गीता प्रेस, गोरखपुर >> साधन-नवनीत साधन-नवनीतजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है साधन नवनीत...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक श्रीमद्भगद्गीता की सुप्रसिद्ध टीका- ‘तत्त्व –विवेचनी’ के टीकाकार एवं
‘तत्त्व-चिन्तामणि’ –जैसे पारमार्थिक बृहद् ग्रन्थ के रचयिता आध्यात्मिक विचारों
एवं भगवद्भावों के प्रचारक-ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी
गोयन्दकाके बहुमूल्य आध्यात्मिक चिन्तन और प्रवचनोंका सार है। यह
सर्वहितकारी और साधनोपयोगी होने से जनहितार्थ प्रकाशित किया जा रहा है।
इसमें जीवन-सुधार, भजन-साधन, नाम-जप और सत्संग आदि की उत्तम बातें उद्धरणों के रूप में दी गयी हैं। प्रस्तुत संकलन-भगवन्नाम, महात्मा, भक्त, सत्संग, समता, वैराग्य, चित्त-निरोध, सद्गुण-सदाचार सत्य, अक्रोध (क्षमा), ब्रह्मचर्य, परोपकार आदि विभिन्न पारमार्थिक विन्दुओं पर अड़तालिस प्रकरणों में मार्मिक और सर्वजनोपयोगी प्रकाश डालता है। इस प्रकार सत्य और श्रेष्ठ भावों का प्रसारिका तथा मार्गदर्शिका होनेसे ही प्रस्तुत पुस्तक- ‘साधन-नवनीत’ है।
सभी प्रेमी पाठकों-विशेषतः परमार्थ-पथिकों और सत्सगं- जिज्ञासुओं से हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे पुस्तक को कृपया एक बार अवश्य पढ़े और दूसरों को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करें। हम आशा करते है कि इसकी सर्वजनोपयोगी, साधना में सहायक और उपादेय सामग्री अधिकाधिक सज्जन विशेष लाभ उठायेंगे।
इसमें जीवन-सुधार, भजन-साधन, नाम-जप और सत्संग आदि की उत्तम बातें उद्धरणों के रूप में दी गयी हैं। प्रस्तुत संकलन-भगवन्नाम, महात्मा, भक्त, सत्संग, समता, वैराग्य, चित्त-निरोध, सद्गुण-सदाचार सत्य, अक्रोध (क्षमा), ब्रह्मचर्य, परोपकार आदि विभिन्न पारमार्थिक विन्दुओं पर अड़तालिस प्रकरणों में मार्मिक और सर्वजनोपयोगी प्रकाश डालता है। इस प्रकार सत्य और श्रेष्ठ भावों का प्रसारिका तथा मार्गदर्शिका होनेसे ही प्रस्तुत पुस्तक- ‘साधन-नवनीत’ है।
सभी प्रेमी पाठकों-विशेषतः परमार्थ-पथिकों और सत्सगं- जिज्ञासुओं से हमारा विनम्र अनुरोध है कि वे पुस्तक को कृपया एक बार अवश्य पढ़े और दूसरों को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करें। हम आशा करते है कि इसकी सर्वजनोपयोगी, साधना में सहायक और उपादेय सामग्री अधिकाधिक सज्जन विशेष लाभ उठायेंगे।
प्रकाशक
भगवन्नाम-भजन
1- जब भजन की कीमत मालूम हो जाती है और भजन
की सबकी
अपेक्षा बहुमूल्यता जान ली जाती है तब भजन को छोड़कर दूसरा काम होता नहीं,
भगवान् से अतिरिक्त दूसरी जगह मन लगता नहीं।
2- भगवान के नाम-जप के प्रताप सभी पाप भस्म हो जाते हैं फिर कुछ भय नहीं रहता। भजन रहे तो कोई चिन्ता की बात नहीं।
3- यदि भगवन्नाम का जप नहीं होता तो भगवान में विश्नास ही नहीं है। यही समझना चाहिये।
4- हर समय आनन्द में मग्न रहते हुए प्रेमसहित निरन्तर श्वासद्वारा नामका जप होता रहे ऐसी चेष्ठा करनी चाहिये।
5- नामके जपसे साथ-साथ भगवान् की मोहिनी मूर्ति याद आने के लिये विशेष चेष्ठा रखनी चाहिये उसको अपने मन से और नेत्रों से कभी न भूले हर समय अपने सामने देखता हुआ प्रसन्नचित्त से आनन्द में ही मग्न होता रहे।
6- यदि भगवान् के नामका जप और स्वरूप का ध्यान निरन्तर प्रेमपूर्वक निष्काम भावसे और गुप्तरूपसे होता रहे तो उसके अपने अन्तःकरण की तो बात ही क्या, उस पुरुष के दर्शनमात्र से दर्शन करने वालों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
7- कलियुग में भजन के समान उत्तम साधन मेरी समझमें तो कुछ भी नहीं है।
8- यही चेष्टा करना चाहिये कि जिसके निरन्तर केवल भजन ही हो।
9- जितने भक्त हो चुके हैं सब भजनके ही प्रताप हुए हैं।
10- व्यर्थ के काममें भले ही चित्त चलायमान रहे, बुद्धि भी चाहें खराब रहे, परन्तु प्रेम और ध्यानसहित यदि नारायण नामका जप निरन्तर होता रहे तो सारे दोषों का नाश होकर स्वयं नारायण दर्शन दे सकते हैं। श्रीनारायण तो प्रेम के अधीन हैं।
11- भजन ही उद्धार कर सकता है ।
12- भय, संकोच, मान, बड़ाई सब कुछ छोड़कर एकमात्र ध्यानसहित नारायण के नामकी ही शरण लेनी चाहिये। वहीं आपका है बाकी सब मिथ्या है, कल्पित है, स्वप्नवत् है।
13- पूर्वसंस्कार चाहे जितने बलवान् हों, श्रीनारायण-नामके निरन्तर जपके प्रभाव से पूर्वके समस्त बुरे संस्कार नष्ट हो सकते हैं।
14- संसार के दुःख रूपी समुद्र में डूब रहे हो, यदि इससे उद्धार पाना है तो भगवान को भजो।
15- मनुष्य को प्रतिक्षण भगवान् का भजन-ध्यान करना चाहिये। प्रत्येक समय ध्यानपूर्वक नाम-जप करना ही सार है
16- हृदय में बिना जपे ही जाप हो रहा है, उसमें मन लग जाय तो फिर क्या कहना है।
17- भीतर जप तो हो रहा है, उसकी ओर ध्यान रखना चाहिये
18- सब अवतारों में जिन पुरुषों की भक्ति है उनके लिये ‘‘हरे राम हरे राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।’’ सदा-सर्वदा इस मन्त्रका जप उत्तमोत्तम समझा जाता है।
19- भगवान् नामका जप मुंह से या श्वासद्वारा लगातार करने का अभ्यास करना चाहिये।
20- भगवान का मर्म जान लेने के बाद भगवान के भजन के बराबर और कुछ नहीं मालूम होता, फिर तो बिना चेष्टाके ही भजन हुआ करता है
21- यदि एकदम संसार से प्रेम न हटे तो कोई बात नहीं, हर समय भगवान नामकी याद और उनके स्वरूप का चिन्तन होते रहना चाहिये।
22- भगवान चिन्तन ही एक अमूल्य वस्तु है। इस मर्मको जाननेवाला तो फिर निरन्तर ध्यान बना रहे ऐसी ही चेष्टा करेगा, आनन्द की आकांक्षा नहीं रखेगा, थोड़े समय के लिये होनेवाला आनन्द चाहे न हो उसकी कोई गरज नहीं, परन्तु भगवान् का चिन्तन निरन्तर रहना चाहिये।
23- जो भगवान् को सर्वज्ञ, अन्तर्यामी, दयासिन्धु एंव बिना कारण ही हित करनेवाला जानेगा, वह भी किसी वस्तु के लिये प्रार्थना नहीं करेगा, यदि प्रार्थना करेगा तो निरन्तर भावसहित चिन्तन होने के लिये ही करेगा। हर समय नामको याद रखने का अभ्यास हो जाय तो फिर ध्यान की स्थित भी हो सकती है।
24- भगवान को याद रखते हुए ही सांसारिक काम हों ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये।
25- वास्तव में भजन और सत्संग के होने से दोष अपने आप ही छूट जाते हैं। सब प्रकार निष्काम होने पर याने कामका नाश हो जाने के बाद क्रोध-वैर या मान-बड़ाईको स्थान नहीं रहता। जहाँतक ये बने रहते हैं वहाँ तक निष्काम हुआ नहीं समझा जाता।
26- सांसारिक कामोंकि अपेक्षा भजन-ध्यान को बहुत उत्तम और बहुमूल्य समझना चाहिये।
27- संसार के कामों की चाहे कितनी ही हानि क्यों न हो, परन्तु उन अनित्य कामोंके लिये भजन-ध्यान नही छूटना चाहिये। इस प्रकार पक्की धारणा हो जानेसे संसार के काम हुए भी भजन हो सकता है।
28- भजन-ध्यानके लिये निरन्तर प्रयत्न करते हुए इस तरह बातपर विश्वास रखना चाहिये कि जो कुछ होता है, सब भगवान की दया होता है और उसी में मंगल है।
29- नाम-जपका प्रचार करनेकी विशेष चेष्ठा करनी चाहिये।
30- सत्संग और जपका अभ्यास बढ़ने से साधनकी त्रुटियां मिट सकती हैं।
31- जो भगवान का गुणानुवाद करते रहते हैं, वे ही धन्यवादके योग्य हैं
32- श्वासद्वारा होनेवाला जप भी बहुत उत्तम है, उससे भी वासनाका बहुत शीघ्र नाश होता है, परिणाम में यह भी बहुत उत्तम है।
33- भगवान् के भजनका प्रभाव जानने से तथा उनमें श्रद्धा होनेसे प्रेम होता है। भगवान में जिनकी श्रद्धा है, उनका संग करने से श्रद्धा बढ़ती है भजन करनेवालों का संग करनेसे भजन-ध्यान अधिक होता है और प्रेमी भक्तों के संग करने से तथा उनकी लिखी बातों को पढ़ने से भगवान में तथा उनके भजनमें प्रेम हो सकता है।
34- नामके जपमें अधिक भूल नहीं होनी चाहिये, जिस समय नाम याद आवे उसी समय बिना नाम-स्मरणके बीते हुए कालके लिये पश्चात्ताप चाहिये। मनमें यों कहना चाहिये कि ‘‘राम राम ! मेरा इतना समय व्यर्थ गया, मैं असावधानीसे अनाथकी तरह ठगा गया ! हे हरि ! मैं आपकी हूँ। आप ही अनाथों के रक्षक हैं। मैं नाममात्र के लिये अपने को अनाथ तो मानता हूँ, आप करुणासागर हैं, आपकी ओर देखकर मनमें धीरज आता है। अगर मैं अपनी ओर देखता हूँ तो मेरी हिम्मत नहीं रहती पर जब आपके स्वभाव, सुहृदता, दयालुता और प्रेमको देखता हूँ तो बड़ी हिम्मत होती है।
35- काम, क्रोध, लोभ और मोह आदि शत्रु अपने असली धनको लूट रहे हैं, इसलिये राम-नामकी बिगुल बजाते रहना चाहिये।
36- बिगुल बजती रहने से जैसे शत्रु (डाकू) समीप नहीं आते वैसे ही रामनामरूपी बिगुल बजते रहने से काम-क्रोधादि शत्रु भी समीप नहीं आते अतएव चेत करना चाहिये।
2- भगवान के नाम-जप के प्रताप सभी पाप भस्म हो जाते हैं फिर कुछ भय नहीं रहता। भजन रहे तो कोई चिन्ता की बात नहीं।
3- यदि भगवन्नाम का जप नहीं होता तो भगवान में विश्नास ही नहीं है। यही समझना चाहिये।
4- हर समय आनन्द में मग्न रहते हुए प्रेमसहित निरन्तर श्वासद्वारा नामका जप होता रहे ऐसी चेष्ठा करनी चाहिये।
5- नामके जपसे साथ-साथ भगवान् की मोहिनी मूर्ति याद आने के लिये विशेष चेष्ठा रखनी चाहिये उसको अपने मन से और नेत्रों से कभी न भूले हर समय अपने सामने देखता हुआ प्रसन्नचित्त से आनन्द में ही मग्न होता रहे।
6- यदि भगवान् के नामका जप और स्वरूप का ध्यान निरन्तर प्रेमपूर्वक निष्काम भावसे और गुप्तरूपसे होता रहे तो उसके अपने अन्तःकरण की तो बात ही क्या, उस पुरुष के दर्शनमात्र से दर्शन करने वालों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
7- कलियुग में भजन के समान उत्तम साधन मेरी समझमें तो कुछ भी नहीं है।
8- यही चेष्टा करना चाहिये कि जिसके निरन्तर केवल भजन ही हो।
9- जितने भक्त हो चुके हैं सब भजनके ही प्रताप हुए हैं।
10- व्यर्थ के काममें भले ही चित्त चलायमान रहे, बुद्धि भी चाहें खराब रहे, परन्तु प्रेम और ध्यानसहित यदि नारायण नामका जप निरन्तर होता रहे तो सारे दोषों का नाश होकर स्वयं नारायण दर्शन दे सकते हैं। श्रीनारायण तो प्रेम के अधीन हैं।
11- भजन ही उद्धार कर सकता है ।
12- भय, संकोच, मान, बड़ाई सब कुछ छोड़कर एकमात्र ध्यानसहित नारायण के नामकी ही शरण लेनी चाहिये। वहीं आपका है बाकी सब मिथ्या है, कल्पित है, स्वप्नवत् है।
13- पूर्वसंस्कार चाहे जितने बलवान् हों, श्रीनारायण-नामके निरन्तर जपके प्रभाव से पूर्वके समस्त बुरे संस्कार नष्ट हो सकते हैं।
14- संसार के दुःख रूपी समुद्र में डूब रहे हो, यदि इससे उद्धार पाना है तो भगवान को भजो।
15- मनुष्य को प्रतिक्षण भगवान् का भजन-ध्यान करना चाहिये। प्रत्येक समय ध्यानपूर्वक नाम-जप करना ही सार है
16- हृदय में बिना जपे ही जाप हो रहा है, उसमें मन लग जाय तो फिर क्या कहना है।
17- भीतर जप तो हो रहा है, उसकी ओर ध्यान रखना चाहिये
18- सब अवतारों में जिन पुरुषों की भक्ति है उनके लिये ‘‘हरे राम हरे राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।’’ सदा-सर्वदा इस मन्त्रका जप उत्तमोत्तम समझा जाता है।
19- भगवान् नामका जप मुंह से या श्वासद्वारा लगातार करने का अभ्यास करना चाहिये।
20- भगवान का मर्म जान लेने के बाद भगवान के भजन के बराबर और कुछ नहीं मालूम होता, फिर तो बिना चेष्टाके ही भजन हुआ करता है
21- यदि एकदम संसार से प्रेम न हटे तो कोई बात नहीं, हर समय भगवान नामकी याद और उनके स्वरूप का चिन्तन होते रहना चाहिये।
22- भगवान चिन्तन ही एक अमूल्य वस्तु है। इस मर्मको जाननेवाला तो फिर निरन्तर ध्यान बना रहे ऐसी ही चेष्टा करेगा, आनन्द की आकांक्षा नहीं रखेगा, थोड़े समय के लिये होनेवाला आनन्द चाहे न हो उसकी कोई गरज नहीं, परन्तु भगवान् का चिन्तन निरन्तर रहना चाहिये।
23- जो भगवान् को सर्वज्ञ, अन्तर्यामी, दयासिन्धु एंव बिना कारण ही हित करनेवाला जानेगा, वह भी किसी वस्तु के लिये प्रार्थना नहीं करेगा, यदि प्रार्थना करेगा तो निरन्तर भावसहित चिन्तन होने के लिये ही करेगा। हर समय नामको याद रखने का अभ्यास हो जाय तो फिर ध्यान की स्थित भी हो सकती है।
24- भगवान को याद रखते हुए ही सांसारिक काम हों ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये।
25- वास्तव में भजन और सत्संग के होने से दोष अपने आप ही छूट जाते हैं। सब प्रकार निष्काम होने पर याने कामका नाश हो जाने के बाद क्रोध-वैर या मान-बड़ाईको स्थान नहीं रहता। जहाँतक ये बने रहते हैं वहाँ तक निष्काम हुआ नहीं समझा जाता।
26- सांसारिक कामोंकि अपेक्षा भजन-ध्यान को बहुत उत्तम और बहुमूल्य समझना चाहिये।
27- संसार के कामों की चाहे कितनी ही हानि क्यों न हो, परन्तु उन अनित्य कामोंके लिये भजन-ध्यान नही छूटना चाहिये। इस प्रकार पक्की धारणा हो जानेसे संसार के काम हुए भी भजन हो सकता है।
28- भजन-ध्यानके लिये निरन्तर प्रयत्न करते हुए इस तरह बातपर विश्वास रखना चाहिये कि जो कुछ होता है, सब भगवान की दया होता है और उसी में मंगल है।
29- नाम-जपका प्रचार करनेकी विशेष चेष्ठा करनी चाहिये।
30- सत्संग और जपका अभ्यास बढ़ने से साधनकी त्रुटियां मिट सकती हैं।
31- जो भगवान का गुणानुवाद करते रहते हैं, वे ही धन्यवादके योग्य हैं
32- श्वासद्वारा होनेवाला जप भी बहुत उत्तम है, उससे भी वासनाका बहुत शीघ्र नाश होता है, परिणाम में यह भी बहुत उत्तम है।
33- भगवान् के भजनका प्रभाव जानने से तथा उनमें श्रद्धा होनेसे प्रेम होता है। भगवान में जिनकी श्रद्धा है, उनका संग करने से श्रद्धा बढ़ती है भजन करनेवालों का संग करनेसे भजन-ध्यान अधिक होता है और प्रेमी भक्तों के संग करने से तथा उनकी लिखी बातों को पढ़ने से भगवान में तथा उनके भजनमें प्रेम हो सकता है।
34- नामके जपमें अधिक भूल नहीं होनी चाहिये, जिस समय नाम याद आवे उसी समय बिना नाम-स्मरणके बीते हुए कालके लिये पश्चात्ताप चाहिये। मनमें यों कहना चाहिये कि ‘‘राम राम ! मेरा इतना समय व्यर्थ गया, मैं असावधानीसे अनाथकी तरह ठगा गया ! हे हरि ! मैं आपकी हूँ। आप ही अनाथों के रक्षक हैं। मैं नाममात्र के लिये अपने को अनाथ तो मानता हूँ, आप करुणासागर हैं, आपकी ओर देखकर मनमें धीरज आता है। अगर मैं अपनी ओर देखता हूँ तो मेरी हिम्मत नहीं रहती पर जब आपके स्वभाव, सुहृदता, दयालुता और प्रेमको देखता हूँ तो बड़ी हिम्मत होती है।
35- काम, क्रोध, लोभ और मोह आदि शत्रु अपने असली धनको लूट रहे हैं, इसलिये राम-नामकी बिगुल बजाते रहना चाहिये।
36- बिगुल बजती रहने से जैसे शत्रु (डाकू) समीप नहीं आते वैसे ही रामनामरूपी बिगुल बजते रहने से काम-क्रोधादि शत्रु भी समीप नहीं आते अतएव चेत करना चाहिये।
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