसका मुख ऊपर की ओर हो।
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उत्ताप  : पुं० [सं० उद्√तप् (तपना)+घञ्] १. साधारण से बहुत अधिक बढ़ा हुआ ताप। २. मन में होनेवाला बहुत अधिक कष्ट या दुख।
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उत्तापन  : पुं० [सं० उद्√तप्+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्तापित, उत्तप्त] १. बहुत अधिक गरम करने या तपाने की क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक मानसिक कष्ट या पीड़ा पहुँचाना।
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उत्तापमापी (पिन्)  : पुं० [सं० उत्ताप√मा या√मि(नापना)+णिच्, पुक्+णिनि] एक यंत्र जिससे बहुत अधिक ऊँचे दरजे के ऐसे ताप नापे जाते हैं जो साधारण ताप-मापकों से नहीं नापे जा सकते। (पीरो मीटर)।
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उत्तापित  : भू० कृ० [सं० उद्√तप्+णिच्+क्त] १. बहुत गर्म किया या तपाया हुआ। उत्तप्त। २. जिसे बहुत दुःख पहुँचाया गया हो।
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उत्तापी (पिन्)  : वि० [सं० उद्√तप्+णिच्+णिनि] १. उत्तापन करने या बहुत ताप पहुँचानेवाला। २. बहुत अधिक कष्ट देनेवाला।
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उत्तार  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+घञ्] जो गुणों में दूसरों से बढ़ा-चढ़ा हो। उत्कृष्ट। २. दे० ‘उत्तारक’।
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उत्तारक  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+ण्वुल्-अक] उद्धार करने या उबारनेवाला। पुं० शिव।
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उत्तारण  : पुं० [सं० उद्√तृ+णिच्+ल्युट्-अन] १. तैर या तैराकर पार ले जाना। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना या पहुँचाना। ३. विपत्ति, संकट आदि से छुड़ाना। उद्धार करना।
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उत्तारना  : स० [सं० उत्तराण] १. पार उतारना या ले जाना। २. दूर करना। हटाना। उदाहरण—नाहर नाऊ नरयंद चित्त चिंता उत्तारिय।—चंदवरदाई। ३. दे० ‘उतारना’।
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उत्तारी (रिन्)  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+णिनि] पार करने या उतारनेवाला।
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उत्तार्य  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+यत्] जो पार उतारा जाने को हो अथवा पार उतारे जाने के योग्य हो।
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उत्ताल  : वि० [सं० उद्√तल्+घञ्] बहुत अधिक ऊँचा। जैसे—उत्ताल तरंग। पुं० वन-मानुष।
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उत्तीर्ण  : वि० [सं० उद्√तृ+क्त] १. जो नदी, नाले आदि के उस पार चला गया हो। पार गया हुआ। पारित। २. जो किसी जाँच या परीक्षा में पूरा सफल या सिद्ध हो चुका हो। ३. मुक्त।
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उत्तुंग  : वि० [सं० उत्-तुंग, प्रा० स०] १. बहुत अधिक ऊँचा। जैसे—हिमालय का उत्तुंग शिखर। २. यथेष्ठ उन्नत।
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उत्तू  : पुं० [फा०] १. कपड़े पर चुनट डालने या बेल-बूटे काढ़ने का एक औजार या उपकरण। २. उक्त करण से कपड़े पर बनाये हुए बेल-बूटे या डाली हुई चुनट। मुहावरा—(किसी व्यक्ति को) उत्तू करना या बनाना-इतना मारना कि बदन में दाग पड़ जाएँ। जैसे—मारते-मारते उत्तू कर दूँगा।
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उत्तूगर  : पुं० [फा०] वह कारीगर जो कपड़े पर उत्तू से कढ़ाई का काम करता अथवा चुनट डालता हो।
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उत्तेजक  : वि० [सं० उद्√तिज(तीक्ष्ण करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. उत्तेजना उत्पन्न करनेवाला। २. किसी को कोई काम करने के लिए उकसाने या भड़कानेवाला। ३. मनोवेगों को तीव्र या तेज करनेवाला। जैंसे—सभी मादक पदार्थ उत्तेजक होते हैं।
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उत्तेजन  : पुं० [सं० उद्√तिज्+णिच्+ल्युट-अन] [कर्त्ता, उत्तेजक, भू० कृ० उत्तेजित] १. तेज से युक्त करना अथवा तेज की प्रखरता बढ़ाना। २. उकसाना। भड़काना। ३. दे० ‘उत्तेजना’।
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उत्तेजना  : स्त्री० [सं० उद्√तिज्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. किसी के तेज को उत्कृष्ट करना या उग्र रूप देना। २. शरीर के किसी अंग या इंद्रिय में होनेवाली कोई असाधारण क्रियाशीलता। जैसे—जननेंद्रिय की उत्तेजना। ३. ऐसी स्थिति जिसमें मन चंचल होकर बिना समझे-बूझे कोई काम करने में उग्रता तथा शीघ्रतापूर्वक प्रवृत्त या रत होता है। (एक्साइटमेंट) जैसे—(क) उन्होंने केवल उत्तेजना-वश उस समय त्यागपत्र दे दिया था। (ख) उनके भाषण से सभा में उत्तेजना फैल गयी। ४. कोई ऐसा काम या बात जो किसी का मन चंचल करके उसे उग्रता और शीघ्रतापूर्वक कोई काम करने में प्रवृत्त करे। किसी को आवेश में लाने के लिए किया हुआ कार्य या कही हुई बात। बढ़ावा। (इन्साइटमेन्ट) जैसे—आपने ही उत्तेजना देकर उन्हें इस काम में आगे बढ़ाया था।
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उत्तेजित  : भू० कृ० [सं० उद्√तिच्+णिच्+क्त] १. जो किसी प्रकार की विशेषतः मानसिक उत्तेजना से युक्त हो। जिसमें उत्तेजना आई हो। (एक्साइटेड) जैसे—उत्तेजित होकर कोई काम नहीं करना चाहिए। २. जो किसी प्रकार की उत्तेजना से युक्त करके आगे बढ़ाया गया हो। उकसाया या भड़काया हुआ। (इन्साइटेड) जैसे—तुम्हीं ने तो उसे मारने के लिए उत्तेजित किया था।
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उत्तोलक  : वि० [सं० उद्√तुल् (तौलना)+णिच्+ण्वुल्-अक] उत्तोलक करने या ऊपर उठानेवाला। पुं० एक स्थान का ऊँचा यंत्र जिसकी सहायता से भारी चीजें एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रखी जाती हैं। (क्रेन)।
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उत्तोलन  : वि० [सं० उद्√तुल्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्तोलित] १. ऊपर की ओर उठाने या ले जाने की क्रिया या भाव। ऊँचा करना। जैसे—ध्वजोत्तोलन। २. तौलना।
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उत्तोलन-यंत्र  : पुं० [ष० त०] दे० ‘उत्तोलक’। (क्रेन)।
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उत्थवना  : स० [सं० उत्थापन] १. ऊपर उठाना। ऊँचा करना। २. आरंभ या शुरू करना। ३. अच्छी या उन्नत दशा में लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्थान  : स० [सं० उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ओर उठना। ऊँचा होना। उठान। (विशेष दे० उठना।) २. किसी निम्न या हीन स्थिति से निकलकर उच्च या उन्नत अवस्था में पहुँचने की अवस्था या भाव। उन्नत या समृद्ध स्थिति। जैसे—जाति या देश का उत्थान। ३. किसी काम या बात का आरंभ या आरंभिक अंश। उठान। जैसे—इस काव्य (या ग्रंथ) का उत्थान तो बहुत सुंदर हैं।
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उत्थान-एकादशी  : स्त्री० [ष० त०] कार्तिक शुक्ला एकादशी। देवोत्थान।
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उत्थानक  : वि० [सं० उत्थान+णिच्+ण्वुल्-अक] १. निम्न या साधारण स्तर से ऊपर की ओर ले जानेवाला। उत्थान करनेवाला। २. किसी को उन्नत या समृद्ध बनानेवाला। पुं० एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से लोग बहुत ऊँची-ऊँची इमारतों या भवनों में (बिना सीढ़ियाँ चढ़े-उतरे) ऊपर-नीचे आते जाते हैं (लिफ्ट)
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उत्थापक  : वि० [सं० उद्√स्था+णिच्, पुक्+ण्वुल्-अक] १. उत्थान करने या ऊपर उठानेवाला। २. जगानेवाला। ३. प्रेरित करनेवाला।
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उत्थापन  : पुं० [सं० उद्√स्था+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ओर उठाना। २. सोये हुए को जगाना। ३. उत्तेजित या उत्साहित करना।
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उत्थापित  : भू० कृ० [सं० उद्√स्था+णिच्, पुक्+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। २. जगाया हुआ। ३. उत्तेजित किया हुआ।
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उत्थायी (यिन्)  : वि० [सं० उद्√स्था+णिनि] १. ऊपर की ओर उठने, उभरने, निकलने या बढ़ने-वाला। २. उठाने, उभारने या उत्थान करनेवाला।
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उत्थित  : भू० कृ० [सं० उद्√स्था+क्त] १. जिसका उत्थान हुआ हो या किया गया हो। उठा हुआ। २. जागा हुआ। ३. समृद्ध।
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उत्थिति  : स्त्री० [सं० उद्√स्था+क्तिन्] उत्थान।
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उत्पट  : पुं० [सं० उद्√पट् (गति)+अच्] १. बबूल आदि पेड़ों से निकलने वाली गोंद। २. दुपट्टा।
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उत्पतन  : पुं० [सं० उद्√पत्+ल्युट-अन] १. उड़ने की क्रिया या भाव। २. ऊपर की ओर उठना। ३. उछालना। ४. उत्पन्न करना। जन्म लेना।
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उत्पत्ति  : स्त्री० [सं० उद्√पत्+क्तिन्] १. अस्तित्व में आने या उत्पन्न होने की अवस्था, क्रिया या भाव। आविर्भाव। उद्भव। जैसे—सृष्टि की उत्पत्ति। २. जन्म लेकर इस पृथ्वी पर आने की क्रिया या भाव। जैसे—पुत्र की उत्पत्ति। पैदाइश। जन्म। ३. किसी प्रकार का रूप धारण करके प्रत्यक्ष होने की अवस्था या भाव। जैसे—प्रेम या वैर की उत्पत्ति। ४. किसी उपाय या क्रिया से प्रस्तुत किया हुआ तत्व या पदार्थ। बन या बनाकर तैयार की हुई चीज। उपज० जैसे—कृषि की उत्पत्ति। ५. अर्थशास्त्र में, किसी चीज का आकार-प्रकार, रूप-रंग, आदि बदलकर उसे अपेक्षया अधिक उपयोगी रूप में लाने की क्रिया या भाव। उत्पादन।
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उत्पथ  : पुं० [सं० उत्-पथ, प्रा० स०] अनुचित या दूषित पथ। बुरा रास्ता। कुमार्ग। वि० कुमार्गी।
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उत्पन्न  : वि० [सं० उद्√पद् (गति)+क्त] १. जिसकी उत्पति हुई हो। २. जिसने जन्म लिया हो। ३. जिसे अस्तित्व में लाया या पैदा किया गया हो। ४. निर्मित किया या बनाया हुआ। ५. उपजा या उपजाया हुआ। ६. उद्भूत या घटित होनेवाला। जैसे—विचार या संदेह उत्पन्न होना।
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उत्पन्ना  : स्त्री० [सं० उत्पन्न+टाप्] अगहन बदी एकादशी।
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उत्पल  : पुं० [सं० उद्√पल्(गति)+अच्] १. कमल। विशेषतः नीलकमल। २. कुमुदनी। वि० बहुत ही दुबला-पतला या क्षीण-काय।
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उत्पलिनी  : स्त्री० [सं० उत्पल+इनि-ङीष्] १. कमल का पौधा। २. कमल के फूलों का समूह। ३. एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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उत्पवन  : पुं० [सं० उद्√पू (पवित्र करना)+ल्युट्-अन] १. शुद्ध या स्वच्छ करने की क्रिया या भाव। २. वह उपकरण जिससे कोई चीज साफ की जाए। ३. तरल पदार्थ छिड़कना।
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उत्पाटक  : वि० [सं० उद्√पट्+णिच्+अवुल्-अक] उत्पाटन करने या उखाड़नेवाला।
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उत्पाटन  : पुं० [सं० उद्√पट्+णिच्+ल्युट-अन] १. जड़ से खोदकर कोई चीज उखाड़ने की क्रिया या भाव। उन्मूलन। २. जमे, टिके या ठहरे हुए को पीड़ित करके उसके स्थान से हटाना।
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उत्पाटित  : भू० कृ० [सं० उद्√पट्+णिच्+क्त] १. जड़ से उखाड़ा हुआ। उन्मूलित। २. अपने स्थान से पीड़ित करके हटाया हुआ।
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उत्पात  : पुं० [सं० उद्+पत् (गिरना)+घञ्] १. अचानक ऊपर की ओर उठना, कूदना या बढ़ना। २. अचानक होनेवाली कोई ऐसी प्राकृतिक घटना जो कष्टप्रद या हानिकारक सिद्ध हो सकती हो। जैसे—अग्नि-कांड, उल्कापात, बाढ़, भूकंप आदि। ३. दे० ‘उपद्रव’।
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उत्पाती (तिन्)  : वि० [सं० उद्√पत्+णिनि] १. उत्पात या उपद्रव करनेवाला। २. पाजीपन या शरारत करनेवाला। उपद्रवी।
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उत्पाद  : वि० [सं० उद्√पद् (गति)+घञ्] जिसके पैर ऊपर उठें हो। पुं० १. वह वस्तु जिसका उत्पादन हुआ हो। निर्मित वस्तु। २. इतिवृत्त के मूल की दृष्टि से नाटक की कथा-वस्तु के तीन भेदों में से एक। ऐसी कथावस्तु जिसकी सब घटनाएँ कवि या नाटककार की निजी कल्पनाओं से उत्पन्न या उद्भूत हुई हों। जैसे—मालती-माधव, मृच्छकटिक आदि। (शेष दो भेद ‘प्रख्यात’ और ‘भिन्न’ कहे जाते हैं)।
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उत्पादक  : वि० [सं० उद्√पद्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. उत्पादन करनेवाला। २. जिससे कुछ उत्पादन हों। पुं० १. मूल कारण। २. [ब० स० कप्] शरभ नामक एक कल्पित जंतु।
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उत्पादन  : पुं० [सं० उद्√पद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. उत्पन्न या पैदा करना। २. उपजने में प्रवृत्त करना या सहायक होना। ३. ऐसा कार्य या प्रयत्न करना जिससे कोई उपजे या बने। 4. उक्त प्रकार से उत्पन्न करके या उपजाकर तैयार की या बनाई हुई चीज। (प्रोडक्सन) जैसे—(क) कल-कारखानों में होनेवाला कपड़ों का उत्पादन। (ख) खेतों आदि में होनेवाला अन्न का उत्पादन।
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उत्पादन-शुल्क  : पुं० [ष० त०] वह शुल्क जो कल-कारखानों में किसी वस्तु का उत्पादन करने या राज-कोष में देना पड़ता है। (एक्साइज ड्यूटी)।
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उत्पादित  : भू० कृ० [सं० उद्√पद्+णिच्+क्त] जिसका उत्पादन हुआ हो। उत्पन्न किया या उपजाया हुआ।
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उत्पादी (दिन्)  : वि० [सं० उद्√पद्+णिच्+णिनि] उत्पादन करने या उपजानेवाला।
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उत्पाद्य  : वि० [सं० उद्√पद्+णिच्+यत्] (पदार्थ) जिसका उत्पादन किया जाने को हो अथवा जिसका उत्पादन करना आवश्यक या उचित हो।
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उत्पाली  : स्त्री० [सं० उद्√पल्+घञ्-ङीष्] आरोग्य। स्वास्थ्य।
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उत्पीड़क  : पुं० [सं० उद्√पीड़(कष्ट देना)+ण्वुल्-अक] उत्पीड़न करने या कष्ट पहुँचानेवाला।
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उत्पीड़न  : पुं० [सं० उद्√पीड़+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्पीड़ित] १. दबाना। २. कष्ट या पीड़ा पहुँचाना। सताना। ३. अत्याचार या जुल्म करना। सताना।
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उत्पीड़ित  : भू० कृ० [सं० उद्√पीड़+क्त] १. दबाया हुआ। २. जिसे कष्ट या पीड़ा पहुँचाई गई हो। ३. सताया हुआ।
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उत्प्रभ  : वि० [सं० उत्-प्रभा, ब० स०] बहुत ही चमकीला। पुं० जलती या दहकती हुई आग।
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उत्प्रवास  : पुं० [सं० उत्-प्रवास, प्रा० स०] स्वदेश त्याग। अपना देश छोड़कर अन्य देश में जाना या जाकर रहना।
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उत्प्रेक्षक  : वि० [सं० उद्-प्र√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्-अक] उत्प्रेक्षा करनेवाला। वितर्क करनेवाला।
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उत्प्रेक्षण  : पुं० [सं० उद्-प्र√ईक्ष् (देखना)+ल्युट-अन] १. सावधान होकर ऊपर की ओर देखना। २. ध्यानपूर्वक देखना-भालना या सोचना। ३. एक वस्तु से दूसरी वस्तु की तुलना करना।
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उत्प्रेक्षणीय  : वि० [सं० उद्-प्र√ईक्ष्+अनीयर] जिसका उत्प्रेक्षण होने को हो अथवा जो उत्प्रेक्षण के योग्य हो।
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उत्प्रेक्षा  : स्त्री० [सं० उद्-प्र√ईक्ष्+अ-टाप्] [वि० उत्प्रेक्ष्य, उत्प्रेक्षणीय] १. उत्प्रेक्षण। २. एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान के भेद का ज्ञान होने पर भी इस बात का उल्लेख होता है कि उपमेय उपमान के समान जान पड़ता है। जैसे—अति कटु वचन कहत कैकेई। मानहु लोन जरे पर देई।-तुलसी। विशेष—इव, लजनु, जानो, मनु, मानो आदि शब्द इस अलंकार के सूचक होते है। इसके तीन भेद हैं-वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा और फलोत्प्रेक्षा।
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उत्प्रेक्षोपमा  : स्त्री० [उत्प्रेक्षा-उपमा, ष० त०] एक अर्थालंकार जिसमें किसी एक वस्तु के किसी गुण या विशेषता के दूसरी अनेक वस्तुओं में होने का उल्लेख होता है।
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उत्प्रेक्ष्य  : वि० [सं० उद्-प्र√ईक्ष्+ण्यत्] १. जिसकी उत्प्रेक्षा हो या होने को हो। २. को उत्प्रेक्षा द्वारा अभिव्यक्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो।
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उत्प्रेरक  : वि० [सं० उद्-प्र√ईर् (गति)+ण्वुल्-अक] उत्प्रेरणा करनेवाला।
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उत्प्रेरणा  : पुं० [सं० उद्-प्र√ईर्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. प्रेरणा करने की क्रिया या भाव। २. रसायन शास्त्र में, किसी ऐसे पदार्थ का (जो स्वयं अविकृत हो।) किसी दूसरे पदार्थ पर अपनी रासायनिक प्रतिक्रिया करना।
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उत्कुल्ल  : वि० [सं० उद्√फल्+क्त, लत्व, उत्व०] [भाव० उत्फुलता] १. खिला हुआ। जैसे—उत्फुल्ल कमल। २. खुला हुआ। जैसे—उत्फुल्ल नेत्र। ३. प्रसन्न। जैसे—उत्फुल्ल आनन।
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उत्यम  : वि० उत्तम।
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उत्याग  : पुं० [सं० उद्√सञ्ज् (मिलना)+घञ्] १. अंक। क्रोड़। गोद। २. बीच का हिस्सा। मध्य भाग। ३. ऊपरी भाग। ४. चोटी। शिखर। ५. तल। सतह। वि० १. निर्लिप्त। २. विरक्त।
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उत्संगित  : भू० कृ० [सं० उत्संग+इतच्] १. अंक या गोद में लिया हुआ। २. गले लगाया हुआ। आलिंगित।
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उत्स  : पुं० [सं०√उन्द् (भिगोना)+स] [वि० उत्स्य] १. बहते हुए पानी की धारा या स्रोत। झरना। २. जलमय स्थान।
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उत्सन्न  : वि० [सं० उद्√सद् (फटना, नष्ट होना आदि)+क्त] [स्त्री० उत्सन्ना] १. ऊपर की ओर उठाया हुआ। ऊँचा। अवसन्न का विपर्याय। २. बढ़ा हुआ। ३. पूरा किया हुआ। ४. उखाड़ा हुआ। उच्छिन्न।
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उत्सर्ग  : पुं० [सं० उद्√सृज् (त्याग)+घञ्] १. खुला छोड़ने या बंधन से मुक्त करने की क्रिया या भाव। २. किसी उद्देश्य या कारण से कोई वस्तु अपने अधिकार या नियंत्रण से अलग करना या निकालना और अर्पित करना। जैसे—(क) साहित्य-सेवा के लिए जीवन का उत्सर्ग। (ख) किसी पित्तर के उद्देश्य से किया जानेवाला वृषोत्सर्ग। ३. किसी के लिए किया जानेवाला त्याग। ४. दान। ५. साधारण या सामान्य नियम (अपवाद से भिन्न)। ६. एक वैदिक कर्म। ७. अंत। समाप्ति।
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उत्सर्गतः  : क्रि० वि० [सं० उत्सर्ग+तस्] सामान्य रूप से। साधारणतः।
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उत्सर्गी (र्गिन्)  : वि० [सं० उत्सर्ग+इनि] दूसरे के लिए उत्सर्ग या त्याग करनेवाला।
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उत्सर्जन  : पुं० [सं० उद्√सृज्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्सर्जित, उत्सृष्ट] १. उत्सर्ग करने की क्रिया या भाव। त्याग। २. बलिदान। ३. दान। ४. किसी कर्मचारी के किसी पद या स्थान से हटने की क्रिया या भाव। (डिसचार्ज)
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उत्सर्जित  : भू० कृ० [सं० उत्सृष्ट] १. त्यागा या छोड़ा हुआ। २. किसी के लिए दान के रूप में या त्यागपूर्वक छोड़ा हुआ। ३. [उद्√सृज्+णिच्+क्त] जिसे किसी पद या स्थान से हटाया गया हो।
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उत्सर्प, उत्सर्पण  : पुं० [सं० उद्√सृप् (गति)+घञ्] [उद्√सृप्+ल्युट-अन] १. ऊपर की ओर चढ़ने, जाने या बढ़ने की क्रिया या भाव। २. उठना। ३. उल्लंघन करना। ४. फूलना। ५. फैलना।
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उत्सर्पिणी  : पुं० [सं० उद्√सृप्+णिनि-ङीष्] जैनों के अनुसार काल की वह गति जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श की क्रमिक तथा निरंतर वृद्धि होती है।
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उत्सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० उद्√सृप्+णिनि] १. ऊपर की ओर जाने या बढ़ने वाला। २. बहुत अच्छा या बढ़िया। श्रेष्ठ।
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उत्सव  : पुं० [सं० उद्√सु(गति)+अच्] १. ऐसा सामाजिक कार्यक्रम जिसमें लोग किसी विशिष्ट अवसर पर अथवा किसी विशिष्ट उद्देश्य से उत्साहपूर्वक आनन्द मनाते हैं। जैसे—वसंतोत्सव, विवाहोत्सव आदि। २. त्योहार। पर्व।
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उत्सव-गीत  : पुं० [ष० त०] लोक गीतों के अंतर्गत ऐसे गीत जो पुत्र-जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि उत्सवों के समय गाये जाते हैं।
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उत्साद  : पुं० [सं० उद्√सृद+घञ्] क्षय। विनाश।
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उत्सादक  : वि० [सं० उद्√सृद्+णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० उत्सादिका] १. छोड़ने या त्यागनेवाला। २. नष्ट-भ्रष्ट करनेवाला। ३. विनाशक।
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उत्सादन  : पुं० [सं० उद्√सृद्+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्सादित] १. छोड़ना। त्यागना। २. काट-छाँट या तोड़-फोडकर नष्ट करना। ३. अच्छी तरह खेत जोतना। ४. बाधक होना। बाधा डालना। ५. पहले की कोई आज्ञा या निश्चय रद करना।
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उत्सादित  : भू० कृ० [सं० उद्√सृद्+णिच्+क्त] १. जिसका उत्सादन किया गया हो या हुआ हो। २. (पद) जो तोड़ दिया गया हो। (एबालिश्ड) ३. (आज्ञा) जो रद कर दी गई हो। (सेट एसाइड)
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उत्सार  : पुं० [सं० उद्√सृ (गति)+णिच्+अण्] दूर करना। हटाना। बाहर निकालना।
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उत्सारक  : वि० [सं० उद्√सृ+णिच्+ण्वुल्-अक] उत्सारण करने वाला। पुं० चौकीदार। पहरेदार।
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उत्सारण  : पुं० [सं० उद्√सृ+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्सारित] १. गति में लाना। चलाना। २. दूर करना। हटाना। ३. दर या भाव कम करना। ४. अतिथि या अभ्यागत का स्वागत करना।
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उत्साह  : पुं० [सं० उद्√सह् (सहन करना)+घञ्] मन की वह वृत्ति या स्थिति जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य प्रसन्न होकर और तत्परतापूर्वक कोई काम करने या कोई उद्देश्य सिद्ध करने लिए अग्रसर या प्रवृत्त होता है। साहित्य में इसे एक स्थायी भाव माना गया है।
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उत्साहक  : वि० [सं० उद्√सह+ण्वुल्-अक] १. उत्साह देने या उत्साहित करनेवाला। २. अध्यवसायी और कर्मठ।
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उत्साहन  : वि० [सं० उद्√सह्+णिच्+ल्युट-अन] १. किसी को उत्साह देना। उत्साहित करना। २. दृढ़ता-पूर्वक किया जानेवाला उद्यम। अध्यवसाय।
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उत्साहना  : अ० [सं० उत्साह+ना (प्रत्यय)] उत्साह से भरना। उत्साहित होना। उदाहरण—बसत तहाँ प्रमुदित प्रसन्न उन्नति उत्सहि।-रत्ना। स० उत्साहित करना। उत्साह बढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्साही (हिन्)  : वि० [सं० उत्साह+इनि] १. आनंद तथा तत्परतापूर्वक किसी काम में लगने वाला। २. जिसके मन में हर काम के लिए और हर समय उत्साह रहता हो। जैसे—उत्साही कार्यकर्त्ता।
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उत्सुक  : वि० [सं० उद्√सु (गति)+क्विप्+कन्] [भाव० उत्सुकता औत्सुक्य] जिसके मन में कोई तीव्र या प्रबल अभिलाषा हो, जो किसी काम या बात के लिए कुछ अधीर सा हो। (ईगर)
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उत्सुकता  : स्त्री० [सं० उत्सुक+तल्+टाप्] उत्सुक होने की अवस्था या भाव। मन की वह स्थिति जिसमें कुछ करने या पाने की अधीरता, पूर्ण प्रबल अभिलाषा होती है और विलंब सहना कठिन होता है। साहित्य में यह एक संचारी भाव माना जाता हैं। (ईगरनेस)।
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उत्सृष्ट  : भू० कृ० [सं० उद्√सृज् (छोड़ना)+क्त] १. जो उत्सर्ग के रूप में किया या लगाया गया हो। जिसका उत्सर्ग हुआ हो। २. छोड़ा या त्यागा हुआ।
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उत्सृष्ट-वृत्ति  : पुं० [सं० तृ० त०] दूसरों के छोड़े या त्यागे हुए अन्न से जीविका निर्वाह करने की वृत्ति।
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उत्सृष्टि  : स्त्री० [सं० उद्√सृज्+क्तिन्] १. उत्सर्ग। २. उत्सर्जन।
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उत्सेक  : पुं० [सं० उद्√सिच्(सींचना)+घञ्] [कर्त्ता० उत्सेकी] १. ऊपर की ओर उठना या बढ़ना। २. वृद्धि। ३. अभिमान। घमंड।
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उत्सेचन  : पुं० [सं० उद्√सिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्सिक्त] १. छिड़कने या सींचने की क्रिया या भाव। २. उफान। उबाल।
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उत्सेध  : पुं० [सं० उद्√सिध् (गति)+घञ्] १. ऊँचाई। २. बढ़ती। वृद्धि। ३. घनता या मोटाई। ४. शरीर का शोथ। सूजन। ५. देह। शरीर। ६. वध। हत्या। ७. आज-कल किसी वस्तु की कोई ऐसी आपेक्षिक ऊँचाई जो किसी विशिष्ट कोण, तल आदि के विचार से हो। (एलिवेशन) जैसे—(क) क्षैतिज कोण के विचार से तोप का उत्सेध। (ख) कुरसी या भू-तल के विचार से भवन का उत्सेध।
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उत्सेध-जीवी (बिन्)  : पुं० [सं० उत्सेध (वध)√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो हत्या और लूट-पाट करके अपना निर्वाह करता हो।
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उत्स्य  : वि० [सं० उत्स+यत्] १. उत्स संबंधी। २. उत्स या सोते में होनेवाला या उससे निकला हुआ।
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उत्  : उप० [सं०√उ (शब्द करना)+क्विप्] एक संस्कृत उपसर्ग जो शब्दों में लगकर ये अर्थ देता है-(क) ऊपर की उठना या जाना। जैसे—उत्कर्ष। (ख) अधिकता या प्रबलता। जैसे—उत्कट, उत्तप्त। (ग) भिन्न या विपरीत। जैसे—उत्पथ, उत्सूत्र। संधि के नियमों के अनुसार कही-कहीं इसका रूप उद् भी हो जाता है। जैसे—उदबुद्ध, उद्गमन आदि।
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उतंक  : पुं० [सं० उत्तक्क] एक प्राचीन ऋषि का नाम। वि० [सं० उत्तुंग] ऊँचा।
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उतंत  : वि० [सं० उत्तुंग] भरा-पूरा। समृद्ध। उदाहरण—भइ उतंत पदमावति बारी।—जायसी। वि० दे० ‘उत्पन्न’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतंथ  : पुं० =उतथ्य।
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उत  : क्रि० वि० [हिं० उ+त (स्थानवाचक)] उस दिशा में। उस ओर। उधर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतकरष  : पुं०=उत्कर्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतथ्य  : पुं० [सं० ] एक प्राचीन ऋषि जो बृहस्पति के बड़े भाई और गौतम के पिता थे।
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उतन  : अव्य० [हिं० उ+तनु] उस दिशा में। उस ओर। उधर।
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उतना  : वि० [हिं० उत-उधर या पर वक्ष में+ना प्रत्यय] १. एक सार्वनामिक विशेषण जो इतना का पर-पक्ष रूप है, और जो उस मात्रा, मान या संख्या का सूचक होता है, जिसका उल्लेख, चर्चा या निर्धारण पहले हो चुका हो अथवा जिसका संबंध किसी दूरी या पर-पक्ष से हो। उस मात्रा या मान का। जैसे—(क) वहाँ हमें इतना रास्ता पार करने में सारा दिन लग गया था। (ख) इतना अंश हमारा है और उतना उसका। २. जितना का नित्य संबंधी और पूरक रूप। जैसे—जितना कहा जाय, उतना किया करो। ३. इतना की तरह क्रिया-विशेषण रूप में प्रयुक्त होने पर, उस परिमाण या मात्रा में। जैसे—उस समय तुम्हारा उतना डरना (या दबना) ठीक नहीं हुआ।
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उतन्न  : पुं० [अ० वतन] १. जन्म-भूमि। २. निवास स्थान। उदाहरण—तीहां देस विदेस सम,सीहाँ किसा उतन्न।—बाँकीदास।
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उतन्ना  : पुं० [हिं० उतना=ऊपर+ना प्रत्यय] कान के ऊपरी भाग में पहना जानेवाला बाला की तरह का एक गहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपति  : स्त्री० १. =उत्पत्ति। २. =सृष्टि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपनना  : अ० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न या पैदा होना।
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उतपन्न  : वि० =उत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्पाटना  : स० [सं० उत्पाटन] १. उखाड़ना। २. नष्ट-भ्रष्ट करना।
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उतपात  : पुं० =उत्पात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपातना  : स०=उतपादना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपादना  : स० [सं० उत्पादन] उत्पन्न या उत्पादन करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपानन  : स० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न करना। उपजाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतपाना  : स० [सं० उत्पादन] १. उत्पादन करना। २. उत्पन्न करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतबंग ( मंग)  : पुं० [सं० उत्तमांग] मस्तक। सिर। (डिं०)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरंग  : पुं० [सं० उत्तरंग] वह लकड़ी या पत्थर की पटरी जो दरवाजे में चौखट के ऊपर बड़े बल में लगी रहती है।
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उतर  : पुं० =उत्तर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतर-अयन  : पुं० =उत्तरायण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरन  : स्त्री० [हिं० उतरना] वह (कपड़ा या गहना) जो किसी ने कुछ दिनों तक पहनने के बाद पुराना समझकर उतार या छोड़ दिया हो। पुं० दे०‘उतरंग’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरना  : अ० [सं० अवतरण, प्रा० उत्तरण] १. ऊपर से नीचे की ओर आना या जाना। जैसे—(क) गले के नीचे भोजन उतरना। (ख) स्तन में या स्तन से दूध उतरना। (ग) अंड-कोश में पानी उतरना। मुहावरा—(कोई बात किसी के) गले के नीचे उतरना=ध्यान, मन या समझ में आना। जैसे—उसे लाख समझाओं पर कोई बात उसके गले के नीचे उतरती ही नहीं। २. किसी वस्तु या व्यक्ति का ऊपर के या ऊँचे स्थान से क्रमशः प्रयत्न पूर्वक नीचे की ओर आना। निम्नगामी होना। अवतरण करना। जैसे—आकाश से पक्षी या वायुयान उतरना, घर की छत पर से नीचे उतरना। ३. यान, वाहन या सवारी पर से आरोही का नीचे आना। जैसे—घोड़े, नाव, पालकी या रेल पर से लोगों का उतरना। ४. किसी उच्च स्तर या स्थिति से अपने नीचे वाले प्राधिक,सामान्य या स्वाभाविक स्तर, स्थिति आदि की ओर आना। कम या न्यून होना। घटना। जैसे—ज्वर या ताप उतरना,नदी या बाढ़ का पानी उतरना, गाँजे या भाँग का नशा उतरना। ५. किसी पद या स्थान से खिच, खिसक या गिरकर अथवा किसी प्रकार अलग होकर नीचे आना। जैसे—(क) तलवार से कटकर करदन या कैंची से कटकर सिर के बाल उतरना। (ख) बकरे (या भैसे) की खाल उतरना। (ग) खींचा-तानी या लड़ाई-झगड़े में कंधे या कलाई की हड्डी उतरना। (घ) अपने दुराचार या दुर्व्यवहार के कारण किसी के चित्त से उतरना। ६. किसी अंकित नियत या स्थिर स्तर से नीचे आना। जैसे—(क) विद्यालय में लड़के का दरजा उतरना। (ख) ताप-मापक यंत्र का पारा उतरना। (ग) बाजार में चीजों का भाव उतरना। (घ) गाने में गवैये का स्वर उतरना। मुहावरा—(किसी से) उतरकर होना=योग्यता, श्रेष्ठता आदि के विचार से घटिया या हलका होना। ७. आकाश या स्वर्ग से अवतार, देवदूत आदि के रूप में इस लोक में आना। जैसे—समय-समय पर अनेक अलौकिक महापुरुष इस लोक में उतरते रहते हैं। ८. कहीं से आकर किसी स्थान पर टिकना, ठहरना या रूकना। डेरा डालना। जैसे—(क) धर्मशाला या बगीचें में बारात उतरना। (ख) किसी के घर मेहमान बनकर उतरना। ९. तत्परता या दृढ़तापूर्वक कोई काम करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र में आना। जैसे—(क) पिछले महायुद्ध में प्रायः सभी बड़े राष्ट्र युद्ध क्षेत्र में उतर आये थे। (ख) अब वे कहानियाँ लिखना छोड़कर आलोचना (या कविता) के क्षेत्र में उतरे हैं। १. किसी पदार्थ के उपयोगी, वांछित या सार भाग का किसी क्रिया से खींचकर बाहर आना। जैसे—भभके से किसी चीज का अरक उतरना, उबालने से पानी में किसी चीज का तेल, रंग या स्वाद उतरना। ११. शरीर पर धारण की हुई या पहनी हुई वस्तु का वहाँ से हटाये जाने पर अलग होना। जैसे—कपड़ा, जूता या मोजा उतरना। १२. अपनी पूर्व स्थिति से नष्ट-भ्रष्ट पतित या विलुप्त होना। जैसे—कोई बात चित्त से उतरना (याद न रहना) सबके सामने आबरू या इज्जत उतरना। मुहावरा—(किसी व्यक्ति का) किसी के चित्त से उतरना=अपने दुराचार, दुर्व्यवहार आदि के कारण किसी की दृष्टि में उपेश्र्य और हीन सिद्ध होना। किसी की दृष्टि मे आदरणीय न रह जाना। जैसे—जब से वे जूआ खेलने (या झूठ बोलने) लगे, तबसे वे हमारे चित्त से उतर गये। १३. अंत या समाप्ति की ओर आना या होना। जैसे—(क) उन दिनों उनकी अवस्था उतर रही थी। (ख) अब हस्त नक्षत्र (या सावन का महीना) उतर रहा है। मुहावरा—उतर आना=(क) किसी बड़े काल विभाग या पक्ष का पूरा या समाप्त हो जाना। जैसे—अब यह पक्ष (या वर्ष) भी उतर जायगा। (ख) संतान के पक्ष में, मर जाना। मृत्यु हो जाना। (स्त्रियाँ) जैसे—इसके बच्चे हो-होकर उतर जाते है। १४. घटाव या ह्रास की ओर आना या होना। जैसे—(क) धीरे-धीरे उसका ऋण उतर रहा है। (ख) अब इस कपड़े (या तस्वीर) का रंग उतरने लगा है। १५. किसी प्रकार के आवेश का मंद पड़कर शांत या समाप्त होना। जैसे—क्रोध या गुस्सा उतरना, झक या सनक उतरना। १६. फलों, फूलों आदि का अच्छी तरह से पक या फूल चुकने के बाद सड़न की ओर प्रवृत्त होना। जैसे—कल तक यह आम (या खरबूजा) उतर जायगा। १७. किसी प्रकार कुम्हला या मुरझा जाना अथवा श्रीहीन होना। प्रभा से रहित होना। जैसे—फटकारे जाने या भेद खुलने पर किसी का चेहरा या मुँह उतरना। १८. बाजों के संबंध में, जितना कसा, चढ़ा या तना रहना चाहिए, उससे कसाव या तनाव कम होना। (और फलतः उनसे अपेक्षित या वांछित स्वर ना निकलना) जैसे—तबला या सारंगी जब उतर जाय, तब उसे तुरंत (कस या तानकर) मिला लेना चाहिए। (उसमें उपयुक्त तनाव या कसाव ले आना चाहिए)। १९. क्रमशः तैयार होने या बननेवाली चीजों का तैयार या बनकर काम में आने या बाजार में जाने के योग्य होना। जैसे—(क) पेड़-पौधों से फल-फूल उतरना। करघे पर से थान या धोतियाँ उतरना, भट्ठी पर से चाशनी या पाग उतरना। २॰ अनुकृति, प्रतिकृति, प्रतिच्छाया, प्रतिलिपि, लेख आदि के रूप में अंकित या प्रस्तुत होना। नकल बनना या होना। जैसे—(क) किसी आदमी की तस्वीर या किसी जगह का नक्शा उतरना। (ख) खाते या बही में लेखा या हिसाब उतरना। २१. अनुकूल, उपयुक्त, ठीक या पूरा होना। जैसे—(क) यह कड़ा तौल में पूरा पाँच तोले उतरा है। (ख) यह काम उमसे पूरा न उतरेगा। २२. प्राप्य धन प्राप्त होना। उगाहा जाना या वसूल होना। जैसे—आजकल चंदा (या लहना) उतरना बहुत कठिन हो गया है। २३. शतरंज के खेल में प्यादे या सिपाही का आगे बढ़ते-बढ़ते विपक्षी के किसी ऐसे घर में पहुँचना जहाँ उस घर के मरे हुए मोहरे की जगह फिर से नया मोहरा बन जाता है। जैसे—हमारा यह व्यादा अब उतरकर वजीर (या हाथी) बनेगा। अ० [सं० उत्तरण] नाव आदि की सहायता से किसी जलाशय (तालाब, नदी, नाले आदि) के उस पार पहुँचना। जैसे—धीरज धरहिं सो उतरहिं पारा।—तुलसी।
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उतरवाना  : स० [हिं० उतरना का प्रे० रूप] किसी को कुछ उतारने में प्रवृत्त करना।
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उतरहा  : वि० [हिं० उत्तर +हा (प्रत्य०] उत्तर दिशा का। उत्तरी।
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उतराँही  : स्त्री० [हिं० उत्तर (दिशा)] उत्तर दिशा से आनेवाली हवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उताराई  : स्त्री० [हिं० उतरना] १. उतरने या उतराने की क्रिया या भाव। २. किसी चीज या व्यक्ति को नदी आदि पार उतारने या पहुँचाने कि लिए लगनेवाला कर या पारिश्रमिक। उदाहरण—पद कमल धोइ चढ़ाइ, नाव, न नाथ उताराई चहौं।—तुलसी। ३. रास्ते में पड़ने वाला उतार या ढाल।
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उतराना  : अ० [सं० उत्तरण] १. पानी में पड़ी हुई चीज का उसके ऊपर तैरना। २. पानी में डूबी हुई चीज का फिर से पानी के ऊपर आना। ३. विपत्ति या संकट से उद्धार पाना। पद-डूबना उतराना=चिंता, संकट आदि की स्थिति में कभी निऱाश होना और कभी उद्धार का मार्ग देखना। स० १. डूबे हुए को पानी के ऊपर लाना और रखना। तैराना। २. संकट आदि से मुक्त करना। उद्धार करना। उदाहरण—ऐसौ को जु न सरन गहे तै कहत सूर उतरायौ।—सूर। ३. दे० ‘उतरवाना’।
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उतरायल  : वि० [हिं० उतरना या उतराना] अच्छी तरह पहन चुकने के बाद उतारा हुआ (कपड़ा गहना आदि)। पुं० =उतरन।
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उतरारी  : वि० [सं० उत्तर+हिं० वारी] उत्तरी दिशा का। उत्तर का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतराव  : पुं० [हिं० उतरना] रास्ते में पड़ने वाला उतार। ढाल।
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उतरावना  : स० १. दे० उतारना। २. दे० ‘उतरवाना’।
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उतराहा  : वि० [सं० उत्तर+हा (प्रत्यय)] उत्तर दिशा का। उत्तर का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरिन  : वि०=उऋणी।
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उतरु  : पुं० =उत्तर (जवाब)। उदाहरण—जाइ उतरू अब देहरू काहा।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतरौहाँ  : वि० [सं० उत्तर+हा (प्रत्यय)] उत्तर दिशा का। उत्तरी। क्रि० वि० उत्तर दिशा की ओर।
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उतलाना  : अ० [हिं० आतुर] १. आतुर होना। २. उतावली करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतल्ला  : वि=उतायल। पुं० =उपल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतसाह  : पुं० =उत्साह।
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उतहसकंठा  : स्त्री०=उत्कंठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताइल  : अव्य० [हिं० उतावला का पुराना रूप] १. उतावलेपन से। २. जल्दी या शीघ्रता से। उदाहरण—चला उताइल त्रास न थोरी।—तुलसी। स्त्री० उतावली। जल्दीबाजी। वि०=उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताइली  : स्त्री०=उतावली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतान  : वि० [सं० उत्तान] पीठ के बल लेटा हुआ। चित्त। उदाहरण—जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना-तुलसी।
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उतामला  : वि० =उतावला। उदाहरण— देखताँ पथिक उतामला दीठा।—प्रिथीराज।
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उतायल  : वि०=उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताइली  : स्त्री०=उतावली।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतार  : पुं० [हिं० उतरना, उतारना] १. उतरने (नीचे की ओर आने) या उतारने (नीचे की ओर लाने) की क्रिया, भाव या स्थिति। २. किसी चीज या बात के नीचे की ओर चलने या होने की प्रवृत्ति। ढाल। नति। जैसे—अब आगे चलकर इस पहाड़ी का उतार पड़ेगा। ३. परिमाण, मात्रा, मान आदि में उत्तरोत्तर या क्रमशः होनेवाली कमी, घटाव या ह्रास। जैसे-ज्वर, नदी, बाजार-भाव या स्वर का उतार। ४. किसी चीज या बात का वह पिछला अंग या अंश जो प्रायः अंत या समाप्ति की ओर पड़ता हो। जैसे—गरमी या सरदी का उतार। ५. ऐसी चीज जो कोई उग्र आदेश या वेग करने में उपयोगी अथवा सहायक हो। मारक। (एन्टि-डोट) जैसे—(क) भाँग का उतार खटाई है। (ख) उनके गुस्से (या सेखी) का उतार हमारे पास है। ६. नदी के किनारे की वह जगह जहाँ यात्री नाव से उतरते है। ७. दे० उतारा। ८. दे० उतरन। वि० अधम। नीच। पतित। उदाहरण—अपत, उतार, अपकार को उपकार जग०००-तुलसी।
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उतार-चढ़ाव  : पुं० [हिं० उतरना+चढ़ना] १. नीचे उतरने और ऊपर चढ़ने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. ऐसा तल या स्थिति जिसमें कही-कहीं उतार हो और कहीं कहीं-चढ़ाव। तल में होनेवाली विषमता। ३. किसी वस्तु के मान, मूल्य, स्तर आदि का बराबर घटते-बढ़ते रहना। (फ्लक्चुएशन)।
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उतारन  : पुं० [हिं० उतारना] १. फटा-पुराना कपड़ा जो कुछ दिनों तक पहनने के बाद उतारकर छोड़ दिया गया हो। २. उच्छिष्ट और निकृष्ट वस्तु। ३. वह चीज जो टोने-टोटेके रूप में किसी पर से उतारकर या निछावर करके अलग की गई हो।
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उतारना  : स० [सं० उत्तारण] १. हिंदी उतरना का सकर्मक रूप। किसी को उतरने में प्रवृत्त करना। ऐसा काम करना जिससे कुछ या कोई नीचे उतरे। जैसे—कुएँ या सुरंग में आदमी उतरना। २. नाव आदि की सहायता से नदी के पार पहुँचना। उदाहरण—तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपालु पार उतारिहौं।—तुलसी। ३. प्रयत्नपूर्वक कोई चीज ऊँचे स्थान से नीचे स्थान पर लाना या ले जाना। नीचे करना या रखना। जैसे—गाड़ी पर से सवारी या सामान उतारना, सिर पर से बोझ उतारना। मुहावरा—(किसी के) गले में कोई बात उतारना=इस प्रकार अच्छी तरह समझाना-बुझाना कि कोई बात किसी के मन में जम या बैठ जाए। ४. परिणाम या मान कम करके या और किसी उच्च स्तर या स्थिति से नीचे वाले स्तर या स्थिति में लाना। जैसे—चढ़ा हुआ नशा या बुखार उतारना, किसी चीज की दर या भाव उतारना। ५. किसी पद या स्थान से काट, खोल, तोड़ या निकालकर अलग करना या नीचे लाना। जैसे—तलवार से किसी का सिर उतारना, कमरे में लगी हुई घड़ी उतारना, पेड़-पौधों पर से फूल-फल उतारना। ६. किसी अंकित या नियत पद या विभाग से उसके नीचेवाले पद या विभाग में लाना। जैसे—कर्मचारी या विद्यार्थी का दरजा उतारना। ७. आकाश या स्वर्ग से अवतार आदि के रूप में प्रयत्नपूर्वक इस लोक में लाना। जैसे—इस लोक में प्राणियों के कष्ट दूर करने के लिए देवता लोग राम को पृथ्वी पर उतार लाये। ८. किसी को किसी स्थान पर लाकर टिकाना या ठहराना। जैसे—महासभा के अवसर पर चार अतिथियों को तो हम अपने यहाँ उतार लेंगें। ९. कोई काम करने के लिए किसी को किसी क्षेत्र में लाना या पहुँचाना। किसी को विशिष्ट कार्य की ओर प्रवृत्त करना। जैसे—महात्मा गाँधी ने हजारों नये लोगों को राजनीतिक क्षेत्र में उतारा था। १. किसी पदार्थ या आवश्यक या उपयोगी अंश या सार भाग किसी क्रिया से निकालकर नीचे या बाहर लाना। जैसे—किसी वनस्पति का अरक या रंग उतारना। ११. शरीर पर धारम की हुई चीज अलग करके नीचे या कहीं रखना। जैसे—कुरता, टोपी या धोती उतारना। मुहावरा—किसी की पगड़ी उतारना=(क) किसी को अप्रतिष्ठित या अपमानित करना। (ख) किसी से बहुत अधिक धन ऐंठना या वसूल करना। १२. ध्यान, विचार आदि के पक्ष में, अपनी पूर्व स्थिति में वर्त्तमान स्थित न रहने देना। जैसे—अब पिछली बातें मन से उतार दो। १३. कमी, घटाव या ह्रास की ओर ले जाना। जैसे—अब तो वे जल्दी-जल्दी अपना ऋण उतार रहे हैं। १४. किसी प्रकार का आवेग या वेग मंद अथवा शांत करना। जैसे—मीठी-मीठी बातों से किसी का गुस्सा उतारना, किसी के सिर पर चढ़ा हुआ भूत उतारना। १५. शोभा, श्री आदि से रहित या हीन करना। जैसे—आपने मेरी बात पर हँसकर उनका चेहरा (या चेहरे का रंग) उतार दिया। १६. बाजों आदि के पक्ष में, उनका तनाव या कसाव कम करना। जैसे—बजा चुकने के बाद बीन या सितार उतार देनी चाहिए। १७. करण, यंत्र आदि के द्वारा बननेवाली चीजों को तैयार करके पूरा करना। जैसे—खराद पर से थालियाँ या लोटे उतारना। १८. अनुकृति, प्रतिकृति, प्रतिलिपि आदि के रूप में अंकित या प्रस्तुत करना। बनाना। जैसे—किसी की तसवीर उतारना, निबंध या लेख की नकल उतारना। मुहावरा—किसी व्यक्ति की नकल उतारना=उपहास परिहास आदि के लिए किसी को अंग-भंगी, बोल-चाल, रंग-ढंग आदि का अनुकरण या अभिनय करके दिखलाना। १९. कर्म-कांड, टोने-टोटके आदि के क्षेत्र में, किसी प्रकार के उपचार के रूप में कोई चीज किसी के सामने या उसके ऊपर से चारों ओर घुमाना-फिराना। जैसे—देवी-देवताओं की आरती उतारना, किसी पर से राई-नोन उतारना। २0० कोई काम ठीक तरह से पूरा करना या उचित रूप से अंत या समाप्ति की ओर ले जाना। जैसे—(क) तुम यह छोटा-सा काम भी पूरा न कर सके। (ख) वह कचौरी, पूरी मजे में उतार लेता है (तल या पकाकर तैयार कर लेता है)। २१. घम-घूमकर चारों ओर से धन इकट्ठा करना। वसूल करना। उगाहना। जैसे—चंदा या बेहरी उतारना। २२. शतंरज के खेल में अपना प्यादा आगे बढ़ाते हुए ऐसे घर में पहुँचाना जहाँ वह उस घर का मोहरा बन जाए। जैसे—तुमने तो अपना प्यादा उतारकर घोड़ा बना लिया।
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उतारा  : पुं० [हिं० उतरना] १. नदी आदि से पार उतरने की क्रिया या भाव। २. किसी स्थान पर उतरने (टिकने या ठहरने) की क्रिया या भाव। डेरा या पड़ाव डालना। ३. वह स्थान जहाँ पर कोई (विशेषतः यात्री) अस्थायी रूप से उतरे, टिके या ठहरे। डेरा। पड़ाव। पद-उतारे का झोपड़ा=यात्रियों के टिकने का स्थान। विश्रामालय। पुं० [हिं० उतारना] १. नदी आदि पार कराने की क्रिया या भाव। २. यात्री, सामान आदि नदी के पार उतराने का पारिश्रमिक। ३. नदी के किनारे का वह स्थान जहाँ नाव से यात्री या सामान उतारे जाते हैं। ४. वह रुपया-पैसा आदि जो किसी मांगलिक अवसर पर किसी के चारों ओर घुमाकर नाऊ आदि को दिया जाता है। ५. भूत-प्रेत, रोग आदि की बाधा के निवारण के लिए टोने-टोटके के रूप में किसी व्यक्ति के चारों ओर कुछ सामग्री उतार या घुमाकर अलग रखना। ६. उक्त प्रकार से उतारकर रखी जानेवाली सामग्री। ७. फटे-पुराने या उतारे हुए कपड़े जो गरीबों, नौकरों आदि को पहनने के लिए दिये जाते हैं। उतारन।
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उतारू  : वि० [हिं० उतरना] किसी काम या बात के लिए विशेषतः किसी अनुचित या निंदनीय काम या बात के लिए उद्यत या तत्पर। जैसे—गालियों या चोरी-चमारी पर उतारू होना। पुं० मुसाफिर। यात्री। (लश०)।
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उताल  : स्त्री० [सं० उद्+त्वर] जल्दी। वि० [सं० उत्ताल] १. तीव्र। तेज। २. फुरतीला। ३. उतावला। जल्दबाज। क्रि० वि० जल्दी से। शीघ्रतापूर्वक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतालक  : क्रि० वि० [हिं० उताला] जल्दी से। चटपट। तुरंत। उदाहरण—बथुआ राँधि लियौ जु उतालक।—सूर।
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उताला  : वि०=उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उताली  : स्त्री०=उतावली। क्रि० वि० जल्दी से।
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उतावल  : क्रि० वि० [सं० उद्+त्वर] जल्दी-जल्दी। शीघ्रता से। वि० दे० उतावला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतावला  : वि० [सं० आतुर या उत्ताल ?] [स्त्री० उतावली] १. जो किसी काम के लिए बहुत आतुर हो। २. जो हर काम में जल्दी मचाता हो। उत्सुकतापूर्वक जल्दी मचानेवाला। ३. जो बिना समझे-बूझे तथा आवेश में आकर कोई काम करने के लिए तत्पर हो जाय।
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उतावली  : स्त्री० [सं० उद्+त्वर] १. उतावले होने की अवस्था या भाव। २. किसीकाम के लिए मचाई जानेवाली जल्दी। ३. व्यग्रता।
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उताहल  : वि० =उतावला। क्रि० वि० जल्दी से।
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उताहिल  : वि० =उतावला। क्रि० वि० जल्दी से।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतिम  : वि० =उत्तम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उती  : अव्य० [हिं० उत] उधर। उस ओर। उदाहरण—तव उती नाहीं कोई।—गोरखनाथ।
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उतृण  : वि० =उऋण।
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उतै  : अव्य० [हिं० उत] उधर। उस ओर। वहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उतैला  : वि०=उतावला। पुं० [देश] उड़द। उर्द।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्कंठ  : वि० [सं० उत्-कंठ, ब० स०] १. जिसने गरदन ऊपर उठाई हो। २. जिसे उत्कंठा हो। उत्कंठित। क्रि० वि० १. गरदन ऊपर उठाए हुए। २. उत्कंठापूर्वक।
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उत्कंठा  : स्त्री० [सं० उद्√कण्ठ् (अत्यंत चाह)+अ-टाप्] [वि० उत्कंठित] १. कोई काम करने या कुछ पाने की प्रबल इच्छा। उत्कट या तीव्र अभिलाषा। चाव। (लांगिंग) २. किसी कार्य के होने में विलंब न सहकर उसे चटपट करने की अभिलाषा। (साहित्य)
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उत्कंठातुर  : वि० [सं० उत्कंठा-आतुर, तृ० त०] जो कोई प्रबल या तीव्र अभिलाषा पूरी करने के लिए उत्कंठा के कारण आतुर हो। उदाहरण—मैं चिर उत्कंठातुर।—पंत।
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उत्कंठित  : वि० [सं० उत्कंठा+इतच्] जिसके मन में कोई तीव्र या प्रबल अभिलाषा हो। उत्कंठा या चाव से भरा हुआ।
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उत्कंठिता  : स्त्री० [सं० उत्कंठित+टाप्] साहित्य में वह नायिका जो संकेतस्थल में अपने प्रेम के न पहुँचने पर उत्कंठापूर्वक उसकी प्रतीक्षा करती हो।
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उत्कंप  : पुं० [सं० उद्√कम्प् (काँपना)+घञ्] कंपन। कँपकँपी।
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उत्कच  : वि० [सं० उत्-कच, ब० स०] जिसके बाल उठे हुए या खड़े हों। पुं० हिरण्याक्ष का एक पुत्र।
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उत्कट  : वि० [सं० उद्√कट् (गति)+अच्] [भाव० उत्कटता] १. जो मान, मात्रा आदि के विचार से बहुत ऊँचा या बढ़ा-चढ़ा हो। (इन्टेन्स) जैसे—उत्कट प्रेम, उत्कट विद्धान। २. जो अपने गुण, प्रबाव, फल आदि के विचार से बहुत उग्र या तीव्र हो। जैसे—उत्कट स्वभाव। पुं० १. मूँज। २. गन्ना। ३. दालचीनी। ४. तज। ५. तेजपता।
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उत्कर  : पुं० [सं० उद्√कृ (फेंकना)+अप्] ढेर। राशि।
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उत्कर्ण  : वि० [सं० उत्-कर्ण, ब० स०] १. जिसके कान ऊँचे उठे हों। २. जो किसी की बात सुनने के लिए उत्सुक होने के कारण कान उठाये हुए हों।
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उत्कर्ष  : पुं० [सं० उद्√कृष् (खींचना)+घञ्] १. ऊपर की ओर उठने, खिंचने या जाने की क्रिया या भाव। २. पद, मान, संपत्ति आदि में होनेवाली वृद्धि, संपन्नता या समृद्धि। ३. भाव, मूल्य आदि में होनेवाली अधिकता या वृद्धि।
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उत्कर्षक  : वि० [सं० उद्√कृष्+ण्वुल्-अक] १. ऊपर की ओर उठाने या बढ़ानेवाला। २. उन्नति या समृद्धि करनेवाला। उत्कर्ष करनेवाला।
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उत्कर्षता  : स्त्री० [सं० उत्कर्ष+तल्-टाप्] १. उत्तमता। श्रेष्ठता। २. अधिकता। ३. समृद्धि।
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उत्कर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० उद्√कृष्+णिनि] =उत्कर्षक।
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उत्कल  : पुं० [सं० ] १. भारतीय संघ के उड़ीसा राज्य का पुराना नाम। २. चिड़ीमार। बहेलिया। ३. बोझ ढोनेवाला मजदूर।
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उत्कलन  : पुं० [सं० उद्√कल् (गति, प्रेरणा, संख्या, शब्द)+ल्युट्-अन] १. बंधन से मुक्त होना। छूटना। २. फूलों आदि का खिलना या विकसित होना। ३. लहराना।
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उत्कलिका  : स्त्री० [सं० उद्√कल्+वुल्-अक-टाप्] १. उत्कंठा। २. फूल की कली। ३. लहर। तरंग। ४. साहित्य में ऐसा गद्य जिसमें बड़े-बड़े सामासिक पद हों।
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उत्कलित  : वि० [सं० उद्√कल्+क्त] १. जो बँधा हुआ न हो। खुला हुआ। मुक्त। २. खिला हुआ। विकसित। ३. लहराता हुआ।
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उत्कली  : वि० स्त्री० दे० ‘उड़िया’।
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उत्कारिका  : स्त्री० [सं० उद्√कृ+ण्वुल्-अक-टाप्, इत्व] फोड़े आदि पकाने के लिए उन पर लगाया जानेवाला लेप। पुलटिस।
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उत्कीर्ण  : वि० [सं० उद्√कृ+क्त] १. छितरा, फैला या बिखरा हुआ। २. छिदा या भिदा हुआ। ३. खोदकर अंकित किया हुआ।
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उत्कीर्त्तन  : पुं० [सं० उद्√कृत् (जोर से शब्द करना)+ल्युट-अन] १. जोर से बोलना। चिल्लाना। २. घोषणा करना। ३. प्रशंसा या स्तुति करना।
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उत्कुण  : पुं० [सं० उद्√कुण् (हिंसा करना)+अच्] १. खटमल। २. बालों में पड़नेवाला छोटा कीड़ा। जूँ।
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उत्कूज  : पुं० [सं० उद्√कूज् (अव्यक्त शब्द)+घञ्] १. कोमल। मधुर। ध्वनि। २. कोयल की कुहुक।
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उत्कूट  : पुं० [सं० उद्√कूट् (ढकना)+अच्] बहुत बड़ा छाता।
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उत्कृष्ट  : वि० [सं० उद्√कृष् (खींचना)+क्त] [भाव० उत्कृष्टता] १. अच्छे गुण से युक्त और फलतः आकर्षक या सुंदर। २. जो औरों से बड़ा-चढ़ा हो। उत्तम। श्रेष्ठ।
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उत्कृष्टता  : स्त्री० [सं० उत्कृष्ट+तल्-टाप्] उत्कृष्ट होने की अवस्था या भाव।
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उत्केंद्र  : वि० [सं० उत्-केन्द्र, ब० स०] [भाव० उत्केंद्रता] १. अपने केन्द्र से हटा हुआ। २. जो केन्द्र या ठीक मध्य में स्थित हो। ३. जो ठीक या पूरा गोला न हो। ४. अनियमित। बे-ठिकाने। (एस्सेन्ट्रिक) पुं० केन्द्र से भिन्न स्थान।
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उत्केन्द्रता  : स्त्री० [सं० उत्केन्द्र+तल्-टाप्] उत्केन्द्र होने की अवस्था या भाव। (एस्सेन्ट्रि-सिटी)।
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उत्केंद्रित  : वि० ‘उत्केंद्र’।
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उत्क्षेपण  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ।
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उत्कोच  : पुं० [सं० उद्√कुच्(संकोच)+क] १. घूस। रिश्वत। (ब्राइब) २. भ्रष्टाचार।
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उत्कोचक  : वि० [सं० उद्√कुच्+ण्वुल्-अक] १. किसी को घूस देनेवाला। २. घूस लेनेवाला। ३. भ्रष्टाचारी।
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उत्क्रम  : पुं० [सं० उद्√क्रम् (गति)+घञ्] १. ऊपर की ओर उठना या जाना। २. उन्नति या समृद्धि होना। ३. अनजान में या बिना किसी इष्ट उद्देश्य के ठीक मार्ग से इधर-उधर होना। (डिग्रेशन) विशेष-यह ‘विकल्प’ से इस बात में भिन्न है कि इसमें उचित मार्ग का त्याग किसी बुरे उद्देश्य से नहीं होता।
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उत्क्रमण  : पुं० [सं० उद्√क्रम्+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ओर जाने की क्रिया या भाव। २. आज्ञा या कार्य-क्षेत्र का उल्लंघन करना। ३. आक्रमण। चढ़ाई। ४. मृत्यु। मौत।
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उत्क्रांत  : वि० [सं० उद्√क्रम्+क्त] [भाव० उत्क्रांति] १. ऊपर की ओर चढने वाला। २. जिसका उल्लंघन या अतिक्रमण हुआ हो।
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उत्क्रांति  : वि० [सं० उद्√क्रम्+क्तिन्] १. धीरे-धीरे उन्नति या पूर्णता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति। दे० आरोह। २. अतिक्रमण। उल्लंघन। ३. मृत्यु। मौत।
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उत्क्रोश  : पुं० [सं० उद्√कुश् (चिल्लाना)+घञ्] १. शोर-गुल। हल्ला-गुल्ला। २. कुररी नामक पक्षी।
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उत्क्लेदन  : पुं० [सं० उद्√क्लिद् (भींगना)+ल्युट-अन] गीला, तर या नम करने या होने की क्रिया या भाव।
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उत्क्लेश  : पुं० [सं० उद्√क्लिश् (कष्ट पाना)+घञ्] वैद्यक में, कुछ खाने के बाद आमाशय की अम्लता के कारण कलेजे के पास मालूम होनेवाली जलन। (रोग) (हार्ड बर्न)
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उत्क्षिप्त  : भू० कृ० [सं० उद्√क्षिप्(फेंकना)+क्त] १. ऊपर की ओर उछाला या फेंका हुआ। २. दूर किया या हटाया हुआ। ३. कै या वमन के रूप में बाहर निकाला हुआ। ४. नष्ट किया हुआ। ध्वस्त।
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उत्क्षेप  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+घञ्] [वि० उत्क्षिप्त, कर्त्ता उत्क्षेपक] १. ऊपर की ओर उछालने या फेंकने की क्रिया या भाव। २. बाहर निकालना। ३. दूर हटाना। ४. परित्याग करना। छोड़ना। ५. कै। वमन।
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उत्क्षेपक  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+ण्वुल्-अक] १. ऊपर उछालने या फेंकनेवाला। २. दूर करने या हटानेवाला। ३. चोरी करनेवाला। चोर।
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उत्क्षेपण  : पुं० [सं० उद्√क्षिप्+ल्यूट्-अक] १. ऊपर की ओर फेंकने की क्रिया या भाव। उछालना। २. उल्टी। कै। वमन। ३. चोरी। 4. मूसल। 5. पाँव। 6. ढकना। ढक्कन।
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उत्खनन  : पुं० [सं० उद्√खन् (खोंदना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्खचित] गड़ी या जमी चीज को खोदना। खोदकर बाहर निकालना या फेंकना।
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उत्खात  : भू० कृ० [सं० उद्√खन्+क्त] १. खोदा हुआ। २. खोदकर बाहर निकाला हुआ। ३. जड़ों से उखाड़ा हुआ। (पेड़, पौधा आदि)। ४. नष्ट-भ्रष्ट किया हुआ। ५. अपने स्थान से दूर किया या हटाया हुआ।
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उत्खाता (तृ)  : वि० [सं०√उद्√खन्+तृच्] ११. उखाड़नेवाला। २. कोदनेवाला। ३. समूल नष्ट करना।
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उत्खाती (तिन्)  : वि० [सं० उद्√खन्+णिनि] १. जो समतल न हो। ऊबड़-खाबड़। २. =उत्खाता।
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उत्खान  : पुं० [सं० उद्√खन्+घञ्]=उत्खनन।
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उत्खेद  : पुं० [सं० उद्√खिद् (दीनता, घात)+घञ्] १. काटना। छेदना। २. खोदना।
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उत्तंकिय  : वि० आतंकित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तंग  : वि० उत्तंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तंभन  : पुं० [सं० उद्√स्तम्भ् (रोकना)+घञ्] [उद्√स्तम्भ+ल्युट्] १. टेक या सहरा देने की क्रिया या भाव। २. टेक। सहारा। ३. रोक।
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उत्तंस  : पुं० [सं० उद्√तंस् (अलंकृत करना)+अच् या घञ्] दे० ‘अवतंस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तट  : वि० [सं० उत्-तट, अत्या० स०] किनारे या तट के ऊपर निकलकर बहनेवाला।
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उत्तप्त  : भू० कृ० [सं० उद्√तप्(तपना)+क्त] १. खूब तपा या तपाया हुआ। २. जलता हुआ। ३. लाक्षणिक अर्थ में सताया हुआ। संतप्त। ४. कुपित।
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उत्तब्ध  : भू० कृ० [सं० उद्√स्तम्भ (रोकना)+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। उन्नमित। २. उत्तेजित किया हुआ। भड़काया हुआ।
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उत्तभित  : वि० उत्तब्ध।
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उत्तमंग  : पुं० उत्तमांग।
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उत्तम  : वि० [सं० उद्+तमप्] [स्त्री० उत्तमा] १. जो गुण, विशेषता आदि में सबसे बहुत बढ़कर हो। सबसे अच्छा। २. सबसे बड़ा। प्रधान। पुं० १. विष्णु। २. ध्रुव का सौतेला भाई।
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उत्तम-गंधा  : स्त्री० [ब० स०] चमेली।
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उत्तमतया  : क्रि० वि० [सं० उत्तमता शब्द की तृतीया विभक्ति के रूप का अनुकरण] उत्तम रूप से। अच्छी तरह। भली भाँति।
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उत्तमता  : स्त्री० [सं० उत्तम+तल्-टाप्] उत्तम होने की अवस्था या भाव।
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उत्तमताई  : स्त्री० उत्तमता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्तमत्व  : पुं० [सं० उत्तम+त्व] उत्तमता।
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उत्तमन  : पुं० [सं० उद्√तम् (खेद)+ल्युट-अन] १. साहस छोड़ना। २. अधीरता। अधैर्य।
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उत्तम-पुरुष  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. व्याकरण में, वह पद जो प्रथम पुरुष अर्थात् बोलनेवाला का वाचक हो। वक्ता का वाचक सर्व-नाम। जैसे—हम, मैं। २. ईश्वर जो सब पुरुषों में उत्तम कहा गया हो।
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उत्तमर्ण  : पुं० [सं० उत्तम-ऋण, ब० स०] वह जो दूसरो को ऋण देता हो, अथवा जिसे किसी को ऋण दिया हो। महाजन।
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उत्तमर्णिक  : पुं० [सं० उत्तम-ऋण, कर्म० स०+ठन्-इक]=उत्तमर्ण।
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उत्तम-साहस  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्राचीन काल में अपराधी को दिया जानेवाला बहुत अधिक कठोर आर्थिक या शारीरिक देड। जैसे—अंग-भंग, निर्वासन, प्राण-दंड आदि।
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उत्तमांग  : पुं० [सं० उत्तम-अंग, कर्म० स०] शरीर का उत्तम या सर्वश्रेष्ठ अंग, मस्तक। सिर।
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उत्तमांभस  : पुं० [सं० उत्तम-अंभस्, कर्म० स०] सांख्य में, हिसा के त्याग से प्राप्त होनेवाली तुष्टि।
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उत्तमा  : स्त्री० [सं० उत्तम+टाप्] १. श्रेष्ठ स्त्री। २. शूक रोग का एक बेद। ३. दुद्धी या दूधी नाम की जड़ी। वि० भली। नेक।
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उत्तमादूती  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] साहित्य में, वह दूती जो रूठे हुए नायक या नायिका को समझा-बुझाकर या दूसरे उत्तम उपायों से उसके प्रिय के पास ले आती हो।
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उत्तमानायिका  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] साहित्य में, शुद्ध आचरणवाली वह स्वकीया नायिक जो पति के प्रतिकूल या विरुद्ध होने पर भी उसके अनुकूल बनी रहें।
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उत्तमार्द्ध  : पुं० [सं० उत्तम-अर्द्ध, कर्म० स०] १. किसी वस्तु का वह आधा अंश या भाग जो शेष अंश की तुलना में श्रेष्ठ हो। २. अंतिम आधा अँश या भाग। उत्तरार्ध।
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उत्तमाह  : पुं० [सं० उत्तम-अहन्, कर्म० स०] १. अच्छा या शुभ दिन। २. अंतिम या आखिरी दिन।
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उत्तमीय  : वि० [सं० उत्तम+छ-ईय] १. सबसे अच्छा और ऊपर का। सर्वश्रेष्ठ। २. प्रधान। मुख्य। ३. सबसे ऊँचा।
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उत्तमोत्तम  : वि० [सं० उत्तम-उत्तम, पं० त०] १. सबसे अच्छा। सर्वोत्तम। २. एक से एक बढ़कर, सभी अच्छे। जैसे—अनेक उत्तमोत्तम पदार्थ वहाँ रखे थे।
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उत्तमोत्तमक  : पुं० [सं० उत्तमोत्तम+कन्] लास्य नृत्य के दस प्रकारों में से एक।
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उत्तमौजा (जस्)  : वि० [सं० उत्तम-ओजस्, ब० स०] जो तेज और बल के विचार से दूसरों से बढ़कर हो। पुं० १. मनु के एक पुत्र का नाम। २. एक राजा जिसने महाभारत के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।
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उत्तरंग  : वि० [सं० उद्-तरंग, ब० स०] १. लहराता हुआ। तरंगित। २. आनंदमग्न। ३. काँपता हुआ। पुं० [सं० कर्म० स०] वह काठ जो चौखट के ऊपर लगाया जाता है।
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उत्तर  : पुं० [सं० उद्√तृ (तैरना)+अप् अथवा उद्+तरप्] १. वह दिशा जो पूर्व की ओर मुँह करके खड़े होने पर मनुष्य की बाई ओर पड़ती है। उदीची। २. किसी देश का उत्तरी भाग। ३. किसी के प्रश्न या शंका करने पर या उसके समाधान या संतोष के लिए कही जानेवाली बात। ४. जाँच या परीक्षा के लिए पूछे हुए प्रश्नों के संबंध में कही हुई उक्त प्रकार की बात। ५. गणित आदि में, किसी प्रश्न का निकला हुआ अंतिम परिणाम। फल। ६. अबियोग या आरोप लगने पर अपने आचरण या व्यवहार का औचित्य सिद्ध करते हुए कुछ कहना। ७. किसी के कार्य या व्यवहार के बदले में ठीक उसी प्रकार से किया जानेवाला कार्य या व्यवहार। ८. साहित्य में एक अलंकार जिसमें (क) किसी प्रश्न के उत्तर में कोई गूढ़ आशय या संकेत किया जाता है अथवा (ख) कुछ प्रश्न इस रूप में रखे जाते है कि उनके उत्तर भी उन्हीं शब्दों में छिपे रहते हैं। ९. राजा विराट के एक पुत्र का नाम। वि० १. उत्तरी। बाद का। पिछला। २. ऊपर का। ३. श्रेष्ठ। अव्य० बाद में। पीछे।
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उत्तर-कल्प  : पुं० [सं० कर्म० स०] भू-विज्ञान के अनुसार वह दूसरा कल्प जिसमें मुख्यतः पर्वतों तथा खनिज पदार्थों की सृष्टि हुई थी। अनुमानतः यह कल्प आज से लगभग सवा अरब वर्ष पहले हुआ था।
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उत्तर-कोशला  : स्त्री० [सं० उत्तरकोशल+अच्-टाप्] अयोध्या नगरी।
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उत्तर-क्रिया  : स्त्री० [मध्य० स०] मृत्यु के उपरांत मृतक के उद्देश्य से होनेवाले धार्मिक कृत्य। अंत्येष्टि।
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उत्तर-गुण  : पुं० [कर्म० स०] मूल गुणों की रक्षा करनेवाले गौण या दूसरे गुण।( जैन)।
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उत्तरच्छद  : पुं० [कर्म० स०] १. आच्छादन। आवरण। २. बिछौने या बिछाई जानेवाली चादर।
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उत्तरण  : पुं० [सं० उद्√तृ+ल्युट-अन] तैरकर या नाव आदि के द्वारा जलाशय पार करना।
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उत्तर-तंत्र  : पुं० [कर्म० स०] किसी वैद्यक ग्रंथ का पिछला या परिशिष्ट भाग।
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उत्तर-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] —उत्तरदायी। वि० उत्तर या जवाब देना।
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उत्तरदायित्व  : पुं० [सं० उत्तरदायिन्+त्व] किसी बात या बात के लिए उत्तरदायी होने की अवस्था या भाव। जवाबदेही। जिम्मेदारी।
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उत्तरदायी (यिन्)  : वि० [सं० उत्तर√दा (देना)+णिनि] १. जिस पर कोई काम करने का भार हो। जैसे—इस काम के उत्तदायी आप ही मानें जाँयेगे। २. जो नैतिक अथवा विधिक दृष्टि से अपने किसी आचरण अथवा दूसरों द्वारा सौंपे हुए कार्य के संबंध में कुछ पूछे जाने पर उत्तर देने के लिए बाध्य हो। जैसे—उत्तरदायी शासन। (रेसपान-सिबुल, उक्त दोनों अर्थों में)।
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उत्तर-पक्ष  : पुं० [कर्म० स०] विवाद आदि में वह पक्ष जो पहले किये जानेवाले निरूपण या प्रस्थान का खंडन या समाधान करता हो। अभियोग तर्क, प्रश्न आदि का उत्तर देनेवाला पक्ष। ‘पूर्व-पक्ष’ का विपर्याय।
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उत्तर-पट  : पुं० [कर्म० स०] १. ओढ़ने की चादर। उत्तरीय। २. बिछाने की चादर।
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उत्तर-पथ  : पुं० [ष० त०] पाटलिपुत्र से वाराणसी, कौशाम्बी, साकेत, मथुरा, तक्षशिला आदि से होता हुआ वाह्लीक तक गया हुआ एक प्राचीन मार्ग।
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उत्तर-पद  : पुं० [कर्म० स०] समस्त या यौगिक शब्द का अंतिम या पिछला शब्द। जैसे—धर्मानुसार या धर्म-साधन में का अनुसार या साधन शब्द।
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उत्तर-प्रत्युत्तर  : पुं० [द्व० स०] किसी से किसी बात का उत्तर मिलने पर उसके उत्तर में कुछ कहना-सुनना। वाद-विवाद। बहस।
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उत्तर-प्रदेश  : पुं० [सं० ] भारतीय संघ राज्य का वह प्रदेश जिसके उत्तर में हिमालय, पश्चिम में पंजाब, पूर्व में बिहार और दक्षिण में मध्य प्रदेश है। (पुराने संयुक्त प्रदेश का नया नाम)।
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उत्तर-भोगी (गिन्)  : वि० [सं० उत्तर√भुज् (भोगना)+णिनि] किसी के द्वारा छोड़ी हुई अथवा किसी की बची हुई वस्तु या संपत्ति का भोग करने वाला।
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उत्तर-मंद्रा  : पुं० [ब० स० टाप्] संगीत में एक मूर्च्छना का नाम।
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उत्तर-मीमांसा  : स्त्री० [ष० त०] वेदांत दर्शन।
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उत्तर-वयम्  : पुं० [कर्म० स०] जीवन का अंतिम समय जिसमें मनुष्य की सारी शक्तियाँ क्षीण होने लगती है। बुढ़ापा। वृद्धावस्था।
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उत्तरवर्तन  : पुं० [स० त०] दे ‘अनुवृत्ति’।
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उत्तरवादी (दिन्)  : वि० प्रतिवादी।
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उत्तर-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] दूसरों से सुनी सुनाई बातों के आधार पर साक्षी देनेवाला व्यक्ति।
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उत्तरा  : स्त्री० [सं० उत्तर+टाप्] राजा विराट की कन्या जिसका विवाह अभिमन्यु से हुआ था।
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उत्तरा-खंड  : पुं० [ष० त०] भारत का वह उत्तरी भू-भाग जो हिमालय की तलहटी में और उसके आस-पास पड़ता है।
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उत्तराधिकार  : पुं० [उत्तर-अधिकार, ष० त०] १. ऐसा अधिकार जिसके अनुसार किसी के न रह जाने अथवा अपना अधिकार छोड़ देने पर किसी दूसरे को उसकी धन-संपत्ति आदि प्राप्त होती है। २. किसी के पद या स्थान से हटने पर उसके बाद आनेवाले व्यक्ति को मिलनेवाला उसका अधिकार, गुण विशेषता आदि। वरासत। (इनहेरिटेन्स)
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उत्तराधिकार-कर  : पुं० [ष० त०] शासन की ओर से, उत्तराधिकारी को मिलनेवाली संपत्ति पर लगनेवाला कर।
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उत्तराधिकार-प्रमाणक  : पुं० [ष० त०] न्यायालय से मिलनेवाला यह प्रमाणक जिसमें विधिक रूप से किसी के उत्तराधिकारी माने जाने का उल्लेख होता है। (सक्सेशन सर्टिफिकेट)
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उत्तराधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० उत्तराधिकार+इनि] १. वह व्यक्ति जो किसी की संपत्ति प्राप्त करने का विधितः अधिकारी हो। (इनहेरिटर) २. अधिकारी के किसी पद या स्थान से हटने पर उस पद या स्थान पर आनेवाला दूसरा अधिकारी। (सक्सेसर)।
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उत्तरापेक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० उत्तर-अप√ईक्ष् (चाहना)+णिनि] जो अपने किसी कथन पत्र, प्रश्न, प्रार्थना आदि के उत्तर की अपेक्षा करता हो। अपनी बात का उत्तर या जवाब चाहनेवाला।
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उत्तराफाल्गुनी  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] आकाशस्थ सत्ताईस नक्षत्रों में से बारहवाँ नक्षत्र।
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उत्तराभाद्रपद  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] आकाशस्थ सत्ताईस नक्षत्रों में से छब्बीसवाँ नक्षत्र।
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उत्तराभास  : पुं० [सं० उत्तर-आभास, ष० त०] १. ऐसा उत्तर जो ठीक और समाधान कारक तो न हो, फिर देखने में ठीक-सा जान पड़ता हो। ऐसा उत्तर जिसमें वास्तविकता या सत्यता न हो, उसका आभास मात्र हो। २. झूठा या मिथ्या उत्तर।
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उत्तराभासी (सिन्)  : वि० [सं० उत्तराभास+इनि] (प्रश्न) जिसमें उसके उत्तर का भी कुछ आभास हो। जैसे—आप तो भोजन कर ही चुके हैं न ? में यह आभास है कि आप भोजन कर चुके हैं।
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उत्तरायण  : पुं० [सं० उत्तर-अयन, स० त०] १. मकर रेखा से उत्तर और कर्क रेखा की ओर होनेवाली सूर्य की गति। २. छः मास की वह अवधि या समय जिसमें सूर्य की गति उत्तर अर्थात् कर्क रेखा की ओर रहती है।
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उत्तरायणी  : स्त्री० [सं० उत्तरायण+ङीष्] संगीत में एक मूर्च्छना।
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उत्तरारणी  : स्त्री० [सं० उत्तर-अरणी, कर्म० स०] अग्निमंथन की दो लकड़ियों में से ऊपर रहनेवाली लकड़ी।
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उत्तरार्द्ध  : पुं० [सं० उत्तर-अर्द्ध, कर्म० स०] किसी वस्तु के दो खंडों या भागों में से उत्तर अर्थात् अंत की ओर या बाद में पड़नेवाला खंड या भाग। पिछला आधा भाग।
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उत्तराषाढ़ा  : स्त्री० [सं० उत्तरा-आषाढ़ा, व्यस्त-पद] सत्ताईस नक्षत्रों में से इक्कीसवाँ नक्षत्र।
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उत्तरासंग  : पुं० [सं० उत्तर-आ√सञज् (मिलना)+घञ्] उत्तरीय। उपरना।
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उत्तरी  : वि० [सं० उत्तरीय] १. उत्तर दिशा में होनेवाला। उत्तर दिशा से संबंधित। उत्तर का। स्त्री० संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिणी।
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उत्तरी-ध्रुव  : पुं० [हिं० +सं० ] पृथ्वी के गोले का उत्तरी सिरा। सुमेरु। (नार्थ पोल)
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उत्तरीय  : पुं० [सं० उत्तर+छ-ईय] १. कंधे पर रखने का वस्त्र। चादर। दुपट्टा। २. एक प्रकार का सन। वि० १. उत्तर दिशा का। उत्तर में होनेवाला। २. ऊपर का। ऊपरवाला। ३. जो दूसरों की तुलना में अच्छा या श्रेष्ठ हो।
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उत्तरोत्तर  : क्रि० वि० [सं० उत्तर-उत्तर, पं० त०] १. क्रमशः। एक के बाद एक। २. लगातार।
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उत्तल  : वि० [सं० उत्-तल, ब० स०] [भाव० उत्तलता] जिसके तल के बीच का भाग कुछ ऊपर उठा हो। उन्नतोदर। (काँन्वेन्स)।
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उत्तलित  : भू० कृ० [सं० उद्√तल् (स्थापित करना)+क्त] १. जो उत्तल के रूप में लाया हुआ हो। २. ऊपर उठाया या फेंका हुआ।
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उत्ता  : वि० उतना।
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उत्तान  : वि० [सं० उत्-तान, ब० स०] १. फैला या फैलाया हुआ। २. पीठ के बल लेटा या चित्त पड़ा हुआ। ३. जिसका मुँह ऊपर की ओर हो। ऊर्ध्व मुख। ४. जो उलटा होकर सीधा हो। ५. आवरण से रहित, अर्थात् बिलकुल खुला हुआ और स्पष्ट। नग्न। जैसे—उत्तान श्रृंगार।
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उत्तानक  : पुं० [सं० उद्√तन् (फैलना)+ण्वुल्-अक] उच्चटा नाम की घास।
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उत्तान-पाद  : पुं० [ब० स०] भक्त ध्रुव के पिता का नाम।
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उत्तान-हृदय  : वि० [ब० स०] १. जिसके हृदय में छल-कपट न हो। सरल हृदय। २. उदार और सज्जन।
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उत्तानित  : भू० कृ० [सं० उद्√तन्+णिच्+क्त] १. ऊपर उठाया या फैलाया हुआ। २. जिसका मुख ऊपर की ओर हो।
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उत्ताप  : पुं० [सं० उद्√तप् (तपना)+घञ्] १. साधारण से बहुत अधिक बढ़ा हुआ ताप। २. मन में होनेवाला बहुत अधिक कष्ट या दुख।
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उत्तापन  : पुं० [सं० उद्√तप्+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्तापित, उत्तप्त] १. बहुत अधिक गरम करने या तपाने की क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक मानसिक कष्ट या पीड़ा पहुँचाना।
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उत्तापमापी (पिन्)  : पुं० [सं० उत्ताप√मा या√मि(नापना)+णिच्, पुक्+णिनि] एक यंत्र जिससे बहुत अधिक ऊँचे दरजे के ऐसे ताप नापे जाते हैं जो साधारण ताप-मापकों से नहीं नापे जा सकते। (पीरो मीटर)।
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उत्तापित  : भू० कृ० [सं० उद्√तप्+णिच्+क्त] १. बहुत गर्म किया या तपाया हुआ। उत्तप्त। २. जिसे बहुत दुःख पहुँचाया गया हो।
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उत्तापी (पिन्)  : वि० [सं० उद्√तप्+णिच्+णिनि] १. उत्तापन करने या बहुत ताप पहुँचानेवाला। २. बहुत अधिक कष्ट देनेवाला।
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उत्तार  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+घञ्] जो गुणों में दूसरों से बढ़ा-चढ़ा हो। उत्कृष्ट। २. दे० ‘उत्तारक’।
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उत्तारक  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+ण्वुल्-अक] उद्धार करने या उबारनेवाला। पुं० शिव।
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उत्तारण  : पुं० [सं० उद्√तृ+णिच्+ल्युट्-अन] १. तैर या तैराकर पार ले जाना। २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना या पहुँचाना। ३. विपत्ति, संकट आदि से छुड़ाना। उद्धार करना।
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उत्तारना  : स० [सं० उत्तराण] १. पार उतारना या ले जाना। २. दूर करना। हटाना। उदाहरण—नाहर नाऊ नरयंद चित्त चिंता उत्तारिय।—चंदवरदाई। ३. दे० ‘उतारना’।
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उत्तारी (रिन्)  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+णिनि] पार करने या उतारनेवाला।
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उत्तार्य  : वि० [सं० उद्√तृ+णिच्+यत्] जो पार उतारा जाने को हो अथवा पार उतारे जाने के योग्य हो।
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उत्ताल  : वि० [सं० उद्√तल्+घञ्] बहुत अधिक ऊँचा। जैसे—उत्ताल तरंग। पुं० वन-मानुष।
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उत्तीर्ण  : वि० [सं० उद्√तृ+क्त] १. जो नदी, नाले आदि के उस पार चला गया हो। पार गया हुआ। पारित। २. जो किसी जाँच या परीक्षा में पूरा सफल या सिद्ध हो चुका हो। ३. मुक्त।
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उत्तुंग  : वि० [सं० उत्-तुंग, प्रा० स०] १. बहुत अधिक ऊँचा। जैसे—हिमालय का उत्तुंग शिखर। २. यथेष्ठ उन्नत।
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उत्तू  : पुं० [फा०] १. कपड़े पर चुनट डालने या बेल-बूटे काढ़ने का एक औजार या उपकरण। २. उक्त करण से कपड़े पर बनाये हुए बेल-बूटे या डाली हुई चुनट। मुहावरा—(किसी व्यक्ति को) उत्तू करना या बनाना-इतना मारना कि बदन में दाग पड़ जाएँ। जैसे—मारते-मारते उत्तू कर दूँगा।
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उत्तूगर  : पुं० [फा०] वह कारीगर जो कपड़े पर उत्तू से कढ़ाई का काम करता अथवा चुनट डालता हो।
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उत्तेजक  : वि० [सं० उद्√तिज(तीक्ष्ण करना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. उत्तेजना उत्पन्न करनेवाला। २. किसी को कोई काम करने के लिए उकसाने या भड़कानेवाला। ३. मनोवेगों को तीव्र या तेज करनेवाला। जैंसे—सभी मादक पदार्थ उत्तेजक होते हैं।
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उत्तेजन  : पुं० [सं० उद्√तिज्+णिच्+ल्युट-अन] [कर्त्ता, उत्तेजक, भू० कृ० उत्तेजित] १. तेज से युक्त करना अथवा तेज की प्रखरता बढ़ाना। २. उकसाना। भड़काना। ३. दे० ‘उत्तेजना’।
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उत्तेजना  : स्त्री० [सं० उद्√तिज्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. किसी के तेज को उत्कृष्ट करना या उग्र रूप देना। २. शरीर के किसी अंग या इंद्रिय में होनेवाली कोई असाधारण क्रियाशीलता। जैसे—जननेंद्रिय की उत्तेजना। ३. ऐसी स्थिति जिसमें मन चंचल होकर बिना समझे-बूझे कोई काम करने में उग्रता तथा शीघ्रतापूर्वक प्रवृत्त या रत होता है। (एक्साइटमेंट) जैसे—(क) उन्होंने केवल उत्तेजना-वश उस समय त्यागपत्र दे दिया था। (ख) उनके भाषण से सभा में उत्तेजना फैल गयी। ४. कोई ऐसा काम या बात जो किसी का मन चंचल करके उसे उग्रता और शीघ्रतापूर्वक कोई काम करने में प्रवृत्त करे। किसी को आवेश में लाने के लिए किया हुआ कार्य या कही हुई बात। बढ़ावा। (इन्साइटमेन्ट) जैसे—आपने ही उत्तेजना देकर उन्हें इस काम में आगे बढ़ाया था।
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उत्तेजित  : भू० कृ० [सं० उद्√तिच्+णिच्+क्त] १. जो किसी प्रकार की विशेषतः मानसिक उत्तेजना से युक्त हो। जिसमें उत्तेजना आई हो। (एक्साइटेड) जैसे—उत्तेजित होकर कोई काम नहीं करना चाहिए। २. जो किसी प्रकार की उत्तेजना से युक्त करके आगे बढ़ाया गया हो। उकसाया या भड़काया हुआ। (इन्साइटेड) जैसे—तुम्हीं ने तो उसे मारने के लिए उत्तेजित किया था।
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उत्तोलक  : वि० [सं० उद्√तुल् (तौलना)+णिच्+ण्वुल्-अक] उत्तोलक करने या ऊपर उठानेवाला। पुं० एक स्थान का ऊँचा यंत्र जिसकी सहायता से भारी चीजें एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रखी जाती हैं। (क्रेन)।
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उत्तोलन  : वि० [सं० उद्√तुल्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्तोलित] १. ऊपर की ओर उठाने या ले जाने की क्रिया या भाव। ऊँचा करना। जैसे—ध्वजोत्तोलन। २. तौलना।
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उत्तोलन-यंत्र  : पुं० [ष० त०] दे० ‘उत्तोलक’। (क्रेन)।
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उत्थवना  : स० [सं० उत्थापन] १. ऊपर उठाना। ऊँचा करना। २. आरंभ या शुरू करना। ३. अच्छी या उन्नत दशा में लाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थान  : स० [सं० उद्√स्था (ठहरना)+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ओर उठना। ऊँचा होना। उठान। (विशेष दे० उठना।) २. किसी निम्न या हीन स्थिति से निकलकर उच्च या उन्नत अवस्था में पहुँचने की अवस्था या भाव। उन्नत या समृद्ध स्थिति। जैसे—जाति या देश का उत्थान। ३. किसी काम या बात का आरंभ या आरंभिक अंश। उठान। जैसे—इस काव्य (या ग्रंथ) का उत्थान तो बहुत सुंदर हैं।
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उत्थान-एकादशी  : स्त्री० [ष० त०] कार्तिक शुक्ला एकादशी। देवोत्थान।
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उत्थानक  : वि० [सं० उत्थान+णिच्+ण्वुल्-अक] १. निम्न या साधारण स्तर से ऊपर की ओर ले जानेवाला। उत्थान करनेवाला। २. किसी को उन्नत या समृद्ध बनानेवाला। पुं० एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से लोग बहुत ऊँची-ऊँची इमारतों या भवनों में (बिना सीढ़ियाँ चढ़े-उतरे) ऊपर-नीचे आते जाते हैं (लिफ्ट)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थापक  : वि० [सं० उद्√स्था+णिच्, पुक्+ण्वुल्-अक] १. उत्थान करने या ऊपर उठानेवाला। २. जगानेवाला। ३. प्रेरित करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थापन  : पुं० [सं० उद्√स्था+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] १. ऊपर की ओर उठाना। २. सोये हुए को जगाना। ३. उत्तेजित या उत्साहित करना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थापित  : भू० कृ० [सं० उद्√स्था+णिच्, पुक्+क्त] १. ऊपर उठाया हुआ। २. जगाया हुआ। ३. उत्तेजित किया हुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थायी (यिन्)  : वि० [सं० उद्√स्था+णिनि] १. ऊपर की ओर उठने, उभरने, निकलने या बढ़ने-वाला। २. उठाने, उभारने या उत्थान करनेवाला।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थित  : भू० कृ० [सं० उद्√स्था+क्त] १. जिसका उत्थान हुआ हो या किया गया हो। उठा हुआ। २. जागा हुआ। ३. समृद्ध।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्थिति  : स्त्री० [सं० उद्√स्था+क्तिन्] उत्थान।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पट  : पुं० [सं० उद्√पट् (गति)+अच्] १. बबूल आदि पेड़ों से निकलने वाली गोंद। २. दुपट्टा।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पतन  : पुं० [सं० उद्√पत्+ल्युट-अन] १. उड़ने की क्रिया या भाव। २. ऊपर की ओर उठना। ३. उछालना। ४. उत्पन्न करना। जन्म लेना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पत्ति  : स्त्री० [सं० उद्√पत्+क्तिन्] १. अस्तित्व में आने या उत्पन्न होने की अवस्था, क्रिया या भाव। आविर्भाव। उद्भव। जैसे—सृष्टि की उत्पत्ति। २. जन्म लेकर इस पृथ्वी पर आने की क्रिया या भाव। जैसे—पुत्र की उत्पत्ति। पैदाइश। जन्म। ३. किसी प्रकार का रूप धारण करके प्रत्यक्ष होने की अवस्था या भाव। जैसे—प्रेम या वैर की उत्पत्ति। ४. किसी उपाय या क्रिया से प्रस्तुत किया हुआ तत्व या पदार्थ। बन या बनाकर तैयार की हुई चीज। उपज० जैसे—कृषि की उत्पत्ति। ५. अर्थशास्त्र में, किसी चीज का आकार-प्रकार, रूप-रंग, आदि बदलकर उसे अपेक्षया अधिक उपयोगी रूप में लाने की क्रिया या भाव। उत्पादन।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पथ  : पुं० [सं० उत्-पथ, प्रा० स०] अनुचित या दूषित पथ। बुरा रास्ता। कुमार्ग। वि० कुमार्गी।
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उत्पन्न  : वि० [सं० उद्√पद् (गति)+क्त] १. जिसकी उत्पति हुई हो। २. जिसने जन्म लिया हो। ३. जिसे अस्तित्व में लाया या पैदा किया गया हो। ४. निर्मित किया या बनाया हुआ। ५. उपजा या उपजाया हुआ। ६. उद्भूत या घटित होनेवाला। जैसे—विचार या संदेह उत्पन्न होना।
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उत्पन्ना  : स्त्री० [सं० उत्पन्न+टाप्] अगहन बदी एकादशी।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पल  : पुं० [सं० उद्√पल्(गति)+अच्] १. कमल। विशेषतः नीलकमल। २. कुमुदनी। वि० बहुत ही दुबला-पतला या क्षीण-काय।
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उत्पलिनी  : स्त्री० [सं० उत्पल+इनि-ङीष्] १. कमल का पौधा। २. कमल के फूलों का समूह। ३. एक प्रकार का छंद या वृत्त।
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उत्पवन  : पुं० [सं० उद्√पू (पवित्र करना)+ल्युट्-अन] १. शुद्ध या स्वच्छ करने की क्रिया या भाव। २. वह उपकरण जिससे कोई चीज साफ की जाए। ३. तरल पदार्थ छिड़कना।
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उत्पाटक  : वि० [सं० उद्√पट्+णिच्+अवुल्-अक] उत्पाटन करने या उखाड़नेवाला।
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उत्पाटन  : पुं० [सं० उद्√पट्+णिच्+ल्युट-अन] १. जड़ से खोदकर कोई चीज उखाड़ने की क्रिया या भाव। उन्मूलन। २. जमे, टिके या ठहरे हुए को पीड़ित करके उसके स्थान से हटाना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पाटित  : भू० कृ० [सं० उद्√पट्+णिच्+क्त] १. जड़ से उखाड़ा हुआ। उन्मूलित। २. अपने स्थान से पीड़ित करके हटाया हुआ।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पात  : पुं० [सं० उद्+पत् (गिरना)+घञ्] १. अचानक ऊपर की ओर उठना, कूदना या बढ़ना। २. अचानक होनेवाली कोई ऐसी प्राकृतिक घटना जो कष्टप्रद या हानिकारक सिद्ध हो सकती हो। जैसे—अग्नि-कांड, उल्कापात, बाढ़, भूकंप आदि। ३. दे० ‘उपद्रव’।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
उत्पाती (तिन्)  : वि० [सं० उद्√पत्+णिनि] १. उत्पात या उपद्रव करनेवाला। २. पाजीपन या शरारत करनेवाला। उपद्रवी।
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उत्पाद  : वि० [सं० उद्√पद् (गति)+घञ्] जिसके पैर ऊपर उठें हो। पुं० १. वह वस्तु जिसका उत्पादन हुआ हो। निर्मित वस्तु। २. इतिवृत्त के मूल की दृष्टि से नाटक की कथा-वस्तु के तीन भेदों में से एक। ऐसी कथावस्तु जिसकी सब घटनाएँ कवि या नाटककार की निजी कल्पनाओं से उत्पन्न या उद्भूत हुई हों। जैसे—मालती-माधव, मृच्छकटिक आदि। (शेष दो भेद ‘प्रख्यात’ और ‘भिन्न’ कहे जाते हैं)।
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उत्पादक  : वि० [सं० उद्√पद्+णिच्+ण्वुल्-अक] १. उत्पादन करनेवाला। २. जिससे कुछ उत्पादन हों। पुं० १. मूल कारण। २. [ब० स० कप्] शरभ नामक एक कल्पित जंतु।
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उत्पादन  : पुं० [सं० उद्√पद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. उत्पन्न या पैदा करना। २. उपजने में प्रवृत्त करना या सहायक होना। ३. ऐसा कार्य या प्रयत्न करना जिससे कोई उपजे या बने। 4. उक्त प्रकार से उत्पन्न करके या उपजाकर तैयार की या बनाई हुई चीज। (प्रोडक्सन) जैसे—(क) कल-कारखानों में होनेवाला कपड़ों का उत्पादन। (ख) खेतों आदि में होनेवाला अन्न का उत्पादन।
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उत्पादन-शुल्क  : पुं० [ष० त०] वह शुल्क जो कल-कारखानों में किसी वस्तु का उत्पादन करने या राज-कोष में देना पड़ता है। (एक्साइज ड्यूटी)।
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उत्पादित  : भू० कृ० [सं० उद्√पद्+णिच्+क्त] जिसका उत्पादन हुआ हो। उत्पन्न किया या उपजाया हुआ।
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उत्पादी (दिन्)  : वि० [सं० उद्√पद्+णिच्+णिनि] उत्पादन करने या उपजानेवाला।
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उत्पाद्य  : वि० [सं० उद्√पद्+णिच्+यत्] (पदार्थ) जिसका उत्पादन किया जाने को हो अथवा जिसका उत्पादन करना आवश्यक या उचित हो।
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उत्पाली  : स्त्री० [सं० उद्√पल्+घञ्-ङीष्] आरोग्य। स्वास्थ्य।
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उत्पीड़क  : पुं० [सं० उद्√पीड़(कष्ट देना)+ण्वुल्-अक] उत्पीड़न करने या कष्ट पहुँचानेवाला।
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उत्पीड़न  : पुं० [सं० उद्√पीड़+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्पीड़ित] १. दबाना। २. कष्ट या पीड़ा पहुँचाना। सताना। ३. अत्याचार या जुल्म करना। सताना।
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उत्पीड़ित  : भू० कृ० [सं० उद्√पीड़+क्त] १. दबाया हुआ। २. जिसे कष्ट या पीड़ा पहुँचाई गई हो। ३. सताया हुआ।
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उत्प्रभ  : वि० [सं० उत्-प्रभा, ब० स०] बहुत ही चमकीला। पुं० जलती या दहकती हुई आग।
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उत्प्रवास  : पुं० [सं० उत्-प्रवास, प्रा० स०] स्वदेश त्याग। अपना देश छोड़कर अन्य देश में जाना या जाकर रहना।
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उत्प्रेक्षक  : वि० [सं० उद्-प्र√ईक्ष् (देखना)+ण्वुल्-अक] उत्प्रेक्षा करनेवाला। वितर्क करनेवाला।
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उत्प्रेक्षण  : पुं० [सं० उद्-प्र√ईक्ष् (देखना)+ल्युट-अन] १. सावधान होकर ऊपर की ओर देखना। २. ध्यानपूर्वक देखना-भालना या सोचना। ३. एक वस्तु से दूसरी वस्तु की तुलना करना।
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उत्प्रेक्षणीय  : वि० [सं० उद्-प्र√ईक्ष्+अनीयर] जिसका उत्प्रेक्षण होने को हो अथवा जो उत्प्रेक्षण के योग्य हो।
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उत्प्रेक्षा  : स्त्री० [सं० उद्-प्र√ईक्ष्+अ-टाप्] [वि० उत्प्रेक्ष्य, उत्प्रेक्षणीय] १. उत्प्रेक्षण। २. एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय और उपमान के भेद का ज्ञान होने पर भी इस बात का उल्लेख होता है कि उपमेय उपमान के समान जान पड़ता है। जैसे—अति कटु वचन कहत कैकेई। मानहु लोन जरे पर देई।-तुलसी। विशेष—इव, लजनु, जानो, मनु, मानो आदि शब्द इस अलंकार के सूचक होते है। इसके तीन भेद हैं-वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा और फलोत्प्रेक्षा।
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उत्प्रेक्षोपमा  : स्त्री० [उत्प्रेक्षा-उपमा, ष० त०] एक अर्थालंकार जिसमें किसी एक वस्तु के किसी गुण या विशेषता के दूसरी अनेक वस्तुओं में होने का उल्लेख होता है।
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उत्प्रेक्ष्य  : वि० [सं० उद्-प्र√ईक्ष्+ण्यत्] १. जिसकी उत्प्रेक्षा हो या होने को हो। २. को उत्प्रेक्षा द्वारा अभिव्यक्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो।
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उत्प्रेरक  : वि० [सं० उद्-प्र√ईर् (गति)+ण्वुल्-अक] उत्प्रेरणा करनेवाला।
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उत्प्रेरणा  : पुं० [सं० उद्-प्र√ईर्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. प्रेरणा करने की क्रिया या भाव। २. रसायन शास्त्र में, किसी ऐसे पदार्थ का (जो स्वयं अविकृत हो।) किसी दूसरे पदार्थ पर अपनी रासायनिक प्रतिक्रिया करना।
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उत्कुल्ल  : वि० [सं० उद्√फल्+क्त, लत्व, उत्व०] [भाव० उत्फुलता] १. खिला हुआ। जैसे—उत्फुल्ल कमल। २. खुला हुआ। जैसे—उत्फुल्ल नेत्र। ३. प्रसन्न। जैसे—उत्फुल्ल आनन।
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उत्यम  : वि० उत्तम।
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उत्याग  : पुं० [सं० उद्√सञ्ज् (मिलना)+घञ्] १. अंक। क्रोड़। गोद। २. बीच का हिस्सा। मध्य भाग। ३. ऊपरी भाग। ४. चोटी। शिखर। ५. तल। सतह। वि० १. निर्लिप्त। २. विरक्त।
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उत्संगित  : भू० कृ० [सं० उत्संग+इतच्] १. अंक या गोद में लिया हुआ। २. गले लगाया हुआ। आलिंगित।
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उत्स  : पुं० [सं०√उन्द् (भिगोना)+स] [वि० उत्स्य] १. बहते हुए पानी की धारा या स्रोत। झरना। २. जलमय स्थान।
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उत्सन्न  : वि० [सं० उद्√सद् (फटना, नष्ट होना आदि)+क्त] [स्त्री० उत्सन्ना] १. ऊपर की ओर उठाया हुआ। ऊँचा। अवसन्न का विपर्याय। २. बढ़ा हुआ। ३. पूरा किया हुआ। ४. उखाड़ा हुआ। उच्छिन्न।
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उत्सर्ग  : पुं० [सं० उद्√सृज् (त्याग)+घञ्] १. खुला छोड़ने या बंधन से मुक्त करने की क्रिया या भाव। २. किसी उद्देश्य या कारण से कोई वस्तु अपने अधिकार या नियंत्रण से अलग करना या निकालना और अर्पित करना। जैसे—(क) साहित्य-सेवा के लिए जीवन का उत्सर्ग। (ख) किसी पित्तर के उद्देश्य से किया जानेवाला वृषोत्सर्ग। ३. किसी के लिए किया जानेवाला त्याग। ४. दान। ५. साधारण या सामान्य नियम (अपवाद से भिन्न)। ६. एक वैदिक कर्म। ७. अंत। समाप्ति।
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उत्सर्गतः  : क्रि० वि० [सं० उत्सर्ग+तस्] सामान्य रूप से। साधारणतः।
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उत्सर्गी (र्गिन्)  : वि० [सं० उत्सर्ग+इनि] दूसरे के लिए उत्सर्ग या त्याग करनेवाला।
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उत्सर्जन  : पुं० [सं० उद्√सृज्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्सर्जित, उत्सृष्ट] १. उत्सर्ग करने की क्रिया या भाव। त्याग। २. बलिदान। ३. दान। ४. किसी कर्मचारी के किसी पद या स्थान से हटने की क्रिया या भाव। (डिसचार्ज)
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उत्सर्जित  : भू० कृ० [सं० उत्सृष्ट] १. त्यागा या छोड़ा हुआ। २. किसी के लिए दान के रूप में या त्यागपूर्वक छोड़ा हुआ। ३. [उद्√सृज्+णिच्+क्त] जिसे किसी पद या स्थान से हटाया गया हो।
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उत्सर्प, उत्सर्पण  : पुं० [सं० उद्√सृप् (गति)+घञ्] [उद्√सृप्+ल्युट-अन] १. ऊपर की ओर चढ़ने, जाने या बढ़ने की क्रिया या भाव। २. उठना। ३. उल्लंघन करना। ४. फूलना। ५. फैलना।
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उत्सर्पिणी  : पुं० [सं० उद्√सृप्+णिनि-ङीष्] जैनों के अनुसार काल की वह गति जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श की क्रमिक तथा निरंतर वृद्धि होती है।
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उत्सर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० उद्√सृप्+णिनि] १. ऊपर की ओर जाने या बढ़ने वाला। २. बहुत अच्छा या बढ़िया। श्रेष्ठ।
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उत्सव  : पुं० [सं० उद्√सु(गति)+अच्] १. ऐसा सामाजिक कार्यक्रम जिसमें लोग किसी विशिष्ट अवसर पर अथवा किसी विशिष्ट उद्देश्य से उत्साहपूर्वक आनन्द मनाते हैं। जैसे—वसंतोत्सव, विवाहोत्सव आदि। २. त्योहार। पर्व।
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उत्सव-गीत  : पुं० [ष० त०] लोक गीतों के अंतर्गत ऐसे गीत जो पुत्र-जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि उत्सवों के समय गाये जाते हैं।
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उत्साद  : पुं० [सं० उद्√सृद+घञ्] क्षय। विनाश।
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उत्सादक  : वि० [सं० उद्√सृद्+णिच्+ण्वुल्-अक] [स्त्री० उत्सादिका] १. छोड़ने या त्यागनेवाला। २. नष्ट-भ्रष्ट करनेवाला। ३. विनाशक।
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उत्सादन  : पुं० [सं० उद्√सृद्+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० उत्सादित] १. छोड़ना। त्यागना। २. काट-छाँट या तोड़-फोडकर नष्ट करना। ३. अच्छी तरह खेत जोतना। ४. बाधक होना। बाधा डालना। ५. पहले की कोई आज्ञा या निश्चय रद करना।
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उत्सादित  : भू० कृ० [सं० उद्√सृद्+णिच्+क्त] १. जिसका उत्सादन किया गया हो या हुआ हो। २. (पद) जो तोड़ दिया गया हो। (एबालिश्ड) ३. (आज्ञा) जो रद कर दी गई हो। (सेट एसाइड)
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उत्सार  : पुं० [सं० उद्√सृ (गति)+णिच्+अण्] दूर करना। हटाना। बाहर निकालना।
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उत्सारक  : वि० [सं० उद्√सृ+णिच्+ण्वुल्-अक] उत्सारण करने वाला। पुं० चौकीदार। पहरेदार।
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उत्सारण  : पुं० [सं० उद्√सृ+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्सारित] १. गति में लाना। चलाना। २. दूर करना। हटाना। ३. दर या भाव कम करना। ४. अतिथि या अभ्यागत का स्वागत करना।
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उत्साह  : पुं० [सं० उद्√सह् (सहन करना)+घञ्] मन की वह वृत्ति या स्थिति जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य प्रसन्न होकर और तत्परतापूर्वक कोई काम करने या कोई उद्देश्य सिद्ध करने लिए अग्रसर या प्रवृत्त होता है। साहित्य में इसे एक स्थायी भाव माना गया है।
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उत्साहक  : वि० [सं० उद्√सह+ण्वुल्-अक] १. उत्साह देने या उत्साहित करनेवाला। २. अध्यवसायी और कर्मठ।
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उत्साहन  : वि० [सं० उद्√सह्+णिच्+ल्युट-अन] १. किसी को उत्साह देना। उत्साहित करना। २. दृढ़ता-पूर्वक किया जानेवाला उद्यम। अध्यवसाय।
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उत्साहना  : अ० [सं० उत्साह+ना (प्रत्यय)] उत्साह से भरना। उत्साहित होना। उदाहरण—बसत तहाँ प्रमुदित प्रसन्न उन्नति उत्सहि।-रत्ना। स० उत्साहित करना। उत्साह बढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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उत्साही (हिन्)  : वि० [सं० उत्साह+इनि] १. आनंद तथा तत्परतापूर्वक किसी काम में लगने वाला। २. जिसके मन में हर काम के लिए और हर समय उत्साह रहता हो। जैसे—उत्साही कार्यकर्त्ता।
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उत्सुक  : वि० [सं० उद्√सु (गति)+क्विप्+कन्] [भाव० उत्सुकता औत्सुक्य] जिसके मन में कोई तीव्र या प्रबल अभिलाषा हो, जो किसी काम या बात के लिए कुछ अधीर सा हो। (ईगर)
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उत्सुकता  : स्त्री० [सं० उत्सुक+तल्+टाप्] उत्सुक होने की अवस्था या भाव। मन की वह स्थिति जिसमें कुछ करने या पाने की अधीरता, पूर्ण प्रबल अभिलाषा होती है और विलंब सहना कठिन होता है। साहित्य में यह एक संचारी भाव माना जाता हैं। (ईगरनेस)।
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उत्सृष्ट  : भू० कृ० [सं० उद्√सृज् (छोड़ना)+क्त] १. जो उत्सर्ग के रूप में किया या लगाया गया हो। जिसका उत्सर्ग हुआ हो। २. छोड़ा या त्यागा हुआ।
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उत्सृष्ट-वृत्ति  : पुं० [सं० तृ० त०] दूसरों के छोड़े या त्यागे हुए अन्न से जीविका निर्वाह करने की वृत्ति।
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उत्सृष्टि  : स्त्री० [सं० उद्√सृज्+क्तिन्] १. उत्सर्ग। २. उत्सर्जन।
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उत्सेक  : पुं० [सं० उद्√सिच्(सींचना)+घञ्] [कर्त्ता० उत्सेकी] १. ऊपर की ओर उठना या बढ़ना। २. वृद्धि। ३. अभिमान। घमंड।
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उत्सेचन  : पुं० [सं० उद्√सिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० उत्सिक्त] १. छिड़कने या सींचने की क्रिया या भाव। २. उफान। उबाल।
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उत्सेध  : पुं० [सं० उद्√सिध् (गति)+घञ्] १. ऊँचाई। २. बढ़ती। वृद्धि। ३. घनता या मोटाई। ४. शरीर का शोथ। सूजन। ५. देह। शरीर। ६. वध। हत्या। ७. आज-कल किसी वस्तु की कोई ऐसी आपेक्षिक ऊँचाई जो किसी विशिष्ट कोण, तल आदि के विचार से हो। (एलिवेशन) जैसे—(क) क्षैतिज कोण के विचार से तोप का उत्सेध। (ख) कुरसी या भू-तल के विचार से भवन का उत्सेध।
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उत्सेध-जीवी (बिन्)  : पुं० [सं० उत्सेध (वध)√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो हत्या और लूट-पाट करके अपना निर्वाह करता हो।
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उत्स्य  : वि० [सं० उत्स+यत्] १. उत्स संबंधी। २. उत्स या सोते में होनेवाला या उससे निकला हुआ।
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