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आत्मंभरि  : पुं० [सं० आत्मन्√भृ(भरण पोषण)+इन्, नि० मुम्] १. जो केवल अपना पेट पालन करना जानता हो। उदरंभरि। २. स्वार्थी।
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आत्म  : वि० [सं० आत्मन्] १. स्वयं अपने व्यक्तित्व या अपनी आत्मा के चेतन स्वरूप या मन से संबंध रखनेवाला। जैसे—आत्म जिज्ञासा, आत्म दर्शन। आदि। २. अपना। निज का। जैसे—आत्म कथा, आत्म परिचय आदि। पुं० व्यक्ति का निजी चेतन तत्त्व या सत्ता जो समस्त बाह्रा पदार्थों से अलग और भिन्न है। (सेल्फ) जैसे—आत्म चेतन आत्म-पुरुष।
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आत्मक  : वि० [सं० आत्मन् से] [स्त्री० आत्मिका] १. आत्मा से संबंध रखनेवाला। आत्मा संबंधी। २. मय। युक्त। (यौगिक शब्दों के अंत में) जैसे—ध्वंसात्मक, व्यंग्यात्मक, हास्यात्मक आदि।
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आत्म-कथा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. अपने संबंध में स्वयं कही या लिखी हुई बातें। २. साहित्य में ऐसी पुस्तक जिसमें किसी व्यक्ति ने सभी मुख्य बातों का वर्णन किया हो। आत्म चरित। (आटोबायोग्राफी)।
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आत्म-कहानी  : स्त्री० =आत्म-कथा।
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आत्म-काम  : वि० [सं० आत्मन्√कम्(चाहना)+णइङ्+अण्] [स्त्री० आत्म कामा] १. अपने संबंध में अथवा आत्मा के संबंध में सब बातें जानने की कामना करने वाला। २. स्वार्थी। मतलबी।
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आत्मकीय  : वि० [सं० आत्मन्+क+छ-ईय] आत्म या आत्मा के प्रति अनुराग रखनेवाला। २. जिस पर अपना अधिकार हो। अपना। निजी। ३. दे० ‘आत्म’।
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आत्म-गत  : वि० [सं० द्वि०त०] १. जो अपने (व्यक्तित्व) में आया या हुआ हो या अपने (आत्मा) से सबंध रखता हो। अपनी आत्मा में आया या मिला हुआ। २. अपने आप में होनेवाला। ३. अध्यात्म और दर्शन में जो कर्त्ता और विचारक के आत्म (चेतन या मन) में ही उत्पन्न हुआ हो। अथवा उससे संबंध रखता हो। ब्रह्म तत्त्वों या भौतिक पदार्थों से संबद्ध न हो। पर-गत का विपर्याय। (सब्टेक्टिव) ४. कला और साहित्य में (अभिव्यंजना और कृति) जो किसी के आत्म (चेतना या मन) से ही उद्भूत हुई हो और उसकी अनुभूतियों तथा विचारों पर ही आश्रित रहकर उन्हें प्रदर्शित करता हो, ब्राह्म पदार्थों पर आश्रित न हो। परगत का विपर्याय। (सब्जेक्टिव)। पुं० दे० ‘स्वगत-कथन’।
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आत्म-गुप्ता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. केवाँच। कौछ। २. शतावर।
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आत्म-गौरव  : पुं० [सं० स० त०] अपनी इज्जत या प्रतिष्ठा का ध्यान। आत्म संमान। स्वाभिमान। (सेल्फ रेस्पेक्ट)
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आत्म-घात  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० आत्मघाती] १. स्वयं अपनी हत्या करना। आत्म हत्या। २. स्वयं कोई ऐसा काम करना, जिससे अपनी ही बहुत अधिक हानि हो।
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आत्म-घाती (तिन्)  : वि० [सं० आत्मन्√हन् (हिंसा)+णिनि] १. अपने प्राण आप देने या अपनी हत्या करनेवाला।
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आत्म-घोष  : वि० [सं० आत्मन्√घुष् (शब्द करना)+णिच्+अच्] अपनी प्रशंसा अपने आप करनेवाला। पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में बढ़-चढ़कर बातें करना। २. कौआ। ३. मुरगा।
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आत्म-चक्र  : पुं० [ष० त०] दे० ‘आत्मायन’।
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आत्म-चरित  : पुं० [ष० त०] किसी का वह जीवन-चरित जो उसने स्वयं लिखा हो। (आटोबायोग्राफी)
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आत्म-चेतना  : स्त्री० [ष० त०] दर्शन और मनोविज्ञान में वह स्थिति जिसमें किसी प्रकार की अनुभूति होने पर उसके साथ ही इस बात की भी चेतना या ज्ञान होता है कि हमें यह अनुभूति हो रही है।
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आत्मज  : वि० [सं० आत्मन्√जन् (उत्पन्न होना)+ड] अपने से या अपने द्वारा उत्पन्न। पुं० १. पुत्र। बेटा। लड़का। २. कामदेव। ३. खून। रक्त।
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आत्म-जात  : वि० [ष० त०]=आत्मज।
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आत्म-जिज्ञासा  : स्त्री० [ष० त०] [वि० आत्मजिज्ञासु] स्वयं अपने या अपनी आत्मा के सबंध में सब बातें जानने की इच्छा।
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आत्मज्ञ  : पुं० [सं० आत्मन्√ज्ञा (जानना)+क] अपने आपको अथवा अपनी आत्मा को जाननेवाला व्यक्ति।
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आत्म-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में अथवा आत्मा के संबंध में होनेवाला ज्ञान। २. जीवात्मा और परमात्मा का ज्ञान। ३. ब्रह्म का साक्षात्कार।
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आत्म-ज्ञानी (निन्)  : पुं० [आत्म-ज्ञान+इनि] वह व्यक्ति जिसे आत्म-ज्ञान हुआ हो। आत्मा का स्वरूप जाननेवाला।
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आत्म-तुष्टि  : स्त्री० [ष० त०] १. अपने मन को होनेवाली तुष्टि और प्रसन्नता। २. आत्मज्ञान होने पर मिलने वाला आनंद।
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आत्म-त्याग  : पुं० [ष० त०] परोपकार के लिए अपने स्वार्थ या हित का विचार बिलकुल छोड़ देना।
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आत्म-दर्श  : पुं० [ब० स०] दर्पण। शीशा।
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आत्म-द्रोह  : पुं० [ष० त०] स्वयं अपने साथ किया जानेवाला द्रोह या शत्रुता।
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आत्म-द्रोही (हिन्)  : पुं० [सं० आत्मद्रोह+इनि] [स्त्री० आत्म-द्रोहिणी] स्वयं अपने साथ द्रोह या शत्रुता (अपनी हानि) करनेवाला व्यक्ति।
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आत्म-निर्णय  : पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में स्वयं सब बातों का निर्णय या निश्चय करना। २. किसी देश के लोगों का अपनी राजकीय और राजनीतिक व्यवस्था स्वयं निश्चित करना। (सेल्फ डिटर्मिनेशन)
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आत्म-निवेदन  : पुं० [ष० त०] १. अपने आपको किसी के हाथ नम्रतापूर्वक सौंपना। आत्म-समर्पण। २. नवधा भक्तियों में से एक जिसमें भक्त अपने आप को पूरी तरह से इष्ट देव के चरणों में समर्पित कर देता है।
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आत्म-निष्ठा  : स्त्री० [ष० त०]=आत्मविश्वास।
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आत्मनीन  : पुं० [सं० आत्मन्+ख-ईन] पुत्र। बेटा।
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आत्मनेपद  : पुं० [अलुक्० स०] १. संस्कृत व्याकरण में धातु में लगनेवाला एक प्रत्यय। २. क्रिया या वह रूप जो उसे उक्त प्रत्यय लगने पर प्राप्त होता है।
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आत्म-पद  : पुं० [ष० त०] १. वह अवस्था जिसमें आत्मा ब्रह्म के साथ मिलकर उसमें लीन हो जाती है। २. मोक्ष।
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आत्म-पीड़न  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में ऐसी प्रवृत्ति या रुचि जिससे अपने आपको पीड़ित करके अथवा किसी के द्वारा पीड़ित कराके ही मनुष्य तृप्त या संतुष्ट होता है।
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आत्म-प्रक्षेपण  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में मानस की वह स्थिति जिसमें वह अपनी भावनाओं,वासनाओं, विचारों आदि का अनजाने में ही दूसरों पर आरोप करने लगता है अथवा दूसरों में उनका विकास, स्थिति आदि पाकर संतुष्ट और सुखी होता है।
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आत्म-प्रत्यक्ष  : पुं० [ष० त०] दर्शन और धर्म के क्षेत्र में, आत्मा के स्वरूप आदि का होनेवाला ज्ञान व परिचय।
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आत्म-प्रलंबन  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में आत्मप्रक्षेपण का ही अधिक उन्नत या उदात्त रूप।
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आत्म-प्रशंसा  : स्त्री० [ष० त०] अपने मुँह से की जानेवाली प्रशंसा या बढ़ाई।
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आत्म-बल  : पुं० [ष० त०] १. अपना या निजी बल। २. आत्मा में निहित बल या शक्ति। आत्मिक शक्ति।
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आत्म-बोध  : पुं० [ष० त०] अपने आप या अपनी आत्मा के संबंध में होनेवाला ज्ञान या बोध।
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आत्म-भरित  : वि० [तृ० त०] १. जो स्वयं भरा हो। २. जिसकी सब आवश्यकतायें अपने भीतरी अंगों से ही पूरी हो जाती हों और जिसे बाहर से कुछ लेना न पड़ता हो। (सेल्फ कन्टेन्ड)।
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आत्म-भू  : वि० [सं० आत्मन्√भू (होना)+क्विप्] १. जो अपनी देह या शरीर से उत्पन्न किया गया हो। २. जो आप ही या स्वतः उत्पन्न हुआ हो। आप से आप उत्पन्न होने वाला। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. कामदेव। ३. ब्रह्मा, विष्णु और शिव, जिनके संबंध में यह माना जाता है कि ये आप ही आप उत्पन्न हुये थे।
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आत्म-योनि  : पुं० [ब० स०] १. ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव। ४. कामदेव। वि० =आत्मभू।
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आत्म-रक्षक  : वि० [ष० त०] [स्त्री० आत्मरक्षिका] अपनी रक्षा आप करनेवाला।
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आत्म-रक्षण  : पुं० [ष० त०] अपनी रक्षा आप या स्वयं करना।
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आत्म-रक्षा  : स्त्री० [ष० त०] स्वयं की जानेवाली अपनी रक्षा।
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आत्म-रत  : वि० [स० त०] [भाव० आत्मरति] १. जो सदा अपने आप में लीन रहता हो, फलतः ब्रह्मज्ञानी। २. सदा अपना ही ध्यान रखनेवाला। पुं० बड़ी इंद्रायन।
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आत्म-रति  : स्त्री० [स० त०] १. अपने आप में रत या लीन रहने की अवस्था या भाव। २. ऐसा आत्म-ज्ञान (ब्रह्म-ज्ञान) जो और किसी ओर ध्यान न जाने दे।
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आत्म-वंचक  : वि० [ष० त०] अपने आप को धोखा देनेवाला।
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आत्मवाद  : पुं० [ष० त०] दार्शनिक क्षेत्र की दो मुख्य धाराओं या भेदों में से एक जिसमें आत्मा की वास्तविक सत्ता मानी जाती है अथवा उसे अजर, अमर अविकारी चेतन और सब बातों का साक्षी समझते हैं।
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आत्मवादी( दिन्)  : वि० [आत्मन्√वद् (बोलना)+णिनि] आत्मवाद संबंधी। आत्मवाद का। पुं० वह जो आत्मवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक हो।
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आत्म-विक्रय  : पुं० [ष० त०] [वि० आत्म-विक्रयी] १. स्वयं ही अपने आप को बेच डालना। २. धन लेकर अपने आप को पूरी तरह से किसी के अनुयायी या दास बनाना। ३. आत्म-सम्मान त्याग कर किसी के अधीन होना।
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आत्मविक्रयी (यिन्)  : वि० [सं० आत्म-विक्रय+इनि] १. अपने आप को स्वयं बेचनेवाला। २. धन लेकर दूसरों का अनुयायी या दास बननेवाला।
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आत्म-विघटन  : पुं० [ष० त०] आधुनिक मनोविज्ञान में मनुष्य की वह मानसिक स्थिति जिसमें वह किसी प्रकार के मानसिक द्वंद्व या संघर्ष के समय अपने अहं को अपने से भिन्न और स्वतंत्र वस्तु मानकर उसका अध्ययन, आलोचन, निरीक्षण या विश्लेषण करता है।
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आत्म-विचय  : पुं० [ष० त०] अपनी तलाशी या नंगा-झोली स्वयं देना।
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आत्म-विचार  : पुं० [ष० त०] १. अपने संबंध में अपने मन में कुछ सोचना। २. यह सोचना कि हमारा शरीर या आत्मा क्या है और परमात्मा से हमारा कैसा संबंध है।
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आत्म-विद्  : पुं० [सं० आत्म√विद् (जानना)+क्विप्] वह जो आत्मा और परमात्मा का स्वरूप पहचानता हो। ब्रह्मज्ञानी।
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आत्म-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] आत्मा और परमात्मा का ज्ञान करानेवाली विद्या। अध्यात्मविद्या। ब्रह्मविद्या।
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आत्म-विश्वास  : पुं० [स० त०] अपने कार्य, मत, शक्ति, सिद्धांत आदि की उपयुक्तता या सत्यता के संबंध में होनेवाला दृढ़ निश्चय। अपने पर भरोसा होना। (सेल्फ काँन्फिडेन्स)
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आत्म-विस्मृत  : वि० [ब० स०] [भाव० आत्मविस्मृति] जो किसी मनोविकार की प्रबलता के कारण अपने आपको भूल गया हो।
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आत्म-विस्मृति  : स्त्री० [ष० त०] किसी ध्यान में मग्न या लीन रहने के कारण अपने आप को बिलकुल भूल जाना। आत्म विस्मृत होने की अवस्था या भाव।
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आत्म-श्लाघा  : स्त्री० [ष० त०] [वि० आत्मश्लाघी] अपने मुँह से की जानेवाली प्रशंसा। आत्म-प्रशंसा। (सेल्फ-प्रेज)
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आत्मश्लाघी (घिन्)  : पुं० [सं० आत्म-श्लाघा+इनि] वह जो अपनी प्रशंसा स्वयं करे। आत्म-प्रशंसक।
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आत्म-संभव  : वि० [ब० स०] [स्त्री० आत्मसंभवा] १. अपने शरीर से उत्पन्न। २. दे० आत्मभू। पुं० पुत्र। बेटा।
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आत्म-संयम  : पुं० [ष० त०] अपनी अनुचित इच्छाओं वासनाओं आदि को दबाकर ठीक मार्ग पर चलना और नीति संगत आचरण करना।
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आत्म-संवेदन  : पुं० [ष० त०] अपनी आत्मा और अनुभव का ज्ञान। आत्म-बोध।
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आत्म-संस्कार  : पुं० [ष० त०] स्वयं किया जानेवाला अपना संस्कार या सुधार।
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आत्म-समर्पण  : पुं० [ष० त०] १. अपने आपको किसी के हाथ सौंपना। पूरी तरह से किसी के वश या अधीन में हो जाना। २. अपने आपको किसी काम में, अपनी सारी शक्तियाँ सहित लगा देना। ३. युद्ध विवाद आदि अपनी ओर से बंद करके अपने आपको प्रतिपक्षी या शत्रु के हाथ में सौंपना। (सरेन्डर)
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आत्म-सम्मान  : पुं० [ष० त०] निजी या व्यक्तिगत सम्मान।
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आत्म-साक्षी (क्षिन्)  : पुं० [ष० त०] जीवों का ब्रह्म।
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आत्मसात्  : वि० [सं० आत्मन्+साति] जो पूरी तरह से अपने अंतर्गत कर लिया गया हो। अपने आप में लीन किया, मिलाया या समाया हुआ।
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आत्म-सिद्ध  : वि० [तृ० त०] १. (बात) जो आप ही सिद्ध हो। जिसे सिद्ध करने की आवश्यकता न हो। २. (कार्य) जिसे किसी ने स्वयं सिद्ध किया हो।
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आत्म-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] १. आत्मा तथा परमात्मा का ठीक और पूरा ज्ञान। २. मोक्ष।
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आत्म-स्तुति  : स्त्री० [ष० त०] =आत्म-प्रशंसा।
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आत्म-हत्या  : स्त्री० [ष० त०] १. अपने आपको स्वयं मार डालना। अपने प्राण जान-बूझकर अपने हाथों नष्ट करना। आत्म-घात। (सूइसाइड्)।
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आत्महन्  : पुं० [सं० आत्मन्√हन्+क्विप्] वह जो अपनी हत्या स्वयं करे।
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आत्म-हिंसा  : स्त्री० =आत्महत्या।
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आत्मा  : स्त्री० [सं०√अत् (सततगमन)+मनिण्] [वि० आत्मिक आत्मीय] १. एक अविनाशी अतींद्रिय और अभौतिक शक्ति जो काया या शरीर में रहने पर उसे जीवित रखती और उससे सब काम करवाती है और उसके शरीर में न रहने पर अचेष्ट निक्रिष्य तथा मृत हो जाता है। (सोल)। मुहावरा—आत्मा ठंड़ी होना=इच्छा पूरी होने पर पूर्ण तृप्ति या संतोष होना। २. किसी वस्तु आदि का गूढ़, मूल तथा सार भाग। (स्परिट) जैसे—काव्य की आत्मा, शब्द की आत्मा। ३. चित्त। ४. बुद्धि। ५. मन। ६. अंहकार। ७. ब्रह्म। ८. सूर्य। ९. अग्नि। १. पवन। वायु। हवा। ११. वस्तु या व्यक्ति का धर्म या स्वभाव।
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आत्माधिक  : वि० [सं० आत्म-अधिक, पं० त०] १. जो अपने आप (या शरीर) से भी बढ़कर प्रिय हो। २. वक्ता के व्यक्तित्व से बढ़कर होनेवाला।
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आत्माधीन  : वि० [सं० आत्म-अधीन, ष० त०] जो स्वयं अपने वश में हो। पुं० १. पुत्र। बेटा। २. विदूषक। मसखरा।
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आत्मानंद  : पुं० [सं० आत्म-आनंद, ष० त०] वह आनंद या सुख जो अपनी आत्मा का ज्ञान और उसमें लीन होने पर प्राप्त होता है। परमानंद।
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आत्मानुभव  : पुं० [सं० आत्म-अनुभव, ष० त०] १. स्वयं प्राप्त किया हुआ अनुभव। २. अपनी आत्मा के अस्तित्व तथा स्वरूप के संबंध में होनेवाला अनुभव या ज्ञान।
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आत्मानुभूति  : स्त्री० [सं० आत्म-अनुभूति, ष० त०] १. आत्मा के स्वरूप आदि के संबंध में होनेवाला अनुभव या ज्ञान। २. अपने आपको होनेवाली अनुभूति।
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आत्मानुरूप  : पुं० [सं० आत्म-अनुरूप, ष० त०] जो गुण जाति आदि के विचार से अपने अनुरूप या अपने जैसा हो।
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आत्माभिमान  : पुं० [सं० आत्म-अभिमान, ष० त०] [वि० आत्मभिमानी] अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान या विचार। अपने मान-अपमान का ध्यान।
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आत्माभिमानी (निन्)  : पुं० [सं० आत्म-अभिमानी, ष० त०] [स्त्री० आत्मभिमानिनी] वह जिसे अपनी प्रतिष्ठा और उसकी रक्षा का सदा पूरा ध्यान रहता हो।
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आत्माभिमुख  : वि० [सं० आत्म-अभिमुख, ष० त०] जो आत्मा की ओर अभिमुख हो। अंतर्मुख।
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आत्मायन  : पुं० [सं० आत्म-अयन, ष० त०] १. आत्माओं के आने-जाने का मार्ग। २. प्रेतात्मवादियों की वह बैठक या चक्र जिसमें परलोक गत आत्माओं से संपर्क स्थापित करके प्रेतात्मवाद के रहस्य जाने जाते है। आत्म-चक्र। (सियंस)
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आत्माराम  : पुं० [सं० आत्म-आराम, ब० स०] १. अपनी आत्मा में रमण करने या लीन रहनेवाला अथवा आत्मज्ञान से तृप्त योगी। २. आत्मा या जीवरूपी व्यक्ति। ३. स्वयं अपनी आत्मा और व्यक्तित्व के संबंध में प्रयुक्त होनेवाली संज्ञा। जैसे—हमारे आत्माराम तो यह बात नहीं मानते। ४. तोते का लोक-प्रचलित नाम।
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आत्मार्थी (र्थिन्)  : वि० [सं० आत्म-अर्थिन्,ष०त०] [स्त्री० आत्मर्थिनी] १. अपना ही भला चाहनेवाला। २. स्वार्थी।
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आत्मार्पण  : पुं० [सं० आत्म-अर्पण, च० त०] १. दे० ‘आत्म-निवेदन’। २. दे० ‘आत्म-समर्पण’।
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आत्मावलंबन  : पुं० [सं० आत्म-अवलंबन, ष० त०] [वि० आत्मवलंबी] दूसरे के आसरे न रहकर सदा अपने आप पर पूरा भरोसा रखने की क्रिया या भाव।
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आत्मावलंबी (बिन्)  : पुं० [सं० आत्म-अवलंब, ष० त०+इनि] आत्मावलंबन करने अर्थात् अपने भरोसे सब काम करनेवाला व्यक्ति।
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आत्माश्रय  : पुं० [सं० आत्म-आश्रय, ष० त०] अपनी बुद्धि योग्यता या शक्ति पर अथवा अपनी आत्मा का ही आसरा या भरोसा होना।
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आत्मिक  : वि० [सं० आत्मन्+ठञ्-इक] [स्त्री०आत्मिका] १. आत्मा संबंधी। आत्मा का। २. अपना। निजी। ३. मानसिक। ४. बहुत आत्मीय या समीपी। (इन्टिमेट)।
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आत्मिकता  : स्त्री० [आत्मिक+तल्-टाप्] १. आत्मिक होने की अवस्था या भाव। २. दे० ‘आत्मीयता’।
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आत्मिकी  : स्त्री० [सं० आत्मा० से] वह विद्या या शास्त्र जिसमें आत्माओं के क्रिया-कलापों उनके संदेशों आदि का अध्ययन होता है। (साइकिक)।
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आत्मिकीय  : वि० [हिं० आत्मकीय] आत्मिकी से सबंधित। आत्मिकी का।
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आत्मीकृत  : भू० कृ० [सं० आत्मन्+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+क्त] अपनाया हुआ। अंगीकृत।
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आत्मीभाव  : पुं० [सं० आत्मन्+च्वि, ऊत्व√भू०(होना)+घ़ञ्] आत्मा या परमात्मा में विलीन होना।
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आत्मीय  : वि० [सं० आत्मन्+ईय] [स्त्री० आत्मीया] १. आत्म या निज का। अपना। २. आंतरिक। घनिष्ठ। आत्मिक। (इन्टिमेट)। पुं० इष्ट-मित्र और बहुत पास के सबंधी जिनके साथ अपनायत का व्यवहार होता हो।
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आत्मीयता  : स्त्री० [सं० आत्मीय+तल्-टाप्] अपनापन। स्नेह संबंध। आत्मीय होने की अवस्था या भाव। (इन्टिमेसी)
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आत्मोक्ति  : स्त्री० [सं० आत्म-उक्त, स० त०] अभिनय आदि के समय किसी पात्र का आपसे आप, बिना किसी को उद्दिष्ट किये कोई बात कहना। स्वगत कथन। (माँनोलोग)
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आत्मोत्सर्ग  : पुं० [सं० आत्म-उत्सर्ग, ष० त०] दूसरे के हित के लिए अपने आपको पूरी तरह से लगा देना। आत्मबलिदान।
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आत्मोदय  : पुं० [सं० आत्म-उदय, ष० त०] अपना अभ्युदय या उत्थान।
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आत्मोद्वार  : पुं० [सं० आत्म-उद्धार,ष०त०] १. अपनी आत्मा को संसार के बंधनों से मुक्त करके मोक्ष का अधिकारी बनना। २. स्वयं किया जाने वाला अपना उद्धार या छुटकारा।
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आत्मोद्भव  : पुं० [सं० आत्म-उद्भव,ब० स०] १. पुत्र। २. कामदेव। वि० =आत्मभू।
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आत्मोन्नति  : स्त्री० [सं० आत्म-उन्नति, ष० त०] १. आत्मा की उन्नति। २. स्वयं की जानेवाली अपनी भौतिक उन्नति।
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आत्मोपजीवी (विन्)  : पुं० [सं० आत्मन्-उप√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो अपने परिश्रम से जीविका उपार्जित करता हो।
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आत्मोपम  : वि० [सं० आत्म-उपमा, ब० स०] अपने जैसा। अपने समान। जैसे—सबको आत्मोपम समझना ही बुद्धिमानों का काम है। पुं० पुत्र।
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आत्मौपम्य  : पुं० [सं० आत्म-औपम्य, ष० त०] १. आत्मोपम का अभाव। २. सबको अपने जैसा मानना।
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