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रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

चौ.-देखत हनूमान अति हरषेउ।
पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी।
बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।।1।।

उन्हें देखते ही हनुमान् जी अत्यन्त हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया, नेत्रोंसे [प्रेमाश्रुओंका] जल बरसने लगा। मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर वे कानों के लिये अमृतके समान वाणी बोले-।।1।।

जासु बिरहँ सोचहु दिन राती।
रटहु निरंतर गुन गन पाँती।।
रघुकुल तिलक सुजन सुखादात।
आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।2।।

जिनके विरह में आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुण-समूहोंकी पंक्तियोंको आप निरन्तर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देनेवाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक श्रीरामजी सकुशल आ गये।।2।।

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत।
सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।
सुनत बचन बिसरे सब दूखा।
तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।3।।

शत्रु को रण में जीतकर सीताजी और लक्ष्मणजीसहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुन्दर यश गान कर रहे हैं। ये वचन सुनते ही [भरतजीको] सारे दुःख भूल गये। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यासके दुःख को भूल जाय।।3।।

को तुम्ह तात कहाँ ते आए।
मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना।
नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।4।

[भरतजीने पूछा-] हे तात! तुम कौन हो? और कहाँ से आये हो? [जो] तुमने मुझको [ये] परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द देने वाले वचन सुनाये [हनुमान् जी ने कहा-] हे कृपानिधान! सुनिये; मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ; मेरा नाम हनुमान् है।।4।।

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