नाटक-एकाँकी >> दलिया दलियाहृषीकेश सुलभ
|
0 |
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दालिया हृषीकेश सुलभ का नया नाटक दालिया एक प्रेमकथा है। युद्ध, हिंसा-प्रतिहिंसा, सत्ता के मद, राजनीति के घातों-प्रतिघातों के बीच यहाँ प्रेम अंकुरित होता है। इस प्रेम की निष्कलुषता और पवित्रता में तपकर मनुष्य का अहं पिघलता है और मानवीय संवेदनाओं में ढलकर जीवन को नये अर्थ देता है। जो नैसर्गिक भावनाएँ और संवेदनाएँ जीवन की यात्रा में छूट जाती हैं या नष्ट हो जाती हैं, वे हमारे भावी जीवन के गर्भ में अपना बीज छोड़ जाती हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कथा दालिया के माध्यम से इस नाटक में ऐसे ही बीजों के अंकुरण का दृश्य-काव्य रचने का प्रयास किया गया है। यहाँ प्रकृति है, और है प्रकृति से मनुष्य के गहन और आत्मीय सम्बन्ध की रूप-छवियाँ। यह नाटक गहन एकान्त के बीच भीड़ के कलरव और भीड़ के बीच एकान्त की नीरवता की तलाश है। यहाँ इतिहास पारम्परिक रूप में उपस्थित नहीं है। यहाँ इतिहास के पगचिह्न हैं और इन्हीं पगचिह्नों के सहारे नाटक के चरित्र अपनी यात्रा पर निकलते हैं। कहानी में जो प्रकट है, उससे इतर जो प्रच्छन्न है, वही इस नाटक का केन्द्रीय कथ्य बनता है।
इसकी भाषिक संरचना इसके कथ्य को काव्यात्मक विस्तार देती है और साथ ही इसकी संरचना में ऐसी लोच-लचक है जिससे निर्देशक और अभिनेता को पर्याप्त स्पेस मिलता है, ताकि वे अपने समय और समाज की प्रतिध्वनियाँ रच सकें और जीवन की नई अर्थछवियाँ उकेर सकें। हृषीकेश सुलभ का यह नया नाटक भारतीय रंगमंच को नई रंगभाषा और नए मुहावरे देता है और भारतीय रंग परम्परा का पुनराविष्कार करते हुए निर्देशक को रंगचर्या तथा अभिनेताओं को अभिनटन के लिए पर्याप्त अवसर देता है।
इसकी भाषिक संरचना इसके कथ्य को काव्यात्मक विस्तार देती है और साथ ही इसकी संरचना में ऐसी लोच-लचक है जिससे निर्देशक और अभिनेता को पर्याप्त स्पेस मिलता है, ताकि वे अपने समय और समाज की प्रतिध्वनियाँ रच सकें और जीवन की नई अर्थछवियाँ उकेर सकें। हृषीकेश सुलभ का यह नया नाटक भारतीय रंगमंच को नई रंगभाषा और नए मुहावरे देता है और भारतीय रंग परम्परा का पुनराविष्कार करते हुए निर्देशक को रंगचर्या तथा अभिनेताओं को अभिनटन के लिए पर्याप्त अवसर देता है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book